प्रमोद भार्गव

प्रमोद भार्गव

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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।

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लेखक - प्रमोद भार्गव - के पोस्ट :

विधि-कानून विविधा

जल्दी आए लोकपाल

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स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार का सुरसामुख लगातार फैलता रहा है। उसने सरकारी विभागों से लेकर सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सभी संस्थाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानवीय मूल्यों से जुड़ी संस्थाएं भी अछूती नहीं रहीं। नौकरशाही को तो छोड़िए, देश व लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद की संवैधानिक गरिमा बनाए रखने वाले संासद भी सवाल पूछने और चिट्ठी लिखने के ऐवज में रिश्वत लेने से नहीं हिचकिचाते। जाहिर है, भ्रष्टाचार लोकसेवकों के जीवन का एक तथ्य मात्र नहीं, बल्कि शिष्टाचार के मिथक में बदल गया है। जनतंत्र में भ्रष्टाचार की मिथकीय प्रतिष्ठा उसकी हकीकत में उपस्थिति से कहीं ज्यादा घातक इसलिए है, क्योंकि मिथ हमारे लोक-व्यवहार में आदर्श स्थिति के नायक-प्रतिनायक बन जाते हैं। राजनीतिक व प्रशासनिक संस्कृति का ऐसा क्षरण राष्ट्र को पतन की ओर ही ले जाएगा ? इसीलिए साफ दिखाई दे रहा है कि सत्ता पक्ष की गड़बड़ियों पर सवाल उठाना, संसदीय विपक्ष के बूते से बाहर होता जा रहा है। विडंबना यह है कि जनहित से जुड़े सरोकारों के मुद्रदों को सामने लाने का काम न्यायपालिका को करना पड़ रहा है।

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विविधा

जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, शूद्र शुभचिन्तक परशुराम – प्रमोद भार्गव

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इसमें परशुराम को अवन्तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्यकुब्ज ;कन्नौज के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्धता, अविस्थान (अफगानिस्तान) मुंजावत ; हिन्दुकुश, मेरु (पामिर) ;सीरिया परशुपुर; पारस, वर्तमान फारस, सुसर्तु ;पंजक्षीर उत्तर कुरु, आर्याण ; (ईरान) देवलोक सप्तसिंधु और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्व स्वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गईं क्षत्रिय जातियां चेदि ;चंदेरी नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए, युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। परशुराम ने किसी भी राज्य को क्षत्रीयविहीन न करते हुए, क्षत्र-विहीन किया था।

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विविधा

थम नहीं रहा नक्सली कहर

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दरअसल ऐसे तर्क अधिकारी अपनी खामियों पर पर्दा डालने के नजरिये से देते हैं, जबकि हकीकत में नक्सली हमला बोलकर भाग निकलने में सफल हो जाते हैं। इस हमले से तो यह सच्चाई सामने आई है कि नक्सलियों का तंत्र और विकसित हुआ है, साथ ही उनके पास सूचनाएं हासिल करने का मुखबिर तंत्र भी हैं। हमला करके बच निकलने की रणनीति बनाने में भी वे सक्षम हैं। इसीलिए वे अपनी कामयाबी का झण्डा फहराए हुए हैं। बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा हैं और राज्य एवं केद्र सरकार के पास रणनीति की कमी है। यही वजह है कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य होता है तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते हैं। सड़क निर्माण के पक्ष में तो नक्सली कतई नहीं रहते हैं, क्योंकि इससे पुलिस व सुरक्षाबलों की आवाजाही आसन हो जाएगी।

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राजनीति

अब और गहराएगा राम मंदिर का मुद्दा

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आजादी के बाद 1949 में मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां पाई गई। एकाएक इन मूर्तियों के प्रकट होने पर मुस्लिमों ने विरोध जताया। दोनों पक्षों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। नतीजतन सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित कर ताला डाल दिया और दोनों संप्रदाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी। 1984 में विहिप ने भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त करके वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस अभियान का नेतृत्व भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाला। 1986 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी तब फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर ने हिंदुओं को पूजा के लिए विवादित ढांचे के ताले खोल दिए। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिमों ने बावरी मस्सिद संघर्ष समिति बना ली।

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