Category: कविता

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कहाँ जाने का समय है आया !

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  (मधुगीति १८०८०१ अ) कहाँ जाने का समय है आया, कहाँ संस्कार भोग हो पाया; सृष्टि में रहना कहाँ है आया, कहाँ सृष्टि  से योग हो पाया ! सहोदर जीव कहाँ हर है हुआ, समाधि सृष्ट कहाँ हर पाया; समादर भाव कहाँ आ पाया, द्वैत से तर है कहाँ हर पाया ! बीज जो बोये दग्ध ना हैं हुए, जीव भय वृत्ति से न मुक्त हुए; भुक्त भव हुआ कहाँ भव्य हुए, मुक्ति रस पिया कहाँ मर्म छुए ! चित्त चितवन में कहाँ है ठहरा, वित्त स्वयमेव कहाँ है बिखरा; विमुक्ति बुद्धि है कहाँ पाई, युक्ति हो यथायथ कहाँ आई ! नयन स्थिर चयन कहाँ कीन्हे, कहाँ मोती हैं हंसा ने बीने; कहाँ ‘मधु’ उनकी शरण आ पाया, पकड़ हर चरण कमल कब पाया ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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है ज्ञान औ अज्ञान में  !

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(मधुगीति १८०८२७ ब) रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’ है ज्ञान औ अज्ञान में, बस भेद एक अनुभूति का; एक फ़ासला है कर्म का, अनुभूत भव की द्रष्टि का ! लख परख औ अनुभव किए, जो लक्ष हृदयंगम किए; परिणिति क्रिया की पा सके, फल प्राप्ति परिलक्षित किए ! जो मिला वह कुछ भिन्न था, सोचा था वह वैसा न था; कुछ अन्यथा उर लग रहा, पर प्रतीति सुर दे रहा ! आभोग का सागर अगध, उपलब्धि की गागर गहन; जिमि ब्रह्म में मिल फुरके मन, जग बोध करता सहज क्षण ! जो अजाने को जानता, उसका जगत पहचानता; ‘मधु’ के रचयिता रासता, उनकी प्रभा सब भासता !    

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