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दक्षिणा रहस्य

अम्बर रक्तिम वर्ण हो चला रथ रवि का अस्ताचल को
लौट रहा हलधर का टोला, पुष्ट स्कंध पर धरि हल को
गोखुर से उड़ती रज रम्या, खग-मृग सब चले नीड़ को
गुरु माता बैठी आंगन में, अभ्यन्तर लिए पीड़ को

तभी द्रोण आये कुटिया में दिखी निस्तब्धता छाई
गुरु माता इतनी तन्मय थी, आहट तक ना सुन पाई
निज नारी देख विषण्णानन द्रोणाचार्य अधीर हुए
मन में कर अनर्थ आशंका उद्वेलित, गंभीर हुए

हस्त धनु इक ओर रख दिया, निकट किया भार्या आसन
अश्रू पूरित कपोल कृपि के,  देखा मन दुख का शासन
तब निज कर ले दारा कर को, कुरु-गुरु ने दो हस्त गहे
“किस संताप संतप्त देवी तुम?”, धीरे से मधुवचन कहे

कर स्पर्श विस्मित, विकंपित कृपि की कृश कोमल काया
ज्यों रमणी पुष्पलता कम्पित, कानन मलयानिल माया
“क्षमा नाथ आगमन आपका कैसे मैं ना जान सकी”
कह इति वचन अर्घ्य अर्पण को, कृपि तत्क्षण हो‌ गई खड़ी

बैठो प्रिय! क्यों विषाद विदिरण आज तुम्हारा मुख मंडल
किस पीड़ा प्रदग्ध हुई तुम, क्यों बहता नयनों में जल
किस पापी की मृत्यु निकट है, किस मानव की मति डोली
“ऐसा कुछ भी नहीं नाथ है” कृपि स्वर मंद-मंद बोली

सोच रही, कैसा एकलव्य गुरु भक्ति का था पायक
गुरु प्रतीमा चरणों में रह साध रहा अपने सायक
कितनी लगन, रत दृढ प्रतीज्ञा, निज साधन पर था निर्भर
सीखा उसने वो भी सब था जो अर्जुन को भी दुष्कर

गुरु श्रद्धा, जिज्ञासा, चेष्टा, विषय त्याग, एकाग्र ध्यान
ब्रह्मचारी, निद्रा निग्रही, कह वेद विद्या विज्ञान
विरंची रचित ये अनुशासन, लगन जहां है ज्ञान वहीं
एकलव्य सर्वगुण विभूषित, ज्ञान पिपासा उर गहरी

दक्षिण हस्त अंगुष्ठ मांग कर कैसी ये दक्षिणा पायी
निर्धन और निर्बोध बाल पर तनिक दया न मन आयी
श्रद्धा सुमन सुसज्जित अनुचर देह काट के दान दिया
उस एकलव्य अनुगामी पर कैसा अनर्थ हे नाथ किया

कोटि धन्य दीक्षा दुर्गम्य, शिष्य अर्जुन-सा धनुर्धर
पर मेरा मन उद्वेलित है, आता स्मृति वह रह रह कर
पिच्छ किरीट, तन वसन विदिरण, सोष्ठव बदन तनय निषाद
दृठ बाहु धनु, वदन विभासित, विवश दृग देते विषाद

इतना कह निर्वचन हो गई कृप स्वशा, शरद्वान सुता
गगन कलश कर अंधकार ले उडेल रही अपार निशा
चमक रहे केवल तारा गण अतिश्याम पटह प्रक्षिप्त
स्तब्ध पवन निःशब्द दिशा दस ज्योति स्त्रोत इक दीप दिप्त

बीती निशा अभी तीन घड़ी लगता जैसे एक अयन
निज नारी सुन‌ वचन करूणमय हुए आचार्य स्तिमित नयन
श्वेत श्मश्रु उद्भासित तुषार, कठोर कवच तन मुक्त केश
भुज दण्ड कठिन, तूणीर स्कंध, धर मंत्र पूत शर विशेष

गई स्मृति समय देशाटन को, अश्वत्थामा छवि छाई
पय गोक्षीर अलभ्य बाल को दुर्धर दीन दशा आई
पीष्टक पानी मिला पिला कर सुरभि दुग्ध बता रहें है
कैसे इस निर्बोध बाल को बाल सखा चिढा रहें हैं

स्त्री सहित सुकुमार स्वयं का पांचाल प्रदेश प्रस्थान
स्मृति पटल पर टहल गया वो द्रुपद द्वारा मर्दन मान
निर्धनता से विवश ज्ञान को मिला जगति में तिरस्कार
कांपी स्मरण से श्वास समीर छाया आनन पर विकार

दिखा कुरु गृह, भीष्मपिता ने सोंप दिये सब सुकुमार
द्रोण रहेगा कुरु कुल कृतज्ञ जागा अन्तर में  विचार
कौंतेय ने ही गुरु प्रतीज्ञा पूर्ण का संकल्प ठाना
श्रद्धा, लगन, सब श्रम साध कर धनुर्ज्ञान को पहचाना

हैं प्रिय मुझे मेरे सब शिष्य, लेकिन धनंजय धनुर्धर
लाघव कौशल धनु पारंगत, ज्ञाता है दीव्य ब्रह्मशर
तनय सुलेखा एकलव्य भी मेरे हृदय जितना पार्थ
मांगी थी जो कठिन दक्षिणा, जग खोज रहा उसमें स्वार्थ?

यह सोच हुए गुरु द्रोण विकल, चंचल होते द्वि स्थिर नयन
एक क्षण उर सव्यसाची है, क्षण द्वितीय सुलेखा रत्न
कहीं दूर तभी तरु शाख पर बोला कोई रजनी खग
प्रज्वलित ज्योति, कम्पित प्रकाश, मंथर मंथर खुले द्रोण दृग

है निशा निस्तब्ध नभ तिमिर तुमुल दीप्त तारागण चलते होले
ले स्मिति अधर, कर वल्लभा कर, आचार्य मंद स्वर बोले
सुनो कृपि! मैं करता हूं इस ममता को शत बार नमन
किन्तु मैंने भी तो किया है निज मर्यादा उचित वहन

मैं नहीं चकित उस विद्या से कि श्वान स्वर संधान किया
मैं अतिद्रवित अन्तर गदगद जैसे उसने सम्मान दिया
जिसके गंगापुत्र पितामह उस अर्जुन को अलभ्य क्या
आचार्य स्वयं शरद्वान सुत सुरपति जिससे था डरता

ब्रह्मशक्ति जिसको वरण करे कठिन नहीं स्वर भेद बाण
एकलव्य की दुर्देय दक्षिणा हेतु थी उसके ही त्राण
जब राजकुँवर वन से लौटे पार्थ ने सब वृतांत कहा
‘वह कहता है मैं शिष्य द्रोण, गुरु चरणों में नित्य रहा’

श्रद्धा उर एकलव्य अतीव मैने जा देखी वन में
गुरु सम्मुख विनित विनम्र और कोई भाव नहीं मन में
ऐसा एकलव्य अनुयायी, उससे छल हो सकता क्या?
शिक्षक क्षेम चाहे शिष्य की, सूर्य रश्मि खो सकता क्या?

मैं कहता ‌हूं सत्य वचन क्यों मांगी दक्षिणा दुर्देय
सुनो प्रिया! हो प्रशमन शायद तुम्हारा यह प्रदग्ध हृदय
निष्कपट नहीं हैं कुरु नंदन अभ्यंतर धृणा अनंत
दुर्योधन राजतिलक चाहे एवम् पांडव पुत्र अंत

दुर्योधन की दुर्बुद्धि यही देख रहा हूं छाएगी
वो दिन दूर नहीं जब कोई विनाश विपत्ति आएगी
एक ओर धनंजय, युधिष्ठिर, बलवान भीम अति शक्तिघन
एक ओर धृतराष्ट्र पुत्र शत कुरु दुश्शासन, दुर्योधन

सबने देखा ही तो था वह रंगभूमि में क्रुद्ध कर्ण  
क्षिप्र हस्त, दुर्योधन मनहर, नित चाहता कौंतेय मरण
आए हैं भू भार हरण हरि, माधव सुदर्शनचक्रधर
पापी का नाश करेंगे ही अद्भुत कोई लीला कर

नियति गति मैं देख रहा हूं महाघोर इक होगा रण
चारों ओर काल का तांडव वीरों का चहु ओर मरण
सहस्त्र सम्मुख शक्ति से शक्ति, उगलेंगी ज्वाला प्रचंड
मुद्गर, मुशल, गदा, शूल, खड़्ग, मल्ल युद्ध प्रबल भुज-दण्ड

रथी, महारथी, अश्व, कुंजर अति विशिष्ट व्युह संरचना
समर भूमि रही रक्त पिपासु नीति, अनीति, छल, वंचना
भीष्म, द्रुपद, कर्ण, शल्य जहां विराट, जयद्रथ जाएंगे
वहां एकलव्य जैसे बालक कहां मान फिर पाएंगे

शब्द भेद विद्या से केवल जीता जा सकता नहीं समर
आग्नेय, ब्रह्मशक्ति, पर्जन्य, वह्नि विच्छुरित करते शर
ऐसे वीर भी हैं धरती पर रखते निषंग तीन बाण
किन्तु चराचर में द्रोही के स्मर्थ हत करने को प्राण

माना बनता वो एकलव्य वीर धनुर्धर अतिभारी
पर माधव से बचा नहीं था कालयवन सा वरधारी
धनुधरों के भार से अब तो धरती ये अकुलाती है
अपने युग में कुछ ही योद्धा संसृति हृदय लगाती है

श्री न वरण करती एकलव्य जान गया था इस रण में
पर मैं चाहता था शिष्य की रहे चमक रज कण कण में
इसीलिए मांगा अंगूठा विचारित दक्षिणा प्रसाद
अमर रहे वह हिरण्यधनु सुत, रहे ज्योति नित निर्विवाद

एकलव्य का अंगुष्ठ दान, प्रसिद्धि वो पा जाएगा
शीश कटा जो महायुद्ध में धनुर्धर नहीं पाएगा‌
ये मत सोचो अहित किया है, कुकृत्य किया है अनय का
देखो गुंजित नाम आज है, निषाद सुलेखा तनय का

डॉ. राजपाल शर्मा ‘राज’

तुम कब रोए

पहला पर्ण‌ जो निकला तन से
जीर्ण-शीर्ण हो गया समय से
किसी पवन के झोंके ने तब
अलग कर दिया तेरे तन से
उस विलगित पर्ण के जाने का
दर्द क्या मन में कुछ नहीं होता
पर देखा तो नहीं किसी ने
कभी भी तुम को आँख भिगोए
पेड़! तुम कब रोए?

शाख पर जन्मीं नन्हीं चिड़िया  
जब उसी शाख पर, किसी झंझा में
मर‌ जाती है।
पावस, पवन – जिनसे जीवन है
कुछ बुरा जब कर जातीं है।
अपने असहाय-सा रह जाने का
तब कुछ दु:ख तो होता होगा।
तुम ने तो हर एक ऋतु में
अपनी शाख के खग हैं खोये
पेड़! तुम कब रोए?

खेल रहे थे तेरी छाँव में
मृग शावक माता से अपनी।
तुमने भी तो देखी थी वह
प्रेम-स्नेह की चढती बेली।
वो तो व्याध से थे अनजाने
तुमने तो पर देख लिया था
अपने उच्च शिखर से उसको
मीलों दूर से आते आते।
उन निर्बोधों के प्राणों पर
कठिन मृत्यु का पाश लगाते।
क्या थी तेरी मौन प्रतीज्ञा
किस निद्रा में थे तुम सोये
पेड़! तुम कब रोए?

ऐ वंशी वट! ऐ महावृक्ष
तुझ तले हुए उपदेश बहु
निश्चय ही, तरु नीचे तेरे
हुआ ज्ञान-रश्मि का प्रस्फुटन
सब चले गये — पर तू तो था
उस अँधकार के नीरव में
फिर कैसे रक्तपिपासु वे
निर्भिक रहे, तेरे होते
निर्दोष ग्रीवा पर फिरी तेग
कुछ छींटे तुम तक भी आये
उनकी तो छोड़ो, क्या थे वो
तुम कैसे सब सह पाये
वो मुंड अभी तक पूछे है
कैसे पल्लव तुमने धोए
पेड़! तुम कब रोए?

डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’

छात्र किस दिशा में जा रहे हैं?

“शिक्षा, संस्कार और समाज की जिम्मेदारी : बदलते छात्र-शिक्षक संबंध और सही दिशा की तलाश”

आज शिक्षा केवल अंक और नौकरी तक सीमित हो गई है। नैतिक मूल्य और संस्कार बच्चों की प्राथमिकता से गायब होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप शिक्षक-छात्र संबंधों में खटास बढ़ रही है और अनुशासनहीनता सामने आ रही है। यदि परिवार, समाज, शिक्षक और प्रशासन मिलकर सही कदम नहीं उठाएँगे तो आने वाली पीढ़ी गलत दिशा में बढ़ सकती है। शिक्षा को केवल ज्ञान का माध्यम नहीं बल्कि चरित्र निर्माण और जीवन-मूल्य का आधार बनाना होगा, तभी हम कह पाएंगे कि हमारे छात्र सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

– प्रियंका सौरभ

समाज का दर्पण कहलाने वाला विद्यालय आज एक गहरी चिंता का विषय बन गया है। जहाँ पहले शिक्षा का अर्थ केवल ज्ञान नहीं बल्कि संस्कार, अनुशासन और नैतिकता था, वहीं अब कुछ घटनाएँ यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हमारे छात्र आखिर किस दिशा में जा रहे हैं। हाल ही में हरियाणा के भिवानी जिले के ढाणा लाडनपुर गाँव के राजकीय सीनियर सेकेंडरी स्कूल में हुई घटना, जहाँ एक छात्र ने अपने ही शिक्षक पर हमला कर दिया, यह सवाल और गंभीर हो जाता है। यह घटना सिर्फ एक शिक्षक और एक छात्र के बीच का विवाद नहीं बल्कि पूरे शिक्षा-तंत्र और समाज के लिए चेतावनी है।

भारतीय परंपरा में गुरु को ईश्वर से भी उच्च स्थान दिया गया है – गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः। लेकिन आज की वास्तविकता यह है कि कई जगहों पर शिक्षक-छात्र संबंधों में खटास बढ़ती जा रही है। पहले शिक्षक की डांट को भी विद्यार्थी प्यार और मार्गदर्शन मानते थे, आज वही डांट अपमान या प्रताड़ना लगती है। मोबाइल और इंटरनेट ने छात्रों को स्वतंत्रता तो दी है, लेकिन साथ ही उनमें अहंकार और अनुशासनहीनता भी बढ़ाई है।

किसी भी बच्चे के व्यक्तित्व की नींव घर पर रखी जाती है। अगर घर में अनुशासन, संस्कार और मर्यादा का माहौल होगा तो बच्चा वही सीखेगा। लेकिन आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में माता-पिता बच्चों को समय नहीं दे पा रहे। टेलीविज़न, मोबाइल और सोशल मीडिया बच्चों के ‘गुरु’ बन गए हैं। नशे और हिंसा जैसी प्रवृत्तियों तक छात्रों की पहुँच आसान हो चुकी है। नतीजा यह कि जब शिक्षक बच्चे को सही राह दिखाने की कोशिश करता है, तो छात्र उसे रोक-टोक या बंधन मानकर विद्रोह कर बैठता है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा संकट यह है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी और अंक तक सीमित रह गया है। नैतिक शिक्षा, जीवन मूल्य और चरित्र निर्माण पर जोर लगभग समाप्त हो गया है। बच्चों को ‘क्या बनना है’ यह तो सिखाया जा रहा है, लेकिन ‘कैसा इंसान बनना है’ यह कहीं खो गया है। प्रतियोगिता की दौड़ में छात्रों पर दबाव इतना बढ़ गया है कि उनमें सहनशीलता और धैर्य की जगह अधीरता और आक्रामकता ने ले ली है।

एक छात्र का अपने शिक्षक पर हमला करना केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं है, बल्कि यह पूरी शिक्षा प्रणाली और समाज के लिए शर्मनाक है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। शिक्षक छात्रों को अनुशासित करने से कतराएँगे, विद्यालय की गरिमा को आघात पहुँचेगा और समाज में गलत संदेश जाएगा कि यदि छात्र ही शिक्षक का आदर नहीं करेंगे तो समाज में वरिष्ठों और बड़ों के प्रति सम्मान कैसे बना रहेगा।

इस तरह की घटनाएँ केवल विद्यालय स्तर की समस्या नहीं हैं, बल्कि यह कानून-व्यवस्था से भी जुड़ी हैं। ऐसे मामलों में तुरंत और सख्त कार्रवाई होनी चाहिए ताकि छात्र और अभिभावक दोनों यह समझें कि अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं होगी। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसे बच्चों के पुनर्वास और परामर्श की भी व्यवस्था हो।

अगर हमें छात्रों को सही दिशा में ले जाना है तो केवल सजा या डर से यह संभव नहीं होगा। इसके लिए बहुआयामी कदम उठाने होंगे। परिवार को बच्चों के साथ संवाद बढ़ाना होगा और घर में अनुशासन और संस्कार का वातावरण बनाना होगा। शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, मूल्य-आधारित शिक्षा और चरित्र निर्माण की गतिविधियाँ अनिवार्य की जानी चाहिए। शिक्षक को भी बच्चों की मानसिकता को समझते हुए संवाद की शैली बदलनी होगी। डांट या डर की बजाय समझाना और विश्वास दिलाना होगा। विद्यालयों में काउंसलिंग कक्ष अनिवार्य होने चाहिए और आक्रामक प्रवृत्ति वाले बच्चों को समय पर मनोवैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए। समाज और मीडिया को भी अपनी भूमिका निभानी होगी, हिंसक और नकारात्मक सामग्री के प्रभाव को कम करना होगा और सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करने होंगे।

“छात्र किस दिशा में जा रहे हैं?” यह सवाल केवल एक घटना से उपजा हुआ प्रश्न नहीं है, बल्कि पूरे समाज की स्थिति पर एक गहरा चिंतन है। यदि आज ही हम बच्चों को अनुशासन, सम्मान और संस्कार की सही राह नहीं दिखाएंगे तो आने वाली पीढ़ी में शिक्षक-छात्र संबंध और समाज की संरचना दोनों कमजोर हो जाएँगे। समाधान परिवार, विद्यालय, समाज और प्रशासन—सभी के संयुक्त प्रयास में छिपा है। शिक्षा केवल डिग्री दिलाने का माध्यम न होकर चरित्र निर्माण और जीवन मूल्य का संस्कार बने, तभी हम कह पाएंगे कि हमारे छात्र सही दिशा में जा रहे हैं।

 डॉ. प्रियंका सौरभ

ऑनलाइन जुए के खेल पर पाबंदी

संदर्भः- ऑनलाइन खेल संवर्धन और विनियमन में विधेयक हुआ पारित

प्रमोद भार्गव

            अखाड़ा बने संसद में हो-हल्ले के बीच भी कई जनहितैशी विधेयक पारित कराने में सरकार सफल रही है। इन्हीं में से एक ‘ऑनलाइन खेल संवर्धन एवं विनियमन विधेयक-2025‘ को संसद के साथ राश्ट्रपति द्रोपदी मुर्म से भी मंजूरी मिल गई। यह एक अत्यंत जरूरी कानून है। क्योंकि कर्नाटक में 31 दिन के भीतर 32 लोग इन खेलों के चक्कर में आकर आत्महत्या कर चुके हैं। इस तथ्य को उजागार करते हुए केंद्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री अष्विनी वैश्णव ने कहा है कि ‘ऑनलाइन गेम्स में अंतर करना जरूरी है। ई-स्पोर्ट्स और सोषल गेम्स को अब हम बढ़ावा देंगे, परंतु ऑनलाइन मनी गेम्स यानी पैसे से खेले जाने वाले खेलों को पूरी तरह बंद करेंगे। इन खेलों से मध्यम श्रेणी के अनेक परिवार बर्बाद हो रहे हैं।‘ जितने सख्त लहजे में वैष्णव ने यह बात कही है, उसी सख्ती से इस कानून को मैदान में अमल भी करवाने की जरूरत है। 

            इस विधेयक में मनी गेमिंग के विज्ञापनों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है। विज्ञापन देकर खेल खिलाने वाले खिलाड़ियों के साथ विज्ञापन को प्रस्तुत करने वाली हस्तियां और उत्प्रेरक भी अपराध के दायरे में आएंगे। इनके लिए अब कारावास और जुर्माना दोनों ही सजा झेलनी पड़ सकती हैं,  क्योंकि यह जुआ व्यक्ति अधिक पैसा पाने की लालसा में खेलता है। अतएव टीवी, मोबाइल एप, सोषल मीडिया और वेबसाइट पर ऐसे खेलों का विज्ञापन करने पर दो साल तक की कैद और पचास लाख रुपए तक का अर्थदंड दिया जा सकता है। इन खेलों से संबंधित धन के लेन-देन को बढ़ावा देने पर तीन साल की कैद या एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है, यदि कोई एक व्यक्ति बार-बार इस खेल में लगा रहता है तो तीन से पांच साल तक की सजा और दो करोड़ रुपए तक का अर्थदंड भुगतना पड़ सकता है।

            अब सरकार राश्ट्रीय प्राधिकरण के अंतर्गत ऑनलाइन खेले जाने वाले खेलों की वर्गीकरण करेगी। क्योंकि जुआ-सट्टा से जुड़े खेलों को भी प्रतिउत्पन्न मति अर्थात बुद्धिमत्ता आधारित खेल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस खेल में जीतने वाले व्यक्ति को भाग्यषाली होने के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसलिए बुद्धि को बढ़ावा देने वाले खेल और पैसा लगाकर खेले जाने वाले खेलों को परिभाशित करके विभाजित किया जाएगा। खिलाड़ी को मालूम होना चाहिए कि मनोरंजन, बुद्धि विकास और षैक्षित खेलों में दांव या पैसे की बाजी नहीं लगाई जाती है। प्राधिकरण षैक्षिक और मनोरंजन खेलों के सर्मथन में रहेगा। धन आधारित इस ऑनलादन खेल के 45 करोड़ लोग लति हो चुके हैं। ये लति 20 हजार करोड़ रुपए प्रति वर्श गंवा कर अपने परिवार को आर्थिक बद्हाली में झोंक देते हैं। साफ है, समाज के लिए यह समस्या जटिल स्वरूप ग्रहण कर चुकी है। अकेले जुपी एप पर इसके 15 करोड़ उपयोगकर्ता है। 1800 गेमिंग स्टार्टअप इंटरनेट पर चल रहे हैं। ऑनलाइन गेम का वैष्विक बाजार 3240 करोड़ का है। भारत सरकार ने इन खेलों से पांच साल के भीतर कर के रूप में 2600 करोड़ रुपए कमाए हैं। 2023 में ऑनलाइन गेमिंग पर 28 प्रतिषत जीएसटी लगा दिया गया था। लेकिन अब देष के नागरिकों को इस समस्या से मुक्ति के लिए सरकार इन खेलों पर प्रतिबंध के लिए कानून ले आई है।

            इंटरनेट के कारण दुनिया आदमी की मुट्ठी में आ गई है। इसके जितने लाभ हैं, उसी अनुपात में नुकसान भी देखने में आ रहे हैं। इस जंजाल में बड़े-बुजुर्ग और महिलाओं समेत बच्चे भी उलझते जा रहे हैं।  कोरोना काल में घरों में ही रहने की बाध्यता के चलते ज्यादातर उपभोक्ताओं की मुट्ठी में स्मार्ट फोन आ गया और उसके लिए दुनिया का आकाष छू लेना आसान हो गया है। इस आसान उपलब्धि ने मर्यादा में रहने वाली भारतीय सामाजिक संरचना पर देखते-देखते बड़ा आघात कर दिया है। एक तरफ तो लोग ऑनलाइन जुए में अपनी पसीने से कमाई धन-संपदा गंवा रहे है, वहीं ठगी के षिकार होकर डिजीटल अरेस्ट के तहत तमाम लोग अपनी समूची चल-अचल संपत्ति ठगों को भेंट कर चुके हैं। इसीलिए लंबे समय से इस तरह की जलसाजियों पर प्रतिबंध की मांग उठ रही थी। अब जाकर सरकार चेती है।  

            ऑनलाइन शिक्षा के बहाने ये विद्यार्थियों की मुट्ठी में भी स्मार्ट फोन आ गए हैं। इन फोनों में मनोरंजन एवं शैक्षिक खेलों के साथ अश्लील फिल्मों की उपलब्धि भी आसान थी। अतएव जो खेल भारत की समृद्ध संस्कृति, शारीरिक स्वास्थ्य और जीवन के विकास की अभिप्रेरणा थे, वे देखते-देखते भ्रम, ठगी, लालच और पोर्न का जादुई करिश्मा बनकर मन-मस्तिष्क पर छा गए। यहां तक की ‘ब्लू व्हेल‘ खेल में तो आत्महत्या का आत्मघाती रास्ता तक सुझाया जाने लगा। बच्चे लालच की इस मृग-मरीचिका के दृष्टिभ्रम में ऐसे फंसे कि धन तो गया ही, कईयों के प्राण भी चले गए। सोशल मीडिया की यह आदत जिंदगी में सतत सक्रियता का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन गई है कि इससे छुटकारा पाना मुश्किल हो गया खेल-खेल में कुछ कर गुजरने की यह मनस्थिति भारत समेत दुनिया अनेक बच्चों की जान ले चुकी है। ऑनलाइन खेलों में पब्जी, रोबोलॉक्स, फायर-फैरी, फ्री-फायर भी प्रमुख खेल हैं। ये सभी खेल चुनौती और कर्त्तव्य के फरेब से जुड़े हैं। इन खेलों में दूध और पानी पीने की सरल चुनौतियों से लेकर कई घंटे मोबाइल पर बने रहने, मित्रों से पैसे उधार लेने, छत से कूदने, घुटनों के बल चलने, नमक खाने और बर्फ में रहने तक की चुनौतियां षामिल हैं। 

            ऑनलाइन षिक्षा के बढ़ते चलन के चलते विद्यार्थियों की मुट्ठी में एनरॉयड मोबाइल जरूरी हो गया है। मनोविज्ञज्ञनी और समाजषास्त्री इसके बढ़ते चलन पर निरंतर चिंता प्रकट कर रहे हैं। पालक बच्चों में खेल देखने की बढ़ती लत और उनके स्वभाव में आते परिवर्तन से चिंतित व परेषान हैं। पालक बच्चों को मनोचिकित्सकों को तो दिखा ही रहे हैं, चाइल्ड लाइन में भी षिकायत कर रहे हैं। दरअसल बच्चों का मोबाइल या टेबलैट की स्क्रीन पर बढ़ता समय आंखों में दृश्टिदोश पैदा कर रहा है।  साथ ही अनेक षारीरिक और मानसिक बीमारियों की गिरफ्त में भी बच्चे आ रहे हैं। पोर्न फिल्में भी देखते बच्चे पाए गए हैं।

ऑनलाइन खेल आंतरिक श्रेणी में आते हैं, जो भौतिक रूप से मोबाइल पर एक ही किशोर खेलता है, लेकिन इनके समूह बनाकर इन्हें बहुगुणित कर लिया जाता है। वैसे तो ये खेल सकारात्मक भी होते हैं, लेकिन ब्लू व्हेल, पब्जी जैसे खेल उत्सुकता और जुनून का ऐसा मायाजाल रचते हैं कि मासूम बालक के दिमाग की परत पर नकारात्मकता की पृष्ठभूमि रच देते हैं। मनोचिकित्सकों और स्नायु वैज्ञानिकों का कहना है कि ये खेल बच्चों के मस्तिष्क पर बहुआयामी प्रभाव डालते हैं। ये प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म किंतु तीव्र होते हैं, इसलिए ज्यादातर मामलों में अस्पश्ट होते हैं। दरअसल व्यक्ति की आंतरिक षक्ति से आत्म्बल दृढ़ होता है और जीवन क्रियाषील रहता है। किंतु जब बच्चे निरंतर एक ही खेल खेलते है तो दोहराव की इस प्रक्रिया से मस्तिश्क कोष्किएं परस्पर घर्शण के दौर से गुजरती हैं, नतीजतन दिमागी द्वंद्व बढ़ता है और बालक मनोरोगों की गिरफ्त में आ जाता है। ये खेल हिंसक और अश्लील होते है,, तो बच्चों के आचरण में आक्रामकता और गुस्सा देखने में आने लगता है। दरअसल इस तरह के खेल देखने से मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न करने वाले डोपाइन जैसे हार्मोनों का स्राव होने लगता है। इस द्वंद्व से भ्रम और संशय की मनस्थिति निर्मित होने लगती है और बच्चों का आत्मविश्वास छीजने के साथ विवेक अस्थिर होने लगता है, जो आत्मघाती कदम उठाने को विवश कर देता है। हालांकि डोपाइन ऐसे हारमोन भी सृजित करता है, जो आनंद की अनुभूति के साथ सफलता की अभिप्रेरणा देते हैं। किंतु यह रचनात्मक साहित्य पढ़ने से संभव होता है। बहरहाल इस ठगी पर लगाम भारत सरकार ही लगा सकती थी, जो उसने देर आए, दुरुस्त आए की तर्ज पर लगा भी दी।

प्रमोद भार्गव

कुत्ता प्रसंग और युधिष्ठिर 

प्रमोद भार्गव
आजकल न्यायालय से सड़क तक कुत्ता प्रसंग चल रहा है। यह गोवंश को बचाने से कहीं ज्यादा अहम् हो गया है। अब अह्म तो दोनों ही हैं, गाय दूध के लिए माता कही जाती है और कुत्ता आदमी का वफादार मित्र है। उसकी यही कृतज्ञता के फलतः महाभारत युग में धर्मराज युधिष्ठिर अपने अनुजों के साथ भक्त कुत्ते को भी स्वर्गारोहण के लिए ले गए थे। जैसे कुत्ता न हुआ शरीर का कोई अभिन्न हिस्सा हुआ।
आवारा और अनाथ बच्चों के आश्रयों की तरह देश में पशु-आश्रय स्थल भी बन गए हैं। इनमें आवारा, कटखना, खोए हुए कुत्तों और बिल्लियों को शरण दी जाती है। घर के कई बुजुर्ग, कई-कई संतान होने के बाद भी वृद्धाश्रमों में दिन काटने को मजबूर हैं। नाती-पोतों से वंचित रहते हुए अकेलेपन को अवसाद में भोग रहे हैं। बढ़ते एकल परिवारों में बूढ़ों का यही हश्र हो रहा है। लेकिन देश को इन बूढ़ों से कहीं ज्यादा कुत्तों की चिंता हैं। अतएव शीर्ष न्यायालय का आदेश है कि आवारा एवं कटरखने कुत्तों को पकड़कर उनकी टीकाकरण के साथ नसबंदी भी की जाए। तदुपरांत उन्हें छोड़ा जाए। यदि कोई कुत्ता हिंसक होने के साथ रेबीज से संक्रमित है तो वह संरक्षण में ही रहे। पशु प्रेमी चाहें तो ऐसे कुत्तों को गोद भी ले सकते हैं।
भला करें राम! जिस देश के बाल संरक्षण गृह, नशा मुक्ति केंद्र और आंगनवाड़ियां अर्थाभाव के चलते बच्चों को कुपोषित होने से नहीं बचा पा रही हैं, वहीं अब बच्चों से ज्यादा कुत्तों की चिंता बढ़ रही है। अदालतें भी कुत्तों पर मेहरबान हैं। चूंकि न्यायालयों पर काम का बोझ बहुत है, करोड़ों मामले लंबित हैं। इस परिप्रेक्ष्य में न्यायालय ने आवारा कुत्तों के स्थायी पुनर्वास के संबंध में निर्देश दिए हैं कि  इस आदेश के विरुद्ध अर्जी पेश करने वाले व्यक्ति को अब 25 हजार और सरकारी संगठनों को दो लाख रुपए पंजीकरण हेतु शीर्ष न्यायालय को देने होंगे। यह राशि कुत्तों के लिए बुनियादी सुविधाएं हासिल कराने के काम आएगी। इस कमाल की बाध्यता के चलते जनहित याचिकाएं लगाने वाले लोगों की संख्या घट जाएगी।
अंततः कुत्ते के प्रति असली मोह न तो अदालत का है और न ही अर्जीकत्ताओं का ? श्वान की वफादार प्राकृतिक प्रवृत्ति के प्रति असली मोह तो आदमी और कुत्ते के बीच जीव-जगत के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक निर्लिप्त भाव से युधिष्ठिर ने ही जताया है। उनका कुत्ता मोह इतना अटूट है कि स्वर्गारोहण तक बना रहता है। जबकि पत्नी द्रोपदी से लेकर भाई तक उनका साथ छोड़ते चलते हैं पर कुत्ता साथ बना रहता है।
तो भला करें पांडवों का राम! पांडव पृथ्वी की परिक्रमा लगाकर योग बल के बूते हिमालय पर उत्तर दिशा में चल रहे हैं। योग के संयम से द्रोपदी का मन भंग हो गया और वे प्राण छोड़ते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ीं। तब भीम ने धर्मराज युधिश्ठिर से इस मृत्यु का कारण जाना। वे बोले, द्रोपदी पक्षपात करते हुए अर्जुन से सबसे ज्यादा प्रेम करती थी, अब उसी का फल भोग रही है।
इसके बाद अपनी बौद्धिक विद्वता का भ्रम पाले रखने वाले सहदेव धरा पर लुढ़क गए। भीम ने फिर कारण जाना। धर्मराज बोले, सहदेव अपने जैसा किसी को बुद्धिजीवी नहीं समझता था। बुद्धि-भ्रम उसका आजीवन बड़ा दोष रहा। अतएव चलता बना। स्वर्ग के कथित मार्ग पर आगे बढ़े तो सर्वश्रेष्ठ रूपवान नकुल धराशयी हो गए। भीम ने अनुज की मौत पर प्रश्न किया। तब र्धमराज वाले नकुल का सुंदरता के संदर्भ में सोच अत्यंत संकुचित था, वे रूप में अपने से ज्यादा सुंदर किसी अन्य को नहीं मानते थे। इसलिए यही दोष उनके पतन का कारण बना।
दुनिया के सर्वश्रेष्ठ धनुशधारी अर्जुन अपने भाईयों की मृत्यु से शोक-संतप्त अर्जुन भी खेत रहे। तब भीम की जिज्ञासा का ष्माण करते हुए धर्मराज बोले, इसे अपनी शूर -वीरता का यहां तक अहंकार था कि मैं एक दिन में ही सभी शत्रुओं को भस्म कर डालूंगा। किंतु ऐसा कर नहीं पाया, इसलिए अपने कर्म का फल भोग रहा है।
अब अग्रज के साथ चलते प्राण त्यागते भीम भी धरती पर गिरते हुए बोले, अब भ्राता मेरी भी इस गति का कारण बताइए ? तुम बहुत भोजन करने के साथ अपने शक्ति बल की डींगे हांकते थे, यही अभिमान तुम्हारे अंत का कारण है। यह कहते हुए युधिश्ठिर भीम की दशा देखे बिना ही आगे बढ़ गए। उनका प्रिय कुत्ता उनका अनुसरण करता रहा। अब इस पक्षपाती व अहंकार से भरी दुनिया में कौन ऐसा श्वान-प्रेमी होगा, जिसके साथ स्वामी भक्त कुत्ता स्वर्गारोहण कर जाए ? क्योंकि अब कुत्तों के तथाकथित संरक्षकों और कुत्ता पीड़ितो में अपने-अपने अस्तित्व बचाए रखने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है और दोनों का जीवनदान की इबारत लिखने में लगी है।

भारत चाहता है यह युद्ध का नहीं, शांति का दौर बने

-ललित गर्ग-

दुनिया आज एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जहां युद्ध और हिंसा ने सभ्यता की प्रगति को खतरे में डाल दिया है। रूस-यूक्रेन संघर्ष इसके ताजे उदाहरण के रूप में हमारे सामने है। इस युद्ध ने न केवल यूरोप की स्थिरता को हिलाकर रख दिया है, बल्कि पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को गहरे संकट में डाल दिया है। हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग शरणार्थी बने और ऊर्जा तथा खाद्यान्न संकट ने विकासशील देशों को प्रभावित किया। ऐसे कठिन समय में भारत ने अपनी पारंपरिक नीति-अहिंसा, निशस्त्रीकरण और अयुद्ध का परिचय कराते हुए यह स्पष्ट किया है कि युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यूक्रेन के राष्ट्रपति बोलोदिमीर जेलेंस्की को भारत आने का निमंत्रण देकर भारत ने संकेत दिया है कि युद्ध विराम एवं शांति समझौता कराने में भारत सक्रिय भूमिका निभा सकता है, निश्चित ही इस कदम का स्वागत होना चाहिए। रूस एवं यूक्रेन को भारत बातचीत की टेबल पर ले आता है, तो यह पूरी दुनिया के हित में होगा, इससे यु़द्ध का अंधेरा नहीं, शांति का उजाला होगा।
भारत द्वारा यूक्रेन के राष्ट्रपति को भारत आने का निमंत्रण देना केवल शांति प्रयासों का हिस्सा ही नहीं है, बल्कि यह अमेरिका की चालों को करारा जवाब देने वाला एक कूटनीतिक कदम भी है। हाल के दौर में अमेरिका ने भारत पर ट्रेड टैरिफ लगाकर और विभिन्न आर्थिक दबाव बनाकर उसकी अर्थव्यवस्था को अस्थिर एवं अस्तव्यस्त करने की कोशिश की है। किंतु मोदी सरकार ने अपनी दृढ़ कूटनीति से यह संदेश दिया है कि भारत अब किसी दबाव में आने वाला नहीं है। ज़ेलेन्स्की को आमंत्रित कर भारत ने यह दिखा दिया कि वह रूस और यूक्रेन दोनों के साथ संवाद रखकर स्वतंत्र नीति अपनाने में सक्षम है और अमेरिका की अपेक्षाओं के आगे झुकने के बजाय अपनी शांति और संतुलन की राह पर आगे बढ़ रहा है। यह कदम भारत की आत्मनिर्भर, साहसी और वैश्विक नेतृत्वकारी भूमिका का प्रमाण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार कहा है-‘यह युद्ध का दौर नहीं है।’ यह वाक्य केवल एक कूटनीतिक कथन नहीं, बल्कि भारत की शाश्वत नीति और सांस्कृतिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने केवल शब्दों तक ही सीमित भूमिका नहीं निभाई, बल्कि ठोस मानवीय प्रयास भी किए। ‘ऑपरेशन गंगा’ के अंतर्गत हजारों भारतीय छात्रों और नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकाला गया। भारत ने यूक्रेन को दवाइयां, मानवीय सहायता और राहत सामग्री भेजी। भारत ने रूस और यूक्रेन, दोनों से संवाद बनाए रखा। पिछले साल अगस्त में नरेन्द्र मोदी यूक्रेन जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने थे। इससे पहले उन्होंने रूस की यात्रा की थी। प्रधानमंत्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की से निरन्तर बातचीत में भी भारत का रूख स्पष्ट किया कि शांति बहाल होनी चाहिए, यह युद्ध का दौर नहीं, बल्कि शांति एवं विकास का दौर है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप एवं रूसी राष्ट्रपति पूतिन के बीच अलास्का में हुई शिखर वार्ता का भी भारत ने स्वागत किया और कहा था कि बातचीत एवं कूटनीति ही आगे बढ़ने एवं युद्ध विराम का रास्ता है।
रूस और यूक्रेन के बीच यदि कभी बातचीत की प्रक्रिया शुरू होती है, तो उसमें भारत की भूमिका निर्णायक हो सकती है। आज भारत की छवि एक विश्वसनीय मध्यस्थ के रूप में उभरी है। भारत न केवल जनसंख्या और अर्थव्यवस्था के लिहाज से बड़ा देश है, बल्कि सांस्कृतिक और नैतिक दृष्टि से भी विश्व में एक अलग पहचान रखता है। गांधी की भूमि, बुद्ध की करुणा और महावीर की अहिंसा से प्रेरित यह राष्ट्र यदि शांति का झंडा उठाता है, तो उसकी आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पूरी दुनिया आज भारत से अपेक्षा कर रही है कि वह शांति का नेतृत्व करे। भारत की यह भूमिका उसे केवल एक उभरती महाशक्ति ही नहीं बनाती, बल्कि ‘विश्वगुरु’ के रूप में स्थापित करती है। क्योंकि भारत जानता है-‘शांति ही मानवता का वास्तविक मार्ग है, और अहिंसा ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति।’
भारत की शांति नीति केवल रूस-यूक्रेन युद्ध तक सीमित नहीं रही है। चाहे ईरान-इजरायल, इजरायल-हमास युद्ध हो, अफगानिस्तान का संकट हो या मध्य पूर्व की उथल-पुथल-भारत ने हमेशा संवाद और कूटनीति को प्राथमिकता दी है। प्रधानमंत्री मोदी ने जी-20 शिखर सम्मेलन में विश्व नेताओं से कहा कि मानवता के सामने जो चुनौतियां हैं, उनका समाधान युद्ध से नहीं, बल्कि सहयोग-शांति-सौहार्द से मिलेगा। उन्होंने विकासशील देशों की पीड़ा और युद्ध से उत्पन्न आर्थिक संकट को सामने रखकर यह स्पष्ट किया कि युद्ध का खामियाजा गरीब और छोटे देशों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ता है। आज की दुनिया में हथियारों की होड़ और सामरिक प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। युद्ध केवल मोर्चे पर ही नहीं, बल्कि तकनीकी, साइबर और आर्थिक क्षेत्रों में भी लड़े जा रहे हैं। ऐसे समय में भारत की अहिंसा और अयुद्ध की नीति मानवता के लिए प्रकाशस्तंभ का काम कर रही है।
भारत का इतिहास शांति और अहिंसा का इतिहास है। भगवान महावीर ने अहिंसा को सर्वाेच्च धर्म बताया। उन्होंने कहा-“अहिंसा परमो धर्मः”। गौतम बुद्ध ने करुणा और मैत्री का संदेश दिया और पूरी एशिया भूमि को ‘शांति क्षेत्र’ बनाने की दृष्टि दी। महात्मा गांधी ने इसी परंपरा को आधुनिक राजनीति में रूपांतरित किया। उन्होंने दिखाया कि सत्य और अहिंसा के आधार पर साम्राज्यवाद जैसी शक्तिशाली सत्ता को भी परास्त किया जा सकता है। भारत की आत्मा में यह विश्वास गहराई से निहित है कि हिंसा केवल विनाश लाती है और शांति ही स्थायी समाधान है। इसी विरासत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पुनर्जीवित किया है। 2022 में जब रूस-यूक्रेन युद्ध तेज हुआ, तब संयुक्त राष्ट्र, जी-20 और ब्रिक्स जैसे मंचों पर मोदी ने दृढ़ता से कहा-‘आज का समय युद्ध का नहीं, बल्कि शांति, स्थिरता और सहयोग का है।’ भारत ने इस सत्य को समय रहते समझा और दुनिया को यह संदेश दिया कि ‘शांति ही भविष्य है, युद्ध नहीं।’ इसे आधुनिक कूटनीति में उतारकर यह साबित किया है कि भारत केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए सोचता है।
स्वतंत्रता के बाद भारत ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्ष नीति अपनाई। शीत युद्ध के समय जब दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ के दो खेमों में बंटी हुई थी, तब भारत ने यह साहस दिखाया कि वह किसी एक महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बनेगा। पंडित जवाहरलाल नेहरू, युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टिटो और मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी। इसका उद्देश्य था-दुनिया के देशों को युद्ध की राजनीति से दूर रखना और शांति व सहयोग की नई राह खोलना। भारत की अहिंसा की नीति कहती है कि स्थायी समाधान केवल शांति और संवाद में है। अयुद्ध की नीति कहती है कि किसी भी गुट का पिछलग्गू बने बिना स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाना ही असली ताकत है। भारत ने दिखाया है कि यह नीति केवल आदर्श नहीं, बल्कि व्यावहारिक कूटनीति भी है। जब पूरी दुनिया किसी एक पक्ष में बंट रही हो, तब भारत जैसे देश का संतुलित रुख ही शांति की संभावना को जीवित रख सकता है।
आज, जब रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण पश्चिमी देश और रूस आमने-सामने खड़े हैं, भारत ने उसी गुटनिरपेक्ष दृष्टिकोण को अपनाया है। भारत न तो रूस के पक्ष में खड़ा हुआ है और न ही अंधाधुंध रूप से पश्चिम का समर्थन कर रहा है। उसने संवाद और कूटनीति को ही एकमात्र रास्ता बताया है। यही भारत की ‘अयुद्ध नीति’ है-जहां किसी से शत्रुता नहीं, बल्कि सबके साथ संतुलित संबंध रखकर शांति के लिए काम करना है। भारत ने अमेरिकी और यूरोपीय दबाव के बावजूद कभी भी केवल एक पक्ष का समर्थन नहीं किया। यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। अमेरिका और पश्चिमी देश चाहते थे कि भारत खुले रूप से रूस की निंदा करे और उस पर प्रतिबंध लगाए। किंतु भारत ने साफ कहा कि उसका दृष्टिकोण ‘तटस्थ’ ही नहीं, बल्कि ‘शांति-उन्मुख’ है। भारत का लक्ष्य किसी के खिलाफ खड़ा होना नहीं, बल्कि सबको शांति की राह पर लाना है। यही कारण है कि रूस और यूक्रेन, दोनों भारत पर भरोसा करते हैं। दोनों मानते हैं कि भारत बिना पूर्वाग्रह के समाधान का मार्ग खोज सकता है।

जीएसटी दरों में बदलाव:आत्मनिर्भर, सशक्त और न्यायपूर्ण व्यवस्था की ओर कदम !

सरकार द्वारा स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से जीएसटी में बड़े बदलाव कर आम जनता को राहत देने की घोषणा की गई थी और अब इस क्रम में केंद्र सरकार को जीएसटी में 12 प्रतिशत और 28 प्रतिशत स्लैब को हटाने की राज्यों के मंत्रियों की समिति (जीओएम) से भी मंजूरी मिल गई है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जीएसटी दरों में कटौती और जनहित में लिए गए फैसले निश्चित रूप से देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता के लिए राहत लेकर आए हैं।सच तो यह है कि जब सरकार जनता की जरूरतों और महँगाई के दबाव को ध्यान में रखकर कर दरों को कम करती है, तो इसका सीधा लाभ उपभोक्ताओं के साथ-साथ व्यापारियों को भी मिलता है। बहरहाल,यह बात बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि फ्रांस को विश्व में जीएसटी का जनक कहा जाता है, क्योंकि वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) लागू करने वाला फ्रांस दुनिया का पहला देश था।बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि 2016 में संसद के दोनों सदनों द्वारा संवैधानिक (122वांँ संशोधन) विधेयक पारित होने के बाद वस्तु और सेवा कर व्यवस्था लागू हुई थी। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) भारत में वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण, बिक्री और उपभोग पर अप्रत्यक्ष कर है,जो हमारे देश में 1 जुलाई 2017 से लागू हुआ था। गौरतलब है कि वस्तु एवं सेवा कर(जीएसटी) को 101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2016 के माध्यम से पेश किया गया था तथा यह देश के सबसे बड़े अप्रत्यक्ष कर सुधारों में से एक है। इसे ‘वन नेशन वन टैक्स’ के नारे के साथ पेश किया गया था।यह भी उल्लेखनीय है कि जीएसटी में उत्पाद शुल्क, मूल्यवर्द्धित कर (वैट), सेवा कर, विलासिता कर आदि जैसे अप्रत्यक्ष करों को सम्मिलित किया गया है। दरअसल, जीएसटी कर के व्यापक प्रभाव या कर के भार को कम करता है , जो अंतिम उपभोक्ता पर भारित होता है। जीएसटी का महत्व या फायदा यह है कि इससे एक साझा राष्ट्रीय बाजार का निर्माण होता है। विदेशी निवेश और ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को बढ़ावा मिलता है।केंद्र और राज्यों तथा केंद्रशासित राज्यों के बीच कानूनों, प्रक्रियाओं और कर की दरों में सामंजस्य स्थापित होता है। टैक्स चोरी हतोत्साहित होती है। टैक्स सिस्टम को निश्चितता मिलती है तथा भ्रष्टाचार में भी कभी आती है। इससे निर्यात और विनिर्माण गतिविधि को बढ़ावा मिलता है, अधिक रोज़गार पैदा होते हैं और इस प्रकार लाभकारी रोज़गार के साथ सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है ,जिससे वास्तविक आर्थिक विकास होता है।बहरहाल, पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) लागू करने वाला भारत का पहला राज्य  असम  था, जिसने 12 अगस्त 2016 को जीएसटी बिल को मंजूरी दी थी. यह विधेयक सर्वसम्मति से असम विधानसभा में पारित किया गया था, जिससे असम जीएसटी को अपनाने वाला पहला राज्य बन गया। हाल फिलहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि जब किसी देश में जीएसटी दरें अधिक होती हैं, तो इसके कई नकारात्मक असर दिखाई देते हैं।मसलन, महंगाई बढ़ती है।ऊँची दरों से वस्तुएँ और सेवाएँ महँगी हो जाती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को ज़्यादा कीमत चुकानी पड़ती है। जब चीज़ें महँगी होती हैं तो लोग उनकी खरीद कम कर देते हैं और इसका असर व्यापार और उद्योग पर पड़ता है।छोटे कारोबारियों पर दबाव बढ़ता है। दरअसल, ऊँचे टैक्स के कारण उत्पादन लागत बढ़ती है। छोटे और मझोले व्यापारी प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते। जीएसटी अधिक होने से काला बाज़ारी और टैक्स चोरी की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। अधिक दरें अक्सर लोगों को टैक्स से बचने के लिए अवैध रास्ते अपनाने पर मजबूर करती हैं। हालांकि, जीएसटी में वृद्धि  सरकार के लिए सकारात्मक पहलू है। मसलन, जीएसटी दरों में वृद्धि से राजस्व में वृद्धि होती है। ऊँची दरों से सरकार को ज़्यादा टैक्स मिलता है, जिसका इस्तेमाल विकास और कल्याणकारी योजनाओं में किया जा सकता है। इतना ही नहीं,महँगी वस्तुओं की खपत पर नियंत्रण होता है।विलासिता की वस्तुओं (लग्ज़री गुड्स) पर ऊँचे जीएसटी से उनकी खपत कम होती है, जिससे समाज में संतुलन बना रहता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जीएसटी दरों के अधिक होने से उपभोक्ता महँगाई का बोझ झेलते हैं, व्यापार पर असर पड़ता है, लेकिन सरकार को अधिक राजस्व प्राप्त होता है। बहरहाल, जीएसटी दरों में कटौती का सरकार का यह फैसला महँगाई नियंत्रण, व्यापार सुगमता और उपभोग वृद्धि की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा सकता है। इससे जहाँ आम नागरिकों को रोजमर्रा की वस्तुएँ सस्ती मिलेंगी, वहीं व्यापारिक जगत में मांग भी बढ़ेगी। कर संरचना सरल होने से छोटे व्यापारियों और मध्यमवर्गीय परिवारों को राहत पहुँचेगी। इससे न केवल लोगों की जेब पर बोझ कम होगा, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी नई गति आएगी। सरकार के इस निर्णय से अब लगभग 90 फीसदी वस्तुएं सस्ती हो जायेंगी। हालांकि, विलासिता की वस्तुओं पर 40 फीसदी कर(महंगी कारों जैसे अल्ट्रा लग्जरी (विलासिता) उत्पादों पर 40 फीसदी के अतिरिक्त भी कर) होगा, लेकिन जीएसटी दरों में बदलाव से मध्य वर्ग, किसानों और एमएसएमई(सुक्ष्म ,लघु और मध्यम उद्यम) को निश्चित ही बड़ी राहत मिलेगी। अच्छी बात है कि  राज्यों के मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने जीएसटी के सिर्फ दो स्लैब पांच और 18 फीसदी रखने के केंद्र के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। अब मामले को जीएसटी परिषद की अगली बैठक में रखा जाएगा, जो इस पर अंतिम फैसला करेगी। पाठकों को बताता चलूं कि जीएसटी बदलाव के बाद जिन 99 फीसदी वस्तुओं पर पहले 12 फीसदी कर लगता था, वे सभी अब 5 फीसदी वाले स्लैब में आ जाएंगी। इसी तरह, 28 फीसदी स्लैब वाली 90 फीसदी वस्तुएं 10 फीसदी सस्ती हो जाएंगी। जीएसटी के दो स्लैब 5 व 18 फीसदी होने से न सिर्फ रोजमर्रा एवं अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतें घटेंगी, बल्कि मांग और खपत को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, राजस्व नुकसान व भरपाई को लेकर भी चिंताएं जताई गई हैं।इस संदर्भ में यह भी कहा गया है कि राज्यों के राजस्व की सुरक्षा तय करते हुए दरें तर्कसंगत बनानी चाहिए, अन्यथा गरीब, मध्य वर्ग और बुनियादी परियोजनाओं के साथ कल्याणकारी योजनाओं को नुकसान होगा। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि जीएसटी दरों में कमी के चलते नमकीन, टूथपेस्ट, साबुन, दवाएं आदि सस्ती होंगी। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन पर टैक्स 12 फीसदी से घटाकर 5 फीसदी होगा। दरअसल, 12 फीसदी जीएसटी वाली 99 फीसदी वस्तुओं के पांच फीसदी के दायरे में आने से सूखे मेवे, ब्रांडेड नमकीन, टूथ पाउडर, टूथपेस्ट, साबुन, हेयर ऑयल, सामान्य एंटीबायोटिक्स, दर्द निवारक दवाएं, प्रोसेस्ड फूड, स्नैक्स, फ्रोजन सब्जियां, कंडेंस्ड दूध, कुछ मोबाइल, कंप्यूटर, सिलाई मशीन, प्रेशर कुकर, गीजर जैसी चीजें सस्ती हो जाएंगी। अच्छी बात है कि इलेक्ट्रिक आयरन, वैक्यूम क्लीनर, 1,000 रुपये से अधिक के रेडीमेड कपड़े, 500 से 1,000 रुपये तक वाले जूते, वैक्सीन, एचआईवी/टीबी डायग्नोस्टिक किट, साइकिल, बर्तन पर भी टैक्स कम लगेगा तथा ज्योमेट्री बॉक्स, नक्शे, ग्लोब, ग्लेज्ड टाइल्स, प्री-फैब्रिकेटेड बिल्डिंग, वेंडिंग मशीन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाहन, कृषि मशीनरी, सोलर वॉटर हीटर जैसे उत्पादों भी पर भी 5% टैक्स हो जाएगा। सीमेंट, ब्यूटी प्रोडक्ट, चॉकलेट, रेडी-मिक्स कंक्रीट, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, एसी, डिशवॉशर, निजी विमान, प्रोटीन कन्संट्रेट, चीनी सिरप, कॉफी कन्संट्रेट, प्लास्टिक प्रोडक्ट, रबर टायर, एल्युमिनियम फॉयल, टेम्पर्ड ग्लास, प्रिंटर, रेजर, मैनिक्योर किट आदि पर 28% से घटकर 18% टैक्स लगेगा। हालांकि,भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने रिपोर्ट में यह बात कही है कि, जीएसटी दरों को युक्तिसंगत बनाने से 1.98 लाख करोड़ रुपये की खपत को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, इससे सरकार को हर वित्त वर्ष में 85,000 करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हो सकता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि अभी जीएसटी में चार स्लैब 5 फीसदी, 12 फीसदी, 18 फीसदी और 28 फीसदी हैं। खाद्य पदार्थों पर या तो शून्य या पांच फीसदी जीएसटी लगता है, जबकि विलासिता व अहितकर वस्तुओं पर 28 फीसदी कर लगता है। बहरहाल, यही कहूंगा कि जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) में दर कटौती और सरलता से जुड़ा फैसला देशवासियों के लिए राहत भरा है।सच तो यह है कि यह निर्णय भारत की आर्थिक मजबूती और जन-कल्याणकारी दृष्टिकोण दोनों का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में हम यह बात कह सकते हैं कि यह पहल भारत को आर्थिक रूप से और अधिक आत्मनिर्भर, सशक्त और न्यायपूर्ण व्यवस्था की ओर अग्रसर करेगी।

सुनील कुमार महला

चुनाव आयोग नहीं, जनादेश का अपमान हो रहा है

राजेश कुमार पासी

इंडिया गठबंधन के नेताओं ने 11 अगस्त को संसद से लेकर चुनाव आयोग मुख्यालय तक विरोध मार्च निकालकर हंगामा किया जबकि चुनाव आयोग ने 30 नेताओं को अपनी बात रखने के लिए बुलाया था । वास्तव में विपक्ष यह दिखाना चाहता था कि उसके विरोध को दबाया जा रहा है, इसलिए ऐसा हंगामा किया गया कि पुलिस को उनकी गिरफ्तारियां करनी पड़ी । विदेशी समाचार पत्रों में यह खबर प्रमुखता के साथ प्रकाशित की गई कि भारत में विपक्ष को चुनावी धांधलियों के खिलाफ आवाज उठाने से रोका जा रहा है । इस पर कई विदेशी समाचार पत्रों द्वारा लेख प्रकाशित करके बताया जा रहा है कि भारत में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है । बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के कार्यक्रम पर विपक्ष द्वारा खड़े किये जा रहे विवाद के  कारण विदेशी समाचार पत्रों द्वारा इस पारदर्शी प्रक्रिया को विवादास्पद बताया जा रहा है ।

राहुल गांधी ने 7 अगस्त को दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस करके चुनाव आयोग पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप लगाया है । उनका कहना है कि कर्नाटक में कांग्रेस को 16 सीटें मिलने की उम्मीद थी लेकिन वो केवल 9 सीटें ही जीत पाई । उनका आरोप है कि ऐसा केवल वोट चोरी से हो सकता है इसलिए वो इसे चुनाव चोरी कहते हैं । राहुल गांधी चुनाव आयोग के कर्मचारियों को धमकी देते हुए कहते हैं कि जब उनकी सरकार आएगी तो उनको इसका परिणाम भुगतना होगा । चुनाव आयोग ने राहुल गांधी को अपने आरोपों  पर शपथ पत्र देने का कहा है ताकि वो मामले की जांच कर सके । राहुल गांधी कहते हैं कि वो शपथपत्र नहीं देंगे, उनका बयान ही शपथ पत्र माना जाए ।  सबसे अजीब बात यह है कि एक तरफ राहुल गांधी मतदाता सूची में फर्जी लोगों का नाम जोड़ने का आरोप लगाते हैं तो दूसरी तरफ बिहार में मतदाता सूची में फर्जी, अयोग्य और मृत लोगों के नाम हटाये जाने का विरोध कर रहे हैं । 

               राहुल  गांधी एक ऐसे व्यक्ति हैं जो बीमारी का ढिंढोरा  पीट रहे हैं लेकिन बीमारी के इलाज का विरोध कर रहे हैं । उन्होंने 7 अगस्त को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में जो खुलासा किया है, वो वास्तव में कोई खुलासा है ही नहीं बल्कि एक ऐसा सच है जो इस देश का हर व्यक्ति जानता है । सबको पता है कि मतदाता सूची में मृतकों और अयोग्य लोगों के नाम दर्ज हैं । इसके अलावा ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने नाम कई जगहों पर दर्ज करवाए हुए हैं । राहुल गांधी ने कहा  है कि बैंगलुरू सैंट्रल निर्वाचन क्षेत्र में एक लाख से ज्यादा मतदाता चुपके से जोड़ दिए गए हैं । सवाल यह है कि नये वोटर जोड़ना कैसे गलत है लेकिन राहुल गांधी इन विसंगतियों को लेकर खुद ही नतीजे पर पहुंच गए हैं कि यह सब भाजपा ने अपने फायदे के लिए किया  है । कांग्रेस की कर्नाटक सरकार के मंत्री राजन्ना ने इस मामले पर अपनी ही पार्टी और सरकार को घेर लिया है । उन्होंने  कहा कि मतदाता सूची में संशोधन हमारी सरकार के दौरान ही हुआ है और यह काम कर्नाटक सरकार में काम करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा किया गया है । एक आदिवासी मंत्री राजन्ना को इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि उन्होंने राहुल गांधी के झूठ की पोल खोल दी ।

 सबसे बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस सरकार के शासन में, उसके ही कर्मचारियों और अधिकारियों ने मतदाता सूची में भाजपा के लिए हेराफेरी कैसे कर दी । राहुल गांधी चुनाव आयोग के कर्मचारियों को धमकी दे रहे हैं कि उनकी सरकार आएगी तो वो कार्यवाही करेंगे । अब सवाल उठता है कि कर्नाटक में तो उनकी सरकार है तो कार्यवाही क्यों नहीं की गई है । क्या वो यह कहना चाहते हैं कि केंद्र में कांग्रेस की सरकार आएगी तो वो कर्नाटक के कर्मचारियों को दंड देंगे । कानूनन किसी भी दल को मतदान प्रक्रिया  या मतदाता सूची में गड़बड़ी पाए जाने पर नतीजों के 45 दिनों के अंदर अपनी शिकायत दर्ज करवानी होती है लेकिन राहुल गांधी और उनकी पार्टी ऐसा नहीं कर सकी । 

                राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि कई ऐसे पते हैं जिन पर वहां रहने वाले लोगों की संख्या के मुकाबले कहीं ज्यादा मतदाता दर्ज हैं । यह भी एक आम समस्या है क्योंकि भारत में लगभग 40 करोड़ प्रवासी हैं जो अपना निवास स्थान जल्दी-जल्दी बदलते रहते हैं । वो उस घर के पते का इस्तेमाल करते हैं जो उन्हें ऐसा करने की इजाजत देता है ।  इसके कारण कई घरों में रहने वाले लोगों से कहीं ज्यादा मतदाता दर्ज हो जाते हैं । दूसरी बात यह है कि ऐसे लोग कई बार कई जगहों पर मतदाता बन जाते हैं और उनके कई वोटर कार्ड भी बन जाते हैं । इन विसंगतियों को तो बिहार में चुनाव आयोग ठीक कर रहा है और अब पूरे देश में इसे ठीक करने की मुहिम शुरु होने वाली है । अजीब बात यह है कि पूरा विपक्ष इसका विरोध कर रहा है ।

वास्तव में राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता चुनाव आयोग के खिलाफ अभियान नहीं चला रहे हैं बल्कि वो भाजपा के खिलाफ राजनीति कर रहे हैं । चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और उसे सारी शक्तियां संविधान से मिलती हैं । चुनाव आयोग सरकार के अधीन नहीं है बल्कि स्वतंत्र तरीके से अपना काम करता है । चुनाव आयोग का काम केन्द्र और राज्य सरकार के अधिकारी और कर्मचारी करते हैं । यह आरोप लगा देना सही नहीं है कि चुनाव आयोग किसी विशेष दल के लिए हेराफेरी कर रहा है । आरोप लगाना तब सही है जब आपके पास उसको साबित करने के लिए पक्के सबूत हों लेकिन सबूत के नाम पर विपक्ष के पास कुछ नहीं है । मतदाता सूची में विसंगतियां हैं इसलिए तो चुनाव आयोग गहन पुनरीक्षण कर रहा है । मतदाता सूची में विसंगतियां दिखा कर यह साबित नहीं किया जा सकता कि इससे किसी पार्टी को फायदा पहुंचाया गया है । अगर फर्जी वोटिंग हुई है तो किसके पक्ष में हुई है, उसे भी साबित करने की जरूरत है । सिर्फ विसंगतियों के आधार पर यह कह देना कि इससे भाजपा को फायदा हुआ है, पूरी तरह से गलत है । अगर भाजपा कहती है कि इससे कांग्रेस को फायदा हुआ है तो राहुल गांधी क्या जवाब देंगे । मतदाता सूची में जिन विसंगतियों का खुलासा राहुल गांधी ने किया था, वैसी ही विसंगतियों को भाजपा ने कांग्रेस नेताओं द्वारा जीती हुई सीटों पर ढूंढ निकाला है। क्या अब राहुल गांधी यह कहेंगे कि यह विसंगतियां कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव जीतने के लिए करवाई थी । इस तरह देखा जाए तो कांग्रेस ने भी चुनाव की चोरी की है।

                  वास्तव में राहुल गांधी का निशाना चुनाव आयोग नहीं बल्कि मोदी सरकार है । राहुल गांधी को अब अहसास हो गया है कि वो मोदी से जीत नहीं सकते, इसलिए उनकी जीत को संदिग्ध बना रहे हैं। वो यह साबित करना चाहते हैं कि मोदी सरकार को जनता वोट नहीं दे रही है बल्कि भाजपा वोट चोरी करके सरकार बना रही है। इस तरह राहुल गांधी मोदी सरकार को मिले जनादेश का अपमान कर रहे हैं । उन्होंने कहा भी है कि हर सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर होती है लेकिन मोदी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर नहीं होती है। उन्हें मोदी सरकार का बार-बार चुनाव जीतना संदिग्ध लग रहा है इसलिए वो कह रहे हैं कि भाजपा चुनाव चोरी करके सरकार बना रही है। वो भूल गए हैं कि आजादी के बाद 55 साल तक कांग्रेस ने राज किया है। क्या वो कहना चाहते हैं कि नेहरू जी और इंदिरा जी बार-बार चुनाव इसलिए जीत रहे थे क्योंकि वो चुनाव चोरी कर रहे थे। क्या मनमोहन सिंह सरकार दोबारा चुनाव चोरी करके बनी थी ।

राहुल गांधी इस देश की जनता का अपमान कर रहे हैं, संविधान और लोकतंत्र का मजाक बना रहे हैं। इस देश का मतदाता बहुत समझदार है, वो सरकार को तब तक नहीं बदलता जब तक कि उसका अच्छा विकल्प उसके सामने न हो । 1977 तक देश की जनता ने सिर्फ कांग्रेस को चुना लेकिन आपातकाल के कारण पहली बार विपक्ष को सरकार बनाने का मौका दिया। जब विपक्ष ने अच्छा काम नहीं किया तो जनता ने कांग्रेस को दोबारा मौका दिया । ऐसे ही 2009 में मनमोहन सिंह सरकार को दोबारा इसलिए मौका मिला क्योंकि जनता के सामने अच्छा विकल्प नहीं था । 2014 में जनता को मोदी के रूप में एक विश्वसनीय चेहरा मिला तो सरकार बदल दी । 2019 और 2024 में जनता को विपक्ष में मोदी का विकल्प नहीं दिखा तो उसने मोदी को दोबारा मौका दिया। जिस तरह हमारा विपक्ष चल रहा है उससे लगता है कि 2029 में भी उसे मौका मिलने वाला नहीं है। 

विडम्बना है कि पूरा विपक्ष राहुल गांधी के पीछे चल रहा है और राहुल गांधी को पता नहीं है कि वो कहाँ जा रहे हैं। जनादेश का अपमान करना विपक्ष को बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि ये जनता का अपमान है । विपक्ष को अपनी हार का बहाना ढूंढने की जगह आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है। उसे गंभीरता से यह विचार करने की जरूरत है कि जनता बार-बार मोदी सरकार को मौका क्यों दे रही है। जनता की समझ पर सवाल खड़े करना विपक्ष के लिए सही नहीं है।

राजेश कुमार पासी

इतिहास की सीख छोड़ फ्रेम में उलझा युवा वर्ग

(संघर्ष की गाथा भूली, तस्वीरों की दुनिया में खोया युवा) 

आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि युवा वर्ग केवल फ्रेम और क्लिक की दुनिया में सिमटकर न रह जाए। क्षणभंगुर छवियाँ उसे आकर्षित करती हैं, परंतु इतिहास और साहित्य ही स्थायी आत्मबल देते हैं। फ्रेम से मिली चमक पल भर की है, लेकिन साहित्य से मिला आत्मसत्य पीढ़ियों तक ऊर्जा देता है। आवश्यकता है कि युवा वर्ग सोशल मीडिया की सतहीता से बाहर निकलकर संस्कृति और ज्ञान की गहराई को पहचाने। इतिहास से सीखना और साहित्य से जुड़ना ही उनके जीवन को दिशा देगा। यही भविष्य को सार्थक बनाने का मार्ग है।

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

पीढ़ी 1990 के बाद पैदा हुई, उसके हिस्से ‘इतिहास’ कम ‘फ्रेम’ ज्यादा आए। मोबाइल, कैमरा और सोशल मीडिया की दुनिया ने उन्हें घटनाओं की गहराई में जाने की बजाय केवल सतही फ्रेम और दृश्य-छवियों तक सीमित कर दिया। आज का युवा वर्ग अतीत के संघर्षों से शिक्षा लेने के बजाय इंस्टेंट फ्रेमों में फँसा है। यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है।

आधुनिकता के उन्माद के बावजूद हमारे सार्वजनिक जीवन में जो शून्यता, दरिद्रता और दिशाहीनता दिखाई देती है, उसके कारण बहुत दूर जाकर नहीं खोजने पड़ते। यह शून्यता दरअसल हमारी स्मृतियों और सांस्कृतिक आत्मबोध के बिखराव से पैदा हुई है। इतिहास हमें बताता है कि क्या हुआ, जबकि साहित्य यह दिखाता है कि क्या हो सकता था और क्या होना चाहिए था। साहित्य को आत्मसत्य इसलिए कहा गया है कि वह मनुष्य को केवल सूचना नहीं, बल्कि अनुभव और मूल्य देता है।

भारत का इतिहास किसी सुखद घटनाओं की लड़ी नहीं है। इसमें युद्ध, संघर्ष, विद्वेष, विभाजन और बँटवारा है। लेकिन इन्हीं अंधेरे अध्यायों के बीच स्वतंत्रता आंदोलन की गाथा भी है। 1857 से 1947 तक का काल केवल राजनीतिक संघर्ष नहीं था, वह साहित्य का भी स्वर्णकाल था। स्वतंत्रता संग्राम और साहित्य जैसे एक-दूसरे में घुल गए थे। कवि, लेखक और कलाकार केवल दर्शक नहीं थे, बल्कि वे इतिहास के सह-निर्माता थे। उनके गीत, कविताएँ और उपन्यास आम जनमानस में ऊर्जा और चेतना जगाते थे। यही कारण है कि आज़ादी की लड़ाई केवल तलवार और आंदोलन की गाथा नहीं रही, बल्कि साहित्यिक कृतियों की भी कहानी बनी।

लेकिन यह गौरवशाली परंपरा आज कहीं खो गई है। एक प्राचीन सभ्यता की प्राणवत्ता उसके सांस्कृतिक प्रतीकों और जीवनदायी आस्थाओं में निहित होती है। यही प्रतीक एक समय में हमारे चिंतन, सृजन और व्यवहार को अर्थ प्रदान करते थे। जब यह जीवन्त समग्रता खंडित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाती है, तो वे केवल नामलेवा अनुष्ठानों तक सिमट जाते हैं। पूजा-पाठ तो बचा रहता है, परंतु उससे कोई नयी प्रेरणा नहीं निकलती। आज का भारतीय समाज इसी विडंबना से गुजर रहा है—हमारे पास परंपराएँ तो हैं, लेकिन उनमें जीवन्तता नहीं है।

हम अपने ही देश में आत्मनिर्वासित प्राणियों की तरह जीने को विवश हो गए हैं। हमारी नैतिक मर्यादाएँ, हमारे अध्ययन और हमारे विचार—सब पर विदेशी भाषा और सोच का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। अंग्रेज़ी का वर्चस्व केवल एक शैक्षिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक निर्भरता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा था—“अंग्रेज़ी भाषा ने संस्कृत का सर्वाधिकार छीन लिया है। आज भारतीय विद्याओं की जैसी विवेचना और विचार अंग्रेज़ी भाषा में हैं, उसकी आधी चर्चा का भी दावा कोई भारतीय भाषा नहीं कर सकती। यह हमारी सबसे बड़ी पराजय है। राजनीतिक सत्ता के छिन जाने से हम उतने नतमस्तक नहीं हैं, जितने अपने विचार की, तर्क की, दर्शन की, अध्यात्म की अपनी सर्वस्व भाषा छिन जाने से। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हम अपनी ही विद्या को अपनी बोली में न कह सकने के उपहासास्पद अपराधी हैं। यह लज्जा हमारी जातीय है।”

वास्तव में जिसे द्विवेदी जी ने ‘उपहासास्पद अपराध’ कहा, उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार भारतीय सम्भ्रांत शिक्षित वर्ग रहा है। उसने अंग्रेज़ी को श्रेष्ठता और भारतीय भाषाओं को पिछड़ेपन का चिह्न बना दिया। आज स्थिति यह है कि युवा पीढ़ी अपनी ही भाषा में बोलने से हिचकती है, अपनी संस्कृति को आधुनिकता के विपरीत मानती है और साहित्य को केवल पाठ्यक्रम की किताबों तक सीमित समझती है।

1990 के बाद जन्मी पीढ़ी का संकट यही है। उनके पास सूचनाओं का अंबार है, पर आत्मसत्य नहीं। वे मोबाइल स्क्रीन पर इतिहास की झलकियाँ देखते हैं, पर उसकी गहराई में नहीं उतरते। उनकी चेतना फ्रेमों और क्लिप्स पर आधारित है। इस पीढ़ी ने ‘इतिहास’ कम और ‘फ्रेम’ ज्यादा देखे हैं। यही कारण है कि उनमें वह गहराई नहीं है, जो साहित्य और इतिहास से संवाद करने पर आती।

इतिहास से हमें संघर्ष, धैर्य और त्याग की शिक्षा मिलती है। लेकिन फ्रेम हमें केवल तात्कालिक दिखावा और सतही आकर्षण देता है। यही वजह है कि युवा वर्ग की ऊर्जा दिशाहीन होती जा रही है। उनके पास विकल्प बहुत हैं, पर संकल्प नहीं। फ्रेम की दुनिया क्षणभंगुर है—एक फोटो, एक रील, एक क्लिक पल भर में आती है और मिट जाती है। जबकि इतिहास की सीख स्थायी है—वह आने वाली पीढ़ियों को भी दिशा देती है। यदि युवा वर्ग इस आत्मसत्य को समझने में असफल रहा, तो वह न केवल अपने वर्तमान को खो देगा बल्कि भविष्य को भी अंधकारमय कर लेगा।

साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। यह व्यक्ति और समाज को अपने आत्म से मिलाने वाला माध्यम है। साहित्य हमें बताता है कि हमारी जड़ें कहाँ हैं और हमारे सपनों का आकाश कहाँ तक फैला है। साहित्य के बिना समाज केवल सूचनाओं का ढेर रह जाता है, आत्मबोध और दिशा खो देता है। यही कारण है कि आज साहित्य को पुनः केंद्र में लाने की आवश्यकता है।

आज का प्रश्न यही है—क्या हम इस पीढ़ी को फिर से साहित्य और इतिहास से जोड़ पाएँगे? क्या हम उन्हें दिखा पाएँगे कि संस्कृति कोई बोझ नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का आधार है? यह तभी संभव होगा जब भारतीय भाषाओं को केवल बोलचाल तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उन्हें ज्ञान और शोध की भाषा बनाया जाए। नई पीढ़ी को यह समझना होगा कि सोशल मीडिया के फ्रेम और क्लिक क्षणिक हैं। वे पल भर में आते हैं और गायब हो जाते हैं। लेकिन साहित्य और संस्कृति वे आधार हैं, जिन पर स्थायी आत्मविश्वास खड़ा होता है।

यह पीढ़ी तभी सार्थक होगी जब वह अपनी जड़ों से जुड़कर आधुनिकता को आत्मसात करेगी। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो साहित्य केवल पुस्तकालयों में बंद रह जाएगा और संस्कृति केवल त्योहारों के सजावटी फ्रेम में कैद हो जाएगी। तब हम केवल उपभोक्ता समाज रह जाएँगे, सृजनशील सभ्यता नहीं।

आज आवश्यकता है कि विद्यालय और विश्वविद्यालय साहित्य को केवल परीक्षा का विषय न मानें, बल्कि जीवन का अनुभव मानें। लेखकों और कवियों को पुनः समाज के केंद्र में लाने की ज़रूरत है। भाषा को बोझ नहीं, गौरव का माध्यम बनाने की आवश्यकता है। और सबसे बढ़कर, नई पीढ़ी को यह एहसास दिलाना होगा कि साहित्य का आत्मसत्य ही वह शक्ति है, जो उन्हें इतिहास की गहराई और भविष्य की दिशा दोनों देता है।

इतिहास हमें यह दिखाता है कि हमने क्या खोया और क्या पाया। साहित्य हमें यह सिखाता है कि हम क्या हो सकते हैं। यही कारण है कि साहित्य और इतिहास का संबंध इतना गहरा और अविभाज्य है। यदि नई पीढ़ी इस आत्मसत्य से जुड़ने में असफल रही, तो वह न तो इतिहास समझ पाएगी और न ही भविष्य गढ़ पाएगी।

आधुनिकता का उन्माद तभी सार्थक होगा, जब वह साहित्य और संस्कृति की आत्मा से जुड़कर नई रचनात्मकता पैदा करेगा। अन्यथा हम केवल ‘फ्रेम’ की पीढ़ी रह जाएँगे—जहाँ गहराई नहीं होगी, केवल सतही छवियाँ होंगी। यही इस समय की सबसे बड़ी चेतावनी भी है और सबसे बड़ा समाधान भी।

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

 दागी जेल से नहीं चला पाएंगे सरकार

संदर्भ-जेल से सरकार चलाने पर रोक संबंधी तीन विधेयक-
प्रमोद भार्गव

अर्से से चुनाव सुधार के लिए ऐसी विसंगतियां  दूर करने की मांग उठती रही है, जिनके चलते दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने के अधिकार के साथ, मुख्यमंत्री रहते हुए जेल से सरकार चलाने का अधिकार भी मिला हुआ है। किंतु अब केंद्र सरकार तीन संविधान संशोधन विधेयक लाकर इन विरोधाभासी कानूनों को बदलने की तैयारी में है, जो दागियों को जेल में रहते हुए सरकार चलाने की सुविधा देते हैं। कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष के भारी हंगामे के बीच लोकसभा में 130वां संविधान  संशोधन  विधेयक समेत तीन विधेयक पेश किए गए। इनमें गंभीर आपराधिक आरोप में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के लगातार 30 दिनों तक जेल में बंद रहने की स्थिति में स्वमेव पद से हटाने का प्रविधान शामिल है।
  दरअसल दागियों को चुनाव लड़ने से तब तक बाधित नहीं किया जा सकता है, तब तक वर्तमान विरोधाभासी कानूनों में परिवर्तन नहीं कर दिया जाता। इस मकसद पूर्ति के लिए केंद्र सरकार तीन विधेयक पारित कराने की इच्छुक है। पहला, संविधान में 130 वां संशोधन विधेयक-2025 है, जिसके तहत 30 दिन तक जेल में रहकर पद पर बने रहने वाले प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को हटाने का प्रविधान है। पारित होने के बाद यह कानून केंद्र और राज्य सरकारों पर लागू होगा। दूसरा विधेयक केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इन्हीं प्रविधानों के साथ लागू होगा। तीसरा विधेयक जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 (34) के तहत गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए मुख्यमंत्री या मंत्री को हटाने का कोई प्रावधान नहीं है। अतएव धारा-54 में संशोधन करके आपराधिक मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को 30 दिन में हटाने का प्रविधान किया जाएगा। हालांकि इन सभी  विधेयकों   में जमानत की सुविधा दी गई है। यदि 30 दिन में जमानत नहीं मिलती है तो ये स्वयं अयोग्यता के दायरे में आ जाएंगे। यदि बाद में जमानत मिल जाती है तो फिर से पद पर बैठने के अधिकारी हो जाएंगे।
सरकार को संसद के दोनों सदनों से संशोधन विधेयक पारित कराने होंगे। वर्तमान में दलों के बीच जबरदस्त असहमति और टकराव है, अतएव ऐसा संभव होना कठिन है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ऐसे किसी बदलाव को संविधान का खात्मा करने का बहाना करते हुए संसद में हल्ला मचाएंगे और अन्य जिन विपक्षी दलों की बुनियाद दागियों पर टिकी है, वह उनका समर्थन करेंगे। हालांकि भाजपा और उनके सहयोगी दलों में भी दागियों की संख्या कम नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह अपेक्षा इसलिए की जा सकती है, क्योंकि एक तो वे चुनाव सुधार की मुखर पैरवी करते रहे हैं, दूसरे जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म करने का साहस दिखा चुके हैं। इसलिए तत्काल टकराव को टालने के नजरिये से गृहमंत्री अमित शाह ने इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को समीक्षा हेतु भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने स्वीकार भी कर लिया। चूंकि ये विधेयक विधायिका को अपराध मुक्त बनाने की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक हैं, इस कारण संयुक्त संसदीय समिति भी इन विधेयकों को समर्थन में दिखाई देगी ?    
 दरअसल जेल में बंद और जमानत पर छूटे दागियों को इसलिए राहत मिल जाती है, क्योंकि कानून की निगाह में आरोपी को दोष सिद्ध नहीं हो जाने तक निर्दोष माना जाता है। इसी आधार पर बंदी और दो साल से कम की सजा पाए लोगों को चुनाव में हस्तक्षेप के अधिकार मिले हुए हैं। देश में जाति और संप्रदाय आधारित विडंबनाएं इस हद तक हैं कि अनेक दागी चुनाव जीत भी जाते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल में बंद खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह ने पंजाब की खडूर साहिब लोकसभा सीट से विजय हासिल कर ली थी। इसी तरह टेरर फंडिग में तिहाड़ जेल में बंद इंजीनियर रशीद ने जम्मू-कश्मीर की बारामूला विधानसभा सीट से चुनाव जीत लिया था। इस परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बिंदू यह भी है कि हत्या, बलात्कार, आतंक, अलगाव और हिंसा भड़काने वाले लोग यदि जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंच जाते हैं, तब क्या इन सदनों की गरिमा या संविधान की महिमा बढ़ जाती है ? यदि नहीं बढ़ती तो राजनीतिक दल इन्हें टिकट क्यों देते हैं ? क्या उन्हें देश की अखंडता की चिंता नहीं है ? नागरिक शुचिता की अपेक्षा जहां मतदाता से की जाती है, वहीं संवैधानिक मर्यादा का पालन करने का दायित्व दल और निर्वाचित प्रतिनिधियों का है।  

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई 2013 को दिए एक फैसले के अनुसार किसी आपराधिक मामले में 2 वर्ष की सजा पाए दोषी सांसद, विधायक व अन्य जनप्रतिनिधियों के पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। जिस तारीख से सजा सुनाई गई है, उसी दिन से माननीयों की सदस्यता निरस्त मानी जाएगी। अदालत ने इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को रद्द कर दिया था। यह धारा दागी नेताओं को मुकदमे लंबित रहते हुए भी पद पर बने रहने की छूट देती थी, यह फैसला 2006 में दाखिल वकील लिली थॉमस की याचिका पर दिया गया था। किंतु इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से  संशोधन  विधेयक लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा 8 की उपधारा 4 में एक प्रावधान जोड़ा, ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बची रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें। किंतु अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा 4 भेदभाव पूर्ण है, क्योंकि यह दोशी ठहराये गए आमजन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है। दरअसल दागियों के कंधे पर टिका विपक्ष ऐसे कानूनों का पक्षकार इसलिए है, जिससे वह संप्रदाय और जाति के ध्रुवीकरण  के आधार पर जीते प्रतिनिधियों के बूते अपना वर्चस्व संसद में बनाए रखे।  

संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोशी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता हैं। तो वह जनप्रतिनिधि बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है ? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थॉमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए तब कि मनमोहन सिंह सरकार से जवाब तलब भी किया था। केंद्र ने शपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि ‘कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है।’ सरकार ने यह भी तर्क दिया था ‘यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है।’ जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्श अपराध बहाली को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवैधानिक अनिवार्यता है ? इस स्थिति में न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है ? ऐसी दोशपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाय सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।
दागियों के बचाव में राजनेता और कथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता को करना होता है। बदलाव उसी के हाथ में है। वह योग्य, शिक्षित तथा स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन ऐसी स्थिति में अकसर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। अतएव मतदाता के समक्ष दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है। लोक पर राजनेता की मंशा असर डालती है। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए बेमानी है, क्योंकि राजनीति और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदाताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके होते हैं। बसपा, सपा और एआईएमआईएम का तो बुनियादी आधार ही जाति है। वैसे भी देश में इतनी अज्ञानता, अशिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोग बांटी जा रही मुफ्त की रेवड़ियों के आधार पर मतदान करने लगे हैं। ऐसे में जिस स्तर पर भी केंद्र सरकार राजनीति में शुचिता और नैतिकता के कानूनी मानदंड स्थापित करने के प्रयास में है तो विपक्ष को राष्ट्रहित  में समर्थन करने की जरूरत है।

प्रमोद भार्गव

जब न्याय के प्रहरी ही अपराधी बन जाएँ, तो कानून की आस्था कैसे बचे?

झूठे मुकदमे केवल निर्दोषों को पीड़ा नहीं देते, बल्कि न्याय तंत्र की नींव को भी हिला देते हैं। जब वकील ही इस व्यापार में शामिल होते हैं तो वकालत की गरिमा और न्यायपालिका की विश्वसनीयता दोनों पर गहरा आघात होता है। ऐसे वकीलों पर आपराधिक मुकदमे चलना अनिवार्य है ताकि कानून का दुरुपयोग रोका जा सके। न्याय केवल किताबों में दर्ज प्रावधान नहीं है, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था है। यह आस्था तभी बची रहेगी जब न्याय के प्रहरी – वकील और अदालत – स्वयं अपने आचरण से पारदर्शिता और ईमानदारी का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।

-डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय न्याय व्यवस्था की नींव सत्य और न्याय पर आधारित है। न्यायालय को हमेशा से समाज का सबसे बड़ा सहारा माना जाता रहा है। जब अन्याय पीड़ित व्यक्ति हर दरवाज़े पर ठोकर खाकर थक जाता है, तब उसे अदालत से ही उम्मीद रहती है। लेकिन यह उम्मीद तब कमजोर पड़ जाती है जब न्याय का सहारा बनने वाले लोग ही उसे अपने स्वार्थ और लालच का साधन बना लेते हैं। हाल ही में लखनऊ की अदालत ने एक वकील परमानंद गुप्ता को 29 झूठे मुकदमे दर्ज कराने के अपराध में उम्रकैद और पाँच लाख रुपये के जुर्माने की सज़ा सुनाई। यह फैसला एक उदाहरण है कि न्यायपालिका कानून का दुरुपयोग करने वालों को बख्शेगी नहीं। यह केवल एक व्यक्ति की सजा नहीं है, बल्कि पूरे समाज और न्यायिक व्यवस्था के लिए चेतावनी है कि कानून का मज़ाक उड़ाने वालों की कोई जगह नहीं।

वकील पेशे को समाज में हमेशा सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है। वकील को केवल मुवक्किल का प्रतिनिधि नहीं, बल्कि न्यायालय का अधिकारी भी माना जाता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सत्य और न्याय के लिए संघर्ष करेगा। लेकिन जब वही वकील झूठे मुकदमों का निर्माण करने लगे, निर्दोषों को फँसाने लगे, और अपने पेशे का इस्तेमाल व्यक्तिगत दुश्मनी या आर्थिक लाभ के लिए करने लगे, तो यह न केवल उसकी आचार संहिता का उल्लंघन है बल्कि पूरे पेशे की गरिमा पर भी प्रश्नचिह्न है। एक वकील जो अदालत में सत्य का पक्षधर होना चाहिए, अगर असत्य का सबसे बड़ा हथियार बन जाए तो समाज में न्याय की कोई गारंटी नहीं रह जाती।

झूठे मुकदमों का असर केवल आरोपित व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता। यह उसके परिवार, उसकी सामाजिक स्थिति और उसकी आर्थिक स्थिति तक को झकझोर देता है। वर्षों तक अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, बेगुनाही साबित करने के लिए सबूत जुटाने पड़ते हैं और मानसिक यातना अलग से झेलनी पड़ती है। समाज भी ऐसे व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। इससे उसका आत्मविश्वास टूट जाता है और धीरे-धीरे कानून और अदालत पर से विश्वास उठने लगता है। यही सबसे बड़ा नुकसान है, क्योंकि न्याय पर से भरोसा खत्म होना किसी भी समाज के लिए सबसे खतरनाक स्थिति है।

झूठे मुकदमों की समस्या यह भी है कि यह असली पीड़ितों के मामलों को कमजोर करती है। जब कोई कानून, जैसे एससी-एसटी एक्ट, जिसका उद्देश्य कमजोर वर्गों की सुरक्षा करना है, झूठे मुकदमों में इस्तेमाल किया जाता है तो वास्तविक पीड़ितों की आवाज़ दब जाती है। अदालतों को यह तय करने में अधिक समय लग जाता है कि कौन-सा मामला सच है और कौन-सा झूठा। नतीजा यह होता है कि असली पीड़ितों को न्याय मिलने में देर होती है और उनका दर्द बढ़ जाता है।

इसलिए आज आवश्यकता है कि झूठे मुकदमे गढ़ने वाले और उन्हें अदालत में आगे बढ़ाने वाले वकीलों पर कठोरतम कार्रवाई हो। यदि कोई डॉक्टर लापरवाही करता है, तो उस पर केस चलता है। यदि कोई इंजीनियर खराब निर्माण करता है तो उसे दंडित किया जाता है। तो फिर वकील, जो न्याय के प्रहरी हैं, यदि झूठे मुकदमों का व्यापार करें, तो उन्हें भी आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी और न्याय में बाधा डालने जैसी धाराओं में दंडित किया जाना चाहिए। उनकी प्रैक्टिस पर रोक लगनी चाहिए और बार काउंसिल को उनके लाइसेंस रद्द करने चाहिए।

यह केवल कानून की सख्ती का मामला नहीं है, बल्कि वकालत के पेशे की मर्यादा का प्रश्न है। जब तक झूठे मुकदमों के निर्माण और संचालन में शामिल वकीलों पर मुकदमे नहीं चलेंगे, तब तक यह कुप्रथा बंद नहीं होगी। अदालतें जितनी कठोर सज़ा देंगी, उतना ही यह संदेश समाज में जाएगा कि कानून का दुरुपयोग करने वालों की कोई जगह नहीं।

न्याय व्यवस्था को बचाने के लिए आवश्यक है कि कानून में ऐसे प्रावधान हों जिससे झूठे मुकदमों की पहचान होने पर तुरंत कार्रवाई हो। वकीलों की जवाबदेही तय करनी होगी। अगर यह साबित हो कि किसी वकील ने जानबूझकर मुवक्किल को झूठे मुकदमे के लिए उकसाया, तो उस पर केवल पेशेवर कार्रवाई न हो बल्कि आपराधिक मुकदमा भी दर्ज हो। इस कदम से न केवल निर्दोष लोगों की रक्षा होगी बल्कि वकालत का पेशा भी अपने वास्तविक उद्देश्य – न्याय की सेवा – के लिए जाना जाएगा।

आज लखनऊ की अदालत का फैसला पूरे देश के लिए मिसाल है। इसने साबित किया है कि न्यायालय केवल आरोपी और अपराधी के बीच निर्णय करने वाला संस्थान नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की पवित्रता को भी सुरक्षित रखने वाला प्रहरी है। यदि वकील अपने कर्तव्य से भटकेंगे, तो वे भी अपराधी की श्रेणी में आएँगे और उन्हें उसी प्रकार दंड मिलेगा जैसे अन्य अपराधियों को मिलता है।

अब समय आ गया है कि समाज और न्यायपालिका दोनों मिलकर वकालत के पेशे को अपराध का साधन बनने से बचाएँ। बार काउंसिल ऑफ इंडिया को चाहिए कि वह वकीलों के लिए कठोर आचार संहिता लागू करे और झूठे मुकदमों में लिप्त पाए जाने पर तत्काल लाइसेंस रद्द करे। अदालतों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों की सुनवाई तेज़ी से पूरी करें ताकि न्याय केवल होता हुआ नज़र ही न आए बल्कि सही समय पर मिले भी।

वकीलों को भी आत्ममंथन करना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि उनका पहला कर्तव्य केवल मुवक्किल की जीत नहीं बल्कि न्याय की जीत है। यदि इस सोच को अपनाया जाए तो न्यायालय में पेश होने वाला हर वकील समाज की नज़रों में वास्तविक प्रहरी होगा, न कि अपराध का भागीदार। न्याय केवल कागज़ों पर लिखा शब्द नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था है। और यह आस्था तभी बनी रहेगी जब न्याय के रक्षक भी पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।

झूठे मुकदमों से केवल अदालतों का बोझ नहीं बढ़ता बल्कि समाज का विश्वास भी टूटता है। निर्दोष लोग जब सालों तक जेलों में सड़ते हैं, तब उनके परिवार बर्बाद हो जाते हैं। उनकी मासूम ज़िंदगियाँ खत्म हो जाती हैं। ऐसे समय में अदालतों से सख्त और स्पष्ट संदेश मिलना ही समाज को यह विश्वास दिलाता है कि न्याय जीवित है और उसकी रक्षा की जा रही है।

लखनऊ का फैसला इस दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। यह न केवल एक अपराधी वकील को दंडित करने का मामला है बल्कि पूरे देश को यह चेतावनी है कि झूठे मुकदमे गढ़ने और चलाने वालों के लिए अब जगह नहीं बची है। यह संदेश हर उस वकील को याद दिलाना चाहिए जो कभी भी असत्य के रास्ते पर जाने का प्रयास करेगा। कानून और अदालत किसी के भी दबाव या छलावे में नहीं आने वाले।

इसलिए ज़रूरी है कि इस फैसले को समाज एक आदर्श की तरह देखे और इसे पूरे देश में लागू करने की कोशिश की जाए। वकीलों को भी चाहिए कि वे इस घटना से सीख लें और यह संकल्प लें कि वे अपने पेशे की गरिमा को कभी धूमिल नहीं होने देंगे। तभी न्याय वास्तव में न्याय कहलाएगा और अदालतें आम आदमी के लिए भरोसे का सबसे बड़ा आधार बन सकेंगी।

संसद संवाद और बहस का मंच है, हंगामे का नहीं

-ललित गर्ग-

लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान उसकी संसद होती है। संसद वह संस्था है जहां जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि राष्ट्र की नीतियों, योजनाओं और कानूनों पर विचार-विमर्श करते हैं। यह वह सर्वाेच्च मंच है जहाँ विभिन्न विचारधाराएं और दृष्टिकोण टकराते हैं और देशहित में समाधान निकलता है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज भारतीय संसद की छवि हंगामे, तोड़फोड़, शोर-शराबे और गतिरोध का पर्याय बनती जा रही है। हाल ही में संपन्न मानसून सत्र इसकी बानगी था, जो आरंभ से अंत तक त्रासद हंगामे की भेंट चढ़ गया। यह सत्र बेहद निराशा एवं अफसोसजनक रहा, क्योंकि सरकार और विपक्ष में टकराव उग्र से उग्रत्तर हुआ। राज्यसभा में केवल 41.15 घंटे और लोकसभा में 37 घंटे काम हुआ। संवाद एवं सौहाई की कमी दिखी, कई सवाल अधूरे रहे, जिनका जवाब देश जानना चाहता था। यहां दोनों पक्षों से ज्यादा समझदारी, सौहार्द और संतुलित नजरिये की अपेक्षा थी, लेकिन देशहित को दोनों पक्षों ने नेस्तनाबूद किया। यह स्थिति केवल दुखद ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के भविष्य के लिए गंभीर चिंता का विषय भी है।
लोकसभा के मानसून सत्र के लिए कुल 120 घंटे चर्चा के लिये निर्धारित थे, लेकिन कार्यवाही मात्र 37 घंटे ही चल पाई। यानी 70 प्रतिशत से अधिक समय लोकसभा में और 61 प्रतिशत से ज्यादा समय राज्यसभा में हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ गया। संसद में बिताया गया प्रत्येक घंटा जनता के करोड़ों रुपये की कमाई से संचालित होता है। जब वही समय व्यर्थ हो जाए तो यह सीधे-सीधे जनता के साथ अन्याय है। गुजरात के एक निर्दलीय सांसद ने यह प्रश्न उठाया भी कि जो सांसद हंगामा कर सदन को ठप कर देते हैं, क्या वे जनता के धन की बरबादी की भरपाई करेंगे? यह प्रश्न केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि लोकतंत्र के प्रति हमारी गंभीरता की कसौटी भी है। काम कम, हंगामा अधिक-आखिर हमारे राजनीतिक दल एवं जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की मर्यादा एवं आदर्श को तार-तार करने पर क्यों तुले हैं? कैसी विडम्बना है कि लोकसभा की कार्यवाही के लिए 419 तारांकित प्रश्न शामिल किए गए थे और इनमें से महज 55 का मौखिक उत्तर मिल सका।
लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है और आवश्यक भी। विपक्ष का काम ही है सवाल उठाना, सत्ता को जवाबदेह बनाना। लेकिन यह काम हंगामे, नारेबाजी और सदन की कार्यवाही बाधित करने से नहीं हो सकता। संसद संवाद का मंच है, न कि संघर्ष का अखाड़ा। दुर्भाग्य यह है कि आज बहस और तर्क की जगह हंगामे और टकराव ने ले ली है। इससे न तो जनता की समस्याओं पर गंभीर विमर्श हो पाता है और न ही संसद की गरिमा सुरक्षित रह पाती है। सत्र शुरू होने के पहले कार्य मंत्रणा समिति में सरकार और विपक्ष के बीच कुछ मुद्दों पर चर्चा की सहमति बनी थी। लेकिन, सत्र शुरू होने के साथ ही उसे भुला दिया गया। संसदीय परंपरा में विरोध भी अधिकार है, लेकिन इसकी वजह से सदन की गरिमा और उसके कामकाज पर असर पड़ना दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिन्ताजनक है।
भारत का हर नागरिक संसद से अपेक्षा करता है कि वहां उसकी समस्याओं पर चर्चा होगी-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे मुद्दे प्राथमिकता पाएंगे। लेकिन जब टीवी स्क्रीन पर वह अपने प्रतिनिधियों को मेज थपथपाते, नारे लगाते और वेल में जाकर हंगामा करते देखता है तो उसका विश्वास टूटता है और मन आहत होता है। उसे लगता है कि जिन नेताओं को उसने वोट देकर भेजा था, वे उसके हितों की बजाय केवल राजनीति का खेल खेल रहे हैं। यही कारण है कि आज लोकतंत्र के प्रति आम नागरिक का मोहभंग बढ़ रहा है। वैसे भी यह मानसून सत्र ऐसे वक्त हो रहा था, जब भारत नई चुनौतियों से गुजर रहा है। विदेश और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर हालात तेजी से करवट ले रहे हैं। ऐसे में और भी अहम हो जाता है कि संसद में इस पर सार्थक चर्चा होती और वाद-विवाद से रास्ता निकाला जाता। बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन-एसआईआर और ऑपरेशन सिंदूर पर कई सवाल बचे रह गए। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों के सजा की स्थिति-यानी जेल में होने पर पद से हटाने वाले संविधान संशोधन विधेयक जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर जिस गंभीरता की जरूरत थी, वह नहीं दिखी।
संसद में हंगामे की प्रवृत्ति में केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष भी अक्सर इसमें बराबर का भागीदार होता है। जब कोई दल विपक्ष में होता है तो वह विरोध के लिए हरसंभव कदम उठाता है, और जब वही दल सत्ता में आता है तो संसद की गरिमा की दुहाई देने लगता है। यह दोहरा रवैया लोकतंत्र को कमजोर करता है। संसद को सुचारुरूप से चलाना केवल सरकार की ही नहीं, बल्कि विपक्ष की भी जिम्मेदारी है। दोनों पक्षों को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, और जनता उनके कामकाज पर पैनी नजर रखती है। संसद में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के लिए कठोर नियमों की आवश्यकता है। यदि कोई सांसद बार-बार हंगामा करता है, सदन की कार्यवाही बाधित करता है, तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। आर्थिक दंड एक प्रभावी उपाय हो सकता है। जिस प्रकार एक कर्मचारी को कार्यालय में अनुशासन भंग करने पर वेतन काटा जाता है, उसी प्रकार सांसद का भत्ता और सुविधाएं भी रोकी जानी चाहिए। तभी उन्हें यह समझ आएगा कि संसद खेल का मैदान नहीं बल्कि देशहित का पवित्र मंच है।
कई बार सांसद यह तर्क देते हैं कि यदि उनकी आवाज संसद में नहीं सुनी जाती तो वे मजबूर होकर हंगामा करते हैं। लेकिन यह तर्क स्वीकार्य नहीं है। संसद में बोलने के लिए पर्याप्त अवसर मिलते हैं, शून्यकाल, प्रश्नकाल, विशेष उल्लेख, स्थायी समितियाँ-ये सभी मंच सांसदों को मुद्दे उठाने का अवसर देते हैं। यदि इन मंचों का सही उपयोग हो तो हंगामे की कोई आवश्यकता नहीं रहती। सड़क की राजनीति और संसद की राजनीति में अंतर होना चाहिए। यदि संसद भी सड़क जैसी दिखने लगे तो लोकतंत्र की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। अब समय आ गया है कि जनता अपने सांसदों से सवाल पूछे। मतदाता केवल जाति, धर्म या दल देखकर वोट न दें, बल्कि यह भी देखें कि उनका प्रतिनिधि संसद में कितना समय उपस्थित रहता है, कितनी बार बोलता है, कितने प्रश्न पूछता है और कितनी गंभीरता से बहस में भाग लेता है। चुनाव आयोग और मीडिया को भी यह आँकड़े मतदाताओं तक पहुँचाने चाहिए। जब मतदाता यह तय करने लगेंगे कि उनका वोट केवल उन नेताओं को जाएगा जो संसद में गंभीरता से काम करते हैं, तभी यह प्रवृत्ति बदलेगी।
लोकतंत्र की सफलता केवल संविधान या संस्थाओं से नहीं, बल्कि उन लोगों से होती है जो उन्हें संचालित करते हैं। यदि सांसद ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो लोकतंत्र खोखला हो जाएगा। आज आवश्यकता है कि सभी राजनीतिक दल एक साथ बैठकर यह संकल्प लें कि चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, वे संसद की गरिमा को आंच नहीं आने देंगे। असहमति और संघर्ष लोकतंत्र का हिस्सा हैं, परंतु वह असहमति तर्क और संवाद से होनी चाहिए, हंगामे और अव्यवस्था से नहीं। संसद में हंगामे की प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। यह जनता की गाढ़ी कमाई की बरबादी है और उनकी उम्मीदों का अपमान भी। यह संसाधनों की बर्बादी एवं जनविश्वास का हनन है। चिंताजनक बात यह है कि संसदीय कार्यवाही का ऐसा अंजाम अब आम हो चुका है। पिछले शीत सत्र में ही लोकसभा के 65 से ज्यादा घंटे बर्बाद हुए थे। संसद सत्र को चलाने में हर मिनट ढाई लाख रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। ऐसे में सदन जब काम नहीं करता, तो जनता की गाढ़ी कमाई के इन रुपयों के साथ देश का बेहद कीमती समय भी जाया हो जाता है। संसद में केवल वही बहसें होनी चाहिए जो देश के भविष्य को दिशा दें, समस्याओं का समाधान निकालें और नीतियों को प्रभावी बनाएँ। यदि संसद ही शोरगुल और हंगामे का अखाड़ा बन जाए तो लोकतंत्र का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। विरोध भी जरूरी है, पर मुद्दों पर और सकारात्मक उद्देश्य के साथ।