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गुरु पूर्णिमा : गुरु-शिष्य के पवित्र रिश्ते का पर्व

-प्रदीप कुमार वर्मा

गुरु पूर्णिमा यानि आषाढ़ मास की पूर्णिमा। प्रसिद्ध ब्रज तीर्थ गोवर्धन में मुड़िया पूर्णिमा। श्रीमद्भभागवत और अट्ठारह पुराण आदि साहित्यों के रचियता महर्षि वेदव्यास का जन्म। और देश और दुनिया के लिए गुरु पद पूजन एवं वंदन का पर्व। हिंदू धार्मिक ग्रंथो में आषाढ़ मास की पूर्णिमा यानी गुरु पूर्णिमा का यही महात्म है। गुरु पूर्णिमा पर्व पर प्रसिद्ध गोवर्धन की परिक्रमा में करोड़ों भक्त गोवर्धन महाराज की परिक्रमा करेंगे वही, शिष्य अपने गुरुजनों के चरण वंदना कर अपने जीवन को धन्य करेंगे।  इस दिन भगवान विष्‍णु के साथ मां लक्ष्‍मी की पूजा विशेष रूप से की जाती है। साथ ही इस दिन घरों में सत्‍य नारायण भगवान की कथा करने का खास महत्‍व शास्‍त्रों में बताया गया है। इस दिन पवित्र नदी में स्‍नान करने से हर तरह के पाप से मुक्ति मिलती है और महापुण्‍य की प्राप्ति होती है। यह पर्व गुरु व शिष्य के पवित्र रिश्ते का प्रतीक माना जाता है। आज के दिन शिष्य अपनी समर्थ के अनुसार अपने गुरुजनों को भेंट एवं उपहार प्रदान कर उनका आशीष प्राप्त करेंगे।

      सनातन धर्म में गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है। यहां तक की गुरु की महिमा का बखान करते हुए शास्त्रों में गुरु को ब्रह्मा विष्णु और महेश के समकक्ष माना गया है। गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु की पूजा और चरण वंदन करना अत्यंत शुभ माना गया है।  गुरु पूर्णिमा के दिन शिष्यों द्वारा अपने गुरु के प्रति आस्था को प्रकट किया जाता है। शिष्यों द्वारा आध्यात्मिक गुरुओं और अकादमिक शिक्षकों को नमन और धन्यवाद करने के लिए गुरु पूर्णिमा के पर्व को मनाया जाता है। सभी गुरु अपने शिष्यों की भलाई के लिए अपना पूरा जीवन न्योछावर कर देते है। हमेशा से आध्यात्मिक गुरु संसार में शिष्य और दुखी लोगों की सहायता करते आये हैं और ऐसे ही कई उदाहरण हमारे सामने मौजूद है जब गुरुओं ने अपने ज्ञान से अनेक दुखी लोगों की समस्याओं का निवारण किया है।  इसके अलावा इस दिन व्रत करने व पूजा-पाठ करने से अक्षय पु्ण्य की प्राप्ति होती है। इस दिन भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी के साथ भगवान सत्य नारायण की कथा करने का विशेष महत्व है। 

      हिंदू पंचांग के जानकर पंडित श्यामसुंदर शर्मा के अनुसार पूर्णिमा तिथि 10 जुलाई को सुबह 01 बजकर 36 मिनट पर प्रारंभ होगी और 11 जुलाई को सुबह 02 बजकर 06 मिनट पर समाप्त होगी। इसलिए हिंदू धर्म की मान्यता के मुताबिक उदया तिथि होने के कारण गुरु पूर्णिमा 10 जुलाई 2025 को है। गुरु पूर्णिमा पर मिट्टी का घड़ा, जल, अनाज, मौसमी फल, वस्त्र, अन्न, मिठाई व गुड़ आदि का दान करना अत्यंत शुभ माना गया है। हिंदू, बौद्ध और जैन संस्कृतियों में गुरुओं को एक विशेष स्थान प्राप्त है।  इन धर्मों या संस्कृतियों में अनेक शैक्षणिक और आध्यात्मिक गुरु हुए हैं जिन्हें भगवान के तुल्य माना गया है। स्वामी अभेदानंद, आदिशंकराचार्य एवं चैतन्य महाप्रभु आदि प्रसिद्ध हिन्दू गुरु थे। वैदिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में आषाढ़ पूर्णिमा की तिथि पर ब्रह्मसूत्र, महाभारत, श्रीमद्भागवत और अट्ठारह पुराण आदि साहित्यों के रचियता महर्षि वेदव्यास का जन्म भी हुआ था।

      धार्मिक ग्रंथों में महर्षि वेदव्यास को तीनों कालों के ज्ञाता माना गया है। महर्षि व्यास ने ही महाभारत की रचना की थी। महर्षि व्यास जी को हमारे आदि-गुरु माना जाता हैं। गुरु पूर्णिमा के प्रसिद्ध त्यौहार को व्यास जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। इसलिए इस पर्व को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं और इस दिन हमें अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़ी ब्रजभूमि में स्थित गोवर्धन पर्वत श्रद्धा और आस्था का बड़ा केंद्र है।  हर साल यहां करोड़ों भक्त परिक्रमा लगाने आते हैं। खासतौर पर मुड़िया पूर्णिमा के दिन यहां सबसे ज्यादा भीड़ जुटती है। गोवर्धन धाम में लगने वाले इस मेले में देश ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। देसी और विदेशी श्रद्धालु पवित्र गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा कर पूर्ण लाभ अर्जित करते हैं। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के गोवर्धन में आयोजित होने वाला मुड़िया मेला देश और दुनिया के लक्खी धार्मिक मेलों में शुमार है।

            ऐसी मान्यता है कि मुड़िया पूर्णिमा मेले की शुरुआत सनातन गोस्वामी की याद में हुई थी। कहा जाता है कि जब उनका परलोक गमन हुआ , तब उनके अनुयायियों ने गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा की और सिर मुंडवाकर भजन-कीर्तन करते हुए यात्रा निकाली। तभी से यह परंपरा शुरू हुई, जिसे खासतौर पर बंगाली भक्ति संप्रदाय के लोग पूरी श्रद्धा से निभाते आ रहे हैं। मान्यता है कि जो भी भक्त मुड़िया पूर्णिमा के दिन 21 किलोमीटर की गोवर्धन परिक्रमा करता है, उसे जीवन मेंसुख-शांति और धन-धान्य की प्राप्ति होती है। यही नहीं, ऐसी मान्यता भी है कि गोवर्धन की परिक्रमा करने के बाद व्यक्ति की दुख-दरिद्रता भी दूर हो जाती है। इसके साथ ही परिक्रमा करने वाले व्यक्ति को भगवान विष्णु का लोक कहे जाने वाले बैकुंठ की भी प्राप्ति भी होती है। इस मेले की परंपरा करीब पांच सौ साल पुरानी है, लेकिन आज भी इसमें लोगों की आस्था उतनी ही मजबूत दिखती है। गुरु पूर्णिमा हमें यह सिखाती है कि गुरु का स्थान जीवन में कितना महत्वपूर्ण है। गुरु के बिना ज्ञान और मार्गदर्शन के अभाव में जीवन अधूरा है।

भारत और त्रिनिदाद — दो तट, एक आत्मा।

सचिन त्रिपाठी

जब भारत की पवित्र गंगा के घाटों से कुछ गरीब और मजबूर हाथ नावों में सवार हुए थे, तब उन्हें नहीं पता था कि उनके भाग्य की पतवार किसी और ही तट पर लगने वाली है। त्रिनिदाद और टोबैगो कैरेबियन सागर का यह छोटा सा द्वीपीय देश भारत से हजारों मील दूर होते हुए भी, भारतीय हृदय और इतिहास से गहराई से जुड़ा है। यह रिश्ता केवल कूटनीति या व्यापार का नहीं, बल्कि एक सामूहिक स्मृति और साझा संस्कृति का है।

इस रिश्ते की शुरुआत 30 मई 1845 को हुई, जब ‘फाटेल रोज़ैक’ नामक जहाज भारत से 225 श्रमिकों को लेकर त्रिनिदाद पहुंचा। ब्रिटिश साम्राज्य ने दास प्रथा समाप्त होने के बाद भारत से मजदूरों को गिरमिटिया व्यवस्था के तहत भेजना शुरू किया। 1917 तक लगभग 1.5 लाख भारतीयों को त्रिनिदाद लाया गया। वे खेतों में गन्ना काटते थे पर अपने साथ अपने रामचरितमानस, भोजपुरी लोकगीत, त्योहारों की परंपराएं और देवताओं की मूर्तियां भी लाए।

वो परदेश को देश बनाने की यात्रा थी। मंदिर बने, मस्जिदें खड़ी हुईं, दीवाली और होली मनाई जाने लगी। त्रिनिदाद की माटी में तुलसी और नीम के पौधे पनपने लगे। आज त्रिनिदाद में 500 से अधिक मंदिर, रामलीला मंडलियां, और भोजपुरिया संस्कृति की झलक हर कोने में देखी जा सकती है।

भारत और त्रिनिदाद का यह रिश्ता केवल सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक भी बना। बासदेव पांडे, एक गिरमिटिया वंशज, त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री बने (1995–2001)। बाद में कमला प्रसाद बिसेसर भी प्रधानमंत्री बनीं। आज वहां की कुल जनसंख्या लगभग 14 लाख है, जिसमें से 37% लोग भारतीय मूल के हैं। वे राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, और मीडिया में प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं।

कूटनीतिक दृष्टि से भारत और त्रिनिदाद के संबंध 1962 में त्रिनिदाद की स्वतंत्रता के साथ ही औपचारिक रूप से स्थापित हुए। पोर्ट ऑफ स्पेन में भारतीय उच्चायोग न केवल राजनयिक काम करता है बल्कि हिंदी, योग, भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य को भी बढ़ावा देता है।

2025 में इस संबंध ने एक नई ऊंचाई तब छुई, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में त्रिनिदाद की ऐतिहासिक यात्रा पर गए। उन्होंने वहां की संसद को संबोधित किया और देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान “ऑर्डर ऑफ द रिपब्लिक ऑफ त्रिनिदाद और टोबैगो” प्राप्त किया। यह सम्मान केवल भारत के प्रधानमंत्री को ही नहीं बल्कि उस पूरी ‘गिरमिटिया’ विरासत को समर्पित था जो शोषण से संस्कृति तक का सफर तय कर चुकी है।

प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा केवल औपचारिकता नहीं थी, वह भारत की सॉफ्ट पावर, डायस्पोरा नीति और ग्लोबल साउथ लीडरशिप की स्पष्ट घोषणा थी। इस दौरान भारत और त्रिनिदाद के बीच 6 अहम समझौतों पर हस्ताक्षर हुए जिनमें डिजिटल गवर्नेंस, स्वास्थ्य, कृषि, संस्कृति, खेल और शिक्षा शामिल हैं।

भारत ने त्रिनिदाद को 2000 लैपटॉप, आधुनिक स्वास्थ्य उपकरण, और डिजिटल एजुकेशन प्लेटफार्म प्रदान किए। साथ ही, भारतीय मूल के नागरिकों के लिए ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया सुविधा अब छठवीं पीढ़ी तक लागू कर दी गई है जिससे त्रिनिदाद में बसे भारतीय मूल के लोग अपने पुरखों की धरती से और मजबूती से जुड़ सकें।

इस यात्रा के दौरान त्रिनिदाद ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता की पूरी तरह से समर्थन की भी घोषणा की। यह भारत के लिए एक बड़ी रणनीतिक कूटनीतिक विजय है हालांकि, विरोध के स्वर भी उठे। कुछ स्थानीय संगठनों ने भारत में मानवाधिकार स्थिति को लेकर आपत्ति जताई पर ये स्वर सीमित रहे। बहुसंख्य भारतीय समुदाय और सरकार ने इस दौरे को एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह अपनाया।

भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ यहां खुलकर चमकी.  योग दिवस, हिंदी सप्ताह, भारतीय फिल्म महोत्सव और रामायण मंचन जैसे कार्यक्रमों ने त्रिनिदाद की नई पीढ़ी को फिर से भारत की ओर मोड़ा है। हिंदी भाषा अब वहाँ के स्कूलों में एक वैकल्पिक विषय बन चुकी है।

भारत और त्रिनिदाद का संबंध आज केवल इतिहास की विरासत नहीं रहा, वह एक जीवंत, क्रियाशील और गहराता हुआ संवाद है। कभी जो रिश्ता ‘आंसुओं’ और ‘अनुबंधों’ से शुरू हुआ था, वह आज पुरस्कारों, समझौतों और विश्वास के पुल से जुड़ा है। यह संबंध बताता है कि भारत की आत्मा कहीं भी हो, वह मिटती नहीं, वह पनपती है। त्रिनिदाद की मिट्टी में गंगा की गूंज, तुलसी की खुशबू और रामायण की चौपाइयां आज भी जीवित हैं।

प्रधानमंत्री मोदी की हालिया यात्रा ने इस पुल को नया रंग दिया है। अब यह सिर्फ संस्कृति की नहीं, तकनीकी, शिक्षा, वैश्विक नेतृत्व और विकास की साझेदारी बन चुकी है और यह साझेदारी आने वाले दशकों में भारत की वैश्विक भूमिका को और सशक्त बनाएगी।

सचिन त्रिपाठी 

गुरु के अतिरिक्त कोई ब्रह्म नहीं है, यह सत्य है

10 जुलाई 2025 को हम भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और शास्त्रीय पर्व गुरू पूर्णिमा मनाने जा रहे हैं। हर साल आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला यह त्योहार गुरु और शिष्य के रिश्ते के पवित्र संबंध का प्रतीक माना जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस दिन शिष्य अपने गुरूओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं। सनातन हिंदू धर्म में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान माना गया है, क्योंकि वे हमें अज्ञानता के अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाते हैं।गुरु शब्द का अभिप्राय ही है-‘अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला।’ ‘गिरति अज्ञानान्धकार मइति गुरुः’ अर्थात् इसका मतलब यह है कि जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरू है। अद्वयतारक उपनिषद (16) में गुरू का अर्थ बताया गया है। यहाँ ‘गु’ का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ का अर्थ है दूर करने वाला। पाठकों को बताता चलूं कि रामचरित मानस के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास गुरु की वंदना करते हुए ‘वंदे बोधमयं नित्यं गुरु शंकर रूपिणम्’ कहकर आदि गुरु सदाशिव का स्थान दिया है। वास्तव में, शिव स्वयं बोध रूपरूप है, सृष्टि के सूत्र संचालक हैं। कहते हैं कि ‘गुरू बिना ब्रह्म नान्यन् सत्यं वरानने।’ तात्पर्य यह है कि गुरु के अतिरिक्त कोई ब्रह्म नहीं है, यह सत्य है, सत्य है। बहरहाल, कहना चाहूंगा कि गुरु पूर्णिमा का त्योहार भारत ही नहीं बल्कि नेपाल और भूटान में भी बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। ज्योतिष पंचांग के मुताबिक आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि की शुरुआत 10 जुलाई को रात 01 बजकर 37 मिनट पर होगी और अगले दिन यानी 11 जुलाई रात को 02 बजकर 07 मिनट पर तिथि खत्म होगी और इस प्रकार से 10 जुलाई को गुरू पूर्णिमा का पर्व मनाया जाएगा। इस दिन शिष्य अपने गुरू के प्रति आभार प्रकट करते हैं और उनकी पूजा- अर्चना करते हैं।वहीं, कुछ लोग इस दिन गुरु दीक्षा भी लेते हैं। संस्कृत में ‘गुरु’ शब्द आध्यात्मिक शिक्षक या मार्गदर्शक को दर्शाता है, जबकि ‘पूर्णिमा’ पूर्णिमा(पूर्ण चंद्रमा) का प्रतीक है। वास्तव में गुरू पूर्णिमा का पर्व हमारी सनातन भारतीय संस्कृति में  हमारे सभी शिक्षकों के सम्मान के लिए समर्पित दिन है-फिर चाहे वे आध्यात्मिक मार्गदर्शक हों या अकादमिक गुरू। यह कृतज्ञता, श्रद्धा, ज्ञान और बुद्धि के मूल्यों पर जोर देता है और उन्हें बढ़ावा देता है। पाठकों को बताता चलूं कि आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन महर्षि वेद -व्यास जी का जन्म हुआ था, इसीलिए इसे व्यास पूर्णिमा(वेदव्यास जयंती) के नाम से भी जाना जाता है। पाठकों को बताता चलूं कि महर्षि वेद व्‍यास महाभारत, श्रीमद्भागवत समेत अट्ठारह पुराणों के रचयिता थे। पाठकों को बताता चलूं कि वेदव्यास जी ऋषि पराशर के पुत्र थे और शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास को तीनों कालों का ज्ञाता माना जाता है। गौरतलब है कि गुरु पूर्णिमा के अगले दिन से सावन मास प्रारंभ हो जाता है, जिसका उत्तर भारत में बहुत महत्व है। कहते हैं कि यह वही दिन है जब भगवान गौतम बुद्ध ने सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश दिया था। मान्यता है कि इसके बाद ही बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई थी। इसलिए गुरु पूर्णिमा को बौद्धों द्वारा गौतम बुद्ध के सम्मान में भी मनाया जाता है।इस दिन पीले वस्त्र पहनकर पूजा-अर्चना करने का भी विधान है। पाठकों को बताता चलूं कि ज्योतिष शास्त्र में पीले रंग को गुरु बृहस्पति का कारक माना जाता है तथा उनकी पूजा से ज्ञान, समृद्धि और भाग्य की प्राप्ति होती है। इसलिए गुरु पूर्णिमा के दिन अपने गुरु को पीले रंग की चीजें जैसे कि पीले वस्त्र,पीले रंग की मिठाईयां, हल्दी,पीले फल(केला,आम), पीले पुष्प, कोई धार्मिक ग्रंथ या पुस्तक आदि भेंट करनी चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने से गुरूओं का आशीर्वाद, सुख-समृद्धि, संपत्ति की प्राप्ति होती है। गुरू की महिमा कितनी है, इसका बखान कबीर दास जी ने क्या खूब किया है -‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।बलिहारी गुरु अपने, गोविंद दियो बताय।।’ इतना ही नहीं वे आगे एक दोहे में यह भी कहते हैं कि -‘गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।’ इसका तात्पर्य यह है कि गुरू के बिना ज्ञान का मिलना असंभव है।जब तक गुरु की कृपा प्राप्त नहीं होती, तब तक कोई भी मनुष्य अज्ञान रूपी अधंकार में भटकता हुआ माया मोह के बंधनों में बंधा रहता है, उसे मोक्ष (मोष) नहीं मिलता। गुरु के बिना उसे सत्य और असत्य के भेद का पता नहीं चलता, उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होता। बौद्ध धर्म ही नहीं जैन धर्म में भी इस दिन का बहुत महत्व है।जैन धर्मावलंबी भगवान महावीर और उनके प्रमुख शिष्य गौतम स्वामी के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए गुरु पूर्णिमा मनाते हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जगत गुरु भगवान शिव ने इसी दिन से सप्तऋषियों को योग सिखाना शुरू किया था। कहते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने अध्यात्मिक गुरु श्रीमद राजचंद्र को श्रद्धांजलि देने के लिए भी गुरु पूर्णिमा का दिन ही चुना था। इस दिन स्नान-दान का भी काफी महत्व माना जाता है। अंत में यही कहूंगा कि मानव जीवन बहुत अनमोल है और हमें मानव जीवन केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए मिला है। इसके लिए गुरु का होना बहुत जरूरी है। कबीर दास जी बड़े ही सुंदर शब्दों में यह कहते हैं कि-‘सात समंदर की मसि करूं, लेखनी करूं बनराय।धरती का कागज करुं, गुरु गुण लिख्या न जाये।।’ अतः आइए इस पावन गुरू पूर्णिमा के अवसर पर हम सभी गुरूओं को नमन करें और अपने जीवन को धन्य बनाएं।

सुनील कुमार महला

पूर्णता के बोध का अवसर है- गुरु पूर्णिमा

डॉ.वेदप्रकाश

 गुरु और गोविंद दोनों पूर्ण हैं और ये दोनों एक दूसरे के पर्याय भी हैं। गुरु भी पूर्ण हैं और पूर्णिमा भी पूर्ण  होती है इसलिए गुरु पूर्णिमा उत्सव बन जाता है। शिष्य अपूर्ण होता है और इसी अपूर्णता की पूर्ति हेतु वह गुरु के शरणागत होता है। गुरु इस अपूर्ण शिष्य को पूर्णता का बोध करवाते हैं। इसलिए गुरु पूर्णिमा पूर्णता के बोध का अवसर है।
    एक सामान्य व्यक्ति के रूप में जीवन की संपूर्ण यात्रा जानने- समझने की यात्रा है, जिसमें व्यक्ति कभी सफल होता है तो कभी असफल। कभी वह कुछ सीख पाता है तो कभी नहीं सीख पाता। सद्गुरु की शरणागति इस सामान्य व्यक्ति को भी लौकिक जगत के साथ-साथ अलौकिक अथवा आध्यात्मिक जगत से जोड़ने की ओर बढ़ती है। इसलिए सद्गुरु के मार्गदर्शन अथवा शिक्षा से यह सामान्य व्यक्ति भी धीरे-धीरे विशेष बनता चला जाता है। वेद,पुराण, रामायण और महाभारत आदि ग्रंथों में भिन्न-भिन्न रूपों में गुरू महिमा वर्णित है। भक्तिकाल के अनेक कवियों  और भक्तों ने गुरु महिमा का अनेक प्रकार से वर्णन किया है। संत कबीर ने तो गुरु को गोविंद से भी बड़ा माना है। ध्यान रहे गुरु के सानिध्य में सत्संग मिलता है, जिससे शिष्य की असद वृत्तियाँ नष्ट होती चली जाती हैं। यही कारण है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा… अर्थात गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहते हुए परब्रह्म की उपाधि से विभूषित किया गया है। आदि शंकराचार्य ने अपने विवेक चूड़ामणि नामक ग्रंथ में शिष्य की प्रशंसा करते हुए कहा कि- अविद्या,अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश आदि जो अज्ञान के कारण हैं तू उनसे मुक्त होकर ब्रह्मभाव में स्थित होने की इच्छा कर रहा है। लेकिन इसके बाद यह भी कहा। है कि- शब्दजालं महारण्यं… अर्थात शब्द जाल तो चित्त को भटकाने वाला एक महान वन है, इसलिए किन्हीं तत्वज्ञानी महात्मा से प्रयत्नपूर्वक आत्मतत्व को जानना-समझना चाहिए। ध्यान रहे जिस आत्मतत्व को जानने समझने का आवाह्न आदि शंकराचार्य कर रहे हैं उसे केवल गुरु की कृपा से ही जाना- समझा जा सकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- मातु पिता गुर प्रभु कै बानी,
    बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी…। अर्थात माता,पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना चाहिए। इसी प्रकार वे आगे लिखते हैं- गुर के बचन प्रतीति न जेही,
    सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही।
अर्थात जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती।
      भारतवर्ष की सनातन ज्ञान परंपरा में गुरु-शिष्य का संबंध अनादि काल से है। गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र, संदीपनी, द्रोणाचार्य, रामानंद एवं रामकृष्ण परमहंस आदि भारतीय गुरु परंपरा के आधार स्तंभ हैं। प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों ही साक्षात ब्रह्म हैं किंतु दोनों ही गुरु गृह यानी गुरुकुल में गुरु के सानिध्य में जाकर ही पूर्णता प्राप्त करते हैं।
     गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हमें भारतवर्ष की संत परंपरा का भी वंदन- अभिनंदन करना चाहिए। क्योंकि संत परमात्मा के प्रतिनिधि रूप में हम सबका मार्गदर्शन करते हैं। ये अपने तप बल से परहित के लिए जीवन लगते हैं। बद्री, केदार, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी, प्रयागराज एवं चित्रकूट आदि अनेक ऐसे दिव्य स्थान है जहां अनेक संत साधनारत हैं और जन कल्याण के लिए अपना जीवन लगा रहे हैं। विगत कई दशकों से ऋषिकेश  स्थित परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी प्रकृति- पर्यावरण, नदी एवं जल स्रोतों के संरक्षण- संवर्धन का संदेश दे रहे हैं। उनके नेतृत्व में इस दिशा में अनेकानेक बड़ी योजनाएं संपन्न हो चुकी हैं। वे गुरु रूप में प्रतिदिन मानवता, देश की एकता- अखंडता, सनातनता और जीवन के उत्थान का संदेश देते हैं। उनका महत्वपूर्ण संदेश है- मन:स्थिति बदलेगी तो शांति की संस्कृति निश्चित रूप से स्थापित होगी। विगत वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बोलते हुए श्रीराम किंकर विचार मिशन के संस्थापक अध्यक्ष और मानस मर्मज्ञ स्वामी मैथिलीशरण जी ने कहा- गुरु पूर्णिमा का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि सारे शिष्य जब अपनी भावनाओं से गुरुदेव का स्मरण, पूजन और अर्चन करते हैं तो प्रार्थना की इस सामूहिक शक्ति के द्वारा शिष्य के हृदय में गुरु का प्राकट्य हो जाता है। गुरु अपने शिष्य को पूर्ण करके ही पूर्ण होता है। गुरु स्व दृष्टि से शून्य है परंतु शिष्य की भावना शक्ति के कारण गुरु शिष्य दृष्टि से पूर्ण होता है। गुरू पूर्णिमा गुरू के पूजन के साथ-साथ उनके मार्गदर्शी संदेश को आत्मसात करने का अवसर भी है।
    आइए  गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर अंधकार से प्रकाश की ओर चलें और गुरु चरण कमल की वंदना करें। क्योंकि उनमें ऐसी संजीवनी जड़ी है जो संपूर्ण भव रोगों का नाश कर सकती है। गुरु पूर्णिमा का अर्थ भी यही है कि गुरु के उपदेश और सत्संग से अंदर के विकारों को निकालें। इसके साथ-साथ परहित और राष्ट्रहित के लिए कोई एक संकल्प लें। हमारा एक सकारात्मक कार्य दूसरों के जीवन में बदलाव ला सकता है।
डॉ.वेदप्रकाश
असिस्टेंट प्रो

ई- वोटिंग ने रच दिया इतिहास

संदर्भ- बिहार राज्य निर्वाचन आयोग ने देश में पहली बार नगर निगम चुनाव में मोबाइल से मतदान कराया
प्रमोद भार्गव
देश में मतदान के प्रति अरुचि प्रत्येक चुनाव में देखने में आती रही है। रोगग्रस्त या अन्य लाचारों को तो छोड़िए, उच्च shikshit एवं सक्षम कुलीन वर्ग मतदान के प्रति सबसे ज्यादा उदासीन रहता है। वैसे तो निर्वाचन आयोग मतदान का प्रतिशत और सुविधा के मतदान के लिए अनेक प्रयोग करता रहा है, लेकिन अब बिहार राज्य निर्वाचन आयोग ने नगर निकाय के उपचुनाव में पहली बार ई-वोटिंग का प्रयोग करके इतिहास रच दिया है। मोबाइल से मतदान की सुविधा उन लोगों के लिए वरदान साबित हुई, जो मतदान केंद्र पर पहुंचकर वोट देने से मजबूर थे। तमाम मतदाता गांव और राज्य से बाहर होने के कारण मतदान करने से वंचित रह जाते हैं। लेकिन मोबाइल से ई-मतदान की सुविधा के चलते बिहार के इस चुनाव में 80.60 प्रतिशत और उपचुनाव में 58.38 प्रतिशत मतदाताओं ने मोबाइल के जरिए मतदान किया। पहली महिला ई-वोटर विभा कुमारी और पहले पुरुश मतदाता मुन्ना कुमार बने।
राज्य निर्वाचन आयुक्त डॉ दीपक प्रसाद ने मोबाइल से ई-मतदान कराए जाने की प्रेरणा यूरोपीए देश एस्टोनिया से ली। चूंकि अब ई-वोटिंग का सफल प्रयोग हो चुका है, इसलिए भविश्य में इसकी मांग बढ़ेगी। जो गर्भवती महिलाएं, बुर्जुग, विकलांग, असाध्य रोगों से ग्रसित और अपने मतदान स्थल से दूर रहने वाले लोग मतदान से वंचित रह जाते थे, उन्हें लोकतंत्र के इस महायज्ञ में भागीदार बनने की आसान सुविधा मिल जाएगी। इस सुविधा से एक बड़ी समस्या का सामाधान बिना किसी अतिरिक्त खर्च के हो जाएगा। चूंकि मतदान केंद्रों पर विभिन्न दलों का जमावड़ा नहीं होगा, इसलिए निश्पक्ष और षांतिपूर्ण मतदान की संभावना बढ़ जाएगी। इससे मतदान की निजता भी प्रभावित नहीं होगी। इससे मतदान के प्रतिशत में आशातीत सुधार तो होगा ही, जातीय और सांप्रदायिक धु्रवीकरण की संभावनाएं न्यूनतम हो जाएंगी। ई-वोटिंग का काम पूर्वी चंपारण जिले की नगर पंचायत पकड़ी दयाल के अलावा पटना, बक्सर, रोहतास, सारण और बांका में सी-डैक और एसईआर के जरिए किया गया था।
अब यह जरूरी लगता है कि जब पैसे के लेनदेन से लेकर अचल संपत्ति के हस्तांतरण के काम ऑनलाइन या डिजिटल प्रणालियों से हो रहे हैं तो फिर ई-मतदान को भी जरूरी बनाया जाए। बिहार के उपचुनाव में मोबाइल एप से ई-वोटिंग की प्रक्रिया प्रमाणित भी हो चुकी है। ई-वोटिंग को इसलिए भी अपनाया जाए, क्योंकि पूर्व से ही हमारे यहां पोस्टल वोटिंग का वैधानिक प्रावधान है। मतदान संपन्न कराने में जुटे कर्मचारी अपना वोट पोस्टल वोटिंग के जरिए ही देते हैं। अब कोई राजनीतिक दल और नेता यह बहाना नहीं बना सकता है कि अभी इंटरनेट या बिजली की सुविधा दुर्गम क्षेत्रों में नहीं है। एक बार बिजली भले ही प्रत्येक ग्राम में न हो, लेकिन सौर ऊर्जा से बिजली और मोबाइल टॉवर गांव-गांव पहुंच गए हैं। इनके जरिए इंटरनेट की सुविधा हासिल कराई जा रही है। सौर जैसी वैकल्पिक ऊर्जा दूर-दराज के ग्रामों में बिजली उपलब्ध करा रही है। फिर भी किसी गांव में बिजली नहीं है तो वहां ईवीएम के जरिए मतदान कराया जाए। ई-वोटिंग को चरणबद्ध रूप में कराए जाने का सिलसिला जल्द से जल्द षुरू होता है तो लोकतंत्र में लोगों की उम्मीद से ज्यादा भागीदारी बढ़ती दिखाई देगी। हालांकि मोबाइल से ई-वोटिंग को लेकर कुछ नेता अभी से संदेह जताने लगे हैं। उनका कहना है कि मोबाइल एप पर पंजीकरण में कठिनाई  आएगी। गांव के प्रभावी लोग दबाव बनाकर पक्षपातपूर्ण एवं फर्जी मतदान करा सकते है। भारत में फर्जी और दबाव से मतदान की अपवाद स्वरूप घटनाएं आज भी देखने में आ जाती हैं। ईवीएम से मतदान पर आज भी विपक्षी दल सवाल उठा रहे हैं। लेकिन ईवीएम की साख पर ठोस प्रमाण कोई दल या इंजीनियर आज तक नहीं दे पाया है। ई-वोटिंग पूरे देश के लिए अपना ली जाती है तो चुनाव खर्च में तो कमी आएगी ही, तकनीक की सार्थकता भी पेश आएगी।
घरेलू प्रवासी मतदाताओं के लिए ई-वोटिंग की जरूरत इसलिए है, क्योंकि बड़ी संख्या में देश के मतदाता मजदूरी, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी और अन्य काम-धंधों के लिए मूल निवास स्थल छोड़ जाते हैं। इसलिए वे चुनावों में अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर पाते। आयोग का कहना है कि 2019 के आम चुनाव में करीब 30 करोड़ यानी 67.4 प्रतिशत लोग इन्हीं कारणों के चलते अपने मत का उपयोग नहीं कर पाए थे। ऐसा लोकसभा और विधानसभा दोनों ही चुनावों में होता है। चुनाव विषेशज्ञों का तो यहां तक मानना है कि करीब 45 करोड़ लोग पलायन के चलते मतदान से वंचित हो जाते हैं। इसलिए लंबे समय से यह मांग उठ रही थी कि इन देशज प्रवासियों के मतदान का कोई व्यावहारिक उपाय निकाला जाना चाहिए। इस नजरिए से प्रवासियों के लिए ई-वोटिंग उपयोगी है।

हालांकि चुनाव सुधार की दृष्टि से चुनाव आयोग ने घर से दूर रहने वाले अर्थात दूरस्थ मतदाताओं के लिए रिमोट वोटिंग सिस्टम (आरवीएस) तैयार किया हुआ है। इस मशीन की मदद से अब मूल मतदान स्थल से दूर रह रहे किसी दूसरे राज्य या शहर में रहने वाले मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अपने मत का प्रयोग कर सकते हैं।  यानी मतदान के लिए उन्हें अपने मूल निवास स्थल पर आने की जरूरत नहीं रह गई हैं। आयोग इसे लागू करने से पहले आने वाली कानूनी, प्रषासनिक और तकनीकी चुनौतियों पर राजनीतिक दलों के विचार भी आमंत्रित किए जाएंगे। चुनाव सुधार की दृश्टि से यह पहल अमल में आती है तो ऐतिहासिक होगी। नतीजतन उन 45 करोड़ लोगों को वोट डालने का अवसर मिलेगा, जो अपने घरों से दूर रहते हैं। यह उपाय मत-प्रतिषत बढ़ाने का भी काम करेगा। यानी जनप्रतिनिधियों का चुनाव अधिकतम मतदाताओं के वोट डालने से होगा, जो लोकतंत्र को पारदर्षी बनाने का काम करेगा। इस सिलसिले में आयोग ने दावा किया है कि यह मषीन त्रृटिहीन बनाई गई है, इसलिए मतदान निश्पक्ष होगा। हालांकि मतदान की इस प्रक्रिया को इंटरनेट से नहीं जोड़ा जाएगा। आयोग फिलहाल इसे प्रायोगिक तौर पर लागू करना चाहता है, जिससे इसके प्रयोग की निश्पक्षता स्पश्ट हो जाए। बाद में इसे पूरे देश में अनिवार्य बना दिया जाएगा। अनेक चुनाव विषेशज्ञ इस प्रणाली को एक क्रांतिकारी पहल मानकर चल रहे हैं।
देष में निसंदेह एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो अपना घर और शहर छोड़कर आजीविका के लिए दूसरे षहरों या राज्यों में रह रहे हैं। इनमें बड़ी संख्या में युवा हैं। हालांकि इनका कोई एकीकृत आंकड़ा देश और आयोग के पास नहीं है। फिर भी सब जानते है कि बड़ी संख्या में प्रवासी मतदाता हैं। ये लोग नई जगह पहुंचने के बाद नया वोटर पंजीयन भी नहीं कराते हैं। नतीजतन मतदान से वंचित रहते हैं। इन्हें जहां रह रहे हैं, वहीं मतदान की सुविधा मिल जाए, इस नजरिए से आरवीएम की परिकल्पना की गई है। आईआईटी मद्रास की मदद से ‘मल्टी कॉन्स्टीचुएंसी रिमोट ईवीएम‘ के रूप में ऐसा मतदान उपकरण तैयार किया गया है, जो एक रिमोट मतदान केंद्र से 72 निर्वाचन क्षेत्रों में प्रवासियों का मतदान कराने में सक्षम होगा। हालांकि आरवीएम के इस्तेमाल को लेकर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने विरोध जता दिया है। कांग्रेस का कहना है कि इससे मतदान के प्रति लोगों का भरोसा कम होगा। प्रणाली शुरू करने का प्रस्ताव पेश किया है।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए आदर्श स्थिति यही है कि हरेक मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करे। इस नाते 2005 में भाजपा के एक सांसद लोकसभा में ‘अनिवार्य मतदान’ संबंधी विधेयक लाए भी थे। लेकिन बहुमत नहीं मिलने के कारण विधेयक पारित नहीं हो सका था। कांग्रेस व अन्य दलों ने  इस विधेयक के विरोध का कारण बताया था  कि दबाव डालकर मतदान कराना संविधान की अवहेलना है। क्योंकि भारतीय संविधान में अब तक मतदान करना मतदाता का स्वैच्छिक अधिकार तो है, लेकिन वह इस कर्तव्य-पालन के लिए बाध्यकारी नहीं है। लिहाजा वह इस राष्ट्रीय दायित्व को गंभीरता से न लेते हुए, उदासीनता बरतता है। हमारे यहां आर्थिक रूप से संपन्न सुविधा भोगी जो तबका है, वह अनिवार्य मतदान को संविधान में दी निजी स्वतंत्रता में बाधा मानते हुए इसका मखौल उड़ाता है।
मतदान की अनिवार्यता अथवा ई-वोटिंग या आरवीएम से सुविधा का मतदान कथित अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को ‘वोट बैंक’ की लाचारगी से भी छुटकारा दिलाएगी। राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की राजनीति से निजात मिलेगी। क्योंकि जब प्रवासियों को आरवीएम से मतदान की सुविधा मिल जाएगी तो किसी धर्म, जाति या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहंमियत खत्म हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्याबल जीत अथवा हार को प्रभावित नहीं कर पायेगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की जरूरत नगण्य हो जाएगी। जब पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की छाया थी, तब वहां हुए विधानसभा चुनावों में 15 से लेकर 20 प्रतिशत मतदान से ही सरकारें बनती रही हैं। साफ है, यह स्थिति लोकतंत्र के लिए उचित नहीं रही। अतएव अधिकतम मतदान के हालात ई-वोटिंग एवं आरवीएम के इस्तेमाल से निर्मित होते हैं तो भारतीय राजनीति संविधान के उस सिद्धांत का पालन करने को विवश होगी, जो सामाजिक न्याय और समान अवसर की वकालात  करता है।

तस्मै श्री गुरुवे नमः: 

 गुरु की महिमा अपरंपार

डॉ० घनश्याम बादल

इस बार दस जुलाई को आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा है जिसे जिसे सनातन संस्कृति के अनुसार गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मनाया जाता है। गुरु पूर्णिमा महाभारत रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास की जयंती भी है । वें संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने चारों वेदों एवं अट्ठारह पुराणों की रचना की थी इस कारण उनका नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु भी कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। 

मान्यता है कि ईश्वर प्राप्ति का मार्ग गुरु   ही दिखाते हैं । सच्चे गुरु  शिष्य को गलत मार्ग से हटाकर सही दिशा देते हैं। ऐसे श्रद्धेय गुरुओं के सम्मान में ही आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है।

गुरु पूर्णिमा परंपरा :

गुरू पूर्णिमा उन सभी गुरूजनों को समर्पित पर्व है जो कर्मयोग सिखाकर व्यक्तित्व विकास शिष्यों को प्रबुद्ध करते हैं, बिना लालच के  ज्ञान प्रदान करने वाले व्यक्ति को ही गुरु माना जाता है। मुद्रा या तनक लेकर सिखाने वाले को कोच या शिक्षक मात्र कह सकते हैं लेकिन गुरु कोच एवं शिक्षक में आधारभूत अंतर है । 

गुरु व शिक्षक में अंतर : 

जहां कोच किसी खास विधा में प्रशिक्षित करता है और शिक्षक पुस्तकीय ज्ञान  प्रदान करता है वहीं गुरु जीने का गुर सिखाता है । जीवन में संस्कार, संस्कृति, उच्च मूल्य एवं आदर्श का प्रस्थापन करता है । वह गुरु ही है जो मनुष्य को मानव बना कर उसे देवत्व की तरफ ले जाता है तथा  मोक्ष प्राप्त करने का रास्ता दिखाता है। संक्षिप्त रूप में कहे तो गुरु वह है जो ज्ञान के साथ-साथ गुर  भी प्रदान करता है। 

 गुरु पूर्णिमा का पर्व  भारत, नेपाल और भूटान में हिन्दू, जैन और बोद्ध धर्म के अनुयायी उत्सव के रूप में और गुरु के  अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मनाया जाता है। इस उत्सव को महात्मा गांधी ने अपने आध्यात्मिक गुरू श्रीमद राजचन्द्र को सम्मान देने के लिए पुनर्जीवित किया था ।‌

गुरु पूर्णिमा का महत्व

 भगवान की प्राप्ति का मार्ग गुरु के बताए मार्ग से ही संभव है क्योंकि एक गुरु ही है, जो अपने शिष्य को ग़लत मार्ग पर जाने से रोकते हैं और सही मार्ग पर जाने के लिए प्रेरित करते हैं। गुरु की महिमा का जितना भी वर्णन किया जाए कम है ।

साहित्य में गुरु 

 संत कबीर ने  एक दोहे में गुरु का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा था – 

गुरु सो ज्ञान जु लीजिये,

सीस दीजये दान। 

गुरु की आज्ञा आवै

गुरु की आज्ञा जाय …

अर्थात्  व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए | सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म – मरण से पार होने के लिए साधना करता है। गुरु को पारस पत्थर से भी श्रेष्ठ मानते हुए भी कबीर कहते हैं

गुरु पारस को अन्तरो

जानत हैं सब सन्त …

अर्थात  गुरु में और पारस पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु अज्ञानी शिष्य को भी महान बना देता है। वह गुरु ही है जो शिष्य की कुबुद्धि से अज्ञान एवं सांसारिक दुर्गुणों रूपी कीच को ज्ञानरूपी जल से दूर करके उसका भला करता है

कुमति कीच चेला भरा

गुरु ज्ञान जल होय …

गुरु अपने शिष्य के दोष निकालने के लिए वह सब कुछ करता है जो उसे करना चाहिए साम दाम दंड भेद से गुरु शिष्य को दृढ़ बनाता है तभी तो कहा गया है

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है

गढ़ि – गढ़ि काढ़ै खोट …

 गुरु के समान दाता नहीं और शिष्य के समान याचक नहीं : 

गुरु समान दाता नहीं

याचक शीष समान …

तभी तो कबीर की सलाह है कि हमें अपने गुरु की आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए अगर हम ऐसा करेंगे तो फिर तीनों लोगों में भय होने का कोई कारण ही नहीं है। 

गुरु को सिर राखिये

चलिये आज्ञा माहिं,

कहैं कबीर ता दास को

तीन लोकों भय नाहिं। 

गुरु की महिमा अपरंपार है उसका वर्णन असंभव है कबीर के शब्दों में देखिए :

सब धरती कागज करूँ,

लेखनी सब बनराय,

सात समुद्र मसि करूँ

गुरु गुन लिखा न जाय…

सतगुरु के समान कोई हो ही नहीं सकता है यह दोहा भी यही कहता है

सतगुरु सम कोई नहीं

सात दीप नौ खण्ड,

तीन लोक न पाइये,

अरु इकइस ब्रह्मणड।

अर्थात -सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।

देव भाषा संस्कृत में तो गुरु को ब्रह्मा विष्णु महेश के साथ-साथ साक्षात परब्रह्म ही मानते हुए उन्हें प्रणाम किया गया है

गुरुर्ब्रह्मा  ग्रुरुर्विष्णुः,‌ गुरुर्देवो  महेश्वर:,  

गुरुःसाक्षात्पर ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः 

अब गुरु किसे कहा जाता है इसकी भी परिभाषा संस्कृत में अद्भुत ढंग से की गई है- 

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते 

जिस का भाव है – धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करने वाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

अधिक क्या कहा जाए समस्त शास्त्रों के अध्ययन व अनुसरण से भी क्या होना है चित्त की परम शांति गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है

  आइए, इस गुरु पूर्णिमा पर मन क्रम एवं वचन से अपने आध्यात्मिक, धार्मिक शैक्षणिक या किसी भी क्षेत्र में ज्ञान प्रदान करने वाले हर गुरु को श्रद्धा पूर्वक नमन करें ।

डॉ० घनश्याम बादल 

‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ से प्रदेश होगा जल-समृद्ध

जल संरक्षण को लेकर सामूहिक जिम्मेदारी का भाव जगाता है यह अभियान, निकट भविष्य में आएंगे प्रभावी परिणाम

– लोकेन्द्र सिंह

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव अपने अभिनव प्रयोगों से अपनी विशेष पहचान बना रहे हैं। मध्यप्रदेश में जल संरक्षण के लिए प्रारंभ हुआ ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ मुख्यमंत्री डॉ. यादव की दूरदर्शी पहल है। निकट भविष्य में हमें इसके सुखद परिणाम दिखायी देंगे। शुभ प्रसंग पर शुभ संकल्प के साथ जब कोई कार्य प्रारंभ किया जाता है, तब उसकी सफलता के लिए प्रकृति एवं ईश्वर भी सहयोग करते हैं। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल पर मध्यप्रदेश सरकार ने गुड़ी पड़वा (30 मार्च) से 30 जून तक प्रदेश स्तरीय ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ चलाकर जल संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया, जो जनांदोलन में परिवर्तित हो गया। सरकार को भी विश्वास नहीं रहा होगा कि जल संरक्षण जैसे मुद्दे को जनता का इतना अधिक समर्थन मिलेगा कि सरकारी अभियान असरकारी बन जाएगा और समाज इस अभियान को अपनी जिम्मेदारी के तौर पर स्वीकार कर लेगा। ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ के अंतर्गत और इससे प्रेरित होकर प्रदेश में अनेक स्थानों पर जल स्रोतों को पुनर्जीवित किया गया, उनको व्यवस्थिति किया गया और वर्षा जल को एकत्र करने की रचनाएं बनायी गईं। कहना होगा कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की पहल और प्रतिबद्धता ने  जल संरक्षण के इस अभियान को एक जनांदोलन का रूप दे दिया है, जिससे जल संरक्षण में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।

              जल गंगा संवर्धन अभियान को गति देने के लिए मनरेगा योजना के अंतर्गत खेत तालाबों, अमृत सरोवरों और कूप रिचार्ज पिट का निर्माण किया गया है। साथ ही पुरानी जल संरचनाओं का जीर्णोद्धार भी किया गया है। इस अभियान में 2 लाख 39 हजार जलदूतों का सक्रिय सहयोग मिला, जिन्होंने जल संवर्धन के संदेश को घर-घर तक पहुँचाया। ये जलदूत जब गाँव-गाँव, नगर-नगर और घर-घर जल संरक्षण का संदेश लेकर पहुँचे तो एक सकारात्मक वातावरण भी बना और जल संरक्षण को लेकर समाज के भीतर एक जागरूकता भी आई। नि:संदेह, यदि यह जनजागरूकता स्थायी हो जाए तो जल गंगा संवर्धन अभियान की सबसे बड़ी सफलता होगी। अभियान को शुरू करते समय सरकार ने जो लक्ष्य तय किया था, उससे कहीं अधिक परिणाम धरातल पर प्राप्त हुआ है। जल संरक्षण के लिए 38 हजार नए खेत तालाबों का निर्माण किया गया है। खंडवा जिले में 254 करोड़ रुपये की लागत से 1 लाख से अधिक कुओं को रिचार्ज किया गया, जिसके लिए खंडवा को देश में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। इंदौर संभाग ने स्वच्छता और जल संरक्षण में नंबर-एक का स्थान हासिल किया है। ये दो प्रमुख उदाहरण हैं। प्रदेश के अन्य जिलों में भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है। समूचे मध्यप्रदेश में 70 हजार कुओं, बावड़ियों, नदियों और तालाबों का संरक्षण किया गया, जो जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करनेवाले हैं।

              मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से प्रेरित हैं। याद हो कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जल संरक्षण के लिए जनांदोलन चलाने का आह्वान किया था। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति से आग्रह किया कि वह अपने स्तर पर वर्षा जल के संरक्षण के लिए प्रयास करे। प्रधानमंत्री मोदी की पहलकदमी पर भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय ने राष्ट्रीय जल मिशन के अंतर्गत ‘कैच द रेन’ अभियान को शुरू किया है। इस अभियान का मुख्य लक्ष्य वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण को बढ़ावा देना है। यह अभियान व्यक्तियों, समुदायों और सभी हितधारकों को वर्षा जल संचयन संरचनाएं बनाने तथा जल संरक्षण की पद्धतियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने भी इसी तर्ज पर ‘जल गंगा संवर्धन अभियान’ को जनता के बीच ले जाने का अनुकरणीय कार्य किया है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री डॉ. यादव, दोनों ही प्रकृति, पर्यावरण एवं समाज के प्रति गहरी संवेदनाएं रखते हैं। राजनीति से इतर वे इन सब विषयों पर बात रखते हैं और लोगों को इस दिशा में प्रेरित भी करते हैं। उल्लेखनीय है कि अपने लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के 120वें संस्करण में प्रधानमंत्री मोदी ने जल संरक्षण को देश के लिए अत्यंत आवश्यक बताया था। उन्होंने जल संचय जन-भागीदारी अभियान के महत्व पर भी जोर दिया और कहा कि यह हमारी जिम्मेदारी है कि “जो प्राकृतिक संसाधन हमें मिले हैं, उसे हमें अगली पीढ़ी तक सही सलामत पहुँचाना है”। कहना होगा कि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में चलाए गए जल गंगा संवर्धन अभियान ने प्रधानमंत्री के इस दृष्टिकोण को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

              अकसर सरकारी अभियान विज्ञापनों एवं कागजों में दम तोड़ देते हैं या फिर उनकी सफलता सोशल मीडिया तक सीमित रह जाती है। यह आंदोलन अपने वांछित लक्ष्य से आगे निकल रहा है क्योंकि मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने इस अभियान को जन आंदोलन बनाने का आह्वान किया है। उनका मानना है कि जल ही हमारे जीवन के अस्तित्व का आधार है, इसलिए इसकी एक-एक बूंद बचाना अनिवार्य है। उनकी गहरी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने इस अभियान की देखरेख की जिम्मेदारी सभी जिलों के प्रभारी मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों को सौंपी है। लोग बड़ी संख्या में श्रमदान कर पानी को बचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। जिला प्रशासन विशेष रूप से नदियों के किनारे देशी प्रजातियों के पौधे रोप रहा है। इससे जमीन के नीचे जल-स्तर बढ़ रहा है और मिट्टी को नुकसान से बचाया जा रहा है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रूफ वॉटर हार्वेस्टिंग सिस्टम को अनिवार्य कर दिया गया है। स्कूल और कॉलेजों में जल-संरक्षण पर जन-जागरण अभियान, रैलियां, निबंध प्रतियोगिताएं, जल संवाद और ‘जल प्रहरी’ जैसी गतिविधियों को संचालित किया जा रहा है। अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए डिजिटल मॉनिटरिंग और मूल्यांकन प्रणाली की व्यवस्था की गई है, जिसमें सभी गतिविधियों की जीआईएस ट्रैकिंग और इंपैक्ट वैल्यूएशन किया जा रहा है। सरकार ड्रोन से सर्वेक्षण, वैज्ञानिक तरीके से जलग्रहण क्षेत्र की मैपिंग और भू-जल पुनर्भरण तकनीकों का उपयोग कर रही है। इन सब प्रबंधों से स्पष्ट तौर पर प्रतीत होता है कि प्रदेश सरकार का यह अभियान मुख्यमंत्री के सर्वोच्च प्राथमिकता वाले कार्यों में से एक है। इस अभियान का उद्देश्य केवल जल स्रोतों को पुनर्जीवित करना ही नहीं, बल्कि उनकी निरंतर देखरेख और संरक्षण सुनिश्चित करना भी है। सरकार ने इन स्रोतों की सफाई, सीमांकन और पुनर्जीवन के लिए जनभागीदारी को प्रोत्साहित किया है। लोग बड़ी संख्या में श्रमदान कर जल संरक्षण में सहयोग कर रहे हैं।

इस अभियान के दूरगामी परिणाम अपेक्षित हैं। बारिश के मौसम में इसके और अधिक प्रभावी परिणाम दिखेंगे, जिससे भूजल स्तर में सुधार होगा, हरियाली बढ़ेगी और मिट्टी में नमी आएगी। इससे पूरे प्रदेश में जल संकट को दूर करने में सहायता मिलेगी। इसके अलावा, इस अभियान ने समाज की मनोवृत्ति पर भी सकारात्मक प्रभाव डाला है, जिससे जल संरक्षण एक सामूहिक जिम्मेदारी के रूप में उभरा है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में यह अभियान निश्चित रूप से मध्यप्रदेश को जल-समृद्ध राज्य बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

धर्मांतरण का धंधा: विदेशी फंडिंग और सामाजिक विघटन का षड्यंत्र

उत्तर प्रदेश में एटीएस ने एक बड़े धर्मांतरण रैकेट का खुलासा किया है, जिसमें विदेशी फंडिंग के जरिए करीब 100 करोड़ रुपये 40 खातों में भेजे गए। मुख्य आरोपी ‘छांगरू बाबा’ उर्फ जमशेदुद्दीन के नेतृत्व में यह गिरोह ऊंची जाति की लड़कियों के लिए 15-16 लाख रुपये की दर से धर्मांतरण कराता था। यह मामला केवल आस्था नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सामाजिक षड्यंत्र है जो जाति, धर्म और लिंग के आधार पर राष्ट्र की एकता को तोड़ने का प्रयास करता है। इसे धार्मिक स्वतंत्रता नहीं, संगठित अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए।

 डॉ. सत्यवान सौरभ

धर्म किसी भी समाज की आत्मा होता है, लेकिन जब धर्म का प्रयोग ‘धंधे’ में बदल जाए तो सवाल सिर्फ आस्था का नहीं, राष्ट्र की सुरक्षा, सामाजिक समरसता और नैतिक मूल्यों का हो जाता है। उत्तर प्रदेश में एटीएस द्वारा उजागर किए गए एक बड़े धर्मांतरण रैकेट ने यही भयावह सच्चाई हमारे सामने रखी है। कथित रूप से “छांगरू बाबा” उर्फ जमशेदुद्दीन के नेतृत्व में यह गिरोह न केवल भोले-भाले लोगों का धर्मांतरण कर रहा था, बल्कि इसके पीछे एक व्यवस्थित नेटवर्क, विदेशी फंडिंग और जातिगत लक्ष्य निर्धारण भी शामिल था।

जिस प्रकार से इस रैकेट की कार्यप्रणाली सामने आई है, वह धर्मांतरण को एक सुनियोजित व्यवसाय के रूप में प्रकट करती है। यह कोई व्यक्तिगत आस्था का निर्णय नहीं, बल्कि विदेशी पैसों से संचालित एक मिशन था – जिसमें धर्म, जाति, स्त्री और समाज को एक वस्तु की तरह देखा गया। एफआईआर और जांच रिपोर्ट के अनुसार, धर्मांतरण के लिए बाकायदा ‘रेट कार्ड’ था। ऊंची जाति की लड़कियों के लिए धर्मांतरण की दर 15-16 लाख रुपये तक थी, जबकि अन्य लड़कियों के लिए 8-10 लाख रुपये। सोचिए, जब धर्म को भी जाति और लिंग के आधार पर मूल्यांकित किया जाने लगे, तो वह किस स्तर तक गिरावट का प्रतीक बनता है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि इस रैकेट के पास 40 बैंक खाते थे जिनमें विदेशों से 100 करोड़ रुपये से अधिक की रकम भेजी गई। यह रकम किसके इशारे पर भेजी गई, किन उद्देश्यों के लिए, और किन देशों से – यह सवाल सिर्फ जांच एजेंसियों के नहीं, पूरे देश के हैं। क्या यह केवल धर्मांतरण के लिए था या इसके पीछे कोई और बड़ा वैश्विक, राजनीतिक या वैचारिक षड्यंत्र भी छिपा है?

इस रैकेट की कार्यशैली में सोशल मीडिया का जबरदस्त उपयोग किया गया। वीडियो, मोटिवेशनल भाषण, ‘इस्लाम कबूल करने से मिली राहत’ जैसे फर्जी वीडियो वायरल कर कमजोर तबकों को बरगलाया गया। पहले मानसिक रूप से प्रभावित किया गया, फिर आर्थिक लालच दिया गया और अंत में जबरन धर्मांतरण। यह साइकोलॉजिकल वॉरफेयर जैसा है – जहां पहले मस्तिष्क जीता जाता है, फिर शरीर। और सबसे दुखद यह कि इसे धर्म का नाम दिया गया।

इस प्रकरण में बलरामपुर जिले के एक पूरे परिवार के धर्मांतरण की पुष्टि हुई है। वहां महिलाओं और बच्चों को टारगेट कर उन्हें धर्म बदलने के लिए मजबूर किया गया। यह कोई एक अपवाद नहीं, बल्कि उसी पैटर्न का हिस्सा है – जिसमें ग्रामीण, अशिक्षित और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों को निशाना बनाया जाता है। यह सामाजिक असमानता का शोषण है। जब राज्य, समाज और प्रशासन इन परिवारों की रक्षा नहीं कर पाते, तो ऐसे गिरोह अपना मकड़जाल फैलाते हैं।

इस रैकेट का सबसे खतरनाक पहलू था – जातिगत दर निर्धारण। ऊंची जाति की लड़कियों के धर्मांतरण के लिए अधिक पैसा दिया जाता था। इसका मतलब है कि धर्मांतरण सिर्फ धर्म का नहीं, जाति-सामाजिक संरचना को तोड़ने का औजार भी बन चुका है। यह न केवल हिंदू समाज को कमजोर करने की चाल है, बल्कि राष्ट्र को आंतरिक रूप से विखंडित करने की भी रणनीति है।

इस मामले पर तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी वर्ग चुप है। वही वर्ग जो ‘धर्मनिरपेक्षता’ की दुहाई देता है, ‘संविधान की आत्मा’ की बात करता है, आज गूंगा बना बैठा है। क्यों? क्या धर्मांतरण को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान लिया गया है? क्या किसी गरीब, दलित, महिला या आदिवासी का जबरन धर्म बदलवाना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? अगर किसी दलित के मंदिर में प्रवेश करने से किसी को आपत्ति है, तो उस पर शोर मचता है, लेकिन जब उसी दलित को पैसों से धर्म बदलवाया जाता है तो कोई नहीं बोलता। यह मौन स्वयं एक अपराध है।

यह भी गौरतलब है कि ऐसे मामलों पर राजनीतिक दल अक्सर वोट बैंक की राजनीति के कारण खुलकर प्रतिक्रिया नहीं देते। अल्पसंख्यकों की ‘संवेदनशीलता’ के नाम पर ऐसे राष्ट्रघातक कृत्यों को नजरअंदाज किया जाता है। सवाल यह है कि क्या देश की अखंडता और सामाजिक समरसता वोट बैंक से भी छोटी हो गई है? अगर कोई हिंदू संगठन धर्मांतरण रोकने की बात करता है तो उसे कट्टरपंथी कह दिया जाता है, लेकिन जब धर्मांतरण के नाम पर विदेशी पैसा आकर समाज को तोड़ता है, तो सब चुप हो जाते हैं।

यह मामला अकेला नहीं है। देश के विभिन्न हिस्सों में ऐसे गिरोह सक्रिय हैं जो सामाजिक दुर्बलता, आर्थिक मजबूरी और शिक्षा की कमी का लाभ उठाकर धर्मांतरण करा रहे हैं। इससे निपटने के लिए धर्मांतरण विरोधी कानूनों को और मजबूत बनाना चाहिए। विदेशी फंडिंग की निगरानी के लिए डिजिटल ट्रैकिंग तंत्र को सशक्त करना चाहिए। प्रभावित परिवारों के पुनर्वास और मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। शिक्षा और रोजगार के माध्यम से समाज को आत्मनिर्भर और सजग बनाना जरूरी है।

धर्म आत्मा का विषय है, उसे सौदेबाज़ी का औजार बनाना न केवल अपराध है, बल्कि मानवता का भी अपमान है। धर्मांतरण जब व्यक्तिगत चेतना से नहीं, लालच, भय या फरेब से होता है, तो वह धर्म नहीं, शोषण होता है। हमारे लिए जरूरी है कि हम धर्मांतरण की आड़ में चल रहे इन संगठित अपराधों को पहचानें, उनका विरोध करें और समाज को ऐसी गतिविधियों से बचाने के लिए संगठित प्रयास करें। धर्म को न बेचे, न खरीदें – बल्कि समझें, आत्मसात करें और उसकी गरिमा को बचाए रखें।

बिहार चुनावों में महिलाओं पर दांव के निहितार्थ

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-ललित गर्ग-

बिहार में इस साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव आयोग ने अभी तक मतदान की तारीखों की घोषणा नहीं की है, लेकिन राज्य में राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है। विभिन्न राजनीतिक दल लुभावनी घोषणाएं कर रहे हैं, नये-नये मुद्दों को उछाला जा रहा है। गोपाल खेमका हत्याकांड हो या तंत्र मंत्र के चलते एक ही परिवार के पांच लोगों को जला देने की त्रासद घटना- नीतीश कुमार पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मतदाता सूचियों के विशेष सघन पुनरीक्षण अभियान पर संदेह के सवालों के साथ मुखर विपक्षी दल इसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई के साथ ही कानून विकल्पों पर भी गंभीरता से विचार कर रहे हैं। इस बीच, एनडीए की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान ने एनडीए से दूरी बनाते हुए बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का संकेत देकर सियासी परिदृश्य को दिलचस्प बना दिया है। इन्हीं परिदृश्यों के बीच बिहार सरकार ने सरकारी नौकरियों में स्थानीय महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के फैसला लेकर चुनावी सरगर्मियों को एक नया मोड़ दे दिया है। बिहार सरकार का यह निर्णय केवल एक चुनावी रणनीति भर नहीं, बल्कि एक गहरे सामाजिक परिवर्तन का संकेतक भी है। तय है कि इस बार के बिहार चुनाव के काफी दिलचस्प एवं हंगामेदार होंगे।
सरकारी नौकरियों में स्थानीय महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण के गहरे निहितार्थ हैं। एनडीए की नीतिश सरकार ने स्थानीय महिलाओं को प्राथमिकता देने एवं उनके लिए सरकारी रोजगार उपलब्ध कराने के इस ब्रह्मास़्त्र को दाग कर चुनावी समीकरण अपने पक्ष में कर लिये हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे “महिला सशक्तिकरण का राजनीतिक समाधान” बताया, क्योंकि राज्य की महिलाएँ कई चुनावों में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। पिछली लोकसभा चुनाव में महिलाओं की मतदान दर पुरुषों से कहीं अधिक रही, 59.45 प्रतिशत महिलाओं ने हिस्सा लिया जबकि पुरुष केवल 53 प्रतिशत मतदान करने पहुंचे। यह आंकड़ा दिखाता है कि चुनावी जीत में महिला मतदाता कितनी निर्णायक हो सकते हैं, साफ है, सत्ता की चाबी वहां महिलाओं ने अपने हाथों में ले ली है और वे धार्मिक व जातिगत आग्रहों से अधिक लैंगिक हितों से प्रेरित हैं। बिहार उन शुरुआती राज्यों में एक है, जिसने पंचायत और स्थानीय निकायों में आधी आबादी के लिए पचास फीसदी सीटें आरक्षित की हैं। इस कदम ने यहां की स्त्रियों में जबर्दस्त राजनीतिक जागरूकता पैदा की है। चुनावों की दशा एवं दिशा बदलने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक किरदार निभाने के कारण ही हरेक राजनीतिक दल महिला वर्ग को आकर्षित करने में जुट गया है। राजद-कांग्रेस-वाम दलों का महागठबंधन ‘माई-बहिन मान योजना’ के तहत महिलाओं को प्रतिमाह 2,500 रुपये देने का वायदा कर चुका है, तो राजद नेता तेजस्वी यादव बेरोजगारी और डोमिसाइल के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। ऐसे में, नीतीश सरकार के इस नीतिगत दांव को समझा जा सकता है। जातिगत और स्थानीय समीकरण भुनाने के लिए निश्चित ही यह एक संगठित चाल है, जहां जाति और आवासीयता दोनों को आधार बनाया गया।
यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में शैक्षिक क्षेत्र में लैंगिक खाई लगातार सिमट रही है। बिहार की बेटियां देश के अनेक महानगरों में अपनी योग्यता और मेहनत के दम पर पहचान बना चुकी हैं। सूचना क्रांति, बढ़ती अपेक्षाओं और सामंती बंधनों के ढीले पड़ते जाने के कारण अब ग्रामीण बिहार की बेटियां भी ऊंचे सपने संजो रही हैं। हाल ही में बिहार में शिक्षकों की नियुक्ति के दौरान यह देखा गया कि देश के विभिन्न प्रदेशों की योग्य लड़कियां इंटरव्यू देने आईं, जिनमें से अनेक ने सफलता प्राप्त की और अब बिहार के सरकारी स्कूलों में अध्यापन कर रही हैं। निस्संदेह, यह एक सैद्धांतिक रूप से प्रगतिशील और समावेशी समाज का प्रतीक है, जहाँ महिलाएं सीमाओं से परे जाकर अपनी पहचान बना रही हैं। लेकिन व्यावहारिक धरातल पर देखें, तो महिला सुरक्षा, सामाजिक असमानता, आवास व पारिवारिक बाधाएं, और प्रवास की मजबूरियाँ अब भी मौजूद हैं। ऐसे में यदि सरकारें योग्य महिलाओं को उनके घर के आस-पास ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएं, तो यह न केवल महिला सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक कदम होगा, बल्कि सामाजिक संरचना में स्थिरता और पारिवारिक सहूलियत का भी कारण बनेगा। यही कारण है कि नीतीश कुमार सरकार महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए एक के बाद एक योजनाएं ला रही है। साइकिल योजना, पोशाक योजना, कन्या उत्थान योजना, वृद्धावस्था पेंशन में वृद्धि, पिंक टॉयलेट, महिला पुलिस भर्ती में आरक्षण जैसे कई कदम इस सिलसिले में पहले ही उठाए जा चुके हैं। यह मान्यता कि बेटियां अब सिर्फ अपने घरों की शोभा नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की भागीदार हैं, नीति निर्माण में स्पष्ट झलकने लगा है। यह न केवल बिहार की महिलाओं को उनके अधिकार का अनुभव कराएगा, बल्कि बेरोजगारी से जूझते प्रदेश में स्थानीय प्रतिभा के पलायन को भी रोकेगा। इस फैसले से खास तौर पर निम्न और मध्यमवर्गीय महिलाओं को फायदा होगा, जिनके लिए दूसरे शहरों में जाकर नौकरी करना एक बड़ा पारिवारिक और सामाजिक संकट बन जाता है। घर के पास नौकरी मिलने से न केवल सुरक्षा की भावना बढ़ेगी, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थायी उपस्थिति और भूमिका भी मजबूत होगी।
हालांकि इस फैसले को लेकर विपक्षी दलों की मिश्रित प्रतिक्रिया सामने आई है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने इसे नीतीश कुमार की चुनावी चाल बताया है और आरोप लगाया है कि सरकार महिलाओं की वास्तविक समस्याओं को दूर नहीं कर पा रही, बल्कि सिर्फ भावनात्मक मुद्दों को उछालकर वोट बटोरने की कोशिश कर रही है। तेजस्वी यादव का कहना है कि “महिला आरक्षण सही है, लेकिन रोजगार के अवसर कब हैं? सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया वर्षों से लटकी रहती है, परीक्षा की तारीखें टलती हैं, नियुक्ति पत्र देर से आते हैं, ऐसे में आरक्षण का लाभ कब और किसे मिलेगा?” उनकी बातों में सच्चाई भी है, क्योंकि प्रक्रियाओं की पारदर्शिता और समयबद्धता भी उतनी ही आवश्यक है जितनी आरक्षण की नीति। यह महिला आरक्षण अब केवल बिहार के स्थायी निवासियों अर्थात डोमिसाइल महिलाओं के लिए ही होगा। यानी जो महिलाएं राज्य की स्थायी निवासी नहीं हैं, उन्हें इस आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा-उन्हें सामान्य श्रेणी में आवेदन करना होगा। इसलिये इसे केवल घरेलू हितों को साधने वाला प्रत्यक्ष प्रचार माना जा रहा है, जिसमें गैर-स्थायी निवासियों को अवसरों से वंचित किया जा रहा है। विपक्ष इस कदम को डोमिसाइल नीति के अनुरूप बताते हुए सवाल उठा रहा है कि क्या इससे सामाजिक न्याय और समान अवसर की भावना नहीं बिगड़ जाएगी?
बिहार में बेरोजगारी चुनावी चर्चा का मुख्य मुद्दा है। युवा खासकर उच्चशिक्षित वर्ग नौकरी की तलाश में है। 35  प्रतिशत आरक्षण के साथ-साथ सरकार ने वेकेंसी क्रिएशन, युवा आयोग गठन, कृषि व सड़क इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च जैसे उपाय किए है। 2025 के बिहार चुनाव बहुआयामी लड़ाई से परिपूर्ण है, जातिगत समीकरण, युवा और ग्रामीण विकास, मतदाता सूची संशोधन जैसे मुद्दों ने चुनावी माहौल को गहराई दी है। सरकार ने पिछले बजट में ‘महिला हाट’, ‘पिंक बस’, ‘पिंक टॉयलेट’, स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल योजनाएं, दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए “संबल” वित्तीय सहायता जैसी महिलाओं को लुभाने वाली योजनाओं के प्रावधान किये हैं। नीतीश सरकार ने चुनावों को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना के तहत मिलने वाली राशि में भारी बढ़ोतरी की घोषणा की है। अब वृद्ध, दिव्यांग और विधवा महिलाओं को प्रतिमाह 400 रुपए की बजाय 1100 रुपए पेंशन मिलेगी। इस घोषणा के बाद पूरे बिहार में पेंशन के 1 करोड़ 9 लाख 69 हजार लाभार्थियों में हर्ष का माहौल दिखाई दे रहा है।
यह कहना उचित होगा कि बिहार की राजनीति इस बार स्थानीयता, जातिगत समीकरण और सामाजिक कल्याण के मिश्रित आरोपणों के बीच गंभीर मुठभेड़ के दौर से गुजर रही है। चुनाव नतीजे यह तय करेंगे कि क्या यह रणनीतियाँ सचमुच सतत परिवर्तन की ठोस बुनियाद रखेंगी, या चुनावी भाषण के बाद हवा में खो जाएँगी। नवीनतम ओपिनियन पोल बताते हैं कि एनडीए फिर सत्ता में लौट सकता है, खासकर महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के बीच मजबूत समर्थन के चलते। वहीं, महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस, अन्य) जातीय समीकरण (ईबीसी-ओबीसी) का आधार लेकर मुकाबले में है।

गुरुर्ब्रह्मा – एक स्तुति

गुरुर्ब्रह्मा जगत्पिता सदा,
गुरुर्विष्णुः पथदर्शिता व्रता।
गुरुर्देवो हरिः शिवो यथा,
नमस्तस्मै गुरोः नमः सदा॥

ज्ञानदीपः तमोहरः प्रभुः,
मौनवाणी रसाश्रु जलभरः।
शिष्यजीवन दिगंतविस्तरः,
प्रेमपाथेय धर्मचिन्मयः॥

शब्दसूत्रविवेचनैकधा,
वेदमूलं समस्तशास्त्रधा।
चित्तनिर्मल बनाय जो भला,
वहै गुरुवर, समस्तभावला॥

न सखा, न पिता, न मातरः,
गुरुवर्यं समं न चापरः।
सत्पथं जो दिखाय संसृते,
पूर्णिमा पर प्रणाम भावभरे॥

:- आलोक कौशिक

बिहार चुनाव से पहले घोषणाओं का लगा अंबार !

हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिला आरक्षण को लेकर एक बड़ा ऐलान किया है। उन्होंने यह घोषणा की है कि बिहार राज्य की मूल निवासी महिलाओं को अब राज्य की सभी सरकारी सेवाओं, संवर्गों और सभी स्तरों के पदों पर सीधी नियुक्ति में 35% आरक्षण दिया जाएगा तथा यह आरक्षण सभी प्रकार की सरकारी नौकरियों पर लागू होगा। पाठकों को बताता चलूं कि 

बिहार में 60% जातीय-आर्थिक आरक्षण पहले से ही लागू है। 35% मूल बिहारी महिलाओं के इस आरक्षण के बाद यह बढ़ कर 74% पर पहुंच जाएगा, जिसका सीधा असर

अनारक्षित वर्ग पर पड़ेगा जिसके लिए बस 14% सीटें

ही बचेंगी। वर्तमान में राज्य में 18% अतिपिछड़ा, 12% अन्य पिछड़ा, 16% एससी, एक प्रतिशत एसटी और ओबीसी महिलाओं का 3% आरक्षण लागू है। इसमें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का 10% भी है। बहरहाल,

पाठकों को बताता चलूं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में इसका फैसला(आरक्षण देने का) लिया गया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि देश में सभी राज्य सरकारें महिलाओं को कुल पदों में अपने-अपने हिसाब से आरक्षण देती रहीं हैं। जैसे कि उत्तराखंड में सरकारी भर्तियों में महिलाओं के लिए 30 फीसदी आरक्षण, मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में महिलाओं के लिए सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण, यूपी में राज्य सरकार की ओर से 20 फीसदी आरक्षण, केरल-कर्नाटक, तेलंगाना-पंजाब में 33 फीसदी, और त्रिपुरा में 33 फीसदी पद नौकरियों में आरक्षित किए गए हैं। संशोधन संविधान के अनुच्छेद 309 के तहत राजस्थान की भजनलाल सरकार ने कुछ समय पहले राजस्थान पुलिस अधीनस्थ सेवा नियम-1989 में संशोधन करते हुए सीधी भर्ती में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने भाजपा सरकार के 100 दिन पूरे होने पर महिलाओं को शिक्षक भर्ती में 50 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था। हालांकि , विधि विभाग ने इस प्रस्ताव पर आपत्तियां जताई और फाइल लौटा दी।इसी प्रकार से महिला आरक्षण बिल के पास होने के बाद संसद और विधानसभाओं(विधायिका) की 33 फीसदी सीटों पर महिला आरक्षण की बात कही गई है,जो साल 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के कार्यकाल में पास हुआ था। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि बिहार में चार माह के भीतर विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, ऐसे में यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक प्रकार से महिलाओं पर लगाया गया बड़ा दांव ही कहा जा सकता है, ताकि आने वाले विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी जीत हासिल कर सके। गौरतलब है कि साल 2005 में महिला सशक्तिकरण की बात करके ही नीतीश कुमार सत्ता में आए थे। बहरहाल, राजनीतिक दल और उनके नेता यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि आज के समय में महिला वोटरों की चुनावों में बहुत बड़ी भूमिका होती है और महिला वोटर नायिका बनकर उभरतीं हैं। स्वयं नीतीश कुमार भी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि आज के समय में बड़ी संख्या में महिला मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करने लगी हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तो पुरुषों के मुकाबले 5.24 फीसदी अधिक महिलाओं ने वोट डाले थे। जानकारी के अनुसार वर्ष 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में 59.69 फीसदी महिलाओं ने वोट दिए थे और 26 महिलाएं जीतकर आगे आईं थीं। हालांकि, वर्ष 2015 में 28 महिलाएं जीतकर विधानसभा पहुंचीं थीं। नीतीश कुमार जानते हैं कि महिलाओं के वोट हासिल कर वे सत्ता की चाबी तक आसानी से पहुंच सकते हैं। पाठकों को बताता चलूं कि चुनाव से पहले नीतीश कुमार, ने मतदाताओं को लुभाने के लिए लाभकारी योजनाओं की राशि भी बढ़ाई। उपलब्ध जानकारी के अनुसार सरकार ने सामाजिक सुरक्षा पेंशन की राशि बढ़ाकर 60 लाख परिवारों को फायदा पहुंचाया है। इतना ही नहीं,नीतीश कैबिनेट ने सीता मंदिर के लिए ₹883 करोड़ की बड़ी राशि देने का ऐलान किया।इसी प्रकार से बिहार में बुजुर्गों और दिव्यांगजनों को मिलने वाली पेंशन राशि 400 रुपये से बढ़ाकर 1100 रुपये प्रतिमाह कर दी गई,जिसे जुलाई से मिलने की बात कही गई है। और तो और नीतीश ने राज्य की युवा आबादी को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बिहार युवा आयोग की भी घोषणा की है। पाठकों को बताता चलूं कि युवा आयोग इस बात की निगरानी करेगा और सुनिश्चित करेगा कि राज्य के युवाओं को राज्य के भीतर निजी क्षेत्र के रोजगार में प्राथमिकता दी जाए। चुनावों से पहले उच्च जाति आयोग, अनुसूचित जाति (एससी) आयोग, महादलित आयोग और मछुआरा आयोग का गठन करने की बात भी मुख्यमंत्री ने कुछ समय पहले कहीं थी। कहना ग़लत नहीं होगा कि नीतीश कुमार इस प्रकार की घोषणाओं से सामाजिक संतुलन और सियासी समीकरणों को साध रहे हैं।कुल मिलाकर, सच तो यह है कि बिहार चुनाव से पहले जनता दल (यूनाइटेड) ने ‘पच्चीस से तीस, फिर से नीतीश’ का नारा दे दिया है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि बिहार देश के उन शुरुआती राज्यों में एक है, जिसने पंचायत और स्थानीय निकायों में आधी आबादी के लिए पचास फीसदी सीटें आरक्षित की हैं और बिहार सरकार के इस कदम ने यहां की स्त्रियों में जबर्दस्त राजनीतिक जागरूकता पैदा की है। नीतीश कुमार ही नहीं, बिहार में अब हरेक राजनीतिक दल विशेषकर महिला वर्ग को व युवाओं को आकर्षित करने में जुट गया है। गौरतलब है कि कांग्रेस महागठबंधन ने बिहार राज्य में इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के पूर्व राज्य महिलाओं को सशक्त करने के लिये ‘माई बहिन मान योजना’ कैंपेन लॉन्च किया है। इस योजना के तहत महिलाओं को प्रतिमाह 2,500 रुपये की सम्मान राशि सीधे उनके खाते में भेजी जाएगी। इधर, राजद नेता तेजस्वी यादव बेरोजगारी और डोमिसाइल के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रहे हैं। ऐसे में, नीतीश सरकार के महिला आरक्षण के इस नीतिगत दांव व अन्य दावों को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। वैसे भी महिला आरक्षण बिहार जैसे राज्य में एक बड़े सामाजिक बदलाव का वाहक बन सकता है। वैसे देखा जाए तो नीतीश कुमार का महिलाओं को 35 फीसदी आरक्षण का यह फैसला स्वागत योग्य ही कहा जा सकता है, क्यों कि इससे महिलाओं को आगे बढ़ने के सुअवसर प्राप्त होंगे और वे स्वावलंबी, सशक्त बन सकेंगी। समाज से लैंगिक खाई भी कम हो सकेगी, क्यों कि बिहार जैसे राज्य में आज भी बहुत कम महिलाएं ही सरकारी नौकरियों में हैं। चुनाव अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन यदि चुनावों के बहाने से ही समाज में कुछ अच्छा हो रहा है,तो इससे काबिले-तारीफ और बात भला क्या हो सकती है। किसी समाज में यदि कोई महिला आज आगे आती है तो इससे देश व समाज की तरक्की ही होती है। बहुत अच्छा हो यदि अन्य राज्य सरकारें भी महिलाओं के लिए ऐसे विशेष प्रबंध करने के लिए आगे आएं।

सुनील कुमार महला

जनसंख्या नीति नहीं, जनजागरूकता है असली समाधान

विश्व जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) पर विशेष
बढ़ती आबादी के निरंतर बढ़ते खतरे
– योगेश कुमार गोयल

जनसंख्या संबंधित समस्याओं पर वैश्विक चेतना जागृत करने के लिए प्रतिवर्ष 11 जुलाई को ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाया जाता है। भारत के संदर्भ में देखें तो तेजी से बढ़ती आबादी के कारण ही हम सभी तक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पहुंचाने में पिछड़ रहे हैं। बढ़ती आबादी की वजह से ही देश में बेरोजगारी की समस्या विकराल हो चुकी है। हालांकि विगत दशकों में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से नए रोजगार जुटाने के कार्यक्रम चलाए गए लेकिन बढ़ती आबादी के कारण ये सभी कार्यक्रम ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ ही साबित हुए। बढ़ती जनसंख्या के कारण ही देश में आबादी और संसाधनों के बीच असंतुलन बढ़ता जा रहा है। वास्तविकता यही है कि विगत दशकों में देश की जनसंख्या जिस गति से बढ़ी, उस गति से कोई भी सरकार जनता के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने की व्यवस्था करने में सफल हो ही नहीं सकती थी।
आज देश की बहुत बड़ी आबादी निम्न स्तर का जीवन जीने को विवश है। देश में करीब 40 प्रतिशत आबादी आजादी के बाद से ही गरीबी के आलम में जी रही है। गरीबी में जीवन गुजार रहे ऐसे बहुत से लोगों की यही सोच रही है कि उनके यहां जितने ज्यादा बच्चे होंगे, उतने ही ज्यादा कमाने वाले हाथ होंगे किन्तु यह सोच वास्तविकता के धरातल से परे है। लगातार बढ़ती महंगाई के जमाने में परिवार बड़ा होने से कमाने वाले हाथ ज्यादा होने पर जितनी आय बढ़ती है, उससे कहीं ज्यादा जरूरतें और विभिन्न उत्पादों की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिनकी पूर्ति कर पाना सामर्थ्य से परे हो जाता है। इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों की सफलता के लिए सर्वाधिक जरूरी यही है कि घोर निर्धनता में जी रहे ऐसे लोगों को परिवार नियोजन कार्यक्रमों के महत्व के बारे में जागरूक करने की ओर खास ध्यान दिया जाए क्योंकि जब तक इस कार्यक्रम में इन लोगों की भागीदारी नहीं होगी, तब तक लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है।
देश में जनसंख्या वृद्धि का मुकाबला करने के लिए पिछले काफी समय से कुछ कड़े कानून बनाने की मांग हो रही है लेकिन इस दिशा में कुछ राज्य सरकारें दो से ज्यादा बच्चों वाले परिवारों को सरकारी नौकरी तथा स्थानीय निकाय चुनावों में उम्मीदवारी से अयोग्य अघोषित करने जैसे जिस तरह के उपायों पर विचार कर रही हैं, उन्हें तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। हालांकि जनसंख्या वृद्धि मौजूदा समय में गंभीर चुनौती है लेकिन ऐसे उपायों को संवैधानिक नजरिये से भी तर्कसम्मत नहीं माना जाता। चीन में 1980 से पहले केवल एक बच्चा पैदा करने की अनुमति थी, जिसका उल्लंघन करने पर दम्पति को न केवल सरकारी योजनाओं से वंचित कर दिया जाता था बल्कि सजा भी दी जाती थी लेकिन वहां यह नीति सफल नहीं हुई। इसीलिए चीन सरकार ने 2016 में इस नीति में बदलाव कर दो बच्चों की अनुमति दी और बाद में तीन बच्चों की अनुमति देनी पड़ी। चीन की तानाशाही सरकार द्वारा नीतियों में बड़ा बदलाव करते हुए दम्पत्तियों को तीन बच्चे करने की अनुमति क्यों दी गई, इसके कारण समझना भी जरूरी है। दरअसल वहां लोगों की सामान्य प्रजनन दर में निरन्तर गिरावट आ रही है और कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक यही स्थिति भारत में भी होनी है।
जनसंख्या में स्थायित्व और कामकाजी युवाओं की स्थिर संख्या के लिए महिलाओं की सामान्य प्रजनन दर 2.1 होनी चाहिए और चीन में यह दर निरन्तर गिर रही है। 1970 में चीन में यह दर 5.8 थी, जो 2015 में घटकर 1.6 और 2020 में केवल 1.3 ही रह गई जबकि बुजुर्गों की आबादी लगातार बढ़ती गई। नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टेटिस्टिक्स (एनबीएस) के अनुसार आने वाले समय में आबादी में अधिक उम्र वालों की संख्या बढ़ने से संतुलित विकास और जनसंख्या को लेकर दबाव बढ़ेगा। 1982 में हुई जनगणना में चीन की जनसंख्या में 2.1 फीसदी की सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की गई थी लेकिन उसके बाद जनसंख्या में लगातार गिरावट दर्ज की गई, जिसके लिए वहां की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा अपनाई गई दशकों पुरानी ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ को जिम्मेदार माना जाता है। विगत एक दशक में चीन की जनसंख्या करीब सात करोड़ बढ़ी लेकिन बुजुर्गों की संख्या बढ़ने से चीन के लिए अलग ही समस्या उत्पन्न होने लगी है। दरअसल चीन को आशंका है कि अगले दस वर्षों में उसकी जनसंख्या में गिरावट आएगी, जिससे कामगारों की संख्या में कमी आने से उसकी खपत भी घटेगी। एनबीएस के आंकड़ों के मुताबिक चीन को जिन जनसांख्यिकीय संकट का सामना करना पड़ा था, वह और गहरा होने की उम्मीद थी, इसीलिए चीन को अपनी जनसंख्या नीति में बदलाव करने पर विवश होना पड़ा।
जहां तक भारत की बात है तो यहां 1994 में महिलाओं की सामान्य प्रजनन दर 3.4 थी, जो घटकर 2015 में 2.2 रह गई थी यानी सामान्य के करीब। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत की जनसंख्या 2050 तक बढ़ने के बाद से गिरनी शुरू हो जाएगी और 2100 तक पहुंचते-पहुंचते सामान्य प्रजनन दर केवल 1.3 ही रह जाएगी। इसका अर्थ है कि तब अधिकांश परिवारों में केवल एक ही बच्चा होगा और भारत उसी स्थिति में खड़ा होगा, जिसमें वन चाइल्ड पॉलिसी के बाद चीन खड़ा हुआ और उसे विगत सात वर्षों में दो बार अपनी जनसंख्या नीति में बड़ा परिवर्तन करना पड़ा। इसलिए टू चाइल्ड पॉलिसी जैसे कानूनों के जरिये जनसंख्या नियंत्रण की कोशिशों को व्यावहारिक नहीं माना जा रहा बल्कि इसके लिए डराने-धमकाने वाले कानूनों के बजाय लोगों में जागरूकता पैदा किया जाना सबसे जरूरी है। बगैर कड़े कानूनों के देश के ऐसे राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी आई है, जहां साक्षरता दर ज्यादा है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत में गरीब महिलाओं की प्रजनन दर करीब 3.2 है जबकि सम्पन्न महिलाओं में यह दर केवल 1.5 पाई गई है। इसी प्रकार अनपढ़ महिलाओं के औसतन 3.1 बच्चे होते हैं जबकि शिक्षित महिलाओं में यह संख्या औसतन 1.7 है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि जनसंख्या विस्फोट का सीधा संबंध सामाजिक और शैक्षिक स्थितियों से जुड़ा है। शिक्षा के अभाव में ही देश की बड़ी आबादी को छोटे परिवार के लाभ को लेकर जागरूक नहीं किया जा सका है।