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    पीर पराई चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता?

    – ललित गर्ग  –

    लोकसभा चुनाव का तीसरा चरण पुरा हो गया है, जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ रहे हैं राजनेताओं एवं उम्मीदवारों के दागदार चरित्र की परते खुलती जा रही है। एक समय था कि जब लोग देश के नेताओं के सार्वजनिक जीवन में आचरण का अनुसरण करते थे। नेताओं को भी समाज में अपनी छवि व प्रतिष्ठा की फिक्र रहती थी। लेकिन हाल के वर्षों में राजनीति में कई क्षत्रप परिवारों के ऐसे नेता भी सामने आए हैं जिन्होंने सत्तामद में चूर होकर तमाम नैतिकताओं व मर्यादाओं को ताक पर रखा। पिछले दिनों कर्नाटक में हासन सीट से जनता दल (सेक्यूलर) के सांसद प्रज्वल रेवन्ना पर सैकड़ों महिलाओं के साथ दुराचार के जो गंभीर आरोप लगे, उसने राजनीति में पतन की पराकाष्ठा को दर्शाया है। वही रांची में एक पुराने मामले की जांच कर रही ईडी को रेड में झारखंड सरकार में मंत्री आलमगीर आलम के निजी सचिव के घर पर काम करने नौकर के यहां से 39 करोड कैश बरामद हुआ है। यौन उत्पीड़न, दुराचार, भ्रष्टाचार एवं देशद्रोह पर सवार नेताओं एवं दागदार उम्मीदवारों से जुड़ा यह चुनाव लोकतंत्र पर एक गंभीर प्रश्न है। हमारी राजनीति एक त्रासदी बनती जा रही है। राजनेता सत्ता के लिये सब कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया, यही कारण है देश की फिजाओं में विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है और कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। डर लगता है राजनीतिक भ्रष्टाचारियों से, अपराध को मंडित करने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से, देश की एकता एवं अखण्डता को दांव पर लगाने वालों से एवं यौन उत्पीड़न व दुराचार से नारी अस्मिता को नौंचने वालों से।
    देश दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती है, भयभीत करती है। समाज में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प सब में परिवर्तन है। चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली होती जा रही है। ईमानदार होना आज अवगुण है। अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। धर्म और अध्यात्म में रुचि लेना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोही अव्यावहारिक है। भ्रष्टाचार को प्रश्रय नहीं देना समय को नहीं पहचानना है। चुनाव के परिप्रेक्ष्य में इन और ऐसे बुनियादी सवालों पर चर्चा होना जरूरी है। आखिर कब तक राजनीतिक स्वार्थों के नाम पर नयी गढ़ी जा रही ये परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को वीभत्स दिशाओं में धकेलती रहेगी? विकासवाद की तेज आंधी के नाम पर हमारा देश, हमारा समाज कब तक भुलावे में रहेगा? चुनाव के इस महायज्ञ में सुधार की, नैतिकता की, मूल्यों की, सिद्धान्तों की बात कहीं सुनाई नहीं दे रही है? दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं दिख रही है। बड़ी अंधेरी और घनेरी रात है। न आत्मबल है, न नैतिक बल।
    महान एवं सशक्त भारत के निर्माण के लिए आयोज्य यह चुनावरूपी महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है, यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है। विशेषतः चारित्रिक अवमूल्यन, आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को प्रश्रय देने का चुनावों में नंगा नाच होने लगा है और हर दल इसमें अपनी शक्ति का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन कर रहे हैं। बात केवल चुनावी चंदे ही नहीं बल्कि विदेशों से मिलने वाले चंदों की भी है। आज सवाल बहुत बड़ा है और वह है भारत की राजनीति को प्रत्यक्ष विदेशी प्रभाव से बचाना। आम आदमी पार्टी पर जिन कथित भारत-विरोधी विदेशी ताकतों से भारी राशि लेने के आरोप लगे हैं, वह हमारी समूची चुनाव प्रणाली के लिए चुनौती है।
    क्या कभी सत्तापक्ष या विपक्ष से जुडे़ लोगों ने या नये उभरने वाले राजनीतिक दावेदारों ने, और आदर्श की बातें करने वाले लोगों ने, अपनी करनी से ऐसा कोई अहसास दिया है कि उन्हें सीमित निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ राजनेता समझा जाए? यहां नेताओं के नाम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं न ही राजनीतिक दल महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस तरह का कूपमण्डूकी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना सकता है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है, और इसके लिए राजनेताओं में जिस तरह की परिपक्वता की अपेक्षा होती है, उसका समूचे विपक्षी दलों में अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है। और हम हैं कि ऐसे नेताओं के निर्माण में लगे हैं!
    चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं। इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चौराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। महाभारत की लड़ाई में सिर्फ कौरव-पांडव ही प्रभावित नहीं हुए थे। उस युद्ध की चिंगारियां दूर-दूर तक पहुंची थीं। साफ दिख रहा है कि इस महाभारत में भी कथित अराजक राजनीतिक एवं आर्थिक ताकतें अपना असर दिखाने की कोशिश कर रही है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। इन स्थितियों में अब ऐसी कोशिश जरूरी है जिसमें ‘महान भारत’ के नाम पर ‘महाभारत’ की नई कथा लिखने वालों के मंतव्यों और मनसूबों को पहचाना जाए। अर्जुन की एकाग्रता वाले नेता चाहिए भारत को, जरूरी होने पर गलत आचरण के लिए सर्वोच्च नेतृत्व पर वार करना भी गलत नहीं है।
    यह सही है कि आज देश में ऐसे दलों की भी कमी नहीं है, जो नीति नहीं, व्यक्ति की महत्वाकांक्षा के आधार पर बने हैं, लेकिन नीतियों की बात ऐसे दल भी करते हैं। जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए कथनी और करनी की असमानता चिंता का विषय होना चाहिए। हालांकि आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने में हमारे राजनीतिक दलों ने नीतियों-आदर्शों के ऐसे उदाहरण प्रस्तुत नहीं किए हैं, जो जनतांत्रिक व्यवस्था के मजबूत और स्वस्थ होने का संकेत देते हों, फिर भी यह अपेक्षा तो हमेशा रही है कि नीतियां और नैतिकता कहीं-न-कहीं हमारी राजनीति की दिशा तय करने में कोई भूमिका निभाएंगी। भले ही यह खुशफहमी थी, पर थी। अब तो ऐसी खुशफहमी पालने का मौका भी नहीं दिख रहा। लेकिन यह सवाल पूछने का मौका आज है कि नीतियां हमारी राजनीति का आधार कब बनेंगी? सवाल यह भी पूछा जाना जरूरी है कि अवसरवादिता को राजनीति में अपराध कब माना जाएगा? यह अपने आप में एक विडम्बना ही है कि सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित राजनीति की बात करना आज एक अजूबा लगता है। यह सही है कि व्यक्ति के विचार कभी बदल भी सकते हैं, पर रोज कपड़ों की तरह विचार बदलने को किस आधार पर सही कहा जा सकता है? सच तो यह है कि आज हमारी राजनीति में सही और गलत की परिभाषा ही बदल गई है- वह सब सही हो जाता है जिससे राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति होती हो और वह सब गलत हो जाता है जो आम आदमी के हितों से जुड़ा होता है, यह कैसा लोकतंत्र बन रहा है, जिसमें ‘लोक’ ही लुप्त होता जा रहा है?
    नरसी मेहता रचित भजन ‘‘वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे’’ गांधीजी के जीवन का सूत्र बन गया था, लेकिन यह आज के नेताओं का जीवनसूत्र क्यों नहीं बनता? क्यों नहीं आज के राजनेता पराये दर्द को, पराये दुःख को अपना मानते? क्यों नहीं जन-जन की वेदना और संवेदनाओं से अपने तार जोड़ते? कोई भी व्यक्ति, प्रसंग, अवसर अगर राष्ट्र को एक दिन के लिए ही आशावान बना देते हैं तो वह महत्वपूर्ण होते हैं। पर यहां एक दिन की अजागरूकता पांच साल यानी अठारह सौ पचीस दिनों को अंधेरों के हवाले करने की तैयारी होती है। यह कैसी जिम्मेदारी निभा रहे हैं हम वोटर होकर और कैसा राजनीतिक नेतृत्व निर्मित हो रहा है?

    तेलंगाना हैदराबाद लोकसभा सीट भारत की महत्वपूर्ण सीटों में से एक

    – दिव्य अग्रवाल
    तेलांगना हैदराबाद लोकसभा सीट भारत की महत्वपूर्ण सीटों में से एक है इसका कारण है की धार्मिक तुष्टिकरण की राजनीति कर ओवैसी ब्रदर्स का इस सीट पर कईं वर्षो से दबदबा रहा है । परन्तु इस बार यह सीट सबसे ज्यादा सुर्ख़ियों में है उसका कारण भाजपा प्रत्याशी कोम्पेला माधवी लता हैं। माधवी लता पिछले कईं वर्षो से लोपामुद्रा एवं लथामा नाम से दो चैरिटेबल ट्रस्ट चलाती हैं जिसके माध्यम से क्षेत्र की सभी जरूरतमंद महिला , मुस्लिम हो या हिन्दू सबकी सहायता कर उन्हें जीवन की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती हैं । तीन तलाक के विरुद्ध मुस्लिम महिलाओं में जागरूकता और मजहब के नाम पर होने वाले उनके शोषण के विरुद्ध माधवी लता काफी संघर्ष भी करती हैं । माधवी लता एक अस्पताल का भी संचालन करती हैं जहाँ किसी का धर्म या जाति देखकर इलाज नहीं किया जाता ,यदि यह कहा जाए की माधवी लता अपने सामाजिक अनुभव और शैक्षणिक योग्यता के आधार पर , मजहबी कट्टरपंथियों द्वारा शोषित समाज का उत्थान करने हेतु पिछले २५ वर्षो से निरंतर संघर्षपूर्वक कार्य कर रही हैं तो यह सम्पूर्ण सत्य होगा । इसके विपरीत ओवैसी ब्रदर्स जो मजहब के नाम पर लोगों के प्रति सदैव आक्रामक बयानबाजी करते हैं । कभी बाबरी के नाम पर लोगो को उकसाते हैं कभी अन्य समाज को धमकाते हैं की योगी , मोदी कब तक रहेंगे उनके जाने के बाद देख लेंगे , कभी व्यंगात्मक रूप से हिन्दू समाज का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं की क्या हिन्दू पुरुषो में दम नहीं है जो उनकी महिलाओं का मंगलसूत्र कोई भी छीन लेगा और हिन्दू समाज चुप रहेगा । आज स्थिति यह है की माधवी लता के संघर्ष और सरल स्वभाव की लोकप्रियता के कारण ओवैसी ब्रदर्स , जो मंदिर व्यवस्था के धुर विरोधी हैं वो भी हिन्दुओ को लुभाने के लिए स्वयं मंदिर मंदिर जा रहे हैं । इस्लामिक समाज को समझना चाहिए की जो लोग मूर्ति पूजा / बुत परस्ती को अल्लाह की नाफरमानी मानते हुए इस्लामिक समाज के मन में विष घोल देते हैं वो अपने निजी लालच में मंदिर जाकर हिन्दुओ को लुभाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं । वास्तविकता तो यही है की जब तक माधवी लता जैसे सेवक को जनप्रतिनिधि बनने का अवसर नहीं दिया जाएगा तब तक हैदराबाद की जनता का सम्पूर्ण विकास कैसे होगा ।

    हम लड़ रहे हैं दुनिया का सबसे महंगा चुनाव

    आजाद भारत का पहला चुनाव 1952 में हुआ था। भारत के संविधान में दी गई व्यवस्था के अनुसार संपन्न हुए इन चुनावों में उस समय मात्र 10.50 करोड रुपए खर्च हुए थे। भारत ने संसदीय लोकतंत्र को अपनाकर अपनी पुरातन राजतंत्रीय व्यवस्था को विदा कर दिया था। तब लोगों ने सोचा था कि अब बड़ी सहजता से अपने बीच के लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर शासन अपने हाथ में लेकर चलाएंगे। बहुत बड़ी आशाओं और सपनों के साथ हमने आगे बढ़ाना आरंभ किया। कुछ देर पश्चात ही हमें पता चल गया कि हम गलत दिशा में आगे जा रहे हैं। क्योंकि कुछ परिवारों ने पुरानी राजतंत्रीय व्यवस्था के नए संस्करण के रूप में राजनीतिक दल आधुनिक लोकतंत्र में लड़ने वाली फौज के रूप में खड़े किए, उन पर अपना एकाधिकार किया और धीरे-धीरे देश की सारी राजनीति पर अपना शिकंजा कस लिया। शासन सत्ता को हथियाने की आपाधापी में जब भारत के लोकतंत्र ने कुछ और दूरी तय की तो कई चीजें अस्त-व्यस्त होती चली गईं। बाहुबली और धनबली लोगों ने सज्जनों का राजनीति में प्रवेश सर्वथा बाधित कर दिया । जिन लोगों को देश का जनप्रतिनिधि बनाकर उनके माध्यम से जन सेवा और राष्ट्र सेवा कराने का सुनहरा सपना लोकतंत्र ने भारत के लोगों को दिखाया था , वे जनसेवी और राष्ट्र सेवी लोग विधानमंडलों के दरवाजे को देख भी ना पाएं, ऐसी व्यवस्था कर दी गई।
    1957 के लोकसभा चुनाव आए तो अब तक का सबसे सस्ता चुनाव उस समय हमने होता हुआ देखा। उन चुनावों में केवल 5.9 करोड रुपए ही सरकारी स्तर पर खर्च हुए। इसके बाद 1962 के चुनाव में 7.3 करोड़, 1967 के चौथी लोकसभा चुनाव पर10.8 करोड़ , पांचवी लोकसभा के 1971 के चुनाव में 11.6 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसके बाद 1977 में जब छठी लोकसभा के चुनाव हुए तो उस समय खर्चा एकदम दुगुने से भी अधिक बढ़ा। तब सरकारी स्तर पर 23 करोड़ रूपया चुनाव पर खर्च हुआ। 1980 में यह खर्च बढ़कर 54.8 करोड़, 1984- 85 में 81.5 करोड़, 1989 में 154.2 करोड़ और 1991 – 92 में बढ़कर 359.1 करोड़ हो गया। यह खर्चा 1952 के चुनाव की अपेक्षा 35 गुना अधिक था।
    1996 के लोकसभा चुनाव के समय इस खर्चे में वृद्धि होकर 597.3 करोड़ का खर्च हुआ । जबकि 1998 के चुनाव के समय 666.2 करोड़, 1999 के चुनाव में 947.7 करोड़, 2004 के लोकसभा के चुनाव में 1016.1 करोड़, 2009 के चुनाव पर 1114.4 करोड़ , 2014 के लोकसभा चुनाव पर 3870.3 करोड़ और 2019 के लोकसभा चुनाव पर 9000 करोड़ रूपया खर्च हुआ।
    अब खबर आ रही है कि 2024 में संपन्न हो रहे लोकसभा चुनाव पर यह खर्च बढ़कर 1.20 लाख करोड़ का होने जा रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो भारत में ग्राम सभा से लेकर लोकसभा तक जितना चुनाव खर्च होता है यदि सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी उसको जोड़कर देखा जाए तो यह 10 लाख करोड़ से भी ऊपर चला जाता है। निश्चित रूप से इतनी बड़ी धनराशि हमारे देश के कई राज्यों के बजट से भी अधिक है। जिस फिजूलखर्ची की प्रतीक राजशाही से बचने के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकशाही को देश में स्थापित किया था, क्या उसके बारे में उन्होंने कभी सोचा होगा कि यह भविष्य में जाकर इतनी महंगी हो जाएगी कि फिजूलखर्ची भी इसे देखकर अपने आप को लज्जित अनुभव करने लगेगी? इतनी बड़ी धनराशि को देखकर लगता है कि हम अपने लिए जनप्रतिनिधि नहीं चुन रहे हैं बल्कि राजा चुन रहे हैं । जिनके लिए राजकोष पर इतना अधिक भार देश की अर्थव्यवस्था को झेलना या ढोना पड़ रहा है । यह तो हुआ चुनाव खर्च , जो 5 वर्ष में आधुनिक राजा महाराजाओं के चुनाव पर हमें खर्च करना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उनके वेतन, भत्ते सुविधा, सरकारी आवास, सुरक्षा आदि पर होने वाले खर्च को भी यदि इसमें जोड़ा जाए तो आंखें फटी की फटी रह जाती हैं।
    अब आते हैं समस्या के एक दूसरे पहलू पर। हमारा मानना है कि यह समस्या ही वर्तमान में भारत में व्याप्त बेरोजगारी, भुखमरी, अपराध और गरीबी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसको समझने पर पता चल जाता है कि वर्तमान भारत की बेरोजगारी, भुखमरी, अपराध और गरीबी की समस्याओं का मूल कारण भी यह लोकतंत्र ही बन चुका है। कहा जाता है कि लोकतंत्र इन सबसे लड़ता है, पर यदि भारत की सामाजिक समस्याओं को समझा जाए तो पता चलता है कि भारत में लोकतंत्र इन सारी समस्याओं को पैदा करता है। समझने की बात है कि भारत में ग्राम प्रधान से लेकर संसद तक के चुनाव में खड़े होने वाले लोग मोटा धन पानी की तरह बहाते हैं। इसमें दो राय नहीं हैं कि अनेक लोग भारत में इस समय ऐसे हैं जो राज्यसभा सांसद बनने के लिए कई सौ करोड़ रुपए देने को तैयार बैठे हैं। यही लोग जब किसी पार्टी से लोकसभा में जाने के लिए चुनाव लड़ते हैं तो उसमें भी पानी की तरह पैसा बहाते हैं। चुनाव में हारा हुआ प्रत्याशी नए सिरे से अगले चुनाव लड़ने की तैयारी करता है । जिसके लिए वह पहले दिन से ही पैसा जोड़ना आरंभ करता है। इसके लिए उसे पार्टी में बड़े नेताओं का संरक्षण पाने के लिए वहां भी ‘चढ़ावा’ चढ़ाना पड़ता है। अपने साथ कुछ लोगों को साथ लेकर चलना पड़ता है, उन सब की सारी आर्थिक जिम्मेदारियों को सहन करना पड़ता है। तब उसे इस सारे खर्चे को निकालने के लिए लोगों की संपत्तियों पर अवैध कब्जा करना और अपराध के माध्यम से लोगों में डर पैदा करने जैसे हथकंडों को अपनाना पड़ता है। आज की राजनीति का सच यह है कि जो इन सब कामों को कर सकता है, वही राजनीति में टिक सकता है। ऐसा न करने वालों को या तो राजनीति छोड़ देती है या वह राजनीति को छोड़कर चला जाता है। राजनीतिक लोगों की यह ‘ समाज सेवा’ ही देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी आदि को फैलाती है। निश्चित रूप से हम इस समय विश्व का सबसे महंगा चुनाव लड़ रहे हैं।
    सांसद और विधायक से अलग हमारे देश में जिला परिषदों के चुनाव भी होते हैं। जिसके अध्यक्ष के लिए पार्टियों में बड़ी मारामारी होती है। यदि बात एनसीआर की करें तो यहां पर जिला परिषद का अध्यक्ष बनने के लिए लोग बहुत मोटा धन खर्च करते हैं। यहां तक कि ब्लॉक प्रमुख बनने के लिए भी लोग एक-एक वोटर को बड़ी-बड़ी गाड़ी गिफ्ट में दे देते हैं। राजनीतिक दलों को सच्चाई की पता है, पर पता होते हुए भी उपचार करने को कोई तैयार नहीं है। इस प्रकार के राजनीतिक दुराचरण के चलते सज्जनों का राजनीति में प्रवेश कुंठित हो गया
    है। देश से बाहर कितना काला धन है ? इस पर अक्सर लेख लिखे जाते हैं,चर्चाएं होती हैं। राजनीतिक दल भी एक दूसरे पर कीचड उछलते रहते हैं कि अमुक पार्टी के अमुक नेता ने इतना काला धन ले जाकर विदेश में जमा कर दिया है? पर इस पर चर्चा नहीं होती कि राजनीतिक लोगों के द्वारा देश के चुनाव को ही कितना महंगा कर दिया गया है?
    ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक की सीट को खुले आम लोग खरीद रहे हैं। सीटें नीलाम हो रही हैं। उसके साथ-साथ लोकतंत्र नीलाम हो रहा है। संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। संविधान की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। …..और हम सब मौन होकर देखने के लिए अभिशप्त हैं। ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हमारे लिए राजतंत्रीय व्यवस्था ही उपयुक्त नहीं थी ? जिसमें बैठे लोग कम से कम धन के भूखे तो नहीं थे। हमने ‘भूखों’ को ‘राजा’ बनाने के लिए देश के संसदीय लोकतंत्र की खोज की थी या फिर राजाओं को भूखों की सेवा करने के लिए संसदीय लोकतंत्र को स्थापित किया था? निश्चित रूप से हमारे संविधान निर्माताओं ने राजाओं को अर्थात देश के जनप्रतिनिधियों को भूखों की सेवा करने के लिए ही संसदीय लोकतंत्र को स्थापित किया था। हमने ही भूखों को अर्थात सर्वथा निकृष्ट और वाहियात लोगों को राजा अर्थात अपना जन प्रतिनिधि बनाकर देश के संसदीय लोकतंत्र का गला घोंट दिया है। ऐसे निकृष्ट लोगों के कारण ही देश का संसदीय लोकतंत्र का चुनाव महंगा होता जा रहा है। प्रधानमंत्री श्री मोदी को चुनाव सुधार की दिशा में काम करते हुए इस ओर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए।

    डॉ राकेश कुमार आर्य

    अमेरिकी बैंक क्यों हो रहे दिवालिया?

     अमेरिका में वर्ष 2023 में 3 बैंक (सिलिकन वैली बैंक, सिगनेचर बैंक, फर्स्ट रिपब्लिक बैंक) डूब गए थे एवं वर्ष 2024 में भी एक बैंक (रिपब्लिक फर्स्ट बैंक) डूब गया है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अमेरिकी केंद्रीय बैंक, यूएस फेडरल रिजर्व, द्वारा ब्याज दरों में की गई वृद्धि के चलते बैंकों के असफल होने की यह परेशानी बहुत बढ़ गई है।

    सिलिकन वैली बैंक ने कई तकनीकी स्टार्ट अप एवं उद्यमी पूंजी फर्म को ऋण प्रदान किया था। इस बैंक के पास वर्ष 2022 के अंत में 20,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सम्पत्तियां थी और यह अमेरिका के बड़े आकार के बैंकों में गिना जाता था और हाल ही के समय में डूबने वाले बैंकों में दूसरा सबसे बड़ा बैंक माना जा रहा है। इसी प्रकार, सिगनेचर बैंक ने न्यूयॉर्क कानूनी फर्म एवं अचल सम्पत्ति कम्पनियों को ऋण सुविधाएं प्रदान कर रखी थीं। इस बैंक के पास वर्ष 2022 के अंत में 11,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की सम्पत्ति थी और अमेरिका में हाल ही के समय में डूबने वाले बड़े बैंकों में चौथे स्थान पर आता है। 31 जनवरी 2024 तक के आंकड़ों के अनुसार, रिपब्लिक फर्स्ट बैंक की कुल सम्पत्तियां 600 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं जमाराशि 400 करोड़ अमेरिकी डॉलर थीं। न्यू जर्सी, पेनसिल्वेनिया और न्यूयॉर्क में बैंक की 32 शाखाएं थीं जिन्हें अब फुल्टन बैंक की शाखाओं के रूप में जाना जाएगा क्योंकि फुल्टन बैंक ने इस बैंक की सम्पत्तियों एवं जमाराशि को खरीद लिया है।

    पीयू रिसर्च संस्थान के अनुसार, चार शताब्दी पूर्व, वर्ष 1980 एवं वर्ष 1995 के बीच अमेरिका में 2,900 बैंक असफल हुए थे। इन बैंकों के पास संयुक्त रूप से 2.2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की सम्पत्ति थी। इसी प्रकार, वर्ष 2007 से वर्ष 2014 के बीच अमेरिका में 500 बैंक, जिनकी कुल सम्पत्ति 95,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर थी, असफल हो गए थे। ऐसा कहा जाता है कि विशेष परिस्थितियों को छोड़कर अमेरिका में सामान्यतः बैंक असफल नहीं होते हैं। परंतु, इस सम्बंध में अमेरिकी रिकार्ड कुछ और ही कहानी कह रहा है। वर्ष 1941 से वर्ष 1979 के बीच, अमेरिका में औसतन 5.3 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। वर्ष 1996 से वर्ष 2006 के बीच औसतन 4.3 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं एवं वर्ष 2015 से वर्ष 2022 के बीच औसतन 3.6 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। वर्ष 2022 में अमेरिकी बैंकों को 62,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक्सान हुआ था। इसके पूर्व, वर्ष 1921 से वर्ष 1929 के बीच अमेरिका में औसतन 635 बैंक प्रतिवर्ष असफल हुए हैं। यह अधिकतर छोटे आकार के बैंक एवं ग्रामीण बैंक थे और यह एक ही शाखा वाले बैंक थे। अमेरिका में आई भारी मंदी के दौरान वर्ष 1930 से वर्ष 1933 के बीच 9,000 से अधिक बैंक असफल हुए थे। इनमें कई बड़े आकार के शहरों में कार्यरत बैंक भी शामिल थे और उस समय इन बैंकों में जमाकर्ताओं की भारी भरकम राशि डूब गई थी। वर्ष 1934 से वर्ष 1940 के बीच अमेरिका में औसतन 50.7 बैंक प्रतिवर्ष बंद किए गए थे। 

    अमेरिका में इतनी भारी मात्रा में बैंकों के असफल होने के कारणों में मुख्य रूप से शामिल है कि वहां छोटे छोटे बैंकों की संख्या बहुत अधिक होना है। बैकों के ग्राहक बहुत पढ़े लिखे और समझदार हैं। बैंक में आई छोटी से छोटी परेशानी में भी वे बैंक से तुरंत अपनी जमाराशि को निकालने पहुंच जाते हैं, जबकि बैंक द्वारा इस राशि से खड़ी की गई सम्पत्ति को रोकड़ में परिवर्तित करने में कुछ समय लगता है। इस बीच बैंक यदि जमाकर्ता को जमाराशि का भुगतान करने में असफल रहता है तो उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है और इस प्रकार बैंक असफल हो जाता है। कई बार बैंकों द्वारा किए गए निवेश (सम्पत्ति) की बाजार में कीमत भी कम हो जाती है, इससे भी बैंकें अपने जमाकर्ताओं को जमाराशि का भुगतान करने में असफल हो जाते हैं। अभी हाल ही में अमेरिका में मुद्रा स्फीति की दर को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में लगातार बढ़ौतरी की गई है, जिससे इन बैकों द्वारा अमेरिकी बांड में किये गए निवेश की बाजार में कीमत अत्यधिक कम हो गई है। अब इन बैंकों को बांड में निवेश की बाजार कीमत कम होने के स्तर तक प्रावधान करने को कहा गया है और यह राशि इन बैकों के पास उपलब्ध ही नहीं है, जिसके चलते भी यह बैंक असफल हो रहे हैं। एक सर्वे में यह बताया गया है कि आने वाले समय में अमेरिका में 190 अन्य बैंकों के असफल होने का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि ब्याज दरों के बढ़ने से ऋण की मांग बहुत कम हो गई है। विभिन्न कम्पनियों ने अपने विस्तार की योजनाओं को रोक दिया है, इससे निर्माण की गतिविधियों में कमी आई है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व, का पूरा ध्यान केवल मुद्रा स्फीति को कम करने पर है एवं अमेरिकी अर्थव्यवस्था में विकास दर को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उत्पादों की मांग कम हो और मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में लाया जा सके। इसके चलते कई कम्पनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रही है एवं देश में युवा वर्ग बेरोजगार हो रहा है।

    पूंजीवाद पर आधारित आर्थिक नीतियां अमेरिका में बैंकिंग क्षेत्र में उत्पन्न समस्याओं का हल नहीं निकाल पा रही हैं। अब तो अमेरिकी अर्थशास्त्री भी मानने लगे हैं कि आर्थिक समस्याओं के संदर्भ में साम्यवाद के बाद पूंजीवाद भी असफल होता दिखाई दे रहा है एवं आज विश्व को एक नए आर्थिक मॉडल की आवश्यकता है। इन अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का स्पष्ट इशारा भारत की ओर है क्योंकि इस बीच भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित मॉडल भारत में आर्थिक समस्याओं को हल करने में सफल रहा है। अमेरिका में बैकों के असफल होने की समस्या मुख्यतः मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में की गई वृद्धि के कारण उत्पन्न हुई हैं। दरअसल, मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से उत्पादों की मांग को कम करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करने के स्थान पर बाजार में उत्पादों की उपलब्धता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि इन उत्पादों की कीमत को कम रखा जा सके। प्राचीन भारत में उत्पादों की उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था, जिसके कारण मुद्रा स्फीति की समस्या भारत में कभी रही ही नहीं है। बल्कि भारत में उत्पादों की प्रचुरता के चलते समय समय पर उत्पादों की कीमतें कम होती रही हैं। ग्रामीण इलाकों की मंडियों में आसपास ग्रामों में निवास करने वाले ग्रामीण व्यापारी एवं उत्पादक अपने उत्पादों को बेचने हेतु एकत्रित होते थे, सायंकाल तक यदि उनके उत्पाद नहीं बिक पाते थे तो वे इन उत्पादों को कम दामों पर बेचना प्रारम्भ कर देते थे ताकि गांव जाने के पूर्व उनके समस्त उत्पाद बिक जाएं एवं उन्हें इन उत्पादों को अपने गांव वापिस नहीं ले जाना पड़े। इस प्रकार भी विभिन्न उत्पादों की भारतीय मंडियों में मांग से अधिक आपूर्ति बनी रहती थी। अतः उत्पादों की कमी के स्थान पर उत्पादों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता पर ध्यान दिया जाता था, इससे प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मुद्रा स्फीति का जिक्र ही नहीं मिलता है। दूसरे, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आर्थिक मॉडल एवं नियमों को बहुत जटिल बना दिया गया है। इससे भी कई प्रकार की आर्थिक समस्याएं खड़ी हो रही है जिसका हल विकसित देश नहीं निकाल पा रहे हैं।      

    प्रहलाद सबनानी

    पश्चिम बंगाल से उत्तर प्रदेश को साधना चाहती हैं ममता ?

                       प्रभुनाथ शुक्ल 

    देश का आम चुनाव जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए जनविश्वास की चुनौती का बड़ा सवाल है। वहीं दूसरी तरफ विखरे विपक्ष की सियासी एकता की अग्निपरीक्षा भी है। आम चुनाव को लेकर देश में शोर की राजनीति है। जनपक्ष से जुड़े जमीनी मुद्दे गायब हैं सिर्फ जुबानी जंग की लड़ाई है। आधुनिक भारत में विज्ञान और विकास के बढ़ते कदम में हम चाँद और सूरज को नाप रहे हैं जबकि राजनीति में हमारी सोच आरक्षण, दलित, सम्प्रदाय, जाति, अगड़ा -पिछड़ा, हिन्दू -मुस्लिम से आगे नहीं निकल पा रही। यह आधुनिक भारत और युवापीढ़ी के लिए शर्म की बात है।

    फिलहाल राजनीति भी प्रयोगवाद का विज्ञान है लिहाजा प्रयोग लाजमी है। चलिए हम उसी सियासी प्रयोगवाद के अध्ययन की तरफ ले चलते हैं। उत्तर प्रदेश राजनीतिक लिहाज से बड़ा प्रयोग क्षेत्र है। ‘भाजपा का नारा अबकी बार 400 पार’ की असली जमीन उत्तर प्रदेश ही है। इस बार पश्चिम बंगाल की कुशल राजनीतिज्ञ खिलाडी ममता बनर्जी इण्डिया गठबंधन के रास्ते नया प्रयोग करना चाहती हैं। वह भदोही लोकसभा सीट के जरिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में घुसपैठ करना चाहती हैं। उनकी इस सोच को जमीन देने का काम किया है समाजवादी पार्टी के मुखिया एवं यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने। उन्होंने अपनी सियासी दोस्ती में भदोही जैसी अहम सीट तृणमूल की झोली में डाल दिया है। ममता दीदी इस प्रयोग में कितनी सफल होंगी यह वक्त बताएगा।

    ममता बनर्जी इस प्रयोगवाद के जरिए भाषाई राजनीति से अलग हटकर उत्तर भारत के सबसे बड़े हिंदी भाषी क्षेत्र में अपनी उपस्थित दर्ज करना चाहती हैं। अगर इण्डिया गठबंधन के जरिए यह प्रयोग सफल रहा तो वह इसी रास्ते हिंदी भूभाग पर राजनैतिक विस्तारवाद की फसल उगाएंगी। उनके इस सफऱ के सबसे अहम साथी यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव होंगे। मोदी बनाम विपक्ष की इस सियासी दोस्ती में दीदी को अखलेश यादव जैसा एक मजबूत सियासी दोस्त मिला है। दीदी के लिए उन्होंने बड़ा दिल दिखाया है। सपा यूपी में 63 जबकि कांग्रेस 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

    ममता और अखिलेश यादव के बीच हुए इस समझौते में मीडिया में यह बात भी आयी थीं कि अखिलेश यादव पश्चिम बंगाल में समाजवादी पार्टी के उपाध्याय किरणमय नंदा के लिए दक्षिण कोलकाता की सीट चाहते थे। क्योंकि यहाँ पूर्वांचल के आजमगढ़, गाजीपुर और चंदौली जिले के मतदाता काफी संख्या में रहते हैं। जिससे सपा वहां अपनी पैठ जमा सकती है। अब यह समझौता हुआ या नहीं कहना मुश्किल है। किरणमय नंदा 35 साल तक विधायक रहे। वह वाममोर्चा सरकार में 30 साल तक मंत्री रहे। वे समाजवादी विचारधारा के पोषक रहे जिसकी वजह से वे मुलायम सिंह यादव के करीब आए और परिवार में सियासी उठापटक के दौरान वे अखिलेश यादव के साथ मजबूती से खड़े रहे। जिसकी वजह से वह अखिलेश यादव के करीबी बन गए। नंदा की वजह से ही समजवादी पार्टी का अधिवेशन कोलकाता में हुआ था। बंगाल में वह समाजवादी पार्टी को खड़ा करना चाहते हैं।

    फिरहाल अखिलेश यादव ने ममता दीदी के लिए बड़ा दिल दिखाया और उन्हें भदोही सीट मिल गई है। हालांकि अखलेश यादव के इस फैसले से पार्टी के बड़े नेता आंतरिक तौर पर खुश नहीं होंगे। लेकिन भदोही के समाजवादी पार्टी के विधायक जाहिद जमाल बेग बातचीत के दौरान इस बात से इनकार किया था। फिलहाल बीमारी की वजह से वे अस्पताल में हैं। यहाँ से ममता ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे पंडित कमलापति के प्रपौत्र ललितेश पति त्रिपाठी को चुनावी मैदान में उतारा है।

    ललितेशपति का परिवार खानदानी तौर पर कांग्रेस कल्चर से रहा है। ललितेश भी कभी गाँधी परिवार के बेहद करीबी माने जाते रहे। वे कांग्रेस से मिर्जापुर की मडिहान विधानसभा से 2012 में विधायक चुने गए। मिर्जापुर उनके परिवार की सियासी कर्मस्थली रही है। उनके दादा लोकपति त्रिपाठी का यह कर्म क्षेत्र रहा है।  ललितेश कभी प्रियंका गाँधी के बेहद खास रहे। लेकिन राजनीति में सबकुछ चलता है। किसी बात से नाराज होकर 2021 में कांग्रेस छोड़कर तृणमूल की शरण में चले गए। अब ममता ने उन्हें भदोही से उम्मीदवार बनाया है।

    पश्चिम बंगाल में इण्डिया गठबंधन का कोई मतलब नहीं है वहां कांग्रेस और ममता एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। ममता दीदी भदोही में ललितेश को चुनावी मैदान में उतार कर सोची समझी रणनीति का परिचय दिया है। उन्होंने कांग्रेस को जहाँ जमीन दिखाई है वहीं एक ब्राह्मण चेहरा उतार कर एक नई सियासत का आगाज किया है। ललितेश कभी कांग्रेस के वफादार सिपाही थे। उनका पूरा खानदान कांग्रेस कल्चर का है लेकिन कांग्रेस से जब ठुकराए गए तो दीदी ने गले लगाया। ममता का दांव कांग्रेस के लिए एक सबक भी है।

    दूसरी बात ललितेश एक ब्राह्मण चेहरा हैं। ममता भी ब्राह्मण हैं। भदोही में ब्राह्मण वोटर सबसे अधिक हैं। 2014 के बाद ब्राह्मण भाजपा की झोली में चला गया है। जबकि पश्चिम बंगाल में भाजपा यानी मोदी और ममता की सियासी दुश्मनी जगजाहिर है। इसलिए उन्होंने पूर्वांचल के सियासी दिग्गज परिवार के युवा उमीदवार को उतार कर भजपा के वोट में सेंधमार अपना सियासी दाँव को सफल करना चाहती हैं। क्योंकि भदोही प्रधानमंत्री मोदी की वाराणसी संसदीय सीट की पड़ोसी सीट है। ममता का चुनावी दाँव अगर सफल हो जाता है तो यह मोदी के लिए भी चुनौती होगी।

    दूसरी तरफ भदोही समाजवादी और भजपा की टककर वाली सीट है। यहाँ ब्राह्मण, बिंद के बाद मुस्लिम और यादव अच्छी तादात में हैं। भाजपा बंगाल में ममता पर हिन्दु विरोधी होने का आरोप लगाती है। उन्हें बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों और मुस्लिमों का सबसे बड़ा हितचिंतक बताती है। जिसका लाभ ममता को भदोही में मिलेगा। क्योंकि एमवाई यानी मुस्लिम और यादव अखिलेश यादव का बेहद करीबी है। ममता और अखिलेश यादव के राजनीतिक विचारधारा में समानता है जिसका लाभ तृणमूल को मिलेगा।

    भदोही का ब्राह्मण अगर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को किनारे कर ब्रह्मणवाद के लिए शंख बजा दिया तो यहाँ ममता और अखलेश यादव की सियासी दोस्ती गुल खिला सकती है। ममता दीदी को भदोही के रास्ते उत्तर प्रदेश की राजनीति में पाँव फैलाने का अच्छा खासा मार्ग मिल जाएगा। फिलहाल मोदी बनाम विपक्ष की इस लड़ाई में ममता की सियासी गुगली कितनी सफल होती है या समय बताएगा। लेकिन दीदी और अखिलेश की दोस्ती एवं सियासी समझौते को हल्के में लेना भाजपा की बड़ी भूल होगी।

    मिलावट का कहर, स्वास्थ्य के लिये जहर

    – ललित गर्ग –

    भारतीय मसालों की गुणवत्ता की साख जब दुनिया में धुंधली हुई है, मिलावटी मसालों पर देश से दुनिया तक बहस छिड़ी हुई है, तब दिल्ली में मिलावट के एक बड़े मामले का पर्दापाश होना न केवल चिंताजनक है बल्कि दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत के लिये शर्मनाक है। भारत में मिलावट का मामला मसालों तक ही सीमित नहीं है। मिलावटखोरों ने दवाइयों, तेल, घी, दूध, मिठाइयों से लेकर अनाज तक किसी चीज को नहीं छोड़ा है। हर साल त्योहारों पर देशभर से मिलावटी मावा और मिलावटी मिठाइयों की खबरे आती हैं। प्रश्न है कि आखिर मिलावट का बाजार इतना धडल्ले से क्यों पनप रहा है, क्यों सिस्टम लाचार है, मिलावटखोरी का अंत क्यों नहीं हो पा रहा है? लोकसभा चुनाव के दौरान मिलावट की त्रासद एवं जानलेवा घटनाओं का उजागर होना, क्यों नहीं चुनावी मुद्दा बनता?
    कह तो सभी यही रहे हैं–”बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है।“ लेकिन इस बड़े सच रोटी यानी पेट भरने की खाद्य-सामग्री को मिलावट के कारण दूषित एवं जानलेवा कर दिया गया है। देश में खाद्य पदार्थों में मिलावट मुनाफाखोरी का सबसे आसान जरिया बन गई है। खाने-पीने की चीजें बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं हैं। किसी भी वस्तु की शुद्धता के विषय में हमारे संदेह एवं शंकाएं बहुत गहरा गयी हैं। मिलावट का धंधा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक भी फैला हुआ है और इसकी जड़ें काफी मजबूत हो चुकी हैं। जीवन कितना विषम और विषभरा बन गया है कि सभी कुछ मिलावटी है। सब नकली, धोखा, गोलमाल ऊपर से सरकार एवं संबंधित विभाग कुंभकरणी निद्रा में है। मिलावटी खाद्य पदार्थ धीमे जहर की तरह हैं। ये दिल और दिमाग से जुड़ी बीमारियों, अल्सर, कैंसर वगैरह की वजह बन सकते हैं। खाने वालों को आभास भी नहीं होता कि वे धीरे-धीरे किसी गंभीर बीमारी की ओर जा रहे हैं। वे किसी पर भरोसा कर कुछ खरीदते हैं और मिलावटखोर तमाम कानून बने होने एवं प्रशासन की सक्रियता के बावजूद इस भरोसे को तोड़ रहे हैं। उनकी वजह से दूसरे देशों का भी भरोसा भारतीय उत्पादों पर कम होने की स्थितियां बनती जा रही है। कुछ दिनों पहले ही हांगकांग और सिंगापुर ने लिमिट से ज्यादा पेस्टिसाइड का आरोप लगाकर दो भारतीय ब्रैंड के कुछ मसालों को बैन किया था। अगर ऐसा हुआ तो इनके निर्यात से करोड़ों डॉलर की आमदनी पर आंच आएगी।
    मिलावट करने वालों को न तो कानून का भय है और न आम आदमी की जान की परवाह है। दुखद एवं विडम्बनापूर्ण तो ये स्थितियां हैं जिनमें खाद्य वस्तुओं में मिलावट धडल्ले से हो रही है और सरकारी एजेन्सियां इसके लाइसैंस भी आंख मूंदकर बांट रही है। जिन सरकारी विभागों पर खाद्य पदार्थों की क्वॉलिटी बनाए रखने की जिम्मेदारी है वे किस तरह से लापरवाही बरत रही है, इसका परिणाम आये दिन होने वाले फूड प्वाइजनिंग की घटनाओं से देखने को मिल रहे हैं। मिलावट के बहुरुपिया रावणों ने खाद्य बाजार जकड़ रखा है। मिलावट का कारोबार अगर फल-फूल रहा है, तो जाहिर है कि इसके खिलाफ जंग उस पैमाने पर नहीं हो रही है, जैसी होनी चाहिए। इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश से कुछ सबक ले सकता है, जिसने हल्दी में लेड की मिलावट पर काबू पा लिया। मिलावटखोर हल्दी की चमक बढ़ाने के लिए लेड का इस्तेमाल करते हैं और यह समस्या पूरे दक्षिण एशिया की है।
    मिलावट सबसे बड़ा खतरा है। मारने वाला कितनों को मारेगा? एक आतंकवादी स्वचालित हथियार से या बम ब्लास्ट कर अधिक से अधिक सौ दो सौ को मार देता है। लेकिन खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वाला हिंसक एवं दरिंदा तो न जाने कितनों को मृत्यु की नींद सुलाता है, कितनों को अपंग और अपाहिज बनाता है। इन हिंसक, क्रूर एवं मुलाफाखोरों पर लगाम न लगने की एक वजह यह भी है कि ऐसा करने वालों को लगता है, इससे होने वाले मुनाफे की तुलना में मिलने वाली सजा बहुत कम है। जाहिर है, सजा कड़ी करने के साथ ही यह भी पक्का करना होगा कि दोषी किसी तरह से बच न निकलें। यही नहीं, लोगों को पता होना चाहिए कि मिलावट की शिकायत कहां करनी है। हमारे प्रयासों में कमी न रहे, तभी यह काला धंधा रुक सकेगा।
    कारोबार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण मिलावट हर जगह देखने को मिलती है। कहीं दूध में पानी की मिलावट होती है, तो कहीं मसालों में रंगों की। दूध, चाय, चीनी, दाल, अनाज, हल्दी, फल, आटा, तेल, घी आदि ऐसी तमाम तरह की घरेलू उपयोग की वस्तुओं में मिलावट की जा रही है। यानी, पूरे पैसे खर्च करके भी हमें शुद्ध खाने का सामान नहीं मिल पाता है। मिलावट इतनी सफाई से होती है कि असली खाद्य पदार्थ और मिलावटी खाद्य पदार्थ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। जीवन मूल्यहीन और दिशाहीन हो रहा है। हमारी सोच जड़ हो रही है। मिलावट, अनैतिकता और अविश्वास के चक्रव्यूह में जीवन मानो कैद हो गया है। घी के नाम पर चर्बी, मक्खन की जगह मार्गरीन, आटे में सेलखड़ी का पाउडर, हल्दी में पीली मिट्टी, काली मिर्च में पपीते के बीज, कटी हुई सुपारी में कटे हुए छुहारे की गुठलियां मिलाकर बेची जा रही हैं। दूध में मिलावट का कोई अंत नहीं। नकली मावा बिकना तो आम बात है। राजस्थान और गुजरात में चल रहा नकली जीरे का कारोबार अब दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्सो तक पहुंच गया है। दिल्ली में पहली बार पकड़ी गई नकली जीरे की खेप ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत के लोगों को न शुद्ध हवा मिल रही है और न शुद्ध पानी और न ही शुद्ध खाने का निवाला, कैसी अराजक शासन व्यवस्था है?
    मिलावट के कारण हम एक बीमार समाज का निर्माण कर रहे हैं। शरीर से रुग्ण, जीर्ण-शीर्ण मनुष्य क्या सोच सकता है और क्या कर सकता है? क्या मिलावटखोर परोक्ष रूप से जनजीवन की सामूहिक हत्या का षड्यंत्र नहीं कर रहे? हत्यारों की तरह उन्हें भी अपराधी मानकर दंड देना अनिवार्य होना चाहिए। मिलावट एक ऐसा खलनायक है, हत्यारी प्रवृत्ति है, जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो रही है। चाहे प्रचलित खाद्य सामग्रियों की निम्न गुणवत्ता या उनके जहरीले होने का मततब इंसानों की मौत भले ही हो, पर कुछ व्यापारियों एवं सरकारी अधिकारियों के लिए शायद यह अपनी थैली भर लेने का एक मौका भर है। त्यौहारों पर मिलावटी मिठाइयां खाने से अपच, उलटी, दस्त, सिरदर्द, कमजोरी और बेचैनी की शिकायते सुनने में आती रही है। इससे किडनी पर बुरा असर पड़ता है। पेट और खाने की नली में कैंसर की आशंका भी रहती है।
    खाद्य उत्पाद विनियामक भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने 2006 के खाद्य सुरक्षा और मानक कानून में कड़े प्रावधान की सिफारिश की थी। कानून को सिंगापुर के सेल्स आफ फूड एक्ट कानून की तर्ज पर बनाया गया जो मिलावट को गम्भीर अपराध मानता है। फूड इंस्पैक्टरों का दायित्व है कि वह बाजार में समय-समय पर सैम्पल एकत्रित कर जांच करवाएं लेकिन जब सबकी ‘मंथली इन्कम’ तय हो तो फिर जांच कौन करे? हालत यह है कि बाजारों में धूल-धक्कड़ के बीच घोर अस्वास्थ्यकर माहौल में खाद्य सामग्रियां बेची जा रही है। सीएजी ऑडिट के दौरान जो तथ्य उजागर हुए हैं, वे भ्रष्टाचार को तो सामने लाते ही है साथ-ही-साथ प्रशासनिक लापरवाही को भी प्रस्तुत करते हैं। देश में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता बनाए रखने का काम करने वाली सरकारी एजेन्सी की दशा कितनी दयनीय है और वहां कितनी लापरवाही बरती जा रही है, सहज अनुमान लगाया जा सकता है। हमें सोचना चाहिए कि शुद्ध खाद्य पदार्थ हासिल करना हमारा मौलिक हक है और यह सरकार का फर्ज है कि वह इसे उपलब्ध कराने में बरती जा रही कोताही को सख्ती से ले।

    पर्याप्त सुविधाओं के अभाव से प्रभावित होती बालिका शिक्षा

    आशा नारंग
    अलवर, राजस्थान
    हाल ही में आईसीएसई समेत विभिन्न राज्यों के दसवीं और बारहवीं के परिणाम घोषित हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या में छात्राओं ने उम्मीद से कहीं अधिक बढ़कर प्रदर्शन किया है. यह आंकड़े बताते हैं कि यदि अवसर और सुविधाएं प्रदान किये जाएं तो लड़कियां भी किसी भी परिणाम को अपने पक्ष में करने की भरपूर सलाहियत रखती हैं. दरअसल 

    आज़ादी के बाद हमारे देश में चाहे केंद्र की सरकार हो, या राज्य की सरकारें, सभी ने जिन बुनियादी सुविधाओं के विकास पर सबसे अधिक फोकस किया उसमें शिक्षा भी एक अहम विषय था. शहर से लेकर गांव और अमीर से लेकर गरीब तक के सभी बच्चों को समान रूप से शिक्षा प्राप्त हो इसके लिए कई स्तर पर योजनाएं तैयार की गई. बच्चों के लिए स्कूल तक पहुंच को आसान बनाने पर ज़ोर दिया गया, गरीब के बच्चों की शिक्षा में कोई बाधा न आये इसके लिए अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था की गई, किताब-कॉपियां और स्कूल ड्रेस मुफ्त उपलब्ध कराये जाने लगे. 

    सरकार की इस पहल का बहुत सकारात्मक परिणाम भी नज़र आने लगा. आज़ादी के बाद 1951 की पहली जनगणना में जहां देश में साक्षरता की कुल दर महज़ 18.33 प्रतिशत थी वहीं 60 वर्षों बाद 2011 में यह बढ़कर 74 प्रतिशत से अधिक हो गई. लेकिन इस सुखद आंकड़ों के साथ सिक्के का एक दूसरा पहलू यह है कि अभी भी किशोरियों विशेषकर दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों की किशोरियों के सामने शिक्षा प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती है. अभी भी हमारे देश में कई ऐसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां महिलाओं की साक्षरता दर बेहद कम है. जहां मुश्किल से लड़कियां 12वीं तक भी शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं. ऐसा ही एक गांव राजस्थान के अलवर जिला स्थित शादीपुर है. जहां आज भी महिलाओं में साक्षरता की दर दहाई के आंकड़े को भी पार नहीं कर सका है. इस गांव में बालिका शिक्षा के प्रति जहां समाज में उदासीनता है वहीं शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की योजनाएं भी दम तोड़ती नज़र आती है.

    अलवर जिला से करीब 67 किमी और तिजारा तहसील से लगभग 20 किमी की दूरी पर आबाद इस गांव की जनसंख्या 300 के आसपास है. इसमें महिलाओं की जनसंख्या करीब 48 प्रतिशत है. मुस्लिम बहुल इस गांव में 2011 की जनगणना के अनुसार कुल साक्षरता की दर 18 प्रतिशत से भी कम है. पुरुषों में जहां साक्षरता की दर करीब 30 प्रतिशत है वहीं महिलाओं में यहां साक्षरता की दर पांच प्रतिशत से भी कम है. जो न केवल चिंता का विषय है बल्कि बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने वाले हमारे आंकड़ों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है. इतना ही नहीं गांव में न तो कोई पंचायत घर है, न आंगनबाड़ी और न ही सार्वजानिक शौचालय की कोई सुविधा उपलब्ध है. गांव वालों के रोज़गार का मुख्य साधन पशुपालन, दैनिक मज़दूरी, थ्रेसर मशीन चलाना, ट्रक ड्राइवर का काम करना और कुछ परिवार की अपनी ज़मीन है जिस पर वह खेती करते हैं. महिलाएं घर के काम के साथ साथ खेती के काम में भी पुरुषों का हाथ बटाती हैं. गांव में पक्की सड़क का अभाव होने के कारण आवागमन की सुविधा भी सुलभ नहीं है.

    गांव में बालिका शिक्षा की चिंताजनक स्थिति के बारे में 35 वर्षीय अब्बास बताते हैं कि गांव में केवल 8वीं तक ही स्कूल है. इससे आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लड़कियों को 10 किमी दूर अन्य गांव में जाना पड़ेगा. लेकिन आवागमन की सुविधाओं का अभाव, लड़कियों के साथ होने वाले छेड़छाड़ का डर और बालिका शिक्षा के प्रति समाज की सीमित सोच के कारण अभिभावक लड़कियों को इतनी दूर भेजने से इंकार कर देते हैं. जिससे चाह कर भी कोई लड़की 9वीं या 10वीं की शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाती है. वह बताते हैं कि गांव में 8वीं तक जो सरकारी विद्यालय संचालित हैं उनमें भी सुविधाओं का घोर अभाव है. प्रधानाध्यापक सहित केवल 4 शिक्षकों के भरोसे यह पूरा स्कूल चल रहा है. इसके अतिरिक्त स्कूल में न तो पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था है और न ही छात्र-छात्राओं के लिए शौचालय की उचित व्यवस्था है.

    नाम नहीं बताने की शर्त पर एक छात्रा की मां बताती है कि उनकी बेटी कई बार स्कूल में सुविधाओं की कमी की शिकायत कर चुकी है. लेकिन वह आर्थिक रूप से इतनी सशक्त नहीं हैं कि अपनी बेटी का एडमिशन गांव से बाहर या किसी निजी शिक्षण संस्थान में करा सकें. वह बताती है कि स्कूल में कोई महिला शिक्षिका के नहीं होने से लड़कियों को अक्सर माहवारी के दौरान समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इसीलिए माहवारी के दिनों में गाँव की लड़कियां स्कूल जाना बंद कर देती हैं. जिससे वह धीरे धीरे शिक्षा में पिछड़ती चली जाती हैं. 8वीं के बाद की शिक्षा के लिए दूसरे गाँव जाने के प्रश्न पर एक अन्य महिला कहती हैं कि “हमें अपनी लड़कियों की सुरक्षा की चिंता होती है. ज़माना ठीक नहीं है. यदि किसी लड़की के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ की घटना हो जाए तो न केवल उस लड़की की बल्कि उसके पूरे खानदान की इज्जत चली जाएगी. इसलिए कोई भी अभिभावक 8वीं के बाद इतनी दूर अपनी लड़की को स्कूल भेजने के लिए कभी तैयार नहीं होते हैं.”सामाजिक कार्यकर्त्ता और मेवात शिक्षा पंचायत के सदस्य ज़फ़र कहते हैं कि “जब गाँव में शिक्षा का कोई माहौल ही नहीं है तो बालिका शिक्षा की बात बहुत दूर है. गाँव में आज तक केवल एक लड़के को सरकारी नौकरी लगी है. किसी लड़की को जब ग्रेजुएशन तक पढ़ाया ही नहीं जाएगा तो उसके सरकारी नौकरी में होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?” वह कहते हैं कि “हालांकि पहले की तुलना में अब गांव में शिक्षा के प्रति थोड़ी बहुत जागरूकता भी बढ़ी है. लोग अपने बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हैं लेकिन बालिका शिक्षा के प्रति अभी भी बहुत जागरूकता की आवश्यकता है. यदि गांव में ही 10वीं या 12वीं तक स्कूल खुल जाए तो शायद किशोरियों के लिए भी उच्च शिक्षा तक पहुंच बनाना आसान हो सकता है.” 
    उन्होंने बताया कि “अलवर मेवात शिक्षा एवं विकास संस्थान जैसी कुछ एनजीओ ने इस दिशा में पहल की है. जिन्होंने अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के सहयोग से गांव में किशोरी बालिकाओं के शिक्षण केंद्र (एजीएलसी) की शुरुआत की है. इसमें 11 से 18 वर्ष की न केवल उन बालिकाओं को पढ़ाया जाता है जिनकी 8वीं के बाद पढ़ाई छूट गई थी, बल्कि उन बालिकाओं को भी शिक्षित किया जा रहा है जो किसी कारणवश कभी स्कूल भी नहीं गई हैं. इस संस्था के माध्यम से 14 वर्ष की आयु पूरी कर चुकी किशोरियों को राजस्थान ओपन स्कूल से 10वीं और 12वीं की परीक्षा में भी सम्मिलित होने में मदद की जा रही है. संस्था के इस प्रयास का परिणाम है कि साइमा नाम की लड़की इस गाँव की पहली लड़की बनी है जिसने 10वीं की परीक्षा दी है.” 
    दरअसल, हमारे देश में आज भी कुछ गांव ऐसे हैं जहाँ लड़कियों को बीच में ही स्कूल छुड़ा दिया जाता है. इसके पीछे कुछ मुख्य कारक हैं जिनमें लैंगिक भेदभाव, आर्थिक स्थिति, स्कूलों तक पहुंच का अभाव, जल्दी शादी और सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदंड. यह वह पहलू हैं जिससे कहीं न कहीं बालिकाओं की शिक्षा प्रभावित होती है. जो किसी भी समाज के विकास के लिए सबसे बड़ी बाधा है. इसे किसी योजना के माध्यम से नहीं बल्कि समाज में जागरूकता फैला कर ही समाप्त किया जा सकता है.

    भारत में अंगदान की कमी से जा रही लोगों की जान

    एक मृत अंग दाता आठ लोगों की जान बचा सकता है। दान की गई दो किडनी दो रोगियों को डायलिसिस उपचार से मुक्त कर सकती हैं। दान किए गए एक लीवर को प्रतीक्षा सूची के दो रोगियों के बीच विभाजित किया जा सकता है। दो दान किए गए फेफड़ों का मतलब है कि दो अन्य रोगियों को दूसरा मौका दिया गया है, और एक दान किए गए अग्न्याशय और दान किए गए हृदय का मतलब दो और रोगियों को जीवन का उपहार प्राप्त करना है। एक ऊतक दाता – कोई व्यक्ति जो हड्डी, टेंडन, उपास्थि, संयोजी ऊतक, त्वचा, कॉर्निया, श्वेतपटल, और हृदय वाल्व और वाहिकाओं को दान कर सकता है – 75 लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकता है। भारत में अंग दान की प्रतिज्ञा को वास्तविक दान में तब्दील करने की जरूरत है और इसके लिए मेडिकल स्टाफ को शिक्षित करने की जरूरत है। उन्हें मस्तिष्क मृत्यु और अंग दान के महत्व के बारे में परिवारों को पहचानने, पहचानने, सूचित करने और परामर्श देने में सक्षम होना चाहिए।

    -डॉ सत्यवान सौरभ

    देश में तीन लाख मरीज अंगदान का इंतजार कर रहे हैं और देश में दाताओं की संख्या में वृद्धि मांग के अनुरूप नहीं है; विशेषज्ञों का कहना है कि देश को तत्काल मृतक दान दर बढ़ाने की जरूरत है, और आईसीयू डॉक्टरों और परिवारों के बीच इस बारे में अधिक जागरूकता होनी चाहिए कि कैसे एक मृतक दानकर्ता कई जिंदगियां बचा सकता है। तीन लाख से अधिक रोगियों की प्रतीक्षा सूची और अंग के इंतजार में हर दिन कम से कम 20 लोगों की मृत्यु के साथ, भारत में अंग दान की कमी, विशेष रूप से मृतक दान, भारी नुकसान उठा रही है। भारत में मृतक अंगदान की दर पिछले एक दशक से प्रति दस लाख की आबादी पर एक दाता से कम रही है।

    भारत को इसे प्रति मिलियन जनसंख्या पर 65 दान तक बढ़ाने की आवश्यकता है और ऐसा करने के लिए, सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा को आगे बढ़ना होगा। देश में लगभग 600 मेडिकल कॉलेज और 20 से अधिक एम्स हैं। अगर हमें हर साल उनसे एक-एक दान भी मिले तो हम बेहतर स्थिति में रहेंगे।’ दुनिया भर में भी, अंगों की आवश्यकता वाले केवल 10% रोगियों को ही समय पर अंग मिल पाते हैं। स्पेन और अमेरिका में बेहतर अंग दान प्रणाली है, जहां प्रति मिलियन 30-50 दान की दर है। मरीजों के परिवारों को आगे आने और दान करने में मदद करने के लिए ट्रॉमा और आईसीयू डॉक्टरों को प्रशिक्षित करना समय की मांग है, कई संभावित मामलों की उपलब्धता के बावजूद, भारत में अंग दान की कम दर मस्तिष्क मृत्यु या मस्तिष्क स्टेम मृत्यु मामलों की अपर्याप्त पहचान और प्रमाणीकरण के कारण हो रही है। अंगदान के मामले में देश का वार्षिक औसत अब भी प्रति दस लाख लोगों पर एक से भी कम दाता है।

    सड़क परिवहन के आंकडों के मुताबिक भारत में हर साल, करीब 150,000 लोग सड़कों पर मारे जाते हैं। इसका मतलब औसतन हर रोज सड़कों पर 1000 से ज्यादा दुर्घटनाएं होती हैं और 400 से ज्यादा लोग दम तोड़ देते हैं। अंग दान में मृत डोनर के अंगों- जैसे हृदय, यकृत (लिवर), गुर्दे (किडनी), आंतें, आंखें, फेफड़े और अग्न्याशय (पैनक्रियाज) को निकाल कर दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है, जिसे जीवित रहने के लिए उनकी जरूरत है। एक मृत डोनर, जिसे कैडेवर भी कहा जाता है, इस तरह नौ लोगों की जान बचा सकता है। हालांकि हेल्थ प्रोफेश्नल आमतौर पर अंगदान के विषय पर मृतक के परिजनों से बात करने में अटपटा महसूस करते हैं।  डॉक्टर मृतक के अंगों को दान देने के बारे में पूछने से कतराते हैं। कोई इस बारे में प्रोत्साहन भी नहीं है और बदले की कार्रवाई का डर भी रहता है।

    जनता अनिच्छुक और अविश्वासी है क्योंकि वे मस्तिष्क मृत्यु, अंग दान के विचार या इसके फायदों को पूरी तरह से नहीं समझते हैं। मृत्यु के बाद शरीर के बारे में सांस्कृतिक रीति-रिवाज सहमति में बाधा डाल सकते हैं, और कुछ धार्मिक मान्यताएँ अंग दान पर रोक लगाती हैं।भारत में पर्याप्त प्रत्यारोपण केंद्र, आवश्यक प्रशिक्षण वाले चिकित्सा पेशेवर या अंगों की पुनर्प्राप्ति, संरक्षण और परिवहन के लिए संसाधन नहीं हैं। अंग दान के लिए परिवार की सहमति प्राप्त करना अक्सर आवश्यक होता है। यह एक लंबी और भावनात्मक रूप से कठिन प्रक्रिया हो सकती है, जो दान में देरी कर सकती है या उसे रोक भी सकती है। यहां तक कि ऐसे मामलों में जहां अंग उपलब्ध हैं, कई रोगियों की पहुंच प्रत्यारोपण सर्जरी और पोस्ट-ऑपरेटिव देखभाल की उच्च लागत के कारण और भी सीमित है।

    अंग विफलता वाले कई मरीज़ अंग की तीव्र कमी के परिणामस्वरूप प्रत्यारोपण का इंतजार करते समय मर जाते हैं।अगों की अत्यधिक आवश्यकता के कारण अवैध अंग व्यापार नेटवर्क को बढ़ावा मिलता है, जो कमजोर लोगों को नैतिक और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के साथ-साथ शोषण के खतरे में डालता है। अंगों की सीमित आपूर्ति के कारण स्वास्थ्य संबंधी असमानताएं बढ़ जाती हैं, जिससे पैसे वाले लोगों के लिए इसकी संभावना अधिक हो जाती है। जीवनरक्षक प्रत्यारोपण प्राप्त करें। डायलिसिस और अन्य सहायक देखभाल उन कई संसाधनों में से हैं जिन पर अंतिम चरण के अंग विफलता वाले रोगियों के प्रबंधन के कार्य द्वारा भारी कर लगाया जाता है।

    सभी बातों पर विचार करने पर, भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली निम्न अंगदान दरों से बहुत प्रभावित होती है, जिसके परिणामस्वरूप टाली जा सकने वाली मौतें, अनैतिक व्यवहार और जीवन रक्षक देखभाल तक असमान पहुंच होती है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी को अंग प्रत्यारोपण तक उचित पहुंच मिले, इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है जिसमें नैतिक विचार, कानूनी सुधार, बुनियादी ढांचे का विकास और सार्वजनिक शिक्षा शामिल है। एक मृत अंग दाता आठ लोगों की जान बचा सकता है। दान की गई दो किडनी दो रोगियों को डायलिसिस उपचार से मुक्त कर सकती हैं।

    दान किए गए एक लीवर को प्रतीक्षा सूची के दो रोगियों के बीच विभाजित किया जा सकता है। दो दान किए गए फेफड़ों का मतलब है कि दो अन्य रोगियों को दूसरा मौका दिया गया है, और एक दान किए गए अग्न्याशय और दान किए गए हृदय का मतलब दो और रोगियों को जीवन का उपहार प्राप्त करना है। एक ऊतक दाता – कोई व्यक्ति जो हड्डी, टेंडन, उपास्थि, संयोजी ऊतक, त्वचा, कॉर्निया, श्वेतपटल, और हृदय वाल्व और वाहिकाओं को दान कर सकता है। 75 लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकता है। भारत में अंग दान की प्रतिज्ञा को वास्तविक दान में तब्दील करने की जरूरत है और इसके लिए मेडिकल स्टाफ को शिक्षित करने की जरूरत है। उन्हें मस्तिष्क मृत्यु और अंग दान के महत्व के बारे में परिवारों को पहचानने, पहचानने, सूचित करने और परामर्श देने में सक्षम होना चाहिए।

    अन्तमुखी मैं

    नीतू रावल
    गनीगांव, उत्तराखंड

    शोर से दूर कहीं खामोशियों में,
    अकेले रहना पसंद करती हूं मैं,
    अपनेपन या प्यार के रिश्तों से,
    मुझे कोई दिक्कत नहीं होती,
    बस मैं धोखेबाजी से डरती हूं,
    अंधेरा मुझे बेहद पसंद है,
    रोशनी से अक्सर भागती हूं,
    ऊंची उड़ान का सपना मेरा भी है,
    मगर अकेलेपन के पिंजरे में रहना,
    मैं ज्यादा पसंद करती हूं,
    दुनिया को लगता है परेशान हूं मैं,
    कौन समझाए कि अंतमुखी हूं मैं,
    दूसरों से ज्यादा खुद से प्यार करती हूं
    इसलिए तो इतना खुश रहती हूँ मैं।।

    चरखा फीचर

    शिक्षित होना बेकार नहीं

    सपना
    कपकोट, उत्तराखंड

    मैंने सोचा शिक्षित होना बेकार है,
    जिंदगी ने बताया शिक्षा ही संसार है,
    मैंने सोचा शिक्षा के बिना बढ़ना संभव है,
    समय ने बताया बिना शिक्षा जीवन असंभव है,
    क्योंकि जीवन का आधार ही है शिक्षा,
    और खुशहाली का भंडार है शिक्षा,
    मैंने सोचा शिक्षा बिना भी संसार है,
    पर जिंदगी ने बताया शिक्षा से ही राह है,
    अब जीवन व्यर्थ नहीं बनाना मुझको,
    पढ़ लिख कर सभ्य बनना मुझको,
    शिक्षा से देश को आगे बढ़ाना है,
    और विकसित भारत बनाना है,
    बहुत जरुरी होती है ये शिक्षा,
    कई सोच को बदलती है शिक्षा,
    समाज को नया आयाम देती है शिक्षा।

    चरखा फीचर

    हंसी ही दुनिया को एकजुट करने में सक्षम

    विश्व हंसी दिवस, 5 मई, 2024 पर विशेष
    – ललित गर्ग-

    विश्व हास्य दिवस एक उपहार है एवं बिना खर्च के खुशियाँ मनाने एवं हंसकर तनाव दूर करने का विलक्षण एवं अद्भुत दिन है। यह हमें एकजुट करता है, जीवन को बेहतर बनाता है। मई महीने के पहले रविवार को मनाये जाने वाला यह दिन हंसने-हंसाने के बहुत सारे अवसर प्रदत्त कर अच्छे स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं समग्र विकास को सुनिश्चित करता है। हंसने-हंसाने से तन-मन में उत्साह का संचार होता है, वहीं दिल से हंसना भी किसी दवा से कम नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, जो लोग अक्सर हंसते हैं वे अधिक समय तक जीवित रहते हैं, बेहतर, समृद्ध और खुश रहते हैं साथ ही उनकी ऊर्जा भी काफी सकारात्मक होती है। दूसरे आप पर हंसकर आपको दुःखी करें, तनाव दें, उससे पहले खुद पर हंसना सीखें। आप खुद अपनी कमियों पर हंसकर उसे अवसर के रूप में देखें। ज्यादातर लोग दूसरों की हंसी को काफी गंभीरता से लेते हैं और दुखी हो जाते हैं। जबकि खुद पर हंसना आपको अधिक संवेदनशील, जुझारू, जीवट वाला, स्वस्थ और अधिक प्रामाणिक होने में सक्षम बनाता है।
      विश्व हास्य दिवस मुस्कुराने का बहाना ही नहीं, एक प्रेरणा एवं जिजीविषा है। इस दिन को अमल में लाने का क्रेडिट हास्य योग आंदोलन के संस्थापक डॉ. मदन कटारिया को जाता है। जिन्होंने ही मुंबई में पहली बार 11 जनवरी 1998 को विश्व हास्य दिवस को मनाया था। जिसका खास उद्देश्य समाज में बढ़ते तनाव, अशांति, चिन्ता एवं परेशानियों को कम करके उन्हें सुखी जीवन जीने की सीख देना था। क्योंकि हँसना सभी के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं बौद्धिक विकास में अत्यंत सहायक है। हंसी हमारे जीवन की सफलता की चाबी है, वह अनेक समस्याओं का समाधान भी है। हंसी दुखी दिल के घावों को भरने वाला मलहम है। हमारे चेहरे का व्यायाम है और मन का आराम। शोध कहते हैं कि जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे हैं, हमारा हंसना कम हो रहा है। इसी पर लेखक मिशेल प्रिटचार्ड कहती हैं, ‘हम इसलिए कम नहीं हंसते कि हम बूढ़े हो गए हैं। हम बूढ़े ही इसलिए हुए कि हमने हंसना बंद कर दिया है।’
    आज का इंसान अपनी मुस्कुराहट व हँसी को भूलता जा रहा है, फलस्वरूप तनावजन्य बीमारियाँ, जैसे- उच्च रक्तचाप, शुगर, माइग्रेन, हिस्टीरिया, पागलपन, डिप्रेशन आदि को निमंत्रण दे रहा है। हँसने से ऊर्जा और ऑक्सीजन का संचार अधिक होता है। शरीर में से दूषित वायु बाहर निकल जाती है। हमेशा खुलकर हँसना शरीर के सभी अवयवों को ताकतवर और पुष्ट करता है। साथ ही शरीर में रक्त संचार की गति को बढ़ाता है। इसके अलावा पाचन तंत्र अधिक कुशलता से कार्य करता है। इसलिये डॉक्टर भी हर बीमारी के रोगी के लिये हास्य को उपयोगी बताते हैं। जो लोग हमें हंसाते हैं, वे हमारी स्मृतियों में रच-बस जाते हैं। हम किसी को पसंद या नापसंद कई कारणों से कर सकते हैं। पर लंबे समय तक हमारे प्रेम के हकदार वे लोग बनते हैं, जो हमें हंसाते हैं और हमारे चेहरे की हंसी बन जाते हैं। शायद इसीलिए विक्टर बोर्ग कहते हैं, ‘हंसी दो लोगों के बीच की दूरी को पार करने का सबसे छोटा पुल है।’ हंसना एक ऐसा बेशकीमती उपहार है, जो कुदरत ने केवल मनुष्य को ही बख्शा है। हास्य एक सार्वभौमिक भाषा है। इसमें जाति, धर्म, रंग, लिंग से परे रहकर मानवता को समन्वय करने की क्षमता है। यह इंसान से इंसान को जोड़ने का उपक्रम है। हंसी विभिन्न समुदायों को जोड़कर नए विश्व का निर्माण करने में सक्षम हैं। यह विचार भले ही काल्पनिक लगता हो, लेकिन लोगों में गहरा विश्वास है कि हंसी ही दुनिया को एकजुट कर सकती है। इसीलिये मार्टिन लूथर ने कहा है कि यदि मुझे स्वर्ग में हंसने की आज्ञा न हो तो मैं स्वर्ग नहीं जाऊंगा।
    उदासी और बेचैनियों के बादल छाए रहते हैं, हंसी की धूप खिल नहीं पाती। लेखिका एमिली मिचेल कहती हैं, ‘हंसी के बिना बीता दिन, अंधेरे में रहने जैसा है, आप अपना रास्ता ढूंढ़ने की कोशिश तो करते हैं, पर उसे साफ-साफ नहीं देख पाते।’ हंसना एक ऐसा सकारात्मक भाव एवं ऊर्जा है जो व्यक्ति के न केवल आंतरिक बल्कि बाहरी स्वरूप को प्रभावी, समृद्धिशाली एवं तेजस्वी बनाता है। हास्य एक शक्तिशाली भावना है जिसमें व्यक्ति को ऊर्जावान और संसार को शांतिपूर्ण बनाने की क्षमता हैं। यह व्यक्ति के विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र को प्रभावित करता है और व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। जब व्यक्ति समूह में हंसता है तो उसकी हंसी से सकारात्मक ऊर्जा सम्पूर्ण परिवेश में व्याप्त हो जाती है। दुनिया में सुख एवं दुःख दोनों ही धूप-छाँव की भाँति आते-जाते हैं। यदि मनुष्य दोनों परिस्थितियों में हँसमुख रहे तो उसका मन सदैव काबू में रहता है व वह चिंता से बचा रह सकता है। हंसने से आत्मा खिल उठती है। इससे आप तो आनंद पाते ही हैं दूसरों को भी आनंदित करते हैं। हास-परिहास पीड़ा का दुश्मन है, निराशा और चिंता का अचूक इलाज और दुःखों के लिए रामबाण औषधि है। हंसी एक उत्तम टॉनिक का काम करती है। लंदन विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सोफी स्कॉट कहती हैं कि, ‘हंसी के द्वारा हमारा अवचेतन मन ये संकेत देता है कि, हम सुकून में हैं और सुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
    जापान में भगवान बुद्ध के शिष्य थे होतेई। वह बड़े अलमस्त स्वभाव के भिक्षुक थे। वह बेहद निर्लिप्त और निरपेक्ष भाव से जीवन जीने में विश्वास रखते थे। वह जिस कार्य को करते, उसमें पूरी तरह डूब जाते थे, तन्मय हो जाते। जापान में ऐसी मान्यता है कि एक बार होतेई मेडिटेशन करते-करते इतने रोमांचित हो गए कि ध्यानावस्था में जोर-जोर से हंसने लगे। इस अद्भुत घटना के उपरांत ही लोग उन्हें लाफिंग बुद्धा के नाम से संबोधित करने लगे। घूमना-फिरना, देशाटन करना, लोगों को हंसाना व खुशी प्रदान करना लाफिंग बुद्धा का ध्येय बन गया। चीन में लाफिंग बुद्धा को पुताई के नाम से भी जाना जाता है। चीनी लोग उन्हें एक ऐसे भिक्षुक के नजरिए से देखते हैं, जो एक हाथ में धन-धान्य का थैला लिए, चेहरे पर खिलखिलाहट बिखेरे अपना बड़ा पेट और थुलथुल बदन दिखाकर सभी को हंसाते हुए सकारात्मक ऊर्जा देते हैं। वे समृद्धि व खुशहाली के संदेशवाहक और घरों के वास्तुदोष निवारण के प्रतीक भी माने जाते हैं। जापान जैसे देशों में लोग अपने बच्चों को प्रारंभ से ही हँसते रहने की शिक्षा देते हैं, ताकि उनकी भावी पीढ़ी सक्षम एवं तेजस्वी हो।
    दुनिया के अधिकतर देश आतंकवाद, हिंसा, युद्ध एवं महामारियों के डर से सहमे हुए हैं, ऐसे समय विश्व हास्य दिवस की अत्यधिक आवश्यकता महसूस होती है। इससे पहले दुनिया के लोगों में इतनी घबराहट और अशांति कभी नहीं देखी गई। आज हर व्यक्ति के अंदर घबराहट और अशांति का कोहराम मचा हुआ है। ऐसे दौर में केवल हंसी ही दुनियाभर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकती है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर टेरीजा एमाबाइल ने कहा है कि, हँसते समय हमारा दिमाग सबसे अधिक क्रिएटिव होता है। हमें न केवल पारिवारिक परिवेश में बल्कि ऑफिस में हंसी-मजाक को बढ़ावा देना चाहिए। ऑफिस का माहौल मेल-जोल और हंसी मजाक वाला हो, जिससे टीम के बीच काम के प्रति उत्साह का संचार हो सके। खूबसूरत चेहरे के लिए हंसना कारगर साबित हो सकता है। हंसने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, जिससे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है। मेडिकल प्रयोगों में पाया गया है कि, 10 मिनट तक हंसते रहने से दो घंटे की गहरी नींद आती है।
    हंसने वाले व्यक्तियों के कई सारे मित्र बन जातें हैं और इस प्रकार उनमें भाईचारा और एकता की भावना कब उत्पन्न होती हैं, पता ही नहीं चलता। हर व्यक्ति के जीवन में हड़कंप मचा हुआ है। तब ‘हास्य दिवस’ की अत्यधिक आवश्यकता महसूस होती है। इससे पहले इस दुनिया में इतनी अशांति कभी नहीं देखी गई। इस व्यस्त, अशांत एवं तनावग्रस्त जिंदगी में लोग कम से कम एक दिन तो अपने लिए निकालें और जी भरकर हंसे और हंसायें। तभी ओशो ने कहा है कि जब आप हंसने के पश्चात शांत हो जाएंगे तो यह महसूस करेंगे कि, पूरा विश्व, ये पेड़-पौधे, सितारे, पत्थर, पर्वत, सब आपके साथ हंस रहे हैं।

    आखिर क्यों दिखता है देश के मीडिया और विदेशी मीडिया के रूख में मोदी सरकार को लेकर जमीन आसमान का अंतर!

    लिमटी खरे

    गुजरात की दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं विधान सभा में 07 अक्टूबर 2001 से 22 मई 2014 तक 12 साल 227 दिनों तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र भाई मोदी ने 26 मई 2014 को भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री के बतौर पद संभाला था, उसके बाद से आज तक वे लगातार ही प्रधानमंत्री पद पर काबिज हैं। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस रसातल की ओर अग्रसर ही दिखाई दे रही है। एक समय था कि जब देश में कांग्रेस की तूती बोला करती थी, देश के कमोबेश हर राज्य में कांग्रेस का इकबाल बुलंद हुआ करता था, पर अब कांग्रेस महज तीन प्रदेशों हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में ही सत्ता में है।

    इस बात में संदेह नहीं है कि देश के मीडिया के द्वारा नरेंद्र मोदी का सकारात्मक पक्ष उकेरा जाता रहा है, जिसके चलते विपक्ष के द्वारा मीडिया को ‘गोदी मीडिया‘ की उपाधि से भी अलंकृत किया जाता रहा है। वहीं दूसरी ओर विदेश में मीडिया के द्वारा नरेंद्र मोदी सरकार को जमकर घेरा जा रहा है। सरकार का यह कहना रहा है कि विदेशी मीडिया के द्वारा जो भी दिखाया या लिखा जा रहा है वह तोड़ मरोड़कर पेश किया जा रहा है अर्थात तथ्यों पर आधारित तो कतई नहीं है।

    नरेंद्र मोदी पर यह ताना भी विपक्ष लगातार ही लगाता आया है कि नरेंद्र मोदी के द्वारा जमकर विदेश दौरे किए हैं। इस लिहाज नरेंद्र मोदी के अब तक के कार्यकाल में उनके विदेशी नेताओं से संबंध तो बहुत ही अच्छे माने जा सकते हैं, पर पता नहीं क्यों पश्चिमी देशों के मीडिया का नजला नरेंद्र मोदी पर क्यों टूटता आया है। नरेंद्र मोदी के लिए पश्चिमी मीडिया के द्वारा तानाशाह, दबंग शासक जैसी उपमाओं संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता रहा है। भले ही पश्चिमी मीडिया में जो प्रकाशित या प्रसारित किया जा रहा है उसका बहुत बड़ा पाठक या दर्शक वर्ग भारत में नहीं है पर फिर भी वैश्विक स्तर पर उनकी छवि को यह प्रभावित किए बिना नहीं है।

    अस्सी के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सलाहकार रहे 04 मई 1942 को जन्मे सत्यनारायण गंगाराम पित्रौद्रा उर्फ सैम पित्रोद्रा जो वर्तमान में राहुल गांधी के सलाहकार भी माने जा रहे हैं के द्वारा नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए पश्चिमी देशों के मीडिया के द्वारा प्रकाशित और प्रसारित की गई खबरों की सुर्खियों को जिस तरह से मीडिया में रखा है उससे अब देश में नई बहस का आगाज होना स्वाभाविक ही है। चुनाव के दो चरणों के बाद सैम पित्रोद्रा की खबरों की सुर्खियां अब बहस का मुद्दा बन चुकी हैं।

    सैम पित्रोद्रा के द्वारा न्यूयार्क टाईम्स, रॉयटर, टाईम, गार्जियन, इकोनामिस्ट, ला मोंद, ब्लूमबर्ग, फायनेंशियल टाईम्स एलए टाईम्स आदि की खबरों को पेश किया है। इसमें सभी का अगर आप अध्ययन करें तो सभी में कमोबेश एक ही तरह की बातों के जरिए नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने का प्रयास किया गया है। यक्ष प्रश्न यही खड़ा हुआ है कि आखिर विदेशी मीडिया के द्वारा नरेंद्र मोदी के खिलाफ इस तरह का जहर वह भी कमोबेश एक ही तरह के संदेशों के जरिए क्यों उगला जा रह है! कहीं न कहीं यह चुगली करता प्रतीत हो रहा है कि यह सब कुछ किसी एक सोच वाले व्यक्तित्व के द्वारा निर्देशित किया जा रहा है। पर आश्चर्य तो इस बात पर भी होता है कि आखिर विश्व के सर्वोच्च, नामी गिरामी, पारदर्शिता वाले मीडिया संस्थान इस तरह की कवायद कैसे और किसका अस्त्र बनकर कर रहे हैं! आखिर इसके पीछे कौन है!

    सैम पित्रौद्रा के द्वारा पोस्ट की गई सुर्खियों में टाईम की ‘भारत का मोदीकरण लगभग पूरा‘, न्यूयार्क टाईम्स की ‘मोदी के झूठों का मंदिर’, गार्जियन की ‘असंतोष को अवैध बनाने से लोकतंत्र को नुकसान’, एलए टाईम्स की ‘मोदी और भारत के तानाशाही की ओर अग्रसर होने पर बाइडेन चुप क्यों हैं’, ब्लूमबर्ग की ‘प्रगतिशील दक्षिण द्वारा मोदी का अस्वीकार’ फायनेंशियल टाईम्स की ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी की हालत ठीक नहीं’, ला मोंद की ‘भारतीय लोकतंत्र नाममात्र का’, इकोनामिस्ट की ‘मोदी का अनुदारवाद भारत की आर्थिक प्रगति को कर सकता है बाधित’ आदि शामिल है।

    वास्तव में आश्चर्य तो इस बात पर हो रहा है कि देश का मीडिया मोदी के जयकारे लगाता दिख रहा है पर दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग साख रखने वाले मीडिया संस्थानों के प्रकाशन इससे ठीक उलट ही बात को आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। विदेशी मीडिया से सरकार के संबंध क्यों बिगड़े इस बात पर भी विचार करना चाहिए। एक संस्था ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के दक्षिण एशिया ब्यूरो की प्रमुख अवनी डियास ने यह दावा करते हुए भारत छोड़ दिया कि उन्हें वीजा नहीं दिया गया, जिससे उन्हें चुनाव कवर करने का मौका नहीं मिला। इसमें कितनी सच्चाई है यह कहना थोड़ा सा मुश्किल ही है।

    सरकारों के खिलाफ जाना विदेश के मीडिया का यह कदम पहली बार नहीं है। दरअसल, यह माना जाता है कि भारत गणराज्य के चुनावों में विदेशों के राजनयिकों की नजरें रहा करती हैं। इसके अलावा विदेश का मीडिया भी गिद्ध दृष्टि लगाकर भारत के चुनावों को न केवल देखता है, वरन दबाव बनाने का प्रयास भी करता है, पर इसे घरेलू मामलों में दखल ही माना जाता है। इंदिरा गांधी से लेकर न जाने कितने नेताओं पर विदेशी मीडिया ने दबाव बनाने का प्रयास किया पर विदेशी मीडिया के ये प्रयास परवान नहीं चढ़ सके।

    याद पड़ता है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में भारत ने जब परमाणु परीक्षण किया था उस वक्त इसी पश्चिमी मीडिया ने भारत को शांति के लिए खतरा और खलनायक तक करार दे दिया था। कुल मिलाकर विदेशी मीडिया के द्वारा जिस तरह का दबाव अब तक बनाया जाता रहा है और उस दबाव के आगे देश के नेताओं ने घुटने नहीं टेके, उसी जोश और रणनीति को अभी भी कायम रखने की महती जरूरत महसूस हो रही है।

    बहरहाल, चुनाव के दौरान सभी प्रचार में चटखारेदार, लच्छेदार उन बातों को जनता के समक्ष परोसना चाहते हैं जिसे जनता के द्वारा ध्यान से सुना जाए। सैम पित्रोद्रा के द्वारा पेश की गई सुर्खियां अब सोशल मीडिया के अथाह समुद्र में डूबती उतराती तैरती हुई ही दिख रही हैं। इस पर मीम भी बनते दिख रहे हैं। सैम पित्रोद्रा के द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई इन इबारतों और खबरों को मानो पंख लग गए हैं, ये बहुत ही तेजी से वायरल होती दिख रही हैं। लाखों लोग इसे देख चुके हैं। चुनाव में हार और जीत अपनी जगह है पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अगर कोई षणयंत्र चल रहा है तो पक्ष और विपक्ष को कंधे से कंधा मिलाकर उस षणयंत्र का पर्दाफाश जरूर करना चाहिए।