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बूढे़ भारत में आई फिर से नई जवानी है

डॉ. मनोज जैन

 

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भ्रकुटि तानी थी। बूढे भारत में आई फिर से नई जवानी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पक्तियां आज मानो फिर से जीवित हो उठी हैं। जन लोकपाल बिल के सर्मथन में और भ्रष्ट्राचार के बिरोध में देश में जिस प्रकार का ज्वार उठा है और राजनेताओं की जिस प्रकार की प्रतिक्रियायें आई हैं उनसे बचपन में याद की गई यह कविता फिर से हिलोंरे ले रही है।

स्वामी विवेकानन्द अमेरिका, इंगलैण्ड और सारे यूरोप में भारतीय आध्यात्म का डंका बजा कर जब भारत लौटे तो कोलम्बो से लेकर अल्मोड़ा तक सारे भारतीय उपमहाद्वीप में उनके स्वागत में उत्साह का जो गर्म लावा उमड़ा था वह कोलकाता में काली माता के मन्दिर दक्षिणेश्वर पहुंचते ही ठण्डी वर्फ में बदल गया क्यों कि दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारियों ने स्वामी विवेकानन्द को मंदिर में प्रवेश ही नहीं करने दिया था क्यों कि तत्कालीन मान्यताओं के अनुसार स्वामी विवेकानन्द समुद्रयात्रा करके अहिन्दू हो गये थे। एक म्लेच्छ फिर वह स्वंय विवेकानन्द ही क्यों न हों, का मंदिर प्रवेश तो असम्भव बात थी। दक्षिणेश्वर मंदिर वह स्थान है जहां रामकृष्ण परमहंस ने अपनी साधना और भक्ति के द्वारा पाषाण प्रतिमा को जीवन्त जगज्जननी के रुप में जाग्रत किया था।

कश्मीर नरेश महाराजा हरीसिंह के समक्ष जब कश्मीर के सारे मुसलमान वापिस हिन्दू धर्म में आने को तैयार हो गये तो काशी के पण्डों ने गंगा में जल समाधि की धौसंपट्टी देकर राजा को अपना प्रस्ताव वापिस लेने को मजबूर कर दिया था।

इन दो उदाहरणों से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जब भी इतिहास में कोई महान घटना घटित होने को होती है तो उस युग के लालची लोग ही उसका प्रभाव शून्य करने को आतुर हो जाते हैं। अन्ना हजारे, और स्वामी रामदेव पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले बुध्दिजीवी, राजनीतिज्ञ और पत्रकार बिरादरी के लोग आज दक्षिणेश्वर और काशी के पण्डों की जमात में खड़े दिखाई दे रहे हैं।

प्रबुध्द नागरिकता की अवधारणा पर मेरे शोध कार्य का विश्लेषण करते हुये प्रो. अरुण चर्तुवेदी ने कहा था कि राज्य कभी भी नहीं चाहेगा कि उसके नागरिक प्रबुध्द हो जायें आखिर वह भला अपनी जड़ों में मटठा क्यों डालना चाहेगा। यह कार्य तो समाज में जो वर्तमान में प्रबुध्द वर्ग है वही कर सकता है । स्वामी रामदेव, गोविन्दाचार्य और अन्ना हजारे के नेतृत्व पर सवाल खडे करने वाले सत्ता की मलाई उतार रहे लोग लोग नहीं चाहते हैं कि लोकतंत्र की धार को और अधिक पैना किया जाये जिससे कि भ्रष्ट्राचारियों की गर्दन को नापा जा सके।

भ्रष्ट्राचार केवल आर्थिक रुप में ही नहीं व्याप्त है सामाजिक कुरीतियों को भी असहमति के सम्मान के नाम पर पनपने देना भी सांस्कृतिक भ्रष्ट्राचार ही है। राजदीप सरदेसाई के सर में दर्द हो रहा है कि अन्ना के गाँव रालेगण सिध्दि में शराबियों की कुटाई होती है इसलिये अन्ना का गांधी प्रेम छदम है। और अन्ना और उनके साथी अलोकतांत्रिक है। एक अन्य साम्यवादी विचारक की पीड़ा है कि बाबा रामदेव फ्री में योग नहीें सिखाते हैं इसलिये वह पूंजीबादी हैं और पूंजीबादी तो दुनिया में अच्छा आदमी हो ही नहीं सकता है।

बुध्दि की कमाई पर जीवित रहने वाले यह बुध्दिजीवी लोग मानते हैं कि आप किसी को कपड़े उतार कर सडक़ पर नाचने की छूट दे दो यही स्वतंत्रता है। नंगई की स्वच्छंदता को खुशी की स्वतंत्रता का पर्यायवाची बना देना चाहते है। यदि यही आलम रहा तो हाईस्कूल में पास होने वाला हर छात्र खुशी में कपड़े उतार कर सड़क पर दौड़ता नजर आने लगेगा। एक ऐसा सिस्टम जिसमें हर व्यक्ति अपनी मर्जी का मालिक है। स्वतंत्रता के इसी अर्थ का परिणाम तो हुआ है कि हम आज भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मोमबत्तियां जलाने को मजबूर हुयें हैं। स्वान्तसुखाय संस्कृति के पोषण में हमने समाज नामक संस्था की अवहेलना की पहले किसी बाबू को दो रुपये भी रिश्वत में दिये जाते थे तो बड़ी आड़ में धीमें से टेबिल के नीचे जिससे बगल बाली टेबिल को भी पता न लगे। आज किसी भी अदालत में चले जाईये जज साहब के सामने ही अदालती बाबू तारीख बढानें के पैसे बिना किसी हिचक के स्वीकार कर लेता है।

अन्ना पर एक और आरोप लगा कर उनके बजन को कम करने का प्रयास किया जा रहा है कि न्यूज चैनलों ने अन्ना को रातोंरात हीरो बना दिया है। पद, पैसा और प्रतिष्ठा की दौड़ में अंधे होकर दौड़ रहे लोगों को एक बार अन्ना के गॉव अवश्य जाना चाहिये। आधुनिक भारत के लिये यह किसी तीर्थ की अनुभूति कराता है।

अन्ना का जीवन प्रेरक है। आत्महत्या के लिये मन बना चुका युवक बाबूराव हजारे कैसे स्वामी विवेकानन्द के एक वाक्य से प्रेरित होकर अन्ना हजारे के रुप में परिवर्तित हो जाता है यह अन्ना की सादगी है कि बह कहते हैं कि मैं साधारण किसान हूॅ बास्तव में तो उनके पिता किसान भी नहीं थे बल्कि पत्थर तोडेने बाले मजदूर थे। साधारण मानव से महामानव की यात्रा बिना दृढ़ संकल्प के नहीं हो सकती है। अपनी और अपने परिवार की जिन्दगी बदलने बाले उद्यमी तो हजारों हैं पर अपने ग्राम और समुदाय की जिन्दगी बदलने का संकल्प रखने वाले अन्ना देश में कितने है? इस आग में उन्हौनें अपना जीवन झौंका हैं। इसी तप का परिणाम है कि अन्ना के समर्थन में देश उठ कर खड़ा हुआ है। वर्ना भ्रष्ट्राचार पर तो देश की विधानसभाओं से लेकर संसद तक केवल गाल बजाने का काम ही चलता दिखाई देता है। पक्ष और विपक्ष के घडियाली आसुओं की धार में अब देश के युवकों को नहीं भिगोंया जा सकता है। शिकागों में स्वामी विवेकानन्द ने क्या किया था केवल इतना ही तो कहा कि ‘मेरे अमेरिका निवासी बहिनों और भाईयो’ इतने भर से तालियों की गूंज से सारा अमेरिका जान गया कि भारत से कोई सन्यासी आया है। बात शब्दों की नहीं है शब्दों के पीछे जो विश्वप्रेम की मनुष्य मात्र को अपना बना लेने की चाह थी उसने स्वामी विवेकानन्द को यश दिलाया था। अन्ना को प्रसिध्दि टीवी चैनलों ने नहीं अन्ना की चार दशकों से चली आ रही तपस्या ने दिलाई है।

भ्रष्टाचार की अम्मा चुनावों के मौहल्ले में रहती है। सीधी बात तो यह है कि हमने जो तन्त्र चुना है उसमें हम ढ़ोगी को त्यागी की भूमिका में देखकर जान कर भी अनजाने बने रहते हैं। आखिर विना चवन्नी और चबैना के लालच के कोई क्यों किसी राजनीतिक दल का चवन्नी का भी सदस्य होना चाहेगा। फिर 1952 के पहले आम चुनावों से ही युगानुसार अपार धन का बहाव होता रहा है। धन और बल के बूते जन का नायक बनने की इस लीला में तमाम तरह के भष्ट्राचार होते है। तिकड़मों से कुल 15 प्रतिशत मत प्राप्त करने बाले भी जनप्रतिनिधि बन जाते हैं। और जननायक बनने के इस सरल तरीके को वर्तमान जननायक कैसे हाथों से खिसक जाने दें । यही उनकी पीड़ा है। चाहे महिला आरक्षण बिल हो, लोकपाल बिल हो सब इनके अरमानों की भेंट चढ़ जाते है। पहलवान और शिक्षक के बीच बहस में शिक्षक को ही हारना है क्यों कि शिक्षक के तमाम तर्को और ज्ञान पर पहलवान का एक हाथ ही भारी है। इसलिये पहलवान कभी भी टीवी पर बहस के चक्कर में नहीं पडता है। वह तो यही कहेगा सही गलत का फैसला यहीं अखाडें में कर लो जो जीत जायेगा उसी की बात मानी जानी चाहिये। कुछ ऐसा ही जन लोकपाल बिल की पैरवी कर रहे लोगों के साथ हो रहा है उनको बार बार चुनौती मिल रही है कि पहले चुनाव लड़ कर संसद में आओ तब अपनी बात कहों। आज तक मनमोहन सिंह लोकसभा का चुनाव जीत कर संसद में नहीं पहुंच पाये है तो अरिविन्द केजरीवाल इन हथकण्डों में कैसे सफल हो सकते हैं, और एक बारगी मान भी लिया जाये कि यह रास्ता ही सही है तो कौन सा राजनैतिक दल उनको अपने सिर पर बैठाने को तैयार है। निर्दलीय सांसद को संसद में अपनी बात रखने का कितना समय मिलता है? और वर्तमान हालातों से लग रहा है कि जन लोकपाल बिल के लिये अभी बहुत लम्बी लडाई बाकी है।

सचिन से पहले मेजर ध्‍यान चंद को मिले ‘भारत रत्‍न’

शादाब जफर ”शादाब”

सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर, आशा भोंसले, पूर्व क्रिकेट कप्तान कपिल देव, अजित वाडेकर, मौजूदा क्रिकेट कप्तान महेंद्र सिंह धोनी समेत हिन्दुस्तान का हर एक व्यक्ति सरकार से ये माँग कर रहा है कि क्रिकेट की दुनिया में भारत का नाम दुनिया भर में रौशन कर क्रिकेट के बेशुमार रिकॉर्ड अपने और भारत के नाम कराने वाले क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले 38 वर्षीय सचिन तेंदुलकर को ”भारत रत्न” दिया जाना चाहिये। पर मेरा मानना है कि यदि खेलो में किसी को देश का सर्वोच सम्मान भारत रत्न दिया जाना चाहिये तो सचिन से पहले इस के सब से बडे हकदार हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद है। ये सच है कि आज की पीढी ने मेजर ध्यान चंद को हाकी खेलते नही देखा। इस सब की एक खास वजह ये भी है कि उस वक्त मीडिया इतना हाईफाई नहीं था। आज ये ही वजह है कि वो सचिन जितना लोकप्रिय नहीं हो सके पर ये भी सच है कि हॉकी में उन जैसा दूसरा खिलाड़ी आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ, वह वाकई में हॉकी के जादूगर थे। हॉकी क्यो कि हमारे देष का राष्ट्रीय खेल है इस कारण भी खेल में ”भारत रत्न” पर पहला हक मेजर ध्यान चंद का ही बनता है।

मेजर ध्यान चंद और हॉकी देश में एक दूसरे के पर्याय है। मेजर ध्यान चंद को देश का पहला ऐसा खिलाड़ी भी कहा जाता है जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय हॉकी को पहचान दिलाई। लगातार तीन ओलम्पिक खेलो में हॉकी में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने वाले हॉकी के इस जादूगर ने सन् 1936 के बर्लिन ओलम्पिक में भारतीय विजय की कप्तानी भी की थी। हॉकी के जादूगर का खिताब पाने के लिये मेजर ध्यान चंद ने हॉकी मे कडी मेहनत की और अकेले इस खिलाडी ने ओलम्पिक में 101 और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मैचों में लगभग 300 गोल किये, जो खुद बखुद मेजर ध्यान चंद को एक महान खिलाडी बनाता है। 29 अगस्त सन् 1905 को प्रयाग में उनका जन्म हुआ था। बचपन से ही खिलाडी प्रवृत्ति के ध्यान चंद जब सोलह वर्ष के हुए तभी सेना में भर्ती हो गयें। सेना में ही इन्होने हॉकी खेलना शुरू किया। बहुत ही कम समय में हॉकी के खेल को ध्यान चंद इतना समझ गये कि सन् 1928 में एम्सटर्डम जाने वाली भारतीय हॉकी ओलम्पिक टीम के लिये इनका चयन हो गया। इस ओलम्पिक में भारत ने स्वर्ण पदक जीतकर कर दुनिया को चौंका दिया। इस मैच में भारत की ओर से कुल 28 गोल हुए जिन में से 11 गोल अकेले ध्यान चंद के थे। ये वो मैच था जिसने ध्यान चंद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय हाकी में पहचान दिलाई। जब भारत को आजादी मिली तब इन्हें मेजर बना दिया गया। हॉकी में देश-विदेश में पर्याप्त सम्मान पाने के कारण ही भारत सरकार ने उन्हे 1956 में ”पद्वमभूषण” की उपाधि से भी सम्मानित किया। इस के साथ ही 1936 में बर्लिन में ”जैतून मुकुट” एवं सन् 1968 में मैक्सिको ओलम्पिक में ”विशेष अतिथि” के रूप में उन्होने सम्मान पाया। 3 दिसम्बर 1979 को इस दुनिया से रूख्सत हो जाने के बाद भी वह प्रेरणास्रोत के रूप में देष के प्रत्येक युवा व वरिष्ट हॉकी खिलाडी के दिल में आज भी बसे है।

सचिन तेंदुलकर को ”भारत रत्न” देने की मांग के बीच देश के ऐसे महान खिलाड़ी को हॉकी ओलिंपियनो और देश के हॉकी खिलाडियो की मांग और खेलो में देष के सर्वोच सम्मान भारत रत्न के लिये सचिन से पहले मेजर ध्यान चंद का नाम और दावेदारी बिल्कुल सही लगती है। क्यो कि क्रिकेट आज भी दुनिया के केवल दर्जन भर देष खेलते है जबकि हॉकी आज भी वैष्विक खेल होने के साथ साथ भारत का राष्ट्रीय खेल है। लिहाजा देश के लिये खेल के क्षेत्र में आज भी सचिन से ज्यादा मेजर ध्यान चंद का योगदान कई अधिक है। इस कारण मेजर ध्यान चंद खेलों में इस पुरस्कार के पहले हकदार बनते है। देश का सर्वोच सम्मान ”भारत” रत्न अभी तक 41 व्यक्तियो को दिया जा चुका है जिन में दो विदेशी नागरिक दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति डॉ. नेल्सन मंडेला और मदर टेरेसा का नाम शामिल है। इन 41 व्यक्तियो में कोई भी खिलाडी नही है। वजह इस पुरस्कार देने के नियम इन नियमों के हिसाब से भारत रत्न सम्मान कला, साहित्य, और विज्ञान के विकास में असाधारण सेवा के लिये तथा सर्वोच्च स्तर की जनसेवा की मान्यता स्वरूप दिया जाता है। इस पुरस्कार नियमावली में बिना संषोधन किये बगैर न तो ये सम्मान सचिन को मिल सकता है न मेजर ध्यान चंद को। हालाकि सरकार ने भारत रत्न देने के लिये नियमो में बदलाव कर खेल के क्षेत्र में इसे देने की घोषणा अभी नहीं कि है पर ऐसे संकेत सरकार की ओर से मिलने लगे है कि इस संबंध में सरकार जल्द से जल्द कोई ठोस कदम उठाने जा रही है।

अब सरकार को यह निर्णय लेना होगा कि क्या भारत रत्न को खेल से भी जोड़ा जाये। गृह मंत्रालय को इस तरह का एक प्रस्ताव कैबिनेट के सामने रखना होगा। कैबिनेट मंत्रीमण्डल की स्वीकृति के बाद नियमो में संशोधन कर गृह मंत्रालय सचिन, मेजर ध्यान चंद ही नहीं बल्कि किसी भी खिलाड़ी को खेल में असाधारण सेवा के लिये भारत रत्न देने का मार्ग प्रशस्‍त कर सकता है। आने वाले वक्त में हो सकता है कि ये बहस और राजनीति का मुद्दा बन जाये कि पहले खेल में असाधारण सेवा के लिये भारत रत्न सचिन को दिया जाये या मेजर ध्यान चंद को पर सही मायने में सचिन से पहले मेजर ध्यान चंद को ही ”भारत रत्न” मिलना चाहिये।

 

भारत में बढ़ता सोना

प्रमोद भार्गव

बृहत्तर भारत में सोने का भण्डार लगातार बढ़ रहा है। यह सोना देश के स्वर्ण आभूषण विक्रेताओं, घरों और भारतीय रिजर्व बैंक में जमा है। विश्व स्वर्ण परिषद् द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 18 हजार टन सोने का भण्डार है। सोने की उपलब्धता की जानकारी देने वाली यह रपट ‘इंडिया हार्ट ऑफ गोल्ड 2010’ शीर्षक से जारी की गई है। यह रिपोर्ट विश्व के तमाम देशों में सोने की वस्तुस्थिति के सिलसिले में किए गए एक अध्ययन के रुप में सामने आई है। दुनिया का 32 प्रतिशत सोना भारत के पास है। 2010 में ही भारत में सोने की मांग 25 प्रतिशत बढ़कर 963.1 टन पर पहुंच गई है। भारत में इस विपुल स्वर्ण भंडार की उपलब्धता तब है जब प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर सरकार के कार्यकाल 1991 में बैंक ऑफ इंग्लैण्ड में गिरवी रखा गया सोना आज तक वापस नहीं आया है। यदि यह सोना वापस आ जाता है तो भारत की स्वर्ण शक्ति में और वृध्दि दर्ज हो जाएगी। देश में सोने की मजबूत स्थिति ने साबित कर दिया है कि जो देश एक समय सोने की चिड़िया कहलाता था आज वही देश एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की ओर प्रयत्नशील है।

हमारे देश में इस समय 18 हजार टन सोने के भण्डार हैं। देश का यह सोना दुनिया में उपलब्ध कुल सोने का 32 प्रतिशत है। अतंरराष्ट्रीय बाजार में इस सोने का वर्तमान मूल्य करीब 800 अरब डॉलर है। यदि इस सोने को देश की कुल आबादी में बराबर-बराबर टुकड़ों में बांटा जाए तो देश के प्रत्येक नागरिक के हिस्से में करीब आधा औंस सोना आएगा। हालांकि प्रति व्यक्ति सोने की यह उपलब्धता पश्चिमी देशों के प्रति व्यक्ति की तुलना में बहुत कम है। लेकिन विशेषकर भारतीय महिलाओं में स्वर्ण-आभूषणों के प्रति लगाव के चलते कालांतर में इसमें बढ़ोतरी की और उम्मीद है। वैसे भी हमारे यहां के लोग धन की बचत करने में दुनिया में सबसे अग्रणी हैं। भारतीय अपनी कुल आमदनी का तीस फीसदी हिस्सा बचत खाते में डालते हैं। इसमें अकेले सोने में 10 फीसदी निवेश किया जाता है। इसी दीपावली को जब देश भर के डाकघरों में सोने के सिक्के बेचने की शुरुआत हुई तो ये सिक्के इतनी बड़ी संख्या में बिके कि सभी डाकघरों में सिक्के कम पड़ गए। धनतेरस को सोना-चांदी खरीदा जाना शुभ माना जाता है इसलिए भी प्रत्येक दीपावली के अवसर पर सोने-चांदी की बिक्री खूब होती है। शादियों में भी बेटी-दामाद को स्वर्ण आभूषण दान में देना प्रचलन में है इसलिए भी सोने की घरेलू मांग हमारे देश में हमेशा बनी रहती है। इसलिए चांदी के दाम आसमान छू रहे हैं।

भारत के स्वर्ण बाजार को खयाल में रखते हुए विश्व स्वर्ण परिषद् द्वारा यह रिपोर्ट इस मकसद से जारी की गई है जिससे विदेशी बहुराष्टीय कंपनियां यहां निर्मित स्वर्ण आभूषण बाजार में पूंजी निवेश करने की संभावनाएं तलाश सकें। इसी सिलसिले में परिषद् के निवेश अनुसंधान मामलों की निदेशक एली आंग ने रिपोर्ट जारी करते हुए मीडिया के सामने कहा भी कि भारत दुनिया में सोने का सबसे बड़ा बाजार है। यहां सोने की घरेलू मांग वैश्विक आर्थिक मंदी के पहले की स्थिति में आने की संभावना है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सराफा बाजार के लिए भारत के आभूषण बाजार बेहद महत्वपूर्ण हैं। वैसे सोना भारतीय समाज का अंतरंग हिस्सा है। देश में सोना जमीन-जायदाद व अन्य अचल संपत्तियों से भी महत्वपूर्ण माना जाता है। घरों में सोना रखना इसलिए भी जरुरी माना जाता है, जिससे विपरीत परिस्थिति, मसलन हारी-बीमारी में सोना गिरवी रखकर नकद रकम हासिल की जा सके। सोने में बचत निवेश लोग इसलिए भी अच्छा मानते हैं क्योंकि इसके भाव कुछ समय के लिए स्थिर भले ही हो जाएं घटते कभी नहीं हैं। लिहाजा सोने में पूंजी निवेश को कमोबेश सुरक्षित ही माना जाता है। बशर्ते चोरी न हो। वर्तमान में उंची कीमतों के बावजूद लोग सोने में खूब निवेश करने में लगे हैं।

परिषद् के आकलन के मुताबिक 2009 में देश में सोने की मांग 19 अरब डॉलर तक पहुंच गई थी। यह मांग दुनिया में सोने की कुल मांग की 15 प्रतिशत आंकी गई। पिछले एक दशक के सालों में सोने की घरेलू मांग में 13 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से वृध्दि दर्ज की जा रही थी जो 2010 में 25 फीसदी तक पहुंच गई है।

भारतीय रिजर्व बैंक में वित्ताीय वर्ष 2009 में सोने का कुल भण्डार 357.8 टन था। हालांकि पिछले छह वित्ताीय वर्षों में रिजर्व बैंक में स्वर्ण भंडार की यही उपलब्धता दर्ज बनी चली आ रही है। मसलन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के सात सालों के कार्यकाल में इस भंडार में कोई इजाफा नहीं हुआ है। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार से जो स्वर्ण भंडार उन्हें विरासत में मिला था उसमें राई-रत्ती भी बढ़ोतरी अथवा घटोतरी नहीं हुई।

देशी की वित्ताीय हालत खराब होने पर 1991 में देश के तात्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर द्वारा 65.27 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैण्ड और बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट में गिरवी रखा गया था। यह सोना 19 साल बीत जाने के बावजूद यथास्थिति में है। देश की जनता के लिए यह हैरानी में डालने वाली बात है। जबकि इस दौरान देश में पीवी नरसिम्हा राव, अटलबिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह तीन प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इस गिरवी रखे गए सोने के बदले जो विदेशी पूंजी भारत सरकार ने उधार ली थी, उसका हिसाब भी चूकता हो चुका है। इसके बावजूद इतने बड़े स्वर्ण भंडार को लंदन से वापस लाने में सरकारों ने क्यों दिलचस्पी नहीं ली यह आश्चर्य में डालने वाली बात है। हैरानी इस बात पर भी है कि रिजर्व बैंक इस सोने को विदेशी निवेश मानकर देश के मुद्रा भंडार में भी दर्ज नहीं करता ?

इस बाबत बैंकिंग मामलों से जुड़े जानकारों का मानना है कि इस सोने के प्रति जो लापरवाही बरती जा रही है, वह रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की खुली अवहेलना है। इस अधिनियम के अनुच्छेद 33 (5) के अनुसार रिर्जव बैंक के स्वर्ण भंडार का 85 प्रतिशत भाग देश में रखना जरुरी है। यह सोने के सिक्कों, बिस्किट्स, ईंटों अथवा शुद्ध सोने के रुप में रिजर्व बैंक या उसकी एजेंसियों के पास आस्तियों अथवा परिसंपत्तियों के रुप में रखा होना चाहिए। इस अधिनियम से सुनिश्चित होता है कि ज्यादा से ज्यादा 15 फीसदी स्वर्ण भंडार ही देश के बाहर रखे जा सकते हैं। लेकिन इंग्लैण्ड में जो 65.27 टन सोना रखा है वह रिजर्व बैंक में उपलब्ध कुल सोने का 18.24 प्रतिशत है। जो रिजर्व बैंक की कानूनी-शर्तों के मुताबिक ही 3.24 फीसदी ज्यादा है। इस सोने पर रिजर्व बैंक को केवल एक प्रतिशत से भी कम रिटर्न हासिल होता है। हालांकि 2008-2009 में जिस तेजी से सोने के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य में वृध्दि दर्ज हुई है उस हिसाब से रिजर्व बैंक में मौजूद कुल स्वर्ण भंडार की कीमत 39,548.22 करोड़ बैठती है। बहरहाल सोने का मूल्य जो भी हो इंग्लैण्ड के बैंकों में सोने के रुप में देश की जो अमानत पड़ी है, उसे वापस लाकर देश के स्वर्ण भंडार में शामिल किया जाना चाहिए। वैसे भी यह खरा सोना देश की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में लगे लोगों के खून-पसीने की खरी कमाई है, इस नाते इस स्‍वर्ण को सम्मानपूर्वक देश में तत्काल लाने की प्रक्रिया शुरु होनी चाहिए।

खतरों से खेलते बचपन पर अंकुश

प्रमोद भार्गव

खतरों से खेलते बचपन पर सर्वोच्च न्यायालय की अंकुश लगाने की पहल एक अच्छी शुरूआत है। क्योंकि करतब दिखाने वाले नाबालिग बच्चों को प्रदर्शन के दौरान जिस अनुशासित संतुलन बनाए रखने के मानसिक तनाव से गुजरना होता है, निशिचत रूप से वह पीड़ादायी होता है। इसलिए इन बच्चों को संजीदगी से लेने की जरूरत है। हैरतअंगेज कारनामे दिखाने में दक्षता हासिल करने के प्रशिक्षण के बीच भी इन मासूमों को कठिन परिश्रम करने होते हैं। जिन्हें हम दण्ड के दायरे में भी ला सकते हैं। गरीबी और लाचारी की प्रतिच्छाया, मनोरंजन के पीछे दबी यातना को बाहर नहीं आने देती। सर्कस की जिंदगी बचपन को ही खतरे में नहीं डालती, बल्कि बौने लोगो के पैदायशी शारिरिक विकारों को तात्कालिक खुशी के केंन्द्र्र में लाकर उन्हें भी उपवास के रूप में पेश करती है। बलिकाओं से यौनाचार की आशंका तो सर्कस में बनी ही रहती है, वन्यजीवों को भी क्रूरतापूर्वक कारनामे दिखााने के लिए मजबूर किया जाता है। इसलिए बचपन बाचाओ आंदोलन की जनहित याचिका पर न्यायालय ने सर्कस में बच्चों की भरती पर रोक संबंधी अध्यादेश जारी करने का सरकार को जो हुक्म दिया हैं उस पर तो जल्द अमल होना ही चाहिए, नए-नए कीर्तीमान बनाने के लिए बच्चों के बीच जो होड़ लगाई जा रही है उसे भी बाधित करने की जरूरत है। क्योंकि इसे सामाचार माघ्याम ग्लेमराइन्ड करके जिस तरह से पेश करते हैं, उसे सफलता के लक्ष्यभेद का भ्रम मान लिया जाता हैं।

यह सही है कि बच्चों को नादान उम्र में ही आय का स्त्रोत बनाकर काम पर लगा देने से उनके बाल अधिकारों का हनन तो होता ही है, वह शिक्षा से भी कमोवेश बहिष्कृत हो जाते हैं। जबकि बच्चों को शिक्षा से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत उन्हें मिले मौलिक अधिकारों की उपेक्षा है। यह स्थिति उन्हें खेलने, अपने ढ़ंग से सोचने और मर्जी का काम करने की स्वंतत्रता से बधित करती है। इसकी जड़ में जाएं और इसे कानूनी नजरिए से देखें तो यह संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की भी अवहेलना है। इन सब हालातों का खयाल रखते हुए ही शायद शीर्ष अदालत ने केंद्र्र सरकार को स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि वह देशभर में सकर्स कंपनियों पर छापे डालकर उनमें कार्यरत मनोरंजन का साधन बने बच्चों को छुड़ाए। अदालत ने यह भी माना है कि यहां इन बच्चों को कष्टदायी हालातों से गुजारते हुए जानलेवा बाजीगरियों से गुजरना होता है। इनमें करतबों के प्रर्दशन में जोर जर्बदस्ती भी बरती जाती है। संतुलन बिगड़ने की जरा सी चुक इनकी जान भी ले सकती है अथवा जीवनभर के लिए आपाहिज बना सकती है। इसलिए मानवीयता का तकाजा है कि तमाशे से मुक्ति दिलाकर उन्हें मौलिक आधिकारों से जोड़ा जाए।

वैसे सर्कसों में कोई माता-पिता अपने बच्चों को स्वेच्छा से नहीं सौपते। इसके लिए अब बडे पैमाने पर बच्चों के खरीद-फरोक्त की जानकारियां आ रही हैं। गरिब परिवारों के बच्चों को बेहतर जिंदगी का प्रलोभन देकर और आमदानी का सशक्त जरिया बना देने का भरोसा देकर भी बच्चों को कमोबेश हथिया लिया जाता है। सर्कस की अंदरूनी दुनिया की दीवारों में बंद हो जाने के बाद, बाहरी दुनिया से इनका ताल्लोक खत्म जैसा हो जाता है। चूंकि सर्कस की दुनिया खुद यायावरी का हिस्सा है, इसलिए इनके पड़ाव स्थायी नहीं रहते। लिहाजा इन बालकों का अपने आत्मीय परिजनों से भी धीरे-धीरे संर्पक टूट जाता हैं।

सर्कसों के लिए नेपाल से भी बच्चे तस्करी कर के लाए जा रहे हैं। कुछ गेैर सरकारी संगठंन भी बच्चों के क्रय-विक्रय से जुडे पाए गए हैं। ये इन बच्चों को सर्कस, खतरनाक उधोगों और अवैध कारोबारियों से मोटी धनराशी लेकर बेच देते हैं। यहां इन से बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता हैं। महाराष्ट्र उच्च न्यायाल्य में एक एनजीओ के खिलाफ गरीब बच्चों की खरीद फरोक्त से जुड़ा मामला विचाराधीन है। इससे यहां यह सवाल भी खड़ा होता हैं कि कुकुरमुत्तों की तरह बाल अधिकार संरक्षण के लिए उग आए एनजीओ वाकई में किसके हित साधने में लगे हैं। सर्कस और उधोगों में कार्यरत बच्चों के यौन शोषण से जुड़े मामले भी सामने आ रहे हैं। बालिकाएं तो इस क्रूरता का शिकार होती ही हैं, बालकों को भी दरिंदे अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते। इसलिए अदालत ने बच्चों को सभी सर्कसों के जंजाल से मुक्त कराने के आदेश के साथ उचित पुनर्वास की भी हिदायत दी है। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्रालए बच्चों के शारीरिक, मानसिक और यौनाचार से जुड़े मामलों पर नजर रखता है। बाल संरक्षण गृह भी इसी मकसद पूर्ति के लिए वजूद में लाए गए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे इन महकामों से भी बच्चों पर अत्याचार और यौनजन्य खिलवाड़ करने के मामले सामने आते रहते हैं। इसके बावजूद लिप्त पाए जाने वाले अधिकारी व कर्मचारी साफ बच निकलते हैं। ऐसे बाल संरक्षण व बाल सेहत से जुड़े विभाग ही अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन नहीं कर रहे तो अन्य किस विभाग से इनके सुरक्षित भविष्य की अपेक्षा की जाए ? बच्चों को देश का भविष्य माना जाता है लेकिन जब देश का भविष्य ही भ्रष्टाचार की चौखट पर दम तोड़ रहा हो तो आशा और उम्मीद की किरण कहां से प्रकट हो ? सर्कस में भी इन बच्चों को तरजीह तब तक दी जाती है जब तक इनके शरीर में लचीलापन बना रहता है। क्योंकि इसी लोच की नजाकत इन्हें करतब से जोड़ती है। किंतु उम्र बढ़ने से साथ जब लोच समाप्त हो जाता है और शरीर करतब दिखाने लायक नहीं रह जाता, तो इन्हें नौकरी से बेदखल कर दिया जाता है। ऐसे में परिवार से पहले ही वंचित हो चुके बालक से नौजवान हुए इन लोगों की गति, धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का, वाली हो जाती है। चूंकि अन्य किसी काम में यह पांरगत नहीं होते इसलिए इनके सामने दो ही रास्ते बचे रहते हैं, भीख मांग कर गुजारा करें या चुल्लू भर पानी में डूब मरें। बहरहाल सर्वोच्च न्यायाल्य के आदेश को केंद्र्र सरकार को बेहद गंभींरता से लेने की जरूरत हैं। इन लाचारों की आशा इसी आदेश से बंधी है।

सिविल सोसयटी में बैठी चोर की मां

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों जब अन्ना हजारे दिल्ली में जंतर मंतर पर जनलोकपाल विधेय़क के समर्थन में धरने पर बैठे, तो उनके साथियों ने सिविल सोसयटी का नाम बार बार उछाला । उनका कहना था कि लोकपाल विधेयक का प्रारुप तैयार करते समय सिविल सोसयटी के नुमाइंदों को भी शामिल किया जाना चाहिए । सिविल सोसयटी से उनका क्या अभिप्राय़ था, यह तो वही लोग बेहतर जानते होंगे । वैसे शंका समाधान के लिए आस्कफोर्ट इंग्लिश डिक्शनरी देखी जा सकती है । सिविल सोसयटी के नुमाइंदें भी यही चाहते होंगे कि भ्रम की स्थिति में आक्सफोर्ड़ का ही सहारा लिया जाए । उसी तरह जिस प्रकार इस सोसयटी के लोग अभी भी वेद के प्रामाणिक अर्थों के लिए दयानंद या दोमोदर सातवलेकर की बजाय मैक्समुलर की ओर ही भागते हैं । अन्ना हजारे शायद सिविल सोसयटी शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं कर रहे थे । उनका मकसद तो इतना ही रहा होगा कि सरकार बहादूर के घर में व्याप्त भ्रष्टाचार पर नकेल डालने के लिए जो विधेयक बने, उसके प्रारुप को पुख्ता बनाने के लिए, आम समाज व जनता के प्रतिनिधि भी होने चाहिए । लेकिन उनके आंदोलन को जो लोग घेरे हुए थे, उन्होंने तुरंत व्याख्या कर दी – अन्ना सिविल सोसयटी की बात कर रहे हैं ।

इसका अर्थ हुआ कि भारत का समाज दो प्रकार का है । एक सिविल सोसयटी व दूसरी बिचारी आम सोसयटी । वैसे तो सिविल सोसयटी और आनसिविल सोसय़टी भी कहा जा सकता है । लेकिन तब शायद सिविल सोसयटी वाले ही कहें, कि बात का बतंगड बनाया जा रहा है । परंतु लगता है बात का बतंगड तो बन ही गया है । शायद अन्ना हजारे को भी आम सोसयटी पर उतना विश्वास नहीं रहा है । तभी उन्होंने कहा होगा कि भारत का जो आम मतदाता है, वे सौ रुपये के नोट, शराब की एक बोतल और एक साडी पर बिक जाता है । य़हां आम मतदाता का अर्थ आम सोसयटी से भी लगाया जा सकता है । शायद अन्ना भी सोचने लगे हैं कि देश का भविष्य इस प्रकार की आम सोसयटी पर नहीं छोडा जा सकता । उसके लिए तो सिविल सोसय़टी के दमदार सैनिकों को ही मैदान में उतारना होगा ।

वैसे रिकार्ड के लिए जिस समय 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपात स्थिति लागू कर दी थी और सोसय़टी के सभी सिविल अधिकारों को एक ही डकार में निगल लिया था, तो देश की यह तथाकथित सिविल सोसयटी अपने रक्त से हस्ताक्षर कर के इंदिरा के प्रति निष्ठा की शपथें खा रही थी । उस समय आम सोसयटी के लोग ही सिविल अधिकारों के लिए आंदोलन करके जेलें भर रहे थे । पंजाब में अकाली दल के उस समय के अध्यक्ष शांत हरचंद सिंह लोंगोवाल को जब इस सिविल सोसयटी के प्रतिनिधियों ने आपात स्थिति के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन को बेमतलब बता कर बंद करने की सलाह दी थी तो उन्होंने कहा था कि हमारे पास जेल जाने के आतुर कार्यकर्ताओं की इतनी लंबी सूची है कि हम चाह कर भी इस आंदोलन को बंद नहीं कर सकते । जाहिर है यह सूची आम सोसयटी के लोगों की ही थी ,सिविल सोसयटी के लोगों की नहीं । सिविल सोसयटी के लोग तो अपवादों को छोड कर मीडिया समेत आपात स्थिति की विरुदावली में मग्न थे ।

यह क्या आश्चर्य का विषय नहीं है कि इसी आम सोसयटी ने चुनाव में इंदिरा की सरकार को धूल चटा दी थी । कांग्रेस ने सौ का नोट, शराब की बोतल और एक साडी तो तब भी आम मतदाता को दी ही होगी । हां यह जरुर हुआ कि जब आम सोसयटी में यह चमत्कार दिखा दिया तो सिविल सोसय़टी में तुरंत उसकी अंग्रेजी भाषा में लंबी लंबी ब्याख्याएं दे कर परिवर्तन का श्रेय स्वयं लेने का प्रय़ास किया । मान लेते हैं कि आम सोसयटी का मतदाता शराब की बोतल, सौ का नोट एक साडी लेकर वोट डालता है । लेकिन कम से कम वोट डालने तो जाता ही है । इस बात की भी क्या गारंटी है उसने जिससे सौ का नोट लिया है, उसे ही वह वोट डाल रहा है । सौ का नोट देने वाले को लगता है कि वह मुझे वोट डाल रहा है । अन्ना दुखी हैं, कि वह नोट लेकर गलत आदमी को वोट डाल रहा है । लेकिन आम सोसयटी का यह मतदाता इन दोनों से चतुर है । वह मन ही मन हंस रहा है, खूब उल्लु बनाया और वोट वहीं डालता है जहां उसकी मर्जी है । शठेः शाठ्य़म आचरेत । ठग से ठग जैसा व्यवहार करो । यदि ऐसा न होता तो इंदिरा की सरकार न उखडती । बिहार में माफिया के बाहुबली न हारते ।

 

दुर्भाग्य यह है कि आम सोसयटी तो अपना कर्तब्य़ बखूबी निभा देती है . लेकिन जंतर मंतर वालों की यह सिविल सोसय़टी ही घालमेल में जुट जाती है । ज्यादातर घोटाले तो इस तथाकथित सिविल सोसयटी के लोग ही करते हैं । क्या कोई बता पाएगा कि सिविल सोसयटी के कितने लोग धूप में लाइन में लग कर अपना वोट डालने जाते हैं । मनमोहन सिंह तो सिविल सोसय़टी में ही आते हैं ना । वे असम में मतदाता है । अब वे असम में किस प्रकार मतदाता है, यह तो सिविल सोसयटी ही बता सकती है । आम सोसयटी में इतनी योग्य़ता कहा कि इस प्रकार के रहस्यों को समझ सके । असम में विधानसभा के चुनाव हुए । कायदे से उन्हें वहां अपने वोट ड़ालने के लिए जाना चाहिए था । उनके लिए तो सौ की नोट की भी महत्ता नहीं है । वे अपनी इच्छानुसार अपनी पसंद के प्रत्याशी को वोट डाल सकते हैं । चुनाव आयोग करोडों रुपये के विज्ञापन यह समझाने के लिए जारी करता है कि मतदाता को अपना वोट डालना चाहिए । चुनाव आयोग की यह अपील तो सिविल सोसय़टी और आम सोसयटी के सभी मतदाताओं के लिए समान रुप से ही होगी । आम सोसय़टी तो अपने इस लोकतांत्रिक कर्तब्य को चुनाव आयोग के विज्ञापनों के बिना भी समझती है । असम में 75 प्रतिशत से भी ज्यादा मतदान हुआ , यह इसका प्रमाण है । लेकिन सिविल सोसयटी के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वोट नहीं डाला । जब गुजरात के मुख्यमंत्री ने दुख प्रकट किया कि जब प्रधानमंत्री ही वोट नहीं डालेगें तो आम सोसय़टी में क्या संदेश जाएगा तो दरबार के सिपाही क्रुद्ध हो उठे । प्रधानमंत्री को और हजारों व्यस्तताएं होती हैं । ऐसे वेसिर पैर के प्रश्न नहीं उठाने चाहिए । दरबारियों का कर्तब्य है कि वे राजा के हर कदम को उचित ठहराएं । इसलिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता । लेकिन क्या सिविल सोसय़टी बताएगी कि लोकतंत्र में वोट डालना वेसिर पैर का काम है । लोकतंत्र में मतदान से ज्यादा महत्वपूर्ण प्राथमिकता और क्या हो सकती है ।

सिविल सोसयटी यह प्राथमिकता अच्छी तरह जानती है । आम सोसय़टी सरकार बनाती है । सरकार चाहे कोई भी बने, उसे सिविल सोसयटी तुरंत लपक लेती है और मजे से दोनों हाथों से लूटती है । उसी प्रकार जिस प्रकार सिविल सोसयटी ने अन्ना हजारे का जंतर मंतर वाला एक निष्पाप आंदोलन लपक लिया । अन्ना हजारे को चाहिए कि वे चोर की चिंता न करें, चोर की मां को पकडें । चोर को तो आम सोसयटी खूद ही पीट लेगी । लेकिन अन्ना हजारे भी क्या करें, चोर की मां तो इसी सिविल सोसयटी में भीतर तक बैठी हुई है ।

रामदेव Vs अण्णा, “भगवा” को “गाँधीटोपी मार्का सेकुलरिज़्म” से बदलने की साजिश?? (भाग-1)

सुरेश चिपलूनकर

अक्सर आपने देखा होगा कि लेख समाप्त होने के बाद “डिस्क्लेमर” लगाया जाता है, लेकिन मैं लेख शुरु करने से पहले “डिस्क्लेमर” लगा रहा हूँ –
डिस्क्लेमर :- 1) मैं अण्णा हजारे की “व्यक्तिगत रूप से” इज्जत करता हूँ… 2) मैं जन-लोकपाल बिल के विरोध में नहीं हूँ…

अब आप सोच रहे होंगे कि लेख शुरु करने से पहले ही “डिस्क्लेमर” क्यों? क्योंकि “मीडिया” और “मोमबत्ती ब्रिगेड” दोनों ने मिलकर अण्णा तथा अण्णा की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को लेकर जिस प्रकार का “मास हिस्टीरिया” (जनसमूह का पागलपन), और “अण्णा हजारे टीम”(?) की “लार्जर दैन लाइफ़” इमेज तैयार कर दी है, उसे देखते हुए धीरे-धीरे यह “ट्रेण्ड” चल निकला है कि अण्णा हजारे की मुहिम का हल्का सा भी विरोध करने वाले को तड़ से “देशद्रोही”, “भ्रष्टाचार के प्रति असंवेदनशील” इत्यादि घोषित कर दिया जाता है…

सबसे पहले हम देखते हैं इस तमाम मुहिम का “अंतिम परिणाम” ताकि बीच में क्या-क्या हुआ, इसका विश्लेषण किया जा सके… अण्णा हजारे (Anna Hajare) की मुहिम का सबसे बड़ा और “फ़िलहाल पहला” ठोस परिणाम तो यह निकला है कि अब अण्णा, भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले एकमात्र “आइकॉन” बन गये हैं, अखबारों-मीडिया का सारा फ़ोकस बाबा रामदेव(Baba Ramdev) से हटकर अब अण्णा हजारे पर केन्द्रित हो गया है। हालांकि मीडिया का कभी कोई सकारात्मक फ़ोकस, बाबा रामदेव द्वारा उठाई जा रही माँगों की तरफ़ था ही नहीं, परन्तु जो भी और जितना भी था… अण्णा हजारे द्वारा “अचानक” शुरु किये गये अनशन की वजह से बिलकुल ही “साफ़-सूफ़” हो गया…। यानी जो बाबा रामदेव देश के 300 से अधिक शहरों में हजारों सभाएं ले-लेकर सोनिया गाँधी, कांग्रेस, स्विस बैंक आदि के खिलाफ़ माहौल-संगठन बनाने में लगे थे, उस मुहिम को एक अनशन और उसके प्रलापपूर्ण मीडिया कवरेज की बदौलत “पलीता” लगा दिया गया है। ये तो था अण्णा की मुहिम का पहला प्राप्त “सफ़ल”(?) परिणाम…

जबकि दूसरा परिणाम भी इसी से मिलता-जुलता है, कि जिस मीडिया में राजा, करुणानिधि, कनिमोझि, भ्रष्ट कारपोरेट, कलमाडी, स्विस बैंक में जमा पैसा… इत्यादि की हेडलाइन्स रहती थीं, वह गायब हो गईं। सीबीआई या सीवीसी या अन्य कोई जाँच एजेंसी इन मामलों में क्या कर रही है, इसकी खबरें भी पृष्ठभूमि में चली गईं… बाबा रामदेव जो कांग्रेस के खिलाफ़ एक “माहौल” खड़ा कर रहे थे, अचानक “मोमबत्ती ब्रिगेड” की वजह से पिछड़ गये। टीवी पर विश्व-कप जीत के बाद अण्णा की जीत की दीवालियाँ मनाई गईं, रामराज्य की स्थापना और सुख समृद्धि के सपने हवा में उछाले जाने लगे हैं…

अंग्रेजों के खिलाफ़ चल रहे स्वतंत्रता संग्राम की याद सभी को है, किस तरह लोकमान्य तिलक, सावरकर और महर्षि अरविन्द द्वारा किये जा रहे जनसंघर्ष को अचानक अफ़्रीका से आकर, गाँधी ने “हाईजैक” कर लिया था. न सिर्फ़ हाइजैक किया, बल्कि “महात्मा” और आगे चलकर “राष्ट्रपिता” भी बन बैठे… और लगभग तानाशाही अंदाज़ में उन्होंने कांग्रेस से तिलक, सरदार पटेल, सुभाषचन्द्र बोस इत्यादि को एक-एक करके किनारे किया, और अपने नेहरु-प्रेम को कभी भी न छिपाते हुए उन्हें देश पर लाद भी दिया… आप सोच रहे होंगे कि अण्णा हजारे और बाबा रामदेव के बीच यह स्वतंत्रता संग्राम कहाँ से घुस गया?

तो सभी अण्णा समर्थकों और जनलोकपाल बिल (Jan-Lokpal Bill) के कट्टर समर्थकों के गुस्से को झेलने को एवं गालियाँ खाने को तैयार मन बनाकर, मैं साफ़-साफ़ आरोप लगाता हूँ कि- इस देश में कोई भी आंदोलन, कोई भी जन-अभियान “भगवा वस्त्रधारी” अथवा “हिन्दू” चेहरे को नहीं चलाने दिया जाएगा… अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन में जिस तरह तिलक और अरविन्द को पृष्ठभूमि में धकेला गया था, लगभग उसी अंदाज़ में भगवा वस्त्रधारी बाबा रामदेव को, सफ़ेद टोपीधारी “गाँधीवादी आईकॉन” से “रीप्लेस” कर दिया गया है…। इस तुलना में एक बड़ा अन्तर यह है कि बाबा रामदेव, महर्षि अरविन्द (Maharshi Arvind) नहीं हैं, क्योंकि जहाँ एक ओर महर्षि अरविन्द ने “महात्मा”(?) को जरा भी भाव नहीं दिया था, वहीं दूसरी ओर बाबा रामदेव ने न सिर्फ़ फ़रवरी की अपनी पहली जन-रैली में अण्णा हजारे को मंच पर सादर साथ बैठाया, बल्कि जब अण्णा अनशन पर बैठे थे, तब भी मंच पर आकर समर्थन दिया। चूंकि RSS भी इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद “राजनीति” में कच्चा खिलाड़ी ही है, उसने भी अण्णा के अभियान को चिठ्टी लिखकर समर्थन दे मारा। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अभी भी वह “घाघपन” नहीं आ पाया है जो “सत्ता की राजनीति” के लिये आवश्यक होता है, विरोधी पक्ष को नेस्तनाबूद करने के लिये जो “राजनैतिक पैंतरेबाजी” और “विशिष्ट प्रकार का कमीनापन” चाहिये होता है, उसका RSS में अभाव प्रतीत होता है, वरना बाबा रामदेव द्वारा तैयार की गई ज़मीन और बोये गये बीजों की “फ़सल”, इतनी आसानी से अण्णा को ले जाते देखकर भी, उन्हें चिठ्ठी लिखकर समर्थन देने की कोई वजह नहीं थी। अण्णा को “संघ” का समर्थन चाहिये भी नहीं था, समर्थन चिठ्ठी मिलने पर न तो उन्होंने कोई आभार व्यक्त किया और न ही उस पर ध्यान दिया…। परन्तु जिन अण्णा हजारे को बाबा रामदेव की रैली के मंच पर बमुश्किल कुछ लोग ही पहचान सकते थे, उन्हीं अण्णा हजारे को रातोंरात “हीरो” बनते देखकर भी न तो संघ और न ही रामदेव कुछ कर पाये, बस उनकी “लार्जर इमेज” की छाया में पिछलग्गू बनकर ताली बजाते रह गये…। सोनिया गाँधी की “किचन कैबिनेट” यानी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC) के “NGO छाप रणबाँकुरों” ने मिलजुलकर अण्णा हजारे के कंधे पर बन्दूक रखकर जो निशाना साधा, उसमें बाबा रामदेव चित हो गये…

मैंने ऊपर “राजनैतिक पैंतरेबाजी” और “घाघ” शब्दों का उपयोग किया है, इसमें कांग्रेस का कोई मुकाबला नहीं कर सकता… अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन से लेकर अण्णा हजारे तक कांग्रेस ने “परफ़ेक्ट” तरीके से “फ़ूट डालो और राज करो” की नीति को आजमाया है और सफ़ल भी रही है। कांग्रेस को पता है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का देश के युवाओं पर तथा अंग्रेजी प्रिण्ट मीडिया का देश के “बुद्धिजीवी”(?) वर्ग पर खासा असर है, इसलिये जिस “तथाकथित जागरूक और जन-सरोकार वाले मीडिया”(?) ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव की 27 फ़रवरी की विशाल रैली को चैनलों और अखबारों से लगभग सिरे से गायब कर दिया था, वही मीडिया अण्णा के अनशन की घोषणा मात्र से मानो पगला गया, बौरा गया। अनशन के शुरुआती दो दिनों में ही मीडिया ने देश में ऐसा माहौल रच दिया मानो “जन-लोकपाल बिल” ही देश की सारी समस्याओं का हल है। 27 फ़रवरी की रैली के बाद भी रामदेव बाबा ने गोआ, चेन्नई, बंगलोर में कांग्रेस, सोनिया गाँधी और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जमकर शंखनाद किया, परन्तु मीडिया को इस तरफ़ न ध्यान देना था और न ही उसने दिया। परन्तु “चर्च-पोषित” मीडिया तथा “सोनिया पोषित NGO इंडस्ट्री” ने बाबा रामदेव की दो महीने की मेहनत पर, अण्णा के “चार दिन के अनशन” द्वारा पानी फ़ेर दिया, तथा देश-दुनिया का सारा फ़ोकस “भगवा वस्त्र” एवं “कांग्रेस-सोनिया” से हटकर “गाँधी टोपी” और “जन-लोकपाल” पर ला पटका… इसे कहते हैं “पैंतरेबाजी”…। जिसमें क्या संघ और क्या भाजपा, सभी कांग्रेस के सामने बच्चे हैं। जब यह बात सभी को पता है कि मीडिया सिर्फ़ “पैसों का भूखा भेड़िया” है, उसे समाज के सरोकारों से कोई लेना-देना नहीं है, तो क्यों नहीं ऐसी कोई कोशिश की जाती कि इन भेड़ियों के सामने पर्याप्त मात्रा में हड्डियाँ डाली जाएं, कि वह भले ही “हिन्दुत्व” का गुणगान न करें, लेकिन कम से कम चमड़ी तो न उधेड़ें?

अब एक स्नैपशॉट देखें…

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की 4 अप्रैल 2011 को लोकपाल बिल के मुद्दे पर बैठक होती है, जिसमें अरविन्द केजरीवाल, बड़े भूषण, संदीप पाण्डे, हर्ष मन्दर, संतोष मैथ्यू जैसे कई लोग शामिल होते हैं। सोनिया गांधी की इस “पालतू परिषद” वाली मीटिंग में यह तय होता है कि 28 अप्रैल 2011 को फ़िर आगे के मुद्दों पर चर्चा होगी…। अगले दिन 5 अप्रैल को ही अण्णा अनशन पर बैठ जाते हैं, जिसकी घोषणा वह कुछ दिनों पहले ही कर चुके होते हैं… संयोग देखिये कि उनके साथ मंच पर वही महानुभाव होते हैं जो एक दिन पहले सोनिया के बुलावे पर NAC की मीटिंग में थे… ये कौन सा “षडयंत्रकारी गेम” है?

इस चित्र में जरा इस NAC में शामिल “माननीयों” के नाम भी देख लीजिये –

हर्ष मंदर, डॉ जॉन ड्रीज़, अरुणा रॉय जैसे नाम आपको सभी समितियों में मिलेंगे… इतने गजब के विद्वान हैं ये लोग। “लोकतन्त्र”, “जनतंत्र” और “जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों” वाले लफ़्फ़ाज शब्दों की दुहाई देने वाले लोग, कभी ये नहीं बताते कि इस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को किस जनता से चुना है? इस परिषद में आसमान से टपककर शामिल हुए विद्वान, बार-बार मीटिंग करके प्रधानमंत्री और कैबिनेट को आये दिन सलाह क्यों देते रहते हैं? और किस हैसियत से देते हैं? खाद्य सुरक्षा बिल हो, घरेलू महिला हिंसा बिल हो, सिर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने सम्बन्धी बिल हो, लोकपाल बिल हो… सभी बिलों पर सोनिया-चयनित यह परिषद संसद को “सलाह”(?) क्यों देती फ़िरती है? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि संसद में पेश किया जाने वाला प्रत्येक बिल इस “वफ़ादार परिषद” की निगाहबीनी के बिना कैबिनेट में भी नहीं जा सकता? किस लोकतन्त्र की दुहाई दे रहे हैं आप? और क्या यह भी सिर्फ़ संयोग ही है कि इस सलाहकार परिषद में सभी के सभी धुर हिन्दू-विरोधी भरे पड़े हैं?

जो कांग्रेस पार्टी मणिपुर की ईरोम शर्मिला के दस साल से अधिक समय के अनशन पर कान में तेल डाले बैठी है, जो कांग्रेस पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के अध्यक्ष की अलग राज्य की माँग की भूख हड़ताल को उनके अस्पताल में भर्ती होने तक लटकाकर रखती है…और आश्वासन का झुनझुना पकड़ाकर खत्म करवा देती है… वही कांग्रेस पार्टी “आमरण अनशन” का कहकर बैठे अण्णा की बातों को 97 घण्टों में ही अचानक मान गई? और न सिर्फ़ मान गई, बल्कि पूरी तरह लेट गई और उन्होंने जो कहा, वह कर दिया? इतनी भोली तो नहीं है कांग्रेस…

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ताजा खबर ये है कि –
1) संयुक्त समिति की पहली ही बैठक में भ्रष्ट जजों और मंत्रियों को निलम्बित नहीं करने की शर्त अण्णा ने मान ली है,
2) दूसरी खबर आज आई है कि अण्णा ने कहा है कि “संसद ही सर्वोच्च है और यदि वह जन-लोकपाल बिल ठुकरा भी दे तो वे स्वीकार कर लेंगे…”
3) एक और बयान अण्णा ने दिया है कि “मैंने कभी आरएसएस का समर्थन नहीं किया है और कभी भी उनके करीब नहीं था…”

आगे-आगे देखते जाईये… जन लोकपाल बिल “कब और कितना” पास हो पाता है… अन्त में“होईहे वही जो सोनिया रुचि राखा…”। जब तक अण्णा हजारे, बाबा रामदेव और नरेन्द्र मोदी के साथ खुलकर नहीं आते वे सफ़ल नहीं होंगे, इस बात पर शायद एक बार अण्णा तो राजी हो भी जाएं, परन्तु जो “NGO इंडस्ट्री वाली चौकड़ी” उन्हें ऐसा करने नहीं देगी…

(जरा अण्णा समर्थकों की गालियाँ खा लूं, फ़िर अगला भाग लिखूंगा…… भाग-2 में जारी रहेगा…)

विकीलिक्स केबल्स सच्चाई हैं, असांजे की पुष्टि

लालकृण आडवाणी

दि हिन्दू ने विकीलीक्स से लगभग 6 मिलियन शब्दों वाले 5100 भारतीय केबलों को चुनकर उन पर आधारित समाचारों और लेखों को अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर वास्तव में इतिहास बनाया है।

इन सभी महत्वपूर्ण रिपोर्टों के संदर्भ में दि हिन्दू के अत्यंत प्रतिष्ठित सम्पादक एन. राम ब्रिटेन के नारफॉक देश में गए और वहां विकीलीक्स के एडिटर-इन-चीफ जुलियन असांजे का एक घंटे का इंटरव्यू किया जिसमें असांजे ने देश को उस सैध्दान्तिक रूपरेखा की झलक दिखाई जिसके तहत विकीलीक्स विश्व के मंच पर अपनी भूमिका अदा कर रहा है और जिसने असांजे को यह सब करने के लिए प्रेरित किया।

यह इंटरव्यू दि हिन्दू में दो किश्तों में प्रकाशित हुआ है, पहला 12 अप्रैल और दूसरा 13 अप्रैल, 2011 को।

भारत से सम्बन्धित रहस्योद्धाटनों पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया के संदर्भ में असांजे द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री के बारे में की गई टिप्पणियां अपमानजनक हैं। दि हिन्दू और विकीलीक्स के सम्पादकों के बीच हुई सम्बन्धित बातचीत को मैं यहां शब्दश: उदृत कर रहा हूं:

एन. राम: भारत में, शुरूआती हैरानी भरी प्रतिक्रिया के बाद, हमारे द्वारा प्रकाशित भारतीय केबलों पर सरकारी प्रतिक्रिया का स्वर – प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केबलों और अमेरिकी दूतावास तथा कांसुलेट्स द्वारा अपने स्टेट डिपार्टमेंट को भेजी गई रिपोर्टों की सत्यता पर प्रश्न उठाने या उन्हें विवादित करार देने से तय कर दिया। लोकसभा, हमारे यहां के हाऊस ऑफ कॉमन्स में 13 मार्च को उन्होंने यह कहा। उन्होंने कहा कि ”सरकार ऐसे केबलों की सत्यता, विषय सामग्री या यहां तक कि इनकी मौजूदगी की पुष्टि नहीं कर सकती।” इससे लगता है कि भारतीय सरकार ने अन्य सरकारों से अलग, पूरी दुनिया से अलग यह रूख अपनाया है, क्या ऐसा नहीं लगता?

जुलियन असांजे: हां, ऐसा लगता है।

एन. राम: क्या आपको ऐसी प्रतिक्रिया कहीं और से भी मिली?

जुलियन असांजे: ऐसी प्रतिक्रिया कहीं और से देखने में नहीं आई, और इस प्रतिक्रिया ने मुझे परेशान किया। क्योंकि हिलेरी क्लिंटन दिसम्बर (2010) में भारतीय सरकार और अन्य अनेकों सरकारों को बताने में जुटी थीं कि ऐसी जानकारियां सामने आने वाली हैं। पिछले चार वर्षों में हमने जितने भी दस्तावेज प्रकाशित किये हैं उनकी विश्वसनीयता को लेकर कोई सवाल नहीं उठा, अमेरिकी दूतावास के केबलों को ही लें जिनकी पुष्टि, स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा हमारे और दुनियाभर के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों के सैकड़ों पत्रकारों के विरूध्द आक्रामक कार्रवाई करने से हुई है।

इसलिए मैंने कहा कि मैंने उस वक्तव्य को भारतीय लोगों को भ्रमित करने का जानबूझकर किया गया प्रयास बताया। और यही वह बात है जो चिंताजनक है। क्योंकि यह महज एक आरोप नहीं है। यह प्रधानमंत्री के मुख से सीधे निकला हुआ है, और वह अच्छी तरह से जानते हैं कि क्या करना है। यद्यपि मैंने सुना है – मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है लेकिन आम सहमति दिखती है कि यह ठीक है – वह व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट नहीं हैं, यह दूसरे लोगों के संभवत: भ्रष्टाचार को छुपाने का सीधा प्रयास है। इससे सीधे-सीधे बचते हुए वह कह सकते थे कि ‘देखिए, ये आरोप हैं। ये गंभीर हैं और हम इनकी जांच करेंगे तथा सच्चाई का पता लगाएंगे और संसद को पूरी रिपोर्ट देंगे।”

मुझे लगता है यदि उन्होंने यह दृष्टि अपनाई होती तो उन्होने बड़ी सेवा की होती। अत: उन्होंने अपने हितों के विरूध्द काम किया और अपनी पार्टी के हितों के विरूध्द काम किया है जो उनके असंगत है। मैं इसका अर्थ यह सुझाऊंगा कि वह जो सोचते हैं उससे अलग काम करने की उनकी आदत है – और भ्रष्टाचार के आरोपों पर प्रतिक्रिया देने की आदत से उसे छुपाने की।

एन. राम: हालांकि एक वरिष्ठ विपक्षी नेता, पूर्व उपप्रधानमंत्री और भाजपा नेता, एल.के.आडवाणी – ने मुंबई में ‘प्रेस से मिलिए‘ कार्यक्रम में जहां मैं भी पैनल (सवाल पूछने वाले सम्पादकों का) में था – उन्होंने कहा कि ये (केबल) सत्य हैं। उन्होंने विकीलीक्स और हमारे द्वारा इन्हें प्राप्त करने की प्रशंसा की। लेकिन मुख्य रूप से उन्होंने कहा कि ये केबल तीन हिस्सों में बांटे जा सकते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा कुछ आपने भी अपने साक्षात्कारों में कहा है लेकिन वह अपने निष्कर्षों पर स्वयं पहुंचे हैं। पहला, तथ्यात्मक है, तथ्यों पर आधारित। उन्होंने कहा है कि जहां तक मेरा मानना है ये सत्य हैं, क्योंकि ये उनके मुख्यालय के लिए थे न कि किसी और के लिए। अत: ये सत्य हैं। आगे उन्होंने कहा, कुछ व्याख्यात्मक हैं और तीसरा हिस्सा दूतावास द्वारा दी गई सलाह है।

जुलियन असांजे: हां, हां।

एन. राम: इसी प्रकार जब कांग्रेस इसके घेरे में आती है तो अन्य भाजपा नेता भी इसी स्वर में बोलते हैं। और दिलचस्प यह है कि अपनी एक चुनावी सभा में कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने विकीलीक्स का उपयोग किया जिसमें एक भाजपा नेता ने कहा कि ”हिन्दू राष्ट्रवाद अवसरवादी मुद्दा है”।

जुलियन असांजे: हां मैंने देखा था। दिलचस्प है।

एन. राम: और उन्होंने (सोनिया गांधी) इसका उपयोग किया। वे स्वयं ही अपने हाथ स्वयं बांध रही हैं। मुझे लगता था कि मुझे इस पर आपकी तरफ से और अंदर की जानकारी मिलेगी। लेकिन आप ने कहा कि दोनों मुद्दों पर आपका लक्ष्य अचूक है। पहला, विकीलीक्स में सार्वजनिक की गई सभी सामग्री में से एक भी ऐसी नहीं है जिसमें एकदम सही के सिवाय कुछ और दिखाया गया हो। दूसरा, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जिसमें किसी निर्दोष व्यक्ति को कोई हानि पहुंचाई गई हो।

जुलियन असांजे: हां, शारीरिक रूप से कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया है। और मैं एक भी ऐसा केस नहीं जानता जिसमें किसी निर्दोष व्यक्ति को गैर शारीरिक के अलावा भी कोई हानि पहुंचाई गई हो। अनेक राजनीतिज्ञों को त्यागपत्र देना पड़ा या राजदूतों को उन देशों को छोड़ना पड़ा जहां वे कार्यरत थे क्योंकि अपने प्रतिरुपों से वे जो झूठ बोलते रहे और वह उद्धाटित होने से उन देशों में उनका रहना असम्भव हो गया; सरकारें चुनाव हार गई हैं तथा मुबारक जैसे तानाशाहों को देश निकाला दे दिया गया। लेकिन हम ऐसी किसी घटना के प्रति अनजान नहीं हैं – और न ही अमेरिका के किसी अधिकारी या किसी दूसरे ने यह आरोप लगाया कि – हमारे प्रकाशन से किसी व्यक्ति को कोई हानि पहुंची है …

एन. राम: तो न्याय ने जुलियन असांजे और विकीलीक्स को प्रेरणा दी है। यह आपका लक्ष्य है, आपके न्याय की अवधारणा?

जुलियन असांजे: हां, इसके पीछे एक तरीका और एक लक्ष्य है। हमारा लक्ष्य न्याय है और विकीलीक्स तथा इसकी विभिन्न प्रकाशन गतिविधियों और सामग्री जुटाने की गतिविधियां वह तरीका है जिसका उपयोग हम करते हैं और एक अधिक न्यायसंगत समाज के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। और यदि आप पूछेंगे कि मैं इसमें क्यों दिलचस्पी ले रहा हूं, ठीक है अनेक ऐसे काम हैं जो मैं कर सकता हूं। मैं सौभाग्यशाली स्थिति में हूं जहां मैं अनेक चीजें कर सकता हूं और अनेक चीजें कर भी चुका हूं। लेकिन मैं देखता हूं कि यह दुनिया, मेरी दुनिया है और मैं अपनी दुनिया में अन्याय देखकर अप्रसन्न हूं। मैं समझता हूं कि यह दुनिया अपने में पूर्ण नहीं हैं और इसे देखकर मुझे दु:ख होता है। मैं खुश रहना चाहता हूं, इसलिए मैं दुनिया को और न्यायसंगत बनाना चाहता हूं।

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जो लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं, वे जानते हैं कि विकीलीक्स एक नि:शुल्क एनसाइक्लोपीडिया है। विकीलीक्स और इसके एडिटर-इन-चीफ जुलियन असांजे के बारे में ज्यादा विस्तार से जानना चाहते हैं, उनके लिए विकीपीडिया में उपलब्ध थोड़ी जानकारी कुछ इस प्रकार है।

जुलियन असांजे (3 जुलाई, 1971) एक आस्ट्रेलियाई प्रकाशक और एक इंटरनेट एक्टिविस्ट हैं। विकीलीक्स एक विसलब्लोअर (भण्डा फोड़ने वाली) वेबसाइट है। वेबसाइट के साथ जुड़ने से पहले वह भौतिकी और गणित के विद्यार्थी तथा कम्प्यूटर प्रोग्रामर रहे हैं।

असांजे अनेक देशों में रह चुके हैं और पत्रकारों को बता चुके हैं कि वह लगातार घूमते रहते हैं। वह समय-समय पर प्रेस की स्वतंत्रता, सेंसरशिप और खोजपरक रिपोर्टिंग के बारे में बोलने के लिए सामने आते हैं।

सन् 2009 में, असांजे ने ‘केन्या में गैर-न्यायिक हत्याओं का पर्दाफाश करने‘ के लिए एमेनेस्टी इंटरनेशनल मीडिया एवार्ड जीता। ब्रिटिश पत्रिका न्यू स्टेट्समैंन ने उन्हें 2010 में दुनिया की 50 सर्वाधिक प्रभावशाली हस्तियों में शामिल किया।

 

घोटालेबाजों को सजा दो

भ्रष्टाचार को लेकर वास्तव में देश गुस्से में है। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार इसलिए नहीं है कि आवश्यक कानूनों की कमी है, अपितु इसलिए है कि जो सत्ता में बैठे हैं उनमें घोटालेबाजों को दण्डित करने की इच्छा शक्ति नहीं है।

इसलिए, संसद के मानसून सत्र में जब अण्णा हजारे द्वारा हासिल की गई कमेटी द्वारा इन दिनों विचारे जा रहे लोकपाल विधेयक पर विचार हो, भ्रष्टाचार से निपटने में सरकार की गंभीता की असली कसौटी यह होगी कि पहले ही रहस्योद्धटित हो चुके तीन घोटालों – स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और मुंबई के भूमि घोटाले में यह क्या कार्रवाई करती है।

जनता के लिए यह दूसरा कष्टप्रद तथ्य है कि पिछले वर्षों में अमेरिका और जर्मनी जैसे अधिक शक्तिशाली देश स्विटजरलैण्ड जैसे टेक्स हेवन्स के बैंकिंग गुप्त कानूनों में सेंध लगाकर अपनी सम्पत्ति वापस लेने में सफल रहे हैं, जबकि इस सम्बन्ध में भारत सरकार ने कोई गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। इसने अभी तक सन् 2004 में पारित भ्रष्टाचार के विरूध्द यू. एन. कन्वेंशन की पुष्टि तक नहीं की है।

भारतीयों द्वारा विदेशों में ले जाए गए अथह काले धन को बिना किसी विलम्ब के वापस लाया जाए।

टेलपीस (पश्च लेख)

एन. राम के साथ एक घंटे के साक्षात्कार की समाप्ति पर जुलियन असांजे की अंतिम टिप्पणी काफी रोचक है। वह कहते हैं: ”एक बात मैं दि हिन्दू और सामान्य रूप से भारतीय लोगों को कहना चाहूंगा। वह यह कि, एक आस्ट्रेलियन होने के नाते, मैं आपको अंग्रेजीभाषियों से अच्छी अंग्रेजी बोलने के लिए धन्यवाद कहना चाहता हूं।”

‘व्योमकेश दरवेश’ तीन सुंदर प्रसंग- काशी, बकबक और बोलती औरत

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

काशी की संस्कृति – विद्वत्ता और कुटिल दबंगई

विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘व्योमकेश दरवेश’ में काशी के बारे में लिखा है – ” काशी में विद्वत्ता और कुटिल दबंगई का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। कुटिलता,कूटनीति,ओछापन,स्वार्थ -आदि का समावेश विद्बता में हो जाता है। काशी में प्रतिभा के साथ परदुखकातरता, स्वाभिमान और अनंत तेजस्विता का भी मेल है जो कबीर, तुलसी, प्रसाद और भारतेन्दु, प्रेमचन्द आदि में दिखलाई पड़ता है। काशी में प्रायः उत्तर भारत, विशेषतः हिन्दी क्षेत्र के सभी तीर्थ स्थलों पर परान्न भोजीपाखंड़ी पंडों की भी संस्कृति है जो विदग्ध, चालू, बुद्धिमान और अवसरवादी कुटिलता की मूर्ति होते हैं। काशी के वातावरण में इस पंडा -संस्कृति का भी प्रकट प्रभाव है। वह किसी जाति-सम्प्रदाय,मुहल्ला तक सीमित नहीं सर्वत्र व्याप्त है। पता नहीं कब किसमें झलक मारने लगे।” क्या आप काशी गए हैं ? जरा अपने शहर की संस्कृति के बारे में बताएंगे ?

बकबक की हिमायत में कबीर

अभी कछ दिन पहले फेसबुक पर हिन्दी के एक कहानीकार अपना नजरिया रख रहे थे कि आजकल बकबक ज्यादा होने लगी है। मैं नहीं जानता उनकी बकबक पीड़ा के कारणों को। लेकिन इस प्रसंग में मुझे विश्वनाथ त्रिपाठी की किताब ‘व्योमकेश दरवेश ‘में बड़ा सुंदर वर्णन मिला है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है- कबीर ने कहा-भाई बोलने को क्यों कहते हो-बोलने से विकार बढ़ता है। लेकिन फिर पलटकर कहा-क्या करें बिना बोले विचार भी तो नहीं हो सकता इसलिए चलो बोलना तो पड़ेगा ही-

बोलना का कहिये रे भाई

बोलत-बोलत तत्त नसाई

बोलत-बोलत बढै विकारा

बिन बोले का करइ विचारा।

 

बोलती औरत

प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की शानदार किताब आयी है ‘व्योमकेश दरवेश’ । इसमें उन्होंने लिखा है “बनारस के आसपास की ग्रामीण औरतें लाल कत्थई रंग की साडियां बहुत पहनती हैं। वे घास काटतीं,घास के गट्ठर सर पर रखे,सड़क के किनारे काम करती हुई अक्सर दिखलाई पड़तीं। ग्रामीण औरतें जब साथ -साथ चलती हैं तब चुप नहीं रहतीं। या तो गाती ,या बात करती हैं,हँसी-ठट्ठा करती हैं, या फिर झगड़ा करती हैं। गुस्से में चुप रहना,न बोलना,शहराती लोगों को आता है।” आपके इलाके में ग्राम्य और शहरी औरतों का स्वभाव कैसा ? कृपया बताएं ?

यात्रियों की सुरक्षा के बिना रेल विकास की बातें निरर्थक

निर्मल रानी

भारतवर्ष की एक राष्ट्रीय स्तर की होनहार एवं उदीयमान वॉलीबाल एवं फुटबाल खिलाड़ी 24 वर्षीया अरुणिमा सोनू सिन्हा पर रेल यात्रा के दौरान लुटेरों द्वारा किए गए हमले के बाद एक बार पुन: रेल यात्रियों की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ गई है। गौरतलब है कि गत् 11 अप्रैल,(सोमवार) को सोनू सिन्हा को तीन लुटेरों ने पदमावती एक्सप्रेस में चलती ट्रेन में लूटने की कोशिश की। एक खिलाड़ी एवं निडर महिला होने के नाते उसने लूटपाट का विरोध किया तथा लुटेरों का मुकाबला करने की कोशिश की। आिखरकार बदमाशों ने उसे बरेली तथा चेनहटी स्टेशनों के मध्य चलती टे्रन से बड़ी बेरहमी के साथ बाहर धकेल दिया। ठीक उसी समय दूसरे रेल ट्रैक पर दूसरी ओर से एक अन्य ट्रेन तेज़ी से आ रही थी जिसके नीचे सोनू का पैर आ गया और उसके सिर तथा दाहिने पैर में भी काफी चोटें आर्इं। जबकि डॉक्टरों को उसका जीवन बचाने हेतु उसका बायां पैर काटना पड़ा। यह होनहार खिलाड़ी महिला एक परीक्षा देने हेतु दिल्ली जा रही थी। ज़ाहिर है इस हादसे के बाद इस उदीयमान महिला खिलाड़ी का कम से कम खेल संबंधी भविष्य तो अब चौपट हो ही गया।

सोनू सिन्हा जैसे हादसे भविष्य में न हों इस पर सरकार द्वारा चिंतन-मंथन करने के बजाए चिरपरिचित भारतीय राजनीति की परंपरा के अनुसार राजनीतिज्ञों द्वारा सोनू के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करने की होड़ लगी दिखाई दे रही है। उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसाद पाल ने अस्पताल जाकर सोनू से मुलाकात की तथा उसे उत्तर प्रदेश के खेल मंत्रालय में नौकरी का प्रस्ताव दिया। केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन भी सोनू को देखने बरेली मेडिकल कॉलेज पहुंचे तथा उनकी संस्तुति पर सोनू को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एस)में भर्ती करा दिया गया। अजय माकन ने भी सोनू को रेलवे में नौकरी दिए जाने तथा दुर्घटना के बदले उचित मुआवज़ा दिए जाने हेतु रेलमंत्री ममता बैनर्जी को पत्र लिखा है। ज़ाहिर है नेताओं की यह दरियादिली एक ऐसे हादसे के बाद दिखाई दे रही है जबकि सोनू अपना खेल कैरियर गंवा चुकी है तथा इस प्रकार के अर्थपूर्ण प्रस्ताव न तो उसके खेल कैरियर को पुन: वापस ला सकेंगे न ही उसपर गुज़रने वाली मानसिक पीड़ा की भरपाई कर सकें गे। सोनू की पीड़ा को महसूस करते हुए भारतीय क्रिकेट टीम के युवराज तथा हरभजन सिंह जैसे खिलाडिय़ों ने भी उसे एक-एक लाख रूपये की आर्थिक सहायता दी है तथा सोनू के प्रति अपनी गहरी सहानुभूति भी व्यक्त की है।

सवाल यह है कि क्या अजय माकन द्वारा ममता बैनर्जी को लिखे गए सोनू के मुआवज़े तथा नौकरी संबंधी सिफारशी पत्र को पढऩे व उसपर कार्रवाई करने का समय इन दिनों रेलमंत्री के पास है? जबसे ममता बैनर्जी ने रेल मंत्रालय का कार्यभार यूपीए सरकार में संभाला है उसी समय से इस बात की आम चर्चा है कि वे अपना सारा समय व ध्यान रेल मंत्रालय संबंधी काम देखने के बजाए पश्चिम बंगाल की राजनीति पर ही केंद्रित रखती हंै। हो सकता है पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव परिणाम उन्हें प्रदेश की सत्ता तक पहुंचा भी दें और वे रेल मंत्रालय छोड़कर राईटर्स ब्लिडिंग की शोभा बढ़ाने लग जाएं। परंतु अपने रेल मंत्री रहते उन्होंने रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी कोई उपाय नहीं किए इस बात का शिकवा पश्चिम बंगाल राज्य के रेल यात्रियों सहित पूरे देश के उन सभी रेल यात्रियों को रहेगा जो अपनी यात्रा शुरु होने से लेकर यात्रा की समाप्ति तक स्वयं को घोर असुरक्षित महसूस करते हैं। ममता ने रेल विकास हेतु निश्चित रूप से कई नई योजनाएं शुरु की हैं। नई दूरगामी तथा तीव्र गति से चलने वाली कई नई रेलगाडिय़ों से भी देश का परिचय कराया है। रेलवे के आधुनिकीकरण के भी काम हुए हैं तथा दुरंतो व महिला विशेष ट्रेन जैसे नए प्रयोग भी सफल हो रहे हैं। परंतु रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी बुनियादी प्रश्र आज भी वैसा ही नज़र आ रहा है। यानी आज़ाद भारत के आज़ाद रेल यात्री और उन्हें लूटने वाले आज़ाद लुटेरे ट्रेनों में यात्रियों को बेखौफ लूट रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि रेल यात्रा में असुरक्षा का वातावरण कोई ममता बैनर्जी या लालू यादव के ही कार्यकाल की बातें हों। दशकों से रेल यात्री ट्रेनों में सरेआम यूं ही तरह-तरह के हथकंडों के द्वारा लुटते आ रहे हैं। कभी इन्हें सशस्त्र लुटेरे लूटते हैं तो कभी यात्रियों के रक्षक के रूप में दिखाई देने वाले सशस्त्र एवं बावर्दी लुटेरे। कभी रेलगाडिय़ों में खाने-पीने का सामान बेचने वाले हॉकर यात्रियों को नकली,सड़ा-गला, मिलावटी, महंगा तथा अधिक कीमत लेकर कम सामान देकर पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर लूटते दिखाई देते हैं तो कभी हिजड़ों का भेष बनाए बदमाश भीख मांगने के नाम पर यात्रियों से जबरन पैसे वसूलते हैं। यदि इन्हें कोई यात्री पैसे देने से मना करता है तो यह हिजड़े उसके मुंह पर थप्पड़ मारने तक से नहीं हिचकिचाते। रेलगाडिय़ों में नकली पेय पदार्थ ठंडा व पानी की बोतल सब कुछ धड़ल्ले से यात्रियों के हाथों बेचा जाता है। लूट का आलम तो यहां तक है कि कई स्टेशन पर प्लेटफार्म पर ट्रेन आने के समय बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से गर्मी के दिनों में पीने के पानी की प्लेटफार्म पर होने वाली सप्लाई बंद कर दी जाती है। ऐसा केवल इसलिए किया जाता है ताकि गर्मी की शिद्दत व प्यास से परेशानहाल यात्री पानी न मिलने पर पानी की बोतलें या कोल्ड ड्रिंक्स खरीदने पर मजबूर हों। और जब यात्रियों को लूटने की योजनाएं इस स्तर तक बनने लगें फिर आप स्वयं समझ लीजिए कि ऐसे स्टेशन पर आपको असली,ब्रांडेड या शुद्ध पानी की बोतल अथवा कोल्ड ड्रिंक्स आिखर कैसे मिल सकता है? रहा सवाल रेल यात्रियों को नशीली वस्तुएं खिला-पिला कर उनके सामान लूटने का, तो यात्रियों की लूट का यह फार्मूला तो बहुत पुराना व चिरपरिचित हो चुका है। परंतु इसके बावजूद ज़हरखुरानी नामक लूट का यह तरीका भी नियंत्रित होने का नाम ही नहीं ले रहा है। कई ट्रेनों में जुआरी के भेष में ठगों का गिरोह सक्रिय रहता है। यह गिरोह पहले आपस में जुआ खेलता है फिर आम यात्रियों को जुए हेतु आकर्षित करता है तथा मिलीभगत कर उन्हें ठग लेता है।

सवाल यह है कि क्या यह सभी उपरोक्त विसंगतियां भारतीय रेल यात्रियों को भविष्य में भी यूं ही झेलते रहने के लिए मजबूर रहना पड़ेगा? क्या कभी भारतीय रेल विभाग के अधिकारियों तथा सुरक्षा संबंधी विभागों ने इस विषय पर नकेल कसने की कभी कोई गंभीर कोशिश की है? पूरे देश में रेल यात्रियों की लूट की उपरोक्त कि़स्म की प्रतिदिन कम से कम हज़ारों घटनाएं पूरे देश में अवश्य घटित होती होंगी। इनमें अधिकांश घटनाएं तो पुलिस या रेलवे के संज्ञान में भी नहीं आती होंगी। परंतु सोनू सिन्हा जैसी खिलाड़ी के साथ होने वाली घटना निश्चित रूप से भारतीय रेल में व्याप्त असुरक्षा व चोरी-डकैती के वातावरण को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उजागर करती है। ऐसे में निश्चित रूप से देश की प्रतिष्ठा तथा साख का भी सवाल खड़ा होता है। लिहाज़ा रेल यात्रियों को उनके हाल पर भगवान भरोसे छोडऩे के बजाए उनकी सुरक्षा के अेाद्य उपाय किए जाने की तत्काल ज़रूरत है। इन उपायों में सर्वप्रथम तो पूरे देश में रेलवे स्टेशन सहित सभी रेलगाडिय़ों में भी सीसी टी वी कैमरा प्रत्येक डिब्बे में लगा होना तथा लगाने के बाद उसका चलते रहना अत्यंत ज़रूरी है। उसके पश्चात जी आर पी तथा आर पी एफ की संयुक्त कमान में रेल यात्रियों की सुरक्षा हेतु प्रत्येक डिब्बे में कम से कम दो सशस्त्र पुलिसकर्मी तैनात किए जाने चाहिए। या फिर केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल(सी आई एस एफ)को भारतीय रेल यात्रियों की सुरक्षा की भी जि़मेदारी सौंपी जा सकती है। रेलवे में लूटपाट करने वाले तथा मिलावटी व नकली सामान बेचने वाले अपराधियों के विरुद्ध नए,स़त एवं तुरंत अमल में लाए जाने वाले कानून की भी स़त ज़रूरत है। इस समय पूरे देश में विभिन्न तरीकों से यात्रियों को लूट रहे इन बेखौफ लुटेरों को अब यह संदेश दे दिया जाना चाहिए कि रेलवे में लूटपाट की घटना अब आगे और सहन नहीं की जा सकती।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,गृहमंत्री पी चिदंबरम तथा रेल मंत्री सभी को रेल यात्रियों की सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दे पर दखलअंदाज़ी करनी चाहिए। इस गंभीर समस्या को केवल रेलमंत्री या रेल मंत्रालय के ही भरोसे पर नहीं छोडऩा चाहिए। दूसरी ओर रेल मंत्रालय संभालने वाले देश के जि़मेदार राजनेताओं को भी यह महसूस करना चाहिए कि यदि इसी प्रकार सभी रेल मंत्रीगण बजाए भारतीय रेल यात्रियों की चिंता करने के केवल अपने ही राज्यों की राजनीति करने में तथा रेल मंत्रालय के माध्यम से भी केवल अपने ही क्षेत्रीय हितों को साधने में लगे रहे फिर आिखर इन बेचारे,असहाय,निहत्थे रेल यात्रियों की सुध कौन लेगा? लिहाज़ा रेल यात्रियों की सुरक्षा संबंधी योजनाएं प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री स्तर पर तैयार की जानी चाहिएं ताकि भविष्य में भारतीय रेल यात्री स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें तथा भारतीय रेल की प्रतिष्ठा पर भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई आंच न आने पाए।

बुरे फंसे अन्ना हजारे

आज अमर सिंह की पत्रकार वार्ता में शिकार भले ही शशि भूषण व प्रशांत भूषण हों मगर निशाने पर अन्ना हजारे दिख रहे थे । अन्ना हजारे नें अपने अनशन के समय शशि भूषण को ईमानदार बताते हुए जन लोकपाल कमेटी में उन्हे उपप्रमुख की नियुक्ति दिलवाए थे । कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने शांति भूषण और उनके बेटे को नोएडा के पास जमीन दिए जाने पर सवाल उठाते हुए उनसे खुद ही लोकपाल बिल की ड्राफ्ट कमेटी से अलग हो जाने की मांग की है. नया विवाद इन खबरों के सामने आने के बाद उठा जिसके मुताबिक शांति भूषण को उत्तर प्रदेश सरकार ने 10 हजार स्क्वेयर मीटर जमीन आवंटित की जिनमें से हर एक की कीमत साढ़े तीन करोड़ है. ताजा मामले के अनुसार – शांति भूषण के बेटे जयंत भूषण उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ नोएडा पार्क में मूर्तियां लगाए जाने के खिलाफ कोर्ट गए थे. उनका कहना है कि इसमें विवाद की वजह नहीं थी. नए विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए शांति भूषण ने कहा है, कुछ “भ्रष्ट और महत्वपूर्ण” राजनेता उन पर लगाए गए आरोपों के पीछे हैं क्योंकि कमेटी में उनके (शांति भूषण) रहते “नरम” लोकपाल बिल तैयार करना मुमकिन नहीं होगा. यहां एक दिलचस्प पहलू देखिये – अन्ना हजारे नें सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखे कि ‘पिछले दो दिनों में जिस तरह से सिविल सोसायटी के लोगों के खिलाफ खुलकर दुष्प्रचार किया जा रहा है, वह चिंता का विषय है।’ उन्होंने कहा है कि ऐसा लग रहा है जैसे लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए सारे भ्रष्ट लोग एकजुट हो गए हैं। दिग्विजय सिंह का नाम लिए बिना अन्ना ने कहा,’कांग्रेस के एक महासचिव बयानबाजी कर रहे हैं और मुझे लगता है कि इस तरह की बयानबाजी के लिए उन्हें पार्टी का सपोर्ट मिल रहा है। ज्यादातर बातें जो कही जा रही हैं वे गलत हैं। क्या आप (सोनिया) इन बयानों से सहमत हैं?’ अन्ना की च्ट्ठी के जवाब में सोनिया गांधी की ओर से पत्र आया ( सोनिया जी को लिखने की जरूरत नही पडती ) जिसमें कहा कि उन्होंने कभी भी कीचड़ उछालने और बदनाम करने की राजनीति पर यकीन नहीं किया और न ही वे ऐसे किसी भी प्रयास का समर्थन करती हैं। हजारे ने सोनिया गांधी को एक पत्र लिखकर कहा था कि कुछ कांग्रेस के नेता भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गए आंदोलन की धार कुंद करने के लिए सुनियोजित तरीके से मुहिम चला रहे हैं , सोनिया ने कहा कि उन्हें (अन्ना हजारे को) उनकी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को लेकर नीयत पर शंका नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार और घूसखोरी से लड़ने की सख्त आवश्यकता है। वह मजबूत लोकपाल के पक्ष में हैं, जो संसदीय प्रणाली के नियमों के अंतर्गत कार्य करे। मजे की बात ये है कि सुर दिग्गी राजा के भी बदल गये लेकिन इन शातिराना चालों के बीच अमर सिंह प्रकट हुए और दिग्गी राजा की कही बातों को पत्रकार वार्ता में देश के सामने रख दिये । शब्द दिग्गी राजा के थे और मुंह अमर सिंह का था । अब अन्ना हजारे के साथ साथ सारा देश सन्न है कि उन्हे क्या जवाब दिया जाए क्योंकि कानून बनाने वाले लोग जानते हैं कि किसी भी बात को चाहे वो झूठी ही क्यों ना हो साबित करने में सालों लग जाते हैं । इस शातिराना चाल में नुकसाल केवल दो लोगों का होगा एक अन्ना हजारे का और दुसरा …. मेरे देश का । इसलिये अब हमें ये सोचना है कि अमर सिंह की कांग्रेसी जुबान को कैसे खारिज करवाया जाए ।

बेहतर शादी शुदा जिन्दगी के लिये…

शादाब जफर ”शादाब”

 

बात सन् 1999 की है। मण्डी हाऊस के नजदीक नई दिल्‍ली स्थित रूसी ऑडिटोरियम के सभागार में बालकन जी बारी इन्टरनेशल नई दिल्ली द्वारा आयोजित देश भर से आये कवि शायरों के सम्मान समारोह का कार्यक्रम चल रहा था। मुझे भी इसी वर्ष इस संस्था ने मेरी काव्य रचना पर राष्ट्रीय कविता अवार्ड से सम्मानित किया था। उस वक्त तक मेरी शादी नहीं हुई थी। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि भारत सरकार में उस समय कैबिनेट श्रम मंत्री माननीय शांता कुमार जी थे। ज्यादातर हम सम्मानित कवि शायरो में अविवाहित ही थे। शायद शांता कुमार जी ने कार्यक्रम में उपस्थित लोगों का गहनता से अध्ययन किया था। अपने संबोधन में सब से पहले कार्यक्रम में शामिल उन्होंने अपनी पत्नी का सब लोगों से परिचय कराया और बोले कि मेरे प्यारे बच्चों, आज मेरा सौभाग्य है कि मुझे आप लोगों के बीच आने और बोलने का मौका मिला। बूढे लोग हमेशा बच्चों को कुछ न कुछ सीख जरूर देते है मेरा मन भी कर रहा है कि आज आप को कोई ऐसी सीख दूं जो आप लोगों के जीवन में आप के काम आये। बच्चो जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में ये दो काम नहीं किये उस का जीवन अधूरा रहने के साथ ही उसने जिन्दगी के वो हसीन पल महसूस ही नहीं किया जो जीवन में सब से अनमोल होते है। जो व्यक्ति अपने जीवन में बच्चों के संग बच्चा बन के न बोला हो। और दूसरा जिसने अपनी पत्नी के साथ कीचन में मिलकर खाना न बनाया हो। पूरे सभागार में ठहाका गूंज उठा। वो कुछ देर रूक कर बोले में अक्सर अपनी पत्नी के साथ जब कभी भी मुझे देश और राजनीति से वक्त मिलता है कीचन में जाकर खाना बनाता हूं। इस से आपस में हम पति पत्नी के बीच प्यार बढता है। बेहतर और खुशनुमा शादी शुदा जिन्दगी के लिये ये बेहद जरूरी है।

शांता कुमार जी की एक बात पर मैंने तुरन्त घर आकर अमल कर लिया सच बच्चों के साथ बच्चों वाली तोतली जबान में बोलकर बड़ा ही आनन्‍द आया मगर दूसरी बात में अभी वक्त था। मैंने दिल को समझाया। इसे पूरा होने में अभी वक्त लगेगा कितना लगेगा मैं खुद नहीं जानता था। पर जब 25 अप्रैल 2002 को मेरी शादी हुई तो मुझे शांता कुमार जी की बात याद थी। पर संयुक्त परिवार में रहकर ये सब करना माना लोहे के चने चबाने जैसा था। धीरे धीरे वक्त बीता घर में बिटिया का जन्म हुआ इसी दौरान वो वक्त आ गया जब मुझे अपनी पत्नी के साथ किचन में खाना बनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जैसा शांता कुमार जी ने कहा था बिल्कुल वैसा ही हुआ। एक अलग प्रकार के प्यार की अनुभूति प्राप्त हुई और हम दोनो में मोहब्बत भी बढी। अक्सर देखने और सुनने में ये आता है कि शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताए जो न खाये वो भी पछताए। दरअसल प्यार उमंग की वजह से शादी शुदा जिन्दगी में कदम रखने वाले जोडे शादी के बाद की जिम्मेदारिया अच्छी तरह से न निभा पाने की वजह से कुछ ही दिनो में परेशान हो उठते है, जिसका असर नये शादी शुदा रिश्‍ते पर पड़ता है क्योंकि शादी का दूसरा नाम है जिम्मेदारी। शादी से पहले जिस जीवन को लडका लड़की जी कर आते है दोनों में जमीन आसमान का फर्क होता है। शादी के पहले की दुनिया आसमान से चॉद तारे तोड़ कर लाने की होती है वही शादी के बाद दोनों का जमीनी हकीकत से सामना होता है तो छोटी बातों और छोटी मोटी फरमाईशों पर दोनों के बीच झगड़ा शुरू हो जाता है आपसी बहस और तकरारों का सिलसिला चल पड़ता है। तमाम चीजों के बीच रिश्‍तों में तालमेल के साथ खुशहाली बनाए रखने के लिये आर्थिक मजबूती के लिये पैसा ही जरूरी नहीं होता प्यार और स्नेह भी काम आता है। मैंने यह आजमा कर देख लिया कि शादी-शुदा जिन्दगी में अचानक आई सुनामी में शांता कुमार जी का फार्मला रामबाण का काम करता है।

बेहतर और खुशनुमा शादी-शुदा जिन्दगी के लिये ये भी बेहद जरूरी है कि पति पत्नी एक दूसरे की भावनाओं और इच्छाओं को खुले दिल से समझने के साथ ही उनका आदर सम्मान करे और एक दूसरे को महत्व दें। ज्यादातर देखने में आता है कि हम रोजमर्रा के जीवन में गुजरते वक्त के साथ ही अपने लाइफ पाटर्नर के साथ सामान्य शिष्टाचार भी भूल जाते है। जबकि आप के द्वारा आफिस या घर से बाहर जाते वक्त पत्नी को आई लव यू या आफिस से आने के बाद प्यार से चूमने के बाद आई मिस यू कहना आप की शादी शुदा जिन्दगी मे कितनी खुशहाली और मजबूती ला सकता है इस का आप प्रयोग कर के देख सकते है। अपनी शादी के शुरू के दिनों की बाते सोचता हूं और फिर अपने आज को देखता हूं तो संतुष्टि का अहसास होता है। ऐसा नहीं कि हमारी शादी-शुदा जिन्दगी में परेशानियां नहीं आई। आम लोगों की तरह हमारे सामने भी आर्थिक परेशानियां थीं। जिस की वजह से कई बार हम दोनों में आपस में छोटे मोटे हल्के फुल्के विवाद भी हुए। कई बार मुझे उलझन का अहसास भी हुआ मगर धीरज और आपसी समझदारी से हम दोनों ने वो सब कुछ पा लिया जो हम पाना चाहते थे। आज मान सम्मान पैसा एक बेटा व एक बेटी और सुन्दर सुशील समझदार मेरी लाईफ पार्टनर मेरी बीवी, खुदा का दिया मेरे पास सब कुछ है। शादी के शुरूआती दिनों में हम दोनों पति-पत्नी के बीच पैसे और खर्च को लेकर बहस हो जाती थी। एक दिन बैठकर हम दोनों ने इस बात पर चर्चा की कि हमारी और बच्चों की क्या क्या जरूरतें है। उन्हें किस तरह से पूरा किया जा सकता है। हम दोनों ने एक तरफ घर गृहस्‍थी की चीजों की खरीदारी के लिये ऐसी जगहों की तलाश की जहां उचित कीमत पर अच्छा सामान मिलता था। दूसरी तरफ आमदनी बढाने के जरिये भी तलाश किये। मैं समाचार पत्र-पत्रिकाओ एंव फीचर एजेंसियो के लिये फीचर कहानियां स्मरण आदि लिखने लगा। वही शायरी के ताल्लुक से देश भर में आल इन्डिया मुशायरों में शिरकत होने लगी। आकाशवाणी नजीबाबाद, दूरदर्शन दिल्ली, लखनऊ, जी टीवी, ईटीवी उर्दू आदि टीवी चैनलों से बुलावे आने लगे। और थोडे़ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो गया।

जब आप को लगे कि पैसा आप के प्यार पर हावी हो रहा है और आप की शादी शुदा जिन्दगी में हल्के हल्के दाखिल होने लगा है। आप के प्यार के बीच पैसा ही आपकी लड़ाईयों की वजह बनता चला जा रहा है। तब आप अपने भविष्य के लक्ष्यो पर फोकस करते हुए अपने जीवन साथी के साथ मनी मैटर्स पर खुलकर चर्चा करे। सारे खर्चे मिल बॉटकर करने में ही समझदारी है। ऐसा करने से अपने शादी शुदा रिश्‍तों पर इस का रिर्टन आप को तुरंत मिलता नजर आयेगा। लेकिन ये सब किसी एक की जिम्मेदारी नही है जरूरी है कि पति पत्नी दोनो अपनी शादी शुदा जिन्दगी की बेहतरी के लिये बराबरी का प्रयास करे। एक दूसरे से जुडे रिश्‍तों और रिश्‍तेदारों का मान सम्मान करे। छुट्टी वाले दिन पत्नी और बच्चो को घर के माहौल से बाहर सैर कराने, चाट, बर्गर, आईस्क्रीम या डीनर कराने ले जायें। शादी शुदा जिन्दगी से जुडी उम्मीदो के बारे में गहराई से आपस में बाते करे। बच्चो के कैरियर, संयुक्त परिवार, इन्वेस्टमेंट, बूढे मॉ बाप आदि जरूरी मुद्दो पर कोई गंम्भीर असहमति तो नही। जरूरी है ऐसे तमाम मसलो पर घर में बैठकर ही आपस में बात साफ कर ले। यदि किसी मुद्दे पर अहसहमति है तो उसे दोनो आपस में ही सुलझा ले तीसरे व्यक्ति के पास बात जाने से घर के भेद खुलने और बदनामी का डर रहता है। ऐसे में हमे ”हम” की भावना से बाहर आकर एक दूसरे को अपने अनुसार जीवन जीने के लिये भी प्रोत्साहित करना चाहिये। सोच समझ कर फैसला करने से शादी शुदा जिन्दगी की नीव सदैव मजबूत रहने के साथ ही आपस का प्यार भी बूढापे तक जवां और तरो ताजा रहता है।

”भारत रत्न” सचिन को मिलेगा ?

शादाब जफर ”शादाब”

 

सचिन जैसे देश के सपूत को देश के सब से बडे नागरिक सम्मान ” भारत रत्न” देने की मांग यूं तो काफी पहले से की जा रही है किन्तु क्रिकेट वर्ल्ड कप 2011 जीतने के बाद से पूरा राष्ट्र एक सुर में कह रहा है कि सरकार जल्द से जल्द सचिन को ये सम्मान देकर इस सम्मान की अजमत में और चार चांद लगा दें। पर हमारे तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होगा। दरअसल सचिन को ये सम्मान देने के लिये सरकार को कुछ कायदे कानून बदलने होंगे। जो कि कोई मुश्किल काम नही है। 2 जनवरी 1954 को तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 राजन्द्र प्रसाद जी ने जब ये पुरस्कार स्थापित किया तो मूल कानून में ”भारत रत्न” मरणोपरान्त देने का प्रावधान नहीं था। लेकिन जनवरी 1955 में इस पुरस्कार में ”भारत रत्न” मरणोपरान्त देने का प्रावधान जोड़ दिया गया और इसके बाद दस से अधिक लोगों को ”भारत रत्न” सम्मान मरणोपरान्त दिया जा चुका है। जिस में से एक मात्र भारतीय हस्ती नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी को दिया गया यह अंलकरण वापस लिया जा चुका है। उन को यह पुरस्कार देने की घोषणा 1992 में मरणोपरान्त की गई थी लेकिन पुरस्कार समिति ये साबित नहीं कर सकी कि नेता जी का निधन हो चुका है।

13 जुलाई 1977 को भारत रत्न सहित तीन और अन्य सम्मान पद्वम विभूषण, पद्वम भूषण और पद्म श्री पुरस्कारों को उस समय खिताब के तौर पर देखा जा रहा था। देश के संविधान के अनुच्छेद 18 के तहत उस समय खिताब देने की देश में पाबंदी थी। यह प्रावधान और पाबंदी अग्रेजी शासन के समय दी गई लोगों को उपाधियां खत्म करने के लिये लगाई गई थी। अंग्रेजी शासन में ”हिज हाईनेज”, राजा दीवान , बहादुर और राय बहादुर जैसे खिताबों से लोगो को नवाजा जाता था। लेकिन बाद में जब उच्चतम न्यायालय ने बालाजी राघवन बनाम भारत सरकार मामले में इन राष्ट्रीय पुरस्कारों को वैध ठहराया और व्यवस्था दी की यह पुरस्कार खिताब नहीं बल्कि शासन की ओर से दिया जाने वाला सम्मान है। इस के बाद 26 जनवरी 1980 से भारत रत्न समेत सभी चारों पुरस्कारो को शुरू कर दिया गया था। अभी तक 41 व्यक्तियों को यह सम्मान दिया जा चुका है जिन में दो विदेशी नागरिक दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति डॉ. नेल्सन मंडेला और मदर टेरेसा का नाम शामिल है। इन 41 व्यक्तियों में कोई भी खिलाड़ी नहीं है। वजह इस पुरस्कार देने के नियम इन नियमों के हिसाब से भारत रत्न सम्मान कला, साहित्य, और विज्ञान के विकास में असाधारण सेवा के लिये तथा सर्वोच्च स्तर की जनसेवा की मान्यता स्वरूप दिया जाता है। इस पुरस्कार नियमावली में बिना संशोधन किये सचिन कभी भी फिट नहीं बैठेंगे। देश के पद्म पुरस्कारों के संबधित नियमों के तहत यह पुरस्कार सभी प्रकार की गतिविधियों के क्षेत्रो जैसे कि कला साहित्य, शिक्षा, खेलकूद, चिकित्सा, सामाजिक कार्य, विज्ञान और इंजीनियरी, सार्वजनिक मामले आदि क्षेत्रो में दिये जाते है इसीलिये इनके नियमों के तहत सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण और खेल के क्षेत्र में दिये जाने वाला राजीव गांधी सर्वोच्च खेल सम्मान ”राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार” सचिन को पहले ही दिया जा चुका है। आज जब सचिन को भारत रत्न देने की मांग उठी है तो अब सरकार को यह निर्णय लेना होगा कि क्या भारत रत्न को खेल से भी जोड़ा जाये। गृह मंत्रालय को इस तरह का एक प्रस्ताव कैबिनेट के सामने रखना होगा। कैबिनेट मंत्रिमण्डल की स्वीकृति के बाद नियमों में संशोधन कर गृह मंत्रालय सचिन ही नही बल्कि किसी खिलाड़ी को खेल में असाधारण सेवा के लिये खिलाडी को भारत रत्न देने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

5 जनवरी 1971 को जब एकदिवसीय क्रिकेट की शुरूआत हुई थी तो किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि सचिन नाम का कोई बल्लेबाज क्रिकेट का भगवान बनकर क्रिकेट कि दुनिया का हर रिकॉर्ड अपने नाम कर लेगा। दरअसल क्रिकेट वो खेल है जिस में मैच की आखिरी गेंद पर भी चमत्कार हो सकता है। 16 साल के सचिन ने जब पाकिस्तान की धरती पर अपने कैरियर की शुरूआत की थी तब क्रिकेट के विशेषज्ञों ने सचिन को तुनक मिजाज क्रिकेटर बताया था। और जोखिम वाले शॉटस खेलने की उन की आदत को देखते हुए उस वक्त क्रिकेट के समीक्षक अन्दाजा लगा रहे थे की ये बच्चा क्रिकेट के मैदान पर लम्बी रेस का घोडा नहीं बन पायेगा। लेकिन अपने क्रिकेट कैरियर में जितनी खूबसूरत और यादगार पारिया सचिन ने खेली है वो गवाह है इस महान बल्लेबाज की गवाही देने के लिये की आज तक के क्रिकेट इतिहास में ऐसा महान बल्लेबाज दुनिया में पैदा नहीं हुआ।

ये सब यू अचानक ही नहीं हुआ। अपने क्रिकेट गुरू रमाकांत अचरेकर की देखरेख में सचिन ने मुम्बईया उमस और कड़ी धूप में घन्टों अभ्यास किया। वैसे एक हकीकत यह भी है कि मेहनत और अभ्यास तो सभी करते है फिर सारे क्रिकेटर सचिन क्यों नहीं बने, तो यहां ये कहना पडता है कि सचिन में एक मैजिक टच दिखता है। तकनीक, निरंतरता और मजबूत एकाग्रता सचिन में अपने खालिसपन के साथ मौजूद है। आज बीस साल के उन के क्रिकेट कैरियर में दुनिया का कोई भी गेंदबाज उन की कमी को नहीं भांप सका। उन की मैदान पर एकाग्रता देखने वाली होती है। शतक पूरा करने के बाद भी ऐसा महसूस होता है कि सचिन ने पारी की शुरूआत अभी की है। पीठ की चोट हो कंधे की चोट या टेनिस एल्बो की चोट सचिन की रनो की भूख कोई चोट नहीं रोक पाई। वन डे हो या टेस्ट क्रिकेट आज सचिन तेन्दुलकर रनों के माऊन्ट ऐवरेस्ट पर बैठे है। वन डे क्रिकेट में 99 शतकों का विश्‍व रिकार्ड इन के नाम दर्ज हो गया है। ये शतक एक ओर जहॉ उन्हें रन मशीन का खिताब देते है। साथ ही क्रिकेट की दुनिया में अकेले बल्लेबाज की बादशाहत का सचिन उदाहरण है। क्रिकेट के मैदान में रोज रोज खिलाडियों में तू-तू मैं-मैं सुनने और देखने को मिलती है पर सचिन को आज तक किसी भी क्रिकेट प्रेमी ने संयम खोते या किसी छोट या बडे खिलाड़ी के साथ उलझते हुए नहीं देखा होगा। विश्‍व रिकार्डों के अलावा सचिन के व्यवहार ने भी उन्हें महान बनाया है। सचिन के कैरियर में अम्पायरों द्वारा कई बार उन्हें गलत आउट दिया गया और सचिन ने हर बार अम्पायर के गलत निर्णय का भी स्वागत किया, मान रखा और बिना कुछ कहे पवेलियन चले गये। सचिन के खेल और व्यक्तित्व का ही जादू है कि डॉन ब्रैडमैन, शेन वॉर्न, गैरी सोबर्स, ब्रायन लारा, रिचर्ड हेडली, विवि रिचडर्स, सईद अनवर, जावेद मियॉदाद, जैसे क्रिकेट के दिग्गज सचिन के कायल रहे है। सचिन ने खेल को हमेशा खेल की भावना से खेला है।

आज सचिन बुलन्दी के जिस शिखर पर पहुंच चुके है उन्हें वहां तक पहुंचाने में सचिन के आलोचकों का बहुत बड़ा योगदान है क्योंकि जब जब मीडिया या क्रिकेट पंडितों ने सचिन के खेल की ये कहकर आलोचना की कि अब सचिन थक गये है, उन में वो क्षमता नहीं रही, उन का खेल फीका पड़ने लगा है। सचिन दबाव के दौरान अपना बेहतर प्रर्दशन नहीं कर पाते है और उन में लम्बी पारियां खेलने की क्षमता अब नहीं रही है तब तब सचिन और अच्छा खेले है। हाल ही में सम्पन्न हुए वर्ल्ड कप में सचिन ने दिखाया कि उन में रन बनाने की भूख और अपने आलोचकों को जवाब देने का दम अभी बाकी है।