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अन्ना के संग हजार

मुकुल मिश्रा

 

कोलकाता के मेट्रो चैनल के पास लोग अन्ना हजारे के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे थे. संख्या हजारों में थी. अधिकतर युवा, शिक्षित अथवा कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी! मैं भी अन्ना साहब को नैतिक समर्थन देने के लिहाज से वहाँ उपस्थित था. लेकिन जब वहाँ उपस्थित कुछ लोगों से जनलोकपाल बिल के बारे में उनके विचार पूछा तो उत्तर चौंकाने वाले थे. अधिकतर लोगों को जनलोकपाल बिल के बारे में कोई जानकारी हीं नहीं थी. किसी ने कहा कि अन्ना भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन पर है. जिन्हें बिल के बारे में जानकारी थी उनकी जानकारी भी बेहद कम थी और वे भी बिल का विश्लेषण कर पाने कि स्थिति में नहीं थे. यानि अन्ना के पीछे मुस्तैद लोगों को असल में पता हीं नहीं कि वे लड़ाई क्या लड़ रहे हैं. और यही बात सोशल मीडिया (फेसबुक और ट्विटर) पर कांग्रेस अथवा कहें कि भ्रष्टाचार के समर्थक कह रहे हैं. लेकिन बस वही नहीं कह रहे हैं और भी लोग हैं सवालों के साथ. यद्यपि ध्यान देने वाली बात यह है कि अन्ना के आंदोलन और उनके साथ खड़े लोगों का महत्व इससे कम नहीं हो जाता है कि उन्होंने जनलोकपाल बिल का सूक्ष्म निरिक्षण नहीं किया है. बल्कि सिक्के का दूसरे पहलू यह है कि जनता भ्रष्टाचार से इतनी तंग आ गई है कि एक ईमानदार आदमी दिखा नहीं और बिना सवाल जवाब के उसके पीछे खड़ी हो गई. कोलकाता से लेकर चेन्नई तक और छोटे-छोटे कस्बों तक में लोग उनका समर्थन में आगे आ रहे हैं. जनता यदि इसे जनलोकपाल से अधिक भ्रष्टाचार के समूल विनाश कि लड़ाई मान रही है तो यह सुखद हीं है.

मैं अगर अपनी बात करूँ तो अभी तक तय नहीं कर सका हूँ कि अन्ना की मांग उचित है अथवा अनुचित. क्या यह सांसद के प्रतिष्ठा का हनन नहीं होगा कि एक प्रस्तवित बिल का मसौदा एक अधिकार प्राप्त कमिटी तैयार करे जिसमे अनधिकृत लोग शामिल हों अर्थात जनता ने संवैधानिक तौर पर उन्हें यह अधिकार नहीं दिया हो. बेशक प्रत्येक बिल पर अपनी राय प्रकट करने का अधिकार देश की जनता को है लेकिन अधिकारप्राप्त कमिटी यदि संसद से बाहर हो और संसद को ऐसे प्रस्तवों को पारित करने के लिए मजबूर किया जाये तो क्या यह एक गलत परिपाटी कि शुरुआत नहीं होगी. बेशक हमारे नेता विश्वास के योग्य नहीं है लेकिन उन्हें निर्वाचित तो जनता ने हीं किया है. बेशक अन्ना हजारे और उनके साथियों की विश्वसनीयता हमारे नेताओं से अधिक है लेकिन उनका किसी कानून बनाने वाली समिति में अधिकारपूर्वक प्रवेश करने की जिद्द लोकतंत्र का हनन और संसदीय राजनीति का अपमान नहीं तो और क्या है?

यदि जनलोकपाल बिल की बात करें तो यह भी कोई अमृत का घड़ा नहीं है. यह लोकायुक्त को असीमित शक्ति देता है. भला यह कौन निश्चित करेगा कि वह अपने शक्ति का दुरुपयोग नहीं करेंगे. क्या यह सामानांतर सत्ता नहीं होगी. हमारी सरकार और सांसद तो फिर भी 5 वर्षों के बाद जनता को जवाब देने आते हैं लेकिन यदि लोकायुक्त मनमानी करे तो उसे भला किसकी जवाबदेही है?

लेकिन फिर सोचता हूँ कि जब पिछले 60 सालों में संसदीय राजनीति भ्रष्टाचार की जननी हीं प्रमाणित हुई है तो फिर उसके अवमूल्यन का दोष जनता का कैसा? जब किसी एक घोटाले में देश के प्रत्येक नागरिक के जेब से लगभग 1700 रुपये निकाल लिया जाता है. जब अवैध रूप से खनिजों की खुदाई में हमारे नेता और मंत्री कर्णाटक और आँध्रप्रदेश की सीमा तक भूल जाते हैं, जब भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के रेड्डी एक हीं तरह के नजर आते हैं. जब कॉमनवेल्थ खेलों में टॉयलेट पेपर से लेकर टिकट बेचने तक में धांधली करनेवाला इसी संसद का सदस्य हो, जब बलात्कार से लेकर अपहरण और हत्या से लेकर तस्करी तक के आरोपी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं, जबकि अन्य देश में हत्या का आरोपी और एक विदेशी नागरिक तक लोकतंत्र के इस मंदिर में पुजारी रह चूका है जब इसी संसद के सदस्य नोटों से ख़रीदे और बेचे जाते हैं तो फिर उस पर नकेल कसने कि जिम्मेवारी भी उसे हीं कैसे सौंपी जा सकती है. कुल मिलाकर जब संसद ने स्वयं हीं अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को तार-तार कर दिया है तो उसके विशेषाधिकार की चिंता अब कौन करे?

यदि लोकायुक्त द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने का भय है तो क्या संप्रग सरकार समर्थन जुटाने के लिए सीबीआई का दुरुपयोग नहीं करती? किसे नहीं पता कि क्यों मुलायम और मायावती उत्तर प्रदेश में तो सांप और नेवले की लड़ाई लड़ते हैं लेकिन 10 जनपथ के चौखट पर एक साथ नाक रगड़ते हैं?

लगभग यही सवाल दौर रहे हैं और जवाब भी कुछ ऐसे हीं है और कमाल की बात है कि दोनों पक्ष हीं पूरी तरह सही है और किसी एक को भी नकारना बिल्ली को देखकर कबूतर के आँख बन्द करने जैसा है.

कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि अन्ना हजारे दूसरे जयप्रकाश नारायण (जेपी) साबित होंगे और अधूरे सम्पूर्ण क्रांति को सम्पूर्ण करेंगे. लेकिन यकीन मानिये ऐसा होगा नहीं क्योंकि आज परिस्थितियां भिन्न है. जेपी कि लड़ाई निरंकुश होती जा रही इंदिरा के खिलाफ था. लेकिन अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं जिसके कीटाणु कमोबेश सभी पार्टियों में हैं. जेपी ने सत्ता परिवर्तन के रास्ते व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखा था लेकिन अन्ना हजारे जनजागरण के रास्ते हीं व्यवस्था परिवर्तन की बात सोच सकते हैं. यानि अन्ना सीधे तौर पर सत्ता पर हमला कर रहे हैं न कि सत्ताधारी पार्टी पर.

तो आखिर होगा क्या? सरकार अन्ना को अनसुना कर देगी? यह असंभव है. कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि अन्ना का आज की स्थिति में जंतरमंतर पर डटे रहना उसे कितना महंगा पड़ेगा. दूसरे यदि अन्ना को कुछ हो गया (भगवान न करे) तो फिर जो आग लगेगी उसमे 10 जनपथ भी जलेगा. उन्हें अन्ना को सुनना हीं होगा और एक समझौते पर पहुँचाना हीं होगा.

लेकिन इस लड़ाई कि सार्थकता इसी में है कि बात जनलोकपाल बिल तक न रहकर आगे तक जाये और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बने. यानि जंतरमंतर इतना शक्तिशाली प्रतिक बने कि संसदीय राजनीति उसे नकार न सके. लेकिन जंतरमंतर भारतीय संसद का विकल्प बनने की कोशिश भी न करे. इसी में लोकतंत्र का भी हित है और देश का भी.

क्या जंतर मंतर बन पायेगा तहरीर चौक ?

कल रात एक पत्रकार मित्र का फोन आया। बेहद हड़बड़ाये हुए थे। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो पूरे पगलाये हुए थे। फोन उठाते ही दुआ सलाम के बिना ही बोले कि “अंकुर बाबू कल जंतर मंतर चलना है। अन्ना हजारे हमारे जैसे लोगों के लिए अनशन पर बैठे हैं। हमें उनका समर्थन जरूर देना होगा। गोली मारो पत्रकारिता को और आओं अब समाज सेवा करते हैं।” चूंकि मित्र हमसे उम्र में बड़े थे इसलिए फोन पर तो उन्हें हां कहने के अलावा कुछ नहीं कह पाया, लेकिन फोन रखते हुए उन्हें मन ही मन जमकर गालियां दी। सोचा साला कल फालतू की छुट्टी करनी पड़ जायेगी। यहां खुद की तो सेवा हो नहीं पाती, समाज की क्या खाक करेंगे। खैर, रात काटकर सुबह उनके फोन का इंतजार करते हुए जब बहुत समय बीत गया तो सोचा फोन कर ही लूं। पता नहीं जिंदा भी है या मर गया होगा। फोन उठाते ही उन्होने झट से इतना ही बोला कि “भाई आज कुछ जरूरी काम आ गया है, इसलिए आज नही जा पाऊंगा। रविवार को चलेंगे।” उनकी बात सुनकर हमने भी अपना बस्ता उठाया और निकल लिए दफ्तर की तरफ। मगर रास्ते भर अपने आप से एक सवाल पूछता रहा। क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा?

अन्ना हजारे क्या कर रहे हैं? क्यूं कर रहे हैं? किसलिए कर रहे हैं? किसके लिए कर रहे हैं? और क्या हमें उनका साथ देने के लिए जंतर मंतर पर होना चाहिए? ऐसे सवाल अगर मेरे जैसे करोड़ों लोगों से पूछा जाये तो जानते है कि जवाब क्या होगा। बाबा पगलाए हुए है, हमे उनसे क्या लेना देना, हम क्यूं इस पचड़े में पड़े, भाई समय नहीं है, हजारे कौन सा हमारा रिश्तेदार है। ये चंद जवाब है। कुछ ओर लोगों से पूछ लिजिये। शायद कुछ नया जवाब भी मिल जायेगा।

ऐसा नहीं है कि अन्ना कुछ गलत कर रहे हैं या भारत की जनता कुछ गलत सोच रही है। गलत है तो हमारी निजी परिस्तिथियां। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करने पर तो मजबूर करती है लेकिन हम लोगों के लिए भूख हड़ताल पर बैठे अन्ना हजारे के लिए सोचने का समय भी नहीं देती। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने बच्चों का भविष्य संवारने की तो याद दिलाती हैं लेकिन देश के भविष्य के लिए अनशन कर रहे अन्ना का समर्थन करने की सोच मन में भी नहीं आनी देती। वो परिस्तिथियां जो बीमारी से पीडि़त अपनी पत्नी का इलाज कराने का तो ध्यान दिलाती हैं लेकिन भ्रष्टाचार नाम की बीमारी से परेशान देश के बारे में सोचने का ख्याल भी दिल और दिमाग में नहीं लानी देती। और अगर यही परिस्तिथियां चलती रही तो मेरा सवाल कि क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा, भी इन्ही परिस्तिथियों की भेंट चढ़ जायेगा।

अन्ना हजारे जिस जनलोकपाल बिल की बात कर रहे हैं उस पर बहुत लोग अपना ज्ञान बांट चुके हैं। उस बिल की सफलता के लिए सबसे आवश्यक तत्व है जनता। जिस जनता के लिए हजारे ये सब कर रहे हैं आखिर वो जनता कहां है। आप ये भी जान लीजिये कि जंतर मंतर पर मौजूद अधिकतर लोग वो हैं जो या तो दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया जैसे संस्थानों के तथाकथित बौद्धिक और विद्रोही किस्म के लोग हैं या फिर जनता की नजरों में समाज सेवा नाम का फालतू काम करने वाले लोग। लेकिन देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए अन्ना हजारे जिस आम जनता के लिए ये बिल पास कराना चाहते हैं वो आम जनता कहां है। आखिर वो खामोश क्यूं है? क्यूं भारत की जनता भी मिस्र की तरह नहीं हो जाती? क्यूं जंतर मंतर तहरीर चौक नहीं बन जाता?

अगर इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में लगेंगे तो आप पायेंगे कि भारत में इस तरह के अनशनों को हमेशा राजनीतिक स्टंट के तौर पर ही देखा जाता है। हालांकि लोग इन अनशनों को गांधी की परंपरा के तौर पर देखते हैं लेकिन उन लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी का जीवन भी देश सेवा के साथ राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता था। तहरीर चौक से अगर आप हजारे के अनशन की तुलना करते हैं तो ये महसूस होता है कि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। तहरीर चौक में मौजूद लोगों में शायद ही कोई बड़ी हस्ती थी। वो लड़ाई आम लोगों के द्वारा आम लोगों के लिए ही लड़ी गई थी। वहां मंच पर बैठे हुए समाज सेवकों की शक्ल में राजनेता नहीं थे जो बाबा रामदेव जैसे राजनीति में उतरने की इच्छा रखने वाले लोगों को तो मंच पर जगह देते हैं लेकिन भाजपा या कांग्रेस के नेताओं से उन्हें नफरत है। तहरीर चौक ने लोकतंत्र का असली मतलब विश्व को समझाया है। लेकिन जंतर मंतर में मामला बिल्कुल अलग है। यहां कई ऐसे चेहरों को पहले इकठ्ठा किया गया है जो मीडिया प्रेमी है और हर वक्त मीडिया की नजरों में रहते हैं। हजारों की संख्या में यहां ऐसे भगवाधारी लोग भी शामिल है जो गाहे बगाहे नक्सलियों का समर्थन करते हैं।

अन्ना का मानना है कि लोकतंत्र में जनता जो भी चाहती है उसकी अनदेखी उसका प्रतिनिधि नहीं कर सकता। सफल एवं सार्थक लोकतंत्र के लिए जन और जनप्रतिनिधियों में सामंजस्य की आवश्यकता है। उम्मीद की जा सकती है कि 1965 की जंग में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर चुके अन्ना कि अपनी ही सरकार के खिलाफ ये जंग अंजाम तक पहुंच पायेगी।

क्रमश:- इस शनिवार ओर रविवार को मेरी तो छुट्टी है और मेरे दोस्त का फोन आये या न आये, लेकिन मैं तो जंतर मंतर जा रहा हूं। शायद हम लोगों के द्वारा उठाया गया कदम ही भारत को भ्रष्टाचार की इस लाइलाज बीमारी से मुक्त करने में कारगार साबित हो। आइये अन्ना का साथ दें, उनकी अच्छी सोच का साथ दे और उनके विचारों का साथ दें लेकिन मंच पर चिपक कर बैठे समाज सेवक टाइप के राजनेताओं का नहीं।

बज उठा जनक्रांति का बिगुल

काम नही आई सचिन पर खेली गई रणनीती ।
जी हां मैं बिलकुल सही हूँ । जब तक विश्वकप चला रहा था सोनिया राहुल प्रधानमंत्री हर कोई अपने को क्रिकेट प्रेमी दर्शा रहा था । क्रिकेट की आड में सरकार बचती चली गई क्योंकि जनता का ध्यान विश्व कप पर था । विश्व कप खत्म होते ही इनकी योजना थी सचिन तेंदुलकर को  भारत रत्न देने के लिये  बवाल मचाया जाए और जनता सचिन को भारत रत्न दिया जाये या ना दिया जाए इस बहस में लग जाए तब तक आई.पी.एल. मैच चालू हो जाएंगे और इस तरह से फिर सरकार को एक दो माह तक राहत मिल जाएगी और तब तक तो जनता बहुत हद तक महंगाई और भ्रष्टाचार का मामला भूल जाएगी और अन्ना हजारे का पूर्व नियोजित अनशन फ्लॉप हो जाएगा । लेकिन इस जगह पर हजारे जीत गए । सरकार की योजना ध्वस्त हो गई और सारा देश एक नई क्रांति की याद दिलाता हुआ सडकों पर उतर आया । अब सरकार की जान सांसत में अटक गई है । वह इंदिरा की तरह इमरजेंसी नही लगा सकती क्योंकि अन्ना हजारे की मांग लोकपाल विधेयक बहुत ही मामूली सी मांग है लेकिन इसका प्रभाव बहुत ही व्यापक है ।
अन्ना के समर्थकों ने उमा भारती को वापस भगा कर एक नई दिशा बतलाई की अब उसे किसी भी नेता का साथ नही चाहिये औऱ अब वह एक आम आदमी के साथ इस नई लडाई को लडेगी । कांग्रेस की सांस अटक गई है क्योंकि वह जानती है कि इस मामले मे सेना भी जनता के साथ है और पुलिस प्रशासन इन नेताओं से त्रस्त हो चुका है । सभी जगह इस आंदोलन को जिस तरह का व्यापक समर्थन मिल रहा है उससे यह अंदाजा लग चुका है कि अब जनता बरगलाने वाली नही है । इसका एक नमूना तब देखने को मिला जब हजारे के सहयोगी अरविंद केजरीवाल नें कपील सिब्ल को नोटिफिकेशन को लेकर करारा सवाल दागा । अरविंद केजरीवाल  के इस कथन पर कि प्रधानमंत्री के प्रेस को बयान देने से कुछ नही होगा हमें कानूनी तौर से नोटिफिकेशन चाहिये से सारा देश उसका मुरीद हो गया और एक झटके मे केजरीवाल सचिन से बडे ओहदे पर दिखने लगे । जनता के सामने पहली बार ये सच्चाई आई की अभी तक प्रधानमंत्री के बयानों पर कोई कार्यवाही इसलिये नही होती थी क्योंकि वह केवल जबानी होती थी कानूनन कुछ नही होता था ।
आज स्व. राजीव दीक्षित जी की बहुत याद आ रही है । उन्होने जिस आजादी बचाओ आंदोलन की राह जनता को दिखलाई थी वह आज साकार हो रही है । सचमुच हमें इसी तरह की आजादी चाहिये जिससे हम देश के घुनों को मार सकें ।
मैं आज सच्चे मन से राजीव दीक्षित जी के चरणों में श्रद्धा के फूल करते हुए ये सौगंध उठाता हूँ कि जब भी आवश्यकता होगी अपने खून का एक एक कतरा देश की क्रांति को समर्पित कर दूंगा ।

डॉ. मधुसूदन: ”हिंदी-अंग्रेज़ी टक्कर?” भाग-एक

(क ) एक रविवारीय भोज के बाद, वार्तालाप में, भोजनोपरांत डकारते डकारते, मेरे एक पश्चिम-प्रशंसक, { भारत-निंदक, उन्हें स्वीकार ना होगा } वरिष्ठ मित्र नें प्रश्न उठाया, कि ”क्या, तुम्हारी हिंदी अंग्रेज़ी से टक्कर ले सकती है? सपने में भी नहीं।” यह सज्जन, हिंदी के प्रति, हीन भाव रखनेवालों में से है। वे, उन के ज्ञान की अपेक्षा, आयु के कारण ही, आदर पाते रहते है।

पर आंखे मूंद कर, ”साहेब वाक्यं प्रमाणं”, वाला उन का, यह पैंतरा और भारत के धर्म-भाषा-संस्कृति के प्रति हीन भावना-ग्रस्त-मानस मुझे रुचता नहीं। पर, ऐसी दुविधा में क्या करता? दुविधा इस लिए, कि यदि, उनकी आयु का आदर करूं, तो असत्य की, स्वीकृति समझी जाती है; और अपना अलग मत व्यक्त करूं, तो एक वरिष्ठ मित्र का अपमान माना जाता है। पर कुछ लोग स्वभाव से, आरोप को ही प्रमाण मान कर चलते हैं। यह सज्जन ¨ भी बहुत पढे होते हुए भी, उसी वर्ग में आते थे।

इस लिए, उस समय, उनका तर्क-हीन निर्णय और सर्वज्ञानी ठप्पामार पैंतरा देख, मुझे कुछ निराशा-सी हुयी। ऐसा नहीं, कि मेरे पास कुछ उत्तर नहीं था; पर इस लिए भी , कि हिंदी तो मेरे इस मित्र की भी भाषा थी, एक दृष्टि से मुझ से भी कुछ अधिक ही।पर उस समय उनका आक्रामक रूप, चुनौती भरा पैंतरा और ”सपने में भी नहीं” यह ब्रह्म वाक्य और आयु देख, उन्हें उत्तर देना मैं ने उचित नहीं माना। पर इस प्रसंग ने मेरी जिज्ञासा जगाई, अतः इस विषयपर कुछ पठन-पाठन-चिंतन-मनन इ. करता रहा।

(ख) तो, क्या, हिंदी अंग्रेज़ीसे टक्कर ले सकती है?

निश्चित ले सकती है। और हिंदी भारतके लिए कई गुना लाभदायी ही नहीं, शीघ्र-उन्नतिकारक भी है। भारत की अपनी भाषा है। मैं इस विषयका हरेक बिंदु न्यूनतम शब्दों में क्रमवार आपके सामने रखूंगा। केवल तर्क ही दूंगा, भावना नहीं जगाउंगा। तर्क की भाषा सभी को स्वीकार करनी पडती है, पर केवल भावनाएं, आप को वयक्तिक जीवन में जो चाहो, करने की छूट देती है। और मैं चाहता हूं, कि सभी भारतीय हिंदी को अपनाएं; इसी लिए तर्क, केवल तर्क ही दूंगा।

(ग)

आप निर्णय लें, मैं नहीं लूंगा। न्यूनतम समय लेकर मैं क्रमवार बिंदू आप के समक्ष रखता हूँ। इन बिंदुओं में भाउकता नहीं लाऊंगा। राष्ट्र भक्ति, भारतमाता, संस्कृति, इत्यादि शब्दों से परे, केवल तर्क के आधार पर प्रतिपादन करूंगा। तर्क ही, सर्व स्वीकृति के लिए उचित भी और आवश्यक भी है। इस लिए, केवल तर्क-तर्क-और तर्क ही दूंगा।

”हिंदी और देवनागरी की वैज्ञानिकता”

(१)हर बिंदू पर गुणांक, आप अपने अनुमानके अनुसार, लगाने के लिए मुक्त हैं।

हमारी देवनागरी समस्त संसार की लिपियों में सबसे अधिक वैज्ञानिक है,सर्वोत्तम हैं। और, संसार के किसी भी कोने में प्रयुक्त वर्णमाला वैज्ञानिक रूप में विभाजित नहीं है, जैसी देवनागरी है। [गुणांक ५० अंग्रेज़ी २०]

(२) आप अपना नाम हिंदी में लिखिए। मैं ने ”मधुसूदन”(५ अक्षर) लिखा। अब अंग्रेज़ी-रोमन में लिखिए ”madhusudan” (१० अक्षर) अब, बताइए कि १० अक्षर लिखनेमें अधिक समय लगेगा, या ५ अक्षर लिखने में? ऐसे आप किसी भी शब्दके विषय में कह सकते हैं। गुणांक {हिंदी २०-अंग्रेज़ी १०}

(३) हिंदी में वर्तनी होती है, पर अंग्रेज़ी की भांति स्पेलिंग नहीं होती। लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि अभिन्न (समरूप) है।जो बोला जाता है, उसीको लिखा जाता है। क लिखो, और क ही पढो, गी लिखो और गी ही पढो।जो लिखा जाता है, वही बोला जाता है। ध्वनि और लिपि मे सामंजस्य है।

अंग्रेज़ी में ऐसा नहीं है। लिखते हैं S- T- A- T- I- O- N, और पढते हैं स्टेशन। उसका उच्चारण भी आपको किसीसे सुनना ही पडेगा। हमें तो देवनागरी का लाभ अंग्रेज़ी सीखते समय भी होता है, उच्चारण सीखने में भी, शब्द कोष के कोष्ठक मे देवनागरी में लिखा (स्टेशन) पढकर हम उच्चारण सीख गए। सोचो, कि केवल अंग्रेज़ी माध्यम में पढने वाला इसे कैसे सीखेगा? चीनी तो और चकरा जाएगा। देखा देवनागरी का प्रताप ! [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(४) और, अंग्रेज़ी स्पेलिंग रटने में आप घंटे, बीता देंगे। इस एक ही, हिंदी के गुण के आधार पर हिंदी अतुलनीय हो जाती है। आज भी मुझे (एक प्रोफेसर को) अंग्रेज़ी शब्दों की स्पेलिंग डिक्षनरी खोल कर देखने में पर्याप्त समय व्यय करना पडता है।हिंदी शब्द उच्चारण ठीक सुनने पर, आप उसे लिख सकते हैं। कुछ वर्तनी का ध्यान देने पर आप सही सही लिख पाएंगे। {हिं 100 गुण -अं – १० )।

हो सकता है, आपको 100 गुण अधिक लगे। पर आप के समय की बचत निश्चित कीमत रखती है। इससे भी अधिक, यह गतिमान, शीघ्रता का युग है। समय बचाने आप क्या नहीं करते? विमान, रेलगाडी, मोटर, बस सारा शीघ्रता के आधार पर चुना जाता है।

(५) हिंदी में, एक ध्वनिका एक ही संकेत है। अंग्रेज़ी में एक ही ध्वनि के लिए, अनेक संकेत काम में लिए जाते हैं। उदा. जैसे —-> क के लिए, k (king), c (cat), ck (cuckoo) इत्यादि.

एक संकेत से अनेक ध्वनियाँ भी व्यक्त की जाती है। उदा. जैसे—> a से (१) अ (२)आ (३) ऍ (४) ए (५) इत्यादि। [हिंदी २५ अंग्रेज़ी १०]

(६) यही कारण था, कि, शालांत परीक्षा में हिंदी (मराठी) माध्यम से हम लोग शीघ्रता से परीक्षा के प्रश्न हल कर लेते थे। जब हमारे अंग्रेज़ी माध्यमों वाले मित्र विलंब से, उन्ही प्रश्नों को अंग्रेज़ी माध्यम से जैसे तैसे समय पूर्व पूरा करने में कठिनाई अनुभव करते थे। एक उदाहरण लेकर देखें। भूगोल का प्रश्न:

कोंकण में रेलमार्ग क्यों नहीं? {१२ अक्षर}और अंग्रेज़ी में होता था,

Why there are no railways in Konkan?{२९ अक्षर}

उसका उत्तर लिखने में भी उन्हें अधिक लिखना पडता था। अक्षर भी अधिक, गति पराई भाषा होने से धीमी, और अंग्रेज़ी में, सोचना भी धीमे ही, होता था। प्रश्न तो वही था, पर माध्यम अलग था।और फिर शायद उन्हें स्पेलिंग का भी ध्यान रखना पडता था। पर परीक्षार्थी का प्रभाव निश्चित घट जाता होगा। जो उत्तर एक पन्ने में हम देते थे, वे दो पन्ने लेते थे। (हिं २५-अं १०}

(७) हिंदी का लेखन संक्षेप में होता है।

उदा:एक बार मेरी, डिपार्टमेंट की बैठक में, युनिवर्सीटी के अध्यक्ष बिना पूर्व सूचना आए थे, जब हमारी सहायिका (सेक्रेटरी) छुट्टी पर थी। तो कनिष्ठ प्राध्यापक होने के नाते, मुझे उस के सविस्तार विवरण के लिए नियुक्त किया गया।इस बैठक मे, अध्यक्ष ने महत्व पूर्ण वचन दिए थे, जिस का विवरण आवश्यक था।

मैने कुछ सोच कर, देवनागरी मे, अंग्रेजी उच्चारों को लिखा, जो रोमन लिपिकी अपेक्षा, दो से ढाइ गुना शीघ्र था। जहां The के बदले ’द’ से काम चलता था, laboratory Expense के बदले लॅबोरॅटरी एक्सपेंस इस प्रकार लिख कर नोट्स तैय्यार किए, शब्दों के ऊपर की रेखा को भी तिलांजली दी। फिर घर जाकर, उसी को रोमन लिपि मे रूपांतरित कर के दुसरे दिन प्रस्तुत किया। विभाग के अन्य प्रोफेसरों के, अचरज का पार ना था। पूछा, क्या मà �ˆ शॉर्ट हॅंड जानता हूं? मैने उत्तर मे हिंदी- देव नागरी की जानकारी दी। उनके नाम लिख कर थोडी प्राथमिक जानकारी दी। उन्हें, हमारी नागरी लिपि कोई पहली बार समझा रहा था। अपेक्षा से कई अधिक, प्रभावित हुए। एक आयर्लॅण्ड से आया प्रॉफेसर लिपि के वलयांकित सुंदर(सविनय,मेरे अक्षर सुंदर है)अक्षरों को देख कर बोला ,यह तो सुपर-ह्यूमन लिपि है। {मन में सोचा, यह तो, अंग्रेज़ी में, इसे, देव(Divine) नागरी कह रहा à ��ै।} संसार भर में, इतनी वैज्ञानिक लिपि और कोई नहीं। सारे पी एच डी थे, पर उन्हें किसी ने हिंदी-नागरी लिपि के बारे में ठीक बताया नहीं था। हिंदी को उस के नाम से जानते थे, कुछ शब्द जैसे नमस्ते इत्यादि जानते थे। बंधुओ ! लगा, कि, हम जिस ढेर पर बैठे हैं, कचरे कूडे का नहीं पर हीरों का ढेर है। हृदय गद गद हुआ। हिंदी पर, गौरव प्रतीत हुआ। [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(८) व्यक्ति सोचती भी शब्दों द्वारा है।जब आप सोचते हैं, मस्तिष्क में शब्द मालिका चलती है। लंबा शब्द अधिक समय लेता है, छोटा शब्द कम।

तो जब अंग्रेज़ी के शब्द ही लंबे हैं, तो उसमें सोचने की गति धीमी होनी ही है। अतिरिक्त, वह परायी भाषा होनेसे और भी धीमी। इसका अर्थ हुआ, कि अंग्रेज़ी में विचारों की गति हिंदी की अपेक्षा धीमी है। मेरी दृष्टि में हिंदी अंग्रेज़ी से दो गुना गतिमान है। [हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(९) लेखन की गति का भी वही निष्कर्ष। जो आशय आप ६ पन्नों में व्यक्त करेंगे। अंग्रेज़ी में व्यक्त करने में आपको १० पन्ने लगते हैं। गीता का एक २ पंक्ति का श्लोक पना भरकर अंग्रेज़ी में समझाना पडता है।[हिंदी ५० अंग्रेज़ी २५]

(१०) अर्थात, आप अंग्रेज़ी भाषा द्वारा शोध कर रहे हैं, तो जो काम ६ घंटों में हिंदी में कर सकते थे, उसे करने में आप को १० घंटे लग सकते हैं। अर्थ: आप शोध कार्य हिंदी में करेंगे, तो जीवन भर में ६७% से ७५% अधिक शोधकार्य कर सकते हैं। [हिं ५० अंग्रेज़ी २५]

(११) इस के अतिरिक्त हर छात्रको हिंदी माध्यम द्वारा, आज की शालेय शिक्षा अवधि में ही,(११-१२ वर्ष में) MSc की उपाधि मिल पाएगी। अर्थात आज तक जितने लोग केवल शाला पढकर निकले हैं, वे सारे M Sc से विभूषित होत।अंग्रेज़ी के कारण, यह ज्ञान भंडार दुर्लक्षित हो गया है।{ संदर्भ: बैसाखी पर दौडा दौडी, मुख्तार सिंह चौधरी} तो, क्या भारत आगे नहीं बढा होता? क्या भारत पीछडा होता ? भारत आज के अनुपातमें, कमसे कम, ३ स े ५ गुना आगे निकल गया होता?वैसे हम भारतीय बहुत बुद्धिमान है। यह जानकारी परदेश आकर पता चली। { हिंदी ५०० अंग्रेज़ी १००}

(१२) किसी को अंग्रेज़ी, रूसी, चीनी, अरबी, फारसी ही क्यों झूलू, स्वाहिली. हवाइयन —-संसार की कोई भी भाषा पढने से किस ने रोका है? प्रश्न:कल यदि रूस आगे बढा तो क्या तुरंत सभी को रूसी में शिक्षा देना प्रारंभ करेंगे? और परसों चीन आगे बढा तो? और फ्रांस?

वास्तव में पडोस के, चीन की भाषा पर्याप्त लोगों ने (सभी ने नहीं)सीखने की आवश्यकता है। उन की सीमा पर की कार्यवाही जानने के लिए। मेरी जानकारी के अनुसार आज कल यह जानकारी हमें अमरिका से प्राप्त होती है। या,फिर आक्रमण होने के बाद! [अनुमानसे लिखा है] अमरिका में सारी परदेशी भाषाएं गुप्त शत्रुओं की जान कारी प्राप्त करने के लिए पढी जाती हैं।

जो घोडा प्रति घंटा ५० मील की गति से दौडता है, वह क्या २० मील प्रति घंटा दौडनेवाले घोडेसे अधिक लाभदायी नहीं है?

पर भारतीय कस्तुरी मृग(हिरन) दौड रहा है, सुगंध का स्रोत ढूंढने। कोई तो उसे कहो, कहां भटक रहे हो, मेरे हिरना!तेरे पास ही, सुगंध-राशी है।

मुझे यह विश्वास नहीं होता, कि ऐसी कॉमन सेन्स वाली जानकारी जो इस लेखमें लिखी गयी है, हमारे नेतृत्व को नहीं थी? क्या किसी ने ऐसा सीधा सरल अध्ययन नहीं किया?

अब भी देर भले हुयी है। शीघ्रता से चरण बढाने चाहिए।

तो,क्या हिंदी अंग्रेज़ी से टक्कर ले सकती है? आप बुद्धिमान हैं। आप ही निर्णय करें।

===>सूचना: प्रश्नों के उत्तर देने में पर्याप्त विलंब होगा। विशेष: भाग दो की भी प्रतीक्षा करें।

गुलामी का अस्त्र है राजनीतिक हिंसा

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

ममता बनर्जी की आंधी का असर सीधे वाम मोर्चा और खासकर माकपा नेताओं जैसे बुद्धदेव भट्टाचार्य और गौतम देव के टीवी टॉक शो और टीवी खबरों में साफ देखा जा सकता है। वे स्वीकार कर रहे हैं कि उनके दल से गलतियां हुई हैं। वे जानते हैं उनके रणबाँकुरे जो करते रहे हैं वह भारत के संविधान और कानून की खुली अवहेलना है। मसलन् ,राजनीतिक हिंसा के सवाल को ही लिया जाए। राजनीतिक हिंसा के सवाल पर पक्ष -विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा रहा है। दोनों ही पक्ष मान रहे हैं कि विगत 35 सालों में राजनीतिक हिंसा में हजारों लोग मारे गए हैं। मारे गए लोगों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। तेरे-मेरे मारे गए लोगों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। लेकिन राजनीतिक हिंसा होती रही है और निर्दोष लोगों की जानें गयी हैं। इसके बारे में कोई विवाद नहीं है। सवाल यह है कि हिंसा के प्रति क्या रूख हो ? क्या हिंसा का महिमामंडन करना सही है ? माकपा नेताओं की मुश्किल यह है कि वे हिंसा में अपने दल की भूमिका को आलोचनात्मक ढ़ंग से नहीं देख रहे हैं। पश्चिम बंगाल में माकपा निर्मित हिंसा के कई रूप हैं। पहला रूप है वाचिक हिंसा का, दूसरा रूप है कायिक हिंसा का और तीसरा रूप है अधिकारहनन का। वाचिक हिंसा के तहत वे अपने विरोधी पर तरह-तरह के सामाजिक दबाब पैदा करते हैं जिससे वह अपना मुँह बंद रखे। वे ऐसा वातावरण पैदा करते हैं कि मुखरित व्यक्ति महसूस करे कि उसने अगर माकपा नेताओं की बात नहीं मानी तो उसका भविष्य अंधकारमय है। मुखरित व्यक्ति यदि सरकारी नौकर है तो उसे अकल्पनीय परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वे मुखरित व्यक्ति का बहिष्कार करते हैं,चरित्रहनन करते हैं, दैनंदिन अपमान और उपेक्षा करते हैं। यह अहर्निश मानसिक उत्पीड़न है। माकपा के लोग जानते हैं कि अफवाह उडाना, चरित्रहनन करना ये फासिस्ट हथकंडे हैं। वाचिक हिंसा का दायरा बहुत व्यापक है और इस व्यापक वातावरण के खिलाफ बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर गौतमदेव तक ,विमान बसु से लेकर रज्जाक मुल्ला तक किसी भी नेता को सरेआम मुँह खोलते किसी ने नहीं देखा है। वाचिक हिंसा का सर्वव्यापी रूप है लोकल यूनियन । आमतौर पर यूनियनों और संगठनों का काम होता है अधिकारों के लिए लड़ना। लेकिन पश्चिम बंगास में यूनियन का काम अधिकारों के लिए लड़ना नहीं है । बल्कि इनका काम है सदस्यों की निगरानी करना। उन्हें नियंत्रित करना। वे किसी अन्य विचारधारा के संगठन में न चले जाएँ,इसके लिए दबाब पैदा करना।

पश्चिम बंगाल के हिंसाचार का दूसरा रूप है अन्य को जेनुइन राजनीतिक गतिविधियां करने से वंचित करना। इसके लिए साम,दाम,दण्ड,भेद सभी हथकंडे अपनाए जाते हैं। मसलन ममता बनर्जी को बेवजह माकपा कार्यकर्ता मीटिंगस्थल या घटनास्थल पर जाने से रास्ते में रोकते रहे हैं और टीवी चैनलों पर बैठे नेतागण इस तरह की अलोकतांत्रिक हरकतों की निंदा करना तो दूर की बात है उसकी हिमायत करते रहे हैं। सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं के लाइव कवरेज और खासकर टीवी चैनलों द्वारा ममता बनर्जी के एक्शन के अहर्निश लाइव कवरेज के कारण इस तरह की चीजें लगातार एक्सपोज हुई हैं और राज्य प्रशासन इस मामले में मूकदर्शक रहा है। कभी किसी माकपा नेता ने इसके लिए माफी नहीं मांगी। यह एक तरह से हिंसा का महिमामंडन है।

यह संभव है राज्य प्रशासन किसी खास कारण से किसी नेता को घटनास्थल पर न जाने दे। किसी खास वजह से 144 धारा लगाकर स्थिति को नियंत्रण में लाने की कोशिश करे। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि धारा 144 को राजनीतिक उत्पीडन और हिंसा का अस्त्र बना दिया जाए और 1 साल और 2 साल तक धारा 144 लागू कर दी जाए और सारी राजनीतिक गतिविधियां ठप्प कर दी जाएं और सिर्फ माकपा की राजनीतिक गतिविधियां चलें। लालगढ़ से लेकर सिंगूर-नंदीग्राम के घटनाक्रम में यह देखा गया कि धारा 144 का भयानक राजनीतिक उत्पीड़न के अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हुआ है। सामान्य राजनीतिक जुलूसों-रैलियों आदि तक को करने की इजाजत नहीं दी गयी। नंदीग्राम-सिंगूर आंदोलन के समय बार-बार ममता बनर्जी को माकपा सदस्यों ने सरेआम रोका और अपमानित किया। इस तरह की घटनाएं जो राजनीतिक हक छीनती हों वे हिंसा की कोटि में ही आती है। इसी तरह मंगलकोट में कांग्रेसी विधायकों और नेताओं को आतंकित करके दौड़ाना भी हिसा की कोटि में आता है। इस प्रसंग में जर्मनी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धान्तकार-आलोचक वाल्टर बेंजामिन ने लिखा है हिंसा पर कानून और न्याय के नजरिए से विचार करना चाहिए। हिंसा के मामले में माकपा ने न्याय और कानून का पालन नहीं किया है। मसलन् ममता बनर्जी को अकारण राजनीतिक रैली में जाने से रोकना उनके बुनियादी संवैधानिक अधिकारों का हनन है । विगत 35 सालों में इस तरह की घटनाओं के संदर्भ में राज्य प्रशासन ने माकपा के किसी भी कार्यकर्ता को कभी गिरफ्तार तक नहीं किया । कम से कम नंदीग्राम-सिंगूर-मंगलकोट की घटनाओं में विपक्षी नेताओं के एक्शन को बाधित करने वाले लोगों को राज्य प्रशासन गिरफ्तार करके एक संदेश दे सकता था। लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। वाचिक हिंसा हो या कायिक हिंसा,ये दोनों किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं हैं। लोकतंत्र में इस तरह की हिंसा को रोकना राज्य प्रशासन की जिम्मेदारी है। हिंसा में कोई मारा जाए तो उसके लिए आर्थिक सहायता राशि देना कानूनन राज्य की जिम्मेदारी है। क्योंकि हिसा रोकने में राज्य असमर्थ रहा है । यह मानवाधिकार कानूनों के अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में आता है । भारत में ये अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन लागू है। इसके ही आधार पर नंदीग्राम और नेताई के पीडि़तों को हाईकोर्ट के आदेश से आर्थिक सहायता राशि मिली है। कायदे से राज्य को घटना होने के साथ ही स्वतः ही आर्थिक सहायता राशि घोषित करके देनी चाहिए थी। उन तमाम हिंसा के शिकार लोगों को सहायता राशि राज्य को देनी चाहिए जिन्हें राजनीतिक हिंसाचार से बचाने में राज्य सरकार असमर्थ रही है। नई राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी है कि वह विगत 35 सालों में राजनीतिक हिंसा में मारे गए लोगों के लिए आर्थिक मदद की घोषणा करे।यह काम दलीय पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर होना चाहिए।

 

मिलावटखोरों को फांसी दो

निर्मल रानी

 

खाद्य पदार्थों में मिलावटखोरी का सिलसिला हालांकि हमारे देश में कोई नया नहीं है। परंतु इस समय मिलावटखोरी के बढ़ते नेटवर्क को देखकर तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बाज़ार में उपलब्ध अधिकांश खाद्य सामग्रियां संभवत: नकली या मिलावटी ही हैं। आम उपभोक्ताओं का मंहगाई के इस दौर में इतना बुरा हाल है कि साधारण व्यक्ति अपनी रोज़मर्रा की इस पीड़ा को बता पाने के लिए शब्द तक नहीं जुटा पा रहा है। आमतौर पर उपभोक्ताओं को बाज़ार में मिलावटी, नकली, सड़ा-गला, प्रदूषित, आऊटडेटेड, रासायनिक तौर-तरीकों से पकाया गया, इंजेक्शन व रासायनिक खाद से तैयार पैदावार व सिंथेटिक व यूरिया की मिलावट वाला खाद्य व पेय पदार्थ आदि उपलब्ध हो रहा है। इत्तेफाक से यदि किसी दुकानदार के पास शुद्ध खाद्य सामग्री है भी तो वह इसकी मुंह मांगी कीमत वसूलना चाह रहा है और यदि आपने उसे उसकी मुंह मांगी कीमत किसी कथित शुद्ध खाद्य सामग्री के बदले दे भी दी तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि मापतोल में वह वस्तु आपको पूरी मिलेगी भी या नहीं। प्रत्येक वर्ष दीवाली,होली तथा नवरात्रों जैसे पवित्र धार्मिक त्यौहारों के अवसर पर हमारे देश का चौकस व जागरूक मीडिया ऐसे मिलावटी नेटवर्क का भंडाफोड़ करता रहता है। परंतु इसके बावजूद मिलावट खोरी में लिप्त माफिया है कि अपनी आदतों से बाज़ आने का नाम ही नहीं लेता।

सारा देश इस समय नवरात्रों के व्रत जैसे पवित्र धार्मिक वातावरण में अपनी दैनिक गतिविधयों को अंजाम दे रहा है। श्रद्धालु लोग इन दिनों अन्न का त्याग कर फलाहार को ही अन्न के स्थान पर ग्रहण करते हैं। नैतिकता तथा धर्म का तक़ाज़ा तो यही है कि श्रद्धालुओं तथा भक्त जनों को इन पवित्र नवरात्रों के दौरान शुद्ध से शुद्ध सामग्री उपलब्ध कराई जाए। इनका मूल्य भी वाजिब होना चाहिए तथा इन सामग्रियों की मापतौल भी पूरी होनी चाहिए। परंतु ठीक इसके विपरीत प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी वैसी ही दुर्भाग्यपूर्ण खबर आ रही है कि देश में कई स्थानों पर मिलावटी अथवा ज़हरीला कुट्टू का आटा खाने से सैकड़ों लोग बीमार पड़ गए। जबकि कुछ लोग अपनी जानें भी गंवा बैठे। कुट्टू के ज़हरीले आटे का कहर सबसे अधिक दिल्ली,पंजाब व उत्तर प्रदेश में बरपा हुआ। दिल्ली में 200 से अधिक लोग मिलावटी आटे का पकवान खाने से बीमार पड़ गए इनमें एक व्यक्ति की मृत्यु भी हो गई। जबकि उत्तर प्रदेश में 100 से अधिक लोगों के बीमार होने का समाचार है। आठ व्यक्ति गाजि़याबाद में बीमार पड़े । सौ से अधिक लोग बुलंदशहर में कुट्टू का बना पकवान खाने से गंभीर अवस्था में पहुंच गए। इसी प्रकार मुज़ फऱनगर में 22 लोगों के बीमार होने की खबरें हैं जिनमें 8 व्यक्ति एक ही परिवार के हैं। इसी प्रकार मेरठ में भी एक ही परिवार के 4 सदस्य कुट्टु का आटा प्रयोग करने से अस्वस्थ हो गए। इसी प्रकार पंजाब के अबोहर में कुट्टु के आटे से बने पकौड़े व रोटियां खाने से सौ से अधिक श्रद्धालु फूडपॉयज़निंग का शिकार हो गए। खबर है कि दुकानदार ने इन्हें कुट्टु का पुराना रखा हुआ आटा बेच दिया था। हरियाणा के हिसार में भी इसी कारणवश दर्जनों लोगों के बीमार पडऩे का समाचार है। अभी कुछ समय पूर्व ही गुज़रे शिवरात्रि के पर्व पर भी कुट्टु का ज़हरीला आटा खाने से नोएडा में 60 लोग बीमार पड़ गए थे। इस संबंध में कुछ लोग गिरफ्तार भी किए गए थे तथा उन्हें जेल भी भेजा जा चुका है। परंतु इसके बावजूद मिलावटखोरी का तथा प्रदूषित खाद्य सामग्री बाज़ार में भेजने का सिलसिला यूं ही बदस्तूर जारी है।

गत् दिनों कुट्टु के आटे में मिलावटखोरी करने वालों का जो नेटवर्क उजागर हुआ उसमें भी अब तक ग्यारह लोगों के गिरफ्तार किए जाने का समाचार है। ऐसा आटा आपूर्ति करने वाली नंदू मसाला मिल तथा किचन ब्रांड मिल को काली सूची में डाल दिया गया है। इसके मालिक को भी गिरफ्तार कर लिया गया है। गौरतलब है कि ऐसी ज़हरीली खाद्य सामग्री के सेवन के बाद उल्टी,पेट दर्द, चक्कर आना, दस्त लगना तथा कमज़ोरी आना जैसी शिकायतें पैदा हो जाती हैं। परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की जान भी जा सकती है। मिलावटखोरी का ऐसा ही एक समाचार फरीदकोट के जैतो कस्बे से भी प्राप्त हुआ है। यहां अखंडपाठ के भोग का लंगर खाने से सौ से अधिक व्यक्ति बीमार पड़ गए जबकि एक ग्रंथी की मृत्यु हो गई। इस घटना में दो बच्चों की हालत अभी भी गंभीर बताई जा रही है।

 

प्रश्र यह है कि क्या मिलावटखोरी का यह सिलसिला भविष्य में भी यूं ही चलता रहेगा? क्या मिलावटखोरों के दिलों से सरकार,शासन-प्रशासन तथा जनता का भय बिल्कुल समाप्त हो चुका है? क्या मिलावटखोर माफिया धर्म व अधर्म के बीच के अंतर को बिल्कुल ही भूल बैठा है। क्या दुनिया को धर्म व नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले भारत वर्ष का यह बेशर्म व अधर्मी मिलावटखोर माफिया हमारे देश की नाक कटवाने पर ही तुला हुआ है? क्या नवरात्रे, क्या दीवाली तो क्या होली। गोया इन मानवता के दुश्मन मिलावटखोरों को अपना पैसा कमाने के सिवा इस बात का कतई एहसास नहीं होता कि वे धार्मिक त्यौहारों के खुशी भरे माहौल में रंग में भंग डालने का काम न करें। मात्र अपनी काली कमाई के चक्कर में इन्हें यह भी नहीं सूझता कि त्यौहार व खुशी के वातावरण में किसी के घर में इनकी करतूतों से मातम भी बरपा हो रहा है। मानवता के यह दुश्मन आखिर चंद पैसों की खातिर किस हद तक आम लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं? नासूर की तरह फैलते जा रहे इस रोग का वास्तविक कारण तथा इसका समाधान आखिर है क्या?

 

वास्तव में मिलावटखोरी, विशेषकर खाद्य सामग्री तथा जीवन रक्षक दवाईयों में होने वाली मिलावटखोरी के जुर्म में हमारे देश के कानून के तहत मात्र तीन वर्ष के अधिकतम कारावास का प्रावधान है। यह बात मिलावटखोरों को भी बखूबी मालूम है। वे जानते हैं कि मिलावटखोरी कर करोड़ों रुपये कमा लेने के बाद यदि वे पकड़े भी गए तो भी अधिकतम कारावास तीन वर्ष का काट कर वे आसानी से फिर बाहर आ जाएंगे तथा अपने इन्हीं काले कारनामों में पुन: संलिप्त हो जाएंगे। जबकि हकीकत तो यह है कि यह राक्षसी प्रवृति के लोग मिलावटखोरी कर धन कमाने की आड़ में आम लोगों की हत्या के प्रयास का कुचक्र रचते हैं। परिणामस्वरूप कई बदनसीब तो मौत के मुंह में समा जाते हैं। जबकि कई लोग गंभीर अवस्था में बीमार पड़ जाते हैं तथा हज़ारों रुपये खर्च करने के बाद किसी प्रकार अपनी जान बचा पाते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि जानबूझ कर निरंतर किए जाने वाले ऐसे अपराधों के लिए क्या मात्र तीन वर्ष की ही सज़ा पर्याप्त है? यदि सरकार समझती है कि हां यही सज़ा पर्याप्त है तो हमें इस कटु सत्य को स्वीकार कर लेना होगा कि आने वाले दिन और भी कठिन व चुनौतिपूर्ण हो सकते हैं। क्योंकि मिलावटखोरों, चोरों, बेईमानों, कम तोलने वालों, नकली सामग्री बनाने व बेचने वालों के हौसले बेइंतहा बुलंद होते जा रहे हैं। धन के लालच ने इन्हें इस कद्र अंधा कर दिया है कि इन्हें इस बात की कोई परवाह ही नहीं कि इनके द्वारा बेची जाने वाली खाद्य सामग्री से किसी व्यक्ति की जान भी जा सकती है और कई घर बरबाद भी हो सकते हैं।

 

लिहाज़ा यदि सरकार देश की साधारण, बेगुनाह तथा श्रद्धालु प्रवृति की आम जनता को ऐसे भ्रष्ट व मिलावटखोर दरिंदों के प्रकोप से मुक्त रखना चाहती है तो यथाशीघ्र संविधान में संशोधन करते हुए इनके विरुद्ध ऐसे नए कानून बनाए जाने चाहिए जिसमें कि खाद्य पदार्थों तथा जीवन रक्षक दवाईयों में मिलावटखोरी करने वालों को सज़ा-ए-मौत दिए जाने की व्यवस्था हो। और जो लोग मिलावटखोरी के इस नेटवर्क से जुड़े हों तथा जानबूझ कर केवल अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में ऐसी सामग्री उपभोक्ताओं तक पहुंचा रहे हों उन्हें भी फांसी या कम से कम आजीवन कारावास की सज़ा अवश्य दी जानी चाहिए। मिलावटखोरी का भंडाफोड़ समय-समय पर मीडिया लगातार करता रहता है। परंतु उसके बावजूद सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। और सरकार की यही उदासीनता मिलावटखोरों की हौसला अफज़ाई करने का कारण बन जाती है। अत: देशहित तथा जनहित में ज़रूरी है कि इस राक्षसी प्रवृति पर लगाम लगाई जाए तथा अदालती हुज्जत पूरी कर यथाशीघ्र किसी न किसी दोषी को फांसी के फंदे पर लटका भी दिया जाए ताकि शेष मिलावटखोर सबक ले सकें तथा अपनी हरकतों से बाज़ आएं।

हजारे के सुझाव उचित, लेकिन स्वयं लोकपाल बिल बनाने की मांग असंवैधानिक!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

 

इस बात में कोई शक नहीं है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई जानी चाहिये और समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों की ओर से लोकपाल बिल की कमियों के बारे में कही गयी बातें पूरी तरह से न्यायोचित भी हैं| जिनका हर भारतवासी को समर्थन करना चाहिये| इसके उपरान्त भी यह बात किसी भी दृष्टि से संवैधानिक या न्यायोचित नहीं है कि-

‘‘सरकार अकेले लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करती है तो यह लोकशाही नहीं है और यह निरंकुशता है|’’

ऐसा कहकर तो हजारे एवं उनके साथी सरकार की सम्प्रभु शक्ति को ही चुनौती दे रहे हैं| हम सभी जानते हैं कि भारत में लोकशाही है और संसद लोकशाही का सर्वोच्च मन्दिर है| इस मन्दिर में जिन्हें भेजा जाता है, वे देश की सम्पूर्ण जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं| निर्वाचित सांसदों द्वारा ही संवैधानिक तरीके से सरकार चुनी जाती है| ऐसे में सरकार के निर्णय को ‘‘निरंकुश’’ या ‘‘अलोकतान्त्रिक’’ कहना असंवैधानिक है और संविधान से परे जाकर हजारे एवं उनके साथियों से पूछकर लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने के लिये भारत की सरकार को मजबूर करना भारतीय लोकतन्त्र को नष्ट करने के समान है|

यदि संसद में चुने जाने वाले लोग भ्रष्ट हैं तो इसमें संसद या संविधान का दोष कहॉं है, यह तो हमारा दोष है| हम ही ऐसे लोगों को चुनकर भेजते हैं| या अधिक से अधिक निर्वाचन प्रणाली में दोष हो सकता है| लोकपाल बिल के बहाने लोकतन्त्र एवं संसद को चुनौती देना और गॉंधीवाद का सहारा लेना-नाटकीयता के सिवा कुछ भी नहीं है| यह संविधान का ज्ञान नहीं रखने वाले देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं के साथ खुला खिलवाड़ है| यह उन लोगों को सड़कों पर उतरने के लिये मजबूर करना है, जो नहीं जानते कि उनसे क्या करवाया जा रहा है| यह देश की संवैधानिक व्यवस्था को खुली चुनौती है! यदि सरकार इस प्रकार की प्रवृत्तियों के समक्ष झुक गयी तो आगे चलकर किसी भी बिल को सरकार द्वारा संसद से पारित नहीं करवाया जा सकेगा|

यह सही है कि लोकपाल बिल में सुधार के लिये जो भी सुझाव दिये गये हैं, उन्हें मानने के लिये केन्द्र सरकार पर दबाव डालना जरूरी है और इसके लिये सरकार को मजबूर करना चाहिये, न कि इस बात के लिये कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने के लिये सरकार अकेली सक्षम नहीं है और अकेले सरकार द्वारा बिल का ड्राफ्ट बनाना अलोकतान्त्रिक एवं निरंकुशता है|

परोक्ष रूप से यह मांग भी की जा रही है कि लोकपाल बिल बनाने में अन्ना हजारे और विदेशों द्वारा सम्मानित लोगों की हिस्सेदारी/भागीदारी होनी चाहिये| आखिर क्यों हो इनकी भागीदारी? हमें अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों पर विश्‍वास क्यों नहीं है| यदि विश्‍वास नहीं है तो हमने उन्हें चुना ही क्यों? हजारे की यह जिद उचित नहीं कही जा सकती| संविधान से परे जाकर किसी को भी ऐसा हक नहीं है कि वह सरकार के निर्णय को लोकशाही के विरुद्ध सिद्ध करने का प्रयास करने का दुस्साहस करे और देश केलोकतान्त्रिक माहौल को खराब करे|

यदि सरकार एक बार ऐसे लोगों के आगे झुक गयी तो सरकार को हर कदम पर झुकना होगा| कल को कोई दूसरा अन्ना हजारे जन्तर-मन्तर पर जाकर अनशन करने बैठ जायेगा और कहेगा कि-

इस देश का धर्म हिन्दु धर्म होना चाहिये|

कोई दूसरा कहेगा कि इस देश से मुसलमानों को बाहर निकालना चाहिये|

 

कोई स्त्री स्वतन्त्रता का विरोधी मनुवादी कहेगा कि महिला आरक्षण बिल को वापस लिया जावे और इस देश में स्त्रियों को केवल चूल्हा चौका ही करना चाहिये|

 

इसी प्रकार से समानता का तार्किक विश्‍लेषण करने वाला कोई अन्य यह मांग करेगा कि सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों का आरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिये|

ऐसी सैकड़ों प्रकार की मांग उठाई जा सकती हैं|

जिस प्रकार से रूबिया अपहरण मामले में सरकार ने आतंकियों का छोड़कर गलती की थी, जो लगातार आतंकियों द्वारा दौहराई जाती रही है, उसी प्रकार से यदि हजारे की मांग को मानकर सरकार संसद की सर्वोच्चता की चुनौती के आगे झुक गयी तो हमेशा-हमेशा को संसद की सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी|

सरकार को लोकपाल बिल में वे सभी बातें शामिल करनी चाहिये जो हजारे एवं अन्य लोगों की ओर से प्रस्तुत की जा रही हैं| इसमें कोई हर्ज भी नहीं है, क्योंकि इस देश की व्यवस्था में अन्दर तक घुस चुके भ्रष्टाचार को समाप्त करना है तो लोकपाल को स्वतन्त्र एवं ताकतवर बनाया जाना सम-सामयिक जरूरत है| लेकिन इस प्रकार की मांग ठीक नहीं है कि निर्वाचित प्रतिनिधि कानून बनाने से पूर्व समाज के उन लोगों से पूछें, जिन्हें समाज ने कभी नहीं चुना| यह संविधान और लोकतन्त्र का खुला अपमान है|

उ.प्र: माफियाओं ने खेली खून की होली

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ एक बार फिर थर्रा गई। एक और सीएमओ को मौत के घाट उतार दिया गया। लगभग छह माह पूर्व मारे गए सीएमओ विनोद आर्य की मौत की गुत्थी पुलिस सुलझा भी नहीं पाई थी और इसी बीच हत्यारों ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसा कर एक और सीएमओ को मौत के मुंह में ढकेल दिया। दो अप्रैल की सुबह परिवार कल्याण विभाग में तैनात मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाक्टर बीपी सिंह की उस समय गोली मारकर हत्या कद दी गई ,जब वह मार्निंग वॉक पर जा रहे थे। दोनों सीएमओ की हत्याए करने के तरीके में इतनी समानता थी कि पुलिस को प्रथम दृष्टयता यह समझने में देर नहीं लगी कि दोनों हत्याओं के पीछे एक ही ‘ मास्टर मांइड’ हो सकता है।स्पेशल डीजीपी बृज लाल ने भी माना कि दोनों घटनाओं की ‘ माडस आपरेंडी ‘एक जैसी थी। पहले विनोद और अब बीपी सिंह की आक्समिक मौत से डाक्टरों का पारा चढ़ते देर नहीं लगी। इस वारदात के विरोध में प्रान्तीय चिकित्सा सेवा संघ के आहवान पर प्रदेश के ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में डाक्टर हड़ताल पर चले गए हैं। नतीजतन, स्वास्थ सेवाएं ठप हो गई,जिसकी कीमत गंभीर रूप से बीमार पांच मरीजों को मौत की कीमत देकर चुकानी पड़ी। हालांकि बाद में संघ ने पुलिस से आश्वासन मिलने के बाद कुछ दिनों के लिए अपना आंदोलन स्थगित कर दिया,लेकिन पुलिस को अभी तक कोई बढ़ी सफलता हाथ नहीं लगी है,जिससे यह कहा जा सके कि वह हत्यारों के करीब पहुंच गई है। हवा में हाथ-पैर मार रही पुलिस के लिए काम आसान नहीं लग रहा है। यह और बात है पहले जिस तरह से सीएमओ विनोद आर्य की हत्या के राज से पुलिस ने पर्दा हटाया था। ठीक उसी तरह से इस हत्याकांड का भी खुलासा न कर दिया जाए। सीएमओ विनोद आर्य हत्याकांड में पुलिस ने फैजाबाद के एक हिस्ट्रीशीटर को कथित रूप से कटघरे में खड़ा किया था, जबकि शक की सुंई एक दूसरे ‘दबंग’ पर गहरा रही थी। पुलिस ने करीब एक दर्जन लोगों को हिरासत में लेकर पूंछताछ कर चुकी है। इसमें कुछ विभागीय नेता भी शामिल हैं।सीएमओ स्वास्थ्य कल्याण विभाग का पद कितना खतरनाक है।इसका आभास इसी से हो जाता है कि विनोद आर्य की मौत के बाद कोई भी चिकित्सक इस पद पर बैठने को तैयार नहीं हुआ था।इस दौरान कई डाक्टरों के नाम शासन ने सुझाए थे,लेकिन कोई डाक्टर तैनाती को तैयार नहीं हुआ। करीब छह माह तक यह पद रिक्त रहा, इसके बाद पीएमएस एसोसिएशन के महामंत्री डा.बीपी सिंह ने शासन के निर्देश पर बड़ी मुश्किल से ज्वाइनिंग ली थी।

बहरहाल, सीएमओ बीपी सिंह का अंजाम भी विनोद आर्य जैसा ही हुआ। इसका मतलब साफ है कि दोनों हत्याओं के पीछे स्वास्थ विभाग में दखल रखने वाले दबंगों का ही हाथ था। यह बात पुलिस भी जानती और समझती है। कहा यह जा रहा है कि दो दवा कम्पनियों का भुगतान बिल बीपी सिंह ने पास करने से मना कर दिया था।बाद में सत्ता के एक ताकतवर एमएलसी के माध्यम से भी सीएमओ पर भुगतान के लिए दबाव बनाया गया था,लेकिन बीपी सिंह गलत काम करने को तैयार नहीं हुए।संदेह में पुलिस ने स्वास्थ कल्याण विभाग की कई फाइलें अपने कब्जे में ले ली हैं। पुलिस हत्या का कोई सुराग नहीं लगा पा रही है तो दूसरी तरफ माया सरकार ने यह साफ कर दिया कि मामले की सीबीआई जांच नहीं होगी। स्पेशल डीपीपी बृज लाल एवं गृह सचिव दीपक कुमार ने कहा कि सीबीआई जांच का कोई विचार नहीं हो रहा है।एक ही पद पर तैनात रहे दो सीएमओ की हत्या हो जाती है और सरकार मामले की जांच सीबीआई जैसी विश्वसनीय संस्था से कराने को इंकार करे यह बात शायद ही किसी को हजम हो।

सीएमओ बीपी सिंह हत्याकांड के घटनाक्रम के बारे में लखनऊ के पुलिस उपमहानिरीक्षक डीके ठाकुर का कहना था कि परिवार कल्याण विभाग में बतौर मुख्य चिकित्सा अधिकारी तैनात डाक्टर बीपी सिंह सुबह सैर करने के लिये गोमतीनगर स्थित अपने घर से निकले थे कि रास्ते में विशेष खंड इलाके में मोटरसाइकिल सवार दो बदमाशों ने करीब सवा छह बजे सिंह उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाईं, जिससे उनकी मौके पर ही मौत हो गई। बदमाश वारदात को अंजाम देने के बाद भाग गए। ठाकुर ने बताया कि मामले की तफ्तीश की जा रही है।उधर स्वास्थ्य संगठनों ने मामले की गहराई से जांच कराने की मांग की है। श्री सिंह करीब छह महीने पहले ऐसी ही वारदात में मारे गए तत्कालीन मुख्य चिकित्साधिकारी डाक्टर विनोद कुमार आर्या के पद पर तैनात किये गए थे। आर्या की गत अक्क्तूबर में विकास नगर स्थित आवास के पास सैर के दौरान गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।उत्तार प्रदेश सरकार ने लखनऊ में हुई परिवार कल्याण विभाग के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) डॉक्टर बीपी सिंह की हत्या के जिम्मेदार लोगों के बारे में सुराग देने वाले व्यक्ति को दो लाख रुपए का इनाम देने की घोषणा की है। इससे भी साफ हो जाता है कि पुलिस के हत्थे हत्याकांड सुलझाने के लिए कोई अहम सुराग नहीं लगा है।

छह माह में परिवार कल्याण विभाग के दो सीएमओ की हत्याएं ही नहीं हुई,बल्कि बीते दस माह के भीतर दो कर्मचारियों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के अलावा 10 से अधिक का निलंबन भी हुआ। 30 से अधिक तबादले किए गए। यह इतिहास है स्वास्थ्य कल्याण विभाग का। जब सीएमओ का एक पद था तो ऐसा कुछ नहीं होता था।गौरतलब हो मई 2010 के पूर्व तक प्रत्येक जिले में सीएमओ का एक पद होता था। सीएमओ ही परिवार कल्याण्ा और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन(एनआरएचएम)की समस्त योजनाओं का संचालन करता था।मई 2010 के बाद माया सरकार ने सीएमओ परिवार कल्याण विभाग का नया पद गठित करके एनआरएचएम से जुड़ी सभी योजनाएं सीएमओ परिवार कल्याण के अधीन कर दीं।उत्तर प्रदेश में पिछले वित्तीय वर्ष में एनआरएचएम का सालाना बजट तीन हजार करोड़ रूपए का था। नए सीएमओ का पद बनते ही पूरे प्रदेश में परिवार कल्याण और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के बीच 36 का आंकड़ा हो गया।माया सरकार का यह फैसला किसी को रास नहीं आ रहा था।वहीं मलाईदार इस पद पर बैठने मे कई जूनियर डाक्टर भी सफल हो गए।करीब पांच माह पूर्व केन्द्र सरकार ने भी दो सीएमओ का पद गठित करने पर राज्य को कड़ा पत्र भेजा था।वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी यह मामला पहुंच गया था। कोर्ट ने भी दो पदों के गठन और सीनियर की उपेक्षा कर जूनियर डाक्टरों को सीएमओ के पद पर बैठाने के मामले पर सवाल उठाया था।

विनोद आर्य और बीपी सिंह की हत्या भले ही छह माह के भीतर हुई हो लेकिन स्वास्थ्य और कल्याण विभाग में हत्याओं का खेल काफी समय से चल रहा है। इससे पहले 23 जुलाई 2000 को तत्कालीन चिकित्सा महानिदेशक डा. बच्ची लाल की सुबह टहलने के लिएघर से निकलते समय गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। पुलिस ने इस मामले में धनंजय गुट को दोषी ठहराते हुए सुपारी लेकर हत्या का आरोप लगाया था,लेकिन सुपारी किसने दी वह यह नहीं साबित कर पाई थी।डा. बच्ची लाल की हत्या के बाद परिवार कल्याण विभाग में प्रशिक्षण निदेशक के पद पर तैनात डा. राधे श्याम को घर में घुसकर बदमाशों ने गोली मार दी थी।बदमाश मरीज बनकर आए थे।पुलिस ने जिन लोगों को आरोपी बनाया वह बाद में मुठभेड़ में मार दिए गए थे।पुलिस ने विभाग के ही एक अधिकारी को हत्या की साजिश रचने के आरोप मेें गिरफ्तार किया था,परंतु इस प्रकरण में भी पुलिस यह नहीं पता लगा सकी कि डा. शर्मा की हत्या क्यों करवाई गयी थी। छह माह पूर्व विकास नगर में 26 अक्टूबर 2010 को सीएमओ परिवार कल्याण डात्र विनोद आर्य की भी सुबह टहलते समय हत्या की गई थी।पुलिस ने काफी समय बाद दावा किया कि जेल में बंद माफिया अभय सिंह ने पांच लाख की सुपारी शूटर सुधाकर पांडेय से आर्य की हत्या कराई थी।पुलिस ने इस बार हत्या के जो कारण बताए वह किसी के गले नहीं उतरे। डाक्टर बीपी सिंह की हत्या के बाद उनके घर जुटे परिवार कल्याण विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों ने कहा कि छह माह पूर्व डा विनोद आर्य हत्याकांड का खुलासा पुलिस ने फर्जी तरीके से न किया होता तो आज यह दिन नहीं देखने को मिलता। अभय सिंह का क्या ? उस पर तो कई मुकदमें चल रहे थे एक और सही।नतीजा डाक्टर बीपी की मौत के रूप में सामने आया।पुलिस ने जिस तरह से डा. आर्य की हत्याकांड का पर्दाफाश का दावा किया था उससे पुलिस की कार्यशैली पर प्रश्नचिंह लगे थे।

स्वास्थ्य कल्याण विभाग के सीएमओ की हत्या पर विभिन्न राजनैतिक दलों ने भी तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की है।भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश में अधिकारियों की हत्या को सरकार तथा लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताते हुए कहा कि इससे शासकीय तथा विकास कार्य प्रभावित होगा।प्रदेश में जंगलराज कायम हो गया है।समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी हत्या की नींदा करते हुए घटना की सीबीआई से जांच कराने की मांग की। अखिलेश ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार का अपराधियों को संरक्षण देने का ही परिणाम है प्रदेश में अपराधों की बाढ़ आ गई है।सरकारी स्तर पर वसूली का जो धंधा चल रहा है उससे अफसरों का काम करना कठिन हो गया है।

 

व्यंग्य/ हिम्मत, संयम बनाए रखें बस

अशोक गौतम

 

आदरणीय परिधानमंत्री जी को सादर प्रनाम! मुझे न आशा है न विश्‍वास कि इन दिनों आप स्वस्थ और सानंद होंगे। कारण, कुछ दिनों से अपने देस के अखबार छपते बाद में हैं आपके खिलाफ कुछ न कुछ ऐसा वैसा छपा अनपढ़ जनता पढ़ पहले लेती है। ऊपर से विपक्ष को पता नहीं आजकल क्या हो गया है कि आठों पहर चौबीसों घंट चातक की तरह आपके त्याग पत्र की रट लगाए रहता है। कल अपने मुहल्ले में मुहल्ले का एक विपक्ष का स्वयंभू नेता पगलाया सा घूम रहा था। मैंने पूछा,’ क्यों नेता जी! ऐसी क्या खुशी मिल गई जो…. क्या आपकी नेतागीरी से तंग हो मायके गई बीवी लौट आई?’ तो वह बौराया सो बोला, ‘नहीं, मैंने सपने में देखा कि वे त्याग पत्र दे गए,’ कई बार तो ये सब देख कर लगता है कि इनको इन पांच शब्दों से अधिक कुछ और बोलना आता ही नहीं।

हे विपक्षियो! ये किस कानून की किताब में लिखा है कि करे कोई और भरे कोई! इस देस की तो यह रीत रही है कि यहां करने के बाद भी लोग भरते नहीं। शान से सीना चौड़ा कर दिन में चार चार बार सफेद कुरता पाजामा बदलते हैं।

नलके में पानी नहीं आया तो विपक्ष की मांग आप पद से त्याग पत्र दें। स्ट्रीट लाइट के खंभे में बिजली नहीं आई तो आप त्याग पत्र दें। गली की सड़क खराब तो आप त्याग पत्र दें। पता नहीं ये विपक्ष ये क्यों नहीं समझता कि आपको बस एक काम क्या त्याग पत्र देने का ही है! अरे आप तो इस देस के इकलौते परिधान मंत्री जी हैं। दो चार होते तो विपक्ष की त्याग पत्र की मांग को हम जायज मान लेते।

अब लो जी, फिर विपक्ष चिल्ला रहा है कि विकिलीक्स के खुलासे के बाद आप नैतिक आधार पर इस्तीफा दे ही डालें और उनका मुंह बंद कर दें।

हद है साहब! इस लोक में बिना खरीद के किसका गुजारा हुआ है? विपक्ष में हिम्मत हो तो किसी एक का नाम बता दे जो अपने बूते पर बिना कुछ खरीदे जी रहा हो। कल मैंने बाजार में अपने को बचाए रखने के लिए भगवान तक को भक्तों को खरीदते देखा। साहब! इसमें बुरा है भी क्या! बाजार में वही तो कुछ खरीद सकता है जिसके पास पैसा हो। मेरे जैसा नंगा क्या खरीदे, क्या सरकार बनाए! यहां तो दो जून की रोटी नहीं बन रही।

देस की जनता के पास अपना है ही क्या! आटा दाल को लात मार बेईमानी से लेकर लाज शरम तो सभी कुछ सीना चौड़ा कर खरीद खा रहे हैं। किसलिए? कि देस की इज्जत बनी रहे। इस देस में सभी कुछ तो खरीद कर ही चल रहा है! प्यार भी खरीदा हुआ तो यार भी खरीदा हुआ! रही बात खरीदने की हिम्मत की! तो जिसकी मनी पावर जितनी अधिक सो उतना ही माल तो खरीदेगा न!

रही बात विकिलीक्स के खुलासे की! ये विकिलीक्स मुझे अपने मुहल्ले के विक्की से अधिक कुछ नहीं लगता । उसके पास अपने मुहल्ले के विक्की की तरह कोई और काम धाम तो है नहीं, बस! गप्पें मार कर मुहल्ले वालों का मनोरंजन करता रहता है।

आपको परेषान देख आपका परम हितैशी होने के चलते मैंने आपकी कुंडली बताई थी अपने मुहल्ले के लल्ले ज्योतिशी से। बोल रहा था आपकी कुंडली में कलमाड़ी और राजा एक साथ बैठे हैं। इनके साथ ही साथ अगल बगल दूसरे छोटे छोटे क्रूर उल्कापाती अभी आपको और परेषान करवाएंगे। पर आपकी राजनीतिक कुंडली के केंद्र में माई निवास होने से विपक्ष आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। फिर भी अगर आप मेरे मुहल्ले के ज्योतिशी के धंधे का ख्याल रखते हुए हर शनिवार को चाय पीने से पहले बिना टीवी का मुंह देखे काले कौवों को पानी पिलाएं तो विपक्ष की आपके त्याग पत्र की प्यास षांत हो। आपके पास समय न हो तो मैं आपकी ओर से अपने मुहल्ले के कौवों को पानी पिला दिया करूं। कौवे तो सरकार एक से होते हैं क्या दिल्ली के तो क्या मेरे मुहल्ले के।

वह यह भी की कह रहा था कि संकट की इन घड़ियों में अगर आप हिम्मत और संयम बना कर रखेंगे तो आप कमाल कर सकते हैं। आपकी कुंडली को देख कर उसने यह भी बताया कि वैसे आपमें हिम्मत और संयम की कोई कमी नहीं है। शेष जाको राखे माइयां, हटा सके न कोय! बाल न बांका कर सके, सब जग विपक्षी होय!!

जानिए, क्या है जन लोकपाल बिल?

नई दिल्ली। देश में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए अन्ना हजारे ने मंगलवार को आमरण अनशन शुरू कर दिया। जंतर – मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता हजारे को सपोर्ट करने हजारों लोग जुटे। आइए जानते हैं जन लोकपाल बिल के बारे में…

 

– इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।

– यह संस्था इलेक्शन कमिशन और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।

– किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।

– भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।

– भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।

– अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।

– लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।

– लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।

– सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।

– लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।

-जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने यह बिल जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है।

(नवभारत टाइम्‍स से साभार)

अन्‍ना हजारे अनशन पर, प्रधानमंत्री निराश

सुप्रसिद्ध समाजसेवी अन्‍ना हजारे जन लोकपाल बिल लाने की मांग को लेकर आज से नई दिल्‍ली स्थित जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठ गए। देश के विशिष्‍टजनों सहित हजारों लोग उन्‍हें अपना समर्थन देने वहां जुट रहे हैं।

अनशन स्‍थल पर उमड़े जनजवार को संबोधित करते हुए श्री हजारे ने कहा कि हम सरकार से बस यही मांग रहे हैं कि एक कमिटी बनाओ जिसमें आधे लोग आपके और आधे लोग पब्लिक के हों और यह जनलोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने का काम शुरू करे।

उन्होंने कहा कि सरकार अकेले ही बिल का मसौदा तैयार करती है तो यह निरंकुश है, यह लोकशाही नहीं है। अन्ना ने ऐलान किया कि जब तक बिल की मांग पूरी नहीं होती वह महाराष्ट्र नहीं जाएंगे। उन्होंने बताया कि देश भर में 500 शहरों में और महाराष्ट्र में 250 ब्लॉक में लोग आंदोलन के समर्थन पर अनशन पर बैठे हैं।

आमरण अनशन पर बैठने से पहले अन्ना हजारे सुबह राजघाट गए और महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी। फिर एक खुली जीप में इंडिया गेट की ओर रवाना हुए। इस दौरान स्कूली बच्चे और तिरंगा लहराते समर्थक उनके साथ थे। हजारे ने प्रधानमंत्री की अपील को ठुकराते हुए आमरण अनशन शुरू किया। पीएमओ ने सोमवार रात उनके फैसले पर निराशा जताई थी और बयान जारी कर कहा था कि इस बात पर गहरी निराशा प्रकट करते हैं कि हजारे अब भी अपनी भूख हड़ताल पर जाने के बारे में सोच रहे हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि यह भ्रष्ट सरकार उन्हें किसी भी तरह से रोकने में कामयाब नहीं रहेगी। ये बिल उनकी मांग के अनुसार ही परिवर्तित होकर पास होगा और वे इसके लिए पूरे प्रयास करेंगे।

उन्होंने कहा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया है लेकिन वर्तमान व्यवस्था को देखकर वे काफी दुखी हैं। करोड़ों का धन भ्रष्ट व्यवस्था के कारण देश के बाहर जा रहा है, और सरकार भी ऐसे तत्वों की मदद कर रही है।

देश भर के कार्यकर्ता इसे आजादी की दूसरी लड़ाई की संज्ञा दे रहे हैं और इस काम में उनका साथ मेधा पाटकर, किरण बेदी, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, अरविंद केजरीवाल, एडवोकेट प्रशांत भूषण, संतोष हेगड़े, स्वामी अग्निवेश जैसे समाजसेवी भी शामिल हैं।

भ्रष्‍टाचार का महारोग देश की सेहत को नुकसान पहुंचा रहा है। राजधानी से गांव तक और संसद से पंचायत तक सभी क्षेत्रों में भ्रष्‍टाचार ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली है। आम आदमी परेशान है। हमारे समक्ष नैतिक बल से संपन्‍न ऐसे आदर्श की कमी है जो भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध जन-जागरण कर सकें, ऐसे में 78 साल के वयोवृद्ध समाजसेवी अन्‍ना हजारे ने इस मुद्दे पर सरकार को ललकारा है। लोकपाल बिल 2010 अभी संसद के पास विचाराधीन है। इस बिल में प्रधानमंत्री और दूसरे मंत्रियों के खिलाफ शिकायत करने का प्रावधान है। श्री हजारे के अनुसार बिल का वर्तमान ड्राफ्ट प्रभावहीन है और उन्होंने एक वैकल्पिक ड्राफ्ट सुझाया है। आइए, हम भी आर्थिक शुचिता के पक्षधर बनें, इस मसले पर जनजागरण करें और भ्रष्‍टाचारमुक्‍त समाज व शासन सुनिश्चित करने का संकल्‍प लें।

हार्मोन वाले दूध से कैंसर संभव

-डॉ. राजेश कपूर पारम्परिक चिकित्सक

दूध बढ़ाने के लिये दिए जाने वाले ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ या ‘आक्सीटोसिन’ आदि के इंजैक्शनो से अनेक प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिले हैं। इन इंजैक्शनों से दूध से आईजीएफ-1; इन्सुलीन ग्रोथ फैक्टर-1 नामक अत्यधिक शक्तिशाली वृद्धि हार्मोन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है और मुनष्यों में कोलन, स्तन, प्रोस्टेट, फेफड़ो, आन्तों, पेंक्रियास के कैंसर पनपने लगते हैं।

बोवीन ग्रोथ हार्मेान गउओं को देने पर ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा जापान में प्रतिबन्ध लगा हुआ है। यूरोपियन यूनियन में इस दूध की बिक्री नहीं हो सकती। कैनेडा में इस दूध को शुरू करने का दबाव संयुक्त राष्ट्र की ओर से रहा है।

संयुक्त राज्य और इंग्लैण्ड के कई वैज्ञानिकों ने 1988 में ही इस हार्मोन वाले दूध के खतरों की चेतावनी देनी शुरू कर दी थी। आम गाय के दूध से 10 गुणा अधिक ‘आईजीएफ-1’ हार्मोन इन्जैक्शन से प्राप्त किये दूध में पाया गया। एक और तथ्य सामने आया कि दूध में पाए जाने वाले प्राकृतिक ‘आईजीएफ-1’ से सिन्थैटिक ‘आईजीएफ-1’ कहीं अधिक शक्तिशाली है।

‘मोनसैण्टो’ आरबीजीएच दूध का सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते इन वैज्ञानिकों खोजों का प्रबल विरोध करने लगा। मोनसेण्टो कम्पनी के विशेषज्ञों के लेख 1990 में छपे कि यह दूध पूरी तरह सुरक्षित है और हानिरहित है। यह झूठ भी कहा गया कि मां के दूध से अधिक ‘आइजीएफ-1’ उनके दूध में नहीं हैं। एक और बड़ा झूठ बोला गया कि हमारे पाचक रस या एन्जाईम आईजीएफ-1 को पूरी तरह पचाकर समाप्त कर देते हैं जिससे शरीर तंत्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

1990 में एफडीए के शोधकर्ताओं ने बताया कि आईजीएफ-1 पाश्चुराईजेशन से नष्ट नहीं होता बल्कि और शक्तिशाली हो जाता है। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि अनपची प्रोटीन आंतों के आवरण को भेदकर शरीरतंत्र में प्रविष्ट हो जाती है। आईजीएफ-1 आंतों से रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है। चूहों पर हुए प्रयोगों में उनकी तेज वृद्धि होती पाई गई। पर मौनसण्टो में इन सब खोजों को खारिज कर दिया।

मार्च 1991 में शोधकर्ताओं ने भूल स्वीकार की; नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ में कि आरबीजीएच वाले दूध के आईजीएफ-1 के प्रभाव का मनुष्यों पर अध्ययन अभी तक किया नहीं गया। वे नहीं जानते कि मनुष्यों की आंतों, अमाशय या आईसोफेगस पर इसका क्या प्रभाव होता है।

वास्तविकता यह है कि आईजीएफ-1’ वाला दूध पचता नहीं है और इसके एमीनोएसिड नहीं टूटते हैं । यह आन्तों से होकर जैसे का तैसा रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है। आगामी खोजों से सिद्व हो गया कि आंतों द्वारा अनपचा यह प्रोटीन रक्त प्रवाह में पहुंचकर कई प्रकार के कैंसर पैदा करने का कारण बनता है।

टिप्पणी: उपरोक्त लेख डा. जोसैफ मैरकोला की ईमेल डाक में प्राक्त शोधकर्ता ‘हैन्सआर खारसेन’ एमएसी सीएचई के आलेख व सूचनाओं पर आधरित है। अधिक विवरण और प्रमाणों के लिए mercola.com देखें।

‘आईजीएफ-1’ शरीर के कोषों और लीवर में पैदा होने वाला महत्वपूर्ण हार्मोन इन्सूलिन के समान है जो शरीर की वृद्धि का कार्य करता है। यह एक ऐसा पॉलीपीटाईड (Polypetide) है जिसमें 70 एमीनो एसिड संयुक्त हैं। हमारे शरीर में आईजीएफ-1 के निर्माण और नियन्त्राण का कार्य शरीर वृद्धि के कार्य को करने वाले हार्मोन द्वारा होता है। वृद्धि हार्मोन सबसे अधिक सक्रिय तरुणावस्था में होता है, जबकि शरीर तेजी से यौवन की ओर बढ़ रहा होता है। उन्हीं दिनों शरीर के सारे अंग यौवनांगों सहित बढ़ते और विकसित होते हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ इस वृद्धि हार्मोन की क्रियाशीलता घट जाती है। खास बात यह है कि आईजीएफ-1 आज तक के ज्ञात हार्मोनों में सबसे शक्तिशाली वृद्धि (Growth) हार्मोन है।

यह हार्मोन शरीर के स्वस्थ तथा कैंसर वाले, दोनों कोषों को बढ़ाने का काम करता है। सन् 1990 में ‘स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय’ द्वारा जारी रपट में बतलाया गया है कि ‘आईजीएफ-1’ प्रोस्टेट के कोषों को बढ़ाता है, उनकी वृद्धि करता है। अगली खोज में यह भी बतलाया गया कि यह स्तन कैंसर की बढ़त को तेज कर देता है।

सन् 1995 में ‘नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हैल्थ’ द्वारा जारी रपट में जानकारी दी गई कि बचपन में होने वाले अनेक प्रकार के कैंसर विकसित करने में इस हार्मोन आईजीएफ-1 की प्रमुख भूमिका है। इतना ही नहीं, स्तन कैंसर, छोटे कोषों वाले फेफड़ों का कैंसर, मैलानोमा, पैंक्रिया तथा प्रोस्टेट कैंसर भी इससे होते हैं।

सन् 1997 में एक अन्तराष्ट्रीय अध्ययन दल ने भी प्रमाण एकत्रित करके बताया है कि प्रोस्टेट कैंसर और इस हार्मोन में संबंध पाया गया है। कोलन कैंसर तथा स्तन कैंसर होने के अनेकों प्रमाण शोधकर्ताओं को मिले हैं। 23जनवरी 1998 में हारवर्ड के शोधकर्ताओं ने एक बार फिर नया शोध जारी किया कि रक्त में ‘आईजीएफ-1’ बढ़ने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। प्रोस्टेट कैंसर के ज्ञात सभी कारणों में सबसे बड़ा कारण आईजीएफ-1 है। जिनके रक्त में 300 से 500 नैनोग्राम/मिली आईजीएफ-1 था उनमें प्रोस्टेट कैंसर का खतरा चार गुणा अधिक पाया गया। जिनमें यह हार्मोन स्तर 100 से 185 के बीच था, उनमें प्रोस्टेट कैंसर की सम्भावनांए कम पाई गई। अध्ययन से यह महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने आया है कि 60 साल आयु के वृद्वों में आईजीएफ-1 अधिक होने पर प्रोस्टेट कैंसर का खतरा 8 गुणा बढ़ जाता है।

आईजीएफ-1 और कैंसर का सीध संबंध होने पर अब कोई विवाद नहीं है। इल्लीनोयस विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक ‘डा. सैम्युल एपस्टीन’ ने इस पर खोज की है। सन् 1996 मे इण्टरनैशनल जनरल ऑफ हैल्थ में छपे उनके लेख के अनुसार गउओं को ‘सिन्थैटिक बोबिन ग्रोथ हार्मोन’ के इंजेक्शन लगाकर प्राप्त किये दूध में ‘आईजीएफ-1’ अत्यधिक मात्रा में होता है। दूध बढ़ाने वाले बोविन ग्रोथ हार्मोन (rBGH) के कारण आईजीएफ-1 की मात्रा दूध में बढ़ती है तथा उस दूध का प्रयोग करने वालों में आतों और छाती के कैंसर की संभावनाएं बढ़ जाती है।

डीएनए में परिवर्तन करके जैनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ का निर्माण 1980 में दूध बढ़ाने के लिये किया गया था। लघु दुग्ध उद्योग के सौजन्य से हुए प्रयोगों में बताया गया था कि हर दो सप्ताह में एक बार यह इंजेक्शन लगाने से दूध बढ़ जाता है। 1985 में एफडीए यानी फूड एण्ड ड्र्रग एडमिनिस्टेशन ने संयुक्त राज्य में आरबीजीएच (rBGH or BST) वाले दूध को बेचने की अनुमति दे दी। एक अजीब आदेश एफडीए ने निकाला जिसके अनुसार बोविन और बिना बोविन वाले दूध का लेबल दूध पर लगाना वर्जित कर दिया गया था। उपभोक्ता के इस अधिकार को ही समाप्त कर दिया कि वह हार्मोन या बिना हार्मोन वाले दूध में से एक को चुन सके। ‘एफ डीए’ किसके हित में काम करता है? अमेरीका की जनता के या कम्पनियों के? बेचारे अमेरीकी !

इन हार्मोनों के असर से मनुष्यों को कैंसर जैसे रोग होते हैं तो उनसे वे गाय-भैंस गम्भीर रोगों का शिकार क्यों नही बनेगे ? आपका गौवंश पहले 15-18 बार नए दूध होता था, अब 2-4 बार सूता है। गौवंश के सूखने और न सूने का सबसे बड़ा कारण दूध बढ़ाने वाले हार्मोन हैं।

कृत्रिम गर्भाधन रोगों का और नए दूध न होने; न सूने का दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी आंकडे़ इसका प्रमाण हैं कि कृत्रिम गर्भाधन की सफलता बहुत कम ;लगभग 45 प्रतिशतहै और प्राकृतिक की लगभग दुगनी है। कृत्रिम गर्भाधन को बढ़ावा देने वाले विभाग ऐसा कहें तो मानना होगा कि कृत्रिम गर्भाधन की सफलता उनके बताए से बहुत कम हो सकती है। हम गौवंश को उनके शरीर की प्राकृतिक मांग से वंचित करके उसे बीमार बनाने में सहयोग दे रहें हैं। क्या यह एक पाप कर्म नही ? फिर परिणाम ठीक कैसे हो सकते हंै?

पर बात इतनी ही नहीं। कृत्रिम गर्भाधन की भारी असफलता और गौवंश कें नए दूध न होने का एक कारण उनके गर्भाशय में संक्रमण होना भी है। कृत्रिम गर्भाधन के प्रयास में अनेक घाव होने की संभावना होती है।

हमने एक प्रयोग में पाया कि 3 बार के प्रयास से गाय गर्भवती नहीं हुई, उसके निकट एक स्वदेशी बैल बांध तो एक इंजैक्शन में ही सफलता मिल गई। अतः प्राकृतिक गर्भाधान करवाएंगे तो भावानात्मक संतुष्टि के कारण गौवंश स्वस्थ, प्रसन्न, दुधारू रहेगा और अनेक बार सूएगा। गौवंश की वंशावली पर आपका नियंत्रण रह सकेगा।

एक और आयामः गौपालकों को भारत की वर्तमान परिस्थितियों में अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का एक आयाम गौवंश चिकित्सा है। एलोपैथी चिकित्सा के अत्यधिक प्रचार का शिकार बनकर हम अपनी प्रमाणिक पारम्परिक चिकित्सा भुला बैठे हैं। परिणामस्वरूप चिकित्सा व्यय बहुत बढ़ गया और दवाओं के दुष्परिणाम भी भोगने पड़ रहें हैं। मृत पशुओं का मांस खाकर गिद्धों की वंश समाप्ति का खतरा पैदा हो गया है। जरा विचार करें कि इन दवाओं के प्रभाव वाला दूध, गोबर, गौमूत्रा कितना हानिकारक होगा ? इन दवाओं के दुष्प्रभावों से भी अनेकों नए रोग लगते हैं, जीवनी शक्ति घटती चली जाती है।