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उपभोक्ताओं की जेब पर डाका डालती मोबाईल कंपनियां

निर्मल रानी

इसमें कोई दो राय नहीं कि संचार क्रांति के वर्तमान दौर में मनुष्य को तमाम प्रकार की सूचनाएं मनचाहे समय व स्थान पर प्राप्त होने लगी हैं। वर्तमान युग को कंप्यूटर युग कहा जा रहा है। इस युग में कंप्यूटर से संबद्ध तमाम प्रकार की सुविधाएं आम लोगों को प्राप्त हो रही हैं। ऐसी ही एक नायाब सुविधा का नाम है मोबाईल अथवा सेल्यूलर फोन सेवा। इस सेवा के माध्यम से दुनिया का कोई भी व्यक्ति किसी भी दूसरे व्यक्ति से जिस क्षण चाहे उसी क्षण न केवल बात कर सकता है बल्कि उसे संदेश भी भेज सकता है, उसे देख भी सकता है, उसे अपनी फोटो तथा किसी प्रकार की वीडियो आदि भी भेज सकता है। इसके द्वारा ई-मेल भी किया जा सकता है। एक ही छोटे से मोबाईल सेट के अंदर हमारे चमत्कारिक वैज्ञानिकों ने घड़ी, टार्च, केलकुलेटर, गेस, कैलंडर, संगीत, ऑडियो-वीडियो, इंटरनेट, फोन, फोन बुक, अलार्म घड़ी, स्टॉप वॉच, रिमांईडर तथा संदेश भेजने जैसी और भी न जाने कितनी सुविधाओं को समाहित कर दिया है। आज धीरे-धीरे यही मोबाईल फोन प्रत्येक खास-ो-आम व्यक्ति की ज़रूरत की खास चीज़ों में शामिल हो चुका है। परिणामस्वरूप न केवल शहरी लोगों बल्कि दूर-दराज़ के गांवों तक में मोबाईल फोन पहुंच चुका है। परंतु जिस प्रकार लगभग प्रत्येक वैज्ञानिक उपलब्धि के साथ यह होता आ रहा है कि जहां कोई उपलब्धि आम लोगों के लिए एक वरदान साबित होती है वहीं तमाम लोगों के लिए यह वरदान के साथ-साथ अभिशाप भी बन जाती है। शायद कुछ ऐसा ही मोबाईल फोन धारकों के साथ भी घटित हो रहा है।

 

एक दशक पूर्व जब भारत में मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों ने कदम रखा उस समय भारतीय उपभोक्ताओं को यह सेवा किसी चमत्कार से कम नहीं लगी। शुरु-शुरु में मोबाईल फोन सेट बेचने वाली कंपनियों ने जहां अपने पुराने मॉडल के भारी-भरकम मोबाईल सेट मंहगे व मुंह मांगे दामों पर भारतीय उपभोक्ताओं के हाथों बेच डाले वहीं मोबाईल फोन सेवा प्रदान करने वाली संचार कंपनियों ने भी आऊट गोइंग व इन कमिंग कॉल्स के अलग-अलग मोटे पैसे वसूल कर भारतीय उपभोक्ताओं की जेबे खूब खाली कीं। किसी कंपनी ने उस समय पांच और छ: रुपये प्रति मिनट के हिसाब से कॉल रेट वसूले तो किसी कंपनी ने तीन और चार रुपये प्रति मिनट के दर से इन कमिंग कॉल्स की कीमत भी वसूली। इनके अतिरिक्त राज्य के बाहर गए हुए मोबाईल उपभोक्ताओं से रोमिंग शुल्क के नाम पर भी खूब पैसे लिए गए। अब इन दस वर्षों में चूंकि संचार क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा देखी जा रही है तथा एक से बढ़ कर एक स्वदेशी तथा विदेशी कंपनियां भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाज़ार में अपने व्यापार का जाल फैला रही हैं इसलिए जनता को इस प्रतिस्पर्धा का लाभ ज़रूर प्राप्त हो रहा है। अब मोबाईल सुविधा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों में शुल्क घटाने को लेकर प्रतिस्पर्धा मची देखी जा सकती है। मोबाईल फोन सेट भी पहले की तुलना में कहां अधिक सस्ते हो गए हैं।

 

परंतु मोबाईल सेवाएं उपलब्ध कराने वाली इन निजी संचार कंपनियों को शायद उपभोक्ताओं को मिलने वाली यह रियायत अच्छी नहीं लग रही है। तमाम निजी कंपनियां मोबाईल उपभोक्ताओं की जेबें खाली करने के नाना प्रकार के हथकंडे अपनाने से बाज़ नहीं आ रही हैं। तमाम निजी संचार कंपनियों ने अपने कार्यालय में ऐसे ‘बुद्धिमान योजनाकारों’ की नियुक्ति की हुई है जो कंपनियों को यह सलाह देते हैं कि किन-किन हथकंडों के द्वारा ग्राहकों की जेबों पर डाका डाला जाए। इस बारे में काफी समय से तमाम उपभोक्ता इन निजी संचार कंपनियों द्वारा उन्हें ठगे जाने के तमाम तरीके अक्सर बताते रहे हैं। पिछले दिनों भी एक उपभोक्ता निजी मोबाईल सेवा प्रदान करने वाली एयरटेल कंपनी द्वारा की जाने वाली ठगी का शिकार हुआ। सर्वप्रथम तो एयरटेल के कनेक्शन वाले उसके मोबाईल फोन से प्रतिदिन कभी एक रुपया, कभी दो तो कभी-कभी तीन रुपये कटने लगे। जब उसने इस प्रकार पैसों की अकारण कटौती पर गौर किया तब तक उसके प्रीपेड मोबाईल खाते से काफी पैसे कट चुके थे। तंग आकर उसने एयरटेल के कस्टमर केयर सेंटर से संपर्क किया। पूछने पर यह पता चला कि ‘आपने जॉब अलर्ट लगा रखा है इसीलिए आपके पैसे काटे जा रहे हैं। उसने जवाब दिया कि ‘न तो मैंने कोई ऐसा जॉब अलर्ट लगाया है, न ही मुझे इसकी ज़रूरत है। और सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक मुझे जॉब संबंधी कोई सूचना या एस एम एस भी कंपनी ने नहीं भेजा, फिर पैसा क्यों और किस बात के लिए काटा जा रहा है’। इस पर भी कस्टमर केयर सेंटर का ‘तोता रटंत’ कर्मी अपनी ही बात पर कहता रहा ‘नहीं’ जी आपने जॉब अलर्ट लगाया है और आपको जॉब अलर्ट भेजा जा रहा है। मेरे मना करने के बाद जॉब अलर्ट के नाम पर पैसे कटने का सिलसिला बंद हुआ।

 

अभी यह सिलसिला बंद ही हुआ था कि उसके इसी मोबाईल खाते से पुन: पैसे कटने शुरु हो गए। फिर उसी तरह कभी दो तो कभी तीन रुपये। वह उपभोक्ता फिर विचलित हुआ। क्योंकि वह कोई व्यापारी या धनाढ्य व्यक्ति नहीं जोकि 1-2 रुपये की कोई कीमत ही न समझे। उसने पुन: कस्टमर केयर से संपर्क साधा। इस बार तो उसे बड़ा आश्चर्यचकित करने वाला जवाब सुनने का मिला। उसे बताया गया कि आपने ‘करीना कपूर अलर्ट’ लगा रखा है। अब ज़रा आप ही बताईए कि देश-दुनिया की उथल-पुथल की चिंताओं को छोड़कर आज के ज़माने में कोई हर पल क्यों यह जानना चाहेगा कि करीना कपूर कब, क्या कर रही है? करीना अलर्ट के नाम पर भी उसके काफी पैसे काट लिए गए। यह उपभोक्ता करीब 7-8 वर्षों से एयरटेल कंपनी की ग्राहक है। इस घटना से उसका मन खट्टा हो गया। अब उसने पहली बार यह सोचा कि नंबर पोर्टेब्लिटी सेवा का लाभ उठा कर किसी अन्य कंपनी की सेवाएं ली जाएं। जब उसने इस संबंध में कार्रवाई शुरु की फिर एयरटेल कस्टमर केयर सेंटर से फोन आया कि आप क्यों कंपनी छोड़ रहे हैं। उसने कारण बताए, फिर उसे समझाने की कोशिश की गई। अब आप ज़रा गौर कीजिए कि नंबर पोर्टेब्लिटी का आवेदन करने के बाद भी कई दिनों तक एयरटेल कंपनी द्वारा उसे यूपीसी अर्थात् पोर्टेब्लिटी कोड नहीं भेजा गया। जबकि उसे यह बताया गया था कि पोर्टिंग आवेदन के बाद कुछ ही क्षणों में आपको पहली कंपनी द्वारा कोड नंबर उपलब्ध करा दिया जाएगा। गोया एयरटेल जैसी कंपनियां हमारे व आप जैसे साधारण उपभोक्ताओं से जबरन पैसे भी ठग रही हैं और दूसरी कंपनी में जाने भी नहीं दे रही हैं। इसे आप सरेआम डाका डालना या राहज़नी करना नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे?

 

इसी एयरटेल कंपनी के कुछ और ठगी के कारनामे सुनिए। हमारे मोबाईल फोन पर कई बार इस प्रकार के संदेश आए कि बताएं-करनाल कहां है, ए-हरियाणा में या बी-बंगाल में। इसी के साथ लिखा होता था कि उत्तर दें -ए-हरियाणा। और जीतिए सेंट्रो कार या जीतिए सोने का सिक्का। अब ज़रा उपरोक्त क्विज़ व उसके बारे में दिए जा रहे हिंट पर गौर कीजिए। कितना घटिया प्रश्र व कितना घटिया हिंट देने का तरीका और इनाम में ‘कार’? शिवरात्रि है तो भजनों की टोन इनसे लीजिए, वेलेन्टाईन डे पर आशिक़ी-माशूकी के तरीके इनसे पता कीजिए, टिप्स व गाने इनसे खरीदिए। ज्योतिषी यह लिए बैठे हैं, एक घंटे पुराने क्रिकेट स्कोर बताने के पैसे यह वसूलते हैं, उल्टे-सीधे सवाल-जवाब क्विज़ के बहाने यह पूछते हैं। गोया ऐसा लगता है कि इन कंपनियों ने अपभोक्ता के समक्ष लालच परोसने की दुकान सजा रखी हो। और अफसोस की बात तो यह है कि यदि कोई उपभोक्ता इनके द्वारा सुझाई गई योजनाओं के झांसे में नहीं भी आता तो कंपनियां उपरोक्त उपभोक्ता की तरह अपनी योजनाएं ग्राहक के गले स्वयं मढ़ देती हैं।

 

इसी प्रकार यदि आप दूसरे राज्यों में घूम रहे हैं तो दिन में दो-तीन बार आप के नंबर पर रोमिंग कॉल की चपत भी पड़ सकती है। यह कॉल आपके किसी मित्र, संबंधी या व्यवसाय से संबंधित नहीं बल्कि कंपनी की ओर से अलग-अलग नंबरों से की जाती है। मोबाईल फोन रिसीव करते ही कभी आपको सुनने को मिलेगा कि हैलो, मैं राजू श्रीवास्तव बोल रहा हूं तो कभी कोई अन्य हीरो या हीरोईन की आवाज़ आपको सुनने को मिलेगी। भले ही इन की आवाज़ सुनकर आपकी व्यस्तताओं में विघ्र पड़ रहा हो। परंतु इन कंपनियों को तो अपनी रोमिंग के नाम पर की जाने वाली एक या दो रुपये की ठगी से ही वास्ता है। कमोबेश आज सभी मोबाईल कंपनियों के तमाम उपभोक्ता अपनी-अपनी मोबाईल फ़ोन कंपनी द्वारा की जाने वाली इस प्रकार की नाजायज़ वसूली तथा लालच परोसने के तरीकों से अत्यंत दु:खी हैं। टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी अर्थात् ट्राई को चाहिए कि वह ग्राहकों के साथ निजी मोबाईल कंपनियों द्वारा मचाई जाने वाली इस प्रकार की लूट-खसोट पर यथाशीघ्र अंकुश लगाए तथा पोर्टिंग के नियमों को सती से लागू करने की व्यवस्था करे। इसी के साथ-साथ ज़रूरत इस बात की भी है कि मोबाईल उपभोक्ताओं की दिनों-दिन बढ़ती संख्या तथा उनके साथ कंपनियों द्वारा ठगी के अपनाए जाने वाले नित नए तरीकों के चलते इस समस्या के समाधान हेतु प्रत्येक शहर में एक मोबाईल फोन उपभोक्ता अदालत का विशेष गठन भी किया जाए जहां उपभोक्ता को तत्काल राहत दिए जाने की व्यवस्था हो।

कांग्रेस और रामदेव आमने-सामने

डॉ. मनीष कुमार

भारत की राजनीति का यह अजीबोग़रीब दौर है. संत राजनीति कर रहे हैं और राजनीतिक दल संतों की तरह बर्ताव कर रहे हैं. संत से मतलब मौन धारण करना है. ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि किसी पार्टी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं, देश भर में रैलियां करके राजनेताओं के ख़िला़फ आग उगली जा रही है और देश चलाने वाली पार्टी चुप्पी साधकर सब कुछ सुन कर रही है. बीती 27 फरवरी को दिल्ली का रामलीला मैदान खचाखच भरा था. पूरे देश भर से लोग भ्रष्टाचार के ख़िला़फ एक रैली में शामिल होने आए थे. दर्जनों टीवी चैनलों और अख़बारों के संवाददाताओं की भरमार थी. यह रैली योग गुरु बाबा रामदेव ने बुलाई थी. मंच पर हिंदू थे, मुसलमान थे, सिख थे, ईसाई थे. अन्ना हज़ारे, किरण बेदी एवं केजरीवाल जैसे लोग भी थे, जो हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार के ख़िला़फ आंदोलन के चेहरे हैं. कुछ ऐसे चेहरे भी थे, जो अपने बयानों से सनसनी फैलाने में माहिर हैं. इतनी बड़ी रैली, इतने बड़े-बड़े लोग भ्रष्टाचार के ख़िला़फ बाबा रामदेव की मुहिम में शामिल हुए. सबको बोलने का मौक़ा दिया गया. हैरानी की बात यह है कि इस विशाल रैली में क्या हुआ, यह मीडिया से पूरी तरह ग़ायब रहा. बाबा रामदेव की वजह से यह रैली एक धार्मिक चैनल आस्था पर दिन भर लाइव दिखाई गई. पहला सवाल तो यही उठता है कि मीडिया ने इस रैली और इसमें लगे आरोपों को महत्व क्यों नहीं दिया.

इस रैली में सबसे सनसनीख़ेज़ भाषण पूर्व इनकम टैक्स कमिश्नर विश्वबंधु गुप्ता ने दिया. उन्होंने वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी को अपशब्द कहे, कांग्रेस के भ्रष्ट नेताओं का नाम लिया और सोनिया गांधी एवं उनके राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल पर तीखी टिप्पणी की. विश्वबंधु गुप्ता ने सबसे पहला प्रहार प्रणव मुखर्जी पर किया. उन्होंने कहा- मैं आपको बताता हूं कि पिछले छह सालों में किस तरह देश से धोखा किया गया. यह ऐसी कहानी है, जो आपको चौंका देगी. मैं प्रणव मुखर्जी से मिला, जो कि भारत के वित्त मंत्री हैं. मैंने कहा, मिनिस्टर साहब, स्विट्‌जरलैंड में हमारे लोगों का 70 लाख करोड़ रुपया पड़ा हुआ है. आप उसको लाने के लिए क़ानून क्यों नहीं लाते. बोले (प्रणव मुखर्जी), विश्वबंधु, तुमको मालूम नहीं है कि स्विट्जरलैंड के भी क़ानून हैं. उस क़ानून के अंदर न वे नाम बताएंगे, न पैसे देंगे. मैं सुनता रहा. एक हिजड़े की बात सुनता रहा. मन में आया कि मेरे मां-बाप अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई में जेल गए थे…यह हिजड़ा यहां बैठा क्या कर रहा है. न स़िर्फ वह हिजड़ा है, बल्कि वह झूठा भी है. हर बार पार्लियामेंट में झूठ बोलता है.

प्रणव मुखर्जी पर विश्वबंधु का कोई आरोप नहीं है, कोई खुलासा नहीं किया, फिर भी उन्हें अपशब्द कहे. बाबा रामदेव वहां बैठे मुस्करा रहे थे और लोग तालियां बजा रहे थे. हालांकि उन्होंने केंद्र सरकार पर एक ऐसा आरोप लगाया, जिससे जनता सन्न रह गई. उन्होंने कहा- एक बात और करना चाहता हूं. क्वात्रोकी छुपे बैठे हैं. उनका एक बेटा है मलिस्मा या मलुस्मा. सारे काग़ज़ात मेरे पास हैं. मैं कमिश्नर रहा हूं, बिना काग़ज़ात के कुछ भी नहीं बोलता. मलुस्मा ने 2005 में अंडमान निकोबार में तेल की खुदाई का ठेका लिया. इस सरकार के अंदर लिया. जिस क्वात्रोकी को स्वामी जी कहते हैं ढू़ंढो, इटली की सबसे बड़ी रैकेटियर कंपनी ईएनआई इंडिया लिमिटेड के नाम से खोला गया उसके बेटे का दफ्तर मेरिडियन होटल के अंदर है. चलो वहीं चलकर उसे तोड़ देते हैं. यह मामला अभी तक न मीडिया की नज़र में और न ही संसद की नज़र में आया है. यह आरोप सचमुच चौंकाने वाला है. अगर विश्वबंधु गुप्ता के इस आरोप में सच्चाई है तो इसकी जांच हो और अगर यह झूठ है तो केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी को उनके ख़िला़फ कार्रवाई करनी चाहिए.

मज़े की बात यह है कि इस भाषण में वह यह दावा भी कर रहे थे कि आज का भाषण प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी सुनेंगे, सारे भ्रष्ट नेता सुनेंगे. उन्हें पता है कि विश्वबंधु गुप्ता क्या है. आज मैं अपनी बात और आपकी बात वहां पहुंचाने के लिए एक-एक चीज़ का ख़ुलासा कर दूंगा. इसके बाद उन्होंने स्विस बैंक के बारे में एक और जानकारी दी. उन्होंने कहा-2005 में स्विस बैंकर्स एसोसिएशन ने एक चिट्ठी लिखी सरकार को कि हम आपके देश में आना चाहते हैं. 2007 में वही बैंकर्स, जिनके पास सत्तर लाख करोड़ रखा हुआ है, वे दिल्ली आए. उनकी फोटो हैं हमारे पास. उन्होंने कहा कि हमें हिंदुस्तान में स्विट्जरलैंड के बैंक खोलने दिए जाएं. हमको दुनिया का लूटा हुआ पैसा बंबई की स्टॉक मार्केट में लगाने दिया जाए. शर्म की बात है…चिदंबरम साहब से मैं जवाब मांगता हूं. 2007 में स्विस बैंक को आज़ादी दी गई स्टॉक मार्केट में सट्टा खेलने की. 2005 में भारत में स्विट्जरलैंड के चार और इटली के आठ बैंक खोले गए. ये इटली वे बैंक हैं, जिनमें घाटा चल रहा है और जिन्हें वहां का मा़फिया चला रहा है. इससे आगे जाने की मुझे ज़रूरत नहीं है. बाबा को मैंने ही लिस्ट दी थी आठ बैंकों की.

स्विस और इटली के बैंकों की बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. विश्वबंधु ने इन सारी गड़बड़ियों के लिए सोनिया गांधी को ज़िम्मेदार बता दिया. सोनिया गांधी के ख़िला़फ सार्वजनिक तौर पर इतना बड़ा भ्रष्टाचार का इल्ज़ाम किसी ने नहीं लगाया. विश्वबंधु ने कहा- मेरी बहन सोनिया गांधी, अगर देश को लूटने आई हो, तो लाल क़िले से ऐलान कर दो. अगर हम में देश का ख़ून है तो हम जीतेंगे और अगर तुम में इटली का ख़ून और उसका गर्व है तो तुम जीत जाना. एक बार यह आर-पार की लड़ाई हो ही जाए तो अच्छा है. बाबा रामदेव के स्वाभिमान आंदोलन के मंच से सोनिया गांधी पर ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं. बाबा रामदेव कहते हैं कि भ्रष्टाचार का उनका आंदोलन किसी पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष के ख़िला़फ नहीं है, लेकिन रैली में जो हुआ, उससे तो यही लगता है कि बाबा रामदेव ने कांग्रेस के ख़िला़फ यह अभियान छेड़ा है.

हसन अली के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार को फटकार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हसन अली के ख़िला़फ अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई. हैरानी की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के पहले ही विश्वबंधु गुप्ता ने कांग्रेस और हसन अली के रिश्तों के बारे में बता दिया था. इस रैली में उन्होंने यह दावा किया- अब आपको हसन अली का कुछ ख़ुलासा करता हूं. इनकम टैक्स डिपार्टमेंट जिसमें मैं कमिश्नर था, उसने पुणे में छापा मारा. छापे में एक लैपटॉप पकड़ा गया, जिसमें सत्रह नाम थे. एक नाम पढ़ा जा सकता था अदनान खशोगी का. बाक़ी सोलह नाम कोडेड थे, समझ नहीं आ रहे थे. हमारे अ़फसर थक गए. उन्होंने कहा कि साहब, ये नाम नहीं पता लग रहे. एक ईमानदार अ़फसर ने स्विट्‌जरलैंड को चिट्ठी लिखी कि साहब इनके नाम बता दीजिए. उन्होंने कहा कि हम ये नाम आपको देने के लिए तैयार हैं, अगर आपके वित्तमंत्री हमको चिट्ठी लिखें. लेकिन इस चिदंबरम का कैरेक्टर देखिए आप, उस आदमी को इस्ती़फा देना पड़ेगा. हम आपको उसका कैरेक्टर बताते हैं. चिदंबरम ने क्या किया, सत्रह आदमियों की लिस्ट देखी. मुझे कारण मालूम नहीं कि उन्होंने चिट्ठी क्यों लिखी, मगर लगता है उनके मन में घूस खाने का लालच आया. उन्होंने सोचा कि ये पचास हज़ार करोड़ की मोटी-मोटी बिल्लियां आ गई हैं, नाम लाऊंगा, इनको ब्लैकमेल करूंगा और घूस खाऊंगा. इतिहास भी आदमियों से क्या-क्या करा देता है. चिट्ठी लिखी गई, हसन अली का अकाउंट निकला, सत्रह नाम आए, लेकिन चिदंबरम की क़िस्मत फूट गई. उसमें तीन राजनेताओं के भी नाम थे. आपको नाम भी बता देता हूं, विलासराव देशमुख का नाम था, जो कैबिनेट मिनिस्टर है. उसके बाद वह घोड़े बेचने वाला आदमी, जिसने 100 लाख करोड़ रुपया जमा कराया. फिर क्या हुआ. यह तीन साल पहले की बात है. आज भी हसन अली खुलेआम घूम रहा है. आज दूसरे का भी नाम सुन लो, जो विलासराव देशमुख के साथ हसन अली से मिलने गया था पुणे में. दूसरे आदमी का नाम है अहमद पटेल. सोनिया गांधी जी सुन लो…बॉम्बे पुलिस के पास उन तीनों राजनेताओं की वीडियो फुटेज है, जो रात को पुणे में मिलते थे.

बात हसन अली से सोनिया गांधी तक पहुंच गई. विश्वबंधु ने आगे कहा- अहमद पटेल यूपीए की चेयरमैन के राजनैतिक सलाहकार हैं. मैं नहीं जानता कि वह कौन सी राजनीति समझाते हैं, क्योंकि उनकी मीटिंग सोनिया से रोज़ रात को 12 से 2 बजे के बीच होती है. भारत के इतिहास में पहली बार मैंने देश के राजनेताओं को रात-रात भर 12 से 3 बजे तक मिलते देखा है. अरे उल्लू जागते हैं उस समय तो! सोनिया गांधी जी यह बताएं या अहमद पटेल बताएं कि हफ्ते में 2-3 बार जब सोनिया का फोन आता था, तो अहमद पटेल गाड़ियां बदल-बदल कर छुपकर उनसे मिलने 10 जनपथ क्यों जाते थे, क्या होता था, क्या हिसाब तय होता था? क्या पैसे की बातें होती थीं? आज यह देश एक डिपार्टमेंटल स्टोर है. इस सरकार ने वाइस चांसलरों की पोस्ट बेचीं. राज्यसभा की सीटें बिक रही हैं पैंतीस करोड़ की. हर चीज़ बिकी. और बिकते-बिकते मामला यहां तक आ गया कि इस मुल्क की ज़मीन तक सरकार ने बेची. हम जानते हैं कि हसन अली दाऊद का आदमी है. 2-जी मामले में आपने शाहिद बलवा का नाम सुना. शाहिद बलवा एक बिल्डर हैं, जो कुछ दिन पहले सड़क पर चलते थे. शाहिद बलवा के यहां जब छापा पड़ा तो उनके पास शरद पवार के काग़ज़ मिले हज़ारों करोड़ के, अनर्थ हुआ. मुझको तो यह भी समझ में नहीं आता कि इस देश के मंत्रिमंडल में कोई ईमानदार मंत्री है भी कि नहीं.

इस रैली में भारतीय जनता पार्टी के नेता एवं देश के जाने-माने वकील राम जेठमलानी भी थे. उन्होंने भी गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगाए. उन्होंने कहा- स्विट्ज़रलैंड के एक अख़बार, जिसका नाम था इलस्ट्रेटेड, ने दुनिया के 14 बड़े गुनहगारों और डाकुओं का ज़िक्र उनकी तस्वीरों के साथ अपने एक पर्चे में किया था. उन 14 गुंडों और बदमाशों के बीच में एक हिंदुस्तानी भी था. वह हिंदुस्तानी हमारे देश का पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी था. उसकी तस्वीर के बाज़ू में कई मिलियन डॉलर लिखे हुए थे, जो स्विट्ज़रलैंड के बैंकों में जमा थे. अब मैं 1994 की बात करता हूं. रशिया में एक किताब छपी, जिसका नाम है अ स्टेट विद इन अ स्टेट. उसमें लिखा है कि राहुल गांधी को हमारी केजीबी से, जो उनकी सीक्रेट पुलिस है, हर साल अच्छा पैसा मिल रहा है और राहुल गांधी हमारी शुक्रगुज़ारी करता रहता है और सोचता है कि जो पैसा मैं रशिया से लेता हूं, वह हिंदुस्तान की सेवा में लगाता हूं. हिंदुस्तान के प्रेस ने यहां की जनता को यह बात कभी नहीं बताई. यह बात छिपाई गई, क्यों? क्या भ्रष्टाचार हमारे प्रेस को भी ख़राब कर चुका है?

बाबा रामदेव सबसे आख़िरी में बोले. संत नहीं, एक राजनेता की तरह बोले. अपने भाषण से उन्होंने सभी वक्ताओं के भाषण को एक दिशा दी. भारत स्वाभिमान आंदोलन के दुश्मन कौन हैं, मित्र कौन, इसे भी स़फाई से बताया. उन्होंने कहा- महात्मा गांधी का नाम और तो देश में कहीं दिया नहीं, बहुत दबाव देने के बाद नरेगा महात्मा गांधी के नाम किया गया. बाक़ी तो आधी से ज्यादा योजनाओं और संस्थानों के नाम एक ही परिवार के नामों पर हैं. क्या स़िर्फ एक ही परिवार ने शहादत दी है, आधी से ज्यादा योजनाओं का नाम एक ही परिवार के नाम कैसे कर दिया गया… वर्तमान में जो केंद्र सरकार है, इसका क़रीब 55 साल देश में राज रहा है…इस दौरान 400 लाख करोड़ लूटे गए हैं हिंदुस्तान के. माना कि हम दूसरी पार्टियों को क्लीन चिट नहीं दे रहे हैं, लेकिन यदि दूसरे दोषी हैं एक-दो प्रतिशत, तो 99 प्रतिशत दोषी हैं जो वर्तमान में बैठे हैं. वैसे भी विश्वबंधु गुप्ता ने इस मंच से पहले ही ऐलान कर दिया था- देश में भ्रष्टाचार के ख़िला़फ ऐसा महाभारत होगा, जो हमारी नई पीढ़ी देखेगी और नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक से लेकर दस जनपथ तक की ईंट से ईंट तोड़ दी जाएगी.

बाबा रामदेव ने काले धन की बात उठाई और सीधा सोनिया गांधी को निशाने पर लिया. उन्होंने विश्वबंधु गुप्ता की बात को आगे बढ़ाया और कहा- पहले चोरी करके (काला धन) स्विट्‌ज़रलैंड भेजते थे, अब इन बैंकों को भारत ही बुला लिया. स्विट्‌ज़रलैंड के चार बैंक यहीं बुला लिए. उन्होंने कहा कि पहले हज़ार करोड़ लूटते थे, अब लाखों करोड़ लूट रहे हैं. स्विट्‌ज़रलैंड ले जाने में दिक्क़त होती है. स्विट्‌ज़रलैंड के बुलाए तो बुलाए, जब मैंने कहा कि आठ बैंक इटली के बुलाए तो मिर्ची लग गई. अरे, इटली के आठ बैंक भारत में क्या कर रहे हैं? बाबा रामदेव गांधी परिवार पर हमला करने से नहीं चूकते. कभी सीधे-सीधे तो कभी इशारे में. बीच-बीच में उन्होंने नेहरू पर भी छींटाकशी की, कहा, मैं अभी तेजपुर से आया हूं जिसे एक प्रधानमंत्री ने चीन को सौंप दिया था. इस रैली में उन्होंने उस मुद्दे को फिर उठाया, जिसमें यह आरोप लगाया- एक कांग्रेसी सांसद ने मुझे अपशब्द कहे. कोई संन्यासी जिन्हें ब्लडी इंडियन और कुत्ता नज़र आता है, उनके दिमाग़ का इलाज करना चाहिए. दु:ख इस बात का है कि ऐसे लोगों को हम संसद में कैसे बैठा देते हैं. सरकार और वह पार्टी इस पाप के लिए क्षमा मांगना तो दूर, उल्टा हिसाब मांगती है. अब तो देश की जनता हिसाब मांगेगी कि तुमने कितना देश को लूटा है. बाबा के निशाने पर केंद्र सरकार तो है ही, साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री को भी कठघरे में खड़ा कर दिया. उन्होंने कहा- आज तो प्रधानमंत्री ने समय नहीं दिया, मैं तो समय मांगता रहूंगा. अगर समय नहीं दिया तो उनका भी समय पूरा हो जाएगा. वह सलामत रहें, क्योंकि प्रधानमंत्री जी बेईमान लोगों से घिरे ईमानदार व्यक्ति हैं. आज तक की सबसे बेईमान सरकार के सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री का तमग़ा उन्हें मिला है.

किसी भी रैली का मक़सद देश और समाज में संदेश देना होता है. कुछ रैलियां ऐसी होती हैं, जिनमें मजमा तो लगता है, हज़ारों-लाखों लोग जमा होते हैं, लेकिन वे कोई संदेश नहीं पहुंचा पातीं. वहीं कुछ रैलियां ऐसी होती हैं, जो छोटी होती हैं, जिनमें ज्यादा लोग नहीं जमा होते, लेकिन उनसे देश और समाज में संदेश जाता है. यह रैली संदेश देने में कामयाब नहीं हुई. खानापूर्ति के लिए अख़बारों ने रैली की ख़बर छाप तो दी, लेकिन मुद्दा गुम हो गया. योग गुरु बाबा रामदेव को भी उलझन हुई होगी कि इतने सारे अख़बारों और उनके सभी चहेते टीवी चैनलों से रैली का संदेश क्यों ग़ायब हो गया. क्या कांग्रेस पार्टी और सरकार ने अख़बारों-चैनलों पर दबाव बना लिया या फिर इस रैली में ही कुछ ऐसी बातें कही गईं, आरोप लगाए गए कि मीडिया ने इससे किनारा करना ही मुनासिब समझा.

बाबा रामदेव ने जबसे राजनीतिक दल बनाने की घोषणा की है, तबसे उनकी रैलियों में एक बदलाव दिख रहा है. भ्रष्टाचार के ख़िला़फ आंदोलन का आह्वान करने वाले बाबा रामदेव की पूरी मुहिम कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार पर केंद्रित होती जा रही है. इस रैली में गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी के ख़िला़फ वक्ताओं ने जमकर आग उगली, आरोप लगाए. बाबा रामदेव के सामने भाषा की सीमा लांघी गई. तालियों की गड़गड़ाहट के बीच राजनीतिक और सामाजिक गरिमा दब सी गई. हालांकि यह सवाल भी उठता है कि संतों के इस आंदोलन में ख़राब भाषा का क्या औचित्य है. अगर बाबा रामदेव की बातों में सत्यता है, अगर उनकी लड़ाई स़िर्फ भ्रष्टाचार से है तो जनता वैसे ही खिंची चली आएगी.

हमने कई नेताओं से इन आरोपों के बारे में बात की. कांग्रेस के नेताओं को अब समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए. चुप रहा जाए या फिर बोला जाए. बाबा के ख़िला़फ बोलने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही है. जो हिम्मत करना भी चाहते हैं, उन्हें चुप रहने के लिए कहा गया है. सवाल यह है कि क्या देश में मंत्रियों, सरकार, राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व पर बिना सबूत, बिना तथ्य, बिना जानकारी के आरोप लगाया जा सकता है. अगर इन आरोपों के सबूत हैं तो बाबा रामदेव और उनके साथियों को उन्हें देश की जनता के सामने पेश करना चाहिए. हम इस मामले को इसलिए उठा रहे हैं कि बाबा रामदेव के मंच से किन्हीं सामान्य लोगों पर आरोप नहीं लगाया गया है. बाबा रामदेव और उनके अभियान में शामिल लोग देश चलाने वाले मंत्रियों और सरकार चलाने वाली पार्टी और उसके नेतृत्व पर आरोप लगा रहे हैं. जनता को सच जानने का अधिकार है. अगर कांग्रेस पार्टी और सरकार इन आरोपों का जवाब नहीं देती है तो देश की जनता मान लेगी कि इन आरोपों में सच्चाई है.

फल्गु के बिना क्या मिल पायेगी हमारे पूर्वजों को मुक्ति?

सतीश सिंह

सदियों से सभ्यता का विकास नदियों के किनारे होता रहा है। नदी के बिना जीवन की कल्पना असंभव है। बावजूद इसके नदियों की मौत पर हम कभी अफसोस जाहिर नहीं करते। जबकि उनकी मौत के लिए सिर्फ हम हमेशा से जिम्मेदार रहे हैं। कभी हम विकास के नाम पर उनकी बलि चढ़ाते हैं तो कभी अपनी लालच को साकार करने के लिए।

बड़ी नदियों में यमुना मर चुकी है। (वैसे केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश का दावा है कि 2015 तक यमुना नदी को पुर्नजीवन मिल जाएगा) गंगा भी मरने के कगार पर है। छोटी नदियाँ या तो मर चुकी हैं या मरने वाली हैं। एनसीआर में हिंडन नदी मर चुकी है तो बिहार के गया में बहने वाली नदी ‘फल्गु’ मरनासन्न है।

गंगा की तरह फल्गु का महत्व भी हिंदुओं के लिए अप्रतिम है। कहा जाता है कि त्रेता युग में भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ की मुक्ति के लिए गया में बहने वाली फल्गु नदी के तट पर उनका पिंड दान किया था। आज के युग को कलि कहा जाता है। इसतरह से देखा जाए तो भगवान राम को अपने पिता का पिंड दान किये हुए तकरीबन 12 लाख साल गुजर चुके हैं। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के अलावा युधिष्ठिर, भीष्म पितामह, मरिचि इत्यादि के द्वारा भी फल्गु नदी के किनारे पिंड दान करने की कथा हिंदु किवदंतियों में मिलती है।

अश्विन माह में 15 दिनों तक चलने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में पिंड दान करना शुभ माना जाता है। पिंड दान करने का सारा रस्म फल्गु नदी के किनारे संपन्न किया जाता है।

दरअसल हिंदु धर्म की मान्यता है कि इंसान की मृत्यु के पश्‍चात् उसकी आत्मा भटकती रहती है। पर ऐसा माना जाता है कि यदि अश्विन माह में चलने वाले पितृपक्ष पखवाड़े में फल्गु नदी के घाट पर पिंड दान किया जाये तो भटकने वाली आत्मा को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

 

फल्गु नदी को निलजंना, निरंजना या मोहाना नदी के नाम से भी जाना जाता है। इस नदी का बहाव उत्तार से पूर्व की ओर है जोकि बराबर पहाड़ी के विपरीत दिशा में है। अपने सफर के आगे के पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते इसका नाम मोहाना हो जाता है तथा यह दो भागों में विभाजित होकर पुनपुन नदी में मिल जाती है।

वायु पुराण के गया महात्मय में फल्गु नदी को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। यह भी कहा जाता है कि कभी फल्गु दूध की नदी थी।

21वीं सदी में दूध की यह नदी अपनी अंतिम सांसे गिन रही है। पंचवटी अखाड़ा से लेकर विष्णुपद मंदिर तक पॉलिथिन बैगों और गंदगी के मलवों के कारण मानसून में भी नदी का बहाव ठहरा हुआ रहता है। इस संदर्भ में घ्यातव्य है कि शहर की गंदगी को एक अरसे से नदी में बेरोकटोक प्रवाहित किया जा रहा है।

किवदंतियों पर अगर विश्‍वास किया जाये तो फल्गु एक श्रापित नदी है। कहा जाता है कि सीता जी के श्राप के कारण नदी बारिश के महीनों के अतिरिक्त महीनों में सूखी रहती है।

इस में दो राय नहीं है कि साल के अधिकांष महीनों में नदी सूखी रहती है, किन्तु आश्‍चर्यजनक रुप से सूखी नदी में एक से डेढ़ दशक पहले तक रेत को मुठ्ठी भर उलीचने मात्र से साफ और मीठा पानी बाहर निकल आता था। पर हाल के वर्षों में नदी के प्रदूषण स्तर में जर्बदस्त इजाफा हुआ है। अब रेत को उलीचने से पानी नहीं निकलता। हाँ, 5-10 फीट की खुदाई करने पर पानी तो निकल जाता है परन्तु वह पीने के योग्य नहीं रहता है।

उल्लेखनीय है कि अब गर्मियों में नदी में रेत कम और शहर की नालियों से होकर प्रवाहित होने वाले मल-मूत्र की मात्रा ज्यादा रहती है। हालत इतने बदतर हो चुके हैं कि प्रदूषण के विविध मानकों पर फल्गु नदी का पानी खरा उतरने में असफल रहा है।

हाल ही में नदी के पानी की शुद्धता की जाँच में पीएच, अल्केलिनिटी, डिजॉल्वड ऑक्सीजन (डीओ), टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस), बीओडी, कैलिष्यम, मैगनिशियम और क्लोरायड जैसे तत्वों की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा पाया गया है।

जाहिर है इन तत्वों की उपस्थिति पानी में एक निष्चित स्तर पर होनी चाहिए। इनकी ज्यादा मात्रा नि:संदेह स्वास्थ के लिए घातक है। लिहाजा आज की तारीख में फल्गु नदी के पानी को पीना अपनी मौत को दावत देने के समान है।

इतना ही नहीं जलीय चक्र में आई रुकावट के कारण नदी और आस-पास के क्षेत्रों का भूजलस्तर काफी नीचे चला गया है। फिर भी पम्पसेट के जरिये नदी के पानी से लगभग 40 फीसदी शहर की आबादी की प्यास बुझायी जा रही है। शेष 60 फीसदी के लिए जल की आपूर्ति भूजल से (कुँओं और टयूब बेल के जरिये) की जा रही है।

गौरतलब है कि जल की आपूर्ति जीवंत नदी से की जानी चाहिए। क्योंकि बीमार नदी से जल का दोहन करना उसकी सांसों की डोर को तोड़ने के जैसा होता है। फिर भी गया के रहवासी उसको मारने पर आमादा हैं।

फिलवक्त फल्गु नदी के पूर्वी और पश्चिमी घाट पर कब्जा जमाने की प्रक्रिया जोरों पर है। नदी पर मकान-दुकान बन चुके हैं। पुलिस, प्रशासन और नेता आरोप-प्रत्यारोप की आड़ में तमाशा देखने के आदि हो चुके हैं।

आज के परिप्रेक्ष्य में नदियों की पीड़ा को निम्न पंक्तियों के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है-:

हजार-हजार दु:ख उठाकर

जन्म लिया है मैंने

फिर भी औरों की तरह

मेरी सांसों की डोर भी

कच्चे महीन धागे से बंधी है

लेकिन

इसे कौन समझाए इंसान को

जिसने बना दिया है

मुझे एक कूड़ादान

 

नदी को इंसानों के द्वारा कूड़ादान समझने की प्रवृति के कारण ही सभी नदियाँ आहिस्ता-आहिस्ता मौत की ओर अग्रसर हैं। अगली बारी फल्गु की है। फल्गु की मौत के बाद हमारे पूर्वजों की आत्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी? यह निश्चित रुप से चिंता के साथ-साथ पड़ताल का भी विषय है।

नारियल तेल है मधुमेह का इलाज

डॉ. राजेश कपूर, पारंपरिक चिकित्सक

एक अमेरिकी चकित्सक ने गहन खोजों से साबित किया है कि नारियल तेल का नियमित सेवन करने से मधुमेह रोगियों कि सभी समस्याएं सुलझ सकती हैं. मधुमेह रोगी दो प्रकार के हैं. एक का स्वादु पिंड या पेनक्रिया खराब होने के कारण इन्सुलन नहीं बना पता और दुसरे प्रकार के रोगियों के कोष इंसुलिन को ग्रहण नहीं कर पाते. मधुमेह के रोगी के कोष इंसुलिन रेजिस्टेंट होजाने और इंसुलिन को ग्रहण न करने के कारण ग्लूकोज़ या शर्करा ऊर्जा में परिवर्तित नहीं पाती. ऊर्जा या आहार के अभाव में रोगी के कोष मरने लगते हैं. यही कारण है कि मधुमेह रोगी को कोई भी अन्य रोग होने पर खतरनाक स्थिति बन जाती है , क्योंकि उसके कोष तो आहार के अभाव में पहले ही मर रहे होते हैं ऊपर से नए रोग के कारण मरने वाले कोशों कि मुरम्मत का काम आ जाता है जो कि शारीर का दुर्बल तंत्र कर नहीं पाता. ऐसे में नारियल का तेल सुनिश्चित समाधान के रूप में काम करता है.

खोज के अनुसार यह तेल बिना पित्त के ही पचने लगता है जबकि अन्य तेल अमाशय में पित्त के साथ मिल कर पचना शुरू करते हैं. नारियल-तेल बिना पित्त के सीधा लीवर में पहुँच जाता है और वहाँ से रक्त प्रवाह में और स्नायु कोशों में ‘कैटोंन बोडीज़’ के रूप में पहुच कर ऊर्जा कि पूर्ति करता है. यह ‘कैटोंन बोडीज़’ अत्यंत शक्तिशाली ढंग से नवीन कोशों का निर्माण करती हैं जिसके कारण शर्करा या इंसुलिन आदि दवाओं की ज़रूरत ही नहीं रह जाती. पसर आवश्यक है कि पहले चल रही दवाएं धीरे-धीरे बंद कि जाए और टेस्ट द्वारा परिणाम लगातार देखे जाएँ. नारियल तेल से नवीन कोष बनने लगते हैं तथा शरीर की रोग निरोधक शक्ति पूरी तरह से काम करने लगती है जिसके कारण सभी रोग स्वतः ठीक होने में सहायता मिलती है.

केवल मधुमेह ही नहीं एल्ज़िमर, मिर्गी, अधरंग, हार्ट अटैक, चोट आदि के कारण मर चुके कोष भी पुनः बनने लगते हैं तथा ये असाध्य समझे जाने वाले रोग भी ठीक होते हैं. जिस चिकित्सक ने यह शोध किया उनके पिता एल्ज़िमर्ज्स डिजीज के रोगी थे. वे केवल नारियल के तेल के प्रयोग से पुरी तरह ठीक होगये. इसके बाद उन्होंने इसी प्रकार के कई रोगियों का सफल इलाज किया.

चिकित्सा के लिए एक दिन में लगभग ४५ मी.ली. नारियल तेल का प्रयोग किया जाना चिहिए जो कि उत्तर भारतीयों के लिया थोड़ा कठिन है. वैसे भी शुरुआत केवल एक चम्मच से करते हुए धीरे-धीरे मात्रा बढानी चाहिए अन्यथा पाचन बिगड़ सकता है. भोजन में इसकी गंध उत्तर भारतीय अधिक सहन नहीं कर पाते. दाल, सब्जी में कच्चा डालकर या तड़के के रूप में इसका प्रयोग किया जा सकता है. मिठाईयों में भी इसका प्रयोग प्रचलित है जो कि बुरा नहीं लगता. मीठे के साथ खाना सरल भी लगता है. पर मधुमेह के रोगी को मीठे से परहेज़ तो करना ही होगा. इसका एक समाधान यह हो सकता है कि दिन में ३-४ बार सूखे या कच्चे नारियल का नियमित प्रयोग अपनी पाचन क्षमता के अनुसार किया जाए. गर्मियों में ध्यान देना होगा कि अधिक प्रयोग से गर्म प्रभाव न हो. सावधानी से प्रयोग करते-करते मात्रा की सीमा समाझ आ जाती है. एक उल्लेखनीय बात यह है कि दक्षिण भारतीय लोग नारियल की चटनी गर्मियों में भी दही में पीस कर बनाते हैं और पर्याप्त मात्रा में इसका प्रयोग करते हैं. अतः दही में पीस कर बनी नारियल की चटनी का प्रयोग तो गर्मियों के मौसम में भी आराम से किया जा सकता है. मारता पर्याप्त होनी चाहिए. रात को दही के प्रयोग से परहेज़ करना चाहिए.

पर आजकल के हालत में अब बात इतनी सीधी-सरल नहीं रह गयी है. तेल विषाक्त हो सकता है.

बाज़ार में उपलब्ध नारियल, सरसों, तिल, बादाम, जैतून के तेल विषाक्त हो सकते हैं. आजकत इन तेलों को निकालने के लिए दबाव प्रकिरिया या संपीडन नहीं किया जाता. एक रसायन का इस्तेमाल व्यापक रूप से तिलहन उद्योग में हो रहा है. यह ”हेक्सेन” नामक रसायन बीजों में से तेल को अलग कर देता है. हवा में इसकी थोड़ी उपस्थिति भी स्नायु कोशों को नष्ट करने लगती है. इसके खाए जाने पर जो विषाक्त प्रभाव होते हैं, उनपर तो अभी खोज ही नहीं हुई है पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सूंघने से दस गुना अधिक इसके खाए जाने के दुष्प्रभाव होंगे. यह रसायन न्यूरो टोक्सिक है, शरीर के कोशों को हानि पहुंचाता है, अनेक असाध्य और गंभीर रोगों का जनक है. वैसे भी यह प्रोटीन में से फैट्स को अलग कर देता है. स्पष्ट है कि यह हमारे शरीर के मेद या चर्बी को चूस कर बाहर निकाल देगा जो न जाने कितने भयावह रोगों का कारण बनेगा या बन रहा है. इन तथ्यों को हमसे छुपा कर रखा गया है और इस रसायन का प्रयोग बिना किसी रुकावट बड़े स्तर पर हो रहा है. एक बात अच्छी है कि गरम करने पर इस इस रसायन के अधिकाँश अंश उड़ जाते हैं. किन्तु यह अभी तक अज्ञात है कि इस रसायन के संपर्क में आने के बाद फैट्स कि संरचना में कोई विकार तो नहीं आजाते ?

अतः ज़रूरी है कि हम बाजारी तेलों का प्रयोग अच्छी तरह गर्म करने के बाद ही करें. मालिश आदि से पहले भी तेल को गर्म करने के बाद ठंडा करके प्रयोग में लाना उचित रहेगा.इसके इलावा हेक्सेन के हानिकारक प्रभावों के बारे में लोगों को और सरकारी तंत्र को जागृत करने की ज़रूरत है.. इतना तो हम मान कर चलें कि शासनकर्ता अधिकारी और नेता भी विषैले तेल खा कर मरना नहीं चाहते. उन्हें वास्तविकता की जानकारी ही नहीं है. वे केवल अपने क्षूद्र स्वार्थों को साधनें में मग्न हैं और अपने साथ-साथ सबके विनाश में सहायक बन रहे हैं. वास्तविकता जान लेने पर वे भी इस विष के व्यापार को रोकनें में सहयोगी सिद्ध होने लगेंगे. कुशलता और धैर्य से प्रयास करने के इलावा और कोई मार्ग नहीं.

दैनिक जीवन में विष निवारक वस्तुओं का प्रयोग थोड़ी मात्रा में करते रहें जिस से बचाव होता रहे. गिलोय, घीक्वार, पीपल, तुलसी पत्र, बिलपत्री, नीम, कढीपत्ता, पुनर्नवा, श्योनाक आदि सब या जो-जो भी मिले उन का प्रयोग भिगो कर या पका कर यथासंभव रोज़ थोड़ी मात्रा में करें. यदि ये सब या इनमें से कोई सामग्री न मिले तो स्वामी रामदेव जी का ‘सर्व कल्प क्वाथ’ दैनिक प्रयोग करें.

 

कॉलेजों को स्वायत्तता पर जरा संभलकर

उदार नीतियां हमारे शिक्षा परिसरों को बदहाल कर रही हैं

-संजय द्विवेदी

केंद्रीय मानवसंसाधन मंत्रालय एक ऐसी लीलाभूमि है जो नित नए प्रयोगों के लिए जानी जाती है। वहां बैठने वाला हर मंत्री अपने एजेंडे पर इस तरह आमादा हो जाता है कि देश और जनता के व्यापक हित किनारे रह जाते हैं। अब कपिल सिब्बल के पास इस मंत्रालय की कमान है। उन्हें निजीकरण का कुछ ज्यादा ही शौक है। वे अब लगे हैं कि किस तरह नए प्रयोगों से शिक्षा क्षेत्र में क्रांतिकारी परिर्वतन कर दिए जाएं। किंतु इस तेज बदलाव के पीछे एक सुचिंतित अवधारणा नहीं है।

बाजार को अच्छे लगने वाले परिवर्तन करके हम अपने उच्चशिक्षा क्षेत्र का कबाड़ा ही करेंगें। किंतु लगता है मानव संसाधन विकास मंत्रालय इन दिनों काफी उदार हो गया है। खासकर निजी क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए उसके प्रयासों को इस नजर से देखा जा सकता है। चिंता यही है कि उसके हर कदम से कहीं बाजार की शक्तियां मजबूत न हों और उच्चशिक्षा का वैसा ही बाजारीकरण न हो जाए जैसा हमने प्राथमिक शिक्षा का कर डाला है। किंतु लगता है कि सरकार ने वही राह पकड़ ली है। ताजा सूचना यह है कि प्रतिष्ठित संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने के कदमों के तहत प्रेसिडेंसी, सेंट जेवियर और सेंट स्टीफेंस जैसे कालेजों को यह छूट दी जाएगी वे अपनी डिग्री खुद दे सकें। मानवसंसाधन विकास मंत्रालय को लगता है कि इस कदम से विश्वविद्यालयों के भार में कमी आएगी। अब इसे कानून के जरिए लागू करने की तैयारी है। कालेज अभी डिग्रियों के लिए विश्वविद्यालयों पर निर्भर रहते हैं। एनआर माधव मेनन समिति की सिफारिशों में विशेष शिक्षण स्वायत्तता पर जोर दिया गया है। जाहिर तौर पर यह कदम एक क्रांतिकारी कदम तो है लेकिन इसके हानि लाभों का आकलन कर लिया जाना चाहिए।

कुछ बेहतर कालेजों को लाभ देने के लिए शुरू की जाने वाली यह योजना खराब कालेजों या सामान्य संस्थानों तक नहीं पहुंचेगी इसकी गारंटी क्या है? इसके खतरे बहुत बड़े हैं। कालेजों की क्षमता का आकलन कौन करेगा यह भी एक बड़ा सवाल है। किस आधार पर सेंट स्टीफेंस बेहतर है और दूसरा बदतर कैसे है इसका आकलन कैसे होगा ?ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। दूसरी बड़ी बात यह है कि हमारे शासकीय विश्वविद्यालयों का इससे मान खत्म होगा। वे धीरे-धीरे एक स्लम में बदल जाएंगें। सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालय बदहाली के शिकार हैं, किंतु हमारे मानवसंसाधन मंत्री को विदेशी और निजी विश्वविद्यालयों को ज्यादा से ज्यादा खुलवाने की जल्दी है। आखिर यह तेजी क्यों? इतनी हड़बड़ी क्यों ? क्यों हम अपने पारंपरिक विश्वविद्यालयों की अकादमिक दशा को सुधारने के लिए प्रयास नहीं करते। आखिर इन्हीं संस्थाओं ने हमें प्रतिभाएं दी हैं। जो आज देश और दुनिया में अपना नाम कर रहे हैं। बारेन बफेट के अजीत जैन जैसे लोग सरकार के आईआईटी से ही पढ़कर निकले हैं, तो क्या इन संस्थाओं की प्रासंगिकता अब खत्म हो चुकी है जो हम इन्हें स्लम बनाने पर आमादा हैं। शिक्षा का काम सरकार और समाज करे तो समझ में आता है किंतु पैसे के लालची व्यापारी और कंपनियां अगर सिर्फ पैसे कमाने के मकसद से आ रही हैं तो क्या हमें सर्तक नहीं हो जाना चाहिए। रोज खुल रहे नए विश्वविद्यालय अपनी चमक- दमक से सरकारी क्षेत्र के विश्वविद्यालयों को निरंतर चुनौती दे रहे हैं।

यह एक ऐसा समय है जिसमें निजी क्षेत्र को अपनी ताकत दिखाने का निरंतर अवसर है। कालेजों की स्वायत्तता एक ऐसा कदम होगा जिससे हमारे विश्वविद्यालय कमजोर ही होंगें और कालेजों पर नियंत्रण रखने का उपाय हमारे पास आज भी नहीं है। कम से कम विश्वविद्यालय से संबद्धता के नाम पर कुछ नियंत्रण बना और बचा रहता है वह खत्म होने के कगार पर है। इसे बचाने की जरूरत है, या इसके समानांतर कोई व्यवस्था बनाई जाए तो इन कालेजो का नियमन कर सके। किंतु वह व्यवस्था भी भ्रष्टाचार से मुक्त होगी, इसमें संदेह है। आप कुछ भी कहें हमारी ज्यादातर नियामक संस्थाएं आज भ्रष्टाचार का एक केंद्र बन गयी हैं। निजीकरण की तेज हवा ने इस भ्रष्टाचार को एक आँधी में बदल दिया है। विभिन्न कोर्स की मान्यता के लिए ये नियामक संस्थाएं कैसे और कितने तरह का भ्रष्टाचार करती हैं इसे निजी क्षेत्र के शिक्षा कारोबारियों से पूछिए। लेकिन इसका अंततः फल भुगतता बेचारा अभिभावक और छात्र ही है। क्योंकि यह सारा धन तो अंततः तो उससे ही वसूला जाना है। अपनी जिम्मेदारियों से भागती लोककल्याणकारी सरकारें भले ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी निवेश और विदेश निवेश के लिए लाल कालीन बिछाने पर आमादा हों, इससे उच्चशिक्षा एक खास तबके की चीज बनकर रह जाएगी। यह गंभीर चिंता का विषय है कि केंद्र से लेकर राज्य सरकारें निरंतर निजी विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहन देने वाली नीतियां बनाने में लगी हैं और अपने विश्वविद्यालयों और कालेजों की चिंता उन्हें नहीं है। सरकारी विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं, उसकी चिंता राज्यों की सरकारों को नहीं है। हर काम से अपना हाथ खींचकर सरकारें सारा कुछ बाजार को सौंपने पर क्यों आमादा हैं समझना मुश्किल है। आज शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र पूरी तरह बाजार के हवाले हो चुके हैं। क्या यह एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा का मजाक नहीं है। यह समझ में न आने वाली चीज है कि व्यापारी अपनी चीज का विस्तार करता है और उसका संरक्षण करता है किंतु हमारी सरकारें अपने स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और अस्पतालों में उजाड़ने में लगी हैं। ऐसे में आम आदमी के सामने विकल्प क्या हैं। महंगी शिक्षा और महंगा इलाज क्या एक लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मेल खाते हैं ? शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को मजबूत करते हुए हम क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या वास्तव में हमने अपने जनतंत्र को एक मजाक बनाने की ठान रखी है ?

कुल मिलाकर यह कवायद कुछ निजी कालेजों को ताकत देने का ही विचार लगती है। इसमें व्यापक हित की अनदेखी संभव है। सरकार जिस तरह निजी क्षेत्र पर मेहरबान है उसमें कुछ भी संभव है किंतु इतना तय है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा का क्षेत्र एक सपना हो जाएगा। जिससे समाज में तनाव और विवाद की स्थितियां ही बनेंगीं। केंद्र सरकार कालेजों को स्वायत्तता के सवाल पर थोड़ी संजीदगी दिखाए क्योंकि इसके खतरे कई हैं। पूरे मसले पर व्यापक विमर्श के बाद ही कोई कदम उठाना उचित होगा क्योंकि यह सवाल लोगों के भविष्य से भी जुड़ा है।

आरक्षण की मांग पर आतंक

संजय सक्सेना

लगता है वर्तमान सरकारों को जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं रह गया है। चाहें केन्द्र की सरकार हो या फिर राज्य सरकारें दोनों को ही अक्सर आइना दिखाना पड़ता है, तब जाकर उनको अपने कृतव्यों का अहसास होता है। आइना दिखाने का काम विपक्ष तो समय-बेसमय करता ही रहता है लेकिन इसमें सबसे महत्वपूर्ण ‘रोल’ देश की विभिन्न अदालतों का हो गया है। एक औसत अनुमान है कि देश की विभिन्न अदालते हफ्ते में कम से कम एक बार केन्द्र और राज्य सरकारों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए कोई न कोई आदेश जरूर पारित करती हैं। मामला चाहे बिगड़ती कानून-व्यवस्था, सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी का हो या फिर मंत्रियों की मनमानी का। जिम्मेदारी का दम भरने वाली सरकारें जब तक पानी सिर से ऊपर नहीं हो जाता, आंखे मूंदे बैठी रहती हैं। सरकारें गुंगो-बहरों और अपंगों जैसा व्यवहार करती हैं। किसी और देश में इस तरह की सरकारें होती तो जनविद्रोह कब तक इनको उखाड़ फेंक चुका होता, लेकिन हिन्दुस्तानी सरकारों का यह सौभाग्य है कि यहां की जनता ‘सोती’ रहती है। न देश में कोई दूसरा ‘जननायक’ (जय प्रकाश नारायण्ा) पैदा हो रहा है न शुध्द समाजवादी राज नारायण जैसा कोई जिद्दी नेता। जनता अपने अधिकार भूल गई तो विपक्षी पार्टियां उन मुद्दों को ही हवा देतीं जो उनके लिए राजनैतिक फायदा पहुंचाने वाले होते। इस बात की मिसाल है करीब दो हफ्ते तक ठप रहा लखनऊ-दिल्ली रेल मार्ग(वाया बरेली, मुरादाबाद)।

वोट बैंक की राजनीति में लगी दोनों ही सरकारों (केन्द्र और उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार) ने ज्योतिबा फुले नगर (अमरोहा) के निकट के रेलवे स्टेशन काफूरपुर के सामने टे्रक पर धरने पर बैठे जाट नेताओं के खिलाफ तब तक कोई कार्रवाई नहीं कि जब तक कि इलाहाबाद हाईकोर्ट और उसकी लखनऊ खंडपीठ द्वारा इस मामले पर शासन-प्रशासन की कड़ी फटकार नहीं लगाई गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जहां एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान रेलवे टै्रक और सड़क खाली कराने का आदेश दिया, वहीं इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ ने इसे स्वत: संज्ञान में लिया था। अदालत की फटकार के बाद यूपी का प्रशासनिक अमला आनन-फानन में हरकत में आया तो जाट नेताओं को भी समझते देर नहीं लगी कि अगर अब उनकी हठधर्मी से मामला बिगड़ सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार के दोहरे मापदंड का ही नतीजा था कि एक तरफ माया सरकार ने समाजवादी पार्टी के काम रोको आंदोलन के खिलाफ तो आवश्यकता से अधिक सख्ती की,लेकिन होली के समय जब लाखों लोग त्योहार मनाने अपने-अपने घरों जाना चाहते थे उन्हें अपना आरक्षण रद्द कराना पड़ गया। दर्जनों टे्रनें कैंसिल हो गई,यह सिलसिला करीब दो हफ्ते तक चलता रहा,लेकिन वोट बैंक की राजनीतिक मजबूरी के चलते माया सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।उसकी ओर से आवश्यकता से अधिक नरमी दिखाई गई।जिस तरह जाट समुदाय के आंदोलन के प्रति माया सरकार का रवैया समझ से परे था,उसी तरह केन्द्र सरकार का भी। यह समझ में नहीं आया कि जाट नेताओं द्वारा रेल मार्ग अवरूध्द किए जाने के खिलाफ केन्द्र सरकार की सक्रियता केवल राज्य सरकार को पत्र लिखने तक ही क्यों सीमित रही।

हाईकोर्ट के आदेश पर माया सरकार कुभकर्णी नींद से जागी,लेकिन लगता है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर 05 मार्च से आंदोलनरत् जाट समुदाय के ऊपर अदालत की फटकार का कोई खास असर नहीं हुआ है।शायद इसी लिए वह आरक्षण की मांग पूरी न होने तक अपना आंदोलन जारी रखने की बात कर रहे हैं।बस बदली है तो आंदोलन की रूपरेखा।अब जाट रेलवे टे्रक पर धरना देने के बजाए दिल्ली का पानी बंद किए जाने जैसी बातें कर रहे हैं।जाट समुदाय जिस तरह से आरक्षण के लिए उल्टे-सीधे कदम उठा रहा है। उससे आम जन तो परेशान हो ही रहा है,जाट समुदाय के लोगों में ही आंदोलन को लेकर भिन्न-भिन्न मत नजर आने लगे हैं।

जाट आरक्षण समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष यशपाल मलिक का कहना है कि जाट अब अपना आंदोलन गुरिल्ला शैली में चलाएगें। इसके लिए अलग-अलग टीमें बनाई गई हैं, जो जिला मुख्यालय, रेलवे स्टेशन, नेशनल हाईवे, केन्द्र सरकार के विभागों पर प्रदर्शन करेगें। इसके विपरीत प्रसिध्द लेखिका तवलीन सिंह जो एक जाट महिला भी है,वह जाट आंदोलन से काफी दुखी दिखीं। उनका कहना था हम जाट भीख नहीं मांगते, आरक्षण को लेकर मेरी आंखों ने जो प्रदर्शन देखे उससे मेरा सिर शर्म से झुक गया और बुरा भी लगा, जब जाटों के बड़े नेता आरक्षण की मांग को लेकर केन्द्र सरकार से मिलने दिल्ली पहुंचे तो मुझे बहुत बुरा लगा। जाटों को ऐसी मांग शोभा नहीं देती। खैर,लेखिका के अपने विचार हैं,लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं की आरक्षण का फायदा गरीबों को ही मिलना चाहिए।राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और जाट नेता अजित सिंह भी जाट आंदोलनकारियों के पटरी पर धरना देने को गलत बता चुके हैं।

आज भले ही जाट आरक्षण की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे हों लेकिन बात जहां तक हिन्दुस्तान की है तो यहां आरक्षण का इतिहास करीब सवा सौ साल पुराना है। 1885 में दक्षिण भारत से आरक्षण की शुरूआत हुई। 1885 में मद्रास सरकार द्वारा ‘ग्रांट इन एड कोड’ बनाया गया जिसके अंतर्गत शैक्षिक संस्थाओं को वित्तीय सहायता और दलित वर्ग के विद्यार्थियो के लिए विशेष सुविधाएं दी गईं। इसी प्रकार 1918 में मैसूर के महाराजा ने सर एच सी मिलर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था।इसके द्वारा मैसूर के मुख्य न्यायाधीश ने राज्य सेवाओं में ब्राहमणों को छोड़कर अन्य बिरादरी के लोगों की भागीदारी की सिफारिश की थी।1927 में ‘ग्रांट इन एड कोड’का विस्तार कर आरक्षण का क्षेत्र बढ़ा कर सम्पूर्ण राज्य को पांच श्रेणियों में बांट कर सभी के लिए पृथक कोटा निर्धारित कर दिया गया।इसके उपरांत 1928 में ओ एच बी स्टार्ट की अध्यक्षता में एक समिति तत्कालीन बम्बई(अब मुम्बई)सरकार द्वारा गठित की गई थी, जिसको पिछड़े वर्गो का पता लगाकर उनके उत्थान के लिए सिफारिश सरकार को देनी थी।इस समिति ने सन् 1930 में अपनी रिपोर्ट में राज्य को तीन श्रेणियों में विभाजित कर अपनी सिफारिश सरकार को सौंपी। इस दौरान विभिन्न जाति के आंदोलनों को विशेष रूप से दक्षिण में बल मिला ।कई बड़े आंदोलनों के कारण ही स्वतंत्रता प्राप्ति से बहुत पहले ही त्रावनकोर, कोचीन,मद्रास,मैसूर आदि राज्यों में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कालेजों में सीटों का कोटा अलग कर दिया गया था। आजादी के बाद भी दीन-हीन यानि दबे कुचले लोगों को उठाने के लिए समय-समय पर केन्द्र और राज्य सरकारें आरक्षण नीति बनाती और बिगाड़ती रहीं, मकसद था सबको सबके बराबर खड़ा करना।आजादी के बाद से ही देश के विकास के लिए एक ओर जहां पंचवर्षीय योजनाएं बनीं, वहीं वोटों की राजनीति ने पिछड़े वर्ग के कथित उत्थान के लिए के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16(4), 46 आदि के अंतर्गत विशेष व्यवस्थाएं की गईं। केन्द्र सरकार की मंशा पर पिछडे वर्ग के नाम पर 29 जनवरी 1953 को एक आयोग बनाया गया। काका कालेलकर इसके अध्यक्ष थे। अत: यह आयोग इसी नाम से जाना गया।इस आयोग ने 30 मार्च 1955 को अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी, लेकिन सरकार ने इस आयोग की सिफारिशें मानने से इंकार कर दिया। इसमें निष्पक्ष और न्यायोचित मानदंड नहीं दिखा था।अपनी कठोर आलोचनाओं के कारण काका काफी दुखी हो गए। यह रपट ठंडे बस्ते में चली गई। इसके बाद करीब 21 वर्ष यों ही गुजर गए। और 1975 के आसपास पिछड़ों की पहचान करके उनको आरक्षण देने का मुद्दा फिर गरमाया तो 21 मार्च 1976 को वी पी मंडल की अध्यक्षता में एक बार फिर आयोग गठित किया गया। मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसंबर 1980 को केन्द्र सरकार को सौंप दी।अपनी सिफारिशों में आयोग ने पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की, आयोग ने अपनी सिफारिशों का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा कि पिछड़ों को आरक्षण का लाभ देते समय विधि प्रतिबंध का भी ध्यान रखा गया ताकि अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़ों के लिए कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक न हो।यह रिपोर्ट भी करीब दस सालों तक ठंडे बस्ते में पड़ी रही।

उधर, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को आजादी के बाद से ही आरक्षण मिलने लगा था। अनुसूचित जाति के उत्थान के लिए शुरूआत में आरक्षण नीति दस साल के लिए बनाई गई थी,लेकिन बाद में राजनैतिक कारणों से आरक्षण का सिलसिला बढ़ता ही गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरक्षण नीति ने आजादी के दो दशक तक एक औषधि की तरह व्यापक असर डाला,लेकिन इसके बाद राजनैतिक दलों ने आरक्षण को वोट बैंक बढ़ाने का हथियार बना दिया। हिन्दुस्तान के तीसरे दशक आते आते इस नीति का पूरा लाभ वे लोग उठाने लगे, जो सियासत के उम्दा जानकार थे। गरीबों के उत्थान के लिए जो योजना बनाई गई थी, उस पर वोटों की राजनीति ने पानी ही फेर दिया। यह विष बेल इतनी बढ़ी कि जिन लोगों को आरक्षण पूरा फायदा मिला और वे बढ़कर क्रीमी लेयर में पहुंच गये लेकिन उन्होंने आरक्षण को इतना दुहना शुरू किया कि उसका गला ही घोंट कर रख दिया। उन्नति के शिखर की तरफ बढ़ रहे प्रदेशों में तो आरक्षण ने जातिवाद का विषैला बीज ही बो दिया । वहीं उत्तर प्रदेश बुरी तरह झुलस गया । आसपास के प्रदेश भी इससे अछूते नहीं रहे। लूले लंगड़ों, गरीब गुनियों के लिए बने आरक्षण में लाभ पाने के लिए वह तबका भी हिस्सा बंटाने पहुंच गया, जो इससे इतर था। पर उससे इसका लेना देना था, आरक्षण की रेवड़ियां बांटी जाएं और कोई हाथ न फैलाए, ऐसा कैसे हो सकता था। इस बात को केन्द्र की सत्ता में काबिज वीपी सिंह ने पहले पहचाना । उन्होंने अपना हित साधन करने के लिए दलितों की तरह पिछड़ों को अपने पाले में करने के लिए मंत्र फूंका और पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए मंडल कमीशन बनाकर अपनी उम्मीदों को पूरा किया। मंडल कमीशन की रिपोर्ट आते ही उसे लागू कर दिया गया। अनुसूचित जाति और जनजातियों की तरह पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू होने के बाद सामान्य वर्ग के पढ़े लिखे जवानों ने आरक्षण की दीवार खड़ी कर देने से अपने प्राणों की आहुति देनी शुरू कर दी। पर कोई पिघला नहीं। सामान्य वर्ग इस बात से बहुत हताहत हुआ था। आज भी उनके मन में यह टीस बनी हुई है। इसके लिए वीपी सिंह को बहुत कोसा भी गया।

तुगलकी सोच रखने वाले वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व वाली तत्कालीन सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पिछड़े वर्गों को नौकरियों में आरक्षण का लाभ देने वाला एक आदेश अचानक ही अगस्त 1990 में पारित किया था। अचानक मंडल आयोग की सिफारिश लागू किए जाने का जो राजनैतिक कारण समझ में आया उसके अनुसार प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार में उप प्रधानमंत्री देवीलाल बने हुए थे। देवीलाल से वीपी सिंह की खटपट हो गई थी,सरकार जाने तक की नौबत बन आई तो अपनी भविष्य की राजनीति को मजबूती प्रदान करने के लिए ही वीपी ने मंडल का कार्ड चल दिया। उन्होंने किसी से विचार-विमर्श किए बिना मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दीं। पिछड़ों को 27 प्रतिशत का यह मुद्दा उन दिनों उठाया जब भगवान राम की छतरी की नीचे हिन्दू समाज एकजुट हो रहा था। अचानक आये इस आरक्षण से हिन्दू समाज चरमरा गया।वीपी सिंह ने जो तब प्रधानमंत्री थे,उन्हें कोसा-काटा जाने लगा।इस बीच वीपी सिंह का एक वक्तव्य आया जिसमें कहा गया था कि उन्हें इस बात का अहसास था कि मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश का माहौल खराब हो सकता है। आरक्षण विरोधी आंदोलन की आग में युवा वर्ग को कूदता देख वीपी सिंह ने 30 लाख नौकरियों का चारा डाला। युवाओं को एजेंसी और डीलरशिप का वायदा किया,लेकिन यह घोषणा खोखली साबित हुई। बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा था। संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ देने के मामले पर विचार करने के लिए पहली बार नौ सदस्यीय संविधान पीठ का गठन किया गया।प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम एच कानिया की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने बहुमत से लिए फैसले में 16 नवंबर 1992 को कहा कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं रखने तथा पिछड़ों में सम्पन्न तबके को आरक्षण के लाभ से अलग रखने की व्यवस्था दी। मण्डल आयोग की रिपोर्ट से विभिन्न वर्गों में फूट पड़ गयी। वीपी सिंह के बाद मुलायम सिंह ने इसकी पूछ ही पकड़ ली। और आज तक नहीं छोडी। राज्य में आरक्षण देने के लिए मुलायम ने 1993 में उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया भाजपा भी इससे अछूती नहीं। वर्ष 1999-2000 में रामप्रकाश गुप्ता के मुख्यमंत्रित्व काल में जाट नेताओं की ओर से ऐसा शिगूफा छोड़ा गया कि उन्हें भी कोटे में सम्मिलित किया जाय। यह तब हुआ था जब उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग ने दो टूक कह दिया था कि जाट आर्थिक और सामाजिक रूप से संपन्न हैं। इसलिए उन्हें आरक्षण देने की जरूरत नहीं है। पर यह आग थमी नहीं। जाट नेताओं ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। जिसके आगे बीजेपी सरकार को झुकना पड़ा। देशभर में 27 प्रतिशत आरक्षण पाने के लिए विभिन्न जातियों के नेताओं के गुट बनते गये। 1993 में जब पिछड़ा वर्ग आयोग का जन्म हुआ था उस समय 55 जातियों को पिछड़ा मानकर आयोग ने आरक्षण का फायदा दिया था। लेकिन बाद में यह आयोग जम्बोजेट की तरह बढ़ता ही गया और आज तक इसमें कुल 79 जातियां शामिल हो चुकी हैं। पिछड़ा वर्ग की सूची में 2003 के बाद से कोई नई जाति सम्मलित नहीं हुई है। 2003 में कलाल,कलवार और कलार(जायसवाल जाति के उपवर्ग) जाति को पिछड़ा वर्ग की सूची में सम्मलित किया गया था। पिछड़ों को आरक्षण पर इतनी राजनीति गरमायी की पिछड़ा वर्ग ‘वोट बैंक’ ही बन गया।पिछड़ा वर्ग की राजनीति के आगे अनुसूचित जनजाति आयोग बौना पड़ गया। पिछड़ा वर्ग आयोग में शामिल लोगों ने राजनीति को इतनी हवा दी कि दलित और पिछड़े आपस में भिड़ने लगे। भले ही वीपी सिंह पिछड़ों को आरक्षण के जनक माने जाते रहे हों लेकिन बाद में मुलायम और मायावती ने भी इसके बल पर शासन किया। पर एक म्यान में दो तलवारे नहीं रह सकती थी। पिछड़े अलग दलित अलग हो गये।

विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही आरक्षण को लेकर केवल जाट समाज ही आंदोलित नहीं है वरन अन्य कई विरादरियों ने भी यह सुविधा पाने के लए आवाज तेज कर दी है। खुद को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल कराने के लिए पिछड़े समाज की 16 जातियों ने मुददा गरमाना शुरू किया तो आरक्षित कोटे में अलग कोटा सुनिश्चित करने जैसी मांग भी जोड़ पकड़ने लगी है।

आरक्षण की आड़ में वोट बैंक की सियासत कोई नई बात नहीं हैं। चुनावी आहट होते ही आरक्षण लाभ पाने के विभिन्न बिरादरियों के संगठन अचानक सक्रिय होते रहे हैं। केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग पर अखिल भारतीय जाट संघर्ष समिति ने 13 दिन तक रेल ट्रैक जाम कर अन्य बिरादरियों को भी राह दिखा दी है कि विभिन्न सरकारों को शक्ति और एकता के बल पर कैसे झुकाया जा सकता हैं। अनुसूचित वर्ग में शामिल होने की अर्से से मांग कर रही अति पिछड़े वर्ग की कश्यप, निषाद, केवल, मल्लाह, बिंद, कुम्हार व प्रजापति जैसी 16 जातियों के तेवरों में तल्खी दिख रही है। अखिल भारतीय कश्यप निषाद महासंघ के अध्यक्ष विजयपाल सिंह कहते हैं कि केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग पर अखिल भारतीय जाट संघर्ष समिति ने 13 दिन तक रेल ट्रैक जाम कर अन्य बिरादरियों को भी राह दिखा दी है। अनुसूचित वर्ग में शामिल होने की अर्से से मांग कर रही अति पिछडे वर्ग की कश्यप, निषाद, केवल, मल्लाह, बिंद, कुम्हार व प्रजापति जैसी 16 जातियों के तेवरों में तल्खी दिख रही है।

अखिल भारतीय कश्यप निषाद महासंघ के अध्यक्ष विजयपाल सिंह कहते हैं कि यातायात व्यवस्था ध्वस्त करने वालों को वार्ता पर बुलाने से यह साबित होता है कि सरकारें वैधानिक तरीके से उठाए जाने वाले मुद्दों को अनसुना करती हैं। लंबे आंदोलनों के बाद भी कमजोर वर्ग की जायज मांग नहीं सुनी जाती। विजय सिंह ने अप्रैल में जिलावार बैंठकें कर रेल रोको आंदोलन शुरू करने का एलान करते हुए कहा कि अनुसूचित वर्ग में शामिल कराने वाले दल को ही 16 बिरादरियां वोट देंगी। इस आशय के पत्र सभी दल प्रमुखों को प्रेषित कर दिए गये हैं। इसी नक्शे कदम पर अखिल भारतीय प्रजापति महासंघ भी है। अनुसूचित वर्ग की सुविधा पाने को वर्ष 2006 में दिल्ली में प्रदर्शन कर आंदोलन की शुरूआत करने वाले महासंघ अध्यक्ष दारा सिंह प्रजापति एकाएक फिर से माहौल बनाने में सक्रिय हो गये हैं।

उधर, हवा का रूख भांप कर लखनऊ में महा सम्मेलन कर पासी समाज अपनी बिरादरी को अति पिछड़ा का अलग आरक्षण कोटा तय करने की मुहिम आरम्भ कर चुका है। महा सचिव रामकृपाल पासी का कहते हैं कि लाभ असली हकदार को ही मिलना चाहिए। अनुसूचित वर्ग में आरक्षण का लाभ एक जाति विशेष को मिलने का आरोप लगाते हुए वाल्मीकि महासभा के प्रदेश अध्यक्ष जुगल किशोर भी अलग से कोटा सुनिश्चित करने की पैराकारी करते हैं। अखिल भारतीय वाल्मिकी कल्याण समिति के प्रवक्ता प्रमोद चौधरी ने अप्रैल के महीने में लखनऊ में बड़े प्रदर्शन करने की बात कहीं। हिन्दुओं में कई बिरादरियों को आरक्षण मिलने की कसक अल्पसंख्यकों में भी दिखने लगी है। उलेमा काउंसिल के नेता तो एक कदम आगे बढ़ते हुए आरक्षण कोटा जातियों पर आधारित नहीं आर्थिक आधार पर होने की पैराकारी कर रहे हैं। कौमी एकता पिछड़ा वर्ग सोसाइटी ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर मुस्लिमों का कोटा निर्धारित करने को पत्र लेखन अभियान चला रखा है। आरक्षण के जरिए वोट पाने की जुगत में सियासी दल भी लगे हैं। सपा व रालोद मुस्लिमों को आरक्षण देने की सिफारिश कर रही हैं । इतना ही फायर बोड हिंदू नेता साध्वी उमा भारती भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यक्रम में अति पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने से कोई गुरेज न होने की घोषणा कर चुकी है।

बहरहाल, आरक्षण के अंदर आरक्षण की बात लाजिमी है । पर यह आरक्षण अपने पंख ज्यादा फैलाता गया तो आरक्षण का लाभ जिनके लिए मूल रूप से बनाया गया था उन तक नहीं पहुंच सकेगा। इसे बीच वाले ही बंदरबांट करने की जुगत भिड़ाने से नहीं चूकेंगे। राजनीति करने वाले भी इसकी आड़ में रोटियां सेकेंगे । एक वर्ग में इतनी जातियां इकट्टा हो जाना देश को हिस्सो में बांट देने के सामान होगा। सत्ता या समाज में केन्द्रीकरण ठीक नहीं होता। लोकतंत्रीय देश में विकेन्द्रीकरण ही आक्सीजन दे सकता है। और केन्द्रीकरण तानाशाह पैदा कर सकता है।

 

 

केन्द्र बदलेगा कानून

 

राज्य सरकारें सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मामले पर अक्सर गेंद केन्द्र सरकार के पाले में डालकर अपना दामन बचा लेती हैं,यह बात केन्द्र समझता भी है लेकिन वह कर कुछ नहीं पाता। इसकी ताजी बानगी जाट आंदोलन में दिखाई दी।माया सरकार ने इसे केन्द्र का मसला बता कर गेंद केन्द्र के पाले में डाली तो गले की फांस बनते जा रहे जाट आरक्षण आंदोलन से निपटने के लिए केद्र सरकार अब अन्य पिछड़ी जाति आयोग कानून में बदलाव करने जा रही है ताकि आयोग जाट आरक्षण से संबंधित प्रस्ताव पर पुनर्विचार कर सके। आयोग के मौजूदा संविधान के अनुसार जिस विषय पर एक बार विचार हो जाता है उस पर दोबारा विचार करने का प्रावधान नहीं है। केन्द्रीय पिछड़ा आयोग जाटों को आरक्षण देने के प्रस्ताव को एक बार खारिज कर चुका है लेकिन उत्तर प्रदेश राजस्थान और हरियाणा में जारी जाट आरक्षण आंदोलन की गंभीरता को भांपते हुए केंद्र सरकार को अब कानून में बदलाव करने पर विचार करना पड़ रहा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय को अन्य पिछड़ी जाति आयोग के कानून में बदलाव करने को कह दिया हैं अब शीघ्र ही इस कानून में संशोधन कर लिया जाएगा। इसके बाद आयोग जाट आरक्षण मामले पर दोबारा से विचार कर सकेगा।

 

भाजपा पर मेहरबान माया

संजय सक्सेना

 

ऊपर से कड़क दिखाई दे रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती भीतर से सहमी हुई हैं। कई मोर्चो पर मिली नाकामी ने उनका दिन का चैन और रातों की नींद हराम कर रखी है। शासन-प्रशासन में उनकी सख्ती काम नहीं आ रही है जिसका असर उनकी कड़क छवि पर भी पड़ रहा है। बसपाई भी लगातार बेलगाम होते जा रहे हैं। चार साल के शासनकाल में बसपा सुप्रीमो ने अपनी विवादित कार्यशैली से दोस्त कम दुश्मन ज्यादा खड़े कर लिए हैं। माया की नाकामयाबी की लिस्ट लगातार लम्बी होती जा रही है। नौकरशाही पर वह पकड़ बना नहीं पा रही हैं।लॉ एंड आर्डर की जो स्थिति प्रदेश में है, वह कोई छिपी बात नहीं है। हत्याओं-फिरौती की घटनाओं की तो बाढ़ सी आ गई है,लेकिन सबसे दुखद स्थिति प्रदेश की आधी आबादी यानी ‘नारी शक्ति’ की हो गई हैं।उम्मीद थी कि महिला मुख्यमंत्री के रूप में मायावती जब कुर्सी पर विराजमान होंगी तो महिलाओं की स्थिति में जरूर सुधार आएगा,लेकिन हुआ उसके उल्ट। लड़कियों और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं तो बढ़ी ही सबसे दुखद रहा गैंग रेप की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि। शायद ही कोई कोई हफ्ता ऐसा बीतता होगा जब गैंग रेप की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां न बनती हो। यहां तक कि बसपा नेताओं पर भी गैंग रेप की घटनाओं में बदनामी के दाग लगे।कई बसपा विधायक अपनी दबंगई और दागदार छवि के कारण जेल में बंद हैं। जिला बदायूं के बिल्सी विधान सभा क्षेत्र के विधायक योगेन्द्र सागर बलात्कार कांड में फरार चल रहे हैं। उनके खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी कर दिया गया है। हालात यह है कि गैंगरेप की शिकार बच्चियों और युवतियों तथा महिलाओं को मुआवजा तक देने में माया सरकार सफल नहीं हो पा रही है। बांदा की शीलू, बंदायूं की ज्योति, इटावा की सोनम और कानपुर की दिव्या जैसी तमाम लड़कियों को आज तक मुआवजा नहीं मिला है। इसका कारण है जिले और राज्य स्तर पर बोर्ड का गठन नहीं किया जाना।बोर्ड नहीं गठित होने के कारण वितीय वर्ष 2010-11 लिए निर्धारित 2.20 करोड़ की राशि लैप्स हो गई।जबकि गैंगरेप की भुक्तभोगी महिलाओं को 60 दिनों के भीतर मुआवजा मिलने का कानूनी प्रावधान है। बोर्ड का गठन नहीं होने के कारण यह महिलाएं छह माह के भीतर मुआवजे के लिए आवेदन नहीं कर पाई।जबकि दुराचार पीड़ित महिलाओं को मुआवजा देने को भारत सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग नके सचिव डीके सीकरी ने 24 दिसंबर 2010 को उत्तर प्रदेश सरकार को योजना की गाइड लाइन भेजी थी।

एक तरफ राज्य की जनता माया सरकार के कामकाम के तरीकों से हल्कान है तो दूसरी तरफ विपक्ष भी माया शैली को हजम नहीं कर पा रहा है। वह, बसपा सुप्रीमों पर लगातार अरोप लग रहे हैं कि मायावती राजनीतिक विरोध को व्यक्तिगत मुद्दा बना देती हैं जो लोकतंत्र के लिए घातक है।समाजवादी प्रमुख मुलायम सिंह यादव कई बार माया सरकार की हठधर्मी के खिलाफ अलख जगा चुके हैं। उन्हें नाराजगी माया की हठधर्मी सरकार से ही नहीं इस बात से भी है कि ब्यूरोक्रेटस बसपा प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं । मुलायम ने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए यहां तक कहा कि सत्ता के नशे में चूर मुख्यमंत्री मायावती और उनके ‘दरबारी’ अधिनायक शाही जताने में लगे हैं और विपक्ष के साथ बदले की भावना से दमनचक्र चला रहे हैं। सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव भी माया के दरबारियों की बदजुबानी से कम हैरान नहीं दिखे।उनकी नाराजगी जायज भी लगती है। अखिलेश यादव ने कहा कि कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने नेता जी के प्रति जो टिप्पणी की वह अमर्यादित, निंदनीय और बचकानी है। मुख्यमंत्री का इशारा पाकर ही डी के ठाकुर जैसे पुलिस अधिकारी बर्बरता पर उतर आएं। लाठी के बल पर शासन कर रहीं मुख्यमंत्री मायावती विरोध के सभी सुरों को कुचल देने को बेताब लगती हैं। खासकर, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के प्रति उनका रवैया अति संवेदनशील है, लेकिन भाजपा के प्रति माया साफ्ट टारगेट लेकर चल रही है। ऐसा क्यों हो रहा है यह बात दावे के साथ तो कोई भी नहीं बता सकता है लेकिन राजनैतिक पंडितों की बातों पर विश्वास किया जाए तो इसके पीछे माया की दूरगामी सोच है।

माया को पता है कि 2012 के विधान सभा चुनाव में उन्हें बहुमत नहीं मिलने वाला है।ऐसे में उन्हें बैशाखी की जरूरत पड़ सकती है। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तो उनकी बैशाखी बनने को राजी होगें नहीं, रही बात भाजपा की तो भाजपा का माया प्रेम जगजाहिर है। कई मौकों पर भाजपा न-न करते हुए माया की हो चुकी है। और अब जबकि उसे दूर-दूर तक सत्ता की चाबी नहीं दिख रही है तो माया के सहारे ही सही उसे यह चाबी मिल जाती है तो इसे भाजपा की कोई बुराई नहीं समझना चाहिए।मायावती जुझरू नेत्री हैं। उनके इसी जुझारूपन और अखड़ बोली ने उन्हें दलितों का बड़ा नेता बना दिया। माया जब कड़क आवाज में ब्यूराक्रेसी को फटकार लगाती हैं या फिर समाजवादियों पर लाठी बरसाती हैं तो उनका यही वोटर गद्गद हो जाता है। इस बात का अहसास मायावती को भी है,इसीलिए वह बिना परवाह किए सपा की कमर तोड़ने का मौका नहीं छोड़ती हैं। उन्हें पता है कि पिछले विधान सभा चुनाव में जब वह कहती थीं कि मुलायम और अमर को सत्ता में आने पर जेल भेजा जाएगा तो उनके वोटर खूब ताली बजाते थे। बाद में यही तालियों की गड़गड़ाहट वोटों में तब्दील हो गईं थी।अबकी बार भी माया ऐसा कुछ करना चाहती हैं जिससे एक बार फिर सबको चौकाया जा सके। यह काम तभी हो सकता है जब माया 2007 के विधान सभा चुनाव के पूर्व वाले तेवरों में लौटें।पिछली बार की तरह अबकी बार भी माया के निशाने पर मुलायम ही हैं। बस फर्क इतना है कि इस बार माया जहां बैठी (मुख्यमंत्री की कुर्सी पर) हैं, पिछली बार वहां मुलायम सिंह बैठा करते थे। यही वजह है अबकी माया का डंका ज्यादा जोर से बज रहा है। वह लगातार मुलालय और सपाइयों पर अपनी ताकत की नुमाइश कर रही है । शायद वह अच्छीर तरह से जानती है कि उनका वोटर यही सब देखना चाहता है। बसपा सुप्रीमो को इस बात का भी अहसास है कि विपक्ष उन्हें जितना कोसने-काटने का काम करेगा, बसपा का वोट बैंक उतना ही मजबूत होगा।ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। आय से अधिक सम्पति मामले में कोर्ट से कोई राहत नहीं मिलने से तिलमिलाई माया अपना कद छोटा प्रतीत नहीं होने देना चाहती हैं।

समाजवादी पार्टी के बाद नंबर आता है कांग्रेस का। कांग्रेस और बसपा के बीच 36 का आंकड़ा चल रहा है। दोनों पाटियों की लड़ाई में कभी बसपा सुप्रीमों भारी पड़ती हैं तो कभी कांग्रेस। बसपा कांग्रेस की केन्द्र सरकार पर उत्तर प्रदेश के हितों की अनदेखी का आरोप लगाती रहती है, वहीं उन्हें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का दलित प्रेम भी रास नहीं आता है।बसपा सुप्रीमों इस बात से भी खफा रहती हैं कि कुछ मुद्दों को कांग्रेस बिना वजह हवा देते हैं। आय से अधिक सम्पति के मामले में भी माया की यही सोच है। बसपा-कांग्रेस की तकरार का ही नतीजा रहा कि कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्षा रीता बहुगुणा के घर में आगजनी तक हो गई। आगजनी के आरोपी बसपा नेताओं को माया ने 2012 के विधान सभा चुनाव के लिए टिकट देकर अपनी मंशा साफ कर दी हैं। केन्द्र और माया सरकार के बीच दूरियां कितनी बढ़ गई हैं इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि माया सरकार ने दोनों पार्टियों को यहां की जनता के हितों का भी ध्यान नहीं रह गया है।ऐसे समय में जब नक्सलियों से निपटने के लिए तरह-तरह की तैयारियं की जा रही थीं तब माया सरकार ने सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन की स्थापना के लिए जमीन नहीं उपलब्ध करा कर प्रदेश के साथ नाइंसाफ कर दिया। माया सरकार को यह बात स्पष्ट करना चाहिए कि उसने कोबरा बटालियन की स्थापना के लिए जमीन उपलब्ध कराने में क्यों राजनीति की? माया सरकार का फैसला इस लिए और दुखदायी प्रतीत होता है क्योंकि सीआरपीएफ की बटालियन के लिए चंदौली में जमीन का चयन हो चुका था।माया को समझना चाहिए कि इस तरह की राजनीति से न उनका भला होगा न प्रदेश का। एक तरफ मायावती विकास का रोना रोती हैं तो दूसरी तरफ केन्द्र की योजनाओं को धता बताने में लगी रहती है।इससे पहले उत्तर प्रदेश में नए बिजली संयंत्रों की स्थापना के केन्द्र के प्रस्ताव भी इस लिए आगे नहीं बढ़ पाए थे क्योंकि राज्य सरकार ने उसमें रूचि ही नहीं ली। इसी तरह से अमेठी और रायबरेली में केन्द्रीय संस्थाओं की स्थापना में अड़ंगे लगाए जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव से जब इस संबंध में पूछा गया तो उनका साफ कहना था,’ राजनीति देश-प्रदेश के विकास के लिए होनी चाहिए, न की उसको पीछे ले जाने के लिए। माया राज में उत्तर प्रदेश का विकास पांच साल पीछे खिसक गया है। मुख्यमंत्री बेजान पत्थरों पर तो हजारों करोड़ रूपया खर्च कर सकती है, लेकिन आम जनता के प्रति उनका कोई सरोकार नहीं है। इसी वजह से माया सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।

बसपा सुप्रीमो का एक तरफ कांग्रेस और सपा के प्रति कठोरता तो दूसरी तरफ भाजपा के प्रति आवश्यकता से अधिक लचीलापन भी सबको हैरान किए हुए है। उत्तर प्रदेश में अपनी जमीनी ताकत बढ़ाने को उतावली भाजपा के लिए बसपा का यह रवैया कुछ लोगों के समझ से परे है तो कुछ इसे माया की मौकापरस्त राजनीति का हिस्सा बता रहे हैं। जानकार 2012 के विधान सभा चुनाव के बाद बसपा और भाजपा में करीबी बढ़ने की संभावना से इंकार नहीं करते हैं।बसपा तो इस मामले में अपनी चुप्पी साधे हुए है लेकिन समाजवादी पार्टी इसे भाजपा और बसपा की मजबूरी बता रहे हैं। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खॉ का कहना है कि बसपा विश्वास करने वाली पार्टी नहीं है। वह अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का ढिंढोरा तो जरूर पीटती है लेकिन भाजपा के साथ उसकी भीतर से सांठगांठ हो रखी है। भाजपा के प्रति बसपा के साफ्ट कार्नर के बारे में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही इसे सपा और कांग्रेस की साजिश करार देते हुए कहते हैं कि भाजपा भविष्य में बसपा से हाथ नहीं मिलाएगी।

बहरहाल, भाजपा के साथ बसपा को खड़ा दिखाने की कांग्रेस और सपा साजिश कर रहे हैं या फिर यही हकीकत है। इसका पता तो बाद में चलेगा लेकिन इतना तय है कि इससे बसपा को नुकसान हो सकता है। बसपा के मुस्लिम वोटर सपा और कांग्रेस की तरफ रूख कर सकते हैं। और शायद यही दोनों दल चाहते भी हैं।

राजस्थान में नाबालिग यौनकर्मी

नन्‍द किशोर कुमावत

उपलब्ध आंकडों के अनुसार वर्तमान में देश के 275000 कोठों में लगभग 23 लाख यौनकर्मी 52 लाख बच्चों के साथ रहती है। कुल मिलाकर देश में 1100 रेडलाइट इलाके है। आजादी के बाद से देश में यौन सेविकाओं की सही संख्या पता लगाने के लिए कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया गया है, जबकि सरकार ने नेत्रहीनों कुष्ठ रोगियों, कैदियों, चोरो और विकलांगों आदि के लिए सर्वेक्षण कराए है लेकिन समाज के इस वर्ग की पूरी तरह उपेक्षा कर दी गई है। इस समय दिल्ली से मुंबई वाया जयपुर और दिल्ली से कोलकाता जैसे राष्ट्रीय राजमार्गों पर अनेक चकलाघर खुल गए है। यही हाल अन्य राजमार्गों का है। इसके अलावा इस धंधे में बड़ी संख्या में कॉलगर्ल भी सक्रिय है।

बच्चों का यौन शोषण और उनका क्रय-विक्रय दुनियाभर में एक बड़ी समस्या है। करोड़ों बच्चे पहले से करीब 20 लाख लड़कियों की उम्र तो पाँच से पन्द्रह साल के बीच है। इस पेशे में हर साल करीब दस लाख लड़कियां आती है।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देखे तो यूनिसेफ ने पूर्व कम्युनिस्ट देशों की महिलाओं एवं लड़कियों की एक रिपोर्ट में पोलैंड़ की एक गैर सरकारी संस्था ला स्ट्राडा एवं वियना की इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फॉर माइग्रेशन को उध्दृत करते हुए लिखा है कि पूर्वी यूरोप की करीब 5 लाख़ लड़कियां पश्चिम में वेश्यावृत्तिा कर रही है। लड़कियों का अवैध व्यापार करीब 42.5 अरब डॉलर हो चुका है। अमरीका के शिकागो स्थिति ही पॉल विश्वविद्यालय के अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून संस्थान ने 2001 विश्वभर में सेक्स व्यापार एवं लड़कियों एवं महिलाओं की अवैध खरीद-बिक्री पर एक अनुसंधान रिपोर्ट पेश की थी। इसके अनुसार 6 वर्ष की उम्र तक की लड़कियां सेक्स व्यापार में लाई गई थी। इसने करीब 20 लाख नाबालिग एवं बालिग लड़कियों व महिलाओं के सेक्स व्यापार में होने की बात कही थी। इसके अनुसार भारत के रेड लाइट एरिया में प्रतिवर्ष करीब 7 हज़ार नेपाली लड़कियां बेची जाती है जिनमें 9 वर्ष की आयु की लड़की भी शामिल है।

एक अन्य गैर सरकारी संस्थान टेर्रे डेस होम्मेस की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार 14 से 16 वर्ष के बीच की नेपाली लड़कियों को कोलकाता, मुंबई के ख़रीददारों के हाथों बेच दिया जाता है जहाँ वे वेश्या बना दी जाती है। इसके अनुसार 1 लाख से 2 लाख के बीच नेपाली बच्चियां एवं लड़कियां अभी भारत के सेक्स व्यापार में है एवं इनमें एक बड़ी संख्या नाबालिगों की है।

संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम के लिए शक्तिवाहिनी द्वारा 2006 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत में अन्तरराज्यीय मानव तस्करी के अलावा मिस्र, ब्राजील, अजरबैजान, रूस एवं अनेक अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से तस्करी करके लड़कियों एवं महिलाओं को भारत लाया जाता है जहाँ से इन्हें दूसरे देशों में भी भेजा जाता है। इस अध्ययन के अनुसार इसमें 72 प्रतिशत तस्करी सेक्स व्यापार के लिए की जाती है। इसके अनुसार मध्यप्रदेश में लड़कियां सेक्स व्यापार में सबसे ऊपर है जहाँ पारिवारिक परंपरा के कारण लड़कियां सेक्स कारोबार में आ जाती है।

 

यौन शोषण की शिकार महिलाओं और बच्चों में से 60 से 80 प्रतिशत अनेक बीमारियों की चपेट में होते है। अनचाहा गर्भ, प्रसव के दौरान मृत्यु, यातना, शारीरिक चोट, शारीरिक विकलांगता, मानसिक यंत्रणा और यौनजनित बीमारियां आम बात है।

भारत में वेश्याओं का विवरण

देश में करीब 86 प्रतिशत यौन सेविकाएं छ: राज्यों – आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तार प्रदेश की है।

2.6 प्रतिशत यौनकर्मी नेपाल और 2.17 प्रतिशत यौनकर्मी बांग्लादेश की है।

60 प्रतिशत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों की है।

71 प्रतिशत भारतीय यौन सेविकाएं निरक्षर और 74 प्रतिशत यौन सेविकाओं के परिवार बेरोजगार अथवा अकुशल मजदूर है।

अधिकांश यौन सेविकाओं के दो बच्चे है।

भारत में बाल वेश्यावृत्तिा

देश में 15 प्रतिशत यौन सेविकाएं 15 साल से कम और करीब 25 प्रतिशत 18 साल से कम उम्र की है। वेश्यावृत्तिा में लिप्त बच्ची प्रतिदिन औसतन 3 से 5 ग्राहकों को संतुष्ट करती है। भारत में यौन सेविका की आमदनी छ: व्यक्तियों में बंटती है। इनमें कोठे की मालकिन, भडुआ, दलाल, साहूकार, राशन वाला और पुलिस शामिल है। ये वेश्याएं अत्यधिक शोचनीय हालात में अपना जीवन गुजारती है। इन्हें ताजा हवा और साफ पीने का पानी नहीं मिलता।

उच्चतम न्यायालय के आदेश – भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बच्चों और महिलाओं को यौन शोषण और यौन शोषण की शिकार महिला के बच्चों के बचाव और पुनर्वास के सवाल पर दो महत्तवपूर्ण फैसले दिए है। बाल वेश्यावृत्तिा के बारे में विशालजीत बनाम भारत संघ नाम की जनहित याचिका में न्यायालय ने 2 मई, 1990 को अपने फैसले में कहा कि केन्द्र और राज्य सरकारों को सलाहकार समिति गठित करनी चाहिए लेकिन अभी तक अनेक राज्य सरकारों ने सलाहकार समिति का गठन नहीं किया है।

गौरव जैन बनाम भारत संघ नाम के एक अन्य मामले में न्यायालय ने 9 जुलाई, 1997 को वेश्यावृत्तिा, बाल यौनकर्मी और यौनकर्मियों के बच्चों की समस्याओं के बारे में गइराई से अध्ययन और इनके बचाव और पुनर्वास के लिए समुचित योजनाएं तैयार करने के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश दिया था। दिल्ली जैसे कुछ राज्यों में तो इस तरह की समिति का गठन कर लिया है लेकिन नियमित बैठकों के बावजूद इस बारे में अभी तक कोई फैसला नहीं लिया जा सका है। इस तरह यौन सेविकाओं की जीवनशैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।

हम जानते है कि यौनकर्मियों और उनके बच्चों में अधिकांश अशिक्षित है और उनके बच्चों में अधिकांश अशिक्षित है और उन्हें संविधान में प्रदत्ता अधिकारों औरर् कत्ताव्यों का ज्ञान तक नहीं है। पुरूष साथी के अभाव में यौन सेविकाएं अपनी आवाज़ उठाने में असमर्थ है, इसलिए वे बंधुआ मज़दूरों की तरही जिंदगी गुज़ार रही है।

 

आज भूमंडलीकरण के दौर में पर्यटन को बढ़ावा मिल रहा है और साथ ही यौन पर्यटन भी आधुनिक सभ्यता की देन है। ऐसे में दुनियाभर में सेक्स के लिए ज्यादातर कम उम्र की लड़कियों और कहीं-कहीं लड़कों की भी मांग है, इसलिए उनकी भी बाज़ार में ख़रीद-फरोख्त हो रही है। बाज़ार में कमोडिटी की तरह मांग और आपूर्तिके नियम यहां भी लागू हो रहे है एवं ये बच्चे भी एक वस्तु बन गए है। इंड चाइल्ड प्रोस्टिच्यूशन, चाइल्ड पोर्नोग्राफी एवं ट्रैफिकिंग फॉर चिल्ड्रेन यानि इस्पट का आंकलन है कि प्रतिवर्ष करीब 10 लाख बच्चे यौन व्यापार में धकेल दिए जाते है जिनमें से अधिकांशत: लड़कियां होती है।

सरकारी स्तर पर बाल श्रम को कम करने और उसके उन्मूलन के लिए कई कानून व नियम बनाए गए है। कई योजनाओं के तहत बाल श्रम उन्मूलन भी किया गया और बाल श्रमिकों की शिक्षा व उनके उत्थान के लिए कई संस्थाएँ सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर काम भी कर रही है परंतु इस तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान है कि सेक्स व्यापार में सर्वाधिक बाल श्रम होता है और उन्हें कई रूप से शोषण का शिकार होना पड़ता है। इनके उन्मूलन और विकास के लिए यह जागरूक होकर इसके विरूद्ध कार्य करना अति आवश्यक है।

रोटी से हारा प्रगतिशील भारत

शादाब जफर ”शादाब”

 

आज देश में महंगाई किस चरम पर पहुंच चुकी है इस का उदाहरण मूल रूप से बिहार निवासी मेरठ उत्तर प्रदेश में रह रही सुनयना से बेहतर शायद कोई नहीं दे सकता। गरीबी और फाकाकशी से निजात पाने को 30 साल की इस महिला ने वो रास्ता चुना जिसे देख और सुन कर लोगो के रोंगटे खडे हो गये। बेरोजगार पति के घर छोड कर चले जाने के बाद तीन छोटे छोटे बच्चो के लिये दो वक्त की रोटी, स्कूल फीस और मकान का किराया जब जुटाया नहीं पाई तो हर तरफ से मजबूर होकर एटमी डील, रोज नित नई उपलब्धिया अर्जित कर रहे हिदुस्तान की इस बेबस बेसहारा नारी ने अपने तीनों बच्चों को साड़ी के पल्लू में लपेट कर एक पैसेंजर ट्रेन के आगे छलांग लगा दी। इस हादसे में एक बच्चा बच गया किन्तु अभागन सुनयना और उस के दो बच्चो के चीथडे उड़ गये। आज हम दुकानो़ की रेट लिस्ट देखकर जान सकते है कि हमारी सरकार इस मुद्दे पर बिल्कुल भी गम्भीर नहीं है आज आम आदमी का जीना दुश्‍वार हो रहा है भ्रष्टाचार और मंहगाई के कारण देश में त्राहि-त्राहि मची है। पिछले दो साल से खाद्यान्न की कीमतों में रिकार्ड उछाल है। शेयर बाजार, सोना और भ्रष्टाचार आसमान छू रहे है।

आज आदमी हर रोज सुबह शाम बढती महंगाई से परेशान है। ऐसा नहीं कि इस महंगाई की जद में सिर्फ गरीब ही आया है इस महंगाई रूपी ज्वालामुखी की तपिश में हर कोई झुलस रहा है छटपटा रहा है खाद्यान्न, सब्जी, फल, व तेलों के दाम इस एक साल में लगभग पचास प्रतिशत बढे हैं। खाने पीने की चीजों के दाम बेतहाशा बढ रहे हैं। पिछले साल की तुलना में इन की कीमतों में 13.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आज सब्जी और दालों की कीमतें बढ़कर सैकडे के जादुई आकडे को छूने लगी है। प्याज की कीमतों में भी 50 प्रतिशत की वृद्वि हुई है। इस महंगाई से देश में बेरोजगारी के साथ साथ 50 प्रतिषत जुर्म जैसे लूट, राहजनी, छीना झपटी, मर्डर, अपहरण डकैती में बढोतरी हुई है वही नौकरी पेशा लोगों की तन्ख्वाहे जहां की तहां रह गई है ऐसी स्थिति में सरकार का दो टूक ब्यान आम आदमी को निराश कर रहा है। सरकारी सब्सिडी से हमारे सांसद संसद भवन की कैंटीन में खूब मौज मस्ती कर रहे है। अगर देखा जाये तो लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाली इस इमारत को अपने पद और देश के गौरव और सम्मान से अपरिचित कुछ सांसदों ने पिकनिक स्‍पॉट बना कर रख दिया है। आज आम आदमी की परेशानियों की किसी को कोई चिन्ता नहीं। उस की अपनी चुनी हुई सरकार ने ही महंगाई के मामले में पल्ला झाड लिया। सरकार सीधे तौर पर बयान दे रही है कि फिलहाल महंगाई घटने के आसार नहीं है। रोजमर्रा की चीजों के बढते दामों से हैरान परेशान आम लोगों को राहत दिलाने के बजाये केन्द्र व प्रदेश सरकार ने मुनाफाखोरी और जमाखोरी का रास्ता अख्तियार कर लिया है।

देश में फैले भ्रष्टाचार के कारण सरकार को विकास के साथ-साथ आम आदमी और कमर तोड मंहगाई पर नियंत्रण का कोई ख्याल नहीं रहा। उसे ख्याल है अपने सहयोगी दलों के भ्रष्ट नेताओं को कानूनी शिकंजे से बचाने का क्योंकि अगर ये देश के कुछ भ्रष्ट राजनेता जेल जाते है तो यकीनन सरकार हिल जायेगी और कांग्रेस ऐसा कभी नहीं चाहेगी क्योंकि कांग्रेसी लीडर आज सत्ता सुख में कुछ इस तरह से रच बस गये है कि वो बिना लाल बत्ती की गाड़ी और राजसी सुख सुविधाओं के बगैर जी ही नहीं सकते। ये ही वजह है की कांग्रेस का पुराने से पुराना लीडर किसी न किसी प्रदेश का राज्यपाल बन जाता है। दरअसल उसे शुरू से राजसी जीवन जीने की आदत होती है जिसे वो मरते दम तक नहीं छोडना चाहता है। आज जरूरी है कि हमारी सरकार घोटालों के मायाजाल से बाहर निकल कर उस गरीब के लिये भी सोचे, जिन गरीब लोगों ने अपनी रहनुमाई के लिये संसद भवन में उसे कुर्सी दी, मान सम्मान दिया।

सरकार ने फिर से पेट्रोल के दामो में वृद्वि कर बढती हुई मंहगाई में और आग लगा दी। जब की अभी पिछले दिनों ही 2 से तीन रूपये पेट्रोलियम कम्पनियों ने पेट्रोल के दाम बढाये थे। अभी तक जिस महंगाई का अहसास आप और हम कर रहे थे सरकारी आंकडे भी अब उस महंगाई का अहसास कर उसे साबित करने लगे है। पिछले वर्ष वाणिज्य मंत्रालय की और से 14 दिसम्बर को जारी मासिक आकडों के मुताबिक देश के थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति पॉच प्रतिशत के करीब पहुंच गई थी जो अक्तूबर 2009 में 1.34 प्रतिशत थी। जिस रफ्तार से मुद्रास्फीति बढ रही है वो यकीनन देशवासियों व देश की अर्थव्यवस्था के हित में कतई नहीं है। पिछले वर्ष छठे वेतन आयोग की सिफारिश लागू हुई तो सरकारी कर्मचारियों को 40 प्रतिशत का लाभ हुआ। संडे के दिन परिवार को होटल या रेस्टोरेन्ट में लंच या डीनर या फिर चाईनीज फूड का स्वाद चखवाने वाले अब कम ही दिखाई दे रहे है। दूध की कीमतों में 60 से 80 प्रतिशत की बढोतरी हुई तो बडी तादाद में लोगों ने रात में दूध पीना की आदत ही छोड दी।

हकीकत यह है कि चुनाव के महीनों में यह महंगाई इन राजनेताओं का हाल बिगाड़ सकती है किन्तु खूब खाने पीने के इस मौसम में अगर गरीब मजदूर को ठीक से दाल रोटी और सब्जी भी मय्यसर नहीं हुई तो देर सबेर उस के स्वास्थ्य पर किस कदर असर पडे़गा आज गम्भीरता से सोचने वाला प्रश्‍न है लेकिन सरकार और देश के अर्थशास्‍त्री खामोश है। शायद वो ये जानते है कि आने वाले चुनाव में गरीब के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर भी इस महंगाई का असर जरूर पड़ना है। जरूरी है कि सरकार को वक्त रहते चेतना चाहिये और महंगाई की इस रफ्तार को यही रोक दे ये सरकार हित में भी है और देश हित में भी और गरीबों के हित में भी।

 

मानव तस्करी का गढ़ बना मध्य प्रदेश

विनोद उपाध्याय

देश में अफीम की खेती के लिए किख्यात मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में उजागर हुए मानव तस्करी के ताजे मामले से साफ हो गया है कि पूरे प्रदेश में यह धंधा तेजी के साथ पैर पसार चुका है। राज्य के लगभग आधे जिलों में मानव तस्करी में लिप्त लोगों ने अपना जाल फैला लिया है। लेकिन सबसे आश्चर्र्यजनक बात यह है कि जिस्मफरोशी के अड्डों पर खरीदकर लाई गई मासूम बच्चियों को समय से पूर्व जवान बनाने के लिए हारमोन के इंजेक्शन दिए जाते थे ताकि इन मासूम बच्चियों को जल्द से जल्द देहव्यापार के धंधे में उतारा जा सके। पुलिस जांच में सामने आया कि जिस्मफरोशी करने वाली ज्यादातर महिलाओं के बच्चे हैं ही नहीं। पुलिस द्वारा गिनती करने पर इन डेरों में 842 लड़किया पाई गई। अब पुलिस इनका डीएनए कराकर पता करेगी कि आखिर ये बच्चिया इनकी हैं या तस्करी के जरिये लाई गई हैं।

मानव तस्करों ने आधे मध्यप्रदेश को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। मानव तस्करी पर पुलिस की उदासीनता के चलते गोरखधंधे में लिप्त लोगों ने 50 में से 24 जिलों में नेटवर्क जमा लिया। जिलों से गायब कई युवक-युवतियों का अर्से से पता नहीं चल पाया। पुलिस भी मानने लगी है कि ये मानव तस्करी का शिकार हो गए। पुलिस ने दो महीने में मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारियां पाकर आंखें खुल गईं। पुलिस मुख्यालय ने मानव तस्करी को लेकर जनवरी में सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को एक परिपत्र भेजा था। इसमें महिलाओं व बालक-बालिकाओं के खरीद-फरोख्त के पिछले पांच साल में दर्ज प्रकरणों, अपराध के पीछे किसी संगठित गिरोह के सक्रिय होने और खरीद-फरोख्त की रोकथाम के प्रयास का ब्यौरा मांगा।

मंदसौर और नीमच जिलों में मौजूद बांछड़ा समुदाय खुले आम वेश्यावृत्ति करता है, जहां से मानव तस्करी के मामले उजागर होते हैं। पुलिस की जानकारी में सब कुछ होने के बावजूद इस ओर ध्यान नहीं दिया जाना आश्चर्य का विषय है। पुलिस ने दो महीने में मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारिया पाकर आखें खुल गईं। पुलिस मुख्यालय ने मानव तस्करी को लेकर जनवरी में सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को एक परिपत्र भेजा था। परिपत्र में बालक-बालिकाओं के खरीद-फरोख्त के पिछले पाच साल में दर्ज प्रकरणों, अपराध के पीछे किसी संगठित गिरोह के सक्त्रिय होने और खरीद-फरोख्त की रोकथाम के प्रयास का ब्योरा मांगा। पुलिस अधीक्षकों की ओर से भेजी जानकारी में पता चला कि प्रदेश में पाच सालों के दौरान 30 से 35 युवक-युवतिया मानव तस्करी का शिकार हुई। राज्य में मानव तस्करों की गतिविधियों का पता चलने के बाद पुलिस इन क्षेत्रों पर निगरानी के लिए विशेष व्यवस्था करने पर मजबूर हुई है। पुलिस मुख्यालय ने आईजी की निगरानी में विशेष दल बनाने का फैसला किया। पहले चरण में आठ जिले तथा इसके बाद अगले दो साल में आठ-आठ जिलों में ऐसे दल बनेंगे। जिनमें जबलपुर, कटनी, सतना, मंदसौर, नीमच सीधी, नरसिंहपुर, मंडला, डिंडोरी, झाबुआ, मुरैना, बालाघाट, अनूपपुर, उमरिया शामिल हैं।

पुलिस अधीक्षक,मंदसौर जी के पाठक बताते हैं कि मानव तस्करी रोकने के लिए बने प्रकोष्ठ के बाद जब बाछड़ा जाति के डेरों का गुप्त सर्वेक्षण कराया तो उनके सामने चौंकाने वाले तथ्य आए। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि महिला गर्भवती हुई ही नहीं और उसके घर में कुछ माह की बेटी है। इसी आधार पर दबिश दी गई तो लडकियां मिलीं जिनकी खरीद फरोख्त हुई थी। पुलिस पड़ताल में सामने आया कि गरीबी और अशिक्षा का फायदा मानव तस्कर उठा रहे हैं। वे आदिवासियों के परिवारों को रोजगार दिलाने के बहाने बहला-फुसलाकर ले जाते हैं और अनैतिक कार्य में ढकेल देते हैं। पिछले 3 साल में इन जिस्मफरोशी के अड्डों पर 100 से ज्यादा लड़कियों को बेचा गया है। इन लड़कियों का अपहरण कर इन्हें इन डेरों पर बेचा गया था। इनमें से ज्यादातर लड़किया गरीब परिवारों से हैं, जबकि कुछ लड़कियों को घरवालों ने ही बेच दिया है। इंदौर, खरगौन, खंडवा, बडवानी, झाबुआ के अलावा राजस्थान के चित्तौड़, निम्बाहेड़ा इलाके से भी कई लड़कियों को लाकर यहा बेचा गया है। अधिकतर लड़कियों को यहा चित्तौड, निम्बाहेड़ा के आसपास से लाया गया है। बाछड़ा डेरों में कम उम्र की लड़कियों को खरीदने के बाद बड़े ही एहतियात से रखा जाता है। लड़की को खरीदने के बाद 5 साल तक उसे कमरे से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ताकि कोई उसे पहचान न सके। मल्हारगढ पुलिस और एंटी ह्यूमन ट्रेफेकिंग द्वारा लड़कियों को खरीदे जाने की जानकारी जुटाई जा रही है। माना जा रहा है कि पुलिस इस मसले को लेकर एक बड़ा अभियान चलाने की तैयारी कर रही है, जिससे पिछले सालों में खरीद-फरोख्त की गई लड़कियों को बरामद कर उनके घरवालों को सौंपा जा सके। मंदसौर के पुलिस अधीक्षक जीके पाठक के मुताबिक जिन सात लडकियों को बाछडा जाति के डेरे (बस्ती) से बरामद किया गया है, उनमें से सिर्फ दो लडकियां ही कुछ बताने की स्थिति में है, बाकी इतनी छोटी हैं कि वे कुछ बोल ही नहीं पाती है। डेरे से बरामद की गई लडकियों में से अधिकांश इंदौर व आसपास ही हैं। बताया गया है कि इस काम में एक पूरा गिरोह काम करता था, जिसमें कुछ लोगों पर अपहरण तो कुछ पर ग्राहक तलाशने की जिम्मेदारी होती थी। इन लड़कियों का सौदा कुछ हजार रुपये में ही हुआ है।

मंदसौर जिले की मल्हारगढ पुलिस द्वारा बाछडा समाज के जिस्मफरोशी के डेरों में की गई कार्यवाही के बाद अब तक 18 मासूम लड़किया बरामद की जा चुकी हैं। पुलिस द्वारा 3 जगह छापा मार कर इन लड़कियों को बरामद किया गया। जिसमें से 5 लड़किया तो दुधमुंही हैं। इन सभी लड़कियों की उम्र नौ माह से 9 साल तक हैं। मल्हारगढ़ पुलिस के लगातार चल रहे इस अभियान में कई सनसनीखेज खुलासे हुए हैं। आठ साल की उम्र की लड़कियों को जल्द जवान बनाने के लिए मोर का मास और स्टेरॉईड्स दिया जाता था। जिससे लड़किया जल्द जवान होकर जिस्मफरोशी के बाजार में ढकेली जा सकें। इनके सेवन से कम उम्र की लड़कियों का शरीर बड़ा दिखने लगता है । पुलिस जाच में ऐसी कई दवाईयों के नाम आए हैं जिनके इंजेक्शन इस इलाके में धड़ल्ले से लगाए जा रहे हैं। इन लड़कियों को खाने पीने की चीजों में नशे की गोलियां मिलाकर दी गई थीं और बेहोश होने के बाद उन्हे अगवाकर जिस्मफरोशी के डेरों पर बेच दिया गया था। इस मामले में पुलिस ने 24 लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। डेरों पर अब भी कई मासूम लड़किया है जिनके बारे में जाच की जा रही है कि ये लड़किया इन्हीं डेरो वालों की है या खरीदी गई। इसके लिए पुलिस डीएनए जाच कराने की तैयारी कर रही है।

मल्हारगढ़ के सुठोद डेरों में जिस्मफरोशी का अड्डा चलाने वाली सीमा ने बताया कि उनके समाज में लड़कियों को जल्द जवान करने के लिए मोर का मास कई सालों से खिलाया जाता रहा है। अब बाजारों में इस तरह की कई दवाओं के आ जाने से मोर के मास के साथ दवा भी खिलाई जाती है। जिससे लड़किया वक्त से पहले जवान होकर अपने पुश्तैनी धंधे में हाथ बटाती हैं।

गौरतलब है कि इन डेरों पर जिन लड़कियों को चुराकर बेचा गया उसमें तीन कडिय़ों वाला एक रैकेट काम करता है। पहला गिरोह लड़कियों पर नजर रखकर उन्हें नशा देकर चुराता है। दूसरी कड़ी के बिचौलिये इन्हें बाछडा जाति के उन लोगों से मिलाकर सौदा कराते हैं जो इन्हे खरीदते हैं। और तीसरी कड़ी में खुद बाछड़ा जाति के वो लोग होते है जो इन्हे खरीदकर परवरिश करते हैं, और बड़ा होने पर उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे में उतार देते हैं।

बाछड़ा जाति की औरतें पहले अपने ग्राहकों से पैदा हुई लड़कियों को पाल पोस कर उनसे धंधा कराती थी। मगर बच्चे होने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में इनकी कीमत कम होने की वजह से पिछले 10 सालों में तस्करी कर लाई गई बच्चियों को खरीदने का गोरखधंधा शुरु हो गया। आकड़ों की माने तो इन डेरों पर 842 लड़किया है। पुलिस को शक है कि ज्यादातर लड़किया इसी तरह खरीद कर लाई गई हैं। अब पुलिस इस मामले की पड़ताल में जुट गई है। इसके लिए पुलिस डीएनए टेस्ट की मदद लेने का भी मन बना रही है।

जयपुर-मुंबई हाई वे पर रतलाम, मंदसौर, नीमच से लेकर चित्तौड़ तक सडक किनारे बाछड़ा समाज के डेरे हैं। जहा हर रोज जिस्मफरोशी की मंडी सजती है और जहा इन लड़कियों की कीमत होती है महज 50 से लेकर 200 रुपये तक। यहा परंपरा के नाम पर यह गोरखधंधा सदियों से चला आ रहा है। पूरे मामले का खुलासा होने के बाद पुलिस हर दिन जिस्मफरोशी के अड्डों पर छापामार कार्रवाई कर चुरा कर खरीदी गई बच्चियों को आजाद करा रही है। डेरों से बरामद लड़कियों को बरसों से तलाश रहे उनके मा-बाप को सौंपा जा रहा है। 18 लड़कियों में से नौ लड़कियों को तो उनके माबाप पहचान कर ले जा चुके हैं। मगर नौ लड़किया ऐसीं हैं जिनके घरवाले अब तक उन्हें लेने नहीं आए हैं। ये सभी नौ लड़किया आठ साल से कम उम्र की हैं, जिसमें से तीन लड़कियों को तो अपने नाम तक नहीं पता। मामले की जाच कर रहे मल्हारगढ़ थाने के थाना प्रभारी अनिरुद्ध वाडिया ने बताया कि अपहरण कर लाई गई सभी लड़किया बेहद गरीब परिवारों से हैं। जहा-जहा से लड़कियों को लाया गया था उन-उन इलाकों के थाने में दर्ज गुमशुदगी की रिपोर्ट तलाश ली गई है। लेकिन इन लड़कियों की वहा गुमशुदगी दर्ज नहीं हुई है। इससे ये लगता है कि इनके माबाप ने या तो इनकी गुमशुदगी दर्ज नहीं करवाई है या फिर इनके मा बाप बाहर से इंदौर आए होंगे। पुलिस लगातार इनके घरवालों को ढूंढने की कोशिश कर रही है। वाडिया ने बताया कि बाछड़ा समाज के डेरों में रह रही 842 लड़कियों की सूची बनाई गई है। पुलिस यह पता करने में जुटी हैं कि ये लड़किया वाकई इनकी हैं या चुराकर लाई गई हैं। पुलिस डीएनए जाच द्वारा इस बात का पता लगाएगी।

जिस्मफरोशी के अड्डों पर नाबालिग मासूम लड़कियों का अपहरण कर बेचे जाने के मामले में मंदसौर पुलिस को हर दिन नए चौंकाने वाले तथ्य मिल रहे हैं। जिस जमीन पर बाछड़ा समाज के डेरे बने हैं, ये जमीनें सरकार ने पुनर्वास के नाम पर इन्हें दी हैं। पुलिस जाच में सामने आया है कि सैकड़ों लड़कियों के जन्म प्रमाणपत्र भी नहीं बने हैं, जिससे मानव तस्करी की आशका और गहरी हो गई है।

मंदसौर की मल्हारगढ़ पुलिस द्वारा मानव तस्करी के खुलासे के बाद बाछड़ा समाज के जिस्मफरोशी के अड्डों पर पुलिस की लगातार दबिश और छानबीन चल रही है। जाच में खास बात यह सामने आई है कि जिस जमीन पर बाछड़ों के जिस्मफरोशी के अड्डे बने हुए हैं, ये सरकारी जमीन थी जो पुनर्वास के लिए बाछड़ा समाज को पिछले 18 सालों में दी गई थी। 1993 से लेकर अब तक कई बार यहा की वैश्याओं को मुख्यधारा से जोडऩे के लिए आधा बीघा से लेकर 5 बीघा तक के पट्टे दिए गए। मगर जब-जब बाछड़ा समाज के लिए पुनर्वास योजना चलाई गई, उसके बाद से इनके धंधे में इजाफा हुआ है। पुनर्वास के लिए दिए गए पट्टों पर पक्के मकान बनाकर उसे एक नया अड्डा बना दिया गया। पिछले 18 सालों में रतलाम, नीमच, मंदसौर में सरकार द्वारा पुनर्वास के लिए दी गई लगभग 200 एकड जमीन पर नए डेरे बना दिए गए। अकेले मल्हारगढ के मुरली डेरे में 40 नये अड्डे पिछले 18 साल में बने हैं। मल्हारगढ पुलिस ने इस मामले से प्रशासन को अवगत कराया है।

मल्हारगढ पुलिस को बाछडा डेरों में जाच के दौरान 286 ऐसी बच्चियों की जानकारी हाथ लगी, जिनके जन्म के प्रमाण पत्र उनकी कथित मा के पास नहीं मिले। पुलिस को प्रारंभिक पूछताछ में जन्म प्रमाण पत्र न बनवाने की कोई उचित वजह ये औरतें नहीं बता पाईं। इससे पुलिस की शका और मजबूत हो गई है। इन डेरों में मिली 842 बच्चियों की डीएनए जाच के लिए मल्हारगढ़ पुलिस ने प्रशासन को पत्र लिखा है।

 

क्या बेमानी हैं राजनीति में नैतिकता के प्रश्न ?

-संजय द्विवेदी

 

यह विडंबना ही है कि देश में एक महान अर्थशास्त्री, प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं और महंगाई अपने चरम पर है। संभवतः वे ईमानदार भी हैं और इसलिए भ्रष्टाचार भी अपने सारे पुराने रिकार्ड तोड़ चुका है। किंतु क्या इन संर्दभों के बावजूद भी देश के मन में कोई हलचल है। कोई राजनीतिक प्रतिरोध दिख रहा है। शायद नहीं, क्योंकि जनता के सवालों के प्रति कोई राजनीतिक दल आश्वस्त नहीं करता। भ्रष्टाचार के सवाल पर तो बिल्कुल नहीं।

आप देखें तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता तो संदिग्ध हो ही चुकी है, क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जनभावनाओं के आधार पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का रिकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं हैं। लालूप्रसाद यादव, मायावती, मुलायम सिंह यादव, जयललिता और करूणानिधि जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके पास कोई जनधर्मी अतीत या वर्तमान नहीं हैं। ऐसे में जनता आखिर प्रतिरोध की शक्ति कहां से अर्जित करे। कौन से विकल्पों की ओर बढ़े। क्योंकि अंततः सत्ता में जाते ही सारे नारे भोथरे हो जाते हैं। सत्ता की चाल किसी भी रंग के झंडे और विचारों के बावजूद एक ही रहती है। सत्ता जनता से जाने वाले नेता को अपने हिसाब से अनूकूलित कर लेती है। अगर ऐसा न होता तो मजदूरों और मेहनतकशों की सरकार होते हुए प.बंगाल में सिंगूर और नंदीग्राम न घटते। उप्र में दलितों की प्रतिनिधि सरकार आने के बाद दलितों और उनकी स्त्रियों पर अत्याचार रूक जाते। पर ऐसा कहां हुआ। यह अनूकूलन सब दिशाओं में दिखता है। ऐसे में विकल्प क्या हैं ? भ्रष्टाचार के खिलाफ सारी जंग आज हमारी राजनीति के बजाए अदालत ही लड़ रही है। अदालत केंद्रित यह संघर्ष क्या जनता के बीच फैल रही बेचैनियों का जवाब है। यह एक गंभीर प्रश्न है।

हमारे राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता जिस तरह देश के मानस को तोड़ रहे हैं उससे लोकतंत्र के प्रति गहरी निराशा पैदा हो रही है। यह खतरनाक है और इसे रोकना जरूरी है। वोट के बदले नोट को लेकर संसद में हुयी बहसों को देखें तो उसका निकष क्या है. यही है कि अगर आपको जनता ने सत्ता दे दी है तो आप कुछ भी करेंगें। जनता के विश्वास के साथ इससे बड़ा छल क्या हो सकता है। पर ये हो रहा है और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए मजबूर हैं। पूरी दुनिया के अंदर भारत को एक नई नजर से देखा जा रहा है और उससे बहुत उम्मीदें लगाई जा रही हैं। किंतु हमारी राजनीति हमें बहुत निराश कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ आज हमारे पास विकल्प नदारद हैं। कोई भी दल इस विषय में आश्वस्त नहीं करता कि वह भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण लगाएगा। राजनीति की यह दिशाहीनता देश को भारी पड़ रही है। देश की जनता अपने संघर्षों से इस महान राष्ट्र को निरंतर विकास करते देखना चाहती है, उसके लिए अपेक्षित श्रम भी कर रही है। किंतु सारा कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। हमारी प्रगति को राजनीतिकों के ग्रहण लगे हुए हैं। सारी राजनीति का चेहरा अत्यंत कुरूप होता जा रहा है। आशा की किरणें नदारद हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें भी जनता से मिले विश्वास के आधार पर ऐसा आत्मविश्वास दिखा रही हैं जैसे जनादेश यही करने के लिए मिला हो। सही मायने में राजनीति में नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो चुके हैं। पूरे समाज में एक गहरी बेचैनी है और लोग बदलाव की आंच को तेज करना चाहते हैं। सामाजिक और सांगठनिक स्तर पर अनेक संगठन भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम भी चला रहे हैं। इसे तेज करने की जरूरत है। बाबा रामदेव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अन्ना हजारे, किरण बेदी आदि अनेक जन इस मुहिम में लगे हैं। हमें देखना होगा कि इस संघर्ष के कुछ शुभ फलित पाए जा सकें। महात्मा गांधी कहते थे साधन और साध्य दोनों पवित्र होने चाहिए। हमें इसका ध्यान देते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।

भारतीय लोकतंत्र के एक महान नेता डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ पर क्या हममें लोकलाज बची है, यह एक बड़ा सवाल है। देश में अनेक स्तरों पर प्रतिरोध खड़े हो रहे हैं। कई स्थानों पर ये प्रतिरोध हिंसक आदोंलन के रूप में भी दिखते हैं। किंतु जनता का राजनीति से निराश होना चिंताजनक है। क्योंकि यह निराशा अंततः लोकतंत्र के खिलाफ जाती है। लोकतंत्र बहुत संघर्षों से अर्जित व्यवस्था है। जिसे हमने काफी कुर्बानियों के बाद पाया है। हमें यह देखना होगा कि हम इस व्यवस्था को आगे कैसे ले जा सकते हैं। इसके दोषों का परिष्कार करते हुए, लोकमत का जागरण करते हुए अपने लोकतंत्र को प्राणवान और सार्थक बनाने की जरूरत है। क्योंकि इसमें जनता के सवालों का हल है। जनता आज भी इस देश को समर्थ बनाने के प्रयासों में लगी है किंतु समाज से आर्दश गायब हो गए लगते हैं। समय है कि हम अपने आदर्शों की पुर्स्थापना करें और एक नई दिशा की ओर आगे बढ़ें। राजनीति से निराश होने की नहीं उसे संशोधित करने और योग्य नेतृत्व को आगे लाने की जरूरत है। लोकतंत्र अपने प्रश्नों का हल निकाल लेगा और हमें एक रास्ता दिखाएगा ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। घने अंधकार से कोई रोशनी जरूर निकलेगी जो सारे तिमिर को चीर कर एक नए संसार की रचना करेगी। शायद वह दिन भारत के परमवैभव का दिन होगा। जिसका इंतजार हम भारत के लोग लंबे समय से कर रहे हैं।

आदिवासियों की सबसे प्रखर आवाज थे बलिराम कश्यप

माओवादी आतंक से मुक्ति और सार्थक विकास से उन्हें मिलेगी सच्ची श्रद्धांजलि

संजय द्विवेदी

जिन्होंने बलिराम कश्यप को देखा था, उनकी आवाज की खनक सुनी है और उनकी बेबाकी से दो-चार हुए हैं-वे उन्हें भूल नहीं सकते। भारतीय जनता पार्टी की वह पीढ़ी जिसने जनसंघ से अपनी शुरूआत की और विचार जिनके जीवन में आज भी सबसे बड़ी जगह रखता है, बलिराम जी उन्हीं लोगों में थे। बस्तर के इस सांसद और दिग्गज आदिवासी नेता का जाना, सही मायने में इस क्षेत्र की सबसे प्रखर आवाज का खामोश हो जाना है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने हमेशा बस्तर के लोगों के हित व विकास की चिंता की। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उनका एक खास स्थान था।

उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सच को कहने से चूकते नहीं थे। उनके लिए अपनी बात कहना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, भले ही इसका उन्हें कोई भी परिणाम क्यों न झेलना पड़े। वे सही मायने में बस्तर की राजनीति के एक ऐसे नायक हैं, जिन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पांच बार विधायक और चार बार विधायक रहे श्री कश्यप ने बस्तर इलाके में जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को आधार प्रदान किया। 1990 में वे अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार में मंत्री भी रहे। छत्तीसगढ़ राज्य में भाजपा की सरकार बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वीरेंद्र पाण्डेय के साथ मिलकर उन्होंने विधायक खरीद-फरोख्त कांड का खुलासा किया। यह एक ऐसा अध्याय है जो उनकी ईमानदारी और पार्टी के प्रति निष्ठा का ही प्रतीक था। इस अकेले काम ने तो उनको उंचाई दी ही और यह भी साबित किया कि पद का लोभ उनमें न था। वरना जिस तरह की दुरभिसंधि बनाई गयी थी उसमें राज्य के मुख्यमंत्री तो बन ही जाते, भले ही वह सरकार अल्पजीवी होती। पर कुर्सी को सामने पाकर संयम बनाए रखना और षडयंत्र को उजागर करना उनके ही जीवट की बात थी। बस्तर इलाके में आज भाजपा का एक खास जनाधार है तो इसके पीछे श्री कश्यप की मेहनत और उनकी छवि भी एक बड़ा कारण है।

बेबाकी और साफगोई उनकी राजनीति का आधार है। वे सच कहने से नहीं चूकते थे चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। यह उनका एक ऐसा पक्ष है जिसे लोग भूल नहीं पाएंगें। बस्तर में माओवादी आतंकवाद की काली छाया के बावजूद वे शायद ऐसे अकेले जनप्रतिनिधि थे, जो दूरदराज अंचलों में जाते और लोगों से संपर्क रखते थे। आदिवासी समाज में आज उन-सा प्रभाव रखने वाला दूसरा नायक बस्तर क्षेत्र में नहीं है। वे अकेले आदिवासी समाज ही नहीं, वरन पूरे प्रदेश में बहुत सम्मान की नजर से देखे जाते थे। उनकी राजनीति में आम आदमी के लिए एक खास जगह है और वे जो कहते हैं उसे करने वाले व्यक्ति थे। माओवादियों से निरंतर विरोध के चलते उनके पुत्र की भी पिछले दिनों हत्या हो गयी थी। ऐसे दुखों को सहते हुए भी वे निरंतर बस्तर में शांति और सदभाव की अलख जगाते रहे। श्री कश्यप के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि बस्तर का त्वरित विकास हो, वहां का आदिवासी समाज अपने सपनों में रंग भर सके और समाज जीवन में शांति स्थापित हो सके। बस्तर को माओवादी आतंक से मुक्ति दिलाकर ही हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

आदिवासियों के शोषण के खिलाफ हमेशा लड़ने वाले कश्यप की याद इसलिए भी बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है क्योंकि आदिवासियों के पास अब उन सरीखी कोई प्रखर आवाज शेष नहीं है। अपनी जिद और सपनों के लिए जीने वाले कश्यप ने एक विकसित और खुशहाल बस्तर का सपना देखा था। उनके दल भारतीय जनता पार्टी और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों को इस सपने को पूरा करना होगा। बस्तर में विकास और शांति दोनों का इंतजार है, उम्मीद है राज्य की सरकार इन दोनों के लिए प्रयासों में तेजी लाएगी। मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने अपनी श्रद्धांजलि में श्री कश्यप को लौहपुरूष कहा है, जो वास्तव में उनके लिए एक सही संज्ञा है। भाजपा के अध्यक्ष रहे स्व. कुशाभाऊ ठाकरे उन्हें काला हीरा कहा करते थे। ये बातें बताती हैं कि वे किस तरह से आर्दशवादी और विचारों की राजनीति करने वाले नायक थे। बस्तर ही नहीं समूचे देश में आदिवासी समाज को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो अपने समाज ही नहीं, संपूर्ण समाज को न्याय दिलाने की लड़ाई को प्रखरता से चला सके। आज राजनीति में सारे मूल्य बदल चुके हैं। मूल्यों की जगह गणेशपरिक्रमा, समर्पण की जगह पैसे ने ली है और परिश्रम को बाहुबल से भरा जा रहा है। बलिराम कश्यप जैसे लोग इसलिए भी बेतरह याद आते हैं। यह सोचना होगा कि क्या अब इस दौर में बलिराम कश्यप जैसा हो पाना संभव है। इस माटी के लोग अब कैसे बनेगें ? क्या अच्छे आदमकद लोग बनना बंद हो गए हैं या बौनों की बन आई है ? अब जबकि राज्य में न श्यामाचरण शुक्ल हैं, न बलिराम कश्यप हैं, न पंडरीराव कृदत्त, न लखीराम अग्रवाल हैं – हमें उन मूल्यों और विचारों की याद कौन दिलाएगा जिनके चलते हम संभलकर चलते थे। हमें पता था कोई कहे न कहे, ये लोग हमारे कान जोर से पकड़ेंगें और याद दिलाएंगें कि तुम्हारा रास्ता क्या है। नई राजनीति ने, नए नायक दिए हैं, पर इन सरीखे लोग कहां जो हमें अपने जीवन और कर्म से रोज सिखाते थे। डांटते थे, फटकारते थे। उनके लिए राजनीति व्यवसाय नहीं था, उसके केंद्र में विचार ही था। विचार ही उनकी प्रेरणाभूमि था। वे राजनीति में यूं ही नहीं थे, सोच समझकर राजनीति में आए थे। अपनी नौजवानी में जिस विचार का साथ पकड़ा ताजिंदगी उसके साथ रहे और उसके लिए जिए। यह पीढ़ी जा चुकी है, छ्त्तीसगढ़ के राजनीतिक क्षेत्र को एक कठिन उत्तराधिकार देकर। क्या हम इसके योग्य हैं कि इस कठिन उत्तराधिकार को ग्रहण कर सकें, यह सवाल आज हम सबसे है कि हम इसके उत्तर तलाशें और छत्तीसगढ़ की महान राजनीति के स्वाभाविक उत्तराधिकारी बनने का प्रयास करें। बलिराम जी के न रहने के बाद जो शून्य है वह बहुत बड़ा है। इस अकेली आवाज की खामोशी को, बहुत सी आवाजें समवेत होकर भी भर पाएंगीं, इसमें संदेह है। आज जबकि बस्तर अपने समूचे इतिहास का सबसे कठिन युद्ध लड़ रहा है, जहां आदिवासियों के न्याय दिलाने के नाम पर आया एक विदेशी विचार(माओवाद) ही आदिवासियों का शत्रु बन गया है, हमें बलिराम कश्यप का नाम लेते हुए इस जंग को धारदार बनाना होगा। क्योंकि बस्तर की शांति और विकास ही बलिराम जी का सपना था और इस सपने में हर छत्तीसगढ़िया और भारतवासी को साथ होना ही चाहिए। शायद तभी हम उन सपनों से न्याय कर पाएंगें जो बलिराम कश्यप ने अपनी नौजवानी में और हम सबने छ्त्तीसगढ़ राज्य का निर्माण करते हुए देखा था।