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सत्ता संघर्ष से रू-बरू उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों से पूर्व राज्य में राजनैतिक तापमान दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। सत्ता संघर्ष  के इस वातावरण ने पूरे प्रदेश में अच्छा-खासा तनाव बना दिया है। साफ प्रतीत हो रहा है कि बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख तथा प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती किसी भी कीमत पर अपने हाथ से सत्ता जाने नहीं देना चाहतीं। परंतु गैर बसपाई दल इसी फरा़ में हैं कि किसी भी तरह से इस बार मायावती को सत्ता से हटा कर ही चैन लिया जाए। ज़ाहिर है सत्ता में बने रहना या सत्ता छोड़ना चूंकि जनता जनार्दन के हाथों में है इसलिए बसपा सहित सभी राजनैतिक दल जनता को लुभाने

के लिए तरह-तरह े हथकंडे भी अपना रहे हैं। यदि सत्तारुढ़ बीएसपी की बात छोड़ दें तो राज्य के अन्य सभी विपक्षी दलों में इस बात की भी होड़ लगी हुई है कि प्रदेश में मायावती तथा बहुजन समाज पार्टी के विकल्प के  रूप में दरअसल असली दावेदार है कौन? कांग्रेस,समाजवादी पार्टी या भारतीय जनता पार्टी?
इसमें कोई शक नहीं कि हमेशा सत्तारूढ़ दल को ही स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए सबसे अधिक प्रयास करने होते हैं। सत्तारूढ़ दल चूंकि चारों ओर से विपक्ष के आरोप तथा अपनी अकर्मण्यताओं एवं नष्कि्रियताओं े चलते भारी प्रहार झेल रहा होता है इसलिए उसे समक्ष रक्षात्मक मुद्रा अपनाने की भी ज़बरदस्त चुनौती आ खड़ी होती है। इसे अतिरिक्त विपक्ष द्वारा बताई व गिनाई जाने वाली नाकामियों के जवाब में सत्तापक्ष को अपनी उपलिब्धयों को भी बढा़-चढ़ा कर जनता के  समक्ष पेश करना होता है। सत्तापक्ष अपने शासन काल में जिनती भी लोकहितकारी एवं लोकलुभावनी योजनाएं कार्यान्वित करता है उनका भी बढ़ा-चढ़ा कर ब्यौरा जनता को दिया जाता है। इसे लिए सत्तारूढ़ दल सरकारी फंड का भरपूर दुरुपयोग कर समाचार पत्रों, रेडियो व टेलीविज़न में तथा तमाम स्थानीय व राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में भारी-भरकम विज्ञापन जारी करते हैं। लगभग सभी राज्यों की सरकारें यहां तक कि ेंद्र सरकार भी इस रणनीति का सहारा लेते हुए देखी जा सकती है। इसी संबंध में यहां एक बात का ज़िक्र करना और भी प्रासंगिक होगा। सरकारें भलीभांति यह भी जानती हैं कि चुनाव तिथि की घोषणा होने े साथ ही चूंकि चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है और इसे बाद कोई भी सरकार अपनी शासकीय उपलिब्धयों से संबद्ध कोई विज्ञापन जारी नहीं कर सकती, किसी नई योजना की घोषणा नहीं की जा सकती, किसी नई योजना का उद्घाटन नहीं किया जा सकता, किसी अधिकारी का स्थानांतरण चुनाव आचार संहिता लागू होने के पश्चात सामान्य परिस्थितियों में नहीं किया जा सकता आदि।
इसी लिए सरकारें तथा इने रणनीतिकार चुनाव तिथि घोषित होने से पूर्व ही वह सब कुछ कर डालना चाहते हैं जोकि चुनाव तिथि घोषित होने के बाद नहीं कर सकते। ज़ाहिर है उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा जा रहा है। आए दिन करोड़ों रुपये के विज्ञापन केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्यों के विभिन्न समाचार पत्रों को भी आबंटित किए जा रहे हैं। संपूर्ण पृष्ठ के विज्ञापन कहीं भीतरी पृष्ठ पर तो कहीं अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित किए जा रहे हैं। स्वर्गीय काशीराम जी की जन्मतिथि को बहाना बना कर राज्य सरकार ने एक विज्ञापन जारी किया है। इस विज्ञापन के माध्यम से मायावती एक तीर से कई शिकार खेल रही हैं। सबसे पहले तो वे स्वयं को काशीराम का उत्तराधिकारी साबित करना चाह रही हैं। दूसरे काशीराम जी की स्मृति में निर्मित शहर, कस्बे स्थल, पार्क तथा कई योजनाओं आदि के बहाने वह अपने विकास कार्यों का भी ढिंढोरा पीट रही हैं। तीसरी बात वह यह भी प्रमाणित करना चाह रही हैं कि बाबा साहब भीमराव अंबेदकर के दलित उत्थान के जिस मिशन को काशीराम जी ने आगे बढ़ाया था अब वही परचम मायावती स्वयं लेकर दलित समाज की मसीहाई कर रही हैं। यहां इसी सिलसिले से जुड़ी एक बात और भी गौरतलब है कि विज्ञापन आबंटन की कृपादृष्टि राज्य सरकार द्वारा उन्हीं समाचार पत्रों पर हो रही है जो या तो निष्पक्ष मीडिया घराने े रूप में अपनी पहचान रखते हैं या सरकारी ढोल पीटने में अपनी महारत रखते हैं। खुदा न ख्वा़स्ता यदि कोई समाचार पत्र किसी विपक्षी नेता से संबद्ध है या प्रतिदिन राज्य सरकार े विरोध का ही बिगुल बजाता रहता है। ऐसे में वह समाचार पत्र राज्य सरकार े गुणगान करने वाले इन भारी-भरकम व बहुमूल्य विज्ञापनों से महरूम है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले राज्य सरकार के उपलिब्धपूर्ण विज्ञापनों के अतिरिक्त बसपा और भी कई ऐसे तिकड़मबाज़ीपूर्ण विज्ञापन जारी कर रही है जिसका श्रेय मायावती बेवजह लेना चाह रही हैं। उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों रेलमंत्री ममता बैनर्जी ने उत्तर प्रदेश के लिए भी रेलवे से जुड़ी कई योजनाओं की घोषणा की। वास्तव में रेलवे संबंधी किसी भी योजना की घोषणा का श्रेय तो केद्रीय रेलमंत्री को ही जाता है और यदि यह मान भी लिया जाए कि बीएसपी के सांसदों के प्रयासों से ही प्रदेश में रेलवे की कोई नई योजना आई है तो भी अधिक से अधिक इसका श्रेय संयुक्त रूप से दोनों ही राजनैतिक दल या नेता ले सकते हैं। परंतु राज्य सरकार द्वारा जारी एक संपूर्ण पृष्ठ के विज्ञापन में मायावती का फोटो लगाकर नीले रंग के पूरे पृष्ठ के विज्ञापन को इस प्रकार प्रकाशित किया गया गोया मायावती स्वयं रेल मंत्री हों तथा लोकहित के लिए स्वयं उन्होंने ही यह योजनाएं प्रदेश के लिए जारी की हों। पूरे विज्ञापन में कहीं भी न तो संप्रग सरकार को धन्यवाद दिया गया था न ही ममता बैनर्जी या उनकी तृणमूल कांग्रेस को।
बहरहाल नई-नई योजनाओं की घोषणा करने तथा उन्हें प्रचारित करने में जहां मायावती इस समय अपनी पूरी शक्ति झोंक रही हैं वहीं विपक्षी दलों में भी इस बात की होड़ लगी हुई है कि मायावती के विकल्प के रूप में प्रदेश की सत्ता का असली दावेदार कौन है? इसमें कोई दो राय नहीं कि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी ही प्रदेश में कभी पहले स्थान पर थी जो मायावती के सत्ता में आने के बाद मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में चली गई थी। परंतु गत संसदीय चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी द्वारा राज्य में किए गए तूफानी दौरों के परिणामस्वरूप अप्रत्याशित ढंग से 22 लोकसभा सीटें जीतकर समाजवादी पार्टी की राज्य में नंबर दो होने की दावेदारी को सीधी चुनौती दे डाली। समाजवादी पार्टी के लिए सबसे शर्मनाक व चिंता जनक स्थिति उस समय उत्पन्न हुई जबकि गत वर्ष िफरोज़ाबाद लोकसभा सीट से मुलायम सिंह यादव की बहू तथा अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव कांग्रेस प्रत्याशी तथा पूर्व समाजवादी पार्टी नेता राजबब्बर से बुरी तरह चुनाव हार गईं। इस चुनाव परिणाम ने तो समाजवादी पार्टी की चूलें ही हिलाकर रख दीं।
अब जैसे-जैसे विधानसभा चुनावों को समय करीब आता जा रहा है समाजवादी पार्टी पुनः स्वयं को इस स्थिति में लाने का प्रयास कर रही है कि सपा ही बसपा का विकल्प समझी जा से तथा अपने आपको नंबर दो की स्थिति में बऱरार रख से। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी द्वारा राज्य में तीन दिवसीय आंदोलन छेड़ा गया। इसमें हज़ारों सपा कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए तथा कई स्थानों पर राज्य की पुलिस द्वारा इन प्रदर्शनकारियों े मनोबल को तोड़ने े लिए तथा इन्हें तितर-बितर करने े लिए खूब लाठियां भांजी गई तथा आक्रामक रुख अख्तियार किया गया। इन तीन दिवसीय प्रदर्शनों े माध्यम से सपा ने जहां प्रदेश की जनता को यह बताने की कोशिश की कि मायावती सरकार अराजकता का प्रतीक है वहीं प्रदर्शनकारियों पर हुए लाठीचार्ज े प्रति भी अपनी बेचारगी का इज़हार किया। दूसरी ओर मायावती ने भी पुनः प्रदर्शन करने पर ऐसी ही कार्रवाई किए जाने की भी चेतावनी दी है।
इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी भी जनता को इमोशनल ब्लैकमेल करने के तमाम तरीके अपना रही है। कभी वरूण गांधी की शादी अति धार्मिक तौर-तरीे से शंकराचार्य े आश्रम में करवा कर यह संदेश देने की कोशिश की जाती है कि फायर ब्रांड भाजपा सांसद वरूण गांधी पूर्णतया धार्मिक हैं तथा वैदिक रीति-रिवाजों को मानने वाले हैं। तो कभी वे अपने मतदाताओं को विवाह भोज देकर जनता के मध्य अपनी लोकपि्रयता अर्जित करना चाहते हैं। इसी प्रकार भाजपा उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मौजूद अल्पसंख्यक मतदाताओं को भी अपनी ओर आकर्षित करना चाह रही है। भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी द्वारा बाबरी मिस्जद विध्वंस को लेकर दिए गए उनके पश्चात्ताप पूर्ण बयान को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है। परंतु हकीकत तो यही है कि भाजपा अपने तमाम प्रयासों व रणनीतियों के बावजूद अभी भी इस स्थिति में नहीं है कि वह राज्य में नंबर दो होने की राजनैतिक हैसियत तक स्वयं को पहुंचा से। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में छिड़े इस सत्ता संघर्ष में चुनाव का समय आने से पूर्व जनता को अपनी ओर आकर्षित करने े लिए अभी और भी न जाने कितनी रणनीतियां अपनाई जाएंगी तथा नए राजनैतिक समीकरण भी बनेंगे।

 

 

मिली कुंए में भांग आज फिर होली में

 

मिली कुंए में भांग आ

ज फिर होली में

 

काम हुए सब रॉंग आज फिर होली में

 

सजी-धजी मुर्गी की देख अदाओं को

 

दी मुर्गे ने बांग आज फिर होली में

 

करे भांगड़ा भांग उछल कर भेजे में

 

नहीं जमीं पर टांग आज फिर होली में

 

फटी-फटाई पेंट के आगे ये साड़ी

 

कौन गया है टांग आज फिर होली में

 

करने लगे धमाल नींद के आंगन में

 

सपने ऊटपटांग आज फिर होली में

 

बोलचाल थी बंद हमारी धन्नों से

 

भरी उसीकी मांग आज फिर होली में

 

सजधज उनकी देख गधे भी हंसते हैं

 

रचा है ऐसा स्वांग आज फिर होली में

 

साडेनाल कुड़ी सोनिए आ जाओ

 

सुनो इश्क दा सांग आज फिर होली में

 

प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के नाम भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. पुरुषोत्तम मीणा का खुला खत!

पत्रांक : बास/राअ/1112/1 दिनांक : 11.03.2011

 

प्रेषक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्य्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय-7 तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान), फोन : 0141-2222225, मोबाइल : 098285-02666

 

 

प्रेषिति :

माननीय श्री डॉ. मनमोहन सिंह जी,

प्रधानमन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|

 

विषय : राजस्थान के उपभोक्ताओं के साथ बीएसएनएल की अन्यायपूर्ण एवं असंवैधानिक नीति कोतत्काल रोकने के सम्बन्ध में|

 

उपरोक्त विषय में ध्यान आकृष्ट कर अनुरोध है कि भारत सरकार के उपक्रम भारत संचार निगम लिमीटेड (बीएसएनएल) के अधिकारियों द्वारा आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक एवं भौगौलिक दृष्टि से पिछड़े और प्रकृतिक आपदाओं को झेलने का विवश राजस्थान राज्य के फोन उपभोक्ताओं के विरुद्ध संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करके मनमानी व अन्यायपूर्ण नीति अपनाई जा रही हैं, जिसके कारण लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी आपकी लोकप्रिय सरकार, अलोकप्रिय होती जा रही है|

 

यह कि कि भारत संचार निगम लिमिटेड सीधे तौर पर भारत सरकार के दूर संचार विभाग के अधीन कार्यरत एक राष्ट्रीय सरकारी निकाय है, कार्य विभाजन की दृष्टि से अलग-अलग क्षेत्रीय प्रशासनिक कार्यालयों द्वारा संचालित किया जाता है| बीएसएनएल केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में होने के साथ-साथ भारत के संविधान का अनुपालन करने के लिये बाध्य है| इसके उपरान्त भी बीएसएनएल के अदूरदर्शी अधिकारियों के कारण ऐसी नीतियॉं बनाकर लागू की जा रही हैं, जिनके चलते आपकी लोकप्रिय, लोकतान्त्रिक सरकार के प्रति आम लोगों में लगातार असन्तोष और गुस्सा व्याप्त होता जा रहा है|

 

यह कि बीएसएनएल ने गुजरात राज्य में 111 रुपये प्रतिमाह के अतिरिक्त प्रभार पर ‘लो कर लो बात’ नाम से अनलिमिटेड योजना लगभग पांच वर्ष पूर्व से चालू कर रखी है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण गुजरात राज्य में बीएसएनएल के सम्पूर्ण नेटवर्क (बेसिक व सेलुलर) पर गैर मीटरिंग बात करने की सुविधा प्रदान की गयी है| जबकि इसके विपरीत बीएसएनएल ने गुजरात की ‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’ के जैसी ही सुविधा राजस्थान में 17 मई, 2008 से 199 +कर रुपये आदि के अतिरिक्त मासिक भुगतान पर प्रारम्भ की थी| इसमें राजस्थान में गुजरात की तुलना में कर सहित लगभग दुगुना अर्थात् उपभोक्ताओं से 98 रुपये प्रतिमाह अधिक वसूल कर सरेआम शोषण किया जा रहा है| 15 अगस्त, 2008 से यह सुविधा भी नये उपभोक्ताओं हेतु बंद कर दी गई है| भारत सरकार के एक ही संस्थान द्वारा एक समान सेवा के लिए अधिक शुल्क वसूल करना शोषण व अस्वस्थ परिपाटी की परिभाषा में आता है| बीएसएनएल के अधिकारियों द्वारा भेदभाव, शोषण व असंवैधानिक कृत्य किया जा रहा है, जिसे तत्काल रोकना जरूरी है|

 

यह कि बेसिक फोन की तुलना में सेलुलर फोन की अतिरिक्त सुविधाओं के कारण सेलुलर फोन धारकों की संख्या बेसिक फोन से लगभग 10 गुणा है| अत: उपभोक्ताओं को वास्तविक लाभ सेलुलर फोन पर नि:शुल्क सुविधा उपलब्ध करवाने से हो सकता है| भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 के अनुसार कमजोर तथा पिछड़ों नागरिकों के हितो की रक्षा के लिए योगदान देना सरकार का अनिवार्य संवैधानिक कर्त्तव्य है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर अनेक निर्णयों में नागरिकों के अधिकार के रूप में भी परिभाषित भी किया है| इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रकाश में सरकार का अनिवार्य और बाध्यकारी दायित्व है कि वह अपने समस्त नागरिकों से एक समान व्यवहार करे|

 

यह कि बेशक बीएसएनएल को प्रशासनिक दृष्टि से कितने ही भागों या क्षेत्रों में विभाजित किया जा चुका हो, लेकिन सभी क्षेत्रों में सेवारत बीएसएनएल के सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को एक समान वेतन-भत्तों का भुगतान किया जाता है| अत: यह स्वत: प्रमाणित है कि देश के सभी क्षेत्रों में बीएसएनएल की सेवा लागत एक समान है| ऐसे में अकारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग या कम-ज्यादा शुल्क वसूलना अतार्किक है|

 

यह कि यदि बीएसएनएल अपनी दरों में किसी प्रकार का अन्तर करना जरूरी समझता है तो ऐसा अन्तर संविधान सम्मत प्रावधानों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये| जिसके लिये संविधान में अनेक उपबन्ध किये गये हैं और विधि का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि ‘‘जिन्हें अपने जीवन में कम मिला है, उन्हें कानून में अधिक दिया जावे|’’ इसी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए संविधान की उद्देशिका तथा अनुच्छेद 38 में आर्थिक न्याय के तत्व का समावेश किया गया है और इसी कारण बीएसएनएल द्वारा समान लागत के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में कम आयवर्ग के नागरिकों के निवास के कारण कम किराये पर भी अधिक मुफ्त टेलिफोन कॉले उपलब्ध करवायी जा रही है| केवल यही नहीं, बल्कि अनेक कम आय अर्जित करने वाले राज्यों में भी इस प्रकार की छूट प्रदान की गयी है|

 

यह कि वर्ष 2002-2003 के आंकड़ों के अनुसार बिहार, राजस्थान व गुजरात राज्य की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय क्रमश: 5683 रुपये, 12743 रुपये एवं 22047 रुपये है| सम्भवत: इसी विषमता को ध्यान में रखते हुए और के सामाजिक न्याय स्थापित करने वाले लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना सुनिश्‍चित करने वाले प्रावधानों को ध्यान रखते हुए बिहार राज्य में बीएसएनएल द्वारा टेलीफोन सुविधा किसी प्रकार का किराया नहीं लिया जा रहा है| जबकि गुजरात राज्य में ‘‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’’ सुविधा १११ रुपये प्रतिमाह शुल्क पर दी जा रही है, जबकि गुजरात में प्रतिव्यक्ति आय (22047 रुपये) की तुलना में राजस्थान के लोगों की प्रतिव्यक्ति आय (12743 रुपये) लगभग आधी है| क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने हेतु राजस्थान में समान सुविधा गुजरात में उपलब्ध करवाई जा रही दर से आधी दर (करीब 55 रुपये प्रतिमाह) पर उपलब्ध करवायी जानी चाहिए| किन्तु इसके विपरीत बीएसएनएल द्वारा संविधान के उक्त सभी प्रवधानों को धता बताते हुए न्यायसंगत दर (करीब 55 रुपये प्रतिमाह) की बजाय लगभग चार गुणा दर (199+कर) पर, गुजरात के समान सुविधा राजस्थान के नागरिकों को उपलब्ध करवायी जा रही है, जो भी अब बन्द कर दी गयी है| यह हर दृष्टि से न मात्र अन्यायपूर्ण है, बल्कि असंवैधानिक भी है|

 

यह कि यह सर्वविदित तथ्य है और सरकारी आंकड़ों से भी प्रमाणित होता है कि राजस्थान शिक्षा, कृषि एवं आर्थिक विकास आदि के सम्बन्ध में गुजरात राज्य की तुलना में पिछड़ा हुआ राज्य है और लगातार प्राकृतिक आपदाओं का शिकार भी होता रहता है| जहां पर संविधान के अनुच्छेद 38 के अनुसरण में बीएसएनएल को अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए तुलनात्मक रूप से सस्ती सेवाएं उपलब्ध करवानी चाहिए| जबकि बीएसएनएल का वर्तमान दर ढांचा संविधान के प्रावधानों के पूर्णत: विपरीत है|

यह कि बीएसएनएल द्वारा राजस्थान में निर्धारित दर ढांचा मनमाना और संविधान के विपरीत होने के कारण सामाजिक न्याय एवं लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत है| ऐसी नीतियों से लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार जनता के बीच अलोकप्रिय हो जाती हैं| इसलिये केन्द्रीय सरकार को इस भेदभाव को तत्कान ठीक करने की जरूरत है|

 

आपसे अनुरोध है कि जनहित में बीएसएनएल को निर्देश दिये जावें कि-

(क) क्षेत्रीय विषमता दूर करने हेतु बीएसएनएल द्वारा राजस्थान में दूरभाष पर गुजरात राज्य से आधी दर अर्थात रूपये 61/- प्रतिमाह की दर पर ‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’ सुविधा प्रदान की जावे|

 

(ख) बीएसएनएल द्वारा गुजरात राज्य की तुलना में राजस्थान राज्य के विभिन्न उपभोक्ताओं से अधिक वसूला गया शुल्क (199-61) 138 रुपये प्रतिमाह को पुराने उपभोक्ताओं को वापस किया जावे या आगे के बिलों में सामायोजित किया जावे| अन्यथा उपभोक्ता कल्याण निधि में अंतरित किया जावे|

 

प्रतिलिपि :

 

1. माननीय श्री कपिल सिब्बल जी, दूर संचार मन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|

2. माननीय श्री सचिन पायलेट जी, दूर संचार राज्य मन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|

3. राजस्थान से चुनकर जाने वाले सभी माननीय संसद सदस्य लोकसभा एवं राज्य सभा को उनके निवास के पते पर प्रेषित|

 

तिब्बत की लड़ाई का अगला पड़ाव

राजनीतिक कार्यों से संन्यास लेने की दलाई लामा की घोषणा तिब्बत के लिए ऐतिहासिक महत्व की है। 1959 में इसी दिन ल्हासा में हजारों तिब्बतियों ने चीन की सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। हजारों तिब्बती शहीद हो गए थे। तिब्बती स्वतंत्रता का आंदोलन उसी दिन से किसी न किसी रूप में आज तक चल रहा है। चीन तिब्बत को लेकर चैन से बैठने की स्थिति में नहीं है। तिब्बत के भीतर वहां का जनसाधारण विद्रोह करता रहता है और तिब्बत के बाहर निर्वासित तिब्बती इस मुद्दे को मरने नहीं देते। ऐसा माना जाता है कि इस आंदोलन की बहुत बड़ी ऊर्जा दलाई लामा से प्राप्त होती है। दलाई लामा ने तिब्बत के प्रश्न को विश्व मंच से कभी ओझल नहीं होने दिया, इसलिए चीन के शब्द-भंडार में ज्यादा गालियां दलाई लामा के लिए ही सुरक्षित रहती हैं। दरअसल, दलाई लामा साधारण शब्दों में तिब्बत के धर्मगुरु और शासक हैं। इतने से ही तिब्बत को समझा जा सकता। यही कारण था कि 1959 में जब चीन की सेना ने ल्हासा पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, तब माओ ने चीनी सेना से पूछा था कि दलाई लामा कहां है? सेना के यह बताने पर कि वह पकड़े नहीं जा सके और भारत चले गए हैं, तो माओ ने कहा था कि हम जीतकर भी हार गए हैं।

 

अब उन्हीं दलाई लामा ने तिब्बत की राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय किया है। वैसे चीन ने तो दलाई लामा की इस घोषणा को सिरे से खारिज करते हुए इसे उनकी एक और चाल बताया है, परंतु तिब्बती जानते हैं कि यह उनके धर्मगुरु की चाल नहीं है, बल्कि उनका सोचा-समझा निर्णय है। इसी कारण निर्वासित तिब्बती सरकार और आम तिब्बती में एक भावुक व्याकुलता साफ देखी जा सकती है।

 

दलाई लामा की उम्र 76 साल हो चुकी है। जाहिर है कि वह भविष्य के बारे में सोचेंगे ही। यदि तिब्बती स्वतंत्रता का आंदोलन उन्हीं के इर्द-गिर्द सिमटा रहा, तो उनके जाने के बाद उसका क्या होगा? दलाई लामा ने इसी को ध्यान में रखते हुए कुछ दशक पूर्व निर्वासित तिब्बत सरकार का लोकतंत्रीकरण कर दिया था। निर्वासित तिब्बती संसद के लिए बाकायदा चुनाव होते हैं। प्रधानमंत्री चुना जाता है। मंत्रिमंडल का गठन होता है और निर्वासित तिब्बत सरकार लोकतांत्रिक ढंग से कार्य करती है। जो लोग इस संसद की बहसों का लेखा-जोखा रखते रहे हैं, वे जानते हैं कि संसद में अक्सर तीव्र असहमति का स्वर भी सुनाई देता है। यहां तक कि दलाई लामा के मध्यम मार्ग और स्वतंत्रता के प्रश्न पर भी गरमागरम बहस होती है। निर्वासित तिब्बत सरकार के संविधान में दलाई लामा को भी कुछ अधिकार दिए गए हैं, लेकिन वह धीरे-धीरे उन्हें छोड़ते जा रहे हैं। संसद में कुछ सदस्य मनोनीत करने का उनके पास अधिकार था, लेकिन उन्होंने इसे स्वेच्छा से त्याग दिया। जाहिर है, दलाई लामा अपनी गैरहाजिरी में तिब्बत के लोकतांत्रिक नेतृत्व को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। दलाई लामा जानते हैं कि उनकी मृत्यु के उपरांत चीन सरकार अपनी इच्छा से किसी को भी उनका अवतार घोषित कर सकती है और फिर उससे मनमर्जी की घोषणाएं करवा सकती है। इस आशंका को ध्यान में रखते हुए ही दलाई लामा ने दो कदम उठाए हैं। पहला, यह घोषणा कि वह चीन के कब्जे में गए तिब्बत में पुनर्जन्म नहीं लेंगे। दूसरा, उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में दलाई लामा के अधिकारों को ही समाप्त कर दिया है। भविष्य में चीन यदि किसी मनमर्जी के दलाई लामा से राजनैतिक घोषणाएं भी करवाएगा, तो तिब्बतियों की दृष्टि में उनकी कोई कीमत नहीं होगी।

 

दलाई लामा के इस कदम से उनके जीवनकाल में तिब्बतियों का ऐसा नेतृत्व उभर सकता है, जो अपने बल-बूते इस आंदोलन को आगे बढ़ा सके। दलाई लामा शुरू से ही यह मानते हैं कि लोकतांत्रिक प्रणाली से ही जन-नेतृत्व उभरता है। वह कहते रहते हैं कि भारत अपनी समस्याओं से इसलिए जूझने में सक्षम है, क्योंकि यहां शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली है, वे इसे भारत की आंतरिक शक्ति बताते हैं। दलाई लामा तिब्बती शासन व्यवस्था में इसी शक्ति को स्थापित करना चाहते हैं, ताकि तिब्बती पहचान का आंदोलन कभी मंद न पड़े। फिलहाल चाहे दलाई लामा अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएंगे, लेकिन उनका नैतिक मार्गदर्शन तिब्ब्ती समुदाय को मिलता ही रहेगा। उनका यही नैतिक मार्ग दर्शन तिब्बत में नए नेतृत्व की शक्ति बनेगा और उसे विभिन्न मुद्दों पर एकमत न होते हुए भी व्यापक प्रश्नों पर साथ चलने की शक्ति प्रदान करेगा। दलाई लामा ने कहा है कि वे धर्मगुरु के नाते ही अपने दायित्वों का निर्वाह करेंगे। तिब्बत की पहचान का प्रश्न भी मूलत: धर्म से ही जुड़ा है। उनके इस कदम से धीरे-धीरे तिब्बतियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा और अपने बल-बूते लड़ने की क्षमता भी।

 

वह जानते हैं कि उनकी मृत्यु के उपरांत नए दलाई लामा के वयस्क होने तक जो शून्य उत्पन्न होगा, उससे तिब्बती निराश हो सकते हैं और भटक भी सकते हैं। शायद इसीलिए करमापा लामा से उनकी आशा है कि वे इस शून्यकाल में तिब्बतियों का मार्गदर्शन करेंगे। यही कारण रहा होगा कि करमापा लामा को लेकर उठे विवाद में दलाई लामा ने अपना विश्वास स्पष्ट रूप से करमापा में जताया।

 

कुछ विद्वानों ने हवा में तीर मारने शुरू कर दिए हैं कि दलाई लामा की घोषणा से भारत और चीन के संबंध सुधरने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह विश्लेषण इस अवधारणा पर आधारित है कि भारत और चीन के रिश्तों की खटास का कारण दलाई लामा हैं। पर चीन भारत से इसलिए खफा नही हैं कि यहां दलाई लामा रहते हैं। चीन के खफा होने का कारण यह है कि भारत चीन को अरुणाचल और लद्दाख क्यों नहीं सौंप रहा? चीन भारत के बहुत बड़े भू-भाग को अपना मानता है और वह चाहता है कि भारत उसके इस दावे को स्वीकार करे। दलाई लामा के भारत में रहने या न रहने से चीन के इस दावे पर कोई असर नहीं पड़ता।

 

स्नेहन से स्वास्थ्य समस्याओं के समाधन

स्नेहन अर्थात तेल या घी के विभिन्न प्रयोगों की प्राचीन परम्परा के अनेकों प्रमाण मिलते हैं। आयुर्वेद में वर्णित शात्राोक्त विध्यिों के इलावा अनेकों अलिखित पर परम्परा से प्रचलित विध्यिँ भी हैं जो श्रुतिज्ञान के रूप में आज भी सुरक्षित हैं। सामान्य और अति विशिष्ट प्रयोग स्नेहन के अन्तर्गत प्रचलित है। पंच कर्म विध्यिों के अभ्यंग और तैल शिरोधरा एक महत्वपूर्ण अंग है। नस्य, तैल युक्त विरेचन तथा पिच्चू धरण भी आयुर्वेद के सुपरिचित विधन है। इस विद्या अर्थात स्नेहन पर जो अध्ययन, सूचनाएं और अनुभवों के निष्कर्ष हमें प्राप्त हुए, उनमें से कुछ ये हैं :
1.केवल मात्रा गौध्ृत से अंजन करने से आजीवन रतौंधी, कैट्रैक्ट, अंजनहारी, आईफ्रलू आदि रोग नहीं होते तथा ऐनक लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । अर्थात गौध्ृत के कारण विजातीय पदार्थों का संग्रह नहीं होता और यह घृत संक्रमण रोध्क भी है। पर यहां यह जानना जरूरी है कि गौध्ृत कौनसा या किस गाय का हो और कैसे बना हो । इस पर हम आगे चर्चा करेंगे ।
2.नाक में गौध्ृत नसवार लेने से स्नायुकोष निरन्तर स्वस्थ और सशक्त बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आयु के साथ स्नायुकोषों की मृत्यु होने का क्रम भी लगभग बन्द हो जाता है। यानी ब्रेनसैण्ड बनना बन्द होता है। सबसे मूल्यवान और महत्व की बात यह है कि जो अरबों स्नायुकोष आजीवन प्रसुप्त पड़े रहते हैं, वे भी क्रियाशील होने लगते हैं जिसके कारण व्यक्ति भी स्मरण शक्ति तथा प्रसुप्त अतिमानवीय शक्तियां भी क्रियाशील होने लगती हैं। इन प्रभावों का कारण शायद सैरिब्रोसाईट नामक वह पदार्थ है जो विशेष प्रकार की गऊओं के घीदूध में पया जाता है। कैरोटीन व विटामिन ॔ए’ के बारे में भी हम जानते ही हैं ।
3.एक अद्भुत जानकारी यह मिली है कि अध्रंग ;पैरेलेसिज़द्ध रोगियों को गौध्ृत की नसवार देने से कुछ देर में वे रोगी पूर्णतः ठीक हो गए । अध्रंग का आक्रमण होने पर उसी समय गौध्ृत की नसवार दी जानी चाहिए । एक वैद्य का दावा है कि पुराने अध्रंग रोगियों की मालिश विध्विधन से बने गौध्ृत से की गई तो सभी रोगी ठीक हो गए । एक भी रोगी ऐसा नहीं जो ठीक न हुआ हो । हम जानते हैं कि अध्रंग में स्नायुकोष नष्ट हो जाने के कारण अंग विशेष निष्क्रीय हो जाते हैं और आधु्निक विज्ञान के पास ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे इन मृत कोषों को पुनः जीवित किया जा सके या नवीन कोष बनाए जा सकें । पर यह कमाल साधण से लगने वाले इस घृत प्रयोग से सम्भव है। योग्य वैद्यों और वैज्ञानिकों द्वारा इस पर विध्वित शोध किए जाने की आवश्यकता है।
विचारणीय और उत्साहजनक बात यह भी है कि अनेकों असाध्य समझे जाने वाले मानसिक रोगों का इलाज गौध्ृत प्रयोग से सम्भव हो सकता है।
4.गौ सम्पदा नामक पत्रिका में ही एक सूचना के अनुसार मैंने असाध्य अम्लपित व पेट दर्द के लिए गौघृत और गाय के दूध का प्रयोग किया । एक ही दिन में लाभ नजर आने लगा । केवल एक मास के प्रयोग से अम्लपित के पुराने रोगी ठीक होते हैं। आधु्निक युग के अनेक रोगों का मूल कारण यह अम्लपित रोग है। आयुर्वेद के विद्वान जानते हैं कि अम्लपित का निवारक घृत है और गौघृत विष निवारक भी है। हम आहार में अनेक प्रकार के विशाक्त रसायन खाने के लिए मजबूर हैं। अतः गौघृत का विध्वित प्रयोग इन विषों से हमारी पर्याप्त रक्षा कर सकता है।
5.अनेकों प्रयोगों से साबित हो चुका है कि घातक और असाध्य रेडियेशन से रक्षा और उसके दुष्प्रभावों को घटाने में गौघृत अत्यन्त प्रभावी है। एक्सरे, अल्ट्रासांऊड, सीटिस्कैन, सोनोग्राफी, कीमोथिरैपी के घातक दुष्प्रभावों के इलावा हम हीटर, गीजर, फ्रिज, हैलोजिन, टयूबों, ट्रान्सफार्मरों, विद्युत मोबाईल टावरों की घातक रेडिएशन प्रभावों के शिकार हर रोज बन रहे हैं। इन अपरिहार्य आपदाओं के विरु( गौघृत का प्रयोग सुरक्षा कवच साबित हो सकता है। विकीर्ण तक के प्रभावों को नष्ट करने में गौघृत सक्ष्म हैं, यह संसार के अनेक वैज्ञानिक सि( कर चुके हैं।
6.सरदर्द के अनेकों रोगियों की चिकित्सा हमनें गौघृत की मालिश पावं के तलवों में करके सफलता प्राप्त की है। पांव के तले में मालिश का प्रभाव सीध मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंगों तक पहुंच जाता है। एक्यूप्रैशर के विद्वान जानते हैं कि पांव के तले में हमारे पूरे शरीर के प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं जो अत्यन्त संवेदनशाील और शक्तिशाली हैं। प्रत्येक चिकित्सक को यह सरल पर अद्भुत प्रभाव वाला उपाय आजमानापरखना चाहिए। कमाल की बात यह है कि पावं के तले में की मालिश से केवल सरदर्द ही ठीक नहीं हुआ पेट की गैस, जलन, बेचैनी, अपच और हृदय पर पड़ने वाला दबाव व एंजाईना की दर्द भी उल्लेखनीय रूप से कम होती गई । ऐसा एक नहीं अनेकों रोगियों को साथ हुआ। आवश्यकता है कि पांव के तलों के शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ने वाले प्रभावों पर विध्वित शोध व अध्ययन हो । यह जानना भी जरूरी है कि गर्मियों में बूटजुराब पहनने का शरीर पर क्या और कितना दुष्प्रभाव होता है।
7.पकाकर ठण्डा किया तेल कानों में डालने का विधन आयुर्वेद में है और भारत में यह एक प्राचीन परम्परा भी है। आधु्निक चिकित्सक इसका निषेध करते हैं पर हमनें पाया है कि कानों में तेल डालने से सरदर्द, बाल झड़ना, आंखों की रोशनी, स्मरण शक्ति पर बहुत अच्छा और स्पष्ट प्रभाव कुछ दिनों के प्रयोग में ही नजर आ जाता है। कंठ शोथ्।, टांसिल के कुछ रोगी तो बिना दवा के केवल कान में तेल डालने से ठीक हो गए । तेल डालने से मैल सरलता से बाहर आ जाती है। एक रोगिणी की 1012 साल पुरानी कान दर्द मूलिन आयल डालने से 1516 दिन में ठीक हो गई और उसके कान से चने जितना बड़ा कठोर मैल का टुकड़ा स्वयं बाहर आ गया । कान का पर्दा फटा हुआ हो तो तेल डालना उचित नहीं, केवल पिच्चू धरण करना चाहिए। अर्थात पूरे स्नायुतंत्रा को स्वस्थ रखने के लिए कान में तेल और नाक में भी तेल या गौघृत धरण करना अत्यन्त लाभदायक है।
नाक कान के स्नेहन व सर की मालिश से पिच्यूटरी और पीनियल ग्लैंड भी स्वस्थ रहते हैं। हम जानते हैं कि पूरे शरीर और हमारे सभी ग्लैण्डस का नियंत्राण पिच्यूटरी ग्लैंड द्वारा होता है। उसके स्वस्थ होने का अर्थ है कि शरीर की सभी क्रियाएं सुचारू होंगी और शरीर स्वस्थ रहने में सहायता मिलेगी ।
विशेष निष्कर्ष :
श्वास, आहर और एलोपैथिक दवाओं के माध्यम से जो न्यूरोटॉक्सीन हमारे स्नायुतंत्रा में संग्रहित होते हैं और स्नायुकोषों को नष्ट करते हैं उनके उपचार व बचाव की दिशा में कुछ खास काम नहीं हो सकता है। तभी अवसाद, पागलपन, एल्जाईमर, ऑटिज़्म तथा अन्य मानसिक रोग महामारी की तरह ब़ रहे हैं। अमेरिका जैसा शक्तिशाली और विकसित देश ऑटिज़्म तथा अन्य अनेकों मानसिक रोगों का शिकार बनता जा रहा है। इन सब न्यूरोटॉक्सीन व असाध्य मानसिक रोगों से सुरक्षा का सुनिश्चित और शक्तिशाली उपाय व समाधन है स्नेहन । पर इसके लिए जरूरी है कि हमें शु( गौघृत, शु( सरसों का तेल, शु( नारियल, सूरजमुखी, बिनौले, तिल आदि के तेल मिल सकें । इस पर भी अन्त में चर्चा करेंगे ।
8.सूखी खांसी पर भी हमनें सैंकड़ों बार स्नेहन प्रयोग किए । रोचक प्रयोग यह है कि सूखी खांसी वाले को गुदा में शु( सरसों के तेल का पिच्चू धरण करवाया जाता है। हफ्रतों, महीनों पुरानी सूखी खांसी कुछ मिनट या अध्कि से अध्कि एक रात में ठीक हो जाती है। आई फ्रलू में भी यह प्रयोग सफल है। विचारणीय और शोध की बात है कि गुदाचक्र और हमारे कण्ठ व उत्तमांगों का सम्बन्ध किस प्रकार गुदा से है और गुदा का प्रभाव शरीर के अन्य अंगों पर कितना, क्यों और कैसे होता है? योगाचार्यों द्वारा गणेश क्रिया करनेकरवाने का क्या यह अर्थ नहीं कि वे गुदा चक्र के शोध्न का महत्व और शरीर पर इसके प्रभावों के रहस्यों को अच्छी तरह जानते थे। पर आधु्निक चिकित्सा शास्त्रा अनेक अन्य शरीर विज्ञान के रहस्यों की तरह इस बारे में भी अनजान है जबकि भारतीय मनीषी इसके गहन ज्ञाता थे।
विचारणीय यह भी है कि फोम के गद्दों पर बैठने, शौच के बाद पानी के स्थान पर टॉयलेट पेपर के प्रयोग का प्रभाव गुद रोगों, रक्त चाप, स्नायुमानसिक रोगों पर क्या होता होगा? शीतल जल से गुदा को अच्छी तरह धेने के क्याक्या उत्तम प्रभाव होते होंगे? भारतीय परम्परायें अत्यन्त वैज्ञानिक है। अतः शौच के बाद शीतल जल प्रयोग गुदा रोगों व स्नायु रोगों में सम्बन्धें पर गहन शोध की जरूरत है।
विशेष :
निर्गुण्डी तेल और विल्ब तेल की नियमित नसवार से पलित रोग पर वियज पाने का प्रयोग 2 बार हम सफलतापूर्वक कर चूके हैं।
क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि स्नेहन विध्ि के सही प्रयोग से ॔जरा’ पर एक सीमा तक नियन्त्राण सम्भव है। आखिर सारी अति मानवीय शक्तियों का केन्द्र हमारा स्नायुतंत्रा ही तो है। अतः ऊर्जा संचय यानी ब्रह्मचर्य के पालन करने, ऊध्र्वरेतस बनने और स्नेहन जैसे प्रयोगों से एक सीमा तक जरा को जीतने व अनेकों असाध्य रोगों पर विजय पाने का कार्य किया जा सकता है। इस पर भी विध्वित शोध कार्य की जरूरत है।
प्रत्येक विषय की सीमाएं असीमित होती हैं पर हमारी क्षमता और समय की सीमा बंधी हुई है। अतः विषय को विराम देता हुआ कुछ सूचनाएं देना चाहूँगा।
ए1 तथा ए2 गौवंश :
1987 से आजतक हुए शोध बतलाते हैं कि अमेरीकी गऊओं जर्सी, हालिस्टीन, फ्रीजियन, रैड डैनिश आदि की अध्किंश नस्लों में बीटा क्रैसीन ए1 नामक प्रोटीन पाया जाता है जो कैंसर, मधु्मेह, हृदय रोगों तथा अनेक असाध्य मानसिक रोगों का कारण है। इनके दूध में अत्यध्कि मात्रा में मवाद ;पस सैलद्ध पास गए हैं जो कई रोग पैदा करते हैं। इसके विपरित भारतीय गौवंश के दूध में बीटा कैसीन ए2 नामक प्रोटीन पाया गया है जो कैंसर कोषों ;कार्सीनोमा सैलद्ध को नष्ट करता है। सैरिब्रोसाईट, कैरेटीन आदि अन्य अनेक तत्व भी हैं जो शुक्राणुओं को सबल बनाते हैं, पौरूष व प्रजनन शक्तिवध्र्क हैं, बु(िवध्र्क है। अतः स्नेहन में प्रयोग भारतीय गौवंश के घी का होना उचित है। क्रीम से नहीं, मिट्टी के पात्रा में दही जमाकर बनाए मक्खन से बने घी का प्रयोग होना चाहिए।
ब्राजील ने अकारण ही तो 40 लाख से अध्कि भारतीय वंश की गीर, साहिबाल और रैंडसिंधी गऊँए तैयार वहीं कर ली। अमेरिका तेजी से अपने गौवंश को ए1 से ए2 बना रहा है और हम उनके बहकावे में आकर हॉलिस्टिन, जर्सी आदि विशाक्त गौवंश की वृि( कर रहे हैं। हमें अपने हितों की रक्षा अपने विवेक से करनासीखना होगा । विदेशीयों पर आंखें बन्द करके विश्वास करते हमें 200 साल हो गए जिससे हम निरन्तर हानि ही हानि उठा रहे हैं। हमें सम्भलना चाहिए।
विषाक्त तिलहन :
जहां तक तेल की बात है तो चिन्ता की बात यह है कि विदेशी कम्पनियों ने दर्जनों जी एम बीज बाजार में प्रचलित कर दिए हैं, ऐसा अनेक विशेषज्ञों का मानना है। केन्द्र सरकार के एक अध्किरी ने भी इस बात को माना है। सरसों, बाथू, ध्निया, पौदिना, बैंगन, घीया, भिण्डी, मूली, पपीता आदि अनेकों फलसब्जियों के जी एम उत्पाद कम्पनियों द्वारा बाजार में उतार दिये गये हैं इसकी प्रबल आंशका है।
हम 1516 साल से देसी घी और सरसों के तेल कर प्रयोग कर रहे हैं। रिफाईन्ड आयल का प्रयोग लगभग 15 साल से बन्द है। 1011 दिसम्बर को हमनें ड़े लीटर तेल जलाया तो पत्नी का रक्तचाप ब़ गय, मुझे तना व असाद होने लगा। पता नहीं कितना विषैला तेल होगा ।
अतः सही बीजों से खेती के लिए भी सम्भव प्रयास करने होंगे । कैसे होगा? यह हम सबको सोचना होगा । पर होगा जरूर, इस संकल्प पर विश्वास से समाधन होगा ।

 

 

बैंकों के दोहरे मापदंड

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने अपने ताजा बयान में बैंकिंग सेवाओं का लाइसेंस लेने के लिए इच्छुक औघोगिक घरानों को कहा है कि उन्हें कमजोर वर्गों तक बैंकिंग की हर सुविधा मुहैया करवाने के शर्त पर ही लाइसेंस मिल पाएगा। उन्होंने यह भी कहा है कि यदि विदेशी बैंक भारत में अपना विस्तार करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए भारत में सहायक बैंकों की स्थापना करनी होगी। तत्पश्चात् उन्हें गरीबों के बैंक की तरह काम करना होगा। अर्थात उन्हें ऐसे लोगों को बैंकिंग सुविधा देनी होगीे, जिनसे वे मुनाफा नहीं कमा सकेंगे। इस संदर्भ में ॔वित्तीय समग्रता’ की संकल्पना ऐसा ही एक सिंद्घात है।
ज्ञातव्य है कि ॔वित्तीय समग्रता’ की नीति को सरकारी बैंक भी भार के रुप में देखते हैं। निजी बैंक के लिए तो यह संकल्पना एक अनिवार्य बुराई की तरह है। लब्बोलुबाव के रुप में कहा जा सकता है कि समाज के कमजोर वर्ग के प्रति बैंक फिलवक्त अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते हैं। जबकि सैंद्घातिक रुप में सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक समाज के हर तबके तक बैंकिंग की सुविधाएँ पहुँचाना चाहते हैं।
गौरतलब है कि श्री डी सुब्बाराव का यह बयान ऐसे समय में आया है जब बैंकिंग लाइसेंस देने हेतु नए नियमों को अमलीजामा पहनाने की कवायद अपने अंतिम दौर में है।
समझा जाता है कि अब बैंकिं्रग लाइसेंस उन्हीं वित्तीय संस्थानों को दिया जाएगा जो देश के दूरदराज प्रांतों में अवस्थित हर गाँव के हर व्यक्ति को ‘वित्तीय समग्रता’ की नीति के तहत बैंकिंग सुविधा उपलब्ध करवायेंगे। संभावना है कि आगामी दोचार महीनों के अंदर नये बैंकिंग लाइसेंस जारी कर दिये जायेंगे।
घ्यातव्य है कि बैंकों के भारी नानुकर के बाद भी ॔नो फ्रिल’ योजना का शुभारंभ किया गया है। इस योजना के अंतगर्त बचत खाता शून्य राशि से खोली जाती है और इसके लिए केवाईसी के नियमों के अनुपालन पर भी जोर नहीं दिया जाता है। जाहिर है इस योजना का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को बैंकों से जोड़ना है।
सरकार और बैंकों की उदासीनता के कारण ही अभी भी देश की 40 फीसदी आबादी की पहुँच बैंक तक नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति सबसे अधिक गंभीर है। बीमा की सुविधा लेने के मामले में तो हालत और भी शोचनीय है। अधतन आंकड़ों के अनुसार महज 10 फीसदी से कम आबादी के पास बीमा की सुविधा है। जबकि बैंक और बीमा को सामाजिक सुरक्षा का बेजोड़ हथियार माना जाता है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के चार दशक बीत जाने के बाद भी बैंकिंग सुविधा को समाज के हर स्तर तक पहुँचाने के मामले में देश के सरकारी बैंकों का पिछड़ना नि:संदेह शर्मनाक है। इसमें दो मत नहीं है कि हालत पहले से सुधरे हैं, पर उसे संतोषजनक नहीं माना जा सकता है।
जहाँ तक निजी और विदेशी बैंकों का सवाल है तो उनका घ्यान हमेशा से नगरों व महानगरों की ओर ही रहा है। इसका मूल कारण येन केन प्रकारेण लाभ अर्जित करना और सामाजिक बैंकिंग से सरोकार का नहीं होना है।
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में 1991 से उदारीकरण की प्रकि्रया शुरु हुई। उसके बाद निजी तथा विदेशी बैंकों को धड़ल्ले से लाइसेंस दिए गए। इस वजह से औघोगिक घरानों की संपित्तयों में जबर्दस्त इजाफा हुआ।
बदले परिवेश में भी सरकार सबकुछ जानकर अनजान बनी रही। उदारीकरण के तहत नये कारखाने स्थापित करने या सेज के विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन को आदिवासियों से छीन करके औनेपौने दामों पर औघोगिक घरानों को उपलब्ध करवा दिया गया।
कई तरह की दूसरी सुविधाएँ भी नि:शुल्क कॉरपोरेट घरानों को मुहैया करवाई गई और सरकार अपने हर कदम को विकास की आड़ में तार्किक और सही बताती रही।
समाज के विविध वर्गों के बीच ब़ती खाई को शुरु से ही सरकार अनदेखा करती आई है। समाज के एक वर्ग के पास जहाँ दो जून रोटी खाने के लिए पैसा नहीं है तो दूसरे वर्ग के पास अकूत संपदा है। स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद भी हमारे देश में लोक कल्याणकारी योजनाओं का अनुपालन ईमानदारी पूर्वक नहीं किया जा रहा है।
शायद इन्हीं कारणों से हाल के वर्षों में मघ्यम और उच्च मघ्यम वर्ग की आय में तेजी से ब़ोत्तरी हुई है। ध्यातव्य है कि उनकी आय पर नजर बहुत सारी कंपनियों की है। वित्तीय कंपनियाँ भी उनमें शामिल हैं। दरअसल निजी व विदेशी बैंक, बैंकिंग को विशुद्ध व्यवसाय समझते हैं।
इसी दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में निजी वित्तीय कंपनियाँ मसलन, अनिल घीरुभाई अंबानी समूह की रिलायंस कैपिटल, श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनेंस, रेलिगेयर इंटरप्राइजेज की निगाह बैंकिंग लाइसेंस हासिल करने की है।
वर्तमान संदर्भ में ॔वित्तीय समग्रता’ की संकल्पना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके माध्यम से बचत को प्रोत्साहन मिलती है। साथ ही बैंक खाता होने से काफी हद तक किसान या अन्य कामगार सूदखोरों के चंगुल से बच पाते हैं। बैंकों में खाता होने से खाताधारकों की पहचान स्थापित होती है एवं वे बहुत सारी सरकारी योजनाओं का हिस्सा बनकर लाभान्वित होते हैं।
मनरेगा के अंतगर्त बैंक के माध्यम से मजदूरों को उनका मेहताना देने की नीति से काफी हदतक मजदूरों को उनका हक मिला है। वैसे भ्रष्टाचार अभी भी है। पर इतना तो माना ही जा सकता है मनरेगा से कुछ मजदूरों को फायदा तो हो ही रहा है।
सरकारी योजनाओं जैसे, मनरेगा, पीएमजी, (पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री रोजगार योजना या पीएमआरवाई) स्वर्ण जयंती शहरी स्वरोजगार योजना, स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना इत्यादि में निजी व विदेशी बैंकों की भागीदारी का न होना निश्चित रुप से दुःखद है।
21 वीं सदी का एक दशक बीत जाने के बाद भी निजी व विदेशी बैंकों का गांवों व अलाभकारी स्थानों पर उपस्थिति नहीं के बराबर है। गाँवों व तहसील में निजी व विदेशी बैंकों के प्रतिनिधि केवल ट्रेक्टर बेचते हैं, क्योंकि इस धंधे में लाभ का मार्जिन अधिक होता है। किसानों को अल्पकालिक ऋण या किसान क्रेडिट कार्ड देने में अभी भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अस्तु भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में औधोगिक घरानों को इस तरह से सिर्फ मलाई खाने की छूट नहीं दी जानी चाहिए।
विकास के नाम पर जिस तरह से सरकारी संपित्तयों को सरकार के द्वारा औघोगिक घरानों को कौड़ियों के दाम पर बेचा जा रहा है। उसे कदापि जायज नहीं ठहराया जा सकता। हाल ही में कोयला के खानों को कॉरपोरेट घरानों को बेचा गया है। पहले भी उदारीकरण के बयार में अनगिनत सरकारी संपित्तयों को इसी तर्ज पर बेचा जा चुका है। इस संदर्भ में घ्यान देने वाली बात यह है कि निजी कंपनियाँ मजदूरों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम नहीं करती हैं। भविष्य निधि का पैसा ग़प करने में भी उनको सकुचाहट नहीं होती है। फिर भी कॉरपोरेट कंपनियों को सरकारी बैंकों के द्वारा रेवाड़ियाँ बेरोकटोक बाँटी जा रही है।
यहाँ विडम्बना यह है कि जब ऐसी रियायत किसानों को देने की बात कही जाती है तो उसे नाजायज मांग कह कर आमतौर पर खारिज कर दिया जाता है। हाँ, कभीकभी अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनीतिज्ञ उन्हें ॔ऋण माफी’ जैसा लालीपॉप जरुर पकड़ा देते हैं।
पड़ताल से स्पष्ट है कि निजी व विदेशी बैंकों का सामाजिक दायत्वि के अनुपालन के प्रति रुचि नगण्य है। जाहिर है ऐसे में केवल बैंकिंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए निजी व विदेशी बैंक सामाजिक बैंकिंग के दायत्विों का निर्वाह करने का ोंग कर सकते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि भारत जुगाड़ का देश है। लिहाजा एक बार ऐसी मतलबी कंपनियों को लाइसेंस देने के बाद भारतीय रिजर्व बैंक के लिए भी उसे रद्द करना आसान नहीं होगा।

ममता का वामपंथ प्रेम कितना असली ?

पैंतीस साल के वामशासन की आयरनी है कि लोकतंत्र की रक्षा का भार अब वाम के कंधों से उतरकर अवाम दलों के कंधों पर चला गया है। वाम का एकच्छत्र सामाजिक नियंत्रण टूट चुका है। विकल्प के रूप में विपक्षी दलों की साख बेहतर हुई है। खासकर ममता बनर्जी और उनके दल के प्रति आम आदमी की आस्थाएं मुखर हुई हैं। यह पश्चिम बंगाल के लोकतांत्रिक वातावरण के लिए शुभसंकेत है। वामदलों को अपनी

राजनीतिक कार्यपद्धति पर गंभीर मंथन करने की जरूरत है। उन्हें उन कारणों को गंभीरता के साथ विश्लेषित करना चाहिए जिनके कारण ममता बनर्जी आज लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की प्रतीक बन गई हैं। वाममोर्चा ने 35 सालों में सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की सबसे बड़ी गलती की है। यह काम किया गया लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतंत्र की आड़ में। वाममोर्चे को यदि फिरसे जनता का दिल जीतना है तो

सामाजिक नियंत्रण की राजनीति को तिलांजलि देनी होगी। वरना भविष्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी सेभी बुरी अवस्था का उसे सामना करना पड़ सकता है।

विगत पाँच सालों में ममता बनर्जी और उनके दल की कार्य पद्धति में मूलगामी बदलाव आया है। वे जनता के हितों और दुखों के साथ तेजी से जुड़ी हैं। यह काम उन्होंने पालुलिस्ट राजनीतिक हथकंड़े अपनाते हुए किया है। वे पापुलिज्ट वाम की भाषा बोलती रही हैं। इसी कड़ी में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने 20 फरवरी को धर्मतल्ला पर अपनी चुनाव सभा में कहा ‘वामपंथ अच्छा है,लेकिन

वाममोर्चा खराब है।’ उन्होंने कहा वे वामपंथ की असली वारिस हैं, इसलिए वामपंथी जनता उनका साथ दे। ममता बनर्जी का यह प्रभावशाली चुनावी पैंतरा है। वे इसके बहाने एक साथ कई शिकार करना चाहती हैं,पहला शिकार हैं वाममोर्चे के हमदर्द। ये किसी न किसी वजह से स्थानीय वामनेताओं की दादागिरी से दुखी हैं। ममता के दूसरे शिकार हैं वे लेखक-संस्कृतिकर्मी-फिल्मी कलाकार जो किसी न किसी रूप में

वाम विचारों में आस्था रखते हैं, लंबे समय तक वाममोर्चे के साथ रहे,लेकिन नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद से वाममोर्चे का साथ छोड़कर ममता के साथ चले आए हैं। ममता बनर्जी इन लोगों को बाँधे रखना चाहती हैं। इन लोगों की ममता की मीडिया इमेज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। ममता के तीसरे शिकार हैं वे सरकारी कर्मचारी ,कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक जो वाम के साथ हैं लेकिन अपने

वेतनमानों और अन्य सुविधाओं के संबंध में उठायी गयी समस्याओं के अभी तक समुचित समाधान नहीं किए जाने से वाममोर्चा से नाराज हैं। सब जानते हैं ममता बनर्जी और उनका दल वामदल नहीं है। इस दल में वाम के कोई राजनीतिक लक्षण नहीं हैं। यह एकनायककेन्द्रित बुर्जुआदल है,जिसका नव्यउदार आर्थिक नीतियों में विश्वास है।जिसका सामाजिक आधार मध्यवर्ग,लंपट सर्वहारा,कारपोरेट घराने और

जमींदार हैं।

असल में ममता बनर्जी अपने वोटबैंक का दायरा बढ़ाना चाहती हैं और इस समय उनके पास जो वोट हैं वे अब तक के सबसे ज्यादा वोट हैं। इनमें यदि कहीं से भी बढ़ोतरी हो सकती है तो वह है वाममोर्चे के वोट बैंक में सेंधमारी करके। नंदीग्राम-सिंगूर के बहाने जो प्रचार अभियान ममता हनर्जी ने चलाया था उसने वाम के ग्रामीण और अल्पसंख्यक जनाधार को सीधे प्रभावित किया है और वाम को विगत लोकसभा

चुनाव में बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा ।

वाममोर्चे ने जनाधार को बचाए रखने की नीति अपनायी और गांवों में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण के काम को पूरी तरह रोक दिया। उल्लेखनीय है कारखानों के लिए भूमि अधिग्रहण के सवाल ने पहले से मौजूद सामाजिक असंतोष को अभिव्यक्ति दी है। इसका तत्काल फायदा मिला और गांवों में उठा वामविरोधी उन्माद थम सा गया है, लेकिन इस प्रक्रिया में गांवों में वाममोर्चे का एकच्छत्र शासन खत्म हो गया

है।गांवों में लोकतंत्र को प्रवेश मिल गया है और संयोग से इसका श्रेय किसानों की प्रतिवादी चेतना और ममता बनर्जी को जाता है । उल्लेखनीय है त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था बनाई वाममोर्चे ने, लेकिन पंचायतों के संचालन के नाम पर गांधीवादी सामाजिक शिरकत, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की पद्धति को त्यागकर सामाजिक नियंत्रण की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पद्धति लागू की गई। वाममोर्चे के

नेता भूल गए पंचायती राज्य का मकसद है गांवों में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरिए लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाना,लेकिन उन्होंने पंचायती व्यवस्था और भूमि सुधारों को पार्टी के शासनतंत्र और सामाजिक नियंत्रण का हिस्सा बना दिया। इस मसले पर आज भी वाम मोर्चा साफ नहीं है कि क्या वो भविष्य में गांवों में सामाजिक नियंत्रण जारी रखेगा ? वाममोर्चा यदि सामाजिक नियंत्रण में ढ़ील देता

है तो उसे गावों में अपने कैडरों की हत्याओं का डर है, बनाए रखता है तो आम जनता से कट जाने का खतरा है। लालगढ़ में माओवादियों के साथ माकपा की चल रही जंग इस स्थिति का आदर्श उदाहरण है। वाममोर्चे के पास इस प्रसंग में विकल्प बहुत कम हैं। वे सिर्फ एक ही स्थिति में गांवों में जनाधार बनाए रख सकते हैं सामाजिक नियंत्रण और पुलिसबलों के जरिए । ऐसी स्थिति में सतह को नियंत्रित किया जा सकता

है कि लेकिन ग्रामीण जनता के मन में शासन नहीं किया जा सकता, यदि आगामी विधानसभा चुनाव में शांति से वोट पड़े तो ममता बनर्जी के पक्ष में गांवों में हवा बह सकती है। यदि वामदलों ने सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया के दौरान हुई ज्यादतियों के लिए आम जनता से ईमानदारी माफी मांगी और उसका दिल जीतने की कोशिश की तो ममता बनर्जी की गांवों में आँधी थम सकती है,लेकिन यह सब कुछ निर्भर करता है

स्थानीय वामनेताओं की विनम्रता और विश्वसनीय कोशिशों पर। वामनेताओं पर आम जनता का विश्वास कम हो गया है और यही सबसे बड़ी बाधा हैं गांवों से लेकर शहरों तक। वामदलों की भाषा,भंगिमा और राजनीति में किसी भी किस्म की लोच इन दिनों नजर नहीं आ रही है और यह वाम समर्थकों के लिए चिन्ता का प्रधान कारण है। वामनेताओं का अहंकार,सत्तामद,बाहुबल का नशा,संगठन का नशा,अन्य दलों के प्रति

नकारात्मकभाव आदि चीजें हैं जो ममता बनर्जी को ईंधन प्रदान कर रहे हैं।

 

 

 

 

 

होली के हुड़दंग में, छिपा वैज्ञानिक रंग

होली के हुड़दंग में, छिपा वैज्ञानिक रंग
संजय सक्सेना,लखनऊ
कैसो है देश निगोड़ा, सबजन होली या ब्रज होरा।
मैं जमुना जल भरन जात ही देख रूप मेरा गोरा,
मोते कहे चलो कुन्जन में, तनक तनक से छोरा परे।
आंखिन में डोरा, कैसा ये देश निगोड़ा।
होली की खुमारी वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है और फागुन की पूर्णिमा के दिन अपने शबाब पर आने के बाद ही रूकती है। उत्तर भारत का प्रमुख त्योहार होली वैसे तो सभी जगह खुशियां बिखेरता है लेकिन कुछ जगहों की होली का अपना ही मजा और महत्व होता है। विदेशों में बसे भारतीयों तक में इसकी धूम सुनाई देती है। कहीं इसने आधुनिकता का चोला पहन लिया है तो कहीं आज भी पारम्परिक तरीके से ही यह त्योहार मनाया जाता है।राधाकृष्ण की जन्म स्थली बृज में तो आज भी होली के रंग वैसे ही हवा में उड़ते हैं जैसे सदियों पहले उड़ा करते थे। सचमुच यह देश निगोड़ा है जहां बसन्त पंचमी के आते ही होली के डांडे ग़ जाते हैं और यह होली का आयोजन फागुन पूर्णिमा तक चलता ही रहता है। दाऊजी के हुरंगे के बाद भी समूचे ब्रज मण्डल में होली का उल्लास सिर च़ कर बोलता है। यहां कि ग्वालिनें समूचे वर्ष भर जब मर्यादा, शालीनता, सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न आयामों को संजोय हुए परम्परागत परिधान में दिखाई देती है, वहीं होली के मौके पर उनमें उल्लास, उमंग, उत्साह और ठिठोरी करने की नई भागभंगिमाएं देखने को मिलती हैं।बृज की होली का मजा लेने के लिए देशविदेश तक से पयर्टक यहां आते हैं। आने वाले दर्शनार्थी यहां होली का अलग ही रंग देखकर भौंचक्के रह जाते हैं। बरसाने की लठामार होली तो और भी देखते ही बनती है जब वहां गोपियां हुरियार ग्वालों पर लठ बरसाने से भी नहीं कतरातीं और ग्वालों की सहनशीलता का चरमोत्कर्ष जहां दिखाई देने लगता है जब लठ पड़ने से कभीकभी ग्वालबाल लहूलुहान हो जाते हैं, लेकिन कभी किसी पर रन्ज नहीं करते। इसे देखकर यहां की संस्कृति की वह विलक्षणता चरितार्थ होने लगती है जब श्रीकृष्ण के जमाने में कभी देखने को मिलती थी।
रंगों और मेलमिलाप के त्योहार होली की धूम उत्तर भारत में तो रहती ही है, विदेशों में भी इसकी छटा देखती बनती है। अपने देश से कोसों दूर रह रहे भारतीयों को यह पर्व अपनी जमीन और अपनी संस्कृति से जुड़ाव का अहसास दिलाता है। यह बात अलग है कि ये लोग उन देशों के तौर तरीकों के अनुरूप होली मनाते हैं जिन देशों में वे रह रहे हैं। कनाडा में भारतीय समुदाय के लोग बड़ी संख्या में हैं। यहां बसे लोग सप्ताहांत में मंदिर जाते हैं। वहीं होली उत्सव आयोजित होता है। कनाडा में बसे भारतीय पूजा के बाद सूखे रंगों से होली खेलते हैं और फिर प्रीतिभोज होता है। कनाडा में मार्च के महीने में बहुत सर्दी और कभीकभी तो हिमपात भी हो रहा होता है।इसलिए यहां पानी वाली होली खेलने का सवाल ही नहीं उठता।कनाडा के सुरक्षा और प्रदूषण संबंधी नियमों के चलते होली जलाने की छूट नहीं मिलती है।फिर भी यहां के कई मंदिरों में होलिका दहन होता है।जहांत तक बात पड़ोसी देश नेपाल की है तो यहां का यह विशेष पर्व माना जाता है। यहां पूरे धूमधाम से एक सप्ताह तक होली मनाई जाती है। पहले दिन एक खंभा गाड़ा जाता है जिसे चीर कहते हैं। यह बांस का खंभा होता है। लोग मन्नत मांगते हुए इसमें रंगीन कपड़े की पट्टियां लपेटते हैं। जहां होली जलाई जाती है उसके पास पूरे सात दिन तक यह खंभा गड़ा रहता है। सातवें दिन होलिका दहन के साथ ही चीर को भी अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है। होलिका दहन को वहां भी भारत की तरह ही बुराई की प्रतीक होलिका का दहन माना जाता है। लेकिन यहां इसे पूतना की प्रतीक के तौर पर भी जलाया जाता है। पौराणिक मान्यता है कि पूतना ने कंस के कहने पर भगवान कृष्ण को मारने के लिए उन्हें अपना जहरीला दूध पिलाने का प्रयास किया था। होली पर कुछ व्यापारी विशेष आफर देते हैं। यहां होली के काफी पहले से ही रेडियो के जरिए होली उत्सव के आयोजन की घोषणा की जाती है जिससे पता चल जाता है कि कहांकहां होली उत्सव हो रहे हैं। लोग टिकट ले कर वहां जाते हैं। कई बार इन उत्सवों में बॉलीवुड के कलाकार भी आते हैं।
होली का त्यौहार न केवल मौज मस्ती, सामुदायिक सद्भाव और मेल मिलाप का त्यौहार है बल्कि इस त्यौहार को मनाने के पीछे कई वैज्ञानिक कारण भी हैं जो न केवल पर्यावरण बल्कि मानवीय सेहत के लिए भी गुणकारी हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अपने पूर्वजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद उचित समय पर होली का त्यौहार मनाने की शुरुआत की। लेकिन होली के त्यौहार की मस्ती इतनी अधिक होती है कि लोग इसके वैज्ञानिक कारणों से अंजान रहते हैं। होली का त्यौहार साल में ऐसे समय पर आता है जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रुख अख्तियार करने के कारण शरीर का कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में न केवल जोर से गाते हैं बल्कि बोलते भी थोड़ा जोर से हैं। इस मौसम में बजाया जाने वाला संगीत भी बेहद तेज होता है। ये सभी बातें मानवीय शरीर को नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। इसके अतिरिक्त रंग और अबीर (शुद्ध रूप में) जब शरीर पर डाला जाता है तो इसका उस पर अनोखा प्रभाव होता है।
होली पर शरीर पर ाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं। होली का त्यौहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालांकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को ब़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान ब़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है। दक्षिण भारत में जिस प्रकार होली मनाई जाती है, उससे यह अच्छे स्वास्थ्य को प्रोत्साहित करती है। होलिका दहन के बाद इस क्षेत्र में लोग होलिका की बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन तथा हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि रंगों से खेलने से स्वास्थ्य पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि रंग हमारे शरीर तथा मानसिक स्वास्थ्य पर कई तरीके से असर डालते हैं। पश्चिमी फीजिशियन और डॉक्टरों का मानना है कि एक स्वस्थ शरीर के लिए रंगों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शरीर में किसी रंग विशेष की कमी कई बीमारियों को जन्म देती है और जिनका इलाज केवल उस रंग विशेष की आपूर्ति करके ही किया जा सकता है। होली के मौके पर घरों में पकवान बनाने की पुरानी परम्परा आज भी कायम है।सचमुच मेलमिलाप का यह त्योहार अपने अंदर कई खुबियां छुपाए रहता है।

भारतीय संस्कृति पर अश्लीलता का खतरा

कुछ समय पूर्व भारत के टीवी चैनल्स पर एक नामी सीमेंट कम्पनी का विज्ञापन प्रसारित किया जा रहा था जिसमें एक लड़की के कुछ अंगों को उभारकर दिखाया जाता था। यहां  सोचने वाली बात यह है कि सीमेंट से लड़की का ताल्लुक क्या था? क्या वह लड़की सीमेंट खाती थी या वह सीमेंट से बनी थी? शायद कारण तक जाने की किसी को आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई। किंतु इसकी जड़ में पश्चिमी नव वामपंथी विचारधरा कार्य कर रही थी जो वास्तव में वर्तमान में हमारे सर चढ़ कर बोल रही है।

 

इस पश्चिमी नव वामपंथी विचारधरा में सेक्स को खुलकर परोसा जसा रहा है क्योकि यह पश्चिम विचारधरा इस बात पर विश्वास करती है कि सेक्स व स्त्राी का सुडौल शरीर कहीं छुपा कर रखने की चीज नहीं है। पश्चिम में यौन शिक्षा की भी बहुत पैरवी की जाती है। स्कूलों में कंडोम दिखाया जाता है और उसके प्रयोग के तरीके भी बताये जाते हैं। और भी न जाने क्या-क्या?

 

अब भारत में भी उसी तर्ज पर यौन शिक्षा स्कूलों में पेश की जाने की बातें की जा रही हैं। हम भी आंख बंद कर पश्चिम की नकल करने में लगे हुये हैं। हाल ही में अमेरिका के एक घर के अंदर की बात पढ़ने को मिली। टीवी पर कंडोम का विज्ञापन आ रहा था तभी एक बारह साल की लड़की अपनी मां से पूछती है कि मां यह कंडोम क्या होता है? अब यदि हम भी यौन शिक्षा का प्रचार करना चाहते हैं तो अपने बच्चों के ऐसे ही सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए? ऐसा नहीं होगा कि बच्चा जो स्कूल में पढ़कर आयेगा उसे घर पर दोहराएगा नहीं? भारत मंे अब तक अश्लील शब्द की परिभाषा कानून ही तय नहीं कर पाया है। पहले तो उसे ही इस शब्द को पढ़ लेना चाहिए।

पश्चिम में रिश्ते नाते नहीं होते हैं। सेक्स उनके लिए पिज्जा-बर्गर जैसा ही है। हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि देश  में यौन शिक्षा का प्रचार खुलकर होना चाहिए। इस बात को पुख्ता करने के लिए वे जो तर्क देते हैं जरा उसे भी सुनिए, सन् 1999 तक 150 देशों में 3,23,379 व्यक्ति एड्स से पीड़ित थे ;यूनेस्कोद्ध, जिनमें सबसे अध्कि संख्या भारतीयों की ही थी। अगर भारत में यौन शिक्षा का प्रचार हो तो ऐसा नहीं होगा। जबकि अब यह साबित हो चुका है कि इस बान को यूनेस्को ने अमेरिका के कहने पर ही पफैलाया था ताकि उसकी सेक्स इंडस्ट्री भारत में तथा विश्व में पैर पसार सके। दूसरी तरपफ अमेरिका में ही 60 पफीसदी से ऊपर ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ से पीड़ित हैं। इस बात को अमेरिका की ही कुछ कंपनियों ने पफैलाया है। जबकि अमेरिका के वैज्ञानिक ही कहते हैं कि इस तरह की कोई बिमारी होती ही नहीं है। अब आप ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ का अर्थ भी जान लीजिये, जैसे पुरुषों में नामदांगी होती है वैसे ही महिलाओं में भी नजनानीपन को यह नाम दिया गया है। जबकि विज्ञान कहता है कि स्त्रिायां बांझ हो सकती हैं किंतु ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ कभी नहीं। यह बस स्वार्थी लोगों की चाल है, अब बताइये कि हम ऐसे चालबाज लोगों की राह पर कैसे चल सकते हैं।

अमेरिका में लगभग 3 अरब लोग एड्स से पीड़ित हैं तथा यह आकड़ा भारत, कनाड़ा, ब्रिटेन तथा जापान से कहीं ज्यादा है। संमलैगिकों की सबसे ज्यादा भरमार अमेरिका में ही है। अमेरिकर वामपंथ बोल रहा है कि उसके देश में 17 प्रतिशत टीन प्रेग्नेंसी कम हो गई है क्योकि वो यौन शिक्षा का प्रचार कर रहा है। यह उसका नजरिया है, भारतीय सनातन के अनुसार इसका अर्थ यह है कि वहां के युवा अब बिना किसी झिझक के सेक्स कर रहे हैं। वहां की लड़कियां मातृत्व को खो रही हैं। कड़ोम, आई पिल्स है तो डर अब है ही नहीं। जबकि भारतीय र्ध्म कहता है कि गर कंडोम और ये स्टोप प्रेंग्नेंसी नहीं होगी तो एक डर से युवा मार्ग से भटकने से बच सकता है।

अमेरिका में हर साल 30 लाख किशोरियों को यौन रोग हो रहे हैं। 100 में से 56 प्रतिशत किशोरियां ही मां बनने को तैयार होती हैं। 83 प्रतिशत बिन ब्याही लड़किया जो मां बनती हैं वे गरीब घर से होती हैं तथा भु्रण हत्या का खर्च वहन नहीं कर सकती हैं। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि अमेरिका में 35 प्रतिशत लड़के तथा 25 प्रतिशत लड़कियां 15 साल की उम्र से पहले ही संभोग कर लेते हैं। 19 साल तक पहुंचते-पहुंचते यह आकड़ा 85 प्रतिशत लड़के तथा 77 प्रतिशत लड़कियों तक पहुंच जाता है। एक अध्ययन में बताया गया कि अगर वहां के युवा ऐसा न करें तो इन पर इनके दोस्त हसंते हैं। इसी अध्ययन में यह भी बताया गया कि 19 साल की जो 77 प्रतिशत लड़कियां संभोग करती हैं उनमें से 12 प्रतिशत  ही इतनी खुशनसीब होती है जिनसे उनका बायप्रफैंड शादी करता है।

आज प्श्चिम में भी दबे शब्दों में कहा जाने लगा है कि भारत का ब्रहाचार्य एक अच्छा शस्त्रा है। किंतु कितनी बड़ी विडबना है कि हम अंध्े होकर प्श्चिम के पीछे भागे जा रहे हैं। माता-पिता अपने बच्चों को स्वतंत्राता दे रहे हैं यह अच्छी बात है किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि उनके बच्चें कहां जा रहे हैं, क्या पहन रहे हैं? इससे उन्हें कोई मतलब ही नहीं है। आज दिल्ली में ही 60 प्रतिशत लड़किया आई-पिल्स को हाजमें की गोली की तरह खा रही हैं।

भारत में एक नामी चैनल पर प्रसारित कार्यक्रम ‘स्वंवर’, ‘अमेरिकन बैचलर’ नामक शो की कापी है, इस बैचलर शो में सेक्स का प्रदर्शन होता है। स्त्राी-पुरूष संबंध् तार-तार किये जाते हैं। ऐसे बहुत से नये प्रोगा्रम भी जल्द शुरू होने वाले हैं जो यह सि( करते है कि अब भारत में भी सेक्स इंडस्ट्री पश्चिम द्वारा खूब उगाई और खाई जा रही है। यह सेक्स इंडस्ट्री 1000 करोड़ का व्यापार हमारे देश में कर रही है। इंटरनेट पर खुलकर सेक्स सामग्री को परोसा जा रहा है तथा हमारा प्रशासन कुछ भी नहीं कर पा रहा है। भारत में भी अब सेक्स के  अविवाहित मरीजों की संख्या बढ़ रही है।

जागरूकता के नाम पर अब हमारे देश में भी देहकामना की पूर्ति की जा रही है। अखबारांे, टीवी चैनलों पर जो यौन क्रांति पेश की जा रही है वह पश्चिमी विध्वंसक शक्तियों की ही सोचा समझी एक चाल है जो भारतीय संस्कृति कोे पूरी तरह से नष्ट कर देना चाहती हैं।

पुकरणा ब्राह्मण समाज की होली

दुनियाभर में होली का त्यौंहार जहाँ उत्साह, उमंग व मस्ती के साथ मनाया जाता है वहीं पुकरणा ब्राह्मण समाज की चोवटिया जोशी जाति के लिए होली खुशी का नहीं वरन ाोक का त्यौंहार है। ये लोग होली का त्यौंहार हँसी खुशी न मनाकर ाोक के साथ मनाते हैं। इन दिनों में होलकाटक से लेकर धुलण्डी के दिन तक चोवटिया जोशी जाति के घरों में लगभग खाना नहीं बनता है। इस दौरान वे ऐसी सब्जी नहीं बनाते जिसमें छौंक लगाई जाए या कोई भी ऐसा व्यंजन नहीं बनाते जो तला जाए। फलस्वरूप इन चोवटिया जोशी जाति के रिश्तेदार व लड़के के ससुराल के संबंधी इन लोगों के लिए आठ दिनों तक लगातार सुबह शाम  दोनों वक्त भोजन का प्रबंध करते हैं।

इसके पीछे कहानी यह है कि एक समय की बात है कि हालिका दहन के समय इसी चोवटिया जोशी जाति की एक औरत दहन हो रही होली के फेरे निकाल रही थी। उस औरत के गोद में उसका छोटा बच्चा {लड़का} भी था। बच्चा माँ की गोद में उछल कूद कर रहा था और माँ होलिका के फेरे लगा रही थी। इस दौरान हाथ से छिटक कर वह बच्चा माँ की गोद से धूं धूं कर जल रही होलिका में गिर गया। बच्चे को जलती हुई आग में देखकर माँ चीखने चिल्लाने लगी और बच्चे को बचाने के लिए गुहार करने लगी पर कोई और उपाय न दिखा तो अपने बच्चे को बचाने के लिए वह माँ भी जलती हुई होलिका में कूद पड़ी। इस दुर्घटना में वह माँ और बच्चा दोनों न बच सके और माँ अपने बच्चे के पीछे सती हो गई। कहते हैं बाद में इसी सती माता ने श्राप दे दिया कि कोई भी चोवटिया जोशी जाति का परिवार होलिका दहन में हिस्सा नहीं लेगा और न होली को उत्साह से मनाएगा और तब से पुकरणा ब्राह्मण समाज की इस चोवटिया जाति के लिए होली मातम का त्यौंहार हो गया।

अब अगर किसी भी चोवटिया जोशी परिवार में होलिका दहन के दिन लड़के का जन्म हो और वह लड़का पूरे एक साल तक जिंदा रहे और अपनी माँ के साथ जलती हुई होलिका की परिक्रमा कर होलिका की पूजा करे तो ही इस जाति के लिए होली का त्यौंहार हँसी खुशी के साथ मनाना संभव होगा। इसे चमत्कार कहेंगे या संयोग कि इस दुर्घटना को हुए आज सैंकड़ों साल हो गए हैं लेकिन आज तक चोवटिया जोशीयों के किसी भी परिवार में होलिका दहन के दिन किसी लड़के का जन्म नहीं हुआ है।

पुकरणा ब्राह्मण समाज का बाहुल्य बीकानेर, जोधपुर, पोकरण, फलौदी, जैसलमेर में है और इसके साथ ही साथ भारत भर में इस जाति के लोग रहते हैं और यह परम्परा पूरे भारतवार में निभाई जाति है। जोधपुर, पोकरण, बीकानेर में तो यह परम्परा भी किसी समय रही है कि होलिका दहन से पूर्व जोर का उद्घोा कर आवाज लगाई जाति थी कि अगर कोई चोवटिया जोशी है तो वह अपने अपने घर मंें चला जाए क्योंकि होलिका दहन होने वाला है।

इसी के साथ यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि धुलंडी वाले दिन इन चोवटिया जोशी परिवार के लोगों को रंग लगाने के लिए व होली खेलने के लिए अपने घरों से बाहर निकालने के लिए इनके मित्र, रिश्तेदार, सगे, संबंधी इनके घर जाते हैं और इनके चेहरों पर रंग लगाकर होली की मस्ती में इनको ामिल करते हैं। बीकानेर में तो एक तणी जोड़ने का आायेजन भी इन्हीं जोशी परिवार के लोगों द्वारा किया जाता है।

तो यह है परम्परा आस्था और विश्वास जो हर त्यौंहार में होता है चाहे होली हो दिपावली, ईद हो या बैसाखी। विचित्र व समृद्ध परम्पराओं से भरा हमारा भारत। होली की भमकामनाऍं।

याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

 

 

आंठवा अजूबा

अडोसी-पडोसी और मोहल्ले वाले मुझे मनोरंजन कह्कर पुकारते हैं ! उनका कहना है कि मैं अपने मां-बाप के मनोरंजन का नतीजा हूँ ! जब मैंने आईने में अपनी शक्ल देखी तो मुझे भी पडोसियों की बात पर यकीन करना पडा ! जैसी मेरी शक्ल सूरत है वो तो किसी के मनोरंजन का ही नतीजा हो सकती है ! यदि मेरे माता-पिता अपने मनोरंजन के बजाय मेरे बारे में ज़रा सा भी गम्भीर होते या उन्होंने ज़रा सी भी मेहनत की होती तो मेरी शक्ल, मेरी अक्ल, मेरा ढांचा, मेरा कद, मेरा नाम, मेरा काम, मेरा दाम कुछ और ही होता ! लेकिन मनोरंजन को कौन टाल सकता है ? ….मेरा मतलब है कि होनी को कौन टाल सकता है ? उनका मनोरंजन ठहरा, मेरी ऐसी-तैसी फिर गई ! मैंने तो देखा नहीं, लोग कहते हैं कि होली से ठीक नौ महीने पहले मेरे पूज्य पिता जी ने मनोरंजन ही मनोरंजन में मेरी पूज्य माता जी पर अपने प्रेम रूपी रंगो की बौछार की थी ! उसी मनोरंजन के परिणाम स्वरूप ठीक होली वाले दिन मैं पैदा हुआ ! लम्बा सिर, लम्बा मुंह, लम्बे हाथ, लम्बे पैर ! सीधे खडे बाल ! चाहे जितना तेल लगा लो चाहे जितनी कंघी कर लो सिर के बाल हमेशा सरकंडे की तरह खडे रहते थे ! मेरे  रंग में और नान-स्टिक तवे के रंग में कोई अंतर नहीं कर पाता था ! हर अंग बेडौल ! ना कोई माप ना कोई तौल ! पता ही नहीं लगता कि सिर बिच मुंह है कि मुंह बिच सिर है ! जब मैं खडा होता हूं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बांस पर कपडे टांग दिए हों ! जब मैं बैठता हूं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने होलिका दहन के लिए लकडियां इकट्ठा कर के सज़ा कर रख दी हों ! “जसुमति मैया से बोले नंदलाला” की तर्ज पर मैंने अपनी माता-श्री से कई बार पूछा कि मेरे साथ ही ऐसा मनोरंजन क्यों ? परंतु मेरा प्रश्न सुनकर हर बार वे मौन समाधि में चली गईं !

उधर जब मैं पैदा हुआ तो भी हादसा हो गया ! शायद होली के दिन पैदा होने के कारण पैदा होते ही मैंने दाई के उपर रंग बिरंगा सू-सू कर दिया ! दाई कुछ ईनाम-कराम पाने की तमन्ना लिए उसी प्रकार उठ कर कमरे से बाहर बैठे मेरे पिता-श्री को बेटा होंने की खबर सुनाने के लिए हिरनी की तरह छलांगे लगाते हुए बाहर आई ! बेटे की खबर सुनकर खुशी में मेरे पिता-श्री ने दाई को अपने बाजुओं में भरकर उसे चूमना चाहा ! लेकिन उसके मुंह और कपडों पर मेरा रंग बिरंगा सू-सू देखकर पीछे हट गए ! इस प्रकार से मेरे सू-सू ने मेरे पिता-श्री को पर-स्त्री-चुम्बन के आरोप में कुम्भी पाक नर्क में जाने से बचा लिया !

हरि कथा की तरह मेरे नाम भी अनंत हैं ! मां मुझे राज दुलारा कहकर बुलाती है ! उसका कहना है कि मेरा बेटा चाहे जैसा भी है, है तो मेरा ! मैं तो इसे नौ महीने कोख में लिए ढोती- डोलती रही हूं ! पिता जी मुझे निकम्मा और नकारा कहकर बुलाते हैं ! स्कूल में मेरे पूज्य गुरुजन मुझे डफर और नालायक कहते हैं ! मेरी सखियां (गर्ल-फ्रेन्डस) प्यार से मुझे कांगचिडि कहती हैं ! मेरे बाल-सखा मेरे नाम के बदले मुझे बेवकूफ, गधा, ईडियट, उल्लू आदि आदि विशेषणों से अलंकरित करते रहते हैं ! हमारे मुहल्ले में एक सरदार जी रहते हैं वो मुझे झांऊमांऊ कहकर मुस्कराते हुए मेरे हाथ में एक टाफी पकडा देते हैं ! मैं खुश हो जाता हूं !

मैं पूरा का पूरा ओ-पाज़िटिव हूं ! अर्थात जैसे ओ-पाज़िटिव ग्रुप का ब्लड सबको रास आ जाता है उसी प्रकार अडोसी-पडोसी अपनी जरुरत के मुताबिक अपने अपने तरीके से मेरा उपयोग कर लेते हैं ! मोहल्ले में गुप्ता जी की कोठी बन रही थी ! अचानक रात को तेज हवा चलने के कारण उनकी छत पर टंगा हुआ नज़रबट्टू कहीं उड गया ! दूसरे दिन जब गुप्ता जी को पता चला तो उन्हें बिना नज़रबट्टू के कोठी को नज़र लगने का डर सताने लगा ! वे दौडे-दौडे आए और मुझे काले कपडे पहना कर अपनी छत पर ले गए ! मैं सारा दिन जीभ निकाल कर उनकी छत पर खडा रहा ! शाम को गुप्ता जी का लडका बाज़ार से नया नज़रबट्टू लेकर आया तो उसने वो नज़रबट्टू छत पर टांगा तब मुझे नीचे उतारा !

शर्मा जी हाथ में झोला लिए बाजार से सामान लेने जा रहे थे ! तभी मैली-कुचैली सी 18-20 साल की दो लडकियां शर्मा जी से खाने के लिए कुछ पैसे मांगने लगीं ! शर्मा जी को बातों में उलझा कर उनका पर्स मार लिया ! शर्मा जी को पता लग गया ! उन्होंने शोर मचा दिया ! मोहल्ला इकट्ठा हो गया ! लडकियां बहुत शातिर थीं ! पैरों पर पानी नही पडने देती थीं ! तभी किसी ने पुलिस को फोन कर दिया ! थानेदार साहब दो सिपाही लेकर मौका-ए-वारदात पर आ धमके ! उन्होंने भी उनसे सच उगलवाने की बडी कोशिश की लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ! तभी उनकी नज़र मुझ पर पडी ! थानेदार साहब ने मेरी तरफ इशारा करके उन लडकियों से कहा कि सच सच बता दो नहीं तो तुम्हारी शादी इस लंगूर से कर देंगें ! मेरी तो शक्ल ही काफी है ! दोनों लडकियों ने अपने अपने ब्लाउज़ों में हाथ डाला और शर्मा जी के पर्स के साथ तीन पर्स और निकाल कर थानेदार के हाथ पर रख दिए !

पिछले साल कुछ साथी मेले में जाने का प्रोग्राम बनाने लगे ! सौ-सौ रुपये इकट्ठा करके पैसे बिरजू को पकडा दिए ! मैंने भी साथ जाने की जिद पकड ली ! मेले में बहुत भीड थी ! हम लोग अपनी मस्ती में टहल रहे थे ! लोग मेला कम मुझे अधिक देख रहे थे ! कोई मुझे देखकर हंस रहा था तो कोई भगवान की कुदरत की दुहाई दे रहा था ! हलवाई की दुकान आई तो जलेबी खाने का मन कर आया ! जलेबी तुलवा कर जब पैसे देने लगे तो पता चला कि जेब खाली हो चुकी है ! कोई जेबकतरा अपने कौशल का प्रदर्शन कर गया था ! सबके चेहरे सफेद पड गए ! वापिस जाने का किराया भी नहीं था ! करें तो क्या करें ? बिरजू का दिमाग बहुत काम करता है ! उसने हलवाई से एक चादर मांगी ! दो लकडियां लेकर गाड दीं ! रस्सी से उन पर चादर बांध कर पर्दा सा बना दिया ! मेरे कपडे उतार कर मुझे चादर के पीछे खडा कर दिया ! एक गत्ते पर “पांच रुपये में दुनिया का आठ्वां अजूबा देखिए” लिख कर बोर्ड टांग दिया ! शाम तक बिरजू की जेब नोटों से भर गई !

उसकी अम्मा जी का कहना है कि जब वो पैदा हुई थी तब भी उसके सिर पर बाल नहीं थे ! आज जब वो “मेरी उमर है सोलह साल, जमाना दुश्मन है” गीत गुनगुनाती रहती है तब भी उसके सिर पर बाल नहीं हैं ! उसकी अम्मा जी बडे गर्व से कहती हैं आज तक मेरी बेटी ने जमीन पर पैर नहीं रखा ! कैसे रखती ? 150 वज़न का पहलवानी शरीर है उसका ! हर चीज़ गोल-मटोल ! बस सिर और मुंह के बारे में मार खा गई ! उसका मुंह बिल्कुल चुहिया जैसा है ! पूरा रोज़गार कार्यालय है ! उसके कारण पांच लोगों को रोजगार मिला हुआ है ! पैदल तो वो चल ही नहीं सकती ! रिक्शा पर बैठाने-उतारने, उसके कपडे आदि बदलने के लिए अलग अलग नौकर हैं ! मैं तो उसे ही आंठवा अजूबा मानता हूं ! लेकिन मैं बहुत खुश हूं ! क्योंकि होली वाले दिन उसकी मेरे साथ शादी होनी तय हो गई है ! आप सब लोगो को मेरा खुला निमंत्रण है ! नोटों से भरा शगुन का लिफाफा हाथ में लेकर शादी में जरुर आना !

 

परमाणु रैनेसां का अंत

जापान में प्राकृतिक विनाशलीला का ताण्डव सारी दुनिया को एक नए किस्म के आर्थिक-राजनीतिक संकट की ओर ले जा रहा है। जापान के भूकंप और परमाणु विकिरण का सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक प्रभाव सिर्फ जापान तक सीमित नहीं रहेगा। बल्कि इसका असर आने वाले समय में समूची विश्व राजनीति पर पड़ेगा। खासकर वे देश जो परमाणु ऊर्जा और परमाणु अस्त्रों के बारे में शांतिपूर्ण प्रयोग के बहाने परमाणु

खतरे का संचय कर रहे हैं उनके यहां भी आने वाले समय में परमाणु ऊर्जा के विरोध में आंदोलन तेज होंगे।

खासकर भारत जैसे देश में नव्य उदारीकरण और अमेरिकी परमाणु इजारेदारियों के दबाब में जिस तरह भारत सरकार परमाणु संयंत्रों पर तेजी से काम कर रही है और मनमोहन सिंह-सोनिया-आडवाणी-अटल और संघ परिवार की लॉबी भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने के लिए जो काम कर रही है उससे भारत भविष्य में कभी भी श्मशान में तब्दील हो सकता है। परमाणु अस्त्रों और परमाणु ऊर्जा के हिमायतियों को नए युग

के कापालिक कहा जा सकता है जो परमाणु के शांतिपूर्ण इस्तेमाल की ओट में श्मशान साधना कर रहे हैं। आज इसके बारे में आम जनता को गोलबंद करने और राजनीतिक दबाब पैदा करने की जरूरत है।

मनमोहन सिंह सरकार को जापान की सामयिक तबाही का यह संदेश है कि भारत को परमाणु विनाश की गोद में मत बैठाओ। भारत के कारपोरेट मीडिया को यह संदेश है कि वह परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम की संस्कृति का विरोध करने वालों को उपहास का पात्र न बनाए। परमाणु ऊर्जा के बारे में भारत के कारपोरेट मीडिया ने तथ्यों को छिपाया है और आम जनता को गुमराह किया है। परमाणु ऊर्जा का मामला महज बिजली

उत्पादन का मामला नहीं है। यह अमेरिका बनाम वामदलों का मामला नहीं है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र महज तकनीक मात्र नहीं हैं। यह असामान्य विध्वंसक तकनीक है,जिसके सामान्य से विस्फोट से भारत कभी भी मरघट में बदल जाएगा। परमाणु तकनीक असाधारण तौर पर मंहगी तकनीक है। जनविरोधी तकनीक है। विकास विरोधी तकनीक है। यही वजह है कि परमाणु ऊर्जा विरोधी आंदोलन को और भी ज्यादा शक्तिशाली बनाने और

पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण पर जोर देने की जरूरत है। वैकल्पिक ऊर्जा के सवालों पर विचार करने की जरूरत है।

जापान में जिस समय भूकंप आया उस समय किसी को यह आभास भी नहीं था कि परमाणु ऊर्जा केन्द्रों में इस तरह भयानक विस्फोट होंगे,परमाणु भट्टियां धू-धू करके जल उठेंगी,परमाणु आग बेकाबू हो जाएगी और जापान की अधिकांश आबादी परमाणु खतरे की जद में आ जाएगी। जापान में आए भूकंप औक सुनामी से समुद्री इलाकों में बसे शहरों का पूरी तरह सफाया हो गया है। हजारों लोग मर गए हैं या लापता हैं। पूरे शहर

मिट्टी के मलबे में तब्दील हो गए हैं। जापान के भूंकप और सुनामी ने यह बात एक बात फिर से सिद्ध कर दी है कि प्रकृति पर नियंत्रण का पूंजीवाद ने जो दावा किया था वह खोखला है।

जापान में भूकंप,सुनामी और परमाणु विकिरण के त्रिस्तरीय संकट ने जापान के साथ समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है। फिलहाल जापान में बड़े पैमाने पर बिजली का संकट है,बिजली की सप्लाई के अभाव के कारण जापान के 55 परमाणु रिएक्टर बंद हैं। इनके लिए प्राइमरी और वैकअप बिजली सप्लाई बंद है। लाखों घरों में अँधेरा है।

उल्लेखनीय है सोवियत संघ के यूक्रेन स्थित चेरनोविल परमाणु संयंत्र में 1986 में हुए विस्फोट और विकिरण ने समूची समाजवादी व्यवस्था को धराशायी कर दिया था ठीक वैसे ही परवर्ती पूंजीवाद की विदाई का संकेत जापान के परमाणु विकिरण और परमाणु ऊर्जा केन्द्रों में हुए विस्फोटों ने भेजा है। चेरनोविल (यूक्रेन) ने समाजवाद पर आम रूसी जनता का विश्वास उठा दिया वैसे ही जापानी परमाणु संकट

ने परवर्ती पूंजीवाद के ताबूत में कील ठोंक दी है और परवर्ती पूंजीवाद के ऊपर से आम जनता पूरा विश्वास खत्म कर दिया है।

जापान के 55 परमाणु रिएक्टरों में से 3 में विस्फोट हुए हैं और स्थिति किसी भी तरह नियंत्रण में नहीं है। विध्वस्त परमाणु संयंत्रों के आसपास के इलाकों से दो लाख से ज्यादा लोगों को निकालकर सुरक्षित इलाकों में पहुँचाया गया है।

जापान के परमाणु विध्वंस के कई सबक हैं,पहला सबक है प्रकृति अजेय है। दूसरा, परमाणु इजारेदारियां सारी दुनिया में परमाणु ऊर्जा के नाम पर आक्रामक ढ़ंग से जीवनघाती तकनीक को थोप रही हैं। वे और उनके भोंपू कारपोरेट मीडिया प्रचार कर रहे हैं परमाणु तकनीक और परमाणु सवालों पर आम जनता को सिर खपाने की जरूरत नहीं है। परमाणु सुरक्षित ऊर्जा है। तीसरा सबक है परमाणु ऊर्जा संयंत्र किसी

भी कीमत पर सुरक्षित नहीं हैं,यदि प्राकृतिक विपदा आ जाए तो जनता के ऊपर तबाही दर तबाही का मंजर टूट सकता है। जापान का चौथा सबक है हम परमाणु ऊर्जा के विकल्पों पर अभी से सोचें और परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागें। जो देश परमाणु मोह को नहीं त्यागेगा उसे कभी भी भयानक जनविनाश का सामना करना पड़ सकता है। भविष्य को सुंदर बनाने के लिए परमाणु से बचो।

इस समय सारी दुनिया में 440 व्यवसायिक परमाणु संयंत्र काम कर रहे हैं। इनमें अमेरिका में 104 संयंत्र हैं, अमेरिका में अधिकांश परमाणु संयंत्रों में जो डिजाइन इस्तेमाल किया गया है वह जापान में फेल हो गया है। जापान में आई परमाणु विभीषिका के तात्कालिक और दीर्घकालिक दुष्प्रभावों के बारे में अभी कुछ भी कहना संभव नहीं है। भूकंप-सुनामी में मरने वालों की सही संख्या का अनुमान करना

कठिन है, उस पर से परमाणु संयंत्रों में हुए विस्फोटों ने सारे मामले को और भी पेचीदा बना दिया है।फुकोसीमा परमाणु ऊर्जा उत्पादन संयंत्र केन्द्र में 3 रिएक्टरों में विस्फोट हो चुका है और चौथे में भी दरारें आ गयी हैं।

विगत 40 सालों से जापान में लगाये जा रहे परमाणु संयंत्रों का वैज्ञानिक विरोध कर रहे थे और सावधान कर रहे थे कि जापान कभी भी विनाश के मुँह में जा सकता है ,लेकिन जापान के शासकों और कारपोरेट घरानों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसबार सुनामी और भूकंप की घटना ने जापान को परमाणु सुनामी के करार पर पहुँचा दिया है। परमाणु विकिरण का खतरा टोक्यो तक पहुँच गया है। जगह जगह परमाणु पाइप

लाइन फट गयी हैं। उनसे बड़े पैमाने पर परमाणु रिसाव हो रहा है। जापान के प्रधानमंत्री ने माना है हीरोशीमा-नागासाकी पर परमाणु विस्फोट के समय जैसी आपदा आयी थी उससे ज्यादा बड़ी विपत्ति है ये। मीडिया ने इसे “कैटेस्ट्रोफी” कहा है। न्यूयार्क टाइम्स ने 1997 में कराए एक शोध के हवाले से लिखा है कि “It estimated 100 quick deaths would occur within a range of 500 miles and 138,000 eventual deaths. The study also found that land over 2,170 miles would be contaminated and damages would hit $546 billion. That section of the

Brookhaven study focused on boiling water reactors—the kind at the heart of the Japanese crisis.” यह शोध ब्रुकवेन नेशनल लेबोरेटरी ने लॉग आइसलैंड के बारे में किया था। उल्लेखनीय है जापान के ज्यादातर परमाणु संयंत्र भूकंप संभावित समुद्री क्षेत्रों में ही लगाए गए हैं। यही स्थिति अमेरिका की भी है वहां पर भी समुद्री तटों के किनारे दर्जनों परमाणु केन्द्र बनाए गए हैं।

इस समय फ्रांस में 58,ब्रिटेन में 19,जर्मनी में 17,स्वीडन में 10,बेल्जियम में 7,स्विटजरलैण्ड में 5 और कनाडा में 18 परमाणु ऊर्जा संयंत्र केन्द्र हैं। जापान की परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की तबाही एक ही संदेश दे रही है कि परमाणु रैनेसां का अंत । परमाणु रैनेसां सामाजिक उत्थान का नहीं सामाजिक विध्वंस का प्रकल्प है और इसका हर कीमत पर विरोध करना चाहिए।