भारतीय राजनयिक अधिकारी अनिल वर्मा ने अपनी पत्नी को क्या पीट दिया ‘सारे सभ्य समाज में बवाल मच गया. भारत ने भी अपने अधिकारी को वापिस बुला लिया और उसके खिलाफ सख्त कारर्वाही की जाएगी?
इसी बीच वर्मा की पत्नी प्रोमिता ने अपने और पांच वर्षीय बेटे के लिए लन्दन में शरण देने की गुहार लगाई है. एक सभ्य समाज में पति द्वारा अपनी पत्नी को पीटना एक अक्षम्य अपराध है और होना भी चाहिए!
यदि लन्दन के स्थान पर यहि राजनयिक साउदी अरब में होता तो क्या वहाँ की सरकार भी एसी ही कारर्वाही करती- जाहिर है बिल्कुल नहीं. एक मुस्लिम देश में कुरान की हिदायतों के अनुरुप ‘शरियत’ कानून नासिर हैं और शरियत में पति द्वारा औरत को पीटना कोइ जुर्म नहीं! ‘किसी आदमी से यह नहीं पुछा जायगा कि उसने अपनी बीवी को क्यों पीटा – पैगम्बर…. इस्लाम में एक समय में चार बीवियाँ तक रखने की इज़ाज़त है और इसके इलावा उतनी लौंडियाँ भी जितनी कोइ रख सके ! औरत को आदमी के साथ् बराबरी का कोइ अधिकार नहीं इस्लाम में…. तभी तो पिता की ज़ायदाद में लड्की को लड़के से आधे हिस्से का अधिकार दिया गया है. (२.११,४.१२,१७५ ) .
पिछले दिनों एक पश्चमी देश में किसी मुस्लिम महिला ने कोर्ट में फरियाद की कि उसका पति उसको पीटता है, इसलिए उसे तलाक की इज़ाज़त दी जाए. कोर्ट ने कुरान के दृष्टान्त दे कर महिला की अर्जी खारिज कर दी. क्योंकि महिला मुसलमान है और कुरान को मानती है इस लिए उसके पति को उसे पीटने का अधिकार है.
मुस्लिम देशों में भी अब ‘शरियत कानूनों की आड़ में मर्दों द्वारा औरतों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज बुलन्द होने लगी है. पिछ्ले दिनों बंगलादेश में चार बीवियों ने अपने शौहर की खूब धुनाई कर डाली. हुआ यों कि ४६ वर्षीय औटो रिक्षा चालक युसुफ मियाँ अपनी दो बिवियों को जब मेला दिखा रहा था तो वहाँ उन्हें उसकी तीसरी बीवी मिल गई – यहीं पर बस नहीं – तीसरी बीवी ने पहली दो बीवियों को बताया कि एक बीवी और भी है. बस फिर क्या था सभी बीवियों ने युसुफ मियाँ की खूब धुनाई की …और शरियत के कानून धरे के धरे रह गए! ऐसा ही एक किस्सा इस्लामिक रिपब्लिक पाक साफ ‘पाकिस्तान के पंजाब प्रदेश का है. गुजरांवाला शहर के मियाँ इसहाक अपने एक दोस्त के निकाह समारोह में मश्रूफ थे और उसके साथ थी उनकी तीसरी बेगम! तभी दर्ज़नों सगे सम्बंधियों संग इसहाक मियां की दो बीवियां मेह्विश और उज्मा वहाँ पहुँच गईं- और सभी ने मिल कर मियाँ इसहाक की खूब धुनाई की, क्योंकि उन्हें भनक लगी थी की इसहाक मिया पाँचवी बार निकाह की योजना बना रहा था….
वर्मा साहेब पर भारत की सैकुलर सरकार कानून के अन्तर्गत कारर्वाही करने जा रही है और करनी भी चाहिए. क्योंकी हमारे संविधान में सभी नर नारियों को समान अधिकार प्राप्त हैं. शायद ये संविधानिक अधिकार मुस्लिम औरतो के लिए कतई नहीं हैं. जब देश की सर्वोच्च अदालत ने शाहबनों को ‘गुज़र बसर भत्ते’ का अधिकार देते हुए फैसला सूनाया तो इस्लाम के पैरोकार मौल्वियों के विरोध के आगे हमारे सैकुलर राजवाड़े घिघियाने लागे और अदालत का फैसला संसद में ‘रद्द’ कर दिया. इस्लाम में तो बीवी को पीटने का पति को पूरा अधिकार दिया गया है और एक समय में बेंत से दस वार करने की हिदायत है .. और जो स्त्रियाँ एसी हों , जिनके विद्रोह से तुम्हें भय हो , उन्हें डांटो, फटकारो ‘विस्तार में उन्हें तनह छोड दो और मारो. फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लागें तो उनके विरुद्ध कोइ राह मत ढूंढ़ो! निस्सन्देह अल्लाह सबसे उच्च और सबसे महान है…. कुरान ..४.३४ ..
सभी मूल्यांकनों की कसौटी पर कसे तो मनमोहन सिंह सरकार अपने साढ़े 6 वर्ष के कार्यकाल में सर्वाधिक गंभीर संकट से गुजर रही है। स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और मुंबई के रक्षा मंत्रालय भूमि सम्बन्धी घोटाले एक साथ इस रूप में सामने आए हैं जिससे आम आदमी को यह महसूस होने लगा है कि आज सरकार में अनेक मंत्री न केवल मक्कारी से धन बना रहे हैं अपितु वे देश को निर्लज्जता से लूट रहे हैं।
ज्यादा चिन्ताजनक यह है कि यह संकट सिर्फ सरकार के लिए ही नहीं अपितु देश के लिए भी है, भ्रष्टाचार और मुद्रास्फीति के वर्तमान स्तर ने राष्ट्र के सामूहिक आत्मविश्वास को खोखला कर दिया है।
ऐसी स्थिति सदैव मुझे 1975-77 में भारतीय लोकतंत्र के सम्मुख पैदा हुए गंभीर संकट का स्मरण करा देती है। तब भी राष्ट्र ने सभी आशाएं खो दी थी कि क्या 1975 से पूर्व का स्वतंत्रता का माहौल फिर कभी वापस लौट सकेगा।
भला हो राष्ट्र के मूड को समझने में सरकार के समूचे गलत आकलन का, जिसके चलते चुनावों की घोषणा हो गई। मतदाताओं ने सभी को चकित कर दिया : उन्होंने कांग्रेस पाटी की इतनी पिटाई की कि वह फिर कभी भी आपातकाल, अनुच्छेद 352 (युध्द के अपवाद को छोड़) लागू करने की सोचेगी भी नहीं।
लगभग सभी उच्च न्यायालयों ने भारत सरकार की इस दलील को रद्द कर दिया कि जब आपातकाल लागू हो तो भारतीय सविंधान के तहत किसी भी बंदी को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का भी अधिकार नहीं है। उच्च न्यायालयों को कहा कि किसी भी समय पर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने का अधिकार निलम्बित नहीं किया जा सकता। इस भूमिका को अपनाने के फलस्वरूप उच्च न्यायालयों ने 19 न्यायाधीशों को एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानान्तरित कर दण्डित किया गया।
हालांकि मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे (उनकी नियुक्ति तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों सर्वश्री हेगड़े, सेलट और ग्रोवर की वरिष्ठता का उल्लंघन करने के बाद हुई थी) की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय एटार्नी जनरल नीरेन डे की इस दलील से सहमत था कि यदि किसी बंदी को किसी सरकारी काम से गोली मार दी जाए तो भी उसके परिवारवालों को न्यायालय के द्वार खटखटाने का अधिकार नहीं है। न्यायाधीश एच.आर. खन्ना ने इस निर्णय के विरुध्द अपनी सशक्त असहमति दर्ज की और न्यायिक इतिहास में चिरस्थायी स्थान अर्जित किया है।
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कुछ सप्ताह पहले के अपने ब्लॉग में मैंने राम जेठमलानी, सुभाष कश्यप और के.पी.एस. गिल द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका कि विदेशों के – टैक्स हेवन्स में जमा भारतीय धन को भारत वापस लाने हेतु सरकार को बाध्य किया जाए – का उल्लेख किया था।
15 जनवरी को सुबह समाचारपत्रों में यह समाचार पढ़कर लाखों पाठक अवश्य ही प्रफुल्लित हुए होंगे कि एक दिन पूर्व न्यायालय ने सोलिसीटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को उस समय बुरी तरह से लताड़ा जब उन्होंने यह बताया कि सरकार को जर्मन सरकार से लीसटेनस्टीन बैंक में जमा सभी भारतीय नागरिकों के धन के बारे में पूरी जानकारी मिली है लेकिन भारत सरकार इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहती।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी और एस.एस. निर्झर की पीठ ने सुब्रमण्यम से पूछा ”जिन लोगों ने विदेशी बैंकों में धन जमा किया है उनके बारे में जानकारी सार्वजनिक न करने के पीछे कौन सा विशेषाधिकार है?” न्यायालय ने आगे कहा कि वे चाहेंगे कि पुणे के व्यवसायी हसन अली खान जिसके विरूध्द विदेशी बैंको में कथित काला धन जमा कराने की जांच प्रवर्तन निदेशालय ने की थी, को भी याचिका में एक पार्टी के रूप में शामिल किया जाए। न्यायालय की टिप्पणियों के परिप्रक्ष्य में, सोलिसीटर जनरल ने कहा कि वे सरकार से निर्देश लेंगे।
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गत् सप्ताह इस समूचे मुद्दे पर विचार करने के लिए एन.डी.ए. की एक विशेष बैठक हुई। संसद में एन.डी.ए. के सभी दलों के सदन के नेताओं ने भाग लिया और प्रधानमंत्री को एक कड़ा पत्र तैयार किया। इस पत्र के तीन पैराग्राफ निम्नलिखित हैं :
”हमारी आशंका है कि इस मोर्चे पर यूपीए सरकार द्वारा सक्रियता न दिखाने के पीछे उसे स्वयं अपने फंसने का डर है। आखिरकार, संयुक्त राष्ट्र द्वारा ‘फूड फॉर ऑयल‘ घोटाले की जांच हेतु गठित वोल्कर रिपोर्ट ने कांग्रेस पार्टी को एक लाभार्थी के रूप में नामित किया है। हमारी जांच एजेंसियों और राजस्व एजेंसियों की जांच में यह साफ सिध्द हुआ है जो कि ITAT के आदेश में भी परिलक्षित होता है कि बोफोर्स घूस काण्ड में दलाली लेने वालों मे
अतावियो क्वात्रोची ने ए.ई. सर्विसेज और कोल बार इन्वेस्टमेंट जैसी कम्पनियों की आड़ में घूस ली है। अतावियो क्वात्रोची और उनकी पत्नी मारिया के कांग्रेस पार्टी के परिवार विशेष से सम्बन्ध सर्वज्ञात हैं और उन पर कोई विवाद नहीं है।
एक स्विस पत्रिका Sehweizer Illustrirte’ के 19 नवम्बर, 1991 के अंक में प्रकाशित एक खोजपरक समाचार में तीसरी दुनिया के 14 वैश्विक नेताओं के नाम दिए गए है। जिनके स्विटजरलैण्ड में खाते हैं। भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का नाम भी इसमें शामिल है। रिपोर्ट का आज तक खण्डन नहीं किया गया। डा0 येवजेनिया एलबट्स की पुस्तक “The state within a state – The KGB hold on Russia in past and future” में चौंकाने वाले रहस्योद्धाटन किए गए हैं कि भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार को रूस के व्यवसायिक सौदों के बदले में लाभ मिले हैं।
ये शोधपरक समाचार हैं जो लेखों या पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए हैं। जिनके विरूध्द जांच की गई है उन्होंने औपचारिक रूप से न तो इसका खण्डन किया है और न ही उन्होंने ऐसे संदेह पैदा करने वाले प्रकाशनों के विरूध्द कोई कार्रवाई की है। यह सरकार के लिए महत्वपूर्ण है कि वह सुनिश्चित करे कि पूर्व प्रधानमंत्री सहित भारत के अतीत एवं वर्तमान नेताओं के नाम पर कलंक न लगे। अत: या तो इन आरोपों को जोरदार ढंग से खण्डन करना चाहिए या इनकी जांच होनी चाहिए।”
वैश्विक अर्थव्यवस्था में शुचिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एक स्वैच्छिक संगठन ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी (Global Financial Integrity) अच्छा काम कर रहा है। पिछले महीने ग्लोबल फाइनेंशियल इंटिग्रिटी द्वारा जारी एक सारगर्भित रिपोर्ट भारत के बारे में कुछ यह कहती है:
”1948 से 2008 तक भारत ने अवैध वित्तीय प्रवाह (गैरकानूनी पूंजी पलायन) के चलते कुल 213 मिलियन डालर की राशि गंवा दी है। यह अवैध वित्तीय प्रवाह सामान्यतया भ्रष्टाचार, घूस और दलाली तथा अपराधिक गतिविधियों से जन्मता है।” अवैध वित्तीय प्रवाह अवैध रूप से कमाए गए, स्थानांतरित या उपयोग में लाए गए देश से बाहर भेजे गए धन से जुड़ता है; इसमें सामान्यतया ”भ्रष्टाचार, सौदे के बदले सामान, अपराधिक गतिविधियों जैसी गैर-कानूनी गतिविधियों से कमाए गए धन का स्थानांतरण और देश के कर से बचाने के लिए सम्पत्ति को संरक्षण देना शामिल है।”
रिपोर्ट आगे जोड़ती है ”भारत की वर्तमान कुल अवैध वित्तिय प्रवाह की वर्तमान कीमत कम से कम 462 बिलियन डालर है। यह अल्पावधि अमेरिका ट्रेज़री बिल की दरों पर सम्पत्ति पर लाभ के दरों की बराबर पर आधारित है।”
देश आशा करता है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को इसकी तार्किक परिणति तक ले जाएगा। 462 बिलियन डालर बहुत बड़ी राशि है। भारतीय रूपयों में यह राशि 20 लाख 85 हजार करोड़ रूपये बैठती है जो भारतीय परिस्थितियों का अद्भुत कायाकल्प कर सकती है। इस सारी दौलत को वापस लाने के लिए सरकार को बाध्यकर सर्वोच्च न्यायालय भारत की जनता की सदैव के लिए कृतज्ञता हासिल कर सकता है।
इस्लाम धर्म इस समय घोर संकट के दौरे से गुजर रहा है। जैसा कि इस्लाम धर्म का इतिहास हमें बताता आ रहा है कि अपने उदय के समय अर्थात् लगभग 1450 वर्ष पूर्व से ही इस्लाम को सबसे बड़ा खतरा किसी अन्य धर्म, संप्रदाय या विश्वास के लोगों से नहीं बल्कि दुर्भाग्यवश उन्हीं लोगों से रहा है जो स्वयं को मुसलमान कहते थे और अपने को मुसलमान कहलाना पसंद करते थे। परंतु दरअसल उनकी सोच, गतिविधियां तथा कारनामे ऐसे हुआ करते थे जो वास्तविक इस्लामी शिक्षाओं से कतई मेल नहीं खाते थे। यही कारण था कि इस्लाम धर्म अपने उदय के समय से ही दो भागों में बंटता दिखाई दिया। एक वह वास्तविक इस्लाम जो उदारवाद, समभाव, समानता, कुर्बानी, क्षमा, करूणा तथा मानवता जैसी बुनियादी इस्लामी सीख देता है। यानी पैंगबर हजरत मुहम्मद साहब व उनके परिवार के सदस्यों द्वारा बताया गया इस्लाम। और दूसरी ओर समानातंर रूप से उस तथाकथित इस्लाम ने भी उसी समय से अपना पैर पसारना शरू कर दिया जो सत्ता, हुकूमत, बादशाहत, जुल्म, अन्याय अत्याचार, ज़ोर जबरदस्ती तथा अमानवीयता जैसी तमाम गैर इस्लामी शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता था। समय के साथ-साथ पैंगंबर हजरत मोहम्मद का बताया हुआ सच्चा इस्लाम तो अपनी उदारवादी व मानवीय शिक्षाओं के फलस्वरूप इस्लामी शिक्षाओं के शांतिपूर्ण प्रचार प्रसार व अमल में लगा रहा जबकि तथाकथित इस्लाम का परचम उठाने वाले तथाकथित मुसलमान अपने जुल्म-ओ-जब्र के सहारे तथा अपनी कटटरपंथी विचारधारा के बल पर स्वयं को सशस्त्र तरीके से माबूत भी करते गए। परिणामस्वरूप आज वास्तविक व सच्चा मुसलमान असहाय नजर आ रहा है जबकि फसादी मुसलमान पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर इस्लाम को बदनाम व रूसवा करता जा रहा है।
चौदह सौ वर्ष पूर्व का करबला का मैदान हो या मध्ययुगीन इतिहास में दर्ज तमाम आक्रमणकारी मुंगल शासकों के जुल्म या फिर तालिबानी विचारधारा या पाकिस्तान सहित कई अन्य देशों में अपना प्रभाव बढ़ाते जा रहे तथाकथित कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा के लोग। इन सभी तथाकथित मुसलमानों ने वास्तविक इस्लामी शिक्षाओं को इस कद्र रूसवा व बदनाम किया है कि आज दुनिया में यह नई बहस छिड़ गई है कि दरअसल इस्लामी शिक्षाएं हैं कौन सी? वह जो उदारवादी मुसलमान बता रहे हैं या फिर वह जो गत् 1400 वर्षों से किसी न किसी रूप में दुनिया के किसी न किसी हिस्से में फसाद फैलाने तथा इंसानियत का खून बहाने का पर्याय बनी हैं। ऐसी बहस का छिड़ना भी तब स्वाभाविक हो जाता है जबकि हम यह देखते हैं कि कभी बेनजीर भुट्टो के रूप में एक औरत को बम धमाका कर मार डाला जाता है। यहां मारने वाला गिरोह स्वयं को इस्लामी नुमाईंदा बताता है तथा बेनजीर की हत्या को इस्लामी जेहाद का हिस्सा बताया जाता है। दूसरी ओर इस्लाम धर्म न केवल किसी औरत पर जुल्म ढाने को एक बड़ा गुनाह बताता है बल्कि कुरान की आयतें तो यहां तक कहती हैं अगर तुमने किसी एक बेगुनाह शख्स का कत्ल कर दिया तो गोया तुमने पूरी इंसानियत का कत्ल कर डाला।
इसी प्रकार पिछले दिनों पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर को एक ऐसे शख्स ने गोलियों से छलनी कर दिया जिसपर सलमान तासीर की सुरक्षा का जिम्मा था। हत्यारे मुमताज कादरी का कहना था कि उसने कई मौलवियों की तक़रीरें सुनी थीं। इन्हें सुनने के बाद ही उसने यह फैसला कर लिया था कि वह तथाकथित रूप से ईश निंदा कानून का विरोध करने वाले सलमान तासीर को जिंदा नहीं छोड़ेगा। और आखिरकार उसने सलमान तासीर के रूप में उस शख्स की हत्या कर डाली जिसकी मुहाफिजत का जिम्मा उस पर था। अब यहां भी इस्लामी शिक्षाओं में विरोधाभास साफ नजर आ रहा है। क्या हत्यारे कादरी ने इस्लामी शिक्षाओं पर अमल करते हुए सलमान तासीर की हत्या की या फिर सलमान तासीर इस्लाम के रास्ते पर चलते हुए एक एक बेगुनाह इसाई महिला आसिया बीबी को जेल से रिहा करवाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे। इस घटना से जुड़ा एक सवाल और यह है कि क्या हत्यारे मुमताज कादरी का इस्लाम तथा उसे पथभ्रष्ट व गुमराह करने वाले कठ्मुल्लाओं का इस्लाम उन्हें यही तालीम देता है कि वे जिसकी हिफाजत में तैनात हों उस की हिफाजत सुनिश्चित करने के बजाए उसी की हत्या कर डालें?
उपरोक्त घटना का इससे दर्दनाक व चिंतनीय पहलू यह था कि वास्तविक इस्लामी शिक्षाओं के दुश्मन हत्यारे मुमताज कादरी को उसके द्वारा किए गए हत्या जैसे घिनौने व गैर इस्लामी कृत्य के बाद उसे एक महान आदर्श पुरुष, हीरो,विजेता, फातेह तथा गाजी के रूप में सम्मानित किया गया। उस पर गुलाब के फूलों की पंखुड़ियां बरसाई गईं। उसके समर्थन में विशाल जुलूस निकाला गया। उसकी पूरी हौसला अफजाई की। उसकी तत्काल रिहाई की मांग की गई। यहां तक कि सलमान तासीर के जनाजे की नमाज पढ़ाने का कट्टरपंथी कठ्मुल्लाओं द्वारा बहिष्कार तक किया गया। निश्चित रूप से उस समय पूरी दुनिया सलमान तासीर की हत्यापर अफसोस जाहिर कर रही थी तथा उनके सुरक्षा गार्ड द्वारा उन्हें मारने पर चिंतित व व्याकुल दिखाई दे रही थी। जबकि दूसरी ओर मुट्ठीभर सरफिरे इस्लामी विचारधारा के दुश्मन लोग किसी बेगुनाह इंसान के हत्यारे की हौसला अफजाई करते हुए उसका पक्ष ले रहे थे। यहां यहसवाल उठना भी स्वाभाविक है कि वास्तविक इस्लाम किसका है। उस मंकतूल सलमान तासीर का जो एक गैर मुस्लिम महिला की रिहाई के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करते हुए शहीद हो गया? या फिर जिस हत्यारे ने सलमान तासीर जैसे बेगुनाह इंसान की रक्षा करने के बजाए उसकी हत्या कर डाली उसका?
इसमें कोई शक नहीं कि कट्टरपंथी तालिबानी विचारधारा रखने वाले तथाकथित मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान सहित दुनिया भर में किए जा रहे आतंकी कृत्यों के भयवश भले ही निहत्थे, उदारवादी तथा खुदा से डरने वाले मुसलमान वक्त क़ी नजाकत के मद्देनजर खामोश क्यों न हों परंतु अभी भी मुस्लिम समाज में उदारवादी एवं सच्चे इस्लाम के पैरोकारों का बहुमत है। यही वजह थी कि सलमान तासीर के जनाजे की नमाज पढ़ाने का जहां लाहौर के कई कठ्मुल्ला, कट्टरपंथियों व आतंकवादियों के भयवश बहिष्कार कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान की प्रसिध्द इस्लामिक धार्मिक संस्था दारुल-इफता जामिया इस्लामिया के शेख-उल-इस्लाम मुफ्ती मोहम्मद इदरीस उस्मानी ने उसी समय एक फतवा जारी कर दुनिया को यह बताने काप्रयास किया कि सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी द्वारा किया गया आपराधिक कृत्य वास्तव में इस्लाम की नार में क्या था। अपने फतवे में मुफ्ती उस्मानी ने उन लोगों की भी स्थिति इस्लामी नजरिए से स्पष्ट की जो सलमान तासीर की हत्या पर खुशी मना रहे थे तथा इस कत्ल को सही ठहरा रहे थे। शेख-उल-इस्लाम मुंती मोहम्मद इदरीस उस्मानी से पूछा गया कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर को उन्हीं के अंगरक्षक द्वारा मारे जाने पर इस्लामी उलेमाओं का क्या मत है? गार्ड का दावा है कि उसने सलमान तासीर की हत्या इसलिए की कि उन्होंने ईश निंदा की है तथा पैंगबर मोहम्मद की तौहीन की। जबकि इस बात के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं कि सलमान तासीर ने हजरत मोहम्मद की शान में कोई गुस्ताखी की हो या ईश निंदा की हो। उलेमाओं का उनके विषय में क्या मत है जो सलमान तासीर के हत्यारे की प्रशंसा कर रहे हैं?
उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में मुंती इदरीस उस्मानी ने बिसमिल्लाहहिर्रहमानिर्रहीम कहकर फरमाया कि मैंने इस पूरे घटनाक्रम का गहन अध्ययन किया है तथा घटना से संबंधित सभी आलेख व समाचार गंभीरता से पढ़े हैं। इसके अतिरिक्त मैंने पाकिस्तान तथा भारत के तमाम वरिष्ठ एवं विशिष्ट इस्लामी धर्मगुरुओं व उलेमाओं से इस विषय पर चर्चा भी की है। अत:उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इस्लामी शिक्षाओं के अंतर्गत मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि- 1.मलिक मुमताज कादरी ने एक बेगुनाह आत्मा की हत्या कर गुनाहे अजीम (महापाप) अंजाम दिया है। एक बेगुनाह व्यक्ति की हत्या कर कानून अपने हाथ में लेकर तथा अपने कृत्य में इस्लाम के नाम को शामिल कर मुमताज कादरी ने फसाद फिल अर्ज अर्थात् धरती पर फसाद फैलाने जैसा पाप किया है तथा तौहीन-ए-रिसालत अर्थात् हजरत रसूल की तौहीन की है। ठीक यही स्थिति उन लोगों की भी है जो हत्यारे कादरी की तारीफ़ कर तथा बेगुनाह व्यक्ति की हत्या जैसे उसके महाअपराध की तारींफ कर इस्लाम के नाम पर और अधिक फसाद फैलाना चाह रहे हैं। वास्तव में वास्तविक ईश निंदक सलमान तासीर का हत्यारा है जिसने पैंगबरे रसूल की तौहीन की है। 2. वे लोग तथा वे संगठन, गुमराह पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वकील तथा अज्ञानी उलेमा (धर्मगुरु) जोकि सलमान तासीर की हत्या जैसे महापाप को सही ठहरा रहे हैं तथा इस पर जश् मना रहे हैं वे भी इस महापाप के सहभगी हैं। और जिन अज्ञानी उलेमाओं ने सलमान तासीर के कत्ल के लिए फतवा जारी किया था वे भी मुफसिद फिल अर्ज यानी धरती पर फसाद फैलाने वाले हैं तथा उन्हें भी इस्लामी शरिया कानून के अंतर्गत सजा दी जानी चाहिए। 3. जब पाकिस्तान की अदालत में हत्यारे कादरी के विरुध्द देश के कानून के अंतर्गत मुकद्दमा चलेगा उस समय कुरान शरीफ की सूरए अलमायदा की आयत संख्या 32 को मद्देनजर रखते हुए हत्यारे कादरी तथा उसके समर्थकों के साथ इंसाफ किया जाना चाहिए। कुरान शरीफ के सूरे अल मायदा की आयत 32 के अनुसार जो शस किसी को न जान के बदले में,न मुल्क में फसाद फैलाने की सजा में बल्कि नाहक़ कत्ल करेगा तो गोया उसने सब लोगों को कत्ल कर डाला और जब किसी ने एक व्यक्ति को जिला लिया अर्थात् जिंदा बचा लिया तो गोया उसने सब लोगों को जिला लिया। जो लोग हत्यारे तथा फसाद फैलाने वाले की तारीफ कर रहे हैं उन्हें जहन्नुम नसीब होगा।
उपरोक्त फतवा जोकि इस्लामी शरिया व इस्लामी शिक्षाओं तथा कुरानी आयतों की रोशनी में जारी किया गया है वह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम में न तो किसी बेगुनाह की हत्या की कोई गुंजाईश है न ही बेगुनाह व्यक्ति के किसी हत्यारे की तारींफ करने वालों की कोई जगह। लिहाजा अब वक्त आ गया है कि दुनिया के सभी वर्गों के उदारवादी सच्चे मुसलमान अपने सभी ऐतिहासिक भेदभावों को भुलाकर इन कट्टरपंथी आतंकी शक्तियों के विरुध्द एकजुट हों तथा इनके विरुध्द अहिंसक जेहाद छेड़ने के लिए तैयार हो जाएं। इस अहिंसक जेहाद में वास्तविक इस्लाम की नुमाईंदगी करने वाले उदारवादी उलेमाओं का भी आगे आना बहुत जरूरी है। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि मुसलमान दिखाई देने वाली इस्लाम विरोधी तांकतें इस्लाम को पूरी तरह कलंकित व बदनाम कर डालें तथा कहीं वह इसे हिंसा के प्रतीक के रूप में प्रचारित करने में सफल न हो जाएं
कांग्रेसियों की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री और युवराज राहुल गांधी समूचे देश में युवाओं को कांग्रेस से जोड़ने का जतन कर रहे हैं, किन्तु उन्हें अपनी जागीर यानी संसदीय क्षेत्र अमेठी की कोई परवाह ही नहीं है। अमेठी का आलम यह है कि वहां न बिजली है, न पानी का ठिकाना है, रही बात उद्योग धंधों की तो लगभग उद्योग विहीन हो चुका है अमेठी। कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के बावजूद भी लगभग सवा लाख गैस कनेक्शन धारकों वाली अमेठी में रसोई गैस का जबर्दस्त संकट है। राजनैतिक कारणों से सदा चर्चा में रहने वाली अमेठी में केप्टन सतीश शर्मा ने सांसद रहते बहादुर पुर में पेट्रोलियम इंस्टीटयूट की घोषाण की थी, 97 एकड़ जमीन के अधिग्रहण के बाद भी नतीजा ढाक के तीन पात ही है। बतौर सांसद पहले कार्यकाल में राहुल गांधी ने अमेठी को एजूकेशन हब बनाने का सपना दिखाया था, किन्तु न तो इंस्टीट्यूट ऑफ इंफरमेशन तकनालाजी ने यहां डिस्कवरी पार्क बनाया और न ही दिल्ली पब्लिक स्कूल ने ही यहां काम आरंभ किया। मौजूदा हालात में अमेठी की बदहाली को देखकर यहां के नागरिक अपने सांसद पर आंसू ही बहा रहे है। अमेठी में इन दिनों एक पुराना चुटकुला चर्चा में है।
यह है आरटीई का हाल सखे
देश में बच्चों को शिक्षित करने के लिए कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने शिक्षा के अधिकार कानून आरटीई को लागू किया है। गैर कांग्रेसी सरकारों वाले सूबों में आरटीई का परवान न चढ़ पाना समझ में आ सकता है कि वे कांग्रेस के फैसलों को अंगीकार करने से गुरेज कर रहे हों, किन्तु कांग्रेस की ही राजस्थान सरकार द्वारा आरटीई में कोताही समझ से परे है। राजस्थान में बारह लाख से अधिक बच्चों ने स्कूल का मुंह नहीं देखा है। इतना ही नहीं सूबे 72 हजार शालाओं में 23 हजार शिक्षकों की कमी है। राजस्थान में तकरीबन सात लाख 14 हजार कन्याएं और चार लाख 77 हजार बालक स्कूल जाने से वंचित हैं। राजस्थान में बालिकाओं के स्कूल से विमुख होने पर खासा आश्चर्य होता है। कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी खुद महिला हैं, देश की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल भी महिला हैं, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार भी महिला हैं, फिर कांग्रेस की राजस्थान सरकार द्वारा बालिकाओं की शिक्षा दीक्षा के मामले में कोताही ही बरती जा रही है। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के द्वारा बच्चों की शिक्षा को लेकर बनाए गए कानून में राज्यों की अनदेखी पर सजा का प्रावधान अवश्य ही होगा, अगर नहीं तो इसमें संशोधन पर प्रावधान करे और केंद्र को उसका उपयोग करना ही चाहिए।
आईटीडीपी में महिला बटालियन
भारत तिब्बत सीमा पुलिस ने एक नया इतिहास रचते हुए महिलाओं की पहली बटालियन को अपने आप में समाहित कर लिया है। इस बटालियन में देश की 209 महिलाओं को शामिल किया गया है। इस बटालियन में उत्तराखण्ड से 44, राजस्थान की 13, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और दिल्ली की चार चार, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की दो दो एवं हिमाचल प्रदेश की एक महिला शामिल है। अर्धसैनिक बलों में अब तक पुरूषों का ही वर्चस्व रहा है, महिलाएं भी किसी से कम नहीं है, यह बात साबित करते हुए देश की महिलाओं ने आईटीबीपी के माध्यम से देश की सेवा करने की ठानी है। इन महिलाओं को प्रशिक्षण के कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है। बावजूद इसके ये महिलाएं अपने आप को इसके लिए पूरी तरह तैयार हैं। गृह मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि जब पूरी तरह से यह बटालियन तैयार हो जाएगी तब इनकी सेवा कैलाश मानसरोवर और नाथुला दर्रे में चुनौतिपूर्ण जवाबदारी भी दी जा सकती है। आने वाले समय में समूची दुनिया ‘भारत की स्त्री शक्ति‘ को सलाम करती नजर आएगी।
फिर केंद्र पर बरसे शिवराज
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लगता है रह रह कर केंद्र सरकार पर बरसने का भूत सताता है। वे अनेक मामलों में केंद्र से पक्षपात का आरोप लगाते हैं फिर दिल्ली आकर मध्य प्रदेश भवन में पत्रकारों को चाय पर बुलाकर अपनी भड़ास निकाल देते हैं। केंद्र सरकार क्या दे रही है क्या नहीं इस बात से शायद उनको बहुत ज्यादा लेना देना नहीं है। मध्य प्रदेश में सड़कों की दुर्दशा को लेकर सूबे की भाजपा ने पहले भूतल परिवहन मंत्री को घेरने की घोषणा की, इसके लिए हस्ताक्षर अभियान और मानव श्रंखला की घोषणा की गई इसके बाद प्रधानमंत्री से मिलने की बात थी। मध्य प्रदेश की भाजपा ने तो यह नहीं किया, कुछ दिनों बाद शिवराज सरकार ने भी भूतल परिवहन मंत्रालय को घेरने की बात कही। शिवराज की हुंकार के बाद भी सरकार ने इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। रही बात शिवराज सिंह की दिल्ली में पत्रकार वार्ताओं की तो उसमें भूतल परिवहन मंत्रालय को छोड़ बाकी सभी मंत्रालयों को घेरने में शिवराज सिंह चौहान कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं।
बताएं बापू का आई क्यू लेबल
देश में सूचना का अधिकार कानून क्या लागू हुआ लोगों ने जो मर्जी चाहे वो जानकारी मांगना आरंभ कर दिया है। अहमदाबाद के एक शस्ख ने केंद्रीय सूचना आयुक्त से एक जानकारी मांगी है, जो हैरतअंगेज ही कही जा सकती है। उसने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सहित अनेक पूर्व राष्ट्रपतियों के बौद्धिक स्तर (आई क्यू लेबल) के बारे में जानकारी चाही है। उधर केंद्रीय सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्र का मानना है कि इस तरह की सूचनाएं मागने से साफ हो जाता है लोग अब सूचना के अधिकार के नाम पर हदें पार करते जा रहे हैं। बकौल मिश्र यह सूचना के अधिकार दायरे का उल्लंघन है, जिसे रोका जाना चाहिए। वैसे कुछ लोगों ने सूचना के अधिकार कानून के जरिए न जाने कितने लोगों को बेनकाब कर दिया है, और कुछ ने इसके जरिए दुकानदारी भी आरंभ कर दी है। पहले जानकारी मांगो फिर उससे सौदा कर लो। कुछ जगहों पर सूचना के अधिकार के तहत जानकारियां मांगने पर लोगों का कत्लेआम तक मच गया है। कुछ भी हो सूचना का अधिकार कानून है बड़े काम की चीज। सरकार को इसका और अधिक प्रचार प्रसार करना चाहिए, ताकि व्यवस्था को चाक चौबंद बनाया जा सके।
आड़वाणी का ब्लाग भारती नहीं भाया भाजपाईयों को
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग एल.के.आड़वाणी बहुत बड़े ब्लागर हो गए हैं। आड़वाणी अब अपनी मंशाएं और पार्टी की अंदरूनी बातें अपने ब्लाग पर लिखाकर सार्वजनिक करते हैं। आड़वाणी बहुत बड़े नेता हैं, और उनके लिए भाजपा का मंच है, फिर भी उन्होंने ब्लाग की दुनिया में जाकर अपने आप को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया है। आड़वाणी ने मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की भाजपा वापसी की मंशा को अपने ब्लाग पर उजागर कर दिया था, उसके बाद से ही भाजपा में उफान आ गया। उमा भारती ने भाजपा में रहते और छोड़ने के बाद जिन जिन लोगों को कोसा था, वे सब लामबंद होकर उमा भारती की वापसी में शूल बोने लगे। पहले लगने लगा था कि जब आड़वाणी ने अपने ब्लाग पर उमा भारती का भविष्य तय कर दिया है तो फिर भला कोई संसदीय बोर्ड में इसका प्रतिकार करने का साहस जुटा पाएगा। उमा विरोधियों ने जमकर सियासत की कहा कि उमा ने टीवी के सामने ही आड़वाणी को जमकर कोसा था, और तो और भाजपा को हराने के लिए एक पार्टी तक बना डाली थी, नतीजा सामने है उमा भारती को अभी वेट करना पड़ रहा है।
एम्स के पानी में हैं लाख बीमारियां
देश का आला दर्जे का चिकित्सालय अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान मरीजों या उसके परिजनों को पानी ही नहीं बीमारियां पिला रहा है। यह सच है, संस्थान के लेबोरेटरी मेडीसिन विभाग की रिपोर्ट यह सब कह रही है। प्रतिवेदन कहता है कि पानी के नमूने लेकर उसकी जांच में पाया गया है कि इसमें पैथोजीन है, जो टाईफाईड, हेपीटाईटिस ए एवं सी के साथ ही साथ पेट की अनेक बीमारियांे का कारक है। इसमें ओपीडी, इंडियन रोटरी केंसर हॉस्पिटल का पानी सबसे ज्यादा दूषित है। उम्दा स्वास्थ्य सेवाओं के लिए विख्यात एम्स में गरीबों के लिए प्रदूषित पानी पिलाया जा रहा है इसमें मरीजों के साथ ही साथ उनकी तीमारदारी में लगे लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं है। वहीं दूसरी ओर पाईवेट वार्डस और व्हीव्हीआईपी क्लीनिक्स में रसूखदारों के लिए आरओ मशीन लगा दी गईं हैं। बहरहाल डिपार्टमंेट द्वारा एम्स निदेशक डॉ.आर.सी.डेक्का को लिखे पत्र में इन बातों का सविस्तार से उल्लेख कर दिया है। अब देखना यह है कि लोगों को भला चंगा करने वाला अस्पताल कब लोगों को साफ सुथरा पानी मुहैया करवाता है।
‘डियर मिनिस्टर‘ का खौफ
केंद्रीय मंत्रियों में इन दिनों एक नया खौफ देखने को मिल रहा है। केबनेट सचिव के.एम.चंद्रशेखर ने एक पत्र लिखकर मंत्रियों को हलाकान कर रखा है। कैबनेट सचिव ने केंद्रीय मंत्रियों को पत्र लिखकर प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के एक निर्देश की याद दिलाई है, जिसमें प्रधानमंत्री ने मंशा व्यक्त की थी कि केंद्रीय मंत्री सांसदों का पूरा पूरा ध्यान रखें, उनसे समय समय पर भेंट मुलाकात करें। केबनेट सचिव चंद्रशेखर ने पत्र में प्रधानमंत्री कार्यालय में पदस्थ रहे पूर्व राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के पत्र की याद भी दिलाई है। मंत्री हैरान हैं कि आखिर एक नौकरशाह को मंत्रियों को पत्र लिखकर याद दिलाने की क्या जरूरत पड़ गई। मंत्रियों का कहना है कि एसा प्रतीत होता है कि वे सांसदों की उपेक्षा कर रहे हैं और सांसदों ने जाकर केबनेट सचिव के सामने अपना दुखड़ा रोया है। इसके पहले भी कैबिनेट सचिव ने मंत्रियों को अपने अपने महकमों की परफार्मेंस रिपोर्ट तैयार करने संबंधी पत्र लिखा था। गौरतलब होगा कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी के कार्यकाल में उनके सचिवों और कांग्रेस के आला नेताओं द्वारा अपनी इच्छा को राजीव जी की इच्छा बताकर काम साध लिए जाते थे।
बापू को सच्ची श्रद्धांजलि दे रहे हैं अश्विनी
‘रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम‘ अहिंसा के पुजारी मोहन दास करमचंद गांधी जिन्होंने आधी धोती पहनकर उन ब्रितानियों को भारत से खदेड़ दिया था, जिनके बारे में मशहूर था कि उनका सूरज कभी डूबता नहीं है। मौजूदा सियासी हालात देखकर लगने लगा है कि भारत गणराज्य में आज नेताओं के लिए बापू आप्रसंगिक हो गए हैं। आज के समय में सरकारों द्वारा 30 जनवरी को दो मिनिट का मौन रखकर और दो अक्टूबर को सरकारी अवकाश के साथ ही साथ मांस मदिरा की दुकानें बंद करवाकर बापू को श्रद्धा सुमन अर्पित किए जाते हैं। दिल्ली में संपन्न नौवें प्रवासी भारतीय सम्मेलन में आए महात्मा गांधी के पुजारी सखामित्र अश्विनी ने एक अनोखा संकल्प लिया है। अश्विनी ने बापू के शांति और अहिंसा के संदेश को समूचे विश्व में गुंजायमान कारने का बीड़ा उठाया है। सम्मेलन में लंदन, कनाड़ा, आफ्रीका से आए भारतवंशियों ने उनसे मिलकर इन देशों में बापू के संदेश के प्रचार प्रसार का आग्रह किया है। अश्विन का मानना है कि बापू हमेशा निचले तबके के सहारा माने जाते रहे हैं। फिल्म और थियेटर की दुनिया के सशक्त हस्ताक्षर अश्विनी ने पीस टू जर्नी नामक एलबम के माध्यम से इसका प्रचार प्रसार करने का निर्णय लिया है, यह एलबम इस साल गांधी जयंती पर लांच होने की उम्मीद है।
अब नहीं लगा सकोगे विदेशियों को चूना
जब भी कोई गोरी चमड़ी वाला हिन्दुस्तान की सैर पर आता है, उसे लूटना भारत के आटो चालक अपना धर्म समझते हैं। एक के बदले दस वसूलने के आदी हो चुके महानगरों के आटो चालकों को सबक सिखाने के लिए दुनिया के चौधरी अमेरिका में नायाब मुहिम छेड़ी है। अमेरिका की एक कंपनी ने अपनी वेब साईट पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (एनसीआर) सहित अठ्ठारह शहरों के लिए फेयर पोर्टल लांच किया है। टेक्सीआटोफेयर डॉट काम नामक इस वव साईट पर देशी विदेशी पर्यटक अपने रूट मेप, आटो का किराया आदि की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। इसमें दिल्ली, एनसीआर के अलावा मुंबई, बंगलुरू, कोलकता, पुणे, अहमदाबाद, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़, औरंगाबाद, जयपुर, कोयंबटूर, त्रिवेंद्रम, पटना, मंगलौर, नागपुर शहरों की जानकारी का समावेश किया गया है। अब अमेरिका वालों को कौन समझाए कि आप भले ही पोर्टल पर चाहे जो जानकारी डाल दें, पर यह हिन्दुस्तान की बिगड़ैल व्यवस्था है, इसमें कोई लगाम नहीं लगा सकता है। यहां नियम कायदे कानून हैं, आटो का किराया भी निर्धारित है, किन्तु उसका पालन करने की फुर्सत न तो आटो चालकों को है, और ना ही यातायात पुलिस के बस की ही बात है।
पुच्छल तारा
स्वच्छ छवि वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार, घपले घोटालों की भरमार देखकर कांग्रेस के आला नेताओं को छोड़कर समूचा देश हैरान परेशान है। इसी मामले में केरल के त्रिशूर से सविता नायर ने ईमेल भेजा है। सविता लिखती हैं कि स्विस बैंक में जमा धन, घपले, घोटाले भ्रष्टाचार में कांग्रेस ने सभी को पीछे छोड़ दिया है। अब तो लोग कहने लगे हैं कि दो सौ सालों में अंग्रेजों ने हमें क्या लूटा होगा जितला महज साठ सालों में ही देश के जनसेवकों और नौकरशाहों ने हमें लूट लिया है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की स्थापना सन् 1911 में इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आईसीएमआर) के रूप में की गयी थी, जिसे देश की स्वतंत्रता के बाद सन् 1949 में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) नाम दिया गया। परिषद 99 वर्ष पूरा कर 15 नवंबर 2010 से अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रही है। देश में जैव आयुर्विज्ञान अनुसंधान को बढ़ावा देने में परिषद का महत्वूर्ण योगदान रहा है क्योंकि वह देश की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को समझने तथा अनुसंधान के माधयम से उनका निराकरण खोजती है। आईसीएमआर नेटवर्क से जुड़े संस्थानों तथा इस नेटवर्क के बाहर के अनेक संस्थानों के अनुसंधान कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न बीमारियों के निदान के लिए परिषद लगातार कार्य कर रही है।
परिषद द्वारा एक्स्ट्राम्युरल अनुसंधान को विभिन्न माध्यमों से बढ़ावा दिया जाता है। मेडिकल कालेजों, विश्वविद्यालयों और अन्य शोध संस्थानों के चुने हुए विभागों में मौजूदा विशेषज्ञता और मूलभूत ढांचे की सहायता से शोध के विभिन्न क्षेत्रों में उन्नत अनुसंधान केंद्रों की स्थापना की जाती है। इसके अतिरिक्त टास्क फोर्स अध्ययन तथा देश के विभिन्न भागों में परिषद से गैर-संबद्ध अनुसंधान संस्थानों में वैज्ञानिकों के वित्तीय सहायता हेतु प्राप्त आवेदनों के आधार पर ओपन एंडेड अनुसंधान शामिल हैं।
आईसीएमआर नेटवर्क में चार क्षेत्र हैं, जिनमें उत्तरी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र तथा पश्चिमी क्षेत्र शामिल हैं। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
आईसीएमआर के 18 राष्ट्रीय संस्थान क्षयरोग, कुष्ठरोग, हैजा तथा अतिसारीय रोग, एड्स सहित विषाणुज रोग, मलेरिया, कालाजार, रोगवाहक नियंत्रण, पोषण, खाद्य एवं औषध विष विज्ञान, प्रजनन, प्रतिरक्षा, रुधिर विज्ञान, अर्बुद विज्ञान, आयुर्विज्ञान सांख्यिकी आदि जैसे स्वास्थ्य के विशिष्ट विषयों पर अनुसंधान करते हैं। इसके 6 क्षेत्रीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान केंद्र तथा 5 इकाइयां क्षेत्रीय स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने से संबद्ध हैं, जिनका उद्देश्य देश के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में शोध क्षमताओं को तैयार करना तथा तथा उन्हें सुदृढ़ बनाना है।
जैव आयुर्विज्ञान अनुसंधान में मानव संसाधन विकास को विभिन्न योजनाओं के माध्यम से बढ़ावा दिया जाता है। इनमें जूनियर व सीनियर फैलोशिप तथा रिसर्च एसोसिएट के माध्यम से रिसर्च फैलोशिप, अल्पकालिक विजिटिंग फैलोशिप; अल्पकालिक रिसर्च स्टूडेंटशिप, विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं कार्यशालाओं का संचालन तथा विदेश में आयोजित सम्मेलनों में भाग लेने हेतु यात्रा के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना आदि प्रमुख है। इसके अलावा सेवा- निवृत्त वैज्ञानिकों एवं शिक्षकों को जैव आयुर्विज्ञान के विशिष्ट विषयों पर शोध कार्य करने अथवा जारी रखने के लिए इमेरिट्स साइंटिस्ट का पद दिया जाता है। स्वास्थ्य विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत भारतीय जैवआयुर्विज्ञान वैज्ञानिकों (बायोमैडिकल सांइटिस्टों) को उनके विशिष्ट योगदान के लिए परिषद द्वारा पुरस्कार एवं पारितोषिक प्रदान कर सम्मानित किया जाता है।
परिषद् में मौलिक आयुर्विज्ञान प्रभाग, जानपदिक रोग विज्ञान एवं संचारी रोग प्रभाग, अंसचारी रोग प्रभाग, प्रजनन स्वास्थ्य और पोषण प्रभाग तथा प्रकाशन एवं सूचना प्रभाग हैं। स्वास्थ्य प्रणाली अनुसंधान सेल, ट्रांसलेशनल अनुसंधान यूनिट, सामाजिक एवं व्यवहारात्मक अनुसंधान यूनिट, औषधीय पादप यूनिट तथा अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रभाग भी परिषद के प्रमुख यूनिट हैं। जनशक्ति विकास प्रभाग द्वारा जैव सांख्यिकी सहित लाइफ सांइसेज और समाज विज्ञान में पीएचडी करने के लिए जूनियर रिसर्च फैलोशिप प्रदान करने हेतु अभ्यर्थियों के चयन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक परीक्षा आयोजित की जाती है।
परिषद ने कुष्ठरोग, कालाजार तथा क्षयरोग जैसी बीमारियों पर अपना विशेष ध्यान केंद्रित किया है। भारत में ऐसी अनेक बीमारियां हैं जिनको सामान्यतया गंभीरता से नहीं लिया जाता, लेकिन परिषद ने हाल के वर्षों में ऐसी बीमारियों पर किये जाने वाले अनुसंधान के लिए 60 प्रतिशत से अधिक वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी है। परिषद गरीबों तथा मध्यम वर्ग के लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करने की दिशा में अग्रसर है।
परिषद ने वर्ष 2009-10 तथा वर्ष 2010-11 के दौरान (दिसंबर 2010 तक) अपने विभिन्न संस्थानों एवं केंद्रों में 26 ट्रांसलेशनल यूनिट स्थापित किये हैं। 52 प्रौद्योगिकियों/प्रक्रियाओं की पहचान ट्रांसलेशन प्रोसेस के पहले चरण में की जा चुकी है तथा वर्तमान वर्ष में इन पर कार्यवाही शुरू हो चुकी है। अन्य 20 समीक्षाधीन हैं।
अनुसंधान ढांचे को मजबूत करना
हाल के वर्षों में आईसीएमआर ने अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं जो देश में अनुसंधान आधार मजबूत करने की दिशा में उल्लेखनीय कदम है। इनमें मेडिकल कालेजों, अनुसंधान संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों आदि को 750 एक्स्ट्राम्युरल रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की गयी, जिनमें 500 प्रोजेक्ट गत डेढ़ वर्ष में वित्त पोषित किये गये। वर्ष 2007 से अब तक 557 जूनियर रिसर्च फैलो का चयन/ वित्तीय सहायता प्रदान की गयी। इनमें 110 का चयन वर्ष 2010 में किया गया। 450 नये सीनियर रिसर्च फैलो तथा 2009-10 से प्रारंभ पोस्ट डाक्टरल फैलोशिप के अंतर्गत 30 पोस्ट डाक्टरल फैलो का चयन किया गया।
परिषद से जो वैज्ञानिक संबद्ध नहीं हैं उनके लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी के लिए 2010 से वित्तीय सहायता की नई योजना शुरू की गयी है, जिसके अंतर्गत 175 युवा वैज्ञानिकों को वित्तीय सहायता उपलब्ध की जा चुकी है।
आधुनिक प्रौद्योगिकी
नैनो-मेडीसिन तथा स्टैम सैल अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिए मानवीय स्वास्थ्य हेतु उम्मीद्वारों की पहचान की गयी। भारत के बालिगों में विकसित नार्मेटिव वैल्यूज के अध्ययन के लिए पहली बार मल्टी साइट व्यापक अध्ययन शुरू किया गया। थैलेसेमिया के मौलेक्युलर करैक्टाराइजेशन तथा सिकल सैल अनेमिया के प्रशिक्षण का कार्य वलसाड, बंगलौर, लुधियाना, नागपुर एवं कोलकाता केन्द्रों द्वारा सफलतापूर्वक पूरा किया गया।
पूर्वोत्तार राज्यों के लिए पहल
सभी 8 पूर्वोत्तर राज्यों में मधुमेह की व्यापकता के अध्ययन हेतु सर्वे किया गया। सौ से अधिक एक्सट्राम्युलर प्रौजेक्ट पर कार्य प्रगति पर है। परिषद के डिब्रूगढ़ केंद्र में ऐसे क्षयरोगियों की पहचान की गयी जो क्षय रोग निरोधक इलाज का लाभ नहीं ले रहे थे तथा इससे उनके फेफड़ों के खराब होने का खतरा हो सकता है। गुवाहाटी में पूर्वोत्तार राज्यों के छात्रों के लिए जूनियर रिसर्च फैलोशिप परीक्षा केंद्र की स्थापना की गयी।
गैर संचारी बीमारियां
देश के 16 केंद्रों से अस्थमा की व्यापकता की जानकारी एकत्र की गयी। मोटापे पर अध्ययन की शुरूआत की गयी तथा पंजाब सरकार के सहयोग से संधिवात बुखार एवं संधिवात हृदयरोग बीमारियों (आरएफ-आरएचडी) के लिए स्टेट कंट्रोल कार्यक्रम शुरू किया गया। भोपाल में गैस प्रभावित आबादी के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दीर्घकालिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पर्यावरण स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान की स्थापना की गयी है। देश के विभिन्न भागों में कैंसर पर अनुसंधान कार्यक्रम संचालित करने के अलावा अनेक कार्यक्रम शुरू किये गये हैं।
जनजाति स्वास्थ्य
परिषद ने अपने 7 संस्थानों/केंद्रों में जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान फोरम शुरू किये हैं। इसमें उनके पोषण से संबंधित ब्यौरों को आंकड़ों के आधार पर तैयार कर उनमें मलेरिया तथा उच्च रक्त चाप आदि के नियंत्रण के लिए कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश में फ्ल्यूओरोसिस प्रिवेंशन एंड कंट्रोल के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया गया है। हेप्टाइटिस-बी टीकाकरण कार्यक्रम अंडमान में परिषद द्वारा किये गये अनुसंधान कार्यक्रम के आधार पर प्रांरभ किया गया है।
संचारी रोग
परिषद ने विभिन्न संचारी रोगों के निदान के लिए भी अपने विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से कार्य प्रांरभ किया है। संशोधित राष्ट्रीय क्षयरोग नियंत्रण कार्यक्रम में परिषद का महत्वपूर्ण योगदान है।
वायरस रोगों तथा एच1एन1 इन्फ्ल्यूंजा की रोकथाम तथा उनके निदान के लिए परिषद अपने नेटवर्क के माधयम से कार्य कर रही है
राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान नीति
परिषद ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य अनुसंधान नीति का एक मसौदा तैयार किया है जिस पर पूरे देश में विचार किया जा रहा है। इसमें स्वास्थ्य सेवाओं के लिए नालेज मैनेजमेंट पालिसी पर विचार किया जा चुका है। इसके साथ ही अनेक गाइड लाइन विकसित एवं तैयार की जा चुकी हैं। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
भारत इस समय विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। उसका लक्ष्य प्रति वर्ष स्थायी रूप से 9-10 प्रतिशत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर हासिल करना है। अंत: यह आवश्यक है कि विनिर्माण क्षेत्र लंबे अरसे तक 13 से 14 प्रतिशत की दर से विकास करे। परंतु पिछले दो दशकों से विनिर्माण क्षेत्र का योगदान जीडीपी. में 16 प्रतिशत के आसपास ही बना हुआ है। एशिया के अन्य देशों के विनिर्माण क्षेत्र में आए परिवर्तनों को देखते हुए भारत के विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति विशेष रूप से चिंता पैदा करने वाली हो जाती है। इस अपेक्षाकृत अल्प योगदान से पता चलता है कि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में आई गतिशीलता से उत्पन्न अवसरों का पूरा-पूरा लाभ उठाने में असमर्थ रहा है।
एक युवा देश होने के नाते हम एक तरह से लाभ की स्थिति में हैं-हमारी 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या 15 से 59 वर्ष के कार्यशील आयु-समूह में है। सामाजिक-आर्थिक नजरिये से इसका प्रकट रूप यह बताता है कि हमारी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपनी आजीविका के लिए कृषि पर हद से ज्यादा निर्भर है, बेरोजगारी, विशेष रूप से शहरी बेरोजगारी का प्रच्छन्न कारण भी यही है। विश्व में सबसे अधिक युवा जनसंख्या वाले हमारे देश में यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। अत: यह जरूरी है कि हम विनिर्माण क्षेत्र में अधूरे कार्य और अनुत्पादक श्रमबल को काम में लाएं ताकि 10 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि दर को हासिल किया जा सके। इसीलिए रोजगार सृजन के लिए भारत विनिर्माण क्षेत्र को एक ढाल के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है। विनिर्माण क्षेत्र किसी भी अर्थव्यवस्था की सम्पन्नता का जनक होता है और रोजगार के सृजन पर इसका गुणात्मक प्रभाव पड़ता है। विनिर्माण क्षेत्र का विकास हमारे प्राकृतिक और कृषि संसाधनों के मूल्य संवर्धन के लिए भी महत्वपूर्ण है। हमारी महत्वपूर्ण नीतिगत आवश्यकताओं को पूरा करने और संपोषणीय विकास की दृष्टि से भी विनिर्माण क्षेत्र का संवर्धन जरूरी है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग ने एक राष्ट्रीय विनिर्माण नीति तैयार करने का प्रस्ताव रखा है।
प्रस्तावित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति के उद्देश्य और मुख्य विशेषतायें 2022 तक जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का अंशदान बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक ले जाना, क्षेत्र में रोजगार के वर्तमान अवसरों को दोगुना करना, घरेलू मूल्य संवर्धन को बढ़ाना, क्षेत्र की वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाना और देश को विनिर्माण क्षेत्र का अंतर्राष्ट्रीय हब (केन्द्र स्थल) बनाना है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, नीति का लक्ष्य विश्वस्तरीय औद्योगिक ढांचा, एक अनुकूल व्यापारिक वातावरण, तकनीकी नवाचार हेतु एक पर्यावरण प्रणाली-विशेषकर हरित विनिर्माण के क्षेत्र में, उद्योगों के लिए जरूरी कौशल के उन्नयन हेतु संस्थाओं और उद्यमियों के लिए सुलभ-वित्त की व्यवस्था का निर्माण करना है।
नीति के तहत जो उपाय प्रस्तावित हैं, उनमें राष्ट्रीय विनिर्माण और निवेश क्षेत्रों की स्थापना, व्यापार के नियमों को युक्तिसंगत और सरल बनाना, बीमार इकाइयों को बंद करने की व्यवस्था को सुगम बनाना, हरित प्रौद्योगिकी सहित प्रौद्योगिकी विकास हेतु वित्तीय और संस्थागत ढांचा तैयार करना, औद्योगिक प्रशिक्षण और कौशल उन्नयन के उपाय बढ़ाना और विनिर्माण इकाइयों और संबंधित गतिविधियों में अशंधारिता/पूंजी लगाने के लिए प्रोत्साहन देना शामिल हैं।
राष्ट्रीय विनिर्माण और निवेश क्षेत्रों (एनएमआइजेड) की स्थापना औद्योगिक रणनीति का प्रमुख आधार स्तंभ होगा। उनका विकास क्षेत्रीय आधार पर नवीनतम सुविधाओं से युक्त ढांचे के साथ एकसमेकित औद्योगिक टाउनशिप के रूप में किया जाएगा। इनका आकार-कम से कम 2000 हेक्टेयर का होगा, और इनके विकास तथा प्रबंधन के लिए विशेष तंत्रों (स्पेशल परपज वेहिकल्स) की स्थापना की जाएगी। प्रत्येक एसपीवी एनएमआईजेड के विकास, उन्नयन परिचालन और प्रबंधन का काम करेगी। एमआईजेड के भीतर और बाहर विनिर्माण उद्योगों का त्वरित विकास, उपयुक्त नीतिगत उपायों के जरिए होगा। सरकार ने पहला राष्ट्रीय विनिर्माण और निवेश क्षेत्र राजस्थान में प्रस्तावित दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे (डीएमआईसी) परियोजना के साथ-साथ स्थापित करने का निर्णय लिया है। इससे विनिर्माण क्षेत्र को भारी बढ़ावा मिलेगा। सरकार-का इरादा इस तरह के एम.एम.आईजेड का विकास करना है जो न केवल आवश्यक ढांचागत सुविधायें प्रदान करे बल्कि देश में विनिर्माण गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान कर सके।
राष्ट्रीय विनिर्माण नीति (एनएमपी) पर एक चर्चा पत्र औद्योगिक नीति एवं संवर्धन विभाग की वेबसाइट पर 31 मार्च, 2010 को प्रकाशित किया गया था ताकि सभी संबंधित पक्षों के विचारों से अवगत हुआ जा सके। औद्योगिक संगठनों, तकनीकी विशेषज्ञों और सलाहकारों सहित सभी संबंधित पक्षों से व्यापक चर्चा कर एनएमपी का प्रारूप तैयार कर अंतमर्त्रंलाय परामर्श के लिए वितरित किया गया है। प्रारूप को अद्यतन करते हुए केन्द्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री श्री आनंद शर्मा ने कहा कि हम सचिवों की समिति गठित कर सकते हैं। नई नीति में भारत को विश्व की कार्यशाला बनाने विशेष कर सौर-ऊर्जा जैसे उभरते हरित उद्योगों की ओर खास ध्यान दिया जाएगा। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
अयोध्या प्रकरण पर सत्य के पक्ष में निर्णय आने पर कुछ दिन चुप रहकर अपनी आदत से मजबूर वामपंथी फिर वही उल्टा बाबरी राग गाने लगे। तब से मैं इनकी जन्मकुंडली का अध्ययन कर रहा हूं।
बचपन में जब मेरा परिचय कम्यूनिस्ट शब्द से हुआ, तो मैं इन्हें पशु समझता था; पर फिर पता लगा कि वे भी मनुष्य ही हैं। 1962 में भारत के कम्यूनिस्टों ने आक्रमणकारी चीन का समर्थन कर जो लानत बटोरी, उस कारण मेरे पिताजी उनसे बहुत घृणा करते थे। जब भी मैं इस बारे में पूछता, तो वे कम्यूनिस्टों की खूब बुराई करते। तब से मेरे मन में बैठ गया कि कम्यूनिस्ट अच्छे लोग नहीं होते; या फिर सब गंदे लोग कम्यूनिस्ट ही होते हैं।
एक गुंडा प्रायः हमारे विद्यालय के बाहर लड़कियों को छेड़ता था। एक दिन प्राचार्य जी ने उसे मुर्गा बनाकर लड़कियों से ही खूब जुतियाया। एक बार पुलिस वाले एक जेबकतरे को पीट रहे थे। दोनों बार मैंने घर आकर कहा कि आज एक कम्यूनिस्ट की बहुत पिटाई हुई। इस पर पिताजी ने मुझे समझाया कि हर कम्यूनिस्ट चोर या गुंडा हो, यह जरूरी नहीं है। कुछ कम्यूनिस्ट अच्छे भी होते हैं।
इससे मैं फिर भ्रम में पड़ गया। बी.ए के राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम में कम्यूनिस्टों पर भी एक अध्याय था। मेरे अध्यापक ने पुस्तक की परिभाषाओं के साथ उनकी एक सरल पहचान बताते हुए कहा कि कम्यूनिस्टों को वामपंथी भी कहते हैं। वाम अर्थात बायां या उल्टा। यानि जो सदा उल्टा काम करे, जो अपनी बात को बार-बार उलटता रहे, जो तर्क-वितर्क की बजाय कुतर्क और मारपीट में विश्वास करे, वह वामपंथी है।
पर कौन सा काम उल्टा है और कौन सा सीधा; दो लोग एक ही काम को अपनी-अपनी समझ के अनुसार उल्टा या सीधा मान सकते हैं ? इस पर उन्होंने कहा कि जो काम देशहित में हो, उसे ही सीधा और ठीक मानो। यह बात तब से मेरे दिमाग में जमी है। मैं यह भी समझ गया कि भाकपा, माकपा, नक्सली, माओवादी आदि को क्यों एक ही बिरादरी का माना जाता है ? मैंने कुछ और सोचा, तो ध्यान में आया कि उल्टे हाथ से काम करना प्रायः भारत में खराब माना जाता है। माता-पिता बच्चों को सीधे हाथ से ही लिखना और खाना सिखाते हैं। यद्यपि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है; पर उल्टे हाथ से काम करने वाले को न जाने क्यों लोग मजाक में ‘खब्बू’ कहकर चिढ़ाते हैं।
साहित्य जगत में भी ‘विधाता वाम’ होने का अर्थ है कि ईश्वर और भाग्य अनुकूल नहीं है। उल्टे बांस बरेली को, उल्टी गंगा बहाना, उल्टी खोपड़ी आदि कहावतें और कबीर की उलटबासियां भी प्रसिद्ध हैं। कुछ घड़ियां उल्टी रखने पर ही ठीक समय देती हैं। कुछ लोग सदा उल्टी बात कहने और उल्टा काम करने के लिए बदनाम होते हैं। समझदार लोग इनसे दूर ही रहते हैं।
कई वर्ष पूर्व दूरदर्शन पर हास्य कलाकार जसपाल भट्टी का ‘उल्टा-पुल्टा’ कार्यक्रम बहुत प्रसिद्ध हुआ था। एक सनकी ने ‘अराउंड दि वर्ल्ड, बैकवर्ड’ कार्यक्रम के अन्तर्गत पूरी दुनिया को उल्टे चलकर नापा था। जोकर हाथों के बल उल्टा चलकर और लालू जी अपनी उल्टी बातों से खूब तालियां बटोर लेते हैं।
मेरे पड़ोसी शर्मा जी हर दिन सुबह गर्म पानी पीकर, मंुह में उंगली डालकर उल्टी करते हैं। इसे वे ‘कुंजर क्रिया’ कहते हैं। उनका मत है कि यदि वामपंथी भी यह करें, तो उनके पेट की ही नहीं, दिमाग की गंदगी भी कम हो सकती है।
कुछ विद्वानों के अनुसार यह उल्टापन वामपंथियों की जन्मकुंडली में ही नहीं, कर्मकुंडली में भी है। इसीलिए वे रूस या चीन में वर्षा होने पर बरसाती और बर्फ पड़ने पर कोट पहन लेते हैं। वर्मा जी इसे उनका ‘मैन्यूफैक्चरिंग डिफैक्ट’ बताते हैं।
इस अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इन वामपंथियों के साथ कुछ न कुछ उल्टा जरूर है। इसका कारण और निदान जानने के लिए अब मैं किसी सीधे ज्योतिषी की तलाश में हूं।
बुद्धिजीवी सत्य भक्त होता है। राष्ट्र,राष्ट्रीयता, दल,विचारधारा आदि का भक्त नहीं होता। सत्य के प्रति आग्रह उसे ज्यादा से ज्यादा मानवीय और संवेदनशील बनाता है। सत्य और मानवता की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में तपकर ही बुद्धिजीवी अपने सामाजिक अनुभवों को सृजित करता है। कालजयी रचनाएं दे पाता है। जनता के बृहत्तर तबकों की सेवा कर पाता है,सारे समाज का सिरमौर बनता है।
बुद्धिजीवी गतिशील और सर्जक होता है। वह मानवीय चेतना का रचयिता है।
बुद्धिजीवी स्वभावत: लोकतांत्रिक होता है, लोकतंत्र ही उसकी आत्मा है। लोकतंत्र की आत्मा के बिना बुद्धिजीवी होना संभव नहीं है। लोकतंत्र के उसूलों के साथ समझौता करना उसकी प्रकृति के विरूद्ध है। लोकतांत्रिक,मूल्य, लोकतांत्रिक संविधान,लोकतांत्रिक संरचनाओं में उसकी आस्था और विश्वास ही उसकी सम्पदा है यदि वह इनमें से किसी के भी साथ दगाबाजी करता है अथवा लोकतंत्र के रास्ते से जरा भी विचलित होता है तो उसे गंभीर कष्ट उठाने पड़ते हैं। साथ ही समाज को भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। बुद्धिजी वीकाअस त्य के साथ किया गया समझौता सामाजिक दगाबाजी है।
यह दुर्भाग्य है हम दगाबाज बुध्दिजीवी और ईमानदार बुध्दिजीवी में अंतर भूल गए हैं। ईमानदार बुध्दिजीवी वह है जो अपने अंदर के सत्य और न्यायबोध को बेधड़क,निस्संकोच भाव से व्यक्त करता है। यह ऐसा बुध्दिजीवी है जो अपने सत्य को अर्जित करने के लिए किसी भी किस्म के भौतिक लाभ के जंजाल में नहीं फंसता। किसी भी किस्म का प्रलोभन उसे सत्य की अभिव्यक्ति से रोकता नहीं है, वह निडर भाव से न्याय के पक्ष में खड़ा रहता है। अपने जीवन के व्यवहारिक कार्यों की पूर्त्ति के लिए सत्य का दुरूपयोग नहीं करता। सत्य के लिए जोखिम उठाता है,सत्य पर दांव लगाता है,यहां तक कि सत्य के लिए बलि चढ़ जाता है। तरह-तरह के उत्पीड़न और उपेक्षाओं को सहता है। वह हमेशा राज्य के विपक्ष में रहता है और यथास्थितिवाद का विरोध करता है।
यह सच है कि किसी भी किस्म का बड़ा परिवर्तन अथवा क्रांति बगैर बुध्दिजीवियों के हस्तक्षेप के नहीं हुई है। यह भी सच है किसी भी किस्म की प्रतिक्रांति भी बुध्दिजीवियों केबिना नहीं हुई है। बुध्दिजीवीवर्ग ही किसी आंदोलन का माता-पिता , बेटी -बेटा ,पड़ोसी और मित्र होता है। बुध्दिजीवी की समाज में विशिष्ट भूमिका होती है उसे शक्लविहीन पेशेवराना रूपों में संकुचित करने जरूरत नहीं है। वह अपने वर्ग का सक्षम सदस्य होता है,अपने कार्य-व्यापार में समर्थ होता है। व्यक्ति के तौर पर बुध्दिजीवी संदेश को अभिव्यक्त करता है,संदेश को बनाने या धारण करने की उसके पास फैकल्टी होती है जिसे वह अभिव्यक्ति देता है। यह अभिव्यक्ति उसके एटीट्यूटस,दार्शनिक नजरिए में व्यक्त होती है।
रूढ़ियों और कठमुल्लेपन से लड़े बिना बुध्दिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा सकता। ये रूढ़ियां और कठमुल्लापन किसी भी तरह का हो, बुध्दिजीवी कभी भी इन्हें चुनौती दिए बगैर अपनी सामाजिक भूमिका अदा नहीं कर सकता।लालगढ़और नंदीग्राम के संदर्भ में बुध्दिजीवियों का प्रतिवाद इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि पहलीबार वामपंथी बुध्दिजीवियों ने व्यापक स्तर पर वामपंथी कठमुल्लेपन और रूढिबध्दता को चुनौती दी है। पहलीबार वामपंथी चिन्तन के सर्वसत्तावादी रूझानों को निशाना बनाकर सवाल किए गए हैं, इससे बुध्दिजीवीवर्ग में वामपंथी कठमुल्लापन कमजोर होगा। इससे स्वतंत्रता और न्याय के लक्ष्य को अर्जित करने, उसके लिए संघर्ष की भावना नए सिरे से जन्म लेगी। पुरानी वामपंथी प्रतिबध्दता के मानक टूटेंगे और प्रतिबध्दता के मानक के तौर पर मानवाधिकारों की स्वीकृति पैदा होगी। स्वतंत्रता और न्याय को प्रतिष्ठा मिलेगी। पुराने किस्म की वामपंथी प्रतिबध्दता विचारधारा और वर्ग विशेष के हितों से बंधी थी, यह बंधन और प्रतिबध्दता संकुचित और एकायामी थी। इसमें मानवता और मानवाधिकारों का बोध शामिल नहीं था। वह पार्टी बोध से संचालित प्रतिबध्दता थी। जबकि नए किस्म की प्रतिबध्दता का आधार स्वतंत्रता और न्याय है। यह बहुआयामी प्रतिबध्दता है। स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर जब लिखेंगे अथवा संघर्ष करेंगे तो पुराने सभी विमर्श उलट- पलट जाएंगे। पुरानी वामपंथी प्रतिबध्दता जिन्दगी की अधूरी सच्चाई को सामने लाती है। जबकि स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर निर्मित यथार्थ ज्यादा व्यापक,वैविध्यपूर्ण, जटिल और मानवीय होता है।
वामपंथी बुध्दिजीवियों की प्रतिबध्दता की मुश्किल यह है कि वे अंदर कुछ बोलते हैं और बाहर कुछ बोलते हैं। प्राइवेट जीवन में,पार्टी के अंदर बुध्दिजीवी कुछ बोलता है और बाहर कुछ बोलता है। उसके प्राइवेट और सार्वजनिक में भेद रहता है। यह उसके जीवन और विचार का दुरंगापन है। बुध्दिजीवी के विचारों और नजरिए में दुरंगापन नहीं पारदर्शिता होनी चाहिए। बुध्दिजीवी को पारदर्शी होना चाहिए। जब आप सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक सवालों से दो चार होते हैं तो उस समय प्राइवेट जैसी कोई चीज नहीं होती। उस समय बुध्दिजीवी पब्लिक या जनता का बुध्दिजीवी होता है, जनता के बुध्दिजीवी की भूमिका अदा करता है। लालगढ़-नंदीग्राम के प्रतिवाद में खड़े बुध्दिजीवी इसी अर्थ में जनता के बुध्दिजीवी हैं। बुध्दिजीवी का काम यह नहीं है कि अपनी ऑडिएंस को संतुष्ट करने वाली,आनंद देने,मजा देने वाली बातें कहे। इसके विपरीत बुध्दिजीवी का काम है अप्रिय सत्य का उद्धाटन करना, ऐसी बात को कहना जिसे ऑडिएंस नापसंद करती है। इसी अर्थ में बुध्दिजीवी किसी न किसी नजरिए का समाज में प्रतिनिधित्व करता है। सभी किस्म की बाधाओं के बावजूद अपनी जनता का प्रतिनिधित्व करता है। बुध्दिजीवी जब सामाजिक प्रतिनिधित्व करता है तो उसे प्रतिबध्दता ,जोखिम ,साहस से काम लेना होता है और असुरक्षा का सामना करना होता है।
बुध्दिजीवी कभी भी घरेलूपन के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता। भाईचारे और मित्रता के नाते स्वतंत्रता और न्याय के प्रति अपनी प्रतिबध्दता को त्यागता नहीं है। बुध्दिजीवी का सामान्य स्वभाव यही होता है कि वह साफतौर पर कहता है वह क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता। बुध्दिजीवी अपने कर्म के जरिए स्वतंत्रता पैदा करता है। वह मैलोड्रामा के जरिए स्वतंत्रता पैदा नहीं कर सकता। बुध्दिजीवी वह है जिसके चिन्तन,विश्वास और यथार्थ जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति में फांक नहीं है। बौध्दिक गतिविधि का चरम लक्ष्य है मानवीय स्वतंत्रता और ज्ञान में इजाफा करना। जो लोग सोच रहे थे कि महाख्यान का अंत हो गया और बुध्दिजीवी छोटे-छोटे भाषायी खेलों में फंस गया है। उन लोगों से सवाल किया जाना चाहिए क्या लालगढ़ या नंदीग्राम की हिंसा के सवाल पर बुध्दिजीवियों का प्रतिवाद रैनेसांकालीन स्वतंत्रता और न्यायप्रियता की अभिव्यक्ति है या नहीं ?
यह सच है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी बुध्दिजीवी अपने आलस्य, अक्षमता और उपेक्षाभाव के कारण स्वतंत्रता और न्यायप्रियता के मार्ग से भटक गए थे,किंतु नंदीग्राम की घटना ने उनके आलसी अक्षम भाव को तोड़ा है। ‘इनडिफरेंस’ को खत्म किया है। अपने आलसी अक्षम और इंडिफरेंस के कारण ही वे लंबे समय से चुप थे ,गलत को देखकर भी नहीं बोलते थे, सह रहे थे। किंतु नंदीग्राम के घटनाक्रम ने उनके आलस्य और इंडिफरेंस को खत्म कर दिया है। वे कभी वाम सरकार के अन्यायों के खिलाफ नहीं बोलते थे। वे कभी-कभार बुर्जुआ सरकारों के अन्याय का प्रतिवाद कर देते थे किंतु वाम सरकार का प्रतिवाद नहीं करते थे। किंतु नंदीग्राम ने उनको अंदर से झकझोरा है बदलने को मजबूर किया है। आज नंदीग्राम के वामपंथी प्रतिवादी अपना तयशुदा नजरिया बदलने को मजबूर हैं। अपने ही विचारों और धारणाओं से दगा कर रहे हैं। क्योंकि उनकी जिंदगी के ठोस अनुभव उन्हें चुनौती दे रहे हैं,उद्वेलित कर रहे हैं। जिंदगी के ठोस अनुभव जब आधुनिक जीवन को चुनौती देते हैं तो बौध्दिकों में भी परिवर्तन की लहर चलती है।
वामपंथी बुध्दिजीवियों में ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो किसी न किसी रूप में सरकारी संस्थानों से जुड़े रहे हैं। राज्य और केन्द्र सरकार के सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े रहे हैं। उनकी इस अवस्था के कारण उनमें खास किस्म की अधिकारहीनता की स्थिति भी पैदा हुई है। वे जनता के बीच में हाशिए पर चले गए हैं। ये ऐसे बुध्दिजीवी हैं जिनको सरकार, कारपोरेट घरानों,मीडिया उद्योग आदि ने किसी न किसी रूप में बांधा हुआ है। ये सत्ता के प्रतिष्ठानों के सबसे करीबी समुदाय का हिस्सा हैं। इसी अर्थ में ये जनता के साथ प्रभावशाली ढ़ंग से संवाद और संप्रेषण करने में समर्थ भी हैं। यहीं से वामपंथी बुध्दिजीवियों की मुश्किलें शुरू होती हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ अपने नाभिनालबध्द संबंध के कारण कलात्मक और बौध्दिक स्वतंत्रता को वे बरकरार नहीं रख पाए हैं। संभवत: चंद ही बुध्दिजीवी ऐसे हैं जो सत्ता के दबावों का प्रतिवाद करते हों,स्टीरियोटाईप लेखन से बचते हों, वास्तव अर्थों में चीजों में रमण करते हों, वास्तविकता के साथ जिनका जेनुइन संबंध हो। बुध्दिजीवी में ईमानदारी का भाव पैदा करने के लिए उसका स्टीरियोटाईप से बचना, उसका उद्धाटन या नंगा करना जरूरी है। बुध्दिजीवी वह है जो स्टीरियोटाईप विजन के मुखौटे उतार दे और जिसके पास आधुनिक संप्रेषण के तरीके हों। राजनीतिक संघर्ष को सत्य के साथ जोड़ना आधुनिक बुध्दिजीवी का काम है, राजनीतिक संघर्ष का लक्ष्य सत्य को ढंकना नहीं है बल्कि सत्य और राजनीति के रिश्ते को मजबूत बनाना है।
जो बुध्दिजीवी ऐसा नहीं कर पाते वे अपने जीवन के अनुभवों के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते। यह सच यह है आज राजनीति से किनाकशी संभव नहीं है ,चारों ओर राजनीति है। शुध्द साहित्य और शुध्द कला संभव नहीं है। यह भी संभव नहीं है कि बुध्दिजीवी मीडिया और सत्ता के प्रतिष्ठानी दबावों से बच जाए। सत्ता और मीडिया के आख्यान बुध्दिजीवी पर दबाव बनाए रखते हैं। मीडिया ,सत्ता और विचारों का समूचा संसार बुध्दिजीवी पर यथास्थिति बनाए रखने के लिए दबाव पैदा करता है। उसे बार-बार यही एहसास कराया जाता है कि जो स्वीकृत है, वैध है उसे ही स्वीकार करे, माने और उसी को व्यक्त करे। यही वह बिंदु है जिसके मुखौटे उतारने की जरूरत है।
स्वीकृत और वैध के मुखौटे उतारने के क्रम में ही वैकल्पिक आख्यान सामने आता है, प्रत्येक बुध्दिजीवी अपनी क्षमता के अनुसार यह काम कर सकता है और सत्य को बता सकता है। यह बेहद मुश्किल कार्यभार है। इसी संदर्भ में एडवर्ड सईद ने लिखा है बुध्दिजीवी अकेला खड़ा होता है। सईद ने लिखा है कि मध्यपूर्व युध्द के दौरान मेरे लिए अकेले खड़े रहना कितना मुश्किलभरा काम था। बुध्दिजीवी का हमेशा समूह और व्यक्ति के बीच का अन्तर्विरोध रहेगा। यही वजह है कि बुध्दिजीवी हमेशा कमजोर और गैर- प्रस्तुत का हिमायती होता है।
कमजोर और अप्रस्तुत की हिमायत में खड़े होना लालगढ़- नंदीग्राम के बौध्दिक प्रतिवाद की सबसे बड़ी उपलब्धि है। सईद के शब्दों में बुध्दिजीवी न तो शांत करने वाला होता है और न जागरूकता पैदा करने वाला होता है बल्कि उसके दांव तो आलोचनात्मक बोध पर लगे हैं। यह ऐसा बोध है जो किसी भी किस्म के सहज फार्मूले को स्वीकार नहीं करता, अथवा रेडीमेड क्लीचे स्वीकार नहीं करता। अथवा वह ताकतवर लोग क्या कहते हैं यह नहीं सोचता।अथवा परंपरागत के साथ सहज संबंध नहीं बनाता । उनके अंतर्विरोधों के साथ सामंजस्य नहीं बिठाता।निष्क्रियभाव से सब कुछ स्वीकार नहीं करता ।बल्कि सक्रिय रूप से जनता को सम्बोधित करता है। बुध्दिजीवी का कार्य है निरंतर सजगता बनाए रखना,यह कोशिश करना कि कहीं अर्ध्द-सत्य अथवा अर्ध्दविचारों की अभिव्यक्ति तो नहीं हो रही। यही वजह है कि वह यथार्थवाद के साथ टिकाऊ रिश्ता बनाता है। अपनी खिलंदड़ी रेशनल ऊर्जा का जनसंघर्षों के पक्ष में इस्तेमाल करता है। निहितस्वार्थों से ऊपर उठकर आम जनता के बीच में अभिव्यक्त करता है।
बुध्दिजीवी की असल परीक्षा आपात्काल या संकट की घड़ी में होती है। ऐसी अवस्था में जो बुध्दिजीवी अपना रेशनल, लोकतांत्रिक विवेक नहीं खोता और सत्य के साथ खड़ा होता है ,जोखिम उठाता है वही सही अर्थों में अपने बौध्दिकधर्म को निभाता है। बौध्दिकधर्म राजधर्म से बड़ा है।संकट अथवा आपातकाल में सच को छिपाना,चुप रहना सबसे बड़ा अपराध है इससे बुध्दिजीवी को बचना चाहिए। बुध्दिजीवी का धर्म राजधर्म से भी बड़ा होता है।
‘लोक’ मीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज है। ‘लोक’ का बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। इसलिए ‘लोक’ को मीडिया की आंखों से देखने की हर कोशिश हमें निराश करेगी। क्योंकि लोकजीवन जितना बाजार बनाता है, उतना ही वह मीडिया का हिस्सा बन सकता है। लोक मीडिया के लिए कोई बड़ा बाजार नहीं बनाता, इसलिए वह उसके बहुत काम का नहीं है। मीडिया के काम करने का अपना तरीका है, जबकि लोकजीवन अपनी ही गति से धड़कता है। उसकी गति, लय और समय की मीडिया से संगति कहां है। अगर मीडिया लोकजीवन में झांकता भी है तो कुछ कौतुक पैदा करने या हास्य रचने के लिए। वह लोकजीवन में एक कौतुक दृष्टि से प्रवेश करता है, इसलिए लोक का मन उसके साथ कहां आएगा। लोक को समझने वाली आँखें और दृष्टि यह मीडिया कहां से लाएगा। ‘लोक’ को विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।
बाजार की ताकतों का लोकजीवन पर हमला
बाजार की ताकतों के लिए यह ‘लोक’ एक चुनौती सरीखा ही है। इसलिए वह सारी दुनिया को एक रंग में रंग देना चाहता है। एक भाषा, एक परिधान, एक खानपान, एक सरीखा पश्चिम प्रेरित जीवन आरोपित करने की कोशिशों पर जोर है। यह सारा कुछ होगा कैसे ? हमारे ही लोकजीवन को नागर जीवन में बदलकर। यानि हमला तो हमारे लोक पर ही है। सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की यह कोशिश खतरनाक है। ‘राइट टू डिफरेंट’ एक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। हम देखें तो भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँवों यानि हमारे लोकजीवन में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार और हमारा लोकजीवन एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकजीवन में स्थापित लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारत का लोकजीवन और हमारे गांव अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं।
सामूहिकता की संस्कृति भी निशाने पर
आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्योंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं। भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?
लोक की शक्ति को पहचानना जरूरी
बावजूद इसके कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो ‘लोक’ में ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी ‘कविराय’ कहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की ‘बो’ नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
बिहार और लालू. एक समय में दोनों एक दूसरे के पर्याय माने जाते थे. प्रदेश की राजनीति में बादशाहत कायम करने वाले मसखरे-से भदेस नेता लालू प्रसाद यादव अब खामोश हैं. बीते विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी की हुई जबरदस्त हार ने उन्हें हरिनाम याद दिला दिया है. बड़बोले लालू के मुंह बोल फूटते नहीं सुना जा रहा. इसे बिहारी राजनीति में दंबई के सूरज का डूबना माना जाता है. इस पराजय ने लालू के बड़बोलेपन पर ब्रेक ही नहीं लगाया है बल्कि उनके द्वंद्व को भी बढ़ा दिया है कि वे अपनी मसखरेपन वाली छवि को त्यागे या फिर “परिपक्व” राजनेता की तरह फिर से उठ खड़े हों. दोराहे पर खड़े लालू की यह सोच रही है कि गंवई अंदाज उन्हें जनता से सीधे जोड़ती है, वहीं उन्हें एक अ-गंभीर नेता के रूप में प्रस्तुत करती है.
सिर्फ राजद ही नहीं बल्कि सूबे में यह फुसफुसाहट स्वर लेने लगी है कि अब लालू युग का अंत हो रहा है. इस युगांत की सुगबुगाहट लालू की लालिमा को धूमिल करने के क्रम में है और इसे वे भी बखूबी समझने लगे हैं. बेटे तेजस्वी को राजनीति के फलक पर ला कर अगली पीढ़ी में अपनी पहुंच बनाने की योजना पर लालू ने वैसे ही सोच को सामने रखा जैसा कि राबड़ी के समय में सोचा था. लेकिन वो समय और था – अब का समय कुछ और. सूबे की राजनीति आरंभ से ही “क्रानी पॉलिटिक्स’’ की रही है. इसकी जटिलता की उलझन में लालू ने अपने लिए दो दशक पहले डोर का सिरा ढूंढ़ लिया था. लेकिन डोर आखिर बगैर सुलझाये कितना खींचा जा सकता है, अंततः वह इस विधानसभा चुनाव में टूट गया. यूं तो 15 वीं लोकसभा चुनाव में ही डोर के कमजोर होने का अंदेशा हो गया था लेकिन लालू ने इस चुनावी वैतरणी को भी इसी के सहारे पार लगाने की कोशिश की जो नाकाम रही. उनके बयानों पर गौर करें – लालू ने पहले तो यह कहा कि अब कोई सवर्ण मुख्यमंत्री नहीं बन सकता तो फिर कुछ दिनों बाद सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात कहकर उन्होंने खुद को हंसी का पात्र बना दिया. इसी तरह छात्रों को साइकिल की जगह मोटरसाइकिल का लॉलीपॉप देकर भी वे खुद को उपहास का पात्र बना रहे थे. इस तरह के बयान उनकी अकुलाहट और अ-गांभीर्यता को परिलक्षित करता है. आजादी के बाद की राजनीति अब अपने परिपक्वता की ओर अग्रसर है और बिहारी जनमानस इस तरह के बयानों को पचा नहीं पा रहा. लालू प्रसाद के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई वे भविष्य में बिहार की राजनीति में अपने को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे? शायद नहीं. दरअसल, लालू को इसका एहसास पहले से ही हो गया था कि इस चुनाव में वे बुरी तरह परास्त होने वाले हैं, इसलिए उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी को राजनीति के मैदान में उतार दिया ताकि पांच साल के बाद दूसरी पीढ़ी कमान संभालने के लिए तैयार हो. 1997 में भी लालू प्रसाद ने तब ऐसा ही किया था जब वे चारा घोटाले में नाम आने की वजह से सत्ता छोड़ने वाले थे. तब उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का राजकाज सौंप दिया. फलस्वरूप 1990 में पिछड़ों की राजनीति और सामाजिक न्याय के मसीहा के तौर पर उभरा बिहार का सबसे कद्दावर और करिश्माई नेता धीरे-धीरे अपनी चमक खोने लगा.
उनके जीवन में तीन ऐसे पड़ाव आए जहां से लालू की राजनीति का मर्सिया गाया जाने लगा. पहला पड़ाव, जब लालू प्रसाद का नाम चारा घोटाले में आया. फिर दूसरा पड़ाव जब उन्होंने सत्ता राबड़ी देवी को सौंप दी और फिर तीसरी व अंतिम गलती कि 2005 के चुनाव में परास्त होने के बाद भी सबक न ले सके, अपनी असलियत को नकारते रहे. वास्तव में लालू बिहार में सवर्णों की जकड़न से तंग लोगों की आकांक्षा के तौर पर उभरे नेता थे लेकिन बिहार की सत्ता मिलने के बाद पहले तो उन्होंने खुद को सरकार का मुखिया समझा, फिर खुद को सरकार समझने लगे और आखिरी दौर वह भी आया जब लालू खुद को ही बिहार भी समझने लगे. उनके गुरूर ने उन्हें नायक से अधिनायक बना दिया, जो उन्हें विनाश के इस मुहाने तक ले आया. अगर लालू की राजनीतिक के अतीत और वर्तमान पर नजर दौड़ाएं तो उनकी राजनीति ने अचानक ही यू-टर्न नहीं लिया है. लालू की सबसे बड़ी कमजोरी रही कि वे अपने कार्यकर्ताओं से कभी नजदीकी रिश्ता नहीं बना सके. पूरे सूबे की तो बात छोड़िये, अपने गृह जिले गोपालगंज में भी लालू की पकड़ अब इतनी नहीं रही कि वह छह में से एक भी सीट अपनी पार्टी को दिलवा सके. इस चुनाव में उन्हें अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ है. इसका कारण है कि लालू का “माय” यानी मुसलिम-यादव समीकरण तो पहले ही ध्वस्त हो चुका था, इस बार बड़े पैमाने पर इनके खेमे से यादवी आधार भी खिसका है, वरना कोई कारण नहीं कि 12-13 प्रतिशत आबादी वाले यादव जाति का वोट यदि एकमुश्त लालू के खाते में जाता तो इतनी बुरी हार नहीं होती. वास्तव में जातीय राजनीति का यह सिद्धांत है कि अकेले कोई जाति किसी एक नेता के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकती. यादव लालू प्रसाद के साथ तभी रहेंगे जब और पिछड़ी जातियां उनके साथ हों. दूसरी पिछड़ी जातियों में आधार खिसकेगा तो यादव भी उनके साथ नहीं रह सकते. ताजा राजनीतिक माहौल में लालू के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. तीन साल के पहले उन्हें खुद को साबित करने का कोई दूसरा अवसर नहीं आने वाला. 2014 में लोकसभा का चुनाव होगा, तब तक लालू को अपनी नीतियों की समीक्षा करने और सूबे के गांव-गांव तक फिर से अपनी पैठ बनानी होगी. बढ़ती उम्र के साथ उनके सामने नीतीश की खामियों को उजागर करने की भी चुनौती होगी, वरना हरिनाम के जाप के अलावा और कोई और विकल्प नहीं है.
संसद के शीत कालीन सत्र (२०१०) का सुचारू रूप से या कामकाजी दृष्टि से नहीं चल पाना तो निस्संदेह देश के लिए अशुभ है ही; किन्तु जिन मुद्दों पर ये सब राजनीति की जा रही है, वे यक्ष प्रश्न मुंह बाए अभी भी यथावत खड़े हैं. उस तरफ जनता का ध्यानाकर्षण होना चाहिए.
१-केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के प्रति सरकार की उपेक्षा और उन पर एम् एन सी की गिद्ध दृष्टि.
२-सार्वजानिक उपक्रमों से देश की आवाम की जरूरतें पूरी करने के बजाय निजी क्षेत्र पर निर्भरता.
3.-वायदा बाजार और सट्टे बाजारी के आगे सरकार का आत्म समर्पण.
४- जिंसों के उत्पादन या आयात-निर्यात का मांग और आपूर्ति में तादात्म्यता का अभाव.
५-जन कल्याणकारी राज्य की जगह मुनाफेबाजी की पतनशील-भ्रष्ट व्यवस्था की ओर प्रस्थान.
इस दौर की एल पी जी नीति के दुष्परिणाम स्वरूप केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की बर्बादी का एक जीवंत उदाहरण है- भारत का दूर संचार विभाग. आजादी के पूर्व से ही पोस्ट एंड टेलेग्राफ नाम से मशहूर सेवा क्षेत्र का बेहतरीन सरकारी विभाग इतिहास में दिल्ली की तरह तीन बार लूटा -पीटा गया. दिल्ली के लुटने-पिटने से बाकी देश को भले ही कोई फर्क नहीं पड़ा हो ,या बाद में असर हुआ हो किन्तु पी एंड टी के विखंडन से जो कुछ हुआ उसका सीधा सम्बन्ध तेलगी कांड और २-जी स्पेक्ट्रम काण्ड से तो है ही इसके अलावा देश की सुरक्षा को भी आघात पहुंचा है.
पोस्ट एंड टेलीग्राफ को क्रमशः पोस्टल और टेलिकॉम सर्विस में हुए पहले विभाजन {१९८४}उपरांत दोनों ही नव पृथक विभागों के सामने अंतर-राष्ट्रीय मानक सेवाओं के लक्ष्य रख दिए गए
एशियाड-१९८३, नई दिल्ली में जब सम्पन्न हुए तो दुनिया भर से भारत आये तत्कालीन मीडिया -प्रतिनिधियों ने समवेत स्वर में भारत की तत्कालीन टेलिकॉम सर्विसेस की मुक्त कंठ से सराहना की थी. उस समय के अन्य सरकारी विभागों में आयकर विभाग और टेलिकॉम विभाग ही ऐसे थे जो लाभ में थे. बाकी सभी बेहद दबाव में घाटे की ओर फिसल रहे थे; तभी सोवियत संघ का पराभव और अमेरिका नीत एक ध्रुवीय वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबाव में भारत को अपने राजकोषीय घाटे की रोक थाम के लिए जनकल्याण-कारी गतिविधियों पर अंकुश लगाने, धर्मादा बंद करने, सरकारी क्षेत्र के घाटे वाले विभागों को निजी क्षेत्र में देने की नीति आनन्-फानन में बनाई गई.
६०-७० के दशकों में ,नेहरु -इंदिरा युग में जो राष्ट्रीयकरण और जन-कल्याण के लिए सरकार पर जनता का संगठित दबाव था; वहीं ८०-९० के दशकों में देश की जनता को मंडल -कमंडल में बाँट देने से जन-आन्दोलन जात और धरम में बँट गया, विनाशकारी नीतियों से लोहा लेने के लिए सिर्फ मुठ्ठी भर लाल झंडे वाले ही थे. मार्गरेट थेचर , रोनाल्ड रीगन, गोर्बाचेव और येल्तसिन द्वारा परिभाषित नई आर्थिक उदारीकरण की नीति को भारत में लागू करने की जिम्मेदारी को तब के वित्तमंत्री और अब के {वर्तमान } प्रधान मंत्री ने बखूबी निभाया. इन्होंने धुरपत में शानदार लाभप्रद दूर संचार विभाग को विभाग ही नहीं रहने दिया बल्कि निगमीकरण प्रस्तावित कर १९९२ में सत्ता से बाहर हो गए. बाद के वर्षों में जब एन डी ए को देश को लूटने का मौका मिला तो प्रमोद महाजन, पासवान, शौरी ने इसके तीन टुकड़े कर डाले. एक टाटा को बीच दिया वि देश संचार निगम लगभग फ्री में और एक को महानगर टेलीफोन निगम को विनिवेश की राह बेमौत मरने और भारत संचार निगम लिमिटेड को राजा -राडिया समेत देश और दुनिया के घाघ लुटेरों से लुटने -पिटने को छोड़ दिया.
अटलजी के नेत्रत्व में एन डी ए सरकार ने सिर्फ बेईमान पूंजीपतियों को ही सेलफोन और जी एस एम् के क्षेत्र में पहले तो सस्ते लाइसेंस जारी किये और बाद में लोकल लूप के मामले में रिलाइंस की चोरी पकड़ी जाने पर उसे पुरस्कृत करते हुए रेवेन्यु शेयर का षड्यंत्रपूर्ण फार्मूला इजाद किया, सरकारी क्षेत्र के विशालतम उपक्रम- भारत संचार निगम को जी एस एम् में तब लाइसेंस मिला जब यु पी ए प्रथम की सत्ता आई वरना भाजपा वालों ने तो इस सरकारी उपक्रम का तिया-पांचा ही कर दिया था ,नीरा रादिया ने भारती, रिलाइंस और टाटा जैसे कार्पोरेट जगत की लाबिंग तो २००२ में ही प्रारंभ कर दी थी थी; ये टेप-वैप यु पी ए-२ के जमाने के हैं जो करूणानिधि की तीन बीबियों से उत्पन्न ओलादों के कुकरहाव का परिणाम है.
कनिमोझी, ए राजा और इनके संबंधों से आहत दयानिधि, अझागिरी सबके सब इसकी जानकारी प्रकारांतर से प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी को पहले ही दे चुके थे. गठबंधन धर्मं निभाने के चक्कर में वे चुप रहे और २-जी, ३-जी पर भारत संचार निगम लिमिटेड (पूर्ववर्ती दूर संचार विभाग) क्षत विक्षत होता रहा.उलटे इस दुधारू निगम को विस्तार और मेंटेनेंस के संसाधनों से महरूम कर गौ ह्त्या जैसा महापाप इन पूर्ववर्ती सभी संचार मंत्रियों ,डाट सचिवों और टेलिकॉम रेगुलाट्री अथौर्टी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के महाभ्रष्ट अध्यक्षों ने किया है.सरकारी क्षेत्र याने देश की जनता के उपक्रमों की कीमत पर अम्बानी, भारती, बिरला, टाटा और राजा राडियाजैसे भ्रष्टों को तो उपकृत किया ही साथ ही; देश की जनता को सस्ती सेवाएँ दिलाने के लिए मशहूर केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की सम्पदा देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ ओने-पाने दाम बेचने की कोशिश करने में असफल रहे इस सिस्टम की प्रत्येक हरकत से प्रधान मंत्री जी या तो वाकिफ थे या वे जानबूझकर झूंठ बोल रहे हैं कि उन्हें इस सब की जान कारी ही नहीं थी, यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि भारत संचार निगम का मेघा टेंडर २००९ क्यों रद्द हुआ, यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में लैंड लाइन नहीं होने के बावजूद यु एस ओ फंड से इन सभी बाजार के खुर्राट खिलाड़ियों को फंडिंग कि गई या कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के क्रांतिकारी श्रम संगठनों ने वे तमाम खुलासे जो आज संसद नहीं चल पाने के लिए कारण बन चुके हैं वे २००८ में ही पोस्कार्ड केम्पेन के मार्फ़त माननीय प्रधानमंत्री जी के समक्ष प्रस्तुत कर दिए थे.अब पी ए सी हो या जे पी सी कोई मतलब नहीं रह जाता यदि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को पूर्वत रादियाओं या पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ा जाता है.