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छत्तीसगढ़ के दस साल: राजनैतिक स्थिरता और सांस्कृतिक पहचान उपलब्धि

-तपेश जैन

अपनी भाषा, अपना राज, यही तो है प्रगति का राज। इस भावना के अनुरुप छत्तीसगढ़ राज्‍य का सपना खूबचंद बघेल ने मध्यप्रदेश के पुनर्गठन से पहले देखा और उन्‍हें छत्तीसगढ़ राज्‍य के स्वप्न दृष्टा कहलाने का गौरव प्राप्‍त हुआ। पचास साल के अनवरत संघर्ष के बाद एक नवंबर सन् दो हजार को ये सपना सच हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, पूर्व केन्द्रीय मंत्री रमेश बैस ने अलग राज्‍य गठन की जो सौगात दी जिसकी वजह से वे सदैव याद किए जाएंगे। अटल जी को छत्तीसगढ़ का निर्माता कहा जाता है तो श्री बैस को सह निर्माता। किसी भी राज्‍य के भाग्य का लेखा उसके प्रारंभ के दस वर्षों में ही लिखा जाता है। इस लिहाज से बीते दस वर्ष निर्णायक सिद्ध हुए है। राजनीति और कार्य संस्कृति का स्वरुप निर्धारित होने अलावा विकास के लिए अधोसंरचना का निर्माण यह तय कर देता है कि राज्‍य किस दिशा में अग्रसर होगा। संतोष का विषय है कि छत्तीसगढ़ के दस साल में न केवल राजनैतिक स्थायित्व रहा बल्कि समांजस्य की कार्य संस्कृति बनी और अधोसंरचना के क्षेत्र में मापदंड स्थापित हुए। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने पूरे देश में कल्याणकारी योजनाओं की सफलता से अव्वल स्थान हासिल किया।

तिनमें दक्षिण कोसल देसा, जहां हरि औतु केसरि वेसा,

तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन, पुण्य भूमि-सुर-मुनि मनभावन

सन् 1838 में रचित ‘विक्रम विलास’ ग्रंथ के रचियता बाबू रेवाराम की यह पंक्तियां स्पष्ट करती है कि छत्तीसगढ़ की पुण्य धारा में ईश्वर का वास है। विभिन्न शोधों से यह प्रमाणित हो गया है कि रामायण और महाभारत काल में छत्तीसगढ़ की भूमि जिसे दक्षिण कोसल और दण्डकारण्य कहा गया है, कई ऋषि मुनियों के आश्रम थे। प्रभु रामचंद्र जी ने वनवास के 14 में से 10 साल इस पावन धरती पर व्यतीत किया है। महासमुंद जिले के तुरतुरिया में ऋषि बाल्मिकि का आश्रम और सीता कुटीर इस बात की साक्षी है कि लवकुश का जन्म यहीं हुआ था। श्रृंगी ऋषि, अगस्त्य ऋषि, शरभंग ऋषि, लोमश ऋषि के साथ ही परशुराम की साधना स्थली भी यहीं थी। महाभारत काल में पाण्डव के अज्ञातवास का क्षेत्र भी छत्तीसगढ़ ही था। भगवान बुध्द और जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी के ज्ञान से आलोकित इस पावन धरा में महाप्रभु वल्लभाचार्य, संत गुरुघासीदास, संत गहिरा गुरु ने जन्म लिया।

इस अद्भुत भूमि के भूगोल ने भारत के नक्शे में एक नवंबर दो हजार को अपनी अस्मिता कायम की। नैसर्गिक जंगल, खनिज के भंडार और धान के कटोरे से लबालब छत्तीसगढ़ ने पिछले दस सालों में जो प्रगति की है उसे पूरा देश विस्मित है कि कितनी तेजी से छत्तीसगढ़ ने हर क्षेत्र में विकास किया! विकसित राज्‍यों की दौड़ में पहले स्थान के लिए विकास का पहिया लगातार घूम रहा है।

सब जानते है कि छत्तीसगढ़ कृषि पर आधारित राज्‍य है। धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में किसानों की सबसे बड़ी समस्या पूंजी की रही है। साहूकारों के कर्ज में फंसकर किसान हमेशा ही दुर्दशा का शिकार रहा है। महंगी ब्याजदर से किसान कंगाल हो गए थे। मुख्यमंत्री ने देश में सबसे पहले ब्याज दर को 16 प्रतिशत से घटाकर नौ प्रतिशत किया। नौ के बाद सात और अब मात्र तीन प्रतिशत की दर से कर्ज मिलता है जो देश में सबसे कम है। खेती किसानी के लिए धन की व्यवस्था के बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या उचित दर पर फसल की बिक्री थी। भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने किसानों का संपूर्ण धान समर्थन मूल्य पर खरीदकर यह निश्चिंतता प्रदान की है कि फसल का वाजिब दाम मिलेगा। पिछले साल रिकार्ड 44 लाख टन धान की खरीदी से ये साबित हो गया कि सरकार किसानों के सुख-दुख में सहभागी है। किसानों को प्रमाणित बीज, समय पर खाद-पानी और छह हजार यूनिट तक मुफ्त बिजली की सुविधा मुहैय्या करवाने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्‍य है।

छत्तीसगढ़ के 44 प्रतिशत क्षेत्रफल में जंगल है। इस जंगल में आदिम जाति की परपंराओं को संयोजे हुए वनवासियों की आबादी कुल जनसंख्या का 32 प्रतिशत हिस्सा है। अद्भुत धरोहर के साथ आदिवासियों के उत्तान के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने कई योजनांए बनाई। सरगुजा और बस्तर विकास प्राधिकरण का गठन किया गया। वनवासियों को वनभूमि का पट्टा दिए जाने के साथ ही वनोपज की खरीदी सीधे सरकार ने की। तेंदूपत्ता की तुड़ाई दर में वृद्धि, बोनस के साथ ही नि:शुल्क चरण पादुका प्रदान किया गया।

मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि गरीब के पेट की चिंता रही है। गरीबों को दो और एक रुपए किलों की दर से हर महीने 35 किलो चावल देने की क्रांतिकारी योजना ने छत्तीसगढ़ के गरीब मजदूर-किसान की न केवल माली हालत बदल गई बल्कि वो तरक्की के रास्ते पर चल पड़ा। देश के लिए आदर्श बनी खाद्यान्न सुरक्षा योजना ने छत्तीसगढ़ को एक नयीं पहचान दी है। इस योजना की सफलता के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में व्यापक फेरबदल किया गया है। व्यवस्थित और कंयूटराइड खाद्य वितरण के साथ ही सहकारी समितियों के अलावा महिला स्व-सहायता समूहों को राशन दुकान संचालन की जिम्मेदारी दी गई है। सस्ती दरों में निम्न आय वर्ग के लोगों को पेट की चिंता से मुक्त कर डॉ. रमन सिंह की सरकार ने छत्तीसगढ़ राज्‍य का जो सपना देखा गया था उसे साकार कर दिखाया।

सदियों से छत्तीसगढ़ के लोगों में पिछड़ेपन का जो अवसाद था उसे दूर करने के साथ ही नयीं पीढ़ी को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए सरकार ने पहली से लेकर आठवीं तक के बच्चों को नि:शुल्क किताबें वितरित की। बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए सरस्वती सायकिल प्रदाय योजना के तहत नि:शुल्क साईकिल प्रदान करने के साथ ही कंप्यूटर की भी ट्रैनिंग दी जा रही है ताकि वे नयी टैक्नोलॉजी के साथ आगे बढ़ सके। राज्‍य गठन के बाद वोकेशनल ट्रैनिंग के लिए 88 आई.टी.आई. में रोजगार परक शिक्षा दी जा रही है तो पचास से भी यादा इंजीनियरिंग कालेज खुल गए है।

देश की प्रतिष्ठित समाचार पत्रिका इंडिया टूडे ने छत्तीसगढ़ को सन् 2004 में औद्यौगिक विकास के लिए अनुकूल वातावरण और बुनियादी ढांचे में लगातार हो रहे विकास को पहला स्थान प्रदान किया तो रिजर्व बैंक ने सन् 2005 में वास्तविक निवेश के लिए राज्‍य को अव्वल माना। खनिज की दृष्टि से संपन्न छत्तीसगढ़ में लोहा, कोयला, लाईम स्टोन, बाक्साईड, टिन का अकूत भंडार है। छत्तीसगढ़ में देश का 38 प्रतिशत स्टील का उत्पादन हो रहा है। सन् 2020 तक देश के पचास फीसदी स्टील का उत्पादन छत्तीसगढ़ करने लगेगा। अभी राज्‍य में देश के कुल सीमेंट उत्पादन में 11 प्रतिशत का हिस्सा है जो भविष्य में तीस प्रतिशत होगा तो एल्युमीनियम के उत्पादन में भी प्रदेश की भागीदारी 20 प्रतिशत की है। करीब 16 प्रतिशत कोयले के भंडार से दो हजार मेगावाट बिजली राज्‍य उत्पन्न करता है जो कि सरप्लस है। छत्तीसगढ़ देश का प्रथम पहला ऐसा राज्‍य है जहां बिजली कटौती नहीं होती।

कई क्षेत्रों में कीर्तिमान रचने वाले छत्तीसगढ़ ने महिला सशक्तिकरण और पंचायती राज में भी देश के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया है। छत्तीसगढ़ देश का ऐसा पहला राज्‍य है जिसने पंचायतों में पचास प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए सुनिश्चित किया है। सन् 2008 में विधानसभा में आरक्षण प्रस्ताव पारित होते ही यह मापदंड स्थापित हो गया। महिला उत्पीड़न रोकने के लिए टोनही प्रताड़ना अधिनियम लागू कर छत्तीसगढ़ ने मिसाल कायम की है।

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में नृत्य, गीत, और नाटक आदि महत्वपूर्ण स्थान रखते है। अपने दुख-दारिद्रय, हास-परिहास, उमंग-उल्लास, आस्था विश्वास को यहां के भोले-भोले लोग अपनी मीठी छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति के माध्यम से व्यक्त करते है। आदिम जाति की परंपरा को संजोए हुए बस्तर की संस्कृति अद्भुत है। वनवासियों के गंवर नृत्य को संसार का सबसे सुंदर नृत्य माना जाता है तो सतनाम पंथ का पंथी सबसे तेज नृत्य। महाभारत की पंडवानी गायन ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की है। नाचा -गम्मत में समाज की कुरीतियों के खिलाफ संदेश होता है तो ददरिया सुआ गीत की मिठास मन-मोह लेती है। बीते दस सालों में छत्तीसगढ़ी संस्कृति को नया आयाम मिला है।

छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और छत्तीसगढ़िया संस्कृति को पृथक राज्‍य ने यकीनन गौरव प्रदान किया है। छत्तीसगढ़ी भाषा को राजभाषा का दर्जा मिलने के बाद इस भाषा को न केवल सम्मान मिला बल्कि इसके साहित्य को भी वैश्विक होने का अवसर मिला है। राज्‍य गठन के साथ ही छत्तीसगढ़ी फिल्म के माध्यम ने भी छत्तीसगढ़िया भोलेपन से देश-दुनिया को परिचित करवाया। इसका परिणाम यह निकला कि पहली बार छत्तीसगढ़ी गीत ‘सास गारी देबे, ननद चुटकी लेवें ससुरार गेंदा फूल’ हिन्दी फिल्म दिल्ली-6 में शामिल किया गया जो कि पूरे विश्व में लोकप्रिय हुआ। दूसरा गीत बहुचर्चित पीपली लाइव में चोला माटी के हे राम ने भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया। छत्तीसगढ़ी लोककला और कलाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर अवसर मिलने का मंच छत्तीसगढ़ी फिल्मों ने प्रदान किया है।

छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थलों का विकास भी पिछले दस सालों में हुआ है। सिरपुर के बौध्द विहारों को विश्व धरोहर में शामिल करने के प्रयास किए जा रहे है जो प्रसिद्ध बम्लेश्वरी, दंतेश्वरी, महामाया मंदिर में यात्रियों की सुविधा के लिए आवास – सहित कई व्यवस्ताएं की गई है। राजिम पर प्रतिवर्ष होने वाले कुंभ मेले ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया है। साधु-संतों के समागम और उनके प्रवचनों से धर्म की गंगा प्रवाहित होती है।

छत्तीसगढ़ के बीते दस साल को सफलताओं का दशक कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। पिछले दस सालों में आवागमन के लिए सड़कों का जाल बिछ गया तो नागरिक सुविधाओं का भी विस्तार हुआ। इंफारमेशन तकनालॉजी ने कई समस्याओं से छुटकारा दिलाया। सड़क-पानी-बिजली की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर छत्तीसगढ़ अब तरक्की की राह में है। पढ़ने के लिए कई इंस्टयूट है तो खेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम। हर क्षेत्र में विकास कर छत्तीसगढ़ सबले बढ़िया की परिभाषा को सार्थकता प्रदान कर रहा है।

(तपेश जैन रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार एवं फिल्मकार हैं। छत्तीसगढ़ पर दो किताबें लिखी हैं और कई डाक्यूमेंट्री फिल्में बना चुके हैं।)

अरुंधती राय, पहले कश्मीर का इतिहास तो पढो!

– सुबेदार

जम्मू-काश्मीर आतंकबाद और अलगाव बाद के करण चर्चा क़ा विषय बना हुआ है वहा कि वास्तविकता कुछ इस प्रकार है ——– कुल क्षेत्रफल –२२२२३६ वर्ग कि.मी.——- पाक अधिकृत —-७८११४ वर्ग कि.मी. बर्तमान में भारत में— १०१३८७ वर्ग कि.मी.–पाक ने ची…न को दिया–५१८० वर्ग कि.मी—–चीन अधिकृत —.[१९६२ में ३७५५ वर्ग कि.मी.]

भाषा, भूगोल और परंपरा के अनुसार जम्मू -काश्मीर और लद्दाख ये तीन भाग है

लद्दाख —५९१३६ वर्ग कि.मी., ९ से १६ हज़ार फिट की उचाई कुल गाव २४२ ,आवादी—२ लाख

काश्मीर –१५९४८ वर्ग की.मी.५–७ हज़ार फिट उचाई ,कुल गाव २०२९ , आवादी— ५८ लाख

जम्मू —- २६२९३ वर्ग की.मी.,१–६ हज़ार फिट उचाई -कुल गाव ३६१४, —-आवादी—–६२ लाख

काश्मीर के पास केवल १/४ जमीन है परन्तु विधान सभा सीट, काश्मीर–४७, जम्मू–३६, लद्दाख–०४, १९४७ से जम्मू, लद्दाख के साथ भेद भाव हो रहा है क्यों की सत्ता पर कश्मीरी दलों क़ा ही कब्ज़ा रहा है, जम्मू और लद्दाख में कभी मुस्लिम शासन नहीं रहा.

काश्मीर में इस्लाम १३२० में आया, सत्ता कभी भी उनकी टिकाऊ नहीं रही वहा की सत्ता सिखो और हिन्दू राजाओ की रही . वर्तमान जम्मू-काश्मीर राज्य १८४६ से महाराजा गुलाब सिंह ने जम्मू में राज्य स्थापना की थी और अमृतसर की संधि के अनुसार उन्हीने अंग्रेजो से काश्मीर घाटी ली और पराक्रम से गिलगित, बल्तिस्तान, तिब्बत तक राज्य बिस्तर किया जिसके द्वारा जम्मू-काश्मीर राज्य क़ा निर्माण हुआ यह रियासत भारत की ५६५ रियासतों में सबसे बादी थी, डोगरा शासन सामान्यतः लोकप्रिय शासन था, महाराजा गुलाब सिंह से लेकर रणबीर सिंह, राजा प्रताप सिंह और महाराजा हरी सिंह ने १९४७ तक शासन किया था.

जम्मू-काश्मीर क़ा भारत में विलय —— नेहरु जी की गलत नीतियों के करण [शेख अब्दुल्ला क़ा मोह] महाराज बहुत दुखी थे लौह पुरुष सरदार पटेल की योजना से संघ के सरसंघचालक श्री गुरु जी ने बार्ता कर राजा को विलय के लिए तैयार कर लिया,महाराजा हरी सिंह ने भारत स्वतंत्रता अधिनियम , १९४७ के प्रदत्त अधिकारों क़ा उपयोग करते हुए जम्मू-काश्मीर राज्य क़ा भारत में विलय २६ अक्टूबर १९४७ को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके किया. २७ अक्टूबर १९४७ को लार्ड माउन्ट बेटन ने उस विलय पत्र को स्वीकार कर लिया २६ जनवरी १९५० को, भारत क़ा संबिधान लागू होने के साथ ही जम्मू-काश्मीर भारत क़ा अविभाज्य अंग बन गया.१९५६ में ,सातवे संबिधान संसोधन के उपरांत ,जम्मू-काश्मीर राज्य ”बी” श्रेणी के राज्य के स्थान पर सब राज्यों के समान घोषित किया गया .

पं.नेहरु की गलत नीतियों के चलते शेख अब्दुल्ला के मोह- पास में फसकर जानता की बिना इक्षा जाने ही ३७० लागुकर बारता क़ा नाटक कर १९५२ जुलाई नेहरु जी ने संबिधान सभा में घोषणा की ——- जम्मू-कश्मीर राज्य क़ा अलग संबिधान,अलग ध्वज रहेगा, राज्यपाल के स्थान पर सदरे रियासत मुख्यमंत्री के स्थान पर प्रधान मंत्री शब्द क़ा प्रयोग होगा.जम्मू-कश्मीर में शेष भारत से आने वाले क़ा परिमिट लेना होगा और अलग नागरिकता रहेगी, राज्य के पास अलिखित शक्ति रहेगी.

लद्दाख के लोगो ने कहा था की हमें केंद्र शासित राज्य अथवा हिमांचल के साथ जोड़ दिया जाय, जम्मू के लोगो ने भारत में पूर्ण बिलय की बात कही लेकिन नेहरु को खून क़ा रिश्ते ने मजबूर कर दिया देश क़ा एक बड़ा हिस्सा अपने सहोदर शेख अब्दुल्ला को दे दिया, जन आन्दोलन प्रारंभ हुआ जिसमे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी सामिल हुए बिना परमिट के प्रवेश के करण गिरफ्तार हुए २३ जून १९५३ को उनका रहस्यमय ढंग से जेल में बलिदान हुआ .

८ जुलाई १९५३ को नेहरु जी से बात चीत के नाटक उपरांत आन्दोलन वापस हुआ शेख अब्दुल्ला को राष्ट्रद्रोह में गिरफ्तार हुए और भारत के सभी संबिधान के प्रावधानों को लागू होने क़ा मार्ग प्रसस्त हुआ और परमिट सिस्टम ख़त्म हुआ –धीरे-धीरे राज्यपाल, मुख्यमंत्री के नाम क़ा उपयोग, राज्यपाल की राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति, भारतीय प्रशासनिक सेवा, चुनाव आयोग, महालेखागर, सर्बोच्च न्यायालय के अंतर्गत यह राज्य आया.

ये राजनैतिक नहीं इस्लामिक आतंक की समस्या————— १९४७ से आज तक एक लाख से अधिक हिन्दू-सिखो की हत्याए, जम्मू-काश्मीर में १४ लाख से अधिक शरणार्थी .गत २५ वर्षो से आतंकबाद क़ा नया दौर, घाटी से चार लाख हिन्दुओ क़ा पलायन संपत्ति, मंदिर ,धर्मस्थलों की लूट, केंद्र सरकार अलगाव बादियो के दबाव में जम्मू-काश्मीर की आतंरिक सुरक्षा से सेना को अलग करना, ३५००० सैनिको को हटाना ,जम्मू-काश्मीर की पूरी सुरक्षा की जिम्मेवारी स्थानीय पुलिस को देने केंद्रीय पुलिस बल को केवल सहायता के लिए तैयार रहने को कहा गया, पाकिस्तान में कट्टरपंथियों क़ा बढ़ता प्रभाव भारत के भविष्य के लिए खतरे क़ा करण बनने वाला है.

पाकिस्तान से आए हुए हिन्दू शर्णार्थियो की संख्या दो लाख है उनकी नागरिकता होने से जम्मू क़ा संतुलन ठीक हो सकता है लेकिन कांग्रेश व अन्य दल भा.ज.पा. को छोड़कर बिरोध कर रहे है.जिससे जम्मू क़ा प्रतिनिधित्व बढ़ने न पाए, कांग्रेश द्वरा इस बिधेयक क़ा बिरोध किया गया जबकि उसके २५ बिधयको में से अधिकांस हिन्दू बिधायक जम्मू से है.

१९४७ में ९० हज़ार हिन्दू- सिखो क़ा नरसंहार हुआ व शेष लोग मीरपुर, पूंछ, व मुज़फ्फराबाद जिलो से जम्मू-काश्मीर में आए थे जिनकी बर्तमान संख्या आठ लाख है अपने उचित अधिकारों के लिए ६२ वर्षो से संघर्ष कर रहे है अभी तक पुनर्वास की प्रतीक्षा में है राज्य बिधान सभा में २४ बिधान सभा सीट पाक अधिकृत कश्मीरी के लिए रिक्त है लेकिन पाक से आए बिस्थापितो को स्थान नहीं मिला.

वास्तविक समस्या ——— काश्मीर केन्द्रित दलों ने अलगाव बादी व आतंकी संगठनों के सहयोग अपने संकीर्ण राजनैतिक हित को पूरा करने के लिए हिन्दू, विस्थापित व भारतीय भावनाओ के बिरोध में माहौल बनाया हुआ है घाटी में केंद्र सरकार के पैसे से सैनिको पर राजनैतिक दल पत्थर फेकाने क़ा काम– करने वाले गिरोहों की पुनर्वास निति बनवाते है सुरक्षा बलो को मारने वालो को इनाम- मारे गए आतंकी को लाखो रुपये देकर उनका मनोबल बढ़ाना ——देश -द्रोह के बदले रुपया लो की केंद्र सरकार की निति .

जम्मू -काश्मीर की समस्या राजनैतिक नहीं है ये समस्या विशुद्ध इस्लामिक है जहा- जहा मुसलमान अधिक है समस्या पैदा होने वाली ही है भारत में १२ करोण मुसलमान है हम कितना भारत को बाटेगे जिसको भारत में रहना स्वीकार नहीं उन्हें पाकिस्तान चला जाना चाहिए भारतीय जानता दुबारा बटवारा स्वीकार नहीं करेगी ,यदि कश्मीरी यह सोचते है की सम्पूर्ण विश्व के मुसलमान उनकी मदद करेगे तो उनकी भूल होगी उन्हें ५५ लाख कश्मीरी मुसलमनो सहित भारत में करोणों मुसलमनो के बारे में भी सोचना होगा भारत क़ा एक अरब हिन्दू यह सोचने के लिए बाध्य होगा —– इस नाते वहा काश्मीर समस्या क़ा समाधान धारा ३७० हटाना और वहा के सारे अनुदान, सहायता बंद कर देने से भी समस्या क़ा समाधान होगा .केवल काश्मीर ही नहीं पूरे भारत के बारे में बिचार करने की आवस्यकता है, लेकिन भारत के बारे में कौन बिचार करेगा क्या सोनिया, राहुल या मनमोहन इनको भारत से क्या मतलब इनकी मानसिकता तो भारतीय है ही नहीं ये तो चर्च के द्वारा निर्देशित होते है जो भारत को खंड-खंड करना चाहती है, जहा-जहा नेहरु जी ने हाथ लगाया वही-वही स्थान आज तक भारत माता को कष्ट दे रहा है

इस नाते संगठित हिन्दू–समर्थ भारत की तयारी करनी होगी .

जहां हुए बलिदान मुखर्जी —वह काश्मीर हमारा है.

चीन की बैचेनी की मतलब समझें

-संजीव पांडेय

इस समय चीन बैचेन है। बैचेनी का कारण भारत की विस्तारवादी विदेश नीति है। इस विदेश नीति के तहत भारत ने उन देशों से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी है, जो देश चीन से किसी न किसी मसले पर भीड़े है। चीन काफी बैचेने से भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हाल ही में हुई विदेश यात्रा और बराक ओबामा का नवंबर के दूसरे सप्ताह में होने वाली दक्षिण एशिया की यात्रा पर नजर रखे है। भारतीय प्रधानमंत्री की जापान, मलेशिया, दक्षिण कोरिया, वियतनाम यात्रा की आलोचना चीनी अखबार पीपुल्स डेली कर रहा है। जबकि ओबामा की यात्रा को भी चीनी अखबार विस्तारवादी यात्रा बता रहा है। दिलचस्प बात है कि चीन अपनी सारी गतिविधियों को विस्तारवादी बताने के बजाए सहयोगी बताता है पर भारत और अमेरिका की हर गतिविधियों को अलग तरीके से व्याख्या कर रहा है।

भारत की लूक इस्ट नीति की जोरदार आलोचना पिछले दिनों पीपुल्स डेली ने की। पीपुल्स डेली ने कहा कि भारत दक्षिण एशिया में राजनीति कर रहा है। भारत दक्षिण एशिया में चीन विरोध को बढ़ा रहा है और कई मुल्कों को चीन के खिलाफ लामबंद कर रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीति को विस्तारवादी बताते हुए पीपुल्स डेली ने कहा है कि जापान को भारत भड़का रहा है। भारत की तरह ही जापान से चीन का सीमा विवाद शुरू हो गया है। भारत में जहां अरूणाचल प्रदेश को लेकर चीन बदमाशी कर रहा है, वहीं एक जापानी द्वीप पर चीन दावेदारी जता रहा है। हाल ही में जापान ने चीन के एक नौका को पकड़ लिया। इसका विरोध चीन ने अपने मुल्क में करवाया। लेकिन चीन का मानना है कि भारत यहीं नहीं रूका। चीन का घोर विरोध दक्षिण कोरिया को भी भारत ने अपने पाले में कर लिया है। गौरतलब है कि चीन दक्षिण कोरिया का घोर विरोधी रहा है। उतर कोरिया को पूरी सहायता चीन ही अबतक देता रहा है।

वियतनाम की राजधानी हनोई में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वेन जियाबाओ से मुलाकात की। उन्होंने साफ शब्दों में चीन की भारत नीति की आलोचना की। उन्होंने कहा कि भारत की आलोचना करने से पहले चीन अपनी गलतियों को सुधारे। खासकर कश्मीरी लोगों को अलग वीजा देने की नीति को छोड़े, जिसमें वीजा कागज पर देकर नत्थी किया जा रहा है। साथ ही अरुणाचल प्रदेश को लेकर भी चीन अपनी दावेदारी छोड़े। भारत के इस विरोध का मतलब अब चीन समझ रहा है। चीन अब भारत की विदेश नीति को हल्के में नहीं ले रहा है। चीन के सरकारी अखबार पीपुल्स डेली में यह लिखा जाना कि जापान को भारत ने अपने पाले में लिया है, साधारण बात नहीं है। चीन ने महसूस किया है कि भारत हर उस देश को अपने साथ करेगा जिसका किसी न किसी तरीके से चीन के साथ विवाद है। चीन को पता है कि सीमा विवाद के मसले पर जापान भारत के साथ खड़ा है।

चीन की व्यापार नीति मुक्त नहीं है। इस कारण उनके व्यापारिक सहयोगी देशों को नुकसान होता है। भारत इसमें से एक है। दक्षिण कोरिया जैसे देशों को चीन से ज्यादा फायदा भारत से है। कोरिया की कंपनी पास्को को भारत के उड़ीसा में एक बड़ा प्लांट लगाने की अनुमति भारत ने दी है जो अबतक भारत का सबसे बड़ा विदेश निवेश है। इस निवेश पर भारतीय प्रधानमंत्री से दक्षिण कोरिया के नेताओं ने बात की। इस प्रोजेक्ट में आ रहे अड़ंगे को भारत ने खत्म करने का आश्वासन दिया है। भारत इस बात को समझता है कि आने वाले दिनों में दक्षिण एशिया में चीन विरोधी देशों से व्यापार को और बढ़ाना होगा ताकि व्यापार भारत के पक्ष में भी हो। चीन के साथ बेशक भारत का व्यापार चालीस अरब डालर से उपर पहुंच चुका है, पर अभी तक इस व्यापार का झुकाव चीन की तरफ है। भारतीय दवाई उद्योग की चीन के बाजार में अभी तक पहुंच नहीं है। इसका सीधा नुकसान भारत को है। चीन पर भारत मुक्त व्यापार पर दबाव डाल रहा है। चीन इसके लिए राजी नहीं है। क्योंकि भारतीय दवाई उद्योग के खुलते ही चीन को नुकसान हो सकता है।

दरअसल भारत ने चीन की विस्तारवादी विदेश नीति का जवाब देना शुरू कर दिया है। चीन जिस तरह से पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका को अपने खेमें किया है, उससे भारत की परेशानी बढ़ी है। नेपाल सीमा तक चीन ने तिब्बत स्थित लहासा से रेल लाइन बिछाने का काम शुरू कर चुका है। पहले चरण में लहासा से सिगात्से से तक रेल लाइन बिछाया जाएगा। इसके बाद इसे नेपाल सीमा तक लाया जाएगा। बाद में इसे काठमांडू तक बिछाए जाने की चीनी विस्तारवादी योजना है। इससे भारत काफी नाराज है। लंका में भी हैबेनटोंटा बंदरगाह का विकास चीन कर रहा है। लंका ने भारत-चीन विवाद का फायदा लेते हुए चीन से रक्षा सहयोग पर भी विचार शुरू कर चुका है। भारत चीन समेत अपने पड़ोसी मुल्कों की रणनीति को समझ रहा है। पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल तीनों मुल्क गरीब है। इनकी अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है। चीन इन्हें सहायता देकर अपने खेमें करना चाहते है। हाल ही में नेपाल में भारतीय राजदूत राकेश सूद पर जूता फेंके जाने की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह जूता माओवादियों ने फेंका जिनका नेतृत्व नेपाल के एक पूर्व मंत्री और माओवादी नेता गोपाल कर रहे थे। जबकि उस समय उसी इलाके में गए चीनी राजदूत का जोरदार स्वागत नेपाली माओवादियों ने किया था।

चीन की इस नीति की काट करते हुए भारत ने चीन की इस नीति के विरोध में मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क जापान, दक्षिण कोरिया आदि को अपने पक्ष में करने की नीति पर चल पड़ा है। साथ ही मध्य एशिया में भी चीन को मजबूती से टक्कर देने के खेल में जुट गया है। अफगानिस्तान में भारत पहले ही अपना खेल कर चुका है। इससे चीन पूरी तरह से घबराया हुआ है। पाकिस्तान-चीन की जोड़ी भारत को अफगानिस्तान से निकालना चाहते है, पर अभी तक कामयाब नहीं हो पाए है। जबकि पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत स्थित ग्वादर में चीन द्वारा बनाए गए गवादर बंदरगाह का महत्व पहले ही भारत ने अपनी रणनीति से खत्म करवा दिया है। भारत ने ईरान स्थित एक बंदरगाह से तेहरान होते हुए सेंट्रल एशिया के अस्काबाद तक रेल लाइन पहले ही बिछवा दिया। इससे चीन द्वारा पाकिस्तान में बनाए गए ग्वादर बंदरगाह का महत्व खत्म हो गया। इस पराजय को चीन अभी तक भूल नहीं पाया है।

दिलचस्प बात है कि चीनी अखबार पीपुल्स डेली ने बराक ओबामा की दक्षिण एशिया यात्रा को भी विस्तारवादी और चीन विरोधी यात्रा बताया है। बराक ओबामा की भारत यात्रा से चीन परेशान है। चीन को लग रहा है कि भारत को मजबूत समर्थन अमेरिका देगा। क्योंकि अमेरिका भी चीन की आर्थिक नीतियों से परेशान है। बताया जाता है कि अमेरिका किसी भी कीमत पर सेंट्रल एशिया और दक्षिण एशिया में अपनी उपस्थिति रखना चाहता है। इसके लिए उसका महत्वपूर्ण सहयोगी भारत ही हो सकता है। गौरतलब है कि अमेरिका भी भारत का एक बड़ा व्यापार सहयोगी है। अभी भी भारत अमेरिकी रक्षा सामाग्री का सबसे बड़ा खरीदार है। अमेरिका भारत जैसे अपने ग्राहक को हाथ से नहीं निकलने देना चाहता है। साथ ही भारतीय मध्य वर्ग की क्रय शक्ति पर भी अमेरिका की नजर है।

अथ श्री ऑक्टोपस कथा

-आशुतोष

फुटबॉल के करोड़ों प्रशंसकों के प्राण हलक में अटके थे। कोलकाता की बस्तियों से हॉलीवुड की हस्तियों तक हर कोई हलकान था कि आखिर होगा क्या।

हजारों विशेषज्ञ अपने कागज-कलम लिये गुणा-भाग में जुटे हुए थे। पिछले मैचों के आंकड़े तो उन्हें जबानी रट गये थे। सटोरिये स्पेन के जीतने पर भी सट्टा लगा रहे थे, उसके हारने पर भी। भारत के नौजवानों में फुटबॉल का इतना उत्साह पहली बार देखा गया। सिने जगत के महानायक से लेकर बिंदास बालाओं तक सभी ट्विटर पर डायलॉगों के गोल दाग रहे थे।

वातावरण में तनाव व्याप्त हो गया था। विश्वकप में भाग ले रहीं टीमों के बीच संघर्ष इतने नाजुक दौर में पहुंच चुका था कि कोई भी सटीक परिणाम की भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं था। लोग भ्रमित थे, स्तंभित थे, बेचैन थे। आर्तनाद कर रहे, थे, प्रभु से मार्ग दिखाने की प्रार्थना कर रहे थे। किसी मसीहा की, किसी पैगम्बर की प्रतीक्षा कर रहे थे जो आ कर उन्हें इस भ्रम की स्थिति से बाहर निकाले, सच्चा मार्ग दिखाये।

ऐसे में भक्तों के भ्रम निवारणार्थाय करुणानिधान श्री ऑक्टोपस प्रकट भये। हर मैच से पहले भक्तों ने परिणाम पूछा और ऑक्टोपस महाराज जीतने वाले देश के नाम की पट्टी वाले डब्बे पर जा विराजे। अंतिम मैच के लिये ऑक्टोपस बाबा ने स्पेन की जीत की भविष्यवाणी की जो सच साबित हुई।

भक्तों ने जहां उनकी जय-जयकार की वहीं कुछ दुष्ट प्रकृति के लोग उन्हें मारने की धमकियां देने लगे। जीतने वाले पॉल बाबा की लम्बी उम्र की कामना कर रहे थे वहीं हारने वाले करामाती तांत्रिकों के चरणों में लम्बलेट होकर अगले विश्वकप से पहले उनका जनाजा उठने के इंतजाम करने की गुहार लगा रहे थे।

होनी हो कर रही। कलियुग ने अपना असर दिखाया और जीतने वालों का ‘तुम जियो हजारों साल साल में दिन हों पचास हजार’ का कोरस कमजोर साबित हुआ और हारने वालों की बद् दुआ भारी पड़ी। अक्तूबर के आखिरी सप्ताह में उन्होंने अंतिम सांस ली।

मानवता के प्रति उनका योगदान महत्वपूर्ण था। उनका जीवन छोटा किन्तु यशस्वी रहा। पश्चिम की नास्तिकता की ओर बढ़ रही नयी पीढ़ी को ईश्वरीय चमत्कार का नायाब नमूना दिखा कर श्री आक्टोपस महोदय ने यूरोप में मानो धर्मसंस्थापना का एक छोटा पाउच पैक उंडेल दिया। तीन वर्ष की आयु में इस लोक के समस्त सुखों को भोग कर उन्होंने परलोक को गमन किया। परमपिता से प्रार्थना है कि उन्हें अपने चरणों से सुरक्षित दूरी बनाये रखते हुए स्थान दे।

पश्चिम के लिये इस तरह अवमानवीय सृष्टि के किसी जीव द्वारा सटीक भविष्यवाणी किया जाना सचमुच में अविश्वसनीय हो सकता है लेकिन भारत में यह कोई अजूबा नहीं। हर नगर–गांव में ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जिनके संकेत पर कहीं नंदी तो कहीं मिट्ठू और कहीं-कहीं कोई अन्य जीव भी भविष्यवाणी करते मिल जायेंगे। अनेक बार इनकी भविष्यवाणियां सही भी साबित होती हैं। लेकिन ऑक्टोपस द्वारा भविष्यवाणी का विचार ही बेहद रोमांचक है।

भारत में किसी के दिमाग में ऑक्टोपस से भविष्यवाणी कराने का विचार नहीं कौंधा वहीं यूरोप वालों को नंदी द्वारा भविष्यवाणी का तरीका नहीं सुहाया। दोनों के पीछे एक ही कारण है। वह है दोनों की समाज-रचना। भारत में गोवंश यानी सज्जनता-सह्रदयता का प्रतीक! बच्चे भी उससे नहीं डरते। उसके द्वारा किया गया भविष्यनिर्देश परिवार अथवा समाज के एक अंग की सहज अभिव्यक्ति। गाय यानि मां! मां ने कही और संतान ने मानी, यही परंपरा। भले ही वह संकेतों में ही क्यों न हो।

दूसरी ओर पश्चिम में किसी अवमानवीय सृष्टि के साथ मां का संबंध ! उसे मां मानना जिसे ईश्वर ने आपके उपभोग के लिये रचा है ! वहां तो यह हास्यास्पद ही नहीं निंदनीय भी है। लेकिन ऑक्टोपस ! वह खुद शोषक है। अपनी आठ भुजाओं में वह जिसे भी जकड़ लेता है वह केवल छटपटाता है, छूट नहीं सकता। अगर वह उसे निगल नहीं सकता तो छोड़ने से पहले उसका पूरा खून चूस लेता है। ठीक वैसे ही जैसे इंगलैंड़ जब भारत को निगल नहीं सका, उसे न्यू इंग्लैंड नहीं बना सका तो उसे छोड़ा जरूर, लेकिन इस कदर चूसने के बाद कि सदियों तक सांस भी न ले सके। इस लिये ऑक्टोपस ही चाहिये। वही यूरोप का प्रतीक हो सकता है।

एक ऑक्टोपस मरा है, लेकिन उसके लाखों साथी महासागरों में अठखेलियां कर रहे हैं। चंगुल में फंसने वाले हर जीव-जंतु का खून चूस रहे हैं, उसे तड़पते देख पर-पीड़ा का आनंद ले रहे हैं। यह भी मरेंगे, लेकिन मरने से पहले अपनी करोड़ों संतानों को जन्म दे कर जायेंगे जो आने वाले वर्षों में शोषण की नयी कहानियां लिखेंगे। ठीक वैसे ही जैसे एक ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह आज हजारों-लाखों बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ले ली है और वे विकासशील और पिछड़े देशों की निर्धन और कुपोषित जनसंख्या का रक्त निचोड़ रही हैं।

ईस्ट इंडिया कंपनी हो या पॉल ऑक्टोपस, शोषण के साम्राज्य के किसी एक प्रतीक के ढ़ह जाने का यह अर्थ नहीं है कि उस प्रवृत्ति पर विजय पा ली गयी है। अन्याय और शोषण की यह राक्षसी प्रवृत्ति नाना रूप-रंग और आकार में सामने आती है। जब तक हम इस मारीचमाया के पीछे छिपे इनके चेहरे पहचानना नहीं सीखेंगे, स्वर्णमृग हमें भरमाते रहेंगे। पीड़ा भी हमें ही मिलेगी और अग्निपरीक्षा देने के लिये भी हम ही विवश किये जाते रहेंगे।

सुलगते सवालों के बीच मसल-ए-कश्मीर

-तनवीर जाफ़री

भारत वर्ष जैसे विशाल देश के कई क्षेत्रों से वैसे तो कभी अलगाववाद कभी पूर्ण स्वायत्तता तो कभी आंतरिक स्वायत्तता की आवाज आती ही रहती है। परंतु इनमें कश्मीरी अलगाववाद की समस्या एक ऐसी राजनैतिक समस्या का रूप ले चुकी है जिसे हम देश की जटिलतम राजनैतिक समस्या का नाम दे सकते हैं। बावजूद इसके कि भारतवर्ष कश्मीर को अखंड भारत का एक प्रमुख अंग मानता है। परंतु कश्मीर में बैठी कुछ अलगाववादी शक्तियां ऐसी भी हैं जो भारत के इस दावे को स्वीकार करने को हरगिज तैयार नहीं हैं। और इन अलगाववादी ताकतों को सीमा पार के देश पाकिस्तान से पूरा नैतिक व राजनैतिक समर्थन प्राप्त हो रहा है। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को हवा देना तथा इसका समर्थन करना पाकिस्तान के शासकों की आंतरिक मजबूरी भी बन चुका है। ज़ाहिर है कि यदि हम इसकी पृष्ठभूमि में झांके तो हमें 1971 में भारत द्वारा पाकिस्तान का विभाजन कराने में बंगला देश को दिया गया समर्थन दिखाई देता है। 1971 के घटनाक्रम से आहत पाक सैन्य अधिकारी तथा पाक राजनेता निश्चित रूप से अपने उसी ‘अपमान’ का बदला लेने के सशक्त एवं प्रबल हथियार के रूप में कश्मीर समस्या को प्रयोग में ला रहे हैं।

बहरहाल, सवाल यह उठता है कि ऐसे में क्या पाकिस्तान की इस नापाक मंशा को इतनी आसानी से पूरा होने दिया जा सकता है? क्या कश्मीर के चंद अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान के हाथ की कठपुतली बनकर कश्मीर घाटी में अलगाववाद का जहर फैलाने की अब और अधिक आजादी दी जानी चाहिए? क्या वास्तव में पूरी कश्मीर घाटी के आम लोग कश्मीर की आजादी के पक्षधर हैं? कश्मीर की आजादी की विस्तृत परिभाषा क्या हो सकती है? कश्मीरी अलगाववादीकेवल भारतीय शासन वाले क्षेत्र से ही आजादी हासिल करना चाहते हैं या वह अपने साथ पाक अधिकृत कश्मीर के क्षेत्र को भी शामिल कर एक वृहद कश्मीर के नक्शे की परिकल्पना कर रहे हैं? चंद अलगाववादी नेताओं की सोच के अनुसार क्या भारतीय कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाना चाहिए? कश्मीर के काफी बड़े क्षेत्र पर चीन ने अतिक्रमण कर रखा है। उसका क्या समाधान होना चाहिए? और क्या इन चंद अलगाववादियों से भय खाकर अथवा इनके द्वारा धर्म के नाम पर गुमराह कश्मीरी युवकों के सामयिक प्रदर्शनों से डर कर कश्मीर की आजादी की बात न करने तथा भारत के साथ ही सहर्ष रहने की बात करने वाले कश्मीरियों की आवाज को क्या बिल्कुल ही नज़र अंदाज कर दिया जाना चाहिए? इस प्रकार दरअसल मसल-आजादी-ए-कश्मीर की परिभाषा क्या होनी चाहिए तथा इसे परिभाषित करने का अधिकार किसे होना चाहिए? आदि ऐसे ढेरों सवाल हैं जो वास्तव में बहुत पेचीदा परंतु कशमीर समस्या से जुड़े व इसका समाधान निकालने में सार्थक सिध्द होने वाले सवाल जरूर हैं।

गत तीन दशकों से कश्मीर में अलगाववाद आंदोलन के अंतर्गत हिंसा का व्यापक तांडव जारी है। कश्मीरी सभ्‍यता तथा कश्मीरियत का दम भरने वाले अलगाववादी आतंकवादियों द्वारा लाखों कश्मीरियों को घाटी से विस्थापित होने के लिए मजबूर किया जा चुका है। जम्‍मू से लेकर कर दिल्ली तक तमाम कश्मीरी जिनमें गैर मुस्लिम कश्मीरियों की सं या सर्वाधिक है, को दरबदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। अलगाववादियों की इन नापाक एवं गैर इंसानी हरकतों से यह बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि इन्हें कश्मीरियत या कश्मीरी सभ्‍यता की कोई फिक्र या परवाह नहीं बल्कि यह कश्मीर में संप्रदाय आधारित हिंसक आंदोलन चला रहे हैं। और कश्मीर में मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाला जो उदारवादी वर्ग इनकी तथाकथित आजादी का समर्थन नहीं करता उसे भी या तो यह अलगाववादी समर्थक मौत की नींद सुला देते हैं या फिर उसे भी अन्य विस्थापितों की ही तरह घाटी छोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। जाहिर है ऐसे में यही सवाल उभरकर सामने आता है कि क्या चंद अलगाववादी मुसलमानों को आजाद कश्मीर के रूप में कोई नया इस्लामी देश चाहिए? पाक अधिकृत कश्मीर तथा पाकिस्तान में भारतीय कश्मीर को लेकर चलाए जा रहे आंदोलनों, इस संबंध में वहां आयोजित होने वाली जनसभाओं तथा रैलियों और इन सब में सीमापार बैठे कश्मीरी अलगाववादियों को हवा देने वाले भड़काऊ भाषणकर्ताओके जहरीले भाषणों से भी यही विश्वास होता है। उधर एक ताजातरीन घटनाक्रम में इन अलगाववादियों के सुर से अपना सुर मिलाते हुए पाकिस्तान ने अमेरिकी राष्ट्रपति से एक बार फिर यह आग्रह किया है कि कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले कर दिया जाए। गौरतलब है कि पाकिस्तान ने ओबामा से यह निवेदन ऐसे समय में किया है जबकि वे शीघ्र ही भारत के दौरे पर आने वाले हैं। गोया पाकिस्तान अमेरिका को बार-बार यह जताना चाह रहा है कि कश्मीर भारत के दावे के अनुसार उसका अभिन्न अंग नहीं बल्कि एक विवादित क्षेत्र है।

बहरहाल, आजादी-ए-कश्मीर के प्रश्न को लेकर यहां कुछ सवाल और भी जरूरी हैं जो कम से कम उन चंद नेताओं से तो जरूर पूछे जा सकते हैं जो घाटी को धर्म के आधार पर भारत से अलग करने तथा उनके अनुसार ‘आजाद’ किए जाने का सपना देख रहे हैं। सर्वप्रथम तो इन कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को यही गौर करना चाहिए कि आज जो पाकिस्तान धर्म के नाम पर कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन को उकसा व भड़का रहा है तथा इन चंद नेताओं को अपनी भारत विरोधी कठपुतली के रूप में इस्तेमाल कर रहा है स्वयं उसी पाकिस्तान की वर्तमान भीतरी स्थिति व अंतर्राष्ट्रीय छवि क्या है? 1947 में धर्म के नाम पर भारत से अलग हुआ पाकिस्तान क्या अब तक धर्म के नाम पर उसी प्रकार संगठित रह पाया है? यदि हां तो 1971 में बंगला देश उदय का कारण क्या था? इसके अलावा पाकिस्तान के भीतरी हालात जिसे कि आज सारी दुनिया देख रही है जिसके विस्तार से उल्लेख करने की यहां आवश्यकता भी नहीं है। आंखिर ऐसे धर्म आधारित नए राष्ट्र के निर्माण से पाकिस्तान को स्वयं क्या हासिल हो सका है? क्या कश्मीरी अलगाववाद की बातें करने वाले चंद नेता तथाकथित ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ में लगभग प्रतिदिन मुसलमानों द्वारा ही मुसलमानों की हत्याएं किए जाने तथा वहां इस्लाम के नाम पर सड़कों पर आमतौर पर आत्मघाती बमों के रूप में अपनी जान गंवाने वाले युवाओं की हालत से बेंखबर हैं। आंखिर कश्मीर में अलगाववाद की बात करने वाले नेताओं को इतिहास की तथा पाक में प्रतिदिन घटने वाली इन गैर इस्लामी व गैर इंसानी हिंसक घटनाओं से सबंक लेने की जरूरत है भी या नहीं? एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तानी अवाम, शासक या पाक सेना कश्मीर मुद्दे को लेकर अपना जो चाहे नारिया क्यों न रखते हों, यहां उनकी सोच व उनके नारिये की परवाह करना न तो भारत के लिए जरूरी है न ही यह भारत सरकार की मजबूरी है। परंतु भारतवर्ष में चाहे केंद्र में किसी भी दल की सरकार रही हो या आम भारतीय नागरिकों की बात हो या फिर आम भारतीय मुसलमानों के नारिए की बात की जाए तो पूरा देश इस बात को लेकर एकमत है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और भविष्य में भी रहना चाहिए। तथा अलगाववादी नेताओं को भी यही समझना चाहिए कि कश्मीरियों व कश्मीरियत का भी कल्याण इसी में है कि वे भारत के साथ बने रहें।

बावजूद इसके कि भारत की कुछ राजनैतिक पार्टियां ज मू-कश्मीर से उस धारा 370 को हटाए जाने की पक्षधर हैं जिसके तहत कश्मीरी अवाम को अन्य भारतीय नागरिकों की अपेक्षा तमाम प्रकार के विशेषाधिकार दिए गए हैं। परंतु इसके बावजूद देश के अधिकांश राजनैतिक दल कश्मीर में धारा 370 को कायम रखने तथा कश्मीरियों को विशेषाधिकार दिए जाने के पक्षधर हैं। यहां तक कि सन् 2000 में कश्मीर में पूर्ण स्वायत्तता विधेयक भी पारित हो चुका था। जिसे तत्कालीन केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने मंजूरी नहीं दी। समाचारों के अनुसार कश्मीर के दौरे पर गया केंद्र सरकार के मध्यस्थताकारों का दल अब उन कारणों का पता करेगा जिस की वजह से पूर्ण स्वायत्तता विधेयक को मंजूरी नहीं मिल सकी थी। गोया केंद्र सरकार की कोशिश है कि कश्मीरी अवाम किसी अन्य देश विशेषकर पाकिस्तान के बहकावे में आने के बजाए कश्मीरी अवाम अथवा कश्मीर के विकास संबंधी प्रत्येक संभव सहायता केंद्र सरकार से ले। परंतु वे अलगाववादि शक्तियों के हाथों का खिलौना कतई न बनें।

कुछ कश्मीरी अलगाववादी नेताओं का यह तर्क है कि आजादी के बाद कश्मीर पर्यटन के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ जाएगा कि पूरी दुनिया स्वयं कश्मीर की ओर आकर्षित होगी। यदि भारत के अभिन्न अंग के रूप में एक शांतिपूर्ण कश्मीर को देखा जाए फिर तो यह तर्क काफी हद तक मुनासिब समझा जा सकता है। परंतु यदि आजाद कश्मीर के पैमाने पर इस तर्क को तौला जाए तो यह तर्क बिल्कुल बेमानी प्रतीत होता है। इसकी वजह यह है कि पाक अधिकृत कश्मीर जिसे पाकिस्तान अपनी भाषा में दुनिया को आजाद कश्मीर बताता है, की पर्यटन के क्षेत्र में आखिर क्या हालत है? सीमापार के उस कश्मीर में जहां आम कश्मीरी स्वयं को सुरक्षित न महसूस कर पा रहा हो तथा जिसके बारे में दुनिया यह भी जानती हो कि आतंकवादियों के कितने प्रशिक्षण केंद्र उस कश्मीर में चलाए जा रहे हैं, सशस्त्र आतंकियों के जुलूस व रैलियां जिस मुजफ्फराबाद की सड़कों पर सरेआम निकलते रहते हों उस कश्मीर में विदेशी सैलानियों के आने की बात सोचना भी महा एक मजाक़ है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मसल-ए-कश्मीर सुलगते सवालों से घिरा हुआ एक ऐसा मसअला है जिसका समाधान आजादी से भी संभव नहीं। अत: कश्मीरियों व कश्मीरियत सभी का कल्याण इसी में निहित है कि वह भारत जैसे विश्व के विशालतम लोकतंत्र का एक मस्तक रूपी स मानित क्षेत्र बना रहे। जिसपर कश्मीरियत व कश्मीरी भी गर्व कर सकें तथा भारत भी फिरदौस-ए-हिंद रूपी प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस विशाल भूभाग को अपने प्रतिष्ठित राज्‍य के रूप में स्वीकार कर गौरवान्वित महसूस कर सके।

विचारों की बंद गली में नहीं रहते मुसलमान

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर इस्लाम और मुसलमान को जानने की कोशिश करने वालों को इनके बारे में अनेक किस्म के मिथों से गुजरना पड़ेगा। मुसलमान और इस्लाम के बारे में आमतौर पर इन दिनों हम जिन बातों से दो-चार हो रहे हैं वे अमेरिका के संस्कृति उद्योग के कारखाने में तैयार की गई हैं।

अमेरिकी संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है इस्लाम का अर्थ है अलकायदा,तालिबान या ऐसा ही कोई आतंकी खूंखार संगठन। दूसरा मिथ बनाया है मुसलमान का । इसका अर्थ है बम फोड़ने वाला, अविश्वनीय, संदेहास्पद, हिंसक, हत्यारा, संवेदनहीन, पागल, देशद्रोही, हिन्दू विरोधी, ईसाई विरोधी, आधुनिकताविरोधी, पांच वक्त नमाज पढ़ने वाला आदि। तीसरा मिथ बनाया है इस्लाम में विचारों को लेकर मतभेद नहीं हैं। मुसलमान भावुक धार्मिक होते हैं। ज्ञान-विज्ञान, तर्कशास्त्र, बुद्धिवाद आदि से इस्लाम और मुसलमान को नफ़रत है। मुसलमानों के बीच में एक खास किस्म का ड्रेस कोड होता है। बढ़ी हुई दाढ़ी, लुंगी, पाजामा, कुर्ता, बुर्का आदि।

कहने का अर्थ यह है कि अमेरिकी संस्कृति उद्योग के कारखाने से निकले इन विचारों और मिथों के आधार पर मुसलमान और इस्लाम को आप सही रूप में नहीं जान सकते। इन मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान को सही रूप में जान और समझ सकते हैं। कारपोरेट मीडिया और अमेरिकी संस्कृति उद्योग द्वारा निर्मित मिथों के परे जाकर मुसलमान और इस्लाम को सहानुभूति और मित्रता के आधार पर देखने की जरूरत है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद ने विभिन्न तरकीबों के जरिए विगत 60-70 सालों में सारी दुनिया में मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ जहरीला प्रचार करने के लिए दो स्तरों पर काम किया है। पहला है प्रचार या प्रौपेगैण्डा का स्तर। दूसरा, विभिन्न देशों में मुसलमानों में ऐसे संगठनों के निर्माण में मदद की है जिनका इस्लामिक परंपराओं से कोई लेना-देना नहीं है। इस काम में अनेक इस्लामिक देशों खासकर सऊदी अरब के सामंतों के जरिए रसद सप्लाई करने का काम किया गया है,इसके अलावा अनेक संगठनों को सीधे वाशिंगटन से भी पैसा दिया जा रहा है। आज भी तालिबान और दूसरे संगठनों को सीआईए, पेंटागन आदि एजेंसियां विभिन्न कारपोरेट कंपनियों के जरिए मदद पहुँचा रही हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद और संस्कृति उद्योग की इस्लाम और मुसलमान के विकृतिकरण में भूमिका की अनदेखी करके इस्लाम पर कोई भी बात नहीं की जा सकती। अमेरिकापंथी और यहूदीवादी कलमघिस्सुओं के द्वारा निर्मित मिथों को नष्ट करके ही इस्लाम और मुसलमान के बारे में सही समझ बनायी जा सकती है। इस संबंध में इस्लामिक देशों की देशज दार्शनिक, धार्मिक परंपराओं और आचारशास्त्र का भी ख्याल रखना होगा।

संस्कृति उद्योग ने मिथ बनाया है कि इस्लाम में दार्शनिक मतभेद नहीं हैं। यह बात बुनियादी तौर पर गलत है। इस्लाम दर्शन को लेकर इस्लामिक विद्वानों में गंभीर मतभेद हैं। समस्या यह यह है कि हम इस्लाम और मुसलमान को नक्ल के आधार पर देखते हैं या अक्ल के आधार पर देखते हैं? अमेरिका के संस्कृति उद्योग ने नक्ल यानी शब्द या धर्मग्रंथ के आधार पर इस्लाम और मुसलमान को देखने पर जोर दिया है और इसके लिए उसने इस्लाम में पहले से चली आ रही नक्लपंथी परंपराओं का दुरूपयोग किया है, उन्हें विकृत बनाया है। इस्लाम में अक्ल के आधार पर यानी बुद्धि और युक्ति के आधार पर देखने वालों की लंबी परंपरा रही है। इसे सुविधा के लिए इस्लाम की भौतिकवादी परंपरा भी कह सकते हैं।

राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में कुरान के बारे में लिखा है कि ‘‘कुरान की भाषा सीधी-सादी थी। किसी बात के कहने का उसका तरीका वही था,जिसे कि हर एक बद्दू अनपढ़ समझ सकता था।इसमें शक नहीं उसमें कितनी ही जगह तुक,अनुप्रास जैसे काव्य के शब्दालंकारों का ही नहीं बल्कि उपमा आदि का भी प्रयोग हुआ है, किन्तु वे प्रयोग भी उतनी ही मात्रा में हैं, जिसे कि साधारण अरबी भाषाभाषी अनपढ़ व्यक्ति समझ सकते हैं।’’ यानी कुरान की जनप्रियता का कारण है उसका साधारणजन की भाषा में लिखा होना।

पैगम्बर साहब ने जैसा सोचा और लिखा था उसी दिशा में इस्लामिक दर्शन का विकास नहीं हुआ बल्कि इसकी धारणाओं और मान्यताओं में दुनिया के संपर्क और संचार के कारण अनेक बुनियादी बदलाव भी आए हैं। राहुलजी ने लिखा है ‘‘पैगंबर के जीते-जी कुरान और पैगंबर की बात हर एक प्रश्न के हल करने के लिए काफी थी। पैगंबर के देहान्त (622ई.) के बाद कुरान और पैगंबर का आचार (सुन्नत या सदाचार) प्रमाण माना जाने लगा। यद्यपि सभी हदीसों (पैगंबर-वाक्यों, स्मृतियो) के संग्रह करने की कोशिश शुरू हुई थी,तो भी पैगंबर की मृत्यु के बाद एक सदी बीतते-बीतते अक्ल (बुद्धि) ने दखल देना शुरू कर किया, और अक्ल (बुद्धि, युक्ति) और नक्ल (शब्द, धर्मग्रंथ) का सवाल उठने लगा। हमारे यहां के मीमांसकों की भांति इस्लामिक मीमांसकों -फिक़ावाले फ़क़ीहों- का भी इस पर जोर था कि कुरान स्वतः प्रमाण है, उसके बाद पैगंबर-वाक्य तथा सदाचार प्रमाण होते हैं।’’

फ़िक़ा के चार मशहूर आचार्य हुए हैं। इमाम अबू हनीफा,इमाम मालिक,इमाम शाफ़ई और इमाम अहमद इब्न-हंबल। हनफ़ी और शाफ़ई दोनों मतों में क़यास या दृष्टान्त के द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचने पर जोर दिया गया। इमाम अहमद इब्न हंबल ने हंबलिया सम्प्रदाय फ़िक़ा की नींव ड़ाली और कहा कि ईश्वर साकार है।

जबकि इमाम शाफ़ई (767-820ई.) ने शाफ़ई नामक फ़िक़ा सम्प्रदाय की नींव ड़ाली और सुन्नत या सदाचार पर ज्यादा जोर दिया। इसके अलावा इमाम अबू-हनीफ़ा ( 767ई.) कूफा (मेसोपोतामिया) के रहने वाले थे, इनके अनुयायियों को हनफ़ी कहा जाता है। इनका भारत में बहुत जोर है। जबकि इमाम मालिक (715-95ई.) मदीना निवासी थे। इनके अनुयायी मालिकी कहे जाते हैं। स्पेन और मराकों के मुसलमान पहले सारे मालिकी थे। इमाम मालिक ने पैगंबर-वचन(हदीस) को धर्मनिर्णय में बहुत जोर के साथ इस्तेमाल किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि विद्वानों ने हदीसों को जमा करना शुरू कर दिया, और हदीसवालों (अहले-हदीस) का एक प्रभावशाली समुदाय बन गया।

इस्लाम में मतभेदों यानी फित्नों की लंबी परंपरा है। सैंकड़ों सालों से इस्लाम में दार्शनिक वाद-विवाद चल रहा है। वे विचारों की बंद गली में नहीं रहते। वहां पर दुनिया के विचारों की रोशनी दाखिल हुई है। साथ ही इस्लाम ने दुनिया के अनेक देशों की संस्कृति और सभ्यता को प्रभावित किया है। अन्य देशों की संस्कृति और सभ्यता से काफी कुछ ग्रहण किया है।

अमेरिकी संस्कृति उद्योग का मानना है कि इस्लाम इकसार धर्म है। यह धारणा बुनियादी तौर पर गलत है। राहुलजी के अनुसार इस्लाम में दार्शनिक स्तर पर मतभेद रखने वाले चार बड़े सम्प्रदाय हैं। ये हैं, 1.हलूल – जिसकी नींव इब्न-सबा (सातवीं सदी) ने रखी थी। इब्न-सबा यहूदी धर्म त्यागकर मुसलमान बना था। वह हजरत अली (पैगंबर के दामाद) में भारी श्रद्धा रखता था। इसने हलूल (अर्थात जीव अल्लाह में समा जाता है) का सिद्धांत निकाला था। इब्न-सबा के बाद सीआ और दूसरे सम्प्रदाय पैदा हुए, यह पुराना सीआ सम्प्रदाय है, इनमें उस वक्त ज्यादातर मतभेद कुरान और पैगंबर-सन्तान के प्रति श्रद्धा और अश्रद्धा पर निर्भर थे। सीआ लोगों का कहना था कि पैगंबर के उत्तराधिकारी होने का हक उनकी पुत्री फातिमा और अली की सन्तान को है। कालान्तर में सन् 1499-1736 के बीच में ईरान में सफावी वंश के शासन के दौरान सीआ मत को राज-धर्म घोषित कर दिया गया। इन लोगों ने मोतज़ला और सूफियों से अनेक बातें ग्रहण कीं।

इस्लाम धर्म में दूसरा बड़ा नाम है अबू-यूनस् ईरानी (अजमी) का। यह पैगंबर के साथियों (सहाबा) में से था। इसने यह सिद्धांत निकाला कि जीव काम करने में स्वतंत्र है,यदि काम करने में स्वतंत्र न हो, तो उसे दण्ड नहीं मिलना चाहिए।

तीसरा नाम है जहम बिन्-सफ़वान का। उनका कहना था अल्लाह सभी गुणों या विशेषणों से रहित है।यदि उसमें गुण माने जाएंगे तो उसके साथ दूसरी वस्तुओं का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इनके विचार कुछ मामलों में शंकराचार्य से मिलते -जुलते हैं। इस्लाम में चौथा मतवाद अन्तस्तमवाद (बातिनी) ईरानियों (अजमियों) का था। इनके अनुसार कुरान में जो कुछ कहा गया है उसके दो अर्थ दो प्रकार के होते हैं- एक है बाहरी (जाहिरी) ,दूसरा है बातिनी (आन्तरिक या अन्तस्तम)। इस सिद्धान्त के अनुसार कुरान के हर वाक्य का अर्थ उसके शब्द से भिन्न किया जा सकता है, तथा इस प्रकार सारी इस्लामिक परंपरा को ही उलटा जा सकता है। इस सिद्धांत के मानने वाले जिन्दीक़ कहे जाते हैं। जिनके ही तालीमिया(शिक्षार्थी), मुलहिद्, बातिनी, इस्माइली आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं। आगाखानी मुसलमान इसी मत के अनुयायी हैं।

व्‍यंग/बेटा अकादमी के चूहे का

-पंडित सुरेश नीरव

वह आज भी दफ्तर से बिना काम किये शान से वेतन उठा रहा है। दफ्तर में वह कभी काम करता है यह कहकर मैं उसे सपरिवार अपमानित नहीं करना चाहता। बिना काम किए प्रमोशन पाने की खानदानी परंपरा को वह आज भी बरकरार रखे हुए है। पिताजी ने नसीहत देते हुए अपने कर्मठ बेटे से कहा था कि- बेटा दफ्तर में काम भूले से भी कभी मत करना। यह एक ऐसा व्यसन है जो अगर एक बार लग गया तो फिर जिंदगीभर नहीं छूटता है। इसलिए काम करने की गलती खुद तो करना ही नहीं दूसरे साथियों को भी आराम से काम मत करने देना। खुद काम न करने का सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि जब काम करोगे ही नहीं तो गलती कहां से होगी। सर्विस का ट्रेकरिकार्ड हमेशा साफ-सुथरा रहेगा। और सुनो दूसरे साथियों का काम जब फाइनल स्टेज तक पहुंच जाए तो उनकी गलतियां गोपनीयरूप से बास को बताकर उनकी छवि और मेहनत दोनों पर पानी फेरने का नियमित व्यायाम तुम जरूर करते रहना। बेटा इससे तुम्हारा विभागीय स्वास्थ्य हमेशा फिट रहेगा और दफ्तर-दफ्तर का खेल भी हिट रहेगा। तुम चूंकि कोई काम करते ही नहीं हो तो सारे साथी लामबंद होकर भी गलती से भी कभी तुम्हारी कोई गलती पकड़कर बास को बता नहीं पाएंगे।

और इधर सबकी गलती निकालते रहने के कारण बास गलती से तुम्हें ही सबसे योग्य स्टाफ मेंबर मानने लगेगा। और उसकी यही गलती तुम्हारे लिए प्रमोशन का वरदान बन जाएगी। बास चाहे कितना भी खूसट क्यों न हो उसकी खूबसूरती और अच्छे व्यवहार की बिना नागा तुम तारीफ करते रहना। वह गलती से तुम्हें अपना सबसे बफादार साथी यानी चमचा नंबर वन मानने लगेगा। और यहीं से शुरू होगा तुम्हारी कुशाग्रता का कुटिल खेल। जिसकी बदौलत तुम बास को आसानी से शक्तिमान की जगह स्पाइडरमैन बनाना शुरू कर सकते हो। कुछ दिनों में ही वह अपने ही जाल में फंसकर बाहर निकलने के लिए फड़फढ़एगा और मदद के लिए तुम्हारे आगे गिड़गिड़ाएगा। तुम उसे समझाना कि सर..काम ठीक से कराने के लिए जरूरी है कि स्टाफ पर हमेशा नकेल कसी जाती रहे। इससे आपका प्रशासनिक आतंक बना रहेगा और अनुशासन भी बना रहेगा। आप बस एक-दो लोगों को वार्निंग लेटर दे दीजिए..।

इससे मुझे क्या फायदा होगा, धूर्त पुत्र ने अपने इकलौते अनुभवी बाप से पूछा। पिताजी ने समझाया- हे आर्यपुत्र.. मेमोलेटर पाते ही स्टाफ मेंबर खड़ूस बास के विरोधी हो जाएंगे। उसके खिलाफ आंय़-बांय-सांय बकेंगे। और बस यहीं से नमक-मिर्च लगाकर स्टाफ के खिलाफ बास के कान भरने का तुम्हारा धार्मिक कृत्य शुरू हो जाएगा। तुम्हारी इस दिव्य लीला को न बास समझ पाएगा और न स्टाफ मेंबर। मगर एक बाद जरूर ध्यान में रखना कि अपने साथियों के चरित्र हनन का धारावाहिक कार्यक्रम हमेशा उनके दफ्तर से चले जाने के बाद ही किया करना। इससे एक तो पिटने-पिटाने का जोखिम नहीं रहता है दूसरे चुगली का काम भी तसल्लीबख्श होता है।

मगर बास शाम को मेरे कहने से दफ्तर में रुकेगा क्यों। बास तो अपने मातहतों को आफिस टाइम के बाद रोक सकता है मगर मैं बास को रोकूं और वो रुक जाए ऐसा कैसे हो सकता है। पिताश्री इसकी तकनीक जरा विस्तार से समझाएं। बापू बोले- बेटा..बास को अकेले में रोकने के लिए तुम्हें अपनी अंटी भी ढीली करनी पड़े तो झिझकना मत। आफिस टाइम में ही बास के कान में जाकर कहना-सर..आप आज बहुत स्मार्ट लग रहे हैं। मैं शाम को इसे सेलीब्रेट करना चाहता हूं। आप साथियों के चले जाने के बाद थोड़ा-सा रुक जाइएगा। और सुनो दफ्तरी जिंदगी में एक सूत्र हमेशा याद रखना कि बास को झूठी प्रशंसा से और दफ्तरी साथियों को बास की झूठी निंदा से ही जीता जा सकता है। यह मेरा आजमाया हुआ अचूक नुस्खा है। तुम देखना बास क्या बास का बाप भी रुकेगा। कुटिल तजुर्बों की अकड़ को आवाज में बैठाते हुए पिताश्री ने अपनी दफ्तरी जिंदगी का गुप्तज्ञान पुत्रहित में सार्वजनिक किया। एक-दो शाम चाय-समोसे का न्यूनतम निवेश करके बेटे तुम बास को मनमाफिक उच्चतम गति से खर्च कर उसकी मनचाही दुर्गति कर सकते हो। समझ गए न बेटे..एक बार जाल में फंसा तो रिटायरमेंट तक तुम्हारे फैलाए जाल के जंजाल से वह निकल नहीं पाएगा। आंख मूंदकर वह तुम्हारी हर बात मानेगा। आँखे होते हुए भी वह तुम्हारा अपना अँधा होगा। वो धृतराष्ट्र और तुम उसके दुर्योधन। वह अंधा तुम उसकी लाठी। ऐसी लाठी जो सहारा नहीं मौका मिलते ही अंधे पर वार करे। जिसकी चोट पड़े तो.. मगर दिखे नहीं। गुम चोट देनेवाली लाठी। ये गुम चोट बास को कैसे दी जाती है,मक्कारी की कोचिंग ले रहे बेटे ने खेले-खाए पिताजी से आदरपूर्वक पूछा। तब षडयंत्रशिरोमणि प्रचंड-प्रपंची पिता ने भावुक होकर बेटे को बताया कि ऐसे समय में जबकि बास के स्टाफ के सभी सदस्यों से संबंध खराब हो चुके हों तब तुम स्टाफ के सदस्यों के साथ उठना-बैठना शुरू कर देना। और अनकूल अवसर देखकर हल्के से बास की बुराई करके उनके मन की थाह लेना शुरू कर देना। ध्यान रहे बुराई का यह डोज कम पोटेंशी का ही रखना।. वरना इसके साइड इफेक्ट तुम्हारे लिए भी नुकसानदायक हो सकते हैं। स्टाफ में उठने-बैठने के तुम्हारे इस भौतिक परिवर्तन का बास पर रासायनिक प्रभाव पड़ेगा। छटपटाहट के तेजाब से बिलबिलाते हुए वह तुम्हारे इस बदलाव को भांपने की कोशिश करेगा। वह तुमसे शाम को रुकने की मनुहार करेगा। तुम्हारी मनुहार तुम्हारा बास करे, यह तुम्हारी कुटिलता की नैतिक जीत होगी। तुम कामयाब हुए। हम हो गए कामयाब.. गीत का उत्साह अंतस में भरकर शाम को चाय की चुस्कियों के बीच तुम बास पर मर्मांतक प्रहार करते हुए कहना कि –सर..गजब बो गया। सारा स्टाफ आपके खिलाफ लामबंद हो गया है। और जल्दी ही बड़े साहब से मिलकर आपके खिलाफ ज्ञापन देने का कुकृत्य करने पर आमादा है। मुझे कुछ भनक-सी लगी थी इसीलिए मैं आज इनके बीच बैठा था। मैं अगर वहां नहीं बैठता तो इस प्रोजेक्ट का कैसे पता लगता। बेहयाई में हृष्ट और निकृष्टता में पुष्ट पिता ने बेटे को समझाया कि तेरे इस संवाद को सुनने के बाद तेरा बास का मुंह ऐसा हो जाएगा जैसे कोई कंप्यूटर हैंग हो गया हो। साथियों की जड़ें कुतरने में माहिर,अफवाह फैलाऊ पुत्र के चेहरे पर कुत्सित हँसी की सात्विक आभा तैरने लगी। बेटे के खानदानी हरामीपन की छमाही परीक्षा लेते हुए पिता ने बेटे से पूछा- ऐसी नाजुक और हाहाकारी स्थिति में तू क्या करेगा,बेटे। तो पुत्र ने चहकते हुए कहा डैडी ऐसी अनुकूल स्थिति में मैं अपने बास के भेजे में झूठे आश्वासन की हवा भरते हुए उसे गुब्बारा बनाऊँगा।और कहूंगा कि सर..आप कतई चिंता मत कीजिए। सीईओ की चेली मेरी बहुत अछ्छी मित्र है। मैं उससे कहकर इन खुरापातियों का पहले ही बैंड बजवाए देता हूं। आप ऐसा करे कि फौरन से पेश्तर एक-दो आतताइयों को वार्निंग इसू कर दीजिए और उसकी एक कापी सीधे सीईओ को मेल कर दीजिए। इस लाठी चार्ज से कुछ बगावतियों की तो ऐसी कमर टूट जाएगी कि वे आपके खिलाफ दिए जानेवाले ज्ञापन पर साइन ही नहीं करेंगे। और फिर भी जो साइन कर दें उन पर आप अनुशासनात्मक कार्रवाई कर दें।

शेर चूहे के बिछाए जाल में फंस चुका है। चूहा शेर को जाल से निकलने के अब गुर सिखा रहा है। उसीने दर्द दिया अब वही दवा देगा। दवा देगा या दबा देगा ये तो वक्त बताएगा। बाप खुश है कि बेटे ने खानदान की नाक नहीं कटवाई है। उनका लाड़ला आफिस में काम नहीं करता है बल्कि आफिस का काम तमाम करता है। आखिर खानदानी चूहा जो ठहरा। जड़ें कुतरने की प्रतियोंगिता का हमेशा खिताब जीतनेवाला सर्वशक्तिमान चूहा। जाल में फंसा बास और बाहर कसमसाता स्टाफ घिनियाई आंखों से उस चूहे को देख रहा है। और चूहा पूंछ ऊंची किए सीईओ के केबिन में घुस रहा है। बड़बड़हट का कोरस दफ्तर में गूंजता है- पता नहीं किस-किस की फाइल कुतरेगा यह चूहा। तभी एक दुखी दफ्तरी आवाज आई- अरे भाई..जब असली गणेश को ही चूहे ने अंटे में ले लिया तो इन गोबर गणेश बासों की क्या औकात जो चूहे के अंटे में न आएं। पंचतंत्र की कथाओं में तो यही चूहा ऋषि को मक्खन लगाकर शेर की पोस्ट तक पहुंच गया था और फिर जब वह ऋषि पर ही झपटा तो ऋषि की समझ में आया कि एक अदना चूहा उसे ही गधा बना गया। अपने अफसरों को हर युग में चूहों ने गधा ही बनाया है। इस बार भी बना रहा है। मगर यह चूहा अफसरों को गधा बनाने के खेल में सेंचुरी जरूर बना लेगा। मुझे इसकी प्रचंड प्रतिभा की जानकारी है। आखिर अकादमी के चूहे का बेटा जो ठहरा।

व्‍यंग/गाली

-राम कृष्‍ण खुराना

मुझे कुत्ता पालने का कोई शौक नहीं था। मैं कुत्ते, बिल्ली आदि जानवर पालने को अमीरों के चोंचले मानता था। सुबह शाम लोगों को कुत्ते की जंजीर हाथ में पकड कर टहलते हुए देखता तो मैं उनको फुकरा समझा करता था जो अपनी झूठी शान दिखाने के लिए आडम्बर करते हैं। पिक्चरों में या कई बडे घरों में लोगों को कुत्ते, बिल्लियों से अपना मुंह चटवाते देखता तो बडी नफरत होती थी। आज के भाग-दौड के समय में अपना तथा अपने बच्चों का ख्याल रखना ही बहुत बडी बात थी फिर इन जानवरों को पाल कर अपनी फजीहत करवाना मुझे कतई पसन्द न था। लेकिन पुरु, मेरे चार साल के बेटे को पता नहीं कहां से धुन सवार हो गई। पता नहीं उसने टी वी में देखा या किसी दोस्त के कहने पर कुत्ता पालने की जिद करने लगा। उसे बहुत समझाया। कुत्ता पालने के दोष गिनवाये। घर गन्दा होने का वास्ता दिया। कुत्ते के बदले में कोई और अच्छी और मंहगी चीज़ लेकर देने का लालच दिया। लेकिन उसकी तो एक ही जिद थी कि कुत्ता पालेंगें। स्त्री-हठ और बाल-हठ के बारे में तो सब जानते ही हैं।

हमने उसका नाम जिमी रखा था। वो सिर्फ सात दिन का था जब मैं उसे घर लेकर आया था। सफेद रंग का जिमी बहुत ही प्यारा बच्चा था। उसके शरीर पर छोटे-छोटे बाल रेशम की तरह मुलायम थे। छोटे-छोटे पैरों से सारे घर में चहल कदमी करता हुआ बहुत ही प्यारा लगता था मुझे भी वो अच्छा लगने लगा था। मेरी पत्नी उसका बहुत ख्याल रखती थी। हम सब उसको बहुत प्यार करते थे। पुरु तो इसके बिना एक मिनट भी नहीं रहता था। हर समय गोद में लेकर घूमता रहता। पुरु और जिमी, जिमी और पुरु दोनो जैसे एक ही बन गए थे। एक दूसरे के दोस्त। एक दूसरे के दुख-सुख में साथ देने वाले। एक दूसरे की जान।

जिमी अब बडा हो गया था। अवांछनीय को देख कर भौंकने लग गया था। उसके होते हमें घर की ज्यादा चिंता नहीं रहती थी। पूरी देखभाल करता। पूरी रखवाली करता। बहुत समझदार। पोटी की तो बात दूर उसने कभी बिस्तर पर सू-सू भी नहीं किया था। पत्नी भी उसकी साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखती थी। रोज़ उसे नहलाना, शरीर पर चिपटे कीडों को चिमटी से निकालना आदि हर प्रकार से उसका ख्याल रखती थी।

पुरु का तो वो एक तरह से चेला ही था। दोनों एक दूसरे से ऐसे प्यार करते थे जैसे सगे भाई जो चीज़ पुरु खाता वो जिमी के लिए भी आती। साथ खेलते। एक दूसरे को पकडते। एक दूसरे के उपर चढ जाते। एक दूसरे के आगे-पीछे भागते। खूब मस्ती करते। एक बार मोहल्ले के दो लडकों से पुरु की लडाई हो गई। बस फिर क्या था। जिमी ने पहले तो भौंक कर उन्हे डराने की कोशिश की जब वे नहीं माने तो दौड कर एक की टांग पकड ली। खींचा-तानी में उसकी पेंट फट गई। दोनों दुम दबा कर भाग गए। और जब जिमी बीमार हुआ था तो पुरु ने खाना-पीना तक छोड दिया था। स्कूल से आने के पश्चात स्वयं डाक्टर के पास लेकर जाता। जब तक वो भला-चंगा नहीं हो गया पुरु को चैन नहीं आया।

जिमी अब चार साल का हो गया था और पुरु आठ का। दोनो एक दूसरे को भाई की तरह ही प्यार करते थे। जिमी का व्यवहार एक छोटे भाई की तरह ही झलकता था। दिन में एक आध-घंटा वो पुरु के साथ अवश्य खेलता। खेल-खेल में पुरु कई बार जिमी को जोर से मार देता। कई बार उसे उठा कर नीचे पटक देता। कई बार उसके बाल नोंच देता। पर जिमी कांउ-कांउ करता रहता और मज़े ले ले कर पुरु के साथ खेलता रहता। कभी उसने पुरु को कोई नुकसान पहुंचाने की कोशिश भी नहीं की। दोनो इसी प्रकार से खेलते रहते। यह बचपन की परम्परा आज भी बदस्तूर जारी थी। जिमी ने कई काम सीख लिए थे। गेट से अखबार उठा लाता था। यदि पुरु बाज़ार से कोई सामान लेता तो लिफाफा जिमी को थमा देता। जिमी लिफाफे के हैंडल को अपने मुंह में दबाए घर ले आता। घर का कोई भी सदस्य बाहर से आता तो वो अभी दूर ही होता था कि जिमी को अपनी सूंघने के शक्ति से पता चल जाता और वो गेट से लेकर कमरे तक उतावलेपन से चहल कदमी करने लग जाता।

परंतु आज जो हुआ वो अप्रत्याशित था। मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था। कोई भी इसे मानने के लिए तैयार नहीं था।

आज जिमी ने पुरु को काट लिया था।

जिमी ने…… पुरु…… को… काट लिया ??? यह अनहोनी कैसे हो गई। ऐसा नहीं हो सकता। सभी जिमी की इस हरकत से हैरान थे। मुझे गुस्सा आ गया।

मैंने जिमी को अपने पास बुलाया। उसके अगले दोनों पंजो को अपने हाथ में पकड कर उसका मुंह अपने सामने लाकर उससे पूछा – “जिमी, तुमने पुरु को क्यों काटा ?”

जिमी ने एक बार मेरी ओर देखा फिर नज़रें झुका लीं।

मैंने फिर उसके पंजो को झकझोर कर उसकी आंखों में झांक कर उससे वही प्रश्न किया।

इस बार भी जिमी ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया।

मुझे क्रोध आ गया। मैंने गुस्से से उसको डांटते हुए उससे फिर पूछा तो उसने सिर झुका लिया और धीरे से बोला – “पुरु भईया ने मुझे बहुत गन्दी गाली दी थी। मुझे गुस्सा आ गया और मैंने भईया को काट लिया।”

“गाली दी थी ?” मैंने फिर गुस्से से पूछा – “तुम तो पुरु को इतना प्यार करते हो और वो भी तुम्हारा कितना ख्याल रखता है। फिर क्यों काटा ? क्या कहा था पुरु ने ?” ”हां मैं भईया से बहुत प्यार करता हूं। उनके लिए जान भी दे सकता हूं। वो मुझे मार लेते, मुझे कोई दूसरी गाली दे देते, मां की गाली दे देते, बहन की गाली दे देते। पर उन्होंने तो मुझे बहुत ही गन्दी गाली दी थी। मुझे गुस्सा आ गया और गुस्से में मैंने भईया को काट लिया। ” जिमी कहता जा रहा था।

“मैं जब भईया के साथ खेल रहा था तो पुरु भईया ने मुझे बहुत गन्दी गाली दी थी।” जिमी किसी मुजरिम की तरह सिर झुकाए ही बोला – “उस गाली को मैं बर्दास्त नहीं कर पाया और गुस्से में मैंने भईया को काट लिया।”

”क्या गाली दी थी पुरु ने तुम्हें जो तुमने उसे काट लिया ?” मैंने आंखे तरेर कर पूछा।

”पुरु भाईया ने मुझे कलमाडी कहा था।”

जिमी का उत्तर सुन कर मैं निरुत्तर हो गया।

बंटा हुआ भारतीय समाज

-शिशिर चन्‍द्र

आज भारतीय समाज कई भागों में विभाजित हो गया है. 1947 में जो विभाजन देश ने देखा, वो अब काफी पीछे छूट गया है. ऐसा लगता था कि देश विभाजन के बाद समग्रता को प्राप्त करेगा; लेकिन यह दिवा स्वप्न ही साबित हुआ. आज विभाजन की लकीरें और गहरी हो गयी हैं. सिर्फ एक देश की भौतिक रूप से एकता ही उस देश की अक्षुण्‍णता के लिए काफी नहीं होती और न ही एक देश परिभाषा में खरे उतरती है. आज भारत देश पहचान के गहरे संकट संकट गुजर रही है.यदि ये इसी कदर चलती रही भारत देश की अविच्छिन्नता निर्बाध नहीं रह पायेगी.

देश की सामने बाह्य और आतंरिक दोनों प्रकार की चुनौतियाँ हैं. लेकिन इन स्पष्ट शत्रुओं के अतिरिक्त कुछ अदृश्य या गंभीरता से नहीं लिए गए शत्रु कारण हैं जो देश की अस्मिता के लिए भविष्य में चुनौती कड़ी कर सकते हैं. किसी भी देश का निर्माण वहां की जनता, उनके संस्कार, भाषा, भूभाग, इतिहास, संसाधन और अन्य हजारों कारणों से होता है, जब देश की जनसँख्या का बड़ा भाग इन कारणों से गौरवान्वित होता है तो देश दीर्घायु समझी जाती है. लेकिन एक एक करके इन प्रतीकों को भारतवर्ष में जानबूझकर क्षति पहुँचाया गया है.

आरक्षण के विष के द्वारा भारतीय जनता को आमने सामने भिड़ा दिया गया है, जिससे राष्ट्र निर्माण की गति को कुंद किया जा सके. इसका असल उद्देश्य वोटबैंक बनाना है जिससे अयोग्य नेताओं को चुनाव जीतने में आसानी रहे. मुझे कोई कारण नहीं लगता कि सवर्ण नेता अजा/जजा के हितों कि निस्वार्थ भाव से चिंता करते. इसका एक और उद्देश्य राष्ट्रवाद के उत्थान को रोकना, जिससे समाज का एक हिस्सा राष्ट्रवादियों को हमेशा शक की निगाह से देखे. क्या कोई इंकार कर सकता है कि भारतीय समाज इसकी वजह से दो हिस्सों में बँट चुका है?

हिन्दुओं को प्रताड़ित करना. 3 लाख कश्मीरी पंडितों को आज देश में ही शरणार्थी के रूप में रहना पड़ रहा है. क्या हिन्दुओं के मन में इस देश के लिए क्षोभ नहीं है? क्या हिन्दू, गैर हिन्दू को शक कि निगाह से नहीं देखेगा? यदि हिन्दू बहुल बस्तियों से मुसलामानों को खदेड़ने की नहीं सोच सकता?

भ्रष्टाचार आज नासूर बन चुका है. शायद ही कोई नेता और नौकरशाह आज ईमानदार दिखाई देता है. क्या इससे देश को अच्छे नागरिक मिल सकेंगे? क्या व्यवस्था के लिए आक्रोश राष्ट्रविरोध का रूप नहीं ले लेगा?

हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी को बढ़त से हिंदी भाषी दोयम दर्जे का नागरिक समझे जा रहे हैं? क्या विदेशी भाषा से राष्ट्र का निर्माण हो सकता है?

विभिन्न जातियों में बँटा हिन्दू धर्म क्या एकता का सन्देश दे पायेगा? क्या अलग अलग जातियों के लोग आपस में विवाह करेंगे? यदि नहीं तो एक राष्ट्र के लिए अच्छे लक्षण नहीं हैं.

अल्पसंख्यकों को विशेष सहूलियत और हिन्दुओं को अपमान क्या देश को तोड़ने वाला नहीं है? हज के लिए अनुदान, शैक्षणिक संस्थाएं चलने की सुविधा सिर्फ अल्पसंख्यकों को. बहुसंख्यकों को ठेंगा.

धर्मान्तरण पर सरकारों की चुप्पी क्या हिन्दुओं को देश के खिलाफ नहीं बना देगा. देश की सारी नीतियां पूंजीपतियों या वोटबैंक को ध्यान में रख कर बनाना क्या देश के लोगों को ही आमने सामने नहीं करेगा?

कानून और पुलिस का अपराधियों की रखैल होना क्या राष्ट्र पर गर्व करने लायक छोड़ता है.

भोपाल जैसे कांड में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्या नयायाधीश का बिक जाना क्या संकेत करता है.

नोट से जनमत तैयार करना और चुने हुए प्रतिनिधियों को नोट से खरीद लेना लोकतंत्र से जनता का विशवास ख़त्म नहीं कर देगा?

मुस्लिम आतंकवादियों का तुष्टिकरण और हिन्दुओं को आतंकवादी ठहराना देश के साथ गद्दारी नहीं है?

प्रतिभा के बजाये चाटुकारिता को मुख्य अस्त्र बनाना क्या राष्‍ट्र को कमजोर नहीं बनाएगा? भारत का राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, स्पीकर(लोकसभा), प्रधानमंत्री आदि के पद चाटुकारिता के आधार पर दिए गए. जो इन पदों की गरिमा के विरुद्ध है.

राष्ट्रवादी सरकारों और उनकी मशीनरी को परेशान करना और अपने खुद के और अपने सहयोगियों के पापों से आँख मूंद लेना कहाँ का न्याय है और क्या सन्देश जाता है.

रंगभेद भारत में विभाजन का बड़ा कारण रहा है. क्या इस बारे में देश के विद्वान् दावा कर सकते हैं कि वो रंगभेदी नहीं है

एक भगवा लेख

-राजीव दुबे

हाल ही में देश के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा देश के शीर्ष पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक में ‘भगवा आतंक – saffron terror‘ जैसे शब्दों का प्रयोग काफी विवाद एवं निंदा का विषय रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में कई और वक्तव्य एवं घटनाएँ भी घटी हैं। इस संदर्भ में कुछ विषयों पर विचार नए आयाम खोल सकता है।

निश्चय ही इस शब्द-युग्म का प्रयोग आतंकवादियों के रंग से संबद्ध तो नहीं ही था, यह तो उससे कहीं ज्यादा सोची समझी विचारधारागत बात थी। गृह मंत्री आतंकवादियों के किसी कूट संकेतात्मक षड्यंत्र की भी बात नहीं कर रहे थे। वह तो किसी एक ऐसी धारणा की ओर इशारा कर रहे थे जो कि उनके एवं उनकी विचारधारा से सहमत लोगों के आपसी संवाद का एक हिस्सा थी। यह लोग आपस में मिल बैठकर इस धारणा के आधार पर देश में कानून एवं व्यवस्था का एक नया खाका तैयार कर रहे थे। इस खाके के कुछ उदाहरण सामने भी आने लगे हैं !

गृहमंत्री के उस वक्तव्य के बाद वैचरिक विमर्श की स्थिति कुछ ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चलती दिख रही है।

देश का गृहमंत्री – वह भी भारत का – काफी शक्तिसंपन्न व्यक्ति होता है। फिर उस मंत्रणा कक्ष में बैठे पुलिस अधिकारी भी सत्ता की असीम शक्तियों से सुसज्जित होते हैं। देशवासी उनके सामने विनम्रता से अपने को नाचीज कह सकते हैं ! बस !

ऐसा हो सकता है कि अब बढ़ते हुये ‘रंग पर आधारित’ शंका-पूर्ण परिवेश में कई लोग यात्रा के समय अपना सामान सावधानी पूर्वक चुनेंगे। उनके सूटकेस और ब्रीफकेस कहीं सुरक्षा बलों द्वारा तलाशे गए और कहीं उनमें एक भगवा कपड़ों की जोड़ी निकल आई तो अपने कर्तव्य पालन पर उतारू पुलिस अधिकारी ऐसी भगवा कपड़ों की जोड़ी को गृह मंत्री के दिशानिर्देशों के आधार पर न जाने क्या-क्या समझ बैठे !

और तो और, यदि कोई धार्मिक पुस्तक बैग में मिल गई तो? बहुसंख्यक समाज की अधिकतर पुस्तकों पर एक भगवा रंग के कपड़े की जिल्द होती है। ऐसी विचित्र परिस्थिति में सर्वाधिकार सम्पन्न पुलिस अधिकारी क्या कर सकता है इस विषय में विचार मात्र ही कई लोगों को अपनी यात्रा रद्द करने के लिए मजबूर कर देगा …!

एक और समस्या है … धार्मिक उपदेशों से संबद्ध। बहुसंख्यक समाज के अधिकतर संत लोग प्रवचन देने भगवा कपड़ों में आते हैं। क्या जनसाधारण को अब धार्मिक उपदेश सुनने जाना चाहिए या फिर कि इंतजार करना चाहिए कि संत लोग एक नए रंग के कपड़ों को पहनें और तभी लोग उपदेश सुनने जाएँ। ऐसा भी हो सकता है कि कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारीगण गृहमंत्री पी चिदम्बरम के ‘भगवा आतंकवाद’ से संबद्ध वक्तव्य के बाद हर भगवा वस्त्र धारी साधु – संत की जाँच पड़ताल शुरू कर दें और जो भी लोग इन संतों की धार्मिक सभाओं में जाते हों उन्हें भी पुलिस स्टेशन बुलाया जाए और उनसे विस्तृत पूछ-ताछ की जाये। उन्हें घंटों पुलिस स्टेशन में बैठना पड़े और हो सकता है हर हफ्ते पुलिस स्टेशन में अपनी गतिविधियों का ब्योरा देने जाना पड़े।

यह भगवा रंग कहाँ कहाँ उपयोग में आता है? केसरिया के नाम से यह हमारे राष्ट्रध्वज में भी है। अब क्या करें? हमें अपने राष्ट्र ध्वज से अतुलनीय प्रेम है और हमारा स्वभिमान हमारे राष्ट्रध्वज से जुड़ा है।

होली के त्योहार पर क्या होगा? मन लो किसी ने एक बाल्टी भर भगवा रंग लिया और किसी पर डाल दिया और लगा गुन गुनाने मौज भरे गीत कि तभी एक कर्तव्यपरायण पुलिस अधिकारी उधर आ पहुँचा … ऐसे रंग रँगीले त्योहार के समय भी लोगों को अब सतर्क रहना होगा… !

और तो और – जितना सोंचें समस्या उतनी ही बढ़ती जा रही है। हमारे नन्हें मुन्नों की चित्रा कला की कक्षा में अगर भगवा रंग को पसंद करने वाला अध्यापक आ गया तो …अब हमें अपने बच्चों की चित्रकला के विषय में भी सतर्क रहना होगा, कहीं वहाँ भी यह भगवा समस्या उत्पन्न हो गई…? लेकिन बच्चों को तो पुलिस स्टेशन नहीं जाना पड़ेगा शायद। उनके लिए तो सुधार गृह हैं। लेकिन क्या पता बच्चों के अपराध के लिए उत्साही पुलिस अधिकारी माता पिता को दोषी मानने लगे, तब क्या होगा?

गृह मंत्री महोदय, यह तो एक बड़ी भारी समस्या बनती दिख रही है ! आपने तो बड़ी सारगर्भित बात कह दी। क्या आपने इस विषय पर अपनी काँग्रेस पार्टी में माननीय देवियों एवं सज्जनों से चर्चा की है? सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी के इस विषय पर क्या विचार हैं? वैसे हम साधारण भगवा-सम्बद्ध लोगों की इतनी पहुँच कहाँ कि हमें इतने महत्वपूर्ण लोगों के विचार पता चलें ! क्या पता आपने जो कहा वह एक नई उभरती हुई विचारधारा हो आपकी पार्टी में। पता नहीं क्या बात चल रही है वहाँ पर!

यदि गृह मंत्री के वक्तव्य के अनुसार इस देश में कानून एवं व्यवस्था का क्रियान्वयन होने लगा तो देश में बहसंख्यक समाज के लिए यह बात एक नई परिवर्तनकारी क्रांति की तरह होगी। लेकिन क्या हमारे पास कुछ ‘चुनाव’ करने जैसी बात बची है? क्या हम आपके सामने एक तुच्छ जीव मात्र हैं? क्या हम कुछ नहीं कर सकते सिवाय घुटने टेकने के? जब आप बोलें तो क्या हमें डर कर कहीं छुप जाना चाहिए? क्या आपके कहने मात्र से हमें अपनी संस्कृति एवं विचारधारा बदल देनी चाहिए? लेकिन आपके दल की सरकार बने इसका चुनाव तो हमारा भी था … हम शायद इतने शक्तिहीन नहीं हैं … क्या लगता है?

हम अपने देश के प्रति समर्पित हैं, और, आपकी नजरों में आपके सारगर्भित वक्तव्यों के कारण उभरी हमारी संदिग्ध भगवा-पृष्ठभूमि के बाद भी हम लगे रहेंगे – हमें इस भगवा रंग से असीम प्रेम है और यह प्रेम हमें इस देश पर जीने मरने के लिए जन्म-जन्मांतर तक प्रेरित करता है !

शायद यह बात दोहराने योग्य है … आपके दल की सरकार बने इसका चुनाव हमारा भी था … हम इतने शक्तिहीन नहीं हैं !

कमल ताल पर थिरकती हृदय प्रदेश की भाजपा

-लिमटी खरे

मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के शासन के सात साल पूरे होने को आ रहे हैं। इन सात सालों में 2010 में सत्ता और संगठन में तालमेल की कमी जबर्दस्त परिलक्षित हो रही है। मामला चाहे निगम मण्डलों में लाल बत्ती बांटने का हो अथवा केंद्र में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के मंत्रियों के साथ जुगलबंदी का, हर मामले में सत्ता और संगठन का रूख अलग अलग ही साफ तौर पर दिखाई देता है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और लोक कर्म मंत्री नागेंद्र सिंह भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तारीफों में न केवल कशीदे गढ़ते हैं, वरन् मंत्री मुख्यमंत्री की छवि निर्माण का काम संभालने वाला जनसंपर्क महकमा भी कमल नाथ एवं अन्य मंत्रियों के साथ ‘‘सोजन्य भेंट‘‘ की अनेकानेक तस्वीरें बारंबार भेजता है, जिसमें उभय पक्ष मुस्कुराते हुए एक दूसरे का अभिवादन करते दिखते हैं। कभी मध्य प्रदेश भाजपा द्वारा राष्ट्रीय राजमार्गों की दुर्दशा के लिए कमल नाथ को घेरने का कार्यक्रम बनाकर उसे अमली जामा नहीं पहनाया जाता है, तो अब एक बार फिर एमपी के निजाम शिवराज सिंह चौहान अपने मंत्रीमण्डल सहयोगियों के साथ वजीरे आजम डॉ. मनमोहन सिंह से मिलकर भूतल परिवहन मंत्रालय के द्वारा किए जाने वाले पक्षपात की शिकायत करने का तान छेड़ रही है। आशंका व्यक्त की जा रही है कि कहीं मध्य प्रदेश भाजपा के कमल नाथ घेरो अभियान की तरह इस बार भी यह कार्यक्रम टांय टांय फिस्स न हो जाए, होता भी है तो हो इससे जनसेवकों को क्या लेना देना, अंत्तोगत्वा पिसना तो निरीह जनता जनार्दन को ही है। मजे की बात तो यह है कि इस मर्तबा शिवराज मंत्रीमण्डल सिर्फ और सिर्फ नर्मदापुरम के दो राष्ट्रीय राजमार्ग की दुर्दशा के लिए पीएम से मिलने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश में जिस जिस जिले से होकर नेशनल हाईवे गुजरता है, उन जिलों में शिवराज सरकार की केबनेट की बैठक रख दी जाए तो कम से कम इन जिलों की किस्मत चमकने के मार्ग ही प्रशस्त होने की उम्मीद जग जाएगी।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मण्डली ने नर्मदापुरम को जोड़ने वाले दो राष्ट्रीय राजमार्गों की बदहाली पर अफसोस जाहिर किया जाना आश्चर्यजनक माना जा रहा है। देखा जाए तो शिवराज मंत्रीमण्डल में समूचे सूबे के हर क्षेत्र को प्रतिनिधित्व दिया गया है, इन क्षेत्रों में से अनेक विधायक एसे भी हैं, जिनके विधानसभा क्षेत्र से नेशनल हाईवे होकर गुजर रहा है। इसके अलावा जब भी मुख्यमंत्री या मंत्री सड़क मार्ग से विचरण करते हैं, तब वे सड़कों की बदहाली से दो चार हुए बिना नहीं रहते हैं। बावजूद इसके मंत्रियों ने अपने अपने क्षेत्र या अन्य नेशनल हाईवे की दुर्दशा पर मौन ही साध रखा है।

संसदीय कार्य और विधि विधाई मंत्री एवं शिवराज सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्रा ने भोपाल में मीडिया से रूबरू होते हुए कहा कि 15 नवंबर के पहले मंत्रीमण्डल के सदस्य शिवराज सिंह की अगुआई में प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह से भेंट कर मध्य प्रदेश के नेशनल हाईवे की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा उनके समक्ष रखेंगे। राष्ट्रीय राजमार्ग का संधारण एवं निर्माण केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय की महती जवाबदारी है, जाहिर है यह मामला भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के खिलाफ ही जाएगा।

इसके पहले सितम्बर माह में मध्य प्रदेश भाजपा का कहना है कि वह 5 से 7 अक्टूबर तक नेशनल हाईवे पर पड़ने वाले कस्बों और ग्रामों में हस्ताक्षर अभियान चलाएगी फिर 22 से 24 अक्टूबर तक इन्ही ग्रामों में मानव श्रंखला बनाई जाने के उपरांत 10 नवंबर को भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपेंगे। भाजपा के इस निर्णय से कमल नाथ और भाजपा के बीच नूरा कुश्ती और तेज हो गई थी। अब जबकि पांच से सात अक्टूबर और 22 से 24 अक्टूबर की तिथि भी निकल चुकी है, तब भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस तेज हो गई है कि आखिर वे कौन से हिडन रीजन और वेस्टेज इंटरेस्ट (छिपे हुए कारण, और निहित स्वार्थ) हैं जिनके चलते भाजपा जनता से सीधे जुड़े मुद्दे पर भी कमल नाथ को घेरने में अपने आप को असफल ही पा रही है।

जब मध्य प्रदेश में सत्ताधारी और केंद्र में विपक्ष में बैठी भाजपा का आलम यह है तो गरीब गुरबों की कौन कहे, वह भी तब जबकि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की आसनी पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा सालों साल सींची गई मध्य प्रदेश की विदिशा संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीती सुषमा स्वराज विराजमान हों, तब भी मध्य प्रदेश की सड़कें इस तरह से बदहाल हो रही हो, केंद्र के मंत्री मध्य प्रदेश के साथ अन्याय कर रहे हों, इस अन्याय के बाद भी पता नहीं किस बात से उपकृत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और सूबे के लोक निर्माण मंत्री दोनों ही केंद्र सरकार को कोसकर भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तारीफों में तराना गा रहे हों, साथ ही साथ भाजपा द्वारा कमल नाथ के द्वारा प्रदेश के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने के आरोप में सड़कों पर उतरने की बात की जाए तो यह तथ्य निश्चित तौर पर शोध का ही विषय माना जाएगा।

दरअसल सड़कों या आवागमन के साधनों का राज्य, जिला, विकासखण्ड, कस्बों के विकास में महत्वपूर्ण रोल रहता है। राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण दो सूबों को आपस में जोड़ने की गरज से किया गया था। जब भी कोई व्यक्ति एक सूबे से दूसरे सूबे में उद्योग धंधे के लिए जाता है तो सबसे पहले वह आवागमन के साधनों पर नजरें इनायत करता है। पूर्व में राजा दिग्विजय सिंह के शासनकाल मंे पर्यटकों को मध्य प्रदेश लाने वाली संस्थाओं ने यहां की बदहाल सड़कों को देखकर हाथ खड़े कर दिए थे। राजा दिग्विजय सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल के अंतिम सालों में पांच सौ करोड़ के बांड सड़कों के लिए जारी किए थे, जिन्हें भुनाया था शिवराज सरकार ने।

बहरहाल, इसके पहले मध्य प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री ने दिल्ली में एक समारोह में केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तबियत से तारीफ की और यहां तक कहा कि मध्य प्रदेश को सिर्फ और सिर्फ सड़कों के मामले में केंद्र से पर्याप्त सहयोग और समर्थन मिल रहा है। मध्य प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री के कथन के बाद मध्य प्रदेश की ओर से दिल्ली में बैठे जनसंपर्क महकमे के अधिकारियों ने भी एमपी के चीफ मिनिस्टर शिवराज सिंह और केंद्रीय राजमार्ग मंत्री कमल नाथ के बीच मुस्कुराकर बातचीत करने वाले छाया चित्र और खबरें जारी कर दीं। मजे की बात तो यह है कि बारंबार शिवराज सिंह चौहान ने भी कमल नाथ को एक उदार मंत्री होने का प्रमाण पत्र जारी किया है।

बुरदलोई मार्ग स्थित मध्य प्रदेश भवन में पत्रकारों से रूबरू मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब केंद्र पर भेदभाव का आरोप मढ़ा तब पत्रकारों से शिवराज से पूछा था कि उनके लोक निर्माण विभाग के मंत्री तो कमल नाथ के पक्ष में कोरस गा रहे हैं, तब चिढकर शिवराज ने कहा था कि लोक निर्माण मंत्री क्या वे (शिवराज सिंह चौहान) भी कमल नाथ से मिलते हैं और कमल नाथ मध्य प्रदेश की मदद कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके लोक निर्माण मंत्री द्वारा कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में कांग्रेस के कोटे के मंत्री कमल नाथ द्वारा उदार भाव से अपने प्रदेश की भाजपा सरकार को मुक्त हस्त से मदद करने की बात जब फिजा में तैरी तो कमल नाथ की छवि दलगत राजनीति से उपर उठकर मदद करने वाले राजनेता की बन गई।

दिल्ली में हुई इसी पत्रकार वार्ता में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दंभ भरकर कहा था कि केंद्र सरकार सिवनी जिले के साथ भेदभाव कर रही है। सिवनी जिले से होकर गुजरने वाला उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारे का काम भी केंद्र सरकार की गलत नीतियों के कारण ही रूका हुआ है। बाद में जब उनकी जानकारी में यह लाया गया कि काम 18 दिसंबर 2008 को तत्कालीन जिला कलेक्टर पिरकीपण्डला नरहरि के एक आदेश के तहत रोका गया है, न कि केंद्र सरकार की नीतियों के कारण। तब शिवराज सिंह चौहान ने एसे किसी आदेश के बारे में अनिभिज्ञता ही प्रकट की थी।

बहरहाल कल तक केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तारीफों में कशीदे गढ़ने वाले मध्य प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री नागेंद्र सिंह को अब अचानक (संगठन के कड़े रूख के उपरांत) दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब उन्हें भान हुआ है कि सबसे बड़े ‘‘सियासी जादूगर‘‘ कमल नाथ ने उन्हें अब तक जो सपने दिखाए थे, वे महज छलावा ही थे। सियासत के अखाड़े के स्वयंभू अपराजित अजेय (1997 में उपचुनाव में सुंदर लाल पटवा के हाथों जबर्दस्त पटकनी खाने को छोड़कर) योद्धा कमल नाथ ने एक ही धोबी पाट में प्रदेश की भाजपा सरकार के मंत्रियों को धूल चटवा दी है। अपने पत्र में नागेंद्र सिंह लिखते हैं कि प्रदेश से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गो का रखरखाव पूरी तरह एनएचएआई के हवाले कर दिया जाए या फिर इसके संधारण का काम पूरी तरह से मध्य प्रदेश सरकार को सौंप दिया जाए।

वैसे नागेंद्र सिंह की पीड़ा जायज है। कमल नाथ को लिखे पत्र में उन्होंने कहा है कि केंद्र सरकार द्वारा न तो मई 2010 में केंद्र को भेजे गए राष्ट्रीय राजमार्गों के प्रस्तावों को मंजूरी दी जा रही है, और न ही केंद्र द्वारा खुद ही उसका संधारण किया जा रहा है, नतीजतन ये राजमार्ग बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। नागेन्‍द्र सिंह को चाहिए कि वे इस बात को भी जनता के सामने लाएं कि उन्होंने लोक कर्म मंत्री रहते हुए मध्य प्रदेश की किन किन सड़कों को राष्ट्रीय राजमार्ग में तब्दील करने के प्रस्ताव कंेद्र को भेजे थे।

सियासी गलियारों में इस बात को लेकर भी तरह तरह की चर्चाएं हैं कि क्या कारण था कि बहुत ही कम यातायात दबाव वाले एवं कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र जिला छिंदवाड़ा से गुजरने वाले नरसिंहपुर, हर्रई, सिंगोड़ी, छिंदवाड़ा, उमरानाला, सौंसर, सावनेर, नागपुर मार्ग को राष्ट्रीय राजमार्ग में तब्दील करने का प्रस्ताव उनके द्वारा केंद्र सरकार को भेजा गया था? जिस प्रस्ताव पर योजना आयोग ने कम यातायात दबाव के चलते अपना अडंगा लगा दिया है। सियासी जादूगर कमल नाथ ने एक एसा तीर चलाया था, जिसमें भाजपा के कुशाग्र बुद्धि के धनी समझे जाने वाले जनसेवक उलझकर रह गए हैं। राज्य की अनेक सड़कों को राष्ट्रीय राजमाग में तब्दील कराने का प्रस्ताव भेजकर प्रदेश सरकार ने इन सड़कों का संधारण बंद कर दिया था।

राज्य सरकार को लगने लगा था कि ये सड़कें जल्द ही राष्ट्रीय राजमार्ग में तब्दील हो जाएंगी और फिर इनके रखरखाव या निर्माण का सरदर्द केंद्र के भरोसे ही होगा, जिससे इसमें व्यय होने वाले धन से राज्य सरकार पूरी तरह मुक्त होगी। वस्तुतः ऐसा हुआ नहीं, ये सड़कें राष्ट्रीय राजमार्ग में तब्दील नहीं हुई और आज भी ये प्रदेश सरकार की संपत्ति ही हैं। इतना ही नहीं दीगर राष्ट्रीय राजमार्गों का संधारण भी केंद्र द्वारा नही किए जाने से, संधारण के अभाव में इन सड़कों के धुर्रे पूरी तरह से उड़ चुके हैं। आम जनता को इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि ये सड़कें किसके स्वामित्व में हैं, वह तो राज्य से गुजरने वाली हर सड़क की दुर्दशा के लिए राज्य सरकार को ही पूरी तरह दोषी मानती है, भले ही केंद्र सरकार द्वारा इसका पैसा नहीं दिया जा रहा हो।

सड़कों बदहाली पर जनता के गुस्से को देखकर भाजपा की शिवराज सिंह के नेतृत्व वाली सरकार बुरी तरह खौफजदा साफ दिखाई दे रही है। यही कारण है कि केंद्र सरकार को घेरने के लिए वह अब राष्ट्रीय राजमार्गों पर जगह जगह नोटिस बोर्ड लगाने का मन बना रही है, जिसमें इस बात का उल्लेख होगा कि इन सड़कों की बदहाली के लिए राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार कतई जवाबदार नही है। सूबे की सरकार मान रही होगी कि एसा करके कम से कम इन मार्गों पर चलने वालों को सच्चाई से रूबरू तो करवा ही दिया जाएगा।

जनता को इस बात से कतई लेना देना नहीं है कि सड़कें किसकी संपत्ति हैं, या इसके रख रखाव का जिम्मा किसका है। राज्य सरकार अगर बोर्ड लगा रही है तो फिर राज्य सरकार को उस नोटिस बोर्ड पर इस बात का उल्लेख भी करना चाहिए कि इसका संधारण करने वाला लोक कर्म विभाग का राष्ट्रीय राजमार्ग महकमा मूलतः किस राज्य की सेवा का अंग है। वस्तुतः इसके मातहत मध्य प्रदेश सरकार के कर्मचारी ही होते हैं। कर्मचारी मध्य प्रदेश के जिम्मेदारी केंद्र सरकार की अगर दोनों ही जगह एक दल की सरकार है, तब तो सामंजस्य बना रह सकता है, किन्तु अगर सरकारें अलग अलग दलों की हैं तो फिर सामंजस्य का अभाव निश्चित तौर पर परिलक्षित ही होगा।

सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि दीनदयाल उपाध्याय के बताए सिद्धांत पर चलने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपने ही आदर्श पुरूष और मौखटे की अघोषित संज्ञा पाने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की केंद्र सरकार की महात्वाकांक्षी योजना स्वर्णिम चतुर्भुज और उसके अंग उत्तर दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम गलियारे में फच्चर फंसाने वाली कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ जनता को दिखाने के लिए तो तलवारें पजा ली जातीं है, पर जब रण में उतरने की बारी आती है तो तलवारें रेत में गड़ाकर शतुर्मुग के मानिंद अपना सर जमीन में गड़ा दिया जाता है।

पूर्व में भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई द्वारा केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा मध्य प्रदेश के साथ किए जाने वाले अन्याय का तराना बजाया था। इसके पहले भाजपा सरकार के ही मंत्री केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ का चालीसा गान कर रहे थे। मध्य प्रदेश से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर हस्ताक्षर अभियान, मानव शृंखला और 10 नवंबर को प्रदेश भाजपाध्यक्ष प्रभात झा के नेतृत्व में प्रधानमंत्री से मिलने का कार्यक्रम निर्धारित किया था, जो बाद में ‘अपरिहार्य‘ कारणों से परवान नहीं चढ़ सका।

अब शिवराज सरकार ने कमल नाथ के खिलाफ प्रत्यंचा चढ़ाई है, तरकश से तीर निकालने का स्वांग रचा है। जनता सब कुछ देख सुन रही है, समझ भी रही है। शिवराज सरकार के मंत्री तो आलीशान सरकारी वाहनों में सफर करते हैं। रही बात जनसेवकों की तो उनके लिए भी कथित तौर पर ‘‘उद्योगपति, करोबारी मित्रों‘‘ द्वारा विलासिता वाले वाहनों का प्रबंध कर दिया जाता है। इन वाहनों में चलने वालों को इस बात का किंचित मात्र भी भय नहीं होता है कि धुर्रे उड़ी सड़कों पर वाहन का कचूमर निकल जाएगा। आम जनता अपने गाढ़े पसीने की कमाई से खरीदे गए वाहन को बहुत ही संभाल कर चलाता है, फिर भी बदहाल सड़कें उसे राहत नहीं प्रदान कर पाती हैं।

अब उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारे का ही उदहारण लिया जाए तो इसमें मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में विधानसभा उपाध्यक्ष ठाकुर हरवंश सिंह द्वारा नेशनल हाईवे के गड्ढे भरने के काम का बड़े ही भव्य कार्यक्रम में भूमिपूजन किया। 11 अक्टूबर से चार चरणों में होने वाले थिगड़े लगाने के इस काम को यह भी कहा गया कि इसे दो माह पूर्व ही स्वीकृत करवा लिया गया था। विडम्बना है कि आज 18 दिन बाद भी नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) द्वारा यह कार्य आरंभ नहीं करवाया गया है। भाजपा इस मामले में मौन साधे हुए है, न जाने किस मुहूर्त का इंतजार कर ही है भाजपा।

हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि सियासी दल चाहे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी, किसी को भी आम आदमी की पीड़ा से कोई लेना देना नहीं है। सभी नेताओं की नैतिकता मानो मर चुकी है। आम आदमी मरता है तो मरता रहे, किन्तु जनसेवा का बीड़ा उठाने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं है। भाजपा की एमपी इकाई द्वारा नेशनल हाईवे को लेकर बनाई गई रणनीति के फिस्स हो जाने के बाद अगर शिवराज सरकार की कमल नाथ को घेरने की रणनीति भी औंधे मुंह गिर जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यहां एक बात का उल्लेख करना भी लाजिमी होगा कि मध्य प्रदेश भाजपा की कमान जब से प्रभात झा ने संभाली है, तब से संगठन में तो जान आती दिख रही है, किन्तु सत्ता और संगठन के बीच गहरी होती खाई अलग ही समझ में आ रही है। भाजपाध्यक्ष बनने के उपरांत प्रभात झा ने 09 मई को संगठन की सत्ता का विकेंदीकरण करने की घोषणा की थी। उन्होंने पार्टी क सह मुख्यालय छिंदवाड़ा, मण्डला और झाबुआ में बनाने की मंशा व्यक्त की थी। विडम्बना ही कही जाएगी कि इस घोषणा को किए हुए छः माह बीतने को हैं, पर अब तक इस दिशा में कोई पहल नहीं हो सकी है। कहा जा रहा है चूंकि इस मामले में भी केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ का संसदीय क्षेत्र छिंदवाड़ा जिला होने के कारण मामला ठंडे बस्ते के हवाले हो गया है। माना जा रहा है कि अगर पार्टी का सह कार्यालय छिंदवाड़ा में स्थापित हो जाएगा तो आने वाले दिनों में छिंदवाड़ा जिला भाजपा और छिंदवाड़ा जिला कांग्रेस की जुगलबंदी और नूरा कुश्ती पर विराम लग जाएगा।

आखिर सियासी जादूगर कमल नाथ का आभामण्डल है ही एसा। कमल नाथ का संसदीय क्षेत्र मध्य प्रदेश का छिंदवाड़ा जिला है, वह भी 1980 से। मूलतः व्यवासाई कमल नाथ को इंदिरा गांधी ने अपना तीसरा बेटा कहकर मध्य प्रदेश और छिंदवाड़ा को सौंपा था। तीस सालों में उन्हें मध्य प्रदेश से कितना मोह हुआ है, इस बात का उदाहरण उनके केंद्र में वन एवं पर्यावरण, वस्त्र, वाणिज्य और उद्योग के उपरांत भूतल परिवहन मंत्री बनने से मिलता है। कमल नाथ के मंत्री बनने के उपरांत मध्य प्रदेश की झोली में इन विभागों में क्या क्या आया यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालात देखकर हमें यह कहने में कोई संकोच अनुभव नहीं हो रहा है कि केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की सुर और ताल पर मध्य प्रदेश भाजपा थिरक कर रही है।

नौकरों के आगे विवश मुख्यमन्त्री!

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

“कलेक्टर चाहे और प्रशासन काम नहीं करे, यह कैसे सम्भव है? या तो कलेक्टर, कलेक्टर के पद के योग्य नहीं रहे या फिर कर्मचारियों को कलेक्टरों का भय समाप्त हो गया? दोनों ही स्थितियाँ प्रशासन की भयावह एवं निष्क्रिय स्थिति की ओर संकेत करती हैं। राज्य के मुख्यमन्त्री के समक्ष कलेक्टर और कमिश्नर बेबशी व्यक्त करें, इससे बुरे प्रशासनिक हालात और क्या हो सकते हैं?”

पिछले दिनों राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत ने राज्य के जिला कलेक्टरों एवं कमिश्नरों की मीटिंग बुलाई और राज्य की शासन व्यवस्था के बारे में जानकारी लेने के साथ-साथ जरूरी दिशा निर्देश भी जारी किये। मुख्यमन्त्री का इरादा राज्य प्रशासन को आम लोगों के प्रति जिम्मेदार एवं संवेदनशील बनाने का था, परन्तु बैठक के दौरान कलेक्टरों की ओर से साफ शब्दों में कहा गया कि जनता का काम हो कैसे, जबकि निचले स्तर के कर्मचारी न तो कार्यालयों में समय पर उपस्थित होते हैं और न हीं जनता का काम करते हैं!

इतनी गम्भीर बात पर भी मुख्यमन्त्री की ओर से यह नहीं कहा गया कि ऐसे अनुशासनहीन एवं निकम्मे लोग सरकारी सेवा में क्यों हैं? बल्कि इस गम्भीर मामले पर मुख्यमन्त्री की चुप्पी विरोधियों की इस बात को बल प्रदान करती है कि अभी भी मुख्यमन्त्री के दिलोदिमांग में पिछली हार का भूत जिन्दा है। जिसमें यह प्रचारित किया गया था कि कर्मचारियों की नाराजगी के चलते भी गहलोत सरकार को हार का सामना करना पडा था।

कलेक्टर चाहे और प्रशासन काम नहीं करे, यह कैसे सम्भव है? या तो कलेक्टर, कलेक्टर के पद के योग्य नहीं रहे या फिर कर्मचारियों को कलेक्टरों का भय समाप्त हो गया? दोनों ही स्थितियाँ प्रशासन की भयावह एवं निष्क्रिय स्थिति की ओर संकेत करती हैं। राज्य के मुख्यमन्त्री के समक्ष कलेक्टर और कमिश्नर बेबशी व्यक्त करें, इससे बुरे प्रशासनिक हालात और क्या हो सकते हैं?

राज्य की सत्ता की डोर काँग्रेस के अनुभवी माने जाने वाले राजनेता अशोक गहलोत के हाथ में है, जिनके पास वर्तमान में पूर्ण बहुत है। राज्य की जनता ने भाजपा की वसुन्धरा राजे सरकार के भ्रष्टाचार एवं मनमानी से मुक्ति दिलाने के लिये काँग्रेस को और अशोक गहलोत को राज्य की कमान सौंपी थी और साथ ही आशा भी की थी कि इस बार अशोक गहलोत प्रशासनिक भ्रष्टाचार एवं मनमानी पर अंकुश लगाने में सफल होंगे। जिससे जनता को सुकून मिलेगा। परन्तु कलेक्टरों की बैठकों में सामने आये राज्य के प्रशासनिक हालातों को देखकर तो यही लगता है कि सत्ता का भय प्रशासन में है ही नहीं। भय नहीं होना भी उतना बुरा भी नहीं है, लेकिन राज्य की सत्ता का सम्मान तो जरूरी है। छोटा सा कर्मचारी भी यह कहता सुना जा सकता है कि मुख्यमन्त्री को सत्ता में रहना है तो कर्मचारियों के खिलाफ बोलने की गलती नहीं करें, अन्यथा परिणाम घातक होंगे।

हम आम लोग अर्थात् सत्ता की चाबी के असली मालिक जिन्हें सरकारी कर्मचारी एवं अधिकारी कहते हैं, असल में वे सब जनता के नौकर होते हैं, जिन्हें संविधान में लोक सेवक कहा गया है। जनता की गाढी कमाई से संग्रहित राजस्व से वेतन पाते हैं। इन जनता के नौकरों से काम लेने के लिये जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है। जिनकी सरकार के जरिये शासन का संचालन होता है।

यदि लोकतन्त्र में भी जनता के नौकर जनता, जन प्रतिनिधि एवं जनता की सरकार को दांत दिखाने लगें तो फिर लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को बद से बदतर होने से कैसे रोका जा सकता? मुख्यमन्त्री के साथ इस विषय में जनता को भी गम्भीरता पूर्वक सोच विचार करने की जरूरत है। अन्यथा प्रशासनिक मनमानी एवं निकम्मेपन के चलते जनता का शोषण एवं सत्ताधारी दल का पतन तय है।