कलमाड़ी जी की असीम कृपा से – खेल खेल में कम से कम एक क्षेत्र में तो हमने अपने पडोसी चीन को पीछे छोड़ ही दिया- कठोर स्पर्धा के बाद ‘भ्रष्टाचार की ऊंची कूद’ में हमने यह सफलता अर्जित की. अब हम भ्रष्ट देशों की सूची में ८७ वीं पायदान पर पहुँच गए हैं और हमारा प्रतिद्वंद्वी चीन हमारे से ८ अंक पिछड़ कर ७९वें अंक पर लुढ़क गया. इस सफलता का एकांकी श्रेय हमारे खिलाडियों के खिलाडी कलमाड़ी जी को जाता है. विश्व के चोर-उच्चक्के देशों में देश का नाम रौशन करने के इस महान उपलब्धि के लिए कलमाड़ी जी को ‘भारत रत्न’ के साथ साथ आगामी ओलम्पिक खेलों का ठेका भी अभी से दे देना चाहिए ताकि शीघ्र से शीघ्र हम अपने चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान से आगे निकल सकें. कितनी शर्म की बात है कि हमारे से महज़ २४ घंटे पेहले पैदा हुआ दो कौड़ी का मुलुक भ्रष्टाचार के क्षेत्र में हम से मीलों आगे १४३ वे पायदान पर जा पहुंचा है. यह बात दीगर है कि पाकिस्तान को इस मुकाम तक पहुँचाने में अमेरिका से मिली भीख का बहुत बड़ा योग दान है. यदि हमें इतनी अमेरिकी मदद मिली होती तो हम आज अफगानिस्तान को प्राप्त श्रेष्ठ स्थान पर होते.
देश में भ्रष्टाचार एक रिले-रेस की माफिक कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ का रूप ले गया है. दिल्ली का खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ कि ‘रेस’ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में चालू हो गई. मुंबई में तो भ्रष्टाचार को ‘आदर्श’ सोसाईटी का नाम दिया गया और सीमा पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों के नाम पर करोड़ों के फ़्लैट औने पौने दामों पर सफेदपोश नेता और उच्चाधिकारी हड़प गए. कल्मादिजी ने राहत की साँस ली -उनके पीछे पड़ा मिडिया अब ‘आदर्श सोसाईटी’ घोटाले पर पिल पड़ा है. मिडिया का भी इन घोटालों को उजागर कर और बीच में ही छोड़ नए घोटालों के पीछे पड़- इनके महत्त्व को न्गंन्य करने में विशेष योगदान रहा है. मिडिया भी व्यवसाए हो कर रह गया – सब कुछ महज़ टी.आर.पी की खातिर?
१९९१ से २००९ के डेढ़ दशक में लगभग ७३ लाख करोड़ के बड़े घोटालों का अनुमान है. जिनमें स्विस बैंकों में देश का ७१ लाख करोड़ रूपया सबसे बड़ा घोटाला है. उसके बाद है २-जी स्पेक्ट्रम में ६० हजार करोड़ का घोटाला जिसे केंद्रीय मंत्री ए.राजा डी.एम्.के के दलित सांसद ने सरंजाम दिया. प्रधान मंत्री का इन्हें वरद हस्त प्राप्त है- हो भी क्यों न …राजा की कृपा के बिना सरकार दो दिन की महमान है. सी. बी. आई को लगा रखा है केस को कछवा चाल पर लटकाए रखने को. यह बात अलग है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई को लताड़ लगाई है- साल भर से केस लटकाने पर और राजा को अभी तक मंत्री पद पर बनाए रखने पर! अब देखो क्या होगा तेरा ‘राजा’? तीसरा घोटाला है – ५० हजार करोड़ – कर चोरी का, पूने के अरब पति हसन अली खान के नाम !!! अब इस से कम तो हम घोटाले को घोटाला ही नहीं मानते भ्रष्टाचार का वटवृक्ष आज ८७ मीटर ऊंचा बरगद सा फ़ैल गया है यह जितना ऊंचा है उतनी ही इसकी जडें पाताल तक फैली हैं. इस बरगद का बीजारोपण भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु जी के करकमलो से ही हुआ था. उनका राज परिवार तो बस इसे आँखें मूँद पानी दिए चला जा रहा है. नेरुजी ने ५ वर्षीया योजनाओं की नींव रखी -बिना सोचे समझे योजनाओं पर केंद्र से धन लुटाया गया- यह किसी ने नहीं देखा कि जिन लोगों के लाभार्थ ये योजनायें बनी गई हैं उन तक इसका लाभ पहुंचा भी है. नेहरु जी के राज पौत्र ‘राजीव गाँधी’ ने भी माना की इन योजनाओं का महज़ १०-१५ % ही आम आदमी तक पहुँच पाता है.बाकि पैसा तो रास्ते में भ्रष्ट तंत्र ही हड़प जाता है. ६० साल से यह योजनाबद्ध लूट बदस्तूर जारी है.
देश के प्रथम बड़े घोटाले का श्रेय भी हमारे नेहरु जी को ही जाता है. १९४८ का जीप घोटाला जिसमें भारतीय सेनाओं के लिए ८० लाख रूपए की जीपें खरीदी जानी थी. ब्रिटेन में भारतीय हाई कमिश्नर वी. के. कृष्ण मेनन पर जीप सप्लाई में घोटाले का दोष लगा. मेनन साहेब नेहरु जी के खासमखास थे. सज़ा तो क्या मेनन को देश का रक्षा मंत्री पद से नवाज़ा गया. हमारी सेनाएं चीन के हाथो परस्त हुईं और हजारों मील भूमि पर दुश्मन का कब्ज़ा हो गया. जिन लोगों के हाथ में देश को इमानदार प्रजातंत्र के रूप में विकसित करने की जिमेदारी थी उन्होंने ही उनकी नाक के नीचे फलफूल रहे भ्रष्ट-तंत्र से आँखें मूँद लीं और आज हम विश्व के सबसे बड़े भ्रष्ट तंत्र की दौड़ में नई नई बुलंदिओं को छूते जा रहे हैं. वह दिन दूर नहीं जब हम अफगानिस्तान को पछाड़ कर भ्रष्ट राष्ट्र तालिका के शिखर पर होंगे.
“Only first class business and that in first class way……” David Ogilvy की ये लाइने विज्ञापन जगत की रीढ़ की हड्डी मानी जाती हैं, David Ogilvy ने विज्ञापन जगत को नायब नुस्खे दिए हैं। 1948 में उन्होंने अपनी फार्म की शुरुआत की, जो बाद में Ogilvy & Mather के नाम से जानी गई और जिस समय काम शुरू किया उनका एक भी ग्राहक नहीं था लेकिन ग्राहक की नब्ज पकड़ने में माहिर थे और कुछ ही वर्षों में उनकी कंपनी दुनिया की आठ बड़ी विज्ञापन जगत की कंपनी में से एक बनी और कई नामी ब्रांड्स को उन्होनी नई पहचान दी जिनमे Rolls-Royce, American Express, Sears, Ford, Shell, Barbie, Pond’s, Dove शामिल है, और जुलाई 1999 को फ्रांस में उनका निधन हुआ। विज्ञापन और ग्राहक के बीच रिश्ता कायम रखने के बारे में उनका कहना था की “ग्राहक का ध्यान खीचने के लिए आपका आईडिया बड़ा होना चाहिए जो उसे कंपनी का उत्पाद खरीदने को आकर्षित करे, अन्यथ आपका विज्ञापन उस पानी के जहाज के समान हैं जो अँधेरे में गुज़र जाता हैं ……….” Dove के विज्ञापन की लाइन “Darling… I’m having extra ornery experience.” इसका उदहारण हैं।
किसी भी उत्पाद का विज्ञापन, उपभोक्ता की मानसिकता पर अल्प कालीन और दीर्घ कालीन प्रभाव छोड़ता हैं, उदाहरण के तोर पर लाइफ बॉय की पंच-लाइन “तंदुरस्ती की हफाज़त करता हैं लाइफ बॉय….”, निरमा वाशिंग पाउडर की “दूध सी सफेदी, निरमा सी आये ……..” आदि उपभोक्ता की सोच को विज्ञापन के ज़रिये उसी तक वापस पहुचने की कला थी, जो किसी उत्पाद और ग्राहक के बीच की अटूट कड़ी हैं। एक अच्छे और अमिट छाप के विज्ञापन में वो सभी खूबियाँ होती हैं जो समाज की परम्परा को अपनाते हैं, और उपभोक्ता के हितो की भी रक्षा करता हैं, भारत सरकार का उपभोक्ता मामलो का मंत्रालय जिन हितो का ज़िक्र करता हैं वो हैं…. सुरक्षा, सुचना का चयन, सुनवाई, सुधार या हर्जाने की गुंजाइश और शिक्षित करना प्रमुख हैं।
आज के अधिकांश विज्ञापन इन हितो की अनदेखी कर अपने उत्पाद की छवि ग्राहक तक पहुचाते हैं, लेकिन ग्राहक के दिमाग में उस उत्पाद के उपभोग की प्रवति को जीवित करने में कामयाब नही हो पाते। कोई कम कपडे में समुद्र से निकलती लड़की और ठीक उसके बाद सीमेंट की मजबूती को उस लड़की से जोड़ना न तो ब्रांड को मजबूती देता हैं न ही विश्वनीयता पैदा करता हैं, सिर्फ प्रोडक्ट की अल्प कालीन छवि उपभोक्ता के दिमाग में छपती हैं। कोका कोला ने भारत में अनेक मुश्किलों का सामना किया, चाहे राजनैतिक कारण ही हो लेकिन उसी कम्पनी ने आम बोलचाल के ठंडा शब्द को अपने से जोड़ा तो इसका ज़बरदस्त फायदा हुआ चूंकि अधिकाश लोग कोल्ड ड्रिंक को ठन्डे के नाम से बालते थे और “ठंडा मतलब……….कोका कोला” इजाद किया। कुछ विज्ञापन गुणों से भरपूर होते हैं, चूंकि 10 से 20 सेकंड या 10 वाई 10 सेमी के कॉलम में सम्पूर्ण जानकारी व छाप छोडनी होती हैं इसलिए जितना भी क्रिएटिव विज्ञापन होगा उसका आईडिया इजात करने वाला शख्श ग्राहक के निजी विचारो से परिचित होता हैं , प्रसून जोशी इसका उदाहरण हैं।
आदित्य बिरला के आईडिया का विज्ञापन, भाषा की बंदिश को तोड़ता हैं, साथ में जिस तरह से देश के कुछ हिस्से भाषाई मतभेद पर उलझे हुआ हैं उन्हें भी एक अच्छा सन्देश देता हैं।
इसे बनाने वाली एजेंसी लोव लिंटास के अध्यक्ष आर बालाकृष्णन का कहना हैं… “क्योंकि इस समस्या का सामना आज ज्यादातर देश कर रहे है और इस विज्ञापन की शूटिंग देश के विभिन हिस्सों में की गयी, यानि विभिन प्रान्तों के द्रश्य देखने को मिलते हैं … इस तरह से एक नया आईडिया इजात होता हैं जो भाषा की बंदिश को तोड़ता हैं …”
वर्तमान की बात की जाये तो कुछ विज्ञापन सचमुच में ही शिक्षा, सामाजिक सन्देश से भरपूर हैं जेसे महिंद्रा का नया टू-व्हीलर का विज्ञापन जिसमें आमिर खान ने अपने अनुरूप ही विज्ञापन को परोसा हैं …आखिर में ये कहना कि इस विज्ञापन में किये हर स्टंट को आप घर पर ही कर सकते है, ग्राहक के दिमाग में उत्पाद के प्रति भरोषा पैदा करता हैं, पियर्स के विज्ञापन में माँ अपनी बच्ची को खेल खेल में मासूमियत के साथ इतिहास समझाती हैं की, अकबर का पिता कौन था।
वास्तव में विज्ञापन कम समय में अच्छा सन्देश देता है बशर्ते उसे उस उद्देश्य के साथ बनाया गया हो, उसमें वास्तविकता होनी चाहिए न कि उसमे शर्ते लागु लिखना, या छोटे अक्षरों में चेतावनी लिखना, ये सब उपभोक्ता को गुमराह करता हैं जो सरासर अपराध हैं जेसे कोई प्रोडक्ट दावा करता हैं कि इसके इस्तेमाल से बच्चे की लम्बाई बढती है, जबकि इसी विज्ञापन के निचे लिखी छोटी लाइनों पर किसी का ध्यान जाता ही नहीं और यही कम्पनी चाहती है यानि वो कानून की मार से भी बच जाती है, या उपरोक्त दूध का इस्तेमाल बच्चो के लिए ज्यादा फायदेमंद हैं। जबकि कानूनन अगर कोई उत्पाद स्तनपान पर प्रहार करता हैं तो इसे माँ के अधिकारों के हनन मन जाता हैं ……आज के अधिकारों को अनदेखा क्यों न करना पड़े।
सरकार का उपभोक्ता मामलों का विभाग ग्राहकों को जागरूक करने का कम करता है अगर इसके साथ अगर सुचना व प्रसारण मंत्रालय अगर बेलगाम व भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर लगाम लगाये तो लोग लुटने से बच सकते हैं चूंकि ज़्यादातर लोगों में जागरूकता की कमी हैं इनमे पढ़े लिखे लोग भी शामिल हैं। चूँकि एक जागरूक इन्सान पढा-लिखा होता हैं पर ज़रूरी नहीं कि हर पढा-लिखा इन्सान जागरूक हो। किसी भी ब्रांड पर आँख मूंद कर विश्वास करना सही नहीं हैं।
“मैं बाबा रामदेव को प्यार करता हूँ। मोहन भागवत को भी प्यार करता हूँ। मदर टेरेसा, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रकाश कारात को भी प्यार करता हूँ। ” लेकिन लाखों सालों से निरंतर चली आ रही की भारत की महान परंपरा व संस्कृति से घृणा करता हूं। इसके खिलाफ लिखने के लिए मैं दिन रात एक कर देता हूं।
जब तक योग-प्राणायाम हिमालय के गुफाओं में रहें तब तक मैं उसे बेहद प्यार करता हूं। लेकिन जब वह बाहर आ जाए, आम लोगों की भलाई में उसका उपयोग हो, बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को उससे चुनौती मिले, तो मैं उससे घृणा करने लगता हूं। मैं चाहता हूं कि वह गुफाओं के अंदर ही बंद रहें। अगर कोई योगी आयुर्वेद को लोगों के बीच पहुंचाने का प्रयास करे और सफल हो तो मैं उसे घृणा करता हूं। केवल इतना ही नहीं उसके खिलाफ अनाप शनाप बोलता हूं। कभी उन दवाइयों में मांस मिले होने का आरोप लगाता हूं। नहीं तो ट्रेड यूनियन के माध्यम से उस फैक्ट्री में हडताल कराने का प्रयास करता हूं।
मैं बहुराष्ट्रीय कंपनियां की व स्टेट की नव उदारवादी नीतियों से घृणा करता हूं। लेकिन पश्चिम बंगाल की बुद्धदेव भट्टाचार्य़ सरकार द्वारा नंदीग्राम व सिंगुर में आम किसानों पर अमानवीय अत्याचार के खिलाफ मुझे कतई घृणा नहीं है बल्कि मैं उससे सही बताता हूं। क्योंकि यहां सरकार टाटा कंपनी के लिए जमीन देकर राज्य को विकास के पथ पर अग्रसर करना चाहती है। कुछ लोग बिना मतलब के इस अमानवीय अत्याचार का विरोध करते रहते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां व नव उदारवादी नीतियां तब तक मेरे लिये घृणा के योग्य हैं जब तक वे मेरे विरोधी विचारों के लोगों द्वारा किये जा रहे हों। लेकिन “सर्वहारा” वर्ग की वामपंथी सरकार द्वारा, वामपंथी कार्यकर्ताओं द्वारा दलित, शोषित, पीडितों का उत्पीडन मेरी दृष्टि से बिल्कुल उचित है।
आप ने अतीत में रुस में देखा होगा लेनिन व स्टैलिन द्वारा जहां करोडों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर कितने करोडों लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी गई।
मैं साम्यवाद विरोधी करोडों लोगों की हत्या का समर्थन करता हूं लेकिन मैं “फासीवादी” नहीं हूं। मैं विचारभिन्नता का भारत में समर्थन करता हूं लेकिन चीन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न होने का समर्थन करता हूं।
किसी भी हिन्दुत्ववादी के किसी भी अच्छे बयान की भी निंदा करता हूं लेकिन इमाम बुखारी द्वारा पत्रकार के खिलाफ सरेआम बदसलुकी के खिलाफ मैं कुछ नहीं लिखता। क्योंकि अगर मैं उसके खिलाफ लिखूं तो फिर मैं कैसे धर्मनिरपेक्ष रह जाउंगा। मेरा धर्मनिरपेक्ष बने रहने का पारामिटर भी देशद्रोहियों के पक्ष में लिखना है। देशद्रोहियों का समर्थन करना, देशद्रोहियों के पक्ष में लिखना मैं पसंद करता हूं। साथ मै यह भी चाहता हूं कि देश का कोई भी व्यक्ति मेरे खिलाफ कोई टिप्पणी न करे।
मैं राष्ट्रवाद से घृणा करता हूं। लेकिन चीन से मुझे बेहद प्यार है। जब चीन भारत पर हमला करता है तो मैं कहता हूं कि “बकवास बंद करो, चीन ने नहीं भारत ने चीन पर हमला किया है।” मैं चीन के समर्थन में नुक्कड सभाएं आयोजित करता हूं। कोलकाता के सडकों पर “चीनेर चैयरमेन- आमादेर चैयरमेन ” का नारा लगाता हूं।
माओ की सेना भारत में आ कर हमें लिबरेट करे, यह सपना मैं देखता हूं। इसके लिए मैं उनके स्वागत की तैयारियों में लगा रहता हूं।
चीन अगर परमाणु बम बनाये तो मैं उसका स्वागत करता हूं लेकिन भारत अगर परमाणु विस्फोट करे तो मैं उसके खिलाफ आंदोलन शुरु कर देता हूं। इसके लिए सेमिनर आयोजित करता हूं, गोष्ठियां आयोजित करता हूं, इसका पुरजोर विरोध करता हूं।
मुझे फिलिस्तीन में इजरायली हमलों में अमानवीयता, बर्बरता का स्पष्ट दर्शन होता है। मेरे जैसे मानवीयता के पक्षधऱ व्यक्ति को अगर इसका स्पष्ट दर्शन नहीं होगा तो फिर कैसे चलेगा। इसके लिए मैं हमेशा तनाव में रहता हूं। बार- बार सडकों पर उतरता हूं, भले ही चार लोग हों आंदोलन करता हूं। लेकिन कश्मीरी पंडितों को भगाया जाना मुझे नहीं दिखता है। उस पर मैं न तो कभी टिप्पणी करता हूं और न ही उस पर आंदोलन के लिए सोचता हूं। केवल इतना ही नहीं मेरे आका देश चीन द्वारा तिब्बत को हडप लेना का भी मैं स्वागत करता हूं। वहां हान चीनियों द्वारा तिब्बती नस्ल को समाप्त करने के साजिश मुझे नहीं दिखाई नहीं देता। वहां परमाणु कचरे को डंप किया जाना भी मुझे दिखाई नहीं देता।
भारत की जमीनों पर चीनी कब्जा मुझे दिखाई नहीं देता। 1962 का युद्ध तथा 14 नंबवर को संसद में पारित किया गया संकल्प प्रस्ताव भी मुझे याद नहीं है।
इस्लामी आतंकवादियों द्वारा आम लोगों की हत्या पर मैं चुप्प रहता हूं। लेकिन बाटला हाउस मामले में आतंकवादियों के पक्ष में आंदोलन करता हूं। यही वामपंथ है।
भारत के महापुरुषों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करना मुझे पसंद है। मैं महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को को “तोजो का कुत्ता” मानता हूं। पंडित नेहरु का “अंग्रेजी साम्राज्यवाद का दौडता हुआ कुत्ता मानता हूं”। हालांकि बदले हुए हालात में और लोगों के विरोध को देखते हुए इसके लिए क्षमा याचना के लिए भी तैयार रहता हूं। यह स्टैटजी की बात होती है।
मेरे लिये राम आदर्श नहीं है। मेरे लिए कृष्ण आदर्श नहीं है। मेरे लिए स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी भी आदर्श नहीं है। मैं मार्क्स की पूजा करता हूं, स्टालिन, लेनिन की पूजा करता हूं। मैं माओ के मूर्ति के आगे सिजदा करता हूं। चेग्वेरा के मूर्ति के आगे नतमस्तक होता हूं।
इसलिए चीन जिंदाबाद। आओ भारत, भारतीयता से घृणा करे, आओ वामपंथ से प्यार करें।
अभी अभी आपका मेल मिला। इसका जवाब रूपी पत्र काफी लंबा हो गया। इसलिए मुआफी। कुछ निजी दिक्कतों के कारण काफी दिनों से प्रवक्ता को नहीं देखा था और कई लेखों को पढ़कर अच्छा लगा कि हिंदी का बौद्धिक कम से कम विमर्श तो कर रहा है।
कविता-कहानी से बाहर राजनीतिक हालात और अपने समय से मुठभेड़ करने की पेचीदा प्रक्रिया में दो पक्षों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलते ही रहते हैं। कई बार यह अशालीन भी हो जाते हैं। इसकी बहुत ज्यादा चिंता नहीं करना चाहिए। समय से साथ अशालीन भाषा में दिये गये तर्क खुद व खुद विमर्श से बाहर हो जाते हैं। मुझे लगता है जगदीश्वर जी इस थ्योरी को समझते ही हैं और वे इसके लिए तैयार भी होंगे। कई बार वैचारिक हमलों के बजाय व्यक्तिगत हमले होते हैं। स्वतंत्रता के बाद तो हिंदी की बहसों में निजी हमलों का लंबा इतिहास रहा है। कविता-कहानी, आलोचना से लेकर इतिहास लेखन और राजनीतिक लेखन तक में। खैर।
अच्छा लगा कि आपने स्पष्टीकरण दिया कि प्रवक्ता लोकतांत्रिक मंच है। इसमें मेरे मित्र पंकज जिन्हें में भोपाल में जयराम जी के नाम से जानता था, के लेख ”एक नया बुखारी पैदा कर रहा है प्रवक्ता” और जगदीश्वर जी के लेख ”आओ मुसलमानों से प्यार करें” के संबंध में मेरे विचार से आपके स्पष्टीकरण ने काफी कुछ साफ कर दिया है। फिर भी कुछ मोटी बातें रख रहा हूं।
लेखन की बारीकियों से दोनों ही अध्येता परिचित हैं और इसकी सीमाएं भी जानते हैं। जिस निकृष्ट श्रेणी (उन्हीं के शब्दों में) के लेखन में पंकज जी अपना समय जाया कर रहे हैं, असल में वह जगदीश्वर जी से रंजिश नहीं, बल्कि उनके उस विचार से रंजिश हैं, जिसे खुद पंकज जी गरीबों का पक्ष कहते हैं। पंकज जी को चिढ़ इस बात पर है कि गरीबों का लेखन करते हुए जगदीश्वर जी ने एयरकंडीशन लगवा लिए। हालांकि मुझे जानकारी नहीं कि जगदीश्वर जी के यहां एयरकंडीशनर है। वामपंथ से पंकज जी की नाराजगी के कुछ वैचारिक आधार हैं और जरूरी यह है कि वे उसी जमीन पर रहकर अपने तर्क रखें। साथ ही अपने समकालीन अग्रजों के सम्मान की अपेक्षा तो उनसे है ही। उम्मीद है वे इस बारे में आगे से शालीनता बरतेंगे। मैं जो बातें कहने जा रहा हूं उनसे मेरे कम्युनिस्ट समझ लिये जाने का खतरा बरकरार है और सच में अगर में कम्युनिस्ट हो सकूं तो मुझे अच्छा लगेगा। लेकिन फिलवक्त तो मैं बस दोनों ही लेखकों के बारे में अपने निजी विचार दे रहा हूं। बहरकैफ।
पंकज जी अपने लेख की शुरुआत से ही काफी उलझे हुए लग रहे हैं। वे कई चीजों को गड्ढ-मड्ढ करते हुए चलते हैं। वे पहले तो यह पुख्ता खबर देते हैं कि चतुर्वेदी जी को पढ़-पढ़ कर पाठक बोर हो गये हैं। इसलिए उनका मनोरंजन करने के लिए एक चुटकुला उछालते हैं। अपने चुटकुले में भी वे टारगेट करते हैं वामपंथ को। इस चुटकुले को बताते वक्त शायद वे भूल गये होंगे कि जिस तरह तारीफ या निंदा को निकृष्ट लेखन माना जाता है, ठीक उसी तरह तुलना को निम्न श्रेणी का तर्क माना जाता है। अजीब यह है कि जिन विदेशी नामों के उदाहरणों से पंकज जी बचने की सलाह देते हैं, वे यह निकृष्ट लेखन का तर्क भी प्रसिद्ध जर्मन फिलॉसफर वाल्टर बैंजामिन से उधार ले लेते हैं।
इसके आगे जाकर पंकज जी मार्क्स, माओ से होते हुए फिर अपनी धुरी पर लौटते हैं और वामपंथ के खिलाफ अपने तरकश को दुरुस्त करने लगते हैं। इसी क्रम में वे कम्युनिस्टों को सबसे बड़ा साम्प्रदायिक और फासीवाद-तानाशाह व्यवस्था का समर्थक बता देते हैं। इसके पीछे वे तर्क देना भूल जाते हैं। शायद आगे देंगे। इसी बीच वे अरुंधती राय के खिलाफ भी तलवार भांजने लगते हैं और अपने ‘प्यारे लोकतंत्र’ की दुहाई देते हैं। (क्षेपक: यह वही लोकतंत्र है, जिसमें 11 फीसद लोगों के पास पूरे देश की 82 फीसद जमीन है। और 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले 35 शहरों में रहने वाली करीब 12 करोड़ जनसंख्या के पास देश के 79 फीसद संपत्ति। स्रोत : एनएसएस सर्वे राउंड-62)
वामपंथियों को कठमुल्ले के नामकरण से नवाजते हुए पंकज जी क्यूबा, बेलारूस, चीन, नार्थ कोरिया, लाओस, वियतनाम, साइप्रस, मोलदोवा और शायद नेपाल को भी ‘कम्यूनिस्ट स्वर्ग’ बताते हैं और कहते हैं कि यहां वैसी आजादी नहीं है, जैसी हिंदुस्तान में है। जल्दबाजी में वे शायद भूल जाते हैं कि क्यूबा में कोई भी 14 साल से कम उम्र का बच्चा काम नहीं करता, वह सरकारी खर्च पर स्कूली पढ़ाई करता है। इन सभी देशों में साइप्रस मोलदोवा और नेपाल, जहां कम्युनिस्ट सरकारें नहीं है, को छोड़कर पढ़ाई, इलाज और ट्रांसपोटेशन की 90 फीसद व्यवस्था सरकार की ओर से है। इससे आगे जाते हुए पंकज जी उस ‘प्रवक्ता’ को भी अतिवादी लाल, दलाल और वाम मीडिया के खाते में डाल देते हैं, जिसमें उनके दर्जनों आलेख प्रकाशित होते हैं।
पंकज जी को चिंता है कि जगदीश्वर जी यानी वामपंथियों की बात मान ली गई तो देश रसातल में पहुंच जाएगा और लेखक ‘मस्तराम’ हो जाएंगे। यहां फिर एक क्षेपक बनता है।
(असल में मस्तराम नाम का कोई एक शख्स नहीं है। कई लोग 200-500 रुपये में इस तरह का लेखन करते हैं। आगरा से शुरू हुआ यह धंधा अब देश के अन्य हिस्सों में भी फल फूल रहा है। हाल ही में आगरा के मित्र ने इस सस्ते प्रकाशन उद्योग के बारे में कई बातें बताई हैं, जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया प्रकाशित करने की जहमत नहीं उठाता। आखिर नीर-क्षीर-विवेक के दायरे में पंकज जी यह क्यों नहीं सोचना चाहते कि इस प्रकाशन उद्योग को फलने-फूलने वाली स्थितियां कैसे तैयार होती हैं और क्यों नहीं लोकतांत्रिक सरकारें इसे बंद कर देती।)
लेखकीय भटकन का यह दौर यही नहीं थमता। पंकज जी इसी क्रम में वामपंथ और हिंदुत्व को एक-दूसरे के सामने खड़ा करते हुए हिंदुत्व को समुद्र की संज्ञा से नवाजते हैं। बस इस समुद्र में कोई वामपंथी-इस्लामी नदी नहीं गिरती। इसे पुष्ट करते हुए वे बताते हैं कि वामपंथी आज भी ‘अपने पिता’ मार्क्स और माओ की स्थापना से रत्ती भर आगे नहीं बढ़े। शायद पंकज जी हिंदू शास्त्र पढऩे में मशगूल हो गये अथवा जीवन-जगत के साथ कदमताल करने लगे और वे 1917 के बाद वामपंथ के बारे में चली खबरों से भी दूर होते गये। वरना उन्हें पता होता कि रूसी क्रांति के वक्त ही मार्क्स की कई स्थापनाओं की व्याख्या नये सिरे से हो गई थी। और मार्क्स ने जो सूत्र दिये हैं उनसे पूरी दुनिया को समझने की प्रक्रिया में जिस सूत्र में वामपंथ की बात वे कर रहे हैं। असल में वह दूसरे इंटरनेशनल के बाद ही कई शाखाओं में बंट गया था। कार्ल कोत्सुकी और ऑगस्ट पॉल से होते हुए ब्रिटिश सोशल डेमोक्रेसी और बोल्शेविक व मेनशेविक से होते हुए इसकी शाखाएं स्पार्टकिस्ट, रिफॉरमिज्म, ट्रॉटस्कीयज्म, फेबियन सोसाइटी, कॉमङ्क्षटर्न से होते हुए इंटरनेशनल सोशलिस्ट टेंडेंसी, सोवियत मार्क्सिज्म, वेस्टर्न मार्क्सिज्म, फ्रेंकफर्ट स्कूल, फ्रेंच लेफ्ट, लेफ्ट कम्यूनिज्म, मार्क्सिस्ट ह्यूमनिज्म, प्रेक्सिस ग्रुप, अरली अमेरिकन मार्क्सिज्म, गुरिल्ला मार्क्सिज्म, माओज्म, नक्सलबाड़ी, नेशनल लिबरेशन, अफ्रीकन लिब्रेशन मूवमेंट, ब्लैक लिबरेशन, फ्रेंच रेवेल्युशन, यूटोपियन सोसलिज्म, फेमिनिस्ट से होते हुए भारतीय वामपंथ तक आती हैं। आज भी कई वामपंथी मित्र नये सिरे से दुनिया को समझने की जिद में एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भांज रहे हैं। भारत में ही 36 वामपंथी पार्टियां इसका बड़ा उदाहरण देती हैं। साफ है कि विचार प्रक्रिया में कई शाखाएं और प्रतिशाखाएं बनेंगी ही।
साथ ही पंकज जी यह साफ नहीं करते कि वे वामपंथ का विरोध कर रहे हैं कि वामपंथियों का। जैसे एयरकंडीशनर जैसे जुमले साफ-साफ उन्हें एलीट वामपंथियों के साथ जोड़ते हैं। बहस में जरूरी है कि हम पिन प्वाइंटेड हों और तय करें कि किसके खिलाफत करनी है।
पंकज जी अपने लेख में एक जगह वामपंथियों को ‘अरियल’ कहते हैं। शायद वे एलियन या ऐसा ही कुछ लिखना चाह रहे हों, मुझे इस शब्द का आशय पता नहीं। यह कहते हुए वे वामपंथ को (कु)पंथ भी कह डालते हैं। राष्ट्रवाद को बुराइयों की जड़ बताते हुए वे ‘चतुर्वेदी जैसे लोग’ का इस्तेमाल करते हैं। इस समूह वाले भगत सिंह को भी क्या पंकज जी जेहादी समझने की गलती कर रहे हैं?
इतना सब कहने के बाद वे बताते हैं कि वामपंथियों को नजरअंदाज करना चाहिए। भई अगर वे देश के शत्रु हैं, मेनियाक हैं और कठमुल्ले हैं, तो यह सादगी क्यों? क्या इस तरह आप देश हित का काम कर रहे हैं? ऐसे तो वे और मजबूत होंगे और और ‘अधिक बुरी दुनिया’ बनायेंगे।
तो पंकज जी आप कोई दूसरा रास्ता चुनिए, जो ज्यादा कारगर हो। यानी वामपंथ के वैचारिक आधार को टटोलते हुए देखें कि क्यों पिछली पूरी सदी वामपंथी विमर्श के इर्द-गिर्द घूमती रही। यानी या तो वामपंथी विमर्श हुए, या वामपंथ विरोधी या फिर वामपंथ-पूंजीवाद का मिला जुला मॉडल देने के विमर्श। इसके आगे पंकज जी संघ को बुखारी की ‘बुखारी’ बनाने का तर्क देते हैं, जिनके बारे में आपने लिखा ही है।
अब सवाल उठता है कि आखिर जगदीश्वर चतुर्वेदी ने ऐसा क्या लिखा जो पंकज जी को रास नहीं आया। चतुर्वेदी जी के लेख शीर्षक देखें तो साफ है कि मामला कुछ खास नहीं है। मुसलमानों से प्यार करने की बात पर किसी को आपत्ति है क्या? आखिर खुद पंकज जी ही कहते हैं कि हिंदुत्व एक समुद्र है, तो इसमें नहाने का लुत्फ मुसलमानों को क्यों न मिले। क्या यह समुद्र मुसलमानों को प्यार करने से मना करता है?
जगदीश जी कहते हैं कि वे बाबा रामदेव और मोहन भागवत के साथ मदर टेरेसा, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रकाश कारात को भी प्यार करते हैं। इसी क्रम में वे कई धर्मों को प्यार करने की बात भी कहते हैं और कहते हैं कि ‘संसार में मनुष्य से घृणा नहीं की जा सकती’। वे तुलनात्मक रूप से कहते हैं कि पशु-पक्षियों से भी नफरत नहीं की जा सकती। वे अलग-अलग मनुष्यों को प्यार करने के अलग-अलग कारण भी गिनाते हैं।
यह शुद्ध रूप से एक प्रवचन है। हालांकि मैं यहां जगदीश्वर जी से आंशिक असहमत हूं। एक मनुष्य घृणा और प्यार के साथ पला-बढ़ा होता है और सिर्फ प्यार करने की सीख ही मैं सही नहीं मानता। मुझे लगता है कि हम प्यार करते हुए यह जान लें कि हमें नफरत भी करनी होगी। मैं अगर खरगोश से प्यार करता हूं तो चूहों से नफरत भी करता हूं, क्योंकि वे बीमारी के सबसे बड़े स्रोत हैं। अगर में मदर टेरेसा से प्रेम करता हूं तो हिटलर और मुसोलनी से नफरत भी करता हूं और हिटलर के जुल्मों से त्रस्त हुए यहूदियों के प्रति प्यार और संवेदना रखता हूं तो फिलिस्तीन को हड़पने की इज्राइली कूटनीति के कारण सत्तासीन यहूदियों से घृणा भी करता हूं। बिल्कुल वैसे ही जैसे आतंकियों से नफरत करता हूं, लेकिन इस वजह से उनकी पूरी कौम या देश को कठघरे में खड़ा नहीं करता। चाहे वह ईरान, लेबनान, पाकिस्तान या अफगानिस्तान कहीं का भी हो। जाहिर है कि हम प्यार और नफरत एक साथ करते हैं।
जगदीश्वर जी के इस बिंदू पर पंकज जी भी सहमत होंगे कि कौन सही हिन्दू हैं या मुसलमान हैं। यह निजी मान्यता का मसला है। दिक्कत यह है कि वे जिन लोगों की आलोचना कर रहे हैं वे पंकज जी के प्रिय हैं। और यह मसला इसीलिए निजी हो जाता है।
जगदीश्वर जी कहते हैं कि हिन्दुत्व के प्रचारकों ने विचार अंधत्व पैदा किया है। हिन्दू धर्म में विचारों की खुली प्रतिस्पर्धा की परंपरा रही है और यह परंपरा उन लोगों ने डाली थी जो लोग कम से कम आरएसएस में कभी नहीं रहे। इसी क्रम में वे संघ परिवार के नए सिपहसालारों की आलोचना करते हैं। और कहते हैं कि संघ की विचारधारा घृणा के प्रचारक तैयार कर रही है।
याद रखिए कि जगदीश्वर जी वर्तमान की मीमांसा करते हुए अपने नतीजों से हमें अवगत करा रहे हैं। यानी अगर उनके विपक्ष रखना है, तो हमें वर्तमान को ही देखना पड़ेगा, लेकिन इसके लिए पंकज जी इतिहास, वह भी अनजाना इतिहास, की कंदराओं में भटकने चले जाते हैं और पूरे वामपंथ की लानत-मलानत में जुट जाते हैं।
चतुर्वेदी जी इस संबंध में बात करते हुए अपने हिंदू संस्कारों की जानकारी देते हैं। पता नहीं यह वे गर्व के साथ कह रहे हैं या फिर यह अपराध बोध की तरह है। इसके साथ ही चतुर्वेदी जी हिंदुत्व के इन नये पैरोकारों के बारे में अपने विचार व्यक्त करते चले जाते हैं। साथ ही वे इस्लाम और हिंदू धर्म की व्याख्या की करते चलते हैं और बताते हैं कि यह धारणा गलत है कि समूचा इस्लाम दर्शन किसी एक खास नजरिए पर जोर देता है।
वे राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ को पढऩे की सलाह देते हुए हिंदू धर्मशास्त्र और इस्लामिक धर्मशास्त्र के वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र की मिशाल देते हैं। क्या पंकज जी को इस विविधता पर आपत्ति है? या फिर उन्हें यह तुलना पसंद नहीं। (यह दो धर्मों की तुलना है, इसलिए इसे तुलना के तर्क के रूप में न देखें।)
कुल मिलाकर मैं मानता हूं कि वामपंथ और हिंदुत्व को लेकर बहसें होती रहेंगी। हो रही हैं। और होनी चाहिए। लेकिन इसमें व्यक्तिगत होने के बजाए क्यों न थोड़ा-सा वैचारिक हो लिया जाए।
पंकज जी को व्यक्तिगत रूप से संबोधित करने का मकसद भी यही है कि इधर के दिनों में वामपंथ के खिलाफ उनकी कलम खूब चली है। लेकिन अब वे थोड़ा व्यवस्थित होकर आलोचना करें और अरुंधति, बर्धन, सीताराम येचुरी, करात, नामवर और जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसे नामों से आगे आकर वैचारिक जमीन पर बात करें।
इसकी शुरुआत के लिए वे कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो के हालिया संस्करण को या फिर केरल, बंगाल और त्रिपुरा की कृषि नीति या फिर यहां के शिक्षा ढांचे को देख सकते हैं।
आपका आरोपयुक्तलेखहमें प्राप्त हुआ। आपने प्रवक्ता के मंतव्य पर सवाल उठाये हैं इसलिए संपादक के नाते आपके आरोपों का जवाब देना हमारा दायित्व है।
“मैं तुम्हारे विचारों को एक सिरे से खारिज करता हूं, मगर मरते दम तक तुम्हारे ऐसा कहने के अधिकार का समर्थन करूंगा।” ऐसा लोकतंत्र के पुरोधा माने जाने वाले वॉल्टेयर ने कहा था।
पंकजजी, आपने जगदीश्वरजी के लेखों के हवाले से आरोप लगाया है कि ‘प्रवक्ता जैसा ईमानदार माना जाने वाला साईट भी शायद सस्ती लोकप्रियता के मोह से बच नहीं पा रहा है और एक अनजाने से चतुर्वेदी जी को इतना भाव दे कर जाने-अनजाने एक नये बुखारी को ही जन्म दे रहा है।‘ आप चिंता व्यक्त कर रहे हैं, ‘राष्ट्रवाद को गरियाने की सुपारी अगर प्रवक्ता जैसे खुद को राष्ट्रवाद का सिपाही मानने वाले साईट ने जगदीश्वर जी को दे रखी हो तो आखिर किया क्या जाय?’
आपको दिक्कत है कि ‘जगदीश्वरजी राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और बाबा रामदेव को गरिया रहे हैं।‘ लेकिन हम मानते हैं कि जगदीश्वरजी ने लोकतांत्रिक दायरे में रहकर अपने विचार व्यक्त किए हैं और आपको भी लोकतांत्रिक मूल्यों का ख्याल रखते हुए अपनी बात कहनी चाहिए। आपको ठंडे दिमाग से जगदीश्वरजी के आरोपों का जवाब देना चाहिए न कि वैचारिक हस्तमैथुन का आरोप लगाकर। आपके लेख का लब्बोलुआब यह है कि प्रवक्ता को जगदीश्वरजी के ऐसे लेखन से बचना चाहिए।
दरअसल, आप बौखला गए हैं। आप किसी से सहमत नहीं है तो उसकी कड़ी आलोचना कर सकते हैं। विरोधी पक्ष से संवाद मत करो, उसे बोलने मत दो, क्या लोकतंत्र का यही मतलब है? फिर तो हमें एक तालिबानी और फासीवादी समाज में जीना होगा। आप बहस से क्यों कतराते हैं, क्या आपके तर्क इतने कमजोर हैं या फिर आपकी पोल खुल जाने का डर है। बौद्धिक विमर्श में हिंदू कमजोर पड़ रहा है, तो इसके कारणों की मीमांसा कीजिए। क्यों आज दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, अरविंदो जैसा बौद्धिक योद्धा हिंदू समाज की रक्षा के लिए सामने नहीं आ रहा है और वामपंथी बुद्धिजीवी आज विमर्श में हावी है। इस पर आपको गंभीरता से सोचना चाहिए।
आप प्रवक्ता के शुरूआती दिनों से हमसफर हैं इसलिए हमारी पूरी यात्रा को करीब से जानते हैं। हमने बार-बार कहा है, प्रवक्ता लोकतांत्रिक विमर्शों का मंच है। प्रवक्ता लेखकीय स्वतंत्रता का पक्षधर है। यह एक बगिया है, जिसमें भांति-भांति के वैचारिक फूल खिलते हैं। प्रवक्ता किसी पार्टी का लोकलहर, कमल संदेश और पांचजन्य नहीं है। यह भारतीय जनता की आवाज है। यह एकांगी और संकुचित दृष्टिकोण से मुक्त है। हम चाहते हैं कि समाज में विचारहीनता का वातावरण न बने और बहस का रास्ता हमेशा खुला रहना चाहिए।
आप जानते होंगे कि भारत में शास्त्रार्थ की बहुत पुरानी परंपरा रही है, जहां विभिन्न विचारधारा के लोग एक ही मंच पर विचार-विमर्श करते थे। और वास्तव एक लोकतांत्रिक समाज में तर्कों व चर्चाओं के माध्यम से समस्याओं के हल निकाले जाते हैं। लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपनी बात कानून के दायरे में रहकर कहें, यही तो लोकतंत्र की मूल भावना है।
पंकजजी, मैं तो यही सलाह दूंगा कि औरों पर थूकना छोडि़ए और अपनी रेखा लंबी कीजिए। अपने कुएं से बाहर निकलकर दुनिया को देखिए, यही समय का तकाजा है।
और अंत में हां, आपका पूरा लेख ही ‘झूठ’ की बुनियाद पर खड़ा है। आपके इतिहास ज्ञान पर तरस ही खाया जा सकता है। पहले भारत के राजनीतिक इतिहास का अध्ययन कीजिए तब जाकर रा.स्व.संघ पर टिप्पणी कीजिए। संघ समर्थित दल ने कभी ‘अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो कांग्रेस की सरकार’ जैसे नारे नहीं लगाए। दूसरों की अफवाह पर आपने एक पूरा लेख लिख डाला। आपको जानकारी नहीं थी तो किसी संघ के जानकार बुद्धिजीवी से इसकी सत्यता परख लेते। और देखिए, सच के सामने आते ही झूठ की बुनियाद पर खड़ा आपका यह लेख भरभरा कर ढह रहा है।
मैं बाबा रामदेव को प्यार करता हूँ। मोहन भागवत को भी प्यार करता हूँ। मदर टेरेसा, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रकाश कारात को भी प्यार करता हूँ। वैसे ही हिन्दुस्तान के हिन्दुओं, ईसाईयों, सिखों,जैनियों,बौद्धों को भी प्यार करता हूँ। इन सबके साथ मैं मुसलमानों को भी प्यार करता हूँ।
मेरा मानना है इस संसार में मनुष्य से घृणा नहीं की जा सकती,उसी तरह पशु-पक्षियों से भी नफरत नहीं की जा सकती। मुझे मोहन भागवत एक मनुष्य के नाते प्रिय हैं। संघ के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह बाबा रामदेव मनुष्य ने नाते, एक योगी के नाते प्रिय हैं। एक योगव्यापारी के नाते मैं उनका आलोचक हूँ। इसी तरह मुझे पंकज झा और उनके तमाम संघभक्त दोस्त भी प्रिय हैं। वे मेरे शत्रु नहीं हैं। मैं नहीं समझता कि वे अपनी तीखी प्रतिक्रियाओं से कोई बहुत बड़ा अपकार कर रहे हैं। वे मनुष्य प्राणी के नाते हमारे बंधु हैं ।
हिन्दुओं में कुछ लोग मेरे लेखन से असहमत हों। वे इस कारण तरह-तरह के निष्कर्ष निकाल रहे हैं। मैं निजी तौर पर उनका भी शुक्रगुजार हूँ जो मुझमें बुखारी देख रहे हैं। वे अभी न जाने क्या-क्या नहीं बना देंगे। क्योंकि मैं उनके गंभीर विचारों को अपनी आलोचना से डिस्टर्व कर रहा हूँ। वे बेहद परेशान हैं।
उनका मानना है कि मैं इतना खराब हिन्दू क्यों हूँ जो हिन्दू होकर हिन्दुओं के जो तथाकथित गौरवपुरूष हैं उनकी आलोचना लिख रहा हूँ। मैं यहां किसी से यह प्रमाणपत्र लेना या उसे प्रमाणपत्र देना नहीं चाहता कि कौन कितना बड़ा हिन्दू है। कौन सही हिन्दू हैं या मुसलमान हैं। यह आपकी अपनी निजी मान्यता की समस्या है। इसके लिए किसी को प्रमाणपत्र देने का ठेका नहीं दिया जा सकता।
हिन्दुओं में जो लोग आलोचनात्मक विवेक की हत्या करने,हिन्दुओं में हिन्दुत्व के नाम पर गुलामी की भावना,अंधराष्ट्रवाद, हिन्दुत्व की अंधी होड़ में झोंकने के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें हम कभी क्षमा नहीं कर सकते। उनके प्रति हमारा आलोचनात्मक रूख हमेशा रहेगा। हिन्दू कभी विचारअंध नहीं रहे हैं।
हिन्दुत्व के प्रचारकों ने विचार अंधत्व पैदा किया है। हिन्दू धर्म में विचारों की खुली प्रतिस्पर्धा ती परंपरा रही है और यह परंपरा उन लोगों ने ड़ाली थी जो लोग कम से कम आरएसएस में कभी नहीं रहे।
संघ परिवार और उसके संगठनों के विचारों की उम्र बहुत छोटी है। हिन्दू विचार परंपरा में वे कहीं पर भी नहीं आते। वे हिन्दुत्व के नाम पर आम लोगों में पराएपन का प्रचार कर रहे हैं, घृणा पैदा कर रहे हैं। इसके लिए मुझे किसी प्रमाण देने की जरूरत नहीं हैं। हिन्दुत्व के नए सिपहसालारों ने जिस तरह के व्यक्तिगत और विषय से हटकर अपने विचार मेरे लेखों पर व्यक्त किए हैं। वे इस बात का प्रमाण हैं कि संघ परिवार की विचारधारा अंततः किस तरह घृणा के प्रचारक तैयार कर रही है।
प्रवक्ता डॉट कॉम लोकतांत्रिक मंच है और उसे इस रूप में काम जारी रखना चाहिए। मेरा विनम्र अनुरोध है कि जो लोग मेरे लेखों पर अपनी राय बेबाक ढ़ंग से देना चाहते हैं वे विषय पर अपनी राय दें और व्यक्ति के रूप में मुझे केन्द्र में रखकर न दें।
मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि हिन्दूशास्त्रों की शिक्षा मुझे श्रेष्ट हिन्दू विद्वानों से मिली है, उसी तरह मार्क्सवाद की भी शिक्षा श्रेष्ठ मार्क्सवादी विद्वानों से मिली है। एक हिन्दू के जितने संस्कार होने चाहिए वे मेरे भी हुए हैं।
मैं जानता हूँ कि संघ के अधिकांश मतानुयायी हिन्दू धर्म के अधिकांश पूजा-पाठ, विधि-विधान, मंत्रोपासना, देवपूजा आदि के बारे में किसी भी किस्म की हिन्दूशास्त्र में वर्णित परंपरा का पालन नहीं करते।
जो लोग हिन्दुत्व के नाम पर उलटी-सीधी बातें मेरे लेखों पर लिख रहे हैं वे ठीक से एक धार्मिक हिन्दू की तरह चौबीस घंटे आचरण तक नहीं करते। हिन्दुत्ववादी यदि एक अच्छे हिन्दूपंथानुयायी भी तैयार करते तो भारत की और हिन्दू समाज की यह दुर्दशा न होती।
हिन्दुत्ववादियों की हिन्दू धर्म के उत्थान में कोई रूचि नहीं है। वे हिन्दू धर्म के मर्म का न तो प्रचार करते हैं और नहीं आचरण करते हैं। इस मामले में वे अभी भी कठमुल्ले इस्लामपरस्तों से पीछे हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि हिन्दुत्ववादियों ने अपने को राष्ट्रवाद, फासीवाद, साम्प्रदायिकता, हिन्दु उत्थान, हिन्दू एकता आदि के बहाने हिन्दुत्ववादी राजनीति से जोड़ा है।
उल्लेखनीय है हिन्दुओं के लिए ज्ञान में श्रेष्ठता का वातावरण बनाने में सघ परिवार की कभी भी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं रही है। बल्कि संघ परिवार अन्य फासिस्ट संगठनों की तरह बौद्धिकता और बुद्धिजीवियों से घृणा करना सिखाता रहा है। बेसिर-पैर की हांकने वाले गपोडियों को प्रोत्साहन देता रहा है। संघ के विचारों का हिन्दी के बुद्धिजीवियों और लेखकों पर कितना असर है, इसे जानकर ही उनके विचारों की शक्ति का अंदाजा लगा सकते हैं। हिन्दी में अधिकांश बड़े लेखक-साहित्यकार संघ के प्रभाव से आज भी मुक्त है। संघ के पास पांच बड़े श्रेष्ठ हिन्दी लेखक और समीक्षक नहीं हैं।
संघ परिवार की विचारधारा से प्रभावित हिन्दी में शिक्षक मिल जाएंगे लेकिन बड़े प्रतिष्ठित साहित्यकार मुश्किल से मिलेंगे। हिन्दुत्ववादी बताएं इसका क्या कारण है? हमारे संघ भक्त जबाब दें कि प्रेमचंद को बोल्शेविक क्रांति क्यों पसंद थी और वे साम्प्रदायिकता से घृणा क्यों करते थे?
मैं नहीं जानता कि संघ परिवार के लोगों को मुसलमानों से खासतौर पर नफरत क्यों हैं? मैं निजी तौर पर मुसलमानों और इस्लाम से बेहद प्यार करता हूँ। मैं निजी तौर पर बुद्धिवादी हिन्दू हूँ और हिन्दूधर्म की तमाम किस्म की रूढ़ियों को नहीं मानता। मुझे हिन्दूधर्म की बहुत सी अच्छी बातें पसंद हैं। पहली, हिन्दू धर्म अन्य किसी धर्म के प्रति घृणा करना नहीं सिखाता। हिन्दू धर्म ने अन्य धर्मों के प्रति घृणा का नहीं प्रेम का संदेश दिया है। इसी तरह वर्णाश्रम व्यवस्था के जो बाहर है ,उनके प्रति घृणा की बात कहीं नहीं लिखी है। खासकर मुसलमानों के खिलाफ किसी भी किस्म के घृणा से भरे उपदेस नहीं मिलते।
इसके विपरीत हिन्दूधर्म के विभिन्न मत-मतान्तरों और सृजनकर्मियों पर इस्लाम का गहरा प्रभाव दर्ज किया गया है। मुझे इस्लाम धर्म की कई बातें बेहद अच्छी लगती हैं । इन बातों को हमारे हिन्दुत्ववादियों को भी सीखना चाहिए। प्रथम, जो मनुष्यों को गुमराह करते हैं वे शैतान कहलाते हैं। दूसरी बात, मनुष्य सिर्फ एकबार जन्म लेता है।
इसके अलावा जो चीज मुझे अपील करती है वह है इस्लामी दर्शन की किताबों का गैर इस्लामिक मतावलंबियों के द्वारा किया गया अनुवाद कार्य और उनके प्रति इस्लाम मताबलंबियों का प्रेम।
एक मजेदार किस्से का मैं जिक्र करना चाहूँगा। गैर मुस्लिम अनुवादक अपने धर्म को बदलना नहीं चाहते थे। हमें जानना चाहिए कि इन अनुवादकों के संरक्षकों की नीति क्या थी? इसका अच्छा उदाहरण है इब्न जिब्रील का। खलीफा मंसूर (754-75 ई.) ने एक बार जिब्रील से पूछाकि ,तुम मुसलमान क्यों नहीं हो जाते, उसने उत्तर दिया- ‘‘अपने बाप-दादों के धर्म में ही मरूँगा। चाहे वे जन्नत (स्वर्ग)में हों, या जोज़ख (नरक) में,मैं भी वहीं उन्हीं के साथ रहना चाहता हूँ।’’ इस पर खलीफा हँस पड़ा,और अनुवादक को भारी इनाम दिया। इस घटना का जिक्र महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ नामक ग्रंथ में किया है।
इस्लाम दर्शन की हिन्दू दर्शनशास्त्र की तरह विशेषता है कि इस्लाम दर्शन की विभिन्न धारणाओं को लेकर मतभिन्नता। इस्लाम दर्शन इकसार दर्शन नहीं है। यहां अनेक नजरिए हैं। यह धारणा गलत है कि समूचा इस्लाम दर्शन किसी एक खास नजरिए पर जोर देता है।
राहुल सांकृत्यायन की ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ किताब का जिक्र मैं खासतौर पर करना चाहूँगा और अपने पाठकों से अनुरोध करूँगा कि वे इसे जरूर पढ़ें। हिन्दी में राहुल सांकृत्यान ने पहलीबार इस्लाम दर्शन और धर्म पर बेहद सुंदर और प्रामाणिक ढ़ंग से लिखा था।
जिस तरह हिन्दुओं में धर्मशास्त्र है और उससे जुड़ा वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है वैसे ही इस्लाम में भी वैविध्यपूर्ण आचारशास्त्र है। उनके यहां आचारशास्त्र के अनेक महान ग्रंख लिखे गए हैं। इस्लाम में ऐसे भी मतावलंबी है जो आस्था के पैमाने से इस्लाम को देखते हैं और ऐसे भी विचार स्कूल हैं जो बुद्धिवाद के पैमाने के आधार पर इस्लाम धर्म को व्याख्यायित करते हैं।
यह कहना गलत है कि मुसलमान सिर्फ धार्मिक आस्था के लोग होते हैं। सच यह है कि उनके यहां मध्यकाल से लेकर आधुनिककाल तक बुद्धिवादियों की लम्बी परंपरा है। ऐसी ही परंपरा हिन्दू धर्म के मानने वालों में भी है। मुझे इस्लाम की बुद्धिवादी परंपरा से प्यार है। यह ऐसी परंपरा है जिससे समूची दुनिया प्रभावित हुई है। आओ हम यह जानें कि मुसलमान कठमुल्ला नहीं होता बल्कि बुद्धिवादी होता है। इस्लाम के धार्मिक और आचारगत मतभेदों में विश्वास करता है। उनके यहां भी विवेकवाद की परंपरा है।
किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर. पहले चतुर्वेदी जी को पढ़-पढ़ कर बोर हुए पाठकों के लिए एक चुटकुला. मेरे एक वामपंथी मित्र हैं. बात सच है या झूठ ये वो वामपंथी ही बेहतर जानते होंगे. लेकिन ‘मामला’ रोचक है. बकौल वे मित्र, उनका समाजशास्त्र का पेपर चल रहा था. मित्र ने तैयारी कुछ खास नही की थी. पेपर देख कर एकबारगी काँप गए लेकिन तुरत उन्होंने एक तरकीब निकाली. उन्होंने ‘साइकिल’ के हर पार्ट का स्मरण किया और लगे पेलने. महान समाजशास्त्री मिस्टर ‘स्पोक’ ने यह कहा तो मिस्टर ‘ब्रेक’ का ऐसा मानना था. रॉबर्ट ‘चेन’ ने ऐसा कहा तो भयंकर समाजशास्त्री ‘हेंडल’ महाशय की स्थापना इससे उलट थी वे मोटे तौर पर ‘पैडल’वादी थे आदि-आदि. और बकौल वो मित्र इन्ही ‘उपकरण’ की बदौलत वो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए.
महान व्याख्याता पंडित चतुर्वेदी जी के बारे में अपन यह तो नहीं कह सकते. निश्चय ही उनका ‘लुकास’ या पेचकस का अस्तित्व रहा होगा इतना भरोसा तो किया ही जा सकता है. लेकिन यह ज़रूर है कि जब भी इन लोगों को अपना कुतर्क थोपना होता है तो ये तत्व भी इन्ही उद्धरणों की मदद लेकर मुद्दे की ‘साइकिल’ को बड़े ही कुशलता से पगडंडी से उतार दिया करते हैं. गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को ‘अपचय, उपचय और उपापचय’ पर बात करने के बदले सीधे ‘थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिस’ तक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि ‘भूखे पेट’ को मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें.
इस बारे में केवल दो उदहारण पर गौर कीजिये. राष्ट्रवादी-राष्ट्र भक्त समूहों के लिए दो विशेषण हमेशा इनके जुबान पर ही होता है. पहला साम्प्रदायिक और दूसरा फासीवादी होना. थोड़ी गंभीरता से सोचने पर ही ताज्जुब हो सकता है कि न तो कम्म्युनिष्टों से ज्यादा साम्प्रदायिक आज तक कोई पैदा हुआ है और फासीवाद-तानाशाह व्यवस्था का समर्थन तो इनके मूल में है. इनकी तो जात ही ऐसी है कि हर उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करो जो मानव को मानवीय गुणों से विभूषित करता हो. अभी अरुंधती पर लिखे इनके एक लेख में इनके शब्द हैं….लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!
अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे. क्या कोई भी लेखक समूह अपने लिए ऐसी स्वतंत्रता चाहेगा जो हर तरह के क़ानून से मुक्त हो? इस बात से कौन इनकार करेगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बेहतर नमूना हमारा यह प्यारा ‘लोकतंत्र’ प्रस्तुत करता है. इन कठमुल्लों के स्वर्ग माने जाने वाले किसी भी देश में आप ऐसी आज़ादी नहीं पायेंगे. लेकिन बावजूद इसके अपने यहाँ भी क़ानून द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देते हुए भी कुछ युक्ति-युक्त निबंधन भी लगाया गया है. इस विषय पर प्रवक्ता पर भी अतिवादी लाल, दलाल और वाम मीडिया से पिसता अवाम काफी विमर्श हो चुका है. तो इस पर ज्यादा विमर्श न करते हुए भी इतना ज़रूर कहूँगा कि संविधान ने जिन अभिव्यक्तियों को दंड की श्रेणी में रखा है उनमें राज्य के विरुद्ध, उनको नुकसान पहुचाने वाले कृत्यों को सबसे प्रमुखता दी है.
तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.
इसी तरह एक दूसरा इनका उत्पाद है साम्प्रदायिकता का झांसा देना. आप अगर इनके घिनौने चेहरे पर नज़र डालेंगे तो पता चलेगा कि इन जैसा साम्प्रदायिक आज तक पैदा नहीं हुआ. आखिर आपने कभी भी ‘हिंदू’ के साथ ‘सम्प्रदाय’ विशेषण नहीं सुना होगा. वास्तव में हिंदू कोई सम्प्रदाय हो ही नही सकता है. सम्प्रदाय का आशय होता है ‘सम्यक प्रकारेण प्रदीयते इति सम्प्रदायः’ भावार्थ यह कि एक़ गुरु के द्वारा समूह को सम्यक प्रकार से प्रदान की गयी व्यवस्था ‘सम्प्रदाय’ कहलाता है. इस अर्थ में रामानंदी, निम्बार्की, शैब, शाक्त, वैष्णव, उदासी आदि या फ़िर मुस्लिम, सिक्ख, इसाई पारसी आदि तो सम्प्रदाय हो सकते हैं क्युकी यह सभी एक गुरु द्वारा दुसरे तक प्रदान की गयी व्यवस्था है. लेकिन हिंदुत्व तो सभी सम्प्रदाय रूपी नदियों को स्वयं में समेत लेने वाला समुद्र ही है. हिंदू कैसे सम्प्रदाय हो सकता है जिसका न कोई इकलौता गुरु या पैगम्बर है और न ही एक पूजा पद्धति.
हां यह ज़रूर है कि अगर सम्प्रदाय के शाब्दिक अर्थों में सोचा जाय तो दुनिया के घिनौने सम्प्रदाय में से एक है माओवादी सम्प्रदाय. इससे ज्यादा सांप्रदायिक आज-तक इसलिए कोई पैदा नहीं हुआ क्योंकि दुनिया ने भले ही इक्कीसवीं सदी में छलांग लगा दी हो, ये अपने पिता मार्क्स और माओ की स्थापना से रत्ती भर भी आगे जाने को तैयार नहीं हैं. न केवल इस मामले में अरियल हैं अपितु अपने (कु)पंथ के निमित्त खून की किसी भी दरिया को किसी जेहादी की तरह फांद लेने को तत्पर भी हैं. तो ऊपर के तथ्यों के बावजूद जब चतुर्वेदी जैसे लोग विषवमन कर अपना ज़हर राष्ट्र के खिलाफ उडेलते हैं, राष्ट्रवाद को सारी बुराइयों की जड बताते हैं तब स्वाभाविक रूप से खून खौलने लगता है….खैर.
अब सवाल यह पैदा होता है कि जैसा शुरुआत में कहा गया है कि इन जैसे तत्वों पर लिखने का निकृष्ट काम आखिर किया क्यूँ जाय? इनकी क्यूँ न जम कर उपेक्षा की जाय. इन तत्वों की समाप्ति का सबसे बड़ा उपाय तो यही है न कि इन्हें नज़रअंदाज़ किया जाय. लेकिन अफ़सोस यही होता है कि प्रवक्ता जैसा ईमानदार माना जाने वाला साईट भी शायद सस्ती लोकप्रियता के मोह से बच नहीं पा रहा है. अन्यथा पंडित जी द्वारा उड़ेली जा रही इतनी गंदगी का प्रवक्ता पर स्थान पाना कहां संभव होता. आप गौर करें….किसी एक ही लेखक का बाबा रामदेव पर सप्ताह में भर में सात लेख प्रकाशित करते आपने किसी साईट को देखा है? वो भी तब, जबकि कोई विशेष नहीं हुआ है रामदेव जी के साथ अभी. इसी तरह किसी भी साईट पर आपने अयोध्या मुद्दे पर एक ही लेखक के दर्ज़न भर आलेख देखे? वामपंथ पर इस तरह का सीरीज लेखन और राष्ट्रवाद को गरियाने की सुपारी अगर प्रवक्ता जैसे खुद को राष्ट्रवाद का सिपाही मानने वाले साईट ने जगदीश्वर जी को दे रखी हो तो आखिर किया क्या जाय?
अभी हाल में विभिन्न साइटों पर बुखारी से संबंधित लेख में एक लेखक ने अच्छा तथ्य उजागर किया है. उसके अनुसार एक सामान्य से मुल्ला, बुखारी को ‘बुखारी’ बनाने का श्रेय संघ परिवार को है. आपातकाल के बाद नसबंदी के कारण मुस्लिम, कांग्रेस से काफी नाराज थे. तब लेखक के अनुसार संघ समर्थित राजनीतिक दलों ने यह नारा लगाना शुरू किया था. ‘अब्दुल्ला बुखारी करे पुकार, बदलो कांग्रेस की सरकार.’ यह सन्दर्भ देते हुए लेखक का कहना था कि मुस्लिम तो कांग्रेस से तब नाराज़ थे ही अगर बुखारी का नारा नहीं लगवाया जाता तब भी चुनाव परिणाम वही होने थे. लेकिन बुखारी की मदद लेकर संघ ने बिना मतलब उसको मुसलमानों का रहनुमा बना दिया. यही निष्कर्ष प्रवक्ता के बारे में भी निकालते हुए संपादक से यह कहना चाहूँगा कि अगर वे निष्पक्ष दिखने के चक्कर में देश को इतनी गाली नहीं भी दिलवाएंगे तो भी उनकी पठनीयता क़म नही होगी. ज़ाहिर सी बात है कि जब आज वामपंथी अप्रासंगिक होते जा रहे हैं. संसद से लेकर सड़क तक, केरल के पंचायत से लेकर बंगाल के निगम से जब ये गधे की सिंग की तरह गायब होते जा रहे हैं तो किसी एक भड़ासी की क्या बिसात. तो किसी एक अनजाने से चतुर्वेदी जी को इतना भाव दे कर जाने-अनजाने प्रवक्ता एक नये बुखारी को ही जन्म दे रहा है. ये नए अब्दुल्ला भी ताकतवर हो कर सबसे पहले पत्रकारिता के मुंह पर ही तमाचा मारेंगे. भष्मासुर के कलियुगी संस्करणों ने खुद को असली राक्षस से ज्यादा ही खतरनाक साबित किया है. संपादक बेहतर जानते होंगे कि नया मुल्ला प्याज ज्यादे खाता है.
मित्रों शीर्षक आपको बाद में समझाऊंगा किन्तु लेख से पहले आपको एक सच्ची कहानी सुनाना चाहता हूँ।
हमारे देश में एक महान वैज्ञानिक हुए हैं प्रो. श्री जगदीश चन्द्र बोस। भारत को और हम भारत वासियों को उन पर बहुत गर्व है। इन्होने सबसे पहले अपने शोध से यह निष्कर्ष निकाला कि मानव की तरह पेड़ पौधों में भी भावनाएं होती हैं। वे भी हमारी तरह हँसते खिलखिलाते और रोते हैं। उन्हें भी सुख दुःख का अनुभव होता है। और श्री बोस के इस अनुसंधान की तरह इसकी कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।
श्री बोस ने शोध के लिये कुछ गमले खरीदे और उनमे कुछ पौधे लगाए। अब इन्होने गमलों को दो भागों में बांटकर आधे घर के एक कोने में तथा शेष को किसी अन्य कोने में रख दिया। दोनों को नियमित रूप से पानी दिया, खाद डाली। किन्तु एक भाग को श्री बोस रोज़ गालियाँ देते कि तुम बेकार हो, निकम्मे हो, बदसूरत हो, किसी काम के नहीं हो, तुम धरती पर बोझ हो, तुम्हे तो मर जाना चाहिए आदि आदि। और दूसरे भाग को रोज़ प्यार से पुचकारते, उनकी तारीफ़ करते, उनके सम्मान में गाना गाते। मित्रों देखने से यह घटना साधारण सी लगती है। किन्तु इसका प्रभाव यह हुआ कि जिन पौधों को श्री बोस ने गालियाँ दी वे मुरझा गए और जिनकी तारीफ़ की वे खिले खिले रहे, पुष्प भी अच्छे दिए।
तो मित्रों इस साधारण सी घटना से बोस ने यह सिद्ध कर दिया कि किस प्रकार से गालियाँ खाने के बाद पेड़ पौधे नष्ट हो गए। अर्थात उनमे भी भावनाएं हैं।
मित्रों जब निर्जीव से दिखने वाले सजीव पेड़ पौधों पर अपमान का इतना दुष्प्रभाव पड़ता है तो मनुष्य सजीव सदेह का क्या होता होगा?
वही होता है जो आज हमारे भारत देश का हो रहा है।
५००-७०० वर्षों से हमें यही सिखाया पढाया जा रहा है कि तुम बेकार हो, खराब हो, तुम जंगली हो, तुम तो हमेशा लड़ते रहते हो, तुम्हारे अन्दर सभ्यता नहीं है, तुम्हारी कोई संस्कृती नहीं है, तुम्हारा कोई दर्शन नहीं है, तुम्हारे पास कोई गौरवशाली इतिहास नहीं है, तुम्हारे पास कोई ज्ञान विज्ञान नहीं है आदि आदि। मित्रों अंग्रेजों के एक एक अधिकारी भारत आते गए और भारत व भारत वासियों को कोसते गए। अंग्र जों से पहले ये गालियाँ हमें फ्रांसीसी देते थे, और फ्रांसीसियों से पहले ये गालियाँ हमें पुर्तगालियों ने दीं। इसी क्रम में लॉर्ड मैकॉले का भी भारत में आगमन हुआ। किन्तु मैकॉले की नीति कुछ अलग थी। उसका विचार था कि एक एक अंग्रेज़ अधिकारी भारत वासियों को कब तक कोसता रहेगा? कुछ ऐसी परमानेंट व्यवस्था करनी होगी कि हमेशा भारत वासी खुद को नीचा ही देखें और हीन भावना से ग्रसित रहें। इसलिए उसने जो व्यवस्था दी उसका नाम रखा Education System. सारा सिस्टम उसने ऐसा रचा कि भारत वासियों को केवल वह सब कुछ पढ़ाया जाए जिससे वे हमेशा गुलाम ही रहें। और उन्हें अपने धर्म संस्कृती से घृणा हो जाए। इस शिक्षा में हमें यहाँ तक पढ़ाया कि भारत वासी सदियों से गौमांस का भक्षण कर रहे हैं। अब आप ही सोचे यदि भारत वासी सदियों से गाय का मांस खाते थे तो आज के हिन्दू ऐसा क्यों नहीं करते? और इनके द्वारा दी गयी सबसे गंदी गाली यह है कि हम भारत वासी आर्य बाहर से आये थे। आर्यों ने भारत के मूल द्रविड़ों पर आक्रमण करके उन्हें दक्षिण तक खदेड़ दिया और सम्पूर्ण भारत पर अपना कब्ज़ा ज़मा लिया। और हमारे देश के वामपंथी चिन्तक आज भी इसे सच साबित करने के प्रयास में लगे हैं। इतिहास में हमें यही पढ़ाया गया कि कैसे एक राजा ने दूसरे राजा पर आक्रमण किया। इतिहास में केवल राजा ही राजा हैं प्रजा नदारद है, हमारे ऋषि मुनि नारद हैं। और राजाओं की भी बुराइयां ही हैं अच्छाइयां गायब हैं। आप जरा सोचे कि अगर इतिहास में केवल युद्ध ही हुए तो भारत तो हज़ार साल पहले ही ख़त्म हो गया होता। और राजा भी कौन कौन से गजनी, तुगलक, ऐबक, लोदी, तैमूर, बाबर, अकबर, सिकंदर जो कि भारतीय थे ही नहीं। राजा विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान गायब हैं। इनका ज़िक्र तो इनके आक्रान्ता के सम्बन्ध में आता है। जैसे सिकंदर की कहानी में चन्द्रगुप्त का नाम है। चन्द्रगुप्त का कोई इतिहास नहीं पढ़ाया गया। और यह सब आज तक हमारे पाठ्यक्रमों में है।
इसी प्रकार अर्थशास्त्र का विषय है। आज भी अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले बड़े बड़े विद्वान् विदेशी अर्थशास्त्रियों को ही पढ़ते हैं। भारत का सबसे बड़ा अर्थशास्त्री चाणक्य तो कही है ही नहीं। उनका एक भी सूत्र किसी स्कूल में भी बच्चों को नहीं पढ़ाया जाता। जबकि उनसे बड़ा अर्थशास्त्री तो पूरी दुनिया में कोई नहीं हुआ।
दर्शन शास्त्र में भी हमें भुला दिया गया। आज भी बड़े बड़े दर्शन शास्त्री अरस्तु, सुकरात, देकार्ते को ही पढ़ रहे हैं जिनका दर्शन भारत के अनुसार जीरो है। अरस्तु और सुकरात का तो ये कहना था कि स्त्री के शरीर में आत्मा नहीं होती वह किसी वस्तु के समान ही है, जिसे जब चाहा बदला जा सकता है। आपको पता होगा १९५० तक अमरीका और यूरोप के देशों में स्त्री को वोट देने का अधिकार नहीं था। आज से २०-२२ साल पहले तक अमरीका और यूरोप में स्त्री को बैंक अकाउंट खोलने का अधिकार नहीं था। साथ ही साथ अदालत में तीन स्त्रियों की गवाही एक पुरुष के बराबर मानी जाती थी। इसी कारण वहां सैकड़ों वर्षों तक नारी मुक्ति आन्दोलन चला तब कहीं जाकर आज वहां स्त्रियों को कुछ अधिकार मिले हैं। जबकि भारत में नारी को सम्मान का दर्जा दिया गया। हमारे भारत में किसी विवाहित स्त्री को श्रीमति कहते हैं। कितना सुन्दर शब्द हैं श्रीमती जिसमे दो देवियों का निवास है। श्री होती है लक्ष्मी और मति यानी बुद्धि अर्थात सरस्वती। हम औरत में लक्ष्मी और सरस्वती का निवास मानते हैं। किन्तु फिर भी हमारे प्राचीन आचार्य दर्शन शास्त्र से गायब हैं। हमारा दर्शन तो यह कहता है कि पुरुष को सभी शक्तियां अपनी माँ के गर्भ से मिलती हैं और हम शिक्षा ले रहे हैं उस आदमी की जो यह मानता है कि नारी में आत्मा ही नहीं है।
चिकत्सा के क्षेत्र में महर्षि चरक, शुषुक, धन्वन्तरी, शारंगधर, पातंजलि सब गायब हैं और पता नहीं कौन कौन से विदेशी डॉक्टर के नाम हमें रटाये जाते हैं। आयुर्वेद जो न केवल चिकित्सा शास्त्र है अपितु जीवन शास्त्र है वह आज पता नहीं चिकित्सा क्षेत्र में कौनसे पायदान पर आता है?
बच्चों को स्कूल में गणित में घटाना सिखाते समय जो प्रश्न दिया जाता है वह कुछ इस प्रकार होता है-
पापा ने तुम्हे दस रुपये दिए, जिसमे से पांच रुपये की तुमने चॉकलेट खा ली तो बताओ तुम्हारे पास कितने रुपये बचे?
यानी बच्चों को घटाना सिखाते समय चॉकलेट कम्पनी का उपभोगता बनाया जा रहा है। हमारी अपनी शिक्षा पद्धति में यदि घटाना सिखाया जाता तो प्रश्न कुछ इस प्रकार का होता-
पिताजी ने तुम्हे दस रुपये दिए जिसमे से पांच रुपये तुमने किसी गरीब लाचार को दान कर दिए तो बताओ तुम्हारे पास कितने रुपये बचे?
जब बच्चा बार बार इस प्रकार के सवालों के हल ढूंढेगा तो उसके दिमाग में कभी न कभी यह प्रश्न जरूर आएगा कि दान क्या होता है, दान क्यों करना चाहिए, दान किसे करना चाहिए आदि आदि? इस प्रकार बच्चे को दान का महत्त्व पता चलेगा। किन्तु चॉकलेट खरीदते समय बच्चा यही सोचेगा कि चॉकलेट कौनसी खरीदूं कैडबरी या नेस्ले?
अर्थ साफ़ है यह शिक्षा पद्धति हमें नागरिक नहीं बना रही बल्कि किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी का उपभोगता बना रही है। और उच्च शिक्षा के द्वारा हमें किसी विदेशी यूनिवर्सिटी का उपभोगता बनाया जा रहा है या किसी वेदेशी कम्पनी का नौकर।
मैंने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई में कभी यह नहीं सीखा कि कैसे मै अपने तकनीकी ज्ञान से भारत के कुछ काम आ सकूँ, बल्कि यह सीखा कि कैसे मै किसी Multi National Company में नौकरी पा सकूँ, या किसी विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिला ले सकूँ।
तो मित्रों सदियों से हमें वही सब पढ़ाया गया कि हम कितने अज्ञानी हैं, हमें तो कुछ आता जाता ही नहीं था, ये तो भला हो अंग्रेजों का कि इन्होने हमें ज्ञान दिया, हमें आगे बढ़ना सिखाया आदि आदि। यही विचार ले कर लॉर्ड मैकॉले भारत आया जिसे तो यह विश्वास था कि स्त्री में आत्मा नहीं होती और वह हमें शिक्षा देने चल पड़ा। हम भारत वासी जो यह मानते हैं कि नारी में देवी का वास है उसे मैकॉले की शिक्षा की कà ��या आवश्यकता है? हमारे प्राचीन ऋषियों ने तो यह कहा था कि दुनिया में सबसे अवित्र नारी है और पुरुष में पवित्रता इसलिए आती है क्यों कि उसने नारी के गर्भ से जन्म लिया है। जो शिक्षा मुझे मेरी माँ से जोडती है उस शिक्षा को छोड़कर मुझे एक ऐसी शिक्षा अपनानी पड़ी जिसे मेरी माँ समझती भी नहीं। हम तो हमारे देश को भी भारत माता कहते हैं। किन्तु हमें उस व्यक्ति की शिक्षा को अपनाना पड़ा जो यह मानता है कि मेरी माँ में आत्मा ही नहीं है। और एक ऐसी शिक्षा पद्धति जो हमें नारी को पब, डिस्को और बीयर बार में ले जाना सिखा रही है, क्यों?
आज़ादी से पहले यदि यह सब चलता तो हम मानते भी कि ये अंग्रेजों की नीति है, किन्तु आज क्यों हम इस शिक्षा को ढो रहे हैं जो हमें हमारे भारत वासी होने पर ही हीन भावना से ग्रसित कर रही है? आखिर कब तक चलेगा यह सब?
प्रवक्ता.कॉम के एक विद्वान्(?) लेखक के द्वारा पिछले कुछ दिनों से स्वामी रामदेव जी पर अपने पूरे दम के साथ कुठारागात किया जा रहा है, उन्हें बताना चाहूँगा कि इस लेख का सारा डाटा मुझे भारत स्वाभिमान के उनके एक व्याख्यान से ही मिला है। और आप ध्यान से देखें हमारी भारत माता के चित्र को जो लेख में सबसे ऊपर है। कितनी सुन्दर है हमारी भारत माँ!!!
दिल्ली में गिलानी की सभा में किसी ने उनपर जूता फेंक दिया. ये जूता उनको लगा नहीं. अब इसे क्या कहेगे आप? इससे पहले भी कई लोगों को निशाना बना कर जूते फेंके जा चुके हैं. कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी नीरिह जूते का निशाना बनाने की कोशिश की गयी थी पर ना जाने क्या हुआ. जूता बिकुल करीब जाकर भी नहीं लगा. यह भी नहीं कह सकते कि जूते के जरिये अपनी भावना को व्यक्त करने वाला नया खिलाडी था. भैया वो तो कश्मीर पुलिस का निलंबित अधिकारी था. और इस देश में पुलिस अधिकारियों को जूते मारने की तो बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है. यकीन ना हो तो देश के किसी भी पुलिस स्टेशन में जाइये और देख लीजिये. किस तरह एक आम आदमी जूते खाता है. वैसे ये काम आप अपने रिस्क पर कीजियेगा हुज़ूर. वहां कहीं एक-आध जूते आपको भी लग गए तो मुझे दोष ना दीजियेगा. लेकिन कलयुगी यक्ष का प्रश्न का आज भी जस का तस है कि जूता अपने मुख्य मार्ग से भटका क्यों? जूता नीतीश कुमार की सभा में भी चला था लेकिन हैरानी की बात यह कि ये भी नीतीश को लगा नहीं. मोदी को भी निशाना बनाने की कोशिश की गयी लेकिन सफलता नहीं मिली. क्या हो रहा है इस देश में? इस देश का आम नागरिक इस कदर अपने लक्ष्य से भटक चुका है. एक जूता तक वो निशाने पर नहीं मार सकता. कुछ तो गड़बड़ है. ये राष्ट्रीय चिंतन का विषय है. वैसे जूते तो बुश और ओबामा की सभाओं में भी चले हैं लेकिन वो भी भारतीय जूतों की ही तरह निशाने से चूक गए. ज़रूर कहीं कुछ तो है. अब भला अमेरिकन्स पर भी जूते नहीं पड़ रहें हैं तो कुछ गलत है. वरना भारतीयों का निशाना चूक जाना तो समझ में आता है. अमेरिकन्स कैसे निशाना चूक सकते हैं. यानी अब ये मुद्दा राष्ट्रीय ना रहकर अंतर्राष्ट्रीय भी हो गया है.
इस पूरा मसले को अलग नज़रिए से देखा जाये तो पूरी साजिश जूतों की लगती है. इंसानों वो भी खासकर राजनेताओं पर जब- जब इन्हें फेंका गया इन जूतों ने उनतक पहुँचने से पहले ही अपना रास्ता बदल दिया. साफ़ है कि इस ग्लोबल विचारधारा वाले समाज में सभी जूते भी एक जैसी सोच रखने लगे हैं. सफ़ेद पोशों ने इन जूतों को अपना बना लिया है. कुछ खिला- पिला कर अपने गोल में शामिल कर लिया है. ऐसे भी हमने ना जाने कितने नेताओं को जूतों की माला पहनाई है. लगता है, जूतों को इतने करीब से महसूस करने का फ़ायदा इन नेताओं ने खूब उठाया है. गले में लटके जूते से वार्ता की और उन्हें पटा लिया. ये नेता खुद तो ईमानदार नहीं हो पाए लेकिन इन जूतों को ईमानदार बना दिया. जूतों को उनकी गरिमा के बारे में बता दिया. उनके कान में बता दिया है कि अगर यूं ही हम लोगों पर पड़ते रहे तो तुम्हारी इज्ज़त का फालूदा बन जायेगा. सच भी है भैया अब पुरानी कहावत है कि कीचड में पत्थर फेंकोगे तो छींटे तुम्हारे ऊपर ही आयेंगे. जूतों को भी लगा की नेताओं से दोस्ती में ही भलाई है. और इस तरह से ईमानदारी का तमगा भी लग जायेगा. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जूतों ने ये निर्णय लिया और सभी प्रकार के जूतों के लिए इसे मान्य किया गया. कंपनी चाहें जो भी हो नियम तो नियम होता है. सभी को मानना ही पड़ेगा. चूँकि भारत में इधर बीच इन जूतों को फेंकने की घटनाएँ कुछ ज्यादा ही हो रहीं हैं इसलिए यहाँ नियम कुछ सख्त हैं. जूते इन नियमो को पूरी तरह से मानते है.
लेकिन इसके साथ ही राज़ की एक बात और बताता हूँ. जूतों ने सिर पर न पड़ने का निर्णय सिर्फ नेताओं और माननीयों के लिए लिया है. आम आदमी इसमें शामिल नहीं है. इसलिए इस मुगालते में न रहें की अब आपका सिर सुरक्षित है. अगर आपने अपने को निरीह प्राणी ना समझ कर अपने दायरों से बाहर निकलने की कोशिश की तो ये जूते आपको आपकी औकात याद दिला देंगे. फिर इसमें इस बात का डर भी नहीं है कि कीचड़ के छींटे उन पर जायेंगे. आम आदमी के ऊपर पड़ने में जूतों को एक प्रकार की आत्मिक शांति भी मिलती है और इस बात का संतोष भी होता है कि एक पुरानी परंपरा का निर्वहन हो रहा है. जूते और नेताओं का साथ अब जन्म जन्म का हो गया है. इसलिए उनपर जूते फेंकने का कोई फायेदा नहीं होने वाला है. और हाँ आपके लिए एक सलाह है, बिल्कुल मुफ्त. वह ये कि यदि आप एक आम नागरिक हैं तो चुप- चाप अपने पैरों को जूतों में रखिये. अगर इनसे बाहर निकालने की कोशिश की तो ये जूते कब आपके सिर तक पहुँच जायेंगे आप को पता भी नहीं चलेगा.
भगवान राम को जहाँ महाभारतकार वेद व्यास ने गीता में वीरता के विग्रह के रूप में देखा है, वहीं तुलसी ने उन्हें परब्रह्म के अवतार के रूप में पहचाना है। लोकमानस उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में जानता है। जो परब्रह्म के अवतार को स्वीकार नहीं करते वे उन्हें एक महापुरुष के रूप में उद्धृत करते हैं।
राम नाम भगवान दाशरथि राम के अवतरण के पूर्व भी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता था। कारण, राम शब्द की व्युत्पत्ति है। राम अर्थात सबमें रमा हुआ। भारतीय मनीषा ने इसी हेतु से राम नाम को परब्रह्मवाची स्वीकारा है। अध्यात्मवादी जानते हैं कि यह पञ्चभूता प्रकृति तब तक निष्क्रिय है जब तक इसका संस्पर्श उस एकमेव परमचेतन सत्ता में नहीं होता है। यह सृष्टि आण्विक है। प्रत्येक अणु, परमाणु अपने भीतर सत्, रज, तम् नाम के तीन तत्व धारण किए हुए है, जिसे स्थूल भौतिकता के स्तर पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश शास्त्रकारों ने कहकर, त्रि-देवों की भारतीय सांस्कृतिक एकता का ऐतिहासिक पक्ष प्रस्तुत किया है। जब प्रकृति पराशक्ति के संसर्ग में आती है तब उसका अणु-परमाणु चालित हो उठता है। इन्हीं त्रि-देवों में एक सर्जक तत्व है, दूसरा पालक तथा तीसरा विध्वंसक है। प्रकृति की इसी त्रि-गुणात्मक शक्ति को देख मूर्ख चार्वाक चेतन सत्ता की उपस्थिति अनावश्यक मान उसे नकारते हैं। पटरी पर इंजन दौड़ता है तो यह लोहे का गुण नहीं है। उस ऊर्जा शक्ति का गुण है जो उसे चालित रखता है। राम नाम भारतीय अध्यात्म की ऊर्जा है, जो दृश्यमान जगत को चालित रखने वाली शक्ति के रूप में स्वीकृत है।
हम भारतीय अध्यात्म का इतिहास उठाकर देख लें। आशुतोष शिव ने जिस नाम का जप किया वह राम नाम ही है। सिद्धों ने जिसे “अलख निरञ्जन” कहा, वह राम नाम ही है। गोरखनाथ का पुरा पंथ राम नाम ही जपता रहता है। संतों की वीणी ने तो राम-राम जपते भारतीय भक्ति साहित्य को एक नया आयाम दिया है। संत साहित्य चाहे निर्गुण हो चाहे सगुण हो, दोनों ने राम नाम को ही अपनी शक्ति का आधार बनाया है। जुलाहे कबीर तक ने राम नाम को ही प्रचारित किया है। अपने राम की बहुरिया कहकर उस परम चेतन सत्ता को स्मरण किया है। राम ही ओम् है, प्रणव है, राम ही विष्णु है, कृष्ण है। रामानन्द ने राम नाम का ही मन्त्र ही विश्व को दिया है। इस तरह राम भारतीय आत्मा का परमात्मा हैं, जिसे पाने के लिए ही सारी यौगिक साधनाएं हैं। यह परम तत्व प्रकृति से संसर्गित होकर भी प्रकृति से पृथक है, प्रकृति नहीं है। इस आध्यात्मिक खोज को भारतीय दर्शन का एक चमत्कार कह सकते हैं।
महर्षि वशिष्ठ जो राजा दशरथ के कुल पुरोहित थे, के अवतरण के सत्य को स्वीकारते थे या नहीं, मैं नहीं जानता। अपने अनुमान से कह सकता हूँ कि वे एक अच्छे ज्योतिषि थे, जन्मपत्रिका के विश्वासी अध्येता थे। जब उन्होंने राम के जन्म नक्षत्रों को पढ़ा तो उन्होंने राम की जन्मपत्रिका में वे सब प्रभावकारी ग्रह दिखे, जो उन्हें लोकप्रिय तथा जन-जन का गलहार बना सकते थे। राम नाम की तरह दाशरथि भी जन-जन के हृदय में सदा रमे रहेंगे। इसी भाव से उन्होंने दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम राम रखा। इस नामकरण में प्रभु राम के साथ दशरथ पुत्र राम का तुल्यता भाव ही निहित है, स्पष्ट है।
दाशरथि राम कब प्रभु राम हो गए, कब मर्यादापुरुषोत्तम परब्रह्म हो गए, महापुरुष राम परम चेतन सत्ता के अवतरण हो गए, यह स्पष्ट तो नहीं कह सकते पर इतना अवश्य कह सकते हैं, महाभारतकार जिन राम को वीरता का विग्रह कहता है वही अध्यात्म रामायण लिखकर राम के प्रतीक से अध्यात्म का निरुपण करता है। कृष्ण को राम की भाँति षोडश कलावतार रूप में भागवत में प्रस्तुत कर अद्वैत का निरूपण करता है। इससे पूर्व मैं ऐसा कोई ग्रंथ नहीं देखता हूँ जो राम को आध्यात्मिक प्रतीक बनाकर कुछ कहता हो। वैसे ऋग्वेद में राम नाम आया है, ऐसा विद्वान कहते हैं। लेकिन वह दाशरथि राम के लिए आया हो ऐसा मैं नहीं मानता। वह रमे होने के अर्थ में ही हो सकता है।
इसे संयोग कहें या कुछ और, दाशरथि राम ने अपने चरित्र से विश्व के सम्मुख एक समग्र भारतीय संस्कृति का एक विराट रूप ही प्रस्तुत कर दिया है। तुलसी के शब्दों में वे करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले हैं। शरीर से बलिष्ठ हैं, प्रकृति से उदार, क्षमाशील तथा शरणागत वत्सल हैं। उन्होंने किसी भी परिस्थिति में मानव मर्यादा का अतिक्रमण या उल्लंघन नहीं किया है। वे आदर्श आज्ञापालक पुत्र हैं, विनीत शिष्य हैं, भ्रातृत्व के जीवंत रूप हैं, वे माताओं को सुख देने वाले हैं। ऋषियों के यज्ञ के रक्षक हैं, सनातन मर्यादाओं के पोषक हैं तथा आदर्श मानवीय गुणों के धारक ही नहीं, शौर्य-साहस एवं अदम्य जिजीविषा के अनन्य उदाहरण हैं। उन्होंने कर्मभूमि से जीवन में कभी पीठ नहीं दिखाई। वे अतुलनीय पराक्रम, अवर्णनीय तेजस्विता, अपरिमित शील, दुर्दम्य शक्ति के धनी ही नहीं थे, सौन्दर्य में साक्षात कामदेव थे। दाशरथि राम के ऐसे उज्जवल चरित्र से राम नाम परब्रह्म का पर्याय ही न रहकर, मर्यादा परुषोत्तम का साक्षात प्रतीक बन गया।
दाशरथि राम पिता की आज्ञा मान यौवराज्य छोड़ चौदह वर्ष के लिए दृढ़ता पूर्वक वनगमन कर जाते हैं। ऐसा आज्ञापालक पुत्र दूसरा हो सकता है ? राजपुत्र होकर भी निषादराज गुह को गले से लगाते हैं। केवट को उतराई देते हैं। उन्हें सीता का पता देने वाले जटायु का वे आभार ही नहीं मानते, उसका वैदिक संस्कार स्वयं करते हैं। शबरी के जूठे बेर खाते हैं। बंदर व भालुओं के साथ आत्मीयता प्रकट करते हैं। सीता को ले आने के बाद लोकमत की चिंता कर उनका परित्याग कर देते हैं। अश्वमेघ में पत्नी की अनिवार्यता रहते दूसरा विवाह ना कर स्वर्ण मोती बनवाकर रखते हैं, ऐसा आदर्श व्यक्तित्व दुर्लभ है।
गाँधी जी की रामराज्य की कल्पना, मृत्यु समय हे राम कहकर उनका प्राण त्यागना इस बात का प्रमाण है कि राम गाँधी जी के रोम-रोम में तो थे ही, राम लोकमानस में उसी भाँति विराजित हैं। तुलसी के रामचरितमानसे के बाद दाशरथि राम मात्र महापुरुष न रहकर जन-जन की आस्था के प्रतीक बन गए। लोकजीवन, दाशरथि राम ने ही उस विराट चेतन सत्ता के दर्शन कर रहा है। सगुण भक्ति आलंबन की अपेक्षा रखती है। दाशरथि रामभक्ति के आलंबल बन गए। आज कोटि-कोटि जन दाशरथि राम को ही परम ब्रह्म मानकर उनका उसी रूप में नाम जप कर रहा है। उनके आदर्श चरित्र को अपनी संस्कृति का विशिष्ट उपादान मान, उसपर आचरण कर रहा है। अपने राम का प्रतिरूप बनाना चाह रहा है।
दाशरथि राम का सांस्कृतिक राज्य विस्तार दक्षिण-पूर्वी देशों तक इतना सघन था कि वहाँ की प्रजा धर्मान्तरण करने के पश्चात भी अपने गौरवपूर्ण अतीत से मुख नहीं मोड़े हैं। थाई देशों में आज भी अयोध्या है। इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा में आज भी वहाँ का मुसलमान रामलीला देखना और खेलना पसंद करता है, यह राम के प्रभाव की चिरंतता को प्रकट करता है।
राम ने अपने व्यक्तित्व से सुदूर उत्तर के कैकय प्रदेश से लंका को जोड़ा, मिथिला से अयोध्या को जोड़ा। उत्तर की संस्कृति को दक्षिण से, नेपाल की संस्कृति से, अवध की संस्कृति से जोड़ा। हजारों साल हो जाने के बाद भी दाशरथि राम आज लोकमानस में परब्रह्म के रूप में विराजमान हैं। वे नहीं भुलाए जा सकते। वे अधर्मियों के अद्धारक, संतों के प्रतिपालक तथा दुष्टों के विनाशक के रूप में सदा जाने ही नहीं जाते रहेंग, आराधे भी जाते रहेंगे। उनका नाम उस परब्रह्म के नाम के साथ ऐसा घुलमिल गया है कि उसे अब पृथक नहीं किया जा सकता। वे व्यक्ति भी हैं, परब्रह्म भी हैं। वे लौकिक भी हैं अलौकिक भी। किसी भी रूप में हम आराधें, वे हमारे अपने हैं।
॰ स्वाभिमान टाइम्स की सफल शुरुआत के मौके पर कार्यक्रम आयोजित
॰ बिग ब्रॉडकास्टिंग एंड मल्टीमीडिया कॉरपोरेशन लिमिटेड के चेयरमैन ने की अन्य राज्यों में संस्करण शुरू करने की घोषणा
॰ जल्द ही शुरू होगा राष्ट्रीय स्तर का टेलिविजन चैनल और प्रकाशित की जाएगी मासिक अंग्रेजी समाचार पत्रिका पावर प्लस
नई दिल्ली : कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता…एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…हिंदी गजलकार दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों के साथ उद्बोधन की शुरुआत करते हुए बिग ब्रॉडकास्टिंग एंड मल्टीमीडिया कॉरपोरेशन लिमिटेड के चेयरमैन बनवारी लाल कुशवाह ने इस बात पर ज़ोर दिया कि मन में लगन हो, सच्चा प्रयास किया जाए, हौसला बना रहे, तो कोई भी मंजिल दूर नहीं रहती।
बिग की प्रस्तुति हिंदी दैनिक स्वाभिमान टाइम्स की सफल शुरुआत के मौके पर कौशांबी के पैसेफिक मॉल, एनसीआर में आयोजित कार्यक्रम में श्री कुशवाह ने बताया कि दिल्ली के बाद जल्द ही उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से भी अखबार के संस्करणों की शुरुआत की जाएगी।
संपादकीय, पेजिनेशन, मार्केटिंग, प्रोडक्शन, प्रसार, कार्मिक आदि विभागों के साथियों को कम समय में बेहतर प्रोडक्ट तैयार करने के लिए बधाई देते हुए श्री कुशवाह ने कहा कि कुशल नेतृत्व में युवाओं की टीम पत्रकारिता के नए प्रतिमान गढ़ रही है और उन्हें इस बात का पूरा विश्वास है कि ये अखबार आज के दौर में महत्वपूर्ण जगह बनाने में कामयाब होगा।
उन्होंने कहा कि स्वाभिमान टाइम्स के ज़रिए हर वर्ग के लोगों की आवाज़ बुलंद हो सके, यही मेरी कामना है। श्री कुशवाह ने भरोसा जताया कि नौजवान और जुझारू पत्रकारों व सजग पाठकों के सहयोग से इस प्रोडक्ट को निश्चित तौर पर सफलता मिलेगी।
श्री कुशवाह ने ये जानकारी भी दी कि बिग ब्रॉडकास्टिंग एंड मल्टीमीडिया कॉरपोरेशन जल्द ही अंग्रेजी मासिक समाचार पत्रिका पावर प्लस और हिंदी न्यूज चैनल की शुरुआत करेगा।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रधान संपादक अजय कुमार ने सभी सहयोगियों को कम समय में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के लिए पूरे स्टाफ को बधाई दी और कहा कि कम संसाधनों में उत्कृष्ट प्रोडक्ट तैयार कर सबने ये साबित कर दिया है कि सच्ची लगन से हर काम आसान हो जाता है। श्री कुमार ने हर्ष व्यक्त करते हुए बताया कि कम समय में ही स्वाभिमान टाइम्स की चर्चा हर मंच पर होने लगी है। इनमें वेब मीडिया से लेकर आकाशवाणी की दैनिक समीक्षा के मंच तक शामिल हैं।
कार्यक्रम में स्वाभिमान टाइम्स की पूरी टीम के साथ चार्टर्ड अकाउंटेंट अनिल चड्ढा, गरिमा मिल्क एंड फूड प्रोडक्ट्स लिमिटेड के सीईओ सरवर हुसैन, गरिमा रियल स्टेट लिमिटेड के जनरल मैनेजर सुधीर रॉय और समूह के एकाउंट्स इंचार्ज श्री अभय के अलावा, ग्रुप कंपनी के तमाम कर्मचारी व अधिकारी तथा बीएफएल लिमिटेड के डायरेक्टर उदय सिंह और श्री कौशल वार्ष्णेय भी मौजूद थे।
चित्र परिचय: मंच से ओजस्वी संबोधन करते बनवारी लाल कुशवाह