आजादी की मांग को लेकर एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में आग लगी हुई है। कुछ भाड़े के कट्टरपंथी पाकिस्तान के इशारे पर सड़क पर उतरकर भारत की संप्रभुता को तार-तार करने में तुल गए हैं। उनमें से कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें हम और आप बड़ी इज्जत भरी निगाहों से देखते और सुनते रहे हैं। अब ये लोग भी जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानते और आजादी की मांग करने लगे हैं।
नई दिल्ली में पिछले दिनों कमेटी फार रिलीज आफ पालिटिकल प्रिजनर नामक संगठन के बैनर तले अरूंधती राय, गिलानी, प्रो अब्दुर्रहमान, नजीब बुखारी, शेख शौकत हुसैन जैसे लोगों ने जो विचार रखे। उस पर मैंने काफी विचार-मंथन किया। आखिर इतने बड़े लोग आजादी की बात कर रहे हैं तो कुछ तो बात होगी। हो सकता है वे सही हो, ये भी हो सकता है कि वे कश्मीरवासियों को मौत के मुंह में धकेल रहे हों। मंथन में कुछ सवाल बाहर निकले, जिनका जवाब मैं इन महानुभावों से पूछना चाहता हूं। पहला ये कि आखिर वे कैसी आजादी चाहते हैं? क्या वे भारत से आजाद होकर पाकिस्तान में मिलना चाहते हैं। यदि ऐसा है तो क्या उन्हें पाकिस्तान में उतनी आजादी मिलेगी, जो अब उन्हें मिल रही है। क्या वे पाकिस्तान में मिलकर अमन और खुशहाली का जीवन जी पाएंगे। यदि ऐसा है तो पाक अधिकृत कश्मीर में 50 साल बाद भी शांति और खुशहाली क्यों नहीं लौट पाई। क्या इसका जवाब हैं आपके पास।
मेरा दूसरा सवाल है, क्या आप भारत से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर जम्मू कश्मीर की आजादी चाहते हैं। यदि ऐसा है तो मुझे बताइए कि एक तरफ पाकिस्तान है जो विगत 60 सालों से जम्मू-कश्मीर पर कब्जा जमाने का सपना पाल रहा है, क्या आपको चैन से बैठने देगा? क्या गारंटी है कि स्वतंत्र राष्ट्र होने के बाद पाकिस्तान आपके खिलाफ साजिश नहीं करेगा? अभी तो भारत जैसा शक्तिशाली राष्ट्र है, जिसकी वजह से पाकिस्तान की हिम्मत नहीं होती, सीधी टक्कर लेने की। आजादी मिलने के बाद आपको कब मसल कर रख देगा, आपको पता भी नहीं चलेगा। दूसरी ओर चीन भी भारत से टक्कर लेने के लिए आप पर हुकूमत नहीं करना चाहेगा, इसकी क्या गारंटी है? क्या चीन धरती के स्वर्ग पर कब्जा करना नहीं चाहेगा? क्या आजाद कश्मीर के पास इतना सामर्थ्य होगा, जो अकेले अपने दम पर पाकिस्तान या चीन से मुकाबला कर सके।
जिस पाकिस्तान के दम पर गिलानी और अरूंधती राय जैसे लोग जम्मू-कश्मीर की आजादी की मांग कह रहे हैं, पहले उन्हें एक माह तक एक आदमी की तरह पाकिस्तान में रहकर देखना चाहिए। उन्हें समझ में आ जाएगा कि जम्मू-कश्मीर की भलाई भारत के साथ रहने में है या स्वतंत्र रहने में। एक तरफ तेजी से विश्व की ताकत बनता भारत है, जहां कुल आबादी के 70 फीसदी लोगों को दो व तीन रूपए किलो चावल देने की तैयारी हो रही है। उधर, पाकिस्तान सदी के सबसे विकराल बाढ़ से पीड़ित लोगों को दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं करा पा रहा है। एक तरफ भारत के दर्जनभर उद्योगपति विश्व की कई बड़ी कंपनियों को खरीदने की तैयारी कर रहे हैं, उधर उद्योग तो दूर वहां के कालेज और अस्पताल भी बिकने के कगार पर हैं। भारत का आईटी प्रोफेशनल्स से अब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश भी खौफ खाने लगे हैं। यही वजह है कि आउटसोर्सिंग पर अमेरिका में राजनीति गरम है। उधर, पाकिस्तान आज भी 18 वीं सदी में जी रहा है। यही नहीं, भारत में आज इतना अनाज पैदा होता है कि लाखों टन अनाज गोदाम के अभाव में यूं ही खुले आसमान के नीचे रखे होते हैं। उधर, पाकिस्तान में जब तक अमेरिका भीख में डालर नहीं देता, गोदाम में अनाज तो क्या लोगों के घर चूल्हा नहीं जलता।
ये तो कुछ उदाहरण हैं, जो ये समझने के लिए काफी है कि जम्मू-कश्मीर का सुनहरा भविष्य कहां है। अब वहां की जनता को तय करना है कि उन्हें भारत के साथ रहकर शांति और विकास की राह पर चलना है या पाकिस्तान के साथ आतंकवाद और बर्बादी की राह पर। वैसे भी आज जो कश्मीर की हालत है, उसके लिए भी यही कट्टरपंथी जिम्मेदार हैं। यदि ये लोग जितनी ताकत जम्मू-कश्मीर को आजाद कराने में लगाते हैं,उससे 50 फीसदी ताकत भी यदि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास में लगाते तो शायद जम्मू-कश्मीर की वादियों में आग नहीं, बल्कि आज सोने का धन बरस रहा होता। अंत में मैं जम्मू-कश्मीर की जनता से करबध्द प्रार्थना करना चाहता हूं कि आप भी हमारे अपने भाई-बहन हैं, किसी के बहकावे में न आएं और अरूंधती राय व गिलानी जैसे
लोगों को मुंहतोड़ जवाब दें ताकि फिर कोई देशद्रोही इस तरह खुलेआम भारत की संप्रभुता पर हमला करने की सोच भी न सके।
वर्ष 2007 में चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अतिक्रमण या उससे मिलती जुलती लगभग 140 घटनायें हुई, वर्ष 2008 में 250 से भी अधिक तथा वर्ष 2009 के प्रारम्भ में लगभग 100 के निकट इसी प्रकार की घटनायें हुई इसके बाद भारत सरकार ने हिमालयी रिपोर्टिंग, भारतीय प्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। आज देश के समाचार पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सूचनायें मिलना बन्द हैं। क्या उक्त प्रतिबन्ध से घुसपैठ समाप्त हो गयी या कोई कमी आयी। इस प्रतिबन्ध से चीन के ही हित सुरक्षित हुये तथा उनके मनमाफिक हुआ। जरा हम चीन के भारत के प्रति माँगों की सूची पर गौर करें – वह चाहता है अरुणाचल प्रदेश उसे सौंप दिया जाये तथा दलाईलामा को चीन वापस भेज दिया जाये। वह लद्दाख में जबरन कब्जा किये गये भू-भाग को अपने पास रखना चाहता है तथा वह चाहता है। भारत अमेरिका से कोई सम्बन्ध न रखे इसके साथ-साथ चीन 1990 के पूरे दशक अपनी सरकारी पत्रिका ”पेइचिंग रिव्यू” में जम्मू कश्मीर को हमेशा भारत के नक्शे के बाहर दर्शाता रहा तथा पाक अधिकृत कश्मीर में सड़क तथा रेलवे लाइन बिछाता रहा। बात यही समाप्त नहीं होती कुछ दिनों पहले एक बेवसाइट में चीन के एक थिंक टैंक ने उन्हें सलाह दी थी कि भारत को तीस टुकड़ों में बाँट देना चाहिये। उसके अनुसार भारत कभी एक राष्ट्र रहा ही नहीं। इसके अतिरिक्त चीन भारत पर लगातार अनावश्यक दबाव बनाये रखना चाहता है। वह सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पाने की मुहिम का विरोध करता है तो विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में अरुणाचल प्रदेश की विकास परियोजनाओं के लिये कर्ज लिये जाने में मुश्किलें खड़ी करता है। इसके साथ-साथ तिब्बत में सैन्य अड्डा बनाने सहित अनेक गतिविधियाँ उसके दूषित मंसूबे स्पष्ट दर्शाती हैं।
आज से लगभग 100 वर्षों पूर्व किसी को भी भास तक नहीं रहा होगा, वैश्विक मंच पर भारत तथा चीन इतनी बड़ी शक्ति बन कर उभरेंगे। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य ढलान पर था तथा जापान, जर्मनी तथा अमेरिका अपनी ताकत बढ़ाने के लिए जोर आजमाइश कर रहे थे। नये-नये ऐतिहासिक परिवर्तन जोरों पर थे। आज उन सबको पीछे छोड़ चीन अत्यधिक धनवान तथा ताकतवर राष्ट्र बनकर उभरा है। कुछ विद्वानों का मत है चीन अनुमानित समय से पहले अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। भारत भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ लोकतंत्र को सीढ़ी बना अपनी चहुमुखी प्रगति की ओर अग्रसर है। चीन अपने उत्पादन तथा भारत सेवा के क्षेत्र में विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति अग्रणी भूमिका के रूप में बनाये हुए है। यह बात सत्य है कि चीन भारत के मुकाबले अपनी सैन्य क्षमता में लगभग दोगुना धन खर्च कर रहा है। अत: उसकी ताकत भी भारत के मुकाबले दोगुनी अधिक है। उसकी परमाणु क्षमता भी भारत से कहीं अधिक है। इन सबके साथ यह भी सत्य है कि चीन की सीमा अगल-अलग 14 देशों से घिरी है अत: वह अपनी पूरी ताकत का उपयोग भारत के खिलाफ आजमाने में कई बार सोचेगा। परन्तु चीन की उक्त बढ़ती हुई सैन्य एवं मारक शक्ति भारत के लिए चिन्तनीय अवश्य है।
एक तरफ चीन अपनी जी0डी0पी0 से कई गुना रफ्तार से रक्षा बजट में खर्च कर रहा है वहीं वह अपने रेशम मार्ग जहाँ से सदियों पहले रेशम जाया करता था, पुन: चालू करना चाहता है। वह अफगानिस्तान, ईरान, ईराक और सउदी अरब तक अपनी छमता बढ़ाना चाहता है। निश्चित ही वह वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने हित में करना चाहता है। जिसके उक्त कार्य में निश्चित ही पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण रहने वाली है। देखना यह है कि उसकी यह सोच कहाँ तक कारगर रहती है।
चीन महाशक्ति बनने की जुगत में है, जिससे भारत को चिन्तित होना लाजमी है, उसकी ताकत निश्चित ही भारत को हानि पहुँचाएगी। लगातार चीनी सेना नई शक्तियों से लैस हो रही है। पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में समुद्र के अन्दर अपने अड्डे बनाकर वह अपनी भारत के प्रति दूषित मानसिकता दर्शा रहा हैं। वर्ष 2008 में चीन पाकिस्तान में दो परमाणु रिएक्टरों की स्थापना को सहमत हो गया था। जिसका क्रियान्वयन होने को है।
हमारे नीति निर्धारकों को उक्त विषय की पूरी जानकारी भी है। परन्तु फिर भी वे एकतरफा प्यार की पैंगे बढ़ाते हुए सोच रहे हैं। कि एक दिन चीन उनपर मोहित हो जाएगा, तथा अपनी भारत विरोधी गतिविधियाँ समाप्त कर देगा। हमारे देश के प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह का वैश्विक मंच पर कहना अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की दुनिया में चीन हमारा सबसे महत्वपूर्ण सहोदर है तथा भारतीय विदेशमंत्री का कहना तिब्बत चीन का अंग है। उचित प्रतीत नहीं होता। उक्त दोनों बयान भारत को विभिन्न आयामों पर हानि पहुँचाने वाले प्रतीत होते हैं। चाणक्य तथा विदुर के देश के राजनेता शायद यह भूल गये कि राष्ट्र की कोई भी नीति भावनाओं से नहीं चलती। अलग-अलग विषयों पर भिन्न-भिन्न योजनाएँ लागू होती हैं। परन्तु भावनाओं का स्थान किसी भी योजना का भाग नहीं है। आज भारत को चीन से चौकन्ना रहने की आवश्यकता है। उसे भी कूटनीति द्वारा अपनी आगामी योजना बनानी चाहिए। उसे चाहिए चीन की अराजकता से आजिज देश उसके विषय में क्या सोच रहे हैं। उसके नीतिगत विकल्प क्या हैं ? भारत को अमेरिका के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया के महत्वपूर्ण देशों के साथ खुली बात-चीत करनी चाहिए। चीन का स्पष्ट मानना है कि भारत में कई प्रकार के आंतरिक विवाद चल रहे हैं चाहे वह अंतर्कलह हो, आतंकवाद हो या साम्प्रदायिक खींच-तान। भारत क्षेत्रीय विषयों पर भी बुरी तरह बटा हुआ है। चीन उक्त नस्लीय विभाजन का लाभ देश को बाटने के लिए कर सकता है। वहाँ के दूषित योजनाकारों के अनुसार प्रांतीय स्तर पर अलग-अलग तरीके से क्षेत्रीय वैमनस्यता एवं विवादों को भड़का भारत का विभाजन आसानी से किया जा सकता है।
निश्चित रूप से आगे आने वाले वर्ष भारत के लिए काफी मुश्किलों भरे हो सकते हैं। वर्ष 2011 के बाद पश्चिमी सेना काबुल से निकल जाएगी। इसके बाद बीजिंग-इस्लामाबाद-काबुल का गठबंधन भारत के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा। चीन नेपाल के माओवादियों को लगातार खुली मदद कर रहा है। वहाँ की सरकार बनवाने के प्रयासों में उसकी दखलंदाजी जग जाहिर है। पाकिस्तान भारत में नकली नोट, मादक पदार्थ, हथियार आदि भेज भारत को अंदर से नुक्सान पहुँचाने की पूरी कोशिश कर रहा है। उसकी आतंकी गतिविधियाँ लगातार जारी हैं। भारत चीन के साथ व्यापार कर चीन को ही अधिक लाभ पहुँचा रहा है। वहाँ के सामानों ने भारतीय निर्माण उद्योग को बुरी तरह कुचल डाला है। यदि आगे आनेवाले समय में भारत सरकार चीनी उत्पादनों पर पर्याप्त सेल्स डयूटी या इसी प्रकार की अन्य व्यवस्था नहीं करती है तो भारत का निर्माण उद्योग पूरी तरह टूट कर समाप्त हो जाएगा। इसे भी चीन का भारत को हानि पहुँचाने का भाग माना जा सकता है।
भारत को चाहिए 4,054 किलोमीटर सरहदीय सीमा की ऐसी चाक-चौबन्द व्यवस्था करें कि परिंदा भी पर न मार सके। इसके साथ-साथ देश के राज्यीय राजनैतिक शक्तियों को अपने-अपने प्रान्तों को व्यवस्थित करने की अति आवश्यकता है। जिससे वह किसी भी सूरत में भारत की आंतरिक कमजोरी का लाभ न ले सके। देश की सरकार को जल, थल तथा वायु सैन्य व्यवस्थाओं को और अधिक ताकतवर बनाना चाहिए। जिससे चीन भारत पर सीधे आक्रमण्ा करने के बारे में सौ बार विचार करे। 1954 के हिन्दी-चीनी भाई-भाई तथा वर्तमान चिन्डिया के लुभावने नारों के मध्य चीन ने 1962 के साथ-साथ कई दंश भारत को दिये हैं। भारत को आज सुई की नोक भर उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। चीन जैसे छली राष्ट्र के साथ विश्वास करना निश्चित ही आत्मघाती होगा। हमें अपनी पूरी ऊर्जा राष्ट्र को मजबूत एवं सैन्य शक्ति बढ़ाने में लगाना चाहिए।
पुरानी कहानी है कि एक परिवार के तीन तोतलों की शादी नहीं हो पा रही थी। पिता ने हिदायत दी कि इस बार जो लडकी वालों के सामने बोलेगा उसको घर से निकाल दिया जाएगा। लकड़ी वाले आए, बडे बोला -‘पितादी ती बात याद है न।‘‘ मंझला बोला -‘‘टुप्प भईया।‘‘ छोटा बोल उठा -‘‘टुम बोले टुम बोले हम टो टुप्पई टाप!‘‘ इस तरह तीनों की पोल खुल गई। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार में भी कमोबेश एसा ही कुछ होता दिख रहा है। केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ ने बैतूल में कहा कि गरीब दोनों टाईम खाने लगा है, इसलिए मंहगाई बढ़ी। कृषि मंत्री शरद पवार कहते हैं कि शक्कर नहीं खाने से भारतवासी मर नहीं जाएंगे। अब योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने अपनी जुबान खोली है मंहगाई के बारे में। बकौल अहलूवालिया मंहगाई बढ़ने का कारण ग्रामीण हैं। गांवों की समृद्धि और खुशहाली के कारण मंहगाई आसमान की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस के बड़बोले मंत्रियों और सिपाहसलारों को यह बात याद रखनी चाहिए कि वजीरे आजम ने साफ कहा था कि दिसंबर तक मंहगाई पर काबू पा लिया जाएगा। दिसंबर आने को है न तो मनमोहन मंहगाई पर ही काबू पाने में सफल हो पाए हैं और न ही अपने बड़बोले मंत्रियों की कैंची की तरह चलती जुबान पर।
कलमाड़ी ने पढ़ा राहुल चालीसा
2010 में भीषणतम भ्रष्टाचार के लिए जबर्दस्त चर्चित रहे राष्ट्रमण्डल खेलों के समापन के बाद अब आयोजन समिति पर जांच के बादल मण्डराने लगे हैं। लगने लगा है कि जल्द ही जांच होगी और आयोजन समिति के सरगनाओं की गर्दनें नप जाएंगी। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को भी अब 33 करोड़ देवी देवताओं की याद आनी आरंभ होना स्वाभाविक ही है। कलमाड़ी ने देवताओं के साथ ही साथ समस्त आकाओं को भी सिद्ध करना आरंभ कर दिया है। आश्चर्य तो तब हुआ जबकि समापन समारोह में सुरेश कलमाड़ी ने अतिविशिष्ट लोगों के साथ ही साथ कांग्रेस की नजरों में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी का नाम भी ले लिया। कलमाड़ी के राहुल चालीसा पढ़ते ही राहुल गांधी चौंके और उन्होंने हवा में प्रश्नवाचक तौर पर हाथ लहरा दिया, कि कामन वेल्थ गेम्स में भला उनकी भूमिका क्या रही? विशेषकर तब जब कामन वेल्थ गेम्स का आयोजन पूरी तरह से भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुका हो, तब इसका मैला उठाने के समय कोई भी अपना नाम इससे जोड़कर अपनी मिट्टी खराब तो कतई नही करना चाहेगा।
दिग्गी राजा से भयाक्रांत हैं पचौरी
भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सुरेश पचौरी में क्या समानता है? जी है, दोनों ही ने आज तक कोई चुनाव नहीं जीता है और दोनों ही राज्य सभा की बैसाखी के सहारे राजनीति करते रहे हैं। चौबीस साल तक पिछले दरवाजे अर्थात राज्य सभा से संसदीय सौंध तक पहुंचने वाले सुरेश पचौरी इन दिनों कांग्रेस के महासचिव राजा दिग्विजय सिंह से खासे खौफजदा नजर आ रहे हैं। राजनैतिक विश्लेषक यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर क्या कारण है कि वे राजा के खिलाफ मुंह नहीं खोल पा रहे हैं। राजा दिग्विजय सिंह लगातार ही भोपाल आते रहते हैं। गाहे बेगाहे वे काफी हाउस पहुंचकर पत्रकारों के साथ ठहाके भी लगा लेते हैं। इनमें वे ही पत्रकार होते हैं जो राजा से उनके मुख्यमंत्रित्व काल में उपकृत हुए हैं। राजा कभी प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यालय नहीं जाते हैं, इस बात की शिकायत पचौरी द्वारा अब तक कांग्रेस आलाकमान से न किया जाना आश्चर्य का ही विषय माना जा रहा है।
महाराष्ट्र की राजनीति में ‘‘आदित्य‘‘ का उदय
नब्बे के दशक से महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र में ठाकरे परिवार की भूमिका अहम रही है। शिवसेना को पालने पोसने वाले वयोवृद्ध नेता बाला साहेब ठाकरे अब उमर दराज हो चुके हैं। उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने जब शिवसेना की कमान संभाली तब ठाकरे परिवार में वर्चस्व की जंग सामने आई और ठाकरे परिवार में राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन कर दिखा दिया कि वे बाला साहेब की टक्कर में खड़े होने की स्थिति में आ चुके हैं। वैसे भी राजनैतिक विरासत का हस्तांतरण पारिवारिक विरासत की तरह ही होता आया है, राहुल गांधी, वरूण गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद, सचिन पायलट की तर्ज पर अब ठाकरे परिवार की नई पेशकश के तौर बाला साहेब ने अपने पौत्र आदित्य का विधिवत अभिषेक कर दिया है। मुंबई में हाल ही में संपन्न शिवसेना की रैली में लाखों शिवसैनिकों के सामने बाला साहेब ने आदित्य को सभी से न केवल परिचित करवाया वरन् उसे आर्शीवाद देकर शिवसेना की सेवा के लिए कृतसंकल्पित भी किया। आदित्य यद्यपि अभी महज बीस बरस के हैं, किन्तु उनके तेवर देखकर लगने लगा है कि वे राज ठाकरे पर बीस ही पड़ सकते हैं।
सेवानिवृति के लिए किसकी अनुमति चाहते हैं प्रणव
पचहत्तर साल केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी अब राजनैतिक तौर पर सेवानिवृति चाहते हैं। नेहरू गांधी परिवार के कथित हिमायती प्रणव मुखर्जी का शुमार कांग्रेस के कुशल प्रबंधकों में किया जाता है। यद्यपि वे अनेक बार नेहरू गांधी परिवार के खिलाफ भी खड़े दिखे किन्तु सोनिया गांधी की मजबूरी प्रणव को लेकर चलने की रही है। मीडिया को दिए साक्षात्कार में प्रणव दा कहते हैं कि अगले आम चुनावों में राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। प्रणव की बात को सच मान लिया जाए तो अब प्रधानमंत्री पद पर डॉ.मनमोहन सिंह के दिन गिनती के ही बचे हैं। इसके साथ ही उन्होंने राजनैतिक तौर पर रिटार्यमेंट की इच्छा भी जताई है। प्रणव मुखर्जी संभवतः पहले राजनेता होंगे जो पद में रहते हुए सेवानिवृति की इच्छा जताई हो, वरना अब तक तो जनता द्वारा नकारे जाने या अल्लाह को प्यारे होने पर ही लोग राजनीति से हटे हैं। विडम्बना देखिए कि सरकारी नौकरी में सेवानिवृति की आयु 60 वर्ष निर्धारित है, किन्तु सरकार पर शासन करने वालों के लिए कोई सीमा नहीं। नए सरकारी नौकरों को पेंशन का प्रावधान समाप्त कर दिया गया है, किन्तु अखिल भारतीय सेवाओं और जनसेवकों के लिए आज भी पेंशन का प्रावधान है, इस तरह की विसंगतियां भारत गणराज्य में ही दिख सकती हैं।
अरूण जेतली: भाजपा के नए ट्रबल शूटर
प्रमोद महाजन जब तक भाजपा में रहे तब तक उन्होने भारतीय जनता पार्टी के लिए संकट मोचक की भूमिका ही अदा की। उनके निधन के उपरांत भाजपा के अंदर नए ट्रबल शूटर की तलाश शिद्दत के साथ आरंभ हो गई थी। अनेक लोगों पर दांव लगाने के बाद अब भाजपा का संकटमोचक चेहरा सामने आया है वह है अरूण जेतली का। पिछले कुछ दिनों से जब भी भाजपा पर संकट के बादल गहराए, तब तब अरूण जेतली के मशविरों ने भाजपा को उबारा है। राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेतली का परिवार इस बात से खासा प्रभावित होता दिख रहा है। दरअसल जब भी पार्टी के अंदर, यूपीए सरकार में, या फिर सूबाई सरकारों पर कोई संकट आता है तब अरूण जेतली का ज्यादातर समय फोन पर ही बतियाने में निकल जाता है। मामला चाहे सी.पी.ठाकुर के त्यागपत्र का हो या कर्नाटक प्रहसन, हर बार जेतली ही संकट मोचक बने। जेतली का परिवार करे भी तो क्या, क्योंकि भाजपा में संकट हैं गले तक और संकट मोचक उंगलियों में गिने जाने योग्य।
अब दमोह में जिंदा जला दी गई शिवराज की भांजी
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा सूबे की हर कन्या को अपनी भांजी माना जाता है, फिर भी उनकी अपनी ही सरकार के रहते हुए बालिकांए सुरक्षित नहीं हैं। पिछले दिनों टीकमगढ़ की एक बाला को दिल्ली ले जाकर बेच दिया गया था, और उसके साथ दुराचार होता रहा था। अब मध्य प्रदेश के ही दमोह जिले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राज में बारहवीं की एक छात्रा के साथ प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर मे अध्ययनरत एक किशोर द्वारा न केवल ज्यादती की गई, वरन् जब पीड़िता ने इसकी रिपोर्ट थाने में दर्ज करानी चाही तो आरोपी ने अपने परिजनों के साथ उक्त बाला को जिंदा ही जलाकर मार डाला। पीडिता ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करानी चाही किन्तु बारह बजे रात तक उसकी सुनवाई नहीं हुई अगले दिन सुबह ही आरोपी और उसके परिजन आ धमके और केरोसीन डाल आग लगाकर पीडिता की इहलीला ही समाप्त कर दी। पीडिता ने मृत्युपूर्व बयान में इसका उल्लेख कर दिया है।
कांग्रेस का नया त्रिफला चर्चा में
कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में मध्य प्रदेश के शूरवीरों की कमी नहीं है। बावजूद इसके पिछले लगभग दस सालों में मध्य प्रदेश में कांग्रेस संगठन बीमार पड़ा तीमारदारी के लिए तरस रहा है। कांग्रेस के मध्य प्रदेश के क्षत्रपांे ने कांग्रेस आलाकमान के दफ्तर में भले ही अपनी पैठ जमा ली हो, राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी को आंकड़ों की बाजीगरी दिखाकर अपने नंबर बढ़वाते रहे हों, पर जमीनी हकीकत इस सबसे उलट ही है। हाल ही में कांग्रेस की इंटरनल केमस्ट्री कुछ बदली बदली नजर आ रही है। कांग्रेस के दूर जाते तीन धु्रव अचानक ही एक साथ एक सुर में आलाप करते नजर आ रहे हैं। केंद्रीय मंत्री कमल नाथ, कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिह और युवा तुर्क ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच प्रतिस्पर्धा की बर्फ पिघलती दिख रही है। नाथ, सिंह और सिंधिया का नया त्रिफला क्या रंग लाएगा यह तो वक्त ही बताएगा, किन्तु इसके पहले बडे मियां (कमल नाथ) और छोटे मियां (राजा दिग्विजय सिंह) की जोड़ी ने दस साल तक मध्य प्रदेश के सारे क्षत्रपों को पानी भरने पर मजबूर अवश्य किया था।
चुनाव के साथ ही आए याद करोड़ों
बिहार में रण भूमि सज चुकी है। चुनाव में अब आरोप प्रत्यारोप का चुनाव तक न थमने वाला सिलसिला आरंभ हो चुका है। चुनाव संपन्न होते हुए इन आरोप प्रत्यारोपों के जहर बुझे तीर अपने आप ही तरकश में वापस चले जाएंगे। छः साल से केंद्र की कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार को अपने रिमोट से चलाने वाली कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने भी बिहार चुनाव के यज्ञ में अपनी आहूति डालना आरंभ कर दिया है। पांच साल की नितीश कुमार की सरकार को केंद्र द्वारा दिए गए करोड़ों रूपयों का आडिट करने श्रीमति गांधी बिहार पहुंच गई हैं। गौरतलब है कि आडिट हर साल किया जाना चाहिए, किन्तु सियासी नफा नुकसान के मद्देनजर रख केंद्र ने भी जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के करोड़ों अरबों रूपए जो बिहार सरकार को दिए थे, उसका कोई हिसाब किताब नहीं रखा। मान लिया जाए कि बिहार की नितीश सरकार ने केद्र की करोड़ों अरबो रूपए की इमदाद को आग के हवाले कर दिया हो, किन्तु यह सब होता देख केंद्र सरकार घ्रतराष्ट्र की भूमिका में कैसे रही? इसका जवाब दे पाएंगी कांग्रेस की राजमाता?
बोला रावण: आई विल नाट डाई
इस बार दशहरे में ताजमहल को अपने दामन में समेटने वाले आगरा शहर में एक अजीब किन्तु मजेदार वाक्या प्रकाश में आया। आगरा में पिछले एक सदी (एक सौ साल) से चली रही रामलीला के इतिहास में नया मोड़ उस वक्त आ गया, जब भगवान राम द्वारा रावण को मारने का प्रयास किया जा रहा था, और रावण बोल उठा -‘‘आई विल नाट डाई।‘‘ हुआ यूं कि इस साल रामलीला के आयोजन में बहुत विलंब हो गया, जिससे जल्दी जल्दी ही कुछ प्रसंगों को निपटाकर राम रावण के अंतिम युद्ध को मंचित किया जा रहा था। समय की पाबंदी और कमी को देखकर आयोजकों के द्वारा रावण से कहा गया कि जल्द ही राम के तीर से अपना संहार करा ले। उधर दर्शकों के बीच हर एक संवाद पर जबर्दस्त करतल ध्वनि गूंज रही थी। रावण चाह रहा था कि वह अपने किरदार को पूरा जिए, सो बीच में ही उसने कह दिया -‘‘आपको जो कराना हो करो, बट, इतनी जल्दी, आई विल नाट डाई।‘‘
दीदी सुपर सीएम, कौन होगा रेल मंत्री
पश्चिम बंगाल में चुनाव पूर्व बह रही बयार को देखकर लगने लगा है कि राईटर्स बिल्डिंग पर त्रणमूल कांग्रेस अपना कब्जा बना ही लेगी। सूबे में अफरशाही के घोडे भी अब दीदी के इशारों पर दौड़ने लगे हैं। अभी चुनाव होने में लगभग आठ माह बाकी हैं, फिर भी बंगाल में वाम सरकार अपने आप को शासन में असहज महसूस कर रही है। इसका कारण यह है कि शासन के महत्वपूर्ण अंग नौकरशाहों ने अपनी निष्ठा दादा के बजाए दीदी के प्रति प्रदर्शित करना आरंभ कर दिया है। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नौकरशाहों से वाम सरकार सकते में है, वह कोई भी बड़े निर्णय को अमली जामा नहीं पहना पा रही है। भारत गणराज्य में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी कि रेल मंत्री ने अपना कार्यभार ग्रहण करते ही अघोषित तौर पर रेल मंत्रालय को ही पश्चिम बंगाल स्थानांतरित करवा लिया। कोलकता में रहकर ममता बनर्जी रेल मंत्री कम पश्चिम बंगाल की सुपर सीएम की भूमिका में ज्यादा नजर आ रही हैं। त्रणमूल के पक्ष में बह रही हवा के चलते त्रणमूल कांग्रेस ने जनवरी में ही चुनाव करवाने का दबाव बढ़ा दिया है।
आंखे जाने के बाद जिंदा जलाने की गुहार!
मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य मण्डला जिले के योगीराज अस्पताल में मोतियाबिन्द का आपरेशन कराने आए ढाई दर्जन से अधिक लोगों ने मोतियाबिन्द के आपरेशन के दौरान अपनी आंखें ही गवां दी। कल तक दुनिया देखने वालों को जब मोतियाबिन्द के कारण कुछ धुंधला दिखना आरंभ हुआ तो उन्होंने आपरेशन कराने की सोची पर उन्हें क्या पता था कि वे अपनी आंखों को ही गंवा देंगे। महाकौशल अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या सबसे अधिक मण्डला और डिंडोरी जिले में है। इन आदिवासियों के हितों के संरक्षण के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा करोड़ों अरबों रूपयों की इमदाद भेजी जाती है। विडम्बना यह है कि इन जिलों में पदस्थ होने वाले अधिकारियों द्वारा इस इमदाद में से अपना बड़ा हिस्सा वसूल लिया जाता रहा है। बहरहाल मोतियाबिन्द के गलत आपरेशन के कारण हुए संक्रमण का शिकार लोगों का कहना है कि आंखों में अब तक दर्द बना हुआ है, कहीं पीप मवाद बह रहा है। योगीराज अस्पताल के लोगों ने तो अपना काम कर दिखाया, अब इस बेरंग दुनिया में हम जीकर क्या करेंगे, बेहतर होगा कि हमें जिंदा ही जला दिया जाए। आश्चर्य की बात यह है कि मीडिया की चीख पुकार के बावजूद भी 16 सितंम्बर से अब तक इस घटना की जांच के लिए उप संचालक स्तर के एक अधिकारी के अलावा किसी को पाबंद नहीं किया गया है।
पुच्छल तारा
भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार, सड़कें खुदी हैं, ट्राफिक जाम है, सड़कों पर पानी भरा है, पैदाल पार पुल गिर गया, मेट्रो का पिलर गिर गया, और न जाने किन किन आरोपों के उपरांत अंततः कामन वेल्थ गेम्स निपट ही गए। अब बारी है भ्रष्टाचार की जांच की। पूर्व खेल एवं युवा मामलों के मंत्री मणि शंकर अय्यर ने भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ इन खेलों के दौरान दिल्ली से बाहर रहने की मंशा जताई थी। प्रशासन ने कुत्तों और भिखारियों को भी दिल्ली से बाहर कर दिया था। अब खेल खतम पैसा हजम। सो भोपाल से नंद किशोर जाधव एक ईमेल भेजकर सरकार को जगाने का प्रयास कर रहे हैं। नंद किशोर लिखते हैं कि राष्ट्र मण्डल खेल समाप्त हो गए हैं। अब सरकार को चाहिए कि वह मुनादी पिटवा दे कि अब दिल्ली की सरहद में कुत्ते, भिखारी और मणिशंकर अय्यर वैगरा लौट सकते हैं।
भारत वर्ष को त्यौहारों व पर्वों का देश कहा जाता है। अपने सीमित संसाधनों में ही अनगिनत त्यौहारों के अवसर पर झूमने व खुशियां मनाने वाले भारतीय नागरिक इस विशाल देश के किसी न किसी क्षेत्र में किसी न किसी त्यौहार में अक्सर खुशियां मनाते देखे जा सकते हैं। ज़ाहिर है इन भारतीय त्यौहारों का खाने पीने, स्वादिष्ट व लज़ीज़ व्यंजनों खा़सतौर पर मिठाईयों से सीधा संबंध है। अत: अमीर भारतवासी से लेकर गरीब से गरीब व्यक्ति तक की यह कोशिश होती है कि वह त्यौहारों के अवसर पर अपने मित्रों, रिश्ते-नातेदारों अथवा अपने परिवारवालों के लिए खाने हेतु किसी न किसी किस्म की मिठाई का तो अवश्य ही आदान प्रदान करे। गोया हम कह सकते हैं कि भारतीय समाज में मिठाई को त्यौहारों के शगुन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
परंतु हमारे ही देश में हरामख़ोरी की कमाई का आदी हो चुका एक तीसरे दर्जे का गिरा हुआ वर्ग ऐसा भी है जिसे अपने चंद पैसों की कमाई की खातिर त्यौहारों में खुशियां मनाते व झूमते गाते आम लोगों की खुशी संभवत: सहन नहीं होती। और यह बेशर्म तबक़ा आम लोगों की खुशियों में रंग में भंग डालने का काम करता है। बजाए इसके कि यह वर्ग आम लोगों की खुशी में शरीक हो कर खुद भी खुशियां मनाए तथा आम लोगों को भी प्रोत्साहित करे। परंतु ठीक इसके विपरीत यह हरामख़ोर वर्ग आम लोगों को मिठाईयों के नाम पर ज़हर बेचने का काम करता है। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी त्यौहारों के इन दिनों में देश में चारों तरफ से मिलावटी, सड़ी गली, बदबूदार, ज़हरीली तथा रासायनिक पद्धति से तैयार की गई मिठाइयों की बरामदगी के अफसोसनाक समाचार प्राप्त हो रहे हैं। जोधपुर,बीकानेर,चंडीगढ़,दिल्ली व कानपुर जैसे बड़े शहरों से लेकर अंबाला जैसे छोटे शहरों तक से प्रदूषित व ज़हरीली मिष्ठान सामग्री के बरामद होने के समाचार निरंतर प्राप्त हो रहे हैं।
समाचार पत्रों व विभिन्न टीवी चैनल्स के माध्यम से यह बार बार चेतावनी दी जा रही है कि ऐसी मिलावटी,ज़हरीली व रासायनिक पद्धतियों से तैयार मिष्ठान सामग्रियों के सेवन से आम आदमी के स्वास्थय पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। स्वास्थय विशेषज्ञों के अनुसार ऐसी मिलावटी मिठाईयां दिल की बीमारी,रक्तचाप,कैंसर,पीलिया,अलसर तथा चमड़ी रोग जैसी तमाम जानलेवा बीमारियों के द्वार तक पहुंचा देती हैं। परिणाम स्वरूप जाने अनजाने में तमाम लोग इन्हीं मिठाईयों के सेवन से मौत के मुंह तक पहुंच जाते हैं। परंतु मिलावट खोरी के इस कारोबार से जुड़े तथा ऐसी कमाई के आदी हो चुके व्यापारी इन सब बातों की परवाह किए बिना अपने इस काले कारोबार को पूर्ववत् जारी रखते हैं। और यदि कभी इत्तेफाक से कोई मिलावटखोर कहीं पकड़ा भी जाता है तो आम लोगों की जान से खेलने वाला वह व्यक्ति भारतीय कानून के अंतर्गत होने वाली नर्म व लचीली कार्रवाई का सामना करते हुए जल्द ही सलाखों से बाहर आ जाता है। बाद में वही अपराधी अपने उसी हौसले के साथ फिर मिलावटखोरी के काम में जुट जाता है। इस प्रकार कम लागत में अधिक पैसे कमाने का आदी हो चुका यह वर्ग आम लोगों की जान से निरंतर खिलवाड़ करने से हरगिज़ नहीं चूकता।
सवाल यह है कि भारतीय समाज को ऐसे कलंकों से कभी मुक्ति मिलेगी भी या नहीं और यदि मिलेगी तो उसके उपाय क्या हो सकते हैं? भारतीय न्यायालयों में हत्या व हत्या के प्रयास को लेकर चलने वाले मुकद्दमों में आमतौर पर माननीय न्यायाधीश गवाहों के बयान व साक्ष्यों के आधार पर जहां यह जानने की कोशिश करते हैं कि अमुक व्यक्ति की हत्या या हत्या का प्रयास आरोपी व्यक्ति द्वारा अंजाम दिया गया है या नहीं। वहीं माननीय अदालतें मुकद्दमे के दौरान यह पता लगाने की भी पूरी कोशिश करती हैं कि आखिर जुर्म को अंजाम देने का कारण क्या था। अर्थात् जुर्म जानबूझ कर किया गया है या परिस्थितियों वश हो गया। और इन सभी नतीजों पर पहुंचने के बाद अदालतें जुर्म की उसी गंभीरता को ध्यान में रखते हुए दोषी को सज़ा सुनाती हैं। उस आरोपी को सबसे अधिक व सख्त सज़ा सुनाई जाती है जिसने जानबूझ कर तथा सुनियोजित ढंग से किसी अपराध को अंजाम दिया हो। यहां गौरतलब है कि किसी एक व्यक्ति की हत्या जैसे सुनियोजित षड्यंत्र रचने वाले अपराधी को फांसी या आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई जाती है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब सुनियोजित तरीके से किसी एक व्यक्ति की हत्या करने के आरोपी को सज़ा-ए-मौत या आजीवन कारावास जैसी सख्त सज़ा का सामना करना पड़ता है फिर मिठाई,जीवन रक्षक दवाईयां अथवा खाने-पीने की अन्य तमाम वस्तुओं में मिलावट करने वाले तथा इनमें ज़हरीली रासयानिक सामग्री मिलाकर सैकड़ों व हज़ारों लोगों की एक साथ सामूहिक हत्या का प्रयास करने वालों के विरुद्ध ऐसी ही सख्त सज़ा का प्रावधान क्यों नहीं है? ज़ाहिर है इस प्रकार की मिलावटखोरी करने का इनका मकसद कम से कम लागत में ज्य़ादा से ज्य़ादा पैसे कमाना ही होता है। और अपने इस एक सूत्रीय लक्ष्य को हासिल करने के लिए यह मिलावटखोर व्यापारी प्रत्येक स्तर पर मिलावटखोरी को अंजाम देते हैं। यह भली भांति जानते हैं कि ऐसी मिठाईयों अथवा अन्य खाद्य सामग्रियों के खाने से स्वास्थय पर कितना विपरीत प्रभाव पड़ेगा। परंतु मात्र धन कमाने की चाहत में यह वर्ग समाज को सामूहिक रूप से स्वास्थ्य क्षति पहुंचाने से कतई नहीं हिचकिचाता। अत: आम लोगों को ऐसी ज़हरीली व प्रदूषित खाद्य सामग्री बेचकर उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करने जैसा जानबूझ कर रचे जाने वाले षड्यंत्र का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।
आज हम अपने ही समाज के बीच स्वास्थय संबंधी तरह-तरह की ऐसी समस्याएं देख रहे हैं जो प्राय: हमें हैरान कर देती हैं। उदाहरण के तौर पर छोटे बच्चों को दिल का दौरा पडऩे लगा है। कम उम्र में लोग पीलिया के शिकार हो रहे हैं। छोटी उम्र में ही कैंसर व अलसर जैसी बीमारियों के लक्षण पाए जा रहे हें। चर्म संबंधी रोगियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। समय पूर्व लोगों की आंखें कमज़ोर हो रही हैं तथा दांतों पर प्रभाव पड़ रहा है। और इस तरह की और समय पूर्व होने वाली तमाम बीमारियों से जूझने वाला आम आदमी कभी सही इलाज न मिल पाने के कारण तो कभी आर्थिक संकट की बदौलत प्राय: अकाल मौत के मुंह तक चला जाता है। ज़रा कल्पना कीजिए कि यदि हम आज किसी छोटे बच्चे को ऐसी ही मिलावटी मिठाईयां अथवा अन्य खाद्य सामग्रियां आज खिलाना शुरु करें तो बड़ा होते-होते उसके शरीर की बुनियाद आखिर किन ज़हरीली खुराकों पर खड़ी होगी।
लिहाज़ा मिलावटखोरी के इस निरंतर बढ़ते जा रहे नेटवर्क से आम लोगों को निजात दिलाने का एक ही उपाय है कि इसमें शामिल लोगों को पकड़े जाने पर एक तो उनकी ज़मानत हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। और दूसरे यह कि ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को हमेशा के लिए सील कर सरकार को अपने अधीन ले लेना चाहिए। और तीसरी व सबसे अहम बात यह कि मिलावटखोरी जैसे अपराध को भी फांसी या उम्रकैद जैसी सज़ा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। जब तक ऐसी सख्त सज़ा का प्रावधान हमारे कायदे व कानूनों के अंतर्गत नहीं होता तब तक मिलावटखोरी के शिकंजे से मुक्ति पाने की कल्पना करना हमारे लिए बेमानी है। यहां एक बात यह भी गौरतलब है कि मिलावटखोरी के इस नेटवर्क में केवल आम आदमी ही नहीं पिस रहा बल्कि बड़े से बड़ा,विशिष्ट,रईस तथा स्वयं को वी आई पी समझने वाला व्यक्ति भी इस त्रासदी से अछूता नहीं है। इस समय बाज़ार में बिकने वाली तमाम मिलावटी वस्तुएं विशिष्ट व्यक्तियों के हिस्से में भी आती हैं। चाहे वह फल अथवा सब्ज़ी के रूप में या फिर दूध,खोया,पनीर या देसी घी की शक्ल में ही क्यों न हों।
यहां एक बार फिर चीन में गत् वर्ष घटी उस घटना का उल्लेख करना ज़रूरी है जिसमें कि दूध में मिलावट करने वाले एक व्यापारी को मात्र 6 महीने तक मिलावटी कारोबार करने के आरोप में उसे मृत्युदंड दे दिया गया। यदि हमें देश व समाज के हितों का ध्यान रखना है तो हमारे देश में भी ऐसे ही सख्त कानून लागू होने की अविलंब ज़रूरत है। अन्यथा कोई आश्चर्य नहीं कि हमारी नस्लें बचपन के बाद सीधे बुढ़ापे में ही कदम न रखने लग जाएं और जवानी उनके भाग्य में ही न लिखी जा सके। और यदि देश को ऐसे बुरे दिन देखने पड़े तो इन मिलावटखोरों से ज्य़ादा दोष हमारे देश के कानून तथा उस व्यवस्था का होगा जो इन हरामखोर मिलावटखोरों की सुनियोजित हरकतों को देखते हुए भी अंजान बना बैठा है तथा इन्हें सख्त दंड देने के बजाए इन्हें प्रोत्साहन या छूट देने की मुद्रा में नज़र आ रहा है।
बाबा रामदेव फिनोमिना की मीमांसा करते हुए अनेक किस्म के पाठकों प्रतिक्रियाएं मिली हैं और उन प्रतिक्रियाओं से एक बात साफ है इन पाठकों में अनेक पाठक वे हैं जो बाबा के दीवाने हैं। ये दीवाने कहां से आए? उन्हें बाबा ने अपना दीवाना कैसे बनाया? वे बाबा के फैन क्लब का हिस्सा हैं। लेकिन वे फैन कैसे बने? यह बुनियादी प्रश्न है जिस पर विचार करना चाहिए। बाबा रामदेव और उनका समूचा तर्कशास्त्र सार्वजनिक तौर पर सामाजिक-सांस्कृतिक मीमांसा की मांग पैदा करता है और हम सबको इस फिनोमिना को गंभीरता के साथ समझना चाहिए।
बाबा रामदेव से हमारा कोई व्यक्तिगत पंगा नहीं है। हम तो सिर्फ इस फिनोमिना की तह में जाना चाहते हैं, उन पक्षों पर बात करना चाहते हैं जिन पर बाबा रामदेव अहर्निश टीवी शो करके प्रकाश डालते रहते हैं। हम उन सवालों से टकराना चाहते हैं जो सवाल बाबा रामदेव फिनोमिना ने खड़े किए हैं। हमारा व्यक्ति बाबा रामदेव से कोई पंगा नहीं है। यह मूलतःविचार-विमर्श है। इससे हमारे समाज को तर्कवादी पद्धति से सोचने में मदद मिलेगी। चीजों को अनालोचनात्मक ढ़ंग से सोचने और देखने से हम बचेंगे।
बाबा रामदेव ने योग को जनता तक पहुँचाने के चक्कर में उसे उद्योग बनाया है। संस्कृति उद्योग का हिस्सा बनाया है। कुछ लोग सोच रहे हैं कि बाबा ने यह काम अकेले किया है। यह बात सच है कि आज योग के वे बड़े ब्राँण्ड हैं। लेकिन उनसे भी बड़े ब्राँण्ड महर्षि महेश योगी थे और उन्होंने योग को अमीरों के यहां बंधक बनाकर रख दिया था। बाबा रामदेव को इस बात श्रेय जाता है कि उन्होंने योग को आम जनता में पहुँचाया है। वे योग के क्षेत्र में अन्यतम हैं।
बाबा रामदेव योग के व्यापारी हैं। उन्होंने योग को भारत के जिलों तक पहुँचाया है। राज्यों और जिलों के स्तर तक उसका नेटवर्क बनाया है और अब उनकी नजर विदेशों पर लगी है। वे जितने महान दिखते हैं उसका कारण है उनका मीडिया प्रचार अभियान। आज जितना बड़ा मीडिया प्रचार होगा, आम लोगों में व्यक्तित्व भी उतना ही महान दिखेगा। बाबा रामदेव की तथाकथित महानता का आधार उनका योगी होना नहीं है बल्कि उनका व्यापक मीडिया प्रचार है।
सवाल यह है इतना व्यापक मीडिया प्रचार उन्होंने क्यों किया? क्या इस प्रचार का सिर्फ योग ही उद्देश्य था या कुछ और मकसद था। इस योगी को अरबपति धनी ट्रस्टी बनने की बुद्धि किसने दी? क्या किसी संन्यासी की यह हैसियत है कि वह अचानक टीवी चैनलों से अंधाधुंध योग का प्रचार आरंभ कर दे? टीवी चैनलों से प्रचार में लगने वाला पैसा और बुद्धि किसकी है? आज बाबा के पास संपत्ति है लेकिन बाबा ने सार्वजनिक तौर पर मीडिया ब्रांण्ड के रूप में जब से बाजार में कदम रखा है उनके हित योग के कम और योग को उद्योग बनाने के ज्यादा रहे हैं।
बाबा रामदेव संत हैं। उनके पास कुछ नहीं है, उनका सब कुछ ट्रस्ट का है। अरे भाई भारत में दर्जनों कारपोरेट घराने हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है सब कुछ ट्रस्ट का है इस मामले में आदर्श उदाहरण है कारपोरेट सम्राट टाटा घराना। उनकी अधिकांश संपत्ति भी ट्रस्ट के नाम है। रतन टाटा के पास बहुत कम पैसा है। ट्रस्ट की ओट में इन दिनों पूंजीवाद की सेवा करने और टैक्सचोरी करने की परंपरा चल पड़ी है।
बाबा रामदेव ने हाल के सालों में धार्मिक उद्योग की कमाई के नए कीर्तिमान बनाए हैं। उनके कीर्तिमान देखकर आम लोगों में खूब दौलत पैदा करने और खूब मौज मनाने की भावना बलबती हुई है। जो लोग यह कहते हैं कि बाबा रामदेव योग गुरू हैं, वे ठीक ही कहते हैं, बाबा रामदेव ने योग गुरू के अलावा एक और योग्यता हासिल की है वह है जीवनशैली गुरू की। योग को जीवनशैली के साथ जोड़ा है।
बाबा रामदेव ने अब तक अपने योगशिविरों के जरिए तकरीबन 3 करोड़ लोगों को योग शिक्षा दी है। साथ ही स्वास्थ्य के संबंध में अति प्राचीन किस्म की अवधारणाओं का जमकर प्रचार किया है। इनमें अधिकांश धारणाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। बाबा की अवैज्ञानिक धारणा है कि सारी बीमारियों की रामबाण दवा है प्राणायाम। बाबा के टीवी शो को प्रतिदिन सुबह दो करोड़ लोग देखते हैं। बाबा के 500 अस्पताल हैं जिनमें प्रतिदिन तीस हजार मरीज रजिस्टर्ड कराते हैं। इनमें आयुर्वेद के आधार पर चिकित्सा होती है।
मजेदार बात यह है कि बाबा आए दिन कैंसर और एड्स जैसी भयानक बीमारियों को भी प्राणायाम और आयुर्वेद से ठीक करने का दावा करते हैं। लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। मैं सिर्फ एक ही खबर को यहां उद्धृत करना चाहूँगा। खबर पूरी पढ़ें और तय करें कि कितने करामाती हैं बाबा के इलाज। खबर इस प्रकार है-
Baba Ramdev’s guru leaves ashram due to ”unbearable pain”
Thursday, July 19, 2007,17:24 [IST]
Hardwar, July 19 (UNI) Yoga exponent Baba Ramdev’s guru Swami Shankar Dev maharaj had been suffering from unbearable pain due to chronic lung and spinal tuberculosis which made him leave Ramdev’s Patanjali ashram.
Police investigating a complaint about the swami who went missing from the ashram four days ago, said the swami had given a account of his poor health in a letter recovered by them from his room last evening.
In the letter, Swami Shankar Dev Maharaj said that he was leaving the Patanjali Yogpeeth in Kankhal here as the pain due to his ailments had become unbearable for him.
The report about the missing swami was lodged at Kankhal police station three days after he went missing under mysterious circumstances.
The city SP Ajay Joshi, heading the police team investigating the high profile case, today said, ”The missing Swami has also begged pardon from Yesh Dev Shastri, Bali Ram, Hari Dass, Chakor Dass, Nirwanji, all inmates of Patanjali Yogpeeth, for not refunding the money he had taken from them.” The persons mentioned in the letter were being asked about the circumstances under which the swami went missing and the letter had been sent to the handwriting experts to verify the writing.
On being contacted, the most trusted lieutenant of Swami Ram Dev and general secretary of Patanjali Yogpeeth, Acharya Bal Krishna confirmed that Swami Shankar Dev had been suffering from chronic lungs and spine problems. However, he expressed surprise that the Swami Shankar Dev, who was one of the signatories to the accounts of Patanjali Yogpeeth, could not refund the money he had taken from some of the inmates.
”We have intimated all the branches of the Patanjali Yogpeeth throughout the world about the missing of Swami Shankar Dev. Swami Ram Dev, who is on a trip to foreign countries to teach yoga and ayurveda, has expressed grave concern over the disappearance of his guru under mysterious circumstances,” said Acharaya Bal Krishna.
UNI
यह एक खबर मात्र है ऐसी सैंकड़ों खबरें हैं जिनकी मीडिया में खबर नहीं होती क्योंकि बाबा एक ब्रांड हैं । वैसे ही जैसे शाहरूख खान, ऐश्वर्य राय, करिश्मा कपूर, अमिताभ बच्चन, अक्षय खन्ना, आईपीएल, ललित मोदी, कॉमन वेल्थ गेम आदि ब्राँण्ड हैं।
ब्रांड के निर्माण के सभी कौशल का बडे ही सुंदर ढ़ंग से बाबा रामदेव ने इस्तेमाल किया है यही वजह है कि आज देश में उनके चारों ओर चित्र हैं, विज्ञापन है, होर्डिंग हैं, लोगो हैं। मार्केटिंग करने वाली पूरी टीम है, मीडिया के चैनल हैं। एक बहुत बड़ा अमला है जिसे पगार दी जाती है जो बाबा के लिए काम करते हैं। बाबा के लिए विज्ञापन एजेंसियों से लेकर चैनलों कर काम करने वाले प्रोफेशनलों की एक पूरी जमात है।
बाबा रामदेव ब्रांड ने योग को आम जनता अभिरूचि, परंपरा, सांस्कृतिक स्टैंडर्ड से जोड़ा है। बाबा ने ब्रांड संस्कृति के नारे ‘जस्ट डू इट’ का बड़े कौशल के साथ इस्तेमाल किया है। वे कहते हैं योग करो और स्वस्थ बनो। अभी करो और जल्दी से जल्दी परिणाम हासिल करो। वे ब्रांड की तरह ही गुणवत्तापूर्ण माल की गारंटी भी देते हैं। वे वायदा करते हैं योग-प्राणायाम करोगे गारंटेड फायदा होगा।
बाबा ने योग को प्राणायाम से आगे ले जाकर सपनों में तब्दील किया है। अब हम योग नहीं खरीद रहे हैं बल्कि सपने खरीद रहे हैं। हिन्दुत्व का सपना, स्वस्थ आदमी का सपना, रोगमुक्त व्यक्ति का सपना आदि सपनों के जरिए बाबा की मीडिया के जरिए मार्केटिंग हो रही है। वे यह भी सपना बेच रहे हैं कि योग करोगे मस्त रहोगे।
बाबा रामदेव ब्रांड के बारे में हमें किसी भी किस्म का भ्रम नहीं होना चाहिए। यह महज योग नहीं है और योग का प्रचार नहीं है। बल्कि इसके निर्माण के पीछे विज्ञापन जगत के ब्रांड निर्माण की कला काम कर रही है।
ब्रांड किसी फैक्ट्री में तैयार नहीं होता। योग का ब्रांड भी किसी योगशिविर में या बाबा के उपदेशों और यौगिक क्रिया मात्र से तैयार नहीं हो रहा है। मीडिया प्रचार के जरिए ब्रांड को आम लोगों के मन में तैयार किया जाता है। माल फैक्ट्री में तैयार होता है लेकिन ब्रांड तो आम लोगों के मन में तैयार होता है। ब्रांड में विचार,जीवनशैली,एटीट्यूड आदि मूल्यों को शामिल किया जाता है।
बाबा रामदेव ने हिन्दू कला-कौशल के आधार पर अपनी ब्रांडिंग नहीं की है बल्कि विशुद्ध रूप से विज्ञापन कला की ब्रांड कला के आधार पर अपनी ब्रांडिंग की है। बाबा रामदेव योग नहीं बेचते वे जीवनशैली बेचते हैं। वे सिर्फ योग बेचते और ब्रांड नहीं होते तो अपने को मात्र योग तक सीमित रखते लेकिन उन्होंने अपनी समूची तैयारी ब्रांड के रूप में की है और उसमें बेहद कौशल और परिश्रम किया है पेशेवर लोगों की मदद ली है।
आज बाबा सिर्फ योग-प्राणायाम तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि उनके द्वारा वस्तुओं की एक पूरी सीरीज बाजार में है । यह वैसे ही जैसे कोई जूता बनाने वाली कंपनी पहले जूते लाती है फिर उसी ब्रांड का टी-शर्ट, बाथिंग सूट, मोजा, ट्रैकसूट आदि लाती है। सफल ब्रांड की खूबी है कि वह सिनर्जी अथवा सहक्रिया पैदा करता है। वही उसके मुनाफे का स्रोत है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बाबा रामदेव ने दसियों किस्म की वस्तुएं अपने ब्रांड के साथ बाजार में उतार दी हैं। वे योग से लेकर मनोरंजन तक, खेल-खिलाडि़यों से लेकर चौका-चूल्हे की उपभोक्ता औरतों तक, सेना, जज, वकील, डाक्टर, बुद्धिजीवी से लेकर राजनेताओं तक अपने ब्रांड का उपभोक्तावर्ग तैयार करने में वैसे ही सफल हो गए हैं जैसे कोई ब्रांड हो जाता है।
योग पहले भी था, आयुर्वेद पहले भी था लेकिन वह ब्रांड नहीं था बाबा की सफलता यह है कि उन्होंने योग को ब्रांड बनाया, आयुर्वेद को ब्रांड बनाया।
ब्रांड का लक्ष्य होता है उपभोक्ता की इच्छाओं के साथ एकीकृत करना। उपभोक्ता की इच्छाओं को ब्रांड में उतारना। जब ब्रांड में जीवनशैली को आरोपित कर दिया जाता है तो फिर वह ग्राहक को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि तुम सारी जिंदगी इसमें रह सकते हो। बाबा ने अपने भोक्ताओं को यही भरोसा दिलाया है। अब वे बाजार में ब्रांडों की जंग में शामिल हैं। अब जंग वस्तुओं में नहीं है बल्कि ब्रांडों में हो रही है। बाबा ने पश्चिमी जीवन शैली और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ जो जेहाद बोला हुआ है उसका कारण है अपने ब्रांड को बाजार में स्थापित करना। वे अपने योग के साथ प्रवचनों के जरिए हमेशा अपने आधार को विस्तार देने की कोशिश करते हैं।
बाबा के यहां आसन, योग, प्राणायाम पुराने हैं और तयशुदा है। लेकिन उनके साथ उनके प्रवचन और उनका लक्ष्य नया है। वे इनके जरिए जीवनशैली में अपने माल को समाहित करने की अपील करते रहते हैं। बाबा के बारबार आनेवाले लाइव टीवी प्रसारण कार्यक्रम मूलतः जीवनशैली को बेचने के लिए आयोजित किए जा रहे हैं।
बाबा ने पूंजीवादी जीवनशैली को निशाना बनाया है लेकिन जब वे स्वयं को ब्रांड बनाकर बेचते हैं तो अंततः पूंजीवाद की शरण में चले जाते हैं। ब्रांड स्वय में पूंजीवाद की गुलामी का आदर्श फिनोमिना है। बाबा ने अपने विचारधारात्मक तंत्र को बनाने के लिए हिन्दू परंपरा, हिन्दू गौरव, भारत की विविधता, समलैंगिकता का विरोध, बहुसांस्कृतिकवाद, राष्ट्रवाद, सत्ता के भ्रष्टाचार का प्रतिवाद, प्रतिष्ठानी भ्रष्टाचार, कालेधन आदि के विषयों पर निरंतर भाषण दिए हैं। योग की ब्रांडिंग में इन भाषणों का समावेश करने की कला को बाबा ने अमरेकी पंक संस्कृति, हिप-हाप संस्कृति के ब्रांडों से सीखा है। बाबा और पंक संस्कृति वालों में एक समानता है कि ये दोनों ही प्रतिष्ठान विरोधी हैं। सत्ता विरोधी हैं। प्रतिष्ठान विरोधी,सत्ता विरोधी होने के कारण ये बाजार में हिट हैं।
ब्रांड कभी ब्रांड का नशा पैदा किए बगैर बिकता नहीं है। अपनी इमेज नहीं बना पाता। ब्रांड का नशा पैदा करने के लिए जरूरी है कि उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता पर बार बार जोर दिया जाए। इसमें स्थानीयता और मानकीकरण के तत्व भी शामिल रहते हैं।
विज्ञापन गुरू क्लाउड हॉपकिंस का मानना था कि ‘जितना ज्यादा बोलोगे,उ तना ज्यादा बिकोगे।’ बाबा ने इस मंत्र को ऋषि पतंजलि से नहीं बल्कि विज्ञापन गुरूओं से सीखा है। इसलिए वे अहर्निश प्रचार करते हैं। प्रचार की कला विज्ञापन की कला है। यह हिन्दूकला या पतंजलि की योग कला का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह विशुद्ध रूप से विज्ञापन की आधुनिक पूंजीवादी कला है। बाबा का विराट ब्रांड इसकी देन है। यह योग की देन नहीं है। योग तो इसमें निमित्तमात्र है। लक्ष्य है मुनाफा कमाना।
जम्मू-कश्मीर में आत्मनिर्णय या जनमत संग्रह कराने की मांग का कहीं कोई औचित्य नहीं है। ये मांगें किसी भी प्रकार से न तो संवैधानिक हैं और न ही मानवाधिकार की परिधि में ही कहे जाएंगे। अलगाववादियों द्वारा इस विषय को मानवाधिकार से जोड़ना केवल एक नाटक भर है। क्योंकि इससे विश्व बिरादरी का ध्यान ज्यादा आसानी से आकृष्ट किया जा सकेगा। यह सारा वितंडावाद विशुद्ध रूप से कश्मीर को हड़पने के लिए पाकिस्तानी नीति का ही एक हिस्सा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन से पूर्व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों में यकायक बढ़ोतरी हुई है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी के अलगाववादी संगठन और उसके नेता भी ज्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। अलगाववादी हुर्रियत नेता गिलानी का नई दिल्ली में “आजादी ही एक मात्र रास्ता” विषयक सेमीनार में शिरकत करना विश्व बिरादरी का ध्यान आकृष्ट कराने के अभियान का ही एक हिस्सा है। सेमीनार की खास बात यह रही कि इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक कई जाने-माने बुद्धिजीवी भी भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए उपस्थित थे। सेमीनार में गिलानी के बोलने से पहले ही उनके सामने कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने जूता उछाल दिया। इससे भारी शोर-शराबा हुआ, जिसको देखते हुए सेमीनार बीच में ही रोकना पड़ा। इस कारण से अलगाववादियों की सारी सोची-समझी रणनीति धरी की धरी रह गई।
ओबामा की भारत यात्रा के मद्देनजर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका में थे। यहां पर कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच दखल देने का अनुरोध किया। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के अनुरोध को सुनने से ही इन्कार कर दिया। अमेरिका का कहना है कि कश्मीर मसला दो देशों के बीच का मामला है। इसलिए दोनों देशों के बीच में दखल देना या मध्यस्थता करना उसके लिए संभव नहीं है। इस तरह से अमेरिका ने कश्मीर मसले पर भारत के रुख का ही समर्थन किया है।
जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों की मांगे विशुद्ध रूप से भारत के एक और विभाजन की पक्षधर हैं। आत्मनिर्णय के अधिकार या जनमत संग्रह और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो अलगाववादियों का महज मुखौटा भर है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर का सशर्त विलय नहीं बल्कि पूर्ण विलय हुआ है। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी।
प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। इस हेतु 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान रखा गया, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। विशेष बात यह है कि राज्य को अपना संविधान रखने की अनुमति दी गई। भारतीय संसद के कानून लागू करने वाले अधिकारों को इस राज्य के प्रति सीमित किया गया, जिसके अनुसार, भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी कानून राज्य की विधानसभा की पुष्टि के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। इन्हीं सब कारणों से उस दौर के केंद्रीय विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी असहमति जताई थी। संविधान सभा के कई वरिष्ठ सदस्यों के विरोध के बावजूद नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर इसे अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया।
हम सब जानते हैं कि भारत का संविधान केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी है। वे भारत के नागरिक हैं और जम्मू-कश्मीर के भी। इस देश में दो विधान व दो निशान होने का प्रमुख कारण यह कथित अनुच्छेद है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि 17 नवबंर 1956 को जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा विधिवत चुनी गई संविधान सभा ने इस विलय की पुष्टि कर दी। इसके बावजूद भी यह विवाद आज तक समाप्त नहीं हो सका है।
तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम आज हमारे सामने है कि महाराजा द्वारा किए गए बिना किसी पूर्व शर्त के विलय को भी शेख की हठधर्मिता के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ‘जनमत संग्रह’ या ‘आत्मनिर्णय’ जैसे उपक्रमों की घोषणा से महाराजा के विलय पत्र का अपमान तो किया ही साथ-साथ स्वतंत्रता अधिनियम का भी खुलकर उल्लघंन हुआ है। इस स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, राज्यों की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार न देते हुए केवल राज्यों के राजाओं को ही विलय के अधिकार दिए गए थे।
ये बातें एकदम सिद्ध हो चुकी हैं कि 63 वर्षों बाद भी यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या का समाधान नहीं हो सका है तो इसके जिम्मेदार कांग्रेसी राजनेता हैं। नेहरू का कश्मीर से विशेष लगाव होना, शेख अब्दुल्ला के प्रति अत्यधिक प्रेम और महाराजा हरिसिंह के प्रति द्वेषपूर्ण व्यवहार ही ऐसे बिंदु थे, जिसके कारण कश्मीर समस्या एक नासूर बनकर समय-समय पर अत्यधिक पीड़ा देती रही है, उसी तरह समस्या के समाधान में अनुच्छेद-370 भी जनाक्रोश का विषय बनती रही है।
इस विघटनकारी अनुच्छेद को समाप्त करने की मांग देश के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रवादियों द्वारा बराबर की जाती रही है। दूसरी ओर पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले इसे हटाए जाने का विरोध करते रहे हैं। अस्थाई रूप से जोड़ा गया यह अनुच्छेद-370 गत 61 वर्षों में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी है। इसे समाप्त करना ही देशहित में होगा, नहीं तो देश का एक और विभाजन तय है।
अलगाववाद को शह दे रही है कांग्रेस
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था- “जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है।”
उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ?
यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर मसले पर बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार भी उमर अब्दुल्ला की ही तरह अलगाववादी भाषा बोल रहे हैं। यानी उमर अब्दुल्ला, कांग्रेस, वार्ताकारों और राज्य के अलगाववादियों के विचार एक हैं। चारो अलगाववाद के समर्थन में हैं।
कांग्रेस भी अलगाववादियों के सुर में सुर मिला रही है। यह चिन्तनीय है। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता।
जी हां, चीनी ड्रेगन एक बार फिर जाग उठा है। अजगर धीरे-धीरे हीं लेकिन काफी खतरनाक ढंग से भारत के खिलाफ एक के बाद एक साजिशें रच रहा है। वह अपनी ताकत लगातार बढ़ा रहा है। किसी न किसी बहाने लेकिन हमारे राजनैतिक पुरोधाओं, रणनीतिकारों ने पता नहीं क्यों चुप्पी साध ली है? वे चीन को उसी की भाषा में आक्रामक और उपाक्रामक उत्तर नहीं दे पा रहे हैं। यही कारण है कि चीन हमारी चुप्पी को बेहद कमजोरी मान बैठा है और वह हमारे ऊपर वार पर वार करता रहा है। चीन की विस्तारवादी सामरिक रणनीति जारी है। वह भारत के सभी पड़ोसी देशों में अपनी पहुंच कायम कर भारत विरोध को मुखर कर चुका है। चाहे वह नेपाल हो या म्यांमार व श्रीलंका जैसे छोटे देश। वर्तमान में जो समाचार प्राप्त हुए हैं। वे बेहद चौंकाने वाले हैं। अमेरिकी पत्र ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के अनुसार, गुलाम कश्मीर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गिलगित बाल्टिस्तान क्षेत्र पर चीन का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है क्याेंकि पाकिस्तान उसे उसका वास्ताविक नियंत्रण सौंप रहा है। अर्थात् अब गुलाम कश्मीर पर दावे के साथ चीन भी सामने होगा। इस क्षेत्र में दो ओर बातें बेहद महत्वपूर्ण घटित हुई हैं। पहली, वहां पाक शासन के विरुध्द जबर्दस्त विद्रोह सुलग रहा है और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 7000 से 11000 हजार सैनिकों की वहां घुसपैठ हो गई है। यह क्षेत्र विश्व के संपर्क से कटा हुआ है। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ का दावा है कि चीन पाकिस्तान के रास्ते सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाना चाहता है। इसी उद्देश्य से चीन हाई स्पीड रेल और एक सड़क संपर्क बनाने में जुटा हुआ है। इन्हीं रास्तों से होकर बीजिंग पूर्वी चीन से ब्लूचिस्तान के ग्वार, पासनी और ओरमास के चीन द्वारा नवनिर्मित पाकिस्तानी नौसेना अड्डों पर जरूरी सामान और ऑयल टैंकर पहुंचाएगा। ये अड्डे अंडमान के खाड़ी के पूर्व में स्थित हैं और इन मार्गों के बनते ही मात्र 48 घंटों में पूर्व चीन से वहां पहुंचा जा सकेगा। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ का कहना है कि गिलगित तथा बाल्टिस्तान में प्रवेश कर रहे पी. एल. ए. सैनिकों में से कई रेलमार्ग पर काम करने वाले हैं। कुछ चीन के झिनसियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ने वाले काराकोरम हाइवे के विस्तार में जुटे हैं। अन्य बांधों, एक्सप्रेस-वे और अन्य परियोजनाओं पर भी काम कर रहे हैं। इन गुप्त स्थानों पर बन रही 22 सुरंगों पर रहस्य बना हुआ है क्योंकि वहां पर पाकिस्तानियों को भी जाने की अनुमति नही हैं। संभवतः इन सुरंगों का प्रयोग ईरान से चीन तक प्रस्तावित गैस पाईप के लिए ही होगी। पत्र का कहना है कि इस क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है वह अमेरिका के लिए बेहद चिंता का विषय है। चीन को अंडमान की खाड़ी तक पहुंचने के लिए इतनी ईंट और सरिया देने से स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान अमेरिका का मित्र नहीं है। ज्ञातव्य है कि गिलगित और बाल्टिस्तान में लोकतंत्र और क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए चलने वाले आंदोलन को बड़ी ही निर्ममता से कुचला गया। इससे पाकिस्तानी सेना ने जेहादी गुटों के साथ मिलकर स्थानीय शिक्षा मुसलमानों को सुनियोजित तरीके से आतंकित किया। सामरिक दृष्टि से चीन-पाक का यह नापाक गठजोड़ अमेरिकी हितों को तो प्रभावित कर ही रहा है, साथ ही भारत के लिए एक बहुत बड़े खतरे की घंटी भी है। अब जब कभी गुलाम कश्मीर को लेकर भारत पाक के मध्य संघर्ष की स्थिति बनती है तो भारतीय सेनाओं को चीन के साथ भी प्रत्यक्ष रूप से दो-दो हाथ करने पड़ेंगे। इतना ही नहीं, चीन भारत को और भी कई प्रकार से उकसाने के लगातार प्रयास कर रहा है। अभी तक वह अरुणाचल प्रदेश को ही विवादित बताता था लेकिन अब वह जम्मू-कश्मीर क्षेत्र को भी संवेदनशील व विवादित बनाने में लग गया है। गत दिनों जम्मू-कश्मीर को संवेदनशील क्षेत्र बताते हुए उसने उत्तरी भारत के सैन्य प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल जी. एस. जायसवाल को चीन यात्रा का वीजा देने से इनकार कर दिया। उधर बहुत दिनों बाद चीन की इस हरकत पर भारत ने चीन के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उक्त घटनाक्रम से व्यथित होकर विदेश मंत्रालय ने चीनी राजदूत सांग यांग को बुलाकर कड़ी आपत्ति दर्ज की और इतना ही नही भारत सरकार ने भी विवाद सुलझने तक चीन से सैन्य संवाद स्थागित कर दिया है। साथ ही भारत सरकार ने चीन के इस कदम को अस्वीकार्य बताया। इस घटनाक्रम से यह साफ हो रहा है कि चीन अपने मित्र पाकिस्तान के इशारे पर जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानकर भारत को परेशान कर रहा है। कभी वह जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को अलग से नत्थी कर वीजा देता है जिसका भारत लगातार विरोध कर रहा है। चीन पाक अधिकृत कश्मीर में विकास परियोजनाओं में भी सक्रिय भागीदारी निभा रहा है। अभी तक चीन की भारत विरोधी गतिविधियां अरुणाचल प्रदेश तक ही सीमित थी, लेकिन सुनियोजित साजिशों के अंतर्गत उनका विस्तार भी हुआ है। चीनी गतिविधियों से भारत के प्रति दुर्भावना स्पष्ट रूप से प्रकट होती है। अमेरिकी रक्षा मुख्यालय पेंटागन ने यह खुलासा भी किया है कि चीन ने भारत की सीमा के समीप नई उन्नत लंबी दूरी तक मार करने वाली सी.एस.एस. 5 मिसाइलें तैनात की हैं। वह शीघ्र ही इस क्षेत्र में वायुसेना भेजने की आपात योजना भी तैयार कर रहा है। पेंटागन का मानना है कि चीन ने अंतरिक्ष में हमला करनेवाली नई मिसाइलें विकसित कर ली हैं। रिपोर्ट के अनुसार चीन और भारत की 4,057 कि.मी. लंबी सीमा पर तनाव बना हुआ है। उधर चीन के एक सरकारी पोर्टल ने पूरे देश में सर्वे किया है कि क्या चीन भारत पर हमला कर सकता है? इस पर चीन की 60 प्रतिशत जनता ने समर्थन किया है, चूंकि चीन एक ऐसा देश है जहां मीडिया स्वतंत्र नही हैं इसलिए चीन का सरकारी मीडिया वहां के आम जनमानस में भारत विरोधी भावना को भी फैलाने का काम कर रहा है। चीनी गतिविधियां निश्चय ही बेहद खतरनाक हैं, लेकिन हमने शांत तटस्थ भाव अपना लिया है। चीन हमको सामरिक व रणनीतिक दृष्टि से चारों दिशाओं से घेरता जा रहा है। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? हम तो पड़ोसी देशों में अपनी पहुंच भी नहीं बना पा रहे हैं। एक समय था जब नेपाल में भारत की तूती बोलती थी लेकिन चीन-पाक के नापाक गठजोड़ ने वहां से भारत को लगभग खदेड़ सा दिया है। इन परिस्थितियों में सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि इन घटनाओं की जानकारी हमारी मीडिया को विदेशी मीडिया से प्राप्त हो रही है। संसद में सतपाल महाशय की अध्यक्षता वाली 32 सदस्यीय रक्षा संबंधी स्थायी संसदीय समिति की रिपोर्ट में सरकार को जमकर फटकार लगाई गई है। संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि पड़ोसी देशों की ओर से हमारी सीमाओं पर चलाई जा रही निर्माण गतिविधियों पर नजर रखना और आंकड़ों का रिकॉर्ड रखना बेहद जरूरी है। अब एक बात जग जाहिर हो चुकी है कि चीन पाक के बीच भारत विरोधी गठजोड़ बन चुका है तथा अब इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न हो रही है कि भारत के साथ तनाव बनाए रखने से चीन को कोई नुक सान होगा। वह भारत को दबाव में रखने की रणनीति अपना रहा है। अतः हमें भी चीन पर आक्रामक दबाव बनाने के लिए कुछ तो करना हीं पड़ेगा। अभी तो भारतीय राजनीतिज्ञ पता नहीं कर पा रहे हैं, यदि वे इसी प्रकार तटस्थ रहते हैं तो भविष्य के युध्द में भारत को नुकसान पहुँचेगा और इतिहास इन्हें कभी माफ नहीं करेगा।
मात्र 23 वर्ष की अल्पायु में ही फांसी के फंदे पर झूलकर भगत सिंह ने स्वातंत्र्य समर में उदाहरण प्रस्तुत किया जो पूरे विश्व के इतिहास में दुर्लभ है। प्रखर राष्ट्रवादी विचार, चमत्कृत करने वाली दूरदृष्टि, ओजस्वी वाणी दृश्य को बेधने वाली लेखनी और कतृत्व में विद्रोह की लपटें उनकी पहचान है। 1857 की स्वाधीनता संग्राम के पश्चात् सशस्त्र क्रांति का श्री गणेश करने वाले सरदार भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा गांव में सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती के घर हुआ था। जीवन में संस्कारों का महत्व होता है। भगत सिंह जिस प्रकार के पारिवारिक परिवेश में जन्में-पले, जैसे-जैसे कदम बढ़ाते गए उन संस्कारों का प्रभाव उनकी भविष्य की दिशा निर्धारित करता चला गया। उनके पिता सरदार किशन सिंह ने उन्हें खालसा स्कूल की बजाए डी. ए. वी. स्कूल लाहौर में प्रवेश दिलवाया, क्योंकि खालसा स्कूलों में उन दिनों ‘गॉड सेव द किंग’ यानी ब्रिटिश सम्राट की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना का गीत गाया जाता था। बाल्यावस्था में ही क्रांतिकारी बनने का बीज पड़ गया था। जब वे कक्षा 4 के विद्यार्थी थे अपने साथियों से पूछा करते थे कि बड़े होकर क्या करोगे? कोई कहता मैं नौकरी करूंगा। कोई कहता मैं खेती करूंगा। कोई दुकानदारी की बात कहता। जबकि वे कहते थे कि मैं तो अंग्रेजो को देश से बाहर निकालूंगा। उनकी बाल्यावस्था के उदाहरण से उनकी उत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति का परिचय मिलता है। एक बार भगत सिंह अपने पिता के साथ खेत में गये हुए थे। अचानक वे पिता की उंगली छोड़कर खेत में बैठ गए और छोटे तिनके जमीन में रोपने लगे। कुछ देर बाद पिता ने पूछा कि क्या कर रहे हो? भगत सिंह क ा उत्तर था बंदूकें बो रहा हँ। वे भाव आयु के साथ प्रबल होते जा रहे थे। लेकिन 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में जलियावाला बाग की विभत्स व हृदय विदारक घटना ने 12 वर्षीय भगत सिंह के जीवन को वह दिशा दी जिसके लिए वे जन्मे थे। उन्होंने जलियावाला बाग की मासूमों के खून से लथपथ मिट्टी उठाई और अपने मस्तक पर लगाई तथा कुछ मिट्टी शीशी में भरकर अपने साथ ले आए और घर आकर अपनी बहन से कहा कि अंग्रेजों ने हमारे बहुत से आदमी मार दिये हैं। वे लंबे समय तक उस माटी पर फूल चढ़ाकर जलियावाला बाग का बदला लेने का प्रण करते रहे। यह बलिदान की अनूठी, अनोखी, अप्रतिम वंदना थी। 1920 में नौंवी कक्षा में पहुंच कर भगत सिंह ने पढ़ाई छोड़कर स्वाधीनता आंदोलन में कुदने का निर्णय कर लिया। उनके पिता सरदार किशन सिंह ने भी उनके इस संकल्प की पूर्ति में योगदान दिया। वे स्वदेशी आंदोलन में शामिल हो गए। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के लिए नवयुवकों की टोलियां बनाकर निकल पड़े। उनकी संगठन-शक्ति, तेजस्विता और व्यवहार कुशलता का संबल संगठन को मिलने लगा। लकिन 5 फरवरी, 1922 को गोरखपुर जिले में हुए चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया और हिंसा-अहिंसा पर बहस छिड़ गई तब उनके मन में यह प्रश्न उठा कि हम देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं या इस विवाद में उलझ रहे हैं कि क्या श्रेष्ठ हैं-हिंसा या अहिंसा? लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में की गई थी जो लाजपत राय के निर्देशन में एक सरस, सजीव, राजनैतिक, ज्ञानवर्धक और उद्बोधक पाठयक्रम लेकर शिक्षा प्रदान करता था। सरदार किशन सिंह ने भगत सिंह का वहां प्रवेश करा दिया। उस समय वहां अनेक राजनैतिक बहसें होती थी जिनमें भगत सिंह सशस्त्र विद्रोह का पुरजोर समर्थन करते थे।
भगत सिंह का एक स्पष्ट लक्ष्य था भारत की आजादी और एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण का जहां किसी भी प्रकार के शोषण का कोई स्थान न हो। वे राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक यहां तक कि वैयक्तिक शोषण के विरुध्द लड़े थे। वर्ष 1924 में भगत सिंह कानपुर आ गए तथा यहां उनका परिचय गणेशशंकर विद्यार्थी से हुआ तथा वे उनके दैनिक पत्र ‘दैनिक प्रताप’ से सह-संपादक के रूप में जुड़े। यहां उनका संपर्क प्रसिध्द क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सन्याल, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त तथा कुछ अन्य क्रांतिकारियों से हुआ। 1925 में भगत सिंह ने दिल्ली के प्रसिध्द समाचार-पत्र ‘वीर अर्जुन’ में भी कार्य किया। इस पत्र के संचालक स्वामी श्रध्दानंद के पुत्र विद्या वाचस्पति थे। 1926 का वर्ष भारत के क्रांतिकारी इतिहास का महत्वपूर्ण वर्ष था जब नौजवान भारत सभा की स्थापना हुई। भगत सिंह इस सभा के पहले सचिव थे। नौजवान भारत सभा का मुख्य उद्देश्य था भारत में एक सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण के लिए नवयुवकों में देशभक्ति की भावना जगाना। इसमें भर्ती होने वाले के प्रत्येक सदस्य को अपने स्वार्थों से उपर उठकर देशभक्ति एवं देशहित को सर्वोपरि मान लेने की शपथ लेनी होती थी। नौजवान भारत सभा ने भारतीयता के भाव, स्वदेशी, स्वास्थ्य, देश की एकता जैसे कई महत्वपूर्ण कार्य किए। साइमन कमीशन का विरोध होना चाहिए यह बात भारतीय समाज के नस-नस में दौड़ने लगी थी। 30 अक्टूबर, 1928 को तब लाहौर में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस का आयोजन हुआ इस जुलूस पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया जिससे लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए तथा 17 नवंबर, 1928 को उनकी मृत्यु हो गई। लालाजी के बलिदान से जहां एक ओर पूरा देश स्तब्ध था वहीं क्रांति की अलख भी जग रही थी। भगत सिंह और उनके साथियों का खून खौल उठा। उन्होंने लालाजी की मौत का बदला लेने का निश्चय किया। प्रकरण का खलनायक सांडर्स मारा गया। सांडर्स की हत्या पर उन्हाेंने अपने एक पत्र में मित्र को लिखा कि लाहौर का विस्फोट सुनाई पड़ी। धन्य-धन्य अनेक बार धन्य। इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम अपेक्षित परिवर्तन तो किया जा सका। अंततः भगत सिंह व उनके साथियों को लाहौर से भागना पड़ा। भगत सिंह ने दिसंबर, 1928 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। कलकत्ता में ही उनकी प्रसिध्द क्रांतिकारी जितेंद्रनाथ दास से गहरी दोस्ती हुई जो बम बनाने की कला में दक्ष थे। वापस लौटने पर भगत सिंह ने आगरा, सहारनपुर, दिल्ली आदि में कई बम फैक्ट्रियों की योजना बनाई। भगत सिंह बैचेन थे। बाहरी अंग्रेज सरकार को सुनाने और जगाने के लिए एक बड़े धमाके की जरूरत है। क्या होगा वह धमाका और कैसा होगा? अंततः फैसला हुआ असेंबली में बम फेंकने का। 8 अप्रैल, 1929 को जब वित्त सदस्य सर जार्ज शूसचुस्टर जन सुरक्षा कानून की घोषणा कर रहा था, तो दर्शक दीर्घा में बैठे दो नवयुवक भारतीय स्वाधीनता संग्राम की सबसे महत्वपूर्ण घटना को अंजाम देने को तैयार थे। अचानक असेंबली हाल में बम फटा। अफरा-तफरी मच गयी। दो नवयुवकों ने ‘लांग लिव रिवोल्यूशन’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए आत्मसमर्पण कर दिया। नवयुवक थे सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त। इस घटना के लिए सत्र न्यायाधीश मेडलटोन ने दोनों को 12 जून, 1929 को जीवन पर्यंत कैद की सजा सुनाई तथा भगत सिंह को मियांवलि जेल तथा बटुकेश्वर दत्त को लाहौर जेल भेज दिया गया। भगत सिंह 8 अप्रैल, 1929 से 23 मार्च, 1931 तक का जीवन भी कम क्रांतिकारी नहीं था। भगत सिंह तथा उनके साथियों ने भूख हड़ताल कर अंग्रेज सरकार की नींद उड़ा दी थी। उन्होंने जेल में ही राष्ट्रीय जागरण की व्यूह रचना की। उन्होंने अदालत से काकोरी दिवस और लाला लाजपत राय दिवस मनाने की सुविधा प्राप्त कर ली। बौखलाई अंग्रेज सरकार ने इसी बीच सांडर्स का केस दुबारा खोला। अदालत और गवाहियों का नाटक प्रारंभ हुआ। जिसका परिणाम सभी जानते थे। 7 अक्टूबर, 2010 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी देने का निर्णय की औपचारिक घोषणा हुई। 23 मार्च, 1931 को भारत राष्ट्र के लिए और जहां शोक की काली रात सा था वहीं बलिदान की महान परंपरा के लिए सूरज की पहली सुबह थी। फांसी के समय भगत सिंह का मन एक महान योगी की भांति शांत था। लेकिन भगत सिंह नश्वर शरीर को मां भारती की स्वाधीनता के लिए बलिदान कर अमर हो गए। अंग्रेज सरकार उस समय इतना भयाक्रांत हो चुकी थी कि सभी नियमों को दरकिनार कर उन्हें व साथियों को समय पूर्व हीं फांसी दे दी। उनकी लाशों को बोरे में भरकर फिरोजपुर जिले के हुसैनावाला पुल के निकट ले जाया गया। मिट्टी का तेल डालकर अधजली लाशों को सतलुज नदी में फेंका गया। फांसी की पुरी प्रक्रिया में सभी नियमों को तिलांजलि देकर अंग्रेज शासकों ने अपना और अपनी बेरहम सत्ता का एक भयानक खौफनाक चेहरा दुनिया के सामने प्रकट किया था। राष्ट्र सिसक रहा था उसका सपूत बार-बार इसी धरा पर जन्मने की सौगंध ले महाप्रयाण कर चुका था। करोड़ों युवकों के हृदय में क्रांति के बीज रोप कर।
मुझे बाबा रामदेव अच्छे लगते हैं। वे इच्छाओं को जगाते हैं आम आदमी में जीने की ललक पैदा करते हैं। भारत जैसे दमित समाज में इच्छाओं को जगाना ही सामाजिक जागरण है। जो लोग कल तक अपने शरीर की उपेक्षा करते थे, अपने शरीर की केयर नहीं करते थे, उन सभी को बाबा रामदेव ने जगा दिया है।
इच्छा दमन का कंजूसी के भावबोध, सामाजिक रूढ़ियों और दमित वातावरण से गहरा संबंध है। बाबा रामदेव ने एक ऐसे दौर में पदार्पण किया जिस समय मीडिया और विज्ञापनों से चौतरफा मन, शरीर और पॉकेट खोल देने की मुहिम आरंभ हुई है। यह एक तरह से बंद समाज को खोलने की मुहिम है जिसमें परंपरागत मान्यताओं के लोगों को बाबा रामदेव ने सम्बोधित किया है।
परंपरागत भारतीयों को खुले समाज में लाना,खुले में व्यायाम कराना,खुले में स्वास्थ्य चर्चा के केन्द्र में लाकर बाबा रामदेव ने कारपोरेट पूंजीवाद की महान सेवा की है। बाबा रामदेव ने जब अपना मिशन आरंभ किया था तब उनके पास क्या था? और आज क्या है? इसे जानना चाहिए।
आरंभ में बाबा रामदेव सिर्फ संन्यासी थे, उनके पास नाममात्र की संपदा भी नहीं थी आज वे पूंजीवादी बाजार के सबसे मंहगे ग्लोबल ब्रॉण्ड हैं। अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। यह संपत्ति योग-प्राणायाम से कमाई गई है। इतनी बडी संपदा अर्जित करके बाबा रामदेव ने एक संदेश दिया है कि अगर जमकर परिश्रम किया जाए तो कुछ भी कमा सकते हो। कारपोरेट जगत की सेवा की जाए तो कुछ भी अर्जित किया जा सकता है।
बाबा ने एक ही झटके में योग-प्राणायांम का बाजार तैयार किया है। जड़ी-बूटियों का बाजार तैयार किया है। योग को स्वास्थ्य और शरीर से जोड़कर योग शिक्षा की नई संभावनाओं को जन्म दिया है। पूंजीवादी आर्थिक दबाबों में पिस रहे समाज को बाबा रामदेव ने योग के जरिए डायवर्जन दिया है। सामान्य आदमी के लिए यह डायवर्जन बेहद मूल्यवान है। जिसके कारण वह कुछ समय के लिए ही सही प्रतिदिन तनावों के संसार से बाहर आने की चेष्टा करता है।
जिस समाज में आम आदमी को निजी परिवेश न मिलता हो उसे विभिन्न योग शिविरों के जरिए निजी परिवेश मुहैय्या कराना, एकांत में योग करने का अभ्यास कराना।जिस आदमी ने वर्षों से सुबह उठना बंद कर दिया था उस आदमी को सुबह उठाने की आदत को नए सिरे से पैदा करना बड़ा काम है।
नई आदतें पैदा करने का अर्थ है नई इच्छाएं पैदा करना। स्वयं से प्यार करने, अपने शरीर से प्यार करने की आदत डालना मूलतः व्यक्ति को व्यक्तिवादी बनाना है और यह काम एक संयासी ने किया है, जबकि यह काम बुर्जुआजी का था।
बाबा रामदेव की सफलता यह है कि उन्होंने व्यक्ति के शरीर में पैदा हुई व्याधियों के कारणों से व्यक्ति को अनभिज्ञ बना दिया। मसलन किसी व्यक्ति को गठिया है तो उसके कारण हैं और उनका निदान मेडीकल में है लेकिन जो आदमी बाबा के पास गया उसे यही कहा गया आप फलां-फलां योग करें, प्राणायाम करें,आपकी गठिया ठीक हो जाएगी। अब व्यक्ति को योग और गठिया के संबंध के बारे में मालूम रहता है, गठिया के वास्तव कारणों के बारे में मालूम नहीं होता।
बाबा चालाक हैं अतः मेडीकल में जो कारण बताए गए हैं उनका अपनी वक्तृता में इस्तेमाल करते हैं, जबकि बाबा ने मेडीकल साइंस की शिक्षा ही नहीं ली है। ऐसी अवस्था में उनका मेडीकल ज्ञान अविश्वसनीय ही नहीं खतरनाक है और इस चक्कर में वे एक ही काम करते हैं कि समस्या के वस्तुगत ज्ञान से व्यक्ति को विच्छिन्न कर देते हैं। इस तरह बाबा ने व्यक्ति का उसकी वस्तुगत समस्या से संबंध तोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली।
बाबा रामदेव की कामयाबी के पीछे एक अन्य बड़ा कारण है रामजन्मभूमि आंदोलन का असफल होना। भाजपा और संघ परिवार की यह चिन्ता थी कि किसी भी तरह जो हिन्दू जागरण रथयात्रा के नाम पर हुआ है उस जनता को किसी न किसी रूप में गोलबंद रखा जाए और उत्तरप्रदेश और देश के बाकी हिस्सों में राममंदिर के लेकर जो मोहभंग हुआ था, उसने हिन्दुओं के मानस में एक खालीपन पैदा किया था। इस खालीपन को बाबा ने खूब अच्छे ढ़ंग से इस्तेमाल किया और हिन्दुओं को गोलबंद किया।
राममंदिर के राजनीतिक मोहभंग को चौतरफा धार्मिक संतों और बाबा रामदेव के योग के विस्फोट के जरिए भरा गया। राममंदिर के मोहभंग को आध्यात्मिक-यौगिक ध्रुवीकरण के जरिए भरा गया। राममंदिर का सपना चला गया लेकिन उसकी जगह हिन्दू का सपना बना रहा है। विभिन्न संतों और बाबाओं की राष्ट्रीय आध्यात्मिक आंधी ने यह काम बड़े कौशल के साथ किया है।
हिन्दू स्वप्न को पहले राममंदिर से जोड़ा गया बाद में बाबा रामदेव के सहारे हिन्दू सपने को योग से जोड़ा गया। बाबा के लाइव टीवी कार्यक्रमों में हिन्दू धर्म का प्रचार स्थायी विषय रहा है। जबकि सच है कि योग-प्राणायाम की भारतीय परंपरा वह है जो चार्वाकों की परंपरा है। ये वे लोग रहे हैं जो नास्तिक थे, भगवान को नहीं मानते थे। हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की अनेक बुनियादी मान्यताओं की तीखी आलोचना किया करते थे।
बाबा रामदेव ने बड़ी ही चालाकी और प्रौपेगैण्डा के जरिए योग को हिन्दूधर्म से जोड़ दिया है और यही उनका धार्मिक भ्रष्टाचार है। इस तरह बाबा रामदेव ने योग के साथ हिन्दूधर्म को जोड़कर योग से उसके वस्तुगत विचारधारात्मक आधार को ही अलग कर दिया है।
हम सब लोग जानते हैं कि बाबा रामदेव ने पतंजलि के नाम से सारा प्रपंच चलाया हुआ है लेकिन उनके प्रवचनों में व्यक्त हिन्दू विचारों का पतंजलि के नजरिए से दूर का संबंध है।
योग का सबसे पुराना ग्रंथ है ‘योगसूत्र’ । इसकी धारणाओं का हिन्दुत्व और सामयिक हिन्दू संस्कृति के प्रवक्ताओं की धारणाओं के साथ किसी भी किस्म का रिश्ता नहीं है। प्रसिद्ध दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘वैदिक साहित्य में योग शब्द का अर्थ था जुए में बांधना या जोतना।’
अति प्राचीन युग से ही यह शब्द कुछ ऐसी क्रियाओं के लिए प्रयोग में लाया जाता था जो सर्वोच्च लक्ष्य के लिए सहायक थीं। अंततः यही इस शब्द का प्रमुख अर्थ बन गया। दर्शन में योग का गहरा संबंध पतंजलि के ‘योगसूत्र’ से है। जेकोबी का मानना ये पतंजलि वैय्याकरण के पंडित पतंजलि से भिन्न हैं। लेकिन एस.एन.दास गुप्त के अनुसार ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं। और उन्होंने इस किताब का रचनाकाल 147 ई.पू. माना है। जेकोबी ‘योगसूत्र’का रचनाकाल संभवतः540 ई. है।
सांख्य और योग के बीच में गहरा संबंध है। हम सवाल कर सकते हैं कि आखिरकार बाबा रामदेव सांख्य-योग का आज के संघ परिवार के द्वारा प्रचारित हिन्दुत्व के साथ संबंध किस आधार पर बिठाते हैं? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पतंजलि के ‘योगसूत्र’ लिखे जाने के काफी पहले से लोगों में योग और उसकी क्रियाओं का प्रचलन था।
डी.पी चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘ ‘योगसूत्र’ में वर्णित योग, मूल यौगिक क्रियाओं से बहुत भिन्न था। इस विचार में कोई नवीनता नहीं है। योग्य विद्वान इसे तर्क द्वारा गलत साबित कर चुके हैं। इनमें से कुछ विद्वानों का कहना है कि योग का प्रादुर्भाव आदिम समाज के लोगों की जादू टोने की क्रियाओं से हुआ।’’
एस.एन.दास गुप्त ने ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डियन फिलॉसफी’ में लिखा है ‘‘पतंजलि का सांख्यमत, योग का विषय है … संभवतः पतंजलि सबसे विलक्षण व्यक्ति थे क्योंकि उन्होंने न केवल योग की विभिन्न विद्याओं का संकलन किया और योग के साथ संबंध की विभिन्न संभावना वाले विभिन्न विचारों को एकत्र किया, बल्कि इन सबको सांख्य तत्वमीमांसा के साथ जोड़ दिया,और इन्हें वह रूप दिया जो हम तक पहुंचा है। पतंजलि के ‘योगसूत्र’ पर सबसे प्रारंभिक भाष्य, ‘व्यास भास’ पर टीका लिखने वाले दो महान भाष्यकार वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु हमारे इस विचार से सहमत हैं कि पतंजलि योग के प्रतिष्ठापक नहीं बल्कि संपादक थे। सूत्रों के विश्लेषणात्मक अध्ययन करने से भी इस विचार की पुष्टि होती है कि इनमें कोई मौलिक प्रयत्न नहीं किया गया बल्कि एक दक्षता पूर्ण तथा सुनियोजित संकलन किया गया और साथ ही समुचित टिप्पणियां भी लिखी गईं।’’
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि योग का आदिमरूप तंत्रवाद में मिलता है। दासगुप्त ने लिखा है कि योग क्रियाएं पतंजलि के पहले समाज में प्रचलित थीं। पतंजलि का योगदान यह है कि उसने योग क्रियाओं को ,जिनका नास्तिकों में ज्यादा प्रचलन था, तांत्रिकों में प्रचलन था, इन क्रियाओं को आस्तिकों में जनप्रिय बनाने के लिए इन क्रियाओं के साथ भाववादी दर्शन को जोड़ दिया।
डी.पी.चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘ये भाववादी परिवर्तन सैद्धांतिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के हुए।’ इस प्रसंग में आर. गार्बे ने लिखा है कि ‘‘ योग प्रणाली द्वारा सांख्य दर्शन में व्यक्तिगत ईश्वर की अवधारणा को सम्मिलित करने का उद्देश्य केवल आस्तिक लोगों को संतुष्ट करना और सांख्य द्वारा प्रतिपादित विश्व रचना संबंधी सिद्धांत को प्रसारित करना था। योग प्रणाली में ईश्वर संबंधी विचार निहित नहीं बल्कि उन्हें यूं ही शामिल कर लिया गया था।‘योगसूत्र’ के जिन अंशों में ईश्वर का प्रतिपादन हुआ है ,वे एक-दूसरे से असंबद्ध हैं और वास्तव में योगदर्शन की विषयवस्तु तथा लक्ष्य के विपरीत हैं। ईश्वर न तो विश्व का सृजन करता है और न ही संचालन। मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार पुरस्कार या दण्ड नहीं देता। ईश्वर में विलीन को मनुष्य (कम से कम प्राचीन योगदर्शन के अनुसार) अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य नहीं मानता… प्रत्यक्ष है कि ईश्वर का जो अर्थ हम लगाते हैं यह उस प्रकार के ईश्वर का मूल नहीं है और हमें काफी उलझे हुए विचारों का सामना करना पड़ता है जिनका लक्ष्य इस दर्शन के मूल नास्तिक स्वरूप को छिपाना तथा ईश्वर को मूल विचारों के अनुकूल जैसे तैसे बनाना है। स्पष्ट है कि ये उलझे हुए विचार इस बात को सिद्ध करते हैं कि यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो वे वास्तविक योग में किसी व्यक्तिगत ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है।… किंतु योग प्रणाली में एक बार ईश्वर संबंधी विचार को सम्मिलित कर लेने के बाद यह आवश्यक हो गया कि ईश्वर और मानव जगत के बीच कोई संबंध स्थापित किया जाए क्योंकि ईश्वर केवल अपने ही अस्तित्व में बना नहीं रह सकता था। मनुष्य और ईश्वर के बीच का यह संबंध इस तथ्य को लाकर स्थापित किया गया कि जहां ईश्वर आपको इहलौकिक या नैसर्गिक जीवन प्रदान नहीं करता (क्योंकि वह तो व्यक्ति के सुकर्मों अथवा कुकर्मों के अनुसार मिलते हैं), वहां ईश्वर अपनी करूणा दिखाकर मनुष्य की सहायता करता है और यह मनुष्य उसके प्रति पूर्ण आस्था रखता है ताकि मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर हो सकें। किंतु ईश्वर में मानव की आस्था और दैवी कृपा पर आधारित यह क्षीण संबंध भी योग दर्शन में सम्मिलित होकर दुर्बोध सा प्रतीत होता है।’’ (एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन ऐंड एथिक्स, सं.जे. हेस्टिंग्स, एडिनबरा, 1908-18)