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बाबा रामदेव की इमेजों का जादू

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

टेलीविजन युग की यह खूबी है कि जो टीवी पर्दे पर दिखता है वही सत्य है। जो पर्दे पर नहीं दिखता उसका अस्तित्व भी दर्शक मानने को तैयार नहीं होते। इस तरह के दर्शकों की अनेक प्रतिक्रियाएं मेरे बाबा रामदेव पर केन्द्रित लेखों पर सामने आयी हैं। वे टेलीविजन निर्मित यथार्थ और प्रचार पर आंखें बंद करके विश्वास करते हैं। वे यह सोचने को तैयार नहीं हैं कि बाबा रामदेव और योग की टीवी निर्मित इमेज फेक इमेज है।

जो लोग बाबा रामदेव को टीवी पर देख रहे हैं वे यह मानकर चल रहे हैं बाबा ही योग के जनक हैं। योग का तो सिर्फ स्वास्थ्य से संबंध है। बाबा के टीवी दर्शकों की यह भी मुश्किल है कि उन्हें ज्ञान-विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। वे टीवी इमेजों के जरिए यह भी मानकर चल रहे हैं कि बाबा रामदेव जो बोलते हैं, सच बोलते हैं,सच के अलावा कुछ नहीं बोलते। वे टीवी प्रचार से इस कदर अभिभूत हैं कि बाबा रामदेव के बारे में किसी वैज्ञानिक बात को भी मानने को तैयार नहीं हैं। यहां तक कि वे अपने प्राचीन ऋषियों-मुनियों की योग के बारे में लिखी बातें मानने को तैयार नहीं हैं। वे भीड़ की तरह बाबा रामदेव का वैसे ही अनुकरण कर रहे हैं जैसे कोई साबुन के विज्ञापन को देखकर साबुन का उपभोग करने लगता है। उसके बारे में वह कुछ भी जानना नहीं चाहता।

बाबा रामदेव कोई ऐसी हस्ती नहीं हैं कि उनके बारे में सवाल न किए जाएं। जो लोग नाराज हैं हमें उनकी बुद्धि पर तरस आता है। वे बाबा के विज्ञापनों और प्रौपेगैण्डा चक्र में पूरी तरह फंस चुके हैं।

बाबा रामदेव ने योग के उपभोग का लोकतंत्र निर्मित किया है। यहां योग करने वालों में स्वास्थ्य संबंधी असमानताएं हैं। इस असमानता को मिटाना बाबा का लक्ष्य नहीं है। वे इस असमानता को बनाए रखते हैं। यौगिक क्रियाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन करके योग के उपभोग का वातावरण और फ्लो बनाए रखना चाहते हैं। वे योग के नियमित उपभोग के माध्यम से अपने ग्राहक को बांधे रखते हैं। इस क्रम में वे योग को बनाए रखते हैं लेकिन अन्य चीजें वे ठीक नहीं कर पाते।

मसलन वे एडस या कैंसर ठीक नहीं कर सकते। किसी भी बड़ी बीमारी को ठीक नहीं कर सकते। प्राणायाम से आराम मिलता है और इस आराम से अनेक सामान्य समस्याएं कम हो जाती हैं जैसे रक्तचाप वगैरह।

बाबा रामदेव जब योग का प्रचार करते हैं तो योग से सुख मिलेगा, आराम मिलेगा, शांति मिलेगी और शरीर निरोगी बनेगा आदि वायदे करते हैं। ये वायदे वैसे ही हैं जैसे कोई माल अपनी बिक्री के लिए विज्ञापन में करता है। मजेदार बात यह है कि साधारण आदमी यदि प्रतिदिन आधा-एक घंटा व्यायाम कर ले तो वह सामान्यतौर पर चुस्त-दुरूस्त रहेगा। यदि व्यक्ति सुबह जल्दी उठे और व्यायाम करे तो वह सामान्य तौर पर स्वस्थ हो जाएगा। लेकिन अब मुश्किल यह है कि बाबा रामदेव से हम ये बातें पैसा देकर सुन रहे हैं, और पैसा देकर खरीद रहे हैं, पैसा देकर मान रहे हैं।

बाबा रामदेव ने योग को ग्लैमर का रूप दिया है। उसे दिव्य-भव्य बनाया है। इसके कारण सभी वर्ग के लोगों में इसकी सामान्य अपील पैदा हुई है। बाबा रामदेव अपने योग संबंधी व्याख्यानों में व्यक्ति ‘क्या है ’ और ‘क्या होना चाहता है’ के अंतर्विरोध का बड़े कौशल के साथ इस्तेमाल करते हैं। वे इस क्रम में व्यक्ति को स्वास्थ्य और शरीर के प्रति जागरूक बनाते हैं। शरीर स्वस्थ रखने के प्रति जागरूकता पैदा करते हैं।

बाबा रामदेव अपने स्वस्थ शरीर के जरिए बार-बार टीवी पर लाइव शो करके जब योग दिखाते हैं तो योग को ग्लैमरस बनाते हैं। सुंदर शरीर की इमेज बार-बार सम्प्रेषित करते हैं। सुंदर शरीर के प्रति इच्छाशक्ति जगाते हैं। स्वस्थ शरीर का दिवा-स्वप्न परोसते हैं और यही उनके व्यापार की सफलता का रहस्य भी है। वे आम टीवी दर्शक की इच्छाशक्ति और अनुभूति के बीच के अंतराल को अपनी यौगिक क्रियाओं के जरिए भरते हैं। उसके प्रति आकर्षण पैदा करते हैं।

जो लोग यह सोच रहे हैं कि बाबा रामदेव का योग का अभ्यास उन्हें भारतीय संस्कृति का भक्त बना रहा है वे भ्रम में हैं। विज्ञापन और टेलीविजन के माध्यम से योग का प्रचार-प्रसार मूलतः योग को एक माल बना रहा है। आप पैसा खर्च करें और योग का उपभोग करें। यहां भोक्ता की स्व-निर्भर छवि ,निजता और जीवनशैली पर जोर है। वे योग का प्रचार करते हुए योग की विभिन्न वस्तुओं और आसनों की बिक्री और सेवाओं को उपलब्ध कराने पर जोर दे रहे हैं। वे योग संबंधी विभिन्न सूचनाएं दे रहे हैं। योग की सूचनाओं को देने के लिए वे जनमाध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं। क्योंकि लोकतंत्र में जनमाध्यमों के अलावा किसी और तरीके से सूचनाएं नहीं दी जा सकतीं।

बाबा रामदेव की खूबी यह है कि उन्होंने योग को फैशन के पैराडाइम में ले जाकर प्रस्तुत किया है। आज योग-प्राणायाम जीवनशैली का हिस्सा है। फैशन स्टेटमेंट है। यह मासकल्चर की एक उपसंस्कृति है। योग पहले कभी संस्कृति का हिस्सा था। लेकिन इनदिनों यह मासकल्चर का हिस्सा है। बाबा रामदेव की सुंदर देहयष्टि एक परफेक्ट मॉडल की तरह है जो योग का प्रचार लाइव टेलीकास्ट के जरिए करते हैं।

बाबा रामदेव की बारबार टीवी पर प्रस्तुति और उसका प्रतिदिन करोड़ों लोगों द्वारा देखना योग को एक सौंदर्यपरक माल बना रहा है। बार-बार एक ही चीज का प्रसारण योग के बाजार को चंगा रखे हुए है। वे योग के जरिए स्वस्थ भारत का सपना बेचने में सफल रहे हैं।

बाबा रामदेव अपने प्रचार के जरिए स्वस्थ और श्रेष्ठ जीवन का विभ्रम पैदा कर रहे हैं। योग को सर्वोत्कृष्ट बता रहे हैं। जीवनशैली के लिए श्रेष्ठतम बता रहे हैं। वे बार-बार यह भी कहते हैं कि लाखों-करोड़ों लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं तुम भी इस्तेमाल करो।

वे विज्ञापन कला का अपने प्रसारणों में इस्तेमाल करते हैं फलतः उनकी बातें अति-स्वाभाविक लगती हैं। उनकी यही अति-स्वाभाविकता योग और बाबा रामदेव के प्रति किसी भी आलोचनात्मक विवेक को अपहृत कर लेती है। अति-स्वाभाविकता का गुण है कि आप सवाल नहीं कर सकते। वे अपनी प्रस्तुतियों के जरिए योग और स्वयं को सवालों के दायरे के बाहर ले जाते हैं। वे इसे शुद्ध ‘कॉमनसेंस’ बना देते हैं।

इसके कारण दर्शक को योग के पीछे सक्रिय विचारधारा,व्यवसाय आदि नजर नहीं आते। वह इसके मकसद के बारे में भी सवाल नहीं उठाता बल्कि होता उलटा है जो सवाल उठाते हैं बाबा रामदेव के भक्त उस पर ही पिल पड़ते हैं। वे बाबा रामदेव की टीवी निर्मित इमेज के अलावा और कोई इमेज देखने, सुनने और मानने को तैयार नहीं हैं। इस अर्थ में बाबा रामदेव की इमेज के गुलाम हैं। यह वैसे ही है जैसे आप लक्स साबुन खरीदते हुए करिश्मा कपूर या ऐश्वर्याराय की इमेज के गुलाम होते हैं,उसका अनुकरण करते हैं और बाजार से जाकर लक्स साबुन खरीद लेते हैं और नहाने लगते हैं।

बाबा रामदेव का योग को कॉमनसेंस के आधार पेश करना और उसका बार-बार प्रसारण इस बात का भी प्रमाण है कि वे योग को बाजारचेतना की संगति में लाकर ही बेचना चाहते हैं। कॉमनसेंस का वे योग के लिए फुसलाने की पद्धति के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

अयोध्या पर संतों का निर्णय और हमारा उत्तरदायित्व

– विनोद बंसल

गत 6 अप्रेल को हरिद्वार पूर्ण कुंभ के अवसर पर गंगा तट पर देश भर के वरिष्ठ पूज्य संतों ने जब श्री राम की जन्म भूमि पर बनने वाले भव्य मंदिर हेतु हनूमान चालीसाओं का पाठ करने का निर्णय दिया तो पता नहीं क्यों मेरे मन में एक अनपेक्षित शंका ने जन्म लिया और कहा कि आज के इस कलयुग में भला केवल हनूमान चालीसाओं के सहारे मंदिर बनने की बात कहां तक तर्क संगत है। खैर। क्योंकि पूज्य संतों का निर्णय था, किसी भी प्रकार की शंका करना धर्म विरुद्ध होगा, ऐसा मान कर मैंने न सिर्फ़ स्वयं वल्कि पूरे परिवार व ईष्ट मित्रों को भी नियमित कम से कम एक हनूमान चालीसा करने का आग्रह किया। जो लोग इस बारे में शंका करते थे उन्हें भी मैं यही कहता कि फ़ल की इच्छा छोड संतों के आदेशानुसार आप को तो एक हनूमान चालीसा रोज इस संकल्प के साथ करनी है कि भगवान इसका फ़ल जन्म भूमि मन्दिर के लिए समर्पित करें। इस तरह हनूमान चालीसाओं के पारायण का क्रम देश भर में चालू हो गया और तीस सितम्बर को आये उच्च न्यायालय के निर्णय में उन सारी चालीसाओं का फ़ल स्पष्ट दिखाई दिया। केवल उन तीन न्यायाधीशों को छोड विश्व के किसी व्यक्ति ने शायद कल्पना भी न की थी कि ऐसा निर्णय आयेगा। भगवान का पूज्य पवित्र जन्म स्थान न सिर्फ़ भगवान राम लला विराजमान को मिला वल्कि सभी आशंकाओं को तिलांजलि दे एक भी अप्रिय घटना देश के किसी कौने में नहीं घटी। देश भर में एक खुशी की लहर सी दौड गई। वह ठीक है कि उस निर्णय में अभी भी कुछ मूल भूत बदलाव की आवश्यकता है तभी वहां भव्य मंदिर का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

न्यायालय ने तो अपना निर्णय सुना दिया किन्तु संतों ने अपने इस उच्चाधिकार का प्रयोग करते हुए गत बीस अक्टूबर को अयोध्या के जानकी घाट, परिक्रमा मार्ग स्थित कारसेवक पुरम में जो फ़ैसला सुनाया वह निम्नानुसार है:

‘‘आज जिस स्थान पर श्रीरामलला विराजमान है वही स्थान श्रीराम की जन्मभूमि है’’। इस प्रामाणिक यथार्थ सनातन सत्य को स्वीकार कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने कोटि-कोटि सत्य एवं न्यायप्रेमी समाज के हृदय में प्रसन्नता का संचार किया है। सन्त उच्चाधिकार समिति न्यायालय के इस निर्णय का हृदय से स्वागत करती है।

• श्री रामलला विराजमान एवं उनका जन्मस्थान दोनों ही स्वयं में देवता है। ऐसी शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक मान्यता हिन्दू समाज की सनातन काल से चली आ रही है तथा इसी रूप में हिन्दू समाज इस स्थान को पूजता रहा है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ ने हिन्दू समाज की इस आस्था को एकमत से स्वीकार करते हुये भी देवता स्वरूप जन्म स्थान को विभाजित करने का निर्णय दिया है। यह संतों एवं हिन्दू समाज को कदापि स्वीकार नहीं है। 135 फिट लम्बे तथा 90 फिट चौड़े इस स्थान की परिक्रमा हिन्दू समाज सदैव से करता रहा है। इस विवादित स्थल के चारों ओर वास्तु के अनुसार बना परिक्रमा स्थान देवता के दिव्यता का सूचक तथा जन्मस्थान रूपी देवता की परिसीमा को युगों-युगों से निर्धारित करता रहा है।

•सन्त उच्चाधिकार समिति की ऐसी मान्यता है कि अयोध्या में श्रीरामजन्मस्थान पर भव्य मन्दिर बनाना न केवल हिन्दू समाज अपितु भारतीय मुस्लिम समाज के सम्मान का विषय भी है। महात्मा गांधी जी ने भी कहा है कि ‘जिस देश में श्री रामचन्द्र जी जैसे पुरुष हो गये उस देश पर हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों को भी गर्व होना चाहिये। हम प्रभु श्रीरामलला से प्रार्थना करते है कि देशभक्त भारतीय मुस्लिमों के हृदय में ऐसी अंतर्चेतना जागृत हो कि वे भी मंदिर निर्माण के इस पवित्र संकल्प व अनुष्ठान में अपना सहयोग करें।

•उच्च न्यायालय ने विवादित स्थल की एक तिहाई भूमि मुस्लिम समुदाय को देने का निर्णय दिया है। यह एक स्वर्णिम अवसर मुस्लिम समाज के सामने है जब वह स्वेच्छा से इस एक तिहाई भाग को भी विराजमान रामलला को समर्पित कर अनेक वर्षों से चले आ रहे साम्प्रदायिक मन-मुटाव को दूर कर हिन्दू समाज से अत्यन्त मधुर सम्बन्ध बनाने का मार्ग प्रशस्त करे।

•सन्त उच्चाधिकार समिति सर्व सम्मति से यह स्पष्ट करती है कि हिन्दू शास्त्र और परम्परा के अनुसार स्थान का स्वामित्व (मालिकाना हक) मात्र विराजमान रामलला का है।

•समिति दो टूक शब्दों में इस बात को पुनः दोहराना अपना कर्तव्य समझती है कि भारत सरकार द्वारा अधिग्रहीत 67एकड़ भूमि मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की क्रीड़ा भूमि, लीला भूमि और संस्कार भूमि है। जन्मस्थान सहित अधिग्रहीत पूरे परिसर पर ही भगवान श्रीराम का उनके गौरव के अनुरूप भव्य मन्दिर तथा उनकी कथा स्मृति एवं मानव मर्यादाओं को जगत में स्थापित करने वाला केन्द्र, तराशी हुई शिलाओं द्वारा जो अयोध्या कार्यशाला में विद्यमान हैं, उन्हीं से बनेगा।

•सम्पूर्ण अयोध्या हिन्दुओं का पवित्रतम तीर्थ क्षेत्र है, उसके विद्यमान स्वरूप की रक्षा करना हम सभी सन्तों व सम्पूर्ण हिन्दू समाज का प्रथम राष्ट्रीय कर्तव्य है। ऐसी परिस्थिति में अयोध्या तीर्थ की सांस्कृतिक सीमा में किसी नई मस्जिद का निर्माण नहीं होगा।

•आदि कवि वाल्मीकि ने इस अयोध्या नगरी के सौन्दर्य, महात्म्य, भौगोलिकता एवं राम-राज्य का वृहद वर्णन रामायण में किया है यह अयोध्या नगरी प्राचीनकाल से हिन्दुओं की पवित्रतम तीर्थस्थान रही है। कोटि-कोटि हिन्दू और विश्व का मानव समाज महान सांस्कृतिक आदर्श और मर्यादाओं की प्रेरणा प्राप्त करने युगों-युगों से यहाँ आता रहा है और भविष्य में भी यहाँ आने वाला है। अतः सन्त उच्चाधिकार समिति यह मांग करती है कि राज्य सरकार अयोध्या विकास प्राधिकरण को अयोध्या तीर्थ प्राधिकरण के रूप में पुनर्गठित करे।

•सन्त उच्चाधिकार समिति ने आपसी सहमति के लिए बातचीत का मार्ग सदा खुला रखा है। इस दृष्टि से आगे जो भी प्रयत्न होते हैं, उनको हम अपनी संस्कृति, जीवन मूल्यों, परम्पराओं और कोटि-कोटि हिन्दुओं की आस्था का सम्मान करते हुए सकारात्मक सहयोग करेंगे।

•यह तथ्य सर्व विदित है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधान मंत्रित्व काल में सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण का निर्णय केन्द्रीय मंत्रिमण्डल द्वारा लिया गया था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सहमति से निर्मित भव्य सोमनाथ मन्दिर की प्राण-प्रतिष्ठा तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम डॉ 0 राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा सम्पन्न हुई थी। समिति भारत सरकार से आग्रह करती है कि अब वह माननीय सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए शपथपत्र के अनुसार अपने संकल्प को पूरा करे और सोमनाथ मन्दिर की तरह श्रीराम जन्मभूमि के सम्बन्ध में भी स्थायी समाधान हेतु कानून बनाकर सम्पूर्ण अधिग्रहीत भूमि हिन्दू समाज को सौंप कर भव्य मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे।

•सन्त उच्चाधिकार समिति ऐसा मानती है कि हनुमत् शक्ति जागरण के धार्मिक अनुष्ठानों के परिणामस्वरूप ही हमें आंशिक सफलता मिली है और भविष्य में भी पूर्ण सफलता हेतु पूर्व निर्धारित हनुमत शक्ति जागरण महायज्ञ अनुष्ठान और सन्त सम्मेलन सभी सहयोगी बन्धु-बान्धवों को साथ लेकर पूर्ण मनोयोग से सम्पन्न किए जाएं।

• संतों की इस उच्चाधिकार समिति की बैठक की अध्यक्षता गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ जी महाराज ने की। बैठक में जो निर्णय लिया गया उसका प्रस्ताव ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद गुरू शंकराचार्य पू0 स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी महाराज ने रखा तथा उसका अनुमोदन जगद गुरू मध्वाचार्य पू. स्वामीविश्वेशतीर्थ जी महाराज तथा पू. महंत नृत्यगोपालदास जी महाराज-अयोध्या ने किया।

आवश्यकता इस बात की है कि जिस प्रकार न्यायालय के निर्णय के समय सभी राजनेताओं की जुबान पर ताला लग गया था उसी प्रकार अब भी इस संबंध में किसी राजनेता को अपनी राजनैतिक रोटी सेकने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। जैसा कि पूज्य संतों ने कहा है कि “भव्य मन्दिर बनाना न केवल हिन्दू समाज अपितु भारतीय मुस्लिम समाज के भी सम्मान का विषय है”, अब सरकार सहित प्रत्येक देशवासी को राष्ट्र के गौरव के प्रतीक इस मंदिर के निर्माण में अपना तन-मन-धन समर्पित कर भारत में एक बार पुन: राम राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। आइए, संवत् 2067 की इस पतित पावन दीपावली पर हम सभी भरत वंशी मां भगवती लक्ष्मी व प्रथम पूज्य गणपति के पूजन के समय इस शुद्ध संकल्प को धारण कर अपनी और अपने राष्ट्र की उन्नति में सहभागी बनें।

जय हिंद। जय श्री राम।

क्‍या हुकूमत ए हिंदुस्‍तान संजीदा है कश्‍मीर के सवाल पर

-प्रभात कुमार रॉय

सर्वविदित है कि कश्‍मीर के सियासी और सामाजिक हालात विगत कुछ महीनों से बेहद खराब बने रहे। हॉंलाकि अब वादी ए कश्‍मीर में स्‍कूल-कॉलिज खुल चुके हैं और दहकती हुई कश्‍मीर घाटी में सर्द शीतल हवा के पुरसुकून झोंके बहने लगे हैं। ये स्थिति केवल ऐसे कश्‍मीरी आवाम की पहल पर कायम हो सकी है, जिनके बच्‍चों के स्‍कूल कालिजों की पढाई लिखाई महीनों से तबाह बरबाद होती रही। कश्‍मीर में बेहतर स्थिति के निमार्ण के लिए उमर अब्‍दुल्‍ला हुकूमत का प्रयास किंचित भी कामयाब नहीं हो सका। ऐसी नाका़रा जालिम हुकूमत जो युवाओं की पथ्‍थरबाजी का जवाब महीनों तक गोली बारी से देती रही। और कश्‍मीर की हुकूमत में साझीदार और केंद्रीय हुकूमत में विराजमान कॉंग्रेस पार्टी उमर अब्‍दुल्‍ला की नौजवानों से निपटने की बर्बर वहशियाना रणनीति की हिमायत करती रही। जेहादी आतंकवादियों के समकक्ष वतनपरस्‍त किंतु सत्‍ता व्‍यस्‍था से नाराज युवाओं को रखने की समझ को वहशियाना बर्बरता नहीं तो और फिर क्‍या कहा जाए। गोली का जवाब यकी़नन गोली ही है किंतु गुस्‍से में फेंके गए पथ्‍‍थरों का समुचित शासकीय उत्‍तर ऑंसू गैस, लाठी चार्ज और हवाई फायरिंग होता है न कि किसी नौजवानों के सीने में गोली ठोंक देना। तकरीबन 110 नौजवान सुरक्षा बलों की फा‍यरिंग में हलाक़ कर दिए गए। कश्‍मीर बेहद क्रोधित हो उठा है। यह शांति तूफान आने से पहले की शांति प्रतीत होती है। तमाम घटना क्रम को देखते हुए यही प्रतीत होता है कि केंद्रीय सरकार का कश्‍मीर के प्रश्‍न को हल करने के कतई गंभीर नहीं है।

कश्‍मीर के प्रश्‍न को हल करने की खातिर हुकूमत ए हिंदुस्‍तान ने एक वार्ताकारों के दल के गठन किया गया। कश्‍मीर वार्ताकारों का यह दल एक वर्ष त‍क कश्‍मीर के विभिन्‍न संगठनों के साथ बातचीत करके कश्‍मीर समस्‍या कोई सर्वमान्‍य हल निकालने का कोशिश करेगा। इस दल में प्रख्‍यात पत्रकार दिलीप पंडगांवकर, जामिया मीलिया की प्रोफेसर मैडम राधा कुमार एवं सूचना आयुक्‍त एम एम अंसारी को शामिल किया गया है । इस प्रकार एक पत्रकार, एक प्राफेसर और एक ब्‍यूरोक्रेट की वार्ताकार त्रिमूर्ति तशकील की गई। ऐतिहासिक तौर पर नज़र डाले तो पं0 जवाहरलाल नेहरू ने कश्‍मीर के लिए वार्ताकार के रूप में लाल बहादुर शास्‍त्री जैसे शख्‍स का इंतखाब किया। नरसिम्‍मा राव ने राजेश पायलट और जार्ज फर्नाडीज़ सरीखे असरदार राजनेताओं को कश्‍मीर मसअले के हल के लिए वार्ताकार मुकर्रर किया। कश्‍मीर के सवाल पर फौरी तौर पर सकारात्‍मक हल निकाले गए। अब जो वार्ताकार चुने गए गए है वे राजनीतिक तौर पर ताकतवर नहीं है उनको लेकर कश्‍मीर के लोग संजीदा नहीं है।

इससे पहले भी सन् 2007 कश्‍मीर में ऑटानामी के प्रश्‍न पर एक प्राइम मिनिस्‍टर कोर कमेटी का गठन किया गया, जिसकी सदारत जस्टिस सगीर अहमद को दी गई थी। इस कमेटी में कश्‍मीर में विद्यमान प्राय: सभी दलों के प्रतिनिधियों को शा‍मिल किया गया। कश्‍मीर ऑटोनामी के प्रश्‍न पर पीएम कोर कमेटी का जो हश्र हुआ यह तथ्‍य तो अब जग जाहिर हो चुका है। पीएम कोर कमेटी की केवल तीन बैठक आयेजित की गई और कमेटी किसी आम रॉय पर पॅहुचने में नाकाम रही। आखिर में जस्टिस सगीर अहमद ने मनमाने तौर पर कमेटी सदस्‍यों के दस्‍तख़त के बिना ही अपनी रिर्पोट प्रधानमंत्री महोदय को सौंपने के स्‍थान पर वजीर ए आला कश्‍मीर जनाब उमर अब्‍दुल्‍ला को सौंप दी।

जस्टिस सगीर अहमद की ऑटानोमी रिर्पोट पर क्‍या कार्यवाही अंजाम दी गई, सरकारी तौर कुछ अभी तक बताया नहीं गया। जहॉ तक अनुमान है इसे भी सरकारी कमीशनों की रिर्पोट्स की तर्ज पर सरकार के ठंडे बस्‍ते में डाल दिया गया।

कश्‍मीर के प्रश्‍न पर अब एक नई सरकारी वार्ताकार कमेटी अस्‍तीत्‍व में आ गई, जिसे हुकूमत ए हिंदुस्‍तान के गृहमंत्री महोदय ने तशकील किया। सभी जानते हैं कि एक सासंदों का एक सर्वदलीय दल कश्‍मीर के दौरे पर गया था जिसने अपनी रिर्पोट्स सरकार को पेश कर दी। हॉंलाकि यह कोई सर्वसम्‍मत रिर्पोट नहीं हो सकती थी, क्‍योंकि विभिन्‍न दलों की कश्‍मीर मसअले पर मुखतलिफ राय रही है। अत: वही सब अंतरविरोध सांसदों की रिर्पोट्स में भी प्रतिबिंबित हुए। कश्‍मीर के प्रश्‍न पर रणनीतिक तौर पर देश के सभी दलों में विभिन्‍न विचार रहे, किंतु सभी राष्‍ट्रीय दल इस बात पर पूर्णत: सहमत हैं कि संपूर्ण कश्‍मीर भारत का अटूट अंग है। कश्‍मीर को लेकर वर्तमान केंद्रीय सरकार कितनी कम संजीदा है, यह तो इस कटु तथ्‍य से साबित हो जाता है कि वजीर ए आला उमर अब्‍दुल्‍ला के खतरनाक भटके हुए बयान के बावजूद कि जम्‍मू-कश्‍मीर का भारत में मर्जर नहीं एक्‍सैशन हुआ है, केंद्रीय सरकार ने उसे कंडम नहीं किया, वरन् बहुत बेशर्मी के साथ उसके नेता बचाव में उतर आए। कश्‍मीर में सेना से स्‍पेशल पावर छीनने के प्रश्‍न पर भी केंद्र सरकार उहापोह में प्रतीत होती है। जबकि केंद्र सरकार के बडे़ ओहदेदार इस तथ्‍य से भली भॉंति परिचित हैं कि कश्‍मीर को जेहादी आतंकवाद से निजा़त दिलाने का दुरूह कार्य भारतीय सेना के अफसरों और जवानों के असीम बलिदानों से ही मुमकिन हुआ है। कश्‍मीर में कथित जे़हाद अपनी आखिरी सॉंसें ले रहा है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ सेना के कारण ही। कश्‍मीर के गद्दार पृथकतावादी तत्‍व पेट्रोडालर के बलबूते पर अफरातफरी के हालत को तशकील करने की जोरदार कोशिश अंजाम दे रहे हैं। ऐसे सभी तत्‍वों पर लगाम कसने के विषय पर नेशनल कॉंफ्रेंस और नेशनल कॉंग्रेस की संविद सरकार दृढ़प्रतिज्ञ नहीं रही, वरन् इन तत्‍वों को कश्‍मीर के नौजवानों को बरगलाने और पथ्‍थर बाजी के लिए उत्‍तेजित करने का भरपूर अवसर प्रदान किया। इस तमाम निरंतर बिगड़ते हुए हालत पर केंद्र सरकार महज़ तमाशबीन बनी रही। विगत चार माह से कश्‍मीर में अकसर कर्फ्यू नाफ़ीज़ रहा । कश्‍मीर घाटी में ऐसा नजा़रा विगत दस वर्षो से कभी नहीं दिखाई दिया। गुलामनबी सरकार के अमरनाथ श्राइन को जमीन प्रदान करने के विरूद्ध हुए आंदोलन में कदाचित ऐसे बदतर हालात पेश नहीं आए। केंद्र सरकार का निकम्‍मापन हर कदम पर जाहिर होता रहा है। कश्‍मीर ऐसा राज्‍य कदाचित नहीं है कि केंद्र सरकार कानून व्‍यवस्‍था का सारा मामला राज्‍य सरकार के जिम्‍मे छोड़कर निश्चिंत हो जाए। जैसा रवैया मनमोहन सरकार ने कश्‍मीर पर अपनाया है वह देश की अखंडता और एकता के लिए अत्‍यंत दुर्भाग्‍यपूर्ण है। इसे तत्‍काल बदला जाना चाहिए।

केंद्र सरकार का पाकिस्‍तान के हुकमरानों की नीयत पर अधिक भरोसा करके चलना कश्‍मीर के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकता है। उच्‍चस्‍थ खुफि़या सूत्रों के अनुसार पाक अधिकृत कश्‍मीर में जेहादी आतंकादी प्रशिक्षण शिवरों को बाकायदा आईएसआई संचालित कर रही है। अमेरिका की कूटनीति भारत के लिए छलावा सिद्ध हो सकती है। अफ़ग़ान युद्ध के कारण अमेरिका के पास पाकिस्‍तान पर भरोसा करने और उसको सहयोगी बनाने के अतिरिक्‍त कोई चारा नहीं है, अत: वह पाकि़स्‍तान की हिमायत के लिए विवश है। जे़हादी आतंकवादियों ने अभी कश्‍मीर में पराजय स्‍वीकार नहीं की है, वे एक और बडे़ आक्रमण की जोरदार तैयारियों में जुटे हैं। केंद्रीय सरकार को अपने कश्‍मीर को संभालना है और संवारना है। संपूर्ण जम्‍मू-कश्‍मीर की तरक्‍की में, कश्‍मीरी नौजवानों के रोजगार में और कश्‍मीरी दस्‍तकारों की खुशहाली में तथा सरकारी अमले की ईमानदारी में ही जेहादी आतंकवाद की मुकम्‍मल शिकस्‍त निहित है। भारतीय सुरक्षा बलों को अपनी गोलियां जे‍हादियों पर बरसानी हैं। केंद्रीय हुकूमत में यदि जरा सी संजीदगी शेष है तो युवाओं पर गोली बारी का प्रहार करने वाली गद्दाराना बयानबाजी करने वाले वजीर ए आला उमर सरकार को तुरंत बर्खास्‍त करके, वह अपनी सदाशयता का परिचय दे, अन्‍यथा केंद्रीय हुकूमत द्वारा चाहे जितनी भी सरकारी कमेटियां क्‍यों ना बना दी जाएं, वे सभी नाका़म बेकार साबित होगीं।

पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन

-कल्पना पालखीवाल

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006 पर्यावरण सुरक्षा को विकास प्रक्रिया के अभिन्न अंग और सभी विकास गतिविधियों में पर्यावरणीय प्राथमिकता के रूप में पहचान प्रदान करती है। इस नीति का मुख्य ध्येयवाक्य है कि पर्यावारणीय संसाधनों का संरक्षण जीविका, सुरक्षा और सभी के कल्याण के लिए जरूरी है। इसके साथ ही संरक्षण के लिए मुख्य आधार यह होना चाहिए कि किन्हीं खास संसाधनों पर आश्रित लोग संसाधनों के क्षरण से नहीं बल्कि उसके संरक्षण से अपनी जीविका चलाएं। यह नीति विभिन्न हितधारकों को अपने संबंधित संसाधन का दोहन करने और पर्यावरण प्रबंधन का जरूरी कौशल हासिल करने के लिए उनके बीच साझेदारी को बढावा देती है।

पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006 के तहत विकास परियोजनाओं, गतिविधियों, प्रक्रियाओं आदि के लिए पूर्व पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना आवश्यक है।

विधायी ढांचा

पर्यावरण संरक्षण के लिए मौजूदा विधायी ढांचा मुख्य रूप से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986 , जल (प्रदूषण की रोकथाम एवं नियंत्रण) अधिनियम,1974 , जल प्रभार अधिनियम, 1977 और वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981 में सन्निहित है। वन और जैव विविधता के प्रबंधन से संबंधित विनियम भारतीय वन अधिनियम, 1927, वन संरक्षण अधिनियम, 1980 ,वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम,1972, और जैवविविधता अधिनियम, 2002 में निहित हैं। इसके अलावा भी कई और नियम हैं जो इन मूल अधिनियमों के पूरक हैं।

तकनीकी कौशल एवं निगरानी अवसंरचना के अभाव और पर्यावरणीय नियमों को लागू करने वाले संस्थानों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी के कारण ये नियम पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहे हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले स्थानीय समुदाय की भी नियमों के अनुपालन की निगरानी में पर्याप्त भागीदारी नहीं होती है। निगरानी अवसंरचना में संस्थागत सार्वजनिक निजी साझेदारी का भी अभाव है।

पंचायती राज संस्थानों और शहरी निकायों को पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं की निगरानी के योग्य बनाने के लिए कौशल विकास कार्यक्रम चलाए गए तथा कई और कदम भी उठाए गए। इसके साथ ही नगरपालिकाओं को पर्यावरण के मोर्चे पर अपने कार्य की रिपोर्ट पेश करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। मजबूत निगरानी अवसंरचना खड़ी करने के लिए व्यवहारिक सार्वजनिक निजी साझेदारी पर पर्याप्त बल दिया जाएगा।

अधिसूचना, 2006

पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 देश के विभिन्न हिस्सों में विकास परियोजनाओं और उनकी विस्तारआधुनिकीरण गतिविधियों को विनियमित करती है। इसके तहत अधिसूचना की अनुसूची में दर्ज परियोजनाओं के लिए पूर्व अनापत्ति ग्रहण करना अनिवार्य है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम, 1986 के उप अनुच्छेद (1) तथा अनुच्छेद 3 के उप अनुच्छेद(2) के तहत प्राप्त अधिकारों के अंतर्गत ईआईए अधिसचूना जारी की है। ईआईए अधिसूचना, 2006 के प्रावधानों के तहत परियोजना के लिए निर्माण कार्य शुरू या जमीन को तैयार करने से पहले अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करना जरूरी है। केवल भूमि अधिग्रहण इसका अपवाद है।

चरण

ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत पर्यावरणीय अनापत्ति के चार चरण हैं-जांच, कार्यक्षेत्र, जन परामर्श और मूल्यांकन।

परियोजनाएं

जिन परियोजनाओं के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र आवश्यक हैं उनमें पनबिजली परियोजनाएं, तापविद्युत परियोजनाएं, परमाणु बिजली परियोजनाएं, कोयला और गैर कोयला उत्पादों से संबंधित खनन परियोजनाएं, हवाई अडडे, राजमार्ग, बंदरगाह, सीमेंट, पल्प एंड पेपर, धातुकर्म आदि जैसी औद्योगिक परियोजनाएं शामिल हैं। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ए श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण है जबकि राज्य एवं संघशासित स्तरीय पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अपने अपने राज्यों और संघशासित क्षेत्रों की बी श्रेणी की परियोजनाओं के लिए विनियामक प्राधिकरण हैं। अबतक 23 राज्यों के लिए 22 राज्यसंघशासित पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण अधिसूचित किए गए हैं। उनमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मेघालय, कर्नाटक, पंजाब, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, राजस्थान और दमन एवं दीव शामिल हैं।

विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी)

ईएसी बहुविषयक क्षेत्रीय समितियां होती हैं जिसमें विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ होते हैं। इनका गठन क्षेत्र विशेष की परियोजनाओं के मूल्यांकन के लिए ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत किया जाता है। ये अपनी सिफारिशें देती हैं।

शीघ्र फैसले के लिए कदम

ईआईए अधिसूचना, 2006 जारी होने के बाद पर्यावरणीय मूल्यांकन के लिए परियोजनाओं की बाढ आ गयी। शीघ्र निर्णय के लिए कई कदम उठाए गए जिनमें लंबित परियोजनाओं की स्थिति की सतत निगरानी, अधिकाधिक परियोजनाओं पर विचार के लिए विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति की लंबी बैठकें, प्रक्रिया को सुसंगत बनाना तथा परियोजना स्थिति को आम लोगों के लिए उसे वेबसाइट पर डालना आदि शामिल हैं।

ईसी के लिए समय सीमा

ईआईए अधिसूचना, 2009 पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए 105 दिनों की समय सीमा तय करती है जिनमें से 65 दिन ईएसी द्वारा मूल्यांकन के लिए तथा 45 दिन जरूरी प्रक्रिया एवं फैसले से अवगत कराने के लिए होते हैं।

2006 की ईआईए अधिसूचना में दिसंबर, 2009 में संशोधन किया गया था ताकि प्रक्रिया को और आसान एवं सुसंगत बनाया जा सके। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

राष्‍ट्रमंडल खेल: नारी शक्‍ति ने रचा इतिहास

-वेद प्रकाश अरोड़ा

भारत आज जिस तरह आर्थिक क्षेत्र में एक जर्बदस्‍त शक्‍ति के रूप में अपनी धाक जमा रहा है, उसी तरह वह खेलों के अंतर्राष्‍ट्रीय क्षितिज पर भी एक चमकदार सितारे के समान उभर कर सामने आया है। 71 देशों के 19वें राष्‍ट्रमंडल खेलों का आरंभ और समापन रंगारंग और मनमोहक तो रहा ही है, उनका 4 अक्‍तूबर से 14 अक्‍तूबर का सफर उत्‍तेजना के क्षणों से भरपूर होने के साथ साथ हर दिन भारत के लिए खुशियों पर खुशियां लाया। मेलबोर्न और मेनचस्‍टर में आयोजित राष्‍ट्रमंडल खेलों में बटोरे गए स्‍वर्ण और अन्‍य पदकों की तुलना में इस बार कहीं अधिक पदक अपनी झोली में डालकर भारत ने एक जानदार और कद्दावर राष्‍ट्र होने का जीवंत प्रमाण दिया। 2006 के मेलबोर्न खेलों में हमने कुल 49 पदक पाए, जिनमें 22 स्‍वर्ण पदक थे, लेकिन चार वर्ष पहले मेनचेस्‍टर खेलों में हमने 30 स्‍वर्ण और 69 कुल पदक प्राप्‍त किए थे। मेलबोर्न में लगे दाग को हमने दिल्‍ली में धो डाला। इन खेलों में हमने सैकड़े को पार कर शुभ शकुन को दर्शाने वाले कुल 101 पदक प्राप्‍त किए जिनमें 38 स्‍वर्ण पदक भी शामिल हैं। ये खेल इसलिए भी यादगार बन गए हैं कि इन्‍होंने देश की खेल संस्‍कृति में न सिर्फ चार चांद लगाए हैं बल्‍कि उनमें कई खुशनुमा रंग भरे हैं और नई ऊंचाइयों को स्‍पर्श किया है। पहले हम अक्‍सर मन मसोस कर रह जाते थे कि एक अरब से अधिक जनसंख्‍या वाला हमारा देश गिने-चुने खेलों में भाग लेकर भी कोई खास कमाल नहीं दिखा पाया। हमारी झोली में उंगलियों पर गिने जाने लायक कुछ ही स्‍वर्ण पदक पड़ते थे और हमें चंद रजत तथा कांस्‍य पदकों से संतोष करना पड़ता था, लेकिन वक्‍त के करवट लेने के साथ-साथ हमारी नजर और नजरिये में बदलाव आया है। अब हम अतीत का रोना रोने के बजाय वर्तमान और भविष्‍य को सजाने संवारने और एक बड़ी खेल ताकत बनाने में विश्‍वास करते हैं। पहले एथलेटिक्‍स और ट्रैक और फील्‍ड खेलों में पूरी तरह मात खाने पर हमारा सिर शर्म से झुक जाता था लेकिन इस बार महिलाओं की रिले दौड़ में हमारी महिला टीम ने नाइजीरिया को पीछे छोड़कर यह प्रमाणित कर दिया कि हमारी देश की युवतियां दमखम में और शारीरिक क्षमता में किसी से कम नहीं हैं। अगर 4×400 मीटर की महिला रिले दौड़ में मंजीत कौर, मंदीप कौर, अश्‍विनी और सिनी जोस ने स्‍वर्ण हासिल किया तो महिला डिस्‍कस थ्रो में स्‍वर्ण, रजत और कांस्‍य तीनों पदक क्रमश: कृष्‍णा पुनिया, हरवंत कौर और सीमा अंतिल ने अपने नाम कर यह दिखा दिया कि भारतीय महिलाएं शारीरिक बल, दमखम और मुस्‍तैदी में किसी से कम नहीं। कृष्‍णा पुनिया एथलेटिक्‍स में 52 वर्षों में स्‍वर्ण पदक जीतने वाली पहली महिला है। मिल्‍खा सिंह के बाद वह ऐसी दूसरी महिला है जिसने ट्रैक और फील्‍ड प्रतियोगिता में स्‍वर्ण पदक जीतकर भारत को गौरवान्‍वित किया है। इस जीत के बाद हम ताल ठोककर कह सकते हैं कि इन खेलों ने भारतीय नारी को नई और सशक्‍त परिभाषा दी है।

जब हम कुछ पीछे मुड़कर इतिहास पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि पहले जितने भी राष्‍ट्रमंडल खेल हुए उनमें इंगलैंड हमेशा भारत से अधिक स्‍वर्ण पदक जीतकर दूसरे नंबर पर बरकरार रहता था, लेकिन इस बार भारत ने उससे बाजी मार कर दूसरा स्‍थान प्राप्‍त कर लिया है। इंगलैंड भले ही 142 पदक लेकर पदक संख्‍या में हमसे आगे रहा है लेकिन स्‍वर्ण पदकों के मामले में हम उसके 37 पदकों से एक पदक अधिक यानि 38 पदक लेकर एक पायदान ऊपर बढ़ गए हैं। विश्‍वभर के खेल इतिहास में उसी देश को विजेता या अग्रणी माना जाता है जो औरों की तुलना में अधिक स्‍वर्ण पदक प्राप्‍त करता है। स्‍वर्ण पदकों की संख्‍या से ही सूरमा विजेताओं की श्रेष्‍ठता और देश के खेल कद को नापा जाता है। 14 अक्‍तूबर तक दोनों देश कभी एक पायदान ऊपर तो कभी एक पायदान नीचे चले जाते थे, लेकिन अंतिम दिन भारतीय महिला शक्‍ति की आंधी के आगे प्रतिद्वंदी पस्‍त होते चले गए। इस अंतिम दिन के पहले बैडमिंटन डबल्‍स में भारतीय महिलाओं –ज्‍वालागुट्टी और अश्‍विनी पोनप्‍पा की जोड़ी ने सिंगापुर की लड़कियों को पराजित कर 37वां स्‍वर्ण पदक भारत की झोली में डाला। इस 37वें पदक की जीत ने भारत को इंगलैंड की बराबरी पर ला खड़ा किया। टाई अथवा ज़िच को विश्‍व की नंवर 3 खिलाड़ी और भारत में सबकी प्‍यारी सायना नेहवाल ने तोड़कर यानि मलेशिया की खिलाड़ी म्यू चू को कांटे के एकल मुकाबले में पराजित कर देश को स्‍वर्ण तालिका में इंगलैंड के ऊपर पहुंचा दिया। इस 38वें स्‍वर्ण पदक को जीतने के बाद भारत पदक तालिका में आस्‍ट्रेलिया से मात्र एक पायदान नीचे यानि दूसरे स्‍थान पर पहुंच गया। सायना की इस जीत से पहले कोई भी भारतीय महिला खिलाड़ी बैडमिंटन एकल को अपने नाम नहीं कर सकी थी।

यह कहना अत्युक्‍ति नहीं होगा कि इन राष्‍ट्रमंडल खेलों में पदक तालिका में दूसरे स्‍थान पर पहुंचने में प्रत्‍येक पदक प्राप्‍त भारतीय महिला अथवा पुरुष खिलाड़ी का योगदान अमूल्‍य कहा जाएगा – चाहे वह चार स्‍वर्ण पदक विजेता गगन नारंग हों या तीन स्‍वर्ण विजेता ओंकार सिंह या फिर पहलवान सुशील कुमार। इन सबको आज पूरा देश नमन करता है, लेकिन यह मानने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि भारत की असली ताकत से रूबरू होने के लिए छोटे शहर, कस्‍बों और गांवों में बिखरे अनमोल हीरों का मोल जानने और उन्‍हें गढ़ने-तराशने का समय आ गया है।राष्‍ट्रमंडल खेलों में कई गुदड़ी के लाल अपने चमत्‍कारी खेल से आम आदमी से खास आदमी बन गए हैं। रांची में ऑटो ड्राइवर की बेटी दीपिका ने तीरंदाजी में, महाराष्‍ट्र की गरीब आदिवासी लड़की कविता राउत ने दस हजार मीटर की दौड़ में, सामान्‍य परिवार में जन्‍मी तेजस्‍विनी सांवत ने निशोनबाजी में और रेलवे में नौकरी के बावजूद शूटर अनीसा सय्यैद ने पिस्‍टल शूटिंग में गजब का प्रदर्शन कर खेल इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया है। इन खेलों ने जग जाहिर कर दिया है कि देश की भरपूर ताकत भारत में है, इंडिया में नहीं। अभी इसका श्रेष्‍ठ उदाहरण हरियाणा है। वहां के अखाड़ों की मिट्टी ने कई जाने-माने और बलशाली पहलवान तैयार किए हैं। देश को मिले कुल 38 स्‍वर्ण पदकों में से 11 स्‍वर्ण पदक तथा 23 अन्‍य पदक लेकर वह सबसे आगे है। यह कमाल उसने तब कर दिखाया है जब उसकी आबादी देश की कुल जनसंख्‍या का 2 प्रतिशत है । राज्‍य की दो बहनों में से बड़ी बहन गीता को स्‍वर्ण पदक और छोटी बहन बबीता को कुश्‍ती में ही रजत पदक मिला है, लेकिन इसके लिए उन्‍होंने पहाड़ पर चढ़ने जैसी कठिनाइयों का सामना किया । गांव के लोग लड़कियों को कुश्‍ती सिखाने के सख्‍त विरूद्ध थे जिसकी वजह ये उनके पिता को ही अपनी बेटियों को घर के पिछवाड़े में पहलवानी के दांवपेच और गुर सिखाने पड़े । देहाती और पिछड़े इलाकों में फर्श से अर्श पर जाने की सैकड़ों गाथाएं मिल जाएंगी । संक्षेप में कह सकते हैं कि इन खेलों ने भारत की नारी शक्‍ति का, गुदड़ी के लालों को अपने उज्‍जवल भविष्‍य का आइना दिखाया है और आम आदमी को खास आदमी बनाने के द्वार खोले हैं। अब जरूरत है खेलों के अनुकूल वातावरण बनाने की तथा क्रिकेट के खेल जैसी सहूलियतें और वित्‍तीय सहायता देने की। नई-नई तकनीक सिखाने के लिए यह भी आवश्‍यक है कि आधुनिक सुविधाओं से संपन्‍न स्‍टेडियम और खेल परिसर बनाये जायें, खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देने के लिए द्रोणाचार्य जैसे गुरू, प्रशिक्षक और गाइड नियुक्‍त किए जाएं, यह इसलिए आवश्‍यक है कि कई प्रतियोगिताओं में हमारे खिलाड़ी मात्र एक दो अंकों में कमी के कारण परास्‍त हो जाते हैं। अगर वे पूरी तकनीकों और बारीकियों की जानकारी के साथ मैदान में उतरेंगे तो दशमलवों के अंतर से मात नहीं खाएंगे। गुरु का ज्ञान गाढ़े वक्‍त में चमत्‍कार का काम करता है। इसके अलावा खिलाड़ियों की खुराक पर भी समुचित ध्‍यान देना होगा। विभिन्‍न खेलों के लिए संस्‍थान और अकादमियां बहुत सहायक और कारगर होती हैं। इस मामले में पटियाला के राष्‍ट्रीय खेल संस्‍थान के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वहां एक हजार खिलाड़ियों को रखने और सिखाने की सुचारू व्‍यवस्‍था है। इसमें प्रशिक्षकों को भी प्रशिक्षण देने की व्‍यवस्‍था है। केन्‍द्र के अलावा राज्‍य की भी अपनी खेल नीति होनी चाहिए। सही प्रोत्‍साहन, प्ररेणा और दिशा ज्ञान मिलने पर हमारे खिलाड़ी आगामी एशियाई खेलों और ओलंपिक खेलों में बेहतर प्रदर्शन कर अपनी धाक जमाने में सफल होंगे। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

कविता/रामजन्‍मभूमि

सुलग रहे है शोले रामजन्म स्थल पर

भभक रही है ज्वाला अयोध्या के नाम पर

नतमस्तक है जिन चरणों पर पूरा देश

उस राम की सम्पूर्ण वंदना अभी रह गयी है शेष

जाग उठो अब मां भारती के संतान

करने को तैयार हो जाओ फिर भोले सा विषपान

ना जागे तो हो जायेगी मातृभूमि कलंकित

फिर ना कोई कर पायेगा इस देश को पुलकित॥

-अमल कुमार श्रीवास्तव

मंगल भवन अमंगल हारी

संगीत — वीकोन म्यूजिक

मूल्य — १२५ रूपए

वीकोन म्यूजिक ने पिछले दिनों ”मंगल भवन अमंगल हारी” शीर्षक से २ सी डी का एक पैक रिलीज़ किया है. इसमें भगवान राम व भक्त हनुमान के भजन हैं जिनमे संगीत दिया है लोकप्रिय संगीतकार रविंदर जैन ने व भजनों को गाया है गायिका कविता कृष्णमूर्ति, हरिहरन, सुहासनी, रचना, दीपमाला व साथियों के साथ खुद रविंदर जैन ने.

दो सी डी के इस पैक में कुल १७ भजन हैं.

पहली सी डी में नौ भजन हैं जिसमें पहला है ”ऐसे हैं मेरे राम”. इसके बाद ”राम धुन लगी”, ”सुनो रे राम कहानी”, ”दया रघवर दया”, ” हे आनंद घन मंगल भवन”, ”राम सिया भेज दयो री वन में”, ” राम जी की सेना”, ” मंगल भवन अमंगल हारी”, ” ओम जय रघुवीर हरे” (आरती) आदि हैं.

दूसरी सी डी में सबसे पहले है ”राम नवमी”. फिर इसके बाद ”श्री राम जय राम जय जय राम” ,”राम अष्टक”, ” सालासर में बिराजे हनुमान”, ” न तुमसा योद्धा”, ”जय हनुमान ज्ञान गुणसागर”

(हनुमान चालीसा) ”बाल समय रवि भक्ष लियो” (संकट मोचन), अंजनी माँ के नैनाजन (आरती) आदि हैं.

वीकोन म्यूजिक द्वारा रिलीज़ किये गये एलबम ”मंगल भवन अमंगल हारी” सभी श्रोताओ को पसंद आयेगा. क्योंकि सभी भजन अच्छे हैं, शब्द रचना तो उत्तम है ही संगीत भी कर्णप्रिय हैं.

अज माँ नू मना लो

संगीत — वीकोन म्यूजिक

मूल्य — ७५ रूपए

वीकोन म्यूजिक ने ”अज माँ नू मना लो” शीर्षक से देवी माँ की भेटों का एक एलबम रिलीज़ किया. जिसमें माँ की भेटों को गाया है गायिका रिचा शर्मा ने, संगीत दिया है चरणजीत आहूजा ने व लिखा है राम कुमार, अमरजीत चीमा, सत्त कोहली वाला, मंगल हथुर ने.

७५ रूपए मूल्य पर उपलब्ध इस एलबम में कुल ८ भजन हैं. पहला है ”खेडे कंजका दे नाल”. इसके बाद ”रंग बरसा दे”, ”दूरों दूरों चल के आयें”, ”मस्त मलंग होये”, ”अज माँ नू मना लो”, ”रोवन कुर्लावां”, ”एक जोगन अरज गुजारे” आदि भजन हैं.

सभी भजन माँ को समर्पित हैं, माँ के भक्तों के लिए ”अज माँ नू मना लो” निश्चित रूप से संग्रहणीय एलबम है.

जिस इंद्रेश कुमार को मैं जानता हूं !!

क्या उन्हें अपने अच्छे कामों की सजा मिल रही है

– संजय द्विवेदी

कुछ साल पहले की ही तो बात है इंद्रेश कुमार से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मेरी मुलाकात हुयी थी। आरएसएस के उन दिनों वे राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। एक अखबार का स्थानीय संपादक होने के नाते मैं उनका इंटरव्यू करने पहुंचा था। अपने बेहद निष्पाप चेहरे और सुंदर व्यक्तित्व से उन्होंने मुझे प्रभावित किया। बाद में मुझे पता चला कि वे मुसलमानों को आरएसएस से जोड़ने के काम में लगे हैं। रायपुर में भी उनके तमाम चाहने वाले अल्पसंख्यक वर्ग में भी मौजूद हैं। उनसे थोड़े ही समय के बाद आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में रायपुर में फिर मुलाकात हुयी। वे मुझे पहचान गए। उनकी स्मरण शक्ति पर थोड़ा आश्चर्य भी हुआ कि वे सालों पहले हुयी मुलाकातों और मेरे जैसे साधारण आदमी को भी याद रखते हैं। उसी इंद्रेश कुमार का नाम अजमेर बम धमाकों में पढ़कर मुझे अजीब सा लग रहा है। मुझे याद है कि इंद्रेश जी जैसे लोग ऐसा नहीं कर सकते। किंतु देश की राजनीति को ऐसा लगता है और वे शायद इसके ही शिकार बने हैं।

मेरे मन में यह सवाल आज भी कौंध रहा है कि क्या यह आदमी सचमुच बहुत खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह प्रचारक हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करता है। वह मुसलमानों को राष्ट्रवाद की राह पर डालकर सदियों से उलझे रिश्तों को ठीक करने की बात कर रहा है। ऐसे आदमी को भला हिंदुस्तान की राजनीति कैसे बर्दाश्त कर सकती है। क्योंकि आज नहीं अगर दस साल बाद भी इंद्रेश कुमार अपने इरादों में सफल हो जाता है तो भारतीय राजनीति में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं की दुकान बंद हो जाएगी। इसलिए इस आदमी के कदम रोकना जरूरी है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एक ऐसा आदमी जो सदियों से जमी बर्फ को पिघलाने की कोशिशें कर रहा है, उसे ही अजमेर के बम विस्फोट कांड का आरोपी बना दिया जाए।

अब उस इंद्रेश कुमार की भी सोचिए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन में काम करते रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज का संगठन है। ऐसे संगठन में रहते हुए मुस्लिम समाज से संवाद बनाने की कोशिश क्या उनके अपने संगठन (आरएसएस) में भी तुरंत स्वीकार्य हो गयी होंगी। जाहिर तौर पर इंद्रेश कुमार की लड़ाई अपनों से भी रही होगी और बाहर खड़े राजनीतिक षडयंत्रकारियों से भी है। वे अपनों के बीच भी अपनी सफाई देते रहे हैं कि वे आखिर मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास क्यों कर रहे हैं , जबकि संघ का मूल काम हिंदू समाज का संगठन है। इंद्रेश कुमार की कोशिशें रंग लाने लगी थीं, यही सफलता शायद उनकी शत्रु बन गयी है। क्योंकि वे एक ऐसे काम को अंजाम देने जा रहे थे जिसकी जड़ें हिंदुस्तान के इतिहास में इतनी भयावह और रक्तरंजित हैं कि सदभाव की बात करनेवालों को उसकी सजा मिलती ही है। मुसलमानों के बीच कायम भयग्रंथि और कुठांओं को निकालकर उन्हें 1947 के बंटवारे को जख्मों से अलग करना भी आसान काम नहीं है। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, मौलाना आजाद जैसे महानायकों की मौजूदगी के बावजूद हम देश का बंटवारा नहीं रोक पाए। उस आग में आज भी कश्मीर जैसे इलाके सुलग रहे हैं। तमाम हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम रिश्ते अविश्वास की आग में जल रहे हैं। ऐसे कठिन समय में इंद्रेश कुमार क्या इतिहास की धारा की मोड़ देना चाहते हैं और उन्हें यह तब क्यों लगना चाहिए कि यह काम इतना आसान है। यह सिर्फ संयोग ही है कि कुछ दिन पहले राहुल गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सिमी के साथ खड़ा करते हैं। एक देशभक्त संगठन और आतंकियों की जमात में उन्हें अंतर नहीं आता। नासमझ राजनीति कैसे देश को तोड़ने और भय का व्यापार करती है, ताजा मामले इसका उदाहरण हैं। इससे यह साफ संकेत जाते हैं कि इसके पीछे केंद्र और राजस्थान सरकार के इरादे क्या हैं ? देश को पता है कि इंद्रेश कुमार, आरएसएस के ऐसे नेता हैं जो मुसलमानों और हिंदू समाज के बीच संवाद के सेतु बने हैं। वे लगातार मुसलमानों के बीच काम करते हुए देश की एकता को मजबूत करने का काम कर रहे हैं। ऐसा व्यक्ति कैसे कांग्रेस की देशतोड़क राजनीति को बर्दाश्त हो सकता है। साजिश के तार यहीं हैं। क्योंकि इंद्रेश कुमार ऐसा काम कर रहे थे कि अगर उसके सही परिणाम आने शुरू हो जाते तो सेकुलर राजनीति के दिन इस देश से लद जाते। हिदू- मुस्लिम एकता का यह राष्ट्रवादी दूत इसीलिए सरकार की नजरों में एक संदिग्ध है।

राजस्थान पुलिस खुद कह रही है अभी इंद्रेश कुमार को अभियुक्त नहीं बनाया गया है। यह समय बताएगा कि छानबीन से पुलिस को क्या हासिल होता है। फिर पूरी जांच किए बिना इतनी जल्दी क्या थी।क्या बिहार के चुनाव जहां कांग्रेस मुसलमानों को एक संकेत देना चाहती थी, जिसकी शुरूआत राहुल गांधी आऱएसएस पर हमला करके पहले ही कर चुके थे। संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल पुलिस का इस्तेमाल करते रहे हैं किंतु राजनीतिक दल इस स्तर पर गिरकर एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व पर कलंक लगाने का काम करेंगें, यह देखना भी शर्मनाक है। इससे इतना तो साफ है कि कुछ ताकतें देश में ऐसी जरूर हैं जो हिंदू-मुस्लिम एकता की दुश्मन हैं। उनकी राजनीतिक रोटियां सिंकनी बंद न हों इसलिए दो समुदायों को लड़ाते रहने में ही इनकी मुक्ति है। शायद इसीलिए इंद्रेश कुमार निशाने पर हैं क्योंकि वे जो काम कर रहे हैं वह इस देश की विभाजनकारी और वोटबैंक की राजनीति के अनूकूल नहीं हैं। अगर इस मामले से इंद्रेश कुमार बच निकलते हैं तो आखिर राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार का क्या जवाब होगा। किंतु जिस तरह से हड़बड़ी दिखाते हुए इंद्रेश कुमार को आरोपित किया गया उससे एक गहरी साजिश की बू आती है। क्योंकि उनकी छवि मलिन करने का सीधा लाभ उन दलों को मिलना है जो मुसलमानों के वोट के सौदागर हैं। आतंकवाद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई का देश स्वागत करता है किंतु आतंकवाद की आड़ में देशभक्त संगठनों और उनके नेताओं को फंसाने की किसी भी साजिश को देश महसूस करता है और समझता है। किसी भी राजनीतिक दल को ऐसी घटिया राजनीति से बाज आना चाहिए। किसी भी समाज के धर्मस्थल पर विस्फोट एक ऐसी घटना है जिसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है। किंतु क्या एक डायरी में फोन नंबरों का मिल जाना एक ऐसा सबूत है जिसके आधार किसी भी सम्मानित व्यक्ति को आरोपित किया जा सकता है। हमें यह समझने की जरूरत है कि आखिर वे कौन से लोग हैं जो हिंदू-मुस्लिम समाज की दोस्ती में बाधक हैं। वे कौन से लोग हैं जिन्हें भय के व्यापार में आनंद आता है। अगर आज इंद्रेश कुमार जैसे लोगों का रास्ता रोका गया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों में मुस्लिम मुद्दों पर संवाद बंद हो जाएगा। हिंदुस्तान के 20 करोड़ मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में लाने की यह कोशिश अगर विफल होती है तो शायद फिर कोई इंद्रेश कुमार हमें ढूंढना मुश्किल होगा। इंद्रेश कुमार जैसे लोगों के इरादे पर शक करके हम वही काम कर रहे हैं जो मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने किया था जिन्होंनें महात्मा गांधी को एक हिंदू धार्मिक संत और कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर लांछित किया था। जो काम 1947 में मुस्लिम लीग ने किया, वही काम आज कांग्रेस की सरकारें कर रही हैं। राष्ट्र जीवन में ऐसे प्रसंगों की बहुत अहमियत नहीं है किंतु इंद्रेश कुमार की सफलता को उनके अपने लोग भी संदेह की नजर से देखते थे। वे सरकारें जो आतंकी ताकतों से समझौते के लिए उनकी मिजाजपुर्सी में लगी हैं, जो कश्मीर के गिलानी, मणिपुर के मुइया और अरूघंती राय जैसों के आगे बेबस हैं, वे इंद्रेश कुमार को लेकर इतनी उत्साहित क्यों हैं?

बावजूद इसके कि इंद्रेश कुमार एक गहरे संकट में हैं, पर इस संकट से वे बेदाग निकलेगें इसमें शक नहीं। उन पर उठते सवालों और संदेहों के बीच भी इस देश को यह कहने का साहस पालना ही होगा कि हमें एक नहीं हजारों इंद्रेश कुमार चाहिए जो एक हिंदू संगठन में काम करते हुए भी मुस्लिम समाज के बारे में सकारात्मक सोच रखते हों। आज इस षडयंत्र में क्या हम इंद्रेश कुमार का साथ छोड़ दें ? इस देश में तमाम लोग हत्यारे व हिंसक माओवादियों और कश्मीर के आतंकवादियों के समर्थन में लेखमालाएं लिख रहे हैं, व्याख्यान दे रहे हैं। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। क्या इंद्रेश कुमार जिनसे मैं मिला हूं, जिन्हें मैं जानता हूं, उन्हें इस समय मैं अकेला छोड़ दूं और यह कहूं कि कानून अपना काम करेगा। कानून काम कैसे करता है, यह जानते हुए भी। जिस कानून के हाथ अफजल गुरू को फांसी देने में कांप रहे हैं, वह कानून कितनी आसानी से हिंदू-मुस्लिम एकता के इस प्रतीक को अपनी फन से डस लेता है, उस कानून की फुर्ती और त्वरा देखकर मैं आश्चर्यचकित हूं। मैं भारत के एक आम नागरिक के नाते, हिंदू-मुस्लिम एकता के सूत्रधार इंद्रेश कुमार के साथ खड़ा हूं। आपको भी इस वक्त उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए।

मैं सच कहूँ अगर तो तरफदार मत कहो

पत्रकारिता बनाम पक्षकारिता

– पंकज झा

एक समाचार चैनल में रिपोर्टर के लिए साक्षात्कार का दृश्य. नौकरी का एक याचक बिलकुल सावधानी से प्रश्नों का उत्तर दे रहा है. साक्षात्कार लेने वाला मुख्य कर्मचारी अपनी स्वाभाविक अकड से बैठा अपने दाता होने का परिचय दे रहा है. तब-तक बात किसी विचारधारा के पक्षधरता की आती है. नौकरी के लिए उपस्थित व्यक्ति कह बैठता है की हां उसकी अमुक विचारधारा में आस्था है और उसी विचारधारा से प्रभावित संस्थान में फिलहाल वह नौकर भी है. भले ही एक शिक्षित-प्रशिक्षित पत्रकार होने के कारण उसकी रूचि मुख्यधारा की पत्रकारिता में है लेकिन विचारधारा विशेष को लेकर काम करते रहने के कारण उसे कोई अफ़सोस नहीं है. घोषित रूप से वह अपना काम करने के लिये गर्व भी अनुभव करता है. फ़िर तो जो परिणाम आया होगा आप समझ भी गए होंगे. याचक अपना सा मूह बनाए बाहर की और रुख करता है.

ऐसा ही एक दूसरा दृश्य देखिये. छत्तीसगढ़ शासन द्वारा पहली बार पत्रकारिता के लिए शुरू किये गए पुरस्कार के लिए पत्रकारों की प्रविष्टियों पर एक ज्युरी विचार कर रही है. विचार के लिए आये प्रविष्टियों में एक ऐसा भी आवेदक है जो एक राजनीतिक दल की पत्रिका का संपादक है. अपनी नौकरी के अलावा प्रदेश से संबंधित विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर विभिन्न अखबारों के लिए स्वतंत्र लेखन भी करता है. प्रदेश के सभी ज्वलंत मुद्दे पर उसने वैचारिक प्रतिबद्धताओं के परे जा कर सशक्त हस्तक्षेप किया है. उसकी फ़ाइल सामने आते ही ‘जजेज’ नाक़ भों सिकोरते हैं. अपेक्षित समय में प्रकाशित लगभग पचास महत्वपूर्ण आलेखों की प्रविष्टि पर बिना नज़र डालने की ज़हमत उठाये ‘असली पत्रकारों’ को उपकृत करने के उपक्रम में सभी सदस्य लग जाते हैं.

दिलचस्प यह की राजनीतिक दलों से संबद्धता को अयोग्यता मानने वाले ज्यूरी के माननीय सदस्य में से कोई खुद किसी सरकारी भोपू के नौकर हैं तो कोई नेपथ्य में अपनी पक्षधरता एवं निष्ठा का राग अलाप कर सरकारी मलाई चट करते रहने वाले प्रजाति के प्राणी. इसी निष्ठा की बदौलत बिना पत्रकारिता की कोई शिक्षा पाए पत्रकार बनाने वाले संस्थान का सूबेदार या फ़िर ज्यूरी सदस्य बन पत्रकारों की हैसीयत तय करने वाला न्यायाधीश भी बन जाने वाले लोग.

पहली नज़र में देखने पर आपको दोनों ही चीज़ें सही दिखेंगी. ज़ाहिर है आप सोचेंगे की पत्रकारों को तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए. उसकी संबद्धता किसी राजनीतिक दलों या उसकी विचारधारा से नहीं हो. किसी सरकार का कृपापात्र नहीं हो तो अच्छा…आदि-आदि. लेकिन अगर आप थोड़े विषयनिष्ठ होकर विचार करें तो चीजे अलग दिखेंगी. अव्वल तो यह की आखिर पत्रकार होने का मानदंड क्या है, आप किसको पत्रकार कहेंगे? क्या दुनिया में तटस्थता जैसी भी कोई चीज़ हो सकती है. ज़ाहिर सी बात है की हर वैचारिक व्यक्ति किसी न किसी विचारधारा में आस्था रखता होगा. मताधिकार हर व्यक्ति को इसीलिए मिला होता है की वह अपनी पक्षधरता व्यक्त करे. अगर शिक्षा को मानदंड बनाया जाय तो ज़ाहिर है की केवल डीग्री लेने मात्र से कोई इंजीनियर अपने पेशे के नाम से जाना जा सकता है तो यही मानदंड पत्रकारिता के लिए भी क्यू न लागू हो.

आप आज़ादी के आंदोलन के समय से ही चीज़ों को देखे तो समझ सकते हैं कि उस समय के सभी बड़े नेता या तो वकील होते थे या पत्रकार. गांधी से लेकर सभी अगुए अपनी बात पत्रकारिता के माध्यम से ही कर देश के ‘नवजीवन’ हेतु प्रयासरत थे. लेकिन कभी भी उनकी अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा उनकी पत्रकारिता के आडे नहीं आया. आश्चर्य जनक किन्तु सत्य है कि संचार सुविधाओं के सर्वथा अभाव वाले उस ज़माने में भी उनकी पत्रकारिता दूर तक पहुच रखती थी. न्यूनतम साक्षरता वाले उस ज़माने में भी उस समय किसी साप्ताहिक में लिखा गया एक आलेख कश्मीर से कन्याकुमारी तक को आंदोलित कर देता था.

अगर छत्तीसगढ़ के इस पुरस्कार की ही बात करें जिन युगपुरुष के नाम पर पत्रकारिता का यह पुरस्कार देना तय हुआ है वह स्वयं ही कांग्रेस के राष्ट्रीय महामंत्री और सांसद रहे. बावजूद उसके सही अर्थों में वे प्रदेश की ऐसी विभूति हैं जिनपर पत्रकारिता के अलावा राजनीति को भी नाज़ है. अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध राष्ट्रीय चैनल से संबद्ध रहे एक पत्रकार ने अपने चर्चित ब्लॉग में लिखा कि वह वामपंथी पार्टी का कार्ड होल्डर है और इस पर उसे गर्व है. और वह सदा ही वामपंथी रहेगा. बावजूद उसकी पत्रकारिता पर किसी ने कोई सवाल खड़ा नहीं किया.

तो सवाल किसी व्यक्तिगत आग्रह-दुराग्रह का नहीं है. सवाल तो यह है कि किसी भी अन्य विचारधारा का वाहक बन कर भी आप पत्रकार कहे जा सकते हैं. किसी विदेशी विचार या विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा फैलाए गए विचार के वाहक बनकर आप हर तरह के सम्मान के भागी बन सकते हैं लेकिन किसी राष्ट्रीय या राष्ट्रवादी विचारधारा में आस्था आपको कम से कम बौद्धिक क्षेत्र में दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर ही रखेगा.

हमें अभी याद आते हैं वैसे संघनिष्ठ पत्रकार गण जो इस सूचना क्रान्ति के ज़माने में भी, सांप-सापिन और सावंत को पत्रकारिता का पर्याय बना देने वाले इस दुकानदार के बीच भी अपने छोटे-छोटे श्वेत-श्याम पत्रों के माध्यम से या फ़िर संपादकों की चिरौरी कर किसी तरह अपने कागज़ के नाव को इस घरियालों के समंदर को पार करने की कुव्वत रखते हैं. अपने ही देश-प्रदेश में अपनी ही सरकार में स्वयं तिरस्कृत होकर भी तिरस्कार करने वालों को कथित अपनों के द्वारा ही सम्मानित होते देखते भी बिना किसी परवाह के अपना कार्य संपादन करते रहते हैं.

निश्चित ही पुरस्कार पा जाना केवल किसी पेशेवर पत्रकार का ध्येय नहीं होता होगा. न ही कोई इसलिए लिखता है कि वह कोई पुरस्कार पा जाय.

अगर सवाल केवल चंदूलाल चंद्राकर स्मृति समेत हालिया घोषित पुरस्कारों का हो तो शासन की इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए कि उसने अपनी तरफ से पूरी तरह ईमानदार दिखने की कोशिश की है. उसने अपने ही द्वारा बनाए गए नियम से खुद को ज्यूरी के निर्णय के प्रति बाध्यकारी बना लिया है. लेकिन सवाल उन वरिष्ठों पर है जो अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए मानदंड तय कर किसी के पत्रकार होने या न होने के सम्बन्ध में फतवा जारी करते हैं.

वास्तव में पत्रकार किसे माना जाय यह तय करने का अधिकार कुछ ऐसे मठाधीशों को देने के बदले इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट मानदंड बनाने के ज़रूरत है. वकील और पत्रकार में मूल में यही है कि दोनों को किसी का पक्ष लेना होता है. एक के सरोकार थोड़े व्यक्तिगत होते हैं तो दुसरे के व्यापक होना चाहिए. पत्रकारिता से अपेक्षा यह होता है कि वह जन-पक्षधारिता की बात करे. लेकिन कोई भी सामान्य सोच का व्यक्ति भी आज की पत्रकारिता को जनोन्मुखी कह सकता है? हर तरह की गंदगी को बेच भारी-भरकम वेतन पर काम करने वालों को आप समाज में प्रतिष्ठा दें लेकिन अपने झोले में अपना संविधान रख किसी सावधान नए व्यक्ति को केवल इस लिए अपने समाज से निकाला दे दें कि उसका ‘जन’ आपके जन से थोडा अलग है. क्या कहा जाय इस परिभाषा को?

सीधी सी बात है कि अगर जन-सरोकारों की ही बात को परिभाषा बनाया जाय तो किसी राजनीतिक दल की बात करने वाले को इस श्रेणी में क्यू न रखा जाय? सब जानते हैं कि मुख्यधारा के माध्यमों का साध्य केवल टीआरपी या कंघी-बाल्टी तक मुफ्त दे कर अपना सर्कुलेशन बढ़ा कर ढेर सारा विज्ञापन प्राप्त करना रहता है वही राजनीतिक दलों को बार-बार, कई बार विभिन्न चुनावों में स्वयं को साबित करना होता है. खराब से खराब हालत में भी जहां राजनीतिक दलों के पास करोड़ों लोगों के समर्थन का प्रमाण पत्र होता है तो मीडिया के पास केवल विज्ञापन की ताकत. अभी हाल में एक समूह ईमेल में तथ्यों के साथ यह बताया गया है कि किन-किन समाचार कंपनियों में चर्च से लेकर किस तरह विदेशी तत्वों के पैसे लगे हुए हैं.

तो एक इरानी कहावत है कि अगर हर व्यक्ति में एक दीवार हो तो आदमी को चाहिए कि वह दीवाल की ओर मुंह करके ही खड़ा हो जाया जाय. तो जहां भूत-भूतनी-भभूत बेचने वाले को पत्रकार कहा जाय और वैचारिक अधिष्ठान में कार्यरत जन को तिरस्कृत किया जाय वैसे परिभाषा से मुक्त करने की जिम्मेदारी भी राजनीति को ही उठानी होगी. अगर वह मुख्यधारा में किसी तरह की तबदीली लाने में सक्षम नहीं हो तो दलों को चाहिए कि अपना प्रभावी एवं समानांतर समाचार संस्थान विकसित कर अच्छे एवं ईमानदार व्यक्तियों को जगह दें.

जब-तक भूख से भी लडखडाते कदम को मयखार-दारूबाज कहने वाला समूह कायम रहे वहां सच कहने वाले को तरफदार कह कर कलंकित होने से बचाने की जिम्मेदारी भी ‘राजनीति’ को ही उठानी होगी. पुरस्कारों के लिए की जाने वाली राजनीति या राजनीति में काम करने वालों को तिरस्कृत होने के इस वर्तमान आलोच्य घटना का यही सबक है. ज़रूरत इस बात का है कि जंगल-जंगल की बात को पता कर सही अर्थों में ‘चड्ढी पहन कर राष्ट्रवाद का असली फूल खिलाने वाले लोगों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया जाय. अगर व्यवस्था ऐसा करने में सफल नहीं रहा तो कोई योग्य व्यक्ति तो अपनी जगह तो बना ही लेगा, लेकिन देश प्रेम की बात करने वाले को ज़हरीला कहने वाले समूह या कश्मीर को पकिस्तान का हिस्सा बताने वाले देशद्रोही लोगों से, नक्सलवाद के विरुद्ध ईमानदार लड़ाई को आदिवासियों के संहार के रूप में प्रचारित करने वाले लोगों के विरुद्ध आपकी बात सच्चाई से कहने की साहस कौन और क्यू करेगा?

हास्य-व्यंग्य : जनाजा रिटायरात्मा का

-पंडित सुरेश नीरव

नौकरी के नर्सिंगहोम में पूरे तीस साल ट्रांसफर और सीट बदल के झटकों को मुसलसल झेलने के बाद आखिरकार आज भैयाजी को रिटायरमेंट की मूर्चरी में भेज ही दिया गया। यूं भी मूर्चरी कोई अपने आप तो जाता नहीं है। कोई कितना भी भैरंट स्वावलंबी क्यों न हो मूर्चरी उसे भेजा ही जाता है। बड़े-बड़े फन्ने खां इस मूर्चरी में बाकायदा भेजे ही गये हैं। सगे-संबंधी भी तो बेचारे इसी दिन काम आते हैं। उनकी मुद्दतों की मन-मुराद पूरी होती है। खुशी में भले ही काम ना आएं,ऐसे समय में साथ देना ही पड़ता है। ऐसे धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल होते ही उनके पुण्यवाले रजिस्टर में अचानक एक एंट्री और बढ़ जाती है। इस बढ़त को देखकर उन्हें भरपेट सात्विक प्रसन्नता होती है। मन फूलकर कुप्पा और बाग-बाग दोनों हो जाता है।आज भैयाजी के शुभचिंतक हितकारी मुद्रा में फेयरवेल की मालाओं से लदे उनके पार्थिव शरीर को देख रहे हैं। भैयाजी आज अचानक अपने दफ्तरी दोस्तों की नज़रों में भैयाजी न रहकर महज एक बाडी हो गए हैं। इस बाडी का प्रचंड बल झेल चुके लस्त-पस्त सहयोगी बाडी-नश्वरता की उत्साहवर्धक चर्चा-प्रतियोगिता में आकंठरत हैं। हर पार्टीसिपेंट का एनर्जी लेबल टाप पर है। जिन कर्मचारियों के निधन की विभागीय अधिसूचना जारी नहीं होती है वो नौकरीपर्यंत इस मूर्चरी को भावुकतावश दफ्तर कहते रहते हैं। मूर्चरी का कक्ष इस वक्त बिग बास का घर बना हुआ है। रिटायरात्मा की हालत बिग बास के घर से निकाले पार्टीसिपेंट-जैसी हो जाती है। जो जिंदा है या मरा कुछ पता ही नहीं चलता।भैयाजी की बाडी अभी मूर्चरी से बाहर भी नहीं निकली है,फेयरवैल के फूल कुम्लाए भी नहीं हैं कि एक संदेशवाहक कबूतर ने फुसफुसाकर सूचना दी कि भैयाजी की सीट पर निष्ठुरजी सशरीर काबिज हो गए हैं। उन्होंने अपना कंप्यूटर वहां रखकर कब्जा पक्का कर लिया है। और कल होनेवाली अपनी ज्वाइनिंग पार्टी के सिलसिले में घर चले गए हैं। यों भी यहां आकर अपना मूड खराब करने की क्या तुक बनती है। हमलोगों की तो अपने ही चंदे पर पहलवानी करने की दफ्तरी मजबूरी है। चुहुलभरे अंदाज में एक आवाज तैरी। सभी मातमी बड़े बाबू के आने के इंतजार में बैठे-बैठे बोर हो रहे थे। वरना कबके अपने-अपने घर चले गए होते। बाडी के पास कितनी देर कोई बैठता है। और उधर बड़े बाबू ब्यूटीपार्लर में अटके हुए थे। बिना बने-ठने वो किसी भी आयोजन में नहीं जाते हैं। तो फिर यहां कैसे आ जाते। ब्यूटीपार्लर की कुर्सी में धंसे-धंसे ही उन्होंने मोबाइल के मुंह से छोटे बाबू के कान में पीक थूका- मैं अभी एक अर्जेंट मीटिंग में विजी हूं,थोड़ी देर में फ्री होकर पहुंच रहा हूं। बड़े बाबू के पीक की सनसनाती ताजगी से लहराते हुए छोटे बाबू ने घोषणा की कि बड़े बाबू मीटिंग में हैं जल्दी ही यहां सिधारेंगे। उनके इंतजार में ऊंघते हुए साथियों ने इस बीच सिगरेटों और पानमसाले के तमाम पाउचों का सामीहिक नृशंस संहार कर वातावरण को और वीभत्स बना डाला। रैंप पर कैटवाक करती हसीना की तरह लरजते हुए बने-ठने बड़े बाबू अचानक प्रकट हुए। सारी महफिल में एक स्तरीय और अनुशासित मातमी सन्नाटा पसर गया। मनहूसियत के महोत्सव का यह हाउसफुल शो था। बड़े बाबू ने भैयाजी को ऐसी भावविह्वल मुद्रा में माला पहनाई जैसे कोई मंत्री शहीद सैनिक के पार्थिव शरीर पर पुष्पचक्र अर्पित करता है। पूरे शो में ऐसे जान आ गई जैसे किसी फिल्म को प्रमोट करने टाकीज में दर्शकों के बीच खुद हीरो हाजिर हो जाए। भैयाजी के पार्थिव शरीर में भी बड़े बाबू को देखकर ऐसी हलचल हुई जैसे हवा चलने पर पेड़ पर लटके मरे सांप के शरीर में होती है। छोटे बाबू ने बड़े बाबू के सामने भैयाजी के स्याह जीवन पर पूरी निष्ठा से रोशनी डालते हुए गुटखारुद्ध गले से कहा- हम लोगों की नज़र मे शराफत के मामले में भैयाजी नारायणदत्त तिवारीजी की नस्ल के जीव हैं। भैयाजी ने हमेशा काम को (काम,क्रोध और लोभ वाले काम को भी) पूजा और कार्यस्थल को पूजा स्थल ही माना है। यह दफ्तर पूरे तीस साल तक भैयाजी की दिव्य लीलाओं का क्रीड़ा स्थल रहा है। दफ्तर की हर फाइल को भैयाजी ने पवित्र धार्मिक ग्रंथ माना और उसे लाल कपड़े में बांधकर हर बुरी नजर से बचाकर रखा। किसी को भी इन्हें छूकर अपमानित करने का उन्होंने मौका नहीं दिया। और-तो-और नौकरीपर्यंत खुद भी नहीं छुआ। जीर्ण-शीर्ण वयोवृद्ध फाइलों को पूरे धर्मभाव से इन्होंने समय-समय पर पवित्र नदियों में विसर्जित कर अपना सरकारी धर्म निभाया। इसके लिए ये कई बार हरिद्वार भी गए मगर सरकार से इसके लिए कभी खर्चा भी नहीं लिया। ऐसे नैतिक और निष्ठावान कर्मनिष्ठ भैयाजी पर हमें गर्व है। नई पीढ़ी के लिए वे जबतक सूरज-चांद रहेगा की तर्ज पर एक प्रेरणापुरुष बने रहेंगे। भैयाजी उधार लेने को सदैव पुरुषार्थ मानते थे और उधार वापसी को एक जघन्य पाप समझते थे। उधार वापस कर उन्होंने कभी अपने किसी शुभचिंतक को भूलकर भी शर्मिंदा नहीं किया। ऐसे दूषित विचारों से भैयाजी हमेशा ही दूर रहे। कभी किसी ने उधार वापसी का तकाजा कर भैयाजी को बरगलाने की शरारत की भी तो पूरी विनम्रता के साथ दृढ़ता दिखाते हुए भैयाजी ने अपने को धर्मभ्रष्ट होने से बचाते हुए दुर्दांत संयम का परिचय देकर सभी को चकित कर दिया। अपने उसूलों को भैयाजी बहुत महत्व देते हैं। और इस बात पर तो विद्वानों में बहस हो सकती है कि पृथ्वी गोल है या चपटी या फिर सूरज पूरब से उगता है या पश्चिम से मगर भैयाजी के उधार लेकर वापस न करने के सिद्धांत पर इतनी हाई क्वालिटी की सर्वसम्मति कभी किसी ने कहीं नहीं देखी। कुछ सिरफिरे अभी भी इस अँधविश्वास को लेकर बैठे हैं कि वे किन्हीं कमजोर क्षणों में भैयाजी से कभी-न-कभी उधाऱ वापसी का पाप करवा ही डालेंगे। उनका मानना है कि आज जब स्त्रियां सही समय पर गलत काम करने से नहीं चूक रहीं तो भैयाजी कैसे बच पाएंगे। निरीह रिटायर्ड मर्द हैं बेचारे। कभी-न-कभी,कहीं-न-कहीं फिसलकर ही रहेंगे।

छोटे बाबू की विभागीय लोरियां सुनते-सुनते भैयाजी कब निद्रालोक में सिधारे इसका खुलासा तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही हो पाएगा मगर अचानक भैयाजी का पार्थिव शरीर घटोत्कच की तरह कु़र्सी से फिसलकर धरती की बांहों में धड़ाम से जा गिरा। बाडी विस्फोट इतना तीव्र था कि दफ्तर की पूरी पृथ्वी हिल गई। दफ्तर के बाहर की धटना के लिए दफ्तर जिम्मेदार नहीं होता इसलिए बाहर पृथ्वी हिली या नहीं इसकी चर्चा बेमानी है। इस अफरातफरी में घबराए हुए लोग चारों तरफ ऐसे फैल गए जैसे दिल्ली में डेंगू बुखार।

उधर इस दुर्घना से बेखबर कुछ जांबाज दफ्तरी इस चर्चा में मशगूल थे कि भैयाजी को घर कैसे पहुंचाया जाए। अपनी कार से कोई उन्हें घर छोड़ने को तैयार नहीं था। उनका कहना था कि फेयरवैलपार्टी का चंदा लेकर हमें पहले ही खल्लास कर दिया गया है अब हम पेट्रोल क्यों फूंके। हम बेमौसम हजामत के लिए कतई तैयार नहीं हैं। हजामत की भी एक ऋतु होती है। एक सुझाव आया कि अस्पताल से फोन करके क्यों न एंबुलेंस बुला ली जाए। दूसरे ने तकनीकी आधाऱ पर आपत्ति जताई। कहा कि यदि भैयाजी को अस्पतालवालों ने भर्ती कर डाला तो किसने फोन करके एंबुलेंस को बुलाया था उस मुलजिम के शिनाख्त होने का भऱपूर खतरा है। फिर घर जाकर उसे ये भी बताना पड़ेगा कि इस वक्त भैयाजी फलां अस्पताल के फलां वार्ड के फलां बेड पर लुत्फअंदोज हो रहे हैं। जाकर देख आइए। तभी एक सिंथेटिक सुझाव आया- मैं एक धार्मिक सेवा समिति का सदस्य हूं. हमारी समिति के तमाम निशुल्क शव यात्रा वाहन शहर में चलते हैं। मैं अभी फोन करके किसी वाहन को बुला लेता हूं। सारे ड्रायवर भी मुझे जानते हैं। रास्ते में अंग्रेजी ठेके से कुछ माल-मसाला भी ले लेंगे। रास्तेभर तफरी रहेगी और भैयाजी की रिटायर्ड बाडी भी हँसी-खुशी घर पहुंचादी जाएगी। संवेदनशील साथियों ने कोरस में हांका लगाया-ये रिटाटर्ड का जनाजा है,निकलेगा धूमधाम से। पूरी उत्साहजनक भावनाओं के साथ दोस्तों ने शवयात्रा वाहन बुलाने का सर्वसम्मत फैसला ले डाला। थोड़ी देर में शवयात्रा वाहन के शून्य में सोडा मिश्रित सासायनिक गंध अपने नमकीन डैने फैलाने लगी। शवयात्रा वाहन की नागरिकता ले चुके जिंदा जीव भावुक होने लगे। रिटायरमेंट से बाल-बाल बचा एक साथी हिचकियां ले-लेकर कह रहा था कि भैया संसार का हर प्राणी मरणधर्मा है और हर कर्मचारी रिटायरधर्मा है। जो आया है वह कल जाएगा भी। आज भैयाजी गए हैं कल हम सब भी जाएंगे। समय के कसाई के आगे हम सभी बकरे हैं। कब तक खैर मनाएंगे। और दोस्तो इस तरह तीस साल तक नियमित बेनागा दफ्तरी कष्ट झेलनेवाली एक और बाडी आज मूर्चरी से विदा हो गई…। भैयाजी आज से दफ्तर के लिए एक भूला हुआ अफसाना हो गए,गुज़रा हुआ जमाना हो गए।

संतों महंतों के ट्रस्टों की संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किया जाए

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

‘योगसूत्र’ में योग के क्रियात्मक पक्ष की चर्चा की गई है। यह यौगिक क्रिया ध्यान लगाने की औपचारिक कला, मानव का आंतरिक स्थिति में परिवर्तन लाने, और मानव चेतना को पूर्ण रूप से अंतर्मुखी बनाने से संबद्ध थीं।

ए.ई.गौफ ने ‘फिलासफी ऑफ दि उपनिषदाज’(1882) में लिखा है कि योग का आदिम समाजों, खासकर आदिम जातियों-निम्न जातियों से संबंध है। दार्शनिकों की एकमत राय है कि योग का तंत्र-मंत्र, जादू टोने से भी संबंध रहा है। इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान रखकर देखें तो बाबा रामदेव ने आधुनिक धर्मनिरपेक्ष योगियों की परंपरा का निर्वाह करते हुए योग-प्राणायाम को तंत्र-मंत्र,जादू-टोने से नहीं जोड़ा है।

बल्कि वे अपने कार्यक्रमों में किसी भी तरह के कर्मकांड आदि का प्रचार भी नहीं करते। अंधविश्वासों का भी प्रचार नहीं करते। सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक तौर पर उनके जो विचार हैं वे संयोगवश संघ परिवार या हिन्दुत्ववादियों से मिलते हैं।

बाबा रामदेव का विखंडित व्यक्तित्व हमारे सामने है। एक ओर वे योग-प्रणायाम को तंत्र वगैरह से अलगाते हुए धर्मनिरपेक्ष व्यवहार पेश करते हैं, लेकिन दूसरी ओर अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए हिन्दुत्ववादी विचारों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इस समूची क्रिया में योग-प्राणायाम प्रधान है, उनके राजनीतिक-सामाजिक विचार प्रधान नहीं है। उनका योग-प्राणायाम का एक्शन महत्वपूर्ण है।

उनका हिन्दुत्व का प्रचार महत्वपूर्ण नहीं है। हिन्दुत्व के राजनीतिक विचारों को वे अपने योग के बाजार विस्तार के लिए इस्तेमाल करते हैं।

वे एक राजनीतिक दल बना चुके हैं जो अगले लोकसभा चुनाव में सभी साटों पर उम्मीदवार खड़े करेगा। मैं समझता हूँ उन्हें राजनीति में सफलता नहीं मिलेगी। इसका प्रधान कारण है उनका राजनीतिक आधार नहीं है। उनके योग शिविर का सदस्य उनका राजनीतिक सदस्य नहीं है। यदि संत-महंतों की राजनीतिक पार्टियां हिट कर जातीं तो करपात्रीजी महाराज जैसे महापंडित और संत की रामराज्य परिषद का दिवाला नहीं निकलता। हाल के वर्षों में बाबा जयगुरूदेव की पार्टी के सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त न हुई होती।

उल्लेखनीय है बाबा जयगुरूदेव की उन इलाकों में जमानत जब्त हुई है जहां पर उनके लाखों अनुयायी हैं। बाबा रामदेव को यह ख्याल ऱखना चाहिए कि वे विश्व हिन्दू परिषद से ज्यादा प्रभावशाली नहीं हैं। लेकिन कुछ क्षेत्रों को छोड़कर अधिकांश भारत में विश्व हिन्दू परिषद चुनाव लड़कर जमानत भी नहीं बचा सकती है। इससे भी बड़ी बात यह है कि भारतीय राजनीतिक जनमानस में अभी भी धर्मनिरपेक्षता की जड़ें गहरी हैं। कोई भी पार्टी धार्मिक या फंडामेंटलिस्ट एजेण्डा सामने रखकर चुनाव नहीं जीत सकती। गुजरात या अन्य प्रान्तों में भाजपा की सफलता का कारण इन सरकारों का गैर धार्मिक राजनीतिक एजेण्डा है। दंगे के लिए घृणा चल सकती है। वोट के लिए घृणा नहीं चल सकती। यही वजह है कि गुजरात में व्यापक हिंसाचार करने के बावजूद भाजपा यदि जीत रही है तो उसका प्रधान कारण है उसका अधार्मिक राजनीतिक एजेण्डा और विकास पर जोर देना।

कहने का तात्पर्य यह है कि बाबा रामदेव टीवी चैनलों पर जिस तरह की राजनीतिक बातें करते हैं उसके आधार पर वे कभी चुनाव नहीं जीत सकते। क्योंकि उनका राजनीति से नहीं योग से संबंध है। उन्होंने जितने साल संयासी के रूप में गुजारे उतने साल राजनीतिक दल बनाने और राजनीतिक संघर्ष करने पर खर्च किए होते तो संभवतः उन्हें कुछ सफलता मिल भी सकती थी।

बाबा रामदेव कम्पलीट पूंजीवादी मानसिकता के हैं। वे योग और अपने संस्थान से जुड़ी सुविधाओं का चार्ज लेते हैं। उनके यहां कोई भी सुविधा मुफ्त में प्राप्त नहीं कर सकते। यह उनका योग के प्रति पेशेवर पूंजीवादी नजरिया है। वे फोकट में योग सिखाना,अपने आश्रम और अस्पताल में इलाज की व्यवस्था करने देने के पक्ष में नहीं हैं। मसलन उनके हरिद्वार आश्रम में चिकित्सा के लिए आने वालों में साधारण सदस्यता शुल्क 11हजार रूपये, सम्मानित सदस्यता 21 हजार रूपये, विशेष सदस्यता शुल्क 51 हजार रूपये, आजीवन सदस्यता एक लाख रूपये, आरक्षित सीट के लिए 2लाख 51 हजार रूपये और संस्थापक सदस्यों से 5 लाख रूपये सदस्यता शुल्क लिया जाता है।

आयकर विभाग की मानें तो बाबा रामदेव द्वारा संचालित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट भारत के समृद्धतम ट्रस्टों में गिना जाता है। जबकि अभी इसे कुछ ही साल अस्तित्व में आए हुए हैं। गृहमंत्रालय के हवाले से ‘तहलका‘ पत्रिका ने लिखा है कि बाबा रामदेव की सालाना आमदनी 400 करोड़ रूपये है। यह आंकड़ा 2007 का है।

असल समस्या तो यह है कि बाबा अपनी आय का आयकर विभाग को हिसाब ही नहीं देते। कोई टैक्स भी नहीं देते। पत्रिका के अनुसार ये अकेले संत नहीं हैं जिनकी आय अरबों में है। श्रीश्री रविशंकर की सालाना आय 400 करोड़ रूपये,आसाराम बापू की 350 करोड़ रूपये,माता अमृतानंदमयी ‘‘अम्मा’’ की आय 400 करेड़ रूपये,सुधांशु महाराज 300 करोड़ रूपये,मुरारी बापू 150 करोड़ रूपये की सालाना आमदनी है। (तहलका,24जून, 2007)

एक अन्य अनुमान के अनुसार दिव्ययोग ट्रस्ट सालाना 60मिलियन अमेरिकी डॉलर की औषधियां बेचता है। सीडी, डीवीडी, वीडियो आदि की बिक्री से सालाना 5 लाख मिलियन अमेरिकी डॉलर की आय होती है। बाबा के पास टीवी चैनलों का भी स्वामित्व है।

उल्लेखनीय है बाबा रामदेव अपने कई टीवी भाषणों और टीवी शो में विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने और भ्रष्टाचार के सवाल पर बहुत कुछ बोल चुके हैं। हमारी एक ही अपील है कि बाबा रामदेव अपने साथ जुड़े ट्रस्टों, आश्रमों, अस्पतालों और योगशिविरों के साथ-साथ चल-अचल संपत्ति का समस्त प्रामाणिक ब्यौरा जारी करें, वे यह भी बताएं कि उनके पास इतनी अकूत संपत्ति कहां से आयी और उनके दानी भक्त कौन हैं, उनके नाम पते सब बताएं। बाबा रामदेव जब तक अपनी चल-अचल संपत्ति का समस्त बेयौरा सार्वजनिक नहीं करते तब तक उन्हें भारत की जनता के सामने किसी भी किस्म के नैतिक मूल्यों की वकालत करने का कोई हक नहीं है। भारत में अघोषित तौर पर संपत्ति रखने वाले एकमात्र अमीर लोग हैं या बाबा रामदेव टाइप संत-महंत। जबकि सामान्य नौकरीपेशा आदमी भारत सरकार को आयकर देता है, अपनी संपत्ति का सालाना हिसाब देता है। भारत सरकार को सभी किस्म के संत-महंतों की संपत्ति और उसके स्रोत की जांच के लिए कोई आयोग बिठाना चाहिए और इन संतों को आयकर के दायरे में लाना चाहिए।

नव्य उदारतावाद के दौर में टैक्सचोरों और कालेधन को तेजी से सफेद बनाने की सूची में भारत के नामी-गिरामी संत-महंतों की एक बड़ी जमात शामिल हुई है। इन लोगों की सालाना आय हठात् अरबों-खरबों रूपये हो गयी है। इस आय के बारे में राजनीतिक दलों की चुप्पी चिंता की बात है। उनके देशी-विदेशी संपत्ति और आय के विस्तृत ब्यौरे को सार्वजनिक किया जाना चाहिए।

संतों-महंतों के द्वारा धर्म की आड़ में कारपोरेट धर्म का पालन किया जा रहा है। धर्म जब तक धर्म था वह कानून के दायरे के बाहर था लेकिन जब से धर्म ने कारपोरेट धर्म या बड़े व्यापार की शक्ल ली है तब से हमें धर्म उद्योग को नियंत्रित करने, इनकी संपत्ति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने, सामाजिक विकास कार्यों पर खर्च करने की वैसे ही व्यवस्था करनी चाहिए जैसी आंध्र के तिरूपति बालाजी मंदिर से होने वाली आय के लिए की गई है।

इसके अलावा इन संतों-महंतों के यहां काम करने वाले लोगों की विभिन्न केटेगरी क्या हैं, उन्हें कितनी पगार दी जाती है,वे कितने घंटे काम करते हैं, किस तरह की सुविधा और सामाजिक सुरक्षा उनके पास है। कितने लोग पक्की नौकरी पर हैं, कितने कच्ची नौकरी कर रहे हैं। इन सबका ब्यौरा भी सामने आना चाहिए। इससे हम जान पाएंगे कि धर्म की आड़ में चल रहे धंधे में लोग किस अवस्था में काम कर रहे हैं।

संतों-महंतों के द्वारा संचालित धार्मिक संस्थानों को कानून के दायरे में लाना बेहद जरूरी है। भारत में धर्म और धार्मिक संत-महंत कानून से परे नहीं हैं। वे भगवान के भक्त हैं तो उन्हें कानून का भी भक्त होना होगा। कानून का भक्त होने के लिए जरूरी है धर्म के सभी पर्दे उठा दिए जाएं।