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कश्मीरः रेकार्ड पर ठहरी सूइयां

केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों से बहुत उम्मीदें न रखिए

-संजय द्विवेदी

कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘सिकारों’ पर फिर हंसी-खुशी गायब है और जिंदगी अचानक बहुत खामोश हो गयी है। हवा में बारुद की गंध है और फिजां में तैरने वाली खुशबू गायब है।कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती। यूं लगता है कि कश्मीर में हमारी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके। ऐसे घने अंधेरे में भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में बातचीत के लिए तीन वार्ताकारों का एक पैनल बनाया है। जिसमें एक पत्रकार, एक प्रोफेसर और एक सूचना आयुक्त हैं।

जाहिर तौर पर सूची में शामिल नामों से भी, बिगड़े हालात के मद्देनजर भी और इस पैनल के धोषित होते ही आयी प्रतिक्रियाओं से लगता है कि हमें इससे बहुत उम्मीदें नहीं रखनी चाहिए। बताया जाता है कि इस पैनल के लिए एक और सदस्य की तलाश जारी है। साथ ही खबर यह भी कि कोई महत्वपूर्ण कांग्रेस नेता इसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं है। जबकि कहा यह जा रहा है कि अगर इसमें राजनीतिक व्यक्तित्व न होंगें तो तो उसे गंभीरता नहीं लिया जाएगा। अब फौरी तौर पर कश्मीर के अतिवादी संगठनों ने इसे बेकार की कवायद करार दे दिया है। अलगाववादी नेता गिलानी का कहना है कि भारत सरकार गूंगे-बहरों की तरह की व्यवहार कर रही है। हालांकि सरकार अपने इस कदम से बहुत आशान्वित है कि वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, जामिया मिलिया की प्रोफेसर राधा कुमार और सूचना आयुक्त एमएम अंसारी की टीम सभी तरह के राजनीतिक विचारों वाले लोगों से विचार विमर्श कर एक ऐसा रास्ता सुझाएंगें जो जो सही मायनों में जम्मू-कश्मीर और खासकर वहां के नौजवानों की उम्मीदों के अनुकूल हो। कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व की बेबसी और सीमाएं हमारे सामने हैं ही। जाहिर तौर पर मामला इतना सीधा नहीं है।

आजादी का नारा वहां के आवाम की जुबान पर यूं चढ़ाया जा रहा है, जैसे उसके बिना बात नहीं बनेगी। कुल मिलाकर यह युद्ध बहुत भावनात्मक हो चुका है। गिलानी जैसे नेताओं के स्टैंड से साफ दिखता है कि उन्हें आजादी चाहिए क्योंकि वे हिंदू बहुल भारत से मुक्ति चाहते हैं। अली शाह गिलानी की सुनिए तो बात साफ हो जाएगी। वे साफ कहते हैं कि- “ हमारा यह आंदोलन द्विराष्ट्रवाद के आधार पर हुए देश के विभाजन का हिस्सा है। मुस्लिम कश्मीर घाटी हिंदू भारत से अलग होना चाहती है। वह उसका हिस्सा नहीं है। भारत ने सेना के द्वारा हमारे क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है। भारतीय सेना की उपस्थिति को हम एक कब्जाऊ विदेशी सेना के रूप में देखते हैं। ” गिलानी अपनी इस बात को अनगिनत बार और कई टीवी चैनलों पर कहते रहे हैं। ऐसे में विकास और प्रगति के सवाल यहां अलहदा हो जाते हैं। ऐसे अतिवादी विचारों से जंग हो तो विकल्प जाहिर तौर पर बहुत सीमित हो जाते हैं। सांसदों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का भी गिलानी ने बहिष्कार किया। फिर भी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सदस्य उनसे मिलने पहुंचे। उस बातचीत का सीधा प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ जिसमें साफ तौर गिलानी ने कहा कि उनकी लड़ाई आर्थिक विकास और राजनीतिक सुविधाओं के लिए नहीं है। वे मुस्लिम घाटी की हिंदू भारत से मुकम्मल आजादी चाहते हैं। गिलानी आज की तारीख में कश्मीर के सबसे प्रभावशाली नेता हैं। उनके हुक्म पर पत्थरबाज सड़कों पर उतर आते हैं। बाजार बंद हो जाते हैं। वे कहते हैं तो पत्थर बाजी रूक जाती है। वे सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के बहिष्कार की बात करते हैं तो श्रीनगर की सड़कें सूनी हो जाती हैं। स्कूल खाली हो जाते हैं। जाहिर तौर पर हमारे राजनीतिक दलों और राजनीतिक नेताओं की विफलता से ये अतिवादी ताकतें आज प्रभावी भूमिका में हैं। पाकिस्तान का संरक्षण इन्हें ताकत दे रहा है। अब हालात यह हैं कि कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को भी अतिवादियों की भाषा बोलनी पड़ रही है। जिसे लेकर विधानसभा में हंगामा भी हुआ। कुल मिलाकर जैसे हालात हैं उसमें कश्मीर एक ऐसी आग में जल रहा है जहां तर्क, संवाद और बातचीत के मायने खत्म से लगते हैं। सेना और पुलिस की बबर्रता वहां के बड़े सवाल हैं, किंतु आतंकी हिंसा और अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिखों, बौद्धों) के साथ हुयी हिंसा वहां के संवाद से गायब है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर गिलानी के लिए कश्मीर में दीवानगी क्यों है। आखिर क्या कारण है राजनीतिक नेतृत्व के बजाए अलगाववादी नेतृत्व वहां के लोगों को ज्यादा भाता है। कहीं उसके पीछे वही अतिवादी धार्मिक भाव आज भी काम नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते एक निष्ठावान मुसलमान मौलाना अबुल कलाम आजाद की जगह मजहब से दूर रहने वाले पश्चिमी रंग में रंगे मुहम्मद अली जिन्ना आंखों के तारे बन जाते हैं। क्या आज भी कहीं न कहीं हम उसी मानसिकता के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। जिन्ना से लेकर गिलानी के बीच छः दशक की दूरियां हैं, किंतु सवाल वही हैं जो 1947 में हमारे सामने थे। द्विराष्ट्रवाद आज भी दंश दे रहा है।

वार्ताकार इसीलिए भी उम्मीद नहीं जगाते, क्योंकि हमारे समय के सवालों का हल आज की राजनीति के पास नहीं है। आजादी मांग रहे लोगों से यह पूछने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है कि आजादी लेकर क्या करोगे और आजादी के बाद क्या होगा। आजादी एक सपना है जिसका बाजार है, जो बिक सकता है। लेकिन इस आजादी के मायने बहुत अलग हैं। वह आजादी एक कश्मीरियत की आजादी है या हिंदू भारत से आजादी,इस सवाल पर हमें गंभीरता से सोचना होगा। शायद इसीलिए इस कथित आजादी के दीवानों और पत्थर बाजों को अपनी आजादी में सबसे बड़ा रोड़ा सेना दिखती है। इसलिए सेना को बदनाम कर, उसे वापस बुलाने के राजनीतिक और मानवाधिकारवादी षडयंत्र सचेतन तरीके से चलाए जा रहे हैं। कश्मीर पर हो रही वार्ताओं में दरअसल कश्मीर के सवाल नहीं, विकास के प्रश्न नहीं, रोजगार के सवाल नहीं हैं – ऐसी जिदें हैं जिसे पूरा कर पाना भारतीय राज्य के लिए संभव नहीं है। कश्मीर की राजनीति में दिल्ली की सरकार के खिलाफ बोलने की एक प्रतियोगिता चल रही है और उसमें कश्मीर की नई पीढ़ी का भविष्य खराब हो रहा है। अलगाववादियों और राजनीतिक नेताओं ने अपनी संतानों को विदेशों में शिक्षा के लिए भेजकर, स्थानीय सामान्य युवाओं के हाथ में पत्थर पकड़ा दिए हैं। ये पत्थर देश की एकता और अखंडता पर भी बरस रहे हैं उनकी निजी जिंदगी को तबाह भी कर रहे हैं। भय, खौफ और लाशों के ये व्यापारी हमारे नौजवानों को हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा, शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें, वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना। भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सकें तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। आजादी के सपनों के व्यापारियों की हरकतों पर इन्हीं प्रयासों से रोक लगाई जा सकती है। कश्मीर पर हो रही हर तरह की पहल को शुरू होने के पहले ही विफल करने की कोशिशें भी इसीलिए शुरू हो जाती हैं क्योंकि कश्मीर वहां की अलगाववादी ताकतों के लिए एक बड़ा व्यापार है। 22 फरवरी,1994 को भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव में कहा था कि “जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। शेष भारत से उसे अलग करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक उपायों से प्रतिरोध किया जाएगा।” कोई भी वार्ताकार संसद में लिए गए इस संकल्प को न भूले और देश विरोधी ताकतों को मंसूबों को समझते हुए कश्मीर को बचाने के लिए किए जा रहे सकारात्मक प्रयत्नों को आगे बढाने के लिए मदद करे। क्योंकि इससे ही कश्मीर घाटी में जमी बर्फ पिघल सकती है।

असली खबर पर पर्दादारी है चिली का खनिक उद्धार कवरेज

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

चिली में खान में फंसे 33 खनिकों के उद्धार कार्य के व्यापक कवरेज को देखकर मेरे मन में सवाल उठा कि अहर्निश कारपोरेट घरानों का जयगान करने वाला ग्लोबल मीडिया,खासकर टेलीविजन चैनल अचानक दयालु और मानवीय हितों का कवरेज क्यों देने लगते हैं? वे इस तरह के कवरेज के जरिए क्या बताना और क्या छिपाना चाहते हैं? क्या वे यह बताना चाहते हैं कि वे मानवीय हितों के सवालों पर प्रतिबद्ध हैं?

ग्लोबल मीडिया जब भी ऐसी किसी घटना का कवरेज देता है तो किसी बड़े यथार्थ को छिपाने या उस पर से ध्यान हटाने का काम करता है या फिर कारपोरेट घरानों की बर्बर इमेज को मानवीय बनाकर पेश करने की कोशिश करता है और यह उसका कारपोरेट पब्लिक रिलेशन का काम है। पब्लिक रिलेशन के काम के जरिए वह विचारधारात्मक संदेश भी देने का काम करता है। चिली के खान मजदूरों के उद्धार कार्य का कवरेज देकर ग्लोबल मीडिया ने यही काम किया है। यह उद्धार कार्य नहीं है बल्कि कारपोरेट पूंजीवाद को चमकाने और उसकी दयालु छवि पेश करने की कोशिश है। इसका खनिकों के हितों से कोई संबंध नहीं है।

इस कवरेज के जरिए यह भी संदेश दिया गया कि यह उद्धार कार्य अपने आप में हीरोइज्म है। एक ही वाक्य में कहें तो यह एक नाटक था। बड़ा विश्वव्यापी नाटक था। चिली की खानों में मजदूरों का फंस जाना और वहीं पर दबकर मर जाना कोई नई घटना नहीं है बल्कि यह कारपोरेट पूंजीवादी विकास की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। जिस तरह की भयावह लूट कारपोरेट घरानों ने मचायी हुई है उसका यह अपरिहार्य परिणाम है।

इस प्रसंग में कुछ तथ्यों पर गौर करें, चिली की अर्थव्यवस्था में कॉपर एक तरह से सोना है। आप जितनी खानें खोदेंगे उतना ही मुनाफा कमाएंगे और उसी गति से दुर्घटनाएं भी होंगी। चिली में औसतन 39 खान दुर्घटनाएं प्रति वर्ष होती हैं। लेकिन इनमें से अधिकांश की कोई रिपोर्टिंग ग्लोबल मीडिया नहीं करता। खान मालिक सभी कानूनों का उल्लंघन करते हैं उसकी भी रिपोर्टिंग नहीं करता। खान मालिकों के प्रति कारपोरेट मीडिया का किस तरह का रवैय्या है इस बात का आप सहज ही भारत के संदर्भ में अनुमान लगा सकते हैं कि वेदान्त के उडीसा स्थित प्रकल्प के पर्यावरण संबंधी कानूनी उल्लंघन की मीडिया ने कभी रिपोर्टिंग ही नहीं की।

चिली में खानों का मालिकाना हक कारपोरेट घरानों के पास है। यह हक उन्हें तानाशाह पिनोचेट के जमाने में मिला था जो अभी तक बरकरार है। खान उत्खनन के कारण स्थानीय लोगों को बेइंतहा तकलीफें उठानी पड़ रही हैं जिनका मीडिया में कोई कवरेज नहीं है। इन खानों में आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं जिनकी कोई रिपोर्टिंग नहीं होती। लेकिन इसबार खनिकों के अंदर फंसे होने और उनके उद्धारकार्य का लाइव कवरेज जिस तरह दिखाया गया उसने सबका ध्यान खींचा है। वहां पर 33 खनिक खान में फंसे थे वह इलाका राजधानी सांतियागो के पास के ही एक उपनगर विला ग्रिमाल्दी में स्थित है।

आश्चर्य की बात है इन खानों पर तानाशाह पिनोचेट के जमाने में कारपोरेट घरानों का कब्जा हुआ था जो चिली में वामपंथियों के शासन में आने के बावजूद अभी भी बरकरार है। पिनोचेट के बर्बर अत्याचारों को अभी भी चिली की जनता भूली नहीं है।

जिस समय टीवी वाले उद्धार कार्य का कवरेज कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर मापुचा जाति के लोग अपने शोषण,उत्पीड़न और राज्य और कारपोरेट आतंक के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। जंगलात और खानों पर जिन कारपोरेट घरानों का पिनोचेट के जमाने में नियंत्रण स्थापित हुआ था उसका प्रतिवाद कर रहे थे। मापुचा जाति के लोगों को भयावह आतंक और शोषण की जिंदगी से गुजरना पड़ रहा है। उनके खिलाफ आतंकवाद विरोधी कानून का जमकर दुरूपयोग किया जा रहा है और स्टेट मशीनरी की ओर से उन पर हमले किए जा रहे हैं। इन सबके प्रतिवाद में मापुचा जाति के लोग 90 दिन से भूख हड़ताल कर रहे थे लेकिन मीडिया ने उसका कहीं पर भी कवरेज नहीं दिया।

मापुचा जाति के लोगों पर कारपोरेट और स्टेट के संयुक्त हमले हो रहे हैं। आए दिन उनकी हत्या हो रही है,अपहरण हो रहे हैं और जबरिया दण्डित किया जा रहा है। लेकिन इसका मीडिया में कोई कवरेज नहीं है। हठात खान में फंसे 33 खनिकों का व्यापक कवरेज देकर मीडिया ने यह संदेश दिया है कि चिली के खान मालिक और राज्य का कितना बड़ा दिल है,वे कितने दयालु हैं।

असल में इस कवरेज के बहाने चिली के कारपोरेट घरानों की अबाधित लूट और चिली के गरीब गांव वालों पर अहर्निश हो रहे अत्याचारों से ध्यान हटाने की कोशिश की गई है। उल्लेखनीय है पिनोचेट के शासन में आतंकवाद विरोधी कानून बनाया गया था वह आज भी लागू है और आम लोग, खासकर ग्रामीण लोग उस कानून को खत्म करने के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।

यह बात सारी दुनिया जानती है कि चिली में एलेन्दे की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करने और तख्तापलट में वहां के कारपोरेट घरानों और पिनोचेट का हाथ था। राष्ट्रपति एलेन्दे उस समय प्रतिक्रांतिकारियों से संघर्ष करते हुए राष्ट्रपति भवन की इमारत में अंतिम दम तक संघर्ष करते रहे और अंत में उन्होंने अपनी ही पिस्तौल से गोली मारकर आत्महत्या की थी।

पिनोचेट के शासनकाल में तानाशाही का जो बर्बर दौर चला उसका यादें आज भी रोएं खड़े कर देती हैं। पिनोचेट के शासन के बाद भी ग्रामीणों पर दमन की चक्की चल रही है और उसकी कोई खबर मीडिया नहीं देता। जिस समय उद्धार कार्य का कवरेज आ रहा था ,उससे कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर चिली के आतंकवादविरोधी कानून को खत्म करने की मांग को लेकर मापुचा जाति का आंदोलन चल रहाथा। वे 90 दिन से भूख हड़ताल पर थे। लेकिन मीडिया ने उसकी रिपोर्टिंग नहीं की।

समस्या यह है खनिकों के उद्धार कार्य को कवरेज दिया जाए या उन लोगों को कवरेज दिया जाए जो चिली की खानों में अबाधित लूट मचाए हुए हैं और चिली की जनता का शोषण कर रहे हैं। जिसके कारण आए दिन खान दुर्घटनाएं हो रही हैं।

चिली में किसी चीज से जनता मुक्ति चाहती है तो वह है बड़े कारपोरेट घरानों की लूट से। विश्व मीडिया चिली के कारपोरेट घरानों की लूट और आतंकी व्यवस्था पर चुप है और खनिकों के उद्धार कार्य का व्यापक कवरेज देकर खान मालिकों को दयालु और पुण्यात्मा बनाने में लगा है। यह कवरेज उसी पब्लिक रिलेशन का हिस्सा था। शोषण के लिए पब्लिक रिलेशन बर्बरता है, सभ्यता का अपमान है। यह असली खबर पर पर्दादारी है।

आजाद भारत में किसान आज भी गुलाम

सरकारी नीतियों के कारण कृषि पर गहराया संकट

– रामदास सोनी

कहने को तो भारत 15 अगस्त 1947 को विदेशी दासता की बेड़ियों से मुक्त हो गया था किंतु वास्तव में नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ जिससे कहा जा सकता है कि मात्र सत्ता का हस्तांतरण हुआ था यानि मात्र तंत्र हमारा था किंतु उसमें से स्व के भाव का लोप था। इस कारण से हमारे स्वतंत्र भारत में विभिन्न क्षेत्रों के विकास के लिए जो नीतियां बनी वो विदेशों से प्रेरित थी और वर्तमान में दम तोड़ती दिखाई देती है।

प्रथम विश्व युद्ध के समय केन नामक पाश्चात्य अर्थशास्त्री ने विकास की नई अवधारणा प्रस्तुत की जिसके अनुसार, कृषि को अर्थव्यवस्था के मूलाधार होने को नकारते हुए उद्योगों के आधार पर नई विश्व अर्थव्यवस्था को महत्व दिया गया। कारण कि प्रथम विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड की माली हालात काफी पतली हो चुकी थी ऐसे में इस अवधारणा या सिध्दांत पर इंग्लैण्ड ने अमल करना प्रारंभ किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इंग्लैण्ड ने अपने कब्जे वाले देशों के प्राकृतिक संसाधनों के बूते पर केन की इस अवधारणा को अमलीजामा पहनाना प्रारंभ कर दिया। भारत जैसे कई देशों से विभिन्न उद्योगों के लिए कच्चा माल मनमाने मूल्य पर खरीदा गया और इंग्लैण्ड की फैक्ट्रियों में तैयार गुणवत्ताहीन माल मनमाने मूल्य पर इन्ही गुलाम देशों में खपाया गया यानि क्रय और विक्रय दोनों में ही लाभ ही लाभ तो फिर दिनों में आर्थिक रूप से धराशायी दिखाई देने वाले इंग्लैण्ड के दिन फिरने लगे उसकी आर्थिक स्थिति में चमत्कारिक परिवर्तन दिखाई देने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तो लगभग सारे विश्व के देशों ने केन के इस विचार को मानो स्वीकार ही कर लिया, 1945 के बाद तो विश्व के सभी देशो में कृषि की उपेक्षा करके उसकी कीमत पर भारी-भरकम उद्योग लगने प्रारंभ हो गए। विकास की इस अंधी दौड़ में पूरी दुनिया के देशो को तीन श्रेणियों में बांटा गया जिसके अनुसार, (1) जहां उद्योगो की बहुतायत है — विकसित देश (2) जहां कुछ कम औद्योगिक विकास है या उद्योग लग रहे है — विकासशील देश (3) जहां नाम मात्र के उद्योग है अविकसित देश। स्वयं को विकसित देश साबित करने के लिए अपने अधीनस्थ गुलाम देशों के प्राकृतिक व अन्य भौतिक संसाधनों का भरपूर शोषण किया गया जिससे शासक और अमीर हुआ।

1945 से आज तक मात्र 65 सालों के अल्प समय में ही भौतिकतावादी नीतियों के कारण पूरी मानवता पर संकट के बादल मण्डराते दिखाई दे रहे है, प्रकृति के अत्यधिक शोषण के कारण आज पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, हिम गलेशियर तेजी से पिघल रहे है, समुद्रों को जलस्तर बढ़ रहा है, विभिन्न प्रकार के जलवायुवीय परिवर्तन हो रहे है, कई प्रकार के जीव-जंतु विलुप्त हो चुके है, फसलों के उत्पादन कम होने लगे है, रायायनिक खादों के प्रयोग के कारण उर्वरा भूमि बंजर होती जा रही है। ऐसे में पूरी दुनियां के देश यह महसूस करने लगे है कि अगर शीघ्र कुछ नहीं किया गया तो आने वाले समय में पृथ्वी से मानवता का नामो-निशान मिट जायेगा। आज पाश्चात्य देश कृषि में रायायनिक खादों, कीटनाशको के प्रयोग, जैव-विविधतायुक्त (जीएम) उत्पादों आदि के बारे में निषेधात्मक रूख अपनाने लगे है किंतु कृषि के जन्मदाता भारत में इस दिशा में ऐसे प्रयास हो रहे है कि मानो यहां की सरकारों को स्वयं भारत से कृषि को समाप्त करने की जल्दी है। इस बारें में स्वतंत्रता के बाद भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा कृषि की उपेक्षा करने के कुछ तथ्य देशवासियों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है :-

भारत को 15 अगस्त 1947 को खंडित स्वातंत्र्य मिला और 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ। दिनांक 11 मई 1951 को प्रथम संविधान संशेधन किया जिसे नौवें अनुच्छेद के नाम से जाना जाता है इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि जो कानून इसमें डाल दिया जायेगा उस पर भविष्य में भारत की संसद भी विचार नहीं कर पायेगी। इसमें सर्वप्रथम जो कानून डाला गया वो था बिहार भूमि अधिग्रहण कानून। अब तक इस अनुच्छेद में लगभग 284 काूननों को डाला जा चुका है जिनमें से 184 कानून भमि अधिग्रहण या भूमि से सम्बधित है।

सन 1834 में ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा अपने औपनिवेशिक हितों को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण कानून भारत में लागू किया गया था, बाद में भारत की सत्ता ब्रिटेन को हस्तांतरित हो गई किंतु जो भूमि अधिग्रहण सम्बंधी कानून ईस्ट इण्डिया कंपनी के आधिपत्य वाले भू-भाग पर लागू था उसे पूरे भारत पर लागू कर दिया गया। भारत को आजादी मिलने के बाद बने हमारे संविधान में इसे ज्यों का त्यों लागू करने के साथ मात्र इतना ही इसमें जोड़ा गया कि अगर कोई प्रभावित इस प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं है तो वो सक्षम न्यायालय की शरण ले सकता है।

जब भारत आजाद हुआ था तो देश की 84 प्रतिशत आबादी गांवों में और 16 फीसदी आबादी शहरों में निवास करती थी किंतु आज शहरी क्षेत्र में निवास करने वालों की संख्या बढ़कर 36 प्रतिशत व ग्रामवासियों की संख्या 64 प्रतिशत हो गई है। भारत के सकल घरेलु उत्पाद व भारतीय अर्थव्यवस्था के संचालन में खेती की अहम भूमिका है।

वर्तमान केन्द्र सरकार की आगामी बजट सत्र में भारतीय कृषि व्यवस्था को तहस-नहस करने के उद्देश्य से तीन प्रकार के बिल संसद में पेश करने वाली है :

1 – भूमि अधिग्रहण कानून

यद्यपि भूमि अधिग्रहण बिल का कुछ सार उपर दिया जा चुका है किंतु सरकार की मंशा है कि किसानों और उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों के हाथ कानूनी तौर पर बांध दिए जाये। इसके लिए पूर्व में प्रचलित कानूनों में संशोधन करने की सरकार की इच्छा है। सन 2007 में भारत की संसद में भूमि अधिग्रहण से सम्बधित एक प्रस्ताव आया था जिसमें सरकार से मांग की गई थी कि सरकार द्वारा खेती योग्य भूमि का यथासंभव अधिग्रहण न किया जावे, अगर राष्ट्रहित में ऐसा किया जाना आवश्यक हो तो जितनी भूमि को अवाप्त किया जाना है उतनी ही भूमि को कृषि प्रयोजनार्थ तैयार किया जावे। किंतु वह विधेयक आज तक संसद में लम्बित पड़ा हुआ है। भारत में भूमि अधिग्रहण सम्बंधी जितने भी कानून अस्तित्व में है उनमें से हरियाणा प्रदेश के भूमि अधिग्रहण कानून को सबसे अच्छा बताया जाता है। हरियाणा के भूमि अधिग्रहण कानून के बारे में जानकारी है कि किसान की भूमि अधिग्रहण करने पर देय मुआवजे के अतिरिक्त 15000 रूपये प्रति एकड़ प्रति वर्ष लगातार 33 सालों तक देय होगा। अगर किसी आवासीय योजना या अन्य आवश्यक सेवा हेतु अवाप्ति की जाती है तो मुआवजे के अलावा देय राशि दो गुनी प्रदान की जायेगी, इस राशि में प्रतिवर्ष 500 रूपये की बढ़ोत्तरी की जायेगी। यदि किसान की 70 प्रतिशत भूमि अवाप्त की जाती है तो उसे बनने वाली योजना में एक दुकान या मकान जो भी हो दिया जायेगा।

सरकार द्वारा पूर्व में लागू भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने के पीछे विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना को गति देने, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उन्मुक्त रूप से भूमि प्रदान करने की मंशा है किंतु कृषि भूमि पर औद्योगिक इकाईया स्थापित करने, किसानों को भूमि से बेदखल कर उन्हे श्रमिक बना देने, आने वाले समय में कृषि उत्पादन कम होने के कारण क्या देश को दुष्परिणाम नहीं झेलने होगे। सन 1965 से पूर्व अन्न के लिए हम भारतीय अमेरिका पर आश्रित रहे क्या वही दिन देश को फिर से देखने पड़ेगें।

छठे वेतन आयोग के अनुसार एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतनमान 5200 से 20000 रूपये प्रतिमाह हो गया है किंतु भारत के किसान की हालात एक चपरासी से भी गई गुजरी है कि कृषि भूमि सरकार को सौंप देने (अधिग्रहण के बाद) पर उसे अधिकतम 1500 रूपये प्रतिमाह प्रति एकड़ के हिसाब से सरकार दे रही है!

2 – बीज कानून

सन 2004 में भी संसद में यह बिल पेश हुआ था परंतु कड़े विरोध के कारण ठण्डे बस्ते में चला गया। बहुराष्ट्रीय बीज निर्माता कंपनियों को लाभ देने के लिए सरकार इसी बजट सत्र में फिर से बीज विधेयक भी पेश करने की योजना बना रही है जिसके अनुसार, हर छोटे या बड़े बीज या नर्सरी विक्रेता को अपना पंजीकरण करवाना और प्रत्येक किसान को पंजीकृत बीज बोना आवश्यक होगा। भारत में छोटी जोत के किसानों की संख्या काफी अधिक है और वे कोई स्पेशल बीज क्रय न करके एक-दूसरे से ही थोड़ा बहुत बीज लेकर गुजर कर रहे है। अगर भारत में केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित बीज कानून लागू हो जाता है तो ऐसे किसानों के सामने भारी परेशानी खड़ी हो सकती है, किसान अपना घरेलु बीज प्रयोग में नहीं ला पायेगा और न ही किसी से मांगा गया बीज अपने खेत में बो पायेगा। कानून के प्रावधानों के अनुसार अगर कोई दोषी पाया गया तो उसे 10 साल तक की कैद हो सकती है। देशभर में स्थापित विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय बीजों को लेकर तरह-तरह के प्रयोग करते है और कई किसान वहां से बीज लाकर अपने खेतो में भी बोते है। इस कानून के दायरे में ऐसे किसानों के भी आने की आशंका है।

3 — Bio-Technology Regulatory Authority of India (BTRA) Bill

पिछले दिनों तक भारत के मीडिया में बीटी बैंगन ही छाया रहा। किसानों व किसान संगठनों के सशक्त विरोध के कारण सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा और बीटी बैंगन भारत में नहीं आ पाया। सरकार ने अब जीएम उत्पादों (जेनेटिकली मॉडिफाइड) के लिए भारतीय बाजार सुगम बनाने के लिए कमर कस ली प्रतीत होती है। सरकार बजट सत्र में Bio-Technology Regulatory Authority of India (BTRA) Bill ला रही है जिसके संसद में पारित होने के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने जहरीले उत्पाद बेचने और पूरे खाद्य बाजार पर कब्जा करने का रास्ता साफ हो जायेगा, इसमें प्रावधान है कि तीन सदस्यीय निर्णायक मण्डल जिस किसी जीएम उत्पाद को अपनी स्वीकृति प्रदान करेगा यानि पास कर देगा, उस पर कोई भी आक्षेप नहीं लगा पायेगा। कोई भी व्यक्ति अगर बिना साक्ष्यों या वैज्ञानिक रिकॉर्ड के इन उत्पादों के बारे में प्रचार करेगा तो उसे कम से कम 6 माह की कैद या 2 लाख रूपये तक का जुर्माना हो सकता है। सूचना के अधिकार के तहत भी किसी पास किए गए बीज के बारे में जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकेगी, विवादों के निपटारे के लिए इस बिल के तहत एक प्राधिकरण्ा का अपना एक न्यायाधिकरण यानि ट्राइब्यूनल होगा और सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर भारत की किसी भी अन्य अदालत में न्यायाधिकरण के निर्णय के विरूद्ध अपील नहीं होगी। आम व्यक्ति के लिए जीएम उत्पाद और संकरित उत्पाद में कोई अंतर नहीं है। वास्तव में संकरण के द्वारा दो या दो से अधिक प्रजातियों के संयोग से जो नई प्रजाति विकसित होती है वो मावनीय स्वास्थ्य और भविष्य के लिए खतरा नहीं होती लेकिन जीएम पद्धति में जीन विनिमय कर नई प्रजाति बनाने के दौरान कई प्रकार के विकार भी नई प्रजाति में आ जाते है जो कि भविष्य में खतरा पैदा कर सकते है। जानकारी में आया है कि पिछले दिनों इटली ने कनाडा से शहद आयात किया। शहद गतव्य स्थान पर पंहुचने पर इटली सरकार ने कनाडा सरकार से इस बात की गारंटी मांगी कि इस शहद को बनाने में जीएम पौधों के फूलों के परागकणों का उपयोग नहीं किया गया है। कनाडा सरकार द्वारा गारंटी देने से इंकार करने पर सारा शहद वापस भेज दिया गया। कहने का तात्पर्य है कि दुनिया के देश जिन जीएम उत्पादों को ठुकरा रहे है उन्हे अपनाने के लिए भारत सरकार लालायित है।

उपरोक्त तीनों प्रकार के प्रस्तावित कानून बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ दिलाने के लिए लाए जा रहे है, भारतीय कृषि पद्धति को अक्षुण्ण रखने और पर्यावरण को, मानवता को, सारे भू-मण्डल को बचाने के लिए हमें सरकार पर दबाब बनाना होगा कि वो मात्र वही योजनाएं लागू करे जो भारतीय कृषि एवं भारत के हित में हो।

बिहार हाशिए पर क्‍यों ?

-अनिल दत्त मिश्र

बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है। मौर्य साम्राज्य, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, जैन-बौद्ध धर्म का उदय, स्वतंत्रता संग्राम में राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानंद सिन्हा, मौलाना मजरूल हक आदि अग्रणी नेता इसी प्रांत से आते हैं। महात्मा गांधी ने चंपारण आंदोलन बिहार से शुरू करके स्वतंत्रता का सुत्रपात किया। जयप्रकाश नारायण, आजादी के बाद भारत के प्रशासनिक दृष्टिकोण से 1962 तक बिहार सर्वोत्तम राज्य रहा है जिसकी पुष्टि पॉल एबल्वी के रिपोर्ट में लिखित है। ऐसा राज्य धीरे-धीरे हासिए पर क्यों चला गया? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उन्नति के सूत्रधार हैं परंतु आज भी बिहार के गांव बेहाल हैं। ये सवाल हमें सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। समय-समय पर चिंतक-लेखक एवं पत्रकार बिहार की दशा को बदलने के लिए अपने-अपने विचार एवं व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करते रहते हैं। बिहार हासिए पर है इसके लिए नेता पूर्णरूपेण जिम्मेदार है। कहा गया है ‘जैसा राजा वैसी प्रजा’, नेताओं ने अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद की नीतियां अपनायी। स्वच्छ समाज को खंडित कर दिया। शैक्षणिक परिसरों में अभिक्षितों की भरमार तथा शासन-प्रशासन राजनीतिक दलों के एजेंट बन गए। जनता का राजनेताओं से विश्वास हट गया। और जनता भी जात-पात एवं कुशासन की भागीदारी बन गयी। राजनेता जनता को कोसती तथा जनता राजनेता को कोसती। मसलन कुशासन फैलने में जनता और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि दोनों समान रूप से जिम्मेदार हैं। बिहार में रेलमार्ग का बहुत विकास हुआ। परंतु जलमार्ग एवं सड़कमार्ग का विकास जिस प्रकार होना चाहिए उस प्रकार नहीं हुआ। नहरों का विकास बहुत ही कम हुआ। अतिरिक्त पानी का सदुपयोग नहीं हुआ। बिहार मुख्यतः कृषि पर आधारित प्रांत है ज्यादातर लोगों का जीवन खेती पर निर्भर है। खेती कर विकास न होने के कारण खेती हानि का सौदा समुचित बन गया, मजदूरों का पलायन शुरू हो गया तथा हालत बद से बदतर होती चली गई। पटना विश्वविद्यालय के सभी कॉलेजों का एक राष्ट्रीय महत्व था। खासकर साइंस कॉलेज, पी. एम. सी. एच. लंगट सिंह कॉलेज आदि दिल्ली के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों में से एक थे। परंतु शैक्षणिक कैलेंडर न लागू होने के कारण ये कॉलेज हासिए पर चले गए, पिछले 60 सालों में नेतरहाट विद्यालय जैसा दूसरा कोई विद्यालय सरकार नहीं बना पायी। नतीजा यह हुआ कि बिहार से विद्यार्थियों का निर्यात हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय, जे एन यू के अधिकांश विद्यार्थी बिहार से आते हैं। दूसरे शब्दों में बिहार से प्रतिमाह करोड़ों रुपये शिक्षा पर बाहर जाते हैं। बिहार को ठीक करने के लिए प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा पर ध्यान देना होगा। यहां में उद्योग-धंधों का आजादी के बाद से ही बाहुल्य रहा है। कुटीर उद्योग नहीं के बराबर हैं। वहां के मजदूर काम के अभाव में पंजाब, असम, दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, अहमदाबाद, आदि स्थानों पर जाते हैं। जहां उन्हें तिरस्कृत बिहारी के नाम से जाना जाता है। बिगत पांच वर्षों में केंद्र सरकार को राज्य सरकार के प्रयास से आशा की किरण जगी है। जे. डी. यू. तथा भाजपा गठबंधन ने बिहारी की बदतर स्थिति को तथा सुशासन के प्रयास किए गए हैं। जिसका परिणाम यह है कि सड़कों मे गड्ढे कम नजर आते हैं। बच्चे स्कूल जा रहे हैं। पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हुयी है तथा विकास की बयार बहती नजर आ रही है। इसके लिए केंद्र सरकार व राज्य सरकार की भूमिका अहम रही है लेकिन चुनावी राजनीति नेताओं की मंशा पर प्रश्न चिह्र खड़ा करती है। बिहार में गठबंधन सरकार है फिर चुनाव प्रचार में कौन जाए तथा कौन न जाए का मुद्दा भारतीय लोकतंत्र में सिध्दांत विहीन राजनीति को दर्शाती है। बिहार के प्रत्येक राजनीतिक दलों में सिध्दांत विहीनता का अभाव है। राजद के शीर्षस्थ नेता कांग्रेस में आ गए। जिनमें ये वो लोग हैं जिन्होंने आर. जे. डी. को हासिए पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। राहुल गांधी के बिहार दौरे के बाद कांग्रेस में एक उम्मीद की लहर जागी थी। वो उम्मीद उम्मीद ही रह गयी। लोक जनशक्ति पार्टी को एवं राजद को लोगों ने उनकी औकात दिखायी। अब दोनों एक हो गए हैं। सिध्दांत विहीनता की राजनीति ने जितना बिहार को कबाड़ा करने में भूमिका अदा की, उतना किसी ने नहीं की। बिहार का कल्याण राष्ट्रीय दलों द्वारा ही संभव है चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों का एक ही इतिहास है। आज बिहार को जरूरत है कि लोगों सबकुछ भूलाकर एक ही मुद्दा हो कि बिहार का विकास कौन करेगा वह कौन-सी पार्टी कर रही है। बिहार के लोग मेहनती हैं। वहां के विद्यार्थी विषम परिस्थितियाें में किसी से भी कम नहीं हैं। बिहार के लोग समरस्ता में विश्वास रखते हैं, आधुनिकता की चकाचौंध आज भी बिहार में नहीं पहुंची है ऐसे बिहार को आगे लाने के लिए बुनियादी चिजों पर ध्यान पड़ेगा। ये बुनियादी चिजें हैं शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली तथा कुटीर उद्योग इनका समुचित विकास करना होगा। ब्यूरोक्रेसी को नैतिक, कर्तव्यनिष्ठ जवाबदेह होना पड़ेगा। नौकरशाह जनसेवक है जनभक्षक नहीं। ईमानदार नौकरशाहों को आगे बढ़ाना होगा। पटना की सड़क महाराष्ट्र और राजस्थान के जिलों की सड़कों की तुलना में ठीक नहीं हैं। इन्हें ठीक करना होगा। प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा को दलगत राजनीति से अलग रखना होगा। अंत में बिहार में जो एक परिवर्तन दिख रहा है। उसे और अच्छा बनाने के लिए सुशासन को मुद्दा बनाना चाहिए सभी राजनीतिक दलों को स्वच्छ चरित्र वाले व्यक्तियों को ही टिकट देनी चाहिए। यह इसलिए कि वे बिहार के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकें। जिनके लोग अनुयायी या समर्थक बन सके तथा लोग गर्व से कहें कि नेता हो तो ऐसा हो। जैसे कभी पूरे उत्तर भारत में लोग डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया तथा कर्पूरी ठाकुर के नाम पर गर्व महसुस करते थे। पुनः बिहार की गौरवशाली परंपरा व इतिहास की स्थापना के लिए बिहार की जनता को युवा नेतृत्व की तलाश करनी चाहिए जो बेदाग हो।

* लेखक राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय के पूर्व उप-निदेशक तथा प्रख्यात चिंतक है।

इंटरनेट का मायाजाल

-गुंजन भारती

पिछले दो-तीन वर्षों पूर्व सुषमा स्वराज जी का एक वक्तव्य सुना, तब वे सूचना-प्रसारण मंत्री नहीं थीं। लेकिन जब वे सूचना- प्रसारण मंत्री थीं तब की स्मृतियाँ वे टटोल रहीं थीं अपने वक्तव्य में। विषय था मातृत्व। माँ द्वारा बच्चे को संस्कार।

भारत में अंतरताने इंटरनेट सर्फिंग की मँजूरी उन्हीं के समय में दी गई। अधिकारियों व मंत्रियों की चिंता थी कि कहीं इसके भारत में प्रवेश से हमारी सांस्कृतिक धरोहर को कोई नुकसान न पहुँचे। इससे हमारे बच्चों का भविष्य कैसा होगा..? आदि। इन शंकाओं का एक हल सुषमा जी ने दिया, उसका भाव यह कि अंतरताना चूँकि हमारे नये युग की ओर बढ़ते कदमों में सहायक है, उसमें ज्ञान का अकुत भंडार है। और भी कई अर्थों में वह हमें उन्नति में सहायक है, तो अपने देश के नौनिहालों को हम इस सुविधा से वंचित न रखें। ‘हमें अपने वातायन खुले रखने चाहिए, लेकिन पहरेदारों को चौकस कर दो।’

मुझे यह पंक्ति बहुत अच्छी लगी। वास्तव में सभी लोग यही चाहते हैं कि उनके बच्चे आगे बढ़ें, उन्नति करें, परंतु अपनी मान्यताओं व नियमों को साथ लेकर। इसलिए आवश्यक है बचपन से ही उन्हें एक विस्तृत संसार दें तथा अपनी नज़र रखें। वास्तव में मैं पिछले अनेक वर्षों से अंतरताने का प्रयोग कर रही हूँ। अनेक तरह का ज्ञान -भंडार जो मुझे और कहीं नहीं मिलता, वह यहाँ पर माउस क्लिक करो कि उपलब्ध। इसकी शुरुआत भी मैंने बच्चों के प्रोजेक्ट बनाते समय की। इतनी पुस्तकें ढूंढ़ डाली, चित्रों के लिए भी कभी यहाँ से कटिंग तो कभी वहाँ से। लेकिन अंतरताने में जो भी ढूंढ़ा, तुरंत हाजिर। भारतीय गाय पर भी सामग्री मिली। वास्तव में खुशी हुई कि हमारे भारतीय ज्ञान में आज भी किसी से पीछे नहीं। युवा समूह, युथ क्लब किस प्रकार अपनी ही तरह से देशभक्ति में लगा है, युथ क्लब की साइट पर किस प्रकार युवा वर्ग विवेकानंद जी की स्मृतियों के साथ जुड़ा है, सुखद अहसास मिला। (परन्तु जिस प्रकार व तेजी से हमारी नई पीढ़ी पतन की ओर जा रही है, लगता है हम विचारों में तो स्वदेशी होना चाहते हैं, अपनी मान्यताओं व संस्कारों से जुड़े रहना चाहते हैं, परन्तु आज की जीवनशैली, पाश्चात्य चमक-धमक और रोजी-रोटी हमें उस अपसंस्कृति की ओर धकेल रही है।)

खैर, मैंने अपने वातायन खोल दिए थे। बच्चों को भी यह विस्तृतता आकर्षित कर रही थी। सब अच्छा चल रहा था। सामाजिक कार्यों में व्यस्तता के बीच एक दिन अचानक मैं जब एक बैठक से वापिस लौटी तो बच्चों के चेहरों पर व्याप्त थोड़ा भय मुझे चौंका गया। कुछ था कि वे मुझे कहना चाह रहे थे, लेकिन भयभीत थे शायद मेरी प्रतिक्रिया क्या होगी? इस बात की हिचकिचाहट थी। बच्चे जैसे- जैसे बड़े होते जाते हैं, अच्छा-बुरा समझने लगते हैं, तो अनजाने में हुई गलतियों पर भी पर्दा डालते हैं।

परंतु छोटी बिटिया चूंकि छोटी थी, और तुरंत अच्छा-बुरा न समझते हुए अपनी पूरी गतिविधियों को मेरे साथ बाँटती। मेरी नज़रें बच्चों को टटोल रही थीं, परिणामतः जो कुछ पता चला, मुझे अचंभे से ज्यादा भयभीत कर गया। कच्ची उम्र में इंटरनेट पर अनजाने में जो तस्वीरें उन्होंने देखीं, वे तो किसी भी सभ्रांत परिवार के वयस्कों के लिए भी शोभनीय नहीं थीं। मुझे पहली बार अंतरताने की इतनी बड़ी नकारात्मकता का अहसास हुआ। ऐसा ही अनुभव अनेक अन्य बच्चों के बारे में उनके माता-पिता से पता चला। मैंने तुरंत बच्चों को अपने विश्वास में लेते हुए समस्या का समाधान किया। अपेक्षित लोगों का सहयोग भी लिया।

परन्तु एक प्रश्न मन में आया कि ऐसी कितनी मां हैं जो पूरी तरह से समस्या का समाधान कर पाती हैं। हमारी माताओं का अर्धज्ञान बच्चों को सही दिशा में ले जाने में कितना सक्षम है। इसमें माँओं की कुशलता पर मुझे कोई संदेह नहीं। परंतु हमारी अधिकांश आधुनिक माँएं सोचती हैं कि अभी वह छोटा है, अभी उस पर नज़र रखने की आवश्यकता नहीं। कभी-कभी तो माता-पिता उनकी उपस्थिति में अपने पति-पत्नि के व्यवहार में खुलेपन के हामी होते हैं, और उनका वह खुला व्यवहार बच्चे के अविकसित मस्तिष्क में उम्र से पूर्व ही प्रश्नों के रूप में हमारे सामने आता है तो हम फिर उसे टालते जाते हैं। अब बच्चा अपनी उत्सुकता गलत तरीके से शांत करता है। बड़ा होकर मनमानी करता है तो उसको टोकने का उस पर कोई असर नहीं होता, क्योंकि उसे इस टोकाटाकी या हमारी कड़ी नज़र की आदत नहीं होती। और हम माथा पीट कर बोलते हैं कि बच्चा हमारी सुनता ही नहीं।

हम इसे सामाजिक समस्या के रूप में ले सकते हैं। परंतु यह केवल एक परिवार या समाज की समस्या नहीं, देश की पूरी व्यवस्था को प्रभावित करती हुई समस्या है। बच्चों का चारित्रिक विकास हमारे लिए एक सबसे बड़ी चुनौती है जिसे आज हमने ताक पर रख दिया है। हम महिलाएँ आज बहुत उन्नति कर चुकी हैं। विकास के क्षेत्र में उन्हें किन्हीं बाधाओं का सामना न करना पड़े। परंतु कहीं यही उन्नति हमारी प्राचीन संस्कृति के लिए घातक न बन जाए, इस बात का चिंतन इस पढ़ी-लिखी, सभ्य महिलाओं को करना ही होगा। आखिर नई पीढ़ी की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी को हम नकार तो नहीं सकते। आइये, हम सभी महिलाएँ अपने पूर्ण शिक्षित होने का वास्तविक परिचय दें।

* लेखिका राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि

-राम लाल

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपरिचित नाम नहीं है। भारत में ही नहीं, विश्वभर में संघ के स्वयंसेवक फैले हुए हैं। भारत में लद्दाख से लेकर अंडमान निकोबार तक इसकी नियमित शाखायें हैं तथा वर्ष भर विभिन्न तरह के कार्यक्रम चलते रहते हैं। पूरे देश में आज 35,000 स्थानों (नगर व ग्रामों) में संघ की 50,000 शाखायें हैं तथा 9500 साप्ताहिक मिलन व 8500 मासिक मिलन चलते हैं। स्वयंसेवकों द्वारा समाज के उपेक्षित वर्ग के उत्थान के लिए, उनमें आत्मविश्वास व राष्ट्रीय भाव निर्माण करने हेतु डेढ़ लाख से अधिक सेवा कार्य चल रहे हैं। संघ के अनेक स्वयंसेवक सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समाज के विभिन्न बंधुओं से सहयोग से अनेक संगठन चला रहे हैं।

राष्ट्र व समाज पर आने वाली हर विपदा में स्वयंसेवकों द्वारा सेवा के कीर्तिमान खड़े किये गये हैं। संघ से बाहर के लोगों यहां तक कि विरोध करने वालों ने भी समय-समय पर इन सेवा कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। नित्य राष्ट्र साधना (प्रतिदिन की शाखा) व समय-समय पर किये गये कार्यों व व्यक्त विचारों के कारण ही दुनियां की नजर में संघ राष्ट्रशक्ति बनकर उभरा है। ऐसे संगठन के बारे में तथ्यपूर्ण सही जानकारी होना आवश्यक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म सं0 1982 विक्रमी (सन 1925) की विजयादशमी को हुआ। संघ के संस्थापक डॉ0 केशवराव बलिराम हेडगेवार थे। डॉ0 हेडगेवार के बारे में कहा जा सकता है कि वे जन्मजात देशभक्त थे। छोटी आयु में ही रानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर स्कूल से मिलने वाला मिठाई का दोना उन्होने कूडे में फैंक दिया था। भाई द्वारा पूछने पर उत्तार दिया ”हम पर जबरदस्ती राज्य करने वाली रानी का जन्मदिन हम क्यों मनायें?” ऐसी अनेक घटनाओं से उनका जीवन भरा पड़ा है।

इस वृत्ति के कारण जैसे-जैसे वे बड़े हुए राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ते गये। वंदे मातरम् कहने पर स्कूल से निकाल दिये गये। बाद में कलकत्तामेडिकल कॉलेज में इसलिए पढ़ने गये कि उन दिनों कलकत्ताा क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। वहां रहकर अनेक प्रमुख क्रांतिकारियों के साथ काम किया। लौटकर उस समय के प्रमुख नेताओं के साथ आजादी के आंदोलन से जुड़े रहे। 1920 के नागपुर अधिवेशन की सम्पूर्ण व्यवस्थायें सम्भालते हुए पूर्ण स्वराज्य की मांग का आग्रह डॉ0 साहब ने कांग्रेस नेताओं से किया। उनकी बात तब अस्वीकार कर दी गयी। बाद में 1929 के लाहौर अधिवेशन में जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव पारित किया तो डॉ0 हेडगेवार ने उस समय चलने वाली सभी संघ शाखाओं से धन्यवाद का पत्र लिखवाया क्योंकि उनके मन में आजादी की कल्पना पूर्ण स्वराज्य के रूप में ही थी। आजादी के आंदोलन में डॉ0 हेडगेवार स्वयं दो बार जेल गये। उनके साथ और भी अनेकों स्वयंसेवक जेल गये। फिर भी आज तक यह झूठा प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि आजादी के आंदोलन में संघ कहां था?

डॉ0 हेडगेवार को देश की परतंत्रता अत्यंत पीड़ा देती थी। इसीलिए उस समय स्वयंसेवकों द्वारा ली जाने वाली प्रतिज्ञा में यह शब्द बोले जाते थे ”………………देश को आजाद कराने के लिए मै संघ का स्वयंसेवक बना हूं………” डॉ0 साहब को दूसरी सबसे बड़ी पीड़ा यह थी कि इस देश का सबसे प्राचीन समाज यानि हिन्दू समाज राष्ट्रीय स्वाभिमान से शून्य प्राय: आत्म विस्मृति में डूबा हुआ है, उसको ”मैं अकेला क्या कर सकता हूं” की भावना ने ग्रसित कर लिया है। इस देश का बहुसंख्यक समाज यदि इस दशा में रहा तो कैसे यह देश खड़ा होगा? इतिहास गवाह है कि जब-जब यह बिखरा रहा तब-तब देश पराजित हुआ है। इसी सोच में से जन्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। इसी परिप्रेक्ष्य में संघ का उद्देश्य हिन्दू संगठन यानि इस देश के प्राचीन समाज में राष्ट्रीय स्वाभिमान, नि:स्वार्थ भावना व एकजुटता का भाव निर्माण करना बना।

यहां यह स्पष्ट कर देना उचित ही है कि डॉ0 हेडगेवार का यह विचार सकारात्मक सोच का परिणाम था। किसी के विरोध में या किसी क्षणिक विषय की प्रतिक्रिया में से यह कार्य नहीं खड़ा हुआ। अत: इस कार्य को मुस्लिम विरोधी या ईसाई विरोधी कहना संगठन की मूल भावना के ही विरुद्ध हो जायेगा। हिन्दू संगठन शब्द सुनकर जिनके मन में इस प्रकार के पूर्वाग्रह बन गये हैं उनके लिए संघ को समझना कठिन ही होगा। तब उनके द्वारा संघ जैसे प्रखर राष्ट्रवादी संगठन को, राष्ट्र के लिए समर्पित संठन को संकुचित, साम्प्रदायिक आदि शब्द प्रयोग आश्चर्यजनक नहीं है। हिन्दू के मूल स्वभाव उदारता व सहिष्णुता के कारण दुनिया के सभी मत-पंथों को भारत में प्रवेश व प्रश्रय मिला। वे यहां आये, बसे। कुछ मत यहां की संस्कृति में रच बस गये तथा कुछ अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रहे। हिन्दू ने यह भी स्वीकार कर लिया क्योंकि उसके मन में बैठाया गया है-

रुचीनां वैचित्र्याद्जुकुटिलनानापथजुषाम्।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामपर्णव इव॥

अर्थ-जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेड़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अन्त में तुझमें (परमपिता परमेश्वर) आकर मिलते है।

-शिव महिमा स्त्रोत्ताम, 7

इस तरह भारत में अनेक मत-पंथों के लोग रहने लगे। इसी स्थिति को कुछ लोग बहुलतावादी संस्कृति की संज्ञा देते हैं तथा केवल हिन्दू की बात को छोटा व संकीर्ण मानते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भारत में सभी पंथों का सहज रहना यहां के प्राचीन समाज (हिन्दू) के स्वभाव के कारण है। उस हिन्दुत्व के कारण है जिसे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी जीवन पद्धति कहा है, केवल पूजा पद्धति नहीं। हिन्दू के इस स्वभाव के कारण ही देश बहुलतावादी है। यहां विचार करने का विषय है कि बहुलतावाद महत्वपूर्ण है या हिन्दुत्व महत्वपूर्ण है जिसके कारण बहुलतावाद चल रहा है। अत: देश में जो लोग बहुलतावाद के समर्थक हैं उन्हें भी हिन्दुत्व के विचार को प्रबल बनाने के बारे में सोचना होगा। यहां हिन्दुत्व के अतिरिक्त कुछ भी प्रबल हुआ तो न तो भारत ‘भारत’ रह सकेगा न ही बहुलतावाद जैसे सिध्दांत रह सकेंगे। क्या पाकिस्तान में बहुलतावाद की कल्पना की जा सकती है?

इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस देश की राष्ट्रीय आवश्यकता है। हिन्दू संगठन को नकारना, उसे संकुचित आदि कहना राष्ट्रीय आवश्यकता की अवहेलना करना ही है। संघ के स्वयंसेवक हिन्दू संगठन करके अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। संघ की प्रतिदिन लगने वाली शाखा व्यक्ति के शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा के विकास की व्यवस्था तथा उसका राष्ट्रीय मन बनाने का प्रयास होता है। ऐसे कार्य को अनर्गल बातें करके किसी भी तरह लांक्षित करना उचित नहीं।

संघ की प्रार्थना, प्रतिज्ञा, एकात्मता स्त्रोत, एकात्मता मंत्र जिनको स्वयंसेवक प्रतिदिन ही दोहराते हैं, उन्हें पढ़ने के पश्चात संघ का विचार, संघ में क्या सिखाया जाता है, स्वयंसेवकों का मानस कैसा है यह समझा जा सकता है। प्रार्थना में मातृभूमि की वंदना, प्रभु का आशीर्वाद, संगठन के कार्य के लिए गुण, राष्ट्र के परंवैभव (सुख, शांति, समृध्दि) की कल्पना की गई है। प्रार्थना में हिन्दुओं का परंवैभव नहीं कहा है, राष्ट्र का परंवैभव कहा है। स्वाभाविक ही सभी की सुख शांति की कामना की है। सभी के अंत में भारत माता माता की जय कहा है। स्वाभाविक ही हर स्वयंसेवक के मन का एक ही भाव बनता है। हम भारत की जय के लिए कार्य कर रहे हैं। एकात्मता स्त्रोत व मंत्र में भी भारत की सभी पवित्र नदियों, पर्वतों, पुरियों सहित देश व समाज के लिए कार्य करने वाले प्रमुख व्यक्तियों (महर्षि बाल्मीकि, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक, गांधी, रसखान, मीरा, अम्बेडकर, महात्मा फुले सहित ऋषि, बलिदानी, समाज सुधारक वैज्ञानिक आदि) का वर्णन है तथा अंत में भारत माता की जय। इस सबका ही परिणाम है कि संघ के स्वयंसेवक के मन में जाति-बिरादरी, प्रांत-क्षेत्रवाद, ऊंच-नीच, छूआछूत आदि क्षुद्र विचार नहीं आ पाते।

जब भी कभी ऐसे अवसर आये जहां सेवा की आवश्यकता पड़ी वहां स्वयंसेवक कथनी व करनी में खरे उतरे हैं। जब सुनामी लहरों का कहर आया तब वहां स्वयंसेवकों ने जो सेवा कार्य किया उसकी प्रशंसा वहां के ईसाई व कम्युनिस्ट बन्धुओं ने भी की है। अमेरिका के कैटरीना के भयंकर तूफान में भी वहां स्वयंसेवकों ने प्रशंसनीय सेवा की। कुछ वर्ष पूर्व चरखी दादरी (हरियाणा) में दो हवाई जहाजों के टकरा जाने के परिणाम स्वरूप 300 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई। दुर्भाग्य से ये सभी मुस्लिम समाज के थे लेकिन उनकी सहायता करने ‘सैल्युलरिस्ट’ नहीं गये। सभी के लिए कफन, ताबूत आदि की व्यवस्था, उनके परिजनों को सूचना देने का काम, शव लेने आने वालों की भोजन, आवास आदि की व्यवस्था वहां के स्वयंसेवकों ने की। इस कारण वहां की मस्जिद में स्वयंसेवकों का अभिनंदन हुआ, मुस्लिम पत्रिका ‘रेडियैंस’ ने ‘शाबास आरएसएस’ शीर्षक से लेख छापा। ऐसी अनेक घटनाओं से संघ का इतिहास भरा पड़ा है।

गुजरात, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, अंडमान-निकोबार आदि भयंकर तूफानों में सेवा करने हेतु पूरे देश से स्वयंसेवक गये, बिना किसी भेद से सेवा, पूरे देश से राहत सामग्री व धन एकत्रित करके भेजा, मकान बनवाये। वहां पीड़ित लोग स्वयंसेवकों के रिश्तेदार या जाति-बिरादरी के थे क्या? बस मन में एक ही भाव था कि सभी भारत माता के पुत्र हैं इसलिए सभी भाई-भाई है। अमेरिका, मॉरीशस आदि की सेवा में भी एक ही भाव- वसुधैव कुटुम्बकम्। शाखा पर जो संस्कार सीखे उसी का प्रगटीकरण है यह। इसे देखकर सर्वोदयी नेता श्री सुब्बाराब ने कहा- आरएसएस यानी रेडीनेस फॉर सोशियल सर्विस (नि:स्वार्थ सेवा के लिए तत्परता)।

दूसरा दृश्य भी देखें- जब राजनीतिज्ञों व तथाकथित समाज विरोधी तत्वों द्वारा विशेषकर हिन्दू समाज को विभाजित करने के प्रयास हो रहे हैं तब स्वयंसेवक समाज में सामाजिक समरसता निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं। महापुरुष पूरे समाज के लिए होते हैं- उनका मार्ग दर्शन भी पूरे समाज के लिए होता है तब उनकी जयंती आदि भी जाति या वर्ग विशेष ही क्यों मनायें? पूरे समाज की ही सहभागिता उसमें होनी चाहिये। समरसता मंच के माध्यम से स्वयंसेवकों ने ऐसा प्रयास प्रारम्भ किया है तथा समाज के सभी वर्गों को जोड़ने, निकट लाने में सफलता मिल रही है, वैमनस्यता कम हो रही है। दिखने में छोटा कार्य है किन्तु कुछ समय पश्चात् यही बड़े परिणाम लाने वाला कार्य सिद्ध होगा। मुस्लिम, ईसाई, मतावलम्बियों के साथ भी संघ अधिकारियों की बैठकें हुई हैं किन्तु कुछ लोगों को ऐसा बैठना रास नहीं आता अत: परिणाम निकलने से पूर्व ही ऐसे प्रयासों में विघ्नसंतोषी विघ्न डालने के प्रयास करते रहते हैं।

गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोग, वनवासी, गिरिवासी, झुग्गी-झोपडियों व मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों का दु:ख दर्द बांटने, उनमें आत्मविश्वास निर्माण करने, उनके शैक्षिक व आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए भी सेवा भारती, सेवा प्रकल्प संस्थान, वनवासी कल्याण आश्रम व अन्य विभिन्न ट्रस्ट व संस्थायें गठित करके जुट गये हैं हजारों स्वयंसेवक। इनके प्रयासों का बड़ा ही अच्छा परिणाम भी आ रहा है। इस परिणाम को देखकर एक विद्वान व्यक्ति कह उठे- आरएसएस यानी रिवोल्यूशन इन सोशियल सिस्टम (सामाजिक व्यवस्था में क्रांति)।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर भी स्वयंसेवक खरे उतरे हैं। सन 47-48, 65, 71 के युद्ध के समय सेना को हर प्रकार से नागरिक सहयोग प्रदान करने वालों की अंग्रिम पंक्ति में थे स्वयंसेवक। भोजन, दवा, रक्त जैसी भी आवश्यकता सेना को पड़ी तो स्वयंसेवकों ने उसकी पूर्ति की। यही स्थिति गत कारगिल के युद्ध के समय हुई। इन मोर्चों पर कई स्वयंसेवक बलिदान भी हुए हैं। अनेकों घायल हुए हैं। इन्होंने न सरकार से मुआवजा लिया न ही मैडल। यही है नि:स्वार्थ देश सेवा। संघ का इतिहास त्याग, तपस्या, बलिदान, सेवा व समर्पण का इतिहास है, अन्य कुछ नहीं। सेना के एक अधिकारी ने कहा-”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का रक्षक भुजदंड है।”

राष्ट्रीय सुरक्षा का मोर्चा हो, दैवीय आपदा हो, दुर्घना हो, समाज सुधार का कार्य हो, रूढ़ि-कुरीति से मुक्त समाज के निर्माण का कार्य हो, विभिन्न राष्ट्रीय व सामाजिक विषयों पर समाज के सकारात्मक प्रबोधन का विषय हो…..और भी ऐसे अनेक मोर्चों पर संघ स्वयंसेवक जान की परवाह किये बिना हिम्मत और उत्साह के साथ डटे हैं तथा परिवर्तन लाने का प्रयास कर रहे हैं, परिवर्तन आ भी रहा है।

इस अर्थ में विचार करेंगे तो स्वयंसेवक राष्ट्र की महत्वपूर्ण पूंजी है। काश! इस पूंजी का सदुपयोग, राष्ट्र के पुननिर्माण में ठीक से किया जाता तो अब तक शक्तिशाली व समृद्ध भारत का स्वरूप उभारने में अच्छी और सफलता मिल सकती थी।

अभी भी देर नहीं हुई है। विभिन्न दलों के राजनैतिक नेता, समाजशास्त्री, विचारक, चिंतक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ‘स्वयंसेवक’ रूपी लगनशील, कर्मठ, अनुशासित, देशभक्ति व समाज सेवा की भावना से ओत-प्रोत इस राष्ट्र शक्ति को पहचानकर राष्ट्रीय पुनर्निमाण में इसका संवर्धन व सहयोग करें तो निश्चित ही दुनिया में भारत शीघ्र समर्थ, स्वावलम्बी व सम्मानित राष्ट्र बन सकेगा। पिछले 85 वर्षों से स्वयंसेवकों का एक ही स्वप्न है- भारतमाता की जय।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक हैं व वर्तमान में  भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) हैं)

ऋग्वेद प्राचीन भारतीय समाज का गीत दर्पण

– हृदयनारायण दीक्षित

सभी जीवधारी शरीर और प्राण का संयोग हैं। लेकिन मनुष्य विशिष्ट है। मनुष्य जिज्ञासु है। बाकी प्राणी शारीरिक जरूरतों में सीमित हैं। जिज्ञासा की प्यास मनुष्य को प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है। जिज्ञासा जानकारी की इच्छा है। दुनिया के सभी भूखंडों के मनुष्य में जिज्ञासा थी लेकिन इसका प्रामाणिक इतिहास नहीं मिलता। इसलिए सारी दुनिया यूनानी दार्शनिकों के चिंतन पर ही निर्भर है। यूनानी जिज्ञासा और सोंच-विचार का इतिहास ईसा के 600 वर्ष पहले ही शुरू हुआ। इस चिंतन में भारतीय वैदिक साहित्य की प्रतीतिंयां हैं। यूनानी चिंतन के पहले भारत में विपुल उपनिषद् साहित्य है। उपनिषद् कर्मकांड पूजा-पाठ से पृथक है। उपनिषद साहित्य में जिज्ञासा का लहलहाता उपवन है। लेकिन इन सबके पहले, यहां ऋग्वेद है। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम काव्य है, प्राचीनतम समाज विज्ञान है, प्राचीनतम दर्शन है और इस तरह विश्व का प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख।

दुनिया के सुदूर अतीत में बोली भाषा के सद्प्रयोग की एक महान घटना घटी। प्रकृति की शक्तियों का दर्शन-दिग्दर्शन हुआ। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश के साथ साथ सूर्य के भी शक्तितत्व का साक्षात्कार हुआ। जिज्ञासा को पंख लगे। तर्क-प्रतितर्क की कैची चली। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आया। दर्शन को गति मिली, द्रष्टा भाव का जन्म हुआ। सत्य छंद बने। छंदों में रस थे, भाव थे, प्रीति थी लेकिन द्रष्टा ऋषियों ने ऐसे सारे छंदों को परम व्योम (शून्य) से उतरी ऋचा (काव्य पंक्तियाँ) बताया। वे गेय थीं, गीत थीं, उनमें पुलक थी, प्रीति थी, दर्शन था, विज्ञान था, रोजमर्रा की ऐषणाए थीं सो स्वाभाविक ही स्मृति ने उन्हें संजो लिया। बाद में इनका संकलन हुआ और नाम पड़ा ‘ऋग्वेद’।

‘विश्व की प्राचीन सभ्यताएं’ (सीताराम गोयल, विश्वविद्यालय प्रकाशन) की भूमिका प्रख्यात विद्वान डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखी है। उन्होंने ‘विश्ववारा संस्कृति शीर्षक’ से लिखा, ऋग्वेद में कहा है ‘सा संस्कृति प्रथमा विश्ववारा अर्थात् देव प्रजापति ने जिस सृष्टि की रचना की है, वह एक संस्कृति है। इसकी रचना में प्रजापति ने कितना प्रयत्न किया होगा, इसकी कुछ कल्पना विश्व के अन्य गंभीर रहस्यों को ध्यान में रखकर की जा सकती है। विश्व के गंभीर रहस्यों का कोई अंत नहीं है। मानव ने उन्हें समझने के लिए अनेक यत्न किये हैं।

भारत ने अध्यात्म को, यूनान ने सौंदर्य तत्व को, रोम ने न्याय और दंडव्यवस्था को, चीन ने विराट जीवन के आधारभूत नियम को, ईरान ने सत् और असत् के द्वंद को, मिस्र ने भौतिक जीवन की व्यवस्था और संस्कार को, सुमेर और म्लेच्छ जातियों ने दैवी दंड विधान को अपनी-अपनी दृष्टि से स्वीकार करके संस्कृति का विकास किया। संस्कृतियों का अध्ययन जरूरी है। इस अध्ययन के लिए प्राचीन साहित्य, काव्य, अर्थव्यवस्था, ज्ञान-विज्ञान और दार्शनिक सूत्र ही उपकरण हैं। पुरातात्विक उपकरण भी सहायक हैं। आधुनिक तकनीकी से भी सहायता ली जा रही है। लेकिन ऐसे सारे उपकरणों के बीच केवल ऋग्वेद ही एकमात्र सहारा है। ऋग्वेद मिस्र और सुमेर के लिए भी प्राचीन है। ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और पुरातत्व से इस तथ्य की पुष्टि होती है।

भारतीय परंपरा वेदों को अपौरूषेय मानती है – वेद अनादि हैं, ईश्वर और प्रकृति की तरह वे भी नित्य हैं। प्रलय में भी वे नष्ट नहीं होते। वेद भारतीय आस्था हैं। वे भारतीय दर्शन, संस्कृति और सभ्यता का मूल स्रोत हैं। डॉ0 भगवान सिंह ने (हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य-आमुख) ठीक ही लिखा है वेद का नैतिक, बौध्दिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदर्श परवर्ती कालों पर कुछ इस तरह छाया रहा कि वेद को न मानने का अर्थ ही था नास्तिक। वेद ही ब्रह्म और वेद ही अंतिम प्रमाण। आखिर वह उपलब्धि का कौन सा शिखर बिंदु था जिस पर इस दौर में भारतीय समाज या कम से कम इसका स्वामी वर्ग पहुंचा था कि अपने पराभव के दिनों में भी वह इसी के सुखद स्वप्न देखता जीवित रहा और इसी को हासिल करने के मंसूबे पालता रहा। भारत ने वेद को अपना सर्वस्व माना। ईश्वर को भी न मानने वाले लेकिन वेद को मानने वाले आस्तिक कहे गये। वेद विश्व ज्ञान की अमूल्य अंतर्राष्ट्रीय धरोहर है। यूनेस्को ने भी ऋग्वेद को अंतर्राष्ट्रीय धरोहर माना (2008 ई0) है।

वेद असामान्य हैं, असाधारण हैं, इसलिए अपौरूषेय हैं। ब्रह्मवादी धारणा में सभी कार्यो का मूल कारण ब्रह्म (परमात्मा) है, इसलिए वैदिक ऋचाओं के सर्जन का श्रेय भी उसी को दिया जाना चाहिए। आधुनिक विचारधारा के अनुसार वेद ऋषियों की ही काव्य रचनाएं हैं। ऋग्वेद में स्वयं इसके साक्ष्य हैं। ऋग्वेद (मंडल 1 के 100वें सूक्त) के ऋषि वृर्षागिरि, ऋज्राश्वाम्बरीष, सहदेव भयमान व सुराधस है। मंत्र 18 कहता है हे इन्द्र, वृषागिरि के पुत्र ऋज्रासव, सहदेव आदि (उपरोक्त) आपको प्रसन्न करने के लिए यह स्तुति उच्चारण करते है। (ऋग्वेद 1.100.18, सायण) इसी मंडल के 109 वे सूक्त के मंत्र 2 में यह बात और स्पष्ट है हे इन्द्र! हे अग्नि! आपको सोमरस भेट करते हुए नये स्तोत्र बनाता हूँ – अथा सोमस्य प्रयती युवाम्यामि इन्द्राग्निी स्तोमं जनयामि नत्यम्। विश्वंभर नाथ रेऊ ने ऋग्वेद पर एक ऐतिहासिक दृष्टि (पृष्ठ-7) में बताया है कि ऋग्वेद में दो स्थानों (1.175.3 और 2.14.8) पर मंत्र-रचयिताओं ने अपना मनुष्य होना कहा है। उक्त संहिता में इस प्रकार के सैकड़ों मंत्र मिलते हैं जिनसे भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा (ऋग्वेद) उनकी (ही) रचना प्रकट होता है। रेऊ ने लिखा, इस संहिता के मनन से हमें, इसमें, अपने पूर्वजों की प्राचीनतम विचारधाराएँ धार्मिक और सामाजिक भावनाएं, तथा उनका क्रमिक विकास, काव्य-कल्पनाएं, प्रकृति-सौंदर्य के निरीक्षण का दृष्टिकोण, प्रकृति की रहस्यपूर्ण घटनाओं पर हर्ष-भय और आश्चर्य की भावनाएं तथा उनके विश्वासों की रूपरेखाएं मिलती हैं। संक्षेप मेें कहें तो कह सकते हैं कि वेदकालीन ऋषि जीवन के रहस्य को जानने को उत्सुक थे, और उन्होंने अपने सरल विश्वास द्वारा प्रत्येक वस्तु में और प्रकृति की प्रत्येक शक्ति में, उसके अधिष्ठाता के रूप से, देवत्व की भावना कर रखी थी। ऋग्वेद की रचना अचानक नहीं हुई। पहले प्रकृति और समाज को देखने के तमाम दृष्टिकोण विकसित हुए। विचार-विमर्श और तर्क-प्रतितर्क का वातावरण बना। जिज्ञासा के चलते तमाम प्रश्न भी उठते रहे। जिज्ञासा के केंद्र में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक प्रश्नावली तो थी ही, दार्शनिक प्रश्न भी उठे।

ऋग्वेद एक प्रवाह है। यहां ऋग्वेद के पहले की अनुभूतियां हैं। तत्कालीन वर्तमान का रस, आनंद, राग द्वैष है। भविष्य की दृष्टि है। सत्य, शिव और सुंदर की त्रयी भी है। शुभ और अशुभ एक साथ हैं। जैसे अस्तित्व भूत, भविष्य, वर्तमान शुभ और अशुभ में भेद नहीं करता। वैसे ही ऋग्वेद के रचनाकारों ने भी शुभ और अशुभ, अतीत और वर्तमान को एक साथ रखा है। ऋग्वेद तत्कालीन समाज का गीत-दर्पण है। ऋग्वेद में समाज जीवन और सृष्टि रहस्यों से भरीपूरी काव्य ऋचाएं हैं। जैसे मनुष्य क्या है? सृष्टि क्या है? सृष्टि कैसे आयी? सृष्टि का कोई निर्माता/सृष्टर्िकत्ता भी है क्या? सृष्टि नहीं थी तो क्या था? जो था वह क्या था? शून्य था क्या? शून्य भी था तो यह शून्य क्या था? जो भी था वह क्या था? क्यों था? क्या सृष्टि ऊर्जा का खेल है? प्रकाश क्या है? ध्वनि क्या है? जल, अग्नि और आकाश क्या हैं? पृथ्वी क्या है? सूर्य क्या है? चांद क्या? तारे क्या? सृष्टि निर्माण में इनमें से किस तत्व का मूल योगदान है? क्या एक से ही सृष्टि बनी? या सबका साझा प्रयास यह सृष्टि है? कोई परमतत्व है क्या? देवता क्या हैं? वे भी सृष्टि के बाद आये? सत्य एक। अनुसंधार्नकत्ता ऋषि अनेक। सबने अपने ढंग से कहा। सबका संकलन है ऋग्वेद। ऋग्वेद विश्व ज्ञान का प्राचीनतम इतिहास और एनसाइक्लोपीडिया हैं।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

विकास के अनंत अवरोधक

– डॉ. मनोज चतुर्वेदी

गांव की चौपालों पर बैठा हुआ नौजवान, किसान, कुंभकार, ग्वाला हो या विश्वविद्यालयों में एम. फिल तथा पी-एच-डी. किया हुआ नौजवान हो। सबके मन में एक ही पीड़ा है कि भारतीय समाज को कैसे बदला जाए? इस पर लंबे-चौड़े शोध पत्र तैयार करते हैं। कुल मिलाकर सबका यही कहना होता है कि भारतीय समाज में विकास के अवरोधकों में धर्मांधता, कर्मकांडी मनोवृत्ति, सांप्रदायिकता, धर्मांध इस्लामिपंथ खाप पंचायतों का कहर, जातिवाद क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, लिंगभेद, अशिक्षा, बेरोजगारी, दहेज प्रथा, अपराध, भ्रष्ट राजनीतिज्ञ, निरंकुश नौकर शाह, दलाल पुलिस अधिकारी, मूल्यविहीन शिक्षा, नारी शिक्षा का अभाव, घुसखोरी, कन्या भ्रूण हत्या, निवेश का अभाव, मानसिक दिवालियापन, भ्रष्ट चुनाव प्रणाली इत्यादि हजारों प्रकार की समस्याओं का जिक्र किया करते हैं। इतना सबकुछ होने के बावजूद समाज कछुआ चाल से बदल तो रहा है, लेकिन सामाजिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है तो नौजवान, वृद्ध और बुध्दिधर्मी जन क्या करें? यदि उपरोक्त समस्याओं पर हम दृष्टि डालते है तो हमें लगता है कि समस्त क्षेत्रों में परिवर्तन का सूत्रपात करना होगा। जिसके लिए रचनात्मक, बौध्दिक तथा आंदोलनात्मक माध्यमों के द्वारा ही इन समस्त क्षेत्रों में परिवर्तन किया जा सकता है। सामाजिक क्षेत्रों में द्रुतगति से परिवर्तन के लिए सबसे पहले जरूरी है। शिक्षा पद्धति में आमूलाग्र परिवर्तन। क्योंकि शिक्षा क्षेत्र में परिवर्तन के किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन नहीं हो सकता है। हमें एक ऐसी शिक्षा पद्धति का विकास करना होगा। जिसमें अमीर-से-अमीर तथा गरीब-से-गरीब का बालक भी सुदामा-कृष्ण की तरह एक ही स्थान पर शिक्षा ग्रहण करें तथा उनके मन एवं मस्तिष्क में राष्ट्रीय स्वाभिमान के साथ ही साथ वैश्विक मानवता के प्रति सकारात्मक दृष्टि का विकास हो सके। टाट-पट्टी पर बैठा शिशु तर्क एवं प्रयोगाधारित हो। यदि कोई शिक्षक दो और दो चार कहता है तो उसके मन में चार नहीं विचार आए छः तथा आठ क्यों? 6 तथा 8 क्यों? यदि शिक्षक कहता है। इस देश की आजादी में महात्मा गांधी का अमूल्य योगदान रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तो कहीं स्थान ही नहीं है। इस प्रकार बच्चों में तर्क, चिंतन तथा शोध केंद्रित विचारों का रोपण किया जाए कि गांधी का इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था। यदि था तो किस प्रकार था। यदि भारत में कुछ राष्ट्रीय संगठन हैं तो ये कैसे राष्ट्रीय संगठन हैं? इस प्रकार के तार्किक एवं प्रायोगिक विचारों का विकास करके एक स्वस्थ एवं सशक्त भारत एवं समाज का निर्माण किया जा सकता है। बच्चों में इस प्रकार के विचारों का रोपण किया जाए कि वे राष्ट्र के साथ ही क्यों प्रेम करें? विश्व के प्रति क्यों नहीं? उसमें भी हमारे राष्ट्रप्रेम का आधार क्या है? इस प्रकार की शिक्षा में तार्किक-चिंतन तथा उदारवादी दृष्टिकोण के द्वारा पुष्पित-पल्लवित नौजवान समाज में सकारात्मक संदेश दे सकते हैं। बच्चों के मन में जब तक शिक्षक यह कहता है कि भारत में 28 राज्य तथा 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं। ये 50 तथा 20 क्यों नहीं हो सकते? विश्व में भारत ही श्रेष्ठ है तथा था भी तो तर्क करें कि भारत विश्व में श्रेष्ठ हैं तो कैसे तथा नहीं तो क्यों? इस प्रकार के विचारों में तर्कों का समावेश करना जरूरी है। यदि कोई कहता है कि हिंदू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है तथा इस्लाम, इसाईयत निम्न धर्म हैं तथा वे भारत में माइग्रेट करके आए है तो बच्चे पूछे की आपके तर्क का आधार क्या है? कैसे हिंदू धर्म श्रेष्ठ है तथा इस्लाम-इसाईयत माइग्रेट करके आए हैं। कभी राजीव गांधी ने कहा था कि केंद्र से भेजे जाने वाले सरकारी धनों का 15 प्रतिशत ही जनता उपयोग कर पाती है फिर राजग सरकार के प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी वाजपेयी ने कलकता की सभा में कहा था कि मात्र 10 प्रतिशत ही पहुंच पा रहा है। ये 90 प्रतिशत कहां-कहां जा रहा हैं। इस तरह के तार्किक विचारों तथा मूल्यपरक, सेवा, शुचिता वाली शिक्षा जो गरीब-अमीर में भेदभाव, गरीब रहित हो तो कुछ-कुछ परिवर्तन हो सकता है। सहनशीलता का होना मानव के लिए जरूरी होता है। इसका मतलब यह थोड़े है कि हम हर प्रकार के सामाजिक जीवन में होने वाले अन्याय-अत्याचार को सहते जाएं। मुझे यदि यकीन है कि 80 के उत्तरार्ध्द-पूर्वार्ध्द में घुसखोरी 5 प्रतिशत थी लेकिन 2010 में हर बच्चा-बच्चा घुसखोरी से परिचित है। सरकारी कार्यालयों में बिना सलामी के फाइलों का बढ़ना संभव ही नहीं है। वे चाहें भाजपा, कांग्रेस, बसपा, सपा, शिवसेना से जुड़े अधिकारी-कर्मचारी हों। वे लंबी-चौड़ी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, लोहिया के समाजवाद, अंबेडकर के दलितवाद तथा गांधी के त्याग-तप की बातें तो करेंगे लेकिन घुस लेने में सबसे आगे वाली पंक्ति में नजर आएंगे। बस यही बीमारी हमारे बच्चों के शैशव काल से ही बैठ जाती है कि देखो बेटे समाज में सबकुछ चलता है। यह समाज बदलने वाला नहीं है। जाति तथा क्षेत्र के नाम पर वोट देते हुए हम उन राजनीतिक दलों के एजेंडे को भूल जाते हैं कि यह प्रत्याशी समाज के लिए भास्मासुर तो नहीं है। बिहार-उत्तर प्रदेश ही क्यों? देश के भिन्न-भिन्न भागों में जातिवादी दलों एवं क्षेत्रवादियों की भरमार है। यहीं पर राष्ट्रीयता का पतन हो जाता है।

* लेखक, पत्रकार, कॅरियर लेखक, फिल्म समीक्षक, समाजसेवी, हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी फीचर संपादक तथा ‘आधुनिक सभ्यता और महात्मा गांधी’ पर डी. लिट् कर रहे हैं।

गुजरात में कांग्रेस घिरी अपने ही चक्रव्यूह में

-डॉ कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों 10 अक्तूबर को गुजरात के छः नगर निगमों के चुनाव हुए थे। इन छः में से तीन नगर निगम सौराष्ट्र् क्षेत्र में आते हैं। 12 अक्तूबर को चनाव परिणामों की घोषणा हुई। चुनावों में कांग्रेस सहित अन्य सभी दलों की केवल पराजय ही नहीं हुई बल्कि उनका सुपड़ा ही साफ हो गया। अहमदाबाद की 189 सीटों में से भाजपा को 149 और कांग्रेस को केवल 37 सीटें प्राप्त हुई। सूरत नगर निगम में कांग्रेस की हालत इससे भी बुई सिद्व हुई। कुल 114 सीटों में से भाजपा को 98 और कांग्रेस को 14 मिली इसी प्रकार वड़ोदरा की 75 सीटों में से भाजपा को 61 और कांग्रेस को 11 सीटें मिली। सौराष्ट्र् क्षेत्र के नगर निगमों में भी कुल मिलाकर यही स्थिति रही। राजकोट निगम की 69 सीटों में से भाजपा 58 और कांग्रेस को 11 सीटें मिली। भाव नगर में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 10 सीटें मिली। इसी प्रकार जामनगर में 57 सीटों में से भाजपा को 35 और कांग्रेस को 16 सीटें मिली। यह स्थिति तब है जब अंग्रेजी मीडिया यह हवा बनाने का प्रयास कर रहा था कि सौराष्ट्र् में भाजपा की स्थिति कमजोर है। इन छः नगर निगमों में भाजपा को कुल मिलाकर 80प्रतिशत सीटें प्राप्त हुई और कांग्रेस समेत अन्य सभी दलों को केवल 20 प्रतिशत सीटें ही मिल पाई। भाजपा और कांग्रेस को प्राप्त मतों का यदि विश्लेषण किया जाये तो भाजपा को कुल मिलाकर 53 प्रतिशत मत और कांग्रेस को केवल 33 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। भाजपा के 53 प्रतिशत मत तभी सम्भव हैं यदि मुसलमानों ने भी अच्छी संख्या में इस दल को वोट दिये हों।

वड़ोदरा नगर निगम में तो भाजपा को 72.62 प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि कांग्रेस को 21.21 प्रतिशत मतों से ही संतोष करना पड़ा। इसी प्रकार अहमदाबाद तथा सूरत नगर निगमों में भाजपा को क्रमशः 54.34 और 55.34 प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि कांग्रेस 33.89 एवं 27.24 प्रतिशत मत ही मिले। सौराष्ट्र क्षेत्र में राजकोट, भावनगर एवं जामनगर नगर निगमों में भाजपा को क्रमशः 54.28, 48.89, 44.45 प्रतिशत मत प्राप्त हुए जबकि कांग्रेस को क्रमशः 36.56,37.36 और 31.81 प्रतिशत मत ही मिले। कांग्रेस ने इन चुनावों को जितने के लिए कुछ साल पहले हुई जाने माने आतंकवादी सोहराब्बुदीन की तथाकथित हत्या को मुख्य मुद्दा बनाया था। इतना ही नहीं केन्द्रीय जांच ब्यूरो अर्थात सी0बी0आई0 ने चुनावों से कुछ समयपहले प्रदेश के गृह राज्य मंत्री अमित शाह को इस कथित हत्या के मामले में गिरफतार ही नहीं किया था बल्कि न्यायलय में उनकी जमानत की अर्जी का भी डट कर विरोध किया था। अमित शाह अभी तक जेल में हैं। कांग्रेस को लगता था कि उसकी इस हरकत से कम से कम मुसलमान मतदाता तो प्रसन्न हो ही जायेंगे। यह शायद पहली बार था कि चुनावों को ध्यान में रखते हुए सी.बी.आई. का इस प्रकार से साम्प्रदायिक प्रयोग किया गया हो। चुनाव अभियान में भी कांग्रेस ने सोहराब्बुदीन के मुद्दे को खूब उछाला। सी.बी.आई. ने भी आतंकवादी सोहराबुदीन की तथाकथित हत्या को लेकर मीडिया में सनसनी फैलाने वाली खबरें लीक कीं और अंग्रेजी मीडिया ने इस अभियान में सोहराब्बुदीन का पक्ष लेकर गुजरात सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। शायद इसी से दुःखी होकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा भी कि बेहतर होता कांग्रेस इन चुनावों में अपने प्रत्याशियों के तौर पर सी0बी0आई0 के अधिकारियों को ही खड़ा कर देती। कांग्रेस की साम्प्र्रदायिक दृष्टि इतनी दूर तक गई कि गुजरात सरकार द्वारा नर्मदा के तट पर सरदार पटेल की भव्य मूर्ति लगाये जाने का भी उसने डट कर विरोध किया। बाकायदा चुनाव आयोग में अपना विरोध दर्ज भी करवाया। उद्देश्य शायद अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का ही था। नरेन्द्र मोदी ने पूरे चुनाव में विकास की बात कही।विकास हिन्दु और मुसलमान में भेदभाव नहीं करता। यदि किसी क्षेत्र का विकास होता है तो उसका लाभ हिन्दु और मुसलमान दोनों को समान रूप से ही मिलता है। नरेन्द्र मोदी के धुर विरोधी भी यह मानते हैं कि गुजरात का विकास जमीन पर दिखाई देता है न कि उसकी चर्चा फायलों तक ही समिति होती है। अन्ततः नगर निगमों के चुनाव परिणामों ने सिद्व कर दिया कि गुजरात की जनता नरेन्द्र मोदी पर विश्वास करती है और नरेन्द्र मोदी प्रदेश की जनता की भावनाओं को सही ढंग से पहचानते हैं। कांग्रेस ने इन चुनावों को जितने के लिए साम्प्रदायिक तुष्टिकरण की तांत्रिक साधना का ‘शॉट कट रास्ता अपनाया था। गुजरात के हिन्दु और मुसलमान दोनों ने ही उसे नकार दिया। यदि ऐसा न होता तो कांग्रेस केवल अन्य दलों के साथ मिलकर भी 20 प्रतिशत सीटों तक ही सीमित न रह जाती।

परन्तु जैसा की कहा गया है जब कोई ऐसा दल सत्ता से पतित होता है जिसे जनता के बीच जाने का अनुभव दशकों पहले भूल गया हो, तो वह अपना संतुलन तो खोता ही है साथ ही ऐसे रास्ते पर चल पड़ता है जो अन्ततः आत्म हत्या का रास्ता ही सिद्व होता है। पराजय का तात्विक विश्लेषण करने की बजाये गुजरात काग्रेस के अध्यक्ष सिद्वार्थ पटेल, पूर्व अध्यक्ष ‘शंकर सिंह बघेला और विधानसभा में कांग्रेस विपक्षी दल के नेता ‘शंकर सिंह गोहिल ने कहा कि नगर निगमों कांगेस की पराजय का मुख्य कारण मतदान के लिए प्रयुक्त होने वाली इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी होना है। यदि कांग्रेस की इस दलील को स्वीकार कर लिया जाये तो इसका अर्थ यह हुआ कि इन मशीनों में गड़बड़ी के रास्ते विद्यामान हैं। जिसका सीधा सीधा अर्थ यह है कि केन्द्र में इन्हीं मशीनों के बल पर सत्ता में आई कांग्रेस भी इसी गड़बड़ी का परिणाम है। लगभग तीन साल पहले जब लोक सभा चुनावों में कांगे्रस जीती थी तो कुछ लोंगों ने आशंका जाहिर की थी कि यह जीत वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी का परिणाम है। तब कांग्रेस ने इसका जोर दार खंडन किया था और यह कहा था कि इन मशीनों में गड़बड़ करना संभ्भव ही नहीं है। परन्तु आज तीन साल बाद कांग्रेस यह स्वीकार कर रही है कि इन मशीनों में गड़ बड़ हो सकती है। कांग्रेस ने मांग की ही कि नगर निगमों के चुनावों की जांच करवाई जानी चाहिए। यदि इस प्रकार की जांच होती है तो उसका दायरा तीन साल पहले लोकसभा में कांगे्रस की जीत और 2010 में नगर निगमों में भाजपा की जीत दोनों को ही अपने अधिकार क्षेत्र में लेगा। जाहिर है कि सोनिया गांधी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए गुजरात के कांग्रेसी नेताओं की खिंचाई की जा रही है कि उन्होंने ऐसा ब्यान क्यों दिया। खुदा का शुक्र है कि गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष ने नगर निगमों के चुनावों की जांच तक ही अपने को सीमित रखा है। कहीं उन्होंने यह जांच भी सी0बी0आई0 से करवाने की मांग नहीं कर डाली। हो सकता है कल कांगे्रस ऐसा भी कर दे और सी.बी.आई. गुजरात के उन मतदाताओं को गिरफतार करने के लिए निकल पड़े जिन्होंने भाजपा को वोट दिये हैं। हो सकता है ये सभी भी सोहराब्बुदीन की तथाकथित हत्या के तथाकथित षड्यंत्र में शामिल हों। लगता है गुजरात में कांग्रेस अपने ही बनाये चक्रव्यूह में घिरती जा रही है।

नीतीश कुमार का आत्‍मविश्‍वास या अहंकार

-डॉ. मनीष कुमार

प्रजातंत्र में सरकार का यह दायित्व होता है कि शासन और प्रशासन संविधान के मुताबिक़ चले. अगर कोई सरकार यह काम करती है तो वह किसी इनाम की हक़दार नहीं है. यह तो उसका कर्तव्य है. बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के 15 साल के कुशासन के बाद जब नीतीश कुमार की सरकार बनी थी, तब लोगों को यह उम्मीद बंधी थी कि राज्य में दूरगामी परिवर्तन होंगे. नौकरी के लिए बिहार के लोगों को दूसरे राज्यों में भटकना नहीं पड़ेगा. उद्योग व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खुल जाएंगे. किसानों की मुसीबतें ख़त्म हो जाएंगी. मज़दूर ख़ुशहाल हो जाएंगे. लेकिन बिहार में 15 साल के कुशासन और आज के हालात में फर्क़ स़िर्फ इतना है कि जहां सरकार नहीं थी, वहां सरकार नज़र आने लगी. राज्य में इससे ज़्यादा कुछ नहीं हुआ. बिहार के लोग भोले-भाले हैं. आम जनता अच्छी सड़क बना देने को ही सुशासन समझती है और सरकार के मुखिया नीतीश कुमार के अहंकार के सामने नतमस्तक है. नीतीश कुमार बिहार की ज़रूरत हैं, ऐसा कई लोग मानते हैं. यह बात भी सही है कि वे बिना प्रचार किए चुनाव जीतने की ताक़त रखते हैं. लेकिन बिहार की जनता नीतीश से एक स्टेट्समैन बनने की उम्मीद रखती है. ऐसी उम्मीद करना ग़लत भी नहीं है, क्योंकि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि ही ऐसी है. नीतीश कुमार ने शुरुआती दौर में ऐसे संकेत भी दिए, लेकिन समय के साथ-साथ उनकी प्राथमिकताएं बदल गईं. नीतीश पहले नेताओं से दूर हुए, फिर समर्थकों से और अब जनता से भी दूरी बना ली है. इसके अलावा नीतीश कुमार ने अपने शासनकाल में कभी भी विपक्ष को साथ लेकर चलने की कोशिश नहीं की. उनके पास बहुमत है. उनकी छवि अच्छी है, इसी एहसास ने नीतीश कुमार को निरंकुश बना दिया है. वह अहंकारी हो गए हैं. जिस नीतीश को लोग एक स्टेट्समैन की तरह देखना चाहते थे, वे एक साधारण मुख्यमंत्री साबित हुए हैं.

नीतीश कुमार ने पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं या फिर जनता की बातों को सुनना बंद कर दिया है. किसी भी योजना या नीति को तय करने में जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर रह गई है. पार्टी के नेता लाचार हैं. उनका आरोप है कि अवसरवादी नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को अपने मायाजाल में फंसा रखा है, वे हमेशा नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं.

प्रजातंत्र में जनता ही नेता को चुनती है, मंत्री और मुख्यमंत्री बनाती है. अच्छा नेता वह होता है जो जनता के क़रीब हो. नीतीश कुमार बिहार के ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिनसे जनता तो दूर, कोई मंत्री, विधायक या सांसद भी सीधे नहीं मिल सकता है. उन्हें इसके लिए अर्ज़ी देनी पड़ती है. नीतीश कुमार के यहां काम करने वाले लोग दिन में दो बार मिलने वालों की सूची तैयार करते हैं. पता चला है कि रोज़ सुबह नाश्ते के व़क्त नीतीश उस सूची को देखते हैं और पेंसिल से निशान लगाते हैं. जिन नामों के दाहिनी ओर निशान लग जाता है, उन्हें मिलने की अनुमति मिलती है और जिन नामों के बाईं ओर निशान लगता है, उनसे स़िर्फ फोन पर बातें होती हैं. सूची में मौजूद ज़्यादातर नामों के आगे नीतीश पेंसिल नहीं चलाते हैं. वे न तो मिलने वालों की सूची में होते हैं और न ही फोन से बात करने वालों में. यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि अगर कोई मंत्री या विधायक आज मिलने की अर्ज़ी देता है, तो उसका नंबर एक दो सप्ताह के बाद आता है, कभी-कभी तो एक महीने के बाद. मुख्यमंत्री और विधायकों के बीच फासला कितना ब़ढ गया है, इस पर एक घटना बताते हैं. बिहार के एक एमएलए हैं रामेश्वर चौरसिया. कभी नीतीश कुमार के काफी क़रीब थे. उन्हें अपने क्षेत्र के विकास को लेकर मुख्यमंत्री से कुछ बातें करनी थी. उन्होंने अपना नाम लिखवा दिया, लेकिन उनका नंबर नहीं आया. उन्होंने दो-तीन बार अपना नाम लिखवाया. क़रीब एक महीने बाद अचानक उनके मोबाइल पर नीतीश कुमार का फोन आया. नीतीश ने पूछा, कोई काम था. रामेश्वर चौरसिया ने कहा, नहीं. फिर नीतीश कुमार ने पूछा कि लिस्ट में आपका नाम लिखा था. तब रामेश्वर चौरसिया को याद आया कि उन्होंने एक महीने पहले मिलने की अर्ज़ी दी थी. इस घटना से दो बातें सामने आती हैं. एक तो इससे मुख्यमंत्री और विधायकों के बीच की दूरी का पता चलता है और दूसरा यह कि हालात इस क़दर खराब हो गए हैं कि विधायकों को मुख्यमंत्री से व़क्तनहीं मिलने का अब कोई अ़फसोस भी नहीं होता है. विधायकों ने यह मान लिया है कि नीतीश बदल गए हैं.

बिहार के विधायकों और सांसदों की यही शिकायत है कि नीतीश कुमार की सारी दरियादिली नौकरशाहों के लिए है, लेकिन जैसे ही किसी जनप्रतिनिधि से जुड़ा विषय आता है तो वह हिटलर की तरह पेश आते हैं. सरकार में शामिल नेता भी दबी ज़ुबान से कहते हैं कि नीतीश अब अधिकारियों की सलाह पर फैसले लेते हैं. यह बात भी सही है कि जनता में मुख्यमंत्री जी और सरकार की छवि अच्छी है.

जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे, तब वह ऐसे नहीं थे. पार्टी के नेता व कार्यकर्ता बताते हैं कि नीतीश में सत्ता का ज़रा भी रौब नहीं था. गपशप दरबार लगा करता था, जिसमें पार्टी के छोटे-बड़े कार्यकर्ता और सरकार से जुड़े लोग शामिल होते थे. इसमें साधारण लोग भी शरीक़ होते थे, कोई रोकटोक नहीं था. हंसी-मज़ाक का दौर भी चलता था. उसी दौरान की एक घटना है. नीतीश वहां बैठे लोगों को बता रहे थे कि नौकरी के लिए बिहार के लोग कहीं भी चले जाएंगे. नौकरी के लिए परीक्षा अगर चांद पर भी हो तो वहां भी बिहार के छात्र नज़र आ जाएंगे. इस पर नागरिक परिषद के अध्यक्ष अनिल पाठक ने कहा कि इंग्लैंड में 75 फीसदी डॉक्टर बिहार के हैं. इस पर नीतीश ने चुटकी ली, कहा- पाठक जी, यह आपको कैसे मालूम है. बिहारी डॉक्टरों की गिनती करने आप क्या लंदन गए थे. दरबार में बैठे लोग हंस पड़े. अनिल पाठक ने फौरन जवाब दिया कि आप भी तो चांद पर नहीं गए. दरबार में ठहाके की गूंज फैल गई. नीतीश भी हंस पड़े थे. आज नीतीश के आसपास कार्यकर्ताओं के ठहाके नहीं सुनाई देते. मुख्यमंत्री जी और उनके चाहने वालों के बीच फासला बढ़ गया है. अब मुख्यमंत्री निवास में इस तरह के दरबार नहीं लगते. लोग वहां जाने से डरते हैं, पता नहीं कौन सिपाही या अधिकारी उनकी इज़्ज़त उतार दे.

नीतीश कुमार को यह अहंकार सा हो गया है कि उनके कार्यकाल में सरकार जनता के मनमुताबिक़ काम कर रही है. बिहार की मीडिया सरकार के जनसंपर्क विभाग की तरह काम कर रही है. यहां तक की दिल्ली के अंग्रेजी अख़बारों में पूरे-पूरे पेज ख़रीद कर बिहार सरकार अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित कर रही है.

ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार के पास लोगों से मिलने का व़क्त नहीं है. विडंबना यह है कि जनता के प्रतिनिधियों को मुख्यमंत्री से मिलने के लिए पापड़ बेलना पड़ता है, लेकिन राज्य के नौकरशाहों के लिए नीतीश का दरबार हर व़क्त खुला रहता है. इन अधिकारियों के लिए मुख्यमंत्री के पास व़क्त ही व़क्त है. उनके लिए वे चौबीसों घंटे मौजूद रहते हैं. नीतीश कुमार ने पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं या फिर जनता की बातों को सुनना बंद कर दिया है. किसी भी योजना या नीति को तय करने में जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर रह गई है. पार्टी के नेता लाचार हैं. उनका आरोप है कि अवसरवादी नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को अपने मायाजाल में फंसा रखा है, वे हमेशा नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं. नीतीश पार्टी के नेताओं और जनता की मदद से सरकार नहीं चला रहे हैं. असलियत यह है कि बिहार में कुछ गिने-चुने अधिकारी ही सारे फैसले ले रहे हैं. यही वजह है कि बिहार में लालफीताशाही का बोलबाला है और नौकरशाह निरंकुश हो गए हैं. बिहार में प्रजातंत्र का यह कैसा रूप है, प्रजातांत्रिक मूल्यों का कैसा चेहरा है कि जनता के प्रतिनिधियों व उनके परिजनों की पुलिस अधिकारी पिटाई कर देते हैं और सरकार का मुखिया कोई भी कार्रवाई करने से डर जाता है. अश्विनी चौबे भागलपुर के विधायक हैं. बिहार के बड़े नेताओं में इनकी गिनती होती है. पटना में एक दिन उनके परिजनों ने मौर्यलोक के पास ऐसी जगह पर गाड़ी लगा दी, जहां नो-पार्क़िंग का बोर्ड लगा था. पुलिस ने उनकी गाड़ी वहां से हटा दी. विधायक के बेटे के साथ पुलिस की कहासुनी होने लगी जो थोड़ी देर में गर्मागर्म बहस में तब्दील हो गई और पुलिस ने अश्विनी चौबे के बेटे की पिटाई कर दी. उसे छुड़ाने उनकी पत्नी आगे आईं तो पुलिस वालों ने उन्हें भी पीट दिया. अश्विनी चौबे मुख्यमंत्री को फोन करते रह गए. पुलिस अधिकारियों के ख़िला़फ कार्रवाई की उम्मीद करते रह गए, लेकिन नीतीश कुमार ने तीन दिनों तक उनके फोन का जवाब तक नहीं दिया. बिहार के एक और विधायक पीतांबर पासवान को समस्तीपुर में एक कार्यक्रम में एक एसडीओ ने धक्का दे दिया और बेइज़्ज़त किया. इस मामले ने का़फी तूल पकड़ा, विधानसभा में भी उठा. एक साल तक पीतांबर पासवान विधानसभा नहीं आए, लेकिन सरकार के मुखिया ने इस अधिकारी के ख़िला़फ कोई कार्रवाई नहीं की.

बिहार के विधायकों और सांसदों की यही शिकायत है कि नीतीश कुमार की सारी दरियादिली नौकरशाहों के लिए है, लेकिन जैसे ही किसी जनप्रतिनिधि से जुड़ा विषय आता है तो वह हिटलर की तरह पेश आते हैं. सरकार में शामिल नेता भी दबी ज़ुबान से कहते हैं कि नीतीश अब अधिकारियों की सलाह पर फैसले लेते हैं. यह बात भी सही है कि जनता में मुख्यमंत्री जी और सरकार की छवि अच्छी है. नीतीश जी को शायद इसी बात का अहंकार है. विधायकों को भी लगता है कि नीतीश के साथ रह कर ही वे विधानसभा में फिर से चुनकर आ सकते हैं, इसलिए उनके फैसलों पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करते. जिन लोगों ने नीतीश के ख़िला़फ बोलने की कोशिश की, उनका क्या हश्र हुआ यह देखकर पार्टी के दूसरे नेता सकते में हैं. नीतीश कुमार पर नौकरशाहों का ऐसा प्रभाव है कि उनकी सलाह पर वे मंत्रियों के विभाग तक बदल देते हैं. जो मंत्री अच्छा काम कर रहा होता है, उसका भी विभाग बदल दिया जाता है. चाहे इसका ख़ामियाज़ा जनता को क्यों न भुगतना पड़े. एक बार उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री चंद्रमोहन राय, गन्ना मंत्री नीतीश मिश्रा, सूचना जनसंपर्क मंत्री अर्जुन राय, ऊर्जा मंत्री विजेंद्र यादव और ग्रामीण कार्य मंत्री नरेंद्र नारायण यादव का विभाग एकसाथ ही बदल दिया. इस घटना के बाद से फिर किसी मंत्री ने नीतीश के सामने ज़ुबान खोलने की हिम्मत नहीं की. हाल में ही ललन सिंह ने पार्टी में बग़ावत की. ऐसा महौल बन गया था कि लगा कि कहीं पार्टी ही न टूट जाए. फिर महिला आरक्षण बिल को लेकर शरद यादव के साथ खटपट हुई. लेकिन नीतीश के अहंकार के सामने इन सब ने घुटने टेक दिए. अब आलम यह है कि नीतीश की स्थिति और भी मज़बूत हो गई है. वह पहले से ज़्यादा अंहकारी व निरंकुश हो गए हैं.

नीतीश कुमार अपने शुरुआती दिनों में जनता और नेताओं के काफी क़रीब थे. जब वे मुख्यमंत्री बने थे, तब कार्यकर्ता दरबार लगता था. हर मंगलवार को पार्टी ऑफिस में कार्यकर्ताओं से सीधे मिलते थे. उनकी समस्याओं और जनता की परेशानियों के बारे में जानकारी लेते थे. पार्टी कार्यालय में एक पॉलिटिकल सेक्रेटरी होता था जो कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री से मिलाने का काम करता था. समय के साथ मिलना-जुलना कम होता गया और धीरे-धीरे पूरी तरह बंद हो गया. आज हालत यह है कि नीतीश इतनी खरी-खोटी सुनाते हैं कि नेता और कार्यकर्ता सही बात कहने से डरते हैं. चुनाव नज़दीक है. नीतीश राज्य के अलग-अलग इलाक़ों का दौरा कर रहे हैं. वहां जब कार्यकर्ता यह कहते हैं कि अधिकारी मनमानी कर रहे हैं, सरकार की छवि ख़राब हो रही है तो नीतीश का जवाब होता है कि आप लोग भ्रम में न रहें, सब ठीक चल रहा है और सरकार की छवि के बारे में नाहक चिंतित न हों. सरकार के मुखिया जब ऐसी बात करते हैं, तो सरकार के समर्थक के पास चुप रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता है. नीतीश का दरवाजा पहले आम जनता के लिए भी खुला था. हर सोमवार को जनता दरबार लगता था. सुबह-सुबह अपनी समस्याओं को लेकर लोग उनसे मिलते थे. नीतीश उन्हें निराश भी नहीं करते थे. उसी व़क्त वह फोन कर मामले का निपटारा करते थे. अब मुख्यमंत्री जी का तेवर बदल गया है, प्राथमिकताएं बदल गई हैं. इसलिए जनता दरबार का चरित्र भी बदल गया है. जनता दरबार से जनता ग़ायब हो गई. अब पटना में जनता दरबार लगना भी बंद हो गया है. वह जिस दिन जहां होते हैं, खानापूर्ति के लिए दरबार लग जाता है. लोग मिलते हैं, आवेदन देते हैं और मुख्यमंत्री जी आवेदन डीएम को सौंप कर भूल जाते हैं.

नीतीश कुमार को यह अहंकार सा हो गया है कि उनके कार्यकाल में सरकार जनता के मनमुताबिक़ काम कर रही है. बिहार की मीडिया सरकार के जनसंपर्क विभाग की तरह काम कर रही है. यहां तक की दिल्ली के अंग्रेजी अख़बारों में पूरे-पूरे पेज ख़रीद कर बिहार सरकार अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित कर रही है. अधिकारी अपनी पीठ थपथपा रहे हैं. नीतीश के आसपास जो लोग हैं, वे भी सही ख़बर नहीं देते हैं. यह बात समझ में नहीं आती है, कोई तर्क फिट नहीं बैठता है कि नीतीश कुमार जैसे परिपक्व ज़मीनी नेता को यह कैसे लग सकता है कि सरकार का काम स़िर्फ सड़क बनाना है. इसमे कोई शक़ नहीं है कि बिहार में सड़क बनाया गया है. बिहार में 90 हज़ार किलोमीटर सड़क हैं. पिछले पांच सालों में स़िर्फ 18 हज़ार किलोमीटर का निर्माण हुआ है. मतलब यह कि अभी लगभग 80 हज़ार किलोमीटर सड़क बनना बाक़ी है. बिहार में लालू यादव के पंद्रह साल के शासनकाल में सड़कों की हालत बहुत ही ख़राब थी. नीतीश कुमार के शासनकाल में जो थोड़े-बहुत सड़क बने हैं, उसे देखकर बिहार की भोली जनता को यही लगता है कि पूरे राज्य में सड़कों का पुनरुद्धार हो गया है.

बिहार के अधिकारी यह दावा करते हैं कि राज्य में क़ानून-व्यवस्था को दुरुस्त किया गया है. यह सच्चाई है कि अपराध में कमी आई है, रंगदारी में कमी हुई है, जिस तरह पहले दिन-दहाड़े डक़ैती और गुंडागर्दी का आलम था, उसमें कमी आई है. इसकी सराहना बिहार की जनता तो कर रही है, लेकिन यह तो सरकार का मूल दायित्व है. बिहार के अधिकारी इतने बेपरवाह हो गए हैं कि यह भी भूल गए हैं कि क़ानून-व्यवस्था को ठीक रखना तो सरकार का काम ही होता है. जो सरकार यह नहीं कर सकती, उसे सरकार में रहने का कोई हक़ नहीं है. हमारा संविधान तो यही कहता है. नीतीश कुमार को तो यह जवाब देना चाहिए कि अपराध पूरी तरह ख़त्म क्यों नहीं हुए, किडनैपिंग क्यों चल रही है, अभी भी हत्या और बलात्कार की वारदातें क्यों हो रही हैं.

इस सरकार से पहले सरकार न के बराबर थी. नीतीश कुमार के समय में स़िर्फ इतना अंतर आया है कि सरकार नज़र आ रही है, लेकिन समस्याएं जस की तस हैं. नीतीश के शासनकाल में आज बिहार की जनता बिजली पानी की समस्या से जूझ रही है. स्वास्थ्य सेवाओं में पैसा तो लगाया गया है, लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं हो पाया है. शिक्षा का स्तर चौपट हो चुका है. बिहार में जिस वर्ग के पास पैसा है, वह दूसरे शहरों में पढ़ने और नौकरी के लिए चला जाता है. लेकिन जो लोग ग़रीब हैं, उनकी मुश्किलें बढ़ गई हैं. बिहार में स्कूल में ड्रेस बांटने का फैसला लिया गया. अधिकारियों की वजह से भीषण घपलेबाज़ी हुई. ख़बर आई कि एक विद्यार्थी का नाम कई स्कूलों में दर्ज है. नौकरशाहों के भरोसे सरकार चलाने का ख़ामियाज़ा तो भुगतना ही पड़ता है. आज बिहार में ग़रीब विद्यार्थियों को अच्छे स्कूल से इंटर करना ही मुश्किल हो गया है. अधिकारियों ने न जाने किस दिमाग़ से विश्वविद्यालय में इंटर की पढ़ाई बंद कर दी. अब इंटर करने के लिए स़िर्फ प्राइवेट स्कूल बचे हैं, जो विद्यार्थियों से इतनी फीस लेते हैं कि ग़रीब छात्र इसमें पढ़ने की सोच भी नहीं सकते. पटना साइंस कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई बंद है. बिहार सरकार ने यह वादा किया था कि एक साल बाद सारे स्कूलों में इंटर की पढ़ाई होगी, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है. सरकार से जब ग़रीब छात्रों के भविष्य के बारे में पूछा जाता है तो दो टूक जवाब मिलता है, झेलना पड़ेगा. इसमें कोई नई बात नहीं है कि हर सरकार अपने हिसाब से योजना बनाती है, नीतियों पर काम करती है. लेकिन इस दौरान यह चिंता भी करती है कि उनकी नीतियों की वजह से किसी का नुक़सान नहीं हो. यहां तो ग़रीब बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है और सरकार का जवाब ऐसा है जो शायद किसी हिटलरशाही में भी नहीं दिया जाता होगा.

नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से लोगों में उम्मीद जगी थी. नीतीश ईमानदार हैं, सा़फ छवि के हैं, लोगों को अपने जैसे लगते हैं, इसलिए जब अधिकारी अपना काम ठीक से नहीं करते हैं तो धरना प्रदर्शन कर लोग अपनी समस्याओं को मुख्यमंत्री तक पहुंचाने पटना पहुंचते हैं. लेकिन नीतीश कुमार के शासनकाल में बिहार में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई है. अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों को इस्तेमाल करते हुए कोई धरना प्रदर्शन करता है तो बिहार की पुलिस बेदर्दी से डंडा चलाती है. पटना में हर बड़े विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने लाठी चार्ज किया है. चाहे होमगार्ड के जवान हों या शिक्षा मित्र, इन लोगों ने जब भी प्रदर्शन किया, इनकी भरपूर पिटाई हुई. बिहार में विरोध कर रहे उर्दू और संस्कृत के शिक्षकों को भी दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. स्वास्थ्य सेविका और पंचायत प्रतिनिधि, जो ग्रामीण और सुदूर इलाक़ों में काम करते हैं, उनके शरीर पर भी पुलिस का डंडा टूटा. ये लोग अपनी नौकरी और वेतन की समस्याओं को लेकर गुहार करने पटना आए थे, पर आंखों में आंसू, शरीर पर डंडों के निशान और सरकार को कोसते हुए वापस गए. बिहार के अन्य ज़िलों में बाढ़ पीड़ितों पर भी लाठी चार्ज की घटनाएं हुई हैं. पटना में मीडिया और टीवी कैमरों के डर से पुलिस व अधिकारियों का अत्याचार थोड़ा कम भी होता है. अगर विरोध प्रदर्शन छोटे इलाक़े में हो, पानी-बिजली की समस्या को लेकर कहीं लोग रोड जाम कर दें या सरकार के ख़िला़फ नारेबाज़ी करें, तो पुलिस फौरन अंग्रेज़ी हुकूमत की याद दिला देती है. जमकर लाठियां चलती हैं और प्रदर्शनकारियों को जेल भेज दिया जाता है. महंगाई के मुद्दे को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माले) के विरोध प्रदर्शन को बलपूर्वक कुचला गया, अब तो आलम यह है कि विधानसभा में विधायकों को भी नहीं छोड़ा जाता है. पता नहीं बिहार में विरोध प्रदर्शन कब से ग़ैरक़ानूनी हो गए हैं जबकि नीतीश कुमार ख़ुद ऐसी राजनीति की पैदाइश हैं, जिसका आधार ही विरोध प्रदर्शन है. देखना तो यह है कि जनता के विरोध प्रदर्शन पर लाठी चलाने वाले कैसे ख़ुद को जयप्रकाश नारायण का अनुयायी मानते हैं.

नीतीश कुमार की गठबंधन सरकार बहुमत में है. बहुमत का उपयोग सरकार ने किस तरह किया, इसे समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि सरकार ने किस तरह संवैधानिक कर्तव्यों और परंपराओं को निभाया. पांच साल की नीतीश सरकार के दौरान सबसे खटकने वाली बात विधानसभा के उपाध्यक्ष का चुनाव है. संसदीय प्रणाली में यह लगभग अनकहा क़ानून है कि सदन का उपाध्यक्ष मुख्य विपक्षी पार्टी का होता है. लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल ने इस पद के लिए श्याम रजक को चुना. वे महादलित वर्ग से हैं. नीतीश कुमार को श्याम रजक के नाम पर आपत्ति थी, इसलिए उन्होंने चुनाव तक नहीं होने दिया. नीतीश कुमार ने बहुमत का ऐसा धौंस दिखाया कि लालू यादव को थक-हार कर श्याम रजक की जगह शकुनी चौधरी का नाम आगे करना पड़ा. प्रजातंत्र की एक कमी है, पलक झपकते बहुमत निरंकुश शासन में तब्दील हो जाता है. बिहार के विधान परिषद में ऐसा ही हुआ. नीतीश कुमार ने सभापति और उपसभापति के पद को अपने पास रख लिया. उन्होंने तीन साल तक चुनाव ही नहीं होने दिया. उनकी जिद की वजह से कार्यकारी सभापति ही इस पद पर विराजमान रहे.

बच्चे जिद करते हैं, योगी हठ करते हैं लेकिन जब कोई सर्वशक्तिमान यह काम करता है तो उसे अंहकार कहा जाता है. नीतीश कुमार प्रजातांत्रिक आंदोलन, विचारधारा और मूल्यों से उपजे नेता हैं. बिहार ही नहीं, पूरे देश की जनता को नीतीश कुमार से अपेक्षाएं हैं. वह उन चंद नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें देश की जनता ईमानदार मानती है. दूसरे राज्यों के लोग भी उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं. लेकिन बिहार में उनके पांच साल के शासनकाल को देखकर अ़फसोस होता है. नीतीश कुमार के शासनकाल का सबसे बड़ा धब्बा यह है कि उन्हें सरकार चलाने में विपक्ष का साथ नहीं मिला. विधानसभा में जब भी कोई अहम फैसला लिया गया, उसमें विपक्ष का वॉकआउट शामिल था. नीतीश जी को यह दर्द हमेशा रहेगा. मुख्यमंत्री जी यह भी जानते हैं कि उन्होंने इन पांच सालों में एक भी ऐसा काम नहीं किया, जिसके दूरगामी सामाजिक व राजनैतिक परिणाम हों. नीतीश कुमार की दूसरी सबसे बड़ी कमी यह है कि उन्होंने पार्टी में नेताओं की दूसरी पंक्ति बनने ही नहीं दी. उल्टे जिन लोगों ने दूसरी पंक्ति के नेताओं में अपनी जगह बनाने की कोशिश की, उन्हें पार्टी से निकलने पर मजबूर कर दिया. नीतीश राजनीति में परिवारवाद के समर्थक नहीं हैं, फिर भी बिहार में जदयू के पास नीतीश के अलावा पार्टी को नेतृत्व देने वाला कोई नया या युवा चेहरा नज़र नहीं आता है. बड़े नेता की यह निशानी ही नहीं कर्तव्य भी है कि वह अपने पीछे नए नेताओं की एक कतार छोड़ जाता है. नीतीश कुमार कहते हैं कि हम चादर तान कर सोएंगे, तब भी डेढ़ सौ से ज़्यादा सीटें जीत जाएंगे. हम सालों भर पढ़ने वाले विद्यार्थी हैं, स़िर्फ परीक्षा के समय ही नहीं पढ़ते. इसलिए चुनाव जीतने की चिंता नहीं है. नीतीश जी चुनाव जीत जाएं, यह बिहार के लिए अच्छा है. लेकिन देश की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना नीतीश कुमार का दायित्व है. अगर वह ऐसा नहीं कर पाते हैं तो हमेशा एक साधारण मुख्यमंत्री के रूप में ही याद किए जाएंगे. साधारण मुख्यमंत्री और अच्छे मुख्यमंत्री में फर्क होता है, अच्छे और असाधारण मुख्यमंत्री में और फर्क होता है. पटना से दिल्ली का रास्ता आसान नहीं है, नीतीश जी.

ईश्वर प्रेम से बड़ा है मजदूर प्रेम

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

समाज में कई तरह के लोग हैं। कुछ हैं जो कॉमनसेंस की नजर से दुनिया देखते हैं,कुछ ऐसे हैं जो विचारधारा की परिपक्व नजर से दुनिया देखते हैं,और कुछ ऐसे हैं जो असत्य या गप्प की नजर से देखते हैं। इनमें कॉमनसेंस और असत्य की नजर से देखने वालों की संख्या ज्यादा है। विचारधारा की परिपक्व नजर से देखने वालों की संख्या इनकी तुलना में कम है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार से दुनिया को देखने वालों की संख्या इनसे भी कम है। कायदे से यह क्रम उलटा होता तो अच्छा होता। मैंने जब भी आरएसएस की विचारधारा की आलोचना करके लिखा तो संघभक्तों ने कईबार सवाल उठाया कि भारत में कम्युनिस्ट सफल क्यों नहीं हुए? क्रांति क्यों नहीं हुई? कम्युनिस्टों के दिन अब लद गए। भारत से उनका नामोनिशां मिट जाएगा।

यह सच है कि भारत में कम्युनिस्टों को जितनी सफलता मिलनी चाहिए थी उतनी सफलता उन्हें मिली है। वे इससे ज्यादा सफलता हासिल कर सकते थे कि लेकिन क्रांतिकारी विचारों की सफलता और क्रांतिकारी संगठन की सफलता बाह्य तत्वों पर निर्भर करती है। क्रांति का जन्म विचारों के गर्भ से नहीं भौतिक परिस्थितियों के गर्भ से होता है।

भारत में संगठित कम्युनिस्ट पार्टियां हैं। वे चाहती हैं भारत में क्रांति हो। उनके हमदर्द चाहते हैं क्रांति हो। लेकिन क्रांति चाहने से नहीं होती। क्रांति कोई माल नहीं है कि आप बाजार जाएं और खरीद कर ले आएं और उपभोग करने लगें।

क्रांति कोई खेल भी नहीं है कि जब इच्छा हो खेलना आरंभ कर दो। क्रांति कोई कॉस्मेटिक्स या खुशबूदार क्रीम या इत्र नहीं है कि खोलो लगाओ और फिर खुशबू ही खुशबू।

क्रांति और कम्युनिस्टों के बारे में आए दिन जिस तरह की गप्पबाजीभरी टिप्पणियां हम सुनते या पढ़ते हैं उससे एक चीज का पता चलता है कि इस तरह की टिप्पणियां करने वाले लोग क्रांति और क्रांति की प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिक ज्ञान के अभाव के कारण अनाप-शनाप बोलते-लिखते हैं।

क्रांति दुनिया का सबसे हसीन और प्यारा पदबंध है। इस पर जितने लोग निछावर हैं उससे ऊपर अभी सिर्फ एक ही पदबंध हैं जिस पर लोग निछावर हैं और प्राण तक देने के लिए तैयार हैं वह है प्रेम। प्रेम और क्रांति की प्रतिस्पर्धा में ईश्वरप्रेमी पिछड़ गए हैं। तुलनात्मक तौर पर देखें तो प्रेम का इतिहास क्रांति के इतिहास से पुराना है। प्रेम को महान बनाया भक्ति आंदोलन के लेखकों ने।

पांचवीं-छठी शताब्दी में दक्षिण भारत में आलवार संतों ने प्रेम और ईश्वर के बीच की प्रतिस्पर्धा आरंभ की और ईश्वर को गौण और प्रेम को महान बना दिया। हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि जिस समय प्रेम का महाख्यान रचा जा रहा था उस समय समाज में दो नए वर्ग जन्म ले रहे थे पहला था कारीगर और दूसरा था व्यापारी। कारीगरों के उदय के साथ प्रेम के महाख्यान का आरंभ हुआ और आधुनिककाल में यही कारीगरवर्ग, मजदूरवर्ग में रूपान्तरित हुआ और व्यापारी का पूंजीपतिवर्ग में रूपान्तरण हुआ।

मजदूरों ने आधुनिक समाज को जन्म दिया। औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया। जो लोग कहते हैं कि मजदूरों ने क्या किया है? वे नहीं जानते या जान-बूझकर अनदेखी करते हैं कि मजदूरवर्ग ने ही औद्योगिक क्रांति को संभव बनाया। संसार की महानतम वैज्ञानिक खोजों को संभव बनाया। मजदूरवर्ग ने औद्योगिक क्रांति से आगे जाकर क्रांति की खोज की। जबकि पूंजीपतिवर्ग औद्योगिक क्रांति तक जाकर ठहर गया।

संसार में कारीगर जन्म नहीं लेते तो प्रेम का जन्म नहीं होता और भक्ति का महान साहित्य नहीं रचा जाता। कबीरदास-तुलसीदास-मीराबाई जैसे महान लेखकों का जन्म नहीं होता। पहले कारीगर आए फिर उनके भावों-विचारों की अभिव्यक्ति का महान भक्ति साहित्य लिखा गया। इसी तरह पहले मजदूर आए और उन्होंने औद्योगिक क्रांति, जनतंत्र आदि को संभव बनाया। रोमांटिशिज्म के महान अंग्रेजी साहित्य को जन्म दिया।

कहने का अर्थ है मजदूर सिर्फ वस्तुएं ही नहीं बनाते वे श्रेष्ठतम कलाओं को भी जन्म देते हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से हमें मजदूरों से प्यार करने की आदत ड़ालनी चाहिए। मजदूरों से प्यार किए बिना आप सामयिक जीवन में शांति से नहीं रह सकते। हमारे युवाओं और औरतों में सामाजिक अशांति, अवसाद, कुण्ठा, निराशा का प्रधान कारण है मजदूरों से प्रेम का अभाव ।

हम मजदूरों की बनायी वस्तुओं से प्यार करते हैं लेकिन मजदूरों से घृणा करते हैं, मजदूरों के क्रांतिकारी विचारों से घृणा करते हैं। यही वह प्रस्थान बिंदु हैं जहां से हम इस दुनिया को नए नजरिए से देखें। जो लोग मजदूरों से प्यार करते हैं वे बड़े ही जिंदादिल इंसान होते हैं। उनसे मिलकर उत्साह और प्रेरणा का संचार होता है।

आज सामाजिक जीवन के प्रति ज्यादा से ज्यादा नौजवानों में जो निरर्थकताबोध पैदा हो रहा है उसका प्रधान कारण है उनका मजदूरों के साथ अलगाव और प्रेम का अभाव। मजदूरों से प्रेम हमें जीवन की सार्थकता का एहसास कराता है। इसके विपरीत वस्तुओं का प्रेम जंगली पशु बनाता है।

मजदूरों के बिना वस्तुएं बेजान होती हैं। हम यदि मजदूरों को भूल जाएंगे और वस्तुओं को याद रखेंगे तो विभ्रम के शिकार होंगे। मजदूर और वस्तु को मिलाकर देखेंगे,मिलाकर प्यार करेंगे तो सत्य का सामना करने का साहस पैदा होगा।

आज समाज में सत्य में दिलचस्पी घटती जा रही है इसका प्रधान कारण है कि हमारी मजदूरों में दिलचस्पी घटती जा रही है। सत्य का हमारी पकड़ के बाहर चले जाना बहुत बडी त्रासदी है लेकिन उससे भी बडी त्रासदी है कि हमारी पकड़ से मजदूरवर्ग का निकल जाना। इसके कारण हम विभ्रमों में फंसकर रह गए हैं।

विभ्रमों में फंसे व्यक्ति को वास्तव जगत नजर नहीं आता। वास्तव जगत में रहते हुए भी वह उससे अनभिज्ञ होता है। मजदूरों के प्रति बढ़ती अनभिज्ञता का यही प्रधान कारण है। इसके कारण हम भगवान से प्यार करते, प्रेमिका से प्यार करते हैं। माता-पिता से प्यार करते हैं, प्रकृति से प्यार करते हैं,दोस्तों से प्यार करते हैं। लेकिन मजदूरों से प्यार नहीं करते। जो इस समाज के सर्जक हैं उनसे प्यार नहीं करते। हम मजदूरों से प्यार करें तो कभी मनोचिकित्सक के पास जाने की जरूरत न पड़े। कभी सिर में दर्द नहीं होगा। जीवन की रामबाण दवा है मजदूर प्रेम वह ईश्वर प्रेम और प्रेमिका के प्रेम से भी महान है सिर्फ एकबार करके तो देखें!

सांप्रदायिक एवं सामाजिक सौहार्द्र का प्रतीक बना विश्व का सबसे ऊंचा रावण

-तनवीर ज़ाफरी

दशहरा पर्व केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। राजा दशरथ पुत्र मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम के जीवन की प्रमुख घटनाओं का मंचन इस पर्व के दौरान रामलीला के रूप में किया जाता है। विशेष कर इस दौरान अपने भाई भरत को अयोध्या की राजगद्दी सौंप कर भगवान राम के अयोध्या से 14 वर्ष केलिए वनवास पर जाने तथा इन 14 वर्षों के दौरान उनके जीवन में घटी प्रमुख घटनाओं विशेषकर सीता हरण, रावण की लंका पर आक्रमण तथा अंत में राक्षस प्रवृति का प्रतीक बने रावण के वध तक का दृश्य रामलीला के मंचन के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। दशहरा महोत्सव के अंतिम दिन अर्थात, विजयदशमी के दिन विशालकाय रावण तथा उसके राक्षस भाई कुंभकरण तथा पुत्र मेघनाद के विशाल पुतलों को अग्नि की भेंट कर ऐसी कल्पना की जाती है कि समाज द्वारा इन राक्षस रूपी प्रतीकों का दहन कर तमाम सामाजिक बुराईयों को नष्ट किए जाने का संदेश दिया गया है।

लंकापति रावण के विषय में यह कहा जाता है कि वह बावजूद इसके कि एक उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में जनमा अत्यंत बुद्धिमान, तपस्वी, महाज्ञानी, बलशाली तथा सिद्ध व्यक्ति था। परंतु इन सब विशेषताओं के बावजूद वह अत्यंत अहंकारी, जिद्दी तथा राक्षसी प्रवृति का भी स्वामी था। छल कपट,मक्कारी बड़बोलापन तथा अनैतिक व्यवहार उसकी रग रग में भरे थे। उसके इसी व्यवहार ने उसे सीता जी का अपहरण करने की नौबत तक पहुंचा दिया। और यही घटना उसके जीवन का काल साबित हुई। आखिरकार अपने इन्हीं अनैतिक कार्यों के परिणाम स्वरूप उसे भगवान श्री राम के हाथों वध होना पड़ा। आज उसी लंका पति रावण को पूरी दुनिया में फैली तमाम प्रकार की कुरीतियों, बुराईयों व अनैतिकताओं का प्रतीक मानकर विजयदशमी के दिन उसे अग्नि के हवाले किया जाता है। त्यौहार के रूप में प्रत्येक वर्ष दोहराए जाने वाले इस रावण दहनके पश्चात ऐसा माना जाता है किरावण दहन कर प्रतीक रूप में अहंकार, ईर्ष्‍या, सहित तमाम सामाजिक बुराईयों को अग्नि की भेंट कर दिया गया है।

इसी आशय के साथ न केवल पूरे भारत वर्ष में बल्कि दुनिया के और भी तमाम उन देशों में जहां हिंदू समाज से जुड़े लोग पर्याप्त सं या में रहते हैं वहां भी रावण के पुतले को जलाकर बुराईयों को समाप्त किए जाने का संदेश दिया जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू बहुसंख्‍क देश होने के नाते जाहिर है कि भारत वर्ष का विजय दशमी अथवा दशहरा महोत्सव सबसे अधिक हर्षोल्लास से तथा सबसे बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। भारतवर्ष में जिन प्रमुख स्थानों में यह पर्व बड़े पैमाने पर मनाया जाता है तथा उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त है वे हैं दक्षिण भारत में मैसूर तथा हिमाचल प्रदेश में कुल्लू तथा उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद का दशहरा तथा दिल्ली के राम लीला मैदान में आयोजित होने वाला दशहरा महोत्सव। दिल्ली के दशहरा महोत्सव की प्रसिद्धि का प्रमुख कारण यही है कि एक तो यह देश की राजधानी का प्राचीन आयोजन है तथा दूसरे यह कि इस कार्यक्रम में आमतौर पर देश केप्रधानमंत्री अथवा देश के सर्वोच्च नेतागण भाग लेते रहते हैं। और सामाजिक बुराईयों के प्रतीक स्वरूप रावण वध का अग्नि बाण इन्हीं मु यातिथियों के द्वारा छोड़ा जाता है।

परंतु भारत के हरियाणा राय के अंबाला जिले के अंतर्गत पड़ने वाले बराड़ा नामक कस्बे में आयोजित होने वाली रामलीला तथा इसके अंतिम दिन अर्थात् विजयदशमी के दिन फूंका जाने वाला रावण का पुतला गत् 5 वर्षों से पूरी दुनिया में प्रसिद्धि के शिखर को छूता जा रहा है। बराड़ा कस्बे का यह रावण गत् तीन वर्षों से विश्व के सबसे ऊंचे रावण के रूप में तो अपनी पहचान बना ही चुका है। इसके साथ-साथ इस रावण से जुड़ी तमाम विशेषताएं भी ऐसी हैं जो बराड़ा के रावण को विश्व प्रसिद्ध रावण के रूप में स्थापित करती हैं। रामलीला क्लब बराड़ा के संस्थापक, अध्यक्ष तथा विश्व के सर्वोच्च रावण के पुतले के कला एवं तकनीकी निर्देशक राणा तेजिंद्र सिंह चौहान ने दो दशकों पूर्व रावण के मात्र 20 फुट ऊंचे पुतले का निर्माण कराकर इस महत्वपूर्ण आयोजन की बुनियाद डाली थी। तेजिंद्र सिंह चौहान बताते हैं कि जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे देश व दुनिया में सामाजिक बुराईयां भी अपना मुंह और अधिक फैलाती गई। और जैसे जैसे समाज में कुरीतियां, विद्वेष, वैमनस्य तथा अहंकार आदि समय के साथ साथ बढ़ता गया वैसे वैसे रामलीला क्लब बराड़ा द्वारा रावण के पुतले की ऊंचाई को भी निरंतर बढ़ाया जाता रहा। यहां तक¤ कि रावण का यह विशालकाय पुतला 2007 में 151 फुट, 2008 में 171 फुट ऊंचा, 2009 में 175 फुट तथा 2010 में 180 फुट की ऊंचाई तक पहुंच गया। इस प्रकार यह विशालकाय रावण जोकि गत् 4वर्षों से विश्व के सबसे ऊंचे रावण होने का गौरव प्राप्त कर चुका है,गत् तीन वर्षों से लगातार ऊंचाई के अपने ही कीर्तिमान को ध्वस्त करता आ रहा है।

इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन के मुख्‍य सूत्रधार राणा तेजिंद्र चौहान ने इस वर्ष के रावण के पुतले की 180 फुट की ऊंचाई में जिन तमाम सामाजिक बुराईयों को प्रतीक स्वरूप समाहित किया है उनमें सांप्रदायिकता, जातिवाद, अहंकार, वैमनस्य, कन्याभ्रूण हत्या, अशिक्षा, बढ़ती जनसंख्‍या, बेराजगारी, मूल्यवृद्धि, राजनीति का अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, मिलावटखोरी व जमाखोरी तथा असमानता जैसी तमाम बुराईयां शामिल हैं। लगभग 5 लाख रुपये की लागत से इस वर्ष तैयार होने वाले इस विशालकाय रावण में 40क्विंटल से भी अधिक बांस लगाए गए। इस विशालकाय रावण को सिल्की एवं रंगीन पोशक से सजाया गया। सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल पेश करने वाले इस विश्व के सर्वोच्च रावण की एक और प्रमुख विशेषता यह रही कि इसे आगरा से आए मुस्लिम कारीगरों के एक परिवार ने आठ महीनों की लगातार मेहनत के बाद तेजिंद्र चौहान के निर्देशन में तैयार किया। रावण के पुतले की तैयारी के दौरान ही रमजान व ईद जैसे मुस्लिम समुदाय के प्रमुख त्यौहार भी गुजरे। इन त्यौहारों के दौरान मुस्लिम कारीगरों की सभी जरूरतों को श्री रामलीला क्लब, बराड़ा प्रमुख द्वारा पूरा किया गया। इस प्रकार रावण का विश्व का यह सबसे ऊंचा पुतला जिसे मुस्लिम कारीगरों ने तैयार किया, दुनिया में भारत की सांप्रदायिक एकता व सांप्रदायिक सौहार्द्र की पहचान भी बना।

गत 5 वर्षों से मैं भी इस विश्वस्तरीय रावण दहन के आयोजन को बहुत ही करीब से देख रहा हूं। यह आयोजन अपनी उपरोक्त विशेषताओं के चलते केवल कस्बाई या जिलास्तरीय भीड़ को ही आकर्षित नहीं करता बल्कि हरियाणा व देश के दूर-दराज इलाक़ों से भी तमाम लोग इसे देखने आते हैं। सैकड़ों की सं या में रेहड़ी वाले खाने-पीने की तमाम वस्तुएं लेकर तथा बच्चों के खिलौने आदि बेचने वाले तमाम दुकानदार बराड़ा में विजय दशमी से एक दिन पूर्व ही एकत्रित होना शुरु हो जाते हें। गोया यह आयोजन एक विशाल मेले के रूप में तमाम लोगों को एक दिन का रोजगार मुहैया कराने का भी साधन बन जाता है। इस विशालकाय रावण को खड़ा करना भी अपने आप में किसी परियोजना से कम नहीं है। इस पुतले को खड़ा करने के लिए कुछ ऐसी विशेष क्रेन बुलाई जाती हैं जिनमें इतने लंबे पुतले को खड़ा करने तथा इसे सुरक्षित स्थापित करने की पूरी क्षमता हो। इस आयोजन में प्रत्येक वर्ष अतिथि,मु य अतिथि व विशिष्ट अतिथि के रूप में अनेक बुद्धिजीवी, राजनेता तथा उद्योग जगत से जुड़े लोग शामिल होते हैं। इस वर्ष इस आयोजन के मु य अतिथि महर्षि मार्कंडेय विश्वविद्यालय मुलाना के चेयरमैन तरसेम गर्ग रहे।

इस वर्ष के आयोजन पर रोशनी डालते हुए आयोजन प्रमुख चौहान ने कहा कि अभी कुछ दिनों पूर्व अर्थात् 30 सितंबर को ही इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की लखनऊ पीठ ने 6 दशक से लंबित पड़े रामजन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर अपना निर्णय सुनाया है। उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय से साफ़ ज़ाहिर होता है कि हमारे देश का न्‍यायालय भी सहअस्तित्‍व, सांप्रदायिक सद्भाव तथा सांप्रदायिक एकता व समरसता का पक्षधर है। उच्‍च न्‍यायालय के इस निर्णय के तत्‍काल बाद आयोजित होने वाले दशहरा महोत्‍सव के माध्‍यम से बराड़ा में फूंका जाने वाला रावण भी न्‍यायालय के फ़ैसले का आदर व सम्‍मान करते हुए अपने विशालकाय व विश्‍व के सबसे ऊंचे रावण के दहन के माध्‍यम से केवल भारत के लोगों को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के शांतिप्रिय लोगों को यह संदेश देना चाहता है कि किसी समुदाय विशेष को ही नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग को मिलजुलकर समाज में फैली तमाम उन बुराइयों के विरूद्ध एकजुट होकर आवाज़ उठाना चाहिए तथा संघर्ष करना चाहिए जो कि समाज में अपनी जड़ें गहरी कर चुकी हैं तथा हमारे समाज को दूषित कर रही हैं। और सांप्रदायिकता तथा धार्मिक उन्‍माद वर्तमान समय में समाज का सबसे बड़ा कलंक है। बराड़ा में बनाया गया यह विशालकाय रावण का पुतला जो कि अपने आप में प्रतीक स्‍वरूप तमाम बुराइयों को समेटे हुए है, का भी पूरी दुनिया को यही संदेश है कि हम सब मिलकर बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष करें व समाज से दुर्भावनाओं का ख़ात्‍मा कर प्रेम व सद्भावना का संदेश जन-जन तक पहुंचाएं।