देश में सबसे पहले हिन्दी और क्षेत्रीय भाशाओं में समाचार देने की शुरूआत करने वाली बहुभाषी न्यूज एजेंसी हिन्दुस्थान समाचार द्वारा कॉमनवेल्थ खेलों पर प्रकाशित ‘‘राष्ट्र मंडल खेल-2010’’ के विषेशांक का शनिवार को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री डा. रमेश पोखरियाल निषंक ने विमोचन किया। इस दौरान एजेंसी के राष्ट्रीय संपादक श्री श्रीराम जोशी नई दिल्ली और हिन्दुस्थान समाचार के उत्तराखंड ब्यूरो प्रमुख श्री धीरेन्द्र प्रताप सिंह मौजूद रहे।
मुख्यमंत्री ने पत्रिका का विमोचन करते हुए कहा कि इस तरह के कार्य से देष की छवि जहां विदेशोँ में मजबूत होती है वहीं बाहर से आने वाले पर्यटकों को भी भारत के बारे में जानकारी मिलती है। उन्होंने कहा कि जिस तरह से हिन्दुस्थान समाचार परिवार ने इस योजना को बिल्कुल सटीक समय पर बनाया और उसे कार्यान्वित किया वह वाकई काबिले तारीफ है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में कार्यरत अन्य मीडिया संस्थानों को भी ऐसी पहल करनी चाहिए।
हिन्दुस्थान समाचार के संपादक श्रीराम जोषी ने मुख्यमंत्री को संस्थान की ओर से इस विषेशांक की हिन्दी व इंग्लिष की एक प्रति भेंट की जबकि एजेंसी के ब्यूरो प्रमुख ने मुख्यमंत्री को विमोचन करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया और उनके द्वारा पत्रकारिता के हितों के लिए किए जा रहे कार्यो की सराहना की।
उसका बस चले तो वो हिंदुस्तान के सिर्फ इसलिए टुकड़े-टुकड़े कर दे क्यूंकि ऐसा करने से वो भीड़ से अलग नजर आएगी, उसके पास हत्याओं को वाजिब ठहराने के तमाम तर्क हमेशा मौजूद रहते हैं, क्यूंकि इसे वो खुद को महान साबित करने का औजार समझती है, संभव है इसके बहाने वो नोबेल पुरस्कार पाने की कोशिश कर रही हो। वो वामपंथ का वो क्रूर चेहरा है जिसका इस्तेमाल मीडिया कभी अपनी टीआरपी बढाने में तो कभी व्यवस्था के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए करती है। संभव है बहुतों को उससे मोहब्बत हो लेकिन मैं उससे नफरत करता हूँ, क्यूंकि उसे राष्ट्र के अस्तित्व से ही नफरत है। हम बात अरुंधती राय की कर रहे हैं, वो अरुंधती जिसे हिन्दुस्तान भूखे नंगों का हिंदुस्तान नजर आता है वो अरुंधती जिसे सैकड़ों वर्षों तक गुलाम रहे देश में खड़ी समस्याओं में देश की बेचारगी नजर नहीं आती, क्यूंकि इसका जिम्मेदार वो लोकतंत्र को मानती है। क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो खुलेआम माओवादी हत्याओं को जायज ठहरा सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ पर वो संसद भवन पर हमला करने वालों की खुलेआम तरफदारी कर सकती है क्यूंकि ये वही लोकतंत्र है जहाँ वो राजधानी में हजारों की भीड़ के बीच कश्मीर को भारत से आजाद करने का आवाहन करते हुए और युवाओं को आजादी की इस लड़ाई में शामिल होने का भाषण देने के बावजूद ठहाके लगा सकती है।
कश्मीर पर वहां की जनता का मत महत्वपूर्ण है इससे बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि किसी को भी वहां की जनता पर जबरिया या फिर वैचारिक तौर पर गुलाम बनाकर या उनका माइंडवाश करके उन पर शासन करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता |अरुंधती जब कश्मीरियों को आजादी देने के लिए हिंदुस्तान में हिन्दू और आर्थिक अधिनायक वाद का उदाहरण देती हैं, तो ये साफ़ नजर आता है कि वो श्रीनगर में रहने वाले उन २० हजार हिन्दू परिवारों या फिर ६० हजार सिखों के साथ- साथ उन मुसलमानों के बारे में बात नहीं कर होती हैं जिन्हें आतंकवाद ने अपनी धरती ,अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। ये सच है कि बंदूकों और बूटों के बल पर देशभक्त नहीं पैदा किये जा सकते, और कश्मीर ही नहीं समूचे देश में मानवाधिकारों की स्थिति बेहद चिंताजनक है, लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए, ये हमारे समय की समस्या है इसका समाधान राजनैतिक और गैर राजनैतिक तौर से किये जाने की जरुरत है, कभी अरुंधती ने देश की जनता या फिर अपने चाहने वालों से कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर आन्दोलन चलाने की बात तो नहीं की, हाँ पुरस्कारों के लिए कुछ निबंध या किताबें लिख डाली हो तो मैं नहीं जानता, लेकिन अरुंधती जैसे लोगों के द्वारा मानवाधिकारों की आड़ में राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दिया जाना कभी कबूल नहीं किया जा सकता। मुझे याद है अभी एक साल पहले मेरे एक मित्र ने अरुंधती से जब ये सवाल किया कि आप कश्मीर फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं… “मैं कश्मीर के फ्रीडम मूवमेंट के समर्थन में हूं ऐसा नहीं है। मुझे लगता है कि वहां एक मिलिटरी ऑकुपेशन (सैन्य कब्जा) हैं। कश्मीर में आजादी का आंदोलन बहुत पेचीदा है। अगर मैं कहूं कि मैं उसके समर्थन में हूं तो मुझसे पूछा जाएगा कि किस मूवमेंट के। ये उन पर निर्भर करता है। एज ए पर्सन हू लिव्स इन दिस कंट्री आई कैन नॉट सपोर्ट द सेपेरेशन ऑफ पीपुल इन दिस मिलिट्री ऑकुपेशन”। और अब वही अरुंधती कहती हैं कि भारत को कश्मीर से और कश्मीर से भारत को अलग किये जाने की जरुरत है, एक ही सवाल पर बयानों में ये चरित्र का संकट ,जो अरुंधती पर निरंतर हावी होता जा रहा है।
अरुधती जैसे लोगों के अस्तित्व के लिए पूरी तौर पर समकालीन राजनीति जिम्मेदार है, वो राजनीति जिसने भ्रष्टाचार के दलदल में पैदा हुई आर्थिक विषमता और संस्कृति को ख़त्म करने के कभी इमानदार प्रयास नहीं किये, कभी ऐसे प्रयोग नहीं किये जिससे कश्मीर की जनता देश की मिटटी, देश के पानी, देश के लोगों से प्रेम कर सके, कांग्रेस और फिर भाजपा (वामपंथ को देश नकार चुका है, ये इस वक्त का सबसे बड़ा सच है) ने सत्तासीन होने के बावजूद कभी भी कश्मीर और कश्मीर की अवाम की आत्मा को टटोलने और फिर उसे ठेंठ हिन्दुस्तानी बनाने के लिए किस्म भी किस्म के प्रयोग नहीं किये, अगर कोई प्रयोग हुआ तो सिर्फ सेना का या पाकिस्तान से जुड़े प्रोपोगंडा का। जिसने हमें बार-बार बदनाम किया, और अब अरुंधती और गिलानी जैसे लोगों के हाँथ में हिंदुस्तान को कोस कर अपना खेल खेलने का अवसर दे दिया। अरुंधती और उनकी टीम हरे या फिर भगवा रंग में आतंक की खेती करने वालों के समानांतर खड़ी है। ये उतना ही नाकाबिले बर्दाश्त है जितना बाबरी पर हमला या फिर गोधरा एवं बाद में पूरे गुजरात में हुई हत्याएं। कहते हैं कि व्यक्ति को तो माफ़ किया जा सकता है राजनीति में माफ़ी नहीं होती, हिंदुस्तान की राजनीति में जो गलतियाँ हुई उनका खामियाजा न सिर्फ कश्मीर बल्कि पूरा देश भुगत रहा है, व्यवस्था के पास बहाने हैं और झूठे अफ़साने हैं। अगर गांधी जीवित होते तो शायद कश्मीर में जाकर वहीँ अपना आश्रम बनाकर रहने लगते और कश्मीरियों से कहते हमें एक और मौका दो, फिर से देश को न बांटने को कहो, अगर हम दुश्मन के सर पर भी प्यार से हाँथ फेरेंगे तो ये बात कभी नहीं भूलेगा, कश्मीर और कश्मीर की अवाम हमारी अपनी है ये बात दीगर है कि पिछले बार गोडसे ने मारा इस बार अरुंधती जैसे कोई आगे आता और उनके सीने में खंजर भोंक जाता।
राजस्थान सरकार के आतंकवाद विरोधी दस्ते ने अजमेर दरगाह शरीफ पर कुछ साल पहले हुूए बम धमाके के मामले में कुछ तथाकथित अभियुक्तों के खिलाफ अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल किया है। इस आरोप पत्र में जिन आरोपियों को नाम हैं उनमें इन्द्रेश कुमार का नाम नहीं है। यहां तक का किस्सा सामान्य जांच प्रक्रिया का अंग है। परंतु उसके बाद की कहानी राजनैतिक कहानी है। कांग्रेस सरकार का काम केवल इतने से नहीं चलता कि कोई जांच एंजेसी किसी मामले की सामान्य ढंग से जांच करे और संदिग्ध आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर कर दे। क्योंकि कांग्रेस को केवल आतंकवाद से ही नहीं लड़ना है परंतु आतंकवाद से लडने की आड में अपने वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को भी निपटाना है। नेहरु के जमाने से ही कांग्रेस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपना वैचारिक शत्रु मान कर चलती रही है यही कारण था कि जब महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हुई तब पंडित जवाहरलाल नेहेरु ने उस हत्या की आड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को निपटाने का प्रयास किया। केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही नहीं बल्कि वीर सावरकर जैसे स्वतंत्रता सेनानी को भी पंडित नेहरु गांधी हत्या के आड में सदा के लिए या तो जेल के सलाखों के पीछे बंद कर देना चाहते थे या फिर यदि दांव ठीक पडता तो गांधी हत्या के बहाने उनको फांसी पर ही लटका देते। लेकिन यह पंडित नेहरु का दुर्भाग्य रहा कि न्यायालय ने वीर सावरकर को सम्मान सहित बरी कर दिया और हत्याकांड में संघ की किसी प्रकार की भूमिका को भी स्वीकार करने से इंकार कर दिया। लेकिन नेहरु का संघ विरोध इतना गहरा था कि वे सरदार पटेल के भी विरोध में खडे हो गये। क्योंकि पटेल संघ को राष्ट्रवादी सकारात्मक शक्ति के रुप में देखते थे। दुर्भाग्य से आज से कांग्रेस की कमान उस सोनिया गांधी के हाथ में आ गई है जो भारत की सांस्कृतिक पहचान के विरोध में है। इसलिए उसके नेतृत्व में कांग्रेस ने एक बार फिर से संघ को अपना निशाना बना लिया है। इन्द्रेश कुमार को इस पूरे कांड में घसीटना उसकी इसी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस जानती है कि न्यायालय में वह संघ या इन्द्रेश कुमार को दोषी सिद्ध नहीं कर सकती। इसलिए जांच एजेंसी ने कांग्रेस की इच्छा के अनुसार आरोप पत्र में यह डाल दिया है कि तथाकथित आरोपी इन्द्रेश कुमार से भी मिलते रहे हैं। जाहिर है यह तथाकथित आरोपी हजारों लोगों से मिले होंगे। लेकिन केवल इन्द्रेश कुमार का नाम डालना इस बात का संकेत है कि कांग्रेस की मंशा संघ को सुनियोजित ढंग से बदनाम करने की है। कांग्रेस जानती है कि जब आरोप पत्र में चलते चलाते ढंग से भी इन्द्रेश कुमार का नाम डाल दिया जाएगा को मीडिया इसे पलक झपटते ही ले उ़ड़ेगा और षडयंत्र में संघ की भूमिका मीडिया में चर्चा का विषय़ बन जाएगी। कांग्रेस की मंशा भी इसी चर्चा को आगे बढाना है। इस चर्चा को आगे बढाने से दो फाय़दे कांग्रेस को हो सकते हैं ( यह अलग बात है कि कांग्रेस लाख चाहते हुए भी यह लाभ उठा नहीं सकेगी )। मुसलमान कांग्रेस से प्रसन्न हो सकते हैं कि कांग्रेस संघ से भीड रही है। बिहार के चुनाव चल रहे हैं और वहां राहुल गांधी की लाख कोशिशों के बावजूद मुसलमान कांग्रेस की ओर मुंह नहीं कर रहे हैं । य़दि बिहार में कांग्रेस मिट जाती है तो राहुल गांधी को लांच करने की सोनिया गांधी की सारी साजिश मिट्टी में मिल जाएगी । इसलिए बिहार में मुसलमान को घेर कर हर हालत में कांग्रेस के पंजे के नीचे पहुंचाना है। इन्द्रेश कुमार और संघ का नाम एटीएस का अंतिम प्रयास है कि बिहार के मुसलमान को किसी ढंग से रिझाया जाए।
वैसे साजिश के संकेत बिहार चुनाव के आस पास कुछ महीने पहले ही मिलने शुरु हो गये थे। जब देश के गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने भगवा आतंकवाद की बात कह कर सबको चौंका दिया था। पहले ऐसा लगा था कि कि चिंदबरम की जवान फिसलने का यह मामला है। लेकिन जब बाद में चिदंबरम ने अपनी जीभ निकाल कर दिखाया कि उनकी जुबान बिल्कुल ठीक ठाक है और भगवा आंतकवाद का प्रयोग उन्होंने सोच समझ कर ही किया है। राजनीति के तटस्थ विश्लेषक तभी यह आशंका जाहिर करने लगे थे कि मुसलमानों को खुश करने के लिए कांग्रेस ने जो यह नयी अवधारणा उपस्थित की है उसमें रंग भरने के लिए जल्दी ही संघ का नाम भी जोडा जाएगा और यह आशंका सही साबित हो गई है जब एटीएस ने बिना किसी कारण आधार व प्रमाण के अपने आरोप पत्र में इन्द्रेश कुमार का नाम नत्थी कर दिया है।
कुछ दिन पहले राहुल गांधी के इस बयान को कि सिमी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक जैसे ही हैं को इसी षडयंत्र के परिप्रेक्ष में देखना होगा।
संघ और इन्द्रेश कुमार का नाम उछालने से एक दो दिन पहले कांग्रेस सरकार की अप्रत्यक्ष सहायता से दिल्ली में कश्मीर के तथाकथित पाकिस्तान समर्थक नेता सय्यैद गिलानी को बुलाया गया। एक सेमिनारनुमान मिटिंग में गिलानी ने बहुत साफ और स्पष्ट शब्दों में कश्मीर की आजादी और उसके लिए लडे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम का केवल समर्थन ही नहीं किया बल्कि उसे प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जाने की घोषणा भी की। इस कार्यक्रम में गिलानी ने भारत के खिलाफ जी भर कर आग उगली। कार्यक्रम में बैठे कुछ राष्ट्रवादी लोगों ने जब इसका विरोध किया तो उन राष्ट्रवादी शक्तियों के खिलाफ कार्रवाई करने की कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने मांग की। दिल्ली में गिलानी को बुला कर उसके आगे सिजदा करने की कांग्रेस की यह रणनीति बिहार के चुनाव को ध्यान में रख कर तो बनायी ही गई है। साथ ही इसे लंबी योजना के अंतर्गत मुसलमानों को गोलबंद करने की रणनीति के तहत भी देखा जाना चाहिए।
कांग्रेस की ओर से उसके यह तीन चार कृत्य एक निरंतरता में एक खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये लगते हैं । संघ और इन्द्रेश कुमार का नाम आतंकवादी कृत्यों में उछालना उसी रणनीति का हिस्सा है।
लेकिन कांग्रेस को एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इतिहास देशभक्ति और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए लडने वालों का इतिहास है। संघ आतंकवाद में विश्वास नहीं करता, आतंकवाद कायरों की नीति होती है। आतंकवाद में वे गिरोह संलग्न हैं जो इस देश को तोडना चाहते हैं। 1984 में दिल्ली में राजीव गांधी की सहायता से ही सिक्खों पर आतंकवाद का जो घृणित दौर चला था उसके पीछे कांग्रेस ही थी। ऐसा व्यक्तिगत बातचीत में दिल्ली के कई कांग्रेसी नेता स्वीकार भी करते हैं। कांग्रेस सरकार ने उन आतंकवादी साजिशों के सूत्रधरों को पकडने के बजाए उनको बचाने में सरकारी जांच एजेंसियों को इस्तमाल किया। जो थोडी बहुत सजा कुछ लोगों को हुई भी वे केवल इसलिए कि कुछ लोग जान हथेली पर रख कर इन साजिशों का पर्दाफाश करते रहे। कसाब और अफजल गुरु को अब बचाने की जो कोशिशें हो रही हैं वे कांग्रेस की आतंकवाद को लेकर नीति स्पष्ट करती है । कांग्रेस अफजल गुरु की फांसी को मुसलामानों के तुष्ट या रुष्ट होने से जोड कर देखती है। उसकी कोशिश अपने वोटों के लिए आतंकवाद को भी एक खास रंग देने की है। आतंकवाद को भगवा कहना और उसके बाद इन्द्रेश कुमार का नाम उससे जोडना यह इसी रणनीति का हिस्सा है। लेकिन इतिहास गबाह है कि संघ ने कांग्रेसी सरकारों के ऐसे कई आक्रमणों को झेला है और हर आक्रमण के बाद संघ ज्यादा शक्तिशाली हो कर उभरा है। इस आक्रमण के बाद भी संघ ज्यादा ताकतबर हो कर उभरेगा । इसका मुख्यकारण है कि इस देश के लोग संघ को राष्ट्रवादी शक्ति मानते हैं न कि आतंकवादी।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नवम्बर की बहुप्रतीक्षित भारत यात्रा पर कई देशों में आम भारतीयों की नजर भी लगी हुई है। कई समीक्षक उनकी विदेशनीति तथा कई अन्य विषयों पर उनके रूख की समीक्षा कर रहे है। बराक ओबामा की यह यात्रा निसंदेह उत्साहपूर्ण वातावरण में हो रही है संसद के संयुक्त अधिवेश्न सहित वे कई आर्थिक-राजनैतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेगें। बराक ओबामा की सोच भारत के बारे में क्या है? वे भारत के विश्व पटल पर उभरने की संभावना को राजनैतिक-कूटनीतिज्ञ कारणों से नहीं अपितु अन्य कारणों से देख रहे है। ओबामा जब से अमेरिका के राष्ट्रपति बने है तब से कई बार भारतीय छात्रों एवं उनकी मेधा की चर्चा विभिन्न मंचों पर कर चुके है। उनकी चिन्ता उभरती अर्थव्यवस्था के प्रतीक भारत एवं चीन के वे छात्र हैं जो विश्व पटल पर छा जाने के लिए जबर्दश्त मेहनत कर रहे है। इन छात्रों के परिवारीजन अपने सारे संसाधन झोंक कर उनको उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा मुहैया करा रहे है।
शिक्षक से अमेरिका के राष्ट्रपति बने बराक ओबामा की इन चिन्ताओं की जड़ में उनकी अमेरिका के प्रति गहरा लगाव तथा संवेदनशीलता है यह लगाव और संवेदनशीलता उनके द्वारा लिखी गई किताबों ”ड्रीम्स फ्राम माई फादर, दि आडोसिटी आफ होप तथा चेन्ज वी कैन विलीव इन” से समझी जा सकती है। पहली किताब ड्रीम्स फ्राम फादर में श्वेत-अश्वेत संदर्भ के साथ-साथ उनके अपने निजी संघर्ष का गहरा चित्रण है। दूसरी तथा तीसरी किताब अमेरिका के सीनेटर तथा राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बराक ओबामा की अमेरिकी नेता को तौर पर प्रस्तुति है। बराक ओबामा निसंदेह अपने कई समकक्षी राष्ट्रपतियों की तुलना में जमीन से उठकर राष्ट्रपति के पद पर मेरिट से चुने गये राष्ट्रपति है यह उनकी योग्यता ही लगती है कि श्वेत-अश्वेत संघर्ष के प्रतीक बनकर पहले अश्वेत अमरीकी राष्ट्रपति बनने का गौरव उन्हे हासिल हुआ। अमेरिकी की रंगभेद नीति के साथ उन्हे अपने देश की समस्याओं और भविष्य की चुनौतियों का अन्दाज है। आज का अमेरिका भी अन्यों देशों की तरह कई ऐसी चुनौतियों से जूझ रहा है जिसके परिणाम अमेरिका के भविष्य के लिए अच्छे होने के संकेत नहीं है।
अपने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान बराक ओबामा अपने भाषणों में कहा करते थे कि सबसे विकसित देश में 4 करोड़, 70 लाख लोग बिना स्वास्थ्य बीमा के रह रहे हैं। स्वाथ्य बीमा के प्रीमियम की वृध्दि दर लोगों की आय वृध्दि की दर से कहीं ज्यादा है। एक करोड़ से कुछ अधिक अवैध आव्रजक है। अमेरिका तथा सुदूर प्रान्तों में धन तथा कम्प्यूटर के अभाव में स्कूल आधे टाइम से बन्द हो जाते है। अमेरिकी सीनेट उच्च शिक्षा में बजट में कटौती कर रही है। जिससे लाखों छात्रों के उच्च शिक्षा में प्रवेश के द्वारा बन्द हो जाने का खतरा है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा शिक्षा का स्तर अपेक्षित तौर पर बढ़ नहीं पा रहा है तथा छात्रों का मन इन विषयों में न लगकर टीवी तथा कम्प्यूटर गेम्स में लग रहा है। देश पर उधारी लगातर बढ़ती जा रही है तथा वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत तथा चीन जैसे कई देश बड़ी चुनौती प्रस्तुत करने की ओर है। ऊर्जा पर बढ़ती निर्भरता उनकी चिन्ता का प्रमुख कारण है। आउट सोर्सिंग के कारण नौकरियॉ विदेश स्थानान्तरित हो रही है तथा गूगल जैसी कम्पनियों में आधे कर्मचारी एशियाई है जिनमें से भारत तथा चीन के ज्यादा संख्या में है।
अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद बराक ओबामा ने पूर्व घोषित कार्यक्रमों में से दो प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित किया। इन दो कार्यक्रमों में से एक सबकी पहुंच में स्वास्थ्य बीमा तथा अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था को उच्च स्तरीय तथा प्रतिस्पर्धी बनाना। अपने स्वास्थ्य एजेण्डा हेतु स्वास्थ्य विधेयक प्रस्तुत किया तथा कड़े संघर्ष के बाद जीत दर्ज की। स्वास्थ्य विधेयक के बाद बराक ओबामा की चिन्ता प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक की सुधार का प्रयास। बराक ओबामा को लगता है कि भारत और चीन के छात्र अपने को वैश्विक स्तर पर ज्यादा प्रतिस्पर्धी सिध्द कर रहे है तथा उनके अभिभावक उनका मार्गदर्शन तथा सहयोग कर रहे है। इसके विपरीत उनके अपने देश में ओबामा के अनुसार छात्रों की रूचि पढ़ाई से घट रही है। भारत तथा चीन अपने-अपने शिक्षा के स्तर में निरन्तर सुधार कर रहे है तथा अपना बजट बढ़ा रहे है। भारत में दिन प्रतिदिन उच्च तथा तकनीकी शिक्षा का विस्तार हो रहा है। उनकी गुणवत्ता में सुधार के गम्भीर प्रयास हो रहे है। भारत सूचना युग में बढ़त बना चुका है तथा अब शैक्षिक इनफ्रास्ट्रकचर सुधार कर ज्ञान के युग का दोहन कर रहा है। बराक ओबामा के अनुसार अमेरिकी डाक्टरों, इन्जीनियरों तथा अन्यों पेशेवरों का मुकाबला उनके अपने ही देश के प्रतिस्पर्धियों से न होकर भारत तथा चीन के पेशेवरों से होगा। भारत तथा चीन अपने-अपने पेशेवरों को इस वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर रहें है, जबकि अमेरिका ऐसे समय में अपने उच्च शिक्षा तथा शोध के बजट में 20 प्रतिशत की कटौती कर रहा है उनके अनुसार यह कटौती अमेरिका के भविष्य पर पड़ने की संभावना है जिसके कारण लगभग 20 लाख अमेरिकी छात्र उच्च शिक्षा से वंचित रह जायेगे।
राष्ट्रपति बराक ओबामा की चिन्ता के सन्दर्भ में भारत को भी सबक लेने की जरूरत है। जो चिन्तायें ओबामा के मस्तिष्क में है वे चिन्तायें भारत के लिए संभावना के नये-नये द्वारा खोलती है। आउट सोर्सिंग पर प्रतिबन्ध राजनैतिक कारणों से तो ठीक हो सकता है परन्तु अमेरिकी कम्पनियों के लिए आर्थिक कारणों से उचित नही है। आउट सोर्सिंग के क्षेत्र में भारत कई तरीके के बिजनेश माडल प्रस्तुत कर रहा है तथा अमेरिकी कम्पनियों को उनके हित लाभ के लिए आकर्षित कर रहा है। विज्ञान, टैक्नोलॉजी तथा शिक्षा के क्षेत्र में बजट बढ़ाकर विश्व स्तरीय छात्र तैयार कर भविष्य का मस्तिष्क युध्द भारत जीत सकता है। ज्ञान के इस युग में ब्राडबैण्ड की उपलब्धता तथा विस्तार कर देश के सुदूर भाग को शैक्षिक क्रान्ति का भागीदार बनाया जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तथा तकनीकी शिक्षा को वैश्विक स्तर का बनाना हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिए। राज्य सरकारें तथा केन्द्र सरकार को अपने-अपने पार्टी हितों को छोड़कर राष्ट्रीय हित में गम्भीर प्रयास करने चाहिए। भारत में शिक्षा का प्रसार हो तो रहा है परन्तु उनकी गुणवत्ता अपेक्षित स्तर की नही है। प्रान्तीय सरकारों में दूरदर्शी नेतृत्व का अभाव है तथा शिक्षा इनकी अन्तिम प्राथमिकता है। अत: हमें विश्व पटल पर एक सुनहरा अवसर प्राप्त हो रहा है जिसे यदि सरकार चाहें तो हम इसकों सफलता में बदलकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा का रूख अपनी ओर कर सकते है। बराक ओबामा ने कहा कि पिछली एक सदी में कोई भी युध्द अमेरिकी धरती पर नहीं लड़ा गया है। परन्तु अब साइबर क्रान्ति के कारण हर देश और कम्पनी का रूख अमेरिका की ओर है। और उनकी यही चिन्ता है। अब युध्द का हथियार ज्ञान होगा जिसके लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा का वैश्विक मन्च तैयार हो रहा है और भारत एक बड़ा खिलाड़ी बनकर उभर सकता है। हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी जरूरी संसाधन पर्याप्त मात्रा में देश में उलब्ध है हमारे यहॉ बहुत सी नीतियॉ और संस्थायें है। चुनौती है तो बस शिक्षकों, विद्यार्थियों और तकनीक तथा विज्ञान को एक सूत्र में पिरोकर एक दिशा में सोचने की।
भारतीय जनतंत्र ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या वास्तव में लोगों को खुला छोड़ दिया है। एक बहुलतावादी,बहुधार्मिक एवं सांस्कृतिक समाज ने अपनी सहनशीलता से एक ऐसा वातावरण सृजित किया है जहां आप कुछ कहकर आजाद धूम सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार का दुरूपयोग भारत में जितना और जिसतरह हो रहा है उसकी मिसाल न मिलेगी। बावजूद इसके ये ताकतें भारत के लोकतंत्र को, हमारी व्यवस्था को लांछित करने से बाज नहीं आती। क्या मामला है कि नक्सलियों के समर्थक और कश्मीर की आजादी के समर्थक एक मंच पर नजर आते हैं। क्या ये देशद्रोह नहीं है। क्या भारत की सरकार इतनी आतंकित है कि वह इन देशद्रोही विचारों के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकती। आखिर ये देश कैसे बचेगा। एक तरफ देश के नौ राज्यों में बंदूकें उठाए हुए वह हिंसक माओवादी विचार है जो 2050 में भारत की राजसत्ता की कब्जा करने का घिनौना सपना देख रहा है। दूसरी ओर वे लोग हैं जो कश्मीर की आजादी का स्वप्न दिखाकर घाटी के नौजवानों में भारत के खिलाफ जहर भर रहे हैं। किंतु देश की एकता अखंडता के खिलाफ चल रहे ये ही आंदोलन नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों से लेकर सीमावर्ती राज्यों में अलग-अलग नामों, समूहों के रूप में अलगाववादी ताकतें सक्रिय हैं जिन्होंने विदेशी पैसे के आधार पर भारत को तोड़ने का संकल्प ले रखा है। अद्भुत यह कि इन सारे संगठनों की अलग-अलग मांगें है किंतु अंततः वे एक मंच पर हैं। यह भी बहुत बेहतर हुआ कि हुर्रियत के कट्टपंथी नेता अली शाह गिलानी और अरूंधती राय दिल्ली में एक मंच पर दिखे। इससे यह प्रमाणित हो गया कि देश को तोड़ने वाली ताकतों की आपसी समझ और संपर्क बहुत गहरे हैं।
किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को हर देशद्रोही आजाद है। दुनिया का कौन सा देश होगा जहां उसके देश के खिलाफ ऐसी बकवास करने की आजादी होगी। भारत ही है जहां आप भारत मां को डायन और राष्ट्रपिता को शैतान की औलाद कहने के बाद भी भारतीय राजनीति में झंडे गाड़ सकते हैं। राजनीति में आज लोकप्रिय हुए तमाम चेहरे अपने गंदे और धटिया बयानों के आधार पर ही आगे बढ़े हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा दुरूपयोग निश्चय ही दुखद है। गिलानी लगातार भारत विरोधी बयान दे रहे हैं किंतु उनके खिलाफ हमारी सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है। वे देश की राजधानी में आकर भारत विरोधी बयान दें और जहर बोने का काम करें किंतु हमारी सरकारें खामोश हैं। गिलानी का कहना है कि “ घाटी ही नहीं जम्मू और लद्दाख के लोगों को भी हिंदुस्तान के बलपूर्वक कब्जे से आजादी चाहिए। राज्य के मुसलमानों ही नहीं हिंदुओं और सिखों को भी आत्मनिर्णय का हक चाहिए।”ऐसे कुतर्क देने वाले गिलानी बताएंगें कि वे तब कहां थे जब लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडितो को घाटी छोड़कर हिंदुस्तान के तमाम शहरों में अपना आशियाना बनाना पड़ा। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया, महिलाओं को अपमानित किया गया। जिन पत्थर बाजों को वे आजादी का योद्धा बता रहे हैं वे ही जब श्रीनगर में सिखों के घरों पर पत्थर फेंककर उन्हें गालियां दे रहे थे, तो वे कहां थे। इन पत्थरबाजों और आतंकियों ने वहां के सिखों को घमकी दी कि वे या तो इस्लाम कबूल करें या घाटी छोड़ दें। तब गिलानी की नैतिकता कहां थी। आतंक और भय के व्यापारी ये पाकपरस्त नेता भारत ही नहीं घाटी के नौजवानों के भी दुश्मन हैं जिन्होंने घरती के स्वर्ग कही जाने धरती को नरक बना दिया है। दिल्ली में गिलानी पर जूते फेंकने की घटना को उचित नहीं ठहराया जा सकता किंतु एक आक्रोशित हिंदुस्तानी के पास विकल्प क्या है। जब वह देखता है उसकी सरकार संसद पर हमले के अपराधी को फांसी नहीं दे सकती, लाखों हिंदूओं को घाटी छोड़नी पड़े और वे अपने ही देश में शरणार्थी हो जाएं, पाकपरस्तों की तूती बोल रही हो, देश को तोड़ने के सारे षडयंत्रकारी एक होकर खड़ें हों तो विकल्प क्या हैं। एक आम हिंदुस्तानी मणिपुर के मुईया, दिल्ली के बौद्धिक चेहरे अरूंधती, घाटी के गिलानी, बंगाल के छत्रधर महतो के खिलाफ क्या कर सकता है। हमारी सरकारें न जाने किस कारण से भारत विरोधी ताकतों को पालपोस कर बड़ा कर रही हैं। जिनको फांसी होनी चाहिए वे जेलों में बिरयानी खा रहे हैं, जिन्हें जेल में होना चाहिए वे दिल्ली की आभिजात्य बैठकों में देश को तोडने के लिए भाषण कर रहे हैं। एक आम हिंदुस्तानी इन ताकतवरों का मुकाबला कैसे करे। जो अपना घर वतन छोड़कर दिल्ली में शरणार्थी हैं,वे अपनी बात कैसे कहें। उनसे मुकाबला कैसे करें जिन्हें पाकिस्तान की सरकार पाल रही है और हिंदुस्तान की सरकार उनकी मिजाजपुर्सी में लगी है। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।
शुक्र है कि दारूल -उलूम देवबंद ने जमात उलेमा-ए हिंद के तत्वावधान में एक सम्मेलन कर कश्मीर को भारत का अविभाज्य और अभिन्न अंग बताया है। जाहिर है जब कश्मीर का संकट एक विकराल रूप धारण कर चुका है, ऐसे समय में देवबंद की राय का स्वागत ही किया जाना चाहिए। इससे पता चलता है कि देश में आज भी उसके लिए सोचने और करने वालों कमी नहीं है। दारूल उलूम देवबंद ने यह खास सम्मेलन कश्मीर समस्या पर ही आयोजित किया था। इसमें बड़ी संख्या में उलेमाओं ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन में वक्ताओं ने दो टूक कहा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। वक्ताओं ने इस सम्मेलन में आतंकवादियों की तीव्र भर्त्सना करते हुए वहां फैलाई जा रही हिंसा को गलत बताया। वक्ताओं का कहना था कि भारत एक फूलों का गुलदस्ता है। हम इस बात को गवारा नहीं कर सकते कि उससे किसी फूल को अलग किया जाए। जमात उलेमा –ए –हिंद के नेता महमूद मदनी ने यह भी कहा कि कश्मीर में अलगाववादियों के कारनामों का शेष भारत के मुसलमानों पर गंभीर परिणाम होगा। दारूल उल उलूम की इस पहल का निश्चय ही स्वागत किया जाना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है पहली बार यह महत्वपूर्ण संस्था इस विषय पर खुलकर सामने आयी है। कश्मीर का संकट आज जिस रूप में हमारे सामने हैं उसमें प्रत्येक देशभक्त संगठन का कर्तव्य है कि वह आगे आकर इन मुद्दों पर संवाद करे तथा सही रास्ता सुझाए। देश के सामने खड़े संकटों में देश के संगठनों का दायित्व है कि वे सही फैसले लें और अमन का रास्ता कौम को बताएं। क्योंकि ऐसे अंधेरों में ही समाज को सही मार्गदर्शन की जरूरत होती है। ऐसे समय में दारूल-उलूम की बतायी राह एक मार्गदर्शन की तरह ही है। जो लोग भारत से कश्मीर को अलग करने का ख्याब देख रहे हैं उन्हें इससे बाज आना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी का फायदा उठाकर जो तत्व देशतोड़क विचारों के प्रचारक बने हैं,उनपर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। भारतीय राज्य की अतिशय सदाशयता देश पर भारी पड़ रही है, हमें अपना रवैया बदलने और कड़े संकेत देने की जरूरत है। देश को यह बताने की जरूरत है गिलानी और अरूधंती जैसे लोग किससे बल पर देश में यह वातावरण बना रहे हैं। उनके पीछे कौन सी ताकते हैं। सरकार को तथ्यों के साथ इनकी असलियत सामने लानी चाहिए।
बाबा रामदेव फिनोमिना मध्यवर्गीय घरों में घुस आया है। बाबा के सिखाए योगासन के अलावा उनकी बनाई वस्तुओं का भी बड़े पैमाने पर घरों में सेवन हो रहा है। देशी बाजार की उन्नति के लिहाज से यह अच्छा है। बाबा रामदेव को लेकर मुझे कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है। वे बहुत ही अच्छे योगी-व्यापारी हैं। उनका करोड़ों का योग व्यापार है। हजारों एकड़ जमीन की उनके पास संपदा है। करोड़ों रूपयों का उनका टर्न ओवर है। मेरे ख्याल से एक योगी के पास आज के जमाने में यह सब होना ही चाहिए।
योग का पैसे से कोई अन्तर्विरोध नहीं है। आधुनिक समाज में अच्छा योगी, ज्योतिषी, पंडित, विद्वान, बुद्धिजीवी, राजनेता वह है जिसके पास वैभव हो, दौलत हो, वैभवसंपन्न लोग आते-जाते हों, उसकी ही समाज में प्रतिष्ठा है। आम लोग उसे ही स्वीकृति देते हैं। जब किसी व्यक्ति का मन प्रतिष्ठा पाने को छटपटाने लगे तो उसे वैभवसमपन्न और संपदा संपन्न लोगों का दामन पकड़ना चाहिए। मीडिया का दामन पकड़ना चाहिए बाकी चीजें स्वतःठीक हो जाएंगी।
बाबा रामदेव मुझे बेहद अच्छे लगते हैं क्योंकि उन्होंने धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के बनाए मानकों को तोड़ा है। उन्होंने महर्षि महेश योगी, रजनीश आदि के बनाए मार्ग का अतिक्रमण किया है। एक जमाने में धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में जबर्दस्त रुतबा था। मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि वे स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी को योग प्रशिक्षण देते थे। योग को राजनीति, संस्थान और बाजार के करीब लाने में स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी की बड़ी भूमिका रही है। वे नियमित श्रीमती गांधी को योग शिक्षा देते थे। बाद में उन्होंने अपने काशमीर स्थित आश्रम में योग प्रशिक्षण शिविर लगाने शुरू कर दिए और श्रीमती गांधी पर दबाब ड़ालकर योग शिक्षक पदों की सबसे पहले केन्द्रीय विद्यालयों में शुरूआत करायी। मुझे याद है योग शिक्षक की नौकरी में स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी के योग संस्थान के प्रमाणपत्र की अहमियत होती थी।
स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने अपने इर्दगिर्द राजनीतिक शक्ति भी एकत्रित कर ली थी और आपातकाल की बदनाम चौकड़ी के साथ भी उनके गहरे संबंध थे। स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी पहले आधुनिक संयासी थे जो योग को राजनीति के करीब लाए और योग को रोजगार की विद्या बनाया। योग को स्कूलों तक पहुँचाने की शुरूआत की। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने योग को राजनीति से जोड़ा था, बाबा रामदेव ने देह, स्वास्थ्य और सौंदर्य से जोड़ा है।
जिस समय यह सब चल रहा था विदेशों में महर्षि महेश योगी और देश में आचार्य रजनीश ने मिलकर उच्चवर्ग, उच्च मध्यवर्ग और मध्यवर्ग में अपने पैर फैला दिए थे। गांव के गरीबों में बाबा जयगुरूदेव और उनके पहले श्रीराम शर्मा के गायत्री तपोभूमि प्रकल्प से जुड़ी युग निर्माण योजना ने बहुत जबर्दस्त सफलता हासिल की थी।
मुश्किल यह थी कि स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी से लेकर बाबा जयगुरूदेव तक धर्म उद्योग पूरी तरह बंटा हुआ था, इनमें अप्रत्यक्ष संबंध था ऊपर से। लेकिन धर्म के क्षेत्र में श्रम-विभाजन बना हुआ था।
बाबा रामदेव की सफलता यह है कि उनके योग उद्योग में उपरोक्त सभी का योग उद्योग में ही समाहार कर लिया है। बाबा के मानने वालों में सभी रंगत के राजनेता हैं। जबकि धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का खेल सिर्फ श्रीमती गांधी तक ही सीमित था। बाबा रामदेव ने य़ोग के दायरे में समूचे राजनीतिक आभिजात्यवर्ग को शामिल किया है।
उसी तरह आचार्य रजनीश की मौत के बाद मध्यवर्ग और उच्चवर्ग के बीच में जो खालीपन पैदा हुआ था उसे भरा है। रजनीश के दीवानों को अपनी ओर खींचा है, उस जनाधार को व्यापक बनाया है।
महर्षि महेश योगी और रजनीश ने योग को कम्पलीट बहुराष्ट्रीय धार्मिक उद्योग के रूप में स्थापित किया था। बाबा रामदेव ने उसे एकदम मास मार्केट में बदल दिया और इन सबके जनाधार, राजनीतिक आधार, आर्थिक आधार, देशी बाजार, विदेशी बाजार आदि को सीधे सम्बोधित किया है और टेलीविजन का प्रभावी मीडियम के रूप में इस्तेमाल किया है। इस क्रम में अमीर से लेकर निम्न मध्यवर्ग और किसानों तक योग उद्योग का विस्तार किया।
बाबा रामदेव फिनोमिना ऐसे समय में आया है जब सारे देश में नव्य उदार आर्थिक नीतियां तेजी से लागू की जा रही थीं और उपभोक्तावाद पर जोर दिया जा रहा था। भोग के हल्ले में बाबा रामदेव ने योग के भोग का हल्ला मचाया और भोग की बृहत्तर परवर्ती पूंजीवादी प्रक्रिया के बहुराष्ट्रीय प्रकल्प के अंग के रूप में उसका विकास किया।
बाबा रामदेव फिनोमिना का कामुकता, कॉस्मेटिक्स और उपभोक्तावाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्ट के लक्ष्यों के साथ गहरा विचारधारात्मक संबंध है। मजेदार बात यह है कि बाबा रामदेव के भाषणों में बहुराष्ट्रीय निगमों के द्वारा मचायी जा रही लूट की आलोचना खूब मिलेगी। वे अपने प्रत्येक टीवी कार्यक्रम में बहुराष्ट्रीय मालों की आलोचना करते हैं और देशी मालों की खपत पर जोर देते हैं।
इस क्रम में वे देशी माल और योग के ऊपर विशेष जोर देते हैं। इन दोनों की खपत बढ़ाने पर जोर देते हैं। इस समूची प्रक्रिया में बाबा रामदेव ने कई काम किए हैं जिससे नव्य उदार नीतियां पुख्ता बनी हैं। इन नीतियों के दुष्प्रभाव के कारण जो हताशा, थकान, निराशा और शारीरिक तनाव पैदा हो रहे थे उनका विरेचन किया है। इससे देशी-विदेशी बुर्जुआजी को बेहद लाभ मिला है। उन्हें इस तनाव को लेकर चिन्ता थी वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, उन्हें यह भी डर था कि कहीं यह तनाव बृहत्तर सामजिक तनाव का कारण न बन जाए। ऐसे में बाबा रामदेव का पूंजीपतिवर्ग ने सचेत रूप से संस्कृति उद्योग के अंग के रूप में विकास किया और उनकी ब्राण्डिंग की ।
बाबा रामदेव फिनोमिना को समझने के लिए योग और कामुकता के अन्तस्संबंध पर गौर करना जरूरी है। योग का अ-कामुकता से संबंध नहीं है। बल्कि योग का कामुकता से संबंध है। नव्य उदार दौर में संभोग, शारीरिक संबंध, सेक्स विस्फोट, पोर्न का उपभोग, सेक्स उद्योग, सेक्स संबंधी पुरानी रूढियों का क्षय, कामुकता का महोत्सव सामान्य और अनिवार्य फिनोमिना के रूप में उभरकर सामने आए हैं। इस समूची प्रक्रिया को योग ने देशज दार्शनिक आधार प्रदान किया है विरेचन के जरिए।
योगी लोग सेक्स की बात नहीं करते योग की बातें करते हैं, लेकिन योग का एक्शन अकामुक एक्शन नहीं होता बल्कि कामुक एक्शन होता है। इसका प्रधान कारण है योग की आंतरिक क्रियाओं का कामुक आधार। यह बात जब तक दार्शनिक रूप में नहीं समझेंगे हमें कामुक उद्योग और योग उद्योग के अन्योन्याश्रित संबंध को समझने में असुविधा होगी।
योगासन का समूचा तंत्र कामुकता से जुड़ा है। योग को तंत्रवाद का हिस्सा माना जाता है। तंत्रवाद दार्शनिक तौर पर कामुक भावबोध, कामुक अंगों की इमेज और समझ से जुड़ा है। ऐतिहासिक तौर पर तंत्रवाद में सबसे ज्यादा उन अनुष्ठानों पर बल दिया जाता था जो स्त्री की योनि पर केन्द्रित थे. इसके लिए संस्कृत का सामान्य शब्द है ‘भग’, तंत्रवाद की विशिष्ट शब्दाबली में इसे लता कहते हैं।
इस प्रकार भग केन्द्रित धार्मिक क्रियाओं को भग यज्ञ कहा गया जिसका शाब्दिक अर्थ है स्त्री के गुप्तांग का अनुष्ठान या लता साधना। उल्लेखनीय है कि तांत्रिक यंत्रों में, अर्थात इसके प्रतीकात्मक रेखाचित्रों में स्त्री के गुप्तांग पर ही बल दिया जाता है। स्त्री की नग्नता का आख्यान सिर्फ भारत में ही उपलब्ध नहीं है बल्कि इसकी चीन, अमेरिका आदि देशों में परंपरा मिलती है। इसका स्त्रियों के कृषि अनुष्टानों के साथ गहरा संबंध है। यह विश्वव्यापी फिनोमिना है।
भारत में भग योग या लता साधना पर गौर करें तो पाएंगे कि तंत्रवाद में स्त्री की योनि का संबंध प्राकृतिक उत्पादकता से था। वह भौतिक समृद्धि की प्रतीक मानी गयी है. तांत्रिक परंपरा में भग को भौतिक समृद्धि के छःरूपों या ‘षड् ऐश्वर्य’के संपूर्ण योग का नाम दिया गया है।
पुराने विश्वास के आधार पर स्त्री की योनि सभी प्रकार की भौतिक समृद्धि का स्रोत है। स्त्री के गुप्तांग का भौतिक संपत्ति के साथ क्या संबंध रहा है इसके बारे में सैंकड़ों सालों से समाज ने सवाल पूछने बंद कर दिए हैं। किंतु यह उचित प्रश्न है और इसका एक ही उत्तर है कि स्त्री योनि भौतिक समृद्धि का स्रोत है। स्त्री के गुप्तांग के साथ समृद्धि कैसे जुड़ गयी इसके बारे में हम आगे कभी विस्तार से चर्चा करेंगे।
बाबा रामदेव फिनोमिना और परवर्ती पूंजीवाद में एक बुनियादी साम्य है कि ये दोनों देहचर्चा करते हैं और दोनों ने देह को प्रतिष्ठित किया है उसे सार्वजनिक विचार विमर्श और केयरिंग का विषय बनाया है। देह की महत्ता को स्थापित करने मे कास्मेटिक उद्योग की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस अर्थ में बाबा रामदेव और कॉस्मेटिक उद्योग एक जगह आकर मिलते हैं कि दोनों की चर्चा के केन्द्र में देह है।
उल्लेखनीय है तंत्रवाद में सबसे ज्यादा देहचर्चा मिलती है। योग में सबसे ज्यादा देहचर्चा मिलती है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में देहचर्चा मिलती है, विज्ञापनों की धुरी है देहचर्चा। इस समूची प्रक्रिया में योगासन और प्राणायाम के नाम पर चल रहा समूचा कार्य-व्यापार देहचर्चा को धुरी बनाकर चल रहा है।
देहचर्चा की खूबी है कि इसमें विभिन्न किस्म के भेद खत्म हो जाते हैं सिर्फ जेण्डरभेद रह जाता है। लेकिन स्त्री-पुरूष का भेद खत्म हो जाता है। देहचर्चा करने वाले स्त्री-पुरूष को समान मानते हैं।
देहचर्चा ने जातिप्रथा और वर्णाश्रम व्यवस्था का तीखा विरोध किया था। प्राचीन कवि सरह पाद ने तो ‘देहकोश’ के नाम से महत्वपूर्ण किताब ही लिखी थी। सरह पाद ने ‘देहकोश’ में धर्म के औपचारिक नियमों और विधान की तीखी आलोचना लिखी थी। एस.वी.दासगुप्त ने ‘आव्स्क्योर रिलीजस कल्ट्स ऐज बैकग्राउण्ड ऑफ बेंगाली लिटरेचर’’(1951) में लिखा है उसका प्रथम विद्रोह समाज को चार वर्णों में विभाजित करने की उस रूढ़िवादी प्रणाली के विरूद्ध था जिसमें ब्राह्मणों को सबसे उच्च स्थान पर रखा गया था। सरह का मानना है कि एक जाति के रूप में ब्राह्मणों को श्रेष्ठतम मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि यह कथन कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए थे, कुछ चतुर और धूर्त लोगों द्वारा गढ़ी गई कपोल कल्पना है।’’
मूल बात यह है कि देहचर्चा भौतिकवादी दार्शनिकों के चिंतन के केन्द्र में रही है। तंत्र और योग वालों ने इस पर कुछ ज्यादा ध्यान दिया है। सहजिया साहित्य में तो यहां तक कहा गया है कि ‘‘जिस व्यक्ति को अपनी देह का ज्ञान हो गया है वही सबसे प्रज्ञावान है। और यही संदेश सभी धर्मग्रंथों का है।’’ वे यह भी मानते हैं कि ‘‘सभी ज्ञान शाखाओं का आधार यह देह है।’’आगे लिखा है ‘‘ यहां (इस देह के अंदर) गंगा और यमुना है,यहीं गंगा सागर, प्रयाग और काशी है और इसी में सूर्य तथा चंद्र हैं। यहीं पर सभी तीर्थस्थल हैं-पीठ और उपपीठ हैं।मैंने अपनी देह जैसा परम आनंद धाम और पूर्ण तीर्थ स्थल कभी नहीं देखा।’’
कोई भी व्यक्ति जब योग-प्राणायाम करता है तो वह अपने शरीर को स्वस्थ रखता है साथ ही इसका मूल असर उसकी कामुकता पर होता है। उसकी कामुक इच्छाएं बढ़ जाती हैं. कामुक इच्छाओं का उत्पादन और पुनर्रूत्पादन करना इसका बुनियादी लक्ष्य है, दूसरा लक्ष्य है देह को सुंदर बनाना और इस प्रक्रिया में वे तमाम वस्तुएं जरूरी हैं जो देह को सुंदर रखें और यहीं पर बाबा रामदेव अपने पूरे पैकेज के साथ दाखिल होते हैं। उनके पास देह को सुंदर बनाने की सारी चीजें हैं और यह काम वे बडे ही कौशल के साथ करते हैं। भारतीय परंपरा के प्राचीन ज्ञानाधार और चेतना के रूपों का योग-प्राणायाम के जरिए दोहन करते हैं और उसे संस्कृति उद्योग की संगति में लाकर खड़ा करते हैं। यह एक भौतिक और सभ्य बनाने वाला काम है।
नामवर सिंह के व्यक्तित्व के कई कोण हैं। उनमें से एक है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का कोण। हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद के बाद वे अकेले ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की पहचान वाले लेखक हैं। हिन्दी के लेखकों की नज़र उनके हिन्दी पहलू से हटती नहीं है। खासकर शिक्षकों-लेखकों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्रोफेसर के रूप में ही देखता है।
नामवर सिंह सिर्फ एक हिन्दी प्रोफेसर समीक्षक और विद्वान नहीं हैं। प्रोफेसर, आलोचक, पुरस्कारदाता, नौकरीदाता, गुरू आदि से परे जाकर उनके व्यक्तित्व ने ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की स्वीकृति पायी है। इस क्रम वे हिन्दी अस्मिता का अतिक्रमण कर चुके हैं यह कब और कैसे हुआ यह कहना मुश्किल है। लेकिन उन्होंने सचेत रूप से लेखकीय-शिक्षक व्यक्तित्व को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ में रूपान्तरित किया है। उनकी प्रसिद्धि के ग्राफ को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ ने नई बुलंदियों पर पहुँचाया है।
नामवर सिंह कम लिखते हैं। घर में कम रहते हैं। अधिकांश समय देशाटन करते हैं। व्याख्यान देते हैं। अनेकबार कुछ नहीं बोलते लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर चलकर जाते हैं। पांच-सात मिनट मुश्किल से बोलते हैं। अनेकबार बहुत अच्छा भी नहीं बोलते। लेकिन अधिकांश समय उन्हें लोग अपने यहां बुलाना पसंद करते हैं। बुलाने वालों में विभिन्न रंगत के लोग हैं। वे किसी एक रंगत के लोगों के कार्यक्रमों में नहीं जाते। वे अधिकतर समय विचारधारा की सीमा से परे जाकर बोलते हैं। उनके बोलने और कार्यक्रमों में बुलावे के पीछे प्रधान कारण है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’।
‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के कारण उन्हें सार्वजनिक बौद्धिक जीवन में ऐसी भूमिका निभानी पड़ रही है जिससे चाहकर भी वे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते। उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ को लेकर अनेकबार उनसे शिकायतें भी की गयी हैं। अकेले में वे अपनी कमजोरियों को मान भी लेते हैं। लेकिन बाद में उनका व्यक्तित्व फिर पुराने मार्ग पर चल पड़ता है।
वे अपने भाषणों में अनेक विषयों पर बोलते हैं और सुंदर बोलते हैं। लेकिन विगत कई दशकों से उनके भाषणों के केन्द्र में एक ही विषय है जो बार-बार आया है जिसके बारे में उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है वह है ‘आलोचनात्मक मनुष्य’। इस मनुष्य के लिए ही उन्होंने अपनी सारी यात्राएं समर्पित कर दी हैं। इसके लिए वे अपनी विद्वता, विविधभाषाओं के साहित्यज्ञान और विभिन्न विचारधाराओं का इस्तेमाल करते रहे हैं।
वे जहां जाते हैं मानवीय अज्ञान से टकराते हैं। वे जानते हैं कि जिस गोष्ठी में जा रहे हैं वहां उस विषय के कम जानकार आ रहे हैं, श्रोताओं में भी सक्षम लोग कम हैं,इसके बावजूद वे जाते हैं और गंभीर, नए, चालू, उत्सवधर्मी विषयों पर अज्ञान से मुठभेड़ करते हैं।
उन्हें अपनी विद्वता का एकदम दंभ नहीं है। गोष्ठियों में वे उस समय ज्यादा सुंदर लगते हैं जब वे इरेशनल के खिलाफ बोल रहे होते हैं। इरेशनल को वे कभी माफ नहीं कर पाते, सहन नहीं कर पाते। वे कमजोर तर्क से सहमत हो जाते हैं, सामंजस्य बिठा लेते हैं लेकिन इरेशनल से सामंजस्य नहीं बिठा पाते। उनके व्याख्यानों या टिप्पणियों की दूसरी बडी खूबी है उनका भारतीय और हिन्दी तर्कसिद्धांत।
इसमें वे पक्के भौतिकवादी के रूप में मंच पर पेश आते हैं। अनेक बार उनके विचारों में पुनरावृत्ति दिखाई देती है। लेकिन इसका भी कारण है जिसकी खोज की जानी चाहिए।
नामवर सिंह जब भी बोलते हैं तो अंतर्विरोधों में बोलते हैं। अंतर्विरोध के बिना नहीं बोलते। अंतर्विरोधों के आधार से खड़े होकर बोलने के कारण उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक और आक्रामक नजर आता है और वे इस सारी प्रक्रिया को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की छाप के साथ करते हैं।
नामवर सिंह ने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद, हिन्दीवाद, कट्टरता, फंडामेंटलिज्म, अतिवादी वामपंथ, साम्प्रदायिकता, आधुनिकतावाद, नव्य उदारतावाद, पृथकतावाद आदि का कभी समर्थन नहीं किया। वे इन विषयों पर बोलते हुए बार-बार सभ्यता के बड़े सवालों की ओर चले जाते हैं।
किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि नामवर सिंह देशाटन क्यों करते हैं? वे इतने बूढ़े हो गए हैं आराम क्यों नहीं करते? उनके पास पैसे की क्या कमी है जो इस तरह भटकते रहते हैं? वे चुपचाप बैठकर लिखते क्यों नहीं? आदि सवालों और इनसे जुड़ी बातों को हम सब आए दिन सुनते रहते हैं।
नामवर सिंह जानते हैं भाषणों से संसार बदलने वाला नहीं है। मैं जहां तक समझता हूँ भाषणों से उन्हें कोई खास मानसिक शांति भी नहीं मिलती। कोई खास पैसे भी नहीं मिलते। इसके बावजूद वे भाषण देने जाते हैं, जो भी बुलाता है उसके कार्यक्रम में चले जाते हैं। मेरी समझ से इसका प्रधान कारण समाजीकरण। नामवरसिंह भाषण नहीं देते समाजीकरण करते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया के बहाने ही उन्होंने लोगों का मन जीता है, बेशुमार प्यार और सम्मान अर्जित किया है।
नामवर सिंह के जीवन में अनेक कष्टप्रद क्षण आए हैं और उसे उन्होंने झेला है। निजी तौर पर गहरी पीड़ा का भी अनुभव किया है। इसके बावजूद इसे उन्होंने कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया। कष्टों को झेलने के कारण एक खास किस्म की कुण्ठा और ग्लानि भी पैदा होती है उसे भी अपने लेखन और व्यक्तित्व में आने नहीं दिया।
मैंने उन्हें कभी ग्लानि या कुण्ठा में नहीं देखा। इसके कारण वे स्वतंत्र ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण करने में सफल रहे हैं। कुण्ठा और ग्लानि मनुष्य को परनिर्भरता और भय की ओर ले जाती है और परनिर्भरता और भय से नामवर सिंह को सख्त नफरत है।
वे कभी निष्क्रिय नहीं रहते। अहर्निश सक्रियता के बीच में ही यात्राएं करते हैं। अकादमिक जिम्मेदारियों का पालन करते हैं। सामाजिकता निबाहते हैं। उन्हें वे लोग पसंद हैं जो रिवेल हैं या बागी हैं। परिवर्तनकामी हैं। रूढियों से लड़ते हैं। वे घर पर आते हैं विश्राम के लिए, और कुछ दिन रहने के बाद फिर से चल पड़ते हैं। घर उनका परंपरागत अर्थ में घर नहीं है। वह उनके विश्राम का डेरा है वहां वे नए सिरे से ऊर्जा संचय करते हैं और निकल पड़ते हैं।
उनके व्यक्तित्व में नया और पुराना दोनों एक ही साथ मिलेगा। वे भाषण पुराने पर देते हैं पैदा नया करते हैं। उनके पुराने विषयों पर दिए गए भाषणों में पुरानापन नहीं है। उन्हें पुराने की आदत है नए से प्रेम है। पुराने की आदत, परंपरा से जुड़े रहने के कारण है, और नए से प्रेम वर्तमान और भविष्य की चिन्ताओं के कारण है। यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व और व्याख्यान में नया और पुराना एक ही साथ नजर आता है। इसके आधार पर ही वे सभ्यता निर्माण के मिशन को अपने तरीके से पूरा कर रहे हैं।
नामवर सिंह ने जीवन से ज्यादा साहित्य, संस्कृति, विचारशास्त्र आदि के क्षेत्र में जोखिम उठाया है। जितने जोखिम उन्होंने विचारों के क्षेत्र में उठाए हैं, उतने ही वे जीवन में उठा पाते तो और भी ज्यादा सुखी होते। उनका पुराने से जुड़ा होना जीवन में जोखिम उठाने से रोकता रहा है और वे उसे सहते रहे हैं।
उन्होंने विचारों की दुनिया में अपने को पूरी तरह खो दिया है लेकिन निजी जीवन में वे अपने को खो नहीं पाए हैं और अनेक मसलों पर किनाराकशी करके दर्शक बनकर देखते रहे हैं। कुछ लोग इसे पलायन भी कह सकते हैं। लेकिन यह पलायन नहीं है सामाजिक जोखिम नहीं उठाने की शक्ति का अभाव है।
नामवर सिंह आधुनिक ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के मार्ग पर चलते रहे हैं और उनके आलोचक पीछे -पीछे उनकी असंगतियों का शोर मचाते रहे हैं। साहित्य के दायित्व को उन्होंने राष्ट्रीय दायित्व के रूप में ग्रहण किया है और अन्य दायित्वों को इसके मातहत बना दिया है। यही उनकी महान विभूति का प्रधान कारण है।
नामवर सिंह विचारों के समुद्र हैं। वे साहित्य,समीक्षा,राजनीति,,तकनीक,मीडिया आदि किसी भी क्षेत्र में अतुलनीय क्षमता रखते हैं। वे इनमें से किसी भी क्षेत्र पर मौलिक ढ़ंग से प्रकाश डालने में सक्षम हैं। किसी भी गंभीर बात को अति संक्षेप में कहने में सक्षम हैं। वे प्रभावित करते हैं। माहौल बनाते हैं। अपनी उपस्थिति से आलोकित करते हैं। लेकिन किसी का व्यक्तित्व बनाने, तराशने वाले कारीगर का कौशल उनके पास नहीं है।
वे समुद्र हैं, महान व्यक्तित्व हैं, कारीगर नहीं। यही वजह है कि उनके आसपास रहने वाले अधिकांश शिष्य उनके गुणों, क्षमता और विद्वता आदि में कहीं से भी नामवर सिंह का उत्पाद नहीं लगते। शिष्य सोचते हैं गुरूदेव की कृपा से वे भी महान हो जाएंगे, गुरूदेव जैसे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता। शिष्य भूल जाते हैं कि वे समुद्र किनारे बने हुए रेती के मकान हैं जिन्हें जब भी समुद्री लहरें आतीं है बहा ले जाती हैं।
नामवर सिंह ने अपना व्यक्तित्व अपने परिश्रम,मेधा और संघर्षों के आधार पर बनाया है। उन्हें स्वयं के अलावा किसी ने मदद नहीं की। वे इसी अर्थ में आत्मनिर्भर हैं। वे अपनी सारी शक्ति एक चीज के लिए लगाते रहे हैं वह है ज्ञानप्रेम। ज्ञानप्रेम ने उन्हें महान बनाया है। यह प्रेम उनके किसी शिष्य में नहीं है। दीवानगी की हद तक वे आज भी इसके दीवाने हैं और इसी ने उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण किया है।
-जो पाकिस्तान की जमीं पर खड़ा होकर हिन्दुस्तान जिंदाबाद-पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगा सके
-जो लाहौर में खड़ा होकर पाकिस्तानी अवाम को गाली दे सके
-जो इस्लामाबाद की सड़कों पर तिरंगा लहरा सके
-जो कराची में रहकर पाकिस्तानी फौज को पाकिस्तानी कुत्ता कह सके
-विशाल आनंद
शायद जवाब मिलेगा (ना), मेरा भी जवाब है (ना)। और अगर ऐसी हिम्मत करने की कोई सोच भी ले तो अंजाम क्या होगा ये सब जानते हैं, बताने की जरूरत नहीं। पाकिस्तान ही क्या कोई भी मुल्क अपनी जमीं पर ऐसा किसी भी सूरत में नहीं होने देगा सिवाय हिंदुस्तान को छोड़ के। जी हां, सारी दुनिया में हिंदुस्तान ही ऐसा इकलौता मुल्क है जहां सब कुछ मुमकिन है यानि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’। यहां की जमीं पर पाकिस्तान जिंदाबाद -हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने की पूरी आजादी है, कहने को कश्मीर हमारा है पर यहां तिरंगा जलाने और पाकिस्तानी झंडे को लहराने की पूरी छूट है, यहां भारतीय फौज को जी भर के गाली दी जा सकती है। ऐसा क्यों है? तो तर्क समझ लीजिए – क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, दूसरा तर्क – यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, तीसरा तर्क – यहां हर किसी को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का पूरा हक है (चाहे वो राष्ट्रविरोधी हक क्यों न हो)। ऐसे तमाम तर्क आपको मिल जाएंगे जो आपके गले उतरें या ना उतरें। अब ताजा उदाहरण 21अक्टूबर दिन गुरूवार दिल्ली स्थित एलटीजी सभागार में आयोजित उस सेमीनार का ही ले लीजिए जिसमें ऑल इण्डिया हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमेन व अलगाववादी नेता जनाब सैयद अली शाह गिलानी, माओवादियों की तरफदारी करने वाली अरूंधती रॉय, संसद पर हमले के आरोपी रहे और बाद में सबूतों के अभाव में बरी कर दिये गये प्रो. एसएआर गिलानी, जाने माने नक्सल समर्थक वारा वारा राव जैसी राष्ट्रविरोधी शख्सियत मौजूद थी। सम्मेलन का विषय था ‘कश्मीर-आजादी द ऑनली वे’। अब आप अंदाजा लगाइये ‘विषय’ पर और चर्चा करने के लिए जुटी इस जमात पर। इस जमात में शामिल थे अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी सरगना और समथर्क। यह सब कश्मीर में नहीं बल्कि देश की राजधानी में हो रहा था। अब इसे विखंडित देश का सपना देखने वाले इन ‘देशभक्तों’ का साहस कहें या इनके साहस की हौसला अफजाई के लिए दिल्ली में बैठी ताकतों का दुस्साहस। ये वही सैयद अली शाह गिलानी है जिसके एक इशारे पर भारतीय फौज पर पत्थर बाजी शुरू हो जाती है, जिसके इशारे पर श्रीनगर में तिरंगे को जूते-चप्पलों से घसीटकर जला दिया जाता है, जनाब की रैली में लहराते हैं पाकिस्तानी झंडे और हिंदुस्तान- मुर्दाबाद, पाकिस्तान -जिदांबाद के नारों से गूंजने लगती है घाटी। ये जब चाहें घाटी को बंद करने का फरमान जारी कर देते हैं। हाल ही में गिलानी का एक वीडियो मैंने भी देखा है जिसमें कश्मीरी अवाम और ये एक सुर में चीख चीख कर कह रहे हैं – हम पाकिस्तानी हैं- पाकिस्तान हमारा है। इन नारों से घाटी गूंज रही है। 29 अक्टूबर 1929 को उत्तरी कश्मीर के बांदीपुरा में जन्मे गिलानी को पाकिस्तान का घोषित रूप से एजेंट माना जाता है। क्योंकि शुरूआती तालीम को छोड़ दें तो स्नातक तक की पढ़ाई इन्होंने ऑरिएंटल कॉलेज लाहौर से की है। जाहिर सी बात है रग रग में पाकिस्तान की भारत विरोधी तालीम भरी पड़ी है। पांच बेटी और दो बेटे (नसीम और नईम) के पिता जनाब गिलानी साहब ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉफ्रेंस के चेयरमेन हैं और तहरीक-ए-हुर्रियत नाम की अपनी पार्टी चला रहे हैं। इनका और इनकी पार्टी का वजूद सिर्फ भारत विरोध पर टिका हुआ है। कश्मीर को भारत से अलग करना और पाकिस्तान की छत्र छाया में आगे बढ़ना इनका सपना है। घाटी में पाकिस्तानी मंसूबा इन्हीं की बदौलत पूरा होता है। गिलानी की अकड़ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है, हाल ही में घाटी के बिगड़ते हालात पर प्र्रधानमंत्री ने एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल को घाटी में भेजा था, जनाब ने किसी भी तरह की बातचीत से मना कर दिया था। प्रधनमंत्री की मनुहार पर भी नहीं माने। आखिरकार दल के कुछ नुमाइंदे घुटने के बल इनकी चौखट पर नाक रगड़ने पंहुचे। क्योंकि ये सरकार की कमजोरी-मजबूरी से वाकिफ हैं। सरकार इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, ये सरकार का मुस्लिम समीकरण जरूर बिगाड़ सकते हैं। बावजूद इसके सरकार ने इनकी हिफाजत के लिए स्पेशल सिक्योरिटी दे रखी है। अब जनाब कश्मीर की वादियों से निकलकर दिल्ली में अपनी दहशतगर्दी की दुकान खोलने की तैयारी में हैं। तभी तो ‘आजादी द ऑनली वे’ के बहाने अपनी राष्ट्र विरोधी सोच का मंच दिल्ली में तैयार करने का साहस किया है। और जब चोर-चोर मौसरे भाई (अलगाववादी, नक्सलवादी, खालिस्तानी) एक साथ मिल जाएं तब तो खूब जमेगी, कामयाबी भी मिलनी तय है। इस सम्मेलन में जो लोग इकठ्ठा हुए वो सब के सब देश के गद्दार हैं। लेकिन उनकी मुखालफत करने की हिम्मत किस में है? अगर कोई करेगा भी तो इस देश के तथाकथित और स्वयंभू ‘सेकुलरवादी’ उसे साम्प्रदायिक बता डालेंगे। भगवावादी की श्रेणी में रख देंगे। क्योंकि जब सम्मेलन में गिलानी का विरोध करने कश्मीरी पंडित पंहुचे तो सरकार की तरफ से तुरंत बयान आया कि ये भाजयुमो के कार्यकर्ता थे। यानि सरकार ने कश्मीरी पंडितों के मुंह पर ही थूक दिया। देश के इन गद्दारों पर आंखें बंद कर सब चुप्पी साधे रहें, हैरानी होती है। अब अगर मेरे इस लेख को भी पढ़कर तथाकथित देश के बुद्धिजीवी सांप्रदायिक लेख करार दें तो मेरे लिए हैरानी की बात नहीं होगी। क्योंकि ‘इट्स हैपिंड ऑनली इन इण्डिया’।
छत्तीसगढ़ राज्य का गठन सहकारिता के लिए वरदान सिद्ध हुआ है। इन 10 वर्षों में सहकारी आंदोलन के स्वरूप में काफी विस्तार हुआ है। प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों के माध्यम से फसल ऋण लेने वाले किसानों की संख्या जो वर्ष 2000-01 में 3,95,672 थी,जो वर्ष 2009-10 में बढ़कर 7,85,693 हो गई है। इन 10 वर्षों में 3 प्रतिशत ब्याज दर पर कृषि ऋण उपलब्ध कराने वाला छत्तीसगढ़ पहला राज्य बना। छत्तीसगढ़ में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान उपार्जन का जिम्मा सहकारी समितियों को दिया गया है , सभी उपार्जन केन्द्रों को कम्प्यूटरीकृत किया गया है जो कि अपने आप में छत्तीसगढ़ शासन की बहुत बड़ी उपलब्धि है। उपलब्धियों की दास्तान यही खत्म नहीं होती,यह बहुत लंबी है। शासन ने प्रो.बैद्यनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू कर मृतप्राय समितियों को पुनर्जीवित किया है,इस योजना के तहत सहकारी समितियों को 225 करोड़ की सहायता राशि प्रदान की गई है। इस योजना को लागू करने के लिए 25.09.2007 को राज्य शासन,नाबार्ड एवं क्रियान्वयन एजेन्सियों के मध्य एम.ओ.यू हुआ। इससे प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों को प्राणवायु मिल गया है।
रासायनिक खाद वितरण
प्रदेश में कृषि साख सहकारी समितियों की संख्या 1333 है, जिसमें प्रदेश के 18 जिलों के सभी 20796 गांवों के 22,72,070 सदस्य हैं। इनमें से 14,39,472 ऋणी सदस्य हैं। इन समितियों के माध्यम से चालू वित्तीय वर्ष में खरीफ फसल के लिए 3 प्रतिशत ब्याज दर पर 896.41 करोड़ रूपिये का ऋण वितरित किया गया है। छत्तीसगढ राज्य निर्माण के समय वर्ष 2000-01 में मात्र 190 करोड रूपिये का ऋण वितरित किया गया था जो अब 4 गुणा से अधिक हो गया है। ऋण के रूप में किसानों को इस वर्ष 5,29,309 मिट्रिक टन रासायनिक खाद का वितरण किया गया है।
3 प्रतिशत ब्याज
अल्पकालीन कृषि ऋण पर ब्याजदर पूर्व में 13 से 15 प्रतिशत था। वर्ष 2005-06 से ब्याजदर को घटाकर 9 प्रतिशत किया गया। वर्ष 2007-08 में 6 प्रतिशत ब्याज दर निर्धारित किया गया। 2008-09 से प्रदेश के किसानों को तीन प्रतिशत ब्याज दर पर अल्पकालीन ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है। शासन की नीति के तहत सहकारी संस्थाओं द्वारा गौ-पालन,मत्स्यपालन एवं उद्यानिकी हेतु भी 3 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण दिया जा रहा है।
किसान क्रेडिट कार्ड
किसानों की सुविधा के लिए सहकारी समितियों में किसान क्रेडिट कार्ड योजना लागू की गई है। किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से कृषक सदस्यों को 5 लाख रूपिये तक के ऋण उपलब्ध कराये जा रहे है। कुल 14,39,472 क्रियाशील सदस्यों में से 11,86,413 सदस्यों को अब तक किसान क्रेडिट कार्ड उपलब्ध कराये जा चुके है जो कि कुल क्रियाशील सदस्यों का 80 प्रतिशत है।
महिला स्व सहायता समूह
सहकारी संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिए स्व सहायता समूहों का गठन किया जा रहा है। अब तक 20140 समूहों का गठन किया गया है जिसमें 2,41,722 महिला शामिल है। इन समूहों को सहकारी बैंकों के माध्यम से 10 करोड़ 10 लाख रू. की ऋण राशि उपलब्ध कराई जा चुकी है। इसी प्रकार बैंको के माध्यम से 90 कृषक क्लब गठित किये गये है।
प्रो. बैद्यनाथन कमेटी की सिफारिश
छत्तीसगढ शासन ने प्रो.बैद्यनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू कर राज्य में अल्पकालीन साख संरचना को पुनर्जीवित करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है इसके तहत दिनांक 25 सितंबर 2007 को केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और नाबार्ड के बीच एम.ओ.यू हुआ। त्रि-स्तरीय समझौते के तहत् प्रदेश के 1071 प्राथमिक कृषि साख समितियों को 193.96 करोड़ रूपिये 5 जिला सहकारी केन्द्रीय बैकों को कुल 21.56 करोड़ रूपिये तथा अपेक्स बैंक को 9.49 करोड़ रूपिये की राहत राशि आबंटित की जा चुकी है।
धान खरीदी
सहकारी समितियों के माध्यम से शासन द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान खरीदी की व्यवस्था की गई है। इसके लिए शासन द्वारा लगभग 1550 उपार्जन केन्द्र स्थापित किये गये है। वर्ष 2009-10 में समितियों के माध्यम से 44.28 लाख मिट्रिक टन धान की खरीदी गई। जबकि छत्तीसगढ राज्य निर्माण के समय वर्ष 2000-01 में मात्र 4.63 मिट्रिक टन , 2001-02 में 13.34 लाख मिट्रिक टन, 2002-03 मे 14.74 लाख मिट्रिक टन , 2003-04 में 27.05 लाख मिट्रिक टन, 2004-05 में 28.82 लाख मिट्रिक टन, 2005-06 में 35.86 लाख मिट्रिक टन , 2006-07 में 37.07 लाख मिट्रिक टन , 2007-08 में 31.51 लाख मिट्रिक टन, 2008-09 में 37.47 लाख मिट्रिक टन धान की खरीदी की गई थी। गत वर्ष 44.28 लाख मिट्रिक टन धान खरीद कर छत्तीसगढ़ सरकार ने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
धान खरीदी केन्द्र आनलाईन
शासन द्वारा स्थापित 1550 धान खरीदी केन्द्रों को आन लाईन किया गया है, जिसकी सराहना देशभर में हुई है। धान उपार्जन केन्द्रों के कम्प्यूटराईजेशन से खरीदी व्यवस्था में काफी व्यवस्थित हो गई है। इससे पारदर्शिता भी आई है। किसानों को तुरंत चेक प्रदान किया जा रहा है। किसानों का ऋण अदायगी के लिए लिकिंग की सुविधा प्रदान की गई है। इससे सहकारी समितियां भी लाभान्वित हो रही है, क्योंकि लिकिंग के माध्यम से ऋण की वसूली आसानी से हो रही है।
भूमिहीन कृषकों को ऋण प्रदाय
सहकारी संस्थाओं के माध्यम से किसानों को टैक्टर हार्वेस्टर के अलावा आवास ऋण भी प्रदाय किया जा रहा है। नाबार्ड के निर्देशानुसार अब ऐसे भूमिहीन कृषकों को भी ऋण प्रदाय किया जा रहा है जो अन्य किसानों की भूमि को अधिया या रेगहा लेकर खेती करते है। छत्तीसगढ़ की यह प्राचीन परंपरा है। जब कोई किसान खेती नहीं कर सकता अथवा नहीं करना चाहता तो वह अपनी कृषि योग्य भूमि को अधिया या रेगहा में कुछ समय सीमा के लिए खेती करने हेतु अनुबंध पर दे देता है। चूंकि अधिया या रेगहा लेकर खेती करने वाले किसानों के नाम पर जमीन नहीं होती इसलिए उन्हें समितियों से ऋण नहीं मिल पाता था, लेकिन ऐसे अधिया या रेगहा लेने वाले किसानों का ”संयुक्त देयता समूह” बना कर सहकारी समितियों से ऋण प्रदान करने की योजना बनाई गई है। इस योजना के तहत अकेले रायपुर जिले में चालू खरीफ फसल के लिए 61 समूह गठित कर 8.24 लाख रूपिये का ऋण आबंटित किया गया है।
फसल बीमा
प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों से ऋण लेने वाले सदस्यों को व्यक्तिगत तथा फसल का बीमा किया जाता है। किसानों के लिए कृषक समूह बीमा योजना तथा फसल के लिए राष्ट्रीय कृषि फसल बीमा योजना लागू है। वर्ष 2009-10 में 7,60,477 किसानों ने 835.71 करोड़ रूपिये का फसल बीमा कराया था फलस्वरूप किसानों को 87.64 करोड़ की राशि क्षतिपूर्ति के रूप में प्रदान की गई।
इस प्रकार हम देखते है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पश्चात सहकारिता के माध्यम से सुविधाओं का विस्तार हुआ है। इससे किसानों मे तो खुशहाली आई ही है साथ ही साथ सहकारी आंदोलन को भी काफी गति मिली है।
जैसा कि अब सभी जान चुके हैं, भारत में सेकुलरों और मानवाधिकारवादियों की एक विशिष्ट जमात है, जिन्हें मुस्लिमों का विरोध करने वाला व्यक्ति अथवा देश हमेशा से “साम्प्रदायिक” और “फ़ासीवादी” नज़र आते हैं, जबकि इन्हीं सेकुलरों को सभी आतंकवादी “मानवता के मसीहा” और “मासूमियत के पुतले नज़र आते हैं। कुछ ऐसे ही ढोंगी और नकली सेकुलरों द्वारा इज़राइल की गाज़ा पट्टी नीतियों के खिलाफ़ भारत से फ़िलीस्तीन तक रैली निकालने की योजना है। 17 एशियाई देशों के “जमूरे” दिसम्बर 2010 में फ़िलीस्तीन की गाज़ा पट्टी में एकत्रित होंगे।
इज़राइल के ज़ुल्मों(?) से त्रस्त और अमेरिका के पक्षपात(?) से ग्रस्त “मासूम” फ़िलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिये इस कारवां का आयोजन रखा गया है। गाज़ा पट्टी में इज़राइल ने जो नाकेबन्दी कर रखी है, उसके विरोध में यह लोग 2 दिसम्बर से 26 दिसम्बर तक भारत, पाकिस्तान, ईरान, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और तुर्की होते हुए गाज़ा पट्टी पहुँचेंगे औरइज़राइल का विरोध करेंगे। इस दौरान ये सभी लोग प्रेस कांफ़्रेंस करेंगे, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों से मिलेंगे, रोड शो करेंगे और भी तमाम नौटंकियाँ करेंगे…
इस “कारवाँ टू फ़िलीस्तीन”कार्यक्रम को अब तक भारत से 51 संगठनों और कुछ “छँटे हुए” सेकुलरों का समर्थन हासिल हो चुका है जो इनके साथ जायेंगे। इनकी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ये लोग सताये हुए फ़िलीस्तीनियों के लिये नैतिक समर्थन के साथ-साथ, आर्थिक, कूटनीतिक और “सैनिक”(?) समर्थन के लिये प्रयास करेंगे। हालांकि फ़िलहाल इन्होंने अपने कारवां के अन्तिम चरण की घोषणा नहीं की है कि ये किस बन्दरगाह से गाज़ा की ओर कूच करेंगे, क्योंकि इन्हें आशंका है कि इज़राइल उन्हें वहीं पर जबरन रोक सकता है। इज़राइल ने फ़िलीस्तीन में जिस प्रकार का “जातीय सफ़ाया अभियान” चला रखा है उसे देखते हुए स्थिति बहुत नाज़ुक है… (“जातीय सफ़ाया”, यह शब्द सेकुलरों को बहुत प्रिय है, लेकिन सिर्फ़ मासूम मुस्लिमों के लिये, यह शब्द कश्मीर, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में हिन्दुओं के लिये उपयोग करना वर्जित है)। एक अन्य सेकुलर गौतम मोदी कहते हैं कि “इस अभियान के लिये पैसों का प्रबन्ध कोई बड़ी समस्या नहीं है…” (होगी भी कैसे, जब खाड़ी से और मानवाधिकार संगठनों से भारी पैसा मिला हो)। आगे कहते हैं, “इस गाज़ा कारवां में प्रति व्यक्ति 40,000 रुपये खर्च आयेगा” और जो विभिन्न संगठन इस कारवां को “प्रायोजित” कर रहे हैं वे यह खर्च उठायेंगे… (सेकुलरिज़्म की तरह का एक और सफ़ेद झूठ… लगभग एक माह का समय और 5-6 देशों से गुज़रने वाले कारवां में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ़ 40,000 ???)। कुछ ऐसे ही “अज्ञात विदेशी प्रायोजक” अरुंधती रॉय और गिलानी जैसे देशद्रोहियों की प्रेस कांफ़्रेंस दिल्ली में करवाते हैं, और “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के नाम पर भारत जैसे पिलपिले नेताओं से भरे देश में सरेआम केन्द्र सरकार को चाँटे मारकर चलते बनते हैं। वामपंथ और कट्टर इस्लाम हाथ में हाथ मिलाकर चल रहे हैं यह बात अब तेजी से उजागर होती जा रही है। वह तो भला हो कुछ वीर पुरुषों का, जो कभी संसद हमले के आरोपी जिलानी के मुँह पर थूकते हैं और कभी गिलानी पर जूता फ़ेंकते हैं, वरना अधिसंख्य हिन्दू तो कब के “गाँधीवादी नपुंसकता” के शिकार हो चुके हैं।
कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन के समर्थक, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना अब्दुल वहाब खिलजी कहते हैं कि “भारत के लोग फ़िलीस्तीन की आज़ादी के पक्ष में हैं और उनके संघर्ष के साथ हैं…” (इन मौलाना साहब की हिम्मत नहीं है कि कश्मीर जाकर अब्दुल गनी लोन और यासीन मलिक से कह सकें कि पंडितों को ससम्मान वापस बुलाओ और उनका जो माल लूटा है उसे वापस करो, अलगाववादी राग अलापना बन्द करो)। फ़िलीस्तीन जा रहे पाखण्डी कारवां में से एक की भी हिम्मत नहीं है कि पाकिस्तान के कबीलाई इलाके में जाकर वहाँ दर-दर की ठोकरें खा रहे प्रताड़ित हिन्दुओं के पक्ष में बोलें। सिमी के शाहनवाज़ अली रेहान और “सामाजिक कार्यकर्ता”(?) संदीप पाण्डे ने इस कारवां को अपना नैतिक समर्थन दिया है, ये दोनों ही बांग्लादेश और मलेशिया जाकर यह कहने का जिगर नहीं रखते कि “वहाँ हिन्दुओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे बन्द करो…”।
“गाज़ा कारवां” चलाने वाले फ़र्जी लोग इस बात से परेशान हैं कि रक्षा क्षेत्र में भारत की इज़राइल से नज़दीकियाँ क्यों बढ़ रही हैं (क्या ये चाहते हैं कि हम चीन पर निर्भर हों? या फ़िर सऊदी अरब जैसे देशों से मित्रता बढ़ायें जो खुद अपनी रक्षा अमेरिकी सेनाओं से करवाता है?)। 26/11 हमले के बाद ताज समूह ने अपने सुरक्षाकर्मियों को प्रशिक्षण के लिये इज़राइल भेजा, तो सेकुलर्स दुखी हो जाते हैं, भारत ने इज़राइल से आधुनिक विमान खरीद लिये, तो सेकुलर्स कपड़े फ़ाड़ने लगते हैं। मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल के डॉ तसलीम रहमानी ने कहा – “हमें फ़िलीस्तीनियों के प्रति अपना समर्थन व्यक्त करना चाहिये और उनके साथ खड़े होना चाहिये…” (यानी भारत की तमाम समस्याएं खत्म हो चुकी हैं… चलो विदेश में टाँग अड़ाई जाये?)।
गाज़ा कारवां के “झुण्ड” मे कई सेकुलर हस्तियाँ और संगठन शामिल हैं जिनमें से कुछ नाम बड़े दिलचस्प हैं जैसे –
“अमन भारत”
“आशा फ़ाउण्डेशन”
“अयोध्या की आवाज़”(इनका फ़िलीस्तीन में क्या काम?)
“बांग्ला मानवाधिकार मंच” (पश्चिम बंगाल में मानवाधिकार हनन नहीं होता क्या? जो फ़िलीस्तीन जा रहे हो…)
“छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा” (नक्सली समस्या खत्म हो गई क्या?)
“इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ ट्रेड यूनियन” (मजदूरों के लिये लड़ने वाले फ़िलीस्तीन में काहे टाँग फ़ँसा रहे हैं?)
“जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द” (हाँ… ये तो जायेंगे ही)
“तीसरा स्वाधीनता आंदोलन” (फ़िलीस्तीन में जाकर?)
“ऑल इंडिया मजलिस-ए-मुशवारत” (हाँ… ये भी जरुर जायेंगे)।
अब कुछ “छँटे हुए” लोगों के नाम भी देख लीजिये जो इस कारवां में शामिल हैं –
आनन्द पटवर्धन, एहतिशाम अंसारी, जावेद नकवी, सन्दीप पाण्डे (इनमें से कोई भी सज्जन गोधरा ट्रेन हादसे के बाद कारवां लेकर गुजरात नहीं गया)
सईदा हमीद, थॉमस मैथ्यू (जब ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ कट्टर मुस्लिमों द्वारा काटा गया, तब ये सज्जन कारवां लेकर केरल नहीं गये)
शबनम हाशमी, शाहिद सिद्दीकी (धर्मान्तरण के विरुद्ध जंगलों में काम कर रहे वयोवृद्ध स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या होने पर भी ये साहब लोग कारवाँ लेकर उड़ीसा नहीं गये)… कश्मीर तो खैर इनमें से कोई भी जाने वाला नहीं है… लेकिन ये सभी फ़िलीस्तीन जरुर जायेंगे।
तात्पर्य यह है कि अपने “असली मालिकों” को खुश करने के लिये सेकुलरों की यह गैंग, जिसने कभी भी विश्व भर में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार और जातीय सफ़ाये के खिलाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाई… अब फ़िलीस्तीन के प्रति भाईचारा दिखाने को बेताब हो उठा है।इन्हीं के “भाईबन्द” दिल्ली-लाहौर के बीच “अमन की आशा” जैसा फ़ूहड़ कार्यक्रम चलाते हैं जबकि पाकिस्तान के सत्ता संस्थान और आतंकवादियों के बीच खुल्लमखुल्ला साँठगाँठ चलती है…। कश्मीर समस्या पर बात करने के लिये पहले मंत्रिमण्डल का समूह गिलानी के सामने गिड़गिड़ाकर आया था परन्तु उससे मन नहीं भरा, तो अब तीन विशेषज्ञों(?) को बात करने(?) भेज रहे हैं, लेकिन पिलपिले हो चुके किसी भी नेता में दो टूक पूछने / कहने की हिम्मत नहीं है कि “भारत के साथ नहीं रहना हो तो भाड़ में जाओ… कश्मीर तो हमारा ही रहेगा चाहे जो कर लो…”।
(सिर्फ़ हिन्दुओं को) उपदेश बघारने में सेकुलर लोग हमेशा आगे-आगे रहे हैं, खुद की फ़टी हुई चड्डी सिलने की बजाय, दूसरे की धोने में सेकुलरों को ज्यादा मजा आता है…और इसे वे अपनी शान भी समझते हैं। कारवाँ-ए-फ़िलीस्तीन भी कुछ-कुछ ऐसी ही “फ़ोकटिया कवायद” है, इस कारवाँ के जरिये कुछ लोग अपनी औकात बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगेंगे, कुछ लोग सरकार और मुस्लिमों की “गुड-बुक” में आने की कोशिश करेंगे, तो कुछ लोग एकाध अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ में लग जायेंगे… न तो फ़िलीस्तीन में कुछ बदलेगा, न ही कश्मीर में…। ये फ़र्जी कारवाँ वाले, इज़राइल का तो कुछ उखाड़ ही नहीं पायेंगे, जबकि गिलानी-मलिक-शब्बीर-लोन को समझाने कभी जायेंगे नहीं… मतलब “फ़ोकटिया-फ़ुरसती” ही हुए ना?
“अपने” लोगों को लतियाकर, दूसरे के घर पोंछा लगाने जाने वालों की साइट का पता यह है :https://www.asiatogaza.net/
इन दिनों कश्मीर समस्या एक बार फिर पूरे विकराल स्वरूप के साथ हमारे समक्ष उपस्थित है। आज कश्मीर समस्या का जो स्वरूप हमें दिखाई दे रहा है उसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं जिनकी चर्चा समय समय पर होती रहती है परंतु सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आज भी कश्मीर हमारे समक्ष इतिहास के अनसुलझे प्रश्न की तरह मुँह फैलाये खडा है।
कश्मीर समस्या निश्चित रूप से देश की स्वतंत्रता के बाद देश के नेतृत्व की उस मानसिकता का परिचायक ही है कि देश का नेतृत्त्व क़िस प्रकार उन शक्तियों के हाथ में चला गया जो न तो भारत को एक सांस्कृतिक और न ही आध्यात्मिक ईकाई मानते थे। वे तो भारत को एक भूखण्ड तक ही मानते थे जिसका सौदा विदेशी दबाव में या अपनी सुविधा के अनुसार किया जा सकता है। आज कश्मीर के सम्बन्ध में यह बात पूरी तरह समझने की है कि कश्मीर भारत की मूल पहचान और संस्कृति का अभिन्न अंग सह्स्त्रों वर्षों से रहा है। कश्मीर के सम्बन्ध में एक बडी भूल यही होती है कि हम इसे भारत का अभिन्न अंग मानते हुए भी इसे एक राजनीतिक ईकाई भर मान कर संतुष्ट हो जाते हैं जिसका इतिहास 194 से आरम्भ होता है। कश्मीर के प्रति भारत का भावनात्मक लगाव जब तक उसकी ऐतिहासिकता के साथ चर्चा मे नहीं लाया जाता तब तक इसका पक्ष अधूरा रहेगा। इसी पक्ष के अभाव के चलते इस समस्या को पूरी तरह राजनीतिक सन्दर्भ में देखा जाता है और भारत का एक वर्ग कहीं न कहीं जाने अनजाने इस सम्बन्ध में हीन भावना से ग्रस्त होता जा रहा है कि कश्मीर में स्वायत्तता या फिर स्वतंत्रता की माँग पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार कश्मीर समस्या का एक आयाम तो उसे उसके सांस्कृतिक सातत्य में न देखने की भूल है।
कश्मीर में वर्तमान समय में हम जिस समस्या का सामना कर रहे हैं वह पूरी तरह स्वतंत्रता के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का परिणाम है। भारत को स्वाधीनता देने के बाद भी तत्कालीन विश्व राजनीति के सन्दर्भ मे ब्रिटेन और अमेरिका को दक्षिण एशिया में अपनी रणनीतिक आवश्यकता के लिये कश्मीर की आवश्यकता थी ताकि इस पूरे क्षेत्र में रूस के प्रभाव को रोका जा सके। इसी कारण इन दोनों ही देशों ने पाकिस्तान को अपना सहयोगी मान लिया और एशिया में रूस के प्रभाव को रोकने के लिये चीन को रूस के विरुद्ध प्रयोग करने में भी इन शक्तियों के निकट चीन को लाने में पाकिस्तान की भूमिका रही। इन कारणों से पश्चिमी शक्तियाँ सदैव पाकिस्तान को सहयोग देती रहीं और पाकिस्तान ने इसका लाभ उठा कर कश्मीर को एक ऐतिहासिक अधूरे प्रश्न के रूप में एक रिसते हुए घाव की तरह भारत के विरुद्ध प्रयोग किया।
आज जब हम इस ऐतिहासिक घटनाओं के सन्दर्भ में कश्मीर समस्या की ओर देखते हैं तो प्रश्न उठता है कि इस समस्या को लेकर हमारा आज का दृष्टिकोण क्या होना चाहिये?
सर्वप्रथम तो हम कश्मीर समस्या को केवल राजनीतिक समस्या नहीं मान सकते। इस समस्या के सम्बन्ध में हमारी सरकारें भले ही दावा करें कि हम किसी तीसरी शक्ति की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेंगे परंतु वास्तविकता तो यह है कि हम काफी पहले से इसमें अमेरिका को परोक्ष रूप से शामिल कर चुके हैं। यदि जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर पर कबायलियों के हमले के बाद ब्रिटेन और तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन के दबाव में युद्ध विराम की घोषणा कर दी थी और इस विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की भूल कर दी थी तो उसके बाद सभी काँग्रेसी सरकारों ने इस विषय को परोक्ष रूप से एक अंतरराष्ट्रीय विषय़ ही मानकर इसके साथ आचरण किया। कूट्नीतिक विफलताओं, पाकिस्तान के विरुद्ध पर्याप्त दबाव न डाल पाने और समय समय पर विदेशी दबाव में पाकिस्तान के साथ बातचीत की अपनी नीतियों के कारण पाकिस्तान ने सदैव कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विषय बनाये रखने में सफलता प्राप्त की।
आज कश्मीर के विषय को हमें तीन सन्दर्भों में समझने की आवश्यकता है।
घरेलू सन्दर्भ- वैसे तो हम लम्बे समय से कहते आये हैं कि कश्मीर हमारा अविभाज्य अंग है परंतु एक राष्ट्र के रूप में हमने अपनी इस इच्छा शक्ति का प्रमाण कभी दिया नहीं। कश्मीर को धीरे धीरे शेष देश से अलग कर उसे विशुद्ध रूप से इस्लामी पहचान देने का प्रयास हो रहा है और इसका एक ही समाधान है कि कश्मीर की विशेष स्थिति का दर्जा समाप्त कर वहाँ से धारा 370 समाप्त की जाये ताकि उस क्षेत्र के साथ भी शेष भारत का आत्मसातीकरण हो सके। आज कश्मीर के विशेष दर्जे की बात उठाते समय तर्क दिया जाता है कि देश के पूर्वोत्तर के कुछ क्षेत्रो को भी संविधान से विशेष दर्जा प्राप्त है परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि पूर्वोत्तर के सभी क्षेत्रों में शेष भारत के लोग न केवल व्यापार कर रहे हैं वरन पिछली अनेक पीढियों से बसे भी हैं और वहाँ किसी भी क्षेत्र में किसी नस्ल या धर्म विशेष के लोगों को जबरन विस्थापित नहीं किया गया है। इन क्षेत्रों में अनेक सेवा कार्यों और विभिन्न प्रकल्पों के द्वारा ऐसे प्रयास हुए हैं कि यहाँ अलगाव का भाव कम हुआ है । लेकिन इसके विपरीत कश्मीर में ऐसा कोई भी प्रयास नही हो सका क्योंकि इस समस्या को सदैव एक धर्म विशेष से जोडकर ही देखा गया और मतों के तुष्टीकरण की नीति के चलते कश्मीर के पूरे सन्दर्भ के साथ एक धर्म विशेष की पहचान को हटाकर इसे राष्ट्रीय विषय बनाने की प्रवृत्ति विकसित करने के स्थान पर इसकी माँग करने वालों को साम्र्इदायिक बताकर कश्मीर के विषय को और जटिल बना दिया गया।
पिछले दो दशकों के घटनाक्रम के बाद इस विषय में किसी को सन्देह रह ही नहीं जाना चाहिये कि कश्मीर में अलगाववादी चाहते क्या है? सैयद अली शाह गिलानी पिछले अनेक दशकों से घोषित करते आये हैं कि कश्मीर का विषय जिहाद से जुडा है। पिछले कुछ माह में कश्मीर का घटनाक्रम इस तथ्य को पुष्ट भी करता है कि वहाँ गिलानी ने जो कैलेंडर जारी किया है वह किसी इस्लामी राज्य के सदृश है जहाँ जुमा के दिन ( शुक्रवार) सार्वजनिक अवकाश होता है और रविवार को स्कूल और कार्यालय खुले रहते हैं। घरेलू मोर्चे पर कश्मीर के विषय को समझते समय हमें यह भूल कदापि नहीं करनी चाहिये कि यह एक वृहत्तर इस्लामी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा से भी जुडा है जिसका समाधान करने के लिये इतिहास से ही कुछ शिक्षा लेनी होगी ताकि इस मह्त्वाकाँक्षा के समक्ष समर्पण जैसी भूल फिर न हो।
कश्मीर की समस्या और अंतरराष्ट्रीय राजनीति- कश्मीर के विषय को ध्यान में रखते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह विषय अत्यंत प्रारम्भ में ही अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अंग बना दिया गया था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका और पाकिस्तान के सम्बन्धों ने भी कश्मीर विषय को प्रभावित किया। अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की पर्ंतु तब जब कि उसे स्वयं इसका शिकार होना पडा लेकिन इसी आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध के नाम पर अमेरिका ने पाकिस्तान को धन और हथियारों से न केवल सुसज्जित कर दिया है वरन उसके आतंकवादी व्यवसाय की ओर से आँखें भी मूँद ली हैं। आज अफगानिस्तान में विजय के लिये अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता है। क्योंकि जो लोग अमेरिका को अधिक नहीं जानते उन्हें नहीं पता कि अमेरिका की सबसे बडी शक्ति उसकी खुफिया एजेंसी है और इसके लिये अमेरिका सदैव दूसरों पर निर्भर रहता है। शीत युद्ध के समय उसने सोवियत संघ के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये जर्मनी के युद्ध में आत्मसमर्पण करने वाले हिटलर के सेनाधिकारियों के साथ सौदा किया और गोपनीय तरीके से 1970 के दशक तक यह कार्य जारी रहा। एक बार फिर अमेरिका इस्लामी संगठनों और जिहादियों के सहारे अफगानिस्तान में अपना सम्मान सुरक्षित रखना चाहता है इसलिये आज वह पूरी तरह पाकिस्तान के नियंत्रण में है। हमने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में जिस प्रकार अपनी विदेश नीति और आतंकवाद के विरुद्ध अपनी लडाई को आउटसोर्स कर दिया है उसके बाद यह निश्चित है कि कश्मीर के विषय में भारत को न केवल दबाने का प्रयास होगा वरन उसे पाकिस्तान की मह्त्वाकाँक्षा पूर्ण करने के लिये विवश किया जायेगा।
कश्मीर समस्या का तीसरा आयाम भी है जिसे हमें ध्यान में रखना होगा- यह विषय पूरी तरह वैश्विक जिहादी अन्दोलन से भी जुडा है। खाडी के देशों में तेल के धन ने अचानक समस्त विश्व में जिहादी राजनीतिक मह्त्वाकाँक्षा का नया दौर आरम्भ कर दिया और मध्य पूर्व सहित पश्चिम एशिया में 1980 के दशक से राज्य प्रायोजित आतंकवाद का जो दौर आरम्भ हुआ है वह अभी तक जारी है। खाडी के तेल के धन से वहाबी विचारधारा और फिर सलाफी विचारधारा ने जो जडें समस्त विश्व के मुस्लिम देशों और गैर मुस्लिम देशों मुस्लिम जनमानस में बनाई हैं उसका परिणाम आज हमारे समक्ष है। कश्मीर में आज सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेंकने और फिर मीडिया के द्वारा विषय को चर्चा में लाने की रणनीति पूरी तरह इजरायल- फिलीस्तीन के संघर्ष की याद दिलाती है। इसी प्रकार 1980 के द्शक मे जनरल जिया उल हक के नेतृत्व में पाकिस्तान की सेना का जो जिहादीकरण आरम्भ हुआ था वह अब पूरी तरह सम्पन्न हो चुका है और अब पाकिस्तान की सेना और आई एस आई तथा अल कायदा और तालिबान की विचारधारा में कोई भेद नहीं रह गया है। कश्मीर की समस्या के इस पहलू को न समझने की भूल हमने 1989 से आज तक की है। आगे भी हम ऐसी भूल न करें इसके लिये हमें कश्मीर के व्यापक सन्दर्भ को समझना होगा। जो लोग यह भूल कर रहे हैं कि 2001 को अमेरिका पर हुए आक्रमण के बाद आब जिहादी मह्त्वाकाँक्षा ने आतंकवाद का रास्ता छोड दिया है और सेना और अर्ध सैनिकों पर पत्थर फेकने की घट्ना इसका प्रमाण है तो उन्हें समझना चाहिये कि जिहाद एक लक्ष्य है जिसके लिये रणनीति कुछ भी हो सकती है।
आज कश्मीर के विषय पर हम जिस मोड पर खडे हैं वहाँ हमें इसका समाधान करने के लिये इस समस्या के तीनों आयामों को एक साथ लेकर चलना होगा। आज कश्मीर का प्रश्न हमारे राष्ट्रीय चरित्र . राष्ट्रीय इच्छा शक्ति और भविष्य़ के भारत का रेखाचित्र है। आज जहाँ आर्थिक आधार पर हमारी चर्चा हो रही है तो अब हमारी चुनौती राष्ट्र की अखण्ड्ता और इसके मूल स्वरूप को बनाये रखने की भी है।
क्या आपने सैयद अली शाह गिलानी का नाम सुना है ? हाँ ! वो ही कश्मीर अवाम के महान नेता …. गत माह केन्द्रीय प्रतिनिधिमंडल ने जिनके घर जाकर कश्मीर के साथ हो रहे अन्याय के लिये अफ़सोस जाहिर किया था…