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व्यंग्य/ महिला शौचालय का लोकार्पण

-अशोक गौतम

शहर के मेन बस स्टैंड के पास बड़े दिनों से महिला शौचालय बनकर तैयार था पर कमेटी के प्रधान बड़ी दौड़ धूप के बाद भी उस शौचालय के लोकार्पण के लिए मंत्री जी से वक्त नहीं ले पा रहे थे और महिला यात्री थे कि पुरूष शौचालय में जाने के लिए विवश थे। पर वहां जब देखो कुत्ते लेटे हुए। अब कमेटी के कर्मचारियों का शौचालय की रखवाली करना मुश्किल हो रहा था। वे किस किसको कहते फिरें कि अभी इस शौचालय का मंत्री जी ने लोकार्पण नहीं किया है।

और आज कमेटी के प्रधान को बधाई देने की शुभ घड़ी आ पहुंची। बारह बजे महिला शौचालय को मंत्री जी ने जनता को समर्पित करना था। सुबह नौ बजे से शहर के सभी विभागों के मुखिया नाक पर रूमाल रखे सांसें रोके वहां खड़े हुए। मैंने उन्हें कहा, ‘साहब! नाक पर रूमाल तो वाजिब है पर शौचालय के पास अभी से नाक पकड़ कर खड़े होने की जरूरत नहीं। अभी तो इसका लोकार्पण भी नहीं हुआ है, ‘पर वे अपनी नाक पर रूमाल रखे रहे। पता नहीं क्यों? मेरी समझ में आज तक नहीं आया।

शौचालय को शादी के मंडप की तरह सजाया गया था गोया वहां किसीके फेरे लगने हों। पास ही लोक संपर्क विभाग वालों ने देशभक्ति के गीत पुरजोर चलाए हुए थे।

आखिर एक बजे मंत्री जी का काफिला बस स्टेंड पहुंचा तो अफसरों की जान में जान आई। कमेटी की सुंदर जवान महिला कर्मचारियों को खास तौर पर इओ ने सज धज कर आने को कहा था। मंत्री जी ने अपने स्वागत के लिए चार-चार सुंदर महिलाएं मुस्कुराते हुए अपनी राह में पलकें बिछाएं देखीं तो उनके चेहरे पर से एक झुर्री और गायब हुई।

कुछ देर तक जुटाई गई भीड़ की ओर से खुश हो मंत्री जी कमेटी के प्रधान की पीठ थपथपाते रहे तो वह फूल कर कुप्पा हुए। उन्हें तय लगा कि अब वे किसी बोर्ड के चेयरमेन कभी भी हुए। देखते ही देखते उनका गला फूल मालाओं से पूरी तरह घुट गया। यह देख साथ चले पीए ने पूछा भी, ‘सर! आपका गला फूलों से घुट रहा हो तो निकाल दूं?’ पर वे उसकी बात को अनसुनी कर गए। आखिर उन्होंने महिला शौचालय के द्वार पर मुस्कराती लाल साड़ी में खड़ी, थाली में फूल, मूंछें काटने वाली कैंची, तिलक लिए सुंदर नवयौवना को मंद मंद मुस्कराहट से देखा तो उसे लगा कि अब वह भी पक्की हो गई। महिला ने ज्यों ही मंत्री जी के माथे पर सिंदूर का टीका लगाया, उन्होंने अपने मन के वहम को बनाए रखने के लिए गठिया हुए हाथ से एक झटके से थाली से केंची उठाई और खच से शौचालय के द्वार पर बंधा रिबन काट दिया। रिबन कटते ही पूरा बस स्टेंड अफसरों, पार्टी वर्करों की तालियों से गरज उठा। रिबन कटने के बाद ज्यों ही मंत्री जी शौचालय में जाने लगे तो पीए ने उन्हें रोक उनके कान में कहते उनसे पूछा, ‘सर! कहां जा रहे हैं आप?’

‘लोकार्पण नहीं करना है क्या!?’

‘ये महिला शौचालय का लोकार्पण है सर! पुरूष शौचालय का नहीं।’

‘तो क्या हो गया! जाएंगे तो यहां मर्द ही। दूसरे हम मंत्री हैं, कहीं भी जा सकते हैं। मैं केवल पुरूषों का ही मंत्री थोड़े हूं। बल्कि महिलाओं का मंत्री अधिक हूं। पीछे हटो,’ वे पीए को धक्का दे अंदर जाने को हुए तो पीए ने उनके कान में फुसफुसाया,’ अखबार वाले आ गए हैं। एक ने तो कैमरा भी आपकी ओर ही कर रखा है’, तो वे संभले और जिस पैर अंदर को चले थे उसके साथ सौ पैर और बाहर को मुड़े तो पार्टी वर्करों की जान में जान आई।

कुछ देर खांसने के बाद महिला शौचालय के सामने खड़े हो डीपीआरओ द्वारा रखे माइक का सहारा ले सभी को संबोधित करते बोले, ‘हे मेरे देशवासियों! आज देश को यह शौचालय समर्पित करते हुझे मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। यह दीगर बात है कि यह देश किसी शौचालय से कम नहीं। जहां मन किया शौच कर दिया। पर चलो, जनता को अपना काम करना है तो सरकार को अपना। यथा राजा तथा प्रजा,’ अफरों ने पुरजोर तालियां बजाई तो वे दुगने जोश से आगे बोले,’ और दोनों पूरी निश्ठा से अपना- अपना काम कर भी रहे हैं। इस शुभ अवसर पर यह शौचालय को जनता को समर्पित करते हुए उम्मीद करता हूं कि देश में संपूर्ण स्वच्छता हो जाएगी। पिछड़े वर्ग की महिलाओं के हितों का विशेष ध्यान रखते हुए सरकार ने चाहा है कि यहां भी आरक्षण लागू होगा। क्योंकि आरक्षण के बिना अब इस देश की राजनीति एक कदम भी नहीं चल सकती। इसलिए यहां पर तैनात होने वाले कर्मचारी को मैं साफ निर्देश देता हूं कि आरक्षित वर्गों की महिलाओं से वह शौच जाने का शुल्क वैसे ही कम ले जैसा अन्य जगह रखा गया है। और……. हां,बीपीएल/एपीएल/बीसी/ओबीसी/बेरोजगार/भूतपूर्व सैनिकों की महिलाओं आदि- आदि सभीको शुल्क में पूरी छूट दी जाए ताकि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ जरूरत मंदों तक हर हाल में पहुंचे। आशा ही नहीं उम्मीद करता हूं कि यह शौचालय महिला सशक्तिकरण में मील पत्थर साबित होगा। पहली बार आप सबका ज्यादा वक्त न लेता हुआ- आओ देश हित में पुरजोर कहें- नारी शक्ति जिंदाबाद!! जय हिंद!! जय भारत!!’, मंत्री जी ने कहा तो अफसरों ने उनके साथ नारा लगया और चैन की सांस ली कि चलो अब लंच करने को वक्त तो मिला। पार्टी वर्करों का जोश देखो तो सभी को चींटियों की तरह मसलने पर उतारू। सरकार उन्हीं से तो चलती है साहब!

अंततः दिग्विजयी तीर से हो ही गया लालू का सफाया

-लिमटी खरे

देश के हृदय प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रहे सुंदर लाल पटवा ने कांग्रेस के वर्तमान महासचिव और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में कहा था कि ‘‘दिग्विजय शोध का विषय हैं।‘‘ भाजपा के वयोवृद्ध और अनुभवी नेता सुंदर लाल पटवा की बात आज भी अक्षरशः सत्य ही साबित होती दिखती है। कहा जाता है कि राजा दिग्विजय सिंह जिसके कंधे पर हाथ रख दें, उसका विनाश सुनिश्चित है। कांग्रेस आलाकमान ने राजा दिग्विजय सिंह को बिहार की कमान सौंपी और बिहार से लालू प्रसाद यादव का सफाया हो गया। साल दर साल बिहार पर राज करने वाले लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का बिहार में अब नामलेवा नहीं बचा है। कल तक स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव को न तो केंद्र मंे और न ही अपने सूबे में ही आधार मिल पा रहा है। बिहार मंे वैसे भी बाहुबलियों का राज रहा है। कांग्रेस ने ही इन बाहुबली, धनपति, अपराधियों को प्रश्रय देकर बिहार की राजनति को प्रदूषित कर दिया है। क्षेत्रवाद, भाषावाद की राजनीति के चलते बिहार के लोगों को महाराष्ट्र विशेषकर मुंबई से वापस भागने पर मजबूर होना पड़ रहा है। केंद्र और मध्य प्रदेश में कांग्रेसनीत सरकारें सत्तारूढ हैं, फिर भी बिहार के लोगों को संरक्षण न मिल पाना निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए डूब मरने की बात है, क्योंकि बिहार ही एसा प्रदेश है जिसने देश के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद और जयप्रकाश नारायण जैसी विभूतियां दी हैं।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले चरण में कांग्रेस को केंद्र में सरकार बनाने में पसीना आ गया था। उस वक्त कांग्रेस ने चारा घोटाला के प्रमुख आरोपी लालू प्रसाद यादव को अपने साथ मिलाकर नैतिकता की समस्त वर्जनाएं तोड दी थीं। संप्रग के पहले कार्यकाल में लालू प्रसाद यादव ने रेल्वे मंत्रालय लेकर कांग्रेस पर खासा दवाब बनाया था। इस कार्यकाल में लालू प्रसाद यादव ने रेल्वे को फायदे में लाने की बात कहकर खुद को ‘स्वयंभू प्रबंधन गुरू‘ के तौर पर स्थापित कर लिया था। इस कार्यकाल में लालू यादव ने देश विदेश के आला दर्जे के मेनेजमेंट कालेज में जाकर व्याख्यान भी दिए थे। लालू यादव ने दबाव बनाकर कांग्रेस को बहुत ही हलाकान कर दिया था। यहां तक कि लालू के उपर चारा घोटाले के आरोप में जब भी सीबीआई का दबाव कांग्रेस ने बनाया तब तब लालू यादव और अधिक ताकतवर होकर उभरे थे। आलम यह था कि कांग्रेस के हर हथकंडे पूरी तरह से फ्लाप ही साबित हुए। थक हारकर जब आलाकमान ने बीसवीं सदी में कांग्रेस की राजनीति के चाणक्य राजा दिग्विजय सिंह को लालू यादव को साईज में लाने का काम सौंपा तब जाकर कांग्रेस को चैन आया।

राजा दिग्विजय सिंह ने अपने सधे कदमों से बिहार में कांग्रेस का ग्राफ उंचा करने और लालू प्रसाद यादव के कद को कम करने के प्रयास आरंभ कर दिए। पिछले विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों में भी लालू यादव को गहरा झटका लगा। इसके बाद संप्रग की दूसरी पारी में कांग्रेस ने लाल यादव के कुशल प्रबंधन को दर किनार करते हुए मंत्रीमण्डल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब लालू यादव अर्श से उतरकर फर्श पर आ गए हैं। कल तक कांग्रेस की कालर पकड़कर धमकाने वाले लालू यादव आज कांग्रेस के साथ बातचीत करने की स्थिति तक में नहीं रह गए हैं, यह सब राजा दिग्विजय सिंह की नीतियों का पुण्य प्रताप ही माना जा सकता है।

हाल ही में बिहार विधानसभा चुनावों के जो सर्वे सामने आ रहे हैं, उससे साफ होने लगा है कि इस बार भी लालू प्रसाद यादव का चमत्कार चलने नहीं वाला है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इस बार जो परिदृश्य सामने आ रहा है, उसमें चौंकाने वाले नतीजे ही सामने आ रहे हैं। सभी सर्वेक्षणों को मिला लिया जाए तो जो स्थिति बनती है, उसके अनुसार इस बार जनता दल यूनाईटेड और भारतीय जनता पार्टी की जुगलबंदी वापस लौट सकती है।

बिहार की 243 सीटों में से जदयू और भाजपा की सरकार को पिछले बार की 143 के मुकाबले 27 सीटें ज्यादा मिल सकती हैं। इसका आंकड़ा 170 को पार करने की उम्मीद जताई जा रही है। दूसरे नंबर पर लालू यादव की राजद और राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी है जिसे पिछली बार मिली 64 के मुकाबले 34 सीटें ही मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस इस बार कुछ फायदे में दिख रही है। कांग्रेस को इस बार 09 के स्थान पर 22 सीटें मिलने की आशा है। चौथे स्थान पर अन्य दलों के रहने की संभावना है। पिछली बार 13 के मुकाबले इस बार इसका आंकड़ा नौ तक सिमट सकता है। बसपा इस बार 04 के स्थान पर महज 02 सीट ही पा सकती है। निर्दलीय की संख्या भी इस बार कम होने की उम्मीद है। पिछली मर्तबा निर्दलीय की संख्या 10 थी जो घटकर 06 हो सकती है।

बिहार चुनाव 24 नवंबर को पूरे हो जाएंगे। सुरक्षा और निष्पक्षता को ध्यान में रखकर बिहार में चुनाव छः चरणों में कराने का फैसला लिया गया है। वैसे भी बिहार में धनबल और बाहूबल (मसल पावर) का जलजला सदा से ही रहा है। इस बार के चुनावों में राजद के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव बहुत ज्यादा अपसेट दिखे वे अपने ही कार्यकर्ताओं को गरियाते पाए गए। इससे साफ हो जाता है कि लालू यादव को कांग्रेस विशेषकर राजा दिग्विजय सिंह ने इस कदर हलाकान कर रखा है कि वे अपना आपा खोते जा रहे हैं। उधर सधी राजनीतिक पायदानों को चलते हुए राजा दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का आभा मण्डल बिहार में भी बिखेरने का प्रयास किया जा रहा है। नेशनल मीडिया को भी इसके लिए पूरी तरह मैनेज करने की तैयारी की जा रही है। कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी की बिहार यात्राओं के कवरेज के लिए कांग्रेस ने पूरा पूरा सकारात्मक एंगल भी सुनियोजित कर लिया है, ताकि राहुल गांधी को राष्ट्रीय राजनीति मंे स्थापित किया जा सके।

कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी ने भी बिहार को अब तक केंद्र सरकार द्वारा दी गई करोड़ों अरबों रूपयों की इमदाद के बारे में पूछकर थमे हुए पानी में कंकर मार दिया है, जिसकी प्रतिक्रिया बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती है। उधर बिहार मूल के मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष प्रभात झा ने कहा है कि बिहार को मिली केंद्रीय मदद कांग्रेस की बपौती नहीं बिहार का हक था। लोगों का मानना है कि बिहार को अब तक पांच सालों में दी गई राशि का हिसाब किताब पूछने की जहमत कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी अब क्यों उठा रही हैं। क्या पिछले पांच सालों में उन्हें इस बारे में मालूमात करने की फुर्सत नहीं मिली? अब जब चुनाव सर पर हैं तब आना पाई से हिसाब किताब करने का क्या ओचित्य? क्या यह पूछ परख राजनैतिक षणयंत्र का हिस्सा नहीं है?

बिहार का पिछड़ापन किसी से छिपा नहीं है। बिहार में अब तक जंगलराज की स्थापना ही हुई है। पिछले पांच सालों में इस जंगल राज को पटरी पर लाने में नितीश कुमार की सरकार बहुत ज्यादा नहीं पर कुछ हद तक तो कामयाब रही है। बिहार के लोगों को लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी के राज और नितीश कुमार के राज में सुशासन और कुशासन का अंतर अवश्य ही समझ में आया होगा। बिहार में जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के अग्रणी नेता रहे शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, राम विलास पासवान, सुबोध कांत सहाय आदि ही एक मतेन नहीं हो पा रहे हों तो किस पर दोषारोपण किया जाए।

उधर महाराष्ट्र और दिल्ली में रोजी रोटी कमाने गए बिहार के वाशिंदों को दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे और शिवसैनिकों के कोप का भाजन होना पड़ा। राज ठाकरे के फरमान के आगे बिहार के वाशिंदे डरे सहमे रहे, किन्तु भारत गणराज्य में कांग्रेस नीत प्रदेश और केंद्र सरकार राज ठाकरे के आगे पूरी तरह बेबस नजर आई। न तो प्रधानमंत्री, न ही सोनिया गांधी और न ही सूबे की सरकार ने राज ठाकरे की मश्कें कसने का उपक्रम किया। कुल मिलाकर बिहार के लोगों के घाव रिसते रहे और कांग्रेस ने उनके घावों पर मरहम लगाने के बजाए चुप्पी साधकर नमक छिड़कने का ही काम किया है।

बिहार में जातिवाद बहुत अधिक हावी है। यहां ठाकुर, भूमिहार ब्राम्हण, लाला, कुर्मी आदि अनेक जातियों के बीच रार किसी से छिपी नहीं है। राजनैतिक दल भी जातिवाद को हवा देकर उसी जात के उम्मीदवार को मैदान में उतारती है, जिस जाति के लोगों का उस निर्वाचन क्षेत्र में आधिक्य होता है। बिहार तपोभूमि कही जाती रही है। यहां गोतम बुद्ध और महावीर स्वामी की अनमोल वाणियां गुंजायमान होती रही हैं, विडम्बना ही कही जाएगी कि आज इन अनमोल वाणियों के बजाए लोगों के बीच लट्ठ, गालियों, गोलियों की आवाजें गूंज रही हैं।

दुख तो तब होता है जब सच्चाई सामने आती है कि देश पर आधी सदी से ज्यादा समय तक शासन करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस ने केंद्र में सत्ता की मलाई चखने की गरज से बिहार को आताताईयों, सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाली जातिवाद की पोषक ताकतों के हवाले कर दिया। बिहार में कांग्रेस का ग्राफ भले ही चंद फीसदी उठता दिख रहा हो, किन्तु यह भी सच है कि बिहार में कांग्रेस का नामलेवा अब नहीं बचा है।

चुनाव के दरम्यान आरोप प्रत्यारोप नेताओं का पुराना शगल रहा है। युवराज राहुल गांधी, विदेश मूल की भारतीय बहू सोनिया गांधी आदि के आकर्षण और चुनावी धुन तरानों के बीच भीड़ तो इकट्ठी की जा सकती है, किन्तु इस भीड़ को वोट में तब्दील करना बहुत ही दुष्कर काम है। सोनिया, राहुल या सुषमा स्वराज अपने उद्बोधनों में एकाध लाईन बिहारी में बोलकर तालियों की गड़गड़ाहट तो बटोर सकतीं हैं, किन्तु यह वोट में तब्दील हो यह बात मुश्किल ही लगती है। बिहार के लोग परिश्रमी होते हैं, समझदार होते हैं, वे जानते हैं कि रोजी रोटी के जुगाड़ मंे जब वे मुंबई दिल्ली जाते हैं तो उन्हें ‘‘बिहारी‘‘ कहकर बेईज्जत किया जाता है। उनके साथ मारपीट की जाती है। उन्हें जबरन धकियाकर भगाया जाता है, पर यह सब कुछ देखने सुनने के बाद भी राजनैतिक दल और उनके राजनेताओं के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। चुनाव सर पर हैं, बिहार के लोगों का अपना आंकलन होगा, किसकी सरकार बने या न बने यह फैसला बिहार की जनता को ही करना है, किन्तु राजनेताओं को चाहिए कि भारत के संविधान के अनुरूप देश की एकता अखण्डता बनी रहे इस दिशा में अवश्य ही प्रयास करे, अन्यथा आने वाली पीढ़ी उन्हें शायद ही माफ कर पाए।

भारत सरकार से छीन ली जाएगी करोड़ों की संपत्तियां

-लोकेन्द्र सिंह राजपूत

मुस्लिम सांसदों के दबाव में शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 में संसोधन स्वीकृत

इस देश की राजनीति में घुन लग गया है। राष्ट्रहित उसने खूंटी से टांग दिए हैं। इस देश की सरकार सत्ता प्राप्त करने के लिए कुछ भी कर सकती है। अधिक समय नहीं बीता था जब केन्द्र सरकार ने कश्मीर के पत्थरबाजों और देशद्रोहियों को करोड़ों का पैकेज जारी किया। वहीं वर्षों से टेंट में जिन्दगी बर्बाद कर रहे कश्मीरी पंडि़तों के हित की चिंता आज तक किसी भी सरकार द्वारा नहीं की गई और न की जा रही है। मेरा एक ही सवाल है- क्या कश्मीरी पंडि़त इस देश के नागरिक नहीं है। अगर हैं तो फिर क्यों उनकी बेइज्जती की जाती है। वे शांत है, उनके वोट थोक में नहीं मिलेंगे इसलिए उनके हितों की चिंता किसी को नहीं, तभी उन्हें उनकी जमीन, मकान और स्वाभिमान भरी जिन्दगी नहीं लौटाने के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। वहीं भारत का राष्ट्रीय ध्वज जलाने वाले, भारतीय सेना और पुलिस पर पत्थर व गोली बरसाने वालों को 100 करोड़ का राहत पैकेज देना, उदार कश्मीरी पंडि़तों के मुंह पर तमाचा है। इतने पर ही सरकार नहीं रुक रही है। इस देश का सत्यानाश करने के लिए बहुत आगे तक उसके कदम बढ़ते जा रहे हैं।

एक पक्ष को तुष्ट करने के लिए सरकार कहां तक गिर सकती है उसका हालिया उदाहरण है शत्रु संपत्ति विधेयक-2010 का विरोध करना फिर उसमें मुस्लिम नेताओं के मनमाफिक संसोधन को केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा स्वीकृति देना। कठपुतली (पपेट) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में बुधवार को केंद्रीय कैबिनेट की बैठक आयोजित की गई थी। इसमें इसी बैठक में केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव पर शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 में संसोधन को स्वीकृति प्रदान की गई। भारत सरकार द्वारा वर्ष 1968 में पाकिस्तान गए लोगों की संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया गया था, इस संपत्ति पर अब भारत में रह रहे पाकिस्तान गए लोगों के कथित परिजन कब्जा पा सकेंगे। जबकि पाकिस्तान गए सभी लोगों को उनकी जमीन व भवनों का मुआवजा दिया जा चुका है। उसके बाद कैसे और क्यों ये कथित परिजन उस संपत्ति पर दावा कर सकते हैं और उसे प्राप्त कर सकते हैं।

दरअसल पाकिस्तान गए लोगों की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए पहले से ही उनके कथित परिजनों द्वारा प्रयास किया जा रहा है, क्योंकि 1968 में लागू शत्रु संपत्ति अधिनियम में कुछ खामी थी। उत्तरप्रदेश में यह प्रयास बड़े स्तर पर किए जा रहे हैं। 2005 तक ही न्यायालय में 600 मामलों की सुनवाई हो चुकी है और न्यायालय ने उन्हें वांछित शत्रु संपत्ति पर कब्जा देने के निर्देश दिए हैं। शत्रु संपत्ति हथियाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में 250 और मुम्बई उच्च न्यायालय में 500 के करीब मुकदमे लंबित हैं। मैं यहां कथित परिजन का प्रयोग कर रहा हूं, उसके पीछे कारण हैं। समय-समय पर इस बात की पुष्टि हो रही है कि बड़ी संख्या में पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मुसलमान भारत के विभिन्न राज्यों में आकर बस जाते हैं। कुछ दिन यहां रहने के बाद सत्ता लोलुप राजनेताओं और दलालों के सहयोग से ये लोग राशन कार्ड बनवा लेते हैं, मतदाता सूची में नाम जुड़वा लेते हैं। फिर कहते हैं कि वे तो सन् 1947 से पहले से यहीं रह रहे हैं।

शत्रु संपत्ति अधिनियम-1968 की खामियों को दूर करने और कथित परिजनों को शत्रु संपत्ति को प्राप्त करने से रोकने के लिए गृह राज्यमंत्री अजय माकन ने 2 अगस्त को लोकसभा में शत्रु संपत्ति (संसोधन एवं विधिमान्यकरण) विधेयक-2010 प्रस्तुत किया गया था। इस विधेयक के प्रस्तुत होने पर अधिकांशत: सभी दलों के मुस्लिम नेता एकजुट हो गए। उन्होंने विधेयक में संसोधन के लिए पपेट पीएम मनमोहन सिंह और इटेलियन मैम सोनिया गांधी पर दबाव बनाया। दस जनपथ के खासमखास अहमद पटेल, अल्पसंख्यक मंत्रालय के मंत्री सलमान खुर्शीद, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में मुस्लिम सांसदों ने प्रधानमंत्री से मिलकर उनके कान में मंत्र फंूका कि यह विधेयक मुस्लिम विरोधी है। अगर यह मंजूर हो गया तो कांग्रेस के माथे पर मुस्लिम विरोधी होने का कलंक लग जाएगा और कांग्रेस थोक में मिलने वाले मुस्लिम वोटों से हाथ धो बैठेगा। यह बात मनमोहन सिंह को जम गई। परिणाम स्वरूप विधेयक में संसोधन कर दिया गया और उसे पाकिस्तान गए मुसलमानों के कथित परिजनों के मुफीद बना दिया गया। जिस पर बुधवार को पपेट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी गई। अब स्थित अराजक हो सकती है सरकार से उन सभी ऐतिहासिक और बेशकीमती भवनों व जमीन को ये कथित परिजन छीन सकते हैं, जो अभी तक शत्रु संपत्ति थी। जबकि इनका मुआवजा पाकिस्तान गए मुसलमान पहले ही अपने साथ भारत सरकार से थैले में भर-भरकर ले जा चुके हैं।

वर्ग-दंभियों के दायरे


-हरिकृष्ण निगम

हाल में एक अमेरिकी लेखक ने आज की सभ्यता के संकटों से उपजे स्वरों में एक नितांत वैयक्तिक तत्व को अत्यंत महत्वपूर्ण माना है और कहा है कि आज के युग में प्रतिष्ठित, समृध्द और बड़े कहे जाने वाले लोगों में संवेदनशीलता, निर्बोधता और निश्छल आचरण का युग जैसे समाप्त होता जा रहा है। यह उनकी अपनी उपस्थिति जताने की विवशता है अथवा समाज पर छवि निर्माण उद्योग की नई गहरी पैंठ, यह सच है कि कड़ी प्रतिद्वंदिता के दौर में हम सब नए प्रपंचों की दहलीज पर खड़े हैं। आज चारों ओर ऐसे लोगों का बोलबाला है, लोग जैसा दिखते हैं, वैसे नहीं हैं। वे जो कुछ बोलते हैं उनका कृत्रिमता, रहस्य या आशय कदाचित उन लोगों पर अधिक अच्छी तरह प्रकट होता है जो इस योजनाबध्द नम्रता का दृश्य देखते हैं। आज अनेक क्षेत्रों के प्रबुध्द व्यक्ति इतने आत्मकेंद्रित या आत्ममुग्ध हैं कि वे सार्वजनिक रूप से विश्व संस्कृति या विरासत पर अपना दावा करते नहीं थकते-यद्यपि यथार्थ में वे अपने सीमित दायरे में ही मस्त रहते हैं। आज हमारा समाज वर्ग-दंभियों से भरा है जो उच्चवर्गीय रोब-दाब से सिर्फ अपना प्रभाव जताने के लिए ही नहीं बल्कि अपनी कथित ताकत, सामर्थ्य, पहचान और जिसे जुगाड़ूपन भी कहते हैं उसके माध्यम से दूसरों पर असर डालने का खेल अभ्यास ही अपनी दिनचर्या में खेलते रहते हैं। वर्ग-दंभ किस तरह से प्रदर्शित किया जाता है, कैसे फलता-फू लता है, ऐसे लोगों के संपर्क में आने पर स्वतः मालूम हो जाता है। अंतर्संबंधों में अपव्यक्त प्रतिद्वंदिता या बराबरी या एक-दूसरे पर तुरूप का पता चलने का खेल हमारे चारों ओर चलता है, यद्यपि इसे शायद ही किसी ने परिभाषित करने की कोशिश की हो। जो इस दिखावे या विशिष्ट वर्ग का संभ्रांत किंतु दंभी खिलाड़ी होता है उसके लिए सामान्य प्रचलित शब्द है – ‘स्नॉब’! वह हिंदी जानने पर भी सिर्फ अंग्रेजी में, वह भी चालू ‘स्लैंग’-युक्त हिंगलिस में वार्तालाप करता है। सामाजिक स्तर पर अपने को अलग प्रदर्शित करने की ललक उसे असामान्य बना देती है जो वह समझना नहीं चाहता हैं। ऐसे व्यक्ति आदर के भूखे होते हैं और जैसे हैं उससे कुछ अधिक ही प्रदर्शित करना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन की सत्यता वही नहीं है जो वह कहता है अपितु सच्चाई वह छवि है जो वह चतुराई से अपने चारों ओर बुनता है। यद्यपि अब ऐसे लोग कम मिलते हैं जो अपने खानदान का जिक्र कर अपने रिश्तेदारों के पद, ओहदों या संपत्ति की अंतहीन बातों से प्रभावित करना चाहते हैं पर ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो चाहे राजनीतिज्ञ हो या नौकरशाह या मीडिया अथवा मनोरंजन की दुनिया से जुड़ा चर्चित व्यक्तित्व, उससे अपनी निकटता दिखाकर अपनी ढपली बजाते हैं। ऐसे गर्व-दंभ से भरे लोग बड़े लोगों के नाम को भी उनके प्रचलित आधा अक्षर या बुलाने के नाम को ऐसे लेते हैं जैसे वे उनके लंगोटिया यार हों। यह सिर्फ इसलिए कि सामने वाले अभिभूत हो जाए कि आप सत्ता के नजदीक अथवा महत्वपूर्ण बड़े लोगों के कितने निकट हैं। झूठे अभिमान से ग्रस्त ऐसे कुछ लोग दूसरों को नीचा दिखाने में भी स्वर्गिक आनंद पाते हैं। अधिकांश का गुप्त मंतव्य यह होता है कि वे अपने वर्तमान स्तर से कैसे एक ऊंची छलांग लगा सकें। यह आत्मकेंद्रित रुख भी एक आस्था या धर्म की तरह है जो भावी आशा की या भय की तरंगे फैलाने से पनपता है। ऐसा दंभी व्यक्ति स्वयं के लिए अपने चारों ओर आगे बढ़ने के लिए एक सुरक्षा कवच तो बनाता ही है, जब वह दूसरे बड़े लोगों के नाम के व्यूह के भीतर से अपने नीचे व बराबरी के लोगों को इस प्रक्रिया में और नीचे धकेलने की कोशिश में जुट जाता है। आज ताकत के अनेक रूप हैं जो भिन्न-भिन्न प्रकार से दिखाई जाती है पर उसका लक्ष्य पुराने जमाने जैसा ही होता है, स्वीकृति ये आदर कैसे बटोरा जाए। वैसे तो सभी समाज किसी न किसी रूप में इस तरह संगठित होते हैं जहां स्वीकृति पाने की लकीरें स्पष्ट खिंची होती हैं पर धन, प्रतिष्ठा या समृध्दि व्यक्ति को जो महत्व देते है उसके संदर्भ अनेक अयोग्य पिछलग्गुओं को भी कुछ मात्रा में समाज में आदर वितरित करते हैं। पर कोई वर्गदंभी अपने को पिछलग्गू नहीं कहलाना चाहेगा इसलिए वह अभिजात्य वर्ग में शामिल होने के लिए एक नई जीवन शैली और अलग दुनिया बनाना चाहता है। बच्चों के लिए स्कू ल हो तो चुना हुआ जिसमें विशिष्ट और संभ्रांत वर्ग, इलीट का लेबल लगा हुआ, घर का पता हो तो वह भी दक्षिण मुंबई जैसा महंगा स्थान, नहीं तो सब व्यर्थ है। यदि आपका घर ऊपरी उपनगरों में नालासोपारा या नायगांव जैसी जगह हुआ तो कथित परिकृष्ट सभ्य समाज में आप किस वर्ग के हैं इसकी कलई खुल जाएगी। समृध्द वर्ग का हिस्सा होने की इस अंधी दौड़ ने अनेक दिखावटी लोगों को आज एक गहरी त्रासदी की ओर ढकेल दिया है जिसे वे मान भी नहीं सकते हैं। मारे और रोने भी न दे। पर यह विकल्प तो उन्होंने स्वयं अपनी झूठी शान के कारण चुना है। जिन्हें हम बड़ा मानते हैं वे इसलिए बड़े हैं कि हम अपने सामने घुटने टेके हुए हैं – जानते हुए भी कि उनका बड़प्पन उनके दंभ और अहंकार पर टिका हुआ है। विश्वविद्यालय, कार्यालय, बड़े-बड़े क्लब, आवासीय परिसर, बाजार ये सब स्वयं शुरू से स्टेट्स प्रणाली के आधार पर वर्गीकृत होते हैं। इस ढांचे को कोई अनदेखा नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए आज भी मुंबई के उपनगरों में रहने वाले करोड़ों लोग जब चर्चगेट, नरीमन प्वाइंट, मलाबार हिल आदि प्रतिष्ठित दक्षिणी मुंबई की ओर जाते हैं तब वे यही कहते हैं-वे मुंबई जा रहे हैं। कला, साहित्य, शिक्षा, वाणिज्य, मनोरंजन, व लोकप्रिय संस्कृति के गढ़ के रूप में दशकों से जाने-माने स्थान इसी छोर पर हैं जो समृध्द वर्ग के अभिमान व अहंकार का तुष्टीकरण करते हैं और हर कोई इन स्थानों से अपने को जोड़ना चाहता हैं जिससे दूसरों को प्रभावित कर सके। ऐसे भी लोग हैं जो अपनी विशिष्टता की धाक जमाने के लिए मध्य वर्ग के सरोकारों को हेय दृष्टि से देखते हैं। महंगाई या बढ़ती कीमतों की बात भी उनके लिए फैशन के बाहर हैं और इसकी चर्चा करने वाला अभिजात्य वर्ग के बीच कहीं अपनी वर्ग प्रकृति न खोल दे। विचारों के लेबिलों का दंभ भी इस वर्ग की पहचान है। यदि हम हिंदी या भारतीय भाषाओं के पत्र पढ़ते हैं तब छिपा जाइए क्योंकि परिष्कृत अभिजात्य वर्ग इसे आज भी ‘वर्नाक्यूलर’ स्थानिक या देसी बोली मानता है। यदि अंग्रेजी सेक्युलर व वैश्विक है, हिंदी थमे पानी के क्षेत्र और गोबर पट्टी जैसे भूखंड की बोली है – हिंदी हिंटरलैंड, बैक वाटर्स, काऊबेल्ट! यदि आपका दायरा बहुत बड़ा है जहां उनके प्रांतों के लोग उठते-बैठते हैं तब यह भी छिपाना व्यावहारिक हो सकता है कि आप बिहार या उत्तर प्रदेश के हैं – आज मुंबई और अनेक भागों में बिहारी शब्द स्वयं एक अपशब्द बन चुका है और उत्तर प्रदेश का रहने वाला अरसे से ‘बीमारू’ प्रांतों में से एक का वासी। विचारों के लेबिलों का दंभ भी इस वर्ग की पहचान है जैसे सेक्युलरिज्म का अर्थ समझें या न समझें हमारे देश के बुध्दिजीवियों के लिए इसका विरुध्दार्थी शब्द सांप्रदायिक, फासीवादी या नाजीवादी है। यह खेमेबाजी भी एक ‘स्टेट्स-सिंबल’ है। आपकी अभिरुचि, आपके चुने होटल, क्लब, बैंडवाले वस्त्र, आवसीय उपनगर – सबकुछ आपके घमंड या वर्ग वैविध्य की निशानी हैं। अगर वह सामान्य है तब आप फिसड्डी हैं। आपको अलग दिखने के लिए सामान्य से हटकर संभ्रांत वर्ग के विशिष्ट चुने नामों पर जाना होगा। पहले एक जमाने में पारिवारिक प्रतिद्वंदिता का मूलाधार आपके बच्चों के स्कू ल कॉलेज भी थे। पहले सिर्फ आई. आई. टी. या आई. आई. एम. का नाम लेकर लोग गर्व से एक अव्यक्त रोब जमाते थे। अब हर जगह यही सुनने को मिलेगा कि मेरे लड़के की वार्षिक फीस 4 लाख रुपये या 5 लाख रुपये हैं। मैंने अपने बच्चों को स्टैनफोर्ड भेजा है, हावर्ड या प्रिंसटन विश्वविद्यालय में भेजा है। आप नीचे दरजे के हैं यदि आपका पुत्र आस्ट्रेलिया या पूर्व सोवियत संघ के अनामी कॉलेज में पढ़ रहा हैं। विशिष्ट श्रेणी में धमाचौकड़ी मार कर सारे पड़ोस की चर्चा का विषय बनाने में आज के उपभोक्ता उत्पादों के आधुनिकता ब्रांडों की भूमिका सबसे बड़ी है। मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा की मिलावट जब से बैंकों के दिए गए ॠण से जुड़ी है, सारा पारिवारिक परिदृश्य उत्तेजना से भर चुका है। कथित संभ्रांत व्यक्ति, मनोरंजन या खेल की दुनिया से जुड़े, सितारे कौन-सी कमीज, घड़ी, चश्में या पेन खरीदते हैं, वे कौन-सा समाचार-पत्र पढ़ते हैं, किस पर्यटन स्थल पर इस वर्ष जा रहे हैं-सभी समाचार-पत्र चटखारे लेकर यही व्यंजन परोस रहे हैं। खास कर अंग्रेजी भाषा को प्रयुक्त करने वाले आज की औपनिवेशिक मानसिकता वाले नए भद्र या संभ्रांत समाज के बदहोश झुंड व्यर्थ के रोबदाब की खोज में मंडी-तंत्र के सहारे अपने झूठे दिखावे के दंभ में ही आत्मसंतुष्टि की तलाश कर रहे हैं। उनका योजना-धर्मी दिमाग जैसे कह रहा हो जितना बटोरते बने, बटोर लो। जो इस नियम का पालन करते हैं, वही आगे निकलता है। आवश्यक हो तो दूसरों के कंधों को कुचलते हुए आगे बढ़ों! लोगों को यह एहसास कराना होगा कि पड़ोसी के पास जो कुछ है, उससे ज्यादा ही उनके पास होना चाहिए। आप भी चाहे छोटे हिस्से ही क्यों न बनो, पर छवि का निर्माण एवं जनसंपर्क के करोड़ों डॉलरों के अमेरिकी उद्योगों के शिकंजों से कब तक बचोगे।

* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

धारावाहिकों की माया

– हरिकृष्ण निगम

प्रत्येक साहित्यप्रेमी या कथा-साहित्य के अनुरागी के लिए एक सामान्य ज्ञान का विषय है कि चाहे औपन्यासिक कृतियां हों या कहानी लेखक की कोई भी विद्या उसमें कल्पना, भावोद्वेग, चमत्कारिक मोड़ वाले घटनाक्रम, यौनाचरण, हिंसा, उन्माद, अपराध, प्रतिशोध,र् ईष्या-द्वेष और षड़यंत्र आदि का मिश्रण उसे उत्तेजक, पठनीय और रोचक बनाते हैं। यही तत्व आजकल टी.वी. जैसे जनसंचार के माध्यमों की विविध चैनलों पर दिखाए जाने वाले हिंदी धारावाहिकों के लिए भी सामान्य बात है। पर आज सामान्य जनता को सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इन सभी सीरियलों के पास दान-पुण्य, पूजा-पाठ, व्रत व अनुष्ठान करने वाले वे धर्मनिष्ठ हिंदू हैं जो कभी घोर अंधविश्वासी, कभी पारिवारिक षड़यंत्री, हिंसा प्रतारणा और कौटुंबिक अनाचार से लिप्त भी दिखाए जाते हैं। स्त्री पात्र तो दूराव-छिपाव, परिवार के अन्य लोगों से छिपाकर अपनी कथित खोजों की पहल या अपने निजी एजेंडा को किसी नैष्ठिक आयोजन की पर्तों में इस तरह छिपाती है जो धर्म का मखौल लगता है। सामान्य व्यक्ति के पास एक स्पष्ट संकेत है कि धर्मों के लोगों के बीच हिंदू-आस्था की यह प्रस्तुति इसे धूल-धुसरित करने का प्रच्छन्न उपकरण है। यदि इन धारावाहिकों, जिनका नाम लेना अनावश्यक है, के अंतर्निहित संदेशों पर जाए तो कोई भी स्तब्ध होगा कि हिंदू आस्था का पालन करने वाले, अन्धविश्वासी, दोहरे व्यक्ति वाले, कथनी-करनी में अंतर रखने वाले, नैतिकता की घोषणाओं के पीछे जघन्य कृत्य भी कर सकते हैं। पात्रों के चरित्र अथवा आचरण के विरोधाभास किसी भी सामान्य पात्र में दिखाया जा सकता था। पर उस परिवार में यह चित्रित किया जाता है जो यज्ञ, हवन, व्रतों और कर्मकांडों में लिप्त हैं। इसके निहित उद्देश्य बहुत गहरे हैं। धार्मिक परिवारों में अवैद्य संबंधों व विकृत आचरणों की जो बाढ़ सीरियलों में दिखाई दे रही है वह एकाएक नहीं आ गई। ये सीरियलों में हमारी छिपी वासनाओं को हवा देकर सांस्कृतिक सामाजिक जीवन के संस्कार बड़ी चालाकी से छीनते हैं। धर्म, कर्मकांडों और नीति की दुहाई देने वाले या परंपराओं की बात करने वाले सीरियल ही हमारे धर्म की दूसरों की नजर में छवि विकृत कर सकते हैं – इस पर विश्वास नहीं होता है। हाल में एक पश्चिमी लेखक ने इन टी.वी. धारावाहिकों पर टिप्पणी की है कि वे स्वयं संशयग्रस्त हैं कि कहीं वे हिंदू आचरण के दोहरे धन के तो नहीं प्रतिबिंबित करते हैं। गलत सामाजिक आचरण को तर्क का जामा पहनाने के कारण मध्यवर्ग में अनगिनत परिवार धारावाहिकों की नायिकाओं का अनुकरण कर अपने व्यवहार को खतरनाक ढंग से बदल सकते हैं। यह चिंताजनक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है। किशोरों और युवाओं पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के हाल के एक सर्वेक्षण में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं।निष्ठावान परिवारों में भी प्रदर्शित पूजा-पाठ, व्रत आदि के साथ अपसंस्कृति के प्रभाव के कारण दुराचरण भी दाम्य हो सकते हैं। आक्रामकता, अगम्यागमन, हिंसा, स्वार्थ या संकीर्णता को ये हिंदी धारावाहिक दिखावे की धार्मिकता की चाशनी के साथ परोस रहे हैं।

अधिकांश सामाजिक धारावाहिकों से हमारी संस्कृति, परंपरा और असली धार्मिक पहचान प्रभावित हो रही है। एवं उपभोक्तावाद, हिंसा, विकृत, यौनाचरणों तथा अश्लीलताओं को बढ़ावा मिल रहा है। मनोरंजन के नाम पर एक दृश्यरतिक के स्वच्छंद आचरण के लिए इन धारावाहिकों के माध्यम से विश्वसनीयता का कवच भी मिलता है। एक समय उत्तर-आधुनिकता के समर्थक और कथित प्रगतिशील कहलाने वाला मीडिया रामायण या महाभारत के बाद सीरियलों के बाद पौराणिक कथाओं और धार्मिक सीरियलों की बाढ़ पर विषाक्त टिप्पणियां करता था। पर लगता है कि वे लोग ही अपनी रणनीति की पुनर्व्याख्या करते हुए सास-बहू या अनेक लोकप्रिय पारिवारिक सीरियलों में सांस्कृतिक घुसपैठ कर इतर धर्मों के अनुयाइयों में एक धर्मनिष्ठ हिंदू की छवि धूल-धूसरित करने में फिर लगे हैं। अब अंधविश्वासों का प्रचार, आस्था और आचरण के खुले विरोधाभास को उछालने के लिए नई रणनीति अपनाई जा रही हैं। यह धर्म और जनसंचार के इस माध्यम के व्यापार का नया गठबंधन भी हो सकता है जिसमें हिंदू-विरोधी तत्वों को ही लाभ हो सकता है (इस नए सांस्कृतिक प्रदूषण के सामने मध्यवर्गीय परिवार स्वेच्छा से पराजित हो रहे हैं। हमारी आस्था के मूल व्यवहार से अलग एक सुनियोजित शब्द-छलना विकसित किया गया है और चित्रांकित बाह्य रीति-रिवाजों के पीछे अनीति और स्वच्छंदता को स्वीकृति दी जा रही है।

* लेखक स्तंभकार हैं।

प्रधानमंत्री हैं राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के जिम्मेदार

-नितिन गडकरी

हमारे खिलाड़ियों ने हाल ही में सम्पन्न हुए 19वें राष्ट्रमंडल खेलों – दिल्ली 2010 में विभिन्न क्षेत्रों में अपने शानदार प्रदर्शन से भारत को गौरवांवित किया है। खेल संस्कृति पैदा करने की भारत की क्षमता और एक खेल प्रधान देश बनने के बारे में सभी प्रकार की अनिश्चिताएं उस समय समाप्त हो गई जब पदकों की संख्या पहली बार 3 अंकों में पहुंची। उद्धाटन तथा समापन समारोह वास्तव में भव्य थे और इसके साथ-साथ सुरक्षा प्रबंध भी त्रुटिविहीन थे। मैं सभी भारतीय खिलाड़ियों को उनके शानदार प्रदर्शन के लिए बधाई देता हूं और उन खिलाड़ियों का अभिनंदन करता हूं, जिन्होंने पदक जीते हैं। मैं एथलीटों के विरूध्द कुछ ग्रुपों द्वारा आतंकी हमले करने की धमकियों की आसूचना रिपोर्टों के बावजूद राष्ट्रमंडल खेलों में पूर्ण सुरक्षा बरतने के लिए सभी सुरक्षा एजेंसियों को सलाम करता हूं। मैं खेलों को पूरी तरह सफल बनाने में भाग लेने वाले कलाकारों, स्कूली बच्चों तथा अन्य सभी व्यक्तियों की भी प्रशंसा करता हूं, जिन्होंने शानदार प्रदर्शन किया है।

बिड जीतने तक सब कुछ ठीक-ठाक प्रतीत होता था। उसके बाद हम कहां असफल हुए और वे सब कौन हैं, जिन्होंने हमें बदनाम किया ? सामान्य रूप से सारा विश्व और विशेष रूप से भारत की जनता यह जानना चाहती है।

भारत ने नवम्बर, 2003 में बिड जीती थी और राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति बनाने में 16 महीने का समय लगा। इस समिति में राहुल गांधी, कपिल सिब्बल, ज्योतिर्आदित्य सिंधिया, अजय माकन, जितिन प्रसाद और संदीप दीक्षित सहित 35 सदस्य थे।

आधारभूत ढांचा समन्वय समिति की पहली बैठक 15 मार्च, 2005 को दिल्ली में हुई, जिसमें स्टेडियम तथा उनके अपग्रेडेशन और खेल गांव के निर्माण संबंधी आवश्यकताओं पर विचार किया गया और इन सभी कार्यों को अन्तर्राष्ट्रीय मानकों से समझौता किए बिना पूरा करने के लिए सभी सरकारी निकायों जैसे कि शहरी विकास मंत्रालय, दिल्ली विकास प्राधिकरण, दिल्ली सरकार तथा अन्य एजेंसियों को 5 वर्ष से अधिक का समय दिया गया। उनके प्रस्तावों को मंत्रियों के एक ग्रुप द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई और बाद में केन्द्रीय मंत्रिमंडल का अनुसमर्थन प्राप्त हुआ। इन परियोजनाओं के लिए टेंडर मंगाने की प्रक्रिया में अनियमितताएं तथा गड़बड़ी हुई, जिनमें कई हजार करोड़ रूपए की राशि शामिल है।

राष्ट्रमंडल खेलों में कदाचारों तथा भ्रष्टाचार संबंधी पहली कहानी का 30 जुलाई, 2010 को पता चला जब यू.के. की एक कम्पनी ए.एम. फिल्मस् ने बिना किसी लिखित करार के भुगतानों का मामला उजागर किया। ऐसा आरोप है कि राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति ने ए.एम. फिल्मस् जोकि लंदन में एक भारतीय-स्वामित्व वाली फर्म है, को बिना टेंडर मांगे और बिना कागजी कार्यवाही किए गत वर्ष के दौरान क्वीन्स बैटन रिले उद्धाटन समारोह के लिये किए गये कार्यों हेतु 4,50,000 पाउंड से अधिक (30 मिलियन रूपये से अधिक) की राशि का भुगतान किया।

खेलों की विभिन्न परियोजनाओं, जिनमें स्टेडियम तथा अन्य आधारभूत ढांचा शामिल है, के लिए टेंडर देने तथा एअरकंडीशनर, ट्रेडमिल्स और टॉयलेट पेपर जैसे उपकरणों को किराए पर लेने या खरीदने के लिए ठेके देने में भ्रष्टाचार अपनाया गया प्रतीत होता है।

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने खेलों के लिए बनाए जा रहे/नवीकरण किए जा रहे स्टेडियम पर होने वाले व्यय में भारी वृध्दि के बारे में भी प्रतिकूल टिप्पणी की है।

संसद और संसद के बाहर भाजपा नेताओं द्वारा लगाये गए भ्रष्टाचार के आरोपों और घटिया आधारभूत ढांचे संबंधी आरोपों और मीडिया द्वारा चलाए गए प्रतिकूल अभियान को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने खेलों में भाग लेने वाले राष्ट्रों को यह आश्वासन दिया है कि 3-14 अक्तूबर के राष्ट्रमंडल खेलों के लिए स्टेडियम पूरे हो जाएंगे।

राष्ट्रमंडल खेल परिसंघ के प्रेसीडेंट माइक फेनल घबराकर दिल्ली पहुंचे और एक प्रेस कांफ्रेस में उन्होंने कहा कि ”हम (राष्ट्रमंडल खेल परिसंघ) किसी प्रकार के भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं करेंगे। फेनल ने कहा ”भ्रष्टाचार की रिपोर्टों की पूर्ण जांच की जानी चाहिए और कानून के अनुसार उन पर कार्यवाही की जानी चाहिए।” फेनल ने खेलों तथा आधारभूत ढांचे के विकास संबंधी मामलों पर अपनी चिंता व्यक्त करने के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से भी मुलाकात की।

परंतु कहीं कोई सुधार नहीं हुआ। मुख्य स्थल जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के बिल्कुल सामने एक निर्माणाधीन पैदल पुल टूटकर गिर गया, जिसमें 27 लोग घायल हो गये और भारोत्तोलन क्षेत्र में एक फाल्स सीलिंग टूट गई। स्थिति से निपटने के लिए सेना की मदद ली गई।

इन सब बातों से उच्चतम न्यायालय ने उत्तेजित होकर टिप्पणी की कि राष्ट्रमंडल खेल परियोजनाओं ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया है और वह ”व्याप्त भ्रष्टाचार” के प्रति अपनी ऑंखें बंद नहीं रख सकता और उसने भारत सरकार की अन्तर्राष्ट्रीय खेल कार्यक्रम के लिए उसकी तैयारियों के लिए आलोचना की।

खेलों संबंधी सभी ठेकों के लिए टेंडर मंगाने की प्रक्रिया में धांधली और अनियमितताओं के अनेक आरोप है, जिनकी जांच की जानी चाहिए।

श्रीमती सुषमा स्वराज, श्री अरूण जेटली, श्री कीर्ति आजाद, श्री नवजोत सिंह सिध्दू तथा श्री अनुराग ठाकुर सहित वरिष्ठ भाजपा नेता संसद के दोनों सदनों में ये मामले उठाते रहे। वरिष्ठ भाजपा नेता, श्री विजय कुमार मल्होत्रा, पार्टी के महासचिव, श्री विजय गोयल एवं दिल्ली भाजपा अध्यक्ष, श्री विजेन्द्र गुप्ता तथा खेल प्रकोष्ठ संयोजक, श्री महिन्दर लाल ने दिल्ली में खेलों संबंधी घोटालों के विरूध्द अभियान चलाया।

भाजपा के इन सभी नेताओं तथा सचिव श्री किरीट सोमैया ने खेलों में कुप्रबंधन के बारे में तथ्य एकत्रित करने के लिए अथक प्रयास किए और ”राष्ट्रमंडल खेलों में लूट संबंधी भाजपा की प्रथम सूचना रिपोर्ट” तैयार की। इसके साथ उन्होंने एक भारी भरकम अनुबंध भी तैयार किया, जिसमें सरकारी एजेंसियों और खेल निकायों द्वारा कर-दाताओं के धन की पूर्णतया बरबादी के प्रति दिखाई गई बेदर्दी एवं पूर्ण उदासीनता उजागर होती है। इसके परिणामस्वरूप खेल बजट जो शुरू में 2000 करोड़ रूपये का था बढ़कर 70,000 करोड़ रूपये की भारी भरकम राशि का हो गया।

प्रधानमंत्री कार्यालय ने पूर्व सीएजी, श्री बी.के. शुंगलु की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई है। अनेक सरकारी एजेंसियों को जैसे प्रवर्तन निदेशालय, मुख्य सर्तकता आयुक्त, सीएजी, केन्द्रीय जांच ब्यूरो, राजस्व आसूचना, तथा अन्य एजेंसियां, भ्रष्टाचार, अनियमितताओं तथा कदाचारों आदि को विशिष्ट आरोपों की अपनी-अपनी जांच करने के लिए इसमें शामिल किया गया है।

अब शीला दीक्षित, सुरेश कलमाडी तथा अन्य लोगों द्वारा राष्ट्रमंडल खेलों के बारे में खुले में कीचड़ उछाला जा रहा है, जहां कलमाडी न केवल राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के 1620 करोड़ रूपये के बजट की जांच की मांग कर रहे हैं बल्कि दिल्ली सरकार के 16,000 करोड़ रूपये के बजट की जांच की भी मांग कर रहे हैं।

भाजपा की यह पुरजोर मांग है कि ये सभी जांच तथा छानबीन शीघ्रातिशीघ्र पूरी की जानी चाहिए, जिससे किसी तर्क संगत निर्णय पर पहुंचा जा सके ताकि दोषियों को बिना विलंब किए दंडित किया जा सके।

इस कार्य में अनेक एजेंसियों के शामिल होने की बात को ध्यान में रखते हुए हम मांग करते हैं कि मंत्रिमंडल सचिव की अध्यक्षता में एक उच्च शक्ति प्राप्त समन्वय समिति गठित की जाए ताकि घोटालों का पता लगाने के लिए प्रभावी और समेकित प्रयास सुनिश्चित किये जा सके।

इन सभी प्रकार की जांचों के माध्यम से यह पता लगाया जाना चाहिए कि विभिन्न सौदों में कितना और किस प्रकार का भ्रष्टाचार हुआ और इनमें शामिल एजेंसियों ने क्या भूमिका अदा की ताकि दोषी पाये गए व्यक्तियों के विरूध्द उचित कानूनी कार्यवाही की जा सके।

भाजपा सभी जांच एजेंसियों को पूरा सहयोग प्रदान करेगी और भ्रष्टाचार और धांधली के सभी आरोपों की निष्पक्ष एवं अर्थपूर्ण जांच करने में इसके नेताओं द्वारा एकत्रित सूचना उपलब्ध कराएगी।

परन्तु इसके साथ-साथ मैं यह महसूस करता हूं कि शीघ्र ही उन लोगों की जिम्मेदारी निर्धारित की जाये, जिन्होंने इन परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान की और जिन्होंने परियोजना प्रतिवेदनों में गंभीर त्रुटियों को अनदेखा करते हुए समय-समय पर निधियों का आवंटन किया और जो इन परियोजनाओं की अनुचित भारी लागत वृध्दि के लिए उत्तरदायी है।

अब समय आ गया है कि राष्ट्रमंडल खेलों में लूट में शामिल भागीदारों तथा इस गड़बड़ी को अनदेखा करके उन्हें राजनीतिक संरक्षण प्रदान करने वालों के बीच सांठ-गांठ का पर्दाफाश किया जाए।

भारत के लोगों को यह जानने का पूरा संवैधानिक हक है कि इस राष्ट्रीय बदनामी के लिए असली अपराधी कौन है।

सच्चाई तभी समाने आएगी जब एक खुली विस्तृत जांच कराई जाए और वह एक संयुक्त संसदीय जांच के माध्यम से ही हो सकता है।

भाजपा मांग करती है कि राष्ट्रमंडल खेलों में करोड़ों की लूट संबंधी इस महत्वपूर्ण घोटाले की जांच शीघ्रातिशीघ्र एक संयुक्त संसदीय समिति गठित करके कराई जाए।

प्रस्तावित संयुक्त संसदीय समिति के निर्देश पदों में अन्य बातों के साथ-साथ एक ऐसे त्रुटिविहीन तंत्र का बनाया जाना शामिल होना चाहिए, जिससे भविष्य में भ्रष्टाचार तथा घोटाला मुक्त अन्तर्राष्ट्रीय खेल कार्यक्रम आयोजित करने में पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके।

(लेखक भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष हैं)

राष्ट्रमंडल खेल घोटाला: भाजपाई नेता पर हुआ पहला संदेह

-निर्मल रानी

भारत में पहली बार आयोजित हुए राष्ट्रमंडल खेल पूरी सफलता के साथ समाप्त हो गए। नि:संदेह कार्यक्रम के शानदार उद्धाटन तथा समापन समारोहों ने पूरी दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचा। क्या राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले खिलाड़ी तो क्या इन खेलों के साक्षी बनने आऐ विदेशी सैलानी, सभी ने इस अभूतपूर्व शानदार आयोजन की जमकर सराहना की। आयोजन की सफलता से उत्साहित आयोजन समिति से जुड़े कई लोगों के मुंह से तो यह भी सुनने में आया कि भारत अब ओलंपिक खेलों का आयोजन कराने की भी क्षमता रखता है। बहरहाल, याद कीजिए राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने के पहले 6 महीनों का वह वातावरण जबकि मीडिया ने आयोजन समिति की इस हद तक आलोचना करनी शुरू कर दी थी कि ऐसा संदेह होने लगा था कि इतना विशाल आयोजन वास्तव में दिल्ली में हो भी पाएगा या नहीं। और यदि किसी तरह हुआ भी तो सफल हो पाएगा या नहीं। यह संदेह भी तमाम भारत वासियों को होने लगा था कि ऐसा न हो कि इतने बड़े आयोजन के बाद हमें मान स मान, प्रतिष्ठा आदि मिलने के बजाए कहीं अपमान, अक्षमता व फिसड्डीपन का तमंगा न मिल जाए। परंतु प्राकृतिक व मानवीय तमाम नकारातमक परिस्थितियों के बावजूद भारत ने इस आयोजन को सफलतापूर्वक कराकर दुनिया को अपनी क्षमता का आंखिरकार लोहा मनवा ही दिया। सोने पे सुहागा तो यह रहा कि हमारे देश के खिलाड़ियों ने इन राष्ट्रमंडल खेलों में अब तक के सबसे अधिक पदक जीतकर दुनिया को यह भी दिखा दिया कि हमारा देश केवल आयोजन में ही अनूठा नहीं बल्कि हमारे देश के खिलाड़ी भी दुनिया को अपना लोहा मनवाने की पूरी क्षमता रखते हैं।

बहरहाल जहां यह अभूतपुर्व एवं विशाल आयोजन पूरी तरह सफल रहा वहीं इसी आयोजन समिति के साथ व्यापारिक रूप से जुड़े तमाम लोगों ने लूट खसोटमचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक अनुमान के अनुसार राष्ट्रमंडल खेलों में लगभ 8000,करोड़ रूपये का घपला किए जाने का अनुमान है। ऐसी भी संभावना है कि यह घपला इससे भी बड़ा हो सकता है। गौरतलब है कि जब राष्ट्रमंडल खेलों का पारंपारिक बजट तैयार हुआ था तो उस समय इस पर 2 हाार करोड़ रूपये से भी कम लागत का अनुमान लगाया गया था। परंतु खेल के समापन तक इस पर 70 हजार करोड़ तक की लागत का ताज़ा अनुमान लगाया जा रहा है। आंखिर इस आयोजन के बजट में लगभग 35 गुणा की बढोतरी के पीछे का रहस्य क्या हो सकता है। यदि महंगाई को भी इस का कारण माना जाए तो यह बात गले से इसलिए नहीं उतरती कि देश में बावजूद इसके कि लगभग सभी वस्तुएं पहले से कहीं अधिक महंगी हो चुकी हैं उसके बावजूद किसी भी वस्तु का दाम कम से कम 35 गुणा तो हरगिज नहीं बढ़ा है।

खेलों के आयोजन में व्यापक भ्रष्टाचार होने के शोर-शराबे के बीच खेल उद्धाटन से पूर्व ही यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने यह सांफ कर दिया था कि खेलों के समापन के बाद इसमें हुए भ्रष्टाचार की पूरी जांच कराई जाएगी। उसी समय यह आभास हो गया था कि कार्यक्रम के समापन के बाद यथाशीघ्र इसकी जांच होने की संभावना है। परंतु इस बात का अंदाज तो किसी को नहीं था कि समापन समारोह के अगले ही दिन प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह इसकी जांच के आदेश दे देंगे। परंतु ऐसा ही हुआ। खेलों के समापन के अगले ही दिन देश के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग)को 90 दिन में राष्ट्रमंडल खेलों पर हुए पूरे खर्च का ऑडिट करने का आदेश दे दिया गया। और अब आशा है कि संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान ही कैग संभवत: अपनी रिपोर्ट भी संसद के सुपुर्द कर देगा।

इस बीच आयकर विभाग ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े व्यवसायियों के घरों, दं तरों व संबंधित संस्थानों में छापेमारी की कार्रवाई शुरु कर दी है। माना जा रहा है कि खेलों से जुड़े लगभग 20 व्यापारिक संस्थान संदेह के घेरे में हैं। पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा स्वर्गीय प्रमोद महाजन के कभी परम मित्र व सहयोगी समझे जाने वाले ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के तथाकथित पहरेदार सुधांशु मित्तल के दिल्ली, चंडीगढ़ व लुधियाना में उनके व उनके रिश्तेदारों के आवासों व व्यापारिक परिसरों पर लगभग 30 जगह एक साथआयकर विभाग द्वारा छापेमारी की गई। यहां गौरतलब यह भी है कि राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार का सबसे अधिक राग इन्हीं ‘भाजपाई सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ द्वारा ही अलापा जा रहा था। परंतु इत्तेंफांक यह भी है कि संदेह की सुई सर्वप्रथम भाजपाई नेता पर ही जा टिकी। और इस छापेमारी से तिलमिलाए भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जब कुछ नहीं सूझा तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही संदेह के घेरे में लेने की कोशिश कर डाली। जरा गौर कीजिए कि जो व्यक्ति पहली बार देश का प्रधानमंत्री बनने के दिन तक मात्र एक मारूती 800 कार का स्वामी रहा हो तथा ड्राईवर रखने के बजाए स्वयं अपनी गाड़ी चलाता रहा हो ऐसे ईमानदार व्यक्ति पर संदेह करना हिमाक़त नहीं तो और क्या है?

ऐसा नहीं है कि राष्ट्रमंडल खेलों में हुए इस अभूतपूर्व लूटकांड में किसी कांग्रेसी नेता का हाथ नहीं होगा या कांग्रेस पार्टी से जुड़े व्यवसायियों ने दोनों हाथों से लूट नहीं मचाई होगी। परंतु इसकी शुरुआत में जिस प्रकार सुधांशु मित्तल जैसे ‘राष्ट्रवादियों’ से जुड़े स्थानों पर व उनके रिश्तेदारों के घरों व कार्यालयों पर छापे पड़ रहे हैं उससे एक बार फिर यह साफ जाहिर हो गया है कि इनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद या तो महा दिखावा है या फिर लूट-खसोट को ही यह लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहते हैं। शायद बंगारू लक्ष्मण, दिलीप सिंह जूदेव तथा संसद में पैसे लेकर सवाल पूछने वाले कई सांसदों की ही तरह। बहरहाल शुरु से ही विवादों में रहे राष्ट्रमंडल खेलों की जांच पूरी निष्पक्षता व पारदर्शिता के साथ होनी चाहिए। चाहे इस लूट में कोई प्रधानमंत्री का सगा संबंधी शामिल हो या सोनिया गांधी व राहुल गांधी का कोई खास आदमी या फिर कांग्रेस पार्टी के किसी भी नेता का कोई नुमाईंदा या भारतीय जनता पार्टी का कोई सांस्कृतिक राष्ट्रवादी। जिसने देश की आम जनता के पैसों को लूटकर अपने घर भरे हैं उन्हें यथाशीघ्र न केवल बेनकाब होना चाहिए बल्कि उन्हें यथाशीघ्र संभव जेल की सलाखों के पीछे भी होना चाहिए।

हालांकि अभी से इस बात को लेकर भी संदेह व्यक्त किया जाने लगा है कि यह जांच किसी ठोस नतीजे पर पहुंचेगी भी या नहीं। और इस जांच के बाद कुछ लोग बेनकाब होंगे भी या नहीं। ऐसा संदेह पिछले कई दशकों से भ्रष्टाचार संबंधी तमाम जांच समितियों की जांच के बाद मिले असफल परिणामों के संदेह के आधार पर व्यक्त किया जा रहा है। परंतु जो लोग सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि से वांकिंफहैं तथा उसपर विश्वास करते हैं उन्हें जरूर इस बात की उम्‍मीद है कि जो भी हो इस जांच के परिणाम यथाशीघ्र सामने आएंगे तथा भ्रष्ट लोगों के चेहरों को देश व दुनिया ज़रूर देख व पहचान सकेगी। हालांकि खेल समापन के अगले ही दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी ने आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी से फासला बनाकर यह संदेश देश को दे दिया था कि खेल संबंधी भ्रष्टाचार की जांच में पूरी पारदर्शिता व निष्पक्षता रखी जाएगी तथा किसी भी व्यक्ति के बड़े से बड़े संबंधों का कोई लिहाज नहीं किया जाएगा। बावजूद इसके कि सुरेश कलमाड़ी खेल शुरु होने से पहले ही सांफतौर पर यह कह चुके हैं कि यदि मैं इन भ्रष्टाचारों में शामिल हुआ तो बेशक मुझे फांसी पर क्यों न चढा दिया जाए।

जहां तक भारत और भ्रष्टाचार का संबंध है तो आपको गत् सितंबर माह में अवकाश प्राप्त कर चुके भारतीय सतर्क ता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा के वे शब्द शायद भली भांति याद होंगे जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि यहां तीस प्रतिशत भारतीय तो पूरी तरह भ्रष्ट हैं जबकि इतने ही भारतीय भ्रष्ट होने की कगार पर हैं। पूरी दुनिया में फैले भ्रष्टाचार पर नार रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इन्टरनेशनल के अनुसार भारत को दस में से केवल 3.4 अंक ही प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार भारत दुनिया के भ्रष्ट देशों की सूची में 84वें स्थान पर है। जबकि इस सूची में 1.1 अंक लेकर सोमालिया सबसे भ्रष्ट देश गिना जा रहा है। वहीं 9.4 अंक के साथ न्यूजीलैंड दुनिया के सबसे कम भ्रष्ट देशों में प्रथम है। भ्रष्टाचार पर नार रखने वाले विशेषक इसके पीछे का मु य कारण यह मानते हैं कि वर्तमान दौर में मनुष्य की इज्‍जत व सम्‍मान का मुख्‍य आधार केवल पैसा ही समझा जाने लगा है। आम आदमी केवल यह देखता है कि अमुक व्यक्ति कितना अधिक पैसे वाला है तथा उसके पास कितने संसाधन हैं। परंतु वह यह नहीं देखता कि उसने वह पैसा कहां से और किस प्रकार अर्जित किया। जबकि कुछ दशक पूर्व आम आदमी की इस सोच में कांफी अंतर था। कोई भी व्यक्ति पहले पैसे से अधिक अपनी इज्‍ज्‍त और मान सम्‍मान को तरजीह देता था। यही वजह है कि पहले हमें व हमारे देश को राजनेताओं के रूप में कभी लाल बहादुर शास्त्री, गुलारी लाल नंदा, रंफी अहमद किदवई, सरदार पटेल, डॉ राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण जैसे तमाम ऐसे ईमानदार लोग मिले जो आज हमारे लिए केवल दिखावे मात्र के लिए ही सही परंतु प्रेरणास्रोत जरूर समझे जाते हैं। परंतु दुर्भाग्यवश आज के दौर में हमें कभी मधु कौड़ा जैसे लोग मु यमंत्री बने दिखाई देते हैं तो कभी किसी रायपाल का विमान क्रैश होने पर आसमान से नोटों की बारिश होते नार आती है। कभी बंगारु लक्ष्मण तो कभी जूदेव तो कभी रेड्डी बंधु। कभी चारा घोटाला तो कभी चीनी घोटाला आदि न जाने क्या-क्या। ऐसे में एक बार फिर किसी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ नेता के रूप में सुधांशु मित्तल जैसे भाजपाई नेता का नाम राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले के सिलसिले में संदेह के दायरे में आना कोई आश्चर्यजनक बात तो नहीं परंतु अफसोसनाक बात तो जरूर है।

क्या औरत को माँ बनने के लिए प्रोत्साहन की ज़रूरत है?

-सुधा सिंह

यूरोपीय समुदाय स्त्रियों के लिए मातृत्व के अवकाश को बढ़ाने पर विचार कर रहा है। यूरोप में अभी चौदह हफ्ते का मातृत्व अवकाश स्त्रियों को मिला हुआ है। इसे बढ़ाकर इक्कीस हफ्ते करने पर यूरोपीय संसद विचार कर रही है। क्या इसे स्त्री आंदोलनों की सफलता माना जाए? या फिर स्त्री आंदोलनों के इतिहास में एक बड़ी उपलब्धि? अभी इस प्रस्ताव पर विचार चल रहा है, इसके पक्ष –विपक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। इस विषय में कुछ भी कहने के पहले मैं कह दूँ कि व्यक्तिगत तौर पर मैं इस प्रस्ताव के पक्ष में हूँ और कोई भी स्त्री जिसके अंदर स्त्री की चेतना है वह इसके पक्ष में होगी।

इस प्रस्ताव के लाने के पक्ष – विपक्ष दोनों में तर्क दिए जा रहे हैं। जो पक्ष में हैं और जो इसका समर्थन कर रहे हैं उनका तर्क है कि स्त्रियों के लिए मातृत्व अवकाश बढ़ाने पर स्त्रियाँ गर्भाधान के लिए आकर्षित होंगी। उन्हें प्रोत्साहन मिलेगा। आज स्त्रियाँ बाहर काम कर रही हैं और उन्हें बाहर के काम से गर्भाधान के समय अगर अवकाश मिलेगा तो वे प्रोत्साहित होंगी। यह समाज के लिए अच्छा होगा, देश के लिए अच्छा होगा, देश की जनसंख्या संतुलन के लिए अच्छा होगा। सभी स्त्रीवादी विचारों वाली महिलाएं इसके पक्ष में होंगी।

जाहिर है कि इस प्रस्ताव का यह पक्ष बड़ा मज़बूत है कि स्त्रियों को मातृत्व अवकाश के अंदर ज्यादा से ज्यादा समय मिले। बच्चा जनने के क्रम में स्त्री के स्वास्थ्य और शरीर की जो हानि होती है, उसकी रिकवरी के लिए उसे पर्याप्त समय मिलना ही चाहिए। बल्कि न केवल बच्चा जनने, उसके पालन-पोषण में भी औरत की केन्द्रीय भूमिका होती है। यह कहना सच के ज्यादा क़रीब होगा कि बच्चा पालना औरत की केन्द्रीय जिम्मेदारी समझी जाती है।

सवाल है कि यह स्थिति क्यों आई कि स्त्री को आज बच्चा पैदा करने के लिए किसी प्रोत्साहन की जरुरत आन पड़ी? और यह डर समाज में घर करने लगा कि भौगोलिक संतुलन गड़बड़ हो सकता है! जबकि हालत यह रही है कि सभी समाजों में स्त्री को बच्चा पैदा करने की मशीन समझा गया है। औरत की सार्थकता ही इस बात में मानी गई है कि वह संतान को जन्म दे। उसकी उर्वरता की तुलना धरती से की गई है। जो या तो फसल पैदा करती है या बांझ होती है। बीच की कोई स्थिति नहीं होती। धरती की तरह ही औरत की भी स्वतंत्र रूप से कोई सामाजिक भूमिका नहीं देखी गई। उसकी कोख, उसकी प्रजनन क्षमता, मासिक धर्म ये सब पुरुष के लिए रहस्यमय संसार थे। इससे भी ज्यादा रहस्यमय था औरत की कोख की अनिश्चतता। मर्द के लिए आज भी यह जानना आसान नहीं है कि औरत की कोख में उसी का बच्चा है या नहीं। हालांकि आज विज्ञान के पास इसका उत्तर है। विज्ञान के पुंसवादी ओरिएन्टेशन की तरक्की से अब ये तो जाना जा सकता है कि औरत की कोख का बीज किस मर्द का है। पर ये सब इतना सहज –सुलभ और वैध नहीं है। दूसरी चीज कि ऐसी कोई भी स्थिति औरत –मर्द के बीच अविश्वास, असामान्य स्थितियों और असभ्यता का ही पता देती है। (यह दीगर बात है कि इस तरह के कई सामाजिक असभ्यताओं की शिकार औरत सदियों से रही है और समाज ने इसे सामान्य स्थिति के तौर पर ही लिया है!)

ज्यादातर मर्दों के लिए आज भी औरत की कोख रहस्य भरी है। यह किसी तिलिस्म से कम नहीं! चूँकि हमारे समाज का ढ़ाँचा पुंसवादी है अत: मर्दों के लिए यह एक जनाना कार्यव्यापार ही रहा है। वह इसमें शामिल नहीं होता, दूर से देखता है। उसकी भूमिका तमाशबीन की होती है। चूँकि सारे परिवर्तन स्त्री के शरीर में घट रहे होते हैं, ये सब उसकी दिनचर्या, शरीर और मन की संरचनाओं में भी भारी परिवर्तन पैदा करते हैं। वह, वह नहीं होती जो गर्भाधान के पहले थी। ये सारे बदलाव स्त्री को बांधते हैं, वह अपनी स्वतंत्रता खोती है, स्त्री को सिखाया जाता है कि मर्द को बांधे रखने के लिए उसमें आवश्यक लावण्य होना चाहिए, मर्द भी स्त्री से ऐसी अपेक्षा रखते हैं; स्त्री वह भी ‘खोती’ है। इस प्रक्रिया में किसी भी महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिका से वंचित स्त्री अपना आत्मविश्वास खोती है जिसके कारण वह आगे चलकर कई तरह की हीन ग्रंथियों का शिकार भी होती है। हालांकि यह भी उतना ही बड़ा सच है कि हममें से ज्यादातर स्त्रियों के मन में बचपन से ही मातृत्व को भविष्य की एक सुखमय इच्छा और स्त्री-जीवन की सार्थकता के रूप में पोषा जाता है। खाद-पानी दिया जाता है। हममें से अधिकांश स्त्रयों की मांए हमें यह नहीं बतातीं कि मातृत्व एक कष्टकर अनुभव भी है। कि इसमें हमारी जान का ख़तरा भी शामिल है। हमें विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताया जाता है, डॉक्टरों की दक्षता के बारे में बताया जाता है, इसमें शामिल सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, भावात्मक जोखिम के बारे में प्राय: बात नहीं की जाती। माँ तो माँ, एक सहेली भी दूसरी सहेली को यह नहीं बताती कि बच्चा पैदा करना स्त्री के लिए केवल एक सुखद अनुभव नहीं है। इसका एक नकारात्मक अर्थ भी है। बल्कि कोशिश यह होती है कि स्त्री के किसी भी कारण से बच्चा न होने को एक अभावमूलक संदर्भ दिया जाए।

इन सब के बावजूद यदि आज यह स्थिति यूरोपीय समाजों में आ गई है कि औरत को बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहन दिए जाने की बात की जा रही है तो यह विचारणीय मसला है। इसे सामान्य सरकारी नीति कहकर टालना ग़लत होगा। इसमें मोटे तौर पर जनसंख्या वृध्दि की वर्चस्वशाली सामाजिक मानसिकता की अभिव्यिक्ति तो है ही लेकिन उससे गंभीर बात है स्त्रियों में,तमाम स्वीकृतिमूलक और महिमामंडन करनेवाली सामाजिक संरचनाओं की मौजूदगी के बावजूद, इस भूमिका के प्रति उपेक्षा। ध्यान रखनेवाली बात है कि पितृसत्तात्मक सेटअप केवल विवाह व्यवस्था के भीतर मातृत्व का महिमामंडन करता है। अविवाहित मातृत्व उसके लिए कुफ्र है।

स्त्रियों का माँ बनकर सामाजिक भूमिका के प्रति उपेक्षा भाव का एक बड़ा कारण अपनी तमाम आलोचनामूलक भूमिकाओं के बावजूद पूंजीवाद ने पैदा किया है। स्त्री की आर्थिक स्व निर्भरता ने उसके लिए नई ज़मीन तैयार की है। वह अपनी पहचान के अन्य आधारों को बच्चे पैदा करने के अलावा भी पैदा कर सकती है। यह बड़ा फ़र्क है जो आज की औरत के लिए आम है। दूसरी चीज कि यह सच है कि बच्चे आज भी केवल औरत ही पैदा कर सकती है ( आगे कौन जाने कि मजबूरी में सही इस मामले में औरतों के विकल्प पर न सोचा जाएगा !) लेकिन ऐसा करने की प्रक्रिया में वह अकेली और असुरक्षित हो जाए तो वह यह नहीं चाहेगी। आज की समाजव्यवस्था में बच्चा स्त्री के लिए पूरा प्रोजेक्ट है। न्यूक्लियर समाजों में इसका निर्वाह वह अकेले करने में असमर्थ है। इसमें पति-पत्नी और समाज तीनों की जवाबदेहियाँ सुनिश्चत की जानी चाहिए। माँ बनने वाली स्त्री के लिए समाज में और काम की जगहों पर विशेष इन्सेंटिव दिया जाना चाहिए ताकि इसमें लगनेवाले समय के कारण वह अपने को दक्षता या कौशल में पिछड़ा हुआ न महसूस करे।

बात एक अच्छे प्रस्ताव और सदिच्छा भर की है तो इस पर किसी भी तरह की बहस से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला। प्रसंगवश जिक्र कर दूँ कि भारत में नौकरियों में स्त्री को मातृत्व अवकाश मिला हुआ है। उच्च शिक्षा संस्थानों में नौकरी के नियमों के नए निर्देशों के अनुसार स्त्री को दो वर्ष के मातृत्व अवकाश का प्रावधान है साथ ही पैतृक अवकाश की भी बात की गई है। यह नियम सन् 2006 से अमल में आया है। पर इसके व्यवहारिक पक्ष पर गौर करें तो चौंकानेवाले तथ्य सामने आएंगे। कई कॉलेजों में यह देखा गया है कि छुट्टी मांगी गई है, मातृत्व की अपेक्षा करनेवाली महिलाएं घर बैठ गईं हैं पर बाद में उन्हें छुट्टी एडजस्ट कराने में दिक्कतें पेश आईं हैं।

मेरा मानना है कि सदिच्छा, प्रस्ताव या किसी भी संवैधानिक स्थिति को अमली जामा पहनाने के लिए, उसके लागू किए जाने और मनवाने पर जोर दिया जाना चाहिए। इसके लिए एक मज़बूत तंत्र की जरुरत है। चाहे किसी भी देश या समाज की बात क्यों न हो स्त्री का मसला ऐसा नहीं है कि इसे केवल संवैधानिक जामा पहनाकर अमल के जनता और संस्थानों की इच्छा के हवाले कर दिया जाए। इच्छा से तो लोग ‘लेडीज़’ लिखे रहने बावजूद बसों में घन्टे-आध घन्टे के सफर में सीट तक नहीं छोड़ते फिर स्त्री के अधिकारों का सम्मान करना तो दीगर बात है।

मोहन भागवत के हिन्दुत्व का भ्रम और सामाजिक सच

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का इसबार का विजयादशमी के भाषण का सार -संक्षेप मेरे सामने है। इसे यहां देख सकते हैं। हिन्दुत्ववादी होने के नाते उनका सुंदर राजनीतिक भाषण है।

संघ एक सामाजिक संगठन का दावा करता है लेकिन संघ के प्रधान का विजयादशमी को दिया गया भाषण सामाजिक समस्याओं पर न होकर राजनीतिक समस्याओं पर था। संघ को जब राजनीतिक कार्यक्रम पर ही काम करना है तो उसे सामाजिक संगठन का मुखौटा उतार फेंकना चाहिए। भागवतजी ने बड़े ही तरीके से राममंदिर निर्माण, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच के हाल के फैसले, धर्मनिरपेक्षता, कश्मीर समस्या, जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद, चीन, नक्सली आतंक, उत्तर पूर्वांचल में अलगाववाद की समस्या, बंगलादेश से घुसपैठ,उदारीकरण और पश्चिमी विकास मॉडल के दुष्परिणाम, शिक्षा के व्यवसायीकरण आदि समस्याओं पर प्रकाश डाला है।

उपरोक्त सारी बातें राजनीति की हैं। सामाजिक समस्या के दायरे में इन्हें नहीं रखा जा सकता। वैसे इनमें से प्रत्येक समस्या का समाज से संबंध है। मौटे तौर पर पूरा भाषण हिन्दू मृगमरीचिका का प्रतिबिम्ब है।

इस प्रसंग में मैं भागवतजी की अयथार्थवादी समझ का एक ही नमूना पेश करना चाहूँगा। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर की स्थिति से निबटने का आधार है संसद के द्वारा 1994 में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव। उन्होंने कहा है ‘‘संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए।’’

लेकिन यह प्रस्ताव आज के यथार्थ को सम्बोधित नहीं करता। सन् 1994 के बाद पैदा हुई समस्याओं का संघ के पास कोई समाधान नहीं है।कश्मीर में दस हजार से ज्यादा बच्चे अनाथ हो गए हैं उनकी देखभाल कौन करेगा? बीस हजार से ज्यादा विधवाएं हैं उनके भरणपोषण की जिम्मेदारी कौन लेगा? सैंकड़ों औरतें हैं जिनके ऊपर आतंकियों और सेना ने जुल्म किए हैं उनके बारे में क्या किया जाए? क्या पुराने संसदीय प्रस्ताव को दोहराने मात्र से काम बनेगा?

विगत 60 सालों में किसी न किसी बहाने इस राज्य को प्राप्त अधिकारों में कटौती हुई है। इस समस्या को सही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से सम्बोधित करने की जरूरत है। भारत के संविधान के दायरे में जितने व्यापक अधिकार दिए जा सकें उस दिशा में सोचना होगा। राज्य के अधिकारों को छीनकर उसे सिर्फ सेना के बल पर चलाना अक्लमंदी नहीं है। यह राजनीतिक समाधान खोजने में केन्द्र सरकार की असमर्थता की निशानी है। नागरिक जीवन में स्थायी तौर पर सेना का बने रहना समस्या का समाधान नहीं है।

मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा है कि ‘‘अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।’’

सवाल उठता है कि संघ के राजनीतिक सुपुत्रों अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा सांसदों ने नव्य उदारीकरण की बुनियादी नीतियों का संसद में विरोध क्यों नहीं किया? यह कैसा राजनीतिक पाखण्ड है कि भाजपा, जिसका संघ से चोली-दामन का संबंध है, वह तो नव्य उदारीकरण के पक्ष में काम करे, आदिवासियों को उजाड़ने का काम करे।

गुजरात और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों के हाथ आदिवासियों के विस्थापन से सने हैं। कौन नहीं जानता कि नर्मदा बचाओ आंदोलन करने वालों के प्रति संघ परिवार का शत्रुतापूर्ण रूख है। संघ परिवार मुस्तैदी से आदिवासियों को फंडामेंटलिस्ट बनाने में लगा है दूसरी ओर संघ के प्रधान के मुँह से आदिवासी प्रेम शोभा नहीं देता।

पश्चिमी मॉडल और खासकर नव्य उदार आर्थिक नीतियों और उपभोक्तावादी नीतियों का संसद में भाजपा ने कभी विरोध नहीं किया बल्कि बढ़-चढ़कर लागू करने में कांग्रेस की मदद की है। एनडीए के शासन में इन नीतियों को तेजगति से लागू किया गया।

मोहन भागवत के राजनीतिक विचार यदि एक ईमानदार देशभक्त के विचार हैं तो उन्हें भाजपा को आदेश देना चाहिए कि संसद में वे नव्य उदारीकरण से जुड़ी नीतियों का विरोध करें। मोहन भागवत जी के मौखिक कथन और व्यवहार में जमीन-आसमान का अंतर है। भाजपा के सांसदों और विधायकों और मोहनभागवतजी के कथन और एक्शन में जमीन -आसमान का अंतर है। इस तरह का राजनीतिक गिरगिटिया व्यवहार शोभा नहीं देता।

इससे यही पता चलता है कि बातों में हिन्दू हैं लेकिन एक्शन में अमरीका भक्त हैं। इस तरह का व्यवहार सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनकी जनता और देश के प्रति कोई आस्था ही न हो।

मोहन भागवत जी ने देवरस जी के हवाले से कहा है ‘भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है’। यह बात बुनियादी तौर पर गलत है।

भारत धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी लोकतांत्रिक देश है। यह हिन्दू राष्ट्र नहीं है। लोकतंत्र में हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, बौद्ध, जैन, सिख धर्म आदि के मानने वाले रहते हैं। लेकिन वे सब नागरिक हैं, वे न हिन्दू हैं, न मुसलमान है, न सिख हैं, न ईसाई है। वे तो नागरिक हैं और इनकी कोई धार्मिक पहचान नहीं है। एक ही पहचान है नागरिक की।

दूसरी बड़ी पहचान है भाषा की। तीसरी पहचान है जेण्डर की। इन सबसे बड़ी पहचान है भारतीय नागरिक की। भारत में आज धार्मिक पहचान प्रधान नहीं है। भारतीय नागरिक की पहचान प्रमुख है। भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं है। यह विभिन्न धर्मों, जातियों, संस्कृतियों को मानने वालों का विविधता से भरा बहुजातीय लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। यह बात संविधान में लिखी है। जिसे संघ परिवार को विकृत करने का कोई हक नहीं है।

मोहन भागवतजी को एक भ्रम और है, उन्होंने कहा है- ‘‘सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है।’’ राजनीतिशास्त्र कोई भी साधारण विद्यार्थी भी यह बात जानता है कि भारत की चालकशक्ति भारत का संविधान है, न कि हिन्दुत्व।

इसके अलावा समाज में एक ही संस्कृति का बोलवाला है वह उपभोक्ता संस्कृति। उपभोक्ता संस्कृति का सर्जक पूंजीपति वर्ग और उसकी नीतियां हैं न कि हिन्दुत्व। विविधता में एकता का आधार है लोकतांत्रिक संविधान न कि हिन्दुत्व।

हिन्दुत्व कोई सिस्टम नहीं है। वह एक फासीवादी विचार है जिसका संघ के सदस्यों में संघ के कार्यकर्ता प्रचार करते रहते हैं। हिन्दुत्व न तो संस्कृति है और न जमीनी हकीकत से जुड़ा विचार है यह एक फासीवादी विचार है ,छद्म विचार है। इसको आप संघ के नेताओं के प्रचार के अलावा और कहीं देख-सुन नहीं सकते।

मौजूदा भारतीय समाज की चालकशक्ति है पूंजीवाद और पूंजीवादी मासकल्चर। इसके सामने कोई न हिन्दू है न मुसलमान है, सिख है न ईसाई है, यदि कुछ है तो सिर्फ उपभोक्ता है। नागरिक को उपभोक्ता बनाने में नव्य उदार आर्थिक नीतियों को लागू करने वालों (कांग्रेस और भाजपा) की सक्रिय भूमिका रही है।

संघ परिवार को कायदे से राजनीतिक समस्याओं की बजाय सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान देना चाहिए। बाल विवाह,बाल शिक्षा, स्त्रीशिक्षा, जातिभेद, धर्मभेद आदि के खिलाफ काम करना चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि मोहन भागवत जी के भाषण में औरतों की समस्याओं का कहीं पर भी कोई जिक्र नहीं है। सवाल किया जाना चाहिए कि क्या भारत में औरतें खुशहाल जिंदगी बिता रही हैं? औरतों के बारे में मोहन भागवतजी की चुप्पी अर्थवान है । यदि सारे देश की औरतों की बात छोड़ भी दें तो भी उन्हें कम से कम हिन्दू औरतों की पीड़ा और कष्ट से कराहते चेहरे नज़र क्यों नहीं आए? उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि संघ को हिन्दू मर्दों की सेवा करनी है ,उनकी मुक्ति के लिए काम करना है, हिन्दुत्व के लिए पुरूषार्थी बनाना है।

मैं समझ सकता हूँ कि वे औरतों के बारे में क्यों नहीं बोले? वे चाहते हैं औरतें बदहाल अवस्था में रहें। औरतों की समस्याओं को उठाने का मतलब सामाजिक काम करना और सामाजिक काम करना संघ का लक्ष्य नहीं है।

संघ एक फासीवादी संगठन है और उसकी औरतों के बारे में एक खास समझ है जो हिटलर के विचारों से मिलती है। वे मानते हैं कि समाज में औरत की परंपरागत भूमिका होगी। वह चौका-चूल्हे और चारपाई को संभालेगी और बच्चे पैदा करेगी। घर की चौखट के अंदर रहेगी। यही वह बिंदु है जिसके कारण मोहन भागवतजी ने औरतों की समस्याओं पर एक भी शब्द खर्च नहीं किया।

औरतों की बदहाल अवस्था इस बात का भी संकेत है कि इस समाज में विभिन्न धर्मावलम्बियों ने औरत को किस तरह बर्बाद किया है। खासकर संघ जैसे विशाल संगठन के होते हुए औरतों पर जुल्म बढ़े हैं। अनेक मौकों पर तो संघसेवकों ने औरतों की स्वतंत्रता का अपहरण करने और अन्तर्जातीय-अन्तर्धार्मिक शादी ऱूकवाने में सक्रिय हस्तक्षेप किया है। वे आधुनिक औरत की स्वतंत्रचेतना और आत्मनिर्भर लोकतांत्रिक इमेज से नफ़रत करते हैं और यही वजह है कि मोहन भागवतजी के भाषण से औरतों का एजेण्डा एकसिरे से गायब है।

मोहन भागवतजी के भाषण से दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा गायब है वह है भ्रष्टाचार। पूरे भाषण में एक भी शब्द भ्रष्टाचार के बारे में नहीं है? क्या हम यह मान लें यह समस्या नहीं है? या भ्रष्टाचार के बारे में भागवतजी की चुप्पी भी अर्थवान है? लगता है संघीतंत्र में भ्रष्टाचार समस्या नहीं है। वह तो आम अनिवार्य नियम है। यदि समस्या है तो पता लगाया जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के कारण आज तक किसी भी संघी को संघ से क्यों नहीं निकाला गया? क्या हिन्दुत्व की विचारधारा में नहाने मात्र से भ्रष्ट लोग पवित्र हो जाते हैं? या कोई और वजह है?

ग़ुलाम प्रथा : दुनिया की हाट में बिकते इंसान

-फ़िरदौस ख़ान

दुनियाभर में आज भी अमानवीय ग़ुलाम प्रथा जारी है और जानवरों की तरह इंसानों की ख़रीद-फ़रोख्त की जाती है। इन ग़ुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा ग़ुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। ग़ुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ मादक पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में क़रीब पौने तीन करोड़ ग़ुलाम हैं। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल की परिभाषा के मुताबिक़ वस्तुओं की तरह इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना मेहनताने के काम करना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त नज़र रखना ग़ुलामी माना जाता है। 1857 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ग़ुलामी की चरम अवस्था ‘किसी पर मालिकाना हक़ जताने’ को मानता है। फ़िलहाल दासता की श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मज़दूरी, यौन दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल है।

अमेरिका में क़रीब 60 देशों से लाए गए करोड़ों लोग ग़ुलाम के तौर पर ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं। ब्राज़ील में भी लाखों ग़ुलाम हैं। हालांकि वहां के श्रम विभाग के मुताबिक़ इन ग़ुलामों की तादाद क़रीब 50 हज़ार है और हर साल लगभग सात हज़ार ग़ुलाम यहां लाए जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद लाखों में है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2003 में चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका में भी बड़ी तादाद में ग़ुलाम हैं, जिनसे बाग़ानों और उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में ग़ुलामी प्रथा को बढ़ावा मिला।

पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार की मान्यता मिली हुई है। यहां अश्वेत महिलाओं और बच्चों से मज़दूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में ग़ुलामों को ले जाने के लिए जहाज़ों का इस्तेमाल किया जाता था। इन जहाज़ों में ग़ुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएं और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई ग़ुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर अपनी जान दे देते थे। चीन और बर्मा में भी गुलामों की हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारख़ानों और खेतों में काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और फ़िलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता है।

दक्षिण एशिया ख़ासकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में ग़रीबी से तंग लोग ग़ुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर ग़ुलाम प्रथा जारी है। हालांकि सरकार ने 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के ज़रिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था,मगर इसके बावजूद सिलसिला आज भी जारी है। यह कहना गलत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते इसमें इज़ाफ़ा ही हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ मज़दूरी जारी है। भारत के श्रम व रोज़गार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च तक देशभर में दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें मुक्त कराया गया। नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ मज़दूर को पुनर्वासित नहीं किया गया। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 65 हज़ार 573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कनार्टक में 63 हज़ार 437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि 19 राज्यों को 68 करोड़ 68 लाख 42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे ज़्यादा सहायता 16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके बाद 15 करोड़ 78 लाख 18 हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख 34 हज़ार रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। उत्तर प्रदेश को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को 31 मार्च 2006 तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए की राशि दी गई।

भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, बीजए रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए क़र्ज़ लेते रहे हैं। इस क़ज़ के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक गिरवी रखने पड़ते हैं। क़र्ज़ से कई गुना रक़म चुकाने के बाद भी जब उनका क़र्ज़ नहीं उतर पाता। यहां तक कि उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मज़दूर के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं।

बिहार के गांव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मज़बूर जवाहर मांझी को 40 किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ 30 साल तक बंधुआ मज़दूरी करनी पड़ी। क़रीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नज़र में आया। मामले के मुताबिक़ 33 साल पहले जवाहर मांझी ने एक विवाह समारोह के लिए ज़मींदार से 40 किलो चावल लिए। उस वक्त तय हुआ कि उसे ज़मींदार के खेत पर काम करना होगा और एक दिन की मज़दूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक तक मज़दूरी करने के बावजूद ज़मींदार के 40 किलो का क़र्ज़ नहीं उतर पाया। एंटी स्लेवरी इंटरनेशनल के मुताबिक़ भारत में देहात में बंधुआ मज़दूरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएं और बच्चे बंधुआ मज़दूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी यही हालत है।

देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मज़दूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती। अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के ज़रिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिक सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।

दास प्रथा की शुरुआत की कई सदी पहले हुई थी। बताया जाता है कि चीन में 18-12वीं शताब्दी ईसा पूर्व ग़ुलामी प्रथा का ज़िक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 650 ईस्वी से 1905 के दौरान पौने दो क़रोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी साम्राज्य में बेचा गया। 15वीं शताब्दी में अफ्रीका के लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। 1867 में क़रीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में ग़ुलाम के तौर पर बेच दिया गया।

ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद होने लगीं। इस पर 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन क़ानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी ग़ुलामों की ख़रीद-फ़रोख्त पर पाबंदी लगा दी। 1808 में अमेरिकी कांग्रेस ने ग़ुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 1833 तक यह क़ानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर दिया। कहने को तो भारत में बंधुआ मज़दूरी पर पाबंदी लग चुकी है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने के कारण इस तबक़े की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम क़ानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मज़दूरों को शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार जैसे संगठनों को ग़ुलाम प्रथा के ख़िलाफ़ अपनी मुहिम को और तेज़ करना होगा। साथ ही ग़ुलामों को मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। इसमें बात में कोई राय नहीं है कि विभिन्न देशों में अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की ज़िन्दगी बसर कर सकें।

संघ की राजनीति विभाजनकारी

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दुत्ववादी संगठनों और उनके अनुयायियों की मुझे लेकर सबसे बड़ी आलोचना यह है कि मुझे हिन्दुत्व में कोई अच्छी बात नजर क्यों नहीं आती? मैं हमेशा उनकी आलोचना ही क्यों करता हूँ।

ऐसा नहीं है बंधुओं कि मुझे आपके गुणों के बारे में मालूम नहीं है, आप सभी के पास व्यक्तिगत गुण-अवगुण हैं। हो सकता है आपमें से अनेक कई बेहतरीन गुणों से भरे इंसान हों। गुणों का संबंध व्यक्तिगत स्थिति से है। मैं आपमें से किसी को भी व्यक्तिगत तौर पर जानता नहीं हूँ इसलिए कुछ कह पाना मुश्किल है।

मैं जब भी संघ परिवार की आलोचना करता हूँ तो एक राजनीतिक विचार के रूप में आलोचना करता हूँ। मैं निजी तौर पर अनेक संघी नेताओं का मित्र हूँ। आपलोग जानते हैं कि आदरणीय स्व. विष्णुकांतशास्त्री मेरे सहकर्मी थे, वे मेरे विभाग में हिन्दी के प्रोफेसर थे, संघ के बड़े नेता थे, बाद में यू-पी .के राज्यपाल भी रहे।

मेरे मथुरा में हिन्दी के शिक्षक आदरणीय मथुरानाथ चतुर्वेदी संघ के मथुरा में संस्थापकों में से एक थे। उनसे मैंने वर्षों हिन्दी पढ़ी है और वे निजी तौर पर बेहद अच्छे व्यक्ति थे। मजेदार बात यह है कि मैं उनके प्रभाव के कारण मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुआ, वे बड़े ही अचरज के साथ सोवियत संघ में हो रहे परिवर्तनों को देख रहे थे। वे सोवियत साहित्य और सोवियत राजनीतिक पत्रिकाओं के नियमित पाठक थे ।

मैं उस समय मथुरा के एक संस्कृत कॉलेज में पढ़ता था।मेरी सारी शिक्षा-दीक्षा संस्कृत माध्यम से हुई है ,माथुर चतुर्वेद संस्कृत संस्कृत महाविद्यालय में मैंने संस्कृत के विभिन्न विषयों पर संस्कृत के उद्भट विद्वानों से पढ़ा है। मथुरानाथ चतुर्वेदी इसी कॉलेज में हिन्दी शिक्षक थे और बेहद ईमानदार व्यक्ति थे। उनका सादगीभरा जीवन था। उनसे ही मुझे सबसे पहले सोवियत संघ में हो रहे समाजवादी परिवर्तनों की जानकारी मिली थी।

आप लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने कभी संघ में शामिल होने के लिए नहीं कहा उलटे मुझे पढ़ने के लिए मार्क्सवादी साहित्य मुहैय्या कराया था। कहने का मेरा तात्पर्य यह है कि मैंने अपने जीवन में जिस आरएसएस वाले को देखा है और जिसका मेरे ऊपर गहरा असर था वह अंदर से सोवियत संघ में घट रहे परिवर्तनों से बेहद प्रभावित था।

मैं 1967-68 में संस्कृत कॉलेज में भर्ती हुआ था और वहां 1979 तक पढता रहा और इस दौरान मेरा मथुरानाथजी से घनिष्ठतम संपर्क बना रहा। उनके ही कारण मुझे संघ और भाजपा के अनेक बड़े नेताओं को करीब से जानने का मौका मिला, अनेक से मिला भी हूँ, क्योंकि मथुरा में मेरे घर के पास ही एक धर्मशाला है कव्वीबाई धर्मशाला। उसमें ज्यादातर संघ ने नेता आकर रूकते थे। मैंने व्यक्तिगत तौर पर दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख आदि के साथ मथुरानाथजी के साथ ही खुलकर बातें की हैं। इसके कारण मैं जानता हूँ कि संघ के लोगों में अनेक लोग बेहद अच्छे होते हैं, मुश्किल है उनकी विचारधारा के साथ।

हिन्दुत्व की विचारधारा मूलतः विभाजनकारी है, यह बात मैंने मार्क्सवादियों से नहीं जानी, इसे मैंने सबसे पहले संघ के जिम्मेदार कर्मठ कार्यकर्ताओं से ही जाना। मथुरा में हमारे पास कई मंदिर हैं,उनमें एक महत्वपूर्ण देवीमंदिर भी है जहां सभी लोग दर्शन-पूजा को आते हैं। मथुरा शहर के अधिकांश संघी भी यहां आते हैं। उनके निजी आचरण को देखकर ही मैंने यह जाना था कि संघ के लोग कट्टर जातिवादी और घनघोर मुस्लिम विरोधी होते हैं। यह मेरा किताबी ज्ञान नहीं है। व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित ज्ञान और समझ है।

मुझे हिन्दुत्ववादियों की एक बात बहुत अच्छी लगती थी उनकी सामाजिकता और मित्रता। वे जिसे मित्र बनाते थे उसका ख्याल रखते थे और अपने व्यवहार और दैनंदिन जीवन में मदद करने के कारण मित्रों को संघ में ले जाते थे। मैं संघियों का मित्र तो था लेकिन कभी शाखा में नहीं गया। मैं उनके विचारों को जानता था और उनके कामकाज की दूर से समीक्षा किया करता था और जैसा भी समझता था वैसा अपने दोस्तों को बताता भी था।

मैं निजी तौर पर बाबू जयप्रकाशनारायण और अनेक स्थानीय भाकपा और माकपा के कॉमरेडों के संपर्क में 1973-74 में आया और उनका व्यवहार, विचार और आचरण मुझे संघ के लोगों से कई मायनों में श्रेष्ठ लगा और आपात्काल में मैं संघ की ओर न जाकर मार्क्सवादियों और बाबू जयप्रकाश नारायण के लोगों के करीब रहा। मुझे आपातकाल में संघ का दोगलापन अच्छा नहीं लगा। लेकिन संघ के मित्रों से अच्छे संबंध बने रहे।

मेरे सैंकड़ों मित्र थे जो संघ में थे और उनमें से ढ़ेर सारे लोग हमारे मथुरा में होने वाले कार्यक्रमों में सुनने नियमित आते थे, इसका व्यापक असर भी देखा गया कि अनेकों ने संघ को छोड़ दिया। जबकि मथुरा में गिनती के एक दर्जन कॉमरेड नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग इन दिनों मेरे संघ के प्रति आलोचनात्मक लेखन को लेकर परेशान हैं, मैं उनसे यही कहना चाहता हूँ कि राजनीतिक तौर पर संघ कोई अच्छा काम करेगा तो मैं उसकी प्रशंसा जरूर करूँगा लेकिन मेरी जानकारी में संघ ने एक भी अच्छा राजनीतिक काम नहीं किया है।

संघ बहुत बड़ा संगठन है। करोड़ों लोग उसके साथ हैं। लेकिन उसके पास हिन्दू समाज के लिए समाजसुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है। वे सिर्फ हिन्दुत्व-हिन्दुत्व करके अप्रासंगिक एजेण्डे पर जनता को बांटकर व्यस्त रखते हैं। जबकि वे सकारात्मक कार्यक्रम बनाकर हिन्दुओं का भला कर सकते हैं। लेकिन ऐसा करना उनका लक्ष्य नहीं है। वे हिन्दुत्व के नाम पर लगातार आक्रामक होते गए हैं। वे नरमदिल थे लेकिन उनके हिन्दुत्ववादी विचारों ने नरमदिल को शैतानीदिल का बना दिया है। मुझे संघ से नहीं उसके शैतानी दिल-दिमाग से शिकायत है। इसने समाज का व्यापक अहित किया है।

“बेदाग़ वेब पत्रकारिता” का प्रवक्ता बना रहेगा “प्रवक्ता.कॉम”

-विशाल आनंद

आचार्य रजनीश ओशो ने कहा था – “हर पत्थर मैं मूर्ती छिपी हुयी है. मूर्तिकार कभी भी मूर्ती नहीं बनाता, वो तो पत्थर को छांटता है ताकि उसमे छिपी मूर्ती बाहर आ सके, नजरिया अपना अपना है, कौन सा मूर्तिकार किस नजरिये से छांटता है. कोई राम की तो कोई कृष्ण की, कोई राधा की तो कोई सीता की या कोई सुन्दर सी स्त्री की मूर्ती निकाल ही लेता है.” मेरी नजर मैं ओशो जी की यह बात आज के पत्रकार और उनकी पत्रकारिता पर बिलकुल सटीक बैठती है. खबर तो हर जगह है, आपकी नजर जिधर है- उधर ही खबर है. वो बात अलग है कि आपका नजरिया क्या है और आप किस नजर से देखते हैं. खबर का कौन सा एंगल आप पकड़ते हैं. किस माध्यम से आप उस खबर को खबरों की भीड़ मैं उचित स्थान दिला पाते हैं. खबर में दम है और ‘माध्यम’ मजबूत है तो खबर लम्बे समय तक जिन्दा रहेगी. यदि ‘माध्यम’ मजबूत नहीं है तो दमदार खबर भी दम तोड़ देगी. अब माध्यम चाहे “इलेक्ट्रोनिक हो या प्रिंट या वेब”. ये तीनों माध्यम क्रमशः एलोपेथिक, आयुर्वेदिक, और होम्योपेथिक की तरह ही असर करते हैं. खबर जितने दिन जिन्दा रहेगी उतने ही दिन अपना असर दिखाती रहेगी. मुझे याद है जब मैं पत्रकारिता मैं सनात्कोत्तर कर रहा था तब दैनिक जागरण से हमें जो गुरूजी पढ़ाने आया करते थे वो हमें नेहरु जी का एक किस्सा अक्सर सुनाया करते थे कि नेहरु जी जब लखनऊ मैं रैली को संबोधित कर रहे थे तब उन्होंने कहा था – ‘मैं दैनिक अख़बारों से इतना नहीं डरता जितना साप्ताहिक या पाक्षिक से डर लगता है. वजह ये है, दैनिक मैं तो खबर एक ही दिन जिन्दा रहती है पर साप्ताहिक या पाक्षिक मैं हफ़्तों तक खबर जिन्दा रहती है’. इस बात का सन्दर्भ मैं इसलिए भी दे रहा हूँ. क्योंकि विजुअल चंद सेकण्ड या मिनट का होता है. प्रिंट – एक दस्तावेज की तरह सुरक्षित रहता है और उसके अपने मायने भी होते है. तकनीकी बदली है तो जाहिर है बाजार भी बदला है. बाजारवाद के इस दौर मै प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक तो चपेट मै आ चुके है. बचता है तो बस वेब मीडिया, जिस पर बाजारवाद हावी नहीं हुआ है. वेब आज भी अपनी तयशुदा शर्त से आगे बढ़ रहा है. “सच, साहस, और संघर्ष” वेब पत्रकारिता मै देखने को मिलता है. वर्ना पत्रकारिता हर गली मोहल्ले में बिक रही है.

वेब पत्रकारिता में आज बहुत नाम जुड़ चुके हैं. सभी अपनी अपनी दिशा में सही भी चल रहे हैं. पर दो वर्ष के अल्प समय में जो कामयाबी और उपलब्धिया “प्रवक्ता.कॉम” ने हासिल की हैं वो वाकई साधुवाद की पात्र है. मुझे लगता है शुरुआत (आगाज) ये है तो (अंजाम) परिणाम तो बेहतर आयेंगे ही. वेब पत्रकारिता में मानसिक श्रम और तकनीकि श्रम की बहुत जरुरत होती है. समय की सूईयों के साथ तालमेल रखना पढता है. वर्ना पत्रकारिता की चुनौतियाँ और बाजारवाद का दबाव सारा संतुलन बिगाड़ देता है. इस संतुलन को बेहतर बना रखा है “प्रवक्ता.कॉम” ने. यह तारीफ़ नहीं है बल्कि सधी हुयी प्रतिक्रिया है. क्योंकि आज “न्यूज़ पर व्यूज” देने को तो सब तैयार रहते हैं पर “व्यूज पर न्यूज़” देने की सोच सिर्फ वेब मैं ही है. इस दिशा मैं प्रवक्ता.कॉम की भूमिका स्वर्णिम है. वैसे भी दलाली का वृक्ष पत्रकारिता मैं फलफूल रहा है जडें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि इस वृक्ष की छांव से पत्र, पत्रकार, और पत्रकारिता निकलना नहीं चाहते. किसी को दामन पे ‘दाग’ की नहीं ‘दाम’ की दिन रात चिंता लगी रहती है. अलबत्ता वेब पत्रकारिता अभी इस दलाली के दलदल मैं नहीं फसी है. और उम्मीद भी यही है की “बेदाग़ वेब पत्रकारिता” का प्रवक्ता बना रहेगा “प्रवक्ता.कॉम”. अंत मैं निदा फाजली की कुछ पंक्तिया –

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब

सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं