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सरसंघचालक मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण का सारांश

अश्विन शु.दशमी युगाब्द 5112 (17 अक्टूबर, 2010)

श्री रामजन्मभूमि न्यायिक निर्णयः एक शुभ संकेत

प्राचीन समय से अपने देश में धर्म की विजय यात्रा के प्रारम्भ दिवस के रूप में सोत्साह व सोल्लास मनाये जानेवाला यह विजयदशमी का पर्व इस वर्ष संपूर्ण राष्ट्र के जनमन में, 30 सितंबर 2010 को श्री रामजन्मभूमि के विषय को लेकर मिले न्यायिक निर्णय से व्याप्त आनन्द की पृष्ठभूमि लेकर आया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ का यह निर्णय अंततोगत्वा श्रीरामजन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर के निर्माण का ही मार्ग प्रशस्त करेगा। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, विश्वभर के हिन्दुओं के लिए देवतास्वरुप होने के साथ-साथ इस देश की पहचान, अस्मिता, एकात्मता, स्वातंत्र्याकांक्षा तथा विजिगीषा के मूल में स्थित जो हम सभी की राष्ट्रीय संस्कृति है उसकी मानमर्यादा के प्रतीक भी हैं। इसीलिए हमारे संविधान के मूलप्रति में स्वतंत्र भारत के आदर्श, आकांक्षाएँ तथा परम्परा को स्पष्ट करनेवाले जो चित्र दिये हैं, उसमें मोहनजोदड़ो के अवशेष तथा आश्रमीय जीवन के चित्रों के पश्चात् पहला व्यक्तिचित्र श्रीराम का है। श्री गुरू नानक देव जी ने सन 1526 में समग्र भारत का भ्रमण करते हुए श्री रामजन्मभुमि के दर्शन किये थे। यह बात सिख पंथ के इतिहास में स्पष्ट उल्लिखित है। ऐतिहासिक, पुरातात्विक तथा प्रत्यक्ष उत्खनन के साक्ष्यों के आधार पर श्रीरामजन्मभूमि पर इ.स. 1528 के पहले कोई हिन्दू पवित्र भवन था, यह बात मान ली गई।

नियति द्वारा प्रदत्त शुभ अवसर

श्री रामजन्मभूमि संबंधित न्यायिक प्रक्रिया 60 वर्ष तक खींची जाने के कारण संपूर्ण समाज की समरसता में विभेद का विष व संघर्ष की कटुता व पीड़ा को घोलनेवाला, एक अकारण खड़ा किया गया विवाद समाप्त कर, अपनी राष्ट्रीय मानमर्यादा के प्रतीक मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की अयोध्या स्थित जन्मभूमि पर उनका भव्य मंदिर बनाने के निमित्त, हम सभी को बीती बाते भूलकर एकत्र आना चाहिए। यह निर्णय अपने देश के मुसलमानों सहित सभी वर्गों को आत्मीयतापूर्वक मिलजुलकर एक नया शुभारम्भ करने का नियति द्वारा प्रदत्त एक अवसर है यह संघ की मान्यता है। अपनी संकीर्ण भेदवृत्ति, पूर्वाग्रहों से प्रेरित हट्टाग्रह तथा संशयवृत्ति छोड़कर, अपने मातृभूमि की उत्कट अव्यभिचारी भक्ति, अपनी समान पूर्वज परंपरा का सम्मान तथा सभी विविधताओं को मान्यता, सुरक्षा व अवसर प्रदान करनेवाली, विश्व की एकमेवाद्वितीय, विशिष्ट, सर्वसमावेशक व सहिष्णु अपनी संस्कृति को अपनाकर, स्व. लोहिया जी के शब्दों में भारत की उत्तर दक्षिण एकात्मता के सृजनकर्ता श्रीराम का मंदिर जन्मभूमि पर बनाने के लिए हमे एकत्रित होना चाहिए। यही संपूर्ण समाज की इच्छा है। 30 सितंबर को निर्णय आने के पश्चात समाज ने जिस एकता व संयम का परिचय दिया वह इसी इच्छा को स्पष्ट करता है।

षड्यंत्रकारियों से सावधान

परन्तु राष्ट्रीय एकता के प्रयासों के लिए प्राप्त इस अवसर को भी तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के स्वार्थसाधन का हथियार बनाने की दुर्भाग्यपूर्ण चेष्टा, निर्णय के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ हुयी हम देखते है। पंथ, प्रान्त, भाषा की हमारी विविधताओं को आपस में लड़ाकर मत बटोरने वाले यही कुछ लोग, एक तरफ मुख से ‘सेक्युलॅरिज्म’ का जयकारा लगाकर, बड़ी-बड़ी गोलमटोल बातों को करते हुए सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ने के सूक्ष्म षड्यंत्र को रचते हुए सद्भाव निर्माण करनेवाले प्रसंगों व प्रयत्नों में बाधा डालते रहते हैं। माध्यमों व तथाकथित बुद्धिजीवियों में भी अपने भ्रामक विचार का अहंकार पालनेवाले, हिन्दू विचार व हिन्दू के लिए चलनेवाले प्रयासों के पूर्वाग्रहग्रसित द्वेष्टा, व अपने स्वार्थों व व्यापारिक हितों के लिए सत्य, असत्य की परवाह न करते हुए ”न भयं न लज्जा“ ऐसा व्यवहार करनेवाले कुछ लोग हैं। 30 सितम्बर को दोपहर 4ः00 बजे तक की इनकी भाषा तथा निर्णय आने के पश्चात् की भाषा व व्यवहार का अंतर देखेंगे तो यह बात आप सभी के ध्यान में आ जायेगी। समाज के विभिन्न वर्गों में एक दूसरे के प्रति अथवा एक दूसरे के संगठनों के प्रति भय व अविश्वास का हौवा खड़ा करने का उनका काम सदैव ‘सेक्युलॅरिज्म’ का चोला ओढ़कर, कुटिल तर्कदुष्टता से चलता रहता है। इन सभी से सदा ही सावधान रहने की आवश्यकता है। अपने स्वार्थ को साधने के लिए विश्वबंधुत्व, समता, शोषणमुक्ति आदि बड़ी-बड़ी बातों की आड़ में समाज में इन बातों को अवतीर्ण होने से इन्ही लोगों ने रोका है।

इसी स्वार्थकामना व विद्वेष के चलते कुछ आतंक की घटनाओं में कुछ थोड़े से हिन्दू व्यक्तियों की तथाकथित संलिप्तता को लेकर ‘हिन्दू आतंकवाद’ ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दप्रयोग प्रचलित करने का देशघाती षड्यंत्र चलता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। उसमें संघ को भी गलत नियत से घसीटने का दुष्ट प्रयास हो रहा है। असत्य के मायाजाल में जनता को भ्रमित करने की तथा हिन्दू संत, सज्जन, मंदिर व संगठनों को बदनाम करने की यह कुचेष्टा किनके इशारे पर चल रही है व किनको लाभान्वित कर रही है इसको जानने का हमने प्रयत्न नहीं किया है। परंतु यह किसी को लाभान्वित करने के स्थान पर अपने राष्ट्र को अपकीर्ति व आपत्ति में डालेगी यह निश्चित है।

अपने देश के संविधान सम्मत राष्ट्रध्वज के शीर्षस्थान पर विराजमान त्याग, कर्मशीलता व ज्ञान के प्रतीक भगवे रंग को; स्वयं आतंकी प्रवृत्तियों से मुक्त रहकर, आतंक से संघर्षरत हिन्दू समाज व संतों, साध्वियों को; भारत देश को; प्रत्येक प्राकृतिक आपदा में तथा आतंक व युद्ध जैसे मानवनिर्मित संकटों में शासन-प्रशासन का प्राणपण से सहयोग करनेवाले, 1 लाख 57 हजार के ऊपर छोटे-बड़े सेवा केन्द्र देश की अभावग्रस्त जनता के लिए बिना किसी भेदभाव अथवा स्वार्थ के उद्देश्य से चलानेवाले स्वयंसेवकों को, संघ को व अन्य संगठनों को कलंकित करने की यह चेष्टा असफल ही होगी। न्यायालयों के अभियोगों के निर्णयों के पूर्व ही माध्यम-अभियोगों के सूचनाभ्रम-तंत्र [disinformation campaign via media trial]का उपयोग संघ के विरुद्ध करने के पूर्व अपने कलंकित गिरेबान में झाँकने का प्रयास ये शक्तियाँ करके देखें। ये लोग अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए ‘भगवा आतंक’ शब्द का प्रयोग करके भारत की श्रेष्ठ परंपरा और सभी संत महात्माओं का अपमान करने से भी बाज नहीं आ रहे है। यह समय देश को अपने क्षुद्र व घृणित चुनावी षड्यंत्रों में उलझानें का नहीं है।

कश्मीरः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की बिसात

कश्मीर में संकट गंभीर व जटिलतर बन गया है। हमारी उपेक्षा के कारण बाल्टिस्तान व गिलगिट पाकिस्तान के अंग बन गये और चीन ने अपनी सेना की उपस्थिति वहाँ दर्ज कराते हुए भारत को घेरने का कार्य पूर्ण कर लिया है। अफगानिस्तान से बाइज्जत व सुरक्षित स्थिति में भागकर पाकिस्तान को अपने साथ रखते हुए कश्मीर घाटी में अपने पदक्षेप के अनुकूल स्थिति बनाने के लिए अमरीका बढ़ रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की यह बिसात घाटी में बिछ जाने के पहले ही हमारी पहल होनी चाहिए। अफगानिस्तान में अपने हितों के अनुकूल वातावरण को बनाते हुए, घाटी की परिस्थितियाँ हमे शेष भारत के साथ सात्मीकरण की ओर मोड़नी ही पड़ेगी। किसी भी केन्द्र सरकार का अपने देश के अविभाज्य अंगों के प्रति यह अनिवार्य कर्तव्य होता है। भारत की सार्वभौम प्रभुसत्तासंपन्न सरकार को अलगाववादी तत्वों के द्वारा कराये गये प्रायोजित पथराव के आगे झुकना नहीं चाहिए। सेना के बंकर्स हटाने से व उसके अधिकार कम करने से वहाँ भारत की एकात्मता व अखण्डता की रक्षा नहीं होगी। संसद के वर्ष 1994 में सर्वसम्मति से किये गये प्रस्ताव में व्यक्त संकल्प ही अपनी नीति की दिशा होनी चाहिए। हमें यह सदैव स्मरण रखना है कि महाराजा हरिसिंह के द्वारा हस्ताक्षरित विलयपत्र के अनुसार कश्मीर का भारत में विलीनीकरण अंतिम व अपरिवर्तनीय है।

जम्मू-कश्मीर की सब जनता अलगाववादी नहीं

जम्मू व कश्मीर राज्य में केवल कश्मीर घाटी नहीं है। और उसमें भी स्वायतत्ता की माँग करने वाले व उसकी आड़ में अलगाव को बढ़ावा देकर आजादी का स्वप्न देखने वाले लोग तो बहुत थोड़े ही है। अतः केवल इन अलगाववादी समूहों व उनके नेतृत्व को ही विभिन्न वार्ताओं के माध्यम से मुख्य रूप से सुनना व प्रश्रय देना समस्या को सुलझाने की बजाय उसे और अधिक उलझाने का ही कारण बनता दिख रहा है। अतः हमें घाटी के साथ-साथ जम्मू एवं लद्दाख की कठिनाइयों व उनके साथ सालों से चले आ रहे भेदभाव के बारे में भी गम्भीरता से विचार करना होगा। घाटी में अलगाववादी तत्वों के बहकावे में आ गये नौजवानों एवं सामान्य जनता से बात अवश्य ही होनी चाहिए। पर इसके साथ ही समूचे जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादी सोच के मुसलमानों, गुज्जर-बक्करवालों, पहाड़ियों, शियाओं, सिक्खों, बौद्धों, कश्मीरी पण्डितों एवं अन्य हिन्दुओं की भावनाओं, आवश्यकताओं व आकांक्षाओं को भी ध्यान में रखना नितांत आवश्यक है। साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर से आये शरणार्थियों की लम्बे समय से चली आ रही न्यायोचित माँगों पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। अपने गाँव व घरों से उजड़े कश्मीरी पण्डितों को ससम्मान, अपनी सुरक्षा व रोजगार के प्रति पूर्ण आश्वस्त हो कर शीघ्रातिशीघ्र घाटी में उनकी इच्छानुसार पुनः स्थापित कराया जाना चाहिए। ये सब भारत के साथ सम्पूर्ण सात्मीकरण चाहते हैं। अतः इन सब की सुरक्षा, विकास व आकांक्षाओं का विचार जम्मू-कश्मीर समस्या के सम्बन्ध में होना ही चाहिए। इन सब पक्षों का विचार करने पर ही जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में चलायी जाने वाली वार्तायें सर्वसमावेशी और फलदायी हो सकेगी।

स्वतंत्रता के तुरन्त बाद से ही जम्मू व काश्मीर की प्रजा भेदभाव रहित सुशासन व शांति की भूखी है। वह उनको शीघ्रातिशीघ्र मिले ऐसे सजग शासन व प्रशासन की व्यवस्था वहां हो यह आवश्यक है।

चीनः एक गम्भीर चुनौती

तिब्बत में अपनी बलात् उपस्थिति को वैध सिद्ध करने के चक्कर में तिब्बत समस्या की तुलना कश्मीर से करनेवाला चीन अब गिलगिट व बाल्टिस्थान में प्रत्यक्ष उपस्थित है। जम्मू व कश्मीर राज्य तथा उत्तरपूर्वांचल के नागरिकों को चीन में प्रवेश करने के लिए वीसा की आवश्यकता नहीं ऐसा जताकर उसने भारत के अंतर्गत मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयास किया है। चीन के उद्देश्यों के मामले में अब किसी के मन में कोई भ्रम अथवा अस्पष्टता रहने का कोई कारण नहीं रहना चाहिए। उन उद्देश्यों को लेकर भारत को घेरने, दबाने व दुर्बल करने के चीन के सामरिक, राजनयिक व व्यापारिक प्रयास भी सबकी आँखों के सामने स्पष्ट है। उस तुलना में हमारी अपनी सामरिक, राजनयिक व व्यापारिक व्यूहरचना की सशक्त व परिणामकारक पहल, शासन की इन मामलों में सजगता, समाज मन की तैयारी इन पर त्वरित ध्यान देने की कृति होने की आवश्यकता है। इसमें और विलंब देश के लिए भविष्य में बहुत गंभीर संकट को निमंत्रण देने वाला होगा।

नक्सली आतंक

चीन के समर्थन से नेपाल में माओवादियों का उपद्रव खड़ा हुआ व बड़ा हुआ। नेपाल के उन माओवादियों का अपने देश के माओवादी आतंक के साथ भी संबंध है। उनका दृढ़तापूर्वक बंदोबस्त करने के बारे में अभी शासन अपनी ही अंदरुनी खींचतान में उलझकर रह गया है। प्रशासन को पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाना, माओवादी प्रभावित अंचलों में विकासप्रक्रिया को गति देना इसके भी परिणामकारक प्रयास नहीं दिखते। कहीं-कहीं तो इस समस्या का भी अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए साधन के रूप में उपयोग किया जा रहा है। देश की सुरक्षा व प्रजातंत्र के लिए यह बात बहुत महंगी पडेगी।

उत्तरपूर्वांचलः देशभक्त जनता की उपेक्षा

उत्तरपूर्वांचल के संदर्भ में भी यह बात महत्वपूर्ण है। वहाँ पर भी अलगाववादी स्वरों को प्रश्रय मिलता है व देश के प्रति निष्ठा रखनेवालों की उपेक्षा होती है। इसी नीति के कारण जनसमर्थन खोकर मृतप्राय बनते चले N.S.C.N. जैसे अलगाववादी आतंकी संगठन को फिर से पुनरुज्जीवित होकर अपने आतंक व अलगाव सहित खड़े होने का अवसर मिला। उत्तरपूर्व सीमा के रक्षक बनकर चीन के आह्वान को झेलने की हिम्मत दिखानेवाले अरुणाचल की उपेक्षा ही चल रही है। मणिपुर की देशभक्त जनता तो उन अलगाववादियों द्वारा किये गये प्रदीर्घ नाकाबंदी में जीवनावश्यक वस्तुओं के घोर अभाव में तड़पती, राहत के लिए गुहार लगाते-लगाते थक गयी, निराशा के कारण प्रक्षुब्ध हो गयी। अपनी ही देश की देशभक्त जनता की उपेक्षा व अलगाववादियों की बिना कारण खुशामद चीन के विस्तारवादी योजनाओं की छाया में देश की सीमाओं की सुरक्षा की स्थिति को कितना बिगाड़ेगी इसकी कल्पना क्या हमारे नेतागण नही कर सकते? विदेशी ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों एवं उपद्रवों के प्रति लगातार बरती जा रही उपेक्षा ने स्थिति को और अधिक गंभीर बना दिया है।

अनुनय की राजनीतिः एक गंभीर खतरा

एक तरफ तो शासन प्रशासन का यह अंधेरनगरी के राजा को ही शोभा देनेवाला इच्छाशक्तिविहीन ढुलमुल रवैय्या, दूसरी तरफ स्वतंत्रता के 60 वर्षों के बाद भी सच्छिद्र रखी गयी सीमाओं से निरंतर चलनेवाली बांगलादेशी घुसपैठ का क्रम। न्यायालयों तथा गुप्तचर एजेंसियों के द्वारा बार-बार दी गयी detect, delete, and deport की राय के बावजूद, उसके प्रथम चरण detect तक की कार्यवाही करने की इच्छाशक्ति व दृढ़ता चुनावों में मतों की प्राप्ति के लिए अनुनय में किसी भी स्तर तक उतर सकने वाले हमारे राज्यों के व केन्द्रों के नेताओं ने खो दी है, ऐसा ही चित्र सर्वत्र दिखता है। उत्तरपूर्वांचल के राज्यों व बंगाल व बिहार के सीमावर्ती जिलों में जनसंख्या का चित्र बदल देनेवाली इस घुसपैठ ने वहाँ पर कट्टरपंथी सांप्रदायिक मनोवृत्ति को बढ़ाकर वहाँ की मूलनिवासी जनजातियाँ व हिन्दू जनता को प्रताड़ित करनेवाली गुंडागर्दी व अत्याचारी उपद्रवियों की उद्दंडता व दुःसाहस को और प्रोत्साहित किया है। हाल ही में बंगाल के देगंगा में हिन्दू समाज पर जो भयंकर आक्रमण हुआ, वह इन सीमावर्ती प्रदेश में देशभक्त हिन्दू जनता पर गत कुछ वर्षों से जो कहर बरसाया जा रहा है उसका एक उदाहरण है। न वहाँ के राज्य शासन को, न केन्द्र में सत्तारूढ़ नेताओं को हिन्दू जनता के इस त्रासदी की कोई परवाह है। सबकी नजर अपने मतस्वार्थों पर ही पक्की गड़ी है। अंतर्गत कानून, सुव्यवस्था तथा हिन्दुओं की सुरक्षा का सीमावर्ती जिलाओं में टूटना हमारी सीमासुरक्षा को भी ढीला करता है इसका अनुभव शासन-प्रशासन सहित सभी को कई बार देश में सर्वत्र आ चुका है फिर भी यह स्थिति है।

शंका तो यहॉं तक आती है की इस बात की चिंता भी शासन वास्तविक रूप में करता है कि नहीं? जिस ढंग से इस बार की जनगणना में बिना किसी प्रमाण के, केवल बतानेवाले का कथनमात्र प्रमाण मानकर साथ-साथ ही नागरिकता की भी निश्चिति का प्रावधान किया उससे तो अपने देश में अवैध घुसा कोई भी व्यक्ति नागरिक बन जाता। अब सभी नागरिकों को विशिष्ट पहचान क्रमांक [unique Identification number] मिलनेवाला है। परंतु पहचान क्रमांक प्राप्त करनेवाले वास्तव में इसी देश के नागरिक है यह प्रमाणित करने की क्या व्यवस्था है? योजनाओं के बनाते समय इन सजगताओं को बरतने में ढिलाई अथवा भूलचूक नहीं होनी चाहिए।

जन्मना जातिविरहित समाज की रचना का दावा करते है तो फिर एक देश के एक जन की गणना में जाति पूछकर फिर एक बार उसका स्मरण दिलानेवाली योजना क्यों बनी? एकरस समाजवृत्ति उत्पन्न करने के लिए अपनी जाति हिन्दू, हिन्दुस्थानी अथवा भारतीय लिखो, बोलो, मानो ऐसा आवाहन देश के गणमान्य विद्वान व सामाजिक कार्यकर्ता कर रहे हैं, तब देश में भावनात्मक एकता लाने के लिए कर्तव्यबद्ध शासन उनका विरोध करते हुये तथा एक-एक नागरिक से उनकी जाति गिनवायेगा क्या? नियोजन के लिये आंकड़ों का संकलन करनेवाली किसी अलग, स्वतंत्र, तात्कालिक व मर्यादित व्यवस्था का निर्माण करना सरकारी क्षमता के बाहर नही है।

करनी और कथनी में अंतर्विरोध

देश को कहाँ ले जाने की हमारी घोषणाएँ है और हम उसको कहां ले जा रहे हैं। अपने देश के जिस सामान्य व्यक्ति के आर्थिक उन्नयन की हम बात करते हैं, वह तो कृषक है, खुदरा व्यापारी, अथवा ठेले पर सब्जी बेचनेवाला, फूटपाथ पर छोटे-छोटे सामान बेचनेवाला है, ग्रामीण व शहरी असंगठित मजदूर, कारीगर, वनवासी है। लेकिन हम जिस अर्थविचार को तथा उसके आयातित पश्चिमी मॉडेल को लेकर चलते हैं वह तो बड़े व्यापारियों को केन्द्र बनाने वाला, गाँवों को उजाड़नेवाला, बेरोजगारी बढ़ानेवाला, पर्यावरण बिगाड़कर अधिक ऊर्जा खाकर अधिक खर्चीला बनानेवाला है। सामान्य व्यक्ति, पर्यावरण, ऊर्जा व धन की बचत, रोजगार निर्माण आदि बातें उसके केन्द्र में बिल्कुल नहीं है।

एक तरफ हम सबके शिक्षा की बात करते हैं, दूसरी तरफ शिक्षा व्यवस्था का व्यापारीकरण करते हुए उसको गरीबों के लिए अधिकाधिक दुर्लभ बनाते चले जाते हैं। मानवीय भावना, सामाजिक दायित्वबोध, कर्तव्यतत्परता, देशात्मबोध अपने समाजजीवन में प्रभावी हो ऐसा उपदेश शिक्षा संस्थाओं में जाकर हम देते हैं और इन मूल्यों को संस्कार देनेवाली सारी बातों को निकाल बाहर कर ”पैसा, अधिक पैसा और अधिक पैसा“ किसी भी मार्ग से कमाने में ही जीवन की सफलता मानकर, निपट स्वार्थ, भोग तथा जड़वाद सिखानेवाला पाठ्यक्रम व पुस्तकें लागू करते है। कथनी व करनी के इस अन्तर्विरोध के मूल में अपने देश की वास्तविक पहचान, राष्ट्रीयता, वैश्विक दायित्व तथा एकता के सूत्र का घोर अज्ञान, अस्पष्टता अथवा उसके प्रति गौरव का अभाव तथा स्वार्थ व विभेद की प्रवृत्ति है। सभी क्षेत्रों में राष्ट्र के नेतृत्व करनेवाले लोगों में उचित स्वभाव हों, उचित चरित्र हो, उचित प्रवृत्ति बनी रहे, कभी उसमें भटकाव न आये यह चिन्ता सजगता से करनेवाला जागृत समाज ही इस परिस्थिति का उपाय कर सकता है।

हिन्दुत्वः अनिवार्य आवश्यकता

गत 85 वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही समाज की निर्मिती के लिए सुयोग्य व्यक्तियों के निर्माण में लगा है। अपने इस सनातन राष्ट्र की विशिष्ट पहचान, देश की अखंडता व सुरक्षा का आधार, समाज की एकात्मता का सूत्र तथा पुरुषार्थी उद्यम का स्रोत, तथा विश्व के सुख शांतिपूर्ण जीवन की अनिवार्य आवश्यकता हिन्दुत्व ही है, यह अब सर्वमान्य है और अधिकाधिक स्वतःस्पष्ट होते जा रहा है। अढ़ाई दशक पहले श्री विजयादशमी उत्सव के इसी मंच से संघ के उस समय के पू. सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के इस कथन को कि – ‘भारत में पंथनिरपेक्षरता, समाजवाद व प्रजातंत्र इसीलिए जीवित है क्योंकि यह हिन्दुराष्ट्र है’, आज श्री एम.जे अकबर व श्री. राशिद अलवी जैसे विचारक भी लिख बोल रहे हैं। सभी विविधताओं में एकता का दर्शन करने की सीख देनेवाला, उसको सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा देनेवाला व एकता के सूत्र में गूंथकर साथ चलानेवाला हिन्दुत्व ही है। हिन्दुत्व के इस व्यापक, सर्वकल्याणकारी, व प्रतिक्रिया तथा विरोधरहित पवित्र आशय को मन-वचन-कर्म से धारण कर इस देश का पुत्ररूप हिन्दु समाज खड़ा हो। निर्भय एवं संगठित होकर अपनी पवित्र मातृभूमि भारतमाता, उज्ज्वल पूर्वज-परंपरा तथा सर्वकल्याणकारी हिन्दू संस्कृति के गौरव की घोषणा करें यह आज की महती आवश्यकता ही नही, अनिवार्यता है। स्वार्थ और भेद के कलुष को हटाकर परमवैभवसंपन्न, पुरूषार्थी दिग्विजयी भारत के निर्माण के लिए सब प्रकार के उद्यम की पराकाष्ठा करें। संपूर्ण विश्व को समस्यामुक्त कर सुखशांति की राह पर आगे बढ़ाये। सब प्रकार की विकट परिस्थितियों का यशस्वी निरसन करने का यही एकमात्र, अमोघ, निश्चित व निर्णायक उपाय है।

इसलिए नित्य शाखा की साधना के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को हिन्दुत्व के संस्कारों तथा गौरव से परिपूरित कर, निःस्वार्थ व भेद तथा दोष से रहित अंतःकरण से तन-मन-धन पूर्वक देश, धर्म, संस्कृति व समाज के लिए जीवन का विनियोग करने की प्रेरणा व गुणवत्ता देकर, सम्पूर्ण समाज को संगठित व शक्तिसंपन्न स्थिति में लाने का संघ का कार्य चल रहा है। पूर्ण होते तक इस कार्य को करते रहने के अतिरिक्त संघ का और कोई प्रयोजन अथवा महत्वाकांक्षा नहीं है। केवल आवश्यक है, इस पवित्र कार्य को समझकर, उसे अपना कार्य मानकर आप सभी सहयोगी भाव से इसमें जुट जायें। यही आपसे विनम्र अनुरोध तथा हृदय से आवाहन है।

भारत को पहले विकास की अवधारणा पर करना होगा विचार

– डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

भारत में विकास की बहुत चर्चा हो रही है। कई बार अमेरिका के कुछ अखबार पत्र पत्रिकाएं या अर्थशास्त्री यह आकलन कर देते हैं आने वाले वर्षों में भारत विकास की दृष्टि से बडे-बडे देशों को पराजित कर देगा। अपने इधर के कुछ लोग जब ऐसा सुनते हैं तो नाच-गाना शुरू कर देते हैं। आखिर अमेरिका का प्रमाण-पत्र झूठा तो नहीं हो सकता। जब अमेरिका कह रहा है तो जाहिर है कि भारत विकास के रास्ते में दुडकी चाल से चलेगा ही। उसके बाद कुछ अरसे उपरांत अमेरिका के वही विशेषज्ञ दोबारा लिखते हैं कि भारत में विकास की चोटी पर पहुँचने की अपार संभावनाएं तो विद्यमान है लेकिन उसके लिए भारत को कुछ नीतिगत निर्णय भी करने पडेंगे और वे निर्णय क्या होने चाहिए इसका स्पष्ट और अस्पष्ट संकेत भी अमेरिका के ये विशेषज्ञ दे देते हैं। अब प्रश्न आखिर विकास की चोटी पर पहुँचने का है। उसके लिए थोडी मेहनत की जाए तो उसमें कोई बुराई नहीं है। भारत को तो अमेरिका का धन्यवादी होना चाहिए कि अमेरिका के विद्वान इतनी मेहनत करके भारत को विकास के शिखर पर पहुँचाने के लिए रास्ते और नीतियाँ बता रहे हैं। और सचमुच भारत में कुछ लोग अमेरिका के इस एहसान से दबकर दोहरे हुए जा रहे हैं। अमेरिका दो कदम चलने को कहता है। अपने यहां छलांग लगाने की तैयारी हो जाती है।

भारत के साथ ऐसा अभी से नहीं हो रहा है। पिछले 300 सालों से यही किस्सा दोहराया जा रहा है। जब यहां अंग्रेज शासक बनकर आए थे तो उनका यही कहना था कि भारत विकास की दौड में बहुत पिछड गया है। यहां के लोग अर्धविकसित हैं। इसलिए इसको विकसित करना उनका कर्तव्य है। अंग्रेजों के चले जाने के बाद और यूनियन जैक का तारा अस्त हो जाने के बाद यही काम अमेरिका ने संभाल लिया। विकास की भारतीय और पश्चिमी अवधारणा में स्पष्ट ही अंतर है और यह अंतर काफी गहरा है विकास की भारतीय दृष्टि अंतर्मुखी है और पश्चिम की बर्हिमुखी है। मानव विकास की तमाम यात्राएं चाहेवे पूर्वी दर्शन की यात्रा हो या फिर पश्चिमी दर्शन की यात्रा हो यह मानकर चलती है कि मनुष्य के विकास की कहानी पशु के विकास से प्रारंभ होती हैं क्योंकि भारतीय चिंतकों ने भी मनुष्य को मूलतः पशु स्वीकार किया है। पश्चिम में जब जीव विज्ञान का विकास हुआ€ तो वहां तो मनुष्य का वर्गीकरण पशुओं के साथ ही हुआ। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि विकास का अर्थ पशुता से प्रारंभ की गई उर्ध्वमुखी यात्रा है। यहां तक तो शायद मतभेद की गुंजाइश नहीं है परंतु उसके बाद मतभेद की गुंजाइश के आधार बढते जाते हैं। पश्चिम की दृष्टि में (अब तक की उसकी तमाम गतिविधियों, क्रियाकलापों और कर्मों को देखकर) विकास का भाव इस पशु को ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाएं प्रदान करने का है। उसे सजधज कर रहना है। उसके लिए बढिया मकान होने चाहिए, उसके लिए अन्य सभी सुविधाएं होनी चाहिए जिससे उसे कम से कम श्रम करना पडे। उसके पास जितनी ज्यादा चीजों का अंबार है वह उतना ही ज्यादा विकसित है। नए-नए यंत्र, नए-नए उपकरण उसकी पहुँच में होने चाहिए। जाहिर है कि इसी दृष्टि से इन उपकरणों का उत्पादन भी होना चाहिए। अपरिमित उत्पादन और उसका अपरिमित भोग आधुनिक दृष्टि से पश्चिम इसी को विकास का मानदण्ड मानता है। उत्पादन और भोग में केवल वस्तुएं ही सम्मिलित नहीं है बल्कि विविध प्रकार की सेवाएं भी शामिल है। ज्यादा से ज्यादा सेवाओं का अधिग्रहण और उपभोग पश्चिम के किसी व्य्ाक्ति को विकसित बनाता है। यदि इसको सूत्र रूप में कहना हो तो भौतिक विकास ही पश्चिम की दृष्टि में विकास है। भौतिक विकास तभी संभव है यदि मानवीय इच्छाएं, इंद्रियां और महत्वकांक्षाएं अनियंत्रित हो जाएं। अतः विकास के लिए यह भी जरूरी है कि अतृप्त इच्छाएं ज्यादा से ज्यादा भोग की कामना करती रहें। यह विकास का भौतिक पक्ष है। पश्चिम के व्य्ाक्ति को जिस देश में यह दिखाई नहीं देता उसकी दृष्टि में वह देश अविकसित है€ और उसके रहने वाले लोग पिछडे हुए। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जिस समय इस देश में अंग्रेज शासक बन कर आए उस समय यह देश आर्थिक दृष्टि से शैक्षिक दृष्टि से और सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न देश था। (प्रो. धर्मपाल ने इसे आंकडों से स्थापित किया है, आर्थिक दृष्टि से इस देश की संपन्नता की चर्चा सोद्देश्य्ा की गई है। परंतु इन सब के बावजूद अंग्रेजी शासकों, विद्वानों, और चिंतकों ने भारत को अविकसित और पिछडा हुआ देश माना। इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि उन्हें यहां के लोगों में भौतिक वस्तुओं के प्रति अपरिमित लालसा नजर नहीं आई होगी। जाहिर है इस एक ही कसौटी पर भारत अविकसित ठहरा दिया गया और इसको विकसित करने के उन्होंने अनेक प्रयास किए। हमारे विद्वान अभी तक भी यह स्वीकार करते हैं कि भारत के विकास में अंग्रेजी शासन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

भारत में विकास की अवधारणा इसके विपरीत है। यहां विकास का लक्षण है ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुविधाओं की लालसा पर ज्यादा से ज्यादा नियंत्रण रखना। उतना भोग करना जितना इस शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए पर्याप्त है। भारत में विकास का लक्षण है ऐसा वातावरण और पर्यावरण बनाना जिसमें किसी को रोग न हो। पश्चिम में इस प्रकार का वातावरण बनाने के प्रयासों को पिछडापन कहा जाता है और बिमार के अस्पताल में आ जाने पर उसका सर्वोत्तम इलाज ही विकास कहलाता है। भारत में विकास का अर्थ है कि व्यक्ति को अस्पताल में जाने की जरूरत न पडे। पश्चिम में विकास का अर्थ है अस्पताल में आने पर उसका सर्वोत्तम इलाज किया जाए। विकास को लेकर दोनों अवधारणाओं का यह स्पष्ट अंतर है। लेकिन ऐसा मानना पड़ेगा कि पिछली लगभग दो शताब्दियों से कम से कम भारत सरकार और उसके विशेषज्ञों ने विकास के उन्हीं मानदण्डों को स्वीकार किया है जो मानदण्ड पश्चिमी विशेषज्ञों ने निर्धारित किये हैं।

विकास की अवधारणा को लेकर यह लडाई देश की स्वतंत्रता के उषाकाल में ही प्रारंभ हो गई थी। आजादी से कुछ अरसा पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी में भविष्य्ा के भारत में विकास के मॉडल को लेकर गहरा विवाद छिड गया था। महात्मा गांधी भारत का विकास हिन्द स्वराज के मॉडल पर करना चाहते थे। यह मॉडल अपनी आत्मा, प्रकृति और स्वभाव में भारतीय मॉडल कहा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने उसी सिरे से अस्वीकार ही नहीं किया बल्कि गांधी जी के लिए लगभग अपमानजनक शब्दों का भी प्रयोगकिया। नेहरू ने गांधी जी को लिखा था कि बीस साल पहले जब मैंने हिन्दू स्वराज पढा था तब भी मुझे वह अप्रासंगिक ही लगा था अब आज १९४७ में तो वह रद्दी की टोकरी में फेंकने के योग्य है। नेहरू जी का भाव कुछ-कुछ इस प्रकार का था कि उनकी दृष्टि में इस विषय पर महात्मा गांधी से बात करना भी समय की बर्बादी होगी। गांधी जी विकास के लिए गांव को ईकाई के रूप में स्वीकारते थे जबकि नेहरू ने लिखा – कि गांव के लोग तो वौद्धिक दृष्टि से पिछडे हुए होते हैं। यहां पंडित नेहरू और पश्चिम के विशेषज्ञ लगभग एक ही भाषा बोलते हुए नजर आते हैं। यह जरूर आश्चर्य चकित करता है कि नेहरू ने पूरी ईमानदारी से गांधी के विकास के मॉडल को नकार दिया लेकिन गांधी इसके बावजूद नेहरू को नकारने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। नेहरू के मन को जान लेने के बाद महात्मा गांधी भलीभांति कल्पना कर सकते थे, (और उन्होंने की भी होगी- कि नेहरू तथाकथित विकास के जिस रास्ते पर देश का ले जाएंगे। उसमें आदमी बौना बनता जाएगा तंत्र और मशीन भीमकाय होती जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया में मानवीय कर्मों में सृजनात्मक आनंद समाप्त हो जाएगा€ और मनुष्य भी धीरे-धीरे या चेतनाविहीन मशीन या फिर अतृप्त लालसाओं का पशु बन जाएगा। कई बार शंका होती है कि गांधी जी विकास के जिस मॉडल के बारे में क हते थे। उसके क्रियान्वयन के बारे में स्वयं कितने गंभीर थे।

आज भी भारत विकास के उसी मॉडल पर चला हुआ है जो पश्चिम का मॉडल है, पंडित नेहरू का मॉडल है। विकास का यह मॉडल प्रकृति से लडने का मॉडल है। प्रकृति को पराजित करने का मॉडल है। उसी का प्रभाव है कि ओजोन परत में छेद हो रहा है ग्लेशियर पिघल रहेे हैं, तापमान बढ रहा है, नई बिमारियाँ आ रही हैं। लेकिन इसके बावजूद भारत तो आँखें मूँदकर विकास के मामले में अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है। भारत को ऊर्जा की आवश्य्ाकता है। अमेरिका उसके लिए हमें अपने रियेक्टर बेच रहा है और साथ ही परमाणु संधि से विकलांग बना रहा है। हम अपनी जल ऊर्जा को छोडकर परमाणु ऊर्जा के पीछे भाग रहे हैं। भीमकाय अमेरीकी व्य्ावसायिक कंपनियाँ इस देश में आ रही है। कच्चा माल विदेश में जा रहा है। किसान को मालिक से मजदूर बनाया जा रहा है। कभी अंग्रेजों ने पुलिस के बल पर नील की खेती करवाई थी। हजारों किसान मारे थे और भुखमरी का शिकार हो गए थे। आज फिर अमेरिका के कहने पर भारत सरकार किसानों को कांट्रेक्ट फार्मिंग के लिए मजबूर कर रही है। यह नील की खेती का नया संस्करण है। विशालकाय मॉल बनाए जा रहे हैं। दूर जाने की जरूरत नहीं है विकास के नाम पर गांव उजड रहे हैं। शहर भारीभरकम बनते जा रहे हैं, समाज को लक्वा मार रहा है और राज्य हिंसक बनता जा रहा है। इतना हिंसक कि नंदीग्राम में किसानों को दिन दिहाडे मारकर उनकी जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हवाले कर रहा है और यह सारा कुछ विकास के नाम पर किया जा रहा है।

विकास के तमाम दावों के बावजूद इस मॉडल में विकसित हुआ मनुष्य मूलतः वहीं खडा हुआ है जहाँ शिकारी युग का मनुष्य खडा था। पश्चिम में विकास के दो सिद्धांत जो सर्वाधिक प्रचलित है वे साम्यवादी सिद्धांत और पूंजीवादी सिद्धांत के नाम से जाने जाते हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि शायद इन दोनों मॉडलों में गहरा अंतर है लेकिन दोनों भौतिक दर्शन के सिद्धांत है। अबाध उत्पादन के सिद्धांत पर आधारित हैं। फर्क केवल इतना है कि पूंजीवाद में उत्पादन के साधनों पर कब्जा चंद व्यक्तियों का है। जब कि साम्यवाद में यही कब्जा राज्य का है।

विकास की भारतीय परिकल्पना पुरूषार्थ चतुष्टय पर आधारित है। भौतिक कामनाओं का निषेध नहीं है परंतु उस पर धर्म का नियंत्रण है। अंतिम लक्ष्य तो मोक्ष है ही। इसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के नाम से जाना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इसी के आधार पर विकास के एकात्म दर्शन की कामना की थी। गांधी भी मूलतः इसी के उपासक थे। प्रो. बजरंग लाल गुप्त ने इसी को विकास की सुमंगलम अवधारणा कहा है। परंतु इसे देश का दुर्भाग्य कहना चाहिए कि महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय तक के शिष्यों ने उनकी मूर्तियों की स्थापना तो कर दी है लेकिन उनके विकास दर्शन को नहीं अपनाया। विकास एकात्म दर्शन की मानवीय रास्ता है इस रास्ते के सिवा और कोई रास्ता नहीं है जो भारत के मन और शरीर को स्वस्थ रख सके। २१वीं शताब्दी में इसी रास्ते का संधान करना होगा।

शूद्र सांस्कृतिक बंधुत्व से भागे हुए हिन्दू

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हम सबके अंदर जातिप्रेम और दलितघृणा कूट-कूट भरी हुई। किसी भी अवसर पर हमारी बुद्धि नंगे रूप में दलित विरोध की आग उगलने लगती है। दलितों से मेरा तात्पर्य शूद्रों से है। अछूतों से हैं।

सवाल उठता है अछूतों से आजादी के 60 साल बाद भी हमारा समाज प्रेम क्यों नहीं कर पाया? वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम आज भी दलितों से नफरत करते हैं। उन्हें पराया मानते हैं। मेरे कुछ हिन्दुत्ववादी पाठक हैं वे तो मुझपर बेहद नाराज हैं। मैं उनसे यही कह सकता हूँ कि अछूत समस्या, दलित समस्या मूलतः सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समस्या ही नहीं है। बल्कि यह एक सांस्कृतिक समस्या भी है।

दलित समस्या को हमने अभी तक राजनीतिक समस्या के रूप में ही देखा है। उसके हिसाब से ही संवैधानिक उपाय किए हैं। उन्हें नौकरी से लेकर शिक्षा तक सब चीजों में आरक्षण दिया है। आजादी के पहले और बाद में मौटे तौर पर वे राजनीतिक केटेगरी रहे हैं। उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिए से हमने कभी सामूहिक मीमांसा नहीं की है। संस्कृति और आर्थिक जीवन के उन चोर दरवाजों को बंद करने का प्रयास ही नहीं किया जिनसे हमारे मन में और समाज में दलित विरोधी भावनाएं मजबूती से जड़ जमाए बैठी हैं।

जाति को राजनीतिक केटेगरी मानने से जातिविद्वेष बढ़ता है। जाति व्यवस्था सांस्कृतिक-आर्थिक केटेगरी है। संस्कृति इसकी धुरी है आर्थिक अवस्था इसका आवरण है। अंग्रेजों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने आधुनिक भारत में जातिप्रथा को प्रधान एजेण्डा बनाया। सामाजिक व्यवस्था के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रयासों से ही जातिप्रथा का अध्ययन आरंभ हुआ।

कंपनी शासन के लोग नहीं जानते थे कि जातिप्रथा क्या है ? वे यहां शासन करने के लिए आए थे और यहां के समाज को जानना चाहते थे।यही बुनियादी कारण है जिसके कारण अंग्रेज शासकों के अनुचर इतिहासकारों, मानवविज्ञानियों,प्राच्यविदों आदि ने जातिप्रथा का गंभीरता के साथ अध्ययन आरंभ किया।

अति संक्षेप में इतिहासकार रामशरण शर्मा के ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ ग्रंथ के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीनकाल में मवेशियों को लेकर जमकर संघर्ष हुए हैं और बाद में जमीन को लेकर संघर्ष हुए हैं। जिनसे ये वस्तुएं छीनी जाती थीं और जो अशक्त हो जाते थे,वे नए समाज में चतुर्थ वर्ण कहलाने लगते थे।फिर जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक जमीन हो गयी कि वे स्वयं संभाल नहीं पाते थे,तो उन्हें मजदूरों की आवश्यकता हुई और वैदिककाल के अंत में वे शूद्र कहलाने लगे।

हमारे बीच में शूद्रों के बारे में अनेक मिथ प्रचलन में हैं इनमें से एक मिथ है कि शूद्र वर्ण का निर्माण आर्य पूर्व लोगों से हुआ था। यह नजरिया एकांगी है और अतिरंजित है। इसी तरह यह भी गलत धारणा है कि आरंभ में सिर्फ आर्य ही थे।

वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर ,दोनों के अंदर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। यह ऐतिहासिक सच है कि वैदिककाल के आरंभ में शूद्रों और दासों की संख्या कम थी। लेकिन उत्तरवर्ती वैदिककाल के अंत से लेकर आगे तक शूद्रों की संख्या बढ़ती गई, उत्तर वैदिक काल में वे जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं,वे वैदिककाल में नहीं थीं।

एक मिथ यह भी है कि शूद्र हमेशा से मैला उठाते थे,अछूत थे। यह तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। यदि हिन्दूशास्त्रों के आधार पर बातें की जाएं तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि त्रेता-युग का आरंभ होने के समय वर्णव्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। न कोई व्यक्ति लालची था और न लोगों में दूसरों की वस्तु चुराने की आदत थी।

चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के संबंध में सबसे प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में मिलता है। अनुमान है कि इसे संहिता के दशम मण्डल में बाद में जोड़ा गया था। बाद में इसे वैदिक साहित्य, गाथाकाव्य, पुराण और धर्मशास्त्र में अनुश्रुतियों के आधार पर कुछ हेर-फेर के साथ पेश किया गया। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रहमा) के मुँह से,क्षत्रिय की उनकी भुजाओं से, वैश्य की उनकी जांघों से, और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीनों वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे।

शूद्रों के प्रति भेदभाव और घृणा सामाजिक विकास के क्रम में बहुत बाद पैदा हुई है। कायदे से हम सब एक हैं हममें और शूद्रों में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है। कालांतर में श्रम और श्रम विभाजन की प्रक्रिया में हमने शूद्रों को अलग करने की आदत डाली,उनसे भेदभावपूर्ण व्यवहार आरंभ किया। उनके साथ उत्पीड़क का व्यवहार करने लगे और एक अवस्था ऐसी भी आयी कि हमने उनके सांस्कृतिक-सामाजिक उत्पीड़न को वैधता प्रदान करने वाला समूचा तर्कशास्त्र ही रच डाला।

सवाल उठता है कि शूद्र पदबंध आया कहां से? रामशरण शर्मा ने लिखा है कि जिस प्रकार सामान्य यूरोपीय शब्द ‘स्लेव’ और संस्कृत शब्द ‘दास’ विजित जनों के नाम पर बने थे, उसी प्रकार शूद्र शब्द उक्त नामधारी पराजित जनजाति के नाम पर बना था। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में शूद्र नामक जनजाति थी। क्योंकि डियोडोरस ने लिखा है कि सिकंदर ने आधुनिक सिंध के कुछ इलाकों में रहने वाली सोद्रई नामक जनजाति पर चढ़ाई की थी। इतिहासकार टालमी ने लिखा है सिद्रोई आर्केसिया के मध्यभाग में रहते थे जिनके अंतर्गत पूर्वी अफगानिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा पड़ता है और इसकी पूर्वी सीमा पर सिन्धु है।

सवाल यह है शूद्र हमारे आदिम बंधु हैं। क्या उन्हें हम आधुनिककाल में समस्त भेदभाव त्यागकर अपना मित्र नहीं बना सकते? अपना पड़ोसी, अपना रिश्तेदार, अपना भाई, अपना जमाई,अपना बेटा नहीं बना सकते?

हमें गंभीरता के साथ उन कारणों की तलाश करनी चाहिए जिनके कारण शूद्र हमसे दूर चले गए और आज भी हमसे कोसों दूर हैं। हम सांस्कृतिक तौर पर पहले एक-दूसरे के साथ घुले मिले थे लेकिन अब एक-दूसरे के लिए पराए हैं,शत्रु हैं।

पहले शूद्र एक ही शरीर और एक ही समाज का अनिवार्य अंग थे। आज एक-दूसरे से अलग हैं,एक-दूसरे के बारे में कम से कम जानते हैं,एक-दूसरे बीच में रोटी-बेटी-खान-पान-पूजा-अर्चना के संबंध टूट गए हैं। यह विभाजन हम जितनी जल्दी खत्म करेंगे उतना ही जल्दी सुंदर भारत बना लेंगे। भारत की कुरूपता का कारण है जातिभेद और शूद्रों के प्रति अकारण घृणा।

भारत सत्ता, संपदा, तकनीक, इमारत, इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग-धंधे, आरक्षण आदि में कितनी ही तरक्की कर ले, कितना ही बड़ा उपभोक्ता बाजार खड़ा कर ले हम जब तक शूद्रों के साथ सांस्कृतिक संबंध सामान्य नहीं बनाते सारी दुनिया में हमारा नाम पिछड़े देशों में बना रहेगा। समाज में सामाजिक तनाव बना रहेगा।

कुछ अमरीकीपंथी दलित विचारक हैं जो यह मानकर चल रहे हैं कि दलितों की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी तो दलितों की मुक्ति हो जाएगी। दलितों के पास दौलत आने ,उनके उपभोक्ता बनने से जातिभेद की दीवार नहीं गिरेगी बल्कि जातिभेद और बढ़ेगा। उपभोक्तावाद भेदभाव खत्म नहीं करता बल्कि भेदभाव बढ़ाता है।

वस्तुओं के समान उपभोग से सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें गिरती नहीं हैं उलटे सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें मजबूत होती हैं। उपभोक्तावाद को भेदभाव से मदद मिलती है वह बुनियादी सामाजिक भेदभाव को बनाए रखता है।

उपभोक्तावाद में यदि भेदभाव की दीवार गिरा देने की ताकत होती तो अमेरिका और ब्रिटेन में नस्लीय भेदभाव की समाप्ति कभी की हो गयी होती। वस्तुओं का उपभोग भेद की दीवारें नहीं गिराता। वस्तुएं सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ नहीं करतीं। जातिभेद के सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ करने वाले नए मूल्यों को बनाने की पूंजीपति वर्ग में क्षमता ही नहीं है यदि ऐसा ही होता तो काले लोगों को विकसित पूंजीवादी मुल्कों में भयानक नस्लीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता।

दलीय राजनीति और महिलाएं

-राखी रघुवंशी

दलित महिलाओं की स्थिति पर अक्सर मीडिया का ध्यान तब जाता है जब वे बलात्कार की शिकार होती हैं या उन्हें नग्न, अर्धनग्न करके सड़कों पर घुमाया जाता है। ऐसी शर्मनाक घटनाओं की रिर्पोटिंग के बाद उनका फॉलोअप बहुत ही कम किया जाता है। दरअसल आजादी के छह दशक बाद भी दलित महिलाओं को भेदभाव, हिंसा, सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। गरीब, महिला व दलित- ये तीनों फैक्टर उसके शोषण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। अपने देश में अंदाजन 20 करोड़ दलित हैं, उनमें 10 करोड़ दलित महिलाएं शामिल हैं। अच्छी खासी तादाद के बावजूद वे सामाजिक, आर्थिक, व राजनीतिक मोर्चे पर हाशिए में हैं। सवर्ण जातियों की पेशेवर महिलाएं ऊंचे अहोदों पर ही नहीं हैं बल्कि ऐसी जातियों में कामकाजी महिलाओं की संख्या स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। लेकिन पढ़ी-लिखी काम–काजी दलित महिलाओं की संख्या निराशाजनक है और रोजगार बाजार से बाहर रहने का मतलब उनकी क्षमताओं, संभावनाओं का कत्ल करना है। दरअसल दलित महिलाएं कुछ खास किस्म की हिंसा की शिकार होती हैं। ऊंची जाति के मर्द अक्सर दलित पुरूषों से बदला लेने के लिए उनके समुदाय की औरतों के साथ बलात्कार करते हैं, सरेआम नंगा करते हैं। उनके दांत व नाखून उखाड़ दिये जाते हैं। उन्हें डायन घोषित कर गांव से बेदखल करना आम बात है और कई मर्तबा डायन मानकर हत्या भी कर देते हैं। दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा की शिकार भी दलित लड़कियां ही हैं। दलित महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को रोकने के जिम्मेवारी राज्य की है। सनद रहे कि अपने देश ने कई ऐसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों पर हस्ताक्षर किए हुए हैं जो महिला व पुरूष दोनों की बराबरी की वकालत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय कानूनों में यह स्वीकार किया गया है कि सरकार का काम महज मानवाधिकार संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों को बनाना ही नहीं है बल्कि इसके परे ठोस पहल करना भी है। सरकार का काम ऐसी नीतियां बनाना व बजट में प्रावधान करना है ताकि महिलाएं अपने अधिकारों का इस्तेमाल बिना किसी खौफ से कर सकें। इसके इलावा जाति आधारित हिंसा व भेदभाव करने वालों को सख्त से सख्त सजा देना भी है। इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन सिविल एण्ड पॉलटिकल राइट्स के अनुसार भारत सरकार का दायित्व ऐसा माहौल बनाना है जिसमें दलित महिलाओं को यंत्रणा, गुलामी, क्रूरता से आजादी मिले, कानून, अदालत के सम्मुख उसकी पहचान एक मानव के नाते हो। वे निजता व जीने के अधिकार का इस्तेमाल कर सकें और उन्हें अपनी मर्जी से शादी करने का अधिकार भी है।

वस्तुत: एक दलित महिला की जिंदगी व सम्मान ऐसे मानवाधिकारों पर बहुत निर्भर करता है। लेकिन अपने लोकत्रांतिक देश में उनके इन मानवाधिकारों का बहुत ही व्यवस्थित तरीके से उल्लंघन देखने को मिलता है। बाल जन्म व विवाह पंजीकरण दलित लड़कियों को यौन उत्पीड़न, तस्करी, बाल मजदूरी, जबरन व छोटी उमर में शादी से संरक्षण प्रदान करता है लेकिन अपने देश में बाल जन्म व विवाह पंजीकरण की अनिर्वायता के महत्व को सिर्फ अदालतों ने ही समझा है। प्रशासन की लापरवाही व गैर संवदेनशीलता के कारण 46 प्रतिशत शिशुओं का जन्म पंजीकरण नहीं हो पाता और इसमें दलित लड़कियों की संख्या गौरतलब है। आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की बात करें तो यहां भी दलित महिलाएं हाशिए पर ही खड़ी हैं। उनके हिस्से ज्यादातर ऐसे काम आते हैं जहां काम की स्थितियां अमानवीय होती हंै। उन्हें न ही सामाजिक संरक्षण प्रदान होता है और न ही पारिवारिक संरक्षण। स्कूली शिक्षा के चार्ट पर नजर डालें तो अनपढ़ दलित लड़कियों की संख्या चिंता का विषय है। दलित महिलाओं के बच्चों को न तो गुणात्मक शिक्षा मुहैया कराई जा रही है। न ही ऐसी शिक्षा जिसे हासिल कर वे सशक्त बन सकें। दलित महिलाओं की इस चिंतनीय स्थिति से जुड़े कारण भी बैचेन करने वाले हैं। यह एक हकीकत है कि दलित महिलाओं के साथ सिर्फ ऊंची जाति के लोग ही भेदभाव नहीं करते बल्कि अपने समुदाय के भीतर ही उन्हें कमजोर बनाए रखने की हर संभव कोशिश की जाती है। दलित राजनीति में महिलाओं का वजूद सिर्फ संख्या तक ही सीमित है। उधर महिला आंदोलन में भी दहेज हत्या जैसी सामाजिक समस्याओं पर ज्यादा फोकस किया गया। इस महिला आंदोलन में दलित महिलाओं की आवाज, उनके विद्रोह ज्यादा नजर नहीं आते। इसके अलावा आम दलित महिलाओं को उनके पक्ष में बने कानूनों की जानकारी भी बहुत कम होती है। दलित महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले मामलों में सिर्फ 1 फीसद अपराधियों को ही अदालत सजा सुनाती है। अदालतों में अपराधियों को सजा से मुक्त करना भी एक बहुत बड़ी समस्या है जो पीड़ित दलित महिलाओं को सालती है।

हरियाणा के किसान ने बनाई बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन

-फ़िरदौस ख़ान

हरित क्रांति के लिए अग्रणी हरियाणा को कृषि के क्षेत्र में सिरमौर बनाने में यहां के किसानों की अहम भूमिका है। यहां के किसानों ने न केवल खेतीबाड़ी में नित नए प्रयोग किए हैं, बल्कि तकनीकी क्षेत्र में भी अपनी योग्यता का परचम लहराया है। ऐसे ही एक किसान हैं यमुनानगर ज़िले के गांव दामला के धर्मवीर, जिन्होंने बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन बनाकर इस क्षेत्र में एक नई क्रांति को जन्म दिया है। इस मशीन से जूसर, ग्राइंडर, कुकर और मिक्सर का काम एक साथ लिया जा सकता है।

जड़ी-बूटियों की खेती करने वाले धर्मवीर बताते हैं कि उनका कारोबार जड़ी-बूटियों का है। वह अपने खेतों में उगी औषधियों को तैयार करके बाज़ार में बेचते हैं। औषधियों को पीसना, उनका जूस और अर्क़ निकालना बहुत मेहनत का काम है और इसमें समय भी ज्यादा लगता है। साथ ही लेबर का ख़र्च बढ़ने से लागत भी ज्यादा हो जाती है। इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न ऐसी कोई मशीन बनाई जाए, जिससे उनका काम आसान हो जाए। उन्होंने वर्ष 2006 में बहु उद्देशीय प्रसंस्करण मशीन बनाई। उन्होंने क़रीब एक साल तक इस मशीन से जड़ी-बूटियों , गुलाब, ऐलोवेरा (धूतकुमारी), आंवला, जामुन, केला और टमाटर की प्रोसेसिंग करके विभिन्न उत्पाद तैयार किए। गुलाब का अर्क़, केले के छिलके का अर्क़, जामुन का जूस और जामुन की गुठली का पाउडर भी इससे तैयार किया। मशीन में जड़ी-बूटियों और फल-सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग करके पांच-छह उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं। इन मशीन से एलोवेरा और आंवले की जैली, जूस, शैंपू, चूर्ण, तेल और मिठाई बना सकती है।

उनका कहना है कि छह फ़ीट ऊंची इस मशीन की क़ीमत एक लाख 35 हज़ार रुपये रखी गई है। इस मशीन का कुकर, मिक्सर और ग्राइंडर एक घंटे में क़रीब 150 किलोग्राम जड़ी-बूटियों और फल-सब्ज़ियों की प्रोसेसिंग करने में सक्षम है। मशीन में तीन टैंक लगे हैं, एक बड़ा और दो छोटे टैंक। बड़े टैक्स से जुड़े एक छोटे टैंक में अरंडी का तेल भरा होता है। जड़ी-बूटियां और फल-सब्जियां पकाते समय जलते नहीं हैं, क्योंकि अरंडी तेल से भरा टैंक अतिरिक्त ताप को सोख लेता है। मशीन को चलाने के लिए दो एचपी की मोटर लगी है। इस मशीन को चलाने के लिए पांच-छह लोगों की ज़रूरत होती है। यह मशीन छोटी फूड प्रोसेसिंग इकाइयों के लिए बड़ी उपयोगी हो सकती है। यह मशीन हल्की होने के काण इसे कहीं भी आसानी से ले जाया जा सकता है।

उन्होंने बताया कि वर्ष 2006 में ही उनकी इस मशीन को फूड प्रोडक्ड ऑर्डर (एफपीओ) 1955 के तहत लाइसेंस मिल गया था। इसके अलावा अहमदाबाद के नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन (एनआईएफ) ने भी इस मशीन को उपयोगी माना है। उन्होंने सबसे पहले करनाल के नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीटयूट (एनडीआरआई) में आयोजित किसान मेले में इस मशीन को प्रदर्शित किया था, जहां इसे बहुत सराहा गया। इसके बाद वह हरियाणा के अलावा अन्य राज्यों में भी इस मशीन का प्रदर्शन करने लगे। वह बताते हैं कि वर्ष 2008 से इस मशीन की कॉमर्शियल बिक्री कर रहे हैं और अब तक 25 मशीनें बेच चुके हैं। उनका कहना है कि यह मशीन हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल सरकार के बागवानी विभागों ने ख़रीदी है, ताकि फूड प्रोसेसिंग से जुड़े उद्यमियों के सामने इसे प्रदर्शित किया जा सके। वह बताते है कि राज्य में फूड प्रोसेसिंग इकाई संचालित करने वाले एक उद्यमी ने यह मशीन लगाई है।

उन्होंने 20 जून को नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित एसोचैम हर्बल इंटरनेशनल एक्सपो मेले में भी इस मशीन को प्रदर्शित किया था। इसमें आयुष विभाग, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय भारत सरकार, विज्ञान एवं तकनीकी मंत्रालय, राष्ट्रीय औषधि पादक विभाग के दिल्ली, छत्तीसगढ़, गुजरात, बिहार, सिक्किम, पंजाब और महाराष्ट्र सहित कई राज्यों के किसानों व कंपनियों ने अपने-अपने उत्पादों को प्रदर्शित किया। उन्होंने हरियाणा के बाग़वानी विभाग की तरफ़ से मेले का प्रतिनिधित्व किया। इसमें उनके द्वारा निर्मित प्राकृतिक उत्पादनों को प्रदर्शित किया गया। उसके द्वारा निर्मित प्राकृतिक उत्पादनों को देखकर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री दिनेश त्रिवेदी इतने प्रभावित हुए कि कार्यक्रम का सबसे ज्यादा समय हरियाणा के इस स्टॉल पर व्यतीत किया। किसान द्वारा तैयार किए गए हर्बल उत्पादों में गहन रुचि दिखाई। उन्होंने कहा कि यह हमारे देश का ही नहीं, बल्कि विश्व का भविष्य है। धर्मवीर ने बताया कि मेले में आने वाले देश-विदेश से प्रतिनिधि, कंपनियों व अधिकारियों ने उसके द्वारा निर्मित प्रोसेसिंग मशीन में ख़ासी दिलचस्पी ली। उन्होंने इस मशीन को किसानों के लिए ‘वरदान’ बताते हुए कहा कि इससे किसानों की आर्थिक दशा सुधारने में मदद मिलेगी। इस उपलब्धि के लिए धर्मवीर को पिछले साल 18 नवंबर को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने सम्मानित किया था।

खेल के बाद अब दूसरा खेल शुरू

-ए एन शिबली

पहले समय पर स्टेडियम तैयार नहीं हुये, फिर जो स्टेडियम तैयार हुये उन में कई कमियाँ रह गईं, किसी के छत से पानी टपका तो कहीं से साँप निकला, कहीं पुल टूट गया तो कहीं प्रैक्टिस के दौरान खिलाड़ी गिर कर ज़ख्मी हो गए। इन सब से बड़ी बात यह हुई कि जैसे-जैसे राष्ट्रमंडल खेलों के दिन नजदीक आते गए वैसे वैसे नए नए घोटाले भी सामने आने लगे। रही सही कसर दिल्ली में फैले डेंगू ने पूरी कर दी। इन सब के बाद हर कोई बस यही कहने लगा कि भारत में राष्ट्रमंडल खेल सही ढंग से नहीं हो पाएंगे और भारत की नाक कट जाएगी। मगर राष्ट्रमंडल खेलों का शानदार उद्घाटन हुआ और फिर शानदार समापन भी। इस दौरान सभी खेल शानदार तरीके से आयोजित हुये। हर कोई जो सुरेश कलमाड़ी और उनकी टीम के पीछे पड़ा हुआ था उसने भी कहा वाह! ऑस्ट्रेलिया जैसा देश जो पहले तो इस गेम में शरीक होने के बहाने बनाता रहा फिर वहाँ के एक पत्रकार ने स्टिंग ओपराशन करके भारत और दिल्ली को बदनाम करने की कोशिश की उसी ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी और मीडिया अब कलमाड़ी और उनकी टीम की तारीफ करते नहीं थक रहें हैं। ईमानदारी से देखा जाए तो राशत्रमंडल खेल जीतने सफल रहे उतने की किसी ने उम्मीद नहीं की थी।

कुल मिलकर खुदा का शुक्र है कि खेल बड़ी कामयाबी के साथ सम्पन्न हो गए। मगर अब इस खेल के समापन के बाद दूसरा खेल शुरू हो गया है। और यह खेल है एक दूसरे को बदनाम करने का खेल। गेम के तुरंत बाद पहले तो इस की सफलता का क्रेडिट लेने का खेल शुरू हुआ। आयोजन समिति के सुरेश कलमाड़ी ने कहा कि इसकी सफलता का सेहरा मेरे सर जाता है तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि यह कलमाड़ी के बस की बात नहीं थी, यह कमाल तो मैंने कर दिखाया। मगर जब मीडिया और आम जनता ने यह कहा कि ठीक है खेल तो सफल हो ही गए, अब ज़रा खेल के नाम पर किए गए घोटालों की जांच हो जाए तो फिर एक नया खेल शुरू हो गया और यह खेल है एक दूसरे को बदनाम करने का खेल। एक तरफ जहां दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इन सारी अनियमितताओं के लिए कलमाड़ी और उनके लोगों को जिम्मेदार बता रहीं है वहीं दिल्ली सरकार की बेचैनी को देख कर लगता है कि आने वाला दिन उसके लिए भी अच्छा नहीं रहेगा। कलमाड़ी ने भी कहा है कि पहले दिल्ली सरकार अपनी योजनाओं में फैले भ्रष्टाचार की तरफ ध्‍यान दे फिर हमें बदनाम करने का सोचे। खुद शीला को भी लगता है कि दिल्ली सरकार को परेशानी का सामना करना पर सकता है इसलिए कैबिनेट की बैठक में शीला ने अपने मंत्रियों से कहा है कि राष्ट्रमंडल खेल परियाजनाओं से संबंधित जो भी काग़ज़ात हैं उसे संभाल कर रखें। शीला और कलमाड़ी के बीच शुरू हुई जंग से लगता है कि कहीं न कहीं दोनों को दाल में कुछ काला होने का डर साता रहा है। इसी कारण दोनों ने खुद को बचाने के लिए एक दूसरे को घेरना शुरू कर दिया है। इन दोनों को समझना चाहिए कि अगर आप इन खेलों की सफलता का सेहरा खुद के सर लेना चाह रहें हैं तो इस में यदि कोई गड़बड़ी हुई है तो इसकी ज़िम्मेदारी भी आपको ही लेनी होगी। वो तो कुछ दिनों में पता ही चल जाएगा कि इन सारे घपलों और घोटालों का असली जिम्मेदार कौन है मगर इस पूरे मामले में काँग्रेस पार्टी की भी किरकिरी हो रही है। और इसे मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी अच्छी तरह महसूस कर रहें है। यही कारण है कि सरकार के अलावा काँग्रेस पार्टी की तरफ से भी कलमाड़ी और शील दोनों से कहा गया है कि दोनों अपनी अपनी ज़बान बंद रखें और जांच में सहयोग करें ताकि काँग्रेस पार्टी की कोई बदनामी नहीं हो। मगर चूंकि खेल के बाद एक दूसरा खेल शुरू हो गया है और इस का लाभ हर पार्टी उठाना चाहती है तो भला भारतीय जनता पार्टी इस में कैसे पीछे रहती। भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी तो इन सारे घपलों और घोटालों के लिए परधानमंत्री दफ्तर को ही जिम्मेदार मानते हैं। गडकरी के अनुसार सारे भ्रष्टाचार के लिए अकेले आयोजन समिति नहीं बल्कि दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार भी ज़िम्मेदार है। कुल मिलकर पहले तो खेल के नाम पर अंदर अंदर दूसरा खेल भी होता रहा और अब जब की भ्रष्टाचार की जांच शुरू हुई है तो अब एक अलग ही खेल शुरू हो गया है और और वो है एक दूसरे को बदनाम कर खुद को बचाने का खेल और इस पूरे मामले का राजनीतिक लाभ उठाने का खेल। अब देखना यह है कि इस घटिया खेल में जीत किसकी होती है और हार किसकी होती है?

रामजन्मभूमि विवाद, राजनीति के बांझपन का नतीजा ?

-भरतचंद्र नायक

राजनीति को लोकनीति बनाना श्रेष्ठ स्थिति मानी गयी है, लेकिन आजादी के बाद सियासत सकरे दायरे में कैद हुई है, उससे वह बांझ बनकर रह गयी है। राम जन्म भूमि विवाद को पाल पोसकर रखा जाना फिरंगी शासन की बांटो और राज करो की कुशल रणनीति का हिस्सा माना जा सकता था। लेकिन अब इसे समाधान की दिशा में ले जाने, निर्णय के मुहाने पर पहुंचते ही रास्ता रोक दिये जाने को जन आस्था के साथ क्रूर मजाक ही कहा जावेगा। छ: दशक तक अयोध्या में राम जन्म भूमि मिल्कियत विवाद अदालत में लंबित रहने के बाद 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक मत से कहा कि अयोध्या में भूमि मिल्कियत विवाद के बारे में यह बात निर्विवाद है कि यह लोक नायक, मर्यादा पुरुषोत्तम की जन्मभूमि है। राम जन्म भूमि विराजमान को पहले जमीन देने के बाद खंडपीठ ने दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देते हुए बाहरी भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को देकर भारत की जनता और देश की अद्वितीय न्याय परंपरा के बीच विश्वास का पुल बांध दिया है। न्यायालय का फैसला आने के पहले सभी ने एक मत से प्रतिबद्धता जतायी थी कि न्यायालय का निर्णय शिरोधार्य किया जावेगा। लेकिन निर्णय का जब देश की जनता ने स्वागत किया और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावेदार ने आगे की सहमति बनाने के लिए कदम बढ़ाये तो सियासतदार कूद पड़े। अल्पसंख्यकों के मान न मान मंै तेरा मेहमान बनने की स्पर्धा शुरु हो गयी। मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि फैसले से अल्पसंख्यक ठगे से रह गये हैं। कांग्रेस ने मामले के सर्वोच्च न्यायालय से निर्णीत होने तक प्रतीक्षा करने की घोषणा कर दी। उन्हें समाधान से नहीं समस्या पर गर्व है? ऐसे में जो लोग कहते हंै कि राजनीति बांझ हो गयी है, इसका क्या जवाब हो सकता है?

रामजन्म भूमि विवाद की तह में जाने की फौरी कोशिश की जाने पर साफ जाहिर होता है कि सियासतदारों को भूमि के मलिकाना हक के वाजिब निपटारे के बजाय विवाद को बनाए रखने, विवाद को अवाम को भड़काने का बहाना बनावे रखने में रुचि रही है। राम जन्म भूमि जहां भारत और भारतीय के मूल के इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, आदि देशों में अवाम के लिए धर्म के अलावा आस्था का प्रश्न है, भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सियासतदार इसे सियासत का मुद्दा बनाकर जीवित रखना चाहते हैं। भारतीय मूल के जो लोग धर्मांतरण के बाद विदेश गये हैं अथवा धर्मातरित हो गये हैं। वे राम चरित्र को लोक जीवन का आदर्श मानते हैं। रामलीला का मंचन करते हैं। उनका आग्रह सही है कि धर्म बदलने से वल्दियत, पुरखे नहीं बदल जाते।

रामजन्म भूमि बाबरी ढांचा विवाद के निराकरण के लिए हुए प्रयासों की लंबी सूची है। 2004 में तो मुलायम सिंह ने ही समाधान की चौखट पर पहुंचकर ही कह दिया था कि इससे लोकसभा चुनाव के नतीजे प्रभावित हो जाएंगे। तब केंद्र एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार थी। मुसलमान और हिंदू सुधीजन ने समाधान स्वीकार कर लिया था। इसमें कुछ विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी सद्भावना बनाने में योगदान दिया था। तब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश न्यायमूर्ति अहमदी साहब प्रारूप भी लगभग बना चुके थे। लेकिन समाजवादी पार्टी प्रमुख, उत्तरप्रदेश के राजनीतिक शासक की हैसियत रखने वाले मुलायम सिंह ने इस समाधान को सियासी चालों को शिकार बनाकर पलीता लगा दिया था। आज वही जवाब यदि मुसलमानों को भड़काते हुए कहते हैंं कि 30 सितम्बर का फैसला उनके प्रतिकूल है, तो इसमें हैरत नहीं होना चाहिए। राजनेताओं को सुन्नी वक्फ बोर्ड के हितों की नहीं अपने राजनीतिक हितों, सियासी मिल्कियत (वोटो) की चिंता है।

दरअसल आस्था, विश्वास, सद्भावना, हिंदुत्व के प्राण है। सियासतदार देश के समृद्ध इतिहास पर वर्णित होना सांप्रदायिकता मानते हैं। इन्हें याद नहीं आता कि 1857 में दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद अंग्रेजी सरकार ने नीलाम कर दी थी, जिसे खालिश हिन्दू चुन्नीलाल ने बोली लगाकर खरीद लिया था और बाद में मौजूदा मुकर्रम परिवार को सौंप दिया था। वहीं हिंदुत्व की उदारत और सही धर्मनिरपेक्षता है। परस्पर खौप पैदा करना, सहमति में पलीता लगाना और न्याय के लिए बंदर की भूमिका में आना सामाजिक पाप है।

1949 से यदि याद करें तो देश में समाजवाद के शिखर पर पुरुष और प्रवर्तक डॉ.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति को लोकनीति बनाना चाहिए, जिससे सभी की भावनाओं का आदर हो। तभी पं.नेहरू इस प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े और सामने आए थे और उन्होंने हिंदुओं को अयोध्या में पूजा अर्चना की अनुमति दिलाते हुए जन्म भूमि के कपाट खोल दिये थे। लेकिन वे सियासत का मर्म जानते थे। चोर दरवाजे से 23 सितम्बर, 1949 को अयोध्या के पुलिस थाने में प्राथमिकी भी दर्ज करा दी थी जिससे सियासी जख्म हरा बना रहे। खोजबीन करने पर आप यह भी जान सकेंगे कि इस एफआईआर को दर्ज कराने वाला कोई मुसलमान नहीं था। एफआईआर दर्ज कराने वाले कलेक्टर साहब के.के.नायर थे, जो प्रधानमंत्री की भावना से पूरी तरह वाकिफ थे।

इससे भी अधिक त्रासद तथ्य यह है कि हिंदुओं पर सांंप्रदायिकता का दाग लगाने वाले रामजन्मभूमि पर लगातर सियासत करते रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चुनाव अभियान में बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए 1986 में गर्भगृह निर्माण की बात आयी तो ताला खुलवाकर अपने विश्वस्त सियासतदार गृहमंत्री बूटा सिंह को भेजकर उद्घाटन भी करवा दिया था। साथ ही कांग्रेसी मुसलमान भाईयों को बाबरी एक्शन कमेटी गठित करने की प्रेरणा देकर जो जख्म था, उसे कैंसर की शकल में दे थी। देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था के अनुरूप देश के अल्पसंख्यकों में जो सद्भाव रहा है, उसे गलत दिशा देना यहां सियासतदारों का शगल रहा है। क्योंकि उन्हें समाधान से अधिक चिंता विवाद बनाए रखने की रही है। नब्बे के दशक में नरसिंह राव सरकार में अयोध्या विवाद के समाधान के प्रयास हुए कई बार सहमति चौैखट पर आयी लेकिन धर्मनिरपेक्षता अपने को आहत मानकर पैर पीछे हटायी रही। विश्व हिन्दू परिषद ने 1992 में ढांचा गिरने के पूर्व नरसिंह राव से मुलाकात कर निर्णयात्मक पहल करने का आग्रह किया। साधु-संतों का भी यही आग्रह था। मौनी बाबा (नरसिंह राव) ने सिर्फ इतना कहा कि कुछ होना चाहिए। ढांचा गिर गया तब कांग्रेस ने एक समिति बनाकर नेतृत्व चंद्रास्वामी को सौंप दिया, जिसे खुद कांग्रेस ने कबूल नहीं किया। 30 सितम्बर को आये फैसले को सकारात्मक पहल मानकर आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। लेकिन कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को निर्णायक, सदभावपूर्ण कदम रास नहीं आ रहे हैं। उच्च न्यायालय ने दो आस्थाओं के बीच सहमति का सेतु बनाने की दिशा दिखायी है, जिसे पूरे मन से स्वीकार करने की आवश्यकता है। छोटे मन से बड़े काम नहीं हो सकते है। इसके लिए देश के सहोदरों को परस्पर विश्वास जताना होगा। रामजन्म भूमि तय हो जाने के बाद अब इस बात को सभी को स्वीकार करना होगा कि ऐसी परिस्थिति बनायी जाए जिससे भव्य राम मंदिर बनने का पथ प्रशस्त हो। सरयू के किनारे मस्जिद भी बने, कांग्रेस ने जिस तत्परता से बाबरी एक्शन कमेटी का गठन कराया था, उसी तत्परता से वह लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिये जाने की व्याकुलता से प्रतीक्षा करती है, तो उसकी नीति और नीयत समझने में देर नहीं लगती। भारत में जो मुसलमान है, उन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत पर फक्र है, इसमें संदेह नहीं है। उनके हकों की अनदेखी नहीं की जाना चाहिए. फिर भी मुसलमानों को विस्तृत नजरिया से देखना होगा। प्रसन्नता की बात है कि यहां भी प्रवृद्ध मुसलमानों की कमी नहीं है। यह भी मानने लगा है कि रामजन्मभूमि गर्भगृह पर यदि फैसला हो चुका है और उसे न्यायिक मान्यता दी जा चुकी है तो फिर बीचों-बीच विवाद की जड़ एक तिहायी भूमि सुन्नी-वक्फ बोर्ड को भले ही सदाशयता में दी गयी हो, लेकिन उसकी सामाजिक उपयोगिता अथवा सार्थकता अधिक नहीं रह जाती है। इसका न्यायिक पक्ष भी सुप्रीम कोर्ट में यह हो सकता है कि एक तिहायी जमीन का प्रसंग तार्किक नहीं है। कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय में मामले को धकेलकर यदि इसी तर्क पर विवाद का फैसला कराकर इस विवाद को स्थायी बनाए रखने की तलफगार है, तो इसे राजनीति का बांझपन ही कहा जाएगा। परिस्थितियों ने पिछले शतक में जो मानसिक क्रूरता का दंश देश को दिया है, उससे मुक्ति मिलना चाहिए। राजनेता और इसके लिए दूरदर्शिता का परिचय देना चाहिए।

रामजन्मभूमि विवाद पर न्यायिक समीक्षा को लेकर एक बात ध्यान में आती है कि जब सर्वोच्च न्यायालय से तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने राय जानना चाही थी तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी राय देने से असमर्थता जता दी थी। न्यायालय का कहना था कि यह आस्था का विषय है। आज की राजनीति की निरर्थकता सामने आती है कि जो आस्था, जनविश्वास के मामले होते हैं, उससे राजनीतिक दल सियासी खुदगर्जी के कारण पीछे हट जाते हैं और न्यायालय को सौंप कर पिंड छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन जब न्यायालय अपना फैसला देता है तो सरकारें उसे नीतिगत मामले में हस्तक्षेप बताने लगती है। सोमनाथ मंदिर के भव्य निर्माण का मार्ग तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने कानून बनाकर हल किया था। भव्य मंदिर के उद्घाटन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद शामिल हुए थे। महात्मा गांधी ने भी इसे आस्था की अभिव्यक्ति बताया था। ऐसे में यदि केंद्र सरकार रामजन्मभूमि मामले का भव्यता से पटाक्षेप करने के लिए हस्तक्षेप करके आगे आती है और कानून सम्मत हल खोजती है तो यह सोने में सोहागा होगा। रामजन्मभूमि धर्म का नहीं विश्व मानवता की आस्था का प्रतीक।

जलेबी नहीं है क्रांति


-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

जी हां,क्रांति जलेबी नहीं है। जिसका कलेवा कर लिया जाए। क्रांति किसी पार्टी का ऑफिस नहीं है जिसे बना लिया जाए और क्रांति हो जाए। क्रांति दोस्ती का नाम नहीं है। क्रांति मजदूर का धंधा नहीं है।गाली नहीं है। मजाक नहीं है। क्रोध नहीं है। घृणा नहीं है जिस पर जब मन आया थूक दिया जाए।

क्रांति किसी नारे में नहीं होती । उपासना में भी नहीं होती। क्रांति अंधविश्वास का नाम नहीं है। क्रांति कोई ट्रेडमार्क नहीं है। क्रांति लोगो नहीं है। क्रांति किसी की गुलाम नहीं है। क्रांति इच्छा का खेल नहीं है। कम्युनिस्ट संगठन की असीम क्षमता का नाम क्रांति नहीं है। क्रांति को आप बांध नहीं सकते। सिर्फ होते देख सकते हैं,चाहें तो भाग ले सकते हैं।

क्रांति तो सिर्फ क्रांति है। वह भगवान नहीं है,आस्था नहीं है,वह एक सामाजिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति की चेतना से स्वतंत्र है और उसे सम्पन्न करने में व्यक्तियों, मजदूरवर्ग, जनता आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। क्रांति का मतलब है मूलगामी सामाजिक परिवर्तन। मूलगामी सामाजिक परिवर्तन सामाजिकचेतना की अवस्था पर निर्भर करते हैं।

भारत में अब तक क्रांति नहीं हो पायी है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या कम्युनिस्ट पार्टियां जिम्मेदार हैं ? क्या कम्युनिस्ट नेताओं के कलह को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? भारत में कम्युनिस्ट भूल नहीं करते, विचारधारात्मक विचलन नहीं दिखाते,कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन नहीं होता, अनेक मेधावी कॉमरेड पार्टी से नहीं निकाले जाते और कम्युनिस्ट संगठित रहते,कभी गलती ही नहीं करते तो क्या भारत में क्रांति हो जाती ? जी नहीं,इसके बाद भी क्रांति नहीं होती।

क्या पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्ट क्रांति कर पाए हैं ? जी नहीं, क्रांति एक सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है। उसे दल,विचारधारात्मक विचलन, दलीय फूट, व्यक्तियों की भूमिका आदि में संकुचित करके नहीं देखना चाहिए।

क्रांति की कुछ अनिवार्य वस्तुगत परिस्थितियां होती हैं और इन परिस्थितियों को राजनीतिक रूपान्तरण का जब कोई क्रांतिकारी संगठन रूप देता है तो बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया तेज गति पकड़ लेती है।

जो लोग सोचते हैं कि कम्युनिस्ट संगठन होने मात्र से क्रांति हो जाएगी वे गलत सोचते हैं। यह भी गलत है कि कम्युनिस्टों का कोई विरोध न करे और उनके लिए समूचे देश में एकच्छत्र शासन का मौका दे तो क्रांति हो जाएगी। ये सारे प्रयोग असफल साबित हुए हैं। क्रांति किसी कल्पना का नाम नहीं है बल्कि वह ठोस भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है। विभिन्न सामाजिक वर्गों की राजनीतिक वफादारी पर निर्भर करती है।

जिस समाज में क्रांति होती है वहां सामाजिक उथल-पुथल होती है। यह सामाजिक उथल-पुथल किसी सामाजिक आवश्यकता के कारण होती है। जब संस्थान पुराने पड़े जाते हैं। तो वे सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं। हमें सोचना चाहिए क्या आधुनिक भारत के संस्थान जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं ? क्या जनता की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बारे में कानून बनाने, तदनुरूप संरचनाएं बनाने और कार्यप्रणाली बदलने में संस्थान असमर्थ हैं ? क्या संस्थान अपनी अपडेटिंग कर रहे हैं ? कानून, संसद, संविधान, बाजार, धर्म आदि में अपडेटिंग हो रही है?

भारत की खूबी है कि यहां लगातार अपडेटिंग हो रही है। सामाजिक आवश्यकताओं को दमन के आधार पर कुचलने की बजाय पर्सुएशन ,कानून और नियमों के आधार पर नियमित किया जा रहा है। संस्थान यदि अपडेटिंग बंद कर दें तो क्रांति की संभावनाएं पैदा होती हैं।

संस्थान यदि डंडे के बल पर कोई चीज लागू करने की कोशिश करते हैं तो क्रांति का मार्ग प्रशस्त होता है। संस्थान अन्य के लिए स्थान नहीं दें तो क्रांति संभव है। संगठित मजदूरों की मांगों पर सरकार ध्यान नहीं दे तो क्रांति संभव है। पुराने मूल्यों और सामाजिक संबंधों के आधार पर जीना मुश्किल हो जाए और आम जनता उन्हें बदलने के लिए किसी भी हद तक कुर्बानी देने को तैयार हो जाए। जान तक की कुर्बानी देने को तैयार हो जाए तो क्रांति संभव है। ऐसी अवस्था में एकजुट कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रांति की संभावनाएं प्रबल होती हैं। भारत में ये परिस्थितियां ही नहीं हैं।

भारत में क्रांति की संभावना इस लिए नहीं है क्योंकि यहां के आधुनिक संस्थानों ने क्रमशःसमयानुरूप अपने को बदला है। संगठित मजदूरवर्ग ने जब भी अपनी मांगे उठायी हैं उन पर मोटे तौर पर केन्द्र सरकार ने अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की है। हाल ही में भयानक आर्थिकमंदी के बावजूद संगठित मजदूरवर्ग को छठे वेतन आयोग के अनुसार नए वेतनमान और अन्य सुविधाएं प्रदान की गईं। इसका यह अर्थ

नहीं है कि केन्द्र सरकार मजदूर समर्थक है , जी नहीं,केन्द्र सरकार लगातार मजदूर विरोधी फैसले लेती रही है लेकिन ज्योंही वेतन और कैरियर से संबंधित मांगे रखी जाती हैं उसने सकारात्मक त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। ऐसी स्थिति में मजदूरों को बुनियादी परिवर्तन के लिए हरकत में लाना संभव नहीं है।

भारत में बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के मार्ग में उसी दिन सबसे बड़ी बाधा खड़ी हो गई जब स्वतंत्र भारत ने अपना संविधान स्वीकृत किया। इस संविधान के जरिए बुर्जुआ और सामन्ती वर्गों ने सत्ता के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ कर दी । भारत जैसे विशाल कृषिप्रधान देश में नेहरूयुग के दौरान बुर्जुआजी को शक्तिसंपन्न बनाया गया और सामंतों के अधिकारक्षेत्र में शामिल इलाकों को अनछुआ छोड़ दिया गया। सामंतों को अधिकारहीन बनाए बिना भारत के किसानों और खेतमजदूरों का मजदूरों को समर्थन मिलना असंभव था क्योंकि बड़ी तादाद में खेतमजदूर सामंतों के खेतों में काम करते थे। खेतमजदूरों की संख्या मजदूरों से कई गुना ज्यादा है। कांग्रेस ने गावों में सामंती ढ़ांचे को तोड़ा ही नहीं। राजाओं का प्रिवीपर्स नेहरू युग में जारी रहा। इसके कारण गांवों में सामंतवाद फलता-फूलता रहा। संसद में राजाओं और बड़े सामंतों की बहुत बड़ी तादाद लगातार चुनकर आती रही है।

सामंती दबाव के कारण मजदूरवर्ग का खेतमजदूरों के साथ मोर्चा ही नहीं बन पाया। इसके अलावा क्रांति के लिए दुकानदारों और व्यापारियों में भी जनाधार बनाने की आवश्यकता थी जिसे कभी कम्युनिस्टों ने गंभीरता से नहीं लिया और दुकानदारों-व्यापारियों को संघ परिवार और कांग्रेस के ही कब्जे में छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में जिस सशक्त सामाजिक शक्ति संतुलन के निर्माण की जरूरत थी वह हो ही

नहीं पाया। कालांतर में मजदूरों में तेजी से एक नए वर्ग ने जन्म लिया जिसे हम साइबर मजदूर कहते हैं, ये भी मजदूर संगठनों की पकड़ के बाहर हैं ऐसे में मजदूरवर्ग की सामाजिक शक्ति सीमित होकर रह गयी है।

भारत में क्रांति न हो पाने का एक अन्य बड़ा कारण है बैंकिंग व्यवस्था। केन्द्र सरकार का राष्ट्रीयकृत बैंकों के जरिए विभिन्न क्षेत्रों में ऋण वितरण करना। इसके लिए कांग्रेस ने सबसे पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और बाद में बैंकों को औजार की तरह सामाजिक-राजनीतिक संतुलन बुर्जुआजी के पक्ष में करने के लिए इस्तेमाल किया। प्रत्येक बैंक को यह तय किया कि उन्हें कितना पैसा किसानों को कर्ज देना है, कितना दुकानदार-व्यापारियों आदि को देना है और कितना मध्यवर्ग के लोगों के लिए घर वगैरह के लिए कर्ज देना है। सरकारी बैंकों से कर्ज की सुविधाएं मुहैय्या कराकर केन्द्र सरकार ने मध्यवर्ग और पेशेवर तबकों को क्रांति के दायरे से निकालकर बुर्जुआ विकास के दायरे में शामिल कर लिया।

दूसरी ओर नौकरशाही को खुली छूट दी और उसके ऊपर किसी भी किस्म का अंकुश नहीं लगाया। इससे सामाजिक शक्ति संतुलन मजदूरों और कम्युनिस्टों के विपरीत चला गया। यह संभव नहीं है कि खेत मजदूर, किसान, दुकानदार-व्यापारी, मध्यवर्ग के बिना कोई बड़ा राजनीतिक मोर्चा वामपंथी बना लें।

वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में शक्ति संतुलन अपने पक्ष में किया है इसके कारण ही उन्हें वहां 40-48 प्रतिशत तक वोट मिलते रहे हैं। बाकी इलाकों में सिर्फ संगठित मजदूरों तक ही वामपंथियों की पहुँच हो पायी है। यह वास्तविकता है।

हम यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस तरह कम्युनिस्ट अपने पक्ष में सामाजिक शक्ति-संतुलन पैदा करना चाहते हैं, बुर्जुआजी भी अपने पक्ष में सामाजिक शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है। बुर्जुआजी हमेशा संगठित मजदूरों के गुस्से का शमन करने की चेष्टा करता रहा है। बुर्जुआजी ने सचेत रूप से गैर-मजदूरवर्ग को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है। किसानों की 90 हजार करोड़ रूपयों की कर्जमाफी का फैसला एक वर्गीय फैसला था जिसने बुर्जुआजी का किसानों में अलगाव कम किया है।

भारत में मजदूर आंदोलन की मुश्किल यह भी है कि उसके नेताओं,सदस्यों और कार्यक्रमों में अर्थवाद हावी है । अधिकांश इलाकों में मजदूरवर्ग अभी तक सर्वहाराचेतना से लैस नहीं हो पाया है। मजदूरों में पुराने सड़-गले मूल्यों के प्रति प्रेम और आकर्षण अभी भी बचा हुआ है।

कम्युनिस्टों में संसदीय लोकतंत्र के प्रति मोह बढ़ा है। संसदीय लोकतंत्र के प्रति मोह को बढ़ाने में पश्चिम बंगाल के दीर्घकालीन संसदीय वामशासन की भी बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्टों में संसदीयमोह का बढ़ना इस बात का संकेत है कि निकट भविष्य में कम से कम कम्युनिस्ट पार्टियां किसी भी बड़ी राष्ट्रव्यापी जंग में शामिल होने नहीं जा रही हैं। संसदीयमोह का अर्थ है अब संघर्ष नहीं सांकेतिक प्रतिवाद करो।

जनता के असंतोष को कम्युनिस्ट राजनीतिक पूंजी में तब्दील न कर लें इस ओर कांग्रेस ने बड़े ही सुनियोजित ढ़ंग से समय-समय पर ध्यान दिया और अपने वर्गीय दोस्तों के हितों की रक्षा की। इसके कारण उसे कम्युनिस्टों के राजनीतिक प्रसार को सीमित करने में मदद मिली।

ये है दिल्ली मेरी जान

-लिमटी खरे

जलजला कम हो गया है पीएम इन वेटिंग का

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी की पूछ परख अब बेहद कम हो गई है। माना जा रहा था कि अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के आने के बाद राथ यात्रा कर भाजपा का जनाधार बढ़ाने वाले एल.के.आड़वाणी को लोग हाथों हाथ लेंगे, वस्तुतः एसा कुछ हुआ नहीं। हाल ही में बिहार चुनाव के बिगुल बजने के बाद सूबे में पूर्व उप प्रधानमंत्री आड़वाणी को प्रचार में बुलाने के लिए कोई विशेष मांग दिखाई नहीं दे रही है। भाजपा की केंद्रीय इकाई के उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि आड़वाणी के लिए आधा दर्जन सभाओं की मांग भी नहीं आई है। प्रदेश भाजपा से प्राप्त सूची के अनुसार सुषमा स्वराज के लिए 77, पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह के लिए 42 – 42, के अलावा नितिन गड़करी, अरूण जेतली, हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, वेंकैया नायडू के लिए मांग दहाई में तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग रहे लाल कृष्ण आड़वाणी के लिए महज पांच आम सभाओं की ही मांग अब तक आ सकी है। वैसे भी भाजपा और संघ ने आड़वाणी को हाशिए पर लाकर खड़ा कर ही दिया है।

. . . तो इसलिए सड़ाया गया था अनाज!

देश में बड़ी मात्रा में अनाज सड़ गया है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी इसकी गंभीरता को देखकर संज्ञान लिया है। केंद्र सरकार के पास कोई जवाब नहीं है कि आखिर अनाज क्यों और कैसे सड़ गया जबकि अनाज के रखरखाव के लिए केंद्र सरकार ने वेयर हाउस के लिए तगड़ी सब्सीडी भी दी थी, जिसका लाभ लाखों लोगों ने उठाया। अब अनाज सड़ने की बात पर भारतीय जनता पार्टी ने नया शिगूफा छोड़ दिया है। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव किरीट सौमेया ने आरोप लगाया है कि शराब कारखानांे को सड़ा अनाज देकर लाभ पहुंचाने के लिए अनाज को जानबूझकर सड़ाया है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार द्वारा सड़ा अनाज शराब कारखानों को देने का कानून भी बना दिया है। देश के कृषि मंत्री शरद पंवार खुद महाराष्ट्र सूबे के हैं, और वे शराब और शक्कर लाबी के खासे पोषक माने जाते हैं, तब सौमेया के आरोपों को बल मिलना स्वाभाविक ही है।

लालू पुत्र की गर्जना

संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल में स्वयंभू प्रबंधन गुरू बनकर उभरे तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के क्रिकेटर पुत्र तेजस्वी यादव ने राजनीति के मैदान में भी चौके छक्के मारने आरंभ कर दिए हैं। बिहार चुनावों के पहले तेजस्वी ने बहुत ही कांफीडेंस के साथ आम सभा को संबोधित कर सभी को चौंका दिया। अपने रटे रटाए भाषण में तेजस्वी ने मुख्यमंत्री नितिश कुमार को जमकर कोसा। लोगों को आश्चर्य तब हुआ जब राजनैतिक परिदृश्य से गायब हो चुके स्वच्छ छवि के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को तेजस्वी ने आड़े हाथों लिया। तेजस्वी का आरोप था कि अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने कार्यकाल में भी बिहार के साथ सौतेला व्यवहार किया है। पटना में चुनावी सभा को संबोधित करने के दौरान तेजस्वी ने भले ही हर लाईन पर भाड़े की तालियां बटोरी हों, पर अटल बिहारी बाजपेयी पर आरोप लगाकर उन्होंने अपनी अपरिपक्वता साबित कर ही दी।

दिल्ली में बिकी शिवराज की भांजी!

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बहन की बेटी का अपहरण कर उसे दिल्ली ले जाकर बेच दिया गया! जी हां, यह सच है कि मध्य प्रदेश के हर बच्चे के मामा कहलाते हैं शिवराज सिंह चौहान। उनके सूबे की हर महिला उनकी बहन है। टीकमगढ़ जिले के डुडीयन खेरा गांव की एक 15 साल की बच्ची का अपहरण गांव के ही रतिराम लोधी ने लगभग छः माह पहले कर उसे दिल्ली ले जाकर राकेश पाल नामक युवक को 15 हजार रूपए में बेच दिया। उस युवती के साथ दो लोगों ने मुंह काला भी किया, जिससे उक्त नाबालिक बाला का पांव भारी हो गया। बताते हैं कि किसी तरह उक्त बाला इन दुराचारियों के चंगुल से बचकर वापस अपने गांव पहुंची। आश्चर्य तो इस बात पर है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री की मानस पुत्री या भांजी छः माह से अपने घर से गायब रही और उनके सूबे की पुलिस हाथ पर हाथ रखे चुपचाप बैठी रही!

राजा ने बढ़ाई कांग्रेस की मुश्किलें

साठ हजार करोड़ रूपए के 2 जी स्पेक्ट्रम के कथित घोटाले में फंसे केंद्रीय दूर संचार मंत्री ए.राजा ने कांग्रेस को परेशानी में डाल दिया है। सर्वोच्च न्यायालय की भ्रष्टाचार पर टिप्पणी आने के बाद कांग्रेस के प्रबंधक पशोपेश में हैं कि वे राजा को लेकर क्या स्टेंड लें। अगर वे राजा के खिलाफ कोई कदम उठाते हैं तो डीएमके के मुख्यमंत्री करूणानिधि की नाराजगी कांग्रेस को झेलनी पड़ सकती है और अगले साल तमिलनाडू में चुनाव हैं। वर्तमान में सीबीआई जांच के आधार पर सरकार ने राजा के खिलाफ कार्यवाही को विराम दे रखा है। सीबीआई का कहना है कि वह कुछ मीडिया पर्सन्स और ए.राजा के बीच फोन पर हुई बातचीत के ब्योरे की तह में जाने का प्रयास कर रही है। उधर करूणानिधी ने सरकार को धमकाया है कि अगर राजा को सरकार से हटाया गया तो उनके विरोधियों को हथियार मिल जाएगा। वैसे भी 18 सांसदों के साथ डीएमके ने यूपीए सरकार को बैसाखियों पर टांग रखा है।

विवादों में एमपी भाजपा महिला मोर्चा

मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की दूसरी पारी में उसका शनि कुछ भारी ही दिख रहा है। एक के बाद एक परेशानियों का सामना करने के उपरांत अब भाजपा को अपनी सूबाई महिला मोर्चा की कार्यकारिणी की घोषणा के साथ ही विवादों से दो चार होना पड़ रहा है। मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा के अध्यक्ष पद की कमान परिसीमन के उपरांत समाप्त हुई सिवनी लोकसभा की अंतिम सांसद और सिवनी की विधायक श्रीमति नीता पटेरिया को सौंपी गई है। उन्होंने अपनी कार्यकारिणी की घोषणा कर दी है। घोषणा के साथ ही यह कार्यकारिणी विवादों में आ गई है। अव्वल तो लाल बत्ती की जुगत में श्रीमति पटेरिया ने इसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अर्धांग्नी श्रीमति साधना सिंह को बतौर उपाध्यक्ष शामिल कर लिया है। लोग अब दबी जुबान से कहने लगे हैं कि एमपी में भी अब राबड़ी देवी को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके अलावा कहते हे। कि इसमें नीता पटेरिया ने अपने सचिव की पत्नि उमा विश्वकर्मा को भी कार्यसमिति में स्थान दिया है। सबसे अधिक अपत्तिजनक तो यह है कि उनकी लिस्ट में भाजपा से निष्काशित रानी बघेल को भी विशेष आमंत्रित में शामिल कर लिया गया है।

कहां गए 22 हजार करोड़?

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में कांक्रीट जंगल ही चहुं और दिखाई पड़ते हैं। राज्य में खुले मैदान या खेत नाम मात्र को रह गए हैं। दिल्ली के पर्यावरण का हाजमा भी खेती किसानी और वनों के न होने से बिगड़ता रहा है। विडम्बना देखिए कि कृषि प्रधान भारत वर्ष की राजनैतिक और व्यवसायिक राजधानी दोनों ही में खेती किसानी के लिए कोई जगह नहीं है, उसके बाद भी केंद्र सरकार की नींद नही टूूट रही है। दिल्ली वैसे तो भांति भांति के कारनामों के लिए मशहूर है किन्तु दिल्ली ने एक मामले में जो कारनामा कर दिखाया है उसे देखकर हर कोई दांतों तले उंगली दबा सकता है। दिल्ली में खेत नहीं के बराबर ही हैं, फिर भी दिल्ली का कृषि ऋण 22 हजार करोड़ रूपए का है। किसानी के कर्ज के मामले में दिल्ली देश में आंध्र, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, पंजाब के उपरांत पांचवी पायदान पर है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि खेतों के बिना भी दिल्ली ने यूपी, एमपी, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा को पीछे छोड़ दिया है।

स्थाई समिति बनेगी कांग्रेस के लिए सरदर्द

केंद्र में कांग्रेस और भाजपा की नूरा कुश्ती धीरे धीरे लोगों के समझ में आने लगी है। देश की जनता का दोनों ही प्रमुख सियासी दलों के उपर से विश्वास उठने लगा है। कांग्रेस तो अभी सत्ता की मलाई जमकर चख रही है। आम चुनाव 2014 में हैं इस लिहाज से कांग्रेस के पास अभी चार साल का समय माना जा सकता है, पर भाजपा अपने गिरते जनाधार से खासी चिंता में आ चुकी है। भाजपा के प्रबंधकों ने कांग्रेस के साथ नूरा कुश्ती बंद कर अब आम जनता के लिए लड़ाई लड़ने का नया प्रहसन लिखा है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमति सुषमा स्वराज के निर्देशन में इस प्रहसन को खेला जाने वाला है। अब संसद की स्थाई समिति के माध्यम से भाजपा द्वारा कांग्रेस को घेरने का प्रयास किया जाएगा। अब तक नियम कायदों की जानकारी के अभाव में सांसदों द्वारा स्थाई समिति के सदस्य होने के बाद भी चुपचाप हां में हां मिला दी जाती है। सुषमा स्वराज इन सांसदों को प्रशिक्षण देंगी, कि किस तरह से संसद में अपन पक्ष रखना है। भाजपा भूल जाती है कि अब वह खुद ही नैतिकता का पाठ भूल चुकी है तो फिर सांसदों से इसकी उम्मीद बेमानी ही है।

दागियों का बोलबाला है बिहार चुनावों में

सियासी दलों द्वारा भले ही बार बार अपना दामन पाक साफ करने की गरज से दागियों से पीछा छुडाने की बात सार्वजनिक तौर पर चीख चीख कर कही जाती हो, किन्तु जब उसे अमली जामा पहनाने की बारी आती है तब इन्हीं राजनैतिक दलों द्वारा चुप्पी साध ली जाती है। बिहार के चुनाव मंे यह बात साफ तौर पर दिखाई दे रही है कि कौन सा राजनैतिक दल कितने दागियों को प्रश्रय देने पर मजबूर है। चुनाव के पहले चरण में दागियों के मामले में भाजपा ने बजाजी मर ही है। नेशनल इलेक्शन वॉच नामक गैर सरकारी संगठन के अध्ययन के अनुसार भाजपा ने 21 में से 14 (67 फीसदी), जनता दल यूनाईटेड ने 26 में से 12 (46 फीसदी), कांग्रेस ने 47 में से 20 (42 फीसदी), राष्ट्रीय जनता दल ने 31 में से 12 (39 फीसदी), लोकशक्ति जनशक्ति पार्टी ने 26 में से 10 (63 फीसदी), बसपा ने 45 में से 17 (38 फीसदी) लोगों को मैदान में उतारा है। महज 47 सीटों के लिए 154 दागी मैदान में हैं, जिनमें से 98 पर हत्या का मुकदमा, हत्या का प्रयास जैसे आरोप हैं।

काश्मीर मसले में देवबंद की सराहनीय पहल

काश्मीर किस देश की मिल्कियत है, इस सवाल पर भारत और पाकिस्तान के बीच सदा से रार ठनी हुई है। काश्मीर मसले पर हर एक राजनैतिक दल ने तबियत से सियासत की है। पहली मर्तबा देवबंद के उलेमाओं ने काश्मीर समस्या पर कोई बात कही है। देवबंद की जमियत – उलेमा – ए – हिन्द द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि काश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और दुश्मन की ताकतें उसके टुकड़े करना चाहती हैं। उलेमाओं की बैठक के बाद यह राय उभरकर सामने आई है। बैठक में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि काश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में रहकर ही संभव है, और काश्मीर के लोग भी इस राय से इत्तेफाक रखते हैं। बोर्ड ने दो टूक शब्दों में कहा है कि मौजूदा हालातों में कोई भी पाकिस्तान के साथ जाने को अपनी रजामंदी नहीं देने वाला है। गौरतलब है कि देवबंद के उलेमाओं का कथन अपने आप में बहुत ज्यादा मायने रखता है।

खुशखबरी: रोमिंग हो सकती है समाप्त

मोबाईल धारकों के लिए यह खुशखबरी है कि आने वाले दिनों में अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो उन्हें अपने सेवा प्रदाता के एक सर्किल से दूसरे सर्किल मंे जाने पर लगने वाली रोमिंग से निजात मिल सकती है। दूरसंचार विभाग द्वारा गठित एक आयोग ने अपनी सिफारिशों में उक्ताशय की व्यवस्था देने की बात कही है। आयोग की सिफारिशंे जताती हैं कि देश को मोबाईल के वर्तमान 22 सर्किल के बजाए महज चार सर्किल में ही बांट दिया जाए। वर्ममान में मोबाईल धारकों को लोकल काल 1 रूपए चालीस पैसे, एसटीडी 2 रूपए चालीस पैसे और इनकमिंग काल के तौर पर एक रूपए पचहत्तर पैसे अधिकतम की सीमा निर्धारित है। अगर सरकार ने रोमिंग के मामले में अपने नियम कायदों में संशोधन किया तो निश्चित तौर पर मोबाईल सेवा प्रदाता इससे खासे खफा हो जाएंगे और फिर वे सरकार पर दबाव बनाएंगे कि रोमिंग समाप्त न की जाए। इसका कारण यह है कि मोबाईल कंपनियों को रोमिंग से 12 हजार करोड़ रूपए का सालाना राजस्व मिलता है। सियासी गलियारे में यह चर्चा भी आम हो गई है कि दूरसंचार के टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में फंसे ए.राजा पर तलवार लटकने के चलते वे अपनी चला चली की बेला में कंपनियों पर दबाव बनाकर माल खीचने की तैयारी में भी लग रहे हैं।

आर्थिक राजधानी से होगा ओबामा के दौरे का आरंभ

दुनिया के चौधरी अमेरिका के पहले नागरिक बराक ओबामा अगले माह भारत आने वाले हैं। ओबामा के स्वागत के लिए भारत पलख पांवड़े बिछाए बैठा है। प्रधानमंत्री कार्यालय के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि ओबामा चाह रहे हैं कि वे अपने दौरे की शुरूआत भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई से करें। इसके पीछे कुछ ठोस कारण सामने आ रहे हैं। अव्व्ल तो ओबामा द्वारा देश पर अब तक हुए सबसे बड़े आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों को श्रृद्धांजली अर्पित की जाएगी, फिर वालीवुड के हालीवुड में बढ़ते प्रभाव से भी वे प्रभावित हैं। वैसे भी आतंकियों की नजरें मुंबई पर जमकर लगी हैं, इसलिए ओबामा की दिलचस्पी मंुबई में अधिक है। एफबीआई और सीआईए के अधिकारियों का बार बार भारत और विशेषकर मुंबई आना इसी बात की ओर इशारा करता है कि ओबामा की भारत मंे पहली पसंद मंुबई बनकर ही उभरा है।

सलमान पर आयकर विभाग की नजरें तिरछी

वालीवुड में तहलका मचाने वाले सलमान की एक थाप पर भले ही देश के अनेक युवा, युवतियां, बुजुर्ग झूमते हों, किन्तु वर्तमान में आयकर विभाग की ताल पर सलमान खान कत्थक करते नजर आ रहे हैं। सलमान खान से चार करोड़ रूपए वसूलने आयकर विभाग ने मंुबई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। दरअसल सलमान खान पर वर्ष 2000 और 2001 के वित्तीय वर्ष में आय कम बताने के मामले में आयकर विभाग ने यह कदम उठाया है। इस वित्तीय वर्ष में सलमान ने अपनी आय नौ करोड़ 32 लाख रूपए बताई थी, जबकि आयकर विभाग का मानन है कि इस वित्तीय वर्ष मंे सलमान की आय 13 करोड़ 61 लाख रूपए थी। आय छिपाने के मामले में आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल के फैसले के उपरांत अब आयकर विभाग ने उच्च न्यायालय की शरण ली है। पहले आयकर विभाग और भी नामी गिरामी अभिनेता अभिनेत्रियों को अपनी चपेट में ले चुका है। कहा जा रहा है कि आयकर विभाग की यह कार्यवाही किसी राजनैतिक दुर्भावना से प्रेरित होकर ही की गई है।

पुच्छल तारा

देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा भ्रष्टाचार पर चिंता जाहिर कर राष्ट्रव्यापी बहस का आगाज कर दिया है। कोर्ट का कहना सच है कि अगर भ्रष्टाचार समाप्त नहीं कर सकते तो कम से कम इसे वेध ही कर दिया जाना चाहिए। अब गली, मोहल्ला, चौराहे, पान के खोकों पर भ्रष्टाचार के शिष्टाचार बनने की कथाएं गढ़ी जा रही हैं। इस समय सबसे हाट टापिक भ्रष्टाचार ही बन गया है। भ्रष्टाचार की टीआरपी जबर्दस्त हो गई है। केरल के त्रिप्यार से रश्मि पिल्लई ने इस मामले में एक शानदार ईमेल भेजा है। रश्मि लिखती हैं कि सुप्रीम कोर्ट की चिंता बेमानी है। देश में वैसे भी भ्रष्टाचार अघोषित तौर पर वैध ही समझा जाना चाहिए, क्योंकि इसमें लिप्त कोई भी सरकारी नुमाईंदा दंडित होता तो नहीं दिखता। अलबत्ता वह पदोन्नति की पायदान तेजी से चढ़ते दिखते हैं।‘‘

उमर अब्दुल्ला का बयान एक अक्षम्य भारी भूल- आडवाणी

जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने वाकई इतिहास रच डाला है। जम्मू एवं कश्मीर के किसी अन्य मुख्यमंत्री ने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है। ऐसा करके उमर ने न केवल भाजपा को चिढ़ाया है अपितु आगे बढ़कर जो कहा है उससे राज्य में अलगाववादी और पाकिस्तान का मीडिया हर्षोन्माद में है।

राज्य विधानसभा में एक ताजा वक्तव्य में, उमर ने कहा: जम्मू एवं कश्मीर राज्य भारत के साथ जुड़ा है; इसका भारत के साथ ‘विलय‘ नहीं हुआ है।

तथ्य यह है कि 500 से ज्यादा रियायतें जिनमें हैदराबाद और जूनागढ़ शामिल है जिनका विशेष रुप से उल्लेख करते हुए उमर ने इसे जम्मू-कश्मीर से भिन्न केस बताया है- ने उसी तरह विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए जैसेकि जम्मू एवं कश्मीर ने किए हैं, और स्वतंत्रता के बाद भारत अखण्ड हिस्सा बने। और पिछले 6 दशकों से ज्यादा समय से न केवल अकेली भाजपा जम्मू एवं कश्मीर को भारतीय क्षेत्र का अभिन्न अंग बताती है अपितु देश के प्रत्येक नेता पंडित नेहरु से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी से वर्तमान विदेश मंत्री श्री एस.एम. कृष्णा भी इसकी पुष्टि करते रहे हैं।

वास्तव में पाकिस्तान के समाचार पत्र ‘डान‘ के 8 अक्टूबर के मुख्य पृष्ठ पर एस.एम. कृष्णा के दावे को विधानसभा में उमर के भाषण के सामने प्रकाशित किया है।

1994 में भारतीय संसद के दोनों सदनों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव को यहां स्मरण करना समीचीन होगा, जिसमें दृढ़तापूर्वक कहा गया है:

”जम्मू एवं कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग रहा है, और रहेगा तथा शेष भारत से इसे अलग करने के लिए किसी भी प्रयासों का सभी आवश्यक साधनों से प्रतिरोध किया जाएगा।”

यही प्रस्ताव आगे कहता है:

”पाकिस्तान को भारत राज्य के जम्मू एवं कश्मीर का क्षेत्र खाली करना चाहिए जिसे उसने बलात हथिया रखा है।”

अभी तक उमर अब्दुल्ला के त्यागपत्र की मांग इस आधार पर की जा रही थी कि वह पत्थर फेंकने वाली भीड़ द्वारा घाटी में पैदा किए गए हालात से निपटने में असफल रहे हैं। कुछ तत्व इसे उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता मानते थे। परन्तु उनके ताजे बयान से साफ होता है कि यह उनकी मात्र प्रशासनिक अनुभवहीनता नहीं है अपितु जहां तक जम्मू एवं कश्मीर का सम्बन्ध है, वह राष्ट्रीय मूड से पूरी तरह अलग है। इसलिए जितना जल्दी वे त्यागपत्र दे दें तो उतना ही जम्मू एवं कश्मीर और राष्ट्र के लिए अच्छा होगा।

विधानसभा के अपने भाषण में उमर अब्दुल्ला ने धारा 370 को समाप्त करने की भाजपा की मांग का आलोचनात्मक संदर्भ दिया। डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी के दिनों से हम एक प्रधान] एक निशान और एक विधान के लिए कटिबध्द रहे हैं।

डा. मुकर्जी द्वारा शुरु किए गए कश्मीर आंदोलन और बंदी अवस्था में उनकी मृत्यु से पहले दो लक्ष्य-एक प्रधान और एक निशान तो हासिल हो गए। तीसरा लक्ष्य एक संविधान-हासिल होना शेष है। और हम उसे हासिल करने के लिए कृतसंकल्प हैं।

बहुतों को यह नहीं पता होगा कि धारा 370 के कारण जम्मू एवं कश्मीर राज्य के पृथक संविधान की धारा 3 इस तरह है:

राज्य का भारत संघ के साथ सम्बन्ध- जम्मू एवं कश्मीर भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.एस. आनन्द ने अपनी पुस्तक द कांस्टीटयूशन ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर में उपरोक्त भाग पर निम्न टिप्पणी की है।

1951 में राज्य संविधान सभा आहूत की गई थी ताकि वह ”राज्य के जुड़ने के सम्बन्ध में अपने तर्कसंगत निष्कर्ष” दे सके। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर सम्बन्धी विवाद पर ठहराव आ चुका था। राज्य के भविष्य के बारे में अनिश्चितता समाप्त करने के उद्देश्य से कश्मीर में असेम्बली ने पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद 1954 में राज्य के भारत में विलय की पुष्टि की।

1956 में, जब राज्य संविधान की ड्राफ्टिग को अंतिम रुप दिया जा रहा था, तक राज्य संविधान में राज्य के विलय को एक ‘स्थायी प्रावधान‘ मानने के सम्बन्ध में राज्य की अंतत: स्थिति को शामिल करना जरुरी समझा गया। यही वह विचार था जो संविधान के भाग 3 के रुप में अपनाया गया।

इस भाग में शब्द प्रयोग में लाए गए ”हैं-और रहेगा” । इससे साफ होता है कि राज्य के लोगों के मन में भारत के साथ जुड़ने के बारे में कभी कोई शक नहीं था। यह भाग मात्र उनकी इच्छा कि ”भारत संघ के अभिन्न अंग” बने रहने की पुष्टि भर है।

तब क्यों, मि. उमर, आप भाजपा के यह कहने पर नाराज होते हो?

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पिछले सप्ताह समाचार पत्रों की यह दो सुर्खियां थी :

”राजा इगर्नोड पीएम, लॉ मिनिस्ट्रीज एडवाइस आन 2जी स्पेक्ट्रम, सेस सीएजी”

(राजा ने 2 जी स्पेक्ट्रम पर प्रधानमंत्री, विधि मंत्रालय के परामर्श की उपेक्षा की, सीएजी का कहना है)

”नथिंग मूव्स विदआउट मनी, सेस एक्सपर्ट”

(बगैर पैसे के कुछ भी नहीं हिलता, विशेषज्ञो का कहना है)

दोनों सुर्खियों भ्रष्टाचार सम्बन्धी समाचारों से जुड़ी हैं-पहली में एक केंद्रीय मंत्री शामिल है, और दूसरी केंद्र सरकार में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार पर सर्वो

च्च न्यायालय द्वारा की गई कड़ी निंदा का सार है।

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने बताया कि ए. राजा की टेलीकॉम मिनिस्ट्री ने 2008 में समूचे स्पेक्ट्रम आवंटन में विधि मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और यहां तक कि प्रधानमंत्री की सलाह को नजर अंदाज करते हुए ”मनमाने ढंग” से काम किया।

सी.ए.जी. के अनुमान से इस मनमाने दृष्टिकोण से देश को 1.40 लाख करोड़ रुपए की विशाल धनराशि का नुक्सान उठाना पड़ा है! सी.ए.जी. के अनुमान से यह स्पेक्ट्रम घोटाला आजादी के बाद से सर्वाधिक बड़ा घोटाला बनता है।

सी.ए.जी. रिपोर्ट कहती है:

”टेलीकॉम मंत्रालय ने स्पष्ट और तार्किक या मान्य कारणों के बिना वित्त और विधि मंत्रालय की सलाह को उपेक्षित किया, 2जी स्पेक्ट्रम जैसी दुर्लभ परिमित राष्ट्रीय सम्पदा को आवंटित करने हेतु टेलीकॉम आयोग के विचार-विमर्श को नकारा।”

”स्पेक्ट्रम की कमी और वाजिब से कम दाम के बारे में सभी एजेंसियों की जानकारी के बावजूद, लाइसेंस जारी करने का प्रवेश शुल्क 2001 में निर्धारित की गई दरों से बंधा हुआ रखा गया।”

सीएजी ने टेलीकॉम मंत्रालय के इस तर्क को खारिज कर दिया कि स्पेक्ट्रम आवंटन पिछली सरकार द्वारा निर्धारित की गई नीति के अनुसार ही किया गया है। सीएजी कहता है कि ”यह दावा गलत है कि पूर्ववर्ती सरकार की नीति का पालन किया गया। सन् 2003 में केबिनेट ने भविष्य में सभी आवंटनों को सीधे नीलामी से करने का निर्देश दिया था।”

जहां तक दूसरे समाचार का संबंध है उसमें पहले जैसे की भांति किसी बड़े राजनीतिज्ञ के शामिल होने का मामला नहीं है, लेकिन फिर भी यह एक मध्यवर्ती सरकारी अधिकारी से सम्बन्धित है, सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां दर्शाती हैं कि बार-बार भ्रष्टाचार के केसों के मामले में देश का सर्वोच्च न्यायालय कैसे क्रोधित और उत्तेजित है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मार्केण्डय काटजू और टी.एस. ठाकुर की पीठ कहती है:

”यहां अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। विशेष रुप से आयकर, बिक्री कर और आबकारी विभागों में भ्रष्टाचार काबू से बाहर है। बगैर पैसे के कुछ भी नहीं हिलता।”

स्पष्ट कटाक्ष करते हुए पीठ ने आगे कहा: ”क्यों नहीं सरकार भ्रष्टाचार को वैध बना देती जिससे प्रत्येक केस के लिए एक विशेष राशि निर्धारित हो जाएगी। मान लीजिए यदि एक व्यक्ति अपने मामले को सुलझाना चाहता है तो उसे 2,500 रुपए भुगतान करने को कहा जाए।” उससे प्रत्येक व्यक्ति को पता चल सकेगा कि उसे कितनी रिश्वत देनी है।

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यह अत्यंत संतोषजनक है कि नई दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेलों की समांप्ति के बाद ही प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने खेलों से जुड़े भ्रष्टाचार और विभिन्न कुप्रबन्धन के आरोपों की जांच की घोषणा की है।

देश को आशा है कि आद्योपांत जांच होगी और गलत काम करने वाला कोई भी बख्शा नहीं जाएगा। और केवल बलि का बकरा ढूढने की खोज नहीं होगी।

देश के भीतर के प्रेक्षकों को भारतीय खिलाड़ियों द्वारा बड़ी मात्रा में पदक जीतने, और उद्धाटन तथा समापन के अवसर पर भव्य कार्यक्रमों के सफल क्रियान्वयन से, महीनों से नकारात्मक प्रचार पा रहे राष्ट्रमण्डल खेलों के लिए कुछ हद तक क्षतिपूर्ति करने वाली हैं। लेकिन भारत के बाहर रहने वाले भारतीयों की बात मानी जाए तो विदेशों में इसका प्रचार नकारात्मक ही रहा है।

हालांकि, यह एक सुखद संयोग है कि राष्ट्रमण्डल खेलों के अंतिम दिन ने भारत को आस्ट्रेलिया के बाद दूसरे स्थान पर स्थापित किया है, इसके साथ-साथ क्रिकेट में भारत को तीन विजय मिलीं: (1) 2 मैच वाली श्रृंखला में आस्ट्रेलिया के ऊपर विजय, (2) दुनिया की क्रिकेट टीमों में भारत का पहले स्थान पर पहुंचना और (3) सचिन तेदुंलकर का लाजवाब प्रदर्शन। सभी खेलप्रेमियों को स्वाभाविक रुप से उस दिन गर्व महसूस हुआ होगा।

बिहार चुनावः नीतीश, लालू और राहुल की अग्निपरीक्षा

-डॉ. मनीष कुमार

बिहार के चुनाव पर पूरे देश की नज़र है. क्या नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बन जाएंगे, क्या लालू यादव अपनी खोई हुई लोकप्रियता वापस पाने में कामयाब हो जाएंगे, क्या रामविलास पासवान के पास सरकार बनाने की चाबी आ जाएगी, क्या मुसलमान इस बार भाजपा-जदयू गठबंधन के साथ चले जाएंगे, क्या बिहार के चुनाव में लोग विकास के मुद्दे पर वोट देंगे या फिर जातिवाद का बोलबाला रहेगा, क्या भारतीय जनता पार्टी बिहार में हिंदुत्व के एजेंडे को छोड़ देगी आदि जैसे कई सवाल हैं, जिन पर बिहार ही नहीं, पूरे देश की जनता विचार कर रही है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि बिहार चुनाव का असर राष्ट्रीय राजनीति पर होगा, क्योंकि दिल्ली की राजनीति में अपनी धाक रखने वाले बड़े-बड़े नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. बिहार चुनाव न स़िर्फ नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान की परीक्षा है, बल्कि यह चुनाव राहुल गांधी का भी इम्तहान लेगी. बिहार के चुनाव में यह भी फैसला होना है कि क्या राहुल गांधी का करिश्मा चुनाव पर असर डालता है या नहीं. राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के लिए यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चुनाव राहुल गांधी और उनके इर्द-गिर्द चलाए जा रहे प्रचार अभियान का लिटमस टेस्ट है, अग्निपरीक्षा है.

नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनना है, उन्हें अपने विकास पर भरोसा है. लालू यादव और रामविलास पासवान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, दोनों को अपने वोट बैंक पर विश्वास है और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने का रास्ता सा़फ कर रहे हैं. उनके लिए बिहार चुनाव सबसे महत्वपूर्ण प्रयोगशाला है. हर नेता के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. बिहार का चुनाव दूसरे राज्यों के चुनाव से अलग है, क्योंकि यहां की जनता राजनीतिज्ञों के इशारों को भी समझती है.

बिहार की राजनीति ऐसी है कि कोई भी चुनाव आसान नहीं होता है. ज़रा सी चूक हुई और जीता हुआ उम्मीदवार हार जाता है. ज़्यादातर लोगों को यह लग रहा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आसानी से चुनाव जीत जाएंगे, लेकिन यह चुनाव आसान नहीं होने वाला है. नीतीश कुमार के सामने भी चुनौतियां हैं. सबसे बड़ी चुनौती यह है कि बिहार की जनता उनके पांच साल के कार्यकाल पर वोट देने वाली है. नीतीश कुमार की छवि अच्छी है. लोगों को भी लगता है कि एक ईमानदार शासन यानी सुशासन देने की दिशा में मुख्यमंत्री ने अच्छी कोशिश की है. नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बनें, ऐसा बिहार के ज़्यादातर लोग चाहते हैं, लेकिन समझने वाली बात यह है कि चुनाव में जनता मुख्यमंत्री को वोट नहीं देती, बल्कि स्थानीय विधायक को वोट मिलता है. इसलिए मुख्यमंत्री का चेहरा देखकर लोग विधायक को नहीं चुनते. यही वजह है कि उपचुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी ज़्यादातर सीटें हार गई. ऐसा उदाहरण लोकसभा के चुनावों में मिलता है, जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. हर ओपिनियन पोल और सर्वे में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में हमेशा सबसे आगे रहे, लेकिन एनडीए चुनाव हार गया. वजह यह कि लोग प्रधानमंत्री पद के लिए वोट नहीं देते, वे तो सांसद चुनते हैं. नीतीश कुमार की चुनावी तैयारियां बिल्कुल वैसी दिख रही हैं, जैसी अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार की थी. इंडिया शाइनिंग की तर्ज पर अब बिहार शाइनिंग की मार्केटिंग हो रही है. नीतीश कुमार भी उस एनडीए सरकार की तरह ओवरकॉन्फिडेंट नज़र आ रहे हैं. बिहार का चुनावी माहौल बिल्कुल वैसा है, जैसा 2004 के लोकसभा चुनाव का था. नीतीश कुमार की चुनौती यह होगी कि जो ग़लतियां एनडीए ने 2004 में की थीं, वही ग़लतियां बिहार में न दोहराई जाएं.

नीतीश कुमार को विरोधियों से ज़्यादा खतरा पार्टी के कार्यकर्ताओं और क़रीबी नेताओं से है, क्योंकि वे नाराज़ हैं. नाराज़ नेताओं की लिस्ट में नीतीश कुमार की पार्टी के सांसद सबसे ऊपर हैं. सांसदों की शिकायत है कि नीतीश कुमार बिहार के मामले में उनसे बात तक नहीं करते. पार्टी के वरिष्ठ सांसद राम सुंदर दास की लाख कोशिशों के बावजूद एक महीने तक नीतीश कुमार ने उन्हें न तो मिलने का व़क्त दिया और न ही उन्हें फोन करके बात करने लायक समझा. चुनाव के समय ऐसी ग़लतियां कभी-कभी महंगी पड़ जाती हैं. अक्सर ऐसा देखा गया है कि पार्टी के नाराज़ लोग विपक्ष से ज़्यादा घातक हो जाते हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश कुमार पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से दूर चले गए हैं. पार्टी के लोग कहते हैं कि नीतीश कुमार अहंकारी हो गए हैं. पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के बजाय नीतीश सरकार अधिकारियों के मन मुताबिक़ चल रही है. कुछ गिने-चुने अधिकारी ही सरकार के सारे फैसले ले रहे हैं. जब पिछली बार नीतीश चुनाव जीते थे, तब बिहार के कई बड़े नेता उनके साथ थे. नीतीश के बर्ताव की वजह से उनमें से कई नेताओं ने पार्टी छोड़ दी और अब ये लोग नीतीश कुमार के खिला़फ खड़े हो गए हैं. अधिकारियों को मिली खुली छूट की वजह से स्थानीय कार्यकर्ताओं की साख खत्म हो गई है. यही वजह है कि पिछले पांच सालों में कार्यकर्ताओं की नाराज़गी बढ़ती चली गई. किसी भी पार्टी के लिए सबसे खतरे की बात तब होती है, जब उसके ज़मीनी कार्यकर्ता नाराज़ हो जाते हैं. नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड की यही सबसे बड़ी चिंता है. जनता दल यूनाइटेड भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहा है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी नीतीश कुमार की नीतियों के खिला़फ हैं. अब सवाल यह है कि नीतीश कुमार की कमज़ोरियों का फायदा क्या लालू यादव उठा पाएंगे?

लालू यादव की परेशानी यह है कि वह अपनी ही छवि के चक्रव्यूह में फंसे हैं. उनके व्यक्तित्व का जो सबसे मज़बूत पहलू है, वही उनकी सबसे कमज़ोर कड़ी है. शुरुआती दिनों में जब लालू यादव बोलते थे तो पूरा देश सुनता था, आनंदित होता था और उन्हें जनता का नब्ज समझने वाला का सबसे बेहतरीन ज़मीनी नेता मानता था. आज जब लालू बोलते हैं तो लोग उन्हें नकार देते हैं. लालू यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उन्हें बिहार की जनता के बीच अपने खोए हुए विश्वास को फिर से जगाना है, अपनी साख बचानी है. लालू यादव शायद इस बात को समझते हैं, इसलिए उन्होंने राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर कर रखा है. यह बात भी सही है कि लालू, नीतीश, रामविलास पासवान और सुशील मोदी जैसे नेताओं ने परिवारवाद की सीढ़ी पकड़ कर राजनीति नहीं आए. लोग इन्हें इसलिए प्यार करते हैं, क्योंकि ये सब आंदोलन से उपजे हुए नेता हैं. लेकिन वंशवाद के घुन ने राष्ट्रीय जनता दल को खोखला कर दिया है. लालू यादव ने अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित कर इस दिशा में एक और कदम बढ़ा दिया है. यह बात लोक जनशक्ति पार्टी के लिए भी सही है. नतीजा यह है कि जब लालू यादव इसे ठीक करना चाहते हैं तो उनके दोनों साले बग़ावत कर देते हैं. इसका नुकसान वोट की गिनती में तो नहीं होगा, लेकिन यह राज्य की जनता पर मनोवैज्ञानिक असर ज़रूर डालता है. पार्टी संगठन के मनोबल पर असर अवश्य पड़ता है.

15 साल के शासनकाल में बिहार की जो दुर्गति हुई, उसकी यादों को मिटाना लालू यादव की सबसे बड़ी चुनौती है. बिहार की जनता जब भी उन सालों के बारे में सोचती है तो सिहर उठती है. लालू यादव सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिए पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के समर्थन से चुनाव जीतते रहे, लेकिन उन पंद्रह सालों में उनकी आर्थिक स्थिति में ज़्यादा बदलाव नहीं हुआ. राष्ट्रीय जनता दल के शासनकाल में रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी और क़ानून व्यवस्था की हालत बद से बदतर हो गई. उन पंद्रह सालों में सरकार नाम की चीज बिहार से ग़ायब हो गई थी. लालू यादव के सामने यह चुनौती है कि वह बिहार की जनता के खोए हुए विश्वास को जीतें. पहले की ग़लतियां फिर दोहराई नहीं जाएंगी, यह भरोसा देना होगा. इसके लिए लालू यादव को अपनी योजना बतानी होगी कि अगर उनकी पार्टी चुनाव जीतती है तो वह बिहार के लिए क्या करेंगे और कैसे करेंगे. लालू यादव इस चुनाव में करो या मरो की स्थिति में आ गए हैं. जिस तरह से लोकसभा चुनाव में उनकी हार हुई है, अगर बिहार की जनता ने वैसा ही रवैया विधानसभा चुनावों में भी अपनाया तो लालू यादव की पार्टी का भविष्य खतरे में पड़ सकता है. लालू यादव ज़मीनी हक़ीक़त को जानते हैं, इसलिए लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपने विरोधी रामविलास पासवान से हाथ मिला लिया और यह दोस्ती विधानसभा चुनावों में भी कायम है.

रामविलास पासवान के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. रामविलास पासवान आज भी बिहार के सबसे बड़े दलित नेता हैं. पिछले चुनावों में उनकी छवि एक कर्मठ और जनप्रिय नेता की रही. 2004 के चुनाव में बिहार की जनता ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया था. लोगों ने इतनी सीटें जिता दीं कि रामविलास पासवान के पास सरकार बनाने की चाबी आ गई. कई दिनों तक तो सरकार बनाने की पहल होती रही, लेकिन वह इस मौक़े का फायदा नहीं उठा सके. इस दौरान एक व़क्त ऐसा भी आया, जबकि वह मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाने के बजाय मुख्यमंत्री की कुर्सी को ठोकर मार दी. इस ऐतिहासिक चूक के बाद से रामविलास पासवान की पार्टी की लोकप्रियता में लगातार गिरावट नज़र आई. पिछले लोकसभा चुनाव में वह अपनी भी सीट हार गए. रामविलास पासवान की लोकप्रियता का कारण दलितों एवं अल्पसंख्यकों का समर्थन और लालू विरोध था. इस बार वह लालू यादव की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. इस गठबंधन से रामविलास पासवान को नुक़सान और फायदा दोनों होने वाला है. उनकी लालू विरोधी छवि खत्म हो गई है, लेकिन इस नुक़सान की भरपाई राजद के वोट बैंक से होने की उम्मीद है. बिहार के सारे प्रमुख नेताओं में रामविलास पासवान ने इस चुनाव में सबसे ज़्यादा जगहों का दौरा किया है. वह पिछले एक साल से जनता के बीच रहे हैं. इसका फायदा लोक जनशक्ति पार्टी को ज़रूर मिलेगा. लेकिन रामविलास पासवान से कुछ ग़लतियां भी हुई हैं. उन्हें दलितों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों का भी वोट मिलता रहा है. इस बार चुनाव से ठीक पहले उन्हें गहरा झटका तब लगा, जब पार्टी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रमुख ने पार्टी छोड़ दी. सवाल किसी के पार्टी से जाने का नहीं है. अगर वह पार्टी के लिए महत्वपूर्ण नहीं थे तो उन्हें इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी क्यों दे दी गई थी. चुनाव से ठीक पहले इस तरह की खबरों को अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता है. जहां तक दलितों के वोट का सवाल है तो रामविलास पासवान के सामने यह भी चुनौती है कि नीतीश कुमार के महादलित कार्ड का तोड़ निकालना ज़रूरी है, वरना इस चुनाव में रामविलास पासवान के दलित समर्थकों में एनडीए सेंध मार देगा.

लालू प्रसाद यादव की तरह रामविलास पासवान के लिए भी यह चुनाव अस्तित्व की लड़ाई है. दोनों इस बात को जानते हैं कि नीतीश कुमार की सरकार की लोकप्रियता कितनी है. राजनीति में परिस्थितियां ही स्ट्रेटजी की जननी होती हैं. दुश्मन दोस्त हो जाते हैं और दोस्त दुश्मन. कभी नीतीश कुमार के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाले नेता लालू यादव के साथ बैठकर उम्मीदवार तय कर रहे हैं. हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवार के लिए दोनों गहन विचार कर रहे हैं. दोनों पार्टियों का तालमेल का़फी अच्छा रहा है. कई जगहों पर लालू यादव के उम्मीदवार लोक जनशक्ति पार्टी के चुनाव चिन्ह से मैदान में उतरे हैं तो कहीं रामविलास पासवान के उम्मीदवारों ने राष्ट्रीय जनता दल की लालटेन थाम ली है. मतलब यह कि दोनों ही नेता इस सच्चाई को जानते हैं कि अगर इस चुनाव का नतीजा उनके मन मुताबिक़ नहीं हुआ तो बिहार की राजनीति के शीर्ष पर वापस होना मुश्किल हो जाएगा. लालू यादव और रामविलास पासवान की राजनीति भारतीय जनता पार्टी के विरोध पर टिकी है. मुश्किल यह है कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी एक साइड हीरो की तरह नीतीश कुमार के पीछे खड़ी है. नीतीश कुमार की छवि एक सेकुलर नेता की है, इसलिए इनका हर वार खाली चला जाता है. रामविलास पासवान और लालू यादव के लिए चुनौती यह भी है कि उन्हें अल्पसंख्यकों को यह समझाना होगा कि भारतीय जनता पार्टी और नीतीश कुमार में कोई अंतर नहीं है.

बिहार में भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड की बी टीम है. यही भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती है. बिहार में इस पार्टी के पास नेता हैं, कार्यकर्ता हैं, समर्थन भी है. चुनावों में भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन जदयू से का़फी बेहतर होता है. इसके बावजूद पिछले कई सालों से बिहार में भाजपा नीतीश कुमार के साए में सांस ले रही है. बिहार की नीतीश सरकार भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार है, लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि सरकार के हर अच्छे कामों का श्रेय नीतीश कुमार को मिल जाता है और जो कुछ बुरा होता है, उसका ठीकरा भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं के माथे फोड़ दिया जाता है. यह बात भी सच है कि वर्तमान बिहार सरकार को बेहतर बनाने में सुशील मोदी का बहुत योगदान है, लेकिन उन्हें बिहार मेंे सुशासन का श्रेय नहीं दिया जाता है. इस बात को लेकर संघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में का़फी रोष भी है. चाहे वह नरेंद्र मोदी का मामला हो या फिर भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रिश्ते का, नीतीश कुमार को जब भी मौक़ा हाथ लगता है, वह भाजपा की इज़्ज़त उतारने में व़क्त नहीं लगाते हैं. भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष ने कहा कि सवाल मोदी के बिहार में आने या न आने का नहीं है, सवाल यह है कि दूसरी पार्टी का नेता हमारी पार्टी को डिक्टेट कैसे कर सकता है? गठबंधन में आप प्रार्थना कर सकते हैं, गुज़ारिश कर सकते हैं, अनुनय कर सकते हैं, लेकिन आदेश नहीं दे सकते. भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं और कार्यकर्ताओं में नीतीश के इस रवैये से का़फी नाराज़गी है. भाजपा के नेताओं का गुस्सा इसलिए भी है, क्योंकि सुशील मोदी ख़ामोश रहकर लक्ष्मण की भूमिका निभा रहे हैं, पार्टी नेताओं की नाराज़गी शांत करने में जुटे हैं. भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे नीतीश कुमार के साए से अलग हटकर अपनी पहचान बनाने की ज़रूरत है.

बिहार के चुनाव का राष्ट्रीय महत्व है, लेकिन इसकी वजह स़िर्फ लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार नहीं हैं. बिहार का चुनाव राहुल गांधी के विजन, संगठन शक्ति, लोकप्रियता और चुनाव जिताने की क़ाबिलियत की अग्निपरीक्षा है. बिहार में कांग्रेस बीस सालों से सत्ता के बाहर रही है. राहुल गांधी ने बिहार के चुनाव में पहली बार बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है. संगठन को मज़बूत करने में पूरी ताक़त लगा दी. राहुल के कई नजदीकी सलाहकार बिहार में कई महीने पहले से कैंप कर रहे हैं. राहुल गांधी कहां जाएंगे, किससे मिलेंगे, क्या बोलेंगे और किन्हें संगठन की ज़िम्मेदारी देंगे और किन्हें चुनाव में टिकट दिया जाएगा, यह सब सुनियोजित तरीक़े से और सफलतापूर्वक किया गया. मतलब यह है कि राहुल गांधी और उनके आभामंडल के इर्द-गिर्द की सारी तैयारियों, उनका युवा भारत का सर्वमान्य नेता बनने का सपना साकार करने और देश का भावी प्रधानमंत्री बनने का रास्ता तैयार करने के लिए सारे प्रयोग उनके सलाहकारों ने बिहार में किए हैं. राहुल गांधी के राजनीतिक भविष्य के लिए यह चुनाव एक मील का पत्थर साबित होगा. यह चुनाव राहुल गांधी के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि चुनाव नतीजों से ही उन्हें पता चल पाएगा कि उनके सलाहकार उन्हें सही सलाह देते हैं या ग़लत. उनकी रणनीति चुनावी संग्राम में कुछ असर दिखा सकती है या नहीं. राहुल गांधी नौजवानों को राजनीति में सामने लाने की बात करते हैं. बिहार चुनाव उनके लिए एक परीक्षा है कि क्या बिहार में 60 फीसदी कांग्रेस उम्मीदवार 25-40 वर्ष की आयु के होंगे. देखना यह है कि राहुल गांधी इस परीक्षा में पास होते हैं या फेल.

बिहार चुनाव के संदर्भ में राहुल गांधी की राजनीति पर ग़ौर करना ज़रूरी है. मामला किसानों का हो या फिर उड़ीसा के नियमगिरि के आदिवासियों का, राहुल गांधी के नज़रिए और केंद्र सरकार की नीतियों में मतभेद है. राहुल गांधी ग़रीबों, किसानों और आदिवासियों के साथ नज़र आते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की लाइन दूसरी है. राहुल गांधी की कथनी और केंद्र सरकार की करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर है. सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी बिहार की जनता को यह विश्वास दिला पाएंगे कि बुनियादी सवालों पर वह जो कह रहे हैं, सही है? वह जिस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं, वह सही है?

कुछ दिनों पहले राहुल गांधी बंगाल के शांति निकेतन गए थे. वहां कुछ युवाओं ने राहुल गांधी से सवाल किया कि अगर आप प्रधानमंत्री बनेंगे तो शिक्षा नीति में क्या परिवर्तन करेंगे? उन्होंने जवाब दिया कि प्रधानमंत्री बनना उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है. राहुल गांधी शायद सवाल को टालना चाहते थे, लेकिन शांति निकेतन के लोगों को लगा कि राहुल गांधी को यह पता ही नहीं है कि शिक्षा नीति में सुधार का मतलब क्या है. बंगाल में भाषा के अंतर की वजह से मामले ने तूल नहीं पकड़ा, लेकिन कांग्रेस की रणनीति बनाने वालों को सोचने की ज़रूरत है कि वह राहुल गांधी को समझाएं कि किन सवालों के क्या जवाब हों और राहुल गांधी को भी यह दिल से समझने की ज़रूरत है. अगर शांति निकेतन जैसी ग़लती बिहार में हो गई तो गड़बड हो जाएगी. बिहार के लोग देश के दूसरे हिस्से से ज़्यादा राजनीतिक समझ रखते हैं. वे इशारा समझते हैं. बिहार का चुनाव राहुल गांधी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर उनका प्रयोग यहां सफल हो जाता है तो यही प्रयोग वह उत्तर प्रदेश में कर सकते हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं, जिसके रास्ते ही राहुल गांधी पूर्ण बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बन सकते हैं.

सामाजिक बदलाव के माध्यम बन सकते हैं हमारे उत्सव

-प्रो. बृजकिशोर कुठियाला

अक्टूबर का महीना त्यौहारों व उल्लास का समय है। चारों तरफ आस्था- पूजा संबंधी आयोजन हो रहे हैं और पूरा समाज भक्तिभाव में डूबा हुआ है। न केवल मंदिरों में बाजारों और मोहल्लों में भी स्थान-स्थान पर नवरात्रों के उपलक्ष्य में दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती की आराधना से वातावरण चौबीसों घंटे गूंजता है। समाज का लगभग हर व्यक्ति, कुछ कम कुछ ज्यादा इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है। सामाजिक उल्लास व सार्वजनिक सहभागिता का ऐसा उदाहरण और कहीं मिलता नहीं है। बच्चे, किशोर, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, मजदूर, किसान, व्यापारी, व्यवसायी सभी इन सामाजिक व धार्मिक कार्यों में स्वयं प्रेरणा से जुड़े हैं। इन कार्यक्रमों के आयोजन के लिए और लोगों की सहभागिता के लिए कोई बहुत बड़े विज्ञापन अभियान नहीं चलते, छोटे या बड़े समूह इनका आयोजन करते है और स्वयं ही व्यक्ति और परिवार दर्शन-पूजन के लिए आगे आते हैं। कहीं भी न तो सरकारी हस्तक्षेप है और ना ही प्रशासन का सहयोग। उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सभी महानगरों, नगरों और गांवों में धार्मिक अनुष्ठानों की गूंज है।

केवल यह अक्टूबर में होता है ऐसा नहीं है, पूरे वर्ष छोटे या बड़े अंतराल से कुछ न कुछ आस्था व पूजा संबंधी कार्यक्रम पूरे देश में चलते रहते हैं। वर्ष में दो बार तो रोजों का ही चलन है, दो बार नवरात्रों में 20 दिन के लिए समारोह होते हैं। अक्टूबर के नवरात्रों का अन्त दशहरे के विशाल आयोजन से होता है और दिवाली के 20 दिनों की गिनती प्रारंभ हो जाती है। ईदज्जुहा पर भी सामूहिकता का परिचय होता है। बीच में करवा चौथ का त्यौहार पड़ता है जो कहने के लिए तो महिलाओं के लिए है परन्तु पूरा परिवार ही उसमें उत्साहित होता है। हर पति करवा चौथ के दिन सामान्य से अधिक प्रेम व महत्व प्राप्त करता है, जिससे पारिवारिक संबंध दृढ़ होते हैं। दिसम्बर में क्रिसमस, जनवरी में लोहड़ी, फरवरी में शिवरात्रि, मार्च में फिर से नवरात्र व होली, अप्रैल में वर्ष प्रतिप्रदा, गुड फ्रायडे व बाद में जन्माष्टमी, रक्षाबंधन और इसी तरह सिलसिला चलता रहता है। संक्रांति, अमावस्या, पूर्णिमा यह सभी हमारे समाज में कुछ न कुछ महत्व रखते हैं और अनुष्ठान, सरोवरों में नहाने आदि की अपेक्षा रखते है।

इन पारंपरिक उत्सवों का रूप और भव्यता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और विशेष कर युवा वर्ग तो इनका आनंद सर्वाधिक लेता है। इसकी तुलना में स्वतंत्रता के बाद तीन राष्ट्रीय पर्वों में जनता की सहभागिता लगभग नगण्य है। गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) तो केवल सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया है। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली व अन्य प्रान्तों की राजधानियों में झांकियों आदि के कार्यक्रम होते थे और उसमें लोग उत्साह से जाते थे परन्तु वह उत्साह लगभग समाप्त हो गया है और ये कार्यक्रम केवल प्रशासनिक स्तर पर मनाये जाते हैं और जिनको उनमें होना आवश्यक है वही जाते है। इनमें आम जनता की उपस्थिति कम होती जा रही है। स्वतंत्रता दिवस यानि 15 अगस्त का भी यही हाल है। गणतंत्र दिवस और 15 अगस्त के दिन राष्ट्रीय ध्वज यदि घर-घर पर दिखता, तो कह सकते थे कि आम व्यक्ति की भावना इन उत्सवों से जुड़ी है परन्तु ये दोनों दिन एक अवकाश के रूप में तो स्वागत योग्य होते है, परन्तु इनके महत्व को जानकर सामूहिक कार्यक्रमों का ना होना चिन्ता का विषय है। इसी प्रकार गांधी जयन्ती के दिन औपचारिक कार्यक्रम तो गांधी जी से संबंधित संस्थानों में हो जाते हैं परन्तु आम व्यक्ति गांधी को स्मरण कर उनके प्रति श्रद्धा भाव प्रकट करे ऐसा होता नहीं है। 30 जनवरी को प्रातः 11.00 बजे सायरन तो बजता है परन्तु कितने लोग उस समय मौन होकर गांधीजी को श्रृद्धांजलि देते हैं, यह सब जानते ही हैं। राष्ट्रीय उत्सवों में सहभागिता नहीं होने का अर्थ यह नहीं है कि समाज में राष्ट्रभाव की कमी है, परन्तु इन उत्सवों का सामाजिक चेतना से सम्बन्ध नहीं बन पाया है। इनके कारण एकता और समरसता का वातावरण नहीं हुआ है।

हमारे समाज के पारंपरिक उत्सवों में भी बहुत परिवर्तन आये हैं, झांकियों में आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके उनको अधिक आकर्षक बनाया जाता है, कलाकार मूर्तियों को गढ़ने में नित नए-नए प्रयोग करते हैं, गीतकार नए शब्दों, भावों व धुनों से खेलते हैं, गायक गीतों को आम आदमी के गुनगुनाने वाले गानों में बदलते हैं। अब तो इवेन्ट प्रबंधन के कई व्यवसायी संस्थान इन कार्यक्रमों का दायित्व लेते हैं। दांडियां व गरबा जिस प्रकार गुजरात से निकलकर पूरे देश में प्रचलित हो रहा है यह इस बात का द्योतक है कि आम भारतीय उत्सव प्रिय है व समारोहों में स्वप्रेरणा से सहभागिता करने का उसे शौक है। ऐसा इसलिए है कि हर त्यौहार व पूजन का कहीं न कहीं आम आदमी से जीवन की अपेक्षाओं से संबंध है। हर त्यौहार का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य भी है जो कहीं न कहीं इतिहास और परम्पराओं से भी जुड़ता है। जहां होली पूरे समाज को एक रस करती है उसमें सत्य की विजय का भी भाव है। दशहरा समाज की विध्वंसकारी शक्तियों के नाश का द्योतक है और दिवाली परिवारों में वापसी का त्यौहार।

इन सभी त्यौहारों का संबंध भूतकाल में होते हुए भी इनकी प्रासंगिकता वर्तमान की परिस्थितियों से भी है। हजारों या सैकड़ों वर्ष पूर्व समाज में जो घटा उससे मिलता जुलता आज के समाज में भी हो रहा है। दशरथ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए रावण ने वनों में आश्रमों पर आक्रमण करने के लिए अपने साथियों को भेजा, जिससे दशरथ के राज्य का संबंध उन ऋषि- मुनियों से टूट जाए जहां से राज्य की नीतियों का निर्धारण होता था। आज का आतंकवाद और माओवाद भी इसी श्रेणी में आते हैं। विश्वामित्र सरीखे न तो बुद्धिजीवी आज हैं और न ही अपने प्रिय पुत्रों को राक्षसों के संहार के लिए भेजने का का साहस करने वाले प्रशासक। वास्तव में तो संकल्प शक्ति ही नहीं है। विजयादशमी को आतंक के विरोध में दृढ़ संकल्प का रूप दिया जा सकता है। ऐसा करने से समाज का सहयोग देश के अंदर की अराष्ट्रीय शक्तियों से निपटने के लिए किया जा सकता है। केवल भावनात्मक संवेदनाओं को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है।इसी प्रकार होली को सामाजिक समरसता के उत्सव के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास होना चाहिए जिससे कि जाति, वर्ण व गरीबी अमीरी का भेद मिटकर समाज राष्ट्र बोध के रंग में ही रंग जाए। पश्चिम व कई अन्य प्रभावों के कारण आज देश में परिवारों का विघटन हो रहा है और सामाजिक भीड़ में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है। सर्वमान्य है कि यह समाज के लिए घातक है। करवाचौथ, रक्षाबंधन व भाईदूज जैसे त्यौहार है जिनको फिर से परिवार, विशेषकर संयुक्त, परिवार की स्थापना के लिए प्रयोग किया जा सकता है। रोजे व नवरात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उन्हें इस रूप में और प्रचारित करने की भी आवश्यकता है। स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस राष्ट्र के प्रति बार-बार समर्पण के त्यौहार होने चाहिए जहां व्यक्ति प्रान्त और क्षेत्र से ऊपर उठकर राष्ट्र की सोच से जुड़े। गांधी जयंती के दिन समाज अहिंसा का पाठ तो पढ़े ही, परन्तु गांधी द्वारा स्वदेशी के आग्रह को वैश्वीकरण के संदर्भ में व्यवहारिक रूप में लाने की प्रेरणा भी ले। त्यौहारों के इस देश में उत्सव न केवल सामाजिक परिवर्तन के द्योतक है परन्तु वे सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक विकास के साधन भी हैं। करोड़ों के विज्ञापनों के द्वारा जो मानसिक परिवर्तन नहीं हो पाता है वह इन त्यौहारों के माध्यम से सहज ही होगा। इस बात के प्रमाण भी हैं, देश के पश्चिमी भाग में गणेश पूजन के कारण सामाजिक क्रांति लाई गई थी। राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मार्केटिंग के प्रयास इन त्यौहारों में बखूबी होते है और वस्तुओं व सेवाओं को बेचने का काम प्रभावी रूप से होता है। यदि ये व्यापारिक कार्य हो सकता है तो सामाजिक कार्य इन त्यौहारों के माध्यम से अवश्य ही हो सकता है। केवल मन बनाकर योजनाबद्ध प्रयास करने की आवश्यकता है।