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कैसे आएंगे राम इस रक्तरंजित बस्तर में !

जिस धरा पर पड़े प्रभु के चरण वहां बिछी हैं लैंड माइंस

-संजय द्विवेदी

बस्तर यानि दण्डकारण्य का वह क्षेत्र जहां भगवान राम ने अपने वनवास काल में प्रवास किया। बस्तर की यह जमीन आज खून से नहाई हुयी है। बस्तर एक युद्धभूमि में बदल गया है। जहां वे वनवासी मारे जा रहे हैं जिनकी मुक्ति की जंग कभी राम ने लड़ी थी और आज उस जंग को लड़ने का कथित दावा नक्सली संगठन भी कर रहे हैं। दशहरे का बस्तर में एक खास महत्व है। बस्तर का दशहरा विश्वप्रसिद्ध है। लगभग 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे में बस्तर की आदिवासी संस्कृति के प्रभाव पूरे ताप पर दिखती है। बस्तर की लोकसंस्कृति का शायद यह अपने आप में सबसे बड़ा जमावड़ा है। बस्तर राजपरिवार के नेतृत्व में जुटने वाला जनसमुद्र इसकी लोकप्रियता का गवाह है। लोकसंस्कृति किस तरह स्थानीयता के साथ एकाकार होती है इसका उदाहरण यह है कि दशहरे में यहां रावण नहीं जलाया जाता, पूजा भी नहीं जाता। क्या इस दशहरे में राम बस्तर आने का मन बना पाएंगें। जिन रास्तों से वे गुजरे होंगें वहां आज बारूदी सुरंगे बिछी हुयी हैं। आतंक और अज्ञात भय इन तमाम इलाकों में घेरते हैं। रावण की हिंसात्मक राजनीति का दमन करते हुए राम ने आतंक से मुक्ति का संदेश दिया था। किंतु आज के हालात में बस्तर अपने भागीरथ का इंतजार कर रहा है जो उसे आतंक के शाप से मुक्त करा सके। बस्तर के दशहरे में मुड़िया दरबार सजता है जो पंचायत सरीखी संस्था है, जहां पर आदिवासी जन बस्तर के राजपरिवार के साथ बैठकर अपनी चिंताओं पर बात करते हैं। इस दरबार में आदिवासी समाज को बस्तर में फैली हिंसा पर भी बात करनी चाहिए। ताकि बस्तर आतंक के शाप से मुक्त हो सके। आदिवासी जीवन फिर से अपनी सहज हंसी के साथ जी सके और बारूद व मांस के लोथड़ों की गंध से बस्तर मुक्त हो सके।

नक्सली जिस तरह भारतीय राजसत्ता को आए दिन चुनौती दे रहे हैं और उससे निपटने के लिए हमारे पास कोई समाधान नहीं दिखता। सरकार के एक कदम आगे आकर फिर एक कदम पीछे लौट जाने के तरीके ने हमारे सामने भ्रम को गहरा किया है। जाहिर तौर पर हमारी विवश राजनीति,कायर रणनीति और अक्षम प्रशासन पर यह सवाल सबसे भारी है। नक्सली हों या देश की सीमापार बैठे आतंकवादी वे जब चाहें, जहां चाहें कोई भी कारनामा अंजाम दे सकते हैं और हमारी सरकारें लकीर पीटने के अलावा कर क्या सकती हैं। राजनीति की ऐसी बेचारगी और बेबसी लोकतंत्र के उन विरोधियों के सामने क्यों है। क्या कारण है कि हिंसा में भरोसा रखनेवाले, हमारे लोकतंत्र को न माननेवाले, संविधान को न माननेवाले भी इस देश में कुछ बुद्धिवादियों की सहानुभूति पा जाते हैं। सरकारें भी इनके दबाव में आ जाती हैं। नक्सली चाहते क्या हैं। नक्सलियों की मांग क्या है। वे किससे यह यह मांग कर रहे हैं। वे बातचीत के माध्यम से समस्या का हल क्यों नहीं चाहते। सही तो यह है कि वे इस देश में लोकतंत्र का खात्मा चाहते हैं। वे जनयुद्ध लड़ रहे हैं और जनता का खून बहा रहे हैं।हमारी सरकारें भ्रमित हैं। लोग नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर प्रमुदित हो रहे हैं। राज्य का आतंक चर्चा का केंद्रीय विषय है जैसे नक्सली तो आतंक नहीं फैला रहे बल्कि जंगलों में वे प्रेम बांट रहे हैं। उनका आतंक, आतंक नहीं है। राज्य की हिंसा का प्रतिकार है। किसने उन्हें यह ठेका दिया कि वे शांतिपूर्वक जी रही आदिवासी जनता के जीवन में जहर धोलें। उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा दें, जो हमारे राज्य की ओर ही तनी हुयी हों। लोगों की जिंदगी बदलने के लिए आए ये अपराधी क्यों इन इलाकों में स्कूल नहीं बनने देना चाहते, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार यहां सड़क न बनाए, क्यों वे चाहते हैं कि सरकार नाम की चीज के इन इलाकों में दर्शन न हों। पुल, पुलिया, सड़क, स्कूल, अस्पताल सबसे उन्हें परेशानी है। जनता को दुखी बनाए रखना और अंधेरे बांटना ही उनकी नीयत है। क्या हम सब इस तथ्य से अपरिचित हैं। सच्चाई यह है कि हम सब इसे जानते हैं और नक्सलवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई फिर भी भोथरी साबित हो रही है। हमें कहीं न कहीं यह भ्रम है कि नक्सल कोई वाद भी है। आतंक का कोई वाद हो सकता है यह मानना भी गलत है। अगर आपका रास्ता गलत है तो आपके उद्देश्य कितने भी पवित्र बताए जाएं उनका कोई मतलब नहीं है। हमारे लोकतंत्र ने जैसा भी भारत बनाया है वह आम जनता के सपनों का भारत है। माओ का कथित राज बुराइयों से मुक्त होगा कैसे माना जा सकता है। आज लोकतंत्र का ही यह सौंदर्य है कि नक्सलियों का समर्थन करते हुए भी इस देश में आप धरना-प्रदर्शन करते और गीत- कविताएं सुनाते हुए घूम सकते हैं। अखबारों में लेख लिख सकते हैं। क्या आपके माओ राज में अभिव्यक्ति की यह आजादी बचेगी। निश्चय ही नहीं। एक अधिनायकवादी शासन में कैसे विचारों, भावनाओं और अभिव्यक्तियों का गला घुटता है इसे कहने की जरूरत नहीं है। ऐसे माओवादी हमारे लोकतंत्र को चुनौती देते घूम रहे हैं और हम उन्हें सहते रहने को मजबूर हैं।

नक्सलवादियों के प्रति हमें क्या तरीका अपनाना चाहिए ये सभी को पता है फिर इस पर विमर्श के मायने क्या हैं। खून बहानेवालों से शांति की अर्चना सिर्फ बेवकूफी ही कही जाएगी। हम क्या इतने नकारा हो गए हैं कि इन अतिवादियों से अभ्यर्थना करते रहें। वे हमारे लोकतंत्र को बेमानी बताएं और हम उन्हें सिर-माथे बिठाएं, यह कैसी संगति है। आपरेशन ग्रीन हंट को पूरी गंभीरता से चलाना और नक्सलवाद का खात्मा हमारी सरकार का प्राथमिक ध्येय होना चाहिए। जब युद्ध होता है तो कुछ निरअपराध लोग भी मारे जाते हैं। यह एक ऐसी जंग है जो हमें अपने लोकतंत्र को बचाने के लिए जीतनी ही पड़ेगी। बीस राज्यों तक फैले नक्सली आतंकवादियों से समझ की उम्मीदें बेमानी हैं। वे हमारे लोकतंत्र की विफलता का फल हैं। राज्य की विफलता ने उन्हें पालपोस का बड़ा किया है। सबसे ऊपर है हमारा संविधान और लोकतंत्र जो भी ताकत इनपर भरोसा नहीं रखती उसका एक ही इलाज है उन प्रवृत्तियों का शमन।

भगवान राम आज इस बस्तर की सड़कों और इस शांत इलाके में पसरी अशांति पर क्या करते। शायद वही जो उन्होंने लंका के राजा रावण के खिलाफ किया। रावण राज की तरह नक्सलवाद भी आज हमारी मानवता के सामने एक हिंसक शक्ति के रूप में खड़ा है। हिंसा के खिलाफ लड़ना और अपने लोगों को उससे मुक्त कराना किसी भी राज्य का धर्म है। नक्सलवाद के रावण के खिलाफ हमारे राज्य को अपनी शक्ति दिखानी होगी। क्योंकि नक्सलवाद के रावण ने हमारे अपने लोगों की जिंदगी में जहर घोल रखा है। उनके शांत जीवन को झिंझोड़कर रख दिया है। बस्तर के लोग फिर एक राम का इंतजार कर रहे हैं। पर क्या वे आएंगें। क्या एक बार फिर जनता को आसुरी शक्तियों से मुक्त कराने का काम करेंगें। जाहिर तौर पर ये कल्पनाएं भर नहीं हैं, हमारे राज्य को अपनी शक्ति को समझना होगा। नक्सली हिंसा के रावण के खिलाफ एक संकल्प लेना होगा। हमारा देश एक नई ताकत के साथ महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। ये हिंसक आंदोलन उस तेज से बढ़ते देश के मार्ग में बाधक हैं। हमें तैयार होकर इनका सामना करना है और इसे जल्दी करना है- यह संकल्प हमारी सरकार को लेना होगा। भारत की महान जनता अपने संविधान और लोकतंत्र में आस्था रखते हुए देश के विकास में जुटी है। हिंसक रावणी और आसुरी आतंकी प्रसंग उसकी गति को धीमा कर रहे हैं। हमें लोगों को सुख चैन से जीने से आजादी और वातावरण देना होगा। अपने जवानों और आम आदिवासियों की मौत पर सिर्फ स्यापा करने के बजाए हमें कड़े फैसले लेने होंगें और यह संदेश देना होगा कि भारतीय राज्य अपने नागरिकों की जान-माल की रक्षा करने में समर्थ है। बस्तर से आतंक की मुक्ति में आम जनता,आदिवासी समाज और सरकार को राम की सेना के रूप में एकजुट होना होगा। तभी लोकतंत्र की जीत होगी और रावणी व आसुरी नक्सलवाद को पराजित किया जा सकेगा। दशहरे पर नक्सलवाद के रावण के शमन का संकल्प लेकर हम अपने लोकतंत्र की बुनियाद को ही मजबूत करेंगे।

अयोध्या: इतिहास माफ नहीं करेगा इन लोगों को

-पंकज झा

भारत के बारे में हमेशा यह कहा जाता है कि यहां की जनता काफी परिपक्व एवं झगडों से दूर रहने वाली है. यह तो नेता लोग हैं जो अपने फायदे के लिए अवाम को लड़ा अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. हालाकि हर मामले में यह दृष्टिकोण सही नहीं है. नताओं द्वारा शुरू किये गए कई आंदोलन भविष्य में मील के पत्थर भी साबित हुए हैं. जनता को जगा कर रखना, उनको मुद्दों के बारे में जागरूक करते रहना भी अगुओं का दायित्व है. लेकिन बहुधा ऐसा लगता है कि हमारे नेताओं के लिए उनका व्यक्तिगत हित ही सबसे अहम होता है.

अभी राम-जन्मभूमि विवाद का उदाहरण देखें. जब नब्बे के शुरुआती दशक में लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा कर इस आंदोलन को हवा दी थी तो मोटे तौर पर उसके सकारात्मक परिणाम भी हुए थे. निश्चय ही उस आंदोलन का यह साफल्य था कि दशकों बाद देश, सांस्कृतिक एक्य महसूस करने लगा था. लोगों में अपनी सनातन परंपरा के प्रति आदर का भाव पैदा हुआ था.

लेकिन अफ़सोस….आज फ़िर से इस आंदोलन को हवा दे कर, इसकी आग से अपनी रोटी सेंकने वाले नुमाइंदों के बारे में वैसा नहीं कहा जा सकता है. अयोध्या मामले पर ईलाहाबाद हाईकोर्ट का हालिया फैसला इस मायने में भी ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि इसने देश में शांति और सद्भाव की बहार ला दी थी. विशेषज्ञों द्वारा यह फैसला कानूनी कम लेकिन पंचायती अधिक घोषित किये जाने के बावजूद इसे लोगों ने सर आँखों पर लिया था. ईमानदार प्रेक्षकों का मत था कि भले ही न्याय की देवी ने गांधारी की तरह इस बार अपने आँख की पट्टी खोल कर फैसला दी हो, लेकिन इस फैसले के सरोकार व्यापक थे. अंततः प्रणाली कोई भी हो अंतिम लक्ष्य किसी भी पालिका का जिस सद्भाव की रक्षा करना होता है उसमें वह सफल रहा था.

लेकिन अफ़सोस यह कि दोनों में से किसी भी पक्ष के ठेकेदारों को यह रास नहीं आ रहा है. शायद ये लोग अपनी दूकान बंद हो जाने की आशंका से मामले को लटकाना, उलझा कर रखना चाह रहे हैं. पता नहीं इन दुकानदारों को यह सामान्य चीज़ समझ क्यू नहीं आती कि जनता अब इनके बहकावे में नहीं आने वाली है. काठ की हांडी कभी भी एक से अधिक बार चढ़ने के लिए नहीं होती. हालिया खबर यह है कि अब इस मामले में सुलह की संभावना खत्म हो गयी है. जहां आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने पन्द्रह दिनों के भीतर सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया है वही हिंदू महासभा ने ने भी यह फतवा दे दिया है कि फैसला अब सुप्रीम कोर्ट में ही होगा.

तो माचिस ले कर खड़े विनय कटियार आखिर कैसे पीछे रहने वाले थे. उन्होंने भी मौके को गवाना उचित नहीं समझा और तुरत उकसाने वाला बयान दे कर, ये कह कर कि पहले मुस्लिम पक्ष ज़मीन पर से अपना दावा छोड़े अपनी डूबती राजनीतिक नैया को पार लगाने की आखिरी कोशिश जैसे कर ली. गोया मुस्लिम समाज उनका जर-खरीद गुलाम हो कि इधर इन्होने आदेश दिया और उधर मुस्लिम शरणागत.

आखिर जब असली पक्षकारगण अपने-अपने हिसाब से सुलह में लगे ही हैं, आम जन का मत भी सद्भाव के पक्ष में दिख ही रहा है तो इन्हे इस फटे में टांग अड़ाने की क्या ज़रूरत थी. बल्कि यूं कहें कि टांग अडाने के लिए मामले को फाड़ने की क्या ज़रूरत थी? नेताओं को जनता के नब्ज़ का इतना पता होना चाहिए कि वह जान पाएं कि कम से कम अब आग लगाने वाले किसी भी तत्व को अपनी दुर्गति के ही लिए तैयार रहना होगा. ऐसे ही एक मुल्ला साहब हैं. एक पत्रकार द्वारा पूछे गए माकूल सवाल पर ही इतना तैस खा गए कि उन्होंने रिपोर्टर के गला दबा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपने बाप की जायदाद समझ उसका गला घोटने पर उतारू हो गए.

लेकिन इन सभी उचक्कों की फौज के बावजूद कुछ लोग ऐसे हैं जो जनमत को पहचानते हैं, उसका आदर भी करना चाहते हैं और अधिकतम संभाव्य इमानदारी का परिचय दे कर मसले का हल बातचीत द्वारा कर, इतिहास द्वारा प्रदत्त इस अवसर का लाभ उठाना चाहते हैं. ऐसे लोगों में आप महंत ज्ञान दास और मुस्लिम पक्षकार हाशिम भाई का नाम ले सकते हैं. थोडा बहुत इस लेखक को भी जितना ज्ञान दास के बारे में जानने का अवसर मिला था, उस बिना पर यह लेखक यह कहने की स्थिति में हैं कि उन दोनों का प्रयास वास्तव में मसले के हल की दिशा में सार्थक कदम हो सकता है अगर राजनेताओं को, और मज़हब के ठेकेदारों को इसमें नाक घुसेड़ने की इजाज़त अड़ाने की इजाज़त न दी जाय तो.

अभी तक जैसे संकेत मिल रहे थे उसमें यह उम्मीद कर लेना कोई बड़ी बात नहीं थी कि शायद मुस्लिम समाज प्यार से अपना तीसरा हिस्सा वहां पर छोड़ देंगे और अयोध्या में ही कहीं या सरयू से उत्तर किसी अच्छी जगह पर अपने हिंदू भाइयों के सहयोग से एक भव्य मस्जिद के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ेंगे. अगर ऐसा होना संभव होता तो ऐसा कहा जा सकता है कि 1857 के बाद से ही अंग्रेजों द्वारा जिस तरह संप्रदायों के मध्य विभेद पैदा कर देश को गुलाम रखने की चाल चली गयी थी, जिस तरह उसके पश्चातवर्ती शासकों द्वारा भी उन्ही का अनुकरण कर विभेद को और बढ़ाया गया वह एक झटके में खतम क़र देश वास्तव में एक नए युग में प्रवेश कर सकता था. केवल हाई कोर्ट के फैसले के बाद ही देश ने जिस तरह से भाईचारे का रस चखा है वह यह भरोसा करने का पर्याप्त कारण है कि अब लड़ाई कोई नही चाहता सिवा कुछ टुच्चे नेताओं, मुट्ठी भर कठमुल्लाओं और वामपंथियों के.

बस इन दुकानदारों से आग्रह कि जितनी जल्दी वे यह समझ लें उतना बेहतर होगा कि देश की वर्तमान पीढ़ी, अपने पहले की पीढ़ी से पीढ़ियों आगे है. देश ने पिछले बीस सालों में सदियों का सफर तय कर लिया है. अब के नए लोग, नए ज़रूर हैं लेकिन सावधान हैं. इनको बहकाना अब आसां नहीं है. सभी तत्वों से विनम्र निवेदन की इमानदारी को अपनी सबसे अच्छी नीति बनाए-मानें. मसले में ज्यादा टांग भी न अड़ाए और हर उस समूह या व्यक्ति का उत्साहवर्द्धन करें जो अयोध्या को अब अयोध्या ही बने रहने देने में प्रयासरत है. वास्तव में अयोध्या को लंका बना दिया जाना तो रामलला को भी नागवार ही गुजरेगा.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जन्मशती- भारतीय उपमहाद्वीप का सर्वहारा का महाकवि

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आज भारत में अनेक हिन्दी-उर्दू कवियों और लेखकों ने भारत में सत्ता और संस्कृति उद्योग के सामने पूरी तरह समर्पण कर दिया है। इन लोगों ने मजदूरों के पक्ष में बोलना बरसों से बंद कर दिया है। देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों की मलाई खाने और प्रतिष्ठानी कर्मकांड का अपने को हिस्सा बना लिया है। खासकर उर्दू कविता का तो और भी बुरा हाल है। उसमें मजदूरों-किसानों की हिमायत करके रहना तो एकदम असंभव हो गया है। उर्दू के अधिकांश कवियों-साहित्यकारों ने मजलूमों के हकों के लिए जमीनी जंग की बजाय संस्कृति उद्योग में पैर जमाने की जंग में सारी शक्ति लगा दी है। कुछ ने आधुनिकतावादी चोगा पहन लिया है। कुछ अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने पूरी तरह समर्पण कर चुके हैं। कुछ ने कलम को अमेरिकी नजरिए का गुलाम बना दिया है और अमेरिकीदृष्टि से राजनीतिक और सांस्कृतिक मसलों को देख रहे हैं। ऐसे में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का शताब्दी समारोह मनाना अपने आप में महत्वपूर्ण है। हिन्दी में भी इसकी शुरूआत हो चुकी है। हिन्दी के जो प्रगतिशील आलोचक-लेखक-कवि फ़ैज़ पर सबसे ज्यादा समारोहों में नजर आ रहे हैं उनके हाथों में प्रतिवाद की कलम नहीं है। वे आजाद भारत में सत्ता के साथी हो गए हैं। खासकर आपातकाल में उनके हाथ जनतंत्र के खून से सने हैं। वे आज भी मनमोहन सिंह के फरमानों पर उठते और बैठते हैं।

ऐसे भी आलोचक-लेखक हैं जो अमेरिका और उसके सांस्कृतिक संस्थानों को भारत भवन के जरिए में कला-संस्कृति के क्षेत्र में लेकर आए और उनके लिए कईदशकों से काम कर रहे हैं। ये ही लोग वर्धा में आयोजित फ़ैज़ के जलसे में भी नज़र आए हैं।

हमें थोड़ा ईमानदारी के साथ एक बार हिन्दी-उर्दू के साहित्यकारों और लेखकों के सत्तापंथी साहित्यिक कर्मकांड के बाहर जाकर फ़ैज़ की जिन्दगी के तजुर्बों की रोशनी में,उन मानकों की रोशनी में हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील साहित्य परंपरा और लेखकीय कर्म पर आलोचनात्मक नजरिए से विचार करना चाहिए।

सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसा क्या हुआ जिसके कारण फ़ैज़ ने सारी जिन्दगी सत्ता के जुल्मो-सितम के सामने समर्पण नहीं किया लेकिन उर्दू-हिन्दी के अनेक बड़े कवियों और लेखकों ने समर्पण कर दिया। वह कौन सी चीज है जो फ़ैज़ को महान बनाती है? क्या कविता कवि को महान बनाती है? क्या पुरस्कार महान बनाते हैं? क्या सरकारी ओहदे महान बनाते हैं? क्या कवि को राजनेताओं और पेजथ्री संस्कृति का संसर्ग महान बनाता है? क्या लेखक को मीडिया महान बनाता है?

इनमें से कोई भी चीज कवि या लेखक को महान नहीं बनाती। कवि के व्यापक सामाजिक सरोकार, उन्हें पाने के लिए उसकी कुर्बानियां और सही नजरिया उसे महान बनाता है।

कवि महान है या साधारण है यह इस बात से तय होगा कि उसकी कविता और जीवन का कितना बड़ा लक्ष्य है?क्या बड़े सामाजिक लक्ष्य को पाने के लिए व्यापक दृष्टि भी है? उस लक्ष्य को पाने के लिए वह किस हद तक कुर्बानी देना चाहता है?

दुख की बात यह है कि हिन्दी-उर्दू में कवि तो हैं लेकिन कुर्बानी देने वाले कवि कम हैं। कवि तो हैं,दुख उठाने वाले कवि भी हैं लेकिन अविचलित भाव से सही नजरिए से लिखने और जो लिखा है उसके लिए अनवरत जमीनी संघर्ष करने वाले कवियों का हमारे पास अभाव है। फ़ैज़ इस अर्थ में विरल कवि हैं कि उन्होंने अविचल भाव से बगैर किसी वैचारिक और कलात्मक विचलन के सर्वहारा के नजरिया का कविता और जीवन में अक्षरशःपालन किया।

पाकिस्तान की सत्ता में कोई आए या जाए फ़ैज़ ने अपना नजरिया और संघर्ष का रास्ता नहीं बदला। हिन्दी-उर्दू में विचलित कवियों की लंबी फेहरिश्त है, जिनका नजरिया नेता,नीति और आंदोलन के साथ बदलता रहा है।

बिकना और जी-हुजूरी फ़ैज़ की जिन्दगी में नहीं है। भारत-विभाजन,भारत-पाक युद्ध जैसी बड़ी घटनाएं भी उन्हें सही विचारधारात्मक रास्ते से नहीं भटका सकीं। वे कभी राष्ट्रवाद के जुनून में नहीं फंसे। जबकि हिन्दी-उर्दू के अनेक बड़े कवियों में यह विचलन सहज ही भारत -विभाजन,भारत-चीन युद्ध,भारत-पाक युद्ध के समय देखा गया है। इसलिए फ़ैज़ ने लिखा-

‘‘नहीं निगाह में मंजिल तो जुस्तजू ही सही

नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन मे खून फराहम न अश्क आंखों में

नमाज़े-शौक़ तो वाज़िब है, बे-वज़ू ही सही

यही बहुत है के सालिम है दिल का पैराहन

ये चाक-चाक गरेबान बेरफू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म, मैकदेवालों

नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही

गर इन्तज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल

किसी के वाद-ए-फर्दा से गुफ्तगू ही सही

दयारे-गैर में महरम अगर नहीं कोई

तो फ़ैज़ ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही।’’

कवि तो बहुत हुए हैं। फ़ैज़ से भी बड़े कवि हुए हैं। ऐसे भी कवि हुए हैं जो उनसे बेहतर कविता लिखते थे। ऐसे भी कवि हुए हैं जिनके पास सम्मान-प्रतिष्ठा आदि किसी चीज की कमी नहीं थी। लेकिन यह सच है कि बीसवीं सदी में फ़ैज़ जैसा कवि भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं हुआ। मजदूरों-किसानों के हकों के लिए जमीनी जंग लड़ने वाला ऐसा महान कवि नहीं हुआ।

फ़ैज़ की कविता में जिन्दगी का यथार्थ ही व्यक्त नहीं हुआ है बल्कि उन्होंने अपने कर्म और कुर्बानी से पहले अविभाजित भारत और बाद में पाकिस्तान में एक आदर्श मिसाल कायम की है। सर्वहारा के लिए सोचना,उसके लिए जीना और उसके लिए किसी भी कुर्बानी के लिए तैयार रहना यही सबसे बड़ी विशेषता थी जिसके कारण फ़ैज़ सिर्फ फ़ैज़ थे। मजदूरों की जीवनदशा पर उनसे बेहतर पंक्तियां और कोई लिख ही नहीं पाया। उन्होंने लिखा-

‘‘जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त

शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है

आग सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ

अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है.’’

मजदूरों के अधिकारों का हनन,उनका उत्पीड़न और उन पर बढ़ रहे जुल्म ही थे जिनके कारण उनकी कविता महान कविता में तब्दील हो गयी। मजदूर की पीड़ा उन्हें बार-बार आंदोलित करती थी,बेचैन करती। मजदूरों के हकों का इतना बड़ा कवि भारतीय उपमहाद्वीप में दूसरा नहीं हुआ।फ़ैज़ ने लिखा-

‘‘गुलों में रंग भरे आज नौबहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

कफस उदास है यारों सबा से कुछ तो कहो

कहीं तो बहर-ए-खुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़

कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुशकबार चले

बडा़ है दर्द का रिश्ता ये दिल गरीब सही

तुम्हारे नाम पे आएंगे गमगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिजरां

हमारे अशक तेरी आकबत संवार चले

मकाम ‘फैज़’ कोई राह में जँचा ही नहीं

जो कुए यार से निकले तो सुए दार चले।’’

फ़ैज़ की कविता में जाति,धर्म,साम्प्रदायिकता,राष्ट्र,राष्ट्रवाद आदि का अतिक्रमण दिखाई देता है। उन्होंने सचेत रूप में समूची मानवता और मानव जाति के सबसे ज्यादा वंचित वर्गों पर हो रहे जुल्मों के प्रतिवाद में अपना सारा जीवन लगा दिया। फ़ैज़ ने लिखा –

‘‘चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम

इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें

अपने अज़दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम

जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है

फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं

और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं

ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है

जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं

लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं

इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के थोड़े हैं

अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में

हम को रहना है पर यूं ही तो नहीं रहना है

अजनबी हाथों का बेनाम गरांबार सितम

आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है

ये तेरी हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द

अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार

चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द

दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़।’’

फ़ैज़ मात्र उर्दू कवि नहीं थे। बल्कि मजदूरवर्ग के भारतीय उपमहाद्वीप के महाकवि थे। वे सारी जिंदगी सर्वहारावर्ग के बने रहे। वे अविभाजित भारत और बाद में पाकिस्तान सर्वहारा की जंग के महायोद्धा बने रहे। फ़ैज़ उन बड़े कवियों में हैं जिनकी चेतना ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद का सही अर्थों में अतिक्रमण किया था और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के मजदूरों-किसानों और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए कविता लिखने से लेकर जमीनी स्तर तक की वास्तव लड़ाईयों का नेतृत्व किया था। सर्वहारा उनकी पहली मुहब्बत थी और वे सारी जिंदगी इस फिदा रहे। उन्होंने लिखा-

‘‘मैं ने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है

तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूं हो जाये

यूं न था मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म

रेशम-ओ-अतलस-ओ-किमखाब में बुनवाये हुए

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म

ख़ाक में लिथड़े हुए ख़ून में नहलाये हुए

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग।’’

महाकवि फ़ैज़ का सियालकोट (पंजाब,पाकिस्तान) में 13 फरवरी 1911 को जन्म हुआ था। फ़ैज़ ने उर्दू कविता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया। फ़ैज़ की खूबी थी कि वे एक ही साथ इस्लाम और मार्क्सवाद के धुरंधर विद्वान थे। उनके घर वालों ने बचपन में उनको कुरान की शिक्षा दी। उर्दू-फारसी-अरबी की प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने अंग्रेजी और अरबी में एम.ए. किया था लेकिन वे कविताएं उर्दू में करते थे।

फ़ैज़ ने 1942 से 1947 तक सेना में काम किया।बाद में लियाकत अली खाँ की सरकार के तख्ता पलट करने की साजिश के जुर्म में उन्हें 1951-1955 तक जेल में बंद रखा।

उनका पहला काव्य संकलन ‘नक़्शे-फ़रियादी’ था। इसमें 1928-29 से लेकर1934-35 तक की कविताएं शामिल हैं। इस संकलन की कविताओं की पृष्ठभूमि थोड़ा अलग रही है। इस पर फ़ैज़ ने लिखा है- ‘‘ सन् 1920से 1930 तक का जमाना हमारे यहाँ मआ’शी ( आर्थिक) और समाजी तौर से कुछ अजब तरह की बे-फ्रिक्री,आसूदगी और वलवल; अंग्रेजी का जमाना था, जिसमें अहम कौमी और सियासी तहरीकों के साथ-साथ नस्र-ओ-नज़्म में बेशतर

संजीदःफ़िक्र -ओ -मुसाहिदे (चिन्तन और अध्ययन) के बजाय कुछ रंगरेलियाँ मनाने का सा अंदाज़ था। शे’र में अव्वलन हसरत मोहानी और उनके बाद जोश,ह़फीज़ जालंधरी और अख्तर शीरानी की रियासत कायम थी।अफसाने में वलदरम और तनक़ीद में हुस्न-बराए-हुस्न और अदब-बराए-अदब का चर्चा था।’’

इस संकलन में प्रेम की कविताएं भी शामिल हैं। इस संकलन की उनकी अनेक कविताएं हैं जो मुझे बेहद अच्छी लगती हैं। जो सबसे अच्छी लगती है वह है ‘‘ मिरी जाँ अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझको।’’ उसका एक अंश पढ़ें-

‘‘ मिरी जाँ अब भी अपनाहुस्न वापस फेर दे मुझको

अभी तक दिल में तेरे इश्क की कंदील रेशन है

तिरे जल्बों से बज़्मे-ज़िंदगी जन्नत-व-दामन है।

मिरी रूह अब भी तनहाई में तुझको याद करती है

हर इक तारे-नफ़स में आरजू बेदार है अब भी

हर इक बे-रंग साअ’त मुंतज़िर है तेरी आमद की

निगाहें बिछ रही हैं रास्ता ज़रकार है अब भी

मगर जाने हज़ी सदमे सहेगी आखिरश कब तक?

तिरी बे -मेह्रियों पे जान देगी आखिरश कब तक?’’

भारत-विभाजन के बाद फ़ैज़ की काव्यात्मक अनुभूतियों ने नई ऊँचाईयों का स्पर्श किया और बदले माहोल पर लिखा-

‘‘ ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर

वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर

चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं

फ़लक के दश्त में तरों की आख़री मंज़िल

कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज् का साहिल

कहीं तो जा के रुकेगा सफ़िना-ए-ग़म-ए-दिल

जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से

चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े

दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से

पुकरती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे

बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन

बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन

सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन

सुना है हो भी चुका है फ़िरक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर

सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम

बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर

निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम

जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन

किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं

कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई

अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई

नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई

चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई।’’

अमेरिका का भयावह यथार्थ और मार्क्सवाद की वापसी

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

यह मार्क्सवाद की ओर लौटने की बेला है। जो लोग नव्य उदारतावाद के साथ साम्यवाद पर हमलावर हुए थे वे अपने हाथों अपने पेट में छुरा भोंक चुके हैं। हम भारतवासी सच को देखें और आंखें खोलें। आर्थिकमंदी ने अमेरिका की जनता की कमर तोड़ दी है। उन सभी लोगों को गहरी निराशा हाथ लगी है जो पूंजीवादी चेपियों और थेगडियों के जरिए नव्य-उदार आर्थिक संकट के निबट जाने की कल्पना कर रहे थे। सभी रंगत के पूंजीवादी अर्थशास्त्री और राजनेता प्रतिदिन भावी सुनहरे समय का सपना दिखा रहे थे और आश्वासन पर आश्वासन दे रहे थे उनके लिए आर्थिकमंदी ने पराभव का मुँह दिखाया है। मंदीजनित संकट थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह मार्क्सवाद सही और नव्य-उदारतावाद गलत का साफ संदेश है।

दुनिया में कोई देश नहीं है जिसको मंदी ने प्रभावित न किया हो। इसकी चपेट में अमेरिका से लेकर भारत,चीन से चिली तक सभी देश शामिल हैं। नव्य उदारतावाद और भूमंडलीकरण के नाम पर पूंजी की ग्लोबल लूट और गरीबी को वैधता प्रदान की गयी। अमेरिका में विगत वर्ष हुए राष्ट्रपति चुनाव में मंदीजनित संकट एक बड़ा सवाल था जिस पर राष्ट्रपति ओबामा को बड़ी जीत मिली थी। ओबामा ने वायदे के अनुसार कुछ उदार कदम भी उठाए हैं और उद्योग जगत को बड़ा आर्थिक पैकेज दिया। इस पैकेज में दिए गए सभी संसाधनों का अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। अमेरिका में मंदी के कारण पैदा हुई बेकारी कम होने का नाम नहीं ले रही है।

अमेरिका के श्रम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वहां बेकारी की दर 9.6 प्रतिशत थी जो मंदी के पैकेज की घोषणा के बाद कम होने की बजाय बढ़ी है और आज 16.7 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। अमेरिका में बेकारी खत्म करने के लिए नए 22 मिलियन रोजगारों की जरूरत होगी। अमेरिका में ऐसा शासन और समाज चल रहा है जिसका कमाने से ज्यादा खर्च करने पर जोर है। वहां लोग जितना कमाते हैं उससे ज्यादा खर्च कर रहे हैं। घर के लिए कर्ज से लेकर एटीएम से कर्ज लेने वालों की संख्या करोड़ों में है।

आश्चर्य की बात है कि मंदी के बाबजूद अमीरों की मुनाफाखोरी, फिजूलखर्ची और घूसखोरी बंद नहीं हुई है। मंदी के दो प्रधान कारण हैं पहला है भ्रष्टाचार, जिसे सभी लोग इन दिनों ‘क्लिप्टोक्रेसी’ के नाम से जानते हैं। भ्रष्टाचार के नाम पर जनता का निर्मम शोषण हो रहा और जमकर घूसखोरी हो रही है। यह काम सरकारों और नौकरशाही के द्वारा खुलेआम हो रहा है। भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का महिमामंड़न चल रहा है। इन लोगों ने निजी और सार्वजनिक सभी स्थानों पर अपना कब्जा जमा लिया है।

यह अचानक नहीं है कि जो जितना बड़ा भ्रष्ट है वह उतना ही महान है। हमारे हिन्दी शिक्षण के पेशे से लेकर विज्ञान तक,अफसरों से लेकर जजों तक,मंत्रियों से लेकर पंचायत सदस्यों तक भ्रष्ट व्यक्ति की तूती बोल रही है। ये लोग बड़े ही बर्बर ढ़ंग से शोषण कर रहे हैं। इन लोगों को सत्ता,मुनाफा और पैसा की असीमित भूख है। इसके कारण साधारण आदमी के लिए सामान्यतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ शासन और कामकाज के अवसरों में तेजी से कमी आई है। दूसरी ओर आम जनता की क्रयशक्ति घटी है, आमदनी में कम आई है। मंहगाई,बैंक कर्जों और असमान प्रतिस्पर्धा ने आम आदमी की जिंदगी की तकलीफों में इजाफा किया है। इससे चौतरफा सामाजिक असुरक्षा का वातावरण बना है।

मंदी ने अमेरिका की बुरी गत बनायी है। 15 मिलियन से ज्यादा लोग बेकार हो गए हैं। कुछ शहरों का आलम यह है कि वहां आधी आबादी गृहविहीन है। 38 मिलियन लोगों को खाने के कूपन दिए जा रहे हैं। इतने बड़े अभाव को अमरीकी समाज ने विगत 50 सालों में कभी नहीं देखा था। अमेरिका में गरीबों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। भारत में भी स्थिति बेहतर नहीं है। गरीबी यहां भी बढ़ी है। भारत और अमेरिका में गरीबी का बढ़ना इस बात का संकेत है कि नव्य उदारतावाद का नारा पिट गया है।

आज हमारा समूचा परिवेश मुक्तव्यापार, मुक्तबाजार और अबाधित सूचना प्रवाह में कैद है। इससे निकलने के लिए जिस तरह की सांगठनिक संरचनाओं और वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है उसके संवाहक दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं,इसने आम आदमी को हताश,असहाय, और दिशाहारा बनाया है।

‘क्लिप्टोक्रैसी’ के कारण बिहार से लेकर असम तक, कॉमनवेल्थ खेलों से लेकर संचार मंत्रालय तक अरबों रूपये के घोटाले हो रहे हैं लेकिन न कोई आंदोलन है और न कोई भारतबंद है। प्रतिवाद को शासकवर्ग के लोगों ने मीडिया बाइट्स में तब्दील कर दिया है।

देश की सुरक्षा के नाम पर जितना धन इन दिनों खर्च किया जा रहा है उतना पहले कभी खर्च नहीं किया गया। सुरक्षा पर जिस गति से खर्चा हो रहा है उस अनुपात में सामान्य सुरक्षा वातावरण तैयार करने और आम लोगों का दिल जीतने में शासकों को मदद नहीं मिली है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व सुरक्षाबलों की असफलता का आदर्श उदाहरण हैं।

‘क्लिप्टोक्रैसी’ की लूट में रूचि होती है आम लोगों का दिल जीतने में रूचि नहीं होती। इसके कारण अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं। गरीब और ज्यादा गरीब हुआ है। संपदा संचय चंद घरानों के हाथों में सिमटकर रह गया है। ये लोग एक प्रतिशत से भी कम हैं और संपदा का बहुत बड़ा हिस्सा इनके पास है।

भारत में ‘क्लिप्टोक्रैसी’ का आधार है सरकार द्वारा सार्वजनिक विकास के नाम किया जाने वाला खर्चा। विकास योजनाएं मूलतः लूट योजनाएं बन गयी है। लूट का दूसरा बड़ा स्रोत है घूसखोरी। लूट का तीसरा बड़ा क्षेत्र है किसानों और आदिवासियों की जमीन और संसाधन। इस लूट की व्यवस्था में सभी लोग समान हैं। लोकतंत्र में अमीर और गरीब के बीच में समानता त्रासदी है। समान अवसरों की बात उपहास है। हर आदमी अपने लिए कमाने में लगा है,उसके पास इतना समय नहीं है कि वह दूसरों के बारे में सोच सके।

हमारे देश में अमेरिका के बारे में तरह-तरह के भ्रम पैदा किए जा रहे हैं। सबसे बड़ा भ्रम तो यही पैदा किया जा रहा है कि अमेरिका हमारा स्वाभाविक दोस्त है। बड़े कौशल के साथ यह भी बताया जा रहा है कि अमेरिका कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है। बहुराष्ट्रीय निगमों के बारे में बताया जा रहा है कि वे हमारे देश में सिर्फ विकास के लिए आ रही हैं। शोषण और उत्पीड़न से उनका कोई लेना-देना नहीं है। वे तो हमारी मदद के लिए आ रही हैं। वे हमें आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि हमें अपने यहां विकास का चरमोत्कर्ष हासिल करना है तो अमेरिकी मॉडल का अनुकरण करें। अमेरिकी मॉडल का इस्तेमाल करते हुए हम अपनी भौतिक संपदा और आम लोगों की जीवनशैली में जबर्दस्त उछाल पैदा कर सकते हैं। प्रति व्यक्ति भौतिक उपभोग को उच्चतम स्तर तक ले जा सकते हैं।

अमरीकी आर्थिक मॉडल कितना सार्थक है इसके लिए आज किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है अमेरिकी अर्थव्यवस्था चरमराकर गिर गयी है। आज अमेरिका में चारों ओर दुख ही दुख है। नव्य उदारतावाद का ग्लैमर, मीडिया और संचार क्राति का जादू अपना असर खो चुका है। विगत 25 सालों में अमेरिकी जनता के जीवन में दुखों में इजाफा हुआ है। अमेरिकी जनता के जीवन में दुख बढ़े हैं और सुख घटे हैं।

अमेरिकी मॉडल जनोन्मुख है या जनविरोधी है इसका आधार है शांति और तनावमुक्त जीवनशैली। अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चल रही है तो आम जनता के जीवन में शांति, सुरक्षा, विश्वास और आनंद का विकास होना चाहिए, लेकिन परिणाम इसके एकदम विपरीत आए हैं अमेरिकी जीवन में अशांति,असुरक्षा और सामाजिक और व्यक्तिगत तनाव में इजाफा हुआ है। हताशा बढ़ी है। सामान्य अमेरिकी नागरिक यह समझने में असमर्थ है कि उनके जीवन में इतनी व्यापक अशांति,असुरक्षा और तनाव कैसे आ गया। समाज के एक बड़े हिस्से की जीवनशैली का तानाबाना तहस-नहस हो गया है।

सामाजिक-आर्थिक स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि कमाऊ और मौज उडाऊ के बीच में वैषम्य घटा नहीं है बल्कि बढ़ा है। सन् 1968 में जनरल मोटर्स के सीईओ को इसी कंपनी के कर्मचारी की तुलना में 66 गुना ज्यादा पगार मिलती थी। यह वैषम्य घटने की बजाय बढ़ा है आज वालमार्ट कंपनी के सीईओ की पगार इसी कंपनी के एक कर्मचारी की पगार की तुलना में 900गुना ज्यादा है। अकेले वालमार्ट परिवार के पास 90 बिलियन डॉलर की संपदा है जबकि इतनी संपदा अमेरिकी की 40 फीसदी आबादी के पास है।

संपदा के निजी इजारेदारियों के हाथों में केन्द्रीकरण ने भयानक आर्थिक वैषम्य पैदा किया है। अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार ‘नेशन’ के अनुसार अमेरिका के अति समृद्धों का आर्थिकमंदी में कुछ नहीं बिगाड़ा है लेकिन मझोले अमीरों पर इसकी मार पड़ी है। न्यूयार्क टाइम्स ने अगस्त 2009 में लिखा था कि अमेरिका में जिन लोगों के पास 30 मिलियन डॉलर की संपत्ति है ऐसे लोगों की संपदा घटी है।

अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी-अमेरिकन,कम कौशल का काम करने वाले कर्मचारियों की आय में गिरावट आयी है। ‘नेशन’ ने लिखा ‘‘Although they differ in theme and emphasis, the essays here, commissioned in conjunction with the Next Social Contract Initiative of the New America Foundation, are united by a belief that deep, persistent inequality doesn’t merely affect less privileged Americans. It affects everyone, rending the social fabric, distorting our politics and preventing America from fulfilling its promise as a nation that offers a measure of equality and opportunity to all. Inequality is also a bipartisan phenomenon, exacerbated by the neglect of both political parties and by a society whose chattering classes have grown oblivious to wealth and income disparities that no other advanced democracy tolerates.’’।

अमेरिका की वास्तविकता पर पर्दा डालकर जो लोग भारत में अमेरिकी मॉडल का जयगान कर रहे हैं और अमेरिका जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं वे नहीं जानते कि अमेरिकी मॉडल खुद अमेरिका में धराशायी हो चुका है।

अमेरिका में व्याप्त आर्थिक असुरक्षा के बारे में रॉकफेलर फाउण्डेशन की रिपोर्ट में जो कहा गया है वह हमारी आंखे खोलने के लिए काफी है। यह संस्थान घनघोर प्रतिक्रियावादी विचारकों का अड्डा है। इस रिपोर्ट को येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेकब हेकर ने तैयार किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 25 प्रतिशत अमेरिकी परिवारों की आय में गिरावट आयी है। इन परिवारों की आय में अचानक से आई गिरावट का किसी को पहले से आभास तक नहीं था।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 1985 में आर्थिक असुरक्षा से अमेरिका में 12.2 प्रतिशत परिवार प्रभावित थे। जिनकी संख्या सन् 2000 में बढ़कर 17 प्रतिशत हो गयी। सन् 2007 को सुंदर आर्थिक साल माना जाता है इस साल आर्थिक असुरक्षा 1985 के स्तर से ज्यादा थी। यानी 13.7 प्रतिशत अमेरिकी आर्थिक असुरक्षा के दायरे में थे।

सन् 2009 से आर्थिक तबाही का जो सिलसिला आरंभ हुआ है उसके कारण स्थिति और भी भयावह बनी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 1996 और 2006 के बीच में तकरीबन 60 प्रतिशत अमेरिकी आर्थिक असुरक्षा के घेरे में आ चुके हैं। आम अमेरिकी नागरिक की पगार स्थिर है या कम हुई है। जबकि अनिवार्य खर्चे बढ़े हैं। ज्यादातर अमेरिकी नागरिकों के पास किसी भी किस्म की बचत नहीं हो पाती। बैंकों में उनके नाम से एक भी पैसा बचत खातों में नहीं है। वे जितना कमाते हैं उससे ज्यादा के उनके पास खर्चे हैं।

पहले अमेरिका में बेकार नागरिकों को थोड़े अंतराल के बाद काम मिल जाता था लेकिन विगत कुछ सालों से यह देखा जा रहा है कि बेरोजगारों को काम के लिए बहुत ज्यादा समय तक इंतजार करना पड़ता है। बेकारी का समय लंबा होने से आर्थिक असुरक्षा ने एक नया आयाम हासिल कर लिया है। अब बेकार और मध्यवर्ग के लोग 35 साल की उम्र में ही बूढ़ापे का अनुभव करने लगे हैं।

अमेरिका के फिलिप्स सेण्टर फॉर हेल्थ एंड वेल-बिंग का ताजा रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक संकट और बेकारी के कारण मध्यवर्ग के अमरीकी नागरिक 35 साल की उम्र में ही बूढ़ा महसूस करने लगे हैं। 75 पर्तिशत लोग स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से घिरे हुए हैं। बूढ़ापा और बीमारियां 30 साल की उम्र में एक अमेरिकी युवा को घेर रही हैं।

डेनिस पाराडिनिज ने अपनी किताब ‘‘Quality of Life’’ में लिखा “Feeling there is a possibility of losing your job and not being able to afford to pay your child’s school fees, or having to cancel that trip you planned a long time ago, certainly causes worry and anxiety”. एक मनोशास्त्री ने कहा है “And of course this begins to affect other areas of quality of life, causing insomnia, anxiety and even depression”. इस सबका उनके मोटापे, शरीर और उम्र पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है।

आम अमेरिकी की इन दिनों पूरी जीवनशैली बदल गयी है। एक जमाना अमेरिकी स्वस्थ माने जाते थे आज मोटे हो गए हैं। आजकल फ्रेंच लोगों से ज्यादा अमेरिकी लोग सोने और खाने पर समय खर्च करते हैं। सवाल उठता है क्या हम इसके बावजूद अमेरिकी मॉडल पर चलना पसंद करेंगे?

भूख के खिलाफ संगठित प्रयास

-देवेन्‍द्र उपाध्‍याय

विश्व खाद्य दिवस हर साल 16 अक्तूबर को मनाया जाता है। इस दिन संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ) की 65 वर्ष पूर्व स्थापना हुई थी। पिछले 29 वर्ष से विश्व खाद्य दिवस मनाया जा रहा है। इस वर्ष का विषय है-भूख के खिलाफ संगठित हों यह विषय इसलिए चुना गया है ताकि विश्व में भुखमरी के खिलाफ राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई के लिए संगठित प्रयास किए जा सकें।

नवंबर 2009 में खाद्य सुरक्षा पर आयोजित विश्व सम्मेलन में पारित संकल्प में 1996 में आयोजित विश्व खाद्य सम्मेलन की उस घोषणा को दोहराया गया जिसमें विश्व के चेहरे से हमेशा के लिए भूख का खात्मका करने की वचनबध्दता व्यक्त की गई थी। भूख के खिलाफ सफलता तभी मिल सकती है जब राज्य, सामाजिक संगठन तथा निजी क्षेत्र सभी स्तरों पर मिलकर लड़ाई लड़ें और भूख, अत्यधिक गरीबी एवं कुपोषण को शिकस्त दें। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के संगठन एफ.ए.ओ, विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्लू.एफ.पी) और अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आईएफएडी) मिलकर विश्व में 2015 तक अत्यधिक गरीबी और भूख का उन्मूलन करने के वैश्विक प्रयासों में महत्वपूण्र् ा रणनीतिक भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र प्रणाली और विश्व खाद्य सुरक्षा की एफएओ की समितियों से जुड़े लोग एकजुट हो रहे हैं।

भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किा जा सकता है जब उत्पादन बढ़ाया जाए। खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है जब सभी लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके। गांवों में कृषि मुख्य आर्थिक गतिविधि है, फसल उत्पादन को बढ़ावा देने की जरूरत है इससे रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे और भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या में भी कमी आएगी। अच्छे पोषण की अनदेखी का सीधा मतलब है कुपोषण के शिकार बच्चे। इस दिशा में विभिन्न सामाजिक सुरक्षा सेवाएं और रोजगार गारंटी योजनाएं कारगर साबित हो सकती हैं।

आबादी बढ़ी-कृषि क्षेत्र स्थिर

भारत में खेती का क्षेत्र पिछले 40 वर्ष से अधिक समय से 140 मिलियन हेक्टेयर पर टिका है जबकि आबादी में लगातार वृध्दि हो रही है। पानी उपलब्धता और जमीन की उर्वरता में कमी आई है जबकि इस देश की आकांक्षाएं कृषि क्षेत्र से बहुत अधिक हैं और इसलिए गुणवत्तायुक्त उत्पाद के साथ उत्पादन में वृध्दि भी बहुत जरूरी है। सार्वजनिक क्षेत्र के साथ निजी क्षेत्र की भागीदारी को भी प्रोत्साहित करना समय की आवश्यकता है लेकिन यह सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

भारत आज विश्व में विकसित राष्ट्रों की कतार में पहुंचने के करीब है। भारत के सामने बहुत चुनौतियां है। विश्व की तीन प्रतिशत जमीन पर 17 प्रतिशत आबादी वाले भारत में पानी मात्र 4.5 प्रतिशत है। विश्व की 11 प्रतिशत पशुधन आबादी कुल विश्व क्षेत्र के 2.3 प्रतिशत क्षेत्र में हैं। ऐसी स्थिति में इस चुनौती का सामना करने के लिए और कदम उठाए जाने की जरूरत है। भारत के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद आईसीएआर की तुलना में विश्व में किसी देश में ऐसा कृषि अनुसंधान संस्थान नहीं है जिसने फसलों की नई-नई किस्मों को विकसित कर किसानों तक पहुंचाया हो। भारत में हरित क्रांति का श्रेय इसी को जाता है जिसके वैज्ञानिक अब दूसरी हरित क्रांति की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। देश भर में आईसीएआर से संबध्द अनुसंधान केंद्र बीज की सुखा सहिष्णु किस्में अन्य पादप प्रबंधन विधियों के विकास में लगी हुई हैं जिससे बढ़ते तापमान के कारण्ा होने वाले उत्पादन में नुक्सान को कम किया जा सके।

उत्पादन में वृध्दि

सन् 1950-51 के बाद अनाज फसल उत्पादन में साढ़े चार गुना, बागबानी फसलों के उत्पादन में 8 गुना, मछली उत्पादन में नौ गुना और अंडों के उत्पादन में 27 गुना वृध्दि हुई है। अनेक ऐसी फसलों का भी भारत में उत्पादन होने लगा है जो पहले यहां नितांत अपरिचित थीं। इसके बावजूद चुनौतियों भी कम नहीं हैं। भारत ने कृषि उत्पादन, उत्पादकता, खाद्यान्न उपलब्धता, बागवानी उत्पादन, दूध, गोश्त और मछली उत्पादन में उल्लेखनीय वृध्दि अर्जित की है, जिसका श्रेय आईसीएआर को जाता है।

भारत में सब्जियों का उत्पादन 125.88 मिलियन टन पर पहुंच चुका है जोकि विश्व उत्पादन का 12 प्रतिशत है। गत दशक के दौरान सब्जी उत्पादन दुगना हुआ है और सकल सब्जी उत्पादकता में डेढ़ गुना वृध्दि दर्ज की गई है। बढ़ती हुई आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 200 मिलियन टन सब्जियों के उत्पादन की जरूरत है जिसका सीमित भूमि और जल संसाधनों में ही उत्पादन करना होगा।

फसल सुधार

आईसीएआर ने वर्ष 2009-10 के दौरान धान, गेहूं जौ, मक्का, बाजरा, दलहन और तिलहन सहित मुख्य फसलों की 31 किस्मों/संकर को देश के विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए विमोचित/निर्धारित किया। पूसा 1121 बासमती ऐसी किस्म है जिसकी बराबरी विश्व में बासमती की कोई किस्म नहीं कर सकती। इससे उत्पादकता दुगुनी हुई है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान आईएआरआई से अब तक 17 बीज कंपनियां अनुबंध कर चुकी हैं। पूसा बासमती के स्तर की कोई सूखारोधी किस्म अभी तक विकसित नहीं हुई है।

अब तक सब्जियों की 396 किस्में विकसित की जा चुकी हैं जिनका उत्पादन विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों में किया जा रहा है। किसानों ने टमाटर, बैंगन, गोभी, बंदगोभी, और खीरे की संकर किस्मों को व्यापक पैमाने पर अपनाया है। भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बैंगलोर ने बागबानी फसलों के लिए 6 जैविक कीटनाशकों का उत्पादन एवं बिक्री का कार्य बड़े पैमाने पर शुरू किया है।

कृषि मानव-संसाधन विकास

देश में 44 राज्य कृषि विश्वविद्यालय, एक केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय (इम्फाल), पांच डीम्ड विश्वविद्यालय तथा 4 केंद्रीय विश्वविद्यालय कृषि एवं संबध्द क्षेत्रों में स्नातक, स्नातकोत्तर एवं उच्च शिक्षा के अध्ययन के अलावा अनुसंधान से भी जुड़े हुए हैं। आईसीएआर के 5 राष्ट्रीय संस्थान, 34 कृषि विज्ञान संस्थान तथा 10 पशुविज्ञान एवं मात्सियिकी से संबध्द संस्थान हैं। देश में इस समय 78 अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजनाएं, 25 परियोजना निदेशालय, 17 राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्र तथा 6 राष्ट्रीय ब्यूरो कार्यरत हैं।

खाद्यान्न उत्पादन

गतवर्ष खराब मौसम के बावजूद 2009-10 में खाद्यान्न उत्पादन 218 मिलियन टन होने को उम्मीद है। इस वर्ष मानसून बहुत अच्छा रहा। कुछ क्षेत्रों में चावल की फसल को समय पर वर्षा न होने नुकसान हुआ है। अब भारी बरसात से राहत मिलने के बाद मौसम की स्थितियां अनुकूल होने की वजह से रबी फसल का उत्पादन बेहतर होने की उम्मीदें बढ़ी हैं।

खरीफ फसलों के बुआई क्षेत्र में वृध्दि

सितंबर 2010 के अंतिम सप्ताह की रिपोर्ट के अनुसार 1006.24 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खरीफ फसलों की बुआई की जा चुकी है। जो कि पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 65.33 लाख हेक्टेयर अधिक है। इस वर्ष सभी प्रमुख फसलों का बुआई क्षेत्र पिछले वर्ष की खरीफ फसलों से अधिक है।

राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष 324.27 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की बुआई की गई है जिससे 23.32 लाख हेक्टेयर वृध्दि प्रदर्शित होती है। दालों की बुआई पिछले वर्ष की तुलना में 19.71 लाख हेक्टेयर अधिक है जो 110.44 लाख हेक्टेयर है। मोटे अनाजों की बुआई 210.89 लाख टन दर्ज की गई है, जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 4.73 लाख हेक्टेयर अधिक है।

भुखमरी के शिकार लोगों की तादाद घटी

एफएओ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों की तादाद घटकर एक अरब से कम हो गई है। इसे 2008 की तुलना में अच्छी फसल और खाद्य पदार्थों के गिरते दामों के नतीजा बताया जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र ने भुखमरी से ग्रसत लोगों की तादाद कम करने के लिए ‘ग्लोबल मिलेनियम गोल’ निर्धारित किया है। इसके तहत विकासशील देशों में 2015 तक कुपोषण या भुखमरी झेल रहे लोगों की तादाद 10 फीसदी करने का लक्ष्य रखा गया है। 1992 में यह आंकड़ा 20 फीसदी था।

रिपोर्ट में कहा गया है कि लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के मामले में भारत और चीन ने तरक्की जरूर की है लेकिन दुनिया की 40 फीसदी कुपोषित आबादी आज भी इन्हीं दोनों देशों में रहती है इस मामले में बांग्लादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, कांगो और इथोपिया के नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को कुपोषण से बचाने के लिए अनेक उठाए जा रहे हैं। इसके सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं।

उत्तर पश्चिम भारत के मुख्य हिस्सों से मानसून के हटने के बाद इन इलाकों में फसल खराब होने की चिंताए घटने लगी हैं। अब खरीफ फसल के लिए अच्छी स्थितियां बनने की उम्मीद है। पैदावर में दस प्रतिशत वृध्दि की संभावना है।

भारत सरकार ने 2007-08 में देश के 312 चुने हुए जिलों में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन शुरू किया था जिससे चावल और गेहूं के उत्पादन में वृध्दि हुई है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के लिए 11वीं योजना में 25 हजार करोड़ रुपये का परिव्यय निर्धारित किया गया है। यह कृषि क्षेत्र में अब तक की सबसे बड़ी स्कीम है जिसका उद्देश्य राज्यों को कृषि एवं संबध्द क्षेत्रों के लिए परिव्ययों को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना है जिससे 11वीं योजना में 4 प्रतिशत वृध्दि के लक्ष्य को पूरा किया जा सके।(स्टार न्यूज़ एजेंसी)

ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुवि‍धाओं के माध्‍यम से शहरी-ग्रामीण अंतर को दूर करने का प्रयास

-अतुल कुमार ति‍वारी

राष्‍ट्रपि‍ता महात्‍मा गांधी ने कहा था कि‍ वास्‍तवि‍क भारत गांवों में बसता है। सभी प्रयासों के बावजूद आजादी के छह दशक बाद भी देश के आश्‍चर्यजनक पहलुओं में एक है- सुवि‍धाओं के दृष्‍टि‍ से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत बड़ा अंतर। शहरी भारत और ग्रामीण भारत के बीच के इस अंतर को दूर करने के लि‍ए ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुवि‍धाएं योजना ﴾पुरा ﴿ के माध्‍यम से एक और प्रयास कर रहा है।

पुरा एक केंद्रीय योजना है जि‍से ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय ने ग्‍यारहवीं योजना की शेष अवधि‍ के लि‍ए आर्थिक मामले विभाग के सहयोग और एशि‍याई वि‍कास बैंक की तकनीकी सहायता से फि‍र से शुरू की है। मंत्रालय ग्राम पंचायत और नि‍जी क्षेत्र के बीच सार्वजनि‍क नि‍जी साझेदारी(पीपीपी) के माध्‍यम से पुरा योजना लागू कर रहा है और इसमें राज्‍य सरकारें सक्रि‍य सहयोग प्रदान कर रही हैं।

इस योजना का उद्देश्‍य गांवों में आर्थिक उपार्जन गति‍वि‍धि‍यों के साथ ही समानांतर अवसरंचना वि‍कास एवं प्रबंधन सुनि‍श्‍चि‍त करना है तथा यह ग्रामीण क्षेत्रों में पीपीपी के माध्‍यम से अवसंरचना और सुवि‍धाएं उपलब्‍ध कराने का पहला प्रयास है। यह ग्रामीण अवसंरचना विकास योजनाओं के कार्यान्‍वयन और परि‍संपत्‍ति‍यों के रखरखाव एवं सेवाओं की आपूर्ति‍ में नि‍जी क्षेत्र की कार्यकुशलता का दोहन करने के लि‍ए बि‍ल्‍कुल अलग प्रारूप है। पीपीपी के माध्‍यम से समेकि‍त ग्रामीण अवसंरचना वि‍कास का यह दुनि‍या में संभवत: पहला प्रयास है।

इस योजना का प्राथमि‍क उद्देश्‍य जीवि‍का का अवसर सृजि‍त करना और ग्रामीण शहर अंतर को दूर करने के लि‍ए शहरी सुवि‍धाएं वि‍कसि‍त करना है। कि‍सी भी छोटे क्षेत्र का समग्र वि‍कास ग्राम पंचायत के इर्दगिर्द घूमता है और इसके तहत पीपीपी के माध्‍यम से जीवि‍का के अवसर सृजि‍त करने और ग्रामीणों के जीवन स्‍तर में सुधार के लि‍ए शहरी सुवि‍धाएं उपलब्‍ध कराने पर बल दि‍या जाता है।

ग्राम पंचायतों और नि‍जी क्षेत्र के बीच साझेदारी के माध्‍यम से पुरा का उद्देश्‍य हासि‍ल कि‍या जाना है और उसमें राज्‍य सरकार का सक्रि‍य सहयोग होगा। केंद्रीय वि‍त्‍त पोषण पुरा की केंद्रीय क्षेत्र योजना से होगा तथा इसमें वि‍भि‍न्‍न केंद्रीय योजनाओं के बीच तालमेल के माध्‍यम से अति‍रि‍क्‍त सहयोग सुनि‍श्‍चि‍त कि‍या जाएगा। नि‍जी क्षेत्र परि‍योजना में वि‍शेषज्ञता प्रदान करने के अलावा नि‍वेश भी करेंगे। यह योजना नि‍जी क्षेत्र इस सोच के साथ लागू करेंगे और उसका प्रबंधन संभालेंगे कि‍ यह आर्थिक दृष्‍टि‍ से व्‍यावहारि‍क हो और साथ ही यह ग्रामीण वि‍कास के संपूर्ण लक्ष्‍यों की प्राप्‍ति में पूरी तरह अनुकूल हों।

ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय की योजनाओं के तहत जल और सीवरेज निर्माण, गांव की गलि‍यों का रखरखाव, नि‍कासी, ठोस अपशि‍ष्‍ट प्रबंधन, कौशल वि‍कास और आर्थि‍क गति‍वि‍धि‍यों जैसी सुवि‍धाएं उपलब्‍ध करायी जाएंगी। इसी प्रकार गैर ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय योजनाओं के तहत ग्राम स्‍ट्रीट लाइट, दूरसंचार, बि‍जली आदि‍ सुवि‍धाएं प्रदान की जाएंगी।

इसके अलावा गांव आधारि‍त पर्यटन, समेकि‍त ग्रामीण हब, ग्रामीण बाजार, कृषि‍ साझा सेवा केंद्र, गोदाम आदि‍ ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था से संबंधी उपादानों पर ध्‍यान दि‍या जाएगा।

ऐसी उम्‍मीद है कि‍ पुरा जैसी योजना, और ग्रामीण अवसंरचना से संबंधि‍त सभी अन्‍य योजनाओं को 10 साल की अव‍धि के लि‍ए मिला देने से अच्‍छा आर्थिक प्रभाव होगा तथा नि‍जी क्षेत्र के लि‍ए न्‍यूनतम वि‍कास बाध्‍यता से पंचायत क्षेत्र में सेवा आपूर्ति स्‍तर सुधरेगा।

प्रायोगि‍क चरण में नि‍जी डेवलपर को पुरा परि‍योजनाओं के वास्‍ते ग्राम पंचायतों की पहचान और चयन में लचीलापन प्रदान कि‍या जाएगा ताकि‍ वे शुरू में ऐसे इलाके को हाथ में लें जि‍ससे वह परि‍चि‍त हैं या जहां ग्रामीण स्‍तर पर काम करने का उनके पास अनुभव है। हालांकि संबंधि‍त ग्राम पंचायतों की सहमति‍ और राज्‍य सरकार का अनापत्‍ति‍ प्रमाण पत्र अनि‍वार्य है ताकि‍ चयन में सभी पक्षों की सहमति‍ हो।

पुरा परि‍योजनाओं के लि‍ए धन चार स्रोतों- ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय योजनाएं, गैर ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय योजनाएं, नि‍जी वि‍त्‍त पोषण, पुरा के तहत पूंजी अनुदान, से आता है। हर पुरा परि‍योजना लागत और उपयुक्‍त पूंजी अनुदान ( परि‍योजना लागत की 35 फीसदी﴿ का नि‍र्धारण योजना की मूल धारणा और वि‍स्‍तृत परि‍योजना रि‍पोर्ट के आधार पर तय होगा और इसका मूल्यांकन अंतरमंत्रालीय उच्‍चाधि‍कार समि‍ति‍ करेगी। ऐसी उम्‍मीद है कि‍ अति‍रि‍क्‍त राजस्‍व सृजन गति‍वि‍धि‍ और पूंजी अनुदान सहयोग से पीपीपी माडल सफल होगा। इसके तहत वि‍भि‍न्‍न जोखि‍मों का भी पता लगाया गया है। ग्रामीण वि‍कास प्राथमि‍कताओं पर बल देने के अलावा आर्थिक रूप से व्‍यावहारि‍क परियोजना में डेवलपर के हि‍तों का भी ख्‍याल रखा जाता है। जि‍स प्रकार से परि‍योजना का डि‍जायन तैयार कि‍या गया है उससे 10 साल की परि‍योजना अवधि‍ के दौरान डेवलपर को उचि‍त लाभ मि‍लेगा।

प्रस्तावि‍त प्रायोगि‍क परि‍योजना के क्रि‍यान्‍वयन के माध्‍यम से इस योजना की अनोखी वि‍शेषताओं का जमीनी स्‍तर पर परीक्षण होगा और भवि‍ष्‍य में इसे बड़े पैमाने पर चलाने के लि‍ए एक सीख मि‍लेगी। इसके अलावा पूरी प्रक्रि‍या से ग्राम पंचायत की पीपीपी को हाथ में लेने की क्षमता मजबूत होगी तथा ग्रामीण अवसंरचना वि‍कास में पीपीपी की व्‍यवहार्यता के परीक्षण में मदद मि‍लेगी। जहां तक ढाई लाख पंचायतों में पुरा परि‍योजनाओं के लि‍ए धन की व्‍यवस्‍था और प्रबंधन का सवाल है तो इसका वि‍स्‍तार कि‍या जा सकता है और पांच दस सालों के लि‍ए यह सरकार के लि‍ए वि‍त्‍तीय रूप से व्‍यावहारि‍क है।

इस पृष्‍ठभूमि‍ में ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय ने ऐसे नि‍जी क्षेत्र सहयोगि‍यों को ढूढ़ने का काम शुरू कर दि‍या है जो ग्रामीण अवसंरचना वि‍कास में योगदान दे सकते हैं। चयन खुली प्रति‍स्‍पर्धात्‍मक तकनीकी नि‍वि‍दा प्रक्रि‍या के माध्‍यम से कि‍या गया और इसके लिए कठोर शर्त / मानक अपनाए गए। चूंकि‍ यह प्रायोगि‍क परि‍योजना है अतएव वि‍त्‍तीय नि‍वि‍दा नहीं नि‍काली गयी। इस प्रायोगि‍क परीक्षण में नि‍वि‍दाकर्ताओं का उसकी तकनीकी क्षमता के आधार पर मूल्‍यांकन कि‍या गया और उसे पूर्व र्नि‍र्धारि‍त मूल्‍यांकन प्रवि‍धि‍ के आधार पर अंक दि‍ए गए। जि‍न नौ कंपनि‍यों की सूची बनायी गयी है, वे अवसंरचना क्षेत्र की कंपनि‍यां हैं और उन्‍हें मजबूत ग्रामीण एवं सामुदायि‍क सहभागि‍ता का अनुभव है।

पूर्व राष्‍ट्रपति‍ ए पी जे अबुल कलाम ने स्थानीय लोगों, जनप्रशासन एवं नि‍जी क्षेत्रों के आपसी सहयोग के जरि‍ए ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा आपूर्ति के आत्‍मनिर्भर और व्‍यावहारि‍क माडल के रूप में पुरा की संकल्‍पना व्‍यक्‍त की थी। बाद में राज्‍य सरकार, नि‍जी क्षेत्र और एडीबी जैसे बहुपरक संगठनों के साथ मि‍लकर व्‍यापक वि‍चार वि‍मर्श एवं शोध के बाद इस योजना की रूपरेखा फि‍र से तय की गयी। इस वर्ष के प्रारंभ में जब पीपीपी के माध्‍यम से इस दि‍शा में कार्य शुरू कि‍या गया है तो अभि‍रुचि‍ की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के प्रति‍ नि‍जी क्षेत्र ने बि‍ना परख वाले इस जटि‍ल क्षेत्र के लि‍ए अप्रत्‍याशि‍त उत्‍साह दि‍खाया। ग्रामीण वि‍कास मंत्रालय ने देशभर में 8-10 प्रायोगि‍क परि‍योजना चलाने का वि‍चार व्‍यक्‍त कि‍या। इसके लि‍ए 95 कंपनि‍यों ने दि‍लचस्‍पी दिखाई जि‍नमें आईडीएफसी, टाटा पावर, रि‍लायंस इंडस्‍ट्रीज, आईएलएंडएफएस, श्री इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर जैसी कुछ बड़ी कंपनि‍यां भी शामि‍ल हैं।

यह योजना नि‍जी क्षेत्र के जोरदार उत्‍साह से ग्रामीण अवसंरचना वि‍कास के क्षेत्र में आमूलचूल परि‍वर्तन लाने वाली है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में पीपीपी के माध्‍यम से अवसंरचना एवं सुवि‍धाएं पहुंचाने की अबतक की पहली योजना है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

फेसबुकजनित सामाजिक खतरे

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

फेसबुक ने इंटरनेट यूजरों को घेरा हुआ है। जो लोग यह सोच रहे थे कि इंटरनेट के जमाने में सर्च का भविष्य होगा उन्हें फेसबुक ने दोबारा सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। जिस गति और जितनी बड़ी तादाद में फेसबुक ने अपने सदस्य बनाए हैं उसने एक संदेश दिया है भविष्य सर्च का नहीं फेसबुक होगा।

फेसबुक ने इंटरनेट पर विज्ञापन का भी भावी रास्ता तय कर दिया है। इंटरनेट वाले जानते नहीं थे कि उनके यूजर कहां हैं और कौन हैं, लेकिन फेसबुक ने इस असमंजस की अवस्था को भी खत्म कर दिया है। अब इंटरनेट पर फेसबुक सबसे प्रभावी विज्ञापन मंच है। फेसबुक के सदस्य को विज्ञापनदाता व्यक्तिगत तौर पर खूबियों और अभिरूचियों के आधार पर जान सकता है और टारगेट बना सकता है।

आज आप फेसबुक पर पढ़ते हुए ऑडियो सुन सकते हैं,फिल्म देख सकते हैं,साथ ही और भी अन्य कार्य-व्यापार कर सकते हैं। फेसबुक ने तेजी से इंटरनेट यूजरों की जीवनशैली पर असर डालना आरंभ कर दिया है।

फेसबुक सबसे कष्टकारी पहलू है उसका नियमों का पाबंद बनाना। फेसबुक में जब आप हैं तो आपकी निगरानी फेसबुक कर रहा है। वह आप पर नजर लगाए रहता है कि आप क्या कर रहे हैं। वह आपकी प्राइवेसी का अपहरण कर लेता है।

फेसबुक की खूबी है कि वह आज इंटरनेट के केन्द्र में है। आप फेसबुक पर क्या कर रहे हैं,क्या पसंद करते हैं,कहां जाते हैं.कहां टिप्पणी देते हैं, किसे दोस्त बना रहे हैं या कौन दोस्त बन रहा है। आपकी सारी गतिविधि सामाजिक हैं। अब सामान्य चीज की खोजबीन को यदि फेसबुक के जरिए करते हैं तो आप सार्वजनिक मंच पर होते हैं। फेसबुक के बटन असल में सामाजिक नियंत्रण और निगरानी की चाभी हैं। आज फेसबुक का जलवा है और वेब और प्राइवेसी की वह खिल्ली उड़ा रहा है।

भारत की खूबी है कि यहां पर संचार क्रांति आधे-अधूरे ढ़ंग से हुई है। हम नहीं जानते कि प्राइवेसी क्या है? सार्वजनिक क्या है? संचार माध्यम से कैसे रिश्ता बनाएं? किस तरह का रिश्ता बनाएं? इसके कारण फेसबुक और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइटों पर असभ्य और अश्लील बातों और टिप्पणियों के द्वारा परेशानी हो रही है। एक अच्छा खासा सामाजिक समूह ऐसे लोगों का फेसबुक में रमण कर रहा है जो सेक्स उद्योग से जुड़ा है।

इसके अलावा निजी क्या है? उसे किस तरह व्यक्त करें? किस बात को सार्वजनिक करें आदि बातों को समझने और देखने का हमारे यूजरों के पास बोध कम है। इसका ही दुष्परिणाम है कि निजी में सार्वजनिक और सार्वजनिक में निजी चला आ रहा है और इसके कारण कानूनी पचड़े भी सामने आ सकते हैं।

अमेरिका में जहां पर फेसबुक के सबसे ज्यादा सदस्य हैं,वहां पर अनेक लोगों ने अपनी फेसबुक की सदस्यता को खत्म कर दिया है। अनेक उपभोक्ता संगठनों के द्वारा शिकायतें दर्ज करायी गयी हैं। बड़ी मात्रा में सदस्यों की प्राइवेसी के लिए खतरा पैदा हो गया है। आम नागरिक परेशान हैं कि उनके प्राइवेट डाटा का दुरूपयोग हो रहा है। उपभोक्ता संगठनों के द्वारा की गई शिकायतों में 50 फीसदी फेसबुक सदस्यों ने ‘खतरनाक व्यवहार’ की शिकायत की है।

अनेक सोशल नेटवर्क इस्तेमाल करने वालों ने कहा है कि इसका इस्तेमाल करने से कोई खास लाभ नहीं हो रहा है। बल्कि इसका उपयोग करने से लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती। फेसबुक की व्यवस्थाओं का यदि बेहतर रूप में इस्तेमाल करना जानते हैं तो प्राइवेसी और अपने डाटा को बचा सकते हैं। अमेरिका के 15 उपभोक्ता संगठनों ने अपनी शिकायत में कहा है कि – ‘‘Facebook now discloses personal information to the public that Facebook users previously restricted. Facebook now discloses personal information to third parties that Facebook users previously did not make available. These changes violate user expectations, diminish user privacy, and contradict Facebook’s own representations. These business practices are Unfair and Deceptive Trade Practices.’’

इस शिकायत में खास तौर पर “instant personalization” को निशाना बनाया है जिसके कारण फेसबुक सदस्यों के डाटा का दुरूपयोग हो रहा है।

अमेरिका की एक उपभोक्ता सर्वे रिपोर्ट में बताया गया है कि 52 प्रतिशत लोग मानते हैं कि उनके साथ फेसबुक पर जोखिमभरा व्यवहार हुआ है। जनवरी 2010 में ऑनलाइन के जरिए दो हजार लोगों में किए सर्वे से पता चला है कि 9 प्रतिशत लोग ऑनलाइन दुर्व्यवहार के शिकार हुए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑनलाइन पर घर का पता लिखा होना स्वयं में एक जोखिम है। इसके अलावा परिवारी सदस्यों के फोटोग्राफ वगैरह लगाना भी जोखिम में डालना है। इसके अलावा जन्मतिथि,आप कहां जाते हैं,कहां घूमने गए थे, कहां -कहां क्या-क्या करते रहे हैं,ये सब जोखिम के दायरे में आ गया है।

यह भी देखा गया है कि फेसबुक लोग जल्दी दोस्त बना लेते हैं और फिर जल्दी ही वायदे भी करने लगते हैं। इस तरह के वायदे खतरनाक हो सकते हैं,नुकसान पहुँचा सकते हैं। इस अर्थ में एक डच कंपनी के द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइट के बारे में कराए सर्वे में कहा गया है कि इस तरह की साइट के द्वारा बने सामाजिक संबंधों में गहराई नहीं होती,वे सतही होते हैं। जो लोग सोचते हैं कि ये वास्तव सामाजिक संबंधों का विकल्प हैं तो वे गलत हैं। वास्तव सामाजिक संबंधों का सोशल नेटवर्क से बने संबंध विकल्प नहीं हो सकते। बल्कि यह उसके पूरक की भूमिका मात्र निभा सकता है।

फेसबुक की ताजा नई खबर यह है कि उसने वर्चुअल करेंसी उधार पर देने की व्यवस्था कर दी है। इस तरह का प्रोग्राम विकसित किया गया है कि आप 20 तरीकों से वर्चुअल करेंसी उधार ले सकते हैं और तमाम किस्म के वर्चुअल माल खरीद सकते हैं। फेसबुक ने PlaySpan के साथ इस संदर्भ में साझा कारोबार करने का फैसला लिया है। इस क्रेडिट व्यवस्था को अभी 25 से ज्यादा गेम कंपनियां इस्तेमाल कर रही हैं।

फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क और अन्य वेबमीडिया रूपों जैसे ब्लॉग, ट्विटर आदि में से किसका यूजर पर ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है इसके बारे में अभी सुनिश्चित ढ़ंग से कुछ भी कहना संभव नहीं है। क्योंकि इस समय सोशल मीडिया और सोशल नेटवर्क के बीच में समायोजन की प्रक्रिया चल रही है। बाजार के बड़े खिलाड़ी इस पर नजर लगाए बैठे हैं। अभी यह देखा जा रहा है कि ट्विटर पर ज्यादा भीड़ है और ब्लॉग पर कम है। यही स्थिति फेसबुक के संदर्भ में भी देख सकते हैं यहां पर भी ट्विटर पर भीड़ ज्यादा है। सोशल मीडिया का आम लोग ट्विटर पर ज्यादा अनुकरण कर रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है फेसबुक ठंडा हो गया है,जी नहीं,फेसबुक ने समूचे इंटरनेट पर अपना वर्चस्व जमा लिया है और वह धीरे-धीरे अपने दायरों का विस्तार कर रहा है। आज फेसबुक पर 50 करोड़ यूजर 30 बिलियन संदेशों का प्रतिमाह संचार कर रहे हैं।

उत्सर्जन व्यापार

-कल्पना पालखीवाला

उत्सर्जन व्यापार, यानी उत्सर्जन की अंतिम सीमा निर्धारित करना और व्यापार प्रदूषण को नियंत्रित करने का बाजार आधारित दृष्टिकोण है जिसके तहत उत्सर्जन में कटौती करने वालों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जाती है। कोई केंद्रीय प्राधिकरण या नियामक वह सीमा/हद तय करता है जितनी मात्रा तक कोई प्रदूषक उर्त्सजन कर सकता है, लेकिन वह यह निर्णय नहीं करता कि कोई स्रोत विशेष क्या उत्सर्जित करेगा। यह अंतिम सीमा फर्मों को उत्सर्जन परमिट के रूप में बेची जाती है, जो विशिष्ट प्रदूषक के विशेष मात्रा में उत्सर्जन या निस्सरण के अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। फर्मों को अपनी उत्सर्जन सीमा के बराबर कई परमिट या ऋणों की जरूरत पड़ती है। परमिटों की कुल संख्या अंतिम सीमा को पार नहीं कर सकती और कुल उर्त्सजन उस सीमा तक सीमित रखा जाता है। जिन फर्मों को उत्सर्जन परमिट की संख्या बढ़ाने की जरूरत होती है, उन्हें ये परमिट ऐसी फर्मों से खरीदने पड़ते हैं, जिन्हें इनकी ज्यादा जरूरत नहीं होती। परमिटों का यह हस्तांतरण ही व्यापार कहलाता है। इस तरह खरीददार प्रदूषण फैलाने की कीमत चुका रहा है, जबकि विक्रेता उत्सर्जन में कटौती के लिए पुरस्कृत हो रहा है।

दो मुख्य सक्रिय व्यापार कार्यक्रम हैं: ग्रीनहाउस गैसों के लिए यूरोपीय यूनियन इमिशन ट्रेडिंग स्कीम सबसे बड़ा कार्यक्रम है और अमरीका में अम्लीय वर्षा में कमी लाने के लिए नेशनल मार्केट है।

उत्सर्जन व्यापार योजनाओं में उद्योगों की लागत में कमी लाने के साथ-साथ प्रदूषण घटाने की व्यापक क्षमता है। इन योजनाओं से लाभ दो स्रोतों से होता है। उद्योग क्षेत्र में, कोई ईकाई प्रदूषण में कमी लाने के लिए अपने लिए सबसे किफायती तरीकों का चयन कर सकती हैं। इसकी तुलना में, परंपरागत आदेश-एवं-नियंत्रण नियम उद्योगों में भेदभाव की इजाजत नहीं देते। हर जगह समान मानक का आदेश देने से कटौती के उत्कृष्ट अवसरों का लाभ नहीं मिल सकेगा। नियामक क्षेत्र में, कोई उत्सर्जन व्यापार योजना स्थापित होते ही वह आत्म-विनियमन प्रणाली अर्थात अपने स्तर पर प्रदूषण को नियंत्रण करने की प्रणाली मुहैया कराएगी। इससे प्रदूषण ज्यादा कारगर ढंग से नियंत्रित होगा। सुदूर भविष्य में, लागत कम होने से नए नियम लागू करना भी आसान हो जाएगा जिनसे पर्यावरणीय गुणवत्ता बढ़ेगी। उत्सर्जन व्यापार के साथ पिछला अनुभव दर्शाता है कि अंतिम सीमा-और-व्यापार, उत्सर्जन की निर्धारित कटौती का लक्ष्य कम लागत पर हासिल करने का सशक्त तरीका है।

किसी उत्सर्जन व्यापार योजना के सफल कार्यान्वयन के लिए चार क्षेत्र विशेष तौर पर महत्वपूर्ण हैं।

अंतिम सीमा तय करना-जिस क्षेत्र में व्यापार शुरू किया जा रहा है वहां समग्र उत्सर्जन के लिए किफायती दाम और उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य अवश्य प्रदर्शित होना चाहिए।

परमिट आवंटन- योजना के लिए समर्थन तैयार करने के वास्ते उत्सर्जन के परमिट न्यायसंगत ढंग से बांटे जाने चाहिए। अनेक सफल मामलों में यह आवंटन उद्योगों के लिए अनुपालन की लागत काफी हद तक कम करते हुए आधार रेखा उत्सर्जन की तुलना में स्वतंत्र रखा गया है।

निगरानी-प्रत्येक औद्योगिक संयंत्र से होने वाले उत्सर्जनों की मात्रा की निगरानी निरंतर और विश्वसनीय तरीके से होनी चाहिए। यह सभी पक्षों को मान्य और पारदर्शी होनी चाहिए।

अनुपालन-नियामक संरचना द्वारा उद्योगों को भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि परमिट खरीदना पर्यावरणीय दायित्वों को निभाने का एकमात्र विश्वसनीय तरीका है।

उत्सर्जन व्यापार से वृहद लाभ

उत्सर्जन व्यापार की शुरूआत उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत को पर्यावरणीय नियमों के मामले में स्पष्ट नेतृत्व प्रदान करेगी। व्यापार योजना के लाभ समाज को कम लागत पर अनुपालन संबंधी तात्कालिक लक्ष्य के बजाय दीर्घकालिक लक्ष्य की उपलब्धि के रूप में सामने आएंगे। व्यापार योजना से पर्यावरणीय लक्ष्यों के बदलाव के रूप में नियमन को अनुकूल बनाना आसान होगा।

अंतिम सीमा स्तर से कम प्रदूषण फैलाने से कड़े पर्यावरणीय मानक हासिल किए जा सकते हैं, जो कुछ खास क्षेत्रों और स्रोतों को एकाएक अनुपालन से अलग करने की बजाए उत्सर्जन परमिट की कीमत बढ़ा देंगे इससे कम प्रदूषण फैलाने वाले लाभान्वित होंगे।

भारत अपनी स्थानीय उत्सर्जन व्यापार योजना को कार्बन डाई आक्साइड संबंधी वैश्विक उत्सर्जन व्यापार योजना के अनुरूप बनाकर भी लाभ उठा सकता है। अंतिम सीमा-एवं व्यापार की सफल प्रणाली, कार्बन डाई ऑक्साइड और साथ ही साथ स्थानीय प्रदूषकों की कीमत तय करने के लिए जरूरी अधोसंरचना की स्थापना करेगी। ऐसी प्रणाली देश को उस स्थिति तक पहुंचाएगी जहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने को प्रोत्साहन मिलेगा।

यूरोपीयन यूनियन इमिशन ट्रेडिंग स्कीम, क्योटो संधि और कोपेनहेगन समझौते के तहत निर्धारित कार्बन में कटौती की भावी नीतियों से उत्सर्जन में कमी लाने की, मांग को बल मिलेगा। इस मांग को पूरा करने के लिए एक उत्सर्जन व्यापार प्रणाली से विदेशी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा और इससे दीर्घकाल में पर्यावरण के अनुकूल विकास के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी फायदा होगा।

भारत में बाजार आधारित नियामक उपकरणों के साथ हाल ही के अनुभव सकारात्मक रहे हैं। ऊर्जा दक्षता के लिए कार्य निष्पादन, उपार्जन एवं व्यापार (पीएटी) तंत्र कार्यान्वित किया जा रहा है, जिसमें देश के 50 फीसदी से ज्यादा जीवाश्म ईंधनों से संबद्ध ऐसी सुविधाएं शामिल होंगी, जिनसे 2014-15 तक कार्बन डाई ऑक्साइड गैस के उत्सर्जन में प्रतिवर्ष दो करोड़ 50 लाख टन की कमी लाने में मदद मिलेगी। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

सस्ती शिक्षा-सबको शिक्षा

– सुनील आम्बेकर

मै छतीसगढ़ के चाम्पा में 17 सितम्बर, 2010 को प्रवास पर था। स्वाभाविक है की कई छात्रों से मिला। बाद मे दोपहर बाद जांजगीर व बिलासपुर गया था। शिक्षा के व्यापारीकरण एव व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ अभाविप द्वारा देशव्यापी चक्का जाम (16 सितम्बर) के सन्दर्भ में चर्चा कर रहा था। 11 वी 12 वी और स्नातक कक्षाओं में अध्यनरत कार्यकर्ता बता रहे थे की ऊन्हें महाविद्यालय बंद एव चक्का जाम में छात्र-शिक्षक समेत सामान्य लोगो का अत्यधिक समर्थन था। कोई भी विरोध नहीं कर रहा था। बल्कि बढ़-चढ़कर ऐसा विषय उठाने के लिए धन्यवाद अदा कर रहे थे । सभी से प्रोत्साहन मिल रहा था।

यह कहानी केवल चंपा या बिलासपुर की नहीं अपितू देश के हर कोने से इस तरह की घटनाए मेरे पास आ रही है। विद्यार्थी परिषद् की यह मांग की शिक्षा सस्ती हो व सभी के लिए उपलब्ध हो, सामान्य लोगो के मन को छू रही है। हमारे देशवासी भारत को महाशक्ति बनाने का सपना देख रहे है। वे 21 वीं सदी में भारत को आर्थिक दृष्टी से सम्पन्न व सुरक्षा की दृष्टी से मजबूत तथा सभी प्रकार के प्रगतिशील रुपो में देश को देखना चाहते है। हर व्यक्ति चाहे महानगर का हो या गाँव का, स्वयं भी इस प्रगति का अक हिस्सा बनना चाहता है। हर समुदाय में निराशा का त्याग कर आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा जगी है। स्वाभाविक ही हर परिवार अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा देकर उनको जीवन में सफल बनाना चाहता है। ऐसे मोके पर शिक्षा की उचित सर्वव्यापी व सस्ती शिक्षा उपलब्ध करने की जगह केंद्र और राज्य सरकारें इस क्षेत्र से हाथ खीचकर शिक्षा को बाजार के हवाले कर रही है। लोगो की बढाती मांग और स्पर्धा को देखते हुए बाजारू तत्वों ने इसे महंगा बना दिया है तथा सामान्य लोगो की पहुंच से यह दूर हो रही है। महँगी शिक्षा कई परिवारों के सपनो और उनके बच्चो के भविष्य को निराशा में धकेल रही है। कई गरीब परिवारों के लोग परिस्तिथि की विवषता समजकर निराशा में अपने हाथ खीचकर बच्चो को समाज रहे है|

मध्य प्रदेश में कुछ दिन पूर्व एक बैंक में डकैत पकड़ा गया था। पुछताछ में पता चला की वह पेशेवर गुन्हेगार नहीं अपितु अपनी पुत्री की इंजीनियरिंग की फीस के मात्र बीस हजार रुपये निशित समय सीमा में भरने हेतु इस कृत्या के लिए मजबूर हुआ। वास्तु स्तिथि का आभास होने पर सवेदना जगी तो पुलिस और बैंक के लोगो ने उसकी बेटी की फीस भरने की व्यवस्था की। लेकिन पता नहीं कितने लोगों ने ऐसी परिस्तीथी का सामना किया होगा और कितने भविष्य बर्बाद हुए होंगे। इस दर्द ने ही विद्यार्थी परिषद् ने शिक्षा के व्यापारीकरण को रोकने हेतु चल रहे आन्दोलन को जन्म दिया है। यह आन्दोलन प्रभावी बनेगा व यशस्वी भी होगा।

केंद्र सरकार को इस सन्दर्भ में एक समग्र व प्रभावी केन्द्रीय कानून बनाना ही होगा। साथ में राज्य सरकारों को नयी व्यवस्था को लागु करने के हेतु उचित प्रावधानों के साथ नए पूरक कानून भी बनाने होंगे। यही समय की मांग है।

वैश्वीकरण का यह सिधांत की बाजारवाद सभी को दुनिया के किसी भी कोने में उपलब्ध वस्तु एव सेवाओ तक पहुचने का अवसर देकर न्यायपूर्ण एव साफ़-सुथरी व्यवस्था देता है तथा निजिकरण उसमे सर्वाधिक उचित माध्यम है, लेकिन वर्तमान अनुभव इन धारणाओं को बाकि सभी क्षेत्रो में गलत साबित कर रहे है। ऐसे अनुभव को देखते हुए बिना न्यायपूर्ण प्रावधानों के केवल निजीकरण से शिक्षा का विस्तार होने पर सभी को शिक्षा का अवसर मिलेगा, यह मानना बेमानी होगा। इसलिए ‘सभी को शिक्षा-सस्ती शिक्षा’ की गारंटी देने वाली व्यवस्था दे सके ऐसा कानून देश में लागू करना नितांत जरुरी है।

(लेखक अभाविप के राष्ट्रीय संगठन मंत्री हैं)

‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम’ के दो वर्ष पूरे होने पर विशेष

प्रिय पाठकों,

नमस्‍कार।

आप जानते होंगे कि ‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम’ की शुरूआत 16 अक्‍टूबर, 2008 को हुई थी। इसलिए यह हम सबके लिए हर्ष की बात है कि आज ‘प्रवक्‍ता डॉट कॉम’ के दो साल पूरे हो गए। तब से लेकर अब तक न केवल इसकी निरंतरता हमलोगों ने कायम रखी बल्कि गुणवत्ता के स्तर पर भी विशेष ध्‍यान दिया। हम लोगों ने यही सोच कर ‘प्रवक्‍ता’ शुरू किया था कि मुख्यधारा के मीडिया से ओझल हो रहे जनसरोकारों से जुड़ी खबरों व मुद्दों को प्रमुखता से प्रकाशित करें और उस पर गंभीर विमर्श हो। साथ ही एक अरब से अधिक की जनसंख्या वाले देश की राष्ट्रभाषा हिंदी को इंटरनेट पर प्रभावी सम्मान दिलाने के लिए सार्थक प्रयास हो। हमने इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास किया, इसलिए महज दो साल की अवधि में ही प्रवक्‍ता वेब पत्रकारिता का चर्चित मंच व वैकल्पिक मीडिया का प्रखर प्रतिनिधि बन गया है। भाषा, विषयवस्तु और विविधता की दृष्टि से इसने वेब पत्रकारिता की दुनिया में प्रमुख स्थान बना लिया है।

आपको यह भी विदित होगा कि पिछले दिनों ‘प्रवक्‍ता’ को एलेक्‍सा सुपरहिट एक लाख वेबसाइट्स में शामिल होने का गौरव प्राप्‍त हुआ। गौरतलब है कि हिंदी की कुछ ही वेबसाइट एलेक्‍सा एक लाख क्‍लब में शामिल है। यहां हम पाठकों को बता दें कि ‘प्रवक्‍ता’ को एक महीने में लगभग 4 लाख हिट्स मिल रही हैं। इस वेबसाइट पर राजनीति, अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सुरक्षा, मीडिया, पर्यावरण, स्वास्थ्य, साहित्य, कला-संस्कृति, विश्ववार्ता, खेल से संबंधित 2500 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं। 200 से भी अधिक लेखक हमसे जुड चुके हैं। दर्जनों समाचार-पत्रों में ‘प्रवक्ता’ के लेखों की चर्चा  हो चुकी है।

प्रवक्‍ता डॉट कॉम के इस मुकाम पर पहुंचने में जिनका सर्वाधिक योगदान रहा है, वे हैं इसके प्रबंधक श्री भारत भूषण एवं तकनीकी प्रमुख श्री चन्‍द्र भूषण। जब-जब प्रवक्‍ता के लिए आर्थिक जरूरत हुई या‍ फिर तकनीकी संसाधन की, आप दोनों सहर्ष इसे पूरा करने में जुट गए, मैं इन दोनों महानुभावों के प्रति हार्दिक आभार व्‍यक्‍त करता हूं। इसके साथ ही मैं प्रवक्‍ता के सुधी पाठकों एवं विद्वान लेखकों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं कि वे वैकल्पिक मीडिया को साकार करने में हमारे हमसफर बने। ‘प्रवक्‍ता’ जब एलेक्‍सा एक लाख क्‍लब में शामिल हुआ, तभी से अनेक मित्रों ने कहना शुरू किया कि इसकी विकास-यात्रा पर आपको कुछ लिखना चाहिए। पिछले दिनों टीवी पत्रकार विकास कौशिक मिले और उन्‍होंने इसी संबंध में एक टीवी स्‍टूडियो में हमसे लंबी चर्चा कर ली। ‘प्रवक्‍ता’ कैसे शुरू हुआ, कैसे आगे बढ़ा, क्‍या-क्‍या दिक्‍कतें आयीं और वेब पत्रकारिता के बारे में मेरी जो समझ बनी थी इस बारे में मैंने उन्‍हें बताया। आज प्रवक्‍ता पर हम इस विशेष वार्ता को भी प्रकाशित कर रहे हैं। आशा है हमेशा की तरह सुधी पाठकों  का सहयोग व स्‍नेह हमें मिलता रहेगा।

आपका,

संजीव सिन्‍हा

संपादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम

शर्मनाक मीडिया, बेशर्म बुखारी

-आवेश तिवारी

शाही इमाम अहमद शाह बुखारी नाराज हैं उन्होंने, वहीद को काफिर कहा और पीट दिया, बस चलता तो उसके सर कलम करने का फतवा जारी कर देते, हो सकता है कि एक दो दिनों में कहीं से कोई उठे और उसके सर पर लाखों के इनाम की घोषणा कर दे, वो मुसलमान था उसे ये पूछने की जुर्रत नहीं होनी चाहिए थी कि क्यूँ नहीं अयोध्या में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंप देते। वैसे मै हिन्दू हूँ और मुझमे भी ये हिम्मत नहीं है कि किसी से पूछूं क्यूँ भाई कोर्ट के आदेश को सर आँखों पर बिठाकर इस मामले को यहीं ख़त्म क्यूँ नहीं कर देते, क्यूंकि मै जानता हूँ ऐसे सवालों के अपने खतरे हैं, बुखारियों के वंशजों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चप्पे चप्पे पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है। वहीद अकेला नहीं है अखबार के कालमों से लेकर ब्लागों और वेबसाइटों के बड़े नामों पर हर जगह वो लोग उन सभी पर एक साथ हल्ला बोल रहे हैं जो अदालत के निर्णय के साथ या निरपेक्ष खड़े हैं। मुझे नहीं मालूम कि अभिव्यक्ति का ऐसा संकट आपातकाल में भी था की नहीं? अफ़सोस इस बात का भी है कि मीड़िया का एक बड़ा हिस्सा इस मामले में आँखें मूँद कर तमाशा देख रहा है, कल जब वहीद पीट रहा था, उस वक़्त भी वो मुस्कुराते हुए तमाशा देख रहे थे, मौका मिलता तो अपनी तरफ से भी दो चार थप्पड़ लगा देते।

शाही इमाम द्वारा वहीद की पिटाई सिर्फ एक पत्रकार की पिटाई नहीं थी ,वो ऐसा करके देश के उन सभी मुसलमानों को ये सन्देश देना चाह रहे थे कि जो कोई मुसलमान, बाबरी मस्जिद के खिलाफ या राम मंदिर के समर्थन में कुछ कहेगा या फिर भाई चारे की बात करेगा(ऐसे मुसलमानों की तादात काफी अधिक है ,जो मंदिर मस्जिद से अधिक अमन चैन चाहते हैं ) उन सभी का वो ऐसा ही हश्र करेंगे। ये कुछ ऐसा ही है कि जब कभी कोई हिन्दू अदालत के फैसले के समर्थन में या फिर विवादित स्थल मुसलमानों को सौपने की बात कहे और प्रवीण तोगड़िया एवं अन्य बजरंगी उस पर टूट पड़ें, मगर प्रवीण तोगड़िया ने ऐसा किया नहीं, अगर करते तो शायद देश में भूचाल आ गया होता, चैनलों, अख़बारों और वेब पोर्टल हर जगह पर सिर्फ यही खबर होती, हमारे लाल झंडे वाले साथी घूम घूम कर प्रवीण के साथ साथ भगवा झंडे को गरियाते, शायद मै भी उनमे शामिल होता। लेकिन अब …….!

अभी एक बड़े चैनल पर एक खबर फ्लेश हो रही थी “बुखारी को गुस्सा क्यूँ आता है?” मानो बुखारी का गुस्सा न हो किसी ऐसे व्यक्ति का गुस्सा हो जो एक अरब हिन्दुस्तानियों की तक़दीर लिख रहा हो। हिंदुस्तान की मीड़िया ने राजनैतिक पार्टियों की तरह साम्प्रदायिकता की आपनी अपनी परिभाषाएं गढ़ ली हैं। कहीं पर वो भगवा ब्रिगेड के साथ दिखाई पड़ता है तो कहीं कठमुल्लाओं के विरोध में इन दोनों ही सथितियों में वो अक्सर अतिवादी हो जाता है, इन सबके बीच मीड़िया की वो धारा कहीं नजर नहीं आती जो कट्टरपंथ के विर्रुद्ध निरपेक्ष खड़ी हो, वो बटाला हाउस के इनकाउन्टर में हुई निर्दोषों की हत्याओं पर उतना ही चीखे जितना कश्मीरी पंडितों पर ढाए जाने वाले जुल्मों सितम पर। ये हमारे समय का संकट है कि निरपेक्षता की परिभाषा के साथ प्रगतिशील और समाजवादी पत्रकारिता के नाम पर बार बार बलात्कार किया जा रहा है। ऐसा अगर कुछ और सालों तक रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदुस्तान में सिर्फ दो किस्म के पत्रकार बचेंगे एक वो जो खुद के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए.धर्मनिरपेक्षता की चादर तान हिन्दुओं को गरियाते रहते हैं,और उन्हें मुसलमानों का दुश्मन नंबर एक करार देते हैं , दूसरे वो जिन्हें हर मुसलमान में आतंकवादी और देशद्रोही ही नजर आता है और जो भगवा रंग को ही भारत भाग्य विधाता मान लेने का मुगालता पाल रखे हैं।

ये सरोकार से दूर होती जा रही समकालीन पत्रकारिता का स्याह चेहरा है जहाँ हेमचन्द्र की हत्या पर जश्न मनाये जाते हैं, गिलानी की गमखोरी पर पुरस्कार बटोरे जाते हैं, वहीँ वहीद के अपमान पर चुप्पी साध ली जाती है। अब समय आ गया है कि बुखारी और बुखारी के वंशजों को उनकी औकात में लाया जाया, लेकिन इसके लिए सबसे पहले ये जरुरी होगा कि मीड़िया खुद ब खुद धर्मनिरपेक्षता के पैमाने तय करे जो सर्वमान्य हो। हमें ये भी तय करना होगा कि व्यवस्था को गाली देने की आड़ में कहीं राष्ट्र के अस्तित्व को ही तो चुनौती देने का काम नहीं किया जा रहा है। तब शायद ये संभव होगा कि हम में से कोई हिन्दू या मुस्लिम पत्रकार उठे और बुखारी को उन ३६ हजार लोगों की ताकत एक साथ दिखा दे (बतौर बुखारी वहीद जैसे ३६ हजार उनके आगे पीछे घूमते हैं)

बुखारी, कांग्रेस और दिग्विजय

-लोकेन्‍द्र सिंह राजपूत

बुखारी आतंकवादी ने संपादक को पीटा, कांग्रेस ने दिल्ली के निर्देश पर की मंत्रियों से धन उगाही और दिग्विजय सिंह शुक्र करो तुम्हारा जबड़ा नहीं टूटा… क्योंकि संघ सिमी या बुखारी नहीं

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010 को दिल्ली में आयोजित कॉमनवेल्थ का समापन सभी प्रकार की मीडिया के लिए प्राथमिक और प्रमुख समाचार रहा वहीं एक घटना और रही जो मीडिया और हर भारतवासी के लिए अति महत्वपूर्ण रही। जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुखारी ने मीडिया के मुंह पर तमाचा मारा, वो भी कस के। दरअसल इमाम बुखारी अयोध्या मसले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की पैरवी करने के लिए नबाबों के शहर लखनऊ पहुंचे थे। वह एक पत्रकारवार्ता को संबोधित कर रहा था (किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचे तो पहुंचती रहे, लेकिन मैं बुखारी के लिए किसी भी प्रकार की सम्मानीय भाषा का उपयोग नहीं करूंगा), तभी उर्दू अखबार दास्तान-ए-अवध के संपादक अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से एक प्रश्न पूछा। जिस पर वह भड़क गया। एक संपादक की सत्ता को ललकार बैठा। तहजीब सिखाने का ठेकेदार बदतमीजी पर उतर आया। उसकी भाषा ऐसी थी कि जैसे किसी गली के नुक्कड़ पर खड़ा होने वाला छिछोरा लौंडा बात कर रहा हो। दास्तान-ए-अवध के संपादक का सवाल इतना सा था कि सन् 1528 के खसरे में उक्त भूमि पर मालिकाना हक राजा दशरथ के नाम से है, जो अयोध्या के राजा थे। इस नाते यह जमीन उनके बेटे राम की होना स्वाभाविक है, क्यों न मुसलमान इसे हिन्दू समाज को दे दें। वैसे भी हिन्दुओं ने बहुत सी मस्जिदों के लिए जगह दी है। एक और प्रश्न था-क्या इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट लेने की आपकी राय से मुल्क के सारे मुसलमान इत्तेफाक रखते हैं? इन प्रश्नों को सुनते ही बुखारी अपने रंग में दिखे। वैसे मुझे नहीं लगता ये इतने कठोर प्रश्न थे कि बुखारी को अपनी औकात पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़। इसके बाद तो दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी संपादक को जान से मारने की धमकी देते हुए कहता है- चोप बैठ जा, नहीं तो वहीं आकर नाप दूंगा। खामोश बैठ जा, चुपचाप…… तेरे जैसे 36 फिरते हैं मेरे आगे-पीछे…….. बदमाश कहीं का, एजेंट….. इतना ही नहीं बुखारी का मन इससे भी नहीं भरा। उसने संपादक के साथ हाथापाई की। बुखारी ने अपने शागिर्दों को कहा-मार दो साले को… वरना ये नासूर बन जाएगा, अपन लोगों के लिए। यह सुनते ही बुखारी के शागिर्द टूट पड़े संपादक अब्दुल वाहिद पर।

घटना के बाद सारे पत्रकार एकजुट होकर बुखारी से पूछते हैं- आपको एक पत्रकार को मारने का हक किसने दिया। बुखारी इस पर कहते हैं-मारूंगा, तुम कर क्या लोगे। यह है महान बुखारी। वैसे बुखारी के इस कृत्य पर चौकने की कतई जरूरत नहीं। इस तरह की हरकतें करना इन महाशय की फितरत बन चुका है। सन् 2006 में भी इसने प्रधानमंत्री निवास के सामने पत्रकारों के साथ मारपीट की थी। आपको एक बात और बता देना चाहूंगा कि यह वही बुखारी है जिसने जामा मस्जिद से हजारों लोगों की भीड़ के सामने भारतीय सरकार और व्यवस्था को चुनौती देते हुए कहा था- मैं हूं सबसे बड़ा आतंकवादी। अगर है किसी में दम तो करे मुझे गिरफ्तार। उस समय सारे बुद्विजीवी और कथित सेक्युलर अपनी-अपनी मांद में छुप कर बैठ गए। किसी ने कागद कारे नहीं किए। मुझे उन लोगों पर आज भी पूरा यकीन है। वे या तो बुखारी के इस कृत्य को उचित सिद्ध करने के लिए कलम रगड़ेंगे या फिर खामोश रह कर किसी और मुद्दे की ओर ध्यान खींचेंगे, लेकिन वे एक शब्द लिखकर भी इमाम बुखारी और उसकी मानसिकता का विरोध नहीं करेंगे।

– आज की एक और घटना अधिक चर्चित रही। वह है कांग्रेस की सुपर मैम सोनिया गांधी की वर्धा रैली के लिए धन उगाही की। इस घटना का खुलासा बड़ा रोचक रहा। दरअसल किसी आयोजन के समाप्त होने के बाद महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष माणिक राव ठाकरे और पूर्व मंत्री सतीस चतुर्वेदी निश्चिंत बैठ गुफ्तगूं में मशगूल हो गए। दोनों वर्धा रैली में किस-से कितना पैसा वसूला गया, इस पर चर्चा कर रहे थे। अहा! किस्मत, तभी किसी कैमरे में दोनों रिकॉर्ड (यह कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं था) हो गए। माणिक राव पूर्व मंत्री सतीस से कह रहे थे कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पहले तो पैसे देने से ना-नुकुर कर रहा था, लेकिन बाद में दो करोड़ ले ही लिया। बाकी मंत्रियों से दस-दस लाख रुपया लिया गया है। इस मसले पर दोनों की काफी देर तक बात चली। सब कुछ कैमरे में कैद हो गया और खबरिया चैनलों के माध्यम से जनता के सामने आ गया। सब साफ है, लेकिन फिर भी कोई कांग्रेसी स्वीकार नहीं कर रहा कि रैली के लिए कांग्रेस धन उगाही करती है। रैली के लिए करोड़ और लाख-लाख रुपए की वसूली के निर्देश दिल्ली से आए थे, यह दोनों की बातचीत से स्पष्ट हुआ। हमारे प्रदेश के बयान वीर दिग्विजय सिंह इतना ही कह सके कि कांग्रेस में रैली व अन्य आयोजनों के नाम पर धन उगाही नहीं होती, जबकि सबूत हिन्दोस्तान की सारी जनता के सामने था। घटना के बाद बड़े सवाल पीछे छूट गए कि इतना पैसा मंत्रियों के पास आता कहां से है? जनता सवाल भी जानती है और जवाब भी, लेकिन बाजी जब जनता के हाथ होती है तो वह भूल जाती है अपना कर्तव्य।

वहीं बयानवीर दिग्विजय सिंह ने एक और अनर्गल बयान जारी किया है कि संघ पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई से पैसा लेता है। उनका कहना है कि उनके पास सबूत हैं। वे एक माह में सब दूध का दूध और पानी का पानी कर देंगे। दिग्विजय आपके पास तो इस बात के भी सबूत थे कि संघ पार्टी में अवैध हथियार बनते हैं, बम बनाए जाते हैं, लेकिन आप आज तक वो सबूत पेश नहीं कर पाए। दरअसल दिग्विजय को सच या तो पचता नहीं है या दिखता नहीं है। उनकी पार्टी का महान कारनामे की वीडियो फुटेज टीवी चैनल पर चल रही थी, तब भी राजा साहब कह रहे थे कि कांग्रेस धन उगाही नहीं करती। क्या दिग्विजय को इतना बड़ा सबूत नहीं दिखा। खैर मैं तो बड़ी बेसब्री से एक माह बीतने का इंतजार कर रहा हूं, जब राजा साहब एक बड़ा खुलासा करेंगे। मैंने इससे पूर्व के लेख में लिखा था कि संभवत: राहुल के कान दिग्गी ने ही भरे होंगे या फिर अपने लिए लिखा भाषण राहुल से पढ़वा दिया होगा। तभी राहुल बाबा बिना ज्ञान के संघ की तुलना सिमी से कर गए थे। उसके बाद राहुल के बचाव में दिग्विजय बड़े जोर-शोर से जुटे हैं और संघ को सिमी जैसा बताने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। दिग्गी शुक्र करो संघ इमाम बुखारी या सिमी जैसा नहीं है…. देखा होगा इमाम ने तो एक सामान्य सवाल पूछने पर ही एक उर्दू अखबार के संपादक का मुंह तोड़ दिया।