उत्तर प्रदेश में घट रही घटनाएं साधारण नहीं हैं। यूपी के मायाराज और दिल्ली के सोनियाराज में सेकुलर राजनीति के दुष्परिणाम हिंदू अपनी बहन-बेटियों की अस्मत और अपने तीर्थ-त्योहारों की कीमत देकर चुका रहे हैं। विगत दिनों जो कुछ बरेली में हुआ और जो अब रायबरेली में हो रहा है, उससे तो यही सबक मिलता है।
उत्तर प्रदेश में जारी हिंसा का ताण्डव सभ्य समाज को बहुत कुछ समझने और समझाने के लिए पर्याप्त है। जिहादी कठमुल्ला समाज अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाते हुए सामाजिक सौहार्द्र और सहिष्णुता की परंपरा को बार-बार ललकार रहा है। कहने के लिए तो अल्पसंख्यक किंतु बात-बात पर बांहे और लुंगी-पजामे चढ़ाए हिंसा पर उतारू इन कथित ‘अल्पसंख्यकों’ का यह खूंखार वहशियाना व्यवहार! इस पर क्या टिप्पणी की जा सकती है। ऐसे में प्रतिहिंसा भड़क जाए तो कौन जिम्मेदार होगा। याद रखिए कि गोधरा ने गुजरात को महीनों जलने के लिए मजबूर कर दिया था।
होली, विजया दशमी और दिवाली हिंदुओं के पवित्र त्योहार हैं। नवरात्रों का पर्व समस्त भारतीयता को आनन्द और उत्सव के भक्ति रस में उत्तर से लेकर दक्षिण तक सराबोर कर देता है। इन त्योहारों पर वर्ग विशेष द्वारा बार-बार तनाव पैदा करना, छोटी-छोटी बातों को मजहब विरोधी बताकर उसे तूल देना कहीं से भी सहिष्णु और समझदार मानसिकता का परिचय नहीं है।
हजारों लोग रंग खेल रहे हों और उसमें से उड़ता हुआ अबीर-गुलाल, रंग यदि कहीं किसी के ऊपर थोड़ा सा पड़ जाए, किसी मस्जिद की दीवार रंग की कुछ बूंदों से रंगीन हो उठे, दीपक की रौशनी में कहीं किसी घर-आंगन में पटाखों की आवाज चेहरे पर मुस्कान बिखेरे और दूर अंधेरे आकाश में आतिशबाजी के प्रकाश में जब लोग जिंदगी की खुशी के कुछ पलों का आनन्द ले रहे हों तब किसी समूह विशेष के पेट में इन उत्सवों और आनन्द-परंपरा को लेकर मरोड़ उठने लगे, कुछ लोग इसे बंद कराने के लिए व्याकुल हो उठें तो इसे पागलपन और उन्माद के सिवाय क्या कहेंगे।
यह उन्माद आखिर क्यों छंटने और खत्म होने का नाम नहीं लेता। क्यों यह बड़वानल की भांति दिन-दूना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। कभी मऊ में तो कभी पड़रौना-कुशीनगर में, कभी आजमगढ़, अलीगढ़ में तो कभी गोरखपुर में और अब बरेली-रायबरेली में…।
कारण कुछ भी हों लेकिन इतना तो सत्य है कि बीते पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश में जहां भी दंगे भड़के वहां हिंदू किसी भी कारण से क्यों ना हो, उस समय निशाने पर लिए गया जबकि संपूर्ण समाज किसी ना किसी उत्सव और भक्ति-भावना के आवेग में उल्लसित, आनन्द से ओत-प्रोत था।
पड़रौना-कुशीनगर में करीब पांच वर्ष पूर्व जन्माष्टमी के उत्सव के पूर्व एक कस्बे में जिहादी मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति कर दी कि हिंदुओं के भगवान कृष्ण का डोला उनकी बस्ती से नहीं गुजरेगा। इस घटना के कुछ महीने बाद गोरखपुर में एक बारात में नाचते-गाते, आतिशबाजी करते हुए जाते लोगों पर केवल इस बात के लिए हमला बोल दिया गया कि उन्होंने मना करने के बावजूद आतिशबाजी क्यों जारी रखी। और तो और बारात में से जबरन खींचकर एक हिंदू युवक को तलवार घोंपकर दिन-दहाड़े मार डाला गया।
आजमगढ़ में एक विद्यार्थी को दिनदहाड़े एक अल्पसंख्यक महाविद्यालय में तीन वर्ष पूर्व केवल इसलिए छुरा घोंपकर मार डाला गया क्योंकि वह कथित तौर पर एक हिंदू संगठन के लिए काम करता था। इसके बाद विरोध प्रदर्शन करने के लिए आजमगढ़ पहुंचे भाजपा सांसद एवं गोरक्षपीठ के युवा उत्तराधिकारी योगी आदित्य नाथ के वाहनों के काफिले पर केवल इसलिए भीषण हमला बोल दिया गया कि उन्होंने मुस्लिम मोहल्ले से जाने की हिमाकत क्यों की।
और इसी प्रकार की रक्तरंजित होली कुछ वर्ष पूर्व विजयादशमी के समय मऊ में खेली गई। मऊ के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में सैंकड़ों वर्षों के इतिहास में पहली बार सन्नाटा छा गया, रामलीला हिंसा के कारण रूक गई या कहिए रूकवा दी गई। भरत मिलाप के समय मैदान के समीप स्थित मदरसे से कुछ टोपीधारी युवक निकलते हैं और यह कहते हुए ध्वनिवर्धक यंत्र के तार तोड़कर फेंक देते हैं कि आवाज अनावश्यक है, बिना ‘लाउड स्पीकर’ के तुम लोग राम की भक्ति करो। इस पर जब लोग आपत्ति करते हैं तो एक माफिया-सरगना विधायक के इशारे पर सारे शहर को रौंदकर रख दिया जाता है। हिंदू हिंदुस्थान में ही डर-भय के साथ जीने के लिए किस कदर अभिशप्त हो गया है, इसका रोंगटे खड़ेकर देने वाला उदाहरण उत्तर प्रदेश की जनता ने मऊ में अभी कुछ ही वर्ष पूर्व देखा था।
अलीगढ़ में तो तीन वर्ष पूर्व आततायियों ने स्थानीय भाजपा विधायक के सरल-सीधे पुत्र को ही हिंसा का शिकार बनाया। वहां भी झगड़ा एक मंदिर में हिंदुओं के पूजा-अर्चना को लेकर शुरू हुआ था। विधायक पुत्र को जान से मारने के बाद उसका खतनाकर उसके शव को दफनाने और फिर उसके नकली मां-बाप बनकर सरकारी सहायता पाने की हद तक नृशंसतापूर्ण व्यवहार दंगाई जिहादी समाज ने अलीगढ़ में प्रदर्शित किया था। किसी लाश के साथ किया गया यह कितना नीच-निकृष्ट कर्म था, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। सैंकड़ो लोग मारे गए कथित मुसलमान को मिट्टी देने उसके ज़नाजे तक में शामिल हुए। यह तो भला हो एक सूत्र का जिसने दफनाए गए विधायक पुत्र के बारे में सच्चाई से उसके पिता को अवगत कराया। और निश्चित रूप से यदि मारे गए हिंदू युवक का पिता विधायक ना होता तो फिर किसकी जुर्रत थी जो जमीन में मुस्लिम रीति से दफना दिए गए शव को फिर से निकलवाकर उसका हिंदू रीति से अंत्य संस्कार कर पाता।
इस बार की होली पर बरेली में षड़यंत्रपूर्वक हिंसा का नग्न तांडव खेला गया। योजनापूर्वक हिंदू घरों, दुकानों को आग के हवालेकर हिंदू मां-बेटियों की अस्मत के साथ सिरफिरे जिहादियों ने खिलवाड़ की कोशिश की। हिंसा और दंगे के सरगना मौलाना तौकीर रज़ा के विरूद्ध जब प्रशासन ने नकेल कसी तो मौलाना के समर्थन में हजारों लोगों ने उपद्रव को इतना उग्र रूप दे दिया कि सरकार झुकने को मजबूर हो गई। परिणामतः जिन्हें जेल की सीखचों के भीतर होना चाहिए था, उन्हें पुलिस प्रशासन ने लखनऊ में बैठे कथित आकाओं के इशारे पर खुला घूमने की आजादी दे दी।
और अब ताजा उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी और अब संप्रग सुप्रीमो सोनिया गांधी के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में दिख रहा है जहां कि 21 मार्च, रविवार को शिव भक्तों के जुलूस पर हमला बोला गया। इस घटना के कारण जब तनाव चरम पर था तभी नवरात्रों के उत्सव के बीच एक देवी मंदिर के दर्शन के लिए गए श्रद्धालुओं पर हमलाकर कुछ ऐसा प्रदर्शन किया गया कि उनके इस कार्य से खुदा की शान में इजाफा होता है। मानो इन हमलावरों से बड़ा इस्लाम का खिदमतगार कोई दूसरा नहीं है।
इन घटनाओं का सबक समझने में हिंदुओं को देर नहीं लगनी चाहिए। प्रतिक्रिया देना भारत की सहिष्णु जीवन परंपरा के विपरीत है लेकिन यदि जान पर ही बन आए तो जीवन की बाजी लगाकर भी प्राण रक्षा के उपाय करने ही पड़ते हैं। घटनाओं का संकेत साफ है। निकट भविष्य में किसी गंभीर संकट से हिंदू समाज का सामना होने वाला है। जो हो रहा है वह आसन्न संकट की पूर्व चेतावनी है।
इस हिंसा के बीज वस्तुतः उस मानसिकता से जुड़ते हैं जिसने हिंदुस्थान का विभाजन कराया। इस हिंसा के कारण ‘लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंसकर लेंगे हिंदुस्तान’ जैसी जिन्नावादी तकरीरें रह-रहकर हमारे जेहन को फिर से कुछ सोचने और झकझोरने पर मजबूर कर रही हैं। ‘डायरेक्शन एक्शन डे’ के दिन कोलकाता और देश के अन्य स्थानों पर योजनापूर्वक किए गया रक्तपात और उसके कारण संपूर्ण देश में पसरे मातमी सन्नाटे रह-रहकर हमारे ह्दय को वेधते हैं।
सन् 1947 में मातृभूमि का विभाजन हुआ, हिंदुओं को जान-माल का नुकसान सहना पड़ा, देश का एक विशाल भूभाग भी हाथ से निकल गया। इस सौदे को अंतरराष्ट्रीय राजनय का कौन सा विश्लेषक ईमानदार सौदा कहेगा। जान भी गंवाई और मातृभूमि का विभाजन भी स्वीकार किया? क्यों हुआ था वह विभाजन? आज वह यक्ष प्रश्न फिर से हमारे सामने खड़ा हो गया है। हिंदू समाज को इसका उत्तर तो खोजना ही होगा। कहीं हम अभागे हिंदू कहीं फिर से उन्हीं दिनों की ओर तो लौट नहीं रहे! उत्तर प्रदेश में घट रही घटनाएं साधारण नहीं हैं।
इन घटनाओं के सबक केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं है। इसमें सबक सेकुलर राजनीति के झण्डाबरदारों और मुस्लिम रहनुमाओं के लिए भी है। सेकुलर राजनीति के लिए सबक यह है कि उन्हें भलीभांति समझ लेना चाहिए कि भारत में सेकुलरवाद और उनकी सेकुलर राजनीति तभी तक अकड़ के साथ जिंदा है जब तक कि देश में हिंदू बहुमत में हैं, सहिष्णु-शांत-खामोश है। बहुमतशाली हिंदू जिस दिन परिस्थिति की गंभीरता को समझकर एकजुट हुआ उस दिन सेकुलरवादी राजनीति की सारी किल्लियां और गिल्लियां एक एककर बिखर जाएंगी, फिर तो खुला खेल मुरादाबादी होगा। आजमगढ के संजरपुर जाकर बेगुनाहों के कातिलों को जो निर्दोष होने का प्रमाणपत्र बांटते घूम रहे हैं, उन्हें तो साफ समझना चाहिए कि उनके आचरण को हिंदू बहुत धैर्य के साथ देख-परख रहा है, शीघ्र वह निर्णय का एलान भी करेगा।
अंतिम बात मुसलमान रहनुमाओं से कि बीती चौदह सदियों में अल्लाह की रहमत से जन्नतें इस धरती पर किसी मुस्लिम देश को मुकम्मल क्या आधी-अधूरी भी नसीब ना हुई, उल्टे इस्लाम के अलंबरदारों में परस्पर आस्था और विश्वास को लेकर खूं-खराबा इतना बढ़ गया कि बगदाद क्या पूरा का पूरा ईराक ही इस्लाम के अपनों के बीच कर्बला का मैदान बन गया है। औसतन प्रत्येक सप्ताह सैकड़ों मुसलमान मुसलमानों के आत्मघाती हमलों में ही मारे जा रहे हैं।
आखिर इस्लाम का यह कौन सा चरित्र है कि ना तो वह गैर इस्लामियों को चैन की सांस लेने दे रहा है और ना ही संवैधानिक रूप से घोषित दारुल-इस्लामी देशों में शांति और चैन के साथ गुजर-बसर कर पा रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, फलस्तीन, ईरान तक में जो हाय-तौबा मची हुई है, उससे साफ है कि इस्लाम के बंदों को उस गंभीर मानसिक और आध्यात्मिक शांति की सख्त जरूरत है जिसे अपने बंदों को दे पाने में एक धर्म या मजहब के रूप में अब तक इस्लाम खुद ही असफल साबित हुआ है।
संभव है कि भविष्य में इस्लाम के भीतर कोई ऐसा चमत्कार घटित हो कि यह मजहब शांति और सौहार्द्र के मजहब के रूप में दुनियाभर में ख्याति अर्जित करे, लेकिन हाल-फिलहाल भारत सहित शेष विश्व में इस्लाम के कारिंदे इस्लाम के नाम पर जो कर रहे हैं, उसमें से तो यह आशा कर पाना व्यर्थ ही है।