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बिहार: जो घर जारे आपने चले हमारे साथ

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वाल्मीकि रामायण में भगवान राम से कहलवाया गया है..अपि स्वर्णमयी लंका, न में लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी…यानी हे लक्ष्मण, लंका भले ही सोने की है लेकिन मुझे बिलकुल पसंद नहीं क्‍योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है. ऐसे ही अपने जन्मभूमि से लौट कर सतीश सिंह जी द्वारा वर्णित वाकया पढ़ कर इस लिक्खर को भी अपने बिहार की याद आ गयी. अपने हाल की बिहार के सालना “हज” के दौरान ऐसे ही मिले-जुले वाकये से अपना साबका भी हुआ. विभाग चाहे केंद्र का हो या राज्य का अंततः बिहार में होने पर सब बिहारी ही हो जाता है. भाई को दरभंगा से पटना जाकर दिल्ली के लिए ट्रेन पकडनी थी, ऐन मौके पर पता चला कि मुजफ्फरपुर से आगे बस नहीं जा पा रही है. फिर पता चला के दरभंगा से पटना की ओर जाने वाली गरीब रथ आज लेट है सो वहाँ कोशिश की जा सकती है. ट्रेन मिली भी इस ट्रेन में अग्रिम आरक्षण कराने पर ही बैठना संभव हो पाटा है सो डब्बे में टीटी महोदय को अपनी समस्या बता कर एवं उनकी अनुमति लेकर साधारण टिकट के साथ उनको बैठा दिया गया. कुछ देर के बाद ही भाई का फोन आता है कि टीटी ने बिना कोई रसीद दिए उतार देने की धमकी देकर उनसे २५० रुपया की वसूली कर ली.

अब आप जैसा कि सतीश जी ने लिखा है..अगर आप संगठित हो तो क्युकर ऐसे ट्रेन को रोक ना लिया जाय और टीटी से जुर्माना सहित अपनी राशि वापस पायी जाय? समस्या सबसे बड़ी केवल नौकरशाही की है. और बिहार भी इससे ज्यादे ही ग्रस्त दिखाई दे रहा है. निश्चित ही नीतिश कुमार बिहार के लिए काफी कुछ कर रहे हैं. सही ही बिहार को देश में आज सबसे तेज़ी से रफ़्तार पकडती अर्थव्यवस्था घोषित किया गया है. ज़मीन पर आपको विकास की किरनों को देखने का अवसर भी मिलेगा. लेकिन पिछले पन्द्रह बरस के लालू दम्पात्ति राज और उससे पहले के कांग्रेस राज द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दी गयी व्यवस्था में रातों-रात आप कितने परिवर्तन की उम्मीद कर लेंगे? लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि वास्तव में जैसा उस वर्णन में भी कहा गया है, हालत को सुधारने बिहारियों को ही आगे आना पड़ेगा. पर यक्ष प्रश्न तो यह है कि आखिर वो आगे आयें कैसे. पिछले पचास वर्षों के अराजकता से निराश हो कर देश और दुनिया के कोने-कोने में जा अपनी रोजी-रोटी ढूंढ लेने वाले अनिवासियों से क्या हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वो अपना सब कुछ समेट कर वापस बिहार आ जाए. उस बिहार में जहां की जातिवादी रंगदारी, लूट और गुंडागर्दी से आहत हो कर उन लोगों को अपना बोरिया बिस्तर ले कर किसी अनजाने ठिकाने पर चला जाना पड़ा था. या उस बिहार में जहां पर लालू के पुनः पदारूढ़ होने की आशंका से फिर भी काँप रहे हैं लोग. निश्चित ही अपनी माटी अपने लोगों से भावनात्मक प्यार रखने वाले लोगों को भी ऐसा कोई फैसला लेना आत्महत्या के सामान ही लगेगा. तो आखिर विकल्प क्या है. शायद वही जो इस लेखक ने वहाँ प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी जकर रहे छात्रों से की.

लेखक के एक मित्र जिन्होनें अपने जिंदगी का कीमती दस वर्ष इन प्रतियोगिताओं को देकर भी वे पूर्णतः सफल नहीं हो पाए वो मधुबनी में इसकी तैयारी के कोचिंग चला रहे हैं. वहाँ प्रतिस्पर्द्धियों की काफी संख्या है. वही कक्षा में दो सत्र में कुछ देर छात्रों के साथ बिताने का मौका मिला. जो निवेदन वहाँ के छात्रों से था वही यहाँ भी कहना चाहूँगा कि “पलायन” बिहारियों का एक मात्र विकल्प है. जैसा कि किसी शायर ने कहा है…”सूरज की मानिंद सफर पर रोज निकालना पड़ता है. बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना.” निश्चित रूप से देश के कोने-कोने में (और विदेशों में भी) जाय. जाकर अपने मिहनत एवं प्रतिभा का डंका भी बजाएं. लेकिन मन में ये भावना अवश्य रहे कि बिहार का हर व्यक्ति अपने अपने राज्य का राजदूत रहे. उनकी कोशिश ये रहना चाहिए कि जिस तरह उनकी प्रतिभा का देश लोहा मानता है वैसे ही उनकी अच्छाइयों, भलमनसाहत का भी नाद हो. दुर्भाग्य से कुछ तो मित्रों की कृपा और कुछ हम लोगों की कारस्तानी काफी नकारात्मक छवि निर्मित हुई है. खैर..भविष्य को तलाश करने वाली आज की पीढ़ी निश्चित ही भाग्यशाली है इस मामले में कि फिलहाल उसको एक सौम्य नेतृत्व मिला है. साथ ही इस मामले में भी कि आज लाखों की संख्या में अवसर छात्रों के पास है. जिस शिक्षक से वे कोग पढ़ रहे हैं उस पीढ़ी को लड़ना पड़ता थ रेल के १०० पोस्ट तो बैंक क्लर्क के २०० पोस्ट के विरुद्ध. वो पीढ़ी इतना भाग्यशाली नहीं थी, लेकिन आज एक-एक संस्थान २०-२० हज़ार की संख्या में वेकेंसी निकाल रहे हैं. फिर राज्य में भी अवसरों में वृद्धि हुई है. बहरहाल….उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार विकास के रफ़्तार पर जिस सरपर तरीके से दौर रहा है नयी पीढ़ी उस रफ़्तार में और वृद्धि कर बिहार को अपना पुराना गौरव वापस दिलाने में मददगार होंगे..चाहे वो जहां भी निवासरत हो. इस मायने में ही लोगों को आगे आने की ज़रूरत है.

-पंकज झा

खिसकती ज़मीन के लिए पानी मांगता लश्करे तैयबा

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बीते कुछ समय से पाकिस्तान से पानी पानी की आवाजें आ रही हैं। ख़ास बात ये है कि ये आवाज़े उन दहशतगर्दों के गले से निकल रही है, जो अब तक कश्मीर का राग अलापते आए हैं। मुम्बई हमलों के मास्टर माइंड हाफिज़ सईद ने लाहौर में एक रैली की, जिसमें पानी के लिए भारत से जंग की बात कही। इस रैली में जमात उद दावा उर्फ लश्करे तैयबा के लोगों ने पानी या जंग, पानी या खून, शांति नहीं पानी चाहिए जैसी सूर्ख़ बयानगी लिखी तख्तियां थाम रखी थी। आख़िर इन लोगो को अचानक क्या हो गया कि ये कश्मीर की बात छोड़कर पानी के पीछे पड़ गए। अगर थोडे पीछे चले तो पांच फरवरी को भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में रैली के दौरानं लश्कर के सेकेन्ड कमांडर हाफ़िज अबदुल रहमान मक्की ने भी पानी के लिए भारत से जंग करने की बात कही थी। इनकी हां में हां मिलाते हुए आईएसआई के पूर्व चीफ हामिद गुल तो यहां तक कह गए कि हिन्दुस्तान से हमारा एक ही रिश्ता है और वो रिश्ता है दुश्मनी का….और इस दुश्मनी के लिए हमें परमाणु युध्द भी करना पडे, तो भी हम तैयार हैं। आख़िर ऐसा क्या हो गया कि हाफिज सईद, हाफ़िज अब्दुल रहमान मक्की जैसे ख़तरनाक दहशतगर्दो और उनके साथियों हामिद गुल के हलक सूखने लगे, कश्मीर को छोड़कर ये पानी मांगने लगे। दरअसल ये पानी मांग रहे हैं अपने जेहाद की खोती और सूखती ज़मीन के लिए। ये पानी मांग रहे हैं पाकिस्तान के अवाम के सपोट के लिए।

पाकिस्तान में कश्मीर एक ऐसा शब्द, जिसके लिए सौ गुनाह भी माफ। पाकिस्तान में अब तक जो भी हुकूमत बनी है, वो कश्मीर की माला जपते हुए ही बनी है और जिसने भी कश्मीर और भारत से शांति की बात की, उसे उख़ाड़ फेका गया। फौजी तानाशाह परवेज़ मुशरर्फ की जड़े भी तभी खुद गई थी जब वो शांति की बात सोचने लगे थे। लेकिन अफगान जेहाद के नाम पर चोट ख़ाए पाकिस्तान के अवाम अब कश्मीर जेहाद के नाम पर भी ख़ौफ ख़ा रहे हैं। वो ये जान गए हैं कि जिस जेहाद का नाम अब तक लिया जाता रहा है, वो हक़ीक़त में जेहाद नहीं, बल्कि दहशतगर्दी है और वही दहशतगर्दी रूपी जेहाद कब का अफगान की सरहद पार कर सूबा ए सरहद यानी एनडब्ल्लूएफपी के रास्ते इस्लामाबाद तक पहुंच गया है। नतीजतन, रोज़ ब रोज़ मासूम अवाम मर रहे हैं… कारोबार बेकार हो गया है। अब तो ये हालात हो गए हैं कि लोगों को लगने लगा है कि पाकिस्तान के पानी में ही लहू घुल गया है और जो ये पानी पीता है, उसका लहू या तो धमाकों में निकल बहता है या फिर वो लोगो के लहू से अपनी ज़मीन ही सुर्ख़ कर देता है। ऐसे हालात में अवाम अब कश्मीर में जेहाद को जारी रखने के लिए कतरा रहे हैं और वो दबे स्वरों में इसका विरोध भी कर रहे हैं। कई दानिशमंद तो पहले से ही इसके ख़िलाफ थे। लेकिन बम्बई हमले की लोगो ने वहां जमकर भर्त्सना की। मुम्बई हमले के बाद लश्कर उर्फ जमात उद दावा के काम और मदरसे की हक़ीक़त लोगों के सामने आने लगी… उसने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। वेसे भी कोई जेहाद किसी मासूम की जान लेने को नहीं कहता। इसके बाद से ही हाफिज़ सईद भी लोगो के जेहनी कटघरे में घिरने लगा। अफगान जेहाद से जख्म खाए पाकिस्तानी अवाम आख़िर किस हिम्मत से कश्मीर झूठे जेहाद का दम भरे।

अवाम के पीछे हटते पांव लश्कर और हाफिज़ सईद और उसके गुर्गों को मायूस कर रहे हैं। आखिर करे भी क्यों ना, इनकी दुकान भी तो 1980 से अब तक इसी के नाम पर चलती आई हैं। अगर कश्मीर में आतंकी जेहाद जारी रखने की इनकी दुकान बंद हो गई तो इनको ख़ाड़ी देशों से मिलने वाला फंड बंद हो जाएगा और ये बेरोज़गार हो जांएगे। यही बातें इन्हें सता रही हैं और ये पाकिस्तान के अवाम का समर्थन पाने के लिए इनके दिल में जगह बनाने के लिए अब ये कश्मीर के साथ-साथ पानी की जंग यानी पानी के लिए जेहाद करने की बात कर रहे हैं। साफ शब्दों में कहें तो ये अपनी दहशत की दुकान चलाना चाहते हैं। भले ही जेहाद करने के फलसफे के साथ साथ मुद्दा बदल जाए।

आज पाकिस्तान दहशत की सबसे बड़ी दुकान भी है और यहां के मासूम अवाम इसके बिन ख़रीदे खदीददार भी बन बैठें हैं। पाकिस्तान के अवाम की सुबह शुरू धमाके से होती है और शब मातम के साथ गुज़रती है। बीते साल 2009 के 365 दिनों में 500 धमाके झेल चुके पाकिस्तान के अवाम इस तबाही से आजिज़ आ चुके हैं। लेकिन वो पिस रहे है फौज और तालिबान की आपसी लड़ाई में। पाकिस्तानी फौज और आई एस आई, जो कल तक तालिबान को पालती रही, वही तालेबान अवाम और इनकी जान के दुश्मन बन बैठे हैं। पाकिस्तान के फौजी ऑपरेशन के दौरान स्वात, मिंगोरा, में जो लाखों लोग बेघर हुए, वो मासूम अवाम थे ना कि तालिबान। क्योंकि तालिबान तो कब का अपना घर बार सब छोड आए थे। फौज से बदला लेने के लिए तालिबान कभी मस्जिद, कभी बाज़ारों तो कभी किसी और जगह धमाका करते हैं और मरते रहे बेकसूर अवाम। ऐसे में अवाम तालिबान के बाद लश्कर और हिज्ब मुजाहिद्दीन को आपना नया दुशमन नहीं बनाना चाहते। कमोबेश ऐसे ही धमाके जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में होने लेगे, जब वहां के लोगों को पाकिस्तान जैसे हालात बनते दिखने लगे तो उन्होंनें भी अपने हाथ खड़े कर दिए। पीओके के लोगो के जवाब ने लशकरे तैयबा के सिर में दर्द और बढ़ा दिया। जम्मू कश्मीर के अवाम तो पहले ही जवाब दे चुके थे। ऐसे में लश्करे तैयबा को हर जगह से अपनी ज़मीन खिसकती नज़र आ रही है। ये बात जान चुकी आई एस आई और लश्करे तैयबा पानी की मांग कर लोगो को भारत के खिलाफ मुत्तहीद करने की कोशिश कर रहे हैं। पीओके के कई नेता पाकिस्तान से पहले ही ये सवाल कर चुके हैं कि क्या पाकिस्तान और हमने सारी दुनिया में जेहाद का ठेका ले रखा है। लेकिन इसका जवाब अब भी इन्हें नहीं मिल पाया है।

लश्करे तैयबा बार बार पानी के लिए भारत मुख़ालिफ जंग की बात कहकर पाकिस्तान के लोगो को यह समझाने की कोशिश कर रहा हैं कि हम अपनी नहीं, कश्मीर की नहीं, आप सब के लिए पानी की जंग करेगें और पानी हम सब की जरूरत है। लोगों को ये बताया जा रहा है कि हिंदुस्तान ने पाकिस्तान का पानी रोक रहा हैं, लेकिन कई साल पहले ही बगलिहार प्रोजेक्ट पर पाकिस्तान की आपत्ति के जवाब में वर्ल्‍ड बैंक साफ कर चुका है कि भारत पाकिस्तान का कोई पानी नहीं रोक रहा है। लेकिन फिर भी लश्कर को अपनी दुकान तो चलानी है, लोगो को तो गुमराह करना ही है। हाफिज़ सईद भी ये जानता है कि उनके मुल्क के लोग मज़हब का वास्ता देने पर तो धोख़ा खा ही जाएगें, इसीलिए वो पानी की बात के साथ साथ पाकिस्तान के मौलविओं से भी कई बार दरख्वास्त कर चुका है कि वो लोगों से कहें कि लोग हमारा साथ दें। हमारे साथ जेहाद में साथ दे…. ये सारी बातें लश्कर के मुंह से अपनी सरकती ज़मीन को देखकर निकल रही है। अब देखना है कि क्या पाकिस्तान के अवाम टूटते हैं या नहीं। एक षंका जो कि बराबर बनी हुई है कि कहीं एक बार फिर वो मज़हब के वास्ते धोख़ा ना खा जाएं।

-संदीप सिंह

बिहार के विकास के लिए बिहारियों को भी आगे आना होगा

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चौबीस मार्च को एक तरफ नीतीश कुमार की अगुआई में पूरा बिहार, बिहार दिवस मनाने में जुटा हुआ था तो दूसरी ओर सिर्फ 100 रुपये के लिए दिल्ली से पटना होकर इस्लामपुर जाने वाली मगध एक्सप्रेस को बनाही गाँव के कुछ नौजवानों ने जगदेव प्रसाद हाल्ट से लगभग 1 किलोमीटर पहले और बनाही गाँव के ठीक सामने तकरीबन दो घंटो तक के लिए अगवा कर लिया। आश्‍चर्य की बात है कि इस कार्य को अंजाम देने वाले ग्रामीण नौजवान न तो आतंकवादी थे और न ही नक्सलवादी।

घटना कुछ इस तरह से घटित हुई-कुछ नौजवान जिनकी उम्र लगभग 13 से 20 साल की रही होगी, क्रिकेट खेलकर डूमरांव (डूमरांव, बिहार के बक्सर से सटा हुआ एक कस्बानुमा गाँव है) से बिना टिकट आ रहे थे। इन लड़कों से टिकट क्लेक्टर ने बनाही गाँव से थोड़ा पहले (यह गाँव दिल्ली से पटना जाने के क्रम में बिहिंया और आरा से पहले पड़ता है) 100 रुपया बतौर जुर्माना वसूला और उसे सरकार के खाते में न डालकर अपने खाते में डाल दिया।

उन लड़कों में से कुछ ने तो टिकट क्लेक्टर की कारवाई का कोई विरोध नहीं किया, लेकिन कुछ लड़कों ने न सिर्फ अपना विरोध प्रगट किया वरन् उस टिकट क्लेक्टर से अपने दिये गये पैसों को वापस लौटाने के लिए भी कहा, पर टिकट क्लेक्टर महोदय भी अड़ियल किस्म के थे, उन्होंने पैसे वापस करने के बजाए वातानुकूलित कोच में जाकर अपने को सुरक्षित कर लिया।

इससे लड़के आगबबूला हो गये और सभी कोचों पर पथराव करने लगे। उनके समर्थन में बनाही गाँव से कुछ और लड़के आ गये। यह नाटक तकरीबन 2 घंटो तक (दोपहर 12 बजे से दोपहर 2 बजे तक) चलता रहा, लेकिन न तो वहाँ प्रशासन का कोई आदमी आया, और न ही वातानुकूलित कोच से टिकट क्लेक्टर महोदय बाहर निकले।

इस पथराव से कोई भी घायल हो सकता था। राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान तो हो रहा था, फिर भी इसकी परवाह न तो उन लड़कों को थी, न ही टिकट क्लेक्टर महोदय को और न ही यात्रियों को। लड़के 100 रुपये वापस लेने की जिद पर अड़े रहे। उनकी एकसूत्रीय माँग थी, मेरा 100 रुपया जबतक मुझे वापस नहीं मिलेगा, हमलोग ट्रेन को यहाँ से हिलने तक नहीं देंगे। जबकि पहले से ही गाड़ी चेन पुलिंग की वजह से विलंब से चल रही थी। हर पाँच मिनट के बाद स्थानीय निवासी चेन पुलिंग कर रहे थे। इनकी नजरों में यात्रियों की परेशानी की कोई कीमत नहीं थी।

बिहारी होने के कारण मेरा अपने जन्मभूमि आना-जाना हमेशा लगा रहता है। बदकिस्मती से उस दिन मैं भी उस ट्रेन के एस-1 का यात्री था। शुरु में मैं भी एक आम आदमी बना रहा, किंतु जब मुझे लगा कि स्थिति अब हद से बाहर जा रही है, तब जाकर मैंने इस पूरे मामले में हस्तक्षेप करते हुए उन लड़कों को 100 रुपये वापस दिलवाया, उसके बाद ही वहाँ से ट्रेन खुल पाई।

यह घटना तो केवल बानगी भर है। भ्रष्ट तंत्र और अवसरवादी मानसिकता के माहौल में बिहार के विकास की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं , साथ ही यदि इस तरह के परिवेश में कोई बिहारी दूसरे प्रदेश में जाकर वहीं रह जाता है, तो हम उसको किस हद तक दोषी मान सकते हैं? इस मुद्वे पर हमें निश्चित रुप से विचार करने की जरुरत है।

नीतीश बाबू बिहार के विकास के लिए लाख कोषिश करें या हम लाख बार बिहार के विकास के पक्ष में आंकड़े जुटा कर आलेख लिखें; इन प्रयासों से ही केवल बिहार का विकास नहीं हो सकता है और न ही बिहार की सकारात्मक तस्वीर लोगों के मन-मस्तिष्क में कायम हो सकती है।

बिहार का विकास बिहारी ही कर सकते हैं, पर इसके लिए उनको अपनी मन:स्थिति बदलनी होगी। विकास एकपक्षीय नहीं हो सकता है। सरकार तो अपना काम कर रही है, परन्तु इसके साथ हमें यह भी सुनिश्चित करना पड़ेगा कि हमारा सहयोग सरकार को हर कदम पर मिलता रहे।

-सतीश सिंह

डोगरी की तीव्रगामी प्रगति

जम्मू और कश्मीर में डोगरा लोगों की भाषा डोगरी एक जीवन्त भाषा है। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में डोगरी का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है और यह भी भारतीय साहित्य की समृध्दि में उल्लेखनीय योगदान दे रही है।

डोगरी लोक संगीत और विश्व प्रसिध्द बाशोली लघुचित्र भारत की समृध्दि धरोहर के गौरवशाली अंश हैं। इसके अतिरिक्त, बहादुर डोगरा योध्दाओं की साहसिक कारगुजारियां भारतीय इतिहास की गौरवपूर्ण गाथाओं में शामिल हैं। न केवल उनकी समृध्द कला और सांस्कृतिक धरोहर, बल्कि उनकी मातृभाषा डोगरी भारतीय साहित्य को संपन्न और समृध्द बना रही है। विशेष रूप से पिछले 6 दशकों में डोगरी साहित्य ने प्रगति की है, वह ध्यान देने योग्य है। महाराजा रणवीर सिंह (1857-1885) के शासनकाल के दौरान डोगरी जम्मू और कश्मीर राज्य की सरकारी भाषा थी। उर्दू तो बाद में राज्य की सरकारी भाषा और शिक्षा का माध्यम बनी।

अतीत में डोगरी वर्णमाला को गणमत कहा जाता था। बाद में महाराजा रणवीर सिंह के समय इसको सुधार कर नामे अक्खर नाम दिया गया। एक सरकारी समिति की संस्तुति पर 1955 में डोगरी के लिये देवनागरी लिपि को अपनाया गया और वर्ष 1957 में इसे राज्य के संविधान में शामिल कर लिया गया।

जम्मू और कश्मीर देश का एकमात्र राज्य है, जिसका अपना पृथक संविधान है। राज्य के संविधान में उर्दू को राजभाषा का स्थान दिया गया है, परन्तु इसमें यह भी कहा गया है कि जब तक विधायिका द्वारा अन्य कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं की जाती, सभी सरकारी कार्यों के लिये अंग्रेजी का उपयोग होता रहेगा। कश्मीरी, डोगरी, गोजरी (गूजरी), बाल्टी (पाली), दर्दी, पंजाबी, पहाड़ी और लद्दाखी को क्षेत्रीय भाषाओं के तौर पर राज्य के संविधान की छठी अनुसूची में सम्मिलित किया गया है । देश के सबसे उत्तर में स्थित यह राज्य सामरिक दृष्टि से अति संवेदनशील होने के साथ-साथ बहुभाषी और बहु-प्रजातीय है, जहां सभी वर्गों और भाषाओं को विकास और प्रगति के लिये समुचित अवसर प्रदान किये गए हैं।

जीवंत भाषा

कश्मीरी भाषा को 1950 में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कर दिया गया था, परन्तु डोगरी को इस तर्क के आधार पर छोड़ दिया गया था कि एक राज्य से केवल एक भाषा को ही लिया जा सकता है। साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति और लम्बे संघर्ष के बाद डोगरी को भी 22 दिसम्बर, 2003 को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हो गया और भारत के संविधान में इस भाषा को उसका नियत स्थान मिल गया। इस सम्मान को हासिल करने के बाद डोगरी भाषा के लिये अवसरों के नए वातायन खुल गए हैं, और साथ ही इसकी तीव्र प्रगति के लिये कुछ चुनौतियाँ भी पेश की हैं।

डोगरी भाषा के संवर्धन और लोक व्यापीकरण के लिये 1944 में स्थापित डोगरी संस्था नामक स्वैच्छिक संगठन ने अग्रणी भूमिका निभाई है । इस भाषा की चर्चा सुर्खियों में उस समय आई जब दीनू भाई पंत ने 1945में गुत्तालुन (गुदगुदी) नाम से डोगरी में हास्य पुस्तिका की रचना की। इस पुस्तका ने डोगरी के प्रति लोगों में खूब रुचि जगाई और पुस्तका के साथ-साथ भाषा को भी काफी लोकप्रियता मिली।

संपोषणीय प्रगति

संस्था के प्रयासों से डोगरी भाषाप्रेमियों में पुनर्जागरण शुरू हुआ और अन्य भाषाओं के लेखकों में भी डोगरी साहित्य को अपनाने में रुचि दिखाई देने लगी। विभिन्न विषयों और विधाओं पर डोगरी में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। डोगरी संस्था ने एक माहौल बनाया तो अन्य अनेक गैर-सरकारी संगठन भी साहित्यिक संवेग को सुविधाजनक बनाने के इस प्रयास में सहभागी बनने के लिये सामने आना शुरू हो गए।

जम्मू और कश्मीर सरकार ने राज्य की साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु वर्ष 1950 के दशक में कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की स्थापना की। दूरदर्शन भी इस भाषा के प्रचार और प्रसार में अपना योगदान दे रहा है।

नई दिल्ली स्थित साहित्य अकादमी ने 1969 में डोगरी भाषा को मान्यता प्रदान की और डोगरी भाषा के लेखकों तथा कवियों को साहित्य एवं भाषा के विकास में योगदान के लिये वार्षिक पुरस्कार देना शुरू किया। इसने डोगरी को अपने प्रकाशनों में स्थान देकर और अनेक संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं का आयोजन कर अति आवश्यक प्रोत्साहन दिया है।

डोगरी संस्था ने, कश्मीरी की तरह डोगरी को भी प्राथमिक स्तर पर अनिवार्य रूप से लागू किये जाने की मांग की है। उचित पुस्तकों और पाठयक्रम की रचना कर विशेषज्ञों ने इसकी जमीन तैयार कर दी है। कुछ महाविद्यालयों और जम्मू विश्वविद्यालय में डोगरी पढ़ाई जा रही है। इस भाषा में 6 अंकों के शब्दकोष डोगरी-डोगरी और हिंदी-डोगरी में उपलब्ध है। डोगरी लोक कथाओं का संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। लेखकों और कवियों के मार्गदर्शन के लिये केन्द्रीय भारतीय भाषा संस्थान मैसूर और डोगरी संस्था के विशेषज्ञों के सहयोग से एक स्टाइल बुक (शैली पुस्तक) का प्रकाशन भी किया जा चुका है। भगवत गीता, टैगोर (रवीन्द्र नाथ टैगोर) की कुछ प्रसिध्द कृतियों और प्रेमचन्द्र की गोदान जैसी अमर साहित्यिक रचनाओं का अनुवाद भी डोगरी भाषा में आ चुका है और इस प्रकार अन्य भाषाओं की महान रचनाओं का डोगरी में अनुवाद की प्रवृत्ति अब गति पकड़ रही है। भाषा विकास का श्रेयात्मक और वृहद प्रयास जारी है। डोगरी में नए-नए शब्दों को समाहित किया जा रहा है, नई प्रवृत्तियों और विषय वस्तुओं को अंगीकर किया जा रहा है।

वर्तमान में, अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की तरह, डोगरी भाषा को भी अनेक चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। वैश्वीकरण, छोटी, बड़ी, स्थानीय–सभी चीजों की तरह भाषाओं और संस्कृतियों को भी निगलता जा रहा है । इस समस्या से निपटने के लिये, इस बात को समझना होगा कि वैश्वीकरण को अपनी शक्ति और पोषण, मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी के लगातार विकसित और बढ रहे साधनों से ही मिलती है ।

भारतीय संविधान में डोगरी के शामिल हो जाने से इसके तीव्र विकास की अनेक संभावनायें खुल गई हैं। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग से डोगरी भाषा के विकास को स्थायी रूप दिया जा सकता है।

डोगरी-आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी) समझ

क्षेत्रीय भाषाओं की भावी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उन्हें समर्थ बनाने में सूचना प्रोद्योगिकी के साधनों के विकास के महत्त्व को स्वीकार करते हुए, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग ने सभी भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर टूल्स (साधनों) के विकास की पहल की है। इसमें संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाएं शामिल हैं। इस योजना के तहत, हाल ही में, भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग और सी डैक (सी-डीएसी) ने सार्वजनिक उपयोग के लिये डोगरी में सॉफ्टवेयर प्रोग्राम और टूल्स नि:शुल्क जारी किये हैं। विकास और प्रगति के नए क्षितिज को छूने के लिये इन नौ सॉफ्टवेयर पैकेजों में कम्प्यूटर और इंटरनेट के व्यापक उपयोग पर जोर दिया गया है। डोगरी भाषा तीव्र गति से बढ़ रही है और भारतीय साहित्य में अपना ठोस योगदान दे रही है।

-ओ.पी.शर्मा

क्या यह हिंसा ही अल्लाह की खिदमत है!

उत्तर प्रदेश में घट रही घटनाएं साधारण नहीं हैं। यूपी के मायाराज और दिल्ली के सोनियाराज में सेकुलर राजनीति के दुष्परिणाम हिंदू अपनी बहन-बेटियों की अस्मत और अपने तीर्थ-त्योहारों की कीमत देकर चुका रहे हैं। विगत दिनों जो कुछ बरेली में हुआ और जो अब रायबरेली में हो रहा है, उससे तो यही सबक मिलता है।

उत्तर प्रदेश में जारी हिंसा का ताण्डव सभ्य समाज को बहुत कुछ समझने और समझाने के लिए पर्याप्त है। जिहादी कठमुल्ला समाज अपनी ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकाते हुए सामाजिक सौहार्द्र और सहिष्णुता की परंपरा को बार-बार ललकार रहा है। कहने के लिए तो अल्पसंख्यक किंतु बात-बात पर बांहे और लुंगी-पजामे चढ़ाए हिंसा पर उतारू इन कथित ‘अल्पसंख्यकों’ का यह खूंखार वहशियाना व्यवहार! इस पर क्या टिप्पणी की जा सकती है। ऐसे में प्रतिहिंसा भड़क जाए तो कौन जिम्मेदार होगा। याद रखिए कि गोधरा ने गुजरात को महीनों जलने के लिए मजबूर कर दिया था।

होली, विजया दशमी और दिवाली हिंदुओं के पवित्र त्योहार हैं। नवरात्रों का पर्व समस्त भारतीयता को आनन्द और उत्सव के भक्ति रस में उत्तर से लेकर दक्षिण तक सराबोर कर देता है। इन त्योहारों पर वर्ग विशेष द्वारा बार-बार तनाव पैदा करना, छोटी-छोटी बातों को मजहब विरोधी बताकर उसे तूल देना कहीं से भी सहिष्णु और समझदार मानसिकता का परिचय नहीं है।

हजारों लोग रंग खेल रहे हों और उसमें से उड़ता हुआ अबीर-गुलाल, रंग यदि कहीं किसी के ऊपर थोड़ा सा पड़ जाए, किसी मस्जिद की दीवार रंग की कुछ बूंदों से रंगीन हो उठे, दीपक की रौशनी में कहीं किसी घर-आंगन में पटाखों की आवाज चेहरे पर मुस्कान बिखेरे और दूर अंधेरे आकाश में आतिशबाजी के प्रकाश में जब लोग जिंदगी की खुशी के कुछ पलों का आनन्द ले रहे हों तब किसी समूह विशेष के पेट में इन उत्सवों और आनन्द-परंपरा को लेकर मरोड़ उठने लगे, कुछ लोग इसे बंद कराने के लिए व्याकुल हो उठें तो इसे पागलपन और उन्माद के सिवाय क्या कहेंगे।

यह उन्माद आखिर क्यों छंटने और खत्म होने का नाम नहीं लेता। क्यों यह बड़वानल की भांति दिन-दूना, रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। कभी मऊ में तो कभी पड़रौना-कुशीनगर में, कभी आजमगढ़, अलीगढ़ में तो कभी गोरखपुर में और अब बरेली-रायबरेली में…।

कारण कुछ भी हों लेकिन इतना तो सत्य है कि बीते पांच वर्षों में उत्तर प्रदेश में जहां भी दंगे भड़के वहां हिंदू किसी भी कारण से क्यों ना हो, उस समय निशाने पर लिए गया जबकि संपूर्ण समाज किसी ना किसी उत्सव और भक्ति-भावना के आवेग में उल्लसित, आनन्द से ओत-प्रोत था।

पड़रौना-कुशीनगर में करीब पांच वर्ष पूर्व जन्माष्टमी के उत्सव के पूर्व एक कस्बे में जिहादी मुसलमानों ने इस बात पर आपत्ति कर दी कि हिंदुओं के भगवान कृष्ण का डोला उनकी बस्ती से नहीं गुजरेगा। इस घटना के कुछ महीने बाद गोरखपुर में एक बारात में नाचते-गाते, आतिशबाजी करते हुए जाते लोगों पर केवल इस बात के लिए हमला बोल दिया गया कि उन्होंने मना करने के बावजूद आतिशबाजी क्यों जारी रखी। और तो और बारात में से जबरन खींचकर एक हिंदू युवक को तलवार घोंपकर दिन-दहाड़े मार डाला गया।

आजमगढ़ में एक विद्यार्थी को दिनदहाड़े एक अल्पसंख्यक महाविद्यालय में तीन वर्ष पूर्व केवल इसलिए छुरा घोंपकर मार डाला गया क्योंकि वह कथित तौर पर एक हिंदू संगठन के लिए काम करता था। इसके बाद विरोध प्रदर्शन करने के लिए आजमगढ़ पहुंचे भाजपा सांसद एवं गोरक्षपीठ के युवा उत्तराधिकारी योगी आदित्य नाथ के वाहनों के काफिले पर केवल इसलिए भीषण हमला बोल दिया गया कि उन्होंने मुस्लिम मोहल्ले से जाने की हिमाकत क्यों की।

और इसी प्रकार की रक्तरंजित होली कुछ वर्ष पूर्व विजयादशमी के समय मऊ में खेली गई। मऊ के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में सैंकड़ों वर्षों के इतिहास में पहली बार सन्नाटा छा गया, रामलीला हिंसा के कारण रूक गई या कहिए रूकवा दी गई। भरत मिलाप के समय मैदान के समीप स्थित मदरसे से कुछ टोपीधारी युवक निकलते हैं और यह कहते हुए ध्वनिवर्धक यंत्र के तार तोड़कर फेंक देते हैं कि आवाज अनावश्यक है, बिना ‘लाउड स्पीकर’ के तुम लोग राम की भक्ति करो। इस पर जब लोग आपत्ति करते हैं तो एक माफिया-सरगना विधायक के इशारे पर सारे शहर को रौंदकर रख दिया जाता है। हिंदू हिंदुस्थान में ही डर-भय के साथ जीने के लिए किस कदर अभिशप्त हो गया है, इसका रोंगटे खड़ेकर देने वाला उदाहरण उत्तर प्रदेश की जनता ने मऊ में अभी कुछ ही वर्ष पूर्व देखा था।

अलीगढ़ में तो तीन वर्ष पूर्व आततायियों ने स्थानीय भाजपा विधायक के सरल-सीधे पुत्र को ही हिंसा का शिकार बनाया। वहां भी झगड़ा एक मंदिर में हिंदुओं के पूजा-अर्चना को लेकर शुरू हुआ था। विधायक पुत्र को जान से मारने के बाद उसका खतनाकर उसके शव को दफनाने और फिर उसके नकली मां-बाप बनकर सरकारी सहायता पाने की हद तक नृशंसतापूर्ण व्यवहार दंगाई जिहादी समाज ने अलीगढ़ में प्रदर्शित किया था। किसी लाश के साथ किया गया यह कितना नीच-निकृष्ट कर्म था, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। सैंकड़ो लोग मारे गए कथित मुसलमान को मिट्टी देने उसके ज़नाजे तक में शामिल हुए। यह तो भला हो एक सूत्र का जिसने दफनाए गए विधायक पुत्र के बारे में सच्चाई से उसके पिता को अवगत कराया। और निश्चित रूप से यदि मारे गए हिंदू युवक का पिता विधायक ना होता तो फिर किसकी जुर्रत थी जो जमीन में मुस्लिम रीति से दफना दिए गए शव को फिर से निकलवाकर उसका हिंदू रीति से अंत्य संस्कार कर पाता।

इस बार की होली पर बरेली में षड़यंत्रपूर्वक हिंसा का नग्न तांडव खेला गया। योजनापूर्वक हिंदू घरों, दुकानों को आग के हवालेकर हिंदू मां-बेटियों की अस्मत के साथ सिरफिरे जिहादियों ने खिलवाड़ की कोशिश की। हिंसा और दंगे के सरगना मौलाना तौकीर रज़ा के विरूद्ध जब प्रशासन ने नकेल कसी तो मौलाना के समर्थन में हजारों लोगों ने उपद्रव को इतना उग्र रूप दे दिया कि सरकार झुकने को मजबूर हो गई। परिणामतः जिन्हें जेल की सीखचों के भीतर होना चाहिए था, उन्हें पुलिस प्रशासन ने लखनऊ में बैठे कथित आकाओं के इशारे पर खुला घूमने की आजादी दे दी।

और अब ताजा उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी और अब संप्रग सुप्रीमो सोनिया गांधी के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में दिख रहा है जहां कि 21 मार्च, रविवार को शिव भक्तों के जुलूस पर हमला बोला गया। इस घटना के कारण जब तनाव चरम पर था तभी नवरात्रों के उत्सव के बीच एक देवी मंदिर के दर्शन के लिए गए श्रद्धालुओं पर हमलाकर कुछ ऐसा प्रदर्शन किया गया कि उनके इस कार्य से खुदा की शान में इजाफा होता है। मानो इन हमलावरों से बड़ा इस्लाम का खिदमतगार कोई दूसरा नहीं है।

इन घटनाओं का सबक समझने में हिंदुओं को देर नहीं लगनी चाहिए। प्रतिक्रिया देना भारत की सहिष्णु जीवन परंपरा के विपरीत है लेकिन यदि जान पर ही बन आए तो जीवन की बाजी लगाकर भी प्राण रक्षा के उपाय करने ही पड़ते हैं। घटनाओं का संकेत साफ है। निकट भविष्य में किसी गंभीर संकट से हिंदू समाज का सामना होने वाला है। जो हो रहा है वह आसन्न संकट की पूर्व चेतावनी है।

इस हिंसा के बीज वस्तुतः उस मानसिकता से जुड़ते हैं जिसने हिंदुस्थान का विभाजन कराया। इस हिंसा के कारण ‘लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंसकर लेंगे हिंदुस्तान’ जैसी जिन्नावादी तकरीरें रह-रहकर हमारे जेहन को फिर से कुछ सोचने और झकझोरने पर मजबूर कर रही हैं। ‘डायरेक्शन एक्शन डे’ के दिन कोलकाता और देश के अन्य स्थानों पर योजनापूर्वक किए गया रक्तपात और उसके कारण संपूर्ण देश में पसरे मातमी सन्नाटे रह-रहकर हमारे ह्दय को वेधते हैं।

सन् 1947 में मातृभूमि का विभाजन हुआ, हिंदुओं को जान-माल का नुकसान सहना पड़ा, देश का एक विशाल भूभाग भी हाथ से निकल गया। इस सौदे को अंतरराष्ट्रीय राजनय का कौन सा विश्लेषक ईमानदार सौदा कहेगा। जान भी गंवाई और मातृभूमि का विभाजन भी स्वीकार किया? क्यों हुआ था वह विभाजन? आज वह यक्ष प्रश्न फिर से हमारे सामने खड़ा हो गया है। हिंदू समाज को इसका उत्तर तो खोजना ही होगा। कहीं हम अभागे हिंदू कहीं फिर से उन्हीं दिनों की ओर तो लौट नहीं रहे! उत्तर प्रदेश में घट रही घटनाएं साधारण नहीं हैं।

इन घटनाओं के सबक केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं है। इसमें सबक सेकुलर राजनीति के झण्डाबरदारों और मुस्लिम रहनुमाओं के लिए भी है। सेकुलर राजनीति के लिए सबक यह है कि उन्हें भलीभांति समझ लेना चाहिए कि भारत में सेकुलरवाद और उनकी सेकुलर राजनीति तभी तक अकड़ के साथ जिंदा है जब तक कि देश में हिंदू बहुमत में हैं, सहिष्णु-शांत-खामोश है। बहुमतशाली हिंदू जिस दिन परिस्थिति की गंभीरता को समझकर एकजुट हुआ उस दिन सेकुलरवादी राजनीति की सारी किल्लियां और गिल्लियां एक एककर बिखर जाएंगी, फिर तो खुला खेल मुरादाबादी होगा। आजमगढ के संजरपुर जाकर बेगुनाहों के कातिलों को जो निर्दोष होने का प्रमाणपत्र बांटते घूम रहे हैं, उन्हें तो साफ समझना चाहिए कि उनके आचरण को हिंदू बहुत धैर्य के साथ देख-परख रहा है, शीघ्र वह निर्णय का एलान भी करेगा।

अंतिम बात मुसलमान रहनुमाओं से कि बीती चौदह सदियों में अल्लाह की रहमत से जन्नतें इस धरती पर किसी मुस्लिम देश को मुकम्मल क्या आधी-अधूरी भी नसीब ना हुई, उल्टे इस्लाम के अलंबरदारों में परस्पर आस्था और विश्वास को लेकर खूं-खराबा इतना बढ़ गया कि बगदाद क्या पूरा का पूरा ईराक ही इस्लाम के अपनों के बीच कर्बला का मैदान बन गया है। औसतन प्रत्येक सप्ताह सैकड़ों मुसलमान मुसलमानों के आत्मघाती हमलों में ही मारे जा रहे हैं।

आखिर इस्लाम का यह कौन सा चरित्र है कि ना तो वह गैर इस्लामियों को चैन की सांस लेने दे रहा है और ना ही संवैधानिक रूप से घोषित दारुल-इस्लामी देशों में शांति और चैन के साथ गुजर-बसर कर पा रहा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, फलस्तीन, ईरान तक में जो हाय-तौबा मची हुई है, उससे साफ है कि इस्लाम के बंदों को उस गंभीर मानसिक और आध्यात्मिक शांति की सख्त जरूरत है जिसे अपने बंदों को दे पाने में एक धर्म या मजहब के रूप में अब तक इस्लाम खुद ही असफल साबित हुआ है।

संभव है कि भविष्य में इस्लाम के भीतर कोई ऐसा चमत्कार घटित हो कि यह मजहब शांति और सौहार्द्र के मजहब के रूप में दुनियाभर में ख्याति अर्जित करे, लेकिन हाल-फिलहाल भारत सहित शेष विश्व में इस्लाम के कारिंदे इस्लाम के नाम पर जो कर रहे हैं, उसमें से तो यह आशा कर पाना व्यर्थ ही है।

हिन्दी समीक्षकों का बेसुरा हिन्दीराग

हिन्दी शोध जगत गंभीर गतिरोध के दौर से गुजर रहा है। नए और चुनौतीपूर्ण विषयों के प्रति रूझान घटा है। वर्तमान के प्रति हमने आंखें बंद कर ली हैं। शोध को दोयमदर्जे का लेखन मान लिया है।

अनुसंधान और गंभीर चिन्तनरहित विवेक का ही चारों ओर जयगान हो रहा है। शोध के प्रति गंभीर उपेक्षा का आलम है कि शोध के प्रकाशन की कोई समुचित व्यवस्था का हिन्दी में कोई इंतजाम नहीं है। प्रकाशक शोधग्रन्थ छापने के पैसे मांगते हैं। शोध को बेच लेते हैं किन्तु एक भी पैसा लेखक को नहीं देते।

शोध और आलोचना, शोध और शिक्षण के बीच विराट अंतराल पैदा हो गया है। हमारे शोधार्थी जो अनुसंधान करते हैं उसे आलोचक और इतिहासकार कभी अपने लेखन और विमर्श का हिस्सा नहीं बनाते। स्थिति यहां तक बदतर हो गयी है कि प्रतिष्ठित समीक्षक कभी किसी अनुसंधान का अपने लेखन में उल्लेख तक नहीं करते।

हिन्दी के चर्चित प्राध्यापक- समीक्षकों में शोध के प्रति अलगाव, आलस्य और उपेक्षापूर्ण रवैय्ये की जड़ें हमारी आलोचना और इतिहास में गहरे छिपी हुई हैं। इसके कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए।

हिन्दी में शोध की उपेक्षा का प्रधान कारण है खोज के प्रति एडवेंचर का अभाव, नए के प्रति अनास्था, परजीवीपन, इतिहास और आलोचना का शोध के साथ अलगाव, शिक्षकों में स्वयं नए के प्रति खोज की मानसिकता का अभाव, वर्तमान समय को न जानने की प्रवृत्ति, स्वयं को बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति, अन्य को छोटा दिखाने की मानसिकता।

शिक्षक-आलोचक यह मानते हैं कि महत्वपूर्ण तो पहले वाले इतिहासकार कह गए हैं ,अब उसमें नया कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो लिखा है वह पत्थर की लकीर है। नामवर ने जो कहा है वह स्वर्णाक्षर में लिखा जाने योग्य है। मुक्तिबोध ने जो लिख दिया है उसे प्रणाम करके स्वीकार करो। इन सबके अलावा जो लोग लिख रहे हैं उसमें नया कुछ भी नहीं है। इस तरह की मानसिकता हमारे साहित्यिक और अकादमिक परिद्दश्य के पतन की द्योतक है।

सवाल किया जाना चाहिए कि रामचन्द्र शुक्ल वगैरह को पत्थर की लकीर क्यों बनाया गया? रूढि क्यों बनाया गया? साहित्य शिक्षा में इस तरह के रूढिवाद को किसने जन्म दिया?

असल में यह खास किस्म का सामंतवाद है जो हिन्दी में पैदा हुआ है। इसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं। यह नए से डरता है,विचारों का जोखिम उठाने से डरता है। साहित्य सैद्धान्तिकी से डरता है। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृद्ध करने में अपनी हेटी समझता है। स्वयं दूसरों का चुराता है और उसे मौलिकता के नाम पर परोसता है। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इसकी एकदम दिलचस्पी नहीं

है।

आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते।

एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती। वे पूरी तरह अतीत में और अतीत में ही नहीं, रेती के टीले में सिर गडाए बैठे हैं। वे न तो कुछ सुनते और न कुछ देखते हैं। वे न तो कुछ सीखते और न कुछ सिखाते हैं।

ऐसे ही शिक्षक-समीक्षक हमारे आराध्य हैं। अन्नदाता हैं। नौकरी दिलाने वाले हैं। डिग्री दिलाने वाले हैं। ऐसे में हिन्दी अनुसंधान का भविष्य और वर्तमान आशाविहीन नजर आता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जिन पर हमने आशाएं टिकायी हुई हैं।

वे इस लायक नहीं हैं कि किसी को आशान्वित कर सकें। ऐसे शिक्षक-आलोचक बड़े पद हासिल कर सकते हैं। नौकरियां दिला सकते हैं। लेकिन हिन्दी को ज्ञानसंपन्न नहीं कर सकते। हिन्दी प्रोफेसरों की ज्ञान विपन्नता का ही यह दुष्परिणाम है कि आज हमारे पास हिन्दी का सुसंगत रूप में लिखा मुकम्मल इतिहास तक उपलब्ध नहीं है। कल्पना कीजिए रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आरंभिक कार्य न किया होता तो हम कितने गरीब होते? इन दोनों इतिहासकारों की इतिहास कृतियां हिन्दी के विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयार की गई थीं।

हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को शिक्षा का जरिया नहीं बना पाए है। वे पढ़ाने और बोलने को प्रथमकोटि का काम मानते हैं और शोध को दूसरे दर्जे का काम मानते हैं।

वे वादानुवाद के लिए तो किसी कृति पर चर्चा करेंगे किन्तु उस कृति को इतिहास और आलोचना के इतिहास में शामिल करके विद्यार्थियों को लाभान्वित नहीं होने देते। इस सबका प्रधान कारण है हमारे हिन्दी विभागों का वर्तमान की वास्तविकता के साथ एकदम संबंध विच्छेद।

हिन्दी विभागों के शिक्षकों और विद्यार्थियों को देखकर लगता नहीं है कि ये लोग इस युग के लोग हैं। वे जिस मासूमियत और अज्ञानता के साथ वर्तमान के साथ पेश आते हैं उसके कारण सारा माहौल और भी बिगड़ा है।

विद्यार्थियों में मरासूमियत और अज्ञानता को बनाए रखने में शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। वे ज्ञान को बांटने में नहीं ज्ञान को चुराने में सिद्धहस्त हैं।

कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा नजर आता है। हिन्दी के शिक्षक भोंदू ,आरामतलब, ज्ञान-विज्ञान की चिन्ताओं से दूर और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में ही मशगूल रहते हैं। ऐसी अवस्था में हिन्दी का शोध और शिक्षा का गतिरोध कैसे खत्म हो?

शिक्षकों ने हिन्दी शोध के बारे में मिथ बनाए हैं और बड़े घटिया मिथ बनाए हैं, यह कहावत प्रचलन में है रिसर्च यानी चार किताब पढ़कर पांचवी किताब लिखना या फिर नकल।

हमारे शिक्षकों ने कभी इस मिथ के खिलाफ मुहिम भी नहीं चलायी। बल्कि इस धारणा को तरह-तरह से पुष्ट करते रहते हैं। इसके विपरीत होता यह है कि यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध कर रहा है या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने में ,केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षक सबसे आगे होते हैं और कहते हुए मिलते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं। हल्का लिख रहे हैं।

-जगदीश्वर चतुर्वेदी

एक सामाजिक प्रश्नः बिन फेरे हम तेरे

परिवार नाम की संस्था को बचाने आगे आएं नौजवान

भारत और उसकी परिवार व्यवस्था की ओर पश्चिम भौंचक होकर देख रहा है। भारतीय जीवन की यह एक विशेषता उसकी तमाम कमियों पर भारी है। इसने समाज जीवन में संतुलन के साथ-साथ मर्यादा और अनुशासन का जो पाठ हमें पढ़ाया है उससे लंबे समय तक हमारा समाज तमाम विकृतियों को उजागर रूप से करने का साहस नहीं पाल पाया। आज का समय वर्जनाओं के टूटने का समय है। सो परिवार व्यवस्था भी निशाने पर है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ही एक विचार दिया है जिसमें कहा गया है कि शादी से पहले संबंध बनाना अपराध नहीं है। 24 मार्च के अखबारों में यह जैसी और जितनी खबर छपी है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कह रही है। क्योंकि दो बालिग लोगों को साथ रहने पर सवाल उठाने वाले हम कौन होते हैं। कानून भी उनका कुछ नहीं कर सकता। प्रथमदृष्ट्या तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि कोई दो वयस्क साथ रहते हैं तो इसमें क्या किया जा सकता है।

भारतीय समाज भी अब ऐसी लीलाओं का अभ्यस्त हो रहा है। हमारे बड़े शहरों ने सहजीवन की नई परंपरा को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया है। सहजीवन का यह विस्तार शायद आने वाले दिनों में उन शहरों और कस्बों तक भी हो जहां ये बातें बहुत स्वीकार्य नहीं मानी जातीं। किंतु क्या हम अपने समाज की इस विकृति को स्वीकृति देकर भारतीय समाज के मूल चरित्र को बदलने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। क्या इससे परिवार नाम की संस्था को खोखला करने का काम हम नहीं करेंगें। अदालत ने जो बात कही है वह कानूनी पहलू के मद्देनजर कही है। जाहिर है अदालत को अपनी सीमाएं पता हैं। वे किसी भी बिंदु के कानूनी पहले के मद्देनजर ही अपनी बात कहते हैं। किंतु यह सवाल कानूनी से ज्यादा सामाजिक है। इसपर इसी नजर से विचार करना होगा। यह भी सोचना होगा कि इसके सामाजिक प्रभाव क्या होंगें और यदि भारतीय समाज में यह फैशन आमचलन बन गया तो इसके क्या परिणाम हमें भोगने होंगें। भारतीय समाज दरअसल एक परंपरावादी समाज है। उसने लंबे समय तक अपनी परंपराओं और मान्यताओं के साथ जीने की अभ्यास किया है। समाज जीवन पूरी तरह शुद्ध है तथा उसमें किसी तरह की विकृति नहीं थी ऐसा तो नहीं है किंतु समाज में अच्छे को आदर देने और विकृति को तिरस्कृत करने की भावना थी। किंतु नई समाज रचना में व्यक्ति के सदगुणों का स्थान धन ने ले लिया है। पैसे वालों को किसी की परवाह नहीं रहती। वे अपने धन से सम्मान खरीद लेते हैं या प्राप्त कर लेते हैं। कानून ने तो सहजीवन को मान्यता देकर इस विकृति का निदान खोज लिया है किंतु भारत जैसे समाज में इसके कितने तरह के प्रभाव पड़ेंगें इसका आकलन अभी शेष है। स्त्री मुक्ति के प्रश्न भी इससे जुड़े हैं। सामाजिक मान्यता के प्रश्न तो हैं ही। आज जिस तरह समाज बदला है, उसकी मान्यताएं भी बदली हैं। एक बराबरी का रिश्ता चलाने की चाहना भी पैदा हुयी है। विवाह नाम की संस्था शायद इसीलिए कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिख रही होगी किंतु वह भारतीय समाज जीवन का सौंदर्य है। ऐसे में इस तरह के विचार निश्चय ही युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं। युवा स्वभाव से ही अग्रगामी होता है। कोई भी नया विचार उसे आकर्षित करता है। सहजीवन भी एक नया विचार है। युवा पीढ़ी इस तरफ झुक सकती है।

आप देखें तो इस पूरी प्रकिया को मीडिया भी लोकप्रिय बनाने में लगा है। महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है। वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं। दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ हैं। ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है। सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं। इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद अचानक नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं। कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती। मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की। उसका विमर्श है-देह ‘जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म’ जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है। जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है। अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का डै। कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है।

अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देह राग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण। सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं। यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए। अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया। इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं। हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं। कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है। अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमें बिना बात नहीं बनती। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं। लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं। ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही महिला पत्रकारिता का मूल विमर्श है। जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गया है। बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं। नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। जाहिर तौर समाज के सामने चुनौती कठिन है। उसे इन सवालों के बीच ही अपनी परंपराएं, परिवार नाम की संस्था दोनों को बचाना है। क्योंकि भारत की आत्मा तो इसी परंपरागत परिवार में रहती है उसे और किसी विकल्प में खोजना शायद बेमानी होगा।

-संजय द्विवेदी

कानू सान्याल: एक सफल योद्धा का असफल अंत

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“नक्सल आंदोलन के जनक कानू सान्याल ने खुदकुशी की.”यह पढकर मेरे मन में तरह-तरह की भावनाएं हिलोरें लेने लगी, जिसको शब्द देना संभव ही नहीं है. एक अवांछित दुःख, एक स्वाभाविक निराशा, समाज में अपनी छाप छोड़ जाने वाले नेताओं के अवसान की तरह श्रद्धांजलि का भाव, एक ऊर्जावान एवं निष्ठावान पुरुष की सेवाओं से देश को लाभान्वित न हो पाने का अफ़सोस, जनता एवं मजदूरों की पीड़ा को महसूस करने वाले व्यक्ति का दुखद अंत या एक क्रांतिकारी के अपने नियत-नियति को पा जाना. एक असफल एवं अपनों के द्वारा ही उपेक्षित मानव द्वारा हताश या निराशा में की गयी आत्मघाती कारवाई या अपने कर्मों के लिए “अंत भला तो सब भला” का विलोम बन जाने की अभिशप्ति. “कानू” इनमें से किसी एक या सभी विशेषणों के हकदार थे यह जानना या अपने मानस के उथल-पुथल को कोई उचित शब्द दिया जाना मुश्किल है.

उपरोक्त सभी भावनाएं समाज के मुख्य धारा में जुडकर काम करने वाले किसी अगुए के लिए तो समीचीन है. लेकिन यह जानते हुए भी कि “कानू” नक्सलवाद के जनक कहे जाते हैं. उस वाद के जो कोढ़ की तरह खाए जा रहा है छत्तीसगढ़ को, उस नक्सलवाद के जो आज लोकतंत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है. उस नक्सलवाद के जिसके लिए आज की तारीख में किसी का भी जान ले लेना ककड़ी और खीरे को काट देने के बराबर है. उस नक्सलवाद के जिसके लिए क्रूरतम हत्या के मामले में कम से कम कथित बुर्जुआ और सर्वहारा में कोई फर्क नहीं है. तो ऐसे किसी भी वाद के जनक के लिए क्यूंकर कर कोई सकारात्मक शब्द निकले आखिर. लेकिन अगर आज उनके अवसान पर सहानुभूति का भाव ही आ रहा है तो इसके मायने ढूंढे जाने की ज़रूरत है. खास कर इस परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी प्रासंगिक हो गया है कि अपने अंत समय में अपने आंदोलन का जनक यह नेता अपने ही मानस पुत्रों पर कुपित था. मुख्य धारा के चिंतकों की तरह वह भी नक्सलवाद को एक “आतंक” के रूप में ही मानने लगे थे. लेकिन तब पछताने से क्या हासिल होना था जब “चिड़िया चुग गयी थी खेत.” क्या उनकी कुंठा को परमाणु के जनक उस वैज्ञानिक की तरह देखे जाने की ज़रूरत है जो “हिरोशिमा और नागासाकी” के बाद अपने ही आविष्कार पर पछता रहा था? शायद समग्रता में देखें तो हाँ. पूरी दुनिया में एक अच्छे विचार की तरह माने गए “साम्यवाद” को वास्तविक जीवन में क्यूं-कर आखिर कलंकित होने को ही अभिशप्त होना पड़ा है ? तर्कों के सहारे तो नहीं लेकिन आस्थाओं, भारतीय परम्पराओं एवं सिद्धान्तों के सहारे इसका शायद जबाब ढूँढना संभव होगा.

एक पुराने कहावत को थोडा सा संशोधित कर किसी ने साम्यवाद के बारे में कहा है “अगर सत्ताईस वर्ष की उम्र तक कोई कम्युनिष्ट नहीं हुआ तो उसके पास दिल नहीं है और अगर इस उम्र के बाद भी कोई कम्मुनिष्ट ही बना रहा तो उसके पास दिमाग नहीं है.” हलके-फुल्के ढंग से कही गयी इन बातों के सहारे कुछ सार ढूँढना समीचीन होगा. मोटे तौर पर किसी पुराने सिद्धांत का आशय ही यही होता है कि व्यक्तिशः हर बार आपको प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं होती. अपने प्रयोगों में हज़ार बार असफल होने के बाद एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने कहा कि वे इसलिए सफल माने जायेंगे क्युकी उन्होंने हज़ार ऐसे तरीके खोज कर निकाले हैं जो काम के नहीं हैं, यानी अब किसी को इन हज़ार प्रयोग करने के जद्दोजहद की ज़रूरत नहीं होगी. सीधी सी बात यह है कि अगर हर व्यक्ति हत्या करने के बाद यह समझे कि हत्या करना उचित नहीं है तो अराजकता ही फैलेगी. तो समाज विज्ञानियों, अगुओं के लिए भी “कानू” का हाराकिरी यही सन्देश देता है कि सफल और असफल प्रयोगों के बाद स्थापित हो गए सिद्धांतों के आधार पर “सत्ताईस बर्ष” तक की अपनी उर्जा एवं प्रतिभा का सम्यक उपयोग करते हुए, देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपने मार्ग का संधान करें. जैसा कि तुलसी ने कहा है “प्रथम मुनिन्ह जेहि कीरति गाई तेहि मग चलत सुगम मोहि भाई ”.

अमेरिका के “एआईजी कम्पनी” के दिवालिया होने पर लिखे अपने आलेख में प्रकाश करात ने एक बहुत अच्छी बात कही थी. बकौल प्रकाश “यह वामपंथी दवाव के कारण ही संभव हुआ कि सरकार को शत-प्रतिशत विदेशी निवेश के अपने फैसले से पीछे हट जाना पड़ा. आप कल्पना करें कि अगर आज एआईजी को भारत में शत-प्रतिशत निवेश की अनुमति दे दी गयी होती तो देश के करोड़ों निवेशकों के साथ क्या होता.” लेकिन आप सोचें करात अपने मिशन में इसलिए ही सफल हो पाए न क्युकी उनके पास मुख्यधारा के राजनीति की ताकत थी. कानूनी रूप से उन्हें देश की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने का हक था. सरकार पर दवाव बनाए रखने का नैतिक अधिकार था. क्या भूमिगत होकर, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से अलग हटकर वे सरकार को मजबूर कर सकते थे? आज वामपंथियों का यह कहना भी सही हो सकता है कि सूचना का अधिकार, नरेगा (अब मनरेगा) आदि क्रांतिकारी क़ानून भी उन्ही के दवाव के कारण लागू होना संभव हुआ है. लेकिन ये तो संभव तभी हो पाया न जब आपने संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान करते हुए अपने पुराने विचार को नयी ऊर्जा के साथ प्रस्तुत करना स्वीकार किया. क्या भूमिगत होकर हत्या और बलात्कार करने वाले कथित नक्सलियों के पास ऐसी कोई उपलब्धि है? नेपाल के राष्ट्रप्रमुख बनने के बाद खुद प्रचंड ने यह आधिकारिक रूप से स्वीकार किया था कि किसी गुरिल्ला युद्ध से ज्यादा कठिन होता है सत्ता का संचालन. तो बिना किसी जिम्मेदारी के हज़ारों करोड की वसूली, अकारण मजलूमों की हत्या समेत हर तरह के देशद्रोही कारनामों को अंजाम देने के बदले पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित जनतांत्रिक प्रणाली का उपयोग करने का कठिन लेकिन शाश्वत मार्ग अपना कर अपनी जिम्मेदारियों का परिचय देने से भारत के नक्सलियों को कौन रोक रहा है? अभी वही माओवादी जब नेपाल में लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए मर-खप रहे हैं तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की धारा में खुद को समाहित कर लेने में क्या बुराई है? लाख बुराइयों के बावजूद यहाँ के डेमोक्रेसी की साख पूरी दुनिया में बदस्तूर है. तो अगर वास्तव में दम है आपके विचारों में तो फिर ऐसा व्यभिचार क्यू?

लेकिन सवाल बस इतना है कि “मीठा-मीठा गप्प और करवा-करवा थू” नहीं चलेगा. ये नहीं चलेगा कि जहां सत्ता मिलने की सम्भावना हो वहाँ कामेश्वर बैठा की तरह लार टपकाने लगे. दुर्दांत नक्सली के रूप में कुख्यात कामेश्वर ने जेएमएम का टिकट मिलते ही प्रचंड की तरह ही लोकतांत्रिक बाना ओढ़ सांसद बनना तय कर लिया. आज भी झामुमो से कई नक्सली विधानसभा तक की देहरी लांघने में सफल हुए हैं. तो अवसरवादिता नहीं चलेगी और लोकतंत्र भी आपके लिए कोई आसान विकल्प थाली में परोस कर नहीं प्रस्तुत कर देगा. लोगों के दिलों तक पहुचने की प्रतिस्पर्द्धा निश्चय ही बीहड़ों में वसूली से कठिन ही होगा आपके लिए. लेकिन अगर वास्तव में आपके पास विचारों की नैतिक ताकत है तो इतनी तो तपस्या आपको करनी ही पड़ेगी. यह केवल और केवल आपके लिए ही अच्छा होगा. भारत में लोकतंत्र की जड़ें इतनी मज़बूत है कि नक्सलियों द्वारा सौ दो सौ हत्याकर दिए जाने से कमजोर नहीं पड़ने वाला. इससे कई गुना लोग तो हर साल सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं. साथ ही ढेर सारे गुंडे-मवालियों से निपटने का देश को अनुभव भी काफी है. लेकिन ठेकेदारों, व्यवसायियों के टुकड़ों पर पलने, जानवरों की जिंदगी और ऐसी ही मौत मरने से बेहतर तो यही होगा कि आप राष्ट्र निर्माण के पुनीत यज्ञ में सहभागी बनें. भारतीय मनीषा कहता है कि आपने कैसा जीवन जीया ये आपके मौत के तरीके से ही समझा जा सकता है. विलक्षण व्यक्तित्व कानु जी के अंत समय में मोहभंग और उनके त्रासद अंत को आज के उनके औरस पुत्र नक्सली एक सबक के तौर पर ही ले सकते हैं. अन्यथा जब उनके जैसे ईमानदार व्यक्ति की मुख्यधारा से हट जाने के बाद ऐसी दुर्गति हो सकती तो आज नक्सली बना ओढ़े लुटेरों की क्या बिसात?

– पंकज झा

साध्वी एक कदम आगे दो कदम पीछे!

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भारतीय जनशक्ति पार्टी की सुप्रीमो उमाश्री भारती ने अपने ही दल से त्याग पत्र दे दिया है, यह खबर चौंकाने वाली ही मानी जाएगी। मीडिया ने उमाश्री के इस कदम को जोर शोर से उछाला है। वास्तव में हुआ क्या है! अरे उमाश्री ने तीन माह का अवकाश मांगा है, और कुछ नहीं। हर एक मनुष्य को काम करने के बाद अवकाश की आवश्यक्ता होती है। सरकारी सेवकों को भी तेरह दिन के सामान्य अवकाश के साथ अर्जित और मेडीकल लीव का प्रावधान है, तब उमाश्री ने अगर तीन माह का अवकाश मांग लिया तो हंगामा क्यों बरपा है। कुछ दिनों पहले कांग्रेस द्वारा अपनी उपेक्षा की पीडा का दंश झेल रहे कांग्रेस की राजनीति के हाशिए में ढकेल दिए गए चाणक्य कुंवर अर्जन सिंह ने मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कहा था कि वे जीवन भार राजनीति करते रहे और अब उमर के इस पडाव में अपने द्वारा अर्जित अवकाश का उपभोग कर रहे हैं, तब तो हंगामा नहीं हुआ था।

उमाश्री भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया है। उन्होंने भाजश छोडी है, अथवा नहीं यह बात अभी साफ नहीं हो सकी है। गौरतलब होगा कि 2005 में भाजपा से बाहर धकिया दिए जाने के बाद अपने ही साथियों की हरकतों से क्षुब्ध होकर उमाश्री भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी का गठन किया था। उमाश्री ने उस वक्त भाजपा के शीर्ष नेता एल.के.आडवाणी को आडे हाथों लिया था। कोसने में माहिर उमाश्री ने भाजपा का चेहरा समझे जाने वाले अटल बिहारी बाजपेयी को भी नही ंबख्शा था।

उमाश्री के इस कदम से भाजपा में खलबली मच गई थी। चूंकि उस वक्त तक उमाश्री भारती को जनाधार वाला नेता (मास लीडर) माना जाता था, अत: भाजपाईयों के मन में खौफ होना स्वाभाविक ही था।

उमाश्री को करीब से जानने वाले भाजपा नेताओं ने इस बात की परवाह कतई नहीं की। उमाश्री ने 2003 में मध्य प्रदेश विधान सभा के चुनावी महासमर का आगाज मध्य प्रदेश के छिंदवाडा जिले में अवस्थित हनुमान जी के सिध्द स्थल ”जाम सांवरी” से किया था। जामसांवरी उमाश्री के लिए काफी लाभदायक सिध्द हुआ था, सो 2005 में भी उमाश्री ने हनुमान जी के दर्शन कर अपना काम आरंभ किया। उमाश्री का कारवां आगे बढा और भाजपाईयों के मन का डर भी। शनै: शनै: उमाश्री ने अपनी ही कारगुजारियों से भाजश का उभरता ग्राफ और भाजपाईयों के डर को गर्त में ले जाना आरंभ कर दिया।

कभी चुनाव मैदान में प्रत्याशी उतारने के बाद कदम वापस खीच लेना तो कभी कोई नया शिगूफा। इससे उमाश्री के साथ चलने वालों का विश्वास डिगना आरंभ हो गया। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजश कार्यकर्ताओं ने उमाश्री को चुनाव मैदान में कूदने का दबाव बनाया। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि एसा इसलिए किया गया था ताकि भाजश कम से कम चुनाव तक तो मैदान में डटी रहे। कार्यकर्ताओं को भय था कि कहीं उमाश्री फिर भाजपा के किसी लालीपाप के सामने अपने प्रत्याशियों को वापस लेने की घोषणा न कर दे। 2008 का मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव उमाश्री भारती के लिए आत्मघाती कदम ही साबित हुआ। इस चुनाव में उमाश्री भारती अपनी कर्मभूमि टीकमगढ से ही औंधे मुंह गिर गईं। कभी भाजपा की सूत्रधार रहीं फायर ब्रांड नेत्री उमाश्री भारती ने इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में फिर एक बार भाजपा द्वारा उनके प्रति नरम रूख मात्र किए जाने से उन्होंने लोकसभा में अपने प्रत्याशियों को नहीं उतारा।

उमाश्री भारती का राजनैतिक इतिहास देखने पर साफ हो जाता है कि उनके कदम और ताल में कहीं से कहीं तक सामंजस्य नहीं मिल पाता है। वे कहतीं कुछ और हैं, और वास्तविकता में होता कुछ और नजर आता है। गुस्सा उमाश्री के नाक पर ही बैठा रहता है। बाद में भले ही वे अपने इस गुस्से के कारण बनी स्थितियों पर पछतावा करतीं और विलाप करतीं होंगी, किन्तु पुरानी कहावत ”अब पछताए का होत है, जब चिडिया चुग गई खेत” से उन्हें अवश्य ही सबक लेना चाहिए।

मध्य प्रदेश में उनके ही दमखम पर राजा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली दस साला सरकार को हाशिए में समेट पाई थी भाजपा। उमाश्री भारती मुख्य मंत्री बनीं फिर झंडा प्रकरण के चलते 2004 के अंत में उन्हें कुर्सी छोडनी पडी। इसके बाद एक बार फिर नाटकीय घटनाक्रम के उपरांत वे पैदल यात्रा पर निकल पडीं। मीडिया में वे छाई रहीं किन्तु जनमानस में उनकी छवि इससे बहुत अच्छी बन पाई हो इस बात को सभी स्वीकार कर सकते हैं।

अबकी बार उमाश्री भारती ने अपने द्वारा ही बुनी गई पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया है। उन्होंने कार्यकारी अध्यक्ष संघप्रिय गौतम को त्यागपत्र सौंपते हुए कहा है कि वे स्वास्थ्य कारणों से अपना दायित्व निभाने में सक्षम नहीं हैं, सो वे अपने आप को समस्त दायित्वों से मुक्त कर रहीं हैं, इतना ही नहीं उन्होंने बाबूराम निषाद को पार्टी का नया अध्यक्ष बनाने की पेशकश भी कर डाली है। उमाश्री की इस पेशकश से पार्टी में विघटन की स्थिति बनने से इंकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वे चाहतीं तो संघप्रिय गौतम पर ही भरोसा जताकर उन्हें अध्यक्ष बनाने की पेशकश कर देतीं।

उधर भाजपा ने अभी भी उमाश्री भारती के मामले में मौन साध रखा है। यद्यपि भाजपा प्रवक्ता तरूण विजय का कहना है कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है, फिर भी भाजपा अपने उस स्टेंड पर कायम है, जिसमें भाजपा के नए निजाम ने उमाश्री भारती और कल्याण सिंह जैसे लोगों की घर वापसी की संभावनाओं को खारिज नहीं किया था। कल तक थिंक टेंक समझे जाने वाले गोविंदाचार्य से पूछ पूछ कर एक एक कदम चलने वाली उमाश्री के इस कदम के मामले में गोविंदाचार्य का मौन भी आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। बकौल गोविंदाचार्य -”भाजपा अब भगवा छटा वाली कांग्रेस पार्टी हो गई है।” अभी हाल ही में उमाश्री को भाजपा के एक प्रोग्राम में देखा गया था, जिसमें नितिन गडकरी मौजूद थे। भाजपा द्वारा उमाश्री भारती की इन सारी ध्रष्टताओं को माफ कर अगर गले लगा लिया जाता है तो क्या भरोसा कि आने वाले समय में वे किसी छोटी मोटी बात से आहत होकर फिर भाजपा को कोसें और अब उनके निशाने पर अटल आडवाणी का स्थान नितिन गडकरी ले लें।

-लिमटी खरे

स्कूली बच्चों से गए गुजरे हैं ”जनसेवक”

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देश की जनता जिन पर भरोसा कर उन्हें जनादेश देकर देश की सबसे बडी पंचायत ”लोकसभा” में अपने भविष्य के सपने गढने की गरज से भेजती है, वे ही ”जनसेवक” लोकसभा में उपस्थिति दर्ज कराने के बजाए अपना ही भविष्य गढने में लग जाते हैं। लोकसभा में अनुपस्थित रहने के साथ ही साथ अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों के हितों के मामलों में उपेक्षात्मक रवैया अपनाकर न केवल ये जनसेवक अपने निहित स्वार्थ साधते हैं, वरन ये इन्हें मिले जनादेश का भी अनादर ही करते हैं।

जनसेवक भले ही अपने बच्चों को शालाओं में शत प्रतिशत उपस्थिति देने को पाबंद रहने के उपदेश देते हों, पर जब इनकी अपनी बारी आती है तो ये जिम्मेदारियों से मुंह मोडने में गुरेज नहीं करते हैं। लोकसभा की उपस्थिति पंजी पर अगर नजर डाली जाए तो कुछ इसी तरह की बातें निकलकर सामने आती हैं। बजट सत्र के पहले चरण में 22 से 15 मार्च तक के कार्यकाल में ही 544 में से महज 162 संसद सदस्यों ने रोजाना सदन में आकर उपस्थिति दर्ज करवाई है।

विचित्र किन्तु सत्य यहीं देखने को मिलता है। एक ओर कांग्रेस की राजमाता और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस संसदीय दल की हर बैठक में सांसदों को सदन में मौजूद रहने पर जोर देती हों, पर जब उनका अपना रिपोर्ट कार्ड देखा जाता है तो वे ही पिछडती नजर आती हैं। गौरतलब होगा कि परमाणु दायित्व विधेयक एवं अन्य मसलों पर सरकार को पहले ही काफी लानत मलानत झेलनी पडी थी। आश्चर्य तो तब होता है जब आम बजट और लेखानुदान मांगों पर चर्चा के दौरान ही सदन में कोरम भी पूरा नहीं हो पाता है।

बजट सत्र के पहले चरण में 22 मार्च से 16 मार्च तक सदन में कुल 15 बैठकें आहूत हुईं हैं। लोकसभा की उपस्थिति पंजी पर नजर डाली जाए तो नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषम स्वराज, राजग के पीएम इन वेटिंग एल.के.आडवाणी, समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के गुरूदास दासगुप्ता, मार्क्‍सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के वासुदेव आचार्य की उपस्थिति सदन में शत प्रतिशत रही है। कांग्रेस की राजमाता श्रीमती सोनिया गांधी सदन में महज 10 दिन तो युवराज राहुल गांधी ने 13 दिन हाजिरी दी है। कल्याण सिंह और रूपहले पर्दे की अदाकारा जया प्रदा महज एक एक दिन ही अपनी सूरत दिखाने सदन में गए।

सवाल यह उठता है कि आखिर इन जनसेवकों के पास सदन में मौजूद रहने के अलावा एसा कौन सा जरूरी काम है, जिसके चलते ये सदन से गायब रहते हैं। समूचे हिन्दुस्तान में इनका सडक, रेल या वायूमार्ग से आवागमन वह भी विलासिता वाली श्रेणी में बिल्कुल मुफ्त होता है। दिल्ली में रहने को आरामदायक निशुल्क आवास, निशुल्क बिजली एवं अन्य सुविधाओं के होते हुए ये जनसेवक आखिर लोकसभा से गायब रहने में ज्यादा दिलचस्पी क्यों लेते हैं। गौरतलब होगा कि एक प्रोग्राम के दौरान कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी ने अपनी पीडा का इजहार करते हुए भले ही मजाक में यह कहा था कि क्लास बंक करने का मजा कुछ और ही होता है। यहां सोनिया का क्लास से तातपर्य लोकसभा से ही था।

जनता अपने द्वारा दिए गए विशाल जनादेश प्राप्त जनसेवकों से पूछना चाहती है कि आखिर कौन सी एसी वजह है, जिसके चलते ये सदन की कार्यवाही में भाग लेने से इतर कोई और दूसरे काम में अपने आप को झोंक देते हैं। देखा जाए तो इन जनसेवकों की पहली जवाबदारी उनके संसदीय क्षेत्र के लोगों की समस्याओं को सरकार के सामने लाकर उसे दूर करना है। विडम्बना ही कही जाएगी कि आज की राजनीति में गलत परंपराओं का संवर्धन किया जा रहा है।

चुनाव के उपरांत परिणामों का एनालिसिस कुछ इस तरह से किया जाता है कि जिस क्षेत्र से उन्हें वोट नहीं मिलते हैं, उस क्षेत्र के लोगों को नारकीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है, और जहां लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया हो उस क्षेत्र को चमन बना दिया जाता है। यही आलम कार्यकर्ताओं का होता है। धडों में बंटे राजनीतिक दलों में जनसेवक अपने अनुयाईयों को पूरी तरह उपकृत कर दूसरे के फालोअर्स की जडों में मठ्ठा डालने से नहीं चूकते हैं।

बहरहाल, जनसेवकों की लोकसभा में इस तरह समाप्त होती दिलचस्पी को बहुत अच्छा शगुन नहीं माना जा सकता है। जिस तरह एक सरकारी कर्मचारी को आकस्मिक, अर्जित और स्वास्थ्य अवकाश मिलता है, उसी तरह चुने गए या मनोनीत जनसेवकों के लिए भी एक आचार संहिता बनकर इसका कडाई से पालन सुनिश्चित होना चाहिए। निर्धारित दिनों से ज्यादा अगर जनसेवक अपने कर्तव्यों से नदारत रहता है, तो उसके वेतन में से दुगनी राशि काटकर सरकारी खाते में जमा करा देना चाहिए। वर्तमान में चुने और मनोनीत जनसेवकों के लिए आचार संहिता है, पर परिस्थितियों को देखकर उसे पर्याप्त नहीं माना जा सकता है।

जब आना, जाना, रहना, बिजली पानी आदि सब कुछ निशुल्क है तो फिर संसद सत्र के दौरान बंक (स्कूल कालेज में पढाई के दौरान विद्यालय या कालेज से गायब रहने के लिए विद्यार्थियों द्वारा प्रयुक्त एक शब्द) मारने का ओचित्य समझ से परे ही है। विद्यार्थियों को तो जुलाई से अप्रेल तक दस माह लगातार (अवकाशों को छोडकर) अपने गुरूकुल जाना होता है, पर संसद के संत्र तो पूरे साल नहीं चला करते। इन जनसेवकों को पगार किस बात की मिलती है, क्या इनकी जवाबदेही तय नहीं होना चाहिए, क्या इन्हें मौज करने और मलाई खाने तथा रसूख दिखाने के लिए जनता के गाढे पसीने की कमाई दी जाती है, आदि न जाने कितने अनुत्तरित प्रश्न देश की जनता के मानस पटल पर उभरते होंगे। नए नियम कायदों में सरकारी नौकर को पेंशन से वंचित रखा जा रहा है, पर जनसेवक चाहे सांसद हो या विधायक उसे बराबर पेंशन की पात्रता आज भी न केवल बरकरार है, वरन् उसे गाहे बेगाहे बढाने के प्रस्ताव भी ध्वनि मत से पारित कर दिए जाते हैं। इस तरह का भेदभाव ‘अनेकता में एकता’ वाले इस हिन्दुस्तान में ही संभव है।

-लिमटी खरे

छत्तीसगढ़: राजनेता बनाम नौकरशाह

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छत्तीसगढ़ की पिछली सरकार अपनी पारी पूरे करने जा रही है. बस चंद दिन शेष हैं. कुछ अन्य लोगों के साथ यह लेखक भी मुख्यमंत्री से मिलने मंत्रालय में बैठा है. साथ में आदिवासी वर्ग से चुने गए एक संसदीय सचिव (विधायक एवं राज्यमंत्री का दर्ज़ा) भी बैठे हैं. तभी सीएम के चेंबर से मुख्य सचिव का निकलना होता है. बहुत ही दयनीय भाव और चेहरा पर जबरन की मुस्कराहट लिए संसदीय सचिव झटके से खड़े होकर हाथ जोड़कर अधिकारी को प्रणाम करते हैं पर एक उचटती हुई निगाह एवं अफसरी रौब चेहरे पर ग़ालिब किये मुख्य सचिव बिना कुछ बोले कमरे से बाहर निकल जाता है. गोया उसे प्रणाम करने वाला जन-प्रतिनिधि की कोई हैसियत ही नहीं हो उसके लिए. लोकतंत्र का यह हाल देखकर ठगा सा रह जाता हू साथ ही सोचने लगता हूँ….पता नहीं क्या-क्या!,

आज जब पंचायत मंत्री रामविचार नेताम द्वारा एक राज्य सेवा के प्रशासनिक अधिकारी के साथ किये गए कथित दुर्व्यवहार पर काफी कुछ लगातार लिखा जा रहा है तो अनायास ही वह प्रसंग याद आ गया. ऊपर के प्रसंग के बहाने किसी घटना को उचित ठहराना अपना मकसद नहीं है और ना ही इस घटना में पीड़ित किसी अधिकारी की पीड़ा को कम करके आंकना है. वास्तव में किसी भी ऊचे पर बैठे व्यक्ति से संयमित रहने की अपेक्षा करना उचित है. किसी मंत्री से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद की भी नहीं जा सकती. लेकिन इस मामले में अभी तक जो भी लिखा गया है उससे परे एक दुसरे पक्ष पर भी सोचने की ज़रूरत है. ऊपर वर्णित आँखों देखी और इस घटना के बहाने जनता, जनप्रतिनिधि एवं नौकरशाहों के अंतर्संबंध पर थोडा विमर्श किया जाना भी आवश्यक है., जैसा कि सब जानते हैं कि लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों एवं मंत्रियों के पास सत्ता की शक्तियां निहित होती है. अगर कोई मंत्री इरादतन या नाराज़ हो कर किसी अधिकारी को सबक सिखाना चाहे तो उसके पास कई रास्ते होते हैं. आखिर इस घटना में एकबारगी ऐसा क्या हो गया कि मंत्री को आप खो कर ऐसा कदम उठाना पड़ जाता है. सीधी सी बात है कि विपक्षी दलों द्वारा भी प्रदेश सरकार पर जो सबसे बड़े आरोप लगाए जाते हैं उसमें ये मुख्य रहता है कि छत्तीसगढ़ में नौकरशाही बेलगाम हो गयी है. भ्रष्ट, लापरवाह एवं अहंकारी नौकरशाही से आज प्रदेश की जनता किस कदर परेशान है यह आप आम जन की तो बात छोडिये, खास कहे जाने वाले लोगों से भी दरयाफ्त कर सकते हैं.

कुछ और उदाहरण देखिये…प्रदेश में बहुप्रसारित इलेक्ट्रोनिक मीडिया की एक पत्रकार “प्रियंका कौशल” को हाल ही में मंत्रालय के एक अधिकारी ने अपने कमरे से धक्के दे कर बाहर निकाल दिया था. प्रियंका का “कसूर” केवल इतना था कि उसने बगल के एक बदतमीज़ अधिकारी से यह सवाल पूछ लिया था कि बगल वाले अधिकारी कब आयेंगे. केवल इसीलिए उस महिला पत्रकार को अपमानित होकर उस चेंबर से निकलना पड़ा और बाकी के सभी अधिकारी भी अपने कलीग की ही तरफदारी करते नज़र आये., इसी तरह एक और पत्रकार की कहानी है. मुख्य मंत्री आवास के अधिकारियों द्वारा उनके लिए कोरबा में कमरे का आरक्षण करवाया गया था. ऐन नए साल के दिन वो पत्रकार अपने पूरे परिवार एवं बच्चों के साथ शहर में भटकते रहे और प्रोटोकोल अधिकारी अपना मोबाइल बंद करके सोया रहा. बार-बार कन्फर्म करने के बावजूद भी वहाँ पर किसी भी तरह की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी. ठंडी की उस रात अपने बच्चों के साथ बड़ी मुश्किल से वो अनजाने शहर में किसी तरह रुकने का अपना बंदोबस्त कर पाए. इसी तरह प्रदेश के एक बड़े अधिकारी की ख्याति ही इसीलिए है कि वह अपने ही मंत्री के खिलाफ जब-तब तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर बयानबाजी करते रहते हैं. एक बार तो अपने किसी समर्थक लेखक से उन्होंने यही लिखबा दिया कि नक्सली और राजनेता (सम्बंधित मंत्री) उनके खिलाफ “लामबंद” हो गए हैं. ऐसे ही एक दिन आयकर का छापा एक आईएएस के यहाँ पड़ता है और पता चलता है कि उसने एक ही गांव के गरीबों के नाम पर 250 के करीब फर्जी बैंक खातों में करोडों की काली कमाई को जमा कर रखा है. बहुत मुश्किल से बनायी गयी तेज़ी से विकसित हो रहे इस प्रदेश छवि एक झटके में तार-तार हो जाती है. देश भर में केवल यहाँ के भ्रष्टाचार की चर्चा शुरू हो जाती है. “लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में….तुम रहम नहीं खाते बस्तियां जलाने में.”

अधिकारियों के गुरुर और भ्रष्टाचार के ऐसे दर्ज़नों उदाहरण और गिनाए जा सकते हैं. बाबूलाल को छोड़कर उपरोक्त वर्णित जितने भी उदाहरण हैं उसमे “पीड़ित” विशिष्ट कहे जाने वाले लोग ही हैं. तो इन चुनिन्दा नजीरों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आखिर आम लोगों के साथ इन नौकरशाहों के द्वारा क्या और कैसा सलूक किया जाता होगा, “जब रात है ऐसी मतवाली तो सुबह का आलम क्या होगा”. यह भी एक तथ्य है कि बहुधा अपने कार्यकलापों से ये अधिकारीगण खासकर आदिवासी जन प्रतिनिधियों को उपेक्षित और अपमानित करने से बाज़ नहीं आते. सीधी सी बात ये है कि आप कितनी भी बड़ी प्रतियोगिता से चुनकर आये कितने भी बड़े तीसमार खां हों, अन्ततः लोकतंत्र की शक्तियां जनता और उनके प्रतिनिधियों में ही निहित हुआ करती है. अगर आपके मन में उनके प्रति सम्मान का भाव हो तो आखिर किसी मंत्री को अपने पद को दाव पर लगा ऐसे किसी कदम को उठाने की ज़रूरत ही नही होगी. यहाँ आशय किसी के भी क़ानून को हाथ में ले लेने का औचित्य निरूपण करना नहीं है. आलोच्य घटना के बहाने बस निवेदन यही है कि जनता के पैसे से वेतन पाने वाले नौकरगण अगर अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे, अगर उन्हें ये महसूस हो जाए कि उनकी शान के लिए गरीबों के पसीनों की कमाई का ही सबसे बड़ा हिस्सा खर्च होता है, अतः उन्हें जन और जन-प्रतिनिधियों के प्रति जिम्मेदार रहना है तो शायद ऐसी नौबत ही नहीं आये. खबर आ रही है उस कथित घटना के लिए अधिकारियों का संघ भी उद्वेलित-आंदोलित है. ऐसे सभी संघ को उत्तर प्रदेश के अपने बिरादरी से सबक लेने की भी ज़रूरत है.

हर तरह के नकारात्मक कारणों के लिए जाने-जाने वाले उत्तर प्रदेश के अधिकारियों के संघ ने कम से कम इस मामले में देश को राह दिखाई है. वहाँ पर खुद ही आगे बढ़ कर अधिकारीगण अपने बीच के भ्रष्ट और अक्षम अधिकारियों की बकायदा सूची जारी करते हैं. छत्तीसगढ़ में भी उसका अनुकरण कर यहाँ के प्रशासनिक अधिकारी उपरोक्त वर्णित घटनाओं पर नियंत्रण करने में सफल हो सकते हैं. लेकिन उसके लिए आवश्यक ये होगा कि सबसे पहले अपने विशिष्ट होने के अहंकार का परित्याग करें. अगर वे सेवक भावना से काम कर अपनी जिम्मेदारियों का विनीत भाव से निर्वहन करेंगे, लोक और उसके तंत्र में अपनी आस्था का बदस्तूर प्रदर्शन करते रहेंगे तो फिर स्वाभाविक सम्मान का हकदार वे हो सकेंगे. कहावत है कि शिखर पर पहुचना नहीं उस पर आरुढ रहना महतत्वपूर्ण है तो एक बार प्रतिश्पर्द्धा में सफल हो जाने पर लोकतंत्र उनके जिंदगी भर आरूढ़ रहने की गारंटी मुहय्या कराता है जबकि इसके उलट किसी जन-प्रतिनिधि को तो हर समय अग्नि परीक्षा से गुजरना होता है. हर पांच साल( और कई बार उससे पहले भी) उन्हें अपने पद पर बने या बने रहने के लिए जनता से अनुमति लेनी होती है. तो इस आलोक में नौकरशाहों को चाहिए कि वे जनता एवं लोकतंत्र के प्रति कृतज्ञ रहे और हर तरह के अहंकार से खुद को मुक्त रहे. उपरोक्त का सबसे बड़ा सन्देश शायद यही है.

-पंकज झा

नक्सलवाद और मीडिया

छत्तीसगढ़ के एक प्रादेशिक चैनल में काम करते हुए एक बार नक्सलियों के विचारों और कार्यशैली को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। इस दौरान नक्सलियों ने तत्कालीन गृहमंत्री को जान से मारने को लिये एक धमकी भरा पत्र लिखा था जिसे सबसे पहले मीडिया मे हमारे चैनल ने दिखाया यह दिन की सबसे बड़ी ख़बर तो थी ही लेकिन इस ख़बर ने मुझे इस बात को सोचने में मज़बूर कर दिया कि आखिर इन नक्सलियों की मांगें इस तरह से क्यों हैं औऱ मीडिया ने सामाजिक पहलू से इस पूरी बिरदारी और इनकी जायज या नाजायज मांगों के बीच क्या भूमिका निभाई। नक्सलवाद कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का वो अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्यूनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ।

नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई जहाँ भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ मे सत्ता के खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की थी। इन कामरेडों का मानना था कि भारतीय मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और परिणामस्वरुप कृषितंत्र पर दबदबा हो गया है; और यह सिर्फ़ सशस्त्र क्रांति से ही खत्म किया जा सकता है। १९६७ में “नक्सलवादियों” ने कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से अलग हो गये और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। १९७१ में मजूमदार की मौत के बाद नक्सलवाद कई शाखाओं में बट गया और अलग अलग पार्टियां बना कर काम करने लगा। लेकिन जैसे जैसे नक्सलवादियों का प्रभाव समाज में बढने लगा इनके आंदोलन का मूल सिंद्धात भी बदलता गया वर्तमान में नक्सलबाद सिर्फ एक भटका हुआ आंदोलन मात्र बनकर रह गया है। कुछ अशांत दिमाग के चलते शोषण मुक्त समाज की अवधारणा वाले इस आंदोलन ने लोगों को वेबज़ह परेशान करने और आमदनी का एक ज़रिया मात्र बनाकर रख दिया है। नक्सलवाद का मूल सिंद्धात बदलकर अब सिर्फ हिंसा तक केंद्रित रह गया है। इनका संघर्ष सर्वहिताय से हटकर राजनैतिक सत्ता के लिए संघर्ष मात्र बनकर रह गया है।

….अगर हम बात करें छतीसगढ की तो आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र की तो यहां पुलिस दवाब से बचने के लिये बस्तर में तीन दशक पुर्व आये नक्‍सलियों ने प्रारम्भ में तो बस्तर के वन प्रान्त को सिर्फ शरण स्थाली के रूप में इस्तोमाल किया परन्तु कालान्तर में उन्होंने महसूस किया यहां भी कमावेश शोषण की वही हालात मौजूद है जिसके वह विरोध करते रहें है। आंध्र और महाराष्‍ट्र की सीमा में शरण लेने पहुचे नक्‍सलियों ने अपने लिये बस्तर में अनुकूल आशंका रहित वातावरण स्रजित करने के लिऐ क्षेत्रीय ग्रामीणों के बीच अपनी पैठ बनाई। शोषण के विरूद्ध उनकी इस लडाई ने जहां एक तरफ दमन कारी शासकीय नीतियों और सरकारी शोषणकर्ताओं से उन्हें मुक्ति दिलाई वही नक्सललियों को दादा जैसे सम्मान तक पहुचा दिया लेकिन समय के साथ ही नक्सललियों के इस शोषण विरोधी अभियान का स्वरूप बदलता गया और आज एक सामाजिक शूल के रूप में सामने आया है।

आज नक्सलियों का जो स्वरूप है उसकी वजह सिर्फ उनका हाथियार आतंक है जिसकी वजह उनकी हिंसा है। इस वजह से अब उन्हें उथ्धा के रूप में देखने का वातावरण समाप्त हो चुका है और पाचं सालों बाद यही प्रशासन ने ग्रीन हंट छेड दिया है। इस आपरेशन हंट में नक्सलियों के दमन में मीडियों की महत्वपूर्ण भुमिका रही है। जिसके चलते नक्सलियों पर मानसिक दबाव बना है।

रही बात मीडिया की तो नक्सलवाद से जुड़ी हर ख़बर को लेकर उत्साहित मीडिया ने कभी भी इस बात को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई कि नक्सलवादियों से जुडी जिन ख़बरों को वे लोगों के सामने ला रहे हैं उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव क्या पडेगा। आम लोगों के बीच इन ख़बरों को लेकर किस तरह का माहौल पैदा होगा, सबसे पहले ब्रेकिंग करने की होड में हम कई बार यह भी भूल जाते हैं निरकुंश हो चुके इन उपद्रविय़ों की इस तरह की खबरों को दिखाने के चक्कर में कहीं ना कहीं हमने नक्सलियों के और समाज के बीच एक आतंक का माहौल ही पैदा किया है। छत्तीसगढ़ में कई साल तक काम करते हुए कई बार ऐसे मौके आये जब यह स्थिति आम रही। इन ख़बरों के पीछे भागते हुए हम पागलों की तरह पुलिस के दिये बयानों में यकीन करते रहे, कई बार यह बात भी गौर करने आई पुलिस द्वारा पकडे गये तमाम लोगों के पीछे यह जोड दिया जाता है कि गिरफ्तार व्यक्ति नक्सली गतिविधियों लिप्त था या फिर इसके तार नक्सलियों से जुड़े हैं जबकि कई बार तो हकीकत इससे कोसों दूर रही है यहां पर यह कहना कदाचित् अतिश्‍योक्ति नहीं होगी कि नक्सलियों का इस्तेमाल कुछ हद तक राजनैतिक स्वार्थों के लिए भी होता रहा है। प्रदेश के कई हिस्सों में चुनावों के दौरान इनका इस्तेमाल भी बडे पैमाने पर किया जाता रहा है। मुझे एक बात औऱ समझ में नहीं आई कि आखिर किसी साहित्य को पढना या किसी विचार को पढ़ना किस हद तक अपराध की श्रेणी में आता है, आखिर हमने भी तो स्कूल और कालेज के दौरान कई विचारधाराओं को पढ़ा और काफी हद तक उन्हें आत्मसात् भी किया है। मीडिया ने हमेशा से नक्सली गतिविधियों को ख़बरों का केंद्र बिंदु माना लेकिन इन नक्सलियों के परिवर्तित विचारधारा को जानने का प्रयास आज भी अधूरा है, राजनैतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किये जा रहे नक्सलियों की तरफ किसी का ध्यान आज तक क्यों नहीं गया यह एक अलग से शोध करने का बिंदु हो सकता है। कई बार तो हम यह सोचना भी भूल जाते हैं कि नक्सलवाद के आरोप में आज तक जितनी भी गिरफ्तारियां हुई उनके पीछे की वजह क्या है, हम यह भी भूल जाते हैं किसी जनसमुदाय का यह आंदोलन किसी राजनैतिक दबाब के चलते तो नहीं हुआ है। बात इतनी सी ही है कि इन आंदोलनों के पीछे कई बार कई तरह की राजनैतिक साजिशें भी होती है। मीडिया का काम नक्सल नामक इस मुहिम को सिर्फ ख़बरों के लिए ना होकर समाज की मुख्य धारा से भटके इन क्रांतिकारियों (अगर मूल सिंद्धातों की दुहाई ना दे तो) की निराशा की वजह खोजना भी होना चाहिए। आखिर समाज के इस चौथे स्तंभ का कुछ जिम्मेदारियां भी तो है जिसमें समाज को समाज का असली चेहरा भी दिखाना है….

-केशव आचार्य