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क्रांतिवीर शहीद-ए-आज़म भगतसिंह

भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक हैं – भगतसिंह।

भगतसिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (पाकिस्तान) में हुआ था। भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह एवं उनके दो चाचा अजीतसिंह तथा स्वर्णसिंह अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे। यह एक विचित्र संयोग ही था कि जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गई थी। यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम भागां वाला (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा। एक देशभक्त के परिवार में जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढ़ने को मिल गया था।

भगतसिंह जब चार-पांच वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वे अपने साथियों में इतने अधिक लोकप्रिय थे कि उनके मित्र उन्हें अनेक बार कन्धों पर बैठाकर घर तक छोड़ने आते थे। भगतसिंह को स्कूल के तंग कमरों मे बैठना अच्छा नहीं लगता था। वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल जाते थे। वे खुले मैदानों की तरह ही आजाद होना चाहते थे।

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के पश्चात भगतसिंह को 1916-17 में लाहौर के डीएवी स्कूल में दाखिला दिलाया गया। वहां उनका संपर्क लाला लाजपतराय और अम्बा प्रसाद जैसे देशभक्तों से हुआ। 1919 में रोलेट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग कांड हुआ। इस कांड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है।

1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपतराय ने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे – राण प्रताप, भारत-दुर्दशा और सम्राट चन्द्रगुप्त।

वर्ष 1923 में जब उन्होंने एफ.ए. परीक्षार् उत्तीण की, तब बड़े भाई जगतसिंह की अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उनके विवाह की चर्चाएं चलने लगीं। घर के लोग वंश को चलाने के लिए उनका विवाह शीघ्र कर देना चाहते थे, परन्तु भगतसिंह तो भारत मां की बेड़ियों को काट देने के लिए उद्यत थे। विवाह उन्हें अपने मार्ग में बाधा लगी। वे इस चक्कर से बचने के लिए कॉलेज से भाग गए और दिल्ली पहुंचकर दैनिक समाचार-पत्र अर्जुन में संवाददाता के रूप में कार्य करने लगे।

वर्ष 1924 में उन्होंने कानपुर में दैनिक पत्र प्रताप के संचालक गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की। इस भेंट के माध्यम से वे बटुकेश्वर दत्त और चन्द्रशेखर आजाद के संपर्क में आए। बटुकेश्वर दत्त से उन्होंने बांग्ला सीखी। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बने। अब भगतसिंह पूर्ण रूप से क्रांतिकारी कार्यों तथा देश के सेवा कार्यों में संलग्न हो गए थे। जिस समय भगतसिंह का चन्द्रशेखर आजाद से संपर्क हुआ, तब ऐसा प्रतीत होने लगा मानों दो उल्का पिंड, ज्वालामुखी, देशभक्त, आत्मबलिदानी एक हो गए हों। इन दोनों ने मिलकर न केवल अपने क्रांतिकारी दल को मजबूत किया, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के दांत भी खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

भगतसिंह ने लाहौर में 1926 में नौजवान भारत सभा का गठन किया। यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी तथा इसके प्रत्येक सदस्य को सौगन्ध लेनी पड़ती थी कि वह देश के हितों को अपनी जाति तथा अपने धर्म के हितों से बढक़र मानेगा। यह सभा हिन्दुओं, मुसलमानों तथा अछूतों के छुआछूत, जात-पात, खान-पान आदि संकीर्ण विचारों को मिटाने के लिए संयुक्त भोजों का आयोजन भी करती थी, परन्तु मई 1930 में इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।

1927 के दिसम्बर महीने में काकोरी केस के संबंध में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दी गई। चन्द्रशेखर आजाद अंग्रेजों के जाल में नहीं फंसे। वे अब भी आजाद ही थे। क्रांतिकारी दल में अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो गई थी। क्रांतिकारी दल की अस्त-व्यस्तता चन्द्रशेखर को खटक रही थी। अत: वे भगतसिंह से मिले। भगतसिंह और आजाद ने दल को पुन: संगठित किया। दल के लिए नए सिरे से अस्त्र-शस्त्र संग्रह किए गए। ब्रिटिश सरकार अब भगतसिंह को किसी भी कीमत पर गिरपऊतार करने के लिए कटिबध्द थी। 1927 में दशहरे वाले दिन एक चाल द्वारा भगतसिंह को गिरपऊतार कर लिया गया। उन पर झूठा मुकदमा चलाया गया, परन्तु वे भगतसिंह पर आरोप साबित नहीं कर पाए। उन्हें भगतसिंह को छोड़ना पड़ा। 8 और 9 सितम्बर, 1928 को क्रांतिकारियों की एक बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खंडहरों में हुई। भगतसिंह के परामर्श पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन रखा गया।

वर्ष 1919 से लागू शासन सुधार अधिनियमों की जांच के लिए फरवरी 1928 में साइमन कमीशन मुम्बई पहुंचा। जगह-जगह साइमन कमीशन के विरुध्द विरोध प्रकट किया गया। 30 अक्तूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में एक जुलूस कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहा था, जिसमें भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतने व्यापक विरोध को देखकर सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था, उसने इस शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज किया। लाला लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए। वे खून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह यह सब कुछ अपनी आंखों से देख रहे थे। 17 नवम्बर, 1928 को लालाजी का देहान्त हो गया। भगतसिंह का खून खौल उठा, वे बदला लेने के लिए तत्पर हो गए।

लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आजाद और जयगोपाल को यह कार्य सौंपा। इन क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया। साण्डर्स की हत्या ने भगतसिंह को पूरे देश का लाड़ला नेता बना दिया। इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है –

भगतसिंह एक प्रतीक बन गया। साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया, लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई। वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।

अंग्रेज सरकार से बचने के लिए भगतसिंह ने अपने केश और दाढी क़टवाकर, पैंट पहन कर और सिर पर हैट लगाकर वेश बदलकर, अंग्रेजों की आंखें में धूल झोंकते हुए कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता में कुछ दिन रहने के उपरान्त वे आगरा गए।

हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी की एक सभा हुई, जिसमें पब्लिक सेफ्टी बिल तथा डिस्प्यूट्स बिल पर चर्चा हुई। इनका विरोध करने के लिए भगतसिंह ने केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा। साथ ही यह भी कहा कि बम फेंकते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि किसी व्यक्ति के जीवन को कोई हानि न हो। इसके बाद क्रांतिकारी स्वयं को गिरफ्तार करा दे। इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए कि वह स्वयं यह कार्य करेंगे। आजाद इसके विरुध्द थे, परन्तु विवश होकर आजाद को भगतसिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा। भगतसिंह के सहयाक बने – बटुकेश्वर दत्त।

8 अप्रैल, 1929 को दोनों निश्चित समय पर असेम्बली में पहुंचे। जैसे ही बिल के पक्ष में निर्णय देने के लिए असेम्बली का अध्यक्ष उठा, भगतसिंह ने एक बम फेंका, फिर दूसरा। दोनों ने नारा लगाया इन्कलाब जिन्दाबाद… साम्राज्यवाद का नाश हो, इसी के साथ अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें अंग्रेजी साम्राजयवाद के प्रति आम जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंकने के उपरान्त इन्होंने अपने आपको गिरफ्तार कराया। इनकी गिरफ्तारी के उपरान्त अनेक क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, जिसमें सुखदेव, जयगोपाल तथा किशोरीलाल शामिल थे।

भगतसिंह को यह अच्छी तरह मालूम था कि अब अंग्रेज उनके साथ कैसा सलूक करेंगे? उन्होंने अपने लिए वकील भी नहीं रखा, बल्कि अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद करने की ठानी। 7 मई, 1929 को भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त के विरुध्द न्याय का नाटक शुरू हुआ। भगतसिंह ने 6 जून, 1929 के दिन अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति आदि पर विचार प्रकट किए तथा सर्वप्रथम क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने रखे।

12 जून, 1929 को सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सजा दी। ये दोनों देशभक्त अपनी बात को और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे इसलिए इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की। यहां भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया। 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया।

अब अंग्रेज शासकों ने नए तरीके द्वारा भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त को फंसाने का निश्चय किया। इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया। 5 मई, 1930 को पुंछ हाउस, लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई। इसी बीच आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा, जो बम का परीक्षण कर रहे थे, घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही। 26 अगस्त, 1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया। अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया तथा 7 अक्तूबर, 1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा दी गई। लाहौर में धारा 144 लगा दी गई।

इस निर्णय के विरुध्द नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई, परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई।

प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर न केवल भारत में ही बल्कि विदेशों से भी लोगों ने इसके विरुध्द आवाज उठाई। विभिन्न समाचारपत्रों में भगतसिंह और राजगुरु एवं सुखदेव की फांसी की सजा के विरुध्द अपनी पुरजोर आवाज बुलन्द की। हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। यहां तक कि इंग्लैंड की संसद के निचले सदन के कुछ सदस्यों ने भी इस सजा का विरोध किया।

पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे, जेल के बंदी जीवन में जब पिस्तौल छीन ली जाती थी, तब पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की काल कोठरी में रहते हुए उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी थी – आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर), आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार, जेल में पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते वे मस्ती में झूम उठते ओर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाने लगते –

मेरा रंग दे बसंती चोला।

इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला॥

मेरा रंग दे बसंती चोला

यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला।

नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला

मेरा रंग दे बसन्ती चोला।

फांसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें कानून के विरुध्द एक दिन पहले, प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी देने का निश्चय किया। जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के लिए भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुंचा तो उसने कहा, “सरदारजी। फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए”. उस समय भगतसिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढ़ने में तल्लीन थे, उन्होंने कहा, “ठहरो। एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.” और फिर वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए।

सुखदेव और राजगुरु को भी फांसी स्थल पर लाया गया। भगतसिंह ने अपनी दाईं भुजा राजगुरु की बाईं भुजा में डाल ली और बाईं भुजा सुखदेव की दाईं भुजा में। क्षण भर तीनों रुके और तब वे यह गुनगुनाते हुए फांसी पर झूल गए –

दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत

मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी

परन्तु ब्रिटिश सरकार द्वारा इन देशभक्तों पर किए जाने वाले अत्याचारों का अभी खात्मा नहीं हुआ था। उन्होंने इन शहीदों के मृत शरीर का एक बार फिर अपमान करना चाहा। उन्होंने उनके शरीर को टुकड़ों में विभाजित किया। उनमें अभी भी जेल के मुख्य द्वार से बाहर लाने की हिम्मत नहीं थी। वे शरीर के उन हिस्सों को बोरियों में भरकर रातों-रात चुपचाप फिरोजपुर के पास सतलुज के किनारे जा पहुंचे। मिट्टी का तेल छिड़कर आग ला दी गई, परन्तु यह बात आंधी की तरह फिरोजपुर से लाहौर तक शीघ्र पहुंच गई। अंग्रेजी फौजियों ने जब देखा की हजारों लोग मशालें लिए उनकी ओर आ रहे हैं तो वे वहां से भाग गए, तब देशभक्तों ने उनके शरीर का विधिवत दाह संस्कार किया।

भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था। मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा। भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं। अंग्रेज शासकों के दिमागों पर भगतसिंह का खौफ इतना छाया हुआ था कि वे उनके चित्रों को भी जब्त करने लगे थे। भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है -“यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना की गांधीजी का।”

भगतसिंह तथा उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर लाहौर के उर्दू दैनिक समाचार-पत्र पयाम ने लिखा था -“हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है। अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया, लेकिन वो गलती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम जिन्दा हो और हमेशा जिन्दा रहोगे।” (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

-राकेश शर्मा निशीथ

अंधों की बस्ती में चश्मे की बिक्री

हिन्दी शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है। वे यह कहते मिल जाते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है। इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं।

हिन्दी में देश में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं। आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं। हिन्दी में शोध की दशा को देखना हो तो हमें यह देखना चाहिए कि आलोचक वर्तमान के सवालों पर कितना समय खर्च कर रहे हैं। कितना लिख रहे हैं। रामविलास शर्मा, नगेन्द्र, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह, चन्द्रबलीसिंह, परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल आदि की पीढ़ी के आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।

रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक के स्वातन्त्र्योत्तर भारत के बारे में अब तक के विवेचन से भारत कम से कम समझ में नहीं आता। हिन्दी क्षेत्र और हिन्दी साहित्य की जटिलताओं काकम से कम आभास मिलता है। हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं।

हिन्दी में साहित्यिक बहसें, विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है, जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है। हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।

परंपरा के नाम पर जो विपुल सामग्री स्वातंत्र्योत्तर दौर में रची गयी है वह भी इच्छित तरीके से। उसमें भी हमने शोध के अनुशासन का पालन नही किया है। परंपरा पर विराट सामग्री ने और कुछ किया या नहीं हम नहीं जानते किन्तु इसने हमारे हिन्दी के परजीवी शिक्षक को परंपरापूजक जरूर बना दिया है।

हम भूल ही गए कि परंपरा पर इकहिरे ढ़ंग से विचार करने से एक खास किस्म का सांस्कृतिक माहौल बनता है। जिसमें वर्तमान तो उपेक्षित होता ही है स्त्री और दलित भी उपेक्षित होते हैं। यही वजह है कि दलित और स्त्री को परंपरा से सख्त नफरत है। वे परंपरा के नाम पर किए गए किसी भी किस्म के प्रयास को स्वीकार नहीं करते। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा परंपरा का इन दोनों से सीधा अंतर्विरोध है।

परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण और साधारणीकरण से काम लिया है। परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है। परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा की इच्छित इमेज बनाने का सबसे अच्छा उदाहरण हैं रामविलास शर्मा का लेखन। इसमें वाद-विवाद और संवाद के लिए कोई जगह नहीं है। कुछ-कुछ यह भाव है हम बता रहे हैं और तुम मानो।

मजेदार बात यह है कि परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए बार-बार परंपरापूजक का बोध पैदा करने की कोशिश की गई। इसकी साहित्य में गंभीर प्रतिक्रिया हुई है लेखकों का एक तबका एकसिरे से परंपरा को अस्वीकार करता है। परंपरा पर बातें करना नहीं चाहता।

खासकर प्रयोगवाद, नयी कविता, दलित साहित्य, स्त्रीसाहित्य और आधुनिकतावादी साहित्यकार के लिए परंपरा गैर महत्व की चीज है। कहने का अर्थ है कि परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं।

पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं। परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं। तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।

परंपरा को इकहरे, एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए। परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है।

परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें। हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।

परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।

परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं नए के लक्षण हैं। नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।वर्तमान का रूप है,उसका हिस्सा है।

साहित्य के लिए परंपरा का जो अर्थ है वही अर्थ ‘दलित साहित्य’ और ‘स्त्री साहित्य’ के लिए नहीं है। साहित्य की परंपरा इतिहास के साथ ‘दलित साहित्य’ और ‘स्त्री साहित्य’ का सीधा अन्तर्विरोध है। यह अंतर्विरोध कैसे खत्म हो इस पर हमने कभी विचार नहीं किया। समग्रता में देखें तो ‘परंपरा’ वर्चस्वशाली ताकतों का हथियार रही है। वर्चस्व स्थापित करे का माध्यम रही है।यही वजह है कि वंचितों ने हमेशा परंपरा को चुनौती दी है। उसे अस्वीकार किया है।यही स्थिति कमोबेश इतिहास की भी है। वंचितों ने इतिहास को भी चुनौती दी है। परम्परा और इतिहास के जितने भी मूल्यांकन हमारे सामने हैं वे दलित और स्त्री को सही नजरिए से देखने में मदद नहीं करते। बल्कि इसके उलट सही नजरिए से देखने में बाधा देते हैं।

वर्चस्वशाली ताकतों की सेवा में साहित्य का इतिहास तब तक सेवा करता है जब तक उसे चुनौती नहीं मिलती। आजकल जमाना बदल चुका है। बदले जमाने की हवा वर्चस्वशाली ताकतों और उनके विचारकों के लिए सिरदर्द बन गयी है। वंचितों के वैचारिक और सामाजिक दबाव का ही सुफल है कि आज आलोचना के किसी एक स्कूल के आधार पर मूल्यांकन करने की बजाय अन्तर्विषयवर्ती समीक्षा पध्दति का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हो रहा है। हिन्दी में इस पद्धति का चलन काफी धीमी गति से हो रहा है।

हिन्दी अनुसंधान की सबसे बड़ी बाधा है उसका आलोचक और आलोचना से एकदम संबंध विच्छेद। अनुसंधान और आलोचना में किसी भी किस्म का संपर्क, संबंध और संवाद ही नहीं है। आलोचक इस संवाद में अपनी हेटी समझता है। वह आलोचना को उत्तम कोटि का कर्म और अनुसंधान को दोयमदर्जे का कर्म मानता है। सवाल किया जाना चाहिए कि आलोचना महान कैसे हो गयी और अनुसंधान निकृष्ट कोटि का कैसे हो गया?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

महिला बाल विकास के बाद अब रेल्वे ने दिखाया करिश्मा ए विज्ञापन

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नई दिल्ली 23 मार्च। रेल मंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में रेल महकमा किस कदर अलसाया हुआ अंगडाई ले रहा है इसकी एक बानगी है बीते दिनों रेल विभाग द्वारा जारी एक विज्ञापन। इस विज्ञापन में रेल विभाग ने वह कमाल कर दिखाया है जो आज तक काई नहीं कर सका है।

गौरतलब है कि इसके पहले केंद्रीय महिला एवं बाल विकास विभाग ने अपने विज्ञापन में पाकिस्तान के फौजी अफसर की फोटो छापकर लानत मलानत झेली थी। वह मामला अभी शांत नहीं हुआ है और अब ममता बनर्जी के इस नक्शे ने बवाल काट दिया है। भारतीय रेल की एन नई रेलगाडी ”महाराजा एक्सप्रेस” के लिए जारी विज्ञापन में नई दिल्ली से बरास्ता आगरा, ग्वालियर, खजुराहो, बांधवगढ, बाराणसी, गया होकर कोलकत्ता जाना दर्शाया गया है।

मजे की बात तो यह है कि इस नक्शे में दिल्ली को पकिस्तान में ग्वालियर को गुजरात में खजुराहो को माहाराष्ट्र में बाराणसी को उडीसा में कोलकता और गया को अरब महासागर में होना दर्शाया गया है। दिल्ली की राजनैतिक फिजां में चल रही चर्चाओं के अनुसार रेल मंत्री की नजर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ही लगी हुई हैं, यही कारण है कि जब से वे रेल मंत्री बनी हैं तब से देश भर में सिर्फ कोलकता एक्सप्रेस की सीटी ही सुनाई दे रही है।

ममता बनर्जी ने रेल मंत्री बनते ही एक फरमान जारी कर दिया था कि त्रणमूल कांग्रेस के मंत्री अपना ज्यादा से ज्यादा समय पश्चिम बंगाल में दें। बाद में एक और फरमान जारी कर ममता ने पश्चिम बंगाल में रेल्वे के विज्ञापनों से प्रधानमंत्री डॉ मन मोहन सिंह और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के नामों को भी हटवा दिया था।

रेल मंत्री ममता बनर्जी का पूरा का पूरा ध्यान पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनावों पर है, यही कारण है रेल महकमे में मुगलई मची हुई है। रेल में चलने वाले चल टिकिट परीक्षकों का आलम यह है कि रात की गाडियों में उनके मुंह से शराब की लफ््फार दूर से ही सूंघी जा सकती है। ये टीटीई लोगों की जेब काटने से नहीं चूक रहे हैं। रेल्वे में दुर्घटनाओं में जबर्दस्त बढोत्तरी हो चुकी है। महिला एवं बाल विकास विभाग के उपरांत भारतीय रेल मंत्रालय के इस तरह के कारनामे को देखकर यही कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह जी पूरे कुंए में ही भांग घुली हो तो फिर अंजाम ए हिन्दुस्तान क्या होगा।

-लिमटी खरे

हमारी जनसांख्यिकी में छिपा है महाशक्ति होने का रहस्य – डॉ नरेंद्र जाधव

दुनिया का राजनीतिक चौधरी और ग्लोबल विलेज के महाजन की भूमिका निभाने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में आए मंदी के तूफान ने जहां वैश्विक आर्थिक नीतियों का खोखलापन जगजाहिर कर दिया, वहीं दुनिया को वित्तीय प्रबंधन का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिकी संस्थानों के वित्तीय अनुशासन की भी पोल खोल कर रख दी है। वित्तीय अनुशासन की बात तो दूर रही, इन संस्थानों ने तो पैसे कमाने के लिए बिना पुनर्भुगतान क्षमता की जांच किए जिस तरह से ऋण बांटे और जैसे-जैसे गुल खिलाए, उसमें तो कॉमनसेंस तक का अभाव दिखता है। इस मंदी ने न केवल वित्तीय प्रक्रिया के औचित्य पर सवाल खड़े कर दिए, बल्कि विकास की दिशा और उसके मानदंडों को भी विवादों के घेरे में ला दिया है। जिस पर पूरी दुनिया के बुद्धिजीवी सोचने को मजबूर हो गए हैं।

चिंता का विषय तो यह भी है कि, भारत देश जहां मंदी आई ही नहीं, वहां भी मंदी का बादल छाने का भ्रम मीडिया द्वारा खड़ा किया गया। ये काल्पनिक बादल भी कुछ लोगों के ऊपर अमृत की तरह बरसे तो बहुतेरों पर बिजलियां गिरा गयी। सिंतबर, 2008 से मार्च, 2009 तक हर दिन हमारे देश के अखबारों के प्रथम पृष्ठ की सुर्खियों के तौर पर मंदी छाई रही, तो चैनलों की हेडलाईन भी तय करती रही या यों कहें कि अखबार और चैनल मंदी का माहौल रचते रहे। सच तो यह है कि मंदी ने भारत को छुआ तक नहीं। ऐसे भी अर्थशास्त्रीय परिभाषा के तहत लगातार दो तिमाही में नकारात्मक विकास दर को मंदी कहा जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि हमारी विकास दर शून्य और उससे नीचे की बात तो दूर रही, कभी 6.8 प्रतिशत से भी नीचे नहीं गया। आपको आश्चर्य होगा कि दुनिया के सत्तर प्रतिशत देशों के वित्तमंत्री सात प्रतिशत विकास दर के लिए लालायित रहते हैं, और हमलोग इस विकास दर पर मंदी का विलाप कर रहे थे। इसमें किसी की नासमझी नहीं थी, बल्कि एक सोची-समझी योजना थी। जिसे बड़ी चतुराई से अंजाम दिया गया और उसकी लहर भी अमेरिका से ही चली। अमेरिका में मंदी की प्रतिक्रिया के तौर पर एक बहुत बड़ा पैकेज आ गया, उसके साथ ही यूरोप की सरकारों ने भी मंदी से बचाने के लिए उद्योगों को भारी-भरकम पैकेज दिया। यह शृंखला चीन तक पहुंची, तो चीन के पड़ोसी भारत के उद्योगपति कहां पीछे रहने वाले वाले थे। लगे हाथों, यहां भी पैकेज की मांग होने लगी और तबतक चुनाव आ गया, देश के राजनीतिक नेतृत्व को डर होने लगा कि पैकेज नहीं देने पर बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी होगी, जिसका चुनाव पर गलत असर होगा। इसी डर के तहत यहां भी भारी-भरकम पैकेज देने की घोषणा की गई।

खुशी की बात यह है कि हम अब मंदी के अहसास से भी बाहर निकल चुके हैं और आर्थिक छलांग लगाने में दुनिया से होड़ लेने को बेताब दिख रहे हैं। इस उत्साह का राज 1991 के दशक में छिपा हुआ है। उस समय भी भारत एक मंदी का शिकार हुआ था जो बाकी दुनिया के लिए नहीं था। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार शून्य हो गया था और देश दुनिया के सामने हाथ फैला रहा था। उस दौरान मजबूरी के तौर पर हमारे नीति-निर्माताओं द्वारा शुरू की गई उदारीकरण की प्रक्रिया ने मंदी के उस अभिशाप को भी वरदान में बदल डाला। हमारा अर्थ-चक्र आंधी की रफ्तार से गतिमान हो गया। इसके पीछे एक कारण जहां हमारी अर्थव्यवस्था के संचालन में आया सैध्दांतिक बदलाव था तो दूसरा कारण दुनिया में आई सूचना क्रांति का प्रभाव था। अर्थव्यवस्था में नव-प्रविष्ट उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) की नीतियों ने अर्थव्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया, हां उनको जमीन पर उतारना अब भी बाकी है। एलपीजी में निहित संभावनाओं को देखकर ही चीन जैसे साम्यवादी देश ने भी भारत से तेरह साल पहले उसे अपनी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग के तौर पर अंगीकार किया। हमारे यहां शुरुआती दौर में इसके संदर्भ में संशय स्थापित किया गया, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर आज यह गरीबी के निवारण का महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है।

नई आर्थिक नीति ने न केवल हमारी विकास दर में इजाफा किया या विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाया, बल्कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का प्रतिशत घटाने में भी युगांतकारी भूमिका अदा की। जो इससे पहले सोचा भी नहीं जा सका था।

1991 के दशक में आए आर्थिक बदलाव की क्रांतिधर्मिता पर दृष्टिपात के लिए हमें पूर्ववर्ती नियोजन प्रक्रियाओं की दिशा और दशा पर भी दृष्टिपात करना होगा। 1951 में पंचवर्षीय विकास योजनाओं की शुरुआत करते हुए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि हर दस साल के बाद देशवासियों का जीवनस्तर दुगुना हो जाएगा। जबकि 1951 से 1985 तक हमारी आर्थिक वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत थी और जनसंख्या वृद्धि दर 2.2 प्रतिशत रही। इसका अर्थ यह हुआ कि देशवासियों के आय में केवल 3.5-2.2 यानी 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अगर इस दर से वृद्धि होती तो देशवासियों का जीवन-स्तर दोगुना होने में 59 साल लगते। जबकि चीन ने यह कमाल केवल तेरह सालों में कर दिखाया। आज भारत की विकास दर छह फीसदी से नौ फीसदी के बीच में दोलायमान है और आमजनों के जीवन-स्तर में हुई वृद्धि किसी आंकड़े की मुंहताज नहीं है। जिसके कारण आज हम चीन के बाद दूसरे सबसे तेज विकास करने वाले देश की श्रेणी में आ गए हैं। इसी का परिणाम है कि आज गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 44 फीसदी से घटकर 23 फीसदी पर आ गया है। साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार 300 ट्रीलियन डॉलर को पार कर चुका है और विदेशी मुद्रा भंडार की विशालता की दृष्टि से हम छठे नंबर पर हैं। हमने 1991 में लिया गया सारा कर्ज 1996 तक वापस कर दिया और अब दुनिया के दूसरे गरीब देशों के लिए भारत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को पिछले तीन साल से कर्ज दे रहा है।

उदारीकरण की पूरी तस्वीर केवल आशाजनक नहीं है, इसके डरावने पहलू भी हैं। हमारा विकास दर भले ही बढ़ गया है, लेकिन तदानुसार रोजगार सृजन दर में वृद्धि न होने के कारण अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, जिसपर जल्द ही काबू नहीं पाया गया तो सामाजिक स्थिरता के लिए खतरा पैदा हो सकता है। जिसकी बड़ी कीमत हमें चुकानी होगी और सारा विकास दर मिट्टी में मिल जाएगा। आज भी हमारे देश में 26-27 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं, इसका अर्थ है कि देश के पैंतीस करोड़ लोग दरिद्रता के शिकार हैं और दुनिया में गरीबों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। उदारीकरण के दौर में खेती की उपेक्षा की विद्रूपता भरी तस्वीर दहलाने वाली है। 1997 से 2005 के बीच बड़ी संख्या में आई किसानों की आत्महत्या की खबरें विकास के आंकड़ों को मुंह चिढ़ाती दिख रही है।

इन नकारात्मक तस्वीरों के बावजूद मुझे भरोसा है कि भारत आर्थिक महासत्ता के रूप में आगे आएगा। जब मैंने 1994 में पुणे में यह भविष्यवाणी की तो लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया। कई अर्थशास्त्री मित्र मेरे इस बयान की गंभीरता पर सवाल उठाते रहे। उनका तर्क था कि अभी तीन साल पहले आए आर्थिक संकट से हम उबरे भी नहीं हैं, तो आर्थिक महाशक्ति होने की बात करना दिवा-स्वप्न नहींVmo Am¡a Š`m h¡ Ÿ। सोलह साल बीत जाने के बावजूद भी मेरे लिए अपने भरोसे पर कायम रहने के पीछे कई कारण हैं। सर्वोपरि तो मेरी आशा का आधार देश की जनसांख्यिकी में युवाओं का अनुपात है। आज हमारी औसत उम्र 24 वर्ष है जो 2020 में 27 वर्ष होगी। जबकि 2020 में अमेरिका की औसत उम्र 37 वर्ष और जापानियों की औसत उम्र 44 साल होगी। लेकिन युवाशक्ति के इन आंकड़ों का अंकगणित देश को आर्थिक सुपरपावर नहीं बना सकता है। हमारे यहां अपने युवाओं के कौशल विकास के लिए कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है। अगर हमने इस पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया तो आर्थिक महाशक्ति बनने के हमारे सपने बीच में ही दम तोड़ देंगे। स्थिति तो यह है कि 18 से 26 साल के युवक-युवतियों का सकल नामांकन अनुपात केवल 12.4 फीसदी है। इसके विपरीत दुनिया के दूसरे विकासशील देशों में इसका औसत अनुपात साठ से पैंसठ फीसदी के बीच है। कहीं-कहीं तो यह प्रतिशत 84 तक है और आर्थिक महाशक्ति बनने का स्वप्न देखने वाले हम भारतवासी 12 फीसदी पर ही चिपके हैं। इसका तात्पर्य है कि देश के 88 प्रतिशत युवकों को उच्चशिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं है। इस क्षेत्र में खर्च के मामले में भी हम विकासशील देशों से काफी पीछे हैं। इस पर अगर जल्द ही निवेश नहीं बढ़ाया गया तो आज की तकनीकी दुनिया में हमारी युवा पीढ़ी के दिशाहीन होने का खतरा है और इसके परिणाम सोचकर ही रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं।

1966 में कोठारी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर निवेश करने की अनुशंसा की थी। इस आयोग की रिपोर्ट के आए हुए 44 साल बीत चुके हैं लेकिन अब तक हम कुल जीडीपी के 3.7 फीसदी से अधिक शिक्षा पर निवेश नहीं कर पा रहे हैं। यह बात अलग है कि आठ फीसदी से अधिक नौजवानों को जॉब के दौरान तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है। इन दोनों को अगर जोड़ा जाय तब भी आंकड़ा दस प्रतिशत से आगे नहीं जाता है, यानी नब्बे प्रतिशत नवयुवक-नवयुवतियां हमारी आर्थिक प्रक्रिया में भागीदारी के लिए कुशल नहीं हैं। जबकि साऊथ कोरिया में यह आंकड़ा 87 प्रतिशत के आस-पास है। हमें भी उच्च शिक्षा और कौशल विकास पर काफी ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे गंभीरता से लेते हुए 2022 तक पचास करोड़ लोगों को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित करने की घोषणा की है। अगर यह लक्ष्य पूरा हो गया तो हम न केवल मानव संसाधन की दृष्टि से बहुत सक्षम होंगे बल्कि पूरी दुनिया को दक्ष श्रमशक्ति आपूर्ति करने की क्षमता हमारे पास होगी।

मानव संसाधन के अलावा भारत दूसरी सबसे बड़ी ताकत है, यहां के निवासियों की मल्टीटास्किंग योग्यता। अमेरिका में नौ साल बीताने के दौरान मैंने महसूस किया कि एक औसत अमेरिकी व्यक्ति में एक बार में दो काम करने की क्षमता नहीं होती। जबकि आप भारत के किसी गांव में चले जाएं तो वहां का दुकानदार एक ग्राहक को कीमत बोलता मिलेगा, तो दूसरे के लिए पुड़िया बांध रहा होगा और बीच-बीच में घर के अंदर झांककर पत्नी को घरेलू काम के लिए निर्देश दे रहा होगा। भारतीय भाषाओं में एक शब्द है अष्टावधानी। जिसका मतलब है आठ बातों पर एक साथ ध्यान रखना। भारतीयों का ‘अष्टावधानी’ होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जो हमें आर्थिक महाशक्ति होने की आशा जगाता है।

ऐसा नहीं है कि भारत भविष्य में आर्थिक महाशक्ति बनने वाला है। अगर एक अमेरिकी अर्थशास्त्री के शोध निष्कर्षों पर विश्वास करें तो हम अतीत में भी आर्थिक महाशक्ति रह चुके हैं। आंगस मेडिसन नामक अर्थशास्त्री ने ईस्वी सन् एक से लेकर ईस्वी सन् एक हजार तक की जीडीपी निकालने की कोशिश की है। मेडिसन के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। उस अर्थशास्त्री के अनुसार ईस्वी सन् एक से लेकर एक हजार तक भारत और चीन एक के बाद एक लगातार आर्थिक महाशक्ति बने रहे। ईस्वी सन् एक में उसने भारत के सकल घरेलू उत्पाद की गणना करने पर इसे दुनिया का 31.5 प्रतिशत पाया। अर्थात् दुनिया का एक तिहाई उत्पादन अकेले भारत में होता था। वहीं 1991 में यह जीडीपी तीन फीसदी पर आ गिरा। इसके कारणों की पड़ताल करने पर लोग अत्यंत भावनात्मक रूप से जवाब देते हैं कि अंग्रेजों के कारण भारत की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल हुई। लेकिन तथ्य सर्वथा विपरीत हैं, सच्चाई बिल्कुल भिन्न है।

हमारी अर्थव्यवस्था के शिखर से गर्त में गिरने के कारण बिलकुल देसी हैं- और वह है भारत की जाति-व्यवस्था। भारतीय समाज की सामाजिक समस्या से भी बढ़कर इस मनोवैज्ञानिक समस्या ने देश का चतुर्दिक अहित किया है। जिस समाज में केवल चार प्रतिशत लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार हो और 96 प्रतिशत लोग जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित किए जाते हों, उन्हें अपना कॅरियर और पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं हो, यहां तक कि माता-पिता का पेशा चुनने को ही मजबूर किए जाते हों, उस समाज को पतन से भला कौन रोक सकता है। इन 96 फीसदी लोगों में कितने आइंस्टीन हो गए होंगे, कितनी प्रतिभाएं हो गई होंगी लेकिन समाज उनके योगदान से वंचित रह गया। इस क्षति की भरपाई नहीं हो सकती लेकिन इस गलती से सबक जरूर सीख सकते हैं।

हजारों सालों तक समाज के हाशिए पर रहे उस वंचित वर्ग ने आज मुख्यधारा में शिरकत करना शुरू कर दिया है जिसके कारण हमारी अर्थव्यवस्था एक बार फिर से छलांग लगाने लगी है। हम अगर देश को आर्थिक महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो उस वंचित तबके की समग्र भागीदारी के बिना यह असंभव होगा। आज पूरी दुनिया में चल रहे सर्वसमावेशी विकास की बहस भारत के संदर्भ में अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के लिए भी चिंता का विषय होना चाहिए। अगर हम देश की आबादी और प्रतिभाओं की समान भागीदारी और उनके प्रबंधन की योजना नहीं बनाएंगे, तो आर्थिक महाशक्ति बनने का ख्वाब संजोना छोड़ दें।

-लेखक, भारत सरकार के योजना आयोग में सदस्य, प्रख्यात अर्थशास्त्री तथा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

ये है दिल्ली मेरी जान / जनसेवकों के ‘एश’ के मार्ग प्रशस्त

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देश के जनसेवकों (विधायक, सांसद, मंत्री और नौकरशाह) के फाईव स्टार संस्कृति में लौटने के दिन वापस आने ही वाले हैं। कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा मितव्ययता की निर्धारित सीमा 31 मार्च को पूरी होने वाली है, जनसेवकों के तेवर देखकर अब लगता नहीं है कि एक साल पूरे होने के बाद इसे एक्सटेंशन मिल सके। अगर मितव्वयता और खर्च में कटौती जारी रखना है तो इसके लिए नया आदेश जारी करना होगा। गौरतलब होगा कि इस तरह का आदेश वित्तीय वर्ष 2009 – 2010 के लिए जारी किया गया था। वित्त वर्ष 31 मार्च 2010 को समाप्त होने जा रहा है, और जनसेवकों के एश करने के मार्ग प्रशस्त हो जाएंगे। पिछले साल वैश्विक आर्थिक मंदी और खराब मानसून के चलते सरकारी खजाने पर बोझ कम करने के उद्देश्य से मितव्ययता की मुहिम चलाई गई थी। यह मुहिम किस कदर औंधे मुंह गिरी यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस की राजमाता सोनिया गांधी ने दिल्ली से मुंबई तक का विमान का सफर इकानामी क्यास में किया किन्तु उनके आसपास की 20 सीट सरकार ने अपने ही खर्च पर बुक करवाईं थीं, जो खाली गईं, इसी तरह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने भी दिल्ली से चंडीगढ तक का रेल का सफर शताब्दी एक्सप्रेस की एक पूरी की पूरी बोगी बुक करवाकर की। लोगों ने दोनों ही जनसेवकों की इस मितव्ययता को नमन किया। वैसे भी इकानामी क्लास में सोनिया के सफर करने के तुरंत बाद ही उनके चहेते विदेश राज्य मंत्री ने एक सोशल नेटवर्किंग वेव साईट पर इकानामी क्लास को केटल क्लास (मवेशी का बाडा) की संज्ञा भी दे दी थी।

मराठी बनाम बिहारी बनी टीम गडकरी

शिवसेना और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना द्वारा समूचे महाराष्ट्र सूबे में उत्तर भारतीयों विशेषकर बिहारियों के साथ किए गए अत्याचार के बाद अब महाराष्ट्र प्रदेश से उठकर भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में कमान संभलने वाले नितिन गडकरी की नई टीम को मराठा बनाम बिहारी के तौर पर देखा जाने लगा है। टीम गडकरी में बिहार की जिस कदर उपेक्षा की गई है, उससे बिहार के दर्जन भर से अधिक नेता अपने आप को अपमानित महसूस कर रहे हैं। बिहार मूल के शाट गन शत्रुध्न सिन्हा ने तो टीम गडकरी के खिलाफ तलवार पजा ली है। उन्होंने पहली बार सार्वजनिक तौर पर टीम गडकरी की निंदा कर डाली है। सी.पी.ठाकुर ने पटना में हुई रैली में शामिल न होकर अपनी नाराजगी का इजहार कर दिया है। पार्टी के अंदर बेनामी खतो खिताब का सिलसिला चल पडा है। नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज की उपेक्षा कर नरेंद्र मोदी के विश्वस्तों को स्थान दिया गया है। उधर यशवंत सिन्हा, मुख्तार अब्बास नकवी और शहनवाज हुसैन टीम गडकरी में शामिल न हो पाने से खफा हैं। वेकैया नायडू के गुर्गों को स्थान न मिलने से वे भी कोप भवन में हैं। अब जबकि इस साल बिहार में विधानसभा चुनाव हैं, तब टीम गडकरी में बिहार की उपेक्षा से भाजपा के नए निजाम नितिन गडकरी आखिर क्या संदेश देना चाह रहे हैं, यह बात समझ से परे ही है।

पचौरी के लिए आसान नहीं है राज्य सभा से एन्ट्री

लगातार चार बार अर्थात 24 साल तक पिछले दरवाजे अर्थात राज्य सभा के संसद रहने के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी को अंत में अप्रेल 2008 में संसद के गलियारे से मुक्त कर दिया गया। इसके पहले ही उन्हें मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया था। दो साल बीत जाने के बाद अब वे पुन: राज्य सभा के रास्ते संसदीय सौंध तक पहुंचने की जुगत लगाने में लगे हुए हैं। कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि पचौरी राज्यसभा के रास्ते जाने के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी छोडने को तैयार हैं। इसी बीच विधानसभा में विपक्ष की नेता तथा एमपी की पूर्व उपमुख्यमंत्री जमुना देवी ने सुरेश पचौरी के खिलाफ ताल ठोंक दी है। 1952 से लगातार विधायक रहने वाली आदिवासी दबंग महिला की छवि बनाने वाली जमुना देवी ने कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी से मिलकर राज्य सभा में टिकिट की मांग की है। इसके लिए वे विपक्ष के नेता का पद तजने को तैयार हो गईं हैं। पचौरी की राह में पूर्व प्रदेशाध्यक्ष राधाकिशन मालवीय भी शूल बो रहे हैं, मालवीय अनुसूचित जाति के हैं, तथा कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के विश्वस्त हैं। वैसे राज्यसभा पर नजरें गडाने वालों में मध्य प्रदेश बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रामेश्वर नीखरा भी प्रबल दावेदार बनकर उभर रहे हैं। मध्य प्रदेश में राज्यसभा से एक ही सीट मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।

गृहमंत्री का अरोप : दलित होना अभिशाप

महाराष्ट्र प्रदेश के गृह राज्य मंत्री रमेश बागवे का कहना है कि सूबे की पुलिस उनका कहना इसलिए नहीं मानती क्योकि वे दलित हैं। यह बात उन्होने पत्रकारों से चर्चा के दौरान कही। पुणे में महिलाओं के लिए खुली जेल के उद्धाटन के अवसर पर बागवे को आमंत्रित ही नहीं किया गया। इससे व्यथित होकर उन्होंने अपने दर्द को पत्रकारों के साथ बांटा। बागवे का आरोप है कि दलित होने के कारण सूबे की पुलिस उनके साथ बार बार अपमानजनक व्यवहार करती है। पिछले साल 07 नवंबर को जबसे रमेश बागवे ने गृह राज्य मंत्री का कार्यभार संभाला है तबसे पुणे पुलिस उनके साथ सौतेला व्यवहार ही कर रही है। गृह राज्य मंत्री की पीडा को समझा जा सकता है, क्योंकि बिना किसी पूर्व सूचना के ही उनके काफिले का पायलट वाहन ही हटा दिया गया। इसके पहले जब वे मंत्री बने उसके कुछ दिनों बाद ही उनकी सुरक्षा व्यवस्था भी हटा ली गई थी। बागवे के साथ अगर पुलिस के मुलाजिम इस तरह की हरकत कर रहे हैं इससे साफ है कि पुलिस के इन नुमाईंदों को उपर से ही इस तरह के कुछ कृत्य करने का इशारा किया गया होगा, वरना सूबे के मंत्री से सूबे के सरकारी कर्मचारी की क्या मजाल कि वह पंगा ले ले।

ब्रन्हलाओं पर मेहरबान एमसीडी

नई दिल्ली महानगर पलिका निगम देश का एसा पहला निकाय होगा जो अपने किन्नर नागरिकों को पैंशन देगा। जी हां दिल्ली नगर निगम ने फैसला किया है कि वह दिल्ली के किन्नरों को एक हजार रूपए की पैंशन राशि देगा। नगर निगम ने इस आशय के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है, यह प्रसताव एक अप्रेल से लागू हो जाएगा। दरअसल निगम की बजट सत्र की बैठक में पार्षद मालती वर्मा ने किन्नरों को पेंशन दिए जाने का मुद्दा उठाया। इस पर एक अन्य पार्षद जगदीश मंमगाई ने वर्मा का समर्थन भी किया। अंतत: दिल्ली नगर निगम ने यह प्रस्ताव पारित कर ही दिया। गौरतलब होगा कि दिल्ली में लगभग साढे तीन लाख किन्नर रहवास करते हैं। इस प्रस्ताव से दिल्ली नगर निगम पर पडने वाले अतिरिक्त वित्तीय भार की भरपाई कुछ मामलों में करारोपण या करों में बढोत्तरी के द्वारा ही की जाने की संभावना है। वैसे नगर निगम के इस तरह के प्रस्ताव से उमर के अंतिम पडाव में रोजगार विहीन किन्नरों को बहुत ही राहत मिल सकती है।

जहां मलाई वहां ततैया

बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने बहुजन समाज पार्टी के 25 साल पूरे होने पर एक भव्य रैली का आयोजन किया। यह रैली दो कारणों से चर्चा में रही अव्वल तो सुश्री मायावती को पहनाई गई भारी भरकम नोटों की माला, और दूसरे सभा में मधुमख्यिों का हमला। नोटों की माला पहनाकर बसपा कार्यकर्ता ओर पहनकर बहन मायावती ने सरकरी नोट के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के नियम कायादों का सरेआम माखौल उडाया। वहीं अब आला हाकम इस बात की पतासाजी में लगे हैं कि मधुमख्खी जानबूझकर आईं थीं या फिर रैली में खलल डालने की सोची समझी साजिश थी। रैली स्थल अम्बेडकर पार्क के पास स्थित अम्बेडकर विश्वविद्यालय में उठते धुंए ने सभी को चौंकाया था। मधुमख्खियां संभवत: इसी जगह से उडकर आईं थीं। यह तो गनमत थी कि मधुमख्खियों ने कोई कोहराम नहीं मचाया, फिर भी मायावती को प्रसन्न करने के लिए अब इसकी बहुत बारीकी से जांच में जुटे हैं पुलिस के आला अफसर। किसी ने चुटकी लेते हुए कह ही दिया कि जहां मलाई (नोटों की माला) होगी मधुमख्खी वहां नहीं तो क्या गंदगी पर बैठेगी।

अनोखे प्रवक्ता रहे हैं चतुर्वेदी

कांग्रेस के निर्वतमान प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी का कार्यकाल अपने आप में अनोखा कहा जा सकता है। अमूमन माना जाता है कि 13 नंबर लोगों के लिए शुभ नहीं होता है, किन्तु चतुर्वेदी 13 नंबर को बहुत ही शुभ मानते थे। 24 अकबर रोड स्थित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय में उनके कक्ष का नंबर 13 ही था। पहली बार वे तेरहवीं लोकसभा के लिए ही चुनकर आए थे। मजे की बात तो यह है कि डेढ साल से ज्यादा समय तक पार्टी क प्रवक्ता की जिम्मेदारी संभालने वाले सत्यव्रत चतुर्वेदी ने एक बार भी प्रेस ब्रीफिंग नहीं की। उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में पार्टी के किसी फैसले का न तो खण्डन किया और न ही पुष्टि। मीडिया सर्किल में उन्हें ”शोभा की सुपारी” कहा जाता था। वैसे प्रवक्ता पद से हटने के बाद उनके जलवे में कमी के बजाए इजाफा ही दिख रहा है। उन्हें अब बैठने के लिए पहले से बडा कमरा दे दिया गया है। यह वही कमरा है जहां पहले मीडिया के लोग बैठा करते थे, और आग लगने के बाद इसे बढिया रंग रोगन कर दिया गया है।

युवराज नहीं उडवाएंगे अपनी हंसी

राखी सावंत और राहुल महाजन के स्वयंवर के उपरांत अब हवा उडने लगी थी कि मशहूर क्रिकेटर युवराज सिंह भी टीवी पर रियलिटी शो के तहत अपना स्वयंवर रचाएंगे। युवराज ने एक निजी टीवी चेनल के रियलिटी शो में स्वयंवर से साफ इंकार कर दिया है। युवराज का कहना है कि शादी का ख्याल उनके दिमाग में अभी नहीं है, और उनका पहला प्यार क्रिकेट ही था और यही रहेगा भी। गौरतबल है कि युवराज सिंह का युवतियों में जबर्दस्त क्रेज है। इतना ही नहीं रूपहले पर्दे की आदाकाराओं के साथ उनके प्रेम प्रसंगों की अफवाहें भी जबर्दस्त तरीके से होती आई हैं। हो सकता है राखी सावंत के स्वयंवर के बाद उनका अपने भावी पति से अलगाव के बाद पिटी राखी की भद्द और मादक पदार्थों के लिए चर्चित हुए प्रमोद महाजन के पुत्र राहुल महाजन के स्वयंवर के बाद अनेक प्रतिभागियों द्वारा न्यूज चेनल्स पर लगाए गंदे गंदे आरोंपों से वे घबरा गए हों, और रियलिटी शो की तरफ जाने से उन्होंने तौबा ही कर ली हो।

डीडी के बाद नया सरकारी चैनल!

सरकारी चेनल का नाम आते ही दूरदर्शन का लोगो जेहन में उभरना स्वाभाविक है। इससे हटकर हरियाणा सरकार द्वारा अब अपना सरकारी चैनल आरंभ करने का मन बनाया है। इलेक्ट्रानिक चैनल की चकाचौंध में हरियाणा ने भी दांव लगाने का फैसला किया हैं इस बारे में हरियाणा सरकार का आवेदन सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी के पास लंबित है। हरियाणा के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि हरियाणा के विकास के क्रम को इलेक्ट्रानिक मीडिया में उचित और पर्याप्त स्थान न मिल पाने के चलते सरकार ने यह कदम उठाया है। वैसे भी हरियाणा सरकार के प्रयासों से पिछले दिनों सरकारी पत्र पत्रिकाओं को नए और आकर्षक क्लेवर में लाने के साथ ही साथ वरिष्ठ पत्रकारों को अनुबंध के आधार पर नौकरी, प्रदेश और जिला स्तर पर जनसंपर्क कार्यालयों का अत्याधुनिकीकरण किया जा चुका है। लगता है हरियाणा सरकार अब देश में अपने आप को स्थापित और अग्रणी बताने के लिए अपने ही मीडिया संसाधनों पर भरोसा कर रही है।

सिब्बल ने झाडे अपने हाथ!

केंद्रीय मानव संसाधन और विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने केंद्रीय विद्यालयों में मंत्री के कोटे को समाप्त कर दिया है। पिछले दिनों हुई बैठक में उन्होंने उनके पास की 1200 सीटों के कोटे से अपने हाथ झाड लिए हैं। सिब्बल का मानना है कि एसा करने से उन लोगों का हक मारा जा रहा है, जो स्थानांतरित होकर कहीं और जाते हैं। अब मंत्री के हाथ में तो केंद्रीय विद्यालय में प्रवेश का कोटा नहीं रहा किन्तु जिले के जिलाधिकारी (जिला कलेक्टर) और उस संसदीय क्षेत्र के सांसद के पास दो दो सीट का कोटा अभी भी मौजूद है। इतना ही नहीं राज्य सभा सदस्य भी अपने निर्वाचन वाले सूबे के किसी भी जिले में सिर्फ दो लोगों के प्रवेश की अनुशंसा कर सकता है। कुछ सालों पहले तक केंद्रीय विद्यालय के अध्ययन अध्यापन के स्तर में आए सुधार से लोग अपने बच्चों को केंद्रीय विद्यालय में प्रवेश दिलाना चाहते थे, किन्तु वर्तमान में अनेक केंद्रीय विद्यालयों का पढाई का स्तर बहुत ही गिर गया है। इसके अलावा इसमें प्रवेश हेतु केटगरी भी बनाई गई है, जिससे गैर नौकरी पेशा लोगों के बच्चों का दाखिला इन विद्यालयों में कैसे हो पाएगा इस बारे में कबिल सिब्बल अगर चिंता करते तो देश के भविष्य का कुछ भला हो सकता था।

बेरोजगार पति हकदार है कानूनी लडाई का खर्च पाने को

माना जाता है कि भारतीय कानून अमूमन महिलाओं के साथ ज्यादा संवेदना रखता है। पारिवारिक विवादों के मामले में भी कानून का लचीला रूख महिलाओं के साथ ही होता है। अब तक पारिवारिक विवाद में हर्जा खर्चा पति द्वारा पत्नि को ही देने के मामले सामने आए हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में दिए गए एक फैसले में बेरोजगार पति को कानूनी लडाई लडने के लिए हर्जा खर्चा दिलवाया गया है। देश की शीर्ष कोर्ट ने एक बेरोजगार युवक को बैंग्लुरू की परिवार अदालत में अपना केस लडने के लिए उसकी पत्नि को दस हजार रूपए की राशि अदा करने के आदेश दिए हैं। इस मामले में युवक की पत्नि ने बताया कि वह फ्री लांसर लेखिका है, और उसके पति ने अपने आप को बेरोजगार साबित किया है। अमूमन सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति को पत्नि या उसके माता पिता को तलाक के मुकदमे के दौरान या उसके बाद भी गुजारा भत्ता देना होता है।

पन्ना टाईगर रिजर्व में मिले जानवरों के कंकाल!

बिना सींग के बारहसिंघा हो चुके मध्य प्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व उद्यान में जानवरों के कंकाल मिलने से सनसनी फैल गई है। बिना सींग का बारहसिंघा इसलिए क्योंकि यह उद्यान बाघों के लिए संरक्षित है, और बाघ विहीन ही हो गया है। हाल ही में इस उद्यान में विकास कार्य के लिए की जा रही खुदाई में जानवरों के कंकाल मिले हैं। बताते हैं कि प्रथम दृष्टया तो दो स्थानों पर हुई खुदाई में मिले ये कंकाल भालू के लग रहे हैं, पर इनके परीक्षण के लिए इन्हें फोरेंसिक परीक्षण प्रयोगशाला भेज दिया गया है। यह टाईगर रिजर्व 543 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है और इस पर शिकारियों की नजरें सालों से हैं, यही कारण है कि यहां एक भी बाघ नहीं बचा है। पिछले दिनों पेंच से एक बाघ यहां स्थानांतरित किया गया था, वह भी कालर आईडी के साथ। मजे की बात यह है कि कालर आईडी वाला यह बाघ भी जंगल में कहीं खो गया। यह है बाघ संरक्षण वर्ष में हिन्दुस्तान के हृदय प्रदेश का हाल।

पुच्छल तारा

आर्कमिडीज के सिद्धांत तो सभी ने पढे होंगे पर 21वीं सदी में इसकी नई प्रकार से व्यख्या की गई है। नागपुर से स्वाति तिवारी ने ई मेल भेजा है -”जब दिल पूरी तरह या आंशिक तौर पर किसी लडकी के प्यार में डूब जाता है तो पढाई में हुआ नुकसान, लडकी की याद में बिताए गए समय के बराबर होता है।”

-लिमटी खरे

व्यंग्य/ तो तुम किसके बंदे हो यार?

3

भाई ढाबे में टूटी बेंच पर चिंता की मुद्रा में बैठा था। बेंच के सहारे रखे डंडे में उसने अपनी टोपी पहना रखी थी। सामने टेबल पर चाय का गिलास ठंडा हो रहा था। पर वह उस सबसे बेखबर न जाने किस लोक में खोया था। मेरे देश में वर्दी वाला चिंता में? वह तो पूरे देश को चिंता में डुबोए रखता है। तभी एक मक्खी उड़ती हुई आई और उसके चाय के गिलास में डूब आत्महत्या कर गई। मैंने उसे चिंता से उठा चौकस करते कहा, ‘भाई साहब! ओ भाई साहब!’

‘क्या है? क्यों परेशान कर रहे हो? कानून को थोड़ा आराम करने दो। कानून पैदा होने आजतक बजते बजते थक गया है। वह अब सुस्ताना चाहता है।’

‘साहब! क्यों मजाक करते हो! माना आप कानूनवाले हैं। माफ करना, जो बुरा लगे। इस देश में कानून जागा ही कब जो उसे सुस्ताने दें। जबसे होश संभाला है तबसे तो मैंने उसे सुस्ताते ही देखा है। कभी अपने गांव की खाप में सुस्ताते हुए तो कभी अपनी तहसील के कोर्ट में। आपके पुलिस थाना में तो जितनी बार गया उसे सुस्ताते ही पाया। उसे कई बार नोट दिखा जगाने की कोशिश भी की पर वह हर बार नोट ले फिर सुस्ताने लग गया। क्या आपका ये कानून सुस्ती की गोलियां खाए रहता है चौबीसों घंटे? पकड़ना कोई होता है और सुस्ती में पकड़ किसी और को देता है।’ मैंने कहा तो वह वर्दी वाला रोने लगा, मैं डरा। यार! ये क्या हो गया! ये वर्दी इतनी संवेदनशील कबसे हो गई?

कुछ देर बाद ठंडी चाय की घूंट ले उसने कहा, ‘मेरी व्यथा सुनोगे तो समझोगे मेरी चिंता का कारण।’

‘कहो? क्या बीवी से अनबन चल रही है?’

‘नहीं। वर्दी वाले की बीवी से अनबन हो जाए, ये तो सपने में भी संभव नहीं। वह तो औरों की बीवियों को भी संभाल कर रखता है।’

‘तो क्या अंतरआत्मा जाग गई?’ मैंने उसके गिलास से ही चाय की घूंट ली पर बंदे ने चूं तक नहीं की, ‘इस देश में अंतर आत्मा किसीकी जागे तो तब अगर उसके पास हो। मेरी चिंता का कारण कुछ और है, ‘वह फिर चिंता में डूब गया। अपने देश में ये उल्टी गंगा क्यों बहनी शुरू हो गई भाई साहब! जिसे देश चिंता करने के ऐवज में पगार देता है वे एक दूसरे पर कुर्सियां उछाले जा रहे हैं और जिसे देश ने खाने की पूरी छूट दे रखी है वह चिंता में डूबा है, ‘क्या कारण है आपकी चिंता का?’ मैंने पूरी हमदर्दी के साथ कहा तो उसने बीच बीच में सिसकते कहना शुरु किया, ‘क्या बताऊं यार! विश्‍वास नहीं करोगे। मैं पिछले जन्म में भी इसी वर्दी वाला था। बड़े मजे किए थे तब। लगता था जैसे मैं अजर-अमर हूं। खुद भी खाता और अफसरों को भी खिलाता। जनता को छोड़ किसी को मुझसे कोई शिकायत नहीं थी। जनता को तो राम राज में भी शिकायत ही रही थी, ‘फिर उसने अपनी जेब से सिगरेट की डिबिया निकाल मेरी ओर बढ़ाई तो मुझे लगा मानो मैं कोई सपना देख रहा होऊं। मैंने उससे सिगरेट ले सुलगाई तो उसने आगे आत्म कथा कहनी शुरु की, ‘एक दिन मेरा गरूर टूटा और चोर के साथ माल बांटते बांटते खुशी के मारे मैं स्वर्गवासी हो गया।’

‘तो??’

‘तो क्या! चोर की तरह गच्चा देने की बहुत कोशिश की। पर यमदूत लेकर ही गए।’

‘तो?’

‘सारा का सारा मार माल धरा का धरा रह गया। यार! हम सच्ची को यहां साथ कुछ नहीं ले जा सकते तो जोड़ते मारते क्यों हैं? पर मैंने ऐसा नहीं सोचा था।’

‘तो??’

‘यमराज ने मुझे देखते ही मेरी कोई दलील सुने बिना मुझे नरक की सजा सुनाई।’

‘तो??’ मैं भी डर गया। यार! ये बंदा अपने पिछले जन्म की आत्मकथा सुना रहा है या मुझे डरा रहा है, ‘तो क्या! मैं पांव पकड़कर बड़ों बड़ों को पटाने के फन में माहिर तो था ही, सो उनके भी मैंने पांव पकड़ लिए, ‘साहब! सुधरने का एक मौका तो भगवान भी देते हैं, मेरे देश का कानून भी देता है….’

‘तो तुम क्या चाहते हो गंगा दास?’

‘एक मौका, बस एक मौका सुधरने का। अगर तब भी न सुधरूं तो जो आप सजा देंगे मुझे सहर्ष स्वीकार होगी,’ कह मैंने उनके पांव ऐसे पकड़े कि….

‘तो ???’ मैंने उसकी जेब से सिगरेट निकाली और सुलगा ली।

‘तो क्या! मेरा गिड़गिड़ाना रंग लाया और वे मान गए, बोले- अच्छा चलो ! तुम्हें एक मौका देता हूं। कहो, किस विभाग में जन्म लेना चाहते हो?’ तो मैंने कहा, जिस विभाग से खा खाकर मरा हूं।’

‘तो?’

‘तो वे बोले ,उसी विभाग ही क्यों? तो मैंने कहा, ‘प्रभु! जिस विभाग ने मुझे नरक का अधिकारी बनाया है उसी में पुनर्जन्म ले अपने पाप धोना चाहूंगा।’

‘तो??’

‘और वे मान गए। मेरा पुनर्जन्म फिर इसी विभाग में हो गया।’

‘तो खाने की पुरानी आदत थी, वह जा नहीं रही होगी?’

‘सुबह का भूला शाम को घर आना चाहता था।’

‘तो??’

‘नाके पर दो महीने से तैनात हूं। ऊपर वालों ने नाक में धुंआ कर रखा है कि हिस्सा नहीं आ रहा। पिछले हफ्ते ईमानदारी से नाके पर डटा था कि पता चला अफीम की खेप आ रही है। यों ही लाल बत्ती को हाथ दे डाला। खेप पकड़ी गई। अभी साहब को फोन भी नहीं कर पाया था कि साहब का ही फोन आ गया। सोचा, शाबाशी मिलेगी। पर साहब ने गुस्से में कहा कि ये किसको पकड़ लिया? ऊपरवालों का बंदा है। देखो, मामले को हर हाल में दबाने का। मीडिया को कुछ नहीं बताने का। प्रमोशन इसी में है कि सादर सुरक्षा के साथ जहां कहता है वहां छोड़ आओ। नहीं तो नक्सलियों के इलाके में तबादले को तैयार रहो। मैं डर गया। चुप हो गया…. परसों पता चला कि कोई साधु अप्सराओं के साथ यहां से भाग निकलने वाला है। मैं फिर सबसे आगे सीना तान नाके पर खड़ा हो गया। गाड़ी पकड़ी गई और साधुजी महाराज अप्सराओं के साथ कानून द्वारा धरे गए…’

‘तो?’

‘अभी साधु बाबा से बात भी नही कर पाए थे कि ऊपर से फोन आ गया कि पार्टी के बाबा हैं इन्हें चुपचाप जाने दो।’

‘तो??’

‘तो क्या यार! अबकी बार आज तक ईमानदारी से नौकरी करते जिसे भी पकड़ रहा हूं वह लंबे हाथों वाला ही निकल रहा है। यहां आम जनता साली अपराध क्यों नहीं करती? सोचा था, इस जन्म में कम से कम एक बार तो मैं ईमानदारी का परिचय दे यमराज को प्रसन्न कर देता। बार बार मेरी जेब से सिगरेट निकाल कर जो बड़े मजे से पी रहे हो, तुम किसके बंदे हो यार?’

-डॉ. अशोक गौतम

अमेरिकी सांस्कृतिक आतंकवाद है पोर्नोग्राफी

पोर्नोग्राफी पुरूष में कामुक उत्तेजना पैदा करती है और स्त्री के मातहत रूप को सम्प्रेषित करती है। यह संदेश भी देती है कि औरत को पैसे के लिए बेचा जा सकता है। मुनाफा कमाने के लिए मजबूर किया जा सकता है। स्त्री का शरीर प्राणहीन होता है। उसके साथ खेला जा सकता है। बलात्कार किया जा सकता है।उसे वस्तु बनाया जा सकता है। उसे क्षतिग्रस्त किया जा सकता है। हासिल किया जा सकता है। पास रखा जा सकता है। असल में पोर्नोग्राफी संस्कार बनाती है,स्त्री के प्रति नजरिया बनाती है। यह पुरूष के स्त्री पर वर्चस्व को बनाए रखने का अस्त्र है।

पोर्नोग्राफी के पक्षधर मानते हैं कि उन्हें भी अभिव्यक्ति की आजादी हासिल है। पोर्न के खिलाफ किसी भी किस्म की पाबंदी अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है। इसके विपरीत पोर्न विरोधी स्त्रीवादी विचारकों का मानना है पोर्न के खिलाफ सिर्फ अश्लील दृश्यों के कारण ही कानून नहीं बनाना चाहिए अपितु उसकी प्रैक्टिस के कारण भी कानून बनाया चाहिए। इससे व्यक्ति और समूह के रूप में स्त्री क्षतिग्रस्त होती है।

पोर्न को वही सुरक्षा और संरक्षण नहीं दिया जा सकता जो अभिव्यक्ति की आजादी के लिए दिया जाता है। अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर समाज में किसी के शोषण अथवा सम्मान को नष्ट करने या किसी के अधिकार छीनने लिए अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल नहीं करते, जबकि पोर्न का निशाना औरत है। यह औरत के सम्मान, अस्मिता, जीने के अधिकार, आजादी और स्वायत्तता के खिलाफ की गई हिंसक कार्रवाई है।

पोर्न को यदि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के नाम पर संरक्षण दिया जाता है तो इसका अर्थ होगा स्त्री की स्वतंत्रता और समानता के अधिकार को सुरक्षित रखने में राज्य अपनी जिम्मेदारी निबाहना नहीं चाहता। पोर्नोग्राफी अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक आतंकवाद है। यह स्त्री के अधिकार हनन, चुप कराने, लिंगभेद और शारीरिक शोषण का अस्त्र है।

ए.गेरी ने ”पोर्नोग्राफी एंड रेस्पेक्ट फॉर वूमेन” में सवाल उठाया है कि क्या पोर्नोग्राफी को लिंगभेदीय हिंसा और भेदभाव के लिए सीधे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या औरत को सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखना हर समय गलत है? इन दोनों सवालों पर विस्तार से विचार करने बाद लिखा कि पोर्नोग्राफी स्त्री को हानि पहुँचाने में सफल रही है।

इस निष्कर्ष के बावजूद गेरी का मानना है कि पोर्न पर पाबंदी उसका समाधान नहीं है। डायना स्कूली ने ”अण्डस्टेंण्डिंग सेक्सुअल वायलेंस: ए स्टैडी ऑफ कनविक्टेड रेपिस्ट” में लिखा है कि पोर्नोग्राफी ने सांस्कृतिक माल के रूप में पुरूष फैंटेसी के हिंसाचार को मात्रात्मक और गुणात्मक तौर पर बढावा दिया है।

पोर्न में स्त्री केन्द्रित हिंसा के माध्यम से आनंद की सृष्टि की जाती है। बलात्कार का महिमामंडन किया जाता है। वह पुरूष को अपनी फैंटेसी के लिए प्रोत्साहित करती है।हिंसक पोर्न में मिथ का महिमामंडन किया जाता है। मसलन् पोर्न इस मिथ महिमामंडन करता है कि स्त्री चाहती है कि उसके साथ गुप्त रूप में बलात्कार किया जाए। बलात्कारी पुरूष यह मानने लगता है कि उसका बलात्कारी व्यवहार संस्कृति के वैध नियमों के तहत आता है।

स्कूली ने अपने अनुसंधान में पाया बलात्कार के दोषी और सजा याफ्ता अपराधी पोर्न देखने के अभ्यस्त थे। बड़े पैमाने पर पोर्न देखते थे। स्कुली की इस धारणा के पीछे यह तर्क काम कर रहा है कि पोर्न देखकर पुरूष अपना नियंत्रण खो देता है। पोर्न का विवेकहीन अनुकरण करता है। इसमें यह धारणा भी निहित है कि जो आदमी पोर्न देखता है वह सीधे उसकी नकल करता है। अथवा उसकी खास तरह की मनोदशा तैयार होती है जिसके कारण वह खास किस्म का व्यवहार करता है।

इसका यह भी अर्थ है कि पुरूष आलोचनात्मक नजरिए से पोर्न देख नहीं पाता। वह बगैर सोचे जो देखता है उसका अनुकरण करता है। पोर्न देखते हुए कामुक हिंसाचार का आदी हो जाता है,पोर्न की लत लग जाती है। कामुक हिंसाचार पोर्न की वजह से होता है। जो कामुक हिंसाचार कर रहा है उसके लिए वह नहीं पोर्न जिम्मेदार है। अथवा उसकी बीमार मनोदशा जिम्मेदार है।

इस तरह की सैद्धान्तिकी को ‘केजुअल थ्योरी’ कहा जाता है। यह सैद्धान्तिकी मानती है कि ‘नकल’ या ‘लत’ के कारण व्यक्ति अपना नियंत्रण खो देता है। इस दृष्टिकोण की स्त्रीवादी विचारकों ने तीखी आलोचना की है।

स्त्रीवादी विचारकों का लक्ष्य है कामुक हिंसाचार ,उसके सांस्कृतिक नियम एवं संरचनात्मक असमानता में पोर्न की भूमिका का उद्धाटन करना। वे मानसिक विचलन या बीमारी की ओर ध्यान खींचना नहीं चाहती।

असल में ‘केजुअल मॉडल’ कामुक हिंसकों के प्रति सहानुभूति जुटाता है। ऐसी अवस्था में उन्हें दण्डित करना मुश्किल हो जाता है।इसके विपरीत स्त्रीवादी चाहती हैं कि कामुक व्यवहारों का आलोचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

कुछ स्त्रीवादी यह भी मानती हैं कि पोर्नोग्राफी स्त्री को चुप करा देती है। मातहत बनाती है। पोर्नोग्राफी असल में शब्द और इमेज का एक्शन है।यहां एक्शन यानी भूमिका को शब्दों और इमेजों के जरिए सम्पन्न किया जाता है।इसका देखने वाले पर असर होता है।

मसलन् किसी पोर्नोग्राफी की अंतर्वस्तु में काम-क्रिया व्यापार को जब दरशाया जाता है तो इससे दर्शक में खास किस्म के भावों की सृष्टि होती है। स्त्री के प्रति संस्कार बन रहा होता है। आम तौर पर पोर्न में स्त्री और सेक्स इन दो चीजों के चित्रण पर जोर होता है। इन दोनों के ही चित्रण की धुरी और लक्ष्य है स्त्री को मातहत बनाना। उसके गुलामी का बोध पैदा करना। पोर्न का संदेश उसके चित्र, भाषा, इमेज के परे जाकर ही समझा जा सकता है। इसमें प्रच्छन्नत: खास तरह की भाषा और काम क्रियाओं का रूपायन किया जाता है। इसमें हमें वक्ता की मंशा का भी अध्ययन करना चाहिए। पृष्ठभूमि में प्रदर्षित चीजो,वस्तुओं,परंपराओं ,रिवाजों आदि को भी समझना चाहिए। क्योंकि उनसे ही असल अर्थ सम्प्रेषित होता है।सामाजिक अभ्यास सम्प्रेषित होते हैं।पोर्न की वैचारिक शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह आलोचक की जुबान बंद कर देती है। यही वजह है कि सेंसरशिप उसके सामने अर्थहीन है।

जेनोफर होर्न सवे ने वक्तृता सैद्धान्तिकी के आधार पर पोर्न का मूल्यांकन करते हुए लिखा पोर्न स्त्री को चुप करती है। स्त्री संबंधी विचारों को थोपती है, अभिव्यक्ति से वंचित करती है।सामाजिक नियमों को आरोपित करती है।पोर्नोग्राफी पुरूष को यह अवसर देती है कि पुरूष उसे निरंतर गलत ढ़ंग से पढ़े और स्त्री के बोलने को नोटिस ही न ले।औरत की चुप्पी तोड़ने के लिए अनुकूल माहौल का होना जरूरी है। पृष्ठभूमि का होना जरूरी है। पोर्न का प्रसार यह माहौल और पृष्ठभूमि नष्ट कर देता है। पोर्न स्त्री की सम्प्रेषण क्षमता में हस्तक्षेप करती है।यही वजह है स्त्री पोर्न को चुनौती नहीं दे सकती।बल्कि वह पोर्न सामग्री को छिपाने की कोशिश करती है।

नादीनि स्ट्रोसीन का मानना है पोर्न का एक अर्थ नहीं होता। वह सिर्फ सेक्स संबंधी समझ ही नहीं देती बल्कि अनेकार्थी होती है। यह संभव है कि कुछ लोग पोर्न को अच्छा मानें और कुछ लोग बुरा मानें। कुछ इसके नकारात्मक और कुछ सकारात्मक प्रभाव को मानें। यदि भिन्न नजरिए से देख जाए तो पोर्न में दरशाए गए बलात्कार के ट्टश्य राजनीतिक मकसद पूरा करते हैं।जो लोग उन्हें गंभीरता के साथ देखते हैं, उसके खिलाफ हो जाते हैं। अपने प्रतिरोधभाव को व्यक्त करते हैं। इस नजरिए से देखें तो पोर्न के शब्द और इमेजों का शाब्दिक असर स्त्री को शक्तिहीन दरशाता है।किन्तु व्यवहार में स्त्री दर्शकों में प्रतिरोधी चेतना पैदा करता है। पोर्नोग्राफी की विभिन्न व्याख्याएं यह बताती हैं कि उसका एक ही संदेश या अर्थ क्षतिकारक होता है।यही वजह है कि उसका एक ही अर्थ ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। पोर्न के क्षतिकारक प्रभाव के अध्ययन के लिए उसकी पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाना चाहिए,सम्प्रेषण की पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाना चाहिए। पृष्ठभूमि का अध्ययन किए बगैर यह कहना मुश्किल है कि पोर्न चुप करता है या मातहत बनाता है। यह बात सभी संदर्भों पर लागू होती है। कई संदर्भो में स्त्री के असुरक्षित सम्मान के पक्ष में बगावत का भाव पैदा करती है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

भारत में न्याय पाने का सफर आसान नहीं

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ठीक ही कहा गया कि न्याय मिलने में अगर देरी होती है तो वह न्याय नहीं मिलने के समान है। स्वस्थलोकतंत्र की पहचान स्वस्थ न्यायपालिका को माना जाता है, लेकिन हमारे देश की न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि दो-तीन पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं, फिर भी उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है।

कायदे से बदतर हालत की जिम्मेदारी लेकर सरकार को शर्म से चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए, पर ”चलता है” वाली मानसिकता उनपर पर हावी है। सरकार के सारे कल-पुर्जे बस खीसें निपोरने में ही मशगूल हैं।

हमारी लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि आज की तारीख में सर्वोच्च न्यायलय में सैतालीस हजार याचिकाएँ लंबित हैं। उच्च न्यायलय भी इस बीमारी से अछूता नहीं है। वहाँ भी तीस लाख सत्तार हजार केस लंबित है। उसपर तुर्रा यह है कि इनमें से पाँच लाख तीस हजार याचिकाएँ तो दस सालों से लंबित हैं। निचली अदालतों में तो स्थिति और भी बेकाबू है। वहाँ तो लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है।

बजट का मौसम आया और चला भी गया, किंतु सरकार ने इस बार भी इस समस्या पर कोई खास तवज्जो नहीं दिया। जबकि जरुरत इस बात की थी कि न्याय देने की गति में इजाफा लाने के लिए सरकार द्वारा विषेष प्रयास किया जाता।

दरअसल कानूनी प्रक्रिया और कानून में बदलते परिवेश के अनुसार सुधार लाने की भी जरुरत थी। पुलिस कानून में परिवर्तन लाकर भी इस दिशा में बदलाव लाये जा सकते थे। सुधार कार्यक्रम को एक मुहिम की तरह चलाने के लिए सरकार द्वारा आगाज की आवष्यकता थी। यदि कानून के क्षेत्र में आधारभूत ढांचा को मजबूती प्रदान किया जाता है तो हालात अब भी बदल सकते हैं।

सभी को बिना किसी देरी के बदस्तुर न्याय मिलता रहे इसके लिए आज बीस हजार नये अदालतों की गठन की आवश्‍यकता है और इन अदालतों में काम करने के लिए साठ हजार न्यायधीशों की भी जरुरत है।

यह तभी संभव हो पायेगा जब सरकार इस कार्य को पूरा करने के लिए अस्सी हजार करोड़ रुपये व्यय करने के लिए तैयार हो जाएगी। फिर उसके बाद हर साल एक लाख साठ हजार करोड़ रुपयों की जरुरत भी सरकार को न्यायलयनीय कारवाईयों को पूरा करने के लिए होगी।

हालांकि 13 वें वित्ता आयोग ने 5000 करोड़ रुपयों का आवंटन देश के विविध राज्यों में चल रहे अदालतों में सालों से लंबित मामलों के तत्काल निष्पादन लिए किया है जोकि 2010 से 2015 के दरम्यान खर्च होना है। इस राषि का इस्तेमाल सुबह और शाम चलने वाली अदालतों के अलावा स्पेशल अदालतों में चल रहे लंबित केसों के निपटारे के लिए किया जाना है। एक अनुमान के अनुसार इस राशि से 113 मिलियन लंबित केसों का निपटारा 5 सालों के दौरान किया जा सकेगा।

इसके अलावा वैकल्पिक समस्या के समाधान के लिए 600 करोड़ रुपया दिया गया है। 100 करोड़ रुपयों का आवंटन लोक अदालतों के लिए किया गया है। 150 करोड़ रुपया वकीलों और विभिन्न न्यायलयों में काम करने वाले अधिकारियों को मुहैया करवाया गया है। 200 करोड़ रुपया कानूनी सहायता के लिए उपलब्ध करवाया गया है। 250 करोड़ रुपया न्यायधीशों के प्रषिक्षण पर खर्च किया जाएगा। 300 करोड़ रुपये जूडिशयल अकादमी को दिये जायेंगे। 150 करोड़ रुपये पी.पी.ओ को प्रषिक्षित करने में खर्च किये जायेंगे। 300 करोड़ रुपये अदालतों के प्रबंधको को दिया जाएगा, ताकि अदालती कारवाई सुचारु रुप से चलता रहे। 450 करोड़ रुपयों का प्रावधान अदालतों के रख-रखाव के लिए किया गया है।

पहले भी 11 वें वित्ता आयोग ने 1734 फास्ट ट्रेक अदालतों में चल रहे लंबित मामलों के निष्पादन लिए वित्ता पोषण किया था, पर पूरी राषि इन अदालतों को मुहैया ही नहीं करवाया गया और जो करवाया गया उसका भी उपयोग इन अदालतों द्वारा नहीं किया जा सका।

अप्रैल 2007 में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने मुख्यमंत्री और उच्च न्यायलयों के न्यायधीशों को संबोधित करते हुए कहा था कि 11 वें वित्ता आयोग द्वारा उपलब्ध करवायी गई राशि से फास्ट ट्रेक अदालतों ने 2000 से 2005 के दरम्यान आठ लाख लंबित याचिकाओं का निपटारा किया है। जबकि नियमानुसार उपलब्ध संसाधनों से उन्हें प्रतिवर्ष पाँच लाख केसों का निपटारा करना चाहिए था।

लोक अदालत तकरीबन 10 लाख केसों का निष्पादन प्रत्येक साल करता है, पर लंबित मामलों की तुलना में निष्पादन की यह गति नि:संदेह नाकाफी है।

13 वें वित्ता आयोग का लक्ष्य तो है देश के अदालतों में चल रहे लंबित मामलों को 2012 तक समाप्त करने का, लेकिन लगता नहीं हैर् वर्तमान प्रावधानों और उपलब्ध संसाधनों से लंबित मामलों का निपटारा आने वाले आगामी 15 सालों में भी हो पायेगा।

सच कहा जाए तो वित्ता आयोग के प्रयास स्थिति को संभालने के लिए प्रर्याप्त नहीं है। वित्ता आयोग मदद तो कर सकता है, किंतु आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए योजना आयोग और सरकार के अलावा खुद वर्तमान अदालतों की तरफ से भी दो कदम आगे आने की आवष्यकता है, तभी सभी को समय से न्याय मिल पायेगा। वैसे इस प्रक्रिया में निम्नवत् उपाय भी मुफीद हो सकते हैं-:

1- लंबित केसों की लिस्ट निचली से लेकर सर्वोच्च अदालत तक बनानी होगी और एक निश्चित समय पर उनकी समीक्षा भी करनी होगी, ताकि समयावधि के अंदर उनका निपटारा हो सके।

2- राष्ट्रीय विवाद नीति भी बनाने की जरुरत है। इससे राजस्व और आपराधिक विवादों में फर्क स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होगा। इसके लिए निश्चित अदालतों को भी रेखांकित किया जाना चाहिए।

3- राष्ट्रीय स्तर पर जूडिशियल सेवा की स्थापना की जाए।

4- वर्तमान न्यायधीषों के संख्याबल में 25 से 50 फीसदी तक इजाफा किया जाना चाहिए।

5- संविदा पर न्यायधीशों की नियुक्ति की जाए।

6- अवकाश प्राप्त न्यायधीशों की सेवा ली जाए।

7- न्यायधीषों की नियुक्ति में तेजी लाया जाए।

8- उच्च न्यायलयों के न्यायधीशों की सेवानिवृति की आयु को बढ़ाया जाए।

9- लंबित मामलों का प्रबंधन कुशल प्रबंधकों के हाथों में सौंपा जाए।

10- न्यायधीश की क्षमता तय की जाए। एक न्यायधीश एक दिन में कितने केसों का निष्पादन कर सकता है, यह सुनिश्चित किया जाए।

यह भी तय करने की जरुरत है कि न्यायधीश और जनसंख्या का अनुपात क्या है? इस कार्य को करने से हमें किस हद तक सुधार लाने की जरुरत होगी, इसका पता चल सकेगा। साथ ही इससे किस तरह के आधारभूत संरचना की जरुरत न्यायपालिका को है, इसका भी हमें अंदाजा मिल जाएगा। बीमारी की पहचान के बाद ही सही ईलाज की तरफ हम अपने कदम को बढ़ा सकते हैं।

न्याय के मंदिर पर जितना भरोसा आम आदमी का बढ़ेगा केसों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ेगी और फिर उनके समाधान के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों और कुशल प्रबंधन की जरुरत होगी।

आर्थिक बदहाली और संसाधनों के संक्रमण के दौर में न्याय के कार्य को विकेन्द्रित करके लंबित मामलों में कुछ हद तक कमी लाई जा सकती है। इस दिषा में लोक अदालत, महिला अदालत, मोबाईल अदालत और फास्ट ट्रेक अदालत फायदेमंद हो सकते हैं।

-सतीश सिंह

भारत की पाक नीति पर अमेरिका की प्रेतछाया

अब लगभग यह स्पष्ट हो गया है कि पिछले दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच जो वार्ता हुई है वह अमेरिका के दबाव के कारण संभव हो सकी है। पाकिस्तान द्वारा भारत पर 26/11 के आक्रमण के बाद स्पष्ट हो गया था कि दोनों देशों के बीच वार्ता के लिए कोई पुख्ता आधार नहीं है। भारत के पास इस बात के पक्के सबूत है कि 26/11 का आक्रमण किसी आतंकवादी गिरोह का दिमागी फितूर नहीं है बल्कि यह पाकिस्तानी सेना के निर्देशन में किया गया एक सोचा समझा आक्रमण है। इस आक्रमण के बाद भी पाकिस्तान सरकार भारत की आंतरिक व्यवस्था को चैपट करने के लिए आतंकी ब्रिगेड को प्रयोग करने की रणनीति से पीछे नहीं हटी है ऐसी स्थिति में भारत की कोई भी सरकार पाकिस्तान के साथ किस एजेंडा को आधार बना कर बातचीत कर सकती है? कुछ लोग यह कह रहे हैं कि आतंकवादी गिरोह पाकिस्तान की सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गए हैं और अब पाकिस्तान भी आतंकवाद का उसी प्रकार उसका शिकार है जैसा कि भारत उसका शिकार है।

उनका कहना है कि पाक सरकार भी आंतकवादियों की धर-पकड में लगी है। लाल मस्जिद पर पाक सेना के आक्रमण को इसके बडे उदाहरण के तौर पर पेश किया जा रहा है पर वास्तव में ऐसा है नहीं। दरअसल, आतंकवादी गिरोह तालिबान को अमेरिका और पाकिस्तान में मिलकर तैयार किया था। इसका प्रयोग अफगानिस्तान में भी करना था और भारत में भी। तालिबान अमेरिका की रणनीति का उसी प्रकार मोहरा था जिस प्रकार पाकिस्तान था। पर बाद में कुछ तालिबानियों को लगा कि इस्लाम का असली दुश्मन अमेरिका है और पाकिस्तान की वर्तमान सरकार उसकी पिछलग्गु है। तालिबान का वह स्वरूप अमेरिका के नियंत्रण से बाहर हो गया। अमेरिका के नियंत्रण से बाहर होने का अर्थ था कि वह पाक्सितान के नियम से भी बाहर हो गया। यह देखकर अमेरिका ने तालिबान का वर्गीकरण कर दिया और कहा कि तालिबान दो प्रकार के हैं पहला अच्छे तालिबान और दूसरा बुरे तालिबान। बूरे तालिबान वो हैं जो अमेरिका के नियंत्रण से बाहर हो गए हैं। अब पाकिस्तान अमेरिका के इन बुरे तालिबानों को मार रहा है। लाल मस्जिद के तालिबान इसी श्रेणी में आते थे। दिल्ली में कुछ अति उत्साही लोग इन्हीं बुरे तालिबानों के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा की जा रही कार्यवाही को पाकिस्तान सरकार का आतंकवाद विरोधी अभियान घोषित कर रहे हैं। जबकि इसका अतंकवाद के विरोध से कुछ लेना-देना नहीं है।

ऐसी स्थति में भारत पाकिस्तान से बातचीत क्यों कर रहा है? जबकि अभी भी सूचनांए मिल रही है कि पाकिस्तानी सेना के निर्देश से आतंकवादी भारत के कुछ और ठिकानों पर आक्रमण की तैयारी कर रहें हैं।

भारत के गृहमंत्री पी.चिदंबरम् ने कहा कि यदि इस बार पाक ने आतंकवादी आक्रमण किया तो भारत चुप नहीं बैठेगा। परंतु चिदम्बरम भी जानते हैं कि पाकिस्तान के साथ व्यवहार करने में वे स्वतंत्र नहीं है। उसके लिए उन्हें अमेरिका से अनुमति लेनी पडती है। यदि अमेरिका भारत को चुप बैठनेे के लिए कहेगा तो सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह काफी देर तक चुप ही बैठे रहेंगे। परन्तु क्या कभी अमेरिका भारत को पाकिस्तान के आतंकी तंत्र को समाप्त करने की अनुमति देगा ? इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि पाकिस्तान का आतंकी तंत्र अमेरिका और पाकिस्तान ने मिलकर संयुक्त रुप से खडा किया है और यह तंत्र वैष्विक दृष्टि से अमेरिका के हितों की पूर्ति करने वाला है। इसका नवीनतम उदाहरण डेविड कोलमैन हेडली का किस्सा है। यह “शख्स मूलतः पाकिस्तान का नागरिक है लेकिन अमेरिका की सीआईए ने इसे अपना एजेंट बनाने के लिए इसका इस प्रकार का उल्टा -पुल्टा इस प्रकार का नाम रख दिया और इसे अमेरिका पासपोर्ट भी दिया। इसका यह नया नाम रखने का एक कारण यह भी हो सकता है कि जब यह भारत में आतंकवादी तंत्र को मजबूत करने के लिए कार्य कर रहा तो किसी को इस पर “शक न हो । यदि इसका मुस्लिम नाम होता तो हो सकता है कि यह “शक के घेरे में आ जाता। यह “शख्स एक साथ ही आई एस आई और सीआईए के लिए काम करता था।

बहुत से लोग अब हेडली को डबल एजेंट कह रहे हैं वास्तव में ऐसा है नहीं क्योंकि आईएसआई और सीआईए में इतना गहरा तालमेल है कि इन दोनों के लिए एक साथ काम करना जासूसी दुनिया में डबल एजेंट नही कहलवा सकता बल्कि गुप्तचर गतिविधियों का बढिया समन्वय कहलाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि सीआईए को मुम्बई पर हुए पाकिस्तान के आतंकवादी आक्रमण की किसी न किसी रुप में पूर्व सूचना थी। लेकिन अमेरिका के दुर्भाग्य से मुम्बई पर हुए इस आक्रमण में कुछ अमेरिकी नागरिक भी मारे गए। अब अमेरिका सरकार के लिए कुछ सक्रियता दिखाना अनिवार्य हो गया था और उधर सीआईए का यह भी खतरा था कि कहीं भारत की खुफिया एजेंसिया मामले की छानबीन करते हुए हेडली तक न पहुंच जाएं। यदि भारत की पुलिस हेडली तक पहुंच जाती तो भारत में पाकिस्तानी आतंकवादी तंत्र में अमेरिका की भूमिका का भी पर्दाफाष हो जाता। इसलिए अमेरिका सरकार ने तुरंत हेडली को गिरफ्तार कर लिया। और जल्दी ही उससे गुनाहों की कबूली करवाकर उसे भारत में प्रत्यर्पण किए जाने की संभावना से भी दूर कर दिया। अमेरिका द्वारा हेडली से किया गया यह समझौता चैंकाने वाला भी है और मानवता विरोधी भी। जिस हेडली पर लगभग दो सौ लोगों के हत्या का आरोप है उसे अमेरिकी सरकार ने अत्यंत चतुराई से फांसी के फंदे से भी बचा लिया। परंतु आखिर भारत सरकार को अपने लोगों को मुंह दिखाना है इसलिए अमेरिका ने अब चिदम्बरम को झुनझुना थमा दिया है कि आप के लोग भी अमेरिका आकर हेडली से पूछताछ कर सकते हैं। भारत सरकार इसी झुनझुने के बजाते हुए अपनी विजय बता रही है। चिदम्बरम जितना मर्जी हल्ला मचाते रहें लेकिन जब तक वे पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी नीति की प्रेत छाया से मुक्त नहीं होते तब तक आतंकवाद से लडने का दिखावा तो किया जा सकता है परंतु लडा नहीं जा सकता।

– डॉ. कुलदीपचंद अग्निहोत्री

पादरियों के सेक्स-कारनामों से थर्राया यूरोप, वेटिकन ने की क्षमायाचना

समाचार पोर्टल सीएनएन व अन्य प्रमुख अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों के हवाले से मिल रही खबरों से पता चला है कि वेटिकन कैथोलिक पादरियों के बारे में दुनियाभर और खासतौर से यूरोप के विभिन्न देशों से एक के बाद एक सेक्स-कारनामों के खुलासे से बुरी तरह हिल गया है।

और तो और शुक्रवार को म्युनिख, जर्मनी से आई खबर के अनुसार, म्युनिख आर्क- डायोसिस के कुछ पादरियों पर भी कुछ किशोरवय बच्चों ने दुष्कर्म के आरोप लगाए हैं। खबरों में बताया गया है कि जब वर्तमान पोप बेनेडिक्ट म्युनिख आर्क-डायोसिस के प्रमुख पादरी थे, तब भी इस प्रकार के दुष्कर्म हुए थे, किंतु तब रिपोर्ट दबा दी गई थी और जो पादरी बच्चों के यौन उत्पीड़न के दोषी थे, उन्हें वर्तमान पोप द्वारा कार्यमुक्त करने की बजाए पद पर बनाए रखा गया था।

इस ताजा आरोप ने पोप बेनेडिक्ट को झकझोरकर रख दिया है। इसके पहले की म्युनिख सेक्स कांड पर कैथोलिक समुदाय में बहस तेज होती, पोप ने स्वयं आगे आकर एक अन्य मामले में माफी मांगने का फैसला कर लिया। विश्लेषक इसे पोप द्वारा अपना चेहरा बचाने की कवायद करार दे रहे हैं।

सूत्रों के अनुसार, चर्च से जुड़े सेक्स स्कैंडलों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तेजी से एक के बाद एक खुलासा होता जा रहा है, उससे वेटिकन में बदहवासी का आलम छा गया है। दबी जुबां नैतिकतावादी कैथोलिक पोप बेनेडिक्ट सोलहवें से पद से त्यागपत्र देने की मांग करने लगे हैं। नैतिकतावादियों का मानना है कि पोप बेनेडिक्ट का कैथोलिक पादरियों के बड़े वर्ग पर नैतिक नियंत्रण समाप्त हो चुका है और इसके कारण दुनियाभर में कैथोलिक ईसाई समुदाय की साख पर बट्टा लग गया है।

शुक्रवार, 19 मार्च, 2010 को वेटिकन ने आधिकारिक रूप से इस खबर की पुष्टि की कि पोप बेनेडिक्ट सोलहवें ने आयरलैण्ड के कैथोलिक समुदाय से अपने पादरियों के सेक्स स्कैण्डल में संलिप्तता पर लिखित माफी मांगी है।

इस बीच यूरोप के करीब आधा दर्जन देशों में कैथोलिक पादरियों के अनैतिक सेक्स संबंध रखने और इस प्रकार के काम बाकायदा रैकेटियर के रूप में संलिप्त होने की खबरों के प्रकाश में आने से वेटिकन और पोप बेनेडिक्ट की मुश्किलें बढ़ गई हैं।

कैथोलिक मामलों की रिपोर्टिंग बीट से जुड़े सीएनएन संवाददाता जॉन एलेन ने स्पष्ट किया है कि वेटिकन अब उन देशों के पादरियों के प्रति भी सशंकित हो उठा है जहां कैथोलिक ईसाई बड़ी संख्या में रहते हैं।

जिन यूरोपीय देशों से पादरियों के दुराचार की खबरें आ रही हैं उनमें म्युनिख-जर्मनी के अतिरिक्त आस्ट्रिया, स्विटजरलैण्ड, नीदरलैण्ड, स्पेन आदि प्रमुख हैं। अकेले जर्मनी से पादरियों के यौन उत्पीड़न से त्रस्त लोगों के तीन सौ से अधिक शिकायतें प्रकाश में आई हैं। स्वयं वेटिकन में पोप की नाक के नीचे प्रमुख पादरी और प्रशिक्षु युवा पादरी अनैतिक रूप से सेक्स कांड में संलिप्त पाए गए हैं।

उधर ब्राजील में एक टी.वी. न्यूज चैनल पर एक वरिष्ट पादरी के एक 18 साल के किशोरवय लड़के के साथ सेक्सकांड का पर्दाफाश हो जाने से कैथोलिक पादरियों के खिलाफ समूचे यूरोप में जनरोष और तेजी से सुलगने लगा है।

अपने क्षमापत्र में पोप ने कहा है कि ‘निश्चित रूप से क्षमा मांगकर हम पश्चाताप कर रहे हैं और जो हुआ है, उससे उबरने के लिए प्रभु से प्रार्थना करते हैं।’

राष्ट्रीय समृद्धि के लिए कृषि प्रौद्योगिकी

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने देश को खाद्यान्न-संकट से उबार कर आत्मनिर्भर बनाने में उल्लेखनीय योगदान सन् 1905 में स्थापित होने से लेकर अब तक दिया है। संस्थान के क्रिया-कलापों को किसानों और जन-सामान्य तक पहुंचाने तथा यहां विकसित नवीनतम प्रौद्योगिकियों से उन्हें अवगत कराने हेतु इसी माह संस्थान में ‘कृषि विज्ञान मेला’ आयोजित किया गया।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विभिन्न फसलों की अनेक उन्नत किस्में विकसित की गई हैं जिनमें से 100 से भी अधिक किस्में किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं और राष्ट्रीय समृद्धि में योगदान कर रही हैं।

अब महानगरों में ही नहीं वरन् छोटे शहरों में भी आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ उपभोक्ताओं के खान-पान में भी बदलाव आ गया है। इस वर्ष अक्टूबर माह में राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन देश की राजधानी दिल्ली में होने जा रहा है। लगभग उसी समय पवित्र त्यौहार नवरात्रों की भी शुरूआत हो रही है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की भारत सरकार व्यापक स्तर पर तैयारी कर रही है। आशा है कि लगभग 1.5 से 2.0 लाख खिलाड़ी, दर्शक, प्रबंधक आदि मेहमान इस अवसर पर दिल्ली व दिल्ली राष्ट्रीय राजधनी क्षेत्र में रहेगें जिसके चलते यहाँ पर फल-फूल व सब्जियों के साथ-साथ अन्य कृषि उत्पादों की भारी माँग रहेगी। सब्जियों में खासकर गैर-परम्परागत सब्जियां जैसे ब्रोकोली, लैटयूस, चैरी टमाटर, खीरा, प्रैंफचबीन, टमाटर, पत्ती वाली सब्जियां, गाजर, प्याज, लहसुन, मूली, शिमला मिर्च, फूलगोभी इत्यादि की मांग बढ़ेगी, लेकिन इन सभी के उत्पादन के लिए दिल्ली के आसपास का मौसम उस समय अनुकूल रहेगा। कुछ की खेती पर्वतीय क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर या फिर मैदानी भागों में संरक्षित खेती करके इस मांग की आपूर्ति करके किसान भाई अधिक लाभ कमा सकते हैं। पूसा संस्थान में सब्जियों व फलों की संरक्षित व्यावसायिक खेती के लिए कम लागत के पॉलीहाउस, ग्रीनहाउस व नैटहाउस प्रौद्योगिकियों को मानकीकृत किया है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान उद्यमी संरक्षित तकनीक का इस्तेमाल कर उच्च गुणवत्ताा वाली गैर मौसमी एवं विदेशी सब्जियों तथा फलों की खेती कर अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

फलों में, भारतीय सेब अपने स्वाद के लिए विश्वविख्यात है जो खेलों के आयोजन के दौरान बड़ी मात्रा में उपलब्ध होगा लेकिन इसकी गुणवत्ता को बढ़ाना व रासायनिक अवशेषों को न्यूनतम करना होगा। सेब की फसल में इस समय जीवाणु खादों का प्रयोग व जैविक पीड़कनाशी का प्रयोग एकीकृत बीमारी व कीट प्रबंधन के लिए करना लाभदायक होगा।

बागवानी, धन्य, दलहनी व तिलहनी फसलों में तुड़ाई उपरांत क्षति को कम करना, उनके प्रसंस्करण जैसे कि ज्वार के फ्रलैक्स, बेर के पापड़ व आंवले की कैंडी बनाने, विभिन्न फलों के पेय तथा टमाटर का गूदा निकालने की सरल तकनीकों का विकास पूसा संस्थान द्वारा किया गया है। किसानों के खेत पर ही भंडारण सुविधा, पूसा शून्य ऊर्जा शीत गृह, सब्जियों तथा फलों के लिए अत्यंत उपयोगी है। 100 किग्रा क्षमता वाली इसकी संरचना को लगभग रू 3500 में तैयार किया जा सकता है। उपरोक्त तकनीकें अपनाकर किसान मूल्य संवर्धन करके अपनी आय बढ़ा सकते हैं।

बासमती धान की खेती के अंतर्गत 1.5 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल के लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र में पूसा 1121 की खेती हो रही है क्योंकि इस धन का पका हुआ चावल विश्व में सबसे लंबा होता है और इसकी औसत पैदावार 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है। बासमती चावल का निर्यात कर विदेशी मुद्रा कमाने में पूसा संस्थान की किस्में, पूसा बासमती 1 एवं पूसा 1121 का सबसे बड़ा योगदान है। संस्थान द्वारा तैयार कम अवधि में पककर तैयार होनी वाली किस्म, पूसा संकर धान 10 किसानों में, खासकर आलू, गन्ना एवं मटर उगाने वाले क्षेत्रों के किसानों के लिए वरदान साबित हो रही हैं। इसका क्षेत्रफल पंजाब, हरियाणा व उत्तार प्रदेश में तेजी से बढ़ रहा है। नई बासमती किस्म, पूसा-1401 अपनी पैदावार एवं कुकिंग क्वालिटी में पूसा 1121 से भी बेहतर है। संस्थान की नई किस्म उन्नत पूसा बासमती 1 ; पूसा 1460, किसानों को खेत पर 60-65 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पैदावार क्षमता के साथ-साथ जीवाणु अंगमारी रोग हेतु प्रतिरोध क्षमता भी प्रदान करती है।

गेहूं की उत्कृष्ट किस्मों के विकास में संस्थान का महत्वपूर्ण योगदान है। वर्तमान में एच डी 2932, एच डी 2733, एच डी 2851 तथा एच डी 2687 किसानों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। नई किस्मों एच डी 2894 तथा एच डी 4713 का प्रदर्शन देखकर किसान उत्साहित है।

दलहनी फसलें, किसानों के लिए अधिक लाभकारी व मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायक हैं। संस्थान की अधिक उपज देने वाली चने की किस्में, पूसा 1053, पूसा 1088, पूसा 1103 तथा पूसा 1108 आदि 20-25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज देने की क्षमता वाली किस्में हैं। ये किस्में अधिक उत्पादन के साथ-साथ अपने मोटे चमकीले दानों के लिए किसानों व उपभोक्ताओं में लोकप्रिय हो रही है। इसी प्रकार अन्य दलहनों में अरहर की किस्म पूसा 991, पूसा 992 व पूसा 2001, 140-150 दिनों में 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की क्षमता रखती है। संस्थान द्वारा विकसित की गई मूंग की किस्में, पूसा विशाल, पूसा रत्ना, पूसा 9351, 65-70 दिन की अल्प अवधि में 12-16 क्विंटल प्रति हैक्टर पैदावार दे सकती हैं। इनकी खेती से किसान 70 दिन में 50 हजार की आमदनी एक हैक्टेयर क्षेत्रफल से गर्मी के मौसम में कमा सकते हैं। ये किस्में गन्ना व कपास के साथ अंत:फसल के रूप में उगाई जा सकती है जिससे देश को दाल के संकट का समाधन करने में सफलता मिल सकती है।

तिलहनी फसलों के विकास में संस्थान का उल्लेखनीय योगदान रहा है। देश के बहुत बड़े क्षेत्र पर उगाए जाने वाली, बड़े दाने वाली किस्म, पूसा बोल्ड व अगेती परिपक्व होने वाली ;100-120 दिन किस्म, पूसा तारक, पूसा अग्रणी उच्च पैदावार एवं अधिक आय देने के कारण किसानों में बहुत लोकप्रिय हो रही हैं। इसकी कटाई के बाद कद्दूवर्गीय सब्जियों की फसल लेकर किसान भाई अधिक आमदनी ले रहे हैं। कम इरूसिक अम्ल युक्त किस्म पूसा मस्टर्ड 21 एवं पूसा सरसों 24 भी इसी संस्थान की देन हैं।

लेवलर द्वारा समतलीकरण, हाईड्रोजैल के उपयोग को बढ़ावा, मेड़ों पर गेहूं, कपास व अन्य फसलों की बुवाई तथा धन को सघन पति द्वारा उगाने की विधियों को अपनाने की सिफारिश की गई है तथा इनके प्रदर्शन किसानों के खेतों पर भी किए गए हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ 20-35 प्रतिशत जल की बचत भी हुई है।

फसलों के प्रबंधन एवं मौसम आधारित फसलों के विषय में जानकारी के लिए नियमित रूप से किसानों को सलाह, समाचार पत्रों एवं इंटरनेट के माधयम से दी जाती है। जैव आधरित टिकाऊ खेती को बढ़ावा देने के लिए समेकित नाशीजीव प्रबंधन पध्दतियों की सलाह दी गई है। नाशीजीव प्रबंधन के लिए पादप ; विशेषकर नीम (आधरित संरूपण, मृदाजन्य रोगों और सूत्राकृमि प्रबंधन हेतु ‘कालीसेना’, नाशीरूपण के साथ-साथ सूक्ष्मजैवीय उर्वरक- राईज़ोबियम, एज़ोटोबैक्टर, एज़ोस्पाइरिलम, फॉस्पफोरस घुलनशील जीवाणु और बेहतर मृदा स्वास्थ्य के लिए रासायनिक उर्वरकों के प्रभावी विकल्प और अनुपूरक के रूप में वर्मीकम्पोस्ट तथा रॉक फॉस्फेट कम्पोस्ट को बढ़ाने की सिफारिश की गई है। बरानी क्षेत्रों में दीमक के प्रबंधन के उपाय भी समय-समय पर किसानों को दिए गए हैं।

हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में चारा काटने का कार्य हस्तचलित चारा कटाई मशीन द्वारा किया जाता है, इससे कई बार किसान भाइयों अथवा इनके परिवार के सदस्यों का हाथ या अंगुलियां कट जाती है। जिससे हजारों बच्चे-बड़े अपाहिज हुए हैं। संस्थान ने इससे बचने के लिए एक सस्ता उपकरण बनाया है, जिससे इस तरह की दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।

संस्थान ने राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के संस्थानों व गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से औपचारिक समझौता ज्ञापन के साथ लाखों दूर-दराज के किसानों तक पहुँचाने के लिए एक राष्ट्रीय प्रसार कार्यक्रम चलाया है जिससे देश के लगभग प्रत्येक भाग में सक्षम प्रौद्योगिकियों के प्रसार में सुविधा व सहयोगियों के विकास में उनके धन की बचत हो रही है।

संस्थान ने समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन कर देश के लगभग दस राज्यों के किसानों को नवीनतम तकनीकों व प्रौद्योगिकियों के विषय में प्रशिक्षित किया है। इन प्रयासों से नवीनतम प्रौद्योगिकियों का देश भर में प्रसार हो रहा है और संस्थान किसानों से सीधे जुड़ रहा है। आगे भी किसानों को इस कार्यक्रम से जोड़ने की योजना है।

संस्थान के वैज्ञानिकों के प्रयास व प्रशिक्षण से देश में 100 से अधिक बायोगैस संयंत्र लगवाए गए हैं जिससे हमारे पर्यावरण में सुधार एवं मृदा-स्वास्थ्य में उल्लेखनीय वृध्दि हुई है। संस्थान द्वारा प्रशिक्षित कई किसान बीज उत्पादक, सब्जी उत्पादक, फूल उत्पादक के रूप में अथवा कृषि आधारित अन्य उद्यम अपनाकर अपने क्षेत्र के विकास में अहम योगदान दे रहे हैं। किसानों से सम्पर्क बनाए रखने व प्रौद्योगिकियों के प्रसार के लिए यह संस्थान नियमित रूप से कृषि प्रसार की त्रौमासिक पत्रिका ‘प्रसार दूत’ का प्रकाशन कर रहा है तथा संस्थान के वैज्ञानिक एवं तकनीकी कर्मचारी सरल भाषा में विभिन्न विषयों पर कृषि साहित्य का प्रकाशन कर रहे हैं। इसी कड़ी में, सीधे सम्पर्क हेतु पूसा हैल्पलाईन (011-25841670) के माध्‍यम से यह संस्थान किसानों की सेवा में कार्यरत है।

-आशीष कुमार ‘अंशु’

गुजरात को बदनाम करने वाली मीडिया बरेली पर मौन

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उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में विगत 16 दिनों से एक खास संप्रदाय को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसे प्रशासन के द्वारा वहां कर्फ्यू लगा दी गयी है, लेकिन सारेआम हिंसा जारी है। हिंसाग्रस्त इलाकों से जो खबरें आ रही है उसमें अभी तक 24 लडकियों के गायब होने की सूचना है। असंपुष्ट जानकारी के अनुसार 50 से अधिक लोग लापता है। कर्फ्यू के बाद भी लोगों के मकान और दुकान जलाये जा रहे हैं, लेकिन गुजरात दंगे पर दुनिया भर में गलाफार प्रचार कनने वाली संवेदनशील मीडिया आज न जाने कहां संवेदनाओं के शीतल छाव में सुस्ता रही। मीडिया आईपीएल के जश्न में चीयर गर्ल्स को निहारने और उसके अर्धनंग्न तराशी काया को दिखाने में व्यस्त है लेकिन बरेली पर न तो किसी बडे चैनल की खोजी रपट आ रही है और न ही कोई अखबर इस मामले को राष्ट्रीय सुर्खियां बना रहा है। भाई मुकुल सिंहा, तिस्ता जी, परजन्या बनाने वाले राहुल धौलकिया आज रहस्यमय तरीके से गायब हो गये हैं। इस देश में मानवाधिकारवादी नेता केवल कुछ संप्रदाय विषेश या माओवादी आतंकवादियों के लिए ही हैं क्या? महाराष्ट्र में जाकर पूछो किसी को पता नहीं है कि बरेली में क्या हुआ। गुजरात की जनता से पूछो तो उसे भी पता नहीं है कि बरेली में क्या हुआ। यहां तक कि हिन्दी भषी प्रांतों में भी इस बात की जानकारी नहीं है कि बरेली को आखिर क्यों जलाया जा रहा है। याद रहे बरेली को एक खास संप्रदाय के लोगों ने प्रयोग भूमि बनाया है आने वाले समय में बरेली की घटनएं अन्य जगह भी दुहरायी जाएगी। बरेली का दंगा अभी तक के हुए तमाम दंगों से भिन्न है। दंगे में जिस तंत्र का उपयोग किया गया है वह अभिनव है। बावजूद इसके बरेली के दंगे पर देश मौन है।

सन् 2002 में गोधरा रेलवे स्टेशन के पास कुछ सरारती तत्वों ने साबरमती एक्सप्रेश के दो डब्बे में आग लगा दी। दोनों ही डब्बों के लोग मारे गये। उसके बाद गुजरात में ही नहीं पुरे देश में इसकी प्रतिक्रिया हुई। गुजरात में प्रतिक्रिया थोडी ज्यादा हुई। दंगा भडक गया। हिन्दु और मुस्लमान दोनों संप्रदाय के लोगा मारे गये। उस दंगे को झूठ और फरेब की बुनियाद पर आज भी जिन्दा रखा गया है। जिस महिला को आधार बनाकर जिसे बदनाम किया जाता रहा है विगत दिनों न्यायालय में सुनवाई के दौरान उस महिला के अन्त्यपरीक्षण आख्या पर डॉ0 जे0 एस0 कनोरिया की गवाही गुजारी गयी। डॉ0 कनोरिया ने माननीय न्यायालय के समक्ष कहा कि उक्त महिला की मृत्यु डर के कारण सांस रूक जाने से हुई थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका ऑपरेशन किया गया तथा उसके गर्भस्थ शिशु को निकाला गया। अब गुजरात दंगे में 300 महिलाओं के खिलाफ बलात्कार की बात करने वाले लोग इस विषय पर प्रतिक्रिया देने के लिए खोजने से भी नहीं मिल रहे हैं। सन 2002 के दंगे के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को बदनाम किया जा रहा है। जबकि दंगे के बाद तत्कालीन गृहमंत्री हरेन पाण्या को दंगा समर्थक आतंकियों ने मार डाला। उस दंगे का दंश आज भी गुजरात का हिन्दु समाज झेल रहा है। कभी सूरत में लडकियों के साथ टारगेटेड बलात्कार किया जाता है तो कभी राजकोट में हिन्दु मंदिरों पर हमला किया जाता है। केवल अहमदाबाद में ही अभी तक 10 हिन्दु नेताओं पर हमला हो चुका है। विश्व हिन्दु परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव डॉ0 प्रवीण भाई तोगडिया ने गुजरात सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा है कि जब से प्रदेश का पुलिस महानिदेशक मुस्लमान को बनाया गया है तब से प्रदेश में इस्लामी ध्वंशात्मक गतिविधियां बढ गयी है। हालांकि कानून के दायरे में सब समान है अगर गुजरात के मुख्यमंत्री सन 2002 के दंगे के दोषी हैं तो उनके खिलाफ कार्रवायी होनी चाहिए लेकिन जो तत्व गुजरात में मुस्लिम चरमपंथ को हवा दे रहा है और जिसके इशारों पर गुजरात का मुस्लिम समाज हिन्दुओं के खिलाफ टारगेटेड हिंसा में जुटा है उसके खिलाफ आखिर इस देश की मीडिया, इस देश के राजनेता और कथित समाजसेवी, मानावाधिकारवादी क्यों चुप हैं?

गुजरात की कथित अस्पृस्यता पर आख्या छापने वाली विदेशी संस्थानों से पैसा लने वाले पंचविताराई समाजसेवी उत्तर प्रदेश को अपनी प्रयोग भूमि क्यों नहीं बना रहे हैं? जरा वहां की भी सुधि ली जानी चाहिए। किस प्रकार उत्तर प्रदेश के लोग अभिजात्य अस्पृस्य, इस्लामी गठजोड का सिकार हो रहे हैं। विगत दिनों विदेशी पैसों से संपोषित कुछ संस्थाओं के समूह ने गुजरात पर एक आख्या प्रस्तुत की। उस आख्या को गुजरात विद्यापीठ के सभागार में बाकायदा प्रस्तुत किया गया जिसमें यह कहा गया कि गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में भयानक अस्पृश्‍यता है। उसके कुछ ही दिनों बाद दुनिया को हथियार मुक्त कराने का संक्लप लेकर काम करने वाली संस्था ने गुजरात विद्यापीठ में सात दिनों का एक सेमिनार आयोजित किया। यह सेमिनार दुनिया में हो रहे हथियारों की होड को समाप्त करने के लिए आयोजित किया गया था, लेकिन उस सेमिनार में गुजरात के गोधरा दंगों पर भी एक आख्या प्रस्तुत की गयी। इसके हेतु पर मामांशा होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के बरेली में आज 16 दिनों से पुलिस के संरक्षण में एक संप्रदाय विषश के लोग हुडदंग मचा रहे हैं उसपर किसी की नजर नहीं गयी है। बरेली का दंगा प्रायोजित है। इसको साबित करने के लिए सिर्फ इतना कहना काफी होगा कि जब पूज्य मुहम्मद साहब का जन्म दिवस 27 फरवरी को था तो 02 मार्च को जुलूस निकाने की क्या जरूरत थी। जानकारी में रहे कि संपूर्ण उत्तर भारत में दो फरवरी को होली मनाई जा रही थी? दुसरा अगर जुलूस निकाल भी लिया गया तो प्रशासन के द्वारा निश्चित किये गये रास्ते से जुलूस क्यों नहीं ले जाया गया? याद रहे दंगा भडका नहीं, भडकाया गया है। जब जुलूस लेजाया जा रहा था तो कुछ असामाजिक तत्व के लोगों ने सडक के किनारे वाले घरों पर पत्थडबाजी करी। आपति दर्ज कराई गयी तो सुनिश्चित कर दुकानों और घरों में आग लगा दिया गया। खबर है कि 24 लडकियां गायब है। यही नहीं 50 से अधिक लोग लापता है। जो लडकियां घर लौट कर आ रही है वह अपना सब कुछ गवा चुकी है। अब गुजरात पर चिल्लाने वाले लोग चुप क्यों है? गोधरा पर लगातार अस्तंभ लिखने वाले लोग बरेली पर मौन क्यों हैं? गुजरात के दंगे पर लिखा जाना चाहिए। मोदी गुनाहगार हैं तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए लेकिन जो इमाम डंके के चोट पर कहता है कि जो लोग पैगम्बर मुहम्मल के जुलूस को रोकने का प्रयास किया उसके घरों में आग लगा दो, जिसने यहा कहा कि जो लोग हमारे पैगम्बर का अपमान किया उनकी जवान बेटियों को उठा लो, क्या उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? उस इमाम को दिखाने के लिए पकडा तो गया लेकिन फिर से फसाद करने के लिए छोड भी दिया गया। बताओ साहब यह कहां का न्याय है। बेचारे बरूण ने तो केवल यही कहा था कि जो लोग हमारी बहनों पर हाथ उठाएंगे उनका हाथ काट लिया जाएगा, लेकिन इमाम साहब ने तो हद कर दी उन्होंने तो बेटी तक को उठाने की बात की। इसके बावजूद अगर उस इमाम पर कार्रवाई नहीं हो रही है तो उस प्रसाशन को कठघरे में खडा नहीं किया जाना चाहिए क्या? कश्मीर से हिन्दुओं को खदेर दिया गया। आज तक कोई आयोग नहीं बनाया गया। सन् 1984 के सिख विरोधी दंगे के बाद आयोग पर आयोग बनाए गये लेकिन किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई पर गुजरात दंगे पर दुनिया भर में शोर मचाया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका तक में इस पर चर्चा हुई और अपने देश के कथित धर्मनिर्पेक्ष लोग लगातार सेमिनार सेंपोजियम करते रहे और कहते रहे कि गुजराम का मुख्यमंत्री अल्पिसंख्यकखोर है।

आंकडे बताते हैकि गुजरात का मुस्लिम समाज अन्य प्रांतों की तुलना में समृध्द और सुरक्षित है। गुजरात में हिन्दुओं से ज्यादा मुस्लिम साक्षरता है। राष्ट्रीय साक्षरता का औसत 64. 8 है और मुस्लमानों की साक्षरता 59.1 है जबकि गुजरात में हिन्दुओं की साक्षरता 68.3 है लेकिन मुस्लमानों की साक्षरता 74.5 है। गुजरात के मुस्लमान केवल साक्षरता में ही आगे नहीं है अपितु आर्थिक दृष्टि से भी उनकी स्थिति अन्य प्रांतों की तुलना में अच्छी है। गुजरात के कर्मचारियों की कुल संख्या 754533 है जिसमें से 5.4 प्रतिशत मुस्लमान हैं। गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में बसे मुस्लमानों की प्रति महीने आमदनी 668 रूपये है जबकि हिन्दुओं की 644 रूपये मात्र है। गुजरात के बैंक खाते में मुस्लमानों की हिस्सेदारी 8.9 प्रतिशत की है तथा एवरेज जमा करम 32932 है। इन बिन्दुओं को आज तक किसी बडे मीडिया ने उठाने का प्रयास नहीं किया है। राष्ट्रीय मीडिया लगातार यही छाप रहीे है कि मोदी तो अल्पसंख्यकखोर है उसके राज्य में मुस्लमानो की दुर्दशा हो रही है। गुजरात के मुस्लमान दोयम दर्जे की नागरिकता जी रहे हैं लेकिन गुजरात के मुस्लमानों का यह भी एक चित्र है। ऐसी स्थिति में देश के बडे मीडिया को कैसे सार्थक कह जा सकता है। बरेली जल रहा है लेकिन समाचार वाहिनियों पर आपीएल खेल दिखाए जा रहे हैं। बरेली जल रहा है लेकिन अखबार वाले यह छाप रहे हैं कि वहां सब कुछ सामान्य है। बरेली में एक खास संप्रदाय के लोगों की बहु बेटियों को उठाकर ले जाया जा रहा है और प्रभावी मीडिया एवं कथित धर्मनिर्पेक्ष राजनेता कह रहे हैं कि वहां सब कुछ ठीक है। एक संप्रदाय के लोगों को खुली छूट दी गयी है लेकिन दूसरे संप्रदाय के लोग जब वहां की स्थिति का जायजा लेने जाते हैं तो प्रशासन उन्हें रोक देती है। आखिर ऐसा क्यों? यह सवाल आज भी कायम है कि केवल इस देश में भूमिपूत्रों को ही चिंहित कर मारा जाएगा या और जब वह भूमि पुत्र उसके लिए आवाज उठाएगा तो उसको बदनाम करने के लिए दुनिया भर की मीडिया समाचार प्रकाशित करेगी। यह तो सरासर अन्याय है।

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम

वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।

लेकिन चित्र बदलनी चाहिए

और हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

-गौतम चौधरी