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ये है दिल्ली मेरी जान/नप सकते हैं पीएम इन वेटिंग

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राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के कतार में रहने वाले प्रधानमंत्री (पीएम इन वेटिंग) एल.के.आडवाणी पर मुसीबतों का पहाड टूटता दिख रहा है, लगता है सयानी उमर में उनकी मट्टी खराब हो सकती है। अठ्ठारह साल पहले यूपी सूबे में घटी एक घटना आडवाणी के गले की फांस बनती दिख रही है। हाल ही में बाबरी विध्वंस कांड के नौवें गवाह के तौर पर पेश हुई 1990 बैच की भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी अंजु गुप्ता ने इस मामले में बयान देकर आडवाणी की पेशानी पर पसीने की बूंदे छलका दी हैं। गुप्ता ने साफ तोर पर इस बात को अपनी गवाही में उकेरा है कि बाबरी ढांचे को गिराने हेतु कार्यकर्ताओं को उकसाने के लिए आग में घी का काम किया था आडवाणी के जोशीले उद्बोधन ने। बाबरी विध्वंस के दौरान फैजाबाद में सहायक पुलिस अधीक्षक रहीं अंजू गुप्ता को आडवाणी की सुरक्षा की जवाबदारी दी गई थी, इस लिहाज से वे पूरे समय आडवाणी के साथ थीं। आडवाणी और अन्य नेताओं के बीच उस दौरान क्या क्या चर्चाएं हुईं, क्या रणनीति बनी वे बेहतर समझ सकतीं हैं। उन्होंने अपने बयान में जो बातें कहीं हैं, वे संभवत: बताने योग्य रही होंगी। आडवाणी का कद आज बहुत उंचा है, उन्हें सर उठाकर देखने से किसी की भी टोपी सर से गिर सकती है। इस मान से अंजू गुप्ता ने अनेक बातें छिपाकर भी रखीं होंगी। सवाल यह उठता है कि आखिर अंजू गुप्ता को यह दिव्य ज्ञान कहां से प्राप्त हो गया कि 18 साल बाद वे सच का सामना करने का साहस जुटा सकीं। तत्कालीन एएसपी फैजाबाद अंजू गुप्ता ने 1992 में ही अपनी ही पुलिस के रोजनामचे में इस बात को दर्ज क्यों नहीं कराया! इस मामले में अंजू गुप्ता पर भी अलग से प्रकरण पंजीबद्ध किया जाना चाहिए, कि लोकसेवक होते हुए भी उन्होंने सच्चाई को 18 साल तक छुपाकर रखा।

पत्थरों से तुले तोमर

अब तक नेताओं को लड्डू, पेडा, फलों से तुलने की बातें सुनी होंगी, पर किसी नेता को इनके साथ पत्थरों से तुलते देखा है। आपका उत्तर होगा, नहीं। जी हम बताते हैं मध्य प्रदेश में एक बडे नेता के पत्थरों से तुलने का वाक्या। दरअसल भारतीय जनता पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष रहे नरेंद्र तोमर को टीम गडकरी में केंद्रीय और महती जवाबदारी सौंपी गई है। जब नरेंद्र तोमर भोपाल पहुंचे तो उनके समर्थकों के द्वारा उन्हें लड्डुओं से तोलने का प्रोग्राम तय किया। यह प्रोग्राम मन से किया गया था, या बेमन से इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तोमर के लड्डुओं से तुलने के बाद एक बुजुर्ग महिला के हाथ पत्थर ही लगे। हुआ यूं कि जब तोमर तुलने के उपरांत वहां से हटे तो कार्यकर्ताओं ने लड्डू बांटना आरंभ किया। इसी बीच एक बुजुर्ग महिला ने डलिया में रखे लड्डू उठा लिए, नाराज कार्यकर्ताओं ने उससे लड्डू छुआ लिए। तब उस बुजुर्ग महिला ने अपना हाथ तराजू में रखी बोरी में दे मारा। उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने बोरियों में पत्थर रखे पाए। उसने इसकी शिकायत वहां उपस्थित पदाधिकारियों से की। पदाधिकारी भी सन्न रह गए और उन्होंने दबी जुबान से इसकी जांच की बात भी कह दी। अब पता नहीं तोमर को पता चला कि नहीं कि वे लड्डू के बजाए पत्थरों से तुल गए हैं। पता चले भी तो क्या जब किराए के कार्यकर्ताओं से स्वागत कराया जाएगा तो एसा नहीं तो कैसा होगा।

मान गए फोर्टिस अस्पताल को

देश के फाईव स्टार संस्कृति वाले अस्पतालों के द्वारा सरकार के नियम कायदों का किस कदर सरेआम माखौल उडाया जा रहा है, इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण राजधानी दिल्ली के जाने माने फोर्टिस अस्पताल की दशा देखकर लगाया जा सकता है, यह दुस्साहस भी तब किया जा रहा है, जब दिल्ली उच्च ने 22 मार्च 2007 को 38 निजी अस्पतालों को अपनी क्षमता के 10 फीसदी बिस्तर गरीब मरीजों के लिए आरक्षित रखने के निर्देश दिए थे। पिछले पांच सालों में राजधानी के फोर्टिस अस्पताल ने महज पांच गरीब मरीजों की तीमारदारी की है। इस लिहाज से एक गरीब मरीज ही एक साल में यहां इलाज करा सका है। अगर यह स्थिति है तो देश के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद को खुशफहमी पाल लेना चाहिए कि करोडों अरबों के टर्नओवर वाले अस्पताल में एक ही गरीब एक साल में आया, मतलब देश के गरीबों में बीमारी ने घर करना बंद कर दिया है। यह बात हम नहीं दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया कह रहीं हैं। विधानसभा के पटल पर जानकारी देते हुए वालिया ने कहा कि 16 मई 2008 को स्वास्थ्य विभाग के तहत फोर्टिस अस्पताल का पंजीयन कराया गया है। इतना ही नहीं जिस स्थान पर यह अस्पताल संचालित हो रहा है, वह जमीन राजन ढल चैरिटेबल ट्रस्ट को आवंटित है। यह अस्पताल कौन संचालित कर रहा है इस बारे में वालिया मौन हैं, पर हकीकत यह है कि उक्त ट्रस्ट के बजाए और कोई इस अस्पताल को संचालित कर मलाई काट रहा है। है न आश्चर्य की बात, यह सब कुछ विश्व में सबसे बडे प्रजातंत्र हिन्दुस्तान में ही संभव है।

ढाई करोड हवा में उडा दिए शिवराज ने

केंद्र सरकार के साथ ही साथ देश के सूबों की सरकारों ने विश्व व्यापी आर्थिक मंदी के चलते मितव्ययता बरतने की अपील की और उसे अंगीकार भी किया। देश के हृदय प्रदेश कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मितव्ययता की एक अजब नजीर पेश की है। मितव्ययता का स्वांग रचने के लिए शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल में श्यामला स्थित मुख्यमंत्री आवास से मंत्रालय तक सायकल पर चलकर मीडिया की खूब सुर्खियां बटोरीं, पर असलियत कुछ और बयां कर रही है। 2006 से 2008 तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सरकारी हवाई जहाज और हेलीकाप्टर के होते हुए भी अपने जानने वालों को उपकृत करने की गरज से पांच निजी एवीएशन कंपनियों को दो करोड 63 लाख रूपए का भुगतान किया है। नई दिल्ली की सारथी एयरवेज, एवीएशन सर्विस इंडिया, रान एयर सर्विस, सर एवीएशन सर्विस इंडिया, एस.आर.सी. एवीएशन और इंदौर फ्लाईंग क्लब को इस राशि का भुगतान किया गया है। सवाल यह उठता है कि जब राज्य सरकार के पास अपना उडन खटोला है तब किराए से उडन खटोला लेने का क्या औचित्य है। इसके पहले दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में भी उन्होंने भी अपने जानने वालों की एवीएशन कंपनियों को बहुत लाभ पहुंचाया था, पर आवाज कौन उठाए, पैसा जनता के गाढे पसीने की कमाई पर डाका डालकर जो निकाला जा रहा है।

का वर्षा जब कृषि सुखानी

बहुत पुरानी कहावत है कि जब खेती ही सूख जाए तब बारिश का क्या फायदा! यही बात देश में स्वाईन फ्लू की वेक्सीन के बारे में लागू हो रही है। हम भारतवासी अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि अब स्वाईन फ्लू की वेक्सीन इजाद कर ली गई है। वहीं दूसरी ओर अब देश के आला अफसरान यह कहते घूम रहे हैं कि अब इसकी जरूरत नहीं है। इसका टीका अब लगाने से कोई फायदा नहीं है, क्योंकि पिछले दो सालों में देश में कहर बरपाने वाले एच1 एन1 वायरस का असर अब काफी हद तक कम हो चुका है। ठंड में यह बीमारी चरम पर होती है, किन्तु अब देश में इससे पीडितों के मामलों में तेजी से कमी होने के बाद इस टीके का ओचित्य ही नहीं रह गया है। वैसे भी मेक्सीको के रास्ते भारत में आई इस बीमारी को लेकर भारत सरकार कितनी चौकन्नी थी कि देश के हवाई अड्डों पर चौकस व्यवस्था के बाद भी देश में इस वायरस ने अपना कहर बरपा ही दिया। एक बार अगर यह बीमारी देश में प्रवेश कर गई तो फिर हवाई अड्डों पर मुस्तैदी किस काम की रही। जो वायरस देश की फिजां में रच बस गया, उसके बाद कितने भी मरीज देश में प्रवेश कर जाएं तो क्या असर पडता है। कहते हैं न कि ”बुढिया के मरने का गम नहीं, गम तो इस बात का है कि मौत ने घर देख लिया।”

माता रानी के दर्शन हुए और आसान

उत्तर भारत में त्रिकुटा की पहाडियों पर विराजीं माता वैष्णों देवी के दर्शन अब और आसान हो गए हैं। कुछ सालों पहले तक अपार कष्ट झेलकर माता रानी के दर्शन को लाखों श्रृध्दालु जाया करते थे, आज उनकी तादाद करोडों में पहुंच गई है। पहले बेहद संकरी गुफा में से होकर माता के भक्त पिंडियों के दर्शन कर पाते थे। सुप्रसिध्द भजन गायक गुलशन कुमार के गीतों और सस्ते कैसेट के बाद अचानक ही माता रानी के भक्तों की संख्या में विस्फोटक बढोत्तरी दर्ज की गई थी। इसके बाद माता रानी के दर्शनों हेतु भक्तों को सुविधाएं उपलब्ध कराने और व्यवस्था बनाने के लिए माता रानी श्राईन बोर्ड का गठन किया गया था। वर्तमान में माता रानी के दर्शन हेतु दो क्रत्रिम गुफाएं हैं। इस साल श्राईन बोर्ड ने यहां तीसरी गुफा का निर्माण भी करा दिया है। अभी माता रानी की तीन पिडिंयो के दर्शन हेतु महज एक से डेढ सेकंड का समय ही मिल पाता है, जो अब बढने की उम्मीद है। नई गुफा 10 फुट उंची और 15 फुट चौडी एवं 48 मीटर लंबी बनाई गई है। गत दिवस जम्मू काश्मीर के महामहिम राज्यपाल एन.एन.वोहरा ने इस गुफा के माध्यम से माता रानी के दर्शन भी कर लिए हैं। माना जा रहा है कि भक्तों की बढती तादाद को देखकर इसे जल्द ही खोला जा सकता है।

महिलाओं के मामले में पिछडा है राजस्थान

सरकारी सेवा में महिलाओं को स्थान देने के मामले में देश का राजस्थान सूबा काफी हद तक पीछे है। आजादी के छ: दशकों के बाद राजस्थान उच्च न्यायालय महज चार महिला न्यायधीश ही दे पाया है। 1949 में सूबे में उच्च न्यायालय की स्थापना के 29 साल के बाद कांता कुमार भटनागर 26 सितम्बर 1978 से 14 जून 1992 तक यहां रहने के उपरांत चेन्नई हाईकोर्ट की मुख्य न्यायधीश बनीं, मोहिनी कपूर 13 जुलाई 1985 से 17 नवंबर 1995, ज्ञानसुधा मिश्रा 21 अप्रेल 1994 से 12 जुलाई 2008 के उपरांत 13 जुलाई को झारखण्ड हाई कोर्ट की सीजे तो मीना वी. गोम्बर सितम्बर 2009 से यहां पदस्थ हैं। इसके अलावा राज्य काडर के भारतीय प्रशासनिक सेवा के 187 स्वीकृत पदों में से 28 तो 159 भारतीय पुलिस सेवा के पदों में से 12, राज्य प्रशासनिक सेवा आरजेएस में 87 में से 26 पदों पर ही महिलाएं काबिज हैं। उच्च न्यायालय में वर्तमान में 40 में से 27 जज कार्यरत हैं जिनमें से एक ही महिला है। उच्च न्यायिक सेवा में 142 में से 16 महिला जज तो न्यायिक सेवा में 697 में से 98 ही महिला जज हैं। न्यायिक सेवा के 839 पदों में से महज 114 पदों पर ही महिलाओं का कब्जा बरकरार है।

नियम तो बना, पालन कौन करे

मानव के लिए मोबाईल टावर से निकलने वाली किरणें बहुत हानीकारक हैं। इसके लिए नियम कायदे बन चुके हैं, पर सवाल यह उठता है कि इसका पालन कौन करे। जिस तरह सिगरेट की डब्बी पर स्टार लगाकर लिखी हुई चेतावनी को धूम्रपान करने वाला धुंआ छोडते हुए ही पढता है, उसी तरह नियमों का पालन करवाने वाले अपनी जवाबदेही निभा रहे हैं। दिल्ली में 1532 मोबाईल टावर को नगर निगम दिल्ली द्वारा बनाए गए मानकों का पालन न करने पर नोटिस जारी हो चुका है, पर अब तक सील होने की बात कहें तो महज एक मोबाईल टावर को ही सील किया गया है। दिल्ली में ही 5364 मोबाईल टावर लगे हैं, जिनमें से 2412 टावर वैध पाए गए हैं, 2952 टावर अर्वध हैं। वैसे तो 227 मोबाईल टावर सील हो चुके हैं, पर 1532 को नोटिस देने के बाद एक ही सील हो पाया है। असलियत यह है कि मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों को होने वाली अनापशनाप कमाई के चलते सेवा प्रदाता कंपनियां अधिकारियों के समक्ष नोटों की थैलियों के मुंह खोल दिया जाता है, फिर क्या है नियम बनते हैं बनते रहें। कहा है न कि जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का।

सपनि बंद, पूर्व विधायक हलाकान

मध्य प्रदेश के राजनेताओं द्वारा घुन की तरह मध्य प्रदेश सडक परिवहन निगम को खा लिया गया। घाटे में जाने वाले इस निगम को बंद कर दिया गया है। इसके स्थान पर अब अनुबंधित यात्री बसों के नाम पर अवैध बसों का इतना जबर्दस्त रेकट पनप चुका है जिसे तोड पाना किसी के बस की बात नहीं प्रतीत होती है। यात्री बसों के बंद होने से सूबे के पूर्व विधायक और अधिमान्य पत्रकार हलाकान ही नजर आ रहे हैं। दरअसल अधिमान्य पत्रकारों और पूर्व विधायकों को सपनि में निशुल्क यात्रा की सुविधा प्रदान की गई थी। अब अनुबंधित यात्री बस में उन्हें बहुत ही परेशानी का सामना करना पडता है। पडोसी सूबे महाराष्ट्र में यह सुविधा बाकायदा जारी है। अब पूर्व विधायक इस सेवा के लिए लामबंद होते दिख रहे हैं। पूर्व विधायकों का कहना है कि उन्हें यात्रा भत्ता अलग से दिया जाए ताकि वे अपने क्षेत्र सहित अन्य जिलों में भी जनसंपर्क को जीवित रख सकें। मामला सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान तक पहुंच गया है, पर इस मामले में वे अभी शांत ही दिख रहे हैं। पत्रकारों को अलबत्ता पेंशन और स्वास्थ्य बीमा का झुनझुना पकडा दिया गया है।

सरदर्द बनीं अवैध सिम

मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों के बीच मची गलाकाट स्पर्धा के चलते अधिक से अधिक उपभोक्ता बनाने की अघोषित जंग छिड गई है। इस कस्टमर वार में सरकारी नियम कायदों को साफ साफ धता बताया जा रहा है। देश के कमोबेश हर जिले के एक एक कस्बे में सेवा प्रदाता कंपनियों के वैध और अवैध डीलर को मिलने वाला टारगेट पूरा करने के लिए अनैतिक तरीकों का प्रयोग हो रहा है। बताते हैं कि बिना पहचान पत्र के ही सिम चालू कर बेच दी जाती हैं। ये सिम एकाध सप्ताह तक तो काम करती हैं, फिर पहचान के अभाव में इन्हें बंद कर दिया जाता है, इस तरह कंपनी के उपभोक्ताओं की संख्या में दिन दूगनी रात चौगनी बढोत्तरी दर्ज हो रही है। इस काम में कंपनी की शान में तो चार चांद लग जाते हैं पर वैध सिम लेकर सालों से उपभोग करने वाले उपभोक्ताओं को इसका खामियाजा भुगतना पड रहा है। आम शिकायत है कि अपरिचित नंबर से अश्लील एसएमएस और फोन काल पर अश्लील वार्तालाप के साथ ही साथ मिस्ड काल मारकर लोग परेशान किया करते हैं। अब देखना यह है कि ट्राई इस मामले में क्या कदम उठाती है।

हो गया हिसाब किताब बराबर

24 जनवरी को भारत सरकार के एक विज्ञापन में पाकिस्तान के पूर्व वायू सेना प्रमुख तनवीर महमूद अहमद की फोटो प्रकाशित होने पर जबर्दस्त बवाल कटा था। अब पाकिस्तान के एक सरकारी विज्ञापन में भारत की पंजाब पुलिस के लोगो के प्रकाशन का मामला सामने आया है। हिन्दुस्तान की पंजाब पुलिस के लोगो के साथ उर्दू में जारी इस विज्ञापन में आतंकवादी और अन्य वारदातों को रोकने में पुलिस की मदद की गुहार लगाई गई है। भारत और पाकिस्तान दोनों ही के लोगो में अंग्रेजी वर्णमाला के पी अक्षर से पीपी लिखा है। दोनो ही के लोगो में उपर के स्थान को छोडकर शेष स्थान को पुष्प चक्र से घेरा गया है। भारत की पंजाब पुलिस में उपर अशोक चक्र तो पकिस्तान की पंजाब पुलिस के लोगो में सितारा बना हुआ है। दोनों ही लोगो के रंग और डिजाईन लगभग एक से हैं, अंतर सिर्फ राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह का ही है। लोग तो यह कहते भी पाए जा रहे हैं कि चलो हमने आपकी छापी आपने हमारी, हो गया हिसाब किताब बराबर।

पुच्छल तारा

आज की भागदौड भरी जिन्दगी के बीच अगर बचपन को याद किया जाए तो कुछ सुखद यादें ताजा हो ही जाती हैं। समय किस कदर बदल चुका है, लोगों के बीच पहले खतो खिताब का सिलसिला चलता था। पत्र पाने के लिए प्रेयसी भी घंटों डाकिए की राह तकती थी। पत्र आते थे और अपने साथ आनन्द लाते थे। मध्य प्रदेश से अभिषेक दुबे ने इसी बात को रेखांकित करते हुए एक मेल भेजा है। याद करिए उस समय को जब हम अक्सर कहा करते थे कि चलो मिलते हैं और कुछ करने की योजना बनाते हैं। अब समय बदल गया है अब हम कहते हैं कि चलो प्लान करते हैं और फिर किसी दिन मिलते हैं। मित्र वही हैं, हम वही हैं, कुछ नहीं बदला है, बदला है तो बस हमारी प्राथमिकताएं।

-लिमटी खरे

कैसे लगी सेफ्टी वेन में आग

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सिवनी । पार्श्च में ढकेल दिए गए और कभी भाजपा के चेहरे रहे अटल बिहारी बाजपेयी सरकार की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चर्तुभुज परियोजना के अंग और वर्तमान में विवादस्पद हुए उत्तर दक्षिण गलियारे का निर्माण करा रही गुजरात मूल की कंपनी सद्भाव की सेफ्टी वेन 27 मार्च को अपरान्ह उसके बेस केम्प बटवानी में धू धू कर जल उठी। इस वेन में लगभग बीस बैरल थिनर रखा हुआ था।

गौरतलब है कि गुजरात मूल की सद्भाव कंपनी द्वारा उत्तर दक्षिण फोर लेन गलियारे के सिवनी से लेकर खवासा तक के मार्ग का निर्माण कराया जा रहा है। यहां उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि सिवनी जिले की पश्चिमी सीमा से लगे छिंदवाडा जिले का प्रतिनिधित्व केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ द्वारा किया जाता है। सिवनी जिले सहित महाकौशल को कमल नाथ की कर्मभूमि ही माना जाता है।

प्राप्त जानकारी के अनुसार शनिवार 27 मार्च को सद्भाव कंपनी का 20 बेरल थिनर गुजरात के सूरत से ट्रांसपोर्ट के माध्यम से सिवनी पहुंचा था। इस थिनर को जिला मुख्यालय सिवनी से दक्षिण दिशा में लगभग 10 किलोमीटर दूर कंपनी के बेस केम्प बटवानी तक पहुंचाने के लिए इस सेफ्टी वेन का उपयोग किया गया था। अपरान्ह जैसे ही सेफ्टी वेन थिनर के कंटेनर लेकर बेस केम्प पहुंची अचानक ही उसमें आग लग गई और वह धू धू कर जल उठी। चंद मिनिटों में ही सेफ्टी वेन जलकर खाक हो गई।

यह तो अच्छा हुआ कि यह हादसा शहर के अंदर नहीं हुआ अन्यथा किसी बडी घटना के घटने से इंकार नहीं किया जा सकता था। इस सेफ्टी वेन में आग कैसे लगी इसके कारणों का अभी पता नहीं चल सका है। चूंकि वाहन में चालक या अन्य कोई कर्मचारी उस वक्त नहीं था, इसलिए आग के लगने का कारण स्पष्ट नहीं हो सका है। कंपनी के सूत्र इस हादसे का कारण वेन में शार्ट सर्किट होना बता रहे हैं। कंपनी ने बदनामी से बचने के लिए आनन फानन मामले को रफा दफा कर दिया है।

सवाल यह उठता है कि कंपनी द्वारा अगर इतनी अधिक मात्रा में थिनर जैसे ज्वलनशील पदार्थ का परिवहन किया जा रहा था तो उसे बाकायदा संबंधित विभाग से ज्वलनशील पदार्थ के परिवहन की अनुज्ञा लेना चाहिए थी। बताते हैं कि कंपनी ने एसा कोई भी लाईसेंस नहीं लिया गया था। वैसे भी जिले में फोरलेन के निर्माण में लगी सद्भाव और मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा की जा रही अनियमितताओं के बारे में बार बार चेतान के बाद भी शासन प्रसासन के कानों में जूं न रेंगना, किसी अन्य निहित स्वार्थ की ओर इशारा करने के लिए काफी कहा जा सकता है।

-लिमटी खरे

इसका भोगमान कौन भुगतेगा मोहतरमा

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सिवनी। मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले सिवनी की बेटी एवं सूबे की पूर्व मंत्री और प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष श्रीमती उर्मिला सिंह को हिमाचल प्रदेश का महामहिम राज्यपाल बनाने पर जिले की जनता फूली नहीं समा रही है। श्रीमति सिंह के राज्यपाल बनने के बाद पहली बार जिले में आगमन पर जिले के कांग्रेसी बहुत ही उत्साहित नजर आए। इस अवसर पर कांग्रेस के बेनर तले उनका सर्वदलीय सम्मान समारोह भी आयोजित किया गया। इस सम्मान समारोह में कांग्रेस की छटा साफ तौर पर परिलक्षित हुई। सम्मान समारोह में वक्ताओं द्वारा उर्मिला सिंह की तारीफ में कशीदे गढने के साथ ही साथ विधानसभा उपाध्यक्ष पर निशाने साधे गए।

सम्मान समारोह में श्रीमति उर्मिला सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा कि सौभाग्य से उन्हें एसे प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है, जो देवताओं की तपोभूमि के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने सिवनी जिले के निवासियों को परिवार के साथ अलग अलग समय पर हिमाचल प्रदेश आने और आनंद उठाने की बात कही गई। वहां उपस्थित लोग इस तरह की चर्चा में मशगूल दिखे कि हम आ तो जाएं, पर वहां होने वाले खर्च का भोगमान कौन भोगेगा!

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में लाट साहेब रहे महामहिम राज्यपाल बलराम जाखड के कार्यकाल में करोडों रूपए की राशि अतिथि सत्कार में फूंक दी गई है। सूचना के अधिकार में जब इस बात को निकलवाया गया तब पता चला कि न जाने कितने लोग राजभवन के अतिथि बनकर ”एश” करके चले गए। यक्ष प्रश्न तो यह है कि यह राशि आखिर आई कहां से। उत्तर कमोबेश साफ ही है कि यह राशि जनता के गाढे पसीने की कमाई से ही निकलकर आई थी। जनता के पैसे पर एश करने कराने के इस सिलसिले में मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार भी मौन साधे हुए है, जो अश्चर्य का ही विषय कहा जाएगा।

कहने को तो यह प्रोग्राम सर्वदलीय था। मंच पर कांग्रेसी नेता बहुतायत में दिखे। साथ ही भारतीय जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष सुदर्शन बाझल, भाजपा के पूर्व मंत्री डॉ.ढाल सिंह बिसेन और भाजपा के ही पूर्व विधायक नरेश दिवाकर के अलावा और किसी भी दल का कोई नुमाईंदा मंचासीन नहीं हो सका। साथ ही पूरे पंडाल में लगे फ्लेक्स में कांग्रेस के नेता ही उर्मिला सिंह को बधाई देते दिखे।

समूचे घटनाक्रम को देखने से एक बात साफ तौर पर समझ में आ रही थी कि यह सम्मान समारोह हिमाचल की राज्यपाल श्रीमति उर्मिला सिंह के सम्मान में कम, वरन् सिवनी जिले के एक और सपूत और सूबे के विधानसभा उपाध्यक्ष ठाकुर हरवंश सिंह पर निशाना साधने का अधिक लग रहा था। उर्मिला सिंह सहित समस्त वक्ताओं ने परोक्ष तौर पर हरवंश सिंह को निशाना बनाते हुए ही अपनी बात रखी, जिसकी चर्चा समारोह में मुक्त कंठ से होती रही।

गौरतलब है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री विमला वर्मा के कार्यकाल तक सिवनी जिला कांग्रेस का अभैद्य गढ माना जाता रहा है। उनके सक्रिय राजनीति से विदा लेते ही राजनैतिक नेतृत्व की कमान ठाकुर हरवंश सिंह के हाथों में आ गई। उस दौरान जिले में पांच विधानसभा सीटें हुआ करतीं थीं। जिनमें से परिसीमन के उपरांत विलोपित हुई आदिवासी बहुल्य घंसौर का प्रतिनिधित्व श्रीमती उर्मिला सिंह के द्वारा ही किया जाता था। कालांतर में जिले की केवलारी विधानसभा जिसका प्रतिनिधित्व ठाकुर हरवंश सिंह द्वारा किया जाता है को छोडकर शेष भाजपा के अभैद्य दुर्ग में तब्दील हो गई है, जो निश्चित तौर पर शोध का विषय ही कहा जाएगा।

चर्चा तो यहां तक भी है कि घंसौर जिले के ग्राम बिनैकी में लगने वाले मशहूर थापर गु्रप ऑफ कम्पनीज के प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा लगाए जाने वाले पावर प्लांट के मार्ग में कोई बाधा न आए इस हेतु कम्पनी द्वारा उर्मिला सिंह से कनेक्शन जोडने के लिए जतन किए जा रहे हैं, और सिवनी जिले से हिमाचल दर्शन को पहुंचने वाले पर्यटकों के उपर होने वाले खर्च का भोगमान या तो हिमाचल का राजभवन भोगेगा या फिर पावर प्लांट की स्थापना करने वाली कंपनी।

-लिमटी खरे

साम्यवादी खबर से क्यों डरते हैं?

एक जमाना था जब सोवियत शासन और समाजवाद के प्रभाववश सारी दुनिया में विचारों और सूचनाओं की सेसरशिप खूब होती थी, आए दिन समाजवादी समाजों में साधारण आदमी सूचना और खबरों को तरसता था। संयोग की बात है अथवा सिद्धांत की समस्या है यह कहना मुश्किल है, लेकिन सच यह है कि साम्यवादी विचारकों और कम्युनिस्ट समाज का सूचना और खबरों से बैर चला आ रहा है। आज भी समाजवादी समाजों में सूचना पाना, खबर पाना आसान नहीं हैं। हमें सोचना चाहिए कि आखिरकार साम्यवादी खबर से क्यों डरते हैं? खबरों से डरने वाला समाज कभी भी स्वस्थ समाज का दावा नहीं कर सकता। जिस समाज में खबरें प्राप्त करने के लिए जंग करनी पड़े,वह समाज आर्थिक तौर पर कितनी भी तरक्की कर ले पिछड़ा ही कह लाएगा। यही स्थिति इन दिनों चीन की है।

चीन में कहने को इंटरनेट है लेकिन अबाधित ढ़ंग से सूचनाएं पाना संभव नहीं है। सूचनाओं की खोज करते हुए आप जेल भी जा सकते हैं। पहली दिक्कत तो यह है कि सूचनाओं पर कड़ी साइबर निगरानी है। इसके बावजूद यदि सूचना मिल गयी तो उसे संप्रसारित करना मुश्किल होता है।

उल्लेखनीय है चीन में इंटरनेट यूजर पर देश के अंदर नजर रखी जाती है। आप यदि ऐसी सूचना खोजकर पढ़ रहे हैं जो सेंसर है तो आपको पुलिस दमन का सामना करना पड़ेगा। आप आसानी से देख सकते हैं कि कौन सी साइट, ब्लॉग आदि को सेंसर कर दिया गया है। यहां https://whatblocked.com/ पर देखेंगे तो सारा खेल आसानी से समझ में आ जाएगा। आज की तारीख में फेसबुक, ट्विटर, यू ट्यूब, ट्विटपिक, विकीलीक पर पूरी तरह पाबंदी है। बीबीसी और विकीपीडिया पर आंशिक पाबंदी है। गूगल न्यूज और जीमेल उपलब्ध हैं।

चीन की साइबर नाकेबंदी और नेट सेंसरशिप का परिणाम यह हुआ है कि अब नेट पर ऐसे सरबर आ गए हैं जो वैध नहीं हैं। जिन्हें प्रॉक्सी सरबर कहा जाता है। ये वे सरबर हैं जो चीनी साइबर पुलिस की पकड़ के बाहर हैं और इनका संचालन अमेरिका से ही होता है और संभवतः सीआईए के द्वारा संचालित हैं। ऐसा ही एक सरबर है Haystack । इस सरबर को सीआईए ने ईरान के तथाकथित सत्ताविरोधियों को मुहैय्या कराया था। इसी तरह A VPN, Tor, Steganography आदि सरबर हैं जो प्रचलित सरबरों के विकल्प के रुप में काम कर रहे हैं और इनके जरिए ही प्रतिवादी चीनी जनता सूचनाओं का आदान-प्रदान कर रही है। शर्त एक ही है कि आपके पास सही साफ्टवेयर होना चाहिए जिससे आप उपरोक्त सरबरों का इस्तेमाल कर सकें।

चीन में व्यापक नेट सेंसरशिप के बावजूद नेट का कारोबार तेजी से फलफूल रहा है। तकरीबन 30बिलियन डॉलर का 2009 में नेट कंपनियों ने कारोबार किया है। चीन में ज्यादातर लोग नेट पर जीवनशैली और मनोरंजन से संबंधित सूचनाएं प्राप्त करने जाते हैं। अधिकांश जनता की खबरों को खोजने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इंटरनेट के 60 प्रतिशत यूजर 30 साल से कम उम्र के हैं। मॉर्गन स्टेनले में नेट विशेषज्ञ रिचर्डस जी का मानना है कि अमेरिका में अधिकांश यूजर खबरों की तलाश में नेट पर जाते हैं। लेकिन चीन में मनोरंजन की तलाश में जाते हैं। चीन में काम करने वाली नेट कंपनियों की मुश्किल यह है कि उनके पास स्थानीय मदद का अभाव है और सभी नेट कंपनियों को चीन के प्रशासन के साथ गांठ बांधकर काम करना पड़ता है। इसके कारण प्रशासन का राजनीतिक एजेण्डा नेट कंपनी का बिजनेस एजेण्डा बन जाता है।

यही खबर और सूचना की मौत का प्रधान कारण भी है। राजनीतिक दल का एजेण्डा यदि व्यापार और संचार का एजेण्डा बनेगा तो सूचना और खबर की मौत तय है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

गर्मी आते ही कई देश के कई इलाकों में भारी जलसंकट

आइए बनाएं एक पानीदार समाज

मीडिया का काम है लोकमंगल के लिए सतत् सक्रिय रहना। पानी का सवाल भी एक ऐसा मुद्दा बना गया है जिस पर समाज, सरकार और मीडिया तीनों की सामूहिक सक्रियता जरूरी है। कहा गया है-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष,चून।

प्रकृति के साथ निरंतर छेड़छाड़ ने मनुष्यता को कई गंभीर खतरों के सामने खड़ा कर दिया है। देश की नदियां, ताल-तलैये, कुंए सब हमसे सवाल पूछ रहे हैं। हमारे ठूंठ होते गांव और जंगल हमारे सामने एक प्रश्न बनकर खड़े हैं। पर्यावरण के विनाश में लगी व्यवस्था और उद्योग हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। इस भयानक शोषण के फलित भी सामने आने लगे हैं। मानवता एक ऐसे गंभीर संकट को महसूस कर रही है और कहा जाने लगा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। बारह से पंद्रह रूपए में पानी खरीद रहे हम क्या कभी अपने आप से ये सवाल पूछते हैं कि आखिर हमारा पानी इतना महंगा क्यों है। जब हमारे शहर का नगर निगम जलकर में थोड़ी बढ़त करता है तो हम आंदोलित हो जाते हैं, राजनीतिक दल सड़क पर आ जाते हैं। लेकिन पंद्रह रूपए में एक लीटर पानी की खरीदी हमारे मन में कोई सवाल खड़ा नहीं करती। उदाहरण के लिए दिल्ली जननिगम की बात करें तो वह एक हजार लीटर पानी के लिए साढ़े तीन रूपए लेता है। यानि की तीन लीटर पानी के लिए एक पैसे से कुछ अधिक। यही पानी मिनरल वाटर की शकल में हमें तकरीबन बयालीस सौ गुना से भी ज्यादा पैसे का पड़ता है। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं। इसके खामोशी के चलते दुनिया में बोतलबंद पानी का कारोबार तेजी से उठ रहा है और 2004 में ही इसकी खपत दुनिया में 154 बिलियन लीटर तक पहुंच चुकी थी। इसमें भारत जैसे हिस्सा भी 5.1 बिलियन लीटर का है। यह कारोबार चालीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। आज भारत बोतलबंद पानी की खपत के मामले में दुनिया के दस शीर्ष देशों में शामिल है। लेकिन ये पानी क्या हमारी आम जनता की पहुंच में है। यह दुर्भाग्य है कि हमारे गांवों में मल्टीनेशनल कंपनियों के पेय पदार्थ पहुंच गए किंतु आजतक हम आम लोंगों को पीने का पानी सुलभ नहीं करा पाए। उस आदमी की स्थिति का अंदाजा लगाइए जो इन महंगी बोलतों में बंद पानी तक नहीं पहुंच सकता।पानी का विचार करते हुए हमें केंद्र में उन देश के कोई चौरासी करोड़ लोगों को रखना होगा जिनकी आय प्रतिदिन छः से बीस रूपए के बीच है। इस बीस रूपए रोज कमानेवाले आदमी की चिंता हमने आज नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी। पानी का संघर्ष एक ऐसी शक्ल ले रहा है जहां लोग एक-दूसरे की जान लेने को आमादा हैं। भोपाल में ही पानी को लेकर इसी साल शहर में हत्याएं हो चुकी हैं।

पानी की चिंता आज सब प्रकार से मानवता की सेवा सबसे बड़ा काम है। आंकड़े चौंकानेवाले हैं कितु ये खतरे की गंभीरता का अहसास भी कराते हैं। भारत में सालाना 7 लाख, 83 हजार लोंगों की मौत खराब पानी पीने और साफ- सफाई न होने से हो जाती है। दूषित जल के चलते हर साल देश की अर्थव्यवस्था को करीब पांच अरब रूपए का नुकसान हो रहा है। देश के कई राज्यों के लोग आज भी दूषित जल पीने को मजबूर हैं क्योंकि यह उनकी मजबूरी भी है।

पानी को लेकर सरकार, समाज और मीडिया तीनों को सक्रिय होने की जरूरत है। आजादी के इतने सालों के बाद पानी का सवाल यदि आज और गंभीर होकर हमारे है तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं। पानी की सीमित उपलब्धता को लेकर हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने समाज के सामने इस चुनौती का क्या समाधान रखने जा रहे हैं।

मीडिया की जिम्मेदारीः

मीडिया का जैसा विस्तार हुआ है उसे देखते हुए उसके सर्वव्यापी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। मीडिया सरकार, प्रशासन और जनता सबके बीच एक ऐसा प्रभावी माध्यम है जो ऐसे मुद्दों पर अपनी खास दृष्टि को संप्रेषित कर सकता है। कुछ मीडिया समूहों ने पानी के सवाल पर जनता को जगाने का काम किया है। वह चेतना के स्तर पर भी है और कार्य के स्तर पर भी। ये पत्र समूह अब जनता को जगाने के साथ उनके घरों में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने तक में मदद कर रहे हैं। इसी तरह भोपाल की सूखती झील की चिंता को जिस तरह भोपाल के अखबारों ने मुद्दा बनाया और लोगों को अभियान शामिल किया उसकी सराहना की जानी चाहिए। इसी तरह हाल मे नर्मदा को लेकर अमृतलाल वेगड़ से लेकर अनिल दवे तक के प्रयासों को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। अपनी नदियों, तालाबों झीलों के प्रति जनता के मन में सम्मान की स्थापना एक बड़ा काम है जो बिना मीडिया के सहयोग से नहीं हो सकता।

उत्तर भारत की गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियों को भी समाज और उद्योग की बेरुखी ने काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। दिल्ली में यमुना जैसी नदी किस तरह एक गंदे नाले में बदल गयी तो लखनऊ की गोमती का क्या हाल है किसी से छिपा नहीं है।देश की नदियों का जल और उसकी चिंता हमें ही करनी होगी। मीडिया ने इस बड़ी चुनौती को समय रहते समझा है, यह बड़ी बात है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सवाल को मीडिया के नियंता अपनी प्राथमिक चिंताओं में शामिल करेंगें। ये कुछ बिंदु हैं जिनपर मीडिया निरंतर अभियान चलाकर पानी को बचाने में मददगार हो सकता है-

1.पानी का राष्ट्रीयकरण किया जाए और इसके लिए एक अभियान चलाया जाए।

2.छत्तीसगढ़ की शिवनाथ नदी को एक पूंजीपति को बेचकर जो शुरूआत हुयी उसे दृष्टिगत रखते हुए नदी बेचने की प्रवृत्ति पर रोक लगाई जाए।

3. उद्योगों के द्वारा निकला कचरा हमारी नदियों को नष्ट कर रहा, पर्यावरण को भी। उद्योग प्रायः प्रदूषणरोधी संयत्रों की स्थापना तो करते हैं पर बिजली के बिल के नाते उसका संचालन नहीं करते। उद्योगों की हैसियत के मुताबिक प्रत्येक उद्योग का प्रदूषणरोधी संयत्र का मीटर अलग हो और उसका न्यूनतम बिल तय किया जाए। इससे इसे चलाना उद्योगों की मजबूरी बन जाएगा।

4. केंद्र सरकार द्वारा नदियों को जोड़ने की योजना को तेज किया जाना चाहिए।

5. बोलतबंद पानी के उद्योग को हतोत्साहित किया जाना चाहिए।

6. सार्वजनिक पेयजल व्यवस्था को दुरुस्त करने के सचेतन और निरंतर प्रयास किए जाने चाहिए।

7. गांवों में स्वजलधारा जैसी योजनाओं को तेजी से प्रचारित करना चाहिए।

8. परंपरागत जल श्रोतों की रक्षा की जानी चाहिए।

9. आम जनता में जल के संयमित उपयोग को लेकर लगातार जागरूकता के अभियान चलाए जाने चाहिए।

10. सार्वजनिक नलों से पानी के दुरूपयोग को रोकने के लिए मोहल्ला समितियां बनाई जा सकती हैं। जिनकी सकारात्मक पहल को मीडिया रेखांकित कर सकता है।

11.बचपन से पानी के महत्व और उसके संयमित उपयोग की शिक्षा नई पीढ़ी को देने के लिए मीडिया बच्चों के निकाले जा रहे अपने साप्ताहिक परिशिष्टों में इन मुद्दों पर बात कर सकता है। साथ स्कूलों में पानी के सवाल पर आयोजन करके नई पीढ़ी में संस्कार डाले जा सकते हैं।

12. वाटर हार्वेस्टिंग को नगरीय क्षेत्रों में अनिवार्य बनाया जाए, ताकि वर्षा के जल का सही उपयोग हो सके।

13.जनप्रबंधन की सरकारी योजनाओं की कड़ी निगरानी की जाए साथ ही बड़े बांधों के उपयोगों की समीक्षा भी की जाए।

15.गांवों में वर्षा के जल का सही प्रबंधन करने के लिए इस तरह के प्रयोग कर चुके विशेषज्ञों की मदद से इसका लोकव्यापीकरण किया जाए।

16. हर लगने वाले कृषि और किसान मेलों में जलप्रबंधन का मुद्दा भी शामिल किया जाए, ताकि फसलों और खाद के साथ पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों से भी अवगत हो सकें, ताकि वे सही जल प्रबंधन भी कर सकें।

17. विभिन्न धर्मगुरूओं और प्रवचनकारों से निवेदन किया जा सकता है कि वे अपने सार्वजनिक समारोहों और प्रवचनों में जलप्रबंधन को लेकर अपील जरूर करें। हर धर्म में पानी को लेकर सार्थक बातें कही गयी हैं उनका सहारा लेकर धर्मप्राण जनता में पानी का महत्व बताया जा सकता है।

18. केंद्र और राज्य सरकारें पानी को लेकर लघु फिल्में बना सकते हैं जिन्हें सिनेमाहालों में फिल्म के प्रसारम से पहले या मध्यांतर में दिखाया जा सकता है।

19. पारंपरिक मीडिया के प्रयोग से गांव-कस्बों तक यह संदेश पहुंचाया जा सकता है।

20. पत्रिकाओं के पानी को लेकर अंक निकाले जा सकते हैं जिनमें दुनिया भर पानी को लेकर हो रहे प्रयोगों की जानकारी दी जा सकती है।

21.राज्यों के जनसंपर्क विभाग अपने नियमित विज्ञापनों में गर्मी और बारिश के दिनों में पानी के संदेश दे सकते हैं।

ऐसे अनेक विषय हो सकते हैं जिसके द्वारा हम जल के सवाल को एक बड़ा मुद्दा बनाते हुए समाज में जनचेतना फैला सकते हैं। यही रास्ता हमें बचाएगा और हमारे समाज को एक पानीदार समाज बनाएगा। पानीदार होना कोई साधारण बात नहीं है, क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं।

– संजय द्विवेदी

नरेगा : रोजगार की गारंटी या लूट की – संतोष सारंग

नरेगा अब मनरेगा के नाम से जाना जा रहा है। रोजगार की गारंटी देनेवाली इस अति महत्वाकांक्षी योजना का नाम तो बदल गया लेकिन सरकार लूटेरों से बचाने का कोई ठोस उपाय करने में अब तक असफल रही हैं हमारी सरकारें। सत्ता का, सिस्टम का, जनता के रहनुमाओं का अपना चरित्र होता है, अलग प्रकृति होती है। सो, तमाम प्रयासों के बावजूद सरकारें रिश्वतखोर अधिकारियों, कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, बिचौलियों, दलालों के गठजोड़ को तोड़ने में असफल रही हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना भी बिहार में चल रही अन्य कल्याणकारी योजनाओं से अलग कोई सफलता की कहानी नहीं लिख पाई है।

हाल ही में बिहार के साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर रत्ती पंचायत के कुछ युवाओं ने मनरेगा की राशि से तालाब की हो रही उड़ाही के काम में हो रहे घपले को रोकने के लिए ग्रामिणों की पंचायत लगा दी। ग्रामिणों का आरोप है कि उड़ाही में व्यापक धांधली हो रही है, जिसकी शिकायत संबंधित पदाधिकारियों से करने के बावजूद काम जस का तस चल रहा है। मिल रही धमकियों से बेपरवाह अमृतांज इंदीवर, पंकज सिंह, फूलदेव पटेल, सकलदेव दास जैसे युवा मनरेगा को लूटेरों से बचाने के लिए डटे हैं। ऐसे जागरूक युवाओं की पहल की प्रशंसा होनी चाहिए। ‘मनरेगा तो कामधेनु गाय है जिसे जितना चाहो दूह लो।’ यह टिप्पणी है पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह के संसदीय क्षेत्र वैशाली के एक जॉब कार्डधारी रकटू पासवान की। ज्ञात हो कि गरीबों को सौ दिन का रोजगार देनेवाली केंद्र की इस अति महत्वाकांक्षी योजना को डॉ. सिंह के कार्यकाल में ही शुरू किया गया था। पूर्व मंत्री महोदय के संसदीय क्षेत्र में पड़ने वाले दो जिले मुजफ्फरपुर व वैशाली में दिखाने लायक मनरेगा की शायद ही कोई सक्सेस स्टोरी मिल जाए। भला अन्य जिलों की जमीनी हकीकत समझी जा सकती है। यह अलग बात है कि हाल के दिनों में तिरहुत प्रमंडल के आयुक्त एसएम राजू की पहल पर पूरे प्रमंडल में ‘सामाजिक वानिकी कार्यक्रम’ के तहत मनरेगा के पैसे से अब तक तकरीबन दो करोड़ पेड़ लगाए जाने की खबर है। एक दिन में एक करोड़ वृक्ष लगाने का पाकिस्तान का रिकॉर्ड तोड़कर राजू भले अपना नाम गिनीज बुक में दर्ज करा लें, पर इस अभियान में मनरेगा के करोड़ों रुपए मुखिया, बिचौलिये, नर्सरी वाले से लेकर प्रखंड कार्यक्रम पदाधिकारी व वरीय पदाधिकारी तक गटक गए।

‘क्या जरूरत थी एक ही दिन में इतने पौधे लगाने की। टारगेट पूरा करने के चक्कर में सैंकड़ों जगह बिना जड़ के ही पौधे रोप दिए गए। आधे से अधिक पौधे सूख गए। बाहरी टीम को दिखाने के लिए जिले के पश्चिमी व पूर्वी छोर में एक-एक पंचायत में थोड़ा बढ़िया काम कर दिया गया है।’ यह कहना है मुजफरपुर जिले के पारू प्रखंड के जिला पार्षद मदन प्रसाद का। कमीशनर भले ईमानदार हो और मनरेगा को पर्यावरण से बचाने की दिशा में एक अच्छी योजना मानते हों लेकिन इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि इस कार्यक्रम में घोर लापरवाही व अनियमितता बरती गई है। आम के पेड़ कहीं पांच फीट की दूरी पर रोपे जाते हैं ? चाहे हम तिरहुत प्रमंडल की बातें करें या चंपारण की अथवा कोसी की। कुछेक अपवाद छोड़कर अधिकांश जिले में मनरेगा की जमीनी हकीकत एक-सी है। मजदूरों द्वारा जिला मुख्यालय पर लगातार किए गए धरना-प्रदर्शनों व शिकायतों के बाद इस वर्ष जनवरी में सहरसा के जिलाधिकारी आर. लक्ष्मण ने बरियाही पंचायत पहुंचकर मजदूरों से बातें की। जांच के दौरान पता चला कि बहुत से मजदूरों को रोजगार नहीं मिला और उनके नाम पर फर्जी हस्ताक्षर व अंगूठे के निशान लगाकर पैसा उठा लिया गया है। कई मजदूरों के जॉब कार्ड बिचौलियों के पास पाए गए। मस्टर रॉल में भारी अनियमितताएं पाई गईं। मनरेगा के जरिये कोसी अंचल के सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, अररिया, पुर्णिया के मजदूरों की पीड़ा कम करने की सरकार की मंशा पर पानी फिरता दिख रहा है। गत दिनों विधायक किशोर कुमार मुन्ना ने बिहार विधान सभा में मनरेगा में हो रही धांधली पर सदन का ध्यान खींचते हुए कहा था कि सहरसा के सत्तौर पंचायत (नवहट्टा प्रखंड) में कार्ड बांटने में धांधली हुई है। इस पंचायत में 6 से 14 उम्र के बच्चाें के नाम पर जॉब कार्ड वितरित हुए हैं। ट्रैक्टर मालिक, 5-5 एकड़ जमीन वालों, सरकारी कर्मचारियों व विकलांगों के नाम पर भी कार्ड बांटे गए हैं। इस इलाके में नहरों की सफाई में पचास करोड़ की राशि के गबन होने का मामला प्रकाश में आया है। सिंचाई विभाग के इस कार्यक्रम में मजदूरों के बदले मशीनों व ट्रैक्टरों से नहरों, तालाबों की उड़ाही की गई और मजदूरों के नाम पर बिल बन गया। बोचहां विधान सभा क्षेत्र के बखरी चौक के पास स्थित एक तालाब की उड़ाही भी मशीनों-ट्रैक्टरों से की गई है। इस दुधारू योजना के कारण त्रिस्तरीय पंचायत के प्रतिनिधि खासकर मुखिया आज चमचमाती बोलेरो गाड़ियों पर घूमते नजर आते हैं।

गया जिले के पहाड़पुर स्टेशन पर प्रत्येक दिन हजारों की संख्या में मजदूरों की आवाजाही लगी रहती है। ये मजदूर पड़ोसी राज्य झारखंड के कोडरमा शहर मजदूरी की तलाश में प्रत्येक दिन जाते हैं। वहां उन्हें 180 रुपए मिलते हैं। जिले की पहाड़ी पर जंगलों के बीच बसा गुरपा गांव में बिरहोर जनजाति के 25-30 परिवार झोपड़ीनुमा मकान में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रहते हैं। इनके नाम वोटरलिस्ट में हैं एवं बीपीएल सूची में भी नाम दर्ज हैं लेकिन इन्हें अब तक जॉब कार्ड नहीं मिला। ये लोग जंगलों से जड़ी-बुटी चूनकर, पक्षियों को मारकर बाजार में बेचकर जैसे-तैसे जीवनयापन करते हैं। इसी गया जिले में कुछ साल पूर्व इस योजना का 1 करोड़ 88 लाख रुपए के गबन का मामला उजागर हुआ था जिसमें बीडीओ सहित कई रोजगार सेवक दोषी पाए गए थे। गया, जहानाबाद, औरंगाबाद सहित अन्य नक्सल प्रभावित इलाके भी मनरेगा में असफल रहे हैं।

मनरेगा में मची लूट को रोकने के लिए सरकार ने मजदूरों का खाता डाकघर या बैंक में खोलने का प्रावधान किया है लेकिन वह भी कारगर नहीं हो पा रहा है। अब एक नया गठजोड़ बन गया है मुखिया, प्रोग्राम अफसर, बिचौलिए, रोजगार सेवक और पोस्टमास्टरों का। अब पोस्टमास्टर भी प्रत्येक खाताधारी मजदूरों से दो से पांच फीसदी कमीशन खाता है। पारू प्रखंड के मजदूर रोजा मियां खाता खुलवाने के लिए एक माह तक डाकघर दौड़ते रहे। रोजगार सेवक भी खाता खुलवाने में दिलचस्पी नहीं लेता है। इस वजह से राज्य के अधिकांश जिले इस वित्तीय वर्ष में भी निर्धारित लक्ष्य से पीछे चल रहे हैं। हालांकि निर्धन, साधनहीन वे निरक्षर मजदूर, जिनके पास कभी बचत खाता नहीं होता था वह आज बचत के महत्व को समझ रहा है। यह मनरेगा की ही देन है।

राज्य में मनरेगा की जमीनी हकीकत जानने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने पंचायतों से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। मंत्रालय ने पूछा है कि योजना के लिए उपलब्ध राशि का अगर 60-70 फीसदी हिस्सा खर्च हो चुका है तो जॉब कार्डधारी रोजगार न मिलने की शिकायत क्यों करते हैं। मनरेगा की योजनाओं को पंचायतवार ऑन लाइन न किए जाने, मस्टर रॉल तथा प्राक्कलन को वेबसाइट पर न उपलब्ध कराए जाने पर मंत्रालय ने नाराजगी जताई है। इधर, मनरेगा में जारी लूट पर अंकुश लगाने के लिए सूबे की सरकार ने जॉब कार्डधारियों को बायोमेट्रिक्स तकनीक पर आधारित ई-शक्ति कार्ड देने का निर्णय लिया है। सरकार का तर्क है कि इस तकनीक से मेजरमेंट बुक (एमबी) व उपस्थिति पंजी में घालमेल की गुंजाइश नहीं होगी। भुगतान के लिए मजदूरों को बैंक जाने की जरूरत नहीं होगी। हर साइट पर होगी बायोमेट्रिक मशीन। मजदूर काम पर पहुंचते ही अपना कार्ड पंच कर उपस्थिति बनाएंगे। उसी मशीन से काटी गई मिट्टी की माप होगी और एटीएम की तरह ही काम करेगा वह कार्ड। सप्ताह मेंं एक दिन बैंक द्वारा नियुक्त कोई एजेंट पैसा मशीनों में डालेगा, फिर ई-शक्ति कार्ड डालते ही मशीन से काम के अनुरूप मजदूरी का भुगतान हो जाएगा। यूनिक आईडेंटिफिकेशन डाटाबेस अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष नंदन नीलकेणी का कहना है कि इस क्षेत्र में बिहार एक मिसाल कायम करने जा रहा है। अब देखना है कि प्रदेश का यह नया प्रयोग मनरेगा को लूटेरों से बचाने में कितना सक्षम हो पाता है।

राज्य में चल रही इस योजना के सिर्फ स्याह पहलू ही नहीं हैं। यहां के खेतों में दिनभर रोपनी, सोहनी करनेवाली महिला मजदूरों को 12-15 रुपए ही रोजाना मजदूरी मिलती थी। महंगाई के इस दौर में मनरेगा ने इन गरीब महिलाओं को सौ का नोट तो जरूर दिखाया है। वंचित समुदाय से ताल्लुकात रखनेवाली मुशहर महिलाएं भी आज मनरेगा के पैसे से अपनी किस्मत बदल रही हैं। जितना प्रचार किया जा रहा है उतना तो नहीं, किंतु राज्य के मजदूरों का इस योजना के कारण कुछ तो पलायन रुका ही है। खासकर, महिला मजदूरों को इस योजना का लाभ अधिक मिला है, जो दूसरे प्रदेशों में जाकर काम करने में सक्षम नहीं हैं। हालांकि, इस योजना में लक्ष्य के अनुरूप महिला मजदूरों की भागीदारी न होना चिंता की बात है। बहरहाल, रोजगार का अधिकार देनेवाली इस योजना में पारदर्शिता लाने के लिए राज्य के जनसंगठनों व प्रबुध्दजनों को सामाजिक अंकेक्षण (सोशल ऑडिट) को बढ़ावा देना चाहिए। यदि सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सक्षम हुई तो यह योजना निर्धन, अकुशल, निरक्षर मजदूरों के लिए वरदान साबित होगी। अन्यथा, अन्य कल्याणकारी योजनाओं की तरह यह भी लूट की संस्कृति का वाहक बनकर रह जाएगी।

-लेखक पत्रकार है।

बाल तस्करी का धंधा -अखिलेश आर्येन्दु

कई सचों में एक सच यह भी है कि भारत में बचपन सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही बच्चों की सुरक्षा और उनके विकास के बड़े-बड़े दावे करे लेकिन सच्चाई इससे कहीं बहुत दूर है। इस सच्चाई को संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार संधि की 20वीं वर्षगांठ पर दिए आंकड़े जारी हुए थे, वे तो इसी बात को बयां करते हैं। इस आंकड़े के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष एक करोड़ 40 लाख से ज्यादा बच्चे तस्करी के शिकार होते हैं। इसके बावजूद राज्य और केंद्र सरकारें यह दावा करती नहीं थकतीं कि हम इस अमानवीय कृत्य को रोकने का भरसक प्रयास में लगे हुए हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ‘ट्रैफिकिंग इन वूमेन एंड चिल्ड्रन इन इंडिया’ नामक रपट के मुताबिक मासूम बच्चों की तस्करी रोकने की जितने भी कोशिशें की जातीं हैं उनमें ऐसी तमाम खामियां होतीं हैं जिनका फायदा उठाकर बच्चों के तस्कर उनकी तस्करी करने में कामयाब हो जाते हैं। जब तक उन खामियों को सिद्दत से दूर करने की कोशिश हर स्तर पर नहीं किया जाएगा इस अमानवीय कृत्य को रोका नहीं जा सकता है।

दरअसल, मासूम बच्चे सरकार के लिए ऐसे किसी फायदे या दबाव वाले वर्ग में नहीं आते हैं जिससे केंद्र और राज्य सरकारें उनपर गंभीरता से गौर करें। मासूम बच्चों को लेकर केन्द्र सरकार ने जो कायदे-कानून बनाए हैं वे तस्करों के लिए भय नहीं पैदा करते। छः से लेकर 10 साल की उम्र के इन बच्चों की तस्करी उन राज्यों से अधिक होती है जहां गरीबी और बेरोजगारी ज्यादा है या सरकारी तंत्र बहुत ही भ्रष्ट है। इन राज्यों में राजस्थान, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, असम, दिल्ली, उ.प्र., हरियाणा और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं। जो बच्चे तस्करी के जरिए अपहरण करके लाए जाते हैं उनमें से ज्यादातर से वेश्यावृत्ति, कारखानों में बेगारी और दूसरे अमानवीय कार्य कराए जाते है या धनी परिवारों में उन्हें बेंच दिया जाता है। इसके अलावा ऐेसे बच्चे होटलों,, भट्ठों या कारखानों में बिना दिहाड़ी के रात-दिन काम करने के लिए अभिसप्त होते हैं।

केंद्र ने अभी तक बच्चों के अपहरण और तस्करी रोकने के लिए जो कानून बनाए हैं उनमें ऐसा कुछ नहीं है कि बच्चों की तस्करी रुके। दूसरी बात जो संस्थाएं मासूम बच्चों के विकास, सुरक्षा और उनके सेहत को लेकर कार्य करतीं हैं वे बच्चों की तस्करी और अपहरण को लेकर कभी संवेदित नहीं रहीं हैं।सबसे गौर करने वाली बात यह है कि समाज में जिस वर्ग से ये बच्चे संबध्द होते हैं समाज उनके प्रति कभी सहानुभूति नहीं रखता है। इस लिए जब भी गरीब परिवार के बच्चों का अपहरण होता है उसको लेकर न तो कोई हायतोबा ही मचाया जाता है और न ही पुलिस एफआईआर लिखकर बच्चों को ढूंढ़ निकालने में दिचस्पी ही दिखाती है। जबकि अमीर परिवार के बच्चों के अपहरण पर मीडिया और प्रशासन दोनों पूरी मुस्तैदी के साथ अपने-अपने कर्तव्यों को निभाने में जुट जाते हैं।

सभ्य समाज इन बच्चों के प्रति न कोई अपनी जिम्मेदारी मानता है और न ही प्रशासन के लिए इनका कोई महत्त्व है। शायद इनके मां-बाप भी लापरवाह होते हैं। जो गरीब माता-पिता अपने बच्चों के प्रति सजग होते हैं वे तस्करों के चंगुल से अपने मासूमों को बचाने में इस लिए असफल साबित होते हैं क्योंकि उनकी और भी कई तरह की मजबूरियां होती हैं जिसके चलते बच्चे तस्करों के हाथों चढ़ जाते हैं। दिल्ली में हर साल हजारों की तादाद में छोटे बच्चों का अपहरण होता है, जिनमें से कुछ की ही एफआईआर लिखी जाती है। ज्यादातर गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले बच्चों की गुमसुदी की रपट लिखी ही नहीं जाती। एक जानकारी के मुताबिक बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तिसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली सहित अनेक राज्यों से हर साल लाखों की तादाद में बच्चे गायब हो जाते हैं लेकिन इनकी अपहरण की रपट तक नहीं लिखी जाती है और यदि किसी की लिखी भी जाती है तो पुलिस मुस्तैदी के साथ उन्हें ढूढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं लेती है।

बच्चों के अपहरण के मामले को अतिसंवेदनशील दायरे में न तो पुलिस मुहकमा मानता है और न तो मीडिया ही उतना तरजीह देता है जितना देना चाहिए। इसलिए अपहरण कर्ताओं के हौसले लगातार बुलंद होते चले जाते हैं। कुछ प्रदेशों में तो पिछले कुछ सालों से यह उद्योग का रूप ही धारण कर चुका है। भारत के अलावा विदेशों में खासकर अरब देशों में यह मनोरंजन उद्योग में शामिल हो चुका है। अरब देशों में पिछले कई सालों से लगातार एक रौगटें दहला देने वाली खबर आती रही है। वह है, अरब देशों में वहां के शेखों के मनोरंजन के साधन के रूप में भारतीय बच्चों का इस्तेमाल। जिस बर्बरता के साथ ऊंट की पूंछ में बच्चो को रस्सी के सहारे बांधकर घसीटा जाता है वह सभी बर्बरताओं को मात करदेने वाला होता है। यह घोर अमानवीय खेल वहां आज भी खेला जाता है। ये बच्चे किसी विकसित देश से अपहरण करके नहीं लाए जाते हैं बल्कि भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के होते हैं। अरब देशों में बच्चों के साथ हो रहे घोर अमानवीय क्रूरताओं के विरोध में न तो केंद्र सरकार कभी आवाज उठाती है और तो मानवाधिकार के लोग ही। मीडिया मेें भी इसके खिलाफ कोई सनसनीखेज समाचार प्रसारित नहीं होता है। मतलब असहाय और गरीब बच्चों के हक में आवाज उठाने के लिए कोई सार्थक प्रयास किसी के जरिए किसी भी स्तर पर नहीं किए जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप बच्चों के साथ हो रहे घोर कू्ररता के व्यवहार और उनके शोषण में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।

केंद्र और राज्य सरकारें बच्चों की शिक्षा, सेहत और विकास को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करते हैं। लेकिन गरीब बच्चों की सुरक्षा के मामले में हद से ज्यादा लापरवाही देखने को मिलता है। सरकार के लिए गबीबों के बच्चे और गरीब परिवार सबसे निचले पायदान पर माने जाते हैं। इस लिए इनकी सुरक्षा को लेकर जब सवाल उठाए जाते हैं तो बहुत लापरवाही तरीके से इनपर गौर करने का कोरा आश्वासन मिलता है। इसका फायदा उठाकर अपहरण उद्योग से जुड़े माफिया गरीब परिवार के बच्चों को चोरी से उठा ले जाते हैं या कुछ पैसे देकर खरीद ले जाते हैं। जाहिर है जब तक केंद्र और राज्य सरकारें माफिया-तंत्र का पूरी तरह से सफाया नहीं करतीं बच्चों के अपहरण को रोका नहीं जा सकता है।

सवाल यह है कि जब आज सारी दुनिया में मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण और शोषण के खिलाफ चारों ओर आवाज बुलंद की जा रही है, तो ऐसे में गरीब और असहाय बच्चों के प्रति हो रहे घोर अमानवीय क्रूरताओं के प्रति आवाज क्यों बुलंद नहीं की जा रही है ? क्या गरीब और असहाय के बच्चे मानव समाज के अंग नहीं हैं ? क्या इनको सुरक्षित जीने का वैसा हक नहीं है जैसे अमीरों के बच्चों को है? अब जबकि दुनिया से सभी तरह की गैरइंसानी बर्ताव के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है, गरीब और असहाय बच्चों के साथ हो रहे गैरइंसानी बर्ताव को रोके जाने की जरूरत है। यह पूरे विश्व समाज के हक में तो है ही, सब को जीने के प्रकृति के नियम के मुताबिक भी है।

-लेखक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

फिल्‍म समीक्षा : अतिथि, तुम कब जाओगे – डॉ. मनोज चतुर्वेदी

आज जहाँ फिल्मों में मारधाड़, अश्लीलता तथा गानों की भरमार है वहीं, ‘अतिथि, तुम कब जाओगे’ इस बात पर विचार करने के लिए विवश करती है कि वो अतिथि कैसा है? जिसके बारे में नायक-नायिका उत्सुक तथा जिज्ञासु हैं। सिनेमा हॉल में जानेवाला दर्शक प्रवचन तथा भाषण सुनने के लिए नहीं जाता है। वो दिनभर की भागमभाग, तनाव दूर करने हेतु तथा मन बहलाने के लिए सिनेमा हॉलों में जाता है।

‘अतिथि, तुम कब जाओगे’ हास्य-व्यंग्य से ओत-प्रोत फिल्म है। पुनीत (अजय देवगन) तथा मुनमुन (कोंकणा सेन शर्मा) दोनों कामकाजी पति-पत्नी हैं तथा उनका पुत्र भी है। जब से संयुक्त परिवार का विघटन हुआ है। मनुष्य एकाकी परिवार में रहने के कारण कार्यों के बोझ से दबा हुआ है। उसे स्वयं में बातचीत करने का अवसर नहीं मिलता। पुनीत छोटे बेटे से बातचीत करने का वक्त नहीं निकाल पाता। इसी बीच लंबोदर वाजपेयी (परेश रावल) जो दूर का रिश्तेदार है। इन दोनों के बीच में आता है। पुनीत और मुनमुन ऐसा सोचते हैं कि दो-चार दिनों में अतिथि चला जायेगा। पर, यह तो जाना हीं नहीं चाहता। घर तथा पास-पड़ोस के लोग लंबोदर के क्रियाकलापों से हैरान-परेशान हैं। इसी बीच झटके से लंबोदर वाजपेयी ओझल हो जाता है। उसके कृत्यों से हैरान-परेशान पुनीत-मुनमुन तथा पड़ोसी पता लगाते हैं कि वह कहां गया।

नायक (अजय देवगन) तथा कोंकणा सेन (मुनमुन) का अभिनय ठीक-ठाक है। फिल्म में हास्य का पुट है। दर्शक पूरे समय हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते है। अश्विनी धीर ने धारावाहिक ‘ऑफिस-ऑफिस’ के बाद ‘अतिथि, तुम कब आओगे’ में अपने उत्कृष्ट निर्देशन का परिचय दिया है। कलाकार: अजय देवगन, कोंकणा सेन शर्मा, परेश रावल, संजय मिश्रा आदि। संगीत: प्रीतम निर्देशक: अश्विनी धीर

न घर के न घाट के

‘परदेसी बाबू’ फिल्म में राजेश खन्ना ठेठ गंवार तथा देहाती है। ग्रामीण परिवेश से शहर में आया नौजवना धीरे-धीरे शहरी बाबू बन जाता है। लेकिन उसकी आत्मा ‘एक भारतीय आत्मा’ ही रहती है। यदि हम कहें कि फिल्म ‘न घर के ना घाट के ग्रामीण पृष्ठ भूमि पर केंद्रित रिमेक हैं तो भी अतिश्योक्ति न होगी। यह फिल्म ग्रामीण पृष्ट भूमि पर तथा कथित समाज द्वारा व्यंग्य हीं है। फिल्म में निर्देशन का स्पष्ट प्रभाव डालने का प्रयास किया है। परंतु फिल्म दर्शकों को माचिस, रंग दे वसंती, विवाह, शोले तथा बागवान की तरह बांध नहीं पाती। ओमपुरी, परेश रावल और रवि किशन का गजब का अभिनय है लेकिन हिट हो नही पाती।

– लेखक, पत्रकार, समीक्षक, समाजसेवी तथा नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार में कार्यकारी संपादक हैं।

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या के अनसुलझे प्रश्न

पिछले दिनों 20 मार्च को पंजाब के माधोपुर में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भव्य मूर्ती का अनावरण किया गया। माधोपुर पंजाब का वही स्थान है जहां से जम्मू कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ मुखर्जी को 11 मई 1953 को शेख अब्दुल्ला ने हिरासत में ले लिया था। माधोपुर पंजाब का अंतिम छोर है और वहां से रावी नदी को पार करके जम्मू कश्मीर प्रांत प्रारंभ हो जाता है। उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट टाईप का परमिट लेना पडता था। डॉ मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर में गए थे। और वहां गिरफ्तार होने के दिन बाद ही 23 जून को जेल में ही उनकी संदेहजनक परिस्थितियों में मौत हो गयी। इस घटना को लगभग 6 दशक बीत चुके हैं। छ दशकों बाद पंजाब सरकार ने इस अमर शहीद की मूर्ती स्थापित कर प्रशंसनीय कार्य किया है। मूर्ती का अनावरण करने के कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी, पंजाब के उपमुख्यमंत्री श्री सुखवीर सिंह बादल उपस्थित थे। हजारों की संख्या में जम्मू कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली इत्यादि राज्यों से डॉ मुखर्जी को श्रद्धांजलि देने के लिए लोग उपस्थित थे।

यह शहीद के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि थी। परंतु डॉ. मुखर्जी की रहस्यमय मृत्यु से सम्बंधित एक प्रश्न उसी प्रकार सलीब पर लटका रहा जिस प्रकार 23 जून 1953 को लटक रहा था। वह प्रश्न था डॉ. मुखर्जी की मृत्यु या फिर हत्या से सम्बंधित षड्यंत्र को बेनकाब करना। डॉ.मुखर्जी की मृत्यु के पश्चात उनकी मां ने पं. नेहरु को एक पत्र लिखकर अपने बेटे की मृत्यु की जांच करवाने की मांग की थी। तब नेहरु ने उसे लिखा था -मैं इसी सच्चे और स्पष्ट निर्णय पर पहुंचा हूं कि इस घटना में कोई रहस्य नहीं। डॉ. मुखर्जी की मां श्रीमती योगमाया देवी ने नेहरु को जो पत्र लिखा वह बडा मार्मिक था और दुर्भाग्य से अभी भी अपने उत्तर की तलाश कर रहा है। योगमाया देवी ने लिखा – मैं तुम्हारी सफाई नहीं चाहती , जांच चाहती हूं। तुम्हारी दलीलें थोथी हैं और तुम सत्य का सामना करने से डरते हो। याद रखो तुम्हें जनता के और ईश्वर के सामने जवाब देना होगा। मैं अपने पुत्र की मृत्यु के लिए कश्मीर सरकार को ही जिम्मेदार समझती हूं और उस पर आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली। मैं तुम्हारी सरकार पर यह आरोप लगाती हूं कि इस मामले को छुपाने और उसमें सांठगांठ करने का प्रयत्न किया गया है।’ यहां तक की पश्चिमी बंगाल की कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री डा. विधानचंद राय ने मुखर्जी की हत्या की जांच सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश से करवाने की जांच की। कांग्रेस के ही पुरुषोत्तम दास टण्डन ने भी डॉ. मुखर्जी हत्या की जांच की मांग की।

डॉ मुखर्जी को जिस तथाकथित जेल में रखा गया था वह उस समय एक उजाड स्थान पर स्थित थी और वहां से अस्पताल कई मील दूर था। जेल में टेलीफोन की भी व्यवस्था नहीं थी मृत्यु से पूर्व डॉ. मुखर्जी को 10 मील दूर के अस्पताल में जिस गाडी में ले जाया गया उसमंे उनके किसी और साथी को बैठने नहीं दिया गया। और सबसे बडी बात यह कि डॉ. मुखर्जी की व्यक्तिगत डायरी को रहस्यमय ढंग से गायब कर दिया गया। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट होता है कि मुखर्जी को हिरासत में लेने के लिए भ किसी न किसी स्तर पर साजिश हुई। पंजाब सरकार डॉ. मुखर्जी को माधोपुर में ही हिरासत में ले सकती थी लेकिन वहां उन्हें गुरुदासपुर के उपायुक्त ने सूचित किया कि सरकार ने आपको जम्मू कश्मीर जाने की अनुमति दे दी है। कुछ प्रमुख समाचार पत्रों ने इस खबर को प्रकाशित भी कर दिया। लेकिन मुखर्जी को जम्मू कश्मीर में प्रवेश करते ही लखनपुर में हिरासत में ले लिया गया परन्तु उन्हे जम्मू में न रखकर लखनपुर से लगभग 500 किलोमीटर दूर श्रीनगर में बीमारी की हालत में ही एक जीप में डालकर ले जाया गया। इतनी लम्बी यात्रा उनके लिए घातक थी। परन्तु पुलिस अधिकारी उन्हें श्रीनगर ले जाने में अडे रहे। लखनपुर में उन्हें हिरासत में लेने का शेख अब्दुल्ला सरकार और नेहरु सरकार को एक लाभ यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय उनकी गिरफ्तारी के बारे में दखलंदाजी नहीं कर सकता था। जम्मू कश्मीर राज्य उच्चतम न्यायालय की पहुंच के बाहर था। सबसे बढकर, डॉ. मुखर्जी के ईलाज के समस्त दस्तावेज संदेहास्पद परिस्थितियों में छिपा लिए गए। इन्हीं समस्त साक्ष्यों को देखते हुए भारतीय जनसंघ समेत देश के अनेक प्रबुद्ध लोगों ने डॉ.मुखर्जी की हत्या की जांच की मांग की। शेख अब्दुल्ला की सरकार पर मुखर्जी की हत्या में मिलीभगत होने का शक इतना गहरा रहा था कि कुछ समय बाद ही अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन मुखर्जी की हत्या की जांच के लिए सरकार तैयार नहीं।

आज इस घटना को घटे 57 वर्ष हो गए है इस दौरान जम्मू कश्मीर में कई सरकारें आयीं और कई गयी। बीच में राज्यपाल के शासन भी रहे। इसी प्रकार दिल्ली मंे अनेक सरकारें बदली। बदली हुई सरकारों में देश के लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल को किसी न किसी रुप में सत्ता में भागीदारी मिली। लेकिन किसी ने भी डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की हत्या से पर्दा उठाने का साहस नहीं किया। अब जब उसी स्थान पर, जिसको लांघकर डॉं मुखर्जी ने षड्यंत्रकारी मृत्यु के पंजे में चले गए थे, उनका हाथ उठाए हुए एक आदमकद बुत खडा हो गया है तो लगता है वह उठा हुआ हाथ हर आने जाने वाले से प्रश्न कर रहा है कि मेरी मृत्यु के पीछे की षड्यंत्रकारी शक्तियों को कौन बेनकाब करेगा। जब रात्रि गहरा जाती है तो वहां केवल रहता है डॉ. मुखर्जी का साया और रावी नदी की हाहाकार करती लहरें। रावी नदी का यह अभिशाप कहा जाय या उसका सौभाग्य की उसे शहीदों की शहादत की बारबार साक्षी बनना पडता है। ब्रिटिश शासकों ने जब भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की अर्द्धरात्रि को हत्या कर उनके शवों को मिट्टी का तेल डालकर जलाने का प्रयास किया तो लोग उन अधजले शवों को उठाकर ले गए और रावी के किनारे ही उनका संस्कार किया। यही रावी एक दूसरे शहीद श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जाते हुए देखती रही और अब उसी रावी के किनारे पर माधोपुर में पंजाब सरकार ने डॉ. मुखर्जी का बुत खडा कर दिया है। रावी प्रश्न करती है अपने इस शहीद पुत्र, जो हुगली से चलकर उस तक पहुंचा था, के हत्यारों के बारे में। लेकिन रावी के इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? रावी पर से गुजरते हुए लगता है डॉ. मुखर्जी उदास मुद्रा में खडे हैं। शायद, उनका और रावी का प्रश्न एक ही है। परन्तु इसका उत्तर देने का साहस कोई नहीं कर पा रहा। वे भी नहीं जिन्होंने स्वयं ही कभी यह प्रश्न उठाया था।

-डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

नपुंसक आलोचक और नदारत आलोचना

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य को लेकर काफी लिखा गया है। खासकर कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कृतियां हैं जो किसी न किसी रूप में साहित्यिक परिदृश्य पर रोशनी डालती हैं। हम खुश हैं कि हमारे पास रामविलास शर्मा हैं, नामवरसिंह हैं, शिवकुमार मिश्र हैं, रमेशकुंतल मेघ हैं, अशोक वाजपेयी हैं। जाहिरा तौर पर इन आचोचकों की उपस्थिति को अस्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि ये हैं और रहेंगे। इनके नाम ‘अमर’ हैं।

सवाल उठता है आलोचना कहां गुम हो गयी? आज आलोचक हैं किंतु आलोचना नदारत है। अध्यक्षता करने वाले उद्धाटन करने वाले विद्वान हैं किंतु चीजों को उद्धाटित करने वाले विचारों का दूर-दूर तक पता नहीं है। कहने के लिए आलोचना के नाम पर टनों लिखा जा रहा है किंतु आलोचकीय विचार और आलोचना पध्दति का अभी तक निर्माण नहीं कर पाए। हम नहीं जानते कि रामविलास शर्मा के साथ आलोचना का कौन सा विचार जुड़ा है अथवा उन्होंने कौन सी ऐसी धारणा दी जिसके साथ उनकी पहचान बनती हो,आलोचना की पहचान बनती हो। आलोचना का यह शून्य आखिरकार कब और क्यों पैदा हुआ ?

आलोचना शून्य तब पैदा होता है जब आलोचक ग्रहण करना बंद कर देता है। सामाजिक संरचनाओं पर से उसकी पकड़ छूट जाती है। हिन्दी आलोचक की मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं। उसे मालूम ही नहीं है कि स्वातंत्र्योत्तर समाज का ढांचा किन आधारों पर टिका है। वह सीधे कृति के संदर्भ से शुरू होता है और संदर्भ के जरिए अभीप्सित व्याख्या पेश करता है। यह आलोचना नहीं है बल्कि छात्रोपयोगी व्याख्या है, इसे ही वह अपने आलोचकीय कर्म की इतिश्री मानता है।

साहित्य शिक्षा की मांग और पूर्ति का बहुत गहरा संबंध आलोचना से है। हिन्दी आलोचना का सारा दारोमदार शिक्षा की जरूरतों की पूर्त्ति से जुड़ा है। आलोचना का काम शिक्षा की जरूरतें पूरी करना नहीं है। हिन्दी में रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे बाजपेयी, रामविलास शर्मा से लेकर आज तक के नवोदित आलोचकों तक में अधिकांश आलोचना किताबें शिक्षा की मांग- पूर्ति के सिद्धान्त के अनुसार लिखी गयी हैं।

आलोचना को हमने मूलत: गैसपेपर का परिष्कृत रूप दे दिया है। यही वजह है कि हिन्दी में आलोचना के द्वारा कोई आलोचकीय ढांचा नहीं बन पाया और न आलोचना की नयी धारणाओं का ही निर्माण हो पाया। हम नहीं जानते कि रामचन्द्रशुक्ल या हजारीप्रसाद द्विवेदी या रामविलास शर्मा ने आलोचना की किस मौलिक धारणा का निर्माण किया है?

आलोचना की दूसरी मुश्किल यह है कि उसके पास इच्छित समाज, इच्छित अवधारणा, इच्छित लक्ष्य और इच्छित प्रभाव का बना -बनाया ढांचा उपलब्ध है। आलोचना ने अभी तक आलोचक की इच्छा के दायरे के बाहर जाकर सोचा ही नहीं है। आलोचक का अपनी इच्छा के दायरे में बंद होकर सोचना इस बात का प्रतीक है कि आलोचक कुछ भी नया अथवा मौलिक लिखना नहीं चाहता। तयशुदा के दायरे के बाहर निकलना नहीं चाहता।

आलोचना की तीसरी बुनियादी मुश्किल है कि उसने सार्वजनिक और निजी को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से कभी परिभाषित ही नहीं किया। सार्वजनिक और निजी परिवेश के सवालों को लेकर उसने कोई बहस नहीं की। आधुनिक आलोचना के नाम पर हमने जितना आत्मसात् किया है उससे कई गुना ज्यादा बहिष्कृत है। आलोचना में बहिष्कार के तत्व का फिनोमिना के तौर पर विकास हुआ है। बहिष्कार का तत्व आधुकिता का अंश है इसे आधुनिक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। बहिष्कार के आधार पर हमने पहले मार्क्सवाद को आधार बनाया और मार्क्सवाद के आधार पर गैर मार्क्सवादी दृष्टियों का बहिष्कार किया, उनके प्रति घृणा का प्रचार किया और अंत में मार्क्सवाद से भी दामन छुड़ा लिया। प्रगतिवाद में जो मार्क्सवादी थे एक अर्सा बाद उन्होंने आलोचना में मार्क्सवाद को तिलांजलि दे दी। दुर्भाग्य की बात यह है कि मार्क्सवादी आलोचना मार्क्स-एंगेल्स, प्लेखानोव और लेनिन के उद्धरणों के इस्तेमाल के आगे विकास ही नहीं कर पायी।

आलोचना और उसके पद्धतिशास्त्र के प्रमुख आधार क्या हैं? इनकी तात्कालिक तौर पर एक सूची तैयार इस तरह बन सकती है, हमारी आलोचना बताती है- राष्ट्र का चरित्र, गुलामी का वातावरण, ब्रिटिश साम्राज्यवाद। नवोदित पूंजीपतिवर्ग, मजदूरवर्ग और मध्यवर्ग इन तीन नए वर्गों का उदय। अनेक विचारधाराओं के संगठनों की स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी। विचारधारात्मक और सामाजिक बहुलतावाद का विकास। नयी सामाजिक संरचनाओं और संबंधों का उदय। एकल परिवार का उदय। संयुक्त परिवार का वर्चस्व। मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग का देश के विभिन्न इलाकों में असमान विकास। खासकर हिन्दीभाषी इलाकों में मजदूरवर्ग और पूंजीपतिवर्ग का देर से विकास। आजादी और लोकतंत्र का अभाव। ब्रिटिशसत्ता का जबर्दस्त दमनचक्र। अकाल और महामारी का ताण्डव। दो महायुद्धों की विभीषिका और उसके गहरे असर। इन सारे तत्वों में से आलोचना ने मूलत: ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोध का मौटे तौर पर व्यापक विवेचन किया और दूसरा स्त्री के प्रति स्वतंत्रभावों की अभिव्यक्ति को व्यक्त किया। बाकी सभी अवधारणाओं का हिन्दी आलोचना विकास ही नहीं कर पायी।

दिल्ली सल्तनत के जमाने में राजसत्ता का जनता से दूर का संबंध था। किंतु अंग्रेजों के जमाने में राजसत्ता का आम जनता के साथ नाभिनालबद्ध संबंध स्थापित हुआ। संस्थानगत आधार पर सामाजिक जीवन के विकास की शुरूआत हुई। सार्वजनिक और निजी वातावरण में विभाजनरेखा खींची गयी। अब संस्थानों का दायित्व था सार्वजनिक और निजी वातावरण तैयार करना। निजी वातावरण परंपरा और आधुनिक के सम्मिश्रण से बना हुआ था। इसमें परंपरा व्यापक और आधुनिक सीमित स्थान घेरता था। सार्वजनिक वातावरण के तौर पर राजनीतिक शिरकत, बहस, रायशुमारी, अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में प्रेस का उदय हुआ। यह सारी प्रक्रिया किसी न किसी रूप में राजसत्ता और वर्चस्वशाली वर्ग के हितों से निर्देशित थी।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

महिलाओं की आवाज़ `’ फोकस टीवी’ को मीडिया एक्सिलेंस अवार्ड-2010

एशिया के पहले महिला न्यूज एंड करेंट अफेयर्स चैनल ‘फोकस टीवी’ को महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में बेमिसाल योगदान के लिए सर्वश्रेष्ठ चैनल के रूप में सम्मानित किया गया है। 27 मार्च की शाम, दिल्ली के मंडी हाउस स्थित फिक्की के गोल्डन जुबली ऑडिटोरियम में मीडिया फेडरेशन ऑफ इंडिया की ओर से आयोजित समारोह में चौथे मीडिया एक्सिलेंस अवार्ड्स-2010 से फोकस टीवी को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी, केन्द्रीय श्रम राज्यमंत्री हरीश रावत, दिल्ली सरकार के मंत्री मंगत राम सिंघल समेत राजनीति और पत्रकारिता जगत की कई नामी-गिरामी हस्तियां मौजूद थीं।

फोकस टीवी की तरफ से ये अवार्ड कंसल्टिंग एडिटर रश्मि सक्सेना, आउटपुट हेड गार्गी बार्दोलोई, इनपुट हेड अंजू ग्रोवर और सीनियर कॉपी एडिटर आभा माथुर ने संयुक्त रूप से ग्रहण किया। इस मौके पर रश्मि सक्सेना ने कहा कि फोकस टीवी आधी आबादी की आवाज़ बन चुका है और ये सम्मान इसी आधी आबादी को समर्पित है। समारोह में फोकस टीवी के सहयोगी चैनल `हमार टीवी’ को भी मीडिया फेडरेशन ने सर्वश्रेष्ठ भोजपुरी चैनल के रूप में सम्मानित किया। विभिन्न कलाकारों ने रंगारंग कार्यक्रमों की आकर्षक पेशकश कर दर्शकों का मन मोह लिया।

‘फोकस टीवी’ ने हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सफलता के एक साल पूरे किए हैं। पिछले साल एम थ्री मीडिया ग्रुप ने 8 मार्च को इस चैनल को ऑन एयर किया था। ये चैनल महिलाओं के लिए, महिलाओं का और महिलाओं द्वारा संचालित देश का पहला समाचार चैनल है। पिछले दिनों फोकस टीवी को आधी आबादी—द ग्रेट वुमेन अवार्ड-2009 से भी सम्मानित किया जा चुका है। ‘फोकस टीवी’ एम थ्री मीडिया ग्रुप का अनूठा चैनल है। इसके अलावा, ये समूह देश का पहला पुरबिया चैनल ‘हमार टीवी’, दक्षिण भारत का पहला बहुभाषी टीवी चैनल ‘एचवाई टीवी’ और ‘एनई टीवी’, ‘एनई हाई-फाई’ और ‘एनई बांग्ला’ टीवी संचालित करता है।

संतों का धैर्य टूटने से पूर्व सरकार गंगा को बांधों से आजाद करे

नई दिल्ली। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल ने कहा है कि संतों-महात्माओं के धैर्य का बांध टूटने से पूर्व सरकार को गंगा नदी पर निर्मित समस्त बांधों को रद्द करने और आगे से कोई भी नयी परियोजना न बनाने की घोषणा करनी चाहिए। उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार ने अगर अनसुनी की तो संत कुंभ में निर्णायक संघर्ष का फैसला करेंगे।

श्री सिंहल ने विश्व हिंदू परिषद के नई दिल्ली स्थित कार्यालय में 27 मार्च को देश के प्रमुख समाचार पत्रों एवं स्तंभ लेखकों के साथ आयोजित चर्चा-वार्ता में उपरोक्त उद्गार व्यक्त किए । उन्होंने केंद्र सरकार को सावधान किया कि वह गंगा के मुद्दे पर देश में तनाव पैदा करने के हालात पैदा करने से बचे।

उन्होंने केंद्र सरकार में गंगा और पर्यावरण के सवाल पर उत्पन्न मतभेदों की चर्चा करते हुए कहा कि एक ओर केद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश गंगा पर बांधों को निरस्त करने की बात कह रहे हैं वहीं केंद्रीय श्रम मंत्री और हरिद्वार से कांग्रेस सांसद हरीश रावत कुंभ की समाप्ति के बाद गंगा पर निर्माणाधीन लोहारीनागपाला परियोजना पर रूके हुए काम को शुरू करने की घोषणा कर रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस समेत देश के तमाम राजनीतिक दलों से श्री सिंहल ने गंगा के संदर्भ में नीति स्पष्ट करने की मांग भी की। उन्होंने कहा कि विकास होना चाहिए लेकिन विकास विनाश का कारण नहीं बनना चाहिए।

उन्होंने कहा कि ठेकेदारों, प्रशासकों के कारण गंगा की दुर्दशा हो रही है। गंगा को धन कमाने का जरिया बना लिया गया है। गंगा की रक्षा का प्रश्न भारत की सांस्कृतिक चेतना, धर्म, पर्यावरण और समाज के साथ गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। सरकार को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि संत समाज को इस मुद्दे पर प्रभावितकर देश में बड़े आंदोलन की शुरुवात कर सकते हैं।

उन्होंने समाचार माध्यमों से अपील करते हुए कहा कि वे अपनी जनसंचार शक्ति का प्रयोग गंगा और पर्यावरण की रक्षा के लिए करें। समाज को बताएं कि गंगा समेत देश की तमाम नदियों की विकास की अंधी दौड़ में कैसी दुर्दशा हो रही है।

श्री सिंहल ने कहा कि ऊर्जा जरूरतों के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के विकास और प्रयोगों से भरपूर मात्रा में बिजली का उत्पादन हो सकता है। सूरत में गैस चालित टरबाइन से बिजली बनाने के सफल प्रयोग का उदाहरण देते हुए श्री सिंहल ने कहा कि सूरत में 1200 मेगावाट बिजली का उत्पादन गैर टरबाइन से हो रहा है। इसका निर्माण भी तीन साल की रिकार्ड अवधि में सम्पन्न हो गया। जबकि बड़े बांध जहां हजारों करोड़ रूपये खर्चकर बनते हैं वहीं उनके निर्माण में दसियों साल लग जाते हैं।

उन्होंने कहा कि सरकार ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की ओर देखे तथा गंगा के साथ खिलवाड़ बंद करे अन्यथा संत समाज के बीच गंगा रक्षा का प्रचण्ड संग्राम छेड़ेंगे। विश्व हिंदू परिषद संतों के प्रत्येक निर्णय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होगी।

चर्चा-वार्ता में दैनिक नवभारत, दैनिक नई दुनिया, दैनिक भास्कर, दैनिक देशबंधु, दैनिक सकाल, कौमी पत्रिका, ईएमएस समाचार एजेंसी, सांध्य वीर अर्जुन, प्रथम प्रवक्ता, साप्ताहिक पांचजन्य, विश्व हिंदू वॉयस समेत अनेक पत्रों के संपादकों और उनके वरिष्ठ संपादकीय सहायकों ने हिस्सा लिया।

इस अवसर पर विश्व हिंदू परिषद के वरिष्ठ मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर, बजरंग दल के राष्ट्रीय संयोजक श्री प्रकाश शर्मा समेत विश्व हिंदू परिषद के अनेक वरिष्ठ पदाधिकारी उपस्थित थे।