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पोर्न में डूबे अमेरिकी समाज के दुख

अमेरिकी समाज पोर्न में पूरी तरह पोर्न में डूब चुका है। समाज को पोर्न में डुबाने में बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनियां और कारपोरेट हाउस सबसे आगे हैं। हमारे देश में जो लोग अमेरिकीकरण के काम में लगे हैं उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भारतीय समाज का अमरीकीकरण करने का अर्र्थ है पोर्न में डुबो देना। पोर्न में डूब जाने का अर्थ है संवेदनहीन हो जाना। अमेरिकी समाज क्रमश: संवेदनहीनता की दिशा में आगे जा रहा है। संवेदनहीनता का आलम यह है कि समाज में बेगानापन बढ रहा है। जबकि सामाजिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति सामाजिक संबंध बनाए, संपर्क रखे, एक-दूसरे के सुख-दुख में साझेदारी निभाएं। अमेरिकी समाज में वे ही लोग प्रभावशाली हैं जिनके पास वित्तीय सुविधाएं हैं, पैसा है। उनका ही मीडिया और कानून पर नियंत्रण है। मनोवैज्ञानिकों के यहां पोर्न और वेश्यावृत्ति एक ही कोटि में आते हैं। पोर्न वे लोग देखते हैं जो दमित कामेच्छा के मारे हैं। अथवा जीवन में मर्दानगी नहीं दिखा पाए हैं। वे लोग भी पोर्न ज्यादा देखते हैं जो यह मानते हैं कि पुरूष की तुलना में औरत छोटी, हेय होती है।ये ऐसे लोग हैं जो स्त्री के भाव, संवेदना, संस्कार, आचार- विचार, नैतिकता आदि किसी में भी आस्था नहीं रखते अथवा इन सब चीजों से मुक्त होकर स्त्री को देखते हैं। पोर्न देखने वाला अपने स्त्री संबंधी विचारों को बनाए रखना चाहता है। वह औरत को वस्तु की तरह देखता है। उसे समान नहीं मानता। पोर्न ऐसे भी लोग देखते हैं जो पूरी तरह स्त्री के साथ संबंध नहीं बना पाते।स्त्री के सामने अपने को पूरी तरह खोलते नहीं है। संवेदनात्मक अलगाव में जीते है। संवेदनात्मक अलगाव में जीने के कारण ही इन लोगों को पोर्न अपील करता है। पोर्न देखने वालों में कट्टर धर्मिक मान्यताओं के लोग भी आते हैं जो यह मानते हैं कि औरत तो नागिन होती है, राक्षसनी होती है। पोर्न का दर्शक अपने विचारों में अयथार्थवादी होता है। उसके यहां मर्द और वास्तव औरत के बीच विराट अंतराल होता है। जिस व्यक्ति को पोर्न देखने की आदत पड़ जाती है वह इससे सहज ही अपना दामन बचा नहीं पाता। पोर्न को देखे विना कामोत्तेजना पैदा नहीं होती। वह लगातार पोर्न में उलझता जाता है। अंत में पोर्न से बोर हो जाता है तो पोर्न के दृश्य उत्तेजित करने बंद कर देते हैं। इसके बाद वह पोर्न दृश्यों को अपनी जिन्दगी में उतारने की कोशिश करता है। यही वह बिन्दु है जहां से स्त्री का कामुक उत्पीडन, बलात्कार आदि की घटनाएं तेजी से घटने लगती हैं।यह एक सच है कि शर्म के मारे 90 फीसदी बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग तक नहीं होती। अमेरिकी समाज में एक-तिहाई बलात्कारियों ने बलात्कार की तैयारी के लिए पोर्न की मदद ली। जबकि बच्चों का कामुक शोषण करने वालों की संख्या 53 फीसदी ने पोर्न की मदद ली।पोर्न की प्रमुख विषयवस्तु होती है निरीह स्त्री पर वर्चस्व।

पोर्न का इतिहास बड़ा पुराना प्राचीन ग्रीक समाज से लेकर भारत,चीन आदि तमाम देशों में पोर्न रचनाएं रची जाती रही हैं। किन्तु सन् 1800 के पहले तक पोर्न सामाजिक समस्या नहीं थी।किन्तु सन् 1800 के बाद से आधुनिक तकनीकी विकास, प्रिण्टिंग प्रेस, फिल्म, टीवी, इंटरनेट आदि के विकास के साथ-साथ जनतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उदय ने पोर्न को एक सामाजिक समस्या बना दिया है। मीडिया ने पोर्न और सेक्स को टेबू नहीं रहने दिया है। आज पोर्न सहज ही उपलब्ध है। सामान्य जीवन में पोर्नको जनप्रिय बनाने में विज्ञापनों की बड़ी भूमिका है। विज्ञापनों के माध्यम दर्शक की कामुक मानसिकता बनी है। कल तक जो विज्ञापन की शक्ति थी आज पोर्न की शक्ति बन चुकी है।आज पोर्न संगीत वीडियो से लेकर फैशन परेड तक छायी हुई है। वे वेबसाइड जो एमेच्योर पोर्न के नाम पर आई उनमें सेक्स के दृश्य देख्रकर लों में पोर्न के प्रति आकर्षण बढ़ा। स्कूल-कॉलज पढ़ने जाने वाली लड़कियां बड़े पैमाने ट्यूशन पढ़ने के बहाने अपने घर से निकलती थी। और छुपकर पोन्र का आनंद लेती थीं।इसके लिए वे वेबकॉम का इस्तेमाल करती थीं। वेबकास्ट की तकनीक का इस्तेमाल करने के कारण कम्प्यूटर पर प्रतिदिन अनेकों नयी वेबसरइट आने लगीं। लाइव शो आने लगे।इनमें नग्न औरत परेड करती दिखाई जाती है,सेक्स करते दिखाई जाती है। पोर्न के निशाने पर युवा दर्शक हैं। फे्रडरिक लेन (थर्ड) ने ”ऑवसीन प्रोफिटस:दि इंटरप्रिनर्स ऑफ पोर्नोग्राफी इन दि साइबर एज” में लिखा है कि पोर्न के विकास में वीसीआर और इंटरनेट तकनीक ने केन्द्रीय भूमिका अदा की है।

सामान्य तौर पर अमेरिकी मीडिया पर नजर डालें तो पाएंगे कि सन् 1999 में अमेरिका में उपभोक्ता पत्रिकाओं की बिक्री और विज्ञापन से होने वाली आमदनी 7.8 विलियन डालर थी,टेलीविजन 32 .3विलियन डालर, केबल टीवी 45..5 विलियन डालर, पेशेवर और शैक्षणिक प्रकाशन 14.8विलियन डालर, वीडियो किराए से वैध आमदनी 200 विलियन डालर सन् 2000 में आंकी गयी। विज्ञान इतिहासकार मैकेजी के अनुसार विश्व के सकल मीडिया उद्योग की आमदनी 107 ट्रिलियन डालर सन् 2000 में आंकी गयी। यानी पृथ्वी पर रहने वाले प्रति व्यक्ति 18000 हजार डालर। हेलेन रेनॉल्ड ने लिखा कि अमेरिका में सन् 1986 में सेक्स उद्योग में पचास लाख वेश्याएं थीं। जनकी सालाना आय 20 विलियन डालर थी। एक अनुमान के अनुसार सन् 2003 तक सारी दुनिया में कामुक (इरोटिका) सामग्री की बिक्री 3 विलियन डालर तक पहुँच जाने का अनुमान लगाया गया।फरवरी 2003 में ‘विजनगेन’ नामक संस्था ने अनुमान व्यक्त किया कि सन् 2006 तक ऑनलाइन पोर्न उद्योग 70 विलियन डालर का आंकडा पार कर जाएगा।

विशेषज्ञों में यह सवाल चर्चा के केन्द्र में है कि आखिरकार कितनी संख्या में पोर्न वेबसाइट हैं। एक अनुमान के अनुसार तीस से लेकर साठ हजार के बीच में पोर्न वेबसाइट हैं। ओसीएलसी का मानना है कि 70 हजार व्यावसायिक साइट हैं। इसके अलावा दो लाख साइट शिक्षा की आड़ में चलायी जा रही हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि वयस्क सामग्री अरबों खरबों पन्नों में है। सन् 2003 में ‘डोमेनसरफर’ द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चला कि एक लाख सडसठ हजार इकहत्तर वेवसाइट ऐसी हैं जिसमें सेक्स पदबंध शामिल है। बत्तीस हजार नौ सौ बहत्तर में गुदा (अनल) पदबंध शामिल है। उन्नीस हजार दो सौ अडसठ में एफ (संभोग) पदबंध शामिल है। चार सौ सात में स्तन, तिरपन हजार चौरानवे में पोर्न, उनतालीस हजार चार सौ पिचानवे में एक्सएक्सएक्स पदबंध शामिल है। ‘अलटाविस्टा’ के अनुसार पोर्न के तीस लाख पन्ने हैं। असल संख्या से यह आंकड़ा काफी कम है। अकेले गुगल के ‘हिटलर’ सर्च में 1.7मिलियन पन्ने हैं। जबकि ‘कित्तिन’ में 1.2 मिलियन पन्ने हैं। ‘डाग’ में 17मिलियन पन्ने हैं।’सेक्स’ में 132 मिलियन पन्ने हैं। सन् 2003 में गुगल में 126 मिलियन पोर्न पन्ने थे। वयस्क उद्योग में कितने लोग काम करते हैं। इसका सारी दुनिया का सटीक आंकडा उपलब्ध नहीं है, इसके बावजूद कुछ आंकड़े हैं जो आंखें खोलने वाले हैं। आस्टे्रलिया इरोज फाउण्डेशन के अनुसार आस्ट्रेलिया में छह लाख छियालीस हजार लोग के वयस्क वीडियो के पता संकलन में थे।तकरीबन 250 दुकानें थीं जिनका सालाना कारोबार 100 मिलियन डालर था।इसके अलावा 800 वैध और 350 अवैध वेश्यालय, आनंद सहकर्मी, मेसाज पार्लर थे। सालाना 12 लाख लोग सेक्स वर्कर के यहां जाते हैं। यह आंकडा खाली आस्ट्रेलिया का है। इसी तरह वेब पर जाने वाले दस में चार लोग सेक्स या पोर्न वेब पर जरूर जाते हैं।

सेक्स उद्योग के आंकड़ों के बारे में एक तथ्य यह भी है कि इसके प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इस क्षेत्र के बारे में अलग-अलग आंकड़े मिलते हैं। ”केसलॉन एनालिस्टिक प्रोफाइल: एडल्ट कंटेंट इण्डस्ट्रीज ” में आंकडों के इस वैविध्य को सामने रखा। सन् 2002 में एक प्रमोटर ने अनुमान व्यक्त किया कि वयस्क अंतर्वस्तु उद्योग 900 विलियन डालर का है। एक अन्य प्रमोटर ने कहा कि अकेले अमेरिका में ही इसका सालाना कारोबार 10 विलियन डालर का है। एक अन्य अमेरिकी कंपनी ने कहा कि वयस्क वीडियो उद्योग में सालाना 5 विलियन की वृद्धि हो रही है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

सेक्स उद्योग के ग्लोबल-लोकल फंदे के आर-पार

समाज में वेश्यावृत्ति स्थानीय है। किन्तु सेक्स ग्लोबल है। आज सेक्स ग्लोबल सेवा क्षेत्र में आता है। विश्व व्यापार की भाषा में सेक्स का भी आयात-निर्यात हो रहा है। यह वस्तुत: कामुक गुलामी है। इस संदर्भ में सबसे रोचक तर्क जेड मैगजीन में ” ट्रीटिंग पोर्न लाइक अदर मीडिया” निबंध में व्यक्त किए गए हैं। इस लेख के लेखक का मानना है पोर्न अन्य फैंटेसी की तरह ही एक फैंटेसी है। चूंकि वामपंथी विचारक हमेशा फैंटेसी की आलोचना करते हैं, क्योंकि फैंटेसी वास्तव जगत को विद्रूप करती है। यही वजह है कि पुलिस और न्यायालय कभी कभी न्याय की गुहार भी लगाते हैं। लेखक के अनुसार पोर्न का अर्थ है ”आंशिक गर्भपात।” यह मीडिया का वह रूप है जो अपने दर्शक को हस्तमैथुन का आनंद देता है। पोर्न वह है जो हिंसक नहीं है। किसी को घटिया, हेय या छोटा नहीं दिखाता।

डोना एम हगीस ने ”दि करप्शन इन सिविल सोसायटी: मेन्टेनिंग दि फ्लो ऑफ वूमैन टु द सेक्स इण्डस्ट्रीज” में लिखा है कि सरकारी नीतियों के कारण औरतों की तिजारत बढ़ रही है। उन्हें सेक्स उद्योग में भेजा जा रहा है। सवाल उठता है कि आखिरकार वेश्यावृत्ति क्यों बढ़ रही है? इसमें औरत और बच्चे किन कारणों से आ रहे हैं? वेश्यावृत्ति में वे ही औरतें और बच्चे आते हैं जिनका कामुक रूप से दुरूपयोग होता है। इसमें बलात्कार की शिकार, ,बाल्य कामुक शोषण के शिकार, शिक्षा से वंचित,गरीब,नस्लवादी या साम्प्रदायिक भेदभाव के शिकार,वर्गीय शोषण के शिकार, युद्ध से प्रभावित लोग आते हैं। सामान्य तौर पर औरत और बच्चों को खाना,कपड़ा घर, पैसा दवा, सुरक्षा, संगति और रोजगार का वायदा करके फुसलाया जाता है। औरतें और बच्चे वेश्यावृत्ति के क्षेत्र में नैतिक कारणों से नहीं अपनी जिन्दगी के बुरे हालत के कारण आते हैं। वेश्यावृत्ति से स्त्री या बच्चों का सशक्तिकरण नहीं होता।बल्कि सच्चाई यह है कि जब वे इस धंधे में आ जाते हैं तो उन्हें भयानक नरक में जीना होता है। पहले से भी बदतर अवस्था में रहना होता है।वे अनेक किस्म की भयानक शारीरिक, सांस्कृतिक बीमारियों और विपत्तियों में जीने के लिए अभिशप्त होते हैं। सच तो यह है कि वेश्यावृत्ति औरत और बच्चों के खिलाफ नियोजित बर्बर हमला और शोषण है। औरतों और बच्चों की बिक्री और स्थानान्तरण मूलत: उन्हें भयानक शोषण और नरक में धकेलता है। औरतों की बिक्री आज सबसे बड़ा कारोबार बन गया है। जिन औरतों को खरीदा जाता है उनमें से अधिकांश भयानक गरीबी और अभाव की मारी होती हैं। उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर फुसलाया जाता है।बल प्रयोग किया जाता है। शारीरिक और मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं जिससे वे वेश्यावृत्ति के धंधे में जाने के लिए मजबूर होती हैं। सच तो यह है वेश्यावृत्ति में शामिल औरतें इस धंधे से मुक्त होना चाहती हैं। कोई भी औरत स्वेच्छा से इस पेशे में नहीं है।बल्कि मजबूरी और दबाव के कारण ही वे इस धंधे में हैं। वेश्यावृत्ति गुलामी है। बल प्रयोग के कारण किया गया श्रम है। यह मूलत: स्त्री के शोषण की बर्बर व्यवस्था है। इसके पीछे संगठित माफिया गिरोह और बहुराष्ट्रीय कारपोरेट हाउस सक्रिय हैं।जो लोग यह कहते हैं कि वेश्यावृत्ति को कानूनी वैधता प्रदान कर देने से यह समस्या कम हो जाएगी। वे झूठ बोलते हैं। सच यह है कि इससे वेश्यावृत्ति बढ़ जाएगी। नीदरलैंण्ड इसका आदर्श उदाहरण है। वहां वेश्यावृत्ति को वैध घोषित करने के बाद इस पेशे में औरतों की बाढ़ आ गयी है।

वेश्यावृत्ति, कामुकता, पोर्न या अवैध संबंधों की तरफ रूझान को वैधता प्रदान करने में में मीडिया प्रस्तुतियों की महत्वपूर्र्र्ण भूमिका है। मीडिया अध्ययन बताते हैं कि 66 फीसदी प्राइम टाइम कार्यक्रमों में कामुकता एक महत्वपूर्ण अंतर्वस्तु है। सन् 1999-2000 के साल में टेलीविजन के दो-तिहाई कार्यक्रमों में कामुकता पर जोर था। समग्रता में टेलीविजन में सन् 1999 में 56 फीसदी सेक्स कंटेंट था। जो सन् 2000 में बढकर 84 फीसदी हो गया है। सन् 2001 में केशर फेमिली फाउण्डेशन ने बताया कि अमेरिकी सॉप आपेरा का अस्सी फीसदी अंतर्वस्तु कामुक थी। ग्रीनवर्ग एवं वुड ने बताया कि औसतन प्रतिघंटे सॉप ऑपेरा में 6.6 काम क्रियाएं दिखाई गयीं।यह भी पाया गया कि तरूणों में कामुक अंतर्वस्तु के कार्यक्रम बेहद जनप्रिय हैं। 23 फीसदी टीवी कार्यक्रमों में विभिन्न चरित्रों के बीच में कामक्रीडा के दृश्य 18- 24 साल के लोगों पर फिल्माए गए। जबकि 9 फीसदी चरित्र 18 साल से कम उम्र के थे। ज्यादातर काम-क्रीडा के दृश्य अविवाहित युगलों के बीच में दरशाए जाते हैं।अविवाहित चरित्रों में ही काम भाषा का प्रयोग मिलता है।एक शोध अनुसंधान में पाया गया कि 24 चरित्रों में सिर्फ एक ही विवाहित युगल सॉप ऑपेरा में काम क्रीडा करते नजर आया बाकी चरित्र अविवाहित थे। टेलीविजन कार्यक्रमों में दरशाए गए सेक्स में सुरक्षित सेक्स का शायद ही रूपायन दिखाई देता हो। ज्यादा चरित्र कंडोम का इस्तेमाल नहीं करते। असुरक्षित कामुक व्यवहार में खतरा है, इसका शायद ही कभी जिक्र किया जाता हो। एक अनुमान के अनुसार सालाना 14000 कामुक संदर्भों की वर्षा होती है। जिनमें मात्र 165 दृश्यों में संतति निरोध, संयम, काम नियंत्रण, प्रजनन में खतरा, संक्रमित बीमारियों आदि का जिक्र रहता है।

मीडिया के द्वारा सेक्स के व्यापक प्रसारण का असर यह होता है कि तरूणों में शारीरिक शुचिता और वर्जीनिटी के प्रति असंतोष पैदा होता है। जो तरूण यह सोचते हैं कि टीवी सेक्स उन्हें सेक्स की सही जानकारी देता है, इस बात पर विश्वास करने वालों का पहला संभोग असंतोषजनक होता है। वे कुण्ठा के शिकार होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि काली नस्ल की औरतें जिनकी उम्र 18-24 साल के बीच है, उनमें वगैर कंडोम के इस्तेमाल किए सेक्स के प्रति रूझान ज्यादा पाया गया है। तरूण लड़कियों में केजुअल सेक्स का रूझान बढता है। टीवी में कामुकता की प्रस्तुतियों पर किए गए सारे अनुसंधान यह तथ्य पुष्ट करते हैं कि किसी भी कार्यक्रम में यह नहीं बताया जाता कि टीवी का सेक्स कंटेंट नुकसानदेह है। अथवा असुरक्षित सेक्स न करें।अथवा अवैध सेक्स व्यवहार गैर जिम्मेदारी भारा होता है। बल्कि इसके विपरीत टीवी कार्यक्रमों की सेक्स प्रस्तुतियां बताती हैं कि तरूणों को गैर जिम्मेदार कामुक व्यवहरार करना चाहिए।

मीडिया को देखते समय निम्नलिखित सवालों पर गौर करेंगे तो टीवी कार्यक्रमों को आलोचनात्मक नजरिए से देख पाएंगे। सवाल हैं –

1.सेक्सुअल इमेजों का निर्माता कौन है?

2.कामुक व्यवहार में कौन लोग शामिल हैं ?

3. किसकी बात या राय नहीं मानी जा रही है?

4. किस परिप्रेक्ष्य से कैमरा घटनाओं को निर्मित कर रहा है?

5.आपके अभिभावक,गर्ल फे्रंड,बॉय फे्रंड ने अभी जो स्टोरी देखी, उसके बारे में किस तरह की बातें करते हैं?

6.देखते समय आपकी क्या भूमिका थी? आप अपने को कहानी,चरित्र ,घटना आदि में समाहित करके देख रहे थे या आलोचनात्मक नजरिए से देख रहे थे?

7. मीडियम का मालिक कौन है? कामुक सामग्री के प्रसारण से मालिक को कितना फायदा होता है?

सवाल पैदा होता है मीडिया, विज्ञापन आदि में परोसी जा रही कामुक सामग्री के दुष्प्रभाव से बचने के क्या उपाय हैं? उपाय निम्न प्रकार हैं-

1.मीडिया को साथ मिलकर देखें,इससे अंतर्वस्तु के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलेगा,साथ ही यह भी पता चलेगा कि अन्य लोग क्या सोच रहे हैं।

2. टीवी की कामुक सामग्री के बारे में अन्य क्या कहते हैं, उसे गंभीरता से सुना जाना चाहिए। कामुक सामग्री पर चर्चा की जानी चाहिए।

3.कामुक विज्ञापनों का अध्ययन करने का गुर सीखना चाहिए, उसमें क्या संदेश दिया गया है? विज्ञापन के निशाने पर कौन है? विज्ञापन की अपील बनाने के लिए वे किन चीजों का इस्तेमाल करते हैं?संबंधित वस्तु को खरीदने के लिए ऑडिएंस को संतुष्ट करने के लिए कितना समय खर्च करते हैं?

4. विज्ञापन की परीक्षा सर्जनात्मक आधार पर की जानी चाहिए। (मसलन् क्या परफ्यूम के विज्ञापन में सुन्दरता या कामुकता का वायदा किया गया है)

5.कामुक फिल्म और वीडियो चुनने के नियम बनाए जाने चाहिए।

6. फिल्म और वीडियो की कामुक इमेजों के बारे में अन्य क्या बोलते हैं?

7. टीवी और फिल्म की रेटिंग व्यवस्था के बारे में सीखना चाहिए।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

गुजरात दंगे में मोदी को बदनाम करना राजनीति से प्रेरित – इन्द्रेश कुमार

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल सदस्य श्री इन्द्रेश कुमार न केवल संघ के प्रचारक हैं अपितु प्रखर वक्ता और संवेदनशील चिंतक भी हैं। उनके संवेदनशीलता की गहराई का अंदाजा इसी बात से लगया जा सकता है कि हिमालय की संस्कृति को बचाने के लिए उन्होंने हिमालय परिवार नामक संगठन को बनाने में बडी भूमिका निभाई। हिमालयी राज्यों की समस्याओं, उसकी सुरक्षा के मुद्दे विभिन्न मंचों पर उठाया। श्री कुमार चीनी चालबाजी को खुब समझते हैं। उन्ही के अध्ययन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सीमा जागरण, भारत तिब्बत मैत्री संघ तथा हिमालय बचाओ आन्दोल, गंगा बचाओ आन्दोलन नामक संगठनों को सक्रिय किया। ईन्द्रेश जी का हिमालयी राज्यों तथा नेपाल पर विषेश अध्यन है। उनके प्रयासों के कारण संघ विचार परिवार में मुसलमानों के लिए अलग से संगठन बनाने की योजना बनी। आज वह संगठन राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच के नाम से जाना जाता है। ऐसे अनुभवी राष्ट्र ॠषि के साथ गौतम चौधरी ने अनेक मुद्दों पर बातचीत की। यहां प्रस्‍तुत है प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं-संपादक

प्रश्न : – राम मंदिर आन्दोलन को अब फिर से प्रारंभ करने की बात हो रही है। इस आन्दोलन में संघ की क्या भूमिका होने वाली है।

उत्तर : – राम मंदिर पर कई आयोग बैठाए गये हैं। कई जांच समितियां भी बैठाई गयी है। हर एक आयोग और जांच समितियों में बाबारी मस्जिद और इस्लाम के जानकारों को रखा गया है। मेरा मानना है कि जांच समितियों की आख्या और उसके द्वारा खीचे गये फोटो का एक विडियो रिकार्डिंग तैयार कर देश की जनता को दिखाया जाना चाहिए। इसके बाद जनता पर फैसला छोड देनी चाहिए। जनता जो चाहे वह उसके विवेक पर छोड देनी चाहिए। जहां तक राम मंदिर आन्दोलन का सवाल है तो वह आज से नहीं जब बाबर ने मंदिर को तोड कर मस्जिद बनवाया तभी से वहां संघर्ष चल रहा है और वह संघर्ष कभी रूका नहीं। ऐसा कहा जाये कि संघर्ष प्रतिदिन चला तो इसमें भी कोई अतिशोक्ति नहीं होगी। राम मंदिर का संघर्ष पूरा हिन्दु समाज कर रहा है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहयोगी की भूमिका में है। आन्दोलन को चलाने में हमारा काम एक प्रेरक का है। संघ का काम आन्दोलन का नेतृत्व नहीं सहयोग करना है। संगठन सदा से सहयोगी की भूमिका में रहा है और आगे भी उसी भूमिका में रहेगा। संघ रामलला का मंदिर जन्मस्थान पर ही देखना चाहता है।

प्रश्‍न : – गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी लगातार सन 2002 के दंगे के कारण बदनाम हो रहे हैं। विगत दिनों उनको दंगे पर बनाई गयी राघवन के नेतृत्व वाली जांच समिति ने समिति के सामने उपस्थित होकर अपना पक्ष रखने के लिए एक आदेश जारी किया है। ऐसे में मोदी के प्रति संघ का रूख क्या होगा?

उत्तर : – इस देश में कांग्रेस शासन काल में कई दंगे हुए। बिहार में भागलपुर का दंगा हुआ, जम्मू-कश्मीर में पंडितों को तो खदेर ही दिया गया। श्रीमती गांधी की हत्या के बाद देशभर में एक संप्रदाय विशेष के लोगों की चुन-चुन कर हत्या की गयी। सिख विरोधी दंगे पर अपनी प्रतिक्रिया में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई बडा पेड गिरता है तो अगल बगल के छोटे वृक्ष उसमें दब जाते हैं। इस घटना को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। एक दो नहीं ऐसे कई उदाहरण है जिसे गिनाया जा सकता है। सिखों के खिलाफ भडके दंगे पर अभी तक सात जांच आयोगों का गठन किया जा चुका है लेकिन सजा किसी को नहीं हुई। गोधरा कांड के बाद गुजरात के अंदर दंगा भडका जिससे दोनों सम्प्रदायों के लोगों को परेशानी हुई। ऐसे में एक व्यक्ति को आरोपित करना किसी कीमत पर सही नहीं है। सन 2002 के दंगे में मारे गये लोगों के परिजनों के प्रति हमारी संवेदना है लेकिन उस दंगा को जितना जल्दी सम्हाल लिया गया ऐसा उदाहरण बहुत कम मिलता है। उत्तर प्रदेश का बरेला जिला विगत 15 दिनों से जल रहा है लेकिन वहां की सुधि लेने वाला न तो कोई सेकुलर नेता है और न ही कोई सामाचार माध्यम, तो फिर नरेन्द्र भाई को ही दोष देना राजनीति नहीं तो और क्या है?

प्रश्‍न : – हिमालय पर आपका ज्यादा ध्यान रहता है, क्या लगता है चीन के सामने भारत की तैयारी संतोषजनक है?

उत्तर : – भारत की तैयारी तो फिसिड्डी है। पाकिस्तान और चीन दोनों भारत के खिलाफ मोर्चेबंदी कर रहा है और भारत संयुक्त राज्य अमेरिका के भरोसे है। हमारी तैयारी बिल्कुल नगण्य है। जगजाहिर है कि चीन आने वाले समय में हमारे खिलाफ एक बार लडाई का मोर्चा खोलेगा जिसकी तैयारी हमारे पास में नहीं के बाराबर है। ऐसे में सरकार को सतर्क होना चाहिए। नेपाल में जिस प्रकार चीनी हस्तक्षेप बढ रहा है उसमें नेपाल पर भी भारत की नीति स्पष्ट होनी चाहिए। अरूणंचल तथा जम्मु कश्मीन में चीन कूटनीतिक हस्तक्षेप कर रहा है भारत को भी अपनी कूटनीतिक चाल चलनी चाहिए। देखिए हमारा संगठन न केवल समस्या गिनाता है हमने उसके लिए काम भी किया है। सीमा पर गैर कानूनी काम को राकने के लिए सीमा जागरण मंच का गठन किया गया है। हिमालय परिवार के माध्यम से हिमालय की सभ्यता को बचाने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है। हम प्रत्येक वर्ष ऐसे कई कार्यक्रम करते हैं जिससे देश की एकता और अखंडता को बल मिलता है। आज देश के नीति नियंता समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता पर तो ध्यान दे रहे हैं लेकिन उनके सामने राष्ट्रवाद गौन हो गया है, जो देश हित में नहीं है। हमारे पास अपने दुश्मनों से निपटने के लिए भगवान ने छ अवसर दिये लेकिन हमने उसे गवा दिया। उन अवसरों का उपयोग किया होता तो आज हम असुरक्षित नहीं होते।

प्रश्न : – संघ पर लगातार साम्प्रदायिक और आक्रामक होने का आरोप लगता है। इसपर आपका क्या कहना है?

उत्तर : – पूज्य महात्मा गांधी जी को अहिंसा और सत्याग्रह का प्रणेता माना जाता है, लेकिन दुनिया में मात्र एक व्यक्ति हुआ जिसने सत्याग्रह को अहिंसात्मक तरीके से लडा, उसका नाम है पूज्य माधव राव सदाशिव गोलवलकर। जब संघ पर पहली बार प्रतिबंध लगा तो उन्होंने सत्याग्रह का आह्वान किया। इस आन्दोलन में गाली जैसे हिंसा का भी कहीं उल्लेख नहीं है लेकिन जिस पूज्य बापू को इसके प्रणेता के रूप में माना जाता है उन्होंने आजादी की लडाई के दौरान कई बार सत्याग्रह का आह्वान किया और फिर उसे वापस ले लिया। उनका सत्याग्रह कभी सफल नहीं हुआ लेकिन पूज्य गोलवलकर का सत्याग्रह सफल रहा। ऐसे में संघ को आप कैसे आक्रामक कह सकते हैं। जहां तक साम्प्रदायिकता का सवाल है तो उसमें भी संघ को बदनाम ही किया जाता है तथ्य कुछ भी नहीं है। बदनाम करने के लिए संघ को विभिन्न चरमपंथी संगठनों के साथ जोडा जाता है लेकिन संघ चरमपंथ में विश्वास नहीं करता है। हमारा मानना है कि हर समस्या का समाधान संवाद से संभव है। हम लोकतंत्र में विश्वास करने वाले संगठनों में से हैं। जब दुर्भिक्ष आता है तो हमारे कार्यकर्ता यह नहीं देखते कि कौन हिन्दु है या कौन मुस्लमान है। ईसाई मिसनरियों को तो अपने मीशन का स्वार्थ भी होता है लेकिन हमारे कार्यकर्ता निःस्वार्थ भाव से सेवा का काम करते हैं जिसका उदाहरण भरा पडा हुआ है।

प्रश्न : – आगे की क्या कार्ययोजना है?

उत्तर : – संघ ने बहुत काम सौंप रखा है, देश की सेवा करते करते जीवन का निर्वाह करना यही एक मात्र ध्‍येय है।

हार्मोन वाले दूध का विरोध?

दूध बढाने वाले बोवीन ग्रोथ हार्मोन गउओं को देने पर ऑस्‍ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा जापान में प्रतिबन्ध लगा हुआ है। यूरोपियन यूनियन में इस दूध की बिक्री नहीं हो सकती। कैनेडा में इस दूध को शुरू करने का दबाव संयुक्त राष्‍ट्र की ओर से है।

संयुक्त राज्य और इंग्लैण्ड के कई वैज्ञानिकों ने 1988 में ही इस हार्मोन वाले दूध के खतरों की चेतावनी देनी शुरू कर दी थी। आम गाय के दूध से 10 गुणा अध्कि ‘आईजीएफ-1’ हार्मोन इन्जैक्शन से प्राप्त किये दूध में पाया गया। एक और तथ्य सामने आया कि दूध में पाए जाने वाले प्राकृतिक ‘आईजीएफ-1’ से सिन्थैटिक ‘आईजीएफ-1’ कहीं अधिक शक्तिशाली है।

‘मोनसैण्टो’ आरबीजीएच दूध का सबसे बड़ा उत्पादक होने के नाते इन वैज्ञानिकों का प्रबल विरोध करने लगा। मोनसेण्टो कम्पनी के विशेषज्ञों के लेख 1990 में छापा कि यह दूध पूरी तरह सुरक्षित है और हानिरहित है। यह झूठ भी कहा गया कि मां के दूध से अधिक ‘आइजीएफ-1’ उनके दूध में नहीं हैं। एक और बड़ा झूठ बोला गया कि हमारे पाचक रस या एन्जाईम आईजीएफ-1 को पूरी तरह पचाकर समाप्त कर देते हैं जिससे शरीर तंत्रा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

1990 में एफडीए के शोधकर्ताओं ने बताया कि आईजीएफ-1 पाश्चुराईजेशन से नष्ट नहीं होता बल्कि और शक्तिशाली हो जाता है। उन्होंने यह भी स्थापित किया कि अनपची प्रोटीन आंतों के आवरण को भेदकर शरीरतंत्रज्ञ में प्रविष्ट हो जाती है। खोज की महत्वपूर्ण जानकारी यह थी कि आईजीएफ-1 आंतों से रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है। चूहों पर हुए प्रयोगों में उनकी तेज वृद्वि होती पाई गई। पर मौनसण्टो में इन खोजों को खारिज कर दिया।

मार्च 1991 में शोध्कर्ताओं ने भूल स्वीकार की नेशनल इंस्टीच्श्ूट ऑफ हैल्थ में कि आरबीजीएच वाले दूध के आईजीएफ-1 के प्रभाव का मनुष्यों पर अध्ययन अभी तक किया नहीं गया। वे नहीं जानते कि मनुष्यों की आंतों, अमाशय या आईसोफेगस पर इसका क्या प्रभाव होता है। महत्वपूर्ण समस्या यह जानना था कि ‘आईजीएफ-1’ वाला दूध पच जाता है, इसके एमीनोएसिड टूटते हैं या यह आन्तों से होकर जैसे का तैसा रक्त प्रवाह में पहुंच जाता है।

आगामी खोजों से सिद्व हो गया कि आंतों द्वारा अनपचा यह प्रोटीन रक्त प्रवाह में पहुंचकर कई प्रकार के कैंसर पैदा करने का कारण बनता है।

शरीर के कोषों और लीवर में पैदा होने वाला यह महत्वपूर्ण हार्मोन इन्सूलिन के समान है जो शरीर की वृद्वि का कार्य करता है। यह एक ऐसा पॉलीपीटाईड है जिसमें 70 एमीनो एसिड संयुक्त हैं। सभी स्तनधारी एक जैसा ‘बोवीन आईजीएफ-1’ हार्मोन अपने भीतर पैदा करते हैं।

हमारे शरीर में आईजीएफ-1 के निर्माण और नियन्त्राण का कार्य शरीर वृद्विे करने वाले हार्मोन द्वारा होता है। वृद्वि हार्मोन सबसे अधिक सक्र्यि तरुणावस्था में होता है, जबकि शरीर तेजी से यौवन की ओर बढ़ रहा होता है। उन्हीं दिनों शरीर के सारे अंग यौवनांगों सहित बढ़ते और विकसित होते हैं।

आयु बढ़ने के साथ-साथ इस वृद्वि हार्मोन की कियाशीलता घट जाती है। खास बात यह है कि आईजीएफ-1 आज तक के ज्ञात हार्मोनों में सबसे शक्तिशाली वृद्वि ;ळतवजीध्द हार्मोन है।

यह हार्मोन शरीर के स्वस्थ तथा कैंसर वाले, दोनों कोषों को बढ़ाने का काम करता है। सन् 1990 में ‘स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय’ द्वारा जारी रपट में बतलाया गया है कि ‘आईजीएफ-1’ प्रोस्टेट के कोषों को बढ़ाता है, उनकी वृद्वि करता है। अगली खोज में यह भी बतलाया गया कि यह स्तन कैंसर की बढ़त को तेज कर देता है।

सन् 1995 में ‘नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ हैल्थ’ द्वारा जारी रपट में जानकारी दी गई कि बचपन में होने वाले अनेक प्रकार के कैंसर विकसित करने में इस हार्मोन आईजीएफ-1 की प्रमुख भूमिका है। इतना ही नहीं, स्तन कैंसर, छोटे कोषों वाले फेफड़ों का कैंसर, मैलानोमा, पैंक्रिया तथा प्रोस्टेट कैंसर भी इससे होते हैं।

सन् 1997 में एक अन्तर्राट्रीय अध्ययन दल ने भी प्रमाण एकत्रित करके बताया है कि प्रोस्टेट कैंसर और इस हार्मोन में संबंध् पाया गया है। कोलन कैंसर तथा स्तन कैंसर होने के अनेकों प्रमाण शोध्कर्ताओं को मिले हैं। 23जनवरी 1998 में हारवर्ड के शोधकर्ताओं ने एक बार फिर नया शोध जारी किया कि रक्त में ‘आईजीएफ-1’ बढ़ने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। प्रोस्टेट कैंसर के ज्ञात सभी कारणों में सबसे बड़ा कारण आईजीएफ-1 है। जिनके रक्त में 300 से 500 नैनोग्राम/मिली आईजीएफ-1 था उनमें प्रोस्टेट कैंसर का खतरा चार गुणा अध्कि पाया गया। जिनमें यह हार्मोन स्तर 100 से 185 के बीच था, उनमें प्रोस्टेट कैंसर की सम्भावनांए कम पाई गई।

अध्ययन से यह महत्वपूर्ण तथ्य भी सामने आया है कि 60 साल आयु के वृद्वों में आईजीएफ-1 अध्कि होने पर प्रोस्टेट कैंसर का खतरा 8 गुणा बढ़ जाता है।

आईजीएफ-1 और कैंसर का सीध संबंध् होने पर अब कोई विवाद नहीं है। महत्व का प्रश्न यह है कि रक्त में इस हार्मोन की अधिकता या कमी क्यों और कैसे होती हैं? यह अनुवांशिक है या आहार से इसकी मात्रा कम, अधिक होती है?

इल्लीनोयस विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक ‘डा. सैम्युल एपस्टीन’ ने इस पर खोज की है। सन् 1996 मे इण्टरनैशनल जनरल ऑफ हैल्थ में छपे उनके लेख के अनुसार गउओं को ‘सिन्थैटिक बोबिन ग्रोथ हार्मोन’ के इंजेक्शन लगाकर प्राप्त किये दूध में ‘आईजीएफ-1’ अत्यध्कि मात्रा में होता है। दूध बढ़ाने वाले बोविन ग्रोथ हार्मोन (rBGH) के कारण आईजीएफ-1 की मात्रा दूध में बढ़ती है तथा उस दूध का प्रयोग करने वालों में आतों और छाती के कैंसर की संभावनाएं बढ़ जाती है।

डीएनए में परिवर्तन करके जैनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन का निर्माण 1980 में दूध बढ़ाने के लिये किया गया था। लघु दुग्ध उद्योग के सौजन्य से हुए प्रयोगों में बताया गया था कि हर दो सप्ताह में एक बार यह इंजेक्शन लगाने से दूध बढ़ जाता है। 1985 में एफडीए (फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्टेशन) ने संयुक्त राज्य में आरबीजीएच (rBGH or BST) वाले दूध को बेचने की अनुमति दे दी। बाद में सन् 1993 में वैटरनरी वैज्ञानिकों के प्रयोगों के बाद इस हार्मोन से गउओं में दुग्ध उत्पाद बढ़ाने और उसकी बिक्री को और बढ़ावा दिया गया।

एक अजीब आदेश एफडीए ने निकाला जिसके अनुसार बोविन और बिना बोविन वाले दूध का लेबल दूध पर लगाना वर्जित कर दिया गया। उपभोक्ता के इस अधिकार को ही समाप्त कर दिया कि वह हार्मोन या बिना हार्मोन वाले दूध में से एक को चुन सके। ‘एफ डीए’ किसके हित में काम करता है? अमेरीका की जनता के या कम्पनियों के? बेचारे अमेरीकी!

-डा. राजेश कपूर

झाबुआ पावर की जनसुनवाई पर भी लगे प्रश्नचिन्ह

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देश की मशहूर थापर ग्रुप ऑफ कम्पनीज के प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर के करीब डाले जाने वाले 600 मेगावाट के पावर प्लांट की शुरूआती सरकारी कार्यवाही में हुई गफलत एक के बाद एक उभरकर सामने आती जा रहीं हैं। पिछले साल पावर प्लांट के लिए आदिवासी बाहुल्य घंसौर में हुई जनसुनवाई के दौरान ही अनेक अनियमितताएं प्रकाश में आई थीं, किन्तु रसूखदार कम्पनी की उंची पहुंच और लक्ष्मी माता की कृपा से जनसुनवाई तो निर्विघ्‍न हो गई किन्तु ग्रामीणों में रोष और असंतोष बना हुआ है।

पर्यावरण मंत्रालय के सूत्रों का दावा है कि इसके लिए निर्धारित प्रक्रिया में क्षेत्रीय पर्यावरण के प्रभावों का अवलोकन कर इसका प्रतिवेदन एक माह तक परियोजना स्थल के अध्ययन क्षेत्र और दस किलोमीटर त्रिज्या वाले क्षेत्र की समस्त ग्राम पंचायतों के पास अवलोकन हेतु होना चाहिए। जब यह प्रतिवेदन ग्राम पंचायत को उपलब्ध हो जाए उसके उपरांत गांव गांव में डोंडी पिटवाकर आम जनता को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। इसके साथ ही साथ पर्यावरण विभाग की वेव साईट पर इसे डाला जाना चाहिए।

मजे की बात यह है कि पर्यावरण विभाग की मिली भगत के चलते 22 अगस्त को होने वाली जनसुनवाई का प्रतिवेदन 5 दिन पूर्व अर्थात 17 अगस्त 2009 को पर्यावरण विभाग की वेव साईट पर मुहैया करवाया गया। बताया जाता है कि जब जागरूक नागरिकों ने हस्ताक्षेप किया तब कहीं जाकर इसे वेव साईट पर डाला गया था। महज पांच दिनों में इस प्रतिवेदन के बारे में व्यापक प्रचार प्रसार नहीं हो सका, जिससे इसमें व्याप्त विसंगतियों के बारे में कोई भी गहराई से अध्ययन नहीं कर सका।

इस पूरे खेल में सरकारी महकमे के साथ मिलकर मशहूर थापर ग्रुप ऑफ कम्पनीज के प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा आदिवासी बाहुल्य घंसौर के ग्राम बरेला में डलने वाले 600 मेगावाट के पावर प्लांट हेतु ताना बाना बुना गया है। इस खेल में आदिवासियों के हितों पर कुठाराघात हो रहा है, और सिवनी जिले के आदिवासियों के हितों के कथित पोषक बनने का दावा करने वाले जनसेवक हाथ पर हाथ रखे तमाशा देख रहे हैं। जनसुनवाई के उपरांत न जाने कितने विधानसभा सत्र आहूत हो चुके हैं और न जाने कितने संसद सत्र ही, अपने निहित स्वार्थों के लिए प्रश्न पर प्रश्न दागने वाले जनसेवकों की इस मामले में अरूचि समझ से परे ही है।

-लिमटी खरे

पोलियो वैक्सीन से मौत!

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मध्य प्रदेश के दमोह जिले में खसरे की वैक्सीन से चार बच्चों की मौत की खबर दर्दनाक और अफसोसजनक ही है। इस मामले को स्थानीय स्तर के बजाए व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर ही देखा जाना चाहिए। एक तरफ सरकार द्वारा पोलियो मुक्त समाज का दावा किया जा रहा है, वहीं जीवन रक्षक वैक्सीन ही अगर जानलेवा बन जाए तो इसे क्या कहा जाएगा। वैसे भी पल्स पोलियो अभियान बहुत ज्यादा सफल नहीं कहा जा सकता है। अफवाहें तो यहां तक भी हैं कि पोलियो की दवा पीने वाले बच्चे योनावस्था में संतान उतपन्न करने में अक्षम होते हैं। सरकार के दावों और प्रयासों तथा चिकित्सकों के परामर्श के बाद भी समाज का बडा वर्ग इसके प्रति उत्साहित नजर नहीं आता है। इन परिस्थितियों में अगर वैक्सीन पीने से बच्चों की मौत की खबर फिजां में तैरेगी तो इसका प्रतिकूल असर पडना स्वाभाविक ही है।

आज देश में पोलियो का घातक रोग रूकने का नाम नहीं ले रहा है। वैसे पिछले कुछ सालों के आंकडे ठीक ठाक कहे जा सकते हैं, पर इन्हें संतोषजनक नहीं माना जा सकता है। सत्तर से अस्सी के दशक में तो हर साल दो से चार लाख बच्चे अर्थात देश में रोजाना पांच सौ से एक हजार बच्चे इस दानव का ग्रास बन जाते थे। आज यह संख्या प्रतिवर्ष चार सौ से कम ही कही जा सकती है। चिकित्सकों की राय में पोलियो के 1,2 और 3 विषाणु इसके संक्रमण के लिए जवाबदार माना गया है। इस विषाणु से संक्रमित बच्चों में महज एक फीसदी बच्चे ही लकवाग्रस्त होते हैं। सवाल यह नहीं है कि लकवाग्रस्त होने वाले बच्चों का प्रतिशत क्या है, सवाल तो यह है कि यह घातक विषाणु नष्ट हो रहा है, अथवा नहीं।

1988 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के आव्हान पर दुनिया भर के 192 देशों ने पोलियो उन्नमूलन का जिम्मा उठाया था। आज 22 साल बाद भी इस अभियान के जारी रहने का तात्पर्य यही है कि 22 सालों में भी इस विषाणु को समाप्त नहीं किया जा सका है। जाहिर है इसके लिए प्रभावी वैक्सीन की आज भी दरकार ही है। वैक्सीन से बच्चे के अंदर पोलियो के विषाणु पनपने की क्षमता समाप्त हो जाती है, किन्तु अगर एक भी बच्चा छूटा तो वैक्सीन धारित बच्चे के अंदर भी विषाणु पनपने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है।

भारत सहित पाकिस्तान, नाईजीरिया और अफगानिस्तान जैसे देशों को छोडकर अन्य सदस्य देशों ने 2005 में अपना निर्धारित लक्ष्य पूरा कर लिया था, किन्तु भारत जैसे देश में लाल फीताशाही के चलते यह अभियान परवान नहीं चढ सका। भारत टाईप 2 के विषाणु का सफाया कर चुका था, किन्तु उत्तर प्रदेश और बिहार से एक बार फिर पोलियो के विषाणुओं के अन्य सूबों में फैलने के मार्ग प्रशस्त हो गए। यहां तक कि बंगलादेश, सोमालिया, इंडोनेशिया, नेपाल, अंगोला आदि समीपवर्ती देशों में पोलियो का जो वायरस पाया गया वह उत्तर प्रदेश के रास्ते इन देशों में पहुंचा बताया गया है।

पिछले साल देश में पोलियो के 610 मामले प्रकाश में आए थे। इनमें सबसे अधिक 501 उत्तर प्रदेश, 50 बिहार, 16 हरियाणा, 13 उत्तरांचल, 7 पंजाब, 6, दिल्ली, 5 महाराष्ट्र के अलावा तीन तीन गुजरात और मध्य प्रदेश, असम में दो तथा चंडीगढ, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में एक एक मामला प्रकाश में आया था। देश की स्वास्थ्य एजेंसियां दावा करती आ रहीं थीं कि 2010 के आते ही देश पोलियो से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा। 2010 आ भी गया और पोलियो का साथ चोली दामन सा दिख रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की एक नोडल एजेंसी के प्रतिवेदन के अनुसार त्रिपुरा के एक जिले में तो 95 फीसदी तो देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में चालीस फीसदी बच्चे खुराक पीने का चक्र ही पूरा नहीं कर पा रहे हैं।

पोलियो के दानव के इस घातक रूप के बावजूद भी न तो केंद्र और न ही राज्यों की सरकरों की नींद टूटी है। मध्य प्रदेश के दमोह जिले में खसरे की वैक्सीन से चार बच्चों की मौत के बाद अब लोगों का वैक्सीन पर से भरोसा उठना स्वाभाविक ही है। दरअसल दमोह जिले में पिछले साल खसरे से अनेक बच्चों की मौत हुई थी, इसीलिए इस साल सावधानीवश बच्चों को खसरे की वैक्सीन देने का काम व्यापक स्तर पर किया गया। सभी अपने आंखों के तारों को खसरे से बचाने के लिए वैक्सीन पिलवाने गए। इनमें से कुछ बच्चों की तबियत बिगडी और उनमें डायरिया के लक्षण दिखने लगे। बताते हैं कि यह सब एक ही केंद्र पर हुआ। इसके बाद बच्चों को अस्पताल में दाखिल कराया गया। इनमें से तीन की उसी रात तो एक की अगली सुबह मृत्यु हो गई।

इसके बाद जिम्मेदारी हस्तांतरण और थोपने का अनवरत सिलसिला जारी है। मध्य प्रदेश सरकार का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह इस मामले की गहराई से छानबीन कर जिम्मेदारी किसकी थी, इसका पता करे। अब तक का इतिहास साक्षी है कि जब भी कोई जांच की या करवाई जाती है, तो उसमें लीपा पोती कर दी जाती है। यह मामला आम आदमी से जुडा हुआ है। इसमें गांव के निरक्षर ग्रामीण का विश्वास डिग सकता है। केंद्र और राज्य सरकारें कहने को तो आम आदमी के स्वास्थ्य के लिए बहुत ही ज्यादा संजीदा होने का स्वांग रचती हैं, पर इस मामले में उन्हें पूरी ईमानदारी से संजीदगी दिखानी ही होगी, वरना गांव के आम आदमी का आने वाले दिनों में महात्वाकांक्षी सरकारी स्वास्थ्य योजनओं पर से विश्वास उठ जाएगा और वह सरकारी अस्पताल या चिकित्सक के पास जाने के बजाए एक बार फिर नीम हकीमों के हत्थे ही चढ जाएगा।

-लिमटी खरे

अरुण यह मधुमय देश हमारा

नव रात्र हवन के झोके, सुरभित करते जनमन को।

है शक्तिपूत भारत, अब कुचलो आतंकी फन को॥

नव सम्वत् पर संस्कृति का, सादर वन्दन करते हैं।

हो अमित ख्याति भारत की, हम अभिनन्दन करते हैं॥

इस सृष्टि की सर्वाधिक उत्कृष्ठ काल गणना का श्री गणेश भारतीय ऋषियों ने अति प्राचीन काल से ही कर दिया था। तद्नुसार हमारे सौरमण्डल की आयु चार अरब 32 करोड वर्ष हैं। आधुनिक विज्ञान भी, कार्बन डेटिंग और हॉफ लाइफ पीरियड की सहायता से इसे चार अरब वर्ष पुराना मान रहा है। यही नहीं हमारी इस पृथ्वी की आयु भी, कल 15 मार्च को, एक अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार एक सौ 10 वर्ष पूरी हो गयी। इतना ही नहीं, श्री मद्भागवद पुराण, श्री मारकडेय पुराण और ब्रह्यम पुराण के अनुसार अभिशेत् बाराह कल्प चल रहा है और एक कल्प में एक हजार चतुरयुग होते है। इस खगोल शास्त्रीय गणना के अनुसार हमारी पृथ्वी 14 मनवन्तरो में से सातवें वैवस्वत मनवन्तर की 28 वें चतुरयुगी के अन्तिम चरण कलयुग भी। आज 51 सौ 11 वर्ष में प्रवेश कर लिया।

जिस दिन सृष्टि का प्रारम्भ हुआ वो आज ही का पवित्र दिन है। इसी कारण मदुराई के परम पावन शक्तिपीठ मीनाक्षी देवी के मन्दिर में चैत्रा पर्व की परम्परा बन गयी।

भारतीय महीनों के नाम जिस महीने की पूर्णिया जिस नक्षत्र में पड़ती है उसी के नाम पर पड़ा। जैसे इस महीने की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र में हैं इस लिए इसे चैत्र महीनें का नाम हुआ। श्री मद्भागवत के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर ये उसी समय से कलियुग का प्रारम्भ हुआ, महाभारत और भागवत के इस खगोलिय गणना को आधार मान कर विश्वविख्यात डॉ. वेली ने यह निष्कर्ष दिया है कि कलयुग का प्रारम्भ 3102 बी.सी. की रात दो बजकर 20 मिनट 30 सेकण्ड पर हुआ था। डॉ. बेली महोदय, स्वयं आश्चर्य चकित है कि अत्यंत प्रागैतिहासिक काल में भी भारतीय ऋणियों ने इतनी सूक्ष्तम् और सटिक गणना कैसे कर ली। क्रान्ती वृन्त पर 12 हो महीने की सीमायें तय करने के लिए आकाश में 30-30 अंश के 12 भाग किये गये और नाम भी तारा मण्डलों के आकृतियों के आधार पर रखे गये। जो मेष, वृष, मिथून इत्यादित 12 राशियां बनी।

चूंकि सूर्य क्रान्ति मण्डल के ठी केन्द्र में नहीं हैं, अत: कोणों के निकट धरती सूर्य की प्रदक्षिणा 28 दिन में कर लेती है और जब अधिक भाग वाले पक्ष में 32 दिन लगता है। प्रति तीन वर्ष में एक मास अधिक मास कहलाता है संयोग से यह अधिक मास अगले महीने ही प्रारम्भ हो रहा है।

भारतीय काल गणना इतनी वैज्ञानिक व्यवस्था है कि सदियों-सदियों तक एक पल का भी अन्तर नहीं पड़ता जब कि पश्चिमी काल गणना में वर्ष के 365.2422 दिन को 30 और 31 के हिसाब से 12 महीनों में विभक्त करते है। इस प्रकार प्रतयेक चार वर्ष में फरवरी महीनें को लीपइयर घोषित कर देते है फिर भी। नौ मिनट 11 सेकण्ड का समय बच जाता है तो प्रत्येक चार सौ वर्षो में भी एक दिन बढ़ाना पड़ता है तब भी पूर्णाकन नहीं हो पाता है। अभी 10 साल पहले ही पेरिस के अन्तरराष्ट्रीय परमाणु घड़ी को एक सेकण्ड स्लो कर दिया गया फिर भी 22 सेकण्ड का समय अधिक चल रहा है। यह पेरिस की वही प्रयोगशाला है जहां की सी जी एस सिस्टम से संसार भर के सारे मानक तय किये जाते हैं। रोमन कैलेण्डर में तो पहले 10 ही महीने होते थे। किंगनुमापाजुलियस ने 355 दिनों का ही वर्ष माना था। जिसे में जुलियस सीजर ने 365 दिन घोषित कर दिया और उसी के नाम पर एक महीना जुलाई बनाया गया उसके 1 ) सौ साल बाद किंग अगस्ट्स के नाम पर एक और महीना अगस्ट भी बढ़ाया गया चूंकि ये दोनो राजा थे इस लिए इनके नाम वाले महीनों के दिन 31 ही रखे गये। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह कितनी हास्यास्पद बात है कि लगातार दो महीने के दिन समान है जबकि अन्य महीनों में ऐसा नहीं है। यदि नहीं जिसे हम अंग्रेजी कैलेण्डर का नौवा महीना सितम्बर कहते है, दसवा महीना अक्टूबर कहते है, इग्यारहवा महीना नवम्बर और बारहवा महीना दिसम्बर कहते है। इनके शब्दों के अर्थ भी लैटिन भाषा में 7,8,9 और 10 होते है। भाषा विज्ञानियों के अनुसार भारतीय काल गणना पूरे विश्व में व्याप्त थी और सचमूच सितम्बर का अर्थ सप्ताम्बर था, आकाश का सातवा भाग, उसी प्रकार अक्टूबर अष्टाम्बर, नवम्बर तो नवमअम्बर और दिसम्बर दशाम्बर है।

सन् 1608 में एक संवैधानिक परिवर्तन द्वारा एक जनवरी को नव वर्ष घोषित किया गया। जेनदअवेस्ता के अनुसार धरती की आयु 12 हजार वर्ष है। जबकि बाइविल केवल 2) हजार वर्ष पुराना मानता है। चीनी कैलेण्डर 1 ) करोड़ वर्ष पुराना मानता है। जबकि खताईमत के अनुसार इस धरती की आयु 8 करोड़ 88 लाख 40 हजार तीन सौ 11 वर्षो की है। चालडियन कैलेण्डर धरती को दो करोड़ 15 लाख वर्ष पुराना मानता है। फीनीसयन इसे मात्र 30 हजार वर्ष की बताते है। सीसरो के अनुसार यह 4 लाख 80 हजार वर्ष पुरानी है। सूर्य सिध्दान्त और सिध्दान्त शिरोमाणि आदि ग्रन्थों में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा रविवार का दिन ही सृष्टि का प्रथम दिन माना गया है।

संस्कृत के होरा शब्द से ही, अंग्रेजी का आवर (Hour) शब्द बना है। इस प्रकार यह सिद्ध हो रहा है कि वर्ष प्रतिपदा ही नव वर्ष का प्रथम दिन है। एक जनवरी को नव वर्ष मनाने वाले दोहरी भूल के शिकार होते है क्योंकि भारत में जब 31 दिसम्बर की रात को 12 बजता है तो ब्रीटेन में सायं काल होता है, जो कि नव वर्ष की पहली सुबह हो ही नहीं सकता। और जब उनका एक जनवरी का सूर्योदय होता है, तो यहां के Happy New Year वालों का नशा उतर चुका रहता है। सन सनाती हुई ठण्डी हवायें कितना भी सूरा डालने पर शरीर को गरम नहीं कर पाती है। ऐसे में सवेरे सवेरे नहा धोकर भगवान सूर्य की पूजा करना तो अत्यन्त दुस्कर रहता है। वही पर भारतीय नव वर्ष में वातावरण अत्यन्त मनोहारी रहता है। केवल मनुष्य ही नहीं अपितु जड़ चेतना नर-नाग यक्ष रक्ष किन्नर-गन्धर्व, पशु-पक्षी लता, पादप, नदी नद, देवी देव व्‍यष्टि से समष्टि तक सब प्रसन्न हो कर उस परम् शक्ति के स्वागत में सन्नध रहते है।

दिवस सुनहली रात रूपहली उषा साझ की लाली छन छन कर पत्तों में बनती हुई चांदनी जाली। शीतल मन्द सुगन्ध पवन वातावरण में हवन की सुरभि कर देते है। ऐसे ही शुभ वातावरण में जब मध्य दिवस अतिशित न धामा की स्थिति बनती है तो अखिल लोकनायक श्री राम का अवतार होता है। आइये इस शुभ अवसर पर हम भारत को पुन: जगतगुरू के पद पर आसीन करने में कृत संकल्प हो।

अरूण यह मधुमय देश हमारा

जहां पहुंच अनजान क्षितिज को

मिलता एक सहारा

अरूण यह मधुमय देश हमारा॥

-सौरभ मालवीय

नकारात्मक राजनीति का प्रतीक बनती मायावती

mदेश की संसद व विधानसभाओं में महिलाओं की 33 प्रतिशत् भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु भारतीय राजनीति में इन दिनों जबरदस्त खींचतान चल रही है। नि:संदेह भरतीय महिलाओं में इस ख़बर को लेकर कांफी उत्साह देखा जा रहा है कि संभवत: भविष्य में देश की संसद व विधानसभाएं 33 प्रतिशत महिलाओं से सुशोभित होंगी। परंतु जब बिना महिला आरक्षण के ही राजनीति में अपना अहम स्थान बना चुकी बहन मायावती के राजनैतिक तौर-तरीकों पर नजर डालते हैं तब हमें यह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि यदि ख़ुदा न ख्वासता देश की सभी 33 प्रतिशत् महिला नेत्रियां मायावती को ही अपना आदर्श मानने लगीं तो ऐसे में देश की जनता की उस सोच तथा भावनाओं का क्या होगा जिसके तहत तथा जिसे मद्देनज़र रखकर महिलाओं को संसद तथा विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की बात की जा रही है।

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक काशीराम ने संभवत: बड़ी दूरदृष्टि के साथ भारतीय समाज के समक्ष एक जातिगत् समीकरण पेश करते हुए देश के मतदाताओं को यह बताने की पुरजोर कोशिश की थी कि देश के 85 प्रतिशत मतदाताओं के बलबूते पर शेष 15 प्रतिशत लोग अर्थात् कथित उच्च जाति के लोग राज करते हैं। 15 प्रतिशत का अर्थ ठाकुर, पंडित और बनिया समाज था। इस जातिवादी समीकरण ने आज बहुजन समाज पार्टी को निश्चित रूप से देश की एक ऐसी राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया है जोकि आज देश के सबसे बड़े राय उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार चला रही है। काशीराम तो आज इस दुनिया में नहीं रहे। परंतु उनकी राजनैतिक उत्तराधिकारी के रूप में मायावती कथित रूप से उसी मिशन को अपने अनोखे अंदाज के साथ आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं। जहां काशीराम ने बहुजन समाज पार्टी को एक जातिगत समीकरण पर आधारित राजनैतिक दल के रूप में स्थापित करने की कोशिश की थी वहीं बार-बार विवादों में घिरती जा रही मायावती ने तो गोया नकारात्मक राजनीति करने का पूरा जिम्मा ही अपने सिर उठा लिया है।

हालांकि मायावती भी बातें तो दलित सम्मान की ही करती हैं परंतु रचनात्मक रूप में वे दलित सम्मान के बजाए ‘माया’ सम्मान की ओर अधिक आकर्षित होती दिखाई देती हैं। मायावती की विवादपूर्ण राजनीति की शुरुआत तो दरअसल काशीराम की मृत्यु से पहले ही उसी समय शुरु हो गई थी जबकि काशीराम के परिवार वालों ने मायावती पर काशीराम का अपहरण कर उन्हें अपने परिवार वालों से अलग व गुप्त रखने का आरोप लगाया था। काशीराम के परिजनों का आरोप है कि मायावती स्वयंभू रूप से काशीराम की राजनैतिक वारिस बन बैठी हैं। इस संबंध में और भी कई आरोप काशी राम के परिवार वालों द्वारा मायावती पर लगाए जा चुके हैं। परंतु मायावती इन सब आरोपों की परवाह किए बिना ‘मस्त हाथी’ की तरह अपने विशेष अंदाज में राजनीति किए जा रही हैं। वह बख़ूबी जानती हैं कि कब उन्हें उच्च जाति के लोगों को गालियां देनी हैं और कब उन्हें पुचकारना और गले लगाना है। राजनीति में ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं है जो पिछलग्गू नेता की तरह मायावती की हां में हां सिंर्फ इसलिए मिलाते हैं ताकि मायावती के दलित मंथन अथवा ‘ब्रह्मा,विष्णु, महेश’ के नए समीकरण से जो भी ‘अमृत की बूंद’ छलके उसका शायद कुछ हिस्सा इन पिछलग्गूओं को भी हासिल हो जाए।

मायावती स्वयं भी इस बात को बेहतर तरीके से समझती हैं तभी वह कभी स्वयं को ‘जिंदा देवी’ घोषित कर देती हैं तथा यह भी कह जाती हैं कि मंदिरों में देवी-देवताओं पर पैसे चढ़ाने के बजाए मुझ जैसी ‘जिंदा देवी’ पर पैसे चढ़ाओ। दलित सम्मान के लिए संघर्ष करना निश्चित रूप से बहुत ही सकारात्मक सोच है। परंतु बड़े अंफसोस की बात है कि मायावती के राज में आज भी उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ वही सब कुछ हो रहा है जो बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व में आने से पूर्व हुआ करता था। हां दलित सम्मान के नाम पर यदि कुछ हुआ है तो वह यह कि देश के इतिहास में पहली बार मायावती जैसी किसी नेत्री द्वारा अपने जीते जी अपनी आदम क़द पत्थर की मूर्तियां बनवाई गईं। अपनी पार्टी के चुनाव निशान, हाथी के सैकड़ों पत्थर के बुत विभिन्न पार्कों में स्थापित कराए गए। क्या इस प्रकार के खर्चीले पार्टी प्रतीक पार्कों में स्थापित करने मात्र से दलित समाज ऊंचा उठ सकेगा या यह पार्टी का प्रचार सरकारी धन से करने की एक साािश मात्र है? मायावती का ‘माया प्रेम’ भी काशीराम की मृत्यु के बाद कांफी चर्चा में है। बहुजन समाज पार्टी के लोकसभा व विधानसभाओं के कई बी एस पी के ईमानदार प्रत्याशी उन पर पैसा मांगने का आरोप लगाते हुए पार्टी तक छोड़ चुके हैं। कई नेताओं ने सार्वजनिक रूप से यह ख़ुलासा किया है कि बी एस पी में मायावती उन्हें टिकट देती है जो उन्हें मुंह मांगा पैसा देता है।

गत् कई वर्षों तक मायावती ने अपने जन्मदिन के बहाने पार्टीजनों से मोटी रंकम वसूलने का एक नियम सा बना रखा था। आरोप है कि उनके जन्मदिन के ऐसे ही एक अवसर पर धन उगाही के चलते बी एस पी के एक बाहुबली विधायक शेखर तिवारी द्वारा धन वसूलने के चक्कर में मनोज गुप्ता नामक एक ईमानदार इंजीनियर की हत्या तक कर दी गई। इस घटना के बाद मायावती की ओर से यह घोषणा की गई कि अब वह अपने जन्मदिन पर कोई उपहार स्वीकार नहीं करेंगी। परंतु मायावती का माया से दूर रहने का यह अस्थाई ‘संकल्प’ अधिक समय तक कायम न रह सका। आख़िरकार पार्टी की स्थापना के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर तथा पार्टी संस्थापक काशीराम के जन्मदिन के मौंके पर मुख्य अतिथि के रूप में बहन मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री होते हुए गत् 15 मार्च को एक-एक हज़ार के नोटों की जो विशाल एवं अभूतपूर्व माला अपने गले में डाली उसने तो देश की विवादपूर्ण एवं नकारात्मक राजनीति में अपना सबसे अलग झंडा गाड़ दिया।

जरा कल्पना कीजिए कि प्रदेश की एक मुख्यमंत्री जब अपने गले में करोड़ों की माला डालकर ‘माया’ के प्रति अपने मोह का इस प्रकार खुला प्रदर्शन करेगी तो आंखिर ऐसी मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों, सांसदों, विधायकों तथा अपने अधीनस्थ सरकारी अधिकारियों से क्या उम्मीद रखेगी। यह भी कितना आश्चर्यजनक है कि 15 मार्च को करोड़ों की विशाल माला डालने की घटना के बाद जब पूरे देश में यह माला विवादित हुई तथा आयकर विभाग भी 15 मार्च की शाम को ही इसकी जांच हेतु सक्रिय भी हो गया उसके बावजूद 17 मार्च को अपने सांसदों, मंत्रियों व विधायकों के मध्य मायावती ने एक बार फिर भारतीय मुद्रा अर्थात् नोटों से बनी एक और विशाल माला अपने गले में डालकर यह संदेश सांफतौर पर दे दिया कि उन्हें न किसी की आपत्ति की परवाह है न आलोचना का डर। राजनीति में नैतिकता व अनैतिकता के मापदंड क्या हैं यह न मीडिया तय करेगा न ही बी एस पी विरोधी राजनैतिक दल। बल्कि यह स्वयं मायावती तय करेंगी। जैसा कि उत्तर प्रदेश के माया मंत्रिमंडल के एक मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा भी की कि यदि बहन जी की आज्ञा होगी तो अब प्रत्येक समारोह में फूलों की नहीं बल्कि नोटों की माला से ही उनका स्वागत किया जाएगा।

मजे की बात तो यह है कि मायावती के इस प्रकार के ‘कृत्यों’ की जब कोई भी वर्ग आलोचना करता है उस समय मायावती के पास एक ही जवाब होता है कि अमुक आलोचक मनुवादी है,दलित विरोधी मानसिकता का शिकार है अथवा दलित की बेटी को आगे बढ़ते नहीं देख पा रहा है। मायावती का यह कथन सरासर बेमानी इसलिए होता है कि भारत में भले ही जाति व्यवस्था के कुछ प्राचीन अन्यायपूर्ण दिशा निर्देशों के चलते सामाजिक भेद-भाव क्यों न नजर आता हो। परंतु बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम,आर के नारायणन से लेकर मीरा कुमार, राम विलास पासवान जैसे अनेकों दलित नेताओं ने देश की राजनीति में जो मान्यता व स्थान प्राप्त किया है वह दलित विरोधी मानसिकता के चलते इस देश में संभव नहीं था। और तो और दलित मंथन की राजनीति तथा 85 प्रतिशत मतदाताओं का समीकरण तो बहन मायावती को भी उत्तर प्रदेश की सत्ता में पूर्ण बहुमत कभी नहीं दिला सका था। पिछले विधानसभा चुनावों में जब मायावती ने ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ का नारा देकर प्रदेश के ब्राह्मण समाज को अपने साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया तभी आज उन्हें पूर्ण बहुमत की पहली सरकार मिल सकी है। इन सभी वास्तविकताओं के बावजूद मायावती में अहंकारपूर्ण तथा ‘माया’ प्रेम जैसी अन्य कई नकारात्मक राजनीति के जो लक्षण दिखाई दे रहे हैं वह निश्चित रूप से आने वाले समय में मायावती को कांफी नुंकसान पहुंचा सकते हैं।

-निर्मल रानी

जैव विविधता पर टूटता कहर

धरती में पाई जाने वाली ”जैव विविधता” अनमोल सम्पदा है। इस सम्पदा के बारे में अधिकांश लोग परिचित नहीं हैं। जैव विविधता में प्रकृति का अनुपम सौंदर्य समाया हुआ है। वहीं जैव विविधता को संरक्षित कर हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाए हुए हैं। जैव विविधता का आर्थिक महत्व भी है, जो आज हो रहे जलवायु परिवर्तन, औद्योगिक विकास के कारण खत्म हो रही है।

जैव विविधता वर्ष 2010

जैविक विविधता से आशय जगत में विविध प्रकार के लोगों के साथ, इस जीव परिमंडल में भी भौगोलिक रचना के अनुसार अलग-अलग नैसर्गिक भूरचना, वर्षा, तापमान एवं जलवायु के कारण जैव विविधता, वनस्पति एवं प्राणी सृष्टि में प्राप्य है। मानवता के लिए अनिवार्य वर्ष 2010 को दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्वों को समर्पित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2010 को ”संस्कृतियों के पुनर्मिलन का वर्ष” एवं अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष घोषित किया है।

जैव विविधता धरती पर जीवन का उत्सव है। 2010 को जैव विविधता वर्ष के माध्यम से जीवन में जैव विविधता के महत्व को दर्शाना प्रमुख उद्देश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पृथ्वीवासियों से आव्हान किया है कि वे धरती के जीवन यानी जैव विविधता को बचाए रखने में एक दूसरे की मदद करें। चार्ल्स डारविन के सिध्दांत की 150वीं वर्षगांठ पर जैव विविधता वर्ष उन्हें समर्पित किया गया है। 188 देशों ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की है। आशा की गई है कि टिकाऊ विकास, जिसमें वनस्पति, पशु-पक्षी अपनी-अपनी भूमिका निभाते रहे, इसके प्रति अपनी सहमति दी है।

2010 को संस्कृतियों के पुनर्मिलन को विस्तार देते हुए कहा गया है कि स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव के मस्तिष्क में शांति की रक्षा हेतु शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति एवं संवाद के माध्यम से कार्य किए जाएं। संस्कृतियों की विविधता को बनाए रखते हुए संस्कृतियों के बीच सम्बन्धों की पुनर्स्थापना का प्रयत्न करने पर जोर दिया गया है। धरती की विभिन्न संस्कृति एक तरह से जैव विविधता की पोषक है।

विलुप्ति का खतरा

समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 7291 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

भारत की जैव विविधता

विश्व के बारह चिन्हित मेगा बायोडाइवर्सिटी केन्द्रों में से भारत एक है। विश्व के 18 चिन्हित बायोलाजिकल हाट स्पाट में से भारत में दो पूर्वी हिमालय और पश्चिमी घाट हैं। देश में 45 हजार से अधिक वानस्पतिक प्रजातियाँ अनुमानित हैं, जो समूची दुनियॉ की पादप प्रजातियों का 7 फीसदी हैं। इन्हें 15 हजार पुष्पीय पौधों सहित कई वर्गिकीय प्रभागों में बांटा जाता है। करीब 64 जिम्नोस्पर्म 2843 ब्रायोफाइट, 1012 टेरिडोफाइट, 1040 लाइकेन, 12480 एल्गी तथा 23 हजार फंजाई की प्रजातियाँ लोवर प्लांट के अंतर्गत् अनुमानित हैं। पुष्पीय पौधों की करीब 4900 प्रजातियाँ देश की स्थानिक हैं। करीब 1500 प्रजातियाँ विभिन्न स्तर के खतरों के कारण संकटापन्न हैं।

भारत खेती वाले पौधों के विश्व के 12 उद्भव केन्द्रों में से एक है। भारत में समृध्द जर्म प्लाज्म संसाधनों में खाद्यान्नों की 51 प्रजातियाँ, फलों की 104 प्रजातियाँ, मसालों की व कोन्डीमेंट्स की 27 प्रजातियाँ, दालों एवं सब्जियों की 55 प्रजातियाँ, तिलहनों की 12 प्रजातियाँ तथा चाय, काफी, तम्बाकू एवं गन्ने की विविध जंगली नस्लें शामिल हैं।

देश में प्राणी सम्पदा भी उतनी विविध है। विश्व की 6.4 प्रतिशत प्राणी सम्पदा का प्रतिनिधित्व करती भारतीय प्राणियों की 81 हजार प्रजातियाँ अनुमानित हैं। भारतीय प्राणी विविधता में 5000 से अधिक मोलास्क और 57 हजार इनसेक्ट के अतिरिक्त अन्य इनवार्टिब्रेट्स शामिल हैं। मछलियों की 2546, उभयचरों की 204, सरीसृपों की 428, चिड़ियों की 1228 एवं स्तनधारियों की 327 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारतीय प्राणी प्रजातियों में स्थानिकता या देशज प्रजातियों का प्रतिशत काफी अधिक है, जो लगभग 62 फीसदी है।

जैव विविधता की क्षति

भारत जैव विविधता के मामले में विश्व के समृध्दशाली देशों में से एक है। ऐसी नैसर्गिक सम्पदा पर धनी राष्ट्रों की नजर है। यही कारण है, इनकी तस्करी खुलेआम हो रही है। वनस्पतियाँ और जीव-जंतुओं को बड़े पैमाने पर चोरी-छिपे ले जाया जा रहा है। भारत में जैव विविधता को क्षति पहुँचाने उसे चोरी छिपे ले जाने के पर्याप्त कानून नहीं हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खाद्यान्नों को ले जाने की कोशिश में लगी हैं। वास्तविकता है कि जैव विविधता आमजन की नैसर्गिक सम्पदा है, जिसका अधिकार सरकारें किसी को नहीं दे सकती।

जैव विविधता जीवन की सहजता के लिए जरूरी है। प्रकृति का नियामक चक्र जैव विविधता की बदौलत दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। वनस्पति, खाद्यान्न, जीव-जंतुओं की अनुपस्थिति से कितना नुकसान हो सकता है। वैज्ञानिक भी इसका आंकलन नहीं कर सकते। धरती अगिनत, अमूल्य धरोहर संजोए हुए, जीवन को जीवन्त बनाए हुए हैं।

गीता का एक श्लोक है- ‘जीव जीवनस्य भोजनम।’ यह प्राकृतिक और जीवन क्रम के लिए जरूरी है। हवा, जल, मिट्टी जीवन के आधारभूत तत्व हैं। प्राकृतिक रूप से इनका सामंजस्य सतत् जीवन का द्योतक है। एक संक्षिप्त उध्दरण से देखें- मिट्टी से फसलें और कीट-पतंगे उन पर आश्रित हैं। शाकाहारी व मांसाहारी जीवों का भोजन यही है। मेढक और चूहे जिन पर आश्रित हैं साथ ही सांप, पक्षीगण आदि। इनको खाने वाले नेवले और मोर हैं। इन्हीं के बीच अनेक कीट, जीव व पशु-पक्षी हैं। इनका सम्बन्ध जितना जटिल होगा, जैव विविधता उतनी ही समृध्द होगी।

रेबीज और गिद्ध

पक्षियों की दृष्टि से भारत का स्थान दुनिया के दस प्रमुख देशों में आता है। भारतीय उप महाद्वीप में पक्षियों की 176 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। दुनिया भर में पाए जाने वाले 1235 प्रजातियों के पक्षी भारत में हैं, जो विश्व के पक्षियों का 14 प्रतिशत है। गंदगी साफ करने में कौआ और गिध्द प्रमुख हैं। गिध्द शहरों ही नहीं, जंगलों से खत्म हो गए। 99 प्रतिशत लोग नहीं जानते कि गिध्दों के न रहने से हमने क्या खोया।

1997 में रेबीज से पूरी दुनिया के 50 हजार लोग मर गए। भारत में सबसे ज्यादा 30 हजार मरे। आखिर क्यों मरे रेबीज से, एक प्रश्न उठा। स्टेनफोर्ट विश्व विद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि ऐसा गिद्धों की संख्या में अचानक कमी के कारण हुआ। वहीं दूसरी तरफ चूहों और कुत्तों की संख्या में एकाएक वृद्धि हुई। अध्ययन में बताया गया कि पक्षियों के खत्म होने से मृत पशुओं की सफाई, बीजों का प्रकीण्र् ान और परागण भी काफी हद तक प्रभावित हुआ। अमेरिका जैसा देश अपने यहाँ के चमगादड़ों को संरक्षित करने में जुटा पड़ा है। अब हम सोचते हैं कि चमगादड़ तो पूरी तरह बेकार हैं। मगर वैज्ञानिक जागरूक करा रहे हैं। चमगादड़ मच्छरों के लार्वा खाता है। यह रात्रिचर परागण करने वाला प्रमुख पक्षी है। उल्लू से क्या फायदा, मगर किसान जानते हैं कि वह खेती का मित्र है, जिसका मुख्य भोजन चूहा है।

भारतीय संस्कृति में पक्षियों के संरक्षण, संवर्धन की बात है। देवी-देवताओं के वाहन पक्षियों को बनाया गया है। उल्लू धन की देवी लक्ष्मी का वाहन है। उल्लू का भोजन चूहों का मंदिर माँ करणी माता मंदिर राजस्थान में है।

जैव विविधता बचाने प्रयास

जलवायु परिवर्तन, औद्योगिक विकास के साथ मानवीय गतिविधियों के चलते जैव विविधता का ह्रास हो रहा है। पेड़, पौधों, जीव-जंतुओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास चल रहे हैं। इन्हें बचाना मानवता को बचाना ही है। सन् 2000 में लंदन में अंतरराष्ट्रीय बीज बैंक की स्थापना की गई। बीज बैंक में अब तक 10 फीसदी जंगली पौधों के बीज संग्रहित हो चुके हैं। नार्वे में ‘स्वाल बार्ड ग्लोबल सीड वाल्ट’ की स्थापना की गई है, जिसमें विभिन्न फसलों के 11 लाख बीजों का संरक्षण किया जा रहा है।

द एलायंस फॉर जीरो एक्सटिंशन में पर्यावरण एवं वन्य जीवों के क्षेत्र के 13 जाने-माने संगठन हैं। इसके तहत किए गए अध्ययन में 395 ऐसे स्थानों का विवरण तैयार किया गया है, जहाँ कोई न कोई प्रजाति के विलुप्त होने का खतरा है। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में 800 से ज्यादा प्रजातियाँ सिर्फ एक ही स्थान पर पाई जाती हैं। अगर इन्हें संरक्षित नहीं किया गया तो कई विलुप्त हो जाएंगी।

धरती की जैव विविधता वसुधैव कुटुम्बकम, जिओ और जीने दो, जैसी लीक पर चलकर संरक्षित किया जा सकता है। प्रकृति, जीव-जंतु और मनुष्य के बीच सामंजस्य कायम रहेगा, तब तक विविधता रंग बने रहेंगे और मानव जीवन में बहारे आती रहेंगी।

-रविन्द्र गिन्नौरे

नक्सलवाद का कडवा सच!

हमारे देश में नक्सलवाद को राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री देश की सबसे बडी या आतंकवाद के समकक्ष समस्या बतला चुके हैं। अनेक लेखक भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नक्सलवाद के ऊपर खूब लिख रहे हैं। राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री का बयान लिखने वालों में से अधिकतर ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की वस्तुस्थिति जाकर देखना तो दूर, उन क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों तक का दौरा नहीं किया है। अपने आप को विद्वान कहने वाले और बडे-बडे समाचार-पत्रों में बिकने वाले अनेक लेखक भी नक्सलवाद पर लिखते हुए नक्सलवाद को इस देश का खतरनाक कोढ बतला रहे हैं।

कोई भी इस समस्या की असली तस्वीर पेश करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। या यह कहा जाये कि असल समस्या के बारे में उनको ज्ञान ही नहीं है। अनेक तो नक्सलवाद पर की असली तस्वीर पेश करने की खतरनाक यात्रा के मार्ग पर चाहकर भी नहीं चलना चाहते हैं। ऐसे में कूटनीतिक सोच एवं लोगों को मूर्ख बनाने की नीति से लिखे जाने वाले आलेख और राजनेताओं के भाषण इस समस्या को उलझाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। राजनेता एवं नौकरशाहों की तो मजबूरी है, लेकिन स्वतन्त्र लेखकों से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे असल को छोडकर सत्ता के गलियारे से निकलने वाली ध्वनि की नकल करते दिखाई दें। जिन लेखकों की रोजी रोटी बडे समाचार पत्रों में झूठ को सज बनाकर लेखन करने से चलती है, उनकी विवशता तो समझ में आती हैं, लेकिन सिर्फ अपने अन्दर की आवाज को सुनकर लिखने वालों को कलम उठाने से पहले अपने आपसे पूछना चाहिये कि मैं नक्सलवाद के बारे में अपने निजी अनुभव के आधार पर कितना जानता हँू? यदि आपकी अन्तर्रात्मा से उत्तर आता है कि कुछ नहीं, तो मेहरबानी करके इस देश और समाज को गुमराह करने की कुचेष्टा नहीं करें।

नक्सवाद पर कुछ लिखने से पहले मैं विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि मैं किसी भी सूरत में हिंसा का पक्षधर नहीं हूँ और नक्लल प्रभावित निर्दोष लोगों के प्रति मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति है। इसलिये इस आलेख के माध्यम से मैं हर उस व्यक्ति को सम्बोधित करना चाहता हूँ, जिन्हें इंसाफ की व्यवस्था को बनाये रखने में आस्था और विश्वास हो। जिन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त इस मूल अधिकार (अनुच्छे-14) में विश्वास हो, जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा। जिनको संवैधानिक व्यवस्था मैं आस्था और विश्वास हो, लेकिन याद रहे, केवल कागजी या दिखावटी नहीं, बल्कि जिन्हें समाज की सच्ची तस्वीर और समस्याओं के व्यावहारिक पहलुओं का भी ज्ञान हो वे ही इन बातों को समझ सकते हैं। अन्यथा इस लेख को समझना आसान या सरल नहीं होगा?

यदि उक्त पंक्तियों को लिखने में मैंने धृष्टता नहीं की है तो कृपया सबसे पहले बिना किसी पूर्वाग्रह के इस बात को समझने का प्रयास करें कि एक ओर तो कहा जाता है कि हमारे देश में लोकतन्त्र है और दूसरी ओर लोकतन्त्र के नाम पर 1947 से लगातार यहाँ के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष चुनावों का नाटक खेला जा रहा है। यदि देश में वास्तव में ही लोकतन्त्र है तो सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था में देश के सभी वर्गों का समान रूप से प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है? सभी वर्गों के लोगों की हर क्षेत्र में समान रूप से हिस्सेदारी भी होनी चाहिये। अन्यथा तो लोकतन्त्र होने के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं!

कुछ कथित प्रबुद्ध लोग कहते हैं, कि इस देश में तो लोकतन्त्र नहीं, केवल भीड तन्त्र है। इस विचारधारा के लोगों से मेरा सवाल है कि यदि लोकतन्त्र नहीं, भीडतन्त्र है तो केवल दो प्रतिशत लोगों के हाथ में इस देश की सत्ता और संसाधन क्यों हैं? भीडतन्त्र का प्रभाव दिखाई क्यों नहीं देता? भीडतन्त्र के पास तो सत्ता की चाबी होती है, फिर भी भीडतन्त्र इन दो प्रतिशत लोगों को सत्ता एवं संसाधनों से बेदखल क्यों नहीं कर पा रहा है? इन सवालों के उत्तर तलाशने पर पता चलेगा कि न तो इस देश में सच्चे अर्थों में लोकतन्त्र है और न हीं इस देश की ताकत भीडतन्त्र के पास है!

उपरोक्त परिप्रेक्ष में नक्सलवाद को समझने के लिये हमें आदिवासियों के बारे में भी कुछ मौलिक बातों को समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि अधिसंख्य लोगों द्वारा यह झूठ फैलाया जा रहा है कि केवल आदिवासी ही नक्सलवाद का संवाहक है! वर्तमान में आदिवासी की दशा, इस देश में सबसे बुरी है। इस बात को स्वयं भारत सरकार के आँकडे ही प्रमाणित करते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि आजादी के बाद से आज तक आदिवासी का केवल शोषण ही शोषण किया जाता रहा है। मैं एक ऐसा कडवा सच उद्‌घाटित करने जा रहा हँू, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं! वो यह कि आजादी के बाद से दलित नेतृत्व ने भी आदिवासी वर्ग का जमकर शोषण, अपमान एवं तिरस्कार किया है। आदिवासियों के साथ दलित नेतृत्व ने हर मार्चे पर कुटिल विभेद किया है। इसकी भी वजह है। आदिवासियों के शोषण का हथियार स्वयं सरकार ने दलित नेतृत्व के हाथ में थमा दिया है।

इस देश के संविधान में अनुसूचित जाति (दलित) एवं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) नाम के दो आरक्षित वर्ग प्रारम्भ से ही बनाये गये हैं। जिन्हें संक्षेप में एससी एवं एसटी कहा जाता है। यही संक्षेपीकरण सम्पूर्ण आदिवासियों का और इस देश के इंसाफ पसन्द लोगों का दुर्भाग्य है। इन एससी एवं एसटी दो संक्षेप्ताक्षरों को आजादी के बाद से आज तक इस देश के सभी राजनेताओं और नौकरशाहों ने पर्यायवाची की तरह प्रयोग किया है। इन दोनों वर्गों के उत्थान के लिये बनायी गयी नीतियों में कहीं भी इन दोनों वर्गों के लिये अलग-अलग नीति बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।

सरकार की कुनीतियों के चलते, एससी एवं एसटी वर्गों के कथित हितों के लिये काम करने वाले सभी संवैधानिक, सरकारी, संसदीय, गैर-सरकारी एवं समाजिक प्रकोष्ठों पर देशभर में केवल एससी के लोगों ने ऐसा कब्जा जमाया कि आदिवासियों के हित दलित नेतृत्व के यहाँ गिरवी हो गये। दलित नेतृत्व ने एससी एवं एसटी के हितों की रक्षा एवं संरक्षण के नाम पर केवल एससी के हितों का ध्यान रखा। केन्द्र या राज्यों की सरकारों द्वारा तो यह तक नहीं पूछा जाता कि एससी एवं एसटी वर्गों के अलग-अलग कितने लोगों या जातियों या समाजों का उत्थान किया गया? ०९ प्रतिशत मामलों में इन दोनों वर्गों की प्रगति रिपोर्ट भेजने वाले और उनका सत्यापन करने वाले दलित होते हैं। जिन्हें आमतौर पर इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि आदिवासियों के हितों का संरक्षण हो रहा है या नहीं और आदिवासियों के लिये स्वीकृत बजट दलितों के हितों पर क्यों खर्चा जा रहा है या क्यों लैप्स हो रहा है?

आदिवासियों के उत्थान की कथित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिये ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जाती रही है, जो आदिवासियों की पृष्ठभूमि को एवं आदिवासियों की समस्याओं के बारे में तो कुछ नहीं जानते, लेकिन यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना कुछ किये आदिवासियों के लिये आवण्टित फण्ड को हजम कैसे किया जाता है! ऐसे ब्यूरोके्रट्‌स को दलित नेतृत्व का पूर्ण समर्थन मिलता रहा है। स्वाभाविक है कि उन्हें भी इसमें से हिस्सेदारी मिलती होगी? यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि दलित नेतृत्व में सभी लोग आदिवासियों के विरोधी या दुश्मन नहीं हैं, बल्कि आम दलित तो आज भी आदिवासी के प्रति बेहद संवेदनशील है।

यही नहीं यह जानना भी जरूरी है कि एक जाति विशेष के कुछेक चालाक लोगों ने एससी एवं एसटी वर्गों की कथित एकता के नाम पर हर जगह कभी न समाप्त किया जा सकने वाला कब्जा जमा रखा है। ये लोग एससी की अन्य कमजोर (संख्याबल में) जातियों के भी शोषक हैं। आदिवासी भी प्रशासन में संख्यात्मक दृष्टि से दलितों की तुलना मे आधे से भी कम है। जिस देश में हर जाति एक राष्ट्रीय पहचान रखती हो, उस देश में एक वर्ग में बेमेल जातियों को शामिल कर देना और संवैधानिक रूप से दो भिन्न वर्गों (एससी एवं एसटी) को एक ही डण्डे से हाँकना, किस बेवकूफ की नीति है? यह तो सरकार ही बतला सकती है, लेकिन यह सही है कि आदिवासी की पृष्ठभूमि एवं जरूरत को आज तक न तो समझा गया है और न हीं इस दिशा में सार्थक पहल की जा रही है।

दूसरी ओर इस देश के केवल दो प्रतिशत लोग लच्छेदार अंग्रेजी में दिये जाने वाले तर्कों के जरिये इस देश को लूट रहे हैं और 98 प्रतिशत लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। मुझे तो यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इन दो प्रतिशत लोगों में हत्या जैसे जघन्य अपराध करने वालों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कई गुनी है, लेकिन उनमें से किसी बिरले को ही कभी फांसी की सजा सुनाई गयी होगी? इसके पीछे भी कोई न कोई कुटिल समझ तो काम कर ही रही है। अन्यथा ऐसा कैसे सम्भव है कि अन्य 98 प्रतिशत लोगों को छोटे और कम घिनौने मामलों में भी फांसी का हार पहना कर देश के कानून की रक्षा करने का फर्ज बखूबी निभाया जाता रहा है। यदि किसी को विश्वास नहीं हो तो सूचना अधिकार कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से आंकडे प्राप्त करके स्वयं जाना जा सकता है कि किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों ने एक साथ एक से अधिक लोगों की हत्या की और उनमें से किस-किस जाति के, कितने-कितने लोगों को फांसी की सजा दी गयी और किनको चार-पाँच लोगों की बेरहमी से हत्या के बाद भी केवल उम्रकैद की सजा सुनाई गयी? आदिवासियों को सुनाई गयी सजाओं के आंकडों की संख्या देखकर तो कोई भी संवेदनशील व्यक्ति सदमाग्रस्त हो सकता है!

यही नहीं आप आँकडे निकाल कर पता कर लें कि किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार अधिक होते हैं? किस जाति के लोग बलात्कार अधिक करते हैं और किस जाति की महिलाओं के साथ बलात्कार होने पर सजा दी जाती है एवं किस जाति की महिला के साथ बलात्कार होने पर मामला पुलिस के स्तर पर ही रफा-दफा कर दिया जाता है या अदालत में जाकर कोई सांकेतिक सजा के बाद समाप्त हो जाता है?

आप यह भी पता कर सकते हैं कि इस देश के दो प्रतिशत महामानवों के मामलों में प्रत्येक स्तर पर कितनी जल्दी न्याय मिलता है, जबकि शेष 98 प्रतिशत के मामलों में केवल तारीख और तारीख बस! मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग आदि के द्वारा सुलटाये गये मामले उठा कर देखें, इनमें कितने लोगों को न्याय या मदद मिलती है? यहाँ पर भी जाति विशेष एवं महामानव होने की पहचान काम करती है। पेट्रोल पम्प एवं गैस ऐजेंसी किनको मिल रही हैं? अफसरों में जिनकी गोपनीय रिपोर्ट गलत या नकारात्मक लिखी जाती है, उनमें किस वर्ग के लोग अधिक हैं तथा नकारात्मक गोपनीय रिपोर्ट लिखने वाले कौन हैं? संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कौनसी दैवीय प्रतिभा के चलते केवल दो प्रतिशत लोगों को पचास प्रतिशत से अधिक पदों पर चयनित किया जाता रहा है? जानबूझकर और दुराशयपूर्वक मनमानी एवं भेदभाव करने की यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है!

ऐसी असंवेदनशील, असंवैधानिक, विभेदकारी और मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था एवं शोषक व्यवस्था में आश्चर्य इस बात का नहीं होना चाहिये कि नक्सनवाद क्यों पनप रहा है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि इतना अधिक क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार होने पर भी केवल नक्लवाद ही पनप रहा है? लोग अभी भी आसानी से जिन्दा हैं? अभी भी लोग शान्ति की बात करने का साहस जुटा सकते हैं? लोगों को इतना होने पर भी लोकतन्त्र में विश्वास है?

एक झूट की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है, वह यह कि नक्लवादियों के बारे में यह कु-प्रचारित किया जाता रहा है कि नक्सली केवल आदिवासी हैं! जबकि सच्चाई यह है कि हर वर्ग का, हर वह व्यक्ति जिसका शोषण हो रहा है, जिसकी आँखों के सामने उसकी माँ, बहन, बेटी और बहू की इज्जत लूटी जा रही है, नक्सलवादी बन रहा है! कल्पना करके देखें माता-पिता की आँखों के सामने उनकी 13 से 16 वर्ष की उम्र की लडकी का सामूहिक बलात्कार किया जाता है और स्थानीय पुलिस उनकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करती! स्थानीय जन-प्रतिनिधि आहत परिवार को संरक्षण देने के बजाय बलात्कारियों को पनाह देते हैं! तहसीलदार से लेकर राष्ट्रपति तक गुहार करने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती है। ऐसे हालात में ऐसे परिवार के माता-पिता या बलात्कारित बहनों के भाईयों को क्या करना चाहिये? इस सवाल का उत्तर इस देश के संवेदनशील और इंसाफ में आस्था एवं विश्वास रखने वाले पाठकों से अपेक्षित है।

दूसरी तस्वीर, अपराध कोई ओर (बलशाली) करता है और पुलिस द्वारा दोषी से धन लेकर या अन्य किसी दुराशय से किसी निर्दोष को फंसा दिया जाता है। बेकसूर होते हुए भी वह कई वर्षों तक जेल में सडता रहता है। इस दौरान जेल गये व्यक्ति का परिवार खेती, पशु आदि सब बर्बाद हो जाते हैं। उसकी पत्नी और, या युवा बहन या बेटी को अगवा कर लिया जाता है। या उन्हें रखैल बनाकर रख लिया जाता है। अनेक बार तो 15 से 20 वर्ष के युवाओं को ऐसे मामलों में फंसा दिया जाता है और उनकी सारी जवानी जेल में ही समाप्त हो जाती है। जब कोई सबूत नहीं मिलता है तो वर्षों बाद अदालत इन्हें रिहा कर देती है, लेकिन ऐसे लोगों का न तो कोई मान सम्मान होता है और न हीं इनके जीवन का कोई मूल्य होता है। इसलिये अकारण वर्षों जेल में रहने के उपरान्त भी इनको किसी भी प्रकार का मुआवजा मिलना तो दूर, ये लोग जानते ही नहीं कि मुआवजा है किस चिडिया का नाम!

हम सभी जानते हैं कि सरकार को गलत ठहराकर, सरकार से मुआवजा प्राप्त करना लगभग असम्भव होता है। इसीलिये सरकार से मुआवजा प्राप्त करने के लिये अदालत की शरण लेनी पडती है, जिसके लिये वकील नियुक्त करने के लिये जरूरी दौलत इनके पास होती नहीं और इस देश की कानून एवं न्याय व्यवस्था बिना किसी वकील के ऐसे निर्दोष को, निर्दोष करार देकर भी सुनना जरूरी नहीं समझती है। इसके विपरीत अनेक ऐसे मामले भी इस देश में हुए हैं, जिनमें अदालत स्वयं संज्ञान लेकर मुआवजा प्रदान करने के आदेश प्रदान करती रही हैं, लेकिन किसी अपवाद को छोडकर ऐसे आदेश केवल उक्त उल्लिखित दो प्रतिशत लोगों के पक्ष में ही जारी किये जाते हैं।

मुझे याद आता है कि एक जनहित के मामले में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपने राज्य के उच्च न्यायालय को अनेक पत्र लिखे, लेकिन उन पर कोई संज्ञान नहीं लिया गया, जबकि कुछ ही दिन बाद उन पत्रों में लिखा मामला एक दैनिक में प्रकाशित हुआ और उच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उसे जनहित याचिका मानकर हाई कोर्ट के तीन वकीलों का पैनल उसकी पैरवी करने के लिये नियुक्त कर दिया। अगले दिन दैनिक में हाई कोर्ट के बारे में बडे-बडे अक्षरों में समाचार प्रकाशित हुआ और हाई कोर्ट द्वारा संज्ञान लिये जाने के पक्ष में अखबार द्वारा सदीके पढे गये। इन हालातों में अन्याय, भेदभाव और क्रूरतापूर्ण दुर्व्यवहार के चलते पनपने वाले नहीं, बल्कि जानबूझकर पनपाये जाने वाले नक्सलवाद को, जो लोग इस देश की सबसे बडी समस्या बतला रहे हैं, असल में वे स्वयं ही इस देश की सबसे बडी समस्या हैं!

जैसा कि वर्तमान में सरकार द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध संहारक अभियान चलाया जा रहा है, उस अभियान के मार्फत नक्लवादियों को मारकर इस समस्या से कभी भी स्थायी रूप से नहीं निपटा जा सकता, क्योंकि बीमार को मार देने से बीमारी को समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि बीमारी के कारणों को ईमानदारी से पहचान कर, उनका ईमानदारी से उपचार करें तो नक्सलवाद क्या, किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है, लेकिन अंग्रेजों द्वारा कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिये स्थापित आईएएस एवं आईपीएस व्यवस्था के भरोसे देश को चलाने वालों से यह आशा नहीं की जा सकती कि नक्सलवाद या किसी भी समस्या का समाधान सम्भव है! कम से कम डॉ. मनमोहन सिंह जैसे पूर्व अफसरशाह के प्रधानमन्त्री रहते तो बिल्कुल भी आशा नहीं की जा सकती।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा

महिलाएं जीतीं, लोकतंत्र हारा

राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद महिलाओं को विधायिका में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का तेरह साल पुराना ख्वाब सच होने से बहुत दूर है। जाहिर है यदि यह पारित हो जाता तो बिल महिला सशक्तिकरण की दिशा में चला गया एक कदम साबित हो सकता था। लेकिन किन महिलाओं का सशक्तिकरण? यह बहस का मुद्दा है। इस बिल को पास कराने के लिए जिस तरह से सत्तारूढ़ दल कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दलों भाजपा तथा वामपंथी दलों ने जो तरीका अपनाया उससे फासीवाद के आने की आहट सुनाई देने लगी है। राज्यसभा में यह बिल पास होने पर निश्चित रूप से महिलाएं तो जीती हैं लेकिन लोकतंत्र हारा है।

इस बिल पर सपा, राजद और जद-(यू) ने जो आपत्तियां उठायी हैं उन्हें थोथी महिला विरोधी हरकत कहकर नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस बिल का लाभ सबसे ज्यादा सवर्ण महिलाएं और खासतौर पर कुछ परिवारों की ही महिलाएं उठाएंगी। इस बिल को लेकर समाजवादी धड़ा दलित, मुस्लिम और पिछड़ा विरोधी होने का जो आरोप लगा रहा है उसे नौ तथा दस मार्च के अखबारों की सुर्खियों जैसे ‘यादव ब्रिगेड के साथ ममता की खिचड़ी नहीं पक पाई’, ‘यादव ब्रिगेड ने रोका महिला विजय रथ’, और ‘यादव तिकड़ी ने नहीं चलने दी लोकसभा’ और तथाकथित नारीवादी महिलाओं की लालू- मुलायम के खिलाफ जातिवादी टिप्पणियों ने सही साबित कर दिया है। लगभग सभी समाचार चैनल्स पर समाचार वाचकों (इन्हें पत्रकार समझने की भूल न की जाए) की सपा और राजद को खलनायक साबित करतीं टिप्पणियां भी साबित कर रही थीं कि महिला आरक्षण की आड़ में पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश रची जा रही है।

जो सबसे बड़ा खतरा इस बिल के बहाने सामने आया है उससे लोकतंत्र की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है। जब विपक्ष की मुख्य पार्टी भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ दल कांग्रेस से मिल जाए और तो और ‘लोकतांत्रिक, जनवादी धर्मनिरपेक्ष’ विकल्प चिल्लाने वाली माकपा और भाकपा भी कांग्रेस और भाजपा से मिल जाएं तो कैसा लोकतंत्र? फिर लोकतंत्र की अवधारणा अल्पसंख्यकों पर बहुमत का शासन नहीं है। लेकिन राज्यसभा में जो तरीका अपनाकर यह बिल पारित कराया गया उसने नारी सशक्तिकरण और लोकतंत्र दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

अगर कल कांग्रेस, भाजपा और वामदल इस बात पर सहमत हो जाएं कि अब इस मुल्क में चुनाव नहीं होंगे और बारी बारी से उनका प्रधानमंत्री बनता रहेगा तब क्या यह संविधान संषोधन भी मार्षलों की मदद से पारित करा दिया जाएगा और पूरा मुल्क लोकतंत्र के जनाजा निकलने का तमाशा देखता रहेगा? या भाजपा और कांग्रेस में आम सहमति बन जाए कि अब भारत को हिन्दू राष्‍ट्र बना दिया जाए तो क्या मार्शलों की मदद से भारत को हिन्दूराष्‍ट्र बनाने का सेविधान संशोधन भी पारित करा दिया जाएगा? यहां विरोध महिलाओं को राजनीति में स्थान मिलने का नहीं हो रहा है बल्कि इस बहाने जो फासीवाद उभर रहा है उसकी तरफ ध्यान दिलाया जा रहा है क्योंकि जरूरी नहीं कि हर बार फासीवाद धर्म का चोला ओढ़कर ही सामने आए।

मान लिया कि सदन के अंदर हंगामा करना संसदीय आचरण नहीं है। लेकिन क्या सरकार का इन दलों से बात न करने के रवैये और राज्यसभा में मार्शलों का प्रयोग करके बिल पारित कराने को भी उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह सरकार का फासीवादी और तानाशाहीपूर्ण रवैया नहीं है?

सवाल यहां राज्यसभा के सभापति से भी हो सकते हैं। सभापति सिर्फ सरकार के सभापति नहीं हैं। वह पूरे सदन के सभापति हैं। अगर सदन में शोर शराबा हो रहा था तो उन्हें सदन के सामान्य होने का इंतजार करना चाहिए था न कि रूलिंग पार्टी की मांग पर विरोध करने वालों को सदन से बाहर करा देना चाहिए था?

एक निजी चैनल पर इस बिल की पैरोकार एक तथाकथित समाजसेविका तर्क दे रही थीं कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का प्रावधान नहीं है इसलिए मुसलमानों को आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यहां प्रतिप्रश्‍न यह है कि क्या संविधान में लिंग के आधार पर आरक्षण का प्रावधान है? सवाल यहां यह भी है कि जब संविधान बना था तब कहा गया गया था कि धर्म और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन क्या यह बिल संविधान की उस मूल भावना के अनुसार है? दरअसल इस बिल की आड़ में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को कूड़ेदान में डालने का षडयंत्र रच रही हैं।

याद होगा जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उस समय उनकी सरकार ने महिलाओं में षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए स्नातक तक लड़कियों की फीस माफ की थी और ‘कन्या विद्या धन योजना’ नाम की एक योजना प्रारम्भ की थी जिसमें इंटर में पढ़ने वाली गरीब लड़कियों को एक प्रोत्साहन राषि दी जानी थी। उस समय यही राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी चिल्ला रहे थे कि यह सरकारी धन की फिजूलखर्ची है और वोट खरीदने का एक तरीका है। यानी आम महिलाओं की षिक्षा और तरक्की के लिए अगर कोई योजना लागू की जाए तो वह फिजूलखर्ची और ब्यूटी पार्लर, बटरस्कॉच, एयरकंडीशनर और समाजसेवा का कॉकटेल बनाकर नारी अधिकारों की बातें करनी वाली तथाकथित समाजसेवी महिलाओं को विधायिका में आरक्षण दे दिया जाए तो वह प्रगतिशील कदम!

आज लोकसभा का चुनाव लड़ने पर लगभग पांच करोड़ रूपया खर्च होता है, ऐसे में क्या यह संभव है कि खेत में काम करने वाली मजदूर और घरों में चैका- बर्तन करने वाली आम महिला को इस बिल से कुछ लाभ होगा। हां उन महिलाओं का भला जरूर होगा जो तथाकथित रूप से प्रगतिशील हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हैं और हिंदी से नफरत करती हैं, जो वोट डालने इसलिए नहीं जातीं क्योंकि पोलिंग बूथ पर लाइन में लगना पड़ता है लेकिन टीवी स्क्रीन पर चटर- पटर राजनेताओं को गरियाकर अपने पढा लिखा होने का सबूत पेश करती हैं। इसलिए इस बिल के पास हो जाने से भी आम महिलाओं के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

-अमलेन्दु उपाध्याय

चाणक्य की सैन्य नीति अपनाकर ही भारत विश्वशक्ति बनेगा : बक्शी

भोपाल (हि.स.)। आज भारत की सेना विश्व में दूसरे नंबर पर है। वायुसेना का स्थान चौथा, जल सेना का स्थान पांचवा है। भारतीय सेना वैश्विक स्तर पर अन्य देशों की सैन्य शक्ति की तुलना में अपना विशिष्ट स्थान न केवल सामरिक ह्ष्टि से रखती है बल्कि भारतीय सेना के जाबाज युद्ध नीति, कौशल कला के प्रत्येक क्षेत्र में श्रेष्ठ योग्यता रखते हैं। द्वितीय युद्ध के बाद से लगातार भारतीय सैन्य शक्ति में इजाफा हुआ है। देश में आज तक का जो विकास और बदलाव दिखाई देता है वह भारत में समय-समय पर हुई सैन्य क्रांतियों का परिणाम है। पांच हजार वर्षों के भारतीय इतिहास में तीन बार देश में सुगठित साम्राज्य देखने को मिला। मौर्य, मुगल व ब्रिटिश काल में। चाणक्य ने मौर्य काल में जो सैन्य नीति बनाई वह आज भी प्रासंगिक है उसका उपयोग कर ही भारत विश्व शक्ति बन सकता है। यह बात सैन्य विषयों के जानकार रिटयार्ड मैजर जनरल जी.डी. बक्शी ने कही।

अपेक्स बैंक समन्वय भवन में विवेकानन्द केन्द्र शाखा भोपाल द्वारा आयोजित संगोष्ठी भारत की सामरिक परम्परा विषय पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए श्री बक्शी ने कहा कि भारत का सामरिक इतिहास सौ या पांच सौ वर्ष पुराना नहीं बल्कि सात हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीयों को अपनी सैन्य शक्ति और सामरिक परम्परा के बारे में जानकारी देने वाले केन्द्र के अभाव में वे उन सभी बातों से अनभिज्ञ हैं जिसे जानकार हर भारतीय आत्मगौरव का अनुभव कर सकता है। उन्होंने कहा कि भारत में जब अलैग्जेंडर ने आक्रमण किया उस समय कौटिल्य ने सैन्य ह्ष्टिकोण से प्रत्येक बिन्दु पर विचार कर ऐसी नीति और योजना बनाई थी कि जिसके बलबूते वह चंद्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में 25 वर्ष के भीतर अफगानिस्तान, बलूच, तमिलनाडू, असम तक मौर्य शासन की स्थापना कर सके। उसके बाद भारत में मंगोल आए जो नई सामरिक नीति लेकर आए थे। वे तौपखाना तथा तूफांची साथ लाए, घोडों की रकाब उन्होंने बनाई। बाबर की 40 हजार वाली फौज ने इब्राहिम लोधी की 1.5 लाख से ज्यादा की फौज को हरा दिया।

श्री बक्शी ने कहा कि तीसरी क्रांति यूरोपियन देशों खासकर अंग्रेजों के भारत आने के बाद हुई, उन्होंने लगातर एक हजार गोलियां एक साथ फायर करने की तकनीक दी। इसी के बलबूत वे भारत में मुगल साम्राज्य का अंत कर सके और देश में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुए। रिटायर मेजर जनरल श्री बक्शी ने जोर देकर कहा कि भारत की जो सामरिक नीति चाणक्य ने बनाई थी चतुरबल सेना, वह आज भी भारतीय सैन्य शक्ति की ताकत बनी हुई है। फर्क सिर्फ तकनीकी स्तर पर आया है। उन्होंने अनेक उदाहरण देकर मौर्यकाल में बनी चाणक्य अर्थ नीति और सामरिक नीति की वर्तमान सैन्य नीति से तुलना की और कहा कि वर्तमान भारत चाणक्य नीति का अनुसर कर ही विश्व शक्ति बन सकता है। वहीं मेजर बक्शी ने यह भी बताया कि 1972 में हुए पाकिस्तान से युद्ध के समय भारत ने बगैर ज्यादा सोचे 2000 वर्ष पहले चाणक्य द्वारा बनाई गई सामरिक नीति का अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष पालन करते हुए कूटनीति अपनाकर युद्ध में जीत हासिल की थी। उन्होंने युद्ध के पहले शत्रु-मित्र का भेद, पडोसी मुल्कों के बारे में किस प्रकार विचार किया जाना चाहिए इस बात पर भी विस्तार से बताया।

वहीं देश की आम जनता से मैजर बक्शी ने अपील की कि वे वह अपने देश में ऐसे वातावरण का निर्मण करें जो सैनिकों का मनोबल बढाने में सहायक हो। श्री बक्शी ने देश में बढ रही व्यक्तिवादी सोच के स्थान पर समूह और हम के विचार को महत्व दिए जाने पर भी जोर दिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बी.के. कुठियाला ने की। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री कुठियाला ने कहा कि आम नागरिक का कर्तव्य न केवल देश के विकास में अपने दायित्वों का अनिवार्य रूप से पालन करने में है बल्कि अपने देश के प्रति आने वाले वाले खतरों को भांपकर सचेत व उनसे निपटने के लिए सदैव तैयार रहने में है। उन्होंने भारत की पाकिस्तान को लेकर जो वर्तमान नीति है उस पर भी अनेक प्रश्नचिन्ह लगाए और कहा कि भारत जब पाकिस्तान से वार्ता करते वक्त उसके स्तर पर बराबरी में आकर उससे चर्चा करता है तभी वह चीन और अमेरिका जैसे देशों की नजर में छोटा हो जाता है। पाकिस्तान एक असफल राष्टन् है उसके स्तर पर आकर भारत को उससे न तो कूटनीतिक स्तर पर और न ही मैत्रीपूर्ण संबंधों के स्तर पर बातचीत करनी चाहिए।

उन्होंने आम भारतीय के मन में अपने पडोसी मुल्क पाकिस्तान को लेकर जो क्षोभ है उसके लिए वर्तमान राजनीतिक नीतियों को दोषी करार दिया और अपने तार्किक तथ्यों से यह भी बताया कि भारत को सिर्फ पाकिस्तान और चीन से ही नहीं बल्कि विचारधारा तथा सांस्कृतिक स्तर पर सबसे ज्यादा खतरा आज अमेरिका से है। वहीं श्री कुठियाला ने अनेक उदाहरण देयक यह भी बताया कि जिस तरह आर्थिक मंदी के दौर में भारत ने स्वयं को संभाला और वैश्विक आर्थिक मंदी का स्वयं पर किंचित प्रभाव नही पडने दिया, जबकि उसकी चपेट से अमेरिका और चीन जैसे देश बच नहीं सके थे ऐसे में अधिकांश विद्वानों का यह मत बना है कि अगला महाशक्ति संपन्न देश विश्व में यदि अब कोई दूसरा होगा तो वह भारत ही होगा।

कार्यक्रम में मंच पर विवेकानन्द केन्द्र मध्यभारत प्रांत संचालक व अध्यक्ष मध्यप्रदेश प्रवेशफीस नियामक आयोग पी. एल. चतुर्वेदी भी उपस्थित थे। इस संगोष्ठी का संचालन मनोज गुप्ता, विवेकानन्द केन्द्र गतिविधियों की जानकारी मनोज पाठक, अतिथि परिचय वरिष्ठ पत्रकार रामभुवन सिंह कुशवाह ने दिया। गीत व शांतिपाठ सुश्री कंचन ने प्रस्तुत किया।

-मयंक चतुर्वेदी