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विश्व बंधुत्व, करुणा, प्रेम और सुरक्षा ही मानव अधिकार की कुंजी : दलाई लामा

विश्व बंधुत्व की भावना, करुणा, प्रेम और भ्रातृत्व ही मानव अधिकारों की सुरक्षा की कुंजी है। इन्हीं मानवीय गुणों से अधिक सभ्य मानव विकसित होगा और गरीबी, जाति, धर्म, ऊँच-नीच तथा अन्य आधारों पर होने वाले मानव अधिकार हनन प्रभावी रूप से रोका जा सकेगा। उक्त विचार तिब्बतियों के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा ने मध्यप्रदेश विधानसभा में 17 मार्च को ‘मानव अधिकार एक वैश्विक दायित्व’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य अतिथि की आसंदी से व्यक्त किए।

उन्होंने कहा कि विभिन्न धर्मों को मानने, विभिन्न भाषाओं को बोलने और विभिन्न क्षेत्रों में रहने के बावजूद सभी एक हैं। सिर्फ पैसा और भौतिक समृद्धि जीवन में सुख और मन की शांति नहीं दे सकते हैं। केवल इससे ही ज्ञान नहीं मिलता। मन की शांति और सुख प्राप्ति के लिये मनुष्य को आध्यात्मिकता के साथ मानव मूल्यों को आत्मसात करना होगा। बौध्दाधर्म गुरू ने कहा कि जिन देशों में भौतिक समृ द्धि है और श्रेष्ठतम भौतिक सुविधाएं उपलब्ध हैं वहां मानव के आंतरिक जीवन में गुणवत्ताा नहीं है। विशेषकर उनकी युवा पीढी भटकी हुई है। ईर्ष्‍या, द्वेष और अलगाव के चलते जीवन में कभी सच्चा सुख नहीं आ सकता। सच्चे सुख के लिये करुणा का भाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसी से परिवार-समाज में सच्चा सुख व समृद्धि आ सकेगी। इसलिये केवल आर्थिक और भौतिक उन्नति नहीं, इन मानवीय गुणों के विकास पर हमें अधिक ध्यान देना चाहिये।

दलाई लामा ने कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता बहुत मूल्यवान है जो सृजनशीलता के विकास के लिये अनिवार्य है। इसके बिना कोई भी समाज या समुदाय रचनात्मक और सृजनशील नहीं हो सकता। भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता है और इसीलिये यहां सृजनशीलता और लोकतंत्र बहुत सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं। भारत अकेला ऐसा देश है जहां सदा से पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है। अहिंसा का संदेश यहीं से उपजा और महात्मा गाँधी ने इसे सफलतापूर्वक अपनाया।

बौध्दाधर्म गुरू का यह भी कहना था कि कोई एक धर्म नहीं बल्कि सभी धर्म श्रेष्ठ हैं। उनकी अवधारणाओं, विचारधाराओं तथा उपासना पद्धतियों में अंतर हो सकता है लेकिन उनकी मूल भावनाएं समान हैं। आज जरूरत सभी धर्मों को एक-दूसरे के करीब लाने की है। अनेक संस्थाएं इस दिशा में कार्य कर रही हैं लेकिन हर व्यक्ति को भी अपने स्तर पर इस दिशा में कार्य करने की जरूरत है। व्यक्ति को सभी धर्मों का समान रूप से आदर करना चाहिये।

दलाई लामा ने मुख्यमंत्री द्वारा मध्यप्रदेश में बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना किये जाने की घोषणा पर उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि इससे बौध्दा धर्म के विज्ञान, अवधारणा और दर्शन के प्रसार में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि भावना और अंतर्मन से जुडा विज्ञान आधुनिक भौतिक विज्ञान से कहीं ज्यादा गहन और व्यापक है। इस विश्वविद्यालय से अंतर्विज्ञान के विकास और प्रसार में काफी सहयोग मिलेगा। उन्होंने कहा कि भारत में सदैव ही धार्मिक और वैचारिक सहिष्णुता रही है जो कहीं और देखने को नहीं मिलती। यहां तक कि नास्तिक दर्शन को मानने वाले चार्वाक को भी यहां ऋषि की संज्ञा दी गई है।

दलाई लामा ने विश्वभर में स्त्रियों को अधिक सशक्त और सक्रिय बनाये जाने पर बल देते हुए स्त्री शक्ति के विकास के लिये हर-संभव प्रयास किये जाने पर बल दिया। उन्होंने कहा कि स्त्री करुणा की मूर्ति होती है और उसमें संवेदनशीलता अधिक होती है। उन्हें आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनने की हर सुविधा और अवसर दिये जाने चाहिये।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए राज्यपाल श्री रामेश्वर ठाकुर ने कहा कि दलाई लामा आधुनिक विश्व में मानव अधिकारों के प्रबल समर्थक हैं। यह बडी विरोधाभाषी बात है कि शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का जितना विकास हो रहा है उतना ही मानव अधिकारों का हनन भी बढ रहा है। हमेशा से ताकतवरों ने कमजोरों को दबाया है, जबकि शिक्षा के विकास के साथ यह बात कम होनी चाहिये थी। उन्होंने कहा कि मानव अधिकारों का संरक्षण पूरे विश्व का दायित्व है और इसे किसी एक देश, समाज, समुदाय अथवा महाद्वीप की समस्या नहीं माना जाना चाहिये। इसके विरुध्दा पूरे विश्व को एकजुट होकर खडा होना जरूरी है। हर किसी को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है और किसी को भी उसके अधिकार का हनन करने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिये।

इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि मानव अधिकारों की रक्षा भारत की जडों में है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने युगों पहले वसुधैव कुटुम्बकम् के जरिये सारी दुनिया को एक परिवार माना। श्री चौहान का कहना था कि सर्वे भवन्तु सुखण: की भावना में सभी का कल्याण निहित है। जो कि मानव अधिकारों और वैश्विक उत्तारदायित्व को भलीभांति अंर्तसंबंधित भी करती है।

श्री चौहान ने कहा कि मध्यप्रदेश में भी उनकी सरकार मानव अधिकारों की रक्षा करते हुए प्रदेश के विकास और प्रगति की राह पर चलने की कोशिश कर रही है। वंचितों की ऑंख के आंसू पोंछने और उन्हें सामाजिक सुरक्षा देने की राज्य सरकार की कोशिशें इसका प्रमाण है। उन्होंने कहा कि प्रदेश की आधी आबादी महिलाओं को सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए मप्र सरकार कटिबध्दा है। साथ ही महिलाओं को राजनैतिक रूप से सशक्त बनाने हेतु राज्य सरकार ने देश में पहली बार पंचायत राज और नगरीय निकायों में उनके लिये आधे स्थान सुरक्षित किये ।

श्री सिंह ने हिज होलीनेस दलाई लामा को मानव अधिकारों की रक्षा का जीता-जागता प्रतीक, प्रेम, करुणा और दया का संदेश वाहक बताया। उनके अनुसार वे लाखों-लाख लोगों की श्रध्दाा और प्रेरणा के केन्द्र दलाई लामा सिर्फ एक राज प्रमुख ही नहीं वरन् वे भौतिकता की ज्वाला में दग्ध विश्व मानवता को धर्म और आध्यात्म की राह दिखाने वाले गुरू हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार श्रीलंका सरकार के सहयोग से विश्वप्रसिध्दा बौध्दा तीर्थ सांची और भोपाल के मध्य बु द्धिस्ट यूनिवर्सिटी की स्थापना करने जा रही है जिसमें बु द्धिस्ट रिलीजन के साथ ही बु द्धिस्ट साइंस और फिलासफी के अध्ययन की सुविधा होगी।

मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी ने स्वागत भाषण देकर विषय प्रवर्तन किया। उन्होंने कहा कि भगवान बुध्दा ने करुणा, प्रेम और चित्ता की शु द्धि का संदेश दिया और सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त करने का जीवनभर उद्यम किया। भारतवर्ष की विशेषता यह है कि इसने सभी धर्मों की विचारधाराओं और दर्शन को आत्मसात किया है। उन्होंने इस संगोष्ठी में भाग लेने के लिये दलाई लामा का आभार व्यक्त किया। इस अवसर पर मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग की त्रैमासिक पत्रिका के इस वर्ष के पहले संस्करण तथा न्यायमूर्ति डी.एम. धर्माधिकारी द्वारा लिखित पुस्तक ‘ह्यूमन वेल्यूज एण्ड ह्यूमन राइट्स’ का विमोचन भी किया गया।

प्रारंभ में दलाई लामा तथा अन्य अतिथियों ने देवी सरस्वती की मूर्ति पर माल्यार्पण किया और दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया।

-मयंक चतुर्वेदी

संघ से डरने और डराने वाले

संघ प्रमुख ने निकट से संघ को जानने-समझने का आह्वान किया

28 फरवरी को भोपाल में ‘हिन्दू समागम’ का आयोजन हुआ। चूंकि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आयोजन था इसलिए कार्यक्रम के पहले और बाद में काफी चचाएं हुई। चर्चा होना लाजमी भी है, आखिर दुनिया के सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठन का कार्यक्रम था। हिन्दू समागम में संघ प्रमुख डॉ. मोहनराव भागवत का उद्बोधन हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता समाजवादी पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले न्यायमूर्ति आरडी शुक्ला ने की। श्री शुक्ला ईमानदार हैं इसलिए वे संघ के निकट आकर संघ को जानना-समझना चाहते हैं। संघ प्रमुख ने भी अपने भाषण में यही आह्वान किया। उन्होंने कहा संघ आज की जरूरत है। इसे निकट आकर जानिए-समझिए। अनुभूति के बिना संघ समझा नहीं जा सकेगा। लेकिन कुछ जिद्दी लोग हैं जो संघ को जानना-समझना नहीं चाहते। वे सिर्फ आलोचक बने रहना चाहते हैं। संघ की उलझी हुई और विद्रूप छवि बनाना चाहते हैं। यही छवि लोगों को दिखाना चाहते हैं। ऐसे ही लोगों ने संघ का डरावना चेहरा निर्मित किया है। वे चाहते हैं लोग संघ से डरें, भयभीत हों ताकि संघ का विस्तार रूके। देश और दुनिया में संघ से डरने वालों की तादाद कम है, लेकिन डराने वाले ज्यादा हैं। संघ इन डराने वालों को जानता है। इसीलिए संघ प्रमुख ने भोपाल के अपने दौरे में संघ विरोधियों को भी संघ में आकर संघ को जानने का आह्वान किया।

संघ प्रमुख भोपाल में भाषण देकर चले गए। लेकिन अपने पीछे चर्चाएंं छोड़ गए। कुछ चर्चा तो सरकारी कार्यक्रम स्थल लाल परेड मैदान के कारण हुई, तो कुछ एक राजनैतिक दल भाजपा और उसके जनप्रतिनिधि व सरकार के मंत्रियों की उपस्थिति के कारण। सबसे अधिक चर्चा डॉ. भागवत के उस वक्तव्य की हुई जिसमें उन्होंने कहा कि सभी भारतीय हिन्दू हैं और सभी हिन्दू भारतीयं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जो हिन्दू नहीं वह भारतीय नहीं हो सकता। संघ प्रमुख के इस वक्तव्य की चर्चा और आलोचना करने वालों ने अपने-अपने संदर्भों को आधार बनायां। कार्यक्रम के दूसरे ही दिन इसाई समुदाय के नेता का आलोचनात्मक बयान छपा। बाद में इक्के-दुक्के सेक्यूलरिस्ट लोगों ने अपने-अपने हिसाब से संघ प्रमुख के वक्तव्य की आलोचना की।

जैसा कि कई बार और कई स्थानों पर होता है, इस बार भी और भोपाल में भी हुआ। संघ प्रमुख की बातों की आलोचना के लिए तरह-तरह के आधार और तर्क ढूंढे गए। भारत के संविधान से लेकर सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय के साहित्य तक का उल्लेख किया गया। कुछ संघ साहित्य के उद्धरणों का जिक्र करते हुए हिन्दुत्व, नागरिकता और राष्ट्रीयता के बारे में संघ को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। संघ आलोचकों, विरोधियों और विचारकों की अपनी स्वतंत्रता है, जैसे संघ के सर्मथकों, शुभचिंतकों और सद्भावियों की है। विरोधियों का मुह तो बंद किया नहीं जा सकता, करना भी नहीं चाहिए। संघ ने तो अपने विरोधियों तक को अपने घर बुलाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को यह लगता होगा कि उसका विरोध अनजाने में और अज्ञानतावश हो रहा होगा। इसलिए संघ स्वयं अपने बारे में अज्ञान और निरक्षरता दूर करने की भरसक कोशिश कर रहा है। डॉ. मोहनराव भागवत का भोपाल प्रवास इस निमित्त भी था। संघ के बारे में अनेक लोगों की अज्ञानता और निरक्षरता 28 फरवरी के दिन दूर हुई होगी। कार्यक्रम की व्यापकता और उसके प्रभाव को देखकर ऐसा कहा ही जा सकता है। लेकिन कुछ लोग न सिर्फ अज्ञानी और निरक्षर ही बने रहना चाहते हैं बल्कि अपनी इस अज्ञानता और निरक्षता को और अधिक पुख्ता करते हुए संघ के बारे में और अधिक गलतफहमी पैदा करना चाहते हैं।

संघ के बारे में वहीं रटी-रटाई बातें। संघ को महिला विरोधी, दलित विरोधी, मुस्लिम और इसाई विरोधी बताने की कवायद। भारतीय संविधान का हवाला देकर कहा गया कि संघ प्रमुख हिन्दू और भारतीय की परिभाषा करते हुए संविधान की व्याख्याओं को नजरंदाज कर गए। अन्य देशों के हिन्दुओं का हवाला देकर कहा गया कि तब तो हिन्दू होने के कारण वे भी भारतीय हो जायेंगे। संघ प्रमुख ने अपने भाषण में कहा था कि चर्च हिन्दू समाज को बांट रहा है, तो संघ से सवाल पूछा गया कि क्या चर्च के अनुयायी जो कि इसाई हैं उन्हें संघ हिन्दू अथवा भारतीय नहीं मानता? एक सवाल यह भी पूछा गया कि अगर संघ हर भारतीय को हिन्दू मानता है तो फिर अपने संकल्प में मंदिर के साथ मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे आदि की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध क्यों नहीं होता? इस तरह के अनेक सवाल और इन सवालों के बहाने कई तरह की शंकाएं-दुःशंकाएं प्रकट की गई। इन सवालों को बेतूका कह कर टाला नहीं जा सकता। लेकिन सभी सवालों का एक साथ जवाब देना भी मुश्किल है।

सबसे पहली बात तो यह कि डॉ. मोहनराव भागवत ने अपना भाषण किसी संवैधानिक दायित्व या संविधान के परिपेक्ष्य में नहीं दिया था। इसलिए संविधान को कसौटी बनाकर उनकी बातों की व्याख्या बेइमानी होगी। डॉ. भागवत संघ के संवैधानिक प्रमुख हैं। निश्चित ही उन्होंने अपना भाषण एक हिन्दू, एक भारतीय नागरिक और एक संगठन के प्रमुख के नाते दिया। उसे उसी परिपेक्ष्य और संदर्भ में देखा, सुना और व्याख्यायित किया जाना उचित होगा।

एक सुनियोजित पद्धति और दीर्घ योजना के तहत संघ की शाखाओं को स्त्री-पुरूष के लिए अलग-अलग रखा गया है। संघ के बारे में जो अज्ञान से ग्रस्त हैं उन्हे मालूम हो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह राष्ट्र सेविका समिति महिलाओं के बीच कार्यरत है। संघ की शाखाओं में महिलाओं की अनुपस्थिति वर्जना नहीं पद्धति के कारण है। अगर स्त्री-वर्जना ही होती तो हिन्दू समागम में हजारों की संख्या में महिलाओं की उपस्थिति न होती। संघ के बारे में अज्ञानता का एक कारण यह भी है कि संघ नाम नहीं लेता, काम करता है। इसीलिए संघ ने दलितों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के लिए बिना नाम लिए अनेक प्रभावी काम किए। गांधी, आंबेडकर से लेकर अनेक आधुनिक नेता इसके साक्षी रहे हैं।

संघ सिर्फ मंदिरों की रक्षा का संकल्प लेता है। क्योंकि गुरुद्वारों को संघ मंदिरों से अलग नहीं मानता। लेकिन चर्च, मदरसे और मस्जिदों की रक्षा का संकल्प संघ नहीं लेता। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। संघ के बारे में कम ज्ञान रखने वाले भी यह बता सकते हैं कि संघ वैसे किसी व्यक्ति, स्थल या संगठन की रक्षा के लिए संकल्पित नहीं होता जहां भारतीयता, हिन्दू और राष्ट्र के विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है। इसाई सिर्फ वही नहीं हैं जो चर्च के अनुयायी हैं। ईसा मसीह की शिक्षाओं और उपदेशों को मानने और उसमें अपनी आस्था रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इसाई हो सकता है। लेकिन कौन नहीं जानता कि भारत में चर्च हिन्दुओं में विभेद और वैमनस्य पैदा कर एक राष्ट्रीय समाज को अ-राष्ट्रीय बना रहा है। चर्च-मिशनरी, और मस्जिद-मदरसे सिर्फ अपने मत का प्रचार नहीं कर रहे बल्कि विदेशी धन-बल से भारतीय और राष्ट्रीय हितों के विरूद्ध कार्य कर रहे हैं। क्या किसी मंदिर में चर्च और मस्जिद की तरह मतान्तरण होता है या वहां अ-राष्ट्रीयता की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाता है? संघ ही क्यों कोई भी राष्ट्रवादी, हिन्दू या भारतीय अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारेगा। हां जिस दिन यह भरोसा हो जाये कि भारत के मस्जिद-मदरसे, चर्च-मिशनरी सब भारतीयता, हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के पोषक बनेंगे तब निश्चित ही प्रत्येक हिन्दू और संघ का स्वयंसेवक मंदिरों की तरह इनके संरक्षण के लिए भी आगे आयेगा। हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है। हिन्दुत्व एक धर्म है जो विभिन्न मंत-पंथों को अपने में समेटे विविधता में एकता का सूत्र है। यही सूत्र भारतीय राष्ट्रीयता है। इसे संघ मानता है। संघ विरोधी भी दबी जुबान यही बात कहते हैं। आज नहीं तो कल वे स्पष्ट और खुलेआम यह स्वीकारेंगे। आज नहीं तो कल उनकी अज्ञानता और निरक्षरता दूर होगी, संघ को इसका पूरा भरोसा है।

-अनिल सौमित्र

जिंदादिल कथाकार मार्कण्डेय नहीं रहे

आज सुबह मार्क्सवादी आलोचक अरुण माहेश्वरी का फोन आया और बताया कि भाई मार्कण्डेय नहीं रहे। सुनकर धक्का लगा और बेहद कष्ट हुआ, विश्वास नहीं हो रहा था भाई मार्कण्डेय का मौत हो गयी है। अभी कुछ दिन पहले ही अरुण-सरला माहेश्वरी उन्हें अस्पताल जाकर देखकर आए थे और दो -तीन दिन पहले मार्कण्डेयजी की बेटी का भी फोन अरुण के पास आया था कि मार्कण्डेयजी ठीक हो रहे हैं और उन्हें एक-दो दिन में घर ले जाएंगे। लेकिन आज जब खबर मिली मार्कण्डेय जी का निधन हो गया तो बेहद कष्ट हुआ।

हिन्दी की जनवादी साहित्य परंपरा के निर्माण में मार्कण्डेय जी की अग्रणी भूमिका रही है। मार्कण्डेयजी सिर्फ साहित्यकार ही नहीं थे बल्कि साहित्य और लेखकों के संगठनकर्त्ता भी थे। साहित्य की प्रगतिशील परंपरा में स्वतंत्र भारत में जिन लेखकों ने साहित्यकारों के संगठन निर्माण में अग्रणी भूमिका अदा की थी उनमें मार्कण्डेयजी का योगदान सबसे ज्यादा था। इसके अलावा किसानों-मजदूरों के संघर्षों के प्रति उनमें गहरी निष्ठा थी, हिन्दी में ऐसे अनेक लेखक हैं जो पापुलिज्म के शिकार रहे हैं,लेकिन मार्कण्डेयजी ने कभी पापुलिज्म के आगे अपने विवेक और कलम को नहीं झुकने दिया।

स्वतंत्र भारत की साहित्य की परिवर्तनकामी परंपरा के समर्थ लेखक के रुप में मार्कण्डेय को हमेशा याद किया जाएगा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर उनसे कईबार मिलने और घंटों लंबी चर्चा करने का मौका मिला था। उनके व्यक्तित्व की सादगी, पारदर्शिता और विचारधारात्मक पैनापन मुझे हमेशा आकर्षित करता था। उनकी खूबी थी कि वे फिनोमिनाओं ज्यादा बारीकी से पेश करते थे, फिनोमिना या संवृत्तियों को विश्लेषित करने में उन्हें मजा आता था। हिन्दी लेखकों में बढ़ते गैर साहित्यिक रुझानों पर वे खासतौर पर चिन्तित रहते थे।

‘लेखक मंच’ के अनुरागजी ने लिखा है- ‘‘प्रेमचंद के बाद हिंदी कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन को पुनस्र्थापित करने वालों में मार्कण्डेय महत्वपूर्ण कथाकार थे। उन्होंने आम आदमी के जीवन में साहित्य में जगह दी। वह जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से थे।

1965 में उन्होंने माया के साहित्य महाविशेषांक का संपादन किया था। कई महत्वपूर्ण कहानीकार इसके बाद सामने आए। 1969 में उन्होंने साहित्यिक पत्रिका कथा का संपादन शुरू किया। इसके अभी तक 14 अंक ही निकल पाए हैं। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में पत्रिका को मील का पत्थर माना जाता है।

उन्होंने जीवनभर कोई नौकरी नहीं की। अग्निबीज, सेमल के फूल(उपन्यास), पान फूल, महुवे का पेड़, हंसा जाए अकेला, सहज और शुभ, भूदान, माही, बीच के लोग (कहानी संग्रह), सपने तुम्हारे थे (कविता संग्रह), कहानी की बात (आलोचनात्मक कृति), पत्थर और परछाइयां (एकांकी संग्रह) आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियां हैं। हलयोग (कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन है।

उनकी कहानियों का अंग्रेजी, रुसी, चीनी, जापानी, जर्मनी आदि में अनुवाद हो चुका है। उनकी रचनाओं पर 20 से अधिक शोध हुए हैं।

80 वर्षीय मार्कण्डेय को दो साल पहले गले का कैंसर हो गया था। इलाज से वह ठीक हो गए थे। अब आहार नली के पिछले हिस्से में कैंसर हो गया था। वह 1 फरवरी को इलाज के लिए दिल्ली आ गए थे। राजीव गांधी कैंसर अस्पताल, रोहिणी में उनका इलाज चल रहा था।’’

मिथिलेश श्रीवास्तव ने लिखा कि स्वर्गीय मार्कण्डेय जी ने अमृत राय पर एक संस्मरण लिखा था ‘भाई अमृत रायः कुछ यादें’, पेश हैं उसकी कुछ बानगी-

‘‘अमृत राय ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अमरनाथ झा छात्रावास में रहकर एमए किया। शायद आज कई लोगों को लगे कि यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन उस समय की परिस्थियों को देखते हुए यह बात सचमुच रेखांकित करने के योग्य है। तब के इलाहाबाद विश्वविद्यालय और एएन झा छात्रावास का नाम देश के संभ्रांत समाज से जुड़ा हुआ था। लोग आईसीएस बनने का सपना लेकर उसमें भर्ती होते थे। अंग्रेजियत का तो वहां बोलबाला था। भाषा ही नहीं वरन् रहन-सहन के विशेष स्तर के कारण उस छात्रावास में बड़े-बड़े अधिकारियों के पुत्र-कलत्र ही स्थान पाते थे, लेकिन अमृत भाई उसमें घुस ही नहीं गये वरन् एक छोटे से अण्डरवियर के ऊपर घुटने तक का नीचा कुर्ता पहनकर हॉस्टल से बाहर सड़क पर चाय पीने भी पहुंचने लगे। बताते हैं कि इस बात को लेकर पहले सख्त विरोध हुआ लेकिन अध्ययन और विशेषतः अंग्रेजी भाषा का सवाल आते ही लोग उनके सामने बगलें झांकने लगते थे। कहते हैं अमृत जी ने ‘कैपिटल’ को उसी समय बगल में दबाया और कुछ दिनों बाद तो वे लेनिन की पुस्तकें साथ लेकर विभाग भी जाने लगे।’’

आजादी के बाद की कहानी पर मार्कण्डेय की खास नजर थी, वे इस पहलू को लेकर चिन्तित भी थे कि हिन्दी में कहानी की आलोचन क जिस रुप में विकास होना चाहिए वह नहीं हो पाया है। आजादी के बाद लिखी जा रही आलोचना पर मार्कण्डेय ने लिखा ‘‘ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में कहानी चर्चा के केन्द्र में थी। लेकिन कथा-आलोचना की किसी परंपरा के अभाव में कुछ आलोयक नितान्त वैयक्तिक अथवा सैद्धान्तिक स्तरों पर कहानियों की समीक्षाएं किया करते थे। नए कहानी आन्दोलन की बहुआयामी प्रकृति का साथ देने के लिए कहानी के साथ आलोचना का जैसा विकास होना चाहिए था,वह हो नहीं पाया था। कविता की आलोचना पद्धति नयी कहानी की वास्तविक व्याख्या के लिए अक्षम थी।’’

मार्कण्डेय ने यह भी लिखा कि आजादी के बाद ‘‘ कुछ लोग इसे आजादी मानने को तैयार नहीं थे,कुछ लोग इसे राजनीतिक आजादी तो मानते थे लेकिन साम्राज्यवादी आर्थिक दबाब के रहते इसे जनता के लिए निरर्थक समझते थे। तरह-तरह की शंकाओं ,विचारों, और परिभाषाओं ने तत्कालीन सामाजिक जीवन को उद्वेलित कर रखा था। लेकिन देश के पूंजीवादी नेतृत्व की असफलता पर व्यापक सहमति थी। अव्यवस्था और साम्प्रदायिक दंगों ने देश को जड़ से हिला दिया था। महात्मा की राम-राज्य की परिकल्पना के चलते कायदे आजम मुस्लिम राज्य बन गया था। ऐसे संक्रांति- काल में लेखकों को झूठे आदर्शों में उलझाए रखना अथवा देश की वर्तमान स्थितियों से अलग कोई वैचारिक पाठ पढ़ाना संभव नहीं रह गया था। इसलिए परिवेश ही सत्य बन गया था, और सब सत्याभास।’’ हिन्दी कथा साहित्य में मार्कण्डेय सबसे प्रखर विचारक कहानीकार-संगठनकर्त्ता और जिंदादिल इंसान थे। उनके निधन से हिन्दी साहित्य और लेखक संगठनों, की अपूरणीय क्षति हुई है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बंगाल में सियासी सूनामी से आशंकित वामपंथी

परिवर्तन की सुनामी से ग्रसित पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को कुछ ही दिनों में एक और बड़े तूफ़ान से मुखातिब होना है. यह तूफ़ान सुनामी से भी बड़ा हो सकता है और वामपंथियों के गढ़ को उखाड़ कर फेंक सकता है. इसी खौफ से घबराये सत्तारूढ़ मोर्चे के आला नेताओं की नींद हराम है.

बंगाल में इसी जून महीने में निचले निकायों के चुनाव होने हैं. इनमे कोलकाता नगर निगम सहित कई म्युनिसिपल्टी शामिल हैं. अगले साल विधानसभा चुनाव न होता तो कोई भी पार्टी इसे आरपार की भावना से न देखती. तीन दशकों में यह पहला मौका है जब वाम खेमे को तम्बू हिलता दिख रहा है. रायटर्स बिल्डिंग की दहलीज से चंद कदम दूर खडी ममता बनर्जी ने बंगाल में सत्ता बदलने का जो फार्मेट तैयार कर रखा है, उसमे इन चुनावों को काफी महत्वपूर्ण दर्जा दिया गया है.

ममता जानती हैं कि गठबंधन की राजनीति के कारण २००५ की तरह वे सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतार पाएंगी, इसीलिए उन्होंने पहले चरण में १०० फीसद जीत की सम्भावना वाले इलाकों की शिनाख्त कर ली है. कांग्रेस के साथ सीटों के सौदे के दौरान होने वाली तकरार को भांपते हुए ममता ने कांग्रेस की प्रायरिटी वाली कुछ सीटें छोड़ने का भी मन बना रखा है. हालांकि वे जानती हैं कि स्थानीय कांग्रेसियों के दबाव के कारण उन्हें कुछ सीटें छोडनी पड़ सकती हैं. पर विधानसभा में लम्बे फायदे को नजर में रखते हुए ममता निचले निकायों में पूरी चतुराई के साथ सौदेबाजी करेंगी.

बंगाल की जनता को पिछले एक साल में रेल सेवा के माध्यम से एक पर एक उपहार देती जा रही ममता वोट बैंक में सेंधमारी का कोई मौका नहीं छोड़ रही हैं. इसका ताजा उदाहरण मटूआ महासंघ का डेढ़ करोड़ मतदाताओं का विशाल वोटबैंक है, जो लगाताल वामपंथियों के कब्जे में रहने के बाद पहली बार पूरी तरह ममता बनर्जी की झोली में आ गया है। इस समाज ने ममता बनर्जी को अपना मुख्य संरक्षक तक बना डाला है। मटुआ समाज बंगाल में दलितों का विशाल समुदाय है, जिसके अनुयायी राज्य के 74 विधानसभा क्षेत्रों में फैले हुए हैं। महासंघ पर ममता की पकड़ का अन्दाज इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों जब मुख्य सेविका (जिनका आदेश पूरे समाज के लिए अध्यादेश से कम नहीं होता) ममता बनर्जी के साथ बैठक कर रही थीं, उसी समय वहां पहुंचे एक कद्दावर वामपंथी नेता को उल्टे पांव वहां से खिसकना पड़ा था। नेताजी शायद उन दोनों की बैठक के भाव ताडऩे गए थे, पर बेचारे को बाद में सफाई देनी पड़ी कि उन्हें ममता बनर्जी के आने की जानकारी नहीं थी। इसी से समझा जा सकता है कि मटूआ महासंघ वामपंथियों को आने वाले चुनाव में किस कदर कंगाल करने पर आमादा है। यही हाल वामपंथियों के दुलारे रहे अल्पसंख्यक मतदाताओं का है। जिन मुसलमानो के वोटबैंक को वामपंथियों ने मनमाफिक इस्तेमाल किया, वे भी अब पूरी तरह रूठ चुके हैं। आलम यह कि उन्हें मनाने की गरज से मुख्यमंत्री को सरकारी नौकरी में 10 फीसद आरक्षण का लॉलीपाप दिखाना पड़ता है। पर मुसलमान समझ चुके हैं कि मुख्यमंत्री का यह दांव चलने वाला नहीं है। धर्म के आधार पर सरकारी नौकरी का प्रस्ताव पहले ही आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने खारिज कर रखा है, जाहिर है बंगाल में भी इसका यही हाल होता दीख रहा है।

बहरहाल, बंगाल का मौजूदा सियासी माहौल वामपंथियों के लिए सुखद नहीं है। सियासी सुनामी की आशंका से ग्रसित माकपाई नेतृत्व अगले चुनाव में बुद्धदेव भट्टाचार्य को कप्तान बतौर पेश करने पर भी दुबारा गौर कर रहा है। जिन जिलों में निचले निकाय के चुनाव होने हैं, वहां ममता बनर्जी की सभा कराने की होड़ लगी हुयी है, जबकि वामपंथी खेमे में मुख्यमंत्री जिलों से सभाओं के बुलावे को तरस रहे हैं।

-प्रकाश चण्डालिया

पहला ही दांव फुस्स निकला गडकरी का

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महाराष्ट्र सूबे के एक साधारण कार्यकर्ता से उठकर भारतीय जनता पार्टी के सिंहासन पर आरूढ होने वाले नितिन गडकरी का नाम जैसे ही राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए चला, सभी चौंक गए थे। संघ के वरदहस्त के चलते उनकी ताजपोशी भी हो गई। जब लोगों ने गडकरी की उमर और पहनावा देखा तो लोगों को लगा कि आने वाले समय में भाजपा अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदलने जा रही है। गडकरी अपेक्षाकृत युवा अध्यक्ष और कुर्ता पायजामा या धोती कुर्ता से इतर आज के परिवेश के हिसाब से पतलून कमीज पहनने के आदी हैं। शायद ही कोई हो जिसने गडकरी को नेतागिरी की परंपरागत पोषाक में देखा हो।

देखा जाए तो नितिन गडकरी स्वयं भी जनाधार वाले नेता नहीं कहे जा सकते हैं। कल तक विदर्भ की राजनीति करने वाले एक शख्स को अनायास ही उठाकर राष्ट्रीय परिदृश्य में बिठा दिया जाए वह भी मुखिया बनाकर तो उसे अपने आप को इसके अनुरूप ढालने में समय लगना लाजिमी है। चाहे जो भी हो पर एक बात तो उभरकर सामने आ ही गई है कि गडकरी को भले ही दिल्ली में धसके किले की कमान सौंपी गई हो पर वे नागपुर का अपना मोह नहीं छोड पा रहे हैं। अध्यक्ष बनने की अनाधिकारिक घोषणा के उपरांत उनका ज्यादा से ज्यादा समय नागपुर में ही बीता है। नागपुर में संघ का मुख्यालय भी है, मगर यह इतर बात है। देखा जाए तो गडकरी को अपना समय दिल्ली सहित अन्य सूबों में ही बिताना चाहिए था, वस्तुत: जो गडकरी ने किया नहीं।

इसके अलावा भले ही गडकरी मिशन 2014 लेकर चल रहे हों, पर उनके अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा की धार वैसी ही बोथरी नजर आ रही है, जैसी कि पहले थी। केंद्र सरकार नित नए मामले दे रही है, विपक्ष को जिनको मुद्दा बनाकर भाजपा चाहे तो सडकों पर उतर सकती है। मंहगाई ही एक एसा मुद्दा है, जिस पर कांग्रेस को घेरा जा सकता है। भाजपा के साथ विडम्बना यह है कि अब भाजपा में रीढ विहीन लोगों को कमान सौंपी गई है, जिससे आम जनता के साथ जुडने की बात उनके जेहन में आ ही नहीं रही है। भाजपा के पिछले चंद सालों के आचरण को देखकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा द्वारा अब भी एसा ही माना जा रहा है कि वह सत्ता में है, और चारों ओर रामराज्य है।

बहरहाल टीम गडकरी को देखकर साफ लगने लगा है कि भाजपा अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तैयार किए गए रोडमेप पर सवारी गाठने को तैयार है। पार्टी के संसदीय बोर्ड में मुसलमानों की जिस कदर उपेक्षा और हिन्दुत्व के लिए आग उगलने वाले वरूण गांधी को जिस तरह का वजन दिया गया है, उससे साफ हो गया है कि भाजपा अब हिन्दुत्व के मुद्दे को जोरदारी से उठाने की तैयारी में है। लोग यह अवश्य ही कह रहे हों कि भाजपा अपने गांधी (वरूण) को कांग्रेस के गांधी (राहुल) की काट के लिए तैयार कर ही है, पर राहुल के सामने वरूण का कद और सोच काफी बौनी ही नजर आती है।

महिलाओं के मामले में टीम गडकरी ने बाजी मार ली है। 13 महिलाओं को आसनी प्रदान कर गडकरी ने महिलाओं में एक अच्छा संदेश देने का प्रयास किया है, किन्तु दूसरी ओर राजस्थान की पूर्व निजाम वसुंधरा राजे को महासचिव जैसी महती जवाबदारी देकर नितिन गडकरी खुद की बखिया उधडवाने से नहीं बच पाएंगे। वसुंधरा राजे वे ही हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के न केवल संगीन आरोप लगे थे, वरन उन्होंने पार्टी के संसदीय बोर्ड के आदेशों को धता बताते हुए विधायक दल के नेता का पद नहीं छोडा था। ये वे ही वसुंधरा हैं, जिन्होंने भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह को नाकों चने चबवा दिए थे। इसी तरह विनय कटियार जो कल तक भाजपा के खिलाफ जहर उगल रहे थे, उन्हें महत्वपूर्ण आसन दिया गया है। वहीं भाजपा के थिंक टैंक रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रहलाद सिंह पटेल की भी गडकरी ने उपेक्षा की है। माना जा रहा था कि प्रहलाद पटेल की सकारात्मक सोच का लाभ पार्टी को मिल सके इसलिए उन्हें संसदीय बोर्ड में स्थान दिया जाना चाहिए था।

वैसे टीम गडकरी पहले की तुलना में काफी जवान दिख रही है। इसमें अनेक क्षत्रों को पूरी तरह उपेक्षित रखा जाना समझ से परे ही है। बिहार जहां इस साल चुनाव होने हैं, वहां से पर्याप्त नेतृत्व नहीं दिख रहा है। दक्षिण और पूर्वोत्तर भी कमजोर ही प्रतीत हो रहा है। दक्षिण से अनंत कुमार के अलावा किसी और को नहीं लिए जाने के प्रतिकूल परिणाम पार्टी को भुगतना पड सकता है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। मध्य प्रदेश से अलबत्ता दो महसचिव बना दिए गए हैं, माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को काबू में करने इस तरह का काम किया गया हो। वैसे भी शिवराज सिंह चौहान का कद एकाएक राष्ट्रीय परिदृश्य में बढता प्रतीत हो रहा है। उधर मुक्त कंठ से नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करने के बाद भी उन्हें संसदीय बोर्ड में स्थान न देने का कारण समझ से ही परे है।

देखा जाए तो टीम गडकरी में वरूण गांधी, नवजोत सिंह सिध्दू, सरोज पांडे, वाणी त्रिपाठी, मुरली धर राव, धर्मेंद्र प्रधान जैसे युवा तो विजय गोयल, अनंत कुमार, थांवर चंद गहलोत, अर्जुन मुण्डा, नरेंद्र तोमर, जगत प्रसाद जैसे अनुभवी लोगों का शुमार है। पर एक बात अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर नितिन गडकरी को ग्लेमर की मदद लेने की क्या जरूरत पड गई। भीड जुटाने वाली ड्रीम गर्ल हेमा मलिनी को उपाध्यक्ष तो छोटे पर्दे की अदाकारा स्मृति ईरानी को सचिव बनाया गया है। इसके अलावा किरण खेर और शायना एनसी को कार्यकारिणी सदस्य के रूप में शामिल किया गया है। रूपहले पर्दे के इन अदाकारों के साथ भीड तो जुटाई जा सकती है, किन्तु भीड को वोट में तब्दील करने की जादुगरी के लिए गडकरी को मंझे हुए चाणक्य ही चाहिए होंगे, जिनकी कमी साफ तौर पर परिलक्षित हो रही है।

गडकरी ने किसके कहने पर इस तरह की टीम का गठन किया है, इस बात को वे ही बेहतर जानते होंगे किन्तु टीम गडकरी की घोषणा के साथ ही अब इसके खिलाफ असंतोष का लावा खदबदाने लगा है। लोग दबी जुबान से यह भी कह रहे हैं कि जिन लोगों को टीम गडकरी में उपकृत किया गया है, वे जनाधारविहीन लोग ही हैं, और इनके सहारे 10 फीसदी वोट बैंक बढाने की बात सोचना भी बेमानी ही होगा। महासचिव और उपाध्यक्ष की फेहरिस्त में ही आधा दर्जन राज्य सभा सदस्य हैं। थांवर चंद गहलोत और विजय गोयल लोकसभा तो धर्मेंद प्रधान विधानसभा का चुनाव हार चुके हैं। योग्य और सक्षम लोगों के बजाए जिन लोगों को टीम गडकरी में स्थान मिला है, उससे असंतोष पनपना स्वाभाविक ही है, अब देखना यह है कि इस सबसे संघ के मानस पुत्र नितिन गडकरी कैसे निपट पाते हैं।

-लिमटी खरे

पोर्नोग्राफी के धंधे में कारपोरेट घरानों की बल्ले-बल्ले

पोर्न संस्कृति का कारपोरेट संस्कृति के साथ गहरा याराना है। कारपोरेट संस्कृति का जो लोग रात-दिन गीत गाते रहते हैं, वे इसके सांस्कृतिक आयाम पर कभी बात नहीं करते। कारपोरेट संस्कृति के विकास में पोर्न संस्कृति का महत्वपूर्ण अवदान है। आंकड़े बताते हैं कि कारपोरेट संस्कृति के माध्यम से पोर्न ने बहुत मोटा कारोबार किया है। एक अनुमान के अनुसार पोर्न उद्योग का कारोबार अकेले अमेरिका में 10-14 विलियन डालर के करीब है। ये आंकड़े फार्चून पत्रिका के हैं। इस पत्रिका यह भी मानना है कि ये आंकड़े कम करके लगाए गए हैं। असल आंकड़ा इससे काफी अधिक होगा।

फॉरविस पत्रिका ने अनुमान लगाया है कि सारी दुनिया में पोर्न का कारोबार 56 विलियन डालर से ज्यादा का है। इसमें वयस्क वीडियो 20 विलियन डालर, सेक्स क्लब 5 विलियन डालर, मैगजीन साढ़े सात विलियन डालर,फोनसेक्स साढ़े चार विलियन डालर, घूमंतू सेवाएं 11 विलियन डालर, केबल, सैटेलाइट, भुगतान टीवी ढाई विलियन डालर, सीडी और डीवीडी रोम डेढ विलियन डालर, इंटरनेट (बिक्री और सदस्यता) डेढ़ विलियन डालर, अन्य रूपों में पोर्न का कारोबार तीन विलियन डालर से ज्यादा का आंका गया है।

जेनेट एम लारोइ ने ”दि पोर्न रिंग एराउण्ड दि कारपोरेट ह्नाइट कॉलर्स: गेटिंग फिल्थी रिच” नामक निबंध में लिखा है कि पोर्न से मोटा मुनाफा कमाने वालों में दुनिया के सबसे कारपोरेट घरानों में प्रमुख हैं- एटी एंड टी, एमसीआई,टाइम वारनर, कॉमकास्ट, इको स्टार कम्युनिकेशन, जनरल मोटर का डायरेक्ट टीवी, हिल्टन, मारीओत्त, शेरेटॉन, रेडीसन, वीसा, मास्टर कार्ड, अमेरिकन एक्सप्रेस आदि।

मीडिया में कारपोरेट घरानों के मालिक संसार के अनेक विषयों पर बात करते नजर आएंगे किन्तु सेक्स के बारे में अपने व्यापार के सेक्स उद्योग के बारे में बातें करते नजर नहीं आएंगे। पोर्न में भी हार्डकोर पोर्न अमेरिका में दण्डनीय अपराध है। कोई व्यक्ति पोर्न देखे या बेचे या प्रसार करे तो उसके खिलाफ फेडरल कानूनों के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है।

कारपोरेट सेक्टर र्पोर्न से कैसे धन कमाता रहा है इसके कुछ नमूने देखें तो बात साफ तौर पर समझ में आ जाएगी। मसलन् होटल उद्योग को ही लें पांच सितारा होटलों में अग्रणी मारओत्त और हिल्टन ने पोर्न के जरिए प्रति वर्ष 190 मिलियन डालर का कारोबार किया। यह कारोबार रूम में पोर्न वीडियो सेवाओं के जरिए हासिल किया गया। आप यदि व्यवसायिक होटलों में जाकर ठहरें तो पाएंगे कि वहां पर आने व्यापारी और उनके आला कर्मचारी किस तरह बेतहाशा पोर्न का आनंद लेते हैं। पोर्न के मुनाफे का अस्सी फीसदी पैसा इन होटलों में वयस्क फिल्मों के दिखाने से आता है। इस आमदनी में से पांच से लेकर दस फीसदी पैसा होटल के मालिक ले लेते हैं। बाकी पोर्न उद्योग को दे दिया जाता है। मारओत्त, शेरेटन और हिल्टन होटल समूह ने अकेले अमेरिका में सालाना 250 मिलियन डालर का कारोबार किया है। इसमें सबसे ज्यादा आमदनी वयस्क वीडियो फिल्मों के जरिए हुई है। न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज की सूची में शामिल ”ऑन कमाण्ड” और ”लॉज इंटरटेनमेंट” ने पन्द्रह लाख होटल के कमरों में पोर्न वितरण किया है। ” ऑन डिमाण्ड” प्रति रूम 23 डालर चार्ज वसूल करता है और कुल आठ लाख पैंतीस हजार कमरों में पोर्न का वितरण करता है।

विश्लेषकों का मानना है कि उसका आधे से ज्यादा मुनाफा पोर्न से आता है।यानी तकरीबन 115 मिलियन डालर की आमदनी उसे पोर्न से होती है। जबकि ”लॉज नेट” सालाना 180 मिलियन डालर पोर्न प्रसारण से कमाता है।

सैटेलाइट, केबल और भुगतान टीवी के माध्यम से पोर्न उद्योग की आमदनी हॉलीवुड फिल्मों की आमदनी से दुगुना है। जीएम कंपनी का डायरेक्ट टीवी पोर्न नेटवर्क का सालाना मुनाफा 200 मिलियन डालर से ज्यादा आंका गया है।

डायरेक्ट टीवी में विस्तृत कामुक दृश्यों की भरमार होती है। फॉरविस पत्रिका के सन् 2000 के अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार अमेरिकी सैटेलाइट और केबल उद्योग ने पोर्न के प्रसारण के माध्यम से 310 मिलियन डालर का कारोबार किया है। ”इकोस्टार” सैटेलाइट कंपनी पोर्न से सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कपनी है। इस कंपनी ने सन् 2001 में 269.8मिलियन डालर का कारोबार किया। इसके अलावा पोर्न से मुनाफा कमाने वालों में अग्रणी कतार में टाइम वारनर का नाम आता है। यह कंपनी प्लेबॉय, स्पाइसी, स्पाइसी 2 और विविड इंटरटेनमेंट के जरिए अपना पोर्न कारोबार करती है। इनमें से अकेले विविड इंटरटेनमेंट ने ही 70 मिलियन डालर का कारोबार किया है।

वयस्क फिल्मों की सबसे बड़ी वितरक निर्माता कंपनी न्यू फ्रंटियर मीडिया के सीइओ मार्क क्रेलाँफ ने कहा कि अमेरिका में प्रति घर औसतन तीन पोर्न फिल्मों की खरीद होती है। ये फिल्में 7.85 – 10.95 डालर प्रति फिल्म की दर से बिकती हैं। प्रत्येक फिल्म 90 मिनट की होती है। एटी एंड टी हार्डकोर पोर्न फिल्में पेश करता है। ये फिल्में हॉट नेटवर्क केबल चैनल के जरिए पेश की जाती है। एटी एंड टी ने कामकास्ट के साथ मर्जर करके अमेरिका में सबसे बड़े ग्राहक समूह पर कब्जा जमा लिया है।

आज स्थिति यह है कि अमेरिका में उसके पास 22 मिलियन ग्राहक हैं।यह सबसे बड़ी पोर्न पेश करने वाली केबल कंपनी भी है। इसी तरह एटी एंड टी ने एमसीआई वर्ल्डकॉम के साथ फोन सेक्स का कारोबार किया है।जिसके जरिए वह सालाना एक विलियन डालर कमा रही हैं। जो कंपनियां इस क्षेत्र में कारोबार कर रही हैं वे हैं- एटीएंड टी,जनरल मोटर्स की डायरेक्ट टीवी, कॉक्स कम्युनिकेशन, कॉमकास्ट कारपोशन, केबलविजन सिस्टम,चार्टर कम्युनिकेशन, मीडिया वन, इनसाइड कम्युनिकेशन, जीटीइ, एसएनइटी, यूएस वेस्ट, डिस नेटवर्क, इको स्टार आदि।

पोर्न उद्योग से मोटी कमाई करने वालों में क्रेडिट कार्ड जारी करने वाली बैंकों के कारपोरेट हाउस भी अग्रणी कतारों में हैं। ई-पोर्न का कारोबार 35 मिलियन प्रति माह का है।वयस्क वेबसाइट से खरीददारी का सालाना कारोबार 3-4 विलियन डालर का है। इसमें 90 फीसदी खरीदारी क्रेडिट कार्ड के जरिए होती है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

खेतों से थाली तक पहुंचा ‘स्लो पॉयज़न’

कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जहां कृषि भूमि के बंजर होने का खतरा पैदा हो गया है, वहीं कृषि उत्पाद भी जहरीले हो गए हैं। अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्जियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं। इसके बावजूद अधिक उत्पादन की लालसा में देश में डीडीटी जैसे प्रतिबंधित कीटनाशकों का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। अकेले हरियाणा की कृषि भूमि हर साल एक हजार रुपए से ज्यादा के कीटनाशक निगल जाती है।

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कीट विज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से कृषि भूमि पर होने वाले असर को जांचने के लिए मिट्टी के 50 नमूने लिए। ये नमूने उन इलाकों से लिए गए थे, जहां कपास की फसल उगाई गई थी और उन पर कीटनाशकों का कई बार छिड़काव किया गया था। इसके साथ ही उन इलाकों के भी नमूने लिए गए, जहां कपास उगाई गई थी, लेकिन वहां कीटनाशकों का छिड़काव नहीं किया गया था। इन दोनों ही तरह के मिट्टी के नमूनों के परीक्षण में पाया गया कि कीटनाशकों के छिड़काव वाली कपास के खेत की मिट्टी में छह प्रकार के कीटनाशकों के तत्व पाए गए, जिनमें मेटासिस्टोक्स, एंडोसल्फान, साइपरमैथरीन, क्लोरो पाइरीफास, क्वीनलफास और ट्राइजोफास शामिल हैं। मिट्टी में इन कीटनाशकों की मात्रा 0.01 से 0.1 पीपीएम पाई गई। इन कीटनाशकों का इस्तेमाल कपास को विभिन्न प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए किया जाता है। प्रदेश में वर्ष 1970-71 में कीटनाशकों की खपत महज 412 टन थी, 1990-91 में बढ़कर 5164 टन हो गई है। कीटनाशकों की लगातार बढ़ती खपत से कृषि वैज्ञानिक भी हैरान और चिंतित हैं। कीटनाशकों से जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है। इस प्रदूषित जल से फल और सब्जियों का उत्पादन तो बढ़ जाता है, लेकिन उनके हानिकारक तत्व फलों और सब्जियों में समा जाते हैं।

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों का होना भविष्य में घातक सिध्द होगा, क्योंकि मिट्टी के जहरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ेगा। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होगी और फसलों की उत्पादकता पर भी प्रभावित होगी। साथ ही मिट्टी में कीटना इन अवशेषों का सीधा असर फसलों की उत्पादकता पर पड़ेगा। साथ ही मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों की मौजूदगी का असर जैविक प्रक्रियाओं पर भी पड़ेगा। उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित ही कर सकते। इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है। अगर भूमि जहरीली हो गई तो बैक्टीरिया की तादाद पर प्रभावित होगी।

स्वासथ्‍य विशेषज्ञों का कहना है कि जहरीले रसायन अनाज, दलहन और फल-सब्जियों के साथ मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। फलों और सब्जियों अच्छी तरह से धोने से इनका ऊपरी आवरण तो स्वच्छ कर लिया जाता है, लेकिन इनमें मौजूद विषैले तत्वों को अपने भोजन से दूर करने का कोई तरीका नहीं है। इसी स्लो पॉयजन से लोग कैंसर, एलर्जी, हार्ट, पेट, शुगर, रक्त विकार और आंखों की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं।

इतना ही नहीं, पशुओं को लगाए जाने वाले ऑक्सीटॉक्सिन के इंजेक्शन से दूध भी जहरीला होता जा रहा है। अब तो यह इंजेक्शन फल और सब्जियों के पौधों और बेलों में भी धड़ल्ले से लगाया जा रहा है। ऑक्सीटॉक्सिन के तत्व वाले दूध, फल और सब्जियों से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।

बहरहाल, मौजूदा दौर में कीटनाशकों के पर पूरी तरह पाबंदी लगाना मुमकिन नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इनका इस्तेमाल सही समय पर और सही मात्रा में किया जाए।

-फ़िरदौस ख़ान

बरेली दंगों का सच

होली के दिन उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में मुसलमानों के जुलूस के दौरान हिंसा भड़क उठी थी। दंगों को लेकर देशभर में काफी आरोप प्रत्यारोप हुए। कई प्रकार की बातें कही गईं। लेकिन इन दंगों की सत्यता क्या थी, इस बारे में देशभर की मीडिया लगभग मौन सी ही रही है। इन दंगों के संदर्भ में पवन कुमार अरविंद ने काफी पड़ताल की है, उसके आधार पर ये बातें स्पष्ट तौर पर कही जा सकती हैं कि दंगों और उसके बाद के घटनाक्रम के संबंध में सरकार का रवैया तो पक्षपातपूर्ण रहा ही, मीडिया के एक वर्ग में भी निष्पक्षता का काफी अभाव दिखा। प्रस्तुत है एक रिपोर्ट –

बरेली में सांप्रदायिक दंगा राज्य की बसपा सरकार और कांग्रेस की मिलीभगत का परिणाम है। एक दम शांत माहौल में एकाएक दंगा भड़क उठना राज्य सरकार की कानून व्यवस्था और वोट बैंक की तुच्छ राजनीति पर कई प्रश्न खड़े करता है। पहली बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश काफी समय से सांप्रदायिक दंगों से मुक्त रहा है। पिछले वर्षो में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और वैमनस्य बढ़ाने के प्रयास किए गए लेकिन सांप्रदायिक हिंसा से यह प्रदेश बचा रहा।

दंगों की पृष्ठभूमि और शुरुआत

यह दंगा हिंदुओं के त्योहार होली के दिन इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्म दिवस यानि बारावफात के उपलक्ष्य में मुसलमानों द्वारा निकाले जुलूस के दौरान हुई झड़प से शुरू हुआ। हालांकि, इसके लिए जमीन तो काफी पहले से बननी शुरू हो गई थी। किसी भी दंगे का तात्कालिक कारण चाहे जो भी हो लेकिन उसके लिए तैयारियां काफी पहले से की जाती हैं और यदि प्रशासन एवं समाज की नजरें तेज हों तो आमतौर पर हवा में तैरते अंदेशों को पढ़ा जा सकता है।

ये बातें भी कम प्रश्नवाचक नहीं हैं कि आखिर दो मार्च को होली के दिन भी मुहम्मद साहब के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक बार पुनः जुलूस-ए-मुहम्मदी निकालने का मुस्लिम समाज द्वारा निर्णय किया गया। जबकि, मोहम्मद साहब का जन्मदिवस तो 27 फरवरी को था, और इस अवसर पर निकाला जाने वाला परंपरागत ‘जुलूस-ए-मुहम्मदी’ उसी दिन निकाला जा चुका था। हालांकि, इससे पहले कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि उनके जन्मदिवस पर अलग-अलग दिनों में दो बार जुलूस निकाला गया हो।

सूत्र बताते हैं कि जुलूस की अनुमति प्रशासन ने आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर रजा खाँ और एक कांग्रेसी सांसद के दबाव में आकर दिया। जबकि प्रशासन इसकी अनुमति न देकर इस हादसे को होने से रोक भी सकता था।

ध्यातव्य हो कि आईएमसी एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है, जिसने बीते लोकसभा चुनाव में प्रदेश के 4 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इसके पहले यह दल अन्य दलों को चुनावों में समर्थन देता रहा है।

आखिर, एकाएक अमन पसंद मोहल्लों को दंगे की आग में कैसे और किसने झोंक दिया? पुलिस कहती है कि सबकुछ अचानक हो गया। मगर, हालात कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं।

खुफिया एजेंसियों की पड़ताल भी पुलिस से अलग जा रही है। इशारा खतरनाक साजिश की तरफ है। दंगा पूर्व सुनियोजित था। जुलूस में शामिल कुछ मुसलमान युवक पूरी तैयारी से थे। भीड़ का फायदा उठाकर उपद्रवी हाथियारों से लैस होकर पहले हर तरफ फैल चुके थे। इसीलिए शहर के चाहबाई क्षेत्र में विवाद होते ही जगह-जगह आगजनी होने लगी। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जुलूस में शामिल बाहर के लोगों के पास पेट्रोल से भरी बोतलें, माचिस और गड़ासे कहां से आए?

मंगलवार को करीब ढाई बजे जुलूस-ए-मुहम्मदी अपने पूरे रंग में था। अंजुमनों की टुकड़ियां शांति पूर्वक अपने रास्तों से होती हुई कोहाड़ापीर की तरफ बढ़ रही थीं। अचानक सबकुछ थम सा गया।

पुलिस के मुताबिक, अंजुमन चाहबाई के परंपरागत रास्ते की बजाय दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ गई थी, जिसका दूसरे पक्ष ने विरोध किया। असल में वह रास्ता अंजुमन का नहीं था। पुलिस समझौता करा रही थी। इसी बीच बवाल शुरू हो गया, लेकिन सिर्फ इतनी बात पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे? यह बात कम से कम उन लोगों के गले नहीं उतर रही, जिन्होंने दंगों का दंश झेला, बर्बादी झेली। मौत को आंखों के सामने नाचते देखा।

सामाजिक कार्यकर्ता श्री अरूण खुराना कहते हैं कि जिस जगह रास्ते को लेकर विवाद हुआ, वह झगड़ा तकरीबन शांत हो गया था। इसी दौरान भीड़ में शामिल कुछ खुराफातियों ने माहौल भड़काने के लिए राह चलती हिंदू लड़कियों और महिलाओं से छेड़छाड़ शुरू कर दी, जिस पर दूसरे पक्ष ने कड़ा विरोध जताया। किसी ने पत्थर भी फेंक दिया, जिसके जवाब में दूसरा पक्ष भी शोरशराबा करने लगा। मौका देखकर भीड़ में पहले से शामिल उपद्रवियों ने आगजनी और तोड़फोड़ शुरू कर दी। उनके हाथों में पेट्रोल से भरी बोतलें और माचिसें थीं, गड़ासे भी थे। वह पहले से चिन्हित घरों में लूटपाट करते और पेट्रोल छिड़ककर आग लगा देते। गंड़ासे गर्दन पर रखकर महिलाओं के गहने और नकदी लूटी गई।

उन्होंने बताया कि उपद्रवियों ने हिंदू लड़कियों और महिलाओं के साथ बदसलूकी की सारे हदें पार कर दीं। यही कोहाड़ापीर, शाहदाना, डेलापीर, संजयनगर, बानखाना क्षेत्रों में हुआ। वहां भी भीड़ में पहले से मौजूद दंगाइओं ने आगजनी शुरू कर दी।

हिंसक घटनाओं के मद्देनजर शहर के बारादरी, किला, प्रेमनगर और कोतवाली क्षेत्रों में उसी दिन शाम 6 बजे से बेमियादी कर्फ्यू लगा दिया गया, जो आज पंद्रहवें दिन भी जारी है। हालांकि, कर्फ्यू में ढील धीरे-धीरे बढ़ायी जा रही है। आज 17 मार्च को सुबह 6 बजे से शायंकाल 5 बजे तक ढील दी गई है।

सामाजिक कार्यकर्ता श्री रमेश बताते हैं कि दंगे की पूरी तैयारी कुछ दिन पहले ही कर ली गई थी। इसकी जानकारी पुलिस महकमे को भी थी लेकिन उसने चुप्पी साधे रखा।     ज्यादातर दंगाई किला, कोतवाली और प्रेमनगर इलाके में हुए दंगे के बाद किला इलाके में जाकर छिपे जो क‌र्फ्यू में छूट मिलने के बाद अपने ठिकानों पर भाग निकले।

तौकीर रजा नाटकीय ढंग से गिरफ्तार एवं रिहा

जुलूस-ए-मुहम्मदी को नए रास्ते से ले जाने का विरोध करने वाले हिंदुओं के खिलाफ जहरबयानी करते हुए तौकीर रजा खाँ ने कहा, ‘जिस व्यक्ति ने हमारे अंजुमनों को रोकने का प्रयास किया है, हम उसके घरों में आग लगाएंगे और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत के साथ खेलेंगे।’

तौकीर के इस बयाने के बाद शहरभर में हिंसा भड़क उठी थी। और उपद्रवियों ने आठ चिन्हित हिंदू घरों तथा करीब 12 दुकानों को आग के हवाले कर दिया। इसके अलावा दंगों के दिन से 17 हिंदू लड़कियां के गायब होने की सूचना मिली है, जिनमें से 6 लड़कियां वापस अपने घर आ गई हैं।

तौकीर रजा की गिरफ्तारी सात मार्च को हुई। उसकी गिरफ्तारी के विरोध में बरेली और आस-पास के जिलों से आकर करीब तीस हजार मुसलमान कर्फ्यू के बीच में ही इस्लामिया इंटर कालेज में लगातार 24 घंटे धरने पर बैठे रहे। इसी बीच राज्य शासन ने डीआईजी और डीएम का स्थानांतरण कर तौकीर रजा की रिहाई का मार्ग प्रशस्त कर दिया। नए डीआईजी और डीएम की नियुक्ति के बाद तौकीर रजा को रिहा कर दिया गया। उसकी रिहाई का समाचार सुनकर हिंदू समाज आक्रोशित हो गया।

ध्यातव्य हो कि जब हिंदू प्रताड़ित हो रहे थे तब सरकार को कोई सुधि नहीं थी लेकिन तौकीर रजा की गिरफ्तारी के बाद प्रशासन सक्रिय हो गया। प्रशासन का यह रवैया पक्षपातपूर्ण है।

वर्तमान में भारत जिस राह पर चल रहा है, उसमें धार्मिक या जातीय आधार पर झगड़ों के लिए गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन बरेली में सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं। दंगों में कोई भी पक्ष जीतता या हारता नहीं है, जीतते सिर्फ वे लोग हैं जिनके स्वार्थ सांप्रदायिक हिंसा से सिद्ध होते हैं और आम जनता चाहे वह किसी भी संप्रदाय की हो, जरूर हारती है। जहां भी सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, वहां स्थानीय निहित स्वार्थो ने योजनापूर्वक दंगे भड़काए हैं ।

बरेली में भी ऐसे तत्वों को पहचाना जा सकता है और प्रशासन को चाहिए कि उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करे और समाज को चाहिए कि उनका बहिष्कार करे। रोटी, कपड़ा, बिजली, पानी, विकास, सुरक्षा जैसे मुद्दे आम आदमी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो। इन समस्याओं को हल करते हुए समाज के लिए धर्म के नाम पर जूझने की फुरसत नहीं होनी चाहिए। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि बरेली की चिंगारी वहीं पर बुझा दी जाएगी और यह आग ओर नहीं भड़केगी।

-पवन कुमार अरविन्‍द

कोई क्यों बन जाता है नक्सली

नक्सली समस्या जिस विकराल रूप में आज हमारे सामने है उसने देश की व्यवस्था के सामने कई प्रश्न खड़े कर दिए हैं। यह सोचना बहुत रोमांचक है कि आखिर ऐसे कौन से हालात हैं जिनमें कोई व्यक्ति किसी अतिवादी विचार से प्रभावित होकर नक्सली बन जाता है। वो कौन से हालात है जिनमें एक सहज-सरल आदिवासी बंदूक उठाकर व्यवस्था को चुनौती देने के लिए खड़ा हो जाता है। अब हालात यह हैं कि नक्सलवादी संगठन लोगों को जबरिया भी नक्सली बना रहे हैं। हर घर से एक नौजवान देने की बात भी कई इलाकों मे नक्सलियों ने चलाई है।बीस राज्यों के 223 जिलों के दो हजार से अधिक थाना क्षेत्रों में फैला यह माओवादी आतंकवाद साधारण नहीं है।

यह सोच बेहद बचकानी है कि अभाव के चलते आदिवासी समाज नक्सलवाद की ओर बढ़ा है। आदिवासी अपने में ही बेहद संतोष के साथ रहने वाला समाज है। जिसकी जरूरतें बहुत सीमित हैं। यह बात जरूर है कि आज के विकास की रोशनी उन तक नहीं पहुंची है। नक्सलियों ने उनकी जिंदगी में दखल देकर हो सकता है उन्हें कुछ फौरी न्याय दिलाया भी हो, पर अब वे उसकी जो कीमत वसूल रहे हैं, वह बहुत भारी है। जिसने एक बड़े इलाके को युद्धभूमि में तब्दील कर दिया है। हां, इस बात के लिए इस अराजकता के सृजन को भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि इस बहाने इन उपेक्षित इलाकों और समाजों की ओर केंद्र सरकार गंभीरता से देखने लगी है। योजना आयोग भी आज कह रहा है कि इन समाजों की बेसिक जरूरतों को पूरा करना जरूरी है। यह सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र और हमारी आर्थिक योजनाओं की विफलता ही रही कि ये इलाके उग्रवाद का गढ़ बन गए। दूसरा बड़ा कारण राजनीतिक नेतृत्व की नाकामी रही। राजनैतिक दलों के स्थानीय नेताओं ने नक्सल समस्या के समाधान के बजाए उनसे राजनीतिक लाभ लिय़ा। उन्हें पैसे दिए, उनकी मदद से चुनाव जीते और जब यह भस्मासुर बन गए तो होश आया।

अब तक नक्सली आतंक के विस्तार का मूल कारण सामाजिक और आर्थिक ही बताया जा रहा है। कुछ विद्वान अपने रूमानीपने में इस नक्सली तेवर में क्रांति और जनमुक्ति का दर्शन भी तलाश लेते हैं। बावजूद इसके संकट अब इतने विकराल रूप में सामने है कि उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता। गरीबी, अशिक्षा, विकास और प्रशासन की पहुंच इन क्षेत्रों में न होना इसका बड़ा कारण बताया जा रहा। किंतु उग्रवाद को पोषित करने वाली विचारधारा तथा लोकतंत्र के प्रति अनास्था के चलते यह आंदोलन आम जन की सहानुभूति पाने में विफल है। साथ ही साथ विदेशी मदद और घातक हथियारों के उपयोग ने इस पूरे विचार को विवादों में ला दिया है। आम आदमी की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाली ये ताकतें किस तरह से समाज के सबसे आखिरी पंक्ति में खड़े आदमी की जिंदगी को दुरूह बना रही हैं बहुत आसानी से समझा जा सकता है। स्कूल, सड़क, बिजली और विकास के कोई भी प्रतीक इन नक्सलियों को नहीं सुहाते। इनके करमों का ही फलित है कि आदिवासी इलाकों के स्कूल या तो नक्सलियों ने उड़ा दिए हैं या उनमें सुरक्षा बलों का डेरा है। युद्ध जैसे हालात पैदाकर ये कौन सा राज लाना चाहते हैं। इसे समझना कठिन है। जमीन और प्राकृतिक संसाधनों से आदिवासियों की बेदखली और उनके उत्पीड़न से उपजी रूमानी क्रांति कल्पनाएं जरूर देश के बुद्धिजीवियों को दिखती हैं पर नक्सलियों के आगमन के बाद आम आदमी की जिंदगी में जो तबाही और असुरक्षाबोध पैदा हुआ है उसका क्या जवाब है। राज्य की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए तमाम फोरम हैं। राज्यों की पुलिस के तमाम बड़े अफसर सजा भोग रहे हैं, जेलों में हैं। किंतु आतिवादी ताकतों को आप किस तरह रोकेगें। राज्य का आतंक किसी भी आतिवादी आंदोलन के समर्थन करने की वजह नहीं बन सकता। बंदूक, राकेट लांचर और बमों से खून की होली खेलने वाली ऐसे जमातें जो हमारे सालों के संधर्ष से अर्जित लोकतंत्र को नष्ट करने का सपना देख रही हैं, जो वोट डालने वालों को रोकने और उनकी जान लेने की बात करती हैं उनके समर्थन में खड़े लोग यह तय करें कि क्या वे देश के प्रति वफादारी रखते हैं। विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यस्था और एक जीवंत लोकतंत्र के सामने जितनी बड़ी चुनौती ये नक्सली हैं उससे बड़ी चुनौती वे बुद्धिवादी हैं जिन्होंने बस्तर के जंगल तो नहीं देखे किंतु वहां के बारे में रूमानी कल्पनाएं कर कथित जनयुद्ध के किस्से लिखते हैं। यह देशद्रोह भी एक लोकतंत्र में ही चल सकता है। आपके कथित माओ के राज में यह मुक्त चिंतन नहीं चल सकता, इसीलिए इस देश में लोकतंत्र को बचाए रखना जरूरी है। क्योंकि लोकतंत्र ही एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें लोकतंत्र के विरोधी विमर्श और आंदोलन भी एक विचार के नाते स्वीकृति पाते हैं।

जिन्हें नक्सलवाद में इस देश का भविष्य नजर आ रहा है वे सावन के अंधों सरीखे हैं। वे भारत को जानते हैं, न भारत की शक्ति को। उन्हें विदेशी विचारों, विदेशी सोच और विदेशी पैसों पर पलने की आदत है। वे नहीं जानते कि यह देश कभी भी किसी अतिवादी विचार के साथ नहीं जी सकता। लोकतंत्र इस देश की सांसों में बसा है। यहां का आम आदमी किसी भी तरह के अतिवादी विचार के साथ खड़ा नहीं हो सकता। जंगलों में लगी आग किन ताकतों को ताकत दे रही है यह सोचने का समय आ गया है। भारत की आर्थिक प्रगति से किन्हें दर्द हो रहा है यह बहुत साफ है। आंखों पर किसी खास रंग का चश्मा हो तो सच दूर रहा जाता है। बस्तर के दर्द को, आदिवासी समाज के दर्द को वे महसूस नहीं कर सकते जो शहरों में बैठकर नक्सलियों की पैरवी में लगे हैं। जब झारखंड के फ्रांसिस इंदुरवर की गला रेतकर हत्या कर दी जाती है, जब बंगाल के पुलिस अफसर को युद्ध बंदी बना कर छोड़ा जाता है, राजनांदगांव जिले के एक सरपंच को गला रेतकर हत्या की जाती है, गढ़चिरौली में सत्रह पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी जाती है तब मानवाधिकारों के सेनानी और नक्सलियों के शुभचिंतक खामोश रहते हैं। उन्हें तो सारी परेशानी उस सलवा जूडूम से जो बस्तर के जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ हिम्मत से खड़ा है। पर इतना जरूर सोचिए जो मौत के पर्याय बन सके नक्सलियों के खिलाफ हिम्मत से खड़े हैं क्या उनकी निंदा होनी चाहिए। उनकी हिम्मत को दाद देने के बजाए हम सलवा जूडूम के खिलाफ लड़ रहे हैं। इस बुद्धिवादी जमात पर तरस खाने के अलावा क्या किया जा सकता है।

देश की सरकार को चाहिए कि वह उन सूत्रों की तलाश करे जिनसे नक्सली शक्ति पाते हैं। नक्सलियों का आर्थिक तंत्र तोड़ना भी बहुत जरूरी है। विचारधारा की विकृति व्याख्या कर रहे बुद्धिजीवियों को भी वैचारिक रूप से जवाब देना जरूरी है ताकि अब लगभग खूनी खेल खेलने में नक्सलियों को महिमामंडित करने से रोका जा सके। राजनीतिक नेतृत्व को भी अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए नक्सलियों के दमन, आदिवासी क्षेत्रों और समाज के सर्वांगीण विकास, वैचारिक प्रबोधन के साथ-साथ समाजवैज्ञानिकों के सहयोग से ऐसा रास्ता निकालना चाहिए ताकि दोबारा लोकतंत्र विरोधी ताकतें खून की होली न खेल सकें और हमारे जंगल, जल और जमीन के वास्तविक मालिक यानि आदिवासी समाज के लोग इस जनतंत्र में अपनी बेहतरी के रास्ते पा सकें। तंत्र की संवेदनशीलता और ईमानदारी से ही यह संकट टाला जा सकता है, हमने आज पहल तेज न की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

-संजय द्विवेदी

त्रासद अतीत से पलायन के खतरे

जब भी किसी चीज को सौंदर्यबोधीय चरम पर पहुँचा दिया जाता है उसे हम भूल जाते हैं। अब हमें विभीषिका की कम उसके कलात्मक सौंदर्यबोध की ज्यादा याद आती है। अब द्वितीय विश्वयुद्ध की तबाही की नहीं उसकी फिल्मी प्रस्तुतियों, टीवी प्रस्तुतियों के सौंदर्य में मजा आता है। सौंदर्यबोधीय रूपान्तरण त्रासदी को आनंद में तब्दील कर देता है। यह ऐसा आनंद है जो निष्क्रिय व्यक्ति का आनंद है। इस आनंद में न तो विरेचन है और न सक्रिय करने की क्षमता है। यह निज का विलोम है। फलत: जिस चीज से नफरत करनी चाहिए उससे प्यार करने लगते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को प्रभावित देशों में कोई भी नागरिक महसूस नहीं करता। उनके लिए द्वितीय विश्वयुद्ध गुजरे जमाने की चीज हो गई है। फिल्मी कलात्मक अभिव्यक्ति और आनंद का रूप है। कहने का तात्पर्य यह है कि इलैक्ट्रोनिक युग में लेखक जो कुछ भी रचता है रचने के बाद उसका स्वत: ही विलोम पैदा होता है।

इलैक्ट्रोनिक मीडिया के चहुँमुखी विकास ने विश्व चेतना से त्रासदी और उसके भयावह बोध को खत्म करने में केन्द्रीय भूमिका अदा की है। यही हाल भारत-विभाजन का हुआ। भारत-विभाजन को पहले फिल्मी और बाद में धारावाहिक बनाया। यह एक तरह से यथार्थ के संप्रेषण और अर्थ का हाइपररीयल में रूपान्तरण है। हाइपररीयल यथार्थ का चरम है। यथार्थ से सुंदर यथार्थ है।

नयी परिस्थितियों में साहित्य और लेखक संगठन के स्तर पर संचार के सभी चर्चाएं ‘क्लीचे’ की शक्ल में होती रही हैं। प्रगतिशील, जनवादी, क्रांतिकारी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष आदि पदबंधों का प्रयोग मूलत: ‘क्लीचे’ के रूप में हुआ है। इससे लेखक संगठनों को व्यापक ऑडिएंस मिली । इन पदबंधों का व्यापक अनुकरण हुआ। सरलीकरण हुआ। जब भी कोई पदबंध ‘क्लीचे’ बन जाता है तो अपना मूल अर्थ खो देता है। अब वह सिर्फ प्रतीक मात्र,कथन की रूढ़ि मात्र बनकर रह जाता है। आधुनिकता और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुई तमाम धारणाओं का क्रमश: इसी तरह लोप हुआ है। लोप से तात्पर्य है इन धारणाओं का अर्थहीन बन जाना, प्रभावहीन बन जाना। आम लोगों के द्वारा इनके अर्थ का अस्वीकार। इन पदबंधों का ‘क्लीचे’ के रूप में प्रसार इस तथ्य की सूचना है कि ये पदबंध अपने मूल अर्थ को खो चुके हैं।

जब भी कोई चीज ‘क्लीचे’ में तब्दील हो जाती है तो अपने मूल अर्थ को नष्ट कर देती है। ‘क्लीचे’ बनने के बाद ये पदबंध प्रतीकात्मक रेडीमेड मासकल्चर में तब्दील हो गए।

जब भी कोई पदबंध अथवा अवधारणा ‘क्लीचे’ बन जाती है अथवा रूढ़ि बन जाती है तो उसकी विनिमय की भूमिका भी बदल जाती है। इलैक्ट्रोनिक युग में इनका मूल्यबोध नहीं बल्कि विनिमय मूल्य संप्रेषित होता है। इनके प्रचार करने से मुद्रा मिलती है। सत्ता सुख और सस्तासुख मिलता है। सत्ता को रूढ़ियां पसंद हैं। सतहीपन पसंद है।रूढ़ियां पसंद हैं। पूंजीवादी सत्ता हो या समाजवादी सत्ता हो सबको अपने प्रचार के लिए रूढियों की जरूरत होती है। बगैर रूढियों के कोई भी सत्ता अपनी विचारधारा का प्रचार नहीं करती। आधुनिककाल में खासकर आजादी के बाद उपरोक्त अवधारणाओं का रूढ़ि के दौर पर विकास हुआ है। सर्जनात्मक विकास कम हुआ है।

आधुनिक काल में लेखक संगठन भी एक रूढ़ि है। इसकी साहित्यिक आधुनिक रीतिवाद के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका रही है। हमारे प्रगतिशील दोस्तों को अपने नाम के साथ रीतिवाद सुनकर परेशानी और गुस्सा आ सकता है। किंतु सच यही है कि जब भी आप किसी को सम्बोधित होकर लिखते हैं अथवा सुनाते हैं तो व्यवहार में रीतिवाद का ही अनुसरण करते हैं। रीतिवाद की साहित्यिक विशेषता थी कि लेखक जानता था कि उसका श्रोता कौन है। लेखक संगठन के प्रचारक जानते हैं उनका श्रोता या पाठक कौन है ? वे किसे सम्बोधित कर रहे हैं।

मध्यकालीन रीतिवाद की दूसरी बड़ी विशेषता है पदबंधों के सुनिश्चित अर्थ और उनका अहर्निश प्रचार। लेखक संगठनों के द्वारा आधुनिक अवधारणाओं की जितनी बड़ी तादाद में टीकाएं लिखी गयीं उस तरह की प्रवृत्ति सिर्फ मध्यकाल में नजर आती है। लेखक संगठनों और उनके प्रकाशनों पर एक नजर डालने पर पता चलता है कि ये आधुनिक युग के टीकाकार हैं।

हिन्दी की आधुनिक तर्कप्रणाली भी तकरीबन वही है जो मध्यकाल में थी। मध्यकाल में जो कहा जाता था उसे मानने पर जोर था मजेदार बात यह है कि लेखक मानते भी थे। आधुनिक काल में लेखक संगठनों के द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है उसे लेखकों का एक तबका अभी भी मानता है किंतु जो लेखक मध्यकालीन रूढ़ियों से मुक्त हो चुके हैं वे नहीं मानते। यह साहित्यिक रूढ़िवाद ही है कि यदि कोई आलोचक कहे कि फलां लेखक की रचना महान है तो हठात यह प्रचार होने लगता है कि फलां-फलां आलोचक ने कहा है फलत: रचना महान है,रचनाकार महान है। यही स्थिति लेखक संगठनों की भी होती है। वे बताने लगे हैं कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। लेखक संगठन मूलत: ‘प्रायोजक’ मात्र बनकर रह गए हैं।

लेखक संगठनों का किसी भी अवधारणा से रूढिबद्ध ढंग से जुड़े रहना आधुनिक रीतिवाद है। आधुनिक रीतिवाद का आदर्श उदाहरण है ‘जनवाद’ पदबंध का लेखक संगठनों के द्वारा प्रचार-प्रसार और स्वयं लेखक संगठनों में लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का अभाव। यानी प्रचार के लिए जनवाद ठीक है,व्यवहार में सामंतवाद ठीक है। अलोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो जनवादी लेखक संघ के मेरे निजी अनुभव का हिस्सा हैं। किंतु उदाहरण यहां अप्रासंगिक हैं। बुनियादी समस्या है लेखक संगठनों में व्याप्त रीतिवाद की।

रीतिवाद के कारण ही लेखक संगठन किसी भी मौलिक प्रश्न को उठाने में असमर्थ रहे हैं। वे उन प्रश्नों पर बहस करते रहे हैं जो दूसरों ने उठाए हैं। जिस तरह मध्यकालीन रीतिवाद के दौरान कभी लेखक के अधिकारों पर बातें नहीं हुईं। ठीक उसी तरह आजादी के बाद लेखक संगठनों ने देश में लेखकों के अधिकारों को लेकर कोई मौलिक आन्दोलन नहीं चलाया। लेखकों को उनके अधिकारों की चेतना से लैस करने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

महिला आरक्षण विधेयक : पक्ष विपक्ष से उठे सवाल

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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन बड़े ही जोशोखरोश के साथ राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश कर दिया गया। लेकिन इस विधेयक का उसी जोरदार अनुशासनहीन तरीके से विरोध भी हुआ। डेढ़ दशक से लटके इस विधेयक का कई दलों या उसके सांसदों द्वारा आरक्षण के भीतर पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक आदि तबकों को आरक्षण की मांग के साथ विरोध किया गया।

दलगत भावनाओं से उपर उठकर कांग्रेस व भाजपा के सांसद जहां इसके समर्थन में आए वहीं दलों से परे सपा, राजद, तृणमूल कांग्रेस और जदयू विधेयक के विरोध में खड़े हुए। हालांकि इसका समर्थन करने वाली मुख्य पार्टियों कांग्रेस व भाजपा के भीतर भी बगावती तेवर सामने आने लगे है। वहीं जदयू, जो पार्टी के तौर पर इसका विरोध कर रही है, के एक प्रमुख नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिल के समर्थन में खुलकर सामने आए हैं। उनका कहना है कि एक बार बिल पास हो जाए फिर हम आरक्षण के भीतर आरक्षण की लड़ाई लड़ेंगे।

हालांकि यूपीए सरकार और खासकर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के प्रयासों की बदौलत और मायावती की बसपा व ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के वोटिंग में हिस्सा नहीं लेने के कारण विधेयक अगले ही दिन राज्यसभा में पारित भी हो गया। जबक अभी इसे लोकसभा से पास होना बाकी है, महिला आरक्षण विधेयक का ठंडे बस्ते में जाने की संभावना अधिक है। अब महिला आरक्षण विरोधी पार्टियां तो हैं हीं, समर्थकों में भी विरोधी तेवर हैं। दलें अब महिला आरक्षण विधेयक को वोट बैंक से जोड़ते हुए इसे सियासी मुद्दा बनाने की मुहिम में जुट गए हैं। जहां महिला आरक्षण विधेयक के समर्थक किसी भी तरह महिला आरक्षण के प्रस्ताव को पास कराने पर आमदा है तो विरोधी कोटे के भीतर कोटा की वकालत करते हुए विधेयक के मौजूदा स्वरूप का विरोध कर रहे हैं।

इसका विरोध एक और मुद्दे को लेकर हो रहा है। वह है रोटेशन पद्धति, जिसकी वजह से ना तो पुरूषों के पास ना ही महिलाओं के पास स्थायी चुनाव क्षेत्र होगा। इससे असुरक्षा का वातावरण तो रहेगा ही क्षेत्र के प्रति समर्पण न होने की बड़ी संभावना रहेगी क्योंकि यह तय होगा कि अगली बार यह चुनाव क्षेत्र उनका न हो। इससे जिम्मेदारी और जवाबदेही घटेगी। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि रोटेशन की वजह से एक ही परिवार के महिला-पुरूष सदस्य बारी बारी से चुनाव लड़ते रहेंगे। हांलाकि इससे एक फायदा यह हो सकता है कि महिलाएं अगले चुनाव में अपनी उसी सीट पर पुरूषों के मुकाबले चुनाव लड़के जीतें जो अब आरक्षित नहीं है। इससे स्वत: महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ेगी। हालांकि इसकी संभावनाएं क्षीण नजर आती है।

भाजपा सांसद मेनका गांधी का मानना है कि यह (महिला आरक्षण विधेयक) नेताओं की बीबी बेटियों के लिए है आरक्षण है। उनका कहना है कि यह राजनेताओं की बीबी और बेटियों के लिए संसद का रास्ता खोलेगा और गरीब वर्ग की महिलाओं के आगे आने के रास्ते बंद हो जाएंगे।

बहरहाल समर्थन, विरोध और सियासी मुद्दों के बीच सबसे अहम् मुद्दा यह है कि वास्तव में महिला आरक्षण विधेयक का स्वरूप क्या है और यह किस तरह आम महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित कर सकता है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि विधेयक के लागू होने के बाद महिलाओं की राजनीति में उपस्थिति बढ़ जाएगी और संसद व कालांतर में विधानसभाओं में उनकी संख्या बढ़ेगी। लेकिन यह संख्या ”किसकी” होगी और क्या सिर्फ संख्या बढ़ने से ही महिलाओं के विकास में मदद मिलेगी?

यकीनन कालांतर में विधेयक का सकारात्मक परिणाम सामने आएगा। महिला आरक्षण विधेयक किसी भी महिला के लिए खुशी की बात और उनमें जोश भरने के लिए काफी है और इसका आधारभूत तौर पर सभी समर्थन कर रहे हैं। लेकिन सबसे अहम् मुद्दा है कि अल्पसंख्यक, पिछड़े, निम्न, मध्य तबके की महिलाओं का क्या? यह एक बड़ा प्रश्‍न चिह्न बना रहेगा।

मौजूदा संसद में लोकसभा में 59 महिलाएं है। इनमें 40 सांसद करोड़पति हैं। स्पष्ट है राजनीति में जो भी महिलाएं आ रहीं है, अधिकतर संपन्न वर्ग से हैं। निचले तबके की जो महिलाएं राजनीति में हैं भी, वो अंतिम कतार में है। तो अगर महिला आरक्षण में पिछड़े निम्न तबकों के लिए अलग से बात नहीं हो तो आम समाज की महिला कैसे आगे आ पाएगी। अगर विधेयक के मौजूदा स्वरूप का विरोध करने वाली राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के तौर पर अपने स्तर पर उन्हें टिकट देती भी है तो क्या ये आम उम्मीदवारों के सामने टिक पाएंगी? यह भी एक बड़ा सवाल बना रहेगा।

विधेयक के राज्यसभा से पारित होने के बाद की कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो इस सवाल को और भी बल मिलता है।

भले ही महिला आरक्षण विधेयक के विरोधी या समर्थक बिल का समर्थन करने वाली भाजपा की ही इस मुद्दे पर बगावती सांसद मेनका गांधी के उक्त बयान को अपने एक पक्ष के रूप में देख रहें हो, लेकिन इसी दिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा दिया गया रात्रिभोज मेनका गांधी का वक्तव्य ही घटित होता नजर आ रहा है।

महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश किये जाने के बाद इसके विरोध में उठे स्वर को देखते हुए अगले ही दिन इसके सदन से पास हो जाने में निश्‍चय ही सोनिया गांधी की सराहनीय भूमिका रही और इसके लिए उन्हें मुबारकबाद भी मिली। पर उन्हें फोन पर मुबारकबाद देने वालों में पार्टी सांसदों से ज्यादा उनकी पत्नियों के फोन थे। यही नहीं इस दिन विधेयक पास होने की खुशी में दिए गए रात्रिभोज में भी अधिकतर सांसद अपनी पत्नी के साथ आए। यह पहला मौका भी था जबकि कांग्रेस अध्यक्ष ने पार्टी सांसदों के साथ उनकी पत्नियों को भी आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया था। तात्पर्य यह है कि अब महिला आरक्षण विधेयक के मद्देनजर सांसदों में परिवार की महिलाओं को आगे प्रस्तुत करने का काम शुरू हो चुका है।

महिला आरक्षण विधेयक का व्यक्तिगत तौर पर विरोध करने वालों या विरोधी दलों की बात का सम्मान न करते हुए कई राजनीतिक दलों या मीडिया द्वारा सिर्फ उन्हें विधेयक विरोधी कहना भी कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता है।

-लीना

आईपीएल के मैच फ्लड लाईट के बजाए दिन में क्यों नहीं

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भारत देश को आजाद हुए बासठ साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इन बासठ सालों में देश का आम आदमी ब्रितानी बर्बरता तो नहीं भोग रहा है, पर स्वदेशी जनसेवकों की अदूरदर्शी नीतियों के चलते नारकीय जीवन जीने पर अवश्य मजबूर हो चुका है। एक आम भारतीय को (जनसेवकों और अमीर लोगों को छोडकर) आज भी बिजली, पानी साफ सफाई जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल सकी हैं। सरकारी दस्तावेजों में अवश्य इन सारी चीजों को आम आदमी की पहुंच में बताया जा रहा हो पर जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कमोबेश पचास फीसदी से अधिक की ग्रामीण आबादी आज भी गंदा, कंदला पानी पीने, अंधेरे में रात बसर करने, आधे पेट भोजन करने एवं शौच के लिए दिशा मैदान (खुली जगह का प्रयोग) का उपयोग करने पर मजबूर ही है।

इन परिस्थितियों में भारत में आईपीएल 20-20 क्रिकेट प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है। फटाफट क्रिकेट के इस आयोजन में कुछ मैच दिन में रखे गए हैं, किन्तु अधिकांश मैच रात गहराने के साथ ही आरंभ होंगे। जाहिर है, इन मैच के लिए सैकडों फ्लड लाईट का इस्तेमाल किया जाएगा। कहने का तातपर्य यह कि रात गहराने के साथ ही जब लोगों के दिल दिमाग पर हाला (शराब) का सुरूर हावी होता जाएगा, वैसे वैसे नामी गिरामी क्रिकेट के सितारे अपना जौहर दिखाएंगे। दर्शक भी अधखुली आंखों से इस फटाफट क्रिकेट का आनंद उठाते नजर आएंगे।

जनवरी से लेकर अप्रेल तक का समय अमूमन हर विद्यार्थी के लिए परीक्षा की तैयारी करने और देने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सवाल यह उठता है कि जब देश के भविष्य बनने वाले छात्र छात्राएं परीक्षाओं की तैयारियों में व्यस्त होंगे तब इस तरह के आयोजनों के ओचित्य पर किसी ने प्रश्न चिन्ह क्यों नहीं लगाया। क्या देश के नीति निर्धारक जनसेवकों की नैतिकता इस कदर गिर चुकी है, कि वे देश के भविष्य के साथ ही समझौता करने को आमदा हो गए हैं।

एक अनुमान के अनुसार देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी महज चार से छ: घंटे ही बिजली मिल पाती है, तब फिर आईपीएल में खर्च होने वाली बिजली को बचाकर उसे देश के ग्रामीण अंचलों के बच्चों की पढाई और कृषि पैदावार के लिए क्यों नहीं दिया जाता है। बात बात पर न्यायालयों में जाकर जनहित याचिका लगाने वाली गैर सरकारी संस्थाओं की नजरों में क्या यह बात नहीं आई। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आई भी होगी तो उन्हें इस मामले में अपने निहित स्वार्थ गौड ही नजर आ रहे होंगे तभी उन्होंने भी खामोशी अख्तियार कर रखी है।

यह बात सत्य है कि अगर मैच रात में खेले जाते हैं तो उसमें दिन की अपेक्षा दर्शकों के आने की उम्मीद ज्यादा ही होती है। इससे आयोजकों और प्रायोजकों को खासा लाभ होता है, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु अगर विपक्ष में बैठे जनसेवक या भारत सरकार चाहती तो क्या आयोजकों पर बिजली बचाने का दबाव नहीं बनाया जा सकता था। इसका उत्तर 100 में से 100 लोग ही सकारात्मक अर्थात हां में देंगे। ये मेच दिन में भी आयोजित किए जा सकते थे।

इस आयोजन से हो सकता है सरकारी खजाने में करोडों रूपयों की अकस्मात वृध्दि दर्ज की जाए, सरकार और जनसेवकों के साथ ही साथ आयोजकों और प्रायोजकों की माली हालत इससे सुधरे, किन्तु नफा नुकसान देखना सरकार का काम हो सकता है, पर अगर रियाया को कष्ट में रखकर नफा नुकसान का खेल खेला जाए तो उसे कहां तक उचित ठहराया जा सकता है। इस तरह के आयोजन से तो वही कहावत चरितार्थ होती है कि मोहल्ले को रोशन करने के लिए अपना ही घर फूंक दिया जाए।

वैसे भी ग्रीन पीस के स्टिल वेटिंग प्रतिवेदन में साफ कहा गया है कि ग्रिड आधारित भारत की वर्तमान विद्युत वितरण प्रणाली में असमानता का खामियाजा देशवासी ही भुगत रहे हैं। आज भी देश के चालीस फीसदी गांवों में बिजली का करंट नहीं पहुंच सका है। गांव में आज भी गौ धूली की बेला (शाम को गाय जब वर्दी से वापस लौटतीं हैं, तो उनके पैरों से उडने वाली धूल) के साथ ही लालटेन के कांच की सफाई राख से की जाना आरंभ कर दिया जाता है।

कहते हैं कि भारत देश गांव में बसता है, पर गांव की असलियत क्या है, इस बात से जनसेवकों को कोई इत्तेफाक नहीं है। आजाद भारत के गांवों में आज भी देश के भविष्य लालटेन के मध्दिम प्रकाश में ही पढकर अपनी आंखे फुडवाने पर मजबूर हैं। वहीं दूसरी ओर जनसवकों के आलीशान निजी और सरकारी आवास में एयर कंडीशनर जब हवा फैंकते हैं तो इन सारी समस्याओं के कारण उनकी पेशानी पर आने वाला पसीना शीतल हवा में तुरंत ही सूख जाता है। ये हालात तब हैं जबकि पिछले दो दशकों में बिजली के उत्पादन में 162 फीसदी की वृद्धि हुई है। इतनी बढोत्तरी के बाद भी अगर समस्या जस की तस है, तो निश्चित तौर पर इसके लिए विद्युत वितरण प्रणाली को ही दोषपूर्ण माना जाएगा।

बहरहाल, केंद्र सरकार और विपक्ष में बैठे जनसेवकों के साथ ही साथ सूबों की सरकार को भी चाहिए कि वे अपने राजस्व की चिंता के साथ ही साथ अपनी रियाया की चिंता भी अवश्य करें। राजस्व के बढने से जनता को मिलने वाली सुविधाओं में इजाफे की बात तो अब इतिहास की बातें हो गईं हैं, क्योंकि जैसे ही सरकारी कोष में वृध्दि होती है, वैसे ही जनसेवक अपने को मिलने वाली सुविधाओं में जबर्दस्त इजाफा करवा लेते हैं। इसका एक उदहारण यह भी है कि अनेक सरकारी नौकरियों में अब भर्ती के साथ ही यह प्रावधान कर दिया गया है कि शासकीय सेवक साठ साल की उम्र को पाने के साथ ही सेवानिवृत्ति के उपरांत पैंशन का हकदार नहीं होगा, वहीं दूसरी ओर चाहे सांसद हो या विधायक महज पांच साल के कार्यकाल के बाद उसकी पैंशन न केवल बरकरार है, वरन हर साल उसमें वृध्दि होती है। जब भी इस तरह का प्रस्ताव संसद या विधानसभा में आता है, सभी सदस्य आपसी भेदभाव छोडकर मेज थपथपाकर उसका स्वागत कर अपने सुनहरे भविष्य के मार्ग प्रशस्त करने से नहीं चूकते हैं।

-लिमटी खरे