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भविष्य की कृषि खतरे में – जयराम ‘विप्लव’

agricultureसभ्यता के आरभ से ही ” कृषि ” मानव की तीन जीवनदायनी आधारभूत आवश्यकताओं में से एक -भोजन की आपूर्ति के लिए अपरिहार्य बना हुआ है । कृषि के अलावा ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म ,चिकित्सा आदि -इत्यादि मानवीय जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में हर दिन नव चेतना फ़ैल रही है , हर दिन कुछ नई बातें सामने आ रहीं हैं। ऐसा नही की ये सब एक दिन में हो गया बल्कि ऐसा होने में सदियाँ बीत गई । जीवन जीने की जद्दोजहद में पशुवत मांसभक्षण करने वाला मनुष्य कब शाकाहारी हो गया इसका ठीक- ठीक अनुमान लगना मुश्किल है।कालांतर में धीरे-धीरे कंदमूल खाकर भरण -पोषण करने वाला आदिमानव खेती करने लगा । सैकडों -हजारों वर्षों के मेहनत के बाद आज खेती -बड़ी अर्थात कृषि का ये उन्नत रूप हमारे समक्ष है।लेकिन आज के इस वैज्ञानिक -बाजारवादी युग में जब समूची दुनिया को एक बाज़ार बनाने की तयारी रही है , कृषि का भविष्य खतरे में दिखता है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ ७० %आबादी खेती के सहारे जीवन गुजारा करती है, वहां सरकारी उदासीनता के कारणआज सार्वजनिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण व्यवस्था कृषि और अन्य असंगठित रोजगारों के कामगारों की बदहाली किसी से छुपी नही । एक कलावती का नाम लेकर हमारे तथाकथित युवराज श्रीमान राहुल गाँधी और उनकी सरकार अपने कर्तव्यों से मुक्ति चाहती है। ये संभव नही । न जाने कितनी कलावती और कितने हल्कू पूस की रात में ठिठुर कर मर रहे होंगे ? पशुओं का चारा तक निगल जाने वाले नेताओ की सरकार से उम्मीद ही बेकार है। जिस पर देश की अर्तव्यवस्था टिकी है उस सार्वजनिक क्षेत्र को बहल करने को लेकर भला ये कैसे इमानदार हो सकते हैं !
सरकारी उदासीनता , विज्ञान के दुरूपयोग और ज्यादा मुनाफाखोरी की आदत ने भविष्य की खेती को दावपर लगा दिया है । संवर्धित बीजों और रासायनिक उर्वरको के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनिया किसानो को नजदीक के फायदे का सपना दिखाकर बरगला रही हैं। परंपरागत खेती में किसान अपने ही खेत के बीजो का इस्तेमाल करते थे अब अधिक पैदावार के लोभ में बाजार से ख़रीदे संवर्धित बीजो से एक बार ही खेती की जा सकती है , हालाँकि अभी भारत में ये चलन कम है । परन्तु गरीब -अनपढ़ किसानो को अभी से इस सब के बारे में जानलेना चाहिए ताकि भविष्य में सतर्क रहा जा सके । कभी हरित-क्रांति को जन्म देने वाली waigyanik पद्धति आज कृषकों और कृषि का विनाश करने पर उतारू है । पिछले ५० सालों में कृषि का जो विकास हुआ वो शायद २००० सालों में भी नही हुआ था । इस विकास का मुख्या आधार विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग है। नई तकनीक के कारण खेती के स्वरुप में अपेक्षित बदलाव तो आया पर बाजार के बढ़ते प्रभाव ने यहाँ भी प्रतिकूल असर डाला । अपनी-अपनी दुकान चलाने में न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और न ही देश के कर्णधार नेताओं को इसकी चिंता है । ऊपर से जनसँख्या का बढ़ते दवाब से कृषियोग्य भूमि पर कंक्रीट का जाल बढ़ताही जा रहा है । भूमि कम पड़ रही है ,उपज बढ़ने के दवाब में किसान अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरको का अँधा-धुंध उपयोग करते हैं ।हमारे देश में सन ५७ में मुश्किल से दो हजार तन रासायनिकखादों और कीटनाशकों कि खपत थी जो कि बढ़ कर दो लाख तन का आंकडा छुने वाला है । परिणाम स्वरुप jamin की उर्वरा शक्ति नगण्य होती जा रही है ।घनी खेती कि वजह से पैदावार में वृद्धि तो होती है पर कई बड़ी मुश्किलें भी खड़ी है । इस समय भारत में करीब १४०० लाख हेक्टेयर धरती पर खेती हो रही है । बहुत कोशिश करने पर इसमे ४०० लाख हेक्टेयर भूमि जोड़ी जा सकती है । परन्तु इसके लिए हमें जंगलो को काटना पड़ेगा।और ऐसा करना व्यावहारिक नही है। भूमि उसर होती जा रही है, भूमिगत जलस्तर घटता जा रहा है ,वायुमंडल दूषित हो रहा है, कुल मिलकर संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कृषि का संकट(या मानवीय जीवन पर खतरा ) गहराता जा रहा है और जिसे कोई समझने को तैयार नही । भविष्य में ऐसे यत्नों की जरुरत है जिनके द्वारा कृषि के भविष्य पर मंडराते बादलों को टला जा सके ।नई राहें खोजी जाए कि उपज भी बढे अर्थात जनसँख्या के सामने अन्न का संकट न हो और ऊपर बतलाई गई मुश्किलें भी khatm हो सके और इसके लिए तीन महत्वपूर्ण क़दमों को उठाने पर सरकार को विचार करना चाहिए । प्रथम, संवर्धित बीजों के व्यापार अथवा प्रयोग पर प्रतिबन्ध । दूसरा , रासायनिक उर्वरको और घटक कीटनाशकों के बरक्स नए विकल्पों जैसे जैविक खाद आदि को लेकर किसानो को जागरूक करना । तीसरा , अधिक से अधिक खेती लायक जमीं को बनाये रखना और ऐसा उपाय खोजना जिससे प्रति इकाई उपज को बढाया जा सके लेकिन वो उपाय सुरक्षित हो ।


जयराम चौधरी

बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
जामिया मिलिया इस्लामिया
मो: 09210907050

बांगलादेशी घुसपैठ – जयराम ‘विप्लव’

banglaindoborderघुसपैठ को आम तौर पर बड़ी समस्या नहीं माना जाता और न ही इसके बारें में गंभीरता से सोचा जाता है। असम समेत पूर्वोत्तर भारत में सारी फसाद की जड़ हैं – बांग्लादेशी घुसपैठ। पूर्वी भारत के राज्यों की सीमा सुरक्षा की कमजोरी और वोट बैंक की राजनीति के कारण हो रही; अवैध घुसपैठ यहां की सुरक्षा के साथ ही सांस्कृतिक, समाजिक, आर्थिक एव राजनीतिक संकट बनती जा रही है।पिछले तीस सालों से जारी घुसपैठ ने अनेक राज्यों में जन – संख्या के अनुपात को बिगाड़ कर वहां के मूल निवासियों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। ये घुसपैठिये असम, बंगाल, त्रिपुरा व बिहार में ही सीमित नहीं बल्कि दिल्ली, राजस्थान, मुम्बई, गुजरात व हैदराबाद तक जा पहुंचे हैं। वर्तमान में इनकी संख्या लगभग 3 क़रोड़ बतायी जाती है। असम के राज्यपाल ने केंद्र को सौंपी एक रपट में कहा है कि हर दिन 6 हजार बांग्लादेशी भारत में प्रवेश करते हैं। साथ ही सं. रा. सं. की एक सर्वे में बांग्लादेश से 1 करोड़ नागरिकों को लापता बताया गया है। सीमा से लगे 4600 किमी के भारतीय इलाकों में अप्रत्याशित जनसंख्या वृध्दि इस बात को पुख्ता करती है कि ये लोग भारत में ही घुसे हैं। इन घुसपैठियों की बढ़ती तादाद की वज़ह से असम, बिहार एव बंगाल के अनेक जिलों में बांगलादेशी मुसलमानों की बहुलता हो गई है अर्थात् ये राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। और यही से शुरू होता है वोट बैंक की राजनीति।

इन अवैध घुसपैठियों को राशनकार्ड देकर जमीन का पट्टा व मतदाता सूची में नाम शामिल कर राजनीतिक दल देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करती आ रही है। आज इन बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा लूट, हत्या, तस्करी, जाली नोट व नशीली दवाओं के कारोबार समेत आतंकी गतिविधियों को संचालित किया जा रहा है। प्राकृतिक रुप से समृध्द पूर्वोत्तर आतंक का गढ़ बनता जा रहा है। आतंक के सौदागरों और आइ. एस. आइ. जैसे संगठनों के लिए बांग्लादेशी घुसपैठ एक महत्वपूर्ण उपकरण साबित हो रहा हैं। इस उपकरण को राजनीतिक, समाजिक, और आर्थिक सभी मुद्दों पर भारत के विरुध्द इस्तेमाल किया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के सहारे हासिल राजनीतिक ताकत, अपराध और आतंकवाद के जोर पर एक सुनियोजित योजना के तहत असम के 11 बंगाल के 9 बिहार के 6 एवं झारखंड के 3 जिलों को मिलाकर ग्रेटर बांग्लादेश बनाने का काम किया जा रहा है। प्रख्यात लेखक जयदीप सैकिया की मानें तो इस क्षेत्र में बांग्लादेश – म्यांमार के कुछ भाग और उत्तर-पूर्वी भारत को सम्मिलित कर एक इस्लामिक राज्य की कल्पना की जा रही है। कुल मिला कर भारत को पुन: विभाजित करने का षड़यंत्र रचा जा रहा है परन्तु सरकार की उपेक्षा से यह मसला ठंडे बस्ते में ही पड़ा दिखता है। सत्ता की दौड़ में वोट की सियासत का ही असर है; वर्षों के शासन काल में कांग्रेस ने इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति से काम नहीं किया। हाँ आइ.एम.डी.टी एक्ट जैसे कानून के सहारे उनको यहां बसाने में मदद अवश्य पहुंचायी गयी! बांग्लादेशी आतंकियों को भगाने के बजाय घर-जंवाइ बनाने की संरक्षणात्मक तुष्टीकरण की नीति 1977 से ही जारी है। केंद्र की कांग्रेस सरकार से लेकर राज्य की असम गण परिषद सरकार; जो इसी मसले को लेकर सत्ता में आई, का रवैया भी एक सा रहा है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से एक बात तो साफहै कि कुर्सी के आगे देश कुछ भी नहीं ।

बहरहाल आगामी लोकसभा चुनावों में घुसपैठ का मुद्दा नया रंग ला सकता है। देश की एकता,अखंडता एवं स्थानीय नागरिकों की आर्थिक और समाजिक सरोकारों से जुड़े इस मामले में बरती जा रही उदासीनता के गंभीर परिणाम हमें भविष्य में भुगतने होंगे।

– जयराम चौधरी

बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
जामिया मिलिया इस्लामिया
मो:09210907050

छात्रों का जोर पर्यावरण बने चुनावी मुद्दा (ब्यूरो)

green-powerदेश भर के करीब 10,000 छात्रों ने राजनीतिक पार्टियों से अनुरोध किया है कि वे आगामी 15वीं लोकसभा चुनाव में हरित ऊर्जा के स्रोतों के उपयोग से जुड़े मुद्दे को चुनाव प्रचार का अभिन्न हिस्सा बनाएं। साथ ही जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरण से जुड़े मुद्दों उठाएं।

हाल ही में इन छात्रों ने विभिन्न दलों के शीर्ष नेताओं के नाम एक पत्र लिखा है। पत्र में छात्रों ने कहा है कि वे इस बात से परिचित हैं कि जलवायु परिवर्तन का भावी पीढ़ी पर गंभीर असर पड़ने वाला है। इसी के मद्देनजर यह जरूरी है कि हरित ऊर्जा यानी सौर और पवन ऊर्जा का उपयोग शुरू किया जाए। इसके साथ ही पानी और बिजली के बेजा इस्तेमाल को रोका जाए।

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को भेजे इस पत्र में छात्रों ने कहा है कि वे उम्मीद करते हैं कि प्रर्यावरण को चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया जाए।
पत्र भेजने की पहल इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट सोसायटी फाउंडेशन और ‘अरकानीर’ नाम के संस्थान की ओर से की गई है। इस पत्र में हरियाणा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम आदि राज्यों के छात्र शामिल हैं।

सेक्स चर्चा – जयराम ‘विप्लव’

sex-discussionइतनी आपा-धापी और उथल-पुथल भरे राजनितिक व आर्थिक परिदृश्य में बांकी चिन्ताओ से परे ‘सेक्स चर्चा’ -स्त्री विमर्श की आड़ में खूब फल- फूल रहा है। क्या आउटलुक और क्या ब्लॉग! मोहल्ले की फैलाई इस बीमारी ने किस-किस को संक्रमित कर दिया कहना मुश्किल है! इसके बरक्स कई अन्य ब्लोगरों की सामाजिक सरोकार वाले आलेख एक अदद टिप्पणी की बाट जोहते -जोहते सरकारी दफ्तरों के पुरानी फाइल की भांति धूल फांक रहा है। ‘मोहल्ले’ पर सविता भाभी को लेकर बड़ा बबाल मचा । सम्बंधित पोस्ट पर गर्दाउड़ान गाली-गल्लम भी हुआ। सेक्स चर्चा को जिस परिप्रेक्ष्य में विचार -विमर्श का केन्द्र बिन्दु बनाया गया , उसमें अधिक से अधिक टिप्पणी पाने अतिरिक्त कोई और उद्देश्य नहीं दिखता है। मुझे सेक्स को लेकर बहस करने से परहेज नहीं है। निश्चित रूप से आज सेक्स को लेकर हमें नए सिरे से सोचने की, नया दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है। लेकिन उद्देश्य सार्थक हो।

समय चक्र परिवर्तित हुआ है , जिस वज़ह से अनेक पुरानी परम्पराएँ टूटती नज़र आ रही है। कल का सम्भोग आज सेक्स का रूप ले चुका है। सेक्स केवल बंद कमरों के भीतर बिछावन तक सीमित न हो कर शिक्षा मंदिरों (डीपी एस दिल्ली की घटना याद होगी) से होते हुए कार्य स्थली (कॉल सेंटरों की कहानी भी आप तक पहुँच गई होगी) तक विस्तार ले चुका है। पाश्चात्य का अनुकरण किसी और क्षेत्र में तो नहीं परन्तु सेक्स और भ्रष्टाचार के मामले में जम कर हुआ है। कुछ लोग इसे मेट्रो शहरों में सीमित बताते हैं जबकि ये मसला भी महानगरीय उच्च -मध्य वर्गो (अर्थात विकासशील इंडिया) से निकल कर देहातों में मध्य- निम्न वर्गो (गरीब भारत जिसे अमेरिकाऔर यूरोप वाले रियल इंडिया कहते हैं) तक फ़ैल चुका है। ऐसा भी नहीं है कि यह सब अचानक हो गया । किसी भी सामाजिक परिवर्तन / बदलाव के पीछे कई छोटी -बड़ी ,साधारण से साधारण घटनाएँ सालों से भूमिका बना रहे होते हैं । यहाँ में जिस बदलाव की बात कर रहा हूँ वो यु ही नहीं हुआ उसके पीछे सूचनातंत्र की महती भूमिका रही है। हालाँकि सूचना क्रांति ने हमें काफी सुख-सुविधाएं मुहैया करायी लेकिन भारतीय समाज को उससे बहुत बड़ा घाटा हुआ है। विज्ञान का ये वरदान हमारी संस्कृति के लिए अभिशाप ही साबित हुआ । चलिए अतीत में बहुत दूर न जाकर स्वतंत्र भारत को लेकर आगे बढ़ते हैं। हम बात कर रहें हैं सेक्स के सामाजिक सन्दर्भों की । अवैध संबंधो को अब तक भारत में सामाजिक मान्यता नहीं मिली है बावजूद इसके व्यक्तिगत स्वतंत्रता की छतरी लगाये अनैतिकता से बचने की कोशिश जारी है। आज कदम -कदम पर आधुनिकता के नाम पर सामाजिक दायरे, सदियों से चली आ रही परम्पराए तोड़ी जा रही हैं। मुझे पता है आप कहेंगे कि परम्पराएँ टूटनी ही चाहिए। ठीक हैं मैं भी कहता हूँ, हाँ पर वो परम्पराएँ ग़लत होनी चाहिए। ध्यान रहे कभी प्रथाएं नहीं टूटी बल्कि कुप्रथाएं तोड़ी गई हैंऔर इसे बदलाव नहीं क्रांति /आन्दोलन कहा गया। उदाहरण के लिए समय-समय पर हुए समाज और धर्म सुधार आंदोलनों को समझनेका प्रयास करें तो बात स्पष्ट हो जायेगी । वर्तमान समय में युवा वर्ग मानसिक तौर पर उत्तर आधुनिक है या बनना चाहता है। आज का प्रगतिशील युवा अक्सर परम्पराओं को रूढ़ी कहना ज्यादा पसंद करता है। और इसको तोड़ कर ख़ुद को विकास की दिशा में अग्रसर समझता है। यहाँ हमें परम्पराओं तथा रुढियों में अन्तर करना सीखना होगा।

सेक्स की बात सुन कर हम मन ही मन रोमांचित होते हैं .जब भी मौका हो सेक्स की चर्चा में शामिल होने से नहीं चूकते .इंटरनेट पर सबसे अधिक सेक्स को हीं सर्च करते हैं . लेकिन हम इस पर स्वस्थ संवाद /चिंतन/ मंथन करने से सदैव घबराते रहे हैं और आज भी घबराते हैं .law of reverse effect ” मे अनेक विद्वानों ने सेक्स को जीवन का बही आवरण बताया है जिसको भेदे बिना जीवन के अंतिम लक्ष्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है . सेक्स अर्थात काम जिन्दगी की ऐसी नदिया है जिसमें तैरकर हीं मन रूपी गोताखोर साहिल यानी परमात्मा तक पहुँचता है .

एक गृहस्थ के जीवन में संपूर्ण तृप्ति के बाद ही मोक्ष की कामना उत्पन्न होती है | संपूर्ण तृप्ति और उसके बाद मोक्ष, यही दो हमारे जीवन के लक्ष्य के सोपान हैं | कोणार्क, पूरी, खजुराहो, तिरुपति आदि के देवालयों मैं मिथुन मूर्तियों में जीवन के लक्ष्य का प्रथम सोपान है अतः  इसे मंदिर के बाहरी  दिवाल पर ही प्रतिष्ठित किया जाता है | द्वितीय सोपान मोक्ष की प्रतिष्ठा देव प्रतिमा को मंदिर के अंत: पुर में की जाती है | प्रवेश द्वार और देव प्रतिमा के मध्य जगमोहन बना रहता है, ये मोक्ष की छाया प्रतिक है | मंदिर के बाहरी  दीवारों पर मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को आनंद की अनुभूतियों को आत्मसात कर जीवन की प्रथम सीढ़ी – काम से  तृप्ति पा लेने का संकेत कराती है | ये मिथुन मूर्तियाँ दर्शनार्थी को ये स्मरण कराती है कि  जिस मानव ने जीवन के इस प्रथम सोपान ( काम तृप्ति ) को पार नहीं किया है, वो देव दर्शन – मोक्ष के द्वितीय सोपान पर पैर रखने का अधिकारी नहीं | मनुष्य को हमेशा इश्वर या मोक्ष को प्राप्ति के लिए काम से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है |

जीवन और काम के शाश्वत सम्बन्ध की उपरोक्त व्याख्या गौर करने लायक है . मानव समाज समाज की नीव जिस काम /सेक्स पर टिकी हुई है कालांतर में उसी काम को समाज ने प्रतिबंधित करने की दिशा में निरंतर प्रयास किये . परिणाम हमारे समक्ष हैं , जीवन के अंतिम लक्ष्य तक ले जाने का साधन और उसकी उर्जा को नकारात्मक रूप में देखा जाने लगा . आज काम बिस्तर पर सिमट आया है जिसका लक्ष्य बस एक विपरीतलिंगी अथवा समलिंगी जोड़े की क्षणिक संतुष्टी भर रह गयी है .सम्भोग को केवल भोग,भोग,भोग, और भोग तक सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि भोग से संपूर्ण तृप्त होकर आगे मोक्ष की ओर जाने का अवसर आते है लेकिन काम के प्रति अपनी नकारात्मक छवि के कारण हम इस रस्ते को छोड़ दूसरे -तीसरे रास्ते में भटकते रहते हैं . हमारा यह भटकाव केवल और केवल काम / सेक्स के प्रति गलत नजरिये की वजह से है . इस मंच पर हर आलेख में इसे दूर करने का  प्रमाणिक और तथ्यपूर्ण  प्रयत्न होता रहेगा . हम जीवन के मूल तत्व काम अथवा सेक्स के ऊपर विभिन्न विचारकों और अपने विचार को आपके समक्ष रखेंगे . काम का जीवन में क्या उपयोगिता है  ? सेक्स जिसे हमने बेहद जटिल ,रहस्यमयी ,घृणात्मक बना रखा है उसकी बात करने से हमें घबराहट क्यों होती है ? यह विमर्श किस्तों में जारी रहेगा ……

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क्या कल्याण को माफी जायज है? – अमलेन्दु उपाध्याय

amalendus-photoभदोही उपचुनाव में बसपा के खाते से सीट झटककर समाजवादी पार्टी गदगद है और उसके बड़े नेता अब फतवा जारी कर रहे हैं कि प्रदेश की जनता बसपा से छुटकारे के लिए सपा को वोट करेगी और कल्याण सिंह से दोस्ती का मुसलमान वोट पर कोई असर नहीं पड़ा है।

      एकबारगी तो लगता है कि सपा का सोचना सही है। लेकिन इतिहास बताता है कि राजनीति के सवाल उतने सीधे होते नहीं जितने दिखाई देते हैं। अगर भदोही का उपचुनाव बैरोमीटर है तो बलिया संसदीय उपचुनाव बैरोमीटर साबित क्यों नहीं हुआ? बलिया चुनाव के बाद प्रदेश में दो बार उपचुनाव हुए और दोनों उपचुनाव में सपा का बहुत बुरा ही हाल हुआ केवल मुलायम द्वारा रिक्त की गई गुन्नौर सीट ही सपा बचा पाई और वहां भी उसका प्रत्याशी बहुत कम अन्तर से जीता।

      इस सबसे परे लगता है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक समझे जाने वाला मुसलमान पशोपेश में है कि लोकसभा चुनाव में किधर जाए! उसकी प्राथमिकता आज भी भाजपा को हराना है, लेकिन पिछले दह दशक से जिस तरह से उसे छला गया है उससे वह आहत है। इसका फायदा उठाकर मुस्लिम कट्टरपंथियों की तरफ से भी अपनी पार्टी का राग अलापा जा रहा है।

      1984 के लोकसभा चुनाव तक मुसलमान उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करता था जिसके बल पर कई दशक तक कांग्रेस ने देश पर राज किया। लेकिन राजीव गांधी के शासनकाल में कांग्रेस ने हिंदू कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेकते हुए जब बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास कराकर अयोध्या से अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की तब यह वोट कांग्रेस से खिसकने लगा। बाद में जब नरसिंहाराव ने बाबरी मस्जिद गिरवाने में अप्रत्यक्ष सहयोग दिया तो मुसलमान पूरी तरह से उससे दूर हो गया और मुलायम सिंह के साथ 1993 के विधानसभा चुनाव में चला गया।

      छह फीसदी यादव मतदाताओं के बल पर समाजवादी पार्टी नाम की प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी चलाने वाले मुलायम सिंह ने पन्द्रह बरस तक मुसलमानों को भाजपा का खौफ और बाबरी मस्जिद की शहादत की याद दिलाकर छला। छह दिसम्बर 1992 के बाद से लगातार मुलायम सिंह मुसलमानों के हीरो थे, भले ही उनकी कैबिनेट में मौ आजम खां के अलावा किसी दूसरे मुसलमान को स्थान नहीं मिलता था। परंतु सपा में अमर सिंह का प्रकोप बढ़ने के साथ मुलायम का ग्राफ विगत 5-6 वषों में गिरने लगा था, और अब बाबरी मस्जिद के कातिल कल्याण सिंह से हाथ मिला लेने के बाद मुसलमान स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।

      यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि 1996 के आसपास वह समय था जब उत्तर प्रदेश के मुसलमान ने तमाम कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं के फतवे के बावजूद समाजवादी पार्टी को वोट दिया था। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए बहुत बड़ा श्रेय सपा के फारब्राण्ड नेता मौ आजम खां को जाता है। यह आजम खां के सहारे का सम्बल था कि मुलायम सिंह ने एक समय में शाही इमाम को चुनौती के अंदाज में कहा था कि इमाम साहब इमामत करें और राजनीति हमें करने दें।

       मुलायम की अवसरवादिता तब काफी कुछ खुली जब परमाणु करार पर वे अपने समाजवाद, लोहिया के सिद्धान्त और साम्राज्यवाद विरोध की नीतियों की ऐसी तैसी करके मनमोहन और अमरीका की बगल में खड़े हो गए। करार पर ही मुलायम को लग गया था कि अब मुसलमान उनसे दूर हो गया है। इसीलिए ठीक डेढ़ दशक पहले जो मुलायम सिंह चुनौती के अंदाज में कह रहे थे कि इमाम साहब इमामत करें वही मुलायम सिंह करार पर उन्हीं इमाम के दरवाजे पर गिड़गिड़ाने गए।

      करार पर मुलायम सिंह की उलटबांसी से तय हो गया था कि उन्हें अब मुस्लिम वोटों की दरकार नहीं है और कल्याण सिंह से हाथ मिलाकर उन्होंने भविष्य की अपनी राजनीति का साफ संकेत दे दिया है। आज मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को बाबरी मस्जिद के कत्ल के इल्जाम से बरी कर दिया है। लेकिन वो हिंदुस्तानी बाबरी मस्जिद के उस कातिल को कैसे माफ कर दे जिसके कारण 6 दिसम्बर 1992 के बाद पूरे दो माह तक चले साम्प्रदायिक दंगों में देश भर में चुनचुनकर मुसलमानों का कत्ल किया गया हो, मुंबई, सूरत और अहमदाबाद की सड़कों पर औरतों और लड़कियों को निर्वस्त्र करके कांच की बोतलों पर नचाया गया हो और उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी की गई हो, सड़कों पर टायर जलाकर जिंदा आग में झोंक दिया गया हो। इन हादसात के लिए मुलायम सिंह तो कल्याण सिंह को माफ कर सकते हैं लेकिन उत्तर प्रदेश का मुसलमान कैसे करे?

      तमाशा यह है कि मुलायम ने एक बार फिर दांव चला और कल्याण से माफीनामा जारी कराया। लेकिन इस माफीनामे में कहीं भी ‘बाबरी मस्जिद’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। कहीं भी बाबरी मस्जिद गिराने के लिए माफी नहीं मांगी गई। कल्याण ने कहा कि उन्होंने तो 6 दिसम्बर 1992 को ही घटना की जिम्मेदारी लेनी थी। अगर ऐसा ही था तो कल्याण सिंह भाजपा में अब तक क्या कर रहे थे? 6 दिसम्बर 1992 की जिम्मेदारी लेकर एक बार फिर से स्वयं को हिंदू आतंकवादियों का कर्णधार साबित करने का ही प्रयास किया है। लिब्रहान आयोग के समक्ष गवाही में भी उन्होंने कोई खेद प्रकट नहीं किया है, बल्कि हर साल 6 दिसम्बर को शौर्य दिवस मनाया है। क्या अगली 6 दिसम्बर को कल्याण फिर से शौर्य दिवस नहीं मनाएंगे?

      उधर मुलायम सिंह ने यह कहकर कि अगर भाजपा ‘यूनिफाइंग सिविल कोड’ और धारा 370 को छोड़ दे तो वे उससे भी समझौता करने को तैयार हैं, अपनी भविगय की राजनीति तय कर ली है। अगर जरूरत पड़ी तो सत्ता के लिए भाजपा इन दो मुद्दों को तिलांजलि भी दे देगी और मुलायम भाजपा की गोद में बैठ जाएंगे! लेकिन यह याद रखना होगा कि जब नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में कत्ल-ए-आम कराया तब भाजपा के एजेंडे में 370 और यूनिफाइड सिविल कोड और राम मंदिर नहीं थे! आखिर कहना क्या चाहते हैं मुलायम?

      अगर मुलायम की कल्याण से दोस्ती हो सकती है, अपनी चालीस साल की कांग्रेस विरोध की राजनीति और डॉ लोहिया के गैर कांग्रेसवाद को तिलांजलि देकर एक दलित महिला से घबराकर मुलायम कांग्रेस के साथ जा सकते हैं तो क्या लोकसभा चुनाव के बाद मुलायम सिंह के लिए भाजपा पाक साफ नहीं हो सकती?

          

(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय विभाग में हैं)

अमलेन्दु उपाध्याय

द्वारा एस सी टी लिमिटेड

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मुशर्रफ़ को मदनी का दो टुक जबाब — जयराम ‘विप्लव’

musharafराष्ट्रपति पद गंवाने के बाद पहली बार भारत पधारे मियां मुशर्रफ़ की एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान खूब फजीहत हुई। मुशर्रफ़ ने कहा कि मुंबई आतंकी घटना की वजह है कश्मीर समस्या। जिस दिन कश्मीर समस्या का हल निकल आया, आतंकवाद ख़ुद -बखुद समाप्त हो जाएगा। भारत के लोगों को हमेशा ग़लतफ़हमी रही है कि आई एस आई और पाक सेना शान्ति नही चाहती। पाकिस्तान के ऊपर शक की निगाह से दोहरे चरित्र होने का आरोप भी लगता रहा है, जबकि ऐसा बिल्कुल नही है।

आगे अपने बयान में मुशर्रफ़ ने भारतीय मुसलमानों के साथ ज्यादती का मुद्दा बड़ी ही गर्मजोशी से उठाया लेकिन तभी पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी (जो पहले इस्लामी सेवक संघ नमक एक उग्रवादी संगठन था) के नेता अब्दुल नासिर मदनी ने पलटवार करते हुए कहा कि भारतीय मुस्लमान किसी भी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हैं। हमें आपके सलाह की जरुरत नही। मदनी की बात सुनकर मुशर्रफ़ नजरें बचते हुए दिखे । भारत-पाक के बीचइतने तनावपूर्ण माहौल में एक कट्टरपंथी मुस्लिम नेता का मुशर्रफ़ को दो टुक जबाब देना महत्वपूर्ण संकेत है। क्योंकि आम तौर पर कहा जाता है कि भारत के मुस्लिम रहनुमाओं के भीतर पाकिस्तान के प्रति सॉफ्ट कोर्नर रहताहै।

पाक के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा आतंकवाद के मसले पर कश्मीर और भारतीय मुस्लिमो के साथ ज्यादती के मुद्दे की आड़ लेकर भारत को घेरने की कोशिश और मदनी का जवाब , इस गुत्थी को सुलझने में वक्त लग सकता है ! फिलवक्त , इतना जरुर कह सकते हैं कि भारत में मुस्लिम राजनीति नई करवटें ले रहा है।


जयराम चौधरी

बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
जामिया मिलिया इस्लामिया
मो:09210907050

‘जय हो’ का इस्तेमाल किसी के खिलाफ नहीं चाहते सुखविंदर

slumdog-millionaire-jai-ho-danceकांग्रेस पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार के लिए फिल्म ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के लोकप्रिय गीत ‘जय हो’ के इस्तेमाल करने की योजना पर गायक सुखविंदर ने कहा है कि इस गीत का उपयोग किसी के खिलाफ नहीं किया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस को इस गीत का उपयोग बेहतर तरीके से करना चाहिए। लेकिन इसका उपयोग किसी के खिलाफ बिल्कुल न हो।

गौरतलब है कि सिनामाई गीतों का इस्तेमाल पहले से भी लोग अपने अंदाज में करते रहे हैं। लेकिन, पहली बार कोई राजनीतिक पार्टी गाने की राइट खरीदकर इसका अपने लिए व्यापक इस्तेमाल करने जा रही है।

शब्द जो साथी है – ब्रजेश झा

images20अब जब हमारा वक्त कंप्यूटर पर ही टिप-टिपाते निकल जाता है। स्याही से हाथ नहीं रंगते, तो कई लोग इसे पूरा सही नहीं मानते। यकीनन, हाथ से लिखे को पढ़ने का अपना आनंद है। यह तब पूरा समझ में आता है, जब मोबाइल फोन से बतियाने के बाद किसी पुराने खत को पढ़ा जाए। हिन्दू कॉलेज से निकलने वाली हस्तलिखित अर्द्धवार्षिक पत्रिका (हस्ताक्षर) की नई प्रति मिली तो मन गदगद हो गया।

पत्रिका की एक कविता आपके नजर-

 

 

शब्द 

सीखो शब्दों को सही-सही

शब्द जो बोलते हैं

और शब्द जो चुप होते हैं

 

अक्सर प्यार और नफरत

बिना कहे ही कहे जाते हैं

इनमें ध्वनि नहीं होती पर होती है

बहुत घनी गूंज

जो सुनाई पड़ती है

धरती के इस पार से उस पार तक

 

व्यर्थ ही लोग चिंतित हैं

कि नुक्ता सही लगा या नहीं

कोई फर्क नहीं पड़ता

कि कौन कह रहा है देस देश को

फर्क पड़ता है जब सही आवाज नहीं निकलती

जब किसी से बस इतना कहना हो

कि तुम्हारी आंखों में जादू है

 

फर्क पड़ता है

जब सही न कही गयी हो एक सहज सी बात

कि ब्रह्मांड के दूसरे कोने से आया हूं

जानेमन तुम्हें छूने के लिए। 

– लाल्टू

केंद्रीय कर्मचारियों में महिलाओं का प्रतिशत 10 से भी कम – ब्यूरो

tkaकेंद्रीय कर्मचारियों की कुल संख्या में महिलाओं का अनुपात 10 प्रतिशत से भी कम है। प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव टी. के. ए. नायर ने एक पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय विशेषांक के विमोचन समारोह में कहा कि केंद्रीय कर्मचारियों में महिलाएं केवल 7.52 प्रतिशत हैं।

नायर ने कहा समारोह के दौरान कहा कि प्रशासनिक सेवा में महिलाओं का प्रतिशत 24, भारतीय पुलिस सेवा में 18.5 प्रतिशत तथा भारतीय विदेश सेवा में 18 प्रतिशत है। वे राजधानी में ब्यूरोक्रेसी टुडे नाम की पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेषांक अंक के विमोचन समारोह में बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि हम एक कार्यकारी लोकतंत्र हैं और नौकरशाही की भूमिका बदलने जा रही है। ऐसे में सार्वजनिक प्रशासन में महिलाओं का परिदृश्य हर हाल में बदलना चाहिए। फिलहाल नौकरशाही में महिलाओं की भूमिका पूरी कहानी का एक बहुत ही छोटा-सा हिस्सा है।

नीतीश कुमार का रिक्शा मंत्र

nitish-kumarपंद्रहवीं लोकसभा चुनाव का रंग अब धीरे-धीरे गाढ़ा होता जा रहा है। इसी का परिणाम मालूम पढ़ता3 है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऑस्कर पुरस्कार बटोरने वाली फिल्म स्लमडौग मिलियनेयर देखने रिक्शा से पटना के अशोक सिनेमा हॉल पहुंचे। साथ ही उनके सुरक्षाकर्मी रिक्शा के साथ दौड़ लगाते सिनेमा हौल पहुंचे।

खबर आई कि मुख्यमंत्री आवास से अशोक सिनेमा हॉल तक के लिए उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को तीन सौ रुपये दिए। यानी करीब पांच किलोमिटर की दूरी का रिक्शा भाड़ उन्होंने 300 रुपया तय किया है। खैर, यह उनकी अदा है। हालांकि ऐसे कामों का कौपी राइट लालू जी के पास है। लेकिन, उन्हें मात देना है तो कुछ करना ही पड़ेगा।

बहरहाल, इस मौके पर उन्होंने पत्रकारों से कहा कि रिक्शा आम आदमी की सवारी है। मैंने इच्छा इस चर्चित फिल्म को देखने की हुई, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न पुरानी यादें ताजा कर ली जाएं। इस कारण मैंने रिक्शा से ही सिनेमा हॉल जानने का फैसला किया।
नीतीश जी ने तो बहुत अच्छा किया। अब सुरक्षाकर्मी को दौड़ें तो अपनी बला से, उन्हें क्या ? हालांकि सिनेमा हॉल में पहले से ही सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे। मुख्यमंत्री के साथ जनता दल-यूनाइटेड के प्रदेश अध्यक्ष ललन सिंह भी थे।

राजधानी में सड़क छाप फिल्म फेस्टिवल

राजधानी के लुटियंस इलाके व उसके आसपास मनाया जाने वाला फिल्मोत्सव अब पुरानी परंपराओं को दरकिनार करते हुए शहर की झुग्गी बस्तियों में पहुंच गया। स्पृहा (गैर सरकारी संस्था) ने बच्चों की कोमल कल्पनाओं में और पंख लगाने के इरादे से दिल्ली के नई सीमापुरी इलाके में सड़क छाप फिल्म उत्सव का आयोजन किया।

 

slumउत्सव का उद्देश्य बच्चों में संवेदनशीलता कायम रखने व गरीब बच्चों से छिन रहे बचपन को लौटाने का है। हालांकि, यह एक चुनौती है, जिसे स्पृहा ने अनूठे अंदाज में पूरा करने की जिम्मेदारी ली है।

 

यहां उत्सव के दौरान बच्चों को चिरायु‘, ‘छू लेंगे आकाश‘, ‘जवाब आएगाऔर उड़न छू नाम की चार बाल फ़िल्में दिखलाई गईं। स्पृहा के संचालक पंकज दुबे ने बताया कि मल्टीप्लेक्स की संस्कृति में ये बच्चे मनोरंजक फिल्में देखने से महरूम रह जाते हैं। हमारी कोशिश बस इतनी है कि इन बच्चों को भी बेहतर फिल्म दिखाने को मिले।
 

उत्सव का आयोजन चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी आफ इंडिया(सीएफएसआई) के सहयोग से किया गया था। यकीनन पंकज इस प्रयास के लिए बधाई के पात्र हैं। लेकिन, यदि ये प्रयास हिंदुस्तान के बज्र देहाद में भी पहुंचे तो क्या कहने हैं !

स्वरोजगारियों का गांव नगला धाकड़

gems-cutting-04भरतपुर जिले की वैर तहसील की इटामड़ा ग्राम पंचायत के गांव नगला-धाकड़ में रहने वाले धाकड़ जाति के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। लेकिन छोटी जोतें और उस पर अनुपजाऊ भूमि स्थानीय ग्रामीणों के जीवन की एक फांस बन चुकी थी और हालात भरण-पोषण के संकट तक पहुंच चुके थे। ऐसे में जीवन-यापन के साधन जुटाने के लिए स्थानीय लोगों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। पलायन करने वालों में नगला के तीन ऐसे परिवार भी थे, जिन्हें जयपुर में नगीनों की पॉलिश का काम मिल गया। सुरेश चंद्र धाकड़ एवं उनके दो अन्य साथी इसमें शामिल थे। कुछ लोगों को आगरा एवं आसपास के अन्य इलाकों में भी काम मिल गया, लेकिन कमाई का अधिकांश हिस्सा वहां पर आवास, भोजन और आवागमन पर खर्च हो जाने से बचत नहीं हो पाती थी। स्थानीय स्तर पर संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण तो आजीविका दूभर थी ही, लेकिन घर-बार छोड़कर जाने के बाद भी अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा था। पलायन कर चुके हर व्यक्ति की तरह परदेस में रहते हुए नगला के लोगों के मन में भी ख्याल आते थे कि ‘यदि गांव में रहकर ही कोई काम मिल जाये तो परेशानियां हल हो जायेंगी, क्योंकि थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी भी ऐसे में हो जाएगी।गत दीपावली के दौरान सुरेश धाकड़ ने गांव में ही नगीना घिसाई मशीन व शेड बनाने का विचार गांव वालों के सम्मुख रखा। चर्चा हुई और ग्रामीणों की सहमति भी इस काम को लेकर बन गई। लेकिन इसके लिए संसाधन कैसे जुटाया जाये, यह गरीब ग्रामीणों के लिए इतना आसान नहीं था। नगीना घिसाई की मशीन व शेड बनाने हेतु लगभग 40-50 हजार रूपये की आवश्यकता थी। इस समस्या को कैसे हल किया जाये, इस बात को लेकर ग्रामीणों ने लुपिन ह्युमन वेलफेयर फांउडेशन के प्रतिनिधि से चर्चा की तो उसने लघु उद्योगों की स्थापना के लिए बैंकों से मिलने वाले ऋण के बारे में लोगों को जानकारी दी। यही नहीं लुपिन के प्रतिनिधियों ने ऋण के लिए आवेदन कराने से लेकर उद्यमों की स्थापना तक पूरा सहयोग नगला के नव-स्वरोजगारियों को दिया। इस तरह सुरेश को सिडबी की ओर से ऋण मिल गया और उसने अपनी छोटी से यूनिट नगला में ही आरंभ कर दी। जयपुर में काम करने वाले अन्य लोगों को जब नगला में हुए इस नए प्रयोग के बारे में पता चला तो उन्होंने भी लुपिन के प्रतिनिधियों से सहयोग की अपील की। इस तरह अन्य लोगों को भी स्थानीय लोगों को ऋण दिला दिया गया। देखादेखी नगीना पॉलिश करने वाली स्वरोजगार इकाइयों की संख्या दिनो-दिन बढ़ने लगी।

अपने गांव में इस बदलाव से प्रभावित होकर आगरा में काम करने वाले लोग भी वापस अपने ही गांव में आ गये और संस्था के सहयोग से गांव में घुंघरू तथा पट्टा चैन की यूनिटें लगाई। इन लोगों को गांव में संचालित 6 महिला स्वयं तथा अन्य लोंगों को प्रशिक्षण केन्द्र के माध्यम से घुंघंरू व पट्टा चैन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। जिससे ये महिलाऐं उनके काम को सफलतापूर्वक निभाने लगी तथा उनके घर के पुरूष इनकी मार्किटिंग हेतु आगरा तथा आसपास के शहरों में जाने लगे। नगीना घिसाई के व्यवसाय के लिए गांव के अन्दर ही प्रशिक्षण केन्द्र प्रारम्भ किया गया, जिसमें गांव तथा आसपास के युवाओं को 3 महीने का गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके उपरान्त यहां से प्रशिक्षित लोग गांव में लगी हुई यूनिटों में तथा कुछ प्रशिक्षणार्थी अपनी इन स्वयं की यूनिटें लगाकर काम करने लगे।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए संस्था ने ‘लुपिन ग्राम विकास पंचायत’ का गठन किया गया है। गांव के लोग प्रतिनिधि चुनकर इस कमेटी का गठन करते हैं, जो ग्रामीणों के ऋण प्रस्तावों पर विचार-विमर्श कर अनुमोदन के बाद स्वीकृत कर लुपिन, राष्ट्रीय महिला कोष तथा स्थानीय बैंकों से धन दिलाने में मदद करती है। इस तरह गांव में ही स्वरोजगार के साधन ग्रामीणों को उपलब्ध हो जाते हैं और वे इससे होने वाली आय से ऋण समय पर चुका देते हैं। गांव के सहायता समूह की महिलाएं आपस में स्वरोजगार की छोटी-मोटी आवश्यकताएं अपने समूह से ही ऋण लेकर पूरी कर लेती है। गांव के 26 अनुभवी तथा प्रशिक्षित लोगों को वहां के स्थानीय बैंक द्वारा उद्यमी कार्ड भी दिलवाया हुआ है। इसके तहत सदस्य 25000 तक का लेन-देन कभी कर सकते है। यह कार्ड सदस्यों की समय-समय पर आने वाली आवश्यकता जैसे मजदूरी भुगतान, कचचे माल का क्रय, डीजल क्रय आदि हेतु काफी काम आता है। वर्तमान में नगला धाकड़ गांव में नगीना पॉलिश की 42, घुंघरू की 14 तथा पट्टे चैन की 28 यूनिटें कार्य कर रही हैं, जिससे लगभग 1000 लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिल रहा है। यहां पुरूष नगीना पॉलिश तथा महिलाऐं घुंघरू के व्यवसाय में लगी हुई है। समय-समय पर संस्था का गांव के लोगों को स्वरोजगार के प्रति प्रोत्साहन महत्वपूर्ण रहा है। स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित कर उनकी कला निखरने में संस्था की भूमिका एक उत्प्रेरक की रही है। आसपास के लोगो को आदर्श गांवों का भ्रमण कराकर उन्हें इसी प्रकार के कार्य की पुनरावृत्ति करने की प्रेरणा दे रही है।

सिलसिला शुरू हुआ तो कारवां बनता चला गया और इसका प्रभाव कुछ ही समय में नगला-धाकड़ में नज़र आने लगा। सिडबी के सहयोग से ग्रामीण उद्यमिता विकास कार्यक्रम के तहत 450 लोगों को प्रायोगिक व सैध्दान्तिक प्रशिक्षण मिल जाने से लोगों में उद्यमीय कौशल में भी वृध्दि हुई है। आज नगला में विभिन्न व्यवसाय की 84 इकाइयां कार्यरत हैं, जिसमें लगभग एक हजार परिवारों के आर्थिक तथा सामाजिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। चूल्हे चौके तक सिमट कर रहने वाली महिलाएं भी स्वरोजगार से जुड़कर गांव के विकास की मुख्यधारा में शामिल होने लगी हैं। यही नहीं आसपास के क्षेत्रों में सैकड़ों लोगों ने इस तरह के प्रयास के प्रारम्भ कर दिये हैं, जो एक सुखद बात कही जा सकती है। जीवन यापन की समस्या हल हो जाने के बाद स्थानीय ग्रामीणों का रूझान शिक्षा की तरफ अब बढ़ने लगा है। आधारभूत सुविधाओं के विकास के चलते गांव की छात्राएं अब उच्च शिक्षा हेतु जाने लगी हैं।

हालांकि अब नगला धाकड़ आर्थिक समृध्दि की ओर अग्रसर है, परन्तु आज भी गांव के लोग व्यथित है कि यहां मात्र 6 से 8 घन्टे बिजली रहती है। जिससे प्रत्येक परिवार का लगभग 30 हजार रूपये का डीजल बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था करने में खर्च हो जाता है। फिलहाल गांव के सभी लोग लुपिन के सहयोग से जिला प्रशासन से गांव को कस्बे के समान अधिक बिजली दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव वालों की मानें तो बिजली की समस्या हल हो जाने से उनकी सारी मुश्किलें हल हो जाएंगी और नगला-धाकड़ एक संपूर्ण आत्मनिर्भर गांव बनकर एक मिसाल कर पाने में समर्थ हो जाएगा।

-उमाशंकर मिश्र

(लेखक मासिक पत्रिका सोपानस्‍टेप से जुडे हैं एवं इसके साथ ही विकास एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)