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पानी से बिजली बनाने पर सवाल

samikshaप्रसिध्द अर्थशास्त्री डा भरत झुनझुनवाला की शोध-पुस्तिका ‘जल विद्युत का सच’ उत्तराखण्ड के श्रीनगर’ और ‘कोटलीभेल’ परियोजना पर कुछ तथ्य और सवाल रखती है। साथ ही यह ऐसी नीतियों के पीछे छिपे कारणों पर और अधिक विश्लेषण की मांग भी करती है। दरअसल सरकार अलकनन्दा नदी के कुल 270 किलोमीटर प्रवाह में से 179 किलोमीटर पर बांधों की श्रृंखला बना रही है। इसके तहत ‘कोटलीभेल 1बी’ परियोजना में ही कुल 495 हेक्टेयर जंगल डूब जाएगा। सरकार के मुताबिक आर्थिक विकास के लिये बिजली चाहिए। इसलिए ऐसी परियोजनाओं का विरोध देशहित में नहीं।

किताब- जल विद्युत का सच।

लेखक व
प्रकाशक-
डा भरत झुनझुनवाला
लक्षमोली, पोस्ट
मलेथा, वाया कीर्तिनगर,
उत्तराखण्ड।

मूल्य- 10 रूपए।

दूसरी तरफ लेखक की राय में देश को ऊर्जा चाहिए लेकिन अमीरों के फायदों के लिए गरीबों का शोषण और व्यापक पर्यावरण विनाश करना हानि का सौदा है। उनका मानना है कि पहले हमें उपलब्ध ऊर्जा के सही उपयोग पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। पुस्तिका में ऊर्जा के विभिन्न उपयोगों को प्राथमिकता दी गई है। इसी आधार पर ऊर्जा के विभिन्न उपयोगों के महत्तव पर भी प्रकाश डाला गया है। सरकार परियोजना को समुदाय के हित में प्रचारित कर रही है। इसकी पड़ताल के लिये लेखक ने श्री नरेशचन्द्र पुरी द्वारा चीला, मनेरी भाली तथा टिहरी और घारीदेवी व देवप्रयाग संगम पर बने बांध के परिणामों पर आधारित सर्वेक्षण का सहारा लिया है। उन्होंने पुराने अनुभवों से मुआवजा नीति को असमान और अन्यायपूर्ण साबित किया है।

ऐसी विसंगतियों के कारण स्थानीय जनता में आपसी विवाद और संघर्ष की स्थिति खड़ी हो जाती है। लेखक की एक अहम चिंता जलाशयों में तलछट (सिल्ट) के जमाव का बांध में रूक जाने को लेकर है। इससे जलाशयों की उम्र कम हो जाती है और उसी अनुपात में परियोजना के लाभ भी। जापान के भू-सर्वेक्षण विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि पूर्व में समुद्र तक पहुंच रहे तलछट का 30 प्रतिशत हिस्सा अब बांधों में रूक गया है। इसी प्रकार पुस्तिका में बाँधों से हिमालय के भूकंप, भूस्लखन, जैव विविधता में कमी, मौसम में बदलाव और नदी के मुक्त बहाव में बाधा जैसे मुद्दों को लिया गया है। लेखक ने इन मुद्दों पर हुए अन्य शोध-कार्यों को शामिल करते हुए उसका अध्ययन किया है।

आर्थिक विकास के लिये बिजली की जरूरत को न्यून साबित करने पर बुध्दिजीवियो द्वारा आपत्ति की जा सकती है। जल विद्युत परिदृश्य में होने वाली समस्त हानियों में से आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास पर लेखक का अत्याधिक झुकाव असंतुलन पैदा करता है। साल 2000 में ‘विश्व बाँध आयोग’ के लिये तैयार की गई रिर्पोट ‘बड़े बाँध : भारत का अनुभव’ ने बड़े बाँधों को लेकर प्रचलित अनेक धारणाओं को ध्वस्त किया था। लेकिन इस रिर्पोट को अनदेखा कर आज उत्तराखण्ड के अलावा हिमाचल प्रदेश और देश के उत्तर-पूर्वी भाग में जल विद्युत के लिये वृहद पैमाने पर पूँजी निवेश किया जा रहा है। 2008 में ‘मंथन अध्ययन केन्द्र, बड़वानी’ के ऑंकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में ही कुल 3036 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिये प्रस्तावित 9 बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं में से 5 पर निजी कंपनियां काबिज हैं। इसीलिए प्रभावित जन-समूहों को संगठित करने के लिये जन भाषाओं में ऐसी परियोजनाओं का लेखा-जोखा उपलब्घ कराने की आवश्यकता तो हमेशा ही बनी रहेगी। इस लिहाज से हिन्दी में प्रकाशित यह शोध-पुस्तिका सहज भी है और सरल भी।

-शिरीष खरे

SHIRISH KHARE
C/0- CHILD RIGHTS AND YOU
189/A, ANAND ESTATE
SANE GURUJI MARG
(NEAR CHINCHPOCKLI STATION)

MUMBAI-400011

शोषितों के लिए प्रेरणा है लक्ष्मी – जयराम ‘विप्लव’

laxmi-uraonलगभग डेढ़ साल पहले गुवाहाटी में आदिवासियों की एक रैली के दौरान मीडिया की सुर्खियों में रहने वाली लक्ष्मी ओरांव आजकल फ़िर चर्चा में है। इस बार वजह है कि वो तेजपुर संसदीय क्षेत्र से यूडीएफ की उम्मीदवार हैं। साल भर पहले आसाम की राजधानी मे अपमानित की गई अबला आदिवासी महिला आज राजनीति मे आने के लिए कमर कस कर खड़ी है।एक तरफ़ इस देश में ऐसे लोग भी हैं जो सिस्टम की दुहाई देते हुए वोट देने से भी कतराते हैं तो वहीँ दूसरी ओर लक्ष्मी जैसी आत्मविश्वासी और हिम्मती महिला भी, जो तथाकथित सभ्य समाज को उसके घिनोने चेहरे का आइयाना दिखानेको तैयार है । लक्ष्मी कहती हैं -” चुनाव भले न जीते लेकिन मैदान में उतर कर वह शोषण के ख़िलाफ़ लोगों में संदेश देना चाहती है। “मार्टिन लूथर किंग को अपना आदर्श मानने वाली लक्ष्मी का यह एक कदम नारी को अबला बताने वालों को करा जवाब और लाखों शोषितों के लिए प्रेरणा का सबब बना हुआ है। महिला उत्थान के लिए काम करने वाले समाजसेवी व अधिवक्ता सुकुमार कहते हैं – “नारी विमर्श के इस ज़माने मे नारी की ऐसी दशा है कि जिसका जिक्र करते हुए ख़ुद पर शर्म आने लगती है । आज पढ़े लिखे भारतीय जन मानस की मनोविकृति की शिकार महिलाये आम तौर पर खामोशी से चुप चाप सब कुछ सहने की आदी हो गई है। हर दिन हजारों बलात्कार, हजारों दहेज़ हत्या और मारपीट, हजारों छेड़छाड़ की घटनाएँ होती हैं पर उनमे से कितनी पीडिता विरोध मे आवाज उठाती है ? सामान्य जनों की बात छोडिये समाज को जगाने का ढिंढोरा पीटने वाले बुद्धिजीवी वर्ग भी अब किताबों एवं समाचारपत्र- पत्रिकाओं तक सिमट गया है। कहने को तो नारी उत्थान के पुरोधा लोग इस दिशा मे काम कर रहे हैं लेंकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। बड़ी बड़ी पार्टियो मे तथा बंद कमरों मे लम्बी-लम्बी डींगे हांकने से परिस्थिती नही बदल जाती है । कुल मिला कर आज के भारत मे नारी दुर्दशा का दर्शन और इसके परिणामो के प्रति उदासीनता सर्वत्र दृष्टिगत होती है । ऐसे प्रतिकूल माहोल मे लक्ष्मी ओरांग का राजनीति मे आने का फ़ैसला सराहनीय कदम माना जाएगा। आसाम की ये वीरांगना स्त्री समस्त भारतीय महिलाओ के लिए आदर्श है।”

फिलवक्त , लक्ष्मी मीडिया हाइप से दूर अपने क्षेत्र के चाय बागानों में आदिवासिओं को एकजुट करने का अभियान चला रही है। १२ लाख मतदाताओं वाली सीट में से ४ लाख लोग इन्ही चाय बागानों में रहते हैं। मंच-माला -माइक के तामझाम से अलग न तो लक्ष्मी भाषण देने की भी जरुरत नही समझती और न ही वहां के लोग। लक्ष्मी के साथ घटी घटना ही लोगों को काफी लगती है । पूरे देश भर में चुनाव प्रचार और जनसंपर्क के लिए उम्मीदवारों द्वारा करोड़ों रूपये खर्च किए जाते हैं। ऐसे में लक्ष्मी का सादा प्रचार कितना सफल होता है यह देखना बाकी है।

– जयराम ‘विप्लव’
मो: 09210907050
ईमेल: jay.choudhary16@gmail.com

खाली होती थाली

_44733146_children_226हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन रक्षा को एक बुनियादी अधिकार माना गया है; लेकिन सभी नागरिकों को भरपेट भोजन हासिल न हो तो इस अधिकार का क्या महत्व रह जाता है। जनसंख्या वृद्धि, खेती की बढती लागत, मिट्टी व पानी की गुणवक्ता में गिरावट, कृषि भूमि में ह्रास, बदलता मौसम चक्र जैसे कारणों से खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि लगभग रूक गई है। बढती जनसंख्या के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन न होने से प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट आ रही है। इसके परिणामस्वरूप कुपो¬षण के शिकार लोगों की संख्या बढ रही है। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का सबसे कुपोषित देश है और यहां प्रतिदिन पौने छह हजार बच्चे मौत के मुंह में चले जाते हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2007-08 के अनुसार 1960 के दशक में शुरू की गई कृषि नीतियों के परिणामस्वरूप भारत खाद्यान्न के मामले में लगभग आत्मनिर्भर हो गया और व¬र्ष 1976-77 से 2005-06 के दौरान विशेष परिस्थितियों को छोड़कर खाद्यान्न का शायद ही कोई आयात किया गया। तथापि खाद्यान्नों के उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर 1990 से 2007 के दौरान 1.2% तक गिर गई, जो जनसंख्या के औसतन 1.9% की वार्षिक वृद्धि दर की तुलना में कम है। यही कारण है कि अनाजों और दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में गिरावट आ रही है। अनाजों की दैनिक खपत 1990-91 में 468 ग्राम प्रति व्यक्ति से गिरकर 2005-06 में 412 ग्राम रह गई। इसी अवधि में दालों की दैनिक खपत 42 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 33 ग्राम रह गई। अनाज और दालों की खपत के ये आंकड़े रा¬ष्‍ट्रीय औसत के हैं। स्प¬ष्‍ट है इसमें व्यापक अंतर विद्यमान है। समाज के कमजोर वर्गों, जिनका आर्थिक आधार सुदृढ नहीं है और नियमित आय का कोई साधन नहीं है, उनमें अनाज और दालों की खपत रा¬ट्रीय औसत की तुलना में अत्यधिक कम है। दूसरे शब्दों में ऐसे लोग गंभीर रूप से कुपोषित हैं। ऐसे कुपोषित लोगों की संख्या लाख दो लाख न होकर करोड़ों में है। स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 77% जनसंख्या (83 करोड़ लोग) की दैनिक आय 20 रूपये से भी कम है। इससे कुपो¬षण की व्यापकता का अंदाजा लगाया जा सकता है।निरंतर हल्की होती थाली से देश में कुपो¬षण और भुखमरी की जो स्थिति आज उत्पन्न हुई है वह अचानक आसमान से नहीं टपकी है। उसके लिए घरेलू कृषि एवं कृ¬षेतर नीतियां उत्तरदायी है। उदारीकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद विकास की सारी चिंता विकास दर में सिमट कर रह गई है। यह मान लिया गया कि यदि विकास दर ऊंची बनी रहेगी तब गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपो¬षण की समस्याएं स्वत: खत्म हो जाएंगी। इसी नीति का परिणाम है कि कृषि एवं ग्रामीण जीवन में निवेश निरंतर घटता गया। यही कारण है कि एक ओर अर्थव्यवस्था 9% वार्षिक वृद्धि दर की गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत कर रही है तो वहीं दूसरी ओर कृषि 2-3% की दर से रेंग रही है। इसीलिए कहीं-कहीं समृद्धि की चकाचौंध है और अधिकतर जगहों पर गरीबी का घना अंधेरा।

उदारीकरण के दौर में एक ओर तो कृषि में निवेश में कमी आई तो दूसरी ओर बैंकों के कुल ऋणों में कृषि ऋणों का हिस्सा कम होता गया। सामान्यत: कृषि ऋणों को दो भागों में बांटा जाता है प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष ऋण सीधे किसानों को दिए जाते हैं जबकि अप्रत्यक्ष ऋण कृषि क्षेत्र में सहायक उद्यमों व उद्यमियों को। कृषि ऋणों में प्रत्यक्ष ऋणों का हिस्सा जहां कम हुआ है वहीं अप्रत्यक्ष ऋणों का हिस्सा बढा है। रिजर्व बैंक ने एक नए प्रावधान के तहत कृषि ऋण की ऊपरी सीमा एक करोड़ कर दी है। संप्रग सरकार ने पिछले तीन वर्षों के दौरान कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋणों की मात्रा को बढाकर दो गुना कर दिया है। लेकिन ऋण की ऊपरी सीमा में वृद्धि के कारण इसका लाभ किसानों को न मिलकर व्यापारियों, बिचौलियों को मिल रहा है। यही कारण है कि कृषि संबंधी जरूरतों के लिए आज भी अधिकतर किसान असंगठित स्रोतों (साहूकार, महाजन) से ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने के लिए बाध्य है। इससे उनकी उपज का एक बड़ा हिस्सा साहूकारों, महाजनों की भेट चढ ज़ाता है।

देश में व्याप्त कुपो¬षण व भुखमरी को गेहूं व तिलहन उत्पादन संबंधी सरकारी नीतियों से समझा जा सकता है। 2000 से 2004 के बीच सरकारी गोदाम अनाजों से ठसाठस भरे थे। सरकार अनाज उत्पादन को हतोत्साहित करने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य में नाममात्र की वृद्धि किया ताकि किसान दूसरी फसलों की ओर उन्मुख हों। अनाजों के उत्पादन में लाभ होता न देख किसान अब नकदी फसल उगाने पर बल देने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में अनाजों की कमी हो गई। जिस देश ने 2000 से 2004 के दौरान भारी सब्सिडी देकर गेहूं का निर्यात किया था उसे ही 2006 में 55 लाख टन और 2007 में 18 लाख टन गेहूं का आयात अत्यंत महंगे दर पर करना पड़ा।

1980 के दशक में देश में खाद्य तेल आयात चिंताजनक स्तर तक बढ ग़या था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे सज्ञान में लिया और तिलहन उत्पादन को बढावा देने की नीति की शुरूआत की। 1986 में तिलहन पर तकनीकी मिशन की शुरूआत की गई। किसानों को उन्नत बीज, व्यावसायिक प्रबंधन, लाभकारी समर्थन मूल्य प्रदान किया गया। इसका परिणाम सकारात्मक रहा और 1992 में भारत खाद्य तेलों के मामले में लगभग (98%) आत्मनिर्भर हो गया। लेकिन उदारीकरण-भूमंडलीकरण की नीतियों के तहत जब दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में सस्ता पामोलिव तेल मिलने लगा तब सरकार ने तिलहन उत्पादकों को प्रोत्साहन देना बंद कर दिया। इससे तिलहन उत्पादन प्रभावित हुआ और देश में खाद्य तेलों की कमी हो गई। अब देश खाद्य तेलों के मामले में आयात पर निर्भर रहने लगा है। आज भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा (60 लाख टन वार्षिक) खाद्य तेल आयातक देश बन चुका है।

जनसंख्या, जीवन स्तर व मांग में वृद्धि से सभी को खाद्य व पो¬षण सुरक्षा प्रदान करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। यह लक्ष्य आयात से कदापि पूरा नहीं किया जा सकता; क्योंकि भारत कोई छोटा-मोटा देश तो है नहीं जो खाद्यान्न आयात कर सभी निवासियों का पेट भर सके। दूसरे जब विश्व स्तर पर खाद्यान्नों के लिए मारामारी मची हो तब भारत खाद्यान्न का आयात करेगा कहां से ? ऐसी स्थिति में घरेलू उत्पादन में वृद्धि ही एकमात्र उपाय है। इसके लिए आवश्ययक है कि कृषि व ग्रामीण विकास रणनीति में जनोन्मुखी परिवर्तन किए जाएं। देश में 82% किसान लघु व सीमांत हैं, जोत छोटी व बिखरी हुई है। वर्तमान कृषि विकास रणनीति पूंजी प्रधान रही है जिस कारण लघु व सीमांत किसान उसे बड़े पैमाने पर नहीं अपना सके हैं। अत: ऐसी कम लागत वाली कृषि रणनीति की जरूरत है जिसे लघु व सीमांत किसान बड़े पैमाने पर अपना सकें। दूसरे, कृषि उत्पादकता एवं उत्पादन संबंधी रणनीतियां दीर्घकालिक आधार पर बने। अत: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों की जगह जैविक उर्वरक, हरी खाद, फसल चक्र, मिश्रित कृषि, अंतरफसली खेती जैसी दीर्घकालिक रणनीतियों को अपनाया जाए। तीसरे, किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिया जाए ताकि खेती लाभ का सौदा बन सके। चौथे, कृषि एवं ग्रामीण जीवन को विविधीकृत किया जाए। कृषि के साथ-साथ पशुपालन, दुग्ध उत्पादन, मत्स्य-मधुमक्खी पालन जैसी आय व रोजगारवर्ध्दक गतिविधियों को शुरू किया जाए। इससे कृषि कार्य मौसमी न होकर बारहमासी स्वरूप का हो जाएगा। पांचवें, ग्रामीण क्षेत्रों में कृषिगत आधारभूत ढांचे को सुदृढ क़िया जाए। सिंचाई, बिजली, सड़क, उपज की खरीद बिक्री आदि की पक्की व्यवस्था हो।

लेखक- रमेश कुमार दुबे
(लेखक पर्यावरण एवं कृषि विषयों पर कई पत्र-पत्रिकाओं में स्‍वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं)

वरुण गांधी पर रासुका लगा

varun-gandhi161उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा की है कि पीलीभीत से भारतीय  जनता पार्टी के उम्मीदवार वरुण गांधी पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका ) लगाया जा रहा है। वे मेनका गांधी के पुत्र हैं।

 

इससे पहले स्थानीय प्रशासन ने शनिवार की घटना के बाद वरुण गाँधी और उनके समर्थकों के ख़िलाफ़ एक और आपराधिक मामला दर्ज कराया है। इनपर हंगामा करने, हत्या का प्रयास, सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाने के साथ धारा 144 और जनप्रतिनिधित्व क़ानून के उल्लंघन का मामला दर्ज कराया गया है।

 

उधर, शनिवार के घटनाक्रम के बाद पीलीभीत में रविवार को स्थिति सामान्य रही। लेकिन सड़कों पर बड़ी संख्या में पुलिसबल तैनात हैं।

 

यहां प्रशासन और वरुण गांधी के समर्थकों में हुई झड़पों में करीब 50 लोग घायल हो गए थे। इस घटना पर सभी पार्टी फूंक-फूंककर कदम रख रही है।

 

वरुण गांधी ने शनिवार को जेल जाने से पहले मीडिया से बातचीत कहा कि उनके जेल जाने से यदि लोगों में सिद्धांतों के लिए लड़ने की हिम्मत पैदा होती है तो वे समाज व देश हित में जेल जाने के लिए तैयार हैं । उन्होंने इस घटना को साजिश करार दिया है।

 

गौरतलब है कि राज्य में चुनाव प्रचार के दौरान छह मार्च को एक संप्रदाय के लोगों के ख़िलाफ़ कथित रूप से भड़काऊ भाषण देने के मामले में चुनाव आयोग के निर्देश पर पीलीभीत के  ज़िलाधिकारी ने वरुण गाँधी के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज करवाई थी।

सुपरसोनिक ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल का परीक्षण सफल

भारतीय सेना ने सुपरसोनिक मिसाइल ब्रह्मोस के भूमि पर हमला करने वाले संस्करण का सफल परीक्षण रविवार को राजस्थान के पोकरण परीक्षण रेंज में किया। आधिकारिक बयान में कहा गया है कि मिसाइल सफलतापूर्वक छोड़ी गई और उसने लक्ष्य को नष्ट कर दिया। भारत और रूस के संयुक्त उद्यम ब्रह्मोस मिसाइल को रविवार सुबह 11.15 बजे छोड़ा गया।

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) की ओर से जारी बयान में कहा गया कि रविवार को सेना के एक मोबाइल लांचर से ब्रह्मोस छोड़ा गया और इसने लक्ष्य को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया। उल्लेखनीय है कि इस महीने ब्रह्मोस के ब्लाक-2 संस्करण का यह दूसरा और इस वर्ष तीसरा परीक्षण है।

मैं न रहूँगी दिल्ली में…

indianwomen1मैं यहाँ सब कुछ छोड़ कर आई थी गाँव से। गाँव में मेरे घर की बड़ी सी ज़मीन थी जिन्हें इनके (शौहर की ओर इशारा करते हुए) ताया-आया ने घेर लिया। अब यहाँ से भी भगाया जा रहा है हमें। हम तो यहाँ से भी गए और वहाँ से भी। अगर जगह मिली तो यहाँ रहूंगी वरना नहीं रहूंगीं…….. किस उस पे रहूँ?…….मैं दिल्ली मे नहीं रहूंगी।”मोइना बाज़ी सन 1983 से जेपी कॉलोनी बस्ती में रह रही हैं। जब वो आई थी तो गिने-चुने मकान थे यहाँ। मकान क्या बांस-बल्ली में पर्दे टांग कर रहते थे लोग। किसी घर में कोई दरवाज़ा नही होता था। कहीं जाते थे तो पर्दा डाल कर निकल जाते थे। आसपास कूड़े का ढेर लगा होता था। ढेर सारे गढ्ढे थे। गत्तों का एक गोदाम था। धीरे-धीरे यहाँ लोग आते गए और बसते गए। पहले यह जगह इतनी खुली थी कि यहाँ पर खाट बिछा कर बैठा जा सकता था। यहाँ से ट्रक गुज़र जाया करते थे मगर आज एक आदमी के अलावा दूसरा नहीं गुज़र सकता।वो बताती हैं, “रेवाड़ी, हरियाणा से मैं आई थी यहाँ। मेरे शौहर यहाँ के धोबी घाट पर काम करते थे इसलिए मैं यहीं पर रहने लगी।हमने इस जगह के गड्ढों को मलबे से भर कर समतल किया। उस वक्त यहाँ पर ना नालियाँ थी, ना पानी आता था और ना ही बिजली के कनेक्शन थे। आस-पास बहुत सारे नीम, पीपल और जामुन के पेड़ थे। पहले लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते थे हम। यहीं अपनी बड़ी बेटी की शादी की। वो हंसी-खुशी के दिन थे। लेकिन अचानक मेरी ज़िंदगी में दुख का पहाड़ टूटा और मेरा 16 साल का बेटा अयूब, जो नौवीं में कक्षा पढ़ता था, कार एक्सीडेंट में रीढ़ कि हड्डी टूट जाने के कारण हमेशा के लिए हमसे जुदा हो गया।”आज जब जेपी कॉलोनी मे फिर सर्वे हो रहे हैं तो मोइना बाजी इस जगह से जुड़े अपने उन लम्हों को याद करके अच्छे दिन के लिए खुश भी होती हैं मगर अपने बेटे का ध्यान करके गमगीन हो जाती हैं।आज जब़ वो अपने कागज़ातो को फिर से खोल कर देख रही थी और अपने बीते हुए लम्हों को बता रही थी तो लगा जैसे वो अपनी जगह और अपने रिश्तों की गुत्थम-गुत्थी में हैं जहाँ एक अनचाहे फैसले ने उन्हे इन दोनों पर फिर से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।

 

फरज़ाना और सरिता
सभार- जे.पी.कॉलोनी, नई दिल्ली-2

गुरुदत्त और फिल्म सिनेमा- आलोक नंदन

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images36गुरुदत्त के बिना वर्ल्ड सिनेमा की बात करना बेमानी है। जिस वक्त फ्रांस में न्यू वेव मूवमेंट शुरु भी नहीं हुआ था, उस वक्त गुरुदत्त इस जॉनरा में बहुत काम कर चुके थे। फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के जन्मदाताओं ने उस समय दुनिया की तमाम फिल्मों को उलट-पलट कर खूब नाप-जोख किया, लेकिन भारतीय फिल्मों की ओर उनका ध्यान नहीं गया। गुरदत्त की फिल्मों का प्रदर्शन उस समय जर्मनी, फ्रांस और जापान में भी किया जा रहा था और सभी शो फुल जा रहे थे।

गुरुदत्त हर स्तर पर वर्ल्ड सिनेमा को लीड कर रहे थे। 1950-60 के दशक में गुरुदत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई थीं, जिनमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिकल पोयटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुये रियलिज्म का भरपूर इस्तेमाल किया था, जो फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट की खास विशेषता थी। वर्ल्ड सिनेमा के परिदृश्य में गुरुदत और उनकी फिल्मों को समझने के लिए फ्रांस के न्यू वेव मूवमेंट के थ्योरिटकल फॉर्मूलों का सहारा लिया जा सकता है, हालांकि गुरुदत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। सो किसी और फिल्म मूवमेंट के ग्रामर पर उन्हें नही कसा जा सकता।

फ्रेंच न्यू वेव की बात फ्रांस की फिल्मी पत्रिका कैहियर डू सिनेमा से शुरु होती है। इस पत्रिका के सह-संस्थापक और संपादक आंद्रे बाजिन ने अपने अगल-बगल ऐसे लोगों की मंडली बना रखी थी, जो दुनिया भर की फिल्मों के पीछे खूब मगजमारी करते थे। फ्रान्कोई ट्रूफॉ, ज्यां-लुक गोदार, एरिक रोहमर, क्लाउड चाब्रोल और जैकस रिवेटी जैसे लोग इस इस मूवमेंट के खेवैया थे और थ्योरेटिकल लेवल पर फिल्म और उसकी तकनीक के पीछे हाथ धोकर पड़े हुये थे। ऑटर थ्योरी बाजिन के खोपड़ी की उपज थी, जिसे ट्रूफॉ ने सींच कर बड़ा किया। गुरु दत्त को इस फिल्म थ्योरी की कसौटी पर कसने से पहले, इस थ्योरी के विषय में कुछ जान लेना बेहतर होगा। ऑटर थ्योरी के मुताबिक एक फिल्मकार एक लेखक है
और फिल्म उसकी कलम। यानि एक फिल्म का रूप और स्वरुप पूरी तरह से एक फिल्म बनाने वाले की सोच पर निर्भर करता है। इस थ्योरी को आगे बढ़ाने में अलेक्जेंडर अस्ट्रक ने कैमरा पेन जैसे तकनीकी शब्द का इस्तेमाल किया था। ट्रूफॉ ने अपने आलेख -फ्रांसीसी फिल्म में एक निश्चित चलन-में इस थ्योरी को मजबूती से स्थापित किया था। उसने लिखा था कि फिल्में अच्छी या बुरी नहीं होती है बल्कि फिल्मकार अच्छे और बुरे होते हैं। फिल्मों में गुरुदत्त के बहुआयामी कामों को समेटने के लिए  यह थ्योरी बहुत ही छोटी है, लेकिन इस थ्योरी के नजरिये से यदि हम गुरुदत्त को एक फिल्मकार के तौर पर देखते हैं, तो उनकी प्रत्येक फिल्म बड़ी मजबूती से उनके व्यक्तित्व को बयां करती है। फ्रेंच
 न्यू वेव के संचालकों की तरह ही गुरुदत्त ने भी सेकेंड वर्ल्ड वॉर के प्रभाव को करीब से देखा था।
अलमोड़ा का उदय शंकर इंडियन कल्चरल सेंटर 1944 में गुरुदत्त के सामने ही सेकेंड वर्ल्ड वॉर के चलते बंद हुआ था। गुरुदत्त यहां पर 1941 से स्कॉलरशिप पर एक छात्र के रूप में रहे थे। बाद में मुंबई में बेरोजगारी के दौरान उन्होंने आत्मकथात्मक फिल्म प्यासा लिखी। इस फिल्म का वास्तविक नाम कशमकश था। फिल्मों की समीक्षा के लिए कुख्यात ट्रूफॉ को 1958 में जब कान फिल्म फेस्टिवल में घुसने
नहीं दिया गया था, तो उसने 1959 में फोर हंड्रेड ब्लोज़ नाम की फिल्म बनाई था और कान फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म डायरेक्टर का अवॉर्ड झटक ले गया था। फोर हंड्रेड ब्लोज़ भी आत्मकथात्मक फिल्म थी, गुरुदत्त की प्यासा की तरह। फोर हंड्रेड ब्लोज़ में एक अटपटे किशोर की कहानी बयां की गई थी, जो उस समय की परिस्थियों में फिट नहीं बैठ रहा था, जबकि प्सासा में शायर युवक की कहानी थी,जिसे दुनिया ने नकार दिया था। अपनी फिल्मों पर पारंपरिक सौंदर्य के साथ ज़मीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुये गुरुदत्त फ्रेंच न्यू वेव मूवमेंट से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म बाजी बनाई थी। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक
की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अतिरिक्त पहली बार कंटेट के लेवल पर गनों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की प्रमुख देन हैं। बाज़ी के बाद गुरुदत्त ने जाल और बाज बनाई।
इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आरपार (1954), मि. और मिसेज 55, सीआईडी, सैलाब के बाद उन्होंने 1957 में प्यासा बनाई थी। उस वक्त फ्रांस में की ट्रूफॉट फोर हंड्रेड ब्लोज़ नहीं आई थी। प्यासा के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरुदत्त तेजी से डिप्रेशन की ओर भी बढ़ रहे थे। 1950 में बनी कागज के फूल गुरुदत्त की इस मनोवृति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमि का गुरुदत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी, और इस फिल्म में गुरुदत्त की एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति है। 1964
में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वह एक युवा व्यक्ति था, उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिय थीं। फ्रेच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरुदत्त सिफ फिल्म के लिए फिल्म नहीं बना रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वह अपनी खास शैली में फिल्म बना रहे थे, और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। साहब बीवी और गुलाम का निर्देशन लेखक अबरार अल्वी ने किया था। इस फिल्म पर भी गुरुदत्त के व्यक्तित्व के स्पष्ट प्रभाव दिखाई देते हैं। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरुदत्त रुकते नहीं थे, बल्कि दूसरी फिल्म
 की तैयारी में जुट जाते थे। एक बार उन्होंने कहा था, लाइफ में यार क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया,
पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। फ्रेंच वेव मूवमेंट के  दौरान ऑटर थ्योरी को स्थापित करने के लिए बाजिन और उसकी मंडली ने ज्यां रेनॉय, ज्या विगो,जॉन फॉड, अल्फ्रेड हिचकॉक और निकोलस रे की फिल्मों को आधार बनाया था, उनकी नजर उस समय भारतीय फिल्म के इस रियलिस्टिक फिल्मकार पर नहीं पड़ी थी। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है।

सभार- दीवान (सराय)

भारतीय नववर्ष (चैत्र शुक्‍ल प्रतिपदा) पर विशेष

omभारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है। इसने जो ज्ञान का निदर्षन प्रस्तुत किया है वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्‍व के कल्याण का पोषक है। यहाँ संस्कृति का प्रत्येक पहलू प्रकृति व विज्ञान का ऐसा विलक्षण उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता। नये वर्ष का आरम्भ अर्थात् भारतीय परम्परा के अनुसार ‘वर्ष प्रतिपदा’ भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है।भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वन्तर विज्ञान मे है। इस ग्रह के संपूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात् मन्वन्तरों में बाँटा गया है। एक मन्वन्तर की आयु 30 करोड़ 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है। इस पृथ्वी का संपूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का है। इसके 6 मन्वन्तर बीत चुके हैं। और सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। हमारी वर्तमान नवीन सृष्टि 12 करोड़ 5 लाख 33 हजार 1 सौ 4 वर्ष की है। ऐसा युगों की भारतीय कालगणना बताती है। पृथ्वी पर जैव विकास का संपूर्ण काल 4,32,00,00,00 वर्ष है। इसमें बीते 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 1 सौ 11 वर्षों के दीर्घ काल में 6 मन्वन्तर प्रलय, 447 महायुगी खण्ड प्रलय तथा 1341 लघु युग प्रलय हो चुके हैं। पृथ्वी व सूर्य की आयु की अगर हम भारतीय कालगणना देखें तो पृथ्वी की शेष आयु 4 अरब 50 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष है तथा पृथ्वी की संपूर्ण आयु 8 अरब 64 करोड़ वर्ष है। सूर्य की शेष आयु 6 अरब 66 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष तथा सूर्य की संपूर्ण आयु 12 अरब 96 करोड़ वर्ष है।

विश्व की प्रचलित सभी कालगणनाओं मे भारतीय कालगणना प्राचीनतम है। इसका प्रारंभ पृथ्वी पर आज से प्राय: 198 करोड़ वर्ष पूर्व वर्तमान श्वेत वराह कल्प से होता है। अत: यह कालगणना पृथ्वी पर प्रथम मानवोत्पत्ति से लेकर आज तक के इतिहास को युगात्मक पद्वति से प्रस्तुत करती है। काल की इकाइयों की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास के लिए कालगणना के हिन्दू विषेषज्ञों ने अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति को आधार मानकर पंचवर्षीय, 12वर्षीय और 60 वर्षीय युगों की प्रारम्भिक इकाइयों का निर्माण किया। भारतीय कालगणना का आरम्भ सूक्ष्मतम् इकाई त्रुटि से होता है। इसके परिमाप के बारे में कहा गया है कि सूई से कमल के पत्ते में छेद करने में जितना समय लगता है वह त्रुटि है। यह परिमाप 1 सेकेन्ड का 33750वां भाग है। इस प्रकार भारतीय कालगणना परमाणु के सूक्ष्मतम इकाई से प्रारम्भ होकर काल की महानतम इकाई महाकल्प तक पहँचती है।

पृथ्वी को प्रभावित करने वाले सातों ग्रह कल्प के प्रारम्भ में एक साथ एक ही अश्विन नक्षत्र में स्थित थे। और इसी नक्षत्र से भारतीय वर्ष प्रतिपदा का प्रारम्भ होता है। अर्थात् प्रत्येक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथमा को भारतीय नववर्ष प्रारम्भ होता है जो वैज्ञानिक दृष्टि के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना को प्रस्तुत करता है। भारत में अन्य संवत्सरों का प्रचलन बाद के कालो में प्रारम्भ हुआ जिसमें अधिकांष वर्ष प्रतिपदा को ही प्रारम्भ होते हैं। इनमे विक्रम संवत् महत्वपूर्ण है। इसका आरम्भ कलिसंवत् 3044 से माना जाता है। जिसको इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा शुरु किया गया मानते हैं। इसके विषय में अलबरुनी लिखता है कि ”जो लोग विक्रमादित्य के संवत का उपयोग करते हैं वे भारत के दक्षिणी एवं पूर्वी भागो मे बसते हैं।”

इसके अतिरिक्त भगवान श्रीराम का जन्म भी चैत्र शुक्लपक्ष में तथा वरुण देवता (झूलेलाल) का जन्म भारतीय मान्यताओं के अनुसार वर्ष प्रतिपदा को माना जाता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा आर्य समाज की स्थापना तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक प.पू.डॉ0 केशव राम बलिराम जी का जन्म 1889 में इसी पावन दिन (वर्ष प्रतिपदा) को हुआ था।

इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय नववर्ष उसी नवीनता के साथ देखा जाता है। नये अन्न किसानों के घर में आ जाते हैं, वृक्ष में नये पल्लव यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अपना स्वरुप नये प्रकार से परिवर्तित कर लेते हैं। होलिका दहन से बीते हुए वर्ष को विदा कहकर नवीन संकल्प के साथ वाणिज्य व विकास की योजनाएं प्रारम्भ हो जाती हैं। वास्तव में परम्परागत रुप से नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है।

-बालमुकुन्द पाण्डेय
(लेखक अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय सह-संगठन मन्त्री हैं)

मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक–

clip_image0011यह है मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक ! लालकिले से दो-तीन फर्लांग दूर एक मुगलकालीन इलाका है। नाम है- चांदनी चौक। पुरानी दिल्ली का यह तंग इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है, जिससे हम हिन्दुस्तानियों के रिश्ते बड़े रूहानी हैं।

 

सन् 1646 में जब मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आए तो चांदनी चौक आबाद हुआ। और यह लगातार आबाद होता गया। इसकी ख्याती विदेशों तक फैल गई। उस वक्त  एक ख्याती प्राप्त बाजार जैसा हो सकता था, संभवत: यह इलाका वैसा ही था। पूरा इलाका अपेक्षाकृत धनी और प्रभावशाली व्यापारियों का ठिकाना था। कई प्रसिद्ध दुकानें थीं, जिसका वजूद आज भी है।

 

उस वक्त आबादी दो लाख से भी कम थी। आज नजारे बदल गए हैं। शहर फैल चुका है। आबादी पचास गुना से भी ज्यादा है। बहुत मुमकिन है कि अब आप यहां बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी भी तय कर सकें। भूलभूलैया वाली कई छोटी-बड़ी गलियां जो दिक्कत पैदा करेंगी, सो अलग।


खैर! इसके बावजूद देश की जनता से चांदनी चौक के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे वो अब भी बने हुए हैं। क्योंकि, इसका रंग खुद में ख़ालिस भी है और खुशनुमा भी। इस बाजार में लगने वाली भीड़ के बारे में मत पूछिए ! यहां गाड़ी के बजाय पैदल दूरी तय करना आसान काम है। मौका-बेमौका होने को बेताब नोंकझोंक यहां की रोजमर्रा में शामिल है। शायद इसलिए, बल्लीमारान में रहते हुए
मिर्जा गालिब ने कभी कहा था कि,
‘‘
रोकलो, गर गलत चले कोई,
बख़्श दो, गर खता करे कोई’’

 

आज बल्लीमारा की ये गलियां बड़ी मशहूर हैं। नए उग आए बाजारों के मुकाबले चांदनी चौक बाजार अपनी दयानतदारी पर बड़ी तारीफ बटोरता है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह बाजार हमारी सारी जरूरतों को पूरा करते हुए खांटी देशीपन का आभास कराता है। पश्चिम के तौर-तरीकों की नकल यहां मायने नहीं रखती है। वैसे भी यहां के देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों के क्या कहने हैं ! शायद इस वास्ते लोग अपने अनमनेपन के बावजूद यहां आते हैं।


यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां कोई बदलाव हुआ ही नहीं। समय और जरूरत के हिसाब से यह बाजार अपनी शक्ल बदलता रहा है। पुरानी चीजें नए रूप में आती गई हैं। लेकिन, पूरी आबादी को साथ लेकर। जीवन से जुड़े रोजगार को दाव पर रखकर शाहजहांनाबाद के हुक्मरानों ने यहां कोई बदलाव नहीं किए थे। पर, आज हालात बदल रहे हैं। अब तो देश की गणतांत्रिक सरकार भी ऐसे फैसले करने लगी है, जिससे लाखों लोगों का वजूद ही खतरे में पड़ जाता है। इस बाजार के आस-पास रिक्शा, ठेला चलाने वाले मजदूर फिलहाल ऐसी ही कठिनाई से जूझ रहे है, किसी हो जाने वाले अंतिम फैसले के इंतजार में।

काँग्रेस ही बनायेगी वरुण गाँधी को बड़ा नेता – सरिता अरगरे

varun_gandhiदेश में आजकल मुद्दों पर राजनीति नहीं गर्माती । अब तो सियासत होती है खेलों , पुरस्कारों और बयानों पर । मालूम होता है भारत में चारों तरफ़ खुशहाली है । मुद्दे कोई शेष नहीं इसलिए लोग शगल के लिए बहस मुबाहिसे करते हैं । आई पी एल देश में हो या सात समुंदर पार इससे आम जनता को क्या ? लेकिन धनपशुओं का खेल दुनिया भर में भारत की नाक का सवाल बन गया है ।

खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाकामी हाथ आने पर नेता एक ही बात कहते सुनाई देते हैं कि खेलों को राजनीति से दूर रखा जाये , लेकिन खेल के मैदान राजनीति के अखाड़ों में तब्दील हो गये हैं । आईपीएल को लेकर चल रही उठापटक में अब तक राज्यों के पाले में गेंद डाल रहे गृहमंत्री पी. चिदाम्बरम नरेन्द्र मोदी के बयान के बाद आज अचानक मीडिया से मुखातिब हुए । गुजरात के मुख्यमंत्री ने अपने चिरपरिचित अँदाज़ में आईपीएल को देश की प्रतिष्ठा के प्रश्न से जोड़कर केन्द्र को आड़े हाथों क्या लिया , यूपीए सरकार को मामले में सियासत की गँध आने लगी ।

दरअसल इस मुद्दे पर पहली चाल तो काँग्रेस ने ही चली थी । शरद पवार से महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान में दबाव की राजनीति के चलते आईपीएल को मोहरे की तरह इस्तेमाल करने का दाँव खुद काँग्रेस पर उलट गया । ना तो शरद पवार झुके और ना ही दबाव काम आया । बाज़ी पलटते देख केन्द्र सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है ।

लगता है काँग्रेस के ग्रह नक्षत्र आज कल ठीक नहीं चल रहे । ‘ उल्टी हो गई सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया ‘ की तर्ज़ पर जहाँ हाथ डाला , वहीं बाज़ी उलट गई । वरुण गाँधी को पीलीभीत में भड़काऊ भाषण देने के मामले में ऊपरी तौर पर यह चुनाव आयोग से जुड़ा मामला नज़र आता है लेकिन इसके सूत्र कहीं और से संचालित होते दिखाई दे रहे हैं । देश में पहली मर्तबा ऎसा हुआ है जब चुनाव आयोग ने सीधे किसी पार्टी को यह सलाह दे डाली है कि वह अमुक उम्मीदवार को टिकट ना दे ।

संविधान के जानकारों की राय में आयोग का दायित्व चुनाव प्रक्रिया के संचालन तक सीमित है ।गौर करने वाली बात यह भी है कि देश में इससे पहले क्या किसे ने तीखे भाषण नहीं दिये ? कहा तो यह भी जाता है कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी का एक बयान दिल्ली में सिखों के कत्ले आम का सबब बना । ऎसा लगता है कि वरुण की बढ़ती लोकप्रियता ने किसी “माँ” की चिंताएँ बढ़ा दी हैं । दलितों के घर भोजन करके और सिर पर मिट्टी ढ़ोकर भी राहुल बाबा का राजनीतिक कद बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाया है । एक आम भारतीय माँ की तरह सोनिया मैडम भी अपनी आँखों के सामने बेटे को सफ़लता से सत्तासूत्र सम्हाले देखना चाहती हैं , तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है ?

” हारेगा जब कोई बाज़ी तभी तो होगी किसी की जीत ” इसलिये राहुल को सत्ताशीर्ष तक पहुँचाने में एकाएक आ खड़ी हुई बाधा को किसी भी तरह से दूर तो करना ही होगा । असली – नकली गाँधी की लड़ाई में राजमोहन गाँधी की बजाय जनता ने भले ही दत्तक पुत्र के वंशजों को चुन लिया हो लेकिन अब जबकि इन्हीं वंशजों में से किसी एक को चुनने की बारी आएगी , तो जनता योग्यता के आधार चुनाव करेगी । सियासत में योग्यता का पैमाना लटके- झटके नहीं जनता के बीच पैठ होता है । मीडिया की मदद और सरकारी लवाजमे की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद राहुल गाँधी उस मुकाम पर अब तक नहीं पहुँच पाये हैं , जहाँ बरसो से निर्वासित जीवन जी रही मेनका गाँधी का बेटा एक झटके में पहुँच गया । यहाँ एक सवाल और भी है कि हिन्दू शब्द क्या वाकई भड़काऊ है ? अबू आज़मी , अमरसिंह , सैयद शहाबुद्दीन , बनातवाला , आज़म खाँ ऎसे नाम हैं जो जनसभाओं में तो आग उगलते ही रहे , संसद के भीतर भी ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आये ।

अब तक ह्त्या,लूट, डकैती ,फ़िरौती ,धोखाधड़ी के मामलों में सज़ायाफ़्ता या अनुभवी जेल यात्री ही चुनाव लड़ते रहे हैं । लम्बे समय बाद कोई नेता सियासी दाँवपेंचों के चलते जेल की हवा खा ही आये , तो भी क्या …? इससे लोकतंत्र का सीना गर्व से चौड़ा ही होगा । इन सभी बातों पर गौर करने के बाद हिन्दूवादियों से आग्रह है कि वे इसे “कहानी घर-घर की” समझ कर ही प्रतिक्रिया दें ।

हर मोर्चे पर लगातार पिट रही काँग्रेस को वरुण मामले में भी मुँह की खाना पड़ेगी । चाहे-अनचाहे मीडिया की नेगेटिव पब्लिसिटी धीरे-धीरे गाँधी खानदान के नवोदित सितारे को स्थापित कर देगी । ऎसे में जेल यात्रा का सौभाग्य मिल गया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और वरुण की चाँदी ही चाँदी …..????? लगता है काल का चक्र घूम रहा है । सियासी कुरुक्षेत्र में वक्त रुपी कृष्ण वरुण के पक्ष में खड़ा है ।

मामला ऎसे दिलचस्प मोड़ पर आ गया है कि हर हाल में फ़ायदा वरुण को ही मिलता दिखाई देता है । कहते हैं बुरे वक्त में साया भी साथ छोड़ देता है । पाँच साल सरकार में रहकर गलबहियाँ करने वाले क्षेत्रीय दलों ने चुनाव से पहले ठेंगा दिखा दिया है । जो कल तक हमसफ़र थे वे अब रक़ीब हैं ।

नकारात्‍मक मताधिकार:कितना सही, कितना गलत

indian20parliament20-201वर्तमान में एक बहस चुनाव आयोग व केंद्र सरकार के बीच चर्चा का केंद्र बनी है, और वह है नकारात्मक मताधिकार। इस समय सर्वोच्च न्यायालय में इसके समर्थन व विरोध में बहस चल रही है।मामला यह है कि जनता को यह अधिकार दिया जाय कि उसे अपने क्षेत्र के उम्मीदवार नेता पसंद न आने पर उनके खिलाफ नकारात्मक वोटिंग कर सके और अगर नकारात्मक मतों की संख्या अधिक हो तो चुनाव रद्द कर दिया जाय। चुनाव आयोग के द्वारा तीन बार केंद्र को भेजे पत्र को नकार देने के बाद न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। इसका विरोध पूरे सदन के नेताओं ने एक स्वर में किया, यह देश का सौभाग्य ही होगा कि सदन के सभी नेता देश के किसी मसले पर एकमत हों लेकिन यह नहीं होता, परन्तु जब भी नेताओं के योग्यता पर प्रश्नचिन्‍ह लगता है तो अपनी कुर्सी बचाने के लिए ये सियारों की तरह एक सुर में चिल्लाने लगते हैं क्योंकि वर्तमान नेताओं को डर है कि ऐसा हो जाने पर ये कभी सदन तक नहीं पहुच सकते।

अब ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि प्रजातंत्र की परिभाषा में यदि सभी शक्तियां जनता में समाहित है तो इस विषय में सीधे जनता को निर्णय लेने का अधिकार क्यों नहीं है। इसका फैसला करने वाले ये नेता कौन है जबकि वह भी आम जनता के द्वारा ही चुने जाते हैं। अत: इस मसले पर सीधे जनता से वोटिंग कराकर जो निर्णय आये वह मान्य हो जिसे ये सदन में बैठे नेता अपनी सुविधानुसार बदल न सके।

-रत्‍नेश त्रिपाठी

(लेखक शोध-छात्र हैं)

उमा के बदले रुख से कमल खिला – सरिता अरगर

uma-bhartiचुनाव की तारीख की ओर बढ़ते हुए सियासत भी रफ़्तार पकड़ रही है। नाराज़ प्रहलाद पटेल ‘ घर ‘ लौटने के लिए बेताब हैं। मित्तल मामले में कोप भवन में जा बैठे जेटली भी ज़िद छोड़ने को तैयार हो गये हैं। कल तक आडवाणी को पानी पी-पी कर कोस रही साध्वी भी गिले-शिकवे भुलाकर ‘हम साथ-साथ हैं‘ का एलान कर रही हैं। कुल मिलाकर भाजपा में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि सारा परिदृश्य बदला हुआ नज़र आ रहा है।मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने सुलह की पाती भेजकर आडवाणी के नेतृत्व में आस्था जताने का दाँव खेलकर कइयों के होश उड़ा दिये हैं। उमा ने आडवाणी से मुलाकात के बाद यह कह कर सबको चौंका दिया कि पीएम इन वेटिंग का समर्थन राष्ट्र धर्म है। वे कहती हैं कि आडवाणी का समर्थन कर उन्होंने भाजपा पर कोई एहसान नहीं किया है, केवल राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है। साथ ही बीजेपी में वापसी के कयास को उन्होंने सिरे से खारिज भी कर दिया है।

“साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं ” की तर्ज़ पर उमा भाजपा में आने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं लेकिन पूछने पर साफ़ मुकर जाती हैं । लुका छिपी के इस खेल में उमा की राजनीतिक हैसियत कम से कमतर होती चली जा रही है । लेकिन उनकी ठसक कम नहीं होती। अड़ियल रवैये और ‘पल में तोला- पल में माशा‘ वाले तेवरों के कारण भाजपा में उनके दोस्त कम और दुश्मन ज़्यादा हैं ।

उधर, उमा की खाली जगह भरने के लिए सुषमा स्वराज ने डेरा डालने की ग़रज से भोपाल में होली पर दीवाली मनाकर बँगले में प्रवेश क्या किया, अटकलों का बाज़ार गर्माने लगा। प्रदेश की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का कहना है कि सिविल लाइन का बँगला, जो अब सुषमा स्वराज का निवास है, हमेशा ही सत्ता का केन्द्र रहा है। कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनाव बाद प्रदेश में मुखिया बदलने की भूमिका तैयार हो रही है। फ़िलहाल सुषमा विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं। मिथक है कि विदिशा से जीतने वाले नेता की सियासी गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगती है।

यहाँ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मीडिया हस्ती रामनाथ गोयनका तक अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। वर्ष 1991 में हुए 10 वीं लोकसभा के चुनाव में वाजपेयी विदिशा और लखनऊ सीट पर एक साथ लडे थे। दोनों ही सीटों से जीतने के कारण वाजपेयी को लखनऊ भाया और उन्होंने विदिशा सीट छोड दी थी। इसके बाद उपचुनाव में शिवराजसिंह चौहान पहली बार सांसद बने थे। विदिशा का कुछ हिस्सा विजयाराजे सिंघिया के संसदीय क्षेत्र में आने के कारण वे भी इस क्षेत्र का प्रतिनिघित्व कर चुकी हैं। अब एक बार फिर भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को प्रत्याशी बनाकर विदिशा को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।

प्रदेश स्तर पर विदिशा का दबदबा पहले से ही कायम है। लगातार 5 बार क्षेत्र का प्रतिनिघित्व करने वाले शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री की कमान संभाले हैं। वहीं विदिशा से सांसद रह चुके राघवजी के पास प्रदेश की वित्त व्यवस्था का ज़िम्मा हैं। भाजपा का गढ कहलाने वाले विदिशा संसदीय क्षेत्र में सुषमा स्वराज को मैदान में उतारे जाने से एक बार फिर काँग्रेस की मुश्किलें बढ गई हैं।

बहरहाल प्रदेश में भाजपा की राजनीति उबाल पर है। लम्बे इंतज़ार के बाद आखिरकार पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भारतीय जनशक्ति के नेता प्रहलाद पटेल की भाजपा में वापसी का रास्ता लगभग साफ़ हो गया है। उम्मीद है कि कल 21 मार्च को ग्यारह बजे प्रहलाद पटेल पूरे लाव-लश्कर के साथ चार हज़ार कार्यकर्ताओं की फ़ौज लेकर विधिवत तौर पर घर वापसी करेंगे। मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। भाजपा में आने के बाद उन्हें खजुराहो या छिंदवाड़ा से चुनावी जंग में उतारने के आसार है, मगर प्रहलाद फ़िलहाल चुनाव लड़ने की अटकलों को नकार रहे हैं।

भाजश के दो दिग्गज नेताओं की वापसी की संभावनाओं ने प्रदेश की उन्तीस में से छब्बीस संसदीय सीटों पर जीत का दावा कर रही भाजपा नेताओं के चेहरे कमल की मानिंद खिला दिये हैं। हालाँकि विधानसभा चुनाव में भाजश कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन कई जगह भाजपा के वोटों में सेंधमारी में कामयाब रही थी। इसका खमियाज़ा जीत के अंतर में कमी और कई जगह काँग्रेस को बढ़त के तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा था।

रुठों के मान जाने से भाजपा में जोश का माहौल है, वहीं गुटबाज़ी से परेशान काँग्रेस अब तक दमदार उम्मीदवारों की तलाश भी पूरी नहीं कर पाई है। विधानसभा चुनाव में नाकामी से भी पार्टी के क्षत्रपों ने कोई सबक नहीं सीखा। कमलनाथ , ज्योतिरादित्य सिंधिया ,कांतिलाल भूरिया सरीखे नेता अब अपनी सीट बचाने की जुगत में लग गये हैं। मैदाने जंग में उतरने से पहले ही हार की मुद्रा में आ चुके काँग्रेस के दिग्गज नेता अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में हैं। आज हालत ये है कि प्रदेश में काँग्रेस की स्थिति दयनीय है। हाल- फ़िलहाल मध्यप्रदेश में मुकाबला पूरी तरह से एकतरफ़ा दिखाई देता है।