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कोरोना का काम तमाम करेगी 2-डीजी!

  • योगेश कुमार गोयल
    कोरोना संक्रमण की बढ़ती रफ्तार से पूरा देश त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कर रहा है और ऐसे में किसी ऐसी ‘संजीवनी’ की दरकार है, जो न केवल इस रफ्तार पर ब्रेक लगाने में सफल हो सके बल्कि ऑक्सीजन की कमी से हो रही मौतों के आंकड़ों पर भी लगाम लगा सके। ऐसे में उम्मीद की बड़ी किरण बनकर सामने आया है रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ), जो न सिर्फ देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में जी-जान से जुटा है बल्कि कोरोना महामारी के दौर में भी निरन्तर हरसंभव मदद के प्रयासों में जुटा रहा है। विश्वभर में कोरोना से निपटने के लिए कई कम्पनियां अलग-अलग तरह की वैक्सीन बना रही हैं, भारत में भी कोरोना के खिलाफ एंटीबॉडी बनाने के लिए कोवैक्सीन तथा कोविशील्ड के जरिये धीमी गति से वैक्सीनेशन अभियान चल रहा है लेकिन एक तो देश की पूरी आबादी का वैक्सीनेशन इतना आसान नहीं है, दूसरा कोरोना वायरस जिस प्रकार म्यूटेट हो रहा है और इसके नए-नए स्ट्रेन्स सामने आ रहे हैं, ऐसे में वैज्ञानिकों के मुताबिक आने वाले समय में वैक्सीन में बदलाव करने की जरूरत भी पड़ सकती है। ऐसे समय में किसी ऐसी दवा की सख्त जरूरत महसूस की जा रही है, जो प्रतिदिन कोरोना के ग्राफ को तेजी से नीचे ला सके और लाखों देशवासियों की जान बचाई जा सके। नई दवा के परीक्षण में जो नतीजे सामने आए हैं, उन्हें देखते हुए माना जा रहा है कि डीआरडीओ की प्रतिष्ठित प्रयोगशाला नाभिकीय औषधि तथा संबद्ध विज्ञान संस्थान (आईएनएमएएस) द्वारा विकसित और डा. रेड्डी लैबोरेट्रीज द्वारा तैयार की गई 2-डीजी नामक दवा कोरोना के इलाज में गेमचेंजर साबित हो सकती है। दरअसल दावा किया गया है कि इस दवा के इस्तेमाल से मरीज जल्दी ठीक हो रहे हैं।
    दवा नियामक ‘ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया’ (डीजीसीआई) द्वारा डीआरडीओ की बनाई हुई कोरोना की नई दवा 2-डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज (2-डीजी) के आपात इस्तेमाल की मंजूरी दे दी गई है और पिछले दिनों रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह तथा स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन द्वारा इसे लांच भी किया जा चुका है। रक्षा मंत्रालय का इस दवा के संबंध में कहना है कि 2-डीजी के साथ जिन मरीजों का इलाज हुआ, उनमें से अधिकांश की आरटीपीसीआर रिपोर्ट नेगेटिव आई और उनमें तेजी से रोग के लक्षणों में कमी देखी गई। मुंह के जरिये ली जाने वाली इस दवा का अब कोरोना के मध्यम से गंभीर लक्षण वाले मरीजों के इलाज में इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह दवा पाउडर के रूप में एक पैकेट में आती है, जिसे पानी में घोलकर मरीज को दिया जाता है। परीक्षण में डीआरडीओ की इस दवा के काफी अच्छे नतीजे सामने आए हैं और इसके क्लीनिकल ट्रायल सफल साबित हुए हैं। डीआरडीओ का दावा है कि जिन मरीजों पर इस दवा का ट्रायल किया गया, उनमें तेजी से रिकवरी देखी गई, यही नहीं ऐसे मरीजों की ऑक्सीजन पर निर्भरता भी कम हो गई। डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के अनुसार यह दवा अस्पताल में भर्ती मरीजों के तेजी से ठीक होने में मदद करने के साथ-साथ अतिरिक्त ऑक्सीजन की निर्भरता को भी कम करती है। इसकी पुष्टि दवा के तीसरे चरण के ट्रायल में हुई है, जिसके अच्छे नतीजे आए हैं, उसी के बाद इस दवा के इमरजेंसी इस्तेमाल की स्वीकृति दी गई।
    वैज्ञानिकों के अनुसार वायरस के विकास के लिए ग्लूकोज का होना जरूरी है और अगर कोरोना वायरस को शरीर में ग्लूकोज नहीं मिलेगा तो उसकी वृद्धि रूक जाएगी। संक्रमित कोशिकाओं में जमा हो जाने के बाद डीआरडीओ द्वारा विकसित नई दवा वायरल संश्लेषण तथा ऊर्जा उत्पादन कर वायरस को और बढ़ने से रोकती है। संक्रमित कोशिका के साथ मिलकर यह एक प्रकार से सुरक्षा दीवार बना देती है, जिससे वायरस उस कोशिका के साथ ही अन्य हिस्सों में भी नहीं फैल सकेगा। डीआरडीओ के वैज्ञानिक डा. ए के मिश्रा का कहना है कि किसी भी टिश्यू या वायरस के विकास के लिए ग्लूकोज जरूरी होता है लेकिन अगर उसे ग्लूकोज नहीं मिले तो उसके मरने की उम्मीद बढ़ जाती है, इसी को मिमिक करके ग्लूकोज का एनालॉग बनाया गया। उनके मुताबिक वायरस कोशिका से चिपकी इस दवा को ग्लूकोज समझकर खाने की कोशिश करेगा लेकिन चूंकि यह कोई ग्लूकोज नहीं है, इसलिए इस दवा को खाने से कोरोना वायरस की मौत हो जाएगी और मरीज ठीक होने लगेगा, यही इस दवाई का मूल सिद्धांत है। कोरोना संक्रमित कोशिका पर खास तरीके से कार्य करना ही इस दवा को विशेष बनाता है। डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के अनुसार इस दवा से ऑक्सीजन की कमी नहीं होगी और जिन मरीजों को ऑक्सीजन की जरूरत है, उन्हें भी इस दवा को देने के बाद संक्रमण की संभावना कम होगी और वायरस की मौत हो जाने से ऐसा मरीज भी शीघ्र रिकवर हो सकेगा। इस प्रकार डीआरडीओ द्वारा विकसित यह स्वदेशी दवा कोरोना के इलाज में गेमचेंजर साबित हो सकती है।
    डीआरडीओ ने इस दवा को एक सामान्य अणु और ग्लूकोज के एनालॉग से तैयार किया है, जिस कारण आसानी से इसका उत्पादन किया जा सकता है। डीआरडीओ द्वारा पिछले साल कोरोना के प्रकोप के दौरान कोरोना की इस दवा को बनाने का काम शुरू किया गया था और वैज्ञानिकों द्वारा हैदराबाद की सेल्युलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी की मदद से इसका परीक्षण किया गया था। अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच इस दवा के तीन चरण के क्लीनिकल ट्रायल हो चुके हैं और इनके काफी सुखद परिणाम सामने आए हैं। दवा के पहले चरण का ट्रायल अप्रैल-मई 2020 में पूरा हुआ था, जिसमें लैब में ही दवा पर परीक्षण किए गए थे। केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) को डीसीजीआई की मंजूरी के बाद दूसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल मई 2020 से अक्टूबर 2020 के बीच हुए और क्लीनिकल ट्रायल में देशभर के 11 विभिन्न अस्पतालों में भर्ती कुल 110 मरीजों को शामिल किया गया। इस क्लीनिकल ट्रायल के दौरान देखा गया कि इसमें सभी मरीज अन्य मरीजों की तुलना में ढ़ाई दिन पहले ही ठीक हो गए। दवा के तीसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल के लिए डीआरडीओ द्वारा नवम्बर 2020 में आवेदन किया गया, जिसके बाद दिसम्बर 2020 से मार्च 2021 के बीच ट्रायल को डीसीजीआई की मंजूरी मिली। तीसरे चरण में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक तथा तमिलनाडु के 27 अस्पतालों में 220 मरीजों पर दवा का परीक्षण करने पर पाया गया कि इसके इस्तेमाल से 42 फीसदी मरीजों को तीसरे दिन से मेडिकल ऑक्सीजन की कोई जरूरत नहीं रही।
    बहरहाल, डीजीसीआई के मुताबिक 2-डीजी दवा के प्रयोग से कोरोना वायरस के ग्रोथ पर प्रभावी नियंत्रण से अस्पताल में भर्ती कोरोना मरीजों के स्वास्थ्य में तेजी से रिकवरी हुई और इसके अलावा यह मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत को भी कम करती है। चूंकि रक्षा मंत्रालय के मुताबिक इस दवा का उत्पादन बहुत जल्द और भारी मात्रा में देश में ही किया जाना संभव है, इसलिए कोरोना संक्रमितों के इलाज में दवा की कमी की कोई समस्या आने की संभावना नहीं रहेगी, इससे कोरोना के मरीजों को बड़ी राहत मिलेगी। डीआरडीओ ने यह कहा भी है कि डा. रेड्डीज के साथ मिलकर उनकी कोशिश यही रहेगी कि उनकी यह दवा देश के प्रत्येक नागरिक को और हर स्थान पर आसानी से उपलब्ध हो सके। डीआरडीओ के वैज्ञानिकों के अनुसार कोरोना के हल्के लक्षण वाले मरीज हों या गंभीर मरीज, इस दवा को हर तरह के मरीज को दिया जा सकता है और यह बच्चों के इलाज में भी कारगर साबित होगी, हालांकि बच्चों के लिए इस दवा की डोज अलग होगी।

पश्चिम बंगाल को जलने से रोकिए न्‍यायालय

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

बंगाल विधानसभा चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद से जैसे पश्‍चिम बंगाल को आग के हवाले कर दिया गया है । मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस से जुड़े लोग हत्‍या और आगजनी में शामिल हैं, यह बात भी अब सामने आ गई है। यह हिंसा का खेल यहां राज्‍यपाल के कई बार के हस्‍तक्षेप के बाद भी समाप्‍त होने का नाम नहीं ले रहा। इसके उलट अब यहां पर जिहादियों ने कमजोर हिन्‍दू को चुनावी हिंसा की आड़ में निशाना बनाना शुरू कर दिया है। वस्‍तुत: दुख की बात यह है कि भारत के लोकतंत्र को आघात पहुंचाती इन घटनाओं पर केंद्र से कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी जा रही और जो न्‍यायालय किसी आतंकवादी की फांसी को लेकर उठे सवालों के लिए देर रात खोल दिए जाते हैं और तमाम वे बातें स्‍वत: संज्ञान में ले ली जाती हैं, उन न्‍यायालयों से पश्‍चिम बंगाल में हो रही हिंसा पर अब तक कोई तीखी प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है।

अभी कुछ दिन पहले ही राज्यपाल जगदीप धनखड़ के पीडि़तों के साथ रोते हुए फोटो और वीडियो सामने आए, जिन्‍हें जिसने देखा वह यहां की ध्‍वस्‍त हो चुकी कानून व्‍यवस्‍था को कोसता नजर आया। ममता की पार्टी और सरकार पीडि़तों को न्‍याय कैसे मिले यह ना करते हुए इसमें लगी दिख रही है कि राज्‍यपाल धनखड़ को कैसे राज्‍य से विदा किया जा सकता है । दूसरी ओर ये हिंसा समय बीतने के साथ कम होने के स्‍थान पर बढ़ती जा रही है। अभी जो वीडियो व फोटो सामने आ रहे हैं, उनमें साफ दिखाई दे रहा है कि कैसे इस्‍लामिक जिहादियों की भीड़ किसी घर पर हमला करती है और मारकाट मचाती है।

गौर करनेवाली बात यह है कि यहां प्रारंभ हुए हमलों में सबसे ज्‍यादा हिन्‍दू महिलाओं को योजनाबद्ध तरीके से निशाने पर लिया जा रहा है। 142 महिलाओं के साथ अमानवीय अत्याचार हुए हैं, अनेक महिलाओं के शील भंग ही नहीं बल्‍कि बहुत बेरहमी से उन्‍हें मौत के घाट उतारा गया है। फोटो ऐसे वीभत्‍स हैं कि देखे भी नहीं जा रहे। लगभग 11 हजार से अधिक हिन्‍दू बेघर हो चुके हैं तथा 40 हजार से अधिक प्रभावित हुए हैं। चुन-चुन कर पांच हजार से अधिक मकान ध्वस्त करने के साथ ही सात स्थान यहां ऐसे भी सामने आए, जहां पर हिन्‍दू बस्तियों को समाप्‍त कर रातों-रात मस्जिदें खड़ी कर ली गईं। सिर्फ सुंदरबन में ही 200 से अधिक घरों पर बुलडोजर चला है। 26 लोगों की हत्या हो चुकी हैं । हिन्‍दू बस्तियों पर हमलों की 1627 घटनाओं की पुष्‍टि भी हो चुकी है। परिदृष्‍य इतना भयानक है कि दो हजार से अधिक हिन्दू असम, उड़ीसा व झारखंड में शरण लेने को विवश हैं।

वस्‍तुत: पश्चिम बंगाल की स्‍थ‍िति कितनी खराब है वह राज्यपाल जगदीप धनखड़ के रुँधे कंठ से निकली इस बात से भी पता चलती है जिसमें उन्‍होंने कहा, मेरे राज्य के लोगों को जीने के लिए धर्म परिवर्तन को विवश होना पड़ रहा है। बंगाल हिन्‍दुओं के लिए एक ज्वालामुखी बन गया है। यहां अब सवाल यह है कि क्‍या यह एक दिन भी पैदा हुई परिस्‍थ‍ितियां है? सही जानकारी के लिए हमें एक बार वर्षों पीछे जाना होगा। यहां के 2011 जनसंख्‍यात्‍मक आंकड़े देखें तो बहुत कुछ साफ समझ आने लगता है । पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशी आबादी की व्यापक स्तर पर हुई अवैध घुसपैठ ने भू राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य ही परिवर्तित कर दिया है । पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा और दक्षिण 24 परगना के सीमावर्ती जिलों में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ के कारण व्यापक रूप से जनसांख्यिकीय परिवर्तन हुआ है। आज इन्‍हीं स्थानों पर स्थिति सबसे ज्‍यादा खतरनाक है।

कहना होगा कि देश के विभाजन के बाद 1951 की जनगणना में पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 49,25,496 थी जो कि 2011 की जनगणना में बढ़कर 2,46,54,825 यानी लगभग पांच गुना हो गई। भारत के जनगणना आयुक्त की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 2011 में हिन्‍दुओं की 10.8 प्रतिशत दशकीय वृद्धि की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या की दशक वृद्धि दर 21.8 प्रतिशत रही। इस तरह, हिन्‍दुओं की तुलना में मुसलमानों की वृद्धि दर दोगुने से भी अधिक दर्ज की गई है।
देखा जाए तो 1951 के बाद से हर जनगणना में पश्चिम बंगाल के औसत की तुलना में हिन्‍दुओं की वृद्धि दर कम ही रही है। इसी के साथ यह बात भी ध्‍यान में आती है कि आखिर ऐसा क्‍यों है कि मुसलमानों की वृद्धि दर हमेशा से हिन्‍दुओं की वृद्धि दर की औसत तुलना में अधिक रहती है। हिन्‍दू जनसंख्या की वृद्धि दर के मुकाबले मुस्लिम जनसंख्या 1981 में 8.18 प्रतिशत अंक अधिक, 1991 में 15.80 अंक अधिक, 2001 में 11.68 अंक अधिक और 2011 में 11 अंकों की अधिक दर्ज की गई।

यही नहीं, वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर प्रदेश की औसत दशकीय वृद्धि की तुलना में 7.87 अंक अधिक थी। अगर जनसांख्यिकीय नजरिए से देंखे तो इस तरह लगातार एक लंबे समय तक वृद्धि दर में इतना अधिक अंतर हैरतअंगेज ही नहीं बल्कि बेहद चिंताजनक भी है । यह बात, हर जनगणना के साथ साफ होती गई है कि मुसलमानों की उच्च वृद्धि दर के दबाब के कारण पश्चिम बंगाल के सभी जिलों में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ी है। वस्‍तुत: इस वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेशी घुसपैठ यानी बांग्लादेश के मुसलमानों का अवैध आगमन भी है।

आज बांग्‍लादेश से आए अवैध मुसलमान एवं रोहिंग्‍याओं का यह परिणाम है कि पश्‍चिम बंगाल में जनसंख्‍या संतुलन तो बिगड़ा ही है। धर्म के आधार पर हिंसात्‍मक गतिविधियों में भी वृद्धि‍ हो रही है। मदरसों की संख्‍या बढ़ रही है। जिनमें भारत माता के प्रति अपार श्रद्धा और आपसी भाईचारे का पाठ नहीं पढ़ाया जा रहा, छोटे अबोध बच्‍चों को जिहादी शिक्षा दी जा रही है।

वस्‍तुत: यह कहने के पीछे का तर्क यही है कि यदि मदरसों में सर्वपंथ सद्भाव की शिक्षा दी जाती रही होती तो आज यहां इस तरह से योजनाबद्ध तरीके से हिन्‍दुओं पर हमले नहीं हो रहे होते। अब बड़ा सवाल यह है कि हिंसा यहां रुके कैसे? इसका सीधा सा उत्‍तर है, केंद्र हस्‍तक्षेप करे। राष्‍ट्रपति शासन लगाए। जब स्‍थ‍िति पूर्णत: शांत हो जाए तो सत्‍ता पुन: चुनी हुई ममता सरकार के हवाले कर दे, इस शर्त के साथ कि यदि फिर से कहीं भी कोई हिंसा हुई तो बिना देर किए राष्‍ट्रपति शासन लगा दिया जाएगा। दूसरी ओर न्‍यायालय भी स्‍वत: संज्ञान लें और फिर वह हिंसा फैलानेवाला कोई भी क्‍यों ना हो, उसे सख्‍त से सख्‍त सजा सुनाने में जरा भी देरी ना करे। जारी हिंसा को रोकने के लिए भारतीय लोकतंत्र में यही आज सबसे बड़े हथियार पश्‍चिम बंगाल के लिए नजर आते हैं।

चन्द्रवंशी आर्य ययाति थे आर्य, द्रविड़,तुर्क,भोज,म्लेच्छ जाति के पिता

—विनय कुमार विनायक
आर्य, द्रविड़, तुर्क, भोज, म्लेच्छ के पिता थे,
आत्रेय चन्द्रपुत्र बुध-इला के प्रपौत्र ययाति!
बुध-इलापुत्र पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष,
इन्द्रपदाभिषिक्त नहुष पिता थे ययाति के!

ययाति पति थे दानव गुरु शुक्राचार्य कन्या
देवयानी और दानव वृषपर्वापुत्री शर्मिष्ठा के,
देवयानी ने शिकायत की ब्राह्मण पिता से,
पति ययाति की शर्मिष्ठा में एकनिष्ठा की!

शुक्र अन्य नाम काव्या उसना से जाने जाते,
शुक्राचार्य ही और्व थे, जिनसे बसा अरब देश,
जिनके काव्य नाम से काव्या शिव मंदिर है,
शुक्र दैत्य-दानव के गुरु भृगुवंशी ब्राह्मण थे!

असुर याजक शुक्र ने स्वजमाता ययाति को,
बिना सोचे विचारे वृद्ध होने का श्राप दिया,
इस शाप से प्रभावित हो गई उनकी पुत्री भी,
पति सानिध्य से वंचित हो गई थी देवयानी!

जब शुक्राचार्य को अहसास हुआ इस भूल की,
उन्होंने श्राप में कुछ ढील दे जमाता से कहा,
चाहे तो आप अपने बुढ़ापे को किसी को देके,
ले सकते उनकी जवानी,वो पुत्र भी हो सकते!

ययाति ने बड़े पुत्र यदु से यौवन दान मांगा,
पर यदु ने इंकार किया, पिता ने शाप दिया,
युवराज पद से वंचित कृषक-वणिक कर्म दिया,
देवयानी के दूजे पुत्र तुरु ने भी इंकार किया!

तीसरे द्रहयु व चौथे अनु ने भी इंकार किया,
शर्मिष्ठा पुत्र पुरु ने पिता को सम्मान दिया,
उनका वार्धक्य लेकर उन्हें यौवन दान दिया,
बदले में पिता ने पुरु को राज्याधिकार दिया!

तुरु को तुर्कवंश प्रवर्तक कह तुर्किस्तान दिया,
द्रहयु बनाए गए, द्रविड़ जाति के जन्मदाता,
अनु आनव भोज, म्लेच्छ,यवन के बने पिता,
ऐसे में है आर्य,द्रविड़,तुर्क,यवन एक वंश के!

अस्तु आर्य नहीं कोई बाह्य जाति, विदेशी आक्रांता,
यह अंत:साक्ष्य है, सुन लो वाम पंथी इतिहास वेत्ता,
आर्य है आर्य, तुर्क, द्रविड़ भोज, यवन,आनव और
दानव, असुर जाति के मूल पूर्वज कश्यप के जैसा,
भारत-आर्यावर्त-हिन्दुस्तान से आर्य का रहा वास्ता!

आर्य नहीं कोई जाति,वर्ण,वंश,आर्य एक समाज है,
जैसा कि स्वामी दयानन्द का आर्य समाज आज है,
एक मां-पिता की संतान आर्य होता भी या नहीं भी,
जैसे पंजाब में ज्येष्ठ पुत्र सिख बांकी रहते हिन्दू ही!

आर्य नहीं कोई जाति वंश परिवार,ये एक समाज है,
जैसे अनुज विभीषण आर्य, अग्रज रावण अनार्य थे,
जैसे भांजे कृष्ण-बलराम आर्य मामा कंस अनार्य थे,
आर्य उपाधि श्रेष्ठजन की,सब मनुज आर्य हो सकते!
—विनय कुमार विनायक

अवैज्ञानिक औषधि – मृत्यु को निमंत्रण

पिछले वर्ष जब कोरोना वायरस का आरम्भ हुआ तो यह बात सुन सुन सभी डरे, सहमे रहे कि 1918 से 1920 के बीच स्पेनिश फ्लू से किस प्रकार भारत भर में डेढ़ करोड़ लोग मारे गये, पांच करोड़ लोग विश्व भर में मरे। परन्तु इस विषय पर औषधि और विज्ञान के किसी विशेषज्ञ ने यह नहीं बताया कि वास्तव में उस समय इतने लोगों की मृत्यु का कारण कोई फ्लू मात्र नहीं अपितु एस्पिरिन की ओवरडोज थी। लगभग 50 से 70 वर्ष बाद विज्ञान को यह पता लग पाया कि उस समय दी जाने वाली 8 से 30 ग्राम प्रतिदिन की एस्पिरिन आज टॉक्सिक माने जानी वाली इसकी खुराक से 10 से 30 गुना अधिक थी और इसी कारण इतनी बड़ी संख्या में लोग मरे भी। परन्तु क्या कारण है कि यह बात सभी चिकित्सा और औषधि अनुसंधान के लोगों द्वारा छुपाई जा रही है। लोग भी सुनने समझने की अपेक्षा भय में रहने को अधिक इच्छुक दिख रहे हैं।

एस्पिरिन की खोज उससे लगभग 30 वर्ष पहले की गई थी और बेयर कंपनी के पास इसे बनाने का एकाधिकार था। 1918 में ही बेयर का एकत्व अधिकार छीन लिया गया और बहुत सी कंपनियां एस्पिरिन बनाने लगी, बहुत लाभ कमाने लगी। वास्तव में तो ज्वर को अप्राकृतिक रूप से नीचे लाने का सम्भवतः यह पहला ही बड़ा प्रयोग भी था और परिणाम भी समक्ष है। आज भी हर वैज्ञानिक अनुसंधान यही बताता है कि इस प्रकार वायरस के प्रकोप में ज्वर को नीचे करने से रोग की अवधि भी लंबी होती है और मृत्यु दर भी बहुत बढ़ जाती है। आप यह जान कर भी अवाक् रह जायेंगे कि ज्वर नीचे करने वाली एस्पिरिन आदि दवाओं की खोज जो लगभग 1890 में हुई, उससे पहले कभी कोई वायरस महामारी भी विश्व भर में नहीं आयी थी।

यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर ने, जो आयुर्वेद के अच्छे ज्ञाता भी थे, अपने आश्रम में स्पेनिश फ्लू से पीड़ित लोगों को आयुर्वेदिक काढ़ा- पंचतिक्त बना कर दिया और सब ठीक होते चले गए। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लिखे एक पत्र में यह सामने भी आया कि उनके आश्रम में रोगियों के बिस्तर खाली पड़े थे। ऐसा ही समाचार जर्मनी से मिला कि वहां जिन लोगों ने होम्योपैथिक औषधियां लीं उनकी मृत्यु दर 30 गुना कम रही। आप स्वयं भी इन तथ्यों की पड़ताल कर सकते हैं।

जिस प्रकार विज्ञान 50 वर्षों तक यह नहीं पता कर पाया कि सन् 1918 से 20 के बीच इतने लोगों की मृत्यु हुई उसका कारण एस्पिरिन की ओवरडोज रही, हम वही अशुद्धि आज भी दोहरा रहे हैं और आज दिये जाने वाले उग्र एलोपैथिक उपचार और विशेष रूप से ज्वरनाशक पैरासिटामोल के अत्यधिक प्रयोग के कारण ही इतने लोग अकाल काल को प्राप्त हो रहे हैं।

एण्टीबायोटिक्स का प्रयोग: गोद के शिशु को छोड़ जो गर्भ में नहीं आया उसकी चिंता

बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि सामान्य रूप से जो एंटीबायोटिक हर रोग में दिए जाते हैं उनका उद्देश्य आपको आगे हो सकने वाली बैक्टीरियल इंफेक्शन से बचाव के लिए भी होता है। मेडिकल की भाषा में इसे प्रोफिलेक्सिस कहते हैं। जैसे यदि आपका कोई बड़ा ऑपरेशन होना है तो दो-तीन दिन पहले से ही एंटीबॉयटिक खिलाने शुरू कर दिए जाते हैं।

ऐसा ही कुछ कोविड-19 में रहा है। चाहे आईसीएमआर ने या डब्ल्यूएचओ ने ऐसी कोई गाइडलाइन नहीं दी है कि एंटीबायोटिक देना चाहिए। अपितु बड़े डॉक्टर और विशेषज्ञ यह बताते हैं कि कोविड-19 में एंटीबायोटिक नहीं देना चाहिए, उसका कोई लाभ नहीं। पर यहां आश्चर्य वाली बात है कि मैंने एक भी ऐसा कोविड का प्रिसक्रिप्शन नहीं देखा जिसमें कोई एंटीबायोटिक न लिखा हो। कुछ तो ऐसे भी देखे हैं जिनमें दो एंटीबायोटिक एक साथ लिखे हैं।

यदि मैं आपसे पूछूं कि आपकी गोद में जो आपका छोटा बच्चा है और वह बहुत बीमार है तो आप उसका इलाज करेंगे या उस बच्चे की चिंता करेंगे जो अभी गर्भ में भी नहीं आया। जबकि यहां तो आप गोद वाले बच्चे को हानि पहुंचा कर भी उस बच्चे को बचाने का प्रयास कर रहे हैं जिसका अभी कोई अता-पता ही नहीं। जी हां, मैं सच कह रहा हूं। सामान्य रूप से जब यह बात होती है कि हमारी रोग प्रतिरोधी क्षमता ने ही वायरस के विरुद्ध एंटीबाडीज़ बनानी हैं तो इसका अर्थ यह होता है कि हमारे व्हाइट ब्लड सेल्स जिनमें बी सैल्ज़ और टी सैल्ज़ विशेष रूप से वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी बनाते हैं और वायरस से इनफेक्ट हुए सैल्ज़ को नष्ट करते हैं।

कोई विश्वास नहीं करेगा जब यह मैं बताऊंगा कि सबसे सामान्य रूप से भी दी जाने वाले दो एंटीबायोटिक में से एक हमारे इम्यून सिस्टम के बी सैल को समाप्त करता है और दूसरा टी सैल को, अजितथ्रोमायसिन टी सेल को और डॉक्सीसाइक्लिन बी सैल को। तो अब आपको मौतों का कारण समझ में आएगा कि पहले तो आपने ज्वर उतारकर और वह भी पेरासिटामोल से शरीर की इम्युनिटी को इतना खराब कर दिया और ऑक्सीडेशन आरंभ हो गई, साईटोकाईन स्टौर्म जैसी भयंकर स्थिति बना दी, और फिर भी यदि हमारा शरीर कोई प्रयास कर रहा है वायरस से लड़ने के लिए तो आपने टारगेट करके अपने ही सेनापतियों का कत्ल भी कर दिया।

यह कोई सामान्य सी बात नहीं है कि आप पढ़ लें और भूल जाएं। यह जीवन या मरण का प्रश्न है। यह सारी बातें मेरी नहीं विश्व के सबसे बड़े वैज्ञानिकों द्वारा बताई गई है, विश्वविख्यात मेडिकल जरनल्ज़ में छपी हैं।

चलाचल-चलाचल जिंदगी के सफर में….

डॉ. शंकर सुवन सिंह

जिंदगी घिरी,शैलाभों और चट्टानों से|
ऐ जिंदगी फिर डरना क्या,आँधियों और तूफानों से||
विचार शून्य हो,भाव भक्ति का हो|
तो भगवान् हम सफर है,भक्त के सफर में||
चलाचल-चलाचल जिंदगी के सफर में,
हम सफर है तो सफर से क्या डरना||
खंजर की क्या मजाल कि तेरे अरमानो को कुचल दे|.
अरमान ही क्या करे कि तू खुद खंजर बन बैठा|
चलाचल- चलाचल जिंदगी के सफर में,
हम सफर है तो सफर से क्या डरना||
ध्यान लगा कर के तो देख,तब तू नहीं|
तेरे दर पे,भगवान् होंगे||
कर कुछ ऐसा कि भगवान् तेरे दर पे हो हमेशा|
भाव भक्ति का कर,ध्यान प्रभु का लगा|
कट जाएगा सफर,हमसफ़र के सहारे||
चलाचल- चलाचल जिंदगी के सफर में,
हम सफर है तो सफर से क्या डरना||

किशोरी बालिकाओं का भविष्य कुपोषण के कब्जे में

रमा शर्मा

जयपुर, राजस्थान

कोरोना महामारी के इस दौर में ऐसी बहुत सी बीमारियां हैं, जो आज भी मानव जीवन को धीरे धीरे अपना शिकार बना रही हैं। लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। इन्हीं में एक कुपोषण भी है, जो युवाओं विशेषकर किशोरी बालिकाओं में काफी पाया जा रहा है। इसका परोक्ष रूप से नकारात्मक प्रभाव आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य पर देखने को मिलेगा। शरीर के लिए आवश्यक संतुलित आहार लम्बे समय तक नहीं मिलना ही कुपोषण है। इसके कारण बालिकाओं और महिलाओं की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। जिससे वह आसानी से कई तरह की बीमारियों की शिकार बन जाती हैं। अतः कुपोषण की जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है।

किशोरी बालिकाओं मे अधिकांश कुपोषण होने के कारण आगे चलकर कई रोगों का कारक बन जाती हैं। देश का एक बहुत बडा हिस्सा किशोरी बालिकाएं जिनके स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो उनमे भारी कमी आई हैे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने मे किशोरावस्था 10 से 19 साल मानी गई है। जबकी भारत मे हर 10 साल बाद पोषण से जुड़े आंकड़े जारी करने वाले नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों मे किशोरावस्था का कोई जिक्र नहीं है। इन आंकड़ों मे 15 से 19 साल की उम्र के लोगों को व्यस्क माना जाता है। वहीं 6 से 14 साल की उम्र के आयु वर्ग के पोषण से जुड़े आंकड़ों का भी कोई जिक्र नही होता है। 15 से 19 साल के लोगों का बाडी माॅस इण्डेक्स व्यस्कों के पैमानों पर मापा जाता है। जोकि इस उम्र के लोगों के लिए ठीक नही है और इससे पोषण के आंकड़ों की सही तस्वीर सामने नही आ पाती है। बॉडी मॉस इंडेक्स से पता चलता है कि शरीर का वजन कद के अनुसार कितना है। इसे लम्बाई और वजन का अनुपात कहा जाता है।

किशोरी स्वास्थ्य की दुर्दशा के मामले में अन्य राज्यों की अपेक्षा राजस्थान में भयावक है। जैसे बांसवाड़ा, टोंक, सवाईमाधोपुर, अलवर, करोली आदि ज़िले किशोरी स्वास्थ्य के पैमाने पर बहुत नीचे पहुंच गए हैं। इसकी वजह पुरानी कुरुतियां एवं जागरुकता की कमी है। इसके अतिरिक्त समुचित पौषण का अभाव और मानसिक अवसाद की स्थितियां भी इसके लिए जिम्मेदार मानी जा रही हैं। राजस्थान मे बीमार होने पर किशोरियों का इलाज कराने का प्रतिशत लड़कों कि तुलना मे काफी कम है। प्रदेश के प्रमुख अस्पताल जे के लोन के आंकड़े बताते है कि यहां लडके व लडकियों के उपचार का प्रतिशत करीब 60-40 है।

जेके लोन अस्पताल के शिशु रोग विशेषज्ञ डा. जगदीश सिंह बताते हैं कि आज भी राजस्थान के कुछ जिले ऐसे हैं, जहां अभिभावक लड़कियों के उपचार को गैर जरुरी खर्च मानते है और अपने गांव ले जाकर ही उपचार कराने में विश्वास करते है। यह किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में सबसे बडा आघात है। स्त्री रोग विशेषज्ञ जनाना अस्पताल डा उषा बंसल कहती हैं कि किशोरियों का उपचार सही समय पर उचित तरीके से नहीं होने का असर उनके आगे के जीवन चक्र को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह लड़कयों के युवा होने की उम्र होती है। इस दौरान उनके शरीर मे कई तरह के प्राकृतिक बदलाव होते है। अगर इस दौरान स्वास्थ्य खराब होता है और उनकी अच्छे से देखभाल नही होती तो उनके आगे के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

राजस्थान के एसएमएस मेडिकल काॅलेज के मनोरोग विशेषज्ञ विभाग से जुड़े डॉ अनिल तांबी के अनुसार किशोरावस्था में होने वाले बदलावों की सही जानकारी ना व अपने स्वास्थ्य एवं शरीर के प्रति पूर्ण जानकारी और सजगता नही होने के कारण रोजाना किशोरी बालिकाओं से संबंधित मानसिक विकार वाले कई केस उनके पास आते हैं। उन्होने कहा कि इसकी असली वजह किशोरियों को इस दिशा में सही शिक्षा नहीं मिलना एक बड़ा कारण होता है। जिसके चलते वह मानसिक अवसाद में चली जाती हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान में लगभग 17 लाख से भी अधिक किशोरियां एनीमिया की शिकार हैं। किशोरावस्था के बाद व्यस्क अवस्था मे प्रवेश करने की इस आयु में खून की कमी का शिकार होकर एनिमिक होने से किशोरियों का आगामी जीवन चक्र प्रभावित हो जाता है।

इस संबंध में निवाई ब्लॉक के सीडीपीओ बंटी बालोटिया ने बताया कि राजस्थान सरकार के चिकित्सा शिक्षा तथा महिला एवं बाल विकास के सहयोग से हाल ही में एनिमिया मुक्त राजस्थान अभियान के जरिए किशोर किशोरियों व महिलाओं की मृत्यु दर में कमी लाने के लिए अभियान शुरू किया गया है। इस अभियान का उद्देश्य खून की कमी से होने वाली बीमारियों पर नियंत्रण तथा हीमोग्लोबिन की मात्रा को बनाए रखना है और हर साल 3 फीसदी एनीमिया को कम करना है। इस हेतु सरकारी विद्यालयों में बच्चों को नीली टेबलेट भी दी जाती है। परन्तु कोरोना के चलते वर्तमान समय में किसी आंकड़े पर पहुंचना मुश्किल है।

प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ जयपुर की डॉ. आनंदी शर्मा के अनुसार सामान्यतः मासिक धर्म के दौरान 4 से 5 दिनों में 30 से 40 मिलीलीटर तक रक्तस्राव होता है। लेकिन अगर एक मासिक चक्र जिसकी अवधि 24 से 35 दिन हो सकती है, में 80 मिलीलीटर या उससे अधिक रक्तस्त्राव हो तो इस अवस्था को मेनोरेजिया अर्थात अधिक रक्त स्त्राव आना कहते है। इसके कारण लाल रक्त कोशिकाओं में कमी आ जाती है और हीमोग्लोबिन जो कि लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाने वाला प्रोटीन है, जो फेफड़ों से शरीर के अन्य भागों में संचरण का काम करती है, वह प्रभावित होता है, इसी कमी को ही एनीमिया कहा जाता है। उन्होंने कहा कि यह एनीमिया मासिक धर्म के दौरान साफ सफाई का ध्यान न रखने, सेनेटरी नैपकिन के उपयोग की पूरी जानकारी न होने और माहवारी से जुडी भ्रांतियों के कारण तथा बालिकाओं व महिलाओं द्वारा इस विषय पर खुलकर बात न करने के कारण होता है। कई यौन बीमारियों के चलते भी माहवारी के दौरान अधिक रक्तस्राव एक कारण होता है ।

इस संबंध में निवाई ब्लाक की एक ग्रामीण महिला बिमला जांगडी अपना अनुभव बताती हैं कि मेरी शादी 16 साल की उम्र में हो गई थी और शादी के कुछ समय बाद ही मेरी पहली बेटी का जन्म हो गया। फिर एक साल बाद दूसरी लडकी हो गई। तब तक मेरे माहवारी के समय बहुत अधिक रक्तस्राव होने लग गया। मैं बहुत परेशान रहने लगी। जिसके चलते मैने डॉक्टर को दिखाया और उन्होंने बच्चेदानी में संक्रमण बताया और बहुत सारी दवाइयां दे दी। इसी बिमारी को झेलते झेलते मेरे 2 लड़कियां और हो गईं। उसके बाद स्थिति ऐसी हुई कि मुझे बच्चेदानी को निकलवाना पड़ा। मुझे यह बीमारी माहवारी के दौरान साफ सफाई में कमी और लापरवाही के कारण हुई है। दूरदराज के क्षेत्रों में तो ग्रामीण किशोरियों को औसत स्तर तक का पोषण नहीं मिल पा रहा है। 10 से 12 वर्ष के बीच 2000 कैलोरी की प्रतिदिन आवश्यकता होती है, 12 से 13 साल की किशोरी बालिकाओं को 2200 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है, जबकि 14 से 19 साल तक 2400 कैलोरी प्रतिदिन की आवश्यकता होती है। लेकिन दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को प्रतिदिन इसका करीब 50 से 70 प्रतिशत ही मिल पाता है। कुछ जगह तो यह आंकड़ा इससे भी कम है। जो अत्यधिक चिंता का विषय है।

राजस्थान में किशोर स्वास्थ्य का कार्यक्रम देख रहे चिकित्सा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते है कि सरकार जिलों को चिन्हित कर ही अपने कार्यक्रम चलाती है। उन्होने कहा कि अभी भी कुछ जिलों में सामाजिक परम्पराएं और रीति रिवाजों के ऐसे कार्यक्रम आड़े आते हैं, जिन पर सामाजिक स्तर पर जागरुकता की जरुरत है। निवाई ब्लॉक के सीएमएचओ सतीश सेहरा बताते है कि टोंक जिले के ग्रामीण अंचलो में किशोरियों का पोषण और कमजोरी सबसे बडा मुददा है। यहां कुछ विशेष समुदाय के लोग आज भी आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बेहद पिछड़े हैं। जहां आज भी लड़कियों के पोषण पर कम ध्यान दिया जा रहा है। बांसवाड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेश शर्मा कहते हैं कि किशोरियों के स्वास्थ्य की दिशा में जिला में आज तक कोई विशेष काम नहीं हुआ है। जिले के अधिकांश गांवों में आज भी इस तरह के कार्यकर्ता कम नजर आते हैं। जो भी काम हैं वह सरकारी अस्पताल के अंदर तक ही सीमित हैं। लेकिन वहां तक अधिकांश किशोरियों की पहुंच ही नहीं है।

किशोरी मंच की बालिकाएं सरमिना, सायनुम, प्राची, पूनम नामा, उनियारा, कविता यदुवंशी, राधिका शर्मा और कुमकुम केलवाड़ा बताती हैं कि सरकार ने किशोरियों के लिए कहने को तो आदर्श क्लीनिकों की शुरुआत की है, लेकिन वहां जाकर परामर्श लेना किशोरियों के सामाजिक परिवेश में संभव नहीं है। ऐसे में बालिकाओं के स्वास्थ्य सुरक्षा को गंभीरता से लेना बहुत जरूरी है और इसके लिए घर घर सर्वे करने की आवश्यकता है। ताकि बालिकाओं की वास्तविक स्थितियों की जानकारी सामने आए और इसका यथा संभव समाधान हो सके।

चिंता का सबब बनते ब्लैक फंगस के बढ़ते मामले

  • योगेश कुमार गोयल
    एक तरफ जहां देशभर में कोरोना संक्रमितों की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगी है, वहीं दूसरी ओर कोरोना से ठीक हो रहे कुछ मरीजों पर दूसरा बड़ा खतरा मंडरा रहा है। दरअसल विभिन्न राज्यों में ब्लैक फंगस (म्यूकोर्मिकोसिस) के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है और आंखों से ब्रेन तक तेजी से फैल रहे इस संक्रमण के कारण लोगों की जान जा रही है। कोरोना पर जीत दर्ज कर चुके हजारों लोग ब्लैक फंगस के शिकार हो चुके हैं, जिनमें से कुछ की आंखों की रोशनी चली गई है तो कुछ की मौत हो गई। दरअसल ब्लैक फंगस शरीर में बहुत तेजी से फैलता है, जिससे आंखों की रोशनी चली जाती है और कई मामलों में मौतें भी हो रही हैं। कोरोना संक्रमण के कारण यह रोग अधिक खतरनाक हो गया है, इसीलिए सरकार द्वारा अब चेतावनी देते हुए कहा गया है कि ब्लैक फंगस से बचने की जरूरत है क्योंकि इसके कारण कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है। नीति आयोग के सदस्य डा. वी.के. पाल के मुताबिक यह रोग होने की संभावना तब ज्यादा होती है, जब कोविड मरीजों को स्टेरॉयड दिए जा रहे हों और मधुमेह रोगी को इससे सर्वाधिक खतरा है, इसलिए स्टेरॉयड जिम्मेदारी से दिए जाने चाहिएं और मधुमेह को नियंत्रित किया जाना जरूरी है क्योंकि इससे मृत्यु दर का जोखिम बढ़ जाता है। डा. पाल का यह भी कहना है कि इस बीमारी से कैसे लड़ना है, अभी इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है क्योंकि यह एक उभरती हुई समस्या है। म्यूकोर्मिकोसिस चेहरे, नाक, आंख तथा मस्तिष्क को प्रभावित कर सकता है, जो फेफड़ों में भी फैल सकता है और इससे आंख की रोशनी भी जा सकती है।
    वैसे अभी तक के मामलों का अध्ययन करने से यह बात तो स्पष्ट हो गई है कि ब्लैक फंगस नामक बीमारी के सबसे ज्यादा मामले ऐसे कोरोना मरीजों में ही देखने को मिल रहे हैं, जिन्हें जरूरत से ज्यादा स्टेरॉयड दी गई हों। इस संबंध में कुछ डॉक्टरों का कहना है कि यदि मरीज का ऑक्सीजन लेवल 90 के आसपास है और उसे काफी स्टेरॉयड दिया जा रहा है तो ‘ब्लैक फंगस’ इसका एक साइड इफैक्ट हो सकता है। ऐसा मरीज अगर कोविड संक्रमण से ठीक भी हो जाए लेकिन ब्लैक फंगस का शिकार हो जाए तो बीमारी को शीघ्र डायग्नोस कर उसका तुरंत इलाज शुरू नहीं करने पर जान जाने का खतरा रहता है। आईसीएमआर ने भी फंगस इंफैक्शन का पता लगाने के लिए जांच की सलाह देते हुए कहा है कि कोरोना मरीज ब्लैक फंगस के लक्षणों की अनदेखी न करें और लक्षण होने पर चिकित्सक से परामर्श करें, साथ ही लक्षण मिलने पर स्टेरॉयड की मात्रा कम करने या बंद करने का भी सुझाव दिया गया है। स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का कहना है कि यदि लोगों में इस बीमारी को लेकर जागरूकता हो और शुरुआत में ही लक्षणों की पहचान कर ली जाए तो बीमारी को जानलेवा होने से रोका जा सकता है। इस संक्रमण का पता सीटी स्कैन के जरिये लगाया जा सकता है और फिलहाल ‘एम्फोटेरिसिन’ नामक ड्रग का इसके इलाज में इस्तेमाल किया जा रहा है।
  • आंखों से ब्रेन तक तेजी से फैल रहा है ब्लैक फंगस संक्रमण
    ब्लैक फंगस ऐसा फंगल इंफैक्शन है, जो कोरोना वायरस के कारण शरीर में ट्रिगर होता है, जिसे आईसीएमआर ने ऐसी दुर्लभ बीमारी माना है, जो शरीर में बहुत तेजी से फैलती है और उन लोगों में ज्यादा देखने को मिल रही है, जो कोरोना संक्रमित होने से पहले किसी अन्य बीमारी से ग्रस्त थे या जिन लोगों की इम्युनिटी बेहद कमजोर है। पहले से स्वास्थ्य परेशानियां झेल रहे शरीर में वातावरण में मौजूद रोगजनक वायरस, बैक्टीरिया या दूसरे पैथोजन्स से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, ऐसे में शरीर में इस फंगल इंफैक्शन के होने का खतरा रहता है। कोरोना के जिन मरीजों को आईसीयू में तथा ऑक्सीजन पर रखा जाता है, उनमें भी ब्लैक फंगस के संक्रमण की कुछ आशंका रहती है। एम्स निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया कहते हैं कि कोविड मरीजों को लिम्फोपेनिया की ओर ले जाता है और इलाज के दौरान स्टेरॉयड के इस्तेमाल से शरीर में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है। उनके मुताबिक जांच में पता चल रहा है कि ब्लैक फंगस वाले सभी मरीजों को कोरोना के इलाज के दौरान स्टेरॉयड दी गई थी, जिनमें से 90-95 फीसदी ऐसे मरीज हैं, जिन्हें मधुमेह है।
    मधुमेह, कोविड पॉजिटिव तथा स्टेरॉयड लेने वाले रोगियों में फंगल संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। डा. गुलेरिया के अनुसार ‘म्यूकोर्मिकोसिस’ बीजाणु मिट्टी, हवा और भोजन में भी पाए जाते हैं लेकिन वे कम विषाणु वाले होते हैं और आमतौर पर संक्रमण का कारण नहीं बनते। कोविड-19 से पहले इस संक्रमण के बहुत कम मामले थे लेकिन कोविड के कारण अब ये मामले बड़ी संख्या में सामने आ रहे हैं। पहले यह उन लोगों में ही दिखता था, जिनका शुगर बहुत ज्यादा हो, इम्युनिटी बेहद कम हो या कीमोथैरेपी ले रहे कैंसर के मरीज लेकिन स्टेरॉयड का ज्यादा इस्तेमाल करने से ब्लैक फंगस के अब बहुत ज्यादा मामले आ रहे हैं। किसी विशेषज्ञ डॉक्टर की सलाह के बिना स्टेरॉयड का सेवन भी ब्लैक फंगस की वजह बन सकता है। बहुत से लोग बुखार, खांसी और जुकाम होते ही कोरोना की दवाएं शुरू कर रहे हैं लेकिन डॉक्टरों का मानना है कि बिना कोरोना रिपोर्ट के ऐसा करना खतरनाक हो सकता है। बगैर कोरोना के लक्षणों के 5-7 दिन तक स्टेरॉयड का सेवन करने से इसके दुष्प्रभाव दिखने लगते हैं और बीमारी बढ़ने की आशंका रहती है।
    अगर ब्लैक फंगस के प्रमुख लक्षणों की बात करें तो बुखार, तेज सिरदर्द, खांसी, नाक बंद होना, नाक में म्यूकस के साथ खून, छाती में दर्द, सांस लेने में तकलीफ होना, खांसते समय बलगम में या उल्टी में खून आना, आंखों में दर्द, तथा सूजन, धुंधला दिखाई देना या दिखना बंद हो जाना, नाक से खून आना या काले रंग का स्राव, आंखों या नाक के आसपास दर्द, लाल निशान या चकत्ते, मानसिक स्थिति पर असर पड़ना, गाल की हड्डी में दर्द, चेहरे में एक तरफ दर्द, सूजन या सुन्नपन, मसूडों में तेज दर्द या दांत हिलना, कुछ भी चबाते समय दर्द होना इत्यादि ब्लैक फंगस संक्रमण के प्रमुख लक्षण हैं।
    ब्लैक फंगस संक्रमण मरीज में सिर्फ एक त्वचा से शुरू होता है लेकिन यह शरीर के अन्य भागों में फैल सकता है। चूंकि यह शरीर के विभिन्न हिस्सों को प्रभावित करता है, इसलिए इसके उपचार के लिए अस्पतालों में कई बार अलग-अलग विशेषज्ञों की जरूरत भी पड़ सकती है। यही कारण इसका इलाज कोरोना के इलाज से भी महंगा है और जान का खतरा भी ज्यादा है। मरीज को इस बीमारी में एम्फोटेरिसिन इंजेक्शन दिन में कई बार लगाया जाता है, जो प्रायः 21 दिन तक लगवाना पड़ता है। इसके गंभीर मरीज के इलाज पर प्रतिदिन करीब 25 हजार तक खर्च आता है जबकि मेडिकल जांच और दवाओं सहित कोरोना के सामान्य मरीज के इलाज का औसत खर्च करीब दस हजार रुपये है। ब्लैक फंगस का शुरूआती चरण में ही पता चलने पर साइनस की सर्जरी के जरिये इसे ठीक किया जा सकता है, जिस पर करीब तीन लाख रुपये तक खर्च हो सकता है लेकिन बीमारी बढ़ने पर ब्रेन और आंखों की सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है, जिसके बाद इलाज काफी महंगा हो जाता है और मरीज की आंखों की रोशनी खत्म होने तथा जान जाने का भी खतरा बढ़ जाता है। कुछ मरीजों का ऊपरी जबड़ा और कभी-कभार आंख भी निकालनी पड़ जाती है।
    ब्लैक फंगस संक्रमण से बचने के लिए ऑक्सीजन थैरेपी के दौरान ह्यूमिडीफायर्स में साफ व स्टरलाइज्ड पानी का ही इस्तेमाल करें और घर में मरीज को आक्सीजन देते हुए उसकी बोतल में उबालकर ठंडा किया हुआ पानी डालकर ठीक से साफ करें। चूंकि ब्लैक फंगस संक्रमण का सबसे बड़ा खतरा मधुमेह रोगियों को है, इसलिए जरूरी है कि कोविड से ठीक होने के बाद भी ऐसे मरीजों का ब्लड ग्लूकोज लेवल मॉनीटर करते रहें और हाइपरग्लाइसीमिया अर्थात् रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करने की कोशिश करें। बिना विशेषज्ञ की सलाह के डेक्सोना, मेड्रोल इत्यादि स्टेरॉयड तो अपनी मर्जी से या किसी के कहने पर हरगिज न लें। स्टेरॉयड शुरू होने पर विशेषज्ञ डॉक्टर के नियमित सम्पर्क में रहें। विशेषज्ञ डॉक्टर स्टेरॉयड कुछ ही मरीजों को 5-10 दिनों के लिए ही देते हैं, वह भी बीमारी शुरू होने के 5-7 दिन बाद जरूरी जांच कराने के पश्चात् सिर्फ गंभीर मरीजों को। बेहतर है कि ब्लैक फंगस के लक्षण नजर आने पर अपनी मर्जी से दवाओं का सेवन शुरू करने के बजाय जरा भी समय गंवाए बिना तुरंत अपने डॉक्टर से सम्पर्क करें क्योंकि प्रारम्भिक अवस्था में इसे एंटी-फंगल दवाओं से ठीक किया जा सकता है।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर का प्रभाव अर्थव्यवस्था पर कम ही होगा

देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर जारी है। जिसके कारण देश के कई राज्यों में लॉकडाउन भी घोषित किए गए हैं और इन लॉकडाउन का कड़ाई से पालन भी कराया जा रहा है, इसके कारण इन क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों पर कुछ असर पड़ा है। इस सम्बंध में हाल ही में केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय ने एक आकलन जारी किया है जिसके अनुसार, वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान देश की अर्थव्यवस्था पर कोई बहुत बड़ा अंतर पड़ने वाला नहीं हैं। हां, एमएसएमई क्षेत्र, छोटे दुकानदार, श्रमिक वर्ग, होटल उद्योग, यातायात उद्योग, पर्यटन उद्योग आदि क्षेत्रों पर कुछ समय के लिए जरूर विपरीत प्रभाव पड़ा है।

वित्तीय वर्ष 2020-21 की दूसरी छमाही में देश की अर्थव्यवस्था में सुधार होना शुरू हुआ था। जिसके चलते देश के कर संग्रहण में भी सुधार दृष्टिगोचर हुआ है। शुद्ध प्रत्यक्ष कर संग्रहण 2020-21 के लिए संशोधित अनुमानों से 4.5 प्रतिशत अधिक रहा है एवं वित्तीय वर्ष 2019-20 के प्रत्यक्ष कर संग्रहण की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक रहा है। इसी दौरान वस्तु एवं सेवा कर (GST) के संग्रहण में भी अच्छी वृद्धि देखने में आई है। पिछले लगातार 6 माह के दौरान यह एक लाख करोड़ रुपए से अधिक ही रहा है। अप्रेल 2021 में तो 1.41 लाख करोड़ रुपए के संग्रहण के साथ यह रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया है। यह दर्शाता है कि देश में आर्थिक गतिविधियों में लगातार सुधार हो रहा है।

फिर भी, कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने बाजार में भावनाओं को जरूर प्रभावित किया है। जिसके चलते अप्रेल 2021 माह में शेयर बाजार में निफ़्टी सूचकांक एवं सेंसेक्स सूचकांक में क्रमशः 0.4 प्रतिशत एवं 1.5 प्रतिशत की कमी दर्शायी गई है। भारतीय रुपए का भी मार्च 2021 माह के दौरान 2.3 प्रतिशत से अवमूल्यन हुआ है। परंतु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किए गए प्रयासों के कारण सिस्टम में पर्याप्त तरलता बनी हुई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 2020-21 के दौरान 3.17 लाख करोड़ रुपए के खुले बाजार परिचालन (OMO) किए हैं ताकि सिस्टम में पर्याप्त तरलता बनी रहे।

अभी तक उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, देश में वृहद स्तर के आर्थिक संकेतकों पर दूसरी लहर का विपरीत प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा है। उच्च आवृति आर्थिक संकेतक भी बहुत उत्साहवर्धक परिणाम दर्शा रहे हैं। वित्तीय वर्ष 2020-21 की चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था में पिछले 2 तिमाहियों की तुलना में अच्छी वृद्धि देखी गई है। परंतु बाजार में, भावनाओं में जरूर कुछ निराशावाद देखा जा रहा है। साथ ही, एमएसएमई क्षेत्र द्वारा बैंकों से ऋण के उपयोग में उत्साहजनक वृद्धि दिखाई नहीं दी है। कोरोना महामारी की प्रथम लहर के दौरान पूरे राष्ट्र में लॉकडाउन लगाया गया था जिसके कारण कुछ क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियां पूर्णतः बंद हो गई थीं एवं इसका सबसे अधिक विपरीत प्रभाव गरीब तबके के लोगों पर पड़ा था। जबकि, देश में फैली दूसरी लहर के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन नहीं लगाया गया है केवल कुछ राज्यों ने कड़ा लॉकडाउन लगाया है। इस प्रकार, इस लॉकडाउन का असर केवल इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने की सम्भावना है। जिन राज्यों ने लॉक डाउन नहीं लगाया है, उन राज्यों में आर्थिक गतिविधियां पूर्णतः जारी रही हैं। इसी कारण से यह कहा जा सकता है कि दूसरी लहर के दौरान देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ने की सम्भावना कम ही है।

वित्त मंत्रालय के अनुसार आगे आने वाले समय में दबी हुई मांग के कारण वित्तीय वर्ष 2021-22 के द्वितीय छमाही में देश की आर्थिक गतिविधियों में उछाल देखने में आ सकता है। वित्तीय वर्ष 2020-21 के नवम्बर, दिसम्बर एवं चौथी तिमाही में भी दबी हुई मांग के पुनः उत्पन्न होने के कारण ही उपभोक्ता वस्तुओं एवं वाहन क्षेत्र में मजबूत रिकवरी देखने में आई थी। इसका प्रभाव वस्तु एवं सेवा कर के संग्रहण में अक्टोबर 2020 के बाद से लगातार देखने में आया है जब यह संग्रहण एक लाख करोड़ रुपए से अधिक रहा है।

हालांकि कोरोना के मामले बहुत अधिक बढ़ते जा रहे हैं जिसके कारण केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत अधिक खर्च किया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च, निजी अंतिम उपभोग खर्च के 5 प्रतिशत से बढ़कर 11 प्रतिशत हो जाने की सम्भावना है। यह खर्च 66,000 करोड़ रुपए से अधिक की राशि से बढ़ सकता है। अतः इस बढ़े हुए खर्च का भी तो अर्थव्यवस्था पर असर होगा। आज उपभोक्ता बहुत घबराया हुआ है और अपने स्वास्थ्य को लेकर वह बहुत चिंतित है। वर्तमान परिस्थितियों में उसे आर्थिक गतिविधियों से कोई मतलब नहीं है। अतः प्रभावित इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्चे को छोड़कर उपभोक्ता अन्य गतिविधियों पर ख़र्च नहीं के बराबर कर रहा है।

विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना महामारी के फैलने के कारण ग्रामीण इलाकों में लोगों ने अपने ख़र्चों में कटौती करना प्रारम्भ कर दिया है ताकि जरूरत पड़ने पर स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च किया जा सके। इसी कारण से उपभोक्ता वस्तुओं एवं वाहन जैसी मदों की खरीददारी में ग्रामीण इलाकों में मांग में कमी देखने में आई है। इसलिए केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के अंतर्गत अभी हाल ही में 9.5 करोड़ किसानों के खातों रुपए 19,000 करोड़ रुपए की राशि प्रदान कर दी है। ताकि गावों में किसानों को अतिरिक्त राशि ख़र्च के उपलब्ध हो सके। ज्ञातव्य हो कि इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार प्रतिवर्ष रुपए 6,000 (2,000 रुपए प्रति चार माह के अंतराल पर) पात्र किसानों के खाते में सम्मान निधि के रूप में यह राशि हस्तांतरित करती है। अभी तक इस मद पर 1.15 लाख करोड़ रुपए की राशि किसानों के खातों में हस्तांतरित की जा चुकी है।

हालांकि अच्छी खबर यह भी आई है कि पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था को बल प्रदान करेगा क्योंकि इस वर्ष भी मानसून के बहुत अच्छे प्रदर्शन की सम्भावना व्यक्त की गई है। हमारा देश विश्व में सबसे अधिक तेज गति से आर्थिक विकास करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। अतः अर्थव्यवस्था में अच्छी गति बनी रहेगी ऐसी आशा की जानी चाहिए। अभी कुछ समय के लिए जरूर उपभोग की मात्रा में कुछ कमी देखने में आई है एवं शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ी है, परंतु कोरोना महामारी की दूसरी लहर के निकल जाने के बाद तो भारतीय अर्थव्यवस्था पुनः विश्व में सबसे अधिक तेज गति से आर्थिक विकास करने वाली अर्थव्यस्था बन जाएगी।

केंद्र सरकार, राज्य सरकारें एवं भारतीय रिजर्व बैंक भी अर्थव्यवस्था को गतिमान बनाए रखने हेतु लगातार प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को यह अधिकार दिए गए हैं कि वे भारतीय रिज़र्व बैंक से अतिरिक्त ऋण लेकर अपने पूंजीगत ख़र्चों में वृद्धि करें ताकि आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाया जा सके। केंद्र सरकार ने भी वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में पूंजीगत ख़र्चों में अत्यधिक वृद्धि का प्रावधान किया है और इन मदों पर ख़र्च किया भी जा रहा है। इससे सीमेंट, स्टील, आदि उत्पादों की मांग बढ़ेगी। इस समय में वस्तुओं की आपूर्ति बनाए रखने की ओर भी ध्यान देना जरूरी होगा ताकि मुद्रा स्फीति पर अंकुश बना रहे।

वर्तमान समय में बेरोजगारी नहीं बढ़े बल्कि रोजगार के नए अवसर निर्मित हों इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत हैं। केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा योजना के अंतर्गत ग्रामीण इलाक़ों में रोजगार निर्मित करने हेतु प्रदान की जाने वाली राशि को भी बढ़ा दिया है। इस दौरान, एक और विशेष बात देखने में आई है कि धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों, सेवा संस्थानों तथा औद्योगिक इकाईयों ने भी आगे आकर समाज में गरीब तबके की बढ़-चढ़कर मदद की है, एवं सहायता राशि में अत्यधिक वृद्धि दर्ज की है।

कोविड बर्डेन शेयरिंग फॉर्मूले से लगी पूंजी, टीकाकरण अभियान की सफलता की कुंजी।

विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड-19 से निजात पाने के लिये दुनिया के सभी लोगों का टीकाकरण होना जरूरी है। अगर दुनिया का एक भी हिस्‍सा टीकाकरण से महरूम रहा तो पूरी दुनिया में नये तरीके के वायरस का खतरा मंडराने लगेगा। गरीब तथा विकासशील देशों में सभी को समान रूप से टीका मुहैया कराने के मुश्किल काम को करने के लिये एक ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ बनाया जाना चाहिये। इस बारे में ठोस कदम उठाने के लिये आगामी 11 जून को ब्रिटेन में आयोजित होने जा रही जी7 शिखर बैठक एक महत्‍वपूर्ण मौका है।
इस सिलसिले में विस्‍तृत विचार-विमर्श के लिये एक्सपर्ट्स का   एक वेबिनार आयोजित किया गया, जिसमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन, क्‍लाइमेट एक्‍शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप, डब्‍ल्‍यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर और विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन में पब्लिक हेल्‍थ, एनवायरमेंट एण्‍ड सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्‍थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्‍टर मारिया नीरा ने हिस्‍सा लिया।
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि मौजूदा वक्‍त दुनिया के अमीर देशों के नैतिक मूल्‍यों की परीक्षा है। अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों, खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग करके नहीं देखा जा सकता। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे।
आगामी 11 जून को ब्रिटेन, अमेरिका, यूरो‍पीय संघ, जापान और कनाडा के नेता तथा दक्षिण कोरिया, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्‍ट्रेलिया के राष्‍ट्राध्‍यक्ष ब्रिटेन के कॉर्नवाल में आयोजित होने वाली जी7 की बैठक में शामिल होंगे। इस बैठक के दौरान जी7 देशों पर विकासशील देशों में कोविड टीकाकरण कार्य में तेजी लाने और जलवायु सम्‍बन्‍धी नयी वित्‍तीय संकल्‍पबद्धताओं पर राजी होने का दबाव होगा। अगर विकासशील देशों तक कोविड का टीका पहुंचाने और नये वित्‍तपोषण के काम में तेजी नहीं लायी गयी तो ब्रिटेन में आयोजित होने वाली सीओपी26 शिखर बैठक के सामने नयी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। उस स्थिति में विकासशील देशों के प्रतिनिधि इस बैठक में शामिल नहीं हो सकेंगे और देश जलवायु से सम्‍बन्धित अधिक मुश्किल योजनाएं पेश नहीं कर पायेंगे।
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इस मौके पर गरीब और विकासशील देशों में टीकाकरण सुनिश्चित करने के लिये एक सुगठित ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ तैयार करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्‍होंने कहा ‘‘वर्ष 2021 बढ़े हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग का वर्ष है। हम गरीबी, अन्याय, खराब स्वास्थ्य, प्रदूषण और पर्यावरण अपघटन जैसी समस्याओं से मिलजुल कर लड़ रहे हैं और हम सभी लोग मिलकर सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। कोविड-19 की वजह से हर व्यक्ति डरा हुआ है शुरुआती बिंदु यह है कि इस बीमारी का उन्मूलन कैसे किया जाए इसके लिए वैक्सीन सबसे बड़ा माध्यम है। मेरा मानना है कि सिर्फ ‘बर्डन शेयरिंग फार्मूला’ ही एक ही रास्ता है जो वैक्सीनेशन के लिए सतत निवेश ला सकता है। इस फार्मूला से जमा होने वाली रकम को गरीब देशों में स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण में खर्च किया जाना चाहिए ताकि इन मुल्कों के लोगों का टीकाकरण किया जा सके। हमें महामारी की तैयारी के लिए जरूरी ढांचे के निर्माण के लिए हर साल 10 बिलियन डॉलर खर्च करने की जरूरत है।’’
उन्‍होंने पूरी दुनिया के लोगों तक वैक्‍सीन पहुंचाने के लिये टीके से जुड़े पेटेंट को अस्‍थायी तौर पर खत्‍म करने की पैरोकारी करते हुए कहा ‘‘मैं उन सभी लोगों का समर्थन करता हूं जो वैक्सीन को उससे जुड़े पेटेंट से अस्थाई तौर पर मुक्त करने का आग्रह कर रहे हैं। इससे अन्य पक्षों को भी वैक्सीन का उत्पादन करने के लाइसेंस मिल सकेंगे। ऐसा होने से जो वैक्सीन आज दुनिया के किसी एक ही हिस्से में बनती है वह कल दुनिया के सभी हिस्सों में बनाई जा सकेगी। इसके साथ ही में वैक्सीन के उत्पादन और उसके वितरण में व्याप्त खामियों को दूर करने की भी वकालत करता हूं। हम जानते हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन की 50-50 प्रतिशत आबादी को वैक्सीन लगाई जा चुकी है लेकिन अफ्रीका में यह आंकड़ा सिर्फ 1% है। मैं महसूस करता हूं कि दुनिया वैक्सीनेटेड अमीर और अनवैक्सीनेटेड गरीब में बंटने को तैयार है।’’
ब्राउन ने कहा कि अफ्रीका और एशिया में सबसे ज्यादा लोग जोखिम के दायरे में हैं। इन महाद्वीपों में स्वास्थ्यकर्मी तक वैक्‍सीन से महरूम हैं। इसे रोकने के लिए जरूरी है कि अमीर देश अपनी स्वार्थपरता छोड़ें और गरीब देशों की मदद करें। इसके लिए समानता पूर्ण भार वितरण का फार्मूला तैयार किया जाए जहां वे अपनी सर्वाधिक क्षमता के मुताबिक कीमत चुकाएं। क्योंकि कोविड-19 लगातार फैल रहा है और लगातार अपना रूप बदल रहा है इसकी वजह से वे लोग भी खतरे के दायरे में हैं जिन्हें वैक्सीन लगाई जा चुकी है। इससे जाहिर है कि अगर किसी एक को चोट लगती है तो उसका दर्द सभी को होगा। अगर किसी एक स्थान पर अन्याय होता है तो इससे सभी स्थानों पर नाइंसाफी होने का खतरा पैदा होता है। मेरा मानना है कि दान का कार्य घर से ही शुरू होता है। जॉन एफ कैनेडी के शब्दों में अगर एक मुक्त समाज किसी गरीब की मदद नहीं कर सकता तो वह किसी काम का नहीं है।
उन्‍होंने कहा कि बर्डन शेयरिंग फार्मूला में हर देश की आय संपदा और डिफरेंशियल बेनिफिट और विश्व अर्थव्यवस्था की री ओपनिंग से मिलने वाले प्रत्येक लाभ को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस फार्मूला के तहत अमेरिका और यूरोप 27% का योगदान करेंगे। ब्रिटेन 5%, जापान 6% और जी20 के सदस्य अन्य देश बाकी का योगदान करेंगे। यह सिर्फ दान की ही एक प्रक्रिया नहीं होगी बल्कि यह अपने बचाव का भी एक रास्ता होगा क्योंकि गरीब देश जितने ज्यादा लंबे वक्त तक महामारी से घिरे रहेंगे, उतने ही समय तक यह महामारी अपने पैर पसारना जारी रखेगी और अमीर तथा गरीब सभी के लिए खतरा बना रहेगा। यह सही है की वैक्सीन बनाने में अरबों डॉलर खर्च होंगे लेकिन लेकिन उनसे जुड़े संपूर्ण फायदे को देखें तो यह कई ट्रिलियन का होगा।
क्‍लाइमेट एक्‍शन नेटवर्क इंटरनेशनल की अधिशासी निदेशक तसनीम एसप ने कोविड-19 महामारी से निपटने के लिये एक समानतापूर्ण रवैया अपनाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि जी7 में दुनिया के सात सबसे धनी देश इस सबसे मुश्किल वक्त में बैठक करेंगे। पूरी दुनिया ने वर्ष 2020 को महामारी के साथ गुजारा लेकिन वर्ष 2021 में पिछले साल की मुसीबतों को काफी बढ़ा दिया है। वर्ष 2021 में लोगों के मुसीबत से निपटने के जीवट की परीक्षा को और भी सख्त कर दिया है। यह स्पष्ट है और जैसा कि गार्डन ब्राउन ने भी अपने बयान में कहा है कि हमें इस महामारी से निपटने के लिए एक समानता पूर्ण रवैया अपनाना होगा।
उन्‍होंने जलवायु संकट को भी जेहन में रखने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘मेरा मानना है कि अमीर देशों ने जिस तरह से महामारी से निपटा है उससे यह भी पता लगता है कि वे किस तरह से जलवायु संकट से भी निपटेंगे। जी7 देश महामारी को लेकर जो विचार व्यक्त करेंगे उसे अन्य प्रकार के संकटों खासतौर पर जलवायु से संबंधित संकट से अलग नहीं किया जा सकता। हम सभी जानते हैं और पूरी दुनिया देख भी रही है कि भारत खासतौर पर कोविड-19 महामारी के दूसरे दौर में सबसे दुखद और अप्रत्याशित रूप से विध्वंसक रूप का सामना कर रहा है। इसके अलावा भारत को साइक्लोन ताऊते के रूप में एक और मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। आप में से बहुत से लोगों ने इस चक्रवाती तूफान की वजह से मची तबाही की खबरें और तस्वीरें देखी होंगी। इसकी वजह से कोविड-19 महामारी से उत्पन्न मुसीबत में इजाफा हो गया है। कई तरफ से आ रही इस मुसीबत का असर भारत की स्वास्थ्य सेवाओं आपदा प्रबंधन सेवाओं पर पड़ रहा है जिसकी कीमत सरकार और देश के नागरिकों को चुकानी पड़ेगी। जी7 देशों के सामने इन मुद्दों का हल निकालने की बहुत बड़ी चुनौती होगी।’’
तसनीम ने कहा ‘‘मेरी समझ से गॉर्डन ब्राउन ने एक तात्कालिक आवश्यकता की तरफ इशारा किया है कि अगर कोई एक भी व्यक्ति असुरक्षित है तो इसका मतलब है कि हर कोई असुरक्षित है। जी7 देशों में इस तरह का नेतृत्‍व दिखाने की जरूरत है। हमें वैश्विक एकजुटता और वैश्विक सहयोग की भावना को सबसे मजबूत तरीके से जाहिर करना होगा।’’
तसनीम ने आईईए द्वारा जारी ताजा नेटजीरो रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा इस रिपोर्ट में इस बात पर खास जोर दिया गया है कि हमें अक्षय ऊर्जा पर निवेश पर विशेष जोर देना होगा। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होगी। इसके लिए वैश्विक एकजुटता और सहयोग की भावना मुख्य केंद्र में होनी चाहिए।
उन्होंने कोविड टीकाकरण को लेकर उठाए गए बिंदु का जिक्र करते हुए कहा कि महामारी से लड़ने के लिए टीके की समानतापूर्ण उपलब्धता बेहद जरूरी है और इस चुनौती से निपटने के लिए विकसित देशों को अपने क्लाइमेट फाइनेंस में लगातार तेजी से इजाफा करना चाहिए। देशों को पुरानी संकल्पबद्धताओं पर अमल के साथ-साथ नए संकल्प प्रस्तुत करने चाहिए। अगर विकासशील देशों को वैक्सीन को लेकर फौरन मदद नहीं मिली और उसका समानता पूर्ण वितरण नहीं हुआ तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ग्लासगो में किसी भी तरह के समझौते की संभावना को भूल जाना चाहिए। जॉनसन के पास साथ मिलकर कदम बढ़ाने के लिए तीन हफ्ते का समय है। घड़ी का कांटा तेजी से भाग रहा है। हम इस मुश्किल वक्त में एक साहसिक, संवेदनशील और नैतिकता पूर्ण नेतृत्व की तरफ देख रहे हैं।
इस सवाल पर कि क्या जी7 बैठक में शामिल होने जा रहे प्रतिनिधियों को वैक्सीन लगवा कर जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि यह नैतिक रूप से सही नहीं होगा क्योंकि वैक्सीन लगवाने की एक निर्धारित प्रक्रिया है और अगर इसमें अतिरिक्त लाभ लेने की कोशिश की जाएगी तो यह बिल्‍कुल अनुचित होगा।
डब्‍ल्‍यूआरआई इंडिया में जलवायु कार्यक्रम की निदेशक उल्का केलकर ने कहा कि इस वक्‍त दो चीजें बहुत महत्‍वपूर्ण हैं। पहली, क्लाइमेट फाइनेंस की तात्कालिकता और समानता पूर्ण टीकाकरण। दूसरी चीज यह है कि वर्तमान समय हमारे मूल्यों की परीक्षा की घड़ी है कि हम एक खुशहाल दुनिया के निर्माण के प्रति कितने गंभीर हैं। एक ताजा विश्लेषण में यह बात जाहिर हुई है कि पिछले साल भारत में 7.5 करोड़ और नागरिक गरीबी की गर्त में चले गए। यह भारत में आई कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से पहले की बात है। कुछ मीडिया मंचों की रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि भारत के गांवों में लोगों को किसी सब्जी या दाल के बगैर चावल में नमक मिलाकर खाने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसी तरह हम वैक्सीन के मामले में भी बड़ी अनोखी विषमता का अनुभव कर रहे हैं। जहां अनेक देशों खासकर अफ्रीकी मुल्कों में स्वास्थ्य कर्मी तथा फ्रंटलाइन वर्कर्स वैक्सीनेशन से महरूम है वहीं विकसित देशों में लोगों के पास वैक्सीन खरीदने की क्षमता है। इस वक्त हमें सारी जरूरत इस बात की है, जैसा कि यूनिसेफ के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर ने भी कहा है कि जून में जी7 की होने वाली बैठक तक 19 बिलियन डोज की कमी होगी। इसलिए वे जी7 देश, जिन्हें जून जुलाई-अगस्त में वैक्सीन की इतनी जरूरत नहीं होगी, अगर वैक्सीन दान कर दें तो समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बिंदु की तरफ इशारा किया है कि 11 मई तक कोवैक्स में 18.5 बिलियन डॉलर का अंतर है। हमें वित्तपोषण के इस अंतर को जल्द से जल्द पाटना होगा।
उल्‍का ने क्‍लाइमेट फाइनेंस की तात्‍कालिकता और कुछ देशों द्वारा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘यहां मैं यह भी कहना चाहूंगी कि हमें क्लाइमेट फाइनेंस की फौरी जरूरत पर भी जोर देने की जरूरत है। हम पिछले काफी समय से 100 अरब डॉलर के निवेश की प्रतिज्ञा दोहरा रहे हैं। हम निजी पक्षों से क्लाइमेट फाइनेंस हासिल करने की बात भी करते हैं। अगर हम यूएनएफसीसीसी के वर्ष 2018 के आकलन  की बात करें तो जी7 देश क्लाइमेट फाइनेंस प्रवाह में 80% का योगदान करते हैं, इसलिए यह देश ही क्लाइमेट फाइनेंस की प्रतिज्ञा को बना या बिगाड़ सकते हैं। कनाडा, जर्मनी और जापान को अपने पिछले योगदान में दोगुने का इजाफा करना होगा।’’
उन्‍होंने कहा ‘‘अगर साइक्लोन ताउते के बारे में बात करें तो विकासशील देशों में सतत स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है जिसमें स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित लोगों को भी तैयार किया जाना चाहिए। हमें स्वच्छ ऊर्जा की सतत प्रणाली अपनाने की जरूरत है क्योंकि चक्रवाती तूफान में हमारी स्थापित ऊर्जा प्रणाली को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। अस्पतालों के मामले में खास तौर पर यह बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे मरीजों के लिए वेंटिलेटर का संचालन कर रहे हैं। हमें स्थानीय स्तर पर फार्मास्यूटिकल और वैक्सीन उत्पादन क्षमता का निर्माण करना होगा।’’
अफ्रीका सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के उपनिदेशक डाक्टर अहमद आगवेल ऊमा ने टीकाकरण के मामले में अफ्रीका महाद्वीप की धीमी प्रगति की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अफ्रीका में कोविड के कारण होने वाली मौतों की दर वैश्विक औसत दर से ज्यादा है। जाहिर है कि हमें इस महामारी से बचने के लिए अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा। वैक्सीन की बात करें तो अफ्रीका महाद्वीप के पास 38 मिलियन डोज ही उपलब्ध है और इसमें से भी मात्र 60% डोज ही लोगों को लगाई गई है। अगर हम पूरे परिदृश्य को देखें पूरी दुनिया में एक अरब डोज वितरित की गई हैं। वहीं, अफ्रीका महाद्वीप इस मामले में बहुत पीछे है। ‘वैक्सीन नेशनलिज्म’ अफ्रीका में कोविड-19 महामारी को रोकने की राह में बाधा पैदा कर रहा है। वे सभी देश जो अपनी सीमाओं के अंदर वैक्सीन का निर्माण कर रहे हैं उन्हें वैक्सीन का निर्यात नहीं रोकने चाहिए क्योंकि ऐसा करके वे अफ्रीका महाद्वीप के 1.3 बिलियन नागरिकों की सुरक्षा को दांव पर लगा रहे हैं। प्रधानमंत्री अब्राहम के शब्दों को दोहराएं तो अगर हमने साथ मिलकर काम नहीं किया तो दुनिया का कोई भी हिस्सा सुरक्षित नहीं रह पाएगा।
ऊमा ने वैक्‍सीन के पर्याप्‍त मात्रा में उत्‍पादन और उसके समानतापूर्ण वितरण की जरूरत पर जोर देते हुए कहा ‘‘जैसा कि अगले महीने जी7 की बैठक आयोजित हो जा रही है, ऐसे में अफ्रीका उन सभी देशों का आह्वान करता है जिनके पास यह सुनिश्चित करने की क्षमता है कि वे पर्याप्त मात्रा में वैक्‍सीन का उत्पादन और उसका समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित कर सकते हैं। ऐसा नहीं करने को राजनीतिक और नैतिक विफलता माना जाएगा। हम पूरी दुनिया में वैक्सीन के समानतापूर्ण वितरण की तरफ देख रहे हैं। मैं ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का आह्वान करता हूं कि उदारता का गुण इस मुश्किल वक्त में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक मुद्दा है। जी7 की बैठक में प्रधानमंत्री के सामने नेतृत्व करने का अवसर है। हम उम्मीद करते हैं कि वर्ष 2022 के अंत तक दुनिया में दो बिलियन डोज वितरित की जाएंगी। हम यह भी आशा करते हैं कि इस साल पूरी दुनिया में कम से कम एक बिलियन डोज वितरित की जाएंगी ताकि सबसे ज्यादा जोखिम में रहने वाले लोगों को टीका मिलना सुनिश्चित हो सके।’’
उन्‍होंने कहा कि अफ्रीका के लिए हमने कम से कम 60% लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है ताकि जिंदगी को पहले की तरह सामान्य बनाया जा सके। हालांकि यह पहले की जैसी नहीं रहेगी लेकिन कम से कम हम सामान्य आर्थिक गतिविधियों की तरफ लौटना चाहेंगे। मेरी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से गुजारिश है कि जी7 की बैठक में इस बिंदु को पूरी शिद्दत से रखा जाए। इस वक्त वैक्सीन की उपलब्धता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह न सिर्फ नैतिक रूप से जरूरी है बल्कि यह लोगों को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीका भी है। अगर हमने दुनिया के किसी भी एक हिस्से, खासतौर पर अफ्रीका को वैक्सीनेशन से महरूम रखा तो इसका मतलब होगा कि हम वायरस की किसी नयी किस्‍म को दावत देंगे जो हो सकता है कि वैक्सीन को भी बेअसर कर दे और पूरी दुनिया पर उसका खतरा मंडरा जाए। लिहाजा हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि दुनिया के हर एक व्यक्ति को वैक्‍सीन लग जाए। ऐसा करके ही हम अपने जीवन को दोबारा पटरी पर ला सकते हैं।
विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन में पब्लिक हेल्‍थ, एनवायरमेंट एण्‍ड सोशल डेटरिमेंट्स ऑफ हेल्‍थ डिपार्टमेंट की निदेशक डॉक्‍टर मारिया नीरा ने जी7 की बैठक में जलवायु के प्रति अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर देते हुए कहा कि इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्‍वास्‍थ्‍य सम्‍बन्‍धी फायदे भी होंगे।
उन्‍होंने कहा ‘‘जब हम वैक्सीन की बात करते हैं तो उसके समानता पूर्ण वितरण का बिंदु सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। वैक्‍सीन से जुड़े कई अहम मसले हैं जिनमें वाणिज्यिक आदान-प्रदान, प्रौद्योगिकी के पहलू और उत्पादन लाइसेंसिंग इत्यादि प्रमुख हैं। इस मुश्किल समय में भी हमारे पास विचार विमर्श करने के लिए कई अच्छे और अहम बिंदु हैं।’’
मारिया ने कहा कि जी7 की बैठक में जलवायु के प्रति और अधिक सतत नीतियां बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए। महामारी के इस दौर में जलवायु संकट पर और भी ज्यादा बल दिए जाने की जरूरत है क्योंकि अगर आप जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान करते हैं तो इससे बहुत बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संबंधी लाभ पैदा होंगे। हमें क्लाइमेट फाइनेंसिंग पर और भी ज्यादा ध्‍यान देना होगा क्‍योंकि महामारियों में भी जलवायु की बहुत बड़ी भूमिका होती है। 

फिलिस्‍तीन के प्रति भारतीय मुसलमानों का क्‍यों उमड़ रहा प्रेम?

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इजराइयल और फिलिस्तीन की लड़ाई का भारतीय मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं, एक बार को समझ आता कि इजराइल में भारतीय मुसलमान जो काम करने गए हैं उन पर अत्‍याचार हो रहा है, तब यदि भारत में इजराइल के खिलाफ विरोध होता, तो कुछ समझ आता। किंतु जब कोई इस मामले से भारतीय मुसलमानों का सीधा संबंध ही ना हो और भारत के मुसलमानों में एक बड़ी जमात इजराइल का विरोध करती नजर आए तो अनेक प्रश्‍न खड़े होते हैं ?

वस्‍तुत: यहां कई घटनाएं तेजी से पिछले एक सप्‍ताह में घटी हैं, इनमें ये यदि दो घटनाएं जोकि पिछले सप्‍ताह से चल रहे इजराइल और फिलिस्‍तीन के आपसी झगड़े के बीच सामने आई हैं, उन्‍होंने खास तौर से फिर सोचने पर मजबूर किया है कि इन तमाम मुसलमानों की भक्‍ति किस ओर है? कायदे से होना क्‍या चाहिए था ? हम सभी जानते हैं कि इजरायल विरोधी प्रदर्शनों पर जम्मू कश्मीर पुलिस ने सख्त रुख अपनाया हुआ है, इसके बाद भी पुलिस को श्रीनगर के पादशाही बाग इलाके से 18 साल के एक युवक मुदासिर गुल को इसलिए गिरफ्तार करना पड़ा है क्‍योंकि उसने फिलिस्तीन के समर्थन में वॉल पेंटिंग बनाईं ।

जम्‍मू-कश्‍मीर के कई इलाकों में इस्‍लामिक लोगों ने इजरायल के विरोध में प्रदर्शन किए। इजरायल विरोधी नारेबाजी के दौरान इजरायल ध्वज भी जलाने की घटनाएं घटीं। प्रदर्शनकारियों ने इजरायल को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकी देश ठहराया। फिर इजराइली कंपनियों का विरोध किस तरह करना है, उसका असर उत्‍तर प्रदेश में कुछ इस तरह दिखा कि कानपुर के समाजवादी पार्टी नेता डॉ. इमरान, नाफुद्दीन, आबिद हसन इरानी और जफरखांन के साथ मुनाउद्दीन ने सार्वजनिक पोस्‍टर तक लगवा दिए ।

देश में टीपू सुल्तान पार्टी की तरफ से ट्वीट किए जा रहे हैं। एक मोहम्मद जाहिद ने आप नेता अमानतुल्ला खान को कोट करते हुए लिखा, “हम मस्जिद ए अक्सा की ओर उठने वाले हर नापाक हाथ को काट डालेंगे, ये याद रखना मस्जिद ए अक्सा कोई इमारत नहीं है, यह हमारे दिल की धड़कन है। जब तक ये है तो हम हैं, अगर ये नहीं तो हम भी नहीं।” यहां यह भी जान लें कि आम आदमी पार्टी के नेता के जिस ट्वीट को जाहिद ने कोट किया था, उसमें लिखा था, “हम फ़िलिस्तीन पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हैं। जिस तरह इजरायल फ़िलिस्तीन के लोगों पर बम बरसा कर मासूम जिंदगियों को तबाह कर रहा है। यह नाकाबिले बर्दाश्त है। ये इस्लाम विरोधी ताकतें एक दिन नेस्तानाबूद होंगी। हिंदुस्तान इस मुश्किल घड़ी में फ़िलिस्तीन के साथ है।”

ऐसा ही एक ट्वीट मालेगांव के एआईएमआईएम विधायक मुफ्ती इस्माइल कासमी को उद्धृत कर लिखा गया। कासमी ने अपने ट्विटर हैंडल से एक ट्वीट पोस्ट किया था जिसमें उन्होंने यूएन से दारुल उलूम देवबंद की माँग पर इजरायल को आतंकवादी राज्य घोषित करने का आग्रह किया है । इसी प्रकार से कुछ ऐसे भी भारतीय मुसलमान हैं जो सीधे सोशल मीडिया पर भारत में यहूदियों को धमकाते हुए भी दिखाई दे रहे हैं । अब मामला यह है कि भारत के इन तमाम मुसलमानों की फिलिस्‍तीन भक्‍ति बाहर क्‍यों आ रही है, जबकि होना यह था कि देश में कोई भी हो वह भारत का मुसलमान हो या हिन्‍दू उसे या तो तटस्‍थ रहकर फिलिस्‍तीन-इजराइल झगड़े को देखना चाहिए या फिर बहुत ही ताकत के साथ खड़े होकर इजराइल का मनोबल बढ़ाना चाहिए।

गोया कोई पूछ सकता है कि क्‍यों खड़ा होना चाहिए भारत के लोगों को इजराइल के पक्ष में ? इसका सिर्फ एक उत्‍तर हो सकता है कि जो आपके बुरे दौर में भी साथ दे, उसका ऋण उतारने का जब-जब अवसर मिले तब उसके लिए हमेशा आगे रहना चाहिए। भारत और इजराइल के संबंध भी कुछ ऐसे ही हैं। इन तथ्‍यों से इतिहास भरा पड़ा है कि एक छोटे से देश इजराइल के भारत पर कितने अधिक एहसान हैं। कारगिल के युद्ध में जब किसी देश ने हमारी मदद नहीं की तब इजरायल वह इकलौता देश आगे आया जिसने भारत को लेजर गाइडेड मिसाइल देते हुए एक सच्चे मित्र की भूमिका निभाई।

वर्तमान में कृषि क्षेत्र के अंतर्गत इजराइल के सहयोग से रेनवाटर हार्वेस्टिंग (जल संरक्षण) की टेक्नोलॉजी के साथ ही सब्जी और फलों की उत्पदकता बढ़ाने के लिए उत्कृष्टता केंद्रों की स्थापना भारत में की जा रही है। इजराइल ड्रिप इरीगेशन की टेक्नोलॉजी भारत को देने जा रहा है । इससे बुंदेलखंड के साथ ही महाराष्ट्र और राजस्थान के उन क्षेत्रों को फायदा होगा, जहाँ सिचाई के लिए सीमित जल उपलब्ध है।

प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की पहल पर इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू इस बात पर सहमत हुए हैं कि उनकी रक्षा कंपनियाँ ‘मेक इन इंडिया’ के तहत भारत में उत्पादन करेंगीं और उच्‍च आयुध टेक्नोलॉजी को भारत के साथ साझा करेंगी। इजराइल ने भारत को बराक मिसाइल के साथ ही फाल्‍कॉन हवाई पूर्व चेतावनी और नियंत्रण सिस्‍टम उपलब्ध करवाया है। इसी प्रकार स्टार्टअप में सहयोग और आतंकवाद का मुकाबला आदि अनेक मामलों में सतत भारत को सहयोग इजराइल से मिल रहा है। ऐसे में जो भारतीय मुसलमान आज इजराइल के विरोध में दिखाई दे रहे हैं, क्‍या उसे कहीं से भी सही माना जा सकता है?

दूसरा जो फिलिस्‍तीन के ‘हमास’ ने किया क्‍या वह सही था, दुनिया जानती है कि ‘हमास’ एक आतंकी संगठन है । हमास का मतलब है ‘हरकत उल मुकवामा अल इस्लामिया’। वस्‍तुत: यह फिलिस्तीन का सामाजिक-राजनीतिक आतंकवादी संगठन है जो मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा के रूप में 1987 में स्थापित किया गया था। इसे आत्मघाती हमलों के लिए जाना जाता है। इस आतंकवादी संगठन को इजरायली सरकार और नागरिकों के खिलाफ अपने अभियान में हिज़्बुल्लाह लेबनान आतंकवादी संगठन का समर्थन भी हासिल है। यह अपने हमलों में बेहिचक छोटे बच्‍चों एवं महिलाओं को हथियार के रूप में उपयोग करता आया है। अब यहां विचार करिए कि जो भारत में मुसलमान इस संगठन का समर्थन कर रहे हैं, वह क्‍या प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष रूप से आतंकवाद का समर्थन नहीं कर रहे हैं?

चलो थोड़ी देर के लिए इस बात को छोड़ भी दें, तो जो तथ्‍य निकलकर सामने आए हैं, उसमें भी घटना की शुरुआत यरुशलम स्थित अल-अक्सा मस्जिद से बाहर से फिलिस्तिनियों द्वारा इजरायलियों पर फेंके गए पत्थरों के बाद से शुरू हुई है। संघर्ष के दूसरे दिन हमास ने इजरायल पर 300 रॉकेट दाग दिए। इस हमले में एक भारतीय महिला सौम्या संतोष की भी मौत हुई है। तब से अब तक हमास ने इजरायल पर 4,000 से ज्यादा रॉकेट दागे हैं। ‘हमास’ ने पहली बार अय्याश 250 मिसाइल का इस्तेमाल किया है, जिसकी क्षमता 250 किलोमीटर तक मार करने की है। ये अलग बात है कि इजरायल के मजबूत मिसाइल रोधी सिस्टम आयरन डोम ने 90 फीसदी रॉकेट हमलों को डिफ्यूज यानी नाकाम कर दिया है।

बात सिर्फ इतनी है कि कोई यदि हमला करे तो क्‍या करना चाहिए? क्‍या चुपचाप रहना चाहिए और सहना चाहिए? जब बैठे बिठाए 300 रॉकेट फिलिस्‍‍तीनियों की ओर से ‘हमास’ छोड़ेगा तब ऐसे में क्‍या इजराइल को अपनी सुरक्षा के लिए कुछ नहीं करना चाहिए था? ये ऐसे प्रश्‍न हैं जिनके उत्‍तर में निश्‍चित ही यही कहा जाएगा कि जैसे एक व्‍यक्‍ति को अपनी स्‍वतंत्रता प्रिय है वैसे ही एक देश को भी यह अधिकार है कि यदि पड़ौसी देश बार-बार आगे होकर झगड़ने आ रहा हो तो उसका ठीक से प्रतिकार करे। आज इजराइल बदले में वही कर रहा है। काश, अच्‍छा हो कि भारतीय मुसलमान भी इस बात को समझें कि देश से बड़ा धर्म नहीं होता, जो हमारे देश का हितैषी वह हमारा मित्र।

मां गंगा के आंचल को कोरोना काल में किया जा रहा दूषित

सोनम लववंशी

जिस गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने की कसमें हमारे हुक्मरान आएं दिन खाते हैं। दुर्भाग्य देखिए वह श्मशान घाट में तब्दील हो चुकी है। कोरोना काल से पहले व्यक्ति के मृत्यु के बाद अस्थि की राख गंगा में प्रवाहित करने की हमारी परंपरा थी, लेकिन शासन-प्रशासन की नाकामी देखिए कि कोरोना काल में गंगा मैया के आंचल को ही श्मशान में तब्दील कर दिया गया है। माँ के आंचल से सिर ढ़ककर लेटने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन अब तो माँ गंगा को ही श्मशान में तब्दील करके उनकी पवित्रता को ठेस पहुंचाई जा रही है। ऐसे में एक प्रश्न तो यही क्या गंगा को श्मशान में तब्दील करके स्वच्छ बनाया जाएगा? देश में वैसे भी स्वच्छ जल की काफ़ी कमी है। ऊपर से गंगा जैसी पवित्र कहलाने वाली नदियों की अनदेखी और अब कोरोना काल मे श्मशान में तब्दील होता उनका किनारा कई सवाल खड़ें करता है, लेकिन उनका जवाब कौन देगा? इसका पता नहीं।

कोरोना महामारी भले कितनी भी विकराल क्यों न हो, लेकिन यह तो स्पष्ट है इस धरा क्या हमारे देश से भी मानव जीवन का अस्तित्व तो मिटने से रहा। ऐसे में जल तो जीवन का आधार है। फ़िर उसकी बर्बादी किसलिए? पानी की ज़रूरत कोरोना महामारी से पहले भी थी, आज भी है और बाद में भी होगी। फ़िर उसके स्रोतों को सहेजने की सार्थक कोशिश क्यों नहीं दिखती? रामायण में कहा गया है कि क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा, पंच तत्व का बना शरीर… इस चौपाई का अर्थ है हमारा शरीर पंचतत्व से मिलकर बना है। इसमे सबसे महत्वपूर्ण जल ही है। जल के बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन हमारा दुर्भाग्य देखिए कि जो जल हमारे जीवन के लिए सबसे उपयोगी है आज हम उस जल को ठीक से सहेज नही पा रहें है। यूं तो समूचा विश्व ही जल संकट के भयाभय दौर से गुजर रहा है। भारत में भी ऐसे कई राज्य है जो गहरे जल संकट के दौर से गुजर रहे हैं। आये दिन जल संकट की तस्वीरें मीडिया जगत की सुर्खियां बन रही है। फिर भी हम जल संरक्षण के प्रति कोई कारगर उपाय आज़तक नही कर पाए है। नीति आयोग की रिपोर्ट की माने तो भारत में 60 करोड़ लोग जल की कमी झेल रहे है। देश में 70 प्रतिशत जल दूषित है। यही वजह है कि पानी गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों की सूची में 120 वें स्थान पर पहुंच गया है।

यह जल संकट की भयावह तस्वीर हमें आईना दिखाने के लिए काफी है। वर्तमान समय में हम जिस ढंग से जल को दूषित कर रहे है निश्चय ही अपने वर्तमान और भविष्य के विनाशक हम स्वयं बन रहे है। देश के जल स्त्रोत प्रदूषण की भेंट चढ़ रहे है। देश मे 86 प्रतिशत जल स्त्रोत, सीवेज प्लांट से भी ज्यादा प्रदूषित है। पृथ्वी पर ताजे पानी का स्त्रोत भी 1 प्रतिशत के निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है। आज हम इतने स्वार्थी हो गए है कि हमें भविष्य की कोई चिंता नही रही है। देश का भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। देश की एक अरब आबादी ऐसे स्थानों पर निवास करती है जहां पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं रहता है। 60 करोड़ लोग न्यूनतम पानी मे गुजारा करने को मजबूर है। इन सबके बावजूद हम कोरोना जैसे कठिन दौर में भी नदियों की आत्मा को प्रदूषित ही कर रहें हैं। फ़िर वह चाहें नदी को श्मशान के रूप में तब्दील करने की बात हो या अन्य। 

कबीर दास जी ने कहा था कि रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरे, मोती, मानस, चून।।लेकिन वर्तमान समय मे इसका उल्टा होते दिखाई दे रहा है। पृथ्वी पर समस्त भू भाग के दो तिहाई भाग में जल है। लेकिन वही पीने के पानी की बात करे तो मात्र तीन प्रतिशत ही जल पीने लायक रह गया है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में धरती को माँ का दर्जा दिया गया है। इस धरा में मौजूद संसाधन सभी प्राणियों को समान रूप से मिले है। प्रकृति में उपलब्ध संसाधन जल, नदी, पहाड़, खनिज सम्पदा और वन पर सभी का समान अधिकार है। बिना किसी संवैधानिक और राजनीतिक हस्तक्षेप के हम इन संसाधनों का उपयोग करके अपना विकास तो कर सकते है पर चाहे भी तो इन प्रकृति प्रदत बहुमूल्य संपदाओं में वृद्धि नहीं कर सकते है। फिर क्यों हम इनका संरक्षण नही कर पाते है। आज ब्लू प्लेनेट मानवीय लालसा और लापरवाही के कारण विनाश की कगार पर खड़ा है। वहीं सरकारी तंत्र की लापरवाही और संवेदनहीनता इस दर्द को औऱ बढ़ा रहा है। जिसे तत्काल प्रभाव से कम करने की आवश्यकता है। वरना हम आज कोरोना से लड़ रहें, कल हमारी आने वाली पीढ़ी पानी के लिए लड़ेंगी!

आज मुर्दे भी बोल रहे हैं


आज मुर्दे भी मुख खोल रहे हैं,
अपने मन की पीड़ा खोल रहे हैं।
हुआ है उनके साथ बहुत अन्याय,
सबकी वे अब पोल खोल रहे हैं।।

मिली नहीं अस्तपतालो में जगह,
आक्सीजन के लिए भटक रहे थे।
हो रही थी दवाओं की काला बाजारी,
दवाओ के लिए हम तड़फ रहे थे।।

मिला नहीं चार कंधो का सहारा,
एम्बुलेंस की राह हम देख रहे थे।
श्मशान में भी जगह न मिली थी,
संस्कार के लिए जगह देख रहे थे।।

मिले थे हमको कफ़न चोर भी,
वो हमारा कफ़न भी लूट रहें थे।
बेचारे घर वाले भी क्या करते,
वे सबके वहां हाथ जोड़ रहे थे।।

मिली नहीं लकड़ी भी हमको,
गंगा में ही हमें वहां बहा रहे थे।
कहते किससे ये सब बातें हम,
अपने आपको हम कोस रहे थे।।

नंगे खुले थे सब अंग वहां हमारे,
पशु पक्षी हमको सब नोच रहे थे।
ऐसी कभी नहीं देखी थी दुर्दशा,
अपने आप में ही हम रो रहे थे।।

हुआ ये सब कोरोना के कारण,
किसी को हम दोष नहीं दे रहे हैं।
कभी न हो ऐसी दुर्दशा किसी की,
ये कटु सत्य हम सबको बता रहे हैं।।