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आर्य कोई जाति नहीं यह एक समाज रहा है

—विनय कुमार विनायक
आर्य कोई जाति नहीं
यह एक समाज रहा है प्रारंभ से हीं!

जैसे कि आज भी दयानंद स्थापित
आर्य जाति नहीं कोई, एक आर्य समाज रहा है!

आर्य,द्रविड़,तुर्क,भोज,म्लेच्छ हैं संतति,
आर्य चन्द्रवंशी क्षत्रिय पुरुरवा प्रपौत्र ययाति की!

मूल आर्य समाज के संस्थापक,
अदिति-कश्यप संतति आदित्य विवश्वान सूर्य के पुत्र
वैवस्वत मनु और उनके बेटी-जमाता इला और बुध थे!

आर्य समाज ने आरंभ की थी पितृसत्तात्मक सृष्टि,
आर्य समाज के पूर्व सृष्टि मातृसत्तात्मक प्रकार की थी!

मातृसत्तात्मक सृष्टि चली थी
दक्ष की बारह पुत्री और दक्ष जमाता कश्यप ऋषि से!

दक्ष प्रजापति ने बारह कन्या अदिति,दिति,दनु आदि
सप्त ऋषियों में से एक मरीचिपुत्र कश्यप को ब्याही थी!

दक्ष कन्या अदिति व कश्यप के पुत्र आदित्य कहलाते,
इसी तरह दिति और कश्यप संतति दैत्य जाति कहलाती,
दनु और कश्यप की संतान दानव जाति कहलाती रही!
कद्रू-कश्यप की नाग,विनता और कश्यपवंशी वैनतेय कहलाते!

आदित्य, दैत्य,दानव आदि आपस में
एक पिता और अनेक माता की संतान दायाद बांधव थे!

मातृसत्तात्मक समाज की विकृति,
दायाद बांधवों में लड़ाई और पतन को यादगार
वैवस्वत मनु ने इच्छवाकु आदि पुत्रों के लिए
स्वपिता सूर्य के नाम से सूर्य कुल और पुत्री इला के
पुत्र पुरुरवा को उनके पितामह चन्द्र के नाम
चन्द्रवंशी आर्य कुल समाज का संबोधन दिया!

वैवस्वत मनु प्रथम आर्य राजा,प्रथम कर ग्रहण कर्ता,
प्रथम नगर निर्माता, आर्यावर्त के राज्य व्यवस्थापक थे,
मनु ने सरयू तट पर सूर्य वंशी गद्दी अयोध्या नगरी
और बुध ने चन्द्र वंशी गद्दी गंगा यमुना तट पर
प्रतिष्ठानपुर नगरी बसाकर दोनों ने वर्ण व्यवस्था अपनाई!

वैवस्वत मनु के पुत्र और दौहित्र ही प्रारंभिक आर्य थे,
कृण्वन्तो विश्वमार्यम एक अभियान मानव पिता मनु का!
कोई जरूरी नहीं कि एक मां-पिता की सब संतान आर्य हो,
आर्य कोई पारिवारिक संस्था नहीं थी
बल्कि किसी को आर्य होने और नहीं होने की छूट थी!

जैसे आज पंजाब में ज्येष्ठ पुत्र सिख,बांकी हिन्दू होते!
आर्य सभ्य सुसंस्कृत श्रेष्ठ जन को कहे जाते थे,
जैसे अनुज विभीषण आर्य,अग्रज रावण अनार्य थे!
जैसे भांजे कृष्ण-बलराम आर्य मामा कंस असुर थे!

कालांतर में सभी क्षत्रिय-वैश्य श्रेष्ठी आर्य कहलाने लगे!
पर सूर्यवंशी व चंद्रवंशी में आर्य कहने की लंबी परंपरा रही
ऋषि मारीचि कश्यप और ऋषि अत्रि के गोत्रज परंपरागत
क्रमशः सूर्य वंशी और चन्द्र वंशी आर्य कहे जाते रहे हैं!

आत्रेय चन्द्र के पुत्र बुध,बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु,
आयु से नहुष, नहुष से ययाति एक महान आर्य सम्राट हुए,
जिनका विवाह भृगुवंशी ब्राह्मण शुक्राचार्य कन्या देवयानी
और गांधर्व विवाह दानवराज वृषपर्वा पुत्री शर्मिष्ठा से हुई थी!

एक दिन उद्यान भ्रमण में भेद खुला और देवयानी जान गई,
उनकी शर्तिया दासी शर्मिष्ठा व ययाति के बीच दाम्पत्य रिश्ते को!
फलतः देवयानी ने पति ययाति की शिकायत पिता से कर दी
असुर याजक शुक्राचार्य ने जमाता को वृद्ध होने का शाप दिया!

तत्क्षण शाप फलीभूत हुआ और ययाति वृद्ध हो गए
शाप के असर से युवा देवयानी दाम्पत्य सुख से वंचित हो गईं,
इससे खेद हुआ शुक्राचार्य को और ययाति के शाप में सुधार किया,
बड़े पुत्रों के मुकर जाने पर छोटे पुत्र पुरु ने पिता को यौवन उधार दिया!
खुश होकर ययाति ने पुरु को मुख्य राजगद्दी उपहार दिया!

फिर रोष में आकर अन्य पुत्रों को शापित कर धिक्कार दिया,
देवयानी से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र यदु को युवराज पद से च्युत कर
कृषि, पशुपालन, वणिक व्यवसाय कर्म का प्रभार दिया!

ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंशज आज कृषि गोपालन करते,
दूसरे पुत्र तुरुष्क को तुर्क कहकर तुर्किस्तान का राज दिया,
तीसरे पुत्र द्रहयु को शापित कर बनाया द्रविड़ जाति का जन्मदाता,
जो आज भी हैं दक्षिण में, उत्तर भारत से पूरी तरह लापता!

चौथे पुत्र अनु को शापित कर
उसे कहा आनव भोज-म्लेच्छ-यवन जातियों का कुलपिता!

ये अंत:साक्ष्य है आर्य, द्रविड़,तुर्क भोज-म्लेच्छ-यवन का
एक वंश,जाति,गोत्र में जन्म लेने का ऐतिहासिक पता!
बाह्यसाक्ष्य मार्क्सवादियों की किताब, संस्कृत ग्रंथों के
पश्चिमी देशों के अनुवाद के पीछे दौड़ने से कुछ लाभ नही होता!
—विनय कुमार विनायक

जिंदगी


डॉ. शंकर सुवन सिंह

सुबह होती है रात होती है|
हर दिन यूँ ही खुली किताब होती है|
किताब के हर पन्ने पे,वही अध्याय होता है|
हर अध्याय में,वही दैनिक दिनचर्या होती है|
सुबह होती है,रात होती है|
हर दिन यूँ ही खुली किताब होती है|
वक़्त न जाने किस मोड़ पे,किताब की जगह कॉपी दे दे|
सारे कर्मों का लेखा जोखा भरना पड़े|
और वो हिसाब दे दे|
सुबह होती है रात होती है|
हर दिन यूँ ही खुली किताब होती है|
मुर्दाओं की बस्ती में,जिंदगी तरसती है|
यहां हर एक चीज,जीवन से सस्ती है|
सुबह होती है,रात होती है|
हर दिन यूँ ही खुली किताब होती है ||

देश में स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने हेतु किए जा रहे हैं विशेष प्रयास

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान देश के अस्पतालों पर स्पष्ट रूप से अधिक दबाव देखा गया था। कई शहरों के अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित मरीजों के लिए बिस्तरों का अभाव होने लगा था तो कई शहरों में ऑक्सिजन उपलब्धता में कमी हो गई थी, रेमिडिसिवेर नामक दवाई का भी अभाव हुआ था तथा प्लाज़्मा की मांग एकाएक बढ़ने से इसकी उपलब्धता में भी कमी हो गई थी। कुल मिलाकर ऐसा महसूस होने लगा था कि देश में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाएं शायद पर्याप्त नहीं हैं। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य क्षेत्र में और अधिक सुविधाएं उपलब्ध कराना अब आवश्यक हो गया है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने दिनांक 5 मई 2021 को कुछ विशेष घोषणाएं की हैं ताकि देश में कोविड महामारी से सबंधित स्वास्थ्य सम्बंधी बुनियादी ढांचे को तेजी के साथ विकसित किया जा सके। इन घोषणाओं के अनुसार, अब बैंकों द्वारा स्वास्थ्य सम्बंधी बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के उद्देश्य से अधिक ऋण उपलब्ध कराया जा सके इस हेतु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 50,000 करोड़ रुपए की राशि विभिन्न बैंकों को रेपो दर पर (वर्तमान में 4 प्रतिशत) तीन वर्षों के लिए उपलब्ध कराई जाएगी एवं बैंक इस व्यवस्था का लाभ 31 मार्च 2022 तक उठा सकेंगे। इस योजना के अंतर्गत प्राथमिकता वाले चिकित्सा उपरकणाों के आयातकों व आपूर्तिकर्ताओं, अस्पतालों, डिस्पेंसरियों, पैथोलॉजी लैब, ऑक्सीजन एवं वेंटिलेटर विनिर्माताओं और आपूर्तिकर्ताओं तथा कोविड की दवाओं के आयातकों और लॉजिस्टिक फर्मों एवं मरीजों को उपचार के लिए बैंकों द्वारा ऋण उपलब्ध कराया जा सकता हैं। इस प्रकार के ऋणों को प्राथमिक क्षेत्र के ऋण की श्रेणी में रखा जाएगा। प्राथमिक क्षेत्र के ऋण के लिए बैंकों को नकदी आरक्षी अनुपात या सांविधिक तरलता अनुपात बरकरार रखने की जरूरत नहीं होती है और यह कर्ज रियायती दर पर उपलब्ध होता है।

साथ ही, भारतीय रिजर्व बैंक ने लघु वित्त बैंकों को लम्बी अवधि के विशेष रेपो संचालन में भाग लेने की छूट प्रदान कर दी है ताकि ये बैंक सूक्ष्म, लघु एवं असंगठित क्षेत्र के संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान करने में सक्षम हो सकें। इस सुविधा के साथ अब लघु वित्त बैंक, लघु सूक्ष्म वित्त संस्थाओं, जिनके परिसंपतियों का आकार 500 करोड़ रुपए का है, को भी वित्त प्रदान करने के लिए अधिकृत किया गया है। भारतीय रिजर्व बैंक विशेष रूप से लघु वित्त बैंकों के लिए 10,000 करोड़ रुपए का, रेपो की दर (वर्तमान में 4 प्रतिशत) पर, 3 वर्ष की लम्बी अवधि का एक विशेष रेपो संचालन करेगा।

इसी तरह के उपाय, कोरोनो महामारी के प्रथम लहर के दौरान, 27 मार्च 2020 को भी भारतीय रिजर्व बैंक ने किए थे। उस समय पर भारतीय रिजर्व बैंक ने आर्थिक गतिविधियों को चुस्त दुरुस्त बनाए रखने के उद्देश्य से सिस्टम में तरलता बनाए रखने के लिए एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि के पैकेज की घोषणा की थी। यह अपने आप में बहुत बड़ी घोषणा थी। अब फिर से कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान, विशेष रूप से स्वास्थ्य क्षेत्र को 50000 करोड़ रुपए की तरलता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह घोषणा की है।

देश में तरलता की स्थिति में सुधार होने के बाद अक्सर बैंकों में आत्मविश्वास का स्तर बढ़ता है एवं वे अधिक ऋण प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। विशेष रूप से इस नाजुक समय में देश में आपूर्ति प्रबंधन को बनाए रखना जरूरी है अन्यथा की स्थिति में देश में मुद्रा स्फीति की दर बढ़ सकती है। अतः यदि विभिन्न उत्पादों का उत्पादन करने वाली इकाईयों को धन की कमी नहीं आने दी जाती है तो इन उत्पादों का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में होता रहेगा एवं इनकी आपूर्ती सुनिश्चित होती रहेगी। कोविड महामारी की दूसरी लहर का अर्थव्यवस्था पर कम से कम विपरीत प्रभाव हो इस हेतु केंद्र सरकार एवं भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। किसी भी महामारी के बाद उत्पादन क्षमता को बढ़ाना आवश्यक होता है, ऐसा दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वर्ष 1945 में भी देखा गया था, अतः पूंजी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहे इसका प्रयास सरकार एवं केंद्रीय बैंक मिलकर रहे हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा किए जा रहे उक्त उपायों के चलते देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में निश्चित ही सुधार होगा क्योंकि वित्त की उपलब्धता आसान होने से इस क्षेत्र में निजी निवेश भी बढ़ेगा। वर्ष 2021 के जून एवं जुलाई माह में स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश का एक माहौल तैयार हो सकता है, क्योंकि इस क्षेत्र में पर्याप्त मांग भी देश में ही उपलब्ध है। ऑक्सिजन की समस्या हल करने के लिए नए उत्पादन केंद्र विकसित किए जाएंगे। केंद्र सरकार ने इस तरह के कारखाने स्थापित करने की अनुमति पहिले से ही दे दी है, अब भारतीय रिजर्व बैंक पूंजी उपलब्ध करने का प्रयास कर रहा है।

भारतीय रिजर्व बैंक हमेशा ही प्रयास करता रहा है कि देश में पर्याप्त मात्रा में तरलता बनी रहे और बैंक अधिक से अधिक मात्रा में, और आसानी से, उद्योगों को ऋण उपलब्ध कराए, इस हेतु समय समय पर बैंकों को अन्य प्रकार के प्रोत्साहन भी दिए जाते रहे हैं। पिछले वर्ष भी भारतीय रिजर्व बैंक ने, कोरोना महामारी के चलते ऋणियों को अपनी किस्तें एवं ब्याज चुकाने के लिए, अधिस्थगन योजना को मंजूर किया था। इस वर्ष भी कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौर में पुनः यह सुविधा प्रदान की जा रही है। कर्ज अधिस्थगन योजना के तहत ऋणियों की वित्तीय देनदारियों के भुगतान की शर्तों को आसान बनाया जायेगा। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुसार लगभग 3,400 कंपनियां कर्ज अधिस्थगन योजना का लाभ लेने के लिए पात्र होंगी। इन कंपनियों ने बैंकों से लगभग 50,000 करोड़ रुपये का कर्ज ले रखा है। हालांकि, कर्ज अधिस्थगन का विकल्प चुनने वाली कंपनियों की तादाद काफी कम भी रह सकती है, क्योंकि अभी तक कोरोना महामारी की दूसरी लहर का असर कुछ खास क्षेत्रों तक ही सीमित है, लेकिन छोटे कारोबारियों को नुकसान होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। चूंकि, छोटे कारोबारी अभी तक महामारी की पहली लहर से उबर ही नहीं पाये हैं, ऐसे में दूसरी लहर उन्हें ज्यादा तकलीफ दे सकती है। क्रिसिल के मुताबिक खुदरा, आतिथ्य, वाहन डीलरशिप, पर्यटन, रियल एस्टेट क्षेत्र की कंपनियों आदि पर महामारी का सबसे अधिक असर पड़ेगा। दूसरी तरफ रसायन, दवा, डेरी, सूचना व प्रौद्योगिकी और एफएमसीजी क्षेत्र की कंपनियों पर महामारी का कोई खास असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि इन क्षेत्रों की कंपनियों के उत्पादों की मांग में कमी नहीं आई है, इसलिए इन क्षेत्रों की कंपनियां कर्ज अधिस्थगन के विकल्प का चुनाव नहीं भी कर सकती हैं।

हालांकि देश में इस वर्ष अच्छे मानसून की सम्भावनाओं के साथ ही कृषि उत्पादन की स्थित ठीक रहने की सम्भावनाएं अब बढ़ गई हैं और इस तरह खाद्य पदार्थों की आपूर्ती की अधिक चिंता नहीं होगी जिसके कारण अंततः मुद्रा स्फीति पर अंकुश बना रहेगा और भारतीय रिज़र्व बैंक को रेपो रेट में वृद्धि करने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। अतः देश में अब सुगम मौद्रिक नीति जारी रहने की प्रबल सम्भावनाएं बन रही हैं।

कोरोना महामारी के काल में केंद्र सरकार ने भी देश में नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया था। देश के जिन इलाकों में ऑक्सिजन एवं दवाईयों की कमी महसूस की गई थी वहां रेल्वे एवं हवाई मार्ग से बहुत ही तेजी के साथ इन पदार्थों को उपलब्ध कराया गया था। विश्व के अन्य कई देशों ने भी आगे आकर भारत को इस दौरान ऑक्सिजन, दवाईयां एवं वेक्सीनेशन उपलब्ध कराने में सराहनीय योगदान दिया है। साथ ही केंद्र सरकार गरीब लोगों के लिये मुफ्त राशन की योजना भी चला रही है, ताकि देश के गरीब नागरिकों को इस आपदा के दौरान खाद्य सामग्री की कोई कमी नहीं हो। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के माध्यम से वर्ष 2020 के 8 महीनों तक गरीबों को मुफ्त राशन प्रदान कराया गया था। इस साल भी देश के 80 करोड़ से ज्यादा जरुरतमंदों को मुफ्त में राशन उपलब्ध कराया जा रहा है। इसी प्रकार 14 मई 2021 को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की आठवीं किस्त का वितरण किया गया। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के तहत केंद्र सरकार प्रत्येक किसान परिवार को हर साल 6,000 रुपए प्रदान करती है। यह राशि 2,000 रुपए की तीन समान किस्तों में उपलब्ध करायी जाती है। प्रत्येक 4 महीने के बाद यह सम्मान राशि सीधे किसानों के बैंक खाते में अंतरित की जाती है। इस योजना के अंतर्गत अब तक 11 करोड़ किसानों के खातों में 1.35 लाख करोड़ रुपए की राशि अंतरित की जा चुकी है।

शह-मात के खेल में जीता नेपाली संविधान

श्याम सुंदर भाटिया

पड़ोसी मुल्क में डेढ़ बरस की नूरा कुश्ती के बाद अंततः एक बार फिर नेपाल मिड टर्म पोल के मुहाने पर आ गया। नेपाल की प्रेसिडेंट बिद्या देवी भंडारी ने सभी दलों को सरकार बनाने का मौका दिया ताकि मध्यावधि चुनाव को टाला जाए लेकिन रूलिंग पार्टी समेत सभी दल साझा या एकल सरकार के गठन में नाकाम रहे तो प्रेसिडेंट ने 21 मई की देर शाम संसद भंग करते हुए नवंबर में तय तिथियों में चुनाव का ऐलान कर दिया। हालांकि इससे पूर्व एक बार फिर प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और विपक्षी दलों ने सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर सरकार बनाने का दावा किया था। चूंकि कुछ सांसदों के नाम इन दोनों पत्रों पर कॉमन थे,इसीलिए राष्ट्रपति भंडारी ने बड़ा फैसला लेते हुए प्रतिनिधि सभा – संसद को भंग कर दिया। नेपाल में अब 12 और 19 नवंबर को चुनाव होंगे। सूत्र बताते हैं,ओली ने भी पहले ही संसद में अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने में अनिच्छा जता दी थी,हालांकि ओली को 30 दिनों में बहुमत सिद्ध करना था। यह कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए, पीएम के मंसूबों पर पानी फिर गया है। सच मानिए,नेपाल में पेंडुलम की मानिंद सियासत को अब कड़ा इम्तिहान देना होगा,क्योंकि संविधान बनने के बाद नेपाल में गठबंधन की सियासत तो फेल हो गई है।

पीएम ओली और चार बार नेपाल के पूर्व पीएम रहे शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में विपक्षी दलों दोनों ने ही राष्ट्रपति भंडारी को अपने – अपने हक में समर्थक सांसदों के हस्ताक्षर वाले पत्र सौंपकर नई सरकार बनाने का दावा पेश किया था। इसके बाद गेंद राष्ट्रपति के पाले में आ गई थी। मगर राष्ट्रपति ने दोनों के दावों को संवैधानिक तराजू पर तौलने के बाद इन्हें खारिज करके मध्यावधि चुनाव का शंखनाद कर दिया। हकीकत यह है, नेपाल का पॉलिटिकल क्राइसिस 21 मई को उस वक्त और गहरा गई थी, जब प्रधानमंत्री ओली और विपक्षी दलों दोनों ने ही राष्ट्रपति को सांसदों के हस्ताक्षर वाले लैटर्स देकर अपनी – अपनी सरकार गठन का दावा ठोंका था। प्रधानमंत्री ओली विपक्षी दलों के नेताओं से कुछ मिनट पहले राष्ट्रपति से मिले। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुसार पुन: प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी सीपीएन-यूएमएल के 121 सदस्यों और जनता समाजवादी पार्टी-नेपाल (जेएसपी-एन) के 32 सांसदों के समर्थन के दावे वाला पत्र सौंपा।इससे पहले नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने 149 सांसदों का समर्थन होने का दावा किया था। देउबा प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करने के लिए विपक्षी दलों के नेताओं के साथ राष्ट्रपति कार्यालय पहुंचे। सत्ता के गलियारों में चर्चा के मुताबिक प्रधानमंत्री ओली ने संसद में अपनी सरकार का बहुमत साबित करने के लिए एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने में 20 मई को अनिच्छा जता दी थी। नेपाली कांग्रेस (एनसी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओइस्ट सेंटर), जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) के उपेंद्र यादव नीत खेमे और सत्तारूढ़ सीपीएन-यूएमएल के माधव नेपाल नीत ग्रुप समेत विपक्षी गठबंधन के नेताओं ने प्रतिनिधि सभा में 149 सदस्यों का समर्थन होने का दावा किया था, जबकि पीएम ओली की माई रिपब्लिका वेबसाइट के अनुसार इन सदस्यों में नेपाली कांग्रेस के 61, सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) के 48, जेएसपी के 13 और यूएमएल के 27 सदस्यों के शामिल होने का दावा किया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार विपक्षी गठबंधन के नेता 149 सांसदों के हस्ताक्षर के साथ सरकार बनाने का दावा करने वाला पत्र राष्ट्रपति को सौंपने के लिए उनके सरकारी आवास शीतल निवास गए। इस पत्र में शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश की गई थी।देउबा (74) नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। चार बार नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वह 1995 से 1997 तक, 2001 से 2002 तक, 2004 से 2005 तक और 2017 से 2018 तक इस पद पर रहे हैं। देउबा 2017 में आम चुनावों के बाद से विपक्ष के नेता हैं। गेंद अब राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पाले में थी, इसीलिए उन्होंने मध्यावधि चुनाव कराने का अंततः बड़ा फैसला लिया है। राष्ट्रपति ने राजनीतिक दलों को नई सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए 21 मई की शाम 5 बजे तक का समय दिया था।सरकार ने 20 मई को राष्ट्रपति भंडारी से सिफारिश की थी कि नेपाल के संविधान के अनुच्छेद 76 (5) के अनुरूप नई सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू की जाए क्योंकि प्रधानमंत्री ओली एक और बार शक्ति परीक्षण से गुजरने के पक्ष में नहीं हैं। प्रधानमंत्री ओली को 10 मई को उनके पुन: निर्वाचन के बाद प्रतिनिधि सभा में 30 दिन के अंदर बहुमत साबित करना था। आशंका थी कि अगर अनुच्छेद 76 (5) के तहत नयी सरकार नहीं बन सकी तो ओली अनुच्छेद 76 (7) का प्रयोग कर एक बार फिर प्रतिनिधि सभा को भंग करने की सिफारिश कर सकते हैं। ओली सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष हैं। उन्हें 14 मई को संविधान के अनुच्छेद 76 (3) के अनुसार नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गयी थी। इससे चार दिन पहले ही वह संसद में विश्वास मत में पराजित हो गये थे। नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा में 121 सीटों के साथ सीपीएन-यूएमएल सबसे बड़ा दल है। इस समय बहुमत सरकार बनाने के लिए 136 सीटों की दरकार है।

बताते चलें, पीएम ओली की सिफारिश पर 20 दिसंबर को राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर दी थी। साथ ही आनन – फानन में 30 अप्रैल और 10 मई को दो चरणों में चुनाव कराने की घोषणा भी कर दी थी। सरकार के इस फैसले के बाद से नेपाल की सियासत में खलबली मच गई थी, लेकिन जारी सियासी उठापटक के बीच सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाहक प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को एक बड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संसद भंग किए जाने के फैसले को पलट दिया था। नेपाल की शीर्ष अदालत में मुख्य न्यायाधीश चोलेंद्र समशेर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग करने के सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल कर दिया था। इसके साथ ही कोर्ट ने 13 दिन के भीतर संसद का सत्र आहूत करने का आदेश दिया। दरअसल अचानक संसद भंग करने के ओली सरकार के फैसले का उन्हीं की पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल प्रचंड और देश की जनता ने भारी विरोध किया था। इसके बाद संसद भंग किए जाने को लेकर अलग-अलग 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं। इन सभी याचिकाओं में संसद को फिर से बहाल करने की मांग की गई थी। इन सभी याचिकाओं पर जस्टिस बिश्वंभर प्रसाद श्रेष्ठ, जस्टिस अनिल कुमार सिन्हा, जस्टिस सपना मल्ल और जस्टिस तेज बहादुर केसी की मौजूदगी वाली पीठ ने 17 जनवरी से 19 फरवरी तक सुनवाई की, जिस पर 20 फरवरी को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था। उल्लेखनीय है, ओली ने 15 फरवरी ,2018 को पीएम की शपथ ली थी। इससे पूर्व ओली और प्रचंड ने सरकार गठन को अपने- अपने दलों का विलय कर दिया था, लेकिन दोनों नेता और दल कभी भी एक – दूसरे को फूटी आंख नहीं भाए। प्रचंड हमेशा यह कहते रहे…एक व्यक्ति – एक पद की सहमति बनी थी,लेकिन ओली पीएम के साथ – साथ संगठन पर भी काबिज हैं। ओली प्रचंड पर सरकार विरोधी रुख और सरकार न चलाने के गंभीर आरोप लगाते रहे हैं।

भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों के बौद्धिक घोटाले अर्थात इतिहास की हत्या, भाग – 3

हिंदू लोग, विशेषकर हिंदू बुद्धिजीवी वर्ग, अपने पर हो रहे चहुंमुखी बौद्धिक हमलों के विरुद्ध किसी ठोस वैचारिक अभियान चलाने या बौद्धिक हमलों का बौद्धिक प्रत्युत्तर देने में प्रायः निष्क्रिय रहा है.

स्वयं के विरुद्ध किए गए किसी के मनगढंत दावे, विवरण या सफेद जूठ को देखकर भी उसे हल्के में लेकर इग्नोर कर देता है. इसका एक ज्वलंत उदाहरण है केंद्रिय या राज्य शिक्षा संस्थानों द्वारा प्रकाशित-प्रचारित और स्कूल-कोलेजों के पाठ्यक्रम में समाविष्ट वे मार्क्सवादी इतिहास पुस्तकें, जिनमें संदिग्ध संदर्भों के आधार पर लिखे गए हिंदू-विरोधी जूठ से लेकर सफेद जूठ तक सब कुछ परोसा जाता रहा है. यह बात भी नहीं है कि उन पुस्तकों के दोष राष्ट्रवादीयों, गैर-मार्क्सवादीयों और हिंदू धर्मवादीयों को मालूम न हो, किंतु उन्होंने इस प्रवृत्ति के विरुद्ध वह बौद्धिक अभियान कभी नहीं चलाया जो मार्क्सवादी इतिहासकारों ने उन किताबों के बदले में दूसरी किताबें लिखवाने के निर्णय मात्र के विरुद्ध चलाया. फिर भी, ऐसा भी नहीं है कि “हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध-जैन मंदिरों के ध्वंस” के मुद्दे पर रोमिला थापर एण्ड कम्पनी को कोई चुनौती नहीं मिली. शुरुआत में आर.सी. मजूमदार, के.एम. पणिक्कर जैसे बुजुर्ग इतिहासकारों ने उभरती मार्क्सवादी इतिहासकारों की फसल को इतिहास विकृतिकरण के विरुद्ध चेतावनी दी थी. बाद में सीताराम गोयल की ओर से भी चेतावनी दी गई थी, लेकिन एक ओर जहाँ उस समय विश्व राजनीति में मार्क्सवाद का दबदबा अभी कायम था, तो दूसरी ओर सीताराम गोयल जैसे विद्वान किसी सत्ता-सम्पन्न पार्टी या सरकारी अकादमिक संस्थाओं से जुडी व्यक्ति नहीं थे. इसलिए “conspiracy of silence” की तकनीक का इस्तेमाल कर उनकी उपेक्षा करके उनके लेखन और विचारों को दबा दिया गया, किंतु जब १९९८ में श्री अरुण शौरी ने ग्राउन्ड-ब्रेकिंग पुस्तक “Eminent Historians” लिखकर मार्क्सवादी इतिहासकारों के लिखे “इतिहास” का ही नहीं, उनके अन्य फ्रोड का भी भाण्डाफोड कर दिया तब बात दबी न रह सकी. इसके दो प्रमुख कारण थे. एक तो प्रामाणिक लेखन में श्री अरुण शौरी का नाम देश-विदेश में स्थापित हो चुका था. दूसरे, दुनिया में मार्क्सवाद का सितारा गर्दिश में पहुंच चुका था. टेलीविजन की बदौलत कोई भी व्यक्ति पुस्तक पढे बिना भी रूस, चीन आदि कम्युनिस्ट स्वर्गों की वास्तविक स्थिति जान सकता था. ऐसी स्थिति में हमारे मार्क्सवादी इतिहासकार भी बचाव मुद्रा (डिफेंसिव मोड) में आने की जरूरत महसूस कर रहे थे. जहाँ पहले मार्क्सवादी लोग अपने आप को “मार्क्सवादी” कहने और कहलाने में गर्व महसूस कर रहे थे, उन्होंनें अब बदलती परिस्थितियों में अपने आप को “सेक्युलर / secular” कहना शुरु कर दिया और अपने मार्क्सवाद को छिपाना-सा शुरु कर दिया! यह इस बात का प्रमाण है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों का इतिहास-लेखन तथ्यों पर आधारित न होकर पार्टी-लाईन पर लिखा गया था.

जब श्री अरुण शौरी की पुस्तक “Eminent Historians” ने भारत के बौद्धिक जगत में तहलका मचाना शुरु कर दिया तब पहले तो इन मार्क्सवादी इतिहासकारों ने वही पुराना अहंकारी और पाखंडी रुख अपनाया कि “यह शौरी कौन है? उसको गंभीरता से लेने का क्या मतलब? वह कोई प्रोफेशनल इतिहासकार तो है नहीं! वह इतिहास लेखन की बारीकियां क्या समझेगा!!” लेकिन उपर उपर से यह कहने वाले, लेकिन अंदर से भयभीत “जानेमाने इतिहासकार” निरंतर मिडिया जगत पर नजर गडाये रहते थे कि शौरी के प्रहार से कोई तो उनका बचाव करने के लिए मैदान में उतरें!! यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि देश का कोई और इतिहासकार अरुण शौरी की पुस्तक के विरुद्ध मार्क्सवादी इतिहासकारों का बचाव करने को खडा न हो सका. इसका कारण बिलकुल सीधा और स्पष्ट है: श्री अरुण शौरी की सभी आलोचनाएं प्रामाणिक, तथ्यों पर आधारीत और बिलकुल सही थी. मार्क्सवादी इतिहासकार निरुत्तर थे.

इतिहास के क्षेत्र में रुचि रखने वालों से अनुरोध है कि वे मार्क्सवादी इतिहासकारों के लेखन और दावों को प्रामाणिकता कि कसौटी पर परख कर देखें. संबंधित विवादास्पद मुद्दों पर पहले के और बाद के इतिहासकारों के ग्रंथों का भी स्व-विवेक से अध्ययन करें. तभी हम हमारे इतिहास के बारे में जाने-अनजाने में फैलाए गए भ्रमों से मुक्त हो सकते है.

सुलगता पश्चिमी एशिया, क्यों मौन है दुनिया?


पश्चिमी एशिया में फिलिस्तीन और इजराइल के बीच संघर्ष एक बार फिर सुर्खियों में है। ख़बरें आ रही हैं कि इजराइल के हमले में फिलिस्तीन के शहर गाजा में करीब 50 लोगों की जानें गईं हैं। इसमें मरने वालों में मासूम बच्चें और महिलाएं शामिल हैं। इसके अलावा 300 से ज्यादा लोगों के घायल होने की खबरें भी सामने आ रही है। इजराइल और फिलिस्तीन के बीच भीषण संघर्ष जारी है। दोनों देशों के बीच भिड़ंत के पीछे का तात्कालिक कारण येरूशलम में अल अक्सा मस्जिद के पास इजराइल के यहूदी नेशनलिस्ट द्वारा एक मार्च निकालने का निर्णय बना। ये मार्च उस जीत के जश्न की पृष्ठभूमि को‌ उजागर करने के लिए था, जो इजराइल को 1967 में मिली ऐतिहासिक जीत को लेकर था। बता दें कि 1967 में इजराइल ने येरूशलम के कई हिस्सों को हथिया लिया था। जो अभी तक इजराइल की गिरफ्त में हैं। इस जीत को लेकर इजराइल के कुछ राष्ट्रवादी मार्च का आयोजन कर रहे थे। इसी मार्च के दौरान ही फिलिस्तीनियों और इजराइली राष्ट्रवादियों के बीच झड़प हो गई। इस झड़प ने हिंसा का रूप ले लिया। उसके बाद इजरायल सुरक्षाबलों ने आक्रोश में आकर फिलिस्तीनियों पर रबर बुलेट का इस्तेमाल किया। इसके बाद हालात भयावह हो‌ गये। इस बीच फिलिस्तीन के 20 से ज्यादा नागरिक मारे गए। इसके जवाब में हमास जो फिलिस्तीन का संगठन है, इजराइल पर कई रॉकेट दागे। उसके बाद से ही दोनों देशों के दरम्यान हालात बद से बदतर सूरत में सामने आ रहे है।

इजराइल और फिलिस्तीन के बीच मौजूदा संघर्ष की वजह भले ही कुछ भी रही हो। लेकिन अतीत में जाने पर पाएंगे कि इजराइल और फिलिस्तीन विवाद की वजह येरूशलम को लेकर है। आज येरूशलम इजराइल की राजधानी के रूप में बसा शहर है। विवाद की पृष्ठभूमि जानने के लिए प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के समय में जाना होगा, तो पाएंगे कि यूरोपीय देशों में आपसी संघर्ष चल रहा था। ऐसे में यहूदियों ने यूरोप छोड़ने‌‌ का निर्णय लिया। अब यहूदी शरण को लेकर असमंजस में पड़ गए। तब यहूदियों को एक पहेली सूझी। इस बीच पश्चिमी एशिया की भूमि को यहूदी अपनी मातृभूमि मानने का दावा कर शरण के लिए फिलिस्तीन भूमि पर आकर बस गये। धीरे-धीरे बढ़ती आबादी ने एक बड़ा क्षेत्र घेर लिया और संयुक्त राष्ट्र के दखल से इजराइल एक राष्ट्र बनकर उभरा। उसके बाद 1967 की लड़ाई में इजराइल ने येरूशलम के कुछ भाग पर कब्जा कर लिया। जिस पर आज भी इजराइल कब्जा किये बैठा है। लेकिन येरूशलम विवाद को लेकर पिछले 50 वर्षों से अधिक समय हो चुका है, उसके बावजूद अभी तक कोई हल नहीं निकाला जा सका है। निकट भविष्य में कोई हल निकलेगा, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर येरूशलम को लेकर विवाद क्यों? दरअसल येरूशलम मुस्लिम, ईसाई और यहूदी तीनों धर्म मानने वाले लोगों का आस्था स्थल है। यहीं पर अल अक्सा मस्जिद है। मुस्लिमों का मत है कि पैगम्बर मुहम्मद साहब मक्का से यहीं आए थे। मानना है कि पैगम्बर मुहम्मद ने यहीं से स्वर्ग की यात्रा की थी। यहां पर बनी मस्जिद मक्का और मदीना के बाद बनी तीसरी मस्जिद है। ऐसे में मुस्लिमों की गहरी आस्था जुड़ी हुई है। वहीं येरूशलम से ईसाइयों की आस्था जुड़ी हुई है। येरूशलम में ईसाइयों का पवित्र द चर्च ऑफ द होली सेप्लकर’ भी है। ईसाइयों का मत है कि ईसा मसीह को‌ इसी जगह पर सूली चढ़ाया गया था और यही वह स्थान भी है, जहां से ईसा मसीह पुनर्जीवित हुए थे। इसके साथ-साथ यहूदियों के पवित्र स्थल होने का दावा भी किया जाता रहा है। यहूदियों का कहना है कि उनकी सबसे पवित्र जगह ‘होली ऑफ होलीज’ यहीं पर है। यहूदी मानते हैं इसी जगह से ही विश्व का निर्माण हुआ और यह स्थल हमारी मातृभूमि का प्रतीक भी है।

जब से पश्चिमी देशों में येरूशलम को लेकर विवाद सामने आया है। तब से विश्व राजनीति दो खेमों में बंटी हुई है। एक पक्ष इजराइल को सही ठहराता है, वहीं दूसरा मुस्लिम देशों को सही ठहराता आया है। हकीकत यह है कि येरूशलम विवाद पर कुछ देश अपनी राजनीति चमकाने का जरिया बनाये हुए है। ऐसे में इस विवाद का शान्त होना असम्भव-सा लगता है। बाकी दुनिया के कई देश है जो बिलकुल चुप्पी साधे हुए हैं। मौजूदा संघर्ष में नया मोड़ तब सामने आया है, जब अमेरिका ने वक्तव्य जारी कर कहा कि इजराइल को अपनी रक्षा करने का अधिकार है। वहीं जर्मनी ने भी कहा है कि इजराइल को अपनी सुरक्षा का पुरा अधिकार है। जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल के प्रवक्ता स्टीफन सीबरेट ने कहा कि गाजा से इजराइल पर हो रहे हमले की हम कड़ी निन्दा करते हैं। इसे कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। इसके बाद से तुर्की ने इजराइल को सबक सिखाने की बात कही है। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयब एर्दोआन ने रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन को फोन कर कहा कि फिलिस्तीनियों के प्रति इजराइल के रवैये के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उसे और कुछ अलग सबक सिखाना चाहिए। एर्दोआन के बयान के बाद इसे लेकर अटकलें तेज हो गई है कि क्या इजराइल और फिलिस्तीन विवाद बड़ा रूप लेगा? वहीं रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इजराइल और फिलिस्तीन को तुरंत हमले रोकने की अपील की है। उन्होंने कहा कि दोनों देशों को शांति से बैठकर विवाद का हल निकाला जाना चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दोनों पक्षों से तनाव कम करने की अपील की है। चिंता जाहिर करते हुए कहा कि कहीं स्थिति नियंत्रण से बाहर न हो जाए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने वक्तव्य जारी कर कहा है कि वे हिंसा को लेकर बेहद चिंतित है।

ईसाई मुस्लिम की सर्वश्रेष्ठता की लड़ाई में स्वास्तिक पर प्रतिबंध लगाने का विरोध किया जाना जरूरी

हिन्दुत्व की कसौटी पर आधुनिक इतिहास बईमान है, हर हिन्दुत्व की कसौटी को इतिहास में घृणा और हिंसा तथा सामाजिक लांक्षणा को प्रत्यारोपित किया गया है। इस सच को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है कि भूतकाल में जो भी इतिहास लिखे गये वह इतिहास आक्रमणकारी विजैताओं द्वारा लिखे गये, आक्रमणकारियों द्वारा लिखे गये, उन कम्युनिस्टों द्वारा लिखे गये जो विदेशी वैचारिक गुलामी के सहचर रहे हैं और जिन्हें अपनी संस्कृति और सभ्यता के साथ ही साथ अपने गौरव के सभी चिन्ह घृणा, हिंसा और समाज विरोधी दिखते हैं।

अनेक प्रश्नों का उत्तर यह है कि जब इतिहास गुलामी विदेशी मानसिकता के सहचर बन कर लिखा जायेगा, जब इतिहास आयातित हिंसक संस्कृति के सहचर बन कर लिखा जायेगा, जब इतिहास हिन्दुत्व को घृणात्मक, हिंसात्मक और समाज विरोधी मान कर लिखा जायेगा, तब आधुनिक या भूत काल का इतिहास हिन्दू विरोधी या फिर बईमान क्यों नहीं होगा? आधुनिक युग में जब आयातित संस्कृति की हिंसक और घृणात्मक सोच, अभियान और इतिहास के साथ ही साथ कम्युनिस्टों की हिन्दू विरोधी सोच की पोल खुली तब नये शोध होने लगे, इतिहास पर नयी दृष्टि डाली जानी लगी। इतिहास पर नयी सोच और नयी दृष्टि ने यह साबित कर दिया है कि हिन्दुत्व पर इतिहासकारों ने कितनी बडी साजिश की है, हिन्दुत्व को जमींदोज करने या फिर हिन्दुत्व को लांक्षित करने का एक बढकर एक जिहाद हुआ है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि वह जिहाद आज भी जारी है।
इतिहास पर नयी सोच और नयी दृष्टि ने कई साजिशों की पोल खोली है। इन साजिशों में दो प्रमुख साजिशें हैं जिस पर चर्चा होनी स्वाभाविक है। एक नयी सोच और नयी दृष्टि आर्य को लेकर है। विदेशी गुलामी मानसिकता के सहचरों और आयातित संस्कृति के जिहादियों ने इतिहास में यह दुर्भावना फैलायी कि आर्य भारतीय नही हैं बल्कि आर्य बाहरी है, संभवः आर्य जर्मनी या फिर दूसरी जगहों से पलायन कर भारत आये और द्रविड सभ्यता पर कब्जा कर बैठे। कई सर्वेक्षणों और प्राप्त पुरातत्वों के विश्लेषण के बाद आज की नयी ऐतिहासिक दृष्टि है कि आर्य बाहरी नहीं है, आर्य यही के मूल निवासी है, आर्य बाहरी हैं, यह दृष्टि अंग्रेज, मुस्ल्मि आक्रमणकर्ताओं और कम्युनिस्ट विदेशी गुलामी मानसिकताओं की उपज थी। इसी प्रकार स्वास्तिक को लेकर विवाद का समाधान हो गया है। आर्य की तरह ही स्वास्तिक को लेकर भी दुष्प्रचार हुआ, लक्षित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए स्वास्तिक को भी लांक्षित करने की कोशिश हुई। कहा गया कि स्वास्तिक हिन्दुत्व के स्वाभिमान व गर्व का प्रतीक नहीं है, बल्कि स्वास्तिक हिटलर के घृणा और हिंसा का प्रतीक है। हिटलर की स्वास्तिक में गहरी आस्था थी। हिन्दुत्व का प्रतीक स्वास्तिक ही हिटरल का प्रेरणा स्रोत था। हिटलर ने हिन्दू धर्म के इस प्रतीक चिन्ह को अपना कर न केवल जर्मनी में हिंसा बरपायी, कत्लेआम किया बल्कि पूरी दुनिया को द्वितीय विश्व युद्ध में ढकेल दिया, द्वितीय विश्व युद्ध में करोड़ों निर्दोष जिंदगियां बरबाद हुई थी, विध्वंस को प्राप्त की थी, परमाणु हमले जैसे मानव संहार का अपराध हुआ था। सिर्फ इतना ही नही बल्कि यह भी दुष्प्रचारित किया गया कि हिटलर ने यहूदियों के नरसंहार के लिए स्वास्तिक का ही सहारा लिया है, स्वास्तिक को हथकंडा बनाया। अब भी दुनिया के अंदर में स्वास्तिक को लेकर हिटलर की यही सोच बैठी हुई है।

स्वास्तिक पर भी दुष्प्रचार का अब उत्तर मिल गया है। स्वास्तिक को हिटलर की हिंसा और घृणा से जोड कर देखना एकदम ही गलत है और गलत लिखा गया इतिहास को ही प्रचारित करता है। तथ्य यह देख लीजिये। हिटलर यूरोप से बाहर की संस्कृति से बहुत ही कम ही परिचित था, उसके अंदर यूरोप से बाहर की संस्कृतियों और उसके प्रतीक चिन्हों को अपनाने का समय भी नहीं था। हिटलर पर सिर्फ यूरोप के तत्कालीन सामंतों ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ को पराजित करना था और फिर विश्व विजैता बनना था। स्वास्तिक संस्कृत से निकला हुआ शब्द है। हिटलर या फिर हिटलर के नीति निर्देशक तत्व उस समय तक संस्कृत भाषा तक नहीं जानते थे। इसलिए यह कहना पूरी तरह से गलत है कि हिटलर की हिन्दू धर्म में गहरी आस्था थी और स्वास्तिक को हिन्दुत्व का प्रतीक समझ कर ही आत्मसात किया था। हिटलर के जिस स्वास्तिक की चर्चा होती है वह सही में स्वास्तिक है ही नहीं। जब वह स्वास्तिक है ही नहीं तक क्या है? जिस चिन्ह को हिटलर का स्वास्तिक कहा जाता है वह चिन्ह का नाम ‘हेकन क्रूज ‘ है। ‘हेकन क्रूज ‘ शब्द जर्मनी भाषा का है। ‘हेकन क्रूज ‘ का जर्मन अर्थ ‘क्राॅस‘ है। क्राॅस यीशु से जुडा हुआ है। क्राॅस को ही हिटलर ने हथकंडा बना कर यहूदियों का नरसंहार किया था। वास्तव में हिटलर ने यह स्थापित कर दिया था कि यहूदियों ने ही यीशु को सूली पर चढा कर मारा था। हिटलर की यह उक्ति काम कर गयी। जर्मनी और उसके प्रभाव वाले देशों में यहूदियों के खिलाफ ईसाई जनमत तैयार हुई और फिर यहूदियों का नरसंहार पूरी दुनिया के लिए एक जख्म के रूप में शामिल हो गया। प्रायः हर ईसाई शासक और ईसाई चर्च उस काल में यीशु की हत्या के लिए यहूदी को अपराधी मान कर उस पर हिंसा बरपाते थे।
अब यहां यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर हिटरल के ‘हेकन क्रूज ‘ को स्वास्तिक नाम क्यों पडा या दिया गया, इसके पीछे कोइ्र्र साजिश थी क्या, और यह साजिश आज तक जारी है क्या? हिटलर के हेकन क्रूज को स्वास्तिक का नाम एक साजिश के तहत ही दिया गया। इसके पीछे चर्च की साजिश थी। चर्च के एक पादरी ने जब हिटलर के हेकन क्रूज को स्वास्तिक नाम दिया था तब उसके पीछे भारत को ईसाई देश बनाने और हिन्दुत्व को पूरी दुनिया में बदमान करने का लक्ष्य काम कर रहा था। हिटलर का हेकन क्रूज टेढा और मुडा था। अंग्रेज पादरी जेम्स मर्फी की यह करतूत और साजिश थी। अंग्रेज पादरी जेम्स मर्फी ने हिटलर की पुस्तक ‘ मीन कैम्फ ‘ का अंग्रेजी अनुबाद किया तो उसने हेकन क्रूज को स्वास्तिक करार दे दिया था। अंग्रेज पादरी की उसी करतूत को पूरी दुनिया ने सही मान लिया। जबकि अंग्रेज पादरी जेम्स मर्फी कहीं से भी स्वतंत्र विचार वाला शख्त नहीं था। वह तो चर्च का गुलाम था। चर्च के हित में ही वह काम करता था। हेकन क्रूज को स्वास्तिक नाम क्यों दिया उस पर जेम्स मर्फी ने कभी स्पष्टीकरण नहीं दिया। जब कोई किसी भी चीज का नया नाम देता है तो फिर उस पर अपना चिचार भी देता है जिसे स्पष्टीकरण के तौर पर जाना जाता है। अगर जेम्स मर्फी ने ईमानदारी नहीं दिखायी तो फिर उसे बईमान और साजिश कर्ता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए।

हेकन क्रूज की जगह स्वास्तिक को प्रतिबंधित करने का अभियान दुनिया के अंदर में चलता रहता है, यह अभियान यहूदियों को न्याय दिलाने के लिए नहीं या फिर दुनिया को सचेत करने के लिए नहीं चलता है बल्कि इसके पीछे भी एक रहस्यमय एजेंडा है। इस एजेन्डे का समझ बुझ कर भी नजरअंदाज करने का खेल खेला जाता है। जब-जब अमेरिका और यूरोप के अंदर में राष्ट्रवाद का प्रकोप बढता है तब-तब स्वास्तिक पर प्रतिबध लगाने की मांग उठती है। इसके पीछे मुस्लिम जिहादी समर्थक हैं। मुस्लिम जिहादी समर्थक पूरे यूरोप और अमेरिका को इस्लाम के शासन मे तब्दील करना चाहते हैं। मुस्लिम जिहादियों के निशाने पर भारत भी है।
अभी-अभी अमेरिका के मेरीलैंड प्रांत के विधान सभा में एक विधेयक चर्चा के लिए लाया गया है जिसमें मांग की गयी है कि स्वास्तिक चिन्ह को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। मेरीलैंड विधान सभा में जो प्रतिबंध के लिए विधेयक लाया गया है उसके पीछे अमेरिका के सेक्युलर जमात की कारस्तानी बतायी जाती है। डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थको के राष्ट्रवाद को कुचलने के लिए यह विधेयक लाया गया है। दरअसल मुस्लिम जिहादियों के कारण अमेरिका का राष्ट्रवाद गहरे संकट में है। जो बाइडेन की जीत के बाद मुस्लिम जिहादी अमेरिका में अपने लिए सुरक्षित वातावरण चाहते हैं। जबकि अमेरिका के राष्ट्रवादी यह नहीं चाहते कि उनका देश मुस्लिम जिहादी देश में तब्दील हो जाये। लेकिन अमेरिका के अंदर मे ईसाई और मुस्लिम सर्वश्रेष्ठता की लडाई में हिन्दुत्व के स्वाभिमान के प्रतीक स्वास्तिक को प्रतिबंधित करना कहां से उचित है? अमेरिका में लाखों हिन्दुओं ने इसके खिलाफ आवाज उठायी है, अमेरिकी हिन्दुओं ने इसके पीछे हिन्दुत्व को बदमाना करने की साजिश बतायी है, अमेरिकी हिन्दुओं का सीधा कहना है कि इसके कारण हिन्दुओं की चिंता बढी है। मैरी लैंड प्रांत की विधान सभा की इस करतूत पर अमेरिकी प्रशासन के शीर्ष नेतृत्व को सक्रिय और सतर्क होना होगा। अमेेरिकी और भारतीय संबंध भी बिगड सकते हैं। हिन्दुओं की नाराजगी भी अमेरिका के लिए कोई अच्छे संकेत नहीं होंगे।

तबियत से उछलते समाचार


आत्माराम यादव पीव
पहले प्रिन्ट मीड़िया होती थी जिसकी खबर दूसरे दिन अखबार में पढ़ने को मिलती थी, अब इलेक्टानिक मीड़िया हो गयी, घटना घटी, स्पाट पर पहुॅचे, कैमरे लगाये और शुरू हो गये, बक-बक करने। घटना के पल झपकते ही टी.व्ही.पर, मोबाईल से व्हाटसअप-फेसबुक पर एक समाचार अनेक एंगल से प्रस्तुत होता है, ताकि पेश करने वाला मीड़ियामेन कह सके, कि उसने सनसनीखेज एक्सक्यूजीव दिखाई थी। समाचारों में जो खबर या समाचार बनता है, वह खबर न होकर विस्फोटक के चक्कर में तमाशा हो जाती है और सत्य घटना या समाचार वास्तविकता से कोशों दूर हो जाती है और कवरेज की होड़ में मीड़ियामेनों का हुजूम लग जाता है। कहते हैं मीड़िया निष्पक्ष होती है, अब ऐसा नहीं है। मीड़िया उसी के पक्ष में होती है जिससे उसे गुड़फीलिंग हो जाये, चाहे आॅखों देखी समाचार की हवा निकालनी हो, मीड़ियामेन को गुड़फीलिंग करा दे, वह महाभारत युद्ध में गुरू द्रोण की ताकत को शून्य करने के लिये अश्वस्थामा हाथी के मरने को पुत्र के मरने के सम्प्रेषण की कला का इस्तेमाल करके सत्य को असत्य का असली जामा पहनाकर माहौल बदल देता है। इसलिये कहते है मीड़िया मीड़िया है, जो करे, सो थोड़ा है। मीड़िया का कारोबार विश्वव्यापी हो जाने से जब खबर नहीं मिलती तब मीड़िया स्टुडियों में बैठकर समाचार बनाती है, बेमतलब की बहसें कर किसी का जायका अच्छा तो किसी का खराब भी करती है। मीड़िया पूंजीपतियों की गोद में, आईमीन पूॅूजीपतियों के द्वारा संचालित होने से खबरे नहीं दिखाती बल्कि वे ही खबरे दिखाती है जिससे उसका कारोबार फले-फूले। कारोबारी मीड़िया अब खबरों के साथ-साथ सरकारें बनाने, सरकारें गिराने का भी काम बखूबी करती है।


मीड़िया जिसको जादू की झप्पी दे दे, श्मसान जाने वाला मुर्दा भी जाग उठता है, शव को शिव बनाने में मीड़िया को गुड़फीलिंग दे दो, काम चैखा हो जायेगा। यह आॅखों देखा, कानों सुना, सबने गुना भी है। अब मध्यप्रदेश की ही बात ले लो, मध्यप्रदेश में 15 सालों से भाजपा गुडफीलिंग में रही, जनता ने काॅग्रेस की गुडफीलिंग की पर भाजपा के पल्ले बेड़फीलिंग आयी, किन्तु मीड़िया की गुड़फीलिंग हो जाने के बाद उसने भाजपा की गुड़फीलिंग की खबरें उछाली। शिवराज का चक्कर चल गया और उसने काॅग्रेस से डेढ़ साल में ही दुलत्ती मारकर गुड़फीलिंग लपक ली और अपने भाग्य की बेड़फीलिंग काॅग्रेस को थमा दी। मुख्यमंत्री की कुर्सी सभी को दुल्हन लगी और उसे पाने स्वयंवर हुआ परन्तु काॅग्रेस ने युवा को आगे करके बूढ़े कमलनाथ को दूल्हा बना दिया, युवा दुल्हन को देख-देख तिलमिलाते रहे और मन ही मन कमलनाथ को कोसते रहे और बाराती युवाओं के महाराज ने अपने दुल्हा से दुल्हन छीनकर शिवराज को दे दी, शिवराज डेढ़ साल से दुल्हन का घूंघट उठाने के लिये तरस गये थे। महाराज को सभी ने कोसा उसके पूर्वजों ने जो गददारी की उसे लेकर लताडा, पर यह सब राजनैतिक जुमलेवाजी में चली गयी और प्रदेश की सत्तासुन्दरी स्वरूपा कुर्सी दुल्हन के रूप में कुख्यात हुई जो जायज से नाजायजी का शिकार हुई, और कोरोना काल की गाइडलाईन को फालों करते 24 बारातियों के लौटने तक उसका भविष्य अंधर में लटका था, शिवराज ने मध्यावधि कराकर सत्ता के दम पर दूल्हे का सेहरा पहन बारातियों को भी षगुन देकर उनके न्यारे-ब्यारे दिनों कीष्षुरूआत कर दी और काॅग्रेस कोसते ही रह गयी।
शोहरत कौन नहीं चाहता है। हर ऐरा-गैरा भी अपने पूरे जीवन में हर संभव प्रयास करता है कि वह नामी-गिरामी बन जाये। हमारा देश भारत बड़ा ही निराला है। देश को निराला बनाने का पूरा श्रेय प्रदेशों को जाता है। अब होशंगाबाद की ही बातें कर लें जहाॅ मैं रहता हॅू, एक से एक रणबांकुरे, धुरन्धर और नकारात्मक घटनाओं के लालबुझक्कड़ों का गढ़ है जो नाकामयाबी भरी बुझी मृतप्रायः सूचनाओं को अपने दिमाग में कैच कर जायकेदार खबर बनाकर परोसने में माहिर है। आप उनकी इस मक्कारी को भी दाद देकर उन्हें अपना आदर्ष मानने को विवष होंगे, यही उनकी काबिलियत है जिसके दम पर यह नगर नामर्द राजनेताओं को सिर पर बिठाये है और मोदी फार्मूले का विकास इस जिले के कूचे-कूचे में फैला विष्व के किसी भी विकासषील देष के सामने फीका पड़ जायेगा। इस छोटे सेष्षहर को जोड़ने वाला रेल्वेफाटक बंद हो गया, हजारों लोग तकलीफ में रहे, नेताओं ने वायदे किये, फाटक के स्थान पर बतौर समस्या रेल्वे ओव्हरब्रिज मिला जो सुविधा कम तकलीफदेह ज्यादा रहा। यहाॅ के स्कूली बच्चे, नागरिक, माता-बहने रामजीबाबा की समाधि हो, नर्मदास्नान को जाना हो, षहर जाना हो पैदल ही रेल्वेस्टेषन के डगडगा से चले जाते थे, कोरोनाकाल में लाकडाउन के समय रेल्वे ने वह सुविधा छीन ली और नेताओं की हेकड़ी निकल गयी, कोई भी ग्वालटोली-एसपीएम जैसे क्षेत्रों को पैदल दूरी कम करने वाले इस डगडगा को तोड़ने से नहीं बचा सका। ऐसे तमाम उदाहरण है जो यहाॅ के नामजद नेताओं और लालबत्ती की सैरसपाटा करने वाले दर्जनों नेताओं को भी इन लोगों के दर्द से रिझा नहीं सके और लोगों को जूते के अन्दर कीललगी पन्हैया/जूता पहनाकर जनता के पैरों को लहुलुहान कर दर्द से चीखने के लिये छोड़ आये और इलाज के नाम पर विष्व का अजूबा डगडगा इस प्लेटफार्म पर बनवाकर अपनी बेषर्म राजनीति को बचाने के लिये बयानवाजी के लिये छोड दिये, जिसे आज तक अपनी खबरों में उठाने के लिये ये तथाकथित पत्रकार आगे नहीं आये, अगर ये चाहते तो एक मुहिम छेड़कर प्रदेष-देष के नेताओं की नींद हराम कर लोगों को ऐसे दर्द में जीने के लिये विवष नहीे करते,। कोरोना संक्रमण काल में पुलिसवाले ग्वालटोली पुलिया के बेरिक्ेटस लगाकर ग्वालटोली के रास्ते बंद कर वहाॅ के नागरिकों को आगदमगढ़ रोड़ पर नयी पुलिया के भरोसे छोड़ दिये, जबकि पुलिसवाले जानते है कि वहाॅ से किसी भी व्यक्ति का सुरक्षित निकल पाना संभव नहीं है, क्योंकि पुलिसवालों के संरक्षण में यहाॅ सारे अवैध काम होते है और अपराधी चैबीस घन्टे इस मार्ग पर खड़े होकर अपना कारोबार करते है जिसमें षराब की डिलेवरी हो, चाकू-छूरी जैसे घातक हथियार से लेकर पिस्टल तक की सौदेवाजी इसी जगह होती है, सटटा का कारोबार होने से सटोरियों की भीड़ घरों के सामने सड़क पर लगी रहती है, सड़क असमाजिक तत्वों से भरी होती है जहाॅ आमनागरिकों को चलना दूभर होता है, पर पुलिसवाले जानबूझकर कोरोना की गाइडलाईन के नाम पर ग्वालटोली के नागरिकों के साथ अत्याचार करते है और विवष होकर इन्हें इन रास्तों पर जाकर अपनी जान को जोखिम में डालना पड़ता है, अधिकारी आॅखों पर पटटी बाॅधे होते है और पत्रकारों की कलम अधिकारियों के पीछे उनकी छुटपुट कार्यवाहियों में उनकी फोटो खींचकर समाचार गढ़ने की कला में लगी होती है।
ऐसा नहीं कि यहाॅ सकारात्मकतापूर्ण तथ्यों का अभाव हो, जैसा देश-दुनिया मंें होता है, वैसा ही मिथक यहाॅ का भी है। मैं देखता हॅू कि नर्मदापुरम संभाग के ऐतिहासिक-भौगालिक,राजनैतिक पहलूओं पर अन्वेषणकर्ताओं की प्रकाशित तमाम रिपोर्टो में प्रौढ़ता का अभाव रहता है और आधा-अधूरा या कहे अधकचरा ज्ञान अपनी रिपोर्टो में प्रकाशित कर स्वयं को त्रिकालदर्शी समझ कूलांचे मारते नवसिखिये बड़े अखवारों में इन्हें छापकर लाखों पाठकों का दिमाग बदल देते है, जब उनके सामने सत्य आता है तो वे पाठक बड़े छवि के बड़े अखबार में छपे असत्य को ही सत्य ठहराकर उसे प्रमाणित करने लग जाते है। नर्मदापुरम संभाग मुख्यालय होशंगाबाद में मुंगेरीलाल से लेकर शेखचिल्ली तक और डाकू गब्बरसिंह से लेकर रंगा-बिल्ला और नटवरलाल जैसे आचरण और कर्म करने वाले यहाॅ की राजनीति में घुस पूजनीय हो गये तो कोई आश्चर्य की बात नही लेकिन चैथे स्तम्भ समझे जाने वाले पत्रकारिता के क्षैत्र में इनका घुस आना और तैश दिखाना कदाचरण नहीं सदाचरण में शुमार हो गया है। यह गजब प्रयोग पत्रकारिता में पूंजीपतियों-व्यापारियां के हाथों में समाचार-पत्रों व चैनलों का स्वामित्व आने के बाद से शुरू होकर एक प्रथा बनने की ओर अग्रसर हुआ है। पत्रकारिता में क्षेैत्रीय स्थानांें का भूगोल-अतीत,वर्तमान एवं ऐतिहासिक महत्व, पुरातन महत्व आदि के साथ राजनैतिक घटनाओं एवं किस क्षैत्र में जनता की क्या अपेक्षायें या समस्यायें है इसे पटल पर रखकर समाचारों को लिखने वाले पत्रकार गुजरे जमाने के म्युजियम में रखने योग्य समझे जाने लगे है। झूठ-फरेब, मक्कारी में पारंगतों की अपनी दुनिया है। सरकारी योजनों को बनाकर उन सुविधाजन्य क्षैत्रों में जहाॅ पूर्व ही इनकी आवश्यकता नहीं है जबरिया थोपकर विकास की गंगोत्री बहाने वाले अधिकारियों की मेघना शक्ति को भुलाया नहीं जा सकता जो सिर्फ भ्रष्टाचार के दम पर नौकरी ज्वाईन करने से लेकर सेवानिवृत्त होने तक जमे होते है, उनका कोई बालबाॅका नहीं कर सकता क्योंकि वे जितने भी काम या योजनायें लाते है वे इन योजनाओं को पूर्व विकसित क्षैत्रों में कार्यान्वित करके जमकर भ्रष्टाचार कर अपने दायित्व का निष्ठा से निर्वहन करना बताते है। आज हरेक ओर अपराधांें का बोलबाला है। चिकित्सा क्षैत्र में चिकित्सक के रूप में चिकित्सामाफिया सक्रिय हो गये है जो 90 प्रतिशत सामान्य प्रसव से होने वाले प्रसव को माॅ-बच्चे की जान का खतरा बतलाकर आपरेशन द्वारा प्रसव कराकर लूटने का काम कर रहा है। वही हृदयरोग से लेकर सभी बीमारियों में सामान्य चिकित्सीय सलाह और दवा से व्यक्ति निरोगी हो जाये, उसका प्रयोग बंद कर व्यक्ति को बीमार रखने के प्रयोग और दवायें चल रही है, आपरेशन हो रहे है ताकि यह लूट सभ्यों द्वारा जारी रहे। शरीर में गंभीर बीमारी बताकर आपरेशन करने के बाद कितने लोग कितने दिन जिंदा रहे है इसकी फिकर किसी को नहीं है। सामान्य डिलेवरी को आपरेशन से कराते या जो भी अनुचित हो उसे उचित का जामा पहनाने ये सभी लोग इन्हीं अखबारों-चैनलों को विज्ञापनों से पाल-पोसकर इनका संरक्षण पा मानवता के दुश्मन बन बैठे है और अपना लाभ मिल जाने पर ये मीड़ियामेन इनकी करतूतें नहीं दिखाते और समाज इन बैरियों को अपना मित्र मानकर लूटने-पिटने को तैयार हो जाता है।
अब जनता के हितों का, क्षै़त्र के विकास का पत्रकारिता में कोई स्थान नहीं रह गया है। जनता के हित किस बात में निहित है, क्षैत्र में क्या समस्यायें है, कौन से कार्य और विकास क्षैत्र के लोगों का भला करंेंगे यह अब जनता से नहीं पूछे जाते है। नेताओं के द्वारा क्षैत्रों में पूर्व से चल रही कार्ययोजनाओं, कार्यक्रमों आदि से जनता को मिल रहे सुख-चैन और आनन्द के समाचार नहीं आते है। समाचार आते है? राजनीति की दुकान चलाने के लिये हर जिले में, हर मोहल्लों में पानी सप्लाई से लेकर सफाई कराने तक हर नेता अपना चुनाव खर्च का लाभ भुनाने के लिये वर्षो से बिना किसी रूकावट के चली आ रही पानी सप्लाई को असफल बताकर उस योजना में हुये करोड़ों रूपये के नुकसान की परवाह न कर नयी योजनायों पर काम करने लग जाते है ताकि नेताओं को लाखों रूपये के कमीशन से हर्जा-खर्चा मिल जाये। पुरानी योजना को बंद कर नयी योजना पर काम शुरू हो जाता है। नेता बयानवाजी करते है, अधिकारी पिछलग्गू बने उनको अनुमोदन करते है, पत्रकार जनता की भावनाओं को समझे बिना इन योजनाओं का धुंआधार प्रचार प्रसार अपने समाचारों से करते है। सुरसा के मॅुह की तरह तरक्की कर चुके इन अखबारों का गरूर सातवे आसमान पर होता है, अब यहाॅ किसी के सुख-दुख के समाचार बेमानी हो गये है। नगर में किसी लोकप्रिय समाजसेवी व्यक्ति,नेता या अधिकारी के मरने की खबरें इन समाचारों में नहीं छपती है, इनके लिये ये गुजरे जमाने की बातें हो गयी है, इसलिये ये समाचार पत्र ऐसे लोगों के मरने की सूचना या अन्य जानकारी के लिये व्यवसायिक रूप लेकर उठावना, पगड़ीरस्म में इनके परिजनों से रकम ऐंढकर अपनी जिम्मेदारी से हट गये है, जो अच्छे संकेत नहीं है।
बड़े अखबार वालों ने तनखैयया पत्रकारों को नौकरी दे रखी है वे अपनी डयूटी को लेकर साफगोई से यह दावा कर नहीं अघाते कि जिस जगह वे नौकरी कर रहे है उस जगह की उनको चिंता है, वहाॅ की छोटी-बड़ी हर घटना पर उनकी पकड़ है जबकि उनका दावा खोखला होता है और जिन पूर्व की योजनाओं को स्थानीय स्तर पर संरक्षण मिलना चाहिये वह नहीं मिलता है। नगर का ऐतिहासिक महत्व की घटनाओं आदि को ध्यान में रखकर जनभावनाओं को समझकर उनकी बात को पटल पर रखने वाले पत्रकारों की कलम गुजरे जमाने की बात हो गयी है और और ऐसे पत्रकार म्युजिम में रखे जाने योग्य ही समझे जा सकते है। कलम घिस-घिसकर जो पत्रकारिता कर रहा है वे जंग लगे अनुपयोगी हो गये है और आपराधिक दुनिया में प्रयोगवादी ही नाम कमा रहे है। नाम कमाने की होड़ में राजनीति से लेकर पत्रकारिता में खरपतबार की तरह प्रगट हो गये है। सरकार और प्रशासन इन खरपतवारों के आने से शकून में है। जब से देश में मोदी जी आये है सभी मीड़िया के प्रमुख-व्यापारियों को, चैनल-अखबार मालिकों को गुडफीलिंग महसूस हो रही है वत इसी गुड़फिलींग ने विपक्ष का पूरी तरह सफाया कर उनको बेडफीलिंग में डाल दिया है। जिन सरकारों के की नीतियों -कार्यक्रमों को मोदी जी विरोध करते थे आज वहीं नीतियाॅ कार्यक्रम मोदी जी की सरकार में देशहित में गुडफीलिंग का सुख दे रही है और मीड़िया गोदी मीड़िया के नाम पर बेडिफीलिंग की जगह गुडफीलिंग में खुष है। अब सरकार के खिलाफ कमजोर विपक्ष के रहते कोई मुददा तूल नहीं पकड़़ पाता क्योंकि सरकार की ओर से पक्ष रखने वाले बयानवाजी में धुरन्धर है जिनकी वाणी से निकले झूठ भी अकाटय सत्य बन जाते है जिसका सामना करने में विपक्ष कमजोर होने से खामोश रह जाता है, तो कुछेक सत्तापक्ष दल के प्रतिनिधियों के कुतुर्क के आगे धराषाही हो जाता है, जो धराषाही नही होकर टिका रहता है वहाॅ ये कुतुर्की भटका कर बातों का रूख बदल देते है जिसमें मीड़िया सरकार के प्रति रक्षात्मक खड़ा होकर सरकार के खिलाफ बयानवाजी को उपलब्धि में तब्दील कर विपक्ष और जनता को सड़कों पर खड़ा होने का बचाव करता है।
देश के प्रख्यात शायर स्वर्गीय दुष्यंतकुमार का यह शेर मेरे लिये हमेशा प्रेरणाप्रद रहा है लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने के मामले में यह प्रयोग विपरीत है। शेर है-कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता। एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारों। जिसे आज की परिस्थितियों में बेड़फीलिंग को गुड़फीलिंग महसूस करने के लिये इस प्रकार प्रयोग किया जा सकता है-कौन कहता है कि भ्रष्टाचार में सुराख नहीं हो सकता।। हैसियत देखकर रिश्वत की रकम तो तबियत से उछालो यारों। इस प्रकार सरकारी संरक्षण में गोदी मीड़िया के द्वारा जनहित के समाचार तबितय से उछलते है और पत्रकार गुड़फीलिंग में समाचारों को जिन्दा रखकर जनभावनाओं को बैड़फीलिंग वास्तविक सच्चाई और हकीकत के समाचारों को रिजेक्ट कर खुद गुडफीलिंग में प्रजा की सेवा को ही अपना धर्म मान चुका है।

भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों के बौद्धिक घोटाले अर्थात इतिहास की हत्या , भाग -2

रोमिला थापर vs. सीताराम गोयल:

भारत के मार्क्सवादी इतिहासकार दो हथियारों (तकनिकों) से हंमेशा लैस रहते है: उनका पहला हथियार होता है अपने इतिहास लेखन पर प्रश्न उठाने वालों या असहमत होने वालों पर तुरंत “साम्प्रदायिक – communal” होने का लांछन लगा देना, ताकि सामने वाला शुरु से ही बचाव मुद्रा में आ जाए, दिफेंसिव हो जाए, मनोवैज्ञानिक दबाव में आ जाए! और इससे इन इतिहासकारों का आगे का काम आसान हो जाता है. दूसरी तकनिक यह होती है कि जिस बात का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण न हो, मगर अपने काम की हो, उसे कुछ इस तरह प्रस्तुत करना जैसे पूरी दुनिया को यह पहले से ही मालूम हो और मानो सब को यह पहले से ही स्वीकार्य है!! इस तकनिक के माध्यम से मार्क्सवादी इतिहासकारों की किसी बात/प्रस्थापना को संदेह की दृष्टि से देखने वालों को “अज्ञानी” या “communal – साम्प्रदायिक विचारों से ग्रस्त” चित्रित किया जा सकता है. इसका ज्वलन्त उदाहरण है रोमिला थापर और सीताराम गोयल के मध्य पत्रव्यवहार से हुई चर्चा.

“हिंदू राजाओं द्वारा बौद्ध मंदिरों के ध्वंस” के मार्क्सवादी प्रलाप से सीताराम गोयल (१९२१-२००३) जैसे कुछ गिने-चुने इतिहासकारों और जानकारों को कष्ट होता था. इसीलिए जब सीताराम गोयल ने वर्षों तक रिसर्च करके ठीक इसी “मंदिर-विध्वंस” के विषय पर सन् १९९१ में अपना शोधपूर्ण ग्रंथ “Hindu Temples: What Happened to Them (Vol.II The Islamic Evidence)” प्रकाशित किया तब इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने के लिए भारत के तत्कालीन मार्क्सवादी इतिहासकारों को सादर आमंत्रित किया. इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए सीताराम गोयल ने २७ जून १९९१ को रोमिला थापर को अपनी पुस्तक की एक कोपी के साथ-साथ एक “प्रश्नावली (questionnaire)” भी भेजी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन मार्क्सवादी इतिहासकारों से निम्नलिखित चीजें देने का आग्रह किया, ताकि जिस तरह जिन आधारों पर इस्लाम के सैनिकों द्वारा हिंदू मंदिरों के विध्वंस का प्रामाणिक इतिहास लिपिबद्ध है, ठीक उन्हीं आधारों पर ‘हिंदू राजाओं द्वारा मंदिरों के ध्वंस’ के इतिहास की स्पष्ट और पूरी तस्वीर लोगों के सामने आ सके. यही आग्रह करते हुए सीताराम गोयल ने मार्क्सवादी इतिहासकारों से ऐसे साक्ष्य / विवरणों की मांग की:-

(१) ऐसे अभिलेखों (epigraphs) की सूची जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का उल्लेख हो;
(२) हिंदू साहित्यिक स्त्रोतों के ऐसे संदर्भ (citations) जिसमें किसी भी काल में, कहीं भी, किसी हिंदू द्वारा बौद्ध, जैन व एनीमिस्ट मूर्तियों के विध्वंस का वर्णन हो;

(३) हिंदू धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों के वे अंश जो अन्य धर्मावलंबियों के पूजा-स्थलों को तोडने, लूटने या अपवित्र करने के लिए कहते हो या ऐसा संकेत भी करते हो;
(४) उन हिंदू राजाओं, सेनापतियों के नाम जिन्हें बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थलों को तोडने, अपमानित करने या उन्हें हिंदू स्थलों में बदलने के लिए हिंदू जनता अपना महान नायक मानती हो;
(५) उन बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थलों की सूची जिसे हाल में या कभी भी अपवित्र या ध्वस्त या हिंदू स्थलों में परिवर्तित किया गया हो;
(६) उन हिंदू मूर्तियों और स्थानों के नाम जो उन स्थानों पर खडे है जहाँ पहले बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट पूजा-स्थल थे;
(७) बौद्ध, जैन या एनीमिस्ट नेताओं या संगठनों के नाम जो दावा करते हों कि फलां-फलां हिंदू स्थल उनसे छीने गए थे, और अब उसके पुनर्स्थापन (restoration) की मांग कर रहे हो;
(८) हिंदू नेताओं और संगठनों के नाम जो बौद्ध, जैन या एनीमिस्टों द्वारा अपने पूजा-स्थलों के पुनर्स्थापन की मांग का विरोध कर रहे हो, या जो ऐसे किसी सथल के लिए यथावत् स्थिति (status quo) बनाए रखने के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे हो, या जो “हिंदू खतरे में है” का शोर मचा रहे हो, या अपने जबरन कब्जे के समर्थन में सदक पर दंगे कर रहे हों.

ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिन्हें पढकर कोई भी इतिहासकार और साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है कि “हिंदूओं द्वारा तोडे गए बौद्ध / जैन मंदिरों की पुनर्स्थापना” का प्रश्न केवल इन्हीं ठोस आधारों पर हल हो सकता है. इसके बिना, केवल बयानबाजी या किसी संदेहास्पद/आधारहीन ऐतिहासिक संदर्भों के हवाले किसी भी बात को ‘ऐतिहासिक सत्य’ के रूप में लिख मारना विशुद्ध दुष्प्रचार ही कहा जा सकता है. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि रोमिला थापर या किसी अन्य “eminent / जानेमाने” मार्क्सवादी इतिहासकार ने उक्त आठ बिंदुओं पर कोई सूची सीताराम गोयल को नहीं दी, न तो उन लोगों ने इस विषय पर कोई पुस्तक या शोध-पत्र लिखा ! आज वर्षों बीत जाने के बाद भी उन मार्क्सवादी इतिहासकारों के खेमें से कोई पुस्तक तो क्या, एक लेख भी नहीं निकला जो हिंदूओं द्वारा बौद्ध-जैन मूर्तियों को तोडने के विषय पर प्रकाश डालता हो. ये “जानेमाने” मार्क्सवादी इतिहासकार ऐसा तो कह नहीं सकते कि यह विषय महत्वपूर्ण नहीं है. यह तर्क भी नहीं दे सकते कि इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए हमारे पास समय का अभाव है. यह जमात ऐसा भी नहीं कह सकती कि यह विषय हमारे अध्ययन / शोध क्षेत्र के बाहर का है. दूसरी तरफ यह भी एक तथ्य है कि सीताराम गोयल ने “Hindu Temples: What Happened to Them – Vol.I” में मूर्तिभंजक इस्लामी हमलावरों द्वारा भारत में हिंदू मंदिरों, मूर्तियों और पूजा-उपासना स्थलों के विध्वंस की घटनाओं और स्थलों की जो सूची प्रस्तुत की है, उसे आज तक किसी भी मार्क्सवादी इतिहासकार ने चुनौती नहीं दी, लेकिन सीताराम गोयल को उत्तर में रोमिला थापर ने १० अगस्त १९९१ को यह लिखा:-

“As regards the issues raised in the questionnaire included in your book, you are perhaps unaware of the scholarly work on the subject discussed by a variety of historians of various schools of thought. May I suggest that for a start you might read my published lectures entitled, ‘Cultural Transaction and Early India’?” अर्थात् “जहाँ तक आपकी प्रश्नावली में उठाए गए मुद्दों की बात है, आप इस विषय पर विभिन्न विचारधारा के असंख्य इतिहासकारों द्वारा हाल में किए गए शोधकार्यों से संभवतः अनजान है. इसलिए शुरुआत के लिए / for a start मैं आपको मेरा एक प्रकाशित लेक्चर पढने की सलाह देती हूँ, जिसका शीर्षक है ‘कल्चरल ट्रांजेक्शन एंड अर्ली इन्डिया’.” (Hindu Temples: What Happened to Them – Vol.II, पृ. ४११)

रोमिला थापर के इस उत्तर के एक-एक शब्द से अहंकार टपकाता है, जो सच्चे विद्वान का लक्षण नहीं होता, किन्तु नोट करने लायक बात यह है कि थापर ने न तो सीताराम गोयल की पुस्तक पर कोई टिप्पणी कि, न जिन बिंदुओं को सीताराम गोयल ने उठाया था उसका कोई जिक्र किया!! इसे कहते है “conspiracy of silence” अर्थात् अपने पक्ष को निर्बल देख स्वयं मौन धारण कर सामने वाले से छुटकारा पाने का प्रयास करना. वे उन “असंख्य इतिहासकारों” के किसी “शोधकार्य” का स्पष्ट नामोल्लेख कर सकती थी, जो सीताराम गोयल के प्रश्नों का समाधान कर सकता हो. इसके बजाय वह अपना एक “लेक्चर” पढकर ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त करने की “शुरुआत” करने की सलाह सीताराम गोयल जैसे एक विद्वान को १९९१ में दे रही थी, जिसने देश की स्वतंत्रता से भी पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास से एम.ए. किया था और जो तब तक अनेक शोध-परक पुस्तकें लिख चुके थे!!!

रोमिला थापर के इस “उत्तर” के बाद सीताराम गोयल ने उन्हें विस्तार से फिर लिखा था, जिसमें उन्होंने हिंदूओं द्वारा बौद्ध-जैन मंदिरों के तोडने की संभावना संबंधी कुछ साहित्यिक सामग्री की समीक्षा, स्वयं थापर की पुस्तकों में कुछ विसंगती या अस्पष्टता के बारे में जिज्ञासा, और फिर अपना मत लिखा था. इसके बाद थापर ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया. हमारे इस संदर्भ में इतना ही पर्याप्त है कि रोमिला थापर के केम्प की ओर से किसी प्रश्न का उत्तर नहीं आया जो सीताराम गोयल ने उठाए थे.

To be continued…

मुर्दे सवाल करते हैं…!

प्रभुनाथ शुक्ल

मुर्दे सवाल करते हैं… ?
वे कहते हैं
बेमतलब बवाल करते हैं
इंसानों हम तो मुर्दे हैं
क्योंकि…
हमारे जिस्म में साँसे हैं न आशें
लेकिन…
इंसानों, तुम तो मुर्दे भी नहीं बन पाए
क्योंकि…
जिंदा होकर भी तुम मर गए
मैंने तुमसे क्या माँगा था…?
सिर्फ साँसे और अस्पताल
तुम वह भी नहीं दे पाए
हमने तो तुमसे
सिर्फ चार कंधे मांगे…?
तुम वह भी नहीं दे पाए
हमने तो तुमसे…?
श्मशान की सिर्फ चारगज जमींन मांगी
तुम वह भी नहीं दे पाए
हमने तो तुमसे…?
चार लकड़ियां और माँ गंगा की गोद मांगी
तुम वह भी नहीं दे पाए
हमने तो तुमसे…?
अंजूरी भर तिलाँजलि और मुखाअग्नि मांगी
तुम वह भी नहीं दे पाए
हमने तुमसे क्या माँगा…?
धन, दौलत और सोहरत
रिश्ते, नाते और उपहार
तुमने तो…
इंसानियत और रिश्तों को बेच डाला
अपनों को चील-कौओं को दे डाला
और कितना दर्द कहूं
कितनी पीड़ा और सहूँ
इंसानों तुमने तो…?
मेरे जिस्म का कफ़न भी बेच डाला …?

कोरोना कालः मानसिक स्वास्थ्य का रखें खास ख्याल

  • प्रो. संजय द्विवेदी

वक्त का काम है बदलना, यह भी बदल जाएगा

  • कोविड-19 के इस दौर ने हर किसी को किसी न किसी रूप में गंभीर रूप से प्रभावित किया है । किसी ने अपना हमसफर खोया है तो किसी ने अपने घर-परिवार के सदस्य,दोस्त या रिश्तेदार को खोया ह । इन अपूरणीय क्षति का किसी न किसी रूप में दिलोदिमाग पर असर पड़ना स्वाभविक है, लेकिन मनोचिकित्सकों का कहना है कि ऐसी स्थिति का लम्बे समय तक बने रहना आपको मानसिक तौर पर बीमार बना सकता है । इसलिए जितनी जल्दी हो सके उस दौर से उबरकर आगे के रास्ते को सुगम व सरल बनाने के बारे में विचार करें । इसके लिए परिजनों के साथ-साथ मनोचिकित्सक या काउंसलर की भी मदद ली जा सकती है। जो सदमे से उबारने में काफी मददगार साबित हो सकते हैं ।किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मनोचिकित्सा विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. आदर्श त्रिपाठी का कहना है कि जिस तरीके से शरीर के हर अंग का इलाज संभव है, उसी तरह से मानसिक स्वास्थ्य का भी इलाज मौजूद है । बहुत सारी समस्याएँ काउंसलर से बात करके और उनके द्वारा सुझाये गए उपाय अपनाकर ही दूर हो जाती हैं तो कुछ दवाओं के सेवन से दूर हो जाती हैं । इसलिए सरकार का भी पूरा जोर है कि जो लोग कोरोना को मात दे चुके हैं लेकिन दिलोदिमाग से उसे भुला नहीं पाए हैं, उनको मानसिक तौर पर संबल देने के साथ ही उन लोगों की भी काउंसिलिंग व इलाज पर ध्यान दिया जाए जो अपने किसी करीबी को खोने के गम से उबरने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं

करीबियों से करते रहिए बातः मानसिक तनाव की स्थिति में भी कोई गलत कदम न उठाएं, जिसको अपने सबसे करीब समझते हैं उससे बात कीजिये, यकीन मानिये बात-बात में कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा । ऐसे में अगर परिवार के साथ हैं तो आपस में बातचीत करते रहें। एक-दूसरे की बात को ध्यान से सुनें। बेवजह टोकाटाकी से बचें । यदि अकेले रह रहे हैं तो कोई फिल्म या सीरियल देखें और किताबें पढ़ें। ध्यान, योग और प्राणायाम का भी सहारा ले सकते हैं। अपने करीबी से वीडियो कॉल या फोन करके भी बातचीत कर सकते हैं, इससे भी मन हल्का होगा और हर समय दिमाग में आ रहे नकारात्मक विचार दूर होंगे । यह मानकर चलें कि यह वक्त किसी के लिए भी बुरा हो सकता है, किन्तु ऐसी स्थिति हमेशा तो नहीं बनी रहने वाली। यह वक्त भी गुजर जाएगा । जो वक्त गुजर गया, उसमें से ही कुछ सकारात्मक सोचें । अपने अन्दर साहस लायें ।

दिनचर्या में शारीरिक गतिविधि को शामिल करें: शुरू में भले ही मन न करे फिर भी हर दिन की कुछ ऐसी कार्ययोजना बनाएं जो सार्थकता और उत्पादकता से भरपूर हो । कुछ दिन तक ऐसा करने से निश्चित रूप से उसमें मन लगने लगेगा और कोरोना काल के उस बुरे दौर की छाप भी दिलोदिमाग से हटने लगेगी । दिनचर्या में 45 मिनट का समय शारीरिक गतिविधियों के लिए जरूर तय करें, क्योंकि शारीरिक गतिविधियाँ किसी भी तनाव के प्रभाव को कम करने में प्रभावी साबित होती हैं । नकारात्मक समाचारों से दूरी बनाने में ही ऐसे दौर में भलाई है। खासकर सोशल मीडिया पर आने वाली गैर प्रामाणिक ख़बरों से । तनाव या अवसाद से उबरने के लिए नशीले पदार्थों का सहारा भूलकर भी न लें। क्योंकि ऐसा करना गहरी खाई में धकेलने के समान साबित होगा ।

दूसरों की भलाई सोचें, मिलेगी बड़ी राहत : तनाव व अवसाद से मुक्ति पाने का सबसे उपयोगी तरीका यही है कि दूसरों के लिए कुछ अच्छा सोचें और उनकी भलाई के लिए कदम बढायें। भले ही वह बहुत ही छोटी सी मदद क्यों न हो । यह भलाई किसी भी रूप में हो सकती है, जैसे- भावनात्मक रूप से या आर्थिक रूप से या किसी अन्य मदद के रूप में । जब आप दूसरों की भलाई या अच्छाई के बारे में सोचते हैं या मदद पहुंचाते हैं तो वह निश्चित रूप से आपको एक आंतरिक शांति और सुकून प्रदान करती है ।

जांच में न करें देरीः कोरोना के लक्षण आने के बाद भी उसे सामान्य सर्दी, खांसी व जुकाम-बुखार मानकर नजरंदाज करने की भूल हुई हो तो न घबराए। जांच में देरी करने की चूक हुई हो, रिपोर्ट के इन्तजार में जरूरी दवाएं न शुरू करने के चलते स्थिति गंभीर बनने से अपनों को खोने जैसे सवाल बार-बार दिमाग में कौंधते ही हैं। संयम बनाए रखें। घबराने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है । हाँ ! इतना जरूर हो सकता है कि दूसरे लोग वह भूल या चूक न करें उनके लिए आप बहुत बड़े मददगार जरूर साबित हो सकते हैं । उनको बताएं कि जैसे ही कोरोना से मिलते-जुलते लक्षण नजर आएं तो अपने को आइसोलेट करने के साथ ही जांच कराएँ। स्वास्थ्य विभाग द्वारा तय दवाओं का सेवन शुरू कर दें। ऐसा करने से कोरोना गंभीर रूप नहीं ले पायेगा। बहुत कुछ संभव है कि बगैर अस्पताल गए कोरोना को कम समय में घर पर रहकर ही मात दे सकते हैं ।

भरपूर नींद है जरूरी : किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मेडिसिन विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. हरीश गुप्ता का कहना है कि नींद को भी एक तरह की थेरेपी माना जाता है । चिंता के चलते पूरी नींद न लेना अवसाद की ओर ले जाता है । मधुमेह, उच्च रक्तचाप, सिर और शरीर में दर्द , थकान, याददाश्त में कमी आना, चिड़चिड़ापन, क्रोध की अधिकता, हार्मोन का असंतुलन, मोटापा, मानसिक तनाव जैसी समस्याएं अनिद्रा के कारण जन्म लेती हैं ।कई बार चिकित्सक पर्याप्त नींद की सलाह देकर रोगों से छुटकारा दिलाने का काम करते हैं । हर व्यक्ति को 7-8 घंटे की नींद अवश्य लेनी चाहिए । टीवी, लैपटॉप व मोबाइल पर ज्यादा समय न देकर सेहत के लिए अनमोल नींद को जरूर पूरी करें जो कि ताजगी और फुर्ती देने का काम करेगी ।

योग एवं ध्यान करें : योग प्रशिक्षक बृजेश कुमार का कहना है कि ध्यान, योग और प्राणायाम के जरिये एकाग्रता ला सकते हैं, नकारात्मक विचारों से मुक्ति दिलाने में भी यह बहुत ही कारगर हैं । कोरोना काल में बहुत से लोगों ने इसे जीवन में अपनाया है और फायदे को भी महसूस कर रहे हैं । इम्यून सिस्टम को भी इससे बढ़ाया जा सकता है ।

संतुलित आहार लें : आयुर्वेदाचार्य डॉ. रूपल शुक्ला का कहना है कि हमारे खानपान का असर शरीर ही नहीं बल्कि मन पर भी पड़ता है, इसलिए संतुलित आहार के जरिये भी मन को प्रसन्न रख सकते हैं । भारतीय थाली (दाल, चावल, रोटी, सब्जी, सलाद, दही) संतुलित आहार का सबसे अच्छा नमूना है । संतुलित भोजन हमारे शरीर के साथ ही मानसिक स्थितियों को स्वस्थ बनाता है ।

परेशान हैं तो संपर्क करें हेल्पलाइन पर : विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर सरकार तक को इस बात का एहसास है कि कोरोना के चलते मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ सकती हैं । इसीलिए सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किसी भी समस्या के समाधान के लिए टोल फ्री नंबर 1800-180-5145 पर संपर्क करने को कहा है । किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ के मानसिक रोग विभाग ने भी इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए हेल्पलाइन (नं. 8887019140) शुरू की है,जिस पर काउंसिलिंग की सुविधा प्रदान करने के साथ लोगों को मुश्किल वक्त से उबारकर एक खुशहाल जिन्दगी जीने की टिप्स भी मिलती है ।अनेक राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभागों, सामाजिक संस्थाएं और चिकित्सा संस्थाएं आनलाईन लोगों की मदद कर रही हैं। जरूरत है धैर्य से इस संकट से निपटने की। भरोसा कीजिए हमारे संकट कम होंगें और जिंदगी मुस्कुराएगी।

गंगा मैया की पुकार


अस्थियां प्रवाहित होती थी मुझमें,
अब लाशे निरंतर बहती है मुझमें।
और अब कितने पाप धोऊ सबके,
ये गंगा मैया कह रही है हम सबको।

जिस देश में पवित्र गंगा बहती है,
अब पवित्र गंगा में लाशे बहती है।
कैसा बुरा समय अब आ गया है,
जब मुर्दों की बुरी गति होती है।।

थक गई हूं मै पापियों के पाप धोते धोते,
बचा लो तुम मुझको कह रही रोते रोते।
करा अपवित्र जल शवों को तुमने बहाकर,
क्या करोगे मेरे,अपवित्र जल में नहाकर।।

आई थी मै शिव की जटाओं से निकलकर,
कर दिया भागीरथ के प्रयासों को निष्फल।
होगा नहीं भला भी तुम्हारा ऐसे कुकर्म करके
बन्द करो डालना शवो को मेरे जल में डालके।।

कर रहे है मैली मुझको,गंदे नाले मुझमें डालकर,
और क्यों मैली कर रहे हो मुझमें शव बहाकर।
ले लूंगी मै भी बदला जब मुझमें बाढ़ आएगी,
बह जाओगे जब तुम तब तुमको अक्ल आएगी।।