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वर्तमान वैश्विक नेतृत्व में विश्व कल्याण के भाव का अभाव है

आज विश्व के कुछ देशों में सत्ता उस विचारधारा के दलों के पास आ गई है जो शक्ति के मद में चूर हैं एवं अपने लिए प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं। उनके विचारों में विश्व कल्याण की भावना का पूर्णत: अभाव है। इन देशों के नेतृत्व की कार्यप्रणाली से कुछ देशों के बीच आपस में टकराव पैदा होता दिखाई दे रहा है। दो देशों के बीच की समस्याओं को हल करने के प्रयास के स्थान पर किसी एक देश का पक्ष लेकर दूसरे देश के विरुद्ध खड़े हो जाना भी इन देशों की कार्यप्रणाली का हिस्सा बनता जा रहा है। इस कार्यप्रणाली से कुछ देशों के बीच आपस में युद्ध की स्थिति निर्मित हो रही है। इजराईल एवं ईरान के बीच एवं रूस एवं यूक्रेन के बीच तथा कम्बोडिया एवं थाईलैंड के बीच छिड़ा हुआ युद्ध इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। दरअसल, दो देशों के बीच युद्ध छिड़ने से चौधराहट करने वाले देशों द्वारा अपने देश में निर्मित हथियारों को युद्ध करने वाले देशों को बेचा जाता है जिससे इन देशों में प्रभावशाली लाबी संतुष्ट होती है और वह इन देशों में चुनाव के समय राजनैतिक दलों की मदद करने का प्रयास करती है। पूंजीवादी देशों में कोरपोरेट जगत द्वारा ही सत्ता की स्थापना की जाती है। सत्ता प्राप्त करने के बाद इन्हीं राजनैतिक दलों द्वारा इस कोरपोरेट जगत के हितों को साधने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार इन देशों में राजनैतिक दलों एवं कोरपोरेट जगत का एक नेक्सस अपने अपने हितों का ध्यान रखने के लिए सक्रिय रहता है। अमेरिका में भी आज यही स्थिति दिखाई दे रही हैं। अमेरिका में हथियारों का उत्पादन करने वाली कम्पनियों की, वर्तमान सत्ता के गलियारे में, अच्छी पैठ दिखाई देती है।

वर्तमान वैश्विक नेतृत्व द्वारा विश्व कल्याण पर विचार किए जाने एवं छोटे छोटे अविकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सहायता किए जाने के स्थान पर अन्य देशों, जिनके नेता इन तथाकथित विकसित देशों की अमानवीय शर्तों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, की अर्थव्यवस्थाओं को बर्बाद किये जाने की धमकियां तक दी जा रही हैं। यूरोपीयन यूनियन के अध्यक्ष ने भारत की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने की धमकी इसलिए दी है क्योंकि भारत, रूस से कच्चे तेल का आयात करता है। इसी प्रकार, ट्रम्प प्रशासन द्वारा भारत एवं रूस की अर्थव्यवस्थाओं को मृत अर्थव्यवस्था की श्रेणी का बताया है एवं भारत द्वारा अमेरिका में किए जाने वाले निर्यात पर 25 प्रतिशत का टैरिफ 1 अगस्त 2025 से लागू कर दिया है क्योंकि भारत, रूस से कच्चे तेल एवं सुरक्षा उपकरणों का भारी मात्रा में आयात करता है। जबकि, भारत एवं अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार संधि अपने अंतिम चरण में हैं।  

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूजनीय श्री गुरुजी (श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) ने आज से 65/70 वर्ष पूर्व ही साम्यवादी एवं पूंजीवादी विचारधारा पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि “न तो साम्यवाद और न ही पूंजीवाद संसार को एक सूत्र में बांध सकेंगे। इसके पीछे उन्होंने कुछ बुनियादी कारण बताए थे। भौतिकवादी दर्शन, जो मनुष्य को एक प्राणी मात्र समझता है और मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को ही सर्वोच्च लक्ष्य मानता है, वह मनुष्य में स्पर्धा और संघर्ष का भाव तो उत्पन्न कर सकता है, उसमें एकता और सौहार्द पैदा नहीं कर सकता। कारण स्पष्ट है – भौतिकता की भूमि पर मतभेद और मार्गों की भिन्नता अनिवार्य हो जाती है। वे अलगाव और वर्चस्व की धारा को बल प्रदान करते हैं। जो लोग संसार को भौतिकता के यथार्थ से देखते हैं उनके लिए समन्वय और एकात्मता का कोई महत्व नहीं है। वे सहयोग के विषय में सोच ही नहीं सकते। यह तो भारत की दृष्टि है, जब हम इन विभिन्नताओं के भीतर छिपी आंतरिक एकता का अनुभव करते हैं, जब हम सम्पूर्ण एकात्मता की अनुभूति कर पाते हैं।  भौतिकवादी दृष्टिकोण में हम अपना अलग और बिरला अस्तित्व समझने लगते हैं, जिनमें पारस्परिक प्रेम और अपनत्व का कोई स्थान नहीं होता। ऐसे प्राणियों में अपनी स्वार्थपरता पर नियंत्रण करने और समस्त मानवजाति की भलाई में बाधक तत्वों को नष्ट करने की भी कोई प्रेरणा नहीं होती हैं।” आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों की सत्ता में बैठे विभिन्न राजनैतिक दलों की स्थिति को देखते हुए, 65/70 वर्ष पूर्व प्रकट किए गए पूजनीय गुरुजी के उक्त विचार आज कितने सटीक बैठते हैं।

पूजनीय श्री गुरुजी का यह दृढ़ विश्वास था कि भारतीय जीवन पद्धति ही एक मात्र ऐसी पद्धति है जो सामाजिक विकास को अवरुद्ध किए बिना वैयक्तिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करती है। पश्चिमी दर्शन दो पद्धतियों पर विश्वास करता है – लोकतंत्र और साम्यवाद। लोकतंत्र ने स्वार्थ परता को बढ़ावा दिया और एक मनुष्य को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया। यह सर्वविदित है। इसमें मनुष्य के लिए कहीं भी शांति नहीं है। इस व्यवस्था में आध्यात्मिकता के विकास का कोई अवसर अथवा मार्ग नहीं है। आत्म-प्रशंसा और पर निंदा जो प्रायः चुनावों के समय देखी जा सकती है, आध्यात्मिकता की हत्या कर देती है। यह विचार भारत की वर्तमान राजनैतिक स्थिति पर भी सटीक बैठते हैं। दूसरी ओर, साम्यवाद मस्तिष्क को एक ही विचारधारा से ग्रसित कर देता है। यह मनुष्य की वैयक्तिकता का विनाश कर देता है किन्तु मनुष्य केवल पशु नहीं है जो खाते पीते है और संतानोत्पति मात्र करते हैं। मनुष्य में सोचने, विचारने, चिंतन एवं मनन करने की शक्ति भी होती है जिसके माध्यम से कर्म एवं अर्थ सम्बंधी कार्य को धर्म के साथ जोड़कर सम्पन्न करने की क्षमता विकसित होती है। इस शक्ति को भौतिक वस्तुओं की सम्पन्नता के बीच भी प्राप्त किया जा सकता है यदि व्यक्ति का झुकाव आध्यात्म की ओर हो।

पूंजीवादी एवं साम्यवादी विचारधारा के ठीक विपरीत भारतीय दर्शन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक एकता को परस्पर आश्रितता के माध्यम से दोनों को ही सुनिश्चित किया गया है। प्राचीन काल में भारत के नागरिक आर्थिक दबाव से मुक्त रहते थे, क्योंकि किसी भी परिवार में शिशु के जन्म के साथ ही उसे एक पुश्तैनी व्यवसाय को चलायमान रखने की गारंटी रहती थी। उस खंडकाल में परिवार में पुश्तैनी व्यवसाय को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आने वाली पीढ़ी के कंधो पर रहती थी। अतः युवा पीढ़ी पर आर्थिक दृष्टि से दबाव अथवा तनाव नहीं रहता था। अब तो पश्चिमी दार्शनिक भी भारतीय आर्थिक दर्शन के विभिन्न आयामों पर गम्भीरता से विचार करने लगे हैं। दरअसल, इसी पद्धति के चलते भारत में वर्ण व्यवस्था (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं ब्राह्मण) पनपी थी जिसे बाद में अंग्रेजों ने दुर्भावनावश जाति व्यवस्था का नाम दे दिया था तथा हिंदू समाज में जाति व्यवस्था के नाम पर तथाकथित विभिन्न जातियों (अंग्रेजी शासन की देन) के बीच आपस में मतभेद पैदा करने में सफलता पाई थी ताकि उन्हें भारत पर अपना शासन स्थापित करने में आसानी हो।

वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्थाओं में आ रही समस्याओं के समाधान में असफल रहने के बाद अब कई देश भारत के दर्शन पर रिसर्च कर रहे हैं एवं इस व्यवस्था को अपने देश में लागू करने पर गम्भीरता से विचार कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी लगातार इस बात को दोहराता रहा है कि सनातन हिंदू संस्कृति के संस्कारों से ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है। अतः भारत का विश्व गुरु बनना केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि विश्व के भले के लिए भी आवश्यक है। भारत में पनपी हिंदू सनातन संस्कृति मनुष्य को सांसारिक आवश्यकताओं से चिंतामुक्त करके ईश्वरोन्मुखी बनाती है। भारत में समस्त वर्णों में उच्च श्रेणी के संत महात्माओं का जन्म हुआ है। यही कारण है कि सभी जातियों में आध्यात्मिकता के आधार स्तम्भ पर खड़ा यह एक आश्चर्यजनक लोकतंत्र है। इस पृष्ठभूमि में भारत में सभी नागरिक समान और एकात्म हैं। इसी आध्यात्म के बल पर कालांतर में भारत विश्व गुरु बन गया था। आज के परिप्रेक्ष्य में एक बार पुनः पूरे विश्व को एक बार पुनः भारतीय आध्यात्म की आवश्यकता है    

प्रहलाद सबनानी

टैरिफ आर्थिक युद्ध नहीं, आत्मनिर्भर शांति का रास्ता बने

 ललित गर्ग 

जब किसी वैश्विक ताक़त के शिखर पर बैठा नेता ‘व्यापार’ को भी ‘सौदेबाज़ी’ और ‘दबाव नीति’ का औज़ार बना ले, तब यह न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था को झकझोर देता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के आधारभूत सिद्धांतों को भी चुनौती देता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाकर ऐसा ही एक आर्थिक आघात पहुँचाया है। इस टैरिफ का लक्ष्य स्पष्ट है, भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा को बाधित करना और अमेरिकी वर्चस्व की पुनः स्थापना करना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य एवं भारत की उभरती अर्थव्यवस्था में अमेरिका की ‘ट्रंपीय’ दादागिरी, एवं टैरिफ का तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव कितना क्या असर दिखायेगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन इस सन्दर्भ में भारत सरकार की दृढ़ता सराहनीय है। अमेरिका हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है, दोनों का द्विपक्षीय व्यापार 2024 में 190 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। ट्रंप और मोदी ने इस आंकड़े को दोगुना से भी ज्यादा 500 अरब डॉलर करने का लक्ष्य रखा था, लेकिन उस लक्ष्य पर सवालिया निशान लग गए हैं। ऐसे में, भारतीय कंपनियों को बहुत संभलकर अपने लिए नए बाजार खोजने व बढ़ाने चाहिए।
भारत की अर्थव्यवस्था अब दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में है। मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे अभियानों ने भारत को उत्पादन और नवाचार का नया केंद्र बनाया है। भारत का टेक्सटाइल, स्टील, ऑटो पार्ट्स और आईटी सेवा क्षेत्र वैश्विक बाज़ार में निरंतर अपनी पकड़ मज़बूत कर रहे हैं। ऐसे में अमेरिका द्वारा टैरिफ थोपना भारत की बढ़ती वैश्विक प्रतिस्पर्धा से उपजे भय का संकेत है। लेकिन यह निर्णय केवल व्यापारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। ट्रंप प्रशासन हमेशा से ही व्यापार संतुलन के मुद्दे को राष्ट्रीय गौरव से जोड़कर देखता रहा है। ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति का मुख्य हथियार रहा है, दूसरों को पीछे धकेलकर अमेरिका को आगे लाना। यह एकतरफा सोच व्यापार के मूल्यों और साझेदारी की भावना को कमजोर करती है। व्यापार समझौते पर 1 अगस्त की समय सीमा तक दोनों देशों के बीच जारी बातचीत किसी नतीजे पर न पहुंचने का बड़ा कारण भारत का अमेरिका की शर्तों पर समझौता करने के लिए तैयार नहीं होना रहा है। उसे आगे भी तैयार नहीं होना चाहिए। इसका कोई मतलब नहीं कि भारत अमेरिका से ऐसा व्यापार समझौता कर ले, जो केवल उसके हित में हो। इस तरह के समझौते तो तभी हो पाते हैं, जब दोनों पक्षों के हित सधते हैं। भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए अडिग रहना चाहिए और यह स्पष्ट करने में संकोच भी नहीं करना चाहिए कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुचित दबाव के आगे झुकने वाला नहीं। भारत को ट्रंप के मनमाने फैसलों से डरने की आवश्यकता इसलिए भी नहीं, क्योंकि वे अपने फैसलों से पीछे हटने और उन्हें पलटने के लिए जाने जाते हैं। उनके इस रवैये के कारण उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फजीहत भी हो रही है। उन्हें यह समझ आ जाए तो अच्छा कि आज का भारत पहले वाला भारत नहीं है और अमेरिका का भी प्रभाव पहले जैसा नहीं रहा।
डोनाल्ड ट्रंप की नीति अक्सर ‘दबाव डालो और झुकावो’ पर आधारित रही है। चीन, यूरोप, मैक्सिको के साथ भी ट्रंप की व्यापार नीति टकरावपूर्ण रही है। लेकिन भारत, ऐतिहासिक रूप से संतुलन साधने वाली कूटनीति में विश्वास करता रहा है। भारत ने कई बार वार्ता के माध्यम से समझौते की दिशा में पहल की, लेकिन ट्रंप की आक्रामक नीति और ‘डीलमेकिंग’ की व्यक्तिगत शैली ने किसी संतुलन को बनने नहीं दिया। भारत पर लगाया गया 25 प्रतिशत टैरिफ न केवल आर्थिक रूप से अनुचित है, बल्कि यह उभरते राष्ट्रों के आत्मनिर्भर बनने के अधिकार का भी हनन है। यह नव-उपनिवेशवाद का नया रूप है, जहंँ आर्थिक हथियारों से शक्तिशाली राष्ट्र, विकासशील देशों को नियंत्रित करना चाहते हैं। राष्ट्रपति ने भारत पर टैरिफ बढ़ाने और जुर्माना लगाने की जो घोषणा की, वह उनकी दबाव की राजनीति का ही हिस्सा है। इस राजनीति की पोल खुल चुकी है। अच्छा होगा कि इसे देश के विपक्षी दल भी समझें। इसलिए और भी समझें कि संसद में आपरेशन सिंदूर पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने साफ तौर पर कहा कि सैन्य कार्रवाई को स्थगित किए जाने के सिलसिले में विश्व के किसी भी नेता की कहीं कोई भूमिका नहीं। स्पष्ट है कि भारत-पाकिस्तान के बीच सैन्य कार्रवाई को कथित तौर पर रोकने का ट्रंप का दावा फर्जी है। वास्तव में इसी कारण वे अपने इस थोथे दावे को बार-बार दोहरा रहे हैं।
आज का भारत न केवल एक विशाल बाज़ार है, बल्कि एक नवाचारशील शक्ति भी है। दुनिया की सबसे बड़ी युवा जनसंख्या, तेज़ी से बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्था, और विविधता से समृद्ध उत्पादन क्षमता भारत को वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर कर रही है। भारत अब “निर्भरता” की नीति से निकलकर “आत्मनिर्भरता” की ओर बढ़ रहा है। ट्रंप के टैरिफ का प्रभाव सीमित और अस्थायी होगा, लेकिन भारत की आर्थिक विकास यात्रा दीर्घकालिक और दृढ़ है। भारत के लिए यह चुनौती अवसर में बदलने का समय है, नए बाज़ारों की तलाश, घरेलू उत्पादन को और सशक्त बनाना, और वैश्विक साझेदारियों को नए रूप में ढालना। ट्रंप की दादागिरी भारत को झुका नहीं सकती। बल्कि यह भारत को और मज़बूत और आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दे सकती है। यह समय है जब भारत को अपने उत्पादन, नवाचार, निर्यात और कूटनीति को और धार देने की आवश्यकता है। हमें यह समझना होगा कि शक्ति का उत्तर शक्ति से नहीं, दूरदृष्टि और नीति से दिया जाना चाहिए। ट्रंप का टैरिफ एक चुनौती है, लेकिन भारत की आत्मा में संघर्ष से जीतने का इतिहास है। हमने हर संकट को अवसर में बदला है, और इस बार भी हम यही करेंगे, न केवल अपनी अर्थव्यवस्था के लिए, बल्कि वैश्विक आर्थिक संतुलन के लिए भी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आर्थिक चिंतन मूलतः ‘आत्मनिर्भर भारत’, ‘विकास के साथ विश्वास’, और ‘समान साझेदारी’ के सिद्धांतों पर आधारित रहा है। वे वैश्विक मंच पर भारत को एक समानाधिकार संपन्न राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं, न कि किसी बड़े राष्ट्र की कृपा पर चलने वाली व्यवस्था के रूप में। जब डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता भारत पर 25 प्रतिशत टैरिफ का प्रहार करते हैं, तो नरेंद्र मोदी की सोच विरोध नहीं, विकल्प पर आधारित होती है। वे इस तरह के दबावों को एक नई दिशा में सोचने और घरेलू उत्पादन एवं वैश्विक विविधीकरण का अवसर मानते हैं। टैरिफ वार के उत्तर में मोदी की प्रतिक्रिया सकारात्मक ही होती हुई दिख रही है, वे ट्रंप के टैरिफ से प्रभावित क्षेत्रों जैसे स्टील, ऑटो पार्ट्स, टेक्सटाइल को सरकारी सब्सिडी, टैक्स रियायत और तकनीकी समर्थन के ज़रिए बल दे सकते हैं। अमेरिका के अतिरिक्त यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे नए बाज़ारों में भारत अपनी पकड़ को और मज़बूत करते हुए इस टैरिफ से उत्पन्न संकट को संतुलित कर सकता है।
ट्रंप भारत को अपना मित्र मानते हैं। लेकिन यह कैसी मित्रता है, जिसमें ट्रंप को भारत के गरीबों, किसानों, मजदूरों की कोई चिंता नहीं है। लेकिन मोदी की विदेश नीति में भी ‘अमेरिका के साथ मित्रता’ है, लेकिन ‘आत्मगौरव की कीमत पर नहीं’। वे संवाद और दृढ़ता-दोनों का प्रयोग करते हैं। दबाव की राजनीति से न तो भारत झुकेगा, न रुकेगा। ट्रंप का टैरिफ हो या कोई और वैश्विक चुनौती, मोदी का भारत हर संकट में अवसर खोजता है। मोदी की आर्थिक दृष्टि एवं नीतियां किसी बाहरी राष्ट्र के मनोनुकूल नहीं, बल्कि भारत की आवश्यकताओं, संभावनाओं और स्वाभिमान के अनुरूप गढ़ी गई है। जब वैश्विक महाशक्तियां टैरिफ के हथियार से डराने लगें, तो समझो कि भारत की प्रतिस्पर्धा ने उन्हें असहज कर दिया है। मोदी इसे चुनौती नहीं, पहचान मानते हैं। मोदी कहते हैं-‘लोकल को ग्लोबल बनाओ’, और यही उनका उत्तर है हर टैरिफ, हर दबाव, हर चुनौती को। मोदी की अर्थनीति उद्यमशीलता को राष्ट्रनिर्माण से जोड़ती है। उनका आर्थिक चिंतन ‘केवल विकास’ नहीं, बल्कि स्वराज्य आधारित समावेशी आर्थिक स्वतंत्रता है। ट्रंप के टैरिफ की चुनौती को वे उसी तरह लेते हैं जैसे उन्होंने कोविड या ग्लोबल मंदी की ली थी-साहस, दूरदर्शिता और आत्मनिर्भरता के साथ।

गिरती छतें, टूटते सपने: क्या गरीबों की जान की कोई क़ीमत नहीं?

लेखक: अशोक कुमार झा

क्या आपने कभी सुना है कि किसी कलेक्टर का घर गिर गया हो? किसी मंत्री के आवास की छत भरभरा कर ढह गई हो? या किसी नौकरशाह की कोठी किसी बारिश में ढह गई हो? नहीं ना?

क्योंकि ऐसा होता ही नहीं है। उनके मकानों की समय-समय पर मरम्मत होती है, भवनों की तकनीकी जांच होती है, अगर मरम्मत के लायक नहीं होते तो या तो उन्हें खाली करवा लिया जाता है, या पूरी तरह से नया भवन बना दिया जाता है — और यह सब होता है सरकार के बजट और सिस्टम की प्राथमिकता के तहत।

लेकिन जब बात उन भवनों की आती है जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं, जहाँ मजदूर परिवार अपना जीवन बिताते हैं, जहाँ आम नागरिक अपने परिवार की उम्मीदें लेकर रहते हैं — तो वही भवन अक्सर हादसों के इंतजार में खड़े दिखाई देते हैं। दरारें दिखती हैं, प्लास्टर झड़ता है, छतें सीलन से सड़ती हैं, लेकिन व्यवस्था तब तक नहीं जागती जब तक कि कोई हादसा न हो जाए।

ताजा उदाहरण: झालावाड़ का भयावह हादसा

राजस्थान के झालावाड़ ज़िले के मनोहरथाना ब्लॉक स्थित पिपलोदी के सरकारी स्कूल में छत गिरने से 7 मासूम बच्चों की दर्दनाक मौत हो गई। 9 से अधिक घायल हुए। ये बच्चे उस इमारत में पढ़ने आए थे जिसे ‘विद्यालय’ कहा जाता था, लेकिन वह भवन कब्रगाह में बदल गया। यह कोई पहली घटना नहीं है।

कुछ ही हफ्ते पहले झारखंड की राजधानी रांची में भी एक सरकारी स्कूल की दीवार गिरने से कई लोग घायल हुए थे, जिसमें एक व्यक्ति की जान चली गई। ये घटनाएं अलग-अलग राज्यों से हैं, लेकिन इनकी जड़ें एक ही हैं — लापरवाही, भ्रष्टाचार और गरीबों के जीवन की उपेक्षा।

वास्तव में गिरता क्या है — छत या व्यवस्था?

जब किसी स्कूल की छत गिरती है, जब किसी सड़क का पुल टूटता है, जब कोई मकान भरभराकर गिरता है — तब दरअसल सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं गिरते। गिरती है हमारी प्रशासनिक संवेदनशीलता, नीतियों की निष्क्रियता, और सबसे बढ़कर वो भरोसा जो जनता अपने नेताओं, अफसरों और शासन पर करती है।

किसी भी सरकारी भवन को बनाने, उसके रखरखाव, निरीक्षण, और सुरक्षा के लिए सरकारी स्तर पर PWD (लोक निर्माण विभाग), नगर निगम, शिक्षा विभाग, और जिला प्रशासन जिम्मेदार होते हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि इन भवनों की नियमित तकनीकी जांच, सेफ्टी ऑडिट, और जरूरी मरम्मत कार्य महज कागजों में ही होता है।

जो दिखता है, उसे सजाया जाता है; जो अनदेखा है, वह मौत बन जाता है

आप संसद भवन को देखिए — नया बना, भव्य और तकनीकी रूप से सुरक्षित। विधानसभाएं वातानुकूलित, सुसज्जित और टिकाऊ हैं। हाईकोर्ट, सचिवालय, मंत्रालय — सबका कायाकल्प होता रहता है। क्योंकि वहाँ बैठने वाले VIP होते हैं। उनकी जान की क़ीमत होती है।

लेकिन किसी आंगनबाड़ी केंद्र की बात कीजिए, किसी पंचायत भवन की, या किसी जिला स्कूल की — वहाँ तो अक्सर दीवारें झड़ती मिलती हैं, फर्श उखड़ा होता है, और छत में दरारें साफ़ दिखाई देती हैं। लेकिन जब तक कोई हादसा न हो जाए, अधिकारी दौरे पर नहीं आते। ये भवन भरोसे की कब्रगाह बने रहते हैं।

सवाल यह नहीं कि छत क्यों गिरी — सवाल यह है कि चेतावनी के बावजूद क्यों नहीं रोका गया?

झालावाड़ के हादसे में बच्चों ने खुद बताया कि छत में दरार है, लेकिन शिक्षकों ने उन्हें धमका कर चुप करा दिया। यह लापरवाही नहीं, यह अपराध है। बच्चों की बात को अनसुना करना, खतरे को नजरअंदाज करना और व्यवस्था की असंवेदनशीलता — ये सब इस मौत के बराबर दोषी हैं।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ — देशभर में ऐसे सैकड़ों स्कूल, भवन, अस्पताल, पुलिस स्टेशन, सरकारी क्वार्टर मौजूद हैं, जहाँ लोग रोज़ मौत के साए में जीते हैं।

भ्रष्टाचार भी है बड़ा कारण

भवन निर्माण में होने वाला घटिया निर्माण कार्य, बजट का दुरुपयोग, ठेकेदार-अफसर गठजोड़ — ये सभी दुर्घटनाओं के कारण हैं। सरकारें सालाना करोड़ों रुपये ‘मरम्मती कार्य’ के नाम पर देती हैं, लेकिन वो राशि कहाँ जाती है, इसका रिकॉर्ड ज़्यादातर मामलों में फर्जीवाड़ा से भरा होता है।

सरकारी रिकॉर्ड कहता है — “मरम्मत हो गई”, लेकिन ज़मीनी हकीकत कहती है — “छत में दरार आज भी है”।

क्या गरीबों की जान इतनी सस्ती है?

जब किसी मंत्री की गाड़ी सड़क में गड्ढे के कारण झटके खा जाए, तो दूसरे ही दिन सड़क की मरम्मत शुरू हो जाती है। लेकिन अगर किसी गरीब की जान उसी गड्ढे में चली जाए — तो एक जांच कमेटी बना दी जाती है, मुआवजा की घोषणा हो जाती है, और फिर सब भूल जाते हैं।

क्या यही है समाजिक न्याय? क्या यही है सुशासन?

एक अधिकारी की गलती पर यदि VIP की कोठी टूटे तो उसे सस्पेंड कर दिया जाता है। लेकिन जब किसी स्कूल में बच्चा मरता है, तो सब ‘प्राकृतिक आपदा’ या ‘दुर्घटना’ कह कर नज़रें फेर लेते हैं। ये संवेदनहीनता नहीं, यह अक्षम्य पाप है।

कानून, जवाबदेही और ज़रूरत की मांग

अब समय आ गया है कि देश में ‘भवन सुरक्षा कानून’ (Building Safety Accountability Law) की स्थापना हो। इसमें निम्नलिखित प्रावधान अनिवार्य किए जाएं:

हर सरकारी भवन की वार्षिक तकनीकी जांच हो।
हर विद्यालय, आंगनबाड़ी और अस्पताल की संरचनात्मक सेफ्टी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
जहाँ भी खतरा हो, उसे तुरंत खाली कर मरम्मत या पुनर्निर्माण किया जाए।
निर्माण कार्य में शामिल ठेकेदार, इंजीनियर, और स्वीकृति अधिकारी की व्यक्तिगत जवाबदेही तय हो।
दुर्घटना होने पर सिर्फ मुआवजा नहीं, बल्कि आपराधिक मामला दर्ज हो।
मीडिया और समाज की भूमिका

हमें इन हादसों को केवल ‘एक और दुखद समाचार’ मानकर भूल नहीं जाना चाहिए। यह हमारी नागरिक चेतना की परीक्षा है। मीडिया को भी चाहिए कि वह इन मुद्दों को तब तक उठाता रहे, जब तक सरकारें नीतिगत बदलाव के लिए मजबूर न हो जाएं।

सिविल सोसाइटी को आगे आना चाहिए, ताकि “मौत के घरों में पलने वाली ज़िंदगियाँ” बचाई जा सकें।

सिस्टम को झकझोरने की ज़रूरत है

जब तक इस देश में गरीब की जान की क़ीमत केवल ₹5 लाख के मुआवज़े में आँकी जाती रहेगी, तब तक छतें गिरती रहेंगी, दीवारें ढहती रहेंगी, और सपने मरते रहेंगे।

लेकिन अब बहुत हो गया।
हमें पूछना होगा —
क्यों सिर्फ़ गरीबों के घर, स्कूल और अस्पताल ही गिरते हैं?
क्या मंत्री, अधिकारी और संपन्न वर्ग के भवनों के लिए ही शासन सजग है?
क्या शिक्षा का मंदिर अब बच्चों की समाधि बनते रहेंगे?

अब वक्त है कि हम आवाज़ उठाएं — “हमें सुरक्षित भवन चाहिए, दिखावटी घोषणाएं नहीं।”

फिल्‍म ‘बॉर्डर 2’ में सोनम बाजवा की एंट्री

सुभाष शिरढोनकर

कई पंजाबी फिल्मों में नजर आ चुकी एक्‍ट्रेस सोनम बाजवा का जादू हर किसी के सिर पर चढ़कर बोलता है। जल्द ही वह नेशनल अवॉर्ड विजेता निर्देशक विजय कुमार अरोड़ा की, महिलाओं और पुरुषों की असमानता पर बनने वाली पंजाबी फिल्म ‘गोड्डे गोड्डे चा’ में नजर आएगी ।

कई वर्षों से पंजाबी फिल्‍म इंडस्‍ट्री में सक्रिय, सोनम बाजवा अपनी बेपनाह खूबसूरती और एक्टिंग टेलेंट से दर्शकों को प्रभावित करने में कामयाब रही हैं। पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री में उनकी अच्छी-खासी फैन फॉलोइंग है।

सोनम बाजवा पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री की उन एक्‍ट्रेसेस में से एक है जिनकी लोकप्रियता देश भर में है। एक लंबे वक्‍त से सोनम बाजवा की नजर पंजाबी फिल्मों के बाद बॉलीवुड पर थी।

हालांकि, सोनम बार बार यही कहती रही हैं कि वह सोच-समझकर अच्‍छे अवसर के साथ ही हिन्दी सिनेमा में डेब्यू करना चाहती है और इसी वजह से उन्‍होंने बॉलीवुड के कई ऑफर ठुकराए भी है।

एक्‍ट्रेस सोनम बाजवा को हाल ही में फिल्‍म ‘हाउसफुल 5’ (2025) में देखा गया। फिल्‍म में उन्हें और उनके काम को खूब पसंद भी किया गया। इस के बाद अब उन्‍होंने जे पी दत्‍ता की फिल्‍म ‘बॉर्डर 2’ में एंट्री मारी है।

फिल्‍म ‘बॉर्डर 2’ की 60 फीसदी शूटिंग पूरी हो जाने के बाद सोनमा बाजवा को इस फिल्म में दिलजीत दोसांझ के अपोजिट एक पंजाबी लड़की के किरदार के लिए कास्‍ट किया गया है।

27 जून से वह फिल्म की शूटिंग शुरू कर चुकी हैं। सोनम बाजवा और दिलजीत दोसांझ के अलावा फिल्म में सनी देओल, अहान शेट्टी, वरुण धवन अहम भूमिका में नजर आने वाले हैं।

सोनम बाजवा अपने फैशन सेंस की बदौलत सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय है। बेशक वह हर बार अपना स्टेटस सिंगल बताती हैं लेकिन कुछ लोगों का दावा है कि 2020 में लॉकडाऊन के दौरान पेशे से पायलट रक्षित अग्निहोत्री के साथ वह शादी कर चुकी हैं।

16 अगस्त 1989 को नैनीताल में पैदा हुई सोनम बाजवा की पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई। पढाई खत्‍म करने के बाद साल 2012 में वह मायानगरी मुंबई आ गईं। यहां आकर उन्होंने ‘फेमिना मिस इंडिया’ में हिस्सा लिया लेकिन ग्‍लैमर वर्ल्ड में जब कामयाबी उनके हाथ नहीं लगी, वह एयर होस्टेस बन गईं।

लेकिन साल 2013 में जब उनकी खूबसूरती से इम्‍प्रेस होकर फिल्म ‘बेस्ट ऑफ लक’ का ऑफर मिला तब उन्‍होंने एयर होस्‍टेस की जॉब छोड़ दी।

फिल्म ‘बेस्ट ऑफ लक’ में सोनम ने अपने किरदार के जरिए हर किसी का दिल जीत लिया था। इसके बाद वह फिल्‍म ‘पंजाब 1984’ में दिलजीत दोसांझ के साथ नजर आईं।

साल 2016 सोनम के करियर के लिए काफी बेहतर साबित हुआ। उस साल उन्होंने एक के बाद एक चार हिट पंजाबी फिल्में कीं। उन्‍होंने तमिल और तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री में डेब्यू भी किया। इसके बाद सोनम के करियर ने इस कदर रफ्तार पकड़ी कि वह शोहरत की बुलंदियां छूने लगीं।

फिल्मों के अलावा सोनम बाजवा अक्षय कुमार के साथ उनके यूएस टूर द एंटरटेनर्स में मौनी रॉय और दिशा पाटनी के साथ शामिल हो चुकी हैा। कहा जाता है कि उसी दौरान वह अक्षय कुमार के गुडबुक में आ गईं और जिसकी बदौलत उन्हें ‘हाउसफुल 5’ का ऑफर मिला।

सुभाष शिरढोनकर

उधम सिंह: लंदन की अदालत में भारत की गरिमा का नाम

उधम सिंह केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक विचार थे—संयम, संकल्प और सत्य का प्रतीक। जलियांवाला बाग़ के नरसंहार का प्रत्यक्षदर्शी यह वीर 21 वर्षों तक चुपचाप अपने मिशन की तैयारी करता रहा और लंदन जाकर ओ’डायर को गोली मारकर भारत का प्रतिशोध पूरा किया। उनकी चुप्पी न्याय की गर्जना थी, जो आज भी हमें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देती है। आज उनकी याद केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि आत्ममंथन की पुकार है—क्या हम उधम सिंह के उत्तराधिकारी बन पाए हैं?

✍️ डॉ. प्रियंका सौरभ

भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई केवल तलवारों की टंकार या जुलूसों की गूंज नहीं थी, वह उन आंखों में पलते संकल्पों की लड़ाई थी, जो वर्षों तक प्रतिशोध को अपनी आत्मा में पाले रही। वह उन लोगों की कहानी थी, जो नारे नहीं लगाते थे, लेकिन भीतर ही भीतर एक ज्वालामुखी की तरह उबलते रहते थे। उन ज्वालाओं में से एक नाम था — उधम सिंह।

उधम सिंह, जिन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी में अपने साथियों का खून देखा। जिन्होंने अपने जीवन को एक ही लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया — न्याय। यह कहानी है एक ऐसे वीर की, जो किसी अखबार की सुर्ख़ी नहीं बना, लेकिन इतिहास की सबसे करारी चोट साबित हुआ।

13 अप्रैल 1919, अमृतसर। बैसाखी का त्यौहार था। जलियाँवाला बाग में हज़ारों लोग शांतिपूर्वक एकत्र थे। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि यह दिन इतिहास के सबसे रक्तरंजित दिनों में तब्दील हो जाएगा। जनरल डायर की क्रूरता ने मासूमों पर गोलियों की बौछार कर दी। न कोई चेतावनी, न कोई चेतावक विचार। निहत्थे लोगों पर मशीनगनों से फायरिंग हुई। लाशों की चादर बिछ गई। सैकड़ों लोग मारे गए, और हज़ारों ज़ख़्मी। पूरा बाग खून से लाल हो गया।

उसी नरसंहार में एक 20 वर्षीय युवा घायल, लेकिन जीवित बचा—उधम सिंह। उन्होंने न केवल उस घटना को देखा, बल्कि उसे अपने सीने में पत्थर की तरह गड़ा लिया। उन्होंने न शोर मचाया, न कोई शिकायत की। पर उनके अंदर एक ज्वाला धधक रही थी, जो शांति से नहीं बुझने वाली थी।

उधम सिंह ने अपने जीवन को एक ही दिशा दी—इस क्रूरता का बदला लेना। उन्होंने प्रतिशोध नहीं, न्याय की भाषा चुनी। वे वर्षों तक खामोशी से तैयारी करते रहे। अपने देश से दूर जाकर दुश्मन की धरती पर खड़े होकर भारत का परचम लहराने का उन्होंने प्रण लिया। यह कोई आवेश में किया गया कार्य नहीं था, यह एक सुनियोजित नैतिक युद्ध था।

1934 में वे लंदन पहुँचे। वहाँ वे गुमनाम ज़िंदगी जीते रहे। उनका मकसद केवल ओ’डायर तक पहुँचना था—वह व्यक्ति जिसने जनरल डायर के कत्लेआम को समर्थन और सम्मान प्रदान किया था। 13 मार्च 1940 को वह दिन आया, जब उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के एक सभागार में जाकर, कैक्सटन हॉल में ओ’डायर को गोली मारी। वह गोली केवल एक शरीर को नहीं भेदती थी, वह एक साम्राज्य की आत्मा को झकझोर देती थी।

उधम सिंह वहीं गिरफ्तार हुए। उन्होंने भागने की कोई कोशिश नहीं की। अदालत में खड़े होकर उन्होंने गर्व से कहा, “मैंने मारा है। यह प्रतिशोध नहीं, न्याय है। मैं अपने देश के लिए मरने जा रहा हूँ, और मुझे इस पर गर्व है।” उनके चेहरे पर न पछतावा था, न भय। वह एक आत्मा थी, जो न्याय के सिद्धांत पर अडिग थी।

ब्रिटिश शासन की नींव को यह घटना अंदर तक हिला गई। एक भारतीय, साम्राज्य की राजधानी में आकर, खुलेआम न्याय कर गया। यह केवल एक हत्या नहीं थी, यह अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ एक नैतिक घोषणापत्र था। उधम सिंह ने यह दिखा दिया कि भारतवासी केवल लड़ाई के मैदान में ही नहीं, विवेक और साहस के साथ भी लड़ सकते हैं।

आजादी के बाद भारत ने उधम सिंह को “शहीद-ए-आज़म” की उपाधि दी। लेकिन क्या हम सच में उनके विचारों और बलिदान के योग्य उत्तराधिकारी बन पाए हैं?

आज भी हमारे देश में अन्याय मौजूद है। बलात्कारियों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है, पत्रकार जेलों में बंद हैं, गरीब किसान आत्महत्या कर रहा है और सत्ता मौन है। क्या यही वह भारत है, जिसकी कल्पना उधम सिंह ने की थी? क्या हममें से किसी के भीतर वैसी आग बची है?

उधम सिंह ने बंदूक चलाई थी, लेकिन वह गोली भारत की चेतना को जगा गई थी। वह गोली एक उदाहरण थी, कि अगर अन्याय को सहा गया, तो वह बार-बार दोहराया जाएगा। उन्होंने यह दिखाया कि सच्चा राष्ट्रभक्त वह नहीं जो तिरंगा लहराकर भाषण देता है, बल्कि वह है जो अन्याय के सामने कभी न झुके।

आज जब हम राष्ट्रवाद के नाम पर नफ़रत का बाज़ार सजते देख रहे हैं, तो उधम सिंह का नाम हमें आइना दिखाता है। उन्होंने कभी किसी धर्म, जाति या पार्टी के नाम पर संघर्ष नहीं किया। उनका उद्देश्य केवल एक था—न्याय और स्वतंत्रता।

उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर हम मोमबत्तियाँ जलाते हैं, प्रतिमाओं पर फूल चढ़ाते हैं। लेकिन यह श्रद्धांजलि तब तक अधूरी है जब तक हम उनके विचारों को अपने जीवन में न उतारें। देशभक्ति केवल एक दिवस की भावना नहीं हो सकती। वह एक निरंतर जागरूकता है, जो हर अन्याय के खिलाफ आवाज़ बनकर उठती है।

आज के युवाओं के लिए उधम सिंह एक आदर्श हैं। एक ऐसा आदर्श जो कहता है — “धैर्य रखो, पर चुप मत रहो। तैयारी करो, पर डर मत खाओ। न्याय माँगो नहीं, उसे प्राप्त करो।”

अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे सच्चे नागरिक बनें, तो हमें उन्हें उधम सिंह की कहानी केवल पाठ्यपुस्तकों से नहीं, बल्कि जीवन के उदाहरणों से सिखानी होगी। उनकी तस्वीर केवल दीवार पर न टांगे, बल्कि उनके सिद्धांतों को अपने आचरण में उतारें।

भारत को आज भी उधम सिंह जैसे लोगों की ज़रूरत है। जो सत्ता से नहीं डरते, जो सत्य के लिए खड़े होते हैं, और जिनकी दृष्टि केवल अपने स्वार्थ तक सीमित नहीं होती। हमें उधम सिंह को केवल ‘अतीत’ नहीं, ‘वर्तमान’ बनाना होगा।

जिस दिन हम अपने चारों ओर अन्याय देखकर चुप नहीं रहेंगे, उसी दिन उधम सिंह का बलिदान सच्चे अर्थों में सार्थक होगा। वह दिन जब हर नागरिक अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ बन जाएगा—वही दिन उधम सिंह के भारत की शुरुआत होगी।

उधम सिंह की एक गोली ब्रिटेन की संसद में चली थी, लेकिन उसकी गूंज आज भी भारत की आत्मा में है। वह गूंज हमें हर रोज़ पूछती है—क्या तुम तैयार हो अन्याय के खिलाफ खड़े होने के लिए? क्या तुम केवल श्रद्धांजलि देने आए हो या उनके जैसे कुछ करने का साहस भी रखते हो?

उधम सिंह सरदार केवल एक नाम नहीं, एक विचार हैं। वह विचार जो कहता है कि आज़ादी केवल राजनीतिक नहीं, नैतिक साहस से मिलती है। वह विचार जो हमें बार-बार याद दिलाता है कि क्रांति केवल तलवार से नहीं, आत्मा के विश्वास से होती है।

उधम सिंह, तुम्हें नमन!
तुम्हारी वह एक गोली आज भी हमें जगाने के लिए काफ़ी है।

बिहार को लेकर ‘सुप्रीम’ निर्णय

बिहार विधानसभा का चुनाव के दृष्टिगत सभी के भीतर इस बात को लेकर कौतूहल है कि वहां सरकार का नेतृत्व कर रहे नीतीश कुमार अगली बार फिर सत्ता में लौटेंगे या नहीं ?दूसरे, यहां मोदी का जादू चलता है या नहीं? तीसरे, लालू की लालटेन यहां जलेगी या फिर राहुल गांधी कुछ विशेष कर पाएंगे ? ये सारी बातें भी लोगों के लिए कौतूहल का कारण बन रही हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव की तिथि ज्यों-ज्यों निकट आती जा रही है, त्यों-त्यों राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए तरह-तरह से हाथ पांव मार रहे हैं। सत्ता में आना प्रत्येक राजनीतिक दल का अधिकार है, परन्तु उसके लिए अनिवार्य कसौटी होती है-लोकप्रियता। लोकप्रियता का अर्थ है- जनता का साथ मिलना। लोकतंत्र में जनता के मत का सम्मान करना सबसे अनिवार्य होता है, परंतु भारत के राजनीतिक दल लोकतंत्र के इस अनिवार्य मूल्य की ‘हत्या’ करके भी सत्ता हथियाने का प्रयास करते रहे हैं । इसके लिए वे लोक और तन्त्र दोनों की दृष्टि में धूल झोंककर भी सत्ता हथियाने का प्रयास करते हैं। इसमें सबसे बड़ी बात यह होती है कि अधिकांश राजनीतिक दल मतदाता सूची को मनमाने ढंग से संशोधित और परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं। यदि बिहार चुनाव की बात करें तो यहां पर भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं । पता चला है कि 7 लाख ऐसे फर्जी मतदाता मतदाता सूचियों में सम्मिलित कर लिए गए हैं, जिनका एक से अधिक स्थानों पर पहले से ही वोट बन चुका है। इसके अतिरिक्त 20 लाख मतदाता ऐसे हैं, जिनकी पूर्व में ही मृत्यु हो चुकी है। जबकि 28 लाख मतदाता ऐसे हैं जो अपने मूल स्थान से अन्यत्र पलायन कर चुके हैं । कुल मिलाकर लगभग 62 लाख फर्जी मतदाता अभी तक बिहार की विधानसभा के चुनावों की मतदाता सूची में फर्जी रूप में पकड़े जा चुके हैं।
लोकतंत्र की हत्या करने के इस बड़े खेल को कौन कर रहा था? यदि यह प्रश्न किया जाए तो पता चलता है कि जो राजनीतिक दल आज भारत के चुनाव आयोग को इसलिए गाली दे रहे हैं कि उसने मतदाता सूची में दर्ज किए गए इन नामों को यथावत क्यों नहीं रहने दिया ? वही वे अपराधी हैं जो ‘लोकतंत्र की हत्या’ के इस खेल में सम्मिलित हैं। चुनाव आयोग ने डंडा लेकर ऐसे राजनीतिक दलों की पीठ को तोड़ना आरंभ किया तो उन्होंने चीखना चिल्लाना आरंभ कर दिया कि भारत में चुनाव आयोग मनमानी कर रहा है। अपनी तानाशाही चला रहा है और पूरी तरह गुंडागर्दी पर उतर आया है । देश के जनमानस को इस प्रकार के शोर शराबे को गंभीरता से लेना चाहिए और समझना चाहिए कि लोकतंत्र की हत्या में सम्मिलित राजनीतिक दल इस प्रकार का शोर क्यों मचा रहे हैं ? इस प्रकार के शोर शराबे में सम्मिलित राजनीतिक दल भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी पहुंच गए हैं। वहां पहुंचने पर इन राजनीतिक दलों ने सर्वोच्च न्यायालय को बिहार चुनाव आयोग के इस प्रकार के मनमाने आचरण पर रोक लगाने के लिए कहा है । परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार में मतदाता सूची के मसौदा (ड्राफ्ट वोटर लिस्ट) के प्रकाशन पर कोई रोक लगाने से इनकार कर दिया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ओर से चुनाव आयोग को कहा गया है कि वो इस प्रक्रिया में आधार कार्ड और मतदाता फोटो पहचान पत्र अर्थात वोटर आईडी कार्ड (EPIC) को भी सम्मिलित करे। चुनावी प्रक्रिया को पूर्णतया पारदर्शी बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को यह भी निर्देश दिया है कि यदि कहीं नाम काटे जा रहे हैं तो यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो नाम मतदाता सूची में सम्मिलित कर लेने चाहिए थे, परंतु नहीं किये जा सके हैं, उन्हें मतदाता सूची में जोड़ भी लिया जाए।
वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि यहां पर प्रधान से लेकर संसद तक के सबसे बड़े चुनाव तक में मतदाता सूचियों में बड़ी गड़बड़ी होती है। जिले स्तर पर होने वाले जिला पंचायत के चुनाव में तो जिला पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव पूरी तरह गुंडागर्दी पर आधारित होकर रह गया है। सारा देश जानता है कि जिला पंचायत के अध्यक्ष के चुनाव में किस प्रकार जिला पंचायत सदस्यों को खरीदने का खुल्लम-खुल्ला काम होता है ? इसी प्रकार ब्लॉक प्रमुख के चुनाव में भी गुंडागर्दी होती है। यदि हम शहरी रेजिडेंशियल वेलफेयर एसोसिएशन के चुनावों को देखें तो वहां पर भी लोग विकास कार्यों पर कम ध्यान देते हैं, राजनीतिक उठापटक में अधिक लगे रहते हैं। अपनी सोसाइटी के अध्यक्ष पद को कैसे हथियाया जाए ? – इस पर सभी का ध्यान केंद्रित रहता है। इस सबके उपरांत भी लोकतंत्र के हत्यारों को ‘बदमाशी’ करने से रोका नहीं जाता।
हम इस लेख के माध्यम से माननीय सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि अकेले बिहार की मतदाता सूचियों के ही निरीक्षण पुनरीक्षण का कार्य किया जाना पर्याप्त नहीं है, पूरे देश की यही बीमारी है। लोकतंत्र के नाम पर यहां पर गली मोहल्लों तक में चुनाव होते हैं , परंतु धांधली सभी में होती है। सभ्य और शालीन लोगों का चुनाव के प्रति ध्यान और आकर्षण भंग हो चुका है। वे इसे अपराधियों के लिए छोड़ चुके हैं। इसलिए भारतवर्ष में चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र निकाय के साथ-साथ मजबूत और आत्म स्वावलंबी निकाय बनाया जाना भी आवश्यक है। इसके पास अपना सुरक्षा बल और अपने अधिकारी जिले स्तर तक होने चाहिए। अभी तक हो यह रहा है कि किसी भी चुनाव के समय जिलाधिकारी, एसडीएम , तहसीलदार और उनका समस्त विभाग और उसके कर्मचारी चुनाव आयोग के अधीन कार्य करना आरंभ कर देते हैं। परंतु अप्रत्यक्ष रूप से उन पर अपनी सरकार का ही ‘अंकुश’ होता है। जिससे सरकार को प्रशासनिक तंत्र का दुरुपयोग करने का अवसर उपलब्ध हो जाता है। इसलिए प्रत्येक चुनाव में धांधली होना स्वाभाविक होता है। इसी के चलते चुनाव आयोग पर हर चुनाव में धांधली के आरोप लगाते हैं। यदि सत्ता पक्ष पूर्ण पारदर्शिता अपनाना चाहता है तो उसे अपनी ओर से यह पहल करनी चाहिए कि वह चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र निकाय के साथ-साथ उसका अपना सुरक्षा बल स्थाई रूप से उपलब्ध कराएगा ?
सर्वोच्च न्यायालय को देखना चाहिए कि लोकतंत्र के हत्यारे कहां-कहां हैं और कैसे-कैसे ढंग से लोकतंत्र की हत्या की जा रही है? बिहार के संदर्भ में न्यायालय ने जो निर्णय लिया है, उसके लिए बधाई।

डॉ राकेश कुमार आर्य

नागरिक बोध और नज़ीर बनता इंदौर

प्रो. मनोज कुमार
मध्यप्रदेश हमेशा की तरह स्वच्छता सर्वेक्षण में सबसे आगे रहा. लगातार 8वीं दफा इंदौर सिरमौर बना तो राजधानी भोपाल भी श्रेष्ठता का सिरमौर बना. मध्यप्रदेश के कुछ अन्य शहर भी स्वच्छता सर्वेक्षण में स्वयं को साबित किया। स्वच्छता सर्वेक्षण का यह परिणाम सचमुच मेें सुखदायक है और गर्व से कह सकते हैं कि देश का दिल मध्यप्रदेश अब एक स्वच्छता प्रदेश भी है। अब सवाल यह है कि पुरस्कारों का ऐलान हुआ, उत्सव हुआ, चर्चा हुई और असली मकसद स्वच्छता फिर कहीं तब तक के लिए हाशिए पर जाता दिख रहा है जब तक दुबारा स्वच्छता स्वच्छता सर्वेक्षण का सिलसिला आरंभ ना हो। यक्ष प्रश्र यह है कि क्या हम सिर्फ नम्बरों में आगे रहने के लिए ही स्वच्छ प्रदेश होने का प्रयास करते हैं या नागरिक बोध के साथ स्वच्छता की दिशा में कदम बढ़ाते हैं? पिछले सालों का अनुभव यही बताता है कि हमारी रूचि निरंतर स्वच्छ बने रहने से ज्यादा स्वच्छता सर्वेक्षण में सिरमौर बने रहने की है. स्वच्छता उत्सव चार दिनों का ना होकर पूर्ण नागरिक बोध से हो तो यह स्वच्छता  का नम्बरों का यह खेल एक दिन थम भी जाए तो हम गौरव से स्वयं महसूस कर सकें कि हम स्वच्छ प्रदेश के वासी हैं. लेकिन ऐसा करने वालों में एकमात्र शहर मध्यप्रदेश ही नहीं, देश में रहने वाला इंदौर है. पूर्ण नागरिक बोध के साथ इंदौर के नागरिक अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं. इस बात पर कुछ लोग एतराज कर सकते हैं कि ये क्या बात हुई लेकिन सच यही है.
इंदौर क्यों नागरिक बोध से भरा हुआ शहर है, यह जानना है तो उसकी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को समझना होगा. राजनीति तो राजनीति होती है और सत्ता और शीर्ष पर बने रहने के लिए कुछ भी करेगा की नीति पर चलती है लेकिन आप जब इस पर विश£ेषण करेंगे तो पाएंगे कि इन सबके बावजूद इंदौर  की राजनीति इससे परे है और तब जब अपने शहर इंदौर की बात हो. इंदौर की अस्मिता और प्रतिष्ठा को लेकर सभी निर्दलीय हो जाते हैं. स्वच्छता को लेकर, नागरिक सुविधाओं को लेकर भी इंदौर का यही चरित्र रहा है. कदाचित कभी, कहीं इंदौर की स्थानीय राजनीति फेल हुई तो नागरिक इसका जिम्मा उठा लेते हैं. स्वच्छता सर्वेक्षण का सिलसिला जबसे आरंभ हुआ है, बच्चा-बच्चा स्वच्छता को अपनी जिम्मेदारी समझता है. शहर के वाशिंदें हों या शहर में आए मेहमान, उन्हें भी इंदौर की स्वच्छता की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है. एक कागज़ का टुकड़ा भी गलती से सडक़ पर फेंक दिया तो ना जाने कहां से कोई आएगा और आपसे कहेगा-भिया यहां नहीं. और वो खुुद उस कचरे को उठाकर डस्टबीन में डाल देगा. आमतौर पर निगम के स्वच्छता  साथियों के बारे में राय है कि वे अपने काम के प्रति संजीदा नहीं होते हैं. इस सोच पर इंदौर के निगम के स्वच्छता साथी थप्पड़ मारते हैं. वे स्वच्छता की जिम्मेदारी नौकरी के भाव से नहीं करते हैं बल्कि वे नागरिक बोध से भरकर इस जिम्मेदारी को सम्हालते हैं, पूरा करते हैं। यह बात सबसे सुंदर और सीखने वाली दूसरे शहरों के लिए है. स्वच्छता में सिरमौर बनने के लिए पहले और अभी के अफसरों में होड़ मची होती है कि उनके कार्यकाल के कारण इंदौर को यह कामयाबी मिली लेकिन वे भूल जाते हैं कि जिस शहर में नागरिक बोध ना हो, वहाँ व्यवस्था भी फेल हो जाती है. सिस्टम का काम बजट और सुविधा मुहय्या कराना है और उसकी मॉनिटरिंग करना लेकिन कार्य व्यवहार तो नागरिक बोध से ही आता है. कलश को श्रेय देने के बजाय बुनियाद को प्रणाम किया जाए तो इंदौर हमेशा स्वच्छ शहर बना रहेगा.
इंदौर को बार-बार स्वच्छता में श्रेष्ठता क्यों हासिल होता है, इस पर आपत्ति हो सकती है जिसका जवाब ऊपर लिखा जा चुका है. अब बड़ा सवाल यह है कि इंदौर जैसा नागरिक बोध अन्य शहरों में क्यों नहीं है? क्यों वहाँ पर इस बात की चिंता नहीं की जाती है कि इंदौर की तासीर में हम क्यों ना घुलमिल जाएँ. दूसरे शहरों में भी शहर को स्वच्छ रहने के लिए बजट और सुविधा आवंटित होता है लेकिन वह रूटीन में निपटा दिया जाता है. स्वच्छता सर्वेक्षण के समय जरूर दबाव रहता है कि हमें पुरस्कार जीतना है, सबसे आगे रहना है तो जाहिर है कि कागजी कार्यवाही पूरा कर कुछ पुरस्कार और नंबर पा लेते हैं. तमाम विषयों को लेकर शहर-दर-शहर विमर्श, गोष्ठी और संवाद का सिलसिला चलता है लेकिन शायद ही कहीं स्वच्छता पर विमर्श को लेकर संवाद का कोई सिलसिला शुरू हुआ हो. आमतौर पर हमारी मानसिकता है कि यह काम सरकार का है, नगर निगम का है, वो करे. इस मानसिकता के साथ हम कागजी तौर पर स्वच्छ शहर का तमगा तो पहन सकते हैं लेकिन खुद से सच का सामना नहीं कर सकते हैं.
यह हाल देश के सभी शहरों और राजधानी का है. स्वच्छता  मेंं सिरमौर बनने की दौड़ में शामिल शहरों की पोल हर बार बारिश खोल देती है और इस बार भी यही हो रहा है. सडक़ें और नालियाँ बजबजा गई हैं. पॉलिथीन और दूसरे कचरों से पानी निकासी की व्यवस्था चरमरा गई है. कम से कम उन शहरों से यह सवाल किया जा सकता है कि आप तो स्वच्छता सर्वेक्षण में सिरमौर रहे हैं, फिर ये संकट क्यों उत्पन्न हुआ? मामला साफ है कि हम कागज़ीतौर पर तो स्वच्छ हो गए लेकिन नागरिकबोध के अभाव में शहर को जमीनीतौर पर स्वच्छ नहीं रख पाए. इंदौर भी इस आरोप से पूरी तरह बरी नहीं है। अगले वर्ष फिर हम स्वच्छता उत्सव मनाएंगे. जिन शहरों के खाते में नंबर आएंगे, उन्हें शाबासी देेंगे औ जो पिछड़ जाएंगे, उनसे सवाल किए जाएंगे. यह सब प्रशासनिक प्रक्रिया है, चलती रहेगी. आपके घरों का कचरा उठाने के लिए आने वाली गाड़ी में बजने वाला गीत कहां गुम हो गया? स्वच्छता साथियों को  मिलने वाली सुरक्षा में भी ढील है, आखिर इसका दोषी कौन? मूल प्रश्र यह है कि स्वच्छता के लिए देश के हर नागरिक में अपने शहर के प्रति नागरिक बोध का भाव हो. नियमित रूप से स्वच्छता पर चर्चा, संवाद, संगोष्ठी हो. अपने शहर की अस्मिता और प्रतिष्ठा के लिए नागरिक जागरूकता, नागरिक बोध सर्वप्रथम है ताकि स्वच्छता उत्सव चलता रहे

एआई का विस्तार या नौकरी का संकुचनः बड़ी चुनौती

 ललित गर्ग 

भारत जैसे युवाओं वाले और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देश में तकनीकी विकास के प्रति उत्साह हमेशा गहरा रहा है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप क्रांति और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसी तकनीकें समाज, राष्ट्र और अर्थव्यवस्था में तीव्र बदलाव की सारथि बनी हैं। हर वर्ग और क्षेत्र ने इस परिवर्तन को आशा एवं सकारात्मकता के साथ अपनाया है, इस उम्मीद में कि तकनीकी तरक्की के साथ रोज़गार के नए अवसर भी सृजित होंगे। लेकिन हाल ही में आईटी क्षेत्र की प्रतिष्ठित कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) द्वारा 12,000 से अधिक कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया और इसे बड़ा झटका दिया है। निस्संदेह, छंटनी का यह फैसला आईटी क्षेत्र में आसन्न संकट की आहट को ही दर्शाता है। छंटनी बाबत टीसीएस की दलील है कि इन नौकरियों में कटौती कौशल की कमी और अपने विकसित होते व्यावसायिक मॉडल में कुछ कर्मचारियों को फिर से नियुक्त करने में असमर्थता के चलते की गई है। हालांकि, कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी का दावा है कि इस कदम के पीछे एआई से प्रेरित उत्पादकता वृद्धि नहीं है। यह संख्या कंपनी के कुल कार्यबल का लगभग 2 प्रतिशत है, और मुख्यतः मध्यम और वरिष्ठ स्तर के कर्मचारियों को प्रभावित करेगी।
एआई और ऑटोमेशन केवल तकनीक नहीं हैं, वे कार्य संस्कृति, संगठन संरचना और मानव संसाधन नीति को मूल रूप से बदल रहे हैं। कई रिपोर्टों के अनुसार, एआई से प्रेरित उत्पादकता और लागत में कटौती की प्रवृत्ति बढ़ रही है। उदाहरण के तौर पर, एमेजोन ने 30,000 सॉफ्टवेयर एप्लिकेशनों को एआई की मदद से मात्र छह महीनों में अपग्रेड किया, जो कार्य सामान्यतः डेवलपर्स को एक वर्ष लगता। इससे कंपनी को लगभग 250 मिलियन डॉलर की बचत हुई। इसी प्रकार, माइक्रोसोफ्ट और मेटा जैसी कंपनियों में कोडिंग का 20 से 50 प्रतिशत कार्य एआई से कराया जा रहा है। भारत में एआई का प्रसार अभी अमेरिका या यूरोप की तुलना में सीमित है, लेकिन इसकी गति तीव्र है। देश के स्टार्टअप और आईटी क्षेत्र में छंटनियों की संख्या बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार, केवल वर्ष 2025 के शुरुआती पांच महीनों में भारत में 3600 से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से हटाया गया, जिसमें एआई आधारित लागत नियंत्रण एक प्रमुख कारण रहा। यह स्पष्ट करता है कि एआई के कारण दोहराव वाले कार्यों की उपयोगिता घट रही है और उनकी जगह स्मार्ट तकनीक ले रही है। मौजूदा समय में यह कदम लागत-अनुकूलन पहलों के चलते अन्य आईटी सेवा कंपनियों में भी छंटनी को बढ़ावा दे सकता है। इसमें दो राय नहीं कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता कारोबार के नियमों में मौलिक बदलाव के चलते, भविष्य के लिये तैयार रहना हर व्यावसायिक उद्यम के एजेंडे में सबसे ऊपर होगा। इस नई हकीकत को देखते हुए, अनेक सवाल सबसे ज्यादा विचलित करने वाले बनकर उभर रहे हैं कि क्या यह तकनीकी बदलाव अनिवार्य रूप से कर्मचारियों की कीमत पर होना चाहिए? एआई युग में नौकरी की अनिश्चितता क्या तकनीक विकास के नाम पर विस्थापन नहीं है? छंटनी की चपेट में युवाओं का भविष्य क्या तकनीकी प्रगति के नाम पर मानव श्रम पर आघात नहीं है? क्या स्मार्ट मशीनें के दौर में भारत में रोजगार को नई चुनौती और इंसानों को हताशा में धकेलना नहीं है? एआई का विस्तार यानी नौकरी का संकुचन क्या भारत के लिए बड़ी चेतावनी की घड़ी बन रहा है?
इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में देश में बेरोजगारी का संकट किसी से छिपा नहीं है। देश में श्रमबल का कौशल विकास धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है। सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों में आईटी पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। लेकिन टीसीएस के इस फैसले से आईटी पाठ्यक्रमों में अध्ययन कर रहे उन लाखों छात्रों और डिग्री लेकर निकल रहे उत्साही इंजीनियरों में निराशा व्याप्त होगी। भारत में बढ़ता रोजगार संकट केंद्र सरकार से निरंतर हस्तक्षेप की मांग करता है। हाल ही में हरियाणा में हुई एक परीक्षा में लाखों युवाओं की भागीदारी इस बात का संकेत है कि रोजगार की मांग कितनी व्यापक और अवसर कितने सीमित हैं। देश ही नहीं, दुनिया में रोजगार का संकुचन एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। गोल्डमैंन सोच्स की रिपोर्ट के अनुसार, एआई और ऑटोमेशन के चलते दुनिया भर में लगभग 300 मिलियन नौकरियां प्रभावित हो सकती हैं। विश्व आर्थिक मंच का आकलन है कि 2030 तक 92 मिलियन नौकरियां खत्म होंगी, लेकिन उसी अवधि में 170 मिलियन नई नौकरियां भी पैदा होंगी। यह एक दोधारी तलवार है, जो बदलेगा, बचेगा; जो रुकेगा, वो हाशिए पर जाएगा।
टीसीएस का दावा है कि छंटनी का निर्णय भविष्य की जरूरतों के अनुसार संगठन को ढालने की रणनीति का हिस्सा है। कंपनी का ध्यान एआई में निवेश, नए बाजारों में प्रवेश, ग्राहक अनुभव सुधार और कार्यबल मॉडल के पुनर्गठन पर केंद्रित है। हालांकि, यह तर्क उन हजारों कर्मचारियों की व्यथा को शांत नहीं कर सकता जिनकी आजीविका पर इसका सीधा प्रहार हुआ है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस निर्णय से न केवल कंपनी के भीतर बल्कि समूचे आईटी क्षेत्र में आशंका, आक्रोश एवं अनिश्चितता का माहौल बन गया है। खासकर युवाओं और आईटी की पढ़ाई कर रहे लाखों छात्रों के लिए यह एक मानसिक झटका है। तकनीकी शिक्षा में दाखिले बढ़ रहे हैं, लेकिन रोजगार के अवसर घटते जा रहे हैं। यह असंतुलन देश की सामाजिक स्थिरता को भी प्रभावित कर सकता है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें बताती हैं कि विश्व स्तर पर लगभग 40 प्रतिशत नौकरियां एआई के कारण जोखिम में हैं। भारत में अनुमान है कि 2025 तक 12-18 मिलियन नौकरियां एआई आधारित ऑटोमेशन के चलते प्रभावित हो सकती हैं, विशेषकर आईटी और बीपीओ क्षेत्रों में। एटेमबर्ग के संस्थापक के अनुसार, भारत में 40-50 प्रतिशत व्हाइट कॉलर नौकरियां एआइ से प्रभावित होने के कगार पर हैं, जिससे देश के मध्यवर्ग की आर्थिक स्थिरता को गहरा झटका लग सकता है।
टीसीएस की छंटनी ने बेरोजगारी के दौर में बड़ी हलचल मचाई है, हालांकि आईटी और तकनीकी पाठ्यक्रमों में दाखिले बढ़े हैं, लेकिन उनमें व्यावहारिक और भविष्य-उन्मुख कौशल की कमी है। यह असंगति ही भविष्य में अधिक छंटनियों का कारण बन सकती है। एआई हर भूमिका को खत्म नहीं करेगा, बल्कि उसे पुनर्परिभाषित करेगा। जहां दोहराव और विश्लेषण की आवश्यकता है, वहां एआई प्रभावी होगा, लेकिन रचनात्मकता, सहानुभूति और निर्णय क्षमता जैसे गुणों में मानव की भूमिका बनी रहेगी। डॉक्टर, शिक्षक, वकील, पत्रकार जैसे पेशों में एआईएक सहयोगी के रूप में कार्य करेगा, प्रतिस्थापन के रूप में नहीं। मेटा के प्रमुख एआई वैज्ञानिक यान लेकुन के अनुसार, ‘एआई अधिकतर कार्यों का केवल एक हिस्सा ही कर सकता है, वह भी पूरी तरह परिपूर्ण नहीं। मानव श्रमिकों का सीधा प्रतिस्थापन संभव नहीं है।’
निश्चित तौर पर एआई और तकनीकी बदलाव अपरिहार्य हैं। सवाल यह है कि हम इसके लिए कितने तैयार हैं? इसके लिए तीन प्रमुख कदम जरूरी हैं, पहला पुनःकौशल और सतत शिक्षा यानी कार्यबल को भविष्य के अनुरूप प्रशिक्षित करना होगा। डेटा साइंस, मशीन लर्निंग, एआई एथिक्स, सॉफ्ट स्किल्स जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षण अनिवार्य बनाना होगा। दूसरा नीतिगत समर्थन यानी सरकार को एआई नीति, डिजिटल समावेशन और श्रमिक सुरक्षा के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश तय करने होंगे। रोजगार खोने वालों के लिए पुनर्वास योजनाएं और स्किल अपडेट कार्यक्रम आवश्यक हैं। तीसरा सांस्कृतिक और सामाजिक समायोजन यानी एआई को केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के रूप में भी देखा जाना चाहिए। इसे अपनाने में पारदर्शिता, विश्वास और सहयोग का वातावरण बनाना होगा। तकनीकी बदलाव नई संभावनाएं लेकर आते हैं, लेकिन वे अनायास ही चुनौतियां भी खड़ी करते हैं। टीसीएस की छंटनी से जो संदेश मिलता है वह यही है कि एआई युग में केवल वही टिकेगा जो परिवर्तनशील रहेगा। अब समय आ गया है कि हम तकनीक को केवल उपकरण नहीं, बल्कि नीति और जीवनशैली का हिस्सा मानें। सतत सीखना, अनुकूलन और सामाजिक न्याय, यही तीन स्तंभ हैं, जो भारत को इस तकनीकी क्रांति में न केवल जीवित, बल्कि अग्रणी बना सकते हैं।

आत्मनिर्भरता के लिए कौशल दक्षता का आलाप

प्रमोद भार्गव
देश में वस्तु निर्माण के पुख्ता स्तंभ बनाने के लिए कौशल दक्षता में कमी की बात कही जाती है। यहां तक कि इंजीनियर और पीएचडी डिग्रीधारी को भी अयोग्य ठहरा दिया जाता है। हाल ही में आईफोन बनाने वाली अमेरिकी कंपनी एप्पल ने चेन्नई में फोन निर्माण के लिए एक संयंत्र स्थापित किया है, किंतु उसे पर्याप्त दक्ष युवा नहीं मिल रहे। इनकी प्रतिपूर्ति कंपनी ने चीन और ताइवान से की। यहां सवाल उच्च शिक्षित पेशेवरों के साथ उन शिक्षा संस्थानों पर भी खड़ा होता है कि तमाम आधुनिक संसाधनों से भरे पड़े ये पढ़ा व सिखा क्या रहे हैं ? दक्षता की लक्ष्य पूर्ति के लिए अक्सर चीन से सीख लेने की बात कही जाती है। जिससे यह जान लिया जाए कि सस्ते मजदूरों के जरिए सस्ती वस्तुओं का निर्माण कैसे हो ? क्योंकि इन्हीं वस्तुओं के निर्माण से चीन दुनिया की औद्योगिक व प्रौद्योगिक षक्ति बना है। उसके माल से दुनिया के बाजार भरे पड़े हैं।
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम सस्ती वस्तुओं के निर्माण की तरकीब और देशज ज्ञान भारत और भारतीयों से नहीं सीख सकते ? मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में एक तहसील स्तरीय कस्बा है बदरवास। संयोग से मैं (लेखक) यहीं का रहने वाला हूं। अब से करीब पैंतालीस साल पहले बदरवास के ही बैक से 10 हजार रुपए का ऋण लेकर रमेश अग्रवाल ने यहीं छोटी सी दुकान में जैकेट बनाने का काम प्रारंभ किया था, तब वे रोजाना 40-50 जैकेट बनवाकर बेच लेते थे। किंतु आज हजारों जैकेट बनवा कर बेच रहे हैं। मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल समेत नेपाल तक फेरी वाले उनकी जैकेट बेचते हैं। इसे मोदी जैकेट कहा जाता है। सस्ती जैकेट का यह व्यापार समूचे देश में फैल रहा है। इस उत्पाद के षौ-रूम भी खुल रहे हैं और बाजार में मांग लगातार बढ़ रही है। अब जैकेट निर्माण का विकेंद्रीकरण हुआ है। करीब एक सैंकड़ा लोग जैकेट के निर्माण और व्यापार में जुटे हैं। पांच-सात हजार क्षेत्रीय ग्रामीण पुरुश और महिलाएं जैकेट की सिलाई के काम से जुड़े रहते हुए आत्मनिर्भर हुए हैं। बदरवास की गली-गली में जैकेट सिलने और बेचने का व्यापार परवान चढ़ा दिखाई देता है। बड़े कारोबारियों के कारखाने देखकर हैरानी होती है कि इतने छोटे कस्बे में जैकेट का इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन कैसे हो रहा ?
इन जैकटों की कीमत न्यूनतम 80 रुपए से लेकर 300 रुपए तक है। यहां के सिले वस्त्र निर्माता इतना सस्ता उत्पाद कैसे कर पाते हैं, इस रहस्यमयी तरकीब को जानना जरूरी है, जिससे चीन की तरह भारत के माल से दुनिया के बाजार भरे जा सकें। जैकेट व्यापारी अपने ठिकानों पर विभिन्न आकार-प्रकार की जैकेटों के कपड़े की कटिंग कराते हैं। फिर इन कटे वस्त्रों को आसपास के पन्द्रह किलोमीटर तक के ग्रामों में सिलने के लिए दर्जन के हिसाब से भेज देते हैं। अतएव यहां देखने में आता है कि घर-घर और खेत-खेत महिलाएं और छात्राएं जैकेट की सिलाई में लगी हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं खेती-किसानी से जुड़ी होती हैं। ये घरेलू और किसानी की दिनचर्या से निपटने के बाद खेत में बने घर की दहलान में पैरों से चलने वाली सिलाई मशीन से सिलाई के काम में लग जाती हैं। सिलाई के बाद इनके घर का कोई व्यक्ति जैकेटों को साइकिल या बाइक से व्यापारी को दे आते हैं। तत्काल इन्हें प्रति जैकेट के हिसाब से मजदूरी दे दी जाती है। जैकेट की सिलाई खाली समय में की जाती है, इसलिए मजदूर को अतिरिक्त धन मिल जाता है, जो इनकी आर्थिक समृद्धि का मजबूत आधार बन गया है। सिलाई की इस कौशल दक्षता को मां या बड़ी बहन नई पीढ़ी को सिखाती चलती हैं। इस कौशल के लिए अच्छी पढ़ाई या उत्तम प्रशिक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ती है। जैकेटों में काज-बटन लगाने का काम पृरुश या तो हाथ से करते हैं या फिर मशीनों से। जैकेट के जितने भी बड़े कारोबारी हैं, उनके कारखानों में आधुनिक व इलेक्ट्रोनिक तकनीक से जुड़ी बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हैं। इन मशीनों को चलाना भी लोग परस्पर सीख लेते हैं। इसी तरकीब से बदरवास में प्रतिदिन लगभग दस हजार जैकेट बनाकर बेची जा रही हैं।
सस्ते श्रम से सस्ते माल के उत्पादन की इस विधि को संपूर्ण भारत समेत विदेश में भी फैलाने की जरूरत है। चीन इसी तकनीक से विश्व बाजार में औद्योगिक षक्ति बना हुआ है। दरअसल चीन पिछले चार दशक से बदरवास जैसी वस्तु निर्माण की तरकीब अपनाए हुए है। वह वस्तु निर्माण से जुड़े कारीगरों को नगरों में आकर काम करने को विवश नहीं करता, अपितु कच्चा माल गांव-गांव भिजवाकर वस्तु निर्माण कराता है। देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीपक, राखी, बिजली की झालर वह इसी तरकीब से बनवाता है और फिर उनकी दर्शनीय पैकिंग कराकर निर्यात करता है। अमेरिका समेत अन्य देशों के उद्योगपति चीन की इस सस्ती तरकीब से जुड़े सफल मंत्र के चमत्कार को अनुभव करके इसे अपनाने की पहल कर रहे हैं। लेकिन भारत जो अपनी समृद्ध ज्ञान परंपरा से वस्तुओं के निर्माण में हजारों साल से जुड़ा हुआ था, वहां के लोग और शिक्षा संस्थान पश्चिम की ओर ताक रहे हैं। भारत के शिक्षा विशेशज्ञ भी इसी विचार से प्रेरित हैं। लोगों को षेयर बाजार के सिद्धांत और ऋण से धंधे की स्थापना के जुनून का पाठ पढ़ाया जाकर सरकारी या कंपनियों की नौकरी मिल जाए। जिससे वे कुलीन की श्रेणी में आ जाएं। उच्च शिक्षा के इस लक्ष्य को साधने के लिए कर्ज की सुविधा देकर विदेशी व्यापार-प्रबंधन के संस्थानों में पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। कथित कामयाबी के लिए यह प्रोत्साहन सर्वथा अनुचित है। जबकि भारतीय संस्कृति में शिक्षित होने का उद्देश्य धनवान या आभिजात्य होना कतई नहीं था। विनम्र व षालीन बने रहते हुए ज्ञान को अन्य समुदायों में बांटना और वंचितों की सेवा करना था। जैकेट का कारोबार षुरू करने वाले रमेश अग्रवाल एक ऐसे अपवाद हैं, जो ‘अपना घर‘ के माध्यम से उपेक्षित रोगियों की सेवा में नियमित लगे हैं। किसी भी धनवान का देश और समाज के प्रति यही उत्तरदायित्व होना चाहिए।
दूसरी तरफ हमारे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में 29 प्रतिशत, रोजगार में 60 प्रतिशत और निर्यात में 40 प्रतिशत योगदान इन्हीं उद्योगों का है। फिर भी इन उद्योगों से लेकर ऑटोमोबाइल, कृत्रिम-मेघा और मशीन लर्निंग जैसे उद्योगों के लिए दक्ष युवाओं की कमी है। आखिर भारतीय राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन युवाओं को दक्ष करने में असफल क्यों रहा ? क्योंकि इस अभियान में युवाओं को प्रशिक्षण देकर दक्ष बनाने का दायित्व जिन लोगों को सौंपा गया था, वे वही किताबी ज्ञान देते रहे, जिसे प्रशिक्षु शिक्षा संस्थानों से पढ़कर निकले थे, जबकि उन्हें उद्योग में प्रायोगिक ज्ञान की जरूरत थी। इसी ज्ञान से उत्पादकता बढ़ेगी। उत्पादकता बढ़ेगी तो आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी। मेक इन इंडिया का यही उपाय वैश्विक प्रतिस्पर्धा के बाजार में भारत को स्थापित करेगा। राजस्व और रोजगार के नए द्वार खुलेंगे।

प्रमोद भार्गव

यह देश है पृथ्वीराजों का….

देशभक्ति की कविता

इतिहास उठा कर देखो अपना भारत सबसे न्यारा है।
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।

बलिदानों का देश है भारत बलिदानों की भूमि है।
बलिदानों की रीत यहां पर बलिदानों की धूलि है।।
मत भूलो निज बलिदानों को जिनकी छाती चौड़ी है।
जिनके कारण आजाद हुए हम भारत उनकी भूमि है।।
हर अवसर पर यहां वीरों ने फंदे को स्वीकारा है …..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।1।।

यहां सिकंदर आया था, पर गिरा मौत के कुएं में।
दाहिर की बेटी ने कासिम जोता मौत के जुए में।।
भीमदेव ने गजनी को पिटवाया हिंद की सेना से।
गौरी को भी मौत मिली पंजाब की खोखर सेना से।।
हमने इतिहास बनाया है, बजा युद्ध नक्कारा है ……
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।2।।

तैमूर की छाती फाड़ी थी, योगराज सिंह गुर्जर ने।
गुलिया हरवीर के भाले ने रामप्यारी के खंजर ने।।
खानवा के मैदान में सांगा ललकार रहे थे बाबर को।
अप्रत्याशित मार पड़ी थी, उस नीच लुटेरे बाबर को।।
यह देश है राणा वीरों का, शत्रु को रण में मारा है…..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।3।।

यह देश है पृथ्वीराजों का, और पराक्रमी भोजों का।
यह देश है शौर्यपुत्रों का, बलिदान की अनुपम मौजों का।।
अकबर को महान बताना हमको नहीं गवारा हो सकता।
प्रताप पराक्रमी राणा का अपमान सहन नहीं हो सकता।।
हमने फिरंगी मुगलों की पराधीनता को ठोकर पर मारा है….
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।4।।

अकबर जैसा नीच कभी भी, नहीं हमारा हो सकता।
हीरों को मिट्टी के बदले, देश कभी नहीं खो सकता।।
औरंगजेब के जुल्मों को, शिवा ने रोक दिखाया था।
छत्रसाल बुंदेले ने भी, तब गीत अनोखा गाया था।।
गोकुल देव, बैरागी का वही भगवा हमको प्यारा है…..
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।6।।

गुरु तेग हिंद की चादर थे, गोविंद हमारे नायक थे।
अर्जुन वीर विनायक थे, संभाजी इसके लायक थे।।
इनके कारण ही अस्तित्व हमारा आज जगत में संभव है।
इनके कारण ही यज्ञ हवन, इनके कारण ही भगवा है।।
दूला भट्टी को नमन हमारा, शेर हिंद का न्यारा है….
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।7।।

अंग्रेज यहां पर आए तो उनको भी हमने ललकारा।
ऋषि दयानंद ने दे डाला एक अनोखा हमको नारा।।
स्वराज्य हमारा मूल मंत्र है ऋषि की पुस्तक कहती है।
आजाद उसी के कारण हैं इतिहास की पुस्तक कहती है।।
“राकेश” लिखा कर गीत उन्हीं के जिनको भारत प्यारा है…
जितने भर भी देश विश्व में भारत सबसे प्यारा है।।8।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

वायु प्रदूषण से स्मृति-लोप का बढ़ता खतरा

 ललित गर्ग 

पर्यावरण की उपेक्षा एवं बढ़ता वायु प्रदूषण मनुष्य स्वास्थ्य के लिये न केवल घातक हो रहा है, बल्कि एक बीमार समाज के निर्माण का कारण भी बन रहा है। हाल ही में हुए एक मेटा-अध्ययन ने वायु प्रदूषण और बिगड़ती स्मृति के बीच एक खतरनाक संबंध का खुलासा किया है। हवा में मौजूद विषैले कण-खासकर महीन धूल और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी हानिकारक गैसें, जो मुख्य रूप से वाहनों और औद्योगिक प्रक्रियाओं से निकलती हैं, हमारे मस्तिष्क को सीधे प्रभावित कर रही हैं। यह व्यापक शोध लगभग 3 करोड़ व्यक्तियों से जुड़े 51 अध्ययनों पर आधारित है। ये निष्कर्ष भारत जैसे देशों के लिए विशेष रूप से चिंताजनक हैं, जहाँ वायु प्रदूषण का स्तर दुनिया में सबसे अधिक है। अगर धनी और विकसित देश भी प्रदूषण के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों से जूझ रहे हैं, तो भारत लापरवाही बर्दाश्त नहीं कर सकता। वायु प्रदूषण से निपटना हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि प्रदूषित हवा के नियमित संपर्क में रहने से मनोभ्रंश एवं स्मृति-लोप का खतरा काफी बढ़ जाता है, यह एक ऐसी प्रगतिशील स्थिति है जो स्मृति और संज्ञानात्मक क्षमताओं को क्षीण कर देती है। दुनिया भर में, लगभग 5.74 करोड़ लोग पहले से ही मनोभ्रंश से प्रभावित हैं। वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए तत्काल कार्रवाई न किए जाने पर, यह संख्या 2050 तक तिगुनी होकर 15.28 करोड हो सकती है। मनोभ्रंश अर्थात डिमेंशिया या भूलने की बीमारी का दुनिया में बढ़ता खतरा इतना बड़ा है कि आगामी पच्चीस वर्ष में इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या तीन गुना हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने वायु प्रदूषण में खासकर कार से निकलने वाले धुएं या उत्सर्जन को गंभीर माना है। उल्लेखनीय है कि लंबे समय तक प्रदूषित वातावरण में रहने वाले लोगों के मस्तिष्क की कार्यक्षमता में एक दशक तक की गिरावट देखी जा सकती है, उदाहरण के लिए, लगातार जहरीली हवा में सांस लेने वाला 50 वर्षीय व्यक्ति 60 वर्षीय व्यक्ति के समान संज्ञानात्मक क्षमता प्रदर्शित कर सकता है। वायु प्रदूषण का सबसे पहला असर फेफड़ों और दिल पर पड़ता है, लेकिन यह वहीं तक सीमित नहीं रहता। हवा में मौजूद ये छोटे-छोटे कण हमारी सांस के जरिए खून में चले जाते हैं और फिर सीधे दिमाग तक पहुंच जाते हैं। इससे-याद रखने की क्षमता कमजोर होती है। ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है। सीखने और नई बातें याद रखने में दिक्कत होती है। कुछ मामलों में डिप्रेशन यानी अवसाद की संभावना बढ़ जाती है।
द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में पाया गया कि पीएम 2.5 (सूक्ष्म कण पदार्थ) में प्रति घन मीटर 10 माइक्रोग्राम की वृद्धि से स्मृति संबंधी बीमारियों का खतरा 17 प्रतिशत बढ़ जाता है। वाहनों के धुएँ और जलती हुई लकड़ी से निकलने वाले ब्लैक कार्बन में एक माइक्रोग्राम की भी वृद्धि से यह खतरा 13 प्रतिशत बढ़ जाता है। ये सूक्ष्म कण हमारे श्वसन और परिसंचरण तंत्र को दरकिनार कर मस्तिष्क तक पहुँच सकते हैं और सूजन व ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा कर सकते हैं, जिससे अंततः न्यूरॉन्स को नुकसान पहुँचता है। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। प्रदूषित हवा न केवल फेफड़ों और हृदय के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है, बल्कि याददाश्त, एकाग्रता, सीखने और भावनात्मक स्थिरता को भी कमज़ोर करती है। अध्ययनों से पता चला है कि उच्च प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे स्वच्छ वातावरण में रहने वालों की तुलना में स्कूल की परीक्षाओं में खराब प्रदर्शन करते हैं। प्रदूषित हवा के संपर्क में आने वाले वयस्क अक्सर चिड़चिड़ापन, थकान और यहाँ तक कि अवसाद का अनुभव करते हैं। उनकी उत्पादकता और निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है।
प्रदूषण से प्रेरित स्मृति हानि का प्रभाव केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है, यह शैक्षिक परिणामों, कार्यस्थल की दक्षता और सामाजिक निर्णय लेने को भी प्रभावित करता है। आँकड़े दर्शाते हैं कि उच्च-पीएम क्षेत्रों में लोग मौखिक प्रवाह, तर्क, सीखने और स्मृति परीक्षणों में कम अंक प्राप्त करते हैं, जो शिक्षा का एक पूरा वर्ष गँवाने के समान है। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि कैसे किराने की खरीदारी जैसे नियमित कार्यों में संज्ञानात्मक विकर्षण प्रदूषण के संपर्क में आने से बढ़ जाता है। वृद्ध और कम शिक्षित व्यक्ति विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं, अक्सर रोज़मर्रा के कार्य करने की क्षमता खो देते हैं और दूसरों पर अधिक निर्भर हो जाते हैं।
बढ़ते खतरे के बावजूद, चिकित्सा विज्ञान वर्तमान में मनोभ्रंश का कोई निश्चित इलाज नहीं देता है। मौजूदा उपचार सीमित और अक्सर अप्रभावी होते हैं, जिससे मरीज धीरे-धीरे अपनी याददाश्त और स्वतंत्रता खो देते हैं। अध्ययन के सह-प्रमुख लेखक, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस्टियन ब्रेडल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि मनोभ्रंश की रोकथाम केवल स्वास्थ्य सेवा की ज़िम्मेदारी नहीं है। शहरी नियोजन, परिवहन नीतियां और पर्यावरणीय नियम, सभी इस संकट से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वायु प्रदूषण न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है, बल्कि सामूहिक सोच, जीवनशैली विकल्पों और पर्यावरणीय निर्णयों को भी विकृत करता है। बड़े पैमाने पर, यह शैक्षिक उपलब्धि में कमी, उत्पादकता में कमी, स्वास्थ्य सेवा के बढ़ते बोझ और गहरी होती आर्थिक असमानताओं में योगदान देता है। वाशिंगटन में 12 लाख लोगों पर किए गए एक अलग अध्ययन से पता चला है कि जंगल की आग के धुएँ के संपर्क में आने से, जो पीएम 2.5 के स्तर को बढ़ाता है, मनोभ्रंश का खतरा 18-21 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा की गई एक और व्यापक समीक्षा (51 अध्ययनों में 2.9 करोड़ लोगों पर) ने पुष्टि की कि पीएम 2.5 के संपर्क में आने से मनोभ्रंश का खतरा 13-17 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। विज्ञान स्पष्ट है कि ये सूक्ष्म कण श्वसन तंत्र और मस्तिष्क में गहराई तक प्रवेश करते हैं, मस्तिष्क के कार्य को बाधित करते हैं और मानसिक गिरावट को तेज़ करते हैं।
हाल ही में चीन में हुए एक शोध में भी पीएम और नाइट्रोजन ऑक्साइड के संपर्क को मध्यम आयु वर्ग और वृद्ध लोगों में संज्ञानात्मक क्षमता में कमी, विशेष रूप से कार्यशील स्मृति में कमी से जोड़ा गया है। यह एक बढ़ता हुआ संकट है जिसके प्रभाव न केवल व्यक्तियों पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ रहे हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि वायु प्रदूषण अब केवल खांसी या सांस की बीमारी तक सीमित नहीं है, यह चुपचाप हमारी स्मृति, संज्ञानात्मक कार्यों और मानसिक स्वास्थ्य पर हमला कर रहा है। लोग मानसिक थकान, अवसाद या चिड़चिड़ापन महसूस कर सकते हैं। सामूहिक स्तर पर, शिक्षा और उत्पादकता में गिरावट, स्वास्थ्य पर बढ़ता बोझ और आर्थिक असमानता बढ़ती है। अगर तत्काल और निर्णायक कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और बिगड़ेगी। वायु प्रदूषण शरीर में हानिकारक रासायनिक प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है जो कोशिकाओं, प्रोटीन और डीएनए को नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे मनोभ्रंश जैसी तंत्रिका संबंधी बीमारियों का मार्ग प्रशस्त होता है। उत्साहजनक रूप से, शोध बताता है कि वायु प्रदूषण को कम करने से स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और जलवायु क्षेत्रों में दीर्घकालिक लाभ मिल सकते हैं। इससे मरीजों, परिवारों और देखभाल करने वालों पर बोझ भी कम होगा। अब हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि हम न केवल अपने फेफड़ों, बल्कि अपने दिमाग की भी रक्षा के लिए कितनी दूर तक जाने को तैयार हैं? 

बाघों के सबसे बड़े घर में सुरक्षा बनी चुनौती

प्रमोद भार्गव

मध्यप्रदेश में चल रहे मानव-बाघ संघर्श और अवैध शिकार एक बड़ी चुनौती बनकर पेश आई है। क्योंकि यह राज्य देश में ‘टाइगर स्टेट‘ कहा जाता है। बाघों की निरंतर बढ़ती संख्या इनके संरक्षण और सुरक्षा के लिए चुनौती बन रही है। अतएव वन विभाग को सुरक्षा के साथ संवेदनशीलता की भी जरूरत है। क्योंकि अब इनके आवास और प्रजनन के क्षेत्र केवल बाघों के लिए आरक्षित उद्यान नहीं रह गए हैं। ये अपना क्षेत्र विस्तृत कर रहे है। प्रदेश में वर्तमान में बाघों की संख्या 850 से लेकर 900 के बीच है। उम्मीद की जा रही है कि 2026 में होने वाली बाघ-गणना में 950 से अधिक बाघ प्रदेश के वन प्रांतरों में हो सकते है, लेकिन चिंता की बात है कि राश्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधीकरण (एनटीसीए) के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2025 के छह माह के भीतर 29 बाघों की मौत हो चुकी है। यानी औसतन प्रतिमाह पांच बाघ या तो प्राकृतिक मौत मरे है या फिर पेशेवर शिकारियों ने उनका शिकार किया है।
हाल ही में शिवपुरी से लगे ष्योपुर से तीन बाघों की हड्डियों के साथ तीन आरोपियों को स्टेट टाइगर स्ट्राइक फोर्स ने पकड़ा है। इनमें से एक बाघिन टी-1 शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान की बताई जा रही है। इस बाघिन की करीब 1 वर्ष से जानकारी नहीं मिल रही है। जबकि इसके गले में आईडी कॉलर डली हुई है। इस मामले में शिवपुरी के उद्यान से लगे ग्राम भीमपुर से पकड़े गए मुख्य आरोपी सोजीराम मोगिया ने स्वीकार किया है कि उसने जहर देकर एक बाघ को मारा है। हालांकि वनसंरक्षक उत्तम षर्मा प्रमाण के अभाव में बाघिन का शिकार करना स्वीकार नहीं कर रहे है, लेकिन बाघिन किस स्थल पर हैं, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। सौजीराम का 250 बीघा वनभूमि पर अवैध कब्जा भी है, जो उद्यान की सीमा से लगा है।  
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाघ परियोजना के 50 साल पूरे होने के अवसर पर कर्नाटक के मैसूर में बाघों की नई गणना रिपोर्ट-2022 जारी की थी। हालांकि यह संख्या और ज्यादा भी हो सकती है, क्योंकि यह गिनती केवल बाघ परियोजना क्षेत्रों में लगे कैमरों में कैद हुए बाघों की, की गई थी। बाघों की यह वृद्धि दुनिया के लिए गर्व का विषय है। यह दुर्लभ प्राणी एक समय लुप्त होने के कगार पर पहुंच गया था, तब 1 अप्रैल 1973 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बाघ परियोजनाओं के जरिए बाघ संरक्षण के मजबूत उपाय किए थे।दुनिया की कुल आबादी के 75 प्रतिशत बाघ अकेले भारत में हैं। देश की सभी बाघ परियोजनाओं में 75000 वर्ग किमी क्षेत्र बाघों के लिए सुरक्षित है। दुनिया का महज 2.4 प्रतिशत भू-भाग हमारे पास है, जबकि जैव-विविधता के संरक्षण में हमारा योगदान आठ प्रतिशत है। भारत की कुल आबादी के करीब 850 बाघ मध्यप्रदेश की धरती पर विचरण कर रहे हैं। इसीलिए अब मध्यप्रदेश ‘बाघ राज्य‘ (टाइगर स्टेट) कहलाता है। बाघ संरक्षण भारत सरकार और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है। संवेदना और सह-अस्तित्व के लिए प्रोत्साहित करने वाली हमारी सांस्कृतिक विरासत ने बाघ परियोजना की सफलता में अहम् भूमिका निभाई है। इन साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है।
बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राश्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को षुरूआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है और इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के पूर्व निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब ‘साइंस इन एशिया‘ के मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव संरक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और इसे नकार दिया गया।
इसके बाद ‘कैमरा ट्रैपिंग‘ का एक नया तरीका पेश आया। जिसे कारंत की टीम ने शुरुआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के षरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते हैं। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी। पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिश्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की षुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई थी, जो अब बढ़ रही है।
      हालांकि बढ़ते क्रम में बाघों की गणना को हमेशा पर्यावरणविद्ों ने संदिग्ध माना है। क्योंकि आर्थिक उदारवाद के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं ने बाघों की वंश वृद्धि पर अंकुश लगाया है। इन परियोजनाओं को प्रचलन में लाने के लिए चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। नतीजतन मानव और पशुओं के बीच संघर्श बढ़ा है। केंद्र व राज्य सरकारों की नीतियां भी खनन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं। पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग, तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर-प्रदेश के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी माफिया बाघों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं। इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से आवाज न राजनीतिकों की ओर से उठ रही और न ही वन अमले की तरफ से ? हां वन अमले की बर्बरता और गोपनीयता जरूर वैसी ही बनी चली आ रही है, जो फिरंगी हुकूमत के जमाने में थी। अंग्रेजों से विरासत में मिली इस शैली में बदलाव अभी तक वन अमला लाया नहीं है। इस कारण बाघों की मौतें भी बढ़ रही हैं। जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को 20 से 26 करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएं तो यहां तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है, ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे।
वर्तमान में चीन में बाघ के अंग और खालों की सबसे ज्यादा मांग हैं। इसके अंगों से यहां पारंपरिक दवाएं बनाई जाती हैं और उसकी हड्डियों से महंगी शराब बनती है। भारत में बाघों का जो अवैध शिकार होता है, उसे चीन में ही तस्करी के जरिए बेचा जाता है। बाघ के अंगों की कीमत इतनी अधिक मिलती है कि पेशेवर शिकारी और तस्कर बाघ को मारने के लिए हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। बाघों की दुर्घटना में जो मौतें हो रही हैं, उनका कारण इनके आवासीय क्षेत्रों में निरंतर आ रही कमी है। जंगलों की बेतहाशा हो रही कटाई और वन-क्षेत्रों में आबाद हो रही मानव बस्तियों के कारण भी बाघ बेमौत मारे जा रहे हैं।
 पर्यटन के लाभ के लिए उद्यानों एवं अभ्यारण्यों में बाघ देखने के लिए जो क्षेत्र विकसित किए गए हैं, उस कारण इन क्षेत्रों में पर्यटकों की अवाजाही बढ़ी है, नतीजतन बाघ एकांत तलाशने के लिए अपने पारंपरिक रहवासी क्षेत्र छोड़ने को मजबूर होकर मानव बस्तियों में पहुंचकर बेमौत मर रहे हैं। बाघ संरक्षण विशेश क्षेत्रों का जो विकास किया गया है, वह भी उसकी मौत का कारण बन रहा है, क्योंकि इस क्षेत्र में बाघ का मिलना तय होता है। बाघों के निकट तक पर्यटकों की पहुंच आसान बनाने के लिए बाघों के शरीर में रेडियो कॉलर आईडी लगाए गए हैं, वे भी इनकी मौत का प्रमुख कारण हैं। सीसीटीवी कैमरे भी इनको बेमौत मार देने की सूचना का आधार बन रहे हैं। दरअसल कैमरे के चित्र और कॉलर आईडी से इनकी उपस्थिति की सटीक जानकारी वनकर्मियों के पास होती है। तस्करों से रिश्वत लेकर वनकर्मी बाघ की उपस्थिति की जानकारी दे देते हैं। नतीजतन शिकारी बाघ को आसानी से निशाना बना लेते हैं।    
अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों के लिए सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है।
प्रमोद भार्गव