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अन्तरिक्ष की उड़ान ले रही जलवायु की जान

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मयूरी

सोचिए — एक तरफ़ दुनिया भयंकर गर्मी, बाढ़ और खाने के संकट से जूझ रही है, और दूसरी तरफ़ चंद अमीर लोग कुछ मिनटों के लिए अंतरिक्ष घूमने निकल पड़े हैं।
ये दौड़ सिर्फ़ शौक़ की नहीं है, ये जलवायु अन्याय और गैर-जिम्मेदारी की एक ज़िंदा मिसाल बन चुकी है।

अभी हाल ही में एक निजी मिशन में दस मशहूर महिलाओं को अंतरिक्ष भेजा गया। इसे “महिलाओं का ऐतिहासिक पल” कहकर खूब प्रचार मिला।
लेकिन जानकारों का कहना है — इस चमक-दमक के पीछे एक कड़वी सच्चाई छुपी है: भारी प्रदूषण और उन लोगों के साथ बढ़ता अन्याय, जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े शिकार हैं।

ऊंची उड़ानऊंचा एमिशन स्तरऔर पब्लिक को फायदा़ कुछ नहीं

एक सब-ऑर्बिटल स्पेस फ्लाइट यानी महज़ कुछ मिनट की अंतरिक्ष सैर।
लेकिन इसका कार्बन फुटप्रिंट? किसी आम इंसान के सालों-साल के एमिशन से भी ज़्यादा।

पहले अंतरिक्ष मिशन सैटेलाइट भेजते थे, जलवायु निगरानी करते थे, नई दवाओं पर रिसर्च करते थे।
आज का स्पेस टूरिज़्म?
न कोई विज्ञान में योगदान, न कोई सामाजिक भलाई।
सिर्फ़ मनोरंजन। सिर्फ़ दिखावा।
ऐसे दौर में जब दुनिया को हर हाल में एमिशन घटाना चाहिए, सिर्फ मौज-मस्ती के लिए अंतरिक्ष में उड़ान भरना — ये सिर्फ़ बेपरवाही नहीं है, ये एक गहरी नैतिक चुनौती भी है।

जलवायु अन्याय: जब विशेषाधिकार आसमान छूने लगे

स्पेस टूरिज़्म ने एक बार फिर दुनिया की असली असमानता को नंगा कर दिया है।
जो सबसे कम प्रदूषण करते हैं — गरीब देश, कमजोर समुदाय — वही जलवायु तबाही के सबसे बड़े शिकार हैं।
और जो सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैलाते हैं, वही अंतरिक्ष में घूम कर अपनी अमीरी का जश्न मना रहे हैं।

इन उड़ानों की असली कीमत वो चुका रहे हैं जिनकी ज़िंदगी में ये सपने भी नहीं आते।
ये असमानता का ज़ख्म और गहरा कर रहा है।

जब नारीवाद का इस्तेमाल ग्रीनवॉशिंग में हो

“महिलाएं अंतरिक्ष में” मिशन को मीडिया ने प्रगतिशीलता का बड़ा झंडा बनाकर पेश किया।
लेकिन जानकार साफ़ चेतावनी दे रहे हैं — सशक्तिकरण के नाम पर पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाना एक बेहद खतरनाक ट्रेंड है।

सच्चा फेमिनिज़्म हर किसी के लिए बराबरी और भलाई की बात करता है, न कि कुछ चुनिंदा लोगों के शौक पूरे करने का लाइसेंस देता है।
अगर हम जलवायु संकट के बीच खास लोगों के भोग-विलास को “प्रगति” का नाम देंगे, तो हम भी इस संकट का हिस्सा बन जाते हैं।

संचार का असली दायित्व: पूरी तस्वीर दिखाना

आज मीडिया, सरकारें और कंपनियां — सबकी जिम्मेदारी है कि सच को बिना चमक-दमक के सामने रखें।
अगर मीडिया सिर्फ़ रॉकेट लॉन्च के ग्लैमर पर फोकस करेगा और जलवायु नुकसान पर चुप रहेगा, तो असलियत पीछे छूट जाएगी।

हर स्टोरी, हर हेडलाइन अब मायने रखती है।
तकनीक की दौड़ में नैतिकता कहीं पीछे नहीं छूटनी चाहिए।

पहले धरतीफिर अंतरिक्ष

स्पेस टूरिज़्म में पैसा बहाने से पहले, क्या हमें अपनी ज़मीन बचाने की फ़िक्र नहीं करनी चाहिए?
जब अरबों लोग बाढ़, सूखा, और समुद्र के बढ़ते स्तर से जूझ रहे हैं, तब अंतरिक्ष में शौक़ पूरा करना हमारी प्राथमिकताओं पर एक बड़ा सवाल उठाता है।

ज़्यादातर लोगों के पास “प्लैनेट बी” जैसा कोई ऑप्शन नहीं है।
हमारी असली यात्रा अंतरिक्ष भागने की नहीं — धरती को बचाने की होनी चाहिए।
सभी के लिए, न कि सिर्फ़ कुछ चुनिंदा के लिए।

लेखिका जलवायु और ऊर्जा क्षेत्र में सक्रिय एक लीगल एक्सपेर्ट हैं 

सिंधु संधि पर भारत का नया रुख: कूटनीति से जलनीति तक

·       डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

23 अप्रैल को पहलगांव में आतंकी हमले में 28 पर्यटकों की हत्या के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया। भारत ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते हुए  सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की बैठक के बाद 65 वर्ष पुराना सिंधु जल समझौता निलंबित कर दिया है। इसके साथ ही अटारी चेक पोस्ट बंद करने, पाक नागरिकों के लिए सार्क वीजा छूट योजना रद्द करने, वीजाधारकों को भारत छोड़ने के निर्देश देने और पाकिस्तानी उच्चायोग के सैन्य सलाहकारों को निष्कासित करने का निर्णय लिया गया। इस्लामाबाद उच्चायोग के स्टाफ में कटौती की गई। 

भारत द्वारा सिंधु नदी समझौते को स्थगित करने की घोषणा के बाद से ही पाकिस्तान में मातम का माहौल है और पाकिस्तान लगातार इसको अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बता रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि भारत इस पानी को कैसे रोकेगा। भारत द्वारा उठाए गए इस कदम का पाकिस्तान पर क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या इस कदम से भारत को कानूनी तौर पर कोई परेशानी होगी। इन सारे सवालों की पड़ताल करने के पहले यह जानना जरूरी है कि सिंधु नदी समझौता क्या है।

 सिंधु नदी समझौते पर विश्व बैंक की मध्यस्थता से 19 सितम्बर 1960 को कराची में भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के द्वारा हस्ताक्षर किया गया। यह समझौता नदियों के साझा प्रबंधन हेतु था। इस समझौते के अनुसार सिंधु और उसकी सहायक नदियों को दो हिस्से में बांटा गया। पूर्वी नदियों सतलज, व्यास एवं रावी पर भारत का पूरा नियंत्रण होगा जबकि पश्चिमी नदियों क्रमशः सिंधु, झेलम एवं चिनाब नदियों पर भारत का कुछ ही नियंत्रण होगा। इस पर भारत अपनी कृषि एवं ऊर्जा जरूरतों के लिहाज से छोटे प्रोजेक्ट बनाने का अधिकारी है। शेष पानी उसे पाकिस्तान के लिए छोड़ना होगा। पूर्वी नदियों का वार्षिक प्रवाह 33 बिलियन एकड़ फुट है जबकि पश्चिमी नदियों का वार्षिक प्रवाह इससे लगभग चार गुना 135 बिलियन एकड़ फुट है। मोटे तौर पर देखें तो इस जल प्रवाह का 80 प्रतिशत  पाकिस्तान को और 20 फीसदी भारत को मिलता है।

 इस समझौते में यह भी निश्चित हुआ कि दोनों देश एक दूसरे को नदी के प्रवाह और बांधों की जानकारी देंगे। इस हेतु एक स्थायी सिंधु आयोग बनाया गया जिसमें दोनों देशों के एक- एक सदस्य हैं। तकरीबन 65 साल बाद भारत ने कूटनीतिक तौर पर इस संधि को स्थगित करने का फैसला किया है। वह इसे कुछ समय के लिए स्थगित कर रहा है। 24 अप्रैल को भारत ने औपचारिक तौर पर इस संधि से एकतरफा हटने  की सूचना पाकिस्तान को अधिकृत तौर पर दे दी। पाकिस्तान के जल संसाधन मंत्रालय के सचिव को लिखे पत्र में इसके कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि कोई भी संधि तभी जारी रह सकती है जबकि उसके प्रति अच्छी नीयत रखी जाए। चूंकि पाकिस्तान की तरफ से अनवरत आतंकवादी गतिविधियां जारी हैं। अतः भारत यह कदम उठा रहा है। साथ ही इसकी जानकारी विश्व बैंक को भी दी गई है।

भारत के जलशक्ति मंत्री सी. आर. पाटिल ने गृह मंत्री अमित शाह के साथ जलशक्ति मंत्रालय की हुई बैठक के बाद सिंधु नदी के पानी के रोकने के मास्टर प्लान के विषय में बताया। इस संदर्भ में बताया गया कि यह योजना त्रिस्तरीय होगी- पहला शार्ट टर्म जो पूरी तरह से 2-3 वर्षों में काम करने लगेगा. इसके जरिए 5 से 10 प्रतिशत पानी रोका जा सकता है।  दूसरा मीडियम टर्म यह 5-6 वर्षों में काम कारने लगेगा। इसके माध्यम से 15-20 प्रतिशत पानी को रोक जा सकता है. तीसरा और अंतिम प्लान है लॉंग टर्म इसके तहत 30-40 फीसदी पानी रोका जाएगा। इन तीनों प्लानों में क्रमशः 1. पहले से बने परियोजनाओं की क्षमता बढ़ाना होगा  2. नवीनतम परियोजनाओं को संरचित करना होगा जैसे नहरों का संजाल बिछाना और 3. दो नदियों को जोड़ना जैसे सिंधु  को गंगा नदी से जोड़ना।  दूसरी और तीसरी परियोजना अत्यंत खर्चीली हैं और अभी से काम करने पर लगभग 10 वर्ष लग जाएगा। अब सवाल यह है कि अभी भारत क्या कर सकता है, तो इसका उत्तर है फिलहाल वह आंशिक तौर पर प्रभाव डाल सकता है। चूंकि अब जब भारत इस संधि से दीर्घ काल के लिए पीछे हट गया है तो अब भारत को डेटा शेयर नही करना होगा। अतः वह इसका इस्तेमाल करके प्रतिकूल मौसम में फायदा उठा सकता है। साथ ही अब भारत बड़ी परियोजनाओं को बना सकता है। वह पहले से स्थापित परियोजनाओं की क्षमता भी बढा सकता है। इससे पाकिस्तान की कृषि, पनबिजली एवं दैनिक उपयोग के पानी की किल्लत होगी और इसका असर उसकी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा।

अब यह भी प्रश्न उठता है कि क्या इस संधि को स्थगित करने का भारत पर कोई कानूनी प्रभाव पड़ेगा तो इसका उत्तर है इसका आंशिक असर पड़ सकता है। वस्तुतः इस संधि के अनुच्छेद 12 में कहा गया है कि यह संधि तब तक खत्म नही होगी जब तक दोनों देश खत्म ना कर दें परंतु वियना कन्वेन्शन ऑन ट्रीटीज की धारा 66 यह कहती है कि कोई भी संप्रभु राष्ट्र किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संधि से हट सकता है. निकलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जाना होगा परन्तु अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में यह भी उपबंध है कि जो समस्या राष्ट्रमण्डल देशों की है, उसमें वे स्वतंत्र है कि वे चाहें तो अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में जाएं अथवा ना जाएं। धारा 66 यह भी कहती है कि एक वर्ष पूर्व सूचना देनी होगी। भारत एक वर्ष पूर्व ही इस संधि को नए सिरे से करने हेतु पाकिस्तान को सूचित कर चुका है।

इस तरह से स्पष्ट है कि इस संधि से पीछे हटकर भारत कूटनीतिक तौर पर पाकिस्तान पर दबाव बनाने में सफल हो गया है। यह सत्य है कि पूरा पानी रोक पाना फिलहाल असंभव दिखलायी पड़ता है लेकिन अगले एक दशक में इस पर काम किया जा सकता है। साथ ही पहले से बनी परियोजनाओं और नहरों की मरम्मत करना होगा, उनकी क्षमता को यथाशीघ्र बढ़ाना होगा। इसका असर अभी से देखने को मिलने लगा है। भारत ने बिना पाकिस्तान को बताए झेलम नदी का पानी छोड़ दिया जिससे मुजफ्फराबाद जिले में बाढ़ जैसी स्थिति आ गई है। निःसंदेह भारत की घोषणा मात्र से पाकिस्तान में डर का माहौल है। यही कारण है कि पाकिस्तान के सियासतदाँ के द्वारा उलटे-सीधे बयान दिए जा  रहे हैं। भारत सरकार और उनके थिंक टैंक को लगातार इस पर नज़र रखने की जरूरत है क्योंकि अब समय हार्ड पवार डिप्लोमेसी का है, साफ्ट पवार डिप्लोमेसी का नही। 

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

भौतिकता एवं आध्यात्मिकता की अक्षय मुस्कान का पर्व

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अक्षय तृतीया 30 अप्रैल, 2025 पर विशेष
– ललित गर्ग-

अक्षय तृतीया महापर्व का न केवल सनातन परम्परा में बल्कि जैन परम्परा में विशेष महत्व है। इसका लौकिक और लोकोत्तर-दोनों ही दृष्टियों में महत्व है। अक्षय शब्द का अर्थ है कभी न खत्म होने वाला। संस्कृत में, अक्षय शब्द का अर्थ है ‘समृद्धि, आशा, खुशी, सफलता’, जबकि तृतीया का अर्थ है ‘चंद्रमा का तीसरा चरण’। इस त्यौहार के साथ-साथ एक अबूझा मांगलिक एवं शुभ दिन भी है, जब बिना किसी मुहूर्त के विवाह एवं मांगलिक कार्य किये जा सकते हैं। विभिन्न सांस्कृतिक एवं मांगलिक ढांचांे में ढले अक्षय तृतीया पर्व में हिन्दू-जैन धर्म, संस्कृति एवं परम्पराओं का अनूठा संगम है। इस प्रकार अक्षय तृतीया पर किए गए कार्यों जैसे जप-तप, यज्ञ, पितृ-तर्पण, दान-पुण्य आदि का साधक को अक्षय फल प्राप्त होता है। भगवान आदिनाथ ने ही सबसे पहले समाज में दान का महत्व समझाया था, इसलिए इस दिन पर जैन धर्म के लोग आहार दान, ज्ञान दान, औषधि दान करते हैं। रास्ते चाहे कितने ही भिन्न हों पर इस पर्व त्यौहार के प्रति सभी जाति, वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय और धर्मों का आदर-भाव अभिन्नता में एकता का प्रिय संदेश दे रहा है। आज के युद्ध, आतंक, आर्थिक प्रतिस्पर्धा एवं अशांति के समय में संयम एवं तप की अक्षय परम्परा को जन-जन की जीवनशैली बनाने की जरूरत है।
अक्षय तृतीया इस वर्ष 30 अप्रैल, 2025 को है। भगवान परशुराम का जन्म अक्षय तृतीया के दिन हुआ था, इसलिये भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम का जन्मदिन मानते हैं। वैष्णव मंदिरों में उनकी पूजा की जाती है। महर्षि वेदव्यास ने इसी दिन से महाभारत लिखना शुरू किया था। अक्षय तृतीया के दिन महाभारत के युधिष्ठिर को अक्षय पात्र मिला था। इसकी विशेषता थी कि इसमें भोजन कभी समाप्त नहीं होता था। इसी पात्र से वह अपने राज्य के गरीब व निर्धन को भोजन देकर उनकी सहायता करते थे। इसी आधार पर मान्यता है कि इस दिन किए जाने वाला दान-पुण्य का भी कभी क्षय नहीं होता है। इस दिन साधु-संतों के साथ ब्राह्मणों-गरीबों को भोजन कराकर व वस्त्र दान करने के साथ गायों को हरा चारा खिलाने का विशेष महत्व है। वहीं पक्षियों को परिंडे लगाकर दाने-पानी की व्यवस्था करने से विशेष लाभ मिलता है और भगवान श्री विष्णु की कृपा अपने भक्तों पर हमेशा बनी रहती है।
अक्षय तृतीया विवाहित या अविवाहित महिलाओं के लिए क्षेत्रीय रूप से महत्वपूर्ण है, जो अपने जीवन में पुरुषों की भलाई के लिए या भविष्य में उनकी सगाई होने वाले पुरुष के लिए प्रार्थना करती हैं। प्रार्थना के बाद, वे अंकुरित चने (अंकुरित), ताजे फल और भारतीय मिठाइयां वितरित करते हैं। यह दिन किसानों, कुंभकारों एवं शिल्पकारों के लिए भी यह बहुत महत्व का दिन है। बैलों के लिए भी बड़े महत्व का दिन है। प्राचीन समय से यह परम्परा रही है कि आज के दिन राजा अपने देश के विशिष्ट किसानांे को राज दरबार में आमंत्रित करता था और उन्हें अगले वर्ष बुवाई के लिए विशेष प्रकार के बीज उपहार में देता था। लोगों में यह धारणा प्रचलित थी कि उन बीजों की बुवाई करने वाले किसान के धान्य-कोष्ठक कभी खाली नहीं रहते। यह इसका लौकिक दृष्टिकोण है। अक्षय तृतीया पर महाराष्ट्र के लोग नया व्यवसाय शुरू करते हैं, घर खरीदते हैं और महिलाएं सोना खरीदती हैं। लोग इस त्यौहार को परिवार के साथ मनाते हैं और महाराष्ट्रीयन पूरन पोली (गुड़ और दाल के मिश्रण से भरी चपाती) और आमरस (आम की एक मोटी प्यूरी) से बने नैवेद्य जैसे भोजन का भोग लगाकर देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
ओडिशा में, अक्षय तृतीया आगामी खरीफ सीजन के लिए चावल की बुवाई के शुभारंभ के दौरान मनाई जाती है। यह दिन अच्छी फसल के आशीर्वाद के लिए किसानों द्वारा धरती माता, बैलों और अन्य पारंपरिक कृषि उपकरणों और बीजों की पूजा के साथ शुरू होता है। जगन्नाथ मंदिर के रथ यात्रा उत्सव के लिए रथों का निर्माण भी इसी दिन पुरी में शुरू होता है। तेलुगू भाषी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में यह त्यौहार समृद्धि और दान से जुड़ा है। सिंहचलम मंदिर में इस दिन विशेष उत्सव अनुष्ठान किए जाते हैं। मंदिर के मुख्य देवता को साल के बाकी दिनों में चंदन के लेप से ढका जाता है और केवल इसी दिन देवता पर लगे चंदन की परतें हटाई जाती हैं ताकि अंतर्निहित मूर्ति दिखाई दे। इस दिन वास्तविक रूप या निज रूप दर्शनम का प्रदर्शन होता है।
लोकोत्तर दृष्टि से अक्षय तृतीया पर्व का संबंध जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ के साथ जुड़ा हुआ है। तपस्या हमारी संस्कृति का मूल तत्व है, आधार तत्व है। कहा जाता है कि संसार की जितनी समस्याएं हैं तपस्या से उनका समाधान संभव है। संभवतः इसीलिए लोग विशेष प्रकार की तपस्याएं करते हैं और तपस्या के द्वारा संसार की आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों संपदाओं को हासिल करने का प्रयास करते हैं। जैन धर्म में वर्षीतप यानी एक वर्ष तक तपस्या करने वाले साधक इसदिन से तपस्या प्रारंभ करके इसी दिन सम्पन्न करते हैं। यह संसार से मोक्ष की मुस्कान, शरीर को तपाने और आत्मस्थ करने का अवसर है। अक्षय तृतीया तप, त्याग और संयम का प्रतीक पर्व है। इसका सम्बन्ध भगवान ऋषभदेव के युग और उनके कठोर तप से जुड़ा होने से वर्षीतप की परम्परा चली।  यह ऋषभ की दीर्घ तपस्या के समापन का दिन है। अपने आदिदेव की स्मृति में जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में असंख्य श्रावक-श्राविकाएं वर्षीतप करते हैं। इस दिन देशभर में आचार्यों और मुनियों के सान्निध्य में अनेक आयोजन होते हैं। इसका मुख्य आयोजन हस्तिनापुर (जिला मेरठ- उत्तर प्रदेश) में श्री शांतिनाथ जैन मन्दिर में एवं प्राचीन नसियांजी, जो भगवान ऋषभ के पारणे का मूल स्थल पर आयोजित होता है, वहां पर देशभर से हजारों तपस्वी एकत्र होते हैं और अपनी तपस्या का पारणा करते हैं। तपस्या को जैन धर्म साधना में अत्यन्त महत्पूर्ण स्थान दिया जाता है। मोक्ष के चार मार्गों में तपस्या का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है। तपस्या आत्मशोधन की महान प्रक्रिया है और इससे जन्म जन्मांतरों के कर्म आवरण समाप्त हो जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि इसकी साधना से जीवन विकास की सीख हमारे चरित्र की साख बने। हममें अहं नहीं, निर्दोष शिशुभाव जागे। यह आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा बने।
अक्षय तृतीया का पावन पवित्र त्यौहार निश्चित रूप से धर्माराधना, त्याग, तपस्या आदि से पोषित ऐसे अक्षय बीजों को बोने का दिन है जिनसे समयान्तर पर प्राप्त होने वाली फसल न सिर्फ पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्साह को शतगुणित करने वाली होगी वरन अध्यात्म की ऐसी अविरल धारा को गतिमान करने वाली भी होगी जिससे सम्पूर्ण मानवता सिर्फ कुछ वर्षों तक नहीं पीढ़ियों तक स्नात होती रहेगी। अक्षय तृतीया के पवित्र दिन पर हम सब संकल्पित बनें कि जो कुछ प्राप्त है उसे अक्षुण्ण रखते हुए इस अक्षय भंडार को शतगुणित करते रहें। यह त्यौहार हमारे लिए एक सीख बने, प्रेरणा बने और हम अपने आपको सर्वोतमुखी समृद्धि की दिशा में निरंतर गतिमान कर सकें। अच्छे संस्कारों का ग्रहण और गहरापन हमारे संस्कृति बने। तभी अक्षय तृतीया पर्व की सार्थकता होगी। सनातन धर्म में इसी दिन शादियों के भी अबूझ एवं स्वयंसिद्ध  मुहूर्त रहता है और थोक में शादियां होती है। अक्षय तृतीया को आखा तीज भी कहा जाता है। अक्षय तृतीय हिन्दु पंचाग अनुसार वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते है। माना जाता है कि इस दिन जो भी कार्य किए जाते हैं वे पुरी तरह सफल होते हैं एवं शुभ कार्यों को अक्षय फल मिलता है। साथ ही यह भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन अपने अच्छे आचरण और सद्गुणों से दूसरों का आशीर्वाद लेना अक्षय रहता है। साथ ही अक्षय तृतीया के दिन सोना खरीदना अत्यंत शुभ माना जाता है तथा गृह प्रवेश, पदभार ग्रहण, वाहन खरीदना, भूमि पूजन आदि शुभ कार्य करना अत्यंत लाभदायक एवं फलदायी होते हैं। इतना ही नहीं अक्षय तृतीया के दिन ही वृंदावन के बांके बिहारी के चरण दर्शन एवं प्रमुख तीर्थ बद्रीनाथ के पट (द्वार) भी अक्षय तृतीया को ही खुलते हैं।

पाक के खिलाफ कूटनीतिक एवं रणनीतिक दबाव जरूरी

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-ललित गर्ग-

पाकिस्तान की पहचान एक ऐसे देश के रूप में है जो कमजोर है, असफल है, कर्ज में डूबा है, अपने नागरिकों के हितों की रक्षा करने में नाकाम है, आतंक की नर्सरी एवं प्रयोगशाला है, ढहती अर्थव्यवस्था है, इन बड़ी नाकामियों को ढ़कने के लिये ही वह कश्मीर का राग अलापता रहा है, वहां के नेता एवं सैन्य अधिकारी तमाम जर्जरताओं एवं निराशाओं के बावजूद आज भी हिन्दू और भारत विरोध को ढ़ाल बनाकर ही अपनी सत्ता मजबूत करते रहे हैं। लेकिन अब उसका चेहरा इतना बदनुमा बन गया है कि उसने धर्म के नाम पर निर्दोष एवं बेगुनाह लोगों का खून बहाना शुरु कर दिया है। भारत ही नहीं, दुनिया में आतंक को फैलाने में अपनी जमीन, संसाधन एवं ताकत का प्रयोग खुलेआम करना शुरु कर दिया है, यह उसकी बौखलाहट ही है, यह उसकी निराशा ही है, यह उसकी विकृत सोच ही है। इस घिनौनी सोच का पर्दापाश पहलगाम के खौफनाक आतंकी हमले के रूप में पूरी दुनिया के सामने हुआ है। विडम्बना तो यह है कि भारत तथा अंतर्राष्ट्रीय दबाव के आगे लाचार हुए पाकिस्तान के सत्ताधीशों ने स्वीकार किया कि वे पिछले तीस साल से आतंक की फसल सींच रहे थे। भारत ने पूरी दुनिया को मुंबई के भीषण हमले, संसद पर हुए हमले तथा पुलवामा से लेकर उड़ी तक की आतंकवादी घटनाओं में पाक की संलिप्तता के मजबूत सबूत बार-बार दिए, लेकिन अमेरिका व उसके सहयोगी देशों एवं चीन ने इसे अनदेखा ही किया। लेकिन इस बार की पहलगाम घटना ने इन देशों के साथ पूरी दुनिया को झकझोर दिया है और पाकिस्तान के प्रति उनकी सोच बदली है।
निश्चित रूप से एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान की विफलता जग-जाहिर हो गई है, लेकिन उसके आतंकवादी होने के पुख्ता प्रमाणों ने दुनिया को एकजुट कर दिया है, यही कारण है कि दुनिया से वह अलग-थलग अकेला खड़ा है। पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि पिछले तीस साल से पाक आतंकवादी तैयार करने का काम कर रहा था। साथ ही उन्होंने यह भी सफाई दी कि पाकिस्तान ने ये गंदा काम  अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देशों के कहने पर किया। सवाल यह है कि क्यों पाक ने एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अपने नैतिक दायित्व का पालन नहीं किया? क्यों उसने किन्हीं दूसरे देशों के कहने पर अपनी जमीन को आतंक की उर्वरा भूमि बनने दिया? क्यों उसने इस्लाम को आधार बनाकर कट्टरपंथ की फसल सींची? पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ की यह स्वीकारोक्ति भारत द्वारा लंबे समय से लगाये जा रहे उन आरोपों की पुष्टि ही है, जिसमें पाक को आतंक की पाठशाला बताया गया था। सोचने वाली बात तो यह भी है कि उसने इस्लाम एवं मुसलमान समुदाय को भी अपने गलत एवं गंदे मनसूंबों के लिये इस्तेमाल किया। यह कारण है कि अपने धर्म को धुंधलाने एवं बेजा इस्तेमाल का फल उसे तमाम असफलताओं एवं पराजयों के रूप में मिला है, अन्यथा इस्लाम का पवित्र उपयोग करने वाले देश तो दिनोंदिन आगे बढ़ रहे हैं, समृद्ध हो रहे हैं, अपने लोगों को उन्नत जीवन प्रदत्त कर रहे हैं, दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाकर खड़े है।
दुनिया पाकिस्तान के बदसूरत चेहरे को देख चुकी है, फिर भी दुनिया को बताना चाहिए कि पुलवामा हमले से पहले कैसे पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल आसिम मुनीर ने कट्टरपंथियों जैसा भड़काऊ बयान दिया था। जिसके कुछ समय बाद ही पहलगाम जैसा भयानक आतंकी हमला सामने आया। भारत को दुनिया को बताना चाहिए कि किस तरह पाकिस्तान दुनिया की शांति, अमन एवं उन्नत संसार-निर्माण के लिये खतरा बना हुआ है। जिसको सख्त आर्थिक प्रतिबंधों के जरिये आतंक से दूरी बनाने के लिये बाध्य किया जाना चाहिए। निश्चय ही अब पाक को सबक सिखाने का वक्त आ गया है। आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान सुधर नहीं सकता, अतीत में भारत से तीन युद्ध हारने के बावजूद उसने कुछ सबक नहीं लिया। भारत को नुकसान पहचाने की नीति पर वह आज भी कायम है। भारत की अलग-अलग समय की सरकारों ने अनेक कोशिशें पाकिस्तान से संबंध सुधारने की है,  लेकिन पाकिस्तान सुधरा नहीं। भारत के संबंध सुधार, शांति एवं पडोसी देश-धर्म के प्रयासों का जबाव उसने हमेशा आतंकवादी घटनाओं के रूप में ही दिया। भारत के इन सकारात्मक प्रयासों के बदले कभी कारगिल मिला, कभी पठानकोट, कभी उरी तो कभी मुंबई। लेकिन इस बार के पहलगाम के नृशंस आतंकी हमले के बाद हर भारतीय, यहां तक हर कश्मीरी की जुबान पर एक ही सवाल है कि इस पाकिस्तान का इलाज क्या है? लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ बड़ा और आरपार का करने के मुड़ में है। अब तक प्रधानमंत्रियों में वे सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न एवं हौसल्ले वाले महानायक है।
पाकिस्तान इस समय बहुआयामी संकट का सामना कर रहा है, आंतरिक असंतोष, आर्थिक पतन एवं घटती अन्तर्राष्ट्रीय प्रासंगिकता के चलते वह बौखलाहट का शिकार है। इसी का परिणाम है कि वह भारतीय कार्रवाई के जवाब में परमाणु बम से हमले की धमकी, सिंधु नदी को रक्त से भरने तथा कश्मीर मुद्दे के अंतर्राष्ट्रीयकरण जैसे अनाप-शनाप बयानों से वह अपने ही पांव पर कुल्हाडी चलाता हुआ दिख रहा है। चीन पर उसका भरोसा भी उसे निराश ही करेगा। पाकिस्तान में जब चीनी नागरिकों को निशाना बनाया जाता है, तब चीन को उसमें आतंकवाद नजर आता है, लेकिन मौका मिलने पर वह मसूद अजहर जैसे आतंकियों को बचाने से गुरेज नहीं करता। ऐसा नहीं है कि चीन मुस्लिमों का रहनुमा है। दुर्भाग्य से, बात जब भारत की आती है, तो आतंकवाद को लेकर पेइचिंग का नजरिया भी बदल जाता है। लेकिन इस बार चीन के सामने भारत का लुभावना बाजार है, इसके चलते वह पाकिस्तान का खुला समर्थन करेगा, इसमें शंका है।
पाकिस्तान का एकमात्र बड़ा सहारा चीन भी उससे दूरी बना ले तो कोई आश्चर्य नहीं है। पाकिस्तान को वह हमेशा भारत को परेशान करने के टूल के रूप में इस्तेमाल करता आया है। पहलगाम की तटस्थ जांच के लिए पाकिस्तान का प्रस्ताव बताता है कि वह कमजोर और अलग-थलग पड़ रहा है। भारत के पक्ष को दुनिया बेहतर ढंग से समझ रही है। यही बात चीन को भी समझानी होगी। मोदी सरकार के लिए यह दिखाना जरूरी हो गया है कि वो इस मामले को लेकर वाकई गंभीर है। जैसे-जैसे पर्यटकों के शव उनके परिवारों तक पहुंच रहे हैं और उनके अंतिम संस्कार के भावुक एवं मार्मिक दृश्य प्रसारित हो रहे हैं- सरकार पर दबाव बढ़ता जा रहा है। लोगों का गुस्सा खासतौर पर इस तथ्य से और बढ़ गया है कि आतंकवादियों ने पहले पुरुषों का धर्म जानना चाहा और उन्हें उनके परिवार के सामने गोली मार दी।
पहलगाम घटना ने कश्मीर की रोजी-रोटी पर आंच पहुंचायी है, वहां की शांति को लीला है। यही कारण है कि पहलगाम हत्याकांड के खिलाफ जम्मू-कश्मीर के आम लोगों ने बड़ी संख्या में विरोध-प्रदर्शन किया है। राज्य में बंद रहा, लोगों ने विरोध मार्च निकाले और यहां तक कि कश्मीर के प्रमुख समाचार पत्रों ने विरोध के तौर पर अपने मुखपृष्ठ को स्याह रंग से पोत दिया। आज सरकार, विपक्ष और नागरिकों के सामने एक बड़ी चुनौती है कि वे ऐसा कुछ न करें, जिससे सांप्रदायिक संघर्ष फैले। क्योंकि तब हम केवल उस एजेंडे को आगे बढ़ा रहे होंगे, जो आतंकवादियों का मकसद है- भारत को विभाजित करना। भारत की एकता, कश्मीर की शांति एवं विकास एवं आतंकवाद की कमर तोड़ने के लिये अब पाकिस्तान को केवल सैन्य कार्रवाई से नहीं, बल्कि आर्थिक, राजनयिक एवं वैश्विक दबाव से पंगु बनाना होगा। पाकिस्तान के लिये स्थिर पड़ोसी का विचार छोड़कर रणनीतिक विखंडन के जरिये क्षेत्रीय परिदृश्य को नया आकार देना समय की जरूरत है। सिंध एवं बलुचिस्तान अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं, आजाद कश्मीर को भारत में मिलाने की जरूरत है। इस रणनीतिक एवं कूटनीतिज्ञ उद्देश्य के लिये एक दूरगामी, बहुआयामी एवं निर्णायक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसकी पहल लक्षित सर्जिकल स्ट्राइक और प्रमुख आतंकी सरगनाओं को मिटाकर आतंकी केन्द्रों को ध्वस्त करके ही हो सकती है।
प्रेषकः

बौखलाहट में खुद का नुकसान कर रहा पाकिस्तान

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राजेश जैन

 
पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत सरकार ने सख्त प्रतिक्रिया देते हुए सिंधु जल समझौता स्थगित करने सहित पांच बड़े कदम उठाए। इसके जवाब में पाकिस्तान ने भी बौखलाहट में कई तात्कालिक फैसले कर डाले। इनमें शिमला समझौते को रद्द करना, भारतीय उड़ानों के लिए अपने एयरस्पेस को बंद करना और वाघा सीमा चौकी को बंद करने जैसे कदम शामिल हैं लेकिन विशेषज्ञों की राय में पाकिस्तान के ये कदम उसे खुद ही अधिक नुकसान पहुंचाएंगे, जबकि भारत को इससे रणनीतिक और कूटनीतिक फायदे मिल सकते हैं।


शिमला समझौते को स्थगित करना पाकिस्तान का एक बड़ा निर्णय रहा। 1972 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस समझौते ने कश्मीर विवाद को द्विपक्षीय दायरे में सीमित रखा था लेकिन पाकिस्तान ने ऐतिहासिक रूप से इस समझौते का कई बार उल्लंघन किया है। अब जब पाकिस्तान खुद इसे रद्द कर रहा है तो भारत पर किसी समझौता-उल्लंघन का आरोप लगने की संभावना खत्म हो जाती है। भारत अब एलओसी पर अपनी रणनीति के तहत बदलाव कर सकता है और आतंकवाद से निपटने के लिए जरूरत पड़ने पर सैन्य कार्रवाई भी कर सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब वैश्विक शक्तियां, जो पहले ‘द्विपक्षीयता’ के कारण सीमित थीं, भारत के कदमों का खुलकर समर्थन कर सकती हैं।
वहीं, पाकिस्तान द्वारा भारतीय विमानों के लिए एयरस्पेस बंद करना एक और भावनात्मक प्रतिक्रिया रही। यह सही है कि इससे भारतीय एयरलाइनों को अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा, रूट लंबा होगा और टिकटें महंगी हो सकती हैं लेकिन दीर्घकालिक नजरिए से देखें तो भारत अपनी एविएशन रणनीति को और मजबूत कर सकता है और वैकल्पिक मार्ग विकसित करने की दिशा में कदम बढ़ा सकता है। पाकिस्तान को भी इस निर्णय का नुकसान झेलना होगा। पहले भी 2019 में एयरस्पेस बंदी के दौरान पाकिस्तान की एविएशन इंडस्ट्री को करोड़ों डॉलर का नुकसान हुआ था।


पाकिस्तान द्वारा वाघा-अटारी बॉर्डर को बंद करने का फैसला और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) वीजा छूट रद्द करना भी उसी आत्मघाती प्रतिक्रिया का हिस्सा है। वाघा बॉर्डर से भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापारिक गतिविधियां  संचालित होती थीं, जिससे पाकिस्तान को भी फायदा होता था। इस मार्ग के बंद होने से पाकिस्तान की पहले से जर्जर अर्थव्यवस्था पर और भार पड़ेगा। खासकर अफगानिस्तान के लिए ट्रांजिट ट्रेड प्रभावित होगा, जिससे पाकिस्तान की भूराजनैतिक स्थिति और भी कमजोर हो सकती है।


भारत और पाकिस्तान के उच्चायोगों से सैन्य सलाहकारों को हटाना तथा कर्मचारियों की संख्या घटाना भी दोनों देशों के बीच संवाद के न्यूनतम चैनल को खत्म करने जैसा है। इससे गलतफहमियां बढ़ने का खतरा है। हालांकि, भारत के लिए यह भी एक अवसर है कि वह पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क और गतिविधियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए, बिना यह चिंता किए कि इसका कोई राजनयिक संवाद बाधित होगा।


भारत द्वारा सिंधु जल समझौते को स्थगित करने का असर पाकिस्तान पर सबसे गहरा होगा। पाकिस्तान का कृषि क्षेत्र काफी हद तक सिंधु नदी प्रणाली पर निर्भर है। इस पानी की आपूर्ति में कमी आने से कृषि उत्पादन घटेगा, बिजली संकट बढ़ेगा और आर्थिक संकट गहरा सकता है। सिंधु जल समझौता पाकिस्तान के लिए जीवनरेखा की तरह था, और इसका स्थगन पाकिस्तान की जनता पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालेगा। भारत ने यह कदम उठाकर एक स्पष्ट संदेश दिया है कि आतंकवाद को प्रश्रय देने की कीमत चुकानी पड़ेगी।


स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने बौखलाहट में ऐसे फैसले लिए हैं जो तात्कालिक रूप से उसके लोगों के आक्रोश को संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन दीर्घकाल में उसके खुद के लिए विनाशकारी साबित होंगे। भारत ने अपने फैसलों से पाकिस्तान पर कूटनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक दबाव बढ़ा दिया है। पाकिस्तान का हर कदम उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर और अलग-थलग करेगा, जबकि भारत वैश्विक समर्थन के साथ अपने हितों की रक्षा करने की मजबूत स्थिति में आ जाएगा। इसलिए अब भारत को संयमित तरीके से आगे बढ़ते हुए इस परिस्थिति का लाभ उठाना चाहिए, ताकि क्षेत्रीय स्थिरता के लिए एक मजबूत संदेश जाए कि आतंकवाद और हिंसा को बढ़ावा देने वालों के लिए कोई जगह नहीं है।  

राजेश जैन

भारत के लिये स्थाई सिरदर्द बन चुका आतंक पोषक पाकिस्तान

  तनवीर जाफ़री 

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में गत 22 अप्रैल को हुए बर्बरतापूर्ण व अमानवीय आतंकी हमले को देश जल्दी भुला नहीं पायेगा। इसमें 27 बेगुनाहों की जान चली गई जिनमें अधिकांश देश के विभिन्न राज्यों से आये हुये पर्यटक शामिल थे। इस अमानवीय घटना की जितनी भी निंदा की जाये वह कम है। इस घटना के बाद राजनीति,भारतीय मीडिया,सोशल मीडिया, पक्ष और विपक्ष से जुड़े कई ऐसे पहलू थे जिनपर चर्चा होनी स्वभाविक थी और वह हुई भी।

                                       बहरहाल 22 अप्रैल से लेकर अब तक इस विषय को लेकर दोनों देशों की ओर से कई क़दम उठाये जा चुके हैं। भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध जो अहम फ़ैसले लिए हैं उनमें मुख्य रूप से भारत-पाकिस्तान के बीच हुये सिंधु जल समझौते को स्थगित करना,अटारी बॉर्डर को बंद करना,भारत आए पाकिस्तानी नागरिकों को इसी मार्ग से लौटने के लिए 1 मई तक की समय सीमा निर्धारित करना,पाकिस्तानी नागरिकों को भारत का वीज़ा न देना,भारत में मौजूद पाकिस्तानी नागरिकों को भारत छोड़ने के लिए 48 घंटे का समय देना, सभी पाकिस्तानी नागरिकों के वीज़ा रद्द करना, नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी हाईकमीशन में तैनात पाकिस्तानी डिफ़ेन्स एडवाइज़र्स को भारत छोड़ने के लिए एक हफ़्ते का समय देना, तथा दोनों हाई कमीशन में तैनात कर्मचारियों की संख्या 55 से घटाकर 30 तक किया जाना शामिल है। इसके जवाब में पाकिस्तान ने भी भारत के विरुद्ध कई फ़ैसले लिये हैं जिनमें भारत के साथ हुआ शिमला समझौता स्थगित करना,वाघा बॉर्डर से व्यापार पूरी तरह बंद करना,30 अप्रैल तक जिन लोगों ने वैध काग़ज़ों के साथ इस रास्ते से पाकिस्तान प्रवेश किया है, उन्हें वापस लौटने का निर्देश देना,सार्क वीज़ा छूट योजना के तहत भारतीय नागरिकों को दी गई वीज़ा छूट खत्म करना (सिख तीर्थयात्रियों को छोड़कर), भारतीय हाई कमीशन में काम कर रहे सैन्य सलाहकारों – डिफ़ेंस, नेवी और एयर अटैची को अवांछित व्यक्ति(persona non grata) घोषित करना और उन्हें व उनके सहायक स्टाफ़ को 30 अप्रैल तक पाकिस्तान छोड़ने का निर्देश देना,इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के कर्मचारियों की संख्या घटाकर 30 करना,पाकिस्तानी एयरस्पेस को अब भारतीय स्वामित्व या संचालन वाली सभी एयरलाइंस के लिए बंद करना तथा हर प्रकार का व्यापार चाहे वह सीधे भारत से हो या किसी तीसरे देश के ज़रिए, तत्काल प्रभाव से बंद कर देना जैसी घोषणायें शामिल हैं। 

                          उधर दोनों देशों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध उठाये जा रहे इन क़दमों के बीच पाकिस्तान की ओर से की गयी एक ऐसी स्वीकारोक्ति ने भारत द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध लगभग चार दशकों से लगाये जा रहे इन आरोपों को सच साबित कर दिया है कि पाकिस्तान आतंकवाद की नर्सरी भी है और पनाहगाह भी। ग़ौरतलब है कि स्काई न्यूज़ के संवाददाता ने पहलगाम में आतंकी हमले के सन्दर्भ में जब पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ से पूछा कि- “क्या आप मानते हैं कि पाकिस्तान का इन आतंकी संगठनों को समर्थन देने, प्रशिक्षण देने और धन मुहैया कराने का लंबा इतिहास रहा है? तो ख़्वाजा आसिफ़ ने स्वीकार किया कि पाकिस्तान आतंकी समूहों को धन मुहैया कराने के साथ-साथ उन्हें हर तरह से समर्थन करता रहा है। ख़्वाजा आसिफ़ ने एक बातचीत के दौरान कहा कि – “हम अमेरिका और ब्रिटेन समेत पश्चिमी देशों के लिए क़रीब तीन दशकों से यह गंदा काम कर रहे हैं।” इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये तो पाकिस्तान अमेरिका व ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों की कठपुतली बनकर आतंकवाद की पनाहगाह व आतंकवादियों का ‘मुख्य उत्पादक देश’ बना हुआ है। रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने यह भी कहा कि -‘यदि हम सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध में और बाद में 9/11 के बाद के युद्ध में शामिल नहीं होते, तो पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड बेदाग़ होता।’

                    परन्तु सच पूछिये तो धर्म के आधार पर भारत से विभाजित होकर 1947 में ही अलग अस्तित्व में आने वाले पाकिस्तान में शुरू से ही अधर्म,ज़ोर ज़बरदस्ती,कट्टरपंथ,हिंसा व आतंकवाद का बोल बाला रहा है। और समय के साथ से यह और भी बढ़ता ही गया है। पाकिस्तानी नेताओं व शासकों द्वारा पोषित व प्रायोजित आतंकवाद का पहला निशाना तो पूर्वी पाकिस्तान (तत्कालीन) के लोग ही बने। बड़े पैमाने पर हत्यायें बलात्कार क्या नहीं किया गया बंगाली मुसलमानों के साथ ? तब कहाँ चला गया था इनका ‘इस्लामी राष्ट्र ‘? क्यों 24 वर्षों में ही पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश वजूद में आया ? उसके बाद पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों विशेषकर हिन्दुओं,सिखों,शिया व अहमदिया मुसलमानों पर अत्याचार करने व उनकी हत्याओं का सिलसिला भी कोई केवल तीन दशक की कहानी नहीं है बल्कि यह सब घिनौनी हरकतें पाकिस्तान के वजूद में आते ही शुरू हो गयी थीं। स्वयं राष्ट्रपति ज़ियाउलहक़ के दौर में पाकिस्तान में कट्टरपंथ व आतंकवाद ख़ूब फला फूला। इसी पाकिस्तान में धर्म के नाम पर आत्मघातियों की भर्ती की गयी जिन्होंने मस्जिदों,दरगाहों,इमाम बारगाहों व अनेक धार्मिक जुलूसों में अब तक हज़ारों लोग मारे। उसके बाद इसी पाकिस्तान ने तालिबानों को शुरूआती दौर में पूरा संरक्षण दिया। उनके कार्यालय तक खोले गये और ओसामा बिन लादेन व मुल्ला उमर के समय में तालिबानी प्रवक्ता पाकिस्तान में बैठकर पत्रकार वार्ता करता तथा तालिबानी नीतियों को सार्वजनिक करता था। अफ़ग़ानिस्तान की कट्टरपंथी तालिबानी सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश पाकिस्तान ही था। पाकिस्तान में पोषित तालिबानी ही आगे चलकर कट्टरपंथी व आतंकी गिरोह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के नाम से जाने गये। और यही बाद में पाकिस्तान-अफ़गानिस्तान सीमा के क़रीब संघीय प्रशासित क़बायली क्षेत्र के चरमपन्थी उग्रवादी गुटों के संग्ठन के रूप में स्थापित हुये। इसका मक़सद पाकिस्तान में शरिया पर आधारित एक कट्टरपन्थी इस्लामी अमीरात को क़ायम करना था। इस संग्ठन ने भी कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के प्रयास किये थे। तहरीक-ए-तालिबान ही वह संगठन था जिसके छः आतंकियों ने 16 दिसम्बर 2014 को पेशावर के सैनिक स्कूल पर हमला करके पाक फ़ौजियों के ही 126 बच्चों की हत्या कर दी थी।

                    इन सब वास्तविकताओं के बावजूद जब जब पाकिस्तान पर आतंकवाद फैलाने या उसे संरक्षण देने का आरोप भारत द्वारा लगाया जाता तो पाकिस्तान यह कहकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करता कि ‘वह तो स्वयं आतंकवाद का दंश झेल रहा है और इसका भुक्तभोगी है ‘। परन्तु पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ की ताज़ातरीन स्वीकारोक्ति से यह साबित हो चुका है कि पाकिस्तान आतंक फैलाने का केवल आरोपी ही नहीं बल्कि दोषी भी है। मसूद अज़हर,कंधार विमान अपहरण, हाफ़िज़ सईद,क़साब, पहलगाम का ताज़ातरीन अमानवीय हमला ऐसे दर्जनों सुबूत हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि  पाकिस्तान द्वारा पोषित व संरक्षित आतंकवाद भारत के लिये स्थाई सिरदर्द बन चुका है लिहाज़ा इसका स्थाई समाधान होना भी ज़रूरी है। 

भारत ने 17.1 मिलियन लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला

(विश्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट)

पहलगाम आतंकी हमले की बहुत ही दुखद खबर के बाद हाल ही में विश्व बैंक से एक अच्छी खबर आई है। यह खबर ग़रीबी उन्मूलन पर है। ग़रीबी वास्तव में एक बहुत बड़ी व ज्वलंत समस्या है। यदि हम यहां गरीबी की साधारण परिभाषा की बात करें तो बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त धन या संसाधनों की कमी होना, जैसे भोजन, कपड़े, और आवास ग़रीबी के अंतर्गत माना जाता है। ऐसी स्थितियों में एक आम आदमी को बुनियादी जरूरतों जैसे कि रोटी,कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि को पूरा करने के लिए भी बहुत संघर्ष करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो गरीबी एक ऐसी स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति, परिवार, या समुदाय के पास जीवनयापन के लिए या समृद्ध जीवन के लिए बुनियादी ज़रूरतें हासिल करने के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं होते हैं। अमूमन गरीबी को तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है, जिनमें क्रमशः निरपेक्ष, सापेक्ष और बहु-आयामी गरीबी को शामिल किया जा सकता है। यदि हम यहां निरपेक्ष गरीबी की बात करें तो एक निश्चित आय स्तर से नीचे होना इसमें आता है। वहीं सापेक्ष गरीबी समाज में अन्य लोगों की तुलना में गरीब होने को शामिल करती है तथा बहुआयामी गरीबी आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं के अभाव को शामिल करती है। बहरहाल, अच्छी खबर यह है कि 10 साल में भारत के 17 करोड़ लोग अत्यंत गरीबी से बाहर निकले हैं। पाठकों को बताता चलूं कि वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, भारत ने वर्ष 2011-12 से वर्ष 2022-23 के बीच 17 करोड़ से ज्यादा लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकाला है और इस दौरान अत्यधिक गरीबी की दर 16.2 प्रतिशत से घटकर मात्र 2.3 प्रतिशत ही रह गई है।इस दौरान, 171 मिलियन या 17.1 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकाला गया है। तात्पर्य यह है कि भारत में 17.1 मिलियन लोग गरीबी रेखा से ऊपर हैं।ग्रामीण और शहरी इलाकों में गरीबी में भी बड़ी गिरावट देखी गई है। रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक गरीबी दर 18.4 प्रतिशत से घटकर जहां 2.8 प्रतिशत रह गई है, वहीं दूसरी ओर शहरी क्षेत्रों में यह 10.7 प्रतिशत से घटकर 1.1 प्रतिशत रह गई है। इससे ग्रामीण और शहरी इलाकों के बीच का अंतर 7.7 प्रतिशत से घटाकर 1.7 प्रतिशत रह गया है, जो सालाना 16 प्रतिशत की गिरावट है। दरअसल, 37.8 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं, जो कि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है और यह काबिले-तारीफ है कि भारत ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में लगातार आगे बढ़ रहा है। दरअसल,वर्ल्ड बैंक की हालिया ‘पॉवर्टी एंड इक्विटी ब्रीफ’ रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारत ने इस दौरान निम्न-मध्यम आय वर्ग में भी प्रवेश किया है। 3.65 अमेरिकी डॉलर प्रति दिन आय के आधार पर गरीबी की दर 61.8 प्रतिशत से घटकर 28.1 प्रतिशत रह गई है, जिससे 378 मिलियन या 37.8 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं। यूएसडी (USD) 3.65 प्रति दिन की गरीबी रेखा के अनुसार, गरीबी 61.8% से घटकर 28.1% हो गई है, जिससे 37.8 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गए हैं। ग्रामीण गरीबी 69% से घटकर 32.5% हो गई, और शहरी गरीबी 43.5% से घटकर 17.2% हो गई, जिससे ग्रामीण-शहरी अंतर 25 से 15 प्रतिशत अंक तक कम हो गया, जिसमें 7% की वार्षिक गिरावट आई है।भारत के पांच सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य—उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, और मध्य प्रदेश—ने 2022-23 तक अत्यधिक गरीबी में दो-तिहाई की गिरावट में योगदान दिया है।हालांकि, अब भी इन राज्यों भारत की 54 प्रतिशत अत्यधिक गरीब आबादी है और 51% बहुआयामी गरीब आबादी का हिस्सा हैं।रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि वर्ष 2019-21 तक  नॉन मोनेटरी गरीबी दर 53.8 प्रतिशत से घटकर 16.4 प्रतिशत रह गई है। इतना ही नहीं, रोजगार वृद्धि ने भी कामकाजी उम्र की जनसंख्या को पार कर लिया है तथा शहरों में बेरोजगारी 6.6 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो वर्ष 2017-18 के बाद से सबसे कम है। युवा बेरोजगारी दर 13.3 प्रतिशत है।कृषि सेक्टर में रोजगार अब भी अधिकांश रूप से असंगठित है।हालांकि, स्वरोजगार और महिलाओं की रोजगार दर में वृद्धि हो रही है। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भारत लगातार हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। सच तो यह है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में गरीबी में भारी कमी, रोजगार के नए अवसरों का सृजन, और भारत का निम्न-मध्यम आय वर्ग में कदम रखना—यह सब हमारे देश की प्रगति, इसके उन्नयन को ही दर्शाता है। यही कारण है कि आज भारत में 171 मिलियन लोग गरीबी रेखा से ऊपर पहुंच चुके हैं।हालांकि, कुछ राज्यों में अभी भी गरीबी एक बड़ी समस्या है तथा युवाओं में बेरोजगारी एक चिंता का विषय है, लेकिन महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं।यहां यह उल्लेखनीय है कि अत्यधिक गरीबी को प्रतिदिन 2.15 अमेरिकी डॉलर से कम आय के रूप में परिभाषित किया गया है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि सुधारों के बावजूद, अभी भी कुछ चुनौतियां मौजूद हैं।मसलन, रिपोर्ट में यह बात कही गई है कि युवाओं में बेरोजगारी 13.3% है, और उच्च शिक्षा प्राप्त स्नातकों में यह दर 29% तक बढ़ जाती है। गैर-कृषि वेतनभोगी नौकरियों में से केवल 23% ही औपचारिक हैं और कृषि रोजगार का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक है। इसके अलावा, स्व-रोजगार बढ़ रहा है, खासकर ग्रामीण श्रमिकों और महिलाओं में, लेकिन लैंगिक असमानताएं अभी भी मौजूद हैं, क्योंकि पुरुषों की तुलना में 23.4 करोड़ अधिक महिलाएं वेतनभोगी काम कर रही हैं। बहरहाल, यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि विश्व बैंक की गरीबी और इक्विटी ब्रीफ 100 से अधिक विकासशील देशों में गरीबी, साझा समृद्धि और असमानता के रुझानों के बारे में जानकारी प्रदान करती है तथा ये ब्रीफ साल में दो बार जारी किए जाते हैं और विश्व स्तर पर गरीबी कम करने के प्रयासों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विश्व बैंक के गरीबी और समानता संबंधी संक्षिप्त विवरण 100 से अधिक विकासशील देशों में गरीबी, साझा समृद्धि और असमानता के रुझानों पर प्रकाश डालते हैं। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि गरीबी खराब स्वास्थ्य, कम जीवन प्रत्याशा, शिक्षा का अभाव, और भेदभाव को जन्म देती है। यदि हम यहां दुनिया के सबसे ग़रीब देशों की बात करें तो इनमें क्रमशः दक्षिण सूडान ,बुरुंडी ,मध्य अफ्रीकी गणराज्य, कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य, मोज़ाम्बिक, नाइजर, मलावी, लाइबेरिया,मेडागास्कर और यमन को शामिल किया जा सकता है। वास्तव में ये देश राजनीतिक अस्थिरता, संघर्ष (युद्ध और हिंसा), बेरोजगारी, प्राकृतिक संसाधनों एवं शिक्षा-स्वास्थय की कमी के कारण गरीब हैं। वास्तव में कहना ग़लत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार भी एक बहुत अमीर देश को गरीब बना सकता है और शोषणकारी उपनिवेशवाद, कमजोर कानून व्यवस्था, युद्ध और सामाजिक अशांति, गंभीर जलवायु परिस्थितियाँ या शत्रुतापूर्ण, आक्रामक पड़ोसियों का इतिहास भी ऐसा ही कर सकता है। हाल फिलहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत में 171 मिलियन लोगों का अत्यधिक गरीबी से बाहर आना पिछले दशक की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक है। वास्तव में यह हमारे देश की समावेशी विकास के प्रति प्रतिबद्धता का प्रमाण है। आज सरकार ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों पर बराबर ध्यान दे रही है। आज हमारे देश ने विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं जैसे कि बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, स्वच्छ भारत मिशन, पीएम मुद्रा योजना, अटल पेंशन योजना, स्मार्ट सिटी योजना और मेक इन इंडिया आदि, आर्थिक सुधारों और आवश्यक सेवाओं तक पहुँच में वृद्धि के माध्यम से, गरीबी के स्तर को कम करने में महत्वपूर्ण प्रगति की है। आज उदारीकरण से सरकारी नियंत्रण कम हुआ है और निजी क्षेत्र को बढ़ावा मिला है। भारत की वैश्वीकरण नितियों से भारत विश्व व्यापार में शामिल हुआ है और विदेशी निवेश को आकर्षित किया है, जिससे रोजगार सृजन हुआ है और ग़रीबी कम हुई है। सच तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास हुआ, फायदों की वृद्धि हुई, विदेशी निवेश बढ़ा, और भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकृत हुई है। पिछले कुछ सालों से रोज़गार सृजन कार्यक्रम, आय समर्थन कार्यक्रम, रोज़गार गारंटी तथा आवास योजना, प्रधानमंत्री जन धन योजना जैसे कार्यक्रमों से भारत विकास के सोपानों को लगातार छू रहा है। भारत में लगातार शिक्षा, स्वास्थ्य की उपलब्धता हर गांव ढ़ाणी में सुनिश्चित हुई है। महिलाओं के सशक्तीकरण से आर्थिक असमानता दूर हुई है तथा पोषण और स्वच्छता कार्यक्रमों से हम प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। संसाधनों और सेवाओं तक समान पहुंच सुनिश्चित होने से विकास को पंख लगे हैं। वास्तव में उच्चतम और निम्न-मध्यम आय वाली गरीबी में तेज गिरावट, साथ ही ग्रामीण-शहरी गरीबी के अंतर में कमी, भारत सरकार के प्रभावी प्रयासों को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, रोजगार में वृद्धि, विशेष रूप से महिलाओं के बीच  और बहुआयामी गरीबी में कमी जीवन स्तर में व्यापक सुधार की ओर इशारा करती है।

सुनील कुमार महला

हरियाणा के एक गांव ने बेटियों-बहुओं को घूंघट से दी आज़ादी

ढाणी बीरन की चौपाल से उठी नई सुबह:

“परंपरा तब तक सुंदर है, जब तक वह पंख न काटे। घूंघट हटा, तो सपनों ने उड़ान भरी।”

“जहां घूंघट गिरा, वहां सिर ऊंचे हुए। ढाणी बीरन से उठी हौसलों की एक नई फसल।”

हरियाणा के ढाणी बीरन गांव ने एक ऐतिहासिक पहल करते हुए बहू-बेटियों को घूंघट प्रथा से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया है। गांव के बुजुर्ग धर्मपाल की अगुवाई में पंचायत ने यह निर्णय लिया कि अब किसी महिला पर घूंघट डालने का दबाव नहीं डाला जाएगा, और जो इसका विरोध करेगा, उसके खिलाफ पंचायत में कार्रवाई होगी। सरपंच कविता देवी ने खुद घूंघट हटाकर इस बदलाव की अगुवाई की। इस पहल ने गांव में महिलाओं को शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी के लिए प्रेरित किया है। विरोध की कुछ आवाज़ों के बावजूद, ढाणी बीरन ने सोच और परंपरा के बीच संतुलन बनाते हुए एक मिसाल कायम की है। यह कदम न केवल गांव, बल्कि पूरे प्रदेश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में उम्मीद की किरण बना है।

-प्रियंका सौरभ

रात के आठ बजे का वक्त था। ढाणी बीरन गांव की चौपाल पर बड़ी संख्या में पुरुष, महिलाएं और बच्चे इकट्ठा थे। धीमी हवाओं के बीच चारों तरफ टिमटिमाते दीयों और लालटेन की रोशनी थी। माहौल में एक अजीब-सी उत्तेजना थी — जैसे कोई बड़ा बदलाव दस्तक दे रहा हो।

तभी बुजुर्ग धर्मपाल, जिनकी बात को गांव में विशेष आदर मिलता है, उठे और भारी आवाज़ में बोले:
“बेटी वह है जो हमारे घर को बढ़ाती है। हमारी बेटी भी किसी और के आंगन में रोशनी फैलाएगी। आज से हम प्रण लेते हैं कि किसी बहू-बेटी को यह नहीं कहेंगे कि घूंघट क्यों उतार रखा है। अगर कोई इसका विरोध करेगा तो पंचायत में उसके खिलाफ उचित निर्णय लिया जाएगा।”

चौपाल में बैठे तमाम लोगों ने एक साथ दोनों हाथ उठाकर इस संकल्प का समर्थन किया। यह महज समर्थन नहीं था, यह सदियों पुरानी एक मानसिकता की बेड़ियों को तोड़ने का सामूहिक निर्णय था।

कविता देवी ने दिखाई राह

गांव की सरपंच कविता देवी, जो अब तक परंपरा के चलते घूंघट में थीं, धीमे-धीमे आगे बढ़ीं। फिर सबकी नजरों के सामने उन्होंने घूंघट को सिर से पीछे सरका दिया। वह सिर ऊंचा किए, गर्व से मुस्कुराती रहीं — मानो सदियों का एक बोझ उनकी मुस्कान के नीचे झरता जा रहा हो। कविता देवी के इस साहसिक कदम ने बाकी महिलाओं के भीतर भी एक नयी ऊर्जा फूंकी। धीरे-धीरे कई और महिलाएं, जो सिर से पल्लू हटाने से झिझकती थीं, चौपाल में खड़ी होकर बिना घूंघट के सामने आईं। ढाणी बीरन में एक नयी कहानी लिखी जा रही थी — घूंघट से आज़ादी की कहानी।

परंपरा या बंधन?

हरियाणा जैसे राज्य में, जहां घूंघट को लंबे समय तक सम्मान और संस्कार की निशानी माना गया, वहीं दूसरी तरफ इस परंपरा ने महिलाओं की स्वतंत्रता और आत्मविश्वास पर अक्सर अनदेखे पहरे भी लगाए। बहू-बेटियों को घरों में सीमित करना, सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी कम करना — ये सब पर्दा प्रथा के अदृश्य दुष्परिणाम रहे हैं। लेकिन ढाणी बीरन ने आज यह तय कर लिया था कि सम्मान का असली अर्थ नियंत्रण में नहीं, बल्कि बराबरी में है।

बदलाव एक दिन में नहीं आता

गांव के बुजुर्ग धर्मपाल मानते हैं कि बदलाव अचानक नहीं आता। “समझदारी से काम लेना होता है। अगर हम अपनी बहू-बेटियों को शिक्षा, रोजगार और निर्णय लेने का अवसर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें अपने सोच के पर्दे हटाने होंगे,” वे कहते हैं। इसी सोच ने पूरे गांव को एक नई दिशा दी। आज ढाणी बीरन के लोग न सिर्फ घूंघट उतारने की बात कर रहे हैं, बल्कि लड़कियों की पढ़ाई, महिलाओं की पंचायत में भागीदारी और आर्थिक आज़ादी को भी प्राथमिकता दे रहे हैं।

छोटी-छोटी पहल, बड़ा असर

सरपंच कविता देवी बताती हैं, “पहले महिलाएं पंचायत की बैठक में भी परदे के पीछे से बोलती थीं। अब हम चाहती हैं कि बहनें-बहुएं खुलकर अपनी बात रखें। बेटी सिर्फ घर में चूल्हा जलाने के लिए नहीं है, वह गांव का भविष्य संवारने के लिए भी है।” गांव में लड़कियों की स्कूल उपस्थिति बढ़ाने के लिए भी प्रयास हो रहे हैं। साक्षरता अभियान, स्वास्थ्य शिविर, और महिला सशक्तिकरण पर जागरूकता कार्यक्रमों की योजना भी बनाई जा रही है।

विरोध की आहट भी

बेशक हर बदलाव के साथ कुछ विरोध भी होता है। गांव के कुछ पुराने विचारों के लोग आज भी पर्दा प्रथा को छोड़ने में हिचकिचा रहे हैं। लेकिन जब धर्मपाल जैसे बुजुर्ग, जिनकी आवाज गांव में सम्मान के साथ सुनी जाती है, खुले मंच से इस पहल का समर्थन करते हैं, तो विरोध स्वतः कमजोर पड़ने लगता है। धर्मपाल मुस्कुराते हुए कहते हैं, “अगर घर की लक्ष्मी खुद को बांधकर रखेगी तो घर कैसे समृद्ध होगा? उड़ने दीजिए बेटियों को, वे नए आकाश रचेंगी।”

एक गांव से शुरू, पूरे प्रदेश तक?

ढाणी बीरन की चौपाल पर जो दीप जलाया गया है, उसकी रोशनी सिर्फ इस गांव तक सीमित नहीं रहेगी। यह बदलाव दूसरे गांवों, कस्बों और जिलों के लिए भी एक मिसाल बनेगा।
यह कहानी बताती है कि जब गांव का एक बुजुर्ग अपनी सोच बदलता है, जब सरपंच घूंघट उतारती है, जब महिलाएं डर छोड़कर मुस्कुराती हैं — तब असली क्रांति होती है। और शायद आने वाले वर्षों में कोई बच्ची ढाणी बीरन के चौपाल पर खड़े होकर यह कहेगी: “मेरे गांव ने मुझे घूंघट नहीं, हौसला दिया था।”

“ढाणी बीरन का संकल्प”

“हम प्रण लेते हैं — किसी बहू-बेटी से घूंघट ना करने की आज़ादी छीनेंगे नहीं। महिलाओं को पंचायत, शिक्षा और रोजगार में बराबरी का अवसर देंगे। जो विरोध करेगा, उसके खिलाफ पंचायत में उचित निर्णय लिया जाएगा। ढाणी बीरन ने घूंघट नहीं, सोच का पर्दा हटाया है।”

मेहमान

पाँच की मैगी साठ में खरीदी,
सौदा भी कोई सौदा था?
खच्चर की पीठ पे दो हज़ार फेंके,
इंसानियत भी कोई इरादा था?

बीस के पराठे पर दो सौ हँस कर,
पचास टिप फोटो वाले को,
हाउस बोट के पानी में बहा दिए
हज़ारों अपने भूखे प्याले को।

नकली केसर की खुशबू में
अपनी सच्चाई गँवा बैठे,
सिन्थेटिक शाल के झूठे रेशों में
अपने सपनों को सिलवा बैठे।

इतना लुटे, फिर भी मुस्काए,
आज जान भी लुटा आए हो,
और सुनो —
वो फिर भी कहते हैं —
“मेहमान हो, मेहमान हमारे हो!”

— डॉ सत्यवान सौरभ

पशु सेवा, जनसेवा से कम नहीं

“विश्व पशु चिकित्सा दिवस पर एक विमर्श”

विश्व पशु चिकित्सा दिवस हर साल अप्रैल के अंतिम शनिवार को मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य पशु चिकित्सकों की भूमिका को सम्मान देना और पशु स्वास्थ्य, मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के आपसी संबंधों पर ध्यान केंद्रित करना है। यह लेख बताता है कि कैसे पशु चिकित्सक सिर्फ जानवरों के डॉक्टर नहीं, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और जनस्वास्थ्य के अभिन्न स्तंभ हैं। भारत में पशु चिकित्सा सेवाएँ, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, संसाधनों की कमी, नीति उपेक्षा और सामाजिक सम्मान की कमी से जूझ रही हैं। हरियाणा जैसे राज्यों में VLDA कर्मियों के लंबे आंदोलन इस बदहाली की झलक देते हैं। तकनीक, महिला भागीदारी और ‘वन हेल्थ’ जैसी अवधारणाएँ इस क्षेत्र में नई संभावनाएँ ला रही हैं। लेकिन जब तक पशु चिकित्सकों को उचित संसाधन, समाजिक सम्मान और नीति समर्थन नहीं मिलेगा, तब तक समग्र स्वास्थ्य सुरक्षा अधूरी रहेगी। पशु चिकित्सा सिर्फ पशुओं की नहीं, पूरे समाज की सेवा है—और इसे उसी गंभीरता से लेना चाहिए।

-डॉ सत्यवान सौरभ

हर वर्ष अप्रैल के अंतिम शनिवार को विश्व पशु चिकित्सा दिवस मनाया जाता है, जो न केवल पशु चिकित्सकों के कार्य को सराहने का अवसर होता है, बल्कि यह पशु स्वास्थ्य, मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के आपसी संबंधों पर भी प्रकाश डालता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि स्वस्थ पशु न केवल पशुपालकों की आजीविका का आधार हैं, बल्कि वैश्विक खाद्य सुरक्षा, जनस्वास्थ्य और जैव विविधता के भी रक्षक हैं।

पशु चिकित्सकों की भूमिका: जीवन रक्षा के मूक नायक

पशु चिकित्सक सिर्फ पशुओं का इलाज नहीं करते, वे पूरे पशुपालन तंत्र के संरक्षक होते हैं। गांव के किसान से लेकर बड़े डेयरी उद्योगों तक, सभी की रीढ़ की हड्डी यही विशेषज्ञ होते हैं। ये न केवल बीमारियों का इलाज करते हैं बल्कि उन्हें रोकने, टीकाकरण अभियान चलाने, और महामारी से लड़ने में अग्रणी भूमिका निभाते हैं।

कोरोना महामारी के दौरान जब मानव स्वास्थ्य पर संकट गहराया, तब भी पशु चिकित्सकों ने अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ा। पशुओं के टीकाकरण, पशुपालन सेवाओं और आपातकालीन सर्जरी जैसे काम लगातार जारी रहे। इनका योगदान ‘वन हेल्थ’ (One Health) दृष्टिकोण की अहमियत को साबित करता है—जहाँ मानव, पशु और पर्यावरण के स्वास्थ्य को एक समग्र दृष्टि से देखा जाता है।

ग्रामीण भारत में पशु चिकित्सा सेवाएँ: उपेक्षा का शिकार

भारत की बड़ी आबादी आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जहाँ पशुपालन सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि जीवन का एक हिस्सा है। परंतु यही ग्रामीण भारत पशु चिकित्सा सेवाओं की बदहाली का सबसे बड़ा उदाहरण भी है। सीमित संसाधन, अपर्याप्त स्टाफ, खराब ढांचागत सुविधाएँ और फील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों की उपेक्षा – ये सभी मिलकर पशुओं के इलाज को एक संघर्ष बना देते हैं।

VLDA (Veterinary Livestock Development Assistants) जैसे कर्मचारी वर्षों से सेवा शर्तों में सुधार और प्रोफेशनल मान्यता के लिए आंदोलन कर रहे हैं। हरियाणा में 1000 से अधिक दिन तक चला VLDA का आंदोलन इस उपेक्षा की गंभीरता को उजागर करता है।

पशु चिकित्सा और महिला सशक्तिकरण

इस पेशे में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ रही है, खासकर पशु सहायिकाओं और पारा-वैटरनरी स्टाफ के रूप में। कई ग्रामीण महिलाएं आज पशु स्वास्थ्य सेवाओं का हिस्सा बन रही हैं, जो न केवल आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं, बल्कि अपने समुदाय में बदलाव की वाहक भी बन रही हैं। यह एक सकारात्मक संकेत है, जिसे नीति स्तर पर और प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

चुनौतियाँ: डॉक्टर बनाम डॉग केयरर की छवि

अक्सर देखा गया है कि पशु चिकित्सकों को समाज में वह सम्मान नहीं मिल पाता जो मानव चिकित्सकों को मिलता है। उनकी पहचान एक सीमित “डॉग केयरर” या “गाय का डॉक्टर” तक सिमट जाती है, जबकि वे महामारी विशेषज्ञ, सर्जन, टीका नियोजक और शोधकर्ता की भूमिका निभाते हैं।

इस समस्या का समाधान सिर्फ वेतन और पदोन्नति में नहीं, बल्कि समाज की सोच में बदलाव में छिपा है।

पशु चिकित्सा में तकनीक का प्रवेश: भविष्य की दिशा

आज डिजिटल इंडिया की लहर पशु चिकित्सा में भी प्रवेश कर रही है। मोबाइल ऐप्स के ज़रिए पशु स्वास्थ्य रिकॉर्ड, ई-डायग्नोसिस, ऑनलाइन परामर्श जैसी सुविधाएँ शुरू हो रही हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ड्रोन तकनीक भी पशु गणना, निगरानी और आपातकालीन सहायता में सहायक बन रही है। यह बदलाव ग्रामीण स्तर तक पहुँचे, इसके लिए सरकार और निजी क्षेत्र को मिलकर काम करना होगा।

नीति निर्माण और पशु चिकित्सा

सरकारी नीतियों में पशु स्वास्थ्य को अब भी प्राथमिकता नहीं मिल पाती। बजट का एक सीमित हिस्सा ही पशुपालन और वैटरनरी सेवाओं के लिए निर्धारित होता है, जबकि यह क्षेत्र लाखों लोगों की आजीविका से जुड़ा है। पशु चिकित्सकों की संख्या, ट्रेनिंग, और इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ाना ज़रूरी है।

“वन हेल्थ मिशन” को ज़मीन पर लागू करने के लिए राज्य सरकारों को भी जागरूक और प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। जब तक पशु चिकित्सक को फ्रंटलाइन हेल्थ वर्कर का दर्जा नहीं मिलेगा, तब तक समग्र स्वास्थ्य की बात अधूरी रहेगी।

सम्मान, संसाधन और संरचना—तीनों चाहिए

विश्व पशु चिकित्सा दिवस पर केवल बधाइयों से काम नहीं चलेगा। ज़रूरत है एक गंभीर मंथन की—कि हम अपने पशु चिकित्सकों को कितना सम्मान, कितना समर्थन और कितने संसाधन दे पा रहे हैं। अगर पशु बीमार पड़ते हैं तो किसान कर्ज में डूबता है, दूध की सप्लाई रुकती है, और अंततः उपभोक्ता भी प्रभावित होता है।

इसलिए यह दिवस केवल पशु चिकित्सकों का नहीं, पूरे समाज का पर्व है। यह हमें याद दिलाता है कि पशु स्वास्थ्य, मानव स्वास्थ्य और पृथ्वी का स्वास्थ्य—तीनों एक ही सूत्र में बंधे हैं।

आज ज़रूरत है एक ऐसी सोच की, जो पशु चिकित्सकों को केवल “पशु डॉक्टर” नहीं, बल्कि ‘स्वास्थ्य योद्धा’ के रूप में देखे।

‘अक्षय’ संकल्प लें बाल विवाह के खिलाफ

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मनोज कुमार
समय बदल रहा है लेकिन हमारी सोच आज भी वही पुरातन है. आधुनिक बनने का भले ही ढोंग करें लेकिन भीतर से हम रूढि़वादी हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो भारतीय समाज से बाल विवाह जैसी कुप्रथा कब की खत्म हो चुकी होती लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. अनेक प्रयासों के बाद भी हर वर्ष बड़ी संख्या में बाल विवाह की खबरें हमें डराती हैं. सरकारों के प्रयासों से बाल विवाह में कुछ कमी आयी है लेकिन जरूरी है कि इस बार हम अक्षय तृतीया पर ‘अक्षय संकल्प’ लेेें कि हर स्तर पर बाल विवाह को हत्सोसाहित करेंगे.
भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में अक्षय तृतीया का विशेष महत्व है. अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय ना हो और इस दिन किए गए हर कार्य शुभ माने जाते हैं. वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाये जाने के कारण इसे अक्षय तृतीया का संबोधन मिला. अक्षय तृतीया का महत्व कई कारणों से है जिसमें परशुराम का जन्म, वेदव्यास का महाभारत लेखन का आरंभ होने के साथ ही माँ अन्नपूर्णा का जन्मदिन मनाया जाता है. इसी शुभ दिन स्वर्ग से पृथ्वी पर माता गंगा अवतरित हुई थी. माता गंगा को पृथ्वी पर अवतरित कराने के लिए राजा भागीरथ में हजारों वर्ष तक तपस्या की थी. मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया पर गंगा में डुबकी लगाने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं.
अक्षय तृतीया के दिन बिना किसी मुर्हूत के विवाह का मंगल कार्य पूरा किया जा सकता है इसलिए इस अवसर पर भारतीय समाज में विवाह को शुभ माना गया है. कुछ रूढि़वादी सोच ने व्यस्क के स्थान पर इस दिन बाल विवाह को शुभ मानकर उन्हें विवाह के पवित्र बंधन में बांध देते हैं. यह अनुचित है. कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता है और यह स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह खतरनाक है. विवाह की कानूनी आयु लड़कियों के लिए 18 वर्ष और लडक़ों के लिए 21 वर्ष है, उन लोगों की एक बड़ी संख्या के लिए अप्रासंगिक और महत्वहीन हो जाता है जो सदियों पुरानी परंपराओं और हठधर्मिता के कारण अंधे और भटके हुए हैं, जिन्हें वे अनुष्ठान कहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर टिप्पणी की थी. उनका कहना था कि देश में हजारों नाबालिग लड़कियों की शादी कर दी जाती है और उनके स्वास्थ्य, गर्भ धारण करने की क्षमता तथा इसके प्रतिकूल, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभावों की परवाह नहीं करते हुए उनसे शारीरिक संबंध बनाए जाते हैं. निश्चित रूप से यह भारत जैसे विकसित देश के लिए एक धब्बा था जिसे केन्द्र और राज्य सरकार के प्रयासों से दूर किया जा सका है.
समय के साथ स्थितियों में परिवर्तन आने लगा है. बाल विवाह पर नियंत्रण पाने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार ने ना केवल कानून सख्त किया बल्कि बच्चों, खासतौर पर बेटियों के हक में अनेक योजनाएं आरंभ की है. इसका परिणाम यह हुआ है कि समाज में बाल विवाह की कुप्रथा पर ना केवल रोक  लगी है बल्कि समाज का मन भी बदलने लगा है. सामाजिक रूढिय़ों के चलते उनका बचपन में ब्याह कर दिया जाता था. लेकिन पीछे कुछ वर्षों के आंकड़ें इस बात के लिए आश्वस्त कराते हैं कि समाज का मन बदलने लगा है.
तकरीबन डेढ बरस पहले मध्यप्रदेश में लिंगानुपात की जो हालत थी, उसमें सुधार आने लगा है. एक दशक पहले एक हजार की तादात पर 932 का रेसियो था लेकिन गिरते गिरते स्थिति बिगड़ गई थी. हाल ही में जारी आंकड़े इस बात की आश्वस्ति देते हैं कि हालात सुधरे भले ना हो लेकिन सुधार के रास्ते पर है. आज की तारीख में 1000 पर 930 का आंकड़ा बताया गया है. एक तरह से झुलसा देने वाली स्थितियों में कतिपय पानी के ठंडे छींटे पड़ रहे हैं. लगातार प्रयासों का सुपरिणाम है कि उनकी बेटियां मुस्कराती रहें और कामयाबी के आसमां को छुये लेकिन इसके लिए जरूरी होता है समाज का साथ और जो स्थितियां बदल रही है, वह समाज का मन भी बदल रही है.
यह कहना भी फिजूल की बात होगी कि पूर्ववर्ती सराकरों ने बिटिया बचाने पर ध्यान नहीं दिया लेकिन यह कहना भी अनुचित होगा कि सारी कामयाब कोशिशें इसी दौर में हो रही है. इन दोनों के बीच फकत अंतर यह है कि पूर्ववर्ती सरकारों की योजनाओं की जमीन कहीं कच्ची रह गयी थी तो वर्तमान सरकार ने इसे ठोस बना दिया. जिनके लिए योजनायें गढ़ी गई, लाभ उन तक पहुंचता रहा और योजनाओंं का प्रतिफल दिखने लगा. महिला एवं बाल विकास विभाग का गठन बच्चों और महिलाओं के हक के लिए बनाया गया था. इस विभाग की जिम्मेदारी थी कि वह नयी योजनओं का निर्माण करें और महिलाओं को विसंगति से बचा कर उन्हें विकास के रास्ते पर सरपट दौड़ाये. योजनाएं बनी और बजट भी भारी-भरकम मिलता रहा लेकिन नीति और नियत साफ नहीं होने से कारगर परिणाम हासिल नहीं हो पाया. मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता की बागडोर सम्हालने के बाद डॉ. मोहन यादव ने बेटियों की ना केवल चिंता की बल्कि समय-समय पर उनकी खोज-खबर लेते रहे. जब मुखिया सक्रिय और सजग हो जाए तो विभाग का चौंकन्ना होना लाजिमी था. मुख्यमंत्री की निगहबानी में परिणामदायी योजनाओं का निर्माण हुआ और परिणाम के रूप में दस वर्ष में गिरते लिंगानुपात को रोकने में मदद मिली. एक मानस पहले से तैयार था कि बिटिया बोझ होती है और कतिपय सामाजिक रूढिय़ों के चलते उनका बचपन में ब्याह कर दिया जाता था. लेकिन पीछे कुछ वर्षों के आंकड़ें इस बात के लिए आश्वस्त कराते हैं कि समाज का मन बदलने लगा है.
बेटियों को रूढिय़ों से मुक्त कराने की दिशा में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं के साथ ही अनेक योजनाओं का श्रीगणेश किया गया था जिसका प्रतिफल मिला कि बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर कुठाराघात होने लगा. प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की प्रेरणा से बीते वर्ष 2024 को ‘बाल विवाह मुक्त भारत’ का शुभारंभ किया गया था. बाल विवाह मुक्त भारत अभियान देश को बाल विवाह मुक्त बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगा. यह अभियान बाल विवाह को खत्म करने और देश भर में युवा लड़कियों को सशक्त बनाने के लिए सरकार के चल रहे प्रयासों का एक प्रमाण है, जो एक प्रगतिशील और समतापूर्ण समाज सुनिश्चित करता है जहां हर बच्चे की क्षमता को पूरी तरह से साकार किया जा सके। जो विकसित भारत के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए लड़कियों और महिलाओं के बीच शिक्षा, कौशल, उद्यम और उद्यमिता को बढ़ावा देने के लिए अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि बाल विवाह मुक्त भारत प्रधानमंत्री के वर्ष 2047 तक ‘विकसित भारत’ के सपने से प्रेरित है। इस सपने को तब तक हासिल करना संभव नहीं है जब तक महिलाओं और लड़कियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में पूर्ण, समान और सार्थक भागीदारी न मिले।
सनातन धर्म बहुमुखी है और वह समय के साथ अपनी सोच एवं दृष्टि में परिवर्तन करता है. अक्षय तृतीया पर अक्षय सोच के साथ समाज के सभी वर्ग मिलकर बाल विवाह जैसी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्पित है. कानून अपना कार्य करेगा लेकिन समाज का हर वर्ग ‘अक्षय संकल्प’ ले ले कि वह इस कुप्रथा के खिलाफ खड़े हो जाएंगे

जातिवाद और साम्प्रदायिकता का जहर इस कदर फैला

—विनय कुमार विनायक
जातिवाद और साम्प्रदायिकता का जहर इस कदर फैला
कि भारत माता का आंचल हो गया दागदार व मटमैला
आज आरक्षण व अन्य सुविधाएँ इसी आधार से मिलती
मगर देश को जाति व साम्प्रदायिक व्यवस्था ही छलती!

जातिवाद व साम्प्रदायिकता को नियंत्रित करना ही होगा
भारत के खिलाफ साजिश करनेवाले को मसलना ही होगा
ये नहीं हो सकता कि जातिवादी उन्माद फैलाके देश बांटे
अपने भाई भतीजे जाति विरादरी को नाजायज फायदा दे!

यदि कोई स्वजाति विरादरी से प्रीति, विजाति से घृणा करे
तो सरकार जाति मजहब आधारित लाभ योजनाएँ बंद करे
जाति विरादरी के लिए मताधिकार प्रयोग छल-छंद रोक दे
वैसे जयचंद मिर्जाफर को ना पालो-पोसो जो सिर्फ धोखा दे!

वोट बैंक की गंदी राजनीति का पटाक्षेप शीघ्र करना होगा
जाति के लिए जाति का मतदान पर विराम लगाना होगा
स्वजाति विरादरी के गुंडे मवाली का महिमामंडन रोक दो
देशभक्ति और ईमानदारी के लिए संपूर्ण ताकत झोंक दो!

जाति का स्वजाति विरादरी को वोट की कीमत शून्य करो
जातिवाद व मजहबपरस्ती रोकने हेतु यही एक पुण्य करो
हमने विश्व को शून्य दिया शून्यवाद दिया गिनना सिखाया
मगर आजतक देखा हमने बँटवारे में देश की छलनी काया!

शून्य की क्षमता समझो, शून्य को पुण्य कार्य में लगा दो
प्रगतिरोधी जातिवादी फिरकापरस्त संख्याबल सीमित करो
दो से अधिक संख्या बढ़ाए जो वो सभी लाभ से वंचित हो
धर्म को धंधा मजहब को गंदा करे उसे मानवद्रोही समझो!

हर वैसा धार्मिक मजहबी जन होता देश का शातिर दुश्मन
जो ईश्वर अल्लाह खुदा व धर्म ग्रंथ के बहाने फैलाता वहम
वैसा कोई धर्म मजहब नहीं जिसके रब का भेदभावपूर्ण मन
उनसे देश बचाना होगा जो मत के नाम बने मतलबी दुर्जन!

लोकतंत्र को झूठ तंत्र छल प्रपंच मजहबी षड्यंत्र से बचा लो
क्रूर चंगेज तैमूर बाबर औरंगजेब के झंडाबरदार को सजा दो
आक्रांता कासिम गजनवी गुलाम खिलजी तुगलक सैयद लोदी
मुगल का जो गौरवगान करे उसके मतदान पे पूर्णविराम हो!

भारत विकसित हो विदेशी मजहब के गुलामों की घरवापसी हो
धर्म मजहब के नाम जो जहालत फैलाए उसको नियंत्रित करो
मानवता से ऊपर ना कोई अल्लाह खुदा ईश्वर जन्नत दोजख
सभी धर्म के सार को ग्रहणकर अंधेरगर्द फैला ना सके दहशत!

वैसा कोई इंसान नहीं होता जो माँ पिता बड़ों के पैर ना छूता
वैसा कोई मत नहीं जिसमें स्वदेश की माटी वंदना योग्य नहीं
वैसा कोई धर्म मजहब नहीं जो विधर्मी को भाई नहीं समझता
उनको अताताई समझो जिसमें नहीं हो दया अहिंसा व ममता!

इस लोकतंत्र को वोटतंत्र जनसंख्या तंत्र गिरोहतंत्र होने से रोको
जिसकी संख्या बढ़ेगी वो कम संख्या दर वालों को निपटा देगा
सत्य अहिंसा दया धर्म पर हावी होगा गिरोहबाज कुकर्मी लफंगा
लोकतंत्र की ये खामी धर्मनिरपेक्षता के नाम अधर्मी करते दंगा!
—विनय कुमार विनायक