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धान के परंपरागत बीजों से महिलाएं बनी आत्मनिर्भर

प्रमोद भार्गव

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के ग्राम अचानकपुर की महिलाओं के पास धान की 45 दुर्लभ किस्में मौजूद हैं। एक दशक से स्वयं-सहायता समूहों के माध्यम से कृषि कार्य कर रहीं ये महिलाएं धान की साधारण फसल की बजाय धान के बीज तैयार कर देश के अनेक प्रांतों में भेज रही हैं। इनके पास उपलब्ध धान के संरक्षित बीजों में सबसे खास ‘हरा चावल’ है, जो मधुमेह रोगियों के लिए बेहतर माना जा रहा है। इन्हें केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से पादप जीनोम संरक्षक पुरस्कार भी मिला है। महिला किसान दामिनी का कहना है कि उनकी ससुराल में दादा-परदादा के समय से धान की कई किस्मों के बीज सुरक्षित रखे थे। इन्हीं बीजों में से एक हरा चावल है। इसे 2015 में नेशनल इन्वोनेशन फाउंडेशन में ग्रीन राइस की श्रेणी में रखा। इस समूह की महिलाओं ने धान के बीजों के सिलसिले में इतनी किस्में तैयार कर ली हैं कि अब ये अपने बीजों को राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में बेच रही हैं। जिन परंपरागत बीजों को हमारे वैज्ञानिक और बीज उत्पादक बहुराष्ट्रीय कंपनियां हथियाकर विकारग्रस्त करने में लगी हैं, उन्हीं बीजों से एक तबके का आत्मनिर्भर होना अत्यंत प्रेरक और साहसी पहल है। भारत में मुनाफे की खेती के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेटेंट के बहाने पहले से ही सेंध लगाने में लगी हैं। बीजों पर कंपनियों का एकाधिकार होता जा रहा है। नतीजतन भोजन उत्पादक अन्नदाता से अब अपने खेत में बीज रोपने का अधिकार भी छिनता जा रहा है। दुनिया में बीज और पौधों से जुड़े जैविक अधिकारों पर बहस छिड़ी है कि आखिरकार बीज किसान का है या कंपनियों का? इसका सरकारी स्तर पर निराकरण नहीं हो पाने के कारण खाद्य सुरक्षा संकट से घिरती जा रही है। ऐसे में इस संकट से उबरने का उपाय अचानकपुर के स्व-सहायता समूह परंपरागत समाधान लेकर उपस्थित हुए हैं। गोया हमें जैव तकनीक के जरिए बीजों में बदलाव कर जो कंपनियां इन पर अधिकार जमा रही हैं, उनसे बचने की जरूरत है।महाराष्ट्र हाईब्रीड बीज कंपनी माहिको धान के जीएम बीज तैयार करने की कोशिश में लगी है, जबकि भारत में धान की 80 हजार से भी ज्यादा जैविक किस्में हैं। अपने पारंपरिक ज्ञान के बूते धान की खेती करने वाले किसानों को आशंका है कि यदि जीएम बीजों का प्रयोग देश के धान बहुल क्षेत्रों में होता है तो इसके विषाणु पारंपरिक बीज बासमती और काली मूंछ जैसी अद्वितीय किस्मों को नष्ट कर देंगे। संयुक्त राष्ट्र खाद एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट ‘यूज इन फूड’ दर्शाती है कि भारत में चावल की जैविक खेती के परिणाम सकारात्मक हैं। इन पर जलवायु परिवर्तन का एकाएक असर नहीं पड़ता है। जैविक खेती स्थानीय प्राकृतिक संपदा के इस्तेमाल पर ही निर्भर होती है। इसलिए किसानों को अतिरिक्त लागत का सामना नहीं करना पड़ता है। साथ ही सिंचाई के लिए पानी पर निर्भरता पचास प्रतिशत तक घट जाती है और उत्पादन दोगुना बढ़ जाता है। यदि यही खेती धान के आनुवंशिक बीजों से की जाती है तो इसके विषाणु दूसरे खेतों में फैल सकते हैं और खेतों की उर्वरा शक्ति भी घट सकती है। नतीजतन किसानों को आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है। अतएव जीएम बीजों से चावल की खेती की गई तो इसके उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी माहिको ने चावल की खेती में प्रयोग के बहाने हस्तक्षेप की कोशिश की थी, लेकिन किसानों के विरोध के चलते उसे सफलता नहीं मिली।तमिलनाडू कृषि विवि ने धान की जैविक खेती के प्रयोग 2004 में किए थे। इसके आश्चर्यजनक परिणाम निकले। इस पद्धति से तमिलनाडू में 2007-08 में 4 लाख बीस हजार हेक्टेयर भूमि पर धान की फसल बोई गई थी। राज्य में जब चावल उत्पादन की गणना की गई तो चावल की औसत उत्पादन दर 10 से 13 टन प्रति हेक्टेयर थी, जो एक कीर्तिमान सिद्ध हुई। इससे तमिलनाडू में चावल का औसत उत्पादन 2005-06 में 2,838 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की तुलना में 2007-08 में 3,860 किलोग्राम हो गया था। जैविक व पारंपरिक तरीकों से चावल उत्पादन की शुरूआत तमिलनाडू के अलावा आंध्र-प्रदेश, त्रिपुरा, पश्चिम-बंगाल, झारखंड छत्तीसगढ़ और गुजरात में भी की गई, जिसके लगातार अनुकूल परिणाम आ रहे हैं। भारत में कुल 240 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में धान की खेती की जाकर चावल की हजारों किस्में पैदा की जाती हैं, जो भारत को चावल उत्पादन के साथ निर्यातक देशों की श्रेणी में अग्रणी देश बनाए हुए हैं। अकेली चावल की खेती से देश के करोड़ों किसान आत्मनिर्भर बने हुए है।जीएम बीजों ने अमेरिका की पारंपरिक चावल की खेती और उद्योग को पूरी तरह चौपट कर दिया है। यही हश्र फ्रांस का हुआ है। यह हानि वायर कंपनी के जीएम बीज लिबर्टी लिंक राइस, जिसे एलएल-601 कहा जाता है के कारण हुई है। नतीजतन अमेरिका द्वारा चावल निर्यात का सिलसिला थम गया। वायर बीज कंपनी ने 2001 में इन बीजों का परीक्षण अमेरिका के धान बाहुल खेतों में किया था। साफ है, इन नतीजों से सबक लेने की जरूरत है।दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवोशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। भारत में 2001 में केंद्र सरकार द्वारा बीटी कपास की अनुमति दी गई थी। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ो और मेमनो को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा।बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एकबार चलन में आ जाते हैं तो परंपगत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। बीटी कपास के बीज पिछले दो दशक से चलन में हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है, तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है, जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परिक्षणों से यह आशंका बड़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजीे से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा है। क्योंकि बतौर प्रयोग बीटी कपास के जो बीज जिन-जिन मवोशियों को चारे के रूप में खिलाए गए हैं, उनकी रक्त धमनियों में श्वेत व लाल काणिकाएं कम हो गईं। जो दुधारू पशु इन फसलों को खाते हैं, उनके दूध का सेवन करने वाले मनुष्य का स्वास्थ्य भी खतरे में है।जीन परिवर्तित फसलों से उत्पादन में वृद्धि के बढ़-चढ़कर दावे किए जाते हैं। कहा जा रहा है कि इन बीजों से फसल पैदा करने पर कीटनाशक रसायनों एवं खाद का उपयोग कम करना होगा। लेकिन भारत समेत जिन देशों में इन बीजों से फसलें उत्पादित की गईं, उनमें ज्यादा बढ़ोत्तरी तो हुई नहीं, उल्टे ये फसलें मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित हुई। भारत में जीएम बीज से बीटी यानी ‘बेसिलस थुरिन जिनसिस जीन’ कपास का उत्पाद किया गया था। केंद्रीय कपास शोध संस्थान (सीआईसीआर) नागपुर ने स्वीकार किया है कि 2001 से 2011 के बीच कुल कपास उत्पादन में बीटी से उत्पादित क्षेत्र 5.4 प्रतिशत से बढ़कर 96 प्रतिशत हो गया, लेकिन कपास के उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई। इसके विपरीत एक तो मूल भारतीय कपास की नस्ल बदल गई, दूसरे वह जहरीली भी हो गई, जो त्वचा संबंधी रोगों का कारण बन रही है। लिहाजा अवांछित बीज किस तरह के रोगों का कारण बनेंगे, यह अभी कहा ही नहीं जा सकता है।इसी तरह बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसके परिवर्धित कर नए रूप में लाने की शुरूआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी बोसिलस थुरिनजिनसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। इसके प्रयोग के वक्त जीएम बीज निर्माता कंपनी माहिको ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वक्त इसमें बीटी जीन इंजेक्शन प्रवेश कराएंगे तो बैंगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा। मसलन, जहर बैंगन के भीतर ही रहेगा और यह आहार बनाए जाने के साथ मनुष्य के पेट में चला जाएगा। बीटी जीन में एक हजार गुना बीटी कोशिकाओं की मात्रा अधिक है, जो मनुष्य या अन्य प्राणियों के शरीर में जाकर आहार तंत्र की प्रकृति को प्रभावित कर देती है। इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने करंट साइंस पत्रिका में लेख लिखकर चेतावनी दी थी कि बीटी बीज की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म ‘मट्टुगुल्ला’ बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग सामाप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टुगुल्ला बीज से पैदावार के प्रचलन की शुरुआत पन्द्रहवीं सदी में संत वदीराज के कहने पर मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था। कर्नाटक में मट्टू किस्म का उपयोग हर साल किया जाता है। लोक पर्वों पर इसे पूजा जाता है। इसके विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विलक्षण्ता के कारण हरे रंग के इस भटे को शाकाहार में श्रेष्ठ माना जाता है। खाली पेट इसे कच्चा खाने से यकृत और गुर्दे के विकार प्राकृतिक रूप से ठीक होते हैं। साफ है, भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश को पारंपरिक बीजों के जरिए खेती-किसानी को बढ़ावा देने की जरूरत है। इससे किसान दुर्ग जिले के महिला स्व-सहायता समूहों की तरह आत्मनिर्भर तो होंगे ही, उन्हें किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के बीजों पर पराश्रित होने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।

ममता की चोटों के बहाने लोकतंत्र को घायल न करें

-ललित गर्ग-

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी घायल हुईं, चुनावी महासंग्राम में यह घटना और इस घटना पर जिस तरह का माहौल बना, वह पूरा प्रकरण चिंताजनक है, लोकतंत्र की मर्यादाओं के प्रतिकूल है। शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक उनके पांव, कंधे और गर्दन में चोटें आई हैं। ममता का चोटिल होना विधानसभा चुनाव का संभवतः एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। विभिन्न विपक्षी दलों द्वारा ममता के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करने के बजाय इस घटना पर भी जमकर राजनीति करना दुर्भाग्यपूर्ण है। तृणमूल कांग्रेस भी अपने नेता से जुड़ी इस घटना पर सहानुभूति पाने एवं राजनीति समीकरणों को बदलने के लिये सारे प्रयत्न कर रही है, जो राजनीति गिरावट का पर्याय है। कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने जरूर यह औपचारिकता निभाई, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों में पार्टी की अगुआई कर रहे अधीर रंजन चैधरी ने साफ-साफ कहा कि ममता ने लोगों की सहानुभूति पाने के लिए यह पाखंड रचा है। इस तरह के प्रकरण में सबसे ज्यादा परेशान एवं चिन्तित करने वाली बात है, कि चुनावी लड़ाई को युद्ध की तरह लड़ने के आदी होते जा रहे हमारे राजनीतिक दलों में पारस्परिक शिष्टाचार, संवेदना एवं सौहार्द की शून्यता पांव पसार रही है।
ममता का शरीर ही चोटिल नहीं हुआ हैं, लोकतंत्र भी घायल हुआ हैं और जहां चुनाव हो रहे हैं वहां लोकतंत्र के मूल्य भी ध्वस्त होते हुए दिखाई दे रहे हैं। ममता का योगदान क्या रहा, इसमें विवाद हो सकता है पर यह निर्विवाद है कि उनका घायल होना एवं इस घटना का राजनीतिक नफा-नुकसान के लिये इस्तेमाल किया जाना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है। एक अच्छा भारतीय होना भी कितना खतरे का हो गया और जिस राष्ट्र एवं समाज में यह स्थिति निचली सतह तक पहुंच जाती है, वह घोर अंधेरों का संकेत है। हम राजनीतिक स्वार्थो एवं वोट की राजनीति के आगे असहाय बन उसकी कीमत चुका रहे हैं और लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। ।
दिलचस्प बात यह कि खुद ममता बनर्जी का व्यवहार भी ऐसे मामलों में कुछ खास प्रेरक एवं अनूठा नहीं रहा है। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल के ही दक्षिण 24 परगना जिले में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर पथराव की खबर आई थी तो ममता बनर्जी ने उसकी सत्यता पर इसी तरह सवाल उठाते हुए संदेह जताया था कि हमले की फर्जी शिकायत की जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह सर्वथा नई परिस्थिति, विडम्बनापूर्ण स्थिति है। चुनावी लड़ाइयां तो हमेशा से होती रही हैं। इन लड़ाइयों में दांव पर सत्ता भी हमेशा लगी होती है लेकिन सिद्धान्तों एवं मूल्यों का दांव पर लगना चिन्तित करता है। आज की हमारी राजनीतिक संकीर्णता, ओछेपन और हद दर्जे की स्वार्थप्रियता लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करने का बड़ा कारण बन रही है।
किसी एक वर्ग के प्रति द्वेष और किसी एक के प्रति श्रेष्ठ भाव एक मानसिकता है और मानसिकता विचारधारा नहीं बन सकती/नहीं बननी चाहिए। मानसिकता की राजनीति जिस टेªक पर चल पड़ी है, क्या वह हमें अखण्डता की ओर ले जा रही है? क्या वह हमें उस लक्ष्य की ओर ले जा रही है जो लक्ष्य हमारे राष्ट्र के उन कर्णधारों ने निर्धारित किया था, जिनका स्वतंत्रता की लड़ाई में जीवनदानी योगदान और कुर्बानियों से इतिहास स्वर्णमण्डित है। इस भटकाव का लक्ष्य क्या है? इन स्वार्थी, सत्तालोलुप राजनीति एवं अराजकता का उद्देश्य क्या है? जबकि कोई भी साध्य शुद्ध साधन के बिना प्राप्त नहीं होता। जो मानसिकता पनपी है, उसके लिए राजनैतिक दल सत्ता हथियाने के माध्यम बन चुके हैं। और सत्ता में पहुंचने का मकसद किन्हीं विशिष्ट सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मूल्यों को स्थापित करना नहीं, अमीर बनना एवं अपने राजनीतिक स्वार्थों की रोटियां सेकना है। सौ साल पहले कुछ घोड़े और तलवारें जमा कर लेने वाले कुछ दुस्साहसी लोग भौगोलिक सीमाओं को जीतकर राजा बन जाते थे। क्या हम उसी युग की ओर तो नहीं लौट रहे हैं?
ममता को लगे घावों की निष्पक्षता से जांच होनी चाहिए ताकि स्पष्ट हो सके कि क्या हुआ और कैसे हुआ। इसके साथ ही ममता बनर्जी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना प. बंगाल के चुनाव से किसी भी रूप में जुड़े हर राजनेता को बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के करनी चाहिए। ममता के घायल होने की खबर आते ही उनकी हालत को लेकर जानकारी हासिल करने और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंता जताने के बजाय चुनाव में उन्हें सबसे ज्यादा आक्रामक होकर चुनौती दे रही पार्टी के छोटे-बड़े तमाम नेताओं ने यह संदेह जताना शुरू कर दिया कि ममता ने हमले की फर्जी कहानी रची है। इस तरह के बयान एवं औछी राजनीति पर विराम लगना चाहिए। चुनावी हार-जीत को राजनीतिक सिद्धान्तों एवं मूल्यों से ऊपर रखने की इस प्रवृत्ति पर अगर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो आम लोगों में दलीय तनाव बहुत बढ़ जाएगा और देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में पड़ जाएंगी। गांव से लेकर शहर तक और पहाड़ से लेकर सागर तक की राजनीति ने सौहार्द, संवेदना और भाईचारे का संदेश देना बन्द कर दिया है। भारतीयता की सहज संवेदना को पक्षाघात क्यों हो गया? इससे पूर्व कि यह धुआं-धुआं हो, इसमें रक्त संचार करना होगा। राजनीति में संवेदनहीनता एक त्रासदी है, विडम्बना है। जबकि करुणा, सौहार्द, संवेदना के बिना लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
पश्चिम बंगाल के चुनाव न केवल आक्रामक है बल्कि हिंसक भी हो गये हैं। मतदाताओं को डराने-धमकाने-लुभाने के साथ-साथ स्वयं प्रत्याशियों का डरा होना, लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती हैं। एक जमाना था जब राजा-महाराजा अपनी रिसायतों के राज की सुरक्षा और विस्तार तलवार के बूते पर करते थे। लगता है लोकतंत्र के मताधिकार की ओट में हम उस हथियार/तलवार के युग में पुनः प्रवेश कर रहे हैं। प्रत्याशियों का चयन करने में भी सभी राजनैतिक दलों ने आदर्श को उठाकर अलग रख दिया था। मीडिया के सम्पादक भी चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मा लगाएं पर कांच रंगीन न हो। लगता है सभी स्तरों पर प्रतिशोध का सिक्का क्रोध की जमीन पर गिरकर झनझना उठा है। राष्ट्रीय मुख्यधारा को दर्शाने वाले सबसे सजग मीडिया के लोग ही अगर निष्पक्ष नहीं रहंेगे तो जनता का तीसरा नेत्र कौन खोलेगा। कौन जगाएगा ”सिक्स्थ सैंस“ को ।
ममता सरकार अपने पूरे कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण में लगी रही, जिसके जवाब में भाजपा ‘हिंदू कार्ड’ खेल रही है। मगर यह रणनीति शायद ही फायदेमंद साबित हो क्योंकि यह तो जोड़ने नहीं, तोड़ने की राजनीति है, जबकि पश्चिम बंगाल का समाज धर्मनिरपेक्ष रहा है, जोड़ने वाला रहा है। यहां हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं की सोच बेशक अलग-अलग है, लेकिन ये बिहार या उत्तर प्रदेश की तरह किसी खास दल से बंधे हुए नहीं हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जिन 18 सीटों पर कामयाबी मिली थी, उनमें से 12 सीटें जंगल महल और नॉर्थ बंगाल से आई थीं, जहां दलितों व वंचितों की बहुतायत है। अब देश ने जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण आधारित राजनीति को भले ही पूरी तरह नहीं नकारा हो, लेकिन ऐसी सोच विकसित होने लगी है, जो लोकतंत्र के लिये शुभ एवं श्रेयस्कर है।
कैसी हो हमारी राजनीति की मुख्यधाराएं? उन्हें तो गंगोत्री की गंगा होना चाहिए, कोलकत्ता की हुगली नहीं। निर्मल, पवित्र, पारदर्शी। गंगा भारत की यज्ञोपवीत है। लेकिन सिर्फ जनेऊ पहनने से ही व्यक्ति पवित्र नहीं हो जाता। जनेऊ की तरह कुछ मर्यादाएं राजनीति के चारों तरफ लपेटनी पड़ती हैं, तब जाकर के वे लोकतंत्र का कवच बनती है। भारतीय राजनीति की मुख्यधाराओं को बनाने व सतत प्रवाहित करने में और असंख्य लोगों को उसमें जोड़ने में अनेक महापुरुषों-राजनीतिक मनीषियों ने खून-पसीना बहाकर इतिहास लिखा है। राजनीतिक मुख्यधाराएं न तो आयात होती है, न निर्यात। और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। हम देश, काल, स्थिति व राष्ट्रहित को देखकर बनाते हैं, जिसमें हमारी संस्कृति, विरासत, लोकतंत्र के मूल्य एवं सिद्धान्त सांस ले सके। उसको शब्दों का नहीं, आचरण का स्वर दें। पश्चिम बंगाल के चुनावों में राजनीतिक स्वार्थ नहीं, सिद्धान्त एवं मूल्यों को बल मिले।

विद्या-भारती जैसी शिक्षण-संस्था की साख़ एवं विश्वसनीयता असंदिग्ध रही है


भारतीय संस्कृति में सेवा, शिक्षा, चिकित्सा क्षेत्रों में कार्यरत व्यक्तियों-संस्थाओं के प्रति विशेष सम्मान रहा है।  योग्य, समर्पित एवं निष्ठावान शिक्षकों-गुरुजनों के प्रति तो जनसाधारण में आज भी प्रायः पूज्य भाव ही देखने को मिलता है। यहाँ की रीति-नीति-परंपरा में सब प्रकार के वैचारिक आग्रहों-पूर्वाग्रहों, सहमतियों-असहमतियों, विरोध या समर्थन से परे इन क्षेत्रों में कार्यरत लोगों-संस्थाओं पर तीखी एवं कटु टीका-टिप्पणियों का चलन नहीं है। यहाँ तक कि शिक्षा-सेवा-चिकित्सा की आड़ में व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं तक को इस देश ने थोड़े-बहुत किंतु-परंतु के साथ स्वीकार किया। उनमें कार्यरत पादरियों एवं नंस के लिए भिन्न अर्थ प्रकट करने वाली प्रचलित शब्दावली  फादर्स-मदर्स-सिस्टर्स-ब्रदर्स को भी भारतीय जन-मन ने संपूर्ण आत्मीयता एवं सहजता से अपनाया। क्यों, क्योंकि जो ज्ञान के मंदिरों से जुड़े हैं, पढ़ाने-लिखाने का काम कर रहे हैं, वे लोक-मानस के लिए सम्माननीय हैं। सरस्वती के साधकों के लिए सहज श्रद्धा-आस्था-आदर-विश्वास का भाव यहाँ की मिट्टी-हवा-पानी में घुला-मिला है। अक्षर-ज्ञान को हमने ब्रह्म-ज्ञान जैसा पवित्र माना। ज्ञानार्जन का हमारा लक्ष्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का सार ही सब प्रकार की सीमाओं-संकीर्णताओं-लघुताओं से मुक्त होना है। स्वाभाविक है कि भारतीय मन-मिज़ाज-मान्यताओं को समझने वाले राजनेता भी इन क्षेत्रों में कार्यरत लोगों-संस्थाओं की अकारण आलोचना से बचते हैं। वे इन क्षेत्रों को राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाते। यह अवश्य है कि शिक्षा के माध्यम से देश व समाज की तक़दीर और तस्वीर बदलने की कामना रखने वाले सुधी जन, शिक्षाविद-बुद्धिजीवी-राजनेता आदि शिक्षा संबंधी नीतियों, कार्यक्रमों या पाठ्यक्रमों आदि में बदलाव कर शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाने की माँग समय-समय पर करते रहे हैं, पर ऐसे दृष्टांत कदाचित दुर्लभ ही होंगे कि किसी प्रमुख दल के राष्ट्रीय नेतृत्व ने निजी शैक्षणिक संस्था या ट्रस्ट पर सीधे तौर पर हमला किया हो। कांग्रेस-नेतृत्व द्वारा विद्या-भारती जैसे शैक्षणिक संस्थान पर की गई तीखी टिप्पणी भारतीय मनीषा के प्रतिकूल है। 
1952 में केवल एक सरस्वती शिशु मंदिर से संस्थानिक-यात्रा की शरुआत करने वाली विद्या भारती आज देश की एक ऐसी ग़ैर सरकारी संस्था बन चुकी है, जो निजी विद्यालयों की सबसे बड़ी शृंखला का संचालन करती है। वह इसके लिए सरकारी तंत्र, सहयोग-संरक्षण पर कभी निर्भर नहीं रही। उसने अपने तपोनिष्ठ-सेवाव्रती शिक्षकों (आचार्यों) के सतत प्रयास, परिश्रम, साधना, समर्पण तथा शिक्षा-प्रेमी समाज के सहयोग के बल पर ही यह सफलता अर्जित की है। उसके शिक्षकों ने यह सिद्ध किया कि शिक्षा केवल पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं है, अपितु चरित्र, आचरण और जीवन-जगत के प्रत्यक्ष व्यवहारों, विविध पहलुओं तक उसका विस्तृत वितान है। सीमित संसाधन, न्यूनतम शुल्क में भी उच्च गुणवत्तायुक्त शिक्षा, मौलिक-अभिनव प्रयोग, उत्कृष्ट परीक्षा-परिणाम और नियमित अभिभावक-संपर्क इन विद्यालयों की प्रमुख विशेषता रही है। ये विद्यालय सरकार द्वारा निर्धारित शिक्षा के सभी नियमों एवं मानदंडों का पालन करते हैं। उसके ट्रस्ट या प्रबंध-समिति सरकारी नियमों एवं धाराओं के अंतर्गत पंजीकृत होते हैं। ये विद्यालय सीबीएसई या राज्य शिक्षा बोर्ड से संबद्ध होते हैं। उसके निर्देशों-आदेशों-पाठ्यक्रमों को ही लागू करते हैं।  एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकें ही इन विद्यालयों में भी पढ़ाई जाती हैं। इनके आय-व्यय का प्रतिवर्ष नियमानुसार अंकेक्षण यानी ऑडिट कराया जाता है। उल्लेखनीय है कि एक ओर जहाँ विद्या भारती के  12,850 औपचारिक विद्यालय हैं, जिनमें लगभग 34,47,856 छात्र-छात्राएँ वर्तमान में नामांकित एवं अध्ययनरत हैं वहीं दूसरी ओर उसके 11,500 एकल शिक्षा केंद्रों में वनवासी-जनजातीय-सीमावर्त्ती क्षेत्रों, शहरों-ग्रामों की सेवा बस्तियों के बच्चे अध्ययनरत हैं। प्रशंसनीय है कि यहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों में लगभग 80,000 छात्र-छात्राएँ मुस्लिम और ईसाई मतावलंबी भी हैं। यह उनका अपना चयन है और उन्हें अपने विद्यालयों या उनके प्रबंधन से कभी कोई  शिकायत नहीं रही। यहाँ शिक्षा के साथ-साथ व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक खेलकूद, कला, संगीत, साहित्य जैसी अभिरुचियों एवं पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। जाति-मत-पंथ-संप्रदाय से परे देशभक्त एवं समाज के प्रति संवेदना रखने वाली संस्कारक्षम पीढ़ी का निर्माण इनका लक्ष्य रहा है। सामाजिक समरसता, सर्वधर्म समभाव, सभी विचारों का आदर, विविधता में एकता की भावना को इन विद्यालयों में प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलता है। इन सभी विशेषताओं के कारण ही समय-समय पर जाने-माने शिक्षाविदों एवं विद्वत जनों द्वारा विद्या-भारती की मुक्त कंठ से सराहना की जाती रही है। 
भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ अल्प शुल्क में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दिलाना आज भी आम आदमी का बड़ा सपना है, वहाँ दूरस्थ  ग्रामीण अंचलों-कस्बों-शहरों के लिए विद्या भारती के विद्यालय वरदान हैं। राहुल गाँधी भाजपा की नीतियों, निर्णयों, कार्यक्रमों, योजनाओं की आलोचना करें, इस पर भला किसी को क्या आपत्ति होगी! यह उनका अधिकार भी है और जिम्मेदारी भी। पर या तो सत्ता की लपलपाती लिप्सा, अंधी महत्त्वाकांक्षा या सुर्खियाँ बटोरने, सनसनी पैदा करने की सस्ती-सतही आतुरता एवं व्यग्रता में विद्या भारती द्वारा संचालित विद्यालयों की तुलना पाकिस्तान के मदरसों से करके वे न केवल देश की विधि-व्यवस्था की खिल्ली उड़ा रहे हैं, अपितु सार्वजनिक विमर्श को भी छिछले स्तर पर ले जा रहे हैं।उतावलेपन में कदाचित उन्होंने यह विचार भी नहीं किया कि उनका बयान केवल संघ-भाजपा को ही नहीं बल्कि देश की संपूर्ण शिक्षा-व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने वाला है। क्या वे यह कहना चाहते हैं कि 1952 से लेकर अब तक जिन-जिन सरकारों ने विद्या-भारती को कार्य करने की वैधानिक अनुमति दी, वे सभी पाकिस्तानी मदरसे जैसी सोच को पालना-पोसना-बढ़ाना चाहते थे? ऐसे निराधार आरोपों और बयानों से वे यहाँ अध्ययनरत लाखों विद्यार्थियों के परवान चढ़ते सपनों का गला घोंट रहे हैं? आजीविका के लिए उसमें काम करने वाले लाखों आचार्यों के रोज़गार पर भी चोट कर रहे हैं। संस्थाओं को ध्वस्त करने, उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने का यह नया चलन राजनीति को तो पतन के गर्त्त में धकेल ही रहा है, देश और समाज को भी भारी नुक़सान पहुँचा रहा है। सत्ता के लिए समाज में विभाजन की ऐसी गहरी लकीर खींचना और खाई पैदा करना स्वस्थ एवं दूरदर्शिता पूर्ण राजनीति नहीं है। भले ही वे यह सब किसी रणनीति के अंतर्गत कर रहे हों, पर यह रणनीति दलगत लाभ के लिए देश की छवि को दाँव पर लगाने वाली है। यह परिणामदायी नहीं है। इससे उन पर ही सवाल उछलेंगे कि उन्होंने कभी चर्च में व्याप्त कदाचार, वहाँ होने वाले दलितों-जनजातियों के उत्पीड़न पर तो मुँह नहीं खोला, शिक्षा की आड़ में धर्मांतरण को बढ़ावा देने वाली शैक्षिक संस्थाओं को तो कठघरे में खड़ा नहीं किया? फिर किस एजेंडा के तहत वे भारतीय मूल्यों पर आधारित देश-काल-परिस्थिति के अनुकूल, युगीन एवं आधुनिक शिक्षा देने वाली, निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में सर्वाधिक लोकप्रिय शैक्षणिक संस्था की साख़ और विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं?  सच यही है कि ऐसे अनर्गल आरोपों से विद्या भारती की साख़ और विश्वसनीयता कम होने की बजाय स्वयं उनकी साख़, विश्वसनीयता, गंभीरता एवं परिपक्वता संदिग्ध होगी।

रेसलिंग में स्वर्णिम इतिहास रचती विनेश

योगेश कुमार गोयल

महिलाओं के 53 किलोग्राम भार वर्ग में टोक्यो ओलम्पिक का पहले ही टिकट हासिल कर चुकी भारत की 26 वर्षीया स्टार पहलवान विनेश फोगाट खेल प्रेमियों की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए एकबार फिर दुनिया की नंबर एक महिला पहलवान बन गई हैं। यह रैंकिंग हासिल कर उन्होंने ओलम्पिक में भारत के पदक जीतने की संभावनाएं मजबूत कर दी हैं। एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता तथा विश्व चैम्पियनशिप की कांस्य पदक विजेता रह चुकी विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने वाली एकमात्र भारतीय महिला पहलवान हैं। विनेश ने 7 मार्च को माटियो पैलिकोन रैंकिंग कुश्ती सिरीज में लगातार दूसरे सप्ताह स्वर्ण पदक जीतते हुए अपने भार वर्ग में एकबार फिर नंबर वन रैंकिंग हासिल की है। उससे एक सप्ताह पहले ही उन्होंने कीव में भी स्वर्ण पदक जीता था।कोरोना महामारी के बुरे दौर से गुजरने के बाद विनेश नवम्बर 2020 से यूरोप में ट्रेनिंग कर रही थी और महामारी व लॉकडाउन के कारण खेल से दूर रहने के बाद वह करीब एक साल बाद रिंग में उतरी थी। 2020 में राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर ‘खेल रत्न’ अवॉर्ड मिलने से महज एक दिन पहले वह कोरोना संक्रमित पाई गई थी लेकिन अपने बुलंद हौसलों के चलते उन्होंने न केवल कोरोना को हराया बल्कि अपने भार वर्ग में फिर से दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बन गई हैं। विनेश ने प्रतियोगिता में विश्व की नंबर तीन पहलवान के रूप में प्रवेश किया था और 14 अंक हासिल कर वह फिर से नंबर एक बनी। उन्होंने टूर्नामेंट में एक भी अंक नहीं गंवाया और तीन में से अपने दो मुकाबलों में प्रतिद्वंद्वी को चित्त किया।महिला कुश्ती में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित विनेश ने 18वें एशियाई खेलों की कुश्ती प्रतियोगिता के 50 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर कीर्तिमान स्थापित किया था और वह लगातार दो एशियाई खेलों में पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान भी बनी थी। भिवानी (हरियाणा) की यह पहलवान राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों के अलावा विश्व चैम्पियनशिप में भी पदक जीत चुकी है। 18 सितम्बर 2019 को विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर विनेश टोक्यो ओलम्पिक के लिए अपना टिकट पक्का करने में सफल हुई थी। उन्होंने 53 किलोग्राम भार वर्ग में विश्व चैम्पियनशिप के रेपचेज कांस्य पदक मुकाबले में दो बार की विश्व कांस्य पदक विजेता मिस्र की मारिया प्रेवोलार्की को 4-1 से हराकर कांस्य पदक जीता था। हालांकि उससे पहले उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीन दर्जन से ज्यादा पदक जीते थे लेकिन किसी भी विश्व चैम्पियनशिप में वह उनका पहला पदक था।2016 के रियो ओलम्पिक के दौरान चोटिल हो जाने के बाद विनेश ने वर्ष 2018 में रेसलिंग में शानदार वापसी करते हुए दो बड़े मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीतकर भारत का बहुत मान-सम्मान बढ़ाया था और तब से वह महिला रेसलिंग में लगातार स्वर्णिम इतिहास रच रही हैं। विनेश ने पहली बार वर्ष 2013 की एशियन रेसलिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा लिया था और 51 किलोग्राम भार वर्ग में कांस्य पदक हासिल कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया था। 2018 में पैर दर्द की समस्या के बावजूद एशियाई खेलों में 50 किलो फ्रीस्टाइल कुश्ती वर्ग में स्वर्ण पदक जीतकर उन्होंने स्वर्णिम इतिहास रचा था और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान भी बनी थी। अगस्त 2018 में एशियाई खेलों के फाइनल मुकाबले के दिन विनेश पैर में दर्द की समस्या से जूझ रही थी, फिर भी उन्होंने जापान की इरी युकी को 6-2 से मात देते हुए गोल्ड पर कब्जा किया था और एशियाई खेलों में लगातार दो बार पदक जीतने वाली पहली महिला पहलवान बनी थी। 2014 के एशियाई खेलों में विनेश ने कांस्य पदक जीता था।एशियाई खेलों के अलावा राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण जीतने वाली विनेश पहली भारतीय पहलवान हैं। वह 2014 और 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण तथा 2017 व 2018 की एशियन चैम्पियनशिप में रजत जीत चुकी है। 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल में स्वर्ण जीतकर विनेश ने पूरी दुनिया को अपनी काबिलियत का परिचय दिया था। अगस्त 2016 में रियो ओलम्पिक के दौरान भी उनसे देश को काफी उम्मीदें थी किन्तु स्पर्धा के दौरान गंभीर चोट लगने के कारण वह ओलम्पिक से बाहर हो गई थी और उनके भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया था। चोटिल होने के कारण वह एक साल से भी ज्यादा समय तक अखाड़े से दूर रही लेकिन अखाड़े से लंबी अवधि की दूरी के बाद जब उन्होंने मैदान में वापसी की तो एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतकर ही दम लिया। 2018 के एशियाई खेलों में विनेश के लिए सबसे सुखद अहसास यही रहा कि चीन की जिस पहलवान सुन यानान की वजह से उन्हें ओलम्पिक में चोट लगी थी, उसी पहलवान को शुरुआती मुकाबले में ही 8-2 से धूल चटाकर विनेश ने शानदार जीत हासिल की और फाइनल मुकाबले में जापान की युकी इरी को 6-2 से मात देकर गोल्ड अपने नाम कर रेसलिंग में भारत की सनसनी गर्ल बन गई।25 अगस्त 1994 को हरियाणा के चरखीदादरी जिले के बलाली गांव में जन्मी विनेश ने 10 वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता राजपाल को खो दिया था, जिनकी एक जमीन विवाद में हत्या कर दी गई थी। पिता के देहांत के बाद उनका परिवार बहुत सीमित संसाधनों में जीवन-यापन करने को मजबूर था। उस दौरान वरिष्ठ ओलम्पिक कोच अपने ताऊ महावीर फोगाट की बेटियों गीता और बबीता को देखकर विनेश को भी अखाड़े में जोर आजमाइश की प्रेरणा मिली। उनके ताऊ महावीर फोगाट ने ही उन्हें भी पहलवानी के गुर सिखाए।बहरहाल, विनेश पिछले काफी समय से कहती रही हैं कि उनका अगला लक्ष्य ओलम्पिक में पदक जीतना है और अब दुनिया की शीर्ष महिला पहलवान बनने के बाद ओलम्पिक में भी उनसे उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि विनेश ने जिस प्रकार हालिया मुकाबलों में स्वर्ण पदक जीते हैं, ओलम्पिक में भी उनका वैसा ही बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिलेगा और वह भारत को ओलम्पिक विजेता बनाने में सफल होंगी।

मेरे बाबा है भोले भंडारी

मेरे बाबा है भोले भंडारी,
उनकी नंदी की है सवारी।
उनके पास जो कोई जाता,
कभी खाली हाथ न आता।।

मेरे बाबा पहने सर्पो की माल,
वे काल के भी है महाकाल।
उनके मस्तक पर चंद्र बिराजे,
जटाओं में गंगा मैया है बिराजे।।

मेरे बाबा मृग छाला है पहने,
हाथो मे रुद्राक्ष अनेकों पहने।
वे त्रिशूल पर डमरू लटकाते,
वे भांग धतूरा भी खूब खाते।।

मेरे बाबा करते है सबका कल्याण
सोने की लंका दी थी रावण को दान।
वे मां पार्वती के दूल्हे है कहलाते
इसलिए महाशिव रात्रि सब भक्त मनाते।।

आर के रस्तोगी

क्यों न करा ली जाय रायशुमारी?

देश की राजधानी दिल्ली के आस-पास कोई तीन महीने से केन्द्र सरकार द्वारा लागू किये गये तीन नये कृषि सुधार कानूनों के विरोध में चल रहा किसानों का आंदोलन अब महज ‘दुराग्रह का प्रतीक बनकर रह गया है।
२६ जनवरी को लाल किले की प्राचीर से धार्मिक व कथित खालिस्तानी झण्डा फ हराकर हिंसा का तांडव करने की घृणित व लज्जाजनक घटना के बाद यह किसी से छिपा नहीं रह गया है कि किस तरह किसानों के नाम पर देश के अंदर व बाहर सक्रिय देश विरोधी ताकतों ने देश की साख को मिट्टी में मिलाने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है। देश की एकता, अखण्डता व सम्प्रभुता को चुनौती देने की ऐसी घटना देश का कोई किसान करना तो दूर सोच भी नहीं सकता। क्योंकि देश का किसान न केवल अन्नदाता है वरन् राष्ट्र की अस्मिता का गौरव, रक्षक व पहरेदार है।
नि:संदेह उसके पीछे देश के वे बड़े किसान घराने व वो किसान नेता रहे हंै जिनके अपने निजी स्वार्थ है तो विरोध में वे ताकतें है जो भारत को अस्थिर करना चाहती हैं। इससे भी ज्यादा अफ सोस जनक यह है कि कांग्रेस जैसी पार्टी जो कृषि सुधार कानूनों की पक्षधर रही है वो किसानों के कंधे पर सवार होकर अपनी खोई ताकत वापस पाने का ख्वाब देख रही है। पूरा देश देख रहा है कि किस तरह राहुल गांधी व प्रियंका वडेरा व उनके सिपहसालार किसानों को भड़काने में दिन रात जुटे हुये हैं।
जिस ‘आपÓ पार्टी के प्रमुख व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी नये कृषि कानूनों को लागू करने का फ रमान जारी कर चुके थे अब वे पलटी मारकर किसानों को भड़काने में कांग्रेस से भी आगे निकलने को बेताब है ताकि खासकर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बढ़ाई जा सके। नये कृषि कानूनों को किसानों के लिये ‘डेथ वारंटÓ बता देना किसानों को भड़काने की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
अब जब किसान आंदोलन सिफर् पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चुनिंदा क्षेत्रों व पंजाब तथा हरियाणा के कुछ खास क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गया है और पंजाब व हरियाणा के कई कथित किसान नेता या तो पर्दे के पीछे चले गये हंै या महज दिखावे के तौर पर जुड़े हैं तो राकेश टिकैत की बैचेनी देखने लायक है। वे नाना प्रकार से दुराग्रह पर उतर आये हैं। कभी किसानों को खड़ी फसल नष्ट करने का फ रमान जारी करते हैं तो कभी खाद्यान्न फ सलें यथा गेहूं, धान, अरहर, मटर आदि पैदा न करने की धमकी देते हैं। और अब तो वह यह धमकी दे रहे है कि यदि उनकी मांगे न मानी गई तो वे दिल्ली वालों को दूध की आपूर्ति ही ठप कर देंगे। और यदि दूध देगें भी तो १०० रुपये प्रति लीटर में देगें।
राकेश टिकैत की पोल पट्टी पूरी तरह खुल चुकी है। उन्हे अच्छी तरह मालूम है कि किसान आंदोलन में जान नहीं रह गई है। उनकी मजबूरी यह है कि आंदोलन वापस लेते है तो भद्द पिटेगी ही भविष्य की उम्मीदों की राजनीति भी ध्वस्त हो जायेगी और यदि ये सब हुआ तो उन्हे सरकार अब तक दायर किये जा चुके विभिन्न मुकदमों में इस कदर उलझा देगी कि उन्हे ताजीवन शायद ही मुक्ति मिले।
ऐसे में उनकी कोशिश है कि किसान आंदोलन उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव तक किसी भी कीमत पर घिसटता रहे ताकि वो रालोद के बल पर ‘विधायक बन जाये। यह भी कि यदि वह खुद विधायक न भी बन सके तो अपने समर्थक दल ‘रालोदÓ को ताकतवर बनाकर विधान सभा में पहुंचाये ही ताकि भाजपा की सरकार पुन: न बनने पाये।
यह भी पता चला है कि अब उन्होने ‘आपÓ पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल से हाथ मिला लिया है ताकि उन्हे चुनाव में आप का भी समर्थन मिल सके।
हालांकि इसी बीच यह खबरें भी मिलने लगी हैं कि अब राकेश टिकैत सरकार से पर्दे के पीछे ऐसे समझौते की फि राक में है ताकि उनकी इज्जत महफ ूज रह सके और भविष्य की मुसीबतों से बचा जा सके। इसका सबसे बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि एक तो उनके पुराने साथी साथ छोड़ते जा रहे हैं, दूसरे उनके क्षेत्र के किसानों व गाजियाबाद बार्डर समेत दिल्ली के अन्य बार्डर के किसानों व कारोबारियों ने खुलकर विरोध शुरू कर दिया है। वे टिकैत पर तरह-तरह के आरोप भी मढ़़ने लगे हैं।
एक और सबसे बड़ा कारण अब यह बताया जाने लगा है कि सरकार देश के किसानों के बीच नये कृषि कानूनों को लेकर ‘रायशुमारी कराने पर गंभीरता से विचार कर रही है।
ज्ञात रहे देश में लघु व सीमांत किसानों की संख्या क्रमश: १८ व ६७ फसद से अधिक है और इन किसानों को सरकार भारी भरकम सब्सिडी व नकद धनराशि से मदद कर रही है। उन्हे अच्छी तरह पता है कि जो किसान आंदोलन चला रहे हैं वे बड़े किसान हैं और नेतागीरी भी करते हैं। नये कृषि कानूनों से उन्हे या उनके समर्थकों को ही नुकसान पहुंचने वाला है। खासकर उन बिचौलियों को जो हर तरह से किसानों का दोहन करते हैं।
लघु व सीमान्त किसानों को आशंका है कि कही टिकैत जैसे नेता अपने स्वार्थ में उन्हे सरकार से मिलने वाली सुविधाओं पर ही ग्रहण न लगा दें।
ऐसे किसानों के बीच से भी आवाजें उठने लगी हंै कि आखिर उनसे राय क्यों नहीं ली जाती? सरकार देश के हर तरह से मजबूत मुट्ठी भर किसानों व उनके पैरोकारों को ही क्यों तरजीह देती नजर आती है?
बेशक ! सरकार को जल्द से जल्द देश के सारे किसानों से नये कृषि कानूनों के बारे में ‘रायशुमारी कराने की घोषणा करनी ही चाहिये। बहुत संभव है कि ऐसी घोषणा होते ही टिकैत जैसे किसान नेता व कांग्रेस तथा आप जैसी पार्टियों के पक्षधर नेता बिलों में घुस जाये और नहीं भी तो पूरे देश को इस सच का पता चल जायेगा कि आखिर देश के असली अन्नदाता क्या चाहते हैं? क्या उन्हे भी सरकार के नये कृषि कानून मान्य नही है?

ग्रीन फेथ के परचम तले जलवायु निष्क्रियता के ख़िलाफ़ धार्मिक संगठन हुए एकजुट

दुनिया में ऐसी कोई भी धार्मिक परंपरा नहीं जो प्रकृति के विनाश का प्रतिबंध न लगाती हो। लेकिन इस प्रतिबन्ध के बावजूद, दुनिया भर की सरकारें और वित्तीय संस्थान प्रक्रति का दोहन कर रही हैं और उस पर लगाम लगाने की जगह ढील देती नज़र आती हैं। ये कहना है कैथोलिक धर्म प्रचारक नेता थेया ओर्मेरोड का, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ एक बहु-धार्मिक संगठन और ग्रीनफेथ इंटरनेशनल नेटवर्क की स्थापना की। वो आगे कहते हैं कि तमाम सरकारें और वित्तीय संगठन अब अपनी जलवायु कोले कर निष्क्रियता से धार्मिक संगठनों को मजबूर कर रहे हैं कि वो मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर से बाहर निकल सड़क पर आ कर प्रकृति को हो रहे नुक्सान के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठायें।

इसी क्रम में, आज, ग्रीनफेथ इंटरनेशनल नेटवर्क के परचम तले 38 देशों में 300 से अधिक ग्रासरुट स्तर पर धार्मिक कार्यों में सक्रिय संस्थाओं और धर्मगुरुओं के नेतृत्व में हज़ारों लोगों ने सरकारी नेताओं और अन्य वित्तीय संस्थानों के प्रमुखों के आगे आगामी COP26 में एक महत्वाकांक्षी जलवायु मांगों की श्रृंखला रखने का आह्वाहन किया।

अब तक के इस सबसे बड़े ग्रासरुट स्तर के बहु-विश्वास/धार्मिक ‘क्लाइमेट डे ऑफ़ एक्शन’ (जलवायु कार्रवाई दिवस) को 100 मिलयन से अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले 120 से अधिक धार्मिक समूहों का साथ मिला हुआ है। इन सब ने एकजुट हो कर दुनिया को एक स्पष्ट संदेश दिया है कि वैश्विक स्तर पर तमाम नेता जलवायु संकट को दूर करने के लिए पर्याप्त कार्य नहीं कर रहे हैं।

इसीलिए, वैश्विक तापमान वृद्धि को सीमित करने के लिए आवश्यक कार्यवाही है और सरकारों और वित्तीय संस्थानों द्वारा वास्तविक जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं के बीच के भारी अंतर से चिंतित हो कर इन ज़मीनी स्तर पर सक्रिय धार्मिक कार्यकर्ताओं ने जलवायु संकट की मार से दुनिया भर में समुदायों को बचाने के इरादे से एक प्रभावशाली मांगों का एक सेट जारी किया।

यह गतिविधि भारत समेत ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चिली, फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, केन्या, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका और वानुअतु सहित 38 देशों में हुई।

जिन 300 से अधिक धार्मिक नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इन मांगों का समर्थन किया, उनमें वैटिकन के कार्डिनल पीटर टर्कसन; बौद्ध लेखक जोआना मैसी; मुस्लिम-अमेरिकी विद्वान इमाम ज़ैद शाकिर; अफ्रीकी काउंसिल ऑफ रिलीजियस लीडर्स के महासचिव डॉ. फ्रांसिस कुरिया; कैंटरबरी के पूर्व आर्कबिशप रोवन विलियम्स ; डॉ. अज़्ज़ा कराम और रब्बी डेविड रोसेन, क्रमशः महासचिव और रेलीजिएंस फॉर पीस (शांति के लिए धर्मों) के सह-अध्यक्ष; और परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानंद सरस्वती शामिल हैं।

बात भारत से कुछ प्रमुख हस्ताक्षरकर्ताओं की करें तो इनमें भगवती सरस्वती, महासचिव, ग्लोबल इंटरफेथ WASH एलायंस, चिदानंद सरस्वती, अध्यक्ष, परमार्थ निकेतन, ए के मर्चेंट, जनरल सेक्रेटरी और नेशनल ट्रस्टी, टेम्पल ऑफ अंडरस्टैंडिंग इंडिया फाउंडेशन; लोटस टेम्पल, वारिस हुसैन, सहायक सचिव, जमात-ए-इस्लामी हिंद, और डॉ. शेरनाज कामा, निदेशक, पारज़ोर फाउंडेशन – पारसी जोरास्ट्रियन, प्रमुख नाम हैं।

ग्रीन्फेथ के नाम से यह कथन नई जीवाश्म ईंधन अवसंरचना और उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई के लिए अपने समर्थन को तुरंत समाप्त करने के लिए सरकारों और बैंकों का आह्वान करता है, कि वे स्वच्छ और सस्ती ऊर्जा तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए प्रतिबद्ध हों, ताकि ग्रीन (हरित) रोजगार सृजित करने की नीतियों को लागू किया जा सके और प्रभावित श्रमिकों और समुदायों के न्यायसंगत संक्रमण हो सके, ताकि जलवायु प्रभावों की वजह से स्थानांतरगमन करने के लिए मजबूर लोगों के समर्थन के लिए नीतियों और फंडिंग सुरक्षित हों पाएं, और आदि।

ग्रीनफेथ के साथ एक इंडोनेशियाई मुस्लिम कार्यकर्ता नाना फ़रमान ने कहा, “जलवायु-प्रेरित बाढ़, सूखा, और जंगल की आग अब दुनिया भर में, रोज़ आने वाले सर्वनाश हैं। हमेशा हमारे बीच ऐसा होता है कि जिन्होंने समस्या में कम से कम योगदान किया हो उनको सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है: नस्लीय और जातीय अल्पसंख्यक, गरीब, बुजुर्ग, छोटे बच्चे, महिलाएं। ये मांगें नैतिक मापदंड हैं जिनके द्वारा सरकार या वित्तीय क्षेत्र की प्रतिबद्धताओं को मापा जाना चाहिए।”

ग्रीनफेथ इंटरनेशनल नेटवर्क के सदस्यों ने नोट किया कि जैसे कोविड-19 महामारी की वजह से लाखों लोगों को अपनी नौकरियों और स्वास्थ्य को खो दिया है, वहीँ जीवाश्म ईंधन उद्योग ने जलवायु और पर्यावरण संरक्षण को कमजोर करने के लिए लॉबी (पैरवी) करते हुए अरबों डॉलर के आपातकालीन बेलआउट फंडिंग प्राप्त किए हैं। इसके अलावा, ब्राजील में पिछले साल के दौरान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और इंडोनेशिया, जो दुनिया के सबसे बड़े उष्णकटिबंधीय वर्षावनों का घर हैं, सरकारों ने दरअसल कृषि व्यवसायियों के लिए लॉगिंग में तेजी लाना आसान बना दिया है।

डॉ. एरिएन्न वान एंडेल, चिली के एलियांज़ा इंटरेलिजियोसा वाई एस्पिरिचुअल पोर इल क्लाइमा की समन्वयक, ने कहा कि, “दशकों से ये जानने के बावजूद कि यह समस्या कितनी गंभीर है, जो होने को ज़रुरत है और जो हो रहा है के बीच का अंतर नैतिक रूप से निंदनीय है। जीवाश्म ईंधन विकास और वनों की कटाई में वृद्धि जारी है। स्वदेशी लोगों और पर्यावरण रक्षकों को सत्य के साथ होने पर हिंसा का सामना करना पड़ता है, जबकि सरकारें और निगम मुँह मोड़ लेते हैं। ”

यह पहली बार है जब ग्रासरुट स्तर के धार्मिक संगठन इस तरह की स्पष्ट मांगों के साथ इस पैमाने पर जुट रहे हैं। यहाँ कुछ नियोजित कार्यों का एक स्नैपशॉट है:

• संसद के सामने जब एक सार्वजनिक कार्रवाई जिसमे सरकार से कोयले के विकास को समाप्त करने और 2030 तक नेट शून्य उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध होने के लिए मांग करी जाएगी तब ऑस्ट्रेलिया के पार, चर्च अपनी घंटियाँ बजाएंगे और बौद्ध मंदिर अपने औपचारिक समारोहों के घंटे बजाएंगे।

• मिनेसोटा, अमेरिका में, 200 से अधिक पादरियों और धार्मिक लोग मिसिसिप्पी नदी पर मिलेंगे और राष्ट्रपति बिडेन से प्रस्तावित लाइन 3 तेल पाइपलाइन, डकोटा एक्सेस पाइपलाइन और अन्य जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को अस्वीकार करने के लिए मांग करेंगे।

• नैरोबी में, एक बहु-धार्मिक युवा समूह राष्ट्रीय स्तर पर जीवाश्म ईंधन की खोज को समाप्त करने के लिए केन्या के ऊर्जा मंत्री से सार्वजनिक रूप पर मांग करेंगे और साथ ही 1,000 पेड़ लगाएंगे।

• बाहा’ई और बौद्ध मंदिरों के साथ-साथ सैंटियागो और चिली में, कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट चर्च अपनी सरकार से जलवायु और पर्यावरणीय विरोध के दमन को समाप्त करने के लिए आह्वान करते हुए घंटी बजाएंगे।

दक्षिणी अफ्रीकी फेथ समुदाय पर्यावरण संस्थान की निदेशक और ग्रीनफेथ इंटरनेशनल नेटवर्क की फाउंडिंग पार्टनर, फ्रांसेस्का डी गस्पारिस ने कहा, “दुनिया को तुरंत मजबूत, कर्तव्यपरायण कार्रवाई की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन पर धार्मिक समुदायों ने बयान, फतवे, ज्ञानवर्धक विश्वकोश (encyclicals) और बहुत कुछ जारी किया है। अब बाध्यकारी कानून की जरूरत है।”

डे ऑफ़ एक्शन के आयोजकों ने एक ग्रासरुट, बहु-धार्मिक आंदोलन का निर्माण जारी रखने और सरकारों और वित्तीय संस्थानों पर COP26 और उससे आगे डिलीवर करने के लिए दबाव डालने के अपने इरादे की घोषणा की। ग्रासरुट स्तर पर संघटन का आकार, राजनीतिक और वित्तीय मांगों की स्पष्टता और प्रत्यक्षता के साथ मिलकर, जलवायु-विरोधी धार्मिक समूहों के लिए सीधी चुनौतियों के साथ, जलवायु परिवर्तन पर धार्मिक कार्रवाई में वृद्धि और गहनता का प्रतिनिधित्व करता है।

ग्रीनफाइट के कार्यकारी निदेशक रेवरंड फ्लेचर हार्पर ने कहा, “दुनिया भर के धार्मिक उग्रवादी सत्तावादी सरकारों और ग्रह को नष्ट करने वाले अर्क उद्योगों का समर्थन कर रहे हैं। जो ये कट्टरपंथी विश्वास समूह कर रहे हैं, उसके बारे में कुछ भी नैतिक नहीं है। सभी जगह ग्रासरुट धार्मिक लोग अपने धर्मों को रीक्लेम (पुनः प्राप्त) करने के लिए बढ़ रहे हैं।”

ऋषि दयानन्द ने चार वेदों को ईश्वर प्रदत्त अनादि ज्ञान सिद्ध किया

-मनमोहन कुमार आर्य
सूर्य, चन्द्र, पृथिवी तथा नक्षत्रों आदि से युक्त हमारी यह भौतिक सृष्टि मनुष्योत्पत्ति से बहुत पहले बन चुकी थी। अतः इसे मनुष्यों ने नहीं बनाया यह बात तो स्पष्ट है। मनुष्य एक, दो व करोड़ों मिलकर भी इस सृष्टि व इसके एक ग्रह को भी नहीं बना सकते। यदि ऐसा है तो फिर इस सृष्टि को किसने बनाया है? इसका उत्तर है कि इस जगत् में एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र सत्ता है जिसने इस जगत् को बनाया है। इसे ही ईश्वर व परमात्मा भी कहते हैं। चेतन देवों में यही परमात्मा सबसे बड़े देव अर्थात् महादेव हैं। मनुष्यों में भी दिव्य गुण पाये जाते हैं अतः उन दिव्य गुणों के धारण से वह भी देवता कहलाते हैं। माता, पिता व आचार्य प्रमुख चेतन देवों में आते हैं अतः अपनी सन्तानों एवं शिष्यों द्वारा पूजनीय, स्तुति करने योग्य व उपासनीय होते हैं। ईश्वर इन सब देवों से भिन्न हैं। वह महादेव हैं जिसके सभी मनुष्य व प्राणियों पर अनन्त उपकार हैं। परमात्मा ने न केवल सृष्टि बनाई है अपितु वही सब प्राणियों को अपने ज्ञान, विज्ञान व शक्तियों से जन्म देता व पालन आदि भी करता है। हमारा जीवन एक क्षण के लिये भी उसके उपकार किए बिना व्यतीत होना सम्भव नहीं है। अतः ऐसा ईश्वर के प्रति जीवों का कृतज्ञ होना स्वाभाविक एवं अनिवार्य है। जो ज्ञानी व विवेकीजन समाज में होते हैं वह ईश्वर के उपकारों को जानकर उसको और अधिक जानने व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को अपना आवश्यक कर्तव्य जानकर जन्म से मृत्यु के अन्तिम क्षण तक प्रयत्न करते हैं जैसा हम ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी महापुरुषों के जीवन में देखते हैं। हमें भी ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप को यथार्थ रूप में जानना चाहिये। ईश्वर को जानने में सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 11 उपनिषद, 6 दर्शन सहित ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद परम सहायक एवं लाभकारी हैं। विशुद्ध मनुस्मृति का भी सभी मनुष्यों को अध्ययन करना चाहिये इससे अनेक विषयों के ज्ञानवर्धन सहित द्वेषी लोगों द्वारा मनुस्मृति के विरुद्ध फैलायी गई भ्रान्तियों का निवारण होगा। इन सब ग्रन्थों के अध्ययन से हम सच्चे आस्तिक बन सकते हैं और ऐसा करके हम अपने व दूसरों के जीवन को सुखी एवं उन्नति करने वाला बना सकते हैं।

मनुष्य के मन में जिज्ञासा हो सकती है इस सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है तो मनुष्य व इतर प्राणियों की उत्पत्ति ईश्वर से हुई या अपने आप हो गई? ज्ञान कहां से कब व कैसे उत्पन्न व आविर्भूत हुआ? भाषा  की उत्पत्ति कब व किससे हुई? इन सब प्रश्नों का उत्तर लौकिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इनके उत्तर जानने का ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में प्रयत्न किया था और उन्होंने इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर प्राप्त किये थे। यह उत्तर हमें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उपलब्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द प्रमाण एव युक्तियों सहित बताते हैं कि यह समस्त जगत् व ब्रह्माण्ड सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर अनादि व नित्य सत्ता है। वह अविनाशी एवं अनन्त है। उसका ज्ञान व शक्तियां भी अनन्त है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। अतः हमें यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि चेतनसत्ता सर्वज्ञ ईश्वर में सब विद्याओं के ज्ञान सहित भाषा भी निहित है। इस ज्ञान व भाषा के द्वारा ही वह हमारे हृदय में समय समय प्रेरणा करता है। आत्मा में होने वाली ज्ञात व अज्ञात प्रेरणाओं के कारण से भी ईश्वर का अस्तित्व एवं उसकी सर्वव्यापकता सिद्ध होती है। 

सृष्टि में प्राणी जगत एवं ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि सृष्टि के आदि काल में सभी प्राणियों की अमैथुनी सृष्टि होती है। यह अमैथुनी सृष्टि जो बिना माता पिता के संसर्ग के द्वारा होती है, उसे परमात्मा किया करता है। सृष्टि की आदि में मनुष्यों की उत्पत्ति भूमि रूपी गर्भ से परमात्मा करता है। अन्य पशु आदि प्राणियों को भी परमात्मा ने इसी प्रकार मुख्य भौतिक पदार्थ भूमि व पृथिवी के गर्भ में से उत्पन्न किया है। पृथिवी के भीतर ही अमैथुनी सृष्टि में जन्म लेने वाले मनुष्यों व प्राणियों के शरीर बनते हैं और उनसे आत्मा को संयुक्त करने का काम परमात्मा ही करता है। अन्य किसी प्रकार से यह कार्य हो ही नहीं सकता। अतः सब को आदि अमैथुनी सृष्टि को परमात्मा से भूमि माता के गर्भ से ही मानना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि आदि सृष्टि युवावस्था में हुई थी। यदि परमात्मा आदि सृष्टि में शिशुओं को बनाता तो उनका पालन करने के लिये माता-पिताओं की आवश्यकता पड़ती और जो वृद्धावस्था में करता तो उनसे सन्तान उत्पत्ति न होने से सृष्टि का क्रम आगे नहीं चल सकता था। अतः मनुष्यों की सृष्टि आदि काल में प्रथम अमैथुनी हुई और सभी मनुष्य अर्थात् स्त्री पुरुष युवावस्था में उत्पन्न हुए थे। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में वर्णन तथा महाभारत के एक श्लोक के अनुसार मनुष्य की प्रथम सृष्टि भारत के तिब्बत प्रदेश में हुई थी। सृष्टि की आदि में सारी पृथिवी पर कोई एक देश व राजा नहीं था। इस सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों ने ही सारे विश्व को बसाया है। उन्हीं ने पहले आर्यावर्त बसाया और बाद में पूरे विश्व में फैल कर अन्य स्थानों पर मनुष्यों की जनसंख्या में वृद्धि की। 1 अरब 96 करोड़ वर्ष से अधिक पुराना इतिहास होने से सभी लोग अपने सत्य इतिहास को भूल गये हैं परन्तु तिब्बत में सृष्टि होने और आर्यों के पूरे विश्व में फैलने का इतिहास विश्वसनीय एवं तर्क सहित महाभारत आदि के प्रमाणों से पुष्ट है। 

मनुष्यों के उत्पन्न होने पर उन्हें ज्ञान देने की आवश्यकता थी। मनुष्य बिना ज्ञान व भाषा के अपना कोई कार्य नहीं कर सकते। परमात्मा भी नहीं चाहेगा कि सृष्टि की आदि में मनुष्यों को बिना किसी कारण ज्ञान व भाषा से वंचित रखा जाये। सभी पशु व पक्षियों को भी वह स्वभाविक ज्ञान देता है जिससे वह अपने सभी व्यवहार सम्पन्न करते हैं। सृष्टि के आदि काल में परमात्मा ही सर्वज्ञ व सर्वज्ञानमय सत्ता होती है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से वह सभी मनुष्यों की आत्मा के भीतर व बाहर भी विद्यमान होती है। परमात्मा सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान हैं। वह जीवात्माओं की आत्मा में प्रेरणा देकर जीवात्माओं को आवश्यक ज्ञान दे सकते हैं। सम्मोहन की क्रिया में भी एक मनुष्य दूसरे मनुष्यों को विशेष परिस्थिति में सम्मोहन के द्वारा अपनी इच्छानुसार कार्य कराता है, ऐसा माना व समझा जाता है। परमात्मा तो जीवात्मा के भीतर भी है। अतः वह मनुष्यों के लिये आवश्यक व हितकर तथा उन्हें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि का सम्पूर्ण ज्ञान वेद ज्ञान के रूप में देता है। परमात्मा ही अमैथुनी सृष्टि के सभी मनुष्यों का आदि गुरु होता है। यह बात योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने लिखी है। इस वेदज्ञान देने के कारण ही महर्षि पतंजलि ने ईश्वर को आदि गुरु कहा है। ऋषि दयानन्द ने इस विषय विशेष का चिन्तन करने के साथ उपलब्ध साक्ष्यों का भी अध्ययन व मनन किया था। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में वेदोत्पत्ति प्रक्रिया को विस्तार से लिखा है। 

ईश्वर से प्रेरित अथर्ववेद काण्ड 10 में वर्णन मिलता है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद सब जगत सब प्राणियों को उत्पन्न व धारण करने वाले परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 8 के अनुसार ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में बताते हैं कि जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणर्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। कुछ लोगों को भ्रान्ति है कि ईश्वर निराकार है। निराकार होने से वेद विद्या का उपदेश विना मुख द्वारा वर्णोच्चारण किये कैसे हो सका होगा? इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने यह कह कर दिया है कि परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में उसे कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिह्वा से वर्णोच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं किया जाता। क्योंकि मुख जिह्वा के व्यापार करे बिना ही मन में अनेक व्यवहारों का विचार ओर शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अगुलियों से मूंद कर देखो, सुनो कि बिना मुख जिह्वा ताल्वादि स्थानोें के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं। वैसे परमात्मा ने जीवों को अन्तर्यामीरूप से उपदेश किया है। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिए उच्चारण करने की आवश्यकता है। जब परमेश्वर निराकार सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से (जीवात्मा के भीतर व्यापकता से) जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरों को सुनाता है। इसलिये ईश्वर में यह निराकार होकर वेदोपदेश न कर सकने का दोष नहीं आ सकता। 

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के प्रमाण से यह भी बताया है कि प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा नाम के ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया था। इन ऋषियो ंने एक एक वेद का ज्ञान ब्रह्मा जी को कराया था। मनुस्मृति में कहा गया है कि जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया। वेद ज्ञान संस्कृत भाषा में है। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा ने संस्कृत भाषा सहित चार वेदों का ज्ञान मनुष्यश्रेष्ठ चार ऋषियों को दिया था। उन्हीं चार ऋषियों के द्वारा ब्रह्मा जी को दिया गया और इन्होंने मिलकर ही अन्य सभी स्त्री व पुरुषों को वेद ज्ञान व साधारण बोलचाल का ज्ञान भी कराया था। वेदाध्ययन की ऋषि परम्परा अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा जी से होती हुई ऋषि जैमिनी और ऋषि दयानन्द तक पहुंची है। 

इस उल्लेख से स्पष्ट होता है कि आदि मनुष्यों को परमात्मा ने वेदों का ज्ञान देकर ज्ञान व विज्ञान से सम्पन्न किया था। भाषा भी हमें परमात्मा से ही मिली थी। संस्कृत व वेद संसार के सभी पूर्वजों की भाषा व ज्ञान रहे हैं। सब लोगों का संस्कृत भाषा एवं वेदों पर समान अधिकार है। 

कमज़ोर हो रहा २४ अकबर रोड़ का ‘कांग्रेसी किला’

§ डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

राजनीति और रसोई में बनाई जाने वाली रोटी की एक-सी दशा हैं, समय रहते उसे पलटा नहीं तो जलना तय हैं। जब लगातार नेतृत्व की अस्वीकार्यता उभर कर आ रही हो, जब सम्पूर्ण राजनैतिक हलके में साख गिरती नज़र आ रही हो, जब परिवार के कारण पार्टी की फजीहत हो रही हो, जब संगठन की विफलता मुँह बाहे खड़ी हो, जब सार्वभौमिक रूप से नकारा जा रहा हो, जब अपने ही सैनिक मैदान से भाग रहे हो, कार्यकर्ताओं के मनोबल में क्षीणता दिखने लगे, जब सेनापति विहीन सेना मैदान छोड़ने लगे, जब गुटबाजी चरम पर हो, एक दूसरे की टांग खींचना परंपरा बनने लगे, जब संगठित शक्तियाँ स्वयं कमजोर सिद्ध होने लगे तब ऐसे समय में राजनैतिक दल के के मुखिया को आत्मावलोकन का मार्ग जरूर अपनाना चाहिए। जी हाँ ! हम यहाँ चर्चा कर रहें हैं देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल जिसने भारत की स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया और आज़ादी दिलाने में अहम योगदान दिया। आज नेतृत्व विहीन होती कांग्रेस अकबर रोड़ पर बने हवाई किले की चाहर दीवारी में ही अपने अस्तित्व को खंगालती नज़र आ रही हैं।

संगठन की क्षमताओं के पूर्वावलोकन अथवा संवैधानिक संगठन क्षमता की बात करें तो कांग्रेस अपने नेतृत्व को मजबूत न करके न केवल पार्टी का अपना अहित कर रही है बल्कि देश के लोकतंत्र का नुकसान कर रही हैं। लोकतंत्र की सजगता और सुचारु रूप से कार्य करने की क्षमता सत्ता के निर्णय और विपक्ष की मजबूत भूमिका से मिलकर होता हैं, अन्यथा सत्ता निरंकुश हो जाती हैं। पूर्व में देश में लगा आपातकाल इसी बात की गवाही देता हैं कि विपक्ष के कमज़ोर होते ही सत्ता निरंकुश हो गई और दुष्परिणाम का भुगतान देश ने किया।

एक समय था जब कांग्रेस के शीर्ष नेता संजय गाँधी ने पार्टी में भर्ती अभियान की तर्ज पर साक्षात्कार आधारित नियुक्तियाँ की थी, युवाओं को पार्टी पदों पर बैठाया और उनके कारण पार्टी मजबूत भी हुई। इसके बाद कांग्रेस के अस्तित्व पर संकट जब आया तो पार्टी आलाकमान भर्ती अभियान को भूल गये किन्तु राहुल गाँधी ने 2011 में इस प्रक्रिया को पुनः अपनाया, पार्टी में चुनाव प्रक्रिया लाई गई, इसके माध्यम से गैर राजनैतिक युवा कांग्रेस पार्टी से जुड़े और सक्रिय भी हुए। ‘नेता का बेटा ही नेता बनेगा’ इस विचारधारा को कांग्रेस में धक्का लगा, और अच्छी बात तो यह हैं कि उस भर्ती अभियान में चयनित युवा ही आज भी राहुल गाँधी की लड़ाई लड़ रहे हैं और पार्टी को मजबूत कर रहे है। किन्तु शीर्ष नेतृत्व की अकारण उपेक्षा से ही इन युवाओं को भी पार्टी में कमजोर किया जाने लगा। हालत इतने बदतर हो गए कि वर्तमान में युवक कांग्रेस के इतर कांग्रेस के अधिकांश अनुषांगिक संगठन या तो नेतृत्व विहीन है या फिर निष्क्रियता की भेंट चढ़ चुके हैं।

वर्तमान समय में देश में किसान आंदोलन चल रहा है जिसमें कांग्रेस बढ़ चढ़कर हिस्सा तो लेना चाह रही है किन्तु आल इंडिया किसान कांग्रेस का चेयरमेन कौन ? यानि यह नेतृत्व विहीन हैं। महिला कांग्रेस लगभग ख़त्म सी हो गई हैं। कांग्रेस पार्टी के नेता अपने भाषणों में आदिवासी हित की बात करते हैं, यह सच भी हैं कि कांग्रेस ने देश की सत्ता में रहते हुए वन अधिकार कानून लागू करने से लेकर कई बड़े फैसले किए हैं और कांग्रेस अपने आदिवासी नेतृत्व पर घमंड भी करती है पर यह भी कड़वा सच है कि पिछले दो वर्षों से आदिवासी कांग्रेस नेतृत्व विहीन ही हैं। हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि सेवा दल की नियुक्तियों में पिछले एक दशक से बदलाव नहीं हुआ हैं। मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों की जिला और ब्लॉक इकाइयों की इतनी बुरी स्थिति है कि पंद्रह वर्षों से एक ही व्यक्ति पार्टी के उन संवैधानिक पदों पर है जिन्होंने अब तक कांग्रेस का भला नहीं किया।

आँखों को जब 24 अकबर रोड़ स्थित कांग्रेसी क़िले पर ले जाएँ तो यह नज़र आएगा कि किले के सामने की दुकानों से कांग्रेस चल रही हैं, आल इंडिया आदिवासी कांग्रेस का बैठक कक्ष तक नहीं हैं 24 अकबर रोड़ पर। आखिरकार क्या सोनिया गाँधी या राहुल गाँधी अपने कांग्रेसी किले को ऐसे ध्वस्त होता खुद देखना चाहते हैं अथवा लापरवाही का आलम इतना गहरा हो गया है कि कभी पार्टी अध्यक्ष अपने ही किले की दीवारों में बने कुछ गिने-चुने कक्षों में भी दौरा करने में असमर्थ हैं? चौवीस अकबर रोड़ स्थित कांग्रेस किला अपना अस्ताचल देख रहा हैं, सामने की गुमटियाँ और दुकाने अपने आपको कांग्रेस का हाई कमान मानने लग चुकी हैं क्योंकि कांग्रेस के आलाकमान अभी भी देर से जागने के आदी हैं।

आख़िरकार 2024 में देश में फिर आम चुनाव आने वाले है, इसी बीच पार्टी के कई शीर्ष नेता पार्टी को अलविदा कह गए, बावजूद इसके कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आम चुनाव में सक्रिय भागीदारी जैसा नज़र नहीं आ रहा जबकि सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी चौवीस घंटे सातो दिन चुनाव मोड में ही रहता हैं। कांग्रेस के पास सेवा दल, यूथ कांग्रेस, एनएसयूआई, महिला कांग्रेस, प्रोफेशनल कांग्रेस,आदिवासी कांग्रेस, किसान कांग्रेस जैसे अन्य कई प्रकल्प तो है फिर भी कांग्रेस के पास बूथ मैनेजमेंट की कमी हैं। कांग्रेस का कोई भी घटक मतदाताओं तक पहुँचने में असमर्थ ही है, वैसे कांग्रेस में प्रशिक्षण का चलन भी न के बराबर ही है, न कार्यकर्ताओं को बौद्धिक सत्र में प्रशिक्षित किया जाता है न ही उनके मनोबल को बढ़ाने का प्रबंधन। यदि कांग्रेस अपनी इन गलतियों से कुछ सीखे और फिर देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तर्ज पर मतदाताओं से जुड़ा जा सके ऐसी प्रणाली विकसित करे, कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने पर ध्यान दे, शीर्ष नेतृत्व को दुरुस्त करें, मजबूत संवैधानिक ढाँचा तैयार करने में कामयाब हो पाए, संसदीय प्रणाली को परिवारवाद, राजसी ठाठ से बाहर निकाल कर लोकतंत्रीय बनाने में सफल हो पाए तभी किसी चमत्कार की उम्मीद होगी। भाजपा का चुनावी प्रबंधन कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दलों के लिए सीखने का विषय है, जिस पर अब भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया तो कांग्रेस को इतिहास के पन्नों में सिमटने से कोई रोक नहीं सकता।

सरकार और बाज़ार को अनुशासित करने की चुनौती

अरुण तिवारी

प्रधानमंत्री जी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम ( फरवरी, 2021) में सभ्यता, संस्कृति और आस्था से जोड़कर नदियों की महत्ता बताई। हक़ीक़त यह है कि इन्ही प्रधानमंत्री जी ने गंगा-अविरलता को विज्ञान से ज्यादा, आस्था का विषय मानने वाले स्वर्गीय स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद की एक नहीं सुनी। गंगा अविरलता सुनिश्चित करने हेतु अनकी चार मांगों को मानना तो दूर, संबंधित पत्रों के उत्तर तक नहीं दिए।

(स्वामी श्री सानंद का सन्यास पूर्व नाम – प्रो. जी. डी. अग्रवाल था। प्रो. अग्रवाल कोई साधारण नहीं, तकनीकी रूप से प्रशिक्षित प्रथम भारतीय पर्यावरणविद् (पी.एच.डी., केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले) थे। भारत में पर्यावरण इंजीनियरिंग का प्रथम विभाग आई.आई.टी., कानपुर में स्थापित हुआ। उसके संस्थापक-अध्यक्ष प्रो. अग्रवाल थे। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सदस्य सचिव की यादगार भूमिका निभाने वाले भी प्रो. अग्रवाल ही थे। वह राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार रहे। नानाजी देशमुख की पहल और प्रेरणा से स्थापित महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, सतना में मानद प्रोफेसर की भूमिका को विश्वविद्यालय आज भी याद करता है। प्रो. अग्रवाल एक वक्त में वह बडे. बांध के डिजाइन इंजीनियर थे; दूसरे वक्त में वह, बांध व सुरंग आधारित विद्युत-जल परियोजनाओं के डिजाइन, आकार, स्थान और कुप्रबंधन के घोर विरोधी बने। इसी खातिर अपने प्राण गंवाए।)

गौर कीजिए कि इससे पहले अपने-अपने गंगा के अनशन के चलते साधु निगमानंद और नागनाथ को प्राण त्यागने पडे़ थे। अब मातृ सदन, हरिद्वार के साधु श्री आत्मबोधानन्द गंगा अनशन पर हैं। पीठाधीश्वर स्वामी श्री शिवानंद ने मांगें नहीं माने जाने पर स्वयं के शरीर को कुंभ के दौरान विसर्जित करने संबंधी बयान दिया है।

यह ताज़ा प्रसंग, एक झलक मात्र है। जारी परिदृश्य पर निगाह डालिए।

जल-विद्युत, जल-परिवहन और गंगा तट को काटकर गंगा पर्यटन….यानी गंगा जी को कहना माई, करना कमाई ! रिवर फ्रंट डेवल्पमेंट के नाम पर साबरमती को नगरीय हिस्से में नहर में तब्दील कर देना; बाँध की ऊंचाई बढ़ाकर नर्मदा को नुक़सान पहुंचाना; किसान हितैषी सपने दिखना और मांग कर रहे किसानों से खुद बात तक न करना! वैक्सीन पर पीठ ठोकना; घटी आय और बढ़ती मंहगाई पर चुप्पी !! बातें राष्ट्रवाद की और कारगुजारियां…राष्ट्र के मानस को टुकड़ों में बांट देने की। स्वच्छ भारत, उज्जवला, स्वामित्व पहल…योजनाओं का चेहरा सामाजिक, एजेण्डा काॅरपोरेट !!

प्रश्न कीजिए कि ‘नल-जल’ मुफ्त पानी परियोजना है अथवा बिल वसूली योजना ?? स्वामित्व पहल, सिर्फ स्वामित्व दिलाने वाली योजना है अथवा ग्रामीण संपत्ति कर वसूली की योजना ? उज्जवला के बाद रसोई गैस की कीमतें बेतहाशा बढ़ीं कि घटीं ? एक महीने में एक बार के नियम के बीच, एक ही महीने में तीन-तीन बार !! यह नैतिक है या अनैतिक ?

व्यैक्तिक चरित्रहीनता या पूंजीवादी मण्डी का शिकंजा ?

क्या यह झूठ है कि हाशिये के लोगों की बात करने वाले खुद हाशिये पर ढकेले जा रहे हैं ? सत्य यही है कि वक्त की हक़ीक़तों को जुबां पर लाने वाले जन व प्रकृति हितैषी पैरोकारों पर हमले बढ़े हैं। हमलों के प्रकार और रफ्तार को देखकर भले ही लग रहा हो कि कुछेक राजनेता, सत्ता पाकर तानाशाह हो गए हैं। हो सकता है कि इसे आप सत्ता का दोहरा चरित्र कहें। हो सकता है कि उतरता खोल किसी की आशा-निराशा बढ़ाए। हक़ीक़त यही है कि यह विरोधाभास किसी एक-दो देश या राजनेता का विरोधाभास नहीं है; यह पूंजी की खुली मण्डी का आभास है। जो भी तंत्र इस मण्डी की गिरफ्त में है, वहां आदर्शों का मोलभाव सट्टेबाजों की बोलियोें की तरह होता है। इस तरह की पूंजी मण्डी में उतर कर देश जन व प्रकृति हितों की हिफाजत कर पायेगा; यह दावा करना ही एक दुष्कर कार्य हो गया है। याद करने की बात है कि प्राचीन युगों में एकतंत्र, गणतंत्रों को चाट जाते थे। मगघ साम्राज्य ने बहुत से गणतंत्रों का सफाया कर दिया था। यह आज का विरोधाभास ही है कि डिजीटल संचार के खुल्लम-खुल्ला युग में भी दुनिया की महाशक्तियां, दूसरे लोकतंत्रों को चाट जाने की साजिश को गुप-चुप अंजाम देने में खूब सफल हो रही हैं।

सत्ता का व्यवहार, सत्ता के आत्मविश्वास का नाप

चिंता कीजिए कि भारत इस मण्डी की गिरफ्त में आ चुका है। अक्षम्य अपराध यह है कि अदृश्य आर्थिक साम्राज्यवाद के दृश्य हो जाने के बावजूद हम इसके खतरों की लगातार अनदेखी कर रहे हैं। चाहिए तो यह कि खतरों को सतह पर आते देख, सत्ता, जनता के साथ मिलकर उनका समाधान तलाशें। किंतु हो यह रहा है कि बजाय इसके, सत्ता खतरों के प्रति आगाह करने वालों को ही अप्रासंगिक बनाने में लग गई है। हमारे राजनेता भूल गये हैं कि सत्ता का व्यवहार… सत्ता के आत्मविश्वास का नाप हुआ करता है। जब कभी किसी अनुत्तरदायी सत्ता को लगता है कि यदि उसका भेद खुल गया, तो वह टिक नहीं पायेगी, तो वह दमन, षडयंत्र व आतंक का सहारा लिया करती है। क्या आजकल यह कुछ ज्यादा ही नहीं हो रहा ?

आज हम एक ऐसे राजनैतिक समय में है कि जब जनमत चाहे कुछ भी हो, लोककल्याण चाहे किसी में हो, सत्ता वही करेगी, जो उसे चलाने वाले आर्थिक आकाओं द्वारा निर्देशित किया जायेगा। सत्ता के कदम चाहे आगे चलकर अराजक सिद्ध हों या देश की लुट के प्रवेश द्वार… सत्ता को कोई परवाह नहीं है। विरोध होने पर वह थोङा समय ठहर चाहे जो जाये… कुछ काल बाद रूप बदलकर वह उसे फिर लागू करने की जिद् नहीं छोङती; जैसे उसने किसी को ऐसा करने का वादा कर दिया हो। भारतीय संस्कार के विपरीत यह व्यवहार आज सर्वव्यापी है। क्या यह आजादी के मंतव्य और संविधान के लोकतांत्रिक निर्देशों को सात समंदरों की लहरों मे बहा देने जैसा नहीं है ?

आर्थिक साम्राज्यवाद या कारण और भी ?

आकलन करने वाले यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान समय में निवेश, विनिवेश और राजस्व की सत्ता भूख इतनी ज्यादा है कि इनके पास, आर्थिक साम्राज्यवाद के खतरों के प्रति सावधान होने का समय ही नहीं है। सत्ताशीन ठीक कह रहे हैं कि व्यापार करना, सरकार का काम नहीं है। किंतु वह यह नहीं कह रहे कि रोटी, पानी, पढ़ाई, दवाई, रोज़गार, परिवहन और ऊर्जा जैसे जीवन जीने की बुनियादी ज़रूरतों को लोगों की जेब के मुताबिक उपलब्ध्ता को बाधा रहित करना सरकार का काम है। वह इसका विश्लेषण प्रचारित नहीं कर रहे कि बुनियादी ज़रूरत के ढांचागत क्षेत्रों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के प्रवेश से भ्रष्टाचार तथा छोटी जेब वालों की बाधायें बढ़ी हैं अथवा घटी हैं ? इस कारण पर्यावरण का विकास हुआ है अथवा ह्यस ? बावजूद इस सच के आदर्श यही है कि ठीकरा सिर्फ आर्थिक साम्राज्यवाद की साजिशों के सिर फोङकर नहीं बचा जा सकता। कारण और भी हैं।

समूची राजनीति पर सवाल

एक व्यक्ति की राजनीति के विरोधाभासों से इतर भारत के पूरे राजनैतिक परिदृश्य पर निगाह डालिए। दल कोई भी हो, लोगों की निगाह में अभी तो समूची राजनीति का ही चरित्र संदिग्घ है। इसी राजनैतिक चरित्र के चलते कभी दंगे को आरोपियों की सूची में एक साल के बच्चे का नाम दर्ज करने की भी घटना संभव हुई। एक तरफ संविधान के रखवालों के प्रति यह अविश्वास है, तो दूसरी ओर दंगे के दागियों को सम्मानित करना, सत्ता का नया चरित्र बनकर उभरा है। एक रुपया तनख्वाह लेने वाली मुख्यमंत्री की संपत्ति का पांच साल में बढकर 33 गुना हो जाने को विश्वासघात की किस श्रेणी में रखें ? चित्र सिर्फ ये नहीं हैं, भारतीय राजनैतिक चित्र-प्रदर्शनी ऐसे चित्रों से भरी पङी है। संविधान के प्रति दृढ आस्था का यह लोप हतप्रभ भी करता है और दुखी भी।

लोकतंत्र में नागरिकों की उम्मीदें जनसेवकों व जनप्रतिनिधियों पर टिकी होती हैं। प्रधानमंत्री अपने को भले ही प्रधान सेवक कहते हों, लेकिन हकीकत यही है कि हमारे जनसेवकों व जनप्रतिनिधियो ने जनजीवन से कटकर अपना एक ऐसा अलग रौबदाब व दायरा बना लिया है कि जैसे वे औरों की तरह के हांड-मास के न होकर कुछ और हों। इसके लिए वे प्रचार का हर हथकण्डा अपना रहे हैं। दूसरी तरफ, प्रचार और विज्ञापन की नई संचार संस्कृति ने हमारे जनप्रतिनिधियों जमीनी हकीकत व संवाद से काट दिया है। सत्ता के प्रति लोकास्था शून्य होने की यह एक बङी वजह है। मतदान प्रतिशत गवाह है कि जनता का एक वर्ग अभी भी सत्ता के प्रति ””कोउ नृप होए, हमैं का हानि” का उदासीन भाव ग्रहण किए हुए है। किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता के लिए इससे अधिक खतरनाक बात कोई और नहीं हो सकती।

याद दिलाने का वक्त

हमें याद दिलाना होगा कि संस्था चाहे राजनैतिक हो या कोई और… संविधान, सत्ता के आचरण व शक्तियों के निर्धारण करने का शस्त्र हुआ करता है। जो राष्ट्र जितना प्रगतिशील होता है, उसका संविधान भी उतना ही प्रगतिशील होता है। उसका रंग-रूप भी तद्नुसार बदलता रहता है। क्या हम भारत के संविधान को प्रगतिशील की श्रेणी में रख सकते हैं ? भारत का संविधान, आज भी ब्रितानी हुकूमत की प्रतिच्छाया क्यों लगता है ?? हमारे संविधान की यह दुर्दशा क्यों है ? यह विचारणीय प्रश्न है।

दरअसल, भारतीय लोकतंत्र आज ऐसे विचित्र दौर से गुजर रहा है, जब यहां लगभग और हर क्षेत्र में तो विशेष शिक्षण-प्रशिक्षण-योग्यता की जरूरत है, राजनीति में प्रवेश के लिए किसी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, योग्यता, विचारधारा अथवा अनुशासन की जरूरत नहीं रह गई है। भारतीय राजनीति के पतन की इससे अधिक पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि हमारे माननीय/माननीया जिस संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं; जो विधानसभा/संसद विधान के निर्माण के लिए उत्तरदायी होती है, उनके विधायक/सांसद ही कभी संविधान पढने की जरूरत नहीं समझते। और तो और वे जिस पार्टी के सदस्य होते हैं, जिन आदर्शों या व्यक्तित्वों का गुणगान करते नहीं थकते, ज्यादातर उनके विचारों या लिखे-पढे से ही परिचित नहीं होते। इसीलिए हमारे राजनेता व राजनैतिक कार्यकर्ता न तो संविधान की पालना के प्रति और ना ही अपने दलों के प्रेरकों के संदेशों के अनुकरण में कोई रुचि रखते हैं। समझ सकते हैं कि क्या कारण हैं कि पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम कार्यकर्ताओं व राजनेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते।

व्यापक दुष्प्रभाव के दौर में हम

जे पी मूवमेंट हो, अन्ना आंदोलन, शाहीन बाग या फिर किसान आंदोलन… चेतना तो लौट-लौटकर दस्तक देती ही है। तीनो विवादित कृषि क़ानूनों की जड़ें बहुत लंबी हैं। इनके खिलाफ जारी किसान आंदोलन, असल में वैश्विक महाशक्तियों द्वारा भारत को अपने आर्थिक साम्राज्यवाद की गिरफ्त में ले लेने की लालसा के विरुद्ध उठा धुंआ ही है। यदि हम इसके भीतर की आग से आलोकित हुए होते तो बङे वैचारिक परिवर्तन का सबब बन गया होता। इसके निहितार्थ इतने सीमित होकर न रह जाते, जितने अभी हैं। सरकार और बाज़ार अनुशासन को भुला चुके हैं। जनता भी विषय के पक्ष-विपक्ष में होने की बजाय, व्यक्ति अथवा दलों के दल-दल में खडे़ होकर घटनाक्रमों का पक्ष-विपक्ष तय कर रही है। ये लक्षण हैं कि हम कलमजीवी ही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर प्रधान, पंच और गांव के आखिरी आदमी तक राजनीति के चारित्रिक गिरावट के दुष्प्रभाव की चपेट में हैं। यही वजह है कि इस दौर में आचार संहिताएं टूट रही हों; सिर्फ इतना नहीं; बल्कि आचार सहिताओं को बेमतलब मान लिया गया है।

जे पी ने इस बारे में कहा था – ”अज्ञात युगों से ऐसे राजनीतिज्ञ होते चले आयें हैं, जिन्होने यह प्रचारित किया है कि राजनीति में आचार नाम की कोई चीज नहीं है। पुराने युगों में यह अनैतिकवाद… राजनीति का यह खेल करने वाले, फिर भी एक छोटे से वर्ग से बाहर अपना दुष्प्रभाव नहीं फैला सके थे। अधिसंख्य लोग राज्य के नेताओं और मंत्रियों के आचरणों से दूषित होने से बचे रहते थे। परंतु सर्वाधिकारवाद का उदय हो जाने से यह अनैतिकतावाद विस्तार के साथ लागू होने लगा है। यह ऐसा सर्वाधिकारवाद है, जिसके भीतर नाजीवाद-फासीवाद और स्तालिनवाद सभी शामिल है। आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है।”

हालांकि, भारत अभी आर्थिक विषमता और असंतुलन ऐसे चरम पर नहीं पहुंचे हैं कि समझ और समझौते के सभी द्वार बंद हो गये हों। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज और सत्ता के बीच जो समझ और समझौता विकसित होता दिख रहा है, उसकी नींव भी अनैतिकता की नींव पर ही टिकी हैं – ”तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे खैरात दूंगा।” इससे बुरा और क्या हो सकता है कि कमोबेश यही रवैया, लोकतंत्र के चारों स्तम्भों का एक-दूसरे के लिए होता जा रहा है।

भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव का मतलब बीते पांच वर्षों के कार्यों के आकलन तथा अगले पांच वर्षों के सपने को सामने रखकर निर्णय करना होना चाहिए। किंतु उत्त्र प्रदेश के एक विधानसभा चुनाव में एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने इसे युद्ध की संज्ञा देते हुए कहा था – ’’प्रेम और युद्ध की कोई आचार संहिता नहीं होती।’’ नजरिया सचमुच इस स्तर तक गिर गया है। असम, पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रचार का आकलन कीजिए।

जनप्रतिनिधि बनने का मतलब जनप्रतिनिधित्व नहीं, राजभोग समझ लिया गया है। जनता भी वोट का बटन दबाते वक्त यदि तमाम नैतिकताओं व उत्तरदायित्वों को ताक पर रखकर जाति, धर्म और निजी लोभ-लालच के दायरे को प्राथमिकता पर रखती है। भले ही हमारी जेबों में छेद बढ़ते जा रहे हों; हम अपना वोट देने के लिए सांप्रदायिक कुर्सी का ही चुनाव कर रहे हैं। उम्मीदवार से ज्यादा अक्सर पार्टियां ही प्राथमिक हो गईं हैं। इस नजरिए का ही नतीजा है कि कितनी ही भौतिक, आर्थिक व अध्यात्मिक अनैतिकताओं हों; हमने मान लिया है कि इतना तो चलता है जी। हमारे इस बदले हुए नज़रिए का ही परिणाम है कि आज सत्ता अनुशासन के सारी आचार संहितायें नष्ट करने में नेताओं को कोई संकोच नहीं है। यह बात कङवी जरूर है; लेकिन हम अपने जेहन में झांककर देखें कि क्या आज का सच यही नहीं है ?

वैचारिक शक्तियों से आस

इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्तायें गिरावट के ऐसे दौर में पहुंची हैं, हमेशा वैचारिक शक्तियों ने ही डोर संभालकर सत्ता की पतंग को अनुशासित करने का उत्तरदायित्व निभाया है। इसके लिए वह दंडित, प्रताङित व निर्वासित तक किया जाता रहा है। दलाईलामा, नेल्सन मंडेला व आंग सू ची से लेकर दुनिया के कितने ही उदाहरण अंगुलियों पर गिनाये जा सकते हैं। अतीत में सत्ता को अनुशासित करने की भूमिका में कभी गुरु बृहस्पति और शुक्राचार्य का गुरुभाव, कभी भीष्म का राजधर्म, कभी अयोध्या का लोकानुशासन, कभी कौटिल्य का दुर्भेद राजकवच, कभी माक्र्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट पार्टी घोषणापत्र…. तो कभी गांधी-विनोबा का राजनीतिक नैतिकतावाद दिखाई देता रहा है। आजाद भारत में यही भूमिका राममनोहर लोहिया के मुखर समाजवादी विचारों और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने निभाई।

स्वानुशासन, तभी सुशासन

‘राजसत्ता का अनुशासन’ नामक एक पुस्तक ने ठीक ही लिखा है कि नैतिक गिरावट के इस दौर में पुनः उत्कर्ष का रास्ता अध्यात्म और भौतिक… दोनो माध्यम से हासिल किया जा सकता है। किंतु यहां न भूलने लायक व्यवहार यही है कि सत्ता को अनुशासित तो वही कर सकता है, जो कि खुद अनुशासित हो; स्वानुशासित यानी अपने ऊपर खुद के राज की परिभाषा पर जांचा-परखा खरा स्वराजी। इस हिसाब से लोकतंत्र के चारों स्तंभों को अनुशासित करने वालों को स्वानुशासित तो होना ही पडे़गा। क्या हम-आप हैं ?

यदि हैं तो आइए, सक्रिय हों कि सतत् सामुदायिक संवाद के पारदर्शी मंच फिर से जीवित हों। इसके लिए नतीजे की परवाह किए बगैर वे जुटें, जिनके प्रति अभी भी लोकास्था जीवित है; जिनसे छले जाने का भय किसी को नहीं है। बगैर झंडा-बैनर के हर गांव-कस्बे में ऐसे व्यक्तित्व आज भी मौजूद है; जो लोक को आगे रखते हुए स्वयं पीछे रहकर दायित्व निर्वाह करते हैं। गङबङ वहां होती है, जहां व्यक्ति या बैनर आगे और लोक तथा लक्ष्य पीछे छूट जाता है। राष्ट्रभक्त महाजनों को चाहिए कि वे ऐसे व्यक्तित्वों की तलाश कर उनके भामाशाह बन जायें।

रचना और सत्याग्रह साथ-साथ

जिस दिन ऐसे व्यक्तित्व छोटे-छोटे समुदायों को उनके भीतर की विचार और व्यवहार की नैतिकता से भर देंगे, उस दिन भारत पुनः उत्कर्ष की राह पकङ लेगा। तब तक देर न हो जाये, देश में दौलत पैदा करने वाले संसाधन व सत्ता मंे सुस्थिरता पैदा करने वाली लोकास्था पूरी तरह लुट न जाये, इसके लिए बुद्धिजीवी वर्ग की कलम, कैमरा, कम्पयूटर व वाणी को औजार बनकर सत्याग्रह करने रहना है। ”जब तोप मुकाबिल हो, तो कलम संभालो” या कहिए कि जब तोप मुकाबिल हो, तो कलम-कम्प्यूटर-कैमरे में ढेर सारे रचना-बीज भर लो और जरूरत पङने पर सत्याग्रह की ढेर सारी बारूद। रचना और सत्याग्रह साथ-साथ चलें। यही अतीत की सीख भी है और सुंदर भविष्य की नींव भी।

भूले नहीं कि आज नहीं तो कल यह होगा ही। क्यों होगा ? क्योंकि बाज़ारों और सरकारों के गै़र-अनुशासित रवैयों के प्रति बेचैनी कमोबेश पूरी दुनिया में हैं। ये बेचैनियां अभी भले ही अलग-अलग दिख रही हों; आने वाले कल में एकजुट होगी ही। यह तय है। यह भी तय है कि यह एकजुटता एक दिन रंग भी लायेगी। अब आपको-हमें तय सिर्फ यह करना है कि इस रंग को आते-जाते देखते रहें या रंग लाने में अपनी भूमिका तलाश कर उसकी पूर्ति में जुट जायें। आकलन यह भी करना है कि अंधेरा क्यों हुआ ? रोशनी किधर से आयेगी ? दीया… दियासलाई कौन बनेगा ? तेल कौन और बाती कौन ??

परमेश्वर के पर्याय की आपसी तकरार है

—–विनय कुमार विनायक
कभी किसी ने सच कहा होगा
जन-जन,कण-कण में
परम पिता परमेश्वर बसते हैं!

पर आज कहना बेकार है
आज तो आतंकवाद का
परमेश्वर ही पहला शिकार है!

अपने ही पर्यायों से परास्त
न जाने कैसे होते गए ईश्वर
कि परमेश्वर का जीना दुश्वार है!

मंदिर में श्रीराम का शर
भगवान शंकर का त्रिशूल
श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र
माता दुर्गा का हिंसक शेर
बजरंगबली की गदा देखकर
न जाने क्यों खुदा लाचार हैं!

मस्जिद में श्रीराम का
गिरजाघर में घनश्याम का
अस्तित्व क्षार-क्षार है!

मंदिर मस्जिद और चर्च में
एक दूसरे की चर्चा करना तो
फिलहाल कोई नहीं तैयार है!

अपने-अपने हिस्से में बंटे हुए
हिस्सेदारों जैसी जिनकी स्थिति
वे दूसरे दर में निरीह बेघरबार हैं!

मंदिर में रुप दिखाकर
मस्जिद में मुंह छुपाकर
चर्च में कील ठुकाकर
कैसे रहते होंगे परमेश्वर?

ये तो परमेश्वर ही जाने
ये परमेश्वर के पर्याय की
आपसी रजामंदी से तकरार है!
—विनय कुमार विनायक

ऋषि दयानन्द न आये होते तो आर्य-हिन्दू अत्यन्त दुर्दशा को प्राप्त होते

-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य की पहचान व उसका महत्व उसके ज्ञान, गुणों, आचरण एवं व्यवहार आदि से होता है। संसार में 7 अरब से अधिक लोग रहते हैं। सब एक समान नहीं है। सबकी आकृतियां व प्रकृतियां अलग हैं तथा सबके स्वभाव व ज्ञान का स्तर भी अलग है। बहुत से लोग अपने ज्ञान के अनुरूप सत्य का आचरण भी नहीं करते। स्वार्थ वा लोभ तथा अनेक कारणों से वह प्रभावित होते हैं और यदि वह उचित व अनुचित का ध्यान रखें भी तथापि वह दूसरों की प्रेरणा से सत्य व असत्य सभी प्रकार के आचरण करते हैं। हमारे देश में सृष्टि की आदि से ही ईश्वर प्रेरित वेदों के आधार पर वैदिक धर्म प्रचलित था। हमारी इस सृष्टि को बने हुए 1.96 अरब वर्ष से अधिक समय हो चुका है। इसमें यदि लगभग पांच हजार एक सौ वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध की अवधि को निकाल दें तो शेष 1.96 से अधिक अवधि तक आर्यावर्त वा भारत सहित पूरे विश्व में वेदों पर आधारित वैदिक धर्म ही प्रचलित रहा है। सभी लोग इसी विचारधारा, मत व सिद्धान्तों का पालन व आचरण करते थे। इसका कारण यह था कि वेद की सभी मान्यतायें सत्य पर आधारित थी और इनके पालन से ही मनुष्य व उसकी आत्मा का कल्याण होता है।

सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे देश में ऋषि परम्परा थी। ऋषि सद्ज्ञान से युक्त तथा ईश्वर का साक्षात्कार की हई योगियों की आत्मायें हुआ करती थी। वह निभ्र्रान्त ज्ञान से युक्त होते थे। वह किसी भी व्यक्ति के प्रश्नों व आशंकाओं का समाधान अपने तर्क व युक्तियों से करने में समर्थ होते थे। उनके समय में धर्म में अकल का दखल न होने जैसा विचार व सिद्धान्त काम नहीं करता था जैसा कि आजकल के कुछ मतों में होता है। इसी कारण से वेद सर्वकालिक एवं सर्वमान्य धर्म ग्रन्थ रहे हैं, आज भी हैं तथा प्रलयावस्था तक रहेंगे। जिस प्रकार से आलस्य प्रमाद से हम लोग ज्ञान को विस्मृत कर अज्ञानी हो सकते हैं उसी प्रकार से महाभारत काल के बाद वेद ज्ञान से युक्त आर्य जाति अपने आलस्य प्रमाद से वेद ज्ञान से च्युत व विमुख हो गई। वेदों का स्थान देश देशान्तर में विषसम्पृक्त अन्न के समान मत-मतान्तरों के ग्रन्थों व उनकी अविद्यायुक्त शिक्षाओं ने ले लिया जिसके निराकरण के लिये ही ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने वेद-मत वा वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना की थी। आज वेद ज्ञान प्रायः पूर्ण रूप में उपलब्ध है। हम ईश्वर को न केवल जान सकते हैं अपितु उसका साक्षात्कार भी कर सकते हैं। स्वामी विरजानन्द सरस्वती तथा ऋषि दयानन्द जी ने भी ईश्वर का साक्षात्कार किया था। 

चार वेदों के बाद आर्ष व्याकरण तथा उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों का प्रमुख स्थान है। इसका अध्ययन कुछ ही समय में किया जा सकता है। हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं में भी उपनिषद व दर्शनों सहित वेदों के भाष्य व टीकायें उपलब्ध हैं। वैदिक विद्वान मनुष्य की आत्मा व परमात्मा विषयक किसी भी शंका का समाधान करने के लिये तत्पर हैं। ऐसी स्थिति में संसार में मनुष्यों द्वारा वेदज्ञान की उपेक्षा करना उचित नहीं है। हम अनुमान करते हैं कि विज्ञान की वृद्धि के साथ ही लोग अविद्या, अज्ञान व मिथ्या परम्पराओं से युक्त मान्यताओं व मतों की उपेक्षा कर वेदों की ओर आकर्षित होंगे और अपने जीवन को वैदिक संस्कारों वा ज्ञान से सजाने व संवारने के कार्य में तत्पर होंगे। हमें लगता है कि ऋषि दयानन्द इस प्रक्रिया को आरम्भ कर गये थे। इस प्रक्रिया की गति वर्तमान में कुछ कम अवश्य है परन्तु ज्ञान व विज्ञान की वृद्धि के साथ इसमें भी वृद्धि होगी और यूरोप के पक्षपात रहित लोग वेदों का अध्ययन कर ईश्वर व आत्मा के ज्ञान व इनकी प्राप्ति के लिये वेदों को अपनायेंगे व उनकी शिक्षाओं के अनुसार आचरण करेंगे। यह शब्द लिखते हुए हमें विश्व मुख्यतः यूरोप में योग के बढ़ते प्रचार व प्रभाव से भी आशा बन्धती है। 

ऋषि दयानन्द के सामाजिक जीवन में प्रवेश से पूर्व देश नाना मत-मतान्तरों से ढका व पटा हुआ था। सभी मत अविद्या से युक्त विष सम्पृक्त अन्न के समान थे। ईश्वर तथा आत्मा का यथार्थ व सत्यृस्वरूप किसी धर्माचार्य व मत-धर्मानुयायी को विदित नहीं था। सभी मध्यकाल के अज्ञानता के समय में स्थापित अपने-अपने मतों के अनुसार अपनी पुस्तकों का अध्ययन करते तथा उनके अनुसार क्रियायें व पूजा अर्चना आदि करते थे। सत्य के अनुसंधान का कहीं कोई प्रयास होता हुआ नहीं दीखता था। देश व विदेश में सर्वत्र अज्ञान व पाखण्ड विद्यमान थे। भारत में मूर्तिपूजा एवं फलित ज्योतिष ने अधिकांश देशवासियों को ईश्वर के सत्यस्वरूप के ज्ञान व सच्ची उपासना सहित पुरुषार्थ से विमुख किया हुआ था। जन्मना-जाति ने समाज को कमजोर व क्षय रोग के समान ग्रसित किया हुआ था और आज भी स्थिति चिन्ताजनक है। छुआछूत का व्यवहार भी हिन्दू समाज में होता था। बाल विवाह प्रचलित थे जिसमें बच्चों को, जिनका विवाह किया जाता था, विवाह का अर्थ भी पता नहीं होता था। विवाहित बाल कन्यायें विधवा हो जाने पर नरक से भी अधिक दुःखी जीवन व्यतीत करती थी। यत्र तत्र सती प्रथा भी विद्यमान थी। विधवा विवाह को पाप माना जाता था तथा कोई इसे करने की सोच भी नहीं सकता था। 

स्त्रियों व शूद्रों की शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था। वेदों का अध्ययन व श्रवण इन दोनों के लिये वर्जित थे। अंग्रेज देश को ईसाई बनाना चाहते थे। संस्कृत भाषा, जो ईश्वरीय भाषा व देव-विद्वानों की भाषा है, उसे नष्ट करने के षडयन्त्र जारी थे। ईसाई एवं मुसलमान लोभ, भय तथा छल से हिन्दुओं का मतान्तरण वा धर्मान्तरण करते थे। देश में जो ईसाई व मुस्लिम हैं वह सब विगत 1200 वर्षों में धर्मान्तरण की प्रक्रिया से ही बनाये गये हैं। सर्वश्रेष्ठ वेद की शिक्षाओं की ओर न हिन्दू और न किसी अन्य समुदाय का ध्यान जाता था। सामाजिक प्रथाओं, पर्वों, व्रत, उपवास, गंगा स्नान, भागवत-कथा व रामचरित मानस के पाठ आदि को मनुष्य जीवन का प्रमुख धर्म व कर्तव्य जाना व माना जाता था। कुछ वर्गों के प्रति पक्षपात व उनका शोषण भी किया जाता था। ऐसी विषम परिस्थितियों में अधिकांश जनता अभाव, रोगों, भूख, आवास की समुचित व्यवस्था से दूर अपना जीवन व्यतीत करने के लिए विवश थी। अंग्रेज देश का शोषण करते थे तथा देशभक्तों पर अत्याचार करते थे। देश की इस असााधारण परिस्थिति में ऋषि दयानन्द का जन्म गुजरात के मोरवी नगर तथा इसके टंकारा नामक कस्बे में एक ब्राह्मण कुल में फाल्गुन कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन हुआ था। आज 8 फरवरी, 2021 का दिन ऋषि का जन्म दिवस है। 

ऋषि दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। 14 वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन उन्हें मूर्तिपूजा के प्रति अविश्वास व अनास्था हो गयी थी। बहिन व चाचा की मृत्यु ने इनकी आत्मा में वैराग्य के भावों का उदय किया। माता-पिता ने इनकी इच्छानुसार इन्हें काशी आदि जाकर अध्ययन करने की सुविधा प्रदान नहीं की। विवाह के बन्धन में बांधने की तैयारी की गई। इस बन्धन में न फंसने की इच्छा से मूलशंकर जी, जो आगे चलकर ऋषि दयानन्द बने, अपनी आयु के 22वें वर्ष में ईश्वर की खोज में घर से निकल भागे और लगभग 17 वर्षों तक उन्होंने देश के अनेक भागों में धार्मिक विद्वानों तथा योगियों आदि की संगति की तथा लगभग 3 वर्ष मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन कर वेदों की व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति तथा निरुक्त पद्धति के विद्वान बने। गुरु की प्रेरणा से आपने देश की सभी धार्मिक बुराईयों यथा अविद्या, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्पराओं तथा सामाजिक बुराईयों को दूर करने सहित समाज सुधार का महान कार्य किया। देश को स्वतन्त्र करने के लिये भी गुप्त रीति से काम किया। देश को आजाद कराने का विचार भी आपने ही सत्यार्थप्रकाश में सन् 1883 में लिखा था। इसके अच्छे परिणाम देखने को मिले। कलकत्ता, मुम्बई, बिहार प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश सहित देश के अनेक भागों में वेद धर्म प्रचारक एवं अविद्या निवारक संस्था आर्यसमाज की इकाईयों की स्थापनायें हुई और इनके माध्यम से वेद प्रचार, अज्ञान-अन्धविश्वास वा अविद्या निवारण सहित धर्मसुधार तथा धर्म प्रचार का कार्य आरम्भ हो गया। शिक्षा जगत को भी ऋषि दयानन्द की महत्वपूर्व देन है। ऋषि दयानन्द वेदाध्ययन की गुरुकुल प्रणाली के प्रणेता थे। उन्हीं के अनुयायियों ने लाहौर में दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल व कालेज स्थापित कर उसे देश भर में फैलाया और देश से अज्ञान को दूर किया। इसका सुपरिणाम हमारे सामने हैं। देश भर में शिक्षा व ज्ञान की उन्नति हुई, देश स्वतन्त्र हुआ तथा सामाजिक कुरीतियां दूर होने सहित अन्धविश्वासों में भी कमी आयी। सभी मतों की पुस्तकों व उनकी मान्यताओं सहित उनके सिद्धान्तों की व्याख्याओं पर भी ऋषि दयानन्द के उपदेशों व तर्क एवं युक्तियों का प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपनी अविद्यायुक्त बातों को भी तर्कसंगत सिद्ध करने का प्रयत्न किया। 

ऋषि दयानन्द यदि न आते तो वेद, वैदिक धर्म तथा संस्कृति पूर्णतया लुप्त हो सकते थे। आर्यसमाज की अनुपस्थिति में विद्या व ज्ञान से युक्त धर्म का वह प्रचार व प्रसार व शुद्धि का कार्य न होता जो ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों ने अपने मौखिक प्रचार, ग्रन्थों के लेखन व प्रकाशन सहित शास्त्रार्थ एवं शंका-समाधान आदि के द्वारा किया। वैदिक धर्म के विरोधी मत हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर उन्हें अपने मत में बलात सम्मिलित करते रहते। अन्धविश्वासों व जाति में असंगठन सहित सामाजिक कुरीतियों के कारण ऐसा होना असम्भव नहीं था। यह कार्य ईसा की आठवीं शताब्दी से निरन्तर हो रहा था। यह निश्चय है कि वर्तमान समय में देश जिस ज्ञान विज्ञान व भौतिक उन्नति की अवस्था पर पहुंचा है और वैदिक तथा सनातनी पौराणिक बन्धु लोगों की जो स्थिति व दशा है, वह वर्तमान जैसी न होकर इसके विपरीत अत्यन्त बुरी व बदतर होती। आज हिन्दुओं की जो जनसंख्या है वह इससे भी कहीं कम होती। देश आजाद होता, इस पर भी शंकायें उत्पन्न होती हैं। देश को आर्यसमाज द्वारा दिये गये नेता व आन्दोलनकारी न मिलते। इससे स्वतन्त्रता आन्दोलन में निश्चय ही शिथिलता होती और उसका प्रभाव देश की आजादी की प्राप्ति पर होता। एक साधारण परिवार में जन्म लेकर आज हम आर्यसमाज के कारण वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि का ज्ञान रखते हैं। हमने ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेदभाष्य सहित उनके अनेक जीवन चरित्रों एवं आर्य विद्वानों की बड़ी संख्या में पुस्तकों को पढ़ा है। 

ऋषि दयानन्द के न आने पर न वह पुस्तकें होती, न वेद और उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों पर भाष्य व टीकायें होती, तो उनका अध्ययन भी निश्चय ही असम्भव था। यह सब ऋषि दयानन्द की कृपा से सम्भव हुआ। आर्यसमाज के सभी विद्वान आज जिस स्थिति में हैं, उसमें वह सब वेद व वैदिक साहित्य से भी भलीभांति परिचित एवं विज्ञ हैं। इन्हीं विद्वानों व इनके द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म के करोड़ों अनुयायियों से हमारा समाज बना है। हम व प्रायः सभी ऋषिभक्त ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जानते हैं। सन्ध्या, यज्ञ एवं उपासना आदि भी करते हैं। समाज हित व देश हित के कार्यों में भी भाग लेते व इन कार्यों को करने वालों का सहयोग करते हैं तथा देश विरोधी तत्वों के प्रति उपेक्षा एवं विरोधी भाव रखते हैं। हम सब ऋषि दयानन्द भक्त ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज सहित पूर्व व वर्तमान आर्य विद्वानों के ग्रन्थों से विशेष अनुग्रहित एवं लाभान्वित हैं तथा उनका आभार मानते हैं। अतः देश की आज जो स्थिति है, उसमें विगत 150 वर्षों में जो सुधार व उन्नति हुई है उसमें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का प्रशंसनीय योगदान है। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में देश में समग्र वैचारिक क्रान्ति की थी। इसी से समाजिक व्यवस्था व सामाजिक परम्पराओं में सुधार व उन्नति हुई है। यदि ऋषि दयानन्द न आते तो यह सब लाभ हमें प्राप्त न होते और बहुत सम्भव है कि हमारी आर्य हिन्दू जाति पूर्ववत दुर्दशा को प्राप्त होती। ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों ने देश को अविद्या तथा अन्धविश्वासों के कूप से हमारी जाति को बाहर निकालने का प्रशंसनीय कार्य किया है। ऋषि दयानन्द को सादर नमन है।