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राम का वनगमन से पूर्व अपने पिता दशरथ व माता से प्रशंसनीय संवाद

-मनमोहन कुमार आर्य
राम को हमारे पौराणिक बन्धु ईश्वर मानकर उनकी मूर्तियों की पूजा करते वा उनको सिर नवाने के साथ यत्र तत्र समय-समय पर राम चरित मानस का पाठ भी आयोजित किया जाता है। वाल्मीकि रामायण ही राम के जीवन पर आद्य महाकाव्य एवं इतिहास होने के कारण प्रामाणिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में परवर्ती काल में अनेक लोगों ने कुछ प्रक्षेप भी किये हैं जिनका पता लगाया जा सकता है। कुछ विद्वानों ने यह कार्य किये भी हैं। उनके प्रयत्नों का परिणाम है कि हमें शुद्ध रामायण उपलब्ध होता है जिसमें से एक स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी का ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण है। आगामी रामनवमी पर्व, चैत्र शुक्ल नवमी 2078 विक्रमी तदनुसार 21 अप्रैल सन् 2021 को ध्यान में रखकर हम राम के राज्याभिषेक के निर्णय, उनके वनगमन तथा श्रीराम के अपने पिता दशरथ एवं माता कैकेयी के साथ संवाद का वर्णन कर रहे हैं। इसका वर्णन पढ़ व सुन कर हम स्वयं व अपनी भावी पीढ़ियों को सन्मार्ग दिखा सकते हैं जिससे हमारी वर्तमान व भावी युवा पीढ़ियां अपने देवता के समान माता-पिता व आचार्यों को आदर सम्मान देकर उनकी पूजा वन्दना कर सके।

राम के राज्याभिषेक के निर्णय व वनगमन की कथा इस प्रकार है। महाराजा दशरथ ने राज्य पुरोहित वसिष्ठ को बुलाकर उन्हें कल अर्थात् अगले दिन होने वाले राम के राज्याभिषेक के विषय में राम को सूचित करने के लिये कहा। उन्होंने कहा कि हे तपोधन! आप राम के पास जाइए और उनसे कल्याण, यश और राज्य-प्राप्ति के लिये पत्नी सीता सहित उपवास कराइए। वेदज्ञों में श्रेष्ठ भगवान वसिष्ठ ‘‘बहुत अच्छा” कहकर स्वयं श्री राम के घर गये। महर्षि वसिष्ठ श्वेत बादलों के समान सफेद रंग वाले भवन में पहुंच कर श्री राम को हर्षित करते हुए बोले। हे राम! तुम्हारे पिता दशरथ तुम पर प्रसन्न हैं। वह कल तुम्हारा राज्याभिषेक करेंगे। अतः आज आप सीता सहित उपवास करें। यह कहकर मुनिवर वसिष्ठ ने श्रीराम एवं सीता जी से उस रात्रि को नियत व्रत वा उपवास कराया। इसके बाद राजगुरु वसिष्ठ राम द्वारा भलीप्रकार सम्मानित एवं सत्कृत होकर अपने निवास स्थान को चले गये। वसिष्ठ जी के जाने के बाद श्रीराम एवं विशालाक्षी सीता जी ने स्नान किया। उन्होंने शुद्ध मन से एकाग्रचित्त होकर परमपिता परमात्मा की उपासना की। जब एक प्रहर रात्रि शेष रही तो वह दोनों उठे और प्रातःकालीन सन्ध्योपासन कर, एकाग्रचित्त होकर गायत्री का जप करने लगे। इस समाचार को सुनकर सभी प्रजाजनों ने अयोध्या को सजाया। राजमार्गों को फूल-मालाओं से सुशोभित एवं इत्र आदि से सुगन्धित किया। भवनों एवं वृक्षों पर ध्वजा एवं पताकाएं फहराई गईं। सभी लोग राज्याभिषेक की प्रतीक्षा करने लगे।

इसी बीच कैकेयी को अपनी दासी मन्थरा से राम के राज्याभिषेक की जानकारी मिली और साथ ही महाराज दशरथ से वर मांगने तथा राम को 14 वर्ष के लिये वन भेजने तथा भरत को कौशल देश का राजा बनाने का परामर्श मिला। इस मंथरा-कैकेयी के इस षडयन्त्र ने राम को राजा बनाने की सारी योजना को धराशायी कर दिया। राज्याभिषेक के दिन राम प्रातः अपने पिता के दर्शन करने आते हैं। वहां पिता की वह जो दशा देखते हैं उसका वर्णन महर्षि वाल्मीकि जी ने करते हुए लिखा है कि राजभवन मेघ-समूह के समान जान पड़ता था। साथ के सब लोगों को अन्तिम डयोढ़ी पर छोड़ कर श्रीराम ने अन्तःपुर में प्रवेश किया। अन्तःपुर में जाकर श्रीराम ने देखा कि महाराज दशरथ कैकेयी के साथ सुन्दर आसन पर विराजमान हैं। वे दीन और दुःखी हैं तथा उनके मुख का रंग फीका पड़ गया है। श्रीराम ने जाते ही पहले अत्यन्त विनीत भाव से पिता के चरणों में शीश झुकाया, फिर बड़ी सावधानी से माता कैकेयी के चरणों का स्पर्श किया। श्री राम को देखकर महाराज दशरथ केवल ‘राम!’ ही कह सके। क्योंकि फिर महाराज के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। उनका कण्ठ बन्द हो गया। फिर वे न तो कुछ देख ही सके और न बोल ही सके। अपने पिताजी की ऐसी असम्भावित दशा देख और उनके शोक का कारण न जानकर श्रीराम ऐसे विक्षुब्ध हुए जैसे पूर्णमासी के दिन समुद्र क्षुब्ध होता है। सदा पिता के हित में लगे रहने वाले राम विचारने लगे कि क्या कारण है कि पिता इतनी प्रसन्नता के अवसर पर भी न तो मुझसे प्रसन्न हैं और न ही मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। 

राम पिता दशरथ तथा माता कैकेयी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि और दिन तो पिताजी क्रुद्ध होने पर भी मुझे देखते ही प्रसन्न हो जाया करते थे, परन्तु आज मुझे देखकर उन्हें कष्ट क्यों हो रहा है? इस चिन्ता से श्रीराम का मुंह उतर गया। दीनों की भांति शोक-पीड़ित और द्युतिहीन श्रीराम कैकेयी को अभिवादन करके बोले। यदि अज्ञानवश मुझसे कोई अपराध हो गया हो जिससे पिताजी मुझसे अप्रसन्न हैं तो आप मुझे उस अपराध को बतायें और मेरी ओर से आप इनकी शंका का निवारण कर इन्हें प्रसन्न करें। महाराज का कहना न मानकर उनको असन्तुष्ट एवं कुपित कर मैं एक क्षण भी जीना नहीं चाहता। जब श्रीराम ने कैकेयी से उपर्युक्त वचन कहे तब कैकेयी ने यह धृष्टता एवं स्वार्थपूर्ण वचन कहे। कैकेयी ने कहा हे राम! न तो महाराज तुमसे अप्रसन्न हैं, न ही इनके शरीर में कोई रोग हैं। इनके शरीर में कोई बात है जिसे तुम्हारे भय से यह कहते नहीं। यदि तुम यह बात स्वीकार करो कि महाराज उचित या अनुचित जो कुछ कहें उसे करोगे तो मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूं। कैकेयी के इन वचनों को सुनकर राम अत्यन्त दुःखी हुए। उन्होंने महाराज दशरथ के समीप बैठी हुई कैकेयी से कहा ‘अहो! धिक्कार है!! हे देवि! आपको ऐसा कहना उचित नहीं। महाराज की आज्ञा से मैं जलती चिता में कूद सकता हूं, हलाहल विष का पान कर सकता हूं और समुद्र में छलांग लगा सकता हूं। अपने गुरु, हितकारी, राजा और पिता के आदेश से ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे मैं न कर सकूं? हे देवि महाराज दशरथ को जो भी अभीष्ट है वह तू मुझसे कह। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं उनकी आज्ञा का पालन करूंगा। माता! सदा स्मरण रख, राम दो प्रकार की बात नहीं कहता अर्थात् राम जो कहता है वही करता है।’  

राम के इन शब्दों को सुनकर अनार्या कैकेयी सरल स्वभाव एवं सत्यवादी श्रीराम से ये कठोर वचन बोली। हे राम! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम में शत्रु के बाणों से पीड़ित और मेरे द्वारा रक्षित तुम्हारे पिता ने मेरी सेवाओं से प्रसन्न होकर मुझे दो वर दिये थे। हे राम! उन दो वरों में से मैंने एक से तो ‘भरत का राज्याभिषेक’ और दूसरे से ‘तुम्हारा आज ही दण्डकारण्य-गमन’ मांगा है। हे नरश्रेष्ठ! यदि तुम अपने पिता को और अपने आपको सत्यप्रतिज्ञ सिद्ध करना चाहते हो तो मैं जो कुछ कहूं उसे सुनो। ‘तुम पिता की आज्ञा के पालन में तत्पर रहो। जैसा कि उन्होंने प्रतिज्ञा की है--तुम्हें चौदह वर्ष के लिए वन में चले जाना चाहिए। हे राम! महाराज दशरथ ने तुम्हारे राज्याभिषेक के लिए जो सामग्री एकत्र कराई है उससे भरत का राज्याभिषेक हो। तुम इस अभिषेक को त्याग कर तथा जटा और मृगचर्म धारण कर चौदह वर्ष तक दण्डक वन में वास करो। भरत कौसलपुर में रह कर विभिन्न प्रकार के रत्नों से भरपूर तथा घोड़े, रथ और हाथियों सहित इस राज्य का शासन करे। यही कारण है कि महाराज करुणा से पूर्ण हैं, शोक से उनका मुख शुष्क हो रहा है और वे तुम्हारी ओर देख भी नहीं सकते। हे रघुनन्दन! तुम महाराज की इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। राम! महान् सत्य के पालन द्वारा तुम महाराज का उद्धार करो।’ कैकेयी के इस प्रकार के कठोर वचन बोलने पर भी श्रीराम को कोई शोक नहीं हुआ परन्तु महाराज दशरथ जो पहले ही दुःखी थे, राम के संभावित वियोग के कारण होने वाले दुःख से अति व्याकुल हुए। 

कैकेयी के इन कठोर वचनों पर राम की प्रतिक्रिया संसार के सभी लोगों मुख्यतः युवा पुत्रों को पढ़नी चाहिये। शत्रु-संहारक श्रीराम मृत्यु के समान पीड़ादायक कैकेयी के इन अप्रिय वचनों को सुनकर तनिक भी दुःखी नहीं हुए और उससे बोले ‘‘बहुत अच्छा” ऐसा ही होगा। महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए मैं जटा और वल्कल वस्त्र धारण कर अभी नगर को छोड़कर वन को जाऊंगा। राम ने कहा ‘मैं यह अवश्य जानना चाहता हूं कि अजेय तथा शत्रु-संहारक महाराज पूर्ववत् मुझसे बालते क्यों नहीं? एक मानसिक दुःख मेरे हृदय को बुरी तरह से जला-सा रहा है कि महाराज ने भरत के अभिषेक के विषय में स्वयं मुझसे क्यों नहीं कहा। महाराज की तो बात ही क्या, मैं तो तेरे कहने से ही प्रसन्नतापूर्वक भाई भरत के लिये राज्य ही नही अपितु सीता, अपने प्राण, इष्ट और धन सब कुछ वार सकता हूं।’ श्री राम के इन वचनों को सुन कैकेयी अति प्रसन्न हुई। राम के वनगमन के सम्बन्ध में विश्वस्त होकर वह श्रीराम को शीघ्रता करने के लिए प्रेरित करने लगी। 

क्या आज के युग में कोई पुत्र श्री राम के समान अपने माता-पिता का शुभचिन्तक, आज्ञाकारी तथा उनके के लिये अपने जीवन को सकट में डाल सकता है? हमें लगता है कि उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित राम के आदर्श को कोई पुत्र निभा नहीं सकता। इसी लिये रामायण संसार का आदर्श ग्रन्थ है। संसार के सभी स्त्री-पुरुषों व युवाओं को इसे नियमित पढ़ना चाहिये और इससे शिक्षा लेकर अपने परिवार व माता-पिता को सुख व शान्ति प्रदान करनी चाहिये। आगामी रामनवमी पर श्रीराम का जन्मदिवस है। हमें इस दिन इन पंक्तियों को पढ़कर और इन पर मनन कर श्री राम को अपनी श्रद्धांजलि देनी चाहिये और उनके जीवन का अनुकरण करने का व्रत लेना चाहिये। हमने इस लेख की सामग्री कीर्तिशेष स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘वाल्मीकि रामायण’ से ली है उनका आभार एवं वन्दन करते हैं। 

महिलाओं के उत्थान में नीतीश सरकार ने निभायी अग्रणी भूमिका

  • मुरली मनोहर श्रीवास्तव
    महिला सशक्तिकरण, देश, समाज और परिवार के उज्ज्वल भविष्य के लिए बेहद जरूरी है। नीतीश कुमार जबसे सत्ता में आए तो उन्होंने अपने शुरुआती दौर से ही न्याय के साथ विकास के सिद्दांत का अनुसरण किया, जिसमें राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक न्याय प्रमुख अवयव के रुप में शामिल रहा। प्रारंभ में पंचायती राज संस्थाओं एवं नगर निकायों के प्रतिनिधियों के निर्वाचन में तथा प्रारंभिक शिक्षकों की नियुक्ति में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देकर सरकार ने महिला सशक्तिकरण की नींव रखी। पुलिस सब इंस्पेक्टर एवं कांस्टेबल की नियुक्ति में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण, सूबे के सभी पुलिस जिलों में महिला पुलिस जिला थाना की स्थापना, महिला बटालियन का गठन, 559 थानों में महिला शौचालय एवं स्नानागार की व्यवस्था तथा “जीविका” कार्यक्रम के तहत महिला-स्वयं सहायता-समूहों का गठन, महिला सशक्तिकरण के लिए उठाए गए विभिन्न कदम हैं। इन सभी पहल से महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसर सृजित हुए, उनमें आत्मविश्वास का संचार हुआ और उनकी आत्मनिर्भरता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।
    राज्य सरकार ने बालिकाओं की शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया है। बालिकाओं को विद्यालय के प्रति आकर्षित करने एवं उनके अभिभावकों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से बालिका पोशाक योजना, बालिका सायकिल योजना लागू की गई। योजना के वर्ष 2007-08 में प्रारंभ के समय नवम वर्ग में पढ़ने वाली बालिकाओं की संख्या मात्र 1 लाख 63 हज़ार थी जो वर्ष 2016-17 में लगभग 9 लाख 47 हज़ार पहुंच गयी। इसके बाद तो यह रफ्तार इतनी बढ़ी की स्कूलों में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हो गई है। नीतीश सरकार ने मैट्रीक परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण छात्राओं के लिए बालिका प्रोत्साहन योजना एवं हर ग्राम पंचायत में एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की स्थापना कर देश में एक नजीर पेश की। इससे बालिकाएं उच्च शिक्षा के प्रति तो जागरूक तो हुई हीं साथ ही उनके गतिशील होने से सामाजिक अनुशासन एवं भागीदारी की नींव रखी गयी।
    बच्चियों तथा माताओं के स्वास्थ्य के लिए भी सरकार ने निरंतर पहल की, जिससे जननी बाल सुरक्षा योजना से संस्थागत प्रसव में आशातीत वृद्धि हुई है। गर्भवती-शिशुवती माताओं को आशा एवं ममता जैसी प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं से स्वास्थ्य संरक्षण प्राप्त हुआ। बिहार में नियमित टीकाकरण वर्ष 2005 में 18.6 प्रतिशत से बढ़कर 2016-17 में 84 प्रतिशत हो गया है।
    राज्य सरकार ने आरक्षित रोज़गार महिलाओं का अधिकार निश्चय के तहत राज्य के सभी सेवा संवर्गों की सीधी नियुक्ति में महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था लागू की। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने हेतु अवसर बढ़े, आगे पढ़े, निश्चय के तहत जी.एन.एम संस्थान, महिला औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान एवं ए.एन.एम संस्थान की स्थापना कर रही है। विकसित बिहार के सात निश्चय में एक शौचालय निर्माण घर का सम्मान भी महिला सशक्तिकऱण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। महिलाओं की न्याय संगत पहुंच सुनिश्चित करने तथा उनके समग्र विकास हेतु अनुकूल वातावरण का सृजन करने के लिए मार्च 2015 में बिहार राज्य महिला सशक्तिकरण नीति, 2015 लागू की गयी। जीविका परियोजना के तहत राज्य में 10 लाख स्वयं सहायता समूहों के गठन का लक्ष्य रखा गया था जो आज पूरा होने के करीब है। जीविका स्वयं सहायता समूहों की महिलाएं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सक्षम हुई हैं। यह एक मूक क्रांति है। उनकी सांगठनिक शक्ति का बेहतरीन उदाहरण शराबबंदी है।
    बाल विवाह और दहेज प्रथा के विरूद्ध वर्तमान में विशिष्ट कानून लागू है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम-2006 के प्रावधानों के अनुसार लड़कों की शादी की उम्र 21 वर्ष और लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष निर्धारित है। इसी प्रकार दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 एवं समय-समय पर हुए इनके संशोधनों के अनुसार दहेज का लेन देन भी कानूनी अपराध है और कानून में दोषियों के लिए कड़ी सज़ा का प्रावधान है। बाल विवाह के कई कारण हैं यथा बालिका अशिक्षा, पिछड़ापन, गरीबी, लैंगिक असमानता, लड़कियों को लेकर असुरक्षा की भावना आदि। बाल विवाह के दुष्परिणाम केवल बालिकाओं तक ही सीमित नहीं रहते हैं बल्कि अगली पीढ़ी को भी प्रभावित करते हैं। बाल विवाह लड़कियों के शारीरिक, मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास को प्रभावित करता है। कम उम्र में गर्भ धारण करने के कारण माताएं अस्वस्थ और कम अविकसित शिशु को जन्म देती हैं, जो आगे चलकर बच्चे बौनेपन एवं मंदबुद्दि के शिकार हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के प्रतिवेदन के अनुसार बिहार राज्य में वर्ष 2006 से 2016 के बीच पांच वर्ष से कम आयु के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे बौनेपन का शिकार हो रहे हैं। जन्म से बालिकाओं के प्रति भेदभाव के चलते ही राज्य में बालिकाओं का शिशु मृत्यु दर 46 तथा बालकों का 31 है। यह राज्य में लैंगिक असमानता को भी बढ़ाता है। किसी भी बालिका को उम्र से पहले विवाह के बंधन में बांधकर उन्हें अन्य मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित कर उनके सर्वांगीण विकास को बाधित करना उनके मानव अधिकार का हनन है। बालिकाओं की शिक्षा का राज्य तथा देश की जनसंख्या के स्थिरीकरण से बिल्कुल सीधा संबंध है। बेटियों का अगर बिना भेदभाव के समान रूप से पालन पोषण हो तो वे शिक्षित एवं आत्मनिर्भर बनेंगी और अपने तथा परिवार के लिए सहारा बनेंगी।
    दहेज प्रथा एक सामाजिक कुरीति है, जो कानूनन अपराध होने के बावजूद समाज में पूरी स्वीकार्यता के साथ व्याप्त है। यह प्रथा समय के साथ और व्यापक हुई है और समाज के सभी वर्गों विशेषकर गरीब वर्गों को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित कर रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के वर्ष 2015 में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार वैसे तो महिला अपराध की दर में राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का 26वां स्थान है पर दहेज मृत्यु के दर्ज मामलों की संख्या में बिहार का स्थान देश में दूसरा है।
    बाल विवाह एवं दहेज प्रथा की समस्या को गंभीरता से लेते हुए राज्य सरकार ने गांधी जयंती के शुभ अवसर पर इनके विरुद्ध अभियान प्रारंभ किया। इसके अतिरिक्त इन दोनों सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध लागू कानून की समीक्षा कर अपेक्षित संशोधन तथा इसके प्रभावी कार्यान्वयन हेतु संरचानात्मक बदलाव की प्रक्रिया शुरु कर नीतीश सरकार ने इसमें बड़ा बदलाव लाया।
    शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो बिहार में साढ़े बारह प्रतिशत बच्चे स्कूलों से बाहर रहते थे। सरकार ने यह निर्णय लिया कि पहले बच्चों को स्कूलों तक पहुंचाएंगे क्योंकि स्कूल तक पहुंचाना भी अपने आप में एक शिक्षा है। उसी का नतीजा है कि बच्चे-बच्चियों की संख्या स्कूलों में बड़े पैमाने पर बढ़ी है। इसके लिए पंचायतीराज संस्थाओं और नगर निकायों के माध्यम से शिक्षकों का नियोजन किया गया। आगे की पढ़ाई के लिए निफ्ट (नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी), चाणक्या लॉ यूनीवर्सिटी बना, आई.आई.एम. की तर्ज पर चंद्रगुप्त इंस्टीच्यूट ऑफ मैनेजमेंट की स्थापना की गई। एग्रीकल्चर यूनीवर्सिटी बनाया गया। कई एग्रीकल्चर कॉलेज खुले, हॉर्टीकल्चर कॉलेज खोले गए, मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज ये सब खुले। इन सारे तथ्यों से नीतीश कुमार का महिलाओं के सम्मान को लेकर किए गए प्रयास का नतीजा है कि उनकी सरकार देश दुनिया में चर्चा का विषय बन गई है।

जो लोक सेवा के इच्छुक हैं, वे पंच बनें

अरुण तिवारी

उत्तर प्रदेश और बिहार में पंचायती चुनावों की तैयारी शुरु हो चुकी है। आगे चलकर आंध्र प्रदेश समेत कई अन्य कई राज्यों में पंचायती चुनाव होंगे।  ये अवसर भी हैं  और चुनौती भी। लोकसेवा की चाह रखने वालों के लिए यह एक अवसर है और मतदाता के लिए चुनौती। चुनौती जाति, संप्रदाय और दलों के दलदल से ऊपर उठकर उसे चुनने की, जिसमें सही मायने में एक लोकसेवक के लक्षण, ललक, नैतिकता व सामर्थ्य मौजूद हो।

यह किसी से छिपा नहीं कि लोकसभा/विधानसभा चुनावों में तो मतदाता अब दलों का गुलाम हो चला है। वह उम्मीदवार से ज्यादा, दल चुनने लगा है। यही कारण है कि अपने क्षेत्र में जनहितैषी अच्छा कार्य करने वाले ख्यातिनाम लोग भी मतदाता की पसंद नहीं बन पा रहे। स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जमानत जब्त होने पर उनका भ्रम टूट जाता है। वह समझ जाते हैं कि अब सिर्फ अच्छा होने से कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता। चुनाव जीतना, अपने आप में एक अलग हुनर हो गया है। हालांकि दलों ने पंचायती चुनाव में भी अपनी घुसपैठ शुरु कर दी है; किंतु सुखद है कि पंचायतों में यह संभावना अभी शेष है कि ईमानदार सेवाभावी प्रतिनिधि चुनकर आ सकें। 
अवसर राजनीति बेहतर करने का

मेरा मानना है कि देश की राजनीतिक चादर को यदि निर्मल बनाना है, तो इसके बीज बोने के लिए सबसे ऊर्वर खेत पंचायतें ही हो सकती हैं। पंचायती चुनाव उन सभी के लिए भी एक अवसर है, जो ग्रामसभा से लेकर लोकसभा तक जैसी संस्थाओं को सही मायने में जनप्रतिनिधि सभाओं में तब्दील होते देखना चाहते हैं।

अवसर दानदाताओं के बंधन से बाहर निकलने का
पंचायती प्रतिनिधित्व को मैं उन लोगों के लिए भी एक अवसर के तौर पर देखता हूं, जो बिना कोई संस्था बनाए, बिना किसी एनजीओ की नौकरी किए समाज कार्य में लगना चाहते हैं।
देश में अनेकानेक युवा और बुजुर्ग हैं, जो समाज सेवा करना चाहते हैं। इनमें से कई युवा, समाज कार्य विषय की पढ़ाई पढ़कर किसी संस्था में नौकरी करने लग जाते हैं। जो नौकरी नहीं करते, उनमें से ज्यादातर यही समझते हैं कि बिना कोई संस्था बनाए समाज सेवा नहीं की जा सकती। संस्था चलाने के लिए धन चाहिए। नियम ऐसे हैं कि जो पंजीकृत नहीं है, दानदाता उन संस्थाओं को दान नहीं देते। इस नाते समाज कार्य को पेशे के रूप में अपनाने वाले ज्यादातर लोग समाज कार्य बाद में करते हैं, संस्था पहले पंजीकृत कराते हैं।
ये पेशेवर लोग, जिस परियोजना के लिए धन मिल जाता है, उसी को संपन्न करने में लग जाते हैं। आजकल के दानदाताओं को काम से ज्यादा, काम के दस्तावेज़ीकरण, दुरुस्त खाते तथा प्रचार की चाहत होती है। अक्सर यह देखा गया है कि इन सभी को साधने के चक्कर में अच्छा-भला कार्यकर्ता भी दुकानदार बन जाता है। संस्था चलाना, दुकान चलाने जैसा हो गया है। एक ऐसी दुकान… जो ख़ास तरह के प्रबंधन की दरकार रखती है।
एक दिन ऐसा आता है कि हर महीने के लगे-बंधे खर्च के कारण संस्था खुद पर बोझ हो जाती है। खर्च पूर्ति के लिए संचालक के भीतर का कार्यकर्ता मरने लगता है। संचालक के सामने दो ही विकल्प बचते हैं: या तो संस्था को बंद कर दे अथवा इस दुकान को चलाने के लिए, दानदाता की शर्तों का बंधक बन जाए। संस्था की रुचि-अरुचि तथा लक्षय समुदाय की ज़रूरत धरी की धरी रह जाती है।
इन सभी परिस्थितियों ने मिलकर समाज कार्य में रत् संस्थाओं  की शुचिता की गारण्टी छीन ली है। कार्यकर्ता निर्माण का कार्य भी लगभग बंद ही हो गया है। किसी से प्रेरित होकर समाज कार्य में आने वाले जो युवा, अच्छे प्रबंधक नहीं है, वे आगे चलकर हताश होते हैं।
मैं समझता हूं कि ग्राम पंचायत स्तर पर वार्ड मेम्बर की भूमिका, ऐसों के लिए एक विशेष अवसर है, जो सही मायने में लोक सेवा करना चाहते हैं।

प्रधान नहीं, सदस्य  भी हैं महत्वपूर्णगौर कीजिए कि आज पंचायती चुनाव में उम्मीदवार प्रधान तथा ब्लाॅक व ज़िला स्तर के पदों पर चुने जाने के लिए जी-तोड़ कोशिश करते हैं। जबकि 2015 के उ.प्र. पंचायत चुनाव में वार्ड मेम्बर की 01 लाख 33 हजार, 138 सीटों पर किसी ने पर्चा ही नहीं भरा। 03 लाख, 01 हज़ार, 832 सीटें ऐसी थीं, जिन पर सिर्फ एक उम्मीदवार ने पर्चा भरा। दोनो को मिलाकर कुल संख्या, कुल वार्ड मेम्बरों का 60 प्रतिशत होती है। यह प्रमाण है कि वार्ड मेम्बरी का किसी को आकर्षण नहीं है। जबकि हक़ीक़त यह है कि पंचायतीराज अधिनियम जो भी शक्तियां, अधिकार अथवा कर्तव्य प्रदान करते हैं, वे पंचायत नाम की संस्था के होते हैं; न कि किसी एक व्यक्ति अथवा पद के। इस नाते, पंचायत को प्राप्त सभी कर्तव्य व अधिकारों में पंचायत सदस्य का भी साझा होता है।
पंचायतीराज विषय के राष्ट्रीय ख्यातिनाम विशेषज्ञ डाॅ. चन्द्रशेखर प्राण कहते हैं कि वार्ड मेम्बर, कोई महत्वहीन पद नहीं है। पंचायतों के संविधान के अनुच्छेद 243 (ग) 2, सदस्यों को चुने बगैर तीनों स्तर की पंचायतों के गठन की इज़ाजत नहीं देता। कई राज्यों में वार्ड मेम्बरों में से ही किसी एक को प्रधान चुना जाता है। उसका चुनाव, वार्ड मेम्बर के ही वोट से होता है।  
पांच भूमिकाएं
73वां संविधान संशोधन, वार्ड मेम्बरों को पांच महत्वपूर्ण भूमिकाएं प्रदान करता है: ग्राम पंचायत सदस्य, वार्ड सदस्य/वार्ड अध्यक्ष, न्याय पंचायत सदस्य/न्याय पंचायत प्रमुख, स्थाई समिति सदस्य/सभापति तथा ग्राम पंचायत विकास योजना का मुख्य सहयोगी की भूमिका।

ग्राम पंचायत सदस्य की भूमिका
उत्तर प्रदेश पंचायतीराज नियमावली का नियम-72 के तहत् पंचायत सदस्य चाहे तो पंचायत के किसी भी कार्य, दस्तावेज़, लेख, रजिस्टर, प्रस्ताव तथा संस्थागत मसले का निरीक्षण कर सकता है। पंचायतीराज अधिनियम की धारा-26, ग्राम पंचायत सदस्य को पंचायत की बैठक में प्रस्ताव पेश करने का अधिकार देती है। सदस्य चाहे तो प्रधान व संबंधित प्रशासन से प्रश्न पूछ सकता है। धारा-28, पंचायत सदस्य को भारतीय दण्ड संहिता-21 के अंतर्गत ’लोकसेवक’ का दर्जा देती है। यह दर्जा, उन सभी अधिकार प्राप्त पदाधिकारियों तथा चुने हुए प्रतिनिधियों को प्राप्त होता है, जो शासन संचालन में शामिल होते हैं। क्या यह कम महत्वपूर्ण दर्जा है ?

वार्ड सदस्य/वार्ड अध्यक्ष की भूमिका
जिन राज्यों में वार्ड सभा की व्यवस्था है, वहां वार्ड सदस्य, वार्ड सभा का पदेन अध्यक्ष होता है। वार्ड अध्यक्ष के रूप में वार्ड की बैठक बुलाना, योजना बनाना तथा वार्ड के मसले पर ग्रामसभा में निर्णय कराने की भूमिका दूसरी है। यह भूमिका सुनिश्चित करती है कि पंचायती विकास के क्रम में कोई वार्ड छूटे न। यह नहीं कि एक वार्ड में बहुत काम हो, एक अन्य में बिल्कुल नहीं।

न्याय पंचायत सदस्य/न्याय पंचायत प्रमुख की भूमिका

दुर्योग से उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार ने तो यह कहकर प्रदेश में न्याय पंचायतों को खत्म कर दिया कि गांव के लोग अपने बारे में निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। किंतु बिहार, हिमाचल समेत जिन राज्यों में न्याय पंचायत है, वहां वार्ड मेम्बरों में से ही न्याय पंचायत के सदस्य व मुखिया चुने जाते हैं। गांवों को थाने, कचहरी के चक्कर से बचाने तथा सद्भाव कायम करने में न्याय पंचायतों की भूमिका अनोखी है। यह तीसरी भूमिका है। गांवों को आज इसकी बड़ी ज़रूरत है।

स्थाई समिति सदस्य/सभापति की भूमिका

चौथी भूमिका, ग्राम पंचायत की स्थाई सभाओं के सदस्य और सभापति के रूप में है। यह तीसरी भूमिका, ख़ास तौर पर समाज सेवा के इच्छुकों को मनोनुकूल विषय पर काम करने की आज़ादी देता है। उन्हे जननायक बनाता है। इस भूमिका में दानदाताओं का बंधक बनने तथा खर्च-पूर्ति के लिए बेईमान हो जाने की विवशता नहीं है। यह भूमिका आपको अपनी जड़ों से जुड़े रहते हुए उन्हे सींचने… समृद्ध करने का अवसर देती है। अपनी घर-गृहस्थी के लिए कुछ और करते हुए भी आप इस भूमिका को निभा सकते हैं।
गौर कीजिए कि पंचायती कार्यों के सम्पादन के लिए, हर ग्राम पंचायत में समितियां गठित की जाती हैं।
वर्ष 2002 में बनाई नियमावली के अनुसार, उत्तर प्रदेश में छह समितियों  के गठन का प्रावधान है। इनमें से नियोजन व विकास समिति  तथा प्रशासन समिति…इन दो का सभापति प्रधान होता है। शिक्षा समिति का सभापति, उपप्रधान होता है। निर्माण कार्य समिति, जल प्रबंधन समिति तथा स्वास्थ्य एवम् कल्याण समिति…इन तीन समितियों के सभापति वार्ड सदस्यों में से चुने जाते हैं। चुनाव कैसे हो ? यह स्वयं ग्राम पंचायत सदस्यों को ही तय करना होता है।
प्रत्येक समिति में एक सभापति व छह सदस्य होते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक वार्ड सदस्य, कम से कम तीन समितियों का सदस्य तो होता ही है। जिसकी रुचि जिस विषय पर काम करने की हो, वह अपने को उस समिति सदस्य/सभापति के रूप में चुने जाने की आकांक्षा प्रस्तुत कर सकता है।
गौर कीजिए कि प्रत्येक माह समिति की बैठक करना तथा संबंधित निर्णय लेना… ये सब समिति के अधिकार में हैं। अलग-अलग राज्यों में इनकी संख्या, नाम, गठन के नियम व अधिकारों में भिन्नता संभव है। किंतु सभी राज्यों में ये समितियां, केन्द्र व राज्य द्वारा तय सभी विषयों के अतंर्गत आने वाले सभी 29 कार्यों का निर्वहन करती हैं। इस तरह ये समितियां, गांव सरकार के मंत्रालय सरीखी हैं। यहां करने के लिए कार्य है। निर्णय लेने के लिए अधिकार है। कोष है। कई राज्यों में संबंधित कर्मचारी भी पंचायतों के अधीन हैं।

भूमिका लोकतांत्रिक बुनियाद बुनने की
ग्राम पंचायत विकास योजना निर्माण में ज़रूरत के चिन्हीकरण में वार्ड मेम्बर की पांचवीं भूमिका महत्वपूर्ण है ही। वार्ड मेम्बर, यदि संजीदा, सक्रिय और सद्भावपूर्ण हों तो निष्क्रिय पड़ी ग्रामसभा को पंचायती लोकतंत्र की नींव का सबसे सशक्त सहभागी बना सकते हैं। पंचायती भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सकते हैं। विकास योजनाओं का लाभ, सही ज़रूरतमंद तक पहुंचा सकते हैं। एकल नेतृत्व की भूमिका में आ चुकी पंचायतों को सामूहिक नेतृत्व का लोकतांत्रिक जयमाल पहना सकते हैं। पंचायतों को आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय का कारगर औजार बना सकते हैं। आखिरकार, ये ही तो वेे अपेक्षाएं और दायित्व हैं, जिनकी पूर्ति की अपेक्षा संविधान ने पंचायतों से की है।

सेवा संभव, शर्त एक
कहना न होगा कि वार्ड मेम्बर के रूप में चुना जाना, एक लोकसेवक के रूप में भूमिका निभाने के लिए सभी ज़रूरी परिस्थितियां प्रदान करता है। यह कोई सपना नहीं, संविधान प्रदत अवसर है। इसे ज़मीन पर उतारा जा सकता है। फिलहाल, वार्ड मेम्बरी का कोई आकर्षण न होने के कारण, इस अवसर को हासिल करना कोई मुश्किल भी नहीं है।
बस, एकमात्र शर्त यह है कि पंचायती चुनावों को दलों के ठप्पों से मुक्त रखा जाए। मुक्त रखने का एक तरीका है कि विधान बनाकर इस पर रोक लगा दी जाए। दूसरा तरीका है कि मतदाता दलों के ठप्पे अथवा समर्थन से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों का बहिष्कार कर दें।
गांव के सभी मतदाता, ग्रामसभा के संवैधानिक सदस्य होते हैं। वे ग्रामसभा की बैठक बुलाने की मांग करें। पंचायत भंग होने की अवस्था में पंचायत प्रशासक की भूमिका एडीओ (पंचायत) और ज़िलाधिकारी की होती है। एडीओ (पंचायत) को लिखें। ज़िलाधिकारी को प्रतिलिपि भेजें। वे न बुलाएं, तो ग्रामसभा सदस्य खुद बैठक आयोजित करें। निर्णय लें। पंचायती चुनावों को दलों के दलदल से बाहर निकालें। पंचायती गतिविधियों को दलगत् राजनीति से दूर ही रखें।
बेहतर हो कि ग्रामसभाएं प्रधान नहीं तो कम से कम सदस्यों के नाम खुद तय करें। उन्हे सर्व सम्मति से चुनें; सही मायने में निर्विरोध। जिन्हे चुनें उनके समक्ष अपने सपने के गांव के आगामी पांच वर्ष का साझी चाहत रखें। उम्मीदवारों से उसकी पूर्ति का शपथपत्र लें। उम्मीदवारों को ग्रामसभा के प्रति जवाबदेह बनाएं। अवसर आए तो पूर्ण सहयोग करें। विपरीत हो तो सम्पूर्ण सत्याग्रह।
इससे पंचायतें लोकतांत्रिक आकार लेने की दिशा में अग्रसर तो होंगी ही। पंचायतों में प्रशासन का हस्तक्षेप स्वतः घटता जाएगा। पंचायती चुनावों ने जो सद्भाव तोड़ा है, वह जुड़ने लगेगा। खांचों में बंटे गांव एकजुट होंगे। कई कदम वापस लौटेंगे।…. तब शायद गांवों में न किसी एनजीओ की ज़रूरत शेष न रहे और न किसी सीएसआर कोष (काॅरपोरेट सोशल रिसपाॅन्सिबलिटी फण्ड) की। जब गांव सही मायने  में  स्वयं सरकार होगा, तो बाज़ार को अपने नियंत्रण में लाने की चाबी भी गांव के हाथ में होगी।
आगे चलकर यही प्रयोग नगर सरकारों में भी दोहराएं जाएं। सबसे पहले नगर निगमों और पालिकाओं का पुछल्ला बदलकर उन्हे नगर सरकार लिखना शुरु करें। ‘दिल्ली नगर निगम’ की जगह ’दिल्ली नगर सरकार’। दल नहीं, स्थानीय आवासीय समितियों के पदाधिकारी मिलकर सर्व सम्मति से पार्षद पद का उम्मीदवार तय करें। समिति सदस्य उन्हे भारी बहुमत से जिताएं। नगर सरकारों को भी दलगत् राजनीति के चरित्र से कराएं। नागरिक अपने विकास का घोषणापत्र खुद बनाएं। खुद क्रियान्वित करें। खुद ऑडिट  करें। खुद सुधारें। कितना अच्छा होगा यह !!

देश में ग्वालियर की पहचान थे माधवराव सिंधिया

आज 76वी जयंती पर विशेष

आज 10 मार्च को जनसंघ एवं कांग्रेस पार्टी से ग्वालियर गुना के सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री रहे स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की 76वीं जयंती है। आज भोपाल एवं ग्वालियर में उनकी स्मृति को नमन किया जा रहा है। सुबह जिला कांग्रेस कमेटी ने प्रभातफेरी निकाली है तो दूसरी ओर स्व. माधवराव सिंधिया की छत्री पर तमाम भाजपा नेताओं सहित उनके पुत्र एवं भाजपा के राज्यसभा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के सैकड़ों समर्थक भाजपा कार्यकर्ता श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंच रहे हैं। सबसे खास बात ये है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद से भारतीय जनता पार्टी उनके पिता एवं अंत समय तक कांग्रेस में रहे माधवराव सिंधिया के प्रति आदर का भाव प्रमुखता से सार्वजनिक रुप से प्रदर्शित कर रही है। मप्र उपचुनाव के दौरान माधवराव सिंधिया के चित्र को ससम्मान भाजपा के मंचों पर स्थान दिया गया। आज भी प्रदेश के मुखिया मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने अपने आवास पर माधवराव सिंधिया के चित्र पर माल्यार्पण कर पुष्पांजलि अर्पित की उधर प्रदेश कांग्रेस में पुष्पांजलि के अलावा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी माधवराव सिंधिया को समर्पित कांग्रेस नेता के रुप में याद किया। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने माधवराव सिंधिया को नमन करते हुए लिखा कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय महाराज साहब श्रीमंत माधवराव ंिसधिया की जयंती पर उन्हे शत शत नमन। प्रदेश के दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदी दल जिस तरह से ग्वालियर गुना के पूर्व सांसद रहे स्व माधवराव सिंधिया के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं उससे समझा जा सकता है कि सिंधिया का राजनैतिक कद कितनी गरिमा और स्वीकार्यता के साथ आज भी याद किया जाता है। एक साल पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से भाजपा में आने के बाद से अब माधवराव सिंधिया की राजनैतिक विरासत को कांग्रेस और भाजपा दोनों अपना अपना बताते हुए उनका राजनैतिक इतिहास सुना रहे हैं।
मप्र की इस बदलाव भरी राजनीति से अलग होकर भी हम देखें तो निसंदेह स्व. माधवराव सिंधिया ग्वालियर के ब्रांडनेम थे। आज भी किसी दूसरे प्रदेश और प्रांत में अपने शहर ग्वालियर का नाम बताते ही उनके आयु वर्ग के लोग उनका जिक्र छेड़ देते हैं। सिंधिया के असामायिक निधन से कांग्रेस ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को भी क्षति पहुंची थी।
मेरी स्मृति में दर्ज है कि महाराज बाडे़ पर सिंधिया के 50वे जन्मदिवस पर विशाल अभिनंदन समारोह हुआ था। स्कूली दिनों के दौरान बाड़े पर यह विशाल आयोजन मुझे मेरे स्वर्गीय पिता पंडित रघुनंदन शास्त्री ने किसी सहृदयी पुलिसकर्मी के सहयोग से नगर निगम मुख्यालय की छत पहुंचकर दिखवाया था। भीड़ में कम हाइट के कारण आगे न दिखने के कारण मेरे पिताजी मुझे वहां लेकर पहुंचे थे। जहां तक मुझे याद आ रहा है उस समारोह में उनके राजनैतिक मित्र और तत्कालीन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और तत्कालीन किक्रेट सितारे और 1983 वल्र्ड कप के विजेता कपित देव भी आए विशेष मेहमान थे।

ग्वालियर के तत्कालीन सांसद माधवराव सिंधिया को प्रत्यक्ष देखने का दूसरा अवसर मुझे लक्ष्मीगंज जच्चाखाने पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मिला। मध्यप्रदेश के तत्कालीन वाणिज्य कर मंत्री और स्थानीय विधायक भगवान सिंह यादव की अगुआई में हुए लोकार्पण समारोह में सिंधिया का बड़ा काफिला आया था। मैं भी अपनी साइकिल लेकर तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया को उत्सुकतावश देखने गया था। सिंधिया के साथ मप्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के कई मंत्री व विधायक ठीक उसी तरह आजू बाजू थे जिस तरह से 2018 की कमलनाथ सरकार और अब भाजपा की शिवराज सिंह चैहान के कई स्थानीय मंत्री व विधायक माधवराव सिंधिया के बेटे और पूर्व केन्द्रीय मंत्री व सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बराबर से देखे जाते हैं।
आगे स्वर्गीय माधवराव सिंधिया से बिल्कुल करीब और हाथ मिलाने का पहला और अंतिम अवसर जनकगंज स्कूल के सामने की गली में बने हजारा भवन में मिला। तब सिंधिया तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव के नेतृत्व वाली केन्द्रीय कैबीनेट छोड़ चुके थे एवं कांग्रेस से इस्तीफा देकर आम चुनाव में मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस से चुनावी मैदान में थे। वे मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रुप में ग्वालियर से सांसद पद के लिए अपना प्रचार करने वहां आए थे। हजारा भवन तब उगता सूरज निशान के झंडे बैनर लिए तमाम महिलाओं और पुरुषों से भरा था। प्रचार के उस दिन मुझे स्व सिंधिया की व्यापक लोकप्रियता का न केवल साक्षात दर्शन करने का अवसर मिला बल्कि पिताजी के साथ हजारा भवन में ही उस लोकप्रिय राजनेता से मैंने लौटते समय उत्साह से हाथ भी मिलाया। सिंधिया ने विकास कांग्रेस की महिला विंग को वहां अपने भाषण से जोश में भर दिया था। वे चिर मुस्कान के धनी होकर राष्ट्रीय छवि के साथ साथ सड़क तक पहुंच रखने वाले जनता के नेता थे।
निसंदेह इस पूरे कालखंड के दौरान वे ग्वालियर के हर वर्ग में लोकप्रिय थे एवं उनकी राजनेता के अलावा रियासतकालीन सिंधिया राजपरिवार के वंशज होने के कारण भी राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी जुदा पहचान भी थी।
माधवराव सिंधिया संकोची के साथ भावुक इंसान भी थे। अपनी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया के निधन के बाद चिता को मुखाग्नि देते वक्त उनका भाव विहल होकर फूट फूटकर रोने वाला फोटो अखबारों में प्रमुखता से छपा था।

सिंधिया के बारे में राजनैतिक समर्थकों और विरोधियों की अपनी अपनी राय हो सकती है मगर ग्वालियर मप्र से लेकर देश की राजनीति में उनके कद को कोई दरकिनार नहीं कर सकता और करता भी नहीं है। वे गरिमामय राजनीति करने वाले ऐसे राजनेता रहे जिसने पद की कूटनीतिक राजनीति से लगभग लगभग खुद को अलग ही रखा। संभवत कूटनीति एवं राजनैतिक उठापटक में संकोच के कारण माधवराव मध्यप्रदेश के लिए सुयोग्य मुख्यमंत्री उम्मीदवार होते हुए भी अपने जीवनकाल में जयविलास महल से श्यामला हिल्स तक का सफर पूरा नहीं कर सके।
इसके बाबजूद केन्द्रीय रेल मंत्री, नागरिक उड्डन एवं पर्यटन मंत्री एवं सबसे अंत में मानव संसाधन विकास मंत्री के रुप में उन्होंने बहुत उर्जा और उत्साह से काम किया। सिंधिया ने रेल मंत्री रहते हुए जो शताब्दी ट्रेन चलाई उसके लिए आज भी उनको पक्ष विपक्ष सबमें याद किया जाता है। माधवराव सिंधिया ने इन तीनों मंत्रालयों में रहते हुए ग्वालियर को ट्रिपल आईटीएम से लेकर आईआईटीटीएम जैसी राष्ट्रीय स्तर की सौगातें दिलाईं। अगर कानपुर में वो दर्दनाक विमान हाउसा न होता तो शायद ग्वालियर और मप्र के खाते में क्या क्या होता ये सोचना भी बहुत दिलचस्प है।
वाजपेयी सरकार के आम चुनाव में हारने के बाद जब केन्द्र में यूपीए की सरकार बनने जा रही थी सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद को अंर्तआत्मा की आवाज पर ठुकराया था। उस समय निश्चित रुप से श्रीमती गांधी के विचार से लेकर निर्णय प्रक्रिया तक में वैकल्पिक नामों में माधवराव सिंधिया का नाम भी बहुत गंभीरता से आता। माधवराव अगर नायक न भी बनाए जाते तो भी वे नायक की चयन प्रक्रिया से लेकर बाद में सरकार में बहुत मजबूत स्थिति में होते। इस तरह की कई बातें उनके गुजरने के सालों बाद भी आज भी उनकी स्मृति से जुड़ी चर्चाओं का हिस्सा होती हैं।
खैर तब क्या होता क्या नहीं होता ये अब केवल चर्चाएं ही हैं लेकिन इतना तय है कि कानपुर में हुआ वह हादसा ग्वालियर के राजनैतिक रसूख पर किसी वज्रपात से कम न था जिसका असर आज भी ग्वालियर महसूस करता होगा।
घोर विपक्षी भी आज तक मानते हैं कि माधवराव सिंधिया का आसामयिक निधन ग्वालियर अंचल के साथ मध्यप्रदेश व देश की राजनीति व लोकतांत्रिक दलीय व्यवस्था के लिए अत्यंत ही गंभीर क्षति थी।

विवेक कुमार पाठक

ग्रीन रिकवरी के नाम पर किये वादे का सिर्फ़ 18 फ़ीसद हुआ खर्च: संयुक्त राष्ट्र

कोविड महामारी की शुरुआत हुए एक वर्ष से अधिक हो चुका है और आज अगर तमाम देशों की ग्रीन रिकवरी की प्रतिबद्धताओं के सापेक्ष उनके द्वारा किये गये खर्च का आंकलन करें तो हम पाते हैं कि वो खर्च किये वादों से काफ़ी कम है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और ऑक्सफोर्ड युनिवेर्सिटी की आर्थिक सुधार परियोजना और के एक साझा आंकलन, ग्लोबल रिकवरी ऑब्जर्वेटरी रिपोर्ट, के अनुसार दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं द्वारा ग्रीन रिकवरी के नाम पर किये गये खर्चों में से कुल 18 फ़ीसद को ही वाक़ई ग्रीन, या हरित अर्थव्यवस्था निर्माण को समर्पित खर्च, माना जा सकता है।
यह रिपोर्ट, जिसका शीर्षक है आर वी बिल्डिंग बैक बेटर? एविडेंस फ्रॉम 2020 एंड पाथ्वेज़ फॉर इन्क्लुज़िव ग्रीन रिकवरी स्पेंडिंग, तमाम सरकारों का समावेशी ग्रीन रिकवरी खर्च के लिए आह्वाहन करती है जिससे महामारी से हुई तबाही के मद्देनजर हरित या पर्यावरण अनुकूल विकास को प्रोत्साहित किया जा सके।
यह रिपोर्ट, जो कि अर्थव्यवस्थाओं द्वारा COVID19 संबंधित राजकोषीय बचाव और पुनर्प्राप्ति प्रयासों का सबसे व्यापक विश्लेषण है, बताता है कि साल 2020 में 50 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं द्वारा किये गए $14.6 ट्रिलियन डॉलर के खर्च में से केवल $368 बिलियन डॉलर ही असल मायने में एक पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था बनाने के लिए थे।
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए यूएनईपी के कार्यकारी निदेशक, इंगर एंडरसन कहते हैं, “फ़िलहाल, पृथ्वी की पूरी मानवता एक साथ तीन चुनौतियों से जूझ रही है। जहाँ सबसे बड़ी चुनौती है महामारी, तो उसी के साथ खड़ा है आर्थिक संकट और एकोलौजिक्ल संतुलन के बिगड़ने की तीव्र सम्भावना। हम इनमें से किसी से भी नहीं हार सकते। इसलिए सरकारों के पास अब एक अनूठा मौका है जब वो अपने देश को स्थायी विकास यात्रा पर लगा सकते हैं इसके लिए प्राथमिकता का आधार होगा आर्थिक अवसर, गरीबी कम करना और हमारे पर्यावरण की सेहत पर ध्यान केंद्रित करना। और ऐसे में ऑब्जर्वेटरी रिपोर्ट कि सहायता से अधिक स्थायी और समावेशी विकास की दिशा की ओर बढ़ने के साधन प्राप्त होंगे।”
आगे, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के आर्थिक सुधार परियोजना के प्रमुख शोधकर्ता और रिपोर्ट के लेखक ब्रायन ओ’कल्हन के अनुसार, “कुछ एक देशों को छोड़ दें तो हम पाएंगे कि ज्यादातर देश एक बेहतर रिकवरी के मामले में फेल हुए हैं। लेकिन यही देश अगर बुद्धिमानी से खर्च करें तो एक बेहतर कल के अवसर अभी खत्म नहीं हुए हैं।”
अपनी प्रतिक्रिया देते हुए UNDP के प्रशासक एशिम स्टीनर कहते हैं, “COVID-19 महामारी के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों को दूर करने के लिए देशों द्वारा किए गए निवेश को बेहतर ढंग से बताने और उसकी निगरानी करना काफी महत्वपूर्ण साबित होगा, इससे हमें हरित पर्यावरण और समग्र विकास हासिल होगा । इस संबंध में, ग्लोबल रिकवरी ऑब्जर्वेटरी और यूएनडीपी के डेटा फ्यूचर्स प्लेटफॉर्म नीति निर्माताओं को पूरी परख के साथ नए डेटा पॉइंट्स का एक सेट प्रदान करते हैं, इस तरह के संसाधनों तक पहुंच बढ़ाने के लिए अब तक किए जा रहे निवेशों की पारदर्शिता, जवाबदेही और प्रभावशीलता को बढ़ाने में मदद मिलेगी और हमारे भविष्य पर उनका अच्छा प्रभाव पड़ेगा।”
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पर्यावरण अर्थशास्त्र के प्रोफेसर केमरून हेपबर्न के अनुसार, “यह रिपोर्ट एक वेक-अप कॉल है एक अलार्म है। ग्लोबल रिकवरी ऑब्जर्वेटरी के आंकड़ों से पता चलता है कि हम बेहतर कल का निर्माण नहीं कर रहे हैं, कम से कम अभी तक तो नहीं। हम जानते हैं कि हरे-भरे पर्यावरण की रिकवरी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ जलवायु के लिए भी एक जीत होगी – अब इसके साथ जुड़ने का वक्त आ गया है।”
रिपोर्ट में जोर दिया गया है कि हरे-भरे पर्यावरण की रिकवरी वैश्विक आर्थिक लक्ष्यों को पूरा करने और संरचनात्मक असमानता को दूर करने में मदद करते हुए मजबूत आर्थिक विकास ला सकती है। दशकों से गरीबी को खत्म करने की प्रगति को बनाए रखने के लिए, कम आय वाले देशों को अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों से पर्याप्त रियायती वित्त की आवश्यकता होगी ।
लंबे समय तक चल सकने वाली पर्यावरण की रिकवरी की राह हासिल करने के लिए पांच महत्वपूर्ण सवाल उठाये गए है:
• क्या दांव पर लगा है? क्योंकि देशों ने रिकवरी की राह हासिल करने के लिए अभूतपूर्व संसाधन के लिए वचनबद्ध किया हैं
• कौन से खर्च करने वाले रास्ते आर्थिक सुधार और पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ा सकते हैं?
• COVID-19 की वजह से बढ़ी हुई असमानताओं को दूर करने में पर्यावरण की रिकवरी में होने वाले खर्च की भूमिका क्या है?
• वर्तमान में जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण की हानि और प्रदूषण से निपटने के लिए किस – किस तरह के रिकवरी निवेश देश कर रहे हैं?
• स्थायी और न्यायसंगत रिकवरी निवेश सुनिश्चित करने के लिए और क्या करने की आवश्यकता है?
समग्र रूप से, अब तक वैश्विक हरित पर्यावरण पर होने वाला खर्च “चल रहे पर्यावरणीय संकटों के पैमाने पर असंगत रहा है” रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण की हानि और प्रदूषण की वजह से महत्वपूर्ण सामाजिक और दीर्घकालिक आर्थिक लाभ गायब हैं।
हरित पर्यावरण की रिकवरी पर खर्च के संदर्भ में विश्लेषण के मुख्य निष्कर्ष कुछ इस प्रकार हैं:
• $ 341 बिलियन डॉलर या 18.0% ही ‘हरियाली’ के लिए खर्च हुआ है, इसमें ज्यादातर उच्च आय वाले देशों के एक छोटे समूह का योगदान रहा है । वैश्विक रिकवरी खर्च अब तक हरित पर्यावरण निवेश का अवसर चूक रहा है।
• $ 66.1 बिलियन डॉलर को कम कार्बन ऊर्जा में निवेश किया गया था, मोटे तौर पर अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं और हाइड्रोजन और बुनियादी ढांचे के निवेश के लिए स्पेनिश और जर्मन ही सब्सिडी के लिए जिम्मेदार रहे ।
• इलेक्ट्रिक वाहन की ओर स्थानान्तरण और सब्सिडी, सार्वजनिक परिवहन में निवेश, साइकिल चलाना और बुनियादी ढाँचा हेतु ग्रीन ट्रांसपोर्ट के लिए $ 86.1 बिलियन डॉलर की घोषणा की गई ।
• ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए ग्रीन बिल्डिंग अपग्रेड के लिए $ 35.2 बिलियन डॉलर की घोषणा की गई, विशेष रूप से रेट्रोफिट्स के माध्यम से और ये ज्यादातर फ्रांस और यूके में हुआ ।
प्राकृतिक पूंजी या प्रकृति आधारित समाधान (NbS) के लिए 56.3 बिलियन डॉलर की घोषणा की गई – पारिस्थितिकी तंत्र पुनर्जनन की पहल और जंगलों को फिर से बढ़ाना । 2 /5 हिस्से को सार्वजनिक पार्कों और प्रदूषण रोकने और कम करने के उपायों की ओर निर्देशित किया गया विशेष रूप से अमेरिका और चीन में, जीवन की गुणवत्ता में सुधार और पर्यावरण संबंधी सुधार करने के लिए।
हरित पर्यावरण पर आरएंडडी के लिए $28.9 बिलियन डॉलर की घोषणा की गई। हरित पर्यावरण पर आरएंडडी में नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी, कृषि, विमानन क्षेत्र और प्लास्टिक जैसे क्षेत्रों के लिए डीकोर्बाइजिंग प्रौद्योगिकियां शामिल हैं इसमें कार्बन को अलग करके उसका इस्तेमाल करने की गतिविधि भी शामिल है । हरित पर्यावरण पर आरएंडडी में प्रगति के बिना पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बहुत अधिक धन और जीवन शैली में आधारभूत बदलाव की आवश्यकता होगी।

लौटा दो विष्णु की जिंदगी के बीस साल…?

                  प्रभुनाथ शुक्ल

लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम आदमी की न्याय की उम्मीद क्या खत्म होती दिखती है। व्यक्ति के संविधानिक और कानूनी अधिकार क्या संरक्षित नहीं रह गए हैं। कानून और संविधान की किताबें सिर्फ दिखावटी हैं। क्या कानून अपने दायित्वों और कर्तब्यों का निर्वहन पारदर्शिता से कर रहा है ? न्याय के अधिकार का क्या संरक्षण हो रहा है। सामाजिक समानता और कानूनी संरक्षण की आड़ में एक बेगुनाह आदमी के इंसाफ की चाहत क्यों टूट रहीं है। जाति के नाम पर सामाजिक खाईं को और गहरा किया जा रहा है। इंसान की इंसानियत और संवेदनशीलता खत्म हो रही है। समाज में आखिर इस तरह के सवाल क्यों उठ रहे हैं। क्योंकि अब यह आम बहस का मुद्दा है। कानून-व्यवस्था एंव इंसान से जुड़े एक मामले ने नयी बहस छेड़ दिया है।

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले की एक घटना ने सोशलमीडिया पर आम आदमी के अधिकार को लेकर नयी बहस खड़ी की है। इस मसले पर सरकार भले आंख बंद कर ले लेकिन समाज कभी नहीं बंद कर सकता है। सवाल विष्णु तिवारी का नहीं है मरते हुए इंसाफ और न्याय के भरोसे कहा है। एक झूठे आरोप में जेल जाने वाले विष्णु तिवारी को खुद को सच साबित करने में 20 साल का वक्त लग गया। क्या यहीं हमारी न्याय व्यवस्था है। एक बेगुनाह आदमी की जिंदगी को खत्म कर क्या मिला। क्यों उस व्यक्ति पर दलित उत्पीड़न और फर्जी बलात्कार का आरोप मढ़ा गया। वह भी सिर्फ एक गाय को बांधने को लेकर। उस व्यक्ति के जीवन के अमूल्य वक्त निगल लिए गए। विष्णु तिवारी के जिंदगी का वह सुनहला वक्त फिर क्या कोई लौटा पाएगा।

इंसाफ की उम्मीद में विष्णु तिवारी का सबकुछ लुट गया। उसने इस दौरान अपने चार स्वजनों मां-बाप और दो सगे भाईयों को खो दिया। उनके अंतिम संस्कार में भी उसे आने की अनुमति नहीं मिली। दलित उत्पीड़ क्या हत्या और किसी की मौत से भी बड़ा अपराध था। क्या हत्या से जघन्य या दूसरे अपराध में लोग जमानत पर बाहर नहीं हैं। समाज में इस तरह का दोहरामापदंड क्यों अपनाया गया। खुद को बेगुनाह साबित करने में पांच एकड़ जमींन बिक गयी। अठ्ठारह साल की उम्र में उसे जेल जाना पड़ा। हाईकोर्ट से बेगुनाह साबित होने के बाद 38 साल पर उसकी रिहाई हुई। जेल से निकलते वक्त उसके पास सिर्फ छह सौ रुपये थे वह भी उसने जेल में कमाए थे। इस घटना ने एक नई बहस छेड़ दिया है कि विष्णु तिवारी तो जेल से छुट गया, लेकिन जाति की आड़ में उसका जीवन तबाह करने वाले लोगों को क्या कानून और सरकारें सजा दिला पाएंगी। हमारे कानून में क्या कोई ऐसी व्यवस्था है। जिन लोगों ने उसे फंसाने की साजिश रची उन्हें भी क्या जेल भेजा जाएगा। उन्हें भी क्या 20 साल जेल की सलाखों में गुजारने पड़ेंगे। दलित उत्पीड़न और बलात्कार की झूठी एफआईआर लिखाने वालों के खिलाफ कानून कोई कार्रवाई करेगा।

अहम सवाल उठता है कि अगर किसी ने विष्णु तिवारी के खिलाफ गलत प्राथिमिकी दर्ज करवाई थी तो पुलिस ने आंखें क्यों मूंद रखी थी। पुलिस ने बलात्कार और दलित उत्पीड़न का मुकदमा लिखने के पूर्व घटना की जांच पड़ताल तो जरुर की होगी। क्या पुलिस की प्राथमिक जांच में घटना से संबंधित कोई तथ्य नहीं पाए गए। मुकदमा लिखने के पूर्व क्या संबंधित पीड़िता की मेडिकल जांच नहीं हुई थी। अगर मेडिकल जांच हुई थी तो क्या उसमें बलात्कार साबित हुआ था। अगर नही ंतो मुकदमा क्यों दर्ज किया गया। क्या किसी राजनीतिक दबाब में मेडिकल कराया गया था। इस घटना में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इतने के बाद भी विवेचना अधिकारी ने अपने नैतिक दायित्व का निर्वहन क्यों नहीं किया। विवेचना के दौरान तथ्यात्मक जानकारी क्यों छुपायी गयी। एक निर्दोया व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाया गया। नीचली अदालत ने उसी गलत विवेचना पर आजीवन कारावास की सजा भी सुना दिया। जिसकी वजह से उसे जिंदगी के खास वक्त जेल में काटना पड़ा। उसे सामाजिक हानि पहुंचायी गयी। हाईकोर्ट की वजह से एक व्यक्ति की बाकि जिंदगी भी जेल की सलाखों में काटने से बच गई। वहां से भी उम्मीद टूटती तो वह सुप्रीमकोर्ट तक न्याय की लड़ाई लड़ता या फिर जेल में अंतिम सांस लेता।

हम यह बिल्कुल नहीं कहते हैं कि दलित उत्पीड़न को खत्म कर दिया जाए। लेकिन यह बिल्कुल कहते हैं कि न्याय की उम्मींद को मत खत्म करो। आम आदमी के लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा होनी चाहिए। विष्णु तिवारी अगर गुनाहगार होता तो कोई आवाज नहीं उठती। लेकिन बेगुनाह होते हुए भी उसकी जिंदगी के बीस साल खत्म हो गए फिर इसकी सजा किसे मिलनी चाहिए। जिन लोगों ने यह साजिश रची उनके खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। विष्णु ने जो चोट खायी है उसका उसे हिसाब मिलना चाहिए। उसके हिस्से का बाकि न्याय कैसे मिलेगा यह सोचना सरकार का काम है। अगर कानून में इस तरह के प्राविधान हैं तो झूठे आरोप लगा कर किसी की जिंदगी बर्बाद करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

विष्णु के खिलाफ गलत मुकदमा लिखाने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। इसके बाद पोस्टमार्टम या विवेचना पैसे और पहुंच के बल पर की गयी है तो संबंधित लोगों के खिलाफ भी कड़ी से कड़ी कानूनी कर्रवाई होनी चाहिए। इस मामले में विवेचना अधिकारी के भूमिका भी जांच होनी चाहिए। क्योंकि उन्हीं की गलत विवेचना पर उसे आजीवन कारवास की सजा मिली। क्या इस तरह के मुकदमों में कोई निश्चित वक्त मुकर्रर नहीं किए जाने चाहिए। हमने आखिर इस तरह की न्याय व्यवस्था क्यों विकसित की है कि बेगुनाह व्यक्ति को भी गुनाहगार बना दिया जाय। अगर हमने ऐसी न्याय व्यवस्था कायम किया है तो हमें शर्म आनी चाहिए। इस घटना से यह साबित होता है कि न जाने कितने विष्णु अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए अपनी जिंदगी जेल की सलाखों में खत्म कर देते हैं।

उत्तर प्रदेश या दूसरे राज्यों में निश्चित रुप से दलित उत्पीड़न का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। हम कानूनी संरक्षण की आड़ में सामाजिक समरसता नहीं कायम कर सकते हैं। हमारा संविधान सभी के लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारोें के संरक्षण की वकालत करता है, लेकिन जरा सोचिए क्या इसी तरह ? दलित उत्पीड़न की घटनाएं चिंतनीय हैं लेकिन फर्जी मुकदमें समाज में खांई बढ़ा रहे हैं। जबकि राजनीति इसे वोट बैंक का माध्यम बना लिया है। यह वक्त की मांग है कि इस पर केंद्र और राज्य सरकारें गंभीरता से विचार करें। केंद्र सरकार अगर 2018 दलित उत्पीड़न पर सुप्रीमकोर्ट के निर्देेशों का अनुपाल करती तो भविष्य में इस तरह की घटनाओं पर विराम लग सकता था। लेकिन अदालत के हस्तक्षेप के बाद सरकार ने जिस तरह से संविधान संशोंधान कर बिल लाने का काम किया। वह जग जाहिर है। हम भी चाहते हैं कि देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएं बहुतायत हैं, लेकिन उसके कारणों और निवावरणों पर भी विचार करना चाहिए था। फिलहाल विष्णु तिवारी ने जो सामाजिक तिरस्कार झेला है अब उसे कोई वापस नहीं कर सकता है। लेकिन जिन्होंने यह साजिश रची उन्हें तो हरहाल में सजा मिलनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर दलित उत्पीड़न कानून जाति विशेष के खिलाफ उत्पीड़न का अस्त्र बन कर रह जाएगा और सामाजिक विषमताएं कम होने के बाद बढ़ सकती हैं। सरकार और उससे जुड़ी संस्थाओं को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

जन्म पुनर्जन्म के बीच कर्मफल भोगते अकेले हिन्दू

—विनय कुमार विनायक
हिन्दू होना
जीवन की पहली
और आखिरी
सच्चाई हो सकती
बीच में गीता को छूकर
कोर्ट में गवाही
देने जैसी स्थिति!

सदियों से गीता से
पहले गीतों की घूंटी में
पिलाती रही मां
मां की मां/पिता की मां
‘सत्यं ब्रूयात्प्रियं,ब्रूयान्न
ब्रूयात्सत्यमप्रियम्…’ की
आचरण संहिता
जीवन को बचाने के लिए
आवश्यक है कुछ झूठ,
मगर उससे अधिक जरूरी है
मरे का पोस्टमार्टम भी
ताकि हो ना जाए झूठ सच पर हावी!

गीता से पहले
श्रुति-स्मृति-वेद-
अवेस्ता-ए-जिंद-उपनिषद-
पुराण-रामायण-महाभारत
गीता के बाद त्रिपिटक-एंजिल-बाइबल
गुरुग्रंथ आदि की अच्छाई को
बचाने में गीता छू, कसम खा,
घूंट पी लेना हिन्दू होना हीं है ना!

पर ये सच है कि दुनिया भर के
तमाम धर्म ग्रंथों को कंधे पर
ढोने का दम भरते जो हिन्दू
वे श्मशान तक जाते
अपने ही कंधों के बल बूते पर!

हिन्दू कंधा देते नहीं हिन्दू को
हिन्दू होने के शर्त पर
हिन्दू को कंधा देते बेटे पोते
जाति विरादरी रिश्ते नाते!

हिन्दू में एकता नहीं चिता तक
हिन्दू एक मिथक है ऐसा
जो जन्म से पहले
और अंतिम संस्कार के बाद
अदृश्य रिश्ते में बंधे होते!
मगर बीच में जीवन भर
ऊंच-नीच जाति में बंटे होते!

जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व
कोर्ट कैट में गीता छूकर
गवाही देने जैसी स्थिति हिन्दू,
कि जन्म पुनर्जन्म के बीच
कर्मफल भोगते अकेले हिन्दू!

विश्व मंच पर भारत को नीचा दिखाने की कोशिश

यह भारत में लाेकतंत्र एवं नागरिक अधिकाराें की स्वतंत्रता का ही कमाल है कि पिछले तीन महीने, लगभग 100 दिनाें से हजाराें किसान अपनी मांगाें काे लेकर देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर बैठे हुए हैं और सरकार उन्हें मूलभूत सुविधाएँ मुहैया करवा रही है। इसलिए रिपोर्ट पूरी तरह से भारत विरोधी एजेंडे का एक हिस्सा है। हम अपने सिस्टम को अधिक से अधिक न्याय पूर्ण बनाए रखें तो ऐसी रिपोर्टों का कोई मतलब ही नहीं बचेगा।

विगत कुछ वर्षों से कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भारत को दुनिया भर में नीचा दिखाने के प्रयास कर रही हैं। धार्मिक स्वतंत्रता से लेकर मानवाधिकार या नागरिकों की निजता के अधिकार का मामला हो या आर्थिक आजादी का मामला हो, प्रेस की आजादी का मामला हो या डिजिटल दुनिया में इंटरनेट और दूसरे संचार साधनों के इस्तेमाल की आजादी का मामला हो, लगभग हर पैमाने पर यह संस्थान भारत काे दुनिया के सर्वाधिक बदनाम देशों के साथ खड़ा कर रहे हैं। सारी रैंकिंग में भारत काे लगातार नीचे जाता दिखाया जा रहा है।

अभी हाल ही में अमेरिकी सरकार द्वारा वित्तपोषित गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) फ़्रीडम हाउस ने भारत के दर्जे को स्वतंत्र से घटाकर आंशिक स्वतंत्र कर दिया है। भारत एक ‘स्वतंत्र’ देश से ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश में बदल गया है।’ उक्त बातें अमेरिकी थिंक टैंक ‘फ्रीडम हाउस’ ने 195 देशों की नागरिक आज़ादी पर अपनी ताजा सालाना रिपोर्ट ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021’ में कहा है। दरअसल इस रिपोर्ट में ‘पॉलिटिकल फ्रीडम’ और ‘मानवाधिकार’ को लेकर 195 देशों में रिसर्च की गई थी। रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि साल 2014 में भारत में सत्ता परिवर्तन के बाद नागरिकों की स्वतंत्रता में गिरावट आई है।

डेमोक्रेसी अंडर सीज’ शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत की स्थिति में जो तब्दीली आई है, वह वैश्विक बदलाव का ही एक हिस्सा है। रिपोर्ट में भारत को 100 में से 67 नंबर दिए गए हैं, जबकि पिछले वर्ष यानि ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2020’ की रिपोर्ट में भारत को 100 में से 71 नंबर दिए गए थे, जबकि उससे पहले यानी ‘फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2019’ रिपोर्ट में भारत को 75 अंक प्राप्त हुए थे।

रिपोर्ट में कहा गया है कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी सरकार तथा राज्यों में उनकी गठबंधन सरकारें ” मुसलमानों / अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाली हिंसात्मक और भेदभाव पूर्ण नीतियों को अपनाती रही हैं और मीडिया, अकादमीशियनों, सिविल सोसाइटी समूहों और प्रदर्शनकारियों द्वारा किसी भी तरह के असंतोष की अभिव्यक्ति तथा आलोचना के खिलाफ कठोर कार्रवाइयाँ करती रही हैं” और इसके साथ ही सरकार ने कोविड-19 के दौरान काफी अविवेकपूर्ण तरीके से कठोर लॉकडाउन लगाया गया जिसका परिणाम यह हुआ कि लाखों की संख्या में आंतरिक प्रवासी मज़दूरों को खतरनाक और अनियोजित तरीके से विस्थापित होना पड़ा।

इसमें कहा गया, ‘लोकतांत्रिक परंपराओं के वाहक बनने और चीन जैसे देशों के तानाशाही रवैये का प्रतिकार करने के बजाय मोदी और उनकी पार्टी भारत को अधिनायकवाद की ओर ले जा रही है। रिपोर्ट में कहा गया, ‘मोदी के (शासन के) तहत भारत एक वैश्विक लोकतांत्रिक अगुआ के रूप में सेवा देने की अपनी क्षमता को छोड़ चुका है और समावेश व सभी के लिए समान अधिकारों की कीमत पर संकीर्ण हिंदू राष्ट्रवादी हितों को बढ़ा रहा है।

जहां तक फ़्रीडम हाउस और उसकी इस रिपोर्ट का सवाल है तो इसे लेकर देश में तीखा विभाजन दिखता है। कुछ लोग इसे स्वयं सिद्ध प्रमाण की तरह उद्धृत कर रहे हैं, जैसे उनके मन की मुराद पूरी हाे गई हाे, और कुछ इसे सीधे खारिज कर रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि ऐसी रिपोर्ट बनाने वालीअंतरराष्ट्रीय संस्थाओं काे फीडबैक काैन देता है। फीडबैक देने वाले ज्यादातर संगठन विदेशी अनुदान से चलते हैं। भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद भी लोग पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने हक / अधिकाराे की आवाज़ उठा रहे है।

यह भारत में लाेकतंत्र एवं नागरिक अधिकाराें की स्वतंत्रता का ही कमाल है कि पिछले तीन महीने, लगभग 100 दिनाें से हजाराें किसान अपनी मांगाें काे लेकर देश की राजधानी दिल्ली की सीमा पर बैठे हुए हैं और सरकार उन्हें मूलभूत सुविधाएँ मुहैया करवा रही है। इसलिए रिपोर्ट पूरी तरह से भारत विरोधी एजेंडे का एक हिस्सा है। हम अपने सिस्टम को अधिक से अधिक न्याय पूर्ण बनाए रखें तो ऐसी रिपोर्टों का कोई मतलब ही नहीं बचेगा।

पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते ?


मना लिया है महिला दिवस सबने
पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाते हो ?
महिलाओं को देदी है आजादी,
पुरुषों को क्यों गुलाम बनाते हो ?

माना नारी चूल्हे में जलती है,
पर पुरुष भी धूप में जलता है।
मिली है जब आजादी नारी को,
तो पुरुष क्यों सबको खलता है।।

आठ मार्च महिला दिवस निश्चित है,
पुरुष दिवस भी निश्चित होता।
अच्छा तो यें दिवस तब होता,
दोनों का दिवस एक दिन होता।।

दोनों के है जब समान अधिकार,
पुरुषों को क्यों नहीं ये मिलता।
जब चम्पा चमेली खिलती है,
तब कमल क्यों नहीं ये खिलता।।

नारी जब पुरुष के बिन अधूरी है,
तब पुरुष दिवस क्यों मजबूरी है।
जब तक पुरुष दिवस नहीं मनेगा
तब तक महिला दिवस अधूरी है।

नर और नारी गृहस्थ के पहिए है,
तभी गृहस्थ की गाड़ी चलती है।
महिला दिवस मना लो केवल,
ये बात पुरुष को खलती है।।

आर के रस्तोगी

आरक्षण पर अदालती मंथन से जुड़ी उम्मीदें

-ललित गर्ग-

सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है और इस सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को नोटिस देकर पूछा है कि क्या सरकारी नौकरियों में आरक्षण पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देना सही है या नहीं? इसका फैसला करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट का गंभीर होना न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि इससे प्रभावकारी एवं औचित्यपूर्ण स्थितियां सामने आने की संभावना है। यह मु्द्दा किसी प्रांत विशेष तक सीमित न होकर सम्पूर्ण राष्ट्र से जुड़ा ज्वलंत मुद्दा है, इसलिये सभी प्रांतों का पक्ष सुनना जरूरी है। इसलिये पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आरक्षण के प्रावधानों और इसकी बदलती जरूरतों पर विचार शुरू कर दिया है। विगत वर्षों में एकाधिक राज्य ऐसे हैं, जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण देने की कोशिश हुई और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। हमारे बीच जीवंत आदर्शों की ऐसी बहुत-सी ऊंची मीनारें खड़ी रही है, जिनमें जीवन की ऊंचाई एवं गहराई दोनों रही है, लेकिन राजनीति स्वार्थों एवं वोट बैंक ने इन राष्ट्रीय आदर्शों को ध्वस्त करते हुए देश को जोड़ने की बजाय तोड़ने का काम किया है।
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग लंबे समय से चलती आ रही है और 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने इस पर कानून भी बना दिया था और सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा में मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी लेकिन बाद में उच्च न्यायालय ने इसको कम करने का फैसला किया था और जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला आने तक इस पर रोक लगा दी है। अब इस मामले पर सुनवाई चल रही है और 15 मार्च से रोजाना सुनवाई होगी, उम्मीद है कि इस मसले पर जल्द ही ऐसा फैसला आएगा, जो राजनीतिक हितों से ज्यादा जनहितों से जुड़ा होगा, राष्ट्रीयता को सुदृढ़ता देगा।
पूरे देश में अभी यह भ्रम की स्थिति है कि क्या किसी राज्य को 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने की अनुमति दी जा सकती है? वर्ष 1992 के इंद्रा साहनी मामले में संविधान पीठ के फैसले के बाद यह परंपरा रही है कि 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। वैसे तो हमारी सरकारों को ही विधायिका के स्तर पर यह विचार कर लेना चाहिए था कि आरक्षण की सीमा क्या होनी चाहिए। यह दुर्भाग्य है कि आरक्षण राजनीति का तो विषय है, पर उसे लेकर वैधानिक गंभीरता बहुत नहीं रही है। वैधानिक गंभीरता होती, तो सांसद-विधायक आरक्षण की सीमा पर संवाद के लिए समय निकाल लेते और मामला सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पाता। अब यदि यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है तो इससे गरीब के अधिकारों के साथ-साथ श्रेष्ठता को प्रोत्साहन की संतुलित एवं न्यायपूर्ण व्यवस्था बन सकेगी।
आरक्षण पर सुनवाई के दौरान अदालत समग्र आकलन करेंगी, वह यह भी देखेगी कि विगत दशकों में आरक्षण को लागू करने के बाद कैसे सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए हैं। इसके लिए अदालत ने सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों से जवाब दाखिल करने को कहा है। वास्तव में, मराठा आरक्षण को लेकर दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की संविधन पीठ ने सुनवाई के दौरान जो कदम उठाए हैं, उनका दूरगामी, प्रभावी और गहरा असर तय है। महाराष्ट्र सरकार मराठा वर्ग को विशेष आरक्षण देना चाहती है, जिस वजह से 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का उल्लंघन हो रहा है, अतः अदालत ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी थी। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार की शिकायत और अन्य याचिकाओं ने गहराई से विमर्श की पृष्ठभूमि तैयार की है। इसमें कोई शक नहीं, अगर महाराष्ट्र के मामले में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण को स्वीकृत किया गया, तो इसका असर सभी राज्यों पर पड़ेगा, अतः इसमें तमाम राज्यों की राय लेना एक सही फैसला है। सभी राज्यों को सुनकर एक रास्ता निकालना होगा, ताकि भविष्य में विवाद की स्थिति न बने। कई सवालों के हल होने की उम्मीद बढ़ गई है। क्या राज्यों को अपने स्तर पर आरक्षण देने का अधिकार है? क्या केंद्र सरकार के अधिकार में कटौती नहीं होगी? 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने से समाज के किसी वर्ग के साथ अन्याय तो नहीं होगा? आरक्षण का समानता के अधिकार से कैसे नया नाता बनेगा?
देश लम्बे समय तक आरक्षण से जुझता एवं जलता रहा है। जो वोट की राजनीति से जुड़े हुए थे, वे आरक्षण की नीति में बंटे हुए थे। प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों को बिना आम सहमति के लागू करने की घोषणा कर पिछड़े वर्ग को जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देकर जिस ”जिन्न“ को बोतल से बाहर किया है उसने पूरे राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है। भले ही आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय कभी भी सभी के गले नहीं उतरा, अनेक विसंगतियां एवं विषमताओं के कारण वह विवादास्पद एवं विरोधाभासी ही बना रहा है। आरक्षण जाति-आधारित न होकर अर्थ-अभाव- पिछड़ा आधारित होना चाहिए। अब तक सरकारी नौकरियों में बड़े-बड़े धन सम्पन्न परिवारों के बच्चे जाति के बल पर अवसर पाते रहे हैं, न केवल नौकरियों में बल्कि पदौन्नति में भी उनके लिये आरक्षण की व्यवस्था है। जबकि अनेक गरीब लेकिन प्रतिभासम्पन्न उच्च जाति के बच्चे इन अवसरों से वंचित होते रहे हैं। इस बड़ी विसंगति पर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान जाना जरूरी है।
जातिवाद सैकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने ”वोट स्वार्थ“ के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगाती रही हैं। इसका विरोध नेताओं ने नहीं, जनता ने किया है। यह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण अब किसी नयी सुबह का सबब बनेगा, ऐसी शुभ की आहट सुनाई देनी लगी है।
यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है। पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डाॅ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चैपट हो जाएगा।
आरक्षण को लेकर अनेक ज्वलंत सवाल राष्ट्रीय चर्चाओं में लगातार बने रहे हैं, विश्वास है कि अब सर्वोच्च न्यायालय जब सुनवाई शुरू करेगा, तब इन अनेक जटिल सवालों के जवाब मिलते जाएंगे। संविधान की रोशनी में आरक्षण पर तथ्य आधारित तार्किक बहस जरूरी है, ताकि वंचित वर्गों को यथोचित लाभ मिले। सबसे अच्छा तरीका तो यही है कि आबादी के अनुपात में ही वंचितों को अवसर दिए जाएं। यह भी देखना है कि आज के समय में वंचित कौन है? वंचितों को अवसर देने की कोशिश में किसी के साथ अन्याय न होने लगे। अब प्रतिभा एवं श्रेष्ठता का हक भी किसी आरक्षण के नाम पर दबे नहीं, चूंकि 50 प्रतिशत की मंजूर आरक्षण सीमा को 28 साल बीच चुके हैं, तो नई रोशनी में पुनर्विचार हर लिहाज से सही और जरूरी है। पुनर्विचार के जो नतीजे आएंगे, उससे देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बुनियाद तय होगी। लोग यही चाहते हैं कि फैसला ऐसा आए, जो समाज को बांटे नहीं, मजबूत करे।
जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है। गरीब की बस एक ही जाति होती है ”गरीब“। हम जात-पात का विरोध करते रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी देते रहे हैं और आरक्षण भी देते रहे हैं-यह विरोधाभास नये भारत के निर्माण की बड़ी बाधा है। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग की भावना पैदा करता है। मनुष्य जन्म से नहीं कर्म एवं प्रतिभा से छोटा-बड़ा होता है।

आर्यसमाज वैदिक धर्म प्रचारक एवं समाज सुधारक संस्था है

आर्यसमाज स्थापना दिवस पर-
-मनमोहन कुमार आर्य

 आर्यसमाज ऋषि दयानन्द द्वारा चैत्र शुक्ल पंचमी विक्रमी 1931 तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में स्थापित एक धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रवादी एवं वैदिक राजधर्म की प्रचारक संस्था वा आन्दोलन है। ऋषि दयानन्द को आर्यसमाज की स्थापना इसलिए करनी पड़ी क्योंकि उनके समय में सृष्टि के आदिकाल में ईश्वर से प्रादुर्भूत सत्य सनातन वैदिक धर्म पराभव की ओर अग्रसर था। यदि ऋषि दयानन्द आर्यसमाज की स्थापना कर वेद प्रचार न करते और वेदभाष्य करने सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों की रचना न करते, तो सम्भव था कि वैदिक धर्म विलुप्त होकर इतिहास की एक स्मरणीय वस्तु बन जाता। महाभारत व ऋषि दयानन्द के जीवनकाल के मध्य ऐसा कोई मनुष्य नहीं हुआ जिसे वेदों का यथार्थ ज्ञान रहा हो। सच्चे वेदज्ञानी योगी व ऋषित्व की परम्परा महाभारत के कुछ समय बाद जैमिनी ऋषि पर समाप्त हो चुकी थी। ऋषि दयानन्द के समय देश का वातावरण अत्यन्त निराशाजनक था। देश व विश्व की जनता वैदिक धर्म को भूल चुकी थी। वैदिक धर्म अन्धविश्वासों, सामाजिक विषमताओं एवं कुरीतियों से युक्त था जिसका आधार अविद्यायुक्त मिथ्या ग्रन्थ यथा 18 पुराण, रामचरितमानस, प्रक्षिप्त मनुस्मृति, प्रक्षिप्त रामायण एवं महाभारत आदि ग्रन्थ थे। पुराण एवं रामचरित मानस अवतारवाद की वेद विरुद्ध मिथ्या मान्यता के पोषक थे व हैं। लगभग ढाई सहस्र वर्ष पूर्व बौद्ध एवं जैन मतों का प्रादुर्भाव हुआ जो सर्वव्यापक तथा सृष्टिकर्ता ईश्वर के सत्य अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक मत थे। इन मतों के अनुयायी अपने आचार्यों महात्मा बुद्ध एवं महावीर स्वामी के मत व मान्यताओं के अनुयायी थे व इन्हीं को ईश्वर के समकक्ष मानकर उनकी मूर्तियों की पूजा करते थे। मूर्तिपूजा का आरम्भ इन्हीं मतों से हुआ है। स्वामी शंकराचार्य जी ने इन मतों का खण्डन कर इनको पराजित किया और एक नये मत अद्वैतवाद व नवीन वेदान्त का प्रचार किया था। यह मत सर्वथा वेदानुकूल न होकर ईश्वर के सर्वव्यापक वैदिक स्वरूप में स्थान-स्थान पर अविद्या की कल्पना कर उसे अविद्या से ग्रस्त बतातें हैं। वेदों के शीर्ष विद्वान व ऋषि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आचार्य शंकर के मत का युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया है। ऋषि दयानन्द के बाद स्वामी विद्यानन्द सरस्वती तथा पं. राजवीर शास्त्री सहित अनेक विद्वानों ने भी स्वामी शंकर के मत की समालोचना करते हुए उनके अद्वैतवाद के सिद्धान्तों को अवैदिक व अव्यवहारिक सिद्ध किया है।  

स्वामी शंकराचार्य जी के बाद अनेक अवैदिक मत अस्तित्व में आये। विदेशों में भी ईसाई एवं इस्लाम मत का आविर्भाव हुआ। यह सभी मत वेद, उनकी शिक्षाओं व मान्यताओं से परिचित नहीं थे। इन सभी मतों में वेद विरुद्ध सहित ज्ञान-विज्ञान व युक्ति विरुद्ध मान्यतायें पाई जाती हैं। ऋषि दयानन्द ने इन सभी मतों का अध्ययन किया और वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के आधार पर सभी मतों की तुलना करते हुए उनमें विद्यमान अविद्यायुक्त मान्यताओं का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध के चार समुल्लासों में प्रकाश किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि ऋषि दयानन्द ने वेदमत को सत्य, ज्ञान एवं विज्ञान से युक्त पाये जाने के कारण ही स्वीकार किया और इससे सभी मनुष्यों को लाभान्वित करने के लिये इसका देश-देशान्तर में अपने मौखिक प्रवचनों व ग्रन्थों के द्वारा प्रचार किया। 

वैदिक धर्म में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त ईश्वर, जीव व प्रकृति के यथार्थस्वरूप का ज्ञान है। चार वेद एवं वैदिक ऋषियों के ग्रन्थों में ईश्वर, जीव व प्रकृति का जो स्वरूप मिलता है वैसा संसार के किसी मत व पन्थ के ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता। हम ऋषि दयानन्द द्वारा आर्यसमाज के दूसरे नियम में वर्णित ईश्वर के स्वरूप का यथावत् उल्लेख कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी (ईश्वर) की उपासना करनी योग्य है।” ईश्वर सर्वज्ञ है। वह जीवों को उनके कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल अनेक जन्मों व योनियों में देकर उनका भोग कराता है। ईश्वर ही जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःख आदि भोगों की व्यवस्था करता है। ईश्वर मनुष्य की आत्मा सहित उसके हृदय एवं अंग-प्रत्यंग में व्यापक है। वह हमारी आत्मा में प्रेरणा भी करता है। मनुष्य जब ईश्वरोपासना, परोपकार अथवा कोई अच्छा काम करता है तो उसकी आत्मा में सुख, आनन्द व उत्साह उत्पन्न होता है और जब कोई बुरा काम करता व करने का विचार करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा आदि उत्पन्न होते हैं। यह आनन्द व सुख तथा भय, शंका व लज्जा आदि ईश्वर द्वारा शरीरस्थ जीवात्मा को अनुभव कराये जाते हैं। ईश्वर का स्वरूप जान लेने पर मनुष्य का कर्तव्य होता है कि सर्वोपकारी ईश्वर से हमें जो सुख व सुविधायें वा उपकार प्राप्त हुए हैं, उसका प्रतिदान हम उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना को करके करें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न होंगे। ऐसा न करने पर हम ईश्वर के आनन्द व अपनी आत्मा सहित ईश्वर के साक्षात्कार से भी वंचित रहेंगे। इस ईश्वर साक्षात्कार से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का अर्थ जन्म व मृत्यु के बन्धन से छूटना होता है। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर मनुष्य कर्मानुसार मिलने वाले जन्मों से बहुत लम्बी अवधि के लिये मुक्त हो जाता है। जन्म नहीं होता तो मृत्यु भी नहीं होती। ऐसी अवस्था में जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर ईश्वरीय आनन्द से युक्त रहता है जिसे किसी प्रकार का किंचित भी दुःख नहीं होता। यही मनुष्य वा जीवात्मा का लक्ष्य है। अनुमान कर सकते हैं कि हमारे ऋषियों व मुनियों को मोक्ष प्राप्त हुआ करता था। ऋषि दयानन्द में जो ज्ञान था तथा उन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रचार के लिये जो पुरुषार्थ किया, उससे अनुमान होता है कि उन्हें भी मोक्ष की प्राप्ति हुई होगी। मोक्ष के स्वरूप व उसकी प्राप्ति की विधि को जानने के लिये सत्यार्थप्रकाश का नवम् समुल्लास पठनीय है। पूरा सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के साधनों से परिचित हो सकता है और मोक्ष के मार्ग में आगे बढ़ सकता है। 

आर्यसमाज वेद विहित पंचमहायज्ञों की प्रचारक संस्था है। यह पंचमहायज्ञ हैं सन्ध्या वा ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव-यज्ञ। यह पांचों यज्ञ दैनन्दिन करने होते हैं। इसे करने से अनेक लाभ होते हैं। आर्यसमाज मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त असत्य मान्यताओं का खण्डन भी करती है। इसका कारण लोगों को असत्य व अज्ञानपूर्ण कार्यों को करने से रोकना एवं सत्यकर्मों सहित ईश्वर की उपासना में प्रवृत्त कर उन्हें पापों व उनके दुःखरूपी फलों व भोगों से बचाना है। आर्यसमाज समाज-सुधारक संस्था व आन्दोलन भी है। समाज में अनेक कुरीतियां एवं मिथ्या परम्परायें हैं जिन्हें दूर करना आवश्यक है। जड़-मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बालविवाह, बेमेल विवाह, जन्मना-जातिवाद, ऊंच-नीच आदि भेदभाव को आर्यसमाज निषिद्ध बताती है। इसके स्थान पर वैदिक विधानों की महत्ता बताकर आर्यसमाज उन्हें आचरण में लाने का प्रचार करती है। मनुष्य का आचरण वेदानुकूल ही होना चाहिये तभी वह मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था की पोषक है। आर्यसमाज की दृष्टि में न केवल मनुष्य अपितु सभी जीव योनियां परमात्मा की सन्तानें हैं। सभी योनियों के प्राणी हमारे भाई व बन्धु हैं तथा ईश्वर हम सब का माता व पिता है। उन सबके प्रति हमारे भीतर सद्भाव व उपकार की भावना होनी चाहिये। मांसाहार को आर्यसमाज मनुष्यों के लिये निषिद्ध सिद्ध करता है। मांसाहार बहुत बड़ा पाप है जिसका फल ईश्वर से महादुःख के रूप में प्राप्त होता है। मदिरापान भी मनुष्य व उसकी आत्मा की उन्नति में बाधक एवं हानिकारक है। आर्यसमाज ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का पक्षधर है। वह भ्रष्टाचार व लोभ से युक्त परिग्रह की प्रवृत्ति को मनुष्य के पतन का कारण मानता है। आर्यसमाज वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय को सर्वाधिक महत्व देता है जिससे मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होने के साथ अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि होती है। ऐसा मनुष्य विद्वान, निरोग, सुखी एवं दीर्घायु होता है।  

आर्यसमाज वैदिक राजधर्म का प्रचार भी करती है। सत्यार्थप्रकाश के छठे समुल्लास का शीर्षक ‘राजधर्म की व्याख्या’ है। इस राजधर्म को ऋषि दयानन्द ने वेदों पर आधारित प्राचीन वेदानुकूल एवं उपादेय ग्रन्थ मनुस्मृति, शतपथ ब्राह्मण, शुक्रनीति, रामायण एवं महाभारत के आधार पर प्रस्तुत किया है। देश की स्वतन्त्रता के बाद आर्यसमाज का कर्तव्य था कि वह अपना राजनीतिक दल बनाकर सत्यार्थप्रकाश एवं राजधर्म विषयक वैदिक ग्रन्थों के आधार पर राजनीति में सक्रिय भाग लेता और देश की व्यवस्था को वेद व वैदिक ग्रन्थों के आधार पर चलाने के लिये पुरुषार्थ करता। आर्यसमाज ने इसकी उपेक्षा की जिस कारण देश में पाश्चात्य देशों मुख्यतः इग्लैण्ड आदि की व्यवस्था के अनुसार नियम बनाये गये। ऐसे अनेक नियम, विधान व व्यवस्थायें भी की गईं जिससे देश कमजोर हो रहा है। आर्यसमाज ने शिक्षा विषयक उत्तम विचार भी दिये हैं जिसका उल्लेख सत्यार्थप्रकाश के तीसरे सम्मुल्लास में मिलता है। आर्यसमाज गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली का पोषक है। इस प्रणाली में संस्कृत सहित कुछ अन्य भाषाओं एवं ज्ञान विज्ञान से संबंधित विषयों सहित आधुनिक चिकित्सा एवं अभियांत्रिक विद्या, कम्प्यूटर आदि की समयानुकूल शिक्षा भी दी जा सकती है। विद्यार्थी जीवन में मनुष्य को धर्मशास्त्र भी अवश्य पढ़ना चाहिये तभी मनुष्य नैतिक गुणों को धारण कर व उनका आचरण कर सभ्य मनुष्य बन सकता है। वैदिक धर्मशास्त्रों की शिक्षा का अभाव मनुष्य को चारित्रिक पतन सहित भ्रष्टाचारी एवं नास्तिक बनाता है। यही कारण है कि आजकल शिक्षित व्यक्ति प्रायः नास्तिक होते हैं। वह ईश्वर व आत्मा के स्वरूप सहित मनुष्य के धार्मिक कर्तव्यों के प्रति विज्ञ व आचरणशील नहीं होते। आर्यसमाज एक राष्ट्रवादी संस्था भी है। वेद में पृथिवी को माता कहकर उसका स्तवन किया गया है। हमें अपने देश के लिये अपना सर्वस्व समर्पित करने की भावना से ओतप्रोत रहना चाहिये। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना भी वैदिक संस्कृति की देन है। ‘सत्यमेव जयते’ वैदिक संस्कृति का ही एक आदर्श सत्य वाक्य है। वैदिक धर्म सरलता का प्रतीक है। इसमें भड़कीले पहनावों वा वेशभूषा सहित अप्राकृतिक सौन्दर्य प्रसाधनों के प्रयोग की अनुमति नहीं है। यह बातें मनुष्य के व्यक्तित्व व जीवन की उन्नति में साधक न होकर बाधक होती हैं। संक्षेप में यही कहना है कि महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार, नास्तिकता को दूर कर आस्तिक जीवन का निर्माण करने, अविद्या को दूर कर विद्या की वृद्धि करने, असत्य, अन्याय व शोषण को दूर करने तथा मनुष्य का सर्वांगीण विकास करते हुए वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये की थी जिसमें समाज सुधार भी मुख्य अंग व उद्देश्य था।

इस्लामः अरबों की नकल जरुरी नहीं

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

स्विटजरलैंड ताजातरीन देश है, जिसने बुर्के पर प्रतिबंध लगा दिया है। दुनिया में सिर्फ हिंदू औरतें पर्दा करती हैं और मुस्लिम औरतें बुर्का पहनती हैं। हिंदुओं में पर्दा अब भी वे ही औरतें ज्यादातर करती हैं, जो बेपढ़ी-लिखी हैं या गरीब हैं या गांवों में रहती हैं लेकिन मुस्लिम देशों में मैंने देखा है कि विश्वविद्यालयों में जो महिला प्रोफेसर मेरे साथ पढ़ाती थीं, वे भी बुर्का पहन करके आती थीं। बुर्का पहनकर ही वे कार भी चलाती थीं। अब इस बुर्के पर प्रतिबंध की हवा दुनिया भर में फैलती जा रही है। दुनिया के 18 देशों में बुर्के पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इन 18 देशों में यूरोपीय देश तो हैं ही, कम से कम आधा दर्जन इस्लामी देश भी हैं, जिनमें तुर्की, मोरक्को, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, ट्यूनीसिया और चाद जैसे राष्ट्र भी शामिल हैं। यहां सवाल यही उठता है कि आखिर इस्लामी देशों ने भी बुर्के पर प्रतिबंध क्यों लगाया ? इसका तात्कालिक कारण तो यह है कि बुर्का पहनकर कई आदमी जघन्य अपराध करते हैं। वे अपनी पहचान छिपा लेते हैं और अचानक हमला बोल देते हैं। वे बुर्के में छोटे-छोटे हथियार भी छिपा लेते हैं। इन अपराधियों को पकड़ पाना भी मुश्किल हो जाता है। यही बात यूरोपीय देशों में भी हुए कई आतंकी हमलों में भी देखी गई। यूरोपीय देश अपने मुस्लिम अल्पसंख्यकों की कई आदतों से परेशान हैं। उन्होंने उनके बुर्के और टोपी वगैरह पर ही प्रतिबंध नहीं लगाए हैं, बल्कि उनकी मस्जिदों, मदरसों और मीनारों पर तरह-तरह की बंदिशें कायम कर दी हैं। इन बंदिशों को वहां के कुछ मुस्लिम संगठनों ने उचित मानकर स्वीकार कर लिया है लेकिन कई अतिवादी मुस्लिमों ने उनकी कड़ी भर्त्सना भी की है। उनका कहना है कि यह कट्टर ईसाई पादरियों की इस्लाम-विरोधी साजिश है। इस दृष्टिकोण का समर्थन पाकिस्तान, सउदी अरब और मलेशिया— जैसे देशों के नेताओं ने भी किया है। उनका तर्क है कि पूरे स्विटजरलैंड में कुल 30 मुस्लिम औरतें ऐसी हैं, जो बुर्का पहनती हैं। उन पर रोक लगाने के लिए कानून की क्या जरुरत है ? उनका सोच यह भी है कि इस प्रतिबंध का बुरा असर स्विस पर्यटन-व्यवसाय पर भी पड़ेगा, क्योंकि मालदार मुस्लिम देशों की औरतें वहां आने से अब परहेज़ करेंगी। वे मानते हैं कि यह बुर्का-विरोधी नहीं, इस्लाम-विरोधी कदम है लेकिन यह मौका है जबकि दुनिया के मुसलमान सोचें कि वास्तव में इस्लाम क्या है और वे कौनसी बाते हैं, जो बुनियादी हैं और कौनसी सतही हैं? इस्लाम की सबसे बुनियादी बात यह है कि ईश्वर सर्वव्यापक है। वह निर्गुण निराकार है। पैगंबर मुहम्मद ने यह क्रांतिकारी संदेश देकर अंधेरे से घिरे अरब जगत में रोशनी फैला दी थी। बस इस एक बात को आप पूरी तरह से पकड़े रहें तो आप सच्चे मुसलमान होंगे। शेष सारे रीति-रिवाज, खान-पान, पोषाख, भाषा आदि तो देश-काल के मुताबिक बदलते रहना चाहिए। अरबों के यहां कई अदभुत परंपराएं हैं लेकिन अरबों की नकल करना ही मुसलमान होना नहीं है। पैगंबर मुहम्मद साहब के प्रति अखंड भक्तिभाव रखना अपनी जगह उचित है लेकिन डेढ़ हजार साल पुराने अरबी या भारतीय कानून-कायदों, रीति-रिवाजों और परंपराओं से आंख मींचकर चिपके रहना कहां तक ठीक है ? उनके खिलाफ कानून लाने की जरुरत ही क्यों पड़े ? उन्हें तो हमें खुद ही बदलते रहना चाहिए।