Home Blog Page 615

नारी को अबला न समझना


नारी को अबला न समझना तुम
वह गगन मे वायुयान उड़ाती है।
कल्पना बन कर यही नारी,
अब अंतरिक्ष में पहुंच जाती हैं।।

विद्वता मे वह अब कम नहीं,
उच्च शिक्षा लेकर उच्च अंक पाती हैं।
बड़े बड़े स्कूल व कॉलिजो में भी
वह अब पुरुषों को भी पढ़ाती हैं।।

युद्ध क्षेत्र में भी वह बढ़ चढ़ कर,
वह रण कौशल अपने दिखाती हैं।
झांसी की रानी बनकर भी वह,
आधुनिक हथियार चलाती है।।

नारी घूघंट वाली नारी नहीं,
वह पुरुषों का मुकाबला करती हैं,
वह हर क्षेत्र में आगे बढ़ कर,
पुरुषों से आगे वह रहती है।।

विधमान हैं वह हर पद पर,
कोई उच्च पद न उससे छूटा है।
राष्ट्रपति प्रधान मंत्री बन वह
पाटिल इंदिरा उदाहरण अनूठा है।

आर के रस्तोगी

पुरुषप्रधान विश्व रचि राखा

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

हम लोग कितने बड़े ढोंगी हैं? हम डींग मारते हैं कि हमारे भारत में नारी की पूजा होती है। नारी की पूजा में ही देवता रमते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते तत्र देवताः।’ अभी-अभी विश्व बैंक की एक रपट आई है, जिससे पता चलता है कि नारी की पूजा करना तो बहुत दूर की बात है, उसे पुरूष के बराबरी का दर्जा देने में भी भारत का स्थान 123 वां है। याने दुनिया के 122 देशों की नारियों की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है। 190 देशों में से 180 देश ऐसे हैं, जिसमें नर-नारी समानता नदारद है। सिर्फ दस देश ऐसे हैं, जिनमें स्त्री और पुरुषों के अधिकार एक-समान हैं। ये हैं–बेल्जियम, फ्रांस, डेनमार्क, लातविया, लग्जमबर्ग, स्वीडन, आइसलैंड, कनाडा, पुर्तगाल और आयरलैंड ! ये देश या तो भारत के प्रांतों के बराबर हैं या जिलों के बराबर ! इनमें से एक देश भी ऐसा नहीं है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता भारत से प्राचीन हो। ये लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानते हैं। ईसाई धर्म में औरत को सभी पापों की जड़ माना जाता है। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक पोप का राज चलता रहा। इसे इतिहास में अंधकार-युग के रूप में जाना जाता है लेकिन पिछले ढाई-तीन सौ साल में यूरोप ने नर-नारी समता के मामले में क्रांति ला दी है लेकिन भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अभी भी शासन, समाज, अर्थ-व्यवस्था और शिक्षा आदि में पुरूषवादी व्यवस्था चल रही है। केरल और मणिपुर को छोड़ दें तो क्या वजह है कि सारे भारत में हर विवाहित स्त्री को अपना उपनाम बदलकर अपने पति का नाम लगाना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी का उपनाम ग्रहण करता है? विवाह के बाद क्या वजह है कि पत्नी को अपने पति के घर जाकर रहना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी के घर जाकर रहता है ? पैतृक संपत्ति तो होती है लेकिन ‘मातृक’ संपत्ति क्यों नहीं होती? पिता की संपत्ति का बंटवारा उसके बेटों को तो होता है, बेटियों को क्यों नहीं ? बच्चों के नाम के आगे सिर्फ उनके पिता का नाम लिखा जाता है, माता का क्यों नहीं? दुनिया के कितने देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महिलाएं हैं ? इंदिराजी भारत में प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनीं कि वे महिला थीं, बल्कि इसलिए बनीं कि वे नेहरूजी की बेटी थीं। भारत में कुछ ऋषिकाएं और साध्वियां जरूर हुई हैं लेकिन दुनिया के देशों और धर्मों में लगभग सभी मसीहा और पैगंबर पुरुष ही हुए हैं। दुनिया के सभी समाजों में बहुपत्नी व्यवस्था चलती है, बहुपति व्यवस्था क्यों नहीं ? स्त्रियां ही ‘सती’ क्यों होती रहीं, पुरूष ‘सता’ क्यों न हुए ? इस पुरुषप्रधान विश्व का रूपांतरण अपने आप में महान क्रांति होगी।

साबरमती में आयशा नहीं, डूब मरी इंसानियत…!

                     प्रभुनाथ शुक्ल

हेलो, अस्सलाम वालेकुम। मेरा नाम है आयशा आरिफ खान। मैं जो कुछ भी करने जा रही हूं, अपनी मर्जी से करना चाहती हूं। किसी के जोर, दबाव में नहीं। ये समझ लीजिए कि खुदा की दी जिंदगी इतनी ही होती है। डियर डैड, अरे कब तक लड़ेंगे अपनों से। केस विड्रॉल कर दो। अब नहीं लड़ना। प्यार करते हैं आरिफ से। उसे परेशान थोड़ी ना करेंगे। अगर उसे आजादी चाहिए, तो ठीक है वो आज़ाद रहे। प्यारी सी नदी, प्रे करती हूं कि ये मुझे अपने आप में समां ले, और मेरे पीठ पीछे जो भी हो,प्लीज़ ज्यादा बखेड़ा मत करना… यह अल्फाज गुजरात की आयशा के हैं। आयशा अब इस दुनिया में नहीं है। उसने सामाजिक प्रताड़ानाओं से ऊब कर साबरमती नदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। उसकी शादी आरिफ नामक युवक से हुई थी।

दूसरी घटना उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले की है जहां एक बाप को बेटी के साथ छेड़खानी की शिकायत करना भारी पड़ गया। उसे गोलियों से भून दिया गया। हाथरस और साबरमती की दोनों ही घटनाएं हमारे सभ्य समाज की हैं। उसी समाज की जिस पर हम इतराते और इठलाते हैं। हालांकि दोनों घटनाएं इस तरह की कोई पहली नहीं है। पूर्व में भी अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। समाज में घटती इन घटनाओं से हमने कभी सबक नहीं लिया। सिर्फ कानून की मोटी- मोटी किताबें बनाकर उसे रख दिया। कानूनों का अनुपालन न तो हमारा समाज करता है और नहीं पुलिस करती है। मामला सिर के ऊपर चढ़ जाता है तो सरकार के दबाव में कार्रवाई होती है। सवाल उठता है कि सारा अत्याचार बेटियों पर ही क्यों ?
देश में चुनाव का मौसम चल रहा है हमारे राजनेता भजन-कीर्तन कर रहे हैं। ढोल मंजीरा बजा रहे हैं।है कोई समुद्र में नहा रहा है तो कोई कोई जन जातिय समाज में थिरक रहा है। कोई योग में जुटा हुआ है। क्योंकि मौसम चुनावों का है। इन घटनाओं से किसी कोई लेना देना नहीं है सबको केवल सत्ता की पड़ी है। इस तरह की घटनाएं टीवी डिबेट नहीं बनती हैं। जबकि एक राजनेता का घटिया बयान मिडिया की सुर्खियां बनता है। हम कितने नीचे गिर चुके हैं। देश को आजाद हुए 70 साल का समय बीत गया, लेकिन अभी तक हमने सामाजिक कुरीतियों को नहीं मिटा पाए। यह घटना सिर्फ मुस्लिम समाज की नहीं है।दहेज के लिए आज आयशा चढ़ी है तो अनिता इन सामाजिक कुरीतियों का पहले शिकार बन चुकी है।सामाजिक सामाजिक कुरीतियों को हम हिंदू और मुस्लिम की आँख से नहीं देख सकते हैं। यह तेरी पीड़ा यह मेरी पीड़ा की नीति और नजरिए से बाहर निकलना होगा। सवाल हमारी आपकी नीतियों विचारधाराओं के साथ नियती का भी है। एक नौजवान युवती आयशा साबरमती की गहरी धाराओं में डूब मरी। जब आरिफ से उसका निकाह हुआ होगा तो उसने भी जिंदगी के सुंदर सपनों जीना चाहा होगा। उम्मीदों और को अपेक्षाओं को लेकर न जाने कितने सपने बुने होंगे। लेकिन सभ्य समाज की कुरीतियों ने उसे निगल डाला। उसका पति आरिफ इतना कमजोर और बुजदिल था कि अपने परिवार को दहेज मांगने से नहीं रोक सका।
गुजरात की मासूम आयशा वीडियो बनाने के बाद साबरमती में छलांग लगानी पड़ी। इस घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया है। हम चांद पर बस्ती बसाना चाहते हैं जबकि धरती पर हैवानियत पाल रहे हैं। हम कितने गिर चुके हैं कि हमारे लिए प्रेम, समर्पण और परिवार नाम की संस्था से कोई मतलब नहीं रह गया है। हमारे लिए इंसानियत के बजाय पैसा सबकुछ है। आरिफ इंसान था उसे स्वस्थ शरीर मिला है। वह दहेज की मांग को ठुकरा सकता था। पैसे वह खुद कमा सकता था। फिर एक लड़की पर इतना जुल्म और अत्याचार क्यों हुआ। वह टूट कर बिखर गई और अंत में उसने मरने का फैसला लिया। कितनी दु:खद त्रासदी है हमारे समाज की। हजारों लड़कियां इस तरह की घटनाओं की शिकार होती हैं। आयाशा को भी कोई नहीं जनता, लेकिन उसके वायरल वीडियो ने मरी हुई इंसानियत को बेनकाब कर दिया। हमारे समाज में हाथरस, उन्नाव, बदायूं, निर्भया जैसी अनगिनत घटनाएं घट चुकी हैं लेकिन हमने क्या सीखा। हमारी संसद मेजें थपथपा कर एक नया कानून बनाती है, लेकिन सामाजिक कुरीति को मिटाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखती है।

हमने समाज को कितना असभ्य और असंवेदनशील बना दिया है। हमारी बेटियां समाज में सुरक्षित नहीं है। एक बाप अपनी हाथरस का एक बाप हमारा समाज उसे गोलियों से भून देता है। जिन दरिंदों ने उस बाप को गोलियों से भूना है अगर वही प्रक्रिया उसकी बेटी के साथ अपनाई जाती तो कैसा लगता ? घर के मुखिया के चले जाने के बाद उस माँ पर क्या गुजरती होगी। बेटी के हाथ पीले कौन करेगा ? भाइयों की माँग कौन पूरी करेगा। उनका सपना कौन बनेगा। योगी सरकार ने ऐसे अपराधी के खिलाफ रासुका लगा दिया है, लेकिन सवाल उठता है कि जिसका सबकुछ लुट गया उसका क्या होगा। इस तरह के अपराधियों के खिलाफ तेलंगाना पुलिस जैसा सलूक करना चाहिए।

बदलते वक्त के साथ समाज को अपना नजरिया बदलना होगा। समाज, सत्ता और सरकारों को मिलकर काम करना होगा। सबको सामाजिक पहल करनी होगी। जब तक समाज अपना दृष्टिकोण नहीं बदलेगा तब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी। पीड़ा के विभाजन से बचाना होगा। आयशा और हाथरस की घटना समाज पर कलंक हैं। बेटियों की सुरक्षा सिर्फ नारों से नहीं हो सकती। हमें हिंदू और मुस्लिम की बेटी के फर्क से बचना होगा। कुरीतियों का हवन कर आयशा और हाथरस की बेटियों के लिए सुरक्षित माहौल और समाज का निर्माण करना होगा।

रवीन्द्रनाथ टैगोर: क्षेत्रीय से वैश्विक कवि

—विनय कुमार विनायक
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर बंगाल के,
बंगाली अस्मिता, भाषा के रवि थे!
गुलाम भारत के एक मात्र कवि थे,
राष्ट्रीय नहीं, अंतरराष्ट्रीय छवि के!

वे सात मई अठारह सौ इकसठ को,
शारदा व देवेन्द्रनाथ के, घर जन्मे!
वे कुलीन जमींदार से कलाकार बने,
बैरिस्टर बनने की तमन्ना छोड़ के!

वे रविन्द्र संगीत के जनक,गीतकार,
लेखक,नाटककार, कवि, कथाकार थे!
उनकी कविता का स्वर राष्ट्रीय नहीं,
रहस्य-रोमांच से पूर्ण गीतात्मक थी!

उनकी कविताई ‘एकला चालो रे’ से
निकलकर क्षेत्रीय से वैश्विक हुई थी!
टैगोर गोरे के गुण,प्रशस्तिगायक थे,
भारत से अधिक, विदेश में छाए थे!

उनका राष्ट्रगान, जन गण के नहीं,
अधिनायक जार्ज पंचम; सुर के थे!
उनके सुस्वर जन-मन के गायन से,
ब्रिटिश किंग जॉर्ज पंचम कायल थे!

बंगला भाषा, उन्हें समझ आई नहीं,
पर मधुर काकली से गोरे घायल थे!
बस क्या था राजा की जिज्ञासा बढ़ी,
अंग्रेजी में अनुवादित गीतांजलि पढ़ी!

विलियम रोथेनस्टाइन और यीट्स के,
सह पे गीतांजलि अंग्रेजी में छपी थी!
गीतांजलि नहीं गीता का उपदेश जैसी,
न गीत गोविंद,न हुंकार गोरे के प्रति!

ना कुलीनतंत्र के खिलाफ आवाज थी,
ना जाति बुराई के विरुद्ध रश्मिरथी!
जबकि बंगाल में, अंग्रेजों का डेरा था,
बाल-बहु विवाह, सतीप्रथा ने घेरा था!

बंगाल क्रांतिकारी बलिदान की भूमि,
खुदीराम, बटुकेश्वर की जन्म स्थली!
किन्तु गीतांजलि में, ऐसी कुछ नहीं,
स्वछंद गीतों का गुच्छा शांति-शांति!

गीतांजलि शांति के नोबेल पुरस्कार
के काबिल, एक संकलित रचना थी!
तेरह नवंबर उन्नीस सौ तेरह तिथि,
गीतांजलि को नोबेल से नवाजने की!

अंग्रेजी तेरह की तिथि मनहूस होती,
तेरह अप्रैल जलियांवाला घटना घटी!
तेरह अप्रैल उन्नीस सौ उन्नीस बनी,
अंग्रेजों के गुलाम,भारत की समाधि!

टैगोर ने आत्मग्लानि वश त्याग दी,
अंग्रेजों की नाइटहुड सर की उपाधि!
अंग्रेज बड़े ही शातिर क्रूर-जालिम थे,
बंगाली क्रांति दबाने की ये शांति थी!

टैगोर ब्रह्म समाजी थे, सनातन संग,
रोमन यूरोपीय संस्कृति मिजाजी थे!
टैगोर-गांधी के मतभेद, जगजाहिर थे,
गांधी राष्ट्रवादी,टैगोर मानवतावादी थे!

राष्ट्रवाद विरोधी,जमींदारी प्रथा के यती,
टैगोर बंगाली कुलीनता के,थे हिमायती!
उन्नीस सौ पांच के बंग भंग से उपजी,
आमार सोनार बांगला की अभिव्यक्ति!

बंगाल की दीन-हीन जनता की नहीं थी,
बांग्लादेश में जमींदारी चिंता से निकली!
बंगाल में छद्म भाषा अस्मिता के नाम,
कुलीनतंत्र हीं सदा सत्ता में रहा है हावी!

कभी खादी,कभी मार्क्सवादी, कभी धोती,
तांतसाड़ी में ये कुलीन बंगाल को बांटते!
बंगाली को कुछ और भद्र बंगाली कहके,
शेष भारत से काटकर ये कंगाल बनाते!

बंगाली की विडंबना है कि क्षेत्रीयता से,
वे उबर हिन्दी भाषा लिपि नहीं सीखते!
जबकि बांगला है अंगिका,मैथिली जैसी,
हिन्दी की बोली, जिसे बंगाली नकारते!

बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश की संस्कृति,
बंगाल का कुलीनतंत्र व वर्णाश्रम रीति,
मिथिला,काशी,प्रयाग ,कन्नौज के आर्य,
बंगाल के कैवर्त्त की मिली,जुली जाति!

बंगाल का अलग से कहां है उपलब्धि,
सिवा सेन राजवंश का संस्कृति करण,
अंग्रेजी दमन, कुलीनतंत्र का भ्रम जाल,
एकला चलो रे से बंगाल होगा बदहाल!

कुणाल तुम्हारी सुन्दर आंखें हो गई काल

—विनय कुमार विनायक
कुणाल! तुम महारानी पद्मावती
व मगध सम्राट अशोक के लाल!
तुम्हारी दो आंखें थी खंजन जैसी
सुन्दर, हो गई थी तुम्हारा काल!

कुणाल नयनाभिराम थे इतने कि
विमाता; तिष्य हो गई थी बेहाल!
जैसे एक पूर्वजा उर्वशी अर्जुन को
देखकर मोहित हुई थी पूर्व काल!

कुणाल धर्मविवर्द्धन! तुम्हारी थी
विमाता के प्रति मर्यादा बेमिसाल!
विमाता तिष्यरक्षिता ने खेली थी,
तुम्हें दंड देने की, एक कूट चाल!

तुझे बना दिया गया था प्रांतपति
अशांत प्रांत गांधार का, तत्काल!
तुमने शीघ्र विद्रोह कुचल कर के,
तक्षशिला में शांति किया बहाल!

तुझे तक्षशिला में अधीयताम् हेतु,
पिताश्री ने राजाज्ञा दिया निकाल!
‘कुमार अधीयताम्’ को विमाते ने
‘कुमार अंधीयताम्’ की बिंदु डाल!

तक्षशिला में यूं अंधे हुए कुणाल,
सफल हुई विमाते की कपटचाल!
पिता को ज्ञात हुई पुत्र की दशा,
जब मगध में भटक रहा बेहाल!

कंचनमाला संग एक वीणावादक
गाते मधुर रागिनी में सुर ताल!
अपने पुत्र की स्वर लहरी सुनके
अशोक के हृदय में उठा भूचाल!

बोलो पुत्र, परिचय दो,कहो कैसे?
किसने किया तुम्हें ऐसा बदहाल!
चन्द्रगुप्त प्रपौत्र, बिन्दुसार पौत्र
अशोक सुपुत्र,मैं युवराज कुणाल!

विमाता तिष्यरक्षिता को माफी
दें,पर मैं काकिणी हीन कंगाल!
मैं याचक नहीं, रणवीर क्षत्रिय,
चाहत नहीं मुझे मिले टकसाल!

मगर पुश्तैनी अधिकार चाहिए
सम्प्रति को राजा करो बहाल!
सम्राट अशोक ने छोड़ी गद्दी,
पौत्र को घोषित किया भूपाल!

हर कोई सुन्दर हो कुणाल सा,
सबका चरित्र हो कुणाल जैसा!
सुन्दरता देह नहीं आंखों में है,
सबमें सुन्दरता है मिसाल का!

जीवात्मा के पुनर्जन्म का सिद्धान्त सत्य, नित्य होने सहित विश्वसनीय है

-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य में भूलने की प्रवृत्ति व स्वभाव होता है। वह अपने जीवन में अनेक बातों को कुछ ही समय में भूल जाता है। हमने कल, परसों व उससे पहले किस दिन क्या क्या व कब कब भोजन किया, किस रंग व कौन से वस्त्र पहने थे, किससे कब कब मिले थे, कहां कहां गये थे, यह पूरी तरह से स्मरण नहीं रहता। हम जो बातें करते हैं, उसे करने के बाद दो चार मिनट के अपने भाषण व बातचीत को यथावत् दोहरा नहीं सकते। इससे सिद्ध होता है कि हम बहुत सी बातों को साथ साथ ही भूलते जाते हैं। कुछ बातें ऐसी होती हैं कि जो हमें याद रहती हैं परन्तु हमें सभी बातें याद नहीं रहती, यह भी पूरी तरह से सत्य है। हमें अपनी स्मृति के अनुसार यह ज्ञात नहीं होता कि हमारा इस जन्म से पूर्व कोई जन्म था या नहीं? इसका कारण हमें पूर्वजन्म की विस्मृति होना ही प्रतीत होता है। यदि हमारा पूर्व जन्म नहीं था तो फिर हम इस जन्म में कहां से आ गये? इससे पहले हमारा अस्तित्व था या नहीं? यदि था तो हम जन्म धारण न करने पर क्या करते थे? और यदि हम यह मान लें कि हमारा अस्तित्व ही नहीं था तो फिर हमारा अस्तित्व उत्पन्न कैसे हो गया? किसने उत्पन्न किया व क्यों किया? हम यह भी जानते हैं कि अभाव से किसी भाव पदार्थ को उत्पन्न नहीं किया जा सकता। हर निर्मित वस्तु का उपादान कारण व निमित्त कारण दोनों होते हंै। बिना उपादान कारण व निमित्त कारण के कोई वस्तु बनती नहीं है।

आत्मा एक चेतन पदार्थ है। चेतन पदार्थ किसी जड़ पदार्थ से उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः प्रकृति व सृष्टि के भौतिक पदार्थों से अभौतिक आत्मा की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। प्रकृति से इतर दूसरा चेतन पदार्थ ईश्वर है जो सर्वव्यापक व एकरस होने सहित अखण्डनीय होता है। अतः ईश्वर से भी आत्मा की उत्पत्ति होना असम्भव होता है। यदि आत्मा ईश्वर से उत्पन्न हुआ होता तो इसमें भी ईश्वर की सर्वज्ञता व आनन्द आदि गुण होने चाहियें थे जो कि किसी भी आत्मा में देखे नहीं जाते। इससे आत्मा की सत्ता ईश्वर एवं जड़ प्रकृति से भिन्न व स्वतन्त्र सिद्ध होती है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से आत्मा के अस्तित्व का समाधान हो जाता है। वेद एवं वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति को अनादि, नित्य, अविनाशी तथा अमर बताया गया है। इन तीनों पदार्थों का पृथक पृथक अस्तित्व है। ईश्वर व जीवात्मा दो चेतन पदार्थ है परन्तु दोनों के गुण, कर्म व स्वभाव कुछ समान व कुछ भिन्न हैं। जो गुण, कर्म व स्वभाव भिन्न हैं उनसे दोनों पदार्थों की पृथक पृथक सत्ता का होना सिद्ध होता है। इस प्रकार से ईश्वर व जीवात्मा दो पृथक सत्तायें व पदार्थ सिद्ध होते हैं। दोनों ही चेतन, अनादि, नित्य, अविनाशी तथा अमर हैं। ईश्वर सर्वज्ञ, अजन्मा एवं सर्वव्यापक तथा जीव एकदेशी, अल्पज्ञ तथा जन्म-मरण धारण करने वाला है। जीवात्मा का अनादि व नित्य होना तथा जन्म व मरण धारण करने से आत्मा का पूर्वजन्म व पुनर्जन्म होना सत्य सिद्ध होता है। प्रकृति जड़ पदार्थ है जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था को कहते हैं। इसी से परमात्मा ने सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्रों आदि से युक्त यह समस्त सृष्टि बनाई है। वही इसका पालन व नियंत्रण करता है। उसी से इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय होता है। यह सृष्टि ईश्वर के अपने किसी प्रयोजन के लिए नहीं है अपितु यह ईश्वर के पुत्र व पुत्री समान जीवात्माओं के भोग व अपवर्ग=मोक्ष के लिए बनाई गई है। जीवात्मा ही इस सृष्टि में सुख व दुःखों का भोक्ता सिद्ध होता है। सृष्टि में जन्म लेकर सुखों के भोग के कारण ही जीवात्मा कर्म के बन्धनों में फंसता है और कर्मों का फल भोगने के लिए ही इसका अनादि काल से बन्धन, अवागमन व मोक्ष होता आ रहा है। इसका विस्तृत उल्लेख वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में देखा जा सकता है। 

मनुष्य को अपने व दूसरों के पूर्वजन्म के अनेक संकेत मिलते हैं। मनुष्य की सन्तान उत्पन्न होती है तो वह बिना सिखाये माता का दुग्ध पीना आरम्भ कर देती है। नियम है कि मनुष्य कोई काम बिना सीखे वा सिखाये नहीं कर सकता। नवजात शिशु के दूध पीने से यह ज्ञात होता है कि इसे पूर्वजन्मों में माता का दुग्ध पीने का अभ्यास है, उन्हीं संस्कारों की स्मृति व अभ्यास से सन्तान बिना सिखाये अपनी माता का दुग्ध पान करती हैं। सभी बच्चे समान रूप से रोते हैं। रोना भी पुराने संस्कारों व अभ्यास के कारण से ही होता है। बच्चों में यह भी देखा जाता है कि वह निद्रा में कभी मुस्कराते हैं तथा कभी डर कर चैंक जाते हैं। मुस्कराने का कारण किसी पुरानी स्मृति को स्मरण करना होता है। इससे भी यह विदित होता है कि शिशु की जीवात्मा अपने पूर्वजन्म की स्मृतियों को, जो जन्म के समय तक वह भूली नहीं हैं, स्मरण कर ही मुस्कराता है। इसी प्रकार से सोते सोते डरने या चैंकने का कारण भी उसके पूर्वजन्म की स्मृतियां ही होती हैं। एक ही माता पिता से कई बच्चे जन्म लेते हैं। सभी भाई बहिनों को माता पिता एक समान वातावरण देते हैं। उनका भोजन वह रहन सहन समान होता है। ऐसे में देखा जाता है कि सभी बच्चों की प्रवृत्तियां, रुचियां, पसन्द नापसन्द तथा भोजन में रुचि भिन्न-भिन्न होती है। भाई बहिनों में यह भी देखा गया है कि एक की बुद्धि व स्मरण शक्ति दूसरों से न्यून व उत्तम कोटि की होती है। इससे भी पूर्वजन्म के संस्कारों का होना सिद्ध होता है। एक ही आचार्य से पढ़ने वाले सभी शिष्यों का उस विषय का ज्ञान एक जैसा नहीं होता। वह उनकी ग्राह्य शक्ति के अनुरूप न्यून व अधिक होता है। यदि पुनर्जन्म न होता तो सभी मनुष्यों की प्रवृत्तियां, खाने व जीवन शैली की पसन्द तथा ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता एक समान होती। यहां हम देखते हैं कि कोई कला विषय को पसन्द करता है तो कोई विज्ञान को। कोई विधि विषय को पसन्द करता है तो विज्ञान व गणित आदि विषयों को। मनुष्य की इन सब प्रवृत्तियांे का कारण पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को मान लेने पर आसानी से समझ में आ जाता है और इससे पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी सिद्ध हो जाता है। 

पुनर्जन्म पर सुप्रसिद्ध ग्रन्थ गीता का एक श्लोक में एक वाक्य प्राप्त होता है जिसे सभी वैदिक व पौराणिक अपना आदर्श वाक्य मानते हैं। वह है ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’। इसमें कहा गया है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु होना निश्चित व अवश्यम्भावी है। संसार में सबका यही अनुभव है कि जो जन्म लेता है वह मरता है। इस श्लोक वाक्य में यह भी कहा गया है जन्मे व्यक्ति की मृत्यु ध्रुव व अटल है इसी प्रकार से मरने वाले मनुष्य व आत्मा का जन्म वा पुनर्जन्म होना भी ध्रुव व अटल है। हमें लगता है कि यह ऐसा प्रबल तर्क है कि जिसका खण्डन नहीं किया जा सकता। यह शास्त्रों के जीव के भोग व अपवर्ग प्राप्ति के सिद्धान्त का पोषक सिद्धान्त होने से सर्वथा सत्य एवं मान्य है। यहां हमें कर्म-फल भोग विषयक सर्वमान्य सिद्धान्त का भी ध्यान आता है। उसमें कहा गया है कि ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं’। इसका अर्थ है कि जीवात्मा वा मनुष्य को अपने किये शुभ व अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। मनुष्य जीवन भर कर्म करता है। यह शुभाशुभ कर्म मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं क्रियमाण, संचित कर्म व प्रारब्ध कर्म। क्रियमाण कर्मों का फल साथ साथ मिल जाता है। संचित कर्मो। का फल जीवन के शेष भाग में मिल जाता है। प्रारब्ध कर्मों का फल पुनर्जन्म के रूप में प्राप्त होता है। योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि जी ने भी कहा है कि मनुष्य के प्रारब्ध कर्मों के अनुसार ही जीवात्मा का आगामी पुनर्जन्म जिसमें जाति, आयु व भोग सम्मिलित हैं, परमात्मा द्वारा निर्धारित किया जाता है। यह सर्वथा सत्य एवं निर्विवाद है परन्तु कुछ अविद्या से युक्त मनुष्य इसे भी बिना किसी तर्क व युक्ति के स्वीकार नहीं करते। इन सब युक्तियों व प्रमाणों से अनादि व नित्य जीवात्मा का पुनर्जन्म होना सत्य सिद्ध होता है। 

ऋषि दयानन्द के पूना में दिए गये पन्द्रह प्रवचन उपलब्ध हैं। इनमें छठा प्रवचन जन्म विषयक है जो उन्होंने शनिवार 17 जुलाई, 1875 को स्थान बुधवार पेठ में भिड़े के बाडे में दिया था। जन्म व पुनर्जन्म विषय पर यह महत्वपूर्ण उपदेश व प्रवचन है। पुनर्जन्म विषय में रुचि लेने वाले सभी मित्रों को इसको अवश्य पढ़ना चाहिये। इसमें मनुष्य को अपने पूर्वजन्म का ज्ञान क्यों नहीं रहता, वह उसे क्यों भूल जाता है, इस पर प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं ‘जीव का ज्ञान दो प्रकार का है--एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक है। स्वाभाविक ज्ञान नित्य रहता है और नैमित्तिक ज्ञान की घटती-बढ़ती, न्यूनाधिक और हानि-लाभ आदि ये सब प्रसंग आते रहते हैं। इसका दृष्टान्त-जैसे अग्नि में ‘दाह करना’ यह स्वाभाविक धर्म है अर्थात् यह धर्म तो अग्नि के परमाणुओं में भी रहता है। यह उसका निज धर्म उसे कभी भी नहीं छोड़ता। इसलिए अग्नि की दाहक शक्ति का जो ज्ञान है वह स्वाभाविक ज्ञान होता है। अब जीव को -‘‘मैं हूं” अर्थात् अपने अस्तित्व का जो ज्ञान है वह स्वाभाविक है। फिर भी देखो कि (अग्नि के) संयोग के कारण जल में उष्णता धर्म उत्पन्न होता है, और वियोग होने से वह उष्णता धर्म नहीं रहता। इसलिए जल के उष्णता विषय का जो ज्ञान है वह नैमित्तिक ज्ञान है। जल में शीतलता विषय का जो ज्ञान है वह स्वाभाविक ज्ञान है, परन्तु चक्षु, श्रोत्र इत्यादि इन्द्रियों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आत्मा का नैमित्तिक ज्ञान है। यह नैमित्तिक ज्ञान तीन कारणों से उत्पन्न होता है--देश, काल और वस्तु। इन तीनों का जैसा जैसा कर्मेन्द्रियों के साथ सम्बन्ध होता है वैसे-वैसे संस्कार आत्मा पर होते हैं। अब जैसे-जैसे ये निमित्त निकल जाते हैं, वैसे-वैसे इस नैमित्तिक ज्ञान का नाश होता है, अर्थात् पूर्व जन्म का देश, काल, शरीर का वियोग होने से उस समय का नैमित्तिक ज्ञान नहीं रहता। इसको छोड़ इस विचार में एक बात और ध्यान में रखने योग्य है कि ज्ञान का स्वभाव ऐसा है कि वह अयुगपत् क्रम से होता है अर्थात् एक ही समयावच्छेद करके आत्मा के बीच दो तीन ज्ञान एकदम स्फुरित नहीं हो सकते। इस नियम की पापिका से पूर्वजन्म के विस्मरण का समाधान भली-भांति हो जाता है। इस जन्म में ‘मैं हूं’ अर्थात् अपनी स्थिति का ज्ञान आत्मा को ठीक-ठीक रहता है, इसलिए, पूर्वजन्म के ज्ञान का स्फुरण आत्मा को नहीं होता।’

हमने इस लेख में जीवात्मा के अनादि व नित्य होने सहित आत्मा के पूर्व व पुनर्जन्म पर कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। हमें लगता है कि इन विचारों से आत्मा के पुनर्जन्म होने की पुष्टि होती है। पुनर्जन्म पर अनेक विद्वानों के प्रामाणिक ग्रन्थ मिलते हैं। उनके अध्ययन से जिज्ञासु बन्धुओं की सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती है। पुनर्जन्म का होना विद्या से युक्त सिद्धान्त है और न मानना अविद्या के कारण से होता है। इसी लिए ऋषि दयानन्द ने सिद्धान्त दिया है कि अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।

राष्ट्र के वैभव का परिचायक है विज्ञान

वास्तविक ज्ञान ही विज्ञान है।प्राकृतिक विज्ञान प्रकृति और भौतिक दुनिया का व्यवस्थित ज्ञान होता है,या फ़िर इसका अध्ययन करने वाली इसकी कोई शाखा। असल में विज्ञान शब्द का उपयोग लगभग हमेशा प्राकृतिक विज्ञानों के लिये ही किया जाता है। इसकी तीन मुख्य शाखाएँ हैं : भौतिकी,रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान। रसायन का वास्तविक ज्ञान,रसायन विज्ञान है। भौतिकी का वास्तविक ज्ञान,भौतिक विज्ञान है। जीव का वास्तविक ज्ञान,जीव विज्ञान है। कृषि का वास्तविक ज्ञान,कृषि विज्ञान है। खाद्य का वास्तविक ज्ञान,खाद्य विज्ञान है। दुग्ध का वास्तविक ज्ञान दुग्ध विज्ञान है। आदि ऐसे अनेक क्षेत्रों में विज्ञान है। रसायन,भौतिकी,जीव-जंतु ,कृषि,खाद्य,दुग्ध,आदि अनेक क्षेत्रों के वास्तविक ज्ञान से राष्ट्रहित संभव है। विज्ञान में जो महारथ हासिल कर ले वो वैज्ञानिक है। वो विज्ञान जो अविष्कार या खोज के द्वारा विश्व पटल पर चरितार्थ हो,राष्ट्रीय विज्ञान कहलाता है। भारत देश में अनेक वैज्ञानिक हुए जो विज्ञान के क्षेत्र में अनेक शोध या अविष्कार किये। उनकी यही खोज या अविष्कार,राष्ट्र को विश्व पटल पर चरितार्थ करता है। अतएव हम कह सकते हैं की ऐसा विज्ञान जो राष्ट्र को विश्व पटल पर चरितार्थ करे,वो राष्ट्रीय विज्ञान है। भारत में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तत्वावधान में सन् 1986 से प्रति वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस (नेशनल साइंस डे) मनाया जाता है। प्रोफेसर सी वी रमन (चंद्रशेखर वेंकटरमन) ने सन् 1928 में कोलकाता में इस दिन एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज की थी,जो ‘रमन प्रभाव’ के रूप में प्रसिद्ध है। रमन की यह खोज 28 फरवरी 1930 को प्रकाश में आई थी। इस कारण 28 फरवरी राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस कार्य के लिए उनको 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस दिवस का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति आकर्षित करना,प्रेरित करना तथा विज्ञान एवं वैज्ञानिक उपलब्धियों के प्रति सजग बनाना है। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस देश में विज्ञान के निरंतर उन्नति का आह्वान करता है,परमाणु ऊर्जा को लेकर लोगों के मन में कायम भ्रातियों को दूर करना इसका मुख्य उद्देश्य है तथा इसके विकास के द्वारा ही हम समाज के लोगों का जीवन स्तर अधिक से अधिक खुशहाल बना सकते हैं। रमन प्रभाव में एकल तरंग- धैर्य प्रकाश (मोनोक्रोमेटिक) किरणें जब किसी पारदर्शक माध्यम ठोस,द्रव या गैस से गुजरती है तब इसकी छितराई किरणों का अध्ययन करने पर पता चला कि मूल प्रकाश की किरणों के अलावा स्थिर अंतर पर बहुत कमजोर तीव्रता की किरणें भी उपस्थित होती हैं। इन्हीं किरणों को रमन-किरण भी कहते हैं। भौतिक शास्त्री सर सी वी रमन एक ऐसे महान आविष्कारक थे,जो न सिर्फ लाखों भारतीयों के लिए बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। यह किरणें माध्यम के कणों के कम्पन्न एवं घूर्णन की वजह से मूल प्रकाश की किरणों में ऊर्जा में लाभ या हानि के होने से उत्पन्न होती हैं। रमन किरणों का अनुसंधान की अन्य शाखाओं जैसे औषधि विज्ञान,जीव विज्ञान,भौतिक विज्ञान,खगोल विज्ञान तथा दूरसंचार के क्षेत्र में भी बहुत महत्व है।
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस(नेशनल साइंस डे) सत्र 2021 ई. का प्रसंग (थीम) है – “एस टी आई का भविष्य : शिक्षा कौशल और कार्य पर प्रभाव ” (फ्यूचर ऑफ़ एस टी आई : इम्पैक्ट्स ऑन एजुकेशन,स्किल्स एंड वर्क)। एस टी आई का तात्पर्य – साइंस(विज्ञान),टेक्नोलॉजी(प्रौद्योगिकी) और इनोवेशन(नवाचार) से है। यह विषय शिक्षा,कौशल और कार्य पर विज्ञान,प्रौद्योगिकी और नवाचार के भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालता है। मुंशी प्रेमचंद ने क्या खूब कहा है -“विज्ञान में इतनी विभूति है कि वह काल के चिह्नों को भी मिटा दे।” विज्ञान किसी भी राष्ट्र के वैभव का परिचायक होता है। विज्ञान में ढेर सारी खूबियां होती है जो राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है। कहावत है – ‘आवश्यकता अविष्कार की जननी है’ अर्थात जब हमें किसी चीज़ की बहुत जरुरत पड़ती हैं और अगर हम उस विशिष्ट चीज़ के बिना खुश नहीं रह सकते हैं या जीवित नहीं रह सकते हैं तो हम उस आवश्यकता को पूरा करने के तरीके खोजते हैं जिसके परिणामस्वरूप नई चीज़ का अविष्कार होता है। अविष्कारों ने विज्ञान को जन्म दिया। अविष्कार अर्वाचीन (नए) को जन्म देता है। प्राचीन को अर्वाचीन (नए) में बदलने की शक्ति विज्ञान में है। शिक्षा से विज्ञान,कौशल से प्रौद्योगिकी और कार्य से नवाचार को शक्ति मिलती है। इन तीनो से किसी भी राष्ट्र का भविष्य सुदृढ़ ही नहीं अपितु विकसित भी होता है। कोई भी अविष्कार बिना कार्य के संभव नहीं है। कोई भी टेक्नोलॉजी(प्रौद्योगिकी) बिना स्किल(कौशल) के संभव नहीं है। किसी भी क्षेत्र का विज्ञान बिना शिक्षा के संभव नहीं है। विज्ञान जीवन को शिक्षा प्रदान करता है। प्रौद्योगिकी जीवन को ऊर्जा और स्फूर्ति प्रदान करता है। अविष्कार जीवन को सरल और सुगम बनाता है। तीनो मिलकर कर के मानव जीवन को नया रूप प्रदान करते हैं। शिक्षा,कौशल और कार्य पर क्रमशः विज्ञान,प्रौद्योगिकी व नवाचार का पड़ने वाला प्रभाव राष्ट्र को प्रभावित करता है। अतएव विज्ञान,प्रौद्योगिकी व नवाचार का प्रयोग राष्ट्रहित में होना चाहिए। विज्ञान,प्रौद्योगिकी व नवाचार का आधार पर्यावरण हितैषी (इको फ्रेंडली) होना चाहिए। क्योंकि प्रकृति और मानव एक दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति से मानव है और मानव से विज्ञान,प्रौद्योगिकी और नवाचार है। तब विज्ञान,प्रौद्योगिकी और नवाचार का शिक्षा,प्रौद्योगिकी और कार्य पर अच्छा असर पड़ेगा और मानव जाती प्रबल बनेगी। कोई भी राष्ट्र बिना मानव के संभव नहीं है। राष्ट्र मानव श्रृंखला से ही निर्मित होता है। अतएव विज्ञान,प्रौद्योगिकी और नवाचार मानव जीवन को सबल बनाने वाला होना चाहिए। विज्ञान सत्य को उजागर करता है। विज्ञान असत्य पर सत्य की जीत का परिचायक है। विज्ञान अंधविश्वास को ख़त्म करता है। विज्ञान जीवन को विश्वास से परिपूर्ण करता है। सर आर्थर इग्नाशियस कॉनन डॉयल ने कहा था कि “विज्ञान व्यग्रता और अन्धविश्वास रूपी जहर की अचूक दवा है।“ सर आर्थर इग्नाशियस कॉनन डॉयल,(22 मई 1859 – जुलाई 7,1930) एक स्कॉटिश चिकित्सक और लेखक थे।
देश में विज्ञान,प्रौद्योगिकी,नवाचार एवं शोध को प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 2021 के बजट में विशेष प्रावधान किए गए हैं। इस वर्ष,विज्ञान-प्रौद्योगिकी विभाग और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के बजट में 30 प्रतिशत बढ़ोतरी की गई है। इन दोनों विभागों को कुल 16,695 करोड़ रुपये बजट में प्रदान किए गए हैं। वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान विभाग (डीएसआईआर) के बजट में 22.88 प्रतिशत,डीएसटी के बजट में 21.14 प्रतिशत,डीबीटी 52.28 प्रतिशत और पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के बजट में 45.93 प्रतिशत वृद्धि की गई है। इसके अलावा,अंतरिक्ष विभाग के अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड और हाइड्रोजन एनर्जी मिशन शुरू करने की घोषणा भी इस बार बजट में की गई है। नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के लिए 50,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। साथ ही डीप ऑशन मिशन लॉन्च किया जाएगा,जिसका बजट 4,000 करोड़ रुपये से अधिक होगा। इसके अलावा अनुसंधान एवं विकास संस्थानों के बीच बेहतर तालमेल के लिए 9 शहरों में अम्ब्रेला स्ट्रक्चर स्थापित किए जाएंगे।
अभी हाल ही में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक विशाल ब्लैक होल से अत्यधिक रोशनी दिखाई देने का दावा किया है। इस ब्लै क होल का नाम बीएल लैकेर्टे रखा गया है। भारतीय वैज्ञानिकों के इस दावे पर आश्चञर्य इसलिए हो रहा है क्योंाकि माना जाता है कि ब्लै क होल में खगोलीय पिंड गिर तो सकती हैं लेकिन बाहर नहीं आ सकते। इसे ब्लैिक होल नाम देने के पीछे यह तर्क है कि यह अपने ऊपर पड़ने वाले प्रकाश को भी अवशोषित कर लेता है यानी ब्लै क होल प्रकाश को भी अपने में समाहित कर लेता है कुछ भी परावर्तित नहीं करता। इस खोज से ब्रह्मांड की उत्पत्ति के राज को सुलझाने में मदद मिलेगी।
अतएव हम कह सकते है कि भौतिक शास्त्री सर सी वी रमन एक ऐसे महान अविष्कारक थे,जिन्होंने अपने अविष्कार (रमन इफेक्ट) के द्वारा,राष्ट्र को विश्व पटल पर चरितार्थ किया । राष्ट्र के विकास के तीन स्तम्भ हैं : जवान,किसान और विज्ञान। हम कह सकते हैं जय जवान ,जय किसान और जय विज्ञान। जवान राष्ट्र की सुरक्षा के दृषिकोण से,किसान राष्ट्र के खाद्यान के दृष्टिकोण से और विज्ञान राष्ट्र के शिक्षा के दृष्टिकोण से अहम् हैं। विज्ञान राष्ट्र का गौरव है। हम कह सकते हैं कि विज्ञान,किसी भी राष्ट्र के वैभव का आधार होता है |


डॉ. शंकर सुवन सिंह

साधना से पायी परम अवस्था : संत रविदास

                    
 
              जिस नवधा-भक्ति का रामचरितमानस में प्रतिपादन हुआ हैउसमें नौ प्रकार की भगवान की भक्ति के मार्ग बताये गए  हैं. परन्तु चौदहवीं सदी के समाप्त होते-होते रामानंद स्वामी के प्रताप से एक और प्रकार की भक्ति इसमें आ जुड़ी. माधुर्य-भक्ति के नाम से विख्यात  इस दसवीं भक्ति में कुछ और की कामना न करते हुए भक्त प्रेम की खातिर भगवान से प्रेम करता हैभक्ति में लीन रहता है. आगे चलकर  ऐसे भक्तों की संख्या नें जब  बड़ा आकार लेना शुरू किया,तो इनका अपना एक अलग समूह अस्तित्व में आ गया जो की ‘रसिक-सम्प्रदाय’ कहलाया. ईसवीं सन १३९९ में मुग़लसराय में चर्मकार परिवार में  जन्में रविदास इस रसिक सम्प्रदाय के महान संतों में से एक हुएअन्य संत थे कबीरधन्ना,सेन,पीपा,पद्मावती आदि- सब के सब वंचित समाज से और रामानंद स्वामी के द्वारा द्वारा दीक्षित थे.   
       रविदास के माता-पिता रामानंद पर बड़ी श्रद्धा रखते थे,जिनका सानिध्य उन्हें सदा प्राप्त होता  रहता था.ऐसा माना जाता है कि आगे चलकर जिस पुत्र-रत्न,रविदास,की उन्हें प्राप्ति हुई वह रामानंद की ही कृपा का परिणाम था.जैसे-जैसे समय आगे बढता गया परिवार पर रामानंद स्वामी का प्रभाव बालक रविदास पर परिलक्षित होने लगा,और उनका झुकाव इश्वर-भक्ति की ओर बढने लगा. धीरे-धीरे वो इतना अधिक भगवत-अभिमुख हो चले कि उनके माता-पिता को भी  चिंता सताने लगी की  उनका बालक कहीं वैरागी ही  न हो जाये. उन्होंने उसे चर्मकारी के अपने पैतृक व्यवसाय में लगा दिया और शादी भी कर दीइस उम्मीद से कि किसी तरह तो लड़के का ध्यान भोतिक-संसार में लगे.पर रविदास पर इसका प्रभाव कम ही पड़ा.रामानंद स्वामी  के दिव्य सानिध्य में वेद,उपनिषद् आदि शास्त्रों का उनका अध्ययन जारी रहा,वैसे इसके साथ वो जूते-चप्पल बनाने के काम को भी पूरे लगन से करते रहे. ऐसे में उन्हें जब भी मौका मिलता वो रामानंद के साथ विभिन्न स्थलों पर होने वाले शास्त्रार्थ में शामिल होने लगे.फिर एक समय वो आया कि बडे से बड़े पंडित और आचार्य शास्त्रार्थ में रविदास के सम्मुख नतमस्तक होने लगे.
        जल्दी ही रविदास और उनकी अध्यात्मिक तेजस्विता के किस्से चारों ओर पहुँचने लगे,और वे जब काशी-नरेश के कानों में पड़े तो उन्होंने उन्हें अपने महल में आमंत्रित किया.रविदासजी  की भक्ति के  प्रताप से काशी-नरेश इतने प्रभावित हो उठे  कि उन्होंने उन्हें राजपुरोहित  की पदवी से विभूषित  कर दिया. राजमंदिर की पूजा -अर्चना की जिम्मेदारी अब उन पर थी.रविदासजी अब उस दिव्य अवस्था को प्राप्त कर चुके थे कि उनके सत्संग में शमिल होने दूर-दूर से हर वर्ग के लोग आने लगे.अपने समकालीन संत-समाज से ज्ञान और दृष्टिकोण दोनो ही स्तर पर  वो कहीं आगे थे. धर्म होचाहे समाज दोनों के क्रिया-कलाप सभी  प्रकार के भेदभाव से मुक्त रहें इस पर उनका बड़ा जोर रहता  था. धर्म के प्रति किसी भी प्रकार के एकान्तिक दृष्टिकोण को नकारते हुए वो बताते थे कि मोक्ष की प्राप्ति किसी भी मार्ग से हो सकती है-चाहे वो इश्वर के  साकार रूप की उपासना करके हो चाहे निराकार  रूप की. अध्यात्मिक होने के कारण सांसारिक बंधन से वो परे जरूर थेपर राष्ट्रीय  हित के मुद्दों के प्रति उदासीन भी न थे . हिन्दुओं की दुर्दशा पर वो बड़े आहत थे और मुसलमान शासकों की इस बात की भर्त्सना करते  थे कि वो हिदुओं को काफ़िर मानकर व्यवहार करते हैं.  सिकंदर लोधी ने उन्हें मुसलमान बनाने की जब कोशिशें करी तो उनका उत्तर था-‘वेद वाक्य उत्तम धर्मा, निर्मल वाका ज्ञान; यह सच्चा मत छोड़कर, मैं क्यों पढूं कुरान.’ इसके बाद भी जब सिकंदर लोधी नें सदना नाम के एक पहुँचे हुए  पीर को रविदास जी के पास उनको इस्लाम का प्रभाव दिखलाकर मुसलमान बनानें के लिए भेजा, तो इसका परिणाम उल्टा ही हुआ. रविदास जी की आध्यात्मिकता से सदना इतना भाव विभोर हो उठा कि वो  हिन्दू बन रामदास नाम से उनका  शिष्य बन गया.  
         ये वो समय था जबकि चित्तोड़गढ़ के राजा राना सांगा हुआ करते थे. एक बार अपनी पत्नी,रानी झाली के संग गंगा-स्नान के लिए उनका काशी आना हुआ.स्थानीय लोगों से रविदासजी के बारे में मालूम पड़ने पर वे उनके सत्संग में सम्मलित होने जा पहुंचे. जिस दिव्य आनंद की अनुभूति उन्हें यहाँ हुई उससे अभिभूत हो उन्होंनेरानी झाली समेतउन्हें अपना गुरु बना लियाऔर राजकीय-अतिथि के रूप में चित्तोड़गढ़ आने का निमंतरण दिया. और एक बार ये सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर रविदासजी का चित्तोड़गढ़ आना-जाना चलता ही रहा.उनके इन प्रवासों का ही परिणाम था कि मीराबाई,रानी झाली की पुत्रवधु,के हृदय में कृष्ण-भक्ति के बीज पड़ेऔर आगे चलकर उन्होंने रविदासजी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया. फिर एक समय ऐसा भी आया कि रानी झाली के आग्रह पर चित्तोड़गढ़ को उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लियाऔर वहीं से परलोकगमन की अपनी अंतिम यात्रा पूरी की.

‘समय‘ आने पर बीजेपी देगी राहुल के विवादित बयान को धार

संजय सक्सेना
लखनऊ। राजनीति में टाइमिंग का बेहद महत्व होता है। कब कहां क्या बोलना है और कब किसी मुद्दे या विषय पर चुप्पी साध लेना बेहतर रहता है। इस बात का अहसास नेताओं को भली प्रकार से होता है,जो नेता यह बात जितने सलीके से समझ लेता है,वह सियासत की दुनिया में उतना सफल रहता है। आगे तक जाता है। मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस मामले में अव्वल हैं तो कांगे्रस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं है कि कब कहां, क्या बोलना सही रहता है। यही वजह है कि सियासत की दुनिया में मोदी नये मुकाम हासिल कर रहे हैं, वहीं राहुल गांधी हासिए पर पड़े हुए हैं। राहुल की बातों को सुनकर लगता ही नहीं है कि उन्हें सियासत का कखहरा भी आता है,जबकि उन्होंने जन्म से घर में सियासी माहौल देखा था। राहुल गांधी से पूर्व नेहरू-गांधी परिवार ने जनता की नब्ज को पहचानने में महारथ रखने के चलते ही वर्षो तक देश पर राज किया था।
पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू हों या फिर इंदिरा और हद तक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी यह बात जानते-समझते थे कि कैसे जनता से संवाद स्थापित किया जाता है। राजीव गांधी ही की तरह सोनिया गांधी को भी तमाम लोग एक सफल राजनेत्री मानते थे, लेकिन राहुल-प्रियंका इस मामले में कांगे्रस की सबसे कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं,लेकिन अब कांगे्रस के पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है। राहुल गांधी की असफलता के बाद कांगे्रस प्रियंका वाड्रा को ‘ट्रम्प कार्ड’ के रूप में लेकर आगे आई थी,लेकिन अब प्रियंका की भी सियासी समझ पर सवाल उठने लगे हैं वह भी धीरे-धीरे एक्सपोज हो रही हैं। सियासत का एक दस्तूर होता है,यहां हड़बड़ी से काम नहीं चलता है। बल्कि पहले मुद्दों को समझना होता है फिर सियासी दांवपेंज चले जाते हैं।
यह कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा की जनता की नब्ज पहचानने की कूबत जमीन और जनता से जुड़े नेताओं में समय के साथ स्वतः ही विकसित होती रहती हैं। इसके लिए कोई पैमाना नहीं बना है। इसी खूबी के चलते ही तो बाबा साहब अंबेडकर, डा0 राम मनोहर लोहिया, सरदार पटेल, जयप्रकाश नारायण, चैधरी चरण सिंह, देवीलाल, जगजीवन लाल, अटल बिहारी वाजपेयी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, सुश्री मायावती, ममता बनर्जी,नीतिश कुमार, अरविंद केजरीवाल जैसे तमाम नेताओं को आम जनता ने फर्श से उठाकर अर्श पर बैठा दिया। यह सब नेता जनता की नब्ज और परेशानियों को अच्छी तरह से जानते-समझते थे। जनता के साथ रिश्ते बनाने की कला इनको खूब आती थी। उक्त तमाम नेता जन-आंदोलन से निकले थे।राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा, अखिलेश यादव,तेजस्वी यादव, चिराण पासवान की तरह उक्त नेताओं को अपने बाप या परिवार से किसी तरह की कोई सियासी विरासत नहीं मिली थी। किसी तरह की सियासी विरासत का नहीं मिलना ही, उक्त नेताओं की राजनैतिक कामयाबी का मूलमंत्र था।
बहरहाल,सियासत में टाइमिंग का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि कांगे्रस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान पर कहीं कोई खास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि राहुल का बयान ‘नेपथ्य’ में चला गया है। बीजेपी नेता यदि राहुल पर हमलावर नहीं हैं तो इसकी वजह है दक्षिण के राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाव। बीजेपी दक्षिण भारत के चुनावों में उत्तर भारतीयों पर दिए राहुल गांधी के बयान पर हो-हल्ला करके बीजेपी दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में होने वाले विधान सभा में होने वाले चुनाव में कांगे्रस को कोई सियासी फायदा नहीं पहुंचाना चाहती है, लेकिन अगले वर्ष जब उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव होंगे तब जरूर बीजेपी राहुल के बयान को बड़ा मुद्दा बनाएगी और निश्चित ही इसका प्रभाव भी देखने को मिलेगा। बीजेपी नेताओं को तो वैसे भी इसमें महारथ हासिल है।
खासकर, प्रधानमंत्री मोदी चुनाव के समय ही विपक्ष के खिलाफ मुखर होते हैं, तब वह विरोधियों के अतीत में दिए गए बयानों की खूब धज्जियां उड़ाते हैं। सोनिया गांधी के गुजरात में मोदी पर दिए गए बयान ‘खून का सौदागार’ को कौन भूल सकता है, जिसके बल पर मोदी ने गुजरात की सियासी बिसात पर कांगे्रस को खूब पटकनी दी थी। इसी प्रकार कांगे्रस नेता मणिशंकर अय्यर ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व जब मीडिया से रूबरू होते हुए यह कहा कि एक चाय वाला भारत का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता है तो इसी एक बयान के सहारे मोदी ने लोकसभा चुनाव की बिसात ही पलट दी। मोदी ने मणिशंर के बयान को खूब हवा दी।
दरअसल, जनवरी 2014 को मणिशंकर अय्यर ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था,‘ 21वीं सदी में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन पाएं, ऐसा मुमकिन नहीं है। मगर, वह कांग्रेस के सम्मेलन में आकर चाय बेचना चाहें, तो हम उनके लिए जगह बना सकते हैं।’ इस बयान पर ऐसा बवाल हुआ था कि कांग्रेस को जवाब देते नहीं बन रहा था। कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां भी अय्यर के इस बयान के खिलाफ खड़ी हो गई थीं और कहा था कि मोदी को चायवाला कहना गलत है।
इसी प्रकार 2014 के लोकसभा चुनाव के समय ही एक जनसभा में भाषण देते हुए प्रियंका वाड्रा ने मोदी को नीच कह दिया था। प्रियंका गांधी ने मोदी की राजनीति को नीच बताया था। तब मामला नीच जाति तक पहुंच गया था। हुआयूं कि अमेठी में नरेंद्र मोदी ने स्व. राजीव गांधी पर सीधा हमला बोला था, जिसके बाद उनकी बेटी प्रियंका गांधी ने कहा था कि मोदी की ‘नीच राजनीति’ का जवाब अमेठी की जनता देगी। मोदी ने प्रियंका के इस बयान को नीच राजनीति से निचली जाति पर खींच लिया और बवंडर खड़ा कर दिया। मोदी ने तब प्रियंका की नीच राजनीति वाले बयान पर कहा था कि सामाजिक रूप से निचले वर्ग से आया हूं, इसलिए मेरी राजनीति उन लोगों के लिये ‘नीच राजनीति’ ही होगी। हो सकता है कुछ लोगों को यह नजर नहीं आता हो, पर निचली जातियों के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ की देश को इस ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका है। प्रियंका के बयान पर कांग्रेस सफाई देते-देते परेशान हो गई,लेकिन इससे उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ और इसका खामियाजा कांग्रेस को सबसे बड़ी हार के रूप में भुगतना पड़ा।
लब्बोलुआब यह है कि राजनीति में कभी कोई मुद्दा या बयान ठंडा नहीं पड़ता है। आज भले ही बीजेपी के बड़े नेता राहुल गांधी के उत्तर भारतीयों पर दिए गए बयान को लेकर शांत दिख रहे हों,लेकिन राहुल के बयान के खिलाफ चिंगारी तो सुलग ही रही है। वाॅयनाड से पूर्व के अमेठी से संासद रहे कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का केरल में उत्तर भारतीयों को लेकर दिया गया बयान न उनके पूर्व चुनाव क्षेत्र अमेठी के लोगों को रास आ रहा है न ही कांग्रेस के गढ़ रहे रायबरेली के लोगों को। लोगों का कहना है कि रायबरेली और अमेठी के लोगों ने गांधी परिवार को अपना नेता माना था और यह(अमेठी) उत्तर भारत में ही है। ऐसे में उनकी टिप्पणी उचित नहीं है। ऐसा बोलकर उन्होंने अपनों को पीड़ा पहुंचाई है। अमेठी से वह चुनाव जरूर हारे, लेकिन रायबरेली का प्रतिनिधित्व उनकी मां के हाथ में है।

वैदिक धर्मियों के लिये राष्ट्र वन्दनीय है तथा सत्यार्थप्रकाश इसका पोषक है

-मनमोहन कुमार आर्य
संसार में मत-मतान्तर तो अनेक हैं परन्तु धर्म एक ही है। वेद ही एकमात्र सर्वाधिक व पूर्ण मानवतावादी धर्म है। वेद में निर्दोष प्राणियों, मनुष्य व पशु-पक्षी आदि किसी के प्रति भी, हिंसा करने का कहीं उल्लेख नहीं है। वेद की विचारधारा मांसाहार को सबसे बुरा मानती है। वेद मनुष्य को सभी प्राणियों के प्रति दया, प्रेम, करूणा, ममता, स्नेह, समभाव, स्वात्मवत-भावना रखने की प्रेरणा करते हैं। आर्यसमाज के संस्थापक व वेदों के महान ऋषि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि मनुष्य उसी को कहना चाहिये कि जो सभी मनुष्यों के प्रति स्वात्मवत् सुख व दुःख व हानि लाभ की भावना रखते हों। वह जैसा अपने लिये सुख व दुःख को मानते हैं उसी प्रकार से दूसरे मनुष्यों व प्राणियों के लिये भी माने। हमें कांटा लगने पर दुःख होता है तो वह यह समझे कि दूसरों को भी ऐसा ही दुःख होता है, इसलिये वह दूसरों के प्रति वह व्यवहार कदापि न करे जिससे उन्हें स्वयं को दुःख होता है। वह उस व्यवहार को दूसरों के प्रति न तो स्वयं करें और न ही किसी और को करने दे। यदि कोई ऐसा अपराध करता है तो वह मनुष्य अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसका विरोध करे और यदि सम्भव न हो तो बलशाली शक्तियों की सहायता से अपने मनोरथ को क्रियान्वित करे।

ऐसा होने पर ही संसार मानवतावादी बन सकता है अन्यथा नहीं। आजकल यह व्यवहार संसार में बहुत कम देखने को मिलता है। वैदिक मत व इसका अनुयायी संगठन आर्यसमाज तो इसका पूर्णतः पालन करता है परन्तु सभी मत ऐसा नहीं करते। इसके लिये लोगों को वैदिक धर्मियों एवं अन्य मतावलम्बियों का सत्य इतिहास खोज कर पढ़ना चाहिये। आजकल मीडिया के जमाने में बहुत सी वह सत्य बातें भी लोगों तक पहुंची हैं जो पहले नहीं पहुंच पाती थी। आज मीडिया भी राष्ट्रवादी और अराष्ट्रवादियों में बंटा हुआ है। सत्य की सदा सर्वदा जीत होती है परन्तु वह तभी होती है कि जब सत्यवादी व सत्याग्रही असत्य के सामने पूरी शक्ति से मुकाबला करे और उसके साथ अहिंसा व सत्य का व्यवहार करते हुए भी आवश्यकता के अनुरूप यथायोग्य अर्थात् जैसे को तैसे का व्यवहार करे। ऐसा करना अहिंसा की रक्षा करना होता है। प्रधान मंत्री श्री मोदी जी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने पाकिस्तान के पुलवामा व उरी आदि के दुष्कर्मों का व वहां घटित हिंसक घटनाओं का यथायोग्य व उनकी ही भाषा, नीति, सिद्धान्तों व व्यवहार के अनुरूप उत्तर दिया है जिसका परिणाम देश व जनता के सामने हैं। इससे देश में हिंसक व आतंकवादी घटनाओं में कमी आयी है। अभी इस यथायोग्य व्यवहार को और कड़ा करने की आवश्यकता है। 

देश के अन्दरूनी शत्रुओं के प्रति भी यथायोग्य व्यवहार होगा तो देश के सभी लोगों को लाभ होगा। अनुमान होता है कि देश में बहुत सी शक्तियां सत्ता व अपने अनेकानेक स्वार्थों के लिये देशी-विदेशी शक्तियों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये उनसे लाभ प्राप्त कर उनके लिये गुप्त रीति से काम करती है। वह कुतर्कों के द्वारा देश की जनता को भ्रमित करती हैं। ऐसे लोगों व कुतर्कियों से देश व जनता को सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर अराष्ट्रीय शक्तियों का स्वयं पराभव हो जायेगा। दुःख है कि हमारे देश में शत-प्रतिशत लोग शिक्षित व विवेकवान नहीं है। यदि सन् 1947 से ही देश की जनता शिक्षित एवं विवेकी होती, निष्पक्ष एवं जाति, क्षेत्र, भाषा आदि संकीर्ण भावनाओं से ऊपर होती, तो देश आज विश्व का सर्वोच्च शक्तिशाली एवं उन्नत देश होता। इसका कारण सत्य ज्ञान के पोषक लोगों का आलस्य और प्रमाद मुख्य रहा है। हमें अपनी समान विचारधारा के लोगों को सत्य को समझाकर उन्हें ईश्वर, सत्य, वेद, विश्वबन्धुत्व, मानवतावाद आदि मुद्दों के आधार पर संगठित करना चाहिये। यदि हम सभी देशभक्त व भारत माता की जय बोलने वाले सभी लोग संगठित हो जायें तो देश की प्रमुख समस्या साम्प्रदायिकता, देशद्रोह व आतंकवाद की प्रवृत्तियों आदि पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है। 

देश के सभी राष्ट्रवादी एवं देश को सर्वोच्च मानने वाले लोग संगठित एवं एक मत नहीं है। इसी बात का लाभ हमारे विरोधी, विद्वेषी लोग व संगठन उठाते हैं और अनेक शताब्दियों से शान्तिप्रिय आर्य हिन्दुओं को दुःखी करते आ रहे हैं। हमें ऋषि दयानन्द ने सत्य ज्ञान वेद व सच्चे ईश्वर से परिचित कराया है। हमें वेद और ईश्वर की ही शरण लेनी चाहिये। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारा उद्धार होगा। इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द रचित वेदानुकूल व वैदिक सत्य सिद्धान्तों से युक्त सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करना होगा। इसको समझ लेने पर हमें क्या करना है, क्या नहीं करना है, कौन हमारा मित्र है और कौन शत्रु है, इन सब विषयों का ज्ञान हो जायेगा। सत्यार्थप्रकाश दो भागों में है जो एक ही पुस्तक में पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध के नाम से हैं। यदि कोई मनुष्य पूर्वार्द्ध के लगभग 200 पृष्ठ भी पढ़ लेता है तो उसके जीवन का कल्याण हो सकता है। विश्व में शान्ति स्थापित केवल वेद, वैदिक साहित्य और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रन्थों से ही हो सकती है। यह ज्ञान व विवेक वैदिक साहित्य के निरन्तर चिन्तन व मनन से वर्षों के अनुभव से प्राप्त होता है। 

हमें अपने जीवन की उन्नति व उत्थान के लिए अविलम्ब सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन तो आरम्भ कर ही देना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश मात्र 10 से 50 रुपये में वीपीपी से घर बैठे प्राप्त किया जा सकता है। हम समझते हैं कि जिस व्यक्ति ने राग-द्वेष छोड़कर पूर्ण निष्पक्षता से सत्यार्थप्रकाश को पढ़ा है वह सौभाग्यशाली है। जिसने नहीं पढ़ा, उसका भाग्योदय नहीं हुआ है। सत्यार्थप्रकाश किसी मत-विशेष का पुस्तक नहीं अपितु मानवमात्र की हितकारी औषधि के समान है जिससे सभी प्रकार की अज्ञानताओं का निवारण और सत्य ज्ञान का आत्मा में प्रवेश होता है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में विलम्ब नहीं करना चाहिये। देरी करने से जीवन को अप्रत्याशित हानि होती है। समय पर यदि हम कोई काम छोड़ देते हैं तो उससे पूरे जीवन में क्लेश होता है। एक कहावत भी है ‘लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई’। यह कहावत हिन्दुओं व आर्यों पर खरी उतरती है। 

आज ही हम अन्य कामों को करते हुए प्रतिदिन आधा से एक घंटे का समय निकालें और सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना आरम्भ कर दें। हो सकता है कि एक बार पढ़ने पर सत्यार्थप्रकाश की सभी बातें समझ में न आयें तो इसे दूसरी बार, तीसरी व चौथी बार पढ़े। ज्ञान की पुस्तकों में कुछ बातों को एक से अधिक बार पढ़ना ही पढ़ता है जब तक की वह समझ में न आ जायें। ऐसा ही सत्यार्थप्रकाश भी है। सच्चे मनीषी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने सत्यार्थप्रकाश को लगभग 18 बार पढ़ा था। उनका कहना था कि मुझे प्रत्येक बार सत्यार्थप्रकाश के कुछ स्थलों के नवीन अर्थों की प्राप्ति व उपलब्धि हुई है। पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी की मृत्यु मात्र 26 वर्ष की आयु में हो गई थी। उन्होंने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘टर्मिनोलोजी आफ वेदाज’। यह पुस्तक आक्सफोर्ड में पाठ्यक्रम में निर्धारित की गई थी। इससे सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से लाभ व इसके महत्व को समझा जा सकता है। 

हम सत्यार्थप्रकाश की महत्ता के कारण ही इसे पढ़ने की प्रेरणा कर रहे हैं परन्तु हमें यह साधन प्राप्त नहीं हुआ था। हमें जीवन में किसी ने सत्यार्थप्रकाश का महत्व नहीं बताया था। हम अपने किशोरावस्था के एक मित्र की प्रेरणा से आर्यसमाज के सत्संगों में जाया करते थे। वहां विद्वानों के प्रवचनों, सन्ध्या-यज्ञ सहित भजनों ने हम पर जादू कर दिया था। हमने जो बातें आर्यसमाज में सुनी, उनकी उपलब्धि न पाठ्य पुस्तकों में होती थी, न माता-पिता से और नही ही स्कूल के आचार्य व अध्यापक बताते थे। देश की सरकार भी उन महत्वपूर्ण व जीवन में आवश्यक बातों का स्कूली शिक्षा के माध्यम से प्रचार भी नहीं करती थी। हमने विद्वानों के अनुभवों पर आधारित व्याख्यानों को सुनने के साथ सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन किया जिसका परिणाम हमारा वर्तमान जीवन है। 

हम अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज तथा सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से मनुष्य को लाभ ही लाभ होता है तथा हानि किंचित नहीं होती। आर्यसमाज और इसका साहित्य मनुष्य की बौद्धिक व आत्मिक क्षमताओं को बढ़ाता है। इसीलिये शारीरिक तथा आत्मा की उन्नति के लिए युवकों को आर्यसमाज का सदस्य बनकर सत्यार्थप्रकाश का नियमित अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश सभी तुलनात्मक दृष्टि से मत-पन्थों के ग्रन्थों में उत्तम ग्रन्थ है जिसका प्रत्यक्ष इसके उत्तरार्ध के चार समुल्लास पढकर होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर सत्य व असत्य का ज्ञान होता है तथा इसका अध्ययन सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग कराता है। 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ राष्ट्र की वन्दना करने की शिक्षा व प्रेरणा करता है। जिस प्रकार एक पौधे को जल व खाद देने से वह पनपता व बढ़ता है, उसी प्रकार से राष्ट्र को अपनी भक्ति, वन्दना व समर्पण करने से तथा अपना सर्वस्व राष्ट्र को अर्पित करने से राष्ट्र रक्षित एवं समृद्ध होता है तथा दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों से राष्ट्र की रक्षा होती है। वीर सावरकर जी व अनेक क्रान्तिकारी सत्यार्थप्रकाश के प्रशंसक थे। सत्यार्थप्रकाश से अविद्या दूर होकर ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का भी बोध होता है तथा मनुष्य का परलोक भी सुधरता है। मनुष्य इसे पढ़कर इसके अनुसार आचरण कर आवागमन के चक्र से भी मुक्त हो सकता है। 

आपकी बिजली की ज़रूरत ले रही है शायद इनकी जान

इस वक़्त अगर आप इस ख़बर को पढ़ रहे हैं तो मतलब आपके पास बिजली की सप्लाई है। और इस बात की भी पूरी उम्मीद है कि जिस बिजली से आपने अपने फोन को चार्ज किया या कम्प्यूटर को सप्लाई दी, वो कोयले के जलने से आयी होगी।
ये भी हो सकता है कि इसी बिजली की मदद से आपने अपने घर में एयर प्यूरीफायर लगा कर अपने लिए कुछ साफ हवा का इंतज़ाम किया होगा। सोचने बैठो तो आप वाक़ई ख़ास हैं। कम से कम झारखंड में रामगढ़ ज़िले के मांडू ब्लॉक की कोयले की खदानों के आसपास रहने वालों से तो आप ख़ास हैं ही और काफ़ी हद तक बेहतर हालात में हैं। आपके घर को रौशन करने के लिए सिर्फ़ वहां का कोयला नहीं जल रहा। वहाँ के लोगों का स्वास्थ्य भी जल कर ख़ाक हो रहा है। मतलब, शायद आपकी बिजली की ज़रूरत ले रही है इनकी जान।
दरअसल पीपुल्स फ़र्स्ट कलेक्टिव के चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक स्वास्थ्य अध्ययन में झारखंड में रामगढ़ ज़िले के मांडू ब्लॉक (प्रखंड) में कोल माइंस (कोयले की खानों) के आसपास रहने वाले निवासियों में गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पाई गई हैं। कोयला खनन के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों के शीर्षक के अध्ययन – रामगढ़ ज़िले, झारखंड में खदानों के करीब रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य का अध्ययन, ने रामगढ़ के मांडू ब्लॉक में कोयला खदानों के 5 किलोमीटर के भीतर से 600 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया गया। ब्लॉक में चरही, दुरुकसमर, पारेज, तपिन, और दुधमटिया विशेष रूप से प्रभावित हैं – कोल माइंस और कोयला वाशरी इन गांवों के क़रीब हैं, और कुछ गांव खनन कार्यों के स्थान से 50 मीटर तक के क़रीब हैं। इन गांवों के निवासियों ने कई स्वास्थ्य समस्याओं की शिकायत की है, जिनका कारण वे पास की खानों और वाशरीयों के प्रदूषकों को मानते हैं। अध्ययन के निष्कर्षों की तुलना देवघर ज़िले के एक तुलनात्मक स्थल पर किए गए निष्कर्षों से की गई, जहां जनसंख्या समान जातीय, सामाजिक और आर्थिक हालात की थी, लेकिन कोयले से संबंधित प्रदूषकों से न्यूनतम जोखिम में और कोयला खानों से 40 किमी से अधिक दूरी पर थी ।
रिपोर्ट के अनुसार, “इस अध्ययन में प्रतिभागियों के बीच कोयले की खानों के पास के प्रतिभागियों में पहचानी जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी शिकायतें काफी अधिक हैं। सर्वेक्षण में शामिल निवासियों में दस सबसे प्रचलित क्रोनिक (पुरानी) स्वास्थ्य स्थितियों में बालों का झड़ना और ब्रिटल (भंगुर) बाल; मस्कुलोस्केलेटल जोड़ों का दर्द, शरीर में दर्द और पीठ दर्द; सूखी, खुजलीदार और / या रंग बदलाव वाली फीकी हुई त्वचा और फटे तलवे, और सूखी खांसी की शिकायत शामिल हैं।” इसके अलावा, अध्ययन के लेखकों के अनुसार, “स्वास्थ्य संबंधी शिकायतें ज्यादातर क्रोनिक (पुरानी) हैं, और संक्रामक के बजाय उत्तेजक हैं। दूसरे शब्दों में, कारण कारक संभवतः सूक्ष्मजीव के बजाय पर्यावरणीय हैं ”।
रिपोर्ट में पाया गया है कि “खनन गतिविधियों के क़रीब रहने वाले लोग अपने स्वास्थ्य के मामले में बदतर हैं। दूसरे शब्दों में, निष्कर्ष बताते हैं कि जितनी अधिक दूरी पर खदानें हैं, आबादी के स्वास्थ्य पर उतना ही कम प्रभाव पड़ेगा ”। रिपोर्ट में आगे पाया गया है कि “खानों के क़रीब रहने वाले निवासियों में स्वास्थ्य शिकायतों का अधिक प्रसार है – एक या तीन शिकायतों के विपरीत छह या अधिक शिकायतें”।
अध्ययन के प्रमुख जांचकर्ताओं में से एक के अनुसार, “इस अध्ययन के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं और तत्काल उपचारात्मक उपायों की मांग करते हैं। हमारी रिपोर्ट बताती है कि बड़े पैमाने पर खनन ने झारखंड के रामगढ़ क्षेत्र में पीढ़ियों से रह रही आबादी पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। उनके पर्यावरण, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के साथ गंभीर रूप से समझौता हुआ है। ”
रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ प्रबीर चटर्जी के अनुसार, “स्वास्थ्य अध्ययन के निष्कर्ष स्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि कोयला खदानों के आसपास रहने वाले निवासी ऊपरी श्वसन संबंधी बीमारियों जैसे ब्रोंकाइटिस और COPD (सीओपीडी) या यहां तक कि गठिया और पीठ के दर्द के लिए, कोयला खदानों से दूर क्षेत्रों में रहने वालों की तुलना में, लगभग दो गुना भेद्य हैं। आँख, त्वचा, बाल और पैर के रोगों के संबंध में, कोयले की खदानों के पास के निवासी दूर रहने वाले लोगों की तुलना में 3 से 4 गुना अधिक भेद्य हैं। उच्च स्तर पर जहरीले रसायनों और भारी धातुओं की उपस्थिति और अध्ययन स्थल पर स्वास्थ्य शिकायतों की अधिकता से संकेत मिलता है कि गांवों के निवासियों द्वारा सामना की जाने वाली स्वास्थ्य समस्याओं की संभावना कोयला खानों से विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने के कारण है, और अन्य विविध कारणों से नहीं। “
अध्ययन के लिए चिकित्सा कैंप का नेतृत्व करने वाले डॉ स्माराजित जना के अनुसार, “खानों के पड़ोस में बहुत कम स्थानीय निवासी अच्छे स्वास्थ्य का अनुभव करते हैं। हमने लोगों के बीच कई स्वास्थ्य शिकायतों को देखा और चिकित्सकीय रूप से यह विषाक्त पदार्थों के संपर्क के एक से अधिक मार्गों को इंगित करते हैं। हमने एक से अधिक परिवार के सदस्यों को एक ही या समान स्वास्थ्य शिकायतों का सामना करते देखा। कम उम्र के लोगों में मस्कुलोस्केलेटल स्वास्थ्य संबंधी शिकायतों के उच्च स्तर को देखना चौंका देने वाला था। हमें सूखी और उत्पादक खांसी की अधिक शिकायतें मिलीं, जो रोगजनकों को नहीं बल्कि एलर्जी को इंगित करते हैं जो इन लक्षणों का कारण बन रहीं हैं। ये स्वास्थ्य लक्षण इस क्षेत्र में पानी, हवा और मिट्टी के पर्यावरणीय नमूने में पाए जाने वाले जहरीले रसायनों के प्रभाव को पुष्ट करते हैं। ”
अध्ययन में खानों का व्यापक स्वास्थ्य प्रभाव आकलन पूरा होने और मशविरे लागू होने तक मौजूदा खानों के किसी और विस्तार या नई कोयला खानों की स्थापना पर रोक लगाने की सलाह दी गई है। यह राज्य और केंद्रीय एजेंसियों को कोलमाइंस के पास के वातावरण में प्रदूषकों की प्रकृति और सीमा की पहचान करने के लिए एक अधिक गहन अध्ययन करने के लिए भी कहता है, और – वायु, मिट्टी और जल स्रोतों (सतह और भूमिगत) को साफ़ करने के उपायों का कार्य करने के लिए भी। यह अध्ययन राज्य सरकार से तत्काल प्रभाव के साथ कोयला क्षेत्र 5 किलोमीटर के भीतर रहने वाले सभी निवासियों के लिए उचित स्वास्थ्य देखभाल और विशेष उपचार मुफ्त में उपलब्ध करने का भी आह्वान करता है।
पर्यावरणीय नमूने के परिणामों के बारे में: 2019 में, चेन्नई स्थित एक संगठन, कम्युनिटी एनवायरोमेन्टल मॉनिटरिंग (सामुदायिक पर्यावरण निगरानी), जिसकी पर्यावरण नमूनों के परीक्षण और निगरानी में विशेषज्ञता है, ने रामगढ़ जिले के मांडू ब्लॉक में कोलमाइंस के आसपास एक अध्ययन किया था। एक प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में कुल 5 हवा के नमूने, 8 पानी के नमूने, 5 मिट्टी के नमूने और 1 तलछट के नमूने का विश्लेषण किया गया। “बस्टिंग द डस्ट” शीर्षक वाली इसकी रिपोर्ट में दुरुकसमर, तपिन, दुधमटिया और चरही गाँवों के आस-पास हवा, पानी, मिट्टी और तलछट के नमूनों को गंभीर रूप से दूषित पाया।
अध्ययन के परिणामों ने यह भी बताया कि:

  1. एल्यूमीनियम, आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, मैंगनीज, निकल, लोहा, सिलिकॉन, जिंक, लेड, सेलेनियम और वैनेडियम सहित कुल 12 जहरीली धातुएँ वायु, जल, मिट्टी और / या तलछट में पाए गए।
  2. पाए जाने वाले 12 जहरीले धातुओं में से 2 कार्सिनोजेन्स हैं और 2 संभावित कार्सिनोजन हैं। आर्सेनिक और कैडमियम कार्सिनोजेन्स के रूप में जाने जाते हैं और लेड और निकल संभावित कार्सिनोजन हैं।
  3. पाए जाने वाले धातु सांस की बीमारियों, सांस की तकलीफ, फेफड़ों की क्षति, प्रजनन क्षति, जिगर और गुर्दे की क्षति, त्वचा पर चकत्ते, बालों के झड़ने, भंगुर हड्डियों, मतली, उल्टी, दस्त, पेट दर्द सहित मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द और कमजोरी आदि हानिकारक स्वास्थ्य प्रभावों की एक विस्तृत श्रृंखला पैदा कर सकते हैं।
  4. धातुओं में से कई श्वसन विकार, सांस की तकलीफ, फेफड़ों की क्षति, प्रजनन क्षति, जिगर और गुर्दे की क्षति, त्वचा पर चकत्ते, बालों के झड़ने, भंगुर हड्डियों, मतली, उल्टी, दस्त, पेट दर्द, मांसपेशियों और जोड़ों के दर्द और कमजोरी आदि का कारण हैं। ।
    बड़ा सवाल यहाँ ये उठता है कि इन लोगों के बिगड़ते स्वास्थ के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

मुख्यमंत्री नहीं, अभिभावक की मुद्रा में शिवराजसिंह

नए मध्यप्रदेश की स्थापना के लगभग 7 दशक होने को आ रहे हैं. इस सात दशकों में अलग अलग तेवर और तासीर के मुख्यमंत्रियों ने राज्य की सत्ता सम्हाली है. लोकोपयोगी और समाज के कल्याण के लिए अलग अलग समय पर योजनाओं का श्रीगणेश होता रहा है और मध्यप्रदेश की तस्वीर बदलने में कामयाबी भी मिली है. लेकिन जब इन मुख्यमंत्रियों की चर्चा करते हैं तो सालों-साल आम आदमी के दिल में अपनी जगह बना लेने वाले किसी राजनेता की आज और भविष्य में चर्चा होगी तो एक ही नाम होगा शिवराजसिंह चौहान. 2005 में उनकी मुख्यमंत्री के रूप में जब ताजपोशी हुई तो वे उम्मीदों से भरे राजनेता के रूप में नहीं थे और ना ही उनके साथ संवेदनशील, राजनीति के चाणक्य या स्वच्छ छवि वाला कोई विशेषण नहीं था. ना केवल विपक्ष में बल्कि स्वयं की पार्टी में उन्हें एक टाइमगैप अरजमेंट मुख्यमंत्री समझा गया था. शिवराजसिंह की खासियत है वे अपने विरोधों का पहले तो कोई जवाब नहीं देते हैं और देते हैं तो विनम्रता से भरा हुआ. वे बोलते खूब हैं लेकिन राजनीति के मंच पर नहीं बल्कि अपने लोगों के बीच में. आम आदमी के बीच में. ऐसा क्यों नहीं हुआ कि जिनके नाम के साथ कोई संबोधन नहीं था, आज वही राजनेता बहनों का भाई और बेटियों का मामा बन गया है. यह विशेषण इतना स्थायी है कि वे कुछ अंतराल के लिए सत्ता में नहीं भी थे, तो उन्हें मामा और भाई ही पुकारा गया. कायदे से देखा जाए तो वे मुख्यमंत्री नहीं, एक अभिभावक की भूमिका में रहते हैं.

मध्यप्रदेश की सत्ता में मुख्यमंत्री रहने का एक रिकार्ड तेरह वर्षों का है तो दूसरा रिकार्ड चौथी बार मुख्यमंत्री बन जाने का है. साल 2018 के चुनाव में मामूली अंतर से शिवराजसिंह सरकार की पराजय हुई तो लोगों को लगा कि शिवराजसिंह का राजनीतिक वनवास का वक्त आ गया है. लेकिन जब वे ‘टायगर जिंदा है’ का हुंकार भरी तो विरोधी क्या, अपने भी सहम गए. राजनीति ने करवट ली और एक बार फिर भाजपा सत्तासीन हुई. राजनेता और राजनीतिक विश£ेषक यहां गलतफहमी के शिकार हो गए. सबको लगा कि अब की बार नया चेहरा आएगा. लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को पता था कि प्रदेश की जो स्थितियां है, उसे शिवराजसिंह के अलावा कोई नहीं सम्हाल पाएगा. देश की नब्ज पर हाथ रखने वाले मोदी-शाह का फैसला वाजिब हुआ. कोरोना ने पूरी दुनिया के साथ मध्यप्रदेश को जकड़ रखा था. पहले से कोई पुख्ता इंतजाम नहीं था. संकट में समाधान ढूंढने का ही दूसरा नाम शिवराजसिंह चौहान है. अपनी आदत के मुताबिक ताबड़तोड़ लोगों के बीच जाते रहे. उन्हें हौसला देते रहे. इलाज और दवाओं का पूरा इंतजाम किया. भयावह कोरोना धीरे-धीरे काबू में आने लगा. इस बीच खुद कोरोना के शिकार हो गए लेकिन काम बंद नहीं किया.

एक वाकया याद आता है. कोरोना का कहर धीमा पड़ा और लोग वापस काम की खोज में जाने लगे. इसी जाने वालों में एक दम्पत्ति भी औरों की तरह शामिल था लेकिन उनसे अलग. इस दम्पत्ति ने इंदौर में रूक कर पहले इंदौर की मिट्टी को प्रणाम किया और पति-पत्नी दोनों ने मिट्टी को माथे से लगाया. इंदौर का, सरकार और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का शुक्रिया अदा कर आगे की यात्रा में बढ़ गए. यह वाकया एक मिसाल है.

कोरोना संकट में मध्यप्रदेश से गए हजारों हजार मजदूर जो बेकार और बेबस हो गए थे, उनके लिए वो सारी व्यवस्थाएं कर दी जिनके लिए दूसरे राज्यों के लोग विलाप कर रहे थे. श्रमिकों की घर वापसी से लेकर खान-पान की व्यवस्था सरकार ने निरपेक्ष होकर की. मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पहल पर अनेक स्वयंसेवी संस्था भी आगे बढक़र प्रवासी मजदूरों के लिए कपड़े और जूते-चप्पलों का इंतजाम कर उन्हें राहत पहुंचायी. आज जब कोरोना के दूसरे दौर का संकेत मिल चुका है तब शिवराजसिंह आगे बढक़र इस बात का ऐलान कर दिया है कि श्रमिकों को मध्यप्रदेश में ही रोजगार दिया जाएगा. संभवत: मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान देश के पहले अकेले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने ऐसा फैसला लिया है. उनकी सतत निगरानी का परिणाम है कि लम्बे समय से कोरोना से मृत्यु की खबर शून्य पर है या एकदम निचले पायदान पर. आम आदमी का सहयोग भी मिल रहा है. कोरोना के दौर में लोगों को भय से बचाने के लिए वे हौसला बंधाते रहे हैं.

वे मध्यप्रदेश को अपना मंदिर मानते हैं और जनता को भगवान. शहर से लेकर देहात तक का हर आदमी उन्हें अपने निकट का पाता है. चाय की गुमटी में चुस्की लगाना, किसानों के साथ जमीन पर बैठ कर उनके दुख-सुख में शामिल होना. पब्लिक मीटिंग में आम आदमी के सम्मान में घुटने पर खड़े होकर अभिवादन कर शिवराजसिंह चौहान ने अपनी अलहदा इमेज क्रिएट की है. कभी किसी की पीठ पर हाथ रखकर हौसला बढ़ाना तो कभी किसी को दिलासा देेने वाले शिवराजसिंह चौहान की ‘शिवराज मामा’ की छवि ऐसी बन गई है कि विरोधी तो क्या उनके अपनों के पास इस इमेज की कोई तोड़ नहीं है.

सभी उम्र और वर्ग के प्रति उनकी चिंता एक बराबर है. बेटी बचाओ अभियान से लेकर बेटी पूजन की जो रस्म उन्होंने शुरू की है, वह समाज के लोगों का मन बदलने का एक छोटा सा विनम्र प्रयास है. इस दौर में जब बेटियां संकट में हैं और वहशीपन कम नहीं हो रहा है तब ऐसे प्रयास कारगर होते हैं. बेटियों को लेकर उनकी चिंता वैसी ही है, जैसा कि किसानों को लेकर है. लगातार कृषि कर्मण अवार्ड हासिल करने वाला मध्यप्रदेश अपने धरती पुत्रों की वजह से कामयाब हो पाया है तो उन्हें हर कदम पर सहूलियत हो, इस बात का ध्यान भी शिवराजसिंह चौहान ने रखा है. विद्यार्थियो को स्कूल पहुंचाने से लेकर उनकी कॉपी-किताब और फीस की चिंता सरकार कर रही है. विद्यार्थियों को समय पर वजीफा मिल जाए, इसके लिए भी कोशिश जा रही है. मध्यप्रदेश शांति का टापू कहलाता है तो अनेक स्तरों पर सक्रिय माफिया को खत्म करने का ‘शिव ऐलान’ हो चुका है. प्रदेश के नागरिकों को उनका हक दिलाने और शुचिता कायम करने के लिए वे सख्त हैं.

पहली दफा मुख्यमंत्री बन जाने के बाद सबसे पहले वेशभूषा में परिवर्तन होता है लेकिन जैत से निकला पांव-पांव वाले भैया शिवराज आज भी उसी पहनावे में हैं. आम आदमी की बोलचाल और देशज शैली उन्हें लोगों का अपना बनाती है. समभाव और सर्वधर्म की नीति पर चलकर इसे राजनीति का चेहरा नहीं देते हैं. इस समय प्रदेश आर्थिक संकट से गुजर रहा है लेकिन उनके पास इस संकट से निपटने का रोडमेप तैयार है. प्रदेश के हर जिले के खास उत्पादन को मध्यप्रदेश की पहचान बना रहे हैं तो दूर देशों के साथ मिलकर उद्योग-धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं. आप मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की आलोचना कर सकते हैं लेकिन तर्क नहीं होगा. कुतर्क के सहारे उन्हें आप कटघरे में खड़े करें लेकिन वे आपको सम्मान देने से नहीं चूकेंगे. छोडि़ए भी इन बातों को. आइए जश्र मनाइए कि वे एक आम आदमी के मुख्यमंत्री हैं. मामा हैं, भाई हैं. ऐसा अब तक दूजा ना हुआ.