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भारतीय नारी कब तक रहेगी बेचारी?

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस-8 मार्च, 2021 पर विशेष
-ललित गर्ग-

नारी का नारी के लिये सकारात्मक दृष्टिकोण न होने का ही परिणाम है कि पुरुष उसका पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण करता आ रहा हैं। इसी कारण नारी में हीनता एवं पराधीनता के संस्कार संक्रान्त होते रहे हैं। जिन नारियों में नारी समाज की दयनीय दशा के प्रति थोड़ी भी सहानुभूति नहीं है, उन नारियों का मन स्त्री का नहीं, पुरुष का मन है, ऐसा प्रतीत होता है। अन्यथा अपने पांवों पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी कैसे चलाई जा सकती है? अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए नारी के मन में एक नयी, उन्नायक एवं परिष्कृत सोच पनपे, वे नारियों के बारे में सोचें, अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र की नारी की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझें और उसके समाधान एवं प्रतिकार के लिये कोई ठोस कदम उठायें तो नारी शोषण, उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय का युग समाप्त हो सकता है। इसी उद्देश्य से नारी के प्रति सम्मान एवं प्रशंसा प्रकट करते हुए 8 मार्च का दिन महिला दिवस के रूप में उनके लिये निश्चित किया गया है, यह दिवस उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में, उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार विमर्श और गोष्ठियां होंगी जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू्रण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, तलाक के बढ़ते मामले, गांवों में महिला की अशिक्षा, कुपोषण एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर सार्थक वातावरण का निर्माण किया जायेगा। लेकिन इन सबके बावजूद एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहेगा? विडम्बनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की बजाय उनका दुरुपयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।
महिलाओं के प्रति एक अलग तरह का नजरिया इन सालों में बनने लगा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नारी के संपूर्ण विकास की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए अनेक योजनाएं लागू की है, जिनमें अब नारी सशक्तीकरण और सुरक्षा के अलावा और भी कई आयाम जोडे़ गए हैं। सबसे अच्छी बात इस बार यह है कि समाज की तरक्की में महिलाओं की भूमिका को आत्मसात किया जाने लगा है। आज भी आधी से अधिक महिला समाज को पुरुषवादी सोच के तहत बहुत से हकों से वंचित किया जा रहा है। वक्त बीतने के साथ सरकार को भी यह बात महसूस होने लगी है। शायद इसीलिए सरकारी योजनाओं में महिलाओं की भूमिका को अलग से चिह्नित किया जाने लगा है।
एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायते’ घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने एवं बेचारगी को जीने को विवश होना पड़ता है। पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।
‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता’- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है। आज अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही है। देश में गैंग रेप की वारदातों में कमी भले ही आयी हो, लेकिन उन घटनाओं का रह-रह कर सामने आना त्रासद एवं दुःखद है। आवश्यकता लोगों को इस सोच तक ले जाने की है कि जो होता आया है वह भी गलत है। महिलाओं के खिलाफ ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कानूनों की कठोरता से अनुपालना एवं सरकारों में इच्छाशक्ति जरूरी है। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के विरोध में लाए गए कानूनों से नारी उत्पीड़न में कितनी कमी आयी है, इसके कोई प्रभावी परिणाम देखने में नहीं आये हैं, लेकिन सामाजिक सोच में एक स्वतः परिवर्तन का वातावरण बन रहा है, यहां शुभ संकेत है। महिलाओं के पक्ष में जाने वाले इन शुभ संकेतों के बावजूद कई भयावह सामाजिक सच्चाइयां बदलने का नाम नहीं ले रही हैं।
देश के कई राज्यों में लिंगानुपात खतरे के निशान के करीब है। देश की राजधानी में महिलाओं के हक के लिए चाहे जितने भी नारे लगाए जाएं, लेकिन खुद दिल्ली शहर से भी बुरी खबरें आनी कम नहीं हुई हैं। तमाम राज्य सरकारों को अपनी कागजी योजनाओं से खुश होने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान देना होगा। योजना अपने आप में कोई गलत नहीं होती, कमी उसके क्रियान्वयन में होती है। कुछ राज्यों में बेटी की शादी पर सरकार की तरफ से एक निश्चित रकम देने की स्कीम है। इससे बेटियों की शादी का बोझ भले ही कम हो, लेकिन इससे बेटियों में हीनता की भावना भी पनपती है। ऐसी योजनाओं से शिक्षा पर अभिभावकों का ध्यान कम जाएगा। जरूरत नारी का आत्म-सम्मान एवं आत्मविश्वास कायम करने की है, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की है। नारी सोच बदलने की है। उन पर जो सामाजिक दबाव बनाया जाता है उससे निकलने के लिए उनको प्रोत्साहन देना होगा। ससुराल से निकाल दिए जाने की धमकी, पति द्वारा छोड़ दिए जाने का डर, कामकाजी महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर भेदभाव, दोहरा नजरियां, छोटी-छोटी गलतियों पर सेवामुक्त करने की धमकी, बड़े अधिकारियों द्वारा सैक्सअल दबाब बनाने, यहां तक कि जान से मार देने की धमकी के जरिये उन पर ऐसा दबाव बनाया जाता है। इन स्थितियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है नारी को खुद हिम्मत जुटानी होगी, साहस का परिचय देना होगा लेकिन साथ ही समाज को भी अपने पूर्वाग्रह छोड़ने के लिए तैयार करना होगा। इन मुद्दों पर सरकारी और गैरसरकारी, विभिन्न स्तरों पर सकारात्मक नजरिया अपनाया जाये तो इससे न केवल महिलाओं का, बल्कि पूरे देश का संतुलित विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।
रामायण रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘नारीशक्ति’ की पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? क्यों महिला दिवस मनाते हुए नारी अस्तित्व एवं अस्मिता को सुरक्षा देने की बात की जाती है? क्यों उसे दिन-प्रतिदिन उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। इसके साथ-साथ भारतीय समाज में आई सामाजिक कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहू पति विवाह और हमारी परंपरागत रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम भूमिका अदा की। बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-“आँचल में है दूध” को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें। बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके।

ईश्वर हमारे कर्मानुसार ही हमें मनुष्यादि जन्म तथा सुख दुख देते हैं

-मनमोहन कुमार आर्य
हम लोगों का जन्म मनुष्य के रूप में स्त्री या पुरुष किसी एक जाति में हुआ है। यह जन्म हमें किसने, क्यों तथा किस आधार पर दिया है, इसका ज्ञान हमें माता, पिता, देश व समाज द्वारा नहीं कराया जाता। हमारे ऋषियों ने ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा वेदों के व्याख्या ग्रन्थों में उपलब्ध इन प्रश्नों के समाधानों का अध्ययन किया व सत्य निष्कर्षों को प्रस्तुत किया है। हमारा सौभाग्य है कि वेदों के मर्मज्ञ विद्वान ऋषि दयानन्द सरस्वती की कृपा से हमें इन सभी प्रश्नों के उत्तर ज्ञात हैं। प्रथम प्रश्न तो यही है कि हमारा यह संसार वा ब्रह्माण्ड किसने, कैसे तथा कब उत्पन्न किया? इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो वेद, उपनिषद, दर्शन तथा सम्पूर्ण प्राचीन वैदिक साहित्य एक मत से बताते हैं कि इस संसार को इसमें सर्वत्र व्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर ने चेतन अल्पज्ञ अनादि व नित्य जीवों के लिए उत्पन्न किया है। ईश्वर जिसने इस सृष्टि को बनाया और इसका विगत 1 अरब 96 करोड़ वर्षों से संचालन व पालन कर रहा है, उसका स्वरूप एवं गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं, इसका समाधान भी सम्पूर्ण वेद व वेदभाष्य सहित ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर हो जाता है। ईश्वर का वर्णन करते हुए ऋषि ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में लिखा है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र एवं सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’

ईश्वर के इस स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव वाली सत्ता जिसे ईश्वर कहते हैं, उससे इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। ईश्वर ने यह सृष्टि अपने लिए या किसी अन्य के लिए बनाई है? इसका उत्तर है कि ईश्वर इस सृष्टि का निर्माण अपने किसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए नहीं करते, अपितु इसकी रचना वह जगत् में विद्यमान असंख्य व अनन्त संख्या वाले सत्य-चित्त अनादि, नित्य, अल्पज्ञ व एकदेशी जीवों के लिए करते हैं। ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही अनादि, नित्य तथा अविनाशी सत्तायें हैं। सृष्टि को बनाने से ईश्वर के सभी व अधिकांश गुणों का प्रकाश होता है। मनुष्यों में भी यह गुण पाया जाता है कि उनमें जो गुण, क्षमता व सामथ्र्य होती है, वह उसके अनुसार कर्म व कार्यों को करते हैं। ऐसा करके ही उनके गुणों का होना सफल होता है तथा उनको सुख व सन्तुष्टि मिलती है। परमात्मा भी एक धार्मिक एवं दयालु सत्ता है। वह जीवों का माता, पिता, आचार्य एवं रक्षक है। जीवात्माओं को सुख देने के लिए ही ईश्वर ने इस संसार को बनाया है व इसका पालन कर रहा है। जीवों को उनके पूर्वजन्मों के अनुसार जन्म देना व सुख आदि का भोग कराने सहित जीवों को अपवर्ग वा मोक्ष हेतु प्रयत्न करने के लिए अवसर देने हेतु ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है व इसे चला रहे हैं। इससे सृष्टि की उत्पत्ति तथा इसका प्रयोजन ज्ञात हो जाते हैं। हमें यह भी ज्ञात होना चाहिये कि ईश्वर व जीवों के अतिरिक्त संसार में प्रकृति नाम की एक अनादि तथा सूक्ष्म जड़ सत्ता भी है जो सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त होती है। इस प्रकृति नामी पदार्थ में विकार होकर ही यह समस्त दृश्यमान व सूक्ष्म अदृश्य जड़ व भौतिक जगत अस्तित्व में आया है। इसका विस्तार वेद, उपनिषद सहित सांख्य दर्शन तथा ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के अष्टम् समुल्लास में देखा जा सकता है। हमें यह भी ज्ञात होना चाहिये कि जीव जन्म व मरणधर्मा सत्ता है। यह मनुष्य योनि में जो कर्म करता है उनका फल भोगने के लिए मृत्यु के कुछ काल बाद इसका विभिन्न योनियों में से किसी एक योनि में जन्म होता है जिसका आधार जीवात्मा के पूर्वजन्म के कर्म ही होते हैं। ईश्वर, जीव तथा प्रकृति यही तीन मुख्य अनादि व नित्य पदार्थ इस सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा प्रलय के निमित्त व उपादान आदि कारण हैं। 

परमात्मा जीवों को उनके मनुष्य जन्म की उभय योनि के पूर्वजन्मों के कर्मानुसार ही उसे मनुष्य व इतर योनियों में जन्म देते हैं। मनुस्मृति में राजृषि मनु जी ने बताया है कि मनुष्य के आधे से अधिक पुण्य कर्मों के होने पर जीवात्मा को मनुष्य का जन्म होता है और आधे से अधिक कर्म यदि पाप श्रेणी के होते तो उसे पशु व पक्षी आदि नाना योनियों में से कोई नीच योनि मिलती है। संसार में जीवों की अगणित योनियां हैं। मनुष्य योनि में जो जीवात्मायें हैं उनके पूर्वजन्म के कर्म आधे से अधिक पुण्य कर्म रहे थे, इस लिए उन्हें मनुष्य जन्म मिला है। मनुष्य को आगामी जन्मों में भी उन्नति मिले व उसे इस जन्म में भी सुख मिले, इस लिये वेद मनुष्यों के लिए सत्कर्मों वा पुण्यकर्मों को करने का विधान करते हैं। सत्य का आचरण अर्थात् सत्याचार ही मनुष्यों का सत्य धर्म होता है। मनुष्य को सत्य व सत्य पर आधारित शुभ कर्मों का ही धारण करना चाहिये और असत्य का त्याग करना चाहिये। ऐसा मनुष्य ही धार्मिक होता है। मत-मतान्तरों और धर्म में अन्तर होता है। मत-मतान्तरों की वही मान्यतायें धर्म से युक्त होती हैं जो वेदानुकूल तथा प्राणी मात्र के लिए हितकारी होती हैं। मनुष्य यदि कोई पाप व असत्कर्म करता है तो वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। 

धर्म मनुष्य के कर्तव्यों को भी कहा जाता है। मनुष्य के ऊपर परमात्मा द्वारा अनादि काल से जन्म जन्मान्तरों में किए गये अगणित उपकार हैं। यदि परमात्मा उपकार न करे तो हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते। हमारी श्वसन प्रक्रिया को परमात्मा ने ही स्थापित किया है तथा वही इसको चला रहा है। हम जिन पदार्थों का उपभोग कर सुख प्राप्त करते हैं वह सब भी परमात्मा ने बनाकर जीवों को प्रदान किये हैं। हमारे माता, पिता व आचार्य आदि सभी लोग भी हमें परमात्मा से ही प्राप्त हुए हैं। अतः हमारा कर्तव्य होता है कि हम ईश्वर की उपासना करें। प्रकृति व सृष्टि में विकार, अस्वच्छता व दुर्गन्ध आदि होने से प्राणियों को दुःख होता है। अतः हमारा यह भी कर्तव्य होता है कि हम इस सृष्टि व इसके सभी स्थानों सहित वायु एवं जल आदि को भी स्वच्छ व सुगन्धित रखें व करें। इस कार्य को करने के लिए ही वेदों में प्रतिदिन देवयज्ञ अग्निहोत्र करने का विधान है। वेदों में मनुष्य के करने योग्य सभी कर्मों का प्रकाश है तथा निषिद्ध कर्मों का भी विधान है। अतः मनुष्य को वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय कर इनसे मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिये और सदैव सत्कर्म व पुण्यकर्मों सहित ईश्वरोपासना, देवयज्ञ अग्निहोत्र तथा परोपकार के कार्य ही करने चाहिये। इसी से मनुष्य की वास्तविक उन्नति होती है। उसका ज्ञान व विज्ञान बढ़ता है, उसको भौतिक लाभों सहित आध्यात्मिक उन्नति भी होती है तथा उसका लोक व परलोक दोनों सुधरते हैं। संसार में आत्मा व शरीर की उन्नति के लिए वैदिक जीवन पद्धति ही श्रेष्ठ है। इसी का सबको पालन व व्यवहार करना चाहिये। 

परमात्मा ने हमारे पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही हमें यह मानव जीवन दिया है। हमारा अगला जन्म हमारे इस जन्म के शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कर्मों के आधार पर हमें प्राप्त होगा। हमारा पुनर्जन्म होना सत्य एवं यथार्थ है। आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी तथा जन्म-मरण धर्मा सत्ता है। इसका अभाव कभी नहीं होता। इसी कारण हमारा यह जन्म सिद्ध होता है और इसी से हमारे पूर्वजन्म तथा परजन्मों का होना भी सिद्ध होता है। हमारे सभी जन्म हमें हमारे कर्मों के अनुसार मिलने हैं। अतः हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिये और वेदानुकूल वा वेद प्रतिपादित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिये। इसी से हमें अधिक मात्रा में सुख प्राप्त हो सकते हैं, हम अपनी आत्मा तथा शरीर की उन्नति कर सकते हैं और हमें परजन्म में अमृत व आनन्दमय मोक्ष भी प्राप्त हो सकते हैं। हमें वैदिक कर्म फल विज्ञान को समझना चाहिये। इसका अध्ययन करने सहित इस कर्म फल सिद्धान्त पर विचार, चिन्तन, मनन व अनुसंधान भी करना चाहिये। यह कर्म फल विधान वेदों में ईश्वर की देन होने से सर्वथा सत्य है। ऋषियों ने भी सत्य का साक्षात्कार कर इसकी पुष्टि की है। यह सत्य है कि जीवात्मा का मनुष्य जन्म सुख व दुःख के भोग तथा अपवर्ग वा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हुआ व होता है। ऐसा निश्चय कर हमें वेद, वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा वेदों के भाष्य व टीकाओं आदि का अध्ययन करते रहना चाहिये। इसी से हमारा जीवन सुधरेगा, सफल होगा तथा हमें जीवन के अन्तिम समय में सन्तोष प्राप्त होगा। हम निराशा से दूर रहेंगे।

अपने देश व देशवासियों से प्रेम न करने वाला व्यक्ति सच्चा धार्मिक नहीं होता

-मनमोहन कुमार आर्य
संसार में जितने मनुष्य हैं व अतीत में हुए हैं वह सब किसी देश विशेष में जन्में थे। उनसे पूर्व उनके माता-पिता व पूर्वज वहां रहते थे। जन्म लेने वाली सन्तान का कर्तव्य होता है कि वह अपने जन्म देने वाले माता-पिता का आदर व सत्कार करे। मातृ देवो भव, पितृ देवो भव एवं आचार्य देवो भव, यह शब्द व वाक्य वैदिक विचारधारा की उच्चता व महत्ता को प्रदर्शित करते हैं। मनुष्य को जन्म देने वाली माता, उसके पिता और आचार्य देव वा देवता होते हैं। हर सन्तान व मनुष्य को इन देवों की पूजा करनी चाहिये। जो करता है वह साधु व श्रेष्ठ होता है तथा जो नहीं करता वह दुर्बुद्धि व मनुष्यता से गिरा हुआ मनुष्य कहा जा सकता है। माता-पिता तथा आचार्य का आधार हमारी जन्मभूमि व स्वदेश हुआ करता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने माता-पिता तथा आचार्यों के मान-सम्मान सहित अपने देश व जन्मभूमि की पूजा भी करनी चाहिये। देश की पूजा से तात्पर्य देश की उन्नति व देश के अन्दर व बाहर के शत्रुओं का पराभव करने वाले सभी कार्यों को करना होता है। यदि देश का एक भी व्यक्ति देश के हितों के विरुद्ध कार्य करता है तो उसके इस पाप में देश के सज्जन पुरुष भी भागीदार होते हैं यदि वह उसका विरोध व दमन नहीं करते। देश के लोगों को दुष्ट प्रकृति के मनुष्यों का सुधार करने का कार्य करना चाहिये। यह उनका दायित्व व कर्तव्य होता है। दुष्टता व देश विरोधी कार्य करने वाले लोग अपने कृत्यों से अपने माता-पिता व आचार्यों को भी अपमानित करते हैं। वह स्वतः अपमान के योग्य हो जाते हैं। सन्तान को अच्छी शिक्षा व संस्कार देना माता-पिता व आचार्यों का काम होता है। यदि कोई व्यक्ति देश व समाज विरोधी निकृष्ट कार्यों को करता है, अपने देश के प्रति कम तथा अन्य देश वा देशों के हितों के पक्ष में काम करता है, ऐसे काम करता है जिससे अपने देश के हितों को हानि पहुंचती है, तो वह व्यक्ति निन्दनीय होता है। अपने देश के महापुरुषों को सम्मान न देना तथा विदेशी लोगों व महापुरुषों को सम्मान देना भी उचित नहीं होता। सरकार को ऐसी देश विरोधी विचारधाराओं एवं कार्यों का दमन करने के साथ उनके सुधार व दण्ड का उचित प्रबन्ध करना चाहिये। जिन देशों में देश विरोधी कार्यों के लिये कठोर दण्ड होता है वह देश उन्नति करते हैं और जहां देश विरोधी कार्य करने वाले लोगों को फलने फूलने का अवसर दिया जाता है, उस देश का पराभव होता जाता है और अन्त में वहां से सज्जन पुरुषों, सत्य विचारधारा व सनातन धर्म जैसे सिद्धान्तों व विचारों का पराभव होने की पूरी सम्भावना रहती है।

हम कुछ लोगों को महापुरुष घोषित कर देते हैं परन्तु उनके व्यक्तित्व व कार्यों की समीक्षा नहीं करते। महापुरुष वह होता है जिसके सभी कार्यों से देश को लाभ होते हैं तथा हानि उसके किसी कार्य से नहीं होती। जिन लोगों ने सामाजिक जीवन जीया और देश विषयक बड़े बड़े निर्णय लिये, वह सब यदि पक्षपात रहित होकर लिये गये और उससे प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से लाभ मिला तो हो, वह प्रशंसनीय होते हैं। ऐसे भी लोग महापुरुष मान लिये जाते व प्रचारित किये जाते हैं जिनके अनेक निर्णयों से देश की सत्य सनातन धर्म, संस्कृति तथा उसे मानने वालों को अत्यन्त हानि होती है। हमारी दृष्टि में यदि कोई ऐसा व्यक्ति होता है तो वह कुछ अच्छे कार्यों को करने के लिये तो प्रशंसनीय हो सकता है परन्तु उसके देशवासियों के लिये जो हानिकारक निर्णय होते हैं, उस कारण से वह सब मनुष्यों व देशवासियों से सर्वांगीण रूप से प्रशंसनीय नहीं होता अतः ऐसा व्यक्तित्व महापुरुष नहीं हो सकता। हम ऋषि दयानन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि हमारे देश के सभी राजनीतिक लोगों ने उनके साथ न्याय नहीं अन्याय किया है। ऋषि दयानन्द ने देश, सत्य विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित सच्चे वैदिक धर्म की पुनस्र्थापना व देश की उन्नति के अनेकानेक काम किये। उन्होंने किसी मनुष्य के लिये हानिकारक कोई काम नहीं किया तथापि हमारे देश के प्रमुख लोगों ने उनके योगदान का सही मूल्यांकन न करके उनका अवमूल्यन ही किया है। हमारी दृष्टि में ऋषि दयानन्द से अधिक योग्य, ज्ञानी, देश व समाज का हितकारी, देश से अन्धविश्वास, अज्ञानता तथा कुपरम्पराओं को दूर करने वाला उनके समान दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ। इतना ही नहीं उन्होंने शिक्षा, सामाजिक समानता की उन्नति पर भी ध्यान दिया। बाल विवाह, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, छुआछूत तथा ऊंच-नीच के विचारों को तर्क एवं युक्ति के आधार पर मानव मात्र के लिये उपयोगी एवं हितकारी बनाया तथा इन सामाजिक बुराईयों को दूर करने के लिये शास्त्रार्थ, प्रवचन, लेखन द्वारा देश इनका देश में प्रचार व प्रसार किया। उनके समय में स्त्रियों व शूद्रों को वेद पढ़ने, सुनने व बोलने का अधिकार नहीं था, वह अधिकार भी उन्होंने ही दिलाया। ऋषि दयानन्द से इतर कुछ लोगों को उनसे अधिक महत्व दिया गया जबकि उनका योगदान ऋषि से न केवल कम था अपितु ज्ञान व कर्म दोनों ही दृष्टि से वह ऋषि दयानन्द से बहुत पीछे थे। गहन चिन्तन एवं विचार कर इस विषय में सत्यासत्य का निर्णय किया जा सकता है। 

हमारी प्रचलित शिक्षा भी अनेक दृष्टियों से अपूर्ण एवं दोषपूर्ण है। इस शिक्षा से हमारे बच्चों व युवाओं का चरित्र निर्माण नहीं होता। भ्रष्टाचार करने वाले व दूसरों को सताने वाले लोग हमें मिलते हैं। शायद ही देश में कोई एक विभाग हो जहां भ्रष्टाचार व कामचोरी की शिकायतें न मिलें। ऐसी स्थिति में हमारे देश की अनेक व्यवस्थाओं में सुधार व परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होती है। अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। व्यवस्था परिवर्तन की बात तो यदाकदा स्वामी रामदेव व कुछ सामाजिक नेताओं के वचनों में सुनाई देती है, परन्तु हम उसी व्यवस्था में जी रहे हैं जिसमें शायद सभी दुःखी व असन्तुष्ट हैं। अपने सत्य वैदिक सिद्धान्तों को जानने का प्रयत्न ही नहीं किया है। हमारे देश के 99 प्रतिशत लोग ईश्वर व अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप से भी परिचित नहीं है। सभी भौतिकवादी जीवन व्यतीत करते हैं। सब मनुष्य अपनी मृत्यु का भी विचार नहीं करते। मृत्यु के बाद उनका क्या बनेगा, क्या वह मनुष्य बन सकेंगे या नीच योनियों में जन्म होगा, इसका विचार भी किसी समाज व समूह में होता दिखाई नहीं देता। यदा-कदा आर्यसमाज के सत्संगों व ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों के ग्रन्थों में ही इन विषयों पर तर्क एवं युक्ति संगत विचार पढ़ने को मिलते हैं। इसी कारण देश में अनेक बुराईयां घर कर गई हैं। इनका समाधान वेद व वैदिक विचारधारा के प्रचार व आचरण से ही हो सकता है परन्तु देश इस विषय में विचार करना उचित नहीं समझता। यह आज के समय का सबसे बड़ा आश्चर्य है। 

धार्मिक उस मनुष्य को कहते हैं जो धर्म को जानता व उसका पालन करता है। अग्नि का धर्म गर्मी देना तथा पदार्थों को जलाना है। वह यही काम करती है और इससे लोगों को लाभ होता है। वायु का काम भी मनुष्य आदि प्राणियों को श्वसन क्रिया को जारी रखने में सहयोग करना तथा शरीर में प्रवाहित होने वाले रक्त को स्वच्छ व शुद्ध करना व रखना होता है। इसी प्रकार से पृथिवी भी अपने धर्म अर्थात् सत्य नियमों का पालन करती है। उसी से हमें अन्न, ओषधियां, फल, मेवे, वस्त्र बनाने की सामग्री सहित आवास एवं सुख की सभी सामग्री प्राप्त होती है। इसी प्रकार परमात्मा ने मनुष्य को सद्कर्म करने, ईश्वर व आत्मा को जानने तथा सत्य विधि जो कि वैदिक, दर्शन एवं उपनिषदों आदि के ज्ञान के अनुकूल हो उस विधि से उपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने के लिये उत्पन्न किया है। मनुष्य यदि ज्ञान प्राप्ति व विवेक पूर्वक यह सब काम करता है तथा विद्वानों से चर्चा व शंका समाधान कर सर्वसम्मत हल निकाल कर उनका पालन करता है तब वह धार्मिक होता है। मत व धर्म में बहुत बड़ा अन्तर है। मत उसे कहते हैं जो कोई मनुष्य ने इतिहास के किसी काल खण्ड में आरम्भ किया होता है। इन मतों में अविद्या का समावेश होता है क्योंकि सभी मनुष्य, आचार्य व विद्वान भी अल्पज्ञ ही होते हैं। हमारे अनेक पुराने वैज्ञानिकों ने विज्ञान के अनेक सिद्धान्त दिये जिन्हें बाद के वैज्ञानिक ने सतत अनुसंधान कर संशोधित व अद्यतन किया। धर्म में भी ऐसा होना चाहिये परन्तु कोई ऐसा करता नहीं है। सब मतों के अपने-अपने गुप्त हित व स्वार्थ भी होते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने समय में इस ओर ध्यान दिलाया था और इस आशय की पूर्ति के लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रंथ लिखा था। इस ग्रन्थ का अध्ययन कर मनुष्य सत्य-मत व सत्य-धर्म को प्राप्त होकर स्वयं सुखी होता है तथा संसार में सभी प्राणियों को सुख प्राप्त कराता है। वैदिक काल में वेदों के प्रचार व ऋषियों की उपस्थिति में अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियांे आदि के प्रचलित न होने तथा विश्व में एक धर्म वा मत होने से सभी लोग वर्तमान की अधिकांश समस्याओं से मुक्त थे। मनुष्य के स्वभाव में लोभ व मोह भी विद्यमान होता है। सबसे अधिक पाप लोभ व मोह ही कराते हंै। यदि सत्यासत्य का विचार किये बिना लोभ की पूर्ति के लिये संगठित व सामूहिक रूप से प्रयत्न होता है तो इससे सामान्य लोगों को पीड़ा एवं दुःख पहुंचता है। अतः सभी मतों व विचारधाराओं की मान्यताओं से मनुष्यता विरोधी सभी बातों का सुधार किया जाना चाहिये। यदि किसी को कोई शिकायत हो तो उसे एकमात्र न्यायालय की शरण में ही जाना चाहिये। धरना, प्रदर्शन, आगजनी आदि की अनुमति नहीं होनी चाहिये। इससे अनुशासन प्रिय लोगों को असुविधा व कष्ट होता है जो कि उचित नहीं है। ऐसे लोगों के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये। संगठित होकर अन्य लोगों के लिये समस्यायें उत्पन्न करना धर्म नहीं होता। इस पर विचार किये जाते रहना आवश्यक है। 

हम विचार करते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है धर्म एवं देश दोनों एक दूसरे के पूरक है। जो व्यक्ति जिस देश में उत्पन्न होता है और उसका अन्न, जल, निवास, व्यवसाय आदि सुविधा को प्राप्त करता है उसे अपने देश, समाज तथा उसकी प्राचीन सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों सहित परम्पराओं का पालन करना ही चाहिये। जो नहीं करता उसके लिये सभ्य व विद्वतजनों को विचार कर नियम आदि बनाने चाहिये। देश की उन्नति तभी हो सकती है जब कि सभी लोग देश भक्त हों और देशभक्ति को सभी मतों व सम्प्रदायों में सर्वोपरि स्थान प्राप्त हो। भारत को चाहिये कि वह रूस, चीन, अमेरिका, फ्रांस एवं इजराइल आदि देशों के इस विषयक नियमों का अध्ययन कर उनकी उचित बातों का अनुकरण व अनुसरण अपने यहां करे। ऐसा करने पर ही भारत इक्कीसवीं सदी का आधुनिक देश बन सकेगा जहां किसी से पक्षपात नहीं होगा और कोई हिंसा व अन्याय का शिकार नहीं होगा।

मनुष्य को सृष्टिकर्ता ईश्वर के उपकारों को जानकर कृतज्ञ होना चाहिये

-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य मननशील प्राणी है। इसका शरीर उसने स्वयं उत्पन्न किया नहीं है। माता पिता से इसे जन्म मिलता है। माता पिता भी अल्पज्ञ एवं अल्प शक्ति वाले मनुष्य होते हैं। सभी मनुष्य व महापुरुष अल्पज्ञ ही होते हैं। कोई भी मनुष्य व इतर प्राणियों के शरीर को बनाना नहीं जानता। मनुष्य से भिन्न संसार में एक ही चेतन सत्ता है। यह चेतन सत्ता सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, नित्य, अनन्त तथा सृष्टिकर्ता है। ईश्वर और जीवात्मा से एक अन्य अनादि, नित्य व अनन्त जड़ सत्ता प्रकृति भी इस ब्रह्माण्ड में है। यह ईश्वर के अधीन है। प्रकृति के गुणों का वर्णन वेद वा वैदिक साहित्य में मिलता है जिसे ऋषियों ने अपने ज्ञान व योग के आधार पर साक्षात किया था। प्रकृति तीनों गुणो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस प्रकृति में ही सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर विकार उत्पन्न कर इसमें महत्तत्व तथा अहंकार आदि विकृतियों को उत्पन्न करते हैं। इन्हीं विकारों के अन्य विकार पंचतन्मात्रायें, ज्ञान व कर्मेन्द्रियां, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु एवं आकाश आदि होते हैं। इन्हीं से सर्वव्यापक तथा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हमारी इस कार्य सृष्टि व संसार को बनाते हैं जो सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह तथा नक्षत्रों सहित भूमि, वन, पर्वत, नदी, समुद्र तथा जड़-चेतन जगत आदि से युक्त है।

हमारा यह जगत किसी चेतन सत्ता की रचना व कृति है जो केवल सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर द्वारा ही बनाई जा सकती है और वस्तुतः उसी ने बनाई भी है। वेद तथा वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर मनुष्य इस विषय को भलीभांति जान सकता है। ऐसा करने से ही मनुष्य को इस संसार के अनेक रहस्यों के ज्ञान सहित ईश्वर तथा जीवात्मा के स्वरूप तथा गुण, कर्म व स्वभाव, अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों आदि का भी ज्ञान होता है। हमारे प्राचीन पूर्वज अपना जीवन ज्ञानार्जन एवं सत्य के आचरण में ही व्यतीत करते थे। सभी वेदों के अनुसार ईश्वर व आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर ज्ञानयुक्त वैदिक विधि से ही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करते हुए तथा वायु व जल आदि की शुद्धि पर ध्यान देने के साथ अग्निहोत्र यज्ञ आदि कर अपने जीवन को सार्थक एवं सफल करते थे। ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना तथा अपने सत्यकर्तव्यों को जानकर उनका पालन व आचरण करना ही मनुष्य का कर्तव्य एवं धर्म होता है। इस कार्य में ऋषि दयानन्द का ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश सभी मनुष्यों का मार्गदर्शन करता है। इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि परमात्मा ने यह सृष्टि अपनी शाश्वत व सनातन प्रजा जीवों के सुख दुःख रूपी भोग तथा अपवर्ग रूपी मोक्षानन्द वा आवागमन से मुक्ति के लिए बनाई है। मनुष्य जीवन को प्राप्त होकर अपने भोगों को प्राप्त कर ईश्वर की उपासना व सत्कर्मों से अपनी ज्ञानोन्नति व मुक्ति के कर्मों आदि को करके जीवन को सफल करना चाहिये। मनुष्य के जन्म जन्मान्तर के सभी दुःखों की निवृत्ति वेदाध्ययन तथा वेदाचरण के द्वारा ही सम्भव होती है। स्थाई रूपी से जीवन उन्नति व दुःख निवृत्ति का अन्य कोई उपाय संसार में नहीं है। इसका निश्चय सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर होता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने हित व कल्याण के लिए सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर इसकी शिक्षाओं का मनन कर इसकी वेदानुकूल सभी शिक्षाओं को अपने जीवन में अपनाना चाहिये। 

संसार में इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता सहित सब प्राणियों को जन्म देने, वन, उपवन व वनस्पतियों, अन्न, ओषधि एवं मनुष्य आदि प्राणियों के भोजन आदि के सभी पदार्थों को उत्पन्न करने वाली सर्वज्ञता व सर्व-शक्तियों से युक्त एक ही चेतन सत्ता ईश्वर है। हमें उस ईश्वर के अपने प्रति किये गये उपकारों को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह अपना ही हित करते और जो नहीं करते वह अपनी ही हानि करते हैं। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रकाश अपने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में किया है। उपनषिद, दर्शन ग्रन्थों में भी ईश्वर के सत्यस्वरूप की चर्चा एवं उसका प्रकाश है। ईश्वर का सत्यस्वरूप कैसा है, इसका उल्लेख कर ऋषि दयानन्द ने आर्योद्देश्यरत्नमाला में लिखा है ‘जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव, अनादि और अनन्त, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।‘ ऋषि दयानन्द द्वारा संक्षेप में प्रस्तुत किया गया ईश्वर का यह सत्यस्वरूप सत्य एवं वेदादि स्वतःप्रमाण शास्त्रों से पुष्ट होने सहित तर्क एवं युक्तिसगत भी है। सभी मनुष्यों को ईश्वर के इस स्वरूप पर विचार कर इसी स्वरूप के अनुसार ईश्वर को जानना व मानना चाहिये। 

जब हम ईश्वर के उपकारों पर दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सब जीवों को सुख देने के लिए ही इर्स सृष्टि की रचना की है और वही इसका पालन व संचालन कर रहा है। वही सृष्टि की अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय भी करता है और प्रलय अवधि समाप्त होने पर पुनः सृष्टि की रचना व पालन के कार्य करता है। ईश्वर ने यह सृष्टि अपने किसी निजी प्रयोजन के लिए नहीं अपितु हम जीवात्माओं के लिए की है। अतः हमें ईश्वर के इस उपकार को जानना चाहिये और इसके लिए नित्य प्रति उसकी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए अनुचित कर्मों का त्याग तथा सत्य व वेदविहित कर्मों यथा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना, सत्कर्म, परोपकार, अग्निहोत्र यज्ञ तथा दान आदि को करने का प्रयत्न करना चाहिये। ईश्वर का दूसरा मुख्य उपकार जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है। हमें जो सुख मिलते हैं वह ईश्वर हमारे पुण्य कर्मों के अनुसार हमें देते हैं और हमें जो दुःख प्राप्त होते हैं वह प्रायः हमारे पाप कर्मों के कारण मिलते हैं। ईश्वर की न्याय व्यवस्था तथा हमारे हित के कार्यों के लिए भी हमें ईश्वर का कृतज्ञ होकर उसकी स्तुति, भक्ति, वन्दना, प्रार्थना तथा उपासना आदि करनी चाहिये। ईश्वर की उपासना का फल भी हम सब मनुष्यों को ज्ञात होना चाहिये। 

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के फल पर प्रकाश डाला है। उन्होंने लिखा है कि ‘जैसे शीतसे आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस (ईश्वर की उपासना) से इस का फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी (मनुष्य व जीवात्मा) न घबरायेगा और सब (दुःखों) को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।’ पहाड़ के समान दुःख सहन करने की शक्ति ईश्वर की उपासना से ही प्राप्त होती है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है। अतः इस लाभ के लिये हमें वेदाध्ययन करने सहित ईश्वर की उपासना अवश्य करनी चाहिये। 

ईश्वर व जीवात्मा दोनों अनादि तथा नित्य पदार्थ व सत्तायें हैं। दोनों के अनादि होने से इस सृष्टि की अनन्त बार रचना एवं प्रलय हुई है, यह सिद्ध होता है। सृष्टि के प्रत्येक समय में परमात्मा ने हमें हमारे कर्मानुसार मनुष्य आदि योनियों में जन्म व सुख प्रदान किये हैं। हम एक दो नहीं, अनेकों बार मोक्ष व मुक्ति को भी प्राप्त हो चुके हैं। संसार में अगणित प्राणी योनियां हैं। इन सभी योनियों में अनादि काल से अब तक हमारे अगणित बार जन्म हुए हैं तथा हर जन्म में मृत्यु भी हुई है। सभी जन्मों व मोक्ष मे प्राणियों को सुख का लाभ होता है। यह सब परमात्मा की कृपा, न्याय व दया से ही सब जीवों को प्राप्त होता है। अतः परमात्मा के मनुष्य आदि सभी प्राणियों व जीवात्माओं पर अनादि काल से अनन्त उपकार हैं। परमात्मा इन उपकारों के बदले हमसे कुछ मांगता नहीं है। यह हमारे अपने ऊपर होता है कि हम उसको जाने व उसकी उपासना करें जिसके भी अनेक अतिरिक्त लाभ हमें मिलते हैं। अतः सभी मनुष्यों को अपना जीवन वेदों के सिद्धान्तों व मान्यताओं के अध्ययन सहित सत्साहित्य के अध्ययन व सत्याचरण में व्यतीत करना चाहिये। ईश्वर के उपकारों को जानकर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने सहित अपने आचरण व कार्यों को शुद्ध रखना चाहिये। किसी प्राणी को कदापि कष्ट नहीं देना चाहिये। दूसरे प्राणियों के प्रति जितना उपकार कर सके, करने चाहियें। यही निश्चय ईश्वर को जानकर व वेदों का अध्ययन करने पर होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हमारा जीवन सफल होगा और हम लोक परलोक व जन्म-जन्मान्तर में सुख व उन्नति को प्राप्त होंगे और मनुष्य जीवन के लक्ष्य व चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को भी प्राप्त होंगे। 

स्त्री और अस्तित्व

प्रभुनाथ शुक्ल

मुँह अँधेरे उठती है वह
बुहारती है आँगन माजती है वर्तन
बाबू को देती है दवाई और
माँ की गाँछती है चोटी
बच्चों का तैयार करती है स्कूल बैग
और बांधती है टिफीन
सुबह पति को बेड-टी से उठाती है
दरवाजे तक आ छोड़ती है आफिस
फिर,रसोई के बचे भोजन से मिटाती है भूख
परिवार में सबकी पीड़ा का मरहम है वह
खुद के दर्द से बेपरवाह है वह
समर्पण ही उसकी ख़ुशी है
अर्पण ही उसका मोक्ष
परिवार ही उसका तीर्थ
वह एक स्त्री है
स्त्री ही नहीं, हमारा अस्तिव है
मेरे जीवन और संस्कार का मूलत्व
वह है तो मैं पूर्ण हूँ, वरना अपूर्ण हूँ

जलवायु आपातकाल रोकने के लिए CO2 उत्सर्जन कटौती की दर में दस गुना वृद्धि ज़रूरी

भले ही तमाम देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती का दम भर रहे हैं , लेकिन असलियत ये है कि उनकी इस कटौती की दर में दस गुना बढौतरी की ज़रूरत है।

दरअसल एक नए शोध से पता चलता है कि भले ही 2016-2019 के दौरान 64 देशों ने अपने CO2 उत्सर्जन में ख़ासी कटौती की, लेकिन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पेरिस समझौते के अंतर्गत तय किये गए लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इस कटौती की दर में दस गुना बढ़त की आवश्यकता है।

ईस्ट एंग्लिया (UEA), स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी और ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस पहले वैश्विक मूल्यांकन ने 2015 में पेरिस समझौते को स्वीकार किए जाने के बाद से CO2 उत्सर्जन के घटने की प्रगति की जांच की। और उनकी जांच के नतीजे नवंबर में होने वाली महत्वपूर्ण संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (COP26) से पहले साफ़ करते हैं कि अभी बहुत प्रयास ज़रूरी हैं।

सालाना 0.16 बिलियन टन CO2 की वार्षिक कटौती जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर साल विश्व स्तर पर ज़रूरी 1-2 बिलियन टन CO2 की कटौती का केवल 10 प्रतिशत ही है।

और जहाँ 64 देशों में उत्सर्जन में कमी आई, वहीँ 150 देशों में इसमें बढ़त दर्ज की गयी। विश्व स्तर पर, 2011-2015 की तुलना में, साल 2016-2019 के दौरान उत्सर्जन में 0.21 बिलियन टन CO2 प्रति वर्ष की वृद्धि हुई।

वैज्ञानिकों के ये निष्कर्ष, ‘कोविड युग के बाद के जीवाश्म CO2 उत्सर्जन’, आज नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुए हैं।

साल 2020 में, कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए लगे लॉक डाउन की वजह से वैश्विक उत्सर्जन में 2.6 बिलियन टन CO2 की कटौती हुई जो कि 2019 के स्तर से लगभग 7 प्रतिशत कम है। शोधकर्ताओं का कहना है कि 2020 बस एक ‘पॉज़ बटन’ था जो व्यावहारिक तौर पर लगातार वैसी स्थिति नहीं बनाये रह सकता क्योंकि दुनिया भारी रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है। लॉक डाउन की नीति न तो जलवायु संकट का सतत समाधान है और न ही वांछनीय हैं।

UEA (यूईए) के स्कूल ऑफ एनवायर्नमेंटल साइंसेज़ में रॉयल सोसाइटी की प्रोफेसर, कोरिन ले क्यूरे, ने इस विश्लेषण का नेतृत्व किया। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “पेरिस समझौते के बाद से CO2 उत्सर्जन में कटौती करने के लिए देशों के प्रयास अच्छे परिणाम दिखाना शुरू कर रहें हैं, लेकिन कार्रवाई अभी तक अपेक्षित बड़े पैमाने पर नहीं हैं और उत्सर्जन अभी भी कई देशों में बढ़ रहा है।”

वो आगे कहते हैं, “कोविड-19 की प्रतिक्रियाओं से CO2 उत्सर्जन में गिरावट ने कार्रवाई के पैमाने और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आवश्यक अंतरराष्ट्रीय पालन पर प्रकाश डाला। अब हमें बड़े पैमाने पर कार्यों की आवश्यकता है जो मानव स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं और ग्रह के लिए अच्छे हैं। स्वच्छ ऊर्जा में तत्काल परिवर्तन को गति देने के लिए बेहतर तरीके से निर्माण करना सभी के हित में है।”

पेरिस समझौते की महत्वाकांक्षा के अंतर्गत, ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस के नीचे की सीमा के भीतर सीमित रखने के लिए, न सिर्फ इस दशक, बल्कि आगे भी 1-2 बिलियन टन CO2 की वार्षिक कटौती की आवश्यकता है। मानव गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण औद्योगिक क्रांति के बाद से दुनिया 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म हो गई है।

उच्च आय वाले 36 देशों में से, 25 ने 2011-2019 की तुलना में 2016-2019 के दौरान अपने उत्सर्जन में कमी देखी, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका (औसत -0.7 प्रतिशत की वार्षिक कमी), यूरोपीय संघ (-0.9 प्रतिशत), और यूके (-3.6 फीसदी) शामिल हैं। अन्य देशों में उत्पादित आयातित वस्तुओं के कार्बन फुटप्रिंट के लिए लेखांकन करते समय उत्सर्जन में भी कमी आई।

साल 2011–2015 की तुलना में 2016–2019 के दौरान 99 ऊपरी-मध्य आय वाले देशों के उत्सर्जन में कमी देखी गई, जो बताता है कि उत्सर्जन को कम करने की कार्रवाई अब दुनिया भर के कई देशों में चल रही है। उस समूह में मेक्सिको (-1.3 प्रतिशत) एक उल्लेखनीय उदाहरण है, जबकि चीन का उत्सर्जन 0.4 प्रतिशत बढ़ा, जो 2011-2015 के 6.2 प्रतिशत वार्षिक विकास से बहुत कम है।

जलवायु परिवर्तन कानूनों और नीतियों की बढ़ती संख्या ने 2016-2019 के दौरान उत्सर्जन में वृद्धि को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दुनिया भर में अब 2000 से अधिक जलवायु कानून और नीतियां हैं।

2021 में पिछले CO2 उत्सर्जन स्तरों में पूर्ण वापसी की संभावना नहीं लगती है।

हालाँकि, लेखकों का कहना है कि जब तक कोविड-19 रिकवरी स्वच्छ ऊर्जा और ग्रीन अर्थव्यवस्था में निवेश को निर्देशित नहीं करती, तब तक उत्सर्जन कुछ वर्षों में फिर से बढ़ने लगेगा। 2020 में व्यवधान की प्रकृति, विशेष रूप से सड़क परिवहन को प्रभावित करने का मतलब है इलेक्ट्रिक वाहनों की बड़े पैमाने पर तैनाती में तेजी लाने के लिए प्रोत्साहन और शहरों में पैदल चलने और साइकिल चलाने को भी प्रोत्साहित करना समय पर हो रहा है और इससे सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार होगा। संकट, गिरती लागत और वायु गुणवत्ता लाभ में रिन्यूएबल ऊर्जा की लचीलापन, बड़े पैमाने पर तैनाती का समर्थन करने के लिए अतिरिक्त प्रोत्साहन हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन सहित अधिकांश देशों में जलवायु प्रतिबद्धताओं के साथ विरोधाभास में कोविड के बाद भारी मात्रा में जीवाश्म ईंधन का प्रभुत्व जारी रहेगा। यूरोपीय संघ, डेनमार्क, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी और स्विट्जरलैंड उन कुछ देशों में से हैं, जिन्होंने अब तक जीवाश्म आधारित गतिविधियों में सीमित निवेश के साथ पर्याप्त हरे प्रोत्साहन पैकेज लागू किए हैं।

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रॉब जैक्सन ने अध्ययन का सह-लेखन किया। उन्होंने कहा, “देशों द्वारा दशकों के भीतर शुद्ध शून्य उत्सर्जन तक पहुंचने की बढ़ती प्रतिबद्धता ग्लासगो में COP26 की आवश्यक जलवायु महत्वाकांक्षा को मजबूत देती है। बढ़ती महत्वाकांक्षा अब तीन सबसे बड़े उत्सर्जकों के नेताओं द्वारा समर्थित है: चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय आयोग। “

वो आगे बताते हैं, “अकेले प्रतिबद्धताएँ पर्याप्त नहीं हैं। इस दशक में कुशलविज्ञान और विश्वसनीय कार्यान्वयन योजनाओं के आधार पर देशों को जलवायु लक्ष्य के साथ कोविड प्रोत्साहन को संरेखित करने की आवश्यकता है।”

प्रोफेसर ले क्यूरे ने यह भी कहा कि, “दुनिया भर में चरम जलवायु प्रभावों के तेजी से सामने आने से ये समयरेखा लगातार प्रभावित होती जा रहा है।”

UEA में एंथनी डे-गोल ने एक ऐसा एप्लिकेशन बनाया है जिससे उत्सर्जन डाटा को देश आधारित रूप से दिखाया जा सकता है।

कांग्रेसः मरता, क्या नहीं करता ?

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक

कांग्रेस पार्टी आजकल वैचारिक अधःपतन की मिसाल बनती जा रही है। नेहरू की जिस कांग्रेस ने पंथ-निरपेक्षता का झंडा देश में पहराया था, उसी कांग्रेस के हाथ में आज डंडा तो पंथ-निरपेक्षता का है लेकिन उस पर झंडा सांप्रदायिकता का लहरा रहा है। सांप्रदायिकता भी कैसी ? हर प्रकार की। उल्टी भी, सीधी भी। जिससे भी वोट खिंच सकें, उसी तरह की। भाजपा भाई-भाई पार्टी बन गई है, वैसे ही कांग्रेस भी भाई-बहन पार्टी बन गई है। भाई-बहन को लगा कि भाजपा देश में इसलिए दनदना रही है कि वह हिंदू सांप्रदायिकता को हवा दे रही है तो उन्होंने भी हिंदू मंदिरों, तीर्थों, पवित्र नदियों और साधु-संन्यासियों के आश्रमों के चक्कर लगाने शुरु कर दिए लेकिन उसका भी जब कोई ठोस असर नहीं दिखा तो अब उन्होंने बंगाल, असम और केरल की मुस्लिम पार्टियां से हाथ मिलाना शुरु कर दिया। बंगाल में अब्बास सिद्दिकी के ‘इंडियन सेक्युलर फ्रंट’, असम में बदरूद्दीन अजमल के ‘आॅल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट’ और केरल में ‘वेलफेयर पार्टी’ से कांग्रेस ने गठबंधन किसलिए किया है, इसीलिए कि जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार न हों, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को सेंत-मेंत में मिल जाएं। क्या इन वोटों से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है ? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर ऐसे सिद्धांतविरोधी समझौते कांग्रेस ने क्यों किए हैं ? इसीलिए की इन सभी राज्यों में उसका जनाधार खिसक चुका है। अतः जो भी वोट, वह जैसे भी कबाड़ सके, वही गनीमत है। इन पार्टियों के साथ हुए कांग्रेसी गठबंधन को मैंने ठग-बंधन का नाम दिया है, क्योंकि ऐसा करके कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को तो ठग ही रही है, वह इन मुस्लिम वोटरों को भी ठगने का काम कर रही है। कांग्रेस को वोट देकर इन प्रदेशों के मुस्लिम मतदाता सत्ता से काफी दूर छिटक जाएंगे। कांग्रेस की हार सुनिश्चित है। यदि ये ही मुस्लिम मतदाता अन्य गैर-भाजपा पार्टियां के साथ टिके रहते तो या तो वे किसी सत्तारुढ़ पार्टी के साथ होते या उसी प्रदेश की प्रभावशाली विरोधी पार्टी का संरक्षण उन्हें मिलता। कांग्रेस के इस पैंतरे का विरोध आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता ने दो-टूक शब्दों में किया है। कांग्रेस यों तो अखिल भारतीय पार्टी है लेकिन उसकी नीतियों में अखिल भारतीयता कहां है ? वह बंगाल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी के साथ है, केरल में उसी के खिलाफ लड़ रही है। महाराष्ट्र में वह घनघोर हिंदूवादी शिवसेना के साथ सरकार में है और तीनों प्रांतों में वह मुस्लिम संस्थाओं के साथ गठबंधन में है। दूसरे शब्दों में कांग्रेस किसी भी कीमत पर अपनी जान बचाने में लगी हुई है। मरता, क्या नहीं करता ?

कबीर की भाषा का अनुवाद नहीं

—विनय कुमार विनायक
कबीर की नहीं है कोई प्रतिलिपि
कबीर की भाषा का अनुवाद नहीं
कबीर को पढ़ना है तो सीखनी होगी
कबीर की अक्खड़ भाषा की प्रकृति
जाननी होगी उसकी नागरी लिपि वर्तनी!

कबीर की भाषा साधुकड़ी डिक्टेटर जैसी
स्त्रैण नहीं, दैन्य नहीं, पलायन नहीं
‘अर्जुनस्य प्रतिज्ञैद्वै न दैनयं न पलायनम्’
कबीर की भाषा सीधे-सीधे प्रहार करती
कबीर की भाषा तीर सा दिल में उतरती!

कबीर की भक्ति में उपनयन संस्कार नहीं
अजान का हुंकार नहीं,खुदा का दरकार नहीं
ईश्वर का अवतार नहीं, कोई हथियार नहीं
कबीर के राम में कोई भी चित विकार नहीं!

कबीर की भक्ति ऐकांतिक एकला चलो नहीं
कबीर की भक्ति जन समूह की मुक्ति
कबीर की दावेदारी स्वर्ग दिलाने की नहीं
कबीर ने वकालत नहीं की कावा काशी
मक्का मदीना सी पुण्य भूमि में जाने की!

कबीर की शिक्षा अपने नर्क भूमि मगहर में
जीकर,रहकर,मरकर मुक्ति पा लेने की!
कबीर सब्जबाग दिखाते नहीं स्वर्ग हूर परी पाने का
कबीर ख्वाब दिखाते नहीं सोनार बांगला बनाने की!

कबीर का राम राजनीतिक नहीं, साम्प्रदायिक नहीं,
कबीर का राम श्री राम नहीं,वे सबकी श्री वृद्धि करते!
कबीर का राम जय राम नहीं,वे जग को जय दिलाते,
कबीर का राम हे राम नहीं, जिसे मृत्यु घड़ी में पुकारते!

कबीर का राम घट-घट वासी, कावा काशी रोम
मरघट मगहर श्मशान कब्रिस्तान में भी विराजते,
कबीर के राम वेद पुराण कुरान से आयातित नहीं!

कुछ बातें ऐसी होती जिसकी अनुवाद नहीं होती,
कुछ बातें घुसकर दिल में फिर निकल नहीं पाती!
चिपकी बातें दिल में नए विचार उग आने नहीं देती,
कुछ बातें ऐसी जो गुलामी बनाए रखने के लिए होती!

गुलामी से मुक्ति के लिए जरूरी, अलग तरह की बातें,
नई अलग तरह की बातें तबतक समझ में नहीं आती
जबतक हु-ब-हू उसे सुनी, सुनाई, समझाई नहीं जाती
हर भाषा में हर भाषा के लिए शब्द संपदा होती नहीं!
होती नहीं स्थिति को अभिव्यक्ति देने की शक्ति
एक भाषा का दूसरी भाषा में शब्दांतरण प्रभावहीन
अति प्रभावशाली विस्फोटक स्वभाव का हो सकता!

ऐसे में सही मनोवृत्ति की सही अभिव्यक्ति हेतु
सीखनी पड़ती उस भाषा की सही सही शब्दावली
कबीर की भाषा ऐसी जिसकी अनुवाद नहीं होती!

कुछ भाषा देशी स्त्रैण, कुछ अक्खड़ होती,
कुछ विदेशी भाषा लाल बुझक्कड़ जैसी होती!

स्त्रैण बोली स्त्री की तरह आकर्षक होती,
स्त्रैण बोली मोहपाश में बांधती भ्रमजाल से,
स्त्रैण बोली हमेशा पुरुषार्थ के खिलाफ होती!

स्त्रैण भाषा सब्जबाग दिखाती, ख्वाब दिखाती,
दिलासा देती मगर यथास्थिति बनाए रखती
भाषा बहुत हद तक व्यक्तित्व निर्माण करती!

भाषा अगर वीर रस का हो रण में जय दिलाती
कुछ भाषा हमें पुरुषार्थहीन असैन्य जाति बनाती!
देशी भाषा घर के लिए घर में रख छोड़नी चाहिए,
विदेशी अनुमान की भाषा उससे तो मुक्ति चाहिए,
ग्रहण करो परिष्कृत, सांस्कृतिक, जीवंत भाषा!

कि कोई भाषा अपनी पराई नहीं होती
भाषा हमेशा से समय परिस्थिति की उपज होती
कलतक संस्कृत भारोपीय विश्व भाषा थी
अपभ्रंश हो टूटते गई, स्थानीय बोली से जुटते गई
फिर एक खड़ी बोली बड़ी होकर हिन्दी हो गई!

अब हिन्दी खुशरो अमीर की, कबीर की बोली
रहीम रसखान की, हरिश्चंद्र, मैथिली शरण गुप्त
प्रसाद पंत निराला की बोली, दिनकर की हुंकार
समय की पुकार हिन्दी में सबका हित समाहित!

अमार बांगला बंगला देश की भाषा हो गई,
तमिल ईलम लंका की भाषा देगी नहीं दिलासा,
देश भर में रोजी-रोटी, राजनीति की गारंटी!

अंग्रेजी गुलामी की भाषा जिसकी दिन लद गई,
छोड़ो जिद उगते सूर्य को पूजो हिन्दी बोलो, लिखो
हिन्दी में देश राज्य समाज जनता का हित!

जी-23 की बगावत से कमजोर होती कांग्रेस

-ः ललित गर्ग:-

कांग्रेस की राजनीति की सोच एवं संस्कृति सिद्धान्तों, आदर्शों और निस्वार्थ को ताक पर रखकर सिर्फ सत्ता, पु़त्र-मोह, राजनीतिक स्वार्थ, परिवारवाद एवं सम्पदा के पीछे दौड़ी, इसलिये आज वह हर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ती जा रही है। कांग्रेस आज उस मोड़ पर खड़ी है जहां एक समस्या समाप्त नहीं होती, उससे पहले अनेक समस्याएं एक साथ फन उठा लेती है। कांग्रेस के भीतर की अन्दरूनी कलह एवं विरोधाभास नये-नये चेेहरों में सामने आ रही है, जी-23 की बगावत जगजाहिर है। कांग्रेस की इस दुर्दशा एवं लगातार रसातल की ओर बढ़ने का सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी है। वह पार्टी एवं राजनीतिक नेतृत्व क्या देश की गरीब जनता की चिन्ता एवं राष्ट्रीय समस्याओं को मिटायेंगी जिसे पु़त्र के राजनीतिक अस्तित्व को बनाये रखने की चिन्ताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है।
जी-23 के नेता कांग्रेस के कद्दावर नेता है, पार्टी के आधार है, बुनियाद है, उनके भीतर पनप रहा असंतोष एवं विद्रोह अकारण नहीं है। ये नेता तमाम ऐसी बातें बोलने को विवश हुए हैं जो सोनिया को नागवार गुजरी है। इन्होंने रह-रहकर राहुल की नाकामियों को उजागर किया है, संगठन का मुद्दा उठाया है, बंगाल में फुरफुरा शरीफ के मौलवी अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट से कांग्रेस के समझौते पर भी ये नेता सवाल उठा रहे हैं। कांग्रेस अपने बुनियादी सिद्धांतों से कैसे समझौता कर सकती है? सिद्दीकी जैसे लोगों से गठबंधन करके पार्टी सांप्रदायिक शक्तियों से कैसे लड़ेगी? यह ऐसा गठबंधन है जो धार्मिक भावनाएं भड़काने के लिए जाना जाता है। कोरोना के दौरान सिद्दीकी ने सार्वजनिक दुआ मांगी थी कि दस से पचास करोड़ भारतीय मर जाएं। सांप्रदायिक लोगों और संगठनों को साथ लेकर सांप्रदायिकता से लड़ने का पाखंड तो कांग्रेस ही कर सकती है। इस तरह ओढ़ी हुई धार्मिकता और छद्म पंथनिरपेक्षता का जादू चुनावी संग्राम में कोई चमत्कार घटित नहीं कर सकेगा।
बड़ा प्रश्न है कि ऐसे लोगों से समझौता करके कांग्रेस संदेश क्या देना चाहती है? जबकि आज कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौतियां है, उनका मुकाबला नरेन्द्र मोदी जैसे दिग्गज नेता, विकास पुरुष एवं भाजपा जैसी अनुशासित पार्टी से हैं, उसे राष्ट्रीयता के ईमान को, कत्र्तव्य की ऊंचाई को, संकल्प की दृढ़ता को, निस्वार्थ के पैगाम को एवं राजनीकि मूल्यों को जीने के लिये उसे आदर्शो की पूजा ही नहीं, उसके लिये कसौटी करने होगी। आदर्श केवल भाषणों तक सीमित न हो, बल्कि उसकी राजनीतिक जीवनशैली का अनिवार्य हिस्सा बने। आदर्शों को वह केवल कपड़ों की तरह न ओढ़े, अन्यथा फट जाने पर आदर्श भी चिथड़े कहलायेंगे और ऐसा ही दुर्भाग्य कांग्रेस के भाल पर उकेरता जा रहा है।
असंतुष्ट कांग्रेसी नेताओं के हमलों पर परिवार के लोग अभी चुप हैं। उनकी यह चुप्पी असंतुष्ट नेताओं का हौसला बढ़ा रही है, उनके विरोध की धार को तेज कर रही है। जी-23  के नेताओं की कोशिश है कि यह चुप्पी टूटे और लड़ाई खुले में आए। सोनिया गांधी को पता है कि लड़ाई खुले में आई तो उनके लिए राहुल गांधी को बचाना बहुत कठिन होगा। दरअसल यह लड़ाई अब पार्टी बचाने और राहुल गांधी के अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है। राहुल गांधी को लेकर खड़े किये जा रहे मुद्दों पर गांधी परिवार की चुप्पी का इरादा केवल मुद्दे को टालना है, कुछ करने का इरादा न पहले था और न अब दिख रहा है। यह स्थिति पार्टी के लिये भारी नुकसानदायी साबित हो रही है।
आजाद भारत में सर्वाधिक लम्बे समय शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी की इस स्थिति का कारण पु़त्र-मोह है। इतिहास गवाह है पुत्र मोह ने बड़ी-बड़ी तबाहियां की हैं। सत्ता और पुत्र के मोह में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई। आज सोनिया गांधी भी ऐसे ही पदचिन्हों पर चलते हुुए पार्टी के अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधला रही है। ऐसे क्या कारण बन रहे हैं कि कांग्रेस की राजनीति के प्रति लोगों के मन श्रद्धा से झुक नहीं रहे हैं। क्योंकि वहां किसी भी मौलिक मुद्दों पर स्थिरता नहीं, जहां स्थिरता नहीं वहां विश्वास कैसे संभव है? प्रश्न एक परिवार का नहीं, बल्कि देश की 130 करोड़ आबादी का है। पुत्र-मोह, बदलती नीतियां, बदलते वायदे, बदलते बयान कैसे थाम पाएगी करोड़ों की संख्या वाले देश का आशाभरा विश्वास जबकि वह पार्टी के बुनियादी नेताओं के विश्वास को भी कायम रखने में नाकाम साबित हो रही है। इसलिये वक्त की नजाकत हो देखते हुए कांग्रेस के सभी जिम्मेदार तत्व अपनी पार्टी के लिये समय को संघर्ष में न बिताये, पार्टी-हित में सृजन करें। भारत जैसे सशक्त लोकतंत्र के सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है और अभी तक कांग्रेस के अलावा अन्य विपक्षी दलों में यह पात्रता सामने नहीं आ रही है।
वरिष्ठ असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं के निशाने पर गांधी परिवार है। तमाम नेताओं ने जितने खुले अंदाज में अपनी बात रखी, उससे साफ हो जाता है कि वे पार्टी हित में बदलाव चाहते हैं, पार्टी की सोच में भी और संगठनात्मक ढ़ांचे में भी। इन नेताओं का राजनीतिक अनुभव निश्चित तौर पर राहुल गांधी से अधिक है। अब तक की कांग्रेस की संरचना को देखते हुए यह नहीं लगता कि ये नेता किसी पद की कतार में है, ये पार्टी से अलग होकर नयी पार्टी बनाने के मुड में भी नहीं है, ये सभी नेता पार्टी में राहुल गांधी के नाम पर हो रही टूटन एवं बिखराव को लेकर चिन्तित है। ये नेता नेतृत्व के साथ मिल-बैठकर कोई सर्वमान्य हल एवं पार्टी को बचाने का फार्मूला निकालना चाहते हैं, इस तरह की संभावना की गुंजाइश का न पनपना पार्टी के अहित में ही है। स्पष्ट है कि जो पार्टी अपनों की बात ही नहीं सुन पा रही है, वह राष्ट्र एवं राष्ट्र की जनता की बात क्या सुनेंगी? लोकतंत्र में इस तरह की हठधर्मिता कैसे स्वीकार्य होगी?  कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं की यह खुली बगावत पार्टी के भविष्य पर घने अंधेरों की आहट है।
आज कत्र्तव्य एवं राजनीतिक हितों से ऊंचा कद पुत्र-मोह का हो गया है। जनता के हितों से ज्यादा वजनी निजी स्वार्थ एवं परिवारवाद हो गया है। असंतुष्ट नेता इस नतीजे पर भी पहुंच चुके हैं कि राहुल के रहते कांग्रेस में कोई सूरज उग नहीं पाएगा। जो लोग प्रिंयका गांधी से बड़ी उम्मीद लगाए थे, वे और ज्यादा निराश हैं। प्रियंका का सूरज तो उगने से पहले ही अस्त हो गया। भाई-बहन किसी गरीब से मिल लें, किसी गरीब के साथ बैठकर खाना खाले, किसी पीड़ित को सांत्वना देने पहुंच जाये तो  समझने लगते है कि एक सौ तीस करोड़ लोगों का दिल जीत लिया है। वे अपने बयानों, कार्यों की निंदा या आलोचना को कभी गंभीरता से लेते ही नहीं। उनकी राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिये हैं, छलनाओं, दिखावे एवं प्रदर्शन के मकड़ी जाल इतने बुन लिये हैं कि उनका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिये बहुत कठिन हो गया है। इन्हीं कारणों से गुजरात में पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया। चुनाव में हार-जीत तो होती रहती है, लेकिन गुजरात का नतीजा नया संदेश दे रहा है। अभी तक कांग्रेस का इस तरह से सफाया उन राज्यों में हो रहा था जहां मजबूत क्षेत्रीय दल हैं। गुजरात में अनेक सकारात्मक स्थितियों के बावजूद कांग्रेस कुछ अच्छा करने में असफल रही है तो यह अधिक चिन्तनीय पहलु है। हार के कारणों पर मंथन की बजाय स्थानीय नेताओं पर कार्रवाई क्या उचित है? प्रश्न है कि इन स्थितियों के चलते कांग्रेस कैसे मजबूत बनेगी? कैसे पार्टी नयी ताकत से उभर सकेगी? कांग्रेस को राष्ट्रीय धर्म एवं कत्र्तव्य के अलावा कुछ न दिखे, ऐसा होने पर ही पार्टी को नवजीवन मिल सकता है, अन्यथा अंधेरा ही अंधेरा है।

जी हाँ ! “अपने स्कूलों में एक खास तरह की दुनिया दिखाता है आरएसएस”

– सौरभ कुमार 

केरल में मछली पकड़ने और सिक्स पैक एब्स दिखाने के बाद राहुल गाँधी राजनीति में वापस आ गए हैं. घूम फिर के आये तो आते ही अपने दिमाग में जमा विध्वंसकारी जहर उड़ेलने लग गए. अर्थशास्‍त्री कौशिक बसु के साथ हो रही वीडियो चर्चा में कांग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी ने कहा कि “आरएसएस ने अपने स्‍कूलों के जरिए हमला शुरू किया। जैसे पाकिस्‍तान के कट्टरपंथी इस्‍लामवादी अपने मदरसों का इस्‍तेमाल करते हैंकाफी कुछ उसी तरह आरएसएस अपने स्‍कूलों में एक खास तरह की दुनिया दिखाता है।”

राहुल गाँधी शिशु मंदिर की तुलना पाकिस्तान के मदरसों से कर के आरएसएस नहीं बल्कि उन लाखों माता-पिता का अपमान कर रहे हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा और संस्कार के लिए शिशु मंदिर में भेजते हैं. राहुल गाँधी की आँखों पर पड़ा नफरत का चश्मा इस कदर हावी हो चुका है कि वो राजनीतिक लाभ के लिए भारत के बच्चों की तुलना पाकिस्तानी आतंकवादियों से कर रहे हैं.

राहुल गाँधी कह रहे हैं कि “आरएसएस अपने स्‍कूलों में एक खास तरह की दुनिया दिखाता है।” जी हाँ!सही कह रहे हैं, आरएसएस अपने अपने स्‍कूलों में एक खास तरह की दुनिया दिखाता है। वो दुनिया जहाँ अपने पूर्वजों और संस्कृति का अपमान नहीं बल्कि उन पर गर्व करना सिखाया जाता है. एक ऐसी दुनिया जहाँ सुबह उठते हीं रॉक और पॉप म्यूजिक नहीं, अपने माता-पिता और धरती माँ को प्रणाम करना सिखाया जाता है. एक ऐसी दुनिया जहाँ छात्र एक दूसरे को भैया-दीदी कह कर संबोधित करते हैं, एक ऐसी दुनिया जहाँ राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने की प्रेरणा दी जाती है.

खैर राहुल गाँधी संसद के रिकॉर्ड में स्वयं कह चुके हैं कि “मुझे सब नहीं आता, मुझसे गलती हो जाती है”, तो उनके इस दुर्भावनापूर्ण बयान को भी उनकी गलती मानते हुए हम एक बार उन्हें बता देते हैं कि जिन छात्रों की तुलना वो मदरसों में पलने वाले आतंकवादियों से कर रहे हैं वो इस समाज के लिए क्या कर रहे हैं, जिन्हें वो कट्टरपंथी बता रहे हैं उनके मन की भावना क्या है. विद्या भारती से पढ़े छात्र आज पूरी दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं, समाज जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ विद्या भारती के छात्र न हों. ऐसे में उनकी सारी उपलब्धियों और सेवाओं की सूची तो राहुल गाँधी द्वारा अपने सम्पूर्ण जीवन में कहे गए शब्दों से भी ज्यादा है, तो हम सिर्फ कोरोना काल में विद्या भारती और उसके छात्रों एवं शिक्षकों द्वारा मध्यभारत प्रान्त किये गए कार्यों को चर्चा करेंगे. राहुल गाँधी एक बार इस पर नजर डालें तो शायद उनके ज्ञान और दृष्टि दोनों में कुछ बढ़ोतरी हो.

सेवा कार्यों के लिए सौंप दी भवन और वाहनों की चाभी

कोरोना के शुरुआत में कोई भी सरकार व्यवस्थाओं के लिए तैयार नहीं थी, अधोसंरचना की कमी थी और हजारों की संख्या में लोगों को आइसोलेशन में रखना था. इस समय राहुल गाँधी राजनीति में लगे थे लेकिन वहीँ विद्याभारती समाज की पीड़ा में साथी था. विद्या भारती ने मध्य भारत प्रांत के 16 जिलों के 80 से ज्यादा विद्यालयों को शासन की सहायता हेतु पूरे तरीके से खोल दिया. इस विद्यालय परिसरों का इस्तेमाल प्रशासन में आइसोलेशन सेण्टर के तौर पर किया.

लॉकडाउन में हीं देश ने एक और संकट देखा, जब लाखों की संख्या में प्रवासी श्रमिक अपने घरों की तरफ लौटने लगे. लोगों का समंदर सड़कों पर उतरा था, प्रियंका गाँधी उस समय उत्तरप्रदेश में राजनीति की बिसातें जमा रही थीं वहीँ दूसरी तरफ सिर्फ मध्यभारत प्रान्त में विद्याभारती के लगभग 800 छात्र, 1100 स्थानों पर लोगों की सहायता के लिए तैनात थे. विद्याभारती ने अपनी बसों से प्रवासी श्रमिकों को उनके गंतव्य तक पहुचायां. अपने भवनों को विश्राम गृह में बदल दिया. 82,000 से ज्यादा लोगों को भोजन करवाया, 15,000 खाने के पैकेट बांटे. प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोष में 03 लाख रूपए से ज्यादा की सहायता दी.

जनजातीय अंचलों में पहुँचाए मास्क

विद्या भारती अपने स्कूलों में ऐसी दुनिया दिखाता है, जिसमें मानव, मानव की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहे. कोरोना काल में जब अचानक लाखों की संख्या में मास्क की आवश्यकता पड़ी तो संस्था से जुडी शिक्षिकाएं में अपने घरों में बैठकर निर्धन असहाय नागरिकों के लिए मास्क बनाने का कार्य करने लगीं। कुछ अन्य शिक्षिकाएं इन मास्कों को सेवा बस्तियों में जाकर नागरिकों के मध्य वितरित करने की भी जिम्मेदारी उठाई। इसी प्रकार से सरस्वती शिशु मंदिर के शिक्षक भी बस्तियों में जाकर नागरिकों के बीच कोरोना से बचाव करने के लिए जन जागरूकता अभियान चला रहे थे। विद्या भारती की शिक्षिकाओं द्वारा लाखों मास्क बनाये और वितरित किये गए.

लॉकडाउन में घर-घर जाकर बच्चों को पढाया

कोरोना वायरस के कारण जब देश भर में लॉकडाउन लगाया गया तो एक सबसे बड़ी चिंता तो सामने आई की बच्चों की पढाई कैसे होगी? शहरों में तो डिजिटल माध्यमों से पढाई शुरू हो गयी लेकिन वनवासी, ग्रामीण अंचलों का क्या? ऐसी स्थिति में लोग जब संक्रमण के डर से अपने घरों से नहीं निकल रहे थे, तब विद्या भारती के शिक्षण संस्थानों में कार्यरत लगभग 2365 आचार्य पूरे प्रांत भर में मोहल्ला पाठशाला के माध्यम से लगभग 40,000 विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे.

यही नहीं बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार आए इसके लिए लगातार बच्चों से टेस्ट लिए गए और सोशल मीडिया के माध्यम से भी कई प्रकार की प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिताएं आयोजित करके बच्चों का सामाजिक व धार्मिक ज्ञान बढ़ाने का प्रयास किया गया.

लेकिन राहुल गाँधी की आँखें उनका साथ नहीं दे रहीं, नफरत की परत इतनी मोटी हो गयी है कि उन्हें इन सेवा भावी छात्रों और आचार्य/दीदियों में उन्हें आतंकवादी दिखाई दे रहे हैं. या हो सकता है उनके परेशानी की वजह कुछ और हो, दर्द की वजह कुछ और हो. कहीं ये तो नहीं कि  विद्या भारती के संस्कारों से अब मिशनरी स्कूलों का षडयंत्र असफल हो रहा है? कहीं ये तो नहीं कि विद्या भारती के संस्कारयुक्त छात्र इनके जाल में नहीं फँस रहे हैं?

मां सीता के बिना अधूरे हैं प्रभु श्रीराम

माता सीता जयन्ती – 6 मार्च, 2021
-ः ललित गर्ग:-

जानकी नवमी

पौराणिक काल में ऐसी कई महिलाएं हुई हैं जिन्हें हम आदर्श और उत्तम चरित्र की महिलाएं मानते हैं, जो भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। लेकिन उनमें से सर्वोत्तम हैं माता सीता। जैसे श्रीराम को पुरुषों में उत्तम पुरुषोत्तम कहा गया है, उसी तरह माता सीता भी महिलाओं में सबसे उत्तम एवं आदर्श नारी चरित्र हैं। धर्मशास्त्रों में ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा हैं। अनेक लोग माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके इसी संघर्षमय जीवन में आधुनिक हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर, उत्तम और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र समाये हैं। उनकी सत्य निष्ठा, चरित्र निष्ठा, सिद्धांत निष्ठा और अध्यात्म निष्ठा अद्भुत एवं प्रेरक है। वे त्याग, तपस्या, तितिक्षा, तेजस्विता, बौद्धिकता, चैतन्यता, पारिवारिकता एवं पतिव्रता धर्म की प्रतीक हैं, प्रतिभा, पवित्रता, प्रशासन एवं पुरुषार्थ की पर्याय हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार, राजा जनक अकाल एवं सूखे की विकराल स्थिति को देखते हुए स्वयं ही एक बार हल से खेत जोत रहे थे तभी उनका हल किसी चीज से टकराया था। तब राजा जनक ने देखा तो वहां एक कलश प्राप्त हुआ। उस कलश में एक सुंदर कन्या थी। राजा जनक की कोई संतान नहीं थी, वह इस कन्या को अपने साथ लें आएं। जोती हुई भूमि तथा हल के नोक को भी ‘सीता’ कहा जाता है, इसलिए बालिका का नाम ‘सीता’ रखा गया था। फाल्गुण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सीता धरती से प्रकट हुई। राजा जनक की सबसे बड़ी पु़त्री होने के कारण माता सीता ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में विवेक, प्रेम, त्याग, समर्पण एवं सत्य को केन्द्रिय भाव बनाया।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। ज्योति की यात्रा मनुष्य की शाश्वत अभीप्सा है। इस यात्रा का उद्देश्य है, प्रकाश की खोज। प्रकाश उसे मिलता है, जो उसकी खोज करता है। कुछ व्यक्तित्व प्रकाश के स्रोत होते हैं। वे स्वयं प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी निरंतर रोशनी बांटते हैं। माता सीता ऐसा ही एक लाइटहाउस है यानी प्रकाश-गृह है, जिसके चारों ओर रोशनदान हैं, खुले वातायन हैं। प्रखर संयम, साधना, संतुलन, धैर्य, त्याग और आत्माराधना से उनका समग्र जीवन उद्भासित है। आत्मज्योति से ज्योतित उनकी अंतश्चेतना, अनेकों को आलोकदान करने में समर्थ रही हैं। उनका चिंतन, संभाषण, आचरण, सृजन, पतिव्रता धर्म, मातृत्व, सेवा- ये सब ऐसे खुले वातायन हैं, जिनसे निरंतर ज्योति-रश्मियां प्रस्फुटित होती रही हैं और पूरी मानवजाति को उपकृत किया हैं। उनका जीवन ज्ञान, दर्शन और चरित्र की त्रिवेणी में अभिस्नात है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और चुंबकीय है, आंतरिक व्यक्तित्व उससे हजार गुणा निर्मल और पवित्र है। वे शांत, सौहार्द एवं प्रेममय पारिवारिक परिवेश निर्माता हैं, उनके चिंतन में भारत की आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना प्रतिबिम्बित है। आपकी वैचारिक उदात्तता, ज्ञान की अगाधता, आत्मा की पवित्रता, सृजनधर्मिता, अप्रमत्तता और विनम्रता उन्हें विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं।
माता सीता का विलक्षण व्यक्तित्व यूं लगता मानो पवित्रता स्वयं धरती पर उतर आयी हो। उनके आदर्श समय के साथ-साथ प्रकट होते रहे, उद्देश्य गतिशील रहे, सिद्धांत आचरण बनते थे और संकल्प साध्य तक पहुंचते थे। यदि मन में श्रेष्ठ के चयन की दृढ़ इच्छा हो तो निश्चित ही ऐसा ही होता है। सीता स्वयंवर तो सिर्फ एक नाटक था। असल में सीता ने श्रीराम और श्रीराम ने सीता को पहले ही चुन लिया था। मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (सीता) का विवाह हुआ था, तभी से इस पंचमी को ‘विवाह पंचमी पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।
यह बहुत ही आश्चर्य है कि वनवास श्रीराम को मिला लेकिन माता सीता भी उनके साथ महलों के सारे सुख, धन और वैभव को छोड़कर चल दीं। सिर्फ इसलिए कि उन्हें अपने पतिव्रत धर्म को निभाना था। इसलिए भी कि उन्होंने सात वचन साथ में पढ़े थे। उस काल में वन बहुत ही भयानक हुआ करता था। वहां रहना भी बहुत कठिन था लेकिन माता सीता ने श्रीराम के साथ ही रहना स्वीकार किया। निश्चित ही पति को अपनी पत्नी के हर कदम पर साथ देना जरूरी है, उसी तरह पत्नी का भी उसके पति के हर सुख और दुख में साथ देना जरूरी है। कोई महिला यदि अपने पति के दुख में दुखी और सुखी में सुखी नहीं होती है, तो उसे सोचना चाहिए कि वह क्या है। आदर्श और उत्तम दांपत्य जीवन शिव-पार्वती और राम-सीता की तरह ही हो सकता है। माता सीता की जीवनयात्रा एक आदर्श नारी, पत्नी, मां, की, एक संस्कारदृष्टि संपन्न मातृत्व एवं प्रेम की तथा एक आदर्श समाज निर्माता की यात्रा है। इस यात्रा के अनेक पड़ाव है। वहां उनकी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों से संबंधित बहुमूल्य दृष्टियां एवं अभिप्रेरणाएं उपलब्ध होती हैं।
माता सीता सिर्फ गृहिणी ही नहीं थीं अर्थात घर में रहकर रोटी बनाना या घर के ही कामकाज देखना। वे प्रभु श्रीराम के हर कार्य में हाथ बंटाती थीं, जहां श्रीराम के कारण उनकी पूर्णता थी, वहीं श्रीराम भी माता सीता के कारण ही पूर्ण होते हैं। श्रीराम जहां रुकते थे, वहां वे तीन लोगों के रहने के लिए एक कुटिया बनाते, खुद के कपड़े धोते, जलाने की लकड़ियां इकट्ठी करते और खाने के लिए कंद-मूल तोड़ते थे। उक्त सभी कार्यों में लक्ष्मण सहित माता सीता उनका साथ देती थीं। माता सीता का जब रावण ने अपहरण कर लिया और उन्हें अशोक वाटिका में रखा तब इस कठिन परिस्थिति में उन्होंने शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन किया। इस दौरान रावण ने उन्हें साम, दाम, दंड और भेद की नीति से अपनी ओर झुकाने, लुभाने एवं प्रभावित करने का प्रयास किया लेकिन माता सीता नहीं झुकीं, क्योंकि उनको रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और उनकी शक्ति के प्रति पूरा विश्वास था। वे सौम्यता, शुचिता, सहिष्णुता, सृजनशीलता, श्रद्धा, समर्पण, स्फुरणा और सकारात्मक सोच की एक मिशाल हैं।
श्रीराम के वियोग में दुःखी, पीड़ित माता सीता को देखकर हनुमानजी भी बेचैन हो गये और अपनी शक्ति को दिखाकर मां सीता को आश्वस्त किया कि वे तत्क्षण उन्हें श्रीराम के पास ले जा सकते हंै। लेकिन सीताजी ने कहा कि ‘श्रीराम के प्रति मेरा जो समर्पण है, जो संपूर्ण त्याग है, मेरा पतिव्रता का धर्म है, उसको ध्यान में रखकर मैं श्रीराम के अतिरिक्त किसी अन्य का स्पर्श नहीं कर सकती। अब श्रीराम यहां स्वयं आएं, रावण का वध करें। रामजी ही मुझे मान-मर्यादा के साथ लेकर जाएं, यही उचित होगा।
रावण के लोभ ने पहली बार सीता को श्रीराम से अलग किया। दूसरी बार अयोध्या के लोगों की सामान्य सोच एवं नासमझी ने श्रीराम से माता को विलग कराया। लेकिन माता कहां अलग हो पायी? सदैव श्रीराम के साथ और श्रीराम के पूर्व ही स्वर और शब्दों में रहीं। कहते हैं कि भगवती पार्वती ने महादेव से निवेदन किया कि वह कोई ऐसी कथा सुनाये, जो हर प्रकार के दुख और क्लेश में संतुष्टि की प्रेरणा प्रदान करें एवं जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करे। तब पहली बार इस धरती पर भगवान भोलेशंकर ने माता पार्वती को सीताराम की कथा सुनाई। जीवन के उतार-चढ़ावों, संकटों, झंझावातों और असंतोष में केवल श्रीराम एवं सीता का दाम्पत्य ही शाश्वत शांति और संतोष प्रदान करता है। उनका जीवन कर्म और ज्ञान के बीच के समन्वय का उदाहरण बनकर प्रेम और चरित्र की एक अनुपम मर्यादा स्थापित करता है। यही कारण है भारतीय समाज में माता सीता के माध्यम से जिन आदर्शों की कल्पना की गई है, वे भारतीयों को आज भी उतनी ही श्रद्धा से स्वीकार हैं। ऐसे विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों की प्रेरक माता सीता पर न केवल समूचा हिन्दू समाज बल्कि संपूर्ण मानवता गर्व का अनुभव करती है।

खुद फैसला लेने में सक्षम होती ग्रामीण महिलाएं

राजेश निर्मल
सुल्तानपुर, यूपी

भारतीय संसद में महिलाओ की संख्या बढाने के लिए जब तैंतिस प्रतिशत आरक्षण की मांग जोर पकड़ने लगी, तब पुरानी धारा के सोचने वाले पुरुष अपनी दलीलों से महिलाओ की काबिलियत पर सवाल खड़े करने लगे। वह महिलाओ को कुशल गृहिणी बता कर उन्हें घर की सीमाओं तक सीमित करने लगे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर घर की सीमा क्या होती है, और क्या इस सीमा में मौजूद महिला समाज या देश में बदलाव करने में कोई भूमिका रखती है? आज के समय में एक घर कैसे महिलाओ को प्रतिनिधित्व दे रहा है या महिला अपने प्रतिनिधित्व के लिए कैसे जगह बना रही है? इन्हीं सवालों का जवाब उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िला स्थित रामपुर बबुआम और हसुइ मुकुंदपुर गांव में ढूंढने की कोशिश करते हैं। जहां लालती और साधना मिश्रा से मुलाकात होती है। दोनो आसपास के गांव में रहती हैं, लेकिन दोनों की ज़िंदगी और उनके हालात से पता चलता है कि घर की चौखट से लेकर बाहर तक काम करने वाली महिलाएं कैसे अपने निर्णय लेनी की क्षमता को देखती हैं।

लालती जिनकी उम्र 32 साल है, कहती है-“मैं बहुत छोटी थी, तब से देखती आ रही थी कि मेरी मां घर को कैसे संभाला करती थी। हमारी बिरादरी में लड़कियों को शिक्षा देने की जगह चुल्हे-चौके तक सीमित रखा जाता है। जैसे ही लड़की बड़ी होती है, उसका ब्याह कर दिया जाता है। बिरादरी में बालिका शिक्षा को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है। हालांकि मेरे परिवार की सोच इससे अलग थी, हमारे घर में लड़कियों की शिक्षा को भी महत्त्व दिया गया, इसीलिए मैं समाजशास्त्र में बी.ए तक की पढ़ाई कर पाई। जब मैं पढ़ाई किया करती थी तो मुझे उम्मीद थी कि मैं पढ़कर नौकरी करुँगी, लेकिन उससे पहले ही मेरी शादी तय कर दी गयी। आज मेरे दो बच्चे हैं, जिन्हें लेकर मैं गांव में खेती का काम देखती हूं। पति शहर में किसी कोठी में सर्वेंट का काम करते है। मुझे अपनी समझदारी से घर से सारे छोटे बड़े फ़ैसले खुद लेने होते हैं। बहुत मुश्किल होता है एक महिला का ग्रामीण समाज में रहकर बच्चों को पालना।” उधर दूसरी तरफ़ साधना जिनकी उम्र 34 साल है, वह हसुइ मुकुंदपुर गांव की आंगबाड़ी कार्यकर्ता हैं, इसके साथ साथ वह अपने देवर के साथ एक प्राइवेट स्कूल भी चलाती हैं। साधना के हालात लालती से थोड़ा अलग है। वह कहती है “मैं अपने देवर और पति की सहमति से आंगनबाड़ी और स्कूल में काम कर रही हूं। जब भी मुझे किसी भी प्रकार की दिक्कत आती है तो मैं सभी से सलाह लेती हूँ, लेकिन इसके बावजूद बिना किसी दबाव के अंतिम निर्णय मेरा होता है।”

साधना आंगनबाड़ी के बाद के बचे हुए समय में घर और बाहर के बहुत से काम को निपटाते हुए भी स्कूल में बच्चों का क्लास लेना नही छोड़ती हैं। वह कहती हैं – “मेरा मानना है कि महिलाओ को यदि अपने लिए समाज में जगह बनानी है, तो हमें अपने काम और निर्णय लेने की भूमिका के तौर तरीकों में बदलाव करना होगा। समाज में महिलाओं को बराबरी दिलाने के लिए कोई क्रांति नहीं आने वाली है बल्कि अपनी भूमिका स्वयं तय करनी होगी। वह कहती हैं कि “ऐसा नही कि सरकारों ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व के लिए कोशिश नही की, बल्कि कोशिशों का ही नतीज़ा है कि आज राशन कार्ड में हमें मुखिया के तौर पर स्वीकार करते हुए हमारा नाम आगे किया गया है। हमारे अंगूठे के निशान के बाद ही घर में सरकारी राशन आ पाता है। यह बहुत छोटा ही है, लेकिन कहीं न कहीं महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाता है।”

ज़मीनी स्तर पर इन दोनों महिलाओं से बात करते हुए यह महसूस हो रहा था कि जिस तरह का सांस्कृतिक और जागरुक परिवार होता है, उसी के अनुसार ही घर की महिलाओ को घर और बाहर भागीदारी मिल पाती है। जहां एक तरफ़ साधना को उनके पति और देवर का पूर्ण समर्थन प्राप्त है, वहीं लालती को थोड़ा पीछे से और ज्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। लालती इसी के बारे में कहती है – “मैं पहले अपने पति के साथ गुरुग्राम में रहती थी। तब मेरे पास बहुत अच्छे अवसर आये, जहां मैं अपने और परिवार की आर्थिक स्थिती को सुधार सकती थी, लेकिन उस समय मेरे पति ने मेरा साथ नही दिया। पहले जिस फ़ैक्ट्री में मेरे पति कपड़ा प्रेस करने का काम कर रहे थे, उसी कम्पनी में मुझे सुपरवाइज़र की नौकरी मिल रही थी। लेकिन मेरे पति ने उस नौकरी को करने से मुझे मना कर दिया। उनका कहना था मेरे सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकेगी तू!?.. खैर अब वह खुद भी अपने निर्णय पर पछताते हैं।” लालती दलित वर्ग से आने वाली महिला है। उसका मानना है कि परिवार अगर साथ दे तो बड़ी आसानी से घर की महिलाएं बाहर निकल आर्थिक और सामाजिक स्तर पर मज़बूत हो सकती हैं। वह मज़बूती से कहती है कि -“महिलाओ की भागीदारी के लिए परिवार की समझदारी ज़रुरी है।”

लालती और साधना दोनो ही अपने अपने नज़रिये में भले ही अलग अलग पक्ष रखती हों, लेकिन एक बात तो तय है कि दोनों के अनुसार समाज मे बदलाव हो रहा है। इन दोनों से बातचीत के दौरान हमारी बात नरेश मानवी से हुई, जो एक प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संस्था के साथ जुड़े हुए हैं और पिछले कई सालों से वह और उनकी संस्था महिलाओं की सामाजिक भूमिका को सशक्त करने में लगे हैं। नरेश का घरेलू महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर एक बेहद अलग नज़रिया है। वह कहते हैं कि “मैं अपने अनुभव से ये बता सकता हूँ कि अभी भी चाहे एक मज़दूर महिला हो या सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल, सभी को आज भी छोटे छोटे निर्णय लेने में घर के पुरुषों पर आश्रित रहना पड़ता है”। नरेश अपने और अपनी जीवन साथी के अनुभवों को साझा करते हुए कहने लगे कि – “मेरी पत्नी घर में आने वाली पूँजी का इन्वेसट्मेंट कैसे करनी है, वह मुझ से बेहतर जानती है। घर से लेकर बाहर तक के लेन देन में कहां नफ़ा होगा और कहा नुकसान, उसे अच्छे से मालूम है। लेकिन जब भी किसी आस पड़ोस वालों को पैसे के निवेश से जुड़ी कोई बात साझा करनी होती है तो हमेशा मुझे ही बुलाया जाता है। यह एक प्रकार का सामाजिक सोच है जो घरेलू महिलाओ के प्रतिनिधित्व के अवसर को कम कर देता है।” नरेश कहते हैं कि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं अपने लिए जगह बनाने की कोशिश तो करती हैं, लेकिन वह स्वयं इतनी परंपरावादी समाज से आती हैं कि खुद के लिए होने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार को पहचान नहीं पाती हैं। वह कहते हैं कि “सरकार को अपने कार्यक्रम में कुछ ऐसी योजनाएं तलाशनी चाहिए जहां महिलाएं अपने शोषण और हक़ के बीच के अंतर को समझ सकें।”

परिवार की बारीकियों को समझते हुए मैं फिर उसी गांव की एक महिला रीता रानी से मिला जिनकी उम्र लगभग 33 साल है। रीता प्रतिदिन गांव से तीस किलोमीटर दूर शहर जाकर काम करती हैं। उनका शहर में एक क्लीनिक है जहां गर्भवती महिलाओ का इलाज किया जाता है। रीता ने लगभग पढाई पंजाब से की, फिर शादी के बाद गांव आना पड़ा जहां पति और ससुर की सूझबूझ से उन्होनें अपना नर्सिंग का कोर्स किया और आज घर के साथ क्लीनिक के सभी फ़ैसले खुद से लेती है। रीता ने बात करने पर बताया कि – “मुझे शादी के बाद लगा था कि आगे अब कैसे होगा? मेरा बचपन से सपना था कि मैं मेडिकल के क्षेत्र में काम करूँ। लेकिन जल्द शादी हो जाने के बाद अपना ख़्वाब टूटता हुआ लगा। फिर भी एक दिन मैंने अपने ससुर और पति से सलाह ली। उन्होने मेरा बहुत साथ दिया।” रीता बताती है कि “आस पड़ोस के लोग अक्सर कहा करते थे कि आपके पास किसी चीज़ की कमी नहीं है, फिर क्यों नौकरी करवानी है? लेकिन मेरे परिवार ने किसी की बात को कान नही लगया। बड़ा सुकून मिलता है जब मैं अपना काम करती हूं।”

तीन महिलाएं कैसे अपनी भूमिका को इस समाज में देखती है मुझे उनके चश्में से बहुत स्पष्ट दिखाइ देता है। उम्मीद बस यही है कि इनकी ये बात बाकी परिवारों तक पहुंचे और रीता, साधना, लालती जैसी बहुत सी महिलाएं अपनी भूमिका को परिवार से अलग नही बल्कि परिवार के साथ आगे ले जायें।