कविता साहित्य अगर बन November 17, 2015 / November 17, 2015 by डा. राधेश्याम द्विवेदी | 3 Comments on अगर बन डा. राधेश्याम द्विवेदी ‘नवीन‘ आर्यावर्त के भारतखण्ड में ब्रजमण्डल की धरती है । बारह वन चौबीस उपवन में अगर वन की बस्ती है ।। विन्ध्यांचल अरावली मध्य , भन्दर कौमूर पहाड़ियां हैं । भदरौली रसूल मदनपुरा , चुड़ियाली की चोटियां हैं। जरौती सुनौठी पथसाल , चित्रखुदी पहाड़ियां हैं। बदरौली जजौली में , आदिम युग की […] Read more » Featured अगर बन
कविता साहित्य कह रही है ‘अजन्मी’ November 7, 2015 by लक्ष्मी जायसवाल | Leave a Comment कह रही है ‘अजन्मी’ मां मैं भी इस दुनिया में आना चाहती हूँ नन्हे नन्हे पैरो से मैं भी गिरकर ठोकर खाना चाहती हूँ गिरते गिरते उठकर सम्भलना चाहती हूँ तेरी उंगली पकड़कर चलना चाहती हूं तोतली जबान में कभी तो कभी लाड में माँ मैं भी तुझे माँ कहना चाहती हूँ। क्यों नहीं कर […] Read more » कह रही है 'अजन्मी'
कविता साहित्य चुटकी भर सिन्दूर November 7, 2015 / November 7, 2015 by लक्ष्मी जायसवाल | Leave a Comment चुटकी भर सिन्दूर डला मांग में और बदल गया जीवन। चुटकी भर सिन्दूर के बदले में मिला उम्र भर का बंधन। सजी मैं संवरी मैं निभायी रस्में और स्वीकारा ये गठबंधन। इस सिन्दूर के बदले मिला मुझे किसी का जीवन भर का साथ इस साथ के बदले छूटे सभी अपने और छूटा अपनों का हाथ। […] Read more » Featured चुटकी भर सिन्दूर
कविता साहित्य ये अकेलापन November 4, 2015 by अनुप्रिया अंशुमान | Leave a Comment बहुत ही दूर तक दिखता है मुझको ये अकेलापन तुम्हारे साथ होने पर भी नहीं हटता है ये अकेलापन कभी किया करती हूँ खुद से बातें मैं बेपर्दा कि _छुप के देखता है मुझको ये अकेलापन हृदय के एक कोने में जब याद उठती है तुम्हारी कि_छुप के साँस लेता है मुझमें ये अकेलापन कितनी […] Read more » ये अकेलापन
कविता मुस्कुरा लो November 3, 2015 by बीनू भटनागर | Leave a Comment थोड़ी सी ख़ुशियां बांट लूं, ग़म सिमट जायेंगे, ओढ़लूँ उदासी तो, क्या ग़म लौट जायेंगे। सागर है तो उसमे, तूफ़ान आयेंगे जायेंगे, तूफ़ान से डर कर, मछुवारे क्या घर बैठ जायेंगे। फूलों से लदे पेड़ तो, ख़ुश नज़र आयेंगे, पतझड़ मे भी लेकिन, वो मुसकुरायेंगे। पूर्णिमा की रात हो तो, चाँद खिलखिलाताहै, अमावस की रात […] Read more » मुस्कुरा लो
कविता साहित्य माहौल देश का October 31, 2015 / October 31, 2015 by रवि श्रीवास्तव | Leave a Comment देश का है माहौल गरमाया, कहकर लोगों ने सम्मान लौटाया. कभी बीफ का मुद्दा आया, कभी जातिवाद से, ध्यान भटकाया. क्या यही चुनावी मुद्दे है, क्या यही विकास की बातें हैं एक दूसरे को कोसने को, डिबेट में बैठ वो जाते हैं. क्या परिभाषा है विकास की, कहां रहे अब तक खोए, इतने दिन तक […] Read more » माहौल देश का
कविता साहित्य कभी मै दूर तो कभी तू दूर मुझसे October 29, 2015 by जावेद उस्मानी | Leave a Comment कभी मै दूर तो कभी तू दूर मुझसे दिल की बात बयाँ करूँ भी तो कैसे मांगते दुआएं अब तो दिल ये थका न पाया कभी जो भी तुझ से कहा मकसदे ज़िन्दगी की नेमत नहीं दी हौसले आजमाने की जहमत नहीं की कहते हैं पल पल पे हैं तेरी हुकुमरानी जैसी तू चाहे जिसे […] Read more » कभी मै दूर तो कभी तू दूर मुझसे
कला-संस्कृति कविता ए नये भारत के दिन बता.. October 27, 2015 / October 28, 2015 by अरुण तिवारी | Leave a Comment ए नये भारत के दिन बता…… ए नदिया जी के कुंभ बता, उजरे-कारे सब मन बता, क्या गंगदीप जलाना याद हमें या कुंभ जगाना भूल गये ? या भूल गये कि कुंभ सिर्फ नहान नहीं, ग्ंागा यूं ही थी महान नहीं । नदी सभ्यतायें तो खूब जनी, पर संस्कृति गंग ही परवान चढी। नदियों में […] Read more » Featured ए नये भारत के दिन बता..
कला-संस्कृति कविता रामचरित October 23, 2015 / October 23, 2015 by अरुण तिवारी | Leave a Comment धरियो, रामचरित मन धरियो तजियो, जग की तृष्णा तजियो। परहित सरिस धर्म मन धरियो मरियो, मर्यादा पर मरियो।। धरियो, रामचरित…. भाई बने तो स्वारथ तजियो संगिनी बन दुख-सुख सम धरियोे। मात बने तो धीरज धरियो पुत्र बने तो पालन करियो।। धरियो, रामचरित… सेवक सखा समझ मन भजियो ़शरणागत की रक्षा करियो। शत्रु संग मत धोखा […] Read more » रामचरित
कविता आरक्षण या भीख October 17, 2015 by प्रवक्ता ब्यूरो | Leave a Comment हमें भीख दे दो.. हम अपाहिज जो हो चले, अब तो हमारे भी हाथ पैर में जंग और दिमाग में अलीगढ़ के ताले पड़ गये | कुछ करना अब असंभव सा हो गया है अब तो हमको भी आरक्षण चाहिए | हम भी अब २०-३० नंबर से आई.आई.टी. , एम.बी.बी. एस.पास करेंगे, आरक्षण के फायदे […] Read more » आरक्षण या भीख
कविता हा! ये कैसे हुआ ? सोचो, क्यू हो गया ?? October 16, 2015 by अरुण तिवारी | Leave a Comment मकां बनते गांव झोपङी, शहर हो गई, जिंदगी, दोपहर हो गई, मकां बङे हो गये, फिर दिल क्यांे छोटे हुए ? हवेली अरमां हुई, फिर सूनसान हुई, अंत में जाकर झगङे का सामान हो गई। जेबें कुछ हैं बढी मेहमां की खातिर फिर भी टोटे हो गये, यूं हम कुछ छोटे हो गये। हा! ये […] Read more » क्यू हो गया ?? हा! ये कैसे हुआ ? सोचो
कविता विकृत होते प्रकृति संबंध October 16, 2015 by अरुण तिवारी | Leave a Comment ’हम’ को हटा पहले ’मैं’ आ डटा फिर तालाब लुटे औ जंगल कटे, नीलगायों के ठिकाने भी ’मैं’ खा गया। गलती मेरी रही मैं ही दोषी मगर फिर क्यूं हिकारत के निशाने पे वो आ गई ? हा! ये कैसे हुआ ? सोचो, क्यूं हो गया ?? घोसले घर से बाहर फिंके ही फिंके, धरती […] Read more » विकृत होते प्रकृति संबंध