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भारत और इस्लामिक देश

शिवानन्द मिश्रा

इस्लामिक देशों से भारत की दोस्ती कितनी गहरी और कितनी सांस्कृतिक है, मलेशिया की घटना से समझ लीजिए। यूँ तो सभी जानते हैं कि सऊदी अरब, अबुधाबी,कतर,संयुक्त अरब अमीरात आदि भारत के कितने खास दोस्त हैं, इतने खास कि मक्का मदीना और इस्लाम के जनक देशों में उन्हें मंदिर बनवाने तक से कोई परहेज नहीं । 

मलेशिया और इंडोनेशिया तो प्राचीन आर्यावर्त का ऐसा हिस्सा हैं जहां रामलीला होती है। गरुड़ एयरवेज है और जहां के राष्ट्रपति का नाम सुकर्ण हुआ करता था। स्त्रियों के नाम आज भी विद्योतमा, वीरोशिखा, अपराजिता, परिणिता आदि होते आ रहे हैं। इन देशों का धर्म अब इस्लाम है पर संस्कृति आज भी सनातनी। भारत के परममित्र देशों को यदि कोई भारत के नाम पर भड़काए तो हंसी आती है ।

ऑपरेशन_सिंदूर की जानकारी देने भारत से सर्वदलीय सांसदों के 7 दल दुनिया के 36 देशों में भेजे गए। सभी जगह भारत के इन डेलिगेशन्स को पूर्ण समर्थन एवम् आतिथ्य मिला।

नकल करते हुए शाहबाज और मुनीर भी चार देशों में गए और पाकिस्तान में जिन्हें जोकर कहा जाता है, वह बिलावल भुट्टो भी पर हिमाकत देखिए लादेन को बसाने वाले आतंकी देश पाकिस्तान की? 

मलेशिया से कहा कि हम मुस्लिम मुस्लिम बिरादर बिरादर, इंडियन डेलिगेशन को आने की परमिशन न दें। 

मलेशिया ने कहा शाहबाज अपनी तशरीफ ले जाइए। हिन्दुस्तान हमारा दोस्त है, उसका स्वागत तहेदिल से करेंगे। वही हुआ। भारतीय डेलिगेशन का जमकर स्वागत किया, पाकिस्तानी आतंकवाद की भर्त्सना की। सनद रहे कि अफगानिस्तान से पाकिस्तान ने कश्मीर भेजने को जब तालिबानी मांगे तो तालिबान ने उसे फटकारते हुए भारत को अपना बिरादर मुल्क बताया था। भारत ने संकट की घड़ी में तुर्की का साथ दिया पर ऐर्दुआन गद्दार निकला।

अमेरिका में बिलावल भुट्टो ने पीसी में कहा कि कश्मीर में सेना मुसलमानों का उत्पीड़न कर रही है। तब पाकिस्तान के एक मुस्लिम पत्रकार ने कहा कि गलत है। सेना के अभियान की प्रेस ब्रीफिंग ही कर्नल सोफिया कुरैशी कर रही हैं जो खुद एक मुस्लिम हैं ? तब बिलावल बगलें झांकने लगे। यही हाल अब भारत में होने वाला है। शशि थरूर,असाउद्दीन ओवैसी, कनीमोजी, सलमान खुर्शीद, सुप्रिया सुले, मनीष तिवारी, प्रियंका चतुर्वेदी,अभिषेक बनर्जी आदि विपक्षी नेता देश के नायक बनकर लौटे हैं। 

अभी हाल तक वे अपनी पार्टियों के सांसद थे, अब छवि और बौद्धिकता के बारे में अपनी पार्टियों के नायकों को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। सत्र बुलाने के सवाल से केजरीवाल ,उमर और शरद पवार ने किनारा कर लिया है। अखिलेश और तेजस्वी भी अब मौन अधिक रहते हैं।

वैसे कांग्रेस के लिए उनका होना अपशकुन के समान है। उनके बोल बीजेपी के काम आते हैं । तभी बीजेपी उनके बोलते रहने की इच्छा जाहिर करती रहती है।

शिवानन्द मिश्रा

शिमला समझौता : सवालों के घेरे में पाकिस्तान की मंशा

डॉ. ब्रजेश कुमार मिश्र

पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने हाल ही में 1972 के शिमला समझौते को “मृत दस्तावेज़” करार देते हुए कहा कि पाकिस्तान अब कश्मीर पर 1948 की स्थिति पर लौट आया हैजहां नियंत्रण रेखा सिर्फ एक संघर्ष-विराम रेखा है। यह बयान पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा ऑपरेशन सिंदूर के स्थगन के पश्चात आया। आसिफ ने कहा कि भारत-पाक द्विपक्षीय ढांचा समाप्त हो चुका है और शिमला समझौता अब लागू नहीं रहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि चाहे सिंधु जल संधि निलंबित हो या नहींशिमला समझौते का अंत हो चुका है।वास्तव में ख्वाजा आसिफ के इस बयान के पीछे मकसद क्या है ? क्या यह वास्तव में पाकिस्तान की गीदड़ भभकी है या फिर इसके पीछे कुछ यथार्थता भी है ? वस्तुतः इसे  जानने से पूर्व शिमला समझौता और पाकिस्तान का उस पर क्या स्टैंड है जानना आवश्यक है।

पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान की सरकारों ने एक दूसरे के खिलाफ  ठोस कदम उठाए। भारत ने 1960 की सिंधु जल संधि को एकतरफा रूप से स्थगित करने की घोषणा की जो पाकिस्तान की जीवन रेखा मानी जाती है। इस कदम का सीधा प्रभाव पाकिस्तान पर पड़ा और भारत को कूटनीतिक लाभ मिला। इसके प्रत्युत्तर में पाकिस्तान ने भी भारत जैसी ही प्रतिक्रिया दी और 1972 के शिमला समझौते को एकतरफा निलंबित करने की घोषणा कर दी। शिमला समझौता एक युद्धोत्तर समझौता थाजिसमें यह निर्धारित किया गया था कि 1949 की संघर्ष-विराम रेखा को नियंत्रण रेखा में बदला जाएगा और भारत-पाकिस्तान आपसी विवादों का समाधान शांतिपूर्ण तरीकों सेबिना किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के करेंगे। भारत और पाकिस्तान के बीच 3 जुलाई 1972 को हुए इस ऐतिहासिक समझौते पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए थे।

यह समझौता 1971 के युद्ध के बाद हुआ, जब पाकिस्तान से विभाजित होकर बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया। दोनों देशों भारत तथा पाकिस्तान ने अतीत के संघर्षों और टकरावों को समाप्त कर उपमहाद्वीप में स्थायी शांति और सौहार्दपूर्ण संबंधों की स्थापना का संकल्प लिया। समझौते के तहत, भारत और पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों का पालन करने, आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से हल करने तथा किसी भी विवाद का अंतिम समाधान होने तक यथास्थिति बनाए रखने पर सहमत हुए। दोनों पक्षों ने बल प्रयोग या उसकी धमकी से दूर रहने, एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता, राजनीतिक स्वतंत्रता और आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की प्रतिबद्धता जताई। साथ ही, शत्रुतापूर्ण प्रचार को रोकने और मैत्रीपूर्ण सूचनाओं को प्रोत्साहित करने, डाक, तार, सड़क, समुद्र और वायु संपर्क बहाल करने, नागरिकों की यात्रा सुविधाएँ बढ़ाने तथा विज्ञान व संस्कृति के क्षेत्र में सहयोग को प्रोत्साहन देने पर सहमति बनी। भारतीय और पाकिस्तानी सेनाओं को अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अपने-अपने स्थानों पर वापस लौटने और जम्मू-कश्मीर में 17 दिसंबर 1971 की युद्धविराम रेखा (लाइन ऑफ कंट्रोल) का सम्मान करने का निर्णय भी लिया गया। यह समझौता दोनों देशों की संवैधानिक प्रक्रियाओं के तहत अनुमोदन के बाद प्रभावी हुआ और भविष्य में प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं और शीर्ष नेतृत्व की बैठकों के माध्यम से संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में आगे बढ़ने पर इस समझौते के द्वारा  सहमति बनी। अंततः, दोनों देश इस बात पर सहमत हुए कि उनके प्रमुख भविष्य में उपयुक्त समय पर फिर मिलेंगे और प्रतिनिधि स्तर की वार्ताओं द्वारा युद्धबंदियों की वापसी, कश्मीर मुद्दे का समाधान और राजनयिक संबंधों की पुनर्बहाली जैसे विषयों पर चर्चा की जाएगी।

इस समझौते के बाद लगभग 93,000 पाकिस्तानी सेना के अधिकारियों, सैनिकों, अर्धसैनिक बलों के सदस्य और कुछ नागरिकों को जो युद्ध बंदी थे, को 1974  के दिल्ली समझौते के तहत चरणबद्ध तरीके से पाकिस्तान को सौंप दिया गया। साथ ही भारत ने सद्भावना और शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए युद्ध के दौरान सिंधु क्षेत्र में कब्जाए गए 13,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल को पाकिस्तान को लौटा दिया। यह कदम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की शांति-प्रिय छवि को दर्शाता है। हालांकि, भारत ने सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण चोरबत घाटी के तुरतुक और चालुंका जैसे इलाकों को अपने नियंत्रण में बनाए रखा। ये क्षेत्र न केवल पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र के करीब स्थित हैं, बल्कि सियाचिन ग्लेशियर की ओर भारत की रणनीतिक पकड़ को और भी मजबूत करते हैं। युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते (1972) में इन इलाकों की स्थिति पर भारत की स्थिति स्पष्ट रही और यह क्षेत्र आज भी भारत के प्रशासनिक नियंत्रण में हैं।

यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर प्रश्न उठाए हैं। उसके द्वारा सियाचीन 1984 और कारगिल 1999 में लाइन ऑफ कंट्रोल को बदलने की कोशिश की गयी थी हालांकि भारत ने पाकिस्तान के दोनों प्रयासों को विफल कर दिया। पिछले कुछ वर्षों से वह इस द्विपक्षीय ढांचे को लेकर असहजता प्रकट करता रहा है। अगस्त 2019 में भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद पाकिस्तान ने शिमला समझौते को निलंबित करने की चेतावनी दी थी। पाकिस्तान लगातार इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा है, जबकि भारत ने स्पष्ट किया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का आंतरिक विषय है। भारत का हमेशा यह रुख रहा है कि कश्मीर मसला द्विपक्षीय है और किसी भी तीसरे पक्ष की इसमें कोई भूमिका नहीं हो सकती। इसके विपरीत पाकिस्तान बार-बार इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास करता रहा है, जिससे क्षेत्रीय स्थिरता पर भी असर पड़ता है।

पाकिस्तान के इस कदम से यह स्पष्ट होता है कि अब वह द्विपक्षीय समझौतों से पीछे हटने की नीति अपना रहा हैजिससे दक्षिण एशिया की स्थिरता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। हालांकि पाकिस्तान द्वारा शिमला समझौते पर कोई अधिकृत पत्र जारी नही किया गया है जिससे यह ज्ञात हो सके कि पाकिस्तान ने स्वयं को इस संधि से अलग कर लिया हो, जैसा भारत के द्वारा सिंधु नदी संधि पर औपचारिक रूप से ज्ञापन जारी किया गया था। सिंधु समझौते की समाप्ति से लेकर अब तक पाकिस्तान भारत से इस विषय पर वार्ता करने के लिए चार बार गुजारिश कर चुका है किन्तु भारत अभी भी अपने स्टैंड पर कायम है। जहाँ तक ख्वाजा आसिफ के बयान का सवाल है तो इतना तो यह तय है कि पाकिस्तान अपने पुराने रवैये पर कायम है। मतलब पाकिस्तान पर कभी भी विश्वास नही किया जा सकता है। हालांकि ख्वाजा आसिफ यह भूल चुके है कि यदि शिमला समझौते से पाकिस्तान वास्तव में पीछे हट गया है तो इसका लाभ भारत को भी मिलेगा। इससे भारत को गुलाम कश्मीर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का अवसर मिल जाएगा।

 पाकिस्तान वस्तुतः रणनीतिक तौर पर अपने को छद्म तरीके से सर्वोच्च साबित करने में लगा है। वह आज इस स्थिति में इस कारण है क्योंकि चीन और तुर्की से उसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान परोक्ष रूप से मदद मिल रही थी। बावजूद इसके भारतीय सेना अभी भी कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र है और यदि पाकिस्तान के द्वारा किसी तरह की नापाक कोशिश की गई तो भारत अब इसका मुहतोड़ जवाब देगा।

डॉ ब्रजेश कुमार मिश्र

संत कबीर : विश्व शांति का मूल है कबीर का “एकेश्वरवाद”

संत कबीर दास जी की जयंती 11 जून पर विशेष…

दुनिया में धार्मिक कट्टरता के लिए नहीं है कोई स्थान, देश के सभी धर्म और संप्रदाय हैं एक समान

प्रदीप कुमार वर्मा

संत कबीर दास15 वीं सदी के मध्यकालीन भारत के एक रहस्यवादी कवि और भक्ति आंदोलन की निर्गुण शाखा के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जो ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम पर जोर देते थे। संत कबीर दास को एक ऐसे समाज सुधारक के तौर पर भी जाना जाता है, जो अपनी रचनाओं के जरिए जीवन भर आडंबर और अंधविश्वास का विरोध करते रहा।वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। यही वजह है कि समाज में संत कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण शाखा की ज्ञानमार्गी उपशाखा की महानतम कविताओं के  रूप में आज भी प्रसिद्ध हैं। इन कविता और साखियों के माध्यम से पता चलता है कि संत कबीर दास जी का एकेश्वरवाद का सिद्धांत दुनिया में आज भी प्रासंगिक है।

              माना जाता है कि संत कबीर का जन्‍म सन 1398 ईस्वी में काशी में हुआ था। कबीर दास निरक्षर थे तथा ऐसी मान्यता है कि उन्‍हें शास्त्रों का ज्ञान अपने गुरु स्‍वामी रामानंद द्वारा प्राप्‍‍त हुआ था। तत्कालीन भारतीय समाज में कबीर दास ने कर्मकांड और गलत धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ आवाज उठाई और लोगों में भक्ति भाव का बीज बोया। इन्होंने सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भेद भाव को दूर करने का भी प्रयास किया। वे सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे। उन्होंने हिंदू मुसलमानों के बाह्याडंबरों पर समान रूप से प्रहार किया | यदि उन्होंने हिंदुओं से कहा कि-पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़,,तासे तो चक्की भली, पीस खाए संसार ||” तो मुसलमानों से भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि ” कंकड़ पत्थर जोड़ि के, मस्जिद लियो बनाय,,ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय”? 

           संत कबीर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि सच्ची पूजा दिल से होती है, बाहरी कर्मकांडों की तुलना में ईश्वर के साथ सच्चे संबंध को प्राथमिकता दी जाती है। उन्होंने यह भी सिखाया कि हृदय की पवित्रता और ईश्वर के प्रति प्रेम ही सर्वोपरि है। यजी नहीं संत कबीर ने खुलेआम खोखले कर्मकांडों और अंधविश्वासों की निंदा की और लोगों से सच्ची भक्ति की तलाश करने का आग्रह किया। उनका मानना था कि सच्ची आस्था से रहित कर्मकांडों का कोई मतलब नहीं होता है। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानताओं को खारिज किया। संत कबीर ने जाति, पंथ या लिंग की परवाह किए बिना सभी मनुष्यों के बीच समानता की वकालत की। उनके छंदों ने लोगों के बीच सद्भाव की वकालत करते हुए एकता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया

              कबीरदास निर्गुण भक्ति के उपासक थे। उन्होंने न तो हिंदू धर्म की मूर्तिपूजा को स्वीकार किया, न ही इस्लाम की कट्टरता को। वे एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे और मानते थे कि ईश्वर एक है तथा सर्वत्र व्याप्त है। उनके अनुसार, आत्मा और परमात्मा के बीच का संबंध प्रेम और भक्ति पर आधारित होना चाहिए। कबीर दास पहले भारतीय कवि और संत हैं जिन्होंने हिंदू धर्म और इस्लाम धर्म के बीच समन्वय स्थापित किया और दोनों धर्मों के लिए एक सार्वभौमिक मार्ग दिया। उसके बाद हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर उनके दर्शन का अनुसरण किया,जो कालांतर में “कबीर पंथ” के नाम से चर्चित हुआ। कहा तो यह भी जाता है की कबीरदास द्वारा काव्यों को कभी भी लिखा नहीं गया, सिर्फ बोला गया है। उनके काव्यों को बाद में उनके शिष्‍यों द्वारा लिखा गया।  कबीर की रचनाओं में मुख्‍यत: अवधी एवं साधुक्‍कड़ी भाषा का समावेश मिलता है। 

    संत कबीर दास ने दोहा और गीत पर आधारित 72 किताबें लिखीं। उनके कुछ महत्वपूर्ण संग्रहों में कबीर बीजक, पवित्र आगम, वसंत, मंगल, सुखनिधान, शब्द, साखियाँ और रेख्ता शामिल हैं। 

 कबीर दास की रचनाओं का भक्ति आंदोलन पर बहुत प्रभाव पड़ा और इसमें कबीर ग्रंथावली, अनुराग सागर, बीजक और साखी ग्रंथ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। उनकी पंक्तियाँ सिख धर्म के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में पाई जाती हैं। उनकी प्रमुख रचनात्मक कृतियाँ पाँचवें सिख  गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गईं। कबीर दास अंधविश्वास के खिलाफ थे। कहा जाता है कबीर दास के समय में समाज में एक अंधविश्वास था कि जिसकी मृत्यु काशी में होगी वो स्वर्ग जाएगा और मगहर में होगी वो नर्क। इस भ्रम को तोड़ने के लिए कबीर ने अपना जीवन काशी में गुजारा, जबकि प्राण मगहर में त्यागे थे। 

   कबीर संपूर्ण जीवन काशी में रहने के बाद, मगहर चले गए। उनके अंतिम समय को लेकर मतांतर रहा है, लेकिन कहा जाता है कि 1518 के आसपास, मगहर में उन्‍होनें अपनी अंतिम सांस ली और एक विश्‍वप्रेमी और समाज को अपना सम्पूर्ण जीवन देने वाला दुनिया को अलविदा कह गया…। संत कबीरदास का प्रभाव न केवल उनके समकालीन समाज पर पड़ा, बल्कि आज भी उनके विचार प्रासंगिक हैं। उनकी शिक्षाओं ने नानक, दादू, रैदास और तुलसीदास जैसे संतों को प्रभावित किया। आधुनिक युग में भी उनके विचार धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और आत्मज्ञान के लिए प्रेरणा देते हैं। आज के दौर पर जब धर्म और मजहब के नाम पर देश और दुनिया में अशांति और हिंसा का माहौल है। तब संत कबीर दास जी का धार्मिक चिंतन तथा एकेश्वरवाद अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है कि हम धार्मिक कट्टरता और मजहबी उन्माद के नाम पर आपस में ना तो,नफरत करें और ना ही जंग।

प्रदीप कुमार वर्मा

विकसित भारत के संकल्प में सहयोगी क्रांतियाँ

डॉ. नीरज भारद्वाज

विकसितभारत के संकल्प को पूरा करने में देश के हर क्षेत्र और व्यक्ति का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। विकसित भारत के संकल्प को साकार करने में और देश को आगे बढ़ाने में आजादी के बाद से ही समय-समय विभिन्न क्रांतियों ने एक बड़ी भूमिका निभाई है। क्रांति शब्द सुनकर माना यह जाता है कि लोगों का बड़ा समूह, राजनीतिक हलचल आदि। विचार करें तो क्रांति परिवर्तन का सूचक है। किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन से पहले उसमें क्रांति होती है।

 स्वतंत्रता के बाद देश में अनाज की पैदावार को बढ़ाने के लिए हरित क्रांति लाई गई। 1960 के दशक के आखिरी दौर में पंजाब से हरित क्रांति की शुरुआत हुई। उस समय  खेती के तरीकों में बड़ा बदलाव हुआ। पारंपरिक तरीकों से अलग औद्योगिक व्यवस्था की ओर ध्यान दिया गया और ज़्यादा उपज वाली किस्म के बीजों को लाया गया।  खेती में मशीनी उपकरण, सिंचाई तंत्र, खाद और कीटनाशक के प्रयोग पर ज़ोर दिया गया। विचार करें तो आजादी के बाद देश में खाद्य सामग्री को लेकर बड़ा संकट रहा। अंग्रेज यहाँ से सभी कुछ लूट कर ले गए थे, हमें अपना जन और भूखंड मिला। अंग्रेज जन और भूखंड के भी दो हिस्से करके, दो देश बनाकर चले गए। उस समय देश के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ थी। हमने धीरे-धीरे उन सभी का सामना करके समाधान निकाल लिए।

1970 के दशक में भारत में श्वेत क्रांति (दुग्ध क्रांति) की शुरुआत हुई। इस क्रांति को ‘ऑपरेशन फ़्लड’ के नाम से भी जाना जाता है। इसने दूध की कमी झेल रहे देश को दुनिया में सबसे ज़्यादा दुग्ध उत्पादन करने वाला देश बना दिया। देश अब नई चाल से चलने लगा। लाल क्रांति ने टमाटर और मांस के उत्पादन को काफी बढ़ावा दिया है। यह क्रांति काल 1980 के दशक में शुरू हुआ और 2008 तक चला। विचार करें तो आज भी हम इन सभी क्रांतियों का सहयोग ले रहे हैं। भारत में नीली क्रांति मत्स्य पालन का एकीकृत विकास और प्रबंधन योजना के कार्यान्वयन के लिए है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह सरकार द्वारा जलीय कृषि उद्योग के विकास के लिए की गई एक पहल है। इसका उद्देश्य इस व्यापार से जुड़े लोगों के जीवन यापन में सुधार करना है।

पीली क्रांति भारत में खाद्य तेलों और तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए है। शुरूआत में इसका उद्देश्य भारत को तिलहन उत्पादन में आत्म निर्भर बनाना रहा और आज भारत इस क्षेत्र में आत्म निर्भर बन गया है। गुलाबी क्रांति जिसे पिंक रिवोल्यूशन भी कहा जाता है। भारत में गुलाबी क्रांति मांस और मुर्गी पालन क्षेत्र में तकनीकी तथा प्रक्रियागत सुधारों को दर्शाती है। काली क्रांति पेट्रोलियम खनिज तेलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए है। इसमें एथेनोल का उत्पादन भी बढ़ाया जायेगा, इस विचार को रखा गया साथ ही इसका संबंध कोयला उत्पादन से भी है। धूसर क्रांति उर्वरक उत्पादन में वृद्धि से है। रजत क्रांति भारत में अंडा उत्पादन और मुर्गियों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए है। देश में आंध्र प्रदेश राज्य इसका सबसे बड़ा उत्पादक है। सुनहरी क्रांति का संबंध बागवानी उत्पादन में वृद्धि से है, जिसमें फल विशेषकर सेब उत्पादन से है। इसे शहद उत्पादन से भी जोड़ा जाता है। भारत सब्जी और फल उत्पादन में विश्व में दूसरे स्थान पर है।

इन्द्रधनुषी क्रांति इसमें हरित, पीली, नीली, लाल, गुलाबी, धूसर आदि अन्य सभी क्रांतियों को साथ लेकर चलने का लक्ष्य है। जुलाई 2000 में नई कृषि नीति को लागू किया गया, इसी को इन्द्रधनुषी क्रांति कहा गया है। सदाबहार क्रांति का उद्देश्य देश की मिट्टी को उन्नत बनाना, किसानों को लोन दिलाना, रेन वाटर हार्वेस्टिंग तथा कृषि शोध को बढ़ाना है। गोल क्रांति का संबंध देश में आलू के उत्पादन को बढ़ाना है। भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे बड़ा आलू का उत्पादक देश है। भारत में सबसे अधिक आलू उत्तर प्रदेश में होता है। इन क्रांतियों से अलावा भी देश में अलग-अलग क्षेत्रों में क्रांतियाँ होती रही हैं। प्रेरित प्रजनन (induced breeding) क्रांति, स्वर्णिम क्रांति सिल्वर क्रांति आदि।

 इन सभी क्रांतियों के साथ आज तकनीकी क्रांति भी देश में तेजी से आगे बढ़ रही है। आज हमारा देश जवान, किसान, विज्ञान और अनुसंधान हर क्षेत्र में तेजी से कार्य कर रहा है। हमें राजनीतिक बातों के साथ-साथ इन सभी विषयों पर भी चर्चा-परिचर्चा करते रहना चाहिए।

डॉ. नीरज भारद्वाज

राहुल गांधी का चुनाव आयोग पर हमला क्यों

राजेश कुमार पासी

ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के बाद ऐसा लगता है कि राहुल गांधी बौखला गए हैं । उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि भाजपा का मुकाबला कैसे किया जाए, इसलिए वो उल्टे-सीधे बयान दे रहे हैं । पिछले 11 सालों से वो मोदी से लड़ते-लड़ते थक गए हैं और उन्हें आगे कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है । उनकी हालत उस बच्चे जैसी हो गई है जो खिलौना न मिलने पर उसे तोड़ने की हद तक चला जाता है । कुछ ऐसा ही राहुल गांधी करते दिखाई दे रहे हैं । उन्हें न तो अब जनता पर भरोसा रहा है और न ही संविधान पर, बेशक वो संविधान को सिर पर उठाये घूम रहे हों । लगातार हार की हताशा में वो अब संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रहे हैं । आज जो संस्थाएं पहले से कहीं ज्यादा स्वतंत्र और पारदर्शी तरीके  से काम कर रही हैं, उन पर वो लगातार सवाल  खड़े कर रहे हैं ।

 विपक्षी नेता होने के कारण यह उनका अधिकार है लेकिन भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को बदनाम करने और कमजोर करने का हक किसी को नहीं है । वो केंद्रीय एजेंसियों पर हमला करते हैं जो कि इतना गलत नहीं है क्योंकि वो सीधे सरकार के नियंत्रण में काम करती हैं । सवाल यह है कि संवैधानिक संस्थाओं पर हमला करना कैसे सही कहा जा सकता है । उन्होंने राष्ट्रीय समाचार पत्रों में एक लेख लिखकर चुनाव आयोग पर बड़ा हमला किया है । वैसे वो चुनाव आयोग के खिलाफ बयान देते रहते हैं लेकिन इस लेख के माध्यम से उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि चुनाव आयोग भाजपा के साथ मिलकर उसे फायदा पहुंचा  रहा है । लगातार तीन लोकसभा और दर्जनों विधानसभा चुनाव हारने के बाद वो अपनी राजनीति बदलने को तैयार नहीं हैं ।

कांग्रेस भी यह देखने को तैयार नहीं है कि उनका नेता मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के सामने कहीं नहीं टिकता है, वो अपना नेता बदलने को तैयार नहीं है । वास्तव में कांग्रेस के पास कोई विकल्प ही नहीं है क्योंकि वो गांधी परिवार से आगे देख नहीं सकती । कांग्रेस को आज भी लगता है कि गांधी परिवार के अलावा उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है जो उसका नेतृत्व कर सके । चुनाव आयोग पर राहुल गांधी ने वही सवाल उठाए हैं जो पिछले कई सालों से दोहराते आ रहे हैं । लेख लिखकर उन्होंने चुनाव आयोग के खिलाफ एक मुहिम चलाने की कोशिश की है । 

             ऐसा  लगता है कि उन्होंने बिहार में अपनी संभावित करारी हार को सूंघ लिया है इसलिए वो महाराष्ट्र चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका को संदेह के घेरे में लेना चाहते हैं । जैसे आरोप उन्होंने लेख में लगाए हैं, उनके आधार पर वो चुनाव आयोग के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा सकते थे लेकिन वो मीडिया के माध्यम से उसे घेरना चाहते हैं । इसकी मुख्य वजह यह है कि चुनाव आयोग अब कुछ भी कहे लेकिन चुनाव आयोग की निष्पक्षता तो संदेह के घेरे में आ ही गई है । इस देश में आरोपों के पीछे की सच्चाई कोई देखना नहीं चाहता और सिर्फ आरोपों के आधार पर ही आरोपी को अपराधी मान लिया जाता है । कांग्रेस और विपक्ष के ज्यादातर समर्थक राहुल गांधी के लेख के आधार यह मान चुके होंगे कि भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जीत चुनाव आयोग की मदद से हासिल  की है । जिस चुनाव आयोग और संविधान के रहते कांग्रेस 55 साल तक शासन करती रही, अब उसे लगता है कि इसके गलत इस्तेमाल से भाजपा  चुनाव जीत रही है जबकि इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत भी नहीं मिला है ।  इस सवाल का जवाब कांग्रेस और उसके समर्थकों को देना चाहिए कि भाजपा अभी तक बंगाल, केरल और तमिलनाडु में जीत हासिल क्यों नहीं कर पाई है । 

 दूसरा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस 55 साल तक चुनाव आयोग की मदद से ही चुनाव जीत रही थी। नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह इसलिये देश के प्रधानमंत्री बने क्योंकि उन्होंने चुनाव आयोग की मदद ली थी । कांग्रेस क्या अभी तक देश को मूर्ख बनाकर शासन करती आ रही है। इसका दूसरा मतलब यह भी है कि आज तक जो भी सरकारें बनी हैं उन्हें जनता ने नहीं चुना था, वो इसलिए बनी क्योंकि चुनाव आयोग ने मदद की थी । ऐसी बातें राहुल गांधी विदेशों में भी करते हैं जिससे पूरी दुनिया मे संदेश जा रहा है कि भारत में लोकतंत्र नाम का है, जो कुछ है चुनाव आयोग है । वो जिसे चाहे जीता सकता है। ईवीएम से भी चुनाव जीता जा सकता है और भाजपा ईवीएम में छेड़छाड़ करके लगातार शासन कर रही है।   

              राहुल गांधी ने अपने लेख को शीर्षक दिया है, ये मैच फिक्स है और चुनाव की चोरी का खेल समझिए । उन्होंने चुनाव आयुक्त के सरकार के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री द्वारा 2-1 के बहुमत से चुने जाने पर सवाल उठाया है । उनका कहना है कि ऐसे विपक्ष के नेता के वोट को अप्रभावी बना दिया गया है । उनका कहना है कि जिन लोगों ने चुनाव लड़ना है, वही अंपायर तय कर रहे हैं । सवाल यह है कि जो प्रक्रिया 77 सालों तक ठीक थी वो अब कैसे गलत हो गई । 2014 से पहले तो कोई प्रक्रिया ही नहीं थी, जिसे प्रधानमंत्री चाहे चुनाव आयुक्त बना देते थे । सिर्फ प्रधानमंत्री तय करता था कि चुनाव आयुक्त कौन होगा और घोषणा हो जाती थी । राहुल गांधी को बताना होगा कि नेहरू, इंदिरा, राजीव और मनमोहन सिंह जी ने चुनाव आयुक्त चुना तो वो निष्पक्ष कैसे था और अब मोदी सरकार चुन रही है तो वो पक्षपाती कैसे हो गया। तब वो  लोकतांत्रिक तरीका था, अब वो अलोकतांत्रिक कैसे हो गया । उन्होंने चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची तैयार करने में गड़बड़ी का आरोप लगाया है । सच्चाई यह है कि मतदाता सूची तैयार करने की प्रक्रिया में सभी पार्टियों के कार्यकर्ता शामिल होते हैं । अगर सूची बनाते समय गड़बड़ी की गई तो उनके कार्यकर्ताओं ने शिकायत क्यों नहीं की और अगर की तो उसे देश के सामने क्यों नहीं रखा गया ।

दूसरी बात यह है कि यह सूची चुनाव के समय सभी पार्टियों को उपलब्ध करवाई जाती है । अगर उसमें फर्जी वोटर थे तो कांग्रेस पार्टी ने उनके खिलाफ शिकायत क्यों नहीं की । उन्होंने मतदान प्रक्रिया में गड़बड़ी का आरोप लगाया है । अब सवाल उठता है कि जब मतदान के समय गड़बड़ी की जा रही थी तो कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों के चुनावी एजेंट क्या कर रहे थे । चुनावी एजेंट तो मतदान की प्रक्रिया पूरी होने तक वही रहता है । मतदान प्रक्रिया खत्म होने के बाद एजेंटों ने फॉर्म सी पर हस्ताक्षर क्यों किये । बड़ा सवाल यह है कि मतदान केन्द्र पर सारा दिन बैठने वाले एजेंट कुछ नहीं देख पाये लेकिन राहुल गांधी ने घर बैठे सब कुछ देख लिया । उन्होंने फर्जी वोटिंग का मुद्दा उठाया है लेकिन सवाल फिर यह है कि उनके एजेंटों के सामने फर्जी वोटिंग कैसे हो गई जबकि एजेंट अपने इलाके के लोगों को पहचानते हैं । मतदान केंद्र पर गड़बड़ी होने पर एजेंट की शिकायत पर चुनाव आयोग कार्यवाही करता है । एजेंट चुप हैं लेकिन राहुल गांधी बोल रहे हैं । क्या राहुल गांधी को अपने कार्यकर्ताओं पर भरोसा नहीं है या उनका मानना है कि वो भाजपा के साथ मिल गए हैं ।  

                अगर राहुल गांधी मानते हैं कि उन्होंने सच लिखा है तो मामला बहुत गंभीर है, सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी और कांग्रेस इसे सच मानते हैं। अगर उन्हें पता है कि यह सच है तो उनके पास सबूत और गवाह भी होंगे तो वो अब तक चुप क्यों है, चुनाव आयोग या सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं गए। चुनाव परिणाम  घोषित होने से पहले  ही कांग्रेस शोर मचा सकती थी । अगर चुनाव परिणाम घोषित होने तक कांग्रेस सो रही थी तो वो सुप्रीम कोर्ट जा सकती थी और चुनावी गड़बड़ी के सारे सबूत वहां प्रस्तुत कर सकती थी । चुनाव आयोग ने कहा है कि वो तभी कार्यवाही करेगा जब इसकी लिखित में राहुल गांधी, उनकी पार्टी या कार्यकर्ता शिकायत करेंगे। वैसे भी परिणाम घोषित होने के बाद चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता, तब अदालत ही कुछ कर सकती है ।

अगर राहुल गांधी और कांग्रेस कुछ करना नहीं चाहते तो दो बातें हो सकती है। पहली तो उनके पास कोई सबूत और तर्क नहीं है दूसरी कि जब उनके पास कोई तर्क और तथ्य नही है तो मुद्दे को गर्माते रहो और शोर मचाओ ताकि जनता को लगे कि चुनाव आयोग गड़बड़ कर रहा है । चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, उस पर राजनीति के लिए आरोप लगाना मतलब संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ करना है। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को खत्म करना है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी का मकसद जनादेश को अस्वीकार करना और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को खत्म करना है ।  राहुल  गांधी समझ चुके हैं कि राजनीति करना उनके बस की बात नहीं है इसलिए वो अराजकता पैदा करना, संविधान को खत्म करना, लोकतंत्र को कमजोर करना और देश को बर्बाद करना चाहते हैं । अगर जनता में लोकतंत्र से आस्था खत्म हो गई तो देश बर्बाद हो जायेगा, राहुल गांधी उसी राह पर जाते दिखाई दे  रहे हैं ।  अपने शासनकाल में कांग्रेस ने संविधान को कई बार कुचला है, लोकतंत्र का मजाक बनाया है । आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है ।  

भाजपा और मोदी पर बेतुके आरोप लगाना एक अलग मुद्दा है लेकिन चुनाव आयोग पर आरोप लगाना अलग मुद्दा है । अगर कांग्रेस साबित नही कर सकती तो आरोप नहीं लगाना चाहिए, आपको सुप्रीम कोर्ट और देश की सेना पर भरोसा नहीं है। यहां तक कि आपको तो अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भी भरोसा नहीं है। कांग्रेस को बताना चाहिए कि अगर संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता खत्म हो जायेगी तो संविधान और लोकतंत्र कैसे बचेंगे । मेरा मानना है कि राहुल खिलौना तोड़ने की जिद्द छोड़कर उसे पाने के लिए मेहनत करें । उनके पूर्वजों ने तो उन्हें खिलौना लाकर  दे दिया था लेकिन वो उसे संभाल नहीं पाए तो ये उनकी गलती है लेकिन अपनी गलती की सजा वो देश को न दें । 

राजेश कुमार पासी

साउथ के टॉप 5 मेल एक्टर्स

सुभाष शिरढोनकर

तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम सिनेमा को समेकित करने वाली साउथ फिल्म इंडस्ट्री ने हाल के वर्षों में न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर अपनी जबर्दस्‍त धाक जमाई है।

साउथ फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले एक्‍टर्स का क्रेज आज बॉलीवुड एक्‍टर्स से कहीं ज्‍यादा नजर आने लगा है। इनमें से कुछ एक्‍टर्स तो ऐसे हैं जो अपने शानदार एक्टिंग टेलेंट, बॉक्‍स ऑफिस पर उन्हें मिल रही कामयाबी और जबर्दस्‍त फैन फॉलोइंग के मामले में शाहरूख और सलमान से कहीं आगे हैं।

अल्लू अर्जुन से लेकर यश जैसे पैन-इंडिया स्टार्स, साउथ सिनेमा को नई ऊँचाइयों पर ले जा रहे हैं। इनकी फिल्में अब साउथ की सीमा से बाहर निकलकर न केवल हिंदी बेल्ट बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी धूम मचा रही हैं।

इस लेख के जरिए जानते हैं कि आज साउथ में जबर्दस्‍त दबदबा रखने वाले टॉप 5 एक्‍टर कौन-कौन हैं।

अल्लू अर्जुन

8 अप्रैल 1982, को चेन्नई में पैदा हुए एक्‍टर अल्‍लू अर्जुन अपने स्टाइलिश लुक, शानदार डांस मूव्स और दमदार एक्टिंग के लिए मशहूर हैं। उनकी फिल्‍म ‘पुष्पा: द राइज़’ (2021) ने 350 करोड़ और ‘पुष्पा: द रूल’ (2024) ने 1500 करोड़ रूपये से ज्यादा की कमाई की।

इस फिल्‍म फ्रेंचाइजी में ‘सामी सामी’ और ‘झुकने का नहीं’ जैसे डायलॉग्स ने अल्‍लू अर्जुन को युवाओं का सबसे ज्‍यादा चहेता एक्‍टर बना दिया। इसके बाद आज वह साउथ के सबसे ज्‍यादा कामयाब एक्टर्स में से एक हैं।  

8 जनवरी 1986, कर्नाटक के हासन में पैदा हुए एक्‍टर यश का एक्शन स्टाइल और स्क्रीन प्रजेंस लाजवाब है। उनकी प्रमुख फिल्‍मों में ‘केजीएफ: चैप्टर 1’, ‘केजीएफ: चैप्टर 2’  शामिल हैं। ‘केजीएफ: चैप्टर 2’ (2022) ने 1250 करोड़ की जोरदार कमाई की थी।

इस सीरीज की फिल्‍मों के साथ यश ने कन्नड़ सिनेमा को वैश्विक स्‍तर पर पहचान दिलाई। वह कन्नड़ सिनेमा के सबसे बड़े स्टार हैं और पैन-इंडिया स्तर पर लोकप्रिय हैं। उनकी अगली फिल्म ‘टॉक्सिक’ रिलीज पर है।  

प्रभास  

23 अक्टूबर 1979 को चेन्नई में पैदा हुए प्रभास को ‘बाहुबली’ ‘साहो’, ‘राधे श्याम’, ‘कल्कि 2898 AD’ (2024) जैसी बड़े बजट की भव्यता लिए हुए फिल्‍मों के लिए जाना जाता है।  

खासकर ‘बाहुबली’ के बाद वे पैन-इंडिया स्टार बन गए। उनकी फिल्‍म ‘कल्कि 2898 AD’ ने 1100 करोड़ से अधिक की कमाई की जिसने उन्हें 2024 के सबसे सफल अभिनेताओं में शुमार किया। इन दिनों वह संदीप रेड्डी वांगा के साथ उनकी अगली फिल्म ‘स्पिरिट’ को लेकर चर्चा में है।   

विजय थलापति

चेन्नई में पैदा हुए विजय थलपति अपनी बहुमुखी प्रतिभा, डांस और एक्शन के लिए जाने जाते हैं। रजनीकांत के बाद वह तमिल सिनेमा के सबसे बड़े स्टार्स में से एक हैं। ‘मास्टर’, ‘बीस्ट’, ‘वरिसु’ या फिर ‘लियो’ (2023)  उनकी चाहे कोई भी फिल्‍म हो, वह  बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड अवश्‍य तोड़ती हैं।

विजय की फिल्‍म ‘लियो’ (2023) ने 600 करोड़ से अधिक कमाई की थी। पिछले साल की उनकी फिल्म ‘द गोट’ भी जबर्दस्‍त हिट रही। हाल ही में विजय ने राजनीति में कदम रखा है। इसके बाद उनकी लोकप्रियता में जबर्दस्‍त उछाल आया  है।   

महेश बाबू

9 अगस्त 1975 को चेन्नई में पैदा हुए एक्‍टर महेश बाबू अपने हैंडसम लुक और दमदार अभिनय के लिए मशहूर हैं। तेलुगु सिनेमा के ‘प्रिंस’ कहे जाने वाले महेश बाबू की फैन फॉलोइंग जबरदस्त है।

उनकी  उल्‍लेखनीय फिल्‍मों में ‘पोकरी’, ‘भारत अने नेनु’ और ‘सर्कारू वारी पाटा’ के नाम शामिल हैं। फिल्‍म ‘सर्कारू वारी पाटा’ (2022) ने बॉक्‍स ऑफिस पर 180 करोड़ से अधिक की कमाई की।

महेश बाबू की फिल्में व्यावसायिक और सामाजिक संदेशों का मिश्रण होती हैं। इन दिनों वे एसएस राजामौली के साथ उनकी अगली फिल्म ‘SSMB29’ कर रहे है।  

सुभाष शिरढोनकर

रिश्तों के लाश पर खड़ा आधुनिक प्रेम

इंदौर के राजा और सोनम के मेघालय हनीमून पर हुई हत्या की घटना न केवल व्यक्तिगत त्रासदी है, बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानसिक स्तर पर गहरी चिंता पैदा करती है। यह अपराध आधुनिक प्रेम और विवाह संबंधों में फैलते अविश्वास और स्वार्थ की भयावह तस्वीर पेश करता है। साथ ही, मेघालय जैसे पर्यटन स्थलों की छवि भी प्रभावित होती है। ऐसी घटनाएँ भावनात्मक शिक्षा, रिश्तों में पारदर्शिता और समाज के नैतिक मूल्यों की पुनर्समीक्षा की मांग करती हैं।

भारत के सामाजिक परिदृश्य में प्रेम, विवाह और रिश्तों को पवित्र बंधन माना जाता रहा है। लेकिन जब हनीमून जैसी कोमल, सुंदर और विश्वास से भरी यात्रा हत्या का मंच बन जाए, तो यह सिर्फ एक अपराध नहीं होता, यह पूरे समाज की अंतरात्मा पर चोट करता है।

इंदौर के राजा और मेघालय की सोनम का हनीमून मर्डर केस केवल एक युवक की जान नहीं ले गया, उसने नॉर्थ ईस्ट की छवि को भी कलंकित किया, टूरिज्म सेक्टर पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए और सबसे बड़ी बात — विश्वास की नींव पर टिके रिश्तों को ध्वस्त कर दिया।

इंदौर निवासी युवक राजा की शादी हाल ही में सोनम नामक युवती से हुई। नवविवाहित जोड़ा हनीमून मनाने मेघालय पहुंचा। वहाँ की खूबसूरत वादियों, शांत झीलों और पहाड़ी रास्तों के बीच ऐसा कुछ हुआ जिसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता था।

हनीमून के बहाने सोनम ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या की योजना बनाई और उसे अंजाम भी दे डाला।

शुरुआत में राजा का गायब होना एक दुर्घटना माना गया। लेकिन जब पुलिस ने जांच आगे बढ़ाई, मोबाइल लोकेशन, चैट्स, बैंक ट्रांजैक्शन और सीसीटीवी फुटेज सामने आए, तब जाकर पूरी साजिश बेनकाब हुई।

सवाल यह है कि एक नवविवाहिता ऐसा क्यों करती है? जवाब आसान नहीं है, पर चिंतन जरूरी है। यह मामला केवल व्यक्तिगत धोखा नहीं, समाज की उस बनती मानसिकता का भी परिणाम है, जिसमें रिश्तों में धैर्य, संवाद और समर्पण की जगह जल्दबाजी, लालच और अवसरवाद ने ले ली है।

सोनम पहले से एक अन्य युवक से प्रेम करती थी, और राजा से विवाह सिर्फ परिवार या आर्थिक मजबूरियों के चलते हुआ। लेकिन विवाह के बाद भी उसने उस प्रेमी को छोड़ा नहीं, बल्कि पति को रास्ते से हटाने की योजना बना डाली।

आज के दौर में रिश्तों की शुरुआत इंस्टाग्राम और स्नैपचैट से होती है, और अंत क्राइम पेट्रोल या पुलिस स्टेशन पर। भावनात्मक गहराई, एक-दूसरे को समझने का समय और परख की प्रक्रिया लगभग न के बराबर रह गई है।

विवाह को लेकर जिस जल्दबाजी और सामाजिक दबाव की संस्कृति बन गई है, उसमें युवक-युवती को खुद की इच्छाओं और संबंधों को समझने का समय ही नहीं मिलता। भावनात्मक अपरिपक्वता, आत्मकेंद्रित निर्णय और रिश्तों के प्रति गैर-जिम्मेदारी, इन सबका सम्मिलन इस हत्याकांड जैसी घटनाओं को जन्म देता है।

यह घटना मेघालय के खूबसूरत पर्यटन स्थलों जैसे शिलॉंग, चेरापूंजी, डावकी, उमगोट नदी आदि की छवि पर भी असर डाल गई। सोशल मीडिया पर कुछ यूजर्स ने इसे “मेघालय हनीमून मर्डर केस” कहना शुरू कर दिया, जिससे नॉर्थ ईस्ट राज्यों के प्रति अनावश्यक संदेह और डर का वातावरण बन रहा है।

लेकिन प्रश्न यह है: क्या एक महिला की निजी आपराधिक साजिश पूरे क्षेत्र को बदनाम कर सकती है? उत्तर है — नहीं। यह वही मानसिकता है जो किसी मुस्लिम अपराधी को देख पूरे धर्म पर टिप्पणी कर देती है, या किसी एक दलित व्यक्ति के कारण पूरी जाति को दोषी ठहराती है। यह सोच भी उतनी ही खतरनाक है जितनी खुद वह घटना।

शादी अब समझौता नहीं, सौदा बन रही है।

प्रेम अब समर्पण नहीं, स्वार्थ बन गया है।

और भरोसा अब भावना नहीं, बिजनेस जैसा व्यवहार हो गया है।

जिस तरह से सोनम ने योजनाबद्ध तरीके से पति की हत्या की, वह दिखाता है कि क्रूरता अब हथियार से नहीं, रिश्तों के माध्यम से भी हो रही है।

मीडिया ने इस घटना को सनसनीखेज ढंग से दिखाया।

शीर्षक आए —

“हनीमून बना हत्याकांड का अड्डा”

“बेवफा बीवी की खूनी प्लानिंग”

“राजा गया, सोनम हँसी”

लेकिन इन सुर्खियों के पीछे की वास्तविक पीड़ा, राजा के माता-पिता का दुःख, और समाज में बनती विडंबनाओं की चर्चा लगभग नदारद रही।

सोशल मीडिया पर भी मामला जल्दी ही मेमे और चुटकुलों का विषय बन गया —

“पूरा नॉर्थ ईस्ट सोनम की बेवफाई से बदनाम हो गया।”

“हनीमून पर जाने से पहले पुलिस वेरिफिकेशन जरूरी कर लो।”

यह हास्य के नाम पर एक मानवीय त्रासदी का उपहास है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि यह एक अलग-थलग मामला है। लेकिन सच यह है कि ऐसे रिश्ते-जनित अपराध बढ़ रहे हैं।

कहीं पति पत्नी को दहेज के लिए मार रहा है।

कहीं पत्नी प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर रही है।

कहीं दोनों मिलकर बच्चों को मार डालते हैं।

यह सब संकेत हैं — कि हमारा समाज कहीं न कहीं भावनात्मक पतन, सामाजिक अस्थिरता और नैतिक विघटन की ओर बढ़ रहा है।

ऐसे में अब सवाल समाधान का है।

स्कूलों और कॉलेजों में सिर्फ करियर या डिग्री की बात न हो, बल्कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता (emotional intelligence), रिश्तों की समझ, संवाद की कला और वैवाहिक जीवन की जिम्मेदारियों की चर्चा हो।

जैसे स्वास्थ्य चेकअप होता है, वैसे ही शादी से पहले मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग अनिवार्य हो।

सोशल मीडिया को ऐसी घटनाओं को सनसनी नहीं, संवेदना के साथ पेश करने की जिम्मेदारी निभानी होगी।

परिवारों को संवादशील बनना होगा, ताकि युवा खुलकर अपनी उलझनों को साझा कर सकें।

जब एक युवती अपने पति की हत्या करती है, तो हम उसे “डायन”, “खूनी”, “बेवफा” कह देते हैं — और सही भी है, अगर वह दोषी है। लेकिन क्या हमने कभी उन हज़ारों बेटियों की सुध ली जो दहेज, बलात्कार, या मारपीट में मर जाती हैं?

क्या हम अपराध को सिर्फ लिंग के आधार पर देखेंगे या सिद्धांतों और संवेदनाओं के आधार पर?

राजा की हत्या कोई फिल्मी सस्पेंस नहीं, यह हकीकत है।

एक मां का बेटा गया, एक बहन का भाई और एक परिवार की खुशियाँ छिन गईं।

वहीं दूसरी ओर — एक राज्य बदनाम हो गया, और पूरे पर्यटन क्षेत्र पर प्रश्नचिन्ह लग गया।

हम इस घटना को केवल एक अपराध के रूप में न देखें, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी के रूप में लें। यह हमें बताती है कि अब वक़्त आ गया है — जब हमें केवल रिश्ते जोड़ने की नहीं, उन्हें निभाने की शिक्षा भी देनी होगी।

क्या हो गया है इन औरतों को?

क्या हो गया है इन औरतों को?
अब ये आईना क्यों नहीं झुकातीं?
क्यों चलती हैं तेज़ हवा सी,
क्यों बातों में धार रखती हैं?
कल तक जो आंचल से डर को ढँकती थीं,
अब क्यों प्रश्नों की मशालें थामे हैं?
क्या हो गया है इन औरतों को —
जो रोटी से इंकलाब तक पहुंच गईं?
कोमल थीं, हाँ, थीं नर्म हथेलियाँ,
अब उनमें तलवार क्यों उग आई?
क्या प्रेम मर गया है इनकी धमनियों में,
या समाज की मार ने उसे लहूलुहान किया?
कर्नाटक की उस स्त्री को देखो —
जिसे अब हर चैनल पर नंगा किया गया,
अपराध की खबर कम थी,
उसके चेहरे की लिपस्टिक ज़्यादा दिखी।
कहां चूक हुई परवरिश में?
ये सवाल अक्सर औरतों के लिए होता है,
मगर जब बेटे खंजर बन जाते हैं,
तो माँ की ममता ही ढाल बना दी जाती है।
क्या स्त्री सिर्फ़ सहने को बनी है?
या वो भी ज़िन्दा प्राणी है —
जिसे मोह भी होता है,
और मोहभंग भी।
कोई नहीं पूछता कि क्यों टूटी वो?
किसने उसके सपनों को कुचला था?
क्यों उसका अंत अपराध में हुआ,
शायद वह भी कभी एक गीत थी…
इन औरतों को कुछ नहीं हुआ है,
ये बस अब मौन नहीं रहीं,
अब वे दोषी भी हैं, न्याय की भूखी भी,
अब वे देवी नहीं — मनुष्य बन रही हैं।
क्या हो गया है इन औरतों को?
कुछ नहीं…
बस उन्होंने ‘होना’ शुरू किया है।

ग्लोबल वार्मिंग-जलवायु परिवर्तन : असंभव है इन्हें रोक पाना

तनवीर जाफ़री

इस समय पूरी पृथ्वी ग्लोबल वार्मिंग के संकट से बुरी तरह जूझ रही है। विश्व के किसी न किसी कोने से मानवजीवन को संकट में डालने वाले आये दिन कोई न कोई ऐसे समाचार सुनाई देते हैं जो पर्यावरण पर नज़रें रखने वालों को चौंकाने वाले होते हैं। मानवजनित इस समस्या के चलते इसी पृथ्वी के किसी न किसी भूभाग से कोई न कोई दिल दहलाने वाली ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं तो कहीं समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। कहीं जंगलों में आग लग रही है तो कहीं पहाड़ धंस रहे हैं। कहीं जंगलों में आग लगने के समाचार आते हैं तो कहीं वनक्षेत्र ख़ासकर वर्षावनों के कम होने की ख़बरें सुनाई देती हैं। कहीं पहाड़, शुष्क रेगिस्तान की तरह होते जा रहे हैं तो कहीं रेगिस्तान में बारिश होने लगी है। कहीं नदियाँ सूख रही हैं तो कहीं बाढ़ तबाही मचाये रहती है। कहीं पहाड़ों की ऊंचाई कम  हो रही है तो कहीं करोड़ों वर्षों से बर्फ़ के आवरण से ढके पहाड़ों से बर्फ़ की सफ़ेद चादर हट चुकी है। ज़ाहिर है दुनिया में बढ़ता जा रहा वायु प्रदूषण ही जलवायु परिवर्तन व व ग्लोबल वार्मिंग का मुख्य कारक है। और यही ग्लोबल वार्मिंग और इसके कारण होने वाला जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान समझे जाने वाले मानव रुपी प्राणी की ही देन है। 

             इन समस्याओं से जूझने के लिये स्वयं को विश्व के ज़िम्मेदार समझने वाले नेता व शासकगण वातनुकूलित वातावरण में दुनिया में कहीं न कहीं इकठ्ठा होते रहते हैं और पृथ्वी के इन दिन प्रतिदिन बिगड़ते जा रहे हालात पर चिंता व्यक्त करने की औपचारिकता पूरी करते दिखाई देते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने तो 53 वर्ष पूर्व यानी वर्ष 1972 में ही पूरे विश्व में पर्यावरण की सुरक्षा,संरक्षण तथा वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के प्रति राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु प्रत्येक वर्ष 5 जून को ‘ विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने की घोषणा भी कर दी थी। तभी से दुनिया के देश इस विषय पर किसी न किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चिंता करते नज़र आते हैं। इसके लिए विश्व स्तर पर कई सम्मेलन और समझौते भी हो चुके हैं और भविष्य में भी प्रस्तावित हैं। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन एक ऐसा ही प्रमुख मंच है जहां विश्व के नेता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क़दम उठाने पर सहमत होने की औपचारिकता पूरी करते दिखाई देते हैं। प्रत्येक वर्ष आयोजित होने वाला यह सम्मेलन दुनिया के देशों को जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई करने के लिए एक साथ लाने का प्रयास करते भी नज़र आता है। इस सम्मेलन में शामिल देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से निपटने की कोशिश करते भी दिखाई देते हैं। 

                उदाहरण के तौर पर संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के तहत हुआ पेरिस समझौता एक ऐसा महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो विश्व को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक साथ लाने की कोशिश करता है। इस समझौते का उद्देश्य वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इसी तरह पृथ्वी शिखर सम्मेलन है जोकि पर्यावरण और विकास पर ध्यान केंद्रित करता है। रियो डी जनेरियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ़्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज की स्थापना की गयी थी। इसी तरह कभी दुनिया के प्रमुख विकसित और विकासशील देशों का एक समूह जी 20 शिखर सम्मेलन भी जलवायु परिवर्तन पर चर्चा का मंच बन जाता है। निकट भविष्य में भी ब्राज़ील के ऐमेज़ॉन क्षेत्र में स्थित बेलेम शहर में 10-21 नवंबर 2025 तक संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक जलवायु सम्मेलन आयोजित होने वाला है। इसी तरह मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए एक संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन सऊदी अरब के रियाद,में आयोजित किया जाएगा। 

                 परन्तु इन सभी वैश्विक प्रयासों के बावजूद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 50 वर्षों से भी अधिक समय से ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी को बचाने व जलवायु संरक्षण के नाम पर होने वाले वैश्विक प्रयासों का आख़िर अब तक नतीजा क्या निकला है ? सिवाय इसके कि स्वयं को विकसित कहने वाले देश विकास के नाम पर स्वयं को तो ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा ज़िम्मेदार बनने से रोक नहीं पा रहे जबकि अन्य विकाशील व ग़रीब देशों को फ़ंड देकर उनसे यह उम्मीद करते हैं कि वही देश इसपर नियंत्रण करें ? विकासशील देशों से वृक्षारोपण अभियान चलाने की उम्मीद की जाती है जबकि विकसित देश हथियारों की होड़ व गगनचुम्बी इमारतों को बनाने की प्रतिस्पर्धा में जुटे रहते हैं। विकासशील देश नित नये उद्योग,वाहन व यातायात के अन्य प्रदूषण फैलाने वाले वाहन बनाने में मशग़ूल रहते हैं जबकि अन्य देशों को प्रवचन देते हैं कि ईंधन की खपत करने वाले 10-15 वर्ष पुराने वाहनों को चलन से बाहर करने के क़ानून बनायें ? आम लोगों को सलाह दी जाती है कि वे हवाई यात्रा कम से कम करें, कारों का इस्तेमाल न करें या इलेक्ट्रिक वाहन का प्रयोग करें, मांस व डेयरी प्रोडक्ट का इस्तेमाल कम से कम करें, घरेलू व औद्योगिक ज़रूरतों में ऊर्जा खपत में कटौती करें, कम से कम ऊर्जा ख़पत वाले उपकरण  ख़रीदें, अपने घरों को तापावरोधी बनायें तथा गैस सिस्टम से इलेक्ट्रिक हीट पंपों पर स्विच करें, आदि आदि। यानी जलवायु सम्मेलनों के नाम पर इकठ्ठा होने वाले देशों में भी ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे ‘ वाली कहावत चरितार्थ होते दिखाई देती है। 

                अन्यथा यदि जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग के असल ज़िम्मेदार देश विकास के नाम पर बनाई जाने वाली अपनी नीतियों में ईमानदाराना परिवर्तन करते तो 50 वर्षों के प्रयास के बावजूद आज पृथ्वी की स्थिति इसतरह दिन प्रतिदिन बद से बदतर न हो रही होती। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस ब्राज़ील के ऐमेज़ॉन क्षेत्र में नवंबर 2025 में संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक जलवायु सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है और जिस ऐमेज़ॉन क्षेत्र के वर्षावन पृथ्वी को लगभग बीस प्रतिशत ऑक्सीजन प्रदान करते थे उसी ऐमेज़ॉन क्षेत्र के सैकड़ों किलोमीटर के जंगल कुछ वर्ष पूर्व ही विकास की भेंट चढ़ गये ? हिमालय पर्वत की चोटियां जो हमेशा बर्फ़ की सफ़ेद चादर ओढ़े रहती थीं अब उनकी बर्फ़ पिघलने लगी है। अंटार्टिका के ध्रुवीय ग्लेशियर लगातार पिघलते जा रहे हैं। परमाणु युद्ध की दस्तस्क आये दिन सुनाई देती है।अमेरिका,रूस व इस्राईल जैसे देश जब देखो तब कहीं न कहीं युद्ध के नाम पर ख़तरनाक बारूदी प्रदूषण फैलाते रहते हैं। और यही देश नेपाल जैसे छोटे देश तक का प्रदूषण स्तर नापते रहते हैं। शायद यही वजह है कि जलवायु सम्मेलन, नेताओं की तफ़रीह व सैर सपाटे की जगह तो बन जाते हैं परन्तु इन समस्याओं का स्थाई तो दूर अस्थाई समाधान भी निकाल नहीं पाते। इन परिस्थितियों को देखते हुये यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ग्लोबल वार्मिंग व इसके कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोक पाना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है।

भारत के स्वराज्य की हुंकार : हिन्दू साम्राज्य दिवस

– लोकेन्द्र सिंह 

छत्रपति शिवाजी महाराज भारत की स्वतंत्रता के महान नायक हैं, जिन्होंने ‘स्वराज्य’ के लिए संगठित होना, लड़ना और जीतना सिखाया। मुगलों के लंबे शासन और अत्याचारों के कारण भारत का मूल समाज आत्मदैन्य की स्थिति में चला गया था। विशाल भारत के किसी न किसी भू-भाग पर मुगलों के शोषणकारी शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष तो चल रहा था लेकिन उन संघर्षों से बहुत उम्मीद नहीं थी। भारत के वीर सपूत अपने प्राणों की बाजी तो लगा रहे थे लेकिन समाज को जागृत और संगठित करने का काम नहीं कर पा रहे थे। जबकि छत्रपति शिवाजी महाराज ने समाज के भीतर विश्वास जगाया कि हम मुगलों के शासन को जड़ से उखाड़कर फेंक सकते हैं, यदि सब एकजुट हो जाएं। यही कारण है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के देवलोकगमन के बाद भी ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का विचार पल्लवित, पुष्पित और विस्तारित होता रहा। ‘हिन्दू साम्राज्य दिवस’ या ‘श्रीशिव राज्याभिषेक दिवस’ भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने दुनिया को बताया कि भारत के भाग्य विधाता मुगल नहीं हैं। भारत का हिन्दू समाज ही भारत का भाग्य विधाता है। भारत में हिन्दुओं का राज्य है। उनके शासन का नाम है- ‘हिन्दवी स्वराज्य’।

विक्रम संवत 1731, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को स्वराज्य के प्रणेता एवं महान हिन्दू राजा श्रीशिव छत्रपति के राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना से भारतीय इतिहास को नयी दिशा मिली। दासता के घोर अंधकार में स्वराज्य की एक चमकदार रोशनी था- हिन्दवी स्वराज्य। हिन्दू साम्राज्य दिवस को हम भारत के स्वराज्य की हुंकार भी कह सकते हैं, जब हिन्दुओं ने आत्मविश्वास से सीना ठोंककर मुगलों को ललकारा और कहा कि भारत में एक बार फिर स्वराज्य की स्थापना हो गई है, जिसमें सबका कल्याण है। अनेक इतिहासकार एवं विद्वान कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना न की होती, तो भारत का इतिहास कुछ और होता। यह अतिशयोक्तिपूर्ण विचार नहीं है। अपितु भारत के पड़ोसी देशों एवं दूर-दराज के उन देशों की स्थिति को देखकर सहज कल्पना की जा सकती हैं, जहाँ मूल समाज की अपेक्षा बाहरी आक्रांताओं का शासन स्थायी हो गया। ऐसे देशों में वहाँ के मूल समाज की संस्कृति लगभग समाप्त हो गई है। हम कल्पना ही कर सकते हैं कि जिस प्रकार के अत्याचार मुगल शासक भारत में कर रहे थे, उसके बाद हिन्दू समाज किस स्थिति को प्राप्त होता। प्रसिद्ध मराठा इतिहासकार जीएस सरदेसाई ने लिखा है कि “मुस्लिम शासन के अधीन पूर्ण अंधकार छाया हुआ था। न कोई पूछताछ होती थी, न न्याय मिलता था। अधिकारी जो चाहें, वही करते थे। स्त्रियों के सम्मान का हनन, हत्याएं, हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन, उनके मंदिरों का विध्वंस, गायों का वध- ऐसे घिनौने अत्याचार उस शासन में आम बात थे। निजामशाही ने तो खुलेआम जीजाबाई के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की हत्या कर दी थी। फलटन के बजाजी निंबालकर को जबरन मुसलमान बनाया गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। हिंदू सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकते थे। यही बातें थीं, जिन्होंने शिवाजी के भीतर धर्मसम्मत क्रोध जगा दिया। विद्रोह की प्रबल भावना ने उनके मन को पूरी तरह घेर लिया। उन्होंने तुरंत कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने मन ही मन सोचा, जिसके हाथ में शस्त्र की शक्ति है, उसे कोई भय नहीं होता, कोई कठिनाई नहीं आती”। औरंगजेब का शासन तो हिन्दुओं के लिए किसी नर्क से कम नहीं था।

मुगलों के अनीतिपूर्ण शासन के बरक्स छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित स्वराज्य में लोकहित सर्वोपरि था। उन्होंने शासन को ‘स्व’ के आधार पर विकसित किया, इसलिए वह सबका अपना स्वराज्य था। महाराज ने राज्य के प्रत्येक तत्व यानी जल, जंगल, जमीन और जन के लिए नीतियां बनायीं। भारत की संस्कृति का संरक्षण किया। हिन्दू धर्म और उसके पवित्र स्थलों को प्राथमिकता दी। आज भी हम हिन्दू साम्राज्य को याद करते हैं, उसका कारण है कि वह सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक है। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे जिन्हें हम आज भी बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं। उनका उद्देश्य था अपने प्रजा को शांति देना, सभी जातियों और धर्मों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना, एक कल्याणकारी, सक्रिय और निष्पक्ष प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नौसेना का विकास करना और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना तैयार करना”। छत्रपति शिवाजी महाराज की नीतियों पर चलकर हम आज भी एक श्रेष्ठ भारत का निर्माण कर सकते हैं। यह देखना सुखद है कि देश में ऐसी सरकार है, जो छत्रपति की स्वराज्य की अवधारणा में विश्वास करती है, उनको अपना आदर्श मानती है और उनके बनाए मार्ग पर चलने का प्रयास करती है।

सोशल मीडिया बच्चों को हिंसक एवं बीमार बना रहा है

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– ललित गर्ग –

सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से बच्चों का बचपन न केवल प्रभावित हो रहा है, बल्कि बीमार, हिंसक एवं आपराधिक भी हो रहा है। यह चिंताजनक एवं चुनौतीपूर्ण है। यह बच्चों को समय के प्रति, परिवार एव सामाजिक कौशल के प्रति और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है। सोशल मीडिया ने बच्चों से बाल-सुलभ क्रीड़ाएं ही नहीं छीनी बल्कि दादी-नानी की कहानियों से भी वंचित कर दिया है। कुछ विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि सोशल मीडिया के अत्यधिक उपयोग से बच्चे अनैतिक, उग्र, जिद्दी एवं आक्रामक भी हो रहे हैं, जो उन्हें चिंता और अवसाद में धकेल रहे हैं। बच्चें सोशल मीडिया पर वक्त ज्यादा गुजार रहे हैं, ऑनलाइन गेम्स ने बच्चों की दुनिया ही बदल दी है। अब ये आवाज उठने लगी है कि क्यों न बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग को प्रतिबंधित कर देना चाहिए? टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में ऐसे ही चिन्ताजक तथ्य सामने आये हैं कि बड़ी संख्या में युवा माता-पिता कहानियों की बजाय डिजिटल मनोरंजन को प्राथमिकता दे रहे हैं। पंचतंत्र से लेकर स्नो व्हाइट पिनोकियो जैसी कहानियां अब शेल्फ पर धूल फांक रही हैं। नये बन रहे समाज एवं परिवार में सोशल मीडिया जहर घोल रहा है।
स्मार्टफोन बड़ों ही नहीं, बच्चों के हाथ में आ गया है। जवान और बूढ़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे तक इसके आदी होते जा रहे हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक, गेम्स सब कुछ स्मार्टफोन पर होने की वजह से बच्चों और युवाओं में इसकी आदत अब धीरे-धीरे लत में तब्दील होती जा रही है। सोने के समय बच्चों को कहानियां सुनाना या उनके लिए लोरियां गाना कभी पारिवारिक संस्कृति का अहम हिस्सा हुआ करता था। दादी-नानी हों या माता-पिता की सुनाई गई परीकथाएं बच्चों के लिए नींद से पहले की सबसे प्यारी यादें होती थीं। लेकिन अब सोशल मीडिया के आने से इसके बिना बचपन सूना हो रहा है। बच्चे किताबों और खेलकूद के मैदानों से दूर हो रहे हैं। स्क्रीन की नीली रोशनी उनकी आंखों के साथ दिमागी सेहत पर भी बुरा असर डाल रही है। इसके अलावा शारीरिक श्रम एवं रचनात्मकता भी कम हो गई है। यह केवल पश्चिमी देशों की ही नहीं, भारत की भी सच्चाई बन चुकी है। जेन जेड यानी 1996 से 2010 के बीच जन्मे युवा माता-पिता अब इस प्यारी परंपरा से मुंह मोड़ रहे हैं। हालिया शोधों से पता चला है कि अब कहानियां पढ़ना-सुनाना जेन जेड माता-पिता के लिए जिम्मेदारी एवं मनोरंजन नहीं बल्कि एक थकाऊ काम बन गया है। मोबाइल अब केवल बच्चों के लिए ही समस्या नहीं है, बल्कि बड़े भी इसकी चपेट में हैं। यह सिर्फ फोन या मैसेज करने तक ही सीमित नहीं रहा है। ना जाने कितने ही तरह के ऐप्स, व्हाट्सएप, फेसबुक जैसी सोशल मीडिया एप, और गेम्स बड़ो एवं बच्चों को दिन भर व्यस्त रखते हैं। लेकिन अगर मोबाइल के बिना आपको बेचैनी होती है तो समझ जाइये कि आप भी इस एडिक्शन के शिकार होते जा रहे हैं जो आपके लिए चिन्ता की बात है।
टेन के हार्परकॉलिन्स और नीलसन आईक्यू की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में खासकर महानगरों और शहरी इलाकों में सोशल मीडिया का बच्चों में प्रचलन अधिक बढ़ रहा है। पढ़ने को मनोरंजन एवं ज्ञान का हिस्सा मानने की बजाय ‘गंभीर पढ़ाई’ से जोड़कर देखा जा रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक नई पीढ़ी के अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को कहानी सुनाना एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। शहरीकरण एवं पारिवारिक संरचना में बदलते स्वरूप से पिछले दस सालों में बड़े बदलाव हुए हैं, संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवार हैं, जहां दादी-नानी जैसे कहानी सुनाने वाले सदस्य मौजूद नहीं है। समय की कमी, कामकाजी जीवन की व्यस्तता और थकान के कारण माता-पिता के पास बच्चों को कहानी सुनाने का समय नहीं बचता। नई पीढ़ी के माता-पिता खुद ही पढ़ने की आदत से दूर हो चुके हैं, जिससे बच्चों को प्रेरणा नहीं मिलती। स्कूल का होमवर्क भी इसमें बड़ी बाधा है। रिपोर्ट के आंकडों के अनुसार 41 प्रतिशत माता-पिता ही रोज अपने चार साल तक के बच्चों को कहानी सुनाते हैं। जबकि 2012 में यह आंकड़ा 64 प्रतिशत था। 28 प्रतिशत जेन जेड माता-पिता पढ़ने को एक मजेदार गतिविधि नहीं मानते।
बच्चों की सोशल मीडिया चैनल्स पर उपस्थिति उन्हें वास्तविक जीवन से दूर करके वर्चुअल दुनिया में ले जा रही है। जहां दिखावटीपन एवं नकारात्मकता की भरमार है। इससे बच्चों का बचपन तो छिन ही रहा है, उनका मानसिक एवं शारीरिक विकास भी अवरुद्ध हो रहा है। सोशल मीडिया यानी यूट्यूब-इंस्टा, अन्य सोशल साइट की लत बच्चों को वास्तविक दुनिया से दूर कर रही है और उनकी एकाग्रता, याददाश्त और ध्यान की क्षमता को कम करके उन्हें अपंग, बीमार एवं हिंसक बना रही है। बच्चे अपने प्रश्नों का हल या समस्या का निवारण किताबों में ढूँढकर पढ़ने के बजाय केवल मोबाइल पर ढूँढने के आदी होते जा रहे हैं जो उचित नहीं है। मोबाइल और साइबर एडिक्शन अब एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है जो बच्चों की दिनचर्या पर बुरा असर डाल रही है। इससे मानसिक विचलन और चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है कि हम छोटी छोटी बातों पर घर-परिवार के सदस्यों पर गुस्सा करने लग गये हैं।
मोबाइल आपके बच्चे से उसका बचपन ही नहीं छीन रहा है बल्कि उसे हिंसक भी बना रहा है। हरियाणा में 9 साल के एक बच्चे को इसकी इतनी बुरी लत थी कि उसने स्मार्टफोन छीने जाने की वजह से अपना हाथ काटने की कोशिश की। मोबाइल की लत का ये इकलौता मामला नहीं है। 12 साल का अविनाश मोबाइल के बिना एक पल नहीं रह सकता। उससे अगर मोबाइल छीन लिया जाये तो वो गुस्से में आ जाता है। ऐसी ही लत है भोपाल यूनिवर्सिटी की प्रिया को। उसे व्हाट्सऐप की ऐसी लत लगी कि वह पूरी रात जगी रह जाती है। अब वह इस लत से छुटकारा पाने के लिए मानसिक अस्पताल में काउन्सलिंग ले रही है। मोबाइल की लत से बच्चे आपराधिक भी होते जा रहे हैं और गलत कदम तक उठा रहे हैं। अभी हाल ही में ग्रेटर नोएडा में एक 16 वर्षीय लड़के ने अपनी माँ और बहन की हत्या कर दी क्योंकि बहन ने शिकायत कर दी थी कि भाई दिन भर मोबाइल फोन पर खतरनाक गेम खेलता रहता है और इसलिए माँ ने बेटे की पिटाई की, उसे डाँटा और उसका मोबाइल छीन लिया। मोबाइल पर मारधाड़ वाले गेम खेलते रहने के आदी लड़के का गुस्सा इसी से बढ़ गया। इसी तरह कुछ महीनों पहले कोटा में एक 16 वर्षीय किशोर ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। पुलिस की जाँच पड़ताल में पता चला कि बच्चे को पबजी गेम खेलने की लत थी और दिनभर मोबाइल में गेम खेलता रहता था। जब घरवालों ने मोबाइल छीन लिया और देने से मना कर दिया तो यह गलत कदम उठा लिया।
देश में बड़े अस्पतालों में मोबाइल की लत के शिकार लोगों के इलाज के लिए खास क्लीनिक हैं। और यहाँ आने वाले मरीजों की संख्या जिनमें बच्चें बहुतायत में हैं, अब दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मोबाइल और एप बनाने वाली कम्पनियाँ अपने मुनाफे के लिए कितनी अमानवीय हो गयी हैं कि यह सब जानते हुए भी लोगों को मानसिक रोग के गड्ढे में धकेल रही हैं। वे नये-नये गेम बनाकर मुनाफा बटोर रही हैं। परिवार एवं समाज में जागरूकता अभियान के साथ सरकार को इस उभर रहे बड़े संकट पर ध्यान देना होगा। बच्चों को खेल, कला, संगीत और अन्य गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। बच्चों को ऑनलाइन सुरक्षा के बारे में जानकारी दें और उन्हें साइबर अपराधों से बचने के तरीके सिखाएं। बच्चों को सोशल मीडिया का उपयोग करने के बारे में सही जानकारी देना और उन्हें इसके नकारात्मक प्रभावों से बचाना जरूरी है।

भारतीय संस्कृति में भगवा रंग :  वीरता का द्योतक

 वात्सत्य रूपी मातृभूमि भारत, प्रत्येक भारतीय से समान रूप में ममत्व रूपी प्रेम से हृदय चेतना व अंर्तआत्मा को तृप्त करती है। मातृभूमि भारत क्षुधा व पिपासा से तृप्ति हेतु अमृतरूपी भोजन व जल से इस देह को तृप्ति प्रदान करती है। वात्सल्यमयी माता, निस्वार्थ भाव से हमारा पालन-पोषण, संरक्षण करती है। इस माता पर मानव जन्म लेता है और इसी में विलीन हो जाता है। मनुष्य भले ही इस माँ को चेतनारहित, निर्जीव मान इसका शोषण करे परन्तु यह माँ ही चेतनासहित समस्त जीव-जन्तु, वृक्ष, आदि को जीवन प्रदान करती है। मातृभूमि धैर्यरूपी पर्वत है। भारतीय संस्कृति में इस जन्मभूमि को माँ के रूप में वर्णित किया है। अन्यत्र कहीं भी इस जीवनजननी को माँ की उपाधि से अलंकृत नहीं किया गया है, वहाँ राष्ट्र एक निर्जीव व भौतिक आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति का अनादि प्रतीक परम पूज्यनीय आदरणीय भगवा रंग इस संस्कृति के भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, तथा बौद्धिक दृष्टिकोणों की पराकाष्ठा के कारण ही पूज्यनीय है। ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति के समय तीव्र हवाने ॐ आज भी भारतीयों के हृदय में विद्यमान है। भारतीयों द्वारा अन्य रंगों में केवल भगवा को चुनने के कारण निम्न हैं।भारतीयों ने सर्वप्रथम अपना गुरु सूर्यदेव को माना है, अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी सूर्य को वही स्थान प्राप्त था, आज सभी स्थानों पर ऐसे चित्र विद्यमान हैं जिनमें सूर्य की पूजा हो रही है. मिश्र सभ्यता, माया सभ्यता, सिन्धु घाटी सभ्यता इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। तम अर्थात अंधकार को हरने वाली प्रकाश किरण भगवा ही होती है जो जीवन में नयी स्फूर्ति व उत्साह को जन्म देती है। भगवान द्वारा दी गयी प्रथम किरण होने के कारण ही यह किरण भगवा कहलायी। आधुनिक समय में वही स्फूर्ति व उत्साह को विटामिन D रूपी भगवा किरण देती है इसी कारण भारत अर्थात प्रकाश की खोज में लगे रहने वाले भारतीय भगवा को परम पवित मानते हैं।

लेडा Lead जो एक क्षयरूपी धातु है, मनुष्य के लिये हानिकारक है, उसका आक्सीकरण करने पर भी वह अपना गुण नहीं त्यागती, पुन: आस्कीकरण करने पर भी वह क्षय रोग का कारण होती है परंतु जब उसका पुन: आक्सीकरण कर लेड ट्रेटा आक्साइड [Lead tebra oxide] बनता है जो भगवा रंगी सिन्दूर होता है जिसे भारतीय महिला धारण करती हैं एवं श्रीहनुमान जी को भी यही सिन्दूर से सुशोभित किया जाता है।

भारतीय संस्कृति में विद्यमान भगवा ही इस राष्ट्र का प्रतीक है।परम पवित्र अग्नि भी भगवा रंग की होती है, प्रत्येक यज्ञ में आग्निदेव को ही आहुति देकर यज्ञ किया जाता है। भगवा ज्ञान स्वरूप है, अंतआत्मा को तृप्त कर देता है चक्षुओं में एक अभूतपूर्व आनन्द व प्रेरणा का अनुभव कराता है एवं सम्पूर्ण विस्तृत भारतवर्ष के दर्शन कर आत्मतृप्त हो जाती है।

भगवा को प्रकृति में केसर से प्राप्त किया जाता है, इसी कारण कभी-कभी इसका रूप केसरिया ने ले लिया परन्तु कहीं भी इसे नारंगी शब्द से सम्बोधित नहीं किया गया, नारंगी व भगवा दो अलग रंग है।

न ही नारंगी इस भगवा से तुलनीय है और न हि केसरिया ।भगवा वर्ण को वस्त्र पर सुशोभित कर भारतीयों ने परम पूज्यनीय भगवा ध्वजा का निर्माण किया। पवित्र अग्नि के समय  निर्मित हुई आकृति  ध्वज को समर्पित की गई।समस्त भारतवासियों द्वारा भगवा ध्वज को स्वीकार्य किया गया।महाभारत से रामायण; रामायण  से आज तक भारतीयों ने भगवा को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार्य किया।दुर्भाग्यवश अनादि काल से चला आ रहा राष्ट्रीय ध्वज आज स्वयं भारतीयों का राष्ट्रीय ध्वज नहीं है।

माँ सीता द्वारा, सिंदूर लगाने का उद्देश्य मानकर श्रीहनुमानजी ने श्रीराम के प्रति श्रद्धा व प्रेम के कारण स्वयं को सिंदूरमयी कर दिया।भारतीय संस्कृति में जन्में सभी पंथों ने भगवा को वही सम्मान दिया।सनातनी, बौद्ध, सिख सभी ने भगवा को परम पवित्र रूप में स्वीकार्य किया नन्द गुरुगोबिन्द सिंह आदि ने भी बौद्ध शिक्षु, महात्मा बुद्ध, आदि गुरु शंकराचार्य ने भगवा वस्त्र धारण किया।

महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, सम्राट विक्रमादित्य, सम्राट अशोक आदि सभी के ध्वज भगवा थे।

हरियाली से बचित रेगीस्तानी अरबवासी देशों के झंडे हरे हैं। भगवारूपी भारतवर्ष को हरेपन में ढ़कने हेतु भीषण नरसंहार, धर्मपरिवर्तन, हत्यायें व अत्याचार हुये।एक किताब एक भगवान को मानने वालों ने भारतवर्ष में मन्दिर तोड़े, भारतीयों को पाषाणों पर भगवा रंग डालकर बजरंगवली बना लिये।चालीसों का दल लाये आतंकीयो को भक्त शिरोमणी तुलसीदास ने हनुमान चालीसा लिखकर समाज कर दिया। आतंकी मन्दिर तोड़ते, भारतीय सिंदूर डालकर हनुमान बना लेते। स्वयं को श्रेष्ठ समझकर अगला आक्रमण किया सफेद चमड़ी वाले नर-पिशाचों नें यूरोपीयनों ने भारतीयों का धर्म परिवर्तन कराया, हत्याये की, नरसंहार किये।मन्दिर तोडने वालो के वंशजों ने राष्ट्र को तोड़ा है।1947 में भारतवर्ष स्वतंत्र नहीं बल्कि विभाजित हुआ, भारतवर्ष से दोनों बजरंगवली की भुजायें विभाजित हो गयीं। उन्हें ढक दिया गया चाँद-सितारे व हरे झण्डो में, विभाजन के समय जो लोग बैठे हये ये उन्हें राष्ट्र के गौरवशाली इतिहास में कोई रूचि नहीं थी वे भारत को भौतिक आवश्यकता मानते थे। खंडित भारतवर्ष को भी दुर्भाग्यवश भगवा ध्वज न मिल सका। सफेद व हरेपन से ढक दिया गया।उसे भी नारंगी अखण्ड भारतवर्ष को विभाजित कर दो अरब विचारधारा के हरे झण्डे वाले मुल्क बना दियो।आज भी भारतवासी अपना ध्वज भगवा ध्वज को धार्मिक रूप व क्षेत्र मे रखते हैं। उनकी अंर्तआत्मा में भगवा सदा विद्यमान था, विद्यमान है, विद्यमान रहेगा।अखण्ड भारतवर्ष के परमपूजनीय भगवा ध्वज की जय !

पवन प्रजापति