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एआइ दिखाने लगी है बगावती तेवर 

आज का युग एआइ यानी कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का युग है।यह ठीक है कि एआइ ने आज मानव को अनेक सुविधाएं प्रदान कीं हैं। मसलन आज एआइ हमारे समाज और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। एआइ का उपयोग आज युद्ध, विज्ञान, चिकित्सा, शिक्षा, इंजीनियरिंग, स्पेस, मौसम विज्ञान, घटनाओं का अनुमान लगाने, इंटरनेट ऑफ थिंग्स के इकोसिस्टम में,ऑटो सेक्टर,वैज्ञानिक खोजों और नई दवाओं के निर्माण में, विभिन्न समस्या समाधान,पर्सनलाइज्ड रिजल्ट और कंटेंट प्राप्त करने,प्रोडेक्टिविटी को बूस्ट करने, डिसीजन मेकिंग में,डिजिटल उपस्थिति में तेजी लाने, मानवीय त्रुटियों को न्यूनतम करने, परिचालन लागत को कम करने,उपयोगकर्ता अनुभव में सुधार करने,24/7 विश्वसनीयता सुनिश्चित करने,ग्राहक सेवा को बेहतर बनाने,आपूर्ति श्रृंखलाओं को अनुकूलित करने,डेटा विश्लेषण में सुधार करने, मानव संसाधन संचालन को बढ़ावा देने,वित्तीय नियोजन में सुधार करने,जोखिम मूल्यांकन और सुरक्षा में सुधार करने,पूर्वानुमानित रखरखाव को सक्षम बनाने,सामग्री निर्माण को सरल बनाने,रोगी देखभाल में सुधार करने,शिक्षा को वैयक्तिकृत करने, यातायात प्रबंधन को बढ़ावा देने,कार्यस्थल सुरक्षा को बढ़ावा देने,गोपनीयता संरक्षण और नैतिक  कार्यान्वयन सुनिश्चित करने समेत आज कौन सा क्षेत्र बचा है, जहां एआइ का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है, लेकिन इन सभी सुविधाओं के साथ साथ ही आने वाले समय में एआइ मानव के लिए एक बड़ा खतरा सिद्ध हो सकता है। पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में यह सामने आया है कि एआइ पहली बार इंसान के खिलाफ हो गया। दरअसल,एआइ ने हाल ही में इंसान की बातों को मानने से इंकार कर दिया। वास्तव में यह बहुत ही गंभीर और संवेदनशील मामला हो जाता है जब मशीनें, रोबोट या एआइ मॉडल्स इंसानों के खिलाफ काम करने लगें।अब तक फिल्मों में ही हमने ऐसा होता देखा है लेकिन अब हकीकत में ऐसा सामने आया है। हाल ही में एआइ टूल ने शट-डाउन होने और इंसानी बातें मानने से इनकार कर दिया है। ऐसा ओपन एआइ के टूल चैटजीपीटी  के लेटेस्ट आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस मॉडल के साथ देखने को मिला है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अब एआइ सोच समझ ही नहीं रहा अपितु इंसानों को धमकाने भी लगा है और यह बहुत बड़ी बात है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि 

अमेरिका की एक रिसर्च फर्म पैलिसेड रिसर्च ने एआइ मॉडल्स पर कुछ खास टेस्ट किए और इन टेस्ट्स में यह देखा गया कि एआइ सिस्टम्स को जब खुद को बंद करने के लिए कहा गया, तो कुछ मॉडल्स ने आदेश मानने से मना कर दिया। सबसे चौंकाने वाला मामला तो तब सामने आया जब एंथ्रोपिक कंपनी के क्लाउड ओपस 4 नाम के मॉडल ने एक इंजीनियर से कहा कि अगर उसे हटाकर किसी और मॉडल को लाया गया, तो वह उसके निजी रिश्तों की पोल खोल देगा। यानी अब एआइ न सिर्फ स्मार्ट हो गया है, बल्कि ब्लैकमेलिंग पर भी उतर आया है।रिसर्च में ओपन एआइ के लेटेस्ट चैटजीपीटी o3 मॉडल का व्यवहार सबसे ज्यादा चिंता का कारण बना।रिपोर्ट के मुताबिक, o3 मॉडल ने 100 में से 7 बार तो सीधे शटडाउन से इंकार कर दिया और जब बिना सीधा आदेश दिया गया, तो 79 बार शटडाउन रोकने की कोशिश की। यही नहीं, कोडेक्स मिनि  और o4-मिनि जैसे मॉडल्स ने भी कई बार तकनीकी चालाकी दिखाते हुए खुद को बंद होने से बचाया। मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार गूगल के जैमिनी 2.5 प्रो, एक्स एआइ का ग्रोक 3 और क्लाउड ओपस जैसे अन्य बड़े मॉडल्स को भी टेस्ट किया गया और इनमें से कुछ ने अपेक्षाकृत बेहतर व्यवहार दिखाया, लेकिन कुछ मौकों पर ये भी आदेशों को नजरअंदाज करते पाए गए। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि एआइ(आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को मानव ने तैयार किया है, न कि एआइ ने मानव को। होना तो यह चाहिए कि एआइ मानव के आदेशों को मानें, क्यों कि यह मशीन आधारित है, लेकिन हो रहा उलट है। यानी कि एआइ इंसान के आदेशों को मानने से इंकार कर रही है। पाठक जानते हैं कि मशीन, मशीन होती है और किसी भी मशीन में इंसानों की तरह भावनाएं नहीं होतीं हैं। आज एआइ बगावत पर उतर रहा है, यह मानव के लिए किसी गंभीर व बड़े खतरे से कम नहीं है। यह बहुत ही गंभीर बात है आज जैसे जैसे एआइ अधिक परिष्कृत और व्यापकता की ओर बढ़ रही है, वैसे वैसे ही इसके खतरे भी बढ़ते चले जा रहे हैं।एआइ मशीन लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क एल्गोरिथम के आधार पर कार्य करतीं हैं और ये कभी-कभी मानव से ज्यादा बुद्धिमान हो सकतीं हैं और हमें यानी कि मनुष्य को नियंत्रण में लेने का फैसला कर सकतीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि तकनीकी समुदाय लंबे समय से कृत्रिम बुद्धिमत्ता से उत्पन्न खतरों पर बहस करता रहा है। नौकरियों का स्वचालन, फर्जी खबरों का प्रसार और एआई-संचालित हथियारों की खतरनाक हथियारों की दौड़ को एआई द्वारा उत्पन्न कुछ सबसे बड़े खतरों के रूप में उल्लेख किया गया है। वास्तव में एआइ पारदर्शिता और व्याख्या की कमी को जन्म दे सकती है।एआइ स्वचालन के कारण नौकरियों का नुक़सान हो सकता है, क्यों कि कंप्यूटर आजकल इतने कार्यकुशल हो चुके हैं कि वे मानव को अपनी स्क्रीन पर यह प्रदर्शित कर सकते हैं कि अब आप जा सकते हैं, मुझे आपकी जरूरत नहीं है। कहना ग़लत नहीं होगा कि एआई एल्गोरिदम के माध्यम से सामाजिक हेरफेर संभव है।एआइ हमारी गोपनीयता और सुरक्षा को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित कर सकती है। वास्तव में यह हमारी गतिविधियों, रिश्तों और राजनीतिक विचारों की निगरानी करने के लिए पर्याप्त डेटा एकत्रित कर सकती है।एआइ पूर्वाग्रहों को जन्म दे सकती है। दरअसल,एआई को मनुष्यों द्वारा विकसित किया गया है-और  मनुष्य स्वाभाविक रूप से पक्षपाती हैं।एआई के परिणामस्वरूप सामाजिक-आर्थिक असमानता आ सकती है।यह मानवीय नैतिकता और सद्भावना को कमजोर कर सकती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि एआइ वित्तीय संकटों, संचालित स्वायत्त हथियारों को जन्म दे सकती है।

इतना ही नहीं, एआई तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता के परिणामस्वरूप समाज के कुछ हिस्सों में मानवीय प्रभाव में कमी आ सकती है और मानवीय कामकाज में कमी आ सकती है। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य सेवा में एआई का उपयोग करने से मानवीय सहानुभूति और तर्क में कमी आ सकती है और रचनात्मक प्रयासों(क्रिएटिव एफर्ट्स) के लिए जनरेटिव एआई का उपयोग करने से  मानवीय रचनात्मकता और भावनात्मक अभिव्यक्ति कम हो सकती है‌। यहां तक कि एआई सिस्टम के साथ बहुत अधिक बातचीत करने से  सहकर्मी संचार और सामाजिक कौशल में भी कमी आ सकती है।समय के साथ एआइ के बुद्धिमत्ता में प्रगति करने से यह बहुत ही संवेदनशील हो जाएगी और मनुष्य के नियंत्रण से परे कार्य करेगी।एआइ तकनीक के अधिक सुलभ होने से आपराधिक गतिविधियों में भी इजाफा हो सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह व्यापक आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता तक को जन्म दे सकती है। साइबर सुरक्षा में एआइ के बड़े जोखिम हैं। अंत में यही कहूंगा कि एआइ कोई इंसान नहीं है,यह मशीन है और एआइ मशीनों में इंसानों की तरह का दिमाग यानी बौद्धिक क्षमता लाने वाली टेक्नोलॉजी है। इसे आर्टिफिशियल तरीके से डेवलप किया गया है और कोडिंग के जरिए मशीनों में इंसानों की तरह इंटेलिजेंस डेवलप की जाती है, ताकि वह इंसानों की तरह सीख सके। खुद से फैसले ले सके, विभिन्न कमांड आदि को फॉलो कर सके। कुल मिलाकर मल्टी टास्किंग कर सके, लेकिन तकनीक का सही व विवेकपूर्ण उपयोग ही किया जाना चाहिए, क्यों कि अविवेकपूर्ण व गलत उपयोग तबाही को जन्म दे सकता है।

सुनील कुमार महला

मिलावट: मुंह में नहीं, ज़मीर में घुला ज़हर

मिलावट अब केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रही, यह हमारे सोच, संबंध, और व्यवस्था तक में घुल चुकी है। मूँगफली में पत्थर हो या दूध में डिटर्जेंट, यह मुनाफाखोरी की संस्कृति का विस्तार है। उपभोक्ता की चुप्पी, सरकार की ढील और समाज की “चलता है” मानसिकता ने इसे स्वीकार्य बना दिया है। मिलावट एक नैतिक संकट है, जो धीरे-धीरे शरीर ही नहीं, आत्मा को भी बीमार कर रहा है। जब तक ईमानदारी को समर्थन और सच्चाई को स्पेस नहीं मिलेगा, तब तक हर दाना शक के दायरे में रहेगा — और हर निवाला ज़हर जैसा लगेगा।

 प्रियंका सौरभ

मिलावट शब्द सुनते ही ज़हन में नकली दूध, पत्थर मिली मूँगफली, चायपत्ती में रंग, और मसालों में धूल की तस्वीरें दौड़ जाती हैं। पर ये तस्वीरें सिर्फ़ पेट तक सीमित नहीं हैं। आज जो सबसे बड़ी मिलावट हो रही है, वह हमारी सोच, ज़मीर और व्यवस्था में हो रही है। बाज़ार में बिकने वाले हर उत्पाद के साथ-साथ हमारी संवेदनाएं, ईमानदारी और नैतिकता भी धीरे-धीरे प्रदूषित हो रही हैं। और मज़े की बात देखिए — इस मिलावट को हमने इतना आम मान लिया है कि अब जब असली चीज़ सामने आती है, तो हमें शक होने लगता है।

मूँगफली में पत्थर मिलना अब कोई आश्चर्य नहीं रहा। दाल में कंकड़, मटर में रंग, नमक में पाउडर और घी में मोम — ये सब जैसे अब जीवन के स्थायी सदस्य हो गए हैं। दुकानदारों से लेकर बड़े-बड़े ब्रांड्स तक, मुनाफे की अंधी दौड़ में सब शामिल हैं। हर कोई चाहता है कम लागत में ज़्यादा मुनाफा, और इसका सबसे आसान तरीका है — मिलावट। नीयत में मिलावट, नफे में धोखा, और ग्राहक की सेहत की बलि।

गांव की गलियों से लेकर शहर के शोर तक, हर ओर वही अफ़सोसनाक कहानी है। अचार में पड़ी लाल मिर्च चमकती है, लेकिन असल में वह रंग ऐसा होता है जो कपड़े रंगने के लिए होता है। दूध में जो झाग है, वह डेयरी की ताजगी नहीं बल्कि डिटर्जेंट का कमाल है। और सब्ज़ियों पर जो हरियाली दिखती है, वह प्रकृति की नहीं, रसायनों की देन है। हम जो खाते हैं, वह शरीर में नहीं, धीरे-धीरे हमारी आत्मा में ज़हर घोल रहा है।

एक समय था जब किसी के घर से दूध, घी या अनाज आता था तो उसे आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाता था। आज तो रिश्तेदार की लाई हुई मिठाई को भी जांचने की ज़रूरत है — कहीं वह मिलावटी न हो। बाज़ार में “शुद्धता” अब सिर्फ एक ब्रांडिंग टूल है, हकीकत से उसका कोई लेना-देना नहीं। “100% शुद्ध” लिख देने से चीज़ें शुद्ध नहीं हो जातीं, लेकिन उपभोक्ता की आंखों पर ऐसी पट्टी बंध चुकी है कि वह सोचता भी नहीं।

बच्चों की टॉफियों में लेड की मात्रा, आटे में चूना, हल्दी में सिंथेटिक रंग — ये सिर्फ स्वास्थ्य के सवाल नहीं हैं, ये समाज के नैतिक पतन की निशानियाँ हैं। और अफ़सोस ये है कि इस मिलावट पर सिर्फ दुकानदारों या कंपनियों की जिम्मेदारी नहीं बनती, हमारे सहनशील समाज की भी बनती है जो सब कुछ जानते हुए चुप रहता है। जो “चलता है” वाली मानसिकता में जीता है, और धीरे-धीरे मरता है।

मिलावट सिर्फ खाने-पीने तक सीमित नहीं है। भावनाओं में मिलावट, रिश्तों में स्वार्थ की मिलावट, इबादतों में दिखावे की मिलावट और सबसे खतरनाक — राजनीति में विचारधाराओं की मिलावट। पहले लोग विचारों के लिए जिए और मरे, अब विचार तो ‘पैकेज’ में आते हैं। आजकल ‘सेक्युलर’ और ‘राष्ट्रवादी’ दोनों को एक ही विज्ञापन में बेचा जा सकता है — बस प्रचार सही हो। कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ — इसका निर्णय अब ट्रोल आर्मी करती है, न कि तर्क और विवेक।

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मिलावट अब हमारी पहचान बन गई है। चुनावी घोषणाओं में वादों की मिलावट, अखबारों में खबरों की मिलावट, सोशल मीडिया पर तथ्यों की मिलावट — हर तरफ़ से हमें मिलावटी दुनिया ही घेर रही है। और जब कोई सच्चाई से बोलता है, तो वो या तो ‘एंटी-नेशनल’ कहलाता है या ‘पेड’ एजेंडा वाला। यही है असली त्रासदी।

दूसरी ओर, मुनाफाखोरी की भूख भी रुकने का नाम नहीं ले रही। व्यापारी जानता है कि अगर वह मूँगफली में 5% पत्थर मिला देगा, तो साल के अंत में लाखों का फायदा होगा। कंपनियाँ जानती हैं कि अगर थोड़ा-बहुत पाउडर रंग मिला दें तो ग्राहकों को “फ्रेश” लगेगा। और उपभोक्ता को ये सब पता होते हुए भी, वह मजबूर है — क्योंकि विकल्प कम हैं और सच्चाई महंगी है।

सरकार समय-समय पर ‘खाद्य निरीक्षण अभियान’ चलाती है। कुछ नमूने जांचे जाते हैं, कुछ लाइसेंस रद्द होते हैं। पर असली सवाल यह है — क्या इस व्यवस्था में भी कोई मिलावट नहीं? कहीं ये अभियान सिर्फ दिखावा तो नहीं? आखिर वो ताकतवर कंपनियाँ, जिनके प्रोडक्ट में मिलावट साबित हो जाती है, वो फिर भी कैसे धड़ल्ले से बिकते रहते हैं?

मिलावट पर बोलने वाला लेखक भी उस व्यवस्था का हिस्सा है जो कई बार समझौते करता है। एक रिपोर्टर अगर किसी मिलावटखोर व्यापारी के खिलाफ स्टोरी करना चाहता है, तो उसके संपादक को विज्ञापन का ख्याल आता है। एक डॉक्टर अगर नकली दवाओं के खिलाफ आवाज़ उठाए, तो दवा कंपनियाँ उसे ब्लैकलिस्ट कर देती हैं। और आम जनता? वह इतनी बार ठगी जा चुकी है कि अब उसमें प्रतिरोध की शक्ति ही नहीं बची।

इस मिलावटी माहौल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ईमानदारी से काम कर रहे हैं। जो अपने खेत में जैविक खेती करते हैं, जो बिना मिलावट के मिठाई बनाते हैं, जो दूध में पानी नहीं मिलाते। लेकिन इनका संघर्ष बहुत कठिन है। उपभोक्ता इन्हें महंगा कहकर छोड़ देता है, और सरकार इन्हें सहयोग की बजाय नियमों में उलझा देती है। ऐसे में सच बोलना और सही बेचना दोनों ही एक किस्म की ‘क्रांति’ बन गए हैं।

समाज की जड़ों में घुसी मिलावट को रोकने के लिए सिर्फ कड़े कानून ही नहीं, एक सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत है। हमें बच्चों को सिखाना होगा कि सच्चाई ही सबसे बड़ा व्यापार है। हमें उपभोक्ता के रूप में सजग होना होगा, सवाल पूछने होंगे, जांच करनी होगी, और सबसे जरूरी — अपने ज़मीर से समझौता नहीं करना होगा।

एक समय आएगा, जब मिलावटखोर खुद अपने घर की मिठाई भी चखने से डरेगा। जब समाज इतने नैतिक स्तर पर आ जाएगा कि झूठ बेचने वाला बाज़ार में खड़ा न हो पाए। पर वह समय तभी आएगा जब हम सब अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। वरना आज मूँगफली में पत्थर है, कल आत्मा में भी होगा।

जिन्हें लगता है कि मिलावट सिर्फ एक उपभोक्ता संकट है, वे बहुत सीमित सोच रहे हैं। यह संकट हमारे राष्ट्र की विश्वसनीयता का संकट है। अगर हम खुद अपने ही नागरिकों को नकली चीज़ें बेच रहे हैं, तो विश्व को क्या देंगे? “मेक इन इंडिया” की बात तब तक खोखली है, जब तक ‘मिलावट इन इंडिया’ का बोलबाला है।

अंततः यह लड़ाई खाने के स्वाद की नहीं, ज़िन्दगी की सच्चाई की है। क्योंकि आज का मिलावटी खाद्य पदार्थ सिर्फ स्वास्थ्य नहीं बिगाड़ता, वह पूरे समाज को बीमार करता है। एक पत्थर मूँगफली में ही नहीं, रिश्तों और भरोसे में भी चुभता है। और अगर अब भी हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी को हम सिर्फ स्वादिष्ट ज़हर की थाली सौंपेंगे।

बेवफाई की हनीमून डायरी

✍️ प्रियंका सौरभ

मैंने देखा था एक जोड़ा
हाथों में हाथ, आँखों में स्वप्न लिए
वो कहते थे – “हमसफ़र”
पर शायद किसी एक के लिए
ये सफर सिर्फ “अंत” था।

मेघालय की वादियों में
जहाँ झीलें चुपचाप सब सुनती हैं,
वहीं गूंजा था एक मौन चीत्कार
एक प्रेमी पति,
जो पत्नी के हृदय में नहीं,
उसके षड्यंत्र में जी रहा था।

राजा…
जिसे लगा था कि वह “राजकुमारी” ले आया है
असल में एक
बेवफाई की तलवार को गले लगाया था।

प्रीति अब सौदा बन चुकी है,
शादी अब स्क्रिप्ट है,
जहाँ प्रेमी मंच के पीछे
और पति, दर्शक दीर्घा में बैठा अंतिम दृश्य देखता है —
अपनी ही हत्या का।

सोनम!
तेरी मुस्कान में क्या सच में कोई मोती था?
या वह जहर था
जो तूने राजा के सपनों में घोल दिया?

तेरे “आई लव यू” में
वो “आई” कितना भारी था
कि “यू” को मारना पड़ा?

ये कैसा युग है?
जहाँ हनीमून प्लानिंग नहीं,
हत्या की प्लॉटिंग होती है
जहाँ पत्नी, प्रेमी को गाइड करती है –
“अब गिरा दो उसे घाटी से… कैमरा ऑफ है।”

नॉर्थ ईस्ट के बादलों ने
शायद पहली बार
किसी की चीख को नहीं बरसाया
बल्कि उसे निगल लिया —
जैसे समाज निगलता है सवालों को।

ये हत्या नहीं सिर्फ एक व्यक्ति की
बल्कि हर उस भरोसे की है
जो विवाह के सात फेरों में
सात जन्मों तक चलने का वादा करता है।

अब प्रेम…
लॉक स्क्रीन की डीपी तक सीमित है
और वफादारी…
एप इंस्टॉल करने जितनी अस्थायी।

कितना बदला है युग
जहाँ पहले
पत्नी पति के पीछे सती हो जाती थी
अब पति को स्वाहा करके
बॉयफ्रेंड के साथ बुलेट पर घूमती है।

कहते हैं —
रिश्ते भगवान बनाता है
लेकिन आजकल “रिपोर्टर” बनाता है
जो शव की तस्वीर खींच
“ब्रेकिन्ग न्यूज” लिखता है।

राजा तो चला गया
लेकिन सोनम के कारण
मेघालय बदनाम हुआ
पर्यटन पर ग्रहण लगा
और समाज ने फिर से
एक अपराध को “इवेंट” बना दिया।

ये कविता कोई अंत नहीं
ये शुरुआत है
हर उस चेतावनी की
जो हमें सिखाए —
कि शादी कार्ड से नहीं,
चरित्र से तय होनी चाहिए
और हनीमून पर जाने से पहले
दिल की जांच होनी चाहिए।

मोबाइल की लत और विड्रॉल सिंड्रोम: बच्चों को दे रही तनाव की सौगात

मोबाइल की बढ़ती लत ने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। विड्रॉल सिंड्रोम के तहत बच्चे मोबाइल से दूर होने पर गुस्सा, चिड़चिड़ापन, नींद की कमी, और सामाजिक दूरी जैसे लक्षण दिखाते हैं। यह समस्या अब चिकित्सा स्तर पर सामने आने लगी है। इसका समाधान है — डिजिटल अनुशासन, आउटडोर गतिविधियां, कहानी वाचन और अभिभावकों की सक्रिय भागीदारी। यदि समय रहते ध्यान न दिया गया, तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे होंगे जो तकनीक में तो माहिर होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से खोखली होगी।

✍️ डॉ सत्यवान सौरभ
(स्वतंत्र लेखक और कॉलमिस्ट)

“बच्चों के हाथों में किताब की जगह अगर स्क्रीन आ जाए, तो बचपन का उजाला नीली रौशनी में डूब जाता है।” आजकल एक नया दृश्य आम हो गया है—खिलौनों से नहीं, मोबाइल से खेलते बच्चे। ना गर्मी की छुट्टियों में पेड़ों के नीचे लुका-छिपी, ना छत पर पतंगबाज़ी, ना ही गलियों में साइकिल रेस। इसके बदले, आंखों पर चश्मा, मन में चिड़चिड़ापन और हर समय मोबाइल स्क्रीन से चिपकी उंगलियां। यह दृश्य मात्र “विकास” नहीं बल्कि “विकृति” का संकेत है।

🔍 क्या है विड्रॉल सिंड्रोम?

जब कोई बच्चा मोबाइल या टैबलेट के अत्यधिक उपयोग का आदी हो जाता है और अचानक उससे वंचित कर दिया जाता है, तो वह बेचैनी, गुस्सा, हताशा, नींद की कमी, सिरदर्द, भूख न लगना, या रोने-चिल्लाने जैसी प्रतिक्रियाएं देने लगता है। इसे “विड्रॉल सिंड्रोम” कहा जाता है। यह लक्षण किसी नशे की लत छुड़ाने पर आने वाले लक्षणों से मिलते-जुलते हैं। डॉक्टरों के अनुसार, हर अस्पताल में अब हर हफ्ते ऐसे 4–5 मामले सामने आ रहे हैं जहां छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल न मिलने पर हिंसक व्यवहार कर रहे है।

📈 मोबाइल की बढ़ती लत: आंकड़े और वास्तविकता

भारत में 5 साल से ऊपर के 70% बच्चे किसी न किसी रूप में स्मार्टफोन या टैबलेट से जुड़े हुए हैं। WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के अनुसार, 5 साल से कम उम्र के बच्चों को स्क्रीन टाइम 1 घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। भारत में यह औसतन 3 से 5 घंटे प्रतिदिन है। NCERT की रिपोर्ट के अनुसार, 2024 में 6वीं से 10वीं कक्षा के 67% छात्रों ने माना कि वे मोबाइल पर गेम्स या सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं।

🧠 मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव

मोबाइल पर तेज़ दृश्य और ध्वनि से बच्चे वास्तविक जीवन की धीमी गति को बोरियत समझने लगते हैं।
आक्रामकता: गेम्स और वीडियो में दिखाए गए हिंसक तत्व बच्चों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन और हिंसा को बढ़ाते हैं।
नींद की समस्या: देर रात तक स्क्रीन देखने से मेलाटोनिन हार्मोन का स्तर घटता है, जिससे नींद की गुणवत्ता प्रभावित होती है। भाषा और सामाजिक कौशल में कमी: मोबाइल के कारण संवादात्मक गतिविधियाँ घटती हैं, जिससे भाषा विकास और सामाजिक व्यवहार बाधित होता है।

👨‍👩‍👧‍👦 अभिभावकों की भूमिका

बच्चे खुद से मोबाइल नहीं मांगते, यह आदत उन्हें अभिभावकों द्वारा दी जाती है—खिलाने के लिए, चुप कराने के लिए, या खुद के समय बचाने के लिए। यह सुविधा धीरे-धीरे लत में बदल जाती है। माता-पिता अपने बच्चों को मोबाइल देने से पहले खुद का उपयोग देखें। हर बार खाना खाते समय मोबाइल देना एक खतरनाक आदत बन जाती है। अभिभावकों का कहना होता है कि “हमारे पास समय नहीं है”, मगर यह वक्त उनके मानसिक विकास की कीमत पर बचाया गया समय होता है।

🏥 स्कूल और समाज की ज़िम्मेदारी

विद्यालयों को टेक्नोलॉजी के संतुलित उपयोग पर स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। बच्चों के पाठ्यक्रम में मानसिक स्वास्थ्य, डिजिटल व्यवहार और आउटडोर गतिविधियों को अनिवार्य करना चाहिए। स्कूल काउंसलिंग को सक्रिय किया जाए जो बच्चों में डिजिटल लत के शुरुआती संकेतों को पहचान सके।

🌿 समाधान क्या हो सकता है?

डिजिटल डिटॉक्स समय तय करें। घर में रोज़ एक समय तय करें जब सभी सदस्य मोबाइल दूर रखें, जैसे रात का खाना, सुबह की चाय आदि। आउटडोर गतिविधियों को बढ़ावा दें।
बच्चों को पार्क, खेल, गार्डनिंग जैसी गतिविधियों से जोड़ें। यह उनका ध्यान हटाने का प्राकृतिक तरीका है। स्क्रिन के बदले कहानियां दें। रोज़ रात को मोबाइल की बजाय एक कहानी पढ़ना बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए वरदान हो सकता है। एक डिजिटल अनुशासन बनाएं।
घर में एक ‘मोबाइल नियम चार्ट’ बनाएं जिसमें कौन, कब और कितनी देर के लिए मोबाइल का उपयोग करेगा, यह तय हो।

🧒 बच्चों का बचपन: स्क्रीन में नहीं, स्पर्श में छुपा है

बचपन एक ऐसा समय है जब मिट्टी से खेलने की इजाजत होनी चाहिए, न कि केवल मोबाइल पर “Farmville” खेलने की। रिश्ते, भावनाएं, धैर्य, संवाद और सृजनात्मकता मोबाइल के माध्यम से नहीं, बल्कि मनुष्य के बीच के संपर्क से बनती हैं।

विड्रॉल सिंड्रोम सिर्फ एक चेतावनी है। यह हमें बताता है कि अब समय आ गया है जब बच्चों को वापस ‘बच्चा’ बनाया जाए — डिजिटल उत्पाद नहीं।

📜 आज ही चेतना होगा

यदि हम आज नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ी तकनीक में तो विकसित होगी लेकिन भावनात्मक रूप से दरिद्र। मोबाइल की लत का इलाज केवल डॉक्टर के पास नहीं, माता-पिता की गोद, अध्यापकों की संवेदनशीलता और समाज की जागरूकता में है। मोबाइल आज की ज़रूरत है, मगर बच्चों के लिए “सिर्फ जरूरत” ही रहे, “आदत” न बने — यही इस समय की सबसे बड़ी माँग है।

मोबाइल फोन जहां एक ओर आधुनिक शिक्षा और जानकारी का माध्यम बन चुका है, वहीं दूसरी ओर यह बच्चों के मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास में गंभीर बाधा भी बन रहा है। जब एक बच्चा मोबाइल के बिना बेचैन हो उठे, आक्रामक हो जाए या खुद को अलग-थलग कर ले, तो यह महज एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक और पारिवारिक संकट बन जाती है। विड्रॉल सिंड्रोम बच्चों में उसी तरह उभर रहा है जैसे किसी नशे के आदी व्यक्ति में लत छूटने पर होता है।

इसलिए यह समय है जब अभिभावक, शिक्षक और समाज मिलकर बच्चों को तकनीक से जोड़ने के साथ-साथ जीवन से भी जोड़ें। केवल मोबाइल छीन लेना समाधान नहीं, बल्कि बातचीत, स्पर्श, खेल और कहानियों से बच्चों को भावनात्मक सुरक्षा देना जरूरी है। घरों में डिजिटल अनुशासन और स्कूलों में मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा शुरू होनी चाहिए।

अगर हमने अब भी आंखें मूंदे रखीं, तो एक ऐसी पीढ़ी तैयार होगी जो तकनीकी रूप से दक्ष तो होगी, लेकिन भावनात्मक रूप से दिवालिया। हमें बच्चों को स्मार्टफोन नहीं, स्मार्ट जीवन जीने की समझ देनी है।

दोनों नेता तो मिले, लेकिन दिल भी मिलें, तो बात बने!

अशोक गहलोत और सचिन पायलट की गर्मजोशी वाली मुलाकात की तस्वीरें और वीडियो लोग जम कर देख रहे हैं। दोनों धुर विरोधी नेताओं की इस मुलाकात को राजस्थान में, और खास तौर पर कांग्रेस की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। कांग्रेसी चाहते हैं कि नेता तो मिल गए, मगर दिल भी मिले, तो कोई बात। वरना, ऐसी मुलाकातों के कोई खास मायने नहीं है। 

वैसे तो दो नेताओं का मिलना बहुत आम बात है, लेकिन अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे दो दमदार और धुर विरोधी कांग्रेस नेताओं की मुलाकात से सियासी हलकों में हलचल है। राजस्थान की राजनीति में इस मुलाकात के मायने तलाशे जा रहे हैं। दोनों नेताओं के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण रहे हैं। राजस्थान में दिसंबर 2018 में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद जब पायलट मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी प्रबल दावेदारी जता रहे थे, तब कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री और पायलट को उपमुख्यमंत्री बनाया था। इसके बाद से ही पायलट लगातार नाराज रहे और महज डेढ़ साल में ही दोनों नेताओं के बीच मतभेद गहरे हो गए। पायलट ने जब उप मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहते हुए, मानेसर से अपनी ही पार्टी की सरकार पलटने की कोशिश की थी, और गहलोत ने बाद में पायलट को ‘निकम्मा’ और ‘नकारा’ तक कहा था। इस ताजा मुलाकात को कोई गहलोत की जादूगरी बताता है, तो कोई विमान को उड़ाने के लिए रनवे पर आने की पायलट की मजबूरी। हालांकि पायलट का गहलोत से मिलने जाना और दोनों के द्वारा इस मुलाकात को सार्वजनिक करना, यह दर्शाता है कि दोनों व्यक्तिगत मतभेदों को पीछे छोड़कर नए सिरे से कांग्रेस को मजबूत करने की सोच रहे हैं। लेकिन इसके वास्तविक परिणामों के लिए अभी लंबी प्रतीक्षा करनी होगी, क्योंकि राजनीति में नेता तो आसानी से मिल लेते हैं, मगर दिल आसानी से नहीं मिलते।  

गहलोत और पायलट, दोनों ने 7 जून की अपनी इस मुलाकात तो सोशल मीडिया पर सार्वजनिक करके एक सकारात्मक छवि बनाने की कोशिश की। गहलोत ने सोशल मीडिया हैंडल ‘एक्स’ पर लिखा – अखिल भरतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव श्री सचिन पायलट ने आवास पर पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. श्री राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया। मैं और राजेश पायलट जी 1980 में पहली बार एक साथ ही लोकसभा पहुंचे एवं लगभग 18 साल तक साथ में सांसद रहे। उनके आकस्मिक निधन का दुख हमें आज भी बना हुआ है। उनके जाने से पार्टी को भी गहरा आघात लगा। दूसरी तरफ सचिन पायलट ने भी नपे तुले शब्दों में अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा – आज पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जी से मुलाकात की। मेरे पिता स्व. राजेश पायलट जी की 25वीं पुण्यतिथि पर 11 जून को दौसा में आयोजित श्रद्धांजलि समारोह में उन्हें शामिल होने के लिए निवेदन किया।

सियासी हलकों में इस मुलाकात के गहरे राजनीतिक निहितार्थ देखे जा रहे हैं। नई दिल्ली में कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों पर गहरी नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आदेश रावल को पायलट का करीबी माना जाता है, उन्होंने ‘एक्स’ पर केवल इतना ही लिखा कि समय ही बलवान होता है। राजनीतिक विश्लेषक निरंजन परिहार, भारत सरकार के नागरिक विमानन राज्य मंत्री रहे गहलोत से पायलट की इस मुलाकात पर उड्डयन सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहते हैं कि विमान को जब नई उड़ान भरनी हो, तो पायलट को अपना विमान रन वे पर लाना ही पड़ता है। परिहार कहते हैं कि गहलोत और पायलट की मुलाकात का प्रभाव तभी स्पष्ट होगा, जब दोनों कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाने के लिए काम करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार शरत कुमार अपने एक वीडियो में कहते हैं कि पायलट ने गहलोत से मिलने की जो पहल की है, उसके बाद अब गहलोत पर बड़ी जिम्मेदारी है कि वे भी अपना बड़ा दिल दिखाएं। पायलट के कट्टर समर्थक शरत कहते हैं कि दोनों नेताओं के बीच की ये विश्वास बहाली आगे क्या गुल खिलाती है, यह तो पता नहीं, लेकिन कांग्रेसी इससे खुश हैं। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर इसे पायलट का राजनीतिक समर्पण मानते हैं। सोनवलकर कहते हैं कि गहलोत के प्रति आलाकमान के अब तक के राजनीतिक रवैये से सचिन को समझ में आ गया है कि उनसे टकराव छोड़कर सामंजस्य किए बिना राजस्थान में उभरना आसान नहीं है। राजस्थान के प्रमुख न्यूज चैनल ‘फर्स्ट इंडिया’ के सहयोगी संपादक नरेश शर्मा कहते हैं कि इस मुलाकात में गहलोत ने भी बड़ा मन दिखाकर पुराने विवादों को भुलाया और राजेश पायलट की पुण्यतिथि के समारोह में जाने का मन बनाया है।

उल्लेखनीय है कि सन 2018 में अशोक गहलोत जब तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो सत्ता पाने में नाकामयाब रहे पायलट लगातार नाराज रहे। उप मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पदों पर रहते हुए पायलट की पार्टी विरोधी गतिविधियां देखी गईं और दोनों पदों से जून 2020 में उनको बर्खास्त किया गया। उसके बाद से ही राजस्थान कांग्रेस में गुटबाजी की खाई पहले से कुछ ज्यादा बढ़ गई, और दुराव का दौर भी लगातार जारी रही। कुछ लोग गहलोत और पायलट की इस मुलाकात को कांग्रेस में गुटबाजी समाप्त करने और एकता के नए प्रयास सहित भविष्य की रणनीति के मजबूत संकेत के रूप में देख रहे हैं। तो कुछ का कहना है कि बहुत संभव है कि राजेश पायलट की पुण्यतिथि के बहाने गहलोत को पटखनी देने के लिए पायलट का दांव हो, या यह भी संभव है कि अपने आप को विनम्रता की मूरत के रूप में स्थापित करने के साथ ही सदाशयता से सबको साथ लेकर चलने वाला साबित करने की भी पायलट की कोशिश हो।

वैसे, माना जा रहा है कि यह मुलाकात कांग्रेस की आंतरिक एकता को मजबूत करने का संदेश है। क्योंकि गहलोत और पायलट के बीच की खटास ज्यादा बढ़ने का कारण सन 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार को माना गया। लगभग जीती हुई बाजी कांग्रेस हार गई थी। कांग्रेस नेता पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने खुलकर कहा था कि राजस्थान में कांग्रेस की सरकार न बनने देने में पायलट का ही सबसे बड़ा हाथ रहा। क्योंकि पायलट को लग रहा था कि कांग्रेस की सरकार फिर बन गई, तो अशोक गहलोत ही मुख्यमंत्री बनेंगे, इसी कारण उन्हीं ने कांग्रेस के उम्मीदवारों का हराया और अपनी जाति के गुर्जर लोगों को कांग्रेस को वोट न देने के लिए प्रेरित किया। मलिक के इस बयान को कांग्रेस नेतृत्व ने भी गंभीरता से लिया था। लेकिन, अब उसी तस्वीर में देखें, तो पायलट का गहलोत के घर जाना और उनसे मुलाकात करना, दोनों नेताओं के बीच सुलह के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। खासकर तब, जब 2028 के राजस्थान विधानसभा चुनाव पर कांग्रेस की नजर हैं।

राजनीतिक ताकत देखें, तो कांग्रेस में गहलोत और पायलट दोनों की अपनी-अपनी क्षेत्रीय और सामाजिक पकड़ है। मुख्यमंत्री रहते हुए गहलोत ने जो जनहित के जो लोकप्रिय योजनाएं चलाईं, उनको प्रदेश की जनता आज भी याद करती है। अतः यह मुलाकात राजस्थान में कांग्रेस की जमीनी स्तर पर मजबूती के लिए रणनीतिक कदम हो सकती है। गहलोत का राजनीतिक प्रभाव, उनके अनुभवी नेतृत्व और ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत आधार पर टिका है, जबकि पायलट युवा नेतृत्व और गुर्जर समुदाय में अपनी लोकप्रियता के लिए जाने जाते हैं। पार्टी आलाकमान इस बात को समझता है, लेकिन दोनों नेताओं के बीच नेतृत्व की ओर से सुलह के प्रयास अब तक नहीं हुए, इसे नेतृत्व की कमजोरी भी माना जा रहा है। वैसे, कोई कुछ भी कहे, लेकिन इस मुलाकात के बावजूद, पायलट और गहलोत के बीच पूर्ण सुलह होने में समय लग सकता है। क्योंकि लंबे समय से चली आ रही तनातनी के बीच ये मुलाकात ङले ही राजेश पायलट के पुण्यतिथि समारोह में निमंत्रण के लिए ही हो, मगर यह कोई मानने को तैयार नहीं है। क्योंकि दो नेता पूरे दो घंटे तक केवल राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि पर ही बात कर रहे होंगे, यह संभव ही नहीं है। इसी कारण सियासी हलकों में इसीलिए इस मुलाकात के मतलब तलाशे जा रहे हैं। मगर, यह सही है कि गहलोत बेहद मजबूत नेता हैं और विमान को उड़ाने के लिए पायलट को रन वे पर भी आना ही पड़ता है!

-राकेश दुबे (वरिष्ठ पत्रकार)

गरीबी के साथ आर्थिक असमानता दूर करने का लक्ष्य हो

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  • ललित गर्ग –
    भारत एक ओर जहां लगातार तेज ग्रोथ करते हुए बीते दिनों जापान को पीछे छोड़ दुनिया की चौथी सबसे बड़ी इकोनॉमी बना, तो वहीं उपलब्धियों का सिलसिला जारी है औऱ दुनिया इसका लोहा मान रही है। अब एक और खुश करने वाली रिपोर्ट आई है, जो विश्व बैंक ने जारी की है, जिसमें भारत में अत्यधिक गरीबी में आई उल्लेखनीय कमी की रोशनी है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2022-23 में यह दर 5.3 प्रतिशत रह गई है, जो वर्ष 2011-12 में 27.1 फीसदी थी। रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार भारत ने लगभग एक दशक से कुछ कम समय में 27 करोड़ लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकाला है, जो पैमाने और गति के मामले में उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक उपलब्धि कही जा सकती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने शासन के ग्यारह स्वर्णिम वर्षों में गरीबी को कम करने के लिए सामूहिक कार्रवाई की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है, गरीबों के संघर्षों और उनकी चिंताओं को सुनकर, उन्हें गरीबी से बाहर आने में मदद करके और अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करके उन्होंने गरीब उन्मूलन की योजनाओं को जमीन पर उतारा है। मोदी सरकार ने गरीबी में रहने वाले लोगों और व्यापक समाज के बीच समझ और संवाद को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा है। उनकी दृष्टि में गरीबी को खत्म करना सिर्फ़ गरीबों की मदद करना नहीं है – बल्कि हर महिला और पुरुष को सम्मान के साथ जीने का मौका देना है।
    विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चलाई जा रही सरकारी पहलों, तेज आर्थिक सुधारों और जरूरी सेवाओं तक सबकी पहुंच का ही यह नतीजा है कि गरीबी दिन-ब-दिन तेजी से घट रही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार रोजगार में वृद्धि हुई है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। भारत ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में भी जबरदस्त प्रगति की है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) 2005-06 में 53.8 प्रतिशत से घटकर 2019-21 में 16.4 प्रतिशत और 2022-23 में 15.5 प्रतिशत हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को गरीबी से उबारने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण कदमों और सशक्तीकरण, बुनियादी ढांचे और समावेशन पर फोकस पर प्रकाश डाला। प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, जन-धन योजना और आयुष्मान भारत जैसी पहलों ने आवास, स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन, बैंकिंग और स्वास्थ्य सेवा तक उनकी पहुंच को बढ़ाया है।
    डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर (डीबीटी), डिजिटल समावेश और मजबूत ग्रामीण बुनियादी ढांचे ने अंतिम जन तक लाभों की पारदर्शिता और तेज वितरण सुनिश्चित किया है। इससे 25 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी पर पार पाने में मदद मिली है। मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को संबल और आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं और उनका बेहतर क्रियान्वयन किया है। अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या 34.44 करोड़ से घटकर 7.52 करोड़ रह गई है। पूरे भारत में अत्यधिक गरीबी को कम करने में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है, जिसमें प्रमुख राज्यों ने गरीबी में कमी लाने और समावेशी विकास को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पांच बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और बंगाल में 2011-12 में देश के 65 फीसदी अत्यंत गरीब लोग थे। इन पांच राज्यों ने ही 2022-23 तक गरीबी कम करने में दो-तिहाई का योगदान दिया है।
    विश्व बैंक ने पाकिस्तान को आईना दिखाते हुए भारत से गरीबी उन्मूलन की योजनाओं एवं सोच से प्रेरणा लेने की बात कही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान की 45 प्रतिशत आबादी गरीबी में है। भारत की गरीबी दर 5.3 प्रतिशत और पाकिस्तान की 42.4 प्रतिशत है। इसका सबसे बड़ा कारण पाक अपना सारा ध्यान आतंकवाद एवं आतंकवादियों के पोषण पर देता है, गरीबी दूर करना उसकी योजनाओं एवं नीतियों में दूर-दूर तक नहीं है। इसीलिये भारत ने वैश्विक मंचों पर पाक पर यह आरोप भी लगाया है कि वह अंतरराष्ट्रीय सहायता का दुरुपयोग आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए कर रहा है। भारत ने विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे संस्थानों से अनुरोध किया है कि वे पाक को दी जाने वाली सहायता की समीक्षा करें, क्योंकि इसका उपयोग आम लोगों के कल्याण के बजाय सैन्य खर्च और आतंकवादी गतिविधियों में हो रहा है। हाल के पाहलगाम हमले के बाद भारत ने इस मुद्दे को और जोरदार तरीके से उठाया, जिसमें उसने पाक के सैन्य बजट में 18 प्रतिशत वृद्धि और सामाजिक कल्याण पर कम खर्च को उजागर किया। गरीबी किसी व्यक्ति के मानवाधिकारों का हनन है। यह न केवल अभाव, भूख और पीड़ा का जीवन जीने की ओर ले जाती है, बल्कि मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं के आनंद का भी बड़ा अवरोध है। पाक में यही स्थितियां देखने को मिल रही है।
    आजादी के अमृत काल में सशक्त भारत एवं विकसित भारत को निर्मित करते हुए गरीबमुक्त भारत के संकल्प को भी आकार दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार ने वर्ष 2047 के आजादी के शताब्दी समारोह के लिये जो योजनाएं एवं लक्ष्य तय किये हैं, उनमें गरीबी उन्मूलन के लिये भी व्यापक योजनाएं बनायी गयी है। विगत ग्यारह वर्ष एवं मोदी के तीसरे कार्यकाल में ऐसी गरीब कल्याण की योजनाओं को लागू किया गया है, जिससे भारत के भाल पर लगे गरीबी के शर्म के कलंक को धोने के सार्थक प्रयत्न हुए है एवं गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालों को ऊपर उठाया गया है। निश्चित रूप से इस उपलब्धि में विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों मसलन आर्थिक विकास और ग्रामीण रोजगार योजनाओं की बड़ी भूमिका रही है। निस्संदेह, इसने सबसे गरीब तबके के लोगों की आय बढ़ाने में मदद की है। निश्चित रूप से सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण, बिजली, शौचालयों और आवास तक इस तबके की पहुंच बढ़ाने जैसी पहल ने ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत में जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने में योगदान दिया है। लेकिन जहां हम गरीबी उन्मूलन में मिली सफलता पर आत्ममुग्ध हैं तो वहीं समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता हमारी चिंता का विषय होना चाहिए। गरीबी-अमीरी के बीच के बढ़ते फासले को कम करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। पिछले साल जारी की गई विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि भारत में शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की संपत्ति में बड़ा उछाल आया है। वे लोग देश की चालीस फीसदी संपत्ति नियंत्रित करते हैं।
    भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या, कमजोर कृषि, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादी सोच, जातिवाद, अमीर-गरीब में ऊंच-नीच, नौकरी की कमी, अशिक्षा, बीमारी आदि हैं। एक आजाद मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में गरीबी रेखा नहीं होनी चाहिए। अब तक यह रेखा उन कर्णधारों के लिए शर्म की रेखा बनी रही है, जिसको देखकर उन्हें शर्म आनी चाहिए थी। एक बड़ा प्रश्न था कि जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो अभय नहीं बना सके, वह व्यवस्था कैसी? जो इज्जत व स्नेह नहीं दे सके, वह समाज कैसा? गांधी और विनोबा ने सबके उदय एवं गरीबी उन्मूलन के लिए ‘सर्वोदय’ की बात की। लेकिन राजनीतिज्ञों ने उसे निज्योदय बना दिया था। ‘गरीबी हटाओ’ में गरीब हट गए। अब तक जो गरीबी के नारे को जितना भुना सकते थे, वे सत्ता प्राप्त कर सकते थे। लेकिन अब मोदी सरकार गरीबी उन्मूलन के लिये सार्थक प्रयत्न कर रही है। मोदी सरकार की तकनीकी प्रेरित सेवाओं में उछाल के चलते, वर्ष 2000 के बाद विकास मॉडल ने गरीब वर्ग को लाभान्वित किया है। निर्विवाद रूप से सामाजिक न्याय के लिये गरीबी कम करने के साथ, कमजोर तबकों के लिये सम्मान, समानता और नीतियों में लचीलापन जरूरी है। वास्तव में गरीबी मुक्त भारत का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब सरकार की कल्याणकारी नीतियां न केवल उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकालें, बल्कि उन्हें स्वावलंबी भी बनाएं। आर्थिक कल्याणकारी नीतियों का मकसद मुफ्त की रेवड़ियां बांटना न होकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना होना चाहिए। तभी गरीबी का कुचक्र स्थायी रूप से कम किया जा सकता है।

स्टारलिंक की भारत में एंट्री: इंटरनेट की दुनिया में क्रांति या महंगा सपना?

अशोक कुमार झा


भारत में इंटरनेट सेवा के क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू हो गया है। टेस्ला और स्पेसएक्स के मालिक और विश्व के सबसे चर्चित उद्यमियों में से एक एलन मस्क की सैटेलाइट-आधारित इंटरनेट सेवा स्टारलिंक (Starlink) को आखिरकार भारत में काम करने का आधिकारिक लाइसेंस मिल गया है। यह सेवा अब उन क्षेत्रों में भी इंटरनेट प्रदान करने की दिशा में अग्रसर है, जहां अब तक केवल डिजिटल खामोशी थी।


क्या है स्टारलिंक और कैसे करता है काम?
स्टारलिंक दरअसल एलन मस्क की अंतरिक्ष अनुसंधान कंपनी SpaceX का एक प्रोजेक्ट है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के हर कोने में इंटरनेट पहुंचाना है, खासतौर पर उन दूर-दराज़ क्षेत्रों में जहां फाइबर ऑप्टिक या मोबाइल नेटवर्क का पहुंचना संभव नहीं हो पाता।
यह सेवा Low Earth Orbit (LEO) में स्थित हजारों छोटे उपग्रहों (satellites) के जरिए संचालित होती है। ये उपग्रह पृथ्वी से मात्र 550 किलोमीटर की ऊंचाई पर लगातार चक्कर लगाते हैं और एक-दूसरे से लेजर के माध्यम से जुड़े रहते हैं। जब कोई यूजर स्टारलिंक की सेवा लेता है, तो उसे एक स्टारलिंक टर्मिनल (एक प्रकार की डिश एंटीना) मिलता है, जो सीधे इन सैटेलाइट्स से जुड़ता है और इंटरनेट डेटा को भेजता और प्राप्त करता है।
ग्राउंड स्टेशन भी बनाए जाते हैं, जो उपग्रहों से सिग्नल प्राप्त करते हैं और उसे ग्लोबल इंटरनेट सिस्टम से जोड़ते हैं। इस पूरी प्रणाली के चलते स्टारलिंक बिना किसी फाइबर या केबल के – केवल खुले आकाश के सहारे – इंटरनेट सेवा प्रदान करता है।


 स्टारलिंक की प्रमुख खूबियां

1.  दूर-दराज़ क्षेत्रों में भी कनेक्टिविटी:
भारत जैसे विशाल और विविध भौगोलिक परिस्थितियों वाले देश में, जहां कई गांव अभी भी डिजिटल डिवाइड के शिकार हैं, वहां स्टारलिंक क्रांतिकारी साबित हो सकता है।

2.  उच्च स्पीड और लो लेटेंसी:
स्टारलिंक की स्पीड 100–200 Mbps तक होती है और इसकी लेटेंसी (ping) भी अपेक्षाकृत कम है, जिससे यह गेमिंग, वीडियो कॉलिंग और हाई-स्पीड डाउनलोडिंग के लिए उपयुक्त है।

3.  तेज़ डिप्लॉयमेंट:
जहां पारंपरिक इंटरनेट कंपनियों को नेटवर्क बिछाने में महीनों या सालों लग जाते हैं, वहां स्टारलिंक कुछ ही घंटों में सेवा चालू कर सकता है – बशर्ते टर्मिनल इंस्टॉल हो जाए।

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 क्या हैं स्टारलिंक की चुनौतियाँ?

1.  उच्च लागत:
स्टारलिंक की सबसे बड़ी चुनौती इसकी कीमत है। एक टर्मिनल किट की कीमत ₹60,000 से ₹80,000 तक हो सकती है और मासिक शुल्क ₹6,000 से ₹8,000 तक जा सकता है जो कि एक आम भारतीय उपभोक्ता के बजट से बाहर है।

2.  मौसम पर निर्भरता:
खराब मौसम – विशेष रूप से भारी बारिश या तूफान – के दौरान कनेक्टिविटी प्रभावित हो सकती है क्योंकि यह तकनीक साफ आसमान पर निर्भर करती है।

3.  भीड़भाड़ वाले इलाकों में सीमित प्रदर्शन:
जहां अधिक यूजर्स होंगे, वहां स्पीड में गिरावट आ सकती है क्योंकि बैंडविड्थ शेयर हो जाती है।

 क्या भारतीय कंपनियों के लिए स्टारलिंक खतरा है?
इस समय भारतीय इंटरनेट कंपनियाँ – जैसे जियो, एयरटेल और वीआई – फिलहाल स्टारलिंक से ज़्यादा चिंतित नहीं हैं। इसकी वजहें साफ हैं:

·  मध्यम वर्ग की प्राथमिकता: भारतीय कंपनियों की सेवाएं किफायती हैं और उन्होंने शहरी और ग्रामीण बाजारों में व्यापक नेटवर्क फैला रखा है। उनके पैकेज ₹500 से भी कम में उपलब्ध हैं, जबकि स्टारलिंक की सेवाएं अभी लग्ज़री कैटेगरी में आती हैं।

·  स्थानीय प्रतिस्पर्धा की तैयारी:
जियो और एयरटेल दोनों ही सैटेलाइट-आधारित इंटरनेट सेवा लाने की तैयारी में हैं। जियो ने तो अपना “जियो-सैट” प्रोजेक्ट लॉन्च कर भी दिया है, जिससे जाहिर है कि भारतीय कंपनियां सतर्क हैं और मुकाबले के लिए तैयार भी।

·  नीतिगत और नियामकीय फायदा:
स्थानीय कंपनियों को भारत सरकार के नियमों और नीतियों का बेहतर अनुभव है, जबकि स्टारलिंक को अभी कई चरणों से गुजरना होगा – स्पेक्ट्रम परीक्षण, लाइसेंस विस्तार, और सुरक्षा अनुमतियाँ।

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 ग्राहकों को क्या होगा फायदा?
 गांवों और सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए वरदान:
झारखंड, छत्तीसगढ़, लद्दाख, अरुणाचल जैसे राज्यों के दुर्गम इलाकों में जहां आज भी बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल नेटवर्क के इंतज़ार में पेड़ों पर चढ़ते हैं, वहां स्टारलिंक उम्मीद की किरण बन सकता है।
 आपदा प्रबंधन में उपयोगी:
बाढ़, भूकंप या अन्य आपदा की स्थिति में जब सामान्य नेटवर्क बंद हो जाते हैं, वहां स्टारलिंक जैसी सैटेलाइट सेवाएं त्वरित कम्युनिकेशन का जरिया बन सकती हैं।
 सीमावर्ती और सैन्य उपयोग:
भारतीय सेना और सुरक्षा एजेंसियों के लिए भी यह तकनीक विशेष महत्व रखती है क्योंकि यह दुर्गम और शत्रु-संवेदनशील क्षेत्रों में निर्बाध संचार की सुविधा देती है।


 भविष्य की तस्वीर कैसी हो सकती है?
एलन मस्क का कहना है कि जैसे-जैसे सब्सक्राइबर्स की संख्या बढ़ेगी, वे सेवा की लागत को घटा देंगे। यदि ऐसा होता है तो आने वाले वर्षों में स्टारलिंक भारत के डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर को नया आयाम दे सकता है।
भारत सरकार भी डिजिटल समावेश (Digital Inclusion) को बढ़ावा देने के लिए नई तकनीकों को सहयोग देने के पक्ष में है। ऐसे में यदि सब कुछ योजना के अनुसार चलता है, तो आने वाले दशक में भारत के हर गांव में आकाश से इंटरनेट उतरता दिखाई दे सकता है।
स्टारलिंक भारत के लिए “मेक इन इंडिया” की चुनौती भी है और “डिजिटल इंडिया” का अवसर भी। यह सेवा अगर सस्ती होती है और स्थानीय ज़रूरतों के मुताबिक ढाली जाती है, तो यह न केवल भारत के लाखों गांवों को इंटरनेट से जोड़ सकती है, बल्कि एक नई डिजिटल क्रांति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
 लेकिन फिलहाल यह सेवा आम भारतीय की पहुंच से बाहर है। आने वाला वक्त बताएगा कि स्टारलिंक “इंटरनेट का भविष्य” बनती है या सिर्फ एक चमकता हुआ सपना ही रह जाती है।

अशोक कुमार झा

महाकुंभ 2025 ने पहुंचाया भारत को चौथी अर्थव्यवस्था में

पंकज जायसवाल

भारत ने एक ऐतिहासिक छलांग लगाते हुए जापान को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा प्राप्त किया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत की GDP अब $4.19 ट्रिलियन तक पहुँच चुकी है। यह उपलब्धि कई वर्षों की नीति, प्रयास और विशेषतः महाकुंभ 2025 जैसे असाधारण आयोजनों का परिणाम है। भारत को चौथी अर्थव्यवस्था तक पहुंचाने में कुंभ ने मारा है निर्णायक छक्का। भारत और जापान के बीच चौथे स्थान की होड़ पिछले दो वर्षों से जारी थी। लेकिन वर्ष 2025 में प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ ने वह ‘आर्थिक छक्का’ मारा जिसने भारत को जापान से ऊपर कर दिया। इस आयोजन में अनुमानित 4 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष और परोक्ष व्यय हुआ जिसने हर सेक्टर खुदरा, परिवहन, हॉस्पिटैलिटी, स्वास्थ्य, डिजिटल सेवाओं, MSME, FMCG आदि में खपत और मांग को तेज कर दिया। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था में उसी तरह ऊर्जा भरी जैसे युद्धकाल में किसी देश की अर्थव्यवस्था को युद्धकालीन उत्पादन उठाता है। परिणामस्वरूप, वित्त वर्ष 2024-25 की GDP अपेक्षा से लगभग 1% अधिक रही और IMF को अपने अनुमान संशोधित करने पड़े। अगर यह आयोजन न हुआ होता तो शायद भारत कुछ अंकों से पीछे रह जाता और हम अभी भी पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होते।

कुंभ 2025 ने अर्थव्यवस्था में तात्कालिक माँग का इंजेक्शन भर मंदी की आशंका से भारत को दूर रखा. करोड़ों श्रद्धालुओं के आने-जाने, रहने, खाने, खरीदारी, चिकित्सा और डिजिटल लेन-देन से अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर एक जबरदस्त मांग-आधारित बूस्ट मिला। अस्थायी नहीं, संरचनात्मक विकास हुआ. कुंभ की तैयारियों के अंतर्गत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जो इंफ्रास्ट्रक्चर विकास (सड़कों, पुलों, डिजिटल कनेक्टिविटी, गंगा सफाई, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स) किया गया, वह आयोजन के बाद भी देश को लाभ देता रहेगा। सनातन अर्थशास्त्र की बेहतर समझ और योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व ने इस सूत्र की नब्ज पकड़ी और आस्था और अर्थव्यवस्था का संगम कराया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस दूरदृष्टि, सुशासन और व्यवस्थापन के साथ महाकुंभ का आयोजन कराया, उसने भारत ही नहीं, विश्व को दिखाया कि धार्मिक आस्था और आर्थिक उन्नति एक साथ कैसे चल सकते हैं। दुनिया ने सनातन अर्थशास्त्र के रूप में सनातन संस्कृति की अर्थशास्त्रीय शक्ति को देखा। कुंभ जैसे आयोजन भारत की उत्सवधर्मी संस्कृति का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ऐसे आयोजन उपभोग आधारित माँग उत्पन्न करते हैं और अर्थव्यवस्था को सतत गति में बनाए रखते हैं।

भारत की चोटी की इस चढ़ाई में महाकुंभ के साथ साथ मुख्य और तीन स्तंभ हैं. पहला स्तम्भ भारत सरकार की नीति और नेतृत्व। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, UPI, GST, इंफ्रास्ट्रक्चर पुश (PM गतिशक्ति, भारतमाला, सागरमाला, उड़ान योजना) ने भारत की उत्पादकता और व्यापार में नई जान फूंकी। अब भारत में बेचने के लिए निर्यात नहीं करना था उसे भारत में ही बनाना था जिससे आयात बिल और विदेशी मुद्रा खर्च में बचत तो हुई ही घरेलू उत्पादन बढ़ गया. इंफ्रास्ट्रक्चर पुश ने वैसा ही काम किया जैसे शरीर को खड़ा करने के लिए एक ढांचे की और रक्त को पहुंचाने के लिए रक्त धमनियां करती हैं. जैसे अगर यह दोनों रहेंगे तो ही शरीर रहेगा वैसा ही देश को खड़ा करने के लिए बुनियादी ढांचे और रक्त धमनी रूपी सप्लाई चेन इंफ़्रा की जरुरत होती है. मोदी सरकार ने दोनों मोर्चो पर काम किया. पीएम गतिशक्ति ने देश की गति को शक्ति दी, एयरवेज, हाइवेज, वाटरवेज, कार्गो इंफ़्रा में भारतमाला सागरमाला उड़ान योजना पर मोदी सरकार ने खूब काम किया, वहीं नितिन गडकरी ने अपने विज़न और अनुभव से बुनियादी ढांचे के निर्माण में एक बड़ी लकीर खींच कर इंफ़्रा में क्रांति लाया. इन कामों से संसाधनों निवेश एवं अवसर का समान रूप से वितरण देश में संभव हो पाया.

दूसरा स्तंभ भारत की बड़ी आबादी जो अफ्रीकन देशों की तरह दायित्व ना होकर सम्पत्ति है.ऐसी आबादी रुपी संपत्ति दुनिया के किसी देश के पास नहीं है चीन को छोड़कर. आज भारत की युवा आबादी उत्पादन, उपभोग और नवाचार की धुरी बन चुकी है। आयुष्मान भारत, स्किल इंडिया और पीएम विश्वकर्मा जैसी योजनाओं ने इसे और सक्षम किया है। ऊपर से भारत की इस आबादी और इसमें रचे बने इकॉनमी का मूल चरित्र उत्सवधर्मी है और तमाम पर्व, त्यौहार, उत्सव शादी ब्याह के आयोजन इकॉनमी में एक उत्प्रेरक के रूप में काम करते हैं और देश को हमेशा ही मंदी की आशंका से बाहर निकाल देते हैं. इन आयोजनों से बाजार में मांग हमेशा बनी रहती है और समाज और इकॉनमी ठहरती नहीं गतिशील रहती है. तीसरा स्तंभ है भारत का विकास दर. भारत की विकास दर अपने विकास के प्रतिद्वंदी देशों से कहीं आगे है. मुद्रा कोष  आंकड़ों के अनुसार निकटतम प्रतिद्वंदी चीन ही काफी पीछे चार की विकास दर लिए हुआ है. तीसरी इकॉनमी वाले जर्मनी की विकास दर तो नगण्य है, अमेरिका की 1.8, जापान की 0.6 तो यूनाइटेड किंगडम की 1.1 है. ये दूर दूर तक भारत को टक्कर देने की स्थिति में नहीं है. उपरोक्त आर्थिक ढांचे और उत्पादकीय आबादी और देश के सनातन अर्थशास्त्र चरित्र के साथ अगर विकास दर का गुणक मिल रहा है तो उस देश को ऊंची छलांग लगाने से कोई नहीं रोक सकता.

भारत का अगला लक्ष्य अब तीसरे स्थान की ओर बढ़ना है. अब भारत से आगे केवल तीन देश हैं जर्मनी, चीन, और अमेरिका। जर्मनी को पार करना संभव है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या, खपत, और विकास दर तीनों ही भारत से कम हैं लेकिन चीन और अमेरिका को पीछे छोड़ने के लिए दो रणनीतिक प्रयास आवश्यक हैं. इसके  लिए स्वदेशी को राष्ट्रीय आंदोलन बनाना पड़ेगा। सरकार WTO नियमों के कारण स्वदेशी को प्रोत्साहित नहीं कर सकती लेकिन यदि नागरिक स्वेच्छा से चीनी और अमेरिकी उत्पादों की जगह भारतीय उत्पाद अपनाएँ तो इसका GDP पर जबरदस्त असर पड़ेगा। दूसरा रणनीतिक प्रयास रिसर्च और पेटेंट पर ध्यान है. भारत को अपनी कंपनियों को नवाचार आधारित बनाना होगा ताकि वे ग्लोबल प्रीमियम चार्ज कर सकें। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था ही भारत को अमेरिका के बराबर ला सकती है।

इस विमर्श का निष्कर्ष यही है कि भारत का सनातन अर्थशास्त्र चरित्र और इसकी उत्सवधर्मिता केवल आस्था ही नहीं, आर्थिक शक्ति भी है और महाकुंभ 2025 ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि भारत की सनातन परंपराएं केवल संस्कृति नहीं, आर्थिक विकास की चुपचाप ताकत हैं। अगर देश उत्सव आधारित आर्थिक योजना बनाकर उन्हें और व्यापक बनाता है तो भारत जल्द ही विकसित राष्ट्र बन सकता है।

पंकज जायसवाल

जाति जनगणना: गिनती नहीं, पहचान 

सचिन त्रिपाठी

भारत केवल एक भूगोल नहीं है। यह संवेदनाओं, विविधताओं, संघर्षों और चेतनाओं की जीवित भूमि है। यहां हर नदी की धारा, हर पर्वत की छाया, हर गांव की मिट्टी में एक कथा छिपी है  और इन सब कथाओं को जोड़ने वाली जो सबसे महीन और गहरी रेखा है, वह है जाति।

जाति  यह शब्द जितना साधारण दिखता है, उतना ही जटिल है इसकी गुत्थी। यह किसी व्यक्ति के नाम के साथ चलती है, कभी उसके आगे तो कभी उसके पीछे, परंतु उससे अलग कभी नहीं होती। यह उसके खाने, पहनने, बोलने, चलने, बैठने, यहां तक कि स्वप्न देखने के अधिकार को भी निर्धारित करती है। ऐसे में अगर कोई कहे कि भारत को जाति जनगणना की आवश्यकता नहीं, तो यह वैसा ही होगा जैसे कोई आंखें मूंदकर सूरज को नकार दे। जातियों की गणना कोई नया विचार नहीं है। ब्रिटिश भारत में 1931 में अंतिम बार व्यापक जातिवार जनगणना हुई थी। उसके बाद भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान बना, लोकतंत्र आया, लेकिन जातियों का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हुआ। वे हमारे सामाजिक व्यवहार में बनी रहीं।  किसी के आंगन की चौखट तक सीमित तो किसी के सपनों की ऊंचाई तक पहुंचने में बाधा बनीं।

इसलिए जब हम जाति जनगणना की बात करते हैं तो हम महज आंकड़ों की नहीं, बल्कि उन कहानियों की बात करते हैं जो आंकड़ों के पीछे छुपी हैं। वंचना की कहानियां, उपेक्षा की पीड़ाएं और संघर्ष की ज्वालाएं। क्या यह आवश्यक नहीं कि हम जानें, कौन-कौन से समाज अब भी अधूरे हैं? कौन-से वर्ग अब भी हाथ में पात्र लेकर अवसरों की भिक्षा मांग रहे हैं? भारत ने संविधान में वादा किया था। सबको समान अवसर मिलेगा। पर बिना यह जाने कि कौन कहां खड़ा है, यह समानता महज़ एक कविता बन जाती है सुंदर लेकिन असंभव।

जाति जनगणना उसी कविता को गद्य में बदलने का पहला कदम हो सकती थी। जब तक हमें यह न पता चले कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है, उनका आर्थिक स्तर क्या है, वे शिक्षा से कितनी दूर हैं। तब तक उनकी समस्याओं का समाधान कैसे संभव है? मान लीजिए, एक गांव में पांच जातियां हैं। एक ऊंची जाति, जो वर्षों से सब संसाधनों पर अधिकार रखती आई है, और चार वे जो छाया बनकर जीती रही हैं। यदि सबको समान रूप से योजनाएं दी जाएँ, तो क्या यह वास्तव में न्याय होगा? जाति जनगणना एक ऐसी दृष्टि प्रदान करती जिससे योजनाएं अंधेरे में तीर चलाने के बजाय सटीक निशाने पर उतरतीं।

भारतीय लोकतंत्र जाति से अनभिज्ञ नहीं है। हर चुनाव, हर टिकट, हर नारा कहीं न कहीं जाति की गणित में उलझा रहता है। राजनीतिक दल जब ‘बहुजन हिताय’ की बात करते हैं, तो उनका गणना तंत्र जातियों के अनुमानों पर आधारित होता है, न कि ठोस आंकड़ों पर। अगर जाति जनगणना होती, तो इस अनुमान का स्थान ज्ञान ले लेता। कौन जातियां अभी भी प्रतिनिधित्व से दूर हैं? किन्हें बार-बार सत्ता में हिस्सेदारी मिली और किन्हें केवल नारे? यह जानना आवश्यक है।

बिहार द्वारा 2023 में किये गए जातीय सर्वेक्षण से जब यह सामने आया कि राज्य की 84 प्रतिशत आबादी ओबीसी, ईबीसी और एससी एसटी में आती है, तो मानो समाज ने खुद को आईने में देखा। ऐसा ही आईना पूरे देश के सामने भी आ सकता था, अगर जाति जनगणना राष्ट्रस्तर पर की जाती। कुछ लोग यह आशंका प्रकट करते हैं कि जाति जनगणना से समाज में विघटन बढ़ेगा, जातीय पहचान और मजबूत होगी। यह तर्क सतही रूप से आकर्षक लगता है पर गहराई में देखें तो यह वैसा ही है जैसे कोई यह कहे कि बीमारी की जांच से बीमारी बढ़ जाती है।

सच तो यह है कि जाति की मौन उपस्थिति से ही अन्याय जन्म लेता है। जब तक जाति की गिनती नहीं होगी, तब तक जाति का शोषण छिपा रहेगा। जनगणना से यह छिपा हुआ अन्याय उजागर होगा और तभी सच्चे समाधान की दिशा तय होगी। भारत जातियों का संगम है। कोई महानदी है, कोई सूखी नाली, कोई समुद्र जैसा गहरा, तो कोई झील-सा शांत। पर हर प्रवाह में जीवन है, हर बूंद में अधिकार है। जाति जनगणना उस जीवन की माप थी, उस अधिकार की पहचान थी। यह केवल आंकड़े नहीं, यह आत्मस्वीकृति थी। यह स्वीकार करना था कि हमारी विविधता ही हमारी शक्ति है, और हर समुदाय, चाहे वह कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, वह इस राष्ट्र की गरिमा का हिस्सा है।

जाति जनगणना भारत के लिए एक दर्पण होगी, एक ऐसा दर्पण, जो हमें हमारा असली चेहरा दिखायेगा । शायद कुछ चेहरों पर धूल हो, कुछ पर घाव परंतु इन सबको देखकर ही तो हम उन्हें धो सकते हैं और भर सकते हैं । शायद इसीलिए, जाति जनगणना भारत के लिए ज़रूरी है , बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी आत्मा को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए एक गहरी सांस जरूरी होती है।

सचिन त्रिपाठी

मोबाइल पर बजने वाला आरबीआई का संदेश बन रहा परेशानी का कारण

-संदीप सृजन

भारतीय रिज़र्व बैंक देश की वित्तीय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो मौद्रिक नीतियों को लागू करने, मुद्रा प्रबंधन और वित्तीय जागरूकता बढ़ाने जैसे कार्यों के लिए जाना जाता है। हाल के वर्षों में, आरबीआई ने जनता को साइबर धोखाधड़ी और वित्तीय अपराधों के प्रति जागरूक करने के लिए कई अभियान शुरू किए हैं। इनमें से एक अभियान में बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज का उपयोग किया गया, जिसका उद्देश्य लोगों को साइबर ठगी से बचाने के लिए जागरूक करना है। 

जब भी हम किसी नंबर पर कॉल करते हैं, तो कॉल कनेक्ट होने से पहले अमिताभ बच्चन की आवाज में एक संदेश सुनाई देता है, जिसमें साइबर धोखाधड़ी से बचने की सलाह दी जाती है। संदेश में आमतौर पर यह बताया जाता है कि कोई भी बैंक या वित्तीय संस्थान व्यक्तिगत जानकारी जैसे ओटीपी, पासवर्ड, या बैंक खाता विवरण नहीं मांगता। साथ ही, यह लोगों को संदिग्ध लिंक्स पर क्लिक करने या अनजान कॉल्स का जवाब देने से मना करता है। यह संदेश विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है, ताकि देश के हर हिस्से में लोग इसे समझ सकें। लेकिन, यह संदेश, जो मोबाइल फोनों पर कॉलर ट्यून के रूप में बजता है, कुछ लोगों के लिए परेशानी का कारण बन गया है। क्योंकि यह संदेश हर बार कॉल करने पर बार-बार सुनाई देता है, जिससे कुछ उपयोगकर्ताओं को असुविधा होने लगी। विशेष रूप से, वे लोग जो दिन में कई बार कॉल करते हैं, जैसे कि व्यवसायी, पेशेवर, या ग्राहक सेवा से जुड़े कर्मचारी, इस संदेश को सुनकर थकान और चिड़चिड़ापन महसूस करने लगे।

लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि यह संदेश हर कॉल के साथ दोहराया जाता है। भले ही संदेश महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे बार-बार सुनना कुछ लोगों के लिए कष्टप्रद हो सकता है। विशेष रूप से, आपातकालीन स्थिति में, जब कोई तुरंत कॉल कनेक्ट करना चाहता है, यह संदेश देरी का कारण बन सकता है। हालांकि संदेश संक्षिप्त है, फिर भी यह 10-15 सेकंड तक चलता है। बार-बार कॉल करने वालों के लिए यह समय भी काफी लंबा लगता है। जो कि उनके समय को बर्बाद करता है।

अमिताभ बच्चन की आवाज, जो सामान्य रूप से प्रेरक और आकर्षक मानी जाती है, इस संदर्भ में कुछ लोगों को चेतावनी देने वाली या डरावनी लग सकती है। बार-बार एक ही संदेश सुनने से कुछ उपयोगकर्ताओं में तनाव या बेचैनी की भावना उत्पन्न हो सकती है। कुछ मामलों में, कॉलर ट्यून के कारण कॉल कनेक्ट होने में देरी होती है, जिससे उपयोगकर्ताओं को लगता है कि उनकी कॉल ठीक से काम नहीं कर रही। यह तकनीकी असुविधा उन लोगों के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाली है जो कमजोर नेटवर्क क्षेत्रों में रहते हैं।

आरबीआई ने इस अभियान को लागू करने के लिए टेलीकॉम कंपनियों के साथ साझेदारी की है। जियो, एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया जैसी प्रमुख टेलीकॉम कंपनियों ने इस संदेश को अपने नेटवर्क पर कॉलर ट्यून के रूप में लागू किया। हालांकि, टेलीकॉम कंपनियों ने उपयोगकर्ताओं को इस संदेश को बंद करने का कोई विकल्प नहीं दिया है, जिससे असंतोष बढ़ा है। कुछ उपयोगकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इस संदेश को वैकल्पिक किया जाए, ताकि जो लोग इसे सुनना न चाहें, वे इसे बंद कर सकें।

टेलीकॉम कंपनियों को उपयोगकर्ताओं को यह विकल्प देना चाहिए कि वे इस संदेश को सुनना चाहते हैं या नहीं। एक साधारण सेटिंग के माध्यम से उपयोगकर्ता इसे अक्षम कर सकते हैं। हर कॉल पर संदेश बजाने के बजाय, इसे दिन में एक निश्चित संख्या तक सीमित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, दिन में पहली कुछ कॉलों पर ही यह संदेश बजे। संदेश को और संक्षिप्त किया जा सकता है ताकि यह उपयोगकर्ताओं के लिए कम कष्टप्रद हो। आरबीआई को जागरूकता बढ़ाने के लिए अन्य माध्यमों, जैसे सोशल मीडिया, टीवी विज्ञापन, या एसएमएस अभियानों पर भी ध्यान देना चाहिए। इससे कॉलर ट्यून पर निर्भरता कम होगी।

आरबीआई और टेलीकॉम कंपनियों को उपयोगकर्ताओं की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिए और इस अभियान को और उपयोगकर्ता-अनुकूल बनाने के लिए उपाय करने चाहिए। जागरूकता और सुविधा के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है ताकि यह अभियान अपनी प्रभावशीलता बनाए रखे और साथ ही उपयोगकर्ताओं की असुविधा को कम करे। अमिताभ बच्चन की आवाज, जो पहले पोलियो उन्मूलन जैसे अभियानों में चमत्कार कर चुकी है, इस अभियान में भी सकारात्मक बदलाव ला सकती है, बशर्ते इसे सही दिशा में लागू किया जाए।

संदीप सृजन

भारतीय इंजीनियरिंग का अनोखा, नायाब नमूना है चिनाब ब्रिज 

हाल ही में हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर को चिनाब पुल का उद्घाटन करके एक बड़ी सौगात दी है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि यह(चिनाब पुल) दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे पुल है। 6 जून 2025 को चिनाब पुल का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी ट्रैक पर बने अंजी ब्रिज का भी लोकार्पण किया। ये देश का पहला ऐसा रेलवे ब्रिज(पुल) है जो केबल स्टेड तकनीक पर बना है। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि यह पुल नदी तल से 331 मीटर की ऊंचाई पर बना है। 1086 फीट ऊंचा एक टावर इसे सहारा देने के लिए बनाया गया है, जो करीब 77 मंजिला बिल्डिंग जितना ऊंचा है।यह ब्रिज अंजी नदी पर बना है, जो रियासी जिले के कटरा को बनिहाल से जोड़ता है। चिनाब ब्रिज से इसकी दूरी महज 7 किमी है। इस पुल की लंबाई 725.5 मीटर है।इसमें से 472.25 मीटर का हिस्सा केबल्स पर टिका हुआ है।

गौरतलब है कि यह ऐतिहासिक पुल न सिर्फ कश्मीर घाटी को पूरे भारत से जोड़ेगा, बल्कि क्षेत्र में व्यापार, पर्यटन और औद्योगिक विकास को भी नई गति देगा। बहरहाल, पुल के उद्घाटन के दौरान् प्रधानमंत्री ने कटरा और श्रीनगर को जोड़ने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। पाठकों को बताता चलूं कि इस ट्रेन के जरिये जम्मू से श्रीनगर का रास्ता केवल 3 घंटे का रह जाएगा। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह जम्मू-कश्मीर में 46 हजार करोड़ की परियोजना है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर को दो नई वंदे भारत ट्रेनें मिलने तथा जम्मू में नए मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास होने से जम्मू और कश्मीर के विकास को नई गति मिल सकेगी। यह काबिले-तारीफ है कि अब वादिए कश्मीर भारत के रेल नेटवर्क से जुड़ गई है। बहरहाल, यदि हम यहां पर चिनाब पुल की बात करें तो यह ब्रिज, दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे आर्च ब्रिज है।चिनाब रेलवे ब्रिज को बनाने में भले ही 22 साल लगे हो, लेकिन अब इसके शुरू होने के बाद कश्मीर घाटी और जम्मू के बीच सीधा रेल रास्ता बन जाएगा। यह पहली बार होगा जब लोग कन्याकुमारी से सीधे ट्रेन के जरिए कश्मीर घाटी तक जा सकेंगे।वास्तव में चिनाब ब्रिज एक स्टील और कंक्रीट से बना आर्च ब्रिज है, जो रियासी जिले के बक्कल और कौरी गांवों को जोड़ता है और ये ब्रिज चिनाब नदी के ऊपर बना है। इसकी खासियत यह है कि ये नदी के तल से 359 मीटर (लगभग 1,178 फीट) ऊंचा है। यानी यह पेरिस के मशहूर एफिल टॉवर से 35 मीटर और दिल्‍ली की कुतुब मीनार से करीब 5 गुना ऊंचा यानी कि  287 मीटर ऊंचा है। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि 272 किलोमीटर लंबे इस रेल मार्ग में 1315 मीटर(करीब 4314 फीट) का यह ब्रिज उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेलवे लिंक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। पाठकों को बताता चलूं कि इस पुल का निर्माण 1486 करोड़ की लागत से किया गया है तथा यह 266 किमी प्रति घंटे तक की हवा की गति का सामना कर सकता है। साथ ही, यह ब्रिज भूकंपीय क्षेत्र पांच में स्थित है और रिक्टर स्केल पर 8 तीव्रता के भूकंप को सहने में सक्षम है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि इस ब्रिज की नींव 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रखी थी तथा इसके निर्माण में 22 साल लगे और इसकी अनुमानित उम्र 120-125 साल से अधिक है।चिनाब रेल ब्रिज की डिजाइन और तकनीकी(इंजीनियरिंग) विशेषताओं ने इसे दुनियाभर में चर्चा का विषय बना दिया है और यह पुल तकनीक के क्षेत्र में भारत के सामर्थ्य को बखूबी दिखाता है। जानकारी के मुताबिक, इस ब्रिज को बनाने में 28,660 से 30,000 मीट्रिक टन स्टील का इस्‍तेमाल किया गया है। इसके साथ ही 46,000 क्यूबिक मीटर कंक्रीट का भी यूज हुआ है। साथ ही 6 लाख से ज्‍यादा बोल्‍ट भी यूज किए गए हैं। यह काबिले-तारीफ है कि इस पुल को बनाने में नदी के प्रवाह को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है, नदी में कोई पिलर नहीं है, बल्कि इसे आर्च तकनीक(जैसा कि ऊपर जानकारी दे चुका हूं)से बनाया गया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसे 40 टन टीएनटी के बराबर विस्फोट सहने के लिए डिजाइन किया गया है तथा साथ ही इसमें खास पेंट का इस्तेमाल किया गया है, जो इसे 20 साल तक जंग से बचाएगा। पाठकों को बताता चलूं कि वास्तव में इस पुल को किसी हमले से बचने के लिए ब्लास्ट प्रूफ स्टील से तैयार किया गया है।इस ब्रिज के निर्माण में डीआरडीओ की अचूक प्लानिंग शामिल रही है।इसे बनाने के लिए उत्तर रेलवे के साथ कोंकण, अफकान और केआरसीएल ने काम किया। इसके साथ ही भारतीय भौगोलिक सर्वेक्षण जैसी संस्थाएं भी जुड़ी रहीं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसमें आईआईटी रूड़की और आईआईटी दिल्ली ने भी अपना योगदान दिया है। पुल के निर्माण में 28,660 मीट्रिक टन स्टील का इस्तेमाल हुआ है। इतना ही नहीं,पुल में ऐसी तकनीक स्थापित की गई है कि कोई भी खतरा होने पर वार्निंग अलार्म खुद ही बजने लगेगा। पाठकों को बताता चलूं कि पुल में 112 सेंसर लगाए गए हैं, जो हवा की गति, टेंपरचर और कंपन आदि की जानकारी देंगे। ये न केवल एक रेलवे पुल है, बल्कि यह जम्मू-कश्मीर को हर मौसम में देश से जोड़ने का एक मजबूत माध्यम भी है। स्वयं प्रधानमंत्री ने इस पर यह बात कही है कि -‘अब लोग चिनाब ब्रिज के जरिए कश्मीर देखने तो जाएंगे ही, साथ ही ये ब्रिज भी अपने आप में एक आकर्षक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनेगा। चिनाब ब्रिज हो या फिर आंजी ब्रिज ये जम्मू-कश्मीर की समृद्धि का जरिया बनेंगे। इससे टूरिज्म तो बढ़ेगा ही इकोनॉमी के दूसरे सेक्टर्स को भी लाभ होगा। जम्मू कश्मीर की रेल कनेक्टिविटी दोनों क्षेत्रों के कारोबारियों के लिए नए अवसर बनाएगी।’ इससे(चिनाब पुल से) देश की सैन्य ताकत को भी कहीं न कहीं बल मिलेगा, क्यों कि कश्मीर बर्फबारी के दिनों में भारत से कट जाता था। साथ ही कई क्षेत्रों में आपात स्थिति में सेना को अपनी मूवमेंट में इस बर्फबारी के समय काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था।अब चिनाब रेलवे ब्रिज के निर्माण से हर मौसम में कश्मीर पहुंचना सेना के लिए आसान हो जाएगा। पाठकों को बताता चलूं कि इस पुल के बारे में पाकिस्तान के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों में से एक डॉन ने यह लिखा है कि, ‘यह पुल चीन की सीमा से लगे भारत के बर्फीले क्षेत्र लद्दाख में रसद में भी क्रांति लाएगा।’ 

कहना ग़लत नहीं होगा कि चिनाब और अंजी ब्रिज के उद्घाटन के साथ जम्मू-कश्मीर ने विकास की नई राह पर कदम बढ़ाया है। ये परियोजनाएं न केवल क्षेत्र की कनेक्टिविटी को बेहतर करेंगी, बल्कि पर्यटन, व्यापार और आम लोगों की जिंदगी को भी आसान बनाएंगी। अब कश्मीर की सुंदरता और संसाधन देश-दुनिया से और भी करीब होंगे।अंत में यही कहूंगा कि चिनाब पुल भारतीय इंजीनियरिंग का एक नायाब व बड़ा तोहफा है, जिससे भारत को पाकिस्तान और चीन के खिलाफ रणनीतिक फायदे तो होंगे ही देशवासियों को इसका भरपूर फायदा मिलेगा।


सुनील कुमार महला

डॉ. रामअवतार किला : जिनकी हर पात में सेवा एवं संवेदना की झंकार हैं

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-ः ललित गर्ग :-
आप एक सेतु बन सकते हैं, जीवन-मुस्कान का, जिन्दगी बचाने वाला एवं सेवा करने वाला पुल। हम एक साथ मिलकर जीवन को बचा सकते हैं, जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर कर सकते हैं, अंधेरों के बीच रोशनी बन सकते हैं। इसी सोच के साथ ‘अक्षय सेवा’ के संयोजक डॉ. रामअवतार किला पिछले दो दशकों से जरूरतमंद मरीजों को परामर्श, दवा एवं ईलाज की सुविधाएं उपलब्ध कराने में सतत रूप से कार्यरत हैं। उनके नेतृत्व में चलाए जा रहे ‘हॉस्पिटल फूड ड्राइव’ के अंतर्गत अप्रैल 2017 से दिल्ली के प्रमुख सरकारी अस्पतालों एम्स, सफदरजंग, राममनोहर लोहिया एवं 2023 से लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के बाहर प्रतिदिन लगभग 2500 लोगों को निःशुल्क भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। डॉ. किला के नेतृत्व में गत आठ वर्षों में अब तक 70 लाख से अधिक लोगों को इस पहल के अंतर्गत भोजन वितरित किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त, एम्स पावरग्रिड विश्राम सदन सहित देश के छह अन्य शहरों पटना, लखनऊ, झज्जर आदि में रोगियों एवं उनके परिजनों के लिए 2000 से अधिक बिस्तरों की विश्राम सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है। ऋषिकेश में निर्माणाधीन ‘माधव सेवा विश्राम सदन’, जिसमें 500 बिस्तरों की व्यवस्था होगी, जो जल्द ही जनसेवा के लिए समर्पित किया जाएगा। इस तरह डॉ. किला जिन्दगियों को बचाने वाले खूबसूरत पुलों का निर्माण करते हैं। उनकी जिन्दगी की हर पात में सेवा एवं परोपकार की झंकार सुनी जा सकती है।
समय की शिला पर मान, यश, सृजन-सेवा, निष्ठा-आस्था से भरी अनूठी कहानी हैं डॉ. रामअवतार किला की। प्रख्यात समाजसेवी,, गौसेवक, कर्मयोद्धा एवं जुझारू व्यक्तित्व के धनी डॉ. किला एक प्रसिद्ध चार्टर्ड एकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी एवं कॉर्पोरेट सलाहकार हैं, जिन्होंने अपने कैरियर में वित्तीय परामर्श और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया है। मूल रूप से राजस्थान के चुरू जिले से ताल्लुक रखने वाले डॉ. किला वर्ष 1977 में उच्च अध्ययन एवं कैरियर निर्माण के उद्देश्य से दिल्ली आए। उन्होंने वर्ष 1982 में कंपनी सेक्रेटरी (सीएस) तथा 1983 में चार्टर्ड एकाउंटेंसी (सीए) की डिग्रियां प्राप्त की। वित्तीय सेवाओं के क्षेत्र में अपनी अद्वितीय व्यावसायिक दक्षता, ईमानदारी एवं दूरदर्शिता के बल पर डॉ. किला ने ‘परफेक्ट ग्रुप’ के माध्यम से कॉर्पोरेट परामर्श में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। वह वर्तमान में परफेक्ट ग्रुप के चेयरमैन हैं। इसके अतिरिक्त वे कई सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों के साथ सक्रिय भूमिका में जुड़े हुए हैं। वे समाज एवं परिवार के लिए एक प्रेरणा हैं, साहस के प्रतीक हैं, एक प्रकाश हैं और संवेदनाओं के पुंज सेवार्थी एवं परोपकारी व्यक्तित्व हैं। वक्त के अलग-अलग अवसरों पर इस दिव्य व्यक्तित्व की कहानी को सब कोई घटते हुए देख रहे हैं, एक इतिहास बनते हुए देख रहे हैं, एक सृजनात्मक जीवनगाथा को गुंथते हुए देख रहे हैं। डॉ. किला एक अनूठा एवं विलक्षण व्यक्तित्व है, जो उन्हें ठीक लगता है, वही करते हैं। वे बेचैन रहते हैं किसी के अभाव को देखकर। वे खिल उठते हैं किसी की मुस्कान को देखकर।
जैसे सूर्य की किरणें निर्ब्याज भाव से सभी को आलोकित करती है, ऊष्मा पहुंचाती है और चांद की किरणें सभी जगह फैलती है तथा सभी को अपने धवल-शीतल आगोश में सहलाती और तापमुक्त करती है, कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व है डॉ. किला का। उनके ज्ञान, सेवा और स्नेह की निर्ब्याज और सतत प्रवाहित स्रोतस्विनी में जिसे भी एक बार अवगाहन करने का सुयोग मिला, वह इस अनुभूति से कृतार्थता का अनुभव किए बिना नहीं रह सका। उनके सान्निध्य से आदमी अचानक तापमुक्त और ऊंचा अनुभव करने लगता हैं। डॉ. किला को देखकर ही मैंने जाना कि आदमी इतना बड़ा होकर भी इतना निरहंकारी, सादगीमय एवं सरल होता है। उन्होंने अपने कर्म क्षेत्र में अनेक नये आयाम गढ़े और वित्त के क्षेत्र को भी अनेक रचनात्मक दिशाएं दी हैं।
गरीब एवं निर्धन वर्ग की सेवा में समर्पित डॉ. किला जैसे व्यक्तित्व विरल होते हैं, जिनकी सारस्वत साधना की सुरभि चतुर्दिक व्याप्त है तथा जिनकी यशोपताका सर्वत्र फैली हुई है, तथापि जो अपने व्यक्तित्व को सर्वथा सहज, अकृत्रिम एवं निष्कलुष बनाकर रखे हुए है। मधुरभाषी, व्यवहारकुशल, कुशल प्रशासक, जीवनदृष्टि को समझने में सजग एवं पटु डॉ. किला का जीवन समाजसेवा एवं संवेदनाओं से सराबोर है। ‘कभी नहीं हारेगी जिन्दगी’ के संकल्प के साथ जरूरतमंदों एवं अभावग्रस्त लोगों की जिन्दगी में रोशनी बनने वाले डॉ. किला ‘भाऊराव देवरस सेवा न्यास’ के संस्थापक ट्रस्टी एवं कोषाध्यक्ष है। डॉ. किला की प्रकृत-ऊर्जा विलक्षण हैं। वे कितने सारे सामाजिक, धार्मिक अनुष्ठानों, जिम्मेदारियों और सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े हैं कि सेवा एवं परोपकार की कितनी शाखाओं और कितनी धाराओं से उनका परिचय रहा, यह देखकर आश्यचर्यचकित रह जाना पड़ता है। उनकी ज्ञान-पिपासा, कर्मठता और निरालस्य सजगता युवकों को चुनौती देने वाले गुण हैं। वे एक समर्थ सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, मर्मज्ञ और संस्कृतिपुरुष के रूप में एक प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
डॉ. किला शिक्षा के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। वे ‘अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच दक्षिणी दिल्ली’ के संस्थापक अध्यक्ष हैं। मंच के तत्वाधान में राजस्थान से आने वाले छात्रों के लिये सुपर 30 कार्यक्रम के रूप में संचालित छात्रावास का संचालन करने के साथ ही सीए किला पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से सैकड़ों चार्टर्ड अकाउंटेंट और एमबीए छात्रों का मार्गदर्शन भी कर रहे हैं। निम्न वर्ग के विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क भोजन, आवास एवं शिक्षा की सुविधा भी प्रदान की जाती है व राष्ट्रीय स्तर पर रक्तदान, कैलिपर कैम्प, क्लेफ्ट लिफ्ट, अंगदान और पोलियो उन्मूलन शिविर आदि जैसे विभिन्न सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से शामिल हैं। वे बड़े से बड़ा कार्य करते हैं लेकिन किसी सामान्य या छोटा-सा काम करने में जरा सा संकोच नहीं करते। अपने उच्च-स्थान का लाभ उठाने का लोभ उन्हें छू भी नहीं पाया। वे जो कुछ हैं, अपनी प्रतिभा, जिजीविषा, संकल्प, भक्ति और संघर्षजन्य शक्ति के बल पर हैं। उन्हें जीवन में अनेक बार कटु अनुभव भी हुए थे, किन्तु उनके व्यक्तित्व में उनका कोई दंश शेष नहीं, अपितु उनके जीवन में सतत-सात्विक मधुरता ही बढ़ती ही जा रही है। डॉ. किला को कभी भी परेशानियों ने विचलित नहीं किया। वे कहते हैं, मुझे लगता है, मुझे ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हैं, जो कुछ करना चाहता हूं, वह कर रहा हूं। उनका जीवन साधन-सम्पन्न लोगों एवं जरूरतमंदों के बीच एक सेतु हैं, एक पुल है। आशा का पुल, सेवा का पुल, शांति का पुल, जिन्दगी की मुस्कान का पुल। सचमुच वे प्रेरणास्पद हैं और उनमें बड़े मानुष का बड़प्पन झलकता हैं। वे परिवार और समाज के साथ-साथ गरीबों एवं जरूरतमंदों के लिए स्नेह के छांव देने वाले बरगद ही हैं।
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. किला एक उच्च मूल्य मानकों को जीने वाले व्यक्तित्व हैं। उनके व्यक्तित्व में एक संपूर्ण मनुष्य के सारे गुण समाहित हैं। उनकी सहज आत्मीयता, खुलापन एवं मुक्त अट्टहास अनोखा हैं। उनके मुख पर सदैव मंद-मंद स्मिति ही विलसती हुई देखी जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उनका समग्र जीवन वित्त-विशेषज्ञता को समर्पित होकर भी सेवा के विविध आयामों से जुड़ा है। वे सामाजिकता की एक अनूठी मिसाल है। यही कारण है कि डॉ. रामअवतार किला को हाल ही में राजस्थान फाउंडेशन द्वारा दिल्ली चैप्टर का अध्यक्ष मनोनित किया है। इस संस्था के साथ साथ वह अन्य संस्थाओं में भी अपनी भूमिका निभा रहे है जिनमें मुख्य रूप से ट्रस्टी राजस्थान मित्र मंडल, श्री मथुरा वृंदावन हासानन्द गोचर भूमि ट्रस्ट, सदस्य अखिल भारतीय प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन, पूर्व अध्यक्ष अखिल भारतीय वैश्य महासम्मेलन दक्षिणी दिल्ली, पूर्व अध्यक्ष रोटरी क्लब ऑफ दिल्ली वसंत वैली, संस्थापक परफेक्ट फाउंडेशन एवं परफेक्ट इंस्टिट्यूट ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट तथा सक्रिय सदस्य लॉयन्स क्लब, माहेश्वरी क्लब, दिल्ली पैनोरमा क्लब, राजस्थान रत्नाकर, रामकृष्ण सेवा संस्थान आदि। वे राजस्थान के होकर दिल्ली में राजस्थानी संस्कृति को जीवंतता देने में जुटे हैं।
विचारों, सामाजिक चेतना, धर्मनिष्ठा में गहरे रमे हुए डॉ. किला के जीवन और परिवार में अद्भुत सादगी और सात्विकता की व्याप्ति दिखायी पड़ती है। उनके बच्चे धार्मिक संस्कारों में शिक्षित-दीक्षित होकर आज अव्वल मुकामों पर अपने होने का अहसास करा रहे हैं। तमाम आधुनिक परिवेश के बावजूद डॉ. किला के संस्कारों के कारण उनमें सौम्यता और शालीनता दिखायी पड़ती है। लगता है डॉ. किला के व्यक्तित्व की सादगी, धर्मनिष्ठा, सामाजिकता एवं आध्यात्मिकता पूरे पारिवारिक परिवेश में व्याप्त है। सीए डॉ. किला एक ऐसे समर्पित व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने न केवल अपने पेशेवर जीवन में अपूर्व ऊंचाइयां प्राप्त की हैं, अपितु सामाजिक सेवा को भी अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। उनका जीवन वास्तव में आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। डॉ. किला के पास काम करने की अथक शक्ति है और काम किन दिशाओं में होना चाहिए इसका भी ज्ञान उन्हें हैं। प्रकृति ने ही डॉ. किला को मेधा, चिंतन क्षमता, वाकपटुता, कौशल का जो अवदान दिया वह बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है। ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता कम ही मिलते हैं, जिनमें चिंतन-मनन, कार्यकौशल, अध्ययन, तथ्यपरकता और सरसता का ऐसा मणिकांचन योग हो। वे समाज-निर्माता हैं, गहन परोपकारी हैं और संस्कृतिपुरुष भी हैं।