विश्व के सभी मुस्लिम बाहुल्य एवं अन्य देशों में भले ही ओसामा बिन लादेन के समर्थन में नमाज अता नहीं की गई हो, किन्तु आतंक के इस जहरीले नाग को अमेरिका ने जब अपनी सैन्य, कूटनीति और गुप्तचर शक्ति के बल पर कुचला तो विश्व ने देखा कि भारत के अंदर जगह-जगह उसकी आत्मा की शांति के लिए विशेष नमाज का आयोजन किया गया। एक आतंकवादी के समर्थन में उसकी आत्मा की शांति की बात करना जिसने कि बारूद के ढेर पर न जाने कितने बेहुनाहों को मौत के घाट उतार दिया, उसके समर्थन में नमाज की यह व्यवस्था साफ संकेत दे रही है कि भारत में अन्य देशों की अपेक्षा इस्लामिक कट्टरपंथी तेजी से बढ़ रहे हैं, जो कि आतंकवादी गतिविधियों को इस्लाम के विस्तार के लिए आवश्यक मानते हैं।
जम्मू-कश्मीर में तो इसके कारण एक बार फिर स्थिति भारतीय सैनिकों की सूझ-बूझ के कारण बेकाबू होने से बच गई। लेकिन देश के अन्य रायों में इस विशेष नमाज पढ़ने के समय जो अन्य धर्मावलम्बियों पर भय का वातावरण बना, उससे यही संकेत गया कि भारत में आज न केवल आतंक का बल्कि आतंकवादियों का विस्तार वृहद स्तर पर चल रहा है। कोलकता में टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम मौलाना नूरुर रहमान बरकती से लेकर चेन्नई की बड़ी मस्जिद, लखनऊ, हैदराबाद में मौलाना मोहम्मद नसीरुददीन के नेतृत्व में उजाले शाह ईदगाह पर हुई विशेष दुआ, जम्मू-कश्मीर की अनेक मस्जिदों तथा देश के अन्य प्रमुख शहरों व रायों में जिस तरह इस्लाम के अनुयायियों ने आतंक का पर्याय बन चुके ओसामा बिन लादेन के लिए विशेष नमाज अता की! आखिर इनका इसके अलावा क्या आशय निकाला जाय कि जो सभी लोग इसमें शामिल हुए वह ओसामा के कार्य को उचित मानते थे? यदि ओसामा सही है तो फिर ओबामा गलत ? जिसने अपने देश के नागरिकों की मौत का बदला ओसामा की मौत से लिया।
वास्तव में विश्व व्यापार केन्द्र न्यूयार्क के दोनों टावरों को 9-11 के दिन विध्वंस करके अलकायदा ने अमेरिका को झकझोर कर रख दिया था। इस घटना के बाद ही सही अर्थों में यूरोपिय देश विशेषकर अमेरिका ने आतंकवाद के दंश का अनुभव बहुत नजदीक से किया। इसके पहले तक वर्षों से इस जहर को पी रहे भारत की उन सभी बातों को अमेरिका खारीज करता रहा है जिसमें अनेक बार इस्लामिक हिंसा और आतंक के कारण सैकडों भारतीय अपनी जान गवा चुके थे। 9/11 की घटना के बाद ही इस्लाम और इससे जुड़े आतंकवाद पर सैकड़ों अध्ययन हुए व खुली चर्चा शुरू हुई।
वस्तुत: इसकी गहराई में जायें तो जिहाद और इस्लामिक आतंकवाद की जड़ में कुरान की वो 25 आयते हैं जो अल्लाह पर यकीन नहीं करने वालो की हत्या को जाया ठहराती हैं। मिश्र और इजराईल के अलावा अन्य किसी देश में मूल ग्रंथ कुरान की इन आयतों में संशोधन नहीं किया गया है। एकाधिक देश में इन आयतों पर रोक लगी हुई है। ओसामा-बिन-लादेन और उन जैसे लोग पूरे विश्व में जहाँ भी कभी इस्लामिक राय रहा वहाँ तुरंत इस्लाम का राय चाहते हैं। यह आयते ऐसे लोगों के लिए शस्त्र का कार्य करती हैं। इनके सहारे जेहादी आतंकवादी दुनियाभर के मुसलमानों को एकजुट करने का स्वप्न देखते हैं। इसीलिये ही तो अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करने वाले मोहम्मद अट्टा और मरवान अल किसी अभाव से पीड़ित होकर धन के लालच में या अन्य किसी भौतिक संसाधन का स्वप्न देखकर आतंकवादी हिंसा को अंजाम नहीं देते, न ही किसी ने इनका राजनैतिक उत्पीड़न किया, जिसका बदला देने के लिये यह सैकड़ों निरीह लोगों की जान लें। ये पढ़े-लिखे तकनीकी के छात्र नौजवान हैम्बर्गर में एक अपार्टमेंट में रहकर सारी सुख-सुविधाओं का भोग करते है, किन्तु जैसे ही यह हिंसक, इस्लामिक संप्रदाय के संपर्क में आते हैं इस्लाम और मजहबी अधिनायकवादी विचारधारा के सिपाही बन जाते हैं।
विश्व में सबसे बड़ा मुस्लिम देश इंडोनेशिया है। उसके बाद दुनिया का दूसरा बड़ा मुस्लिम देश भारत है जहाँ 15 करोड़ से अधिक मुसलमान रहते हैं। भारत में पिछले 63 साल से सफल लोकतंत्र में मुसलमानों को वह सभी अधिकार मिले जो एक लोकतंत्रतात्मक गणराय में आम नागरिक के अधिकार हैं। भारत में मुस्लिम पुरूषों के अलावा महिलाएँ न केवल राजनीत के सर्वोच्च शिखर पर पहुँची हैं बल्कि संवैधानिक न्याय प्रणाली के तहत सर्वोच्च न्यायालय की जज तक बनी हैं। जबकि इस्लामिक देशों में ऐसा नहीं है, वहाँ महिलाओं को पुरूषों के बराबर अधिकार नहीं दिए गए हैं।
इसके अलावा इस्लामिक देशों में जो अधिकार अल्लाह पर ईमान रखने वालों के लिए मुकर्रर किये गये, वह अधिकार अन्य किसी धर्माम्वलंबियों के लिए नहीं हैं। इस्लामिक देशों में अन्य धर्मों पर आस्था रखने वाले अपने धार्मिक प्रतीक चिन्ह तिलक, चोटी, पगडी आदि का खुलेआम प्रदर्शन नहीं कर सकते। भारत और इस्लामिक देशों में नागरिक समानता के स्तर पर ऐसे अनेक भेद हैं, जो अपने नागरिकों में केवल धर्म के आधार पर अंतर करते हैं।
बावजूद इसके भारतीय मुसलमानों में अलकायदा और सिमी जैसे आतंकवादी संगठनों के प्रति लगाव और सहानुभूति का होना समझ के परहे है। जिन संगठनों का भारत की संवैधानिक न्याय प्रणाली पर विश्वास नहीं, केवल शरीयत के कानून में ही विश्वास है। ऐसे लोगों के प्रति अपना विश्वास प्रदर्शित करना हिन्दुस्तान के उन मुसलमानों को कटघरे में जरूर खड़ा करता है, जो भारत की इस संवैधानिक व्यवस्था में प्रदत्त उन सभी अधिकारों का उपभोग तो करते हैं, जो उन्हें अल्पसंख्यक होने के नाते प्रदान किये गये हैं, किन्तु एक राष्ट्र के नागरिक होने के नाते अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करना चाहते।
गोधरा नरसंघार, मुम्बई ब्लास्ट, दिल्ली, ब्लास्ट, बनारस ब्लास्ट, पूर्व उत्तर प्रदेश में हुए रेल बम बिस्फोट, कश्मीर ब्लास्ट जैसी अनेक आतंकी घटनाएँ हैं जिनमें जिहादी किस्म के भारतीय मुसलमानों ने कई निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया था। आज भी भारत के मुस्लिम बहुल रायों व क्षेत्रों में अलकायदा, सिमी जैसे संगठनों से जुड़ी सामग्री खुले आम पढ़ने और इलेक्ट्रॉनिक रूप में देखने को मिल जाती है। क्या इसके लिए यह माना जाय कि भारत में ऐसा देवबंद,वहाबी, बरेलवी जैसे इस्लामिक विद्यालयों के कारण हो रहा है या इसके अन्य कारण जिम्मेवार हैं। भारत में पिछले वर्षों में 2 लाख से अधिक लोग इस्लामिक आतंकवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। अकेले जम्मू-कश्मीर में ही 80 हजार से अधिक निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं। जिहाद आधारित इस आतंकवाद से देश की आंतरिक सुरक्षा, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था और धार्मिक मूल्यों को जो क्षति पहुँचती है उसका तो आंकलन ही नहीं किया जा सकता।
आज यह बात भारत के प्रत्येक मुसलमान को सोचने की जरूरत है कि आखिर क्या कारण है जो उनके समुदाय के लोग देश की ओर से मिलने वाली हर सुविधा के बावजूद गैर इस्लामिक लोगों के प्रति कट्टरता और नफरत का दृष्टिकोण पाल लेते हैं। भारत में मिले सभी अधिकारों के बावजूद क्यों वह विशेष दर्जा रखना चाहते हैं। आखिर बार-बार उनके समान नागरिक-समान आचार संहिता का विरोध करने के पीछे का उद्देश्य क्या है। जबकि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े मुस्लिम जनसंख्या वाले देश भारत में उन्हें वो सब अधिकार मिले हुए हैं, जिनकी आवश्यकता एक सुखद समाज के लिए अपरिहार्य है। जिस तरह ओसामा-बिन-लादेन की मृत्यु के बाद से समाचार आ रहे हैं और देश भर में उसके समर्थन में मुस्लिम लोग खड़े हो रहे हैं वो अनायास ही अन्य धर्माम्वलम्बियों के अंदर इस तरह के कई प्रश् खड़े कर रहे हैं। आखिर क्यों भारत में किसी आतंकवादी के मारे जाने पर इतना शोक व्यक्त किया जा रहा है। आतंकवादी या जिहादी का न कोई धर्म होता है, न कोई सकारात्मक विचार दर्शन, उसका उद्देश्य केवल आतंकी साम्राज्य की स्थापना ही है।
पिछली पूरी सदी मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ की तरह बीती है। वस्त्रें से शरीर ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर बड़ा जोर रहा है। बट्रर्ड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ”विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, कोई बिजली नहीं दौड़ती।”
दिल्ली की मेट्रो रेल इन दिनों भारत के बदलते हुए सामाजिक चरित्र का आइना नजर आती है। भूखे मन और भरे पेट वाले जन समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली यह भागती हुई भीड़ आखिर कहां जाना चाहती है? यह सवाल ‘कब, कहां, किससे, कैसे और क्यों पूछा जाए’ की पंच-प्रश्नी कारा में कैद होकर छटपटाता रह जाता है। जो भी हो इस भीड़ की बेहोशी काबिलेगौर है। ऐसा लगता है, धन और पद की खुमारी में बहुत नीचे और पीछे रह गए ‘आत्म’ को खोजना और जानना शायद अब बहुत ‘कम’ लोगों की जिंदगी में अहम बात है।
कालेज की सहकर्मी युवा प्राध्यापिका ने मेट्रो रेल यात्र के अपने सफर के अनुभव बांटते हुए एक शाम नारी मुक्ति के मायने ढूंढने की आवश्यकता को शिद्दत से रेखांकित किया। उन्होंने बड़ी हैरानी और संकोच के साथ बताया कि ‘एक लड़की अपने माता-पिता के साथ मेट्रो में यात्र कर रही थी और उसकी टी शर्ट पर यह वाक्य लिखा था- Virginity is not a dignity. It is lack of opportunity. हिंदी रूपांतरण शायद इस तरह होगा- ‘कौमार्य या यौन शुचिता सम्मान की बात नहीं है, यह अवसर की कमी है।’ बात बढ़ी, कयास लगाया कि शायद माता-पिता को पता न हो, फिर पता हो तो भी… हो सकता है माता-पिता भी सहमत हों। यह एक अवधारणा, आंदोलन या क्रांतिकारिता भी हो सकती है। खैर… यह युवा प्राध्यापिका हैरान थी, अपने सामाजिक सरोकारों के कारण वह चिंतित भी थी।
सवाल उठता है कि क्या मेट्रो में सपरिवार सफर करती हुई यह लड़की नारी मुक्ति की सशक्त प्रतिनिधि है? और उसे हैरत से देखती हुई युवा प्राध्यापिका क्या परंपरागत, रूढ़िवादी सामाजिक नजरिए की शिकार है? दोनों सवालों का हां या ना में उत्तर खोजना शायद एकांगिता होगी। यद्यपि इन सवालों पर बहस छेड़ना कोई नई बात नहीं है, यह मुद्दा भी नया नहीं है। मगर इन प्रश्नों का सही और संतुलित उत्तर खोजना वक्त का तकाजा है।
पश्चिम की प्रख्यात नारीवादी विचारक एवं लेखिका सिमोन द बोवुआर का एक प्रसिध्द वाक्य है- ‘स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।’ मातृत्व की अवधारणा और अन्यायपूर्ण श्रम विभाजन पर सिमोन ने क्रांतिकारी नजरिया प्रस्तुत किया है। उनका मानना था कि स्त्रियोचित प्रकृति स्त्रियों का कोई आंतरिक गुण नहीं है। यह पितृसत्ता द्वारा उन पर विशेष प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, मानसिक अनुकूलन और सामाजीकरण के द्वारा आरोपित किया जाता है। सिमोन द बोवुआर कहती हैं, फ्स्त्रियों का उत्पीड़न हुआ है और स्त्रियां खुद प्रेम और भावना के नाम पर उत्पीड़न की इजाजत देती हैं।” सिमोन के इस नजरिए को क्रांतिकारी नारीवादी सोच (Radical Feminist approach) कहा गया। मगर अपनी प्रसिध्द पुस्तक- ‘द सेकेंड सेक्स’ की अंतिम पंक्ति में सिमोन द बोवुआर यह सदिच्छा व्यक्त करती हैं, ”नि:संदेह एक दिन स्त्री और पुरुष आपसी समता और सह-अस्तित्व की जरूरत को स्वीकार करेंगे।”
19 वीं सदी के विचारक जान स्टुअर्र्ट मिल ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘द सब्जेक्ट आफ वुमेन’ में लिखा है- ”विवाह-सूत्र में बंधने वाले दोनों साथी अगर एक समान सुसंस्कृत और शिक्षित हैं और विचारों तथा जीवन के उद्देश्यों में एक दूसरे से सहमति रखते हैं तो कहने की जरूरत नहीं कि उनके संबंधों में एक स्वस्थ समानता होगी और दोनों ही एक-दूसरे के व्यक्तित्व और मानसिक स्तर के विकास में भरपूर योगदान देंगे। जो इस स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, उन्हें और कहने की जरूरत नहीं और जो इसे दिवा स्वप्न समझते हैं, उनके सामने कोई तर्क रखना व्यर्थ होगा। लेकिन मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि सिर्पफ ऐसे ही विवाह को आदर्श विवाह कहा जा सकता है। आदर्श विवाह की अन्य सभी अवधारणाएं आदिम बर्बरता को नए चोलों में परोसने की कोशिशें भर हैं। मनुष्य का नैतिक पुनरूत्थान सही अर्थों में उसी दिन शुरू होगा जिस दिन सबसे ज्यादा आधारभूत सामाजिक संबंध बराबरी के सिध्दांत पर आधारित होगा और मनुष्य अपने बराबर वालों के साथ मैत्रीपूर्वक रहना और विकास करना सीख लेगा।”
एक संवेदनशील विचारक की भांति विचार करते हुए स्टुअर्ट मिल कहते हैं- ”जब हम पृथ्वी की आधी आबादी के ऊपर अनचाही विकलांगता मढ़ने के दोहरे दुष्प्रभावों को देखते हैं तो एक तरफ उनसे जीवन का सबसे सहज, स्वाभाविक और ऊंचे दर्जे का आनंद छिन जाता है और दूसरी तरफ जीवन उनके लिए उकताहट, निराशा और गहरी असंतुष्टि का पर्याय बन जाता है। फिर इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि पृथ्वी पर एक बेहतर जिंदगी के मानवीय संघर्ष में स्त्रियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक प्रमुख और महत्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिए। इस संबंध में पुरुषों के खोखले भय सिर्पफ स्त्रियों को नहीं बल्कि पूरी मनुष्यता को बंधनग्रस्त किए हुए हैं। क्योंकि मानवीय प्रसन्नता के आधे झरनों के सूखने से पूरे वातावरण के स्वास्थ्य, सम्पन्नता और सौंदर्य पर प्रभाव पड़ता है।”
सिमोन द बोवुआर और जान स्टुअर्ट मिल के विचारों को जानते हुए हमें पश्चिम की औरतों की स्थिति का भी आभास मिलता है। कहा जाता है कि वहां स्त्रियों की स्थिति लगभग दोयम दर्जे की रही है। समूचे विश्व में स्त्रियों के प्रति किए गए दुर्व्यवहारों, अत्याचारों और अपराधों की अनगिनत दास्तानें हैं। एक लोक कहावत है- ‘औरत जात का झाड़-झाड़ बैरी होता है।’ यानी प्रत्येक स्थिति उसकी शत्रु है।
समूचे विश्व की सामाजिक संरचना में स्त्री जाति को समय-समय पर भीषण शारीरिक-मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा है। विचार सम्पन्न, हार्दिक और आत्मवान महापुरुषों के देश भारत में सैध्दांतिक रूप से स्त्रियों के संदर्भ में कुछ अपवादों को छोड़कर सकारात्मक आख्यान मौजूद हैं और कमोबेश यहां की स्त्रियों के स्वतंत्र, समर्थ, स्वस्थ और सम्पन्न होने के ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। परंतु इस सदी के प्रारंभ में भारतीय सांस्कृतिक वैशिष्टय की धज्जियां भारत में ही लगातार उड़ रही हैं, ऐसे में तब यहां की स्त्रियां भी स्वयं को लगातार असुरक्षित और अपमानित महसूस कर रही हैं। इसे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।
मगर यह भी सच है कि स्त्री को सहज स्वाभाविक सामाजिक स्थिति मिलना और उसकी क्षमता और प्रतिभाओं का सही-सही उपयोग और मूल्यांकन होना पिछली सदी के उत्तरार्ध्द में ही लगभग सारे विश्व में शुरू हो गया है। अब स्त्रियां गांव, चौपाल, गलियों, सड़कों, बाजारों से लेकर स्कूल-कालेज, छोटे-बड़े दफ्तरों और प्रतिष्ठानों, सभी जगह पर निर्द्वन्द्व रूप से अपनी सार्थक एवं सशक्त उपस्थिति से सबको चमत्कृत कर रही हैं। ऐसे में स्त्री मुक्ति के प्रश्नों के भटक जाने का खतरा भी लगातार मौजूद है। वास्तव में ‘मुक्ति’ एक मोहक शब्द हैं। यह हमें लालायित करता है, मगर भ्रमित भी करता है। नारी मुक्ति के संदर्भ में भी शायद यह शब्द ‘भ्रम’ का पर्याय बनकर रह गया है। इस शब्द के साथ यह मान लिया जाता है कि स्त्री और पुरुष न केवल अलग-अलग हैं बल्कि एक-दूसरे के विरोधी एवं शत्रु भी हैं। और स्त्रियों को पुरुषों से मुक्त होने की जंग लड़नी है। निहितार्थ है कि वे अभी तक पुरुषों की गुलाम हैं। नारी मुक्ति के मानो ये प्रतीक बन गए हैं- पुरुषों की तरह रहना और जीना, तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर जीना, और जैसे पुरुष देह का वर्चस्व सामाजिक, प्राकृतिक रूप से स्थापित हुआ है, उसके जवाब में नारी देह का वर्चस्व स्थापित करना।
समस्या तब और जटिल हो जाती है जब नारी मुक्ति का मतलब ‘देह’ को केन्द्र में रखने, उसकी नुमाइश और लेन-देन से समृध्दि, सम्पन्नता, अधिकार एवं वर्चस्व प्राप्त करने तक पहुंच जाता है। ऐसे में एक नई प्रकार की गुलामी और शोषण की शुरूआत होती है जो पुराने शोषण और गुलामी से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है, सिवाय इसके कि इसमें स्त्री मुक्ति या स्वातंत्रय के नाम पर अहं पोषण भी होता रहता है। मगर इस स्त्री मुक्ति या स्वतंत्रता का परिणाम क्या है? अंततोगत्वा स्त्री चेतना की नैसर्गिक अभिव्यक्ति का तिरस्कार और आरोपित व्यवहार एवं अहंकार का मनमाना प्रदर्शन। क्या यही है स्त्री की और पुरुष की नैसर्गिकता कि वे एक दूसरे के शत्रु की तरह जीवन भर वर्चस्व की लड़ाई लड़ते रहें? देह के माध्यम से एक दूसरे को पछाड़ने और पराजित करने का चक्रव्यूह रचते रहें? यदि हां तो इसमें से सृष्टि का विनाश ही हो सकता है, विकास कदापि नहीं। इसके लक्षण भी वैश्विक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रत्यक्ष नजर आ रहे हैं।
सच्चाई तो यह है कि शास्त्रीय एवं सामाजिक भ्रांतियों के कारण पूरब में स्त्री दासी हो गई और नारी मुक्ति की भ्रांति के कारण पश्चिम में वह पुरुष की कार्बन कापी बन गई है। पुरुष जैसी महिला बनकर वह खुश है। इसे ही वह उपलब्धि मान रही है। वह पुरुष जैसी क्लर्क, पुरुष जैसी पाइलट, पुरुष जैसी सैनिक बनकर अहंपोषण करती है। आश्चर्यजनक रूप से इन सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि पुरुष श्रेष्ठ है और स्त्री निकृष्ट, तभी तो वह पुरुष जैसा बनने के लिए आतुर है। और वैसा बनकर बहुत खुश है, गौरवान्वित है।
पश्चिम की नकल में पुरुषनुमा स्त्रियां अब पूरब में भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। विचारक ‘जोड’ ने एक पुस्तक में लिखा है- ”जब मैं जन्मा था तब पश्चिम में होम्स थे, अब हाउसेस रह गए हैं क्योंकि पश्चिमी घरों से स्त्री खो गई है।”
आज स्त्री अस्मिता के संघर्ष में ‘दैहिक स्वतंत्रता और पुरुष का विरोध’ ही दो प्रमुख पहलू नजर आते हैं। परिणाम यह हुआ है कि स्त्री देह अब केवल ‘कामोत्तेजना’ नहीं बल्कि ‘काम विकृति’ के लिए भी इस्तेमाल होने लगी है। वह लगभग ‘वस्तु’ के रूप में क्रय-विक्रय के लिए बाजार में मौजूद हो गई है। यह समूची स्त्री जाति का न केवल अपमान है बल्कि निरा दुर्भाग्य भी है कि अब स्त्री की देह और उसका छायाचित्र (फोटो) ही सब कुछ है। उसकी आत्मा का कोई मूल्य नहीं है। आत्महीन स्त्री की मुक्ति और स्वतंत्रता के मायने क्या हो सकते हैं? कोई किसी तस्वीर या मूर्ति को बेड़ी में बांधकर रखे या हवा में खुला छोड़ दें तो क्या फर्क पड़ने वाला है?
उदाहरण दूसरे भी हैं। भारतीय इतिहास की एक सशक्त नारी मीरा एक आत्मवान स्त्री है। वह देह के पार आत्मा के जगत पर जीती है। उसकी देह को बांधकर रखने वाले, उसे गुलाम बनाने की इच्छा रखने वाले राजे-महाराजे उसके जीते-जी उसके सामने लगातार पराजित होते रहे। ऐसा ही उदाहरण कश्मीर में नग्न संन्यासी के रूप में पूजित रही लल्लेश्वरी का है। देह पर वस्त्र नहीं हैं, क्योंकि लल्ला (लल्लेश्वरी) देह नहीं है, चैतन्य आत्मा है। देह को क्यों ढंके, किससे छिपाए और उससे (परमात्मा) क्यों छिपाए जो सब जानता है, सब देखता है। इसलिए आज भी आम कश्मीरी के लिए दो शब्द परम आस्था के प्रतीक हैं एक अल्लाह और दूसरा लल्ला।
पिछली पूरी सदी मनुष्य जाति के इतिहास में ‘वस्त्र सभ्यता’ की तरह बीती है। वस्त्रें से शरीर ढंकने, कम ढंकने, उघाड़ने या ओढ़ने पर बड़ा जोर रहा है। बर्टंरेड रसल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘विक्टोरियन युग में स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिखता था तो बिजली दौड़ जाती थी, अब स्त्रियां अर्धनग्न घूम रही हैं, तो भी कोई बिजली नहीं दौड़ती।”
वास्तव में वस्त्रें पर केन्द्रित मानसिक धारणाओं ने मस्तिष्कीय काम (cerebral sex) को बहुत जगह दे दी और मनुष्य को जटिल कामुक (Sexually Complicated) बना दिया है। इसी का परिणाम हैं स्त्रियों के प्रति हो रहे छेड़छाड़, अपराध और बलात्कारों की बढ़ती हुई संख्या। ऐसा लगता है कि जब तक देह के वस्त्रें को और देह के अंग, प्रत्यंगों को सौंदर्य मानने की भूल होती रहेगी तब तक दैहिक शोषण और बलात्कार भी होते रहेंगे।
जरूरत इस बात की है कि स्त्री और पुरुष दोनों के अलग-अलग होने की बात के मिथ्या तत्व को प्रमाणित एवं प्रचारित किया जाए। यह सत्य स्वीकार करने का साहस जुटाया जाए कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें से नैसर्गिक रूप से कोई विरोध और शत्रुता नहीं है बल्कि वे स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे के सहयोगी हैं। स्टीफन. आर. कोवे ने अपनी प्रसिध्द पुस्तक ‘सेवन हैबिट्स आफ हाइली इफेक्टिव पीपल’ के प्रारंभ में लिखा है-”Interdependence is better than Independence.”
वास्तव अंतर्निर्भरता जीवन का सूत्र है। स्वतंत्रता की आत्यंतिक अवधारणाएं जीवन-विरोधी एवं अहं जन्य मालूम पड़ती हैं। स्त्री पुरुष के संदर्भ में अंतर्निर्भरता और सहजीवन एक संपूर्ण सत्य है। यह जीवन की स्वाभाविकता का मूल आधार है। उनकी एकात्मता नैसर्गिक है।
गांधी जी लिखते हैं- ”जिस प्रकार स्त्री और पुरुष बुनियादी तौर पर एक हैं, उसी प्रकार उनकी समस्या भी मूल में एक होनी चाहिए। दोनों के भीतर वही आत्मा है। दोनों एक ही प्रकार का जीवन बिताते हैं। दोनो की भावनाएं एक सी हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक-दूसरे की सक्रिय सहायता के बिना जी नहीं सकते। और इस स्त्री, पुरुष नाम के दोनों पहलुओं को एक इकाई की तरह जान लेना, समझ लेना और जीने की कोशिश करना ही विवाह नामक व्यवस्था का उद्देश्य हो सकता है।य्
लेख के प्रारंभ में दी गई स्टुअर्ट मिल की उक्ति और इस संबंध में गांधी जी की उक्ति से कहीं भी विरोध नहीं दिखता है, बल्कि गांधी जी कहीं अधिक गहरे से विचार करते हुए उदात्त तल पर पहुंचे हुए दिखाई देते हैं। वे लिखते हैं- ”विवाह जीवन की स्वाभाविक वस्तु है और उसे किसी भी अर्थ में पतनकारी और निंदनीय समझना बिल्कुल गलत है। आदर्श यह है कि विवाह को धार्मिक संस्कार माना जाए और इसलिए विवाहित स्थिति में आत्म संयम का जीवन बिताया जाए।”
वास्तव में सहजीवन की स्वाभाविक शर्त है आत्मसंयम। संयमहीन व्यक्ति सहजीवन के लिए अयोग्य एवं अपात्र ही सिध्द होता है। केवल अपने लिए भोग करने वाला तो पशु के समान शीघ्रतिशीघ्र जीवन समाप्ति की ओर पहुंच जाता है। भोग और कामोपभोग से तृप्ति मिलती भी कहां है। अपनी ही इंद्रियों के बेजां इस्तेमाल से भला सुख कैसे मिल सकता है, दुनिया भर में धूम्रपान, मद्यपान और अनेक नशे के तरीकों से सुख पाने की कामना करने वाले लोगों को रोगी होते हम हर दिन देख रहे हैं। कामोपभोग में डूबे लोगों को भी असाध्य बीमारियों से मरते देखना कोई आश्चर्य नहीं है। तो फिर स्त्री पुरुष व्यक्तिगत कामोपभोग को जीवन का सुख या लक्ष्य समझने की नादानी करें तो इसे कालीदासीय मूर्खता कहना लाजिमी है। गांधीजी लिखते हैं- ”अगर हम स्त्री और पुरुष के संबंधों पर स्वस्थ और शुध्द दृष्टि से विचार करें और भावी पीढ़ियों के नैतिक कल्याण के लिए अपने को ट्रस्टी मानें तो आज की मुसीबतों के बड़े भाग से हम बच सकते हैं।” फिर यौनिक स्वतंत्रता का मूल्य क्या है, यह केवल स्वच्छंदता और नासमझी भरी छलांग हो सकती है, अस्तित्व का खतरे में पड़ना जिसका परिणाम होता है। इसी तरह यौन शुचिता या कौमार्य का प्रश्न भी है। यह केवल स्त्रियों के लिए नहीं होना चाहिए। यह जरूरी है कि पारस्पारिक समर्पण एवं निष्ठा से चलने वाले वैवाहिक या प्रतिबध्द जीवन के लिए दोनो ओर से संयम का पालन हो। और इसकी समझ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से अनिवार्य एवं आवश्यक हो। पुरुष को भी संयम एवं संतुलन के लिए प्रेरित करने में स्त्री की भूमिका सदा से रही है। इसलिए स्त्री संयम की अधिष्ठात्री है। उसे स्वाभाविक संयम एवं काम प्रतिरोध की क्षमता प्राकृतिक रूप से भी उपलब्ध है। सिमोन द बोवुआर ने भी स्त्री की संरचना में उसकी शिथिल उत्तेजकता को स्वीकार किया है। यह भी पारस्परिकता का एक महत्वपूर्ण बिंदु है।
अस्तु, यौन शुचिता जीवन के रक्षण का ही पर्याय है और यौन अशुचिता नैतिक रूप से ही नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से भी हमें विनष्ट करती है। संयम सदैव ही सभी समाजों में शक्ति का पर्याय माना जाता रहा है। कहावत भी है- ‘सब्र का फल मीठा होता है।’
मेट्रो में दौड़ता जन समाज आत्म के अज्ञान में भ्रमित हो रहा है। उसकी दशा कस्तूरी मृग जैसी है। भागता है सुगंध के लिए और थकता है अतृप्त हो कर। सुगंध स्वयं उसके भीतर है। उसका आत्म उसके आनंद का केन्द्र है। देह तो एक चारदीवारी है, परकोटा है, एक भवन है, जिसमें अस्तित्व मौजूद है आत्मा के रूप में। परकोटे को अस्तित्व मान लेना भ्रांति है। और परकोटे पर रंग-रोगन कर उसे चमका लेना भी क्षणिक तुष्टि भर है। उससे दुनिया जहान को भरमा लेना भी कुछ देर का खेल तमाशा है। परकोटे को गिरना है। आज नहीं तो कल।
आत्म की तलाश में जीवन लगे तो कुछ सार्थक हो, वरना यों ही छलनी से पानी भरने का खेल चलता रहेगा। देह के क्षणिक सुख के लिए इश्तिहार लगाकर आंदोलन करने वाले भूखे मन और भरे पेट के लोगों पर युवा प्राध्यापिका का ऐतराज और हैरानी जायज लगती है। उनकी चिंता में और सरोकार में दृष्टि का उन्मेष प्रमाणित होता है। मेरी मां कभी-कभार कहती रही है- ”मांस खाने का मतलब यह नहीं है कि लोग गले में हड्डी लटका कर घूमने लगें।”
नैतिकता और शुचिता से जुड़े सवालों पर क्रांतिकारिता गलत नहीं है। न ही सामाजिक दोषों, बुराइयों, कमजोरियों और अपवादों के खिलाफ लड़ना कोई छोटी बात है। मगर स्त्री जब सर्वाधिक स्वतंत्र, सक्षम, सहज, और समर्थ हो रही हो और उसके लिए समाज में परिवेश भी निर्मित हो रहा हो तब वैयक्तिक शारीरिक असंयम को आंदोलनकारिता का दर्जा देना न केवल स्त्री जाति की स्वाभाविकता और नैसर्गिकता को गलत अर्थ एवं दिशा देने की कोशिश है बल्कि सामाजिक संतुलन, गरिमा और मर्यादा को विश्रृंखलित करने की एक उच्छृंखल शरारत भी लगती है। आजादी भी जरूरत से ज्यादा हो तो बर्बादी में बदल जाती है। जमाने को बदलने की पहल करने वालों को खुद पर संयम रखने का पाठ पहले पढ़ना होता है। चाहे वे उम्र में बड़े हों या छोटे। असंयम से बदलाव नहीं बवाल ही हो सकता है।
मध्यप्रदेश की मंडियों में आजकल गेंहूँ की बम्पर आवक ने सरकार के होश फ़ाख्ता कर रखे हैं। सरकारी खरीद के अनाज को रखने के लिये गोदाम कम पड़ रहे हैं। इस मर्तबा हुई बम्पर पैदावार ने एक बार फ़िर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की नीयत पर सवाल खड़े कर दिये हैं। बीती सर्दियों में सूबे की सरकार पाले और तुषार का रोना रोकर किसानों की चिंता करने में लगी थी, वो अब गेंहूँ की बम्पर पैदावार से हैरान है। अभी ज़्यादा वक्त नहीं गुज़रा है,जब प्रदेश में पाले से कहीं सत्तर तो कहीं सौ फ़ीसदी फ़सल चौपट होने की हवा बनाई गई थी। बात-बात में केन्द्र सरकार पर तोहमत जड़ने के आदी शिवराजसिंह किसानों को भरपूर मुआवज़ा देने की माँग को लेकर अपने संवैधानिक दायित्वों को बलाये ताक रखकर आमरण अनशन पर आमादा थे।
मंडियों और खरीदी केन्द्रों पर इतना गेंहूँ पहुँच रहा है कि जानकारों को शंका होने लगी है कि मध्यप्रदेश में पाला पड़ा भी था या नहीं ? और पाला अगर पड़ा था तो क्या उसने फ़सलों के लिये “टॉनिक” का काम किया ? सरकारी आँकड़ों पर यकीन करें तो मध्यप्रदेश में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर इस साल गेंहूँ खरीद का नया रिकॉर्ड बना है। राज्य में गेंहूँ की सरकारी खरीदी का पिछला रिकॉर्ड ध्वस्त हो चुका है। मंडियों में इस मौसम का कुल गेंहूँ खरीद आँकड़ा 36 लाख 39 हजार मीट्रिक टन जा पहुँचा है। इससे पहले प्रदेश में गेंहूँ की सबसे ज्यादा खरीद पिछले साल ही 35 लाख 37 हजार टन रही थी। खास बात यह है कि खरीदी का सिलसिला 31 मई तक चलना है । लिहाजा आँकड़ा 45 लाख मीट्रिक टन तक पहुँचने का अनुमान है।
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि बढ़ी खरीद के सुरक्षित भंडारण के लिये प्रदेश में पहली बार अब तक कोई 100 रेल्वे रेक्स का इस्तेमाल किया जा चुका है। समर्थन मूल्य पर गेंहूँ खरीदी की पूरी कार्रवाई को अंजाम दे रही नोडल एजेंसी राज्य नागरिक आपूर्ति निगम अब तक 26 लाख 50 हजार टन और एक अन्य प्रमुख एजेंसी राज्य सहकारी विपणन संघ 9 लाख 89 हजार टन गेंहूँ खरीद चुकी है। गौर तलब है कि समर्थन मूल्य पर गेंहूँ की सरकारी खरीदी में मध्यप्रदेश का नंबर पंजाब, हरियाणा के बाद तीसरे स्थान पर है। किसान को समर्थन मूल्य पर 150 रूपए प्रति क्विंटल बोनस दिया जा रहा है। ऐसा करने वाला वह एकमात्र राज्य है। सीधे किसानों के खाते में राशि जमा करवाने वाला भी यह इकलौता राज्य है। अभी तक 3500 करोड़ रूपए सीधे खातों में जमा कराये जा चुके हैं।
जादूगरी देखते हुए अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि जो कुछ दिखाया जा रहा है, वही सच है । दर्शक आश्चर्य चकित रह जाता है कि क्या ऐसा भी हो सकता है? लेकिन अपनी लफ़्फ़ाज़ी से आम जनता को पिछले पाँच सालों से मूर्ख बनाते चले आ रहे शिवराज भी राजनीति में हाथ की सफ़ाई के हुनरमंद बाज़ीगर साबित हुए हैं। यक़ीन नहीं आता तो मध्यप्रदेश सरकार के उस दावे को देख लीजिए जिसमें कहा गया था कि प्रदेश में पाला और शीतलहर के प्रकोप से फसलों को खासा नुकसान हुआ है और इसलिए केंद्र सरकार को राहत जल्द से जल्द देना चाहिए। इस प्रकार राज्य सरकार ने बर्बाद फसल की जो तस्वीर दिखाई थी, उससे लग रहा था कि आने वाला समय किसानों के लिए बेहद मुश्किल गुज़रने वाला है, लेकिन आज जब हम बम्पर उत्पादन के आंकड़े देख रहे हैं तो तस्वीर पूरी तरह बदली हुई नज़र आ रही है। इस पर भी यदि राजनीतिज्ञ से बयान देने को कहेंगे तो वह यही कहेगा कि वो उस समय का सच था और यह आज का सच है। कुल मिलाकर हकीकत की रोशनी में अब यह स्पष्ट हो गया है यह दबाव की राजनीति का ही एक हिस्सा था ।
कहावत है “नाई-नाई बाल कितने,जजमान सामने आयेंगे।” इसी तरह मंडियों में गेंहूँ की ज़बरदस्त आवक ने “सरकारी पाले” की पोल-खोल कर दी है। मगर असल और सफ़ल राजनीतिज्ञ वही है, जो हर मुद्दे के अच्छे-बुरे पहलू को अपने पक्ष में कर उसे भुनाने का माद्दा रखता हो । लिहाज़ा सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन यह तो मान रहे हैं कि मध्यप्रदेश में इस बार पाला पड़ने के बावजूद गेंहूँ की बंपर फसल हुई है। लेकिन इस रिकॉर्ड तोड़ उपज के पीछे उनके अपने तर्क हैं। वे बताते हैं कि एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक मप्र में प्रति हैक्टेयर पैदावार बढ़ गई है। होशंगाबाद और हरदा जिलों ने तो इस बार पंजाब और हरियाणा को मात दे दी है। इन जिलों में गेंहूँ की पैदावार प्रति हैक्टेयर 60 क्विंटल हुई है। उनका ये तर्क भी काबिले गौर है कि कई स्थानों पर पाले और तुषार ने गेंहूँ को जबरदस्त फायदा पहुँचाया है। पाले से अरहर, मसूर, गन्ना को नुकसान हुआ है। सवाल घूम फ़िर कर वही कि जब बम्पर उत्पादन हुआ है तो पाले से हुए नुकसान का मुआवज़ा बेमानी था ।
सरकारी रेवड़ियाँ पाकर “जी हुज़ूरी” में लगे मीडिया घरानों की मदद से पाले के प्रचंड प्रकोप की कहानी बनाई गई और ज़ोर-शोर से फ़ैलाई गई । खबर थी कि शीतलहर और पाले की चपेट में आकर प्रदेश के 17 जिलों की फसलें नष्ट हो गई । प्रदेश में ज़्यादातर नेता, व्यापारी और नौकरशाह खेती की ज़मीन के बड़े-बड़े रकबे के मालिक हैं। इसलिये मुआवज़े के लिये खूब हाय तौबा मची ।
कहते हैं कि झूठ को सौ बार दोहराया जाये तो वो सच लगने लगता है । इसलिये मीडिया के कँधे पर सवार होकर झूठ की राजनीति करने वाले शिवराज ने भारी भरकम मुआवज़ा राशि देने की माँग कर केन्द्र सरकार पर दबाव बनाया । हमेशा की तरह एक बार फ़िर झूठ और दबाव की राजनीति काम कर गई और केन्द्र ने 425 करोड़ रुपये मुहैया करा दिये । हालाँकि 2,442 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की माँग कर रहे शिवराज सिंह चौहान ने इस धनराशि को नाकाफ़ी बताकर केन्द्र को जी भर कर कोसा और फसलों का नुकसान झेलने वाले किसानों के हक में आंदोलन की पेशकश तक कर डाली । प्रदेश सरकार ने दावा किया कि पाले की वजह से 5 जिलों में गेंहूँ, सरसों और चने की फसलों को तगड़ी क्षति पहुँची और 35 लाख हैक्टेयर रकबे की फसल बर्बाद हो गई। प्रदेश सरकार के मुताबिक फसलों का जबरदस्त नुकसान होने की वजह से किसान खुदकुशी पर मजबूर हैं।
पाला और तुषार से सर्वाधिक प्रभावित 17 जिलों में कृषि रकबा कम होने के बावजूद अफसरशाही का कमाल देखिए, सबसे ज्यादा मुआवजा भोपाल में ही बाँट दिया गया। राजधानी में पाला पीड़ित किसानों की सूची में नेता और नौकरशाहों के भी नाम शामिल हैं। हैरत की बात यह है कि जिन लोगों को मुआवजा बाँटा गया , उनमें आईएएस, पूर्व प्रशासनिक अफसर, विधायक सहित कई नेता और पुलिस अफसर भी शामिल हैं। खेती-बाड़ी के शौकीन नेताओं और आला अफसरों का ही प्रभाव है कि भोपाल में 31 करोड़ रुपए से ज़्यादा का मुआवज़ा बाँट कर प्रशासन ने प्रदेश में नया रिकॉर्ड बना डाला।
राजधानी के 15 हाईप्रोफाइल किसानों को जिला प्रशासन ने लाखों रुपए बाँट दिए। एक किसान को अधिकतम 40 हजार रुपए देने के सरकारी प्रावधान को धता बताते हुए इन हाई प्रोफाइल किसानों में कई गुना ज्यादा धनराशि बाँट दी गई। जबकि असली किसान हज़ार-पाँच सौ के चैक लेकर उन्हें भुनाने के लिये अब तक भटक रहे हैं। रसूखदार किसानों में पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक सुखराज सिंह, पुलिस महानिरीक्षक संजय राणा, प्रमुख सचिव पुखराज मारू, नूतन कॉलेज की प्राचार्य शोभना बाजपेयी मारू, विधायक जितेंद्र डागा, पूर्व आईपीएस शकील रजा, सीपीए के अधीक्षण यंत्री जवाहर सिंह की पत्नी अनुपमा सिंह शामिल है। इन सभी की जमीनें बिशनखेड़ी, प्रेमपुरा, रातीबड़ सहित आसपास के क्षेत्रों में है। विधायक जितेंद्र डागा को दो अलग-अलग रकबे 0.405 और 0.718 हेक्टेयर जमीन पर लगी फसल का 95 हजार 29 रुपए, पूर्व पुलिस महानिदेशक शकील रजा को 121.673 हैक्टेयर जमीन पर लगी फसल का 8 लाख 71 हजार 770 रुपए का चेक बना । मुआवज़ा राशि में फ़र्ज़ीवाड़े के किस्से कमोबेश पूरे सूबे में हैं ।
कागज़ की नाव पर सवार होकर रेत में चप्पू चलाने में माहिर शिवराज सिंह चौहान सूबे के मुखिया के तौर पर मध्यप्रदेश के माथे पर दुर्भाग्य की गहरी लकीरें खींचने के सिवाय कुछ नहीं कर रहे हैं। ये सच है कि शिवराज के झूठ इन दिनों “भारी कीमती” दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इनके दूरगामी नतीजे बेहद नुकसान देने वाले हैं। इसे बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि प्रदेश का मुखिया अपने मातहतों को नुकसान बढ़ाचढ़ाकर पेश करने की हिदायत दे। जबकि होना तो यह चाहिए कि हालात को समझकर समस्या का समाधान खोजा जाए। यह न हो कि अपनी ख़ामियों और कमज़ोरियों को छिपाने के लिए बेवजह मुद्दे बनाए जाएं और सभी को भ्रमित किया जाए। अतीत की आवाज़ को समझने वाले जानते हैं कि भाट-चारण विरुदावली तो गा सकते हैं, मगर इतिहास की निर्मम कलम किसी भी किरदार को बख्शती नहीं।
अमेरिका के डेन्वेर विश्वविद्यालय में विधि विभाग के वरिष्ठ प्राध्यापक एवं वर्ल्ड ज्यूरिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. वेद प्रकाश नन्दा को “छठा भारतवंशी गौरव सम्मान” से सम्मानित किया गया। डॉ. नन्दा को यह सम्मान दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित मालवीय भवन के सभागार में शनिवार को आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान बिहार के मुख्यमंत्री श्री सुशील कुमार मोदी ने प्रदान किया।
कार्यक्रम का आयोजन अंतरराष्ट्रीय सहयोग न्यास के तत्वावधान में किया गया था। इस दौरान मुख्य रूप से पूर्व राज्यपाल केदारनाथ साहनी, पूर्व पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस राज्यमंत्री संतोष गंगवार, वरिष्ठ पत्रकार अशोक टण्डन, दिल्ली की मेयर प्रो. रजनी अब्बी, मृदुला सिन्हा, मीडिया नैपुण्य संस्थान के निदेशक आशुतोष भटनागर, भाजपा नेता विजय जौली, पी.एन. पाठक सहित कई गण्यमान्य उपस्थित थे।
डॉ. नन्दा ने अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के बीच भारत की संस्कृति व सभ्यता के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। वह विदेशों में कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं। इसके अलावा अभी हाल ही में वह इण्डियन लॉ टीचर्स एसोसिएशन के द्वारा सर्वश्रेष्ठ शिक्षक सम्मान से सम्मानित किये जा चुके हैं।
डॉ. नन्दा ‘लॉ जर्नल’ व ‘नेशनल मैगजीन’ का प्रकाशन भी करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कानून पर उनकी 23 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वह अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर ‘डेन्वेर पोस्ट’ के नियमित स्तम्भकार हैं। उन्होंने बीबीसी व वॉयस ऑफ अमेरिका सहित विश्व के विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों पर समीक्षक के नाते भी अपनी विशेष पहचान बनायी है।
यह पुरस्कार अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के द्वारा प्रदान किया जाता है। यह देश की पहली ऐसी संस्था है जो विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोगों से संबंध स्थापित करने और भारत की संस्कृति व सभ्यता के प्रचार-प्रसार का कार्य करती है। इसकी स्थापना वर्ष 1960 में वरिष्ठ पत्रकार एवं अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ श्री बालेश्वर अग्रवाल ने की। 94 वर्षीय श्री अग्रवाल परिषद के संस्थापक अध्यक्ष और जे.सी. शर्मा अध्यक्ष हैं। संस्था का केंद्रीय कार्यालय दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित प्रवासी भवन में है।
इस पुरस्कार का चयन उच्चस्तरीय समिति के द्वारा किया जाता है। इसमें मुख्य रूप से मॉरीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ, फिजी के पूर्व प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी, त्रिनिडाड के पूर्व प्रधानमंत्री बासुदेव पाण्डेय, पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री एवं जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, दैनिक जागरण के प्रधान सम्पादक संजय गुप्ता, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के संस्थापक अध्यक्ष बालेश्वर अग्रवाल, जी टेलीफिल्म्स लिमिटेड के एमडी सुभाष चन्द्रा, वरिष्ठ पत्रकार मनोहर पुरी, अंतरराष्ट्रीय सहयोग न्यास के सचिव विजेंद्र मित्तल और नरेश गुप्ता शामिल हैं।
विदित हो कि संस्था के द्वारा ‘पहला भारतवंशी गौरव सम्मान’ 25 अक्टूबर 2005 को दक्षिण अफ्रीका निवासी श्री रणजीत रामनारायण को प्रदान किया गया था। उनको यह पुरस्कार मॉरीशस के प्रधानमंत्री श्री नवीनचंद्र रामगुलाम ने प्रदान किया था। ‘दूसरा भारतवंशी गौरव सम्मान’ त्रिनिदाद व टोबैगो निवासी श्री सत्यनारायण महाराज को 23 दिसम्बर 2006 को पूर्व प्रधानमंत्री श्री इंदर कुमार गुजराल ने प्रदान किया था। ‘तीसरा भारतवंशी गौरव सम्मान’ ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन ऑफ पीपुल्स ऑफ इण्डिया (जीओपीआईओ) के चेयरमैन डॉ. थामस अब्राहम को 4 जनवरी 2008 को तत्कालीन उप-राष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत ने प्रदान किया था।
‘चौथा भारतवंशी गौरव सम्मान’ मॉरीशस के ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट (एचएसटी) नामक गैर-सरकारी संगठन को 11 जनवरी 2009 को पूर्व उप-प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने प्रदान किया था और ‘5वां भारतवंशी गौरव सम्मान’ थाईलैंड के श्री शिवनाथ राय बजाज को 10 जनवरी 2010 को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज ने प्रदान किया था।
चित्र परिचय : बाएं से दूसरे डॉ. वेद प्रकाश नन्दा
अन्ना हजारे जब दिल्ली आए थे तो उन्होंने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर दी थी। अन्ना हजारे का कहना था कि ग्राम विकास के क्षेत्र में जो काम गुजरात में नरेंद्र मोदी ने कर दिखाया है वह लाजबाव है। देश के दूसर राज्यों को भी मोदी के इस मॉडल का अनुसरण करना चाहिए। अन्ना हजारे क्योंकि दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए आए थे इसलिए जब उन्होंने नरेंद्र मोदी के ग्रामीण विकास क्षेत्र में किए गए कार्य की प्रशंसा की तो वे अप्रत्यक्ष रूप से यह भी कह रहे थे कि गुजरात में विकास भी हुआ और उसमें भ्रष्टाचार भी नहीं पनप पाया। यह अपने आप में अद्वितीय स्थिति कही जा सकती है। क्योंकि कुछ राज्यों में राजनीति से जुड़े लोग या फिर नौकरशाही इसलिए विकास के कार्य करती है ताकि उसमें पैसे खाने के भरपुर अवसर उपलब्ध हो जाए। भ’ष्टाचार के बिना विकास की जो मिशाल गुजरात में नरेंद्र मोदी ने उपस्थित की उसकी अन्ना हजारे ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
उसी वक्त लगने लगा था कि तथाकथित सिविल सोसायटी के लोग नरेंद्र मोदी के कार्यों की यह प्रशंसा सहन नहीं कर पायेंगे। क्योंकि सिविल सोसायटी के नाम पर एकत्रित हुए 10-15 लोगों का यह समूह भ’ष्टाचार को खत्म करने में उतनी रूचि नहीं रखता जितनी रूचि नरेंद्र मोदी को उखाड़ फेंकने में रखता हैं। इस काम में तीस्ता सीतलवाड़ तो इतनी दूर तक गई कि उन्होंने कचहरी में झूठे हल्फनामें तक पेश कर दिए। स्वामी अग्निवेश छतीसगढ़ में लाल सलाम के नारे लगाते-2 अन्ना हजारे द्वारा नरेंद्र मोदी को लेकर किए गए इस मूल्यांकन से लाल होते गए और भागे हुए जंतर-मंतर पर आए। नृत्य करते करते मलिका साराभाई ने अचानक रूदाली की भूमिका ग्रहण कर ली। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि गुजरात में क्या हुआ है, यह अन्ना हजारे को दिखाई ही नहीं दे रहा। अब जो दिव्य दृष्टि आज नाचते नाचते पा ली है, वह अन्ना हजारे के पास कहां से आ सकती है। वे तो अपने गांव रालेगां सिद्धी में खेती का काम करते हैं और गांव के किसानों का जीवन सुधारने के लिए मिट्टी से मिट्टी हो रहे हैं। कृषि कार्य करते हुए, गांव मे रहते हुए और भ्रष्टाचार से लड़ते हुए उनकी ऊर्जा चुक जाती है। फिर उन्हें गुजरात के समझने के लिए सिविल सोसायटी जैसी दिव्य दृष्टि कहां से प्राप्त हो सकती है।
साराभाई की समस्या यह है कि अपने से हो रहे जिस तथाकथित अन्याय को गुजरात का मुसलमान भी नहीं देख रहा साराभाई उसको भी देखने का दावा कर रही है। उसके इस दावे पर देश तो हैरान है ही गुजरात का मुसलमान भी हैरान है। वह कह रहा है कि हमारे साथ कोई मतभेद नहीं हो रहा लेकिन यह तथाकथित सिविल सोसयटी उन्हें बार बार बता रही है कि नहीं नहीं तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है। सिविल सोसयटी के इस षड्यंत्र को हिन्दू मुसलमान को लडाने की भूमिका माना जाए या फिर विदेशी महाप्रभुओं से पैसा प्राप्त करने की एक घटिया चाल।
गांव का एक साधारण किसान जिस दृष्टि से गुजरात में हो रहे ग’ामीण विकास के कार्य को देखता और अनुभव करता है, उसी दृष्टि से अन्ना हजारे ने गुजरात में हो रहे विकास को समझा और टिप्पणी कर दी। अब सिविल सोसायटी चाहती थी कि अन्ना हजारे इस मामले में तुरंत अपनी टिप्पणी कों वापस लें। कुछ लोग तो क्रोध से इतने लाल पीले हो रहे थे कि सिविल सोसायटी सिविल न रहते हुए अनसिविल होती दिखाई दे रही थी। अप्रत्यक्ष रूप से यह सोसायटी यह संदेश दे रही थी कि अन्ना हजारे इस मामले में क्षमा की भूमिका में उतर आएं। परंतु उनके दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।
उस वक्त भी ऐसी अशंका होने लगी थी कि यह सोसायटी नरेंद’ मोदी को एकबार फिर घेरने का प्रयास करेगी। और ऐसा हुआ भी। पिछले दिनों गुजरात पुलिस विभाग के एक कर्मचारी संजीव भट्ट अपना हल्फनामा लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए। अपने हल्फनामें में उन्होंने कहा कि गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी ने पुलिस के कुछ बड़े कर्मचारियों की एक बैठक अपने घर में बुलाई थी जिसमें मोदी ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों को इस बार सबक सिखाने की हिमायत की। भट्ट का यह भी कहना है कि गुजरात में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों की जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई विशेष जांच टीम में उसका कोई विश्वास नहीं है। अब असली प्रश्न यह है कि भट्ट को यह ज्ञान प्राप्ति नौ-साल के बाद क्यों हुई वे इतने सालों तक सोए रहे और अन्ना हजारे द्वारा नरेंद्र मोदी की प्रशंसा किए जाने के तुरंत बाद हीं जागृत अवस्था में क्यों आ गए। यह अलग बात है कि उस समय के पुलिस महानिदेशक के. चक’वर्ती ने संजीव भट्ट के इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि वे उस बैठक में मौजुद नहीं थे। भट्ट का यह कहना है कि उनके बयान पर विश्वास कर लिया जाए और उनके डीजीपी पर विश्वास न किया जाय लेकिन उनपर विश्वास क्यों किया जाए इसका शायद एक कारण उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से बताय भी है। उनके ड्राइवर ने डीजीपी के बयान को गलत बताते हुए यह कहा है कि मेरे साहब संजीव भट्ट उस बैठक में गए थे और वह खुद उन्हें लेकर गया था। हो सकता है कल कोई खोमचे वाला भी यह कहे कि भट्ट उसे मिटिंग में थे, वह इसकी गवाही दे सकता है। भट्ट ने मु’यमंत्री के घर में जाने से पहले उसके खोमचे से चाट खाई थी और बताया था कि वे मु’यमंत्री के घर में इस प्रकार की बैठक में जा रहे हैं। भट्ट के घर में काम करने वाला नौकर भी कल यह कहते हुए हाजिर हो सकता है कि बैठक में मोदी में क्या कहा यह वह भी जानता है क्योंकि साहब ने जब घर आकर रोटी खाई थी तब मैं उन्हें रोटी खिला रहा था और वे मुझे बैठक में क्या हुआ यह सब तफसील से बता रहे थे। आखिर यह लड़ाई न्याय के लिए लड़ी जा रही है इसलिए अपने पक्ष में भट्ट गवाह तो इक्कठे करेंगे हीं। वैसे तो रिकॉर्ड के लिए कांग्रेस यह भी कहेगी कि उसका मोदी के खिलाफ इस अभियान में कोई हाथ नहीं है। परंतु कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह, जो कभी किसी रजवाड़े के मालिक रहे हैं, अंदर की बात ज्यादा देर छिपा नहीं सके। संजीव भट्ट के हल्फनामें के तुरंत बाद उन्होंने कहा कि गुजरात में दंगा पिड़ितों को तब तक न्याय नहीं मिल सकता जब तक नरेंद्र मोदी मु’यमंत्री पद पर रहेंगे।
मोदी गुजरात के मु’यमंत्री ना तो कांग्रेस की दया से बने हैं और न ही दिग्विजय सिंह के रहमोकरम से। उन्हें मु’यमंत्री गुजरात की जनता ने बनाया है। संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि जिसको कांग्रेस न चाहे वह किसी राज्य का मु’यमंत्री नहीं बन सकता। कांग्रेस का दुर्भाग्य है और दिग्गी बाबू का कष्ट की गुजरात के लोगों ने कांग्रेस को नकार दिया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अच्छा तरीका तो यही होता है कि पराजित दल अपनी नीतियों को लेकर उन्हीं जनता के बीच में जाए और जनता को अपना पक्ष समझाकर उसे अपने पक्ष में करे। परंतु यह रास्ता बड़ा लंबा और तप-त्याग वाला है जिनके लिए राजनीति पैसा कमाने का एक अड्डा मात्र बन गया है, वे इतनी लंबी साधना नहीं कर सकते। अलवत्ता वे ड्राइवर और खोमचे वालों के हल्फनामों से गुजरात को फतह करके गुजरात की जनता को सबक सिखाना चाहते हैं। स्वामी अग्निवेश हजारों निर्दोशों की हत्याएं कर रहे माओवादियों का लाल सलाम प्रसन्नता से स्वीकार कर सकते हैं परंतु गुजरात की जनता द्वारा लोकतंत्र के पक्ष में दिया गया निर्णय उन्हें स्वीकार नहीं है। दरअसल, अग्निवेश से लेकर दिग्विजय सिंह तक और तीस्ता सितलवाड़ से लेकर अरूणधति राय तक सभी का एक हीं कष्ट है कि गुजरात का मुसलमान अपने साथ हो रहे तथाकथित अन्याय के खिलाफ रणभूमि में क्यों नहीं निकल आता? इनके दुर्भाग्य से चाहे अन्ना हजारे हों चाहे दारुल उलूम के कुलपति वास्तवानी उन्हें गुजरात में हो रहा परिवर्तन साफ दिखाई पड़ रहा है। अन्ना हजारे वहां हो रहे ग्रामीण विकास से प्रभावित हैं तो वास्तवानी राज्य में मुसलमानों को विकास के मिल रहे समान अवसरों से आहलादित हैं। यह अलग बात है कि इन लोगों को अपने इस कृत्य के लिए इसी सिविल सोसायटी और कांग्रेस के मिले-जुले गुस्से का सामना करना पड़ता है। वास्तवानी को तो इस अपराध के लिए दारुल उलूम से निकाला जा सकता है। हालात ऐसे हैं कि अन्ना हजारे को बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। इसलिए नौ साल बाद भट्टों को तलाशा जा रहा है। इस बात की चिंता कोई नहीं कर रहा कि भट्टों की इस तलाश में लोकतंत्र को कितना नुकसान होगा और गुजरात की जनता कितनी आहत होंगी। लेकिन नरेंद्र मोदी को शायद पहले से हीं इसकी आशंका थी जिसका जिक’ उन्होंने अन्ना हजारे को लिखी अपने चिट्ठी में किया था। उन्होंने लिखा था जिसका भाव यही निकलता था कि आपने क्योंकि सत्य बात कह दी है, इसलिए यह लोग उसका बदला लेने के लिए किसी सीमा तक भी जा सकते हैं।
राज दफ्तर जाने के लिये जिस स्टाप से मिनी बस पकडता था, वहाँ वह करीब करीब खाली होती थी. मुश्किल से तीन या चार सवारियाँ होती थी उसमें. फिर भी राज एक खास सीट पर हीं बैठता था. मिनी बस आगे जाती और उसमें सवारियाँ भरती जाती. जब तक वह लडकी बस में चढ़ती तब तक बहुत सारी सीटें भर जातीं, पर राज ध्यान रखता कि उसके बगल वाली सीट खाली रहे जिससे वह लडकी उसके बगल में बैठे. अक्सर ऐसा हो जाता कि उस सीट पर कोई दूसरा बैठ जाता या लड़की मुस्कुरा कर किसी अन्य सीट पर बैठ जाती. उस दिन राज उदास हो जाता और दिन भर उसका मन दफ्तर में नहीं लगता.
पर राज देख रहा था कि इधर कई दिनों से ऐसा हो रहा है कि वह लड़की उसी की बगल में बैठ रही थी. दोनों उतरते भी एक ही स्टाप पर थे. राज मन ही मन सोचता था कि लड़की से बातचीत की जाए, पर उसके दिल में यह भी ख्याल आता था कि लड़की न जाने क्या सोचेगी और वह चुप रह जाता था. लड़की की ओर से भी बातचीत के लिये कोई पहल नहीं थी. बस में चढते समय वह राज की ओर देख कर मुस्कुराती अवश्य थी, फिर उसकी बगल में बैठ जाती थी. राज ने चोरी छिपे एकाध बार उसकी ओर देखने की कोशिश की तो पाया कि वह खिड़की के बाहर के द्ऋष्यों में मग्न है.
कुछ दिनों पहले जब वह लडकी बस में चढ रही थी तो राज ने हिम्मत करकर उसको ध्यान से देखने की कोशिश की थी. छोटे कद की दुबली पतली लड़की थी वह. रंग गोरा तो नहीं था, पर वह काली या सांवली भी नहीं थी. उसके चेहरे के रंग को गेहुँआ कहा जा सकता था. चेहरा भी बहुत आकर्षक नहीं था, पर उसकी मुस्कुराहट जिसमें मासूमियत की झलक थी, उसके सब कम्मियों को दूर कर देती थी. उस दिन भी लडकी आकर उसी की बगल में बैठी थी. राज को लगा कि आज उससे बातचीत करनी चाहिए, पर कुछ सोचकर वह चुप रह गया. उसे लगा कि लडकी ने उसे ध्यान से देखते देख न लिया हो.
कल वह लडकी अपने स्टाप पर नहीं थी. मिनी बस जब वहाँ से निकल गयी तो राज को लगा, यह क्या हो गया? वह क्यों नहीं आयी?वह इतनी नियमित थी कि उसकी अनुपस्थिति राज सोच भी नहीं सकता था. उसे यह भी ख्याल नहीं आया कि वह छुट्टी भी ले सकती है. कोई भी आवश्यक काम पड सकता है. राज उदास अवश्य हो गया था और दिन भर किसी काम में उसका मन नहीं लगा था. कभी तो वह सोचता कि वह लडकी अब आयेगी ही नहीं. कभी कुछ और सोचने लगता. उसे तो यह भी नहीं पता था कि वह लडकी कुँआरी है या शादीशुदा. कभी उसके मन में यह भी ख्याल आ रहा था कि हो सकता है कि उसके पिता की तबियत खराब हो गयी हो या माँ बीमार हो गयी हो. उसे अपने ऊपर आश्चर्य भी हो रहा था कि क्यों वह इतना सोच रहा है उस लडकी के बारे में. क्या लेना देना है उसे उस लड़की से? क्या रिश्ता है उसका लडकी के साथ? ख्यालात राज का पीछा नहीं छोड रहे थे. उसके मन में एकबार यह भी ख्याल आया था कि हो सकता है कि वह लडकी अपने प्रेमी के साथ भाग गयी हो. पर इस विचार से उसको झटका लगा और राज ने उसे अपने अंदर ज्यादा देर तक टिकने नहीं दिया.
वैसे दफ्तर में राज ने अपने मित्र से ही इसके बारे में चर्चा करने की सोची. दफ्तर मे ऐसे तो बहुत लोग थे, पर वही एक मित्र था, जिससे वह खुल कर किसी बात पर चर्चा कर सकता था. राज को तो आज यह भी याद नहीं है कि कितने मतलब और बेमतलब की बातें उसने अपने इस मित्र से की है. उन दोनों के बीच कोई दुराव छिपाव नहीं था, पर इस मामले का जिक्र वह अपने उस मित्र से भी नहीं कर सका. पता नहीं क्यों राज को लगा कि मित्र उसकी मूर्खता का मजाक उडायेगा. मित्र ने एकबार उसकी अन्यमनस्कता का कारण जानने का प्रयत्न भी किया था,पर राज टाल गया था और काम का बहाना करके उसके पास से खिसक गया था.
राज को आश्चर्य हुआ कि दफ्तर से लौटते समय भी वह उसी लड़की के बारे में सोच रहा था. मिनी बस जब उस स्टाप से गुजरने वाली थी तो राज को लगा कि उसे वहीं उतर जाना चाहिए और उस लडकी के घर जाना चाहिए. फिर उसे ख्याल आया कि वह उस लडकी के घर का पता,यहाँ तक की उसका नाम भी नहीं जानता है. यह सोचकर उसे अपने आप पर बहुत क्रोध आया.
घर पहुँचते-पहुँचते राज ने अपने को सामान्य बनाने का प्रयत्न किया. उसे लगा कि परिवार के लोग उससे उसकी उदासी का कारण न पूछ बैठें. पर किसी ने पूछा नहीं. यों भी दफ्तर से लौटने ओोर खाना खाकर सोने के बीच समय ही कितना मिलता है कि परिवार के सदस़्य एक दूसरे की ओर इतना ध्यान दें. अगर बीच में रविवार न पडे तो परिवार के सदस़्य शायद एक दूसरे को ठीक से पहचान भी नहीं सके. ऐसे तो रविवार के दिन भी लोगों को एक दूसरे से बात करने की कितनी फुरसत होती है? न जगने का ठिकाना, न नहाने धोने का. दोपहर के भोजन के समय अवश्य सब एक साथ हो जाते हैं.
रात का खाना खाकर राज दस बजे के बाद हीं अपने विस्तर पर चला गया. परिवात के अन्य सदस्यों को इसमे भी कोई अनोखापन नहीं नजर आया. अपने कमरे में जाकर कुछ देर तक तो वह अखबार पढता रहा. फिर बत्ती बुझाकर सो गया. नींद तो उसे आ नहीं रही थी. वह योहीं करवटें बदलता रहा. दिन भर की घटनाएँ उसे एक एक कर याद आा रहीं थीं. ऐसे उस लडकी के बारे में सोचना उसे पागलपन के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं लग रहा था,पर राज हटा नहीं पारहा रहा उसे अपने दिलोदिमाग से.
राज को कब नींद आयी उसे पता भी नहीं चला, पर जागा तो पसीने से लथपथ था और उसकी सांसें जोर-जोर से चल रहीं थीं. राज को लगा कि वह जोर से चिल्लाया था और अब उसे आश्चर्य हो रहा था कि किसी ने उसकी आवाज सुनी क्यों नहीं. उसने एक भयानक स्वप्न देखा था. और उस स्वप्न की याद अभी भी उसके शरीर में कपकपीं पैदा कर रही थी. उसने देखा था कि वह लडकी, हाँ हाँ वही बस वाली लडकी आग कि लपटों से घिरी है. आग की लपटों के बीच भी राज को उसका चेहरा साफ-साफ नजर आ रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि लड़की के आसपास खडे़ लोग उसको बचाने का प्रयत्न क्यों नहीं कर रहे हैं. राज दौड कर लडकी के पास पहुँचना चाहता था, पर उसे ऐसा लग रहा था कि उसके पैर जंजीर से जकडे हुए हैं और चाह कर भी लडकी की सहायता के लिए नहीं पहुँच सकता है. राज को अपनी अस्हायावस्था पर रोना आा रहा था. उसने यह भी महसूस किया कि कुछ लोग उसकी तरफ इशारे भी कर रहे हैं राज को लगा कि लोग उसकी ओर इशारे कर के यह बताना चाहते हैं कि देखो यह वही शख्स है जिसकी वजह से लड़की इस हालात में पहुँच गयी है. इसी ने लडकी को इस अवस्था में पहुँचने पर मजबूर कर दिया है. राज जोर से चिल्ला पडा था,नहीं यह सब झूठ है. मैनें ऐसा कुछ भी नहीं किया. इसके बाद हीं उसकी नींद टूट गयी. कमरे में घुप्प अंधेरा था. ऐसा अंधेरा तो उसके कमरे में होता नहीं. हाँलाकि वह बत्ती बुझाकर हीं सोता है,पर आसपास की रोशनी के कारण उसका कमरा पूर्ण अंधकारमय नहीं हो पाता. शायद बिजली चली गयी थी,क्योंकि उसके कमरे का पंखा भी नहीं चल रहा था. अब नींद आने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था.
सुबह जब राज उठा तो उसका सर भारी भारी लग रहा था. रात का स्वप्न बुरी तरह उसके दिमाग पर छाया हुआ था. वह यंत्रवत दफ्तर के लिए तैयार हुआ एक बार उसका मन हुआ कि इस बस को छोड दे,पर दफ्तर में देर से पहुँचने का भय उसे बस स्टाप तक ले ही गया. राज बहुत अनमने से मिनी बस में चढा. मिनी बस जब उस लड़की वाले स्टाप पर पहुँची,तो राज को बाहर देखने का भी साहस नहीं हुआ,पर जब वह लड़की बस में दाखिल हुई तो उसकी निगाह अनायास लड़की की ओर उठ गयी. वही चिर परिचित मुस्कान उसके चेहरे पर थी. राज ने सुना, लड़की उसके बगल में बैठते हुए कह रही थी,-“कल घर से निकलने में थोडी देर हो गयी और मैं यह बस न पकड सकी”.
भोपाल,16 मई,2011। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में शैक्षणिक सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई है। विश्वविद्यालय द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, विज्ञापन एवं विपणन संचार, मनोरंजन संचार, कॉर्पोरेट संचार तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार में एम.बी.ए. पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत एम.जे. (पत्रकारिता स्नातकोत्तर), एम.ए.-विज्ञापन एवं जनसंपर्क, एम.ए.-जनसंचार, एम.ए.-प्रसारण पत्रकारिता, एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं । तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रमों के अंतर्गत बी.ए.-जनसंचार, बी.एससी.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बी.एससी.-ग्राफिक्स एवं एनीमेशन, बी.एससी.-मल्टीमीडिया तथा बी.सी.ए. पाठ्यक्रम संचालित हैं। एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत विडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार तथा भारतीय संचार परंपराएँ तथा पीजीडीसीए जैसे स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त एमसीए तथा बी.लिब. पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। मीडिया अध्ययन में एम.फिल. तथा संचार, जनसंचार, कंप्यूटर विज्ञान तथा पुस्तकालय विज्ञान में पीएच.डी. हेतु आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया विश्वविद्यालय के भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा स्थित परिसरों के लिए है। पाठ्यक्रमों में आवेदन करने की अंतिम तिथि 25 मई 2011 है। प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा का आयोजन 12 जून 2011 को भोपाल, कोलकाता जयपुर, पटना, रांची, लखनऊ,खंडवा तथा दिल्ली/नोएडा केन्द्रों पर किया जायेगा। अधिक जानकारी विवरणिका और आवेदन पत्र हेतु दिनांक 16-22 अप्रैल 2011 के “रोजगार समाचार” तथा “एम्प्लोयेमेंट न्यूज़” एवं दिनांक 18-24 अप्रैल 2011 के “रोजगार और निर्माण” में प्रकाशित विज्ञापन देखें अथवा विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in पर लागऑन करें या किसी भी परिसर में पधारें अथवा फोन करें 0755-2553523 (भोपाल), 0120-4260640 (नोएडा), 0733-2248895 (खंडवा)।विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रम रोजगारोन्मुखी हैं एवं मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं।
सरकार चाहे केंद्र की हो राज्य की, सियासी दल चाहे जो भी हो, जनसेवक किसी भी मानसिकता का हो, हर कोई अपने आप को देश और समाज के उत्थान के प्रति अपने आप को पूरी तरह से समर्पित बताने से नहीं चूकता है। अपनी घोषित प्राथमिकताओं के प्रति ये सारे के सारे ठेकेदार कितने संजीदा हैं इस बात का पता देश की सबसे बड़ी अदालत के द्वारा प्राथमिक विद्यालयांे की दुर्दशा को देखकर लगाई गई जबर्दस्त फटकार से लगाया जा सकता है। केंद्र और राज्य के लिए शर्म की बात है कि पहली कक्षा से पांचवी कक्षा तक के बच्चों को वे बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करा पा रही हैं। देश के जनसेवक और लोकसेवक निहित स्वार्थों मंे पूरी तरह उलझकर रह गए हैं, यही कारण है कि देश के शिक्षण संस्थान बद से बदतर स्थिति को प्राप्त होते जा रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्राथमिक विद्यालयों की दुर्दशा पर विभन्न राज्यों की सरकारों को आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई है। सरकारों के लिए डूब मरने वाली बात है कि जिस मामले में उन्हें संज्ञान लेना चाहिए उस मामले में न्यायालय द्वारा उन्हें कड़ी फटकार के साथ दिशा निर्देश जारी करने पड़ रहे हैं। शिक्षा आज व्यवसाय बन चुका है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। कुकुरमुत्ते के मानिंद गली गली में स्कूल खुल चुके हैं। केंद्र सरकार के निर्देशों के बाद भी सरेआम कैपिटेशन फीस ली जा रही है। कमीशन के चक्कर में दुकान विशेष से शाला का गणवेश और कोर्स की किताबें लेने मजबूर किया जा रहा है। इन सब बातों को रोकने के लिए पाबंद जिलों में तैनात जिला शिक्षा अधिकारी सरेराह लूटने वाले इन शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन के एजेंट के बतौर काम करने लगे हैं।
अमूमन हर शाला में बच्चों से बिल्डिंग फंड, विकास शुल्क, कंप्यूटर शुल्क, क्रीड़ा शुल्क, पुस्तकालय शुल्क आदि की मद में भारी भरकम राशि ली जाती है। जिला शिक्ष अधिकारी अगर शालाओं मंे जाकर नए बने किन्तु जर्जर शाला भवन, बिना कांच की खिड़कियां, खराब बिना इंटरनेट कनेक्शन वाले कंप्यूटर, पथरीले खेल के मैदान, बिना किताबों वाले पुस्तकालय देखें तो वास्तविक स्थिति काफी हद तक सामने आ सकती है। विडम्बना ही कही जाएगी कि चंद सिक्कों की खनक के आगे जिलों में तैनात शिक्षा अधिकारियों द्वारा नौनिहालों का भविष्य और अपना ईमान ही गिरवी रख दिया जाता है।
शहरों में आबादी के बोझ के कारण निजी तौर पर संचालित शिक्षण संस्थानों ने अपने शाला भवन आबादी से काफी दूर बना रखे हैं। घर से दस पांच किलोमीटर दूर शाला भवन में पहली से लेकर पांचवी दर्जे तक का बच्चा ठंड के दिनों में किस तरह दिन काटता होगा यह सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है। हद तो तब होती है जब ठंड के मौसम में बिना कांच वाली खिड़कियों से सर्द गलाने वाली हवाओं के झौंके कक्षा के अंदर प्रवेश करते हैं। आसपास खेतों में होने वाली सिंचाई भी मौसम को और अधिक ठंडा बना देती है। निष्ठुर शाला प्रबंधन तब भी अपनी शाला को अलह सुब्बह ही लगाने का हिटलरी फरमान वापस भी नहीं लेता है।
बहरहाल एक जनहित याचिका की सुनवाई पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने संज्ञान लिया है। सुप्रीम कोर्ट आॅफ इंडिया ने मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखण्ड़ झारखण्ड, पंजाब सहित 13 सूबों को फटकार लगाते हुए उनके राज्यों के प्राथमिक विद्यालयों में एक माह की समयावधि में पेयजल और छः माह के अंदर ढांचागत सुविधाएं मुहैया करवाने के निर्देश दे दिए हैं। सर्वोच्च न्यायायल की फटकार के बाद वास्तविक स्थिति सामने आ गई है कि राज्यों की सरकारें देश के नौनिहालों की पढ़ाई लिखाई और सुविधाओं के प्रति कितनी संजीदा हैं।
राज्यों की सरकारें अपने और कंेद्रीय स्तर पर संचालित होने वाले सरकारी स्कूलों के साथ तो दोयम दर्जे का व्यवहार कर रही हैं। जिलों में तैनात जिलाधिकारी, प्रभारी अधिकारी उप जिलाधिकारी और जिला शिक्षा अधिकारियों द्वारा भी इस दिशा में ध्यान न दिया जाना आश्चर्यजनक ही है। जिलों में निजी तौर पर संचालित होने वाली शिक्षण संस्थाओं द्वारा शिक्षा को व्यवसाय बनाकर पालकों को सरेआम लूटा जा रहा है। यह निश्चित तौर पर सरकारों का सिर शर्म के साथ झुकाने वाली बात है कि हजारों की तादाद में प्राथमिक शालाओं की फेहरिसत आज भी जिंदा है जिसमें पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं है। जहां पानी ही नहीं है वहां तो शौचालय, बिजली, पंखो, फर्नीचर तो दूर की कौड़ी होगी।
प्राथमिक स्तर के अलावा हाई और सेकन्ड्री स्तर पर तो और भी कमियां हैं। यह तो मूल समस्या है ही मगर शिक्षकों की कमी सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है। एक तो शिक्षकों की कमी उपर से शिक्षकों को जन गणना, परिवार कल्याण, पल्स पोलियो जैसे कामों में बतौर बेगार कराने से शिक्षकों द्वारा पढ़ाई के काम में दिलचस्पी नहीं ली जाती है। अनेक राज्य तो एसे भी हैं जहां शिक्षकों के रिक्त पदों की संख्या हजारों में है। कंेद्र सरकार की महात्वाकांक्षी योजना ‘सर्व शिक्षा अभियान‘ में शिक्षकों की कमी के चलते भी जो आंकड़े और कागजी खाना पूरी सामने आ रही है उससे प्रतीत होता है कि नौकरशाह और जनसेवक मिलकर जनता को सरेआम बेवकूफ बनाने पर ही आमदा हैं। देश के नीति निर्धारकों को इस बात को समझना ही होगा कि इस तरह से आंकड़ों की बाजीगरी कर वे देश के भविष्य के साथ किस कदर खिलवाड़ कर रहे हैं।
बच्चों के कल्याण का कथित तौर पर ठेका लेकर समाज सेवा का दंभ भरने वाली सामाजिक संस्थाएं और गैर राजनीतिक दल भी इस गंभीर मसले पर चुप्पी ही साधे बैठे हैं। शिक्षा की गुणवत्ता दिनों दिन गिरती जा रही है। शिक्षा को लेकर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा नित नए प्रयोग किए जाते रहे हैं। जब जिस शासक का मन चाहा उसने अपने हिसाब से शिक्षा का स्वरूप ही बदल दिया। शिक्षा को प्रयोगशाला बनाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ ने राष्ट्र, पालक, बच्चों, समाज आदि के साथ सरेआम धोखाधड़ी की जा रही है जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। मोटी चमड़ी वाले शासकों पर अब अनैतिक बातों के खिलाफ होने वाली चीत्कार का कोई असर नहीं होता है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण हर हाल में रोकना ही होगा। शिक्षा को पैसा कमाने का व्यवसाय समझना निश्चित तौर पर अनुचित है। किसी ने सच ही कहा है कि अगर समूचे कुंए में ही भांग घुली हो तो मोहल्ले या गांव का तो भगवान ही मालिक है।
मित्रों, यह तो सर्वविदित ही है की उत्तर प्रदेश के आठ जिलों में मायावती सरकार द्वारा केंद्र सरकार की स्वीकृति से दस यांत्रिक पशु वधशालाएँ खोली गयी हैं| जहाँ पर दस से पंद्रह हज़ार निर्दोष पशुओं को प्रतिदिन एक वधशाला में ही काट दिया जाएगा| कुल मिलाकर इन दस वधशालाओं में प्रतिदिन एक से डेढ़ लाख निर्दोष पशु दर्दनाक मौत मारे जाएंगे|
इसके विरोध में जैन मुनि श्री मैत्री प्रभु सागर २६ अप्रेल से बडौत में आमरण अनशन पर बैठे हैं| इस अभियान में उन्हें भारी जनसमर्थन मिल रहा है| केवल बडौत या उत्तर प्रदेश से ही नहीं अपितु देश भर से लोग उन्हें समर्थन दे रहे हैं| सरकार पूरी कोशिश में लगी है कि किसी भी प्रकार इस अनशन को तोडा जाए| इसीलिए १२ मई की अर्ध रात्री में उन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस ने जबरन गिरफ्तार कर लिया और उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया जहां जबरदस्ती उन्हें ग्लूकोज़ दे दिया गया| इससे महाराज श्री का क्रोध और बढ़ गया और उन्होंने कहा की मेरा अनशन अभी टूटा नहीं है, मैंने मूंह से अभी तक कुछ नहीं खाया है अत: मेरा अनशन जारी रहेगा|
महाराज श्री के समर्थकों ने उनकी गिरफ्तारी का विरोध किया तो पुलिस ने उन्हें बर्बरता से पीटा| उन पर लाठी चार्ज व फायरिंग की गयी| बहुत से लोग घायल हो गए| कर्नाटक के संत स्वामी दयानंद भी जैन मुनि का समर्थन कर रहे थे| उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया किन्तु उनकी गिरफ्तारी नहीं दिखाई गयी|
इसी बीच छपरौली कस्बे के एक युवक एवं वंचित जमात पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तर सलमानी ने महाराज श्री का समर्थन किया व उनकी गिरफ्तारी के विरोध में यह चेतावनी दी कि यदि ३६ घंटों के भीतर महाराज श्री की मांगों को स्वीकार नहीं किया गया तो वे १५ मई को पुलिस थाने के सामने आत्मदाह कर लेंगे| उनका कहना है कि महाराज श्री को इस प्रकार जबरन अनशन से उठाकर प्रदेश सरकार ने जन भावनाओं को आहत किया है|
अस्पताल से महाराज श्री को सीधे दिल्ली के दिलशान गार्डन ले जाया गया| महाराज श्री ने चेतावनी दी है कि जब तक सरकार इन पशु वधशालाओं को बंद नहीं कर देती तब तक हमारा आन्दोलन जारी रहेगा|
१९ मई को राजघाट से जंतर-मंतर तक महाराज श्री के नेतृत्व में अहिंसा रैली निकाली जाएगी|
इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में पशुओं पर होने वाली क्रूरता एवं इसके परिणाम स्वरुप होने वाले नुक्सान का एक और उदाहरण देखिये|
मेरठ में हापुड़ रोड पर एक कमेला है जहाँ पशु वधशालाओं में प्रतिदिन ६००० हज़ार पशुओं को काटा जाता है| वहां हड्डी व चमड़ा गोदाम हैं| जानवारों के अवशेषों व हड्डियों से चर्बी निकालने के लिए भट्टियां लगी हुई हैं, जिनसे निकलने वाले धुएं की बदबू से वहां के निवासीयों का जीना दूभर हो गया है| इस कमेले के प्रदूषित जल को काली नदी में बहा दिया जाता है, जिससे नदी पूरी तरह प्रदूषित हो गयी है| इसके अ तिरिक्त धरती में बोरिंग करके ३०० फुट नीचे तक इस प्रदूषित जल को भूगर्भ में भी डाला जा रहा है| जिससे नगर निगम की २५ कॉलोनियों का जल पीने लायक नहीं रहा| इस इकाई में चार वधशालाएँ हैं| ६०० भट्टियां व १० हड्डी व चमड़ा गोदाम हैं| प्रतिदिन ६००० हज़ार पशुओं की हड्डियों को पकाने के लिए ८८० टन लकड़ियों को भी जलाया जाता है| इस पूरे कारोबार में ९२० टन पानी का उपयोग होता है, जिसके लिए पानी का कोई क�¤ �ेक्शन नहीं लिया गया है यह सारा पानी बोरिंग के द्वारा भूगर्भ से निकाला जा रहा है| इससे प्रतिदिन १०१२ लीटर प्रदूषित जल (जिसमे १२० किलो पशुओं का रक्त भी शामिल है) की निकासी के लिए इसे काली नदी व भूगर्भ में छोड़ दिया जाता है| इसके परिणाम स्वरुप शहर में प्रतिदिन सवा लाख किलोग्राम मांस की खपत शहर में हो रही है|
मेरठ की सबसे बड़ी समस्या यह कमेला है| जहाँ प्रतिदिन हज़ारों निर्दोष पशुओं को बड़ी बेदर्दी से मारा जा रहा है| इसके द्वारा शहर का पर्यावरण व जल प्रदुषण भी हो रहा है| इस कमेले के आसपास बांग्लादेशी बसे हुए हैं जो इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं| ये बांग्लादेशी देश के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं| यह कमेला कमाई का मोटा साधन होने के कारण राजनीति को प्रभावित करता है जिसके कारण कई बार शहर का वातावरण खराब हो चूका है| और सबसे बड़ी बात यह कमेला नगर निगम की जमीन पर अवैध कब्ज़ा कर के बनाया हुआ है| फिर सरकार इसे बंद क्यों नहीं करती है?
इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के नरक बन जाने का एक और प्रमुख कारण इन दिनों चर्चा में है| हमारे भारत देश का अन्न दाता किसान किस प्रकार यहाँ ठगा जा रहा है यह अब किसी से छिपा नहीं है| यमुना एक्सप्रेस हाइवे के नाम पर किसानों से उनकी ज़मीनों को छीना जा रहा है| अब यमुना एक्सप्रेस हाइवे का किसानों के लिए क्या उपयोग होगा? वे तो बेचारे इस सड़क पर चलने के लिए टोल टैक्स भी नहीं दे सकते| इसके अतिरिà ��्त किसानों से उनकी जमीन कौड़ियों के भावों में सरकार द्वारा हडपी जा रही है और महंगे दामों पर बड़ेबड़े उद्योगपतियों को सौंपी जा रही है| और यह सब कुछ अंग्रेजों के बनाए क़ानून के अंतर्गत हो रहा है जिसे आज तक बदला नहीं गया| यह भूमि अधिग्रहण विधेयक १८९४ में अंग्रेज़ सरकार द्वारा किसानों की भूमि हड़प कर ईस्ट इण्डिया कंपनी को सौंपने के लिए बनाया गया था, जिसका आज तक उसी प्रकार उपयोग हो रहा है| अंतर है तो केवल इतना की पहले अंग्रेजों द्वारा किसानों की ज़मीन को हड़प कर ईस्ट इण्डिया कंपनी के नाम किया जाता था किन्तु आज इन काले अंग्रेजों द्वारा किसानों से उसी प्रकार उनकी भूमि छीन कर बड़े बड़े उद्योग पतियों को बेचा जा रहा है| और विरोध करने पर सरकार पुलिस के द्वारा लाठियां बरसा रही है एवं निर्दोष किसानों पर गोलियां चलवा रही है|
अब आप ही सोचें कि भगवान् श्री राम व श्री कृष्ण की जन्मभूमि उत्तर प्रदेश को इस मोह ”माया” ने कैसा नरक बना डाला???
चौंक गए ना इस घड़ी को देख कर ? आपका चौंकना जायज है क्योकि इस घड़ी की नंबरिंग सामान्य घड़ियों की तरह नही बल्कि उसके ठीक विपरीत है .ये ही नही बल्कि इसके कांटे भी सामान्य घड़ियों से उल्टे चलते है . किसी चीज के घुमने की दिशा प्रकट करना हो तो आम तौर पर ‘ क्लाँक -वाइस ‘ अथवा ‘ एन्टी क्लाँक -वाइस ‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है ; लेकिन जो लोग इस घड़ी का प्रयोग करते है उनके लिए इसका अर्थ उल्टा होगा .इस घड़ी की परिकल्पना गोण्डवाना समाज ने की है , ये छत्तीसगढ़ में रहने वाले आदिवासी है जो प्रकृति प्रेमी होते है . आज जंगलों में यदि थोड़े – बहुत वृक्ष बचे है तो इनकी वजह से ही बचे है ,ये प्रकृति के रक्षक माने जाते है . ये पृथ्वी के पुजारी है . पृथ्वी के घुमने की दिशा ‘ एन्टी क्लाँक -वाइस ‘ होती है ,छत्तीसगढ़ में किसान जब खेतों में हल चलातें है तो उनके घूमने दिशा भी ‘ एन्टी क्लाँक -वाइस ‘ होती है शायद इसीलिए इन्होने इस प्रकार की घड़ी की परिकल्पना की है जो पृथ्वी की दिशा में घूमें .
मई २०११ के बस्तर प्रवास दौरान बचेली के एक कार्यकर्ता श्री संतोष ध्रुव ने मुझे दोपहर भोजन पर आमन्त्रित किया , उनकी बैठक में ऐसी ही घड़ी मुझे देखने को मिली . भोजन के दौरान इस घड़ी पर भी चर्चा हुई . ऐसा नही कि इस प्रकार की घड़ी को हमने पहली बार देखा हो , इससे पहले भी हमने ऐसी घड़ी देखी तो थी मगर तब हमने यह महसूस किया था कि शायद शौकिया तौर पर कुछ लोग जैसे गाड़ियों के नंबर प्लेट का कलात्मक डिजाइन बनवाते है उसी प्रकार अपनी घड़ी को भी बनावाये हों ,लेकिन ऐसा नही है . मेरी बस्तर-यात्रा के संस्मरण मे एक अध्याय बनकर इन् घड़ियों को देखना भी जुड गया. यात्रा यादगार रही.
असम को छोड़ अन्य राज्यों के चुनाव परिणाम वही आए, जैसे आने की उम्मीद थी। लिहाजा परिणाम चौंकाने वाले नहीं कहे जा सकते। पश्चिम बंगाल के परिप्रेक्ष्य में जरूर वामपंथियों को हराकर आम आदमी के हुलिये की प्रतीक ममता बनर्जी ने इतिहास रचा है। हालांकि मतदान की अधिकता ने भी बदलाव के संकेत दे दिए थे। तमिलनाडू और बंगाल में तो इतिहास का सर्वाधिक मतदान हुआ। इसका श्रेय राजनीतिक दलों की बजाय चुनाव आयोग को जाता है। सुरक्षा बलों की तैनाती कर जहां असम और बंगाल में हिंसा व मतदान केंद्र कब्जाने की धटनाएं सामने नहीं आईं, वहीं आयोग ने ऐसा महौल रचा जिससे लोगों ने निडर होकर बढ़-चढ़ कर मतदान में हिस्सा लिया। इन चुनाव नतीजों ने चार बुर्जुगवार दिग्गज राजनीतिज्ञों के भाग्य का भी फैसला कर दिया है, इनमें से तीन, बुध्ददेव भट्टाचार्य, करूणानिधि और अच्युतानंद मिश्र को पराजय का सामना करना पड़ा वहीं तरूण गोगाई असम में तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण कर इतिहास रचेंगे। भारतीय राजनीति की दो दिग्गज महिलाएं ममता बनर्जी और जयललिता मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। इससे देश की राजनीति और सत्ताा में महिला पदाधिकारियों का ग्राफ बढ़ गया है। लेकिन इनका नेतृत्व महिला सशक्तिकरण में कितना भागीदार होता है, इसके परिणाम अभी काल के गर्भ में हैं। क्योंकि देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ताा का खेल, खेल रही सोनिया गांधी के सत्ताा में जबरदश्त प्रभाव व पकड़ के बावजूद महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा से पारित नहीं हो सका है।
सबसे पहले तो इन चुनाव परिणमों की जो खास भूमिका रही उसके तईं चार में से तीन बुर्जुगवार मंख्यमंत्रियों को जनता ने खारिज कर दिया। इनमें पश्चिम बंगाल के 67 वर्षीय मुयख्मंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य, तलिमनाडू के 86 वर्षीय करूणानिधि हैं। केरल के 75 वर्षिय मुख्यमंत्री तरूण गोगाई जरूर तीसरी पारी खेलने जा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं की ये मुख्यमंत्री जीतते तो गोगाई की तरह इतिहास रचते, लेकिन अब ये हार गए हैं इसलिए ये राजनीति के अतीत में कहीं गुम हो जाएंगे। बुध्ददेव को तो खुद हार का सामना करना पड़ा है। किसी मुख्यमंत्री के लिए स्वयं पराजय से रूबरू होना, उसकी राजनीतिक हैसियत का जनविरोधी दस्तावेज है। जिससे एकाएक उबरना आसान नहीं है। वामपंथियों ने बंगाल में गरीबी को अजेंडे में शामिल जरूर किया, लेकिन गरीबी से मुक्ति के कारगर उपाय नहीं किए। इसी तारतम्य में ममता आक्रमक तेवरों के साथ आम आदमी के हुलिए में आदमकद पेश आईं। नतीजतन अवाम ने उन्हें मजबूत वैकल्पिक विपक्ष के रूप में देखा और ताबड़तोड़ समर्थन दिया। ममता ने सिंगूर और नंदीग्राम की हिंसा को इस हद तक भुनाया कि बुध्ददेव, वामपंथ और सरकार की लोकप्रियता चौपट कर उन्हें आपराधिक तत्वों के दर्जे में ला खड़ा किया। इस माहौल को रचने में निर्विवाद रूप से एकांगी योगदान ममता के जुझारू संघर्ष को जाता है। कांग्रेस गठबंधन के रूप में ममता से जुड़ी जरूर थी, लेकिन उसकी भूमिका पतंग में पुंछल्ले से ज्यादा नहीं गिनी जा सकती। कालांतर में भी कांग्रेस की भूमिका इसी रूप में बनी रहेगी। रेल भवन से राइटर्स बिल्डिंग का सफर तय करने वाली तेज तर्रार इस नेत्री से कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद पालने की जरूरत नहीं है। क्योंकि ममता के पीछे चली आंधी ने तय कर दिया है कि मां, माटी और मानुष का नारा देकर लाल गढ़ पर झण्डा फहराने वाली इस राजनेत्री में ‘नेता’ बनाम ‘ममता’ के बीच न तो कोई दूरी है, न फर्क है और न ही कुटिलता है। इन्हीं वजहों से वे आम आदमी की प्रतीक हैं। सिद्धार्थ शंकर रे के समय कांग्रेस का नेतृत्व जहां प्रतिबध्दता का बोध कराता था, वहीं ममता सर्वहारा का बोध दे रही हैं। जिसमें अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदनशीलता है। यहां ममता की जीवटता को दाद देने होगी। पूरे 34 साल उन्होंने वामपंथ से संघर्ष किया। उन्हें तोड़ने के लिए उन पर कातिलाना हमले भी हुए। किंतु वे पीछे नहीं हटीं। बल्कि दुनिया के नक्शे से जिस वामपंथ का सफाया हो चुका था, वह अंगद के पांव की तरह बंगाल में डटे रहकर वाममार्गियों के लिए एक उत्प्रेरक मिशाल का काम कर रहा था। इस काम को ममता के संकल्प और मजबूत इच्छाबल ने आखिरकार धूल चटा ही दी। लेकिन इस प्रचंड जीत के बाद अब ममता को अपने राजनैतिक हठ के परिदृश्य को थोड़ा लचीला बनाने की जरूरत है। ममता वामदलों से संवादहीनता बनाए हुए हैं। जैसे वामपंथी कोई फिरंगी हुक्मरान हों। विपक्ष से संवाद कायम किए बिना स्वच्छ राजनीतिक संस्कृति का विकास नमुमकिन है? शांति, सद्भाव और भाईचारे के लिए भी प्रतिपक्ष से बोलचाल जरूरी है।
बुध्ददेव से ज्यादा संकट में तमिलनाडू के निर्वतमान होने जा रहे मुख्यमंत्री करूणानिधि हैं। क्योंकि यहां करूणा और जयललिता के बीच जो टकराव है, उसका धरातल केवल राजनीतिक हदों में सीमित नहीं है, वह व्यक्तिगत शत्रुता और कटुता की हद में भी है। करूणा की सत्ताा तो तहस-नहस हो ही गई, उनका वंशवादी जो अतिरिक्त मोह था, उस पर भी जनता ने करारा तमाचा जड़ा है। ये विपरीत हालात उनके परिवार की अंदरूनी लड़ाई को सड़क पर भी ला सकते हैं। इधर उनकी बेटी कनिमोझी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में इतनी घिर गईं हैं कि उन्हें कभी भी जेल के सींखचों के पीछे जाना पड़ सकता है। इस कारण निश्चित रूप से द्रमुक सकते में है और उसे केंद्रीय सत्ता (संप्रग) से सरंक्षण व सुरक्षा की जरूरत है। क्योंकि अन्नाद्रमुक जरा सी गुंजाइश मिलते ही, बुर्जुग करूणनिधि और उनके वंशजों को अपमानित करने से चुकने वाली नहीं है। यह एक ऐसी वजह भी है जिसके चलते करूणा का कुटुम्ब मजबूरीवश एक बना रहे। वैसे भी जयललिता से लड़ाई के लिए इस कुटुम्ब को अब सक्रिय राजनीति के आचरण प्रदर्शन में बने रहने की जरूरत है। द्रमुक की इस लाचारी से कांग्रेस जरूर भविष्य में लाभान्वित होती रहेगी। क्योंकि अब करूणानिधि गठबंधन की मजबूरी के चलते मोलभाव की स्थिति में नहीं हैं। कांग्रेस के पास जयललिता के 19 सांसदों का ऐसा मजबूत विकल्प मौजूद है जो गठबंधन का हिस्सा बनने को तत्पर है। बहरहाल द्रमुक की कमजोरी कांग्रेस को मजबूती देती रहेगी। जयललिता को मतदाताओं ने 85 फीसदी सीटों पर जीत दिलाई है। दो मर्तबा मुख्यमंत्री रह चुकी जयललिता को यह जीत दंभ के आचरण में भी ढाल सकती है। वैसे भी उनका रवैया तानाशाही प्रवृत्तिा का प्रतीक रहा है। इसलिए करूणा-कुटुंब के हाल, बदतर बनाने के प्रति तो वे सचेत रहेंगी ही, अपने ही गठबंधन के सहयोगी दलों से जयललिता किनाराकशीं कर जाएं तो इससे भी हैरान होने की जरूरत नहीं है। हालांकि इस सब के बावजूद तमिलनाडू में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के अलावा कोई तीसरी विकल्प उभरता दिखाई नहीं दिया। पुड्डुचेरी में भी अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर पूर्व मुख्यमंत्री एन रंगास्वामी सरकार बनाने जा रहे हैं।
केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंद मिश्र भी 87 साल के दिग्गज वामपंथी नेता हैं। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूनाइटेड डेमोक्रेडिट फ्रंट ने सीपीएम के नेतृत्व वाली लेफ्ट डेमोक्रेडिट फ्रंट को मामूली अंतर से पराजित कर दिया है। मिश्र ने 68 सीटों पर जीत हासिल कर यह तो जताया है कि उनकी उम्र भले ही बढ़ गई हो, उनके जोश का उबाल अभी ठंडा नहीं पड़ा है। यदि मिश्र और पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन से उनका टकराव नहीं बना रहता तो वे यूडीएफ गठबंधन को जीत के करीब नहीं पहुंचने देते। यहां कांग्रेस की दुविधा यह है कि उसके पास कोई ऐसा मजबूत राजनीतिक चेहरा नहीं है जिसे मुख्यमंत्री की कमान सौंप दी जाए। मुख्यमंत्री का कोई प्रबल दावेदार भी नहीं है। चूंकि राहुल गांधी केरल में प्रचार की मुहिम का हिस्सा थे, इस नाते उम्मीद की जाती है कि उनकी पसंद के व्यक्ति को केरल की जिम्मेवारी सौंप दी जाऐगी। इनमें रमेश चेन्नीथला संभावित नाम है। मुख्यमंत्री कोई भी बने हालिया चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि मजबूत विपक्ष केवल केरल में होगा। बांकी अन्य राज्यों में सशक्त विपक्ष का अभाव सत्ताापक्ष को मनमानी करने पर विवश कर सकता है।
तरूण गोगाई ने हेटट्रिक मारकर सबकों चौंकाया है। अब वे शीला दीक्षित, नीतिशकुमार और नरेन्द्र मोदी की कतार में हैं। वैसे भी उन्हें असम की राजनीति का किंगमेकर माना जाता है। बीती सदी के 70 से 90 के दशक तक उन्होंने केंद्र की राजनीति में हाथ आजमाए। 6 मर्तबा सांसद और एक बार केंद्रीय मंत्री भी रहे। 1996 से राज्य की राजनीति में दखल दिया। 2001 में पहली बार मुख्यमंत्री बने और तीसरी बार भी अपनी स्वच्छ व ईमानदार छवि के बूते जीत का परचम फहराया। असम ही एक ऐसा राज्य है, जहां कांग्रेस की स्वतंत्र साख को बट्टा नहीं लगा। इन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया है कि अब मतदाता घोटले, भ्रष्टाचार को बरदाशत करने वाला नहीं है। उत्तर-प्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र सरकारों को इस जनादेश से सबक लेने की जरूरत है कि वे जबरिया भूमि अधिग्रहण के प्रपंचों से दूर हो जाएं, वरना उनका हश्र भी पश्चिम बंगाल जैसा हो सकता है।
बदलाव की बयार में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की सत्ता बदल गई है। केरल और पश्चिम बंगाल में लेफ्ट का लाल किला दरक गया, तो तमिलनाडु और पुडुचेरी में डीएमके-कांग्रेस की सत्ता सरक गई। असम ही एक ऐसा सूबा रहा जो बदलाव की बयार में अछूता रह गया। पांच राज्यों की विधान सभा के रिजल्ट से यह साफ हो गया है कि भारतीय मतदाता भ्रष्टाचार को अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता। मतदाताओं ने यह साफ तौर पर यह संदेश भी दिया है कि अगर वोट पाना है तो काम करना पड़ेगा।
तमिलनाडु के नतीजे यह बताने के लिए काफी हैं कि मतदाता भ्रष्टाचार को अब और सहने के मूड में कतई नहीं हैं। डीएमके के कई नेता पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। यहां तक कि भ्रष्टाचार के छींटे करुणा के घर तक पहुंच गए और बेटी कनिमोझी पर गिरफ्तारी का खतरा मंडरा रहा है। पार्टी के बड़े नेता और पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल में हैं। इन सब कारणों से भ्रष्टाचार चुनाव का अहम मुद्दा बन गया और करुणानिधि के नेतृत्व वाली डीएमके की बहुत किरकिरी हुई। अगर डीएमके की जीत हो जाती, तो यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाता कि जनता की नजर में वह बेदाग है। जनता ने यह मौका उससे छीन लिया। मतदाताओं ने इसकी सजा करुणानिधि सरकार को दी और इस बार के चुनाव में जयललिता की पार्टी को शानदार बहुमत मिला।
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव परिणामों ने साफ़ कर दिया कि अब वामपंथी विचारधारा का जमाना बीत गया। जनता ने सबके लिए एक अजेंडा तय कर दिया है: काम करो। वोट उसे मिलता है जो काम करता है या जिससे काम करने की उम्मीद की जा सकती है। इन चुनावों का यही सबसे बड़ा सबक है। बंगाल ने लेफ्ट को 34 साल तक आजमा कर देख लिया। अब उसे तरक्की चाहिए, जिसका वादा ममता बनर्जी कर रही हैं। पश्चिम बंगाल में 1977 के बाद पहली बार वाम मोर्चा को विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। ममता की आंधी में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी अपनी सीट नहीं बचा पाए। 294 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में तृणमूल- कांग्रेस गठबंधन ने सत्ताधारी लेफ्ट फ्रंट को करारा झटका देते हुए दो-तिहाई बहुमत हासिल किया।
बंगाल में लेफ्ट ने बरसों तक बदलाव की हवा को रोके रखा। उसने राज्य के हर कोने में ऐसा जाल फैला दिया, जिसे उधेड़ना मुश्किल था। राज्य की युवा पीढ़ी अपने लिए एक खुली जगह की तलाश कर रही थी। बसु के बाद वहां सीपीएम की नीतियों को बदलने की बात सोचने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य की रफ्तार इतनी धीमी थी कि बदलाव की आकांक्षा का दबाव पार्टी झेल नहीं पाई। इसके ठीक उलट, ममता का अपने बूते पर खड़ा होना और इस पुराने निजाम को चुनौती देना युवाओं को आकर्षित करने वाला साबित हुआ। इसके बाद सिंगूर और नंदीग्राम ने आग में घी का काम किया। ममता ने भूमि अधिग्रहण को लेकर लोगों की नाराजगी को समझा और वह गांववालों व किसानों की आवाज बनकर उभरी। तृणमूल कांग्रेस ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और खासकर ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की।
कुल मिलाकर इतना कहा जा सकता है कि तमिलनाडु में जहां इन चुनावों में भ्रष्टाचार सबसे बढ़ा मुद्दा था और यूपीए जिस तरह जयललिता की आंधी में उड़ गया है, उससे ममता बनर्जी के कंधों पर सवार होकर बंगाल का किला जीत लेने की उसकी सफलता की चमक जरूर मद्धिम पड़ गयी है। वहीं दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में ‘लाल किला’ ढह जाने और केरल में कांटे की टक्कर के बावजूद सत्ता गंवा देने के बाद लेफ्ट फ्रंट, खासकर उसकी अगुआ पार्टी सीपीएम को अब राष्ट्रीय राजनीति में अपने वजूद के सवालों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। पहली बार लेफ्ट इतना बेदम हुआ है कि बंगाल और केरल दोनों जगह से उखड़कर त्रिपुरा में जा सिमटा है। हाल के बरसों में लेफ्ट तीसरे मोर्चे के नाम पर कांग्रेस और बीजेपी को डराता आया है। उसका वह हथियार अब कमजोर हो जाएगा। देश की राजनीति में अलग समीकरण बनेंगे।
केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ को मामूली बहुमत मिला। वैसे, तो केरल में हर बार सत्ता परिवर्तन होता है लेकिन इस बार सीपीएम के नेताओं ने अपनी हार की कहानी खुद लिखी। मुख्यमंत्री वी. एस. अच्युतानंदन और केरल से पार्टी के बड़े नेता व पोलित ब्यूरो के सदस्य विजयन आपस में ही लड़ते रहे। पार्टी में कलह का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अच्युतानंदन का नाम प्रत्याशियों की लिस्ट में शामिल ही नहीं था। बाद में जब उनके समर्थकों ने हंगामा किया, तो उन्हों उम्मीदवार बनाया गया। इसके अलावा पार्टी के कुछ नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे।
असम में तरुण गोगोई से अमन-चैन की उम्मीद है, इसलिए असम में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई है। राज्य के 76 वर्षीय मुख्यमंत्री तरुण गोगोई तीसरी बार सत्ता संभालने की तैयारी में हैं। जनता को काम करने वाले लोगों पर भरोसा है, इसीलिए राज्यों में नेताओं का निजी करिश्मा चल निकला है। गुजरात में मोदी और बिहार में नीतीश पहले ही इस बदलाव की नुमाइंदगी कर चुके हैं।
पुड्डुचेरी में पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी के नेतृत्ववाले ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस (आआईएनआरसी) एवं ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) गठबंधन ने दो तिहाई बहुमत हासिल किया है। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ा है। ज्ञात हो कि पूर्व मुख्यमंत्री एन. रंगासामी ने दो महीने पहले कांग्रेस से अलग होकर फरवरी में ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस नाम से पार्टी बनाकर विधानसभा चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल की है। उनकी इस कामयाबी ने कांग्रेस के तीसरी बार सत्ता में काबिज होने के मंसूबों पर पानी फेर दिया है
इन चुनाव परिणामों पर विचार करते समय हमें आंध्र प्रदेश और कर्नाटक हुए उपचुनाव परिणामों को नहीं भूलना चाहिए, जहां कांग्रेस को करारी मात मिली है। कर्नाटक के उपचुनावों में जहां भाजपा ने जीत दर्ज करके अपनी दमदार उपस्थिति का अहसास कराया तो पूर्व मुख्यमंत्री और स्वर्गीय वाईएसआर रेड्डी के बेटे जगनमोहन ने कडप्पा में जीत दर्ज करके कांग्रेस के लिए नई चुनौतियों का संकेत दिया है। दक्षिण के राज्य में भाजपा की उपस्थिति कांग्रेस के लिए चिंता का सबब बन सकती है तो आंध्र प्रदेश में जगनमोहन का जादू नया समीकरण खड़ा कर सकता है।