क्या भारत सिर्फ एक बाजार है ? जहां पर खरीदने और बेचने वाले लोगों का बोलबाला है और क्या यहां सिर्फ पैसा ही पूजा जाता है ? और चूंकि बाजार का उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है इसलिये वह किसी भी नियम, नीति और अनीति को नहीं मानता। इसलिये वहां की राज्यसत्ता को देश के आत्मिक संस्कार नहीं बाजार के दलाल संचालित करते हैं। या भारत का कोई सांस्कृतिक अतीत भी है, जो भारत की विद्वता, संस्कार, आत्मिक चेतना, आध्यात्मिक उर्जा और उन सबसे अलग जीवन दर्शन के लिए विश्व में विख्यात था, लेकिन हमारे शासकों की अकर्मण्यता ने भारत के चैतन्यमयी और संस्कारी स्वरूप को नष्ट कर एक बाजार बना दिया।
आश्चर्य तो तब होता है जब देश के राजनेता विदेशों में जाकर अपने देश के संस्कारों की बात नहीं करते, अपने देश की ऊर्जा और उसकी ताकत की बात नहीं करते, हमारे उच्च मानवीय मूल्यों की बात नहीं करते,अपितु वे बात करते हैं तो ये बताते हैं कि वे कहां और क्या बेच सकते हैं या वे कितना बिक चुके हैं और कितना बिकना बाकी हैं। वे अपने देश को बाजार बनाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। और यही मानसिकता है जो भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार को संरक्षित और पल्लवित करती है।
भारत में जैसे जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा गर्माता जा रहा है,राजनेताओं की छिछालेदार सामने आ रही है, आश्चर्य तो तब होता है जब भारत की राजनीति के प्रेम चौपड़ा कांग्रेस महामंत्री दिग्विजय सिंह हर उस व्यक्ति के कपडे उतारने लग जाते हैं , जो भी भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपनी आवाज उठाता है और पूरी कांग्रेस पार्टी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो उनसे कहे कि वे अपना अर्नगल प्रलाप बंद करें। तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिये कि दिग्विजय सिंह 10, जनपथ के इशारे पर ये सब हरकतें कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि वे किसके सामने अपनी निष्ठां दिखाना चाहते हैं. सोनिया गाँधी के प्रति या भारत के प्रति।
भारत की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि हम सिर्फ संकटों के समय में ही एकजुटता दिखा पाये हैं। भारत का नागरिक देश के मान अपमान को राजाओं का विषय मानता आया है। इन्हीं कुछ राजाओं के कारण भारत सिकुड़ता चला गया। नोबल पुरूस्कार प्राप्त सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री वी एस नायपाल ने अपनी पुस्तक ’भारत – एक आहत सभ्यता‘ में हमारे राष्ट्रीय चरित्र की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ’’कहा जाता है कि सत्रह वर्ष के एक बालक ने नेतृत्व में अरबों ने सिंध के भारतीय राज्य को रौंदा था, उस अरब आक्रमण के बाद से भारत सिमट गया है। अन्य कोई सभ्यता ऐसी नहीं, जिसने बाहरी दुनिया से निपटने के लिए इतनी कम तैयारी रखी हो। कोई अन्य देश इतनी आसानी से हमले और लूटपाट का शिकार नहीं हुआ। शायद ही ऐसा कोई और देश होगा, जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम (सबक) सीखा होगा।‘‘ श्री वी एस नायपाल को साहित्य के लिए 2001 में नोबल पुरूस्कार प्रदान किया गया था। उनके पुरूखे भारत से गिरमिटिया मजदूर की तरह त्रिनिदाद चले गये थे । श्री नायपाल को उनके त्रिनिदाद का नागरिक होने पर गर्व भी है। लेकिन वे अपने पुरूखों की मातृभूमि के रखवालों की मानसिकता से पेरशान हैं। श्री नॉयपाल ने साबित कर दिया कि यही वो कारण है कि हमने अपने मान सम्मान को भारत के मान अपमान से ज्यादा बड़ा समझा ।
आज स्थिति यह है कि हमारे राजनेता, जो कोई भारत के मान सम्मान के लिए बोलता है, उसे सांप्रदायिक कहने और साबित करने में पल भर की भी देरी नहीं लगाते। इसी कारण आज कश्मीर में पाकिस्तान के हौंसले बुलंद है। इसी कारण 15 अगस्त 1947 को प्राप्त बंटे हुए भूभाग में से एक लाख वर्ग किलोमीटर मातृभूमि को पाकिस्तान और चीन दबाये बैठे हैं। इसे समझे जाने की जरूरत है कि आज हम जिस भारत को दुनिया के मानचित्र पर देखते हैं, सिर्फ वही भू भाग भारत नहीं है। वर्तमान ईरान (जिसे पहले आर्यन कहा जाता था ) से लेकर सुमात्रा, बाली इंडोनेशिया तक के द्वीप भारत की विशालता की कहानी कहते हैं। हजार सालों के विदेशी आक्रमण के बाद भारत बंटता चला गया और हमारे देश का राजनीतिक नेतृत्व अपने स्वार्थ और सत्ता के दंभ में भारत को एक नहीं रख पाया और स्थिति आज यहां तक है कि कश्मीर के जिस हिस्से को हम अपने मानचित्र में दर्शाते हैं, वहां भारत की सेना भी नहीं जा सकती, आम भारतीय के जाने की बात तो बहुत दूर है। हमारे शासक उस एक एक इंच मातृभूमि को वापस लाने की बात तक नहीं करते।
आज भी भारत के शासक अपने इस झूठे दंभ और अहंकारी मानसिकता से बाहर नहीं आ पाये हैं। इसी कारण हम तिल तिल कर मारी जा रही मातृभूमि के दैवीय स्वरूप को स्वीकार नहीं करते, अपितु इसे सिर्फ एक बाजार के रूप में ही देखते हैं। प्रश्न उठता है कि यदि भारत एक बाजार है, तो इसके नागरिक क्या हैं ? क्या भारत के नीति नियंताओं को यह भी समझाना पडेगा कि मातृभूमि और मां में बाजार नहीं संस्कार देखे जाते हैं। ये बात तो विदेशी मूल की सोनिया गांधी भी समझती हैं, पर हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गृह मंत्री पी चिदंबरम, वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और उनके भौंपू दिग्विजय सिंह, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी को क्यों समझ नहीं आती?
इसका कारण है हमारी तथाकथित शिक्षा। जिसने हमें हमारी अस्मिता से विलग कर दिया है। ब्रिटिश शिक्षा शास्त्री और राजनेता लार्ड मैकाले की भविष्यवाणी सही साबित हुई। आज से लगभग 175 साल पहले भारत का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी1835 को ब्रिटिश संसद को संबोधित करते हुए कहा था कि ’’ मैंने भारत की सभी जगह देखी हैं, मैंने इस यात्रा के दौरान एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भीख मांगता हो या चोर हो। उनके चरित्र बहुत उज्जवल हैं, वे बहुत योग्य और कर्मठ हैं। यही उनकी संपदा है। मुझे नहीं लगता कि हम इस देश को कभी जीत पायेंगें, जब तक कि हम इस देश के मेरूदण्ड़ को ना तोड़ दें, जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताकत है। और इसलिये मैं उनके सांस्कृतिक, पुरातन और प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को बदलने का प्रस्ताव रखता हूं । यदि भारतीय यह सोचने लग जाएं कि जो विदेशी और इंग्लिश है वह ही अच्छा है, और उनकी संस्कृति से बेहतर है तो वे अपनी आत्मिक उर्जा और अपनी परंपराओं को खो देंगें और तब वे वैसे बन जाएंगें जैसा कि हम चाहते हैं।‘‘
लार्ड मैकाले ने मात्र 175 सालों में वो कर दिखाया जो अनेको हमले और हजारों साल की गुलामी भारत को ना कर सकी। सांस्कृतिक और आत्मिक चेतना से परिपूर्ण भारत की जगह एक बाजार ने ले ली है। विडम्बना यह है कि जिन सपूतों को मां के आंचल की रक्षा करनी चाहिये, वे उसके आंचल को उघाड़ कर उसमें बाजार ढूंढ़ रहे हैं। तो जब बाजार ही मां के आंचल की बोली लगायेगा, तो पड़ोसी के घर भले ही चूल्हा ना जले, पर अपनी शाम रंगीन होगीं हीं और भारतमाता का एक पुत्र दूसरे पुत्र की मदद करने की एवज में रिश्वत मांगें तो उसमें कैसा आश्चर्य? हे भारत तुम कहां हो, जिसकी रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने जान की बाजी लगा दी थी।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को 10 मई को 154 वर्ष पूरे होजाएंगे. इस संग्राम को याद करके आज भी यूरोपियनों की नीद हराम हो जाति है. इस संग्राम की यादों को दफन करने, इससे बदनाम करने, तथ्यों को छुपाने व तोड़ने-मरोड़ने के अनगिनत प्रयास तब भी हुए और आज भी चल रहे हैं. अंग्रेजों ने इसे एक छोटा सा सैनिक विद्रोह बतलाया.
जबकि सच्चाई यह है कि यह संग्राम देश के हर कोने में लड़ा गया. एक ही दिन में १०,१५,२० जगह पर युद्ध चलता था. छोटे बड़े नगरों से लेकर वनवासियों तक ने इस युद्ध में भाग लिया. इस युद्ध के संचालकों की अद्भुत कुशलता और योग्यता का पता इस बात से चलता है कि जिस युद्ध की योजना में करोड़ों लोग भाग ले रहे थे उसका पता अंग्रजों के गुप्तचर विभाग को अंतिम दिन तक तक न चल सका. ऐसा एक भी कोई दूसरा उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता.
आज भी हमारे उपलब्ध साहित्य में तथा नेट पर विश्व के इस सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम को एक छोटा सैनिक विद्रोह बतलाने का झूठ चल रहा है. उस संग्राम में में 300000 ( तीन लाख ) वनवासियों, नागरिकों व सैनिकों की हत्या हुई थी. फ्रांस, जापान, अफ्रीका अदि संसार का एक भी देश ऐसा नहीं जिसके वीरों ने अपने देश की आजादी के लिए इतना लंबा संघर्ष किया हो या इतने लोगों के जीवन बलिदान हुए हों. ऐसा देश भी केवल भारत ही है जहां स्वतन्त्रता के बाद भी अपने देश के इतिहास को अपनी दृष्टी से न लिख कर देश के दुश्मनों द्वारा लिखे इतिहास को पढ़ा-पढ़ाया जा रहा हो. इससे लगता है कि अभी तक यह देश आज़ाद नहीं हुआ है. केवल एक भ्रम है कि हम आज़ाद है. वरना कोई कारण नहीं कि हम अपने देश के सही, सच्चे इतिहास को फिर से न लिखते. क्या इसका यह अर्थ नहीं कि अँगरेज़ जाते हुए भारत की सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंप गए जो उनके ख़ास अपने थे, जो भारत में रह कर उनके हितों के रक्षा करते ? कथित आज़ादी के बाद के 64 वर्ष के इतिहास पर एक नज़र डालें तो इस बात के अनगिनत प्रमाण मिलते हैं कि देश का शासन भारत के शासकों ने अपने ब्रिटिश आकाओं के हित में, अनके अनुसार चलाया. स्वतंत्र इतिहासकरों के अनुसार देश आज़ाद तो हुआ ही नहीं, सत्ता का हस्तांतरण हुआ. कई गुप्त देश विरोधी समझौते भी हुए जिन पर अभीतक पर्दा पड़ा हुआ है. जैसे कि एडविना बैटन के सम्मोहन में नेहरू जी ने बिना किसी को भी विश्वास में लिए देश के विभाजन का पत्र माउंट बैटन को सौंप दिया था. महान क्रांतिकारी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को अंग्रेजों की कैद में भेजने का गुप्त समझौता आदी. क्या इन सब तथ्यों और आजकल घट रही अनगिनत देश विरोधी घटनाओं व कार्यों के बाद भी कोई संदेह रह जता है कि यह सताधारी भारत में, भारत के लोगों द्वारा चुने जाकर विदेशी आकाओं के हित में, विदेशी आकाओं के इशारों पर काम कर रहे हैं ? अंतर है तो बस केवल इतना कि पर्दे के पीछे भारत के सत्ता के सूत्र संचालित करने वाला, इन विदेशी ताकतों का मुखिया पहले ब्रिटेन होता था जबकि अब इनका मुखिया अमेरिका है.
आपको याद होगा कि पहले हमारी पाठ्य पुस्तकों में 1857 के वीरों की कथाएं होती थीं. ” खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” हम बच्चे पढ़ते थे. रानी झांसी पर नाटक होते थे. धीरे, धीरे वह सब हमारे स्कूली पाट्यक्रम में से कब गायब होता गया, पता भी न चला. इससे भी लगता है कि देश के शासक काले अँगरेज़ आज भी विदेशी आकाओं के इशारों पर देश का अराष्ट्रीयकरण करने के काम में लगे हुए है और देश की जड़ें चुपके, चुपके काट रहे है.
संसार के देश कभी न कभी गुलाम रहे पर आज़ादी के बाद उन सब ने अपना इतिहास अपनी दृष्टी से लिखा. इसका एक मात्र अपवाद भारत है जहाँ आज भी देश के दुश्मनों द्वारा लिखा, देश के दुश्मनों का इतिहास यह कह कर हमें पढ़ाया जाता है कि यह हमारा इतिहास है. जर्मन के एक विद्वान ‘ पॉक हैमर’ ने भारत के प्रचलित इतिहास को पढ़ कर भारत पर लिखी एक पुस्तक ”इंडिया-रोड टू नेशनहुड” की भूमिका में लिखा कि जब मैं भारत का इतिहास पढता हूँ तो मुझे नहीं लगता कि यह भारत का इतिहास है. यह तो भारत को लूटने वाले, हत्याकांड करने वाले आक्रमणकारियों का इतिहास है. जिस दिन ये लोग अपने सही इतिहास को जान जायेंगे, उसदिन ये दुनिया को बतला देंगे कि ये कौन हैं. बस इसी बात से तो डरते हैं भारत के विदेशी आका. वे नहीं चाहते कि हम अपने सही और सच्चे इतिहास को जानें. हम समझें या न समझें पर वे अच्छी तरह जानते है कि हमारे अतीत में, हमारे वास्तविक इतिहास में इतनी ताकत है कि जिसे जानने के बाद हमें संसार का सिरमौर बनने से कोई भी ताकत रोक नहीं पाएगी. इसी लिए उन लोगों ने अनेक दशकों की मेहनत से भारत का झूठा इतिहास लिखा और मैकाले के मानस पुत्रों की सहायता से आज भी उसे भारत में पढवा रहे हैं.
भारत का इतिहास विकृत करने वालों में एक अंग्रेज जेम्स मिल का नाम प्रसिद्ध है. उसके लिखे को प्रमाणिक माना जाता है. ज़रा देखे कि वह स्वयं अपने लिखे इतिहास की भूमिका में अपनी नीयत को स्पष्ट करते हुए क्या कहता है. वह कम से कम एक बात तो सच लिख रहा है कि ये लोग ( भारतीय ) संसार में सभ्य समझे जाते हैं, ये हम लोगों को असभ्य समझते है. हमें इन लोगों का इतिहास इस प्रकार से लिखना है कि हम इन पर शासन कर सकें. इस कथन से तीन बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि (१) सन 1800 तक संसार में भारतीयों की पहचान सभ्य समाज के रूप में थी. इस तथ्य को तो हम नहीं जानते न ? (२) तब तक भारत के लोग इन अंग्रेजों को असभ्य समझते थे जो कि वे थे भी. गो मांस खाना, कई- कई दिन न नहाना, स्त्री- पुरुष संबंधों में कोई पवित्रता नहीं, झूठ, ठगी, रिश्वत आदि ये सब अंग्रेजों में सामान्य बात थी जबकि आम भारतीय तब बड़ा चरित्रवान होता था. अधिकाँश लोग शायद मेरे बात पर विश्वास नहीं करेंगे, अतः इस बात के प्रमाण के लिए 2 फवरी, 1835 का टी. बी. मैकाले का ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिया वक्तव्य देख लें. उसे कभी बाद में उधृत करूंगा. (३) तीसरा महत्वपूर्ण निष्कर्स मिल के कथन से यह निकालता है कि उसने भारतीयों को गुलाम बनाए रखने की दृष्टी से जो भी लिखना पड़े वह लिखा. यानी सच नहीं लिखा.भारतीयों में हीनता जगाने, गौरव मिटाने की दृष्टे से लिखा.
इसी प्रकार उन्होंने भारत के सभी महल, किले, नगर, भवन भारतीयों की निर्मिती न बतला कर अरबी अक्रमंकारियों की कृती लिखा और हम भोले भारतीयों ने उसी को सच मान लिया. इतना तो सोच लेते कि जो हज़ारों साल से इस भारत भूमि में रह रहे हैं, उनके कोई भवन, महल, किला हैं कि नहीं ? जिन विदेशी आक्रमक अरब वासियों को भारत के सारे वास्तु का निर्माता बतला रहे हैं उन्हों ने अपने देश में ऐसे कितने, कौनसे भवन बनाए ? वहाँ क्यूँ नहीं बनाए ? इसी प्रकार हमारा इतिहास झूठ, विकृतीकरण व विदेशी षड्यंत्रों का शिकार है. कथित भारतीय इतिहासकार भी यूरोपीय झूठे लेखकों के लिखे पर संदेह योग्य स्वाभिमानी व दूरद्रष्टा नहीं थे. ऐसे ही लोगों द्वारा 1857 के महान स्वतन्त्रता संग्राम के सत्य को दबाया, छुपाया गया है.
अतः यदि सदीप्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के सच्चे इतिहास को जानना है तो वीर सावरकर के लिखे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ना होगा. यदि संक्षेप में सारे तथ्यों और प्रमाणों को जानना चाहें तो डा. सतीश मित्तल जी की लिखित पुस्तिका पढ़े जो कि ” सुरुचि साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली- 55” से प्राप्त हो जाएगी.
इतना तो हम सब को समझने का प्रयास करना ही चाहिए कि हमारे सही, सच्चे इतिहास में कुछ ऐसी ताकत है कि जिस से हम संसार का सिरमौर बन सकते हैं, अपनी ही नहीं तो दुनिया की समस्याओं को हल कर सकते हैं. तभी तो अंग्रजों ने १०० साल से अधिक समय तक अथक प्रयास करके हमारे आतीत को विकृत किया. किसी अज्ञात विद्वान ने कहा है कि यदि किसी देश को तुम नष्ट करना चाहते हो तो उसके अतीत को नष्ट करदो, वह देश स्वयं नष्ट हो जाएगा. क्या हमरे साथ यही नहीं हुआ और आज भी हो रहा है.
तो आईये हम अपने अतीत को सुधारने के क्रम में अपने उन शहीदों को याद करें जो इस लिए बलिदान हो गये कि हम सुखी, स्वतंत्र रह सकें. 10 मई के दिन 1857 की अविस्मर्णीय क्रान्ति और उसके क्रांतिकारियों की याद में अपनी आँखों को नम हो जाने दें और सकल्प लें कि उनके बलिदानों से प्ररेणा लेकर हम आज के इन विदेशी आकाओं के पिट्ठुओं से देश को स्वतंत्र करवाने के लिए संघर्ष करेंगे, भारत को भिखारी बना रहे बेईमानों के चुंगल से स्वतंत्र होने के लिए एक जुट होकर कार्य करेंगे. विश्वास रखें कि हमारे सामूहिक संकल्प से सबकुछ सही होने लगेगा. ध्यान रहे कि हमें टुकड़ों में बांटने के षड्यंत्र अब सफल न होने पाए. वन्दे मातरम !
अमरीका ने ११ सितम्बर २००१ को न्यूयार्क में हुए फिदायीन हवाई हमलों के बाद जिसे अपना सबसे बड़ा शत्रु माना उस विश्व आतंकवादी सरगना ओसामा बिन लादेन को अंतत: इस दुनिया से विदा दे दी. आतंकवाद के विरुद्ध अमरीका की अपनी रणनीति में कथित प्रमुख सहायक देश पाकिस्तान के ही एक नगर एबटाबाद में उसके बरसों से बने हुए और सुरक्षित निवासस्थान पर रात के वक्त हमला करके उसे बिना किसी प्रतिरोध के धराशाई कर दिया गया. अमरीका के जिन हजारों निरपराध लोगों ने एक दशक पहले न्ययार्क स्थित ट्विन टावर्स पर ओसामा निर्देशित आतंकवादी हमलों में अपने प्राणों की बलि दी थी उनके परिवारों को सुकून मिला कि उनके देश के राष्ट्राध्यक्ष ओबामा ने, ओसामा का अंत सुनिश्चित कर, उनकी पीड़ा को राहत दी. अमरीका के लोगों को एक लंबी प्रतीक्षा के बाद ही सही, पुनः आश्वस्त किया कि वह आतंकवाद के समक्ष घुटने नहीं टेकेगा. इस निष्कर्ष को भी विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया कि कुछ सिरफिरे लोगों के कारण मानवता के विरुद्ध किए जाने वाले ऐसे कुकृत्यों को सहन नहीं किया जा सकता जो इस्लाम के नाम पर किए जाते हैं. इसी परिप्रेक्ष्य में, वे लोग जो ओसामा बिन लादेन के अमानवीय कारनामों को धर्मसम्मत मानते आये हैं और रक्तपात में विश्वास करते हैं उन्हें अपनी आत्मा से यह सवाल पूछने की आवश्यकता है कि यदि उनके किसी अपने या अपनों को बेवजह मौत के मुंह में धकेल दिया जाए तो उन्हें कैसे लगता है? यदि अच्छा नहीं लगता तो फिर उन्हें क्या हक है कि वे इस युग में भी किसी अन्य धर्म के लोगों की तबाही के फतवे जारी करने की हिमाकत करें?
ऐसे पनपे वैश्विक आतंकवाद पर पश्चिम की अब तक पूर्णत: स्वार्थपरक एकतरफा रणनीति पर भी प्रश्न उठाए जा सकते हैं. समस्या पर नए सिरे से और कहीं अधिक सतर्कता के साथ ध्यान दिए जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है. ‘पाकिस्तान आतंकवाद का केंद्र है’, यह जानते हुए भी अमरीका मात्र अपने हित में ही उस सतत विवादग्रस्त देश की छल प्रवृत्ति की उपेक्षा करता रहा है. उसके साथ बंधा ही रहा है. अफगनिस्तान और पाकिस्तान गत अनेक वर्षों से अमरीका की क्षेत्रीय रणनीति के केंद्रबिंदु रहे हैं. कोई समय था जब अफगानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ के प्रभाव को मिटाने के इरादे से अमरीका ने इस्लामी मुजाहिदीन को प्रोत्साहन दिया था. पाकिस्तान की सैनिक खुफिया सेवा आई. एस. आई के माध्यम से टनों हथियार रूसियों के विरुद्ध संघर्ष के लिए अमरीका ने अफगानिस्तान में पहुंचाए थे. उसका परिणाम जो हुआ वह किसी से छुपा नहीं है. इस्लामी कट्टरपंथ का बेकाबू होता प्रभाव प्रसार और अमरीका के द्वारा बरसों तक उसकी उपेक्षा किसी से छुपे हुए सत्य नहीं हैं. इसी कट्टरपंथी आतंकवादी भस्मासुर ने अभयदान पाकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान की ज़मीन पर भरणपोषण के साथ जब अमरीका के सर पर ही अपना खूनी पंजा बेरहमी के साथ रख दिया तो उसके सृजक को होश आया कि इस्लामी मुजाहिदीन को उसके द्वारा दिया गया अभयदान उसी के लिए घातक बन गया है. अफगानिस्तान के बामियान क्षेत्र में स्थित बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों को ध्वस्त करके तालेबान ने विश्व को कट्टरपंथी इस्लाम के प्रसार के अभियान का संकेत दे दिया था.
२००१ की भयावह घटना के बाद ही ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने खुल कर अपना घोर दुश्मन घोषित किया और ब्रिटेन के साथ मिल कर उसका पीछा करते हुए अफगानिस्तान तक पहुँच गए. ठीक उसी वर्ष १३ दिसम्बर २००१ को भारत के संसद भवन पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी हमला हुआ था. भले ही सतर्क सुरक्षा कर्मियों ने बहादुरी के साथ उसे असफल कर दिया था, लेकिन वह घटना भी उसी एक सत्य की पुष्टि थी जो उभर कर विश्व को आने वाले खतरों से सचेत कर रहा था. भारत में इस घटना के बाद बहुत हो हल्ला हुआ था. भारी बयानबाजी हुई थी. घटना में पाकिस्तान का हाथ होने के सबूत मिले होने के बावजूद वह उससे इनकार करता रहा. ‘आर पार की लड़ाई’ होने की संभावनाएं जताई गयीं. लेकिन अंतत: भारत को अमरीका के दबाव के कारण इस अपमान का कड़वा घूँट पीकर चुप बैठ जाना पड़ा इस कारण से क्योंकि अमरीका को कतई यह स्वीकार्य नहीं था कि अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए जो लड़ाई वह अफगानिस्तान में लड़ रहा था उसमें भारत द्वारा पाकिस्तान के विरुद्ध संभावित किसी भी सैनिक कारवाई से कोई व्यवधान हो. लेकिन भारत का दुर्भाग्य यह है कि वह अफजल गुरु जैसे अपराधियों तक को सज़ा नहीं दे पाता जिन्हें मृत्युदंड देने का फैसला अदालत सुना चुकी है. जितनी बार आतंकवादी हमले हुए हैं वैसी ही स्थिति देखने को मिलती रही है. भारत का पाकिस्तान पर आरोप, पाकिस्तान का होशियारी से इनकार, अमरीका द्वारा भारत के संयम की प्रशंसा और उसके बाद बात का आई गयी हो जाना. क्या भारत के लिए अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला स्वयं लेना कोई महत्व नहीं रखता?
१० वर्षों के बाद ही सही, लेकिन अमरीका ने अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला अपने ध्रुव शत्रु ओसामा बिन लादेन को मार कर ले ही लिया. लेकिन इसके विपरीत यदि यह सच है कि भारत बार बार होने वाले अपने राष्ट्रीय अपमान को सहन करने के लिए पश्चिमी ताकतों द्वारा विवश किया जाता रहा है तो यह पश्चिम की अनैतिकता और भारत की अपनी चारित्रिक कमजोरी है. क्या अब वह वक्त नहीं है कि ओसामा के जाने के बाद आने वाले महीनों और वर्षों में आतंकवाद के और प्रसार के संभावित खतरों का सही आकलन भारत समेत सभी आतंकवाद प्रभावित देशों द्वारा किया जाए? क्या अब यह समय उपयुक्त नहीं है कि अमरीका और अन्य पश्चिमी देश अपनी रणनीति का व्यापक परिप्रेक्ष्य में पुनरमूल्यांकन करें? हर प्रसंग में और हर जगह विश्व के थानेदार होने की स्वैछिक भूमिका निभाने का उपक्रम करने वाले अमरीका और नैटोसंधि के देशों के लिए अब यह सोचने की महती आवश्यकता है कि उनकी अपनी सुरक्षा और हित ही सर्वोपरि नहीं हो सकते. पाकिस्तान आतंकवाद का केंद्र है यह जान कर भी मात्र अपनी क्षेत्रीय महत्वाकाक्षाओं की पूर्ति के लिए भारतीय उपमहाद्वीप को इस्लामी आतंकवाद के प्रसार की आग में झोंक देने का अधिकार अमरीका को नहीं दिया जा सकता. पाकिस्तान ने अमरीका को ही कितनी बार असत्य भाषण और दोहरी चाल खेल कर कितना धोखा दिया है यह अब उसके लिए सुस्पष्ट हो गया होना चाहिए और यदि उसके बाद भी उसके द्वारा पाकिस्तान का भरण पोषण जारी रहता है तो अमरीका के दोहरेपन को भी भारत द्वारा चुनौती दी जानी चाहिए.
इस समय जब कुछ क्षेत्रों में यह बहस उभारने की कोशिश की जा रही है कि ओसामा को मारा नहीं जाना चाहिए था बल्कि न्याय के कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए था. ओबामा का अमरीकी प्रशासन उस द्वारा की गयी सैनिक कारवाई के व्यापक जन समर्थन और आतंकवादी तत्वों द्वारा प्रतिक्रियास्वरूप किए जाने वाले हमलों की धमकियों के ठीक बीच खड़ा स्थितिविकास को भांप रहा है. पश्चिमी देशों में ऐसे खतरों का सामना करने की पुरजोर तैयारियां की जा रही हैं. भारी सतर्कता बरती जा रही है. और दूसरी तरफ बदला लेने की घोषणाएं करते हुए ओसामावादी अपनी भुजाओं का बल प्रदर्शित करने को उतावले हैं. इस बीच अमरीकी नेतृत्व उत्सुकता से यह जानने की प्रतीक्षा में है कि ओसामा के बाद कट्टरपंथी इस्लामी संगठन अलकायदा की कमान कौन संभालता है. ओसामा को इस्लाम का नायक शहीद सिद्ध करने की कोशिश में इस्लामी जगत में अमरीका विरोधी प्रदर्शन यत्र तत्र हुए हैं.
फिलस्तीन समेत मध्यपूर्व के अनेक देशों में लोगों ने ओसामा के अमरीकियों के हाथों मारे जाने पर अपने आक्रोश को मुखर अभिव्यक्ति दी है. पाकिस्तान में जहां उसका अंत हुआ अमरीकियों की इस कारवाई की निंदा की गई. उन्हें इस्लाम का श्रेष्ठतम शहीद तक बताया गया और यह दावा किया गया उसकी मौत के फलस्वरूप कट्टरपंथ को और बढ़ावा मिलेगा. मुल्तान में अमरीकी ध्वज को जलाया गया और अमरीका से मुजाहिद्दीन द्वारा प्रतिशोध लेने की कसमें दोहराई गयीं. एबटाबाद में जहां उनका निवासस्थान बना था उसे ओसामा स्मारक बनाने के संकल्प की बात कही गयी. अमरीका पर यह आरोप लगाया गया कि उसने अरब सागर में ओसामा को दफना कर सही नहीं किया. उस स्थान को शहीद सागर का नाम देने की बात कही. इसी तरह अफगानिस्तान में भी ओसामा और उनके उसूलों के प्रति व्यापक समर्थन जतलाया गया और तालिबान के अमरीकियों के विरुद्ध संघर्ष को तेज करने की सम्भावना जतलाई गयी. क्या निष्कर्ष लिया जाएगा इससे? मन को समझाने के लिए क्या यह कि मात्र इने गिने ओसामावादियों की प्रतिक्रिया कोई माने नहीं रखती? या फिर यह कि खतरा ओसामा के जाने के बाद खत्म नहीं हुआ है बल्कि बढ़ा है.
क्या हजारों निहत्थे-निरपराधों की मौत इन अंधविश्वासी इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए कोई महत्व नहीं रखती जो बिना सोचे समझे फतवों की संस्कृति को अपनाए हुए हैं. क्या जिहाद के नाम पर उनकी हत्याएं करने का हक भी स्वत: उन कट्टरपन्थी तत्वों को मिल जाता है जिनका किसी प्रकार की भी धर्मान्धता या कथित अमरीकापरस्ती से कोई लेना देना नहीं होता. अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रधर्म का पालन करते हुए अपने देश के अपमान और अपने हजारों नागरिकों की दुर्दांत हत्याओं का बदला देश के कथित शत्रु ओसामा को मार कर लिया. लेकिन क्या इस तरह से बदले पर बदले की इस युग में प्रस्थापित की जा रही नवपरम्परा मानवता के सर्वनाश का पथ प्रशस्त करने वाली तो सिद्ध नहीं होगी? यदि सतर्कता न बरती गयी और इस्लाम के कट्टरपंथी तत्वों को सही रणनीति से थामा नहीं गया तो उनके द्वारा संस्कृतियों का संघर्ष करने का अनथक प्रयास आने वाले वर्षों में कई नए गुल खिला सकता है.
भले ही बराक ओबामा ने यह कह कर अपनी तरफ से सूझ बूझ का परिचय दिया है कि उनकी लड़ाई इस्लाम के विरुद्ध नहीं है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि ओसामावादी इतनी आसानी से अपने जिहाद प्रेरणापुरुष को विस्मृत नहीं होने देंगे. ओसामा भले मर गया है लेकिन उसके द्वारा पोषित आतंकवाद अभी जीवित है. यत्र तत्र चिन्गारियां फूटेंगी और शोले भड़केंगे. रहस्योदघाटन किया गया है कि ओसामा अंतिम क्षण तक पाकिस्तान स्थित एबटाबाद से अलकायदा का पूर्ण संचालन कर रहा था. और कड़वी सच्चाई यह भी है कि ओसामा के अनुयाई या समर्थक अमरीका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देशों और भारत में भी जगह जगह छाए हुए हैं. वर्ष २००३ में मैंने स्थितियों का आकलन करते हुए अपनी पुस्तक ‘आतंकवाद’ में स्पष्ट यह लिखा था कि “आतंकवाद का जो स्वरुप वर्तमान में विश्व के समक्ष प्रकट हुआ है वह छिटपुट हिंसात्मक घटनाओं से भिन्न है. इस पर भी हर छोटी बड़ी रक्तपात पूर्ण घटना एक व्यापक आतंकजाल का अंग है जिसने अनेक देशों को फांस लिया है. स्थान स्थान पर फैले हुए आतंकवादी संगठन भले ही एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के अधीन सक्रिय हैं लेकिन अधिकांश का संचालन-सूत्र अब केंद्रीयकृत हो चुका है. यह केंद्र बिंदु है एक ऐसी मजहबी सोच जिसके वशीभूत स्वचालित मशीनों की तरह आतंकी अनेक देशों में नगरों, कसबों के गली, मुहल्लों, दफ्तरों, सार्वजनिक परिवहन सुविधा केन्द्रों, हवाई अड्डों और यहाँ तक कि भारी सुरक्षा वाले सैनिक-असैनिक, सरकारी गैर सरकारी संगठनों के कार्यालयों, कालेजों स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए सुनिश्चित कार्य योजनाओं के अनुगत आदेश निर्देश पाने की प्रतीक्षा में रहते हैं.”
बाद के वर्षों में जो कुछ हुआ है वह सर्वविदित है. ओसामा बिन लादेन का उतराधिकारी का पद, जैसा कि अटकलें हैं, यदि अमरीका में जन्में या पढ़े लिखे किसी कट्टरपंथी इस्लाम परस्त अमरीकी अरब को मिलता है तो उपरोक्त विश्लेषण के दृष्टिगत इसमें आश्चर्य की कोई गुंजायश नहीं होगी. इस तरह पनपे आतंकवाद के विरुद्ध विश्व को एक लंबी लड़ाई लड़ना पड़ सकती है क्योंकि ओसामा का अंत आतंकवाद का अंत निश्चय ही प्रतीत नहीं होता. इस बीच यह नितान्त आवश्यक है कि आतंकवाद प्रभावित देश शत्रु मित्र की सही पहचान करते हुए एक साँझा रणनीति निर्धारित करने की दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाएं. यदि बार बार यह स्पष्ट होता चला गया है कि कौन सा देश वस्तुत: आतंकवाद का पोषक केंद्र है जहां स्थित प्रशिक्षण केन्द्रों से जिहादी फिदायीन तैयार करके विश्व भर में भेजे जाते रहे हैं तो उसके विरुद्ध सीधी कारवाई जब तक नहीं की जायेगी, जब तक उसे करोड़ों अरबों डालरों की रकमें, जो अमरीका और ब्रिटेन द्वारा बरसों से दी जाती रहीं बंद नहीं की जातीं, आतंकवाद नहीं थमेगा. पाकिस्तान पश्चिम के दोहन की कला में प्रवीण है और परमाणु बम के प्रयोग की धमकी देकर दोहन को जारी रखने का प्रयत्न करेगा लेकिन इसका हल अमरीका और उस नैटो को करना होगा जो उसके पृष्ठपोषक रहे हैं.
कभी कथित ‘भगवा आतंकवाद’ का भय दिखाकर तो कभी आतंकवाद की घटना के बहाने राजनीतिक लाभ उठाने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की ओर से अल कायदा प्रमुख को ‘ओसामा जी’ कह कर पुकारा जाना हो या फिर ओसामा बिन लादेन को समुद्र में दफनाए जाने का विरोध करना हो, दोनों ही बेहद आपत्तिजनक बाते हैं। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के इस दौर में सही या गलत की परवाह किसे है। यह वोट बैंक की राजनीति और साम्प्रदायिकता नहीं तो और क्या है कि हमारे नेता यह सोचते हैं कि लादेन के साथ जो हश्र हुआ उसको सही ठहराने से कहीं एक वर्ग की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचे। लेकिन वह भूल जाते हैं कि लादेन का किसी धर्म से वास्ता नहीं था वह सिर्फ अमेरिका का ही नहीं बल्कि इंसानियत का भी दुश्मन था और उसके द्वारा संचालित हमलों में मुस्लिम सिर्फ मारे ही नहीं गये बल्कि लादेन और उसके संगठन के कार्यों की बदौलत विश्व भर में संदिग्ध नजरों से देखे भी गये। ऐसा व्यक्ति जो अपनी कौम का ही दुश्मन बन गया हो उसके मारे जाने पर शोक कैसा? उसे सम्मानजनक तरीके से संबोधित कर यह कल्पना करना कि इससे किसी वर्ग को लुभाया जा सकेगा, बेकार की बात है।
दिग्विजय सिंह के इन बयानों से कांग्रेस पार्टी ने दूरी बनाकर सही किया क्योंकि पार्टी पर पहले ही आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरतने और दोषियों की सजा पर कार्रवाई में देरी करने जैसे आरोप लगते रहे हैं। खबरों में कहा गया कि कांग्रेस ने इस विषय पर दिग्विजय सिंह को तलब भी किया है लेकिन खुद दिग्विजय ने ऐसी किसी बात से इंकार किया। दिग्विजय को यह देखना चाहिए कि उनके इस कदम ने उनको किन लोगों के साथ और किस श्रेणी में खड़ा किया। जहां एक ओर दिग्विजय लादेन को ‘ओसामा जी’ कह कर संबोधित कर रहे थे तो दूसरी ओर हुर्रियत कांफ्रेंस के उग्रपंथी गुट के सैय्द अली शाह गिलानी थे जो लादेन के लिय्ो जनाजे की नमाज का आह्वान कर रहे थे। तीसरी ओर कोलकाता की स्थानीय् टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम मौलाना नूरूर रहमान बरकती थे, जिन्होंने लादेन की ‘‘आत्मा की शांति‘‘ के लिए विशेष नमाज अदा की तो चैथी ओर केरल का वह व्यक्ति अथवा संगठन था, जिसकी ओर से ओसामा के मारे जाने के खिलाफ पर्चे बंटवाने की खबर आई। इससे पहले चुनावों के समय एक बार बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान की रैली में एक शख्स ओसामा के वेष में लोगों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहा था।
पार्टी की कथित दोगली नीतियों के चलते दूर हुए मुस्लिम मतदाताओं को वापस कांग्रेस से जोड़ने के प्रयास में दिग्विजय सिंह जब तब कोई न कोई तीर छोड़ते रहते हैं। इससे पहले उन्होंने दिल्ली में हुए विस्फोटों के बाद हुए बाटला मुठभेड़ कांड पर सवाल उठाते हुए आजमगढ़ का दौरा किया था। हालांकि उस समय दिग्विजय ने यही कहा था कि वह सच्चाई का पता लगाने के लिए इलाके का दौरा कर रहे हैं। इस संबंध में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को रिपोर्ट भी सौंपी थी लेकिन जब सरकार, मानवाधिकार आयोग जैसे संस्थान मुठभेड़ को सही ठहरा चुके हों तो किसी पार्टी महासचिव की रिपोर्ट का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इस मामले में भी दिग्विजय पर वोट बैंक की राजनीति करने के आरोप लगे थे। यही नहीं उन्होंने तो मुंबई हमले के दौरान हेमंत करकरे की शहादत पर भी एक तरह से सवाल उठाया था जब उन्होंने यह कहा था कि करकरे ने उन्हें फोन कर बताया था कि वह मालेगांव धमाके की जांच के सिलसिले में संघ परिवार के निशाने पर हैं।
दिग्विजय की हालिया कथित उपलब्धियों की बात की जाए तो उनके हिस्से में ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को प्रचलित कराने का श्रेय भी है। साथ ही वह इस बात के लिए भी विख्यात हैं कि पार्टी संगठन में राज्यों के प्रभारी मात्र होने के बावजूद राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और अन्य विषयों पर भी खूब बोलते हैं। दूसरों की संपत्ति की जांच की मांग करना उनका प्रिय शगल है तो साथ ही अपने पर हमला बोलने वाले पर तेजी से आक्रामक होना उनकी विशेष रणनीति है। बहरहाल, ओसामा को सम्मानपूर्वक संबोधन से पूर्व दिग्विजय जी को उन परिवारों या पीडि़तों के हाल पर नजर दौड़ा लेनी चाहिए थी जो विश्व भर में ओसामा की आतंकी गतिविधियों के शिकार हुए।
इस में कोई शक नहीं कि भारत के खिलाफ पड़ोसी राष्ट्रों और खास तौर से पाकिस्तान का रवैया सदैव ही शत्रुतापूर्ण रहा है.चाहे भारत में अलगाव वादियों की घुस पैठ का मामला हो,चाहे नकली नोट छापकर भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट करने की कुत्सित कोशिश का मामला,चाहे नदी जल-बटवारे का मामला हो,चाहे कश्मीर को बर्बादी की ओर ले जाने का मामला हो या संयुक राष्ट्र संघ में विगत ६४ सालों से भारत के खिलाफ लगातार विष-वमन का मामला हो;इन सभी मामलों में पाकिस्तान ने भले ही भारत को विषधर की तरह काटा हो ,किन्तु भारत ने उसे अपने बिगडेल छोटे भाई की मानिंद समझकर हर बार उसे माफ़ ही किया है!
भारतीय दार्शनिक परम्परा में एक आख्यान बहुश्रुत है- एक बड़े संत-महात्मा जी अपने शिष्यों के साथ नदी स्नान करने गए तो नदी तट पर उन्हें विच्छू ने काट लिया,महात्माजी ने विच्छू को उठाकर पानी में फेंक दिया.संतजी जब पानी में डुबकी लगा रहे थे तब उन्हें फिर उसी विच्छू ने काट लिया.संतजी ने विच्छू को फिर वहीं नदी जल में छोड़ दिया और जब संतजी जल से बाहर निकलने लगे तो उन्हें फिर विच्छू ने काट लिया ,तब भी उन महात्माजी ने शांत भाव से बिना किसी उदिग्नता के विच्छू {जी} को वहीं जीवित छोड़ दिया.एक शिष्य ने कहा-गुरुदेव आपने इस दुष्ट को जीवित क्यों छोड़ा?तो गुरूजी ने कहा-वत्स,विच्छू का स्वभाव है काटना सो वह अपने स्वभाव वश काटने को मजबूर है और संत{सज्जन आदमी}का स्वभाव है धैर्य,शील और सहनशीलता सो मेंने अपने स्वभाववश विच्छू को लगातार क्षमा किया.यदि वह पुनः कटेगा तो भी में अपने सात्विक स्वभाव से पतित नहीं होने वाला.यह दर्शन न तो कायरों का है , न अधैर्यों का है,और न युद्ध से विरत सन्यासियों का है.यह नितांत वुद्धिमत्तापूर्ण और वास्तविक राष्ट्रवाद का द्योतक है.
सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषग्य और पूर्व नौ सेना अधिकारी -उदय भास्कर ने भी प्रकारांतर से स्वीकार किया है कि “हम पाकिस्तान में छिपे आतंकियों को हुबहू अमेरिकी तर्ज पर नहीं मार सकते” उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘भारत,पाकिस्तान में छुपे मुंबई बम काण्ड के दोषियों व् २६/११ के दोषियों को पाकिस्तान में घुसकर वेशक मार सकता है,हमारी फौज इसमें सक्षम है किन्तु भारत-पाकिस्तान के बीच की भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक सम्बन्ध इसकी इजाजत नहीं देते’ उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा दौर में भारत को सबसे बड़ा खतरा पाकिस्तान व् चीन में जमा हो रहे परमाणु बमों के जखीरे का है.”श्री उदय भास्कर जी अभ्यास मंडल की ग्रीष्म कालीन व्यख्यान माला में इंदौर के प्र्वुद्ध् जनों को संबोधित कर रहे थे.मेरे मत में अमिरीकी शील्ड कमांडो की तरह पाकिस्तान में कार्यवाही न करने की कुछ वजह और है. भारत -पाकिस्तान की दूरी अमेरिका और पाकिस्तान जैसी नहीं है.भले ही एक ही भूभाग के दो अलग-अलग राष्ट्र हों किन्तु जहां भारतीय हिस्से में संप्रभुता,प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसी खूबियाँ परवान चढ़ रहीं हैं वहीं पाकिस्तानी हिस्से में अमेरिका,सउदी अरब और चीन के हथियारों का जखीरा तो है ही साथ ही वहां के परमाणु बम पर फौज का हाथ है,चूँकि पाकिस्तानी फौज का एक ही मकसद है की भारत को बर्बाद करना अतेव वे सिर्फ किसी ऐसें बहाने का इन्तजार कर रहे हैं जो न केवल भारत पर बमों की वर्षा का सबब हो बल्कि पकिस्तान की जनता में प्रजातांत्रिक चाहत को भी नेस्तनाबूद कर दे. भारत अपना पड़ोसी नहीं बदल सकता उसे हर-हालत में उसीके साथ रहना है, हमें नापाक मनसूबे पालने वालों के उकसावे में आकर ऐंसा कुछ नहीं करना चाहिए कि पाकिस्तानी फौज हीरो वन जाए.चूँकि पाकिस्तानी आवाम न तो अपनी रक्तपिपासु फौज को पसंद करती है और न ही उस “जेहाद’ को जो ओसामा या पाकिस्तान स्थित विभिन्न आतंकी गुटों का शगल है,अतः वहाँ की आवाम या सरकार के नैतिक समर्थन मिले बिना भारत को अमेरिकी कार्यवाही की नक़ल नहीं करना चाहिए.चूँकि अमेरिका को पकिस्तान की शशक्त सत्तासीन लाबी का,पाकिस्तानी मीडिया का और आई एस आई का भरपूर समर्थन हासिल था अतः एक मई-२०११ की आधी रात को अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के आदेश पर 9/11 के हमले के लिए जिम्मेदार अल -कायदा के ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मारने का दुस्साहस किया . भले ही पाकिस्तान को अमेरिकी हमले पर ऐतराज़ न हो किन्तु जब भारत ऐसा करेगा तो वो मार खाकर चुप नहीं बैठेगा .
हम भारत के हर गाँव -शहर-महानगर में वैठे घोषित-अघोषित आतंकवादियों को तो पकड़ नहीं रहे, जिन्हें जेलों में होना चाहिए वे रेलों में हैं और जिन्हें अदालतों ने मौत की सजा सुना दी है ,वे माल पुआ खा रहे हैं.पाकिस्तान में छुपे बैठे दो दर्जन आतंकवादियों को मारने के लिए बैचेन हो रहे हैं.जब १९९३ का मुंबई बम काण्ड हुआ,कंधार विमान अपहरण काण्ड हुआ,२६/११ का मुंबई हमला हुआ,कारगिल हुआ,तब हम ऐंसा करते जो अमेरिका ने एक मई-२०११ को किया है तो कोई और बात थी.अब यदि अमेरिका ने अपने अनुषंगी के घर में घुसकर मुहं काला किया है तो भारत को उसके भव्य और जिम्मेदार राष्ट्र होने के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए.
भारत को अपने दूरगामी लक्ष्यों के मदेनज़र अपनी आंतरिक और वाह्य सुरक्षा पर ध्यान देना चाहए.राजनैतिक शुचिता,भृष्टाचार विहीन प्रशाशन और सभ्य सुशिक्षित बनाते हुए भारतीय आवाम को उसके मूलभूत अधिकारों की आपूर्ती के साथ-साथ व्यक्ति ,समाज,और राष्ट्र के रूप में दायित्व वोध के लिए कृत संकल्पित किये जाने का ध्येय होना चाहिए.बात-बात में गाहे-बगाहे चाहे क्रिकेट हो या अंतर राष्ट्रीय परिघटना ,भारत और पाकिस्तान के कुछ ‘अंधराष्ट्रवादी’एक दूसरे पर हमला किये जाने की वकालत करते रहते हैं ये युद्ध सिंड्रोम सिर्फ उन्हें ही आकर्षित नहीं करता जो विश्व मंच पर हथियारों के उत्पादक और विक्रेता हैं, यह उन्हें भी आशान्वित करता है जो ‘मरे का मांस खाने वाले हुआ करते हैं”
भारत -पाकिस्तान में युद्ध नहीं होना चाहिए क्योकि यह दोनों के हित में नहीं है.इसके अलावा इन बिन्दुओं पर भी ध्य्नाकर्षण होना चाहिए.
एक-भृष्टाचार और विदेशी क़र्ज़ से लदे भारत-पाकिस्तान की पूंजीवादी -सामंती सत्तारूढ़ ताकतें,युद्ध के बहाने अपने पापों को छिपाने के लिए न्यायपालिका और मीडिया को मन माफिक नियंत्रित कर लेंगी.
दो-युद्ध खर्च के बहाने जन-कल्याण -मद में कटौती की जायेगी अर्थात गरीव वर्ग का जीना दूभर हो जायेगा.
तीन-करारोपण में वृद्धि की जाएगी,ईमानदार व्यपारी कंगाल हो जायेगा.जो जमाखोर ,कालाबाजारी करेंगे,वे महंगाई बढाकर ,मिलावट करके अपनी जिजीविषा सुरक्षित रखेंगे.
चार-महंगाई और खाद्द्यान्न संकट दुर्धर्ष होता चला जायेगा.विकाश कार्य अवरुद्ध होंगे.
पांच-भारत-पाकिस्तान के संघर्ष में भले ही सारी दुनिया सैधांतिक तौर पर भारत के साथ होगी किन्तु तेल उत्पादक देश अन्ततोगत्वा पाकिस्तान का ही समर्थन करेंगे. क्योंकि भारत के समर्थक-सद्दाम हुस्सेन,यासिर अराफात शहीद हो चुके हैं,कर्नल गद्दाफी और हुस्नी मुबारक जैसे भारत -मित्रों को अमेरिका ने चुन-चुन कर निशाना बनाया है इस्लामिक जगत में अब सिर्फ ईरान पर ही आशाएं टिकीं हैं.
छेह -चीन भारत को अपना प्रवल प्रतिद्वंदी मानकर खुद होकर चाहेगा की भारत और पकिस्तान में युद्ध हो ताकि भारत कमजोर हो और चीन की बराबरी के सपने न देखे.
सात-भारत के परम्परागत मित्र -क्यूबा,वियतनाम,ब्रजील ,बोलीविया ,मारीसश और सोवियत संघ हुआ करते थे ,जिनमें सोवियत संघ तो निश्चय ही जब से वहां कम्युनिस्म ख़त्म हुआ है भारत की जैसे रीढ़ ही टूट गई सो अब सिर्फ उसकी वीटो पावर की विरासत ही बची है.
आठ-भारत पाकिस्तान में किसी भी मुद्द्ये पर यदि युद्ध की नौबत आती है तो पाकिस्तान ही पराजित होगा इसमें किसी को शक नहीं क्योकि न केवल सेन्य बल बल्कि एक विशाल प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में भारत को पाकिस्तान से कई गुना ज्यादा बढ़त हासिल है.
लेकिन युद्धोपरांत दोनों राष्ट्रों का स्वरूप वैसा ही होगा जैसा की ‘महाभारत’युद्धोपरांत था.याने की दोनों पक्षों की भारी तवाही होगी सिर्फ अपने-अपने खांडव वन शेष रहेंगेखंडहरों में परणित राष्ट के बुझे हुए पांडव ध्वन्साव्शेशों पर पुनः नए उद्योग ,नई इमारतें ,नए पुल ,नए अस्पताल बनाने के लिए उन्ही साम्राज्यवादियों के सामने झोली फैलाने को अभिशप्त होंगे ,जिन्होंने मारक हथियार और आपस में युद्धोन्माद का सबब पेश किया है.मीडिया का एक हिस्सा स्पष्ट रूप से इन दिनों भारत की जनता को युद्धोन्मादी बनाने में जुटा है.यह हिस्सा निसंदेह देश की जनता के सरोकारों से कोसों दूर है.
सारी दुनिया जानती है की जब -जब भारत और पाकिस्तान में संघर्ष छिड़ता है तो महाशक्तियों को अपनी पूंजीवादी आर्थिक मंदी से उभरने का भरपूर मौका मिलता है,उनके हथियारों के आउट डेटेड जखीरे भारत -पाकिस्तान के युवाओं को मरने -मारने के काम आते हैं.शक्तिशाली युद्धखोर राष्ट्रों के ऐशो -आराम का सामान जुटाने के लिए भारत पाकिस्तान की जनता ही क्यों अपनों का लहू बहाने को आतुर रहती है? क्या युद्ध ही अंतिम विकल्प है सभ्य संसार के लिए ?
यूरोपीय देश अपने आप को विकसित कहते हैं उन्हें भी धरती की धधकती हुई ज्वालामुखी ने आश्चर्यजनक क्षति दी है। चीन में बर्फबारी ने काफी नुकसान किया है। अमेरिका में कटरिना व रीना तूफान अक्सर तबाही मचाते रहते हैं। जापान और चिली जैसे देश भूकम्प और सूनामी की भेंट चढ़ रहे है। भारत में समय समय पर भूस्खलन धरती के फटने की घटनाएं, भारी मात्रा में बारिश, भूकम्प के झटके व सूनामी से अक्सर ही क्षति होती रहती है। धरती पर भारत ही ऐसा देश है जो नेपाल में बारिश से होने वाली जल अधिकता की मार भी झेलता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों के पानी द्वारा हर साल करोड़ों रूपयों की खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है और हजारों हेक्टेअर भूमि जलमग्न भी हो जाती है। जिसमें मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और पष्चिमी बंगाल प्रदेषों का बहुत बड़ा भूभाग प्रभावित हो जाता है और हम असहाय बन धरती के इस कोप को सहते रहते हैं। अप्रैल 2011 में आष्चर्यजनक रूप से फैजाबाद जिले में लगभग 1 कुन्टल का ओला गिरा और इसके साथ साथ ही आधा दर्जन 5 किलो के ओले भी गिरे जो अब तक धरती पर गिरने वाले ओले में सबसे बड़े आकार के हैं इसको लेकर भूवैज्ञानिकों में कौतुहल भी है और साथ ही उन्होने कहा कि ऐसे ओले तेज बवन्डर के चलते आकाश में होने वाली सामान्य घटना के तहत ही होते हैं। वहां इस अजूबे को देखने के लिए ग्रामीणों की काफी भीड़ उमड़ पड़ी थी।
विन्ध्य शृंखला में रहने वाली आबादी को सूखा प्रभावित रहना पड़ता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि यह चट्टानों वाली पहाड़ी का क्षेत्र है। एक तो यहां बरसात कम होती है और जब कभी होती भी है तो वह जल तपते हुए चट्टानों पर पड़ कर भाप बन कर उड़ जाती है। ऐसे में धरती के गर्भ में जल की कमी दिनों दिन बढ़ ही रही है। खण्डवा जिले के गुरवारी व बिल्नद गांव में 8 इंच चौड़ी धरती कडकडाहट की आवाज के साथ सितम्बर 2010 में फट गयी। भारत में गुजरात राज्य के भुज क्षेत्र में जब सन् 2000 में भूकम्प आया था तो वहां पर एक अपार्टमेन्ट की चार मंजिलें सीधे जमीन में धंस गई थी। इसी इलाके में एक भवन जब धंस रही थी तो उसके छत पर खड़ा था और फिर जब छत जमीन के स्तर पर पहुंची तो कूद कर अपनी जान बचायी थी। उत्तर प्रदेश में कौशाम्बी जिले में इस प्रकार जमीन फटने की दो घटनाएं हुई इटावा जिले के औरैया में भी धरती फटने की धटनाएं हुई जिसमें एक व्यक्ति की मौत भी हो गयी। इन घटनाओं के पीछे भारतीय भूवैज्ञानिकों का मानना है कि धरती के गर्भ में पानी की कमी को ही मुख्य कारण बताया गया है।
जहां एक ओर पूरे बुन्देलखण्ड में और इससे सटे इलाहाबाद के कौशाम्बी में दरार पड़ने की घटनाएं हो रही है वहीं पर इलाहाबाद के ही जमुनापार स्थित गड़ेरिया के गांव के लोगों ने एक करिष्माई कारनामा रच कर एक ऐसा कर दिखाया कि आज उन ग्रामीणों की तारिफ किए बिना शायद ही कोई रह पाये। क्योंकि यमुनापार स्थित टौंस नदी तट के गड़ेरिया गांव के आस पास कई गांव जहां पर पानी की एक एक बूंद के लिए तरस रहे थे, जानवरों का चारा सूख गये थे, कूंए सूख गये थे, तालाब सूख गये थे इस हालात से निपटने के लिए उन्होेंने दो साल में डेढ़ सौ हेक्टेयर जमीन पर नालियां बनाकर नीम, बबूल, पलास, जंगल जलेबी आदि वन्य वृक्ष लगाये और दस दस हेक्टेयर पौधों की देखरेख प्रति व्यक्ति के हिसाब से बांट ली। मजदूरी के रूप में मनरेगा के तहत भुगतान की भी व्यवस्था कर दी गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि 12 कि.मी. दूर चांद खमरिया क्षेत्र से काले हिरण, लकड़बग्घे और अन्य वन्य जीवों भी आने लगे और उनकी संख्या में भी काफी वृध्दि हो गयी। इस क्षेत्र में पानी के भूगर्भीय स्तर में भी काफी इजाफा हुआ है। पर्यावरण के प्रति जागरूक नागरिकों ने गोमती को पुर्नजीवन देने के लिए एक जुट प्रयास किए जा रहे है। यह प्रयास गोमती के उद्गम स्थल से लेकर प्रारम्भ किया गया है जिसमें नदी के रूके हुए बहाव को गति दी जा रही है और इसमें मिलने वाली नदियों को भी सफाई अभियान में जोड़ लिया गया है जिससे कि गोमती में साफ पानी की मात्रा बढ़ सके।
ग्लोबल रूप से होने वाली घटनाओं की एक कड़ी बनायी जाए तो हमें यह समझते देर न लगेगी कि पृथ्वी पर पर्यावरण की हमारी समझ कहीं न कहीं कमजोर पड़ रही है। हमारी धरती को माता कहलाने का पूरा हक है क्योंकि हमारी धरती ने हमें अपार पर्यावरणीय धन सम्पदा प्रदान की है और हम उसके सम्मान में कोई कसर भी नहीं छोड़ते हैं परन्तु विकास के नाम पर हम उसके प्रति अपने दायित्वों की भी जमकर अनदेखी भी करते हैं। विन्ध्य श्रृंखला में आजकल अप्रत्याशित घटना देखने को मिल रही है जिसमें धरती मां के आंचल में दरार पड़ जा रही है जो कि कई मीटर तक गहरी होती है और इसकी चौड़ाई भी कहीं कहीं पर तो एक मीटर से भी अधिक पायी जाती है। आज हमें अनिवार्य रूप से यह सोचने की जरूरत है कि पर्यावरणीय समस्या का सामना करने वाले हम मानव समाज में पर्यावरण को उचित मान नहीं दे रहे है इसके परिणामस्वरूप अनेकानेक खतरे हमारी पृथ्वी पर मंडरा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के औरेया विधान सभा क्षेत्र के बसपा विधायक शेखर तिवारी को आखिरकार उनके किए की सजा मिल ही गई। एक ईमानदार अधिकारी को जिस तरह से शेखर और उनके गुर्गो ने पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया था,उसकी भरपाई तो इस सजा से नहीं हो पाएगी,लेकिन शुकून की बात यह है कि इससे समाज में एक अच्छा मैसेज गया है।यह बात लगभग तय है कि नेताओं की बढ़ती मनमानी और गुंडागर्दी को कानून के फंदे में फांस कर ही कम किया जा सकता है। बसपा विधायक शेखर तिवारी को इंजीनीयर मनोज गुप्ता हत्याकांड में न केवल सजा हुई ,बल्कि न्याय में कोई खास विलम्ब भी नहीं हुआ।जहां वर्षो फैसले नहीं हो पाते हैं, वहां ढाई-तीन साल में गुनाहगारों को उनके किए की सजा मिल जाए यह एक अच्छी शुरूआत हैं।अदालत ने अपना काम कर दिया है,अब माया सरकार को भी चाहिए कि वह शेखर तिवारी को पार्टी में और दिनों तक ढोने का पाप अपने सिर न लें, जिनती जल्दी वह शेखर तिवारी जैसे नेताओं से पीछा छुड़ा लेंगी, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा।बसपा विधायक शेखर तिवारी को मिली सजा से जनता जर्नादन दोनों ही खुश है।खुशी की वजह यह भी है कि शेखर और उनके गुर्गे आदतन अपराध करते रहते थे और रसूख के बल पर वह किसी को मुंह खोलने की भी छूट नहीं देते थे। शेखर की दबंगई का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने खाकी को भी खरीद लिया था।इंजीनियर मनोज गुप्ता की मौत के बाद खाकी वर्दी वालों ने जिस तरह से सबूत मिटाने और भुक्तभोगी परिवार की बात नहीं सुनने का अपराध किया उसके लिए खाकी वर्दी वालों को भी अदालत ने बराबर का भागीदार माना और शेखर तिवारी के साथ थानाध्यक्ष को भी उम्र कैद की सजा सुनाकर उन पुलिस वालों को भी संदेश दिया जो नेताओं के चक्कर में आकर अपना सरकारी और सामाजिक धर्म भूल जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में वर्ष 2008 में हुए इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड मामले में आरोपी बसपा विधायक शेखर तिवारी समेत दस अभियुक्तों को 06 मई 2011 को लखनऊ की विशेष सत्र अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई। अपर जिला जज वीरेन्द्र कुमार की पीठ ने मामले के आरोपी बसपा विधायक शेखर तिवारी के साथ-साथ अन्य अभियुक्तों विनय तिवारी, राम बाबू, योगेन्द्र दोहरे उर्फ भाटिया, मनोज अवस्थी, देवेन्द्र राजपूत, संतोष तिवारी, गजराज सिंह, पाल सिंह और डिबियापुर थाने के पूर्व प्रभारी होशियार सिंह को उम्रकैद तथा 68-68 हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। शेखर तिवारी औरैया से बसपा के विधायक हैं। तिवारी की पत्नी विभा तिवारी को साक्ष्य मिटाने के जुर्म में ढाई साल कैद और साढ़े चार हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई है। अभियोजन पक्ष के मुताबिक, 23 दिसम्बर 2008 की रात औरैया के डिबियापुर थाना क्षेत्र में इंजीनियर मनोज गुप्ता की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी थी। यह हत्या कथित रूप से मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन के जश्न के लिये धन देने से मना करने पर की गई थी। वारदात में मारे गए इंजीनियर की पत्नी शशि गुप्ता ने इस मामले में विधायक समेत 11 लोगों के खिलाफ डिबियापुर में मुकदमा दर्ज कराया था।इंजीनियर मनोज गुप्ता के हत्यारों को सजा दिलाने के लिए उनके परिवार वालों को काफी जद्दोजहद करनी पड़ी।पहले तो शेखर तिवारी उसकी पत्नी आदि ने पुलिस के साथ मिलकर हत्या के सबूत मिटा कर केस कमजोर करने की कोशिश की,इसके बाद डराने-धमकाने का दौर शुरू हुआ।खाकी पर भी खादी का रौब साफ दिखा।यही वजह थी तत्कालीन डीजीपी विक्रम सिंह ने भी कह दिया था कि मनोज गुप्ता अपने दोस्तों की दगाबाजी में मारे गए थे। बात तब भी नहीं बनी तो आरोपी विधायक और उसके साथियों ने सेशन ट्रायल लंबा खींचने के लिए एक-दो नहीं कुल 40 याचिकाएं दाखिल कीं। आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट से लेकर सेशन कोर्ट तक हर दरवाजे पर दस्तक दी।शेखर तिवारी और उनके गुर्गो का इतना खौफ था कि केस की शुरूआत में जहां 78 गवाह मौजूद थे, वहीं अंत में मात्र 19 गवाह ही अपनी बात पर अडिग रह पाए।कई बार मुकदमें को कानपुर ले जाने की कोशिश की गई।एक बार तो कोर्ट ने उनकी बात मान भी ली थी।शेखर तिवारी ने एक याचिका दायर की और कहा कि क्योंकि उनका एक मामला कानपुर मं गैंगेस्टर एक्ट में चल रहा है ,इस लिए इस मामले को भी कानपुर स्थानांतरित कर दिया जाए। इस पर जस्टिस राजीव शर्मा और एसएजेड जैदी ने 07 अक्टूबर 2010 को मुकदमे को कानपुर स्थानांतरित कर दिया।इसके खिलाफ मनोज गुप्ता की पत्नी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जिस पर अदालत ने 17 जनवरी 2011 को फिर मामला लखनऊ स्थानांतरित कर दिया। शेखर तिवारी और अन्य अभियुक्तों को सजा दिलाने में मनोज गुप्ता की पत्नी शशि गुप्ता की दृढ़ता को भी सलाम करना चाहिए जिन्होंने न केवल धमकियों के बीच अपने छोटे-छोटे बच्चों की पूरी हिफाजत की बल्कि पति के हत्यारों को भी सलाखों के पीछे पहुंचा कर ही दम लिया। बसपा विधायक शेखर तिवारी ,उनकी पत्नी और उनके गुर्गो तथा एसओ होशियार सिंह को सजा सुना दी गई है,लेकिन विधायक के हौसले अभी भी पस्त नहीं पड़े हैं। उम्र कैद की सजा पाने के बाद भी विधायक की हेकड़ी नहीं गई।सजा के बाद भी वह अपने साथियों के साथ बेशर्मी का चोला ओड़ कर मुस्कुराता और बात करता रहा। जेल में उसने बंदी वाली वर्दी पहनने से मना कर दिया। आम कैदियों के बावजूद उसने खास खाना खाया। यह और बात थी कि जेल की कोठरी में अकेले होने पर उसे परेशानी हुई तो रात में मुंशी प्रेम चन्द्र की कहानी संग्रह,दुष्यंत कुमार और मिर्जा गालिब की किताबों का सहारा लेना पड़ गया। उम्मीद है कि कुछ दिनों के भीतर एक-दो और विधायक भी अपने किए की सजा पा जाएं। इसमें फैजाबाद के दबंग बसपा विधायक और शशी नामक लड़की की हत्या की सजिश में शामिल आनंद सेन यादव और गैंग रेप के आरोपी बांदा के बसपा विधायक पुरूषोत्तम नरेश दिवेदी का नाम सबसे ऊपर है। इसके अलावा डिबाई विधान सभा क्षेत्र से बसपा विधायक भगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित आगरा विश्वविद्यायल की एक लेक्चरार की शिकायत पर फ्रॉड,अपहरण और बलात्कार के अरोप में ,माफिया बृजेश सिंह का भतीजा और बसपा विधायक सुशील कुमार सिंह हत्या,वसूली,ठेकेदारी आदि के दस मामलों में,बिजनौर से बसपा विधायक शहनवाज राना बलात्कार और हत्या के प्रयास आदि में,बसपा सांसद धनंजय सिंह हत्या,अपहरण,ठेकों में दखल के साथ पूर्व स्वास्थ्य महानिदेशक बच्ची लाल की हत्या,बसपा एमएलसी संजीद द्विवेदी जेलर आरके तिवारी हत्याकांड सहित कई मामलों में, बसपा एमएलए जितेंन्द्र सिंह बबलू कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्षा डा रीता बहुगुणा जोशी के मकान में आगे लगान सहित कई मामलों में, इसौली के बसपा विधायक चंद्र भद्र सिंह उर्फ सोनू संत ज्ञानेश्वर हत्याकांड के षड़यंत्र में ,बसपा नेता इंतिजार आब्दी बॉबी कांग्रेस अध्यक्षा के घर में आगजनी और उपद्रव के आरोप में तो निर्दल विधायक मुख्तार अंसारी, सपा विधायक अमरमणि त्रिपाठी बसपा विधायक उस्मानुल हक निर्दलीय एमएलसी एसपी सिंह सपा एमएलसी अक्षय प्रताप सपा एमएलए विनोद कुमार यादव भी किसी न किसी अपराध में जेल की सलाखों के पीछे हैं।सपा विधायक अमरमणि त्रिपाठी को तो कवित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या के जुर्म में सजा भी हो चुकी है। उनके साथ उनकी पत्नी मधुमणि त्रिपाठी को भी शेखर तिवारी की पत्नी की तरह ही सबूत मिटाने के आरोप में जेल की हवा खानी पड़ रही है।
बहरहाल, बसपा विधायक को उम्रकैद की सजा क्या सुनाई गई,बसपा नेत्री मायावती की मुखालफत करने वालों की तो जैसे लॉटरी ही निकल आई। उन्हें बैठे-बैठाए सरकार पर हमला बोलने का मौका मिल गया।बसपा जहां विधायक शेखर तिवारी आदि को सजा मिलने पर इसे माया सरकार की जर्बदस्त पैरवी का नतीजा बता रही है,वहीं उसकी प्रबल प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया है कि आरोपियों को संरक्षण देने की उनकी बात सच हो गई है। समाजवादी नेता और प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा कि इस फैसले से लोगों में न्याय व्यवस्था पर भरोसा बढ़ा,वहीं यह भी देखने में आया कि माया सरकार अंत तक अपने विधायक को बचाने की कोशिश में लगी रही।पर न्यायपालिका के सामने सरकार का षड़यंत्र सफल नहीं हो पाया।भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने इसे माया सरकार के मुंह पर जर्बदस्त तमाचा बताते हुए कहा कि सरकार के चेहरे से नकाब हट गया है।साथ ही यह भी साबित हो गया कि सरकार और पुलिस में बैठे लोग भ्रष्टाचार और अपराध में लिप्त हैं।कांग्रेस ने कहा कि बसपा सुप्रीमों मायावती के जन्मदिन से पूर्व इंजीनियर मनोज गुप्ता की हत्या हुई थी।अदालत के फैसले से यह साफ हो जाता है कि माया सरकार गुंडा टैक्स वसूली में लगी हुई है। कांग्रेस विधान मंडलदल के नेता प्रमोद तिवारी ने ने कहा कि माया सरकार ने लोकतंत्र को लूटतंत्र बना कर रख दिया है। इंजीनियर्स एसोसियेशन ने अदालत के फैसले पर खुशी जाहिर करते हुए कहा कि इस फैसले से उनको अत्याचार और शोषण के खिलाफ लड़ने की ताकत मिलेगी।इंजीनियर मनोज गुप्ता का परिवार अदालत के फैसले से खुश तो है लेकिन वह शेखर तिवारी के लिए फांसी की सजा की मांग कर रही है।
उन्हें पता है कि उनको मिली जिम्मेदारी साधारण नहीं है। वे एक ऐसे परिवार के मुखिया बनाए गए हैं जिसकी परंपरा में कुशाभाऊ ठाकरे जैसा असाधारण नायक है। मध्यप्रदेश भाजपा का संगठन साधारण नहीं है। उसकी संगठनात्मक परंपरा में ठाकरे और उनके बाद एक लंबी परंपरा है। प्यारेलाल खंडेलवाल, गोविंद सारंग, नारायण प्रसाद गुप्ता, कैलाश जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा, सुंदरलाल पटवा, लखीराम अग्रवाल, कैलाश नारायण सारंग सरीखे अनेक नाम हैं। बात मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा की हो रही है, जिन्हें इस महत्वपूर्ण प्रदेश के संगठन की कमान संभाले 8 मई,2011 को एक साल पूरे हो गए हैं। उनके बंगले और प्रदेश कार्यालय में दिन भर कार्यकर्ताओं का तांता लगा है। फूल, बुके, मालाएं और मिठाईयां, नारे और जयकारों के बीच भी उनकी नजर मछली की आंख पर है। वे कार्यकर्ताओं से घिरे हैं, उनकी शुभकामनाएं ले रहे हैं, उन्हें मिठाईयां खिला रहे हैं पर मंडीदीप नगरपालिका (भोपाल के पास का एक कस्बा) के चुनाव के लिए लगातार वहां के स्थानीय कार्यकर्ताओं से फोन पर बात कर रहे हैं। एक कार्यकर्ता हार पहनाने के लिए बढ़ते हैं तो प्रभात जी जुमला फेंकते हैं- “हार में नहीं जीत में भरोसा है मेरा।”
सोनकच्छ और कुक्षी के दो विधानसभा उपचुनावों की जीत ने ही उनमें यह आत्मविश्वास भरा है। सो अब, प्रभात झा यही भाव अपने संगठन के सामान्य कार्यकर्ताओं में भी भरना चाहते हैं। उनकी कोशिशें कितनी रंग लाएंगी यह तो समय बताएगा, किंतु उनकी मेहनत देखिए वे अपने एक साल के कार्यकाल में पार्टी संगठन के लगभग तीन सौ मंडलों का दौरा कर चुके हैं। शायद इसीलिए इस परिश्रमी अध्यक्ष का सम्मान करने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने आवास पर उनके सम्मान समारोह का आयोजन किया। इस आयोजन के लिए मुख्यमंत्री की ओर से वितरित किए गए कार्ड की भाषा देखिए-“… इस एक वर्ष में उन्होंने अनथक परिश्रम किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के मूल मंत्र ‘चैरेवेति-चैरेवेति’ को वे साकार कर रहे हैं।” जाहिर तौर पर प्रभात झा ने संगठन मंत्र पढ़ लिया है। करीब साल भर पहले जब वे राज्य भाजपा के अध्यक्ष बनाकर भेजे गए थे, तो उनके विरोध में काफी सुर थे। कुछ यह भी आशंकाएं कि झा अपने ऊंचे संपर्कों के सहारे मुख्यमंत्री बनने का सपना भी पाल सकते हैं। साथ ही बिहार में जन्मे होने के कारण भी उनकी स्वीकार्यता सहज नहीं लग रही थी। जबकि ग्वालियर से प्रारंभ अपने पत्रकारीय कैरियर से उन्होंने जिस तरह खुद को मध्यप्रदेश की माटी को समर्पित किया वह अपने आप में एक उदाहरण है। स्व.कुशाभाऊ ठाकरे की प्रेरणा से जब से वे संगठन के लिए जुटे तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। भोपाल और दिल्ली के साधारण कमरों और साधारण स्थितियों में उनकी साधना जिन्होंने देखी है वे मानेंगें कि इस 53 वर्षीय कार्यकर्ता को सब कुछ यूं हीं नहीं मिला है। इन पंक्तियों के लेखक का उनका करीब दो दशक का साथ है। एक पत्रकार के नाते मैं चाहे छिंदवाड़ा के उपचुनाव में कवरेज करने गया या छत्तीसगढ़-मप्र के तमाम चुनावी मैदानों में, झा हमेशा नजर आए। अपनी वही भुवनमोहिनी मुस्कान और संगठन के लिए सारी ताकत और सारे संपर्कों को झोंक देना का हौसला लिए हुए। आप उनके दल के साधारण कार्यकर्ता हों, पत्रकार या बुद्धिजीवी सबका इस्तेमाल अपने विचार परिवार के लिए करना उन्हें आता है। इसलिए देश भर में युवाओं का एक समूचा तंत्र उनके पास जिसकी आस्था लिखने-पढ़ने में है। वे संगठन और विचार की राजनीति को समझते हैं। इसलिए कुछ थोपने की कोशिश नहीं करते। एक सजग पत्रकार हमेशा उनके मन में सांस लेता है। इसलिए वे मीडिया मैनेजमेंट नहीं मीडिया से रिश्तों की बात करते हैं। जमीन से आने के नाते, जमीनी कार्यकर्ता की भावनाओं को पढ़ना उन्हें आता है। वे खुद कहते हैं- “नींद खोई, दोस्त खोए, पर पाया है कार्यकर्ताओं का प्यार। क्योंकि अपनी सामाजिक ग्राह्यता के लिए कड़े परिश्रम के अलावा मेरे पास न कोई रास्ता था न ही साधन।”
निश्चय ही प्रभात झा ने यह साबित कर दिया है उनको राज्य में भेजने का फैसला कितना जायज था। अपने स्वागत और होर्डिंग लगाने की मनाही करके उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से ही सही राजनीति को एक नया पाठ पढ़ाने की कोशिश की। यह सही है कि वे अपने इस फरमान को पूरा लागू नहीं करा पाए पर उनकी कोशिशें रंग ला रही हैं। उन्हें मुख्यमंत्री से लड़ाने की सारी कोशिशें तब विफल होती दिखीं, जब उन्होंने कार्यकर्ता गौरव दिवस कार्यक्रम का भोपाल में आयोजन किया। इस बहाने केंद्र के नेताओं और राष्ट्रीय मीडिया को उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे किसी भी तरह से शिवराज सिंह का विकल्प नहीं हैं, वरन वे तीसरी बार भी शिवराज जी के नेतृत्व में सरकार बनाने के अभियान में जुटे हैं। प्रभात झा कहते हैं- “मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अच्छा काम कर रहे हैं। मैं उन्हें और मजबूत करने का काम कर रहा हूं। लोग उभरते हुए नायक को खलनायक बनाने की कोशिश करते हैं, मैं नायक को जननायक बनाने की दौड़ में लगा हूं।”
मूलतः एक पत्रकार होने के नाते प्रभात झा सच कहने और कई बार कड़वा सच बोलने से नहीं चूकते। इसके चलते उन्हें बड़बोला साबित करने के भी प्रयास हुए। उनके भाषणों की अलग-अलग व्याख्याएं कर यह साबित करने का प्रयास किया गया कि उनसे नाराजगी बढ़ रही है। झा इस बात को समझने लगे हैं। अब वे वाणी संयम का सहारा ले रहे हैं। खुद झा कहते हैं कि-“ मैं पत्रकार रहा हूं तो लगता था कि हर सवाल का जवाब देना जरूरी है। समय के साथ यह समझ विकसित हुयी है हर बात का जवाब देना जरूरी नहीं है। मेरे दोस्तों और साथियों की सलाह के बाद मैने कुछ मामलों पर चुप रहना सीख लिया है। ”
जाहिर तौर पर राजनीति के सफर में एक साल का सफर बहुत बड़ा नहीं होता। किंतु झा को जानने के लिए सिर्फ उन्हें इस एक साल से मत पढिए। वे दल के लिए अपनी जिंदगी के तीन दशक दे चुके हैं। अपने दल को एक वैचारिक आधार दिलाने के लिए उनकी कोशिशों को याद कीजिए। पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश से लेकर अनेक राज्यों से प्रारंभ हुए प्रकाशनों में उनकी भूमिका को भी याद कीजिए। संगठन का विचार से एक रिश्ता बने, बुद्धिजीवियों से उनके दल का एक संवाद बने,यह उनकी एक बड़ी कोशिश रही है। अपने लेखन से समाज को झकझोरने वाले प्रभात आज मध्यप्रदेश भाजपा के शिखर पर हैं, तो इसके भी खास मायने हैं, एक तो यह कि भाजपा में साधारण काम करते हुए आप असाधारण बन सकते हैं, दूसरा यह कि सामान्य कार्यकर्ता कितनी ऊंचाई हासिल कर सकता है वे इसके भी उदाहरण है। मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष का पद बहुत कठिन उत्तराधिकार है, इसे वे समझते हैं। प्रभात झा ने अभी तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है किंतु 2013 में वे अपनी पार्टी को फिर से सत्ता में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस सवाल पर उनका जवाब बहुत मौजूं है, वे कहते हैं-“ जिसने शादी नहीं की है, क्या उसे बारात में भी जाने का हक नहीं है।” निश्चय ही 2013 की बारात में लोग शामिल होंगें या नहीं होंगें यह कहना कठिन है पर आज तो शिवराज सिंह-प्रभात झा की बारात में हर कोई शामिल दिख रहा है।
हमारे देश में पर्यावरण विनाश और उसकी पृष्ठभूमि में मानव स्वास्थ पर पड़ने वाले असर से संबधित मामलों में लगातार इजाफा हो रहा हैं। जलवायु परिर्वतन, उधोगों से निकलने वाली क्लोरो फलोरो काँर्बन गैसें, जीएम बीज, कीटनाशक दवाएँ व आधुनिक विकास से उपजे संकट जैव विविधता को खत्म करते हुए पर्यावरण संकट को बढ़ावा दे रहे हैं। इन मुदद्रो से जुड़े मामलों को निपाटने के लिए अब देश में हरित न्यायालय खोले जाने की तैयारी शुरू हो गई हैं। इस हेतु अलग से कायदे कानूनों के तहत मुकादमों को निपटाने और दण्ड तय करने के प्रावधान सामने आएंगे। अभी आस्ट्र्रलिया और न्यूजीलैंड में हरित न्यायालय वजूद में हैं। इस नजरिये से दुनिया में भारत अब तीसरा ऐसा देश होगा जहां हरित न्यायाधिकरण गठित होंगे। इन न्यायाल्यों के परिणाम पर्यावरण और मूल रूप से दोषियों के विरूध्द दाण्डिक कार्यवाई करने में कितने सक्षम साबित होंगे फिलहाल यह तो काल के गर्भ में है। क्योंकि अब पर्यावरण हानियां व्यक्तिगत न रहकर देशी विदेशी बड़ी कंपनियों के हित साधन के रूप में देखने में आ रही हैं। जो देश के कायदे कानूनों की परवाह नहीं करती। दुसरी तरफ कानूनों में ऐसे पेंच डाले जा रहे हैं कि नुकसान की भरपाई के लिए अपीलकर्ता को सोचने को मजबूर होना पड़े। ऐसे में इन न्यायालयों की कोई निर्विवाद व कारगर भूमिका सामने आएगी, ऐसा फिलहाल लगता नहीं हैं।
हरित न्यायालय के चार खण्डपीठ देश के अलग अलग हिस्सों में हांगे। इन्हें वन एवं पर्यावरण मंत्रालय स्थापित करेगा। इन अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर उठे सवाल पर मद्रास उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने रोक हटाकर इन अदालतों को खोले जाने का मार्ग प्रशस्त करते हुए फौरान न्यायाधिकरणों को वजूद में लाने की हिदायत दी है। फिलहाल पर्यावरण से जुड़े 5 हजार से भी ज्यादा मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। निचली अदालत से प्रकारण का निराकरण होने पर इसकी अपील उच्च न्यायाल्य में ही की जा सकेगी। लेकिन अब इस दायरे में आने वाले सभी मामले हरित न्यायालयों को स्थानांतरित हो जाएंगे और नए मामलों की अर्ज्ाियां भी इन्हीं अदालतों में सुनवाई के लिए पेश होंगी। यह स्थिति उन लोगों के लिए कठिन हो जाएगी जो पर्यावरण संबंधी मुददों को पर्यावरण सरंक्षण और जनहित की टृष्टि को सामने रखकर लड़ रहे हैं। क्योकि फिलहाल सिर्फ 4 हरित अदालतों का गठन देश भर के लिए होना हैं। ऐसे में उन लोगों को तो सुविधा रहेगी जिन राज्यों में यह खण्डपीठ अस्तित्व में आएंगे। लेकिन दूसरे राज्य के लोगों को अपनी अर्जी इतनी दूर जाकर लगाना मुश्किल होगा। यह एक व्यवहारिक पहलू है, जिसे नजरंअदाज नहीं किया जा सकता। इस समस्या का हल भी तब तक निकलने वाला नहीं है, जब तक खण्डपीठों की स्थापना हरेक राज्य में न हो जाए।
इन अदालतों में मामला दायर करते वक्त फरियादी या समूह को होने वाली संभावित पर्यावरणीय हानि की 1 प्रतिशत धन राशि शुल्क के रुप में अदालत में जमा करनी होगी। तभी हर्जाने की अपील मंजूर होगी। इस बाव्त यदि यूनियन कार्बाहाइड से हर्जाना प्राप्त करने का मामला हरित न्यायाधिकरण में दायर किया जाए तो, लड़ाई लड़ रहे संगठन को दस करोड़ रूपय बतौर शुल्क जमा करने होंगे। इस तरह की विसंगति या जटिलिता किसी अन्य कानून में नहीं हैं। जाहिर है शुल्क की यह शर्त बहुराष्ट्र्रीय कंपनियों के हितों को ध्यान में रख कर नीति नियंताओं ने कुटिल चतुराई से गढ़ी है। वैसे भी मौजूदा दौर में केंद्र और राज्य सरकारें गरीब और लाचारों के हित पर सीधा कुठाराधात कर कही हैं। पाँस्को स्पात कंपनी को हाल ही में पर्यावरण व वन मंत्रालय ने लौह अयस्क उत्खनन की मंजूरी दी हैं। यह मंजूरी 4 हजार गरीबों की रोजी रोटी से वंचित करके दी गई हैं। खुद जयराम रमेश ने कुछ समय पहले पाँस्को के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि कंपनी ने प्रभावित आदिवासियों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की है। लेकिन अब जयराम पाँस्को के सुर में सुर मिलाते हुए पाँस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के सचिव श्िशिर महापत्र के खिलाफ कानूनी करवाई करने की वकालत कर रहे हैं।
कमोवेश ऐसा ही हश्र जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले लोगों के साथ हो रहा है। जिसमें कि पर्यावरण हानि के चलते लोगों को बेघर व बेरोजगार कर देने के हालात साफ दिखाई दे रहे हैं। राज्य सरकार की शह पर पुलिस, आंदोलनकारियों के दमन पर उतर आई है। उनकी गिरफ्तारी कर उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाने का सिलसिला शुरू हो गया है। राज्स सरकार यह भी झूठा दावा कर रही है कि अधिग्रहण के लिए प्रस्तावित जमीन बंजर है। जबकि यह इलाका धान उत्पादक क्षेत्रों में गिना जाता है। यहां के अलफांसो आम की किस्म तो देश विदेश में प्रसिध्द है। आम बगीचों के माली इन्हीं आमों को बेचकर पूरे साल की रोजी रोटी कमाते हैं। राज्य सरकार भी इस परमाणु परियोजना के सामने आने से पहले पूरे अमराई क्षेत्र को बागों का दर्जा दे वुकी है। ये लोग यदि अपने पर्यावरणीय नुकसान के मुआवजे की मांग रखने हरित अदालत जाएंगे तो शायद अदालत की फीस जमा करने लायक धन राश्ी भी नहीं जुटा पाएंगे। जबकि ये लाचार लोग न तो पर्यावरण बिगाड़ने वाले लोगों की कतार में शामिल हैं, न ही प्रदूषण फैलाने वालों में और न ही प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध देहन कर उसका उपभोग करने वाले लोग हैं जबकि आजीविका इनकी छीनी जा रही है। इनका स्वास्थ्य बिगाड़ने के भी भरपूर इतंजाम किए जा रहे हैं।
जीएम बीजों और कीटनाशकों के फसलों पर छिड़काव से भी बड़ी मात्रा में इनसे जुड़े लोगों की आजीविका को हानि और खेतों को क्षति पहुंच रही है। दुनिया के पर्यावरण विदो और कृषि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है की जीएम बीजों से उत्पादित फसलों को आहार बनाने से मानव समुदायों में विकलागंता व कैंसर के लक्षण सामने आ रहे हैं। खेतों को बंजर बना देने वाले खरपतवार खेत व नदी नालों का वजूद खत्म करने पर उतारू हो गए हैं। बाजार में पहुंच बनाकर मोंसेटों जीएम बीज कंपनी ने 28 देशों के खेतों को बेकाबू हो जाने वाले खरपतवारों में बदल दिया हैं। यही नहीं जीएम बीज जैव विविधता को भी खत्म करने का करण बन रहे हैं। भारत की अनूठी, भौगोलिक व जलवायु की स्थिति के चलते हमारे यहां फलों की करीब 375 किस्में हैं धान की 60 हजार किस्में, सब्जियों की लगभग 280 किस्में, कंदमूल की 80 किस्में और मेवों व फूल बीजों की ऐसी 60 किस्में हैं जो स्वास्थ लाभ हेतु दवा के रूप में इस्तेमाल होते हैं। इन पर्यावणीय हानियों के मुकदमें एक प्रतिशत फीस की शर्त के चलते एक तो हरित अदालतों में दायर होना ही मुश्किल हैं और यदि दायर हो भी जाते हैं तो अदालतें वास्तविक हानि का मुआवजा फरीक को दिला भी पाएगीं अथवा नहीं यह कहना फिलहाल जल्दबाजी होगा।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का नाम जहन में आते ही कई पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए देश-दुनिया में अपनी अलग पहचान दिलाने वाला हिन्दी संस्थान आजकल ‘बेकारी’ के दौर से गुजर रहा है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब साहित्यिक केन्द्रों की स्थापना,छात्र-छात्राओं को शोध कार्यो हेतु सहायता, फेलोशिप योजना, सहित्यकार कल्याण कोष, स्मृति संरक्षण योजना, बाल साहित्य तथा संवर्धन योजना के लिए जाना-पहचाना जाने वाला और चिकित्सा विज्ञान एवं तकनीकी पुस्तकों के लेखन, भारतीय भाषाओं की प्रमुख कृतियों के अनुवाद,साहित्य पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के लिए राज्य का हिंदी संस्थान एक मात्र विश्वसनीय नाम समझा जाता था ,लेकिन अब ऐसा नहीं है। करीब 34 वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के कार्यकाल में स्थापित हुआ हिन्दी संस्थान तब तक तो ठीकठाक चलता रहा जब तक प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही,लेकिन जैसे ही प्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारों के गठन का दौर शुरू हुआ हिन्दी संस्थान के भी बुरे दिन शुरू हो गए। आज स्थिति यह है कि हिन्दी संस्थान एक तरफ पैसे की तंगी से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ इसकी पहचान बने प्रतिष्ठित पुरूस्कार लगातार विवादों में फंसते जा रहे हैं।कभी कार्यकारी अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान होकर साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी,अमृत लाल नागर, अशोक जी,राम लाल सिंह,डा0 शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ भक्त दर्शन ,परिपूर्णानंद वम्मा,डा0शरण बिहारी गोस्वामी,लक्ष्मी कांत वर्मा,गोपला दास ‘नीरज’ और कार्यकारी उपाध्यक्ष की कुर्सी पर राजनाथ सूर्य, सोम ठाकुर आदि ने यहां अपनी सेवाएं दी थीं लेकिन आज कोई सााहित्यकार इससे जुड़ना पसंद नहीं करता है। संस्थान की स्थापना के साथ ही एक परम्परा बन गई थी जिसके अनुसार यहां कार्यकारी अध्यक्ष की कुसी पर साहित्यकारों को ही मौका दिया जाता था,यह दौर काफी समय तक चलता रहा लेकिन मौका मिलने पर कई आईएएस अधिकारी भी इस पर बैठने का मोह नहीं छोड़ पाए।यही वजह थी शंभू नाथ जैसे आईएएस अधिकारियों को भी हिन्दी संस्थान की सेवा करने का मौका मिल गया। राज्य का मुख्यमंत्री हिन्दी संस्थान का पद्ेन अध्यक्ष होता हैं,ऐसे में इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि यहां राजनीतिक फ्लेवर न दिखाई दे ।
एक तरफ संस्थान में कार्यकारी अध्यक्ष की कुर्सी पर साहित्यकारों के मनोनयन की परम्परा थी तो दूसरी तरफ निदेशक का पद काफी सोच-विचार के बाद आईएएस अधिकारी के लिए रखा गया था ताकि इन अधिकारियों के माध्यम से संस्थान और सरकार के बीच सामजस्य बना रहे। लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां सेवा करने के मौकों को आईएएस अधिकरियों ने सजा से रूप में ही लिया। यहां अधिकारियों की पोस्टिंग के साथ ही उनके ट्रांसर्फर की चर्चा शुरू हो जाती थी।एक-दो को छोड़कर कोई भी निदेशक साल भर भी नहीं टिका। 30 जून 2009 से कार्यकारी पूर्णकालीन अध्यक्ष और 26 अप्रैल 2010 से निदेशक का पद खाली पड़ा है। जिस कारण यहां का काम सुचारू रूप से नहीं चल पा रहा है। आईएएस अधिकारी और प्रमुख सचिव (भाषा) अशोक घोष ही इस समय निदेशक और कार्यकारी अध्यक्ष का कामकाज देख रहे हैं, लेकिन काम की अधिकता के कारण वह यहां समय कम ही दे पाते हैं। जिस कारण भी संस्थान का काम प्रभावित हो रहा हैं।साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति भंग पड़ी है। हिंदी संस्थान में अध्यक्ष और निदेशक की नियुक्ति माया सरकार द्वारा नहीं किए जाने से क्षुब्ध होकर कुछ लोगों ने अदालत का दरवाजा भी खटखटा दिया तो इसी साल फरवरी के महीने में डा.नूतन ठाकुर, निर्मला राय,डा.प्रणव कुमार मिश्रा,राजेन्द्र प्रसाद सिंह आदि की याचिका पर इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने राज्य सरकार को हिंदी संस्थान में पूर्णकालीन कार्यकारी अध्यक्ष एवं निदेशक की नियुक्ति करने के साथ-साथ साधारण सभा और कार्यकारिणी समिति के गठन का आदेश जारी किया था, लेकिन उस पर अभी तक अमल नहीं हो पाया है।इसके साथ ही हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने हिन्दी संस्थान द्वारा दिए जाने वाले अनेक पुरस्कारों के कई सालों से वितरित नहीं किए जाने पर भी नाराजगी जताई,लेकिन अदालती आदेश पर काम करने की बजाए बचाव के नए रास्ते तलाशे जाने लगे। मुलायम राज में तो यहां थोड़ा-बहुत काम हुआ भा लेकिन माया राज में तो हिन्दी संस्थान की तरह नजर उठा कर देखने का भी समय किसी के पास नहीं है।
मंहगाई बढ़ रही है,लेकिन यहां आने वाली मदद में लगातार कटौती की जा रही है। आर्थिक तंगी के कारण के कारण संस्थान को अपनी गुणवत्ता और कार्यक्रमों की संख्या घटा कर समझौते करने पड़ रहे हैं। ज्यादा पीछे न जाकर बात सत्तारूढ़ माया सरकार की ही कि जाए तो यह देखकर आश्चर्य होता है कि पिछले तीन सालों से बसपा सरकार इसका बजट कम करती जा रही है। संस्थान को मिलने वाले पैसा और संस्थान के खर्चो के बीच में विरोधाभास की स्थिति यह है कि सरकारी मदद हिन्दी संस्थान के लिए ‘ ऊॅेट के मुंह में जीरा ‘ साबित हो रही है। चौतरफा मंहगाई बढ़ रही है लेकिन यहां का योजनागत बजट 2007-2008 और 2008-2009 के लिए 16 लाख रूपए था जो 2009-2010 के लिए घटा कर मात्र छह लाख रूपए कर दिया गया। इस वर्ष इसे और भी कम कर दिया गया।
हिन्दी साहित्यकारों की रीढ़ माना जाने वाला यह संस्थान आज स्वयं रीढ़ विहीन हो गया है। संस्थान का पद्ेन अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है। इस लिए समय-समय पर यहां राजनीति भी देखने को मिलती रहती हैं। कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सी बी गुप्ता ने अपने शासनकाल में 07 अप्रैल 1967 को इस संस्थान का शिलान्यास किया था।इसी लिए गैर कांग्रेसी सरकारों ने इसे कांग्रेसी संस्था के रूप में अधिक महत्व दिया। शुरूआती दौर में हिन्दी संस्थान ने न केवल देश में बल्कि देश से बाहर भी काफी नाम कमाया।हिन्दी संस्थान की नींव पड़ने के करीब पन्द्रह साल बाद इस परिसर में एक अगस्त 1982 (राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन की जन्म शताब्दी के मौके पर) को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा ने राजर्षि की प्रतिमा का यहां स्थापना करने के साथ ही हिन्दी संस्थान का नया नाम ‘राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन हिन्दी संस्थान’ करने की घोषणा की। राजर्षि टंडन का हिन्दी प्रेम जगजाहिर था।वह हिन्दी को देश की आजादी के पहले ”आजादी प्राप्त करने का” और आजादी के बाद ”आजादी बनाए रखने का साधन” मानते थे। हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने में राजर्षि की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही उनका नाक हिन्दी संस्थान से जोड़ा जाना गौरव की बात कही जाने लगी। वह देश की धरोहर तो थे ही उत्तर प्रदेश के गंगा किनारे जिला प्रयाग में पैदा होने के कारण उत्तर प्रदेश के प्रति उनका अतिरिक्त लगाव था। यही वजह थी उनकी विचारधारा कांग्रेसी होने के बाद भी किसी ने हिन्दी संस्थान का नामकरण उनके नाम पर किए जाने का विरोध नहीं किया। इसमें शायद ही किसी प्रकार का मतभेद हो कि ज्ञान और साहित्य की ज्योति फैलाने के लिए स्थापित संस्थान का अतीत शानदार रहा है,मगर कई परेशानियों और संसाधनों की कमी से जूझ रहे इस संस्थान का भविष्य भी ऐसा ही रहेगा, इसकी संभावनाएं बहुत कम हैं।
बात संस्थान के अतीत की कि जाए तो हिन्दी संस्थान को अपनी सेवाएं देने वाले बाल मुकुंद कहते हैं संस्थान ने कई दुर्लभ पाण्डुलिपियों का प्रकाशन किया है। संस्थान द्वारा प्रकाशित कुछ पुस्तकों की रिकार्ड बिक्री हुई,जो लम्बे समय तक चर्चा में रही। इनमें मुख्य रूप से ‘भारतीय इतिहास कोश’,’ हिंदू धर्मकोश और ‘उर्दू-हिन्दी शब्दकोश’ ऐसी किताब हैं जिसकी हर वर्ष पांच हजार से अधिक प्रतियां बिकती हैं और इसके अब तक 11 से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। एक समय था जब संस्थान साहित्य, कला, विज्ञान और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में योगदान करने वालों को सम्मानित करने के लिए 87 पुरस्कार (52 लाख रूपए की धनराशि से) वितरित करता था, जिसमें साहित्य के क्षेत्र के ‘भारत भारती सम्मान’, ‘हिन्दी गौरव सम्मान, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, ‘लोहिया साहित्य सम्मान’ और ‘महात्मा गांधी सम्मान,अवन्ती बाई, साहित्य भूषण सम्मान प्रमुख थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए संस्थान ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’,पत्राकारिता भूषण सम्मान तथा पत्रकारिता के अतिरिक्त भूषण सम्मान, बालकृष्ण भट्ट सम्मान,प्रसार भारतीय हिंदी गौरव सम्मान, हिंदी विदेश प्रसार सम्मान आदि पुरूस्कार अपनी लोकप्रियता के कारण हमेशा चर्चा में रहे। आज की तारीख में उक्त में से मात्र तीन सम्मान ही जारी रह गए हैं। इसमें साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत भारती’, ‘हिन्दी गौरव और महात्मा गांधी साहित्य सम्मान हैं। इसके अलावा साहित्य भारती और बालवाणी पुस्तिका का प्रकाशन कुछ हद तक संस्थान की साख बचाए है। हिन्दी संस्थान पर मंडराते काले बादलों से साहित्यकार तो परेशान हैं लेकिन प्रदेश सरकार को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
सम्मान पर संकट
हमेशा विवादों में रहने वाला उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान एक बार फिर संकट में फंस गया लगता है। यह संकट प्रदेश का सबसे बड़े पुरस्कार ‘भारत-भारती’ के लिये चुने गए साहित्यकार अशोक वाजपेयी के पुरस्कार वितरण समारोह में भाग लेने में अनिच्छा जाहिर करने से पैदा हुए है। अशोक वाजपेयी ने संस्थान के पुरस्कारों की संख्या 87 से घटा कर तीन किये जाने के फैसले पर पुनर्विचार के सुझाव पर माया सरकार से कोई जवाब नहीं मिलने और पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्यमंत्री या राज्यपाल के शिरकत नहीं करने की कथित सूचना को अपना अपमान करार दिया। श्री वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने प्रदेश के भाषा विभाग के प्रमुख सचिव अनिल घोष को पत्र लिखकर सुझाव दिया है कि उनकी पुरस्कार राशि उन्हें डाक से भेज दी जाए और अगर इसमें कोई अड़चन है तो सरकार उस धनराशि को अपने पास रख ले। इस बारे में घोष से बात करने पर उन्होंने कहा कि उनका इस मामले पर किसी तरह की टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। वाजपेयी ने बताया कि संस्थान के पुरस्कार प्रभारी हरीश नारायण सिंह ने 18 फरवरी को उनसे फोन पर बातचीत में पुरस्कार वितरण समारोह के लिये उपयुक्त तिथि पूछी थी। साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि समारोह में मुख्यमंत्री मायावती या राज्यपाल बीएल जोशी के बजाय प्रदेश सरकार के मंत्रिमण्डल के कोई सदस्य शिरकत करेंगे।
श्री वाजपेयी ने कहा कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल को साहित्य के क्षेत्र में दिये जाने वाले प्रदेश के सबसे बड़े पुरस्कार के वितरण समारोह में शामिल होने की अगर फुरसत नहीं है तो यह साहित्यकारों का अपमान है। वाजपेयी का कहना था कि उन्होंने गत छह जनवरी को हिन्दी संस्थान की ओर से पुरस्कारों की घोषणा किये जाने के बाद घोष को पत्र लिखकर कहा था कि पुरस्कार की संख्या को 87 से घटाकर तीन कर दिये जाने पर पुनर्विचार किया जाए लेकिन उन्हें इस पत्र का जवाब नहीं मिला। गौरतलब है कि हिन्दी संस्थान ने गत छह जनवरी को डॉक्टर वाजपेयी को वर्ष 2008 के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित करने का ऐलान किया था। इस पुरस्कार के तहत दो लाख 51 हजार नकद तथा प्रशस्ति पत्र दिया जाता है। इसके अलावा एसआर यात्री को महात्मा गांधी पुरस्कार जबकि भवदेव पाण्डेय को हिन्दी गौरव अवार्ड देने की घोषणा की गई थी।
पश्चिम बंगाल में इसबार का विधानसभा चुनाव ‘स्वशासन’ ( पार्टी शासन) बनाम ‘सुशासन’ के नारे के तहत लड़ा जा रहा है। ‘सुशासन’ की धुरी है जनता और कानून का शासन। ‘स्वशासन’ की धुरी है पार्टीतंत्र की मनमानी और सामाजिक नियंत्रण। इसके आधार पर वोट पड़ने जा रहे हैं। इसबार का चुनाव नव्य आर्थिक उदारीकरण के सवालों पर नहीं हो रहा। यह चुनाव माओवादी हिसा के सवाल पर भी नहीं लड़ा जा रहा। इस चुनाव में ममताबनर्जी की इमेज और वर्गीय चरित्र को लेकर पर भी बहस नहीं हो रही। इस चुनाव का प्रधान मुद्दा ‘स्वशासन’ बनाम ‘सुशासन’ है। मुख्य सवाल है राज्य में पार्टीतंत्र का शासन चलेगा या भारतीय कानून का शासन चलेगा। ममता ने सुशासन के सवालों को प्रधान मुद्दा बनाया है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है।
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पश्चिम बंगाल विधानसभा के आगामी चुनाव असाधारण होंगे। 35 सालों में वाम मोर्चे ने सातबार आराम से चुनाव जीता है लेकिन इसबार ऐसा लग रहा है कि वाम मोर्चा कठिन चुनौती का सामना कर रहा है। वाम मोर्चा और खासकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ( मार्क्सवादी) या माकपा और ममता बनर्जी दोनों के लिए यह चुनाव आर-पार की लड़ाई है। इस चुनाव में कई बुनियादी सवाल उठे हैं जिनसे वाम मोर्चा और राज्य की राजनीति पहलीबार मुखातिब है। विलक्षण आयरनी है वाम मोर्चे का एक तबका यह चाहता है कि इसबार वाम मोर्चा चुनाव हारे। इससे वाम के अंदर जो सामाजिक गंदगी है वो साफ होगी। सामाजिक नियंत्रण टूटेगा। इसबार का बुनियादी मुद्दा है माकपा के सामाजिक नियंत्रण तंत्र को ध्वस्त करो।
उल्लेखनीय है माकपा ने 2009 में लोकसभा चुनाव के पहले एक शुद्धीकरण अभियान चलाया था । कई हजार दोषी पार्टी सदस्यों को अपने दल से निकाला था ये हजारों लोग बाद में ममता की राजनीतिक पार्टी में चले गए । उसकी राजनीतिक ताकत बन गए। फलतःसन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वाम मोर्चे को अभूतपूर्व पराजय का सामना करना पड़ा। सन् 2009 की पराजय के बाद वाम मोर्चे को छोड़ने वालों का सिलसिला थमा नहीं है। ऐसी अवस्था में वाम की पहली बड़ी चुनौती है अपने संगठन और सांगठनिक जनाधार को बचाने की ।दूसरी चुनौती है विधानसभा चुनाव जीतने की।
वाम और खासकर माकपा की कुछ बुनियादी भूलें रही हैं जिनके कारण बड़े पैमाने पर जनता नाराज है और चाहती है ममता बनर्जी को कम से कम एकबार मौका दे दिया जाए। इसके कारण पहलीबार वाम मोर्चा प्रत्याशी क्षमाप्रार्थी हैं। 23 मार्च को राज्य के मुख्यमंत्री और माकपा के पोलिट ब्यूरो सदस्य बुद्धदेव भट्टाचार्य ने प्रेस कॉफ्रेस में पार्टी सदस्यों की नागरिक जीवन में हस्तक्षेप करने वाली हरकतों की पहलीबार तीखी आलोचना की है। उन पहलुओं पर पहलीबार खुलकर बोला है जिन पर वे अब तक पार्टी के अंदर बोलते रहे हैं। असल में गड़बड़ियां ज्यादा गहरी हैं। इन्हें संक्षेप में मार्क्सवाद की 5 भूलों के रूप में देख सकते हैं। पहली भूल , पार्टी और प्रशासन के बीच में भेद की समाप्ति। इसके तहत प्रशासन की गतिविधियों को ठप्प करके पार्टी आदेशों को प्रशासन के आदेश बना दिया गया । दूसरी भूल ,माकपा कार्यकर्ताओं ने आम जनता के दैनंन्दिन-पारिवारिक -सामाजिक जीवन में व्यापक स्तर पर हस्तक्षेप किया है,और स्थानीयस्तर पर विभिन्न संस्थाओं और क्लबों के जरिए सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की । तीसरी भूल , अनेक कमेटियों ने कामकाज के वैज्ञानिक तौर-तरीकों को तिलांजलि देकर तदर्थवाद अपना लिया । अवैध ढ़ंग से जनता से धन वसूली और अपराधी लोगों का लोकल तंत्र स्थापित किया । चौथी भूल ,बड़े पैमाने पर अयोग्य,अक्षम और कैरियरिस्ट किस्म के नेताओं के हाथों में विभिन्न स्तरों पर पार्टी का नेतृत्व आ गया है।
मसलन् जिन व्यक्तियों के पास भाषा की तमीज नहीं है,मार्क्सवाद का ज्ञान नहीं है,पेशेवर लेखन में शून्य हैं ,बौद्धिकों में साख नहीं है,ऐसे लोग पार्टी के अखबार,पत्रिकाएं और टीवी चैनल चला रहे हैं। वैचारिकगुरू बने हुए हैं। अलेखक-अबुद्धिजीवी किस्म के लोग बुद्धिजीवियों के संगठनों के नेता बने हुए हैं। जो व्यक्ति कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में सामान्य विचारधारात्मक ज्ञान नहीं रखता वह नेता है। जिस विधायक या सांसद की साख में बट्टा लगा है वह अपने पद पर बना हुआ है।
पांचवी भूल, राज्य प्रशासन का मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति नकारात्मक रवैय्या रहा है। मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक सबके अंदर ‘हम’ और ‘तुम’ के आधार पर सोचने की प्रवृत्ति ने राज्य प्रशासन के प्रति सामान्य जनता की आस्थाएं घटा दी हैं। आम जनता के दैनन्दिन जीवन में प्रशासन सहयोगी की बजाय सबसे बड़ी बाधा बन गया है और निहित स्वार्थी लोगों ने राज्य प्रशासन को मानवाधिकारों के हनन का औजार बना दिया है।
विगत 35 सालों में विकेन्द्रीकरण के बाबजूद राज्य में प्रत्येक स्तर पर लोकतंत्र पंगु बना है। विकेन्द्रीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं के चुनाव प्रत्येक स्तर पर मखौल बनकर रह गए हैं। स्थिति की भयावहता को समझने के लिए एक-दो उदाहरण ही काफी हैं,मसलन राज्य में छात्रसंघों के नियमित चुनाव होते हैं लेकिन विपक्षी उम्मीदवारों को नामांकन पत्र तक दाखिल नहीं करने दिया जाता । मजेदार बात है ज्यादातर कॉलेज और विश्वविद्यालयों में वाम प्रत्याशी बगैर किसी प्रतिद्वंद्विता के जीत जाते हैं। जो छात्र वाम प्रत्याशियों खासकर एसएफआई के खिलाफ अपना नामांकन भरना चाहता है उसे तरह तरह से आतंकित किया जाता है,परेशान किया जाता है,यहां तक कि उसके परीक्षा के नम्बर कटवाने की धमकियां भी दी जाती हैं और साथ में रहने,मुँह बंद करके रहने के लिए परीक्षा में अच्छे नम्बर देने का आश्वासन दिया जाता है। इस काम में घृणिततम ढ़ंग से शिक्षकों का एक धड़ा उनकी मदद करता है और ये ही लोग शिक्षा में सामाजिक नियंत्रण का काम भी करते हैं। इसके बाबजूद भी यदि कोई छात्र चुनाव लड़ना ही चाहे तो बमबाजी का सामना करना होता,कॉलेज के रास्ते में कई दिनों तक अशांति बनी रहती है ,बमबाजी होती रहती है। इस पूरे काम में स्थानीय पुलिस घृणिततम ढ़ंग से उत्पातियों की मदद करती है।
कायदे से छात्रसंघ चुनावों में आम छात्रों की शिरकत बढ़नी चाहिए लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि शिरकत घटी है,रस्मीतौर पर चुनाव होते हैं , इनकी वास्तविक प्रक्रिया अलोकतांत्रिक है। कागज पर लोकतांत्रिक नियम हैं लेकिन व्यवहार में विशुद्ध सामाजिक नियंत्रण के फार्मूले हैं जिनका छात्रनेता पालन करते हैं।यही दशा तकरीबन सभी स्तरों पर होने वाले चुनावों की है। 35 सालों में पहलीबार नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद माकपा के सामाजिक नियंत्रण के खिलाफ व्यापक विक्षोभ दिखाई दिया और वाम और खासकर माकपा के मजबूत किलों में भी जनता ने सामाजिक प्रतिवाद किया और ममता बनर्जी को जो राजनीत्क हाशिए पर थी हठात रातोंरात बड़ी राजनीतिक ताकत बना दिया।
आम लोगों में माकपा के सामाजिक नियंत्रण की नीति के खिलाफ व्यापक असंतोष है। मसलन आप कोई मकान खरीदना चाहते हैं तो स्थानीय माकपा पार्टी इकाई के सहयोग के बिना यह काम नहीं कर सकते। यदि आप अपना मकान बनाना चाहते हैं तो मिट्टी,सीमेंट,चूना,ईंट किससे लेंगे यह भी पार्टी ही तय करेगी,अन्य को वे सप्लाई नहीं करने देंगे। आपके साथ कोई आपराधिक कांड हो जाए और आप थाने में एफआईआर दर्ज कराने जाएं तो पुलिस शिकायत दर्ज नहीं करेगी जब तक आप किसी लोकल पार्टी ऑफिस से फोन नहीं करा देते। आम रिवाज रहा है कोई भी परेशानी है पहले पार्टी ऑफिस जाओ,वहां बैठे नेता को कहो ,वो फिर सोचेगा कि क्या किया जाए,यहां तक कि हत्या होने पर भी पुलिस एफआईआर नहीं लिखती।
यदि आप कॉलेज-विश्वविद्यालय शिक्षक हैं और आपका माकपा के साथ मतैक्य नहीं है तो तय मानिए आपको भेदभाव,उपेक्षा,बहिष्कार,अपमान आदि का सामना करना पड़ेगा। जीवन के प्रत्येक स्तर पर पार्टी वफादारी को बुनियादी पैमाना है और यह सारा खेल लोकतंत्र,मार्क्सवाद आदि की ओट में चलता रहा है। इसके कारण व्यापक सामाजिक असंतोष पैदा हुआ है। यह असंतोष शांत होगा इसमें संदेह है। इस असंतोष को ममता ने पापुलिज्म के जरिए अभिव्यक्ति दी है।
ममता के पापुलिज्म की सामाजिक धुरी है माकपा के सामाजिक नियंत्रण से सतायी जनता। इस क्रम में ममता बनर्जी के पापुलिस्ट राजनीतिक खेल ने पश्चिम बंगाल में अस्मिताओं को जगाया है। ममता बनर्जी की राजनीति के दो छोर हैं एक है अस्मिता की राजनीति और दूसरा है पापुलिज्म। इसके तहत ही उसने मुस्लिम धार्मिक अस्मिता को हवा दी है। विभिन्न जिलों में अस्मिता के मोर्चों के साथ गठबंधन किया है।
पश्चिम बंगाल में अस्मिता की राजनीति के उभार के दो बड़े कारण हैं। पहला , निरूद्योगीकरण और जंगी मजदूर आंदोलन का लोप। दूसरा ,विगत 10 सालों में राज्य सरकार ने किसानों की जमीन का बड़े पैमाने पर अंधाधुंध अनियोजित -लक्ष्यहीन ढ़ंग से अधिग्रहण किया है। यह जमीन बिना किसी योजना के किसानों से ले ली गयी और इससे बड़े पैमाने पर छोटी जोत के किसान प्रभावित हुए हैं। इनमें मुस्लिम किसानों की संख्या काफी है। इस मौके का लाभ उठाते हुए ममता ने अस्मिता और किसानों की जमीन रक्षा के सवाल को बड़ा मसला बना दिया है। ममता जानती है अस्मिता की राजनीति का मुस्लिम खेल खतरनाक साम्प्रदायिक खेल है। यह नियंत्रण के बाहर न चला जाए इसलिए वाम ने सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। लेकिन क्या इससे अस्मिताएं शांत होंगी ?
उल्लेखनीय है वाम मोर्चे ने बड़े ही कौशल के साथ बंगभाषायी श्रेष्ठत्व और वर्गीय राजनीति का मिश्रित रसायन तैयार किया था। इसमें अल्पसंख्यकों और उनकी भाषाओं को दोयमदर्जे के रूप में देखा गया। वाम ने अपनी भूलों से ममता बनर्जी को अस्मिता की राजनीति का कार्ड खेलने के लिए भौतिक परिवेश प्रदान किया और देखते ही देखते वह विभिन्न समूहों और समुदायों में जनप्रिय हो उठीं। माकपा विरोधी मुस्लिम असंतोष को उसने वोटबैंक में तब्दील किया। वाम के खिलाफ एकमुश्त वोट देने पर जोर दिया। वाम मोर्चे के 35 साल के शासन में मुसलमानों की उपेक्षा को बहाना बनाया ।
सच यह है सारे देश में मुसलमानों को दोयम दर्जे के नागरिक का जीवन जीना पड़ रहा है,इसकी तुलना में पश्चिम बंगाल में वाम ने मुसलमानों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की। गांवों में भूमिसुधार कार्यक्रम के तहत हजारों मुसलमानों को जमीनों के पट्टे दिए । हाल ही में मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण दिया। साम्प्रदायिक सदभाव का माहौल दिया। लेकिन यह सब किया सामाजिक नियंत्रण के दासरे और पार्टी वर्चस्व के तहत। सामाजिक वर्चस्व की निकृष्टतम परिणति है सरकारी नौकरियों में पार्टी मेम्बरों और हमदर्दों की भरती। इसके तहत पूरे राज्य में सरकारी विभागों में विगत 35 साल में माकपा और वाम के अलावा अन्य किसी दल के कार्यकर्ता की नौकरी नहीं लगी।
ममता बनर्जी की रणनीति है छोटे मसलों को बड़ा बनाना। स्थानीय मसलों को राष्ट्रीय और आर्थिक समस्याओं से ऊपर स्थान देना। वे राजनीतिक हथियार के तौर पर वाम के प्रति किसी एकल स्थानीय मसले को उठाती हैं । वह वाम की किसी एक गलती को पकडती है और फिर कारपोरेट मीडिया के जरिए ‘माकपा शैतान’ ‘माकपा शैतान’ का प्रचार आरंभ कर देती है। वे यथार्थ के अंश को समग्र राज्य का सच कहकर प्रचारित करती हैं। यह पद्धति उन्होंने लैटिन अमेरिका के कम्युनिस्ट विरोधियों के प्रौपेगैण्डा से सीखी है।
मसलन वाम शासन में नंदीग्राम में पुलिस गोलीबारी में किसानों के मारे जाने को उन्होंने इतना बड़ा घटनाक्रम बनाया कि देखने वाले को लगे कि देश में उससे ब़ड़ा जघन्य कांड और कहीं नहीं हुआ ! नंदीग्राम पर वे जितनी बेचैन रही हैं वैसी बेचैनी और आक्रोश उनमें गुजरात के दंगों को लेकर नहीं दिखाई दिया।
असल में अस्मिता की राजनीति का पाठ ममता बनर्जी ने नरेन्द्र मोदी से पढ़ा है। गुजरात में हिन्दू अस्मिता के खेल की सफलता ने उन्हें पश्चिम बंगाल में मुस्लिम अस्मिता का कार्ड चलाने की प्रेरणा दी है। अस्मिता की राजनीति मूलतः खोखली राजनीति है। यह सामाजिक विभाजन पैदा करती है। ममता बनर्जी जब भी कोई मसला उठाती हैं तो ‘मैं सही’ की राजनीति पर जोर देती हैं। प्रचार की यह कला उन्होंने संघ परिवार से सीखी है।
उल्लेखनीय है वामदलों का मुसलमानों में एक अंश पर प्रभाव रहा है। राज्य सारे मुसलमान कभी भी वामदलों को वोट नहीं देते थे। अधिकांश मुसलमान पहले कांग्रेस के साथ थे आज भी वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं। अंतर एक है कि मुसलमानों के सवालों को ममता ने सीधे सम्बोधित किया है। अस्मिता की राजनीति के फ्रेम में रखकर उठाया है। मुस्लिम प्रतीकात्मकता का जमकर दोहन किया है। इसके विपरीत वामदलों ने अस्मिता के रूप में मुसलमानों को कभी नहीं देखा। उन्होंने सामाजिक सम्मिश्रण बनाने के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच सदभाव स्थापित करने की कोशिश। उनकी स्थानीय धार्मिक पहचान की बजाय बंगला जातीय पहचान पर जोर दिया। यह काम बड़े ही सचेत ढ़ंग से किया गया।
वाम आंदोलन का यह बड़ा योगदान है कि उसने मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष पहचान दी और धार्मिक पहचान से मुक्ति दिलायी। ममता बनर्जी ने नंदीग्राम आंदोलन के बहाने मुसलमानों की धार्मिक अस्मिता और उसकी रक्षा के सवालों को प्रमुख सवाल बना दिया है और मुसलमानों की संपत्ति और खेती की जमीन खतरे में है, मुसलमानों के लिए वाम मोर्चे ने कुछ नहीं किया आदि बातों को उठाते हुए विकास पर कम मुसलमान की अस्मिता के उभार और माकपा विरोध में मुस्लिम एकजुटता पर जोर दिया है। यह आश्वासन दिया है कि वे और उनका दल मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी है। मुसलमानों का हितैषी होने का ममता बनर्जी का दावा एकसिरे से बुनियाद है। वे वाम मोर्चा विरोध के नाम पर मुसलमानों को प्रतिक्रियावादी और धार्मिक अस्मिता के आधार पर गोलबंद कर रही हैं । यह पुराना कांग्रेसी फार्मूला है कि मुसलमान को मुसलमान रहने दो।
वाम मोर्चे ने सचेत रूप से इस फार्मूले को धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक-सांस्कृतिक रसायन के जरिए तोड़ा था। मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष जातीय भाषायी पहचान के साथ एकीकृत किया है। यह मुसलमानों की जिंदगी में एक बड़ा मूलगामी कदम था लेकिन ममता बनर्जी महज वोटों की खातिर मुसलमानों को धर्मनिरपेक्ष जातीय भाषीय पहचान से वंचित करके उन्हें महज मुसलमान बनाने पर तुली हैं। ढ़ोंगी राजनेताओं की तरह विभिन्न मुस्लिम त्यौहारों पर मुस्लिम वेशभूषा पहनकर नाटक करती रहती हैं। इस संदर्भ में ही ममता बनर्जी का मुस्लिमों औरतों की तरह सिर ढकना और प्रार्थना करना आदि सहज ही देखा जा सकता है।
ममता बनर्जी जानती हैं वे मुसलमान नहीं हैं और वे मुस्लिम वेशभूषा और आचरण करके मुस्लिम समुदाय के सबसे प्रतिक्रियावादी तबकों को आकर्षित करके मुसलमान की धर्मनिरपेक्षता अस्मिता को अपदस्थ करके धार्मिक अस्मिता की स्थापना करना चाहती हैं और यह अस्मिता की राजनीति का खतरनाक खेल है। उल्लेखनीय है कम्युनिस्टों में शानदार मुस्लिमनेताओं की परंपरा रही है और वे कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर राज्य प्रशासन के सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे हैं ,कभी भी उनको सार्वजनिक मंचों पर तथाकथित मुस्लिम ड्रेसकोड में नाटक करते नहीं देखा गया। मसलन मुजफ्फर अहमद और विधानसभा स्पीकर हाशिम अब्दुल हलीम को कभी किसी ने सार्वजनिक राजनीतिक मंचों पर मुस्लिम अस्मिता के साथ जुड़ने के लिए मुस्लिम वेशभूषा बदलकर नाटक करते नहीं देखा। इन लोगों का एक भी फोटो नहीं मिलेगा कि ये अपने को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ रहे हैं,जबकि ये पक्के धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हैं और इस्लाम के भी बड़े सुंदर ज्ञाता रहे हैं,और वे मुसलमानों की धार्मिक अस्मिता की बजाय जातीय बंग भाषायी अस्मिता पर जोर देते रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे ने धार्मिक अस्मिता को गौण बनाया और बांग्ला जातीय गौरव पर जोर दिया है। सामाजिक नियंत्रण के फार्मूले को लागू करने के चक्कर में उसने कभी अस्मिता की राजनीति को पनपने नहीं दिया। अन्य के लिए राजनीतिक स्पेस नहीं दिया। लेकिन आज वाम की यह वैचारिक घेराबंदी टूट चुकी है। वाम ने जनता से लेकर बुद्धिजीवियों तक सबको पार्टी पक्षधरता और बंगला जातीय श्रेष्ठत्व के दायरे में कैद रखा। पार्टी और जातीय श्रेष्ठत्व की वैचारिक नाकेबंदी की संसार के अनेक साम्यवादी देशों में दुर्गति हुई है। पश्चिम बंगाल में यह काम वाम मोर्चा कैसे करता रहा है इसका एक ही उदाहरण देखें।यहां पर दुर्गापूजा पंडालों में लाउडस्पीकर खूब बजते हैं ,गाने भी बजते हैं,लेकिन पंडालों में हिन्दी गाने बजाने पर पाबंदी है। लेकिन विगत लोकसभा चुनाव में वाम की जबर्दस्त पराजय के बाद पहलीबार अधिकांश पूजा पंडालों में बंगला की बजाय हिन्दी फिल्मी गानों की गूंज रही। वाम दलों को ध्यान रखना होगा इंटरनेट के युग में सामाजिक नियंत्रण की रणनीति पिटेगी। वे इससे बाज आएं। यही स्थिति उन अधिकांश रिहाइशी कॉपरेटिव सोसायटियों की है जो बंगालियों ने बनाई हैं। इनमें अधिकांश में भेदभावपूर्ण नियम हैं,मसलन बंगाली ही मकान खरीदने या कॉपरेटिव सोसायटी का सदस्य होने का अधिकारी है।हिन्दी भाषी और मुसलमानों को यह हक प्राप्त नहीं है।
हाल ही में बंगला के नामी संस्कृतिकर्मियों ने बांग्ला में डबिंग किए गए महाभारत सीरियल के प्रसारण का विरोध किया और उसका प्रसारण बंद करा दिया। ये लोग पहले भी इस तरह के प्रसारण रूकवा चुके हैं। इनका मानना है डबिंग कार्यक्रमों से बांग्ला मर जाएगी। कलाकर भूखे मर जाएंगे। यह राज्य में वाम अंधलोकवाद की सबसे खराब मिसाल है। डबिंग और अनुवाद से कोई भाषा नहीं मरती। यदि ऐसा होता तो हिन्दी सिनेमा को तो तबाह हो जाना चाहिए था।
बंगाल के इस आख्यान का लक्ष्य यह तय करना नहीं है कि विधानसभा चुनाव कौन जीतेगा ? बल्कि यह बताना है कि पश्चिम बंगाल की जमीनी हकीकत के बारे में आम लोग बहुत कम जानते हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय मीडिया भी सामाजिक नियंत्रण के सवाल पर चुप्पी लगाए है। विधानसभा चुनाव में वामदलों का सारा जोर इस बात पर है कि हमसे गलतियां हुई हैं हमें माफ कर दो, लेकिन वे यह नहीं कह रहे कि वे सामाजिक नियंत्रण नहीं करेंगे और जो लोग इसके लिए दोषी रहे हैं उनको वे दण्डित नहीं कर रहे। ऐसे में वाम के प्रति आम जनता का गुस्सा कम होगा ,इसमें संदेह है।
दूसरी ओर ममता बनर्जी की आक्रामक प्रचार शैली ने वाम को स्थानीयस्तर पर रक्षात्मक मुद्रा में पहुँचा दिया है। ममता बनर्जी इसबार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। वे पहले भी मिलकर लड़ चुकी हैं लेकिन वे सफल नहीं हो पायीं।
ममता बनर्जी की मुश्किल यह है कि वे माकपा की कैडरवाहिनी से मुखातिब हैं और इसबार वे यदि सफल होती हैं तो यह निश्चित रूप से वाम के लिए गहरे सदमे से कम नहीं होगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल में 35 सालों तक शासन करते करते वामदल यह भूल ही गए कि लोकतंत्र में पराजय भी होती है। लोकतंत्र में हार-जीत सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन पश्चिम बंगाल में ऐसा नहीं है। वे निहितस्वार्थी और अपराधी गिरोह अब रातों-रात ममता के साथ आ खड़े हुए हैं जो कल तक माकपा के बैनरतले सामाजिक नियंत्रण और लूट कर रहे थे। ऐसी स्थिति में भविष्य में सामाजिक नियंत्रण का मसला खत्म हो जाएगा इसमें संदेह है। बल्कि संभावनाएं यही हैं कि खूंरेजी बढ़ेगी। पश्चिम बंगाल के चुनावों की घोषणा होने के बाद से गांवों में हिंसाचार अचानक थम गया है ,शहरों में हिसा नहीं हो रही है। यह अस्वाभाविक शांति है।