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अब पाक पर हमला करे भारत !

डॉ0 प्रवीण तोगड़िया

न्यूयॉर्क पर 9/11 को हमला करनेवाले अल कायदा और ओसामा बिन लादेन हैं, यह विश्वभर में चिल्ला-चिल्ला कर अमेरिका ने कहा, दुनिया ने बिना सवाल किए उसे मान लिया और फिर शुरु हुआ अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों का जेहाद के विरुध्द तथाकथित युध्द! 9/11 के पहले से भारत में ऐसे जेहादी हमले हो रहे थे, भारत भी चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि 1990 में काश्मीरी हिंदुओं का जो भयानक नरसंहार हुआ, उसके पीछे, 1993 में मुंबई में हुए अनेक बम धमाकों के पीछे और फिर दिल्ली, बंगलूरु, कोयम्बटूर, जयपुर, अहमदाबाद, हैदराबाद और फिर 26/11 का मुंबई पर हुआ युध्द शैली का हमला – इन सबके पीछे पाकिस्तान में पले-बढे जिहादियों का हाथ है! भारत यह कहता रहा और पाक फाइलें मांगता रहा – अमेरिका पाक को अपना ‘आतंक विरोधी युध्द में सहयोगी’ घोषित करता रहा, भारत पर लगातार हमले होते रहे, आये दिन जम्मू-काश्मीर में हमारे निष्पाप पोलिस, सेना के जवान मरते रहे – अमेरिका पाक को धन, शस्त्र, वैश्विक मित्रता प्रदान करता रहा!

अमेरिका के एक चुनाव में बुश साहब ने गजब किया था – चुनाव के ठीक एक दिन पहले ओसामा से वक्तव्य आया – बुश इस्लाम विरोधी है! फिर क्या था! अमेरिका बाकी सब भूल गया! नौकरियों में कमी, महँगाई सब भूल कर अमेरिका ने बुश साहब को चुना था! उसके बाद के चुनाव में ओबामा साहब ‘परिवर्तन’ के नाम पर जीत गए और पहले हफ्ते में ही ईराक से सेना हटाने की घोषणा की! अफगानिस्तान में भी कुछ ज्यादा हलचल नहीं हो रही थी उन की! अमेरिका में खुसुर-पुसुर शुरु हुई कि ओबामा साहब मुसलमानों के प्रति ढुलमुल रवैया रखते हैं (वैसे उनका बहुत करीबी सुरक्षा सलाहकार जो देवबंदियों के ही जमात का है – वह भारत में आकर उस के प्यारे आझमगढ़, देवबंद अलीगढ़ आदि स्थानों पर जाकर ‘अपनों को’ मिला भी था गत वर्ष!), अब उनका दूसरा चुनाव आया है, मुद्दे खत्म हुए, भारत को ‘नौकरी, व्यवसाय चोर’ जैसी गालियाँ दी – फिर भी ओबामा साहब की लोकप्रियता नीचे ही जा रही थी! फिर क्या!

ओसामा को तो मरना ही था, उसके मरने का तमाशा भी बनाना ओबामा साहब को जरुरी था! चलो, इसी बहाने से ही सही, अमेरिकनों को लगेगा कि, जो कुछ हो, लेकिन ओबामा साहब ने ओसामा जेहादी को मारा – वोट दे ही देते हैं! चुनाव में इस का फायदा ओबामा साहब को कितना होगा, यह तो वही जाने! अमेरिका का मामला तो निपट गया, लेकिन मुन्ना, अब मेरा (याने, भारत का!) क्या होगा! जिस पाक को अमेरिका ने सर ऑंखों पर बिठाया, उसी पाक में पाकी सेना की नाक के नीचे भले चंगे मेंशन में ओसामा साहब रहते थे! किसी ने पूछा तक नहीं कि यह कौन है, जो कभी मस्जिद भी नहीं आता!

अब मेरे सीधे सवाल हैं और उन का जबाब मुझे नहीं, अमेरिका, पाक और भारत की सरकार इन्हें मिलकर पूरे भारत को देने हैं! ओसामा पाक में छिपा है, ऐसी जानकारी मिली तो पाक को बिना बताये ओबामा साहब ने सीधे पाक (भारत की सीमा से सटकर !) में घुसकर हमला किया, मुंबई 1993 हमलों का गुनाहगार दाऊद, कंधार विमान अपहरण का गुनाहगार मसूद अजहर और मुंबई 26/11 हमले के गुनाहगार हाफिज सईद और उसका जेहादी कुनबा व पाकी आईएसआई पाक में ही तो हैं – भारत के विद्वान गृहमंत्री और भारत के खुफिया तंत्र, भारत की सेना यही बार बार कहते रहते हैं! तो फिर हर भारतीय के मन में सीधा सवाल है। अगर 9/11 के हमले के गुनाहगार जेहादी ओसामा को ओबामा साहब पाक में घुसकर मार सकते हैं तो फिर, भारत की सेना को भारत के प्रधान मंत्री इतना भी नहीं कह सकते कि भारत के लाखों लोगों को जेहाद में मारने वाले पाक में छिपे हैं – हाफिज सईद जैसे कुछ खुलकर लाहौर में सभा कर भारत के विरुध्द जेहाद की घोषणा करते हैं – तो पाक पर हमला कर भारत के इन गुनाहगारों को मारो? अमेरिका के लिए एक न्याय और भारत के लिए दूसरा?

दूसरा सवाल, दुनिया पर अंकुश रखने का दावा कर अमेरिका को दुनिया का निरंकुश मालिक बना देनेवाला यू.एन. अब चुप क्यों? या तो पाक जैसे स्वतंत्र देश में बिना इजाजत सेना घुसाने के लिए अमेरिका को सजा करे यू. एन. या फिर भारत को भी पाक पर हमला करने से ना रोके यू. एन. ! जिहादी ओसामा मारा गया यह तो बहुत ही ठीक हुआ (अगर अमेरिका के दावों में सच्चाई हो तो!) लेकिन अब भारत को पाक पर हमला कर भारत के विरुध्द जेहाद करनेवालों को मार गिराने से कौन रोक रहा है?

भारत की सरकार खुद, जो वोटों की गुलाम है? वह राजनीतिक दल जिन के ‘दिग पराजयी’ नेता जेहादियों के समर्थन में आजमगढ़ जाते हैं, हिंदू साधु-संतों को गालियाँ देते हैं और ओसामा को समुद्र में डालने से इस्लाम का अपमान हुआ इसलिए रोते हैं – क्या ये रोक रहे हैं, अब भारत को पाक पर हमला करने से? या भारत की सरकार सिर्फ हिंदुओं को जेल में डालने तक ही ‘शूर’ बनती है और पाक पर हमले से डरती है? हमारी सेना तो शूर है, निडर है, फिर कौन डर रहा है?

तीसरा सवाल : पाकिस्तान ने लगातार दुनिया से झूठ कहा कि वे नहीं जानते ओसामा

कहाँ है – यही झूठ, वह दाऊद, मसूद अजहर आदियों के बारे में बोलते आये हैं – इस चार सौ बीसी से भरे जेहाद की कौन सी सजा संपूर्ण दुनिया और यू. एन. और मानवाधिकार वाले अब पाक को देंगे? और कब देंगे? पाक को तुरंत यू. एन. की सारी समितियों से बेदखल करना चाहिए, सभी देशों को पाक से अपने सारे रिश्ते तोड़ने चाहिए और भारत सरकार को सेना द्वारा तुरंत पाक के सभी जिहादी अव्े खत्म करने चाहिए! उसी समय, भारत सरकार ने भारत में भी चल रहे जेहादी अव्े और जेहादी नेताओं को खत्म करना चाहिए!

जानता हूँ, पाक की मदद के लिए चीन और सारे इस्लामी देश खड़े रहेंगे, लेकिन यही भारत सरकार की कूटनीति की परीक्षा है कि बिना समय गँवाए शेष सभी देशों को भारत सरकार पाक के विरुध्द खड़ा करे! तीसरा विश्व युध्द अगर होना ही हो, तो जेहादी पाकिस्तान और अन्य सभी जिहादी देशों के विरुध्द हो, ताकि इस विश्व में जेहादी आतंकवाद की विचारधारा ही ना बचे! ‘हम भी आतंक के मारे’ यह पाक का झूठा रोना-धोना और अमेरिका की दोहरी राजनीति अब, बस, बहुत हुई!

यदि भारत सरकार में यह हिम्मत नहीं, कि समय की चाल पहचानकर, कूटनीति बनाकर पाक पर हमला करें, तो इस्तीफा दे और भारत की जनता के हाथ में यह निर्णय सौंपे कि पाक पर हमला किन-किन दिशाओं से किया जाय! भारत की सेना, भारत की जनता और भारत के हिंदू अब बहुत भुगत चुके जेहाद को और जेहादियों के समर्थन में हिंदुओं को जेल भेजनेवाले नेताओं को ! यह सवाल नहीं, यह भारत माता की पुकार है, जागो!

 

लादेन की मौत से उपजे प्रश्न

डॉ. सुरेंद्र जैन

आखिरकार १० साल के चूहे-बिल्ली के खेल के बाद अमेरिका नें विश्व के सबसे बडे आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को खत्म कर ही दिया। आतंकवाद के विशेषज्ञ सही कह रहे हैं कि ओसामा की मौत के बाद आतंकवाद समाप्त नहीं होगा। यह इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है; पर निर्णायक नहीं। जब तक दारुल इस्लाम का लक्ष्य सामने रखकर मानवता के विरूद्ध जिहाद करने वाली विचारधारा को समाप्त नहीं किया जायेगा, यह लड़ाई अधूरी रहेगी।

 

ओसामा को इसी विचारधारा नें जन्म दिया था, इसके मरने के बाद और ओसामा पैदा हो जायेंगे, जो हो सकता है कि पहले वाले ओसामा से अधिक खतरनाक सिद्ध हो जायें। ओसामा की मौत के बाद सारी दुनिया में रेड एलर्ट घोषित होना इस भय की ओर स्पष्ट रूप से संकेत करता है। इसलिये अभी जश्न का नहीं जिहादी आतंकवाद की विचारधारा को जड़ से समाप्त करने का संकल्प लेने की आवश्यक्ता है। यह लडाई इस्लाम के खिलाफ नही है, इसकी सफाई देना इस लड़ाई को कमजोर कर सकता है। आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई इस्लाम के खिलाफ है या नहीं, इसका फैसला इस्लामिक जगत को करने दीजिये। यह लड़ाई केवल सैन्य लड़ाई नहीं, वैचारिक लड़ाई भी है, जिसमें यह सिद्ध करना होगा कि जिहाद के नाम पर मासूमों का रक्तपात करने वालों को अब किसी भी कारण से माफ नहीं किया जा सकता है। यह तथ्य स्थापित होने के बाद ही मानवता चैन से सांस ले सकेगी।

 

यह तथ्य सब जानते हैं कि ओसामा अमेरिका द्वारा पैदा किया भस्मासुर ही था जिसको रूस के विरुद्ध प्रयोग करने के लिये जन्म दिया गया था। अमेरिका का वही मानस पुत्र, बाद में उसी के लिये अभिशाप बन गया। इस लड़ाई में यह दोगलापन सबके लिये खतरनाक बन सकता है; चाहे वह अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश ही क्यों न हो। आतंकवाद दोधारी तलवार है जो चलाने वाले को भी काट सकती है। भारत में पंजाब तथा लिट्टे के आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले उसके ही शिकार बने, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। आज पाकिस्तान में पनप रहे आतंकवाद को अमेरिका महत्व नहीं दे रहा। कई बार वह उसको बढ़ावा देता हुआ भी दिखाई देता है। भारत के बार-बार चेताने पर भी वह भारत को ही नसीहत देता है।

 

इसका परिणाम सामने आ चुका है। अमेरिका की सहायता पर जिन्दा पाकिस्तान ने ही लादेन को छिपाया था, यह तथ्य अब सामने आ चुका है। अमेरिका द्वारा यह सोचना कि पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद उसको नुकसान नहीं पहुंचा सकता, किसी परिपक्व सोच का उदाहरण नहीं है, अब यह स्थापित हो चुका है। इसलिये अब अमेरिका सहित सम्पूर्ण विश्व को आतंकवाद के विरुद्ध लामबंद होना पडे़गा और उसे जड़मूल से समाप्त करने का संकल्प लेना होगा, तभी इस रक्तबीज से मुक्ति पायी जा सकती है।

 

लादेन की मौत के बाद भारत के गृहमंत्री श्री चिदम्बरम ने त्वरित प्रतिक्रिया दी, “अब यह सिद्ध हो गया है कि पाकिस्तान आतंकवादियों का अड्डा बन चुका है।” यह सर्वविदित तथ्य है। परन्तु भारत को आतंवादियों का अभयारण्य किसने बनाया? यहां आतंकवादी न केवल प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं; अपितु उनको संरक्षण भी मिल रहा है। यहां पर आतंकवादियों को संरक्षण देने वाले पुरस्कृत किये जाते हैं और उनके खिलाफ लड़ने वालों या आवाज उठाने वालों को दंडित करने के लिये सारी सेकुलर बिरादरी एड़ी-चोटी का जोर लगा देती है। इशरत जहां का आतंकियों के साथ क्या संबंध था? यह सभी जानते हैं। परन्तु उसकी मौत को नकली मुठभेड़ सिद्ध करने के लिये यह बिरादरी क्या नहीं कर रही है। क्या यह प्रश्न लादेन की मौत के बाद अमेरिका में उठा है कि बीमार लादेन की मौत एक नकली मुठभेड़ है? यदि लादेन को मारने का साहस किसी भारतीय नें किया होता तो उसे सम्मानित करने की जगह उसे इतना प्रताडि़त किया जाता कि या तो वह जेल में होता या आत्महत्या कर चुका होता, जैसा कि पंजाब व कश्मीर में हो चुका है।

 

अमेरिका ही नहीं सम्पूर्ण विश्व नें इस काम को अंजाम देने वालों को बधाई दी है और भविष्य में उन्हें अवश्य ही सम्मानित भी किया जायेगा। भारत की सेकुलर बिरादरी को आत्मचिंतन करना चाहिये कि वे आतंकियों के साथ क्यों खडे़ हो जाते हैं? मुस्लिम समाज के तरफदार दीखने की कोशिश में वे उनको कहां ले जा रहे हैं? लादेन की मौत के बाद भारत में रैडएलर्ट क्यों घोषित किया गया? क्या भारत के गृह मंत्री को लगता है कि लादेन की मौत के बाद भारत का मुसलमान विपरीत प्रतिक्रिया दे सकता है, जबकि लादेन नें भारत को भी अपना दुश्मन घोषित किया हुआ था? यह प्रश्न रामबिलास पासवान जैसे राजनीतिज्ञ से अवश्य पूछना चाहिये, जिसने बिहार के चुनाव में मुस्लिम वोटों को आकर्षित करने के लिये लादेन के हमशक्ल को अपने साथ रखा था। क्या ये लोग भारत के मुस्लिम समाज को लादेन के साथ जोड़ने का वही महापाप नहीं कर रहे हैं जो इन्होंनें रामजन्मभूमि के मामले में इनको बाबर के साथ जोड़ कर किया था?

 

लादेन की मौत से यह बात स्पष्ट हो गई है कि इनको इस तरह ही खत्म किया जा सकता है। अब भारत कसाब और अफजल गुरू को कब तक बचा कर रखेगा? आखिरकार कब वे दाउद को खत्म करने के लिये अमेरिका जैसा साहस दिखायेंगे? क्या ये अब भी पाकिस्तान से अपेक्षा करते हैं कि वह भारत के अपराधियों को भारत के हवाले करेगा? जिस देश नें अपने सरपरस्त अमेरिका को ही धोखा दिया है, वह इन अपराधियों को भारत को कैसे सौंपेगा? अब पाकिस्तान को सबूत नहीं सबक चाहिये, तभी भारत अपने अपराधियों को सजा दे सकेगा और देश से आतंकवाद को समाप्त किया जा सकेगा।

 

तिब्बत के नए प्रधानमंत्री होने का अर्थ

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

हॉवर्ड यूनिवर्सिटी में कानून पढ़ा रहे डॉ. लोबजंग सांग्ये निर्वासित तिब्बती सरकार के नए प्रधानमंत्री चुने गए हैं। उन्होंने 55 प्रतिशत वोट लेकर अपने दो अन्य प्रतिद्वंद्वियों तेनजिंग टीथांग और ताशी वांगदी को परास्त कर दिया। भारत में स्थापित निर्वासित तिब्बती सरकार की संसद के लिए निश्चित अंतराल के बाद चुनाव होते हैं। संसद सदस्यों के चुनाव के अतिरिक्त प्रधानमंत्री का चुनाव मतदाता प्रत्यक्ष रूप से करते हैं।

प्रधानमंत्री अपने मंत्रिपरिषद का गठन करता है और यह जरूरी नहीं है कि मंत्रिपरिषद के ये सदस्य संसद के भी सदस्य हों। निर्वासित तिब्बती संविधान में प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री चुनने की यह प्रणाली संविधान में एक संशोधन के बाद स्थापित की गई थी। इसी के तहत यह भी तय किया गया था कि कोई भी व्यक्ति दो बार से ज्यादा प्रधानमंत्री के पद पर नहीं रह सकता। वर्तमान प्रधानमंत्री प्रो. सोमदोंग रिनपोछे की यह दूसरी पारी थी। इसलिए उन्होंने इस बार चुनाव ही नहीं लड़ा।

इस बार के चुनाव एक अलग प्रकार के वातावरण में हो रहे थे। तिब्बतियों के आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा ने अपनी सभी राजनीतिक शक्तियां संसद को ही दे दी हैं। इसलिए इस बार का प्रधानमंत्री पहले से कहीं ज्यादा सशक्त सिद्ध होने वाला था। पुरानी पीढ़ी के टीथांग और ताशी वांगदी तो मैदान में बने रहे, लेकिन पहली बार इस पद के लिए उतरी महिला प्रत्याशी डोलमा गेयरी पहले चरण में ही बाहर हो गईं। यह पहली बार था कि नेपाल ने चीन के कहने पर अपने यहां इस चुनाव में बाधा उपस्थित की। मतदाताओं ने इस बार पुरानी पीढ़ी के लोगों को खारिज करते हुए नई पीढ़ी के प्रतिनिधि के तौर पर लोबजंग सांग्ये को वरीयता दी है।

सांग्ये उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो हिन्दुस्तान में ही पली-बढ़ी है। उनके माता-पिता तिब्बत से आए थे, लेकिन इस पीढ़ी ने तिब्बत नहीं देखा है। सांग्ये के चुनावों से एक और संकेत उभरता है। अभी तक निर्वासित तिब्बती सरकार में सारनाथ स्कूल ऑफ थॉट का ही वर्चस्व माना जाता था। इसके विरोधी यह मानते हैं कि पुरानी पीढ़ी के लोग तिब्बत की स्वतंत्रता की लड़ाई उस ढंग से नहीं लड़ रहे, जिस ढंग से इसे लड़ा जाना चाहिए। उन्हें यह भी लगता है कि तिब्बत के मामले में भारत सरकार उनकी उस प्रकार से सहायता नहीं कर रही, जिस प्रकार से उसे करनी चाहिए।

इस समूह के लोग शायद अमेरिका की सहायता या उसकी रणनीति पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उन्हें शायद यह विश्वास है कि यदि तिब्बत को आजादी मिलती है या फिर इस समस्या का कोई समाधान निकलता है, तो वह अमेरिका के प्रयत्नों से ही होगा। जबकि सारनाथ की मान्यता है कि तिब्बत अमेरिका की राजनीतिक शतरंज का मोहरा हो सकता है, लंबी लड़ाई में भारत ही दूर तक का साथी हो सकता है। दलाई लामा भी इस बात से बहुत हद तक सहमत दिखाई देते हैं। लेकिन फिलहाल तो तिब्बत की राजनीति में यह सोच पीछे रह गई है।

भ्रष्टाचार एवं कालाधन विरोधी अभियान का देशव्यापी समर्थन

धाराराम यादव

अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त योग गुरु बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार एवं कालाधन विरोधी अभियान को देशव्यापी समर्थन की स्वाभाविक अपेक्षा की जा रही थी, किन्तु ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ की तर्ज पर सबसे पहले कांग्रेस के बड़बोले महासचिव दिग्विजय सिंह ने बाबा के अभियान पर यह कहकर कटाक्ष किया कि पहले दान गुरु अपनी सम्पत्ति की घोषणा करें एवं यह भी बतायें कि दान से प्राप्त सम्पत्ति में काला धन कितना शामिल है? इसका तात्पर्य यह हुआ कि योग गुरु को पहले दान-दाताओं के लेखों को लेखा परिक्षकों से ऑडिट कराकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सम्बन्धित दानदाता का धन दूध की तरह सफेद और गंगाजल की तरह पवित्र है।” दिग्गी राजा को यह घोषणा करनी चाहिए कि उनकी पार्टी चुनावी चन्दा वसूल करते समय कॉरपोरेट घरानों एवं कालेधन वालों का हिसाब-किताब ऑडिट करवाकर तब चन्दा लेते हैं। बाबा रामदेव ने अपने दो ट्रस्टों की कुल पूँजी 1,100 करोड़ रुपये घोषित कर दी है। अब दिग्गी राजा की बारी है। वे अपनी निजी सम्पति सहित अपनी पार्टी तथा उससे जुड़े सभी ट्रस्टों की जमा पूंजी की घोषणा करायें। साथ ही यह भी घोषित करायें कि सारा धन पवित्र एवं श्वेत है। एक अन्य पंथनिरपेक्ष और बड़बोले राजनेता लालू प्रसाद यादव, जो स्वयं बिहार के बहुचर्चित 900 करोड़ रुपये के चारा घोटाले के अभियुक्त हैं एवं आय के ज्ञात श्रोतों से अधिक की सम्पति बटोरने के आरोपों की जाँच का सामना कर रहे हैं, बाबा पर निहायत घटिया एवं जातिवादी टिप्पणी करके अपनी तुच्छ मानसिकता का परिचय यह कहकर दिया है कि ”दूध बेचने वाला अब दवा बेच रहा है।” यह सुखद संयोग है कि जाति व्यवस्था के हिसाब से लालू प्रसाद यादव एवं योग गुरु बाबा रामदेव एक ही बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं। लालू खुद दूध बेचते-बेचते बिहार के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय रेलमंत्री बन गये थे। अब अपने ही किसी स्वजातीय सन्यासी को लोकप्रियता प्राप्त करते देखकर उन्हेंर् ईष्या क्यों हो रही है? लालू प्रसाद यादव ने अपनी अवांछनीय टिप्पणी से केवल योग गुरु बाबा रामदेव का ही नहीं, वरन् पूरे यादव समाज का अपमान किया है। यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि लालू प्रसाद यादव ने जिस प्रकार योग गुरु बाबा रामदेव पर व्यंग्यात्मक लहजे में कटाक्ष किया है, वह अपने पुराने कांग्रेसी जनों को प्रसन्न करने के लिए ही दिया है हालांकि कांग्रेसी हल्कों द्वारा उन्हें महत्व नहीं दिया गया। दिग्विजय सिंह के कटाक्ष पर बाबा ने खुले आम यह चुनौती दे डाली कि सत्तारुढ़ कांग्रेस जब चाहे उनकी सम्पति की जाँच करा सकती है। साथ ही यह भी जोड़ा कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह एवं कांग्रेस पार्टी को भी अपनी सम्पति की जाँच करानी चाहिए। यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि योग गुरु के भ्रष्टाचार और कालाधन विरोधी अभियान पर एक देशव्यापी बहस छिड़ गयी है। आशा तो यह की जाती है कि बाबा के अभियान का समर्थन सभी राजनीतिक दल, राजनेता, समाजसेवी, संत-महात्मा, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन एवं अन्यान्य संगठनों को खुलकर ‘तहेदिल’ से करना चाहिए। यह नितान्त आश्चर्यजनक बिडंबना है कि कुछ बड़बोले प्रवक्ता यह सुझाव दे रहे हैं कि बाबा रामदेव को योगी या सन्यासी ही बने रहना चाहिए। उन्हें भ्रष्टाचार और कालेधन के विरोध में अपना मत नहीं व्यक्त करना चाहिए। उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि प्राचीन भारतीय वांग्मय में समाहित इतिहास के अनुसार अतीत में भारतीय ऋषि-मुनियों द्वारा न केवल समाज को सन्मार्ग पर रहने के लिए प्रेरित किया जाता था, वरन् राजसत्ता पर भी उनका कमोवेश नियंत्रण रहता था।’ अनेक राजा उनकी राय लेकर ही सत्ता का संचालन करते थे। बाबा रामदेव के समर्थन में समर्पित समाजसेवी स्वामी अग्निवेश खुलकर सामने आ गये हैं। उन्होंने कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि दिग्गी राजा काला धन विरोधी बहस को गलत दिशा में मोड़ने का दुष्प्रचार कर रहे हैं। वे सत्तारुढ़ दल के महासचिव हैं। अगर उन्हें बाबा की सम्पत्ति पर एतराज हैं, तो वे सरकार से कहकर उनकी सम्पत्ति की जाँच करवा सकते हैं। जब बाबा ने स्वयं जाँच की खुली चुनौती दी है, तो फिर कांग्रेस संकोच क्यों कर रही है? बाबा रामदेव ने कहा है कि काला धन सेठों, राजनेताओं, नौकरशाहों एवं स्वामियों में से किसी के पास हो सकता है। उसका न केवल खुलासा होना चाहिए वरन् देशहित में उसे बाहर भी आना चाहिए। यह अनुमान लगाया गया है कि विदेशी बैंको में जमा काला धन यदि देश में वापस लाने में सफलता मिल जाती है, तो उससे देश की गरीबी और बेरोजगारी अतिशीघ्र दूर हो जायगी। स्वामी अग्निवेश ने यह भी कहा है कि बाबा रामदेव ने कालेधन को मुद्दा बनाकर किसी प्रकार की राजनीति नहीं की है। देशहित के इस मुद्दे को तो सभी को समर्थन करना चाहिए। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार, उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगी और नौकरशाहों ने अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर दी है। इसका अनुसरण केन्द्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारों को करना चाहिए। स्वामी अग्निवेश ने दिग्विजय सिंह को सलाह दी है कि स्विस बैंक सहित विभिन्न विदेशी बैंको में जमा भारतीयों के लाखों-करोड़ो रुपये के काले धन को स्वदेश वापस लाने में उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।

 

लंदन से डी. के. सिसोदिया ने इस संबंध में कहा है कि देश की जनता दिग्विजय सिंह और कांग्रेस के बारे में भलीभांति जानती है। काले धन के विरुध्द छेड़े गये आन्दोलन में बाबा को सफलता अवश्य मिलेगी, समय अवश्य चाहे जितना लग जाय। चण्डीगढ़ से बबलू ने कहा है कि दिग्विजय सिंह खुद को पहले पाक-साफ घोषित करें और अपनी सम्पति का विवरण दें। चन्दू के अनुसार दिग्विजय सिंह ओर कांग्रेस दोनों को पहले अपने गिरेबां में झांकना चाहिए और तब बाबा के कालाधन विरोधी अभियान पर कुछ बोलने का साहस करना चाहिए। रियाद से तेजराज ने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया में कहा कि दिग्विजय सिंह का नार्को टेस्ट कराना चाहिए ताकि यह ज्ञात हो सके कि उनके पास कितना काला धन है। अमेरिका के मिशिगन से पारस मालवीय ने कहा कि दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पार्टी अब लगभग समाप्तप्राय है, इसलिये वे प्रायः अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। विशाखापट्टनम के मुकेश का यह मानना है कि बाबा अपने अभियान द्वारा देश में रामराज्य स्थापित करने में सफल हो जायेंगे। शिलांग (मेघालय) से सर्वेश्वर शर्मा का कहना है कि सत्तारुढ़ कांग्रेस को सीबीआई को निर्देष देकर बाबा के धन का पर्दाफाश कराना चाहिए। भवानी मंडी के पवन को यह आशंका है कि बाबा को बदनाम करने के लिए अभी तरह-तरह की साजिशें रची जायेगी। काले धन जैसे संवेदनशील मामले में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का बाबा रामदेव के प्रति विरोध करने का रहस्य अवश्य उजागर होना चाहिए। आखिरकार बाबा के काला धन विरोधी अभियान से कंाग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के तिलमिला उठने का रहस्य क्या है? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया को देश को आश्वस्त करना चाहिए कि वे बाबा के अभियान का समर्थन करती है या नहीं? बाबा रामदेव के समर्थन और विरोध में क्रमशः भाजपा एवं कांग्रेस खुलकर सामने आ गये हैं। कुछ कांग्रेस समर्थक छुट भैय्यों ने बाबा को राजनीति में न उतरने की सलाह दी है और कहा है कि योग गुरु को अपने को योगासन सिखाने तक ही सीमित रखना चाहिए। भारतीय संविधान के किसी अनुच्छेद में ऐसा प्रावधान नहीं है जिसे आधार बनाकर योग गुरु बाबा रामदेव को राजनीति में आने से रोका जा सके। सभी भारतीय नागरिकों को राजनीतिक दल बनाने, किसी भी राजनीतिक दल की सदस्यता ग्रहण करने और चुनाव लड़ने का अधिकार है। इस अधिकार में कटौती करने का अधिकार किसी के पास नहीं है। अतः ऐसे सुझाव निरर्थक हैं जो संविधान विरोधी भी है। अभी विदेशी चैनल विकीलीक्स के इस ताजा खुलासे ने वर्तमान संप्रग सरकार की विश्वसनीयता को कटघरे में खड़ किया है। जुलाई 2008 में सत्तारुढ़ संप्रग द्वारा लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त करने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त की गयी थी। स्वाभाविक रुप से सांसदों को करोड़ो रुपयों की रिश्वत काले धन के रुप में दी गयी थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सांसदों की खरीद-फरोख्त में सत्तारुढ़ दल के शामिल न होने के आरोपों को पहले दिनांक 18 मार्च, 2011 को एक निजी कार्यक्रम में सुबह नकार दिया और अपराह् सदन में भी अपना इसी आशय का बयान दिया जिसमें उन्होंने कहा कि उनकी सरकार द्वारा सांसदों को खरीदने के लिए किसी को अधिकृत नहीं किया गया था। अपनी सफाई में उन्होंने वर्ष 2009 के लोकसभा में चुनावों में अपनी पार्टी की विजय और विपक्ष की पराजय का भी उल्लेख किया। उनकी सफाई नितान्त हास्यास्पद है। क्या वे यह कह रहे हैं कि यदि कोई अपराधी चुनाव जीत लेता है, तो उसके विरुध्द लगाये गये सभी आरोप निरर्थक हो जाते हैं? चाहे आरोप हत्या या हत्या के प्रयास से जुड़े हों। प्रधानमंत्री ने अपनी सफाई में लोकसभा में कांग्रेस की सीटें 145 से बढ़कर 206 हो जाने और भाजपा की सीटें 138 से घटकर 116 रह जाने को सत्तारुढ़ दल की ईमानदारी का प्रमाण निरुपित किया। यह कैसी हास्यास्पद सफाई है? बाबा रामदेव का कालाधन विरोधी अभियान निश्चय ही सफल होगा। बाबा को सुप्रीम कोर्ट का समर्थन प्राप्त तो है ही, संपूर्ण जनमानस भी उनके साथ है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हसल अली खाँ के पचास हजार करोड़ रुपये काला धन विदेशी बैंको में जमा किये जाने के रहस्य का खुलासा हो जाने पर भी केन्द्र सरकार की निष्क्रियता पर खिंचाई की गयी है।

 

* लेखक वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक हैं।

 

मुस्लिम मतदाताओं पर सबकी नजर

संतोष कुमार मधुप

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता सौ से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका में होंगे। राज्य के 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को मालूम है कि उनके समर्थन के बगैर सरकार गठन करना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ राजनीतक पार्टियां भी इस सच्चाई को समझती है। इसीलिए जहां वाम मोर्चा ने कुल 294 में से 56 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं को टिकट दिया है वहीं विपक्षी कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन ने 62 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतार कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है।

मुस्लिम वोटरों का मजबूत समर्थंन वाम मोर्चा के लगातार 34 सालों तक सत्ता में बने रहने का प्रमुख कारण रहा है। आज यदि राज्य में सत्ता परिवर्तन की बातें हो रही है, तो वह इसलिए क्योंकि अब अल्पसंख्यक वाम मोर्चा का दामन छोड़कर द्वितिय मजबूत विकल्प यानि तृणमूल कांग्रेस की ओर रुख करने लगे हैं। वाम मोर्चा के प्रति मुसलमानों का मोहभंग अचानक नहीं हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाओं ने मुसलमानों में वाम मोर्चा के प्रति भ्रम पैदा किया। औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जिन किसानों की जमीन ली गई उनमे से अधिकांश गरीब मुसलमान थे। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और देखते ही देखते अल्पसंख्यक समुदाय के किसान-मजदूरों का वाम दलों से भरोसा उठने लगा। रही सही कसर सच्चर समिति की रिपोर्ट ने पूरी कर दी। जब मुसलमानों को पता चला कि आर्थिक और सामाजिक रूप से अन्य राज्यों में रह रहे मुसलमानों की तुलना में उनकी हालत अत्यंत दयनीय है तो फिर वे खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि वाम मोर्चा का मजबूत वोट बैंक बुरी तरह बिखर गया। विगत लोकसभा चुनावों में इसका उदाहरण देखने को मिला जब अल्पसंख्यकों ने विपक्षी कांग्रेस-तृणमूल गठजोड़ का जमकर समर्थन किया। परिणामस्वरूप वाम मोर्चा महज 15 सीटों पर सिमट कर रह गया जबकि तृणमूल कांग्रेस ने अकेले 19 सीटें जीत कर राज्य में राजनीतिक परिवर्तन का बिगुल फूंक दिया। इससे पूर्व 2004 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ होने के कारण तृणमूल कांग्रेस की ओर से अकेले ममता बनर्जी ही चुनाव जीत पाई थी। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद 2010 के निकाय चुनावों में भी मुस्लिम मतदाताओं का रुझान तृणमूल कांग्रेस की तरफ रहा और पार्टी को शानदार सफलता मिली।

मुस्लिम वोटरों को पुनः वाम मोर्चा की तरफ आकर्षित करने के लिए राज्य सरकार ने चुनाव से ठीक पहले मुसलमानों को सरकारी नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा कर डाली। लेकिन सरकार के इस कदम से मुसलमान संतुष्ट नजर नहीं आ रहे और कमोबेश अभी भी तृणमूल की तरफ उनका रुझान बना हुआ है। हालांकि माकपा ने मुस्लिम वोट बैंक को फिर से वापस पाने की कोशिशें छोड़ी नहीं है। पार्टी की तरफ से वरिष्ठ माकपा नेता मोहम्मद सलीम, राज्य के मंत्री अब्दुल सत्तार तथा अब्दुर्ररज्जाक मोल्ला को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है। ये नेता मुस्लिम मतदाताओं को विश्वास में लेने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी मुस्लिम समुदाय के कई धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल करने में कामयाब रही हैं। इन नेताओं के सुझाव पर तृणमूल के चुनावी घोषणा-पत्र में मुसलमानों के लिए कुछ विशेष कदम उठाए जाने की बात कही गई है।

बहरहाल, मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ रहा लेकिन इस मामले में तृणमूल कांग्रेस अधिक सफल नजर आ रही है।

जामिया मिलिया का खतरनाक कदम

हरिकृष्ण निगम

 

जामिया मिलिया इस्लामिया जो आज एक केंद्रिय विश्वविद्यालय है उसे हाल में सरकार द्वारा अल्पसंख्यक संगठन घोषित किया जाना देश के एक अनोखे बौध्दिक विभाजन का संकेत देकर फिर बंटवारे की राजनीति की याद दिलाता है। हम सब जानते हैं कि अब तक देश के सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति या तो राष्ट्रपति या संबंधित क्षेत्र के राज्यपाल होते रहते हैं पर यही एक विश्वविद्यालय रहा है जहां मुस्लिम संप्रदाय के नेता कुलपति के साथ-साथ उपकुलपति भी होते रहे हैं। इसके कुलपतियों में डॉ. जाकिर हुसैन, जस्टिस एम. हिदायुतुल्ला, खुर्शीद आलम खां और फखरूदीन खोराकीवाला और उपकुलपतियों में नजीब जंग, मुशीरूल हसन और बशीरूद्दीन अहमद प्रमुख रहे हैं।

 

पर हाल में ऐसा क्या हुआ है जब सरकार के हाल के एक निर्णय ने इसे अनुसूचित जातियों, जनजातियों और पिछड़े वर्गों के प्रत्याशियों के सरकारी आदेशों के अतंर्गत प्रवेश के अनुपातों को एक झटके में समाप्त कर इसकी 50 प्रतिशत सीटों को पूरी तरह से मुसलमानों के लिए आरक्षित कर दिया। जब से 1988 में जामिया मिलिया केंद्रीय विश्वविद्यालय बना था, गैर-मुस्ल्मि प्रत्याशियों का प्रवेश भी सामान्य निर्देशों के तहत था। अब बाकी 50 प्रतिशत सारी सीटें सभी के लिए मैरिट के आधार पर होगी। अब अनुसूचित और पिछड़े वर्गों के लिए इस विद्यालय में आरक्षण समाप्त हो गया। इसी फरवरी के अंतिम सप्ताह में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के राष्ट्रीय आयोग-एन.सी.एम.आई. ने जामिया मिलिया के विद्यार्थी और अध्यापकों की यूनियन के आग्रह पर इसे अल्पसंख्यक संस्थान घोषित करते हुए स्पष्ट कहा है कि इसकी स्थापना मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के हित के लिए ही हुई थी इसलिए वह इसे अल्पसंख्यकों के हितों के लिए बनाए रखने में नहीं झिझकेंगे। इस निर्णय का गंभीर प्रभाव होगा। पहली बार देश में बिना सीमा विभाजन के मानसिकता का विभाजन नया जामा कानून द्वारा पहनाया जा रहा है। यह सरकार पहले ही शिक्षा क्षेत्र में मुस्लिम विश्वविद्यालयों और मदरसों को देश के दूसरे विश्वविद्यालयों के बीच एक नई विभाजन रेखा से पृथक कर रही है। उनकी देश पर मुस्लिमों का पहला हक की अवधारणा एक रेखा 15 प्रतिशत और 85 प्रतिशत जनसंख्या के बीच खींच चुकी है। मुस्लिम-बहुल जिलों को विशेष विकास राशि की आबंटन, पृथक सेंट्रल मुस्लिम मदरसा बोर्ड को सीबीएसई और आईएसबीई के प्राठ्यक्रमों से मुक्ति दिलाने की साजिश और इस्लामी बैंकि ग की अवधारणा देश के नए आंतरिक विभाजन की गारंटी है जिसके लिए वर्तमान सरकार को अगली पीढ़ी जिम्मेदार मानेगी।

 

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

 

आखिर फूट ही गया कलमाड़ी के पाप का घड़ा

निर्मल रानी

भारतीय ओलंपिक संघ के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को सीबीआई ने हिरासत में ले लिया है। दिल्ली स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने उन्हें 8 दिनों की रिमांड पर सीबीआई के सुपुर्द कर दिया है। हालांकि सीबीआई अर्थात केंद्रीय गुप्तचर ब्यूरो ने कलमाड़ी के लिए तेरह दिन की रिमांड अदालत से तलब की थी। परंतु अदालत ने तेरह दिन के बजाए आठ दिन की ही रिमांड देना गवारा किया। ज़रा गौर फरमाईए कि सुरेश कलमाड़ी अपने आप में कितनी बड़ी व कितनी शक्तिशाली राजनैतिक शख्सियत थे। वे भारतीय वायुसेना के एक सफल पायलट, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के विशेष कृपापात्र व कई बार सांसद तथा केंद्रीय मंत्री, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय खेल संगठनों से एक दशक से भी लंबे समय तक जुड़े रहने वाले व्यक्ति रहे। यहां तक कि वही कलमाड़ी अपने राजनैतिक कैरियर के सबसे महत्वपूर्ण दौर में उस राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष बने जिससे भारत की मान-प्रतिष्ठा जुड़ी हुई थी। याद कीजिए कि राष्ट्रमंडल खेल आयोजन से पूर्व तथा इसकी समाप्ति के पश्चात जब-जब सुरेश कलमाड़ी पर खेलों के आयोजन में आर्थिक घोटाला किए जाने का आरोप लगाया जाता अथवा उन पर संदेह किया जाता उस समय कलमाड़ी साहब संदेह कर्ताओं अथवा मीडिया कर्मियों पर भड़क उठते थे। एक बार तो कलमाड़ी ने यहां तक कह दिया था कि यदि मैं खेल संबंधी किसी घोटाले में अपराधी साबित हुआ तो मुझे फांसी पर लटका दिया जाए। शीघ्र ही देश की जनता को यह भी पता चल जाएगा कि कलमाड़ी की इस इच्छा को अदालत कुछ कानूनी संशोधनों के पश्चात ही सही मगर क्या उसे पूरा कर सकती है?

 

सुरेश कलमाड़ी को फिलहाल सीबीआई ने जिस जुर्म के तहत गिरफ्तार किया है उसके अंतर्गत उन्होंने स्विटज़रलैंड से टीएसआर मशीनों की अवैध तरीके से खरीद की थी। टीएसआर वे उपकरण होते हैं जो टाईम,स्कोर तथा रिज़ल्ट प्रदर्शित करते हैं। इन उपकरणों की खरीद के लिए पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण तरीका अपनाया गया और 141 करोड़ रुपये का भुगतान टीएसआर मशीनों की आपूर्ति करने वाली स्विस कंपनी को बढ़े हुए मूल्य के साथ कर दिया गया। इतना ही नहीं बल्कि इन उपकरणों की आपूर्ति के लिए अन्य कई कंपनियों द्वारा डाले गए टेंडर को भी अवैध रूप से सिर्फ इसलिए रोका गया ताकि स्विटज़रलैंड की कंपनी विशेष को व्यक्तिगत् तौर पर लाभ पहुंचाया जा सके। इस मामले के अतिरिक्त सुरेश कलमाड़ी एक दूसरे आरोप में भी यथाशीघ्र फंसते दिखाई दे सकते हैं। सीबीआई शीघ्र ही क्वीन बेटन रिले के आयोजन के समय लंदन में अत्यघिक दामों पर गाडिय़ां किराए पर लेने के मामले की गहन तहकीक़ात कर रही है। इस मामले में भी बिना किसी टेंडर अथवा एग्रीमेंट हस्ताक्षर किए हुए एएमफल्मिस तथा एएम कार एंड वैन हायर लिमिटेड को लंदन में आयोजन का काम सौंप दिया गया था। आरोप है कि इस अवैध कांट्रेक्ट में भी जमकर घोर अनियमितताएं बरती गईं तथा क्वींस बेटन रिले आयोजन हेतु अत्यंत मंहगे रेट पर कारों तथा वैन के किराए का भुगतान किया गया।

 

राष्ट्रमंडल खेल आयोजन से पूर्व ही इस बात की चर्चा ज़ोर पकड़ चुकी थी कि देश में पहली बार आयोजित होने जा रहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अब तक के इस सबसे बड़े एवं महत्वपूर्ण आयोजन में घोर आर्थिक अनियमितताएं बरती जा रही हैं। परंतु अपनी बेवजह की दीदा-दिलेरी का इस्तेमाल करते हुए सुरेश कलमाड़ी अपने आप को पाक-सा$फ बताने की लगातार कोशिश करते रहे। परंतु सीबीआई द्वारा उनपर लगातार शिकंजा कसते जाने के बाद आ$िखरकार ऐसी स्थिति बनती दिखाई देने लगी कि लाख कोशिशों, सिफारिशों तथा झूठ बोलने के बावजूद अब कलमाड़ी बच नहीं सकेंगे। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के महानिदेशक वी के वर्मा तथा संघ के महासचिव ललित भनोट को सीबीआई पहले ही गिर$ तार कर चुकी है। आखिरकार सीबीआई के इस कसते शिकंजे के कारण उन्हें खेल मंत्रालय द्वारा भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से आखिर हटाना ही पड़ा। यहां एक बात यह भी गौरतलब है कि सुरेश कलमाड़ी अब तक तीन बार सीबीआई के समक्ष पेश हुए। अपनी पेशी के दौरान हर बार उन्होंने अपने ऊपर लगने वाले सभी आरोपों से इंकार किया तथा झूठ का सहारा लेते हुए उन्होंने हर बार सीबीआई को गुमराह करने की कोशिश की। परंतु एक सच को छुपाने के लिए सौ झूठ का सहारा लेना आ$िखरकार उन्हें मंहगा पड़ा।

 

कांग्रेस पार्टी उन्हें पार्टी की सदस्यता से निष्कासित कर चुकी है। साथ ही साथ उन्हें भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष पद से भी हटाया जा चुका है। राष्ट्रमंडल खेल से जुड़े महाघोटाले के संबंध में यह अब तक की सबसे विशिष्ट व्यक्ति की गिर$ तारी मानी जा रही है। इस बात की पूरी उ मीद है कि सीबीआई कलमाड़ी की रिमांड के दौरान उनसे की गई पूछताछ के आधार पर देश में और भी कई गिर$ तारियां कर सकती है तथा कई और बड़े चेहरों के नाम उजागर हो सकते हैं। कलमाड़ी की गिर$ तारी के बाद एक बार फिर आम आदमी यह सोचने पर मजबूर हो गया है कि क्या देश के इन तथाकथित कर्णधारों, कानून निर्माताओं तथा उच्च पदों पर बैठे लोगों को देश की मान-प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं रह गया है? कितने अफसोस व शर्म की बात है कि लंदन से लेकर नई दिल्ली तक जो व्यक्ति राष्ट्रमंडल खेलों की मशाल हाथों में लहराता हुआ देश का प्रतिनिधित्व करता दिखाई दे रहा था, जो व्यक्ति कल खेलों के मुख्य अतिथि भारतीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, प्रिंस चाल्र्स तथा उनकी पत्नी कैमिला पार्कर के समक्ष भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष के रूप में कार्यक्रम के भव्य एवं रंगारंग उद्घाटन समारोह में अपने जलवे बड़ी बेबाकी के साथ बिखेर रहा था वही सूरमा आज सलाखों के पीछे पहुंच चुका है।

हमारे देश में किसी संगठन के मुखिया के रूप में कलमाड़ी को दूसरे कलंक के रूप में देखा जा सकता है। इसके पूर्व राजनैतिक संगठन भाजपा के एक प्रमुख बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत की नोटों के बंडल हाथों में लेते हुए एक स्टिंग आप्रेशन के दौरान पकड़ा गया था। उ मीद की जा सकती है कि जिस प्रकार बंगारू लक्ष्मण राजनैतिक परिदृश्य से आज पूरी तरह ओझल हो चुके हैं उसी प्रकार कलमाड़ी भी अब देश की राजनीति व घपलों-घोटालों के इतिहास का एक दर्दनाक अध्याय बनकर रह जाएंगे। इस पूरे घटनाक्रम में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि मौजूदा विपक्षी दल विशेषकर भारतीय जनता पार्टी सीबीआई को क्राईम ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन कहने के बजाए कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन के नाम से संबोधित किया करती थी। जब-जब सीबीआई ने किसी भाजपाई नेता पर शिकंजा कसा तब-तब भाजपाई नेता यही चिल्ल-पौं करते दिखाई दिए कि सीबीआई कांग्रेस पार्टी के संगठन जैसा व्यवहार करती है तथा सरकार के दबाव में रहकर काम करती है आदि।

 

सीबीआई को संदेह की नज़रों से देखने वाले यही विपक्षी नेता यह बात भी अच्छी तरह जानते हैं कि सुरेश कलमाड़ी की राजनैतिक पहुंच कहां तक थी। फिर कलमाड़ी मुद्दे पर सीबीआई सरकार व कांग्रेस के दबाव में आ$िखर क्योंकर नहीं आई?

बहरहाल कलमाड़ी की तमाम रक्षात्मक कोशिशों व उपायों के बावजूद उन्हें उनके उस ठिकाने पर पहुंचा दिया गया है जिसके वह वास्तविक अधिकारी थे। अदालत में जाते-जाते आम जनता के क्रोध के प्रतीक स्वरूप उन पर एक उत्साही नवयुवक द्वारा चप्पल फेंक कर भी उन्हें तथा देश के सभी घोटालेबाज़ों को यह जनसंदेश दे दिया गया है कि सिंहासन पर $कब्ज़ा जमाए बैठे भ्रष्टाचारियों, तु हारी जगह दरअसल जेल और हवालात की सीख़चों के पीछे है न कि पांच सितारा स्तरीय महलों,कार्यालयों अथवा होटलों में। और चप्पल के माध्यम से भी शायद यही संदेश दिया गया है कि ऐ देश की $गरीब जनता की $खून-पसीने की कमाई को बेदर्दी से लूटने वाले ढोंगी समाज सेवियों तथा राजनेतारूपी पाखंडियों तुम पुष्पवर्षा तथा फूलमाला के पात्र नहीं बल्कि जूते,चप्पल,सड़े टमाटर व सड़े अंडों से स्वागत करने के ही योग्य हो।

 

आशा की जानी चाहिए कि सुरेश कलमाड़ी जैसे दिग्गज की गिरफ्तारी के बाद शीघ्र ही देश के अन्य कई तथाकथित वीआईपी लोगों के हाथों में यथाशीघ्र हथकडिय़ां लगी दिखाई देंगी। चाहे वे राष्ट्रमंडल खेल घोटाले से जुड़े हुए घोटालेबाज़ हों या 2जी स्पेक्ट्रम से संबंधित लुटेरे। हालांकि ऐसी खबरें देश की जनता को विचलित ज़रूर करती हैं परंतु भ्रष्टाचार को देश से जड़ से उखाड़ फेंकने की दिशा में ऐसी गिरफ्तारियों को एक सकारात्मक एकदम तथा शुभ संकेत माना जा सकता है। बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली वर्तमान संप्रग सरकार के दौर में घोटालों ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं फिर भी ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रधानमंत्री का बड़ी मछलियों पर शिकं जा कसने का अभियान अब छिड़ चुका है। उ मीद है सीबीआई प्रधानमंत्री के इस अभियान को आगे बढ़ाते हुए इसी प्रकार पूरी कर्मठता,चौकसी, योग्यता तथा निष्पक्षता का प्रमाण देते हुए देश के और भी तमाम भ्रष्टाचारियों के चेहरों को बेनकाब करेगी।

 

महज कानून बनाने से नहीं रूकने वाला महिला उत्पीड़न

लिमटी खरे

पुरानी कहावत है -‘‘. . ., गंवार, पशु और नारी, ये सब हैं ताड़न के अधिकारी।‘‘ इसमें नारी को शामिल किया गया है। एक तरफ तो नारी को माता का दर्जा देकर सबसे उपर रखा गया है, वहीं दूसरी ओर नारी को ही प्रताड़ना का अधिकारी बताया जाना कहां तक न्यायसंगत है। नारी के जिस स्वरूप को मनुष्य द्वारा मां के रूप में पूजा जाता है, वही नारी आखिर पत्नि या बहू के तौर पर प्रताडि़त करने की वस्तु क्यों बन जाती है।

सालों पहले एक पत्रकार द्वारा लिखा गया था -‘हमारे घरों की मां बहने जब सड़क पर निकला करती हैं तो वे दूसरों के लिए माल बन जाया करती हैं।‘ उस बात मे वाकई दम है। हमारा समाज अपने घरों की महिलाओं को छोड़कर जब दूसरे घरों की महिलाओं को देखता है तो मन में लड्डू फूटने लगते हैं मुंह से सीटी और सिसकारियां निकल जाती हैं, मन में कलुषित भावनाएं कुलाचें मारने लगती हैं।

भारत गणराज्य में नारियों की अस्मत को बचाने के लिए कानूनों की कमी नहीं है। हाल ही में राजस्थान सरकार द्वारा महिलाओं पर होने वाले अत्याचार रोकने के लिए कड़े कानून बनाने के लिए कुछ प्रावधान किए हैं, जिनका स्वागत होना चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में चहुं ओर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की कमी नहीं है। कहीं दहेज के लिए बहू को जलाया जा रहा है, तो कहीं युवतियों तो छोडि़ए अबोध बालाओं का शील भंग किया जा रहा है, कहीं सरेआम रेल गाड़ी से महिला को फेंक दिया जाता है।

एसा नहीं है कि भारत गणराज्य में महिलाओं को सुरक्षित रखने के लिए कानूनों की कमी है। महिलाओं के हितों के लिए काननू अवश्य हैं किन्तु उनमें इतनी पोल हैं कि अपराधी सीखचों के पीछे जाने से सदा ही बच जाते हैं। देश के कमोबेश हर प्रदेश में महिलाएंे सुरक्षित नहीं कही जा सकती हैं। देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली जहां पर कि खुद एक महिला तीसरी बार निजाम बनी हैं, उसी शीला दीक्षित के राज में महिलाओं की रोज होने वाली दुर्गत किसी से छिपी नहीं है।

देश भर में कार्य स्थलों में महिलाओं का यौन उत्पीड़न किसी से छिपा नहीं है। खुद मीडिया में ही महिलाओं की स्थिति क्या है यह बात सभी बेहतर जानते हैं। कहीं महिलाओं से बेगार करवाया जाता है, तो कहीं पुलिस थाने में ही महिला की अस्मत लूट ली जाती है, चैक चैराहों, मदिरालयों के इर्द गिर्द से गुजरने वाली महिलाओं को अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं। कार्यालय में बाॅस अपनी महिला कर्मी को लांग ड्राईव पर ले जाने ख्वाईशमंद हुआ करते हैं। आजकल कार्पोरेट जगत में महिलाओं के योन उत्पीड़न के शब्दकोश में एक नया शब्द जुड गया है वह है ‘कापरेट करना‘ जिसका अर्थ अपने सीनियर्स की मनमानी को खामोश रहकर सहते हुए कापरेट करने से जोड़कर देखा जाता है।

राजस्थान सरकार ने वाकई एक नायाब पहल की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाओं के हितों के संवर्धन के लिए राजस्थान सरकार के प्रयास निश्चित तौर पर नजीर बनकर उभरेंगें। कहने को तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने अपने आप को सूबे के हर बच्चे का मामा घोषित किया है। अर्थात सबे की हर मां उनकी बहन है, किन्तु क्या शिवराज सिंह चैहान राजनैतिक चश्मा उतारकर सीने पर हाथ रखकर यह कहने का साहस कर पाएंगे कि उनके राज में महिलाएं सुरक्षित हैं, जवाब निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगा।

भारत अघोषित तौर पर पुरूष प्रधान देश माना जाता रहा है जहां पुरूषों का काम आजीविका कमाकर लाना और महिलाआंे का काम दो वक्त की रोटी बनाकर घर के काम काज करने के साथ ही साथ बच्चे पैदा करने की मशीन के तौर पर काम करने तक ही सीमित था। आधुनिकता के दौर में महिलाओं ने घरों की चैखट लांघ दी है। महिलाएं आज पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। एक तरफ तो सभ्य समाज होने का हम दंभ भरते हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को प्रताडि़त कर इसी सभ्य समाज के पुरूष गौरवांवित हुए बिना नहीं रहते हैं।

इस देश की इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जिस देश की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी, लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष श्रीमति सुषमा स्वराज हों उस देश में महिलाओं को अपने आप को सुरक्षित रखने के तरीके तलाशने पड़ रहे हों। जहां महिलाएं ही सर्वोच्च पदों पर आसीन हों वहां भी महिलाएं असुरक्षित हों तो निश्चित तौर पर व्यवस्था में कहीं न कहीं दीमक अवश्य ही लगा हुआ है।

राजस्थान सरकार ने कानून बनाने के प्रावधानों की पहल करके एक नई सुबह का आगाज किया है। ध्यान इस बात का रखा जाना चाहिए कि कानून बनकर एसे कानून की किताबों के सफांे पर ही कैद होकर न रह जाएं। इन्हें व्यवहारिक तौर पर लागू करना सुनिश्चित करना होगा। इसमें आवश्यक है कि कानून का पालन न करने वाले जिम्मेदार नौकरशाहों और कर्मचारियों को भी सजा के दायरे में लाना जरूरी है।

केंद्र सरकार को चाहिए कि इस संवेदनशील और गंभीर मसले पर राज्यों के साथ वह सर जोड़कर बैठे और महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कार्ययोजना तैयार करे। इसके लिए इस बात को ध्यान में रखा जाना नितांत जरूरी है कि कानून एसे हों जिनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति को समझ में आ जाए कि आखिर उसने कितना बड़ा जुर्म किया है। इससे और लोगों को नसीहत भी मिल सकेगी। इसके लिए मीडिया की भी यह जवाबदेही बनती है कि वह भी इस तरह सजा वाली खबरों को प्रमुखता से जनता के सामने लाए और महिलाओं का उत्पीड़न करने का मानस बनाने वालों के हौसले पस्त करे।

दहेज प्रताड़ना, हरिजन आदिवासी कानून की आड़ में निर्दोष लोगों को प्रताडि़त करने की खबरें मिला करती हैं। इसके लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि महिलाओं को प्रताडि़त करने से बचाने के लिए बनने वाले कानूनों में यह प्रावधान भी किया जाए कि कोई महिला या उसके परिजन द्वारा इस कानून का बेजा इस्तेमाल न किया जा सके। हमारी राय में यही इकलौता रास्ता होगा जिसके जरिए महिलाओं को उत्पीड़न से बचाया जा सकता है।

 

बदलती तकनीक से अव्यवहारिक हुआ टाईपराईटर

लिमटी खरे

एक समय में ठक टिक की आवाज के साथ गर्व से सीना ताने चलने वाला टाईपराईटर अब इतिहास की वस्तु हो गया है। कम ही जगहों पर टाईपराईटर देखने को मिला करते हैं। भारतीय सिनेमा की जासूसी फिल्मों में टिक टिक की आवाज के साथ शबदों को कागज पर उतारने वाले टाईपराईटर के अक्षरों के माध्यम से अनेक अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाया जाता रहा है। कोर्ट कचहरी, अर्जीनवीस, समाचार पत्र, सरकारी कार्यालयों आदि में टाईपराईटर की आवाज बहुत ही मधुर हुआ करती थी। कालांतर में इसका स्थान कम्पयूटर के बेआवाज की बोर्ड ने ले लिया। अब तो हर जगह डेक्स टाप या लेपटाप की ही धूम है। अस्सी के दशक के बीतने तक टाईपिंग सिखाने वालों की दुकानें रोशन हुआ करती थीं।

टाईपराईटर का उत्पादन कर रही दुनिया की आखिरी कंपनी गोदरेज एण्ड बोएस ने अब इसका उत्पादन नहीं करने का फैसला लिया है। निश्चित तौर पर यह समय की मांग है किन्तु सालों साल उत्पादन करने वाली कंपनी ने भारी मन से यह फैसला लिया होगा, कंपनी के कर्मचारियों और मालिकों की पीड़ा को समझा जा सकता है। कंपनी के पास लगभग दो सौ टाईपराईटर हैं जिन्हें वह एंटीक के बतौर उसी तरह बेच सकती है जिस तरह आज ग्रामो फोन लोगों के घरों की बैठक की शान बन गए हैं।

अस्सी के दशक तक मीडिया में प्रिंट का दबदबा चरम पर था, (है तो आज भी किन्तु इलेक्ट्रानिक और वेब मीडिया के आगे इसकी छवि उतनी उजली नहीं बची है) इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। उस समय संपादकों द्वारा वही रचनाएं प्रकाशन के लिए स्वीकार की जाती थीं, जो सुपाठ्य अक्षरों में या टाईप की हुई हुआ करती थीं। न जाने कितने चलचित्र की पटकथा भी इन्ही टाईपराईटर से कागजों पर उतरी होंगी। कहते हैं कि हालीवुड के मशहूर किरदार जेम्स बांड की सुपर डुपर हिट फिल्मों के लेखक इयान फ्लेमिंग के पास एक सोने का बना टाईपराईटर था।

दुनिया के चैधरी अमेरिका में 1714 में हेनरी मिल द्वारा इस मशीन का अविष्कार किया था। इसके लगभग डेढ़ सौ साल के लंबे सफर के उपरांत क्रिस्टोफर लाॅमथ शोलेज द्वारा इसे 1864 में अंतिम बार नया रूप दिया और तब से इसका स्वरूप यही बना रहा। टाईपराईटर का व्यवसायिक उत्पादन 1867 में आरंभ हुआ था। 1950 के आते आते टाईपराईटर की लोकप्रियता लोगों के सार चढ़कर बोलने लगी। सरकारी कामकाज में टाईपराईटर का उपयोग जरूरी महसूस किया जाने लगा। इसी दौरान अमेरिका की कंपनी स्मिथ कोरोन ने दस लाख टाईपराईटर बेचकर रिकार्ड कायम किया। 1953 में तो दुनिया भर में एक करोड़ बीस लाख टाईपराईटर बिके।

नब्बे के दशक के आगाज के साथ टाईपराईटर में एक बार फिर तब्दीली महसूस हुई उस दौरान सामान्य टाईपराईटर से डेढ़ गुना बड़े आकार का इलेक्ट्रानिक टाईपराईटर बाजार में आया। इसमें मेमोरी थी, जिसमें कुछ प्रोफार्मा बनाकर सेव किए जा सकते थे। यह काफी हद तक लोकप्रिय हुआ, क्योंकि इसमें टाईपिस्ट को एक ही पत्र को बार बार टाईप नहीं करना होता था। इलेक्ट्रानिक टाईपराईटर की सांसे जल्द ही उखड़ गईं और इसका स्थान ले लिया कंप्यूटर ने।

कोर्ट कचहरी और भवन भूखण्डों की रजिस्ट्री के लिए अर्जीनवीस कार्यालय में टाईपिंग की स्पीड देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे, जब वे टाईपिंग मशीन पर बैठे व्यक्ति को एक ही उंगली से फर्राटे के साथ टाईप करते देखते थे। टाईपिंग करने वाले का की बोर्ड पर एक ही उंगली से निशाना गजब का होता था, जिसमें गल्ति की गुंजाईश ही नहीं होती थी। एक समय था जब टाईपिंग की परीक्षा आहूत होती थी, इसमें हर परीक्षार्थी को टाईपिंग मशीन साथ लाना अनिवार्य होता था। टाईपिंग की परीक्षा प्राप्त आवेदकों को स्टेनोग्राफर, टाईपिस्ट या क्लर्क की नौकरी में वरीयता भी मिला करती थी।

नब्बे के दशक के आगाज के साथ ही कंप्यूटर ने अपनी आमद दी। धीरे धीरे यह समाज पर छा गया। मुख्य तौर पर देखा जाए तो टाईपराईटर के लिए कंप्यूटर ही दुश्मन या सौतन साबित हुआ। टाईपिंग के प्रशिक्षण के लिए खुले संेटर वीरान होने लगे, शार्ट हेण्ड और टाईपिंग की विधा में से टाईपिंग भर जिंदा मानी जा सकती है, शार्ट हेण्ड तो अब गुजरे जमाने की बात हो चली है। रही बात टाईपिंग सीखने की तो कंप्यूटर के की बोर्ड पर उंगलियां चलाते चलाते बच्चे आसानी से टाईपिंग सीखने लगे हैं। हिन्दी की टाईपिंग जरा मुश्किल है, किन्तु अंगे्रजी की टाईपिंग बेहद आसान मानी जाती है। अब तो हिन्दी के शब्दों के स्टीकर की बोर्ड पर लगाकर बच्चे आसानी से हिन्दी मंे टाईप करने लगे हैं। हालात देखकर लगने लगा है मानो बच्चे मां के पेट से ही टाईपिंग सीखकर आ रहे हैं।

तीस साल की हो रही पीढ़ी इस परिवर्तन की साक्षात गवाह मानी जा सकती है जिसने टिक ठक से लेकर बेआवाज की बोर्ड तक का सफर अपनी नंगी आंखों से देखा होगा। इस पूरे बदलाव का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि टाईपराईटर की जवान पीढ़ी कंप्यूटर का की बोर्ड आज भी लोकप्रिय रही टाईपराईटर कंपनी रेमिंगटन के नाम पर आज भी धडल्ले से चल रहा है।

हर चीज जो पैदा होती है उसका अंत अवश्य ही होता है। कहा जाता है कि मनुष्य और उसके द्वारा निर्मित हर प्रोडक्ट कभी न कभी मृत्यु को प्राप्त होता है, उसका अवसान सुनिश्चित है। टिक टक की ध्वनि के साथ शब्दों को कागज पर उकेरने वाले टाईपराईटर ने लगभग तीन सौ सालों तक एक छत्र राज्य किया, अंत में वह मानव निर्मित संगणक (कंप्यूटर) के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो गया है।

टाईपराईटर में शब्दों का आकार सीमित हुआ करता था, किन्तु उसके परिष्कृत स्वरूप कंप्यूटर में हिन्दी अंगे्रजी उर्दू सहित अनेक भाषाओं के अनगिनत फॉन्टस के साथ ही साथ उनका आकार (साईज) भी मनमाफिक करने की सुविधा है। एक ओर जहां टाईपराईटर से टाईप करने पर गल्ति होने पर उसमें व्हाईट फ्लूड लगाना या फिर उस शब्द पर दूसरा शब्द बार बार टाईप करना होता था उसके स्थान पर कंप्यूटर पर स्क्रीन पर ही पढ़कर उसमें करेक्शन किया जा सकता है।

टाईपराईटर के अवसान के साथ ही साथ इसके सहयोगी अव्यव टाईप रिबिन और कार्बन भी आने वाले समय में विलुप्त हो जाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अनेक चीजें एसी हैं जो समय के साथ ही बाजार से गायब तो हो चुकी हैं, पर गाहे बेगाहे, उनकी चर्चा होने पर पुनः उन प्रोडक्ट्स से जुड़ी मीठी यादें ताजा हो जाया करती हैं। उसी प्रकार जिन लोगों ने टाईपराईटर को देखा या उसका उपयोग किया है, उनके मानस पटल से लंबे समय तक टाईपराईटर विस्मृत होने वाला नहीं।

 

हम क्यो डर रहे है आतंकियो को मौत देने से

वर्ल्ड टेड सेन्टर को उडाकर अमेरिका के साथ दुश्मनी लेने वाले दुनिया के सब से बडे आतंकी ओसामा बिन लादेन के खात्मे के लिये अमेरिका को काफी मशक्कत करनी पडी। भले ही उसे ये कामयाबी 9/11 हमले के दस साल बाद मिली है। पर अमेरिका ओसामा को पकडने की जी तोड कोशिश करता रहा। ओसामा को जिन्दा या मुर्दो पकडने और आतंकवाद को खत्म करने के लिये अमेरिका ने पिछले एक दशक में करीब तीन खरब डॉलर फूंक दिये ये रकम करीब एक साल के कुल    वैश्विक व्यापार के बराबर है और जिस से उबरने के लिये अमेरिकी को काफी वक्त लगेगा। पर उसने दुनिया को दिखा दिया कि दुनिया की सुपर पावर से टकराने का अंजाम क्या होता है। लेकिन भारत पिछले 20 सालो में तीन दर्जन से अधिक आतंकी हमले और उस मैं 1600 से अधिक निर्दोश भारतीय नागरिको की मौत के जिम्मेदार एक भी आतंकवादी को सजा नही दे पाया। भारत को सबक लेना चाहिये अमेरिका के इस मिशन से। मुम्बई बम कांड का मुख्य आरोपी पाकिस्तान में छुपा है। अजमल कसाब पर कई सालो में हमारी सरकार ने करोडो रूपया फूंक दिया जिसे मौत मिलनी चाहिये वो मजे से भारतीय जेल में मुर्ग और बिरयानी खा रहा है जूडो कराटे सीख रहा है। संसद भवन पर हमले का मुख्य आरोपी अफजल गुरू मजे से जेल में ऐश कर रहा है। हम लोग इस बात से ही खुश है कि संसद भवन की रक्षा करते हुए व मुम्बई ताज होटल शहीद हुए लोगो को हर साल सरकार की ओर से श्रद्वांजलि देकर रस्म अदायेगी कर दी जाती है। लेकिन इस घटना के मुख्य आरोपी मौहम्मद अफजल गुरू और अजमल कसाब को मौत की सजा के बाद भी फॉसी न होने से शहादत और शहीद हुए लोगो के परिजनो को हर साल कितना दुख होता होगा हमारी सरकार और राजनेताओ को शायद इस का अंदाजा आज कई सालो बाद भी नही हो पाया है। इन लोगो को फॉसी की सजा क्यो नही दी जा रही कोई सरकार से पूछने और सरकार किसी को बताने के लिये तैयार नही है। देश के सरकारी खजाने पर इन आतंकवादियो के खाने पीने और जिन्दा रखने पर कितना अतिरिक्त भार पड रहा है सरकार और देश के अर्थशास्त्रीयो को गम्भीरता से सोचना चाहिये।
अमेरिका के 26/11 हमले से पहले 1993 के मुम्बई बम कांड को भारत के इतिहास में भारत पर हुआ सब से बडा आतंकी हमला माना जाता है। 300 से अधिक निर्दोश लोगो की मौते और 700 से अधिक लोगो को घायल करने वाले ऐ के बाद एक 12 सीरियल बम धमाको देश की सब से बडी आर्थिक राजधानी को हिला कर रख दिया था। अफसोस इन बम धमाको में लिप्त एक भी आरोपी को सजा नही हो पाई है। इस बम कांड के 13 साल बाद कोर्ट में हजारो में तारीखे लगने के बाद फैसला आया, तो दोषियो ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी जहॉ अब भी इस केस पर सिर्फ सुनवाई चल रही है। सन 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानो की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर ए तैय्यबा के आतंकी मुहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अभी तक कार्यवाही जारी है। 13 दिसम्बर 2001 को संसद पर हमले के मुख्य आरोपी तिहाड जेल में बन्द अफजल गुरू को 20 अक्तूबर 2006 को इस अपराध के लिये फॉसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने सुनाई तो इस ने राजनैतिक विवाद का रूप ले लिया। तब से हर रोज माफी और फॉसी का इन्तेजार कर रहे अफजल गुरू के साथ आखिर क्या होगा इस घटना के 10 वर्ष गुजर जाने के बाद भी कुछ नही कहा जा सकता। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमलावरो को फांसी देने का मामल भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीपावली के मौके पर दिल्ली के बाजारो में खुशियो के बदले मौत बाटने वाले बाटने वाले 2006 में संकटमोचन मंदिर और 2006 में मुम्बई लोकल टेनो में विस्फोट करने आतंकियो को सजा मिलने में अभी क्यो और कितना वक्त लगेगा पता नही। आज पूरी दुनिया आतंकवाद के मुद्दे पर एक है किन्तु हमारे देश के राजनेता और राजनीतिक पार्टिया आने वाले चुनाव के लिये इस गम्भीर मुद्दे पर भी अपना अपना वोट बैंक पक्का कर रोटिया सेकने में लगी है। आज देश के सियासी लोगो को देश से ज्यादा आतंकवादियो की जान की ज्यादा फिक्र है। देश भर के विभिन्न अलगाववादी संगठन, मानवाधिकार संस्थाए और अपने अपने वोट बैंक पर नजर जमाये राजनैतिक नेता अफजल गुरू को फॉसी से बचाने के लिये काफी दिनो से सरकार पर दबाव बनाने के साथ ही इस फिराक में लगे है कि किसी भी तरह ये फॉसी टल जाये।
पिछले निदो कांग्रेस की संसदीय दल की बैठक की शुरूआत पार्टी अध्यक्ष सोनिया गॉधी ने वाराणसी विस्फोट और आतंकवाद के भाषण से जरूर की लेकिन अफजल की फॉसी पर सोनिया खामोश रही। लेकिन जब लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने अफजल गुरू को अब तक फॉसी न होने का मुद्दा उठाया तो सुषमा के ब्यान पर चिे हुए गृह मंत्री ने उल्टै विपक्ष पर राजनीति करने का आरोप लगा दिया। वही चिदंबरम ने कहा कि शहीदो की शहादत के दिन पर (सुषमा) उन के साथ शब्दो के युद्व में फंसना नही चाहता। संसद और मुम्बई ताज हमले के बाद भी ये सियासी लोग आतंकवाद के खिलाफ आज तक एकजुट नही हो पाये। वही आतंकवाद के खिलाफ सख्त कानून के लिये देश की सुरक्षा एजेंसिया सरकार और सियासी लोगो के हाथो की कठपुतलिया बनी होने के कारण कोई भी सख्त कार्यवाही करने के नाम पर मजबूर है।
भारत को बहुत पहले अजमल आमिर कसाब और अफजल गुरू को फॉसी देकर अमेरिका सहित पूरी दुनिया को ये दिखाना चाहिये था कि वो आतंकवाद के विरूद्व सब से अधिक सकि्रय और आक्रामक है। भारत में आतंकवाद की भेट चे लगभग 80 हजार से अधिक नागरिको के परिवारो को खुशी मिलती अगर कसाब और अफजल गुरू को उसी वक्त पर फॉसी मिलती। अन्ना हजारे जी को भ्रष्टाचार के साथ इस मुद्दे को भी अपने आन्दोलन में उठाना चाहिये था और सरकार से अपील करनी चाहिये थी कि देश की विभिन्न जेलो में बन्द आतंकवादियो के केस पर एक दो महीने के अन्दर अन्दर कार्यवाही कर ऐसे तमाम लोगो को फांसी पर लटका दिया जाये जिन्होने भारत की तरफ गलत निगाह डाली। हमारे देश में सदियो से एक नारा लगाया जाता है “जो हमसे टकरायेगा चूर चूर हो जायेगा’’ पर ये नारा भी सिर्फ दूसरे नारो तक ही सीमित है हम, हमसे टकराने वालो को सालो गुजर जाने के बाद भी आज तक मिट्टी में नही मिला पाये है। हा अमेरिका ने अपने देश अपनी सीमा के बाहर दूसरे देश में घुस कर या यू कहू के आतंक के ग में घुस कर दुनिया के सब से खूंखार आतंकी ओसामा बिन लादेन को अभियान “आपरेशन जेरोनिमो’’ में 79 अमेरिकी सील कंमाडो के जरिये अन्जाम देकर। अमेरिका ने पूरी दुनिया को ये दिखा दिया कि जो उन से टकरायेगा मिट्टी में मिल जायेगा।

लादेन को आतंकी बनाने में जिनका हाथ था, उन्हीं ने उसे मार दिया!

श्रीराम तिवारी

ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर तीन बातें प्रमुखतः से उभरकर सामने आ रहीं हैं .एक-अमेरिका ने ९/११ का बदला लेकर दुनिया में पुनः अपनी साख {दुनिया के थानेदार की}बनाई.दो-पाकिस्तान के झूंठ-दर-झूंठ का पर्दाफाश हो रहा है.तीन -भारत की जनता शर्मिंदगी महसूस कर रही है कि भारत को निरंतर निशाना बनाते रहने वाले इंसानियत के दुश्मन आज भी पाकिस्तान में गुलछर्रे उड़ा रहे हैं ,भारत की एक अरब २७ करोड़ आबादी -५ करोड़ सैन्य बल और दुनिया की ६ वीं अर्थ-व्यवस्था के अलमबरदार-हमभारत के महान कर्णधार , अमेरिका कि सफलता पर उसी तरह खुश हैं जिस तरह गीदड़ों द्वारा बूढ़े शेर का शिकार किये जाने पर वाराह्सिगे उछलने लगते हैं. १९७१ कि शानदार विजय के अलावा हमारे एतिहासिक खाते में गुलामी और पराजय का ही सर्वत्र उल्लेख है.हम पतन कि पराकाष्ठा के इतने निकट हैं कि हमें मालूम है कि मुंबई हमलों का सूत्रधार या संसद पर हमला करने वालों का प्रेरणा स्त्रोत कौन है?किन्तु हम उनको पकड़ने,सजा देने के बजाय मानव अधिकार कार्यकर्ताओं या देश के मजूरों और किसानो पर जुल्म करने वालों को सहन कर रहे हैं. दुनिया में कुछ लोग और भारत में खास लोग एक शख्स ‘ओसामा-बिन-लादेन के मारे जाने से खुशियाँ मना रहे हैं! में दावे से नहीं कह सकता कि इस जश्न को मनाये जाने कि स्वतःस्फूर्त जागतिक चेतना है या अमेरिकी प्रचार तंत्र से प्रभावित क्षणिक हर्षोन्माद है! क्या ये मान लिया जाये कि ओसामा-बिन-लादेन ही दुनिया के तमाम फसादों और दुर्जेय इस्लामिक आतंकवाद का जनक था?क्या उससे से पहले दुनिया में जो दो बड़े महायुद्ध हुए उसमें ओसामा या उसके जैसे किसी धार्मिक कट्टरवादी का हाथ था?क्या ओसामा -बिन -लादेन के मारे जाने से आतंकवाद की वैश्विक चुनौती ख़त्म हो जायेगी?क्या महात्मा गाँधी,इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,ललित माकन,दीनदयाल उपद्ध्याय,गणेश शंकर विद्ध्यार्थी और अजित सरकार इत्यादि की हत्याओं में ओसामा का हाथ था?

यदि नहीं तो जिनका हाथ था उन कुविचारों और पशुवृत्ति से ओसामा का क्या लेना-देना?

अभी अमेरिका बड़ा शोर मचा रहा है कि उसने आतंकवाद के खिलाफ महा-संग्राम को आख़िरी पायदान तक पहुंचा दिया है!वह एक साजिश के तहत सारी दुनिया को उल्लू बना रहा है.जो लोग ओसामा के मारे जाने पर ओबामा और अमेरिका को बधाई दे रहे हैं,उन्हें अपनी स्मरण शक्ति पर भरोसा रखना चाहिए.दुनिया के तमाम सच्चे शांतीकामी,अंतर्राष्ट्रीयतावादी,प्रजातन्त्रवादी और सहिष्णुतावादी कभी नहीं भूलेंगे कि ओसामा तो अमेरिका द्वारा उत्पन्न किया गया वह भस्मासुर था जिसने बन्दूक और बारूद का सफ़र अफगानिस्तान से शुरू किया था.

जिन लोगो को लादेन और सी आई ये का इतिहास नहीं मालूम सिर्फ वे ही धोखा खा सकते हैं.

ऐंसे गैर-जिम्मेदार लोग ही लादेन कि मौत का जश्न मना सकते हैं.क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि लादेन कि बन्दूक की गोलियां जब तक सोवियत संघ पर बरसती रहीं;तब तक वो फ्रीडम फायटर कहलाया,लेकिन जब उसने अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाने से इनकार कर अपना स्वतंत्र वर्चश्व कायम करना चाहा तो उसे विश्व का मोस्ट वांटेड आतंकवादी करार दिया.मेरा आशय यह कदापि नहीं कि लादेन का रास्ता सही था?वो तो शारीरिक रूप से विकलांग था.किन्तु जेहाद की उसकी परिभाषा में इंसानियत से ऊपर उसका जूनून था.ऐंसे लोगों का जो अंजाम होता है सो उसका भी होना ही था और हुआ भी.सवाल ये है की जब अमेरिका ने जैसें चाहा वैंसा ही क्यों होना चाहिए?

दूसरा बड़ा सवाल ये है कि १४ साल बाद क्या वास्तव में एक मई -२०११ कि रात को अमेरिकी फौजों ने लादेन को ही मारा है?कहीं उसकी कहानी भी सद्दाम हुसेन जैसी तो नहीं?

गाहे-बगाहे वैडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये लादेन को अल-ज़जीरा और मीडिया के अन्य केन्द्रों ने टीवी पर दिखाया जरुर था किन्तु उन सारे वीडिओ पर कभी कोई विश्वशनीयता कि छाप नहीं लग पाई.

दुनिया के अधिकांस लोगों कि राय बन चुकी है कि जब जार्ज वुश ने अमेरिकी और नाटो फौजों के द्वारा अफगानिस्तान पर बर्बर हमला किया था तब ही ओसामा मारा जा सकता था किन्तु अमेरिका ने एक खास रणनीति के तहत पूरे १४ साल तक ओसामा नामक आतंकवादी जिन्न को जिन्दा रखा ,ऐंसा क्यों?सी आई ये और पेंटागन का जबाब हो सकता है कि लादेन को जिन्दा रखना इसलिए जरुरी था कि वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ विश्व विरादरी का अनवरत समर्थन प्राप्त करने के लिए ओसामा का हौआ बहुत जरुरी था.यदि पहले हो हल्ले में ही ओसामा को मार दिया जाता तो सारे सभ्य संसार को सन्देश जाता कि आतंकवाद का विषधर ख़त्म हो चूका है और तब पूरी दुनिया में अमेरिका को इस मुद्दे पर कि उसकी फौजें -अफगानिस्तान,ईराक,मध्य-पूर्व,पकिस्तान,दियागोगार्सिया,कोरिया और जापान में क्या करने के लिए तैनात हैं?

चूँकि अब अमेरिकी फौजें बेदम हो चुकी हैं ,अफगानिस्तान,ईराक और जापान ने वापिस जाने का दवाव बना रखा है और अब लादेन का अमरत्व भी असहनीय हो चूका था अतेव पाकिस्तान कि खुफिया एजेंसी आई एस आई को ब्लैक मेल करते हुए कि अब ज्यदा गड़बड़ करोगे तो भारत को भिड़ा देंगे अतः खेरियत चाहते हो तो ओसामा कि सुरक्षा हटाओ ,उसे ख़त्म करने को आ रही अमरीकी फौजों को उसका ठिकाना बताओ.

ओसामा कैसें मारा?किसने मारा?कब मारा? इन सवालों पर आगामी कुछ दिनों तक नाटकीय ढंग से मीडिया का कवरेज दिखाई व सुनाई देगा.यह सवाल भी किया जाना चाहए कि obamaदुनिया को सबसे ज्यादा खतरा किस्से है?सबसे खतरनाक कौन है? ओबामा या ओसामा?

ओसामा याने धर्मान्धता -कट्टरता -जिहाद और उसका वैचारिक आतंक,अतः ओसामा के मारे जाने से दुनिया में अमन और शांति के श्वेत कपोत उड़ने नहीं जा रहे हैं.वैचारिक आतंकवाद को ख़त्म करने में ओसामा की मौत से कोई सहायता नहीं मिलेगी. . ओबामा याने अमेरिकी और दुनिया भर में फैले उसके अनुचरों -पूंजीपतियों,ठगों,लुटेरों,हथियारों के सौदागरों,पूँजी के लुटेरों कि जमात.यह अमेरिका ही है जो दुनिया भर में सबसे ज्यादा हथियार बेचा करता है ,उसके हथियार न केवल धार्मिक जेहादियों तक बल्कि भारत जैसे गरीब मुल्क में अलगाववादियों नक्सालवादियोंऔर मुबई में तीन-तीन बार खुनी होली खेलने बाले पाकिस्तानी आतंकवादियों तक बिला नागा पहुँचते रहते हैं .

दरसल भारत को ओसामा से कोई खतरा नहीं था और न ही भारत के किसी खास धरम सम्प्रदाय को उससे खतरा था.भारत को असली खतरा पाकिस्तान की भारत विरोधी लाबी और उसको पालने वाले अमेरिकी निजाम से है.दाउद,हेडली,हाफिज सईद को ओसामा ने नहीं आई एस आई ने पाला था.आई एस आई को कौन पाल रहा है?यह बताना जरुरी नहीं.

अब भारत के प्रधान मंत्री जी विश्व समुदाय से और विशेष रूप से पाकिस्तान नामक ढोंगी देश से विनम्र अपील कर रहे हैं कि पाकिस्तान स्थित भारत विरोधी आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर नष्ट करने कि कृपा करें! भारत कि जनता और खास तौर से पाकिस्तान कि अमन पसंद मेहनत कश आवाम कि यह साझा जिम्मेदारी है कि अतीत कि साझा विरासत को सहेजें.उस साम्रज्यवादी कुल्हाड़े का बैंट न बन जाएँ जो अमेरिका को तो यह अधिकार देता है कि वो दुनिया के किसी भी मुल्क में उसकी मुख्य भूमि से सात समंदर पार जाकर अपने चीन्हें -अनचीन्हें दुश्मन को १२ साल भी ढूँढकर उसके सर में गोली मारता है और फिर उसकी लाश को पत्थर से बांधकर समुद्र में फेंककर “सुपुर्द-ऐ -आब”करता है. क्या भारत इतना असहाय ,इतना कमजोर और पराधीन है, कि संसद पर हमला करने वालों को,मुंबई पर हमला करने वालों को अमेरिका कि तरह वहशी तरीके से न सही न्याय और क़ानून की बिना पर जेलों में फांसी का इन्तजार कर रहे ,कत्लोगारत के जिम्मेदार अपराधियों को सूली पर चढाने में भी असमर्थ हो?

सारी दुनिया जानती है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक राष्ट्र है.क्या यह गुनाह है?

सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान ने अपनी संप्रभुता खो दी है.अब वह अमेरिका का सैन्य अड्डा बनने को अभिशप्त है.इन घटनाओं से न केवल भारत अपितु दक्षिण एशिया में अस्थिरता का सिलसिला शुरू हो चूका है.पाकिस्तान में आई एस आई ने जो पाप किये हैं उसी का परिणाम है कि अभी दो दिन पहले अमेरिका ने उसे आतंकी सूची में डालने कि धमकी दी थी.यह धमकी बहुत मार्क थी कि ओसामा को मारने में मदद करो वर्ना हम तुम्हें भी निपटा देंगे.आई एस आई ,पाकिस्तानी फौज के चीफ कियानी साहब और पाकिस्तान कि अमेरिका परस्त लाबी ने अमेरिका के आगे घुटने टेककर खैरात में अरबों रु के हथियारों का वायदा लेकर उस ओसामा को मरवा दिया जो दुनिया के मुसलमानों को अमेरिकी दादागिरी से जूझना सिखा रहा था.जिसे स्वयम अमेरिका ने तलिवानो कि मदद से सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में पाला पोषा था. सोवियत पराभव के बाद इन हथियारों का प्रयोग लगातार भारत के खिलाफ होता रहा है

अल-कायदा हो या पाकिस्तानी आर्मी या भारत को बर्बाद करने के कुचक्रों को रचने वाले आई एस आई ,जैश -ऐ मुहम्मद ,जे के एल ऍफ़ या हिजबुल ये सभी निरंतर भारत पर जो गोलियां चलते हैं या विस्फोट करते हैं,वो सभी असलाह अमेरिकी हैअब तो ओसामा भी नहीं रहा फिर किसके खिलाफ अमेरिका ने पाकिस्तान के अपावन हाथों में घातक हथियारदिए हैं? भारत को बर्बाद करने कि साजिशों में शिरकत क्या सिर्फ इसीलिये कि है कि यह उसके भारतीय अनुषंगियों कि इच्छा है?दरसल भारत की समस्या ओसामा नहीं था.हमारी समस्या को हम अच्छी तरह जानते हैं किन्तु हमारा शुतुरमुर्गाना स्वभाव हमें हमारी वास्तविक जनवादी चेतना से दूर करता है.

यह वक्त है जब हम भी कुछ ऐंसा करें जो भारत के दुश्मनों को नेस्तनाबूद नहीं तो कम से कम पस्त तो करे ताकि धार्मिक कट्टरवाद ,साम्प्रदायिकता और अलगाववाद को कुचला जा सके.

बदल गए प्रेस की आजादी के मायने

राजेन्द्र राठौर

 

देश के स्वस्थ लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस का एक अलग ही महत्व है। इससे प्रशासनिक और सामाजिक स्तर पर जवाबदेही व पारदर्शिता बढ़ती है और आर्थिक विकास को बल मिलता है, लेकिन लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले प्रेस और पत्रकारों की स्थिति बहुत संतोषजनक भी नहीं है। तेजी से बढ़ते बाजारवाद के कारण आज प्रेस की स्वतंत्रता के मायने पूरी तरह से बदल गए हैं।

3 मई को विश्व प्रेस स्वाधीनता दिवस मनाया जाता है। यह दिन प्रेस व पत्रकारों के लिए बहुत खास दिन होता है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस याद दिलाता है कि हरेक राष्ट्र और समाज को अपनी अन्य स्वतंत्रताओं की तरह प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए भी हमेशा सतर्क और जागरूक रहना चाहिए। मगर आधुनिक तकनीक और विज्ञापन की चकाचौंध भरी दुनिया ने प्रेस व पत्रकारों की स्वतंत्रता के मायने ही बदल कर रख दिए हैं। कुछ दशक पहले पत्रकार समाज में जो कुछ देखता था, उसे लिखता था और उसका असर भी होता था, लेकिन आज पत्रकारों के पास अपने विचार व आंखों देखी घटना को लिखने का अधिकार भी नहीं है। यदि पत्रकार कुछ लिखना चाहे, तो पहले उसे अपने संपादक व प्रबंधन के लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। इसके बाद भी उस पत्रकार द्वारा लिखे खबर के प्रकाशित होने की कोई गारंटी नहीं है। यदि खबर किसी विज्ञापनदाता के खिलाफ हो तो, खबर छपने की गुंजाईश ही नहीं है। आज हम भले ही प्रेस को स्वतंत्र मान रहे है, लेकिन इसमें कितनी फीसदी सच्चाई है, इसे हम भली-भांति जानते हैं। आधुनिक तकनीक के कारण पत्रकारिता अब एक बड़े उद्योग का रूप ले चुका है। देश में ऐसे कई धन्ना सेठ हैं, जो अपने काले कारनामों को छिपाने के लिए प्रेस को ढाल बनाए बैठे हैं। कुछ लोग तो अपने रूतबे को कायम रखने के लिए प्रेस का संचालन कर रहे हैं। ऐसे प्रेस में काम करने वाले पत्रकार की क्या अहमियत होगी और वह कितना स्वतंत्र होगा, इसका अंदाजा लगाना बहुत आसान है। बदलते परिवेश में आज पत्रकार कहलाने वाले एक नए किस्म के कर्मचारी-वर्ग का उदय हुआ है, जो हर महीने पगार लेकर अपने कलम की धार को धन्ना सेठों के पास बेचने के लिए मजबूर है। आखिर ऐसा करना पत्रकारों की मजबूरी भी तो है, क्यांेकि पत्रकारिता का रोग यदि किसी को एक बार लग जाए, तो उसे केवल लिखने-पढ़ने में ही मजा आता है। प्रेस के मालिक इसी बात का फायदा उठाते हैं और पत्रकारों को उनके हाथों की कठपुतली बनकर काम करना पड़ता है। यदि पत्रकार कभी अपनी मर्जी से कोई खबर लिख दे और उसे छापने के लिए प्रेस पर दबाव डाले, तो समझो उसकी नौकरी गई। बड़े शहरों के पत्रकारों की हालत अच्छी है, मगर छोटे शहरों व कस्बों में काम वाले पत्रकारों की दशा इतनी दयनीय है, कि उनकी कमाई से परिवार को दो वक्त रोटी मिल जाए, वही बहुत है। हां, यह बात अलग है कि कुछ पत्रकार गलत तरीके से पैसे कमाकर आर्थिक रूप से संपन्न हो रहे है, लेकिन ज्यादातर पत्रकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद न केवल कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ रहा है, बल्कि उन पर खतरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। मौजूदा हालत में सबसे ज्यादा उन पत्रकारों को मुसीबत झेलनी पड़ रही है, जो समाज की हकीकत को लिखने का दम रखते है, जबकि बिना कुछ लिखे-पढ़े पत्रकार कहलाने वाले छुटभैये लोगों की तो हर तरफ चांदी ही चांदी है। ऐसे लोगों की प्रेस मालिकों के साथ खूब जमती है। दरअसल वे मलाई बटोरकर अपने मालिक तक पहुंचाते जो हैं।

पत्रकारों को सुविधा देने तथा आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में सरकार भी गंभीर नहीं है। रेल में सफर करने के लिए सरकार ने पत्रकारों को थोड़ी बहुत छूट दी है, मगर इसके लिए भी अधिमान्य पत्रकार होना जरूरी है। जबकि सरकार इस बात को भी अच्छी तरह से जानती है कि ज्यादातर प्रेस के संपादक अधिमान्यता के लिए अपने पत्रकारों को अनुभव प्रमाण पत्र बनाकर नहीं देते। ऐसे में सरकारी छूट का सभी पत्रकारों क�¥ ‹ फायदा ही क्या ? सोचने वाली बात तो यह है कि जिस बैंक व वाहन व्यवसायी की खबर को पत्रकार आए दिन छापता है, वही लोग पत्रकार को लोन देने के लिए भी हाथ खड़े कर देते हैं। लोन के लिए पत्रकार के निवेदन करने पर ऐसे लोग नियमों की दुहाई देते हैं और यह भी कहते है कि पत्रकारों को लोन देने के लिए उनके उपरी प्रबंधन से कोई निर्देश नहीं है। ऐसा सुनकर काफी आश्चर्य लगता है। तकलीफ तो उस समय ज्यादा होती है ज�¤ ¬ बैंक में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को आसानी से लोन दे दिया जाता है और वही पत्रकार खड़ा मुंह ताकता रहता है। पत्रकारिता की दशा आज इतनी खराब हो गई है कि बहुत कम लोग पत्रकार बनने की इच्छा रखते है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि आखिर एक पत्रकार बनकर मुझे क्या मिला, क्योंकि पत्रकारिता का भूत सवार होने के बाद मेरे हालात दिनों दिन बद से बदतर जो हो गए हैं। मगर जब मैं गहराई से स ोचता हूं कि पत्रकार बनने के बाद भले ही मुझे कुछ मिला या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन जिस पर जनता को सबसे ज्यादा भरोसा है, उसे इस तरह दूषित होता देखकर दुख भी होता है। खैर लिखने को तो तमाम बातें है, लेकिन विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सभी पत्रकारों को प्रेस की सच्ची स्वतंत्रता के लिए गंभीरता से चिंतन करना होगा और गंदगी साफ करने के लिए मुहिम भी चलानी होगी।