Home Blog Page 2550

कालेधन की कलिख और कांग्रेस की कसक

 स्वामी रामदेव के कालाधन और भ्रष्ट्राचार बिरोधी अभियान से घबरा कर भ्रष्ट्राचार के दलदल में गहरे तक धंसी हुयी कांग्रेस पार्टी का बौखला कर अमर्यादित आचरण करना कोई नई बात नहीं है यह तो कांग्रेस की कार्यसंस्कृति का हिस्सा है। कांग्रेस पार्टी में भ्रष्ट्राचार का स्तर यह हो गया है कि भ्रष्ट्राचार और कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू हो गये हैं। यही कारण है कि जब भी कोई भ्रष्ट्राचार के सफाये की बात करता है तो काग्रेंस पार्टी को यह लगता है कि उसके सफाये की बात की जा रही है।

दिग्विजय सिंह की हालत आजकल इतनी पतली हो गयी है कि वह 10 जनपथ में अपने नंबर बवाने की खातिर हर बार इतनी उटपंटाग हरकत करते हैं कि उनको राजनीतिक गलियारों में काग्रेसी विदूषक कहा जाने लगा है। कभी आर.एस.एस. के बिरुद्ध विषवमन तो कभी दिवंगत हेमन्त करकरे के बारें में अर्नगल बयानबाजी, तो कभी आजमग की तीर्थयात्रा तो अब स्वामी रामदेव के बारे में बेमतलब की बयानबाजी करके काग्रेंस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह अपने आपको राजमाता सोनिया गांधी का राजाबेटा साबित करना चाहते हैं ।

यद्यपि स्वामी रामदेव ने पहले ही यह स्वीकार किया है कि उनके ट्रस्ट के सभी खाते विधिवत तरीके से आडिट किये जाते हैं और उनका आनापाई से व्यबस्थित हिसाबकिताव भी रखा जाता है तथा उनके ट्रस्ट के पास 1,115 करोड़ की संपत्ति है। परन्तु स्वामी रामदेव से हिसाब मांगने से पूर्व दिग्विजय सिंह को स्वयं अपना हिसाब प्रस्तुत करना चाहिये था। यही नहीं गांधी परिवार और उनके ट्रश्टों की अकूत संपत्ति का ब्यौरा मांगना चाहिये। देश में हर व्यक्ति की संपत्ति के स्त्रोतों के बारे में जानने का देश को हक हैं परन्तु ऐसी क्या बात है कि जब भी भ्रष्ट्राचार पर हमला बोलने की बात होती है तो केवल कांग्रेस पार्टी को क्यों लगता है कि उस पर ही हमला बोला जा रहा होता है और जबाब में कांग्रेस पार्टी के वफादार उत्तेजित होकर हमला कर देतें हैं चाहे वह निनोंग इरिंग हो या दिग्विजय सिंह सबका मतलब एक ही है कि अपने आपको सोनिया गांधी का वफादार सेवक साबित करना।

स्वामी रामदेव आज न केवल भारत में अपितु सारी दुनिया में योग और स्वदेशी के हीरो के रुप में खडे हुये है। एक ऐसे समय में जब हमारे देश में रोल माडॅल की कमी को बहुत गहराई से अनुभव किया जा रहा है ऐसे में स्वामी रामदेव आशा की एक किरण के रुप में सामने आये हैं उन्होनें केवल योग ही नहीं अपितु स्वदेशी के माध्यम से आर्युवेद, भारतीय भोजन, सहित रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के द्वारा लाखों लोगों को रोजगार प्रदान किया है। उनके विजन में देश का उत्थान स्पष्ट दिखाई दे रहा हैं। भारत में एक अहिंसक क्रान्ति महात्मा गांधी के नेतृत्व में की थी और दूसरी अंिहसक क्रान्ति की पदचाप स्वामी रामदेव के नेतृत्व में होने की पदचाप सुनाई दे रही है। अभी 2 जनवरी से 5 जनवरी को सम्पन्न हुये प्रथम अर्न्तराष्ट्रीय योग सम्मेलन में दुनियाभर के महान विश्वविद्यालयों और मेडीकल कालेजों के प्रोफेसरों ने स्वामी रामदेव के द्वारा किये जा रहे कार्यो को मानवता के लिये महान योगदान के रुप में स्वीकार किया था। लेखक उस घटनाक्रम का साक्षी रहा है। महात्मा गांधी के बाद स्वामी रामदेव ऐसे व्यक्तित्व हुये हैं कि उनकी एक झलक पाने के लिये जनसैलाव उमड़ पड़ता है। महात्मा गांधी की हत्या भले ही नाथूराम गोडसे की गोली से हुयी हो पर गाधीं के विचारों की, उनकी नीतियों की, उनके सिद्घान्तों की हत्या का आरोपी यदि कोई है तो बह निश्चित ही काग्रेंस पार्टी ही है। गांधी जी की हत्या को तो देश ने बर्दास्त कर लिया पर यदि स्वामी रामदेव के साथ कुछ हो जाता है तो देश उसे नहीं झेल पायेगा। इसलिये देश को स्वामी रामदेव और उनके क्रान्तिकारी विचारों का संरक्षण पोषण करना ही चाहिये।

कसौटी पर है खाद्यान्न की कमी

इंसान तभी तक जिंदा रह सकता है, जब तक उसका पेट भरा रहे। कहा भी गया है ॔भूखे पेट कोई भजन नहीं कर सकता है’। बावजूद इसके आज भी भारत में कृषि का क्षेत्र सबसे उपेक्षित है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महंगाई देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। सरकार भी इस वस्तुस्थिति को स्वीकार करती है। फिर भी वह मर्ज का इलाज नहीं कर रही है।

सच तो यह है कि महंगाई पर नियंत्रण मूलतः खाद्यान्न का उत्पादन ब़ाकर ही किया जा सकता है। पर सरकार को अभी भी लग रहा है कि कृषि क्षेत्र में 5.4 फीसदी की दर से इजाफा होगा। इतना ही नहीं वह 201011 में इसका जीडीपी में योगदान 14.2 फीसदी रहने का अनुमान लगा रही है। जबकि इसके प्रतिकूल प्रति व्यक्ति खाद्यान्न के उपयोग में कमी आ रही है। भूखमरी व कुपोषण से मरने वालों की संख्या दिन प्रति दिन ब़ती ही जा रही है। तब भी सरकार का व्यवहार शुतूरमूर्ग की तरह का है। हकीकत को जानकर भी वह अनजान बनने का नाटक कर रही है।

हम जानते हैं कि जमीन का रकबा कभी नहीं बता है। हमेशा खाद्य फसलों का उत्पादन जमीन के अनुपात में होता है। लेकिन तकनीक की मदद से हम खाद्य फसलों, बागवनी, पशुधन, मछली पालन, डेयरी इत्यादि के उत्पादन में जरुर वृद्धि कर सकते हैं।

साठ के दशक में भी हमने ॔हरित क्रांति’ की मदद से खाद्यान्न फसलों के उत्पादन को बाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी। मूलतः यह क्रांति उन्नत बीज और कृषि के अत्याधुनिक उपकरणों तथा तकनीक की सहायता से लाई गई थी। इस क्रांति के पश्चात हम खाद्य फसलों के बाबत काफी हद तक आत्मनिर्भर हो गये थे।

गौरतलब है कि इंसानों की आबादी ब़ाने के लिए किसी उन्नत तकनीक की जरुरत नहीं पड़ती है और न ही किसी मशीनी उपकरण की। दरअसल भारतीय अपनी जनसंख्या ब़ाने के मामले में बेहद ही उदार हैं।

जिस रफ्तार से भारत की आबादी ब़ रही है, जल्द ही हम चीन को पछाड़ कर आबादी के दृष्टिकोण से विश्व में प्रथम स्थान हासिल कर लेंगे।

जाहिर है आबादी के दबाव के कारण धीरेधीरे हमारे देश में खाद्य सुरक्षा की संकल्पना खतरे में पड़ चुकी है। मांग और आपूर्ति के बीच तालमेल के अभाव में विगत सालों में हमारे देश में महंगाई उफान पर रहा है। वैसे आयात और निर्यात के बीच असंतुलन को भी इसका एक बहुत बड़ा कारण माना जा सकता है।

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की हर तरह की मौद्रिक कवायद, किसानों की हाड़तोड़ मेहनत एवं बेहतर मानसून भी फिलवक्त महंगाई को काबू नहीं कर पा रहा है। लगता है साल 2011 भी महंगाई की चपेट से बाहर निकल नहीं पाएगा। सरकार की स्वीकारोक्ति भी इस तथ्य पर मुहर लगाती है।

जनवितरण प्रणाली के तहत सरकारी राशन वितरण केन्द्रों से मूलभूत खाद्य पदार्थों मसलन, गेहूं, चावल, दाल इत्यादि का गरीब लोगों के बीच वितरण नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि अगर प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू किया जाता है तो हमें कमसे-कम गेहूं और चावल के उत्पादन को दोगुना करना पड़ेगा।

दूध की मांग और आपूर्ति में भी तालमेल आहिस्ताआहिस्ता छीज रहा है। सूत्रों के मुताबिक अगर जल्दी से हालत पर काबू नहीं पाया गया तो भारत 2022 तक दूध के आयातक देशों में शामिल हो जाएगा।

ज्ञातव्य है कि भारतीय कृषि क्षेत्र में 1960 के बाद से तकनीक के क्षेत्र में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आया है। आज की तारीख में तकरीबन सभी खाद्य पदार्थों की मांग ज्यादा है, जबकि आपूर्ति कम है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भारत में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत को महसूस किया जा रहा है।

धीरेधीरे खाद्य उत्पादन और प्रति हेक्टेयर उपज में कमी आ रही है और इस कमी को पूरा करने के लिए किसान प्रति हेक्टेयर खाद का उपयोग ब़ा रहे हैं, परन्तु इससे न तो उत्पादन ब़ रहा है और न ही यह हमारे स्वास्थ के लिए फायदेमंद है।

घ्यातव्य है कि पहली हरित क्रांति में गेहूं का उत्पादन ब़ाने के लिए विशोष प्रयास किया गया था। किन्तु पोषण से युक्त फसलों यथा दाल, फल व सब्जी का उत्पादन ब़ाने पर घ्यान नहीं दिया गया था। पशुपालन, मछली पालन एवं डेयरी उत्पादन जैसे खाद्य पदार्थ भी उपेक्षित रह गये थे।

भारत में अन्य उद्योगों की तुलना में कृषि सबसे उपेक्षित है। न तो सरकार और न ही कोई औद्योगिक घराना कृषि क्षेत्र में निवेश करना चाहता है। इस में दो मत नहीं है कि इस क्षेत्र में पहले से ज्यादा निवेश हुए हैं, लेकिन वे प्रर्याप्त नहीं हैं।

सिंचित क्षेत्र का दायरा अभी भी बहुत कम है। मार्केटिंग की व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। सरकारी व निजी क्षेत्र के बीच अभी भी तालमेल का भारी अभाव है। गाँव आज भी अपने निकटम तहसील, ब्लॉक या शहर से सड़क मार्ग से जुड़े हुए नहीं हैं। गाँव के निकट मंडियों की भारी किल्लत है। न पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोर है और न ही अनाजों के प्रोसेंसिंग की व्यवस्था है।

हर क्षेत्र में सर्वदा सुधार की गुजाइंश रहती है। कृषि क्षेत्र भी इतर नहीं है। खाद्य पदार्थों का उत्पादन अभी भी ब़ सकता है। बशर्ते कृषि क्षेत्र में सुधार किया जाए या फिर दूसरी हरित क्रांति को फिर से अमलीजामा पहनाया जाए। फसलों के उत्पादन में विविधता लाने या मिश्रित खेती करने से भी स्थिति में कुछ हद तक सुधार लाया जा सकता है।

इसके बरक्स कृषि फसलों को बीमा के जद में लाकर काफी हद तक नुकसान पर काबू पाया जा सकता है। इससे किसानों का मनोबल ब़ेगा और वे दूगने उत्साह से अपना काम करेंगे। जिसका कृषि के उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

सिर्फ 9 फीसदी विकास का दंभ भरकर विकास नहीं किया जा सकता है। आंकड़ों से विकास नहीं होता है। विकास और सुधार दोनों मेहनत से की जाती है।

लब्बोलुबाव के रुप में कहा जा सकता है कि जिस तेजी से भारत की आबादी ब़ रही है, उस अनुपात में खाद्य पदार्थों के उत्पादन में ब़ोत्तरी नहीं हो पा रही है।

मानसून पर भरोसा करके हम मांगआपूर्ति में तालमेल नहीं बैठा सकते हैं। यह काम कृषि क्षेत्र में सुधार लाकर ही किया जा सकता है। सरकारी खोखले वायदों से तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता है।

निष्कर्षतः कृषि क्षेत्र में मजबूती लाकर महंगाई और भूखमरी पर अवश्य काबू पाया जा सकता है। इंसानों की बेलगाम आबादी पर नियंत्रण करके भी हम ऐसा कर सकते हैं। यदि हम अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण करते हैं तो अन्यान्य बहुत सारी समस्याओं का समाधान स्वतःस्फूर्त तरीके से खुद व खुद हो जाएगा।

 सतीश सिंह

 लेखक परिचयः

श्री सतीश सिंह वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान से हिन्दी पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में इनकी सकि्रय भागीदारी रही है। श्री सिंह से ेंजपेी5249/हउंपसण्बवउ या मोबाईल संख्या 09650182778 के जरिये संपर्क किया जा सकता है।

मज़बूरी का नाम मनमोहन सिंह-….देश चले भगवान भरोसे…

यु पी ऐ प्रथम के दौर में जब -जब आर्थिक सुधारों के नाम पर देश की सम्पदा और मेहनतकशों के श्रम को मुफ्त में लूटने के लिए कार्पोरेट जगत को पूरी सफलता नहीं मिली ,तब -तब सरमायेदारों की तिजारत के संबाहक पूंजीपति परस्त मीडिया ने डाक्टर मनमोहन सिंह को मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में जनता के समक्ष पेश किया. उस दौर में चाहे पेट्रोल डीज़ल -रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि का सवाल हो , शक्कर -तुअर दा� �� या घासलेट की कीमतों में बढ़ोत्तरी का सवाल हो , सार्वजानिक उपक्रमों को निजीकरण करने , श्रम कानूनों में मालिक परस्त संशोधनों का सवाल हो कामन मिनिमम प्रोग्राम का सवाल हो

या वन -टू-थ्री एटमी करार का सवाल हो -हर जगह वामपंथ ने देशभक्तिपूर्ण भूमिका अदा की तो उन्हें रोड़े अटकाने वाले बताया गया . तब भी सत्ता से विमुख भूंखे-भेरानो ने आरोप लगाया की प्रधानमंत्री जी तो कमजोर हैं .स्वयम प्रधनमंत्री जी ने देश की तात्कालिक वित्तीय लूटपाट पर अंकुश लगाने के बजाय जुलाई -२००८ को संसद में अपनी सरकार बचाने के लिए वामपंथ के तथाकथित बंधन से मुक्त होने के लिए क्या -क्� �ा धत-करम किये वे जग जाहिर है . इस घटना में उन्हें धोखा हुआ , वे समझे की वे ताकतवर होते जा रहे हैं .जबकि बस्तुत; वे मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में और तेजी से विख्यात {?}हुए .तत्कालीन विपक्ष के दिग्गज नेता ने उन्हें कमजोर और विवश प्रधानमंत्री तक कह डाला .हालाकिं विपक्ष में एन डी ऐ और खास तौर से भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा चिढ वामपंथ से थी . क्यों ? क्योंकि वामपंथ ने ही एन डी ऐ को सत्ता से विम� ��ख कराया था . २००४ के आम चुनाव में जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और वाम को इतनी {६२} सीटें मिल गईं की वो जिस तरफ होगा सरकार उसकी ही बनेगी .एन डी ऐ और यु पी ऐ में से किसी एक को सत्ता में बिठाने की स्थिति में वाम ने धर्म-निरपेक्षता के आधार पर कांग्रेस के नेत्रत्व में यु पी ऐ को बिना किसी शर्त के देश और देश की गरीब जनता के हित में बाहर से समर्थन दिया था ,ये वामपंथ की मजबूरी थी .

पूंजीपतियों ने भाजपा और कांग्रेस को विभिन्न चुनावों में पार्टी फंड में अकूत धन दिया था और ये दोनों ही बड़े दल मजबूर थे और हैं- कि पूंजीपतियों को भरपूर मुनाफा कमाने की खुली छूट होना चाहिए .वामपंथ मजबूर है कि मेहनतकश जनता को उसके हक दिलाने के लिए संघर्ष करे .सो अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते यु पी ऐ का दुखद अंत हुआ .अब यु पी ऐ द्वितीय के दौरान

माननीय प्रधान मंत्री जी ”अलाइंस पार्टनर्स ” के हाथों मजबूर हैं सो भृष्टाचार परवान चढ़ा हुआ है .वहां अब कोई वामपंथ रुपी लगाम या रोक टोक नहीं है .अब तो न्याय-पालिका और वतन-परस्त मीडिया का ही सहारा है कि इस मजबूरी के निहतार्थ को जनता तक पहुंचाए. राकपा के नेता शरद पंवार कि मजबूरी है, सो वे खास मौकों पर ऐसें वयान देते हैं कि महंगाई आसमान छूने लगती है . श्रीमती सोनिया गाँधी कि मजबूर� � है सो वे स्वयम प्रधान-मंत्री नहीं बनना चाहतीं .भाजपा मजबूर है कि हिन्दुत्ववादियों और पूंजीवादियों दोनों को साधे. दोनों को साधने के फेर में एक भी हाथ नहीं आ रहा है .दुविधा में दोउ गए ….न सत्ता मिली न मंदिर बन पा रहा है .

कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अफसरों के हाथों मजबूर है, .अफसर और राजनेतिक दलाल भृष्टाचार के लिए मजबूर हैं , क्योंकि रिश्वत देकर नौकरी मिली या मन वांछित जगह पोस्टिंग करानी है मंत्री मजबूर कि जिस पार्टी के कोटे से सत्ता में हैं उसके सुप्रीमो तक माकूल धन पहुँचाना है .

देश के बेकार, बेरोजगार, मजबूर हैं कि जिन्दा रहने के लिए कुछ तो करना होगा सो कोई मजदूर है, कोई चोर है ,कोई बाबा हो जाता है. ये सभी लोग बजाय इस व्यवस्था के खिलाफ नीतिगत विरोध के अपने कर्म या भाग्य को कोसतें हैं .कुछ मक्कार बदमाश जो प्रमादी होते हैं वे पूंजीपतियों कि ओर से अपने ही वर्गीय बंधुओं पर कुठारा-पात करते हुए , अपना गुवार निकालते रहते हैं,पेड़ को जो कुल्हाडी काटती है उसका बैंट ब न जाना उनकी मजबूरी है

जिस देश में ईमानदार ,अनुशाषित नागरिक को लल्लू और बदमाश -काइयां आदमी को स्मार्ट कहा जाता हो वहां ये सामजिक असमानता -कदाचार ,निर्मम शोषण -उत्पीडन कि पत्नोंमुखी व्यवस्था को उखाड़ फैंकना भी जनता की मजबूरी हो जाना चाहए ….

श्रीराम तिवारी

मेरी तड़त का मतलब

मेरा शरीर मेरा है|

जैसे चाहूँ, जिसको सौंपूँ!

हो कौन तुम-

मुझ पर लगाम लगाने वाले?

जब तुम नहीं हो मेरे

मुझसे अपनी होने की-

आशा करते क्यों हो?

पहले तुम तो होकर दिखाओ

समर्पित और वफादार,

मैं भी पतिव्रता, समर्पित

और प्राणप्रिय-

बनकर दिखाऊंगी|

अन्यथा-

मुझसे अपनी होने की-

आशा करते क्यों हो?

तुम्हारी ‘निरंकुश’ कामातुरता-

ही तो मुझे चंचल बनाती है|

मेरे काम को जगाती है, और

मुझे भी बराबरी का अहसास

दिलाने को तड़पाती है|

यदि समझ नहीं सकते-

मेरी तड़त का मतलब!

मुझसे अपनी होने की-

आशा करते क्यों हो?

किसान का दर्द भी समझें नीता जी

सिवनी जिले के इतिहास का काला अध्याय है सिवनी विधानसभा के ग्राम थांवरी के एक किसान द्वारा की गई आत्महत्या। यह आत्महत्या किस कारण से की गई है, इसके पीछे तर्क कुतर्क जमकर हो रहे हैं। सियासी दल के नुमाईंदे आपस में इसे लेकर राजनैतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। सिवनी की विधायिका और पूर्व संसद सदस्य श्रीमति नीता पटेरिया ने इस मामले में यह कहकर परिवारजनों को ढाढस बंधाने के बजाए उनका माखौल उडाया है कि मृतक राकेश संपन्न किसान था। सांसद जैसे जिम्मेदार पद पर पांच साल रहने के बाद विधानसभा के गलियारों में विचरण करने वाली श्रीमति नीता पटेरिया को शायद यह भान नहीं रहा होगा कि जब पाला के मुआवजे की बात आई तो प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी ने भी अपने खेत में लगी फसल के लिए भी मुआवजा चाहा है। क्या राकेश साहनी को मुआवजा मिलना उचित है। जो राज्य सरकार का प्रशासनिक मुखिया रहा हो, जिसको पेंशन के तौर पर हजारों रूपए मिल रहे हों वह क्या पाला से क्षतिग्रस्त फसल का मुआवजा लेने का पात्र है, और अगर है तो फिर गरीब गुरबे किसानों को आखिर मुआवजा क्यों नहीं मिल पा रहा है।

प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पाला को प्रकृतिक आपदा में शामिल करवाने के लिए प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह से चर्चा की, फिर भी उनका मन नहीं भरा तो वे वापस दिल्ली पहुचें और फिर वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से मिले एवं यही मांग दोहरा दी। शिवराज बहुत ही गर्व के साथ कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने इसके लिए गु्रप ऑफ मिनिस्टर्स का गठन करने का आश्वासन दिया है। सवाल यह है कि आखिर कब होगा यह जीओएम गठित और कब मिल सकेगा गरीबों को मुआवजा।

किसानों के मसले पर कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी का कहना है कि केंद्र सरकार ने चार सौ पच्चीस करोड रूपए दे दिए हैं। शिवराज दावा करते हैं कि उन्होंने सात सौ करोड का प्रावधान किया है। इस तरह कुल राशि हो जाती है ग्यारह सौ पच्चीस करोड रूपयों की। फिर सुरेश पचौरी का कहना है कि उनके पास दस्तावेज बताते हैं कि शिवराज ने १७ फरवरी तक महज तीन सौ करोड रूपए ही खर्च किए हें। अब बताया जाए कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ किसानों का असली हमदर्द कौन है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस मामले में आंकडों की बाजीगरी मीडिया के माध्यम से कर लोगों का ध्यान भटकाना चाह रहे हैं।

सिवनी की विधायिका श्रीमति नीता पटेरिया को किसानों के दर्द को कम से कम समझना तो चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के मोटी चमडी वाले जिले के पदाधिकारियों को भी इतनी शर्म नहीं आई कि वे किसान के परिजनो के पास जाकर दो शब्द संवेदना के बोल पाते। बात बात पर देश के राजनैतिक अक्स पर अपने बेबाक विचार रखने वाले जिले के भाजपाईयों ने रेल बजट और आम बजट पर अपनी राय रखना मुनासिब समझा किन्तु धडों में बटी भारतीय जनता पार्टी की जिला इकाई ने इस मामले में स्थानीय विधायक श्रीमति नीता पटैरिया के साथ कंधे से कंधा मिलाना मुनासिब नहीं समझा।

विधानसभा उपाध्यक्ष जेसे संवैधानिक पद पर विराजमान महाकौशल के कांग्रेस के इकलौते क्षत्रप ठाकुर हरवंश सिंह ने भी इस मामले में कोई खास पहल न किया जाना अश्चर्यजनक ही कहा जाएगा। हरवंश सिंह सिवनी में विपक्ष के इकलौते विधायक हैं, इसलिए सत्ताधारी दल के कुकृत्यों के पुरजोर विरोध की जवाबदारी उन पर ही आहूत होती है, इस तरह उनका मौन रहना उनके और भाजपा के बीच चल रही नूरा कुश्ती को उजागर करने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। मजे की बात तो यह है कि हरवंश सिंह भी जनता के सामने अपने आप को निरीह प्रदर्शित कर रहे हैं। हरवंश सिंह जी आप एक जिम्मेदार विधायक हैं वह भी चौथी बार चुने गए हैं। आप विधानसभा उपाध्यक्ष हैं, फिर आप अगर यह कहें कि आपकी बात सरकारी नुमाईंदे नहीं सुनते तो यह किसी के गले नहीं उतर सकती है। अगर आप सच कह रहे हैं तो आपको आपकी बात सरकारी मुलाजिमों द्वारा नहीं सुने जाने की बात विधानसभा में उठाने के प्रमाण सिवनी जिले की जनता को देना ही होगा, वरना जनता यही समझेगी कि आप भाजपा विधायक श्रीमति नीता पटेरिया को बचाने के लिए इस तरह का प्रहसन मात्र कर रहे हैं।

भाजपा की कमान इस बार अपेक्षाकृत युवा कांधों पर रखी गई है। जिला भाजपाध्यक्ष सुजीत जैन, जिला कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष महेश चंद मालू ने भी इस मामले में जुबान नहीं खोली है जो निंदनीय है। उधर जिला कांग्रेस की ओर से हीरा आसवानी ने १५ हजार रूपए, नगर कांग्रेस की ओर से इमरान पटेल ने १० हजार तो ब्लाक कांग्रेस की ओर से रेहान पटेल ने दस हजार रूपए की राशि मृतक के परिवार को दी है। आश्चर्य तो इस बात का है जब इस तरह की खबरें आम होने लगती हैं कि इस आत्महत्या के कारणों को अज्ञात बताया जाता है वह भी जिला प्रशासन द्वारा। उस किसान के द्वारा आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या नहीं किए जाने का ताना बना बुना जा रहा है।

सिवनी में इस तरह की पहली घटना घटी है, और उसके साथ ही साथ यह भाजपा के सांसद के डी देशमुख कांग्रेस के सांसद बसोरी सिंह, विधायक नीता पटेरिया, कमल मस्कोले, शशि ठाकुर, और कांग्रेस के ठाकुर हरवंश सिंह के शर्मसार करने वाली बात है। चौक चौराहों पर नथुआ की चर्चा तो हो रही है किन्तु कोई भी राजनैतिक दल इस मामले को हाथ में लेने से हिचक ही रहा है। अपनी विधानसभा का मामला थोडे ही है जो अपन बोलें, नीता जी जाने उनका काम जाने इम क्यों पचडे में फंसे, यह तो वहां के सांसद की जिम्मेवारी है, इस तरह की बातें कहकर जनप्रतिनिधि अपना पल्ला झाड रहे हैं जो किसी भी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता। इन जनप्रतिनिधियों का अहम तब कहां जाता है जब वे अपनी विधानसभा या लोकसभा से हटकर प्रश्र पूछा करते हैं। यह अलहदा बात है कि उनके इस तरह के प्रश्रों में उनके निहित स्वार्थ छिपे होते हैं।

जनप्रतिनिधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्हीं गरीब आर्थिक परिस्थिति वाले किसानों के अमूल्य वोट के माध्यम से ही वे लोकसभा या विधानसभा की दहलीज में कदम रख पाते हैं।

मनोज मर्दन त्रिवेदी

बजट: इधर का उधर-उधर का इधर

भारत में केंद्र सरकार का आम बजट आयेगा ,आ रहा है ,आ गया और चला भी गया ,ज्वलंत समस्याएं जहाँ थीं वहीँ की वहीँ रह गई ,आम आदमी हताश निराश है,महंगाई की मार का मारा वह बेचारा सोच रहा है, की हमारे देश का वित्त मंत्री चिंता केवल चिंता व्यक्त कर रहा रहा है ,करने के लिए प्रणव दा बहुत कुछ कर भी सकते थे किन्तु क्या करे बिचारे महंगाई रोकने यदि वे वायदा कारोबार जिसे जुवे सट्टे के रूप में खेला जा रहा है के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाने या रोकने की कोशिश करेंगें तो उनके ही साथी नाराज़ हो जायेंगें,ऐसा लगता है की प्रमुख लोगों का हित इसमें निहित है ,अपनों की नाराजी दादा को मंज़ूर नहीं हैं,इसलिए उन्होंने 2G स्पेक्ट्रम घोटाले,भ्रष्टाचार के मुद्दे से देश की गरीब जनता का ध्यान हटाने का प्रयास किया है इसी वजह से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष करों में अतिरिक्त राजस्व वृद्धि का कोई प्रावधान नहीं किया गया,भटकती राह का भटकता मुसाफिर जैसा कृत्य करता है वैसा ही कृत्य दादा ने किया ,१.६ लाख की छूट सीमा को बढ़ाकर एक टाफी खरीदने लायक छूट सीमा बढ़ा कर१.८ लाख कर अपने आपको माध्यम वर्गीय लोगों का झूठा हिमायती सिद्ध करने की नाकामयाब कोशिश की है ,महिलाओं के लिए क्या कहें वित्त मंत्री जी को इस बात की टीस है की देश की राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और विपक्ष की नेता आज महिला हैं ,वे नहीं चाहते महिलाओं को राहत देना,इसलिए उन्होंने महिलाओं के लिए छूट सीमा नहीं बढाई हाँ उन्हें इस बात का ज़रूर ख़याल रहा की बुज़ुर्ग देश की अमूल्य धरोहर है , इस लिए उन्होंने एक विशिश्ष्ट वरिष्ठ नागरिक श्रेणी बनाकर ५ लाख तक की छूट देदी ,हम चाहतें हैं की उम्र के इस पड़ाव में ५ लाख ही नहीं बल्कि आयकर की सारी सीमाओं और सभी प्रावधानों से उनको पुर्णतः छूट दी जानी चाहिए क्यों की इससे देश के राजस्व पर कोई ख़ास फरक नहीं पड़ने वाला है ,ये केवल एक सन्देश है जो की ज़रूर दिया जाना चाहिए ,इस बात का भी हमें पता चल गया की अब देश में ६५ वर्ष नहीं बल्कि ६० वर्ष के होते ही हम वरिष्ठ नागरिक हो जायेंगें और २.५ लाख तक की छूट मिलेगी बचत के लिए धारा 80C में भी परिवर्तन अपेक्षित है ,सीमा भी बढ़नी चाहिए किन्तु दादा इस मसले पर भी चुप हैं,इस वर्ष GST ,DIRECT टैक्स कोड की केवल प्रक्रिया अपनाने का प्रयास मात्र किया गया है ,GST की शुरुआत के पूर्व केंद्र सरकार ने राजस्व वसूली के राज्य सरकार के क्षेत्राधिकार में घुसपैठ की है जिसे न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता .

कालेधन की रोक थाम के लिए कहा गया है की ५ सूत्रीय कार्यक्रमों की घोषणा की जायेगी ,इसमें भी ऐसा लगता है की केंद्र सरकार ऐसे लोगों को बचाव के लिए पूरा समय देना चाहती है,सरकार में प्रबल इच्छा शक्ति होती तो इसके लिए तुरंत ठोस कदम उठाती ,किन्तु आपातकाल में जिस प्रकार सूत्री २० सूत्री ५ सूत्री या अनेकानेक सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की गई थी उसी की पुनरावृती हो रही है इससे ज्यादा कुछ भी नहीं वित्त मंत्री जी को याद रखना होगा की देश की जनता कार्यक्रमों की घोषणाओं से उब चुकी है ,अब केवल परिणाम सिर्फ परिणाम चाहती है घोषणाओं से पेट नहीं भरता इसके लिए त्वरित कार्यवाही चाहिए .

देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए ५५४६९ करोड़ का प्रावधान किया गया है ,जिसमे छत्तीसगढ़ का हिस्सा तय नहीं हैं ,यह प्रदेश भारतवर्ष के द्रुत गति से विकसित होने वाले प्रदेशों की श्रेणी में माना जाता है ,किन्तु नक्सली समस्या से जूझ रहा है, पैरा मिलिट्री फ़ोर्स तैनात हैं जिसके लिए ८५० करोड़ केंद्र सरकार को देना है ,मुख्यमंत्री रमण सिंह जी इसे माफ़ करने का आग्रह कई बार कर चुकें हैं किन्तु बजट में पैरा मिलिट्री और आंतरिक सुरक्षा इस प्रदेश की व्यवस्थाके लिए भी कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया इन सभी पहलुओं पर विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है की बजट जिसे नीतियों और कार्यों की दिशा तय करने का माध्यम माना जाता है ऐसा कुछ भी नहीं है केवल इधर का उधर -उधर का इधर करने के प्रयास को ही बजट कहा जाता है ये हमारे प्रणव दा ने सिद्ध कर दिया है .

बजट २०११-१२ : विसंगतियों का पिटारा…..

वर्तमान बजट पर देश के अर्थशास्त्रियों के सिरमौर कहे जाने वाले हमारे माननीय प्रधानमंत्री जब वित्तमंत्री जी को शाबासी देते हैं तो मेरे जैसे अज्ञानी की अनचाहे ही बजट के बारे में उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है ,जब उत्सुकता है तो विषयांतरगत आद्द्योपंत बजट पर माथा-पच्ची भी जरुरी हो जाती है. यह मानवीय स्वभाव की ही विशेषता नहीं बल्कि मानवेतर प्राणियों में भी प्राय: देखा गया है कि व े अपना हित अनहित पहचानते हैं .गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत सटीक कहा है –

’हित अनहित पशु पक्षिंह जाना ….”

अब यदि किसी देश की जनता अपने द्वारा चुनी गई सरकार से जो अपेक्षाएं रखती है और वे पूरी होतीं हैं तो यह जनता और राजनीतिज्ञों की जागरूकता का परिणाम है और यदि जनता को लगता है कि उसके जनादेश का सम्मान नहीं हो रहा और उसे मूर्ख बनाया जा रहा है कुछ करना चाहिए यथा संयुक-संघर्ष जैसा कुछ तो भी यह जनता की सामूहिक हितेषी –

सजगता का ही परिणाम होगा .किन्तु जब जनता को लगातार मूर्ख बनाया जाता रहे; नेतृत्व निरापद नकारात्मक नीतियों पर चलता रहे और प्रचार माध्यमों की ताकत से सब कुछ सहनीय बना दिया जाय तो यह जनता और नेतृत्व दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है .यु पी ऐ सरकार का यह बजट भी अपने पूर्ववर्ती बजटों की प्रति-छाया मात्र है .जिस तरह से विगत १० वर्षों में{यु पी ऐ प्रथम के कामं न मिनिमम प्रोग्राम को छोड़कर र्थिक सुधारों के बहाने जन-कल्याण की हितकारक मदों से पूर्ववर्ती विभिन्न सरकारों ने पल्ला झाडा और राजकोषीय घाटे की पूर्ती के लिए देश की निम्न मध्यमवर्गीय जनता पर इसका बोझ लादा; वह देश की जी डी पी को कितना आगे ले गया यह तो कोई महा-मूढमती भी बता देगा. कम से कम हजारों किसानो की आत्महत्या और देश के चमकदार साढ़ेचार दर्ज़न ’मिलियेनर्स’की उपलब्धी तो इस आर्थिक नीति का ही परिणाम है .जि समें ऐसें बजट बनाये जाते हैं जिन पर मानवीय-मूल्यों की वरक का कवर तो चढ़ा हो किन्तु उस आर्थिक नियामक पिटारे के अन्दर विसंगतियों की चासनी में लूट और भृष्टाचार का लालीपाप ही अंतिम निष्कर्ष के रूप में हर बार शेष रह जाता है .

महान क्लासिक व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने ख्यातनाम उपन्यास ’राग दरवारी’ में ठीक ही लिखा है कि’ ”इस देश कि अर्थव्यवस्था उस उस पुराने ट्रक इंजन कि तरह है जिसका एक्सीलिरेटर टॉप गियर में बार-बार डालने पर भी वह थर्ड में खुद-ब-खुद जाकर दम तोड़ने लगता है ” इस पूंजीवादी व्यवस्था का यह स्थाई-भाव है कि यह ”सुपर मुनाफों ”कि ओर भागती है. जिसे हमारे विद्वान वित्तमंत्री जी :आर्थिक विकास की दर’ कहते हैं वो और कुछ नहीं सिर्फ देशी-विदेशी निवेशकों को लाल-कालीन बिछाकर ”पुटियाने” का व्यावसायिक तरीका मात्र है .

कहा जा रहा है की वर्तमान बजट बेहद संतुलित और आर्थिक विकास दर के उच्च अंतर-राष्ट्रीय मानकों के करीब ले जाने की कूबत रखता है, इन्फ्रास्त्रक्चार और निर्माण के क्षेत्र में ,केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में यत्र – तत्र जनता की हिस्सेदारी को निजी मिल्कियतों में बदलने का जोर भी इस बजट में है ,जो देश को उस तरफ ले जायेगा जहां पर मुसीबतों के पहाड़ टूटा करते हैं , हालाँकि आंगनवाडी सहाय� ��काओं या मनरेगा-मजदूरों की मजदूरी में बढ़ोत्तरी के लिए कुछ सकारात्मक सुझाव माननीय वित्त मंत्री जी ने रखे हैं इसके लिए मैं व्यक्तिश: प्रणव दादा को नमन करता हूँ, उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूँ .किन्तु ५ करोड़ भूमिहीन खेतिहर मजदूरों ,सूखा -पाला-पीड़ित किसानों ,शिक्षित बेरोजगारों की विपन्न अवस्था के लिए आजाद देश में और कितनी पीढ़ियों तक मरना-मिटना होगा?

किसानो के लिए प्रस्तावित कर्ज की राशी चार लाख ७५ हजार करोड़ भले ही निर्धरित की गई हो किन्तु ये पैसा वास्तविक अभ्यर्थियों तक पहुँचाने का विश्वसनीय नेटवर्क कहाँ हैं .? पटवारी -रेवेन्यु इंस्पेक्टर से लेकर राज्यों के मंत्रियों तक और ग्राम-पंचायत के सचिव से लेकर बैंक के मेनेजर तक अधिकांश महा-भृष्टाचार की वैतरणी में गोते लगा रहे हैं .थोक मूल्यों और खुदरा मूल्यों पर सिर्फ चिंता परकट करने से सवा सौ करोड़ की आबादी वाला देश राहत की उम्मीद कैसे कर सकता है . बेरोज़गारी -भत्ता या रोजगार गारंटी की बात करना ,उनकी मांग उठाना क्या सिर्फ मार्क्सवादियों के हिस्से रह गया है .जब तक विदेशों में जमा कालाधन वापिस नहीं लाया जाता, जब तक ,देश के अन्दर भू -माफिया पर अंकुश नहीं लगाया जाता ,जब तक भूमि-सुधार कानून बनाकर उसे सख्ती से अमल में नहीं लाया जाता और आर्थिक विकास के लिए वैक ल्पिक नीतियों का संधारण नहीं किया जाता ,जब तक भृष्टाचार ख़त्म करने की कोई ठोस कार्य योजना नहीं बनाई जाती तब तक ऐसे लोक लुभावन बजटों से-राजाओं ,रादियाओं ,अम्बानियों ,टाटाओं ,कल्मादियों रेड्दियों के साथ-साथ सोने की ईंटों के तलबगार भ्रष्ट अधिकारीयों के वारे-न्यारे होते रहेंगे . ऐसे बजटों से नक्सलवाद से नहीं लड़ा जा सकता .जब तक देश में ७७%लोगों की आमदनी मात्र २० रूपये रोज की रहेगी ,जब तक भारत में नंगा भूँखा इंसान रहेगा तब तक देश में तूफ़ान की संभावना बनी रहेगी .

– श्रीराम तिवारी

कालों का राज है भाई

अरेरेरेररेरेरेरेरेरेरे … रूको भाई मैं कोई रंगभेदी नही हूँ .. केवल पत्रकार भी नही हूँ … मैं तो एक अमीर देश की गरीब जनता के बीच का आदमी हूँ जो काले गोरे आदमीयों तक का भेद तो समझ नही सका है फिर भला काले सफेद धन के बारे में क्या समझता । लेकिन अब समझना चाहता हूँ क्योंकि मुझे अब बच्चों के स्कूल फिस पटाने में समस्या आने लगी है, सब्जी खरीदने की जगह केवल चाँवल पकाकर उसे नमक अचार डाल कर खा रहा हूँ, पेट्रोल ना भर पाने के कारण अब साइकिलिंग कर रहा हूँ , बिजली बिल ना पटा पाने के कारण अवैध रूप से बिजली खींच कर घर को रोशन कर रहा हूँ, …. मैं एक गोरा आदमी हूँ और बडी मुश्किल से अपना जीवन गुजार रहा हूँ ….
लेकिन गुस्से से मेरा मन भर जाता है
जब उस काले को देखता हूँ जिसके कुत्ते
डॉग ट्रेनर के घर कार से जाकर ट्रेंड हो रहे हैं, जिसका

ये है दिल्ली मेरी जान

 

भरी भीड़ में अकेले खड़े हैं मनमोहन

कांग्रेस के अंदर अब यह चर्चा जोर पकड़ने लगी है कि अब वक्त आ गया है और वजीरे आजम डाॅ.मनमोहन को सेवानिवृत्ति ले लेनी चाहिए। मतलब साफ है कि इस साल देश को नया प्रधानमंत्री तो अगले साल देश को नया महामहिम राष्ट्रपति मिलने वाला है। ईमानदार छवि के धनी गैर राजनैतिक प्रधानमंत्री डाॅ.सिंह के दिन गिनती के ही बचे हैं। उधर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी फिलहाल बतौर प्रधानमंत्री अपनी ताजपोशी को तैयार नहीं हैं। राहुल के अलावा जिन नामों पर चर्चा संभव है उनमें प्रणव मुखर्जी, पलनिअप्पम चिदम्बरम और ए.के.अंटोनी के नाम प्रमुख हैं। इनमें अंटोनी के पीछे सोनिया का जबर्दस्त समर्थन हैं। लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार भी दबे पांव इस दौड़ में शामिल हैं। अगर दलित और महिला को प्रधानमंत्री बनाने की बात आती है तो मीरा कुमार का दावा सबसे अधिक पुख्ता हो जाता है। इस सबसे इतर चतुर सुजान राजा दिग्विजय सिंह भी बिसात बिछाने में लगे हैं, पर राजा के दांव समझना इन राजनेताओं के बस की बात नहीं।

साढ़े नौ दशक बाद लल्ला लाएगा ब्राम्हण दुल्हनिया

आजादी के बाद देश के खिवैया रहे नेहरू गांधी परिवार में एक संयोग 94 साल बाद बनने जा रहा है। मौका है इस परिवार की राजनैतिक तौर पर सक्रिय पांचवीं पीढ़ी के विवाह का। संजय गांधी के पुत्र वरूण गांधी की जीवन संगनी ब्राम्हण बाला बनने वाली है। इसके पहले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की 1916 में ब्राम्हण कुल की कमला नेहरू को अपनी अर्धांग्नी बनाया था। इसके बाद इंदिरा गांधी ने फिरोज गांधी से तो राजीव गांधी ने इटली मूल की सोनिया और स्व.संजय ने पंजाबी मेनका को अपना जीवन साथी चुना। इसके बाद वाली पीढ़ी में प्रियंका ने राबर्ट वढ़ेरा को चुन लिया। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की नजरें भी विदेशी बाला पर ही होने की खबरें हैं। इन परिस्थितियों में वरूण गांधी द्वारा ब्राम्हण कन्या से विवाह रचाकर कांग्रेस के गांधीज को परेशानी में डाल दिया है। अब राहूुल की मजबूरी हो जाएगी कि वे भी ब्राम्हण कन्या के साथ ही स्वयंवर रचाएं। वैसे उत्तर प्रदेश के एक संसद सदस्य के परिवार में उनके विवाह की चर्चाएं तेज हो गई हैं।

किसानों के पैसों से चमक रहे माननीयों के कपड़े

देश भर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है भूमिपुत्र किसान को। किसानों के लिए सरकारें हर कुछ करने को आमदा होती है। किसानों के नाम पर राजनीति भी जमकर ही होती है। पिछले दिनों दिल्ली से इल्ली तक किसानों को सभी ने लूटा। हाल ही में छत्तीसगढ़ की आर्थिक अपराध शाखा के पास एक नए तरीके का अभिनव मामला प्रकाश में आया है, जिसकी चर्चा भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय में भी हो रही है। बताया जाता है कि किसानों के लिए जिस रकम का प्रावधान किया गया था, उस राशि से माननीय वियाायकों और मंत्रियों के कपड़ों की चमक बरकरार रखने के लिए वाशिंग मशीन ही खरीद दी गईं। पहले 7550 रूपए प्रति मशीन के हिसाब से तीन लाख दो हजार की बाद में 5600 रूपए के हिसाब से तीन लाख 92 हजार की मशीने खरीदी गईं। किसानों के लिए सरकार ने छः लाख चोरानवे हजार का प्रावधान किया किन्तु अधिकारियों ने माननीयों के कपड़ों की चमक के लिए उसे खर्च कर दिया।

मंहगाई ने किया संसद की और रूख!

जी हां, यह सच है कि आसमान छूती मंहगाई ने अब देश की सबसे बड़ी पंचायत की ओर रूख कर दिया है। आपको यकीन नहीं हो रहा है न। जाईए, सांसदों के आवास के पास की केंटीन में जाकर कुछ खाईए तो सही। आपको पहले से ज्यादा किन्तु बाजार से काफी कम दरों पर भुगतान करना होगा। सांसदों को काफी के लिए चार रूपए, वेज बिरयानी बारह रूपए, चिकिन बिरयानी के लिए 51 रूपए का शगुन। हर मामले मंे दरें पचास फीसदी बढ़ा दी गईं हैं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर माजरा क्या है? क्या माननीयों की केंटीन आजाद भारत के बाहर है, जी नहीं इस केंटीन में मिलने वाले खाने पर सरकार द्वारा सब्सीडी दी जाती है। अर्थात इसके अलावा शेष राशि का भुगतान सरकार द्वारा किया जाता है। और यह भुगतान होता है आम जनता से करों के माध्यम से वसूली गई राशि से। है न कमाल की बात। आम जनता की आवाज उठाने वाले आम जनता के पैसे पर किस कदर एश करते हैं, यह बात सिर्फ और सिर्फ भारत गणराज्य में ही देखने को मिल सकती है।

कानून का मजाक उड़ाते ‘माननीय

भारत गणराज्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां चुने हुए या पिछले दरवाजे से प्रवेश करने वाले सांसद या विधायक ही देश के कानून के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। जिन सांसदों या विधायकों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं, वे खुलेआम सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करते नजर आते हैं, उन्हें पकड़ने के लिए पाबंद पुलिस ही उनकी देखसंभाल में लगी होती है। बीते दिनों मध्य प्रदेश के एक विधायक के बारे में भी इसी तरह की चर्चाएं दिल्ली स्थित ‘मध्य प्रदेश भवन‘ में चटखारे लेकर सुनाई गई। सुसनेर के भाजपा विधायक संतोष जोशी पर मोमिन बडोदिया थाने में धारा 323 और 506 का प्रकरण पंजीबद्ध है। वे दो माहों से फरार हैं। बावजूद इसके जोशी ने अपने क्षेत्र में पदयात्रा की। नियम कायदों को ताक पर रखने की हद तो तब हो गई जब फरार विधायक के कार्यक्रम में सूबे के निजाम शिवराज सिंह चैहान ने भी आमद दे दी। सीएम की वहां मौजूदगी के चलते पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों के सामने विधायक संतोष जोशी सीना तानकर मंच पर डटे रहे। कोई राह चलता होता तो पुलिस का अदना सा सिपाही भी उसे कालर पकड़कर हवालात में ले जाता पर यहां तो साहेब बहादुर ही सलाम ठोंक रहे थे।

जयंती ने कराई कांग्रेस की किरकिरी

कांग्रेस के प्रवक्ताओं की फौज में शामिल राज्य सभा सांसद जयंती नटराजन वैसे तो अपना अधिक समय चेन्नई में बिताने के लिए मशहूर हो चुकी हैं, पिछले दिनों संसद में उनकी अनुपस्थिति ने कांग्रेस को बुरी तरह शर्मसार किया। मसला यह था कि महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सत्तारूढ़ कांग्रेसनीत संप्रग की ओर से जनार्दन द्विवेदी के धन्यवाद प्रस्ताव के समर्थन में जब उपसभापति ने बार बार जयंती नटराजन का नाम पुकारा तब वे सीट से नदारत ही थीं। मौके की नजाकत को भांप उपसभापति ने सदन की कार्यवाही एक घंटा पहले ही स्थगित करना मुनासिब समझा। मजे की बात तो यह रही कि उस वक्त सदन में वजीरे आजम डाॅ.मनमोहन सिंह स्वयं उपस्थित थे। बाद में पतासाजी पर ज्ञात हुआ कि नटराजन ने चर्चा में भाग लेने के बजाए उस वक्त गोधरा कांड पर मीडिया से मुखातिब होना उचित समझा।

. . . तो यह दांव लगाया चिरंजीवी ने

आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी फेक्टर की काट के तौर पर कांग्रेस ने प्रजाराज्यम पार्टी से विलय की खिचड़ी पका ही ली। लोग असमंजस में हैं कि आखिर दोनों ही को इससे क्या लाभ हुआ। कांग्र्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है चूंकि दक्षिण में चिरंजीवी का जलजला है इसलिए कांग्रेस उनकी लोकप्रियता को भुनाना चाह रही है। सूत्रों ने आगे कहा कि चिरंजीवी ने विलय के लिए केंद्र में मंत्री पद की शर्त रखी थी। चूंकि चिरंजीवी लोक या राज्यसभा में नहीं हैं अतः उन्हें चुनवाने की जवाबदेही कांग्रेस के सर ही आती। बाद में राजमाता सोनिया गांधी के एक रणनीतिकार ने उन्हें मशविरा दिया कि अगर चिरंजीवी को उपमुख्यमंत्री बना दिया जाए तो उचित होगा। फिर क्या था चिरंजीवी के सामने यह जलेबी लटका दी गई। चिरंजीवी खुद को लाल बत्ती में बैठकर घूमने का सपना देखने लगे और हो गया प्रजाराज्यम का कांग्रेस में विलय।

‘खेद पत्र‘ ने बांटा भाजपा को

पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना की तारीफों में कशीदे पढ़ने के बाद यह दूसरा मौका होगा जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी की भूमिका पर पार्टी के अंदर सवाल उठने लगे हों। मामला कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को काले धन और विदेशी बैंक खातों के संबंध में लिखे गए खेद प्रकट करने का खत से जुड़ा हुआ है। भाजपा का एक धड़ा इसे उच्च आदर्श की राजनीति का घोतक तो दूसरा राजनैतिक तौर पर गैरजरूरी कदम निरूपित कर रहा है। लोकसभा में पार्टी के उपनेता गोपी नाथ मुंडे का कहना है कि यह सोनिया के लिए क्लीन चिट नहीं है। मामले की जांच चल रही है, जब तक जांच पूरी नहीं होती तब तक यह कहना मुश्किल है कि किसका खाता है और किसका नहीं। अंदरखाते से जो खबरें छन छन कर बाहर आ रही हैं उन पर अगर यकीन किया जाए तो कांग्रेस के कुशाग्र प्रबंधकों ने काले धन के मामले में आड़वाणी की दुखती रग पर हाथ रख दिया है, जिसके परिणामस्वरूप निकलकर आया है ‘खेदपत्र‘।

खतरे में सुकुमार

दिल्ली की निजाम श्रीमति शीला दीक्षित के सुकुमार समझे जाने वाले लोक कर्म विभाग के मंत्री राज कुमार चैहान के आसन पर खतरा डगमगा रहा है। भ्रष्टाचार के एक प्रकरण में दिल्ली के लोकायुक्त न्यायमूर्ति मनमोहन सरीन ने उन्हें दोषी मानते हुए भारत गणराज्य की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल से उन्हें पद से हटाने की सिफारिश कर दी है। इतना ही नहीं लोकायुक्त ने चैहान पर आपराधिक मामला चलाने की सिफारिश भी की है। जाहिर है इस कार्यवाही के बाद घपलों और घोटालों से घिरी शीला और कांग्रेस नेतृत्व पर नैतिक दवाब बढ़ गया है। गौरतलब होगा कि लोकायुक्त की इसी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी के आधार पर कांग्रेस द्वारा कर्नाटक के निजाम येदिरप्पा से त्यागपत्र की मांग की जा रही है। लाख टके का सवाल यह है कि लोकायुक्त की सिफारिश पर महामहिम राष्ट्रपति का सचिवालय कब और क्या निर्णय सुनाता है?

वसुंधरा ही तार सकतीं हैं राजस्थान भाजपा को

रसातल की ओर अग्रसर भाजपा की राजस्थान इकाई में जान फूंकने के लिए अब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को वसुंधरा राजे सिंधिया से उपयुक्त दूसरा कोई प्रतीत नहीं हो रहा है। पिछले दिनों उन्हें राज्य में नेता प्रतिपक्ष के पद का आफर दिया गया था, जो उन्होंने विनम्रता के साथ ठुकरा दिया है। और अपनी ओर से नंदलाल मीणा का नाम सुझाया है। इस पद के लिए अन्य नामों में धनश्याम तिवाड़ी, गुलाबचंद कटारिया और वसुंधरा खेमे से राजेंद्र सिंह राठौर और डाॅ.दिगम्बर सिंह के नामों की चर्चा है। भाजपाध्यक्ष नितिन गड़करी चाहते हैं कि उन्हें सूबे की भाजपा का मुखिया बनाकर अगला चुनाव उनकी अगुआई में ही लड़ा जाए। इसके पीछे माना जा रहा है कि राजघराने से होने के बाद भी आज वसुंधरा का जनाधार औरों की अपेक्षा काफी तगड़ा और विधायकों में पकड़ बरकरार है। किन्तु समस्या यह है कि सूबे के मौजूदा अध्यक्ष अरूण चतुर्वेदी का कार्यकाल अभी एक साल का बचा हुआ है।

अब आया है उंट पहाड़ के नीचे

इक्कीसवीं सदी में जमीन से उठकर स्वयंभू योग गुरू बनने वाले रामकिशन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने महज आठ सालों में धर्मार्थ संस्था के नाम पर कर बचाकर लाखों करोड़ों रूपयों की अकूत धन संपदा एकत्र कर ली, फिर चले राजनीति की काल कोठरी को स्वच्छ, निर्मल, धवल बनाने। जिसका पेट भरा होता है, वही गंदगी को दूर करने का प्रहसन किया करता है। फिल्म शोले का मशहूर डायलाग है – ‘‘अब आया है उंट पहाड़ के नीचे‘‘। इसी तर्ज पर अब कांग्रेस के सामने बाबा रामदेव आ चुके हैं। बाबा ने काले धन पर जमकर सियासत की। कांग्रेस ने भी अर्जुन की तरह निपुण धर्नुधर, चाणक्य की तरह दूरंदेशी वाले महासचिव राजा दिग्विजय सिंह को बाबा के सामने मैदान संभालने पाबंद किया है। अब दोनों ओर से बयानो के बाण चल रहे हैं। राजनैतिक समझबूझ वाले जानते हैं कि दिग्गी राजा के आगे बाबा रामदेव ज्यादा देर टिक नहीं पाएंगे।

आखिर उद्योगपति क्यों हैं सीबीआई के निशाने पर

केंद्रीय जांच ब्यूरो ने अनिल अंबानी, वेणुगोपाल, शाहिद बलवा जैसी मशहूर हस्तियों की कालर पर हाथ डाला है तो निश्चित मान लिया जाए कि इसके पीछे कारण कुछ गहरा और बेक सपोर्ट बड़ा ही तगड़ा है। वरना किसी की क्या हिमाकत कि इन धनकुबेरों को बुलावा भेजा जाए वह भी साधारण मुलजिमों की तरह पूछताछ का। कहा जा रहा है कि अब बारी कुमार मंगलग बिरला और रतन टाटा की है। दस जनपथ के सूत्रों का कहना है कि देश के उद्योगपति कल तक कांग्रेस की हां में हां मिलाते आए हैं, किन्तु अब इनके द्वारा क्षेत्रीय राजनैतिक दलों को आर्थिक रूप से सुदृढ कर कांग्रेस का सफायश किया जा रहा है। इसके साथ ही साथ इन शीर्ष उद्योगपतियों द्वारा समय समय पर कांग्रेस की व्यवस्था के खिलाफ अनर्गल प्रलाप भी किया गया है। यही कारण है कि दस जनपथ के इशारों पर सीबीआई ने इन्हें बुला भेजा और इशारों ही इशारों में इन्हें पैजामे के अंदर रहने का मशविरा भी दे डाला।

पुच्छल तारा

भारत में कौन कितना कमाता और कितना खर्च करता है इस बारे में कोई हिसाब किताब ही नहीं रखा जाता है, जबकि विदेशों में आय से अधिक संपत्ति पर कानून कड़े हैं और सरकारों की बाकायदा नजरें रहती हैं। लुधियाना से सुरभी ने एक ईमेल भेजा है। सुरभी लिखती हैं कि एक अमेरिकी और एक भारतीय आपस में बतिया रहे थे।

अमेरिकी: हमारे यहां हर नागरिक की औसत कमाई दस हजार डालर है और वह खर्च करता है सात हजार डालर।

हिन्दुस्तानी: बाकी बचे पैसों का वह क्या करता है?

अमेरिकी: यह उसका नितांत निजी मामला है, कि वह बचे पैसे का क्या करता है, हमारे यहां निजी मामलों में दखल नहीं दिया जाता है।

हिन्दुस्तानी: हमारे यहां हर नागरिक की औसत कमाई डेढ़ हजार रूपए है, और वह खर्च करता है पांच हजार रूपए।

अमेरिकी (हैरत के साथ): बाकी पैसे वह लाता कहां से है?

हिन्दुस्तानी: यह उसका सरदर्द और नितांत निजी मामला है। हमारे यहां भी किसी के निजी मामलों में कोई दखल नहीं देता है।



वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे

स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

 

कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि “मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।” प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि – “वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।”

सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

 

कविता के उपनिवेश का अंत और नागार्जुन

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

साइबरयुग में कविता और साहित्य को लेकर अनेक किस्म की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। कुछ लोग यह सोच रहे हैं लोकतंत्र में कविता या साहित्य को कैद करके रखा जा सकता है ? यह सोचते रहे हैं कि साहित्य हाशिए पर पहुँच गया है।लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है। इसके विपरीत साहित्य और कविता का विस्तार हुआ है। इसके अलावा आधुनिककाल में नवजागरण के साथ तर्क की महत्ता और तर्क के दायरे में सब कुछ

रखकर सोचने की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसने तर्क,अतर्क,विवेक आदि को लेकर लंबी बहस खड़ी की है। आलोचकों ने साहित्य में रेशनल और लोकतंत्र का मायाजाल भी खड़ा किया है। ये आलोचक विद्वान यह भूल गए कि इस संसार को रेशनल में कैद नहीं रखा जा सकता है। नागार्जुन की कविता इसी परंपरा में आती है जो रेशनल के उपनिवेश में नहीं सोचते। रेशनल के उपनिवेश में सोचने वालों का हिन्दी की पहली परंपरा से लेकर दूसरी परंपरा और बाद में पैदा हुईं तीसरी और चौथी परंपरा में भी बोलवाला है।

साहित्य को परंपरा की कोटि में बांधना एक तरह रेशनल की केटेगरी में ही बांधना है। नागार्जुन हिन्दी के अन्तर्विरोधी कवि हैं इन्हें आप रेशनल के दायरे में कैद नहीं कर सकते। बाबा की कविता का समाजवादी रूप किसी को अपील करता है तो किसी को बुर्जुआ लोकतंत्र को नंगा करने वाला रूप आकर्षित करता है। किसी को संपूर्ण क्रांति वाला तो किसी को आपात्काल विरोधी,किसी को बाबा में बुर्जुआ लोकतंत्र के प्रति आकर्षण दिखाई देता है। मजेदार बात यह है कि बाबा के यहां ये सारी प्रवृत्तियां हैं।

बाबा की कविता में एक खास किस्म का उन्माद है। वे जिस पर भी लिखते हैं उन्मादित भाव में लिखते हैं। वे कविता में उन्मादी भाव पैदा करके कविता के बहाने आम आदमी के साथ संवाद करते हैं। साहित्य और उन्माद के अंतस्संबंध की एक झलक देखें- उनकी एक कविता है ‘‘भूल जाओ पुराने सपने’’(1979), इसमें कहते हैं- ‘ सियासत में/ न अड़ाओ / अपनी ये काँपती टाँगें/ हाँ,महाराज/ राजनीतिक फतवेबाजी से / अलग ही रक्खो अपने को / माला तो है ही तुम्हारे पास / नाम-वाम जपने को / भूल जाओ पुराने सपने को।’

इसी तरह ‘‘जपाकर ’’ ( 1982) शीर्षक कविता में लिखा- ‘ जपाकर दिन-रात/ जै जै जै संविधान/ मूँद ले आँख-कान/ उनका ही दर ध्यान/ मान ले अध्यादेश/ मूँद ले आँख-कान/ सफल होगी मेधा/ खिचेंगे अनुदान/ उनके माथे पर / छींटा कर दूब-धान/ करता जा पूजा-पाठ/ उनका ही धर ध्यान/ जै जै जै छिन्मस्ता/ जै जै जै कृपाण/ सध गया शवासन/ मिलेगा सिंहासन।’

यहां पर बाबा ने कविता में एक नयी भाषा का प्रयोग किया है यह लोकतंत्र के आत्मविध्वंस की भाषा है। इसके बहाने बाबा ने लोकतंत्र,संविधान आदि के खोखलेपन को व्यक्त किया है। इसी क्रम में ‘‘ अपना देश महाऽऽन’’ (1979) शीर्षक कविता लिखी,इसकी बानगी देखें-

‘ अपना यह देश है महाऽऽन!

जभी तो यहाँ चल रहा भेड़िया धसाऽऽन!

शब्दों के तीर हैं जीभ है कमाऽऽन!

सीधे हैं मजदूर और बुद्धू हैं किसाऽऽन!

लीडरों की नीयत कौन पाएगा जाऽऽन

अपना यह देश है महाऽऽन।’

यहां लोकतंत्र के तर्क के परे ले जाकर भाषा के रूपान्तरणकारी प्रयोग के जरिए बाबा ने अपनी बात को रखा है। यह कविता ऐसे समय में लिखी गयी जब चारों ओर लोकतंत्र की जय जय हो रही थी। लोकतंत्र से भिन्न किसी अन्य आधार पर लेखक-आलोचक सोचने को तैयार नहीं थे। वह आपातकाल के बाद का दौर था । यहां कविता,समाज, राजनीति और लोकतंत्र के अन्तस्संबंध की ऐतिहासिकता को बनाए रखकर बाबा ने अपनी बात की है। वे लोकतंत्र के खोखलेपन को गंभीरता के साथ महसूस करते हैं और लोकतंत्र के लिए उनके अंदर गहरी तड़प भी थी,लेकिन वे लोकतंत्र के दायरे में कैद रहकर सोचने और लिखने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें लोकतंत्र में आजादी नहीं उपनिवेश की गंध आती थी। लोकतंत्र में वे गुलामी का भाव महसूस करते थे।वे जब भी लोकतंत्र पर लिखने जाते थे तो उन्हें लोकतंत्र के खोखलेपन का अहसास होता था।

आदमी,समाज, राजनीति,मूल्य आदि सभी क्षेत्रों में लोकतंत्र का खोखलापन महसूस होता था। लोकतंत्र की भाषा खोखली नजर आती थी। बाबा जब भी अपनी काव्यभाषा चुनते हैं तो उसमें देज चलताऊ भाषा का ज्यादा प्रयोग करते हैं। लोकतंत्र के पदबंधों,संकेतों,प्रतीकों आदि का ज्यादा प्रयोग करते हैं। लेकिन वे लोकतंत्र की समृद्धि की बजाय खोखलेपन की ओर ध्यान खींचते हैं। वे जब भी लोकतंत्र के संकेतों को उठाते हैं उसके साथ में उसकी परिस्थितियों को भी व्यक्त करते हैं। वे लोकतंत्र को व्यक्ति की तरह देखते हैं,जिस तरह व्यक्ति के अस्तित्व को देखते हैं,बाबा वैसे ही लोकतंत्र के अस्तित्व के ऊपर विचार करते हैं। वे कविता को भी व्यक्ति की तरह देखते हैं। उसे ऐतिहासिक सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के बाहर ले जाते हैं। वे कविता को ऐतिहासिक परिस्थितियों से बांधकर नहीं देखते बल्कि उसके परे ले जाते हैं। मसलन ‘‘ शताब्दी-समारोह’’ (1980) कविता देखें-

‘दिन है-/शताब्दी -समारोह के समापन का/दिन है-/पंडों की धूमधाम का ,विज्ञापन का/दिन है-/प्रतिबद्धता के व्रत-उद्यापन का/ दिन है-/ धान रोपने का,सावन का/दिन है-/स्मृतियों की सरिता में प्लावन का।’

बाबा की कविता को आमतौर पर आलोचकों ने ऐतिहासिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों से बांधकर देखा है,जबकि बाबा का नजरिया कविता को ऐतिहासिक सामाजिक परिस्थितियों से बांधकर देखने का नहीं है। वे ऐतिहासिक परिस्थितियों के परे ले जाते हैं। इसके लिए वे भाषा का इस्तेमाल करते हैं। भाषा उन्हें ऐतिहासिक परिधि के बाहर ले जाती है। फलतः कविता के अर्थ को भी ऐतिहासिक परिस्थितियों के परे ले जाते हैं। वे लोकतंत्र के प्रतीकों का विलक्षण ढ़ंग से इस्तेमाल करते हैं। वे लोकतंत्र पर लिखी कविताओं में उसकी स्ट्रेंजनेस पर ध्यान खींचते हैं। वे लोकतंत्र के अर्थ को अन्य जगह स्थानान्तरित कर देते हैं। लोकतंत्र के अर्थ का अन्यत्र स्थानान्तरण अंततः उन्हें लोकतंत्र की कैद से बाहर ले जाता है। बाबा ने लोकतांत्रिक कविता की नयी संरचना को निर्मित किया है। इस संरचना

में कविता का आंतरिक और बाहरी तंत्र एकदम खुला रहता है। इसमें सत्यता ,गांभीर्य ,नैतिकता, पारदर्शिता और स्वाभाविकता पर जोर है। इससे ही लेखक की प्रामाणिक इमेज बनी है। इसके आधार पर ही वे कविता को लोकतंत्र के दायरे के परे ले जाते हैं। वे अपनी कविता में आमफहम बातचीत के शब्दों का ज्यादा प्रयोग करते हैं। वे कविता को शब्द के लिखित अर्थ के परे ले जाते हैं। वे लोकतंत्र पर लिखी कविताओं के जरिए लोकतंत्र की समस्त वैध परिभाषाओं की धज्जियां उड़ाते हैं। वे लोकतंत्र के मसलों पर चुप नहीं रहते । लोकतंत्र में लेखक यदि चुप रहता है तो उसके बारे में गॉसिप का बाजार गर्म होने की संभावनाएं रहती हैं।

बाबा ने लोकतंत्र के प्रत्येक बड़े प्रसंग पर लिखा है। उनकी लोकतंत्र संबंधी कविताओं के दो स्तर हैं ,पहले वर्ग में उन कवियाओं को रखा जा सकता है जिनमें उन विषयों को उठाया गया है जो लोकतंत्र की वैधता को चुनौती देते हैं। लोकतंत्र की प्रामाणिकता पर संदेह बढ़ाते हैं। इस वर्ग में वे कविताएं आती हैं जो दर्शक के भाव से लिखी गयी हैं। दूसरे वर्ग में वे लोकतंत्र के बारे में जजमेंट करते हैं। उसके बारे में फैसले सुनाते हैं। इस क्रम में वे लोकतंत्र को कविता में दर्ज करते चले जाते हैं। लोकतंत्र में उत्पीड़न, हिंसा आदि पर लिखी उनकी कविताएं इसी कोटि में आती हैं। इनमें वे व्यक्ति के निजी कष्टों, निजी उत्पीडन को सामाजिक बनाते हैं। इस बहाने वे लोकतंत्र को बेपर्दा करते हैं। लोकतंत्र के उत्पीड़न पर लिखी उनकी कविताएं बेहद महत्वपूर्ण हैं। उनकी रीडिंग भिन्न ढ़ंग से की जानी चाहिए। वे उत्पीड़न पर लिखी कविताओं के बहाने पीड़ित के दर्द को उभारने के साथ-साथ लोकतंत्र के दर्द को उभारते हैं। निजी दर्द को लोकतंत्र के दर्द में तब्दील कर देते हैं। इस तरह की कविताओं के जरिए बताते हैं कि हमारा देश अभी पूर्व आधुनिक युग में है। उत्पीड़न का दर्द उन्हें आधुनिक लोकतंत्र के अंदर सक्रिय पूर्व आधुनिकता की अवस्था की ओर ले जाता है। बाबा के लिए लोकतंत्र एक संकेत या साइन है। वे एक प्रतीक की तरह उसका रूपायन करते हैं। लोकतंत्र की संकेत की तरह नजरदारी करते हैं। उनके यहां लोकतंत्र एक सिस्टम की तरह नहीं आता बल्कि संकेतों के बहाने अनुभूति के रूप में आता है. वे लोकतंत्र के बारे में अपनी अनुभूतियों को शेयर करते हैं और फिर उनके बहाने लोकतंत्र पर नजरदारी करते हैं। वे जब अपनी लोकतंत्र संबंधी अनुभूतियों को पेश करते हैं तो जाने-अनजाने कई जगह आत्म-स्वीकृतियां व्यक्त हुई हैं। कविता में व्यक्त आत्म-स्वीकृतियों में उनकी लोकतंत्र के प्रति असहमतियां रूपायित हुई हैं।

बाबा के लिए लोकतंत्र कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसमें सब कुछ पवित्र है,सुंदर है, सहज प्राप्य है। मसलन लोकतंत्र के प्रतीकों को ही लें। लोकतंत्र में वोट डालना परम पवित्र है। वोट मांगना और उसके लिए प्रचार करना,जनता की तारीफ करना,लोकतंत्र की महानता के गीत गाना और नेता की उपलब्धियों का प्रचार करना एक आम रिवाज है। आम तौर पर मतदाता की महानता पर चुनाव के समय बहुत कुछ कहा जाता है। इस प्रौपेगैण्डा के तिलिस्म के परे जाकर बाबा ने ‘‘ इतना भी क्या कम है प्यारे’’ (1979) शीर्षक कविता लिखी है। यह कविता कई मायनों में महत्वपूर्ण है पहलीबार इस कविता के जरिए वोट की राजनीति में आए नए परिवर्तनों को कलमबंद किया गया है। यह कविता 1979 की है। वोटरों की तुलना इस कविता में बाबा ने ‘लाश’ से की है । लिखा है- ‘ लाशों को झकझोर रहे हैं/ मुर्दों की मालिश करते हैं/ …ये भी उन्हें वोट डालेंगी ! / ’’ जीत पर बाबा ने लिखा- ‘ लाशें भी खुश-खुश दीखेंगी/मुर्दे भी खुश-खुश दीखेंगे/ उनकी ही सरकार बनेगी/’’ लोकतंत्र में आलोचना और प्रतिवाद की महत्ता होती है उसके प्रति उपेक्षाभाव नहीं रखना चाहिए। बाबा ने लोकतंत्र के मतपत्र को बेसन की उपमा दी है। यह बड़ी ही अर्थपूर्ण उपमा है। लिखा है- ‘‘ मत-पत्रों की लीला देखो/ भाषण के बेसन घुलते हैं/ प्यारे इसका पापड़ देखो/प्यारे इसका चीला देखो/ चक्खो,चक्खो पापड़ चक्खो/गाली-गुफ्ता झापड़ चक्खो/मनपत्रों की लीला चक्खो/भाषण के बेसन का ,प्यारे ,चीला चक्खो…/’’बाबा की लोकतंत्र पर लिखी कविताओं की विशेषता है वे लोकतंत्र को अनुभव के आधार पर व्याख्यायित करते हैं। उसके मर्म के डिक्शनरी के आधार पर नहीं रचते बल्कि अनुभव के आधार पर रचते हैं। बाबा के लिए लोकतंत्र कोई परम पवित्र गंगा नहीं है। जिसमें नहाने के बाद सारे सामाजिक-राजनीतिक पाप धुल जाते हों!

बाबा ने लोकतंत्र को सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर बार बार परखा है और जीवन में व्यक्त यथार्थ को तरजीह दी है। इस क्रम में बाबा ने उस स्टीरियोटाईप को तोड़ा है जिसे मीडिया ने बनाया है और उसे ही हम लोकतंत्र का सच मान लेते हैं। मीडिया निर्मित लोकतंत्र पर विचारधारा की चादर ढकी रहती है जिसके कारण हम यथार्थ के साथ लोकतंत्र को सही मायने में जोड़कर देख ही नहीं पाते। हम लोकतंत्र के बारे में उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल करते हैं जो हमें मीडिया ने सप्लाई किए हैं। मीडिया प्रौपेगैण्डा ने समझाया है लोकतंत्र माने चुनी हुई सरकार,स्वतंत्र मतदान, निष्पक्ष चुनाव, स्वच्छ राजनीति,सांसदों और विधायकों की ईमानदारी आदि। बाबा को ये सारे स्टीरियोटाईप अपील नहीं करते। वे उसकी अलोकतांत्रिक परतें उघाड़ते हैं तो उसमें वे प्रच्छन्नतः एक बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि हमारे यहां लोकतंत्र तो है लेकिन लोकतांत्रिक मनुष्य नहीं है। डेमोक्रेसी है लेकिन डेमोक्रेट नहीं हैं। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है । लोकतंत्र तब ही सार्थक है जब लोकतांत्रिक मनुष्य भी हों। भारत में लोकतंत्र के महान जयघोष में लोकतांत्रिक मनुष्य का लोप हुआ है। लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र बेजान है।

भ्रष्टों के सरदार मनमोहन

लिमटी खरे

आज की युवा होती पीढ़ी को शायद इस बात का भान नहीं है कि गोरी चमड़ी वालों के अत्याचारों को किस कदर सहकर देश पर प्राण न्योछावर करने वालों ने इस देश को आजादी दिलवाई है। दिन रात अंग्रेजों के जुल्मों को सहा और स्वतंत्रता का बिगुल फूंका। देश आजाद हुआ] फिर भारत गणराज्य की स्थाना के बाद से इसने प्रगति के सौपान तय करना आरंभ कर दिया। लगता है भारत के आजाद होने के समय की कुंडली में कुछ दोष अवश्य ही है, यही कारण है कि जैसे जैसे समय बीतता गया देश में सुशासन की जगह कुशासन हावी होता गया।

कांग्रेस में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी को भविष्यदृष्टा के तौर पर देखा जाता है। राजीव गांधी ने ही इक्कीसवीं सदी के भारत की कल्पना की थी। आज अगर वे सशरीर होते तो निश्चित तौर पर देश के हालातों को देखकर यही कहते कि इक्कीसवीं सदी के इस भारत की कल्पना उन्होंने कतई नहीं की थी, और वह भी तब जब मूलतः इटली निवासी उनकी अर्धांग्नी श्रीमति सोनिया गांधी के इर्द गिर्द सत्ता की धुरी घूम रही हो, जब उनके साहेब जादे राहुल गांधी को देश का वजीरे आजम बनाने की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा हो तब।

कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की दूसरी पारी में केंद्र सरकार ने जो भद्द पिटवाई है, उसकी महज निंदा करने से काम चलने वाला नहीं है। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि इक्कीसवीं सदी के जनसेवक वाकई मोटी चमड़ी वाले हैं उनकी सेहत पर घपले, घोटालों, भ्रष्टाचार की चीत्कार, अबलाओं बच्चों का रूदन, भूखे पेट दो तिहाई से अधिक जनता की बेबस नजरों का कोई असर पड़ने वाला नहीं है। आज की तस्वीर देखकर हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान शासक निरंकुश, निडर, जल्लाद, राक्षस और न जाने किस किस भूमिकाओं में अपने आप को उतारते जा रहे हैं। देश में घपले घोटाले सरेआम सामने आते जा रहे हैं] किन्तु न तो कोई प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह, न सोनिया या राहुल गांधी] न ही कांग्र्रेस या उसके घटक दलों के मंत्री संत्री यहां तक कि विपक्ष में बैठे जनता के चुने हुए नुमाईंदे भी उसी थाप पर ही मुजरा करते नजर आ रहे हैं जो ताल भ्रष्टाचारियों द्वारा बजाई और सुनाई जा रही है।

एक समय था जब भ्रष्टाचार और घूसखोरी की खबरें सुनकर ही लोगों का खून खौल उठता था और इसमंे संलिप्तता वाला व्यक्ति समाज में शर्म के साथ सर झुकाए बैठा होता था। विडम्बना देखिए कि आज के इस समय में भ्रष्टाचार को व्यवस्था की विकृति के स्थान पर शिष्टाचार या एक व्यवस्था ही माना जाने लगा है। आम आदमी के मन में यह बात आने लगी है कि सरकारी तंत्र में बैठे लोगों द्वारा चोर उचक्के और मवालियों को लूटने के सारे माग्र प्रशस्त कर जनता को सरेआम लुटवाया जा रहा है, फिर इन लुटेरों से बाकायदा हफ्ता वसूला जा रहा है। देश की सबसे बड़ी अदालत भी भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने की प्रक्रिया को आसान करने और उनकी संपत्ति को कुर्क करने की वकालत करती है तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 में किए गए प्रावधान इसमंे आड़े आ जाते हैं।

भारत में इतने घपले और घोटाले सामने आए हैं कि बदमाशों के नामों के आगे उर्फियत का उपयोग करने वाले भारत उर्फ घपलों घोटालों का देश न कहने लगें। देश भर में अगर घपलों और घोटालों पर प्राथमिकी दर्ज करवाई जाए तो इसकी तादाद दस हजार के उपर पहुंच सकती है।

राजीव गांधी के कार्यकाल में 64 करोड़ रूपयों का बोफोर्स घोटाला सामने आया। उस वक्त सस्ताई का जमाना था, इसलिए 64 करोड़ रूपयों की कीमत काफी अधिक थी। इसके बाद 133 करोड़ का यूरिया घोटाला, साढ़े नौ सो करोड़ का चारा घोटाला, चार हजार करोड़ का बिग बुल वाला शेयर घोटाला, सात हजार करोड़ का राजू वाला सत्यम घोटाला, 43 हजार करोड़ का तेलगी का स्टेम्प घोटाला, सुरेश कलमाड़ी के नाम पर कामन वेल्थ गेम्स के नाम से सत्तर हजार करोड़ रूपयों का घोटाला, आदिमत्थू राजा का 2जी घोटाला एक लाख 67 हजार करोड़ का है। फिर दो लाख करोड़ के लगभग अनाज घोटाला भी सामने आया है। इस तरह घपले घोटालों में पांच लाख करोड़ रूपयों से ज्यादा का धन लूटा गया है। इतना धन तो मुगल आक्रांताआंे या गोरी चमड़ी वाले विदेशियों ने भारत से नहीं लूटा था।

अब देखिए कि कांग्रेस ने कितनी चतुराई से अपने दामन के दागों को धोने का कुत्सित प्रयास किया। सबसे पहले तो बोफोर्स प्रकरण में सभी आरोपियों के खिलाफ केस को बंद कर दिया गया। इसके बाद लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का प्रकरण आया, जैसे ही लालू यादव ने आंखें तरेरी कांग्रेस ने सीबीआई के माध्यम से लालू को साईज में लाया गया। निचली अदालत के फैसले के खिलाफ सराकर द्वारा उच्च अदालतों में अपील ही दायर नहीं की। इसी तरह चारा घोटाले के मुख्य आरोपी लालू प्रसाद यादव और जगन्नाथ मिश्रा को डेढ़ दशक बाद भी सजा नहीं दी।

हवाला कांड में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा जुटाए गए सारे साक्ष्य उच्च न्यायालय द्वारा सिरे से खारिज कर दिए गए। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा सांसद खरीदी कांड में एक भी आरोपी के खिलाफ चार्ज शीट नहीं पेश की गई है। इसी तरह पूर्व रेल मंत्री सी.के.जाफरशरीफ के खिलाफ प्राथमिकी तो दर्ज है किन्तु चार्जशीट दाखिल नहीं की गई है। ताज कारीडोर मामले में अधिकारियों के खिलाफ तो चार्जशीट है किन्तु मंत्रियों को इससे महफूज ही रखा गया है।

उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती के खिलाफ भी आय से अधिक संपत्ति का मामला सात साल से घिसट रहा है, इसमें भी नतीजा सिफर ही है। विधायकों की खरीद फरोख्त के मामले में छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के खिलाफ सात साल से मामला अधर में ही है।

मामला काले धन का आता है तो सारे के सारे ‘‘माननीय‘‘ एक सुर में टर्राने लगते हैं। ये वो सारे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर देश की जनता हर हाल में चाहती है, वह भी ईमानदार छवि के धनी वजीरे आजम डाॅक्टर मनमोहन सिंह से। डाॅ.सिंह को जवाब देना ही होगा कि आखिर सत्ता की वो कौन सी मलाई है, जिसे चखने के लिए मनमोहन ने अपना ईमानदारी वाला चोला उतार फेंका है और आज बेईमान, भ्रष्ट, घपले, घोटालेबाज देशद्रोहियों के सरदार बने बैठे हैं। आखिर कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी अपनी आंखे बंद करके देश को किस अंधेरी सुरंग की ओर धकेलना चाह रही हैं?