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पाकिस्तानी कब्जे से कश्मीर को मुक्त कराइये

आतंकवादियों के खिलाफ युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं – मुख्यमंत्री श्री चौहान

भोपाल। अरुंधती राय अगर महिला न होती तो सेना उनसे अलग तरीके से निपटती। सुश्री राय, चेतन भगत और पडगांवकर जैसे बुद्धिजीवी अलगाववाद की भाषा बोल रहे हैं। इससे देशद्रोहियों का ही मनोबल बढ़ेगा। हरेक भारतीय को जागरुक होकर सरकार से पूछना होगा कि हम पाकिस्तान के सामने इतने कमजोर क्यों हो गए हैं। अब हमें अपनी संसद के प्रस्ताव पर अमल करते हुए पाकिस्तानी कब्जे से कश्मीर को मुक्त कराना होगा। कश्मीर पर राजनेताओं और सरकार के ढुल-मुल रवैये के कारण समस्या बढ़ती जा रही है। सेना तैयार है, लेकिन उसे आदेश देने वाले मुंह पर पट्टी बांधे बैठे हैं। आखिर हम कब तक चुप्पी साधे रहेंगे। सेना ने हमेशा युद्ध जीत कर दिया है। कश्मीर को बचाने में सेना ने अपनी कुर्बानी दी है। देश का हजारों करोड़ रू. कश्मीर पर लगा है। क्या यह सब इसीलिए किया गया कि कश्मीर पाक को सौंप दिया जाए। जम्मू और लेह-लददाख सहित अनेक हिस्सों से आजादी या स्वायत्ता की कोई मांग नहीं हो रही है। सिर्फ श्रीनगर और कश्मीर के आस-पास के कुछ जिले पाकिस्तान प्रेरित आजादी की मांग कर रहे हैं। केन्द्र सरकार देश के करोड़ों मुसलमानों की बजाए इन मुट्ठीभर कश्मीरी मुसलमानों की के आगे क्यों नतमस्तक हो रही है। ‘कश्मीर ः समस्या एवं समाधन’ विषय पर व्याख्यान देते हुए सेवानिवृत्त मेजर जनरल गगनदीप बख्शी ने यह बात कही। श्री बक्शी भोपाल में स्पंदन, प्रज्ञा प्रवाह, भारत विकास परिषद् और म.प्र. राष्ट्रीय एकता समिति द्वारा आयोजित संगोष्ठी में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान को कश्मीर के लोगों से हमदर्दी नहीं है। उसे कश्मीर के लोग नहीं वहां के संसाधन चाहिए। कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भारत को अपनी बर्दाश्त की सीमा निर्धारित करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें अपनी रेड लाइन डिफाइन करनी होगी। लेकिन दुर्भाग्य है कि केन्द्र सरकार के इशारे पर कश्मीर के वार्ताकारों ने यह कहा हे कि हमारी कोई रेडलाइन नहीं है।

पाकिस्तान कश्मीर में सेना का मनोबल तोड़ने की साजिश कर रहा है। योजनाबद्ध तरीके से उसने पहले भारतीय पुलिस का मनोबल तोड़ा अब वह सेना पर मानवाधिकार हनन के झूठे आरोप लगवाकर सेना का ध्यान कश्मीर से हटाना चाह रहा है। मेजर जनरल बक्शी ने मानवाधिकार संगठनों को कटघरे में खडा करते हुए कहा कि सेना पर लगाए गए मानवाधिकार हनन के 94 प्रतिशत मामले गलत पाए गए हैं। सही आरोपों पर तत्काल सुनवाई और कार्यवाई की गई है। उन्होंने कहा कि दुनिया में सिर्फ भारत ही एक ऐसा देश है जो आतंकवाद से लड़ने में भारी हथियारों का उपयोग नहीं कर रहा है। अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, रूस और श्रीलंका जैसे देशों ने हमेेंशा आतंकवाद से लड़ने में बड़ और भारी हथियारों का उपयोग किया है। इसके बावजूद भारतीय सेना पर मानवाधिकार हनन के सबसे ज्यादा आरोप लगे।

मेे.जे. बक्शी ने अपने कार्यकाल के अनुभवों के आधार पर कश्मीर की आज की समस्या और उसके समाधान की चर्चा की। उन्होंने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद के अंत के लिये एक स्पष्ट नीति के साथ कार्य करने की जरूरत है। कश्मीर राज्य के कुछ जिलों में ही उपद्रवी तत्व सक्रिय है। वहाँ भी शांतिप्रिय लोग है जिसका सबसे प्रामाणिक तथ्य है कि 60 प्रतिशत से अधिक नागरिकों ने जम्मू-कश्मीर के निर्वाचन में भाग लेकर भारत की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भरोसा व्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि हमें कश्मीर समस्या को व्यापक परिदृश्य में देखना होगा। कश्मीर को छोड़ने की बात देश में रहने वाले 15 करोड़ लोकतांत्रिक मुसलमानों के सम्मान को चोट पहुँचाना है। उन्होंने कश्मीर के सामरिक महत्व को समझाते हुए पाकिस्तान और चीन के सामरिक गठजोड़ की आशंकाओं पर भी प्रकाश डाला। श्री बक्शी ने कहा कि पाक से जल्दी नहीं निपटा गया तो उसका सहयोगी चीन हमारे लिए बड़ी चुनौती खडी कर देगा। हमें पाक के सामने घुटने टेकना बंद कर देना चाहिए। अब मुहतोड जवाब देने का समय आ गया है।

कार्यक्रम के मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि हिन्दुस्तान की सरकार इतनी कमजोर हो गई कि पाकिस्तान को सबक सिखने की बजाये समझौतों में अटकी हुई है। भारत को ग्लोबल पावर बनाने का सपना देख रहे हैं लेकिन हदय से देशभक्ति की भावना लुप्त होती जा रही है। कश्मीर विलय दिवस पर श्री चौहान ने कहा कि वोट बैंक की राजनीति ने देश को आतंकवाद से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। हमारे यहां ऐसे -ऐसे चिंतक हो गए हैं जो पाक को कश्मीर देकर समस्या सुलझाने की बात करते हैंं। उन्होंने सवाल किया कि क्या अरुंधती राय का बयान चीन में बर्दाश्त किया जाता? कश्मीर के विलय पर उंगली उठाने वाले जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और कश्मीर को पाक का हिस्सा बताने वाले गिलानी को तो जेल में होना चाहिए। जबकि उन्हें सम्मान दिया जा रहा है। जिनके हदय में देशप्रेम नहीं वे ही ऐसा राज कर सकते हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि जल्दी सत्ता की चाह में भारतमाता को आजादी के समय ही खंडित कर दिया गया। आज अखंड भारत कहां है। पांच नदियों के कारण पंजाब कहलाने वाले राज्य में अब दो ही नदियां हैं। उन्होंने कहा कि सेना के साथ ठीक सलूक नहीं हो रहा है। उसे आजादी के साथ काम करने देना होगा। श्री चैहान ने कहा कि आतंकवाद की लडाई में अगर कुछ निर्दोष मर भी जाएं तो गम नहीं, लेकिन आतंकी नहीं छूटने चाहिए। दुष्ट बिना भय के काबू में नहीं आते हैं।

मुख्यमंत्री ने कहा कि नक्सलवाद आतंकवादियों के तो मानव अधिकार हैं लेकिन सेना व जनता के मानव अधिकारों का क्या? अरुंधती राय और मेधा पाटकर कश्मीरी पंडितों के मानव अधिकार की लड़ाई लड़ें। सोनिया राहुल गांधी से देशभक्ति के जज्बे की उम्मीद नहीं की जा सकती। कश्मीर बचाने के लिए जनता आगे आए। मैं हमेशा उनके साथ हूं। हम आतंकवादियों को पाक में घुसकर क्यों नहीं मार सकते। उन्होंने कहा कि अगर भारत पाक अधिकृत कश्मीर के लिये पुरजोर आवाज उठाता तो आज जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता का मुद्दा नहीं उठता। देश बचाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। उन्होंने कहा कि कश्मीर के लिये अब वार्ता की नहीं दृढ़ता की जरूरत है। भारत ने उदारता एवं शांति का संदेश दिया है लेकिन अखण्डता के लिये अब शक्ति प्रदर्शन की जरूरत है। मुख्यमंत्री ने कहा कि जम्मू-कश्मीर की समस्या देश की समृद्ध सांस्कृतिक अखंडता से अपरिचित नीति नियंत्रकों के ढुलमुल रवैये का परिणाम है। इसे सिर्फ विलय नहीं, बल्कि संकल्प दिवस के रूप में भी मनाएं। उन्होंने कहा कि धारा 370 खत्म कर वहां सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों को बसा दिया जाए, वहां की हालत सुधर जायेगी। देशभक्ति वोट बैंक का हिस्सा क्यों नहीं बन सकती है? अब समय आ गया है कि जनता देश की सत्ता पर देशभक्तों को बैठाये। अखंडभारत का सपना साकार करने के लिए सेना को पूरे अधिकार मिलने चाहिए। उन्होंने सेना को स्वतंत्र करने को कहा।

श्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि देश की एकता और अखंडता के लिये वोट की राजनीति आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक है। जिस दिन जनता जाग गई सत्ता लोलुप कुर्सी पर नहीं रह पायेंगे।

इस अवसर पर राष्ट्रीय एकता समिति के उपाध्यक्ष रमेंश शर्मा और महेश श्रीवास्तव, प्रज्ञा प्रवाह संयोजक बालकृष्ण दवे, स्पंदन के उपाध्यक्ष जी.के. छिब्बर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन दीपक शर्मा ने किया।

-अनिल सौमित्र

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी

संगीत : वीकोन म्यूजिक

मूल्य : १२५ रुपए

”श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी” भगवान राधा कृष्ण के भजनों का नया एलबम पिछले दिनों रिलीज़ किया है वीकोन म्यूजिक ने. २ सी डी के इस पैक में कुल १७ भजन हैं जिन्हें गाया है जाने माने संगीतकार रविंदर जैन ने, जिनका संगीत भी है इस एलबम में. इनके अलावा गायिका कविता कृष्णमूर्ति, साधना सरगम, अनूप जलोटा, बाली ब्रह्मभट्ट व साथियों ने गाये हैं भजन.

पहली सी डी में सबसे पहला भजन है ”राधे कृष्ण राधे कृष्ण” रविंदर जैन की आवाज में बहुत ही मनोहारी है यह भजन. इसके बाद ”बनवारी मोहन मुरारी”, ”ब्रजवासी रसिक”, ”राधे राधे बोल” , ”कृष्ण हो कृष्ण”, बंसी बजैया” ,” नमामि राधे नमामि कृष्ण” , ”हरे कृष्ण हरे कृष्ण” आदि एक से बढ़ कर एक भजन हैं हैं जिन्हें सुन कर निशिचित रूप से श्रोताओ को सुकून मिलेगा.

दूसरी सी डी में ”बड़े ही दयालु हैं ” , ” मोर मुकुट” ,” श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी” ,” तू टेढ़ा तेरी टेढी रे नजरिया” , ” काली दाह पे खेलन आयो रे” , ” येही आशा लेकर आती हूँ” , ”बनके बिहारी” , ” हरे कृष्ण हरे कृष्ण” आदि भजन हैं और सभी भजन सुनने में अच्छे हैं.

राधा कृष्ण के भजनों का यह संग्रहनीय एलबम है.

आईआईटी. खड़गपुर में वार्षिक उत्सव “शौर्य’10” 29 अक्टूबर से शुरु

पश्चिम बँगाल में खड़गपुर स्थित आई. आई. टी.  में हर साल की तरह इस वर्ष भी वार्षिक उत्सव “शौर्य’10” आज से यानी 29 अक्टूबर से शुरु होगा. इस उपलक्ष्य में इंटर-कोलीजियेट स्तर पर स्पोर्ट्स का आयोजन किया जाएगा. इस अवसर पर petaDishoom (youth division of People for the Ethical Treatment of Animals India ) के सहयोग से मैराथन दौर का भी आयोजन किया जाएगा जो Animal Right को समर्पित समर्पित होगा. सभी प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र व सर्वश्रेष्ठ ५० प्रतिभागियों को एक-एक टी-शर्ट भी दिया जाएगा. विजेताओं को इनाम और गिफ्ट वास्केट भी दिया जायेगा. “शौर्य’10” आई. आई. टी. खड़गपुर ने उत्सव में petaDishoom को एक स्टाल भी दिया है जहां से छात्र व सहभागी संपर्क कर सकेंगे.

कार्यक्रम के कोर टीम प्रमुख डी. कार्तिक रेड्डी ने कहा “We believe in fostering respect for the planet – and that includes teaching respect for all of the Earth’s inhabitants, including animals” उन्होंने petaDishoom के सहयोग की सराहना की.

petaDishoom  के अभिनव गोगिया ने कहा “We’re thrilled to have a partner as prestigious as IIT Kharagpur in this venture ,” “The marathon will give us an opportunity to talk about animal rights on a personal level with many young people who will be learning about these issues for the very first time.”

कार्यक्रम का विवरण इस प्रकार है:

समय : रविवार ३१ अक्टूबर २०१० प्रात: ६.३० बजे

जगह :  टाटा  स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स आई. आई. टी. खड़गपुर

कार्यक्रम के पूरे ववरण के लिए आप आई. आई. टी. खड़गपुर की वेबसाइट www.iitkgp.ac.in भी देखें साथ ही यह अपडेट शौर्य’10 की वेबसाइट www.shaurya.in/ से भी देख सकते हैं.

झूठ पर झूठ गढ़ रहे हैं चतुर्वेदीजी

अवाम बनाम वामपंथ की पत्रकारिता

– पंकज झा

एक सामान्य से सवाल पर गौर कीजिये. रावण से लेकर ओसामा बिन लादेन तक के व्यक्तित्व में क्या फर्क है? सभी काफी संपन्न, अति ज्ञानी, अपने विचारों के प्रति निष्ठावान, समर्पित. किसी के भी इन गुणों पर आप शायद ही कोई सवाल उठा सकें. लेकिन आखिर क्या कारण है इन तमाम गुणों के होते भी सभ्य समाज में उन सबको हिकारत की नज़र से, समाज पर एक बोझ की तरह ही देखा जाता है. क्या कारण है कि मानव समाज इन तमाम चरित्रों के मौत तक का उत्सव मनाते हैं? मेरी समझ से उसका सामान्य कारण यह है कि ज्ञान होते हुए भी उसके अहंकार से ग्रस्त होना, तमाम विपरीत विचारों के प्रति अव्वल दर्जे का असहिष्णु होना और मानव मात्र को अपने आगे कीड़े-मकोडों से बेहतर नहीं समझना. यही सब ऐसे अमानवीय अवगुण हैं जिसने इन्हें सर्वगुण संपन्न होते हुए भी दुर्गति तक पहुंचाया.

बात अगर पत्रकारिता या बौद्धिकता का करें तो यहां भी आपको ऐसे समूह मिलेंगे जिनकी विद्वता, निष्ठा या समर्पण किसी में भी उन्हें आप उन्नीस नहीं पायेंगे. लेकिन अफ़सोस यही कि उनकी सारी प्रतिभा और ताकत का उपयोग महज़ इतना है कि आखिर किस तरह देश-दुनिया को रहने के लिए एक बदतर जगह बना दिया जाय.

भारत के सन्दर्भ में भी आप यहां के बौद्धिक वर्ग को दो श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं. एक वो जिनके लिए ‘अवाम’ सब कुछ है और दुसरे वो जो ‘वाम’ की रक्षा के निमित्त अपनी भारत मां तक को सूली पर चढ़ा सकते हैं. तो वामपंथी कोई भी काम करें, ध्येय महज़ इतना होगा कि अवाम को कमज़ोर किया जाय. और यह कोई संयोग नहीं है. यह उनकी वैचारिक मजबूरी है. इसलिए कि उनकी विचारधारा कभी ‘राष्ट्र’ नाम के किसी इकाई के अस्तित्व में भरोसा नहीं करते. न किसी तरह के लोकतंत्र में और न ही संसदीय प्रणाली में. अगर वक्त की नजाकत देख कर कुछ वामपंथी समूहों ने इस प्रणाली को मजबूरन स्वीकार भी किया है तो महज़ इसलिए कि उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं था.

ओसामावादी और साम्यवादी दोनों में यह समानता है कि वह मूर्खों के बनाए अपने ऐसे स्वर्ग में रहना चाहते हैं जहां विविधता के लिए कोई जगह नहीं है. एक ने दुनिया को दारुल इस्लाम और दारुल हरब में बांट रखा है तो दुसरे के लिए मानव की बस दो पहचान एक बुर्जुआ और दूसरा सर्वहारा. जिस तरह इस्लाम के नाम पर गंदगी फैलाने वालों के लिये दुनिया को दारुल इस्लाम बनाने, सारे काफिरों यानी गैर मुसलामानों को मोमीन बनाने हेतु क्रूरतम हिंसा समेत हर हथकंडे जायज हैं, उसी तरह ‘वाम’ के लिए हर कथित पूजीवादी समूहों का सफाया कर दुनिया को गरीबों की बस्ती बनाने का युटोपिया. और अपने इस दिवा स्वप्न को पूरा करने में सबसे बड़ा उपकरण दोनों के लिए हिंसा और केवल हिंसा. दोनों के लिए किसी भी तरह के विमर्श की केवल तभी तक अर्थ है जब तक वे कमज़ोर हों. ताकतवर होते ही बस दोनों का एक मात्र नारा ‘मानो या मरो.’

ऊपरी तौर पर अलग-अलग दिखने वाले ये दोनों समूह (जिनमें से एक लिए ‘मज़हब’ जान से भी बढ़ कर तो दूसरे के लिए धर्म अफीम होने के बावजूद) अपने इन्ही समानता के कारण आपको गाहे-ब-गाहे गलबहिया करते नज़र आयेंगे. अगर भरोसा नहीं हो तो गिलानी और अरुंधती दोनों को एक मंच पर भौकते देख लीजिए.

दोनों के एकीकरण का कारण यह कि उन दोनों के घोषित-अघोषित लक्ष्यों में जो सबसे बड़ा रुकावट है वह है ‘’राष्ट्र.’’ वह राष्ट्र जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं. वह राष्ट्र जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी तक को एक सूत्र में बाँध कर रखा है. वह राष्ट्र जिसके एकीकरण के निमित्त कभी सुदूर दक्षिण के केरल के ‘कालडी’ गांव से चलकर कोई तेजस्वी युवक देश के दूसरे छोड़ मिथिला तक की यात्रा कर उत्तर-दक्षिण-पुरब-पश्चिम में चार पीठों का निर्माण कर इस सांस्कृतिक इकाई को एक सूत्र में पिरोया. उस राष्ट्र को जिसके अग्रदूत भगवान राम ने सुदूर उत्तर मिथिला से अपनी यात्रा शुरू कर दक्षिण में लंका तक को एक भावनात्मक स्वरूप दिया. वह राष्ट्र जिसे श्री कृष्ण ने पूर्व में मथुरा से शुरू हो पश्चिम में द्वारिका तक जा कर ‘भारत’ के सारथी बनने में अपना योगदान दिया. और वह राष्ट्र जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भावनात्मकता पर आधारित एक भौतिक इकाई’’ कहा है.

तो रंग-रूप, रीति-रिवाज़, भेष-भूषा-भाषा, भोजन-भजन, आदि विभिन्न विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्र इस देश की धर्म-संस्कृति ही है. इसे नुकसान पहुचा कर ही वे दोनों समूह अपने-अपने मंसूबे में सफल हो सकते हैं. जब कोई व्यक्ति या विचार इस एकीकरण को मज़बूत करने का प्रयास करता है तो ऐसे विचारों के वाहक लोगों को अपनी दूकान बंद होती नज़र आती है.

ऐसे ही एक विद्वान सज्जन हैं जगदीश्वर चतुर्वेदी जी. उनकी विद्वता, अपने विचारों के प्रति निष्ठा आदि वैसी ही है जैसा ऊपर चरित्रों में वर्णित किया गया है. ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ में भरोसा करने वाले अपने जैसे लोग कई बार उनको पढ़ कर सोचने लगते हैं कि काश हम भी लक्ष्मण बन उनके पास जा कर अंतिम सांस गिनते रावण रूपी वामपंथ की कुछ अच्छी बातें सीख पाते. या कुमारिल भट्ट की तरह भले ही बाद में धान की भुसियों में खुद को जला लेना पड़े लेकिन हिंदू विरोधी तत्वों से लड़ने के लिए पहले उन्ही के पास जा कर शिक्षा ले पाते. भले अर्जुन नहीं लकिन एकलव्य ही बन अंगूठे की कीमत पर भी कौरव समूह द्रोण से भी धनुर्विद्या सीख पाते. लेकिन अफसोस यह कि इतने गुणों के बावजूद भी चतुर्वेदी जी अवाम के विरुद्ध अपनी सारी प्रतिभा झोंक देने वाले वामपंथियों से रत्ती भर भी अलग नहीं हो सके. रावण की तरह ही एक पंडित कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्हें हर उस चीज़ से ऐतराज़ है जो देश को, हिंदुत्व को, यहां की संस्कृति को मज़बूत करता हो. ऐसे हर व्यक्ति, विचार या फैसला इनके लिए अमान्य जो भारत को ‘भारत’ बनाता हो. अपने इतने गुणों के बावजूद भी जैसा कि टिप्पणीकारों ने उनके लेखों पर लिखा है बहुधा कुतर्क और बकवास पर भी वे उतर आते हैं. कुतर्कों का सहारा इसलिए कि आखिर जब आप पूरी तरह दुर्भावना पर ही उतर आयेंगे तो लाख विद्वता के बावजूद इतने सही तर्क कहाँ से लायेंगे? तो बस अपने हिन्दी प्राध्यापक होने का फायदा उठाकर, अपनी कल्पनाशीलता को उपयोग कर झूठ पर झूठ गढ़े जाइये.

अभी हाल तक देश का साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने वाला अयोध्या का फैसला इनके दुःख का कारण था तो अब इनका निशाना हैं बाबा रामदेव. कारण बस वही कि देश में ऐसा कोई न पैदा हो जो राष्ट्रवाद को मज़बूत करता हो. एकबारगी इन्हें बाबा रामदेव में अवगुण ही अवगुण दिखने लगे. बड़ी मुश्किल से मिहनत कर इन्होंने ‘रहस्योद्घाटन’ किया कि बाबा की कमाई चार सौ करोड तक पहुंच चुकी है. लेकिन वे जान-बूझकर इन तथ्यों को नज़रंदाज़ कर गए कि वह पैसा जबरन किसी को शीतल पेय पिला कर प्राप्त नहीं किया गया है. बल्कि उन कंपनियों द्वारा पिलाये गए ज़हर को रोक कर देश का स्वास्थ्य और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा को बाहर जाने से रोक कर प्राप्त किया गया है. हज़ारों करोड की दवा कंपनियों के विरुद्ध अभियान चला कर प्राप्त किया गया है.

आज बाबा रामदेव ने बीजेपी जैसी पार्टी को मजबूर कर दिया कि वह अपने लोक लुभावन मुद्दों को छोड़ स्वीस बैंक में रखे गए देश की गाढ़ी लाखों करोड की कमाई को वापस लाने को मुद्दा बनाए. ख़बरों के अनुसार सरकार को इसमें आंशिक सफलता भी मिली है. सैद्धांतिक तौर पर स्विस सरकार ने पैसा वापस भेजने हेतु सहमति व्यक्त की है. आज उसी बाबा के कारण देश एक बार फ़िर अपनी संस्कृति की तरफ लौटने लगा है. भारत की सांस्कृतिक विरासत का पताका दुनिया में फ़िर लहरा रहा है. आस्था आदि चैनल पर देश के लाखों लोग मुफ्त में सुबह-सुबह उठ कर स्वास्थ्य और आध्यात्मिक खुराक विभिन्न ज्वलंत मुदों के साथ प्राप्त करते हैं.

आप सोचिये कि अगर चतुर्वेदी जी वास्तव में देश की आर्थिक स्थिति के प्रति चिंतित होते तो वृंदा करात जिस तरह रामदेव जी के पीछे पड़ मुंह की खाई थी उससे सबक लेकर अन्य मुद्दे पर अपना ध्यान आकृष्ट करते. ऐसे लोगों की नीयत आपको देखना हो तो सोचें….चार सौ करोड़ के लिए आंसू बहाने वाले पंडित जी को आपने कभी एक लाख करोड़ के कोमनवेल्थ के ‘खेल’ पर कभी सवाल उठाते देखा है? तकनीक का जम कर इस्तेमाल करने वाले इस विद्वान को आपने कभी साठ हज़ार करोड से अधिक के स्पेक्ट्रम घोटाले पर बात करते हुए कभी सुना? महंगाई बढ़ा कर किये जाने वाले अब तक के सबसे बड़े घोटाले के विरुद्ध, जमाखोरों बिचौलियों के विरुद्ध, हज़ारों किसानों के आत्महत्या के विरुद्ध कभी आवाज़ उठाते देखा? इसलिए आपने नहीं इन्हें इन मुद्दों पर नहीं पढ़ा क्योंकि इन सब चीज़ों से अंततः इन लोगों का मकसद ही पूरा होता है. इन चीज़ों से देश कमज़ोर होता है. और यही इन समूहों का ध्येय है.

आ. जगदीश्वर जी, जिस तरह लंका की लड़ाई रोकने के निमित्त शांति दूत बन भगवान राम गए थे. मात्र पांच गांव मांगने भगवान कृष्ण खुद कौरवों के पास गए थे. आपके गुणानुवाद के साथ यह लेख भी उसी तरह आपका आह्वान करता है कि आप भी देश के विरुद्ध लड़ाई को छोड़ अपना कुछ आर्थिक नुकसान भी उठाकर अपनी प्रतिभा का राष्ट्र कार्य हितार्थ उपयोग कीजिये. आप दुनिया को ही अपनी मां माने इसमें किसको आपत्ति होगा. हमलोग भी विश्व को अपना परिवार ही मानते हैं. लेकिन इसके लिए ये थोड़े ज़रूरी है कि अपने मां को गाली दी जाय? जो खुद की मां के प्रति श्रद्धा रखेगा वही भारत मां की बात करने का भी अधिकारी होगा. और जो भारत मां के प्रति उपेक्षा का भाव रखेगा वह दुनिया की बात करने का क्या ख़ाक अधिकारी होगा. आपने चाणक्य का सूत्र ज़रूर पढ़ा होगा ‘त्यजदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत.’

अगर आप हमें समानता की बात सिखाना चाहते हैं तो हम तो उसी इशावास्योपनिषद की संतानें हैं जो कहता है कि ‘इशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच्य जगतां जगत’ यानी इश्वर इस जगत के कण-कण में विद्यमान हैं. अब इससे बड़ा साम्यवाद और क्या हो सकता है? हम और आप उस कणाद की संतान है जिसने कण-कण को एक दूसरे से सम्बंधित बताया जिस पर आइन्स्टाइन ने बाद में सापेक्षता का सिद्धांत दिया. तो क्या हमें इस सामान्य बात को सीखने के लिए भी ‘थ्येनआनमन’ में जाकर खून बहाना होगा? चीन के मानवाधिकारवादी की तरह प्रतारित होकर ही हम समानता का पाठ पढ़ सकते हैं? क्या आपकी समानता का सिद्धांत कभी दलाई लामा जैसे संत और उनके नेतृत्व में लाखों शांतिप्रिय तिब्बतियों का दर्द भी महसूस नहीं कर पाता?

हालांकि संभव भले ही नहीं हो लेकिन निवेदन यही है कि इस देश की पुनीत माटी ने, ब्रज की आवोहवा ने आपको जिस लायक बनाया है उसका क़र्ज़ उतारने, थोडा अपने स्वार्थ से पड़े जाकर खुद को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होकर अपना जन्म कृतार्थ करें. अन्यथा यह नश्वर शरीर तो एक दिन खत्म ही होना है. रावण जैसे लोगों का भी अवसान यही तो सन्देश देता है कि ‘चोला माटी के राम एकर का भरोसा….सादर.’

उलूक दर्शन

उलूक दर्शन

उल्लुओं की भाषा के जानकारों ने बताया है कि

आजकल उल्लू अपनी हर सभा में चीख – चीख कर कह रहे हैं –

“अगर घोड़ों ने सभ्यता के विकास के शुरुआती दौर में

आदमी को अपने ऊपर चढ़कर अपना शोषण न करने दिया होता

तो यह पूंजीवादी युग कभी नहीं आता । “

लेकिन अब उल्लुओं को कौन समझाये कि

आदमी को अगर घोड़े नहीं तो गधे, और गधे भी नहीं तो

आदमी तो मिल ही जाते – सवारी करने को –

आज भी मिल जाते हैं हर जगह – कोलकाता में भी …!

– राजीव दुबे

इन्द्रेश कुमार का सच

-सुरेन्द्र चतुर्वेदी

क्या कोई भी निरपेक्ष और निष्पक्ष व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी संगठन कह सकता है? क्या आतंकवादी संगठन वन्देमातरम् का गान करते हैं? या वे प्रतिदिन अपनी प्रार्थनाओं में ‘परम वैभव नैतुमेतत् स्वराष्ट्रं ’ का उद्घोष करते हैं? क्या समाज में रहने वाले करोड़ों स्वयंसेवकों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हित चिन्तकों को देखकर मन से आतंकवादी होने का भय उपजता है? क्या जो लोग निकर पहनकर और हाथ में डंडा लेकर शाखा जाते हैं, वे अपने ‘संघस्थान’ पर देश में सांप्रदायिक हमलों की रणनीति बनाते हैं? इन प्रश्नों का जवाब ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चाल, चरित्र और चेहरे को स्पष्ट कर देता है।

दरअसल, जो लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं , वे कभी भी संघ की विचार और व्यवहार धारा को समझ ही नहीं पाये। वे कभी यह नहीं जान पाये कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जनमानस में इतना आदर क्यों प्राप्त है? वे तो सिर्फ इतना समझ पाये हैं कि स्वतंत्र भारत में यह ही एकमात्र ऐसा संगठित संगठन है, जिसके एक आह्वान पर लाखों लोग अपना काम धाम छोड़कर चले आते हैं और यह ही वह ताकत है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधियों को डराती है। क्या किसी ने एक बार भी सोचा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध कौन लोग करते हैं? उनका राजनीतिक सोच और द्रष्टिकोण किन आधारों और विश्वसों पर आश्रित है? आखिर क्यों राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने की बजाय अपने मतदाताओं को भरमाते रहते हैं?

दरअसल, जब जब कांग्रेस की सत्ता होती है, तो उसके निशाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही रहता है, क्योंकी पूरी की पूरी राजनीतिक व्यवस्था यह मानती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्राण देश भक्ति में ही बसते हैं और यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक संगठन से देश भक्ति की प्राण वायु को निकाल दिया जाए तो यह संगठन अपने आप ही निस्तेज और प्राणहीन हो जाएगा और एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्राणहीन कर दिया तो फिर देश के हितों और भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाले राजनेताओं पर कोई लगाम ही नहीं रह जाएगी। इसीलिए हर मौके बेमौके पर संघ को बदनाम कर सकने वाली हर कोशिश करना राजनेता अपना पुनीत कर्तव्य समझते हैं।

अब जरा बात हो जाए अजमेर दरगाह ब्लास्ट के मामले की जांच की। याद कीजिए बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव। तब भी केन्द्र में यही सरकार थी और रेल मंत्री थे श्रीमान लालू प्रसाद यादव। उन्होंने मुस्लिम मतों को अपनी तरफ करने के लिए गोधरा कांड के लिए एक अलग से जांच आयोग गठित किया था, उस जांच आयोग की रिपोर्ट भी आ गई , परन्तु कार्यवाही आज तक नहीं हुई । लालू यादव और सोनिया गांधी अब गोधरा के बारे में बात ही नहीं करते। इसी प्रकार इस बार भी बिहार विधानसभा चुनाव का मौका है, जहां पर कांग्रेस के राजकुमार राहुल गांधी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता उनको अगला प्रधानमंत्री घोषित करने से नहीं थक रहे हैं और जनमत जनता दल और भाजपा के पक्ष में जा रहा है, ऐसे में एक ही उपाय है, मुस्लिमों को पक्ष में करने के लिए संघ की बदनामी और इस बार बारी है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश कुमार की ।

अजमेर दरगाह ब्लास्ट मामले में सत्ता की आंख देखकर कार्य करने वाली सरकारी व्यवस्था एक बार फिर कठघरे में है। इस मामले में आरोपियों को पकड़ा जा चुका है, उनके खिलाफ चालान पेश हो रहे हैं और उन आरोपियों की पृष्ठभूमी के आधार पर जिस तरह से सरकारी अमला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने की साजिश रच रहा है, उससे सरकारी कार्य तंत्र की ही संदेह के घेरे में है।

सरकारी आरोप है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य इन्द्रेश कुमार अजमेर दरगाह ब्लास्ट के षड़यंत्र में सहभागी हैं, इसके लिए उन्होंने जयपुर स्थित गुजराती समाज की धर्मशाला में एक भाषण भी दिया। आश्चर्य इस बात का है कि छोटे से छोटा अपराधी भी अपनी योजनाओं के बारे में किसी से कुछ नहीं कहता, लेकिन ए टी एस कहती है कि अजमेर दरगाह ब्लास्ट को अंजाम देने के लिए इन्द्रेश कुमार ने भाषण दिया।

इस पूरी कहानी में एक बार भी सरकारी पक्ष ने इन्द्रेश कुमार से बात नहीं की, उन्होंने अपने भाषण में क्या कहा, वह नहीं बताया और वह भाषण किस संस्था के कार्यक्रम में दिया गया और उसमें कौन कौन लोग उपस्थित थे, यह भी ए टी एस को नहीं पता? तो फिर यह क्यों नहीं माना जाए कि सरकारी एंजेसियां सत्ता में बैठे लोगों की आंख देख कर अपने कर्तव्यों को पूरा कर रही हैं।

ध्यान देने लायक तथ्य यह भी है कि जिस इन्द्रेश कुमार ने इतना बड़ा षड़यंत्र रचा, उसके खिलाफ पूरी सरकार ने अभियोग पत्र भी प्रस्तुत करने की मेहनत तक नहीं की, और ना ही इतने ‘खतरनाक मास्टर माइंड’ को 2007 से लेकर चालान पेश किये जाने तक गिरफ्तार कर पूछताछ की गई । यह तो सारा मामला ही राजनीतिक अव्यवस्था का घटिया नमूना है।

जांच तो इस बात की भी की जानी चाहिये कि जिस व्यक्ति के खिलाफ अभियोग पत्र भी नहीं बन पाया, उस व्यक्ति और संस्था को मीडिया के जरिये किसने और क्यों बदनाम करने की साजिश रची ? पूरी दुनिया में तब तक किसी को अपराधी नहीं माना जाता जब तक अदालत में उस व्यक्ति का दोष सिद्ध नहीं हो जाए, लेकिन इस मामले में तो अदालत में चालान पेश करने से पूर्व ही इन्द्रेश कुमार का नाम कांग्रेस के नेता ले रहे थे।

यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अजमेर दरगाह ब्लास्ट का चालान पेश होने से पूर्व सोनिया गाँधी के विश्वस्त महासचिव दिग्विजय सिंह अकारण और असंदर्भित बयान जारी कर कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पाकिस्तानी खुफिया एंजेसी आई एस आई से मदद मिलती है। उसके बाद सोनिया पुत्र राहुल गांधी अपने ‘विवेक’ से मत व्यक्त करते हैं कि उनके लिए संघ और सिमी में कोई अन्तर नहीं है। उसके बाद सोनिया गांधी के ही एक कृपा पात्र अशोक गहलोत की सरकारी आंख देखकर अजमेर दरगाह ब्लास्ट में संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश कुमार का चार्जशीट में नामोल्लेख किया जाता है । क्या इन सभी बातों का एक ही क्रम में होना महज एक संयोग है या पूरी कांग्रेस बिहार में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के खिलाफ माहौल बना रही है, जिससे मुसलमानों को अपने पक्ष में किया जा सके।

दरअसल, यह समझे जाने की जरूरत है कि जब जब कांग्रेसी सत्ता ने सरकारी तंत्र के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित करने, बदनाम करने की कोशिश की है, तब तब यह संगठन और ताकतवर होकर सामने आया है। समझना कांग्रेस को है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ताकत प्रदान करना चाहती है या देशभक्तों के इस सैलाब को रोकना चाहती है, यदि कांग्रेस के नेताओं की दिलचस्पी वास्तव में संघ को समाप्त करने में है, तो उन्हैं वह राष्ट्रवादी स्वरूप अंगीकार करना होगा जो तिलक, मालवीय, गांधी, सरदार पटेल, गोखल और सुभाष चंद्र बोस के मनों में बसती थी।


(लेखक सेण्टर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट के निदेशक हैं।)

कांग्रेस की विध्वंसक राजनीति

-पवन कुमार अरविंद

कांग्रेस शासित राजस्थान पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने अजमेर धमाके की जाँच पूर्ण किए बिना ही इन्द्रेश कुमार का नाम उछाल दिया है। इन्द्रेश कुमार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं। उनको संघ के निष्ठावान व समर्पित कार्यकर्ताओं में गिना जाता है। संघ के हजारों कार्यकर्ता कार्य की दृष्टि से उनसे प्रेरणा लेते हैं।

यह भी ध्यान देने वाली बात है कि श्री कुमार पिछले कई वर्षों से “राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच” के बैनर तले देश के राष्ट्रवादी मुसलमानों को संगठित करने के कार्य में जुटे हुए हैं। इस कार्य में उनको काफी सफलता भी मिली है। उनके भगीरथ प्रयास से हजारों मुसलमान इस संगठन से जुड़ चुके हैं। उनके इस प्रयास के कारण ही भारत के अधिकांश मुसलमानों की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति धारणा सकारात्मक हुई है।

राष्ट्रवादी मुसलमानों को एक मंच पर लाने के लिए संघ का यह कार्य अब तक का सबसे अनोखा कार्य है, इसलिए कांग्रेस पार्टी को कैसे पच सकता है। इसी कारण श्री कुमार पिछले कई वर्षों से कांग्रेस की नजरों में चढ़े हुए हैं। कांग्रेस उनको अपने वोटबैंक के लिए प्रमुख खतरा भी मानने लगी है। इसलिए विस्फोट के रूप में यह सारा वितंडावाद खड़ा किया जा रहा है। ताकि ऐन-केन-प्रकारेण श्री इन्द्रेश कुमार को लपेटे में लेकर उनके द्वारा चलाया जा रहे राष्ट्रवादी मुस्लिमों को संगठित करने के कार्य को प्रभावित करते हुए संघ को बदनाम किया जा सके।

उल्लेखनीय है कि राजस्थान के अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती की विश्व प्रसिद्ध दरगाह परिसर में 11 अक्टूबर 2007 आतंकवादी धमाके हुए थे। इन धमाकों में तीन लोगों की मौत हो गई थी और 15 घायल हुए थे। इस मामले की जाँच एटीएस कर रही है। एटीएस ने 22 अक्टूबर को मामले से संबंधित 806 पृष्ठों का आरोप पत्र दायर किया है। इसमें विस्तार से धमाकों की साजिश का खुलासा करने का प्रयास किया गया है। इसमें 133 गवाहों के बयान दर्ज किए गए हैं। इस आरोप पत्र में छह आरोपियों के नाम हैं। इनमें से तीन- देवेंद्र गुप्ता, चंद्रशेखर लवे और लोकेश शर्मा की अप्रैल में गिरफ्तारी हुई थी। ये तीनों पूछताछ के लिए अभी न्यायिक हिरासत में हैं। शेष तीन आरोपियों में से दो- संदीप डांगे व रामजी कलसांगरे को फरार बताया जा रहा है और जबकि एक आरोपी सुनील जोशी की बहुत पहले ही मध्य प्रदेश में हत्या हो चुकी है।

आरोप पत्र में इन्द्रेश कुमार का भी नाम है, लेकिन उनको आरोपी नहीं बनाया गया है। इसका केवल एक ही कारण है कि इन्द्रेश कुमार के खिलाफ एटीएस को अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिल सका है। हालांकि जाँच अभी चल रही है और एटीएस यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि इन्द्रेश कुमार का इस मामले से कोई संबंध है भी, या नहीं। आरोप पत्र के अनुसार, बम विस्फोट की साजिश जयपुर में रची गई है। आरोप पत्र में यह भी कहा गया है कि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों ने बदला लेने की नीयत से अजमेर, हैदराबाद और महाराष्ट्र के मालेगाँव को धमाकों के लिए चुना।

अब प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस शासित राज्य के एटीएस द्वारा लगाए गए ये आरोप कितने सही हैं और कितने गलत ? इसको जानने के लिए मामले की जाँच पूरी हो जाने और सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना होगा। तभी दूध का दूध और पानी का पानी हो सकेगा। लेकिन विडंबना यह है कि मामले की जाँच पूरी होने और आखिरी अदालत से फैसला आने के पूर्व ही कांग्रेस सहित कुछ कथित सेकुलरवादियों द्वारा आरोपियों को दोषी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ तक कि जिसका नाम आरोपियों की सूची में नहीं है, उसको भी दोषी मान लिया गया है।

हालांकि, कांग्रेस द्वारा सरकारी जाँच एजेंसियों का अपने हित में दुरुपयोग करने की बात कोई नया नहीं है। आजादी के बाद से ही वह अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग करती रही है। वह एजेंसियों के दुरुपयोग के मामले में सिद्धहस्त हो चुकी है। इस मामले में उसके जैसा और कोई दूसरा नहीं है। ये भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि गुजरात में सोहराबुद्दीन कथित फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआई ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन’ की तरह कार्य कर रही है। अभी हाल ही में सम्पन्न निकाय चुनावों में जनता ने कांग्रेस को भारी बहुमत से हराकर उसको उसके किए की सजा सुना दी है।

दरअसल, अजमेर विस्फोट मामले में यह अधूरा आरोप पत्र जानबूझकर बिहार चुनावों के वक्त दायर करवाया गया है। ताकि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करके इसका तत्काल चुनावी लाभ लिया जा सके। बिहार में कांग्रेस की हालत खस्ता है। चुनाव जीतने का उसके पास और कोई दूसरा चारा नहीं है। राहुल गाँधी का सारा करिश्मा असफल साबित हो रहा है। वास्तव में कांग्रेस के पास देशहित में कोई मुद्दा नहीं बचा है। इसीलिए वह केंद्र द्वारा विभिन्न योजनाओं में दिए गए धन का हिसाब मांग रही है। चुनाव के पहले उसको केंद्र द्वारा दिए गए धन की चिंता नहीं थी। वह बिहार के संदर्भ में अभी तक सोई हुई थी और अचानक चुनाव में नींद खुली है।

आरोप पत्र दायर करवाने का एक और कारण है। वह है संसद का शीतकालीन सत्र, जो नवंबर मास में प्रारम्भ हो रहा है। इसके हंगामेदार रहने की प्रबल संभावना है। क्योंकि ‘भ्रष्टमंडल’ खेलों में कथित भ्रष्टाचार के कारण पूरी कांग्रेस पार्टी की साँस अटकी हुई हैं। वह अपने दामन अजाला रखने की जवाबदेही में प्रथम दृष्टया ही फंसती हुई नजर आ रही है। इन परिस्थितियों में वह विपक्षी दलों को विषयों से भटकाने के लिए पूरे जी-जान से लग गई है। भाजपा नेता सुधांशु मित्तल के यहाँ छापेमारी की घटना उसके इसी अभियान का हिस्सा है। जबकि सत्यता यह है कि मित्तल की कंपनी ने ‘भ्रष्टमंडल’ खेलों की तैयारियों में मात्र 29 लाख रूपए का ही कारोबार किया है।

दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस अयोध्या फैसले का कोई राजनीतिक लाभ नहीं उठा सकी है। फैसले के बाद से ही वह बैकफुट पर नजर आ रही थी। उसने हाथ-पाँव मारने की बहुत कोशिश की, लेकिन मामला परवान नहीं चढ़ सका। इसलिए पार्टी के महासचिव राहुल गाँधी ने अल्पसंख्यक वोटों को साधने के लिए प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी की तुलना देशभक्त राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कर डाली। हालांकि, उनके बयान का देश भर में काफी विरोध हुआ और करीब-करीब सभी बुद्धिजीवियों ने उनको अपरिपक्व बताते हुए उनके बयान को अनुचित नहीं माना।

राहुल के अलावा कांग्रेस के एक दूसरे राष्ट्रीय महासचिव हैं दिग्विजय सिंह जी, जो विवादित बयान देने के लिए ही प्रसिद्ध हैं। वह किसी भी मामले को विवादित बनाकर ही बयान देते हैं। उनकी वाणी में गंभीरता नाम की कोई चीज नहीं होती है। ऐसा प्रतीत होता है पार्टी ने केवल विवादित बयान देने के लिए ही उनको राष्ट्रीय महासचिव का ओहदा थमाया है। हालांकि, कांग्रेस बहुत पहले से ही संघ को बदनाम करने के लिए भूमिका बनाने में जुट गई थी। भगवा व हिंदू आतंकवाद शब्दों का प्रयोग और संघ से सिमी की तुलना, उसके इसी अभियान का हिस्सा था। कांग्रेस का यह सारा अभियान उसको घोर साम्प्रदायिक पार्टी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। क्योंकि सत्ता में ऐन-केन-प्रकारेण बने रहने के लिए उसका जैसा कार्य-व्यवहार है, उसके लिए कोई दूसरा विशेषण उपयुक्त नहीं होगा।

टीवी पर लाइव योग शो और उसकी विचारधारा

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबा रामदेव के टेलीविजन पर योगशिविर लगाए जाने के बाद अनेक योगियों के टीवी शो आने लगे हैं। तकरीबन प्रत्येक चैनल योग पर कोई न कोई आइटम पेश करता है। टीवी की आमदनी के लिए योग शो का कार्यक्रम पैकेज में रहना जरूरी है। योग शो की लाखों ऑडिएंस है। लाखों की ऑडिएंस का अर्थ है चैनल के लिए सोने की खान।

बाबा रामदेव के योग शो की खूबी है उनके आसन और उनके हिन्दुत्ववादी और चिकित्सा विज्ञान विरोधी, बहुराष्ट्रीय कंपनी विरोधी राजनीतिक वक्तव्य जो कभी भी टेलीविजन चैनलों की खबरों में जगह नहीं बना पाए। बाबा रामदेव ने जिन राजनीतिक मसलों को उठाया है और अपनी राय दी है उसे चैनलों ने कभी समाचारों में कवरेज नहीं दिया है।

बाबा के टीवी शो में हमें भारत की स्वास्थ्य दशा के साथ सांस्कृतिक दुर्दशा का आख्यान भी सुनने को मिलता है। पश्चिमी जीवनशैली के दुष्परिणामों के बारे में भी सुनने को मिलेता है। इन सबको बड़े ही कौशल के साथ बाबा रामदेव आसन-प्राणायाम के साथ रीमिक्स कर देते हैं।

पहले वे प्राणायाम-आसन बताते हैं फिर अनुकरण करने के लिए कहते हैं और भोक्ता जब तक अनुकरण करता है तब तक वे किसी न किसी मसले पर वक्तव्य देते रहते हैं। वे अपने संदेश को प्राणायाम और आसन की क्रिया के बाच में संप्रेषित कर देते हैं। यह काम वे वृत्तचित्र की संरचना में करते हैं। बाबा रामदेव के योग की टीवी पर सफलता ने टीवी के मेडीकलाइजेशन की प्रक्रिया को बल पहुँचाया है। अब टीवी पर स्वास्थ्य संबंधी सैंकड़ों कार्यक्रम प्रतिदिन आते हैं। कुछ चैनल तो सिर्फ स्वास्थ्य के कार्यक्रम ही प्रसारित करते रहते हैं। विभिन्न भाषाओं में स्वास्थ्य सेवाओं पर धारावाहिकों का भी प्रसारण हो चुका है।

मीडिया में हेल्थ संबंधित स्टोरियों के आने से हेल्थ का जनसंपर्क बढ़ा है। इससे यह भी पता चला है कि हेल्थ के समाचार,कार्यक्रम,धारावाहिक दिखाए जाएं तो उनके लिए लाखों की ऑडिएंस मिल सकती है। हेल्थ पहले इस तरह मीडिया में बड़ा विषय नहीं था। अब तो हेल्थ अनेक चैनलों, पत्रिकाओं और अखबारों में स्थायी पन्ना और कॉलम है।

आज हेल्थ पर अनेक वेबसाइट हैं जो तत्काल सूचनाएं देती हैं। यहां तक कि भी हेल्थ संबंधित सैलिब्रिटी गॉसिप आने लगी हैं। समूचे टेलीविजन नेटवर्क ने हेल्थ को जिस तरह मुद्दा बनाया है उसमें जीवनशैली, रूपचर्चा, धर्म और मनोदशा रूपान्तरण के विषय केन्द्र में हैं। बाबा रामदेव का लाइव कवरेज इसके ही फ्लो में पढ़ा जाना चाहिए।

बाबा अपने लाइव टेलीकास्ट में योग के आसनों की प्रस्तुति करते समय एक अवधि के बाद स्टीरियोटाइप होगए हैं। साथ एक ही किस्म की पद्धति को अपनाते हैं, अंतर सिर्फ आता है उनके भाषण की थीम में। भाषण की थीम बदलकर ही वे कुछ नया पैदा करते हैं वरना उनके लाइव टेलीकास्ट टेली शॉपिंग के विज्ञापन जैसे होते हैं। टेली शॉपिंग में जिस तरह कोई नया पात्र माल की तारीफों के पुल बांध है और उसके उपयोग की विधि बताता है। ठीक वैसे ही बाबा रामदेव भी करते हैं। अंतर है उनके भाषण के विषयों का। इसके अलावा उनके लाइव शो में स्थान का अंतर भी रहता है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर से उनका लाइव टीवी शो प्रसारित होता है,इससे उन्हें नए ग्राहक मिलते हैं। विभिन्न शहर, बदली ऑडिएंस और बदले हुए भाषण के विषय के जरिए वे अपने टीवी शो में आकर्षण पैदा करने की कोशिश करते हैं। वे अपने भाषणों में नए-नए विषयों का समावेश करके ऑडिएंस में विचारधारात्मकप्रभाव भी पैदा करने की केशिश करते हैं। लेकिन योग-प्राणायाम के कार्यक्रम में योग-प्राणायाम प्रमुख है,भाषण प्रमुख नहीं है। वह अतिरिक्त है। इसकी सांस्कृतिक भूमिका है। उन विषयों को टीवी पर बनाए रखने में सांस्कृतिक-राजनीतिक भूमिका है जिन्हें हम हिन्दुत्व के विषय के रूप मेंजानते हैं।

बाबा के शो वही लोग देखते हैं जिन्हें योग से लगाव है या योग सीखना है। अथवा ऐसे भी लेग देखते हैं जिनकी हिन्दुत्व के एजेण्डे में रूचि है। बाबा का बार-बार टीवी शो करना इस बात का संकेत है कि हेल्थ के बाजार में जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा है। इसमें बाबा योग के लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। बाबा अपने मालों के लिए ग्राहक जुटाने की कोशिश कर रहे हैं। बाबा के अधिकांश टीवी शो खुले वातावरण में होते हैं। वे कभी हॉलघर में कार्यक्रम नहीं करते। खुला आकाश, मैदान और पीछे योग का चित्र या आयोजन स्थल का बैनर। मंच पर बाबा के द्वारा प्रस्तुत योग-प्राणायाम और हिन्दुत्व और जीवनशैली के विषयों पर लंबे-लंबे भाषण।

बाबा के कार्यक्रमों में आए दिन ऐसे मरीजों को पेश किया जाता है जो यह बताते हैं कि वे फलां बीमारी से परेशान हैं, उन्हें दवा कोई असर नहीं कर रही है। कुछ ऐसे भी मरीज आते हैं जो यह बताते हैं कि योग-प्राणायाम असर कर गया है, बीमारी में सुधार है। बाबा के कार्यक्रमों में इस तरह के बयानों के प्रसारण का लक्ष्य है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान। संबंधित व्यक्ति को दवा क्यों नहीं लग पायी, इसके अनेक कारण हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि वह सही डाक्टर से न मिला हो, दवा की मात्रा ठीक से न लेता हो। उसके खान-पान में अनियमितता हो आदि, लेकिन बाबा इस तरह मरीजों की प्रतिक्रियाओं को मेडीकल सिस्टम की असफलता के प्रमाण के रूप में दुरूपयोग करते हैं। बाबा का इस तरह की प्रतिक्रियाओं को दिखाना योग उद्योग और फार्मास्युटिकल उद्योग के बृहत्तर नव्य उदारतावादी एजेण्डे की संगति में आता है। वे अपने योग कारपोरेट एजेण्डे के साथ इसे मिलाकर पेश करते हैं और योग उद्योग के बाजार हितों को विस्तार देने का काम करते हैं। बाबा के ये कार्यक्रम आम लोगों में मेडीकल चिकित्सा के खिलाफ जबर्दस्त असर छोड़ रहे हैं। साधारण लोगों में एक अच्छा खासा वर्ग तैयार हो गया है जो यह मानता है कि योग-प्राणायाम या आयुन्वेद से सब बीमारियां ठीक हो जाएंगी। इस तरह के लाइव शो के जरिए बाबा बड़े पैमाने पर प्रत्येक कार्यक्रम और शिविर के जरिए दौलत बटोरने में सफल रहे हैं।

बाबा रामदेव की टीवी प्रस्तुतियों में एक मेडीकल प्रोफेशन की असफलताओं का व्यापक कवरेज रहता है। लेकिन वे अच्छी तरह जानते हैं कि हजारों डाक्टर हैं जो अपने मरीज की अपनी क्षमता और क्षेत्र से बाहर जाकर मदद करते हैं। प्रतिदिन 8-14 घंटे काम करते हैं। प्रतिदिन लाखों मरीजों का सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में इलाज करते हैं। जबकि इन अस्पतालों में पर्याप्त सुविधाएं तक नहीं हैं।

हमारे शहरों-कस्बों में समर्पित डाक्टरों की लंबी-चौड़ी फौज है जो मरीजों के इलाज में बड़ी तत्परता से काम करती है। अपवादस्वरूप मामलों के छोड़ दें तो मेडीकल पेशे से जुड़े लोग आम लोगों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते। यह भी सच है कि इन डाक्टरों में निजी क्षेत्र के पैसा कमाऊ डाक्टर भी आ गए हैं जो सिर्फ ऊँची फीस के बिना इलाज नहीं करते। लेकिन इस तरह के डाक्टरों का प्रतिशत कम है।

ज्यादातर डाक्टर आज भी सामान्य फीस पर ही इलाज करते हैं। सामान्य तौर पर डाक्टर जैसे बताए उसे यदि मरीज मान ले तो उसे किसी भी नीम-हकीम और योगी की जरूरत नहीं होगी।

बाबा रामदेव अपने शिविर में आने वाले किसी भी व्यक्ति से पैसे की बात करते नजर नहीं आते। वे शिविर में भाग ले रहे किसी व्यक्ति से यह नहीं पूछते कि यहां आने में कितना पैसा खर्च हुआ? कैंप की फीस कितनी दी? वे यह सवाल भी नहीं पूछते कि बाबा की दवाएं लेते हो तो उनका दाम क्या है? वे यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि शिविर में भाग लेने वाले कितने लोग हैं जिनकी बीमारी पर योग-प्राणायाम का कोई असर नहीं हो रहा है अथवा नकारात्मक असर हो रहा है।

सामूहिक सांस्कृतिक संपदा के निजीकरण के नायक बाबा रामदेव

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबा रामदेव को अभिताभ बच्चन के बाद सबसे बड़ा ब्रांड या मॉडल मान सकते हैं। वे योगी हैं और मॉडल भी। वे संत हैं लेकिन व्यापारी भी। वे गेरूआ वस्त्रधारी हैं लेकिन मासकल्चर के प्रभावशाली रत्न भी हैं। बाबा रामदेव ने योग की मार्केटिंग करते हुए जिस चीज पर सबसे ज्यादा जोर दिया है वह है योग का ‘प्रभाव’। वे अपने योग के सभी विवरण और ब्यौरों का प्रचार ‘प्रभाव’ को ध्यान में रखकर करते हैं। योग के ‘प्रभावों’ पर जोर देने का अर्थ है उनके वक्तव्य के विचारों की विदाई। वे बार-बार एक ही तरीके से विभिन्न आसनों को टीवी लाइव शो में प्रस्तुत करते हैं। उन्हें दोहराते हैं।

बाबा रामदेव ने योग के उपभोक्ताओं को अपने डीवीडी,सीडी आदि की बिक्री करके, लाइव टीवी शो करके योग के साथ आधुनिक तकनीकोन्मुख भी बनाया है। वे योग को व्यक्तिगत उत्पादन के क्षेत्र से निकालकर मासप्रोडक्शन के क्षेत्र में ले गए हैं। पहले योग का लोग अकेले में अभ्यास करते थे,लेकिन बाबा रामदेव ने योग के मासप्रोडक्शन और जनअभ्यास को टेलीविजन के माध्यम से संप्रेषित किया है।

योग का आज बाबा की वजह से मासप्रोडक्शन हो रहा है। यह वैसे ही मास प्रोडक्शन है जैसे अन्य वस्तुओं का पूंजीवादी बाजार के लिए होता है। मास प्रोडक्शन (जनोत्पादन) और जनोपभोग अन्तर्ग्रथित हैं।

लोग सही ढ़ंग से योग सीखें ,इसके लिए जरूरी है सही लोगों से प्रशिक्षण लें। सही लोगों को देशभर में आसानी से पा सकें इसके लिए जरूरी है मासस्केल पर योग शिक्षक तैयार किए जाएं। इसके लिए सभी इलाकों में योग प्रशिक्षण की सुविधाएं जुटायी जाएं और इसी परिप्रेक्ष्य के तहत बाबा ने योग के मासप्रोडक्शन और प्रशिक्षण की राष्ट्रीय स्तर पर शाखाएं बनायी हैं। बाबा के ट्रस्ट द्वारा निर्मित वस्तुओं के वितरण एजेंट हैं।और दुकानदारों की पूरी वितरण प्रणाली है। यह प्रणाली वैसे ही है जैसे कोई कारपोरेट घराना अपनी वस्तु की बिक्री के लिए वितरण और बिक्री केन्द्र बनाता है।

बाबा रामदेव के प्रचार में व्यक्ति की क्षमता से ज्यादा योग की क्षमता के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया जा रहा है। यह मानकर चला जा रहा है कि योग है तो ऊर्जा है, शक्ति है। इसके आगे वे किसी तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। योग से शरीर प्रभावित होता है लेकिन कितना होता है? कितने प्रतिशत लोगों को बीमारियों से मुक्त करने में इससे मदद मिली है इसके बारे में कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक अनुसंधान अभी तक सामने नहीं आया है। कायदे से बाबा के सदस्यों में यह काम विभिन्न विज्ञान संस्थाओं को करना चाहिए जिससे सत्य को सामने लाने में मदद मिले।

बाबा रामदेव का टेलीविजन से अहर्निश स्वास्थ्य लाभ का प्रचार अंततः विज्ञानसम्मतचेतना फैला रहा है या अवैज्ञानिक चेतना का निर्माण कर रहा है, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। भारत जैसे देश में जहां अवैज्ञानिकचेतना प्रबल है, वहां पर बाबा रामदेव का प्राचीनकालीन चिकित्साशास्त्र बहुत आसानी से बेचा जा सकता है। बाबा ने चिकित्सा विज्ञान को अस्वीकार करते हुए पुराने चिकित्सा मिथों का अतार्किक ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। इस क्रम में बाबा ने चिकित्सा विज्ञान को ही निशाना बनाया है। उस पर तरह-तरह के हमले किए हैं।

बाबा रामदेव ने मासकल्चर के फंड़े इस्तेमाल करते हुए योग और प्रणायाम के अंतहीन अभ्यास और इस्तेमाल पर जोर दिया है। योग करना, प्राणायाम करना जिस समय बंद कर देंगे। शारीरिक स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगेगा। अंतहीन योग-प्राणायाम का वायदा अंततः कहीं नहीं ले जाता।

बाबा रामदेव का फंडा है योग शिविर में शामिल हो, योग के पीछे चलो, वरना पिछड़ जाओगे। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। जो योग के लिए खर्च कर सकते हैं, प्रतिदिन योग कर सकते हैं,उनके लिए शारीरिक उपद्रवों से कुछ हद तक राहत मिलती है। जो खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं, जो रोज योग-प्राणायाम करने की स्थिति में नहीं हैं वे बेचारे देख-देखकर कुण्ठित होते रहते हैं।

जो खर्च करने की स्थिति में हैं वे खाते-पीते घरों के थके-हारे लोग हैं। इन खाए-अघाए लोगों की सामाजिक भूमिका और, श्रम क्षमता में बढ़ाने में मदद जरूर मिलती है। ये वे लोग हैं जिन्हें भारत की क्रीम कहते हैं। जिनके पास नव्य उदारीकरण के फायदे पहुँचे हैं। इन लोगों में नव धनाढ़यों का बड़ा हिस्ला है। बाबा रामदेव की योग मार्केटिंग में ये सबसे आगे हैं। इन्हें ही बाबा ने निशाना बनाया है।

बाबा रामदेव ने अप्रत्यक्ष ढ़ंग से कारपोरेट घरानों की सेवा की है यह काम उन्होंने चिकित्सा विज्ञान पर हमला करके किया है। हम सब लोग जानते हैं कि कारपोरेट पूंजीवाद अपने हितों और मुनाफों के विस्तार के लिए मेडीकल साइंस तक को नष्ट करने की हद तक जा सकता है। और यह काम नव्य उदारतावाद के आने के बाद बड़े ही सुनियोजित ढ़ंग से किया जा रहा है। सरकार की तरफ से ऐसी नीतियां अपनायी जा रही हैं जिनके कारण सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं सिकुड़ती जा रही हैं। आज भी हिन्दुस्तान की गरीब जनता का एकमात्र सहारा सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हैं, लेकिन केन्द्र सरकार सुनियोजित ढ़ंग इन्हें बर्बाद करने में लगी है।

दूसरी ओर फार्मास्युटिकल कंपनियां बीमारियों के उपचार पर जोर दे रही हैं, वे सरकार पर दबाब ड़ाल रही हैं कि सरकार इस दिशा में प्रयास न करे कि बीमारी क्यों पैदा हुई? सरकार बीमारियों को जड़ से खत्म करने की दिशा में न तो नीति बनाए और नहीं पैसा खर्च करे। वे चाहते हैं बीमारी को जड़ से खत्म न किया जाए। वे बार-बार बीमारी की थेरपी पर जोर दे रहे हैं। वे बीमारी को जड़ से खत्म करने पर जोर नहीं दे रहे हैं।

बाबा रामदेव के योग का भी यही लक्ष्य है उनके पास प्राचीनकालीन थेरपी है जिसे वे जड़ी-बूटियों और प्राणायाम के जरिए देना चाहते हैं। फार्मास्युटिकल कंपनियां यह काम अपने तरीके से कर रही हैं और बाबा रामदेव उसी काम को अपने तरीके से कर रहे हैं। इस क्रम में बाबा रामदेव और फार्मास्युटिकल कंपनियां बड़ी ही चालाकी से एक जैसा प्रचार कर रहे हैं।

मसलन फार्मास्युटिकल कंपनियां किसी बीमारी की दवा के आश्चर्यजनक परिणामों के बारे में बताती हैं तो बाबा रामदेव भी अपने योग के जादू से ठीक होने वाले व्यक्ति को मीडिया में पेश करते हैं। हमारे देश में अनेक बीमारियां हैं जो आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के कारण पैदा होती हैं। बाबा के योग के पास उनका कोई समाधान नहीं है। मसलन बड़े पैमाने पर प्रदूषित जल के सेवन या स्पर्श के कारण जो बीमारियां पैदा होती हैं उनका योग में कोई समाधान नहीं है। शराब के सेवन या नशीले पदार्थों के सेवन से जो बीमारियां पैदा होती हैं, उनका कोई समाधान नहीं है। शराब या नशे के कारण पैदा होने वाली समस्याओं को आप नशे की वस्तु की बिक्री बरकरार रखकर दूर नहीं कर सकते।

थैरेपी के जरिए सामाजिक क्रांति करने के सारी दुनिया में अन्तर्विरोधी परिणाम आए हैं। योग से संभवतः कुछ बीमारियों का सामान्य उपचार हो जाए। छोटी-मोटी दिक्कत कम भी हो जाए लेकिन इससे बीमारी रहित समाज तैयार नहीं होगा। सबल-स्वस्थ भारत तैयार नहीं होगा।

बाबा के योग को पाने के लिए व्यक्ति को अपनी गांठ से पैसा देना होगा। आयुर्वेद का इलाज बाबा के अस्पताल में कराने के लिए निजी भुगतान करना होगा। बाबा मुफ्त में उपचार नहीं करते। यही चीज तो कारपोरेट घराने चाहते हैं कि आम आदमी अपनी इलाज पर स्वयं खर्चा करे और स्वास्थ्य लाभ करे, वे अपने तरीके से सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर मीडिया में हमले करते रहते हैं, बाबा रामदेव अपने तरीके से चिकित्सा विज्ञान की निरर्थकता का ढ़ोल बजाते रहते हैं। बाबा और कारपोरेट फार्मस्युटिकल कंपनियां इस मामले में एक हैं ,दोनों ही चिकित्सा को निजी खर्चे पर करने की वकालत कर रहे हैं।

बाबा और कारपोरेट घरानों की स्वास्थ्य सेवाएं उनके काम की हैं जो इनमें इलाज कराने का पैसा अपनी गांठ से दे सकते हैं। जो नहीं दे सकते वे इस सेवा के दायरे के बाहर हैं। बाबा रामदेव और उनके अंधभक्त जानते हैं कि हिन्दुस्तान की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 20 रूपये पर गुजारा करती है उसके पास डाक्टर को देने के लिए सामान्य फीस तक नहीं होती। ऐसी स्थिति में बाबा का योग उद्योग किसकी सेवा करेगा?

फार्मास्युटिकल कंपनियों ने एंटीबायोटिक दवाओं का प्रचार करके समूचे चिकित्साविज्ञान को ही खतरे में डाल दिया है। दूसरी ओर बाबा रामदेव ने योग के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को निशाना बनाया हुआ है। दोनों का लक्ष्य एक है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों को नष्ट करो। दोनों का दूसरा लक्ष्य है मुनाफा कमाओ। ये दोनों ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर आए दिन हमले बोलते रहते हैं।

बाबा रामदेव और फार्मास्युटिकल कंपनियों के चिकित्साविज्ञान पर किए जा रहे हमलों के काऱण स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में असमानता और भी बढ़ेगी। हम पहले से ही आधी-अधूरी स्वास्थ्य सेवाओं के सहारे जी रहे थे लेकिन नव्य उदारतावादी हमलों ने इन सेवाओं को और भी महंगा और दुर्लभ बना दिया है।

इस युग का महामंत्र है हर चीज को माल बनाओ। बाबा ने योग को भी माल बना दिया। बाबा की चिकित्सासेवाएं कमोडिटी हैं, पैसे दीजिए लाभ लीजिए। पैसा से खरीदने के लिए आपको निजी बाजार में जाना होगा। इसके कारण विगत कई दशकों से स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है।

मजेदार बात यह है निजी स्वास्थ्य सेवाओं का जनता भुगतान करती है लेकिन फायदा निजी क्षेत्र को होता है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भुगतान जनता करती है तो मुनाफा भी जनता के खाते में जाता है। लेकिन निजी कारपोरेट स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर बाबा रामदेव की योग स्वास्थ्य सेवाओं तक भुगतान जनता करती है मुनाफा निजी कंपनियां और बाबा रामदेव की पॉकेट में जाता है। इस अर्थ में बाबा रामदेव ने योग को कारपोरेट मुनाफाखोरी के धंधे में तब्दील कर दिया है।

ध्यान रहे नव्य उदारीकरण का यह मूल मंत्र है पैसा जनता का मुनाफा निजी कंपनियों का। सारी नीतियां इसी मंत्र से संचालित हैं और बाबा रामदेव का योग-प्राणायाम का खेल भी इसके सहारे चल रहा है।

जिस तरह का हमला सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर कारपोरेट घरानों और बाबा रामदेव ने किया है उसका लाभ किसे मिला है? उसका लाभ निजी कंपनियों और बाबा रामदेव के ट्रस्ट को मिला है। इससे राष्ट्र खोखला हुआ है। बाबा रामदेव के ट्रस्ट और निजी स्वास्थ्य कंपनियों के हाथों अरबों-खरबों की संपदा के जाने का अर्थ यह भी है कि अब हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में आगे नहीं पीछे जा रहे हैं। समाज के अधिकांश समुदायों को बेसहारा छोड़कर जा रहे हैं। इनको मिलने वाले लाभ से राष्ट्र को कोई लाभ नहीं होने वाला, यह पैसा किसी नेक काम में, विकास के किसी काम में खर्च नहीं होगा। यह स्वास्थ्यसेवाओं का व्यक्तिकरण है, व्यवसायीकरण है। यह देशभक्ति नहीं है। पूंजी और मुनाफा भक्ति है। यह कारपोरेट संस्कृति है। यह भारतीय संस्कृति नहीं है। यह खुल्लमखुल्ला जनता के हितों के साथ गद्दारी है। यह जनता के साथ एकजुटता नहीं है।

स्वास्थ्य और बीमारी माल या वस्तु नहीं हैं। इन्हें पूंजीपतिवर्ग ने अपने मुनाफे के लिए माल या वस्तु में तब्दील किया है। बाबा का समूचा योग-प्राणायाम का कार्य व्यापार मुनाफे और माल की धारणा पर आधारित है। बाजार के सिद्धांतों पर आधारित है। योग हमारी विरासत का हिस्सा रहा है। यह बाबा रामदेव का बनाया नहीं है। इसे सैंकड़ो-हजारों सालों से भारत में लोग इस्तेमाल करते आ रहे हैं।

यह अमूल्य धरोहर है बाबा रामदेव ने इसे अपनी संपदा और मुनाफे की खान बनाकर जनता की धरोहर को लूटा है। बाबा रामदेव को परंपरागत योग को माल बनाकर बेचने और उससे अबाध मुनाफा कमाने का कोई नैतिक हक नहीं है। योग निजी बौद्धिक उत्पादन या सृजन नहीं है। वह भारत की जनता की साझा सांस्कृतिक संपदा है उससे कमायी गयी दौलत को बाबा को निजी ट्रस्ट के हवाले करने की बजाय राष्ट्र के हवाले करना चाहिए। क्योंकि योग पर उनका पेटेंट राइट नहीं बनता। ऐसी अवस्था में वे इससे मुनाफा अपने ट्रस्ट के खाते में कैसे डाल सकते हैं?

सोनिया व राहुल गांधी के विरोध के निहितार्थ

– निर्मल रानी

राजीव गांधी की 20 मई 1991 में हुई हत्या तथा उसके पश्चात हुए संसदीय चुनावों के बाद हालांकि नरसिंहाराव कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री अवश्य बन गए थे। परंतु उनके प्रधानमंत्री बनने तथा सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जिस प्रकार पार्टी रसातल की ओर बढ़ती चली गई, वह भी कांग्रेस पार्टी के इतिहास के सबसे बुरे दौर की घटना मानी जाती है। यह वही दौर था जबकि 6 दिसंबर 1992 की अयोध्या घटना घटी तथा उसके बाद कांग्रेस का पारंपारिक वोट बैंक समझे जाने वाले मुस्लिम मतदाता कांग्रेस पार्टी से दूर चले गए। और यही वह दौर भी था जबकि कांग्रेस से जुड़े एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता यहां तक कि देश के तमाम रायों के अनेक वरिष्ठ पार्टी नेतागण यह सोचकर कांग्रेस को अलविदा कह गए कि शायद अब सत्ता कांग्रेस के लिए दूर की कौड़ी साबित होगी। ज़ाहिर है जहां वह समय कांग्रेस जनों के लिए संकट कासमय था वहीं कांग्रेस विरोधी राजनैतिक संगठन खासतौर पर वे राजनैतिक दल जो कांग्रेस को सत्ता प्राप्ति की अपनी राह का कांटा समझते थे उन दल के नेताओं ने बहुत बड़ीराहत की सांस ली थी। यहां यह बात भी गौरतलब है कि यही वह दौर भी था जबकि राजीव गांधी की हत्या के बाद तमाम वरिष्ठतम कांग्रेस नेता गण सोनिया गांधी से इस बात की मान मुनौव्वल करने में लगे थे कि वे किसी भी तरह से सक्रिय राजनीति में भाग लेकर कांग्रेस को संकट से उबारें। परंतु अपनी सास इंदिरा गांधी तथा पति राजीव गांधी की राजनैतिक कारणों के परिणाम स्वरूप हुई हत्या से दुखीसोनिया गांधी राजनीति में अपनी सक्रियता के मुद्दे पर कई वर्षों तक बार-बार इंकार करती रहीं।

बहरहाल सोनिया गांधी से अधिक समय तक कांग्रेस पार्टी की दुदर्शा होते नहीं देखा गया और आंखिरकार वह इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की राजनैतिक विरासत संभालने के लिए तैयार हो गईं। सोनिया गांधी को न केवल कांग्रेस महासमिति ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित किया बल्कि उस समय से लेकर आज तक चाहे वह कर्नाटक में बेल्लारी की लोकसभा सीट रही हो या फिर उत्तर प्रदेश में अमेठी यारायबरेली के लोकसभा क्षेत्र, जहां भी सोनिया गांधी ने संसदीय चुनाव लड़े वहीं जनता ने उन्हें भारी बहुमत से जिताकर लोकसभा के लिए भेजा। सोनिया गांधी की राजनैतिक सक्रियता के कुछ ही समय बाद राहुल गांधी ने भी अपनी मां को सहयोग देना शुरू कर दिया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी एक बार फिर केंद्रीय स्तर पर अपने आप को सुरक्षित व संरक्षित महसूस करने लगी। इंदिरा नेहरू घराने की गत 6 दशकों से राष्ट्रीय स्तर पर चली आ रही स्वीकार्यता के परिणामस्वरूप देश की जनता ने सोनिया गांधी व राहुल गांधी को भी गंभीरता से लिया। परिणामस्वरूप पार्टी से अपने बुरे दिनों से उबरना शुरु कर दिया तथा कई रायों में मृतप्राय: सी होती जा रही कांग्रेस में पुन: जान आना शुरु हो गई। जाहिर है पार्टी के इस पुनर्उत्थान से जहां कांग्रेसजनों के हौसले बुलंद होते जा रहे थे वहीं कांग्रेस विरोधियों की रातों की नींद हराम होने लगी।

कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों द्वारा अब सीधे सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर निशाना साधने की रणनीति बनाई जाने लगी। सर्वप्रथम सोनिया गांधी को विदेशी मूल की महिला बताकर उनपर राष्ट्रीय स्तर पर राजनैतिक आक्रमण किया गया। तरह-तरह के अपमानजनक शब्दबाण उनपर छोड़े गए। कई वरिष्ठ नेतागण जिनमें कि वर्तमान समय में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी शामिल हैं, को सोनिया गांधी की अंग्रेजी बोलने की उनकी शैली व उनके उच्चारण की सार्वजनिक रूप से जनसभाओं में नक़ल करते व खिल्ली उड़ाते देखा गया। बावजूद इसके कि देश की जनता ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री के पद के बिल्कुल करीब तक पहुंचा दिया था। उसके बाद सुषमा स्वराज व उमा भारती जैसी नेताओं ने उनके प्रधानमंत्री बनने का इस निचले स्तर तक विरोध किया जिसकी दूसरी कोई मिसाल भारतीय राजनीति में देखने को नहीं मिलती। किसी ने कहा यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं तो हम उल्टी चारपाई पर लेटना शुरु कर देंगे। किसी ने कहा कि हमसूखे व भुने चने खाना शुरु कर देंगे। तथा किसी ने अपना सिर मुंडाने तक की बात कह डाली।

णरा सोचिए कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि देश की जनता संवैधानिक रूप से किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री अथवा मुख्‍यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाए तो विरोधियों द्वारा इस प्रकार व्यक्तिगत् स्तर कीर् ईष्या का प्रदर्शन क्या न्यायसंगत कहा जा सकता है? परंतु सोनिया गांधी ने मई 2004 में कांग्रेस संसदीय दल द्वारा नेता चुने जाने के बावजूद प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार कर अपने विरोधियों को राजनैतिक महात्याग रूपी ऐसा करारा तमाचा मारा कि जिसकी धमक से कांग्रेस विरोधी दल आज तक उबर नहीं पा रहे हैं। हां इतना जरूर है कि इन कांग्रेस विरोधियों विशेषकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी से व्यक्तिगत् रूप से ईर्ष्‍या रखने वालों की समझ में शायद यह बात अवश्य आ गई है कि सोनिया गांधी के विरुध्द किया जाने वाला विदेशी महिला का उनका विलाप उन्हें मंहगा पड़ा तथा देश की जनता ने इस तर्क को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया। परंतु सोनिया व राहुल दोनों पर प्रहार करने तथा उनके विरुद्ध अनाप-शनाप बोलने का यह सिलसिला अभी भी पूर्ववत् जारी है। तमाम नेता तो ऐसे भी हैं जो केवल मीडिया में सुर्खियां बटोरने की गरज से ही सोनिया व राहुल का सीधा विरोध करते हैं।

जब सोनिया अथवा राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में दलित चौपाल में जाते हैं अथवा राहुल गांधी दलितों के घरों में जाकर उनके साथ रात गुजारते हैं अथवा उनके साथ भोजन ग्रहण करते हैं तो उस समय दलितों की स्वयंभू मसीहा तथा उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती को अपना सिंहासन डोलता नार आने लगता है। और अपनी राजनैतिक जमीन अपने पैरों से खिसकते देख कर वह भी तिलमिला कर कह बैठती हैं कि दलितों के घर से दिल्ली वापसी के बाद राहुल गांधी को गंगाजल से नहला कर उनका शुद्धिकरण किया जाता है। परंतु न तो सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी अपने ऊपर लगने वाले इन घटिया आरोपों का कभी उत्तर देना मुनासिब समझते हैं न ही ऐसे नेताओं को यह लोग इन्हीं की भाषा व शैली में जवाब देना पसंद करते हैं। बजाए इसके यह लोग जनता के विवेक पर ही सब कुछ छोड़ देते हैं।

इन दिनों बिहार राज्‍य विधानसभा के चुनाव संपन्न हो रहे हें। तमाम चिरपरिचित चेहरे बिहार की राजनीति में जनता या बिहार के भाग्य का नहीं बल्कि शायद अपने ही राजनैतिक भाग्य का फैसला करने के लिए तरह-तरह के तिकड़म भिड़ा रहे हैं। कांग्रेस पार्टी पर परिवार वाद का आरोप लगाने वाली तमाम पार्टियों व उनके नेताओं को अपने-अपने परिवार मोह में उलझे देखा जा सकता है। कल तक कांग्रेस पार्टी की बैसाखी बने लालू यादव ने इस बार अपने तेजस्वी नामक एक पुत्र को भी चुनाव प्रचार में उतारा है। लालू यादव इस गलतंफहमी के अभी से शिकार हो चुके हैं कि उनका पुत्र अभी से राहुल गांधी से भी आगे निकल गया है। कल तक तमाम कांग्रेस विरोधी नेता राहुल गांधी को राजनीति में बच्चा बताने की कोशिश में लगे थे तो अब लालू यादव के पुत्र ने तो राहुल गांधी को बूढ़ा ही कह कर संबोधित कर दिया है। अब आखिर इस प्रकार के राहुल विरोध को किस स्तर तथा किस मंकसद के विरोध की संज्ञा दी जाए? यहां हम सोच सकते हैं कि लालू यादव के पुत्र ने अपनी कम उम्र और नासमझी के तहत ही शायद यह बात कही हो। परंतु शरद यादव जैसे वरिष्ठ नेता को न हम कम उम्र कह सकते हैं न ही कम तजुर्बेकार या अपरिपक्व राजनीतिज्ञ। यह जनाब भी पिछले दिनों बिहार की एक चुनावी जनसभा में न केवल राहुल गांधी की नंकल करते हुए अपनी आस्तीन चढ़ाते देखे गए बल्कि जनता के बीच उन्होंने यह तक कह डाला कि राहुल गांधी को तो गांगा नदी में फेंक दिया जाना चाहिए। स्पष्ट है कि राजनीति में उपरोक्त किस्म के विचारों अथवा शब्दावलियों की कोई गुंजाईश नहीं होनी चाहिए। परंतु यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि जिन नेताओं द्वारा सोनिया गांधी व राहुल गांधी के विरुध्द ऐसे शब्दों या विचारों का प्रयोग किया जाता है, वे यह बात भलि-भांति जानते हैं कि दरअसल नेहरु-गांधी परिवार ही सत्ता की उनकी राह में सबसे बड़ा कांटा है। और यही ईर्ष्‍या इस प्रकार के अपशब्दों, विचारों तथा आचरण के रूप में सार्वजनिक रूप से अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग नेताओं द्वारा समय-समय पर व्यक्त होते हुए देखी जाती है।

राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून तथा कृषि और किसान

-प्रभात कुमार रॉय

भूखे भजन न हो गोपाला/ ले ले अपनी कंठी माला

भूख वस्‍तुत: एक ऐसी स्थिति जो मनुष्‍य को कुछ भी करने के लिए विवश कर सकती है। तभी तो नजी़र अक़बराबादी फरमाते हैं.

दिवाना आदमी को बनाती हैं रो‍टियां/खुद नाचती है सबको नचाती हैं रोटियां/ बूढा चलाए ठेले को फाकों से झूल के/बच्‍चा उठाए बोझ खिलौने को भूलके/ देखा ना जाए सब वो दिखाती हैं रोटियां/….

यूएनडीपी के ऑंकडो़ पर यकी़न किया जाए तो भारत में भूखे पेट सोने वालो की संख्‍या तकरीबन 40 करोड़ तक पँ‍हुच चुकी है। यूएनडीपी द्वारा तो हमारे राष्‍ट्र के आठ राज्‍यों उत्‍तर प्रदेश, बिहार, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान, उडी़सा, झारखंड, छत्‍तीस गढ़ और पश्चिम बंगाल को दुनिया सबसे गरीब अफ्रीका के 26 देशों से भी अधिक भूखा और गरीब करार दिया गया है। गरीबी रेखा से जीने वाले भारतवासियों का पैमाना ही महज 2400 कलौरी खुराक़ रही है। जिन लोगों को यह निर्धारित कलौरी हासिल नहीं हुआ करती, सिर्फ वे ही तो गरीबी रेखा के भी नीचे तसलीम किए जाते हैं। देश के कुल बच्‍चों की आबादी के पचास फीसदी बच्‍चें तो कुपोषित रहने के लिए अभिशप्‍त हैं ।

हुकूमत ए हिंदुस्‍तान ने राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (नेशनल फूड सिक्‍यूरिटी एक्‍ट) लाने ऐलान कर दिया है। देश में खाद्य पदार्थो की आसमान छूती हुई कीमतों के कारण तो इस कानून की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है। किंतु राष्‍ट्रीय आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक गरीब परिवार को पैंतीस किलो से अधिक अनाज प्रदान करने से स्‍पष्‍ट इंकार कर दिया है। जबकि पांच व्‍यक्तियों के गरीब मेहनतकश परिवार को सत्‍तर किलो प्रतिमाह अनाज चाहिए। भारत तईस करोड़ टन खाद्यान्‍न प्रतिवर्ष उत्‍पन्‍न करता है और इसमें सरकारी खरीद महज पांच करोड़ टन की ही है। देश के सभी नागरिकों को सकल खाद्य का अधिकार प्रदान करने स्‍थान पर, यदि हुकूमत केवल गरीबों के लिए यह प्रावधान करती तो संभवतया यह सार्थक तौर पर लागू किया जा सकता था। भारत में प्रति व्‍यक्ति खाद्यान्‍न पदार्थो की उपलब्‍धता पांच सौ ग्राम से कम है, जबकि चीन में यह तीन किलो ग्राम है। चीन की आबादी भारत से केवल 20 करोड़ ही अधिक है और वह भारत के 23 करोड़ टन के मुकाबले 50 करोड टन खाद्यन्‍न पैदा करता है। चीन अपनी आबादी को बाकायदा कंट्रोल कर चुका है और भारत की आबादी अबाध गति से बढ़ रही है। आखिरकार फिर कैसे भारतवर्ष की सरकार ऐसी नीतियों के चलते इतनी विशाल आबादी का पेट भर सकेगी, जिन आर्थिक नीतियों के कारणवश दशकों से कृषि और किसान तो देश के आर्थिक हाशिए पर फेंक दिए गए हैं।

राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की सार्थकता तभी मुमकिन हो सकती है, जबकि सर्वप्रथम उस जमीन की हिफा़जत की जाए जोकि खाद्य पदार्थो मुख्‍यत: अनाज, दाल, सब्‍जी, और फलों को पैदा करती है। उस जल की हिफा़जत हो सके जोकि वर्षा के रूप में सूखी जमीन को सरसब्‍ज करता है और सूखे के हालत में धरती की कोख से निकल कर जमीन को जिंदगी प्रदान करता है। उन तमाम वर्षा वनों की हिफाजत हो जोकि सैलाब और बाढो़ को रोकते आए हैं। उस अन्‍नदाता किसान की हिफाज़त हो जो शस्‍यशामला धरा पर अपना खून पसीना एक करके समस्‍त देश का पेट भरता रहा है। इन तमाम सुरक्षाओं के आभाव में खाद्य सुरक्षा कानून की बात एकदम ही बेमानी है।

केंद्रीय हुकूमत को कृषि के विकास की कितनी चिंता रही है। लालकिले से बोलते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि कृषि विकास दर को सात फीसदी तक बढाने तक की सरकार कोशिश करेगी। आजकल यह दर महज तकरीबन ढाई फीसदी है। भारतीय कृषि के समुचित विकास की खातिर हुकूमत ने एक सरकारी कमेटी का गठन अंजाम दिया है। इस कमेटी में कृत्रिम बीज उत्‍पादक मोसोंटो और कारगिल कंपनियों के नुमाइंदे शामिल किए गए। यकी़नन अब खेती की तरक्‍की के लिए कृत्रिम बीजों के उपयोग को बढावा दिया जाएगा। साथ ही साथ उपज का बचाने के के लिए पुरानी तर्ज पर ही विदेश से इंर्पोटेड कीटनाशक दवाओं को भी तरजीह प्रदान की जाएगी। इस सब कवायद का फायदा किसे मिलेगा इसमें अब कोई शक ओ शुबा नहीं होना चाहिए। देश का किसान इससे और अधिक कंगाल होगा और देशी विदेशी कंपनियां और अधिक मालामाल हो जाएगीं।

केंद्रीय हुकूमत का विज़न डाक्‍यूमेंट वर्ष 2020 बयान करता है कि सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पादन में कृषि के 14 फीसदी योगदान को घटाकर केवल 6 फीसदी तक लाना है। एक तरफ सरकार का यह लक्ष्‍य है और दूसरी तरफ राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की खोखली बातें हैं। शुरू से ही सरकारी नीतियों के कारण सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पादन में कृषि का योगदान निरंतर ही घटता चला गया। प्रथम पंचवर्षीय योजना के वक्‍त़ यह 53 फीसदी था जोकि अब मात्र 14 फीसदी रह गया। आजकल देश की आबादी का सत्‍तर फीसदी किसानों का है जोकि सन् 2020 तक 60 फीसदी रह जाएगी। 60 फीसदी किसान सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पादन में केवल 6 फीसदी का ही योगदान करेंगें, तो फिर किसान कितने और अधिक गरीब हो जाएगें। शासकीय नीतियों के कारण भारत में खेती बाडी़ तो एक जबरदस्‍त घाटे का सौदा बन ही चुकी है। इन हालात के जारी रहते तकरीबन 70 फीसदी किसान कर्ज कि बोझ तले दबा हुआ है। किसान की उपज का मूल्‍य निर्धारित करने के लिए जो मापदंड सन् 1949 में अपनाया गया था, वह तो बदस्‍तूर आज भी जारी है। कृषि और किसान की भयावह लूट खसोट का स्‍पष्‍ट मकसद रहा, देश में औद्यौगिकरण की रफ्तार को और तेजतर करना। युगों से किसानों और मजदूरों के हिस्‍से के धन की लूट से ही जबरदस्‍त पूंजी संग्रह होता आया है। केवल यही वजह रही कि किसान की उपज का मूल्‍य निर्धारण हूकुमत ने अपने ही हाथों में ले रखा है । मुक्‍त व्‍यापार को और खुले बाजार को अपना सबसे अहम सिद्धांत करार देने वाले पूंजीपति गण और उनके हिमायती बुद्धिजीवी सरकार इस रीति नीति पर खामोश खडे़ हुए हैं। किसानों को सरकारी बैंकों से हासिल होने वाले कर्ज पर चक्रवृद्धि ब्‍याज का प्रावधान रहा है। अंग्रेजों के काल तक में यह कानून था कि ब्‍याज किस भी सूरत में मूलधन से ज्‍यादा नहीं हो सकेगा। अब इस आजादी के दौर में कोई क्‍या कहे और क्‍या सुने। किसानों का मूलधन से अनेक गुना ब्‍याज अदा करना पड़ता है। जो राहतें और सहूलियतें किसानों को प्रदान करने का डंका सरकार बजाती है वह तो उस तमाम लूट का एक हिस्‍सा मात्र है जो किसान से की जाती रही है। इन्‍हीं विषम हालात के कारण विगत वर्षो में लगभग देश के दो लाख किसान आत्‍मघात के विवश हो चुके हैं।

देश को यदि वास्‍तव में खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की नीयत हुकूमत की है तो स्‍पेशल इकानमिक जोन(सेज) की कारपोरेट साजिश को परित्‍याग करके किसानों की छोटी जोतों को लाभकारी बनाने का संजीदा और समुचित प्रयास करना होगा। अन्‍यथा किसानों की बर्बादी और उनकी लाशों पर अपनी मखमली सेज सजाने वाली आर्थिक नीतियों के निर्माता देश को कैसी खाद्य सुरक्षा दे सकेगें। ग्‍लोब्‍लाइजेशन का नारा बुंलद करने वाले हो अथवा शाइनिंग इंडिया की दुहाई देने वालो की आर्थिक नीतियों ने किसान और कृषि को तबाह कर दिया है।

नेताओं की जबान पर लगाम जरूरी

-ए एन शिबली

बिहार के फतुहा में एक चुनावी सभा में बहुत ही वरिष्‍ठ राजनेताओं में से एक शरद यादव ने एक तो राहुल गांधी की नकल उतारी और फिर उन पर निशाना साधते हुए कहा कि क्या आप जानते हैं, कोई कागज पर लिखता है और आप को दे देता है और आप बस इसे पढ़ देते हैं आप को उठा कर गंगा में फेंक देना चाहिए। लेकिन लोग बीमार हैं। शरद यादव ने यह जो बातें कहीं उसे पूरे देश ने टेलिवीजन पर देखा मगर जैसा कि नेता हमेशा कुछ कहने के बाद मुकर जाते हैं, शरद यादव भी मुकर गए और उसी दिन शाम होते होते कहा उन्हों ने ऐसा कुछ नहीं कहा था और उन्होंने जो कहा था उसका मतलब वह नहीं था जो समाचारों में बताया जा रहा है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि शरद यादव ने राहुल और उनके मां बाप को जो कहा वह तो कहा ही जनता को भी बीमार कह दिया। जी हां उस जनता को जिसके पास वह एक तरह से वोट की भीख ही मांगने गए थे। असलियत यह है कि नेताओं का बस एक ही मकसद होता है अपने विरोधी को नीचा दिखना और अपनी राजनीति चमकाना चाहे इस के लिए किसी भी हद तक क्यों न गिरना पड़े। कुछ ही दिनों पहले की बात है शब्द कुत्ता सुखिर्यों में था। वैसे तो इस शब्द का प्रयोग हर दौर में होता रहा है। हिन्दी फिल्मों में धर्मेन्द्र हमेशा कुत्ते मैं तेरा खून पी जाउंगा कहते आए हैं और लोग एक दूसरे को कुत्ते की मौत मारते आए हैं। मगर कुछ माह पहले कुत्ता का महत्व इस लिए बढ़ गया क्योकि इस बार इसका प्रयोग भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किया था। लोकसभा में कटौती प्रस्तावों का समर्थन न करने के लिए भारतीय राजनीति के दो बड़े यादवों मुलायम सिंह और लालू प्रसाद पर निशाना साधते हुए गडकरी पार्टी बैठक में कहा था ”बड़े दहाड़ते थे शेर जैसे और कुत्तो के जैसे बनकर सोनिया जी और कांग्रेस के तलवे चाटने लगे।” कहने को तो गडकरी ने ऐसा कह दिया मगर उन्हें बाद में जनता का विरोध देख कर अंदाजा हो गया कि उन्हों ने मुलायम सिंह और लालू प्रसाद जैसे बड़े नेता को ऐसा कह कर एक बड़ी भूल कर दी। जब उन्हें इसका अहसास हुआ तो उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने सिर्फ एक मुहावरे का इस्तेमाल किया था और किसी को आहत करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं अपने द्वारा की गई टिप्पणी के लिए खेद व्यक्त करता हूं और अपने शब्दों को वापस लेता हूं। मेरे मन में मुलायम सिंह और लालू प्रसाद के लिए अत्यंत सम्मान है। किसी को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ठेस पहुंचाने का मेरा इरादा नहीं था। गडकरी के खेद व्यक्त करने के बाद मुलायम सिंह यादव तो कुछ नर्म पड़ गए थे मगर लालू कहां पीछे रहने वाले थे उन्हों ने कहा था गडकरी कान पकडकर माफी मांगे नहीं तो उनकी पार्टी जन-आंदोलन छेड़ेगी।

यह मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह ने ‘कुत्ता प्रकरण’ में कूदते हुए सपा से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को उनके बयान के लिए माफ करने की अपील के साथ कहा है कि वह भली-भांति जानते हैं कि देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है। अमर ने अपने ब्लाग पर लिखा ”गडकरी के एक बयान पर काफी तूफान मचा हुआ है। बयान पर मचे तूफान के बाद गडकरी की ओर से खेद प्रकट कर देना मामले का अंत कर देने के लिए काफी था। समाजवादी पार्टी आज कल मुद्दा विहीन है, इसलिए चर्चा में बने रहने के लिए गडकरी के खेद प्रकट करने के बाद भी उन्हें कुत्ता कह डाला। ऐसे में सपा में और गडकरी में क्या स्तरीय अंतर रहा। मुझे भली-भांति पता चल गया है कि इस देश की राजनीति में सचमुच कुत्ता कौन है।

अब प्रश्न यह है कि क्या गडकरी, शरद यादव या दूसरे नेता अनजाने में ऐसा गलत कह जाते हैं या फिर यही उनकी असलियत है। सच्चाई यह है कि भारतीय राजनीति में सिर्फ गडकरी ही नहीं ऐसे बहुत से नेता हैं जो आए दिन ऐसे शब्दों का इस्तमाल करते रहते हैं जिन्हें एक सभ्य समाज में किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। मुलायम सिंह और लालू प्रसाद तो आए दिन ऐसा कुछ न कुछ बोलते हैं जिन्हें बहुत बुरा नही ंतो अच्छा भी नहीं कहा जा सकता।

सिर्फ लालू प्रसाद ही नहीं बल्कि ऐसे नेताओं की संख्या कम नहीं है जो आए दिन कुछ न कुछ ऐसी टिप्पणी जरूर करते हैं जिसे शालीन नहीं कहा जा सकता। गत वर्ष उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और वरूण गांधी को अपने विवादास्पद बयानों के लिए सबसे ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ी थी। मायावती के खिलाफ टिप्पणी करके रीता ने अपने लिए मुसीबत बुलाई तो वरूण गांधी ने हिंदुत्व की तरफ बढ़ने वाले हाथ को तोड़ने की बात कहकर आफत मोल ले ली। गत वर्ष पंद्रह जुलाई को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने दुष्कर्म के एक मामले में मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करके बसपा कार्यकरताओं के गुस्से को दावत दे दी। लोकसभा चुनावों के दौरान पीलीभीत से भाजपा के उम्मीदवार वरूण गांधी भी विवादों में घिरे। उन्होंने कथित तौर पर कहा कि हिन्दुत्व की ओर बढ़ने वाला हाथ तोड़ दिया जाएगा। एक बार महिला आरक्षण्ा के संबंध में मुलायम ने कहा कि आरक्षण लागू हो जाने से बड़े बड़े घरों की लड़कियां राजनीति में आएंगी जिन्हें लड़के देख कर सिटी बजाएंगे। कुल मिलाकर नेताओं में किसी को यह मुंह नहीं है कि वह दूसरों को बुरा कहें जिसे जब अवसर मिलता है गाली बोल देते हैं और जब बात बिगड़ती है तो यह कह कर मामला शांत करने की कोशिश करते हैं कि हमारा मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं था। पहले जो काम अन्य नेता करते रहे हैं इस बार वह शरद यादव ने किया है। नए और युवा नेता जोश में कुछ गलत बोल जाऐ तो बात समझ में आती है मगर शरद यादव जैसा सीनियर नेता जब जनता को ही बीमार कह दे तो इस से देश में राजनीति के घटते स्तर का अंदाजा होता है।