उ.प्र. में भूमि अधिग्रहण का ताज उदारण हमारे लिया एक दम नया ज़रूर है अगर हमको इससे सीख नही मिली तो फिर आने वाला वक़्त और भी भयानक हो सकता है जिस प्रकार से उ.प्र. राज्य सरकार किसानों की ज़मीन को कम दामो में खरीदकर नोएडा यमुना एक्सप्रेस हाई -वे बनाकर नोएडा से आगरा १६५ किलोमीटर की दूरी कों मात्र ९० मिनट में तय करवाना चाहती है
किसानों दुवारा भूमि अधिग्रहण का आन्दोलन अलीगढ से शुरू होकर पूरे पश्चिमी उ.प्र. में जंगल में आग की तरह फैल चुका है .यह आन्दोलन रूपी आग अब तक न जाने कितने लोगों को स्वाहा कर चुकी है . राज्य सरकार किसानों की जमीन को हड़पने की तेयारी में नोएडा यमुना-एक्सप्रेस का निर्माण जे.पी. समूह के साथ मिलकर कर रही है . इस हाई वे के आस पास चार जिलो ( हाथरस , आगरा ,मथुरा ,अलीगढ ) की भूमि पर जो अधिग्रहण किया जा रहा है. गुस्से से बेकाबू हुए किसान अब ज़मीन की बचाने की लिए मरने – मारने को तैयार है. किसानो का यह भी कहना है कि राज्य सरकार हमारे साथ नाइंसाफी कर रही है. नोएडा के आस पास के किसानो कों ज़मीन का मूल्य ऊंचे दामों पर अदा किया जा रहा है .जबकि आगरा , मथुरा के किसानो कों वही भूमि सस्ते दामो पर खरीदी जा रही है . नाजायज तरीके से भूमि अधिग्रहण के इस भेदभाव से अलीगढ के किसानो ने आन्दोलन का रास्ता पकड़ लिया ही।
चौदह अगस्त कों किसान नेता राम बाबू कठेरिया की गिरफ्तारी से गुस्साए किसानो पर पुलिस दोबारा की गयी फायरिंग से मारे गए युवकों के कारण, किसानों ने स्वतंत्रता दिवस के मोके पर लाठी चार्ज की , जब देश आज़ादी का ६३ वां स्थापना दिवस मना रहा था. ठीक उसी समय यमुना- एक्सप्रेस हाई वे निर्माण पर आन्दोलन करने वालो ने चालीस वाहनों कों आग की हवाले कर दिया . हर किसान के लिए उसकी ज़मीन का हर एक टुकड़ा उसके जिगर के टुकडे से कही बढ़ कर होता है . पहले तो किसान भी पैसे की चाह में अंधे हो बैठे थे . अब अपनी ज़मीन बिल्डरों कों बेचकर पछता रहे है . उस ज़मीन से मिला पैसा अब जब खत्म होने की कगार पर है . तब उनको अपनी ज़मीन याद आ रही है.जो किसान समझदार निकले उन्होंने पानी ज़मीन बचाए रखी . कल तक जिस ज़मीन में हमको फसल हरी भरी दिखती थी . आज उसी ज़मीन में ईट पथरो, और कंक्रीट से बने बड़े -२ चमचमाते शोपिंग माल दिखाई देते है . जो खुद हमारी ही जेब ढीली करवा रहे है .
उसी ज़मीन में लगे बड़े-२ ऊद्योग धंदे और धुवा रहित फेक्ट्रिया जो की पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा बनी है, और हमरे ही लिए मोत का साया भी . सन उन्नीस सो पचास से लेकर अब तक किसानो कों ओधिगिकरण के लिए बड़ी तादाद में अपनी ज़मीन गवानी पड़ी. जिस देश की सत्तर फीसीदी आबादी कृषि पर निर्भर करती है जिसका मात्र सत्रह फीसीदी हिस्सा बचा है. वेश्वीकरण के इस दोर में भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण कंक्रीट से बने शोपिंग माल और बड़ी -२ इमारतो के चक्करों में आकर अपनी धरोहर कों ही तबाह करने पर क्यों तुले है ? राज्य सरकार प्रोपर्टी डीलर की भूमिका में आकर और कारपोरेट घरानों के चक्कर में पड़कर अपनी खेती की जमीन कों बर्बाद करवाने पर तुले है।
… लेकिन याद रहे वह दिन भी दूर नहीं जब हमारे देश में हर इंसान एक- एक दाने के लिए तरसेगा। इसी प्रकार कारपोरेट जगत इंडिया बनाने की होड़ में अपने इस लाडले से भारत को गुम करने में लगा है…….
गायिका रिचा शर्मा का यह झटका उन श्रोताओ को निश्चित रूप से लगा होगा जो की हमेशा ही उनसे सूफी गायकी की उम्मीद रखते हैं. फ़िल्म ”एक्शन रीप्ले ” दीवाली पर रिलीज़ होने वाली है और इस फ़िल्म का यह गीत ” जोर का झटका हाय जोरो से लगा” श्रोताओं के बीच बहुत ही लोकप्रिय हो चुका है. रिचा श्रोताओ के बीच लोकप्रिय हो चुके इस गीत की वजह से बहुत ही खुश हैं और खुश हैं इस कारण भी कि संगीतकार प्रीतम ने उनसे मसाला मूवी का मसाला गाना गवाया और वो भी ऐश्वर्या रॉय बच्चन के लिए. वैसे रिचा ने ऐश्वर्या के लिए पहले भी ”ताल” फ़िल्म में एक गीत गाया था लेकिन वो सूफियाना गीत था.
तो यह दिवाली रिचा के लिए बहुत ही अच्छी दिवाली साबित हो रही है क्योंकि उनका गाया गीत तो सुपर हिट हो चुका है. क्योंकि उनकी गायकी का यह जोर का झटका सच में श्रोताओ को जोरो से ही लग रहा है.
1962 ई. में भारत-चीन युध्द के समय बिहार के बक्सर जिला स्थित मेरे गांव से कुछ कम्युनिस्ट गिरफ्तार हुए थे। 12 वर्ष की आयु में उनकी गिरफ्तारी पर मुझे बहुत आक्रोश आया था। मैंने पिताजी से पूछा कि इन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया है तो पिता जी ने उत्तार दिया कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है उसकी ये खुशी मना रहे थे। तभी से कम्युनिस्टों के बारे में मेरे मानस पटल पर यह बात बैठ गई कि इन्हें भारत पसंद नहीं है।
भारत में जन्म लेने के बाद कोई व्यक्ति भारत का अहित क्यों सोचता है, इसके मूल में वह व्यक्ति कम उस व्यक्ति की शिक्षा और संस्कार को दोषी मानना चाहिए। बाल्यकाल से जिसके मन मस्तिष्क पर भारत के बारे में भारत की एक नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाये तो स्वाभाविक है कि वह भारत विरोधी हो जायेगा। भारत विरोध के काम में सक्रिय इस्लामिक मौलवी, विदेशी पादरी एवं वामपंथी लेखक ही इस भारत विरोध की जड़ में बैठे हुए हैं।
”पटना से दिल्ली तक की यात्रा में एक मार्क्सवादी कार्यकर्ता के साथ कई विषयों पर जब मैं चर्चा कर रहा था तो वह बार-बार हमें यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि मार्क्सवादी ही भारत की सत्य बातों को समाज के सामने लाते हैं। अत: उसने कहा कि आपको सीपीएम दफ्तर में जाकर सीपीएम द्वारा प्रकाशित और प्रचारित साहित्य को पढ़ना चाहिए और मैं दिल्ली स्थित सीपीएम कार्यालय गया और कुछ पुस्तकों को खरीद लिया। खरीदे गए पुस्तकों में से तीन पुस्तकों को मैं पढ़ चुका हूं- पहला, ”आरएसएस और उसकी विचारधारा”, दूसरा ”गोलवलकर या भगत सिंह” एवं तीसरा, ”घृणा की राजनीति।”
”मदन दास देवी के अपने सहजादे का नाम भी कुख्यात पेट्रोल पम्प घोटाले में शामिल रहा है”- यह अपने आप में इतना बड़ा झूठ और चरित्रहनन की कोशिश थी जिसने मुझे कम्युनिस्टों को बेनकाब करने को प्रेरित किया क्योंकि मदन दास जी को पिछले 32 वर्षों से मैं जानता हूं। मदन दास जी अविवाहित हैं। ”गोलवलकर या भगत सिंह” नामक पुस्तक के पृष्ठ-41 पर संघ के लोगों की चरित्र हत्या करते समय ”गोलवलकर या भगत सिंह” के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के ऊपर न केवल गुस्सा आता है बल्कि ऐसे लेखकों के प्रति मन में घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है।
कम्युनिस्टों ने अपने प्रत्येक लेख में यह लिखकर साबित करने की कोशिश की कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया बल्कि उसने अंग्रेजों का साथ दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में लिखते समय इन तीनों पुस्तकों में कम्युनिस्टों ने अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए. करान जूनियर के शोधग्रंथ ”मिलिटेन्ट हिन्दुज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स स्टडी आफ द आरएसएस” पुस्तक का बार-बार उल्लेख किया है। हंसी तब आती है जब सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित घृणा की राजनीति पृष्ठ-17 पर प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 1979 लिखा गया है जबकि आरएसएस और उसकी विचारधारा नामक पुस्तक जिसे अरूण माहेश्वरी ने लिखा है। इसमें इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 1951 दिखाया गया है। अब यह पाठकों को तय करना है कि जिस अमेरिका को कम्युनिस्ट दिन-रात गाली देते रहते हैं उसी अमेरिका के एक संस्था द्वारा कराये गये एक शोध को ये वामपंथी अपना बाइबल मानकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गाली देने का काम कर रहे हैं।
‘गोलवलकर या भगत सिंह’ सम्पादक राजेन्द्र शर्मा के पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी द्वारा लिखित पुस्तक ”हम अथवा हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा” (ये हिन्दी में अनुवादित) नामक पुस्तक को इन लोगों ने प्रकाशित किया है। वामपंथियों ने स्वयं स्वीकार किया है कि आरएसएस ने इस पुस्तक को बाद में वापस ले लिया था फिर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार अंग्रेजों के बारे में क्या था इनके अनुवादित पुस्तक से ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं:-
पृष्ठ-76- इसे भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि गोरे मनुष्य की श्रेष्ठता ग्रंथी उनकी दृष्टि को धुंधली कर देती है….. उनमें न तो ऐसी उदारता और न सत्य के लिए ऐसा प्रेम। अभी कल ही की तो बात है जब वे अपनी नंगी देह पर विचित्र गोद ने गुदवाये और रंग पोते जंगलों में आदिम अवस्था में भटकते फिरते थे।
पृष्ठ-79- लेकिन, इससे पहले की इस जीत के फल एकत्र किये जा सकते, इससे पहले की राष्ट्र को शक्ति अर्जित करने के लिए सांस लेने की मोहलत मिल पाती ताकि वह राज्य को संगठित कर पाता, एक पूरी तरह से अप्रत्याशित दिशा से एक नया शत्रु चोरी छिपे विश्वासघाती रूप से देश में घुस आया और मुसलमानों की मदद से तथा जयचन्द, राठौर, सुमेर सिंह जैसे विश्वासघाती शासकों के कबीले के जो लोग अब भी बने हुए थे उनकी मदद से उन्होंने तिकड़मबाजी की और भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया…. उल्टे कमजोरी के बावजूद वह 1857 में एक बार फिर दुश्मन को खदेड़ने के लिए उठ खड़ा हुआ था।
पृष्ठ-80- बेशक हिन्दू राष्ट्र को जीता नहीं जा सका है वह लड़ाई जारी रखे हुए है…..लेकिन लड़ाई जारी है और अब तक उसका निर्णय नहीं हुआ है……शेर मरा नहीं था सिर्फ सो रहा था वह एक बार फिर जाग रहा है और दुनिया पुनर्जाग्रत हिन्दू राष्ट्र की शक्ति देखेगी वह अपने बलिष्ठ बाजू से कैसे शत्रु के शेखियों को ध्वस्त करता है।
अंग्रेजों के शासन में अंग्रेजों को असभ्य, शत्रु, विश्वासघाती शब्दों के माध्यम से इस देश को जगाने वाला गुरू जी का यह लेख (यदि सचमुच उनका ही लेख है) तो अपने आप में न केवल प्रशंसनीय है बल्कि इस बात को प्रमाणित करता है कि गुरू जी के मन में अंग्रेजों के प्रति यह जो आक्रोश था वह आक्रोश संघ की शाखाओं में तैयार होने वाले स्वयंसेवकों के मन में कितना असर करता होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कितना देशभक्त है इसका सर्टिफिकेट कम्युनिस्ट नहीं दे सकते। क्योंकि कम्युनिस्टों ने 1942 से लेकर आज तक देश के साथ गद्दारी ही की है।
कम्युनिस्टों के तथाकथित इन पुस्तकों में चरित्र हनन का भी पुरजोर प्रयास किया गया है। गोलवलकर या भगत सिंह नामक पुस्तक के पृष्ठ-42 और 43 पर संघ प्रचारक और भाजपा के बारे में जो चरित्र हत्या की गई है उसकी जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है।
”किसी को चरित्र की शिक्षा कम्युनिस्टों से लेने की आवश्यकता नहीं है। चरित्र हनन करना यह हम लोगों का संस्कार नहीं है फिर भी मार्क्स-पुत्रों को इशारे में यह बता देना आवश्यक है कि माउत्सेतुंग (जिसने न केवल 5 शादियां की बल्कि प्रत्येक बुधवार को नाचघर में उसके लिए लड़कियां बुलाई जाती थी….) मन में घृणा के साथ-साथ आक्रोश भी पैदा करता है। चरित्र के धरातल पर ऐसे पतीत लोग ही मार्क्सवादियों के मसीहा बने हुए हैं।
मार्क्सवादी किताबों में भारत के प्रति इनकी भक्ति कैसी है उसके कुछ उदाहरण निम्न हैं तथा ये झूठ को कैसे सत्य साबित करते हैं इसके उदाहरणार्थ इनकी पुस्तकों को देखें:-
”एटम बम बनाने के नाम पर केसरिया पलटन जो घोर अंधराष्ट्रवादी रूख करती रही है”- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 24
”उधर भाजपा सांसद मदन लाल खुराना बांग्लादेशी घुसपैठियों की राजधानी में मौजूदगी की अतिरंजि त तस्वीरों के जरिये मुस्लिम विरोधी उन्माद भड़काने में लगे हुए हैं” घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 42
”1938 में ही सावरकर ने खुलेआम यह ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र, हिन्दू और मुसलमान बसते हैं। मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को 1947 में अपनाया था”- घृणा की राजनीति, लेखक सीताराम येचुरी, पृष्ठ- 34
”सन् 1923 में नागपुर की पहली जीत के बाद से ही संघ की गतिविधियां उसी साम्प्रदायिकता भड़काने और मुसलमानों पर हमला करने की षडयंत्र का भी गतिविधियों के अलावा कुछ नहीं थी। तब से आज तक देशभर में संधियों के नियंत्रण की अनेक व्यायामशालाएं दंगाइयों के अड्डे के रूप में काम करते देखी जा सकती है”- आरएसएस और उसकी विचारधारा, पृष्ठ- 65
उपरोक्त वामपंथी शब्द इस बात को प्रमाणित करते हैं कि जब अमेरिका, चीन, सोवियत संघ और पाकिस्तान जैसे देश एटम बम बना सकते हैं तो रक्षार्थ भारत के एटम बम के खिलाफ प्रकट किया गया इनका विचार राष्ट्रद्रोह के सिवा और क्या कहलाएगा? इनके लेख में बंग्लादेशी घुसपैठ को नकारना या भारत एक राष्ट्र है इसका नकारना यह तो पहले से जगजाहिर है पर झूठ बोलने में माहिर मार्क्सवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का काल 1923 से पहले दिखाकर खुद नंगा हो गये। क्योंकि सभी जानते हैं कि संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। मुस्लिम लीग को बचाने के लिए इन्होंने पूरी कोशिश की है और सावरकर को ”द्वि-राष्ट्रवाद” का दोषी करार दिया है जबकि यह सर्वविदित है कि मुस्लिम लीग ने इस सिध्दांत को सबसे पहले प्रतिपादित किया था।
वामपंथियों के झूठ का दस्तावेज स्वयं इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक ही है। झूठ बोलते समय इन्हें जरा भी शर्म नहीं आती है। चलते-चलते एक उदाहरण पर्याप्त है- घृणा की राजनीति नामक पुस्तक जो सीताराम येचुरी के नाम से प्रकाशित है उस पुस्तक के पहले ही लेख में इनकी कथनी और चरित्र तार-तार हो जाता हैं इस पुस्तक के साम्प्रदायिक और फांसीवादी ताकतों की चुनौती शीर्षक के तहत पृष्ठ-29 पर ए.के. गोपालन व्याख्यानमाला में 13 अप्रैल, 1998 को भाषण देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा था…..
”इसलिए भाजपा को शिकस्त देने के लिए कांग्रेस के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाने का अर्थ होगा जिस डाल पर बैठे हों उसी को काटना।”
माक्र्सवादी आज कहां खड़े हैं। उसी कांग्रेस की गोद मे बैठकर मलाई काटने वाले सीताराम येचुरी और उनके पिछलग्गू यह भी भूल गये कि 1998 में कांग्रेस के बारे में उन्होंने उपरोक्त बातें कही थी।
हे भगवान! इन्हें मुक्ति दो क्योंकि ये खुद स्वीकार कर रहे हैं कि जिस डाल पर ये बैठे हैं उस डाल को ही ये काट रहे हैं। भारत में बुरे से बुरे आदमी को भी मरने के बाद हर व्यक्ति भगवान से उसका मुक्ति देने की प्रार्थना करता है। 1990 में पूरी दुनिया में दफनाये गये कम्युनिज्म को भगवान मुक्ति प्रदान करें। भारत में बेचारे केरल और बंगाल समुद्र के किनारे दो प्रांतों में ही सिमटे हुए कांग्रेस की कमजोरियों के कारण राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होने का जो असफल प्रयास कर रहे हैं पता नहीं कब इनके पांव फिसल जाएं और भारत में भी ये समुद्र की लहरों में विलीन हो जाएं। मैं अग्रिम रूप से भगवान से यह प्राथना करूंगा कि भारत के कम्युनिस्टों को भी (भले ही कितना ही इन्होंने राष्ट्रद्रोह का काम किया हो और झूठ बोला हो) हे भगवान मुक्ति प्रदान करना।
केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने संघ को बदनाम करने की अभियान को अपनी कार्यसूची में प्राथमिक स्थान दे दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक और कांग्रेस की विचार भिन्नता जगजाहिर है। कांग्रेस भारत का सांस्कृतिक और आर्थिक विकास ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्धारित कारकों और मानदण्डों के आधार पर करना चाहती है जबकि संघ इस देश की सांस्कृतिक विरासत, अस्मिता, स्वभाव, प्रकृति के अनुसार देश को आगे ले जाना चाहती है। कांग्रेस के वैचरिक मॉडल का सबसे बडा नुकसान यह है इससे देश तरक्की तो कर सकता है लेनिक उसी पहचान मिट जाएगी। डॉ. मोहम्मद इकबाल जिस यूनान, मिस्र, और रोम के मिटने की बात कह रहे हैं उसमें हिन्दुस्थान का नाम भी जुड जाएगा। संघ के वैचारिक मॉडल की खूबसूरती यह है कि इससे देश में विकास भी होगा और उसकी पहचान भी कायम रहेगी। साम्यवादी टोला कांग्रेस के आर्थिक मॉडल से तो असहमत है लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र में कांग्रेस के वैचारिक मॉडल को ही वह सर्वश्रेष्ठ मानता है। इसमें कहीं न कहीं भीतर से कांग्रेस एवं साम्यवादी आपस में जुडे रहते हैं।
इस पृष्ठभूमि में मुसलमान या इस्लामपंथी विवाद का मुद्दा बन जाते हैं। कांग्रेस एवं साम्यवादियों की दृष्टि में इस देश के मुसलमान एक अलग राष्टृ है, इसलिए उनको सावधानीपूर्वक इस देश की छूत से बचाना यह टोला जरुरी मानता है। साम्यवादी यह बात खुलकर कहते हैं और कांग्रेस इसे अपने व्यवहार से सिद्ध करती है। इस वैचारिक अवधारणा के आधार पर ये दोनों देश के मुसलमानों को अलग-थलग करके स्वयं को उनके रक्षक की भूमिका में उपस्थित करते हैं। जाहिर है इस भूमिका में रहने पर दम्भ भी आएगा। अतः ये दोनों दल मुसलमानों के तुष्टीकरण की ओर चल पडते हैं। चूंकि इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली है इसलिए मुसलमानों को यदि बहुसंख्यक भारतीयों में डराए रखा जाएगा जो जाहिर है कि वे अपने वोट भी एकमुश्त उन्हीं की झोली में डालेंगे। अब लोकतांत्रिक में प्रणाली ज्यों-ज्यों सत्ता के दावेदार बढ रहे है त्यो-त्यों मुसलमानों के रक्षक होने का दावा करने वालों की संख्या भी बढती जा रही है। लालू यादव, मुलायम सिह यादव और रामविलास पासवानों का इस क्षेत्र में प्रवेश ‘लेटर स्टेज’ पर हुआ है। परन्तु जो देर से आएगा वो यकीनन हो हल्ला ज्यादा मचाएगा। इसलिए मुसलमानों की रक्षा करने के लिए इन देर से आए रक्षकों के तेवर भी उतने ही तीखे हैं।
इधर जब पिछल पाचं -छह दशकों में दन सभी ने मुसलमानों के दिमान में यह डाल दिया है कि मामला सिर्फ उनकी रक्षा का है और बाकी चीजें तो गौण है तो उनमें से भी कुछ संगठन उठ आए हैं जिन्होंने यह कहना शुरु कर दिया है अब हमें बाहरी रक्षकों की जरुरत नहीं है हम अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। सुरक्षा का काल्पनिक भय कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों ने मुसलमानों के मन में बैठा दिया था और सत्ता में भागीदारी का आसान रास्ता देखकर इन मुस्लिम संगठनों ने भी हाथ में हथियार उठा लिए। यह तक सब ठीक-ठाक चल रहा था केवल मुस्लिम वोटों पर छापेमारी का प्रश्न था जिसके हिस्से जितना आ जाय उतना ही सही।
इस मोड पर ‘स्क्रिप्ट ’ में अचानक कुछ गडबड होने लगी। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट जिन लोगों से मुसलमानों को डरा रहे थे उन्ही लोगों ने मुसलमानों से बिना दलालों एवं एजेंटों की सदस्यता से सीघे -सीधे संवाद रचना शुरु कर दी। 1975 की आपात स्थिति में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और मुसलमानों के बीच जो संवाद रचना नेताओं के स्तर पर प्रारम्भ हुई थी उसे इक्कीसवीं शताब्दी के शुरु में संघ के एक प्रचारक इन्द्रेश कुमार आम मुसलमान तक खीचं ले गए। ऐस एक प्रयास कभी महात्मा गांधी ने किया था लेकिन वह प्रयास खिलाफत के माध्यम से हुआ था जो वस्तुतः इस देश के मुसलमानों की राष्ट्रीय भावना को कही न कही खण्डित करता था। इसलिए इसका असफल होना निश्चित ही था।जो इक्का -दुक्का प्रयास दूसरे प्रयास हुए लेकिन उनका उद्देश्य तात्कालिक लाभों के लिए तुष्टीकरण ही ज्यादा था।
इन्द्रेश कुमार ने संघ के धरातल पर मुसलमानों से जो संवाद रचना प्रारम्भ की उसका उद्देश्य न तो राजनीतिक था औैर न ही तात्कालिक लाभ उठाना। चूंकि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को चुनाव नही लडना था। इन्द्रेश कुमार की संवाद रचना से जो हिन्दू मुसलमानों का व्यास आसन निर्मित हुआ। वह इसे देश का वही सांस्कृतिक आसन है जिसके कारण लाखों सालों से इस देश की पहचान बनी हुई है। इस संवाद रचना में स्वयं मुसलमानों ने आगे आकर कहना शुरु किया कि हमारे पुरखे हिंदू थे और उकनी जो सांस्कृतिक थाती थी वही सांस्कृतिक थाती हमारी भी है। इन संवाद रचनाओं में इन्द्रेश कुमार का एका वाक्य बहुत प्रसिद्ध हुआ कि हम ‘सिजदा तो मक्का की ओर करेंगे लेकिन गर्दन कटेगी तो भारत के लिए कटेगी। देखते ही देखते इस संवाद की अंतर्लहरें देश भर में फैली और मुसलमानों की युवा पीढी में एक नई सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गयी। वे धीरे -धीरे उस चहारदीवारी से निकलकर जिस उनके तथाकथित रक्षकों ने पिछले 60 सालों से यत्नपूर्वक निर्मित किया था, खुली हवा में सांस लेने के लिए आने लगे। इन्द्रेश कुमार की मुसलमानों से इसे संवाद रचना ने देखते ही देखते ‘ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का आकार ग्रहण कर लिया जाहिर है मुसलमानों के भीतर संघ की इस पहल से कांग्रेसी खेमे एवं साम्यवादी टोले में हडबडी मचती। जिसे संघ के बारे में आज तक मुसलमानों को यह कहकर डराया जाता रहा कि उनको सबसे ज्यादा खतरा संघ से है उस संघ को लेकर मुसलमानों का भ्रम छंटने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संघ मुसलमानों के खिलाफ नहीं है । संघ भारत की इस विशेषता में पूर्ण विश्वास रचना है कि ईश्वर की पूजा करने के हजारों तरीके हो सकते हैं और वास्तव में संघ इसी विचार की आगे बढाना चाहता है जब संघ ईश्वर या अल्लाह के हजारों तरीक में विश्वास करते है तो उसे कुछ लोगों द्वारा इस्लामी तरीके से ईश्वर की पूजा के तरीके से भला कैसे ऐतराज हो सकता था। संघ को लेकर मुसलमानों के भीतर कोहरा छंटने की प्रारम्भिक प्रक्रिया शुरु हो गयी है।
इस मरहले पर कांग्रेस ने अपनी रणनीति बडी होशियारी से तय की। मालेगांव, हैदराबाद और अजमेर बम विस्फोट में सरकार ने कुछ तथाकथित षडयंत्रकारियों को गिरफ्तार किया इनमें जिन लोगों के नाम शामिल है उनमें से कुछ का सम्बंध कभी संघ से भी रहा होगा। उनका अपराध है या नहीं है इसका निर्णरूा तो अदालत ही करेगी लेकिन सराकार को लगता था कि जैसे ही इन तथाकथित लोगों की जांच होगी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन लोगों के पीछे हो हल्ला मचाएगा लेकिन कांग्रेस का यह षडयंत्र तब विफल हो गया जब राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ ने कहा कि सरकार को इस मामले की सफाई से जांच करनी चाहिए औश्र जो भी दोषी जाया जाए उसे दण्ड मिलना चाहिए। संघ ने आधिकारिक रुप से यह भी कहा िकवह जांच एजेंसियों को संगठन का पूरा सहयोग मिलेगा। संघ स्वयं चाहता है कि अपराधी पकडे जाएं और उन्हें सजा मिले। संघ को बदनाम करने का कांग्रेस का सारा षडयंत्र एक झटके में ही विफल हो गया। सरकार एक तीर से दो निशाने करना चाहती थी। वह मुसलमानों को यह संदेश देना चाहती थी कि आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समाज जिस कटघरो में खडा दिखायी देता है उससे उन्हें भयभीत होने की जरुरत नहीं है। उनकी मानसिक संतुष्टि के लिए सरकार हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा को स्थापित कर रही थी जिसे बाद में पी चिदम्बरम में कांग्रेस की रणनीति के अनुसर भगवा आतंकवाद कहना प्रारम्भ कर दिया। इससे मुसलमानों में कांग्रेस के रक्षक होने का भ्रम भी बना रहता औश्र हिन्दू आतंकवाद की अवधारणा के प्रचलन से आतंकवाद के मनौवैज्ञानिक अपराधिक बोध के भाव से भी मुक्ति मिलती। दूसरे संघ को मुसलमानों की दृष्टि में एक बार फिर अपराधी सिद्ध किया जा सकता था लेकिन संघ भारत सरकार और कांग्रेस के बिछाए गए इस जाल में भी नहीं फंसा औश्र उसने स्पष्ट ही यह मांग की ईमानदारी से जांच के बाद अपराधियोें के दण्ड दिया जाएग। कारण भी स्पष्ट था संघ ने कोई भूमिगत संगठन है और न ही उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आतंकवाद में विश्वास करता है। आतंकवाद कायारों का ही हथियार होता है और वैचारिक नपुंसकता वाले संगठन ही इसका उपयोग करते हैं। संघ एक सांस्कृतिक आंदोलन है। आतंकवादस से सांस्कृतिक आदोलनों को उर्जा नहीं मिलती बल्कि उसके उजास्त्रोत सूखने लगते हैं। आतंकवाद से तानाशाही और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियांे को भी बढावा मिलता है। कांग्रेस एवं कम्युनिस्ट टोले में यह प्रवृत्तियां पायी जाती हैं। इतिहास इसका गवाह है। यही कारण है कि कांग्रेस एंव कम्युनिस्ट आतंकवाद से लडने के बजाय उसे अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं।
अपनी इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को बदनाम करने के लिए, मुसलमानों के मन में उसका भय पुनः सृजित करने के लिए दूसरी व्यूह रचना की। इस बार जांच एजेंसियों के माध्यम से इन्द्रेश कुमार का नाम जोड दिया गया। सरकार जानती थी आठ सौ पृष्ठों की जांच रिपोर्ट में एकाध बार संघ और इन्द्रेश कुमार का नाम आ जाने से मीडिया के एक वर्ग को मनमाफिक मशाला मिल जाएगा और संघ और इन्द्रेश कुमार की आतंकवाद में संलिप्तता की मशालेदार कहानियां इधर -उधर तैरने लगेंगी। कहानी का अंत क्या होगा इसकी न कांग्रेस को चिंता है और न सरकार को। लेकिन इस बीच जब मीडिया से संघ एवं इन्द्रेश कुमार का नाम उछलेगा तो मुसलमानों के मन में संघ को लेकर भ्रम पैछा हो सकेगा और आम भारतीय भी संघ को लेकर प्रश्न खडा कर सकता है। इसी रणनीति के तहत सरकार अजमेर बम विस्फोट के मामले में सुनियोजित प्रयास कर रही है। संघ और इन्द्रेश कुमार के नाम का उपयोग कर रही ह।। जबकि लगभग आठ सौ पृष्ठों की जांच रिपोर्ट में संगठन के नाते संघ और व्यक्ति के नामे इन्द्रेश कुमार पर कोई आरोप नहीं हैं।
लेकिन जांच एजेंसी का उद्देश्य सत्य की तह तक पहुचना नही है बिल्क उसका नाटक करते हुए संघ को बदनाम करना है। इन्द्रेश कुमार का नाम लेने से कांग्रेस एक और फायदे की सम्भावना देखती है। उसे लगता है कि इन्द्रेश के नाम पर विवाद पैदा करने से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का जो सांस्कृतिक आसन निर्मित हुआ है उसमें दरारें पड सकती है। संघ को बदनाम करने की भारत सरकार के ठन सभी प्रयासों का यदि नामकारण करना हो तो उसे ‘सरकारी आतंकवाद’ कहा जा सकता है। लेकिन कांग्रेस औ सरकार अपने इस प्रयास में सफल नहीं होंगे। पंजाब के इतिहास में भी मन्नू का उद्धरण सामने आता है। इस विदेशी आका्रंता ने पंजाबियों पर अमानुषिक अत्याचार किए , उन्हें मौत के घाट उतारा। तब पंजाब में एक लाोक उक्ति प्रसिद्ध हुई –
मन्नू असाडी दातरी , असी मन्नू दे सोये।
ज्यूं -ज्यूं मन्ने बड्ढ दा , असी दूणे चौणे होए।
सोया सरसो की जाति का एक पौधा होता है उसे जितना काटा जाता है वह उतना ही फलता फूलता है। इसी तरह मन्नू पंजाबियों को जैसे मारता काटता था वैसे-वैसे उनका उत्साह बढता, वे फलते-फूलते।
सरकार ज्यों-ज्यों संघ पर प्रहार करगी त्यो-त्यों संघ फलेगा-फूलेगा। यह भारतीय इतिहास की परम्परा है। लेकिन दुर्भाग्य से साम्यवादियों का भारतीय इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है और कांग्रेस धीरे-धीरे भारतीय इतिहास से कटती जा रही है। सरकार द्वारा संघ पर किया गया यह प्रहार भारतीय परम्परा पर किया गया प्रहार है और भारतीय परम्परा इस प्रहार को निष्प्रभावी कर देगी।
अरूंधति राय के हाल में कश्मीर पर दिए गए बयान पर कारपोरेट मीडिया से लेकर भाजपा तक सबने मीडिया में जबर्दस्त हंगामा मचाया है। कुछ लोगों ने तो उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग तक कर डाली और मजेदार बात यह है कि यह मांग इतनी प्रासंगिक हो उठी कि चैनल वाले आंखें बंद करके अरूंधती राय के पीछे ही पड़ गए।
अरूंधति राय ने कश्मीर के मसले पर क्या कहा है? देश के हालात पर उनकी क्या राय है? भारत के शासकवर्ग का उनका क्या विश्लेषण है? अलगाववाद, माओवाद, आदिवासी, कारपोरेट लूट, कश्मीर का आजादी आंदोलन और वहां के हालात आदि विषयों पर उनके क्या विचार हैं, इस पर हम थोड़ा विस्तार के साथ बाद में विचार करेंगे। सबसे पहले हम एक बात रेखांकित करना चाहते हैं कि अरूंधती राय लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाली स्वतंत्रचेता लेखिका हैं। वे राष्ट्रद्रोही नहीं हैं।
अरूंधती राय को जो लोग कश्मीर के संदर्भ में उनके बयान को लेकर राष्ट्रद्रोही बनाने में व्यस्त हैं। वे बुनियादी तौर पर लेखक-बुद्धिजीवी की सामाजिक भूमिका और सामाजिक जिम्मेदारियों से अनभिज्ञ हैं अथवा जानबूझकर अनभिज्ञता का नाटक कर रहे हैं।
अरूंधती राय प्रगतिशील-लोकतांत्रिक विचारों की लेखिका हैं। हमें उनके बहुत से सारे विषयों पर विचार पसंद नहीं हैं। उनमें कश्मीर भी शामिल है। लेकिन इसके बाबजूद उनका लेखक का सम्मानजनक दर्जा कम नहीं हो जाता।
मीडिया ने खासकर कारपोरेट टेलीविजन ने उनके हाल के कश्मीर संबंधित बयान पर जिस तरह की घटिया हरकत की है। उसकी जितनी आलोचना की जाए कम है। यहां मैं नमूने के तौर पर ‘टाइम्स नाउ’ के द्वारा 26 अक्टूबर 2010 को रात के प्राइमटाइम कार्यक्रम का जिक्र करना चाहूँगा।
‘टाइम्स नाउ’ के अर्णव वंद्योपाध्याय बहुत सुंदर टीवी पत्रकार हैं। पेशेवर कौशल में माहिर हैं। लेकिन मीडिया में संकार्णतावादी विचारों के प्रचार प्रसार में सदा सक्रिय रहते हैं। उनके अंदर एक तथाकथित टीवी रेटिंग भक्त है जो उन्हें संकीर्णतावादी विचारों की ओर ठेलता रहता है। इस कार्यक्रम के आरंभ में ‘टाइम्स नाउ’ ने एक रिपोर्ट दिखाई जिसमें कश्मीर में मारे गए जवानों के परिवारीजनों के बयानों को अरूंधती राय के बयानों के बरक्स रखकर प्रस्तुत किया गया। यह प्रस्तुति का यह सबसे घटिया तरीका है। यह निकृष्टतम राष्ट्रवाद है ।
टीवी में जब आप टॉक शो कर रहे हैं तो अचानक रिपोर्ट वगैरह के जरिए विचारधारात्मक मेनीपुलेशन नहीं कर सकते। विचारधारात्मक मेनीपुलेशन बुनियादी तौर पर विचार-विमर्श को पूर्वाग्रहों से घेरता है। दर्शक के मन को पूर्वाग्रह ग्रस्त बनाता है। मैं नियमित कई घंटे टीवी देखता हूँ और इस चैनल को पहले दिन से देख रहा हूँ।
‘टाइम्स नाउ’ का कश्मीर समस्या पर कभी संतुलित रवैय्या नहीं रहा है। कश्मीर समस्या को यह चैनल एक ही आंख से देखता रहा है। वह आंख है प्रतिक्रियावाद की,घटिया राष्ट्रवाद की। कश्मीर समस्या के शिकार लोगों के प्रति इस चैनल की कोई सहानुभूति नहीं है। कश्मीर में लोग किस अवस्था में जी रहे हैं और उनकी वास्तव अनुभूतियां क्या हैं? वे किस तरह के राजनीतिक विचारों को व्यक्त कर रहे हैं, इसकी वस्तुगत रिपोर्टिंग में इस चैनल की कोई दिलचस्पी नहीं है इसके विपरीत भारत सरकार और तथाकथित राष्ट्रवादियों के भोंपू की तरह यह चैनल काम करता रहा है। साथ ही कश्मीर समस्या पर सरकारी सेंसरशिप के औजार का काम भी करता रहा है।
टीवी चैनलों की संकीर्णतावादी मानसिकता का आलम यह है कि वे अपनी रेटिंग के चक्कर में राष्ट्रवाद का खूब ढ़ोल पीटते हैं। वास्तव अर्थों में उनका राष्ट्र और राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया का राष्ट्र और राष्ट्रवाद है विज्ञापन। देशभक्ति है विज्ञापन। विज्ञापन के अलावा उनका कोई धर्म नहीं है।
कारपोरेट मीडिया के पास चुने हुए वक्ता हैं और इनके सुनिश्चित विचार हैं। कुछ नामी पत्रकार हैं, कुछ पूर्व सरकारी सैन्य, पुलिस अफसर हैं, राजनयिक हैं और कुछ चर्चित चेहरे हैं, कुछ वकील हैं और चंद राजनेता हैं।कुल मिलाकर डेढ़ दर्जन लोग हैं, यही इन चैनलों की कुल जमा बौद्धिक पूंजी है।
इस कार्यक्रम की नमूने के तौर पर एक बेबकूफी देखें- मधुकिश्वर ने इस कार्यक्रम में कहा कि अरूंधती राय नारसिस्टिक हैं। अंतर्राष्ट्रीय कवरेज पाने के लिए इस तरह के बयान देती हैं। इससे उन्हें विश्व में अनेक अकादमिक व्याख्यान देने का मौका मिलेगा। मधुजी ने यह भी कहा अरूंधती 21वीं शताब्दी की कैथरीन मेयो हैं। तथ्य की दृष्टि से ये सारी बातें गलत हैं।
संयोजक के नाते अर्णव गोस्वामी का सारा जोर अरूंधती को कठघरे में खड़ा करने पर था। अर्णव का इस तरह का रवैय्या संयोजक के एथिक्स के खिलाफ है। वे भूल गए कि संयोजक का पक्ष नहीं होता। लेकिन अर्णव गोस्वामी का पक्ष होता है। उनकी प्रत्येक विषय पर राय होती है और उसको वे बार-बार दोहराते हैं और वक्ताओं से ज्यादा समय खाते हैं। उनका इस तरह समय और कार्यक्रम को मेनीपुलेट करना घटिया किस्म की टीवी पत्रकारिता का आदर्श नमूना है।
अर्णव गोस्वामी की चिन्ता का मूलस्वर यही था कि अरूंधती राय राष्ट्रद्रोही है। बस अब सरकार को जल्दी से कार्रवाई करनी चाहिए। और प्रमाण के तौर पर उनके पास राष्ट्रवाद के कुछ घटिया फुटेज थे। इस तरह की प्रस्तुति को निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं कहते।
कार्यक्रम के आरंभ में जिस तरह की घटिया राष्ट्रवादी रिपोर्ट दिखाई गयी उससे तय हो गया कि आखिरकार चैनल क्या चाहता है। किसी सेमीनार में व्यक्त किए गए विचारों के आधार पर, किसी रचना में व्यक्त किए गए विचारों के आधार पर यदि राष्ट्रद्रोह का फैसला होगा तो समाज में स्वतंत्रचेता बुद्धिजीवी नहीं होंगे। सिर्फ गुलाम बुद्धिजीवी होंगे। सेमीनार में व्यक्त किए गए विचार चाहे वे किसी भी मांग पर हों। किसी भी विचारधारा से प्रेरित हों ,उनसे राष्ट्रद्रोह का आधार नहीं बनता।
दूसरी बात यह है कि यदि लेखकों-बुद्धिजीवियों को सरकारी नीति का प्रतिवाद करने के कारण राष्ट्रद्रोह के दायरे में रखा जाएगा तो उन लेखकों और बुद्धिजीवियों का क्या करेंगे जो अंग्रेजों के जमाने में ब्रिटिश शासकों और उनकी नीतियों का खुलकर विरोध कर रहे थे। उन अंग्रेज लेखकों और बुद्धिजीवियों को क्या कहेंगे जो ब्रिटिश शासकों का उस जमाने में विरोध कर रहे थे। क्या है महान रोमैण्टिक कवि शैली को राष्ट्रद्रोही कहेंगे?
अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों के उन बुद्धिजीवियों के साथ क्या किया जाए जो इराक युद्ध के सवाल पर अपने देश में सरकारी नीति के खिलाफ प्रतिवाद पुरूष बने हुए हैं। लाखों लोगों को सड़कों पर इराक युद्ध के खिलाफ उतार चुके हैं।
क्या नॉम चोम्स्की को बुश का विरोध करने के कारण,अमेरिका को बर्बर कहने के कारण राष्ट्रद्रोही कह सकते हैं ? क्या चोम्स्की के विचारों का इराक की जनता पर असर नहीं पड़ रहा ? क्या वहां लोग प्रतिवाद नहीं कर रहे ?
चोम्स्की यहूदी हैं और यहूदीवाद के भी कट्टर आलोचक हैं, इस्राइल के भी कटु आलोचक हैं। वे हम सबके आदर्श हैं। लेखक का कोई राष्ट्र नहीं होता,राष्ट्रवाद नहीं होता। धर्म नहीं होता। वह समूची मानवता का होता है और सत्य का पुजारी होता है। सत्य के अलावा वह कोई चीज स्वीकार नहीं करता। उसके अंदर राष्ट्रप्रेम नहीं सत्यप्रेम होता है। वह किसी का भोंपू नहीं होता वह महान रूसी लेखक शोलोखोव के शब्दों में हृदय के आदेश पर बोलता, सोचता और लिखता है।
समाज, संस्कृति,राजनीति और मीडिया में राष्ट्रवाद का प्रचार करना समाज में ज़हर फैलाने के बराबर है। एक जमाने में प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि लेखकों ने राष्ट्रवाद की तीखी आलोचना की थी।
इन दिनों हमारे देश में राष्ट्रवाद कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। यह हमारे बौद्धिक पतन की निशानी है। राष्ट्रवाद बुराई है। इसे मीडिया द्वारा सामाजिक अच्छाई के रूप में पेश किया जा रहा है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे बुराई के रूप में देखा था। जिसे मीडिया इन दिनों राष्ट्र -राष्ट्र कहकर गौरवान्वित कर रहा है उसके बारे में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, ‘राष्ट्र विकलांग मानवता पर लंबे समय से फलता-फूलता रहा है।’ यह भी लिखा है ‘राष्ट्र का विचार, मानव द्वारा आविष्कृत, बेहोशी की सबसे शक्तिशाली दवा है।’’ रवीन्द्र नाथ ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है जो इस संदर्भ में भी महत्वपूर्ण है,लिखा है – राष्ट्र ‘ सत्य और अच्छाई की आवाज की तरफ कभी ध्यान नहीं देता। यह नैतिक भ्रष्टाचार का रिंग-डांस (चक्काकार नृत्य) करता रहता है।’’
लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांट कम पड़ जाएंगे। कानून उनके लिए है जो समाज के अनुशासन में नहीं रहते। लेखक समाज के अनुशासन की धुरी है। समाज कैसा है? किस तरह की चेतना से गुजर रहा है यह बात हमें लेखकीय चेतना से ही पता चलती है। लेखक -बुद्धिजीवी यदि गुलाम हो जाएंगे तो समाज ठहर जाएगा। उसका विकास नहीं होगा। समाज नपुंसक हो जाएगा। लेखक-बुद्धिजीवी समाज की प्राणवायु हैं। इनका हमें सम्मान करने की आदत ड़ालनी चाहिए। इनके प्रति,इनके विचारों के प्रति, जितनी सहिष्णुता होगी समाज उतना ही ताकतवर होगा।
समाज के विकास में राष्ट्रवाद सबसे बड़ी बाधा है। भारत में बढ़ता हुआ राष्ट्रवाद, सामाजिक संकट की सूचना है ,हमें इसका प्रत्येक स्तर पर प्रतिवाद करना चाहिए। हम यहां अरूंधती राय का कश्मीर पर विवादास्पद बयान दे रहे हैं, यह हमने ‘काफिला’ वेबसाइट से साभार लिया है। यह उस चर्चित सेमीनार की समूची कार्रवाई की रिपोर्टिंग का हिस्सा है,जिसमें कश्मीर पर अरूंधती राय का नजरिया व्यक्त हुआ है, यह राष्ट्रद्रोह नहीं है। यह उनकी राय है। अरूंधती राय के बयान का सार-संक्षेप देखें-
Arundhati Roy, writer, began her speech by asking those who wanted to throw shoes to her to do so now. She said that about a week or ten days ago at a tribunal in Ranchi on Operation Green Hunt, a TV journalist asked her whether Kashmir was an integral part of India. Her reply was that it has never been an integral part of India and the Indian government recognised it as a disputed territory and took it to the UN on its own accord. In 1947 we were told that India became a sovereign democracy. But it became a country as per the imagination of its colonizer, and continued to be a colonizer even after the British left the country. Indian state forcibly or deceitfully annexed the North-East, Goa, Junagarh, Telangana, etc. The government accuses the Naxalites of waging a protracted war against the state. But the truth is, it is the Indian state which has waged a protracted war against the people which it calls its own. Who are the people it has waged war
against? The people of North-East, Kashmir, Punjab, etc. This is an upper caste Hindu state waging a continuing struggle against the people.
Arundhati narrated her experience of Kashmir during the days of the Amaranth land issue in 2008, Kashmir needs azadi from India as much as India needs azadi from Kashmir. By India needs Azadi what she meant was the people of India for whose liberation the freedom of the Kashmiri people was a must. Any of us who have visited Kashmir know how militarized it is. Every time there is an election, the government asks as to why a referendum is needed, since the people of Kashmir have voted, and they have voted for India. She further brought to the notice of the audience that a convention of this kind was historic in the capital city of this hollow superpower that is India. It is also important to know where one stands on this issue. The British colonial empire too once considered Indians to be unfit for self-rule. The same argument is being used today by the powers-that-be to deny azadi to Kashmir. It is the same Indian ruling class which once preached non-alignment, but is now bowing before US imperialism and the MNCs. We need to continue this exercise of debate, and at the same time be aware that we are up against a serious adversary. We must realize that the bows and arrows in the hands of the adivasis or stones of the Kashmiris alone are not enough. We need to make serious and meaningful alliances. There has to be an alliance between all the struggling people and what will connect them will be the idea of justice. We need to be aware of the fact that not every movement or slogan is for justice.
Arundhati wished that the people fighting for azadi in Kashmir will not be let down by their leaders. She urged that those who are fighting for a just society must align with all the struggles of the powerless and the oppressed. Kashmiri people have an experience of over 60 years of struggle, but cautioned against isolation from other oppressed people. She extended her support for the struggle for azadi, but also appealed for a debate on the meaning of azadi among the Kashmiris. She asked everyone in Kashmir to have a deep discussion on what they are fighting for. And it has to come from within the Kashmiris and not from the so-called critics of azadi as a divisive ploy of the enemy. On the question of Kashmiri pundits, she said that much of the stories of atrocities on pundits have been concocted to sow misunderstanding and distrust among people, though what happened to some of them is tragic and unfortunate. Justice is to be fought and upheld for everybody, whether a minority of religion, caste, or nationality. It is not enough to ask for justice if the next person does not have it. People in Kashmir have said that Kashmiri pundits are welcome back, and this is a commendable gesture.
Arundhati concluded by saluting the struggle of the young people, women, children who are out on the streets facing the brutal Indian army. The first great art which the Indian state has mastered is to wait and wait and hope that people’s energies will go down. Killing them is the next. It is up to the people of Kashmir to take their struggle further in solidarity with other people’s movements. At the same time, the people in Nagaland must reflect on themselves why is it that a Naga Battalion is sent to kill people in Kashmir and Chhattisgarh. A direct confrontation with the state is not enough. It is necessary to know ones enemy and make alliances locally, as well as internationally.
आमतौर पर लोग पूछते हैं कि फासीवाद की भाषा का नमूना कैसा होता है? फासीवाद पर जिन लोगों ने अकादमिक अध्ययन किया है और उसकी विभिन्न धारणाओं और पहलुओं की गंभीर मीमांसा की है उन विद्वानों को पढ़कर आप सहज ही पता कर सकते हैं कि फासीवाद की भाषा में सत्य की सबसे पहले हत्या की जाती है। सत्य की हत्या करने के लिए शब्दवीरों की सेना का इस्तेमाल किया जाता है। भाड़े पर शब्दवीर रखे जाते हैं, ये शब्दवीर अहर्निश असत्य की उलटियां करते रहते हैं। गोयबेल्स और उनके भारतीय शिष्य भी यही काम कर रहे हैं। वे मीडिया के विभिन्न रूपों का असत्य के प्रचार-प्रसार के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं।
इन दिनों वेबपत्रिकाओं में भी इन शब्दवीरों को टीका-टिप्पणी करते हुए सहज ही देख सकते हैं। हमारे ब्लॉग पर भी ऐसे शब्दवीर बीच बीच में आते हैं। असभ्य और गैर अकादमिक भाषा के प्रयोग का प्रयोग करते हैं। शब्द वमन करते हैं और चले जाते हैं।
प्रसिद्ध मार्क्सवादी सिद्धांतकार जार्ज लुकाच की एक शानदार किताब है ‘डिस्ट्रक्शन ऑफ रीजन’( बुद्धि का विध्वंस) इस किताब में लुकाच ने विस्तार के साथ उस सांस्कृतिक -बौद्धिक परंपरा को खोजने की कोशिश की है जिसके कारण फासीवाद के रूप में हिटलक का उदय हुआ था।
लुकाच ने यह जानने की कोशिश की है कि आखिर वे कौन से कारण थे जो जर्मनी में फासीवाद को जनप्रिय बनाने में सफल रहे और किस तरह हिटलर ने अपने प्रौपेगैण्डा से द्वितीय विश्वयुद्ध की सृष्टि की। इस किताब में लुकाच ने नीत्शे की तीखी आलोचना की है,वह खुलेआम हिटलर का पक्ष लेता था और कम्युनिस्टों पर हमले बोलता था। मार्क्स-एंगेल्स के नाम पर अनाप-शनाप लिखता था। नीत्शे की आलोचना में जो बातें कही हैं वे भारत में फासीवाद के पैरोकारों की भाषा को समझने में हमारी मदद हो सकती हैं।
नीत्शे के अंध कम्युनिस्ट विरोध की खूबी थी कि वह मार्क्स के नाम से कोई भी बात लिख देता था और कहता था यह मार्क्स ने लिखा है ,फिर उसकी आलोचना करता था,वह यह नहीं बताता था कि मार्क्स ने ऐसा कहां लिखा है।
इसी प्रसंग में जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवादियों की विशेषता है कि वे बगैर किसी प्रमाण के किसी के भी नाम से कुछ भी लिख देते हैं। पहले वे असत्य की सृष्टि करते हैं,फिर असत्य को सत्य के रूप में प्रसारित करते हैं। वे बिना संदर्भ बताए अपनी बात कहते हैं।
लुकाच ने विस्तार के साथ बताया है कि नीत्शे ने मार्क्स के नाम से जो कुछ लिखा था उसका उसने कभी प्रमाण नहीं दिया कि आखिर उसने मार्क्स का उद्धरण कहां से लिया है। भारत में भी फासीवाद के समर्थक ऐसा ही करते हैं। वे मनगढंत बातें लिखते हैं और फिर उनके ढिंढोरची पीछे से ढ़ोल बजाते रहते हैं कि क्या खूब लिखा-क्या खूब लिखा।
फासीवाद के ढ़िंढोरची अच्छी तरह जानते हैं कि वे असत्य बोल रहे हैं लेकिन वे शब्दवीर गोयबेल्स की तरह मीडिया में,ब्लॉग पर,वेबपत्रिकाओं में पत्र लेखक या टिप्पणीकार के रूप में डटे रहते हैं और शब्दों की उलटियां करते हुए अपने कुत्सित सांस्कृतिक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसे ही लोगों के कारण भारत में भी ज्ञान और सत्य का दर्जा घटा है,असत्य और शब्दवीरों का दर्जा बढ़ा है। खासकर हिन्दी वेबपत्रिकाओं में ऐसे शब्दवीरों की इन दिनों बहार आई हुई है। इन शब्दवीरों को यह नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं और जो कह रहे हैं उसका अर्थ क्या है ? उसका सामाजिक असर क्या होगा ?
जार्ज लुकाच ने यह भी रेखांकित किया है कि आधुनिक युग में फासीवाद यकायक नहीं आया था बल्कि उसका विचारधारात्मक आधार परंपरागत अविवेकवादी बौद्धिक परंपराओं ने तैयार किया था।
भारत में जो लोग सोचते हैं कि हमारी पुरानी समस्त परंपरा सुंदर है,विवेकवादी है,वे गलत सोचते हैं। हमारे परंपरागत बौद्धिक लेखन में बहुत सारा हिस्सा ऐसा भी है जो अविवेकवादी है। फासीवादी शब्दवीर और संगठन इस अविवेकवादी परंपरा का जमकर दुरूपयोग करते हैं और अपने को हिन्दूधर्म के रक्षक के नाम पर पेश करते हैं। वे हिन्दू के नाम पर हिन्दुत्व का प्रचार कर रहे हैं और परंपरा के अविवेकवादी तर्कशास्त्र का अपने फासीवादी हितों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
जार्ज लुकाच ने लिखा है कि फासीवाद का आधार है अविवेकवादी विरासत का दुरूपयोग। सच यह है कि पुराने अविवेकवादी दार्शनिक फासिस्ट नहीं थे। वे नहीं जानते थे कि भविष्य में उनके लेखन का फासीवादी ताकतें दुरूपयोग करेंगी।
रामकथा को बाल्मीकि या तुलसीदास ने भाजपा के सत्ताभिषेक या भारत को हिन्दू राष्ट्र सिद्ध करने के लिए नहीं लिखा था। संघ के फासीवादी क्रियाकलापों की वैधता या प्रमाण के लिए नहीं लिखा था। अयोध्या राममंदिर के निर्माण के लिए नहीं लिखा था। संघ के राममंदिर आंदोलन के लिए नहीं लिखा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के जजों के लिए नहीं लिखा था। रामकथा इसलिए नहीं लिखी गया थी कि उसके आधार पर बाबरी मसजिद गिरा दी जाए।
लेकिन फासिस्ट संगठनों ने रामकथा का दुरूपयोग किया,राम जन्म अयोध्या में हुआ,इस बात को प्रचारित करने के लिए मुसलमानों के खिलाफ घृणा और हिंसा का नंगा नाच दिखाया।कहने का तात्पर्य यह है कि फासीवाद प्राचीन बातों का मुखौटे के रूप में इस्तेमाल करता है। बर्गसां की कलाएं मुसोलिनी के लिए नहीं लिखी गयी थीं लेकिन बर्गसां की कलाओं का मुसोलिनी ने अपने प्रचार के लिए,अपने पक्ष में अर्थ खोजने के लिए दुरूपयोग किया था। लुकाच ने लिखा है फासीवादीचेतना की विशेषता है यथार्थ का का विकृतिकरण। इस विकृतिकरण को आप विभिन्न वेब पत्रिकाओं में हिन्दुत्ववादियों की प्रतिक्रियाओं में सहज ही देख सकते हैं।
फासीवादी प्रचारक कभी भी परांपरा को विकृत नहीं करते लेकिन उसमें से अपने अनुरूप अर्थ निकाल लेते हैं। संघ परिवार ने तुलसीदास के रामचरितमानस के पाठ को विकृत किए बिना राम अयोध्या में हुए यह बात अपने पक्ष में इस्तेमाल कर ली। यही काम फासिस्ट मुसोलिनी ने बर्गसां के संदर्भ में किया था।
हिटलर ने भी यही काम किया था जिन बुद्धिजीवियों ने अकादमिक स्तर पर, सृजन के स्तर जो कुछ लिखा था उसे गली-मुल्लों और सड़कों पर उतार दिया। नीत्शे, स्पेंगलर, हाइडेगर आदि के साथ यही हुआ। वे जो बातें अकादमिक स्तर पर कर रहे थे हिटलर ने उन बातों को सड़कों पर उतार दिया।
अविवेकवादी विचारक ‘अंडरस्टेंडिंग’ और ‘रीजन’ में घालमेल करते हैं। वे इन्हें एक-दूसरे का पर्यायवाची बनाने की कोशिश करते हैं। जबकि इनमें द्वंद्वात्मक संबंध होता है। ये एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। लेकिन इस हथकंड़े का फासीवादी जमकर इस्तेमाल करते हैं।
राम अयोध्या में हुए थे, यह पुरानी किताबों में समझ उपलब्ध है और इस समझ को फासीवादी तर्कशास्त्र का हिस्सा बनाकर संघ परिवार ने कहा कि राम वहीं हुए थे जहां बाबरी मसजिद है, इसके उनके पास प्रमाण हैं। कहा कि उनके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट है। जिसके आधार पर हाईकोर्ट का विवादित फैसला आया है।
समझ का रीजन में हूबहू रूपान्तरण या प्रतिबिम्बन नहीं होता। रीजन का वर्तमान से संबंध होता है। समझ का अतीत से संबंध होता है। वर्तमान में हम पुरानी समझ के आधार पर कोई राजनीतिक कार्यक्रम तय करेंगे तो उसके गर्भ से हिटलर ही निलेगा। आर्यश्रेष्ठता के पुराने सिद्धांत के आधार सारी दुनिया में करोड़ों लोगों को हिटलर ने मौत के घाट उतार दिया।सारा मीडिया, बौद्धिकों और शब्दवीरों की टोलियां उसके लिए रात दिन काम करती थीं और इसके कारण सारी दुनिया को उसने द्वितीय विश्वयुद्ध के रौरव नरक में झोंक दिया। अविवेकवाद के आधार पर,अविवेकवादी परंपराओं और पुरानी समझ के आधार पर खड़ा किया गया तर्कशास्त्र अंततःबुद्धि के विध्वंस की ओर ले जाता है और वह इन दिनों वेब पत्रिकाओं से लेकर मीडिया तक खूब हो रहा है।
फासीवादी शब्दवीर अविवेकवाद का इस्तेमाल करते हुए अपनी वक्तृता और वेब एवं मीडिया टिप्पणियों में बार-बार अपने सहजज्ञान और सहजबोध का महिमामंडन कर रहे हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक-ऐतिहासिक प्रगति को खारिज करते हैं। वे ज्ञान की अभिजात्य सैद्धान्तिकी की हिमायत कर रहे हैं। अभिजात्य की ज्ञान सैद्धान्तिकी की खूबी है मिथ बनाना और मिथों का प्रचार करना। मिथ जरूरी नहीं है झूठ हो। जैसे राम का जन्म अयोध्या में हुआ था यह मिथ है। यह झूठ नहीं है। बल्कि अतिवास्तविक सत्य है। यह न तो सत्य है, और न असत्य है, बल्कि सुपरनेचुरल सत्य है। वे इसका ही प्रचार कर रहे हैं।
संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश को जो लोग थोडा बहुत जानते हैं, वे उनके नाम का उच्चारण करने से पहले स्वतः ही आदरणीय शब्द लगा लेते हैं. जो उनके बारे में काफी कुछ जानते हैं, वे उन्हें परम आदरणीय कहते हुए उनका नाम लेते हैं तथा उनके निरंतर संपर्क में रहने वाले उन्हें माननीय इन्द्रेश जी कहा करते हैं.
हरियाणा स्थित कैथल के अपने अत्यंत प्रतिष्ठित और धनाढ्य परिवार से लगभग चार दशक पूर्व विरक्त होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में जीवन भर अविवाहित रहते हुए देश सेवा का संकल्प लेने वाले इन्द्रेश देश हित के विभिन्न कार्यों में सदैव सक्रिय रहते हैं और संघ के अनेक बड़े प्रकल्पों से जुड़े रहते हैं. वे अपनी बहु आयामी प्रतिभा के दम पर अपने हाथ में लिए गए लगभग सभी कठिन कार्यों को कुशलतापूर्वक संपन्न कर दिखाते हैं. उन्होंने पिछले कुछ ही वर्षों में लाखों देशभक्त मुसलमानों को राष्ट्रहित में एकजुट करके दिखाया है.
अपने देश के वे सभी नेता, जो आजकल एक नए छद्म सेकुलर धर्म के अनुयायी बन गए हैं, एक ही सामूहिक एजेंडे को लेकर चल रहे हैं और वह है- देश में विभिन्न मत, सम्प्रदाय और जातियों के लोगों में अलगाव की भावना उत्पन्न करना, समाज को तोड़ना और लोगों को मूर्ख बनाकर उन्हें आपस में लड़वाते हुए सत्ता से चिपके रहना.
संघ के इन्द्रेश देश के समाजभंजक नेताओं के राष्ट्रविरोधी एजेंडे की राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा हैं. वे देश के छद्म सेकुलर नेताओं की आँखों में सदा से ही रड़कते रहे हैं, परन्तु आजकल तो वे मानों उनकी आँखों की किरकिरी ही बन गए हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि कुछ ही वर्ष पहले इन्द्रेश ने देश में हिंदू-मुसलमान के बीच पनपने वाले शत्रु भाव को मिटाने का बीड़ा उठाया था और इन दिनों वे देश में हिंदू-मुसलमान के बीच वैमनस्य की दीवारें गिराने में जुटे हुए हैं और अपने लक्ष्य में लगातार सफलता प्राप्त करते जा रहे हैं. इन्द्रेश ने हज़ारों मुस्लिम परिवारों को संघ के राष्ट्रवादी एजेंडे के साथ जोड़ लिया है. वे आज के छद्म सेकुलरों के लिए एक बड़ी चुनौती इसलिए हैं, क्योंकि यदि देश में हिंदू और मुसलमान दोनों सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर एकमत होकर एक ही दिशा में चलने लगेंगे तो सेकुलरों की दुकानों पर ग्राहक आने बंद हो जाएँगे. तब हिंदू-मुसलमान के बीच घृणा फैलाने वालों का बाज़ार भाव गिर जाएगा और ऐसे में संभव है देशवासी इन छद्म सेकुलरों पर देशद्रोह के दावे ठोकने लगें और उन्हें सलाखों के पीछे भिजवा दें.
अतः आर एस एस के इन्द्रेश उन सब लोगों के लिए एक मुसीबत बन चुके हैं, जो देशवासियों को हिंदू-मुस्लिम के नाम पर हमेशा लड़वाते रहना चाहते हैं, क्योंकि इन्द्रेश ने देशभक्त मुसलमान बंधुओं का संगठन करने की दिशा में बड़ी सफलता प्राप्त कर ली है. उन्होंने ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के साथ हज़ारों मौलानाओ और मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी जोड़ दिया है.
इसका एक बड़ा प्रमाण हमने अपनी आँखों से तब देखा, जब दो वर्ष पहले अमरनाथ आन्दोलन के समय जब उमर अब्दुल्ला ने (दुर्योधन की तरह) संसद में घोषणा कर डाली थी कि ‘हम’ कश्मीर की एक इंच भी भूमि अमरनाथ के तीर्थयात्रियों के लिए नहीं देंगे और वहीं पर बैठे हुए राहुल और उसकी गोरी मम्मी सोनिया माइनो (गाँधी?) ने उसकी बात का मौन समर्थन कर दिया था, तो इन्हीं इन्द्रेश के नेतृत्व में देश के हज़ारों राष्ट्रवादी मुसलमान आंदोलित हो उठे थे और वे बाबा अमरनाथ के भक्तों व जम्मू के लोगों को अपना पूरा समर्थन देने के लिए कश्मीर की ओर उमड़ पड़े थे.
उस समय ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के बैनर तले मुसलमानों का एक विशाल काफिला मार्ग में स्थान-स्थान पर अमरनाथ आन्दोलन के लिए जन-जागरण करता हुआ कश्मीर की ओर चल निकला. उसी दौरान हरियाणा के अम्बाला में देर रात उस काफिले ने अपना पड़ाव डालने का फैसला किया. पड़ाव डालने का निर्णय अचानक होने के कारण ठीक से खाने-सोने की व्यवस्था नहीं थी. कुछ स्थानीय लोगों ने उस काफिले के भोजन की व्यवस्था की. काफिले में शामिल बहुत से मुस्लिम बंधुओं को रात साढ़े ग्यारह बजे के बाद भी सिर्फ रूखा-सूखा भोजन ही उपलब्ध कराया जा सका. व्यवस्था की कमी के कारण काफिले में शामिल जो लोग ओढ़ने-बिछाने का कपड़ा पाए बिना नीचे दरी पर ही सो गए थे, उनमे बहुत से बुद्धिजीवी, मौलाना और हज कमेटियों के प्रमुख भी थे.
इन्द्रेश उस काफिले के साथ नहीं थे. हमें कई घंटे उस काफिले के प्रमुख लोगों के साथ रहने का अवसर मिला और उनसे बातचीत हुई. हमने उस दिन तक संघ के किसी इन्द्रेश का नाम सुना भी न था, परन्तु काफिले के उन मुसलमान भाइयों के मन में इन्द्रेश के प्रति अपार श्रद्धा को देखकर अद्भुत आनंद हुआ और ‘आर एस एस के इन्द्रेश’ से मिलने की प्रबल इच्छा जाग उठी. बाबा अमरनाथ आन्दोलन के समर्थन में मुसलमान बंधुओं के कश्मीर की ओर कूच करने के समाचार कई दिनों तक अख़बारों में प्रकाशित होते रहे.
आगे पहुँचकर, उन मुसलमान बंधुओं को सरकारी दमन के कारण जम्मू-कश्मीर की सीमा पर लाठियां खानी पड़ी और उनमे से बहुत थोड़े ही लोगों को श्रीनगर तक जाने की अनुमति दी गयी थे, शेष सभी को गिरफ्तार कर लिया गया.
हज़ारों मुसलमानों को देशहित में एकजुट करने का यह कार्य इन्द्रेश जी ने कर दिखाया है. कांग्रेस सरकार द्वारा उन पर आरोप लगाने का मुख्य कारण मुसलमानों में उनकी छवि को खराब करने का घिनौना प्रयास ही है. कांग्रेस का यह बेशर्म सिद्धांत है कि राजनीति में सब जायज़ है. इस नाजायज़ राजनीति के फेर में सोनिया के चेलों ने अब देश हित के बारे में सोचना लगभग छोड़ ही दिया है.
संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल के सदस्य इन्द्रेश पर लगाए गए आरोपों में कोई दम नहीं है. ये आरोप भले ही देशद्रोही राजनेताओं के कुत्सित इशारों पर घड़े गए हों, परन्तु इन झूठे आरोपों को तैयार करने के लिए जिन पुलिस अधिकारियों पर दबाव डाला गया है, उनमे भी तो देशभक्ति का अंश हैं. वैसे भी झूठ तो झूठ ही रहता है, इसलिए इन झूठे आरोपों में से कोई भी आरोप अदालत में टिका रहने वाला नहीं है.
कांग्रेस ने संघ के वरिष्ठ प्रचारक इन्द्रेश पर आरोप लगाकर संघ को बदनाम करने के लिए यही समय क्यों चुना, उसके तीन तात्कालिक कारण हैं-
1 . बिहार के चुनाव में गोरी के लाल राहुल की थोड़ी-बहुत इज्ज़त बचाने के लिए स्वयं को आर एस एस का घोर विरोधी सिद्ध करके मुस्लिम वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने का प्रयास करना.
2 . गुलाममंडल खेलों के नाम पर हुई लूट में शीला की दिल्ली सरकार लपेटे में आ रही है, इससे लोगों का ध्यान हटाना.
3 . गुजरात में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया और सभी मुस्लिम और दलितों ने नरेन्द्र मोदी को अपना निर्विवाद नेता घोषित करके सेकुलरों के मुह पर कालिख ही पोत दी, बिहार के लोगों का इस खबर पर ध्यान न जाए, इसलिए मीडिया में एक नया बवाल खड़ा करना.
कांग्रेस के आयातित नेता उस इतिहास की ओर से आँखें मूंदे बैठे हैं, जो कांग्रेस को यह सीख दे सकता है कि संघ पर झूठे आरोप लगाओगे और इसे अनुचित तरीके से दबाने का प्रयास करोगे तो यह पहले से भी अधिक प्रखर और ताकतवर होकर सामने आ खड़ा होगा.
कश्मीर में अब निर्णय की उम्मीद दिखेगी इस आस में हम २७ अक्टूबर १९४७ से प्रतिक्षारत है। पाकिस्तान ने अपनी फौज को छदम रूप में भेजकर उस समय तक अधर में लटके कश्मीर को हड़पने की साजिश रची थी। तब से लेकर आज तक कश्मीर की बीमारी दूर होने के बजाय कुछ ऐसे बढ़ी जैसे के ज्यों –ज्यों इलाज किया मर्ज बढाता ही गया। आजादी के पहले के कश्मीर राज्य का लगभग पैंतालीस प्रतिशत भारत के पास है। पैंतीस प्रतिशत नापाक, पाक के कब्जे में है और बचा हुआ लगभग बीस प्रतिशत चीन ने अवैध रूप से दबा रखा हैं। भारतीय कश्मीर के भी तीन भाग है ,जम्मू में हिंदुओं का बाहुल्य है तो लद्दाख में बौद्ध धर्म के अनुयायी बहुतायात में है और कश्मीर घाटी मुस्लिम बाहुल्य है।
पाक कश्मीर को छोड़े तो भारतीय हिस्से में भी तीन तरह की विचार धारा वाले लोग है। एक पक्ष भारत में ही रहना चाहता है ,दूसरा पक्ष पाकिस्तान के साथ अपना भविष्य उज्जवल देखता है वही तीसरा धड़ा कश्मीर को एक अलग राज्य के रूप में स्वतंत्र किये जाने की मांग करता है। इस त्रिकोण में कश्मीर के अच्छे लोग और पर्यटन का प्रमुख व्यवसाय घुट-घुट कर मरणासन्न स्तिथि में आ चुका है। ये अलगाववादी लोग और इनके कार्यकर्ता अपने आप को आतंकवादी के स्थान पर तथाकथित स्वतंत्रता सेनानी मानते है और ऐसा प्रचार भी करते है। अफज़ल गुरु को आज भी ये अतिवादी आतंकवादी नहीं मानते और उसे कश्मीर के कथित स्वतंत्रता की मुहिम का सिपाही प्रचारित करते है। इस विचारधारा से संघर्ष एक बड़ी चुनौती बन गया है।
सैंतालीस में महाराजा हरि सिंह के भारत में शामिल होने के निर्णय में २० अक्टूबर से २७ अक्टूबर तक का समय निकल गया और इतनी देर में पाक ने पैंतीस प्रतिशत भू-भाग पर कब्ज़ा कर लिया, जो सिद्धांत रूप से गलत है। क्योंकि महाराजा ने पूरे कश्मीर का विलय भारत में चाहा था, विभाजित कश्मीर का नहीं। इसके बाद धीरे–धीरे घाटी से मुस्लिमों के अतिरिक्त अन्य धर्मावलंबियों को छल से या बल से बाहर कर दिया गया। आज भी ऐसे कई परिवार है जो कश्मीर में अपनी जमीन–जायदाद छोड़कर देश के कई भागों में शरणार्थियों के रूप में जी रहें है।
भारत पाकिस्तान का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, और दुनिया में सिर्फ इस विभाजन को छोड़ दे तो सभी जगह भूमि के साथ जनता ने अपने को विभाजित किया है, बुल्गारिया –तुर्की ,पौलैंड –जर्मनी ,बोस्निया –सर्बिया सहित पाकिस्तान और बंगलादेश ने भी विभाजन के बाद अन्य धर्मों के लोगो को बाहर का रास्ता दिखा दिया या फिर पीड़ित और प्रताडित किया। घाटी में मुस्लिम आबादी की अधिकता को देखकर पाकिस्तान इस पर अपने दांत गडाये बैठा है ,तो हमारे धर्मनिरपेक्ष स्वरुप के कारण ये हमारे लिए भी प्रतिष्ठा की बात है। सैंतालीस से कारगिल तक और आज भी इस भूमि पर स्वामित्व का संघर्ष जारी है। लेकिन ये प्रतिष्ठा की लड़ाई अब तक ना जाने कितने ही मानव और अर्थ संसाधन लील चुकी है और नतीजा सिफर है। कश्मीर में कानून –व्यवस्था राज्य सरकार का जिम्मा है फिर केंद्र सरकारों को भी अपनी पूरी दम–ख़म का इस्तेमाल करना पड़ रहा है।
कश्मीर उस सोये हुए ज्वालामुखी के सामान हो गया है ,जो अचानक कभी भी फट पड़ता है और परेशानी इस बात की है कि कोई भी इसकी तीव्रता का अंदाज नहीं लग सकता। कांग्रेस और मुफ्ती सईद की पिछली सरकार के समय ये ज्वालामुखी लगभग शांत सा बना रहा और पर्यटकों ने फिर कश्मीर को अपने कार्यक्रमों में शामिल कर लिया था, लेकिन कांग्रेस के हिस्से की सरकार के दौरान अमरनाथ यात्रा से उपजे विवाद ने जो माहौल खराब किया,तब से लेकर अब तक दिन –ब –दिन हालात खराब होते जा रहें है और उसे उमर अब्दुल्ला की वर्तमान सरकार भी नहीं सम्हाल पा रही है। इस आग में घी का कम एक लेखिका के बयान ने कर दिया जो सदा ही नक्सलियों और अलगाववादियों के साथ है। ,इस बयान की ध्वनि और अलगाववादियों के सुर एक से लगते है, जो किसी भारतीय को ललकारते से प्रतीत हो रहें है। सर्व –दलीय संसदीय दल के दौरे के विफलता के बाद नियुक्त तीन वार्ताकारों से कुछ आस बंधी थी के ये गैर राजनीतिक लोग शायद कुछ कर सके पर अफ़सोस की ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। इन नव नियुक्त वार्ताकारों का दल भी असफलता के पथ पर जाते दिख रहा है।
भारत में कम्युनिस्ट मांग कर रहें है के कश्मीर के लिए एक विधिवत गठित संसदीय समित हो जो कश्मीर और जम्मू में लोगों से बात करे साथ ही विशेष सेना शक्ति अधिनियम को वापस लिया जाये, क्यो कि इस अधिनियम की आड़ में सेना कथित रूप से मानव अधिकारों का हनन का करती है, यद्यपि ये अधिनियम उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी लागू है। इस तरह से सरकार में शामिल दलों और विपक्षी दलों की सोच भी एकरूप नहीं है।
अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा ने इस विवाद को और भी गरमा दिए है और कश्मीर के अलगाववादियों ने ओबामा से बहुत उम्मीद बांध रखी है। हुर्रियत कांफ्रेंस ने तो ब-कायदा ५ नवम्बर तक एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया है ,इन हस्ताक्षरों को ६ नवम्बर को दिल्ली में अमरीकी दूतावास को सौंपा जायेगा। इस अभियान के द्वारा हुर्रियत अमेरिकी प्रमुख से ये अपील करना चाहती है कि कश्मीर के मसले पर अमरीकी सोच में बदलाव आये और भारत पर ये दवाब बनाया जाये की कश्मीर में जनमत संग्रह कर वह के लोगो की राय के हिसाब से इस मामले को हल किया जाये।
इस समस्या ने इस मिथक को भी तोड़ दिया की विकास की योजनाओं और बुनियादी अवशक्ताओ की पूर्ति से किसी भी समस्या का हल ढूंढा जा सकता है, कश्मीर में वो सब प्रयास विफल रहे है। वो हाथ जो डल झील में नाव चलाते थे, अब पत्थर-बाजी में शरीक है।
इन स्थितियों में तो ऐसा लगता है काश आज सरदार पटेल के कद और राजनीतिक दृढता वाला कोई नेता देश में होता तो अब तक ये विवाद कब का हल हो गया होता। हम एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी बिना नतीजा तक इस समस्या को स्थानान्तरित तो कर ही चुके है। अब तो कोई कड़ा और कड़वा निर्णय ही कश्मीर समस्या का हल दे पायेगा। नहीं तो यह विवाद ऐसे ही धधकता रहेगा और हमारे बहुमूल्य संसाधनों को ईधन के रूप में डकारता रहेगा
कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार की नीति प्रश्नों के दायरे में खड़ी दिख रही । ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर देना कठिन हो सकता है ।
अरुंधति रॉय एवं गिलानी के देशद्रोही बयानों के बाद गृहमंत्री ने तत्परता से सबको चुप कराया और कहा कि सरकार अपना कार्य कानून के अनुसार करेगी । अरुण जेतली शांत हो गए । बीच में राम जेठमलानी ने कुछ ऐसा कह दिया कि भाजपा और चुप्पी साध गई । बाकी विपक्ष चुप है ही ।
खबर आई है कि सरकार गिलानी व अरुंधति के खिलाफ मामला दर्ज नहीं कराएगी । कारण ? कि इस तरह के किसी कदम से उन्हें अनावश्यक प्रचार मिलेगा और घाटी में अलगाववादियों को एक मौका मिलेगा।
बीच में समाचार था कि दिलीप पडगाँवकर पाकिस्तान से बात करना चाहते हैं ।
अब एक और बयान आया है – कश्मीर के लिए नियुक्त वार्ताकारों में से एक राधा कुमार का कहना है कि जम्मू एवं कश्मीर की आजादी के बारे में चर्चा के लिए संविधान में संशोधन किया जा सकता है।
अरुंधती और पडगांवकर के विषय में लोग जानते हैं …। पर राधा कुमार कौन हैं ? यह दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में नेल्सन मंडेला के नाम पर स्थापित एक संस्थान में शांति एवं टकराव जैसे विषयों पर कार्य करती हैं ।
इन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है – “Making Peace with Partition” , 2005
क्या इस पृष्ठभूमि में कश्मीर की समस्या पर चल रहे अंतर्विरोध को समझा जा सकता है ? क्या ऐसा नहीं लगता कि दिशा किसी और तरफ है एवं कहा कुछ और जा रहा है ?
जो लोग देशद्रोही गतिविधियाँ कर रहे हैं उनकी ओर से भय दिखा कर जनता को चुप कराया जा रहा है । जो लोग विभाजन के प्रति स्वीकारात्मक रुख रखने वाले एवं कश्मीर को अलग करने की बातों में रुचि लेने वाले लग रहे हैं उन्हें अलगाववादियों से बात करने का जिम्मा सौंपा गया है ।
यह दिशा क्या है – देश बांटने की या कि देश को जोड़े रखने की ? क्या केंद्र सरकार अलगाववादियों से डर गई है ? या फिर कुछ ताकतवर देशों को खुश रखने की कोशिश है ? अन्यथा क्या यह केंद्र में सत्तासीन दल की एक नई विघटन-स्वीकारात्मक सोच की तरफ अग्रसर होने का संकेत है ?
हम एक और विभाजन स्वीकार नहीं कर सकते ।
राष्ट्रवादी शक्तियों को सजग रहने के साथ साथ इन परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए हस्तक्षेप करना होगा ।
विकास की अवधारणा के मायने बदल रहे है। विकास का मतलब आज के परिप्रेक्ष में पश्चिम का अंधनुकरण को लिया जा रहा है। विकास के लिए कहा जा रहा है कि जिसे संसाधन के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है उसका शोषण किया जाये। इस अवधारणा के कारण अब दुनिया में परेशानी हो रही है और आधुनिका या उसे उत्तर आधुनिक भी कहा जा सकता है उस मानकों को सवा सोलह आने लागू करने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया को बचाने के लिए एक नया सिगुफा छोडा है जिसे ग्लोवल वार्मिंग के नाम से प्रचारित किया जा रहा है। हमारा देश तो पश्चिम के नकल पर ही आगे बढ रहा है। सो देश का नवीनतम राज्य उत्तराखंड भी उसी रास्ते पर चलने की चाक-चौबंद योजना में है। पानी के विदोहन को उत्तराखंड की आर्थिक प्रगति के केन्द्र में रखा जाने लगा है और नदियों को बांध कर लघु जलविद्युत परियोजनाओं पर काम करने की योजना बनायी गयी है। हालांकि इस प्रकार की तकनीक को विकसित कर प्रदेश में उर्जा तो प्राप्त किया जा सकता है लेकिन इसके लिए प्रदेश की जनता को बडी कीमत चुकानी होगी। याद रहे गढवाल में प्राकृतिक वनस्पत्ति के समाप्त हो जाने के कारण गढवाल की जनता को कितनी कीमत चुकानी पडी है इसपर भी एक बार विचार किया जाना चाहिए।
जल के विदोहन के लिए जिस प्रकार की तकनीक का उपयोग किया जाता है वह न केवल महगी है अपितु उसके दुष्प्रभाव भी बहुत हैं। खास कर हिमालय का क्षेत्र ऐसे चट्टानों के द्वारा निर्मित है जो अति कमजोर है। हिमालय का निर्माण अति नवीन भू-संचलन से हुआ है। यह पर्वत श्रेणी नया है इसलिए इसके चट्टान स्थिर नहीं है। यही नहीं प्लेट टेक्टोनिक सिध्दांत के आधार पर देखा जाये तो हिमालय का अवस्थापन चीनी प्लेट और भारतीय प्लेट के बीच में है। दुनिया के दो अस्थिर क्षेत्रों में से हिमालय का नाम आत है। ऐसे में हिमायल में किसी प्रकार का अप्राकृतिक तोड-फोड खतरे से खाली नहीं है। याद रहे हिमालय के तोड-फोड का प्रभाव प्रायद्वीपीय भारत पर पडे या नहीं लेकिन मैदानी भारत पर तो इसका प्रभाव पडना तय है। हिमालय से जो नदियों निकलती है उस नदियों के कारण ही भारत का मैदानी क्षेत्र उपजाउ है। नदियों के मार्गों में अप्राकृतिक अवरोध पैदा कर बिजली उत्पादन के उपकर्णों को लगाना न केवल हिमालय पर बसे लोगों के लिए खतरा पैदा करेगा अपितु पूरे मैदानी भारत को नुक्शान पहुंचाएगा। इस नुक्शान की कीमत पर प्रदेश के विकास को हाथ में लिया जा रहा है, जिसे जायज ठहराना ठीक नहीं है।
हालांकि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ले0जे0 भुवन चंद्र खंडुड़ी ने विकास के लिए जल उर्जा को महत्व तो दिया लेकिन उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था कि उत्तराखंड के पास जल के अलावा ऐसे कई संसाधन है जिससे प्रदेश का कायाकल्प किया जा सकता है। हालांकि संक्षिप्त वार्त में उन्होंने उन संपूर्ण संसाधनों का जिक्र तो नहीं किया, लेकिन उन्होंने कहा कि हमारे प्रदेश में जडी बुटियों की खेती प्रदेश के विकास के लिए बडे संसाधन के रूप में विकसित हो सकता है। यही नहीं प्रदेश के कई और क्षेत्रों को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश में सेव और अन्य फलों की खेती हो रही है उसी प्रकार उत्तराखंड में भी फलों की खेती की लिए जबरदस्त संभावना है। ले0 जे0 खंडुड़ी के गिनाए अन्य कई संसाधन मुझे याद नहीं है लेकिन जिस प्रकार उन्होंने प्रदेश के विकास पर टिप्पणी की उसपर अमल कर प्रदेश का काया कल्प किया जा सकता है लेकिन उत्तराखंड में जिस सस्ते और अलोकप्रिय संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है उससे अन्ततोगत्वा प्रदेश में समस्याएं बढेगी। पहाड के लोग परेशानी से बचने के लिए शिवालिग की तलहटी में आएंगे जिससे प्रदेश में नियोजन की समस्या खडी होगी, साथ ही आपसी कलह भी बढेगा जिसका दूरगामी परिणाम प्रदेश के अहित में ही होगा।
बाबा तुलसीदास लिख गये हैं – हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ। सभी संतों ने इसे अपनी-अपनी तरह से कहा है। जहां तक पुर्नजन्म की बात है, भारतीय धर्म और पंथ तो इसे मानते हैं; पर विदेशी मजहब इसे स्वीकार नहीं करते।
पिछले दिनों एक गोष्ठी में चर्चा का यही विषय था कि क्या अगले जन्म में अपनी इच्छानुसार शरीर और कार्य निर्धारित किया जा सकता है ? रात में इसी विषय पर सोचते हुए नींद आ गयी। मुझ पर भोलेनाथ की बड़ी कृपा है। प्रायः वे स्वप्न में आ जाते हैं। आज भी ऐसा ही हुआ।
– बोलो बच्चा, अगले जन्म में तुम्हें किसान बना दें ? भारत में तो ‘‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निखद चाकरी, भीख निदान’’ की कहावत प्रसिद्ध है।
– नहीं बाबा। किसानों की दुर्दशा तो आप देख ही रहे हैं। उद्योग हो या बिजलीघर, बांध हो या नगर, सबकी निगाह किसान की भूमि पर ही है। उसका हाल तो ‘‘गरीब की लुगाई, पूरे गांव की भौजाई’’ जैसा है। उसके आगे कर्ज है, तो पीछे आत्महत्या।
– तो फिर सैनिक या पुलिसकर्मी बनाना ठीक रहेगा। देशसेवा का पुण्य भी मिलेगा और समाज में सम्मान भी।
– क्या कह रहे हैं बाबा ? कभी सैनिक सीमा पर गोली खाकर मरते थे; पर अब तो वह बिना लड़े ही मर रहा है। नक्सली और माओवादी सैकड़ों सुरक्षाकर्मियों को मार चुके हैं। कश्मीर में भी वे उग्रवादी मुसलमानों के पत्थर और गोली खा रहे हैं; फिर भी मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री उन्हें संयम रखने को कहते हैं। वे जान हथेली पर लिये कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से बचाये हुए हैं; पर शासन उनके अधिकारों में कटौती पर तुला है।
– मैं समझ गया बच्चा ! अगले जन्म में तुम व्यापारी या उद्योगपति बनना चाहते हो।
– न न भोलेनाथ। इनके सिर पर तो करों की तलवार सदा लटकी रहती है। सरकार का पेट मेज के ऊपर से नोट देकर भरना पड़ता है, तो कर्मचारियों का मेज के नीचे से। इसके बाद पुलिसकर्मी, छुटभैये नेता और फिर नगर से लेकर गली तक के गुंडे।- लेकिन उद्योगपति के तो बड़े ठाठ रहते हैं ?
– क्या बताऊं भोलेनाथ ! उसके नाम में पति जरूर है; पर उसकी दशा दहेज के झूठे मुकदमे में फंसे पति जैसी है। वह न गृहस्थ है और न विधुर। आप तो श्मशान के नाथ हैं, आग की जलन एक बार मुर्दे से पूछ कर तो देखो।
– तो फिर तुम खुद ही बताओ कि अगले जन्म में ड१क्टर, वकील, अध्यापक, अभियन्ता…..क्या बनना चाहते हो ?
– भोलेनाथ, अगले जन्म में मुझे राजनेता बना दें।- राजनेता ? इस धन्धे के बारे में तो मैंने कभी नहीं सुना ?
– नहीं सुना होगा; पर इन दिनों सबसे अच्छा धन्धा यही है। एक बार सांसद या विधायक बनने से कई पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है। वेतन, भत्ते, आवास, चिकित्सा और यात्रा के नाम पर लाखों रुपये पीट सकते हैं। नेता बनते ही मकान, दुकान, गाड़ी, खेत और पेट सब चक्रवृद्धि ब्याज की तरह तेजी से बढ़ते हैं। लड़कियों और महंगाई के बढ़ने की कहावत भी इसके आगे फीकी है।
– पर सुना है भारत में तो लोकतन्त्र है ?
– हां बाबा, है तो; पर उसकी आड़ में पूरा परिवारतंत्र जड़ जमाये है। अब वोट मुद्दों की बजाय वंश, जाति, क्षेत्र और मजहब के नाम पर पड़ते हैं। इसलिए लोग जेल में रहकर भी जीत जाते हैं। जो स्वयं नहीं लड़ सकते, तो अपने भाई, बेटे या पत्नी को ही लड़ा देते हैं। इसलिए अगले जन्म में मुझे सांसद या विधायक …।
– पर बच्चा, इसके लिए तो बड़ी लम्बी लाइन लगी है।
– तो आप मुझे ग्राम प्रधान, सरपंच, नगर या ब्लाक प्रमुख ही बना दें। सरकारी योजनाओं में इतना पैसा आ रहा है कि एक साल में ही लाखों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। मनरेगा से लेकर विद्यालयों में दोपहर के भोजन तक में खाने-पीने की इतनी गुंजाइश है कि क्या बताऊं। बस आप अगली बार…….।
किस्सा तो बहुत बड़ा है; पर जब सुबह मैडम ने मुझे उठाया, तो मैं नींद में ही गा रहा था – अगले जनम मोहे नेता ही………
कल्पना कीजिए आप एक खास वैचारिक आंदोलन से प्रेरित संगोष्ठी में हिस्सा लेने जाते हैं। जहां यह गोष्ठी तय है, वह मई की चिलचिलाती गर्मी में दिसम्बर बना हुआ है। बाहर और अंदर के तापमान में जमीन आसमान का अंतर है।
इसी कार्यक्रम में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रतिनिधि भी अपनी बात रखने के लिए शामिल होते हैं, जिनकी नीतियों से आप बिल्कुल सहमत नहीं हैं और गोष्ठी में शामिल आधे से अधिक लोग उसके घोर विरोधी हैं। बाकि बचे प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो कागजी, जुबानी और इंटरनेटी तौर पर उस कंपनी का विरोध करते हैं। इस तरह के विरोधी अपनी जाया हुई ऊर्जा की पूरी कीमत वसूलना जानते हैं। लेकिन इस कार्यक्रम में शामिल बहुत से प्रतिशत लोग अब भी ‘लड़ेंगे और जीतेंगे’ धारा में विश्वास करने वाले हैं। इसीलिए वे बाहर और अंदर के तापमान में आए इस भारी अंतर का गणित समझ नहीं पाए और उन्होंने उस कंपनी के एजेंट का भरी सभा में विरोध किया। उसे बोलने नहीं दिया। और उसके जाने के बाद उन्होंने एक दूसरे की पीठ थपथपाईं कि ये आयोजन उनकी ‘हूटिंग’ से सफल हुआ। उनकी सोच थी कि यह प्रतिनिधि इस गोष्ठी से अपने लिए सबक और अपने आकाओं के लिए संदेश लेकर जाएगा।
दिन में खाने की टेबल से लेकर शाम में चाय बिस्किट के साथ विदाई तक अपने प्रतिकात्मक विरोध पर एक दूसरे को बधाई देते वे लोग, बहुराष्ट्रीय कंपनी के एजेन्ट के बैरंग वापसी को अपनी जीत मानते वे लोग। बेहद खुश थे।
कायदे से गोष्ठी प्रकरण को यहीं खत्म होना चाहिए था। लेकिन दो दिनों के बाद इस कहानी में नया मोड़ उस वक्त आया जब प्रतिभागियों को इस बात की जानकारी मिली की पिछले दिनों दो दिन की जिस गोष्ठी में वे हिस्सा लेने गए थे, वहां उनके चाय, नाश्ते, खाने से लेकर प्रतिभागियों के यात्रा व्यय और वक्ताओं को मिले हजार – दो हजार रुपए के लिफाफे तक का प्रायोजक वही बहुराष्ट्रीय कंपनी थी, जिसका पिछले दिनों गोष्ठी में उपस्थित अधिकांश लोगों ने विरोध किया था।