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    उमा के बदले रुख से कमल खिला – सरिता अरगरे

    uma-bharti चुनाव की तारीख की ओर बढ़ते हुए सियासत भी रफ़्तार पकड़ रही है । नाराज़ प्रहलाद पटेल घर लौटने के लिए बेताब हैं । मित्तल मामले में कोप भवन में जा बैठे जेटली भी ज़िद छोड़ने को तैयार हो गये हैं । कल तक आडवाणी को पानी पी-पी कर कोस रही साध्वी  भी गिले – शिकवे भुलाकर हम साथ-साथ हैंका एलान कर रही हैं । कुल मिलाकर भाजपा में  घटनाक्रम इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि सारा परिदृश्य बदला हुआ नज़र आ रहा है । 

     मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी उमा भारती ने सुलह की पाती भेजकर आडवाणी के नेतृत्व में आस्था जताने का दाँव खेलकर कइयों के होश उड़ा दिये हैं । उमा ने आडवाणी से मुलाकात के बाद यह कह कर सबको चौंका दिया कि पीएम इन वेटिंग का समर्थन राष्ट्र धर्म है । वे कहती हैं कि आडवाणी का समर्थन कर उन्होंने भाजपा पर कोई एहसान नहीं किया है , केवल राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है । साथ ही बीजेपी में वापसी के कयास को उन्होंने सिरे से खारिज भी कर दिया है ।  

    साफ़ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं “ की तर्ज़ पर उमा भाजपा में आने की हर मुमकिन कोशिश करती हैं लेकिन पूछने पर साफ़ मुकर जाती हैं । लुका छिपी के इस खेल में उमा की राजनीतिक हैसियत  कम से कमतर होती चली जा रही है । लेकिन उनकी ठसक कम नहीं होती । अड़ियल रवैये और पल में तोला- पल में माशावाले तेवरों के कारण भाजपा में उनके  दोस्त कम और दुश्मन ज़्यादा हैं । 

     उधर, उमा की खाली जगह भरने के लिए सुषमा स्वराज ने  डेरा डालने की ग़रज से भोपाल में होली पर दीवाली मनाकर बँगले में प्रवेश क्या किया , अटकलों का बाज़ार गर्माने लगा । प्रदेश की राजनीति पर पैनी निगाह रखने वालों का कहना है कि सिविल लाइन का बँगला , जो अब सुषमा स्वराज का निवास है ,  हमेशा ही सत्ता का केन्द्र रहा है । कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनाव बाद प्रदेश में मुखिया बदलने की भूमिका तैयार हो रही है । फ़िलहाल सुषमा विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं ।  मिथक है कि विदिशा से जीतने वाले नेता की सियासी गाड़ी तेज़ रफ़्तार से दौड़ने लगती है ।  

    यहाँ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मीडिया हस्ती रामनाथ गोयनका तक अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। वर्ष 1991 में हुए 10 वीं लोकसभा के चुनाव में वाजपेयी विदिशा और लखनऊ सीट पर एक साथ लडे थे । दोनों ही सीटों से जीतने के कारण वाजपेयी को लखनऊ भाया  और उन्होंने विदिशा सीट छोड दी थी। इसके बाद  उपचुनाव में शिवराजसिंह चौहान पहली बार सांसद बने थे।  विदिशा का कुछ हिस्सा विजयाराजे सिंघिया के संसदीय क्षेत्र में आने के कारण वे भी इस क्षेत्र का प्रतिनिघित्व कर चुकी हैं। अब एक बार फिर भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज को प्रत्याशी बनाकर विदिशा को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।  

     प्रदेश स्तर पर विदिशा का दबदबा पहले से ही कायम है।  लगातार 5 बार क्षेत्र का प्रतिनिघित्व करने वाले शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री की कमान संभाले  हैं ।  वहीं विदिशा से सांसद रह चुके  राघवजी के  पास प्रदेश की वित्त व्यवस्था का ज़िम्मा हैं। भाजपा का गढ कहलाने वाले विदिशा संसदीय क्षेत्र में सुषमा स्वराज को मैदान में उतारे जाने से एक बार फिर काँग्रेस की मुश्किलें बढ गई हैं ।  

    बहरहाल प्रदेश में भाजपा की राजनीति उबाल पर है । लम्बे  इंतज़ार के बाद आखिरकार पूर्व केन्द्रीय मंत्री और भारतीय जनशक्ति के नेता प्रहलाद पटेल की भाजपा में वापसी का रास्ता लगभग साफ़ हो गया है । उम्मीद है कि कल  21 मार्च को ग्यारह बजे प्रहलाद पटेल पूरे लाव-लश्कर के साथ चार हज़ार कार्यकर्ताओं की फ़ौज लेकर  विधिवत तौर पर घर वापसी करेंगे । मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि कर दी है । भाजपा में आने के बाद उन्हें खजुराहो या छिंदवाड़ा से चुनावी जंग में उतारने  के आसार  है , मगर प्रहलाद फ़िलहाल चुनाव लड़ने की अटकलों को नकार रहे हैं ।  

    भाजश के दो दिग्गज नेताओं की  वापसी की संभावनाओं ने प्रदेश की उन्तीस में से छब्बीस संसदीय सीटों पर जीत का दावा कर रही भाजपा नेताओं के चेहरे कमल की मानिंद खिला दिये हैं । हालाँकि विधानसभा चुनाव में भाजश कुछ खास नहीं कर पाई , लेकिन कई जगह भाजपा

    के वोटों में सेंधमारी में कामयाब रही थी । इसका खमियाज़ा जीत के अंतर में कमी और कई जगह  काँग्रेस  को बढ़त के तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा था ।  

    रुठों के मान जाने से भाजपा में जोश का माहौल है , वहीं गुटबाज़ी से परेशान काँग्रेस अब तक दमदार उम्मीदवारों की तलाश भी पूरी नहीं कर पाई है । विधानसभा चुनाव में नाकामी से भी पार्टी के क्षत्रपों ने कोई सबक नहीं सीखा ।  कमलनाथ , ज्योतिरादित्य सिंधिया ,कांतिलाल भूरिया सरीखे नेता अब अपनी सीट बचाने की जुगत में लग गये हैं  । मैदाने जंग में उतरने से पहले ही हार की मुद्रा में आ चुके काँग्रेस के दिग्गज नेता अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में  हैं । आज हालत ये है कि प्रदेश में काँग्रेस की स्थिति दयनीय है । हाल- फ़िलहाल मध्यप्रदेश में मुकाबला पूरी तरह से एकतरफ़ा दिखाई देता है ।

    व्यवस्था परिवर्तन बनाम गोविंदाचार्य – ब्रजेश झा

    kn-govindपंद्रहवीं लोकसभा चुनाव की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आ रही है, कई गुम्फित चेहरे चुनावी उत्सव में भाग लेने सामने आते दिखलाई पड़ रहे हैं। पिछले कई वर्षों से राजनीति की मुख्य धारा से खुद को अलग-थलग रखने वाले के.एन.गोविंदाचार्य भी चुनावी रंग को प्रभावित करने का मन बना चुके हैं। उनके संरक्षण में तैयार हुआ राष्ट्रवादी मोर्चा लोकसभा की लगभग 150 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रहा है।इस मोर्चा का गठन 14-15 जनवरी को इलाहाबाद (प्रयाग) में आयोजित एक सम्मेलन में किया गया था। मोर्चा में फिलहाल 22 घटक दल शामिल हैं, जिनकी क्षेत्रीय स्तर पर खासा पहचान है। 15 फरवरी को मोर्चा के संचालन समिति की कोलकाता में बैठक बुलाई गई थी, जिसमें जाति एवं मजहब के आधार पर देश को बांटने के प्रयासों की निंदा की गई। साथ ही एक राजनीतिक प्रस्ताव पारित कर शक्तिशाली भारतीय राष्ट्र निर्माण की बात कही गई थी। तभी से यह अटकलें लगाई जाने लगी थी कि राष्ट्रवादी मोर्चा आगामी चुनाव में हिस्सा ले सकता है।

    अंततः राष्ट्रवादी मोर्चा के संयोजक डा. सुरजीत सिंह डंग ने गोविंदाचार्य की मौजूदगी में राष्ट्रीय राजधानी में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान चुनाव में जाने की घोषणा कर दी।

    आम चुनाव से ठीक पहले इस मोर्चा का गठन और बतौर संरक्षक गोविंदाचार्य के जुड़ने से राष्ट्रवादी मोर्चा का महत्व बढ़ गया है। राजनीति की बारीक देशी समझ रखने वाले और गोविंदाचार्य की काबिलीयत से वाकिफ लोगों का मानना है कि आम चुनाव में यह मोर्चा कहीं-न-कहीं राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली ताकतों को नुकसान पहुंचा सकता है। क्योंकि, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों से निपटने की कला उन्हें खूब आती है। कभी अपनी इसी कला में निपुण होने और व्यापक दृष्टि रखने की वजह से वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में अपने ही लोगों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। जिसके बाद उन्होंने खुद को पार्टी से किनारा कर लिया था।

    हालांकि, गोविंदाचार्य ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी न तो किसी से दुश्मनी है, न ही दोस्ती। उनका मोर्चा भारत-परस्त और गरीब-परस्त राजनीति की वकालत करने के लिए चुनावी मंच का उपयोग भर करेगा।

    संवाददाता सम्मेलन में गोविंदाचार्य ने कहा, ‘देश में गत 150 वर्षों से चली आ रही विकास की अवधारणा अब गलत प्रामाणित हो रही हैं। जरूरत इस बात की है कि विकास स्थानीय भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए किया जाए। लेकिन परिस्थितियां बिल्कुल अलग हैं। फिलहाल हमलोग विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वह रास्ता बंद गली की तरफ जाता है। यदि नजर डालें तो विदर्भ समेत देश में कई उदाहरण मिल जाएंगे।’

    यहां पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि नजर बदलें तभी नजारा बदलेगा। अन्यथा वादे-दावे हवा में ही झूलते रह जाएंगे। अब चमक-दमक की राजनीति का बोलबाला हो गया है। दलों में जमीनी कार्य करते हुए नेता बनने की प्रक्रिया थम सी गई है। हम इन बातों को जनता तक पहुंचाएंगे।

    फिलहाल आम चुनाव के मद्देनजर राष्ट्रवादी मोर्चा दिल्ली में 24 मार्च को एक सम्मेलन की तैयारी में है, जिसमें चुनाव सुधार व भ्रष्टाचार समेत अन्य कई मुद्दों को मुद्दा बनाने को लेकर विचार-विमर्श होने की संभावना है।

    उधर, गोविंदाचार्य को जानने वालों का मानना है कि व्यवस्था परिवर्तन जैसे बड़े उद्देश्य के लिए चुना गया यह रास्ता काफी आसान है। इसके माध्यम से लक्ष्य तक पहुंच पाने की संभावना एकबारगी कम होती मालूम पड़ती है। क्योंकि, इस रास्ते में भटकाव ज्यादा हैं। देश की जनता उनसे एक व्यापक आंदोलन पैदा करने की उम्मीद रखती है और उनकी तरफ एक उम्मीद से टकटकी लगाए है। ताकि, संभावनाओं की नई किरणें पैदा हों और व्यवस्था परिवर्तन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके।

    वर्तमान आर्थिक संकट अथवा सांस्कृतिक घुसपैठ

    economic-slowdownशीर्षक पढ़कर अजीब लग रहा हैं न! आप सोच रहे होंगे कि आर्थिक जगत की बातों का संस्कृति से क्या सम्बन्ध? सच तो यही हैं कि भारतीय बाजार की आर्थिक मंदी वास्तव में भारत का संकट ही नही हैं। यह उन अल्पसंख्यक उच्च वर्ग तथा उच्चतर मध्यवर्ग के लिए खतरे की घंटी हैं जो सांस्कृतिक घुसपैठ को मौन रूप से स्वीकार चुके हैं। पाश्चात्य देशों के मूल्यों से लेकर उनके जीवन की छोटी से छोटी आदतें आज हमारे लिए अनुकरणीय हो गई है। गाँव -गाँव तक इस सांस्कृतिक फिसलन का प्रभाव आंशिक रूप से ही सही पर दिखने जरुर लगा है। भले ही आज भी बहुसंख्यक परम्परावादी या रुढिवादी हम पढ़े लिखो की नज़र मेंसमाज इससे पूर्णतः प्रभावित नही है,  और यही वजह है, संसार की वर्तमान महाशक्ति अमेरिका के आर्थिक सकत का कुछ बहुत ज्यादा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर नही है।

    ऊपर की थोडी बहुत बातों को समझने के लिए पूर्व और पाश्चात्य के मध्य का अन्तर जानने की कोशिश नितांत आवश्यक है। भौगोलिक और संस्कृतक रूप से विपरीत होने के कारण यहाँ और वहां की जीवन शैली तथा जीवन मूल्य बिल्कुल ही अलग -अलग है। पश्चिम में मनुष्य इस बात पर बल देता है या यूँ कहें कि इसी चेष्टा में जीता है कि अधिकाधिक वैभव संग्रह कर उसका उपभोग कर ले बस जबकि, भारत में निरंतर अपनी जरूरतों को कम से कम रखने की परम्परा रही है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था -“पूर्व और पाश्चात्य का यह द्वंद ,यह पार्थक्य अभी सदियों और चलेगा। “हमारे और उनके बीच की विषमता के सूत्र एक मात्र इसी भोग -उपभोग की दर्शन (थ्योरी) से संचालित होती है। एक चीज बिल्कुल स्पष्ट कि ये महज कहने और आत्मविभुत होते की बात नही है बल्कि अमेरिका में जो कुछ घटित हुआ उसके मूल में जाने पर इस की पुष्टि होती है। भोग-विलास वादी स्वभाव के कारण (जो आधुनिक बाजारवाद ने नए तरीके से प्रोजेक्ट किया है) जिसको बढावा देने में मीडिया ने एक अहम भूमिका अदा की है, २०-२५ वर्ष आगे की पूंजी को ‘क्रेडिट कार्ड’  के जरिये खा –  पका कर मूर्खों ने (जो कल तक क्या आज भी ख़ुद को सबसे बड़ा और विकसित मानते हैं) वहां के बैंको की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी कि ‘लेहमैन’ जैसी बड़ी वित्तीय संस्था को बर्बाद होना पड़ा।

    भारत में जो भी अस्थिरता आई वह तो अमेरिकी कंपनियों द्वारा पूर्व में निवेश कीगई पूंजी को निकल लेने का परिणाम था। पिछले ५-७ सालों में बेतहाशा दौड़ रही भारतीय अर्थ व्यवस्था ने विदेशी निवेश को कई गुना बढ़ा दिया था, अब अचानक इतनी बड़ी मात्र में बाजार से पूंजी का जाना कुछ न कुछ रंग तो लाएगी। इस दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था के टिके रहने में भारतीय बहुसंख्यक वर्ग की बचत की प्रवृति ने महती भूमिका निभाई। आज भी हमारा देश गाँव का देश है जहाँ की ६०-६५ % जनसँख्या वैश्विक बाजार के चंगुल से करीब -करीब अछूती है ।शेयर बाजार के इस युग में कई सौ गाँव अब भी बैंकों की पहुँच से बाहर हैं। पैसों से भोग की बढती नक़ल के वाबजूद एक औसत भारतीय थोड़े- थोड़े पैसे जमा करता है, जमा की गई राशिः के बड़े होते ही गहने, जमीन आदि खरीद कर (अपनी-अपनी समझ के हिसाब से) भविष्य सुरक्षित करने में लगा रहता है। एक मजदुर जो ६०-७० रूपये मुश्किल से कमा पाता है वो भी शाम को घर लौटने पर १०-५ रूपये टाट में खोंसना नही भूलता । यही तो हमारी विशिष्ट संस्कृति है जो हमारे जीवन को सुख -दुःख – संतोष की मदद से जीवन को गतिशील बनाये रखता है। लेकिन एक सुनियोजित तरीके से इस विशिष्ट ताकत को हमसे दूर करने का प्रयत्न किया जा रहा है। उदहारण के तौर पर दो विज्ञापनों को देखें तो सारी हकीकत सामने है।

    (१) आजकल एक टी वी विज्ञापन में दिखाया जा रहा है किबच्चे विदेश चले जाते हैं तो माँ -बाप घर को बेच डालते हैं। इस के जरिये हमारी मान्यताओं को ग़लत ठहरा कर यह बताने की कोशिश हो रही है कि घर क्या है? कुछ भी तो नही, जब चाहेंगे बन जाएगा। जबकि हम घर को एक वास्तु नही मानते, उसे तो पूर्वजो का धरोहर, उनका आशीर्वाद मानते हैं। अरे जरा, कल्पना तो कीजिये उस व्यक्ति का जिसका अपना घर नही है।

    (२) एक अन्य विज्ञापन जिसमे पति, पत्नी के बीच लोन को लेकर बात-चित चल रही होती है तभी पत्नी कहती है सब कुछ बेच सकते हैं तो गहने क्यूँ नही? मुत्थु ग्रुप नमक एक वित्तीय संस्था के इस विज्ञापन में गहनों को परिवार की इज्जत समझने की सोच को ख़त्म करने की साजिश है। भारतीयों की अग्रसोची मानसिकता को रुढिवादी बताया जा रहा है।

    ऊपर के दो विज्ञापनों का विश्लेषण कई तरह से किया जा सकता है। बात एक ही है हमें इन चीजो को गहरे से समझना होगा। केवल नक़ल के आधार पर आधुनिक होने की कवायद कब तक? आज हमें छुटकारा चाहिए इस नकलचीपन से। न्याय हो या शिक्षा, राजनीती हो अथवा आर्थिक प्रणाली सब के सब नक़ल पर आधारित! यहाँ तक कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का तगमा लटकाए घुमने वाले इस देश का संविधान भी कट, कॉपी, पेस्ट का नतीजा है। ऐसा लगता नही बल्कि वास्तविकता यही है, बार-बार दूसरो का गुणगान करते – करते हम अपना अस्तित्व ही नकार बैठे हैं।


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो: 09210907050

    तीसरे मोर्चे के चाणक्य : करात

    3rd_frontपरमाणु करार पर मनमोहन सरकार को जिस समय प्रकाश करात आर-पार की चुनौती दे रहे थे ठीक उसी समय हमारे बड़े पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक प्रकाश करात को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक रहे थे। लेकिन यह करात का ही करिश्मा है कि वाम दल फिर से देश में एक बड़ी ताकत बनकर उभरे हैं और देश की राजनीति फिर से वाम दलों के इर्द गिर्द घूम रही है।

    कर्नाटक के तुमकुर में जेडी (एस) नेता एचडी देवेगौड़ा और वाम दलों की पहल पर जिस तरह से तीसरे मोर्चे के लोग जुटे, उससे क्षेत्रीय दलों की नई ताकत का एहसास यूपीए और एनडीए दोनों को बखूबी हो गया है।

    अभी तक का इतिहास तीसरे मोर्चे के लिए अच्छा नहीं रहा है। जो हालात देश में रहे हैं उसमें बिना कांग्रेस या भाजपा की मदद के तीसरे मोर्चे की कल्पना बेमानी रही है। लेकिन इस बार हालात दूसरे बन रहे हैं। अगर आज की तारीख में कोई भविष्यवाणी की जा सकती है तो सिर्फ यह कि पन्द्रहवीं लोकसभा का ताना बाना तीसरे मोर्चे के इर्द-गिर्द ही बुना जाएगा और जिन प्रकाश करात और ए.बी. बर्धन को लोग इतिहास के कूड़े के ढेर पर फेंक रहे थे, पन्द्रहवीं लोकसभा की उम्र वही करात और बर्धन ही तय करेंगे।

    ऐसा सोचना कोई गलतफहमी या खुशफहमी नहीं है। यूपीए गठबंधन की हालत पतली है। मध्य प्रदेश में उसके पास कोई फेस नहीं है, राजस्थान में भी उसके घर में आग लगी हुई है, महाराष्ट्र में राकांपा से उसकी लगी हुई है, आंध्र में वाई एस राजशेखर रेड्डी की हालत पतली है। उ0प्र0 में उसके पास पूरे 80 प्रत्याषी नही है! उसके उ0 प्र0 के दूसरे मजबूत साथी मुलायम सिंह की हालत उनके कमांडर अमर सिंह के कारण खराब है, सपा को अगर वहां दस सीटें भी मिल जाएं तो यह उसकी बड़ी उपलब्धि होगी। बिहार में कांग्रेस को सिर्फ 3 सीटें मिली हैं, फिर कांग्रेस की बढ़त कहां होगी?

    ठीक इसी तरह एनडीए का घर भी बिखरा-बिखरा है। अडवाणी की छवि उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन रही है। उसके घटक रोज छिटक रहे हैं। भाजपा में स्वयं जबर्दस्त जूतमपैजार है, जो सड़को पर भी दिखाई दे रही है। बीजद एनडीए को छोड़ ही गया, अगप शामिल हुआ भी लेकिन उसने कह दिया कि सीटों का तालमेल है, गठबंधन नहीं । अगर बिहार की बात छोड़ दी जाए तो एनडीए को भी सभी जगह नुकसान ही होना है। सबसे बड़े राज्य उ0 प्र0 में उसकी कमर टूटी हुई है। स्वयं राजनाथ सिंह गाजियाबाद में कड़े मुकाबले में फंसे हुए हैं, राष्ट्रिय लोकदल से उसे पश्चिम उ0 प्र0 में कुछ फायदा हो सकता है लेकिन वह उ0प्र0 में कुछ करिश्मा कर पाएगी ऐसा नही है, कर्नाटक में भी देवेगौड़ा के दांव से भाजपा की हालत पतली है। फिर एनडीए कहां बढ़त लेगा?

    रही बात प्रधानमंत्री तय करने की तो इस मसले को वाम दलों ने खूबसूरती के साथ हल कर लिया है। जिन दो बददिमाग देवियों पर संशय किया जा रहा था उन दोनों ने कह दिया कि चुनाव बाद यह फैसला होगा। यानी जिसकी जितनी ज्यादा संख्या बल वह प्रधानमंत्री! तो अब संदेह की क्या गुंजाइश रही?

    वामपंथी दलों की कोशिश भाजपा और कांग्रेस को चुनाव में ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की है जिसमें वे सफल भी हो रहे हैं। अगर कांग्रेस को बीस-तीस सीटों का और भाजपा को भी बीस-तीस सीटों का नुकसान होता है तो फिर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के अलावा क्या विकल्प होगा? क्या भाजपा और कांग्रेस तीसरे मोर्चे को रोकने के लिए गठबंधन कर लेंगे? अगर भाजपा और कांग्रेस को बीस बीस सीटों का भी नुकसान हुआ तो जो शरद यादव आज तीसरे मोर्चे को मेढकों को तौलना बता रहे हैं, वे ही सबसे पहले तीसरे मोर्चे के तराजू में बैठे मिलेंगे।

    जयललिता और मायावती भी अपने स्वभाव के मुताबिक जो गड़बड़ी कर सकती हैं, नहीं करेंगी क्योंकि ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस उन्हे प्रधानमंत्री बनाने से रही! फिर जयललिता और मायावती क्यों तीसरे मोर्चे से बाहर जाएंगी? और अगर जाएंगी भी तो दोनों के अपने अपने दुश्मन न0 एक मुलायम सिंह और करूणानिधि सत्ता का स्वाद चखने के लिए करात के दरबार में अर्जी लगाए खड़े होंगे। ऐसे में न मायावती चाहेंगी और न जयललिता कि वे दौड़ से बाहर हो जाएं।

    इन सारी बातों को किनारे कर भी दिया जाए, तो भाजपा और कांग्रेस ने जिस प्रकार से तीसरे मोर्चे पर प्रतिक्रिया दी, क्या वह दोनों राष्ट्रिय दलों की घबराहट को साबित करने के लिए काफी नहीं है? अगर वाम दलों द्वारा प्रायोजित यह मोर्चा गंभीर नहीं है तो अडवाणी जी और सोनिया जी के माथे पर पसीना क्यों है? आने वाला कल निष्चित रूप से प्रकाश करात और बर्धन का ही है।

    (लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवक्ता’ के संपादकीय विभाग में हैं।)

    अमलेन्दु उपाध्याय
    द्वारा एससीटी लिमिटेड,
    सी-15, मेरठ रोड इंडस्ट्रियल एरिया
    गाजियाबाद- उ0प्र0
    मो0- 9953007626

    इतिहास का सच — जयराम ‘विप्लव’

    kutub-minarइतिहास को जानने की जरुरत है या नही ,ये मुद्दा हम अखबारी लोगों के बीच अक्सर बहस का विषय होता है। आए दिन किसी न किसी से तो इतिहास पढने और अतीत को जानने-समझने की सलाह मिल ही जाती है। वैसे भी हमारे यहाँ मुफ्तकी नसीहत कुछ आसानी से उपलब्ध हो जाया करती है। लगता है हम मसले से दूर जा रहे हैं, चलिए वापस इतिहास के मुद्दे पर लौट जायें। यूँ देखें तो हम-आप में से हर कोई इतिहासकार है। प्रत्येक को किसी न किसी तरह का समय बोध होता ही है। कोई पढ़ कर जानकारी ग्रहण करता है, कोई वर्षों पुरानी श्रुति-स्मृति की परम्परा के माध्यम से सीखता है। हाँ ,यह बात गौर करने योग्य है कि आम इंसान हो या फिर इतिहासविद, सबों का मत एक जैसा नही होता । इसके पीछे भी तर्क दिया जाता है- हर इंसान का नजरिया अलग-अलग होता है।

    अब बात है,  इतिहास को किस स्तरपर जानना चाहिए?  क्या ख़ुद के बारे में जान लेना काफी होगा?  नही,  हमें इतिहास को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में सोचने का प्रयास करना चाहिए। हालाँकि आजकल लोगो को इतनी फुर्सत कहाँ होती है। शहरमें न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिन्हें अपने दादा-परदादा का नाम तक मालूम नही होता! परन्तु, निराश होने की बात नही है। मानव स्वाभाव ही कुछ ऐसा है किहम जाते तो हैं निरंतर भविष्य कीओर लकिन हमारा अतीत हमें अनवरत आकर्षित करता रहता है। हम अपने दैनिक जीवन में जब भी कोई ऐसी वास्तु पा जाते हैं जिनका भुत से सम्बन्ध हो तो हमारी आँखें चमक उठती है। अतीत को जानकर-समझ कर और उससे सीख लेकर वर्तमान तथा भविष्य दोनों को बेहतर किया जा सकता है। साथ ही इतिहास जानने का एक अन्य कारण है ,सदियों भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं का शासन । किसी ने कहा है -“जिस जाति के पास अपने पूर्व-गौरव की ऐतिहासिक स्मृति होती है वो अपने गौरव की रक्षा का हर सम्भव प्रयत्न करती है। ” अफ़सोस की आज हमारे अन्दर वो स्मृति गायब होती जा रही है! बंकिमचंद्र चटर्जी को भी यही दुःख था -‘साहब लोग अगर चिडिया मरने जाते हैं तो उसका भी इतिहास लिखा जाता है’। वैसे ये नई बात नही, अंग्रेज साहबों से सक्दो साल पहले का इतिहास भी शासकों के इशारों पर कलमबद्ध होता रहा है। अनगिनत काव्य और ग्रन्थ चाटुकारिता के आदर्श स्थापित करने हेतु लिखे गए। कलम के पुजारियों ने निजी स्वार्थ या दवाब में आकर डरपोकों को शूरवीर, गदारों को देशभक्त, जान-सामान्य के पैसो से मकबरा बनने वाले को मुहब्बत का देवता बना डाला। मुगलों से अंग्रेजो तक आते -आते हमारा वास्तविक इतिहास कहाँ चला गया ,पता भी नही चल पाया। कविश्रेष्ठ रविन्द्रनाथ ने इस सन्दर्भ में एक बार कहा था कि “एक विशेष कोटि के इतिहास द्वारा सांस्कृतिक उपनिवेश्ता इस देश के वास्तविक इतिहास का लोप कर देना चाहती है। हम रोटी के बदले, सुशासन, सुविचार, सुशिक्षा – सब कुछ एक बड़ी………….. दूकान से खरीद रहे हैं- बांकी बाजार बंद है……………..जो देश भाग्यशाली हैं वे सदा स्वदेश को इतिहास में खोजते और पते हैं। हमारा तो सारा मामला ही उल्टा है। यहाँ देश के इतिहास ने ही स्वदेश को ढँक रखा है। ”

    चर्चा तो आगे भी होगी। अगर कोई पूछे कि इस इतिहास को पढने से क्या मिला ? परीक्षाओं के अलावा इस तरह के इतिहास का कोई और फायदा ढूँढना मेरे \बस का नही। नुक्सान अवश्य बता सकता हूँ – विदेशी सभ्यताओं -संस्कृतियों को आदर्श मानकर हमारा ह्रदय स्वदेश,स्वसंस्कृति से विमुख हो चुका है। हमारी नक़ल हर दिन चलती रहती है मानो पाश्चत्य सभ्यता से बढ़ कर इस दुनिया में और कुछ है ही नही।

     

    — जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो:09210907050

    सभ्यता का संघर्ष कब तक …..

    civilizationसंसार के समस्त जीवधारियों का जीवन परस्पर संघर्ष की कहानी है। अपने आप को मौत से बचाते हुए अच्छी जिन्दगी की तलाश में पूरा जीवजगत आपसी टकरावों में उलझा रहा है। मसलन, सर्प और मेंढक के बिच का टकराव, बड़ी मछलियों का छोटी मछलियों के साथ टकराव आदि अनेक उदहारण इस सन्दर्भ में दिए जा सकते हैं। जिजीविषा की इस लडाई में मानव को कैसे भूल सकते हैं, असल में मनुष्य- मनुष्य के मध्य जाति-धर्म-भाषा अर्थात सभ्यताओं का संघर्ष नई बात नही है। संपूर्ण वैश्विक सन्दर्भ में पिछले २००० वर्षों के इतिहास को खंगाले तो कई जानने योग्य तथ्य प्रकाश में आते हैं । यही वो समय था जब विश्व इतिहास में नया बदलाव आरंभ हो चुका था। आज के इस विवादित और आतंकित भविष्य की नीव भी पड़ चुकी थी। अब तक ईसाइयत की मान्यताओं को न मानने वाले १५० करोड निरीह लोगों की हत्या की जा चुकी है। लगभग ४८ सभ्यताओं को नष्ट किया जा चुका है। ईसाइयत के बाद प्रगट हुए इस्लाम ने भी इसी परम्परा को अपनाया। इसके पीछे धर्मान्धों की यह मानसिकता काम करती है कि उनके धर्म में जो है वही एकमात्र और अन्तिम सत्य है। समूची दुनिया को एक धर्म में रंग डालने कि कवायद ठीक वैसी ही है जैसी वर्षों पूर्व सरे संसार को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंधेरे से ढँक दिया गया था। यही वो वक्त था, लोग कहते थे -“ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्यास्त नही होता। “स्कूल के दिनों में एक कहानी पढ़ी थी जिसमे तरह -तरह के रंग हरा, लाल, पीला, कला, सफ़ेद सभी अपने -अपने को श्रेष्ठतम बताते हुए दुनुया को अपने अधिपत्य में शामिल करना चाहते हैं। यहाँ भी धर्म को आधार बना कर संसार का झूठा एकीकरण करने का कुप्रयास चलाया जा रहा है। इस दुनियाकि विविधता ही इसकी सबसे बड़ी संपत्ति है, इस विविधता को धर्म के नाम पर तोड़ने का काम कुछ अन्ध्भाक्तो कीदेन है। कुछ धर्मो खास कर ईसाइयत और इस्लाम में धर्म विस्तार/धर्म परिवर्तन पुन्य का काम माना जाता है। अब, जब कोई धार्मिक मान्यता पुण्य का साधन बन जाए तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है की यह कार्य तलवारों के जोर से हो अथवा कागज – कलम के जोर से यार्था के इस युग में पैसों की चमक से। आज सारा विश्व जिस आतंक के “वाद” की परिभाषा तैयार करने में जुटी है,उसका सीधा- सीधा सम्बन्ध ऐसी ही मान्यताओं से जुडाहुआ है। हालाँकि कुछ लोग, जिन्हें आतंक और आतंकवाद के बिच का अनतर नही पता, अशोकमहान को भी आतंकी कहने से नही चुकते। उनके मुताबिक तो नक्सलवाद, क्षेत्रवाद आदि भी आतंकवाद ही है । जिस अशोक की बात की जाति है उसका युद्ध राज्य विस्तार के लिए था न की धरम विस्तार के लिए। धर्म विस्तार के लिए तो उन्हें भी प्रचार का सहारा लेना पड़ा था। आज के इस बेसिर-पैर की हिंसात्मक करवाई में विश्वास रखने वालो की तुलना सम्राट अशोक से करना मुर्खता की बात होगी। आतंक से आतंकवाद का सफर कई दशकों में तय किया गया है। हमारा भारत तो शको, हनो, तुर्को, मुगलों, और अंग्रेजों के आक्रमण और फिर शासन केसमय से ही आतंक का दंश झेलता आया है । आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा हमले हमारे देश में होते हैं। हमेशा से रक्षात्मक रवैया अपनानाये रहने की वजह से ही तो ये दुर्गति है। मुठी भर बहरी आक्रमणकारियों ने न केवल हम पर शासन किया बल्कि अपनी धर्म और संस्कृति को भी थोपते गए। हमारी कमजोरियों का फल ये है कि५ हजार साल पुराणी सभ्यता वाला भारत, १३० करोड कि आबादी वाला भारत, पाकिस्तान से तंग आकर अमेरिका से मदद मांग रहा है! तब से अब तक हम दूसरी बार घुटने टेकते नजर आरहे हैं। अर्नाल्ड ने कहा था” भारत एक ही बार पराजित हुआ था वो भी १९४७ में “। निश्चय ही धर्म के नाम पर विभाजन हमारी हार थी। बहरहाल, सभ्यता का ये संघर्ष अनवरत जारी है,  कब तक?  पता नही ……..


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
    मो: 09210907050

    संरक्षण मुहिम बनी बाघों की मुसीबत – सरिता अरगर

    tiger1बाघों का कुनबा बढ़ाने की अफ़लातूनी कवायद से मध्यप्रदेश के प्रकृति प्रेमी खासे नाराज़ और वन्य जीव विशेषज्ञ हैरान हैं। बाघों की तादाद बढाने के लिए शुरु की गई मुहिम को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन वन विभाग के आला अफ़सरान इन आपत्तियों को सिरे से खारिज कर बाघों की संख्या बढाने की दुहाई दे रहे हैं। ये और बात है कि जब से प्रोजेक्ट टाइगर शुरु हुआ है बाघों की मौत का सिलसिला तेज़ हो गया है। गोया यह परियोजना बाघों की मौत सुनिश्चित करने के लिए ही बनाई गई है।

    हेलीकॉप्टर से बाघिन पहुँचाने की परियोजना सरिस्का के बाद अब मध्यप्रदेश में भी शुरु की गई है। लेकिन परियोजना का उद्देश्य अपनी मोटी बुद्धि में तो घुसता ही नहीं। इधर प्रदेश में बाघों की वंशवृद्धि के लिए नई तरकीबें आज़मायी जा रही हैं, उधर बाघों की मौतों के बढते ग्राफ़ ने तमाम सवाल भी खड़े कर दिये हैं।

    हाल ही में सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम के बीच वायुसेना के उड़नखटोले से बाघिन को पन्ना लाया गया। कान्हा नेशनल पार्क में सैलानियों को लुभा रही बाघिन अब अपने पिया के घर पन्ना नेशनल पार्क की रौनक बन गई है। इससे पहले तीन मार्च को बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में गुमनाम ज़िन्दगी गुज़ार रही बाघिन सड़क के रास्ते पन्ना पहुँची। पन्ना के बाघ महाशय के लिए पाँच दिनों में दो बाघिन भेजकर वन विभाग योजना की सफ़लता के “दिवा स्वप्न” देख रहा है।

    मध्यप्रदेश में आए दिन बाघों के मरने की खबरें आती हैं। पिछले हफ़्ते कान्हा नेशनल पार्क में एक बाघ की मौत हो गई। वन विभाग ने स्थानीय संवाददाताओं की मदद से इस मौत को दो बाघों की लड़ाई का नतीजा बताने में ज़रा भी वक्त नहीं लगाया। वीरान घने जंगल में मरे जानवर की मौत के बारे में बिना किसी जाँच पड़ताल के तुरंत उसे बाघों का संघर्ष करार दे देना ही संदेह की पुष्टि का आधार बनता है । खैर, वन विभाग के जंगल नेताओं और अधिकारियों की चारागाह में तब्दील हो चुके हैं, अब इसमें कहने- सुनने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहा।

    पिछले दो माह के दौरान कान्हा में बाघ की मौत की यह तीसरी घटना है। इसी अवधि में बाँधवगढ़ टाइगर रिज़र्व में भी बाघ की मौत हो चुकी है। बुधवार को इंदौर चिड़ियाघर में भी “बाँके” नाम के बाघ ने फ़ेंफ़ड़ों में संक्रमण के कारण एकाएक दम तोड़ दिया। भोपाल के राष्ट्रीय वन विहार में भी अब तक संभवतः तीन से ज़्यादा बाघों की मौत हो चुकी हैं । पन्ना नेशनल पार्क में बाघों की तादाद तेज़ी से घटी है। वर्ष 2005 में यहाँ 34 बाघ थे। इनमें 12 नर और 22 मादा थीं। 2006-2007 की भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की गणना में यह आँकड़ा 24 रह गया।

    बाघिन को स्थानांतरित करने की मुहिम पर स्थानीय लोगों ने ही नहीं , देश के जानेमाने वन्यजीव विशेषज्ञों ने भी आपत्ति उठाई है। उन्होंने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को खत लिखकर अभियान रोकने की गुज़ारिश की थी । वन्य संरक्षण से जुड़े विशेषज्ञ बृजेन्द्र सिंह ,वाल्मिक थापर, डॉक्टर उल्हास कारंत, डॉक्टर आर. एस. चूड़ावत, पी. के. सेन, बिट्टू सहगल, फ़तेह सिंह राठौर और बिलिन्डा राइट ने बाघिन को बाँधवगढ़ से पन्ना ले जाने के बाद 7 मार्च को पत्र भेजा था। इसमें राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण और जानेमाने बाघ विशेषज्ञों से इस मुद्दे पर राय मशविरा नहीं करने पर एतराज़ जताया गया है।

    विशेषज्ञों ने वन कानून और अपने अनुभव के आधार पर कई अहम मुद्दे रखे हैं, जिनके मुताबिक पन्ना की मौजूदा परिस्थितियाँ बाघिनों के स्थान परिवर्तन के लिए कतई अनुकूल नहीं हैं। साथ ही ऎसा मुद्दा भी उठाया है जो वन विभाग की पूरी कवायद पर ही सवालिया निशान लगाता है। पत्र में पिछले एक महीने में पन्ना टाइगर रिज़र्व में किसी भी बाघ के नहीं दिखने का ज़िक्र किया गया है।

    हालाँकि पूरी कवायद फ़िलहाल अँधेरे में तीर चलाने जैसी है। जो सूरते हाल सामने आए हैं, उसके मुताबिक वन विभाग ही आश्वास्त नहीं है कि पन्ना में कोई बाघ बचा भी है या नहीं ….? तमाम विरोध और भारी मशक्कत के बीच दो बाघिनें पन्ना तक तो पहुँच गईं, मगर नेशनल पार्क में नर बाघ होने को लेकर वन विभाग भी संशय में है। दरअसल पार्क का इकलौता नर बाघ काफ़ी दिनों से नज़र नहीं आ रहा है।

    प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक डॉक्टर पी. बी. गंगोपाध्याय का कहना है कि ज़रुरी हुआ तो एक-दो नर बाघ भी पन्ना लाये जा सकते हैं। बाघों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए पिछले दिनों भारतीय वन्यजीव संस्थान ने कैमरे लगाये थे , जिनसे पता चला कि पार्क में सिर्फ़ एक ही बाघ बचा है।

    बाघ संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे बाँधवगढ़ फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष पुष्पराज सिंह इस वक्त बाघिन के स्थानांतरण को जोखिम भरा मानते हैं । गर्मियों में पन्ना के जलाशय सूख जाने से बाघों को शाकाहारी वन्यजीवों का भोजन मिलना दूभर हो जाता है । ऎसे में वे भटकते हुए गाँवों के सीमावर्ती इलाकों में पहुँच जाते हैं और कभी शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या फ़िर ग्रामीणों के हाथों मारे जाते हैं । कान्हा की बाघिन को पन्ना ले जाने से रोकने में नाकाम रहे वन्यप्राणी प्रेमियों ने अब बाघिन की सुरक्षा को मुद्दा बना लिया है । अधिकारियों की जवाबदेही तय कराने के लिए हाईकोर्ट में अर्ज़ी लगाई गई है ।

    जानकारों का ये तर्क एकदम जायज़ लगता है कि पन्ना को सरसब्ज़ बनाने का सपना देखने और इसकी कोशिश करने का वन विभाग को हक तो है, मगर साथ ही यह दायित्व भी है कि वह उन कारणों को पता करे जो पन्ना से बाघों के लुप्त होने का सबब बने । बाहर से लाये गये बाघ-बाघिनों की हिफ़ाज़त के लिहाज़ से भी इन कारणों का पता लगना बेहद ज़रुरी हो जाता है।

    मध्यप्रदेश के वन विभाग के अफ़सरों की कार्यशैली के कुछ और नमूने पेश हैं,जो वन और वन्य जीवों के प्रति उनकी गंभीरता के पुख़्ता सबूत हैं –
    सारे भारत में वेलंटाइन डे को लेकर हर साल बवाल होता है, लेकिन वन विभाग के उदारमना अफ़सरों का क्या कीजिएगा जो वन्य प्राणियों के लिए भी “वेलंटाइन हाउस” बनवा देते हैं। भोपाल के वन विहार के जानवर पर्यटकों की आवाजाही से इस कदर परेशान रहते हैं कि वे अपने संगी से दो पल भी चैन से मीठे बोल नहीं बोल पाते। एकांत की तलाश में मारे-मारे फ़िरते इन जोड़ों ने एक दिन प्रभारी महोदय के कान में बात डाल दी और उन महाशय ने आनन-फ़ानन में तीन लाख रुपए ख़र्च कर इन प्रेमियों के मिलने का ठिकाना “वेलंटाइन हाउस” खड़ा करा दिया । कुछ सीखो बजरंगियों, मुथालिकों, शिव सैनिकों….। प्रेमियों को मिलाने से पुण्य मिलता है और अच्छी कमाई भी होती है।

    इन्हीं अफ़सर ने वन्य प्राणियों की रखवाली के लिए वन विहार की ऊँची पहाड़ी पर दस लाख रुपए की लागत से तीन मंज़िला वॉच टॉवर बनवा दिया। भोपाल का वन विहार यूँ तो काफ़ी सुरक्षित है, लेकिन जँगली जानवर होते बड़े चालाक हैं। वन कर्मियों की नज़र बचा कर कभी भालू, तो कभी बंदर, तो कभी मगर भोपालवासियों से मेल मुलाकात के लिए निकल ही पड़ते हैं। तिमँज़िला वॉच टॉवर पर टँगा कर्मचारी बेचारा चिल्लाता ही रह जाता है।

    — सरिता अरगर
    ई-मेल: sarjay63@gmail.com

    प्रजातांत्रिक भारत का राजवंश

    nehru-family-350x1051लोकतंत्र मूर्खों का शासन होता है पर, यहाँ तो मूर्खों ने लोकतंत्र को हीं राजशाही की ओर ठेल दिया है। राजतन्त्र नहीं तो और क्या है? गाँधी, सिंधिया, पायलट, ओबेदुल्लाह जैसे खानदान ही शासन में बचे हैं। ये तो चंद बड़े नाम हैं छोटेछोटे स्तरपर भी कई मंत्रीसन्तरी भी बाप दादा की कुर्सी जोग रहें है। आज भी तो वही हो रहा है, पहले ताजपोशी होती थी अब प्रक्रिया थोडी बदल गई है। सेवानिवृत होतेहोते राजनेता अपने उतराधिकारी(भाईबंधुओं) को मूर्खों की सभा में भेजते हैं, जहाँ उनको तथाकथित छद्म लोकतान्त्रिक तरीकों से चुना जाता है।लोकतंत्र के मंदिरों में बाप, बाप के बाद बेटा, फ़िर पोता! राजनीति का खून तो जैसे इनकी धमनियों में दौड़ता है। एक साथ दोतीन पीढियां सत्ता का रसास्वादन कर रहीं हैं। सरकार से भी बुरे हालात हैं राजनीतिक दलों के, वहां तो बगैर चुनावी ढोंग अपनाए ही वंशवादी नेतृत्व का बोझ कार्यकर्ताओं के कन्धों पर सौंप दिया जाता है।

    ५० सालों से देश कि एक बड़ी पार्टी कांग्रेस नेहरू खानदान के चंगुल में फंसी हुई है अब तक तो यही हुआ कि हर मुद्दे पर जनता की भावना को उभारकर कांग्रेस ने सालो तक राज किया। राजनीतिक रूप से थोड़े बहुत अधिकार देकर जनता को अहसान मंद बनाया गया कभी आरक्षण , कभी ऋण माफ़ी का लोलीपोप थमाया गया। चारों तरफ़ विकास का हंगामाहम भारतवासी विकास कर रहे है ! आज हमारे यहाँ कांग्रेस के राज मे ५२५३ खरबपति है! कितनी गर्व की बात है भाई !गर्व करो ख़ुद के भारतीय होने पर ! गर्व करो कि हम पाश्चात्य सभ्यतासंस्कृति के अनुरूप ख़ुद को ढाल रहे है!  वाकई गर्व की बात है ! हम पीवीआर मे सिनेमा देखते है , हम मैकडी मे पिज्जाबर्गेर खाते है , हम बड़ी बड़ी कारों मे घुमते है,  हम चाँद पर जा पहुचे है,  हमारे पास परमाणु शास्त्रों से लैस विश्व की दूसरी बड़ी सेना है(हाँ ये बात और है की हम बांग्लादेश जैसे पिद्दी राष्ट्रों से भी डरते है), हमारा विकास दर कुछ वर्षों मे बढ़ता रहा है (ये बात अलग है किअमेरिका मे मंदी की ख़बर मात्र से हमारा शेयर बाजार धराशायी हो जाता है) और जाने कितनी बातें गर्व करने लायक हो सकती हैं ।लकिन,महानगरों मे बसने वाले चंद अमेरिकापरस्त अथवा बाजारबाद के प्रचारक लोगों को हिंदुस्तान की तरक्की मानलेना न्याय पूर्ण होगा ? किसी ने सच ही कहा था – “सौ सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रखके हाथ कहिये देश क्या आजाद है ? कोठियों से मुल्क की तक़दीर को मत आंकिये, असली हिंदुस्तान तो गाँव मे आवाद है।क्या वर्षो के बाद भी हमारी तकदीर बदली है ? नही, कल भी कुछ अमीर थे और आज भी हैं। हमने सामाजिक समानता जैसे शब्दों को तो केवल संसद एवं भाषण तक सीमितकर दिया है।

     

    भ्रष्टाचार को राजकीय धर्म बना दिया गय,( जिसमे पुरे समाज की भूमिका है) लोकतंत्र में वंशवाद के बीज रोपे गए जिसे जनता ने भी एकएक वोट से सींच कर उसे विशाल जंगल बना दिया है। परिवारवाद के अलावा अपराधीकरण की समस्या ने सियासत के तालाव को और भी गन्दा कर दिया है। एक समय था जब नेताजी अपने कुर्सी बचाए रखने के लिए गुंडे पालने लगे। धीरेधीरे भूमंडलीकरण के बढ़ते प्रभाव ने गुंडों की समझ भी बढाईऔर वे भी सोचने लगेभाई ,,जब इनकी जीत हम सुनिश्चित करते हैं तो क्यूँ नेतागिरी का शुभ कर्म भी ख़ुद से किया जाए ?सामाजिक दायरा भी बढेगा और पुलिस का भय भी ख़त्म। इस तरहराजनीती का अपराधीकरण, अपराध के राजनीतिकरणमें बदल चुका है। वो कहते हैं , आटे में नमक मिलाना पर यहाँ तो नमक में आटा मिलाने का रिवाज है। भ्रष्टाचार रूपी विषाणु लोकतंत्र के रागराग में फैलता जा रहा है बेरोकटोक तो उसके पास प्रतिरोध की ताकत बची है और ही उसे बचाने का कोई प्रयत्न ही हो रहा है। बस बारबार इलाज के नाम पर आश्वासन की गोलियां दी जाती है

    आख़िर कब तक एक बीमार, दयनीय और जर्जर व्यवस्था यूँ चलती रहेगी ? हम गर्व करते हैं अपने लोकतंत्र पर। कहते हैंहमारा गणतंत्र अभी शैशवावस्था में है, अरे इस विषाणु जनित महामारी के चपेट में कब बुढापा जाए पता भी चलता है। अब, जबकि बुढापा ही गया है तो आत्मा कब इस बहरी ढांचे को छोड़ जायेगी कहना मुश्किल है? इसबीमारी ने देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली को कहा पंहुचा दिया है इसका बयां शब्दों में कर पाना असंभव है क्याक्या बताये , किस किस कमी का बखान करें? सारी खामियों में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है-‘कमियों को दूर करने की इच्छाशक्ति का अभाव , भ्रष्टाचार की इस बीमारी से लड़ने की दृढ़ता का अभाव आज ६०६१ वर्षों बाद भी हम रोटी , कपड़ा और मकान के झंझट में पड़े है , ऊपर से ये वंशवाद की बीमारी ये सारी बुराइयाँ हमें खाए जा रही है पर इस चिंता को त्याग कर हमें इसका विकल्प लोगो के समक्ष रखना होगा भविष्य की राजनीति कैसी हो , इस पर केवल सोचने से नही बल्कि युवाओं को सक्रीय राजनीति में आना ही सबसे बड़ा विकल्प है


    जयराम चौधरी

    (Jayram Chaudhary)

    BA(HONS) MASS MEDIA
    JAMIA MILLIA ISLAMIA
    M:09210907050

    यह क्रांति की शुरुआत हैः नवाज शरीफ

    Nawaj Sarifपाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेता नवाज़ शरीफ़ वकीलों के लांग मार्च की अगुआई करते हुए राजधानी इस्लामाबाद की ओर रवाना हो गए हैं। देश में गत कुछ दिनों से चल रही राजनीतिक गहमा-गहमी उस समय तेज हो गई जब रविवार सुबह यह ख़बर आई कि नवाज शरीफ को नजरबंद कर लिया गया है।

    हालांकि पाकिस्तान सरकार ने ऐसी बात से साफ इनकार किया है। वैसे विपक्ष के नेता नवाज शरीफ के लांग मार्च की अगुआई करने से इस बात के साफ संकेत मिल रहे है कि पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता की तरफ तेजी से बढ़ रहा है।

    दूसरी तरफ लाहौर में इस्लामाबाद की ओर बढ़ रहे वकीलों व लांग मार्च के समर्थकों और पुलिस के बीच जम कर संघर्ष हुआ। यह मार्च दो वर्ष पहले पद से हटाए गए न्यायाधीशों की फिर से बहाली की मांग के समर्थन निकाल गया है।
    मार्च का नेतृत्व कर रहे शरीफ के साथ उनकी पार्टी के दर्जनों कार्यकर्ता हैं। वे जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए उनके समर्थकों का हुजूम लगातार बढ़ता गया।
    लाहौर में अपने आवास पर पत्रकारों को संबोधित करते हुए शरीफ ने वकीलों के इस लांग मार्च के साथ जुड़ने के लिए लोगों का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि उन्हें नजरबंद करना व इस्लामाबद जाने से रोकने की कोशिश करना गैरकानूनी था।

    एक समाचार चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस्लामाबाद हमारी नियति है और हम इस्लामाबाद के लिए निकल पड़े हैं। लोग आश्चर्यजनक रूप से हमारा समर्थन कर रही है। यह देश में क्रांति की शुरुआत है।

    पाकिस्तान में हलचल, नवाज शरीफ नजरबंद

    PAKISTANपाकिस्तान में खड़ा हुआ राजनीति संकट गहराता जा रहा है। मुस्लिम लीग-नवाज के नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लाहौर में उनके अन्य सहयोगियों के साथ नजरबंद कर लिया गया है। वकीलों के साथ विरोध प्रदर्शन जारी रखने के ऐलान के बाद उन्हें नजरबंद कर दिया गया है।

    मीडिया में आ रही खबर के मुताबिक पंजाब पुलिस ने नवाज शरीफ के साथ पूर्व क्रिकेटर व तहरीक-ए-इंसाफ के अध्यक्ष इमरान खान और जमात-ए-इस्लामी प्रमुख काजी हुसैन अहमद को भी नजरबंद किया है। इन नेताओं के घरों के बाहर बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किए गए हैं।

    पीएमएल-एन के प्रवक्ता अहसान इकबाल ने भी शरीफ को नजरबंद किए जाने की है। उन्होंने कहा है कि सैकड़ों की संख्या में पुलिसकर्मियों ने नवाज शरीफ के आवास को घेर रखा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण और लोकतांत्रिक धारा के खिलाफ है। लेकिन इससे हमारे दृढ़ संकल्प पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है।

    गौरतलब है कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने शनिवार रात शरीफ और उनके भाई को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहराए जाने के फैसले पर सुप्रीम कार्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का प्रस्ताव रखा था, जिसे शरीफ ने ठुकरा दिया था।

    लाहौर में शनिवार रात एक जनसभा को संबोधित करते हुए शरीफ ने कहा था कि वे यहां इस बात की घोषणा करना चाहते हैं कि वकीलों का लांग मार्च इस्लामाबाद पहुंचने तक जारी रहेगा।

    भविष्य की कृषि खतरे में – जयराम ‘विप्लव’

    agricultureसभ्यता के आरभ से ही ” कृषि ” मानव की तीन जीवनदायनी आधारभूत आवश्यकताओं में से एक -भोजन की आपूर्ति के लिए अपरिहार्य बना हुआ है । कृषि के अलावा ज्ञान-विज्ञान , अध्यात्म ,चिकित्सा आदि -इत्यादि मानवीय जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में हर दिन नव चेतना फ़ैल रही है , हर दिन कुछ नई बातें सामने आ रहीं हैं। ऐसा नही की ये सब एक दिन में हो गया बल्कि ऐसा होने में सदियाँ बीत गई । जीवन जीने की जद्दोजहद में पशुवत मांसभक्षण करने वाला मनुष्य कब शाकाहारी हो गया इसका ठीक- ठीक अनुमान लगना मुश्किल है।कालांतर में धीरे-धीरे कंदमूल खाकर भरण -पोषण करने वाला आदिमानव खेती करने लगा । सैकडों -हजारों वर्षों के मेहनत के बाद आज खेती -बड़ी अर्थात कृषि का ये उन्नत रूप हमारे समक्ष है।लेकिन आज के इस वैज्ञानिक -बाजारवादी युग में जब समूची दुनिया को एक बाज़ार बनाने की तयारी रही है , कृषि का भविष्य खतरे में दिखता है । भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ ७० %आबादी खेती के सहारे जीवन गुजारा करती है, वहां सरकारी उदासीनता के कारणआज सार्वजनिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण व्यवस्था कृषि और अन्य असंगठित रोजगारों के कामगारों की बदहाली किसी से छुपी नही । एक कलावती का नाम लेकर हमारे तथाकथित युवराज श्रीमान राहुल गाँधी और उनकी सरकार अपने कर्तव्यों से मुक्ति चाहती है। ये संभव नही । न जाने कितनी कलावती और कितने हल्कू पूस की रात में ठिठुर कर मर रहे होंगे ? पशुओं का चारा तक निगल जाने वाले नेताओ की सरकार से उम्मीद ही बेकार है। जिस पर देश की अर्तव्यवस्था टिकी है उस सार्वजनिक क्षेत्र को बहल करने को लेकर भला ये कैसे इमानदार हो सकते हैं !
    सरकारी उदासीनता , विज्ञान के दुरूपयोग और ज्यादा मुनाफाखोरी की आदत ने भविष्य की खेती को दावपर लगा दिया है । संवर्धित बीजों और रासायनिक उर्वरको के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनिया किसानो को नजदीक के फायदे का सपना दिखाकर बरगला रही हैं। परंपरागत खेती में किसान अपने ही खेत के बीजो का इस्तेमाल करते थे अब अधिक पैदावार के लोभ में बाजार से ख़रीदे संवर्धित बीजो से एक बार ही खेती की जा सकती है , हालाँकि अभी भारत में ये चलन कम है । परन्तु गरीब -अनपढ़ किसानो को अभी से इस सब के बारे में जानलेना चाहिए ताकि भविष्य में सतर्क रहा जा सके । कभी हरित-क्रांति को जन्म देने वाली waigyanik पद्धति आज कृषकों और कृषि का विनाश करने पर उतारू है । पिछले ५० सालों में कृषि का जो विकास हुआ वो शायद २००० सालों में भी नही हुआ था । इस विकास का मुख्या आधार विज्ञान के ज्ञान का प्रयोग है। नई तकनीक के कारण खेती के स्वरुप में अपेक्षित बदलाव तो आया पर बाजार के बढ़ते प्रभाव ने यहाँ भी प्रतिकूल असर डाला । अपनी-अपनी दुकान चलाने में न तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को और न ही देश के कर्णधार नेताओं को इसकी चिंता है । ऊपर से जनसँख्या का बढ़ते दवाब से कृषियोग्य भूमि पर कंक्रीट का जाल बढ़ताही जा रहा है । भूमि कम पड़ रही है ,उपज बढ़ने के दवाब में किसान अधिक से अधिक रासायनिक उर्वरको का अँधा-धुंध उपयोग करते हैं ।हमारे देश में सन ५७ में मुश्किल से दो हजार तन रासायनिकखादों और कीटनाशकों कि खपत थी जो कि बढ़ कर दो लाख तन का आंकडा छुने वाला है । परिणाम स्वरुप jamin की उर्वरा शक्ति नगण्य होती जा रही है ।घनी खेती कि वजह से पैदावार में वृद्धि तो होती है पर कई बड़ी मुश्किलें भी खड़ी है । इस समय भारत में करीब १४०० लाख हेक्टेयर धरती पर खेती हो रही है । बहुत कोशिश करने पर इसमे ४०० लाख हेक्टेयर भूमि जोड़ी जा सकती है । परन्तु इसके लिए हमें जंगलो को काटना पड़ेगा।और ऐसा करना व्यावहारिक नही है। भूमि उसर होती जा रही है, भूमिगत जलस्तर घटता जा रहा है ,वायुमंडल दूषित हो रहा है, कुल मिलकर संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कृषि का संकट(या मानवीय जीवन पर खतरा ) गहराता जा रहा है और जिसे कोई समझने को तैयार नही । भविष्य में ऐसे यत्नों की जरुरत है जिनके द्वारा कृषि के भविष्य पर मंडराते बादलों को टला जा सके ।नई राहें खोजी जाए कि उपज भी बढे अर्थात जनसँख्या के सामने अन्न का संकट न हो और ऊपर बतलाई गई मुश्किलें भी khatm हो सके और इसके लिए तीन महत्वपूर्ण क़दमों को उठाने पर सरकार को विचार करना चाहिए । प्रथम, संवर्धित बीजों के व्यापार अथवा प्रयोग पर प्रतिबन्ध । दूसरा , रासायनिक उर्वरको और घटक कीटनाशकों के बरक्स नए विकल्पों जैसे जैविक खाद आदि को लेकर किसानो को जागरूक करना । तीसरा , अधिक से अधिक खेती लायक जमीं को बनाये रखना और ऐसा उपाय खोजना जिससे प्रति इकाई उपज को बढाया जा सके लेकिन वो उपाय सुरक्षित हो ।


    जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
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    बांगलादेशी घुसपैठ – जयराम ‘विप्लव’

    banglaindoborderघुसपैठ को आम तौर पर बड़ी समस्या नहीं माना जाता और न ही इसके बारें में गंभीरता से सोचा जाता है। असम समेत पूर्वोत्तर भारत में सारी फसाद की जड़ हैं – बांग्लादेशी घुसपैठ। पूर्वी भारत के राज्यों की सीमा सुरक्षा की कमजोरी और वोट बैंक की राजनीति के कारण हो रही; अवैध घुसपैठ यहां की सुरक्षा के साथ ही सांस्कृतिक, समाजिक, आर्थिक एव राजनीतिक संकट बनती जा रही है।पिछले तीस सालों से जारी घुसपैठ ने अनेक राज्यों में जन – संख्या के अनुपात को बिगाड़ कर वहां के मूल निवासियों के समक्ष अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। ये घुसपैठिये असम, बंगाल, त्रिपुरा व बिहार में ही सीमित नहीं बल्कि दिल्ली, राजस्थान, मुम्बई, गुजरात व हैदराबाद तक जा पहुंचे हैं। वर्तमान में इनकी संख्या लगभग 3 क़रोड़ बतायी जाती है। असम के राज्यपाल ने केंद्र को सौंपी एक रपट में कहा है कि हर दिन 6 हजार बांग्लादेशी भारत में प्रवेश करते हैं। साथ ही सं. रा. सं. की एक सर्वे में बांग्लादेश से 1 करोड़ नागरिकों को लापता बताया गया है। सीमा से लगे 4600 किमी के भारतीय इलाकों में अप्रत्याशित जनसंख्या वृध्दि इस बात को पुख्ता करती है कि ये लोग भारत में ही घुसे हैं। इन घुसपैठियों की बढ़ती तादाद की वज़ह से असम, बिहार एव बंगाल के अनेक जिलों में बांगलादेशी मुसलमानों की बहुलता हो गई है अर्थात् ये राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। और यही से शुरू होता है वोट बैंक की राजनीति।

    इन अवैध घुसपैठियों को राशनकार्ड देकर जमीन का पट्टा व मतदाता सूची में नाम शामिल कर राजनीतिक दल देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करती आ रही है। आज इन बांग्लादेशी घुसपैठियों द्वारा लूट, हत्या, तस्करी, जाली नोट व नशीली दवाओं के कारोबार समेत आतंकी गतिविधियों को संचालित किया जा रहा है। प्राकृतिक रुप से समृध्द पूर्वोत्तर आतंक का गढ़ बनता जा रहा है। आतंक के सौदागरों और आइ. एस. आइ. जैसे संगठनों के लिए बांग्लादेशी घुसपैठ एक महत्वपूर्ण उपकरण साबित हो रहा हैं। इस उपकरण को राजनीतिक, समाजिक, और आर्थिक सभी मुद्दों पर भारत के विरुध्द इस्तेमाल किया जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या के सहारे हासिल राजनीतिक ताकत, अपराध और आतंकवाद के जोर पर एक सुनियोजित योजना के तहत असम के 11 बंगाल के 9 बिहार के 6 एवं झारखंड के 3 जिलों को मिलाकर ग्रेटर बांग्लादेश बनाने का काम किया जा रहा है। प्रख्यात लेखक जयदीप सैकिया की मानें तो इस क्षेत्र में बांग्लादेश – म्यांमार के कुछ भाग और उत्तर-पूर्वी भारत को सम्मिलित कर एक इस्लामिक राज्य की कल्पना की जा रही है। कुल मिला कर भारत को पुन: विभाजित करने का षड़यंत्र रचा जा रहा है परन्तु सरकार की उपेक्षा से यह मसला ठंडे बस्ते में ही पड़ा दिखता है। सत्ता की दौड़ में वोट की सियासत का ही असर है; वर्षों के शासन काल में कांग्रेस ने इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति से काम नहीं किया। हाँ आइ.एम.डी.टी एक्ट जैसे कानून के सहारे उनको यहां बसाने में मदद अवश्य पहुंचायी गयी! बांग्लादेशी आतंकियों को भगाने के बजाय घर-जंवाइ बनाने की संरक्षणात्मक तुष्टीकरण की नीति 1977 से ही जारी है। केंद्र की कांग्रेस सरकार से लेकर राज्य की असम गण परिषद सरकार; जो इसी मसले को लेकर सत्ता में आई, का रवैया भी एक सा रहा है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से एक बात तो साफहै कि कुर्सी के आगे देश कुछ भी नहीं ।

    बहरहाल आगामी लोकसभा चुनावों में घुसपैठ का मुद्दा नया रंग ला सकता है। देश की एकता,अखंडता एवं स्थानीय नागरिकों की आर्थिक और समाजिक सरोकारों से जुड़े इस मामले में बरती जा रही उदासीनता के गंभीर परिणाम हमें भविष्य में भुगतने होंगे।

    – जयराम चौधरी

    बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
    जामिया मिलिया इस्लामिया
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