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गरीबों का दिल नहीं है राहुल गांधी के पास

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इन दिनों कांग्रेस का युवा और बूढ़ा नेतृत्व राहुल गांधी के करिश्मे का इंतजार कर रहा है। बीच-बीच में राहुल गांधी की मीडिया इमेजों का प्रक्षेपण किया जाता है और यह संदेश दिया जाता है कि वे गरीबों के हितचिंतक हैं। वे बार-बार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना का जिस तरह नाम लेते हैं उससे लगता है यह योजना समाज में दूध -घी की नदियाँ बहा देगी। मुझे हैरत होती है कि दुनिया के बेहतरीन लोगों से शिक्षा पाने वाला व्यक्ति किस तरह मीडियाई नजारों और मंचीय राजनीति में व्यस्त है और आदर्श का ढ़ोंग कर रहा है।

राहुल गांधी के पास कांग्रेस की विरासत है। अपने परिवार की राजनीतिक विरासत है । लेकिन उनके पास हिन्दुस्तान की जनता का दिल नहीं है। बुर्जुआ दिल के साथ गरीब जनता से प्यार नहीं हो सकता।

राहुल गांधी की विशेषता है उनके पास गरीबों का दिल नहीं है। गरीबों का मन नहीं है। इससे भी बड़ी बात यह कि कांग्रेस और उसके नेताओं के पास गरीब का दिल नहीं है। अमीरों के दिल से गरीबों की सेवा नहीं हो सकती। गरीबों की सेवा के लिए गरीबों का दिल चाहिए और गरीबों का दिल हासिल करने के लिए गरीबों की सही समझ चाहिए। यह समझ गरीबों के प्रति आत्मीय लगाव से पैदा होती है। उसके लिए राहुल गांधी को अपना व्यक्तित्वान्तरण करना होगा,जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं।

राहुल गांधी देश की सत्ता में बने रहने के सपने देखते हैं। सपने के सौदागरों और सपने के आख्यान में ही व्यस्त रहते हैं। वे गरीबों के सपने नहीं देखते और नहीं उनके पास गरीबों का दिल है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि कईबार उनकी नानी स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ का नारा लगाकर लोगों को ठग चुकी हैं और ठगे हुए लोग अब ठगे जाने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्हें जानना चाहिए कि कांग्रेस जैसा विशाल दल आज दूसरे दलों की वैसाखी पर टिका हुआ है। लंबे समय से कांग्रेस ने केन्द्र में अपने दम पर सरकार नहीं बनायी है। कांग्रेस पहले विपक्ष में थी,बाद में अन्य का समर्थन किया और अब लंबे समय से अन्य दलों के समर्थन पर केन्द्र सरकार टिकी है। यह कांग्रेस के बिगड़ते स्वास्थ्य की सूचना है। कांग्रेस अपने बिगड़ते स्वास्थ्य को लेकर सही इलाज अभी तक नहीं करा पायी है और यह कांग्रेस के लिए अच्छी खबर नहीं है।

राहुल गांधी आप नहीं जानते या जानबूझकर नादानों जैसा नाटक कर रहे हैं। अंततः कांग्रेस उसी मार्ग पर गई जिस पर उसे नहीं जाना चाहिए। कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व के नारे के आधार पर बाबरी मसजिद प्रकरण पर आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंड पीठ के फैसले को मान लिया है। हाल ही में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने सीएनएन-आईबीएन को दिए साक्षात्कार में साफ कहा है कि कोर्ट का यह सबसे बेहतर फैसला है। पता नहीं राहुल गांधी आप इसके परिणामों से वाकिफ हैं या नहीं। लेकिन आप एक बात जान लें,अब यू.पी. में कांग्रेस को पुनर्जीवित नहीं कर सकते। मुसलमानों का थोड़ा सहारा आपको मिला था ,इसबार वह भी नहीं मिलेगा।

मुसलमानों को हाशिए पर डालकर उनके अधिकारों का हनन करके आप यू.पी. में नहीं लौट सकते। यू.पी. की राजनीति के निर्णायक वोट मुसलमानों के पास हैं। आप अच्छी तरह जानते हैं राममंदिर के नाम पर भाजपा का राजनीतिक तूफान उसे यू.पी.में हाशिए पर ले जा चुका है और कांग्रेस रसातल में जा चुकी है। यू.पी. में ही क्यों देश के बाकी हिस्सों में मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिलना मुश्किल है।

क्योंकि मुसलमानों को विगत 60 सालों में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आपने और आपके दल ने गरीबी सौंपी है। विरासत में पिछड़ापन दिया है।

राहुल गांधी आप कैसे नेता हैं जिन्हें उपभोक्तावाद के द्वारा पैदा हो रही तबाही दिखाई नहीं दे रही और आप और आपका दल लगातार ऐसे नीतिगत कदम उठा रहा है जिससे उपभोक्तावाद की गति तेज हो रही है और आम लोगों को भ्रमित करने लिए बढ़ी हुई विकासदर का झुंझना बजा रहे हैं। विकासदर बढ़ने के साथ गरीबी बढ़ रही है। विस्थापन बढ़ रहा है। अशिक्षा बढ़ रही है। उच्चशिक्षा का स्तर गिर रहा है।

परिवार से लेकर संसद तक स्वस्थ मानवीय मूल्यों का पतन हो रहा है और आप है कि नरेगा-नरेगा का झुनझुना बजाते फिर रहे हैं। राहुल गांधी इस सच को जान लें कि समस्त विकास योजनाओं को उपभोक्तावाद निगल जाएगा। आप यदि सचमुच में देश की जनता से प्यार करते हैं तो उपभोक्तावाद से लड़ने का कोई कार्यक्रम बनाएं। वरना विकास के सारे फल गरीबों को नहीं अमीरों को मिलेंगे। गरीबों के लिए उपभोक्तावाद विषबेल है और अमीरों के लिए अमृतकलश। राहुल गांधी आप चाहें तो इस देश की जनता के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। लेकिन उसके लिए आपको अपना रास्ता बदलना होगा,नीतियां बदलनी होंगी,गरीबों के प्रति प्रतिबद्धता को व्यवहार में दिखाना होगा। आपकी पार्टीकी नीतियों के कारण 4 करोड़ से ज्यादा लोग सारे देश में अब तक विस्थापित हो चुके हैं और इनमें से अधिकांश को न तो मुआबजा मिला है और न इनका पुनर्वासन ही हुआ है। दूर क्यों जाते हैं पास में भाखड़ा नांगल बांध के बनाने के समय जो लोग विस्थापित हुए थे उनके बारे में ही जाकर खबर ले लें तो पता चल जाएगा कि आपकी पार्टी और उसके नेताओं के पास गरीबों का दिल नहीं है। विस्थापितों को बसाने की प्रतिबद्धता नहीं है। राहुल गांधी बार-बार हमारे बीच में आते हैं और गैर जरूरी बातों में उलझाकर चले जाते हैं। उनसे कोई पलटकर पूछना चाहिए कि आखिरकार आपके पास गरीब का दिल क्यों नहीं है? गरीब के आंसुओं को देखकर भी आपको गहरी नींद कैसे आती है ? उपभोक्तावाद के विकास से खुशहाली आएगी या बदहाली? क्या पृथ्वी का संतुलन बचेगा?

व्यंग्य/ मैं तो कुतिया बॉस की

-अशोक गौतम

वे आते ही मेरे गले लग फूट- फूट कर रोने लगे। ऐसे तो कभी लंबे प्रवास से लौट आने के बाद भी मेरी पत्नी जवानी के दिनों में मेरे गले लग कर भी नहीं रोई। हमेशा उसके मन में विरह को देखने के लिए मैं ही विरह में तड़पता रहा। पता नहीं उसमें विरह का भाव रहा भी होगा या नहीं। ये रसवादी तो कहते फिरते हैं कि मनुश्य के मन में सभी भाव मौजूद रहते हैं और अवसर पाकर जाग उठते हैं। पर कम से कम मुझे अपनी पत्नी को लेकर आज तक वैसा तो नहीं लगा। वैसे भी अब हृदय में भावों का अभाव कुछ ज्यादा ही चल रहा है। अब अभाव भी कहां रहने आएं जब किसी के पास हृदय ही न हो। भाव भी कहां रहें जब मन में दूसरे हजारों अभाव पूर्ति होने के बाद भी डेरा जमाए बैठे हों। बाजार के भावों के चलते मन के भाव तो आज मन के किसी कोने में मुर्गा बन कुकड़ू कूं कर रहे हैं। अब तो अपने वे दिन आ गए हैं कि खुद ही खुद के गले लगने का मन भी नहीं करता। गले लग कर दिखावे को ही सही, रोने की बात तो दूर रही।

मैंने उन्हें अपने गले से किनारे कर उनकी जेब से उनका रूमाल निकाल उनके आंसू पोंछने के बाद हद से पार का उनका हमदर्द होते पूछा,’ मित्र कहो! इतने परेशान क्यों? माना आज की जिंदगी भाग दौड़ के सिवाय और कुछ हासिल नहीं। पर कम से कम तुम्हें तो रोना नहीं चाहिए। अच्छी नौकरी में हो। एक क्या, चार – चार बीवियां रख सकते हो, ‘तो वे और भी जोर से रो पड़े मानों वे मेरे नहीं, अपनी मां के गले लग रो रहे हों। आखिर काफी समय के बाद उनका रोना बंद हुआ तो वे सिसकियों की भीड़ के बीच से अपनी जुबान को गुजारते बोले, ‘मेरे प्रभु!बड़े भाई!! मेरे बाप!! बॉस से परेशान हूं। बॉस को नहीं पटा पा रहा हूं। इसलिए बस केवल वेतन से ही गुजारा चला रहा हूं। और आप तो जानते हैं कि आज के दौर में कोरे वतन से कौन खुश हो पाया? बीवी हर चौथे दिन मायके जाने की धमकी देती है। जग जानता है कि बॉस से परेशानी दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी होती है। इसी परेशानी के चलते इतिहास गवाह है कि कई आत्महत्या तक कर गए। आज तक किसीको कुछ न बता सका। मन ही मन घुटता रहा। दूर- दूर तक अपना कोई नजर नहीं आ रहा था’ और देखते ही देखते उनमें कबीर की आत्मा पता नहीं कहां से प्रवेश कर गई,’ऐसा कोई नां मिलै जासू कहूं निसंक। जासू हृदय की कही सो फिरि मांडै कंक। आप तो तत्व ज्ञानी है। पहुंचे हुए हैं। बॉस के इतने करीबी रहे हैं जितने बच्चे अपने बाप के निकट भी नहीं होते। पति- पत्नी तो खैर आज निकट हैं ही नहीं। बस इसीलिए सबको छोड़ आपकी शरण में आया मेरे मामू! सच कह रहा हूं कि ऐसा कोई न मिला जो सब बिधि देई बताई। पूरे दफ्तर मैं पुरूशि एक ताहि कैसे रहे ल्यौ लाई। बॉस उस्ताद ढूंढत मैं फिरौं विष्वासी मिलै न कोय। चमचे को चमचा मिलै तब हरामी जनम सफल होय।’और पता नहीं मेरे भीतर उस वक्त कैसे किस कवि की आत्मा आ गई। ये दूसरी बात है कि मेरे भीतर अब मेरी आत्मा भी नहीं रहती। उस आत्मा ने देखते ही देखते मुझे कवि कर दिया। बंधु! ये सच है कि गो धन गज धन बाजि धन और रत्न धन खान। पर बंदा जब पावै बॉस धन तो चढ़यौ परवान। बॉस नाम सब कोऊ कहै पर कहिबै बहुत विचार। सोई नाम पीए कहै सोई कौतिगहार। अंत में यही कहना चाहूंगा बंधु कि बॉस मातियां की माल है पोई कांचै तागि। जतन करो झटका घंणां टूटैगी कहूं लागि। हे नौकरी पेशा आर्यपुत्र! जाओ, मेरे आशीर्वाद से बॉस भक्ति के नए युग में प्रवेश कर नौकरी के संपूर्ण सुखों के अधिकारी बनो। याद रखो! अधीनस्थ जब बॉस के प्रति अपना सब न्यौछावर कर देता है, बॉस के आगे अहंकार षून्य होने का नाटक कर अपनी रीढ़ की हड्डी निकलवा उनके चरणों में से चाहकर भी उठ नहीं पाता तो हर किस्म के बॉस ऐसे बंदे को पा उसे गले लगाने के लिए के लिए दफ्तर के सारे काम छोड़ आतुर रहते हैं। जाओ, मानुस देह का अभिमान तज बॉस का पट्टा गले में डालो और पंचम स्वर में सगर्व अलापो,’मैं तो कुतिया बॉस की एबीसी मेरा नाऊं। गले बॉस की जेवड़ी मन वांछित फल पाऊं।

सूचनाधिकार बदलेगा भारत की सूरत: आरएस टोलिया

भारत में सूचना क्रांति के साथ आये राइट टू इनफॉर्मेशन आरटीआई यानि सूचना अधिकार अधिनियम 2005 को लागू हुए आगामी 12 अक्टूबर 2010 को पूरे पांच साल हो जाएगें। इन पांच सालों में इस कानून ने क्या उपलब्धियां हासिल की, इसके सामने क्या समस्याएं आई और इसका भविष्य के भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इन्हीं सब बिंदुओं पर 1971 बैच के आईएएस और देश के प्रसिद्ध सूचनाविद् व वर्तमान में उत्तराखंड के मुख्य सूचना आयुक्त का दायित्व संभाल रहे श्री आरएस टोलिया से इस कानून के विभिन्न पहलुओं पर धीरेन्द्र प्रताप सिंह ने बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश-

सूचनाधिकार अधिनियम 2005 को आप किस तरह देखते है।

देखिए उत्तराखंड में कुल 272 के लगभग अधिनियम है जिसमें मैं सूचनाधिकार अधिनियम को सबसे महत्वपूर्ण मानता हूं। ये अधिनियम एक मात्र ऐसा अधिनियम है जो नागरिकों को सिर्फ अधिकार देता है और बदले में कोई कर्तब्य नहीं आरोपित करता है। इसके माध्यम से नागरिक अपना सर्वांगीण विकास कर सकता है। सैकड़ों सालों के प्रशासनिक विकास के क्रम में देखा जाए तो यह अधिकार आम नागरिक के लिए बरदान सरीखा है। इस अधिनियम में सौ फीसदी व्यवहारिकता है। जैसे हमारे न्यायालय कहते है शासन प्रशासन में पारदर्षिता होनी चाहिए लेकिन व्यवहार में देखे तो न्यायालय के कार्यो में खुद कोई पारदर्षिता नहीं दिखाई देती। लेकिन इस अधिनियम के लागू के होने के बाद न्यायालय को भी अपनी पारदर्षिता का पालन करना पड़ेगा।

इसके साथ ही इसका दूसरा व्यवहारिक पहलू देखे तो हमारे यहां समय के पालन में बड़ी लापरवाही दिखती है। यानि किसी काम के होने की कोई समय सीमा नहीं दिखाई पड़ती लेकिन ये कानून समय सीमा का कड़ाई से पालन करवाता है। ये कानून कहता है कि किसी नागरिक ने अगर कोई सूचना मांगी तो उसे अधिकतम 30 दिन में सूचना देनी ही होगी अन्यथा संबंधित के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई होगी। इस अधिनियम में एक शब्द है यथाशील यानि सूचना मांगने वाले को ष्षीघ्र सूचना दी जाए लेकिन ये ष्षीघ्रता 30 दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए।

उत्तराखंड के संदर्भ में इस कानून की बात करे तो उसमें कोई उल्लेखनीय प्रगति के बारे में बताएं।

सही प्रश्‍न पूछा आपने। उत्तराखंड में इस कानून के लागू होने से प्रशासन के कार्यो में रेकॉर्ड रखने की आदत बनी। हमारे यहां के 58 विभागों ने 17 खंडों में अपने विभागीय मैनुवल तैयार किए है आने वाले भविष्य में ये कार्य प्रशासन की पारदर्शिता के लिए वरदान साबित होंगे।

इस कानून का जिस तरह से बेतहाशा लोगों ने प्रयोग शुरू किया है उससे इसके दुरूपयोग होने की बाते भी सामने आ रही है। इस बारे में आप का क्या मत है।

देखिए जैसे हर आदमी अच्छा नहीं होता तो वैसे ही हर आदमी बुरा भी नहीं होता। इसलिए इसके दुरूपयोग के डर से इसके क्रियान्वयन न होने का कोई तर्क नहीं है। हमारे सेबी के मुखिया श्री भावे कहते है कि इसका दुरूपयोग हो सकता है। लेकिन इसके लाभ को देखते हुए उस दुरूपयोग के खतरे को उठाया जा सकता है। दूसरा इस अधिनियम ने भारत की एक बहुत ही पुरानी परंपरा यानि प्रश्‍न पूछने की परंपरा को फिर से जीवित कर दिया है। प्राचीन काल में भारतीय लोगों में प्रश्‍न पूछने की समृद्धशाली परंपरा रही है। नचिकेता जैसा एक सामान्य बालक यमराज से प्रष्न पूछकर उसे अनुत्तरित और आष्चर्यचकित कर देता है तो इस कानून ने ज्ञान के स्त्रोत को मजबूत किया है।

विश्‍व में सूचना कानून की स्थिति को लेकर आप क्या सोचते है।

देखिए विश्‍व के परिप्रेक्ष्य में देखे तो यूरोप के समृद्ध देषों को छोड़ दे तो राष्ट्र मंडल देषों में इस कानून को लेकर अभी कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ है। पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रमंडल देशों की सूचना कानून पर एक संगोष्ठी हुई जिसमें सभी देशों ने भारत में सूचना को लेकर किए गए कार्यों को न केवल सराहा बल्कि आष्चर्य भी व्यक्त किया कि यहां सूचना के लिए कितना कुछ किया जा चुका है। नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका अफगानिस्तान आदि देशों ने इस कानून को जितना भारत में लागू किया जा चुका है उतना ही अपने यहां लागू होने में कई सालों की जरूरत बताई।

सूचना अधिनियम के तहत कौन कौन सी सूचनाएं मांगी जा सकती है।

ये अधिनियम अपने आप में ही बहुत काम का है। इसके तहत कोई भी सूचना मांगी जा सकती है और संबंधित विभाग को सूचना देने की बाध्यता होगी। कुछ सूचनाएं ऐसी भी है जिन्हें देशहित में देने से मना भी किया जा सकता है। लेकिन ये सूचनाएं 10 श्रेणीयों के तहत सूचीबद्ध है। इसके तहत 3 पूर्णत: निषिद्ध है तो अधिनियम की धारा 8 के तहत 7 श्रेणीयों को सशर्त छूट प्रदान की जाती है। तीन जो पूर्णत: निशद्ध है उनमें राष्ट्र सुरक्षा, सौर्वभौमिकता और राष्ट्र हित से संबंधित सूचनाएं है जो इन बातों को देखते हुए आम नागरिक को देने से मना की जा सकती हैं। इसके साथ ही जिनमें छूट दी जाती है उनमें भी अगर कोई ऐसी सूचना है जिसके देने से समाज का हित हो रहा है जबकि न देने से कुछ लोगों का हित हो रहा है तो ऐसी परिस्थितियों में समाजहित को सर्वोपरि रखते हुए सूचनाएं दी जाती है। कहने का मतलब जो छूट दी जाती है वह सशर्त होती है।

समय से सूचना न देने की मानसिकता को रोकने के लिए आयोग क्या करता है।

सूचना समय से न देने और सही सूचना देने में आनाकानी करने वाले पक्ष को आर्थिक दंड से दंडित करने का अधिकार आयोग को है। आर्थिक दंड से प्राप्त राषि राजकोश में जमाकर दी जाती है। इसके साथ ही सूचना मांगने वाले को यदि सूचना मिलने में हुई देरी के चलते कोई आर्थिक हानि होती है तो उसकी भी क्षतिपूर्ति की व्यवस्था आयोग द्वारा की जाती है।

अगले पांच सालों में उत्तराखंड में सूचना अधिकार का भविष्य क्या होगा।

देखिए अभी तक प्रदेश में सूचनाधिकार को लेकर जो प्रगति हुई है उसके आधार पर हम कह सकते है आगामी पांच साल में उत्तराखंड इस कानून के क्रियान्वयन में देश में आदर्ष स्थापित करेगा। आयोग ने भी इसके प्रचार प्रसार के लिए पूरी कोषिश की है। इसके तहत साहित्य प्रकाशन और अन्य प्रचार के तौर तरीके अपनाए जा रहे है। इसके साथ ही आयोग ने इस कानून को दुर्गम क्षेत्रों और गांवों तक पहुंचाने के लिए मोबाइल वीडियो वैन की व्यवस्था की है जिसके माध्यम से हम गांवों तक इसको पहुंचा रहे है। इसके तहत मोबाइल वैन में ही शिकायत दर्ज करवा सकते है। इस तरह की व्यवस्था करने वाला उत्तराखंड सूचना आयोग देश का शायद पहला आयोग है। हालांकि हम लोग इतने से ही संतुष्ट नहीं है बल्कि इस दिशा में उत्तरोत्तर प्रगति के लिए निरन्तर प्रयास चल रहे है।

क्या किसी विशेष समय में सूचनाओं की मांग बढ जाती है।

जी हां जब चुनाव का समय आता है तो एकाएक सूचनाओं को मांगने की संख्या बढ़ जाती है। लेकिन आयोग तब भी पूरी कोशिश करता है कि मांगी गई सूचनाएं समय से लोगों को मिल सके। अभी तक का जो रेकॉर्ड हमारे पास है उसके अनुसार 7 अगस्त 2010 तक 93970 आवेदन सूचना के पड़ चुके है। इस हिसाब से देखे तो बीस लाख की आबादी पर एक लाख लोग सूचनाधिकारी का प्रयोग कर रहे है तो एक तरह से ये सुखद संकेत और शुभ लक्षण है। ये कानून सामान्य नागरिक की जानकारी बढाने के लिहाज से बहुत ही एंपावरिंग कानून कहा जा सकता है।

आप से कुछ आकड़ों का प्रश्‍न करे तो क्या आप बता सकते हैं कि किस विभाग के संबंध में सूचनाएं सर्वाधिक मांगी जाती है।

देखिए अभी तक हमारे पास जो रेकॉर्ड है उसके अनुसार शिक्षा विभाग से संबंधित सूचनाएं सर्वाधिक मांगी गई है। इसके तहत अभी तक कुल 13341 लोग सूचना मांग चुके हैं। दूसरा नंबर आता है राजस्व विभाग का इस विभाग से संबंधित सूचनाओं के मांगे जाने की संख्या है। 10013। इसी तरह गृह विभाग से संबंधित 9851, सिंचाईं 4838, आवास-4799,लोक निर्माण विभाग-3946 सूचनाएं मांगी गई। इसी तरह से 2005 जब से यह अधिनियम लागू हुआ उसकी प्रगति रिपोर्ट देखे तो वह काफी उत्साहजनक है।

2005-06 में 1385 लोगों ने सूचना अधिकार का प्रयोग किया वहीं 2006-07 में 9691, 2007-08 में 15640, 2008-09 में 27148, 2009-10 में 27311 लोगों ने सूचनाधिकार का प्रयोग किया। इस तरह इस अधिनियम को लेकर लोगों के उत्साह का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इसी तरह 31 अगस्त 2010 तक प्रदेष के कुल 58 विभागों के जनसूचनाधिकारीं ने 93977 आवेदन स्वीकार कर चुके हैं। जबकि आवेदन पत्रों से मिली 939770 रूप्ए की राषि राजकोष में जमा की जा चुकी है। उत्तराखंड सूचना आयोग ने वर्ष 2009-10 में 6886 शिकायतें दर्ज की जिसमें से 6501 षिकायतों का निपटारा किया जा चुका है।

सूचना आयोग के कार्यों का सरकारी विभागों को क्या फायदा हुआ है।

देखिए सूचना आयोग की सक्रियता से सभी विभागों में पत्रावलियों के रखरखाव का जहां एक सुव्यवस्थित सिस्टम विकसित हुआ हैं वहीं सभी कार्यालयों में सूचनाधिकार की पट्टिका लगी होने से लोगों में जागरूकता बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप जहां पहले आम जनता थानों में जाने से डरती थी वह इस कानून के बल पर अब वहां धड्ल्ले से जा रही है और पुलिस वाले भी जानते है कि यदि वे दर्ुव्यहार करेंगे तो उन पर भी सूचना आयोग का डंडा पडं सकता है।

अंतिम प्रश्‍न आप यहां से सेवानिवृत्ति के बाद क्या करेंगे। राजनीति में आएंगे या फिर कुछ और करेंगे।

बहुत सही सवाल किया आपने। मैं आपकों बताना चाहता हूं कि मैने लगभग चार दशक जन सेवा में ही बिताए है और अब आगे न तो मैं राजनीति में आ रहा हूं और न ही किसी प्रकार की सर्विस में। सेवानिवृत्ति के बाद मै पिथौरागढ़ की मुनिस्यारी तहसील स्थित अपने गांव टोला लौट जाउंगा और वहां गांव वालों की सेवा करूंगा और साथ अपने पढ़ने लिखने का शौक भी पूरा करूंगा।

आम जनता को कोई संदेश देना चाहेंगे।

मैं आम लोगों से अपील करता हूं कि वे लोग सूचना के अधिकार के बारे में अधिक से अधिक जाने और उसका अधिक से अधिक प्रयोग करे। इससे समाज में जागरूकता बढ़ेगी और जो सूचनाधिकार कानून और सूचना आयोग के गठन का जो उद्देश्‍य है वह पूरा हो सकेगा।

अब कब आयेंगे कृष्ण?

आज कृष्ण को फिर से आना ही होगा। अब कब आयेंगे कृष्ण? वो कब मानेंगे कि पाप का घड़ा भर गया? कब मानेंगे कि समाज व्यवस्था को गालियों की संख्या सौ नहीं करोडो से ज्यादा हो चुकी है? कब मानेंगे कि एक द्रोपदी नहीं बल्कि रोज कही ना कही हजारों द्रोपदियों का चीरहरण हो रहा है? अब कब मानेंगे कि चारो तरफ केवल पाँच भाइयों का नहीं बल्कि करोडों का अधिकार छीना जा रहा है? केवल एक अभिमन्यु नहीं करोडों अभिमन्यु घेर कर धोखे से मारे जा रहे है। कब मानोगे कृष्ण कि जमुना का पानी फिर जहरीला हो गया है। तुम्हारे लोग उतने आजाद नहीं रहे कि कही भी कुञ्ज गलियों में या उन खेतो और बागों में जब चाहे भ्रमण कर सके, उन पेड़ों पर या उसके नीचे वैसे ही जा सके जैसें तुम्हारे साथ जाते थे। तुम्हारी प्यारी नदी जिसके जहरीली हो जाने पर तुमने काली नाग का वध किया था, वह और ज्यादा जहरीली हो गयी है, आदमी क्या पशु भी उसका पानी नहीं पी सकते है। तुम्हारा प्यारा दूध और मक्खन, उसमें भी लोग जहर मिलाने लगे है। तुम तो सर्वज्ञ हो तब तो निश्चित ही तुम्हें यह सब पता ही होगा। फिर भी संकट में घिरी द्रौपदी की तरह ही मैं तुम्हें आवाज लगा रहा हूँ कि अब तो आओ ना कृष्ण। तुम सब जानते हो फिर भी आर्द्र स्वर पुकारेगा तो कुछ तो कहेगा ना, कुछ तो शिकायत करेगा ना, कुछ तो बताएगा ना और कुछ तो रूठेगा ना। कब आ रहे हो कृष्ण? क्या तुम देख रहे हो उन लाखों लोगों को जो किसी भी उम्र के है, पर तुम्हें बुलाने के लिए मीलों लम्बी परिक्रमा करते है, कभी गोवर्धन की तो कभी वृन्दाबन और कभी बरसाने की। कुछ लोग तो पूरे ब्रज की परिक्रमा कर डालते है। ऐसे भी तो है लाखों जो तुम्हें बुलाने को जमीन पे लेटे लेटे ही पूरी परिक्रमा कर डालते है मीलो की। जो चलते है छाले तो उन सबके पैरों में भी पड़ते है, पर कभी सोचा कि वह छोटा सा बच्चा, वह कमजोर या भारी भरकम औरत या आदमी जो ठीक से चल भी नहीं पाते है, जब जब वे लेटे-लेटे ही पलटी मारते हुए तुम्हे बुलाने के लिए यह मीलो लम्बी परिक्रमा करते है तो उनका बदन कितना छिलता है और कितना दुखता है? तुमने ही तो उस महाभारत के मैदान में अपना विराट स्वरुप दिखया था और कहीं दूर आती हुई तुम्हारी आवाज ने कहा था कि दुनिया में जो भी है वह तुम हो या वह सब तुममें ही समाहित है। सब तुम ही कर रहे हो। सब तुम ही हो तो जब इन सबके शरीर घायल होते है तो तुम भी तो घायल होते होगे। वह सारा दर्द तुम भी तो महसूस करते होगे फिर भी???और कृष्ण जब सब तुम्हीं हो और तुम्हीं करते हो तो तो यह बिलकुल अबोध बच्चो का अपहरण, हत्या? द्रौपदियों का केवल चीरहरण ही नहीं बल्कि बलात्कार? ये सारी मिलावट, जमाखोरी, अन्याय, जुल्म, शोषण, गैर बराबरी क्या यह सब तुम्हीं करते हो? नहीं तो तुम्हें अब इन सब कृत्यों पर क्रोध नहीं आता? क्या तुम्हारा न्याय का संकल्प कुछ कमजोर हुआ है या तुमने उस युग में इतनी मेहनत कर दी कि इस कलयुग में लम्बे विश्राम का फैसला कर रखा है। जरा एक बार देखो तो अपने ही विराट स्वरुप के इन हिस्सों को भी। अगर कहीं ऊपर रहते हो तो एक बार झांक कर देखो अगर नीचे रहते हो तो उठ कर देखो और अगर हर जगह रहते हो तो जाग कर देखो आँखें खोल कर देखो तुम्हारा भारत बिना तुम्हारे चाहे और रचे ही महाभारत में तब्दील हो चुका है। देखो हर घर में महाभारत, हर गाँव में महाभारत, हर जाति और धर्म में महाभारत। पहले एक महाभारत हुई था तो सब ख़त्म हो गया था और युधिस्ठिर रोये थे कि ऐसा राज्य लेकर क्या करूंगा, तुम भी जरूर अन्दर अन्दर बहुत रोये होगे, क्योंकि चारों तरफ कटे फटे, टुकड़े टुकड़े मरे और घायल तुम्हीं तो पड़े थे। पर अब तुम्हारे भारत में चारो तरफ महाभारत हो रही है, कि चाहे कितने भी मर जाये पर राज हमारा हो, चाहे कितने भी मर जाये नकली दवाई से लेकर तमाम तरह की चीजें खा पी कर पर सारी दौलत हमारी हो। कितना बदल गया ना तुम्हारा भारत कृष्ण? क्या तुम आओगे या आज के कंसों, आज के दुर्योधनों से तुम भी डरने लगे हो? कुछ तो बोलो कृष्ण! तुमने कहा था कि मनुष्य केवल चोला बदलता रहता है और बदल कर फिर पृथ्वी पर जन्म लेता है। देखो जरा गौर से देखो कहीं तुम्हारी सबसे ज्यादा प्रिय राधा भी तो कहीं किसी रूप जन्म लेकर किसी मुसीबत में तो नहीं है, कही उसके साथ कुछ बुरा तो नहीं हो रहा है। तुम्हारी जोगन मीरा, तुम्हारा दोस्त जिसे उस युग में तुमने सब दे दिया था, इस युग में किस हालत में है। देखो वह द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अपनी भूमिकाये बदल तो नहीं चुके। अर्जुन रक्षा के स्थान पर कुछ और तो नहीं कर रहे? भीम की ताकत कही लोगो की मुसीबत तो नहीं बन गयी है? उस युग में जूए में सब हर जाने वाले राजपाट और पत्नी तक वो युधिष्ठिर कहीं तुम्हारे भारत की पीठ में छुरा तो नहीं घोंप रहे है? तुम्हें तो सब याद होगा कृष्ण क्योकि जब सब तुम्हीं से आते है और सब तुम्ही में विलीन हो जाते है तो तुम तो हर समय सबको देखते ही रहते होगे कृष्ण? कुछ तो बोलो कृष्ण, एक बार फिर वही विराट स्वरुप दिखाओ और बताओ कि अब क्या होने वाला है? ये सब जो हो रहा है, इसका क्या मतलब है? व्याख्या तो करो कृष्ण! तुम्हारा गीता का उपदेश बहुत पुराना पड़ चुका है। वह अब भारत को दिशा नहीं दिखा पा रहा है कृष्ण। देखो सभी तुम्हारे तुमसे रूठ जायेंगे और तुम भी कैसे हो गए हो? उस समय तो छोटी छोटी बातो पर प्रकट हो जाते थे कही भी, किसी की भी मदद करने को किसी को भी उबारने को। तो अब क्या हो गया है? कोई नाराजगी है तो वह बताओ ना !देखो सब अधीर है तुम्हारे लिए कि तुम कब आओगे, कब उबारोगे भारत को इन ना ख़त्म होने वाली महाभारतो से। तब तो एक दो मौको पर ही झूठ और छल का सहारा लिया गया था, अब तो केवल झूठ और छल से ही सब हो रहा है। ऐसा लगता है कि तुम्हारे बारे में नई दृष्टि से देखने तथा नए ढंग से सोचने की जरूरत है. क्योकि कृष्ण तुम्हारा मतलब तो था कि वो जो सदैव दूसरों का था, दूसरो के लिए था. जिसकी जन्म देने वाली माँ पीछे छूट गयी और पालने वाली बाजी मार ले गई, जिसके दोस्त की चर्चा कही बहुत ज्यादा हुई और भाई पीछे छूट गया था, जिसकी पत्नी या पत्नियों को उनकी दोस्त राधा से बड़ी जलन हुई थी और हो सकता है आज भी हो रही हो, जो एक साथ सोलह हजार को अपना लेने की क्षमता रखता था, जो सत्ता को चुनौती देने की क्षमता रखता था और जिसने उस युग में एक युद्ध छेड़ दिया था कि जो खा नहीं सकता उस भगवान को क्यों खिलाते हो, शायद सूंघ भी नहीं सकता, इसलिए लाओ मै खा सकता हूँ मुझे खिलाओ और उन सब को खिलाओ जिन्हें भूख लगती है. केवल चुनौती ही नहीं दिया था वरन जब मुसीबत आई थी तो सभी की रक्षा में आगे आकर खड़ा हो गया था यह तुम्ही तो थे कृष्ण। मैं सोचता हूँ कि इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिए तुमने कैसे अपनी छोटी सी उंगली पर इतना बड़ा पहाड़ उठाया होगा, तुम्हारी उंगली दुखी तो जरूर होगी और शायद आज भी दुख रही है कहीं इसलिये तो नहीं तुम नहीं आ रहे हो कि उंगली पर पट्टी बांध कर बैठे हो.लेकिन ऐसा लगता है कि उस पहाड़ के उठाने से ज्यादा तुम्हारे नाम पर किये जा रहे पापो के बोझ से तुम्हारा सर और पूरा शरीर दुख रहा है. कितना पैदल चले थे तुम कृष्ण, नाप दिया पूरब से पश्चिम तक भारत को ओर दो छोरो को जोड़ दिया, परिचय करा दिया इतने बड़े हिस्से का एक दूसरे से. कभी सोचता हूँ कि यदि जूआ नहीं होता रहा होता तो क्या होता, यदि द्रौपदी की साड़ी भरी सभा में नहीं खींची गई होती तो क्या होता, इतिहास कौन सी करवट लेता. भारत, महाभारत होता या फिर भी भारत में तब भी महाभारत होता, सवाल बड़ा है जवाब आसान नहीं है. लेकिन कृष्ण तुम आज मंदिरों में फूल मालाओ, भारी भारी कपड़ो और बड़े बड़े मुकुटों के नीचे दब कर कराह रहे हो ऐसा लगता है कभी कभी। कृष्ण तुम्हारा मतलब ही था बड़े दिल वाला, दूसरों को अपनाने वाला, हर अन्याय से संघर्ष करने वाला आज अपने अस्तित्व के लिए कही तुम्ही जूझ रहे हो कृष्ण। तुम्हें इस संघर्ष से निकलना ही होगा और आकर फिर से कहना ही होगा; रे दुर्योधन मैं जाता हूँ, तुझको संकल्प सुनाता हूँ, याचना नहीं अब रण होगा. जीवन जय या कि मरण होगा; तुम्हीं बताओ कि कैसे तुम्हारी दुखती उंगली का दर्द घटे, कैसे तुम्हारे सर और शरीर का बोझ हटे और सम्पूर्ण कलाओं का मालिक कृष्ण, संघर्ष और न्याय का प्रतीक कृष्ण स्वतंत्र होकर फिर हमारे सामने हो। विराट स्वरुप दिखाता हुआ, आज के सन्दर्भ में गीता का ज्ञान देता हुआ, और इस सभी तरह की महाभारतों से निकाल कर फिर से भारत को भारत बनता हुआ। अब तो आ रहे हो ना कृष्ण, कृष्ण तुम आओ ना, देखो सुनो मीरा कहीं अब भी गा रही है और मीरा क्या उसके स्वर में स्वर मिला कर सब गा रहे है

मेरे तो गिरधर गोपाल दूजो ना कोय

आओ, अब भारत की ओर लौट चले!

देश को आजाद हुए 63 साल हो चुके है किंतु भारत की विडम्बना है कि भारत के सभी गांवों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। भारत के काफी गांव सरकारी दावों के विपरित मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है, आज स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि कोई भी थोड़ा सा आधुनिक विचारों वाला ग्रामीण युवा परम्परागत खेती न करके शहरों में छोटा-मोटा काम करने को प्राथमिकता दे रहा है, ग्रामीण युवाओं के लिए रिश्तों में भी दिक्कत आ रही है, भारतीय अर्थ व्यवस्था का आधार कृषि घाटे का सौदा बनने के कारण किसान विवश होकर आत्महत्या तक कर रहा है। महाराष्ट्र के विदर्भ का उदाहरण हमारे सामने है। झारखण्ड, पंजाब के कई गांवों के लोगो ने बढ़ते कर्जभार के कारण गांवों के बाहर ”गांव बिकाऊ है” के साइन बोर्ड लगा दिए है। परम्परागत कुटीर उद्योगों के स्थान पर बहुराष्ट्रीय उत्पादों से गांवों की दुकाने तक अटी पड़ी है। ऐसे में हमें भारत किस दिशा में जा रहा है, के बारें में विचार करने की आवश्यकता है।

कांग्रेस में पण्डित नेहरू के समाजवादी विचारों से प्रभावित व्यक्तियों के उद्भव के कारण आर्थिक समस्याओं के प्रति गांधीवादी सिध्दांत को नेहरू के भौतिकतावादी विचारों ने ढ़क लिया। दिनांक 5 अक्टूबर 1945 को महात्मा गांधी ने नेहरूजी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होने विकास के बारें में उनके विचार जानने चाहे, पत्र में गांधीजी का नेहरूजी को सुझाव था कि ”भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या गांवों में रहती है अत: सभी विकास योजनाएं गांवों को ध्यान में रखकर बनाई जाये किंतु इसके प्रत्युत्तर में नेहरूजी ने कहा कि मैंने लगभग 20 वर्ष पूर्व हिन्द स्वराज में आपके विचार पढ़े थे, मैं उस समय भी उससे सहमत नहीं था आज तो समय इतना बदल गया है कि यदि हम उन विचारों पर चले तो हम जरा भी प्रगति नहीं कर पायेगे, गांव बौध्दिक और सांस्कृतिक दोनो रूप में पिछड़े होते है और पिछड़े माहौल में किसी प्रकार की प्रगति नहीं की जा सकती। हमें गांवों को शहरी संस्कृति में ढालना होगा।” और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसी वर्ष कांग्रेस उच्च कमान द्वारा पारित 12 सूत्री संकल्प पत्र में उनके विचार देखने को मिले जिसके परिणामस्वरूप इसी मानसिकता के कारण स्वतंत्रता के बाद भी प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण सरकार के हाथों में होने के बावजूद संसाधनों के प्रबंधों के लिए बनाई गई औपनिवेशिक संस्थाऐं पूर्ववत बनी रही। हमने इनको इसलिए नहीं बदला कि हम ”औद्योगिक क्रांति” पर बड़े मोहित थे। हमने सोचा कि जैसे यूरोपीय देश और इंग्लैण्ड औद्योगिक क्रांति से फल-फूल गए, हमें भी उन्नति के लिए ऐसा ही करना चाहिए।

यह मानना कि इंग्लैण्ड और अन्य यूरोपीय देश औद्योगिक क्रांति के कारण अमीर और उन्नतशील हुए, गलत है। वास्तव में औद्योगिक क्रांति के लिए भारी पूंजी की आवश्यकता थी और 1757 तक इंग्लैण्ड में यह पूंजी उपलब्ध नहीं थी! ते फिर यह पूंजी आई कहां से? इतिहास बताता है कि यह पूंजी 1757 में हुई प्लासी की लड़ाई के बाद भारत से आई, भारत के करोड़ों व्यक्ति लूटे गए जिसके बाद 1760 में भिन्न-भिन्न सुप्त आविष्कार मूर्त होने लगे। 1760 में ”फलाइंग शटल”, 1768 में वाष्प इंजन बना, 1785 में बिजली के करघे का आविष्कार हुआ। हर साल औसतन 25 करोड़ रूपयें भारत से लूटे गए। यह सिलसिला 1757 से वाटरलू की लड़ाई 1815 तक चलता रहा। यही वह निरंतर लूट थी जिसने इस क्रांति को पोसा। 19वीं शताब्दी के मध्य तक इंग्लैण्ड में उत्पादन कार्य के लिए मशीनों का उपयोग नहीं होता था, ”औद्योगिक क्रांति” के बाद भी वहां का तैयार माल इतना घटिया होता था कि वह विश्व बाजारों में छाए हुए अति परिष्कृत भारतीय माल की बराबरी नहीं कर सकता था। कपड़ा, इस्पात, कृषि उत्पादों के क्षेत्रों में भारत के पा परिष्कृत पौद्योगिकी थी। भारत में बने कपड़े की इतनी मांग थी कि सन् 1800 में ब्रिटेन को भारतीय कपड़े पर प्रतिबंध लगाना पड़ा, 1875 में एडिनबर्ग में बने ”देशभक्त संघ” ने उन ”भ्रष्ट”महिलाओं का बहिष्कार करने की अपील की जो भारतीय कपड़ा पहनती थी।

जहां तक भारतीय प्रौद्योगिकी का संबंध है यह विकेन्द्रीकृत होने के बावजूद परिष्कृत थी, अंग्रेजों द्वारा भारतीय तकनीक को पुरातन कहने के बाद भी वो आज तक उस तकनीक के बराबर नहीं पंहुच सके है। उस समय हम 2,425 न0 का धागा बना सकते थे किंतु आज 250 से अधिक न0 का धागा नहीं बना सकते, इस्पात बनाने के लिए 300 रूपयें लागत में भट्ठी बना लेते थे जिन्हे कंधों पर कहीं भी ले जाया जा सकता था, किसी भी नदी के किनारें कार्य प्रारंभ किया जा सकता था, तैयार इस्पात अच्छी किस्म का होने के बाद भी उसकी लागत मात्र 50 रू0 टन होती थी जबकि इंग्लैण्ड में ”औद्योगिक ढंग़” से तैयार इस्पात की लागत 250 रू0 टन होती थी। कृषि के मामले में भी हमारे पास परिष्कृत प्रौद्योगिकी थी। जब अंग्रेजों ने पाया कि वे हमारे माल की बराबरी नहीं कर सकते तो उन्होने भारतीय उद्योगों को तहस-नहस करने की ठान ली और ऐसा किया भी। यह हमारे इतिहास का एक कारूणिक अध्याय है।

वर्तमान में भारत को फिर से अमीर देशों के तैयार माल का बाजार बनाने की दिशा में तेजी से कार्य किया जा रहा है। स्वतंत्र होने पर हमने औद्योगिक क्रांति का मार्ग चुना किंतु इसके लिए आवश्यक पूंजी हमारे पास नहीं थी उस समय अमीर देशों ने हमसे कहा कि हम तुम्हे धन देगें और उन्होने जो धन ऋण या सहायता के रूप में हमें दिया वह आज हमारे मनोबल और आत्मनिर्भरता को चूस रहा है। ये देश हमें मात्र कच्चे माल की आपूर्ति करने वाला और अपने उत्पादों का बाजार बनाने की दिशा में कार्यरत है। भारत ने ऋण इस आशा में लिए थे कि हम वापिस लौआ देगें किंतु हम ऐसा नहीं कर पाये। अब तो हम ऐसे ऋण चक्र में फंसे है कि ऋण चुकाने के लिए और ऋण लेना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति केवल भारत की ही नहीं उन सभी देशों की है जिनके पास कुछ प्राकृतिक संसाधन बचे हुए है। इन प्राकृतिक संसाधनों पर काबू पाने के लिए अमीर देशों ने ”आर्थिक साम्राज्यवाद” का जाल फैलाया है तथा विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी बहुआयामी संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत है। मार्च 1976 में विकसित देशों के उपनिदेशक बुश नील ने अमेरिकी सीनेट के विदेश कार्यो की एक उपसमिति को बताया कि ये बैंक स्वयं हमारी अर्थ व्यवस्था के अनुरूप विकास को प्रोत्साहित करते है, उनमें हमारी भागीदारी से आवश्यक कच्चे माल की प्रप्ति और विकासशील देशों में अमेरिका के निवेश के लिए एक बेहतर वातावरण सुनिश्चित हो सकेगा। ब्यूरो ऑफ एकोनामिक एण्ड बिजनेस एफेयर्स ऑफ स्टेट के सहायक सचिव जास्टन जे0 ने सीनेट को बताया कि बहु आयामी विकास बैंकों में निवेशित हमारे प्रत्येक डालर से अमेरिकी फर्मो के लिए 3 डालर का व्यापार प्राप्त होता है। भारत सरकार द्वारा अमेरिकी दबाब से लाई गई उदारीकरण नीति के कारण अमेरिकी कम्पनियां तेजी से हमारे बाजार पर अधिकार कर रही है, ऋण से दबे होने के कारण भूतपूर्व अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि सुश्री कार्ला हिल्स द्वारा चोर कहे जाने, विश्व खाद्य संकट के लिए भारतीयों को पेटू बताने या भारत को सुपर 301 अथवा स्पैशल 301 तक में रखने पर भारत कोई प्रतिक्रया नहीं कर पाया।

कई लोगो का तर्क है कि भारत में आने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनिया हमें नवीनतम तकनीक व रोगगार प्रदान करेगी किंतु बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए गठित हाथी आयोग का मत था कि ”बहुत ही कम ऐसा होता है कि नयी प्रौद्योगिकी को नि:शुल्क या कीमत लेकर बाहर जाने दिया जाए।” भारत में स्थापित अन्य विदेशी कंपनियों द्वारा निवेश की तुलना में कितने लोगो को रोजगार दिया गया यह किसी से छिपा नहीं है। इस प्रकार नयी तकनीक भी नहीं आती है तथा रोजगार भी नहीं मिलता है।

आजकल फास्ट फूड के क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियां पदार्पण कर चुकी है। चाहे हम भारतीयों को उसकी आवश्यकता हो या न हो। क्योंकि पापड़, चिप्स, सत्तू, इडली-डोसा, उपमा, चिवड़ा हमारे सुपर फास्ट फूड है। इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियां इसलिए आ रही है कि इससे उन्हे भारी लाभ होगा। अपने पैसे की ताकत से वे सभी स्थानीय कंपनियों को हटाने की कोशिश कर रही है और काफी हद तक सफल भी हुई है।

भारत को विदेशी कंपनियों के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए आवश्यक है कि हमें अपनी जीवन पध्दति के बारें में विचार करना चाहिए कि हम कैसी जीवन पध्दति चाहते है भारतीय या पाश्चात्य। साम्यवाद और पूंजीवाद दोनो पाश्चात्य जीवन पध्दति से पैदा विचारधाराएं है जिनमें अस्तित्व के लिए संघर्ष,, सर्वोत्तम का अस्तित्व, प्रकृति का शोषण और वैयक्तिक अधिकार की मूल धारणा प्रमुख आधार है। दूसरी ओर भारतीय जीवन पध्दति में जियो और जीने दो, शांतिपूर्ण सह अस्त्त्वि, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए उसका दोहन, वैयक्तिक अधिकारों की बजाय कर्तव्यपालन पर जोर दिया गया है। हमें कैसी जीवन शैली चाहिए इसका विचार करने का अब समय है अत: भारत में अब ऐसी मनोदशा बनानी होगी कि जिसमें आवश्यकताओं को कम किया जाये। समाज का उच्च वर्ग ऐसी जीवन शैली का आदर्श बन सकता है। जनता में लोग भिन्न-भिन्न स्तर के होते है हर स्तर पर जनता की आवश्यकताऐं पूर्ण करनी होगी। अगर भारत को स्वाबलम्बी , सम्पन्न और वैभवशाली बनाना है तो आत्मनिर्भरता हमारी पहली शर्त होनी ही चाहिए, आवश्यक है आत्मविश्वास। हमारी जनता नया कुछ करने अथवा बौध्दिकता में किसी से पीछे नहीं है। आज अनेक कर्मवीर भारत को बनाने हेतु अपने – अपने ढ़ंग से प्रयत्नशील है– नानाजी देशमुख और अन्ना हजारें। समग्र ग्राम विकास के कार्य में जुटे कार्यकर्ता, पुर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम……………आदि। क्या हम सब मिलकर भारत को पुन: विश्वगुरू बनाने के लिए ऐसा कुछ कर सकते है?

लंदन में प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन

‘यू.के हिंदी समिति’ के 20 वर्ष एवं ‘हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता’ के दस वर्ष के उपलक्ष्य में लंदन के नेहरू केंद्र में में दिनांक 26 सितंबर को प्रथम हिंदी छात्र सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में यू.के. के विभिन्न शहरों से सैकड़ों हिंदी के विद्यार्थियों ने भाग लिया। सम्मेलन में 4 वर्ष की आयु से लेकर 25 वर्ष की आयु तक के छात्र उपस्थित थें।

इस अवसर पर विद्यार्थी कमलेश वालिया और कार्तिक सुब्बुराज ने इंटरनेट के माध्यम से हिंदी सीखने की विधा बताई और पावर प्वाइंट द्वारा अत्यंत रोचकता से अन्य छात्रों को हिंदी के विभिन्न वेबसाइट से परिचित कराया।

‘यू.के हिंदी समिति’ के अध्यक्ष डॉ. पदमेंश गुप्त ने कहा, ‘इस सम्मेलन का उद्देश्यहै कि ब्रिटेन के हिंदी छात्रों का एक नेटवर्क तैयार हो और इन विद्यार्थियों को एक ऐसा मंच मिले जिससे वे कम से कम साल में एक बार आपस में मिल सकें।’

इस अवसर पर हिंदी बाल भवन- सरे, तथा बर्मिंघम के कुछ विद्यार्थियों ने लघु नाटक एवं नृत्य की प्रस्तुति कर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। हास्य-व्यंग्य से भरपूर यह नाटक छात्रों तथा उनकी शिक्षिकाओं ने मिल कर स्वयं रचा।

हिंदी अध्यापिका सुश्री सुरेखा चोफला ने इस अवसर पर भारत के नक्शे पर आधारित छात्रों को टीम-बिल्डिंग एक्सरसाइज़ करवाई तथा साँप और सीढ़ी के खेल के माध्यम से हिंदी के प्रश्न-उत्तर के सत्र का संयोजन किया जिसमें हिंदी छात्रों ने जम कर भाग लिया।

श्रीमती देवीना रिशी ने ‘हिंदी सिनेमा वाह! वाह!, हिंदी सिनेमा छी! छी!’ पर मनोरंजक बहस का संयोजन किया जिसमें अनेक छात्रों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए।

‘यू.के.हिंदी समिति’ की उपाध्यक्ष और ‘पुरवाई’ पत्रिका की सह-संपादक श्रीमती उषा राजे ने छोटी उम्र के बच्चों को स्व रचित बाल कथा ‘जादूई बुलबुला’ के माधयम से भारतीय संस्कृति की महत्ता मनोरंजक ढंग से बताई। इस सत्र में बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी दत्तचित श्रोता थें।

हिंदी सभी छात्रों एवं अभिवावकों ने इस अवसर पर अंताक्षिरी के माध्यम से हिंदी गानों की प्रस्तुति की।

सम्मेलन के अंत में ब्रिटेन के इन छात्रों ने भारत के वरिष्ठ साहित्यकार स्व. कन्हैया लाल नंदन जी को श्रद्धांजलि अर्पित की।

यू.के. हिंदी समिति के श्री वेद मोहला, डॉ. ऋषी अग्रवाल, इस्माइल चुनेरा, के.बी.एल. सक्सेना, उषा राजे सक्सेना, सुरेखा चोपला, अंजलि सुब्बुराज, शशि वालिया, देविना रिशि, पियूष गोयल, एवं कृति यू.के. की तितिक्षा शाह, अख्तर गोल्ड, मधु शर्मा, मीना कुमारी, और बाल भवन की शशि वालिया ने अपनी उपस्थिति से आयोजन को गरिमा प्रदान की।

ये है दिल्ली मेरी जान

-लिमटी खरे

यम का वाहक बनी बीसीजी वेक्सीन

देश के हृदय प्रदेश में आदिवासी बाहुल्य जिले डिंडोरी में बच्चों को लगने वाले टीके ही काल के गाल में समाने का कारण बनते जा रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि मध्य प्रदेश में डिंडोरी जिले के बजाग तहसील में बीसीजी और खसरा के टीका लगाने के बाद क्षेत्र के विक्रमपुर गांव के डेढ दर्जन से ज्यादा बच्चे बीमार पड़ गए जिन्हें सरकारी अस्पताल में दाखिल करा दिया गया। इनमें से दो बच्चे काल कलवित कर दिया। इसके अलावा बाद में दो बच्चों को और काल ने अपना ग्रास बना लिया। प्रशासन ने भी वेक्सीन का सेंपल लेकर उसे सील नहीं किया गया। गौरतलब है कि पूर्व में 24 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की टीम ने डिंडोरी जिले के अस्पतालों का अचानक ही निरीक्षण किया था जिसमें उन्होंने वेक्सीन को खराब पाया था। अपने प्रतिवेदन में अधिकारियों ने साफ कहा था कि वेक्सीन को उसके लिए प्रदाय किए गए डीप फ्रीजर में रखने के बजाए गरम वातावरण में रखा गया था, और डीप फ्रीजर में कोल्ड ड्रिंक की बोतलें शोभा बढ़ा रही थीं।

कांग्रेस ने हाईजेक किया भाजपा को!

देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी को अपने कब्जे में ले लिया है। जी हां, यह सच है!, इंटरनेट के हेकर्स ने भाजपा की वेव साईट बीजेपी डॉट काम को हेक कर लिया है। वेव ब्राउजर के एड्रेस बार पर बीजेपी डॉट काम टाईप करते ही आप कांग्रेस की वेव साईट पर पहुंच जाते हैं। भाजपा ने इस मामले में कांग्रेस को कानूनी नोटिस भेज दिया है। यद्यपि कांग्रेस भाजपा के इस आरोप को सिरे से खारिज कर रही है। कांग्रेस का कहना है कि तकनीकि गडबडी के कारण एसा संभव हो सकता है, किन्तु भाजपा इसे अपनी पहचान को चोरी करने का मामला बता रही है। वैसे भी कांग्रेस और भाजपा में मुद्दों को लेकर अब तक हुए द्वंद में कांग्रेस ही भारी पडती दिखी है। इस बार भी अगर कांग्रेस के आईटी सेल ने कोई कारनामा कर दिखाया हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

10 जनपथ से सुरेश पचौरी की बिदाई तय

स्व.राजीव गांधी के जमाने से दस जनपथ (स्व.राजीव, सोनिया का सरकारी आवास, और कांग्रेस का सत्ता और शक्ति का शीर्ष केंद्र) की शान रहे मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष सुरेश पचौरी का शनि पिछले दो सालों से बहुत ज्यादा भारी चल रहा है। सबसे पहले तो दो साल पहले राज्य सभा की सदस्यता का नवीनीकरण न हो पाने से मंत्री पद तजना पड़ा, फिर वे मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनाकर भेज दिए गए। पचौरी के नेतृत्व में लोकसभा और विधानसभा में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा। आंकड़ों के बाजीगर पचौरी ने कांग्रेस का जनाधार बढ़ा हुआ बताकर सोनिया गांधी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के हाल ही के मध्य प्रदेश दौरे में पचौरी की 10 जनपथ से दूरी साफ दिखाई पड़ी जब राहुल ने सुरेश पचौरी से मंच पर ही प्रश्न कर दिया कि आपको चेहरे से कितने लोग जानते हैं, जब अध्यक्ष का यह आलम है तो फिर पार्टी का क्या हाल होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कहते हैं अब सुरेश पचौरी एक बार फिर संजीवनी की तलाश में हैं, और वे राजमाता के गण अहमद पटेल की गणेश परिक्रमा में जुट गए हैं।

टिफिन वाले गडकरी!

भारतीय जनता पार्टी के नए निजाम नितिन गडकरी की ताजपोशी को लगभग एक साल होने को आया है, किन्तु अब तक भारतीय जनता पार्टी कोई चमत्कार करती नहीं दिख रही है। भाजपाध्यक्ष गडकरी भले ही कार्यकर्ताओं नेताओं से घुलने मिलने के दावे करते हों, पर एक मामले में वे बहुत ही पाबंद नजर आ रहे हैं, और यह मामला है गडकरी का अपना भोजन साथ लेकर चलना। देखा गया है कि गडकरी जब भी कहीं प्रवास पर जाते हैं, वे अपने साथ दो से चार टिफिन अवश्य ही ले जाते हैं। गडकरी के निकटवर्ती सूत्रों का दावा है कि गडकरी भुमका गिरी अर्थात जादूटोने से बहुत ज्यादा भयभीत रहते हैं, उन्हें डर है कि कहीं कोई उन्हें कुछ खिला पिला न दे। दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि गडकरी की जीभ है कि मानती ही नहीं, सो वे अपने चटोरेपन की आदत के चलते अपने मनपसंद व्यंजन साथ ही लेकर चलते हैं, ताकि जो भी चीज उन्हें खाने का मन हो, वे तत्काल टिफिन खोलकर उसका स्वाद ले सकें। बेचारे मेजबान खान पान के मामले में तो अपने अध्यक्ष को प्रसन्न करने की स्थिति में ही नहीं रह पाते हैं।

मेहरबान है भाजपा कमल नाथ पर!

मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की थाप पर नृत्य की मुद्रा में ही दिख रही है। कोई भी मंत्री दिल्ली यात्रा पर हो, और कमल नाथ से भेंट मुलाकात न करे यह संभव ही नहीं है। मध्य प्रदेश भाजपा के मुख्यमंत्री सहित सारे के सारे मंत्री कमल नाथ के आशियाने 01 तुगलक रोड़ की चौखट चूमते ही नजर आते हैं। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल गौर जब विदेश से लौटे तब उन्होंने कमल नाथ को सलामी देना नहीं भूला। इधर प्रदेश भाजपा द्वारा कमल नाथ को घेरने 05 से 07 अक्टूॅबर तक एन एच पर पड़ने वाले कस्बों में हस्ताक्षर अभियान का आगाज किया था, किन्तु सत्ता और संगठन के बीच समन्वय के अभाव के चलते यह आंदोलन भी चारों खाने चित्त ही गिर पड़ा है। रविवार तक मीडिया को इस बात से वंचित ही रखा गया है कि केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के खिलाफ मध्य प्रदेश के एनएच पर पड़ने वाले कितने गांवों में कितने हस्ताक्षर करवाए गए? लगता है लोग सच ही कहते है सियासी जादूगर कमल नाथ के पास कोई जड़ी है, जिसे वे विपक्षी को भी सुंघा दें तो वह भी कमल नाथ की भाषा ही बोलने लगता है।

कैंसर ने बनाया भ्रष्टाचारी

देश में भ्रष्टाचार कैंसर से भी बड़ी लाईलाज बीमारी बन गया है, किन्तु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि एक सरकारी कर्मचारी वह भी महिला ने भ्रष्टाचार इसलिए किया क्योंकि उसे खुद को हुए कैंसर का इलाज करवाना था। सेंट्रल एक्साईज के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि हाल ही में मुंबई में रिश्वत के मामले में पकड़ी गई विभाग की अधीक्षक रंजना बोब्बाल एक निहायत ही ईमानदार कर्मचारी है। बोब्बाल को केंद्रीय जांच ब्यूरो ने रिश्वत के आरोप में पकड़ा है। सूत्र बताते हैं कि बोब्बाल के घर से सीबीआई को कुछ भी नहीं मिला। महिला अधिकारी अगर रिश्वत लेने की आदी होती तो निश्चित तौर पर उसके घर से नगद या अन्य कागजात एफडी, जमीन जायदाद के कागज अवश्य ही मिलते, वस्तुतः एसा हुआ नही। सूत्रों की माने तो रंजना एक निहायत ही शरीफ और ईमानदार कर्मचारी थी। बाद में उसे जब कैंसर हुआ तब उसका काफी धन इलाज में व्यय हो गया। आगे इलाज के लिए पैसे जुटाने की गरज से रंजना ने भ्रष्टाचार का सहारा लिया। धन्य है भारत सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था, कि एक कर्मचारी को इसके लिए भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ा।

भाजपा के युवा गांधी की पूछ परख बढ़ी

भारतीय जनता पार्टी के युवा गांधी इन दिनों डिमांड में हैं। वरूण गांधी को रूबरू और फोन, मोबाईल पर शुभकामनाएं देने वालों की फेहरिस्त जबर्दस्त लंबी होती जा रही है। इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र स्व.संजय गांधी के इकलौते पुत्र वरूण गांधी अगले साल के आरंभ में ही पश्चिम बंगाल की बाला यामिनी राय के साथ परिणय सूत्र में आबद्ध होने जा रहे हैं। संजय गांधी के बाल सखा रहे कमल नाथ, गुलाम नवी आजाद, प्रणव मुखर्जी, मुलायम सिंह यादव, नितिन गड़करी, सुषमा स्वराज, मोहन भागवत जैसे दिग्गज भी पीलीभीत के युवा सांसद वरूण को बधाईयां प्रेषित कर चुके हैं। वरूण का देशी बाला के साथ शादी करना कांग्रेस के लिए बहुत ही मुश्किल का सबब बनता जा रहा है। गौरतलब है कि इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र स्व. संजय गांधी ने देशी बाला मेनका आनंद से विवाह किया था। दूसरी ओर कांग्रेस के प्रधानमंत्री रहे स्व.राजीव गांधी ने इटली की सोनिया मानियो को अपना जीवन साथी बनाया था, अब उनके पुत्र राहुल गांधी भी कोलंबिया की बाला को अपनी अर्धांग्नी बनाना चाह रहे हैं।

फीका रहेगा गेम्स का समापन

अरबों रूपए पानी में बहाने के बाद हो रहे राष्ट्रमण्डल खेलों के प्रति देश में लोगों के बीच वह उत्साह नहीं दिख रहा है, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। अब तक भारत ने पदकों के ढेर लगा दिए हैं, किन्तु लोगों के बीच गेम्स को लेकर उत्साह और उल्लास की कमी साफ दिखाई पड़ रही है। कामन वेल्थ गेम्स की आयोजन समिति के सूत्रों का कहना है कि गेम्स के बाद होने वाली जांच की खबरों से अब आयोजन समिति की घिघ्घी बंधने लगी है, यही कारण है कि कामन वेल्थ गेम्स आर्गनाईजिंक कमेटी खेलों के समापन को सादे तौर पर संपन्न कराना चाह रही है। सूत्रों ने कहा कि पहले समापन कार्यक्रम में वालीवुड के शाहरूक खान, करीना कपूर, विद्या बालान आदि को परफारमेंस के लिए बुलाया जाना तय था, किन्तु गत दिवस निर्माण भवन में गु्रप ऑफ मिनिस्टर्स की बैठक के बाद लगने लगा है कि इनको नहीं बुलाया जाएगा।

बीमारी ने उमा को लाया सुर्खियों में

भारतीय जनता पार्टी की फायर ब्रांड नेता रहीं उमा भारती इन दिन फिर चर्चाओं में हैं। राजग के पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आड़वाणी के साथ एक बार फिर उमा भारती को देखने के बाद भाजपा की अंदरूनी सियासत में उबाल आने लगा है। एक बार फिर उमा भारती की भाजपा में वापसी के कयास तेज हो गए हैं। भाजपा और संघ में उनके शुभचिंतक और विरोधियों की सरगर्मियां एक बार फिर से बढ गईं हैं। भाजपा के राष्ट्रीय मुख्यालय 11 अशोक रोड़ के उच्च पदस्थ सूत्रों ने संकेत दिए हैं कि मध्य प्रदेश की राजधानी के एक विलासितापूर्ण पांच सितारा अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ लेने के दौरान एल.के.आड़वाणी ने अनेक भाजपा के आला नेताओं को निर्देश दिया था कि वे जाकर उमा भारती का हाल चाल जानें। इन्हीं निर्देशों का असर था कि इसके अनुपालन में उमा के घुर विरोधी मुख्यमंत्री शिवराज ंिसंह चौहान, संघ के सह सरकार्यवाहक मदन दास देवी, स्वास्थ्य राज्य मंत्री महेंद्र हार्डिया, डॉ.गौरी शंकर शेजवार, रूस्तम सिह आदि अनेक नेताओं की भीड लगातार बनी रही।

बडबोले युवराज से परेशान है कांग्रेस

कांग्रेस में राहुल गांधी को महिमा मण्डित करने बाकायदा मीडिया को मैनेज किया जाता है। राहुल के इर्द गिर्द सिर्फ उन्ही मीडिया पर्सन को जाने की इजाजत दी जाती है, जो कांग्रेस की मानसिकता के हैं। राहुल की पत्रकार वार्ताओं में भी मीडिया को पहले से ही प्रश्न देकर प्रश्न पुछवाए जाते हैं। इसके बदले में कांग्रेस के वित्तीय प्रबंधकों द्वारा इन गिने चुने पत्रकारों को तबियत से उपकृत किया जाता है। हाल ही में राहुल गांधी की जबान फिसल गई और राहुल ने संघ और सिमी को एक समान ही बता दिया। संघ पर सीधे वार से तिलमिलाई भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों ने राहुल गांधी को घेरना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस के आला नेता अपने युवराज की इस तरह की बयानबाजी से खासे नाराज दिख रहे हैं। एक वरिष्ठ नेता ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि राहुल के पढाने वालांे ने पता नहीं राहुल को क्या पट्टी पढ़ाई है, वरना कांग्रेस को इस बचाव की मुद्रा में नहीं आना पड़ता। गौरतलब है कि इससे पहले सिमी के संबंध में दिग्विजय सिंह द्वारा लगातार इसी तरह की बयानबाजी की जाती रही है।

अनमने मन से तैयार हो रहा खाद्य सुरक्षा विधेयक

देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा केंद्रीय कृषि मंत्री को दी गई नसीहत के बाद केंद्र में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार बेक फुट पर आ गई है। कांग्रेस के सत्ता के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार के महात्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा विधेयक के मामले में कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी बहुत ज्यादा संजीदा हो चुकी हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को अपनी इस मंशा से आवगत करा दिया है कि किसी भी कीमत पर खाद्य सुरक्षा विधेयक को तैयार करवा दिया जाए। खाद्य मंत्रालय में अफसरान के बीच चल रही चर्चाओं के अनुसार सरकार को क्या सूझी है कि इस ‘‘ड्राई‘‘ सब्जेक्ट पर सब को झोंका जा रहा है। पहले कितने बेहतरीन दिन थे, सब कुछ गीला गीला था, जितना चाहे निचोड लो। प्रधानमंत्री कार्यालय के दबाव के चलते अब अधिकारियों को अपना अधिक से अधिक समय मंत्रालय में खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए देना पड रहा है, जिससे उनकी सेहत पर प्रतिकूल असर ही पड़ रहा है।

पुच्छल तारा

हर साल कुछ न कुछ अजीब संयोग बनते हैं, केलेन्डर, घड़ी आदि का संयोग भी अजीबोगरीब होता है। अहमदाबाद से प्रदीप बैस द्वारा ईमेल भेजा है जिसमें इस संयोग के बारे में बताया गया है। प्रदीप बैस लिखते हैं कि दस अक्टूबर 2010 को दस बजकर दस मिनिट और दस सेकण्ड पर एक साथ जो सामने आएगा वह होगा 10: 10: 10: 10: 10: 10 (10/10/2010: 10 बजकर 10 मिनिट 10 सेकण्ड) है न अजीब संयोग।

भारतीय चिंतन में नारी दृष्टि

-हृदयनारायण दीक्षित

मां सृष्टि की आदि अनादि अनन्य अनुभूति है। प्रत्येक जीव मां का विकास है। मां प्रथमा है। दिव्यतम् और श्रेष्ठतम् अनुभूति है मां। इसलिए सभ्यता विकास के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्य को जहां-जहां अनन्य प्रीति मिली, वहां-वहां उसने मां की अनुभूति पाई। जल जीवन का प्राण है। जल नहीं तो जीवन नहीं। मां नहीं तो सृजन नहीं। विश्व के प्राचीनतम इनसाइक्लोपीडिया ‘ऋग्वेद’ में जल को माता – आपः मातरम् कहा गया। नदियां पानी देती हैं, समृध्दि देती हैं, पवित्र करती है – पुनानः। ऋग्वैदिक ऋषियों के लिए सिंधु माता है, सरस्वती माता है। मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने बहुत बड़ी बात कही है, सरस्वती की जैसी महिमा ‘ऋग्वेद’ में है वैसी किसी अन्य नदी की दूसरे देशों के साहित्य में दुर्लभ है। वैदिक काल देवी उपासना से भरापूरा है। सामाजिक विज्ञान की दृष्टि से यह काल स्त्री आदर का है। यों देव शक्तियां स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं होती लेकिन समाज अपने श्रध्दाभाव के चलते देवों को भी मां या पिता कहता है।

भारत वैदिक काल से ही देवी उपासक है। समाज के विकासवादी विवेचन में मातृसत्ता की समाज व्यवस्था आदिम है, पितृसत्ता के बाद की। ‘ऋग्वेद’ में ढेर सारे देवता है। अनेक देव पुरूषवाचक हैं देव और अनेक स्त्रीवाचक देवियां। लेकिन अदिति नाम की एक देवी में समूचा ब्रह्मंड, देश और काल भी समाहित है। ऋग्वेद (1.89.10) के गुनगुनाने लायक खूबसूरत मंत्र में कहते हैं, अदितिः द्यौ अदितिः अंतरिक्षं, अदितिः माता सः पिता सः पुत्रः, अदिति विश्वेदेवाः अदिति पंचजनाः, अदितिः जातम् जनित्वम् – अदिति द्युलोक, अंतरिक्ष, माता, पिता, पुत्र और अदिति ही विश्व देव है, अदिति पंचजन है। जो कुछ है, हो चुका और होगा, सब अदिति ही है। दुनिया की कोई भी कौम अपने ऐसा विराट देव-देवी को अपना पुत्र नहीं कह पायी। यह सृष्टि-प्रकृति एक चिरंतन प्रवाह है, इसी प्रवाह का नाम है अदिति। सो अदिति माता है, प्रवाह के अगले चरण में वही पुत्र है, जो हो चुका और होगा वह सब अदिति ही है। यहां सृष्टि संभवन की प्रत्येक गतिविधि में एक निरंतरता है, एक अविच्दिन्न प्रवाह है, यह प्रवाह एक दिव्य अनुभूति है, सो देवी हैं। वाणी भी संपूर्ण ब्रह्मंड में व्याप्त है।

ऋग्वैदिक मंत्रों के द्रष्टा ऋषि है। ‘ऋग्वेद’ में प्रत्येक सूक्त पर द्रष्टा ऋषियों के नाम छापे जाते हैं। ‘ऋग्वेद’ और ‘अथर्ववेद’ में 25 ऋषिकाओं के नाम हैं। वे 422 मंत्रों की द्रष्टा है। वाक् आम्भृणी, घोषा, अपाला, उर्वसी, इन्द्राणी, रची, रोमसा, श्रध्दा, कामायनी, यभी वैवस्वती आदि प्रख्यात ऋषिकाएं हैं। ‘ऋग्वेद’ (1.179.2) में लोपामुद्रा का कथन सारगर्भित है सत्य की साधना करने वाले देवतुल्य ऋषियों ने भी संतति प्रवाह चलाया है वे भी जीवन के अंत तक ब्रह्मचारी ही नहीं रहे उनकी भी पत्नियां थी। यहां गृहस्थ आश्रम की महत्ता है, संतति प्रवाह न रोकने की स्थापना है। आगे का मंत्र अगस्त्य का है हमने जीवन की तपः साधनाओं पर विजय पाई है, हम दंपत्ति अब संतति प्रवाह में लगेंगे। (वही मंत्र 3) यहां लोपामुद्रा ऋषिका है, वे अगस्त्य ऋषि की पत्नी है। प्रत्यक्ष रूप में यह वार्ता व्यक्तिगत दिखाई पड़ती है लेकिन इसकी स्थापनाएं दिशाबोधक है, लोपामुद्रा का जोर गृह स्थाश्रम की सृदृढ़ता पर है, अगस्त्य का जोर तपः साधना पर। लेकिन लोपामुद्रा – अगस्त्य का समन्वय प्रीतिकर है। वैदिक स्त्री दब्बू और शोषक नहीं है। वह खुलकर बात करती है, लोपामुद्रा अपने ऋषि पति से भी संवाद करते समय खुलकर बोलती हैं। ऐसी ही एक ऋषिका है इंद्राणी। इंद्राणी का कथन है ”मैं मूर्धन्य हूं और उग्र वक्ता हूं।” (ऋ0 10.159.2) इंद्राणी ‘अथर्ववेद’ (20.126) की भी मंत्र द्रष्टा ऋषिका है। यहां उनकी उद्धोषणा वैदिक काल के भी पहले के नारी सम्मान का यथार्थ दर्शन कराती है। कहती है, ”प्राचीन काल से ही नारी यज्ञों और महोत्सवों में भाग लेती रही हैं।” (वही मंत्र 10) यह प्राचीनकाल वेदों के रचनाकाल से भी बहुत पुराना होना चाहिए।

‘ऋग्वेद’, ‘यजुर्वेद’ और ‘अथर्ववेद’ में सभा, समितियां हैं। सभा और समितियां वैदिक जनतंत्र और स्नेहपूर्ण समाज का आधार है। सभा समिति के उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में हैं, इसका अर्थ हुआ कि सभा समितियां भी ‘ऋग्वेद’ से प्राचीन हैं। इनका गठन विकास प्राचीन है, ‘ऋग्वेद’ में इनका उल्लेख बाद का है। ‘अथर्ववेद’ में सभा और समिति को प्रजापति की पुत्रियां कहा गया है। ध्यान दीजिए सभा और समिति जेसी आदर्श संस्थाएं पुत्रिया हैं, पुत्र नहीं। स्त्रियां गुणों की खान है। ‘ऋग्वेद’ (1.126.7) में ऋषिका रोमशा कहती हैं, जिस प्रकार गंधार की भेड़ रोमों से भरी होती हैं उसी प्रकार मैं गुणों से भरपूर हूं। ‘ऋग्वेद’ में केवल महिला ऋषिकाएं ही नहीं हैं, यहां अनेक वीर महिलाओं के वर्णन भी हैं। विश्पला का पैर युध्द में टूट गया था, अश्विनी देवो ने उसके कृत्रिम पैर लगाया (ऋ0 1.112.10) ऐसी ही एक योध्दा है मुद्गलानी। वे रथारूढ़ होकर युध्द जीती, उस समय उनके वस्त्रो को वायुदेव ने संभाला। (ऋ0 10.102.2) स्त्रियां व्यसनी पति को छोड़ देती हैं, उन पर बाद की सामंती व्यवस्था जैसा दबाव नहीं है – ‘जुआरी की स्त्री पति को त्याग देती है।’ (10.34.3) ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषद् साहित्य में स्त्री-विद्वानों के अनेक प्रसंग है। ‘वृहदारण्यक’ उपनिषद् में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का खूबसूरत वाद-विवाद है। यहां गार्गी और याज्ञवल्क्य का प्रश्नोत्तर पठनीय है। गार्गी यहां सभानेत्री है।

सृष्टि प्रवाह में स्त्री और पुरूष दोनो की भूमिका है लेकिन मां जननी है। दोनो का मन हृदय एक होना चाहिए। दोनो का एकात्म ही आनंदमग्न परिवार का उपकरण है। अग्नि ऋग्वैदिक काल के शीर्ष देवता है। अग्नि दोनों का मन हृदय मिलाते हैं – समनसा कृणोषि। अग्नि दोनो कान बेशक मिलाते है लेकिन ऋषि ने स्वयं भी इनकी उपमा पति को चाहने वाली स्त्री से की है। (ऋ0 1.73.3) वैदिक स्त्री स्वाधीन है, वह पुरूष के सामने स्वाभिमानी है, वह मंत्रद्रष्टा ऋषिका है, वह युध्द में वीरव्रती है, वह यज्ञ कार्य में बराबर की भागीदार है, वह देवोपासक है बावजूद इसके वह मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए स्त्री अपना शरीर केवल पति को ही दिखाती है बाकी लोग केवल वस्त्र देखते हैं। (ऋ0 10.71.4) ऋग्वैदिक काल की स्त्री की स्थिति सम्मानजनक है, वह आदरणीय है। डॉ. रामविलास शर्मा की सटीक टिप्पणी है, ‘ऋग्वेद’ में स्त्रियों की स्थिति की जानकारी इस बात से भी होती है कि यहां देवों के साथ देवियां भी बार-बार वंदनीय मानी गयी हैं। दोनो घर गृहस्थी का काम साथ-साथ करते है, साथ-साथ सोम निचोड़ते है और साथ-साथ देवोपासना भी करते है। (8.31.5) मित्र देवता भी दोनो का मन एक करते हैं।

वैदिक काल की यही परंपरा पुराण काल तक अविच्छिन्न है। शिव-पार्वती में पार्वती समतुल्य रूप में आदरणीय है। सीता, राम में सीता माता है। श्रीराम कौशल्या, सुमित्रा के साथ कैकेई को भी आदरणीय मानते हैं। पुराणकाल की ‘दुर्गा सप्तशती’ की समूची कथा ही देवी की पराक्रम गाथा है। ”यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” जैसी नारी सम्मान की उद्धोषणा विश्व समुदाय को भारतीय संस्कृति की ही देन है। भारतीय वांगमय में हजारो नारी पात्र हैं। हजारों उल्लेखनीय और पठनीय हैं। भारत मातृशक्ति आराधक राष्ट्र है। यहां गंगा माता है, गाय माता है, सिंधु माता है। वाणी माता हे, नदियां माता है, नीम का पेड़ माता है। सृष्टि का कण-कण यहां माता है – या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता। भारत पुरूषवाचक है लेकिन भारतीय अनुभूति में भारत भी माता है, पृथ्वी माता है। सारी विद्यााएं माता हैं। समूची स्त्री सृष्टि माता है – विद्या समस्तास्तव देवि भेदा, स्त्रियां समस्ता सकला जगत्सु।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री तथा वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं

राहुल गाँधी और उनके दो राजनैतिक भारत

– डॉ. ज्योति किरण

पिछले दिनों राहुल गाँधी की बंगाल यात्रा के दौरान एक न्यूज़ चैनल ने समाचार के साथ ही एक ‘विजुअल क्लिप’ दिखाया। यह क्लिप कई अर्थों में महत्वपूर्ण था, क्योंकि वह एक हज़ार से भी अधिक शब्द बोल रहा था। बहुत नपी-तुली पर प्रेरक भाषा में राहुल कहते हैं पहले एक भारत था अब मैं देखता हूँ कि दो भारत हैं। एक आम गरीब आदमी का भारत और दूसरा साधन संपन्न भारत। पता नहीं वे इतिहास के किस काल खंड में इस एक भारत की बात कर रहे थे। गाँधी जी ने भारत समझने के लिए जब ट्रेन की खिड़की से भारत ढूँढने का यत्न किया था तो उन्हें कई भारत दिखे थे – असमान, विवर्ण, शोषित भारत।

बहरहाल, राहुल अपने भाषण को आगे बढ़ाते हुए बड़ी तैयारी से रचा अपना कूटनीतिक वाक्य फेंकते हैं – यहाँ भी दो बंगाल हैं; एक आम गरीब का बंगाल और दूसरा सी. पी. एम. का बंगाल। इस द्वैधता के वर्णन को वे फिर किस चतुराई से आगे बढ़ाते रहे, यह सारे भारत ने सुना-देखा पर इसके बाद के विजुअल क्लिप का उल्लेख अधिक महत्वपूर्ण है। राहुल अपने उत्प्रेरक भाषण को समाप्त करके मंच पर बैठे प्रणव मुखर्जी की ओर बढ़ते है। प्रणव कुर्सी से उठकर राहुल को गले लगाने जैसा कुछ करते हैं। दोनों के हाथ गहरी गर्मजोशी से बंध जाते हैं और विजेता जैसा भाव चेहरे पर लिए राहुल मानो प्रणव से कह रहे हों, देखा प्रदर्शन शानदार रहा ना! प्रणव विगलित, पितृतुल्य, सम्मोहित से, रूँधे गले से तारीफ में निमग्न है, फिर और थोड़ी कानाफूसी और तारीफ और फिर राहुल आश्वस्त बैठ जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी रीयेलिटी प्रतियोगिता में कोई प्रतियोगी अपने ‘कोच’ या ‘मेंटर’ के पास लौटा हो। पर यहाँ ‘मेंटर’ किसी माता से भी अधिक भावुक दिखा और प्रतियोगी अपनी कूटनीतिक तैयारी से बहुत संतुष्ट, आत्मविश्वासी व प्रसन्न।

राहुल भारतीय राजनीति के ‘रीयलेटी शो’ के मंझे खिलाड़ी बन गए हैं। उन्हें पता है जनता किस भंगिमा, किस वाक्य से कहाँ प्रभावित होगी। कौन-सा बयान कहाँ देकर कांग्रेस के भीतर ही एक ‘विसिबल’ साफदिल, सक्रिय ‘नयी आभासी कांग्रेस’ का मायाजाल रचा जा सकता है। पर वे यह भूल रहे हैं कि यह आभासी सच्चाई विसंगतियों से भरी है। उदाहरणार्थ नियामगिरी में माओवादी नेता के साथ जब वे साझे मंच पर अपने को दिल्ली में तैनात ‘आदिवासियों का सिपाही’ कहकर वहाँ से वेदाँत को बाहर करने का विजयोत्सव मनाते हैं, तो तथ्य एक बिल्कुल अलग कहानी कह रहे होते हैं। दुर्भाग्य से तथ्य राहुल के साथ नहीं है। वेदाँत को पर्यावरण क्लीयरेंस काँग्रेस सरकार ने ही दिया। काँग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी वेदाँत के वकील तौर पर विभिन्न केस लड़ते रहे, यहाँ तक कि वन व पर्यावरण मंत्राालय जब एन. ई. ए. ए. के समक्ष डोंगरियाँ कोंध आदिवासियों का लगातार विरोध करता रहा, तो राहुल व उनकी ‘अवतार सेना’ ने एक शब्द भी नहीं कहा। इस प्रकार का अस्तित्व या विचारों का सिज़ोफ्रेनिया कांग्रेस के लिए यद्यपि नया नहीं है। एक ही समय में एक कांग्रेस में दो कांग्रेस दीख पड़ने की युक्ति कांग्रेस की संकट के समय की पुरानी नीति है। ताकि एक कांग्रेस वह जो गलतियाँ करती चले और उसी के भीतर एक आभासी विरोध में खड़ी कांग्रेस जहाँ कुछ लोग एक तयशुदा नीति के तहत वर्तमान नीतियों-गलतियों के विरुध्द खड़े रहने का स्वाँग करते रहे, ताकि गलतियाँ पच भी जाएँ, धूमिल भी होती रहें और साथ ही इन लड़ाके सिपाहियों का ग्लैमर भी बढ़ता चले।

राहुल की भाषा, व्यंजन, स्वर सभी विषयों में घोर राजनैतिक हैं। हुआ करें, इसमें आपत्ति भी किसे है? आखिर वे इंदिरा के आधिकारिक उत्तराधिकारी हैं – पर संवेदनक्षमता, सहानुभूति के आवरण में राजनीति करना और इसे संवेदनाओं के तौर पर प्रचारित करना धूर्तता है। उनके दो भारतों की अवधारणा आर्थिक, सामाजिक तौर पर होती तो समझा जा सकता था, पर उनके दो भारतों की विवेचना विशुध्द राजनीतिक स्वार्थ है। यह वर्गीकरण मात्र एक ही आधार पर है – एक भारत वह जो कांग्रेस शासित है और एक वह जहाँ गैर-कांग्रेसी सरकार है। जैसे ही राहुल विपक्ष शासित राज्यों में पैर रखते हैं उनके भीतर का चतुर रणनीतिकार उनके जन समर्पित, वाम प्रभावित युवा मन में विकास अवश्वमेघ की अलख जगा देता है और वे बोलने लगते हैं – शोषण के विरुध्द, विकास के लिए। मीडिया बेशक इस अश्वमेघ में उनका पीछा करता है। ताकि एक आम भारतीय यह ठीक से जान सके कि कैसे कांग्रेस का वैरागी राजपुत्र सत्य, अहिंसा विकास और शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना और आधारभूत सोच लेकर देश के समक्ष कांग्रेस का नया चेहरा रख रहा है। पर इस नयी सोच को सिर्फ उड़ीसा में बेचा जाता है, उत्तरप्रदेश में या फिर बंगाल में जहाँ विपक्ष की सरकारें हैं। यह सोच राजस्थान सरीखे राज्यों के लिए मुखर नहीं होती, जहाँ चिकित्सा, शिक्षा, आर्थिक योजना, विकास के सभी मानक लगातार गिर रहे हैं और 22 जिले खाद्य असुरक्षित हैं। या फिर उत्तर-पूर्व के राज्यों में जहाँ विकास की भूख ने युवा को एक बार फिर सड़क पर ला खड़ा किया है। और तो और बेहद गंभीर राष्ट्रीय विषयों पर तो राहुल अब तक कूटनीतिक मौन के अस्त्र से ही लड़ते रहे हैं।

बानगी दो अंकों की मुद्रास्फीति व महंगाई से पीड़ित व त्रस्त जनता केवल जीवन के लिए एकदम आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था कैसे करें? इस विषय पर उनका सार्वजनिक मत क्या है? अर्जुन सेन गुप्ता कमीशन के दिल दहला देने वाले आंकड़ों पर राहुल संवेदित क्यों नहीं हैं, जिनके अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक जनता गरीबी से जूझ रही है। भारत की राष्ट्रीय आय में 60 प्रतिशत योगदान देने वाला वर्ग असंगठित क्षेत्र से है जिनमें 85 प्रतिशत लोग 20 रूपए रोज से भी कम पर जी या मर रहे हैं। इन लोगों का बढ़ती जी. डी. पी. के आंकड़ों, विकास दर वगैरह से कुछ भी लेना-देना नहीं है। अपनी पार्टी की जनविरोधी नीतियों के इन भयंकर परिणामों पर राहुल कभी नहीं बोलते। लाखों टन सड़ते अनाज पर जब सुप्रीम कोर्ट मनमोहन सरकार को गरीबों को अनाज बाँटने पर निर्देशित करती है और अर्थवेत्ता प्रधानमंत्री केवल इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट को ऑंखें दिखाते हैं कि 37 प्रतिशत से अधिक गरीबों को अनाज मफ्ुत नहीं दिया जा सकता, तब भी राहुल मौन का सहारा लेते हैं।

राहुल चूँकि विकास अर्थशास्त्र के भी विद्यार्थी रहे हैं, अतः जरूर जानते होगें कि अन्न सड़ने की ‘वास्तविक पर्यावरण कीमत’ (रीयल कॉस्ट) कई गुना अधिक है, पर इनमें से कोई भी बात उनकी संवेदनाओं को नहीं जगाती न ही उन्हें मुखर करती है, क्योंकि वे जानते हैं इन विषयों पर बोलना राजनीतिक रूप से सही नहीं होगा। जबकि ये वे सब ऐसे विषय थे, जिन पर उन्हें राजनैतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए था। राज ठाकरे ने पिछले 113 बयानों में एक ही बयान सटीक व अर्थपूर्ण दिया है। दो चार बार हवाई दौरे कर लेने से महाराष्ट्र (एक प्रदेश) को राहुल नहीं समझ सकते। राहुल को समझना होगा भारत केवल कलावती के झोपड़ों के झरोखों से नहीं समझा जा सकता है न ही बंगाल के शाति निकेतन के चंद युवा उत्साही चेहरों में ढूढ़ा जा सकता है – ऐसा भी नहीं है कि भारत वहाँ नहीं है पर भारत उससे बहुत अधिक विस्मयकारी रूप से जटिल व बहुत से आयामों, स्तरों में बंटा है। यहाँ संस्कृति, सोच, जीवनशैली एक लंबी ऐतिहासिक यात्रा की बहुविध सच्चाइयों से बनी है जो हवाओं से तराशी पहाड़ी गोलाइयों-वृत्तों जैसी है, जहाँ कोई आकार न तो सुनिश्चित है और न एक दूसरी की सही प्रतिकृति ही। यही भारत की जटिलता भी है और यही वैशिष्ट्य भी। इस पर भी भारत का मानस सरल है। अतः यहाँ कुछ समय तक करिश्मा व स्वाँग हो, सब चल जाते हैं। पर लंबे समय तक भारत न कुटिलता सहता है न स्वाँग। ‘भारत एक खोज’ से राहुल ने इतना तो जरूर सीखा होना चाहिए और इस भ्रम निरास के सुबूत भी अब उभरने लगे हैं। युवा तुर्कों के गढ़ दिल्ली में राहुल की अपूर्व लोकप्रियता के बावजूद विश्वविद्यालय में युवा वोट एन. एस. यू. आई को नहीं जाता। राजस्थान विश्वविद्यालय में भी ए.बी.वी.पी. जीतती है।

राजनैतिक अपरिपक्वता का ताजातरीन सबूत राहुल के कश्मीर पर बयान में देखने को मिलता है जहाँ वे कहते हैं कि कश्मीर पार्ट टाइम प्रॉब्लम नहीं है, अतः उमर अब्दुल्ला को हमें समय और समर्थन देना चाहिए। कोई उनसे पूछे कि किसने उमर अब्दुल्ला को सलाह दी थी कि वे अप्रवासी मुख्यमंत्री बनकर कश्मीर को ‘पार्ट-टाइम’ समस्या से फुल टाइम समस्या बना दे? शांति के समय जनेच्छा से तंत्र को संस्थागत करने की सलाह तब राहुल ने अपने साथी सिपाही को क्यों नहीं दी? और ऐसा समय व समर्थन देने का नारा राहुल ने तब क्यों नहीं लगाया, जब नक्सली समस्या के समय चिदंबरम अपने ही साथियों से घिरे थे?

मौटे तौर पर पिछले कुछ वर्षों में भारत आंतरिक सुरक्षा व समेकित, न्यायपूर्ण विकास दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह से असफल रहा है। कांग्रेस की जननिरपेक्ष अपरिपक्व नीतियों ने जनापेक्षाओं को कभी आत्मसात् किया ही नहीं। ऑंतरिक-बाह्य सुरक्षा पर राहुल कदाचित ही बोल पाते हैं, क्योंकि उसके लिए पूरा अध्ययन परिपक्व सोच व पारदर्शिता आवश्यक है। सार्वजनिक जीवन में उनके द्वारा इनमें से एक भी गुण अभी दिखाया नहीं गया है। हाँ विकास पर वे खूब बोलते हैं अधिक अच्छा हो कि वे विकास पर सचमुच सोचें। भी और उनकी सोच राजनैतिक खाँचों की मजबूरी और द्वैधता से भरी नहीं हो, किंतु जैसे उन्हें आकर्षक रंग-रूप विरासत में मिला है वैसे ही व्यापक जनहित में न सोचकर संकीर्ण दलीय राजनीति के कोणों से देश को नापने-ऑंकने और निर्णय लेने की वृत्ति भी विरासत में मिली लगती है। उनका अभी तक का हिचकिचाहट भरा राजनीतिक वर्तन तो कम से कम यही कहता है, कि वे नेहरू की अदूरदर्शिता, इंदिरा की दलीय संकीर्ण सोच व राजीव की अपरिपक्वता का एक अति विशिष्ट संगम है, पर कौन जाने शायद भारत की वर्तमान राजनीति को यही करिश्माई गुण ही चाहिए हों।

* लेखिका उच्च शिक्षित साध्वी है।

युवराज नहीं ‘युवाराज’ के स्वप्‍नदृष्टा हैं राहुल गांधी

-तनवीर जाफ़री

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी यूं तो राजनीति में अपने पदार्पण के समय से ही अपने विरोधियों के निशाने पर हैं। ख़ासतौर से उन विरोधी राजनैतिक दलों के निशाने पर जिनके लिए राहुल गांधी की राजनैतिक सोच व शैली घातक साबित होती प्रतीत हो रही है। पिछले दिनों अपने तीन दिवसीय मध्य प्रदेश दौरे के दौरान राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व सिमी अर्थात् स्टुडेंटस इस्लामिक मूवमेंटस ऑंफ इंडिया जैसी कटटरपंथी विचारधारा रखने संगठनों के लिए कांग्रेस पार्टी के दरवाज़े बंद होने जैसी स्पष्ट बात कह डाली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उनके परिवार के सदस्यों ख़ासतौर पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को राहुल गांधी के मुंह से निकला यह ‘सदवचन’ बहुत नागवार गुज़रा। राहुल गांधी ने तो कट्टरपंथी सोच को लेकर दोनों संगठनों के नाम एक ही वाक्य में लिए थे। परंतु राहुल पर निशाना साधने वालों ने तो बस एक ही राग अलापना शुरू कर दिया कि उन्होंने आर एस एस व सिमी जैसे संगठनों की आपस में तुलना कैसे कर डाली। इस विषय को लेकर राहुल पर आक्रमण करने वालों का कहना है कि सिमी एक आतंकवादी संरक्षण प्राप्त आतंकी संगठन है तथा वह देशद्रोह के मार्ग पर चलता है जबकि आर एस एस को यही लोग देशभक्त, राष्ट्रभक्त और न जाने कौन कौन से विशेषणों से नवाज़ रहे हैं।

इस विवादित विषय पर मैं तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि निश्चित रूप से सिमी एक देशद्रोही संगठन है तथा उसकी विचारधारा कट्टरपंथी विचारधारा है। ऐसे संगठनों पर बेशक प्रतिबंध लगाना चाहिए तथा प्रमाणित रूप से इनसे जुड़े लोगों को देशद्रोह व आतंकवाद फैलाने के आरोप में सख्‍त सजा दी जानी चाहिए। परंतु आर एस एस की राष्ट्रभक्ति व देशभक्ति का ढोल तो केवल वही पीट सकते हैं जो या तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हों या कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा के परस्तार। एक वास्तविक देशभक्त तो दरअसल वही भारतीय नागरिक अथवा संगठन है जो देश के सभी धर्मों व संगठनों के लोगों को समान नज़र से देखता हो तथा सांप्रदायिक्ता व जातिवाद की राजनीति से उसका दूर तक का भी नाता न हो। महात्मा गांधी तथा गांधीवादी विचारधारा ही वास्तविक देशभक्त भारतीय की पहली व आंखिरी पहचान है। आज दुनिया में भारतवर्ष को अनेकता में एकता या सर्वधर्म समभाव जैसी बेशकीमती पहचान के रूप में ही जाना जाता है। यदि ऐसा न होता तो राहुल के वक्तव्य से तिलमिलाए लोग आर एस एस की शान में महात्मा गांधी ही द्वारा पढ़े गए चंद ‘क़सीदों’ का जगह-जगह उल्लेख करते नहीं दिखाई देते।

आर एस एस की राष्ट्रभक्ति के बेशक लाखों उदाहरण पेश क्यों न कर दिए जाएं परंतु महात्मा गांधी की हत्या केपश्चात सरदार वल्लभ भाई पटेल के गृह मंत्री रहते केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा इस पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया तथा अब तक यह तथाकथित’राष्ट्रवादी संगठन’ अब तक देश में तीन बार प्रतिबंधित क्यों हो चुका है इसका इन राष्ट्रवादियों के पास कोई माकूल जवाब नहीं है। दूसरी बात यह कि गुजरात राज्‍य में गोधरा ट्रेन हादसे के बाद हुए दंगों को लेकर पूरे देश की अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी हुई। देश विदेश के मीडिया ने गुजरात में हुए इस अंफसोसनाक घटनाक्रम को यह कहकर संबोधित किया कि ‘गुजरात’ आर एस एस की प्रयोगशाला है। अपने इस संबोधन पर संघ हमेशा चुप्पी साधे रहा। क्या यही संघ की राष्ट्रवादिता है? इसके बाद पिछले कुछ दिनों में जिस प्रकार देश में हुए कई बम विस्‍फोटों व धमाकों में संघ के सदस्यों तथा इसी विचारधारा से जुड़े लोगों के नाम आ रहे हैं इस विषय पर मैं तो कुछ नहीं कहना चाहूंगा परंतु इन राष्ट्रवादियों के चाल, चरित्र और चेहरों को पूरा देश बखूबी देख, सुन व पहचान रहा है। विगत लोकसभा चुनावों के परिणाम ाी इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।

राहुल के बयान को लेकर उठा विवाद दरअसल आर एस एस द्वारा स्वयं को राष्ट्रवादी बताने व भारतीय संस्कृति का ध्वजावाहक होने का ढिंढोरा पीटने को लेकर इतना नहीं था जितना कि राहुल गांधी को राजनीति का अल्पज्ञानी,कम तजुर्बेकार तथा अबोध राजनैतिक नेता बताने का था। वास्तव में राहुल गांधी ने राजनीति करने की जो राह अख्तियार की है वह पंडित जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गाधी, सोनिया गांधी आदि सभी नेताओं से अलग है। राहुल गांधी ने राजनीति शास्त्र का गहन अध्ययन किया है तथा प्रधानमंत्री निवास में पालन-पोषण होने के बावजूद वे देश की नब्‍ज यहां के बुनियादी हालात तथा जरूरतों से बंखूबी वाक़िंफ हैं। वे जानते हैं कि देश की असली तांकत युवाओं व गरीबों में है। और इस वर्ग का उत्थान ही वास्तव में देश का उत्थान है। यही वजह थी कि वे अपने मित्र ब्रिटिश विदेशमंत्री डेविड मिलीबैंड को अपने चुनाव क्षेत्र अमेठी में एक झोंपड़ीनुमा मकान के एक गरीब परिवार में ले गए तथा उस झोंपड़ी में बैठकर उन्होंने मिलीबैंड को यह बताया किहमारी वास्तविक शक्ति ही यही वर्ग है। राहुल जब कभी किसी दलित या गरीब के घर रात बितातें हैं या अपने सिर पर मिट्टी की टोकरी उठाकर मादूरों के साथ मजदूरी करने जैसा प्रदर्शन करते हैं तो ऐशपरस्ती के आदी हो चुके राजनेताओं को अपनी कुर्सी हिलती दिखाई देने लगती है।

राजनीति व सरकारी तंत्रों में भ्रष्टाचार को लेकर राहुल का रुख़ अपने पिता राजीव गांधी से भी अधिक स्पष्ट व सख्‍त है। राजनीति में अपराधीकरण को लेकर भी राहुल बहुत अधिक चिंतित हैं। यह सभी चिंताएं केवल राहुल गांधी की ही नहीं बल्कि पूरे देश के हर उस व्यक्ति की हैं जो अपनी निष्पक्ष सोच रखता है तथा देश के विकास के बारे में चिंतित रहता है। यह चिंताएं प्रत्येक राष्ट्रवादी, राष्ट्रभक्त व देशभक्त व्यक्ति की हैं व होनी चाहिएं। दरअसल राजनीति का पारंपरिक स्वरूप अत्यंत विवादित, संदेहपूर्ण तथा लगभग बदनाम सा हो चुका है। आजकल राजनीति तो धन कमाने तथा सरकारी सुविधाओं पर ऐशपरस्ती करने व अपने परिवार केसदस्यों व रिश्ते-नातेदारों के घर भरने का माध्यम बन चुका है। राहुल गांधी इस सडांध भरी बदबूदार राजनैतिक शैली से भारतीय राजनीति को उबारना चाह रहे हैं। भले ही उन्हें मीडिया युवराज की संज्ञा क्यों न दे रहा हो। भले ही मीडिया बार-बार ऐसे कयास क्यों न लगा रहा हो कि कब मनमोहन सिंह राहुल केलिए सजा-सजाया सिंहासन हमवार करेंगे। परंतु हकीकत तो यही है कि राहुल गांधी जिस प्रकार देश में घूम-घूम कर छात्रों से सीधा संवाद स्थापित कर रहे हैं तथा छात्रों को राजनीति में आने का न्यौता दे रहे हैं उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राहुल गांधी युवराज नहीं हैं बल्कि ‘युवाराज’ के स्वप्दृष्टा हैं।

राहुल गांधी की सादगी, युवाओं के प्रति उनका प्रेम व आकर्षण, उनकी राजनैतिक गंभीरता तथा राजनैतिक चिंतन, देश के युवाओं के समक्ष जबरदस्त आदर्श प्रस्तुत कर रहा है। उनकी कर्मठता, जुझारुपन, उनके धैर्य, संयम तथा त्याग ने देश के नौजवानों को उनकी ओर आकर्षित होने के लिए मजबूर कर दिया है। याद कीजिए संघ के पोस्टर लीडर नरेंद्र मोदी का वह बयान जबकि उन्होंने राहुल गांधी के विषय में यह फरमाया था कि इसे तो कोई भी व्यक्ति अपना ड्राईवर तक रखना पसंद नहीं करेगा। यह थी एक तथाकथित राष्ट्रवादी तथा भारतीय संस्कृति का स्वयं को पहरेदार बताने वाले नेता की शैली। और अब जरा तुलना भी कीजिए जनता द्वारा इनकी स्वीकार्यता व अस्वीकार्यता की। गत् लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ने 106 चुनाव क्षेत्रों में प्रचार किया जिनमें 68 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। इन 68 सीटों में 43 सीटें ऐसी थी जो यूपीए ने अन्य दलों से छीनी थीं। यानि राहुल गांधी के प्रचार अभियान की सफलता 63 प्रतिशत आंकी गई। उधर ‘राष्ट्रवादी रहनुमा’ नरेंद्र मोदी ने भी 122 सीटों पर अपना उड़न खटोला घुमाया। इनमें से 22 सीटें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के हाथों से निकल गई। कुल मिलाकर राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी की तुलना में 18 प्रतिशत अधिक बढ़त मिली। यह चुनाव परिणाम तो यही बता रहे थे कि देश की जनता विशेषकर युवा शक्ति किसी गाड़ी की तो क्या बल्कि देश तक की चाबी राहुल गांधी को सौंपने का मन बना चुकी नार आ रही है।

यहां एक बात और गौरतलब है कि गुजरात की भाजपा सरकार के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी के तो राहुल गांधी के विषय में क्या विचार हैं इसका तो उल्लेख हो चुका। परंतु मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गत् दिनों राहुल गांधी के मध्य प्रदेश के दौरे के दौरान उन्हें राज्‍य अतिथि का दर्जा दिया। अब इन दोनों भाजपा मुख्‍यमंत्रियों के राहुल के प्रति अपनाए गए रवैये में ही कितना विरोधाभास नार आता है। दो ही बातें हो सकती हैं या तो नरेंद्र मोदी राहुल के प्रति कुंठा से ग्रस्त हैं क्योंकि उन्हें राहुल एक बहुत बड़ा खतरा नार आ रहे हैं। तथा चौहान ने इसलिए राहुल को राज्‍य अतिथि का स मान दिया क्योंकि वे राहुल के बढ़ते प्रभाव को देखते व समझते हुए राज्‍य की युवा शक्ति की आलोचना का शिकार नहीं बनना चाहते थे। राहुल के द्वारा आर एस एस व सिमी का नाम एक साथ लिए जाने पर संघ प्रवक्ता द्वारा राहुल को जो सुझाव दिया गया उसमें यह भी कहा गया कि वे इटली व कोलंबिया की सहायता के अतिरिक्त भारतीय सभ्‍यता का भी अध्ययन करें। संघ के इस वाक्य में भी कितनी अधिक कुंठा, नफरत व ईर्ष्‍या झलक रही है यह भी साफ जाहिर हो रहा है।

देश में युवराज लाने की कल्‍पना करनेवाले राहुल गांधी ने इन दिनों राजनीति के पारं‍परिक स्‍वरूप पर अनेक धारदार प्रहार किए हैं। इनमें जहां उन्‍होंने सत्ता को लूट-खसो, अय्याशी, धन संग्रह तथा रिश्‍वत व भ्रष्‍टाचार का माध्‍यम न बनाने का प्रण किया है वहीं युवाओं को वे यह सलाह भी दे रहे हैं कि वे चमचागिरी या ख़ुशामद परस्‍ती कर आगे आने के बजाए स्‍वयं में ऐसी नेतृत्‍व क्षमता पैदा करे कि वे स्‍वयं आगे आ सकें। संगठन में चुनाव कराकर वे समर्पित व सक्रिय लोगों का आने का अवसर दे रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि राहुल गांधी के बढ़ते देश में युवाराज स्‍थापित करने की दिशा में अपनी महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाएंगे तथा हमारा देश नई सोच, नए जोश व नए हौसलों के साथ दुनिया के विकसित देशों की शृंखला में जा खड़ा होगा।

विजया सिंह की कविता- स्त्रीत्व का सुखद नैसर्गिक सौंदर्य

पहली बार जाना,

‘कितना खतरनाक होता है

दो स्तनों के साथ इस दुनिया में कदम रखना.’

पहली बार समझा,

महज़ अंग नहीं सजीव चेतन हैं हमारे…

और पहली बार ही,

दर्द की कँटीली रेखाएँ खड़ी हो गई हैं

शरीर के एकाधिक पोरों में.

‘मैं ठीक हूँ’ का अपाहिज झूठ आश्वस्त नहीं

करता, न मुझे, न माँ-बाबूजी को.

ठंडे, दगहे शरीर (आत्मा) में सौंदर्य

नहीं, आकंठ भयाकुलता है

किसी के कामुक-स्नेहिल छुअन में

अकेले हो जाने की सिहरन.

भीतर-भीतर ठस्स होते जाते, कठोर

आगत को नकार कर एकबारगी

मैंने कहा, ‘ ठीक हूँ’.

पीले पड़े, बेजान जिस्म, झड़ते केश,

आस्वादहीनता, दवाओं की अंतहीन फेहरिश्त,

बार-बार की लंबी नीम बेहोशी,

निहायत निर्मम हो गयी है.

उकताने लगी हूँ.

अकेले माँ-बाबू , अकेली मैं

बढ़ते जाते अकेलेपन में साथ-साथ हैं

यों कि साथ-साथ अकेले हो गए हैं.

मन की ऊरठ, रूखी हथेलियों ने

छीजती देह को थाम लिया है.

मेरी उन्मुक्त हँसी झूठी नहीं

मेरे-तुम्हारे स्पर्श के बीच अंकुरित

उष्मा भी सच है, अखंड है.

तुम और मैं हमेशा से

अखंड सत्य, अखंड सुंदर.

निरन्तर क्षीण होती मैं

तुममें अक्षुण्ण हूँ.

जोड़ने लगी हूँ अपनाआप

अधूरेपन की सहजता अस्वीकार कर पूर्ण होना चाहती हूँ

सतरंगे इंद्रधनुष को ऑंचल में बाँध

लाँघ जाना चाहती हूँ सारा आकाश

जबकि टूट रहा है देह का तिलिस्म, बेआवाज़,

वाकई मैं जीना चाहती हूँ…

लूसिले क्लिफ्टन-अमेरिकी अफ्रीकी कवयित्री (1936-2010). स्त्री जीवन,

शरीर, मन, चेतना से संबंधित अनेक कविताएँ इन्होंने लिखी हैं.

लूसिले क्लिफ्टन की कविता ‘1994’ की पंक्तियाँ. इसी वर्ष उन्हें स्तन कैंसर

होने की सूचना मिली थी।

-विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता।

कविता- औरत

औरत तिल-तिल कर

मरती रही, जलती रही

अपने अस्तित्व को

हर पल खोती रही

दुख के साथ

दुख के बीच

जीवन के कारोबार में

नि:शब्द अपने पगचापों का मिटना देखती रही

सृजन के साथ

जनम गया शोक

रुदाली का जारी है विलाप

सूख गया कंठ

फिर भी वह आंखों से बोलती रही

जीवन के हर कालखंड में

कभी खूंटी पर टंगी

तो कभी मूक मूर्ति बनी

अनंतकाल से उदास है जीवन

पर

वह हमेशा नदी की तरह बहती रही


-सतीश सिंह