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शिक्षा की नई इब़ारत:शिक्षा का अधिकार कानून

आज से भारतीय शिक्षा के इतिहास में एक नई इब़ारत लिखी जाएगी जिसे कई वर्षों पहले ही हो जाना चाहिए था, बधाई हो आपको, देर सबेर ही सही शिक्षा का अधिकार कानून आज से लागू हो गया। देश के मानव संसाधन मंत्री की माने तो ये कानून देश के हर बच्चों को अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में यह मील का पत्थर साबित होगा, भारत सरकार द्वारा सबको शिक्षा मिले इसके लिए कई तरह की योजनाएं पहले ही चल रही है सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, आपरेशन ब्लैकबोर्ड आदि योजनाओं से शायद ही कोई अपरिचीत हो पर हमें इन योजनाओं पर भी एक सरसरी तौर पर एक नज़र ज़रुर डाल लेनी चाहिए पिछली योजनाओं का पोस्टमार्टम किए बिना और उसके अनुभवों से सिखे बिना इस कानून को पटरी पर लाना आसान न होगा।

कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवो में निवास करती है गांव शब्द सुनतें ही हमारीं आखों में एक ऐसी छबि उभरती है जहां मुलभुत सुविधाओं का हमेशा आभाव रहता है ख़ासकर चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में, भारत सरकार द्वारा इस मुलभुत सुविधाओं के लिए पिछले सालों में लाखों करोड़ो रुपये खर्च किए गए पर समस्या जस की तस ही बनी हुई है उचित चिकित्सा के आभाव में न जाने कितनी ही जाने रोज़ जाती है एड्स से मरने वालों की अपेक्षा आज भी ज्यादा जाने मलेरिया, डायरिया, उचित प्रसव का आभाव आदि से जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में तो स्थिति और भयावह है गांवो में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति से आप और हम पुरी तरह से परिचित है हर 30 बच्चों पर एक शिक्षक की सरकार की योजना शायद ही कहीं नज़र आती है, कई जगह तो पुरा का पुरा स्कुल एक शिक्षक के भरोसे ही चल रहा है ऐसे में शिक्षा के स्तर में सुधार की बात करना बेमानी ही होगा। शिक्षा की गुणवत्ता पर भी समय समय में सवाल उठते ही रहते है, जो शिक्षा या जिस प्रकार की शिक्षा आज जो हम सरकारी स्कुलों मे दे रहे है क्या वाकई वह ग्रामीण ईलाको के बच्चों को फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले गुणवत्तापूर्ण प्राईवेट स्कुलों के बच्चों से मुकाबला करने के लिए तैयार कर पाऐंगें ऐसे समय में सरकारी स्कुलों के बच्चों में आने वाली हीन भावना का ज़िम्मेंदार आख़िर कौन होगा? शिक्षा की असमानता भी आज मुख्य समस्या बनी हुई है प्राईवेट स्कुलों और सरकारी स्कुलों में शिक्षा के स्तर में ज़मीन आसमां का अंतर है यही कारण है कि आज भी अभिभावक सरकारी स्कुलों के अपेक्षा प्राईवेट स्कुलों को ज्यादा तरजीह देते है।

आज हमारे देश मे लगभग 22 करोड़ बच्चे स्कुली शिक्षा प्राप्त कर रहे है यह इतनी विशाल संख्या है कि इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह अमेरिका की आबादी लगभग 28 करोड़ के एक तिहाई के बराबर ही है इतनी बड़ी संख्या तक उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुंचाना सरकार के लिए वाकई आसान नहीं है कुछ केंद्रिय विद्यालय इस कार्य में ईमानदारी पूर्वक अवश्य लगें हुए है पर इन विद्यालयों तक सिर्फ 10 लाख बच्चों की ही पहुंच है ऐसे मे सरकार के सामने सिर्फ एक ही विकल्प बचता है कि ग्रामीण और शहरी दोनो क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बढ़ाई जाएं, पुर्णरुप से प्रशिक्षित शिक्षकों की ही भर्ती की जाएं और समय समय पर शिक्षकों की उचित प्रशिक्षण भी सुनिश्चित किया जाएं।

केन्द्र सरकार इस कानून को पूर्णरुप से फलीभूत अपने बल बुते पर कभी नहीं कर सकती जब तक उन्हें राज्य सरकार, लोकल कम्युनिटीस् और पंचायतों का पुरा सहयोग न मिलें,राज्य सरकारों का ही ये फर्ज बनता है कि जिन जगहों पर स्कुल नहीं है वहां जल्द से जल्द स्कुल खोले, उसमें पर्याप्त शिक्षकों की भर्ती करें और गुणवत्तापूर्ण शिक्षण व्यवस्था भी सुनिश्चित करें, वैसे पिछले कुछ सालों में प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की संख्या में लगातार बढ़ते ग्राफ कुछ सुकुन देने वाला तो अवश्य है पर सरकारी स्कुलों के स्तर में आ रही लगातार गिरावट को रोके बिना सिर्फ स्कूल तक बच्चों को पहुचांने से काम नहीं बनने वाला वहीं सरकार द्वारा कानून बना देने से हमें ये सोचकर निश्चिंत नहीं बैठना चाहिए कि अब ये सब सरकार का ही काम है, हमें भी देश का जागरुक नागरिक होने के नाते बच्चों को उनके मौलिक अधिकार दिलाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करने चाहिए,ताकि कल के देश के भविष्य इन बच्चों के सामने हमें शर्मिंदा न होना पड़े।

-नवीन देवांगन

विश्व मंच पर पहचान बना रही हैं भारतीय ललित कलाएं

देर से ही सही भारतीय ललित कलाएं विश्व की कला दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब चित्रकला की दुनिया में भी भारत की पहल को स्वागतभाव से देखा जा रहा है। सतत जिद और जिजीविषा के चलते भारतीय कलाकारों की यह सफलता हमारे गर्व करने का विषय है। आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास, कलकत्ता, मुंबई और लाहौर में कला विद्यालय खोले गए। तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से। वे सही अर्थों में भारतीय चित्रकला के जन्मदाता कहे जा सकते हैं। केरल के किली मन्नूर नामक एक गांव में 29 अप्रैल, 1848 को जन्में राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘कैलेंडर आर्टिस्ट’ कहकर आलोचना की हो परंतु पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए। हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19 वीं सदी के आखिरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया, जिसे, ‘बंगाल स्कूल’ के नाम से भी संबोधित किया गया। बाद में रवीद्रनाथ टैगोर, अमृता शेरगिल से होती हुई यह पंरपरा मकबूल फिदा हुसैन, सैयद हैदर रजा, नारायण श्रीधर वेन्द्रे, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, के.जी. सुब्रह्मण्यम, गुलाम मोहम्मद शेख, के. सी. ए. पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुँची। जाहिर है, इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ नए मानक गढ़े, वरन् वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया। विदेशों में जहां पहले भारतीय पारंपरिक कला की मांग थी और उनका ही बाजार था। अब गणित उलट रहा है। विदेशी कलाबाजार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में कायम रहने की चुनौती है, वरन अपने लिए बाजार की तलाश भी करनी है। बाजार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं। न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाजार और सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े कर्म हैं। इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही, या बाजार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही? वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता। बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है। सो प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं। अंग्रेजी अखबार जो प्रायः इस प्रकार के कलागत रूझानों की बात तो करते हैं, किंतु उनमें भी कला की समीक्षा, उसके, रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों, प्रेमिकाओं, कपड़ों की समीक्षा ज्यादा रहती है। मकबूल फिदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएं प्रायः बाजार को गरमाए रहती हैं। ‘माधुरी प्रसंग’ को इस नजरिए से देखा जा सकता है। आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों- प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित कराना कलाकार की विवशता बनता जा रहा है।

कुछ साल पहले कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा। इससे वे क्या साबित करना चाहती हैं, वे ही जाने पर ‘प्रचार की भूख’ इससे साफ झांकती है।कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं, जैसे कोई पार्टी हो। इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टंगी कलाकृतियों की ओर रहती है। इस उत्सव धर्मिता ने नए रूप रचे हैं। पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है। कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मांग के पीछे अनिवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है, जो दर्शक ही नहीं कला का खरीददार भी है। लेकिन सैयद हैदर रजा जैसे कलाकार इस मांग के दूसरे कारण भी बताते हैं। वे मानते हैं कि पश्चिम की ज्यादातक कला इस समय कथ्यविहीन हो गयी है। उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है। प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में- ‘स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है। पश्चिम की नजर फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सर्जनात्मकता का एक केंद्र है।’ सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है। सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है। ज्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीजों को नए नजरिए से देखने का रुझान बढ़ा है। कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है। इतिहास, परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएं कैनवास पर जगह पा रही हैं। बाजारवाद के ताजा दौर ने दुनिया की खिड़किंयां खोली हैं। इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी।

– संजय द्विवेदी

सैलीबरेटी अमिताभ से आतंकित क्यों है कांग्रेस

अमिताभ बच्चन ने जब से गुजरात के विकासदूत का जिम्मा लिया है तब से कांग्रेस बौखलाई घूम रही है। कल कांग्रेस के प्रवक्ता ने अमिताभ से जबाव मांगा कि वह गोधरा-गुजरात के 2002 के दंगों के बारे में अपनी राय व्यक्त करें? पहली बात यह है कि अमिताभ से जबाव मांगने का कांग्रेस को कोई हक नहीं है। किसी भी नागरिक को यह हक है कि वह किसी मसले पर बोले या न बोले। जिस बेवकूफी के साथ कांग्रेस प्रवक्ता ने अमिताभ से जबाव मांगा है, उस सिलसिले को यदि बरकरार रखा जाए तो क्या किसी उद्योगपति से कांग्रेस यह सवाल कर सकती है? क्या टाटा से नैनो का कारखाना गुजरात में लगाते वक्त यह सवाल कांग्रेस ने पूछा कि आप गुजरात क्यों जा रहे हैं? वहां तो 2002 में दंगे हुए थे, क्या कांग्रेस ने उन उद्योगपतियों से सवाल किया था जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री को कुछ अर्सा पहले प्रधानमंत्री के पद हेतु ‘योग्य’ नेता घोषित किया था, मूल बात यह है कि कांग्रेस जो सवाल अमिताभ से कर रही है वही सवाल देशी-विदेशी उद्योगपतियों से क्यों नहीं करती? आखिरकार वे कौन सी मजबूरियां हैं जो कांग्रेस को देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों से गोधरा-गुजरात के दंगों पर सवाल करने से रोकती हैं? कांग्रेस ने आज तक उन कारपोरेट घरानों से पैसा क्यों लिया जिन्होंने गुजरात दंगों के बाद मोदी और भाजपा को चंदा दिया था। खासकर उन घरानों से पैसा क्यों लिया जिन्होंने मोदी को योग्यतम प्रधानमंत्री कहा था।

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस कब से दूध की धुली हो गई? कौन नहीं जानता कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी के महानायकत्व के निर्माण में अमिताभ बच्चन के सिनेमा की बड़ी भूमिका रही है।

संघ के सारे कारनामों को जानने के बावजूद कांग्रेस का संघ के प्रति साफ्टकार्नर रहा है। यह भी एक खुला सच है कि कांग्रेस ने राजीव गाँधी के जमाने में अमिताभ से खुली राजनीतिक मदद ली थी उन्हें इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़वाया गया और उस समय अमिताभ से यह नहीं पूछा था कि सिख-जनसंहार पर क्या राय है? भारत-विभाजन पर क्या राय है ? कांग्रेस के द्वारा भारत-चीन युद्ध के समय संघ से मदद लेने और बाद में संघ की एक कार्यकर्त्ता टोली को गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल करने पर क्या राय है? यह फेहरिस्त काफी लंबी है।

मूल समस्या यह नहीं है कि अमिताभ बताएं कि 2002 के दंगों पर उनकी राय क्या है ? समस्या यह है कि अमिताभ बच्चन जैसे सैलीबरेटी के एक्शन को कैसे देखें?

अमिताभ साधारण नागरिक नहीं हैं और नहीं राजनेता हैं,बल्कि सैलीबरेटी हैं। सैलीबरेटी की एकायामी भूमिका नहीं होती,सैलीबरेटी के एक्शन, बयान आदि का एक ही अर्थ नहीं होता। सैलीबरेटी अनेकार्थी होता है, एक का नहीं अनेक का होता है। उसमें स्थायी इमेज और कोहरेंट अर्थ खोजना बेवकूफी है।

सैलीबरेटी हमेशा अर्थान्तर में रहता है। यही वजह है गप्पबाजी, चटपटी खबरें, खबरें, अनुमान, स्कैण्डल आदि में वह आसानी से रमता रहता है। आज के जमाने में किसी भी चीज का एक ही अर्थ नहीं होता फलतः अमिताभ बच्चन के गुजरात के विकासदूत बनने का भी एक ही अर्थ या वही अर्थ नहीं हो सकता जैसा कांग्रेस सोच रही है।

अमिताभ का गुजरात का विकासदूत बनना कोई महान घटना नहीं है यह उनकी व्यापार बुद्धि, खासकर फिल्म मार्केटिंग की रणनीति का हिस्सा है। साथ ही उनके देशप्रेम का भी संकेत है।

अमिताभ ने सभी दलों की मदद की है, यह काम उन्होंने नागरिक और सैलीबरेटी के नाते किया है। इससे अमिताभ की इमेज कम चमकी है अन्य लोगों और दलों की इमेज ज्यादा चमकी है, बदले में अमिताभ को तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा है।

आज भाजपा ने अमिताभ का लाभ उठाने की कोशिश की है यही भाजपा वी.पी.सिंह के साथ मिलकर अमिताभ-अजिताभ को बोफोर्स का एजेण्ट कहकर अपमानित कर रही थी, कांग्रेस के साथ उस समय अमिताभ को अपमान के अलावा क्या मिला था? यूपी के पिछले विधानसभा चुनाव में अमिताभ ने अप्रत्यक्ष ढ़ंग से समाजवादी पार्टी के लिए काम किया था हम जानते हैं कि बाद में मायावती और कांग्रेस ने उन्हें किस तरह परेशान किया।

आज कांग्रेस के लोग अमिताभ पर हमले कर रहे हैं तो वे संभवतः यह सोच रहे हैं कि शायद मोदी की इमेज या साख को सुधारने में अमिताभ से मदद मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता,अमिताभ कोई पारस नहीं हैं कि उनका स्पर्श करते ही लोहे के मोदी सोने के हो जाएं। सवाल यह है कि कांग्रेस सैलीबरेटी संस्कृति से इतना आतंकित क्यों है ?

उल्लेखनीय है फिल्मी या सैलीबरेटी नायक की इमेज बहुआयामी और बहुअर्थी होती है। इंटरनेट,ब्लॉग और ट्विटर के युग में हीरो अपनी इमेज को नियंत्रित रखने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन साइबर फिसलन में पांव टिका पाना संभव नहीं होता। फलतः सैलीबरेटी अपना विलोम स्वयं रचने लगता है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह

बुल्ले शाह पंजाबी के प्रसिद्ध सूफ़ी कवि हैं। उनके जन्म स्थान और समय को लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं, लेकिन ज़्यादातर विद्वानों ने उनका जीवनकाल 1680 ईस्वी से 1758 ईस्वी तक माना है। तारीख़े-नफ़े उल्साल्कीन के मुताबिक़ बुल्ले शाह का जन्म सिंध (पाकिस्तान) के उछ गीलानीयां गांव में सखि शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ था। उनका नाम अब्दुल्ला शाह रखा गया था। मगर सूफ़ी कवि के रूप में विख्यात होने के बाद वे बुल्ले शाह कहलाए। वे जब छह साल के थे तब उनके पिता पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उछ गीलानीयां छोडक़र साहीवाल में मलकवाल नामक बस्ती में रहने लगे। इस दौरान चौधरी पांडो भट्टी किसी काम से तलवंडी आए थे। उन्होंने अपने एक मित्र से ज़िक्र किया कि लाहौर से 20 मील दूर बारी दोआब नदी के तट पर बसे गांव पंडोक में मस्जिद के लिए किसी अच्छे मौलवी की ज़रूरत है। इस पर उनके मित्र ने सखि शाह मुहम्मद दरवेश से बात करने की सलाह दी। अगले दिन तलवंडी के कुछ बुज़ुर्ग चौधरी पांडो भट्टी के साथ दरवेश साहब के पास गए और उनसे मस्जिद की व्यवस्था संभालने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

इस तरह बुल्ले शाह पंडोक आ गए। यहां उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। वे अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे, मगर उन्होंने जनमानस की भाषा पंजाबी को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। प्रसिध्द ‘क़िस्सा हीर-रांझा’ के रचयिता सैयद वारिस शाह उनके सहपाठी थे। बुल्ले शाह ने अपना सारा जीवन इबादत और लोक कल्याण में व्यतीत किया। उनकी एक बहन भी थीं, जिन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर ख़ुदा की इबादत की।

बुल्ले शाह लाहौर के संत शाह इनायत क़ादिरी शत्तारी के शिष्य थे। बुल्ले शाह ने अन्य सूफ़ियों की तरह ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों को स्वीकार किया। उनकी रचनाओं में भारत के विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। उनकी एक रचना में नाथ संप्रदाय की झलक मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा है :

तैं कारन हब्सी होए हां,

नौ दरवाजे बंद कर सोए हां।

दर दसवें आन खलोए हां,

कदे मन मेरी असनाई॥

यानी, तुम्हारे कारण मैं योगी बन गया हूं। मैं नौ द्वार बंद करके सो गया हूं और अब दसवें द्वार पर खड़ा हूं। मेरा प्रेम स्वीकार कर मुझ पर कृपा करो।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति बुल्ले शाह के मन में अपार श्रद्धा और प्रेम था। वे कहते हैं :

मुरली बाज उठी अघातां,

मैंनु भुल गईयां सभ बातां।

लग गए अन्हद बाण नियारे,

चुक गए दुनीयादे कूड पसारे,

असी मुख देखण दे वणजारे,

दूयां भुल गईयां सभ बातां।

असां हुण चंचल मिर्ग फहाया,

ओसे मैंनूं बन्ह बहाया,

हर्ष दुगाना उसे पढ़ाया,

रह गईयां दो चार रुकावटां।

बुल्ले शाह मैं ते बिरलाई,

जद दी मुरली कान्ह बजाई,

बौरी होई ते तैं वल धाई,

कहो जी कित वल दस्त बरांता।

बुल्ले शाह हिन्दू-मुसलमान और ईश्वर-अल्लाह में कोई भेद नहीं मानते थे। इसलिए वे कहते हैं :

की करदा हुण की करदा

तुसी कहो खां दिलबर की करदा।

इकसे घर विच वसदियां रसदियां नहीं बणदा हुण पर्दा

विच मसीत नमाज़ गुज़ारे बुतख़ाने जा सजदा

आप इक्को कई लख घरां दे मालक है घर-घर दा

जित वल वेखां तित वल तूं ही हर इक दा संग कर दा

मूसा ते फिरौन बणा के दो हो कियों कर लडदा

हाज़र नाज़र ख़ुद नवीस है दोज़ख किस नूं खडदा

नाज़क बात है कियों कहंदा ना कह सकदा ना जर्दा

वाह-वाह वतन कहींदा एहो इक दबींदा इस सडदा

वाहदत दा दरीयायो सचव, उथे दिस्से सभ को तरदा

इत वल आये उत वल आये, आपे साहिब आपे बरदा

बुल्ले शाह दा इश्क़ बघेला, रत पींदा गोशत चरदा।

बुल्ले शाह मज़हब के सख्त नियमों को ग़ैर ज़रूरी मानते थे। उनका मानना था कि इस तरह के नियम व्यक्ति को सांसारिक बनाने का काम करते हैं। वे तो ईश्वर को पाना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने प्रेम के मार्ग को अपनाया, क्योंकि प्रेम किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करता। वे कहते हैं :

करम शरा दे धरम बतावन

संगल पावन पैरी।

जात मज़हब एह इश्क़ ना पुछदा

इश्क़ शरा दा वैरी॥

बुल्लेशाह का मानना था कि ईश्वर धार्मिक आडंबरों से नहीं मिलता, बल्कि उसे पाने का सबसे सरल और सहज मार्ग प्रेम है। वे कहते हैं :

इश्क़ दी नवियों नवी बहार

फूक मुसल्ला भन सिट लोटा

न फड तस्बी कासा सोटा

आलिम कहन्दा दे दो होका

तर्क हलालों खह मुर्दार।

उमर गवाई विच मसीती

अंदर भरिया नाल पलीती

कदे वाहज़ नमाज़ न कीती

हुण कीयों करना ऐं धाडो धाड।

जद मैं सबक इश्क़ दा पढिया

मस्जिद कोलों जियोडा डरिया

भज-भज ठाकर द्वारे वडिया

घर विच पाया माहरम यार।

जां मैं रमज इश्क़ दा पाई

मैं ना तूती मार गवाई

अंदर-बाहर हुई संफाई

जित वल वेखां यारो यार।

हीर-रांझा दे हो गए मेले

भुल्लि हीर ढूंडेंदी बेले

रांझा यार बगल विच खेले

मैंनूं सुध-बुध रही ना सार।

वेद-क़ुरान पढ़-पढ़ थक्के

सिज्दे कर दियां घर गए मथ्थे

ना रब्ब तीरथ, ना रब्ब मक्के

जिन पाया तिन नूर अंवार।

इश्क़ भुलाया सिज्दे तेरा

हुण कियों आईवें ऐवैं पावैं झेडा

बुल्ला हो रहे चुप चुपेरा

चुक्की सगली कूक पुकार।

बुल्लेशाह अपने मज़हब का पालन करते हुए भी साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से परे थे। वे कहते हैं :

मैं बेक़ैद, मैं बेक़ैद

ना रोगी, न वैद।

ना मैं मोमन, ना मैं काफ़र

ना सैयद, ना सैद।

बुल्लेशाह का कहना था कि ईश्वर मंदिर और मस्जिद जैसे धार्मिक स्थलों का मोहताज नहीं है। वह तो कण-कण में बसा हुआ है। वे कहते हैं :

तुसी सभनी भेखी थीदे हो

हर जा तुसी दिसीदे हो

पाया है किछ पाया है

मेरे सतगुर अलख लखाया है

कहूं बैर पडा कहूं बेली है

कहूं मजनु है कहूं लेली है

कहूं आप गुरु कहूं चेली है

आप आप का पंथ बताया है

कहूं महजत का वर्तारा है

कहूं बणिया ठाकुर द्वारा है

कहूं बैरागी जटधारा है

कहूं शेख़न बन-बन आया है

कहूं तुर्क किताबां पढते हो

कहूं भगत हिन्दू जप करते हो

कहूं घोर घूंघट में पडते हो

हर घर-घर लाड लडाया है।

बुल्लिआ मैं थी बेमोहताज होया

महाराज मिलिया मेरा काज होया

दरसन पीया का मुझै इलाज होया

आप आप मैं आप समाया है।

कृष्ण और राम का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं :

ब्रिन्दाबन में गऊआं चराएं

लंका चढ़ के नाद बजाएं

मक्के दा हाजी बण आएं

वाहवा रंग वताई दा

हुण किसतों आप छपाई दा।

उनका अद्वैत मत ब्रह्म सर्वव्यापी है। वे कहते हैं :

हुण किस थी आप छपाई दा

किते मुल्ला हो बुलेन्दे हो

किते सुन्नत फ़र्ज़ दसेन्दे हो

किते राम दुहाई देन्दे हो

किते मथ्थे तिलक लगाई दा

बेली अल्लाह वाली मालिक हो

तुसी आपे अपने सालिक हो

आपे ख़ल्कत आपे ख़ालिक हो

आपे अमर मारूफ़ कराई दा

किधरे चोर हो किधरे क़ाज़ी हो

किते मिम्बर ते बेह वाजी हो

किते तेग बहादुर गाजी हो

आपे अपना कतक चढाई दा

बुल्ले शाह हुण सही सिंझाते हो

हर सूरत नाल पछाते हो

हुण मैथों भूल ना जाई दा

हुण किस तों आप छपाई दा।

बुल्ले शाह का मानना था कि जिसे गुरु की शरण मिल जाए, उसकी ज़िन्दगी को सच्चाई की एक राह मिल जाती है। वे कहते हैं:

बुल्ले शाह दी सुनो हकैत

हादी पकड़िया होग हदैत

मेरा मुर्शिद शाह इनायत

उह लंघाए पार

इनायत सभ हूया तन है

फिर बुल्ला नाम धराइया है

भले ही बुल्ले शाह की धरती अब पाकिस्तान हो, लेकिन भारत में भी उन्हें उतना ही माना जाता है, जितना पाकिस्तान में। अगर यह कहा जाए कि बुल्ले शाह भारत और पाकिस्तान के महान सूफ़ी शायर होने के साथ इन दोनों मुल्कों की सांझी विरासत के भी प्रतीक हैं तो ग़लत न होगा। आज भी पाकिस्तान में बुल्ले शाह के बारे में कहा जाता है कि ‘मेरा शाह-तेरा शाह, बुल्ले शाह’।

-फ़िरदौस ख़ान

‘मैं भी भविष्यवक्ता!’- हरिकृष्ण निगम

मेरे एक प्रबुद्ध और प्रतिष्ठित मित्र भी अब दावा करने लगे हैं कि वे भी एक भविष्यवक्ता हैं। आज जब टी.वी. के अनेक चैनलों और चाहें मुद्रित मीडिया का कोई भी साप्ताहिक दैनिक अथवा किसी भी समयावधि में छपने वाली पत्र-पत्रिका हो, सभी भविष्य के कोहरे को पीछे झोंकने का दावा करते हैं तब इसे समाचार परोसने की एक विशिष्ट कला भी कहा जा सकता है। अंकशास्त्र या संख्या-सगुनौति कहें, प्रभावशाली, प्रतिष्ठित और चर्चित राजनेता या सार्वजनिक छवि वाले भी इस भविष्यवाणी-उद्योग के पनपते नए अध्याय में विशिष्ट भूमिका निभाने में कोई संकोच नहीं करते हैं। आने वाले समय की पर्तों में क्या छिपा है वस्तुतः कोई नहीं जानता है। पिछली पीढ़ी के वरिष्ठ पत्रकारों को कम-से-कम याद होगा कि सत्तर के दशक के प्रारंभ में इस देश की शायद हीं कोई पत्र-पत्रिका बची होगी जिसने उन भविष्यवक्ता को प्राथमिकता न दी होगी जो संजय गांधी के देश की शायद ही कोई पत्र-पत्रिका बची होगी जिसने उन भविष्यवक्ताओं को प्राथमिकता न दी होगी जो संजय गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री होने के लिए समुनुकूल ग्रह-नक्षत्रों, वर्ष और माह का ब्योरा देकर अपने भविष्यपन से इस देश क ो आश्वस्त कर रहे थे। अभी पिछले महीने से लेकर अब तक एक वार्षिक प्रथा के रूप में देश के प्रभावशाली व्यक्तियों का सन् 2010 में कैसा भविष्य होगा और उनके अपने भविष्य से देश की दिशा व दशा कैसे प्रभावित होगी इस पर हम अनेक छोटे-बड़े ज्योतिषाचार्यों को निरंतर सुनते आ रहे हैं। चाहे बेजान दारूवाला हो, वैद्यनाथ शास्त्री हों या अल्पज्ञात धर्म-प्रवण नामों की संज्ञायें हों जैसे पंडित कृष्ण मुरारी मिश्र अथवा शंकरा चरण, चन्द्रमौलि या सीताराम हों, सभी अलग-अलग प्रकृति के और कभी-कभी भयभीत करनेवाली, का भी आश्वस्त करने वाली या कभी उनके स्वर्णिम भविष्य की घोषणा करने में लगे हैं। उगते सूरज को वे सभी जैसे एक दौड़ भर कर नमस्कार करने में लगे हैं। कोई सोनिया गांधी की लौह महिला के रूप में, कोई त्यागमयी छवि की चर्चा कर रहा है तो कोई राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने में कितना समय लगेगा इसका भी अनुमान लगा रहा है। यदि राशियों के आधार पर भी राजनेताओं का चाहे वे सत्तारूढ़ या विपक्ष से जुड़े हों, लोगों का भविष्य निर्मित होता तो फिर कैसे सभी एकमत नहीं हैं। वस्तुतः भविष्यवाणियाँ जहाँ तक एक ओर मन को बहलाने वाली या ज्योतिषियों द्वारा राजनीति-प्रेरित लोगों द्वारा कहलाई जाती हैं, वहीं उनके विरोधियों या शत्रुओं का मनोबल गिराने के लिए भी करवाई जाती है। यहाँ चाहे मीडिया के स्वयंभू संरक्षक हों या सेकूलरवाद की शपथ खाने वाले कथित प्रगतिशील, प्रबुध्द व वैज्ञानिक दृष्टि युक्त हर दल के छोटे-बड़े नेता या कुछ उद्योगपति हों सभी इस अंध-श्रध्दा के प्रचार में दोषी कहे जा सकते हैं कुछ ज्योतिषी तो इतने वाक्पटु और चतुर दीखते हैं कि उनकी घोषित फलों की व्याख्या परस्पर विरोधाभासी रूप में वे स्वयं करने में सक्षम दीखते हैं।

कुछ समय से हमारे देश के टी.वी. चैनलों के कार्यक्र मों में वैसे भी अंधविश्वासों का बोलबाला बढ़ गया है और पिछलों जन्मों के प्रतिशोध, जादू-टोना, मंत्र-चमत्कार, रहस्य, रोमांच तथा असंभव सी लगने वाली घटनाओं, किंवदंतियों, भूतों-प्रेतों, नागो, कंदराओं या पराशक्तियों के नाम पर जो चाश्नी परोसी जा रही है उसमें भविष्यवक्ताओं का अपना भविष्य और भी उज्ज्वल होता दीखता है। ‘न्यूमेरोलॉजी’ के नाम पर तो अपने नाम की वर्तनी बदलने उसमें कुछ वर्ण घटाने-बढ़ाने का फैशन तो अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया है।

इस परिदृश्य में मेरे मित्र के भविष्यदर्शी होने के दावे पर मेरा चौकन्ना होना स्वाभाविक था। वे सफाई देते हुए कहते हैं कि वे विशेषकर उस भविष्य के बारे में सोचते हैं जो शीघ्र ही मौजूद हो जाता है और उसके बारे में उनकी भविष्यवाणी गलत नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए जहाँ मुंबई अथवा निकटवर्ती क्षेत्रों में गत वर्ष वर्षा के मौसम में 700 से अधिक पुरुषों या बालकों की खुले मैनहोलों में गिरकर मृत्यु हुई थी वहीं इस वर्ष पूर्ववत बारिश होने पर कम-से-कम 1000 से अधिक व्यक्तियों के गिरकर मरने या हताहत होना इसलिए निश्चित है कि जहाँ एक और उन माहौलों के ढक्कनों की चोरी बड़े पैमाने पर हुई है वहीं पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ नदारद होते जा रहा है।

इसी तरह जलवायु परिवर्तन व गर्म होती धरती और पर्यावरण में हो रहे अप्रत्याशित एवं घातक बदलावों के बारे में व अनेक पशु-पक्षी व दुर्लभ पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के विलुप्त होने के समाचार तो हम लगातार पढ़ते रहते हैं पर आज वायुमंडल के प्रदूषण की दौड़ हमें विनाश के कितने नजदीक ला चुकी है, इसका हमें अनुमान नहीं है। पड़ोसी में बंग्लादेश के तटीय भू-भाग, मालदीव, फिजी आदि द्वीपों के डूब जाने के खतरे के बारे में तो हम पढ़ते ही रहते हैं पर क्या हमने कभी सोचा है कि प्रकृति की बदलती हलचलों व गतिविधियों से अगले तीन बड़े नगरों कोलकाता, चेन्नई व मुंबई का क्या होगा। विनाशकारी समुद्री तूफान प्रलयकारी बाढ़ द्वारा इनके बड़े हिस्सों को डुबा सकती है – यदि धरती का तापमान इसी प्रकार बढ़ेगा। रेगिस्तान की दिल्ली की ओर बढ़ने की गति और जहरीली गैसों के उत्सर्जन से वातावरण के विसाक्त होने की प्रक्रिया से स्वास्थ्य सुविधाओं और अस्पतालों में उपलब्ध सुविधाएँ नए रोगियों के लिए कभी पर्याप्त न होंगी। सारी बड़ी-बड़ी योजनाएं धरी के धरी रह जायेगी।

मेरे मित्र की दूसरी भविष्यवाणियाँ भी स्पष्ट हैं- भूमिगत जल के खतरनाक स्तर तक प्रदूषित होने, अन्य जल स्रोतों के भी लगातार विशाक्त होने और पेय जल के अभाव के कारण देश में ऐसे दंगे हो सकते हैं जो पानी के लिए ही होंगे। वैज्ञानिकों का एक मात्र यह कहना है कि अगला देशों के बीच बड़ा युद्ध पानी के मुद्दे पर होगा – यह तो दूर की बात हो सकती है पर इस देश में जल की आपूर्ति के बल पर व उसके उपयोग के आधार पर दो अलग-अलग वर्गों का लेना निश्चित है। बोतल बंद पानी के उपयोग की विज्ञापन से बढ़ती साझेदारी की प्रतिक्रिया निकट भविष्य में सामाजिक संघर्षों को जन्म दे सकती है। इस भविष्यवाणी के शत् प्रतिशत सत्य होने की संभावना है क्योंकि अपनी आवश्यकता से अधिक प्रकृति का दोहन हम इस देश में भी कर रहे हैं उसके परिणामों से बचना नामुमकिन है।

पिछले आकड़ों के विश्लेषण, अनुभव व संभावनाओं और औसत की सांख्यिकी सिध्दांतों के आधार पर प्रशासन की घोर उपेक्षा और अक्षमता को भी देखते हुए मेरे मित्र तो इस बात की भी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि इस वर्ष आगामी वर्षा के मौसम में बिहार में कोसी, गंडक, दामोदर या कमलाबालान नदियों में विनाशकारी बाढ़ में कितने हजार लोग मृत या हताहत हो सकते है। इसी तरह प्राकृतिक आपदा और हमारी तत्परता के अभाव के कारण दूसरे हिस्सों में देश में क्या होगा, इसका भावी चित्रण असंभव नहीं है। सच में मानना पड़ेगा कि मेरे मित्र की भविष्यवाणी करने का दायरा मीडिया में भविष्यफल बताने वालों से कहीं कम है।

-लेखक, अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

वरिष्‍ठ पत्रकार अंबिकानंद सहाय लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित

अंबिकानंद सहाय यानी वो शख्सियत जिसने अपनी पूरी जिंदगी मीडिया के नाम कर दी और यही वजह है कि इन्हें राजधानी दिल्ली में आजाद न्यूज के समाचार निदेशक अंबिकानंद सहाय को (मीडिया एक्सीलेंस अवार्ड 2010) लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। इस खास मौके पर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी ने उन्हें यह सम्मान प्रदान किया। इस अवसर पर श्रम एवं रोजगार राज्य मंत्री हरीश रावत भी मौजूद थे। आज़ाद न्यूज़ के चेयरमैन एमएस वालिया सहित मीडिया के कई गणमान्य व्यक्ति इस पल के गवाह बने।

अकेला ही चला था मैं….जानिबे मंजिल मगर…लोग साथ जुड़ते गए…कारवां बनता गया…ये शेर अंबिकानंद सहाय की शख्सियत पर सटीक बैठता है…जिसने कभी अपनी पत्रकारिता की जिंदगी का सफर साल 1972 में स्टेट्समैन में बतौर स्टॉफ कॉरेसपॉन्डेंट शुरु किया था लेकिन अगले दो सालों में ही अपनी लेखनी की वजह से उन्होने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना ली और जेपी मुवमेंट के दौरान उनकी पहचान और निखरी…जिसके बाद उन्होने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। साल 1974 से 1985 तक बिहार के स्टेट्समैन के ही ब्यूरो चीफ बने रहने के बाद सहाय जी को पदोन्नति के जरिए उत्तर प्रदेश का ब्यूरो चीफ बना दिया गया। तब तक उनका नाम एक राजनीतिक विश्लेषक के तौर भी अपना मुकाम तय कर चुका था और 1989 में यूपी प्रेस क्लब ने उन्हे बेस्ट पॉलिटिकल कॉरेसपोन्डेंट अवार्ड से नवाजा। बाद में 1991 में उन्हें बेनेट कोलमैन एंड कंपनी ने टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ रेजिडेंट एडीटर का पद ऑफर किया और वे साल 1997 तक वहां बने रहे। इस दौरान टाइम्स ग्रुप ने भी सफलता के ढेरो झंडे गाड़े….बाद में उन्हें टाइम्स इंडिया न्यूज सर्विस का को-एडीटर पद दिया गया और टाइम्स ग्रुप का पॉलिटिकल एनालिस्ट बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। यहां रहते हुए उन्होने टाइम्स ऑफ इंडिया के सभी एडीशन की जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाई। फिर 2003 में उन्होने सहारा न्यूज़ ज्वाइन किया और सहारा ग्रुप के पांचों चैनल के एडीटोरियल हेड रहे..साथ ही सहारा प्रिंट पब्लिकेशंस में बतौर सीनियर वाइस प्रेसिंडेंट भी उन्होने कार्यभार संभाला।

फिलहाल सहाय आज़ाद न्यूज़ में बतौर न्यूज़ डायरेक्टर आसीन हैं….बहुत ही कम समय में राष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहुंच बनानेवाले इस न्यूज़ चैनल के साथ जल्द ही दो और रीजनल चैनल जुड़नेवाले है..। जाहिर है मीडिया जगत की ये जानी मानी हस्ती किसी परिचय का मोहताज नहीं…अपनी कलम का लोहा मनवा चुके इस शख्स ने ना सिर्फ अपनी जिंदगी पत्रकारिता के नाम कर दी बल्कि युवा पत्रकारों को भी आगे बढ़ाने और उन्हें पत्रकारिता का मर्म समझाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी….सहाय अभी भी मीडिया की भावी पीढ़ी को तैयार करने में लगे है… उनके इस सम्मान पर उन्हें पूरे आज़ाद परिवार की तरफ से ढेरों बधाई दी गई।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राह पर उत्तर प्रदेश?

देश का सबसे बड़ा राय उत्तर प्रदेश हालांकि कांफी पहले से ही सांप्रदायिक एवं जाति आधारित राजनीति का एक गढ़ रहा है। पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने का केंद्र अर्थात् अयोध्या का विवादित राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद स्थल भी इत्तेफाक़ से इसी राज्‍य में स्थित है। लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा निकाली गई विवादित रथ यात्रा के परिणामस्वरूप सबसे अधिक सांप्रदायिक मंथन भी इसी राय में देखने को मिला था। इसके पश्चात ही प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की वह सरकार बनी थी जिसने भारतीय संविधान की मर्यादाओं, शपथ, सभी कायदे-कानून और नैतिकता की धज्जियां उड़ाते हुए 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में अपनी वह भूमिका अदा की जोकि आज तक किसी राष्ट्रभक्त तथा भारतीय संविधान एवं न्यायपालिका के प्रति आस्था रखने वाले किसी राजनेता ने नहीं निभाई।

बहरहाल उस समय से लेकर अब तक यह प्रदेश तमाम उतार-चढ़ाव व कभी- कभी तनावपूर्ण हालात से भी रूबरू होता चला आ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के लगभग शांत पड़े वातावरण में वरुण गांधी द्वारा सांप्रदायिकता का एक पत्थर फेंकने की उस समय कोशिश की गई थी जबकि वह अपना पहला संसदीय चुनाव अपनी माता मेनका गांधी द्वारा उनके लिए ख़ाली की गई पीलीभीत संसदीय सीट से लड़ने की तैयारी कर रहे थे। जैसी असंसदीय, अशोभनीय व घटिया किस्म की टिप्पणीयां वरुण गांधी द्वारा एक समुदाय विशेष को निशाना बनाकर सार्वजनिक सभा में की गई थीं उसका दुष्प्रभाव भले ही उस समय प्रदेश में कहीं पड़ता न दिखाई दिया हो परंतु उनके भाषण से कम से कम इतना तो तत्काल रूप से जरूर हुआ कि वरुण गांधी चुनाव जीतकर स्वयं को पहली बार में ही विजेता सांसद की श्रेणी में पहुंचाने में सफल हो गये। परंतु वरुण के भाषण का एक दूसरा दुष्प्रभाव यह भी पड़ा कि पीलीभीत के आस पास के शहरों तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक आधार पर कानांफूसी तथा वातावरण में सांप्रदायिकता का शहर घुलने की भनक अवश्य सुनाई देने लगी।

गत् दिनों उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक समझे जाने वाले बरेली जैसे शहर में हुआ सांप्रदायिक दंगा इसी सिलसिले की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि बरेली शहर का कांफी बड़ा इलाक़ा लगभग 20 दिनों तक कर्फ्यू, लूटपाट तथा आगानी की चपेट में रहा। फिर भी शुक्र इस बात का है कि इन दंगों के दौरान किसी भी समुदाय के किसी व्यक्ति के मारे जाने का कोई समाचार नहीं मिला है। बरेली दंगे के तरीकों व उसके कारणों आदि को लेकर बरेली वासी न केवल आश्चर्य में हैं बल्कि वहां का वह निष्पक्ष हिंदु व मुसलमान जो आज भी बरेली को हिंदु- मुस्लिम सांझी तहाीब का शहर मानता है इस बात की तह में जाने का इच्छुक है कि आख़िर यह कथित दंगा किन परिस्थितियों में हुआ, दंगे में शरीक होने वाले दंगाई किस माहब के थे? यह कहां से आए थे तथा इनका केंद्रीय लक्ष्य आंखिर क्या था?

दंगा प्रभावित वे लोग जिनकी दुकानों में आग लगाई गई तथा करोड़ों की संपत्तियां स्वाहा कर दी गईं उनमें हिंदु दुकानदार भी शामिल थे और मुसलमान दुकानदार भी। चश्मदीद दुकानदारों (हिंदु व मुसलमान) दोनों का कहना था कि उन्हीं दंगाईयों की भीड़ जब हिंदुओं की दुकानों में आग लगाती तो अल्लाह हो अकबर का नारा बुलंद करती और दंगाईयों की वही भीड़ जब किसी मुस्लिम दुकानदार की दुकान को अग्नि की भेंट चढ़ाती तो जय श्री राम का उद्धोष करने लग जाती। दंगाईयों की इन हरकतों ने बरेली वासियों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि दंगाईयों के यह अंजाने व अपरिचित चेहरे आंखिर कहां से संबंध रखते हैं और इनकी हरकतें हमें क्या संदेश दे रही हैं। दंगे शुरु होते ही सांप्रदायिक दलों के नेताओं ने अपनी राजनैतिक रोटियां सेकनी शुरु कर दीं। वरुण गांधी की मां तथा बरेली व पीलीभीत के मध्य पड़ने वाले संसदीय क्षेत्र आंवला से भाजपा सांसद मेनका गांधी बरेली शहर में चल रहे कर्फ्यू के दौरान वहां जाने का प्रयास करने लगीं। उधर पूर्वांचल में सांप्रदायिक राजनीति को धार देने वाले एक और भाजपा सांसद योगी आदित्य नाथ भी बरेली आने के लिए उतावले हो उठे। इन दोनों ही नेताओं को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बरेली पहुंचने से पहले ही रोक दिया गया। मेनका गांधी जिन्हें संसद में कम ही बोलते हुए देखा जाता है, को एक अच्छा मौंका हाथ लग गया। वह संसद में बरेली मुद्दे को उठाने लगीं। उनका यह ंकदम भी पूर्णतया राजनीति से प्रेरित था। मेनका ने अतीत में वरुण गांधी द्वारा बरेली में सार्वजनिक रूप से एक समुदाय विशेष को निशाना बनाकर की गई बदंजुबानी की भी निंदा या आलोचना नहीं की थी। बजाए इसके उसे जेल में डाले जाने पर मायावती सरकार को ही कोसा था। प्रश् यह है कि वरुण गांधी द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की फिंजा बिगाड़ने के प्रयासों के बाद मेनका गांधी बरेली आख़िर क्या करने जा रही थी? जलती आग में घी डालने या उसे शांत करने? उनके सुपुत्र के भावी राजनैतिक अंदांज स्वयं इस बात के गवाह हैं कि मेनका गांधी से उसे क्या शिक्षा मिल रही है तथा राजनीति के कौन से गुण वह अपनी इस मां से सीख रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है कि अपने पारिवारिक वातावरण को सामान्य न रख पाने वाली मेनका गांधी आज न जाने किस आधार पर हिंदुओं की मसीहा बनने की तैयारी कर रही है। यहां यह भी ंगौर तलब है कि नेहरु-गांधी परिवार के इस सदस्य को भाजपा किस सामग्री के रूप में प्रयोग करना चाह रही है।

बेशक सांप्रदायिकता की राजनीति करने वाले दल तथा नेता तो इस ताक में रहते ही हैं कि किसी प्रकार उन्हें सांप्रदायिकता की आग पर राजनैतिक रोटियां सेकने का मौंका मिले। परंतु बरेली दंगों को लेकर कई प्रशासनिक निर्णय तथा शासकीय कारगुंजारियां भी संदेह के घेरे में हैं। सबसे अहम सवाल जो बरेली प्रशासन के गले की हड्डी बना हुआ है वह यह कि बरेली में हंजरत मोहम्मद के जन्म दिवस अर्थात् बारह वंफात के दिन निकलने वाले जुलूस की अनुमति अलग-अलग तिथियों पर दो बार क्यों दी गई? जबकि हंजरत मोहम्मद का जन्म दिन एक ही दिन यानि रबीउलअव्वल माह की 12 तारीख़ को पूरे देश में सुन्नी मुसलमानों द्वारा मनाया जाता है। और दूसरा सवाल प्रशासन से यह किया जा रहा है कि यह जुलूस-ए-मोहम्मदी अपने पारंपरिक रास्ते से भटक कर दूसरे विवादित मार्ग पर क्यों और कैसे चला गया? जिसके बाद दंगे भड़क उठे। यहां दो ही बातें हो सकती हैं या तो प्रशासन की रंजामंदी से यह नया रास्ता आयोजकों द्वारा चुना गया और यदि जुलूस की भीड़ जबरदस्ती इस मार्ग पर चली गई तो भी पुलिस बल इसे रोक पाने में क्यों असफल रहा? दोनों ही परिस्थितियां शासन व प्रशासन के लिए सवालिया निशान खड़ा करती हैं।

बहरहाल लगभग बीस दिनों तक दंगे की आग और धुएं में लिपटे बरेली शहर की ंफिंजा में एक बार फिर अमन व शांति के संदेश गूंजने लगे हैं। पारंपरिक भाईचारा भी इस शहर में वापस आने लगा है। परंतु बरेली से दूर बैठे उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक राजनीति का मंथन करने वाले विशेषज्ञों को इस शहर के प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर की उस बुनियादी हकीकत को नंजर अदांज नहीं करना चाहिए जो हमें यह बताती है कि प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद द्वारा उद्धाटित किए गए इस मंदिर के निर्माण में सात दशक पूर्व बरेली के एक मुस्लिम रईस चुन्ने मियां ने उस समय न केवल सबसे बड़ी धनराशि अर्थात् एक लाख रुपये चंदा देकर इस मंदिर का निर्माण शुरु कराया था बल्कि इसके निर्माण से लेकर उद्धाटन तक तथा उसके पश्चात अपने पूरे जीवन भर इसके संचालन में भी उन्होंने अपनी अहम भूमिका अदा की थी। और यह बरेली के ही उदारवादी तथा सांप्रदायिक सदभाव की धरातलीय वास्तविकता को अहमियत देने वाले हिंदु समुदाय के लोग हैं जिन्होंने आज भी उस विशाल मंदिर में चुन्ने मियां की फोटो भगवान लक्ष्मी नारायण के साथ ही लगा रखी है तथा चुन्ने मियां की उस फोटो पर नियमित रूप से धूप, माला भी की जाती है। बेहतर होगा कि सांप्रदायिक सद्भाव के इस शहर में मेनका गांधी व आदित्य नाथ जैसे नेता सांप्रदायिक सद्भाव की ही मशाल लेकर जाएं ताकि बरेली की सांझी गंगा जमुनी तहंजीब अपनी प्राचीन परंपराओं को कायम रख सके। बजाए इसके कि इन जैसे नेता बरेली व दूसरे अन्य शांतिप्रिय स्थानों पर जाकर किसी समुदाय विशेष को भड़काने तथा वहां की शुद्ध व साफ फिजा को जहरीला बनाने का यत्न करें।

-निर्मल रानी

आतंकवाद से निपटने हेतु अपनी स्वतंत्र नीति तैयार करे भारत

भारत में नए आतंकी हमलों की संभावना के मध्य पाकिस्तान व अमेरिका के बीच हुई विदेश मंत्री स्तर की वार्ता इन दिनों चर्चा में है। गत् दिनों अमेरिका में अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन तथा पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के मध्य आतंकवाद से निपटने तथा पाकिस्तान की कुछ ताजातरीन सामरिक व उर्जा संबंधी जरूरतों को लेकर एक अहम बैठक हुई। इस महत्वपूर्ण बैठक की विशेषता यह थी कि इसमें पाक प्रतिनिधि मंडल की ओर से जहां पाक सेना अध्यक्ष जनरल अशफाक़ कयानी ने शिरकत की वहीं पाक खुफिया एजेंसी आई एस आई के भी कई शीर्ष अधिकारी इस बैठक में हिस्सा ले रहे थे। माना जा रहा है कि अमेरिका व भारत के मध्य हुए परमाणु समझौते के समय से ही पाकिस्तान में बेचैनियां शुरु हो गई थीं। पाकिस्तान भी इस बात का इच्छुक है कि अमेरिका उसके साथ भी परमाणु समझौता करे। परंतु पाक-अमेरिका वार्ता में पाकिस्तान की इस मांग को फिलहाल खारिज कर दिया है। इसके बजाए अमेरिका पाकिस्तान में उसकी विद्युत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साढ़े बारह करोड़ डॉलर के ताप बिजली घर बनाने हेतु राजी हो गया है। अमेरिका ने पाक विदेश मंत्री क़ुरैशी के इस बयान को लगता है पूरी तरह नार अंदाा नहीं किया है जिसके तहत उन्होंने भारत-अमेरिका के मध्य हुए परमाणु समझौते की ओर इशारा करते हुए यह कहा था कि- महत्वपूर्ण संसाधनों की उपलब्धता पर अमेरिका का पाकिस्तान के साथ भेदभाव पूर्ण रवैया खत्म होना चाहिए।

उधर अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने भी हालांकि यह स्वीकार किया है कि अमेरिका व पाकिस्तान के मध्य गलतफहमी तथा अविश्वास बढ़ा है। दोनों पक्षों के मध्य कुछ आशंकाओं को भी उन्होंने स्वीकार किया। परंतु इसके बावजूद साढ़े बारह करोड़ डॉलर के तीन ताप बिजली घर देने के साथ- साथ पाकिस्तान द्वारा सौंपी गई हथियारों की वह लंबी चौड़ी सूची भी अमेरिका ने स्वीकार कर ली है जिसे पाकिस्तान आतंकवादियों से लड़ने के नाम पर अमेरिका से लेना चाह रहा है। माना जा रहा है कि परमाणु समझौते की पाकिस्तान की मांग संभवत: अमेरिका द्वारा इसी लिए खारिज की गई है क्योंकि पाकिस्तान में मौजूद वर्तमान परमाणु संयंत्रों को लेकर ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में संदेह का वातावरण हर समय बना रहता है। पाकिस्तान में बेंकाबू होते जा रहे आतंकवादी तथा इनके द्वारा आए दिन अंजाम दिए जाने वाले बड़े से बड़े आतंकी हमले इन शंकाओं व संदेहों की पुष्टि करते हैं। इसके बावजूद पाकिस्तान ने आतंकवादियों से लड़ने हेतु जिन नए हथियारों के जखीरों की मांग अमेरिका से की है उसे लेकर भी कम से कम भारत जैसा देश तो आशंकित है ही। भारत की इस शंका का मुख्य कारण यह है कि अमेरिका पर हुए 9-11 के हमले के बाद पाकिस्तान अब तक अमेरिका से लगभग सात अरब डॉलर के हथियार यही कहकर ले चुका है कि वह इन हथियारों को आतंकवादियों के विरुध्द प्रयोग करेगा। परंतु पाकिस्तान ने आज तक उन हथियारों को आतंकवादियों के विरुध्द प्रयोग होने के न तो पूरे सुबूत दिए, न ही उनका कोई हिसाब दिया। हां इस दौरान ऐसे प्रमाण जरूर मिले कि वही अमेरिकी हथियार उन्हीं आतंकियों के हाथों में पहुंचने शुरु हो गए जिनके विरुद्ध प्रयोग होने के लिए यह हथियार अमेरिका से लिए गए थे। और तो और इन्हीं हथियारों के भारत के विरुद्ध प्रयोग होने की भी खबरें आती रही हैं। परंतु इन सब वास्तविकताओं को नार अंदाज करते हुए एक बार फिर पाकिस्तान व अमेरिका के मध्य हथियारों तथा पाक की ऊर्जा जरूरतों को लेकर नए सिरे से दोस्ती गहरी होनी शुरु हो चुकी है।

दरअसल अमेरिका यह महसूस करता है कि पाकिस्तान अमेरिका के आतंकवाद विरोधी मिशन में उसका एक प्रमुख सहयोगी है। पाकिस्तान ने आतंकवाद का मुंकाबला करने के लिए अपनी धरती पर अमेरिकी सैन्य अड्डे खोलने हेतु उसे जगह देकर यह साबित करने की कोशिश की है कि पाकिस्तान कथित रूप से आतंकवाद के विरुद्ध है तथा इस मुद्दे पर वह अमेरिका के साथ है। परंतु अंफसोस की बात यह है कि अमेरिका पाकिस्तान के दूसरे पहलू पर या तो नार नहीं रखना चाहता या फिर जानबूझ कर हंकींकत को नार अंदाज करने की नीति अपना रहा है। अन्यथा इसे कितना बड़ा मााक समझा जाना चाहिए कि जिस समय वाशिंगटन में दोनों देशों के विदेश सचिव आतंकवाद से निपटने की कथित रणनीति तैयार कर रहे थे उसी समय पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी संगठनों के हाारों सशस्त्र आतंकी सार्वजनिक रूप से खुले आसमान के नीचे इकट्ठे होकर भारत के विरुध्द कथित जेहाद छेड़े जाने की घोषणा कर रहे थे। यह आतंकी, जिनमें मुख्य रूप से हिाबुल मुजाहिद्दीन का प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन तथा लश्करे तैयबा का कमांडर अब्दुल वाहिद कश्मीरी शामिल था मुसलमानों को कथित जेहाद के लिए भड़का रहे थे तथा भारत में आतंकवादी गतिविधियां तो करने की सरेआम धमकियां दे रहे थे। ऐसी कई रैलियां लाहौर व इस्लामाबाद जैसे शहरों में भी जमाअत-उल-दावा तथा अन्य आतंकी संगठनों द्वारा शहर के मुख्य मार्गों से निकाली जा चुकी हैं। जिनमें 26-11 के मुंबई हमलों का आरोपी हाफिज सईद भी भारत के विरुध्द ाहर उगल चुका है।

क्या इन हालात के मद्देनजर यह माना जा सकता है कि पाकिस्तान आतंकवाद के विरुध्द गंभीर है? या फिर वह आतंकवाद का हौवा खड़ा कर केवल अमेरिका से धन व हथियार वसूलते रहने का सिलसिला यूं ही जारी रखे रहना चाहता है?दरअसल पाकिस्तान ने अपने देश में पनप रहे आतंकवाद को भी अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित कर दिया है। मोटे तौर पर एक श्रेणी में अलंकायदा, तालिबान तथा तहरीक-ए- तालिबान जैसे संगठन हैं तो दूसरी श्रेणी लश्करे तैयबा, जैश-ए- मोहम्मद तथा जमाअत-उद- दावा जैसे संगठनों की है। पाकिस्तान अमेरिका को यह समझाने में प्राय: सफल हो जाता है कि अमेरिका व अमेरिकी हितों को वास्तव में अलंकायदा व तालिबानों से ही मुख्य रूप से ख़तरा है। जबकि अन्य आतंकी संगठनों की पाकिस्तान में खुले आम चल रही गतिविधियों पर पर्दा डालने में भी वह कामयाब रहता है। और उन्हीं नीतियों पर चलकर पाकिस्तान अमेरिका से मोटी रंकम भी वसूल करता है तथा ढेर सारे आधुनिक हथियार भी प्राप्त कर लेता है।

सवाल है कि उपरोक्त परिस्थितियां भारत को क्या सबंक सिखाती हैं। क्या भारत अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीतियों पर ही निर्भर रह कर उसके निर्देशों के अनुसार आतंकवाद से निपटने के उपाय करे? और इस बीच न केवल 26-11 तथा जर्मन बेकरी जैसे हादसे होते रहें तथा भविष्य में भी देश में आतंकी हमलों की संभावनाओं के मध्य दहशत का वातावरण बना रहे?या फिर अमेरिका को विश्वास में लेने के बजाए सीधे तौर पर पाकिस्तान के साथ ही विश्वास का माहौल बनाने तथा आतंकवाद के विरुध्द पाकिस्तान को कार्रवाई करने हेतु बाध्य करने के लिए निरंतर बातचीत के माध्यम से उस पर दबाव बनाता रहे? और या फिर अंतिम विकल्प के रूप में भारत वही कुछ करे जिसके लिए वह अभी तक टालमटोल करता आ रहा है या अपनी सहनशीलता की सभी हदों को पार करता जा रहा है अर्थात् पाक अधिकृत कश्मीर स्थित आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर हवाई हमले?

जो भी हो भारत को अपनी सुरक्षा के विषय में सोचने -समझने तथा कार्रवाई करने का वैसा ही अधिकार है जैसा कि अमेरिका अथवा किसी अन्य देश को अपने हितों के बारे में सोचने का है। निश्चित रूप से अमेरिका अपने हितों को सर्वोपरि रखकर ही किसी भी देश से अपने संबंधों के बारे में अपनी कोई राय कायम करता है तथा अपने रिश्तों को उसी के अनुरूप तरजीह देता है। भारत को भी ऐसा ही करना चाहिए। अमेरिका व पाकिस्तान के संबंधों में आने वाले उतार-चढ़ाव पर नार रखने के बजाए यह सोचना अधिक जरूरी है कि भारत व पाकिस्तान के मध्य अपने संबंध कितने ईमानदाराना व पारदर्शी हैं। क्योंकि हंकींकत तो यही है कि पाकिस्तान भी आतंकवाद का दंश और लंबे समय तक झेलने की क्षमता रखता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में यदि भारत पाकिस्तान मिलकर आतंकवाद विरोधी किसी सामूहिक रणनीति पर सहमत होंगे तो वह रणनीति किसी अमेरिकी सहयोग से तैयार की गई रणनीति से कहीं बेहतर व कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में भारत को चाहिए कि वह आतंकवाद का मुंकाबला करने के लिए अमेरिका की ओर देखने के बजाए अपनी स्वतंत्र व कारगर नीति यथाशीघ्र बनाए ताकि भविष्य में भारत में होने वाले राष्ट्रमंडल खेल भयमुक्त वातावरण में संपन्न हो सकें तथा देश के प्रमुख नगरों में आतंकवादी घटनाओं की संभावनाओं को टाला जा सके।

-तनवीर जाफरी

संचार क्रांति का मानवाधिकार कार्यकर्ता है ‘ट्विटर’ और ‘ब्लॉगर’

भारत में ‘ट्विटर’ को अभी भी बहुत सारे ज्ञानी सही राजनीतिक अर्थ में समझ नहीं पाए हैं, खासकर मीडिया से जुड़े लोग भारत के विदेश राज्यमंत्री शशि थरुर के ‘ट्विटर’ संवादों पर जिस तरह की बेवकूफियां करते हैं उसे देखकर यही कहने की इच्छा होती है कि हे परमात्मा इन्हें माफ करना ये नहीं जानते कि ये क्या बोल रहे है।

‘ट्विटर‘ मूलतः नयी संचार क्रांति का मानवाधिकार कार्यकर्ता है। यह महज संचार का उपकरण मात्र नहीं है। यह साधारण जनता का औजार है। यह ऐसे लोगों का औजार है जिनके पास और कोई अस्त्र नहीं है।

इन दिनों चीन में जिस तरह का दमन चक्र चल रहा है। उसके प्रत्युत्तर में चीन में मानवाधिकार कर्मियों के लिए ‘ट्विटर’ सबसे प्रभावशाली संचार और संगठन का अस्त्र साबित हुआ है। जगह-जगह साधारण लोग ‘ट्विटर’ के जरिए एकजुट हो रहे हैं। लेकिन एक परेशानी भी आ रही है। ‘ट्विटर’ में 140 करेक्टर में ही लिखना होता है और चीनी भाषा में यह काम थोड़ा मुश्किलें पैदा कर रहा है।

‘ट्विटर’ लेखन के कारण चीन में मानवाधिकार कर्मियों को ,खासकर नेट लेखकों को निशाना बनाया जा रहा है। नेट लेखक चीन की अदालतों में जनाधिकार के पक्ष में और चीनी प्रशासन की अन्यायपूर्ण नीतियों के बारे में जमकर लिख रहे हैं उन्हें साइबर चौकीदारों की मदद से चीन की पुलिस परेशान कर रही है, गिरफ्तार कर रही है। गिरफ्तार नेट लेखकों ने ‘ट्विटर’ का प्रभावशाली ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। मजेदार बात यह है कि चीन प्रशासन के द्वारा अदालतों में साधारण मानवाधिकार कर्मियों और चीनी प्रशासन के अन्यायपूर्ण फैसलों के खिलाफ जो मुकदमे चलाए जा रहे हैं उनकी सुनवाई के समय सैंकड़ों ब्लॉगर और ट्विटर अदालत के बाहर खड़े रहते हैं और अदालत की कार्रवाई की तुरंत सूचना प्रसारित करते हैं और प्रतिवाद में जनता को गोलबंद कर रहे हैं। इससे चीनी प्रशासन की समस्त सेंसरशिप धराशायी हो गयी है। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो ब्लॉगर और ट्विटर नया संगठक है। यह ऐसा संगठनकर्ता है जो कानून और राष्ट्र की दीवारों का अतिक्रमण करके प्रतिवादी संगठन बनाने का काम कर रहा है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश: कांग्रेस शासन मायने अभूतपूर्व महंगाई एवं भूखमरी- धाराराम यादव

विगत दो दशकों में जब-जब कांग्रेस सत्ता मे आई, महंगाई एवं भूखमरी का विकराल रूप उपस्थित हुआ। वर्ष 1991 में जब नरसिंहाराव कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए एवं प्रसिध्द अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को देश के वित्त मंत्रालय की बागडोर सौंपी गयी, तो तत्काल महंगाई बढ़ना शुरू हो गयी। जब देश में महंगाई को लेकर शोर मचा, तो दिल्ली से यह लोक लुभावनी घोषणा की गयी थी कि एक सौ दिनों में महंगाई पर नियंत्रण पा लिया जायेगा। वह दिन कभी नहीं आया। कांग्रेस भी आश्वस्त थी कि जनता की याद्दाशत बहुत कमजोर होती है और सौ दिनों के बजाय पूरे पांच साल तक महंगाई कम होने का दिन नहीं आया।

वर्ष 1996 में कांग्रेस शासन का अंत हो गया और लगभग आठ वर्ष तक 1996 से 2004 तक गठबंधन सरकारों का युग रहा। इस अवधि में क्रमश: एच.डी देवगौड़ा इंद्रकुमार गुजराल एवं अटल बिहारी वाजपेयी गठबंधन सरकारों का नेतृत्व करते रहे। श्री वाजपेयी वर्ष 1998-2004 तक, लगभग 6 वर्ष लगातार प्रधानमंत्री रहे। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में खाद्यानों के मूल्य लगभग स्थिर रहे जो निम्न तालिका से स्पष्ट होता है:- अवधि – मार्च 1998 में चावल 10 रुपये प्रति किलो, गेहूं 7.5 रुपये, चीनी 16 रुपये, खाद्य तेल 46 रुपये, दालें 25 रुपये, फल व सब्जी 138.1 रुपये। मई 2004 में चावल 13 रुपये प्रति किलो, गेहूं 8 रुपये, चीनी 17 रुपये, खाद्य तेल 86 रुपये, दालें 31 रुपये, फल व सब्जी 209.2 रुपये। जनवरी 2010 में चावल 23 रुपये प्रति किलो, गेहूं 14.5 रुपये, चीनी 47 रुपये, खाद्य तेल 113 रुपये, दालें 88 रुपये, फल व सब्जी 305.3 रुपये। उपर्युक्त तालिका में प्रमुख खाद्यान्नों का मूल्य प्रति किलो फुटकर में दर्शाया गया है जबकि फल-सब्जी का थोक मूल्य सूचकांक में प्रदर्शित किया गया है। अर्थशास्त्र के मान्य सिध्दान्तों के अनुसार किसी जिंस का मूल्य निर्धारण मांग एवं आपूर्ति के आधार पर तय होता है। मजे की बात यह है कि खाद्यान्न की श्रेणी में आने वाली सभी वस्तुएं पर्याप्त मात्रा में बाजार में उपलब्ध हैं, बस दो गुना से तीन गुना तक उनके मूल्य अदा करने होंगे। यह कल्पना करना बेहद मुश्किल है कि 20/रु. प्रति दिन व्यय करके दोनों समय अपना भोजन जुटाने वाले लोग किस प्रकार जीवित रह रहे हैं। बढ़ती महंगाई ने नरेगा या मनरेगा योजनाओं को भी निष्प्रभावी बना दिया है। इस समय मूल्य निर्धारण अर्थशास्त्र से कम, राजनीति से ज्यादा निर्धारित हो रहा है।

कांग्रेस के नेतृत्व में वर्ष 2004 में संप्रग के सत्तारुढ़ होने के तत्काल बाद से जरूरी खाद्यान्नों के मूल्य में वृध्दि शुरू हो गयी थी। वर्तमान कीमतों की समीक्षा की जाये, तो चावल की कीमतों में 130 प्रतिशत, चीनी की कीमतों में 300 प्रतिशत, और अरहर की दाल की कीमतों में 252 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। वर्ष 2004 में संप्रग के सत्ता में आने के बाद एन. सी. पी. नेता शरद पवार ही कृषि, खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री है। यह तर्क निरर्थक है कि देश के 332 जिले सूखे से प्रभावित हैं। इसके बावजूद 23 करोड़ टन का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। लगभग 4 करोड़ 70 लाख टन से ज्यादा का खाद्यान्न सरकार के स्टॉक में था जबकि बफर स्टॉक दो करोड़ टन पर्याप्त माना जाता है।

यह सही है कि सरकार द्वारा गेहूं, चावल आदि का सरकारी समर्थन मूल्य लगभग दो गुना कर दिया गया। इससे किसानों को कितना लाभ हुआ, इसका आकलन होना अभी शेष है। वैसे विदर्भ और बुंदेलखंड के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ का नारा एक मखौल साबित हो रहा है। कांग्रेस के युवराज कभी-कभी गरीब दलितों की झोपड़ में पहुंचकर मीडिया की सुर्खियां भले बटोर रहे हो, किन्तु उनकी दुर्दशा का अंत नहीं हो पा रहा है।

बढ़ती महंगाई और भुखमरी कांग्रेस शासन की मुख्य पहचान बन चुकी है। विपक्ष इतना विखरा हुआ है कि सत्ताधीशों को उनकी परवाह नहीं रह गयी है। डॉ. राम मनोहर लोहिया, बाबू जय प्रकाश नारायण और पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे दूरदर्शी नेतृत्व के अभाव में विपक्ष को एकजुट करने वाला कोई नेता नहीं रह गया है। बस पंथनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के तोता रटंत नारे के बल पर कांग्रेस को अपदस्थ करना चाहते हैं जो संभव प्रतीत नहीं होता। कांग्रेस सबसे उत्कृष्ट पंथनिरपेक्ष पार्टी है। पुरानी बातें यदि छोड़ दी जायें, तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह वक्तव्य स्मरणीय है कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। महंगाई, गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी आजकल इस देश की पहचान बन रही है। मीडिया में जो खबरें और आंकड़ें प्रकाशित हो रहे हैं उनके अनुसार देश की करीब चालीस करोड़ जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने के लिए अभिशप्त है। इस महंगाई में उन्हें दो जून की रोटी चाहिए। सत्तारूढ़ संप्रग अपनी दोषपूर्ण नीतियों के बचाव में राज्य सरकारों को महंगाई बढ़ाने के लिए उत्तरदायी ठहरा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस या संप्रग शासित राज्यों में महंगाई पर लगाम लगा हुआ है? यह कुछ हद तक सही है कि जमाखोरों एवं मुनाफाखोरों पर अंकुश लगाने का कार्य राज्यों के माध्यम से ही संपन्न होगा। किसान और उपभोक्ता के बीच के बिचौलियों पर लगाम लगाने की आवश्यकता है। राजनीतिकों के लिए बिचौलिए महत्वपूर्ण हैं। कृषि उत्पादन बढ़ाने की भी नितांत आवश्यकता है। उत्पादकता बढ़ाकर ही ज्यादा आमदनी बढ़ सकती है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेश पंजाब के बाद अपनी उर्वरा शक्ति के लिए प्रसिध्द हैं किन्तु सूखे और बाढ़ की समस्याओं से वे त्रस्त रहते हैं। इन आपदाओं से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं का क्रियान्वयन आवश्यक है। आपदा आने पर तात्कालिक योजनाओं के द्वारा ‘प्यास लगाने पर कुएं खोदने’ जैसा हास्यास्पद प्रयास होता है। चीन आजकल 6,336 किलो प्रति हेक्टेयर धान पैदा कर रहा है जबकि इस देश में पंजाब 2,203 किलो प्रति हेक्टेयर और बिहार तथा उत्तर प्रदेश क्रमश: 1,400 किलो और 1,800 किलो धान प्रति हेक्टेयर पैदा करते हैं। चीन के कृषि वैज्ञानिक ऐसी शंकर नस्ल पर काम कर रहे हैं जिससे प्रति हेक्टेयर पैदावार 13,500 किलो तक पहुंच जायेगी।

अगर हम चीन से अपनी तुलना नहीं कर सकते, तो कथित रूप से सांप्रदायिकता का दंश झेल रहे नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल को अपना सकते हैं जहां गत वर्ष 9.6 प्रतिशत वृध्दि कृषि उत्पादन में दर्ज की गयी है। देश के प्रसिध्द कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन ने नरेंद्र मोदी के गुजरात की सराहना की है। उनका कहना है कि मोदी के कार्यकाल में कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक और समेकित सोच को अपनाया गया है। गुजरात में लाखों की संख्या में चेक डैम बनाये गये हैं जिसके कारण भूमिगत जल स्तर नीचे जाना बिलकुल रुक गया है। गुजरात कृषि विश्वविद्यालय एक फसल को समर्पित है। गत नौ वर्षों में गुजरात में कपास की पैदावार 6 गुनी बढ़ गयी। कच्छ में केसर आम का बड़े पैमाने पर उत्पादन और निर्यात हो रहा है। केंद्र और राज्यों के कथित पंथनिरपेक्षतावादी गुजरात में हुए 2002 के साम्प्रदायिक दंगों को याद रखे हुए हैं। वे भूलकर भी 27 फरवरी, 2002 को गोधरा स्टेशन पर 59 हिन्दू राम कार सेवकों को साबरमती एक्सप्रेस में जीवित जला दिये जाने की घटना को याद नहीं करना चाहते। यही घटना तो गुजरात व्यापी दंगों के लिए उत्तरदायी है। कोई कांग्रेसी अगर गुजरात की प्रशंसा कर दे, तो वह पार्टी से निकाल दिया जायेगा।

केंद्र एवं राज्य सरकारों को अपनी भंडारण क्षमता बढ़ानी चाहिए। सिंचाई के साधनों में वृध्दि उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक है। चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए चीन की तर्ज ऐसे शंकर बीजों का विकास एवं प्रसंस्करण करने की जरूरत है जिससे चावल उत्पादक बिहार करीब तीन करोड़ टन पैदा कर सकता है जो पूरे देश का एक तिहाई होगा।

भ्रष्टाचारयुक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाना भी कीमतों को स्थिर रखने के लिए एक कारगर उपाय हो सकता है। योजना आयोग के अध्ययन में यह तथ्य प्रकाश में आया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का केवल 11 प्रतिशत अनाज ही गरीब वर्गों तक पहुंच पाता है जिसके स्पष्ट निहितार्थ यह हुआ कि अवशेष 89 प्रतिशत काले बाजार में पहुंच जाता है। इसकी रोक-थाम अत्यंत कठिन प्रतीत होती है। इसका पूरा नेटवर्क बन चुका है एवं उसे तोड़ना आसान नहीं है।

केन्द्रीय कृषि, खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री शरद पवार विरोधाभाषी भूमिकाओं में हैं। कृषि उत्पादन बढ़ाना है और किसानों को उसका वाजिब मूल्य दिलाना है। देशभर की खाद्य की जरूरत पूरी करनी है और उपभोक्ता मामलों के मंत्री के रूप में भारत के नागरिकों को महंगाई की मार से बचाते हुए उचित मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है। यह कार्य थोड़ा कठिन अवश्य है किंतु नामुमकिन बिल्कुल नहीं है। अब देखना यह है कि इस कार्य को कितनी शीघ्रता एवं कितनी कुशलता से वे संपन्न कर पाते हैं। केंद्र की संप्रग सरकार को महंगाई पर अंकुश लगाकर खाद्यान्नों की समुचित आपूर्ति सुनिश्चित करना समय की आवश्यकता है।

-लेखक, पूर्व सहायक विक्री कर अधिकारी तथा स्वतंत्र टिप्पणीकार है।

व्यंग्य/…..उसके डेरे जा!!!

1

ईमानदारी, सच, विश्‍वास की रूखी सूखी, आधी पौनी खाते हुए मर मर के जी रहा था कि उस दिन परम सौभाग्य मेरा एक सच्चा दोस्त मुझे पहुंचे हुए बाबा के पास जबरदस्ती ले गया, यह कहकर कि ये वे पहुंचे हुए बाबा हैं कि जो अपने भक्तों के दुख फूंक मार कर पल छिन में हवा कर देते हैं तो जीवन के प्रति मरती मरती आस्था जागी।

बाबा जीरो आवर में अशांत मुद्रा में चांदी के पलंग पर लेटे हुए। सामने तरह तरह के सोमरस। लगा ज्यों रात भर रंगरलियां मना कर थके हों। संतन को अब तो केवल सीकरी सो ही काम। कीड़े पडें इस दिमाग को भी, जब देखो साधुओं के बारे में भी हर कुछ सोचने लग जाता है। औरों के बारे में तो पता नहीं क्या क्या सोचता रहता है। सुन रे गधे दिमाग! सभी कि अपनी अपनी पर्सनल लाइफ है। प्रोफेशन के कुछ अथिक्स होते हैं, नहीं। प्रोफेशन, प्रोफेशन है साहब और अथिक्स अथिक्स। दोनों को एकसाथ मत रखिए। ईमानदार तभी तक बने रह सकते हैं जब तक दाव नहीं लग रहा। जिस दिन दाव लगा बदल दी सांप की तरह केंचुली। सभी इस लोक में कमाने आए हैं। बस फर्क केवल इतना है कि कुछ उम्र भर टांग पर आंग धरे दिमाग की खाते हैं तो कुछ को कड़ी मशक्कत के बाद भी कुछ नहीं मिलता। धंधे में जो कमाने की बात न कर रहा हो पूरे संसार में किसी एक नाम बता दीजिए, आपके जूते पानी पिऊं।

क्या कमाल का कमरा! हर चीज वहां मुहैया। इंद्र भी यहां आ जाए तो उसे भी बाबा से ईश्या हो जाए। उनके आसपास कोई न था। मित्र ने उनके चरणों में नतमस्तक होने को कहा तो मैं चाहकर भी झुक ही नहीं पाया। क्या है न कि ये रीढ़ की हड्डी अब गधी कहीं की मुड़ती ही नहीं। बहुत कोशिश की। थक हार कर महीनों पहले डॉक्टर के पास गया था तो उसका घंटों इंतजार करने के बाद जब सबसे बाद में मेरी बारी आई तो उसने मेरा मन रखने को पूछा, ‘क्या बात है?’

‘जब जब पेरशान हो किसी के चरणों में लोटने की कोशिश करना चाहता हूं तो रीढ़ की हड्डी मुड़ती ही नहीं, ‘तब उसने मेरी की रीढ़ की हड्डी पर पुर जोर घूंसा जमाते हुए कहा, ‘यार! पहला बंदा देख रहा हूं अपनी लाइफ में रीढ़ की हड्डी वाला। पर सॉरी! यह कुछ ज्यादा ही अकड़ गई है। अब झुकेगी भी नहीं। जितने दिन बचे हैं ऐसे ही जीते रहो। रीढ़ की हड्डी से ज्यादा हिल हुज्जत करोगे तो महंगा पड़ सकता है। अब इसमें लोच नहीं रही।’

बाबा ने चांदी के पलंग पर वैसे ही पसरे हुए पूछा,’ किसे लाए हो भक्त! सुंदरियों का स्पलायर है?’

‘नहीं गुरूदेव!’

‘चरस के धंधे वाला है?’

‘नहीं गुरू जी।’

‘तो अरब का भाई है?’

‘नहीं गुरू जी।’ कह मित्र उनके आगे पत्तों को डोना हो गया।

‘तो पीएम होना चाहता है??’

‘नहीं, ये तो कंप्लीट जनता भी नहीं।’

‘तो यार हमारा रेस्ट क्यों नश्ट कर रहे हो? आज तो सिर खुजलाने का भी वक्त नहीं। चार भाई, दो सीएम, चार एमपी, आठ एमएलए को मिलने का टाइम दे रखा है। कई दिनों से मिलने को कह रहे थे।’

‘पर गुरूदेव इसके रोगों को समाधान दीजिए ताकी बची जिंदगी चैन से जी सके। व्यवस्था से बहुत तंग आ चुका है। आपसे अपने दु:खों का समाधान चाहता है।’ मित्र ने कहा तो मैने उसकी हां में हां मिलाई।

‘कहो! क्या दु:ख है?’

‘बाबा !बाबा! पानी दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! वायु दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! धरती दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! अग्नि दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! पृथ्वी दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! आकाश दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! बिजली दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा बाबा! गोल्ड मेडलिस्ट बेटे की नौकरी दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! सरकारी राशन का राशन दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! तन ढकने को कपड़ा दे! जीने को कोई लफड़ा दे।’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! राशन कार्ड दे!’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! सीवरेज का कनैक्‍सन दे।’

‘उसके डेरे जा।’

‘बाबा! बाबा! बेईमानी दे।’

‘उसके डेरे जा। लोकतंत्र में जनता अनेक पर उसके दु:ख एक। चोरी कर, उसके डेरे जा। मजाल कानून बाल भी बांका कर सके। बलात्कार कर। उसके डेरे जा। कोई कुछ नहीं कर सकता। समाज में सीना चौड़ा कर जी। अत: संक्षेप में बाबा कहते हैं कि बेटा न तेरे जा, न मेरे जा । पर मजे से जीना… तो उसके डेरे जा!

तो उसके डेरे जा!

तो उसके डेरे जा!!’

-डॉ. अशोक गौतम

नक्सलियों ने राजस्व उगाहने का नया फार्मूला तैयार किया

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भारत में वैसे तो अफीम की खेती तीन राज्यों क्रमश: मघ्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तारप्रदेश में की जाती है। लेकिन अभी भी सबसे अधिक अफीम का उत्पादन मघ्यप्रदेश के 2 जिलों क्रमश: नीमच और मंदसौर में होता है।

कुछ दिनों पहले तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तरप्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।

अफीम की खेती के लिए सबसे उपर्युक्त जलवायु ठंड का मौसम होता है। इसके अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी का शुष्क होना जरुरी माना जाता है। इसी कारण पहले इसकी खेती सिर्फ मघ्यप्रदेश और राजस्थान में ही होती थी।

हालाँकि कुछ सालों से अफीम की खेती उत्तारप्रदेश के गंगा से सटे हुए इलाकों में होने लगी है, पर मध्‍यप्रदेश और राजस्थान के मुकाबले यहाँ फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता अच्छी नहीं होती है।

अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा।

इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढ़िया से ताड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है।

ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माघ्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओस्टि के अंतगर्त काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी 300 करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है।

हाल ही में बिहार पुलिस ने नवादा और औरंगाबाद में छापेमारी कर काफी मात्रा में अफीम की फसलों को तहस-नहस किया था। औरंगाबाद के कपासिया गाँव जोकि मुफसिल थाना के तहत आता है से दो किसानों को अफीम की खेती करने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया था। औरंगाबाद जिला में पमुखत: सोन नदी के किनारे के इलाकों मसलन, नवीनगर और बारुल ब्लॉक में अफीम की खेती की जाती है।

कुछ दिनों पहले नवादा पुलिस ने नवादा और जमुई की सीमा से लगे हुए हारखार गाँव में एक ट्रक अफीम की तैयार फसल को अपने कब्जे में लिया था।

चूँकि सामान्य तौर पर बिहार और झारखंड में अफीम की खेती पठार और पहाड़ों में अवस्थित जंगलों में की जाती है। इसलिए पुलिस के लिए उन जगहों की पहचान करना आसान नहीं होता है। बावजूद इसके बिहार पुलिस सेटेलाईट की मदद से अफीम की खेती जहाँ हो रही है उन स्थानों की पहचान करने में जुटी हुई है।

आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है।

जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके षिंकजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।

एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनाया जाता है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाता है।

22 मार्च से 25 मार्च के बीच ओडीसा, पष्चिम बंगाल और बिहार के अलग-अलग इलाकों में नक्सली हिंसा की कई घटनाएँ हुई हैं। नक्सलियों ने सात राज्यों में बंद का आह्वान किया था। इस दौरान 23 मार्च को गया के पास रेलवे लाईन को नुकसान पहुँचाया गया, जिसके कारण दिल्ली-भुवनेश्‍वर राजधानी पटरी से उतर गई। इस हादसे में सैकडों की जान जा सकती थी, पर ड्राइवर की सुझबूझ से उनकी जान बच गई। बिहार में एक टोल प्लाजा को उड़ा दिया गया और साथ ही दो लोगों को मार भी दिया गया। पष्चिम बंगाल में एक माकपा नेता की हत्या कर दी गई। महाराष्ट्र में एक रेस्ट हाऊस पर हमला किया गया। ओडीसा में तीन पुलिस वालों को मार दिया गया।

नक्सली नासूर घीरे-घीरे पूरे देश में अपना पैर फैला रहा है। कुल मिलाकर आंतरिक युद्व की स्थिति हमारे देश में व्याप्त है। अगर अब भी नक्सलियों पर काबू नहीं पाया गया तो किसी बाहरी देश को हम पर हमला करने की जरुरत नहीं पड़ेगी। हमारा देश अपने वालों से ही तबाह हो जाएगा। अगर इसे रोकना है तो हमें इनके आर्थिक स्रोत को किसी तरह से भी रोकना ही होगा।

-सतीश सिंह