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कौन है असली चाचा……?

बीते दिनों मुम्बई में दो आतंकियों को गिरफ्तार किया, जो धमाके की योजना बना रहे थे। गिरफ्तार आतंकी अब्दुल लतीफ और रियाज़ अली पाकिस्तान के कराची के किसी चाचा से बात करते थे। चाचा ही उन्हें बताता था कि उन्हें कब क्या करना है। इसका खुलासा होते ही चाचा का रहस्य जानने में सारे लालबुझक्कड़ लग गए। फोन कॉल ट्रेस किए गए लेकिन खुफिया एजेंसियों के हाथ कुछ ख़ास ना लग पाया। तभी एटीएस के एक अधिकारी ने कहा कि बशीर खान के चाचा होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। हालांकि अभी हम पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते। मीडिया के सामने चाचा का खुलासा करने का खमियाज़ा अधिकारी को उठाना पडा, तुरंत नप गए। चाचा की तलाश अब भी जारी है। कयास लगाया जा रहा है कि बषीर ख़ान चाचा हो सकता है। लेकिन हमारे खुफिया तंत्र की खुफियागिरी तो देखिए ये भूल गए कि लश्‍करे तैयबा में चाचा कौन है?

अमरीकी सरकार ने मई 2008 में जब लश्‍करे तैयबा के चार दहशतगर्द हाफिज़ मोहम्मद सईद, ज़कीउर रहमान लखवी, हाज़ी मुहम्मद अशरफ़ और मोहम्मद अहमद बहाज़िक की सपंत्ति ज़ब्त करने का आदेश जारी किया था तो साथ ही इन चारों की वो कुंडली भी जारी की, जिसमें ये साफ था कि ये चारों किन किन नामों का इस्तेमाल करते हैं और इनके क्या क्या काम हैं? उन्हीं चार दहशतगर्र्दों में से एक ऐसा आतंकी भी है, जो चाचा नाम का इस्तेमाल करता है जिसका ठेका दूसरे मुल्कों में आतंकी हमले करवाने का है। लेकिन वो षायद हमारी खुफिया तंत्र की फेहरिस्त में नहीं है। अमेरिका की रिपोर्ट के अनुसार……

ANNEXURE I (Press Release dated May 27, 2008, of the US Treasury Department)

Zaki-ur-Rehman Lakhvi

AKAs: Zakir Rehman Lakvi

Zaki Ur-Rehman Lakvi

Zaki Ur-Rehman

Zakir Rehman

Abu Waheed Irshad Ahmad Arshad

Chachajee

Address 1: Barahkoh, P.O. DO, Tehsil and District Islamabad, Pakistan

Address 2: Chak No. 18/IL, Rinala Khurd, Tehsil Rinala Khurd, District

Okara, Pakistan

DOB: 30 December 1960

POB: Okara, Pakistan

Father’s Name: Hafiz Aziz-ur-Rehman

National ID#: 61101-9618232-1

Zaki-ur-Rehman Lakhvi is LET’s chief of operations. In this capacity, Lakhvi has directed LET military operations, including in Chechnya, Bosnia, Iraq, and Southeast Asia. Lakhvi instructed LET associates in 2006 to train operatives for suicide bombings. Prior to that, Lakhvi instructed LET operatives to conduct attacks in well-populated areas.

Lakhvi, in 2004, sent operatives and funds to attack U.S. forces in Iraq. Lakhvi also directed an LET operative to travel to Iraq in 2003 to assess the jihad situation there.

ये दस्तावेज़ बता रहे हैं कि चेचेन्या, बोस्निया, इराक़ और दक्षिण पूर्वी एषिया में हमलों का निर्देशन, आत्मघाती हमलों की तैयारी करवाना ज़की उर रहमान के खाते में ही जाता है। 26,11 मुम्बई हमले में भी सरहद पार बैठकर फोन पर जो आका जानकारी दे रहा था, उन नामों में ज़की उर रहमान भी शुमार है। जब लष्करे तैयबा का ये आतंकवादी ज़की उर रहमान उर्फ़ चाचा के नाम से जाना जाता है, तो फिर ये एटीएस की फेहरिस्त में अब तक क्यों नहीं है?

फिलहाल ज़की उर रहमान उर्फ़ चाचा पाकिस्तान की जेल में है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वो जेल में बैठे बैठे ही फोन पर भारत में हमले की साजिश रच रहा हो। वो जिस मुल्क की जेल में है, उसके बारे में ये भी कहा जाता है कि पाकिस्तान ने दहशतगर्दी को अपनी स्टेट पॉलिसी बना ली है। ऐसे में हैरानी की बात नहीं कि ज़की उर रहमान उर्फ़ चाचा जेल से ही लष्करे तैयबा का नेटवर्क चला रहा हो। भारत के खिलाफ नयी नयी साज़िश रच रहा हो और हमारी खुफ़िया इदारों की बातें सुनकार हंस भी रहा हो।

ऐसे में यही सवाल पैदा होता है, असली चाचा कौन है, ज़की उर रहमान उर्फ़ चाचा या फिर 1993 का भगोड़ा बशीर ख़ान। चाचा तफ्तीश का विशय है। और इसे बड़ी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए। क्यों हमारा खुफियातंत्र संजीदगी नहीं दिखाता है? क्यों करोड़ों खर्च करने के बाद नतीजा सिफर ही निकलता है? चाचा जो भी हो, उसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। क्योंकि वो पाकिस्तान में बैठा है और वो हमारे देश में फिर से आतंक फैलाने की साजिश रच रहा है। क्यों हमारे लाल बुझक्कड, अातंकी चाचा को खोज नहीं पा रहे हैं? कहीं ऐसा ना हो कि इनकी खोज प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही हमें फिर अपनों को खोना पड़े।

-संदीप कुमार सिंह

बजट, महंगाई और आम आदमी

बजट की सही समीक्षा बजट पेश किये जाने के कुछ दिनों बाद ही हो सकती है। तत्काल प्रतिक्रियाएं तो क्षणिक होती हैं तथा सही आकलन के बगैर होती हैं इसीलिए प्रतिक्रिया में बस इतना ही कहा जाता है कि बजट अच्छा है या बुरा। दरअसल बजट के पहले मीडिया द्वारा ऐसा उन्माद पैदा कर दिया जाता है कि बजट सतरंगी ही नज़र आता है, उसका बदरंग पहलू तो नज़र ही नहीं आता। कुछ दिन बाद जब बजटीय आंकड़ों का सच उजागर होने लगता है तब लगता है कि बजट जैसा पेश किया गया दरअसल वैसा है नहीं। यही हाल वर्ष 2010-2011 के लिए पेश किए गये बजट का भी रहा।

कहा तो ये गया कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने एक अच्छ

देश की न्यायपालिका को चुनौती देते खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले

खापों एवं पंचायतों का प्रचलन दरअसल हमारे समाज में आम लोगों के परस्पर मतभेदों को सुलझाने, उन्हें कोर्ट कचेहरी के चक्कर लगाने से बचाने तथा छोटी-मोटी बातों को लेका मतभेद और अधिक गहरा न होने देने के उद्देश्य से समाज के वरिष्ठ एवं जिम्मेदार नागरिकों द्वारा शुरु किया गया था। परंतु यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में विकास एवं प्रगति के नए मापदंड स्थापित होने लगे, शहरी व ग्रामीण लोगों के रहन-सहन, खान-पान,पहनना-ओढ़ना सब कुछ तो परिवर्तित होता गया परंतु ठीक इसके विपरीत पंचायत तथा खापों में बजाए कोई आधुनिक सोच पैदा होने के उल्टे यही पंचायतें तालिबानी रास्ते पर चलती नार आने लगीं।

खाप पंचायतों के विषय में यह भी शिकायतें रही हैं कि प्राय: यह पंचायतें बाहुबली लोगों के पक्ष में अपना फैसला सुनाने का काम करती हैं तथा कमजोर व असहाय व्यक्ति को और अधिक दबाती व प्रताड़ित करती हैं। इस त्रासदी को महान लेखक एवं कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने भी अपने दौर में जरूर महसूस किया था। अपनी उन्हीं संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में उन्होंने ‘पंच परमेश्वर’ नामक कहानी लिख डाली। पंचायतों व खापों के भटकाव का वास्तविक कारण दरअसल यह है कि इनमें आज भी अधिकांशतया परंपरावादी, अनपढ़, दबंग, जिद्दी, पूर्वाग्रही तथा दूसरों की बातों को पूरी तरह अनसुनी करने की जहनियत रखने वाले लोग ही हावी हैं। इनके हावी होने का कारण भी यह है कि गांव में आमतौर पर युवा वर्ग तथा महिलाएं गांव के बुजुर्गों की पूरी इज्‍जत करते हैं तथा उन्हें अपने बुजुर्गों जैसा पूरा सम्मान देते हैं। संभवत:गांव के बुजुर्ग इस सम्मान को सम्मान या आदर न समझकर यह समझ बैठते हैं कि गांव का युवा वर्ग तथा महिलाएं उनसे डरते व भय खाते हैं। शायद पंचायतों के बुजुर्गों की यही सोच उन्हें अपने दक़ियानूसी, पूर्वाग्रही तथा हठधर्मी पूर्ण परंपराओं से अलग हटने के बारे में सोचने का मौंका तक नहीं देती। और तभी यह खाप पंचायत के सरगना हुक्के क़ी गुड़गुड़ाहट और धुएं के बीच ऐसे फैसले सुना डालते हैं जो दूर तक किसी वास्तविक मुजरिम के विरुद्ध सुनाने योग्य भी नहीं होते।

यहां एक बात और स्पष्ट करनी जरूरी है कि तालिबानी पंचायती फरमानों का सिलसिला केवल हमारे ही देश में नहीं बल्कि पाकिस्तान, बंगला देश, अफगानिस्तान तथा नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में भी कांफी प्रचलित है। और दुर्भाग्यवश लगभग इन प्रत्येक जगहों पर पंचायती फैसलों में समान रूप से एक बात देखी जा सकती है कि प्राय: इन के द्वारा सुनाए गए फैसले ग़ैर इंसानी,दहशतनाक तथा आरोपित किए गए तथाकथित जुर्म से कहीं अधिक संगीन व गंभीर होते हैं। पाकिस्तानी पंचायतों के फैसले सुनिए तो रुह कांप उठती है। उदाहरण के तौर पर आंखों मे तेजाब डालना, यह पंचायती फैसला है। बलात्कार का जुर्म करने वाले लड़के की मां के साथ कई लोग सार्वजनिक रूप से बलात्कार करें, यह पाकिस्तान का पंचायती फैसला है। सरेआम कोड़े मारना या जमीन में जिंदा दफन करवा देना जैसे दिल दहला देने वाले फैसले भी ऐसी पंचायतें देती रहती हैं।

हमारे देश में भी पंचायतों द्वारा ऐसे कई फैसले अनेक बार दिए जा चुके हैं जिससे न केवल समाज में खलबली पैदा होती है बल्कि न्यायपालिका, शासन व प्रशासन भी प्राय: लाचार नजर आने लगता है। समान गोत्र में विवाह करना हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचायतों के लिए तो मानों इस धरती का सबसे बड़ा अपराध माना जाता है। कितना विरोधाभासी है कि कई समुदायों में तो समान गोत्र के वर-वधु होने पर ही रिश्ते कायम होते हैं जबकि कुछ समुदायों में समान गोत्र का अर्थ भाई बहन के रिश्तों जैसा लगाया जाता है। हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे कई प्रेमी जोड़े जिन्होंने अपने गांव के हुक्का गुड़गुड़ाने वाले पंचायतों के भय की अनदेखी कर विवाह रचाने का ‘दु:साहस’ किया तो उन्हें व उनके परिजनों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

कुछ समय पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसी प्रकार की एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। प्रेम विवाह कर चुके प्रेमी जोड़े के माता पिता व सभी परिजन बड़े ही आश्चर्यपूर्ण ढंग से सामूहिक रूप से इस बात पर राजी हो गए कि वे अपने बच्चों को जान से मार कर ही इस तथाकथित ‘कलंक’ से निजात पा सकते हैं। और उन्होंने बड़ी बेरहमी से यह काम अंजाम दे डाला। हरियाणा में भी कई ऐसे फैसले पंचायतों द्वारा सुनाए गए हैं जिसमें या तो समान गोत्र में विवाह करने वाले जोड़ों को विवाहोपरांत भाई बहन का रिश्ता बनाने का फरमान जारी किया गया। अथवा ऐसे जोड़ों को गांव छोड़कर चले जाने को मजबूर किया गया।

कुछ समय पूर्व जींद जिले में ऐसे ही एक समान गोत्र विवाह मामले में उच्च न्यायालय के अधिकारियों तथा पुलिस व प्रशासन के लोगों की मौजूदगी मे वेद मोर तथा उसकी पत्नी सोनिया को पंचायत के इशारे पर गांव वालों ने मार दिया था। ऐसे एक या दो नहीं अनेकों मामले सुनने में आ चुके हैं जिनसे यह साफ जाहिर होता होता है कि खाप पंचायतें हमेशा अपनी मनमानी करती हैं तथा उन्हें अपनी लाठी की तांकत और हुक्क़े क़ी गुड़गुड़ाहट के आगे पुलिस, शासन-प्रशासन, न्यायपालिका आदि किसी की कोई परवाह नहीं होती। न्यायपालिका भी खाप पंचायतों के ऐसे तुगलकी फरमानों पर चिंता व्यक्त करते हुए इस आशय की टिप्पणी दे चुकी है कि समानांतर न्याय प्रणाली का प्रचलन अत्यंत घातक है। परंतु पंचायतों द्वारा ऐसी सभी टिप्पणीयों की अनदेखी की जाती रही है। ”

अब पहली बार करनाल की एक अदालत द्वारा यह साहस जुटाया गया है कि किसी प्रकार खाप पंचायतों के तुगलकी ंफैसलों के सिलसिले को हमेशा के लिए बंद किया जाए। भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम भी खाप पंचायतों के बेतुके फैसलों की निंदा कर चुके हैं। संभवत: देश के गृह मंत्रालय तथा न्यायलयों द्वारा पंचायतों के तालिबानी फरमानों के विरुध्द की जाने वाली टिप्पणियों से प्रोत्साहित होकर करनाल की अदालत ने विवाहित प्रेमी जोड़े की हत्या करने के क्रूर पंचायती फरमान को अंजाम देने वाले पांच व्यक्तियों को मृत्यु दंड की साा सुनाई है। जबकि पंचायत के नेता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। 18 मई 2007 को कैथल जिले के करोरा गांव के निवासी मनोज व बबली पर खाप पंचायत का आरोप था कि उन्होंने खाप के पारंपरिक नियमों को ताक़ पर रखते हुए एक ही गोत्र में विवाह रचा डाला। मनोज व बबली के इस ‘दु:साहस’ के विरुद्ध स्वघोषित तथा स्वयंभू रूप से गठित पंचायत ने इस दंपति को सजा-ए-मौत का फरमान सुना दिया। इस मामले में युवक मनोज के माता पिता को इस विवाह को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी। परंतु लड़की के परिजनों ने पंचायत के फैसले पर अमल करते हुए दंपति की बेरहमी से हत्या कर डाली। करनाल के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायधीश वाणी गोपाल शर्मा ने गत् 30 मार्च को इसी मामले में अपना ऐतिहासिक निर्णय देते हुए हत्या आरोपी मृतका वधू बबली के भाई सुरेश,चाचा राजेंद्र एवं बाबूराम ,बबली के चचेरे भाई गुरदेव व सतीश को सजा-ए-मौत सुनाई जबकि खाप पंचायत के स्वयंभू नेता गंगाराज को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

यह पहला अवसर है जबकि अदालत को किसी खाप पंचायत के अमानवीय ंफैसले के विरुद्ध इतना सख्त फैसला सुनाने के लिए बाध्य होना पड़ा है। पंचायतों को आज के युग में यदि अपनी विश्वसनीयता, लोकप्रियता, दबदबा तथा मान मर्यादा कायम रखनी है तो उन्हें अपने पूर्वाग्रहों तथा परंपरावादी दक़ियानूसी विचारों से ऊपर उठना होगा। पंचायतें यदि अपने खोए हुए तथा निरंतर खोते जा रहे सम्मान को वापस पाना चाहती हैं तो उन्हें अमानवीस व तालिबानी फैसले सुनाने के बजाए ऐसे फैसले सुनाने चाहिए जिनसे समाज व देश का कुछ कल्याण हो सके। इनमें सर्वप्रथम तो हुक्का गुड़गुड़ाने की हानिकारक परंपरा को ही समाप्त करने की जरूरत है। तंबाकू सेवन की यह आदत तथा सार्वजनिक रूप से किया जाने वाला इसका पारंपरिक प्रदर्शन हमारी भावी आधुनिक एवं प्रगतिशील युवा पीढ़ी के भविष्य को प्रभावित करता है। पंचायतों को दहेज प्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद करनी चाहिए। शराब के ठेकों से समाज को होने वाले नुंकसान को मद्देनार रखते हुए इनके विरुध्द लामबंद होना चाहिए। डी जे व प्रदूषण फैलाने वाली आतिशबाजी जैसे शोर शराबा पूर्ण कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। अंध विश्वास, जादूटोना, झाड़ फूंक जैसी दक़ियानूसी परंपराओं से समाज को मुक्त करने हेतु सक्रिय होना चाहिए। कन्या भ्रुण हत्या का पंचायतों को विरोध करना चाहिए। बच्चों को शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त हो सके इसके लिए सक्रिय होना चाहिए। रक्तदान, वृक्षारोपण, तालाबों, व जोहड़ों के निर्माण व रख रखाव जैसी रचनात्मक तथा लाभप्रद योजनाओं में सक्रियता दिखानी चाहिए। प्रत्येक गांव में पुस्तकालय स्थापित कराने चाहिए। जातिवाद तथा सांप्रदायिकता का विरोध करना चाहिए। और ऐसा कोई भी प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो कि खाप पंचायत व्यवस्था हमारे देश की न्यायपालिका को चुनौती देने तथा उसके समानांतर तथाकथित न्यायिक प्रणाली चलाने का कोई प्रयास कर रही है। बजाए इसके इन्हीं पंचायतों को आपसी मामलों के निपटारे के लिए देश की न्यायपालिका को अपना सहयोग देना चाहिए।

-निर्मल रानी

खिलाड़ी, बहू और मीडिया

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सानिया स्टार टेनिस खिलाड़ी हैं। अपनी रैंकिंग में उतार-चढ़ाव के बावजूद सानिया मीडिया का पसंदीदा चेहरा रही हैं। सफल और स्टार खिलाड़ी के पीछे लगकर मीडिया उनकी छवि को अपने हक़ में भुनाता है। उन्हें इंसान से भगवान बनाने में सारी मेहनत लगा देता है। जितना बड़ा आख्यान बना सकता है बनाता है। सारी सकारात्मक स्टोरिज़ को बयान करने की कोशिश करता है। उनके कपड़े जूते, चड्ढी, बनियान सब महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इस महागाथा के निर्माण के पीछे मीडिया जनमनोविज्ञान की बहती गंगा में तो हाथ धो ही रहा होता है साथ ही भविष्य का एजेण्डा भी सेट कर रहा होता है। वह अपने लीन पीरियड के लिए मसाला जुटा रहा होता है।

मीडिया ने सानिया की स्टोरी का आगाज़ पॉजिटिव ख़बर से किया था, टी वी सीरियलों में चल रही शादी और गुड़ियों सी सजी-धजी दुल्हनों की भीड़ में असली दुल्हन बनने चली सानिया मिर्जा की कहानी सुनाई गई। फिर अचानक शादी में विघ्न पैदा हुआ। जैसाकि सीरियली शादी में होता है। एक नया चरित्र आएशा का दाखिल होता है। बताया जाता है कि आएशा शोएब की पहली पत्नी है। उनके पास निकाहनामा है जिसे वो पाकिस्तानी मीडिया को प्रसारित करने के लिए देती हैं। वैध और अवैध शादी की बहसें जन्म लेती हैं। एक मौलवी जी टी वी पर मीमांसा मलिक के समाचार एंकरिंग के दौरान कहते हैं कि यदि शोएब ने पहले शादी की भी है तो उसे मुसलमान होने के नाते चार शादियाँ करने का हक़ तो है। मुस्लिम समाज में विवाह की स्थितियाँ और औरत के हक़ का मसला बनने लगता है। आधुनिक समाज में मुस्लिम पर्सनल लॉ, जिसे मुसलमानों के मसले पर भारतीय क़ानून से इतर फैसले लेने का हक़ प्राप्त है का औरत के हकूक के मामले में निहायत ही पिछड़ा चेहरा सामने लाने की कोशिश की जाती है। इसमें मुकम्मल तौर पर इन स्थितियों में क्या प्रावधान है बताने की कोशिश नहीं की जाती। बस इतना प्रचारित किया जाता है कि मुसलमानों को शरियत के अनुसार चार बीवियाँ रखने का हक़ है !

मीडिया 29 मार्च 2010 से सानिया मिर्जा और शोएब मलिक की शादी की अटकलपच्चू में लगा हुआ था। पहले दिन सानिया और शोएब की प्रसन्न तस्वीरें दिखाई दीं। मिठाई, खुशी की बातें और शादी की तैयारियों की बातें सुनाई दीं। यहाँ तक तो किसी आम सीरियल की कहानी की तरह ही सानिया की कहानी भी चली। पर इसी बीच पत्रकारों ने भविष्य की योजनाओं का प्रश्न खड़ा कर दिया- सानिया शादी के बाद कहाँ रहेंगी? भारत के लए खेलेंगी या पाकिस्तान के लिए? इस प्रश्न ने जैसे आग लगा दी। राष्ट्रीयता के ठण्डे पानी में उबाल पैदा कर दिया। भारत में शिवसेना के कार्यकत्ताओं और शिवसेना प्रमुख ख़म ठोंककर मैदान में आ गए। पर राष्ट्रभक्ति के पाठ की शुरूआत का श्रेय इस बार समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी ले गए। पाकिस्तान के टेनिस फेडरेशन के अध्यक्ष दिलावर अब्बास के बयानों से जाहिर हुआ कि कट्टरवादियों के लिए हिन्दुस्तान के अलावा भी पसारा है।

बिना यह सवाल पूछे-जाने की क्या सानिया पाकिस्तान के नागरिक के साथ शादी करके हिन्दुस्तान की नागरिकता छोड़ देंगी, सानिया को पाकिस्तान टेनिस फेडरेशन के अध्यक्ष दिलावर अब्बास की तरफ से पाकिस्तान की बहू होने के नाते पाकिस्तान की तरफ से खेलने की सलाह दी गई। तो बाल ठाकरे ने भी दहाड़कर घोषणा की कि सानिया पाकिस्तानी से शादी करने के बाद हिन्दुस्तान के लिए नहीं खेल सकतीं। सानिया की देशभक्ति संदिग्ध है क्योंकि अरबों की आबादीवाले भारत में उन्हें एक भी सुटेबल ब्यॉए नहीं मिला ? शायद बाल ठाकरे को लगा हो कि सानिया ने ऐसा करके हिन्दुस्तानी मर्दों की ‘जवांमर्दी’ पर प्रश्नचिह्न लगाया है? (वैसे बलात्कार और यौनहिंसा, घरेलू हिंसा के मामलों के आंकड़े तो कुछ और ही बताते हैं!) वाकई कबीले के सरदार की नाक कट गई , घर की लड़की कट्टर दुश्मन पाकिस्तान के लड़के के साथ! छी: छी:! (वैसे खाप पंचायतों के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर क्या कहेंगे? वहाँ तो गांव के भीतर की बात थी।)

बाल ठाकरे इतने आहत थे कि उन्होंने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि उनका कट्टरतावाद पाकिस्तान के कट्टरतावाद से एक क्यों हो रहा है? अलग तर्कों के बावजूद निष्कर्ष में एक जगह कैसे पहुँच रहे हैं? ठाकरे ने यह भी कहा कि लोग मैदान पर सानिया के खेल को नहीं उनके फैशन और छोटी स्कर्ट को देखने जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सानिया ने टेनिस की दुनिया में हिन्दुस्तान की पहचान तब बनाई थी जब मैदान लगभग खाली था। उन्होंने अपने कठिन परिश्रम और लगन से अपने खेल का लोहा मनवाया। अगर खेलों में खिलाड़ियों की पोशाक महत्वपूर्ण होती और लोग खिलाड़ी की टांगों को देखने टिकट कटाकर खेल देखने जाते तो क्रिकेट के बजाए टेनिस को लोकप्रिय खेल होना चाहिए था। ठाकरे ने हिन्दुस्तानियों के खेल-बोध पर भी उंगली उठाई है। अच्छी कद-काठी और फैशन सफलता की गारंटी होती तो हर अच्छी कद-काठी की खिलाड़ी लड़की सफल खिलाड़ी होती ! पर ऐसा नहीं है।

भारत की विदेश नीति के तहत अन्य पड़ोसी देशों की तुलना में पाकिस्तान के साथ ज्यादा संवेदनशील व्यवहार है। पाकिस्तान से हमारी संस्कृति और व्यवहार के संबंध भी अन्य पड़ोसी देशों की तुलना में ज्यादा क़रीबी हैं। सियासी क़िताब में पाकिस्तान शत्रु है। पर कट्टर सियासतदानों के लिए पाकिस्तान का हर नागरिक भी शत्रु है। ठीक वैसे ही जैसे कट्टर पाकिस्तानी सियासतदानों के लिए हिन्दुस्तान का हर नागरिक शत्रु है!

इस मसले में जितने पेंच हैं उन सबका क़ानूनी हल है। चाहे वह दो शादी का मामला हो, निकाह के होने न होने का मामला या तलाक़ का मामला हो, किस देश की तरफ से खेलेंगी यह प्रश्न हो, नागरिकता का प्रश्न हो या कोई और प्रश्न अंतत: इन्हें क़ानून के अनुसार ही तय होना है। होना भी यही चाहिए। मीडिया ट्रायल के जरिए गुनहगार तय करने के पहले क़ानूनी प्रावधानों की सही जानकारी देनी चाहिए। मीडिया का काम यह नहीं होना चाहिए कि वह यह जाहिर करे कि पूरी जांच-पड़ताल कर मामले की मेरिट-डिमेरिट तय करना तो क़ानून का काम है उसके पास जब मसला जाएगा तो वह करेगा ही तब तक ख़बर को चटपटी स्टोरी क्यों न बनाकर टी आर पी बढ़ाएं! कहाँ गया मीडिया पर किसी भी सेंसरशिप के खिलाफ आत्मनियंत्रण का दावा? जिस आवेशपूर्ण माहौल का निर्माण मीडिया कर रहा है उसमें किसी की भी कैजुअलिटी हो सकती है। टाइम्स नाउ के अर्णब गोस्वामी कल प्राइम टाइम में इस विषय पर जो बहस चला रहे थे उसमें उनके द्वारा पूछे गए सवालों में कहीं यह सवाल नहीं था कि क्या आएशा या माहा सिद्दकी का परिवार मीडिया में आने से पहले क़ानून की शरण में गया? हिन्दुस्तानी मीडिया कब अपनी भाषा बोलेगा, अपने पैटर्न तय करेगा, अपनी जिम्मेदारी समझेगा यह सवाल है।

-सुधा सिंह

बुद्धिजीवियों की आंतरिक गुलामी की मुक्ति तलाश में

आंतरिक गुलामी से मुक्ति के प्रयासों के तौर पर तीन चीजें करने की जरूरत है, प्रथम, व्यवस्था से अन्तर्ग्रथित तानेबाने को प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन जगत से हटाया जाए, दूसरा, पहले से मौजूद संदर्भ को हटाया जाए, यह हमारे संप्रेषण के क्षेत्र में सक्रिय है। तीसरा, नए लोकतांत्रिक जगत का निर्माण किया जाए जो राज्य और आधिकारिक व्यवस्था के ऊपर मानवीय जीवन के नियंत्रण को स्थापित करे। साथ ही उन तमाम आन्दोलनों की भी पहचान करनी चाहिए जो मुक्तिकामी हैं।

आजादी के बाद जो समाज पैदा हुआ उसमें स्वतंत्र प्रेस था, लोकतांत्रिक सरकार थी, क्लब, सभा, सोसायटी, राजनीतिक तौर पर लोकतांत्रिक संरचनाएं थी, स्वतंत्र न्यायपालिका थी,मीडियाजनित मनोरंजन था। किंतु उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद से खासकर 1980 के बाद से लोकतंत्र में गिरावट दर्ज की गई।

आपात्काल में 25 जून 1975 से 1977 फरवरी तक का दौर अधिनायकवाद के अनुभव को झेल चुका था। इसके कारण लोकतंत्र पर खतरा साफ नजर आ रहा था। आपात्काल का अनुभव बेहद खराब था, उसके बाद लोकतंत्र को सत्ता के तंत्र के जरिए नियंत्रित करने की बजाय आंतरिक तौर पर नियंत्रित करने का निर्णय लिया गया। लंबे समय तक पंचायतों के चुनाव स्थगित रहे। बाद में अदालत के हस्तक्षेप के बाद पंचायती व्यवस्था को सुचारू रूप से स्थापित किया जा सका।

आपात्काल के दौर में प्रत्यक्ष गुलामी थी जिसका बुद्धिजीवियों के एक तबके ने स्वागत किया। ये वे लोग थे जो कल्याणकारी पूंजीवाद राज्य के तहत मुक्ति के सपने देख रहे थे अथवा कल्याणकारी राज्य के संरक्षण में मलाई खा रहे थे। आपात्काल के बाद आम जिंदगी को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाने की प्रक्रिया तेज हो गयी। आंतरिक गुलामी से लड़ना बेहद जटिल हो गया। आंतरिक गुलामी प्रत्यक्ष गुलामी से भी बदतर होती है।

अब हमने इस चीज पर विचार करना बंद कर दिया है कि किसी विषय पर विचार विमर्श का सामाजिक और राजनीतिक संस्थानों के ऊपर क्या असर होता है? क्या संबंधित विमर्श का माहौल पहले से मौजूद था?

हिन्दी में आधुनिकता की जितनी भी बहस है वह आंतरिक गुलामी की प्रक्रियाओं को नजरअंदाज करती है। मध्यकालीन मूल्यों और मान्यताओं का महिमामंडन करती है। यह काम परंपरा और इतिहास की खोज के नाम पर किया गया,इस तरह जाने-अनजाने कल्याणकारी राज्य की वैचारिक सेवा हुई। परंपरा और इतिहास सर्वस्व है की बजाय सामयिक साहित्य और आलोचना पद्धति का विकास किया गया होता तो ज्यादा सार्थक चीजें सामने आतीं। परंपरा और इतिहास पर चली बहसों ने हिन्दी विभागों में मध्यकालीन मान्यताओं और मूल्यों को और भी पुख्ता बनाया।

आधुनिककाल में धर्म को सार्वजनिक परिवेश का हिस्सा नहीं माना जाता था,यही वजह है कि सार्वजनिक स्थान के तौर पर मंदिरों में असवर्णों के प्रवेश को लेकर आन्दोलन हुए। सार्वजनिक पुनर्परिभाषित हुआ। धर्म भी पुनर्परिभाषित हुआ। धीरे-धीरे धर्म सामाजिक हैसियत का प्रतीक बन गया। नये सार्वजनिक वातावरण की विशेषता है स्वयं का प्रदर्शन। स्वयं को किसी बड़ी ताकत के प्रतिनिधि के रूप में पेश करना।

प्रतिनिधित्व हमेशा सार्वजनिक होता है। निजी विषयों पर प्रतिनिधित्व नहीं हो सकता। यह तत्व मूलत: सामंती है। सामंती दौर में प्रतिनिधित्व को सार्वजनिक माना गया। निजी विषय के प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं थी। प्रतिनिधित्व में प्रचार बुनियादी चीज है। प्रतिनिधित्व करने वाले लोग जब आधुनिक राष्ट्र-राज्य का अंग बने उस समय प्रतिनिधित्व राजनीतिक संचार का हिस्सा नहीं था और न इसके लिए किसी स्थायी जगह की जरूरत थी। बल्कि यह सत्ता के प्रतिनिधियों के द्वारा नियोजित ऑडिएंस के सामने पेश की गई प्रस्तुति थी। जिसमें सामंती विषयों को समायोजित कर लिया गया था।

आजकल मध्यकाल नहीं है अत: सामंत लोग अपनी सत्ता,अधिकार और प्रभाव का वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाते जैसा वे मध्यकाल में करते थे। अत: उन्होने नए सिरे से अपनी शक्ति, सत्ता और अधिकार का प्रदर्शन के तरीके निकाल लिए हैं। वे अब मेले,सार्वजनिक आयोजनों, सार्वजनिक दावतों, शादी-ब्याह, टीवी टॉक शो आदि में शरीक होते हैं, वे लोग उन तमाम आयोजनों और कार्यक्रमों में शरीक होते हैं जिनका दृश्य मूल्य है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

रक्षा मंत्रालय में घुसा पाकिस्तानी एजेंट?

नई दिल्ली। भारत सरकार पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक और 26/11 हमलों के मुख्य षड्यंत्रकर्ता डेविड कोलमैन हेडली की सुपुर्दगी के लिए जहां एक ओर अमेरिकी सरकार पर दबाव बनाए हुई है, वहीं दिल्ली में सरकार के रक्षा प्रतिष्ठान में कथित तौर पर शोधरत एक अन्य ‘हेडली’ की ओर सरकार की निगाह नहीं जा रही है।

ऐसा ही एक मामला रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत संचालित रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान में प्रकाश में आया है। सूत्रों के मुताबिक, पाकिस्तान मूल के श्री सेंगे हसनैन सेरिंग, जिन्हें अमेरिकी नागरिकता मिल चुकी है, पिछले 10 महीनो से संस्थान में कार्यरत बताए जाते हैं।

सेरिंग पहली बार 6 जुलाई से 5 अक्टूबर 2009 के मध्य कथित शोध संस्थान के सिलसिले में भारत आए थे। बाद में उनका वीजा एक साल के लिए और बढ़ा दिया गया, और वह नवंबर 2010 तक के लिए देश में हैं। उनका वीजा कान्फ्रेंस वीजा के रूप में स्वीकृत है। इसके बारे में यही कहा जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय अध्येताओं, विशेषज्ञों के लिए कांफ्रेंस वीजा स्वीकृत किया जाता है।

रक्षा अध्ययन संस्थान के सूत्रों के अनुसार, वह एक साल के लिए विधिवत एक विशेष परियोजना पर कार्य करने के लिए रखे गए हैं। संस्थान द्वारा सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत एक सामाजिक कार्यकर्ता श्री शिवराज सिंह द्वारा पूछे गए प्रश्न के जवाब में स्वीकार किया गया है कि सेंगे हसनैन सेरिंग मूलतः संवैधानिक रूप से भारतीय कश्मीर यानी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के निवासी हैं, जिन्हें अमेरिकी नागरिकता प्राप्त है। लेकिन इस सच के विपरीत, सूत्रों का दावा है कि सेरिंग अपनी पहचान छुपाकर रणनीतिक रूप से अति संवेदनशील रक्षा प्रतिष्ठान में कार्य कर रहे हैं। वह मूलतः पाकिस्तान के रावलपिण्डी के निवासी बताए जाते हैं।

एक अन्य खुलासे में पता चला है कि रक्षा मंत्रालय के द्वारा संचालित संस्थान के परिसर के अंदर स्थित गेस्ट हाउस के संचालन का अधिकार होटल व्यवसाय से जुड़े एक निजी समूह को दिया गया है। इस कारण रक्षा अध्ययन संस्थान के परिसर मे बाहरी तत्वों की आवाजाही बढ़ गई है। होटल में किसी भी व्यक्ति को पैसे देकर रुकने की सुविधा दे दी जाती है।

प्रमाण के तौर पर 29, 30 मार्च को कक्ष क्रमांक-103 में एक अनधिकृत व्यक्ति ने रोहतास जंगू के नाम से बुकिंग कराई और बिना किसी प्राथमिक जांच इत्यादि के वह पूरे आनंद से परिसर मे रातभर रहा। इसी बीच उनसे मिलने के लिए एक वेबपोर्टल के संवाददाता पहुंचे लेकिन उनसे भी किसी प्रकार की पूछताछ नहीं हुई।

उल्लेखनीय है कि यह गेस्ट हाउस कम होटल रक्षा मंत्रालय अध्ययन संस्थान के परिसर में ही स्थित है। और इसके 100 मीटर के दायरे में परमाणु हथियारों का संचालन केंद्र, रक्षा रणनीति से जुड़ा अति संवेदनशील वेस्टर्न एयर कमान, कमबैट आर्मी ट्रेनिंग यूनिट, यूनिट आफ इण्डियन आर्मी आदि महत्वपूर्ण रक्षा प्रतिष्ठान अवस्थित हैं। जाहिर है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर यह अत्यंत गंभीर लापरवाही है, जिसका ख़ामियाजा देश कभी भी भुगत सकता है।

-राकेश उपाध्‍याय

देवी उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन – हृदयनारायण दीक्षित

माँ सृष्टि के अणु परमाणु की जननी है। माँ प्रत्येक जीव की आदि अनादि अनुभूति है। माँ की देह का विस्तार ही हम सबकी काया है। हम सबका अस्तित्व माँ के कारण ही है। माँ न होती तो हम न होते। माँ स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। सभी लोक, वनस्पति जगत्, कीट, पतंग और समस्त प्राणी माँ का विस्तार हैं। मार्कण्डेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में ‘या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता’ बताकर ‘नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनमः’ कहकर अनेक बार नमस्कार किया है। माँ का रस, रक्त और पोषण ही प्रत्येक जीव का मूलाधार है। पृथ्वी भी वैसी है। उसके अंगभूतों से सभी जीव निर्मित हैं, वही मूल है, वही आधार है। इस पर रहना, कर्म करना, कर्मफल पाना और अंततः इसी की गोद में जाना सतत प्रवाही जीवनक्रम है। ऋग्वेद के ऋषियों के लिए पृथ्वी माता है। यह माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है। (5.84.1-3) ऋग्वेद में रात्रि भी एक देवी है वे अविनाशी – अमर्त्या हैं, वे आकाश पुत्री हैं, पहले अंतरिक्ष को और बाद में निचले-ऊंचे क्षेत्रों को आच्छादित करती हैं। उनके आगमन पर हम सब गौ, अश्वादि और पशु-पक्षी भी विश्राम करते हैं। प्रार्थना है कि वृको (भेड़ियो) व चोरों को हमसे दूर रखो। मेरी स्तुतियाँ सुनो। (10.127)

प्रकृति की शक्तियां स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं हो सकती। विकासवादी सिध्दांत के अनुसार देवरूप माँ की उपासना – (स्त्रीलिंग आराधना) अतिप्राचीन है। वे इसका कारण समाज की मातृसत्तात्मक व्यवस्था बताते हैं। सृष्टि का विकास जल से हुआ। यूनानी दार्शनिक थेल्स भी ऐसा ही मानते थे। ऋग्वेद में भी इसी धारणा के साक्ष्य हैं। प्रकृति एक सुसंगत संविधान में चलती है। ऋग्वेद में इसका नाम ‘ऋत’ है। अधिकांश विश्वदर्शन में जल सृष्टि का आदि तत्व है। स्वाभाविक ही जल की पूजा और उपासना भी प्राचीन होनी चाहिए। ऋग्वेद में ‘जल माताएं’ आपः मातरम् हैं और देवियां हैं। ऋग्वेद के अपो देवीः और आपों मातरः मातृसत्तात्मक समाज की देन हैं। उन्हें बहुवचन रूप में याद किया गया है। सामाजिक विकास के आदिम काल में ही यहां जल माताओं की उपासना प्रारंभ हो चुकी है। सामाजिक विकास क्रम में मातृ सत्तात्मक से आई देवी पूजा व्यवस्था प्राचीन है, पितृसत्तात्मक व्यवस्था से आये देवता उसके बाद के हैं। संसार के प्रत्येक जड़ चेतन को जन्म देने वाली यही आपः माताएं हैं:ः ‘विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्रीः’ (6.50.7) ऋग्वेद के बड़े प्रभावशाली देवता हैं अग्नि। इन्हें भी आपः माताओं ने जन्म दिया है ः’तमापो अग्निं जनयन्त मातरः’ (10.91.6) सविता ऋग्वेद के एक अन्य प्रभावशाली देवता है। इनकी भी स्तुति अपां नपातम् कहकर की गई है। (1.22.6)

ऋग्वेद अथर्ववेद में अदिति भी देवी है। वे संपूर्ण सृष्टि का पर्याय है। आदित्य-सूर्य उनके पुत्र हैं। यहां अदिति माता-पिता हैं और अदिति ही पुत्र भी हैं। अदिति जैसा देव प्रतीक (या देवी) विश्व की किसी भी संस्कृति में नहीं है जो कुछ हो चुका – भूत और जो आगे होगा भविष्य वह सब अदिति हैं। अदिति प्रख्यात दार्शनिक अनाक्सिमैंडर की अनंत सत्ता हैं। ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10.125) हैं। वे रुद्र और वसुओं के साथ चलती हैं। ऋग्वेद के वाक्सूक्त (10.125) में कहती हैं – मैं रुद्रगणों वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूँ। मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है। प्राणियों की श्रवण, मनन, दर्शन क्षमता का कारण मैं ही हूँ। मेरा उद्गम आकाश में अप् (सृष्टि निर्माण का आदि तत्व) है। मैं समस्त लोकों की सर्जक हूँ आदि। वे ‘राष्ट्री संगमनी वसूनां – राष्ट्रवासियों और उनके संपूर्ण वैभव को संगठित करने वाली शक्ति – राष्ट्री है’। (10.125.3) यहां वाणी ही रुद्र ब्रह्म आदि सब कुछ है। उसका उद्गम आकाश है। यही बात ऋग्वेद में अन्यत्र (1.164.39) भी है ऋचो अक्षरे परमे व्योमन-अक्षर-ऋचाए परम व्योम में रहती हैं। वाणी ही व्यक्त संसार में प्रकट रूपों प्रतिरूपों को ‘नाम’ देती है।

ऋग्वेद में ऊषा भी देवी हैं। सविता तेज हैं। सूर्य इस तेज की अभिव्यक्ति हैं और ऊषा सूर्योदय के पूर्व का सौंदर्य। ऋग्वेद के एक सूक्त (1.124) में ऊषा की स्तुति में कहते हैं ये ऊषा देवी नियम पालन करती हैं। नियमित रूप से आती हैं और मनुष्यों की आयु को लगातार कम करती हैं। (वही मंत्र 2) मानी बात है, प्रत्येक ऊषा (प्रभात) नई है। प्रत्येक ऊषा का आगमन उम्र का एक-एक दिन कम करता है। फिर कहते हैं, ऊषा स्वर्ग की कन्या जैसी प्रकाश के वस्त्र धारण करके प्रतिदिन पूरब से वैसे ही आती हैं जैसे विदुषी नारी ऋत-नियम मार्ग से ही चलती है। (वही, 3) ऊषा आनंदित करती हैं। वे देवी हैं, इसीलिए उनकी स्तुतियाँ हैं, वे सबको प्रकाश आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं, छोटे से दूर नहीं होती, बड़े का त्याग नहीं करती। (वही, 6) यहां समत्व दृष्टि की सीधी चर्चा है। ऊषा देवी हैं। समद्रष्टा हैं। भेदभाव नहीं करतीं लेकिन स्तोता उनसे भेदभाव की भी स्तुतियाँ भी करते हैं हे ऊषा आप कृपण लोभी को न जगाए। लेकिन श्रमशील कर्मठों को जगाए। आप यज्ञकर्मी श्रमशील/दानदाताओं को धन दें। (वही 10, 12) ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है इसलिए संपूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हैं। (1.123.2) फिर उन्हें भग और वरण की बहिन बताते हैं और सभी देवों में प्रथम स्तुति योग्य – सूनृते प्रथम जरस्व। (वही, 5) प्रार्थना है कि हमारे मुख दिव्य स्तुति गान करे। बुध्दि सत्कर्मों को प्रेरित करे। (वही, 6) ऊषा सतत् प्रवाह है। आती हैं, जाती हैं फिर आती हैं। जैसी आज आई हैं, वैसे ही आगे भी आएंगी और सूर्य देव के पहले आएगी। (वही, 8) भारत का लोकजीवन देवी उपासक है। वह सब तरफ माता ही देखता है। देवी उपासना काल से भी प्राचीन है। यहां पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये ऋग्वेद में तीन देवियां कही गयी हैं – इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव। (1.13.9) एक मंत्र (3.4.8) में ‘भारती को भारतीभिः’ कहकर बुलाया गया है – आ भारती भारतीभिः। यहां भारतीभिः भरतजनों की इष्ट हैं। फिर कहते हैं सजोषा इडा देवे मनुष्ये – इडा देवी मनुष्यों देवों के साथ यज्ञ अग्नि के समीप आयें और सरस्वती वाक्शक्ति के साथ पधारें। सरस्वती पहले नदी हैं, माता हैं। बाद में वे ज्ञान की देवी हैं, माता तब भी हैं। यज्ञ संस्कृति होने के कारण भारत कहने से अग्नि का बोध होने लगा – त्वं नो असि भारता अग्ने (2.7.5) तस्मा अग्निर्भारत (4.25.4) यज्ञ में मंत्र पाठ के कारण ऋषियों की वाणी को भारती कहा गया। यज्ञ की विभिन्न क्रियाओं को देवी रूप कल्पित करके उन्हें होत्रा, इडा आदि नाम दिए गये। इडा यज्ञ कर्म की प्रतीक है, यज्ञ की अग्नि भारत है, यज्ञ में काव्य पाठ करने वालों की वाणी भारती है। लेकिन मन की चंचलता कर्म साधना में बाधक है। मन की शासक देवी का नाम ‘मनीषा’ है। ऋषि उनका आवाहन करते हैं प्र शुकैतु देवी मनीषा। (7.34.1) प्रत्यक्ष देखे, सुने और अनुभव में आए दिव्य तत्वों के प्रति विश्वास बढ़ता है, पक्का विश्वास प्रगाढ़ भावदशा में श्रद्धा बनता है। ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवी हैं, श्रद्धा प्रातर्हवामहे, श्रद्धा मध्यंदिन परि, श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः – हम प्रातः काल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्याह्र में श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) यहां श्रद्धा जीवन और कर्म की शक्ति हैं, श्रद्धा से ही श्रद्धा की याचना में गहन भावबोध है। इस श्रद्धा का मतलब अंधविश्वास नहीं है। श्रद्धा विशेष प्रकार की दिव्य चित्त दशा है और प्रकृति की विभूतियों में शिखर है – श्रध्दां भगस्तय मूर्धनि। (10.151.1) देवी प्रत्यक्ष ऊर्जा है। देवी उपासना प्रकृति की विराट शक्ति की ही उपासना है। मूर्ति, बिम्ब और प्रतीक नाम ढेर सारे हैं – दुर्गा, महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी या सिद्धिदात्री आदि कोई नाम भी दीजिए। देवी दिव्यता हैं। माँ हैं। सो पालक हैं। भारत स्वाभाविक ही नवरात्रि उत्सवों के दौरान शक्ति उपासना में तल्लीन है।

व्‍यक्तिगत जीवन में दखलंदाजी न करे मीडिया

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सानिया मिर्जा शोएब मलिक से शादी करेंगी। यह ख़बर है पर इसने एक साथ ही कई मसलों को जन्म दे दिया है। पड़ोसी देश के साथ अंतर्राष्ट्रीय संबंध के मुद्दे के साथ-साथ सानिया और शोएब के पिछली जिंदगी को खंगालने का काम शुरू हुआ। सानिया को सलाह और निर्देश देनेवालों की भरमार हो रही है। राजनीतिक क्षेत्र से सबसे ज्यादा बयानबाजी हुई। समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी के बयान से तो लगता नहीं कि वे किसी सभ्य नागरिक समाज का हिस्सा हैं। जैसा बयान उन्होंने दिया है वैसा बयान शिवसेना दिया करती है और इस मसले को राष्ट्रीयता का रंग देकर वह यह काम कर भी रही है।

अबु आजमी का कहना है कि- जहाँ शादी पहले लगी थी वहाँ शादी करनी चाहिए। माँ बाप के कहने से शादी करनी चाहिए लेकिन ये मुहब्बत करनेवाले लोग हैं। पर मुझे यह पसंद नहीं कि सानिया पाकिस्तानी से शादी करें और दुबई में रहें तथा भारत के लिए खेलें। ध्यान रखें कि उनकी पार्टी के सुप्रीमो माननीय मुलायम सिंह ने महिला आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग की है। आरक्षण के अंदर आरक्षण मुद्दे पर देश का एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। आरक्षण के सामाजिक आधार को देखते हुए यह जाएज भी है। इस आधार पर मुलायम सिंह महिला आरक्षण बिल का विरोध कर रहें हैं लेकिन विरोध करते हुए निहायत ही गैरजिम्मेदाराना बयान दिया था कि आरक्षित सीटों पर चुनी गई महिला उम्मीदवारों को देखकर लोग सीटी बजाएंगे।

शिवसेना के कार्यकर्त्ता भी मैदान में आ गए हैं। शिवसेना का बयान है कि अगर सानिया मिर्जा शोएब मलिक से शादी करती हैं तो सानिया के साथ-साथ पूरे देश को ख़तरा है।

इसमें एक पक्ष पाकिस्तान टेनिस फेडरेशन के दिलावर अब्बास का भी है जो कहते हैं कि सानिया को पाकिस्तान की तरफ से खेलना चाहिए और पाकिस्तानी लड़कियों की प्रेरणा स्रोत बनना चाहिए। उसमें मुख्य जोर इस पर है कि सानिया को अपने पति का अनुसरण करना चाहिए।

उल्लेखनीय है कि परसों यानि 31 मार्च के पहले तक क़यास और अटकलें लगाई जाती रहीं। अपुष्ट ख़बरों के कैप्शन चलते रहे कि क्या सानिया शोएब से शादी करेंगी? कल जब सानिया ने पुष्टि की कि वे शोएब से शादी करने जा रही हैं। उन्होंने अपने परिवारजनों के साथ मीडिया के सामने आकर कहा कि वे शोएब से शादी के निर्णय पर बहुत खुश हैं, उनके परिवार के लोग भी खुश हैं और वे चाहती हैं कि मीडियावाले भी इस खुशी में शामिल हों। वे इस समय सिर्फ शादी की तैयारियों के बारे में सोच रही हैं। तमाम उलझन भरे सवालों के जवाब में सानिया ने कहा कि वे भारत के लिए खेलेंगी और शोएब, इंशाअल्लाह पाकिस्तान के लिए और वे शादी के बाद दुबई रहेंगी। इसके साथ ही मीडिया ने उनके पूर्व मंगेतर सोहराब जो विदेश में एमबीए की पढ़ाई कर रहा है, के परिवारवालों को खोज निकाला। सोहराब के पिता का बयान था कि वे सानिया को आशीर्वाद देंगे और बुलाने पर शादी में भी शामिल होंगे।

मीडिया कवरेज के दौरान और पाकिस्तान फेडरेशन के अध्यक्ष के बयान के जवाब में दिए गए बयान में कि सानिया भारत के लिए खेलेगी, सानिया के पिता- माता सानिया की पसंद के साथ दिखाई दिए। फिर पता नहीं अबु आजमी और शिवसेना को कैसे यह इलहाम हो गया कि सानिया का यह निर्णय माता-पिता, घर -परिवार और देश के खिलाफ है। मुहब्बत करनेवाले क्या अपराधी होते हैं?

सबसे महत्वपूर्ण बात कि सारी सलाह सानिया को क्यों? क्या इसमें सानिया का लड़की होना और आधुनिक बिंदास फैशनेबल छवि, इससे पहले भी संबंधों का टूटना आदि कहीं उसके खिलाफ तो नहीं जा रहा? यह जानना चाहिए कि टेनिस और फैशन की दुनिया का संबंध नया नहीं है। विलियम्स बहनें और अन्य महिला खिलाड़िनें इसका हिस्सा रही हैं। सानिया की छवि के साथ ग्लैमर की दुनिया का गहरा संबंध है। वे मीडिया आईकॉन हैं। लेकिन इन सबसे क्या अपनी निजी जिन्दगी के फैसले लेने का उनका हक़ छिन जाता है। भारतीय मीडिया क्या पप्पाराजी की तरफ बढ़ रहा है? और यदि ऐसा है तो शोएब के लिए वह इस सलाह को किसी नेता के मुँह से क्यों नहीं निकलवा लेता कि शोएब शादी के बाद हिन्दुस्तान के लिए खेलेंगे?

दरअसल शादी एक पूरा पैकेज है। वह चाहे ‘मुहब्बत’ वाली हो या ‘बिना मुहब्बतवाली’। इसके अंदर के संबंधों और दुनिया को व्यक्तिगत तरीके से परिभाषित करने की कोशिश हो रही है पर आम राय और उम्मीदें शादी के पैकेज के अनुकूल ही हैं। इसी कारण सानिया से बहू होने के फर्ज को पूरा करने की उम्मीद है। शादी के अंदर मौजूद यौनशुचिता की धारणा के तहत ही सानिया के पुराने संबंधों को खोज-खोजकर बताया जा रहा है। जबकि शोएब द्वारा पहली पत्नी(यदि वह है तो) से तलाक़ लिए बिना सानिया से शादी की ख़बर मीडिया में आने के बावजूद हमें नहीं चौंकाती। शोएब की पहली पत्नी(?) से तलाक़ न होने की स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित सानिया, शोएब और उनकी पहली पत्नी(?) होंगी। तो क्या ये लोग इससे अनजान हैं? यदि नहीं तो मीडिया और अन्य लोगों को कोई भी हक़ नहीं है कि वे राष्ट्रीयता के नाम पर, देश की बेटी या बहू के नाम पर, सेलिब्रिटी के नाम पर किसी के व्यक्तिगत जीवन में टांग अड़ाएं। यदि विवाह एक क़ानूनी प्रक्रिया है तो विवाह से मुक्त होना भी एक क़ानूनी प्रक्रिया है और क़ानून के दरवाजे सबके लिए खुले हैं। हर व्यक्ति को अपनी निजी जिन्दगी अपने ढंग से जीने का अधिकार है।

– सुधा सिंह

ऑनर किलिंग : अदालती फ़ैसले से उम्मीदें जगीं

हरियाणा में ऑनर किलिंग मामले में दोषियों को कड़ी सज़ा दिए जाने से खाप पंचायतों की तानाशाही पर कुछ अंकुश लगेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है. इस फ़ैसले ने जहां समाज को यह संदेश दिया है कि क़ानून से ऊपर कुछ भी नहीं है, वहीं सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे लोगों का मनोबल भी बढ़ाया है.

क़ाबिले-गौर है कि करनाल के सत्न न्यायालय ने मनोज-बबली हत्याकांड के पांच दोषियों को फांसी और एक को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई है. कोर्ट ने 25 मार्च को इस मामले में तथाकथित खाप नेता गंगा राज और बबली के पांच परिजनों को क़त्ल का कसूरवार ठहराया था. कैथल ज़िले के करोडन गांव के मनोज ने क़रीब तीन साल पहले 18 मई 2007 को बबली के घरवालों के विरोध के बावजूद उससे शादी की थी. दोनों के समान गोत्न का होने के कारण खाप पंचायत ने इस विवाह का विरोध किया और मनोज के परिवार के सामाजिक बहिष्कार का फैसला सुना दिया. शादी के बाद मनोज और बबली करनाल में जाकर रहने लगे, लेकिन अब भी उनकी मुसीबतें अब भी कम नहीं उन्हें शादी तोड़ने के लिए कहा जाने लगा. जब उन्होंने इनकार कर दिया तो उन्हें धमकियां मिलने लगीं और 15 जून 2007 को उनकी बेरहमी से ह्त्या कर दी गई थी. इनके शव बाद में 23 जून को बरवाला ब्रांच नहर से बरामद हुए थे. लगभग तीन साल तक चले इस मामले में लगभग 50 सुनवाइयां हुईं तथा इस दौरान 40 से ज्यादा गवाहों के बयान दर्ज किए गए थे.

प्राचीनकाल से ही भारत में सामाजिक, राजनीतिक व अन्य मामलों में पंचायत की अहम भूमिका रही है. पहले हर छोटे बड़े फैसले पंचायत के ज़रिये ही निपटाए जाते थे. गांवों में आज भी पंचायतों का बोलबाला है. पंचायतों दो प्रकार की होती हैं. एक लोकतांत्रिक प्रणाली द्वारा चुनी गई पंचायतें और दूसरी खाप पंचायतें. दरअसल, खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा उत्तर भारत विशेषकर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में प्रचलित हैं. ये पंचायतें पिछले काफी वक़्त से अपने के फैसलों को लेकर सुर्ख़ियों में रही हैं. बानगी देखिये :

20 मार्च 1994 को झज्जर जिले के नया गांव में मनोज व आशा को मौत की सजा मिली. परिजनों ने खाप पंचायतों की हरी झंडी मिलने के बाद दोनों प्रेमियों को मौत की नींद सुला दिया.

वर्ष 1999 में भिवानी के देशराज व निर्मला को पंचायत के ठेकेदारों को ठेंगा दिखाकर प्रेम-प्रसंग जारी रखने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. दोनों की पत्थर मारकर हत्या कर दी गई.

वर्ष 2000 में झज्जर जिले के जोणधी गांव में हुई पंचायत ने आशीष व दर्शना को भाई-बहन का रिश्ता कायम करने का फरमान सुनाया, जबकि उनका एक अब्च्चा भी था.

वर्ष 2003 में जींद जिले के रामगढ़ गांव में दलित युवती मीनाक्षी ने सिख समुदाय के लड़के से प्रेम विवाह कर लिया. चूंकि कदम लड़की ने बढ़ाया था, लिहाजा उसे पंचायती लोगों ने मौत की सजा सुना दी. साहसी प्रेमी जोड़े ने कोर्ट की शरण लेकर विवाह तो कर लिया, लेकिन उन्हें दूसरे राज्य में जाकर गुमनामी की जिंदगी गुजारनी पड़ी.

वर्ष 2005 के दौरान झज्जर जिले के आसंडा गांव में रामपाल व सोनिया को भी पति-पत्नी से भाई-बहन बनने का फरमान सुना दिया. राठी व दहिया गोत्र के बीच अटका यह मामला भी लंबा खिंचा. आखिर रामपाल को अदालत की शरण लेनी पड़ी। करीब पौने तीन साल की अदालती लड़ाई के बाद रामपाल की जीत हुई, लेकिन खाप पंचायतों का खौफ उन्हें आज भी है.

करनाल जिले के बल्ला गांव में भी 9 मई 2008 को एक प्रेमी जोड़े को पंचायत के ठेकेदारों की शह पर मौत के घात उतार दिया गया. जस्सा व सुनीता भी एक ही गोत्र से थे. दोनों ने पंचायत की परवाह न करते हुए शादी कर ली, मगर कुछ समय बाद ही दोनों की बेरहमी से हत्या कर दी गई.

अप्रैल 2009 के दौरान कैथल जिले के करोड़ गांव में विवाह रचाने वाले मनोज व बबली को मौत की नींद सुला दिया गया. दोनों एक ही गोत्र के थे. उन्हें बुरा अंजाम भुगतने की धमकी दी गई थी, लेकिन इसकी परवाह न करते हुए उन्होंने विवाह कर लिया था. बाद में दोनों को बस से उतारकर मार दिया गया.

हिसार जिले के मतलौडा गांव में मेहर और सुमन की प्रेम न करने की चेतावनी दी गई. कई दिनों तक लुका-छिपी चलती रही, लेकिन आखिर में उन्हें भी मौत की नींद सुला दिया गया.

नारनौल जिले के गांव बेगपुर में गोत्र विवाद के चलते युवक के परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया गया. बाद में पंचायत ने फैसला सुनाया कि नवदंपत्ति को सदैव के लिए गांव छोड़ना होगा. आखिर विजय अपनी पत्नी रानी को लेकर हमेशा के लिए गांव से चला गया.

जुलाई 2009 के दौरान जींद जिले के गांव सिंहवाल में अपनी पत्नी को लेने पहुंचे वेदपाल की कोर्ट के वारंट अफसर व पुलिस की मौजूदगी में पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। मट्टौर निवासी वेदपाल पर पंचायत ने आरोप लगाया था कि उसने गोत्र के खिलाफ जाकर सोनिया से शादी की है.

झज्जर जिले के सिवाना गांव में भी अगस्त 2009 में गांव के ही युवक-युवती का प्रेम-प्रसंग पंचायत को बुरा लगा. एक दिन दोनों के शव पेड़ पर लटकते मिले.

रोहतक जिले के खेड़ी गांव में शादी के साल बाद सतीश व कविता को भाई-बहन बनने का फरमान सुना दिया गया. पति-पत्नी को अलग कर दिया गया और युवक के पिता आजाद सिंह के मुंह में जूता ठूंसा गया था. इनका एक बच्चा भी है. इस मुद्दे पर हाईकोर्ट ने स्वयं संज्ञान लेते हुए सरकार को नोटिस जारी किया था. अदालत ने 11 फरवरी को उन पंचायतियों के नाम मांगे हैं, जिन्होंने यह फतवा जारी किया था. इस संबंध में कविता ने एसपी अनिल राव को शिकायत भी दर्ज करा दी थी. पुलिस ने विभिन्न धाराओं के तहत मामला भी दर्ज कर लिया है. हालांकि पुलिस ने अभी तक आरोपियों के नाम उजागर नहीं किए हैं. हालांकि पांच फरवरी को बेरवाल-बैनीवाल खाप की सांझा पंचायत के बाद सतीश-कविता का रिश्ता बहाल कर दिया था. जूता मुंह में दिए जाने की भी निंदा की गई थी. इस पंचायत ने भी कविता के गांव खेड़ी में प्रवेश पर रोक लगाई है. इस पंचायत ने कविता द्वारा पुलिस को की गई शिकायत वापस लेने के भी कहा था. दोनों पक्षों ने बेरवाल-बैनीवाल खाप पंचायत के फैसले को स्वीकार करने की घोषणा कर दी थी. इसके बावजूद हाईकोर्ट के दखल के कारण इस मुद्दे पर अभी असंमजस की स्थिति बनी हुई है. इस माले में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मुकुल मुदगल व जस्टिस जसबीर सिंह की खंडपीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा था-‘खाप पंचायतों को इस तरह का कोई अधिकार नहीं है कि वे किसी दंपती को भाई-बहन बना दें और जो उसके आदेश का पालन न करे, उसे मौत के घाट उतार दें। यह एक सामाजिक बुराई है। इन खाप पंचायतों को समानांतर न्याय पालिका चलाने की अनुमति नहीं दी जा सकती.‘

वैसे खाप पंचायतों द्वारा दिए गए निर्णयों के खिलाफ हाईकोर्ट की खंडपीठ का रूख सदा ही कड़ा रहा है. इस मामले में पहले भी हाईकोर्ट हरियाणा सरकार से यह पूछ चुका है कि वह कानून के खिलाफ काम करने वाली व तुगलकी फरमान जारी करने वाली खाप पंचायतों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही. हाईकोर्ट ने कहा था कि इन पंचायतों द्वारा इस तरह के आदेश जारी करना गैर कानूनी है. इस तरह के आदेश कंगारू ला की तरह हैं और उनको रोकना जरूरी है. यह अफगानिस्तान नही है, यह भारत है। यहां पर तालिबान कोर्ट को मान्यता नहीं दी जा सकती. चीफ जस्टिस ने यह बात उस वकील को कही थी जिसने कोर्ट में एक जवाब फाइल कर खाप पंचायतों के कदम व उनकी कार्रवाई को सही ठहराया था.

काबिले गौर है की इस तरह के मुद्दे हमेशा से ही सरकार के लिए भी परेशानी का सबब बने हैं, क्योंकि वोट बैंक के चलते सियासी दल इन मामलों से दूर ही रहते हैं. राज्य में करीब 22 फीसदी जाट वोट बैंक है. यही वजह कि राज्य सरकार किसी की भी हो खाप पंचायतों के आगे घुटने टेकती है. यही वजह है कि मौत तक के फरमान जारी हुए और उन पर अमल हुआ. पुलिस को गवाह तक ढूंढना मुश्किल होता है. ऊपर से सियासी दबाव अलग काम करता है. इसलिए खाप पंचायतों की तानाशाही के सामने प्रशासन भी बेबस नज़र आता है.

हरियाणा में इन पंचायतों का इतना खौफ है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में परिजनों से जान का खतरा बताने वाले प्रेमी जोड़ों की याचिकाओं की तादाद दिनोदिन बढ़ रही है. पिछले साल 3739 याचिकाएं हाईकोर्ट में आईं और इस साल अभी 28 याचिकाएं आ चुकी हैं, जिनमें अपने परिजनों से ही जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की गुहार लगाई गई है. इया मामले में अदालत ने आगामी 4 मार्च को प्रदेश के महाधिवक्ता को तलब किया है.

खाप पंचायतों के फैसले से आहत हुए सतीश और कविता का कहना है कि शादी के तीन साल बाद उन्हें भाई-बहन बनने के लिए कहा जा रहा है. मेरे ससुर के मुंह में जूता डाला जाता है, बेटे रौनक के ‘दादा’ को ‘नाना’ बनने के लिए कहा जाता है. खाप पंचायतों के फरमानों का खामियाजा भुगतने वाले झज्जर के आसंडा निवासी रामपाल व सोनिया का कहना है कि वक्त के साथ पंचायतों को बदलना होगा. पंचायत ने हम दोनों को शादी के बाद भाई-बहन बनने का फरमान जारी कर दिया था. खाप पंचायतों के प्रतिनिधि परंपराओं के नाम पर खुद के अहं को ऊपर रखते हैं.

उधर, खाप पंचायतों के प्रतिनिधि के भी खुद को सही बताते हुए अनेक तर्क देते हैं. उनका कहना है कि हिन्दू मेरिज एक्ट में संशोधन होना चाहिए और एक गोत्र तथा एक गांव में शादी को कानून अनुमति नहीं मिलनी चाहिए. सर्व खाप महम चौबीसी के प्रधान रणधीर सिंह कहते हैं हिन्दू मेरिज एक्ट में खासकर उत्तर हरियाणा की परंपराओं का कोई उल्लेख नहीं है. उन्हें प्रेम करने वालों से ऐतराज नहीं है, लेकिन जहां भाई-बहन का रिश्ता माना जाता है वहां पति-पत्नी का संबंध जोड़ना उचित नहीं है. इसलिए इससे बचा जाना चाहिए. अलग-अलग गांवों के युवा शादी करते हैं तो उन्हें दिक्कत नहीं है. उन्होंने कहा कि सतीश और कविता के मामले में खाप पंचायत ने नरमी दिखाई है.

गौरतलब है कि गैर सरकारी संगठन लायर फार ह्यूमन राइट इंटरनेशनल ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल कर खाप पंचायतों द्वारा गैर कानूनी व तानाशाही आदेश जारी करने के खिलाफ कार्रवाई करने व इन खाप पंचायतों पर रोक लगाने की मांग की है. साथ ही याचिका में कहा गया है कि सिंगवाल नरवाना में खाप पंचायत द्वारा मारे गए युवक वेदपाल के मामले की जांच के लिए वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी की अगुवाई में एक एसआईटी बनाई जाए जो हाईकोर्ट की निगरानी में काम करे. इस मामले की सुनवाई के लिए एक स्पेशल कोर्ट भी बनाई जाए जो इस मामले में शामिल लोगों को जल्दी सजा दे सके.

बहरहाल, खाप पंचायतों की तानाशाही फ़रमानों से परेशान प्रेमी जोड़ों को आस बंधी है कि वो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी जिंदगी बसर कर सकते हैं. जो प्रेमी युगल गोत्र विवाद के चलते अपनी जान गंवा चुके हैं, उनके लिए इंसाफ़ के लिए भटक रहे परिजनों को भी इस फ़ैसले से राहत ज़रूर महसूस हुई होगी.

-फ़िरदौस ख़ान

इस पौरूषपूर्ण समय में साधारण नहीं है स्त्री को समान अधिकार देने का संघर्ष

नारे हों या प्रतीक, राजनीति उन्हें इस्तेमाल कर निस्तेज होते ही कूड़ेदान में फेंक देती है। ‘राजनीति’ में ‘स्त्री’ का नारा भगवान करे वैसे ही गति को प्राप्त न हो। नारे उजास जगाते हैं, रोशनी की किरण बन जाते हैं लेकिन इस पौरुषपूर्ण समय में वे बलशाली, आक्रामक और हठी लोगों के बंधक बनकर रह जाते हैं। यह देखना कितना विचित्र है कि एक व्यक्ति जो एक घोटाले के आरोप में जेल जाते समय अपनी पत्नी को ‘मुख्यमंत्री’ की कुर्सी पर बिठा जाता है, लेकिन लोकसभा में वह महिला आरक्षण विधेयक के खिलाफ सबसे ज्यादा गला फाड़ता है।

जब स्व. फूलनदेवी को ‘अन्याय का प्रतिकार करने वाली स्त्री’ बताकर राजनीति में लाने वाले मुलायम सिंह यादव भी आरक्षण विधेयक पर अपनी शैली में लाठियां भांजते नजर आते हैं तो बात सिर्फ प्रतीकों से आगे जाती नहीं दिखती-संकट का असल कारण यही है। अधिकार और दुलार उतना ही, जितना पुरुष तय करे या पुरुषवादी तय करें। शायद इसीलिए बहुत पहले श्रीमती इंदिरा गांधी को सिरमाथे बिठाने के बावजूद हम स्त्री के लिए राजनीति को सुरक्षित और अनुकूल क्षेत्र नहीं बना पाए। इंदिरा गांधी हमारे लिए दरअसल एक स्त्री की सफलता का, उसकी जद्दोजहद का प्रतीक नहीं बन पाई। हमने उन्हें विशिष्ट परिवार से आने के कारण, खास दैवी शक्तियों से युक्त मान लिया। जबकि ऐसा मूल्यांकन स्वयं इंदिराजी और देश की महान स्त्रियों का अपमान है।

इस देश की स्त्री के लिए तंग होता दरवाजा इसे और अराजक बनाता गया। आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने जिस स्त्री में देशभक्ति,समाज सुधार का जुनून फूंका था, जिसके चलते वह आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन का हिस्सा बनी रही, आजादी मिलते ही वापस अपनी काराओं और कठघरों में कैद हो गई। सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, प्रकाशवती पाल, उषा मेंहता, निर्मला देशपांडे, तारकेश्वरी सिन्हा, कैप्टन लक्ष्मी सहगल आदि अनेक नाम थे, जिन्होंने अपना सार्थक योगदान देकर स्त्री की सामर्थ्य को साबित किया। लंबे समय तक पसरे शून्य के बाद पंचायती राय की कल्पना के क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मन में स्त्री को उचित प्रतिनिधित्व देने का का विचार आया । यह ताजा महिला आरक्षण विधेयक उसी कल्पना के महल पर खड़ा है। देखते ही देखते स्थानीय सरकारों (नगरपालिका, पंचायतों) का चेहरा बदल गया। बड़ी संख्या में औरतों ने घर से निकलकर लोक प्रशासन की कमान संभाली। इस प्रक्रिया में ‘प्रधान पति’ और ‘सभासद पति’ जैसे अघोषित पद जरूर अस्तित्व में आ गए। परिवारवाद के पसरने की बातें शुरू हुई। लेकिन यह सब बदलाव के एक ही चित्र को देखना है। जब इन पदों पर पुरुष बैठते थे तो भी लाचारियां सामने थीं। यदि पुरुष अहंकार से उपजे मानस की टिप्पणी यह है कि ‘अगर महिलाओं का दखल बढ़ा तो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा’ तो यह भी देखना होगा कि 50-52 सालों में भारत के लोकतंत्र को पुरुषों ने कितना उपयोगी, जनधर्मी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाया है? आज राजनीति का जो ‘काजल की कोठरी’ वाला स्वरूप है, क्या उसकी जिम्मेदारी पुरुष लेना चाहेंगे? क्या सरकारी प्रशासन में घटती संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार और नकारेपन के साथ लगभग ध्वस्त हो चुके मूलभूत ढांचे का श्रेय वे लेना चाहेंगे? जाहिर है कि ऐसे आरोप मामले को अतिसरलीकृत करके देखने का प्रयास ही कहे जाएंगे। इनसे हटकर शिक्षा, आर्थिक समृद्धि और सत्ता में भागीदारी जैसे तीन मंत्रों से ही स्त्री मजबूत और अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। आज असली सवाल स्त्री को पुरुष बनाने का नहीं, बल्कि उसे पुरुषों के समान अधिकार देने का है। आरक्षण भी इस दिशा में सिर्फ एक कदम है, समस्या का संपूर्ण निदान नहीं है। सही मानस बनाकर स्त्री के शक्तिकरण के प्रयास न हुए तो यह भी चंद स्त्रियों के विकास और सत्ता के गलियारों में उनकी हिस्सेदारी का उपक्रम बनकर रह जाएगा। समग्र समाज को साथ लेकर प्रतीकात्मक कार्यवाइयों को आंदोलन व बदलाव की बुनियाद तक ले जाने का जज्बा न होगा तो ऐसी कार्रवाइयां कोई मतलब नहीं रखतीं, क्योंकि इस्तेमाल होने से बचने के लिए न्यूनतम शक्तियां ही स्त्री के पास हैं। आरक्षण मिलने पर भी मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी या जमीनी संघर्ष कर रही ऐसी महिलाओं को भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र संसद में लाएगा, इसकी उम्मीद न पालिए। टिकटों के बंटवारे की कुंजी तब भी आमतौर पर पुरुषों के हाथ में ही होगी। 33 प्रतिशत आरक्षण की मजबूरी में वे ‘भाभी-बहुओं’ और ‘मित्रों’ को टिकट जरूर देंगे, ताकि ‘इनके’ जरिए ‘उनका’ शासन चलता रहे। आप ध्यान दें कई बार लोकसभा चुनावों में दागी राजनेताओं का पत्ता कटने पर जिस तरह उनकी बीबियों को मैदान में उतारा गया और ‘दाग’ मिटते ही वे बीबियों को इस्तीफा दिलाकर वापस संसद में लौटने को जिस तरह बेताब हो गए वह इसी मानसिकता का एक उदाहरण है। बिहार में राबड़ी देवी इसका सबसे जीवंत प्रतीक हैं। ऐसे समय में बदलती दुनिया और अवसरों के परिप्रेक्ष्य में औरत के लिए अपनी जगह बनाना बहुत आसान नहीं है।

समाज जीवन के तमाम क्षेत्रों में वे बेहतर काम कर रही हैं, किंतु राजनीति का मंच इतना साधारण नहीं है। इस मंच पर जगह पाने की भूख स्त्री में जिस परिमाण में बढ़ी है, समाज और पुरुष में उस रफ्तार से बदलाव नहीं आया है।

नई बाजारवादी व्यवस्था ने औरत की बोली लगानी शुरू की है, उसके भाव बढ़े हैं। सौंदर्य के बाजार कदम-कदम पर सज गए हैं, लेकिन बाजार का यह आमंत्रण, सत्ता के आमंत्रण जैसा नहीं है। दोनों जगहों पर उसकी चुनौतियां अलग हैं। सौंदर्य के बाजार में स्त्री विरोधी परंपराएं और नाजुकता रूप बदलकर बिक रही है, लेकिन सत्ता के मंच पर स्त्री का आमंत्रण उनके दायित्वबोध, नेतृत्वक्षमता और दक्षता का आमंत्रण है। जिस भी नीयत से हो, यह आमंत्रण सार्थक बदलाव की उम्मीद जगाता है। राजनीतिज्ञों के प्रपंचों के बावजूद यदि भारतीय स्त्री ने इस आमंत्रण को स्वीकारा और वे सिर्फ सत्ता के खेल का हाथियार न बनीं तो महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का चेहरा-मोहरा बदलकर रख देगा और तब महामानव गौतम बुद्ध द्वारा ढाई हजार साल पहले कही गई यह उक्ति के ‘स्त्री होना ही दुःख है’ शायद अप्रासंगिक हो जाए और फिर शायद किसी पामेंला बोर्डिस को यह कहने की जरूरत न पड़े कि ‘यह समाज अब भी मिट्टी-गारे की बनी झुग्गी में रहता है।’

-संजय द्विवेदी

समीक्षा का अतिवाद है ‘प्रशंसा’ और ‘खारिज करना’

हिन्दी साहित्यालोचना में मीडिया में व्यक्त नए मूल्यों और मान्यताओं के प्रति संदेह,हिकारत और अस्वीकार का भाव बार-बार व्यक्त हुआ है। इसका आदर्श नमूना है परिवार के विखंडन खासकर संयुक्त परिवार के टूटने पर असंतोष का इजहार। एकल परिवार को अधिकांश आलोचकों के द्वारा सकारात्मक नजरिए से न देख पाना। सार्वजनिक और निजी जीवन में ‘तर्क’ की बजाय ‘अतर्क’ के प्रति समर्पण और महिमामंडन। आजादी के बाद की आलोचना की केन्द्रीय कमजोरी है कल्याणकारी राज्य की सही समझ का अभाव। सार्वजनिक और निजी के रूपान्तरण की प्रक्रियाओं का अज्ञान। सच यह है कि कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य की सांस्कृतिक भूमिका के बारे में हमने कभी विचार नहीं किया गया। उलटे कल्याणकारी राज्य का महिमामंडन किया। अथवा उसे एकसिरे से खारिज किया।

प्रशंसा और खारिज करना ये दोनों ही अतिवादी नजरिए की देन हैं। इनका सही समझ के साथ कोई संबंध नहीं है। कल्याणकारी पूंजीवादी राज्य का अर्थ सब्सीडी, राहत उपायों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों का निर्माण करना ही नहीं है। अपितु कल्याणकारी राज्य आंतरिक गुलामी भी पैदा करता है। कल्याणकारी राज्य ने दो बड़े क्षेत्रों के चित्रण पर जोर दिया पहला-परिवार, इसमें भी मध्यवर्गीय परिवार पर जोर रहा है, चित्रण का दूसरा क्षेत्र है राजसत्ता और बाजार। स्वातंत्र्योत्तर अधिकांश साहित्य इन दो क्षेत्रों का ही चित्रण करता है।

सवाल उठता है कल्याणकारी राज्य हो और आंतरिक गुलामी न हो? कल्याणकारी राज्य के परिप्रेक्ष्य में साहित्य के प्रति क्या नजरिया होना चाहिए? साहित्य को प्रदर्शन की चीज बनाया जाए, अथवा आलोचनात्मक वातावरण बनाने का औजार बनाया जाए? कल्याणकारी राज्य में ‘सार्वजनिक’ और ‘निजी’ स्पेयर या वातावरण का क्या रूप होता है? इसके दौरान किस तरह का साहित्य लिखा जाता है? किस तरह के मुद्दे बहस के केन्द्र में आते हैं? साहित्य की धारणा,भूमिका और प्रभाव की प्रक्रिया में किस तरह के परिवर्तन आते हैं?

कल्याणकारी राज्य साहित्य को ‘सेलीबरेटी’, प्रदर्शन, नजारे, तमाशे, बहस आदि की केटेगरी में पहुँचा देता है, कृति और साहित्यकार को सैलीबरेटी बना देता है। अब साहित्य और साहित्यकार के प्रदर्शन और सार्वजनिक वक्तव्य का महत्व होता है किंतु उसका कोई असर नहीं होता।

लेखक का बयान अथवा कृति को साहित्येतिहास का हिस्सा माना जाता है। उसका सामाजिक -राजनीतिक तौर पर गंभीर असर नहीं होता, लेखक की जनप्रियता बढ़ जाती है। किंतु सामाजिक संरचनाओं पर उसका प्रभाव नहीं होता। साहित्य और लेखक अप्रभावी घटक बनकर रह जाता है। लिखे का सामाजिक रूपान्तरण नहीं हो पाता।

आप लिखे पर बहस कर सकते हैं किंतु भौतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में उसे रूपान्तरित नहीं कर सकते। अब साहित्य और साहित्यकार दिखाऊ माल बनकर रह जाते हैं। आलोचना का उपयोगितावाद के साथ चोली-दामन का संबंध बन जाता है। अब साहित्यालोचना उपयोगिता के नजरिए से लिखी जाती है,आलोचकगण सामयिक मंचीय जरूरतों के लिहाज से बयान देते हैं। यह एक तरह का साहित्यिक प्रमोशन है।

साहित्य प्रमोशन और तद्जनित आलोचना का मासकल्चर के प्रसार के साथ गहरा संबंध है। मासकल्चर का प्रसार जितना होगा साहित्य में प्रायोजित आलोचना का उतना ही प्रचार होगा। प्रायोजित आलोचना मासकल्चर की संतान है।

भारत में कल्याणकारी राज्य का उदय साम्राज्यवाद के साथ आंतरिक अन्तर्विरोधों के गर्भ से हुआ। राज्य और जनता के संबंधों के बीच में गहरी गुत्थमगुत्था चल रही थी और सार्वजनिक और निजी में तनाव था, राज्य और जनता के बीच पैदा हुए संकट के ‘प्रबंधन’ तंत्र के रूप में कल्याणकारी राज्य का उदय हुआ। इस संकट के समाधानों को उपभोग और बाजार के तर्कों के बहाने हल करने की कोशिश की। उपभोग और बाजार की प्रबंधन में केन्द्रीय भूमिका रही है। संकट के प्रबंधन की इस पध्दति का लक्ष्य था राज्य निर्देशित सार्वजनिक वातावरण तैयार करना,सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा करना, आमजनता को संकट से बचाने के लिए राहत देना, कल्याणकारी राहतों के तौर पर मजदूर संगठनों और सामाजिक आन्दोलनों को राहत देना।

कल्याणकारी राज्य के आने के साथ सार्वजनिक और निजी के बीच का भेद कम होने लगता है। कल्याणकारी राज्य वस्तुओं की खपत,मांग,आकांक्षा आदि को बढ़ावा देता है ,उपभोक्ता के असंतोष में इजाफा करता है। वस्तुओं के उपभोग में इजाफा और उपभोक्ता असंतोष को विस्तार देता है। वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि और नागरिक अधिकारों का क्षय, पत्रकारिता का मासमीडिया में रूपान्तरण, सार्वजनिक वातावरण के प्रति सम्मानभाव, निजता की उपेक्षा, राजनीतिक दलों में नौकरशाहाना रवैयये का विकास, साहित्य में सैलेबरेटी भाव, पूजाभाव, समाज और साहित्य से आलोचना का अलगाव,साहित्य और पाठक के बीच महा-अंतराल कल्याणकारी राज्य की सौगात है। कल्याणकारी राज्य में नौकरशाही सबसे ज्यादा ताकतवर और आम जनता शक्तिहीन होती है। कल्याणकारी राज्य आम जनता को निरस्त्र बनाता है। प्रतिरोधहीन बनाता है। जो लोग सोचते हैं कि आज की तुलना में कल्याणकारी राज्य ठीक था, वे गलत सोचते हैं, कल्याणकारी रास्ते से ही परवर्ती पूंजीवाद का विकास होता है। कल्याणकारी राज्य स्वभावत: बर्बर होता है। आपात्काल को कल्याणकारी राज्य ने ही लागू किया था। आपात्काल में ही हमारे संविधान में बदनाम 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के आमुख में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जोड़े गए थे।

कल्याणकारी नीतियों के कारण जीवन के बुनियादी क्षेत्रों शिक्षा,स्वास्थ्य, परिवार कल्याण,पानी,बिजली आदि क्षेत्रों की समस्त संरचनाएं खोखली हो जाती हैं। इसका असर साहित्य और अन्य कलारूपों पर भी पड़ता है ऐसा साहित्य और आलोचना बड़ी मात्रा में सामने आता है जो कृत्रिम है अथवा निर्मित है अथवा खोखली अवधारणाओं को व्यक्त करता है। अब हम निर्मित आलोचना को ही वास्तव आलोचना समझने लगते हैं। सारी मुश्किलें आलोचना के इसी रूप के गर्भ से पैदा हो रही हैं। उल्लेखनीय है निर्मित साहित्य,निर्मित आलोचना मूलत: स्टीरियोटाइप आलोचना है। इसका समाज की वास्तविकता,साहित्य की वास्तविकता और आम जनता के जीवन की वास्तविकताओं के साथ कोई संबंध नहीं है। मजेदार बात यह है जो आलोचना के पुरस्कत्तर्ाा हैं वे ही निर्मित आलोचना के भी सर्जक हैं।

कल्याणकारी राज्य प्रतीकात्मक सामाजिकीकरण करता है। व्यवस्था से जोड़े रखता है। कल्याणकारी राज्य के संस्थान प्रतीकात्मक भूमिका निभाते हैं। प्रतीकात्मक भूमिका की ओट में बर्बरता, मूल्यहीनताऔर आंतरिक उपनिवेशवाद का निर्माण किया जाता है। कल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों से नाभिनालबध्द आलोचना का लक्ष्य है आलोचनात्मक विवेक से मनुष्य को मुक्त करना ,आलोचना के वातावरण को नष्ट करना और मनुष्य को आंतरिक तौर पर गुलाम बनाना। अब जीवन और व्यवस्था के बीच ‘पैसा’ और ‘पावर’ के नियम निर्णायक भूमिका अदा करने लगते हैं। वे जीवन के आंतरिक आयामों में गहरे पैठ बना लेते हैं।

अर्थव्यवस्था और प्रशासनिक संरचनाओं के द्वारा सार्वजनिक और निजी को मातहत बनाकर रखने का भाव खत्म हो जाता है। अब प्रशासन के द्वारा तय मूल्य, नियम, मान्यताएं व्याख्याओं आदि का दैनन्दिन जीवन में महत्व खत्म हो जाता है। मजदूरवर्ग और नागरिकों की जीवनमूल्यों, आंतरिक जिंदगी और व्यवस्था को प्रभावित करने की क्षमता खत्म हो जाती है। अब नए किस्म का विरेचन शुरू हो जाता है। अब नागरिक की बजाय उपभोक्ता और ग्राहक महान बन जाता है। अब मूल्याधारित परिवर्तनों की बजाय भेदपूर्ण संचार का संदर्भ भूमिका अदा करने लगता है। सांस्कृतिक संसाधनों में नए सिरे से प्राणसंचार संभव नहीं रहता। अब सांस्कृतिक संसाधन व्यक्तिगत और सामुदायिक की प्रतीकात्मक पहचान का हिस्साभर बनकर रह जाते हैं। प्रतीकात्मक पुनर्रूत्पादन अस्थिर हो जाता है। अस्मिता के लिए खतरा पैदा हो जाता है और सामाजिक संकट की आम फिनोमिना के तौर पर फूट पड़ता प्रवृत्ति है।

उल्लेखनीय है कल्याणकारी राज्य शीतयुध्द के परिप्रेक्ष्य में विकसित होता है जिसका हमारे समूचे चिन्तन पर असर पड़ता है। आलोचना से लेकर राजनीति तक सभी क्षेत्रों में शीतयुध्दीय केटेगरी और अवधारणाओं का उत्पादन और पुनर्रूत्पादन बढ़ जाता है। हिन्दी के सन् 1972-73 के बाद के प्रगतिशील साहित्य, नयी कविता, जनवादी साहित्य, आधुनिकतावादी साहित्य पर शीतयुद्ध की अवधारणाओं का गहरा असर साफ तौर पर देखा जा सकता है।

कल्याणकारी राज्य में आंतरिक उपनिवेशवाद के कारण नए किस्म के अन्तर्विरोध और संकट पैदा होते हैं। नयी उन्नत तकनीक के आने के कारण पेशेवर पहचान बदलती है, निजी जीवन में पैसे की भूमिका निर्णायक हो जाती है। उपभोक्ता की भूमिका बढ जाती है। वर्गसंघर्ष और बुर्जुआ क्रांति के कार्यभारों को कल्याणकारी राज्य स्थगित कर देता है। अब मजदूर संघर्ष नहीं करते बल्कि ज्यादा से ज्यादा

अन्य गैर बाजिव समस्याओं में मशगूल रहते हैं। संकट को प्रतीकात्मक तौर पर भौतिक पुनर्रूत्पादन का विरोध करते हुए सम्बोधित किया जाता है। फलत: नए किस्म के मुक्तिसंग्राम शुरू हो जाते हैं। ऐसे संग्राम सामने आ जाते हैं जिनके बारे में पहले कभी सोचा नहीं था । इन तमाम संग्रामों का बुनियादी आधार है आंतरिक गुलामी से मुक्ति। स्त्री मुक्ति, दलित मुक्ति, स्त्री साहित्य, दलित साहित्य, पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण आदि ऐसे ही नए प्रसंग हैं।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

भोगवाद का चक्रवात और मुक्ति – डॉ. रामजी सिंह

सत्ता, संपत्ति एवं ज्ञान के भोग के त्रिदोष हैं। जो आधुनिक सभ्यता के भी प्रतीक हैं। इसी के कारण असीम हिंसा, अखंड सत्ता और अनंत भोग के लिए ज्ञान और विज्ञान प्रकृति का अनुचित दोहन और फलस्वरूप भयानक प्रदूषण अपने चरम सीमा पर पहुंच चुका है। औद्योगिक सभ्यता के श्रीगणेश भोगवाद का यह चक्रवात 20वीं सदी में सत्ता-संघर्ष के लिए दो विश्वयुद्ध आयोजित किए और परमाणु बम के द्वारा नरसंहार की शताब्दी थी और 21वीं सदी तो आतंकवाद तथा मानव-बम की शताब्दी है। लेकिन इससे भी खतरनाक बात तो यह है कि इस शताब्दी में प्रकृति आतंकवाद का चक्रवात चलने लगा है। पृथ्वी गर्म हो रही है तो सागर का जल गरम होकर उबल रहा है। उधर आसमान से जहरीली वर्षा हो रही है तो आसमान के ओजोन छतरी में छेद से महाकाल झांक रहा है। हिमालय के हिमखंड पिघल रहे हैं। नदियां सूख रही हैं। मौसम में भयावाह परिवर्तन दिख रहा है। चाहे सत्ता का भोग है या संपत्ति का, चाहे काम का भोग हो या ज्ञान की तृष्णा हो, ये सब अवशेष और अनंत है। न तृणा, न जीर्णा व्यमेव जीर्णा। भोग का यह चक्र-व्यूह मानव-सृष्टी के लिए घातक है।

अतः यदि हमें जीवित रहना है तो चक्रव्यूह से निकलने की कला सीखनी होगी। प्रथम तो सत्ता, संपत्ति और भोग के ज्ञान विज्ञान पर संयम की साधना सीखनी होगी। क्या कारण था जब याज्ञयवल्क्य ने सन्यास पर जाने के पूर्व अपनी पत्नी मैत्रेयी को संपत्ति का उसका पूरा भाग देना चाहा तो वह एक छोटा-सा प्रश्न पूछ बैठी – ‘क्या इससे मुझे शांति और सच्चा सुख मिल पायेगा?’ फिर जब याज्ञ्वल्क्य ने उसका निषेधात्मक उत्तर दिया तो विनय भाव से मैत्रेयी कह उठी-ये नाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम? जो लेकर मुझे शांति और सुख नहीं मिलेगा, वह लेकर मैंक्या करूंॅगी? क्या कारण था कि भगवान बुद्ध कपिलवस्तु का संपूर्ण राज्य, यशोधरा जैसी रूपवती, गुणवती और कलावती पत्नी और राहुल जैसा पुत्र छोड़कर संसाार-भोग का परित्याग किया और अंत में संबोधि प्राप्त की? आवश्यकताएँ असीम हैं। सभ्यता का मापदंड यदि आवश्यकताओं की वृध्दि में माना जायेगा तो उसका अंत अस्वस्थ प्रतिद्वंदिता, वर्चस्व और हिंसा में हो तो होगा ही, प्रकृ ति के साथ बलात्कार होकर सृष्टि का विनाश हो जायेगा। अतः आवश्यकताओं को संयमित करना मानव-सभ्यता के अभिरक्षणा के लिए आवश्यक है। यही कारण था कि पिछले हजारों वर्षों का इतिहास संयम और सादगी, अपरिग्रह एवं अनुशासन का था। जो सभ्यताएं असंयमपूर्ण और अनीतिपूर्ण थीं। उनका नामोनिशान मिट गया। रोम एवं बेबिलोन के विश्वविजयी जुलियस सीजर एवं यूनान के सिकंदर महान इतिहास की कब्र में विलीन हो गए लेकिन सुकरात मूसा, ईसा, मंसूर, मोहम्मद, महावीर, ईसा, बुद्ध एवं गांधी आज भी पूजनीय हैं। हिंसा का गर्व तो परमाणु बम ने नष्ट कर दिया। यहीं कारण है कि अमेरिका के पास लगभग 30 हजार अणुबम रहते हुए भी हिरोशिमा के बाद उसे प्रयोग करने का कहीं साहस नहीं हुआ। वियतमान युद्ध में उसके 55 हजार सैनिक मारे गये लेकिन अणु बम सुरक्षित कोषागार में पड़े रहे। युद्ध से यदि हम विमुख नहीं हुए तो मानव-अस्तित्व से ही विमुख होना पड़ेगा। आज विश्व की मात्र 6 प्रतिशत आबादी वाला अमेरिका यदि विश्व का 49 प्रतिशत साधनों के उपभोग पर संयम नहीं करेगा तो जहरीले गैस के उत्सर्जन से सारी विश्व मानवता मिट जायेगी जिसमें अमेरिका का क्रम प्रथम होगा। अणु बम का विकल्प अहिंसा और अतुलनीय सत्ता और संपत्ति की असीम चाह का विकल्प अपनी आवश्यकताओं पर ही संयम है। यह भले युग के प्रतिक ूल दिखेगा लेकिन दूसरा कोई विकल्प नहीं है। ‘न अन्य पन्थाः’।

-लेखक, वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व सांसद तथा पूर्व कुलपति हैं।