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थापर ग्रंप के लिए बन रही हैं, चमचमाती सडकें

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नई दिल्ली। देश की जानी मानी थापर गु्रप ऑफ कम्पनीज को लाभ दिलाने के लिए देश के सबसे लंबे और व्यस्ततम राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात को चमचमाता फोरलेन में तब्दील करने का इंतजाम किया जा रहा है। वैसे भी मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर से महज सौ किलोमीटर दूर बनने झाबुआ पावर लिमिटेड के पावर प्लांट की प्रोजेक्ट रिपोर्ट में ही अनेक विसंगतियां होने के बाद भी न तो मध्य प्रदेश सरकार ने ही उसकी ओर ध्यान दिया और न ही केंद्र सरकार के आला अधिकारियों की नजरें ही इस पर इनायत हो रही हैं।

केंद्रीय कोयला मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि यद्यपि अभी तक झाबुआ पावर लिमिटेड के लिए कोल लिंकेज का अलाटमेंट नहीं किया गया है, फिर भी झाबुआ पावर लिमिटेड ने अपना कोल परिवहन अनूपपुर स्थित कोयला खदान से किया जाना दर्शाया है। इस मामले में सबसे रोचक तथ्य यह है कि कंपनी ने अपना कोल परिवहन रेल मार्ग से किया जाना प्रस्तावित किया गया है। सिवनी जिले के आदिवासी बाहुल्य घंसौर तहसील के बरेला ग्राम में प्रस्तावित इस पावर प्लांट के लिए कोयला ब्राड गेज से अनूपपुर से जबलपुर लाया जाएगा, इसके उपरांत इसे अनलोड कर नेरो गेज में पुन: लोड कर घंसोर लाया जाएगा।

कंपनी की इस प्रोजेक्ट रिपोर्ट में अनेक तकनीकि पेंच हैं, जिन्हें पूरी तरह से नजर अंदाज ही किया गया है। अव्वल तो यह कि अगर ब्राड गेज से कोयला अनूपपुर से ढुलकर जबलपुर आ भी गया तो जबलपुर के ब्राड गेज के यार्ड से उसे नेरो गेज के यार्ड तक कैसे लाया जाएगा। या तो उन्हें ब्राड गेज के यार्ड से नैरो गेज के यार्ड तक लाईन बिछानी पडेगी या फिर ट्रक के माध्यम से नैरो गेज तक ढोना पडेगा। इतना ही नहीं आने वाले समय में जब बालाघाट से जबलपुर अमान परिवर्तन का काम आरंभ हो जाएगा तब नैरो गेज की पटरियां उखाड दी जाएंगी, एसी परिस्थिति में फिर कोयला परिवहन का वैकल्पिक साधन बच जाएगा सडक मार्ग। वैसे भी लोडिंग अनलोडिंग की प्रक्रिया झाबुआ पावर लिमिटेड के लिए काफी खर्चीली और समय की बरबादी वाली ही होगी।

झाबुआ पावर लिमिटेड के भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि कंपनी द्वारा अंत में सडक मार्ग से ही कोयले की सप्लाई की कार्ययोजना बनाई जा रही है। इसके लिए बडे ट्रांसपोर्टर्स को भी तलाशा जा रहा है। आदिवासी बाहुल्य घंसौर तहसील के बरेला के इस प्रस्तावित पार प्लांट के लिए 32 लाख टन कोयला का परिवहन प्रतिवर्ष अनूपपुर से घंसौर तक होना प्रस्तावित है। हाल ही में रीवा से लखनादौन तक के राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात के हिस्से को भी फोल लेन में तब्दील किए जाने का प्रस्ताव आया है। कहा जा रहा है कि थापर गु्रप ऑफ कम्पनीज के दवाब में आकर केंद्र सरकार द्वारा इस मार्ग की मरम्मत और इसे चौडा करने की कार्ययोजना बनाई है।

सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीटयूट (सीआरआरआई) सदा ही एक बात का रोना रोती रहती है कि देश की सडकें उसके द्वारा निर्धारित गुणवत्ता के अनुसार नहीं बन पाती हैं, और जितना भार उन पर चलना चाहिए उससे कहीं ज्यादा भार परिवहन और पुलिस महकमे की कृपा से चलता है, इन परिस्थितियों में सडकों की दुर्दशा होना स्वाभाविक ही है। डर तो इस बात का है कि जब वर्तमान में लखनादौन से घंसोर मार्ग जर्जर हाल में है तब थापर गु्रप ऑफ कंपनीज के प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड के बरेला में प्रस्तावित संयंत्र में लाखों टन कोयला परिवहन किया जाएगा तब तो अधमरी सडकों के धुर्रे उडने में समय नहीं लगेगा।

-लिमटी खरे

अब मैया को कैसे प्रसन्न करें प्रणव दा!

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नवरात्र का पर्व शुरू हो गया है। चहुं ओर माता के जयकारे गूंज रहे हैं। पश्चिम बंगाल की राजधानी कलकत्ता में माता की पूजा अर्चना का जबर्दस्त जोर रहता है। देश आज मंहगाई की आग में झुलस रहा है। आम आदमी की थाली से दाल और अन्य भोजन सामग्री तेजी से गायब होती जा रही है। देश के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी पश्चिम बंगाल से हैं, तो वे माता की पूजा अर्चना के महत्व को बेहतर ही जानते होंगे, किन्तु आम आदमी की दुश्वारियों से शायद वे परिचित दिखाई नहीं पड रहे हैं। देश में नवरात्र के पहले दिन ही आम आदमी की कमर टूट चुकी है। माता रानी को खुश करने के लिए वृत रखने वाले लोग आज मंहगे फलाहार से सहमे हुए हैं तो दूसरी ओर मैया दाई के श्रृंगार के लिए पूजा की थाली भी रीती ही नजर आ रही है।

पिछले एक पखवाडे में ही पूजन सामग्री और फलाहार की कीमतों में जबर्दस्त उछाल दर्ज किया गया है। नवरात्र आते ही फलों की बढी मांग से इनकी कीमतों में भी तेजी आई है। उपवास करने वाले लोगों की पहली पसंद सेब, अंगूर, केला, पपीता आदि की कीमतों में 15 से 25 रूपए की बढोत्तरी को साधारण कतई नहीं माना जा सकता है। थोक फल मंडी में भी इन फलों में पांच सौ रूपए प्रति क्विंटल से अधिक की वृध्दि प्रकाश में आई है।

आज चिल्हर बाजार में ठेलों पर घरों घर जाकर बिकने वाले फलों में पपीता 20 से 25 रूपए किलो, सेब 70 से 100 रूपए किलो, अंगूर 50 से 60 रूपए तो काले अंगूर 70 से 90 रूपए प्रति किलो बिक रहे हैं। इतना ही नहीं संतरा 25 रूपए किलो और छोटा संतरा 25 रूपए दर्जन, केला 25 से 30 रूपए दर्जन, चीकू भी 25 रूपए किलो की दर से बिक रहा है।

हिन्दु धर्म में उपवास में अन्न का सेवन वर्जित माना गया है, इसलिए इसके स्थान पर कुछ अन्य जिंसों का सेवन किया जाता है। इन फलाहारी वस्तुओं के दामों में रिकार्ड तेजी आई है। एक किलो की दर अगर देखी जाए तो मूंगफली दाना 60 रूपए, सिंघाडे का आटा 100 रूपए, साबूदाना 80 रूपए, मखाना 350 रूपए, आलू के चिप्स 150 रूपए की दर से बाजार में बिक रहे हैं। रही बात दूध से बने उत्पादों की तो उनकी कीमतों का क्या कहना। दूध ही आज 30 रूपए लीटर, दही 55 रूपए किलो, पनीर 175 रूपए, खोवा 175 रूपए की दर से बाजार में उपलब्ध है। पूजा के लिए प्रयुक्त होने वाले कपूर, धूप, अगरबत्ती, तेल आदि ने आसमान की ओर रूख किया हुआ है।

पिछले साल सितंबर में शारदेय नवरात्र से अगर तुलना की जाए तो सिंधाडे का आटा 60 रूपए, साबूदाना 50 रूपए, आलू के चिप्स 75 रूपए, मखाना 255 रूपए, पनीर 110 रूपए, और सेंधा नमक या जिसे फरारी नमक भी कहते हैं, वह 14 रूपए बिक रहा था, जो अब चेत्र की नवरात्र में 15 रूपए की दर से उपलब्ध है।

अगर देखा जाए तो आम आदमी की औसत आय भारत में पचास रूपए से भी कम है। इस मान से आम आदमी माता के उपवास कर माता रानी को कैसे प्रसन्न कर पाएगा यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। सरकार में बैठे जनसेवकोें की अनाप शनाप बढी पगार और मिलने वाली अन्य सुख सुविधाओं के चलते उन्हें आम आदमी की दुश्वारियों का एहसास नहीं हो पाता है, पर सच्चाई यही है कि आम आदमी किस तरह जीवन यापन कर रहा है, यह प्रश्न विचारणीय ही है।

आदि अनादि काल से ही माता दुर्गा को शक्ति का रूप माना गया है। चाहे वह आम आदमी हो या डाकू सभी माता के उपासक हैं। कहा जाता है कि माता की सवारी शेर है, जो सबसे अधिक ताकतवर होता है। शेर को काबू में कर उसकी सवारी करने वाली माता की उपासना इस बार आम आदमी के लिए काफी कठिन साबित हो रही है, इसका कारण केंद्र में बैठी कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की जनविरोधी नीतियां ही कही जाएंगी। जमाखोरों, सूदखोरों को प्रश्रय देने और अपने निहित स्वार्थों को साधने के चक्कर में संप्रग सरकार के मंत्री और विपक्ष में बैठे जनसेवक आम जनता की सुध लेना ही भूल गए।

अभी ज्यादा समय नहीं बीता है, जबकि पेट्रोल या डीजल की कीमतें जरा सी बढने पर भारतीय जनता पार्टी, के साथ ही साथ वाम दलों की भवें तन जाती थीं, और विरोध में विपक्षी दल सडकों पर उतर आते थे। आज आलम यह है कि केंद्र सरकार मनमानी तरीके से कीमतें बढाती जा रही है, और विपक्ष में बैठे जनसेवक चुपचाप उन्हें जनता के साथ किए जाने वाले इस अन्याय को मूक समर्थन दे रहे हैं।

लोगों को उम्मीद थी कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इस मामले में कुछ पहल करेंगे किन्तु वे भी मौन साधे ही बैठे हैं। रही बात वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की तो माना जा रहा था कि वे बंगाल से सियासत में उतरे हैं अत: माता रानी की उपासना के महत्व को बेहतर तरीके से समझ सकेंगे, क्योंकि बंगाल में माता की उपासना का अलग महत्व है, पर विडम्बना है कि वे भी अपनी ”राजनैतिक मजबूरियों” में इस कदर उलझे कि उन्हें भी माता रानी की उपासना से मंहगाई के कारण वंचित होने वाले भक्तों की भी कोई परवाह नहीं रही। अगर आलम यही रहा तो आने वाले दिनों में लोग अपनी उपासना को सांकेतिक तौर पर मनाने पर मजबूर हो जाएंगे।

-लिमटी खरे

घंसौर को झुलसाने की तैयारी पूरी

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नई दिल्ली 17 मार्च। देश की ख्यातिलब्ध थापर ग्रुप ऑफ कम्पनीज के एक प्रतिष्ठान झाबुआ पावर लिमिटेड द्वारा मध्य प्रदेश के सिवनी जिले की आदिवासी बाहुल्य घंसौर तहसील को झुलसाने की तैयारी पूरी कर ली है। पिछले साल 22 अगस्‍त को बिना किसी मुनादी के गुपचुप तरीके से घंसौर में सम्पन्न हुई जनसुनवाई के बाद अब इसकी औपचारिकताएं लगभग पूरी कर ली गईं हैं। इसे जल्द ही केंद्र सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास भेजा जाने वाला है। गौरतलब है कि झाबुआ पावर प्लांट कंपनी द्वारा मध्य प्रदेश सरकार के साथ मिलकर सिवनी जिले की घंसौर तहसील के बरेला ग्राम में 1200 मेगावाट का एक पावर प्लांट लगाया जा रहा है। इसके प्रथम चरण में यहां 600 मेगावाट की इकाई प्रस्तावित है। कोयला मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि इस कंपनी को अभी कोल लिंकेज प्रदान नहीं किया गया है।

केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के भरोसेमंद सूत्रों ने बताया कि इस परियोजना के लिए 3.20 एमटीपीए से अधिक के ईंधन की आवश्यक्ता होगी एवं इस संयंत्र में पानी की आपूर्ति रानी अवंति बाई सागर परियोजना जबलपुर, (बरगी बांध) के सिवनी जिले के भराव वाले इलाके गडघाट और पायली के समीप से किया जाना प्रस्तावित है। यह परियोजना प्रतिघंटा 3262 मीट्रिक टन पानी पी जाएगी। सूत्रों का कहना है कि इस संयंत्र का बायलर पूरी तरह कोयले पर ही आधारित होगा। इसके लिए कोयले की आपूर्ति साउथ ईस्टर्न कोलफील्उ लिमिटेड के अनूपपुर, शहडोल स्थित खदान से की जाएगी।

कंपनी के सूत्रों का कहना है कि थापर ग्रुप की इस महात्वाकांक्षी परियोजना के लिए 360 एकड गैर कृषि एवं मात्र 20 एकड कृषि भूमि का क्रय किया गया है। सरकार से 220 एकड भूमि भी लिया जाना बताया जाता है। कहते हैं कि जिन ग्रामीणों की भूमि खरीदी गई है उन्हें भी मुंह देखकर ही पैसे दिए गए हैं। कहीं कंपनी को जमीन अमोल मिल गई है तो कहीं अनमोल कीमत देकर। कंपनी के सूत्रों ने आगे बताया कि कंपनी ने जिन परिवारों की भूमि अधिग्रहित की है, उन परिवारों के एक एक सदस्य को नौकरी दिए जाने का प्रावधान भी किया गया है। वहीं चर्चा यह है कि स्थानीय लोगों को या जमीन अधिग्रहित परिवार वालों को अनस्किल्ड लेबर के तौर पर नौकरी दे दी जाएगी, और शेष बचे स्थानों पर बाहरी लोगों को लाकर संयत्र को आरंभ कर दिया जाएगा।

इस समूचे मामले में सिवनी जिले के जनसेवकों की चुप्पी आश्चर्यजनक है। इस संयंत्र की चिमनी लगभग एक हजार फिट उंची होगी, जिसके अंदर कोयला जलेगा। यहां उल्लेखनीय होगा कि संयंत्र से निकलने वाली उर्जा और कोयले की तपन को सह पाना आसपास के ग्रामीणों और जंगल में लगे पेड पौधों के बस की बात नहीं होगी। इसके लिए न तो मध्य प्रदेश सरकार को ही ठीक ठाक मुआवजा मिलने की खबर है, और न ही आदिवासी बाहुल्य घंसौर तहसील के निवासियों के हाथ ही कुछ राहत लग पा रही है। कहा जा रहा है कि झाबुआ पावर लिमिटेड कंपनी द्वारा जनसेवकों को शांत रहने के लिए उनके मंह पर भारी भरकम बोझ रख दिया है, ताकि घंसौर को झुलसाने के उनके मार्ग प्रशस्त हो सकें।

-लिमटी खरे

विश्व के श्रेष्ठतम ब्लॉगर की चुनौती बोलो चीनी शासको बोलो

हाल ही में चीन में पोर्न सामग्री के नेट द्वारा प्रचार-प्रसार पर पाबंदी लगा दी है इस पर विश्व के श्रेष्ठतम ब्लॉगर हन हन ने लिखा कि मैं सरकार की औरतों को सताने वालों के खिलाफ जो नीति रही है मैं उसका समर्थक हूँ। लेकिन पोर्न को लेकर चीनी प्रशासन का जो रवैय्या है वह हमारी समझ से परे है। कम से कम सरकार को अपने टीवी चैनलों और पीपुल्स डेली के माध्यम से यह तो बताना चाहिए कि “pornographic’’क्या है? “inappropriate’’ क्या है? उन्हें [banned] obscene and pornographic शब्दों की सूची जारी कर देनी चाहिए। मसलन् टीवी पर स्त्री एनाउंसर यह कह ही सकती है कि –

“the relevant department has initiated a stern crackdown on pornographic messages and the vulgar-ization of texting. Words to be banned include: Vagina,” इसके पुरुष एनाउंसर कह सकता है कि “penis”…that would be a truly responsible [way of handling it]. हन ने लिखा कि 20 साल पहले चीन में एक शब्द था “hoodlum” [流氓]यह ऐसे लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जिनका प्रशासन को सफाया करना होता था। इन दिनों शासकों की भाषा बदल गयी वे अब ‘‘vulgar’’ पदबंध का प्रयोग उनके लिए करते हैं जिनका सफाया करना है।

हन ने रेखांकित किया है कि चीन में इन दिनों ‘हाईकल्चर’ और ‘वल्गर’ को लेकर बहस चल रही है।

हन ने लिखा है “I’ve spent a lot of time thinking about the people who judge whether or not others are vulgar, where does their ‘high culture’ come from? For example, spending 100 RMB on a prostitute is vulgar, spending 100,000 RMB on an entertainer is high culture; if a person looks at a pornographic picture it’s vulgar, if a person looks at a classified government document it’s high culture; if a person buys a toy gun it’s vulgar, if a person uses a real gun to kill two people [probably a reference to this case] it’s high culture; if a person plays World of Warcraft it’s vulgar, if a person ‘plays’ with models it’s high culture. Of course, no one can say for sure [what’s vulgar and what isn’t], and as soon as you say for sure, you can’t do whatever you want. To prevent against a day when I might suddenly become a ‘vulgar person’, I will take the initiative, and become one now.

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

जेहादी लड़ाकों के ग़ैर इस्लामी कारनामे

दुनिया के कई देश इस समय आतंकवाद से प्रभावित हैं। यह भी सच है कि इनमें अधिकांशत: इस्लामी जेहाद के नाम पर फैलाया जाने वाला आतंकवाद है। यदि हम एक सच्चे मुसलमान की परिभाषा को समझना चाहें तो हम देखेंगे कि इस्लाम में जहां हत्या, बलात्कार, चोरी, झूठ, निंदा-चुगली आदि को इस्लाम में प्रतिबंधित या इन्हें ग़ैर इस्लामी बताया गया है वहीं शराब नोशी से लेकर शराब के उत्पादन अथवा कारोबार में शामिल होने तथा ऐसी किसी भी नशीली वस्तु के प्रयोग अथवा उसके उत्पादन या कारोबार में संलिप्त होने को भी गैर इस्लामी कृत्य करार दिया गया है। इस्लाम में इस प्रकार की वस्तुओं के सेवन तथा इस धंधे में शामिल होने को गुनाह भी करार दिया गया है। प्रश्न यह है कि क्या जेहाद के नाम पर दुनिया में आतंकवाद फैलाने वाले मुस्लिम परिवारों के आतंकी सदस्य इस वास्तविकता से परिचित हैं या नहीं?और यदि हैं तो वे उसपर कितना अमल करते हैं। वास्तव में इन स्वयंभू इस्लामी लड़ाकों के जेहन में किस कद्र सच्चा इस्लाम बसता है और यह आतंकी इस्लामी शिक्षाओं पर कितना अमल करते हैं तथा कितना समर्पण रखते हैं।

पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित मीडिया ग्रुप के एक खोजी पत्रकार द्वारा जेहाद के नाम पर अपना सब कुछ कुर्बान कर देने का जबा रखने वाले एक आतंकवादी से गुप्त रूप से मुलांकात कर उसका साक्षात्कार किया गया। अमजद बट्ट नामक इस तीस वर्षीय पंजाबी युवक के कंधे पर जहां ए के 47 लटकी हुई थी वहीं उसकी कमर में एक रिवाल्वर भी लगी नार आ रही थी। उसने अपना परिचय देते हुए यह बताया कि पहले तो वह स्वयं अफीम, स्मैक, हेरोइन जैसे तमाम नशे का आदी था और बाद में इसी कारोबार में शामिल हो गया। उसने बताया कि नशीले कारोबार में शामिल होने के बाद आम लोग उसे गुंडा कहने लगे। बट्ट ने यह भी स्वीकार किया उसे न तो नमाज अदा करनी आती है न ही कुरान शरींफ पढ़ना। और इसके अतिरिक्त भी किसी अन्य इस्लामी शिक्षा का उसे कोई ज्ञान नहीं है। परंतु इसके बावजूद अमजद बट्ट का हौसला इतना बुलंद है कि वह इस्लाम के नाम पर किसी की जान लेने या अपनी जान देने में कोई परेशानी महसूस नहीं करता। पाकिस्तान का पंजाब प्रांत, पाक अधिकृत कश्मीर तथा पाक-अंफंगान सीमांत क्षेत्र एवं फाटा का इलाक़ा ऐसे लड़ाकुओं से भरा पड़ा है जो इस्लामी शिक्षाओं को जानें या न जानें, और उनपर अमल करें या न क रें परंतु इस्लाम के नाम पर मरना और मारना उन्हें बख़ूबी आता है। आतंकी अमजद बट्ट के अनुसार जब उसने नशीले कारोबार के रास्ते पर चलते हुए अपने आप को जुर्म की काली दुनिया में धकेल दिया उसके बाद उसके संबंध जेहाद के नाम पर आतंक फैलाने वाले आतंकी संगठनों से भी बन गए।

यहां एक बार फिर यह काबिले जिक्र है कि जेहादी आतंकवाद की जड़ें वहीं हैं जिनका जिक्र बार-बार होता आ रहा है और इतिहास में यह घटना एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो चुकी है। अर्थात् सोवियत संघ की घुसपैठ के विरुध्द जब अफगानी लड़ाकुओं ने स्वयं को तैयार किया उस समय इन लड़ाकुओं ने जिन्हें तालिबानी लड़ाकों के नाम से जाना गया,सोवियत संघ के विरुद्ध खुदा की राह मे जेहाद घोषित किया। इस कथित जेहादी युद्ध में जहां अशिक्षित अंफंगानी मुसलमान सोवियत संघ के विरुद्ध एकजुट हुए वहीं इसी दौरान अमेरिका ने भी सोवियत संघ के विरुद्ध तालिबानों को न केवल सशस्त्र सहायता दी तथा अफगानिस्तान में इन लड़ाकुओं के प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने में भी उनकी पूरी मदद की बल्कि उन्हें नैतिक समर्थन देकर उनकी हौसला अफजाई भी की। इनमें से कई ट्रेनिंग कैंप ध्वस्त तो ारूर हो चुके हैं परंतु इनमें प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके तमाम आतंकी अभी भी मानवता के लिए सिरदर्द बने घूम रहे हैं। अमजद बट्ट ने भी एक ऐसे ही प्रशिक्षण केंद्र से जेहादी पाठ पढ़ा तथा हथियार चलाने की ट्रेनिंगा ली। उसके अनुसार जब वह प्रशिक्षण प्राप्त कर हथियार लेकर अपने गांव लौटा तो कल तक अपराधी व गुंडा नजर आने वाला व्यक्ति अब उसके परिवार, ख़ानदान तथा गांव वालों को ख़ुदा की राह में मर मिटने का हौसला रखने वाला एक समर्पित जेहादी मुसलमान नार आने लगा। उसे देखकर तथा उससे प्रेरित होकर उसी के अपने ख़ानदान के 50 से अधिक युवक एक ही बार में जेहादी मिशन में इसलिए शरीक हो गए कि कहीं अमजद बट्ट अल्लाह की राह में जेहाद करने वालों में आगे न निकल जाए।

आगे चलकर यही लड़ाके किसी न किसी आतंकी संगठन जैसे लश्करे तैयबा,जैशे मोहम्मद, हरकत-उल-अंसार अथवा लश्करे झांगवी जैसे आतंकी संगठनों से रिश्ता स्थापित कर उनके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों पर काम करने लग जाते हैं। इन सभी संगठनों का गठन भले ही अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर किया गया रहा हो। परंतु यह सभी सामूहिक रूप से मानवता को नुंकसान पहुंचाने वाले ग़ैर इस्लामी काम अंजाम देने में लगे रहते हैं। उदाहरण के तौर पर लश्करे झांगवी का गठन पाकिस्तान में सर्वप्रथम शिया विरोधी आतंकवादी कार्रवाईयां अंजाम देने हेतु किया गया था। इस संगठन पर शिया समुदाय को निशाना बनाकर सैकड़ों आतंकी हमले किए गए। उसमें दर्जनों हमले ऐसे भी शामिल हैं जो इन के द्वारा मस्जिद में नमाज पढ़ते हुए मुसलमानों पर या इमामबाड़ों व मोहर्रम के जुलूस आदि का निशाना बनाकर किए गए। अब यही संगठन अपने आपको इतना सुदृढ़ आतंकी संगठन समझने लगा है कि इसने पाकिस्तान में अपने हितों को नुंकसान पहुंचाने वालों को भी निशाना बनाना शुरु कर दिया है। इसके सदस्य पाकिस्तान में सेना विरोधी आतंकी कार्रवाईयों में भी पकड़े जा चुके हैं।

इसी प्रकार लश्करे तैयबा जिसका गठन कश्मीर को स्वतंत्रता दिलाने के उद्देश्य से किया गया था इसने भी अपने निर्धारित लक्ष्य से अलग काम करने शुरु कर दिए। इस संगठन पर भी जहां भारत में तमाम निहत्थे बेगुनाहों की हत्याएं करवाने का आरोप है वहीं इस संगठन पर पाकिस्तानी सेना के एक सेवानिवृत जनरल की हत्या का भी आरोप है। मानवता के विरुध्द संगठित रूप से अपराधों को अंजाम देने वाले ऐसे संगठन यादातर अपने साथ गरीब व निचले तबंके के अशिक्षित युवाओं को यह कहकर जोड़ पाने में सफल हो जाते हैं कि यहां उन्हें दुनिया की सारी चीजें तो मिलेंगी ही साथ ही उनके लिए अल्लाह जन्नत के रास्ते भी खोल देगा। और इसी लालच में एक अनपढ़, बेराजगार और मोटी अक्ल रखने वाला मुसलमान नवयुवक अपने आपको जेहादी आतंक फैलाने वाले संगठनों से जोड़ देता है। इस समय पाकिस्तान में अधिकांश आतंकी संगठन जो भले ही अलग-अलग उद्देश्यों को लेकर गठित किए गए थे परंतु अब लगभग यह सभी आतंकी ग्रुप अमेरिका, भारत तथा इनके हितों को निशाना बनाने के लिए अपनी कमर कस चुके हैं।

पाकिस्तान की ही तरह अंफंगानिस्तान में भी इस्लामी जेहाद का परचम जिन तथाकथित इस्लामी जेहादियों के हाथों में है उन की भी वास्तविक इस्लामी हंकींकत इस्लामी शिक्षाओं से कोसों दूर है। तालिबानी मुहिम के नाम से प्रसिद्ध इस विचारधारा में संलिप्त लड़ाकुओं की आय का साधन अंफगानिस्तान में होने वाली अंफीम की खेती है। यह भी दुनिया का सबसे ख़तरनाक नशीला व्यापार है। एक अनुमान के अनुसार विश्व के कुल अंफीम उत्पादन का 93 प्रतिशत अफीम उत्पादन केवल अंफंगानिस्तान में होता है। यहां लगभग डेढ़ हाार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में इसकी घनी पैदावार होती है। सन्2007 के आंकड़े बताते हैं कि उस वर्ष वहां 64 बिलियन डॉलर की आय अफीम के धंधे से हुई थी। इस बड़ी रक़म को जहां लगभग 2 लाख अंफीम उत्पादक परिवारों में बांटा गया वहीं इसे तालिबानों के जिला प्रमुखों, घुसपैठिए लड़ाकों, जेहादी युद्ध सेनापतियों तथा नशाले धंधे के कारोबार में जुटे सरगनाओं के बीच भी बांटा गया। उस समय अंफीम का उत्पादन लगभग 8200 मीट्रिक टन हुआ था। यह उत्पादन पूरे विश्व की अफीम की अनुमानित खपत का 2 गुणा था।

ड्रग कारोबार का यह उद्योग केवल अफ़ीम तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसी अफ़ीम से विशेष प्रक्रिया के पश्चात 12 प्रतिशत मारंफिन प्राप्त होती है तथा हेरोइन जैसे नशीले पदार्थ का भी स्त्रोत यही अफ़ीम है। तालिबानी लड़ाकों की रोजी-रोटी, हथियारों की ख़रीद-फरोख्त तथा उनके परिवारों के पालन पोषण का मुख्य साधन ही अफ़ीम उत्पादन है। एक ओर जहां ईरान जैसे देश में ऐसे कारोबार से जुड़े लोगों को मौत की साज तक दे दी जाती है वहीं अपने को मुसलमान, इस्लामी, जेहादी आदि कहने वाले यह तालिबानी लडाके इसी गैर इस्लामी धंधे की कमाई को ही अपनी आय का मुख्य साधन समझते हैं। यही तालिबानी हैं जोकि औरतों को सार्वजनिक रूप से मारने पीटने तथा अपमानित करने जैसा गैर इस्लामी काम प्राय:अंजाम देते रहते हैं। स्कूल तथा शिक्षा के भी यह प्रबल विरोधी हैं। निहत्थों की जान लेना तो गोया इनकी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो चुका है। ऐसे में क्या यह सवाल उठाना जाया नहीं है कि उपरोक्त सभी गैर इस्लामी कामों को अंजाम देने वालों को यह अधिकार किसने और कैसे दिया कि वे धर्म, इस्लाम और जेहाद जैसे शब्दों को अपने जैसे अधार्मिक प्रवृति वालों के साथ जोड़ सकें। क्या यह इस बात का पुख्ता सुबूत नहीं है कि इस्लाम आज गैर मुस्लिमों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं को जेहादी व तालिबानी कहने वाले ऐसे ही आतंकी मुसलमानों के हाथों बदनाम हो रहा है जिन्हें वास्तव में स्वयं को मुसलमान कहलाने का हंक ही नहीं है परंतु इस्लाम धर्म के दुर्भाग्यवश यही स्वयंभू रूप से इस्लामी जेहादी लड़ाके बन बैठे हैं।

-तनवीर जाफरी

अज्ञेय जन्मशती पर विशेष- अज्ञेय के अलगाव और मार्क्स को क्यों भूल गए नामवर सिंह

अशोक वाजपेयी ने रविवार (14 मार्च 2010) के जनसत्ता में अपने कॉलम में नामवर सिंह के द्वारा हाल ही में दिल्ली में दिए गए अज्ञेय के बारे में दिए भाषण के प्रमुख बिंदुओं को बताया है। वाजपेयी के अनुसार नामवरजी ने अज्ञेय की ‘नाच’ कविता का पाठ किया और आलोचना को कई नसीहतें दे ड़ालीं। पहली बात यह है कि ‘नाच’ कविता आपातकाल के प्रतिवाद पर भारतीय भाषाओ में लिखी श्रेष्ठतम कविता है। अशोक वाजपेयी जानते हैं कि यह असाधारण परिस्थितियों में लिखी कविता है। पता नहीं नामवरजी ने आपातकाल का संदर्भ बताया था कि नहीं ,या फिर अशोक बाजपेयी लिखना भूल गए?

यह उल्लेखनीय है कि नामवरसिंह ने आपातकाल का समर्थन किया था और अज्ञेय ने विरोध किया था। यह कविता प्रत्येक जनतंत्र प्रेमी को पढ़नी चाहिए। नामवरसिंह-अशोक वाजपेयी दोनों ही आलोचना के नाम पर लंबे समय से जो कह रहे हैं वे बातें आज प्रासंगिक नहीं हैं। पता नहीं ये दोनों आलोचक अपनी ऊर्जा अप्रासंगिक बातें बताने में क्यों खर्च करते हैं।

आज साहित्य की धारणा बदल गयी है। नामवर की आलोचना में इस बदले रुप की गूंज नहीं मिलती। अशोक वाजपेयी-नामवर सिंह जानते हैं कि यह कनवर्जन का युग है। इसमें साहित्य,विधाएं आदि का ‘लेखन’ में कनवर्जन हो चुका है। अब सिर्फ ‘लेखन’ होता है। यह ज्याक देरिदा की राय है। इतिहास, आलोचना,कविता, कहानी, उपन्यास आदि विधाओं का अंत हो चुका है। गुरुदेव पढ़ाते रहे हैं कि गलत तर्क के आधार पर सही निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। नामवरजी अभी भी विधाओं के वर्गीकरण में रखकर देखते हैं ऐसे सारी आलोचना और नेक सलाहों की कूढ़ेदान के अलावा और कहीं जगह नहीं है।

नामवरजी के अज्ञेय बोध की सीमाएं हैं। नामवरजी ने कभी भी अज्ञेय को ‘अलगाव’ के साहित्य के संदर्भ में नहीं देखा है। नामवरजी को ही दोष क्यों दें हिन्दी के सभी नामी-गिरामी आलोचकों ने अज्ञेय को साहित्य और ‘अलगाव’ के अन्तस्संबंध के आधुनिक फिनोमिना के रूप में नहीं देखा। हिन्दी में दो ही लेखक हैं अज्ञेय और मुक्तिबोध इन दोनों ने ‘अलगाव’ को गहराई में जाकर चित्रित किया। दुर्भाग्य की बात यह है कि ‘अलगाव’ को देखने की बजाय नामवर सिंह ने मुक्तिबोध में अस्मिता की खोज की। मुक्तिबोध पर उन्हें थ्योरी में अलगाव याद आया व्यवहार में नहीं। व्यवहार में ‘अलगाव’ की खोज करते तो ज्यादा व्यापक समस्या को उद्धाटित कर पाते। नामवरजी ने अज्ञेय पर बोलते हुए जो कहा है उसे अलगाव के प्रसंग में मुक्तिबोध पर लागू करना क्यों भूल गए? यही हाल अज्ञेय का किया है। अज्ञेय को आधुनिकतावादी बनाकर खारिज किया और ‘अलगाव’ को परायी प्रवृत्ति मानकर अस्वीकार किया। सच यह है कि ‘अलगाव’ पूंजीवादी विकास प्रक्रिया का सकारात्मक और स्वाभाविक फिनोमिना है।

अज्ञेय और मुक्तिबोध के संदर्भ में ‘अलगाव’ की जब भी चर्चा उठी है उसमें अलगाव को आधुनिक राज्य से विच्छिन्न करके देखा गया। ‘अलगाव’ का आधुनिक राष्ट्र के साथ गहरा संबंध है। आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ ‘जीवन का निजीकरण’ होता है। ‘पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता’ पैदा होती है। ये सारी चीजें एक विशिष्ट ऐतिहासिक अवस्था की देन हैं।

प्राचीनकाल में अलगाव का आदर्शकवि कालिदास है और अलगाव का आदर्श रस श्रृंगार रस का साहित्य है। अलगाव का जिस तरह का महिमामंडन कालिदास के यहां है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं है। कालिदास ने ऐसे नायक को पेश किया जो सर्वगुण सम्पन्न है। आनंद में मगन है। आनंद को व्यक्त करता है। कालिदास के पात्र जो कुछ करते हैं अपने लिए करते हैं। कालिदास के नायक प्रेम करते हैं अपने लिए ,युद्ध करते हैं अपने लिए, अकेले ही सारी मुसीबतों का सामना करते हैं। एक तरह से समूची सृष्टि के साथ संघर्ष करते हैं।

प्राचीनकालीन समाज में रची गई रचनाओं को अलगाव के साथ सबसे पहले जोड़कर कार्ल मार्क्स ने देखा था। इसका आरंभ कार्ल मार्क्स ने अपनी डाक्टरेट थीसिस से किया था और बाद में अन्य रचनाओं में इसका विकास किया। मार्क्स ने एपीक्यूरियन कवियों को ‘रोम के नायक कवि’ की संज्ञा दी थी। यही स्थिति हमारे कालिदास की है।

मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी आलोचकों ने कालिदास की रचनाओं में सामयिक संस्कृति और समाज की बहुत खोज की है किंतु कभी अलगाव की अवधारणा की रोशनी में रखकर विचार नहीं किया।

कालिदास ऐसा कवि है जिसका सभी चीजों से संघर्ष होता है और सभी चीजें नायक के साथ युद्ध करती नजर आती हैं। कालिदास के पात्र आरंभ से ही अपने बारे में सोचते हैं, अपने लिए संघर्ष करते हैं और आनंद लेते हैं। अपने लिए संघर्ष करना और आनंद मनाना यही अलगाव की धुरी है। वे स्वयं के प्रति कठोर हैं, इनके सामने प्रकृति अपनी सारी अच्छाईयां खो देती है, अच्छाईयों के लिए शब्द अधूरे लगते हैं। अच्छाईयों के लिए शब्द नहीं मिलते।

एपीक्यूरियन कवियों का नारा था ”वार ऑफ ऑल अगेंस्ट ऑल।” यानी ”सबके खिलाफ और सबके लिए जंग।” यही नारा भारत के प्राचीन कवियों का भी था। प्राचीन कवियों के यहां जीवन और आनंद के बीच अंतराल नहीं था। सारी चीजें शरीर में केन्द्रित थीं। शरीर प्रमुख विमर्श था।

श्रृंगार रस का समूचा विमर्श शरीर और आनंद का विमर्श है। रस का सारा विमर्श शरीर को केन्द्र में रखता है। नख-शिख वर्णन में उसे सहज ही देखा जा सकता है। नायक का शरीर कैसा है, आंखें कैसी हैं, पीड़ा कैसी है, चिन्ताधारा कैसी है और नायक जब चिन्ता में घिरा होता है तो कैसे कृशकाय हो जाता है और जब नायक युद्धरत होता है तो उसकी भंगिमाएं,शारीरिक सौष्ठव किस तरह का होता है ? इसी तरह नायिका जब कृति में आती है तो सारी ऊर्जा उसके शरीर के सौंदर्य वर्णन पर ही खर्च की गई। कहने का तात्पर्य यह कि प्राचीन कवि ‘स्व’ और शरीर से बेहद प्यार करता है।

प्राचीन महाकाव्यों में निज के बहाने शरीर और उसके आनंद की सृष्टि पर जोर है। शरीर का विमर्श अलगाव का विमर्श है। भगवान के बारे में भी जब कवि रूपायन करने बैठा तो शरीर ही प्रमुख विषयवस्तु था। शरीर, स्व, आनंद और निजता ये चार चीजें हैं जो अलगाव के कारण कृति के केन्द्र में आयीं। अन्तर्विरोधों के बिना इन चारों चीजों का विकास संभव नहीं है। लेखक के अस्तित्व की परिस्थितियां उसका जीवन से अलगाव पैदा करती हैं। अलगाव के कारण लेखक बाहरी चीजों को आत्मसात करता है और अपने अलगाव को अभिव्यक्त करता है। इस क्रम में वह अपने अस्तित्व के रूपों से स्वायत्त नजर आता है। परम नजर आता है। मार्क्स के शब्दों में यह ‘अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता’ है।

मार्क्स ने प्राचीन काल में अलगाव का उत्पत्तिपरक रूप में विश्लेषण करते हुए ‘ पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता’ और ” अमूर्त व्यक्तिनिष्ठता” की चर्चा की थी,यह चर्चा नकारात्मक रूप में की थी, मार्क्स के अनुसार आधुनिक राष्ट्र के उदय के साथ यह धारणा नकारात्मक नहीं रह जाती बल्कि सकारात्मक हो जाती है। सकारात्मक शक्ति बन जाती है। सकारात्मक का अर्थ है ‘वास्तव’ और ‘अनिवार्य’। इसके लिए

किसी नैतिक स्वीकृति की जरूरत नहीं है। इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का आधुनिक राष्ट्र में ‘आत्मकेन्द्रित’ रूप में विकास होता है। ‘पृथक्कृत व्यक्तिनिष्ठता ‘ के लिए आधुनिक राष्ट्र स्वाभाविक परिस्थितियां पैदा करता है।

अलगाव की धुरी है ‘आत्मकेन्द्रिकता’ । इसका आधार है ” सबके खिलाफ और सबके लिए जंग” की धारणा। इस धारणा के आधार पर आंतरिक वैधता ,प्रकृति के सार्वभौम नियमों की वैधता और आंतरिक अनुभूति को महत्वपूण माना गया। कार्ल मार्क्स ने ” क्रिटिक ऑफ दि हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट” (1843) में हेगेल के अलगाव संबंधी नजरिए की विस्तार के साथ समीक्षा करते हुए आधुनिक राष्ट्र का पुराने समाज की परिस्थितियों के साथ अंतर किया। आधुनिक समाज व्यक्ति को अपने साथ एकीकृत नहीं करता, कुछ तो यह संयोग की बात है और कुछ व्यक्तिगत प्रयासों के ऊपर भी निर्भर करता है।

मार्क्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार सुख भोगता है। राजनीतिक अर्थ में बुर्जुआ समाज में व्यक्ति अपने को राष्ट्र से पृथक् कर लेता है। अपनी निजी अवस्थाओं को राष्ट्र से अलग कर लेता है। यही वह बिंदु है जहां उसकी मनुष्य के रूप में महत्ता सामने आती है। यों भी कह सकते हैं कि राष्ट्र के सदस्य के रूप में महत्ता सामने आती है। समुदाय के सदस्य के रूप में और मानवीय निर्धारणकर्त्ता के रूप में महत्ता उद्धाटित होती है। इसी तरह व्यक्ति के अन्य गुण भी सामने आते हैं और वे उसके अस्तित्व को निर्धारित करने में मदद करते हैं।

मार्क्स के अनुसार मनुष्य का व्यक्ति के रूप में अस्तित्व बुनियादी तत्व है। बुर्जुआ समाज में व्यक्तिवाद और व्यक्तिगत अस्तित्व ही अंतिम सत्य है। बाकी सब चीजें जैसे श्रम, गतिविधियां वगैरह इसके साधन हैं। मार्क्स ने लिखा है बुर्जुआ समाज में वास्तव आदमी निजी व्यक्ति (प्राइवेट इण्डिविजुअल) होता है। यह ऐसा व्यक्ति है जो मूलत: बाहरी और भौतिक है।

कार्ल मार्क्स की अलगाव की धारणा का सुनियोजित विकास ”दि मेनुस्क्रिप्टस ऑफ 1844′ में होता है। इस कृति में मार्क्स उन तमाम धारणाओं को विकसित करते हैं जो ”क्रिटिक ऑफ हेगेलियन फिलोसफी ऑफ राइट” में पहले व्यक्त की गई थीं।

अलगाव के बारे में कार्ल मार्क्स को विस्तार के साथ पेश करने का प्रधान मकसद इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि अज्ञेय ने जिस अलगाव और व्यक्तिनिष्ठता को अपने उपन्यासों में अभिव्यक्ति दी है वह आधुनिक बुर्जुआ समाज का सकारात्मक तत्व है ,दुर्भाग्य की बात यह है कि इसे नकारात्मक तत्व मानकर अज्ञेय के उपन्यासों की गलत व्याख्याएं की गई हैं। दूसरी बात यह कि अज्ञेय के यहां भारतीय लोकतंत्र सकारात्मक फिनोमिना है। हमें देखना चाहिए कि कितने प्रगतिशील आलोचक और लेखकों ने अज्ञेय के जमाने में लोकतंत्र को सकारात्मक फिनोमिना के रुप में चित्रित किया है?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

वंदना शर्मा की कविता

याद आता है मुझे वो बीता हुआ कल हमारा,

जब कहना चाहते थे तुम कुछ मुझसे,

तब मै बनी रही अनजान तुमसे,

जाना चाहती थी मैं दूर,

पर पास आती गई तुम्हारे,

लेकिन धीरे-धीरे होती रही दूर खुदसे,

फिर तो जैसे आदत बन गई मेरी

हर जगह टकराना जाके यूँ ही तुमसे,

जब तक नहीं हुई बाते तुमसे मेरी,

न जाने क्यों लगती है ये आँखे भरी-भरी,

तुम्हे तो अब वक़्त मिलता नहीं,

लेकिन कोई शायद ही होता हो इतना व्यस्त ,

सोचती हूँ क्या तुम सचमुच चाहते हो मुझे,

या ये सिर्फ गलतफ़हमी है मेरी,

था वो भी कल एक ऐसा हमारा,

मै थी जब तुमसे अजनबी,

काश! रहती यूँ ही ज़िन्दगी बेरंग मेरी,

हाँ तुमने इसमें कुछ रंग तो भरे,

पर सब हैं अधूरे …..

-वंदना शर्मा

भानुमति के पिटारे से फिर निकला कुपोषण का जिन्न

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सरकारी आंकड़ों पर यदि विश्वास करें तो हमारे देश में छह करोड़ दस लाख से भी अधिक बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। कुपोषण से ग्रसित होने के बाद बच्चों में बीमारियों से लड़ने की क्षमता या उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे छीजने लगती है। इसके परिणामस्वरुप बच्चे खसरा, निमोनिया, पीलिया, मलेरिया इत्यादि से दम तोड़ने लगते हैं। आमजन को लगता है कि बच्चे कुपोषण की जगह दूसरी बीमारियों से मर रहे हैं।

सच कहा जाये तो भारत में कुपोषण की समस्या द्रोपदी के चीर की तरह लंबी होती चली जा रही है। अब तो उसे घर-घर जाकर ढूंढने की नौबत आ गई है।

दिल्ली से सटे उत्तारप्रदेश के गाजियाबाद जिले में कुपोषित बच्चों को खोजने के लिए हर गाँव में सर्च ऑपरेशन करवाया जा रहा है। इसके लिए आगंनबाड़ियों की टीम बनायी गई है, जो घर-घर जाकर कुपोषित बच्चों की तलाश करेंगे।

बच्चों के वजन को मापने के लिए प्रशासन ने 850 मशीनों की व्यवस्था दूर के गामीणों अंचलों में करवाया है। आगंनबाड़ी कार्यकर्ता नवजात शिशुओं से लेकर छह साल के बच्चों के स्वास्थ की लगातार निगरानी करते रहेंगे। साथ ही इनका काम होगा-गाँव की महिलाओं को कुपोषण के लक्षणों और उसके निदान के लिए जरुरी उपायों के बारे में जागरुक करना।

इस पूरे कवायद को प्रभावशाली बनाने के लिए गाँवों में बच्चों के लिंग के अनुसार चार्ट बनाया जा रहा है। इस चार्ट से कुपोषित होने वाले बच्चों पर सही तरीके से नजर रखी जा सकेगी। यदि कोई बच्चा कुपोषित नजर आयेगा तो उसको दुगना पोषाहार दिया जायेगा। किसी बच्चे का वजन लगातार कम होते रहने की स्थिति में उसका अस्तपताल में ईलाज करवाया जाएगा।

कहने का तात्पर्य है कि कुपोषण को जड़ से खत्म करने के लिए गाजियाबाद जिले की प्रशासन ढृढ़संकल्पित है। अब देखने की बात है कि ये सारी कवायद किस हद तक कामयाब होती है, क्योंकि सरकार कुपोषण की समस्या को जड़ से मिटाने के लिए हमेशा दावा करती है, किंतु हर बार उसका दावा खोखला साबित हो जाता है। यही कारण है कि भारत में कुपोषण की समस्या को लेकर विश्व स्वास्थ संगठन से लेकर यूनीसेफ तक लगातार अपनी चिंता जताते रहे हैं।

उत्तारप्रदेश की तरह ही कुपोषण की समस्या मध्यप्रदेश में भी गंभीर है। अभी हाल ही में वहाँ के लोक स्वास्थ मंत्री ने विधानसभा में माना था कि राज्य में पाँच वर्ष आयु तक के बच्चों में, 1000 में से तकरीबन 70 बच्चे कुपोषण से प्रतिवर्ष मर जाते हैं। 2005 से 2009 के बीच में राज्य के कुल 50 जिलों में से 48 में एक लाख तीस हजार दो सौ तैंतीस बच्चे कुपोषण के कारण मर चुके थे।

विडम्बना यह है कि इसी दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन के तहत राज्य को 1600 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे। जाहिर है राज्य में आवंटित राशि का जमकर दरुपयोग किया गया होगा। पहले भी राज्य में आवंटित राशि का या तो सदुपयोग नहीं किया गया था या फिर जमकर उसकी हेरा-फेरी की गई थी।

चालू वित्ता वर्ष में जरुर सरकार को थोड़ी सी अक्ल आई है। इस वितीय वर्ष में आवंटित राशि से ज्यादा खर्च सरकार कर चुकी है। अगर आगे के सालों में भी सरकार कुपोषण की समस्या को गंभीरता से लेती है तो शायद मध्यप्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या में कमी आ जाये। फिलहाल तो दिल्ली अभी बहुत दूर है।

इसी संदर्भ में अपने हालिया बयान में केंद्रीय स्वास्थ मंत्री श्री गुलाम नबी आजाद ने माना था कि पूरे देश में लगभग 25 प्रतिशत बच्चों को प्रतिवर्ष प्रतिरोधक टीके नहीं लग पाते हैं।

मुद्वा यहाँ पर फिर से गरीबी और अशिक्षा का है। हमारे देश में अभी भी कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है और गर्भावस्था के दौरान पोषाहार नहीं मिलने के कारण कमजोर और कुपोषित बच्चे पैदा लेते हैं।

मनरेगा की तरह राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन योजना भी एक अच्छी योजना है। इस योजना का मूल मकसद है दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं और बच्चों की स्वास्थ संबंधी समस्याओं को दूर करना। इसके अलावा पहले से एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम भी देश के विविध राज्यों में चल रहा है। उल्लेखनीय है कि इस योजना की शुरुआत हमारे देश में कुपोषण से निजात पाने के लिए ही गई थी।

अब जरुरत है कि इन योजनाओं के तहत मिलने वाली राशि का राज्य सरकार दूर-दराज के ग्रामीण इलाकाें में स्वास्थ सेवाओं को बेहतर करने में इस्तेमाल करे।

आज हमारा देश कुपोषण के मामले में पूरे विश्व में सबसे ऊपर है। यह निश्चित रुप से हमारे लिए शर्म से डूब मरने वाली बात है। आमतौर पर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि कुपोषण की समस्या का मूल कारण आबादी है, पर अगर हम अपनी तुलना चीन से करेंगे तो हमारा खुद का तर्क हमें ही खोखला और बेमानी लगने लगेगा। चीन की जनसंख्या हमारे देश से कहीं अधिक है। फिर भी वहाँ कुपोषण के शिकार बच्चे हमारे देश से छह गुणा कम हैं।

लब्बोलुबाव यह है कि हमारे देश में न तो सरकार कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए चिंतित है और न ही हम। हमारे राज्यों में स्वास्थ के मद पर खर्च की जाने वाली राशि का या तो उपयोग नहीं किया जा रहा है या फिर उस राशि का दुरुपयोग किया जाता है। हालाँकि हम जानते हैं कि बच्चे ही देश के कर्णधार हैं। बावजूद इसके हम सभी अफीम के नशे में गाफिल हैं।

-सतीश सिंह

मोरेल नदी बस दुर्घटना : उत्तर मांगते सवाल?

राजस्थान के सवाई माधोपुर जिला मुख्यालय के निकट स्थित मोरेल नदी के पुल पर तूडे (चारे) से भरे जुगाड से टकराकर बस नदी में गिर गयी और छब्बीस निर्दोष विद्यार्थी असमय काल के गाल में समा गये। जिनमें बस चालक, परिचालक, एक अध्यापिका और एक हलवाई भी शामिल हैं। बस दुर्घटना में मरने वाले सभी लोगों के परिजनों पर क्या गुजर रही होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है, लेकिन जो हो गया, उसे लौटाया नहीं जा सकता। हाँ ऐसी दुर्घटनाओं से सबक अवश्य ही सीखा जाना चाहिये। इस बात पर विचार करना चाहिये कि क्या यह दुर्घटना रोकी जा सकती थी? क्या आगे से ऐसी दुर्घटनाएँ ना हों इसके सम्बन्ध में कोई नीति या नियम बनाये जा सकते हैं? इस प्रकार की दुर्घटनाओं में मरने वालों के परिजनों को राहत प्रदान करने के नाम पर, राज्य सरकार द्वारा उनका मजाक उडाने वाली घोषणा करना कितना जायज है? आदि अनेक बातें हैं, जिन पर समाज और सरकार को विचार करके निर्णय लेने की जरूरत है।

सबसे पहली बात जो मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ, वो यह कि जो लोग पुलिस को बात-बात पर कोसते रहते हैं। उनके लिये विचार करने की है। हम सभी जानते हैं कि मूलतः पुलिस की तैनाती अपराधों की रोकथाम और अपराधियों को पकडने के लिये की जाती है, लेकिन बस में फंसे लोगों को बस से निकाल कर, अस्पताल तक पहुँचाने में न मात्र पुलिस ने अहम और संवेदनशीलता का परिचय दिया, बल्कि इस कार्य में सहयोग करने के लिये पुलिस ने स्थानीय ग्रामवासियों से भी सहयोग के लिये आग्रह एवं अनुरोध किया, तब जाकर घायलों को अस्पतालों तक पहुँचाया जा सका। इस घटना के सन्दर्भ में एक बार फिर से यह बात समझने की है कि हमेशा पुलिस को कोसने से काम नहीं चलेगा। ऐसे समय पर पुलिस को शाबासी भी देनी चाहिये। इस दुर्घटना के बाद मृतकों को निकालने और घायलों को अस्पताल तक पहुँचाने में पुलिस की भूमिका सराहनीय रही, जिसके लिये मैं सभी को व्यक्तिगत रूप से तथा मेरी अध्यक्षता में सत्रह राज्यों में संचालित भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के 4100 से अधिक आजीवन सदस्यों की ओर से शाबासी और शुभकामनाएँ ज्ञापित करता हूँ औरआशा करता हूँ कि न मात्र सवाई माधोपुर की पुलिस, बल्कि सम्पूर्ण देश की पुलिस ऐसे समय में ही नहीं, बल्कि प्रत्येक दुःखी इंसान के आँसू पौंछते समय अधिक संवदेनशीलता का परिचय देगी।

दूसरी बात तूडे (गैंहूं का भूसा) से भरे जुगाड के टकराने के कारण बस की दुर्घटना होना बताया जा रहा है। यदि यह सही है, तो बहुत बडा अपराध है, क्योंकि जुगाड एक ऐसा गैर-कानूनी वाहन है जो उत्तर-पूर्व एवं पूर्वी राजस्थान की सडकों पर मौत के रूप में सरेआम घूम रहा है। अनेक न्यायिक निर्णयों के उपरान्त भी प्रशासन द्वारा इस पर पाबन्दी नहीं लगायी गयी है। जबकि इसी माह के प्रारम्भ में राजस्थान हाई कोर्ट ने राज्य में बिना अनुमति के संचालित हो रहे जुगाडों के मामले में राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह इनके संचालन को बंद करने के लिए चार सप्ताह में कोई पॉलिसी बनाए। उस समय मामले की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार की ओर से कहा था कि सरकार ने जिला परिवहन अधिकारियों सहित अन्य अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वे जुगाड को जब्त करें और उन्हें नष्ट कर दें। यह भी कहा गया कि निर्देशों की पालना में अभी तक राज्य में एक हजार जुगाडों को जब्त किया जा चुका है। लेकिन खंडपीठ इससे संतुष्ठ नहीं हुई और राज्य सरकार को जुगाडों के संचालन को बंद करने के लिए पॉलिसी बनाने का निर्देश दिया।

इसलिये जुगाडों को सडकों पर चलने देने के लिये जिम्मेदार राज्य प्रशासन और अन्ततः राज्य सरकार को भी इस दुर्घटना के लिये जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। मृतकों के परिवार जनों को राज्य सरकार के विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा दायर करने मुआवजा मांगा जाना चाहिये और साथ ही साथ कोर्ट से यह भी आग्रह किया जाये कि आगे से जुगाड सडकों पर चलते पाये जाने पर सम्बन्धित क्षेत्र के परिवहन विभाग के अफसरों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दायर किये जावें। स्वयं जुगाड चलाने वालों को भी इस दुर्घटना से सबक सीखकर स्वैच्छा से जुगाड संचालन बन्द कर देना चाहिये। यदि वे बन्द नहीं करेंगे तो वे ऐसी ही किसी दुर्घटना को जन्म देंगे या फिर स्वयं कानून के शिकंजे में फंस कर सजा भुगतेंगे।

तीसरे राज्य सरकार द्वारा मृतकों के परिजनों को केवल पचास हजार रुपये राहत प्रदान करने की घोषणा करना, हृदय विदारक दुःख झेल रहे परिवारों के जख्मों पर नमक छिडकने के सदृश्य है! यदि ये मृतक किसी कॉन्वेण्ट स्कूल के रहे होते, तब भी क्या सरकार ऐसा ही करती? ऐसी घोषणा करने वालों को शर्म करनी चाहिये। जो सरकार स्वयं ही इन जुगाडों के संचालन के लिये जिम्मेदार है, वो सरकार मात्र पचास हजार की राहत की घोषणा करके पल्ला झाड ले, ऐसा नहीं होना चाहिये। सामाजिक कार्यकर्ताओं को सूचना अधिकार के तहत राज्य सरकार द्वारा दुर्घटना और हादसों में मारे गये लोगों को पिछले पांच वर्ष में घोषित की गयी राहत राशि की जानकारी प्राप्त करके पता लगाना चाहिये। जानकारी मिलने पर साफ हो जायेगा कि सरकार मृतकों की हैसियत और पृष्ठभूमि देखकर राहत राशि की घोषणा करती है। प्राप्त जानकारी के आधार पर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके सिद्ध किया जा सकता है कि राज्य सरकार अपने नागरिकों के साथ भेदभाव करती है, जो न मात्र लोकतन्त्र का मजाक है, बल्कि असंवेदनशीलता का भी परिचायक है। आम लोगों को आगे आकर सरकार की इस प्रकार की मनमानियों पर प्रतिबन्ध लागाना चाहिये। लोगों को सरकार पर दबाव बढाकर मरने वालों के प्रति एक समान नीति एवं नियत अपनाने के लिये सरकार को विवश करने की जरूरत है।

अन्तिम और महत्वूपर्ण बात यह कि जिस बस की दुर्घटना हुई है, उस बस में विद्यार्थियों को एज्यूकेशन ट्यूर पर ले जाया गया था। प्रत्येक बच्चे से चार हजार रुपये अग्रिम वसूले गये थे। इस प्रकार के ट्यूर प्रत्येक गैर-सरकारी शिक्षण संस्थान में पिकनिक या एज्यूकेशन ट्यूर के नाम पर करवाये जाते हैं। जिनमें प्रत्येक विद्यार्थी को अनिवार्य रूप से शामिल होना होता है। एक प्रकार से यह भी इन शिक्षण संस्थानों ने कमाई का जरिया बना लिया है। जिन गरीब परिवारों के बच्चे पढाई के लिये ही मुश्किल से धन जुटा पाते हैं, उन परिवारों के लिये ऐसे ट्यूर पर खर्च होने वाली धनराशि जुटाना भारी पडता है और उन्हें ऊँची ब्याज दर पर कर्जा लेकर धन जुटाना होता है। जबकि मैं नहीं समझता कि इन ट्यूरों से विद्यार्थियों का शैक्षिक स्तर सुधारने में कोई सुधार होता होगा? इसलिये इस बात की भी पडताल करने की जरूरत है कि क्या सरकार की ओर से गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों को इस प्रकार के ट्यूर आयोजित करने की स्थायी स्वीकृति मिली हुई है या ऐसे ट्यूर के आयोजन से पूर्व ऐसी स्वीकृति ली जाती है या फिर यह व्यवस्था मनमाने तौर पर चलाई जा रही है? जिन शिक्षण संस्थानों के पास अपने विद्यार्थियों के लिये कानूनी रूप से जरूरी और स्वास्थ्य की दृष्टि से अपरिहार्य खेल के मैदान तो हैं नहीं फिर भी सरकारी बडे-बाबुओं की मेहरबानी से उनको मान्यता मिली हुई है, उन्हें ऐसे ट्यूर आयोजित करके धन कमाने के लिये किसने अधिकृत किया हुआ है? इस बात की जानकारी अभिभावकों और देश के लोगों को होनी चाहिये? यदि इसकी कोई नीति या नियम रहे होते तो बस में निर्धारित संख्या से अधिक सवारी कैसे बैठाई जा सकती थी?

यदि हम इस दुर्घटना से सबक सीखना चाहते हैं तो बहुत जरूरी है कि इस आलेख में उठाये गये सवालों के जवाब तलाशें। सरकार, प्रशासन एवं गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों पर जन निगरानी रखें, जो हमारा मौलिक अधिकार है। जिसके लिये सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 बहुत बडा हथियार है। इसके साथ-साथ ऐसे दुःखद समय में पुलिस द्वारा किये जाने वाले अहम योगदान को भी नहीं भूलें और उन्हें भी सच्चे मन से धन्यवाद एवं प्रोत्साहन अवश्य दें।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा “निरंकुश”

हर्षोल्लास से मना भारतीय नववर्ष

भोपाल, 15 मार्च। सोमवार को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में भारतीय नववर्ष की पूर्व संध्या पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने भारतीय नववर्ष से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक व वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में चर्चा की।

इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला ने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के गौरवमय इतिहास को बताया और कहा कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं। उन्होंने इसकी व्यवहारिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी छात्रों को अवगत कराया। योग व आयुर्वेद के वैश्विक प्रसार का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी श्रेष्ठ चीजें को विश्व को देने का कोशिश करनी चाहिए। श्री कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी सांस्कृतिक वैभव से जुड़ी जानकारियों का वैश्वीकरण करना होगा तथा विदेशी ज्ञान-विज्ञान का भारतीयकरण करना होगा।

जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि ये काफी दुःखद है कि नयी पीढ़ी भारतीय नववर्ष के बारे में कम जानती है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी तरफ से इसको प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए फिर तो बाजार इसका अपने आप ही वैश्वीकरण कर देगा। इस मौके पर छात्र-छात्राओं ने नववर्ष पर स्वनिर्मित शुभकामना पत्र कुलपति श्री कुठियाला को भेंटकर उन्हें नए साल की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम में पवित्रा भंडारी और एन्नी अंकिता ने कविताएं प्रस्तुत कीं तो बिकास कुमार शर्मा एवं पंकज साव ने गीत प्रस्तुत कर माहौल को सरस बना दिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ पवित्र श्रीवास्तव ने की। इस अवसर पर सर्वश्री संदीप भट्ट, पूर्णेदु शुकल, शलभ श्रीवास्तव, देवेशनारायण राय, साकेत नारायण, कुंदन पाण्डेय सहित विभाग के छात्र मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन शिशिर सिंह व आभार प्रदर्शन सोनम झा ने किया। (संजय द्विवेदी)

भारतीय नववर्ष क्यों मनाएं!

भारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है, इसने जो ज्ञान का निदर्शन प्रस्तुत किया है, वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का पोषक है. यहाँ संस्कृति का प्रत्येक पहलू प्रकृति और विज्ञान का ऐसा विलक्षण उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता. नए वर्ष का आरम्भ अर्थात भारतीय परंपरा के अनुसार ‘वर्ष प्रतिपदा’ भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है.

भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वंतर विज्ञान में है. इस ग्रह के सम्पूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात मन्वन्तरों में बांटा गया है. एक मन्वंतर की आयु 30 करोण 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है. इस पृथ्वी का सम्पूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करों वर्ष का है. इसके 6 मन्वंतर बीत चुके हैं. और 7 वां वैवश्वत मन्वंतर चल रहा है. हमारी वर्त्तमान नवीन सृष्टि 12 करोण 5 लाख 33 हजार 1 सौ चार वर्ष की है. ऐसा युगों की कालगणना बताती है. पृथ्वी पर जैव विकास का सम्पूर्ण काल 4 ,32 ,00 ,00 .00 वर्ष है. इसमे बीते 1 अरब 97 करोण 29 लाख 49 हजार 1 सौ 11 वर्ष के दीर्घ काल में 6 मन्वंतर प्रलय, 447 महायुगी खंड प्रलय तथा 1341 लघु युग प्रलय हो चुके हैं. पृथ्वी और सूर्य की आयु की अगर हम भारतीय कालगणना देखें तो पृथ्वी की शेष आयु 4 अरब 50 करोण 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष है तथा पृथ्वी की सम्पूर्ण आयु 8 अरब 64 करोण वर्ष है. सूर्य की शेष आयु 6 अरब 66 करोण 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष तथा इसकी सम्पूर्ण आयु 12 अरब 96 करोड वर्ष है.

विश्व की सभी प्राचीन कालगणनाओ में भारतीय कालगणना प्राचीनतम है.इसका प्रारंभ पृथ्वी पर आज से प्रायः 198 करोण वर्ष पूर्व वर्त्तमान श्वेत वराह कल्प से होता है. अतः यह कालगणना पृथ्वी पर प्रथम मनावोत्पत्ति से लेकर आज तक के इतिहास को युगात्मक पद्धति से प्रस्तुत करती है. काल की इकाइयों की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास के लिए कालगणना के हिन्दू विशेषज्ञों ने अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति को आधार मानकर पंचवर्षीय, 12 वर्षीय और 60 वर्षीय युगों की प्रारंभिक इकाइयों का निर्माण किया. भारतीय कालगणना का आरम्भ सूक्ष्मतम इकाई त्रुटी से होता है, इसके परिमाप के बारे में कहा गया है कि सुई से कमल के पत्ते में छेद करने में जितना समय लगता है वह त्रुटी है. यह परिमाप 1 सेकेण्ड का 33750 वां भाग है. इस प्रकार भारतीय कालगणना परमाणु के सूक्ष्मतम ईकाई से प्रारंभ होकर काल कि महानतम ईकाई महाकल्प तक पहुंचती है.

पृथ्वी को प्रभावित करने वाले सातों गृह कल्प के प्रारंभ में एक साथ एक ही अश्विन नक्षत्र में स्थित थे. और इसी नक्षत्र से भारतीय वर्ष प्रतिपदा (भारतीय नववर्ष) का प्रारंभ होता है. अर्थात प्रत्येक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथमा को भारतीय नववर्ष प्रारंभ होता है. जो वैज्ञानिक द्रष्टि के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना को प्रस्तुत करता है. भारत में अन्य संवत्सरो का प्रचलन बाद के कालों में प्रारंभ हुआ जिसमे अधिकांश वर्ष प्रतिपदा को ही प्रारंभ होते हैं. इनमे विक्रम संवत महत्वपूर्ण है. इसका आरम्भ कलिसंवत 3044 से माना जाता है. जिसको इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा शुरू किया गया मानते हैं. इसके विषय में अकबरुनी लिखता है कि ”जो लोग विक्रमादित्य के संवत का उपयोग करते हैं वे भारत के दक्षिणी व पूर्वी भागो में बसते हैं.”

इसके अतिरिक्त कुछ जो अन्य महत्वपूर्ण बातें इस दिन से जुडी हैं, वो निम्न हैं :

इसी दिन भगवान श्रीराम जी का रावण वध के पश्चात् राज्याभिषेक हुआ था.

प्रभु श्रीराम जी के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व उत्सव मनाने का प्रथम दिन है.

माँ शक्ति (दुर्गा माँ) की उपासना की नवरात्री का शुभारम्भ भी इसी पावन दिन से होता है.

झुलेलाल का जन्म भी भारतीय मान्यताओं के अनुसार वर्ष प्रतिपदा को माना जाता है.

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी के द्वारा आर्य समाज कि स्थापना इसी दिन की गयी.

सिक्ख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगद देव का जन्म भी इसी पावन दिन हुआ.

इसी दिन युधिष्ठिर का राज्याभिषेक (युगाब्द ५११२ वर्ष पूर्व) हुआ.

विक्रमादित्य ने इसी दिन हूणों को परास्त कर भारत में हिन्दू राज्य स्थापित किया.

विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डा. केशव राम बलिराम हेडगेवार जी का जन्म इसी पावन दिन हुआ था.

इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय नववर्ष उसी नवीनता के साथ देखा जाता है. नए अन्न किसानो के घर में आ जाते हैं, वृक्ष में नए पल्लव यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अपना स्वरूप नए प्रकार से परिवर्तित कर लेते हैं. होलिका दहन से बीते हुए वर्ष को विदा कहकर नवीन संकल्प के साथ वाणिज्य व विकास की योजनायें प्रारंभ हो जाती हैं . वास्तव में परंपरागत रूप से नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारंभ होता है.

अतः आप सभी को भारतीय नववर्ष 2067, युगाब्द 5112 व पावन नवरात्रि की शुभकामनाएं

-रत्नेश त्रिपाठी

भारत को लेकर चीन का मनोविज्ञान

भारत के प्रति चीन की दुर्भावना को लेकर एक और प्रश्न आम तौर पर पूछा जाता है। वह प्रश्न चीन के इतिहास और संस्कृति से ताल्लुक रखता है। आज से लगभग दो हजार साल पहले चीन में बुद्ध वचनों का प्रसार हुआ था। बुद्ध के बचनों और बुद्ध के प्रवचनों ने चीन की मानसिकता को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चीन में स्थान-स्थान पर भगवान बुद्ध के विशाल मंदिर बने हुए हैं। बुद्ध मत से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ है। नालंदा विश्वविद्यालय जो अपने वक्त में बौद्ध दर्शन का विश्व विख्यात केन्द्र था, चीन से पढने के लिए अनेक छात्र और विद्वान आते थे। विख्यात चीनी दार्शनिक ह्वेनसांग इसी ध्येय की पूर्ति के लिए अनेक कठिनाइयां सहते हुए भारत आया था। भारत और चीन के बीच दर्शन शास्त्र के विद्वानों का आना -जाना लगा रहता था। चीन के लोग भारत को पावन स्थल मानते थे और उनके जीवन की एक आकांक्षा बौद्ध गया और सारनाथ के दर्शन करने की भी रहती थी। साधारण चीनी के मन में भारत का स्वरुप एक तीर्थ स्थान का स्वरुप बनता था। अतः चीनियों के मन में भारत के प्रति दुर्भावना हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता। यह परम्परा प्राचीन इतिहास पर ही आधारित नहीं है बल्कि इसको अद्यतन इतिहास तक में देखा जा सकता है। रविन्द्र नाथ ठाकुर ने जब शांति निकेतन की स्थापना की तो उसमें अध्ययन के लिए चीनी विभाग भी स्थापित किया और चीन से विद्वानों को निमंत्रित किया। यहां तक कि माओ ने जब चीन में गृह युद्ध शुरु किया तो उस गृह युद्ध में दुख भोग रहे चीनियों की सहायता के लिए महाराष्ट्र के एक डॉक्टर श्री कोटनिस ने अपना पूरा जीवन ही उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। वे भारत से चीन चले गए और गृह युद्ध में घायल चीनियों की सेवा-सुश्रुशा करते रहे। वहीं उन्होंने एक चीनी लड़की से शादी की। और सेवा करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। चीन के लोग आज भी डॉ.कोटनिस का स्मरण करते हुए नतमस्तक हो जाते हैं। तब यह प्रश्न पैदा होता है कि इस परम्परा की पृष्ठभूमि में चीन भारत का विरोधी कैसे हो गया। इतना विरोधी कि उसने 1962 में भारत पर आक्रमण ही कर दिया और आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी उसने अपने भारत विरोध को छोड़ा नहीं है।

इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले एक और प्रश्न का सामना करना पड़ेगा। वह प्रश्न है कि क्या आज का चीनी शासकतंत्र सचमुच चीन के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। चीन में जो साम्यवादी पार्टी सत्ता पर कुंडली मारकर बैठी है उसने यह सत्ता बंदूक के बल पर हथियाई है, न कि लोकमानस का प्रतिनिधि बनकर। साम्यवादी दल का सत्ता संभाले हुए आज 60 साल से भी ज्यादा हो गए हैं लेकिन उन्होंने कभी भी लोकमानस को जानने का प्रयास नहीं किया और न ही कभी लोगों की इच्छाओं के अनुरुप चुनाव होने दिए। इसके विपरीत लोक इच्छा को दबाने के लिए शासक साम्यवादी दल ने थ्यानमेन चौक पर अपने ही लोगों पर टैंक चढ़ा कर उन्हें मार दिया। साम्यवादी दल, दरअसल चीनी की पुरानी परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को समाप्त करने का प्रयास कर रहा है इसलिए उसने चीन में महात्मा बुद्ध के प्रभाव को विदेशी प्रभाव घोषित कर दिया है। साम्यवाद मूलतः भौतिकवादी दर्शन है। वह मुनष्य को बाकी सभी स्थानों से तोड़कर केवल भौतिक प्राणी के नाते विकसित करना चाहता है। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी यही प्रयोग कर रही है। इस प्रयोग के लिए यह जरुरी है कि चीन को उसकी विरासत, इतिहास और संस्कृति से तोड़ा जाए। इसलिए, आधिकारिक चीनी प्रकाशनों में भगवान बुद्ध को कायर और पलायनवादी तक बताया गया है। एक चीनी अधिकारी ने तो यहां तक कहा कि बुद्ध के माध्यम से भारत ने चीन पर बिना कोई सैनिक भेजे दो हजार साल तक राज्य किया। इन प्रश्नों को लेकर चीन के भीतर भी घमासान मचा हुआ है। चीनी साम्यवादी शासकदल लोगों का इन प्रश्नों पर एक प्रकार से मानसिक दमन कर रहा है और उन्हें पशुबल से चुप रहने के लिए विवश किया जा रहा है। रुस ने लगभग एक शताब्दी तक यह प्रयोग मध्य एशिया के अनेक देशों में किया था लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पाया। चीन के लिए महात्मा बुद्ध के प्रभाव को समाप्त करने के लिए जरुरी था कि बुद्ध वचनों के उद्गम स्थल भारत को भी शत्रु की श्रेणी में रखा जाए। चीनी साम्यवादी शासक दल के भारत विरोध का यह एक मुख्य कारण हो सकता है। चीन के लोग कहां खडे हैं और चीन की साम्यवादी शासक पार्टी कहां खड़ी है इसका पता तो तभी चलेगा जब भविष्य में कभी चीन में लोगों द्वारा चुनी गई सरकार स्थापित होगी। तब भारत और चीन के रिश्तों की नए सिरे से व्याख्या होगी। लेकिन यह सब भविष्य की बातें हैं। फिलहाल तो चीन हिमालय पर घात लगाकर बैठा है।

-डा.कुलदीप चंद अग्निहोत्री