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पुरूषवादी चेहरे पर महिलावादी मुखौटा – डॉ. रमेश यादव

आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के 100 वें साल के अवसर पर यूपीए सरकार ने महिलाओं को तैंतीस फीसदी आरक्षण का तोहफा देने में असफल रही। यह दिन भारत के इतिहास में दर्ज होते-होते रह गया। लेकिन दूसरे दिन ताकत के बल राज्यसभा में उक्त बिल को पास कराने में सरकार सफल रही।

जदयू, राजद, सपा, बसपा जैसी राजनैतिक पार्टियों नें आरक्षण के मूल स्वरूप पर विरोध किया लेकिन सरकार ने उसे ताकत के आहे अनसुना कर दिया।

बहुसंख्यक वर्ग यह जानना चाहता है कि जब सरकार महिलाओं को तैंतीस फीसदी आरक्षण देने के लिए बिल ला रही है तो उसमें दलित, पिछड़ी और अल्संख्यक वर्ग की महिलाओं को बराबरी के आधार पर आरक्षण देने में उसे क्या अपत्ति है।

अब तक जिनको आरक्षण दिया गया है वह काफी दोषपूर्ण है। आरक्षण का आधार आर्थिक और सामाजिक आधार बनाने की वजाय जाति आधार बनाया गया जिसका फायदा जरूरतमंद और समग्र समाज को नहीं मिल पाया।

पूर्व की गलती को सुधारने की वजाय सरकार ने एक और दोषपूर्ण कदम उठा लिया। सरकार के पास एक बड़ा अवसर था। इस बिल में सभी वर्गों के महिलाओं को समान अवसर देकर सरकार अपनी छवि अधिक समतावादी और न्यायप्रिय बना सकती है।

देर-सबेर जब यह आरक्षण कानून का रूप ले लेगा तब इसका सर्वाधिक फायदा वे लोग लेंगे जो हत्या,बलात्कार,भ्रष्टचार और अपराध की खेती करते हैं और जिनका समाज में भय व आतंक है। ऐसे लोग सीधे चुनाव में लड़ने की वजाय अपने परिवार और रिश्तेदारों को खड़ा करेंगे और चुनाव जीताने के लिए हर षड्यंत्र करेंगे।

हालांकि जहां तक सरकार के रवैये का सवाल है तो यह कभी भी साफ नहीं रहा। जब आजादी के इतने दशक बाद भी संविधान में दी गयी प्रतिबद्धताओं को ईमानदारी से जमीनी स्तर पर लागू नहीं किया जा सका तो क्या आरक्षण का झुनझुना पकड़ा देने मात्र से महिलाओं से जुड़ी सारी समस्याओं का समाधान एक झटके में हल हो जायेगा।

पंचायतों में लंबे समय से महिलाओं के लिए आरक्षण लागू है। लेकिन वहां सही मायने में किसका राज चल रहा है। कितनी प्रतिशत महिलाएं स्वतंत्र व स्वतः निर्णय लेने में सक्षम हैं।

सरकारी महकमा पूरी की पूरी नेतृत्वकारी जमात को भ्रष्ट, निकम्मा और जनविरोधी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा है। महिला चाहे अगड़ी हो, पिछड़ी हो, दलित हो या अल्पसंख्यक उनका राजनीतिक क्षेत्रों में स्वतंत्र अस्तित्व नहीं के बराबर है।

इसकी आड़ में पुरूषवादी ताकत है जो उन्हें पिछे से संचालित करता है। दरअसल, जो दिखता है वैसा होता नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे हाथी के दांत खाने और दिखाने के अलग-अलग होते हैं। व्यवस्था सुधारने की तो जरूरत यहां पर है।

आज के युग में यदि आम महिला सत्ता में भागीदारी चाहती है, तो उसके लिए यह डगर कितना मुश्किल भरा है। जिस तरह से राजनीति को उत्पादन और उगाही का केंद्र बनाया जा रहा है उसमें सफल होने के लिए जो तामझाम चाहिए उसका इंतजाम ईमानदारी के रास्ते नहीं हो सकता है। जिस रास्ते से यह इंतजाम होता है उसे सही रास्ता नहीं कहा जा सकता है। जाहिर है ऐसे रास्ते के सही भविष्य के बारे में भी घोषणा नहीं की जा सकती है।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में विधान परिषद का चुनाव हुआ था। सभी पार्टियों ने जीताऊं प्रत्याशियों को मैदान में उतारा। लेकिन जीत सर्वाधिक सीटों पर बसपा की हुई। यानी करीब 36 में से 34 सीट बसपा के खाते में गयी और बाकी एक-एक सीट कांग्रेस और सपा के झोली में।

हुआ यह की बहन जी ने बड़ी संख्या में उन प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा जिनका परिवार कई पुश्तों से अपराध, धन उगाही, हत्या-लूट,गुंडई और इसी तरह के अन्य फसलों की खेती-बाड़ी के पेशे से जुड़ा रहा है।

शिक्षा,संस्कृति और धर्म की नगरी के रूप में प्रसिद्ध बनारस की विधान परिषद् सीट पर बसपा से पूर्वांचल के माफिया डान की पत्नी की जीत हुई। जो ‘वोट फला को नहीं देगा, वह सुबह का सूरज’ नहीं देखेगा। जहां इस नारे और धमकी के आधार पर चुनाव-निर्वाचन होता हो वहां हम किस आरक्षण और लोकतंत्र की बात करते हैं।

संविधान में तो सब कुछ दिया गया है लेकिन उसकी जमीनी हकीकत हम सभी जानते हैं। बसपा तो मात्र बानगी भर है। इस संस्कृति को विकसित करने वाली पार्टिंयां तो दशकों से इसका सुख ले रहीं हैं।

जब पूरा का पूरा भारतीय सामाजिक व्यवस्था सामंती नींव पर टिका, मर्दवादी ढांचे में फल-फूल रहा है, तो ऐसी परिस्थिति में राजनीतिक व्यवस्था को बहुत निरपेक्ष और साम्यवादी नजरिए से देखना भ्रम होगी। यहां सभी राजनैतिक दलों के पुरूषवादी चेहरे पर महिलावादी मुखैटा है। यही वजह है कि महिला आरक्षण पर अर्थपूर्ण, निरपेक्ष और संपूर्ण वर्ग की महिलाओं के लिए प्रावधान नहीं है। यही कारण है की यह बिल अभी तक लटका रहा है।

पहली बार 12 सितंबर,1996 को संयुक्त मोर्चा की सरकार में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण संबंधी विधेयक लोक सभा में पेश किया गया। 1998 में एनडीए सरकार में इस बिल को दोबारा पेश किया गया। इसी प्रकार 1999, 2008 और अब 9 मार्च, 2010 को इस बिल को अंततः राज्य सभा में पास कर दिया गया।

शुरू से ही यह विधेयक राजनैतिक खींचतान का शिकार रहा क्योंकि यह असमानता पर आधारित रहा है। दरअसल, पूरी घटनाक्रम से लगता है कि राजनैतिक दल पुरूषवादी चेहरे पर महिलावादी मुखैटा लगाये घूम रहे हैं।

वामपंथियों से लगायत दक्षिणपंथियों तक सभी आरक्षण का रट लगा रहे हैं लेकिन सभी जमात की महिलाओं के प्रति उनका खयाल नहीं है। इस बिल में कई तरह के छिद्र हैं जिस पर बहस होनी चाहिए। मसलन बिल में पिछड़ी, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग के महिलाओं के लिए कोई प्रावधान नहीं है।

बिल में हर पांच साल में कुल 543 सींटों के एक तिहाई सीटों को महिलाओं के लिए बारी-बारी से आरक्षित करने के लिए सिफारिश की गयी है। 15 साल के लिए लागू होने के लिए प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक अगर कानून के शक्ल में लागू हो गया तो देशभर की हर सीट से एक बार महिला चुन कर संसद पहुंचेंगी। जब उन्हें पता होगा कि संबंधित सीट अगली बार किसी पुरूष के हिस्से जायेगी तो ऐसी परिस्थिति में उनका सामाजिक सरोकार कितना ईमानदार और प्रतिबद्ध होगा। आप कल्पना कर सकते हैं।

मौजूदा लोक सभा में कुल 58 महिला सांसद हैं जो अब तक की संसदीय इतिहास में इनकी सर्वाधिक संख्या है।

अब सवाल उठता है कि क्या? यूपीए सरकार संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण से संबंधित बिल पास करा कर समाज के सभी जमात की महिलाओं के साथ बराबरी का न्याय कर पायेगी। क्या? इस आरक्षण से महिलाओं को इज्जत, आजादी और समान अवसर मिल पायेगा। क्या? सामाजिक शोषण का तरीका और घरेलू हिंसा की घटनायें, खत्म हो जायेंगी।

क्या? आरक्षण के सहारे जीत कर संसद और विधान सभाओं में पहुंचने वाली महिलायें परिवार व पतियों से दबाव मुक्त हो कर समाजहित में स्वतंत्र निर्णय ले सकेंगी।

क्या? सरकार आधी आबादी को आरक्षण की बैसाखी देने की वजाय आजादी और बराबरी के लिए समान अवसर देने पर बल नहीं दे सकती।

क्या? जब महिला आजाद और सबल होंगी तो समाज के हर क्षेत्र में स्वतंत्र प्रदर्शन कर पायेंगी।

क्यों न सभी वर्गों की महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए उन्हे तैंतीस की जगह पचास फीसदी आरक्षण दिया जाय।

क्या? सभी राजनैतिक पार्टियां इस एजेंडे पर पहल करने की हिम्मत रखती हैं। यदि हां तो उनके इस कदम का स्वागत है।

-लेखक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय नई दिल्ली के पत्रकारिता एवं नवीन मीडिया अध्ययन विद्यापीठ, सहायक प्रोफेसर हैं।

‘शाश्वती’ ने किया अज्ञेय स्मारक व्याख्यान का आयोजन

जम्मू के अज्ञेय प्रेमी हिन्दी साहित्यकारों की संस्था ‘शाश्वती’’ ने पहला अज्ञेय स्मारक व्याख्यान 7 मार्च 1998 को आयाजित किया था। उसी सिलसिले को आगे बढ़ाजे हुए शाश्वती ने 7 मार्च 2010 को के.एल. सहगल हॉल जम्मू में अज्ञेय स्मारक व्याख्यान 2010 का आयोजन किया जिसमें हिन्दी के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार और व्यंग्य-यात्रा के सम्पादक प्रेम जन्मेजय ने ‘बदलते सामाजिक परिवेश में व्यंग्य की भूमिका’ विषय पर अपना व्याख्यान दिया।

व्यंग्य समाज की बुराइयों पर चोट करता है। साहित्यकार विद्रूपताओं और विसंगतियों से समाज को मुक्ति दिलाने के लिए उसका इस्तेमाल ठीक वैसे ही करता है, जैसे डॉक्टर नश्तर लगा कर फोड़े के मवाद की सफाई करता है। बदलते सामाजिक मूल्यों की पड़ताल करते हुए प्रेम जन्मेजय ने कहा कि मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने स्वतंत्रता शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली हैं और जिसने लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध्याय पढ़े हैं, राशन की पंक्तियों में डालडा पीढ़ी को देखा है तो चमचमाते मॉल में विदशी ब्रांड के मोहपाश में फंसी पागल नौजवान भीड़ को भी देख रहा हूं। मैंने विश्व में छायी मंदी के बावजूद अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती देखी है, पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी. डी. पी. को निरंतर गिरते देखा है। हमारा आज बहुत ही भयावह है। हमारे शहरों का ही नहीं आदमी के अंदर का चेहरा भी बदल रहा है। पूंजीवाद हमारा मसीहा बन गया है। उसने हमारा मोहल्ला, हमारा परिवार सब कुछ जैसे हमसे छीनकर हमें संवादहीनता की स्थिति में ला दिया है। एक अवसाद हमें चारों ओर से घेर रहा है। हमारी अस्मिता, संस्कृति और भाषा पर निरंतर अप्रत्यक्ष आक्रमण हो रहे हैं। हर वस्तु एक उत्पाद बनकर रह गई है। सामयिक परिवश विसंगतिपूर्ण है तथा विसंगतियों के विरुद्ध लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य है। सार्थक व्यंग्य ही सत्य की पहचान करा सकता है, असत्य पर प्रहार कर सकता है और उपजे अवसाद से हमें बाहर ला सकता है। व्यंग्य एक विवशताजन्य हथियार है। व्यंग्य का इतिहास बताता है कि विसंगतियों के विरुद्ध जब और विधाएं अशक्त हो जाती हैं तो कबीर, भारतेंदू, परसाई जैसे रचनाकार व्यंग्यकार की भूमिका निभाते हैं। निरंकुश व्यंग्य लेखन समाज के लिए खतरा होता है, अतः आवष्यक है कि दिशायुक्त सार्थक व्यंग्य का सृजन हो जो वंचितों को अपना लक्ष्य न बनाए। व्यंग्य के नाम पर जो हास्य का प्रदूषण फैलाया जा रहा है उससे बचा जाए और बेहतर मानव समाज के लिए व्यंग्य की रचनात्मक भूमिका उपस्थिति की जाए।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. ओम प्रकाश गुप्त ने अपने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दी साहित्य को अज्ञेय के अवदान पर चर्चा करते हुए उनको एक महान व्यंग्यकार बताया । डॉ. गुप्त ने प्रेम जन्मेजय को धन्यवाद दिया कि उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय को उठाकर आने वाले खतरों के प्रति सावधान किया है।

कार्यक्रम के आरम्भ में अज्ञेय की आवाज़ में उनकी दो कविताओं का पाठ भी सुनाया गया।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए रमेश मेहता ने कहा कि अज्ञेय के सौवें जन्म दिन को लेकर जम्मू में खासा उत्साह देखा जा रहा है और वर्ष 2011 में इस संदर्भ में बड़े पैमाने पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जायेगा।

डॉ. चंचल डोगरा ने अज्ञेय का और डॉ. आदर्श ने प्रेम जन्मेजय का परिचय प्रस्तुम किया । धन्यवाद ज्ञापन डॉ. निर्मल विनोद ने किया ।

प्रस्तुति: बृजमोहिनी

रिहाड़ी, जम्मू – 180005

हाब्सवाम, चीन और अमेरिका

कोलकाता के ‘द टेलिग्राफ’ दैनिक के 2 मार्च के अंक की सुर्खी है : ”करात ने विकट पश्चिम बंगाल की भविष्यवाणी की”। नई दिल्ली से मानिनी चटर्जी की इस रिपोर्ट में ब्रिटेन के वयोवृद्ध माक्र्सवादी इतिहासकार एरिक हाब्सवाम के एक साक्षात्कार का हवाला देते हुए बताया गया है कि माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने उनसे कहा कि पश्चिम बंगाल में माकपा ‘संकट में है’ और ‘घिर गयी’ है। आगामी स्थानीय चुनावों में वह नयी कांग्रेस के हाथों करारी शिकस्त खा सकती है।

हाब्सवाम का यह साक्षात्कार पिछले पांच दशकों से लंदन से निकल रही मार्क्‍सवादी विमर्श की बहुचर्चित पत्रिका ‘न्यू लेफ्ट रिव्यू’ के जनवरी-फरवरी 2010 के ताजा अंक में प्रकाशित हुआ है। 1991 में हाब्सवाम की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आत्यांतिकताओं का युग’ (एज आफ एक्सट्रीम्स) प्रकाशित हुई थी। उसके दो दशक बाद की दुनिया की परिस्थिति का बयान करते हुए अपने इस साक्षात्कार में हाब्सवाम ने शुरू में आज की दुनिया में उनके द्वारा लक्षित पांच परिवर्तनों को गिनाया है। उसके बाद ही जब उनसे पूछा गया कि इनके अलावा इस दौरान और किन चीजों ने उन्हें अचम्भित किया तो उन्होंने तीन बातों का उल्लेख करते हुए कहा कि ”मैं आज तक उस नवअनुदार प्रकल्प के शुद्ध पागलपन पर अचंभित हूं जिसने सिर्फ इस बात का झूठा दावा ही नहीं किया था कि भविष्य अमेरिका है, बल्कि उसने यह भी सोचा था कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये उसने एक पूरी रणनीति और कार्यनीति तैयार कर ली है। जहां तक मुझे नजर आता है, तर्कसंगत अर्थ में, उनके पास कोई युक्तिपूर्ण रणनीति नहीं थी।” उन्होंने दूसरा, काफी मामूली लेकिन उल्लेखनीय आष्चर्य, जलदस्युओं की वापसी को बताया, ”जिसे हम काफी हद तक भूल चुके थे, यह नयी बात है।” और इसी सिलसिले में उन्होंने और भी ज्यादा ‘स्थानीय’ जिस तीसरे आष्चर्य का जिक्र किया वह था, ”पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) का पतन, जिसकी मैंने सचमुच उम्मीद नहीं की थी।” इसके साथ ही हाब्सवाम ने वे बातें कही जिन्हें ‘टेलिग्राफ’ ने खबर बनाया है कि ”सीपीआई (एम) के महासचिव प्रकाश करात ने मुझसे हाल में कहा कि पश्चिम बंगाल में वे खुद को संकट में तथा घिरा हुआ पाते हैं। स्थानीय चुनावों में नयी कांग्रेस के हाथों वे करारी शिकस्त देख पा रहे हैं। यह हाल तीस वर्षों तक एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में शासन करने के बाद है। किसानों से जमीन लेकर चलायी गयी औद्योगीकरण की नीति का काफी बुरा प्रभाव पड़ा है, और यह साफ तौर पर एक भूल थी। अन्य सभी बची हुई वामपंथी सरकारों की तरह ही उन्हें भी आर्थिक विकास, जिसमें निजी विकास भी शामिल है, को मानना पड़ा और इसीलिये उन्हें एक मजबूत औद्योगिक आधार तैयार करना स्वाभाविक जान पड़ा, मैं इसे समझ सकता हूं। लेकिन मुझे यह किंचित आश्चर्यजनक लगता है कि इसका इतना नाटकीय परिणाम हो सकता है।”

हाब्सवाम के 18 पृष्ठों के इस लंबे साक्षात्कार में पश्चिम बंगाल के सिलसिले में सिर्फ ये चंद लाइनें हैं, जहां की हाल के घटनाओं को अपने लिये आश्चर्यजनक मानते हुए भी उन्हें वे एक बहुत स्थानीय घटनाक्रम समझते हैं। हाब्सवाम के साक्षात्कार की इस छोटी सी ‘स्थानीय’ बात का एक स्थानीय अखबार में सुर्खी बन कर प्रकाशित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इसीबीच, प्रकाश करात ने एक बयान के जरिये हाब्सवाम के उक्त कुल कथन से अपनी असहमति व्यक्त कर दी है।

बहरहाल, यह एक भिन्न मसला है। हमारे लिये इस 92 वर्षीय इतिहासकार का साक्षात्कार दूसरे कई कारणों से काफी महत्वपूर्ण है, जिनकी हम यहां चर्चा करना चाहेंगे।

हाब्सवाम ने अपनी पुस्तक ‘आत्यांतिकताओं का युग : बीसवीं सदी 1914 से 1991’ में पहले विश्वयुद्ध से शुरू करके रूस की समाजवादी क्रांति, 1929 की महामंदी, उदारतावाद के अंत और तानाशाहियों के उदय, द्वितीय विश्वयुद्ध, उपनिवेशों का अंत, युध्दोत्तार तीव्र आर्थिक विकास का स्वर्णिम युग, फिर आर्थिक संकट, तीसरी दुनिया का उदय, युद्ध और क्रांतियां तथा समाजवाद का पराभव तक के पूरे घटनाक्रम को उसके आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयामों के साथ समेटा था। ‘न्यू लेफ्ट रिव्यू’ को दिये गये साक्षात्कार में वे इस पुस्तक में समेटे गये काल के बाद के दो दशकों पर बात कर रहे थे, जो गौर करने लायक महत्वपूर्ण बात है।

विगत बीस सालों में दुनिया के इतिहास में उन्हें कौन सी प्रमुख नयी बातें दिखाई देती है, इस सवाल के जवाब में हाब्सवाम ने पांच प्रमुख परिवर्तनों को गिनाया है। पहला, दुनिया का आर्थिक केंद्र उत्तार अतलांटिक से हट कर दक्षिण और पूर्व एशिया में आगया है। इसकी शुरूआत सत्तार और अस्सी के दशक में जापान से हुई थी, लेकिन 90 के दशक में चीन के उदय से एक वास्तविक फर्क आया है। दूसरा बड़ा परिवर्तन वे पूंजीवाद के विश्वव्यापी संकट को मानते है जिसकी वे भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन उसके बावजूद इसे सामने आने में लंबा समय लगा। तीसरी बात यह कि 2001 के बाद अमेरिका ने दुनिया पर अपना जो एकछत्र प्रभुत्व कायम करने की कोशिश की थी, वह पूरे ढोल-धमाकों के साथ ध्वस्त होगयी है – उसकी विफलता साफ देखी जा सकती है। चौथा, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन) के रूप में विकासशील देशों के एक नये राजनीतिक गुट का उदय, जो उनकी किताब के लिखे जाने तक अस्तित्व में नहीं आया था। और पांचवां परिवर्तन, दुनिया के बड़े हिस्से में सुव्यवस्थित ढंग से राज्य की सत्ताा का क्षय और उसका कमजोर होना है। हाब्सवाम का कहना है कि इसे पहले देखा जा सकता था, लेकिन इधर यह जिस तेजी से हो रहा है, इसकी उन्होंने उम्मीद नहीं की थी।

इसी में आगे इस सवाल पर कि वे आज के संकट की 1929 की महामंदी से कैसे तुलना करते हैं, हाब्सवाम ने जो मार्के की बातें कही उनकी ओर ध्यान दिलाना भी यहां हमारा अभीष्ट है। वे कहते हैं, 1929 बैंकों से शुरू नहीं हुआ था – बैंकों का उसके दो वर्ष बाद तक पतन नहीं हुआ था। बनिस्बत्, शेयर बाजार ने उत्पादन में गिरावट का श्रीगणेश किया। 1929 की तुलना में अभी की मंदी की कहीं ज्यादा तैयारियां की गयी थी। नवउदार तत्ववाद ने पूंजीवाद की क्रियाशीलता में जो भारी अस्थिरता पैदा कर दी है, उसे काफी पहले ही देख लिया जाना चाहिए था। 2008 तक इसने सिर्फ हाशिये के क्षेत्रों – 90 के दशक में लातिन अमेरिका तथा 21वीं सदी के शुरू में दक्षिण पूर्व एशिया, रूस को प्रभावित किया था। प्रमुख देशों के लिये इसका मायने सिर्फ समय-समय पर शेयर बाजारों का गिरना था जिससे वे जल्द ही उबर जाते थे। हाब्सवाम के अनुसार 1998 में जब दीर्घ-मियादी पूंजी प्रबंधन की व्यवस्था का पतन हुआ तभी यह समझ लेना चाहिए था कि विकास का यह समूचा मॉडल ही कितना गलत है।

इसी सिलसिले में वे आगे कहते हैं कि आज की तुलना में 1929 की विश्व अर्थ-व्यवस्था कम वैश्विक थी। ”सोवियत संघ के अस्तित्व का मंदी पर कोई व्यवहारिक प्रभाव नहीं था, लेकिन एक गहरा विचारधारात्मक प्रभाव था – एक विकल्प था। 90 के दशक के बाद से हमने चीन और अन्य उदीयमान अर्थ-व्यवस्थाओं के उभार को देखा है जिनका दरअसल आज की मंदी पर व्यवहारिक प्रभाव है।… सचाई यह है कि उस समय भी जब नवउदारवाद अपनी समृध्दि का दावा कर रहा था, वास्तविक अभिवृध्दि मुख्य रूप से इन नव विकसित अर्थ-व्यवस्थाओं में- खास तौर पर चीन में – हो रही थी। मेरा पक्का मानना है कि यदि चीन न होता तो 2008 की गिरावट कहीं ज्यादा गंभीर होती।”

आप इधर की प्रमुख पश्चिमी पत्रिकाओं, ‘द इकोनोमिस्ट’, ‘टाईम’ तथा ‘न्यूजवीक’ के अंकों को देखिये, चीन के साथ पश्चिम के नफरत और प्यार की पूरी कहानी साफ समझ में आजायेगी। चीन को अपनी बढ़ी हुई आर्थिक हैसियत का अनुमान है, अब वह पहले के किसी भी समय की तुलना में कहीं ज्यादा गहरे आत्म-विश्वास के साथ राजनीतिक मामलों में भी दखल देता है, यह बात पश्चिम के रणनीतिकारों और उनकी प्रवक्ता पत्रिकाओं को नागवार गुजर रही है। वे चीन पर अंकुश चाहते हैं। साथ ही अंतिम निष्कर्षों के तौर पर यह भी मानते हैं कि ”अमेरिका और चीन वैश्विक प्रभाव के मामले में सिर्फ प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, वे परस्पर निर्भरशील अर्थ-व्यवस्थाएं भी है जिन्हें आपस में सहयोग से हर चीज का लाभ है। मतभेद यदि टकराहटों में बदल जाए तो किसी को भी फायदा नहीं है।”

चीनी और अमेरिकी अर्थ-व्यवस्थाओं की यह कथित परस्पर-निर्भरशीलता दुनिया की परिस्थिति के बारे में अपने किस्म का एक अभिनव दृश्यपट प्रस्तुत करती है, जिसके सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि व्यापक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों की थाह पाना किसी भी प्रकार की विश्व-रणनीति के लिये जरूरी है। 1929 के वक्त का जिक्र करते हुए हाब्सवाम कहते हैं कि उस समय सोवियत संघ की उपस्थिति एक ‘विचारधारात्मक प्रभाव’ तथा ‘विकल्प’ के तौर पर थी, जबकि आज का चीन विश्व अर्थ-व्यवस्था का एक प्रमुख कारक तत्व है। सचाई यह है कि हाल के अमेरिकी संकट में अगर किसी देश ने अमेरिका के लिये सबसे बड़े त्राणदाता की भूमिका अदा की तो वह चीन ही था। अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद के जरिये चीन अमेरिका को ऋण देने वाला आज सबसे बड़ा देश बन चुका है। चीन के प्रमुख अंग्रेजी सरकारी दैनिक ‘पीपुल्स डेली’ ने लिखा था कि चीन के हाथ में भारी मात्रा में अमेरिकी सरकारी प्रतिभूतियों के होने का अर्थ यह है कि वह कभी भी डालर की एक आरक्षित मुद्रा की हैसियत को खत्म कर सकता है। ऐसा कहने के बाद ही उसमें आगें यह भी कहा गया कि यह स्थिति ”वस्तुत: निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध का विदेशी मुद्रा संस्करण है।” ओबामा के आर्थिक सलाहकार लारेंस समर्स ने किसी समय अमेरिका और उसके विदेशी कर्जदाताओं के संबंधों को ‘वित्ताीय आतंक का संतुलन’ कह कर परिभाषित किया था। ‘पीपुल्स डेली’ की ‘निश्चित परस्पर विनाश पर आधारित शीत युद्धकालीन गतिरोध के विदेशी मुद्रा संस्करण ‘की बात लारेंस समर्स के ”वित्ताीय आतंक का संतुलन’ की पदावली को ही प्रतिध्वनित करती है।

मजे की बात यह भी है कि परस्पर निर्भरशीलता के इस गहरे अहसास के बावजूद सभ्यताओं के संघर्ष की नस्लवादी मानसिकता से पश्चिमी रणनीतिकार कभी मुक्त नहीं हो पाते हैं। चीन के इस नये उदय में उन्हें जो खतरे की घंटी सुनाई देती है, उसे ‘द इकोनोमिस्ट’ ने इसप्रकार लिखा हैं : ब्रिटिश साम्राज्य के स्थान पर दुनिया में अमेरिकी साम्राज्य का प्रभुत्व बिना किसी खून खराबे के कायम हो गया क्योंकि दोनों की सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत एक थी। लेकिन जब जापान और जर्मनी ने सर उठाने की कोशिश की तब कैसा विनाशकारी विश्व युद्ध हुआ, इसे सभी जानते हैं। इसी प्रकार चीन की बढ़ती हुई समृध्दि और ताकत और भी ज्यादा उत्तोजनापूर्ण होंगे।

कुल मिला कर, हाब्सवाम ने मौजूदा विश्व के रूझानों के बारे में जो तमाम बातें कही है, उन सब पर ध्यान देने की जरूरत के बावजूद, वित्ताीय संकट के समाधान में चीन और अमेरिका के प्रकट साझा हितों से जुड़े दुनिया के इस नये यथार्थ के तमाम प्रसंग काफी सजग और आलोचनात्मक दृष्टि की अपेक्षा रखते हैं।

-अरुण माहेश्वरी

कहां खड़ी है आज पत्रकारिता?

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देखा जाए तो पत्रकारिता लोकतंत्र के खम्भे और जनता की हितों की रक्षा करने के दायित्व के लिए समझा जाता है। शुरू से अपने दायित्वों का निर्वाहन करते-करते मीडिया की आज स्थिति यह है कि वह दिन प्रति दिन विस्तार पा रहा है। छोटे से लेकर बड़े जगहों से पत्र-पत्रिकाओं का जहां प्रकाशन हो रहा है वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने पांव तेजी से फैलाये जा रहा है। क्षेत्रीय होते अखबारों के तर्ज पर खबरिया व इंटरटेंमेंट चैनल भी चल रहे हैं। यही नहीं इंटरनेट पत्रकारिता का दौर भी शुरू हो चुका है। जहां खबरें हर जगह आ रही है, लेकिन क्या उसका स्वरूप, तेवर, मकसद और जज्बा नजर आ रहा है? जवाब में उत्तर ‘ नहीं ‘ में मिलता है। ऐसे में सवाल उपजता है कि आज पत्रकारिता कहां खड़ी है?

मिशन नहीं प्रोफेशन और फिर बाजारवाद के चोले में घुसते मीडिया के लिए ये रूचिकर शब्द बन गये हैं। मीडिया जन सेवक की भूमिका में न आकर कारोबारी की भूमिका में आज है। बड़े-बड़े पूंजीपति, उद्योगपति, भूमंडलीकरण के प्रभाव में इस उद्योग से जुड़ गये हैं। हालांकि उन्हें मीडिया से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन एक परिपाटी विकसित हुयी और यह कि मीडिया को जन हथियार और लोकतंत्र के रक्षक के तौर पर न पेश कर अपनी दुकानदारी चलाने में इस्तेमाल किया जाये? नतीजा सामने है, हर कोई मीडिया के इस्तेमाल धड़ल्ले से, करने से, बाज नहीं आ रहा। इसमें राजा (मालिक) और प्रजा दोनों शामिल हैं। राजा अपनी हितों के लिए इसे इस्तेमाल कर रहा है तो वहीं प्रजा भी अपनी बात को पहुंचाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करने से नहीं चुक रही। राजा द्वारा संचालित मीडिया में उन्हीं बातों को दिखाया जाता है जो राजा चाहता है। तेजी से जनता के बीच घुसपैठ बनाने वाला, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जनता के सरोकारों से दूर होता जा रहा है। अपने टीआरपी या यों कहे चैनलों की भीड़ में अपने वजूद को बचाने के कषमोकष में ऐसी खबरों का प्रसारण करता है, जिसे जनता को कोई खास लेना-देना नहीं। खबर, खबर तो सही है लेकिन उस खबर को वह इतना खिंचता है कि जनता को ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरी खबर प्रायोजित की गई हो? कई उदाहरण सामने है जिसमें मीडिया ने वहीं दिखाया जो उसे अच्छा लगा।

‘माई नेम इज खान’ मामले को ही लें। कई खबरिया चैनलों ने पूरे विवाद को खूब भुनाया, वहीं बिहार में एक नक्सली हमले की खबर को बस खबर की तरह दिखाया गया। जाहिर है खबर है तो खबर की ही तरह दिखायी जायेगी। लेकिन ‘माई नेम इज खान’ फिल्म का मामला भी तो खबर की तरह ही था। फिर उसे लेकर मीडिया में पैषन क्यों? उसे भी खबर की तरह दिखाया जाना चाहिये था। ‘माई नेम इज खान’ का मामला मानवीय संवेदना से नहीं जुड़ा था, जुड़ा था तो सिर्र्फ प्रदर्षन को लेकर, वह भी सिर्फ मुबंई में। वहीं नक्सली हमले की खबर और उसमें मारे गये लोगों की संवेदना तो सामने आनी चाहिये थी? मीडिया द्वारा उसके कारणों की तलाश की जानी चाहिये थी? जो नहीं की गयी। जबकि ‘माई नेम इज खान’ के हीरो को मीडिया ने मंच दिया। देश की जनता से रूबरू कराया। सवाल दागे और जवाब पाये। पूरा कार्यक्रम फिल्मी अंदाज में पेश किया गया। यहां यह कहने से परहेज नहीं कि मीडिया का सिनेमाई होता रूप का भव्य प्रदर्शन दिखा। वहीं नक्सली हमलें की खबर पर कोई राष्ट्रीय चर्चा नहीं की गई। फिल्में आती है, जाती है लेकिन नक्सली हमले, आतंकवादी हमले में मारे गये लोग लौट कर नहीं आते? समस्याएं वहीं की वहीं खड़ी रहती है। इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय सहमति, जनचेतना और जागरूकता को लाना भी मीडिया के मजबूत कंधे पर है। कुछ क्षणों के लिए राजनीतिक गलियारे में चिल्लमपोह की गुंज सुनाई पड़ती है।

हालांकि, कुछ मीडिया भी मामले को उठाते हैं, लेकिन जो बात सिनेमाई खबरों में होती है वह जन सराकरों से जुड़े खबरों में नहीं दिखती। जहां तक जनता का सवाल है जनता भी मीडिया का जमकर इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत हितों के लिए करती है। छोटी से छोटी घटना के लिए उसे बुला लेती है। लेकिन जन सराकारों की जब बातें आती है तो मीडिया को कोई नहीं बुलाता। मीडिया की अहम् भूमिका देश और समाज संस्कृति, धर्म, से जुड़े मुद्दों को जोड़ने में सार्थक कोशिश भी है लेकिन यह सब यह नहीं दिखता। राजनीतिक उठापटक में मीडिया की दिलचस्पी ज्यादा रहती है। हालांकि मीडिया के काम को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। समय-समय पर कई महत्वपूर्ण मुद्दों को इसने जिस तेवर के साथ उठाया वो काबिले तारिफ है। रूचिका-राठौर मामले को ही लें। इसे जाहिर है कि कितना से भी कितना शक्तिशाली क्यों न कोई हो उसे चाहे तो मीडिया जमीन पर ला सकता है और न्याय की आश में पथाराई आंखों में न्याय की उम्मीद जगा सकता है। यह सब कई घटनाओं में देखने को मिलता है। हालांकि इधर, जो भी कुछ मीडिया के अंदर देखा जा रहा है उसे बदलाव के तहत ही माना जा सकता है। बदलाव प्रकृति का नियम है। संभवत: इसे स्वीकार करते हुए इस बदलाव को हमे मान लेना चाहिए। हालांकि, उदयन शर्मा, रघुबीर सहाय, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, एम.जे. अकबर, की पत्रकारिता बरबस हमें याद दिला जाती है। नरसंहार की खबरें या फिर कालाजार, भूख आदि से हुई मौत की खबरें या फिर जनसरोकारों से जुड़ी वह तमाम खबरें, जिसे लिखने के बाद सरकार तक को भी जवाब देना पड़ता था। आज वह सब कुछ नहीं दिखता। ऐसा कुछ लिखा नहीं जा रहा जिससे काला विधेयक यानी प्रेस पर अंकुष लगने का मामला बने। कहा जा सकता है कि मीडिया आज नाप तौल कर बातों/ मुद्दों को उठा रहा है जिसमें कोई विवाद न हो! हालांकि मुद्दें हैं, खबरें हैं, खबरें जरूर आ जाती है लेकिन खबर के पीछे सच क्या है वह नहीं आ पाता। लोगों से दूर होती मीडिया, बाजारवाद के गिरफ्त में मीडिया, सिनेमाई होती मीडिया, सनसनी होती मीडिया आदि जुमले के झंझावाद में मीडिया फंस कर रह गया है।

-संजय कुमार

महिला आरक्षण विधेयक पर सुलगता असंतोष

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सच कहा जाये तो महिलाओं को आरक्षण देने के सवाल पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि राजनीति सभी खिलाड़ी अच्छी तरह से शतरंज खेलने में माहिर हैं। वे जानते हैं कि रेत में से कैसे सोना निकाला जाता है? महिला आरक्षण विधेयक के विरोधी या आलोचक भी इस विधेयक में से सोना निकालने की फिराक में हैं।

विरोध का असली मुद्वा है प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक में कोटे के अंदर कोटा के प्रावधान का न होना। नीतीश कुमार को छोड़ दिया जाये तो लगभग मंडल युग के सारे नेता मंडल की तर्ज पर महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्वे पर भी कोटे के अंदर कोटे की व्यवस्था की वकालत कर रहे हैं अर्थात महिलाओं को पुनश्‍च: पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में बाँटना इनकी मंशा है। इन्हीं के नक्षेकदम पर चलते हुए मायावती अनुसूचित जाति की महिलाओं को उनका हक दिलवाना चाहती हैं, तो ममता बनर्जी मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रही हैं। सभी अपने-अपने तरीके से मसीहा बनने की जुगत में हैं।

चूँकि बिहार में महिलाओं को पहले से ही 50 प्रतिशत पंचायतों में आरक्षण प्राप्त है। इसलिए नीतीश कुमार के लिए बेहतर यही था कि वे महिला आरक्षण के समर्थन में आगे आयें, जोकि उन्होंने किया भी। इससे उनकी भद भी नहीं पिटी और उनकी पहचान भी एक प्रगतिषील नेता के रुप में उभर कर सामने आई।

शरद यादव के साथ-साथ अपनी पार्टी के अन्य नेताओं के साथ इस विषय पर नीतीश कुमार का मतभेद होना भले ही आम आदमी के मन में सवाल उत्पन्न कर सकता है, पर नीतीश कुमार अच्छी तरह से जानते हैं कि लोहे को ठंडा होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। सभी को कुर्सी की दरकार है। बेवजह मामले को तूल देकर कोई भी इससे असमय महरुम नहीं होना चाहेगा।

हाँ, भाजपा की स्थिति इस मसले पर जरुर सांप और छूछंदर जैसी है। महिला आरक्षण विधेयक को वह न तो उगल पा रही है और न ही निगल पा रही है।

दरअसल वह महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने का सारा श्रेय कांग्रेस को अकेले ले जाते हुए किसी भी सूरत में नहीं देखना चाहती है।

इस कारण पार्टी में व्याप्त भारी अंतर्विरोध के बावजूद भी पार्टी के शीर्ष नेताओं सहित सभी भाजपा के सदस्यों ने राज्यसभा के कुछ सदस्यों को अलोकतांत्रिक तरीके से मार्षल द्वारा जबरन बाहर निकालने के बाद भी महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में पास करवाने में कांग्रेस का साथ दिया।

रहा कांग्रेस का सवाल तो वह जानती है कि जनता पहले से ही उससे मंहगाई और परमाणु बम के मसले पर नाराज है। मंहगाई को लेकर पूरा विपक्ष एकजुट है। इस संक्रमण के दौर में महिला आरक्षण विधेयक कांग्रेस के लिए किसी तुरुप के इक्के से कम नहीं है।

लगभग सभी राजनीतिज्ञ पार्टियों की महिला आरक्षण विधेयक पर एक राय बनने के बाद वामपंथियों के पास विधेयक का समर्थन करने के अलावा कोई और विकल्प बचा नहीं था।

यह कहना कि महिला आरक्षण की संकल्पना को अमलीजामा पहनाने के बाद व्यवस्था में कोई फर्क नहीं आयेगा, गलत होगा? पंचायत के चुनावों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित करने के बाद सिस्टम में बदलाव सपष्ट रुप से परिलक्षित हो रहा है। राजनीति में सभी महिला राबड़ी देवी की तरह रबड़ स्टाम्प बन कर नहीं रही हैं।

महिला आरक्षण विधेयक को मूल रुप में पारित करने के कारण पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों को उनका हक नहीं मिल पायेगा, ऐसा मानना या कहना पूर्ण रुप से अतार्किक और अविष्वष्नीय है।

वर्तमान लोकसभा में अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं की संख्या 17 है। महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाने के बाद यह संख्या बढ़कर 42 हो जायेगी।

पिछड़े वर्ग की महिलाओं में राजनीतिज्ञ जागरुकता पहले से ही है। आज की तारीख में लोकसभा में तकरीबन 30 प्रतिशत महिलाएँ पिछड़े वर्ग की हैं। उत्तारप्रदेश में कुल 28 महिलाएँ विधायक हैं। इनमें पिछडे वर्ग की महिलाओं की संख्या 9 है।

महिला आरक्षण बिल पास हो जाने के बाद नि:संदेह पिछडे वर्ग की महिलाओं की नुमाइंदगी विधानसभा और लोकसभा में और भी बढ़ेगी।

मुस्लिम महिलाओं ने जरुर अभी तक विधानसभा और लोकसभा में बहुतायात संख्या में दस्तक नहीं दिया है, पर इसके पीछे उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति ज्यादा जिम्मेदार है। वक्त के साथ उनकी अवस्था में भी सकारात्मक सुधार आयेगा।

सच्चर कमेटी की रिर्पोट में मुस्लिम महिलाओं की बदहाल अवस्था पर प्रकाश डाला गया है। इस कारण महिला आरक्षण में कोटे के अंदर कोटे की वकालत करने वाले नेता अपनी बात को तार्किक बनाने के लिए इस रिर्पोट का हवाला दे रहे हैं, परन्तु खुद श्री राजेन्द्र सच्चर अब अपनी रिर्पोट से इत्तिाफाक नहीं रखते हैं। उनका कहना है कि जाति और धर्म के कारण विधानसभा और लोकसभा में स्थान पाने की अपेक्षा अपने बलबूते पर सामाजिक और विकासात्मक काम करके वहाँ पहुँचना ज्यादा अच्छा एवं मन को सुकून देने वाला कार्य होगा और वास्तविक रुप में मुस्लिम महिलाएँ इस मामले में मुस्लिम पुरुषों से बहुत आगे हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि महिला आरक्षण विधेयक से जुड़ा सबसे बड़ा नकारात्मक तथ्य है- रोटेशन पद्वति का प्रावधान। इसका तात्पर्य है, एक बार विधायक या सांसद बनने वाली महिला लगातार दूसरी बार तुरंत विधायक या सांसद नहीं बन पायेगी। दूसरी बार दूसरी महिला को मौका दिया जायेगा, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं होगा कि दूसरी बार वह विधायक या सांसद बन ही नहीं पायेगी। बस इसके लिए उम्मीदवार को इंतजार करना पड़ेगा। इससे फायदा यह होगा विधायक या सांसद बनने वाली महिला और उसकी पार्टी दोनों ही जिम्मेवारी पूर्वक विकास का काम कर पायेंगे। काम ठीक नहीं करने पर भूतपूर्व विधायक या सांसद हमेषा के लिए भूतपूर्व बन जायेंगे।

लगभग 14 सालों के उपरांत महिला आरक्षण विधेयक ने पहली बाधा को पार कर लिया है। यह निष्चित रुप से एक बड़ी उपलब्धि है। पर यह जीत तब तक अधूरी है, जब तक यह विधेयक लोकसभा में पास नहीं हो जाता है।

भाजपा की तरह कांग्रेस के अंदर भी इस मुद्वे को लेकर काफी मतभेद है, पर सोनिया गाँधी की इस मसले पर गंभीरता को देखकर बागी कांग्रेसी अपने बागी तेवर नहीं दिखा पा रहे हैं।

राजीव गाँधी पूर्व में महिलाओं को पंचायतों में आरक्षण दिलवा चुके हैं। इसलिए अब सोनिया गाँधी भी अपनी पति की तरह महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाने का श्रेय लेना चाहती हैं।

फिलहाल तो महिला आरक्षण बिल को फिर से ठंडे बस्ते में डालने की कवायद की जा रही है। डर का मूल कारण है-मंहगाई पर पूरे विपक्ष की एकता। लिहाजा वित विधेयक को पास करवाने में कहीं सरकार की किरकिरी न हो जाये। इस बात से डरकर कांग्रेस के अंदर भी महिला बिल को मार्च के महीने में पेश करने की हिम्मत नहीं है। शायद अब यह बिल लोकसभा में अप्रैल में पेश किया जायेगा।

-सतीश सिंह

ये है दिल्ली मेरी जान/कांग्रेस के चाणक्य का राजनैतिक सूर्य अस्ताचल की ओर!

बीसवीं सदी में देश प्रदेश की राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरे कांग्रेस के चाणक्य कुंवर अर्जुन सिंह की स्थिति उनके ही चेलों ने बहुत जर्जर करके रख दी है। कल तक जिस राजनैतिक बियावन में अर्जुन सिंह ने गुरू द्रोणाचार्य की भूमिका में आकर अपने अर्जुन रूपी शिष्यों को तलवार चलाना सिखाया उन्ही अर्जुनों ने कुंवर साहेब के आसक्त होते ही तलवारें उनके सीने पर तान दी। कुंवर अर्जुन सिंह के लिए सबसे बडा झटका तब लगा जब इस बार उन्हें केंद्रीय मंत्रीमण्डल में शामिल नहीं किया गया। अब कुंवर साहेब के सरकारी आवास के छिनने की भी बारी आने वाली है। इस साल मई में उनका राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने वाला है। कुंवर साहेब को दुबारा राज्य सभा में नहीं भेजा जाएगा इस तरह के साफ संकेत कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र सोनिया गांधी के आवास दस जनपथ ने दिए हैं। सूत्रों का कहना है कि अर्जुन सिंह के शिष्य दिग्विजय सिंह को अर्जुन सिंह के स्थानापन्न कराने की योजना बनाई जा रही है। यद्यपि दिग्गी राजा ने दस साल तक कोई चुनाव न लेने का कौल लिया है, पर अगर आलाकमान का दबाव होगा तो वे राजी हो सकते हैं। इसके अलावा मध्य प्रदेश में कांग्रेसाध्यक्ष सुरेश पचौरी को पांचवीं मर्तबा पिछले दरवाजे अर्थात राज्य सभा से भेजा जा सकता है, इतना ही नहीं सूबे की नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी का नाम भी राज्यसभा के लिए लिया जा रहा है। वैसे केंद्र में बैठे प्रतिरक्षा मंत्री ए.के.अंटोनी,, उद्योग मंत्री आनंद शर्मा, खेल मंत्री एम.एस.गिल, वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और सबसे खराब परफार्मेंस वालीं अंबिका सोनी भी इस साल राज्यसभा से रिटायर हो रहीं हैं, अत: उनके पुनर्वास के लिए अर्जुन सिंह के स्थान पर इनमें से किसी एक को पुन: राज्यसभा में भेजा जा सकता है।

अंधेरे की जद में है चालीस फीसदी शाईनिंग इंडिया

भारत में सियासी दल कभी शाईनिंग इंडिया तो कभी भारत निर्माण का नाम लेते हैं, पर जमीनी हालातों के बारे में जानकारी के लिए किसी भी जनसेवक ने कभी पहल नहीं की है। असली भारत गांव में बसता है, यह बात उतनी ही सच है जितनी कि दिन और रात। बावजूद इसके गांव की ओर रूख करने में न जाने जनसेवकों को पसीना क्यों आ जाता है। ग्रीन पीस की स्टिल वेटिंग रिपोर्ट जाहिर करती है कि ग्रिड आधारित वर्तमान विद्युत प्रणाली में सरकारी असमानता के चलते आजादी के 62 सालों के बाद भी आज देश के चालीस फीसदी गांवों में बिजली किसे कहते हैं, इस बात से ग्रामीण अनिभिज्ञ ही हैं। बिजली उत्पदान में लगातार बढोत्तरी और कार्बन उत्सर्जन के बावजूद भी ग्रामीण इलाकों के चालीस फीसदी घरों में लोग अब भी अंधेरे में रहने को मजबूर हैं। यह आलम तब है जबकि पिछले दो दशकों में बिजली का उत्पादन 162 फीसदी बढा है। जनसेवकों के घर अगर गांव में भी हैं तो उन्होंने अपनी सुविधा के हिसाब से ट्रसफार्मर, इन्वर्टर या जनरेटर की व्यवस्था की हुई है, सच ही है उन्हें जनादेश देने वाली जनता की सुध उन्हें पांच साल बाद ही आएगी न।

कहां है एनआईए का कार्यालय

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले के बाद केंद्र सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का गठन कर केद्र और राज्य सरकारों के बीच बेहतर तालमेल बनाने का प्रयास किया जा रहा हो, पर कोई नहीं जानता है कि इसका प्रधान कार्यालय (हेड आफिस) कहां है। बताते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा अब तक एनआईए को कार्यालय खोलने के लिए जगह तक मुहैया नहीं कराई गई है। नार्थ ब्लाक स्थित गृह मंत्रालय से अपना कामकाज आरंभ करने वाला एनआईए पिछले दिनों तक एनआईए दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास सेंतूर होटल के 13 कमरों को किराए पर लेकर काम कर रहा था, जिसे आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा रिक्त किया गया था। बताते हैं कि इसके लिए सीबीआई के वर्तमान कार्यालय को आवंटित करने का प्रस्ताव है। गौरतलब है कि नकली नोट और पूर्वोत्तर के आतंकवाद के आरंभिक हमलो की जांच में एनआईए ने जबर्दस्त सफलता हासिल भी की थी।

शायद ही लौटें साईबेरियन बगुले

साईबेरियन क्रेन अर्थात साईबेरियन बगुलों को अब हिन्दुस्तान की आबोहवा रास नहीं आ रही है। पिछले लगभग एक दशक से इन बगुलों ने हिन्दुस्तान की ओर रूख नहीं किया है, जो पर्यटकों के लिए बुरी खबर हो सकती है। गौरतलब है कि साईबेरियन बगुले राजस्थान के भरतपुर स्थित केवलादेव पक्षी अभ्यरण में आया करते थे। इसके अलावा समूचे भारत में इन बगुलों को 2001 के उपरांत नहीं देखा गया है। भारत में इन बगुलों को संरक्षित पक्षी का दर्जा भी प्राप्त है। एक युवा साईबेरियन बगुले की उंचाई 91 इंच और वजन लगभग 10 किलो तक हो सकता है। भारत का रास्ता भूलने के दो कारण ही समझ में आ रहे हैं, अव्वल तो शिकारी की गिध्द नजर इन पर सदा ही रहा करतीं हैं, दूसरे 2001 में अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों द्वारा की गई अंधाधुंध गोलीबारी और बमबारी ने इन बगुलों को रास्ता बदलने पर मजबूर कर दिया था, यही कारण है कि 2001 के बाद इन बगुलों ने भारत की ओर रूख नहीं किया है।

यह है महामहिम आवास का हाल सखे

देश के पहले नागरिक का आवास कहलाता है रायसीना हिल्प पर सीना ताने खडा महामहिम राष्ट्रपति का सरकारी आवास। इस आवास की सुरक्षा चोबीसों घंटे संगीनों के साए में होती है, बावजूद इसके अगर यहां चोरी हो जाए तो क्या कहा जाएगा, देश के आखिरी आदमी की सुरक्षा के बारे में कैसे चिंता की जा सकेगी। महामहिम के आवास में पिछले साल तीन सितंबर को चोरी की वारदात हुई थी। हेल्थ सेंटर से तीन डंबल, कंप्यूटर सहित कुछ सामान चोरी हुआ था। इसकी एफआईआर बाकायदा चाणक्यपुरी के थाने में दर्ज है। देश के पहले नागरिक के सराकरी आवास जहां परिंदा भी पर नहीं मार सकता वहां से कोई सामान चोरी हो जाए तो इसे आंख से काजल चुराना ही कहेंगे, और आप ही फैसला करें कि छ: महीने बीतने के बाद भी कोई सुराग न लगे तो फिर ”आपकी सुरक्षा में सदा आपके साथ”’ का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस को क्या कहा जाए। सच ही है जब पूरे कुंए में ही भांग घुली हुई है तो फिर अंजाम . . . .।

पेपर की बचत का नायाब आईडिया

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के बेटे अभिषेक बच्चन देश की एक जानी मानी सेलुलर कंपनी ”आईडिया” के विज्ञापनों में जब तब नजर आ ही जाते हैं। कभी आदमी को नाम के बजाए नंबर से पहचानने में तो कभी कुछ और। हाल ही में अभिषेक आईडिया के पेपर बचाओ अभियान में नजर आ रहे हैं। एक बरगद के झाड बने अभिषेक कागज बचाने का संदेश देते नजर आते हैं विज्ञापनों में। पहले आरपीजी फिर टाटा, बिरला, एटीएण्डटी जिसे लोग बटाटा भी कहते थे हुआ करती थी आईडिया कंपनी। मजे की बात तो यह है कि कागज बचाने के लिए पेड न काटने का संदेश देने वाली बटाटा यानी आईडिया कंपनी के जितने भी रिचार्ज बाउचर आते हैं वे सब पेपर पर ही आते हैं। है न मजे की बात कि एक तरफ पेपर बचाने की दुहाई और दूसरी तरफ पेपर की जबर्दस्त बरबादी। रिचार्ज कराने के उपरांत वह कागज किस काम का रहता है। इसके अलावा आईडिया सहित सभी सेलुलर कंपनियों के विज्ञापनों में कागज और फ्लेक्स का जिस कदर इस्तेमाल किया जाता है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। इन सबे उपयोग के बाद क्या रह जाती है इनकी अहमियत। जाहिर है उसे कचरे में ही फेंक दिया जाता है। फिर काहे की पेड या कागज बचाने की मुहिम।

मोदी फिर हुए ताकतवर

भाजपा के नए निजाम नितिन गडकरी के दरबार में हाजिरी न लगाने के लिए चर्चित रहे गुजरात के निजाम नरेंद्र मोदी का कद कम नहीं हुआ है। आज भी वे उतने ही ताकतवर हैं, जितने कि पहले हुआ करते थे, या यह कहा जाए कि मोदी का कद बढा है, अतिश्योक्ति नहीं होगा। गडकरी द्वारा आश्चर्यजनक रूप से अडवाणी की जगह अब मोदी को प्रधानमंत्री पद का असली दावेदार बताकर सभी को चौंका दिया है। एक निजी चेनल को दिए साक्षात्कार में गडकरी ने यह कहकर थमे पानी में कंकर मार दिया है कि भले ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का फैसला संसदीय बोर्ड करेगा पर उनकी नजर में मोदी ही सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हैं। जानकारों का कहना है कि मोदी की प्रशंसा कर गडकरी ने एक तीर से अनेक शिकार कर डाले हैं। सबसे पहले तो वे उमर दराज आडवाणी को किनारे करना चाह रहे हैं, फिर राहुल गांधी की काट युवा को आगे लाने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि उनके कार्यकाल में कम से कम एक बार तो केंद्र में भाजपा सत्तारूढ हो जाए। कुछ लोगों का कहना है कि मोदी ने गडकरी को अंदर ही अंदर इतना पस्त कर दिया है कि अब गडकरी बिना मोदी एक कदम भी चलने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। भले ही सुषमा स्वराज मोदी को पीछे कर शिवराज सिंह चौहान को आगे बढाना चाह रहीं हों पर मोदी इस सब पर भारी पडते ही दिख रहे हैं।

गोमाता की जय हो, पर क्या हुआ शीला जी . . .!

गाय हमारी माता है, इसकी सेवा करना चाहिए, यह बात सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस ने अनेक बार कही है। यही नहीं कांग्रेस का चुनाव चिन्ह भी एक समय में गाय और बछडा हुआ करता था। इस बात को अभी तीस साल से ज्यादा समय नहीं बीता है, किन्तु कांग्रेस की ही दिल्ली सरकार की निजाम शीला दीक्षित इस सबको शायद भूल चुकी हैं। कामन वेल्थ गेम्स के दौरान विदेशी महमानों को खुश करने और उनकी क्षुदा शांत करने के लिए दिल्ली सरकार ने निर्णय लिया है कि विदेशी मेहमानों के खाने के मेन्यू में पांच सितारा होटलों में गौ मांस को परोसा जाएगा। यह बात तब सामने आई जब राष्ट्रवादी सेना ने इसके विरोध में आंदोलन छेडने का निर्णय लिया। सेना के पार्टी प्रमुख जयभगवान गोयल का कहना है कि कामन वेल्थ गेम्स के दौरान विदेशी मेहमानों की आवभगत में गोमांस परोसने के दिल्ली सरकार के निर्णय ने हिन्दु धर्मावलंबियों की भावनाओं को आहत किया है, अत: इसके खिलाफ आंदोलन छेडा जाएगा। वाह री कांग्रेस, आखिर क्यों न करे वो एसा सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस की बागडोर इतालवी मूल की सोनिया गांधी के हाथ जो है, जिनकी गोमाता के प्रति संवेदना समझी जा सकती है।

और मंत्री ने खुद ही मांग ली चौथ!

नेता, मंत्री, विधायक, सांसद या कोई भी जनसेवक हो, आम जनता भली भांति जानती है कि वो कितना पाक साफ होता है, और जबरिया वूसली में कितना उस्ताद होता है। दिल्ली के तुगलक रोड थोन में एक मामला दर्ज कराया गया है, जिसमें केंद्रीय मंत्री के नाम से जबरिया वसूली की शिकायत दर्ज की गई है। केंद्रीय खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री सुबोध कांत सहाय के नाम से किसी ने जमकर चौथ वसूली है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि सहाय की आवाज में उक्त ठग ने लोगों को जमकर चूना लगाया है। ठगी का शिकार हुए एक व्यक्ति ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर कहा कि वह आवाज जिसके माध्यम से पैसा मांगा गया था, वह सुबोध कांत सहाय की ही थी, इसमें कोई शक नहीं है। कहते हैं कि उक्त ठग द्वार दस से साठ हजार रूपए तक की राशि अपने आईसीआईसीआई के बैंक एकाउंट मे जमा करवाई जाती थी। अब ठगी के शिकार अनेक लोग पोल खुलने के डर से किसी से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं।

स्वागत योग्य है शिवराज का सुझाव

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मांग की है कि एक हजार और पांच सौ के नोट का प्रचलन बंद होना चहिए। चौहान का कहना है कि इससे देश में नकली नोटों का प्रचलन कम हो सकेगा। वैसे चौहान के सुझाव में दम है, क्योंकि सौ, पचास, या दस बीस के नोट को छापने में किसी को कोई ज्यादा लाभ नहीं होगा, इसलिए नकली नोटों का चलन वैसे भी कम ही हो जाएगा। इसके साथ ही साथ भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगने की उम्मीद है। अगर देखा जाए तो देश के आम आदमी को पांच सौ और हजार रूपए से क्या वास्ता। एक आम भारतीय सौ दो सौ रूपए दिन में ही खर्च कर पाता है, फिर हजार और पांच सौ के नोट का चलन अखिर है किस के लिए। जाहिर है कि बडे हवाला या एकाउंट को स्थानांतरित करने के लिए भ्रष्टाचारियों और सेठ साहूकारों को सुविधा देने के लिए इन नोटों को प्रचलन में लाया गया है।

बेपरवाह टोल टेक्स के ठेकेदार!

देश भर में प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक योजना और एनएचएआई की मद में सडकों का जाल बिछाया जा रहा है। इन सडकों को बनाओ, कमाओ और सरकार के हवाले करो अर्थात बीओटी आधार पर बनाया जा रहा है। इन सडकों पर कर वसूली के लिए टोल नाके बनाए गए हैं। इन नाकों पर सरकारी वाहनों, सांसद, विधायक आदि को कर से छूट प्रदान की गई है। इतना ही नहीं अधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी इससे मुक्त रखा गया है। मध्य प्रदेश में भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र से लगे होशंगाबाद में टोल टेक्स वसूली के ठेकेदार द्वारा सारे नियम कायदों को ताक पर रखा जा रहा है। एक अधिमान्यता प्राप्त पत्रकार द्वारा बताया गया कि वे अपने वाहन से पंचमढी जा रहे थे, तभी रास्ते में होशंगाबाद के करीब टोल नाके पर अपना सरकारी अधिमान्यता परिचय पत्र दिखाने के बाद भी ठेकेदार के गुर्गों द्वारा रसीद नंबर 203441 के माध्यम से 72 किलोमीटर के लिए 29 रूपए की राशि वसूल ली गई। इतना ही नहीं आगे पहुंचने पर पिपरिया से पंमढी के लिए फिर ठेकेदार के गुर्गों द्वारा सरीस नंबर 189269 के माध्यम से 22 रूपए का टोपा पहना दिया गया। कहा तो यहां तक जा रहा है कि विधायक सांसदों को जेब में रखने वाले इस तरह के ठेकेदारों द्वारा जमकर मलाई काटी जा रही है।

पुच्छल तारा

हैदराबाद से रोहित सक्सेना मेल भेजते हैं कि जब दिल्ली में आंखों की जांच कराने गए तीन आतंकवादी फरार हो गए, तब जबर्दस्त हंगामा मचा। उनका कहीं पता नहीं चला। जब पुलिस आयुक्त ने जवाबदार कर्मचारियों को बुलाकर वास्तविकता जाननी चाही तो उनमें से एक ने धीरे से मंह छिपाते हुए कहा -”जनाब, आप कतई चिंता न करें, उनकी आंखों की जांच की रपट अपने पास है, आप परवाह न करें, वे अपनी जांच रिपोर्ट लेने आखिर आएंगे तो हमारे पास ही. . . !

-लिमटी खरे

30 करोड़ हिट वाले ब्लॉगर ने चीन के शासकों की नींद उड़ा रखी है

हन हन के ब्लॉग पर इस समय घमासान मचा है। इस नौजवान ने अपने विचारों की गरमी से चीन के शासकों की नींद उड़ा दी है। हन हन को चीन में सबसे ज्यादा पढ़ा जा रहा है। सारी कम्युनिस्ट पार्टी और उसका साइबरतंत्र त्रस्त है और किसी भी तरह हन के ब्लॉग पर जाने वालों को रोक नहीं पा रहा है, हनहन ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के समूचे प्रचारतंत्र को छकाया हुआ है।

हन पेशे से कार रेस ड्राइवर है और पॉप उपन्यासकार है। साथ ही चीन का सबसे जनप्रिय ब्लॉगर है। चीनी साइबर जासूस उसे त्रस्त करने की फिराक में हैं, युवा लड़कियां उस पर फिदा हैं। चीन की पुलिस हनहन को परेशान कर रही है। उसकी पत्रिका को पहले पुलिस ने जब्त किया और बाद में छोड़ दिया। हनहन के ब्लॉग पर आए दिन चीन कम्युनिस्ट साइबर हैकरों के हमले होते रहते हैं और उसके ब्लॉग की पोस्ट को यह कहकर हटा दिया जाता है कि इसमें आपत्तिजनक बातें लिखी हैं।

अपने एक निबंध में हनहन ने लिखा है कि हमारी चीनी सरकार चाहती है कि चीन महान् सांस्कृतिक राष्ट्र बने लेकिन हमारे नेता असभ्य हैं। हनहन ने लिखा है कि चीजें यदि इसी तरह चलती रहीं तो कुछ दिनों के बाद हमारा देश चाय और पाण्ड़ाज के लिए जाना जाएगा।

हनहन ने ब्लॉगिंग 2006 से आरंभ की है और लगातार चीनी नेताओं और नीतियों पर तीखा लिखा है। उसके ब्लॉग की शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसके ब्लॉग पर 30 करोड़ हिट हुए हैं। सारी दुनिया में किसी भी ब्लॉग पर इतने हिट नहीं हुए हैं। शंघाई में अपने ऑफिस में बैठकर एक साक्षात्कार में हनहन ने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अप्रासंगिक हैं और मूर्खतापूर्ण बातें करते रहते हैं। कम्युनिस्ट नेताओं की तथाकथित महानता को छोटा बनाते हुए हन ने कहा –

“The only thing they have in common with young people is that like us, they too have girlfriends in their 20s, although theirs are on the side.”

हनहन की मेधा और जनप्रियता का अंदाजा इससे ही लगा सकते हैं कि वह जब मात्र 19 साल का था तो उसका पहला उपन्यास छपा था और उसे व्यापक प्रसिद्धि मिली थी। हनहन असल में चीन में देंग के द्वारा आरंभ किए गए आर्थिक उदारीकरण के दौर की पैदाइश है। हनहन के ब्लॉग लेखन में तीखा हास्य-व्यंग्य होता है और इसके जरिए वह भ्रष्टाचार, गलत नीतियों और सरकारी सेंसरशिप,दैनन्दिन जीवन के अन्याय का जमकर विरोध करता रहता है । हन के व्यंग्य का एक नमूना देखें- अपनी ताजा पोस्ट में हन ने लिखा है कि पुनर्निर्माण के प्रकल्पों के लिए आम चीनी नागरिकों को जबर्दस्ती हिंसा के जरिए बेदखल किया जा रहा है, हन ने सुझाव दिया है कि चीन सरकार को जेल के रुप में सरकारी घर बनाने चाहिए। इसका दोहरा लाभ होगा,पहला, यह कि किराएदार घर पर अपना मालिकाना दावा नहीं कर सकते और जो दावा करें उन्हें सीधे ताले में उनके घरों में बंद कर दिया जाए।

हन बहुत सुंदर गायक भी है और चीन के राष्ट्रीय नववर्ष के पर्व पर चीनी उसका सरकारी टीवी चैनल से शानदार प्रसारण भी आया जिसे 40 करोड़ लोगों ने देखा। हन की 14 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। हन से लोग पूछते हैं कि अगर तुम्हारा ब्लॉग बंद कर दिया जाएगा तब क्या करोगे तो हन हंसकर कहता है कि ड्राइवरी करुँगा।

हन हाईस्कूव ड्रॉप आउट है। आज वह चीन का सबसे जनप्रिय लेखक है। उसका पहला उपन्यास “Triple Door’’ की 20 लाख प्रतियां बिकीं। यह उपन्यास परिवार और स्कूल का बच्चों पर किस तरह का दबाब होता है ,उस पर लिखा गया है। चीन में विगत 20 साल में यह सबसे ज्यादा बिकने वाला उपन्यास है।

हन ने अपने उपन्यासों के जरिए प्रतिवादी चरित्रों की सृष्टि करके चीनी प्रशासन और कम्युनिस्ट नेताओं की नींद हराम कर दी है। अब उसका ब्लॉग चीनी कम्युनिस्टों को बरबाद करने में लगा है। हन एक ग्रामीण कस्बे से आया है। किसान का प्रतिवादी स्वर उसकी शक्ति बन गया है। उसके पिता स्थानीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार के संपादक थे। माँ सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। उसका घर साहित्य का मंदिर है। साहित्य उसे विरासत में मिला है। उसके लेखन के प्रतिवादी स्वर के कारण पिता को असुविधा होने लगी तो उसने पिता को रिटायरमेंट लेने के लिए कहा और पिता मान गए और अब वह पिता की मदद करता है और पिता उसके लेखन से बेहद खुश हैं। हन कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य नहीं है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

”जब अखबार मुकाबिल हो तो बन्दूक निकालो”

राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर पत्रकारों के अनेक संगठन हैं। एनयूजे यानी नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट इसे नेशनलिस्ट यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट भी कहा जा सकता है। यह संगठन पत्रकार संगठनों को फेडेरेशन है। अर्थात् पत्रकारों के अनेक संगठन इस यूनियन से संबंद्ध हैं। अनेक संगठनों में से एक – जर्नलिस्ट यूनियन ऑफ मध्यप्रदेश यानी जम्प भी इस फेडेरेशन का सदस्य है। वैसे तो मध्यप्रदेश और देश में दोनों संगठन पिता-पुत्र या बड़े-छोटे भाई की तरह अनेक वर्षों से कार्यरत हैं। कार्य करते हुए कभी आपसी मनमुटाव नहीं हुआ। होता भी कैसे अगर समविचारी लोग भले ही वे पत्रकार क्यों न हों अगर एक भले काम में लगे हैं, लोगों का संगठन कर रहे हैं। इसमें मनमुटाव की कोई गुंजाइश होना भी नहीं चाहिए। लेकिन काम करते हुए व्यक्ति ही नहीं संगठन का भी विस्तार और दबदबा बढ़ता है। संगठन अगर पत्रकारों का हो तो रूतबा और ज्यादा भी हो सकता है। यही सब कुछ हुआ पिछले वर्षों में एनयूजे और जम्प में।

रूतबा, दबदबा और ताकत के विस्तार का ही परिणाम था कि जम्प में विभिन्न पदों को लेकर चुनाव की नौबत आ गई। लोकतांत्रिक देश में किसी संगठन संस्था के लिए यह शुभ और अच्छा संकेत है कि वहां पदों के लिए चुनाव हो और चुने हुए लोग विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करें। वैसे तो यह अच्छा होता कि अध्यक्ष, महामंत्री या सचिव सहित विभिन्न पदों और कार्यकारिणी के साथ राष्ट्रीय परिषद् के लिए भी सर्व-सम्मति से मनोनयन हो जाता। लेकिन चुनाव होना और भी अच्छी बात है, बशर्ते कि चुनाव के बाद कोई राग-द्वेष उत्पन्न न हो। चुनाव के पूर्व असहमति और विवाद के कारण कुछ मतभेद और मन-भेद पैदा हुए जिसके कारण चुनाव की नौबत आई। अब चुनाव हो चुके। चुनाव के बाद दमदार प्रत्याशी जीते यह तो मानना ही पड़ेगा। इसलिए अब जम्प भी दमदार हो गया है। पहले से अधिक रूतबे और दबदबे वाला। महिला दिवस की पूर्व संध्या पर जम्प और एनयूजे के लिए महिला पदाधिकारियों और सदस्यों का भी चुनाव हुआ। तो स्त्री शक्ति ने भी अपने रूतबे और दबदबे का इजहार कर दिया है। महिला पत्रकारों ने पुरूष वर्चस्व और एकाधिकार को तोड़ कर अपनी उपस्थिति दजे करायी है। वाकई यह मुस्लिम नेताओं के मुंह पर भी तमाचा है जो महिलाओं को सिर्फ नेता या पत्रकार पैदा करने की नसीहत दे रहे हैं। अब चुप हो जाओ मुल्ला-मौलवियों महिलाएं अब पत्रकार और नेता भी बनेंगी और पत्रकार और नेता पैदा भी करेंगी। आखिर देश को सबल, शक्तिशाली और तेजस्वी बनाने की जिम्मेदारी उनकी भी है।

लेकिन सब कुछ शुभ और नेक होने के वावजूद जम्प के चुनाव में कुछ बातें ऐसी हुई जो लोकतंत्र को धक्का और चोट पहुंचाने वाली थी। चुनाव के दिन सुबह से ही प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से पत्रकार आने लगे थे। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के प्रतिष्ठित होटल पलाश रेसिडेंसी में 7 मार्च को पत्रकारों का जमावड़ा था। चूंकि महौल चुनाव का था इसलिए सभी दावेदार प्रत्याशी अपना-अपना परिचय ले-दे रहे थे। पत्रकारों का आना-जाना भी जारी था। इतने में एक इंडिका गाड़ी आई। सबने अनुमान तो यही लगाया कि इस गाड़ी में भी कुछ पत्रकार ही होंगे। अनुमान के मुताबिक उस गाड़ी से पत्रकार ही उतरे, लेकिन वे बन्दूकधारी पत्रकार थे। इन बन्दूकधारी पत्रकारों को देखकर अकबर इलाहाबादी का वो शेर याद आया – ‘‘खींचों ना कमानो को, ना तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’’ मुझे लगा इलाहाबादी तो तोप ओर तलवारों के सामने अखबार निकालने की बात करते थे। ये कैसे पत्रकार हैं, बन्दूक से अखबार कैसे निकालेंगे! लेकिन फिर ध्यान आया इलाहाबादी ने जब अखबार निकालने की वकालत की थी तब जमाना अंग्रेजों का था। तब देश गुलाम था। गुलामी से लड़ने के लिए तोप और तलवार से अधिक ताकतवर हथियार उन्होंने अखबार को माना था। लेकिन आज तो आजाद मुल्क में हैं। कोई अंग्रेज वगैरह हमारी छाती पर बैठे नहीं, तो फिर अखबार की क्या जरूरत है। एक सवाल भी दिमाग में उठा – लोकतंत्र में अखबार बंदूक से भी निकल सकते हैं। संभव है कुछ पत्रकार यह कहें कि हमारी मर्जी हम कलम की बजाए बंदूक से ही पत्रकारिता करेंगे, कोई अंग्रेजों का राज है क्या? फिर मुझे आज के अकबर इलाहाबादी याद आये – ‘‘खीचों ना कलम को, ना पैड निकालो, जब अखबार मुकाबिल हो तो बंदूक निकालो।’’

अब जबकि मध्यप्रदेश में जम्प और एनयूजे के लिए चुनाव हो चुके हैं। प्रदेश कार्यकारिणी का गठन भी हो चुका है। पत्रकार और पत्रकार संगठनों के प्रतिनिधि लोकतंत्र और प्रेस की स्वतंत्रता और उसके भविष्य के बारे में अनवरत विचार करते रहेंगे ताकि लोकतंत्र और लोकतंत्र का चैथा पाया मीडिया भी मजबूत हो सके।

-अनिल सौमित्र

लाडेन ही नहीं हाफिज सईद का भी प्रेरक है सऊदी अरब

भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले दिनों अपने एक उच्चस्तरीय शिष्टमंडल के साथ सऊदी अरब की यात्रा की। लगभग 25 वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा सऊदी अरब की की गई इस यात्रा को भारत व सऊदी अरब के मध्य आपसी रिश्तों को माबूत बनाने के लिए कांफी उपयोगी बताया जा रहा है। इस सिलसिले में एक ख़बर यह भी सुनाई दी कि भारतीय प्रधानमंत्री का सऊदी अरब के शाही परिवार द्वारा ऐसा विशेष स्वागत किया गया जो आमतौर पर अन्य अतिथियों के अरब आने पर नहीं किया जाता। मनमोहन सिंह की इस अरब यात्रा के दौरान जहां अनेक समझौतों पर सहमति हुई वहीं सबसे प्रमुख समझौता दोनों देशों के मध्य प्रत्यार्पण संधि को लेकर भी हुआ है। इस समझौते के बाद अब भारत के लिए अपने देश के किसी वांछित अपराधी को सऊदी अरब से भारत लाए जाने में आसानी हो जाएगी। परंतु क्या इस प्रकार के समझौतों से इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि सऊदी अरब की वैश्विक स्तर पर फैले आतंकवाद तथा इस आतंकवाद को इस्लामी जेहाद के साथ जोडे ज़ाने में कोई भूमिका नहीं है? आमतौर पर दुनिया की नज़र में शांत दिखाई देने वाला सऊदी अरब क्या वास्तव में वैचारिक रूप से भी वैसा ही शांतिपूर्ण है जैसाकि वह दिखाई देता है?

इस विषय पर चर्चा आगे बढ़ाने से पूर्व यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि वहाबी विचारधारा जोकि इस समय पूरी दुनिया के लिए इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रेरक बन चुकी है उसकी जड़ें दुनिया में और कहीं नहीं बल्कि सऊदी अरब में ही हैं। अर्थात यदि वहाबी विचारधारा अतिवादी इस्लाम के रास्ते पर चलना सिखाती है तो अतिवादी इस्लाम ही जेहाद शब्द को अपने तरीके से परिभाषित करते हुए इसे सीधे आतंकवाद से जोड़ देता है। आईए वहाबी विचारधारा के स्त्रोत पर भी संक्षेप में दृष्टिपात करते हैं। 18वीं शताब्दी में सऊदी अरब के एक अतिवादी विचार रखने वाले मुस्लिम विद्वान मोहम्मद इब् अब्दुल वहाब द्वारा इस्लाम को कट्टरपंथी रूप देने का यह अतिवादी मिशन चलाया गया। उसने ‘शुद्ध इस्लाम’ के प्रचार व प्रसार पर बल दिया। जिसे वह स्वयं जरूरी समझता था उसे तो उसने इस्लामी कार्यकलाप बताया और जो कुछ उसकी नारों में उचित नहीं था उसे उसने गैर इस्लामी, बिदअत अथवा गैर शरई घोषित किया। मोहम्मद इब् अब्दुल वहाब का यह मत था कि मुस्लिम समाज के जो लोग गैर इस्लामी (उसके अनुसार) कार्यकलाप करते हैं वे भी कांफिर हैं। अशिक्षित अरबों के मध्य वह जल्द ही काफी लोकप्रिय हो गया। इस विचारधारा के विस्तार के समय अरब के मक्का व मदीना जैसे पवित्र शहरों में वहाबी समर्थकों ने बड़े पैमाने पर सशस्त्र उत्पात मचाया। परिणामस्वरूप मक्का व मदीना में बड़ी संख्या में निहत्थे मुस्लिम औरतों, बच्चों व बुजुर्गों का कत्लेआम हुआ। इन्हीं के द्वारा उस ऐतिहासिक मकान को भी ध्वस्त कर दिया गया जहां हजरत मोहम्मद का जन्म हुआ था। इस विचारधारा के समर्थकों द्वारा अरब में स्थित तमाम सूंफी दरगाहों तथा मज़ारों को भी नष्ट किया गया। आगे चलकर इसी विचारधारा ने सऊदी अरब की धरती पर ही जन्मे ओसामा बिन लाडेन जैसे मुसलमान को दुनिया का सबसे ख़तरनाक आतंकवादी बनने के मार्ग पर पहुंचा दिया।

जब यही ओसामा बिन लाडेन दुनिया का मोस्ट वांटेड अपराधी बन जाता है तब यही सऊदी अरब की सरकार उसे देश निकाला देकर स्वयं को पुन: पाक-साफ, शांतिप्रिय तथा अविवादित स्थिति में ला खड़ा करती है। और तो और यदि उसे लाडेन या दुनिया के अन्य जेहादी अतिवादियों तथा आतंकवादियों के विरुद्ध कुछ कहना सुनना पड़े तो सऊदी अरब इससे भी नहीं हिचकिचाता। इस समय भारत-पाक रिश्तों में रोड़ा बनकर जो नाम सबसे आगे आ रहा है वह है पाकिस्तान स्थित जमाअत-उद-दावा के प्रमुख हाफिज मोहम्मद सईद का। हाफिज मोहम्मद सईद इस समय दुनिया का सबसे विवादित एवं मोस्ट वांटेड अपराधी बन चुका है। मुंबई में हुए 26-11 के हमले के योजनाकारों के रूप में उसका नाम सबसे ऊपर उभर कर सामने आया है। भारत में 26-11 के हमले के दौरान गिरफ्तार किए गए एकमात्र जीवित आतंकी अजमल आमिर कसाब ने ही हाफिज मोहम्मद सईद के 26-11 में शामिल होने की बात कही है। उसी ने पाकिस्तान के मुरीदके नामक आतंकी प्रशिक्षण कैंप से प्रशिक्षण प्राप्त करने की बात भी कुबूल की है। यह प्रशिक्षण केंद्र जमात-उद-दावा द्वारा संचालित है। नई दिल्ली में गत् 25 फरवरी को भारत-पाक के मध्य हुई विदेश सचिव स्तर की बातचीत के दौरान भारत की ओर से पाकिस्तानी विदेश सचिव सलमान बशीर को जो तीन डोसियर सौंपे गए हैं उनमे हाफिज मोहम्मद सईद सहित 34 आतंकवादियों को भारत को सौंपने की मांग भी की गई थी। इस पर पाकिस्तान ने अपना रुंख स्पष्ट करते हुए यह सांफ कर दिया है कि वह हाफिज सईद को भारत के हाथों कतई नहीं सौंपेगा।

25 फरवरी को नई दिल्ली में हुई इस वार्ता के बाद हाफिज मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान में एक टी वी चैनल को अपना साक्षात्कार दिया। इस साक्षात्कार में जहां उसने अन्य तमाम बातें कीं वहीं वह यह णबताने से भी नहीं चूका कि उसकी सोच व फिक्र के पीछे सऊदी अरब में ग्रहण की गई उसकी शिक्षा का सबसे बड़ा योगदान है। संभवत: इसी अतिवादी शिक्षा के ही परिणामस्वरूप साक्षात्कार के दौरान उसने टी वी कैमरे के समक्ष अपना चेहरा रखने के बजाए कैमरे को अपनी पीठ की ओर करने का निर्देश दिया। पत्रकार द्वारा इसका कारण पूछे जाने पर उसने यही कहा कि फोटो खिचवाना इस्लामी शरिया के लिहाज से जाया नहीं है। गौरतलब है कि हाफिज सईद इस्लामी शिक्षा का प्रोफेसर रह चुका है तथा शैक्षिक व्यस्तताएं छोड़कर अब जमात-उद-दावा संगठन गठित कर इसी के अंतर्गत तमाम स्कूल स्तर के मदरसे, जेहादी विचारधारा फैलाने वाली शिक्षा देने, अस्पताल चलाने तथा अन्य गैर सरकारी संगठन संचालित करने का काम कर रहा है। उसका स्वयं मानना है कि जमात के माध्यम से दुनिया के मुसलमानों को अपने साथ जोड़ना, उनका सुधार करना तथा इस्लामी शिक्षा का वैश्विक स्तर पर प्रचार व प्रसार करना उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। हाफिज सईद स्वयं न केवल यह स्वीकारण करता है बल्कि बड़े गर्व से यह बताता भी है कि धर्म के नाम पर चलने की सीख उसने सऊदी अरब में रहकर वहां के धर्माधिकारियों से ही हासिल की है।

गौरतलब है कि 26-11 के बाद भारत द्वारा पाकिस्तान पर अत्यधिक दबाव डालने के बाद पाकिस्तान द्वारा हाफिज सईद को नजरबंद कर दिया गया था। उस समय सऊदी अरब से अब्दुल सलाम नामक मध्यस्थताकार पाकिस्तान आए थे जिन्होंने हाफिज सईद व पाक सरकार के मध्य समझौता कराने में अहम भूमिका अदा की थी। आज यह घटना क्या हमें यह सोचने के लिए मजबूर नहीं करती कि आख़िर हाफिज सईद के प्रति सऊदी अरब की इस हमदर्दी की वजह क्या थी? इसी समझौते के बाद न सिंर्फ हाफिज सईद की नारबंदी हटाई गई बल्कि उसके बाद से ही उसने पाकिस्तान के प्रमुख शहरों में जनसभाओं व रैलियों के माध्यम से भारत के विरुद्ध जेहाद छेड़ने जैसा नापाक मिशन भी सार्वजनिक रूप से चलाना शुरु कर दिया। इसी सिलसिले में एक बात और याद दिलाता चलूं कि पाकिस्तान में इस्लाम को अतिवादी रूप देने के जनक समझे जाने वाले फौजी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक के सिर पर भी सऊदी अरब की पूरी छत्रछाया थी। एक और घटना का उल्लेख करना यहां प्रासंगिक होगा। जनरल परवो मुशर्रंफ ने जब नवाज शरींफ की सरकार का तख्ता पलटा तथा उन्हें जेल में डाल दिया उस समय भी सऊदी अरब ने मध्यस्थता कर नवाज शरीफ को जनरल परवेज मुशर्रंफ के प्रकोप से बचाने में उनकी पूरी मदद की थी तथा शरीफ को सऊदी अरब बुला लिया गया था। यह उदाहरण इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए काफी है कि पाकिस्तान व सऊदी अरब के मध्य कोई साधारण रिश्ते नहीं हैं बल्कि सऊदी अरब पाकिस्तान के प्रत्येक राजनैतिक उतार-चढ़ाव पर न केवल अपनी गहरी नार रखता है बल्कि संभवत: वह पाकिस्तान में अपना पूरा दंखल भी रखता है।

कितनी विचित्र बात है कि एक ओर तो भारतीय प्रधानमंत्री सऊदी अरब से मधुर रिश्ते स्थापित करने की ग़रज से सऊदी अरब जा रहे हैं तथा अरब का शाही परिवार उनका अभूतपूर्व स्वागत कर यह संदेश भी दुनिया को देने की कोशिश कर रहा है कि भारत व सऊदी अरब दोस्ती की राह पर आगे बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर यही सऊदी अरब पाकिस्तान में जमात-उद-दावा सहित ऐसे कई संगठनों की आर्थिक सहायता भी कर रहा है जोकि भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों में सक्रिय हैं। लश्करे तैयबा जोकि पाकिस्तान स्थित सबसे खूंखार आतंकी संगठन है तथा जिस पर 26 फरवरी को काबुल में हुए भारतीयों पर हमले करने का भी ताजातरीन आरोप है उस संगठन के प्रति हाफिज सईद ने अपनी पूरी हमदर्दी का इजहार भी किया है। उसने अपने साक्षात्कार में सांफतौर पर यह बात कही है कि वह न केवल लश्करे तैयबा के साथ है बल्कि प्रत्येक उस संगठन के साथ है जो कश्मीर की स्वतंत्रता के लिए जेहाद कर रहे हैं। जेहाद को भी हाफिज सईद अपने ही तरीके से परिभाषित करते हुए यह कहता है कि किसी जालिम से स्वयं को बचाने हेतु की जाने वाली जद्दोजहद को ही जेहाद कहते हैं। उसके अनुसार वह कश्मीरी मुसलमानों को भारतीय सेना से बचाने हेतु जो प्रयास कर रहा है वही जेहाद है।

सऊदी अरब से अतिवादी शिक्षा प्राप्त करने वाला यह मोस्ट वांटेड अपराधी कश्मीर में सशस्त्र युद्ध को भी सही ठहराता है तथा इसमें शामिल लोगों को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा देता है। वह संसद पर हुए हमले तथा 26-11 के मुंबई हमलों में अपनी संलिप्तता होने से तो इंकार करता है परंतु जब उससे यह पूछा गया कि सार्वजनिक रूप से आपके यह कहने का क्या अभिप्राय है कि ‘एक मुंबई काफी नहीं’। इसके जवाब में हाफिज सईद के पास बग़लें झांकने के सिवा कुछ नहीं था। वह भारत द्वारा सौंपे गए डोसियर को भी अपने विरुध्द प्रमाण नहीं बल्कि साहित्य बताता है। उसने सांफतौर पर पाक सरकार को यह भी कहा है कि वह भारत के विरुद्ध जेहाद का एलान कर जंग की घोषणा करे अन्यथा पाक स्थित धर्मगुरु भारत के विरुद्ध जेहाद घोषित करने के बारे में स्वयं फैसला लेंगे। उसका कहना है पाकिस्तान का बच्चा-बच्चा तथा जमात-उद-दावा के सदस्य पाकिस्तान के साथ भारत के विरुद्ध लड़ने को तैयार हैं।

उपरोक्त हालात भारत के लिए निश्चित रूप से अत्यंत चिंता का विषय हैं। दुनिया को पाकिस्तान में फैले आतंकवाद के साथ-साथ सऊदी अरब में चलने वाली उन अतिवादी गतिविधियों पर भी नजर रखनी चाहिए जिनके परिणामस्वरूप पूरी दूनिया में सांप्रदायिकता तथा इस्लामी वर्गवाद की जड़ें तेजी से फैल रही हैं तथा माबूत होती जा रही हैं। जजिया उल हक से लेकर हाफिज सईद तक की जाने वाली सऊदी अरब की सरपरस्ती का परिणाम पाकिस्तान को क्या भुगतना पड़ रहा है यह न केवल पाकिस्तानी अवाम बल्कि पूरी दुनिया भी देख रही है।

-तनवीर जाफरी

महिला सशक्तिकरण: कितनी हकीकत कितना फसाना

महिला सशक्तिकरण की दिशा में हालांकि दुनिया के कई देश कई महत्वपूर्ण उपाय कांफी पहले कर चुके हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी महिलाओं के लिए संसदीय सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की जा चुकी है। लगता तो है कि अब भारतवर्ष में भी इस दिशा में कुछ रचनात्मक कदम उठाए जाने की तैयारी शुरु कर दी गई है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को आरक्षण दिया जाना और वह भी राजनीति जैसे उस क्षेत्र में जहां कि आमतौर पर पुरुषों का ही वर्चस्व देखा जाता है वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। परंतु पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी के इस सपने को साकार करने का जिस प्रकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मन बनाया है तथा अपने कांग्रेस सांसदों को महिला आरक्षण के पक्ष में मतदान करने की अनिवार्यता सुनिश्चित करने हेतु व्हिप जारी किया है उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी के शीर्ष पुरुष नेता भले ही भीतर ही भीतर इस बिल के विरोधी क्यों न हों परंतु सोनिया गांधी की मंशा भांपने के बाद फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि कांग्रेस का कोई नेता राज्‍यसभा में इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद अब लोकसभा में इसके विरुध्द अपनी जुबान खोल सकेगा।

बात जब देश की आधी आबादी के आरक्षण की हो तो भारतीय जनता पार्टी भी कांग्रेस से लाख मतभेद होने के बावजूद ख़ुद को महिला आरक्षण विधेयक से अलग नहीं रख सकती लिहाजा पार्टी में कई सांसदों से मतभेदों के बावजूद भाजपा भी फिलहाल इस विधेयक के पक्ष में खड़ी दिखाई दे रही है। हालांकि इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि जिस प्रकार मनमोहन सिंह की पिछली सरकार के समय भारत अमेरिका के मध्य हुआ परमाणु क़रार मनमोहन सरकार के लिए एक बड़ी मुसीबत साबित हुआ था तथा उसी मुद्दे पर वामपंथी दलों ने यू पी ए सरकार से अपना समर्थन तक वापस ले लिया था। ठीक वैसी ही स्थिति महिला आरक्षण विधेयक को लेकर एक बार फिर देखी जा रही है। परंतु पिछली बार की ही तरह इस बार भी कांग्रेस के इरादे बिल्कुल सांफ हैं। ख़बर है कि एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने सोनिया गांधी से यह पूछा कि उन्हें लोकसभा में महिला आरक्षण की मंजूरी चाहिए या वे सरकार बचाना चाहेंगी। इस पर सोनिया गांधी ने भी स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें महिला आरक्षण की मंजूरी चाहिए।

उक्त विधेयक को लेकर देश की संसद में पिछले दिनों क्या कुछ घटित हुआ यह भी पूरा देश व दुनिया देख रही है। रायसभा के 7 सांसदों को सभापति की मो पर चढ़ने तथा विधेयक की प्रति फाड़ने व सदन की गरिमा को आघात पहुंचाने के जुर्म में सदन से निलंबित तक होना पड़ा था। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी व लोक जनशक्ति पार्टी के इन सांसदों द्वारा महिला आरक्षण विधेयक के वर्तमान स्वरूप को लेकर जो हंगामा खड़ा किया जा रहा है वह भी हास्यास्पद है। इन दलों के नेता यह मांग कर रहे हैं कि 33 प्रतिशत महिला आरक्षण के कोटे में ही दलितों, पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यकों की महिलाओं हेतु आरक्षण किया जाना चाहिए। अब यह शगूफा मात्र शगूंफा ही है या फिर इन पार्टियों के इस कदम में कोई हंकींकत भी है यह जानने के लिए अतीत में भी झाकना णरूरी होगा। महिलाओं के 33 प्रतिशत सामान्य आरक्षण की वकालत करने वाले लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव तथा रामविलास पासवान जैसे विधेयक के वर्तमान स्वरूप के विरोधियों से जब यह पूछते हैं कि आप लोग अपनी- अपनी पार्टियों के राजनैतिक अस्तित्व में आने के बाद से लेकर अब तक के किन्हीं पांच ऐसे सांसदों, विधायकों या विधान परिषद सदस्यों के नाम बताएं जिन्हें आप लोगों ने दलित, पिछड़ा तथा अल्पसंख्यक होने के नाते पार्टी प्रत्याशी के रूप में किसी सदन का सदस्य बनवाया हो। इसके जवाब में इन नेताओं के पास कहने को कुछ भी नहीं है। इसी से यह सांफ ज़ाहिर होता है कि दलितों, पिछड़ी जातियों तथा अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के नाम पर किया जाने वाला इनका हंगामा केवल हंगामा ही है हकीकत नहीं।

दरअसल जो नेता महिला आरक्षण विधेयक का विरोध जाति के आधार पर कर रहे हैं उनकी मजबूरी यह है कि उनके हाथों से पिछड़ी जातियों व अल्पसंख्यकों के वह वोट बैंक तोी से खिसक रहे हैं जो उन्हें सत्ता मे लाने में सहयोगी हुआ करते थे। लिहाजा यह नेता पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की महिलाओं को अतिरिक्त आरक्षण दिए जाने के नाम पर महिला आरक्षण विधेयक का जो विरोध कर रहे हैं वह वास्तव में एक तीर से दो शिकार खेलने जैसा ही है। इन जातियों के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद कर यह नेता जहां अपने खिसकते जनाधार को पुन: बचाना चाह रहे हैं वहीं इनकी यह कोशिश भी है कि किसी प्रकार उनके विरोध व हंगामे के चलते यह विधेयक पारित ही न होने पाए। और इस प्रकार राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व पूर्ववत् बना रहे।

महिला आरक्षण विधेयक से जुड़ी तमाम और ऐसी सच्चाईयां हैं जिन्हें हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। हालांकि महिलाओं द्वारा आमतौर पर इस विषय पर ख़ुशी का इजहार किया जा रहा है। आरक्षण की ख़बर ने देश की अधिकांश महिलाओं में जोश भर दिया है। परंतु इन्हीं में कुछ शिक्षित व सुधी महिलाएं ऐसी भी हैं जो महिला आरक्षण को ग़ैर जरूरी और शोशेबाजी मात्र बता रही हैं। ऐसी महिलाओं का तर्क है कि महिला सशक्तिकरण का उपाय मात्र आरक्षण ही नहीं है। इसके अतिरिक्त और भी तमाम उपाय ऐसे हो सकते हैं जिनसे कि महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर महिलाओं हेतु नि:शुल्क अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए। महिलाओं पर होने वाले यौन उत्पीड़न संबंधी अपराध तथा दहेज संबंधी अपराधों में अविलंब एवं न्यायसंगत फैसले यथाशीघ्र आने चाहिएं तथा इसके लिए और सख्त कानून भी बनाए जाने चाहिए। कन्या भ्रुण हत्या को तत्काल पूरे देश में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए तथा इसके लिए भी और सख्त कानून भी बनाए जाने की जरूरत है। खेलकूद में महिलाओं हेतु पुरुषों के बराबर की व्यवस्था की जानी चाहिए। सरकारी एवं गैर सरकारी नौकरियों में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जाना चाहिए। और यह आरक्षण चूंकि देश की आधी आबादी के लिए दिया जाना है अत: इसे 33 प्रतिशत नहीं बल्कि 50 प्रतिशत किया जाना चाहिए। वृद्ध ,बीमार तथा घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता व इन्हें आश्रय दिये जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। व्यवसाय हेतु महिलाओं को प्राथमिकता के आधार पर बैंक लोन मुहैया कराए जाने चाहिए। लिात पापड़ जैसी ग्राम उद्योग संस्था से सीख लेते हुए सरकार को भी इसी प्रकार के अनेक महिला प्रधान प्रतिष्ठान राष्ट्रीय स्तर पर संचालित करने चाहिए।

रहा सवाल महिलाओं की सत्ता में भागीदारी हेतु संसद में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किए जाने का तो इसमें भी शक नहीं कि राजनीति में महिलाओं की आरक्षित भागीदारी निश्चित रूप से राजनीति में फैले भ्रष्टाचार में कमी ला सकेगी। संसद व विधानसभाओं में आमतौर पर दिखाई देने वाले उपद्रवपूर्ण दृश्यों में भी लगभग 33 प्रतिशत कमी आने की संभावना है। संसद में नोट के बंडल भी पहले से कम उछाले जाऐंगे। परंतु यह सब तभी संभव हो सकेगा जबकि देश की लोकसभा में उक्त विधेयक पेश होने की नौबत आ सके और उसके पश्चात लोकसभा इस विधेयक को दो-तिहाई मतों से पारित भी कर दे। और चूंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है इसलिए देश की आधी से अधिक अर्थात् लगभग 15 विधानसभाओं में भी इस विधेयक का पारित होना जरूरी होगा। चूंकि बात भारत में महिला सशक्तिकरण को लेकर की जा रही है इसलिए आज महिला आरक्षण के पक्ष में सबसे अधिक मुखरित दिखाई दे रही कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी से ही जुड़ी कुछ महिलाओं से संबंधित अतीत की ऐसी ही बातों का उल्लेख यहां करना संबध्द पक्षों को शायद बुरा तो बहुत लगेगा परंतु इतिहास ने समय के शिलालेख पर जो सच्चाई दर्ज कर दी है उससे भला कौन इंकार कर सकता है। याद कीजिए जब एक महिला अर्थात् सोनिया गांधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के करीब थी उस समय सुषमा स्वराज व उमा भारती के क्या वक्तव्य थे। यह महिला नेत्रियां उस समय सोनिया गांधी के विरोध में अपने बाल मुंडवाने, भुने चने खाने व घर में चारपाई उल्टी कर देने जैसी बातें करती देखी जा रही थीं। आज भाजपा व कांग्रेस महिला आरक्षण के पक्ष में लगभग एकजुट दिखाई पड़ रहे हैं। इन दोनों ही पार्टियों को वे दिन भी नहीं भूलने चाहिए जबकि दिल्ली के सिख विरोधी दंगों के दौरान तथा गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार के संरक्षण में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान न जाने कितनी औरतों के पेट फाड़कर उनके गर्भ से बच्चों को निकाल कर चिता में डाल दिया गया। अनेक महिलाओं को जीवित अग्नि के हवाले कर दिया गया। अनेकों के स्तन तलवारों से काट दिए गए। बड़े अफसोस की बात है कि महिलाओं पर यह अत्याचार भी इन्हीं राजनीति के विशेषज्ञों के इशारे पर किया गया था जो आज महिला सशक्तिकरण की बातें कर रहे हैं। और इसीलिए अविश्वसनीय से लगने वाले इस विधेयक को देखकर यह संदेह होना लाजमी है कि इसमें कितनी हकीकत है और कितना फसाना।

-निर्मल रानी

मीडिया और राजनीति- अंतर्सम्बन्ध

मीडिया में प्रिंट हो या इलेक्टनॅनिक दोनों के विषय में जन मानस के बीच अनेक प्रकार के विचार सुनने को मिलते हैं, कोई इसे वर्तमान और भविष्य की दिशा तय करने वाला सशक्त माध्यम मानता है तो कुछ इसके बारे में ऐसी भी धारणा रखते हैं कि आजादी के बाद इसने अपना नैतिक स्तर खो दिया है। यह सिद्धांतों के लिए समर्पित नहीं, व्यक्ति सापेक्ष हो गई है। पत्रकारिता समाज व राष्टन् की प्रबोधिनी न होकर बाहुबलियों और शक्तिशालियों की दासी बन उनकी चाटुकारिता में ही अपना हित देखती है। निश्चित ही इन भाव-विचारों के बीच आज के दौर में इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता है कि युग के अनुकूल परिस्थितियाँ बनती और बिगडती हैं। पहले धर्मदण्ड राज्य व्यवस्था से ऊपर माना जाता था तथा वह राजा के कर्तव्यों के निर्धारण के साथ आवश्यकता पडने पर उसके अनैतिक आचरण के विरूद्ध दण्ड भी देनें की शक्ति रखता था, जबकि वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत सेक्युलर राज्य की अवधारणा ने धर्मदण्ड की शक्ति का हृास किया है, अब राज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि (नेता) ही सर्वशक्तिमान है और राजनीतिक सत्ता सर्वोपरि है।

भारतीय संविधान के तीन प्रमुख स्तम्भ हैं सत्ता चलाने वाले (एक्जिक्युटिव्ह), कानून बनाने वाले (लेजिस्लेटिव्ह) तथा न्याय देने वाले (ज्यूडिशिअरी)। इन तीन स्तम्भों के सहारे ही भारतीय राज्य व्यवस्था का सम्पूर्ण तानाबाना बुना हुआ है। मंत्री परिषद् कोई योजना या नियम बनाती है, उसकी अच्छाई-बुराई को जनता के सामने रखना मीडिया की जिम्मेदारी है। जिसे वह अपने जन्मकाल से स्वतंत्र रूप से करती आ रही है। इसके बारे में भारतीय संविधान की 19वीं धारा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अधिकार के अंतर्गत विस्तार से दिया गया है। इस अनुच्छेद ने मीडिया को सार्वभौमिक शक्ति प्रदान की है जिससे वह प्रत्येक स्थान पर अपनी पैनी नजर रखते हुए स्व विवेक के आधार पर घटना से सम्बन्धित सही-गलत का निर्णय कर सके । यह ओर बात है कि जाने-अनजाने मीडिया की इस नजर से अनेक भ’ष्ट लोग हर रोज आहत होते हैं। ऐसे लोग आए दिन माँग भी करते हैं कि मीडिया पर ऍंकुश लगना चाहिए। उनका तर्क है कि जब कानून का शिकंजा सभी पर कसा हुआ है फिर मीडिया क्यों उससे अछूती रहे ? खासकर मीडिया और राजनीति के अंतर्सम्बन्धों को लेकर यह बात बार-बार उछाली जाती है।

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि 15 अगस्त 1947 से आजाद गणतंत्र के रूप में भारत ने जिस शासन प्रणाली को स्वीकारा है। वह जनता का जनता द्वारा जनता के लिए संचालित लोकतंत्रात्मक शासन है, जिसमें प्रगति के पथ पर पीछे छूट चुके व्यक्ति की चिंता रखना और उसके हित में कार्य करने को सबसे अधिक वरियता दी गई है। इस व्यवस्था में जनता से चुने गए प्रतिनिधि शासन का संचालन करते हैं, यह प्रणाली जन प्रतिनिधियों को अपार अधिकार प्रदत्त करती है। चूंकि मीडिया जनता के प्रति जबावदेह है इसलिए वह महाषियों और नेताओं का तथ्यपरख-तटस्थ लेखा-जोखा जनता तक पहुँचा देती है। अत: मीडिया और राजनीति एक दूसरे की सहयोगी बनकर कार्य करती दिखाई देती हैं।

सन् 1977 में कोलकाता में जब जेम्स आगस्टस हिकी ने भारत में सबसे पहले प्रेस की स्थापना की ओर 1980 से बंगाल गजट एण्ड कैलकटा जनरल एडवरटाइजर नामक दो पन्नों का अखबार शुरू किया था तब और उसके बाद प्रकाशित समाचार पत्र-पत्रिकाएँ उदन्त मार्तण्ड हरिश्चन्द्र मैगजीन, सर्वहित कारक, प्रजाहित, बनारस अखबार, प्रजाहितैषी, सरस्वती, बाल बोधनी, भारत जीवन, हिन्दी प्रदीप, ब्राम्हण, हिन्दुस्तान, अभ्युदय, प्रताप, कैसरी, कलकत्ता समाचार, स्वतंत्र, विश्वमित्र, विजय, आज, विशाल भारत, त्याग भूमि, हिंदू पंच, जागरण, स्वराज, नवयुग, हरिजन सेवक, विश्वबन्धु, हिन्दू, राष्ट्रीयता, चिंगारी, जनयुग, सनमार्गआदि ही क्यों न हों, प्राय: आजादी के पूर्व निकले इन सभी समाचार पत्र-पत्रिकाओं पर यह आरोप लगे थे कि क्यों यह राजनीतिक, प्रशासनिक व्यवस्था और राजनेताओं पर अपनी नजर गढाए रखते हैं तथा व्यवस्था परिवर्तन के बारे में लिखते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् बीते 62 सालों के बाद भी मीडिया पर यह आरोप यथावत् है। व्यवस्था में खामियाँ इतनी अधिक हैं कि उन पर मीडिया लगातार प्रहार कर रही है। यहाँ आरोप लगाने वाले भूल जाते हैं कि यही पत्रकारिता विकास के मॉडल तथा योजनाओं को जनता तक पहुँचाती है। न केवल मीडिया सूचना पहुँचाती है बल्कि जन के मानस को इस बात के लिए तैयार करती है कि सृह्ढ भविष्य के भारत निर्माण तथा अपने राज्य, नगर, ग्राम के हित में किस पार्टी को अपना बहुमूल्य वोट दें।

आज मीडिया के उद्देश्यों को लेकर दो तरह की विचारधाराएँ प्रचलित हैं। एक मीडिया को शुध्दा व्यवसाय मानते हैं तो दूसरा वर्ग इसे जन संचार का शक्तिशाली माध्यम होने के कारण जनकल्याण कारक, नैतिक मूल्यों में अभिवध्र्दाक, विश्व बन्धुत्व और विश्व शांति के लिये महत्वपूर्ण मानता है। दोनों के ही अपने-अपने तर्क हैं। वस्तुत: इन तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान पत्रकारिता जहाँ व्यवसाय है वहीं परस्पर प्रेम, जानकारी और शक्ति बढाने का माध्यम भी है।

बोफोर्स, तेलगी, नोट कांड, भ’ष्टाचार से जुडी तमाम धांधलियाँ, भारत की सीमाओं में अवैध घुसपैठ, नकली करेंसी, हवाला के जरिए धन का आवागमन, आतंकवादी गतिविधियाँ और कुछ माह पूर्व आई लिब’हान रपट ही क्यों न हो। समाचार पत्र-पत्रिकाओं और इलेक्टनॅनिक मीडिया द्वारा जो बडे-बडे खुलासे किये गये, वह समय-समय पर पत्रकार को मिली राजनेताओं की मदद-सूचना एवं सहयोग का परिणाम है। वस्तुत: पत्रकार को राजनेता से बने आपसी सम्बन्धों का लाभ जीवन भर मिलता है। एक पत्रकार उस नेता को जिसका उससे मित्रवत् व्यवहार है आवश्यकतानुसार उसे प्रोत्साहित करता है, उसके हित में समाचार लिखता है। बदले में उससे ऐसे अनेक समाचार प्राप्त करता है जो न केवल पत्रकार की खोजी प्रवृत्ति के कारण उसके संस्थान में प्रतिष्ठा दिलाते हैं, बल्कि उसे मीडिया जगत में एक विश्वसनीय ब’ांड की तरह स्थापित करते हैं।

जब पत्रकार कोई नकारात्मक समाचार लिखता है तब भी वह अप्रत्यक्ष जनता का हित ही साध रहा होता है। आप राजनीति और मीडिया के इन अंर्तसम्बन्धों को चाहें तो स्वार्थ के सम्बन्ध भी कह सकते हैं बावजूद इसके यह नकारा नहीं जा सकता कि पत्रकार द्वारा धन-यश प्राप्ति के लिए किया गया प्रयास सदैव आमजन के हित में रहा है। जब एक नेता, दूसरे नेता की तथा प्रशासक-कर्मचारी दूसरे अधिकारी-कर्मचारी की खामियों, नीतियों, उनके काले कारनामों को उजागर करते हैं तब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वह जनहित से जुडे विषयों को मीडिया में रखने का कार्य करते हैं। भ’ष्टाचार की कलई खुलने पर जो राशि प्राप्त की जाती है उसका बहुत बडा भाग केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा जन कल्याणकारी योजनाओं में खर्च किया जाता है।

स्वाधीनता आंदोलन के समय और उसके बाद भारत में मूल्यों के संरक्षण संवर्धन तथा उनकी स्थापना का कार्य मीडिया निरंतर कर रही है। यही उसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षक बनाता है। जब तक भारत में लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था रहेगी तब तक मीडिया और राजनीति में अंर्तसम्बन्ध बने रहेंगे। इस पर कोई भी बहस की जाए वह अधूरी रहेगी।

-मयंक चतुर्वेदी

‘जनवाणी’ से ‘सत्ता की वाणी’ तक का सफर…

मीडिया पर आये दिन सवाल खड़े हो रहे हैं, विश्वसनीयता भी कम हुई है। बाजारीकरण का मीडिया पर खासा प्रभाव देखने को मिल रहा है। खबरों और मीडिया के बिकने के आरोपों के साथ-साथ कई नए मामले भी सामने आए हैं। ऐसे में पत्रकारिता को किसी तरह अपने बूढे क़न्धों पर ढो रहे पत्रकारों के माथे पर बल जरूर दिखायी दे रहे हैं।

भारत में पत्रकारिता का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। आजादी के दीवानों की फौज में काफी लोग पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश व समाज के लिये कार्य किये। लेकिन ये बातें अब किताबों और भाषणों तक ही रह गई हैं। जैसी परिस्थितियों से उस दौर के पत्रकारों को गुजरना पड़ता था] आज के पत्रकारों को भी सच कहने या सच लिखने पर वैसे ही दौर से गुज़रना पड़ता है। सच कहने वालों को सिरफिरा कहा जाता है और उन्हें नौकरी नहीं मिलती] मिल जाये तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इसके बावजूद भी कई ऐसे लोग है जो सही पत्रकारिता कर रहे हैं।

2009 के लोकसभा चुनावों में मीडिया का वो स्वरूप देखने को मिला जिसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी, वो था मीडिया का बिकाऊ होना। हालांकि चुनाव के समय में इस तरह की छुटपुट घटनाएं सामने आती रहती थीं, लेकिन इस बार सारी हदें पार हो गईं। कुछ अखबार व कुछ समाचार चैनलों को छोड़ दें तो पूरा मीडिया बिका हुआ नजर आया। ऐसा होना सच में शर्मनाक था और लोकतन्त्र के लिये दुर्भाग्यपूर्ण। खबरें, यहां तक कि संपादकीय भी पैकेजों में बेचे जाने लगे। एक पृष्ठ पर एक ही सीट के दो-दो उम्मीदवारों को मीडिया विजयी घोषित करने लगा और हद तो तब हो गई जब मीडिया ने पैकेज न मिलने पर प्रबल उम्मीदवार के भी हारने के आसार बता दिये।

पैसे से पत्रकार व पत्रकारिता खरीदी जा रही है। लेकिन जो बिक रहा है शायद वो पत्रकारिता का हिस्सा कभी था ही नहीं। सत्ता में बैठे लोगों की भाषा आज की पत्रकारिता बोल रही है और नहीं तो पैसे की भाषा तो मीडिया द्वारा बोली ही जा रही है। कुछ एक को इन बातों से ऐतराज हो सकता है, लेकिन आंखे बंद करके चलना भी ठीक नहीं है। बाकी मीडिया का जनवाणी से सत्ता की वाणी बनने तक का सफर काफी कुछ इसी तरह चलता रहा।

रही-सही कसर पत्रकारिता में आए नौजवानों ने पूरी कर दी है। एक ओर ज्ञान की कमी, दूसरी ओर जल्दी सब कुछ पा लेने की इच्छा और पैसे कमाने की होड़ ने इन्हें आधारहीन पत्रकारिता की ओर मोड़ दिया है। प्रतिस्पर्धा के दबाव ने भी नौजवानों को पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता करने पर विवश कर दिया है। वैसे दोष उनका भी नहीं है। लाखों रूपए खर्च करने के बाद बने इन डिग्रीधारक पत्रकारों से मूल्यों की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

खैर, हम तो बस इसी ख्याल में बैठे हैं कि मीडिया जल्द ही पुन: जनवाणी बन जायेगा… लेकिन मन यही कहता है कि, ‘दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है गालिब…।’

– हिमांशु डबराल