रेल मंत्री एक तरफ अपनी पीठ थपथपा रहे थे। कुछ ही समय बाद उड़ीसा में जाजपुर रेलवे स्टेशन के पास शुक्रवार को रेल हादसा हो गया। हादसे में मरने वालों की संख्या 16 हो गई है, जबकि पचास से ज़्यादा लोग घायलबताए गए हैं।
रात लगभग आठ बजे कोरोमंडल एक्सप्रेस ट्रेन के 13 डब्बे जाजपुररेलवे स्टेशन के पास पटरी से उतर गए। केंद्रीय रेल राज्य मंत्री आर वेलु ने आज सुबह दुर्घटनास्थलका दौरा कर स्थिति की समीक्षा की है। साथ ही दुर्घटना की उच्चस्तरीय जाँच करानेके आदेश दिए हैं।
जानकर ताज्जुब होगा कि कोरोमंडल एक्सप्रेस के दुर्घटनाग्रस्त होने के महज 12 घंटों केभीतर एक अन्य दुर्घटना में बिहार में पैसेंजर ट्रेन और इंजन के बीच टक्कर में 15 लोग घायल हो गए हैं।दुर्घटना मोतिहारी के पास शनिवार सुबह साढ़े पांच बजे एक इंजन केगोरखपुर-मुज़फ्फ़रपुर इंटरसिटी एक्सप्रेस ट्रेन से टकरा जाने से हुई।
इस हादसे में लगभग 15 लोग घायल हो गए हैं। घायलों को नज़दीक के अस्पताल में भर्ती करा दिया गया है।
हावड़ा-चेन्नई कोरोमंडल सुपरफास्ट एक्सप्रेस ट्रेन जिस समयदुर्घटनाग्रस्त हुई, उस समय ट्रेन की रफ़्तार ज़्यादा थी और यह जाजपुर रोड रेलवेस्टेशन से आगे बढ़ी ही थी। दुर्घटना में रेल इंजन समेत 13 डब्बे पटरी से उतर गए. इनमें 11 डब्बे सामान्य शयनयान श्रेणी (स्लीपर) के और दो सामान्य श्रेणी के डब्बे थे।
ट्रेन में सवार यात्रियों के मुताबिक दुर्घटना से पहले कई बारतेज़ झटके महसूस किए गए। दुर्घटना होने के तत्काल बाद आस-पास के स्थानीय लोग भारी संख्या में वहां पहुँच गए और घायलोंको डब्बे से बाहर निकालने का काम शुरू कर दिया।
शनिवार सुबह तक सभी घायलों को अस्पताल पहुँचाया जा चुका था और रेललाइन पर यातायात सामान्य बनाने की कोशिश की जा रही है। यहां महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि रेल मंत्री अपने मंत्रालय को जमीन से आसमान पर उठाने की बात कर रहे हैं, लेकिन उन्हें एक सामान्य यात्रियों की जान की परवाह है, ऐसा कम ही नजर आता है।
क्या मृतकों के परिजनों को बतौर मुआवजा रूपये देने या नौकरी देने का वादा करने मात्र से पीड़ित लोगों का दर्द कम हो जाएगा?
हालांकि, उन्होंने घटना पर गहरा खेद व्यक्त करते हुए मृतकों औरघायलों के परिजनों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की है। लेकिन यदि रेल मंत्रालय के लाभ में चलने का मुख्य कारण मंत्री महोदय खुद को बताते हैं तो घटना की जिम्मेदारी उन्हें लेनी चाहिए।*
दुनियाभरकेसमाचारपत्रोंने नीलामीकोऐतिहासिककरारदियाहै,जबकि इस खबर से कई लोग आहत हुए हैं। गांधीवादियों का कहना है कि हमारेविचारों, रिश्तों, सोचऔरसंस्कृतिकाअमेरिकामेंबाजारीकरणहोरहाहै।यहसोच-सोचकर बड़ादुखहोताहै।
वे लोग मानते है कि गांधी जी द्वारा इस्तेमाल की गई वस्तु नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का माध्यम बन सकती हैं अतः उनसे जुड़ीसभीवस्तुओंकोकिसीसुरक्षितजगहपरजनताकेदर्शनकेलिएरखाजानाचाहिए।इससेकिआनेवालीपीढ़ीउन्हेंदेखकरहीकमसेकमकुछप्रेरणाहासिलकरसके।
ब्रिटेनके एक समाचारपत्र केमुताबिकएंटिकोरमआक्सनर्सद्वारा4 व5 मार्चकोआयोजितकीजानेवालीइसनीलामीमेंगांधीकीपॉकेटघड़ी, एककटोरावएकप्लेटकोभीशामिलकियाजाएगा।गांधीनेअपनेचश्मोंकोभारतीयसेनाकेएक कर्नलयहकहतेहुएदियाथा कि इसनेआजादभारतकीमुझेदृष्टिदी।
हिन्दी सिनेमा में मजाज़ी इश्क़ (सांसारिक प्रेम) पर लिखे गीतों के रुतबे को तो सभी महसूस करते ही होंगे ! इधर मैं कुछ दिनों से इश्क़-विश्क के उन गीतों को ढूंढ रहा था जो खासकर वैलेंटाइन डे पर लिखे गए हैं। अभी सफर जारी है। इस दौरान तत्काल जो गीत मुझे याद आया वह फिल्म बागवान का है। बोल है- चली इश्क की हवा चली।
यकीनन यह गीत मजेदार व ऒडीटोरियम-फोडू है। लेकिन बालीवुड में गीत का जो इतिहास है, उसमें बहुत बाद का है। थोड़ा पहले का मिले तो मजा आ जाए। और आप सब का सहयोग मिले तो फिर क्या कहने हैं !
खैर ! यह वैलेंटाइन डे जितना सिर चढ़कर बोल रहा है, गीत ढूंढते वक्त ऐसा लगता नहीं कि इसकी जड़ उतनी गहरी है। इसपर बातचीत पूरी खोज के बाद। लेकिन, इसमें शक नहीं कि यदि वैलेंटाइन डे से ज्यादा बिंदास डे कोई आ गया तो इस डे के मुरीद उधर ही सरक जाएंगे। ठीक है। इश्क के इजहार का वे जो भी तरीका अख्तियार करें यह तो उनका निजी मसला है।
लेकिन कई बार यह भी सच मालूम पड़ता है कि इस कूचे की सैर करने वाले इश्क की नजाकत भूला बैठते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह बालीवुड- चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो, हम हैं तैयार चलो…। जैसे रूहानी गीत कम ही तैयार करने लगा है। अब के गीतों में तो केवल सुबह तक प्यार करने की बात होती है। याद करें- सुबह तक मैं करुं प्यार…। ये दोनों ही गीत अपने-अपने दौर में खूब सुने गए।
कई लोग मानते हैं कि तमाम अच्छाइयों के बावजूद अब इश्क कई जगह टाइम-पास यानी सफर में चिनियाबादाम जैसी चीज बनकर रह गया है। यहां रूहानियत गायब है और कल्पना का भी कोई मतलब नहीं रहा। संभवतः इसमें कुछ सच्चाई हो तभी तो कई लोग वैलेंटाइन डे को लेकर हवावाजी कर रहे हैं और ठाठ से अपनी दुकान चमका रहे हैं।*
मैं एक सम्भ्रान्त परिवार से सम्बन्ध रखता हूं। हम दकियानूसी नहीं है। उदारवादिता और आधुनिकता हमारी पहचान है।
हम वैलेन्टाइन डे को बुरा नहीं मानते । कुछ मूढ़ रूढ़िवादी व्यक्तियों व संगठनों की तरह। वस्तुत: मैं तो समझता हूं कि हम एक हज़ार वर्ष से अधिक समय तक ग़ुलाम रहे उसका एक मात्र कारण था अपनी परम्पराओं तथा थोथी नैतिकता के साथ बन्धे रहना।
हर वर्ष की तरह इस बार भी हमने वैलटाइन डे बड़ी धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। सारा परिवार रोमान्चित था। परिवार के सारे सदस्य अपने-अपने तौर पर अपनी तैयारी में लगे थे। सभी इस आयोजन को आनन्दमय बनाने के लिये सब कुछ कर रहे थे पर एक-दूसरे को कुछ नहीं बता रहे थे। बताते भी क्यों? प्यार का, दिल का मामला जो ठहरा। यदि इसका सब कुछ सब को पता लग जाये तो फिर मज़ा ही क्या है?
उस दिन मैं घर में सब से पहले उठा। तैयार होकर सब से पहले घर से निकल गया। मेरी एक पड़ोसन बड़ी सुन्दर थी। वह मुझे बहुत अच्छी लगती थी। सोचा अपना प्यार जताने का वैलन्टाइन डे से बढ़िया मौका नहीं है। सो हाथ में प्यार का चिर परिचित चिन्ह गुलाब लेकर मैंने उसका दरवाज़ा खड़का दिया।धत्त तेरे की। दरवाज़ा खुला तो दर्शन हुये उसके पतिदेव के। मेरे हाथ में गुलाब देखकर खुश होने की बजाये वह तो लगता है जल-भुन सा गया। बड़े बड़े दु:खी व कड़े भाव में बोला, ”क्या है?”
”हैप्पी वैलन्टाइन डे”, मैंने बुझे मन से कहा।
कुछ बड़ा धूर्त दकियानूस लगा। ज़ोर से दरवाज़ा बन्द करते हुये गुर्राया, ”थैंक यू”। लगा जैसे दिल में लगी आग की तपस बाहर निकाल रहा हो।
पर मुझे तो विश करनी थी उसकी सुन्दर पत्नि को, उसे नहीं। इसलिये फिर घंटी बजा दी। सोचा इस बार शायद वह स्वयं ही दर्शन देंगी। पर कहां? वही महाशय फिर आ धमके। और भी कठोर भाव से बोले, ”अब क्या है?”
उसके इस अभद्र भाव के बावजूद मैंने पूरी मुस्कान देते हुये पूछा ”टरीनाजी हैं?”
उसका भाव कुछ और भी सख्त हो गया। बोला, ”क्यों?”
”वस्तुत:”, मैंने बड़े शालीन भाव से कहा, ”मुझे उनको हैपी वैलन्टाइन डेकहना है।”
उसका पारा कुछ और भी चढ़ गया लगा। गुस्से में बोला, ”अपनी बीवी को बोलो हैप्पी वलन्टाइन डे”। पर मैंने गुस्सा नहीं किया। मैं सहल भाव से बोला, ”भइया, तुम लगता है इस दिन का महत्व नहीं समझते यह दिन अपनी पत्नी को विश करने का नहीं आप दूसरे को जिसे आप प्यार करते हैं। बीवी तो कर्वाचौथ का व्रत रखती है। उसे तो तब आशीर्वाद देते है, विश थोड़े करते है”
वह और भी उत्तोजित हो उठा बोला, ”तुम मेरे पड़ोसी हो और तुम्हारी उम्र का मैं लिहाज़ कर रहा हूं वरन् मैं पता नहीं तुम से क्या व्यवहार कर बैठता”। उसने मेरे मुंह पर दरवाज़ा इतने ज़ोर से दे मारा कि मुझे लगा कि वह टूट ही गया हो।
मैंने सोचा यह तो मुहूर्त ही खराब हो गया। वैलन्टाइन डे पर किस जाहिल से पाला पड़ गया। खैर मैंना अपना मूड खराब नहीं किया । यहां नहीं तो और घर सही। मैं तो दिन मनाने के लिये निकला हूं। चलो कहीं और सही।
अभी सोचता सड़क पर जा ही रहा था कि अब कहां जाऊं कि गुझे एक महिला अकेली आती दिख गई। वैलन्टाइन डे पर महिला अकेली और वह भी सुन्दर? मैंने देर नहीं की। उसके पास जाकर मुस्कराते हुये जड़ दिया, ”हैप्पी वैलन्टाइन डे”। उसने कुछ नहीं कहा और थैंक यू कह कर आगे बढ़ गई।
मैंने अपना प्यारा सा गुलाब आगे बढ़ाते हुये कहा, ”आप आज मेरे साथ वैलेन्टाईन डे मनायेंगी?”
”तुमने अपनी शक्ल देखी है?” महिला ने मेरी भावनाओं की तरह मेरे मुलायम गुलाब को अपने हाथ से परे कर दिया। गुलाब नीचे गिर गया। वह तेज़ी से आगे बढ़ गई।
मेरे पास शीशा नहीं था कि मैं दुबारा अपना मुंह देख लेता। मैंने कहा, ”अभी थोड़ी देर पहले घर से देख कर निकला था। बिल्कुल ठीक था”
”घर जाकर दुबारा देख लो”, यह कहकर वह तेज़ी से आगे बढ़ गई।
मेरा मनोबल कुछ गड़बड़ा गया। पहले तो सोचा घर जाकर अपना चेहरा एक बार फिर देख ही लूं। पर तभी एक नाई की दुकान दिख गई। उसके पास शीशे में मुस्कराते हुये अपना चेहरा देखा। मुझे बहुत आकर्षक लगा। ”मुझे मूर्ख बना गई”, मन ही मन सोचा और अपने लक्ष्य की ओर आगे प्रस्थान कर गया।
तब तक सायं भी ढलने लगी थी। एक पार्क में पहुंचा। बहुत से जोड़े एक दूसरे की बगल में हाथ डाल कर झूम रहे थे। हंस-खेल रहे थे। कई किलकारियां मार रहे थे। मुझे अपना अकेलापन अखर रहा था।
इधर-उधर घूमते मैंने देखा एक महिला एक वृक्ष के नीचे अकेली बैठी थी। मुझे लगा जैसे वह किसी का इन्तज़ार कर रही हो। अब साथी की तलाश तो मुझे भी थी। पास जाकर मैंने उसे वैलेन्टाईन डे की मुबारकबाद दी। वह मुस्कराई। मैंने सोचा काम बन गया। मुझे अपनी मन्ज़िल मिल गई।
मैंने पूछा, ”किसी का इन्तज़ार कर रही हो?”
वह मुस्कराई और बोली, ”आप बैठ सकते हैं।” और उसने एक ओर खिसक कर मेरे लिये जगह बना दी। भूखे का क्या चाहिये? दो रोटी। और वह मुझे मिल गई।
मैं उसके साथ बैठ गया। पहले तो मैंने उसे वह गुलाब थमा दिया जो अब तक तिरस्कृत मेरे हाथ में ही मुर्झाने लगा था। उसने सहर्ष स्वीकार कर थैंक यू कहा। मैंने सोचा मेरी मुराद तो पूरी हो गई। मैंने अपनी जेब से एक चाकलेट निकाली और उसे बड़े प्यार से भेंट कर दी। उसने ली और उसके दो हिस्से कर एक मुझे दे दिया और एक अपने मुंह में डाल लिया। बहुत स्वीट है तुम्हारी तरह – यह कहकर उसने अपनी आंखें मटका दीं। मुझ पर वैलेन्टाईन डे का सरूर चढ़ता लग रहा था।
मैंने कहा, ”कुछ चाट-पापड़ी का स्वाद लें?”
वह एक दम उठकर तैयार हो गई। बड़े चटकारे लेकर हमने चाट-पापड़ी का मज़ा उठाया। थोड़ा सा और घूमे। अनेक जोड़े एक-दूसरे की बगलों में हाथ डाल कर झूम रहे थे। मैंने सोचा मैं क्यों पीछे रहूं और अलग से दिखूं। मैंने भी उसकी बगल में हाथ डाल दिया। उसने मेरी ओर एक मोहक नज़र फैलाई और मेरी बगल में हाथ डाल दिया। उस दिन के खुमार में हम थोड़ा इधर-उधर घूमे।
अब भोजन का समय भी होने वाला था। भूख भी लग रही थी। मैंने पूछा, ”डिन्नर कर लें?”
”क्यों नहीं?” उसने फिर एक मोहक मुस्कान फैंकी। ”आपके साथ सौभाग्य रोज़ तो मिलेगा नहीं।”
मैं उसे एक बढ़िया रैस्तरां की ओर ले गया। रैस्तरां पहली मन्ज़िल पर था। ज्यों ही उसे पहली सीढ़ी पर पांव रखने केलिये आशिकाना अन्दाज़ में मैंने हाथ फैला कर इशारा किया, वह बोली, ”कोठे पर ले जाने से पहले कुछ पैसे तो मेरे पर्स में डाल दो।”
पहली मंज़िल पर जाने को कोठे पर जाने की संज्ञा देने की ठिठोली मेरे मन को भा गई। मैंने तपाक से एक एक हज़ार का नोट उसके पर्स में थमा दिया। थैंक यू कह कर उसने सीढ़ियां चढ़नी शुरू कर दी।
खाना बड़ा बढ़िया था। उसका बड़ा आनन्द उठाया। बाद में इस ठण्ड में भी हमने बड़ी स्वादिष्ट आइसक्रीम ही खाई। पर उससे भी वैलन्टाइन डे की गर्मजोशी में किसी प्रकार की ठण्डक न आई।
अब मेरा डे तो सफल हो गया था। मैंने सोचा पहली मुलाकात तो इतनी नज़दीकी तक ही सीमित रखी जाये। पहली ही मुलाकात में ज्यादा बढ़ जाना ठीक नहीं। आगे के लिये स्कोप रख लेते हैं। पहल मैंने ही की, ”अब चलें। आपके साथ बड़ा आनन्द आया। मेरा तो वैलन्टाई डे सफल हो गया।”
मैंने बिल दिया। बिल मोटा था। उस पर प्रभाव जमाने के लिये टिप भी मैंने दिल खोल कर दिया।
हम नीचे उतरे। उसकी बगल में हाथ डालकर मैंने कहा, ”थैंक यू। आपने तो मेरी शाम रंगीन कर दी। फिर मिलते रहना।” मैंने उसे अपना विज़िटिंग कार्ड थमा दिया। ”कहो तो कहीं छोड़ दूं?”
”नो, थैंक्स” कह कर प्यार भरे रोब से बोली, ”बस दो हज़ार रूपये और दे दो”।
अवाक्, मैंने पूछा, ”किस लिये?”
”मैं जब किसी को शाम को कम्पनी देती हूं तो यही चार्ज करती हूं”
”पर आज तो मैडम वैलन्टाइन डे है?”
”तभी तो कम रेट लगा रही हूं, वरन् तो ज्यादा मांगती”
मैं थोड़ा झुंझला गया। मैंने कहा, ”मैडम, मैं पैसे देकर वैलन्टाइन डे नही मनाता।”
”पर मैं मनाती हूं।” उसने थोड़ा तलखी से बोला। ”आप जल्दी से रूपसे निकाल दो वरन्ण्ण्ण्ण्”
मैं अकलमन्द निकला। इशारा समझ गया। मैं तो मौज-मस्ती मनाने आया था, तमाशा बनाने या बनने नहीं। आखिर मैं इज्ज़तदार आदमाी था। मुझे याद आया कल ही तो हमें अपनी बेटी के रिश्ते की बात करनी है। मैंने चुपचाप बुझे मन से एक-एक हज़ार के दो नोट उसके हाथ थमा दिये। एक प्यारी सी मुस्कान देकर उसने एक बार फिर थैंक यू कहा और चलती बनी।
मन बुझ सा गया। अब और घूमने का मन भी न रहा। रात के ग्यारह भी बज चुके थे।
घर पुहुचा तो ताला बन्द। घर में कोई नहीं। सामने मैदान में चहलकदमी करने लगा। थोड़ी देर बाद मेरे घर के सामने एक कार रूकी। मेरी धर्मपत्नी बाहर निकली। कार चलाने वाले का बड़े प्यार से बाई-बाई की और बिना दायें-बाये देखते घर का ताला खोलने लगी। मैं भी पीछे से आ गया। मैंने पूछा, ”रिंकी और विंकू नहीं आये?”
वह भी वैलन्टाइन डे मना रहे होंगे। ”दोनों इकट्ठे हैं न?” मैंने पूछा।
”तुम भी मूर्ख के मूर्ख ही रहे”, वह भड़क कर बोली। ”कभी बहन और भाई भी साथ वैलन्टाई डे मनाते हैं? रिंकी अलग होगी, विंकू अलग”।
”सॉरी, मैं तो भूल ही गया। पर तुम्हें याद है कि प्रात: रिंकी को उसके ससुराल वाले और लड़का आ रहा है? मैं तो इसलिये चिन्तित हूं।”
”तो क्या हुआ?” वह मुझे आश्वस्त करते हुये बोली। ”लड़का भी तो आज कहीं वैलन्टाई डे मना रहा होगा।”
मेरी चिन्ता दूर हो गई। हमने भी तो अपनी प्यारी बेटी केलिये एक सभ्य, सम्भ्रान्त और उदार मन परिवार ही तो चुना है।
नई दिल्ली, 13 सितम्बर (आईएएनएस)। मुक्तिबोध के एक लेख का शीर्षकहै ”अंग्रेजी जूते में हिंदी को फिट करने वाले ये भाषाई रहनुमा।” यह लेख उसप्रवृत्ति पर चोट है जो कि हिंदी को एक दोयम दर्जे की नई भाषा मानती है और हिंदी कीशब्दावली विकसित करने के लिए अंग्रेजी को आधार बनाना चाहती है।
भाषा विज्ञानियों का एक बड़ा वैश्विक वर्ग जिसमें नोम चॉमस्कीभी शामिल हैं हिंदी की प्रशंसा में कहते हैं कि यह इस भाषा का कमाल है कि इसमेंउद्गम के मात्र एक सौ वर्ष के भीतर कविता रची जाने लगी, परंतु वास्तविकता इसके ठीकविपरीत है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि पिछले एक हजार वर्षो से अधिक से भारत मेंहिंदी का व्यापक उपयोग होता रहा है। अपभ्रंश से प्रारंभ हुआ यह रचना संसार आजपरिपक्वता के चरम पर है।अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व ही हिंदी कीउपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी। तत्कालीन भारत विश्व व्यापार का सबसे महत्वपूर्णभागीदार था अतएव यह आवश्यक था कि इस देश के साथ व्यवहार करने के लिए यहां की भाषाका ज्ञान हो। गौरतलब है कि अंग्रेजी को विश्वभाषा के रूप में मान्यता भारत परइंग्लैंड द्वारा कब्जे के बाद ही मिल पाई थी।दिनेशचंद्र सेन ने हिस्ट्रीऑफ बेंगाली लेंगवेज एंड लिटरेचर (बंगाली भाषा और साहित्य का इतिहास)नामक पुस्तक मेंलिखा है ‘अंग्रेजी राज के पहले बांग्ला के कवि हिंदुस्तानी सीखते थे।‘ इसी क्रम मेंवे आगे लिखते हैं ‘दिल्ली के मुसलमान शहंशाह के एकछत्र शासन के नीचे हिंदी सारेभारत की सामान्य भाषा (लिंगुआ फ्रांका) हो गई थी।‘हिंदी की व्यापकता के लिएएक और उदाहरण का सहारा लेते हैं। इलाहाबाद स्थित संत पौलुस प्रकाशन ने 1976 में ‘हिंदी के तीन आरम्भिक व्याकरण‘ नामक ग्रंथ का प्रकाशन किया। ये तीनों व्याकरणहिंदी भाषा के हैं और सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में विदेशियों द्वारा लिखे गएथे। इन व्याकरणों से खड़ी बोली हिंदी के प्रसार और उसके रूपों के बारे में बहुतदिलचस्प तथ्य हमारे सामने आते हैं। इनमें पहला व्याकरण जौन जोशुआ केटलर ने डच में 17वीं के उत्तरार्ध का है।केटलर पादरी थे और उनका संबंध डच (हालैंड) ईस्टइंडिया कंपनी से था। इसमें भाषा की जिस अवस्था का वर्णन है वह16 वीं सदी केउत्तरार्ध की है। दूसरा व्याकरण बेंजामिन शुल्ज का है जो 1745 ई. में प्रकाशित हुआथा। इसका विशेष संबंध हैदराबाद से था, इसलिए उनकी पुस्तक को दक्खिनी हिंदी काव्याकरण भी कह सकते हैं। तीसरा व्याकरण कासियानो बेलागात्ती का है और इसका संबंधबिहार से विशेष था।यहां पर एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करना आवश्यक हैकि तीनों व्यक्ति पादरी थे। वे यूरोप के विभिन्न देशों से यहां आए थे और ईसाई धर्मका प्रचार ही उनका मुख्य उद्देश्य भी था। इसमें से दो व्याकरण लेटिन में लिखे गए औरतीसरे का लेटिन में अनुवाद हुआ। तब तक अंग्रेजी धर्मप्रचार की भाषा नहीं थी न ही वहअंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर पाई थी।ध्यान देनेयोग्य बात यह है कि ये तीनों पादरी नागरी लिपि का भी परिचय देते हैं और बेलागात्तीने अपनी पुस्तक केवल इस लिपि का परिचय देने को ही लिखी है। अपनी बात को और विस्तारदेते हुए डा. रामविलास शर्मा लिखते है ‘पादरी चाहे हैदराबाद में काम करे, चाहे पटनामें और चाहे आगरा में, उसे नागरी लिपि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।‘ यह बात 17 वीं व 18 वीं शताब्दी की है।बेलागात्ती हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि केव्यवहार क्षेत्र के बारे में लिखते है, ‘हिंदुस्तानी भाषा जो नागरी लिपियों मेंलिखी जाती है पटना के आस-पास ही नहीं बोली जाती है अपितु विदेशी यात्रियों द्वाराभी जो या तो व्यापार या तीर्थाटन के लिए भारत आते हैं प्रयुक्त होती है।‘ 1745 ई.में हिंदी का दूसरा व्याकरण रचने वाले शुल्ज ने लिखा है ’18 वीं सदी में फारसीभाषा और फारसी लिपि का प्रचार पहले की अपेक्षा बढ़ गया था।पर इससे पहलेक्या स्थिति थी? इस पर शुल्ज का मत है ‘समय की प्रगति से यह प्रथा इतनी प्रबल हो गईकि पुरानी देवनागरी लिपि को यहां के मुसलमान भूल गए।‘ इसका अर्थ यह हुआ कि इससेपहले हिंदी प्रदेश के मुसलमान नागरी लिपि का व्यवहार करते थे। जायसी ने अखरावट मेंजो वर्ण क्रम दिया है, उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। मुगल साम्राज्य के विघटनकाल में यह स्थिति बदल गई। हम सभी इस बात को समझें कि हिंदी एक समय विश्व की सबसेलोकप्रिय भाषाओं में रही है और उसका प्रमाण है भारत का विशाल व्यापारिक कारोबार।जैसे-जैसे मुगल शासन शक्ति संपन्न होते गए वैसे-वैसे भारत का व्यापार भी बढ़ा औरहिंदी की व्यापकता में भी वृद्धि हुई थी।क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए किकिसी देश की समृद्धि ही उसकी भाषा को सर्वज्ञता प्रदान करती है। भारत व इंग्लैंड केसंदर्भ में तो यह बात कुछ हद तक ठीक उतरती है। हिंदी जहां व्यापार की भाषा रही, वहीं उसका दूसरा स्वरूप आजादी के संघर्ष में भी हमारे सामने आता है। महात्मा गांधीने जिस तरह हिंदी को देश की भाषा बनाने का उपक्रम किया उसने एक बार पुन: हिंदी कोवैश्विक परिदृश्य पर ला दिया था । गांधी की भारत वापसी के पश्चात का काल हिंदी कीपुनर्स्थापना का काल भी रहा है। वैसे इसका श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जानाचाहिए, जिन्होंने लिखा था –निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौमूल।बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय कौ शूल।इस पर पं.हजारीप्रसाद द्विवेदी की बहुत ही सागरर्भित टिप्पणी है। वे लिखते हैं, ‘उन्होंने निजभाषा ‘शब्द का व्यवहार किया है, ‘मिली-जुली‘, ‘आम फहम‘, ‘राष्ट्रभाषा‘ आदि शब्दोंको नहीं। प्रत्येक जाति की अपनी भाषा है और वह निज भाषा की उन्नति के साथ उन्नतहोती है।‘ इसी परम्परा के विस्तार को वे हिंदी का जन आंदोलन की संज्ञा भी देतेहैं।आजादी के संघर्ष के दौरान ही पढ़े-खिले समुदाय का एक वर्ग अंग्रेजी को ‘आभिजात्य‘ भाषा के रूप में स्वीकार कर चुका था। भारत की आजादी के पश्चात यहआभिजात्य वर्ग एक तरह के पारम्परिक ‘कुलीन वर्ग‘ में परिवर्तित हो गया और उसने अपनीकुलीनता को ही इस देश की नियति निर्धारण का पैमाना बना दिया। इस दौरान षड़यंत्र केतहत हिंदी-उर्दू और हिंदी बनाम भारत की अन्य भाषाओं का मुद्दा अनावश्यक रूप सेउछाला गया। ध्यान देने योग्य है कि मुगलकाल तक, जब हिंदी पूरे देश में व्यवहार मेंआ रही थी तब भी बंगला, तमिल, उड़िया तेलुगु जैसी भाषाएं अपने अंचलों में पूरेपरिष्कार से न केवल स्वयं को संवार रही थीं बल्कि अपनी संस्कृति का निर्माण भी कररही थीं।इस संदर्भ में हिंदी पर यह आरोप भी लगता है कि हिंदी की सबसे बड़ीविफलता यह है कि वह अपनी संस्कृति विकसित नहीं कर पाई, परंतु ध्यानपूर्वक अध्ययन सेऐसा भी भान होता है कि संभवत: हिंदी को कभी भी अपनी पृथक संस्कृति निर्मित करने कीआवश्यकता ही महसूस नहीं हुई होगी। अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी संस्कृतियों नेसम्मिलित रूप से व्यापक स्तर पर हिंदी संस्कृति के निर्माण में कहीं न कहीं योगदानदिया है।कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी अगर अपनी पृथक संस्कृति केनिर्माण के प्रति सचेत होती तो संभवत: भारत में इतनी विविधता भी नहीं होती और वह भीएकरसता वाला देश बन कर रह जाता। भारत के पूरे व्यापार का माध्यम होने के बावजूदएकाधिकारी प्रवृत्ति से बचे रहने से बढ़ा कार्य कोई समाज नहीं कर सकता था। हिंदीसमाज ने इस असंभव को संभव कर दिखाया है।आज जब हिंदी पुन: बाजार की भाषा बनगई है तब विदेशी व्यापारिक हथकंडों से लैस एक वर्ग इसमें अनावश्यक रूप से हस्तक्षेपकर इसकी सहजता को नष्ट कर देना चाहता है। दु:ख इस बातका है कि हिंदी को समझने वव्यवहार में लाने वाला प्रबुद्धतम वर्ग भी इसमें षड़यंत्रपूर्वक सम्मिलित हो गयाहै। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इसके लोकव्यापी स्वरूप को बचाए रखा जाए। पिछलेएक हजार साल हिंदी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्वयं को भारतीय संस्कृति कापर्याय बनाए हुए है और यहां पर निवास करने वाला समाज इसका यह स्वरूप हमेशा बनाए भीरखेगा।
बापू अब अमेरिकियों को खूब भा रहा है। अमेरिकीहाउसऑफरिप्रजेंटेटिव्सनेएकऐसाप्रस्तावपारितकियाहै,जिसमें इस बात का जिक्र है कि आम नागरिकों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिनलूथरकिंगजूनियरपरमहात्मागांधीकाप्रभावथा। प्रस्ताव में कहागयाहैकिगांधीकीविचारधारासेप्रेरितहोकर ही मार्टिनलूथरनेअहिंसाको अपना हथियारबनायाथा।
मार्टिन लूथरवर्ष1959 मेंभारत की यात्राकीथी।उनकीइसयात्राकेस्वर्णजयंतीवर्षकेमौकेपरबुधवारकोइसप्रस्तावकोपारितकियागया है। इस प्रस्तावमें साफ-साफ कहागयाहैकिलूथरनेगांधीवादीविचारधाराकागहराअध्ययनकियाथा।
प्राप्त खबर के मुताबिक प्रस्तावमेंकहागयाकिलूथरपरउनकीभारतयात्राकागहराअसररहा। इस यात्रा से उन्हेंसामाजिकबदलावकेलिए बतौर हथियार अहिंसाकाइस्तेमालकरनेकीप्रेरणामिली।इससेउनकेनागरिकअधिकारवादीआंदोलनकोखासदिशामिली।
उल्लेखनीय है कि अमेरिकीविदेशमंत्रीहिलेरीक्लिंटनएकसांस्कृतिकप्रतिनिधिमंडलकोभारतरवानाकरनेवालीहैं।इससांस्कृतिकदलकोलूथरकीभारतयात्राकीस्वर्णजयंतीकेउपलक्ष्यमेंरवानाकियाजारहाहै।यहप्रतिनिधिमंडलसबसेपहलेदिल्लीपहुंचेगाऔरफिरगांधीकीविरासतसेजुड़ेकुछस्थलोंकादौराकरेगा।*
भोपाल, 14 फरवरी(आईएएनएस)।भोपालमेंवेलेंटाइनडेकीगरमाहटआनेलगीहै। एक तरफ कुछ लोग14 फरवरीकोविशेषआयोजनोंकीतैयारीमेंजुटेहैं, जबकि दूसरी तरफ बजरंगदलजैसे कुछ संगठनइसकेखिलाफअभियानचलानेको तैयारहैं। पुलिस भी इनस्थितियोंसेनिपटनेको तैयार दिख रही है।
वेलेंटाइनडेकोलेकरपिछलेकुछवर्षोंसे इसके समर्थनऔरविरोधमेंआवाजेंउठतीरहीहैं।बजरंगदलनेइसदिनकोभारतीयसंस्कृतिकेखिलाफकरारदेतेहुएइसका विरोध किया है।इसदलने घोषणा की है कि वहहरपार्कऔरचौराहेपरकड़ीनजररखेगा। साथ ही उसेप्यारके कसीदे कड़तेजोभीजोड़ेनजरआएंगेउनकीवहशादीकराएगा।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शान्ता सिन्हा ने कहा है कि वर्तमान व्यवस्था बच्चों के जीवन के अधिकार को संरक्षित कर पाने में नाकाम रही है। उन्होंने कहा कि जरूरत इस बात की है कि जो भी बच्चा जन्म ले उसे हर हाल में जीवित रखा जाए।
मध्य प्रदेश के सतना जिले के मझगवां विकास खंड में जन सुनवाई में हिस्सा लेने आईं सिन्हा का मानना है कि बच्चों की मौत चाहे कुपोषण से हुई हो अथवा किसी अन्य वजह से।लेकिन, ऐसी मौतें तो हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़े करने वाली हैं। उन्हें यह मानने में जरा भी हिचक नहीं है कि कुपोषण की स्थिति गंभीर है और इससे बच्चों की असमय मौत हो रही है।
उन्होंने यहां जन सुनवाई के दौरान अपने से मिलने आए विभिन्न जन संगठनों से चर्चा करते हुए कहा कि हमें बच्चों की मौत के सच को स्वीकारना होगा। वर्तमान स्थिति में सरकारी अमले को एक दूसरे पर दोषारोपण करने से अलग सच को स्वीकार कर इस समस्या से निपटना चाहिए।
आयोग की कुपोषण विशेषज्ञ डा. वंदना प्रसाद ने किरहाई पुखरी गांव का दौरा करने के बाद बताया कि कुपोषण को समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। बच्चों की शारीरिक हालत देखकर ही हकीकत का अंदाजा लग जाता है।
महिलाएं बेशक प्रत्यक्ष रूप से अपनी भावना का इजहार करने में पुरुषों की अपेक्षा अधिक सकुचाती हैं।लेकिन, संचार के नए माध्यमों के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में वे पुरुषों से आगे हैं। यहां उनका वैचारिक खुलापन भी अधिक झलकता है।
तकनीकी ने महिलाओं की सोच में खुलेपन और उदारता का पुट दिया है। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब महिलाओं को किसी मेलजोल कार्यक्रम के दौरान मोबाइल के जरिए भावना का इजहार करने की छूट दी गई तो वे इस मामले में पुरुषों से आगे निकल गईं। महिलाएं दिल की गहराइयों में छिपी भावना, चाहे वह रोमांस हो या कोई और इसके लिए भाषाई अनुशासन को तोड़ने से वे परहेज नहीं करती।
शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं ने एसएमएस के जरिए अपनी भावना का खुले मन से इजहार किया, जबकि पुरुषों के एसएमएस में झिझक का पुट दिखा। इस शोधकार्य के दौरान करीब 1164 एमएमएस का अध्ययन किया गया।
शोधकर्ताओं ने बताया कि प्रत्यक्ष इजहार के मामले में महिलाएं शिष्टाचार का भरपूर ख्याल रखती हैं, लेकिन मोबाइल के जरिए भेजे गए अपने संदेश में वे रोमांस आदि मसलों पर अधिक मुखर हो जाती हैं। वे संक्षिप्त शब्दों का इस्तेमाल कर इजहार को नाटकीय और असरदार बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं।
बीसवीं सदी के प्रारंभ में नोबल पुरस्कारसेसम्मानितविश्व विख्यातबांग्लाभाषीकविरवींद्रनाथठाकुरकालिखाएकखतबांग्लादेशकेबज्र देहादमेंमिलाहै।ठाकुर के निधन के ठीक 66 वर्षों बाद मिला यह पत्र उनसे जुड़ी एक अमूल्य निशानी है।
पूरे छह पन्नोंकायहपत्रबांग्लादेशकेनवगांवजिलेकेपातीसारगांवसे प्राप्त हुआ है।सिराजगंजजिलेमेंरवींद्रनाथकच्चरीबारीसंग्रहालयकीकर्ताधर्तानेइसबाबत जानकारी दी है।जानकारी के मुताबिक पत्रमेंपश्चिमबंगालकेबोलापुरकेकिसीव्यक्तिकापतादर्जहै।पत्रमेंखासबातयहहैकिइसमेंठाकुर कीजन्मतिथिछहमई, 1861 बताईगईहै।एक स्थानीयसमाचारपत्र ‘दडेलीस्टार‘ केमुताबिकपत्रपरभद्र 28, बंगालीवर्ष 1317 कीतारीखदर्जहै।बांग्लादेशपुरातत्वविभागका मानना है किठाकुरद्वारालिखे गए किसीपत्रकीपांडुलिपिदेशकेकिसीभीसंग्रहालयमेंनहींहै।
भारतीय संगीतकारों का इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय मंच पर डंका बजा रहा है। उन्हें खूब वाह-वाही मिल रही है। अभी-अभी देश के दो दिग्गज संगीतकार ए.आर. रहमानऔर मशहूर तबला वादक जाकिर हुसैन को अलग–अलग अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मान से नवाजा गया।
एक तरफ रहमान ब्रिटिश अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन आर्ट्स (बाफ्टा)सम्मान प्राप्त करने में सफल रहे। वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर को अपने तबले की थाप से मंत्रमुग्ध करने वाले हुसैन ग्रैमी अवार्ड से नवाजे गए हैं।
हालांकि रहमान ‘स्लमडॉग मिलियनेयर‘ के लिए पहले ही गोल्डन ग्लोब अवार्ड प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें इसी फिल्म के लिए बाफ्टा ने भी सम्मानित किया है, जबकि हुसैन ने अपनेएलबम ‘ग्लोबल ड्रम प्रॉजेक्ट‘ के लिए यह अवार्ड हासिल किया है। गौरतलब है कि उन्हें ‘कन्टेंपरेरी वर्ल्ड म्यूजिक एलबम‘ वर्ग के लिए नामांकित किया गया था।
रहमान को तोऑस्कर के लिए भी नामांकित किया गया है। वे आस्कर के तीन वर्गो में नामांकित किए गए हैं। अब ऐसा महसूस होने लगा है कि पश्चिमी देश के लोग भारतीय संगीतकारों के हुनर को पहचानने लगे हैं।
पटना। सन 1966 में बनी यादगार फिल्मतीसरीकसमकी चर्चा मात्र से साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु कीखूबयादआतीहै।जिलेकेकसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एकबैलगाड़ीभी इसी की एककड़ी है। यह वहीबैलगाड़ीहै जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी हिन्दी सिनेमा के शोमैनराजकपूर ने सवारी की थी।
गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आया–जाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों नेगाड़ी पर सफर किया था।
हाल ही में एक दैनिक अखबार में छपी रपट से यह बात सामने आई। इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणुने भी अपनी कुछ रचनाओं में इस बैलगाड़ी से अपने लगाव का जिक्र कियाहै।
खैर, बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा औरबरेटा गांव के तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह संभाल कर रखा है। गौरतलब है कि तीसरी कसम फिल्म रेणु की कहानी मारे गये गुलफाम पर आधारित है। साथ ही फिल्मके कई दृश्यों की शूटिंग भी इसी इलाके में की गई थी। इसी क्रम में फिल्म के नायकराजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आते–जाते दिखायी पड़ते हैं, वहगाड़ी रेणु की बड़ी बहन की थी।
हालांकि अब उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रहीं। लेकिन बहन की इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनके पुत्र आज भी इस गाड़ी को रखे हुए हैं और उसमें रेणु की छवि देखते हैं। तेजनारायण विश्वास बतलाते हैं कि रेणु जी जबकभी उनके गांव आते थे, गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी जाती थी। फिर इसी गाड़ीसे उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था।
खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्मनिर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे ही फिल्म में इस गाड़ी के उपयोग कीबात राजकपूर के समक्ष रखी थी।
विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। चूनांचे, रेणु की यादोंको संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। क्योंकि, यह जानकारी कम ही लोगों के पास है।