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राजनीति को नई दिशा देते विपक्षी दलों के नये चेहरें

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– ललित गर्ग –

सिंदूर ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान दुनिया से सहानुभूति बटोरने के लिये जहां विश्व समुदाय में अनेक भ्रम, भ्रांतिया एवं भारत की छवि को छिछालेदार करने में जुटा है, वहीं भारत का डर दिखा-दिखा कर ही पाक अनेक देशों से आर्थिक मदद मांग रहा है। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए दुनिया के सामने भारत का पक्ष रखने के लिए केंद्र सरकार ने जिस तरह से सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों का गठन किया है और इन दलों में विपक्षी दलों के सांसद एवं नेताओं ने भारत का पक्ष बिना आग्रह, दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह के दुनिया के सामने रखा, उसकी जितनी सराहना की जाये, कम है। इन विपक्षी नेताओं ने विदेश में भारतीय राष्ट्रवाद को सशक्त एवं प्रभावी तरीकों से व्यक्त किया। देश ने इन नेताओं को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते और एक लय में आगे बढ़ते देखा, जबकि संसद में वे केवल आपस में लड़ते दिखलाई देते थे। यह सराहनीय पहल भारत के लिये एक बड़ी उपलब्धि बनी है, जो भारत की भविष्य की राजनीति के भी नये संकेत दे रही है। क्योंकि इसने भारत में एक नए एवं सकारात्मक राजनीतिक नेतृत्व को उभरता हुआ दिखाया है। यूं तो सात दलों के सभी सदस्यों ने भरपूर तरीके से शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत का पक्ष रखकर दुनिया को भारत के पक्ष में करने की सार्थक पहल की है, लेकिन कांग्रेस के शशि थरूर एवं एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी एक नये किरदार में नजर आये हैं। थरुर को लेकर कांग्रेस पार्टी में प्रारंभ से ही विरोध एवं विरोधाभास की स्थितियां बनी हुई।
विदेशों में सटीक एवं प्रभावी भारतीय पक्ष रखने के कारण शशि थरुर जहां असंख्य भारतीयों की वाह-वाही लूट रहे हैं, वहीं कांग्रेस पार्टी में उनका भारी विरोध हो रहा है। चर्चा एवं विवादों में चल रहे शशि थरूर केरल के तिरुवंतपुरम से चार बार के कांग्रेस के सांसद हैं। वे एक ऐसे कूटनीतिज्ञ राजनेता हैं, जो अपने राजनीतिक कौशल का प्रदर्शन करना जानते हैं। वे एक ऐसे स्वतंत्र सोच एवं साहसी निर्णय लेने वाले नेता भी हैं जो अपनी पार्टी के रुख से अलग भी स्टैंड लेते रहे हैं। लेकिन ताजा सन्दर्भों में वे कांग्रेस के लिए अब असहज सच्चाई बन गए हैं। क्योंकि थरूर ने वह सब कुछ किया है जिसकी पार्टी में इजाजत नहीं है। प्रतिनिधि मण्डल में थरूर के नाम पर कांग्रेस ने आपत्ति जताई थी, क्योंकि कांग्रेस ने केंद्र को थरूर का नाम नहीं दिया था। थरूर ने कहा था- मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं, जब भी राष्ट्रीय हित की बात होगी और मेरी सेवाओं की जरूरत होगी, तो मैं पीछे नहीं रहूंगा।’ थरूर ने कांग्रेस छोड़ने की अटकलों के सवाल पर कहा- जब आप देश की सेवा कर रहे हों, तब ऐसी चीजों की ज्यादा परवाह नहीं करनी चाहिए। हमारे राजनीतिक मतभेद भारत के बॉर्डर के बाहर जाते ही खत्म हो जाते हैं। सीमा पार करते ही हम पहले भारतीय होते हैं। थरूर इन दिनों अमेरिकी सहित कई देशों के दौरे पर हैं, जहां वे ऑपरेशन सिंदूर को लेकर बने मल्टी पार्टी डेलीगेशन को सुपर लीड कर रहे हैं। सरकार के समर्थन में बोलने पर कांग्रेस के अनेक नेता थरुर की खिंचाई करने में जुटे हैं। उन्हीं में एक नेता उदित राज ने थरूर को भाजपा का सुपर प्रवक्ता तक बता दिया है। जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा पर ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत-पाकिस्तान युद्धविराम को लेकर लगातार हमलावर हैं।
4 जून 2025 को राहुल गांधी ने तब हद ही कर दी जब उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दबाव में आत्मसमर्पण कर दिया। इतना ही नहीं ये सब कहने का अंदाज भी उनका इतना खराब था कि जैसे कोई दुश्मन देश का बंदा बोल रहा हो। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि, मैं भाजपा और आरएसएस वालों को अच्छे से जान गया हूं, इनको थोड़ा सा दबाओ तो डर कर भाग जाते हैं। राहुल ने आगे कहा, उधर से ट्रंप ने फोन किया और इशारा किया कि मोदीजी क्या कर रहे हो? नरेंदर, सरेंडर और ‘जी हुजूर’ करके मोदीजी ने ट्रंप के इशारे का पालन किया। राहुल गांधी के इस भ्रामक एवं गुमराह करने वाले बयान का थरुर ने जोरदार तरीके से जबाव दिया एवं कांग्रेस पार्टी को ही घेरा। राष्ट्रपति ट्रम्प की भारत-पाक के बीच मध्यस्थता के बयान पर थरूर बोले- मैं यहां किसी विवाद को हवा देने नहीं आया हूं। अमेरिकी राष्ट्रपति का सम्मान है। हमें नहीं पता उन्होंने पाकिस्तान से क्या कहा, पर हमें किसी की सलाह की जरूरत नहीं थी।
आग्रह-दुराग्रह से ग्रसित होकर कांग्रेस के नेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ही बातें कर रहे हैं, इन कांग्रेसी नेताओं में दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा उनमें बन ही नहीं रही है। जब मानसिकता दुराग्रहित है तो ”दुष्प्रचार“ ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। राष्ट्र-विरोधी राजनीति एवं सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उल्ट धारणा (विपथगामी) की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है। राहुल गांधी एवं कांग्रेस ने राष्ट्रीय संकट में भी यही सब करके आम जनता से अधिक दूरियां बना ली है। शशि थरुर ने तो बड़ी लकीरें खींच दी, कांग्रेस कब ऐसी लकीरें खिंचने की पात्रता विकसित करेंगी? हर राजनीतिक दल को कई बार अग्नि स्नान करता पड़ता है, पर आज कांग्रेस तो ”कीचड़ स्नान“ कर रहा है। जहां तक कांग्रेस नेताओं का सवाल है, एक और निहित संदेश सामने आया कि सिर्फ गांधी परिवार ही कांग्रेस का नेतृत्व नहीं कर सकता जबकि भारत की सबसे पुरानी पार्टी में अभी भी प्रतिभाओं का खजाना है, उसके पास अनुभवी नेता हैं, जो जटिल मुद्दों को समझने और नेतृत्व देने में सक्षम हैं।
बड़ी लकीरें तो प्रतिनिधिमण्डल में गये अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी खींची है। जिनमें एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने विश्व की राजधानियों में भारत की स्थिति और मौजूद विकास को भी रेखांकित किया है। ओवैसी- जो भारत के अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं- उन्होंने पाकिस्तान को कड़ी भाषा में आड़े हाथों लिया। यहां तक कि उन्होंने पाकिस्तान द्वारा जारी की गई फर्जी तस्वीरों का जिक्र करते हुए कहा कि नकल के लिए भी अकल चाहिए! ओवैसी की  राष्ट्रवादी सोच तो समय-समय पर सामने आती रही है। इस तरह मुस्लिम नेतृत्व अगर उदारता दिखाता तो देश के करोड़ों मुसलमानों के प्रति एक विश्वास और भाईचारे की भावना बढ़ती है। ओवैसी ने तो सबकी निगाहें अपनी ओर खींच ली थीं। इसी तरह डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने अपनी तल्ख और चतुराई भरे अंदाज से भारतीयों एवं दुनिया का दिल जीत लिया है। सांसद कनिमोझी ने स्पेन में अपने हिस्से का पक्ष रखते हुए भारत की राष्ट्रीय भाषा एकता और विविधता का जिक्र कर ऐसी बात कही है जिसके बाद वो जमकर वाहवाही लूट रही हैं। कनिमोझी ने इसके साथ ही कहा कि “हमारे अपने मुद्दे हो सकते हैं, अलग-अलग विचारधाराएं हो सकती हैं, संसद में हमारे बीच तीखी बहस हो सकती है, लेकिन जब भारत की बात आती है, तो हम एक साथ खड़े होते हैं, यही संदेश हम लेकर आए हैं।’ उनकी ये बातें इसलिए भी खास हैं क्योंकि जहां एक ओर उनकी पार्टी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में प्रस्तावित त्रि-भाषा नीति को चुनौती देते हुए गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने की बात कर रही है। वहां कनिमोझी एकता और विविधता को राष्ट्रीय भाषा बताते हुए अपना पक्ष रख रही हैं। डीएमके सांसद का ये अंदाज सुर्खियों का विषय बना है और लोग जमकर इसकी तारीफ कर रहे हैं। इसी तरह शिवसेना यूबीटी की प्रियंका चतुर्वेदी ने भारत को न केवल बुद्ध और गांधी, बल्कि श्रीकृष्ण की भूमि भी बताया, जिन्होंने पांडवों से आग्रह किया था कि धर्म की रक्षा के लिए आवश्यक हो तो युद्ध करने से न हिचकिचाएं। अब यह देखना बाकी है कि क्या सरकार ऐसे और कूटनीतिक प्रयासों में विपक्षी नेताओं का इस्तेमाल करना जारी रखेगी। 

असम में सोलर प्रोजेक्ट रुका, हुई आदिवासी संघर्ष की जीत

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आख़िरकार ज़मीन की लड़ाई ने रंग दिखाया। कार्बी आंगलोंग की पहाड़ियों में बसे हजारों आदिवासी परिवारों की जंग ने एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) को झुका दिया है। बैंक ने 500 मेगावाट के जिस सोलर पार्क प्रोजेक्ट के लिए 434 मिलियन डॉलर की फंडिंग मंज़ूर की थी, उसे अब रद्द कर दिया गया है।

यह सिर्फ़ किसी प्रोजेक्ट का कैंसलेशन नहीं है — यह एक पूरी कौम की जीत है, जिन्होंने “विकास” के नाम पर अपनी ज़मीन, जंगल, और अस्मिता की कुर्बानी देने से इनकार कर दिया।

क्या था मामला?

असम सरकार और APDCL (Assam Power Distribution Company Limited) की मदद से कार्बी आंगलोंग जिले में एक विशाल सोलर पार्क बनाया जाना था। 2,400 हेक्टेयर ज़मीन — जिसमें ज़्यादातर खेती, जंगल, और पुश्तैनी ज़मीनें थीं — इस प्रोजेक्ट के लिए ली जानी थी।

लेकिन ये ज़मीनें सिर्फ़ खेत या जंगल नहीं थीं। ये वह धरती थी, जिससे कार्बी, नागा और आदिवासी परिवारों की संस्कृति, आजीविका, और पहचान जुड़ी हुई थी। भारत के संविधान के छठे शेड्यूल के तहत ये ज़मीनें संरक्षित हैं — लेकिन फिर भी प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल गई थी।

“हमसे पूछा ही नहीं गया”

ADB ने दावा किया कि समुदाय की “सहमति” थी, लेकिन सच्चाई कुछ और निकली। सिर्फ़ 23 में से 9 गांवों में ही कंसल्टेशन हुआ। हज़ारों लोगों को इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया। जरूरी दस्तावेज़ न तो स्थानीय भाषाओं में अनुवाद हुए, न ही सबके लिए उपलब्ध कराए गए।

और सबसे बड़ी बात — ज़मीन का मालिकाना हक़ तक नकार दिया गया। ADB की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ़ 8.2% ज़मीन समुदाय की है। लेकिन ज़मीन सिर्फ़ पट्टे का कागज़ नहीं होती — वह रिश्ता होता है, जो पीढ़ियों से चला आ रहा है।

औरतें, जंगल, और हाथी — सब पर खतरा

इस प्रोजेक्ट से सबसे ज़्यादा नुकसान महिलाओं को होता, जो खेती और आजीविका में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। जंगलों में बांस के वो इलाके, जिनसे हाथियों का आवागमन होता है, वो भी खत्म हो जाते। और पास की देवपानी और नामबोर जैसी वाइल्डलाइफ़ सैंक्चुरीज़ को भी नुकसान होता।

यह जीत कैसे मुमकिन हुई?

यह कोई एक दिन का काम नहीं था। Karbi Anglong Solar Power Project Affected People’s Rights Committee ने सालों तक संघर्ष किया — शांतिपूर्ण धरने, मेमोरेंडम, प्रेस कॉन्फ्रेंस, और यहां तक कि ADB की बोर्ड मीटिंग में सीधे जाकर बात रखी।

असम से राज्यसभा सांसद अजीत कुमार भुइयां ने भी संसद में यह मुद्दा उठाया। और फिर जो हुआ, वह इतिहास बन गया।

अब आगे क्या?

संघर्ष समिति की मांग है कि अब राज्य सरकार और APDCL इस ज़मीन पर कब्ज़े की हर कोशिश हमेशा के लिए रोकें — और इन समुदायों के पारंपरिक ज़मीन अधिकारों को औपचारिक रूप से मान्यता दें।

NGO Forum on ADB के डायरेक्टर रैयान हसन कहते हैं, “सस्टेनेबल डेवेलपमेंट का मतलब यह नहीं कि आप आदिवासी ज़मीनें छीन लें। यह कैंसलेशन इस बात का सबूत है कि लोगों की आवाज़ सबसे ऊपर होनी चाहिए।”

लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। Growthwatch की विद्या डिंकर कहती हैं कि ADB ने इस कैंसलेशन के बाद भी स्थानीय लोगों की सुरक्षा के लिए कोई पुख्ता योजना नहीं बनाई। “बैंक सिर्फ़ प्रोजेक्ट से पीछे नहीं हट सकता — उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो लोग खतरे में थे, वो अब सुरक्षित हों।”

निचोड़ यही है:

सोलर एनर्जी ज़रूरी है, लेकिन उसके लिए ज़मीन नहीं लूट सकते। भारत को सोलर चाहिए — लेकिन ऐसा मॉडल जो लोगों को पीछे न छोड़े, बल्कि साथ लेकर चले। छतों पर सोलर, लोकल ग्रिड्स, और गांवों की साझेदारी वाला विकास — यही सच्चा ट्रांजिशन है।

आज कार्बी आंगलोंग के लोग यह बता रहे हैं कि विकास ज़मीन पर नहीं, लोगों के हक़ों पर टिकता है।

सबका स्वागत करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

– लोकेन्द्र सिंह 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबके लिए खुला संगठन है। इसके दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं है। कोई भी संघ में आ सकता है। कोई विपरीत विचार का नेता, सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वान व्यक्ति जब संघ के कार्यक्रम में शामिल होता है, तब उन लोगों को आश्चर्य होता है, जो संघ को एक ‘क्लोज्ड डोर ऑर्गेनाइजेशन’ समझते हैं। जो संघ को समझते हैं, उन्हें यह सब सहज ही लगता है। इसलिए नागपुर में आयोजित संघ शिक्षावर्ग ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-2’ के समापन समारोह में जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के जनजाति वर्ग के कद्दावर नेता अरविंद नेताम को आमंत्रित किया गया, तब संघ को जाननेवालों को यह सहज ही लगा लेकिन संघ के प्रति संकीर्ण सोच रखनेवाले इस पर न केवल हैरानी व्यक्त कर रहे हैं अपितु वितंडावाद भी खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, उनके वितंडावाद की हवा स्वयं जनजातीय नेता अरविंद नेताम ने यह कहकर निकाल दी कि “वनवासी समाज की समस्‍याओं और चुनौतियों को संघ कार्यक्रम के माध्‍यम से रखने का सुअवसर मुझे मिला है”। उन्होंने संघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी की है कि “इस संगठन में चिंतन-मंथन की गहरी परंपरा है। भविष्य में जनजातीय समाज के सामने जो चुनौतियां आनेवाली हैं, उसमें आदिवासी समाज को जो संभालनेवाले और मदद करनेवाले लोग/संगठन हैं, उनमें हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मानते हैं”। सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम श्रीमती इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और जय प्रकाश नारायण से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी एवं प्रणब मुखर्जी तक शामिल हो चुके हैं। संघ ने कभी किसी से परहेज नहीं किया। संघ अपनी स्थापना के समय से ही सभी प्रकार के मत रखनेवाले विद्वानों से मिलता रहा है और उन्हें अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है।

              राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संवाद में गहरा विश्वास है। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “अगर हम विचारों को एक किला बनाकर उसके अंदर अपने आपको बंद कर लेंगे, तो यह व्यावहारिक नहीं होगा”। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रतिष्ठित राजनेता थे। कांग्रेस, समाजवादी एवं कम्युनिस्ट नेताओं के साथ उनका गहरा परिचय था। संघ का दर्शन कराने के लिए डॉक्टर साहब लगातार विभिन्न विचारों के विद्वान व्यक्तियों एवं सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मिलते थे और उन्हें संघ में आमंत्रित करते थे। वे उस समय की चुनौतियों के संबंध में सबसे विचार-विमर्श करके समाधान के मार्ग तक पहुँचने का प्रयास करते थे। संघ के वर्तमान अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ में लिखते हैं कि “किसी विषय पर विभिन्न मत हो सकते हैं, किंतु जब हम समाज के प्रत्येक वर्ग से मिलते हैं, संवाद करते हैं, तो अवश्य ही समाधान निकलता है”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1930 के दशक से ही समाज जीवन में सक्रिय लोगों को अपने कार्यक्रमों में बुलाता रहा है। दरअसल, एक और महत्वपूर्ण बात है यह कि संघ को विश्वास है कि जब तक कोई संघ से दूर है, तब तक ही वह संघ का विरोधी हो सकता है। लेकिन जैसे ही वह संघ के निकट आता है और संघ को जानने-समझने लगता है, तब वह संघ का विरोधी हो ही नहीं सकता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो इस बात को सिद्ध करते हैं। भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन और लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी संघ के आमंत्रण पर आ चुके हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सम्मानित समाजवादी नेता थे। प्रारंभ में संघ को लेकर उनके विचार आलोचनात्मक थे। लेकिन जब उन्होंने संघ को नजदीक से देखा तब उनके विचार पूरी तरह बदल गए। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि “यदि आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी है”। प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और संघ के पदाधिकारियों के साथ मित्रतापूर्ण संवाद रहा है। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है कि “मैं संघ का विधिवत सदस्य नहीं हूँ, फिर भी स्वभाव से, परिकल्पना से मैं स्वयंसेवक हूँ”। परम पावन दलाई लामा संघ के अनेक कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं, उनका भी कहना है कि “मैं संघ का समर्थक हूँ। अनुशासन, देशभक्ति और समाज सेवा के लिए यह संगठन जाना जाता है”। वर्ष 1977 में आंध्रप्रदेश में आए चक्रवात के समय स्वयंसेवकों के सेवा कार्यों को देखकर वहां के सर्वोदयी नेता श्री प्रभाकर राव ने तो संघ को नया नाम ही दे दिया था। उनके अनुसार- “आरएसएस अर्थात् रेडी फॉर सेल्फलेस सर्विस”।

संघ के कार्यक्रम में जब भी कोई अन्य विचार का व्यक्ति आया है, तब संघ के कार्यकर्ताओं की ओर से कभी उनका विरोध नहीं हुआ। बल्कि स्वयं को अधिक प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक बतानेवाले लोगों ने ही आमंत्रित महानुभावों को रोकने के लिए भरसक प्रयास किए हैं। जब उनके सब प्रयत्न विफल हो जाते हैं, तब ये लोग आमंत्रित महानुभावों की छवि पर हमला करने लगते हैं। उन्हें ‘छिपा हुआ संघी’ घोषित कर देते हैं। याद हो, वर्ष 2018 में नागपुर के रेशिमबाग में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय वर्ष के समापन समारोह में जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के शामिल होने का समाचार सामने आया, तब कितना हो-हल्ला मचाया गया। प्रणब दा को रोकने के लिए पत्र लिखे गए, आह्वान किए गए। आखिर में प्रणब दा समारोह में पहुँचे और अपना उद्बोधन दिया। इस अवसर पर प्रणब दा न केवल आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के घर (संग्रहालय) गए, बल्कि वहाँ उन्होंने विजिटर बुक में लिखा- “मैं आज भारत माँ के महान सपूत डॉ. केबी हेडगेवार के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूँ”।

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता और दलित नेता दादासाहेब रामकृष्ण सूर्यभान गवई तथा कम्युनिस्ट विचारों वाले जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर भी संघ के कार्यक्रमों में आ चुके हैं। मीनाक्षीपुरम में कुछ हिंदुओं द्वारा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार किए जाने की घटना के बाद श्री गवई ने स्वयं संघ के कार्यक्रम में आने की इच्छा व्यक्त की थी और अपने विचार रखे थे। केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार में मंत्री रहे जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने स्थानीय विरोधों के बावजूद तत्कालीन सरसंघचालक से संपर्क किया और बाद में पत्रकारों के सामने अपने विचार रखे थे।

अभी हाल के वर्षों में देखें तो, नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, डीआरडीओ के पूर्व डायरेक्टर जनरल विजय सारस्वत, एचसीएल के प्रमुख शिव नाडर, नेपाल के पूर्व सैन्य प्रमुख रुकमंगुड कटवाल जैसे व्यक्तित्व संघ के विजयादशमी उत्सव में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हो चुके हैं। पिछले एक दशक में नागपुर में आयोजित होनेवाले संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में आए प्रमुख महानुभावों में दैनिक पंजाब केसरी के संचालक एवं संपादक अश्वनी कुमार, आदिचुनचुनगिरी मठ (कर्नाटक) के प्रधान पुजारी श्री निर्मलानंदनाथ महास्वामी, आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक श्री श्री रवि शंकर, धर्मस्थल कर्नाटक के धर्माधिकारी पद्मविभूषण डॉ. विरेन्द्र हेगडे, साप्ताहिक ‘वर्तमान’ (कोलकाता) के संपादक रंतिदेव सेनगुप्त, श्रीरामचंद्र मिशन (हैदराबाद) के अध्यक्ष दाजी उपाख्य कमलेश पटेल, श्री काशी महापीठ (वाराणसी) के 1008 जगद्गुरु डॉ. मल्लिकार्जुन विश्वाराध्य शिवाचार्य महास्वामी, श्री सिद्धगिरी संस्थान मठ (कोल्हापुर) के अदृश्य काडसिद्धेश्वर स्वामी और श्री क्षेत्र गोदावरी धाम बेट सराला के पीठीधीश श्री रामगिरी जी महाराज प्रमुख हैं। इसके अलावा देशभर में आयोजित संघ शिक्षा वर्गों के कार्यक्रम सहित अन्य कार्यक्रमों समाज जीवन के प्रतिष्ठित लोगों को संघ आमंत्रित करता है।

जनरल करिअप्पा ने की संघ कार्य की प्रशंसा :

वर्ष 1959 में पूर्व जनरल फील्ड मार्शल करियप्पा मंगलोर में संघ की एक शाखा के कार्यक्रम में गए थे। वहाँ उन्होंने कहा था कि संघ कार्य मुझे अपने हृदय से प्रिय कार्यों में से है। अगर कोई मुस्लिम इस्लाम की प्रशंसा कर सकता है, तो संघ के हिंदुत्व का अभिमान रखने में गलत क्या है? प्रिय युवा मित्रों, आप किसी भी गलत प्रचार से हतोत्साहित न होते हुए कार्य करो। डॉ. हेडगेवार ने आपके सामने एक स्वार्थरहित कार्य का पवित्र आदर्श रखा है। उसी पर आगे बढ़ो। भारत को आज आप जैसे सेवाभावी कार्यकर्ताओं की ही आवश्यकता है।

संघ के वर्ग एवं शाखा में महात्मा गांधी :

वर्ष 1934 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शीत शिविर वर्धा में महात्मा गांधी के आश्रम के पास ही लगा था। गांधीजी ने शिविर को देखने इच्छा प्रकट की। वर्धा के संघचालक अप्पाजी जोशी ने शिविर में उनका स्वागत किया। महात्मा गांधी ने बड़ी बारीकी से शिविर का निरीक्षण किया। उन्होंने अप्पाजी से पूछा कि इस शिविर में कितने हरिजन हैं? अप्पाजी ने जवाब दिया- “यह बताना कठिन है, क्योंकि हम सभी को हिंदू के रूप में ही देखते हैं। इतना हमारे लिए पर्याप्त है”। बाद में उनकी भेंट संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ हुई। संघशिक्षा वर्ग में जाने की यह बात स्वयं महात्मा गांधी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कही। 16 सितंबर, 1947 की सुबह दिल्ली में संघ की शाखा पर जाकर महात्मा गांधी ने स्वयंसेवकों से संवाद किया। उन्होंने कहा- “बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्व. श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गये थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ था। संघ एक सुसंगठित, अनुशासित संस्था है”।

संघ शिक्षा वर्ग में डॉभीमराव आंबेडकर :

समाज को समरसता के सूत्र में पिरोकर उसे संगठित और सशक्त बनाने वाले महानायकों में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर भी संघ के प्रणेता डॉ. हेडगेवार के संपर्क में थे। बाबा साहेब 1937 और 1939 में संघ शिक्षा वर्ग में गए थे। 1937 में करहाड शाखा (महाराष्ट्र) के विजयादशमी उत्सव पर बाबा साहब का भाषण हुआ। इस दौरान वहां 100 से अधिक वंचित और पिछड़े वर्ग के स्वयंसेवक थे। जिन्हें देखकर डॉ. आंबेडकर को आश्चर्य तो हुआ ही बल्कि भविष्य के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ी। सन् 1939 में एक बार फिर बाबा साहब पुणे के संघ शिक्षा वर्ग के सायंकाल के कार्यक्रम में आए थे। यहाँ उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से हुई। इसी प्रकार, संघ से प्रतिबंध हटाने में डॉ. अंबेडकर का जो सहयोग प्राप्त हुआ, उसके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव गोलवलकर ने सितंबर 1948 में दिल्ली में उनसे भेंट की।

संघ के कार्यक्रम में श्रीमती इंदिरा गांधी :

वर्ष 1963 में स्वामी विवेकानंद जन्मशती के अवसर पर कन्याकुमारी में ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ निर्माण के समय भी संघ ने सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख राजनेताओं एवं सामाजिक संगठनों के प्रमुख व्यक्तियों को आमंत्रित किया। स्मारक निर्माण के समर्थन में विभिन्न राजनीतिक दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर एकनाथ रानाडे जी ने प्राप्त किये थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एकनाथ रानाडे जी के आमंत्रण पर ‘विवेकानंद शिला स्मारक (विवेकानंद रॉक मेमोरियल)’ के उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल हुईं।

कुदरत के सबक को कब पढ़ेगा इंसान?

पाँच साल पहले कोविड-19 लॉकडाउन ने जहां दुनिया की अर्थव्यवस्था को झकझोरा, वहीं पर्यावरण को राहत दी। वायु प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैसों और औद्योगिक उत्सर्जन में गिरावट ने साबित किया कि प्रकृति को सुधारना संभव है। नदियाँ स्वच्छ हुईं, आसमान नीला दिखा, और हवा शुद्ध हुई। यह लेख महामारी के माध्यम से प्रकृति की चेतावनी और भविष्य के लिए सतत विकास के रास्ते की ओर इशारा करता है। अब भी यही वक्त है चेतने का।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

वैश्विक आर्थिक गतिविधियों में ठहराव का यह दौर बेशक चिंताजनक है, लेकिन पर्यावरण पर इसका अप्रत्याशित सकारात्मक असर दुनिया के लिए चेतावनी और सीख दोनों है। अनजाने में ही सही, जब मनुष्य ने अपनी गतिविधियाँ रोक दीं, तो कुदरत जैसे खुलकर सांस लेने लगी। पिछले कुछ महीनों से नदियों के बहाव में पारदर्शिता लौट आई, वायु प्रदूषण में अभूतपूर्व कमी देखी गई और आकाश फिर से नीला हो गया। यह सब देख कर मानो कुदरत पुकार कर कह रही हो— “हे मानव! अब तो संभल जा, पढ़ मेरी पीर!”

लॉकडाउन में सांस लेती धरती

पांच साल पहले कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन ने इंसानी गतिविधियों को थाम दिया। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों का धुआं और अनावश्यक यात्रा सब पर रोक लगी। इसके परिणामस्वरूप, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसों का स्तर घटा, जिससे दुनिया भर के बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता में बेहतरी देखी गई। शोध बताते हैं कि साल 2020 में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5% की रिकॉर्ड कमी दर्ज हुई। यह बताता है कि वायु प्रदूषण की जड़ें हमारी जीवनशैली में छिपी हैं।

गंगा और यमुना जैसी नदियों में पानी पहले से कहीं अधिक साफ दिखा। उत्तर भारत की मैदानी जमीनों से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों का दीदार संभव हुआ। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मनुष्य ने एक बार के लिए ‘ठहरना’ सीखा। यह एक ऐसा ठहराव था जिसमें धरती को आराम मिला और पर्यावरण को राहत।

क्या यह स्थायी हो सकता है?

पाँच साल पहले लॉकडाउन एक आपातकालीन परिस्थिति थी, न कि समाधान। लेकिन इसने हमें यह अहसास जरूर दिलाया कि प्रदूषण और पारिस्थितिकीय क्षरण मानव निर्मित हैं और इन्हें कम किया जा सकता है— अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति और नागरिक संकल्प हो। लेकिन अफसोस, जैसे-जैसे लॉकडाउन हटा, वैसे-वैसे सब कुछ पहले जैसा होने लगा। प्रदूषण लौट आया, नदियाँ फिर से काली होने लगीं, कारखानों का धुआं फिर से आसमान ढंकने लगा।

हॉकिंग की चेतावनी और आज की सच्चाई

महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने चेतावनी दी थी कि यदि मनुष्य ने अपनी जीवनशैली और पर्यावरण के प्रति व्यवहार नहीं बदला तो उसे पृथ्वी को छोड़कर किसी अन्य ग्रह की शरण लेनी पड़ेगी। उनके अनुसार पृथ्वी की शेष उम्र महज 200 से 500 वर्षों की है। वे भविष्यवाणी करते थे कि या तो किसी धूमकेतु का टकराव, या सूर्य की विकिरण, या कोई महामारी पृथ्वी से जीवन मिटा देगी। कोविड-19 जैसी महामारी उनके कथन को और भी भयावह यथार्थ में बदल देती है।

अब भी समय है—परिवर्तन की राह

हमें यह स्वीकारना होगा कि अब विकास की परिभाषा बदलने की जरूरत है। ‘अर्थव्यवस्था की वृद्धि’ तब तक अधूरी है जब तक वह पारिस्थितिकीय स्थिरता को न छूती हो। हमें ‘स्मार्ट ग्रोथ’ से आगे बढ़कर ‘ग्रीन ग्रोथ’ की दिशा में सोचना होगा।

कम कार्बन उत्सर्जन वाली जीवनशैली अपनाना अब विकल्प नहीं, आवश्यकता बन चुकी है। यानी ऐसी जीवनशैली जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हो—उदाहरणस्वरूप साइकिल चलाना, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता, ऊर्जा की बचत और उपभोग में संयम।

परिवहन और उद्योग में बदलाव जरूरी

भारत और विश्व के लिए अब समय है कि वह अपने उद्योग और परिवहन व्यवस्था को पर्यावरण-अनुकूल बनाए। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करते हुए सौर, पवन और अन्य हरित ऊर्जा स्रोतों की ओर अग्रसर होना होगा। वाहनों में इलेक्ट्रिक टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ाना, रेलवे और सार्वजनिक परिवहन को सुलभ और स्वच्छ बनाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

यह बदलाव न केवल प्रदूषण कम करेगा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव भी घटाएगा। वायु प्रदूषण से हर साल दुनिया भर में लगभग 70 लाख मौतें होती हैं। यह आंकड़ा जलवायु संकट की गंभीरता को दर्शाता है।

तत्काल और दीर्घकालिक कदमों की ज़रूरत

हमें ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, ट्रोपोस्फेरिक ओजोन जैसे अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों को कम करने के लिए तत्काल नीतिगत फैसले लेने होंगे। इन गैसों का प्रभाव जलवायु पर तुरंत पड़ता है और इन्हें नियंत्रित करना तुलनात्मक रूप से आसान है।

भारत को एक राष्ट्रीय जनजागरूकता अभियान चलाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जल और ऊर्जा संरक्षण जैसे मुद्दों को स्कूल-कॉलेजों से लेकर पंचायत स्तर तक ले जाए। क्योंकि यदि हमने पर्यावरण को नहीं समझा, तो कोविड-19 जैसे संकट आम बात हो जाएंगे।

पांच साल पूर्व कोविड-19: एक इशारा, एक अवसर था

कोरोना संकट ने हमें बहुत कुछ सिखाया—कैसे कम संसाधनों में भी जीवन जीया जा सकता है, कैसे घर में रहकर काम किया जा सकता है, कैसे जरूरतों को सीमित किया जा सकता है। यह एक ‘प्राकृतिक अनुशासन’ था जिसने हमें हमारे अति-उपभोक्तावाद पर सोचने को मजबूर किया।

अब हमें चाहिए कि इस संकट से निकली सीख को भविष्य की नीतियों और जीवनशैली में जगह दें। यह एक मौका है—एक ‘रीसेट बटन’। प्रकृति ने हमें चेताया है, अब हमें प्रतिक्रिया देनी होगी।

धरती की पुकार और हमारी ज़िम्मेदारी

हमारी धरती सिर्फ एक ग्रह नहीं, हमारा घर है। हमने उसे मां कहा है, लेकिन व्यवहार उपभोक्ता जैसा किया है। अब समय है कि हम केवल ‘धरती माता की जय’ बोलने की जगह धरती माता की रक्षा में खड़े हों। हमें जंगलों, नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों और पूरे जैव विविधता तंत्र को बचाना होगा।

“धरती खाली-सी लगे, नभ ने खोया धीर!

अब तो मानव जाग तू, पढ़ कुदरत की पीर!”

आगे की राह: प्रकृति के साथ साझेदारी

जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का मसला नहीं है, यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। यदि हमने पर्यावरण को अनदेखा किया, तो कृषि, स्वास्थ्य, रोजगार, और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्र भी संकट में आ जाएंगे।

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम विज्ञान, तकनीक और परंपरागत ज्ञान के समन्वय से ऐसी नीतियां बनाएं जो टिकाऊ विकास को संभव बनाएं। स्कूलों में जलवायु शिक्षा हो, गाँवों में हरित रोजगार के अवसर हों, शहरों में स्वच्छ परिवहन और स्वच्छ ऊर्जा की व्यवस्था हो।

अंत में – मानव बनाम प्रकृति नहीं, मानव + प्रकृति

यह संघर्ष “मनुष्य बनाम प्रकृति” का नहीं होना चाहिए। यह साझेदारी “मनुष्य + प्रकृति” की होनी चाहिए। प्रकृति को जीतना नहीं, समझना और संजोना है। कोविड-19 ने इस सच को हमारे सामने रख दिया है। अब यह हम पर है कि हम इस सच्चाई को स्वीकार करें या फिर विनाश की ओर आंख मूंद कर बढ़ते रहें।

बेंगलुरु में व्यवस्थाओं के अमानवीय चेहरे का बेनकाब होना

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– ललित गर्ग –

बढ़ते तापमान रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु ( आरसीबी ) की शानदार जीत के बाद आयोज्य जश्न के मातम, हाहाकार एवं दर्दनाक मंजर ने राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की पोल ही नहीं खोली बल्कि सत्ता एवं खेल व्यवस्थाओं के अमानवीय चेहरे को भी बेनकाब किया है। आरसीबी विक्ट्री परेड के दौरान चिन्नास्वामी स्टेडियम के पास अचानक मची भगदड़ में 11 लोगों की मौत हो गई जबकि 50 गंभीर रूप से घायल हुए हैं। भगदड़ में लोगों की जो दुखद मृत्यु हुई, यह राज्य प्रायोजित एवं प्रोत्साहित हत्या है। पुलिस का बंदोबस्त कहां था? चीख, पुकार और दर्द और क्रिकेट सितारों को देखने की दीवानगी एक ऐसा दर्दनाक एवं खौफनाक वाकया है जो सुदीर्घ काल तक पीड़ित और परेशान करेगा। प्रशासन की लापरवाही, अत्यधिक भीड़, निकासी मार्गों की कमी और अव्यवस्थित प्रबंधन ने इस त्रासदी को जन्म दिया। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में सामने आई ऐसी घटनाओं की कड़ी का नया खौफनाक मामला है, जहाँ भीड़ नियंत्रण में चूक एवं प्रशासन एवं सत्ता का जनता के प्रति उदासीनता का गंभीर परिणाम एवं त्रासदी का ज्वलंत उदाहरण है।
क्रिकेट की दुनिया के सबसे बड़े वार्षिक उत्सव इंडियन प्रीमियर लीग के फाइनल मुकाबले में रॉयल चैलेंजर्स बंेगलुरु ने 18वें संस्करण में आईपीएल खिताब जीत लिया। इस कामयाबी से आईपीएल से विदाई ले रहे विराट कोहली के प्रति जन-उत्साह उमड़ा। लेकिन इस जीत के जश्न की चमक में प्रशंसकोें की चीखें एवं आहें का होना और उसे खिलाडियों एवं राजनेताओं द्वारा नजरअंदाज करना, अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा है। दुर्घटना होने एवं आम लोगों की मौतें हो जाने के बावजूद जश्न जारी रहना, दुखद एवं शर्मनाक है। प्रशंसकों की अहमियत को कमतर आंकने के इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ने न केवल राजनेताओं को बल्कि खिलाड़ियों को भी दागी किया है। घटना ने एक बार फिर हमारे अवैज्ञानिक व लाठी भांजने वाले भीड़ प्रबंधन की ही पोल खोली है। इस जीत के जश्न में हिस्सा लेने आई भीड़ का एक लाख तक होने का अनुमान था। लेकिन लंबे अंतराल के बाद मिली जीत ने लोगों के उत्साह को इस स्तर तक पहुंचा दिया कि स्टेडियम के आसपास तीन लाख से अधिक लोगों की भीड़ जमा हो गई। खुद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का मौत की खबरें मिलने के बावजूद खिलाडियों के साथ जश्न मनाने में जुटा रहना उनकी प्रचार भूख का भौंडा उदाहरण है। जब मौत के बाद वहां पसरा मातम देखकर सब स्तब्ध थे तो सिद्धारमैया क्यों अपने पद की गरिमा एवं जिम्मेदारी को धूमिल कर रहे थे? सोचिए लोगों की मौत के बाद अगर एक मिनट भी जश्न मना, तालियां बजीं, ठहाके लगे, फ्लाइंग किस दिए गए तो इससे ज्यादा अमानवीयता और निर्दयता क्या हो सकती है? जब खुद सरकार एक जश्न का मातम में बदलने का नेतृत्व करेगी तो आम लोगों का कांप उठना स्वाभाविक है।
बहरहाल, आईपीएल का आयोजन लगातार नई ऊंचाइयों को छूता हुआ व्यावसायिक क्रिकेट को नई ऊंचाइयां देने में जरूर सफल रहा है। फटाफट क्रिकेट के दुनिया के सबसे बड़े उत्सव में भारत के दो सर्वकालिक महान खिलाड़ियों विराट कोहली व एमएस धोनी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। अंततः विराट कोहली का आईपीएल खिताब जीतने का लंबा इंतजार इस जीत के साथ खत्म हुआ। लेकिन धोनी पांच बार की विजेता चेन्नई सुपरकिंग को जीत का खिताब दिलाने से चूक गए। एक तरह से आईपीएल क्रिकेट से कोहली की यह शानदार विदाई साबित हुई। वे इस गरिमामय विदाई के हकदार भी थे। उनके करोड़ों प्रशंसकों की कतारे देख कर राजनेता भी उनकी साथ मंच सांझा करने को उत्सुक दिखे, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, अन्य मंत्री एवं प्रशासनिक अधिकारी भी इसी फिराक में अपनी जिम्मेदारियों को भूल जश्न मनाते रहे और आमजनता अव्यवस्थाओं के कारण मौत में समाती रही। यह ऐसी दुखद घटना है जो अपनी निर्दयता एवं क्रूरता के लिये लम्बे समय तक कौंधती रहेगी। सिद्धारमैया के इस घटना की तुलना प्रयागराज कुंभ में हुए हादसे के करना उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शा रही है।
भारत में भीड़ से जुड़े हादसे अनेक आम लोगों के जीवन का ग्रास बनते रहे हैं। धार्मिक आयोजनों हो या खेल प्रतियोगिता, राजनीतिक रैली हो या सांस्कृतिक उत्सव लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं, जहाँ भीड़ प्रबंधन की मामूली चूक भयावह त्रासदी में बदलते हुए देखी जाती रही है। उदाहरण के लिये, वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के इटावन हैलोवीन समारोह में अत्यधिक भीड़ के कारण 150 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इसी तरह, वर्ष 2015 में मक्का में हज के दौरान मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के रत्नागढ़ मंदिर में ढाँचागत कमियों से प्रेरित भगदड़ के कारण 115 लोगों की मौत हो गई थी। हालही में महाकुंभ के दौरान नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन एवं प्रयागराज में हुए हादसे में भी अनेकों लोगों की जान गयी। आग, भूकंप, या आतंकी हमलों जैसी आपातकालीन स्थितियाँ में भी भीड़ प्रबंधन की पौल खुलती रही है। आखिर दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में हम भीड़ प्रबंधन को लेकर इतने उदासीन क्यों है? बड़े आयोजनों-भीड़ के आयोजनों में भीड़ बाधाओं को दूर करने के लिए, भीड़ प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार, सुरक्षाकर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना, जन जागरूकता बढ़ाना और आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना अब नितान्त आवश्यक है।
रेलवे स्टेशन, मंदिर और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ को संभालने के लिए पर्याप्त जगह और रास्ते नहीं हैं। कुछ स्थानों पर निकास मार्ग सीमित हैं या अनुपयुक्त हैं, जो भगदड़ का खतरा बढ़ाते हैं। भीड़ प्रबंधन के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित एवं दक्ष सुरक्षाकर्मी नहीं हैं, जिससे सुरक्षा चूक होने की संभावना बढ़ जाती है। भीड़ प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकों, जैसे कि एआई आधारित निगरानी और ड्रोन कैमरे का उपयोग सीमित है। लोगों को आपातकालीन निकास मार्गों, भीड़ नियंत्रण नियमों, और सुरक्षा उपायों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। गलत सूचना या अचानक दहशत से भीड़ अनियंत्रित हो सकती है और भगदड़ मच सकती है। भीड़ का व्यवहार कई बार अनियंत्रित हो जाता है, खासकर धार्मिक, खेल एवं सिनेमा आयोजनों में, जहां लोग भावनाओं में बहकर आगे निकलने की होड़ में लग जाते हैं। कई बार आयोजनकर्ताओं और पुलिस के बीच समन्वय की कमी होती है, जिससे सुरक्षा चूक हो सकती है। भीड़ प्रबंधन केवल विधि-व्यवस्था बनाए रखने का विषय नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन की सुरक्षा, सार्वजनिक स्थानों की संरचना और आपातकालीन स्थितियों से निपटने की रणनीतियों से गहनता से संबद्ध है। दुर्भाग्यवश, कई बार आयोजकों और प्रशासनिक एजेंसियों द्वारा पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं किये जाते, जिससे जानमाल की हानि होती है। इस परिदृश्य में, बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन की मौजूदा स्थिति, उससे जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ, हालिया घटनाओं से मिले सबक और प्रभावी समाधानों की चर्चा करना बेहद प्रासंगिक होगा, ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचा जा सके।
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में धार्मिक उत्सव, खेल आयोजनों और राजनीतिक रैलियों में लाखों लोग जुटते हैं। ऐसे आयोजनों के लिये पुलिस, होम गार्ड, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल और अन्य सुरक्षा एजेंसियों को तैनात किया जाता है। विश्व के विभिन्न विकसित देशों में भीड़ प्रबंधन के लिये अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। जापान जैसे देशों में रेलवे स्टेशनों और सार्वजनिक स्थानों पर अत्यधिक भीड़ के प्रबंधन के लिये ऑटोमेटेड एंट्री और एग्जिट सिस्टम स्थापित किये गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय देशों में स्टेडियमों, एयरपोर्ट्स एवं धार्मिक स्थलों पर भीड़ नियंत्रण के लिये एआई आधारित कैमरे, आपातकालीन अलर्ट सिस्टम और प्रशिक्षित सुरक्षाकर्मी मौजूद रहते हैं। हालाँकि भारत में बड़े आयोजनों के लिये प्रशासनिक तैयारियाँ की जाती हैं, फिर भी समय-समय पर कई कमियाँ उजागर होती रही हैं। लेकिन आरसीबी के चिन्नास्वामी स्टेडियम के जश्न के दौरान खामियां ही खामियां देखने को मिली। ऐसे बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन कोई आसान कार्य नहीं है। लाखों लोगों को नियंत्रित करने के लिये ठोस रणनीति, प्रशासनिक कौशल और अत्याधुनिक तकनीक की आवश्यकता होती है, जिसका इस आयोजन में सर्वथा अभाव रहा। आखिर इतने लोगों की मौत की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और दोषी लोगों को कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिए।

भगदड़ में सतर्कता और समझदारी ही सबसे बड़ी सुरक्षा

हाल ही में बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर भगदड़ मचने से 11 लोगों की मौत हो गई और 33 लोग घायल हो गए, यह बहुत ही दुखद और हृदयविदारक घटना है। वास्तव में भगदड़ की घटनाएं तब घटित होतीं हैं जब भीड़ अपना नियंत्रण खो देती है। बहुत बार अफवाहों के फैलने , खौफ,डर या घबराहट और सीमित जगह के कारण भी भगदड़ की घटनाएं घटित हो जातीं हैं। खराब भीड़ प्रबंधन, जैसे कि पर्याप्त सुरक्षाकर्मी या निकास के लिए स्पष्ट मार्ग न होना, भी भगदड़ का कारण बन सकता है‌। बेंगलुरु में जो घटना घटित हुई है, उसमें एक लाख से भी ज़्यादा फ़ैंस रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु की जीत (18 साल बाद आईपीएल ट्रॉफी की जीत का जश्न मनाने के लिए) का जश्न मनाने के लिए स्टेडियम के बाहर जमा हुए थे। वास्तव में, जब यह हादसा हुआ, उस समय स्टेडियम का गेट नहीं खुला था और बड़ी संख्या में लोग एक छोटे से गेट को धक्का देकर तोड़ने की कोशिश कर रहे थे कि इसी दौरान अचानक भगदड़ मच गई। बताता जा रहा है कि वहां करीब एक लाख लोगों के आने की उम्मीद थी, लेकिन संख्या दो लाख से भी अधिक के आसपास पहुंच गई और स्टेडियम के इर्द-गिर्द भी काफ़ी लोग जीत का जश्न मनाने के लिए जमा हो गए थे। यह ठीक है कि किसी टीम की जीत पर दर्शकों का उत्साह स्वाभाविक ही होता है लेकिन इतने बड़े आयोजन की तैयारियां बहुत ही माकूल होनी चाहिए, क्यों कि आइपीएल का हमारे देश में एक बड़ा क्रेज है और ऐसे आयोजनों पर काफी भीड़ उमड़ती है। हजारों सुरक्षा कर्मी भी भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पाए, और ऐसा तब घटित होता है जब मैनेजमेंट सही नहीं होता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह पूरी घटना कहीं न कहीं प्रशासन की लापरवाही और भीड़ प्रबंधन में विफलता को ही दर्शाती है। यदि समय रहते भीड़ को नियंत्रित करने के वैकल्पिक उपाय, जैसे कि पर्याप्त वैरिकेडिंग, अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती, आपातकालीन निकासी की व्यवस्था इत्यादि पहले से की गई होती तो ऐसी हृदयविदारक घटना को टाला जा सकता था। घटना के संदर्भ में मीडिया के हवाले से यह भी सामने आया है कि आरसीबी ने अपने प्रशंसकों को मुफ्त पास बांटे, जिसकी वजह से अचानक भीड़ इतनी बढ़ गई। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ की इस त्रासदी के दर्द ने जीत की ख़ुशी को ख़त्म कर दिया है। सच तो यह है कि लोग आरसीबी की आईपीएल में जीत के जश्न का गवाह बनने आए थे, लेकिन इस त्रासदी ने अनेक परिवारों को वह दर्द दिया है,जो वो शायद ही कभी भुला पायेंगे। हमारे देश में अब तक भगदड़ की अनेक घटनाएं सामने आ चुकीं हैं, लेकिन दुःख इस बात का है कि हम ऐसी त्रासदियों से सबक नहीं लेते हैं और थोड़ी सी लापरवाही के कारण बहुत बार बड़ी घटनाएं घटित हो जातीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ एक गंभीर खतरा है, जिससे बचने के लिए हमें सतर्क रहने और उचित उपाय करने चाहिए। पाठकों को ज्ञात होगा कि कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ मेला के दौरान मौनी अमावस्या के दिन मची भगदड़ में 30-40 लोगों की मौत हो गई थी।वास्तव में,भगदड़ भीड़ प्रबंधन की असफलता या अभाव की स्थिति में पैदा हुई मानव निर्मित आपदा है। अक्सर भगदड़ मचने के पीछे जो कारण निहित होते हैं उनमें क्रमशः मनोरंजन कार्यक्रम,एस्केलेटर और मूविंग वॉकवे, खाद्य वितरण, जुलूस, प्राकृतिक आपदाएँ, धार्मिक आयोजन, धार्मिक/अन्य आयोजनों के दौरान आग लगने की घटनाएँ, दंगे, खेल आयोजन, मौसम संबंधी घटनाएँ आदि शामिल होते हैं। बैरिकेड्स, अवरोध, अस्थायी पुल, अस्थायी संरचनाएँ और पुल की रेलिंग का गिरना, दुर्गम क्षेत्र (पहाड़ियों की चोटी पर स्थित धार्मिक स्थल जहाँ पहुँचना मुश्किल है), फिसलन युक्त या कीचड़ युक्त मार्ग, संकरी गलियाँ एवं संकरी सीढ़ियाँ, खराब सुरक्षा रेलिंग, कम रोशनी वाली सीढ़ियाँ, बिना खिड़की वाली संरचना, संकीर्ण एवं बहुत कम प्रवेश या निकास स्थान, आपातकालीन निकास का अभाव भी बहुत बार भगदड़ के कारण बन सकते हैं। अप्रभावी भीड़ प्रबंधन तो भगदड़ मचने का कारण है ही। बहुत बार यह देखा जाता है कि किसी एक प्रमुख निकास मार्ग पर ही लोगों की निर्भरता होती है ,जो भगदड़ का कारण बन जाती है। आज अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि किसी कार्यक्रम विशेष के लिए क्षमता से अधिक लोगों को अनुमति दे दी जाती है। बहुत से स्थानों पर उचित सार्वजनिक संबोधन प्रणाली का भी अभाव होता है, जिससे सूचना देने में दिक्कत आती है। भीड़ अनेक बार गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार अपनाती है और सुरक्षा नियमों का ठीक से पालन नहीं करती है। बेंगलुरु में आरसीबी के जश्न के दौरान जो भगदड़ मची,उसका कारण स्टेडियम के पास बने एक नाले के अस्थायी स्लैब का टूटना बताया जा रहा है, जिस पर खड़े होकर लोग टीम को देखने की कोशिश कर रहे थे। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि जब स्लैब अचानक टूटकर गिरा, तो वहां मौजूद लोगों में अफरा-तफरी मच गई और भगदड़ जैसी स्थिति बन गई। मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी आया है कि बेंगलुरु के मेट्रो स्टेशन पर भी आरसीबी की विक्ट्री परेड देखने जाने वालों की भारी भीड़ जमा थी और वहां सुरक्षा के इंतजाम पर्याप्त नहीं थे। ये तो गनीमत रही की, मेट्रो स्टेशन पर कोई हादसा नहीं हुआ।हालांकि, यह भी सामने आया है कि बेंगलुरु ट्रैफिक पुलिस ने पहले से ही आरसीबी की विजय परेड को देखते हुए ट्रैफिक एडवाइजरी जारी की थी, लेकिन मौके पर सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं थे। भीड़ का आंकलन गलत साबित हुआ और क्राउड कंट्रोल पूरी तरह फेल हो गया। अंत में यही कहूंगा कि यदि बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में व उसके बाहर अच्छी चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था और ट्रैफिक मैनेजमेंट होती तो ऐसी घटना को घटित होने से रोका जा सकता था। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए हर सुरक्षा प्रोटोकॉल की समीक्षा हो और उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। हाल फिलहाल जरूरत इस बात की है कि सभी को मिलकर डैमेज कंट्रोल पर काम करना चाहिए तथा साथ ही साथ हादसे की न्यायिक जांच करवाई जानी चाहिए, ताकि घटना के वास्तविक कारणों का पता लगाया जा सके तथा भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए एहतियात बरती जा सके। यह समय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का समय नहीं है, और इस पर तुच्छ राजनीति करने से राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को बाज आना चाहिए। वास्तव में भीड़ प्रबंधन एक विज्ञान है और भीड़ को प्रबंधित करने के लिए आज अनेक तकनीकी उपकरण हैं, जिन्हें काम में लाया जा सकता था। वास्तव में सार्वजनिक आयोजनों के दौरान भीड़ को प्रबंधित करने के लिए पूर्व में ही गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए तथा साथ ही साथ भीड़ को प्रबंधित करने के लिए हमारे पास अच्छी योजनाएं भी होनी चाहिए। अंत में यही कहूंगा कि भगदड़ को रोकने के लिए भीड़ प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए और लोगों को भगदड़ के दौरान कैसे सुरक्षित रहना है, इसकी जानकारी देनी चाहिए। कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ में सतर्कता और समझदारी ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। इतना ही नहीं,भविष्य में इस तरह के बड़े व सार्वजनिक आयोजनों के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तय की जानी चाहिए, और उसका अनुपालन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। वास्तव में, सावधानी, संयम और जागरूकता ही हमें सुरक्षित रख सकती है।

सुनील कुमार महला

सर्वोच्च मानव धर्म है पर्यावरण संरक्षण

डॉ घनश्याम बादल

   जन्म के साथ ही प्रकृति मनुष्य को अपनी संरक्षण भरी अपनी गोद दे देती है. कुदरत ने उसे स्वच्छ जल, हवा, हरी – भरी पृथ्वी, निर्मल आकाश एवं अग्नि दिए हैं ‌। इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है।

   ‌धरती पर मानव जीवन का अस्तित्व एवं उसके वर्चस्व में इन पांचों तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मगर मानव ने ही पर्यावरण को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि आज पर्यावरण संरक्षण एक अहम मुद्दा बन गया है।

   प्रकृति द्वारा प्रदत उपहारों को संरक्षित करना मानव का पहला धर्म  है। ईसाई, इस्लाम, हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, यहूदी, बहाई आदि सभी धर्म पर्यावरण के संरक्षण की प्रेरणा देते हैं ।

   आदि काल से ही धर्म और पर्यावरण में गहरा संबंध रहा है. उदाहरण के तौर पर बौद्ध धर्म का मत है कि सभी जीव जंतुओं एवं प्रकृति  का सम्मान करना चाहिेए। इसी प्रकार बहाई धर्म का मानना है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य और विविधता मानव जाति पर ईश्वर की कृपा है, अतः हमे इसकी रक्षा करनी चाहिेए । आइए, देखते हैं विभिन्न धर्मग्रंथ पर्यावरण संरक्षण के बारे में क्या कहते हैं।

     हिंदू धर्म में तो प्रकृति को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ही । प्रकृति के विभिन्न रूपों को देवताओं  का रूप माना गया है। हिंदू धर्म के अनुसार, जीवन पाँच तत्त्वों- क्षिति  जल, पावक,  गगन व  समीर  से मिलकर बना है। इसे पुष्ट करते हुए तुलसीदास रामचरितमानस में एक चौपाई में कहते भी हैं ‘छिति,जल ,पावक, गगन समीरा पंच रचित अति अधम सरीरा’ अब इनसे बना शरीर भले ही अधम हो पर इन पांचों तत्वों को सनातन हिंदू धर्म में देवताओं का स्थान दिया गया है क्योंकि यह मानव को बहुत कुछ देते हैं।

   हिंदू धर्म में पृथ्वी को देवी का रूप माना गया है और इसके विभिन्न अंगों पर्वत, नदी, जंगल, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि को दैवीय कथाओं व पुराणों से जोड़कर देखा जाता है। श्रीमद्भागवतगीता में भी कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा विभिन्न रूपों में सभी प्राणियों में विद्यमान है इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों की रक्षा करनी चाहिये।

इस्लाम धर्म में भी कहा गया है कि, पृथ्वी का मालिक खुदा है तथा यहाँ इंसान की भूमिका ख़लीफा अर्थात् खुदा के न्यासी की है एवं इंसान का कार्य पृथ्वी और इसके विभिन्न अवयवों की रक्षा करना है। कुरान के अनुसार, सृष्टि की रचना जल से हुई है तथा जल को व्यर्थ करना इस्राफ (पाप) है। इसके अलावा किसी भी प्राकृतिक संसाधन का अनावश्यक उपयोग करना इस्लाम में वर्जित माना गया है।

ईसाई मत के मतानुसार भी सभी जीवों की रचना ईश्वर के प्रेम का रूप है तथा मानव को जैविक विविधता तथा ईश्वर के निर्माण को नष्ट करने का अधिकार नहीं है। ईसाई धर्म  मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों की रक्षा उत्तरदायी मानता है। इसके अलावा यह भी संसाधनों के सीमित उपयोग और उनके संरक्षण पर ज़ोर देता है।

   बौद्ध धर्म भी पूर्णतः प्रेम, सद्भाव तथा अहिंसा पर आधारित है। बौद्ध धर्म ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर आधारित है जिसे करण-कारण का सिद्धांत भी कहते हैं। इसे हिंदू धर्म के कर्म के सिद्धांत के समान माना जा सकता है अर्थात् मानव के व्यवहार का प्रभाव उसके पर्यावरण पर पड़ता है।  बौद्ध धर्म भी जीव संसाधनों के अतिदोहन को वर्जित करताा है और सभी जीवों की परस्पर निर्भरता में विश्वास करता है ।

 जैन धर्म में अहिंसा को सर्वाधिक  महत्व  दिया गया है तथा किसी भी जीव-जंतु, वनस्पति आदि को नुकसान पहुँचाना वर्जित माना गया है। जैन धर्म के अनुयायियों के लिये प्रकृति व इसके सभी जीव जंतुओं को समान माना गया है तथा इनका संरक्षण और इनके प्रति समान व्यवहार करना जैन धर्म की मूल शिक्षा है। जैन धर्म में जीव जंतुओं की हत्या पर पूर्ण निषेध है इसी निषेध के चलते जैनी चौमास व्रत का भी पालन करते हैं।

   सिखों के धार्मिक ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि संसार में स्थित सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करती हैं तथा ईश्वर उनकी रक्षा करता है। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के अनुसार, सभी जीव-जंतु, वृक्ष, नदी, पर्वत, समुद्र आदि को ईश्वर का रूप माना गया है।

   हिब्रू बाइबिल तोराह में प्रकृति के संरक्षण के लिये अनेक नैतिक बाध्यताएँ दी गई हैं। तोराह के अनुसार, “जब ईश्वर ने आदम को बनाया, उसने उसे स्वर्ग के बगीचे दिखाए और कहा मेरे कार्यों को देखो, कितना सुंदर है ये? मैंने जो भी बनाया है वह सब तुम्हारे लिये है। तुम्हें इसकी रक्षा करनी है और यदि तुमने इसे नष्ट किया तो तुम्हारे बाद इसे ठीक करने वाला कोई नहीं होगा।”

    पर्यावरण व प्रकृति के संरक्षण के लिये विभिन्न धार्मिक समूहों द्वारा वैश्विक या स्थानीय स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं।

पाकिस्तान में स्थित कब्रगाहों में प्राचीन वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं क्योंकि इनको काटना गुनाह माना जाता है. लेबनान के मैरोनाईट चर्च ने हरीसा  के जंगलों को पिछले 1,000 वर्षों से संरक्षित रखा है।  थाईलैंड के बौद्ध भिक्षुओं ने संकटग्रस्त जंगलों की रक्षा हेतु वहाँ छोटे-छोटे विहारों की स्थापना की है तथा उन्हें पवित्र जंगल घोषित किया गया है । जर्मनी के चर्चों ने स्थानीय समुदायों के सहयोग से सौर ऊर्जा प्रणाली अपनाई है । अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी मूल के लोगों द्वारा’क्वान्ज़ा’ नाम का त्यौहार प्रकृति संरक्षण का एक  उदाहरण है। इसी प्रकार स्वीडन के लूथरन चर्च के सहयोग से स्वीडन में नेशनल फॉरेस्ट स्टेवर्डशिप है।

वस्तुतः हम किसी भी धर्म का अनुशीलन करें परंतु यदि हम पर्यावरण को ही धर्म मान ले तो पर्यावरण की रक्षा स्वयं हो जाएगी।

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत तो यही है कि भले ही हम किसी धर्म को मानें या ना मानें लेकिन पर्यावरण को सबसे बड़ा धर्म मानना ही हमारा सबसे बड़ा मानव धर्म हो।  केवल नारों के भरोसे न रहकर प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है कि वह पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों में न तो स्वयं शामिल हो एवं न ही अपनी जानकारी के चलते उन गतिविधियों को कहीं होने दे।

गंगा तेरा पानी अमृत …

गंगा दशहरा  विशेष : 

डॉ० घनश्याम बादल 

   इस बार पर्यावरण दिवस एवं गंगा दशहरा एक साथ पड़ रहे हैं. जहां पर्यावरण दिवस भौतिक शुद्धता का प्रतीक है जिससे प्रदूषण पर चोट की जाती है और पर्यावरण की रक्षा का संकल्प लिया जाता है, यही हमारी संस्कृति भी है और जीवन शैली भी। 

जब बात धर्म एवं संस्कृति की की जाती है तो हम जानते हैं कि गंगा भारतीय धर्म व संस्कृति का अभिन्न अंग है । कभी मन के कलुषों को धोने के लिए तो कभी तन को गंगा सा चंगा करने के लिए, कभी घूमने, तीर्थाटन,पर्यटन , दान व पुण्य के बहाने हम गंगा से भेंट करने का अवसर ढूंढ लेते हैं पर हमें खास अवसर देते हैं त्यौहार । 

   ज्येष्ठ मास की शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को पड़ने वाला पर्व गंगा दशहरा गंगा के धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व को रेखांकित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण पर्व है । गंगा दशहरा एक पर्व मात्र नहीं वरन् हमें हमारी संस्कृति की ओर ले जाने व पापों के नाश करने का अनोखा पर्व है । यह पर्व भारत की आत्मा में बसने वाले त्यौहारों में से एक है । शायद इसी पर्व की वजह से गंगा को पापनाशिनी की संज्ञा भी दी गई है। 

दस विशेष ज्योतिष योग:

आज के दिन दस विशेष ज्योतिष योग एक साथ इकट्ठे होते हैं, इस वजह से भी इसे दशहरा नाम मिला है । ज्योतिष के जानकारों का कहना है कि गंगा दशहरा पर ज्येष्ठ मास, शुक्लपक्ष, दशमी तिथि, बुधहस्त नक्षत्र, व्यतिपात योग, गर करण, आनंद योग, कन्या राशि का चंद्रमा, वृष राशि का सूर्य एक साथ होते हैं. यही वजह है इसे दशहरा  नाम मिलने का क्योंकि यह दस योगों को हरा या प्रसन्न करने वाला पर्व है । 

 नष्ट होते दस पाप

 मान्यता है कि गंगा दशहरे के दिन यदि कोई व्यक्ति गंगा में प्रवेश करके‘‘ ओउम् नमो भगवती, हिलि हिलि गंगा, मिलि मिलि  गंगा , पावय पावय स्वाहा ….’’ का जाप दस बार कर लेता है तो उसके दस पाप  काम, क्रोध्, लोभ, मद, मोह, डाह, ईर्ष्या, द्वेष, दूषित विचार व हिंसाभाव नष्ट हो जाते हैं। सोचिये जिसके यें दस पाप नष्ट हो गए वह तो सोने सा खरा हो जाएगा । स्कंद पुराण के अनुसार दस पापों के हरने के कारण ही यह स्नान पर्व  दश-हरा कहलाया ।

क्या कहते हैं मिथक 

 आज के ही दिन महाराजा सगर के प्रपौत्र भागीरथ के तप से प्रसन्न हो कर शिव ने गंगा को पृथ्वी पर अपनी केशराशि में रोककर सुरक्षित उतारा था , ज्ञात हो कि यें  सगर पुत्र रानी कुशनी व सुमति के बेटे थे जो अगस्त्य मुनि के शाप से भस्म हो गए थे और उनके तर्पण के लिए कहीं भी जल तक नहीं मिला था क्योंकि अगस्त्य ने उन्हे मुक्ति न मिलने देने के लिए पृथ्वी का सारा जल पी लिया था, तब भागीरथ ने तप करके पहले ब्रह्मा और विष्णु  व बाद में शिव को प्रसन्न करके गंगा को पृथ्वी पर लाने में कामयाबी पाई थी , जिसके जल से उनके पुरखों को मुक्ति मिली । तब से गंगा को मोक्षदायिनी कहा गया  ।

समृद्धि व खुशहाली लाती

भारत के लिए गंगा आज भी समृद्धि व खुशहाली लाती है गंगा के बिना समृद्धिशाली भारत की कल्पना बेमानी है । यह भारत के लिए महज एक नदी मात्र नहीं वरन् पाप नाशिनी, मुक्तिदायिनी व सींचन की सबसे बड़ी साधिका, जल के रूप में जीवन देने वाली , कृषि का आधार  तथा विद्युत उत्पादन का स्रोत है । 

 ‘शिवोऽहं’ का भाव का जागरण

गंगा हममें ‘शिवोऽहं’ का भाव जाग्रत करती है ।  गंगावतरण एक आध्यात्मिक पक्ष है जो मनुष्य के तीनों गुणों को जाग्रत करती है. ब्रह्मा के रूप में रजोगुण, विष्णु के रूप में सतो गुण व  शिव के रूप में तमो गुण के संतुलन के लिए प्रेरित करता है  गंगावतरण का प्रसंग ।  

कर्म की महत्ता 

भागीरथ यहां मानव के कर्म की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं, तप  कर्म का रूप है व गंगा उसके कर्म का पुरस्कार । यह कहीं गीता के ‘‘कर्मण्येवऽध्किारस्ते मा फलेषु कदाचन ’’ के सिद्धांत को भी पुष्ट करता है क्योंकि यदि आरम्भ से ही फल की इच्छा मन में घर कर गई तो तपश्चर्या जैसा कष्ट साघ्य कर्म हो ही नहीं सकता है । यह पर्व मूलाधर;ब्रह्मा से हृदयचक्र ;विष्णु और उससे भी आगे सहस्रनर  शिव की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है ।

गंगा की उपेक्षा चिन्ताजनक

आज के संदर्भो में गंगा दशहरा पर्व गंगा के प्रति उपजे उपेक्षाभाव की चिन्ता भी जाग्रत करता है , हमारे पर्यावरणविद् लगातार गंगा पर आए संकट से सजग कर रहे हैं , साधु संत भी गंगा पर बनने वाले बांधों, उसके जल प्रवाह को रोकने,नियंत्रित करने , उससे जलविद्युत बनाने जैसे कार्यों का विरोध कर रहे हैं जो कुछ जायज़ और कुछ नाजायज़ है । हां , गंगा की पवित्रता को बनाए रखने की उनकी चिंता  उचित है क्योंकि जिस गति से गंगा में प्रदूषण बढ़ रहा है उससे तो वह मोक्षदायिनी की बजाय रोगदायिनी ही बनती जा रही है ।

समय की मांग

 आज समय की मांग है कि गंगा को हर हाल में पावन रखा जाए, उसमें गिरते मल मूत्र, औद्यागिक दूषित जल व कचरे को रोका जाए, उसकी नियमित सफाई की जाए, उसके जल को खेतों तक जाने दिया जाए , जरुरत से ज्यादा पानी रोका न जाए व नई पीढ़ी को भी उसके महत्त्व से परिचित कराया जाए । 

   गंगा की स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए सरकार ने भी गंगा की पवित्रता और स्वच्छता को नमामि गंगे कार्यक्रम के द्वारा पर्याप्त महत्व दिया है । पर, सारे प्रयासों के बावजूद भी गंगा की निर्मलता का लक्ष्य नहीं प्राप्त की जा सका जो चिंता का विषय है । आशा है गंगा की सफाई व उसकी निर्मलता पर और ध्यान दिया जाएगा तथा आमजन भी रुढ़िवादी चिंतन को छोड़ आस्था के साथ गंगा को निर्मल करने में अधिक से अधिक योगदान करेंगे । 

गंगा दशहरा जरूर मनाएं

अस्तु, गंगा दशहरा जरूर मनाएं पर आज के दिन दान करना न भूलें, भले ही इसे तिलादि के रूप में करें , धर्मिक दृष्टि से करें , आत्मिक सुख के लिए करें या  फिर जरुरतमंदों की सहायता के लिये,  हर दृष्टि से यह दान गंगाा दशहरे पर आपको लाभ ही पहुंचाएगा । और इन सबसे बढ़कर पर्यावरण एवं विज्ञान की दृष्टि से गंगा की स्वच्छता में योगदान जरूर करें जिसे सबसे बेहतर तरीका है गंगा में किसी भी प्रकार की गंदगी ना डालें एवं वर्ष में काम से कम 10 दिन गंगा की सफाई में स्वयंसेवक के रूप में अपना योगदान दें जिससे गंगा एक बार फिर से निर्मल शीतल और मोक्षदायिनी बन सके। 

डॉ घनश्याम बादल

गंगा दशहरा : मां गंगा के धरती पर “अवतरण” का पर्व

गंगा दशहरा पर्व पर विशेष…

प्रदीप कुमार वर्मा

मां गंगा में पवित्र स्नान का पर्व। दशों दिशाओं के शुभ होने से शुभ कार्य का पर्व। हिंदू धर्म में दान और पुण्य का पावन पर्व। और पतित पावनी मां गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का पर्व। देश और दुनिया में हर साल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाता है। ब्रह्म पुराण व वाराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के दशमी तिथि को हस्त नक्षत्र में गर करण, वृष के सूर्य व कन्या के चन्द्रमा में गंगा धरती पर अवतरित हुई थी। सप्तमी को स्वर्ग से आने के बाद तेज वेग को थामने के लिए भगवान शिव ने अपनी जटाओं में मां गंगा को धारण किया। जिसके बाद ज्येष्ठ महीने की दशमी को जटाओं से पृथ्वी पर अवतरित किया था। इस मुहूर्त में स्नान, दान व मंत्र जाप का पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है। इस खास दिन पर मां गंगा और शिवजी की पूजा-उपासना से जाने-अनजाने में हुए कष्टों से छुटकारा मिलता है। 

      पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक गंगा दशहरा मनाने की परंपरा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के वंशजों से जुड़ी है। राजा सगर की दो रानियां केशिनी और सुमति की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए दोनों रानियां हिमालय में भगवान की पूजा अर्चना और तपस्या में लग गईं। तब ब्रह्मा के पुत्र महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी से राजा को 60 हजार अभिमानी पुत्र की प्राप्ति होगी। जबकि, दूसरी रानी से एक पुत्र की प्राप्ति होगी। केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जबकि सुमति के गर्भ से एक पिंड का जन्म हुआ। उसमें से 60 हजार पुत्रों का जन्म हुआ। एक बार राजा सगर ने अपने यहां पर एक अश्वमेघ यज्ञ करवाया। राजा ने अपने 60 हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। लेकिन देवराज इंद्र ने छलपूर्वक 60 हजार पुत्रों से घोड़ा चुरा लिया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। 

     सुमति के 60 हजार पुत्रों को घोड़े के चुराने की सूचना मिली तो सभी घोड़े को ढूंढने लगे।  तभी वह कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे। कपिल मुनि के आश्रम में उन्होंने घोड़ा बंधा देखा तो आक्रोश में घोड़ा चुराने की निंदा करते हुए कपिल मुनि का अपमान किया।  यह सब देख तपस्या में बैठे कपिल मुनि ने जैसे ही आंख खोली तो आंखों से ज्वाला निकली,जिसने राजा के 60 हजार पुत्रों को भस्म कर दिया। इस तरह राजा सगर के सभी 60 हजार पुत्रों का अंत हो गया और उनकी अस्थियां कपिल मुनि के आश्रम में ही पड़ी रही। राजा सगर जानते थे कि उनके पुत्रों ने जो किया है, उसका परिणाम यही होना था। लिहाजा सभी के मोक्ष के लिए कोई उपाय खोजने बेहद जरूरी था। मोक्षदायिनी गंगा के द्वारा ही सभी पुत्रों की मुक्ति संभव थी। इसलिए राजा सागर सहित उनके वंश के अन्य राजाओं द्वारा पवित्र गंगा मैया को धरती पर लाने के प्रयास शुरू हुए।

        पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा सगर के वंशज भगीरथ ने अपनी तपस्या से मां गंगा को धरती पर अवतरित कराया था।  गंगा जब पहली बार मैदानी क्षेत्र में दाखिल हुई, तब जाकर हजारों सालों से रखी राजा सगर के पुत्रों की अस्थियों का विसर्जन हो पाया और राजा सगर के पुत्रों को मुक्ति मिली। यही कारण है कि आज भी देश के कोने-कोने से लोग अस्थि विसर्जन और कर्मकांड करने के लिए हरिद्वार आते हैं। यही नहीं  हिंदू धर्म में गंगा दशहरा के दिन दान और गंगा स्नान का बड़ा महत्व है। शास्त्रों के अनुसार गंगा में स्नान करने से सभी प्रकार के पाप, दोष, रोग और विपत्तियों से मुक्ति मिलती है।  वहीं,  मान्यता यह भी है कि गंगा दशहरा पर अन्न, भोजन और जल समेत आदि चीजों का दान करता है तो उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। दशहरा पर्व पर गंगा स्नान के माध्यम से 10 तरह के पापों की मुक्ति का विधान शास्त्रों में है।

     गंगा दशहरा पर पितरों के लिए दान का विशेष महत्व है। इस दिन पितरों के नाम से दान करने से उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। वहीं इस दिन गरीबों और जरूरतमदों को फल, जूता, चप्पल, छाता, घड़ा और वस्त्र दान करने का भी विधान है।  आचार्य पंडित श्याम सुंदर शर्मा बताते हैं कि इस बार सबसे खास बात यह है कि गंगा दशहरा पर चार शुभ संयोग बन रहे हैँ। इस दिन गंगा स्नान, दान-पुण्य और पूजन करने से दस प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान करें। यदि संभव जल तीर्थ जाना संभव न हो तो घर में गंगाजल मिलाकर स्नान करें। इसके बाद  मां गंगा का ध्यान करते हुए मंत्रों का जाप करें।

       पतित पावनी गंगा को मोक्ष दायिनी कहा गया है। इसी वजह से मान्यता है कि गंगा में डुबकी लगाने से मनुष्य को मरने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहीं, उसके पूर्वजों को भी शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। वहीं,इस दिन मोक्षदायिनी गंगा मैया का विधिवत पूजन-अर्चना भी किया जाता है। गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए। ऎसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है। गंगा दशहरे का फल ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।

प्रदीप कुमार वर्मा

बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया की जटिल पर्यावरण समस्या

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विश्व पर्यावरण दिवस- 5 जून, 2025
– ललित गर्ग –

बढ़ते तापमान, बदलते जलवायु एवं ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। इंसानों को प्रकृति, पृथ्वी एवं पर्यावरण के प्रति सचेत करने के लिये विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाया जाता है, जो पर्यावरण, प्रकृति एवं पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय दिवस है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोज्य यह दिवस दुनिया भर के लाखों लोगों को हमारे ग्रह की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के साझा मिशन के साथ एकजुट करता है। बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया की एक गंभीर एवं जटिल समस्या है, इसीलिये 2025 में इस दिवस की थीम प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने पर केंद्रित है। कोरिया गणराज्य वैश्विक समारोह की मेज़बानी करेगा। दशकों से प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया के हर कोने में फैल चुका है, यह हमारे पीने के पानी, हमारे खाने, हमारे शरीर, हमारे पर्यावरण में समा रहा है। इस प्लास्टिक कचरे की गंभीर समस्या से निपटने का एक वैश्विक संकल्प निश्चित ही एक समाधान की दिशा बनेगा। हर साल 430 मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिसमें से लगभग दो-तिहाई केवल एक बार उपयोग के लिए होता है और जल्दी ही फेंक दिया जाता है।
1973 से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के नेतृत्व में पर्यावरण जागरूकता के लिए यह दिवस सबसे बड़ा वैश्विक अभियान बन गया है, जो आज की सबसे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए 150 से अधिक देशों के विशाल वैश्विक दर्शकों को शामिल करता है। गत वर्ष इस दिवस की मेजबानी करते हुए सऊदी अरब ने भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखे से निपटने की क्षमता पर प्रकाश डालते हुए सकारात्मक प्रयासों का जश्न मनाया और पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाले निजी और परोपकारी संगठनों के लिए अधिक समर्थन और वित्त पोषण की घोषणा की। यह सर्वविदित है कि इंसान व प्रकृति के बीच गहरा संबंध है। इंसान के लोभ, सुविधावाद एवं तथाकथित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण का भारी नुकसान पहुंचाया है, जिसके कारण न केवल नदियां, वन, रेगिस्तान, जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं बल्कि ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं, तापमान का 50 डिग्री पार करना जो विनाश का संकेत तो है ही, जिनसे मानव जीवन भी असुरक्षित होता जा रहा है। इन वर्षों में बढ़ी हुई गर्मी एवं तापमान ने न केवल जीवन को जटिल बनाया बल्कि अनेक लोगों की जान भी गयी। पूरी दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण, जलवायु अराजकता और जैव विविधता विनाश का एक जहरीला मिश्रण स्वस्थ भूमि को रेगिस्तान में बदल रहा है, संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र को मृत क्षेत्रों में बदल रहा है और मानव जीवन पर तरह-तरह के खतरे पैदा कर रहा है।
प्रकृति को पस्त करने, वायु एवं जल प्रदूषण, कृषि फसलों पर घातक प्रभाव, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया में बढ़ते प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक के कण एक बड़ी चुनौती एवं संकट है। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जतायी गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण सांसों के जरिये हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे तमाम नये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-सर्वेक्षण-अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी सांसों, प्रकृति, पर्यावरण, पेयजल व फसलों में घातक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी एक गंभीर संकट है। संकट तो यहां तक बढ़ गया है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है। दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इस तरह माइक्रोप्लास्टिक की दखल भोजन, हवा व पानी में होना न केवल प्रकृति, कृषि, पर्यावरण वरन मानव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे की घंटी ही है। जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए और सरकारों को इस संकट से मुक्ति की दिशाएं उद्घाटित करने के लिये योजनाएं बनानी चाहिए, इसके लिये इस वर्ष की थीम से व्यापक बदलाव की संभावनाएं हैं।  
माइक्रोप्लास्टिक हमारे वातावरण का एक हिस्सा बन चुके हैं। प्लास्टिक की बहुलता एवं निर्भरता के कारण मौत हमारे सामने मंडरा रही है। हम चाहकर भी प्लास्टिकमुक्त जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं, प्लास्टिक प्रदूषण के खतरों को देखते  हुए विभिन्न देशों की सरकारों ने ठान लिया है कि सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व में ही देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की अपील करते हुए एक महाभियान का शुभारंभ कर चुके हैं। प्लास्टिक के कारण देश ही नहीं, दुनिया में विभिन्न तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके सीधे खतरे दो तरह के हैं। एक तो प्लास्टिक में ऐसे बहुत से रसायन होते हैं, जो कैंसर का कारण माने जाते हैं। इसके अलावा शरीर में ऐसी चीज जा रही है, जिसे हजम करने के लिए हमारा शरीर बना ही नहीं है, यह भी कई तरह से सेहत की जटिलताएं पैदा कर रहा है। इसलिए आम लोगों को ही इससे मुक्ति का अभियान छेड़ना होगा, जागृति लानी होगी।
शोधकर्ताओं ने केरल में दस प्रमुख ब्रांडों के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष 153 हजार प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। पिछली सदी में जब प्लास्टिक के विभिन्न रूपों का अविष्कार हुआ, तो उसे विज्ञान और मानव सभ्यता की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था, अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता एवं त्रासदी मान लिया जाए? अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने यहां बारिश के पानी के नमूने जमा किए। ये नमूने सीधे आसमान से गिरे पानी के थे, बारिश की वजह से सड़कों या खेतों में बह रहे पानी के नहीं। जब इस पानी का विश्लेषण हुआ, तो पता चला कि लगभग 90 फीसदी नमूनों में प्लास्टिक के बारीक कण या रेशे थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन्हें आंखों से नहीं देख पाते। लगातार पांव पसार रही माइक्रोप्लास्टिक की तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर विश्व पर्यावरण दिवस पर प्लास्टिक के संकट का दूर करने की कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। प्लास्टिक प्रदूषण की उससे भी ज्यादा खतरनाक एवं जानलेवा स्थिति है, यह एक ऐसी समस्या बनकर उभर रही है, जिससे निपटना अब भी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कुछ समय पहले एक खबर ऐसी भी आई थी कि एक चिड़ियाघर के दरियाई घोड़े का निधन हुआ, तो उसका पोस्टमार्टम करना पड़ा, जिसमें उसके पेट से भारी मात्रा में प्लास्टिक की थैलियां मिलीं, जो शायद उसने भोजन के साथ ही निगल ली थीं। कनाडाई वैज्ञानिकों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक कणों पर किए गए विश्लेषण में चौंकाने वाले नतीजे मिले हैं। विश्लेषण में पता चला है कि एक वयस्क पुरुष प्रतिवर्ष लगभग 52000 माइक्रोप्लास्टिक कण केवल पानी और भोजन के साथ निगल रहा है। इसमें अगर वायु प्रदूषण को भी मिला दें तो हर साल करीब 1,21,000 माइक्रोप्लास्टिक कण खाने-पानी और सांस के जरिए एक वयस्क पुरुष के शरीर में जा रहे हैं। अमेजन एवं फिलीपकार्ट जैसे आनलाइन व्यवसायी प्रतिदिन 7 हजार किलो प्लास्टिक पैकेजिंग बैग का उपयोग केवल भारत में करते हैं। इन कम्पनियों को भी प्लास्टिकमुक्त दुनिया के घेरे में लेने के लिये कठोर कदम उठाने चाहिए। संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं।

खतरनाक रूप लेता रूस – यूक्रेन युद्ध

संजय सिन्हा

युद्ध पर विराम लगता नहीं दिख रहा। रूस और यूक्रेन के बीच पिछले तीन वर्षों से चल रहा युद्ध एक नई और खतरनाक करवट ले चुका है। इस्तांबुल वार्ता के कुछ ही घंटों बाद यूक्रेन ने अब रूसी कब्ज़े वाले इलाकों में गहरे और सामरिक रूप से संवेदनशील ठिकानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। चंद दिन पहले रूसी एयरबेसों पर हुए भीषण ड्रोन हमले में यूक्रेन ने कम से कम 40 आधुनिक फाइटर जेट तबाह कर दिए थे जिससे रूस को बड़ा झटका लगा। अब, आगे बढ़ते हुए यूक्रेन ने ज़ापोरिझिया और खेरसॉन क्षेत्रों में बिजली ढांचों पर हमला कर दिया है जिससे 7 लाख से अधिक लोग अंधेरे में डूब गए हैं। रूसी अधिकारियों के मुताबिक  यूक्रेनी ड्रोन और तोपों के जरिए किए गए हमलों में ज़ापोरिझिया और खेरसॉन क्षेत्रों के बिजली सबस्टेशनों को भारी नुकसान पहुंचा है। इस हमले के बाद कम से कम 700,000 लोग अंधेरे में जीने को मजबूर हैं जिससे अस्पताल, जलापूर्ति और मोबाइल नेटवर्क जैसी जरूरी सेवाएं भी बाधित हो गईं।

इन हमलों का सबसे गंभीर असर ज़ापोरिझिया परमाणु संयंत्र पर पड़ा है। यह यूरोप का सबसे बड़ा न्यूक्लियर पावर प्लांट है और रूसी नियंत्रण में है। रूसी परमाणु एजेंसी रोसएटम के प्रमुख अलेक्सी लिक्हाचेव ने कहा, “स्थिति नियंत्रण में है लेकिन बेहद जटिल है।” विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर संयंत्र की बाहरी बिजली सप्लाई बाधित रहती है तो कूलिंग सिस्टम फेल हो सकता है और परमाणु रिसाव जैसी गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है।

इस हमले पर यूक्रेन की ओर से फिलहाल कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन पश्चिमी मीडिया के मुताबिक यह 2022 में युद्ध शुरू होने के बाद से रूसी कब्ज़े वाले इलाकों पर सबसे बड़ा हमला हो सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि यह हमला तुर्की में हुई रूस-यूक्रेन वार्ता के चंद घंटों बाद ही हुआ। वार्ता में रूस ने कहा कि वह तभी युद्ध समाप्त करेगा अगर यूक्रेन नए बड़े क्षेत्र सौंपे और अपनी सेना के आकार पर सीमाएं स्वीकार करे। वहीं यूक्रेन ने इस मांग को ‘औपनिवेशिक सोच से प्रेरित ज़मीनी कब्ज़ा’ बताया और दो टूक कहा कि वह कूटनीति और सैन्य बल दोनों से अपनी जमीन वापस लेगा। एक साहसिक और अप्रत्याशित हमले में यूक्रेन के सैन्य बलों ने रूसी क्षेत्र के भीतर जाकर लगातार कई हमले किए और रूस के लंबी दूरी तक मार करने वाले हथियारों या सामरिक बमबारी बेड़े को निशाना बनाया। रूस के अधिकारियों ने इस हमले की पुष्टि की है लेकिन यह नहीं बताया कि कितनी क्षति पहुंची है। रूस के सामरिक बमबारी बेड़े को हुई क्षति की भरपाई संभव नहीं है क्योंकि ये 1950 के दशक के हैं और इन्हें बनाने वाली इकाइयां बहुत पहले बंद हो चुकी हैं।

 यूक्रेन की सुरक्षा सेवा ने दावा किया कि उसने एक तिहाई बेड़े को निशाना बनाया है। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमिर जेलेंस्की ने कहा कि रूस को करीब 7 अरब डॉलर मूल्य का नुकसान हुआ है परंतु जिस बात ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है और जो आने वाले महीनों और वर्षों तक सैन्य योजनाकारों और सामरिक विशेषज्ञों की चर्चा का विषय रहने वाली है, वह है इस हमले का तरीका। यूक्रेन ने यह हमला रेडियो नियंत्रित ड्रोन के माध्यम से किया। इन्हें सामान्य निर्माण सामग्री की तरह वाणिज्यिक कंटेनर ट्रकों में लादा गया और उसके बाद रूस में हवाई ठिकानों के आसपास के इलाकों में भेजा गया। एक खास समय पर इन सभी ड्रोन को उड़ाया गया और हवाई अड्‌डों पर खड़े विमानों को निशाना बनाया गया।

यह पहला मौका नहीं है जब यूक्रेन ने नियमित वाणिज्यिक लॉजिस्टिक को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। खबरें बताती हैं कि 2022 में क्राइमिया द्वीप को रूस से जोड़ने वाले केर्च पुल पर हुए हमले, जिसने कई सप्ताह तक रूस के सैन्य यातायात को बाधित किया था और जो प्रतीकात्मक रूप से बहुत प्रभावी था, उसे भी प्लास्टिक ढोने वाले एक ट्रक की आड़ में अंजाम दिया गया था। विस्फोटकों को प्लास्टिक के ढेर में छिपाया गया था और इसे आर्मीनिया और जॉर्जिया से होते हुए क्रीमिया की ओर भेजा गया था। ऐसे ही तरीके इस्तेमाल करके करीब 120 ड्रोनों की मदद से ताजा हमला किया गया। ये ड्रोन बहुत महंगे या किसी खास गुणवत्ता के नहीं थे।

 लब्बोलुआब यह कि अपेक्षाकृत छोटा और मुश्किलों से जूझ रहा देश, जिसके पास अपनी मजबूत वायु सेना तक नहीं है,  उसने आधुनिक लॉजिस्टिक्स और सस्ते ड्रोन की मदद से एक महाशक्ति के सामरिक बेड़े को क्षति पहुंचा दी जो उसके परमाणु प्रतिरोधक तंत्र का हिस्सा था। ड्रोन और वैश्वीकृत दुनिया में आपसी व्यापार संपर्क के इस मेल से सुरक्षा की दृष्टि से सर्वथा नई और अप्रत्याशित चुनौती उत्पन्न हुई है। भारत में इसे खासतौर पर महसूस किया जाएगा क्योंकि हमारे कई सामरिक क्षेत्र इस लिहाज से संवेदनशील हैं। इनमें कई तो प्रमुख औद्योगिक केंद्र भी हैं।

 राष्ट्रपति जेलेंस्की के मुताबिक यूक्रेन ने इस हमले की योजना 18 महीने पहले बनाई थी। जाहिर है यूक्रेन ने रूस में भी कुछ पकड़ बना रखी है. हालांकि उन्होंने दावा किया ऐसे सभी लोगों को पहले ही वापस बुला लिया गया है परंतु इस हमले की लागत की बात करें तो समय और संसाधन के मामले में इसमें ज्यादा खर्च नहीं आया। इस मामले में तो ये तरीके ऐसी सरकार ने आजमाए जो तीन साल से जंग में है परंतु ऐसी कोई वजह नहीं है कि छद्म युद्ध में लगे दूसरे गैर सरकारी तत्व इस तरीके को नहीं आजमाएंगे। भारत के योजनाकारों को अपनी सैन्य और अधोसंरचना संबंधी संवेदनशील स्थितियों का आकलन करते हुए ड्रोन की इस जंग जैसे हालात के लिए तैयार रहना होगा। इस तरह की जंग कतई आसान हो सकती है। कई गैर सरकारी तत्व 100-150 ड्रोन जुटा सकते हैं और उन्हें दूर से संचालित कर सकते हैं। बिना संदेह वाले ट्रक और वाणिज्यिक वाहनों का इस्तेमाल करके इन ड्रोन को हमले की जगह तक पहुंचाया जा सकता है। भारत पर किसी बड़े हमले के परिणाम, उस लागत के अनुपात में बहुत अधिक होंगे जो उस शत्रु ने सोची होगी। तो नए दौर के खतरों से अहम अधोसंरचना की रक्षा पर पुनर्विचार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।

शेयरों में तेजी आ गई है। इन शेयरों में तेजी की मुख्य वजह दुनिया भर में बढ़ते जियो-पॉलिटिकल तनाव हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध ने हाल ही में फिर से भयानक रूप ले लिया है। 31 मई को रूस ने यूक्रेन पर युद्ध शुरू होने के बाद से अब तक का सबसे बड़ा ड्रोन हमला किया जिसमें 472 ड्रोन और 7 मिसाइल दागे गए। यूक्रेन ने दावा किया कि उसने 385 ड्रोन मार गिराए। इसके जवाब में, यूक्रेन ने 1 जून को इस्तांबुल में शांति वार्ता से ठीक एक दिन पहले रूस के सैन्य हवाई अड्डों पर बड़ा हमला किया। यूक्रेनी अधिकारियों के अनुसार, इस सरप्राइज ड्रोन अटैक में रूस के भीतरी इलाकों में तैनात 40 से ज्यादा लड़ाकू विमान नष्ट हो गए। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने इसे “शानदार ऑपरेशन” बताते हुए कहा कि यह इतिहास में दर्ज होगा। दोनों देशों के बीच बातचीत जारी है, लेकिन हालिया हिंसक घटनाओं ने आशंका जताई है कि युद्ध और भी भीषण रूप ले सकता है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी एजेंसी IAEA ने आरोप लगाया है कि ईरान ने परमाणु हथियार बनाने के लिए जरूरी समृद्ध यूरेनियम का उत्पादन बढ़ा दिया है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, ईरान के पास अब 60% शुद्धता वाला 400 किलो से ज्यादा यूरेनियम है जो हथियार-ग्रेड सामग्री के लिए जरूरी 90% शुद्धता के करीब है।

ईरान और अमेरिका के बीच तनाव

इससे ईरान और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ गया है। अमेरिका ने कई दौर की वार्ता के बाद ईरान को परमाणु समझौते का नया प्रस्ताव भेजा है। ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची ने सोशल मीडिया पर लिखा कि “ईरान इस प्रस्ताव का जवाब अपने राष्ट्रीय हितों और जनता के अधिकारों के अनुरूप देगा।”

संजय सिन्हा

बर्बाद बांग्लादेश बन रहा एक नई मुसीबत


 

राजेश कुमार पासी

भारत का ये दुर्भाग्य है कि वो ऐसे देशों से घिरा हुआ है जो आर्थिक और राजनीतिक रूप से बर्बादी की ओर जा रहे हैं ।  पाकिस्तान तो अपनी पैदाइश से ही भारत का दुश्मन देश रहा है या यूं कहो कि उसकी पैदाइश ही भारत विरोध में हुई थी और वो उसी राह चल रहा है । पाकिस्तान तो ऐसा देश है जो हर हाल में भारत की तबाही चाहता है फिर चाहे इस चक्कर में वो खुद ही क्यों न बर्बाद हो जाये । श्रीलंका अपनी आर्थिक नीतियों के कारण बर्बाद हो चुका है लेकिन भारत की मदद से किसी तरह चल रहा है । नेपाल की आर्थिक हालत शुरू से खराब है और अफगानिस्तान तो पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द रहा है । पाकिस्तान से टूटकर बने बांग्लादेश से भारत के हमेशा मधुर सम्बन्ध रहे हैं, विशेष तौर पर अवामी लीग अध्यक्ष शेख हसीना के शासन काल में ये संबंध बहुत अच्छे रहे हैं। इसके बावजूद यह भी सच है कि बीएनपी की नेता खालिदा जिया के शासन में भी एक संतुलन कायम रहा है ।

शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत की मदद से बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद करवाया था, इसलिए उन्हें बांग्लादेश का राष्ट्रपिता भी कहा जाता है । शायद यही कारण है कि उनकी पुत्री शेख हसीना के शासनकाल में भारत के बांग्लादेश से अच्छे सम्बन्ध रहे हैं । शेख हसीना ने भारत से सम्बन्धों का भरपूर लाभ उठाया और बांग्लादेश को विकास के रास्ते पर ले गई । एक ऐसा भी समय आया जब बांग्लादेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल गया । उन्होंने बांग्लादेश को पाकिस्तान से बेहतर देश बनाने की कोशिश की लेकिन मोहम्मद युनुस ने चीन और अमेरिका की मदद से उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया ।  तब से बांग्लादेश से भारत के लिए अच्छी खबर नहीं आ रही हैं । एक ऐसा देश जो भारत के लिए ज्यादा समस्या नहीं था, वो देश धीरे-धीरे भारत के लिए समस्या बनता जा रहा है । युनुस के शासन में बांग्लादेश अराजकता की ओर जा रहा है और अब वहां सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया है । पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की  राजनीतिक पार्टी अवामी लीग का पंजीकरण रद्द कर दिया गया है और उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान की यादों को मिटाया जा रहा है । शेख मुजीबुर रहमान को राष्ट्रपिता की जगह एक खलनायक बनाया जा रहा है जैसे उन्होंने पाकिस्तान से अलग देश बनाकर कोई गलती कर दी हो । 

              मोहम्मद यूनुस की सरकार दस महीने से शासन कर रही है लेकिन हर मोर्चे पर विफल साबित हो रही है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में योगदान को लेकर नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले मोहम्मद यूनुस के शासन में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था लगातार गर्त में जा रही है। वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिये कानून व्यवस्था बेहतर होनी चाहिए लेकिन यूनुस तो देश को अराजकता की ओर ले जा रहे हैं। वो एक तरफ लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कट्टरपंथी ताकतों को हवा दे रहे हैं। उनके कारण ही बांग्लादेश के कट्टरपंथी बांग्लादेशी हिंदुओ का उत्पीड़न कर रहे हैं । यूनुस चीन, अमेरिका और पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं और बांग्लादेश को लगातार भारत से दूर ले जा रहे हैं । पहले ही चीन के कर्ज में डूबे बांग्लादेश को धीरे-धीरे पूरी तरह से चीनी कर्ज के जाल में फंसाते जा रहे हैं। बांग्लादेश में मुद्रास्फीति लगातार ऊपर जा रही है ।  विदेशी मुद्रा भंडार नीचे की ओर जा रहा है क्योंकि देश के निर्यात लगातार कम हो रहे हैं। देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए मोहम्मद यूनुस को सिर्फ चीन से कर्ज लेना ही एकमात्र रास्ता दिखाई दे रहा है लेकिन यही भारत की बड़ी समस्या बन सकता है। पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश भी चीन का गुलाम बन सकता है और इसका इस्तेमाल चीन भारत के खिलाफ रणनीतिक फायदे के लिए कर सकता है।

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी का पंजीकरण बहाल कर दिया है । ये संगठन ही हिंदुओं के उत्पीड़न के पीछे है, पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी सोच रखता है। इस संगठन को पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने देश विरोधी गतिविधियों के कारण प्रतिबंधित कर दिया था। ये संगठन बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने का गलत मानता है और कहा जाता है कि इसने बांग्लादेश निर्माण के समय पाकिस्तान का साथ दिया था। मोहम्मद यूनुस ने इस संगठन के ऊपर से प्रतिबंध हटा दिया था और इसका पंजीकरण बहाल होने के पीछे भी इसी सरकार का समर्थन है । बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ने शेख हसीना पर पिछले साल हुई हिंसा के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है जिससे भारत के लिए भी समस्या खड़ी हो सकती है क्योंकि शेख हसीना को बांग्लादेश भेजने की मांग जोर पकड़ सकती है । जिस पाकिस्तान ने लाखों बांग्लादेशियों की हत्या की थी, आज युनुस सरकार उसी पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ा रही है । कितनी अजीब बात है कि बांग्लादेश को आज पाकिस्तान दोस्त नजर आ रहा है और उसे बचाने वाला भारत दुश्मन दिखाई दे रहा है । 

            खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी ने पिछले हफ्ते ढाका में एक विशाल रैली का आयोजन किया और दिसम्बर तक चुनाव कराने की मांग की तो दूसरी तरफ सेना भी चाहती है कि बांग्लादेश में दिसम्बर तक चुनाव हो जायें । अगर चुनाव हो जाते हैं तो अवामी लीग की अनुपस्थिति में बीएनपी के सत्ता में आने की उम्मीद है  लेकिन समस्या यह है कि मोहम्मद युनुस अभी चुनाव नहीं कराना चाहते हैं । उन्हें पता है कि अगर चुनाव हुए तो उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ेगा । उनका लोकतंत्र विरोधी चेहरा सामने आ गया है । उनके मासूम चेहरे के  पीछे बैठा तानाशाह अब दिखाई देने लगा है ।  जमात-ए-इस्लामी और छात्र संगठन मोहम्मद युनुस का साथ दे रहे हैं कि वो चुनाव न करवायें । मोहम्मद युनुस को पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के साथ-साथ देश में बैठे कट्टरपंथियों का पूरा समर्थन है क्योंकि युनुस के समर्थन से सभी अपना खेल खेल रहे हैं । पाकिस्तान के एक आतंकवादी नेता ने दावा किया है कि शेख हसीना को हटाने के पीछे उनका भी हाथ है । चीन और आतंकवादियों के समर्थन से सत्ता में आये युनुस भारत के खिलाफ चीन के साथ समझौते कर रहे हैं, हालांकि सेना ने इसमें टांग अड़ा दी है कि ऐसे फैसले लेने का अधिकार उनके पास नहीं है । ऐसे फैसले लेने के लिए निर्वाचित सरकार का इंतजार करना चाहिए ।

 सेना को लगता है कि युनुस बांग्लादेश की सम्प्रभुता के साथ समझौता करके चीन से हाथ मिला रहे हैं । सेना यह भी नहीं चाहती कि बांग्लादेश पूरी  तरह से भारत से कटकर चीन की गोद में चला जाए । भारत के लिए संवेदनशील चिकन नेक के पास लालमोनिरहट में चीन एयरबेस बनाने जा रहा है, जो कि भारत के लिए बेहद गंभीर मामला है । चिकन नेक  से लगभग 20 किलोमीटर  दूर चीन का अड्डा होना भारत के लिये खतरे की घंटी है । बांग्लादेश के साथ सीमा पर तनाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि अभी भी बांग्लादेश से घुसपैठ जारी है । दूसरी तरफ भारत गैरकानूनी रूप से भारत में घुसे बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को वापिस भेज रहा है।  इससे भी बांग्लादेश नाराज दिखाई दे रहा है ।  इन हालातों में भारत चाहता है कि बेशक शेख हसीना की सत्ता में वापसी नहीं हो सकती लेकिन बांग्लादेश में कोई निर्वाचित सरकार आ जाए ताकि उससे बातचीत हो सके । भारत चाहता है कि किसी भी प्रकार मोहम्मद युनुस की घर वापसी हो जाये । ये व्यक्ति जब तक रहेगा, तब तक भारत का बांग्लादेश से संवाद नहीं हो सकता । ये व्यक्ति बिना किसी जिम्मेदारी के देश की सत्ता पर बैठा हुआ है और तानाशाह बनने की कोशिश कर रहा है । 

                मोहम्मद युनुस जब तक सत्ता में रहेगा, तब तक बांग्लादेश में हालात नहीं सुधर सकते । अगर जल्दी ही युनुस सत्ता से नहीं हटता है तो बांग्लादेश के हालात इतने खराब हो सकते हैं कि जिन्हें दोबारा ठीक करना संभव न हो सके । भारत अपने पड़ोस में एक और पाकिस्तान नहीं देखना चाहता लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे वहीं जा रही हैं । बांग्लादेश के आर्थिक हालात बिगड़ने पर भारत में घुसपैठ बढ़ सकती है जिससे पहले ही भारत परेशान है । 4000 किलोमीटर की बांग्लादेश सीमा से घुसपैठ को पूरी तरह से रोकना संभव नहीं है क्योंकि वहां का भूगोल कुछ ऐसा है और दूसरी तरफ पूरी  तरह से अभी सीमा पर बाड़बंदी भी नहीं की गई है । बांग्लादेश में कट्टरपंथियों की बढ़ती ताकत से भारत इसलिए भी परेशान है क्योंकि ये लोग बंगलादेशी हिन्दुओं के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं । भारत के लिए उम्मीद की किरण एकमात्र यही है कि आज भी बांग्लादेश की बड़ी आबादी भारत के महत्व को समझती है । वो जानती है कि बिना भारत के सहयोग के बांग्लादेश को काफी समस्याओं को सामना करना पड़ सकता है । दूसरी बात यह भी है कि बांग्लादेश निर्माण के समय पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए अत्याचारों को पूरी जनता तो भूल नहीं गई होगी । बेशक वो लोग चुप हैं जो जानते हैं कि उनका देश गलत रास्ते पर जा रहा है लेकिन वो चुप्पी चुनावों में टूट सकती है । बांग्लादेशी कभी नहीं चाहेंगे कि उनका देश दूसरा पाकिस्तान बन जाये । सवाल यह भी है कि क्या भारत चुपचाप सब देख रहा है । ऐसा नहीं हो सकता कि भारत सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी हुई हो । भारत सरकार भी बांग्लादेश के महत्व को जानती है इसलिए जो किया जा सकता है, वो किया जा रहा होगा ।

राजेश कुमार पासी