Home Blog Page 4

महाकुंभ 2025 ने पहुंचाया भारत को चौथी अर्थव्यवस्था में

पंकज जायसवाल

भारत ने एक ऐतिहासिक छलांग लगाते हुए जापान को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा प्राप्त किया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत की GDP अब $4.19 ट्रिलियन तक पहुँच चुकी है। यह उपलब्धि कई वर्षों की नीति, प्रयास और विशेषतः महाकुंभ 2025 जैसे असाधारण आयोजनों का परिणाम है। भारत को चौथी अर्थव्यवस्था तक पहुंचाने में कुंभ ने मारा है निर्णायक छक्का। भारत और जापान के बीच चौथे स्थान की होड़ पिछले दो वर्षों से जारी थी। लेकिन वर्ष 2025 में प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ ने वह ‘आर्थिक छक्का’ मारा जिसने भारत को जापान से ऊपर कर दिया। इस आयोजन में अनुमानित 4 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष और परोक्ष व्यय हुआ जिसने हर सेक्टर खुदरा, परिवहन, हॉस्पिटैलिटी, स्वास्थ्य, डिजिटल सेवाओं, MSME, FMCG आदि में खपत और मांग को तेज कर दिया। इसने भारतीय अर्थव्यवस्था में उसी तरह ऊर्जा भरी जैसे युद्धकाल में किसी देश की अर्थव्यवस्था को युद्धकालीन उत्पादन उठाता है। परिणामस्वरूप, वित्त वर्ष 2024-25 की GDP अपेक्षा से लगभग 1% अधिक रही और IMF को अपने अनुमान संशोधित करने पड़े। अगर यह आयोजन न हुआ होता तो शायद भारत कुछ अंकों से पीछे रह जाता और हम अभी भी पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होते।

कुंभ 2025 ने अर्थव्यवस्था में तात्कालिक माँग का इंजेक्शन भर मंदी की आशंका से भारत को दूर रखा. करोड़ों श्रद्धालुओं के आने-जाने, रहने, खाने, खरीदारी, चिकित्सा और डिजिटल लेन-देन से अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर एक जबरदस्त मांग-आधारित बूस्ट मिला। अस्थायी नहीं, संरचनात्मक विकास हुआ. कुंभ की तैयारियों के अंतर्गत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जो इंफ्रास्ट्रक्चर विकास (सड़कों, पुलों, डिजिटल कनेक्टिविटी, गंगा सफाई, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स) किया गया, वह आयोजन के बाद भी देश को लाभ देता रहेगा। सनातन अर्थशास्त्र की बेहतर समझ और योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व ने इस सूत्र की नब्ज पकड़ी और आस्था और अर्थव्यवस्था का संगम कराया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस दूरदृष्टि, सुशासन और व्यवस्थापन के साथ महाकुंभ का आयोजन कराया, उसने भारत ही नहीं, विश्व को दिखाया कि धार्मिक आस्था और आर्थिक उन्नति एक साथ कैसे चल सकते हैं। दुनिया ने सनातन अर्थशास्त्र के रूप में सनातन संस्कृति की अर्थशास्त्रीय शक्ति को देखा। कुंभ जैसे आयोजन भारत की उत्सवधर्मी संस्कृति का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ऐसे आयोजन उपभोग आधारित माँग उत्पन्न करते हैं और अर्थव्यवस्था को सतत गति में बनाए रखते हैं।

भारत की चोटी की इस चढ़ाई में महाकुंभ के साथ साथ मुख्य और तीन स्तंभ हैं. पहला स्तम्भ भारत सरकार की नीति और नेतृत्व। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, UPI, GST, इंफ्रास्ट्रक्चर पुश (PM गतिशक्ति, भारतमाला, सागरमाला, उड़ान योजना) ने भारत की उत्पादकता और व्यापार में नई जान फूंकी। अब भारत में बेचने के लिए निर्यात नहीं करना था उसे भारत में ही बनाना था जिससे आयात बिल और विदेशी मुद्रा खर्च में बचत तो हुई ही घरेलू उत्पादन बढ़ गया. इंफ्रास्ट्रक्चर पुश ने वैसा ही काम किया जैसे शरीर को खड़ा करने के लिए एक ढांचे की और रक्त को पहुंचाने के लिए रक्त धमनियां करती हैं. जैसे अगर यह दोनों रहेंगे तो ही शरीर रहेगा वैसा ही देश को खड़ा करने के लिए बुनियादी ढांचे और रक्त धमनी रूपी सप्लाई चेन इंफ़्रा की जरुरत होती है. मोदी सरकार ने दोनों मोर्चो पर काम किया. पीएम गतिशक्ति ने देश की गति को शक्ति दी, एयरवेज, हाइवेज, वाटरवेज, कार्गो इंफ़्रा में भारतमाला सागरमाला उड़ान योजना पर मोदी सरकार ने खूब काम किया, वहीं नितिन गडकरी ने अपने विज़न और अनुभव से बुनियादी ढांचे के निर्माण में एक बड़ी लकीर खींच कर इंफ़्रा में क्रांति लाया. इन कामों से संसाधनों निवेश एवं अवसर का समान रूप से वितरण देश में संभव हो पाया.

दूसरा स्तंभ भारत की बड़ी आबादी जो अफ्रीकन देशों की तरह दायित्व ना होकर सम्पत्ति है.ऐसी आबादी रुपी संपत्ति दुनिया के किसी देश के पास नहीं है चीन को छोड़कर. आज भारत की युवा आबादी उत्पादन, उपभोग और नवाचार की धुरी बन चुकी है। आयुष्मान भारत, स्किल इंडिया और पीएम विश्वकर्मा जैसी योजनाओं ने इसे और सक्षम किया है। ऊपर से भारत की इस आबादी और इसमें रचे बने इकॉनमी का मूल चरित्र उत्सवधर्मी है और तमाम पर्व, त्यौहार, उत्सव शादी ब्याह के आयोजन इकॉनमी में एक उत्प्रेरक के रूप में काम करते हैं और देश को हमेशा ही मंदी की आशंका से बाहर निकाल देते हैं. इन आयोजनों से बाजार में मांग हमेशा बनी रहती है और समाज और इकॉनमी ठहरती नहीं गतिशील रहती है. तीसरा स्तंभ है भारत का विकास दर. भारत की विकास दर अपने विकास के प्रतिद्वंदी देशों से कहीं आगे है. मुद्रा कोष  आंकड़ों के अनुसार निकटतम प्रतिद्वंदी चीन ही काफी पीछे चार की विकास दर लिए हुआ है. तीसरी इकॉनमी वाले जर्मनी की विकास दर तो नगण्य है, अमेरिका की 1.8, जापान की 0.6 तो यूनाइटेड किंगडम की 1.1 है. ये दूर दूर तक भारत को टक्कर देने की स्थिति में नहीं है. उपरोक्त आर्थिक ढांचे और उत्पादकीय आबादी और देश के सनातन अर्थशास्त्र चरित्र के साथ अगर विकास दर का गुणक मिल रहा है तो उस देश को ऊंची छलांग लगाने से कोई नहीं रोक सकता.

भारत का अगला लक्ष्य अब तीसरे स्थान की ओर बढ़ना है. अब भारत से आगे केवल तीन देश हैं जर्मनी, चीन, और अमेरिका। जर्मनी को पार करना संभव है, क्योंकि वहाँ की जनसंख्या, खपत, और विकास दर तीनों ही भारत से कम हैं लेकिन चीन और अमेरिका को पीछे छोड़ने के लिए दो रणनीतिक प्रयास आवश्यक हैं. इसके  लिए स्वदेशी को राष्ट्रीय आंदोलन बनाना पड़ेगा। सरकार WTO नियमों के कारण स्वदेशी को प्रोत्साहित नहीं कर सकती लेकिन यदि नागरिक स्वेच्छा से चीनी और अमेरिकी उत्पादों की जगह भारतीय उत्पाद अपनाएँ तो इसका GDP पर जबरदस्त असर पड़ेगा। दूसरा रणनीतिक प्रयास रिसर्च और पेटेंट पर ध्यान है. भारत को अपनी कंपनियों को नवाचार आधारित बनाना होगा ताकि वे ग्लोबल प्रीमियम चार्ज कर सकें। ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था ही भारत को अमेरिका के बराबर ला सकती है।

इस विमर्श का निष्कर्ष यही है कि भारत का सनातन अर्थशास्त्र चरित्र और इसकी उत्सवधर्मिता केवल आस्था ही नहीं, आर्थिक शक्ति भी है और महाकुंभ 2025 ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि भारत की सनातन परंपराएं केवल संस्कृति नहीं, आर्थिक विकास की चुपचाप ताकत हैं। अगर देश उत्सव आधारित आर्थिक योजना बनाकर उन्हें और व्यापक बनाता है तो भारत जल्द ही विकसित राष्ट्र बन सकता है।

पंकज जायसवाल

जाति जनगणना: गिनती नहीं, पहचान 

सचिन त्रिपाठी

भारत केवल एक भूगोल नहीं है। यह संवेदनाओं, विविधताओं, संघर्षों और चेतनाओं की जीवित भूमि है। यहां हर नदी की धारा, हर पर्वत की छाया, हर गांव की मिट्टी में एक कथा छिपी है  और इन सब कथाओं को जोड़ने वाली जो सबसे महीन और गहरी रेखा है, वह है जाति।

जाति  यह शब्द जितना साधारण दिखता है, उतना ही जटिल है इसकी गुत्थी। यह किसी व्यक्ति के नाम के साथ चलती है, कभी उसके आगे तो कभी उसके पीछे, परंतु उससे अलग कभी नहीं होती। यह उसके खाने, पहनने, बोलने, चलने, बैठने, यहां तक कि स्वप्न देखने के अधिकार को भी निर्धारित करती है। ऐसे में अगर कोई कहे कि भारत को जाति जनगणना की आवश्यकता नहीं, तो यह वैसा ही होगा जैसे कोई आंखें मूंदकर सूरज को नकार दे। जातियों की गणना कोई नया विचार नहीं है। ब्रिटिश भारत में 1931 में अंतिम बार व्यापक जातिवार जनगणना हुई थी। उसके बाद भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान बना, लोकतंत्र आया, लेकिन जातियों का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हुआ। वे हमारे सामाजिक व्यवहार में बनी रहीं।  किसी के आंगन की चौखट तक सीमित तो किसी के सपनों की ऊंचाई तक पहुंचने में बाधा बनीं।

इसलिए जब हम जाति जनगणना की बात करते हैं तो हम महज आंकड़ों की नहीं, बल्कि उन कहानियों की बात करते हैं जो आंकड़ों के पीछे छुपी हैं। वंचना की कहानियां, उपेक्षा की पीड़ाएं और संघर्ष की ज्वालाएं। क्या यह आवश्यक नहीं कि हम जानें, कौन-कौन से समाज अब भी अधूरे हैं? कौन-से वर्ग अब भी हाथ में पात्र लेकर अवसरों की भिक्षा मांग रहे हैं? भारत ने संविधान में वादा किया था। सबको समान अवसर मिलेगा। पर बिना यह जाने कि कौन कहां खड़ा है, यह समानता महज़ एक कविता बन जाती है सुंदर लेकिन असंभव।

जाति जनगणना उसी कविता को गद्य में बदलने का पहला कदम हो सकती थी। जब तक हमें यह न पता चले कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है, उनका आर्थिक स्तर क्या है, वे शिक्षा से कितनी दूर हैं। तब तक उनकी समस्याओं का समाधान कैसे संभव है? मान लीजिए, एक गांव में पांच जातियां हैं। एक ऊंची जाति, जो वर्षों से सब संसाधनों पर अधिकार रखती आई है, और चार वे जो छाया बनकर जीती रही हैं। यदि सबको समान रूप से योजनाएं दी जाएँ, तो क्या यह वास्तव में न्याय होगा? जाति जनगणना एक ऐसी दृष्टि प्रदान करती जिससे योजनाएं अंधेरे में तीर चलाने के बजाय सटीक निशाने पर उतरतीं।

भारतीय लोकतंत्र जाति से अनभिज्ञ नहीं है। हर चुनाव, हर टिकट, हर नारा कहीं न कहीं जाति की गणित में उलझा रहता है। राजनीतिक दल जब ‘बहुजन हिताय’ की बात करते हैं, तो उनका गणना तंत्र जातियों के अनुमानों पर आधारित होता है, न कि ठोस आंकड़ों पर। अगर जाति जनगणना होती, तो इस अनुमान का स्थान ज्ञान ले लेता। कौन जातियां अभी भी प्रतिनिधित्व से दूर हैं? किन्हें बार-बार सत्ता में हिस्सेदारी मिली और किन्हें केवल नारे? यह जानना आवश्यक है।

बिहार द्वारा 2023 में किये गए जातीय सर्वेक्षण से जब यह सामने आया कि राज्य की 84 प्रतिशत आबादी ओबीसी, ईबीसी और एससी एसटी में आती है, तो मानो समाज ने खुद को आईने में देखा। ऐसा ही आईना पूरे देश के सामने भी आ सकता था, अगर जाति जनगणना राष्ट्रस्तर पर की जाती। कुछ लोग यह आशंका प्रकट करते हैं कि जाति जनगणना से समाज में विघटन बढ़ेगा, जातीय पहचान और मजबूत होगी। यह तर्क सतही रूप से आकर्षक लगता है पर गहराई में देखें तो यह वैसा ही है जैसे कोई यह कहे कि बीमारी की जांच से बीमारी बढ़ जाती है।

सच तो यह है कि जाति की मौन उपस्थिति से ही अन्याय जन्म लेता है। जब तक जाति की गिनती नहीं होगी, तब तक जाति का शोषण छिपा रहेगा। जनगणना से यह छिपा हुआ अन्याय उजागर होगा और तभी सच्चे समाधान की दिशा तय होगी। भारत जातियों का संगम है। कोई महानदी है, कोई सूखी नाली, कोई समुद्र जैसा गहरा, तो कोई झील-सा शांत। पर हर प्रवाह में जीवन है, हर बूंद में अधिकार है। जाति जनगणना उस जीवन की माप थी, उस अधिकार की पहचान थी। यह केवल आंकड़े नहीं, यह आत्मस्वीकृति थी। यह स्वीकार करना था कि हमारी विविधता ही हमारी शक्ति है, और हर समुदाय, चाहे वह कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, वह इस राष्ट्र की गरिमा का हिस्सा है।

जाति जनगणना भारत के लिए एक दर्पण होगी, एक ऐसा दर्पण, जो हमें हमारा असली चेहरा दिखायेगा । शायद कुछ चेहरों पर धूल हो, कुछ पर घाव परंतु इन सबको देखकर ही तो हम उन्हें धो सकते हैं और भर सकते हैं । शायद इसीलिए, जाति जनगणना भारत के लिए ज़रूरी है , बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी आत्मा को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए एक गहरी सांस जरूरी होती है।

सचिन त्रिपाठी

मोबाइल पर बजने वाला आरबीआई का संदेश बन रहा परेशानी का कारण

-संदीप सृजन

भारतीय रिज़र्व बैंक देश की वित्तीय प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो मौद्रिक नीतियों को लागू करने, मुद्रा प्रबंधन और वित्तीय जागरूकता बढ़ाने जैसे कार्यों के लिए जाना जाता है। हाल के वर्षों में, आरबीआई ने जनता को साइबर धोखाधड़ी और वित्तीय अपराधों के प्रति जागरूक करने के लिए कई अभियान शुरू किए हैं। इनमें से एक अभियान में बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज का उपयोग किया गया, जिसका उद्देश्य लोगों को साइबर ठगी से बचाने के लिए जागरूक करना है। 

जब भी हम किसी नंबर पर कॉल करते हैं, तो कॉल कनेक्ट होने से पहले अमिताभ बच्चन की आवाज में एक संदेश सुनाई देता है, जिसमें साइबर धोखाधड़ी से बचने की सलाह दी जाती है। संदेश में आमतौर पर यह बताया जाता है कि कोई भी बैंक या वित्तीय संस्थान व्यक्तिगत जानकारी जैसे ओटीपी, पासवर्ड, या बैंक खाता विवरण नहीं मांगता। साथ ही, यह लोगों को संदिग्ध लिंक्स पर क्लिक करने या अनजान कॉल्स का जवाब देने से मना करता है। यह संदेश विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है, ताकि देश के हर हिस्से में लोग इसे समझ सकें। लेकिन, यह संदेश, जो मोबाइल फोनों पर कॉलर ट्यून के रूप में बजता है, कुछ लोगों के लिए परेशानी का कारण बन गया है। क्योंकि यह संदेश हर बार कॉल करने पर बार-बार सुनाई देता है, जिससे कुछ उपयोगकर्ताओं को असुविधा होने लगी। विशेष रूप से, वे लोग जो दिन में कई बार कॉल करते हैं, जैसे कि व्यवसायी, पेशेवर, या ग्राहक सेवा से जुड़े कर्मचारी, इस संदेश को सुनकर थकान और चिड़चिड़ापन महसूस करने लगे।

लोगों की सबसे बड़ी शिकायत यह है कि यह संदेश हर कॉल के साथ दोहराया जाता है। भले ही संदेश महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे बार-बार सुनना कुछ लोगों के लिए कष्टप्रद हो सकता है। विशेष रूप से, आपातकालीन स्थिति में, जब कोई तुरंत कॉल कनेक्ट करना चाहता है, यह संदेश देरी का कारण बन सकता है। हालांकि संदेश संक्षिप्त है, फिर भी यह 10-15 सेकंड तक चलता है। बार-बार कॉल करने वालों के लिए यह समय भी काफी लंबा लगता है। जो कि उनके समय को बर्बाद करता है।

अमिताभ बच्चन की आवाज, जो सामान्य रूप से प्रेरक और आकर्षक मानी जाती है, इस संदर्भ में कुछ लोगों को चेतावनी देने वाली या डरावनी लग सकती है। बार-बार एक ही संदेश सुनने से कुछ उपयोगकर्ताओं में तनाव या बेचैनी की भावना उत्पन्न हो सकती है। कुछ मामलों में, कॉलर ट्यून के कारण कॉल कनेक्ट होने में देरी होती है, जिससे उपयोगकर्ताओं को लगता है कि उनकी कॉल ठीक से काम नहीं कर रही। यह तकनीकी असुविधा उन लोगों के लिए विशेष रूप से परेशान करने वाली है जो कमजोर नेटवर्क क्षेत्रों में रहते हैं।

आरबीआई ने इस अभियान को लागू करने के लिए टेलीकॉम कंपनियों के साथ साझेदारी की है। जियो, एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया जैसी प्रमुख टेलीकॉम कंपनियों ने इस संदेश को अपने नेटवर्क पर कॉलर ट्यून के रूप में लागू किया। हालांकि, टेलीकॉम कंपनियों ने उपयोगकर्ताओं को इस संदेश को बंद करने का कोई विकल्प नहीं दिया है, जिससे असंतोष बढ़ा है। कुछ उपयोगकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इस संदेश को वैकल्पिक किया जाए, ताकि जो लोग इसे सुनना न चाहें, वे इसे बंद कर सकें।

टेलीकॉम कंपनियों को उपयोगकर्ताओं को यह विकल्प देना चाहिए कि वे इस संदेश को सुनना चाहते हैं या नहीं। एक साधारण सेटिंग के माध्यम से उपयोगकर्ता इसे अक्षम कर सकते हैं। हर कॉल पर संदेश बजाने के बजाय, इसे दिन में एक निश्चित संख्या तक सीमित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, दिन में पहली कुछ कॉलों पर ही यह संदेश बजे। संदेश को और संक्षिप्त किया जा सकता है ताकि यह उपयोगकर्ताओं के लिए कम कष्टप्रद हो। आरबीआई को जागरूकता बढ़ाने के लिए अन्य माध्यमों, जैसे सोशल मीडिया, टीवी विज्ञापन, या एसएमएस अभियानों पर भी ध्यान देना चाहिए। इससे कॉलर ट्यून पर निर्भरता कम होगी।

आरबीआई और टेलीकॉम कंपनियों को उपयोगकर्ताओं की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिए और इस अभियान को और उपयोगकर्ता-अनुकूल बनाने के लिए उपाय करने चाहिए। जागरूकता और सुविधा के बीच संतुलन बनाना महत्वपूर्ण है ताकि यह अभियान अपनी प्रभावशीलता बनाए रखे और साथ ही उपयोगकर्ताओं की असुविधा को कम करे। अमिताभ बच्चन की आवाज, जो पहले पोलियो उन्मूलन जैसे अभियानों में चमत्कार कर चुकी है, इस अभियान में भी सकारात्मक बदलाव ला सकती है, बशर्ते इसे सही दिशा में लागू किया जाए।

संदीप सृजन

भारतीय इंजीनियरिंग का अनोखा, नायाब नमूना है चिनाब ब्रिज 

हाल ही में हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर को चिनाब पुल का उद्घाटन करके एक बड़ी सौगात दी है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि यह(चिनाब पुल) दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे पुल है। 6 जून 2025 को चिनाब पुल का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी ट्रैक पर बने अंजी ब्रिज का भी लोकार्पण किया। ये देश का पहला ऐसा रेलवे ब्रिज(पुल) है जो केबल स्टेड तकनीक पर बना है। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि यह पुल नदी तल से 331 मीटर की ऊंचाई पर बना है। 1086 फीट ऊंचा एक टावर इसे सहारा देने के लिए बनाया गया है, जो करीब 77 मंजिला बिल्डिंग जितना ऊंचा है।यह ब्रिज अंजी नदी पर बना है, जो रियासी जिले के कटरा को बनिहाल से जोड़ता है। चिनाब ब्रिज से इसकी दूरी महज 7 किमी है। इस पुल की लंबाई 725.5 मीटर है।इसमें से 472.25 मीटर का हिस्सा केबल्स पर टिका हुआ है।

गौरतलब है कि यह ऐतिहासिक पुल न सिर्फ कश्मीर घाटी को पूरे भारत से जोड़ेगा, बल्कि क्षेत्र में व्यापार, पर्यटन और औद्योगिक विकास को भी नई गति देगा। बहरहाल, पुल के उद्घाटन के दौरान् प्रधानमंत्री ने कटरा और श्रीनगर को जोड़ने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। पाठकों को बताता चलूं कि इस ट्रेन के जरिये जम्मू से श्रीनगर का रास्ता केवल 3 घंटे का रह जाएगा। उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह जम्मू-कश्मीर में 46 हजार करोड़ की परियोजना है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जम्मू कश्मीर को दो नई वंदे भारत ट्रेनें मिलने तथा जम्मू में नए मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास होने से जम्मू और कश्मीर के विकास को नई गति मिल सकेगी। यह काबिले-तारीफ है कि अब वादिए कश्मीर भारत के रेल नेटवर्क से जुड़ गई है। बहरहाल, यदि हम यहां पर चिनाब पुल की बात करें तो यह ब्रिज, दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे आर्च ब्रिज है।चिनाब रेलवे ब्रिज को बनाने में भले ही 22 साल लगे हो, लेकिन अब इसके शुरू होने के बाद कश्मीर घाटी और जम्मू के बीच सीधा रेल रास्ता बन जाएगा। यह पहली बार होगा जब लोग कन्याकुमारी से सीधे ट्रेन के जरिए कश्मीर घाटी तक जा सकेंगे।वास्तव में चिनाब ब्रिज एक स्टील और कंक्रीट से बना आर्च ब्रिज है, जो रियासी जिले के बक्कल और कौरी गांवों को जोड़ता है और ये ब्रिज चिनाब नदी के ऊपर बना है। इसकी खासियत यह है कि ये नदी के तल से 359 मीटर (लगभग 1,178 फीट) ऊंचा है। यानी यह पेरिस के मशहूर एफिल टॉवर से 35 मीटर और दिल्‍ली की कुतुब मीनार से करीब 5 गुना ऊंचा यानी कि  287 मीटर ऊंचा है। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि 272 किलोमीटर लंबे इस रेल मार्ग में 1315 मीटर(करीब 4314 फीट) का यह ब्रिज उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेलवे लिंक प्रोजेक्ट का हिस्सा है। पाठकों को बताता चलूं कि इस पुल का निर्माण 1486 करोड़ की लागत से किया गया है तथा यह 266 किमी प्रति घंटे तक की हवा की गति का सामना कर सकता है। साथ ही, यह ब्रिज भूकंपीय क्षेत्र पांच में स्थित है और रिक्टर स्केल पर 8 तीव्रता के भूकंप को सहने में सक्षम है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि इस ब्रिज की नींव 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने रखी थी तथा इसके निर्माण में 22 साल लगे और इसकी अनुमानित उम्र 120-125 साल से अधिक है।चिनाब रेल ब्रिज की डिजाइन और तकनीकी(इंजीनियरिंग) विशेषताओं ने इसे दुनियाभर में चर्चा का विषय बना दिया है और यह पुल तकनीक के क्षेत्र में भारत के सामर्थ्य को बखूबी दिखाता है। जानकारी के मुताबिक, इस ब्रिज को बनाने में 28,660 से 30,000 मीट्रिक टन स्टील का इस्‍तेमाल किया गया है। इसके साथ ही 46,000 क्यूबिक मीटर कंक्रीट का भी यूज हुआ है। साथ ही 6 लाख से ज्‍यादा बोल्‍ट भी यूज किए गए हैं। यह काबिले-तारीफ है कि इस पुल को बनाने में नदी के प्रवाह को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है, नदी में कोई पिलर नहीं है, बल्कि इसे आर्च तकनीक(जैसा कि ऊपर जानकारी दे चुका हूं)से बनाया गया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसे 40 टन टीएनटी के बराबर विस्फोट सहने के लिए डिजाइन किया गया है तथा साथ ही इसमें खास पेंट का इस्तेमाल किया गया है, जो इसे 20 साल तक जंग से बचाएगा। पाठकों को बताता चलूं कि वास्तव में इस पुल को किसी हमले से बचने के लिए ब्लास्ट प्रूफ स्टील से तैयार किया गया है।इस ब्रिज के निर्माण में डीआरडीओ की अचूक प्लानिंग शामिल रही है।इसे बनाने के लिए उत्तर रेलवे के साथ कोंकण, अफकान और केआरसीएल ने काम किया। इसके साथ ही भारतीय भौगोलिक सर्वेक्षण जैसी संस्थाएं भी जुड़ी रहीं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसमें आईआईटी रूड़की और आईआईटी दिल्ली ने भी अपना योगदान दिया है। पुल के निर्माण में 28,660 मीट्रिक टन स्टील का इस्तेमाल हुआ है। इतना ही नहीं,पुल में ऐसी तकनीक स्थापित की गई है कि कोई भी खतरा होने पर वार्निंग अलार्म खुद ही बजने लगेगा। पाठकों को बताता चलूं कि पुल में 112 सेंसर लगाए गए हैं, जो हवा की गति, टेंपरचर और कंपन आदि की जानकारी देंगे। ये न केवल एक रेलवे पुल है, बल्कि यह जम्मू-कश्मीर को हर मौसम में देश से जोड़ने का एक मजबूत माध्यम भी है। स्वयं प्रधानमंत्री ने इस पर यह बात कही है कि -‘अब लोग चिनाब ब्रिज के जरिए कश्मीर देखने तो जाएंगे ही, साथ ही ये ब्रिज भी अपने आप में एक आकर्षक टूरिस्ट डेस्टिनेशन बनेगा। चिनाब ब्रिज हो या फिर आंजी ब्रिज ये जम्मू-कश्मीर की समृद्धि का जरिया बनेंगे। इससे टूरिज्म तो बढ़ेगा ही इकोनॉमी के दूसरे सेक्टर्स को भी लाभ होगा। जम्मू कश्मीर की रेल कनेक्टिविटी दोनों क्षेत्रों के कारोबारियों के लिए नए अवसर बनाएगी।’ इससे(चिनाब पुल से) देश की सैन्य ताकत को भी कहीं न कहीं बल मिलेगा, क्यों कि कश्मीर बर्फबारी के दिनों में भारत से कट जाता था। साथ ही कई क्षेत्रों में आपात स्थिति में सेना को अपनी मूवमेंट में इस बर्फबारी के समय काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था।अब चिनाब रेलवे ब्रिज के निर्माण से हर मौसम में कश्मीर पहुंचना सेना के लिए आसान हो जाएगा। पाठकों को बताता चलूं कि इस पुल के बारे में पाकिस्तान के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों में से एक डॉन ने यह लिखा है कि, ‘यह पुल चीन की सीमा से लगे भारत के बर्फीले क्षेत्र लद्दाख में रसद में भी क्रांति लाएगा।’ 

कहना ग़लत नहीं होगा कि चिनाब और अंजी ब्रिज के उद्घाटन के साथ जम्मू-कश्मीर ने विकास की नई राह पर कदम बढ़ाया है। ये परियोजनाएं न केवल क्षेत्र की कनेक्टिविटी को बेहतर करेंगी, बल्कि पर्यटन, व्यापार और आम लोगों की जिंदगी को भी आसान बनाएंगी। अब कश्मीर की सुंदरता और संसाधन देश-दुनिया से और भी करीब होंगे।अंत में यही कहूंगा कि चिनाब पुल भारतीय इंजीनियरिंग का एक नायाब व बड़ा तोहफा है, जिससे भारत को पाकिस्तान और चीन के खिलाफ रणनीतिक फायदे तो होंगे ही देशवासियों को इसका भरपूर फायदा मिलेगा।


सुनील कुमार महला

डॉ. रामअवतार किला : जिनकी हर पात में सेवा एवं संवेदना की झंकार हैं

0

-ः ललित गर्ग :-
आप एक सेतु बन सकते हैं, जीवन-मुस्कान का, जिन्दगी बचाने वाला एवं सेवा करने वाला पुल। हम एक साथ मिलकर जीवन को बचा सकते हैं, जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर कर सकते हैं, अंधेरों के बीच रोशनी बन सकते हैं। इसी सोच के साथ ‘अक्षय सेवा’ के संयोजक डॉ. रामअवतार किला पिछले दो दशकों से जरूरतमंद मरीजों को परामर्श, दवा एवं ईलाज की सुविधाएं उपलब्ध कराने में सतत रूप से कार्यरत हैं। उनके नेतृत्व में चलाए जा रहे ‘हॉस्पिटल फूड ड्राइव’ के अंतर्गत अप्रैल 2017 से दिल्ली के प्रमुख सरकारी अस्पतालों एम्स, सफदरजंग, राममनोहर लोहिया एवं 2023 से लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के बाहर प्रतिदिन लगभग 2500 लोगों को निःशुल्क भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। डॉ. किला के नेतृत्व में गत आठ वर्षों में अब तक 70 लाख से अधिक लोगों को इस पहल के अंतर्गत भोजन वितरित किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त, एम्स पावरग्रिड विश्राम सदन सहित देश के छह अन्य शहरों पटना, लखनऊ, झज्जर आदि में रोगियों एवं उनके परिजनों के लिए 2000 से अधिक बिस्तरों की विश्राम सुविधा उपलब्ध करवाई जा रही है। ऋषिकेश में निर्माणाधीन ‘माधव सेवा विश्राम सदन’, जिसमें 500 बिस्तरों की व्यवस्था होगी, जो जल्द ही जनसेवा के लिए समर्पित किया जाएगा। इस तरह डॉ. किला जिन्दगियों को बचाने वाले खूबसूरत पुलों का निर्माण करते हैं। उनकी जिन्दगी की हर पात में सेवा एवं परोपकार की झंकार सुनी जा सकती है।
समय की शिला पर मान, यश, सृजन-सेवा, निष्ठा-आस्था से भरी अनूठी कहानी हैं डॉ. रामअवतार किला की। प्रख्यात समाजसेवी,, गौसेवक, कर्मयोद्धा एवं जुझारू व्यक्तित्व के धनी डॉ. किला एक प्रसिद्ध चार्टर्ड एकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी एवं कॉर्पोरेट सलाहकार हैं, जिन्होंने अपने कैरियर में वित्तीय परामर्श और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया है। मूल रूप से राजस्थान के चुरू जिले से ताल्लुक रखने वाले डॉ. किला वर्ष 1977 में उच्च अध्ययन एवं कैरियर निर्माण के उद्देश्य से दिल्ली आए। उन्होंने वर्ष 1982 में कंपनी सेक्रेटरी (सीएस) तथा 1983 में चार्टर्ड एकाउंटेंसी (सीए) की डिग्रियां प्राप्त की। वित्तीय सेवाओं के क्षेत्र में अपनी अद्वितीय व्यावसायिक दक्षता, ईमानदारी एवं दूरदर्शिता के बल पर डॉ. किला ने ‘परफेक्ट ग्रुप’ के माध्यम से कॉर्पोरेट परामर्श में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। वह वर्तमान में परफेक्ट ग्रुप के चेयरमैन हैं। इसके अतिरिक्त वे कई सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों के साथ सक्रिय भूमिका में जुड़े हुए हैं। वे समाज एवं परिवार के लिए एक प्रेरणा हैं, साहस के प्रतीक हैं, एक प्रकाश हैं और संवेदनाओं के पुंज सेवार्थी एवं परोपकारी व्यक्तित्व हैं। वक्त के अलग-अलग अवसरों पर इस दिव्य व्यक्तित्व की कहानी को सब कोई घटते हुए देख रहे हैं, एक इतिहास बनते हुए देख रहे हैं, एक सृजनात्मक जीवनगाथा को गुंथते हुए देख रहे हैं। डॉ. किला एक अनूठा एवं विलक्षण व्यक्तित्व है, जो उन्हें ठीक लगता है, वही करते हैं। वे बेचैन रहते हैं किसी के अभाव को देखकर। वे खिल उठते हैं किसी की मुस्कान को देखकर।
जैसे सूर्य की किरणें निर्ब्याज भाव से सभी को आलोकित करती है, ऊष्मा पहुंचाती है और चांद की किरणें सभी जगह फैलती है तथा सभी को अपने धवल-शीतल आगोश में सहलाती और तापमुक्त करती है, कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व है डॉ. किला का। उनके ज्ञान, सेवा और स्नेह की निर्ब्याज और सतत प्रवाहित स्रोतस्विनी में जिसे भी एक बार अवगाहन करने का सुयोग मिला, वह इस अनुभूति से कृतार्थता का अनुभव किए बिना नहीं रह सका। उनके सान्निध्य से आदमी अचानक तापमुक्त और ऊंचा अनुभव करने लगता हैं। डॉ. किला को देखकर ही मैंने जाना कि आदमी इतना बड़ा होकर भी इतना निरहंकारी, सादगीमय एवं सरल होता है। उन्होंने अपने कर्म क्षेत्र में अनेक नये आयाम गढ़े और वित्त के क्षेत्र को भी अनेक रचनात्मक दिशाएं दी हैं।
गरीब एवं निर्धन वर्ग की सेवा में समर्पित डॉ. किला जैसे व्यक्तित्व विरल होते हैं, जिनकी सारस्वत साधना की सुरभि चतुर्दिक व्याप्त है तथा जिनकी यशोपताका सर्वत्र फैली हुई है, तथापि जो अपने व्यक्तित्व को सर्वथा सहज, अकृत्रिम एवं निष्कलुष बनाकर रखे हुए है। मधुरभाषी, व्यवहारकुशल, कुशल प्रशासक, जीवनदृष्टि को समझने में सजग एवं पटु डॉ. किला का जीवन समाजसेवा एवं संवेदनाओं से सराबोर है। ‘कभी नहीं हारेगी जिन्दगी’ के संकल्प के साथ जरूरतमंदों एवं अभावग्रस्त लोगों की जिन्दगी में रोशनी बनने वाले डॉ. किला ‘भाऊराव देवरस सेवा न्यास’ के संस्थापक ट्रस्टी एवं कोषाध्यक्ष है। डॉ. किला की प्रकृत-ऊर्जा विलक्षण हैं। वे कितने सारे सामाजिक, धार्मिक अनुष्ठानों, जिम्मेदारियों और सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े हैं कि सेवा एवं परोपकार की कितनी शाखाओं और कितनी धाराओं से उनका परिचय रहा, यह देखकर आश्यचर्यचकित रह जाना पड़ता है। उनकी ज्ञान-पिपासा, कर्मठता और निरालस्य सजगता युवकों को चुनौती देने वाले गुण हैं। वे एक समर्थ सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, मर्मज्ञ और संस्कृतिपुरुष के रूप में एक प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
डॉ. किला शिक्षा के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। वे ‘अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच दक्षिणी दिल्ली’ के संस्थापक अध्यक्ष हैं। मंच के तत्वाधान में राजस्थान से आने वाले छात्रों के लिये सुपर 30 कार्यक्रम के रूप में संचालित छात्रावास का संचालन करने के साथ ही सीए किला पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से सैकड़ों चार्टर्ड अकाउंटेंट और एमबीए छात्रों का मार्गदर्शन भी कर रहे हैं। निम्न वर्ग के विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क भोजन, आवास एवं शिक्षा की सुविधा भी प्रदान की जाती है व राष्ट्रीय स्तर पर रक्तदान, कैलिपर कैम्प, क्लेफ्ट लिफ्ट, अंगदान और पोलियो उन्मूलन शिविर आदि जैसे विभिन्न सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय रूप से शामिल हैं। वे बड़े से बड़ा कार्य करते हैं लेकिन किसी सामान्य या छोटा-सा काम करने में जरा सा संकोच नहीं करते। अपने उच्च-स्थान का लाभ उठाने का लोभ उन्हें छू भी नहीं पाया। वे जो कुछ हैं, अपनी प्रतिभा, जिजीविषा, संकल्प, भक्ति और संघर्षजन्य शक्ति के बल पर हैं। उन्हें जीवन में अनेक बार कटु अनुभव भी हुए थे, किन्तु उनके व्यक्तित्व में उनका कोई दंश शेष नहीं, अपितु उनके जीवन में सतत-सात्विक मधुरता ही बढ़ती ही जा रही है। डॉ. किला को कभी भी परेशानियों ने विचलित नहीं किया। वे कहते हैं, मुझे लगता है, मुझे ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हैं, जो कुछ करना चाहता हूं, वह कर रहा हूं। उनका जीवन साधन-सम्पन्न लोगों एवं जरूरतमंदों के बीच एक सेतु हैं, एक पुल है। आशा का पुल, सेवा का पुल, शांति का पुल, जिन्दगी की मुस्कान का पुल। सचमुच वे प्रेरणास्पद हैं और उनमें बड़े मानुष का बड़प्पन झलकता हैं। वे परिवार और समाज के साथ-साथ गरीबों एवं जरूरतमंदों के लिए स्नेह के छांव देने वाले बरगद ही हैं।
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. किला एक उच्च मूल्य मानकों को जीने वाले व्यक्तित्व हैं। उनके व्यक्तित्व में एक संपूर्ण मनुष्य के सारे गुण समाहित हैं। उनकी सहज आत्मीयता, खुलापन एवं मुक्त अट्टहास अनोखा हैं। उनके मुख पर सदैव मंद-मंद स्मिति ही विलसती हुई देखी जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उनका समग्र जीवन वित्त-विशेषज्ञता को समर्पित होकर भी सेवा के विविध आयामों से जुड़ा है। वे सामाजिकता की एक अनूठी मिसाल है। यही कारण है कि डॉ. रामअवतार किला को हाल ही में राजस्थान फाउंडेशन द्वारा दिल्ली चैप्टर का अध्यक्ष मनोनित किया है। इस संस्था के साथ साथ वह अन्य संस्थाओं में भी अपनी भूमिका निभा रहे है जिनमें मुख्य रूप से ट्रस्टी राजस्थान मित्र मंडल, श्री मथुरा वृंदावन हासानन्द गोचर भूमि ट्रस्ट, सदस्य अखिल भारतीय प्रादेशिक मारवाड़ी सम्मेलन, पूर्व अध्यक्ष अखिल भारतीय वैश्य महासम्मेलन दक्षिणी दिल्ली, पूर्व अध्यक्ष रोटरी क्लब ऑफ दिल्ली वसंत वैली, संस्थापक परफेक्ट फाउंडेशन एवं परफेक्ट इंस्टिट्यूट ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट तथा सक्रिय सदस्य लॉयन्स क्लब, माहेश्वरी क्लब, दिल्ली पैनोरमा क्लब, राजस्थान रत्नाकर, रामकृष्ण सेवा संस्थान आदि। वे राजस्थान के होकर दिल्ली में राजस्थानी संस्कृति को जीवंतता देने में जुटे हैं।
विचारों, सामाजिक चेतना, धर्मनिष्ठा में गहरे रमे हुए डॉ. किला के जीवन और परिवार में अद्भुत सादगी और सात्विकता की व्याप्ति दिखायी पड़ती है। उनके बच्चे धार्मिक संस्कारों में शिक्षित-दीक्षित होकर आज अव्वल मुकामों पर अपने होने का अहसास करा रहे हैं। तमाम आधुनिक परिवेश के बावजूद डॉ. किला के संस्कारों के कारण उनमें सौम्यता और शालीनता दिखायी पड़ती है। लगता है डॉ. किला के व्यक्तित्व की सादगी, धर्मनिष्ठा, सामाजिकता एवं आध्यात्मिकता पूरे पारिवारिक परिवेश में व्याप्त है। सीए डॉ. किला एक ऐसे समर्पित व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने न केवल अपने पेशेवर जीवन में अपूर्व ऊंचाइयां प्राप्त की हैं, अपितु सामाजिक सेवा को भी अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। उनका जीवन वास्तव में आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। डॉ. किला के पास काम करने की अथक शक्ति है और काम किन दिशाओं में होना चाहिए इसका भी ज्ञान उन्हें हैं। प्रकृति ने ही डॉ. किला को मेधा, चिंतन क्षमता, वाकपटुता, कौशल का जो अवदान दिया वह बहुत कम लोगों को प्राप्त होता है। ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता कम ही मिलते हैं, जिनमें चिंतन-मनन, कार्यकौशल, अध्ययन, तथ्यपरकता और सरसता का ऐसा मणिकांचन योग हो। वे समाज-निर्माता हैं, गहन परोपकारी हैं और संस्कृतिपुरुष भी हैं। 

भारतीय अर्थव्यवस्था को भारतीय रिजर्व बैंक के दो महत्वपूर्ण तोहफे

वैश्विक स्तर पर विश्व के कई देशों में आर्थिक गतिविधियों पर संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका में तो श्री डॉनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से नित नई घोषणाएं की जा रही है। कभी टैरिफ को बढ़ाया जा रहा है तो कभी टैरिफ को लागू करने की तारीखों में परिवर्तन किया जा रहा है तो कभी टैरिफ को कम किया जा रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अफरा तफरी का माहौल बन गया है। अभी हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ट्रम्प एवं अमेरिका के एक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली मंत्री श्री एलान मस्क के बीच युद्ध छिड़ गया है एवं अब वे एक दूसरे पर गम्भीर आरोप लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का इन सब बातों से बहुत नुक्सान होता हुआ दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी भत्ता लेने वाले नागरिकों की संख्या में वृद्धि हो रही है, अमेरिकी कम्पनियों द्वारा कर्मचारियों की छंटनी पर विचार किया जा रहा है एवं आर्थिक विकास दर कम हो रही है। दूसरी ओर, रूस यूक्रेन के बीच युद्ध खत्म होने के आसार अभी भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। एक तरह से इजराईल, हम्मास के बीच युद्ध अभी भी जारी ही है। चीन एवं अमेरिका के बीच में आई खटास भी कम होने का नाम नहीं ले रही है।

वैश्विक स्तर पर इन समस्त घटनाओं के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था नित नई ऊचाईयों को छूने की ओर अग्रसर है। भारत में नागरिक शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के प्रति कटिबद्ध हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों के उपक्रम एवं निजी क्षेत्र की कम्पनियां देश के आर्थिक विकास को गति देने में अपने प्रयास लगातार तेज करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसी क्रम में, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा दिनांक 6 जून 2025 को द्विमासिक मुद्रा नीति की घोषणा करते हुए, देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य से, दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं। एक, रेपो दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 6 प्रतिशत की दर से नीचे लाकर 5.5 प्रतिशत कर दिया गया है। केलेंडर वर्ष 2025 में रेपो दर में यह लगातार तीसरी कटौती की गई है एवं कुल मिलाकर रेपो दर में 100 आधार बिंदुओं की कमी की जा चुकी है। फरवरी 2025 एवं अप्रेल 2025 घोषित की गई मुद्रा नीति के माध्यम से रेपो दर में दोनों बार 25 आधार बिंदुओं की कमी की गई थी। रेपो दर उस दर को कहते हैं, जिस दर पर भारतीय रिजर्व बैंक विभिन्न बैंकों को आवश्यकता पड़ने पर ऋण उपलब्ध कराता है एवं विभिन्न बैंक रेपो दर को आधार दर बनाते हुए इस दर पर कुछ आधार बिंदु (जमाराशि की लागत एवं लाभ की राशि का समायोजन करते हुए) जोड़ते हुए, ब्याज की दर पर, अपने ग्राहकों को ऋणराशि उपलब्ध कराते हैं।  

दूसरे, भारतीय रिजर्व बैंक ने नकद आरक्षित अनुपात में सीधे ही 100 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 4 प्रतिशत की दर से घटाकर 3 प्रतिशत की दर पर ला दिया है। इससे, भारत में बैकों के पास 2.5 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि ऋण प्रदान करने के उद्देश्य से उपलब्ध हो जाएगी एवं सिस्टम में तरलता बढ़ जाएगी। नकद आरक्षित अनुपात उस अनुपात को कहते हैं, जिस पर विभिन्न बैंकों को अपने मांग एवं जमा देयताओं की राशि पर इस अनुपात की दर से नकदी राशि भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा करानी होती है। अतः यह राशि इन बैंकों की पहुंच से बाहर हो जाती है एवं ऋण के रूप में इसे बैंक के ग्राहकों को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। यदि नकद आरक्षित अनुपात को कम कर दिया जाता है तो बैंकों के पास यह राशि ऋण के रूप में प्रदान करने के लिए उपलब्ध हो जाती है। इससे स्पष्टत: बैंकों की लाभप्रदता में सुधार होता है।

भारतीय रिजर्व बैंक के उक्त महत्वपूर्ण दोनों निर्णयों से वैश्विक स्तर पर विपरीत परिस्थितियों के बीच भारत में उत्पादों की आंतरिक मांग उत्पन्न करने में सहायता मिलेगी क्योंकि बैंक अपने ग्राहकों को प्रदान की जाने वाली ऋणराशि पर ब्याज दरों को कम करेंगे। इससे, विशेष रूप से व्यक्तिगत ऋण, गृह ऋण, वाहन ऋण, आदि सस्ते होंगे और अब प्रति माह ग्राहकों द्वारा इन ऋणों पर अदा की जाने वाली मासिक किश्त की राशि में कमी आएगी और इन नागरिकों के पास खर्च करने के लिए अतिरिक्त राशि उपलब्ध होने लगेगी, जिसे वे अन्य पदार्थों को खरीदने में खर्च कर सकेंगे। साथ ही, ऋण पर ब्याज राशि कम होने से विभिन्न उत्पादक कम्पनियों की लाभप्रदता में वृद्धि होगी क्योंकि उन्हें अब बैंकों से लिए गए ऋण पर कम ब्याज देना होगा। लाभप्रदता में होने वाली इस अतिरिक्त वृद्धि के चलते यह कम्पनियां अपनी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के बारे में गम्भीरता से विचार करेंगी क्योंकि उत्पादों की होने वाली मांग में वृद्धि की पूर्ति जो करनी है।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जून 2025 माह में घोषित मौद्रिक नीति को अर्थशास्त्रियों एवं बैंकिंग जगत के विशेषज्ञों द्वारा हाल ही के वर्षों में घोषित की गई सबसे बेहतरीन मौद्रिक नीति माना जा रहा है। इस मौद्रिक नीति को भारत के शेयर बाजार ने भी दिनांक 6 जून 2025 को त्वरित सकारात्मक उत्तर दिया और निफ्टी एवं सेन्सेक्स में एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। ब्याज दरों से जुड़े क्षेत्रों विशेष रूप से बैंकिंग, रीयल एस्टेट एवं ऑटो क्षेत्र की कम्पनियों के शेयरों में जोरदार उछाल देखने को मिला है। दरअसल अधिकतर अर्थशास्त्री रेपो दर में 25 आधार बिंदुओं की उम्मीद कर रहे थे परंतु भारतीय रिजर्व बैंक ने 50 आधार बिंदुओं की कमी की घोषणा करते हुए अपनी आक्रात्मक नीति का परिचय दिया है। अतः रेपो दर में उम्मीद से अधिक कटौती होने पर निवेशकों का भारतीय कम्पनियों, विशेष रूप से वे कम्पनियां जो घरेलू मांग एवं ऋण पर निर्भर रहती हैं, पर भरोसा बढ़ा है।            

भारतीय कम्पनियों की लाभप्रदता एवं उत्पादों की बिक्री में लगातार हो रहे तेज सुधार के चलते इन भारतीय कम्पनियों की साख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बढ़ेगी। आगे आने वाले समय में यह कम्पनियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का स्वरूप भी ले सकती हैं। और फिर, ब्याज दरों में लगातार की जा रही कमी के चलते इन कम्पनियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की उत्पादन लागत भी कम होगी जिससे इन कम्पनियों के उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बन सकेंगे। हां, भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने स्टैन्स को अकोमोडेटिव से न्यूट्रल जरूर कर दिया है जिसके चलते भारतीय रिजर्व बैंक रेपो दर में आगे आने वाले समय में आवश्यकता पड़ने पर बढ़ौतरी कर सकता है। जबकि अकोमोडेटिव स्टैन्स में रेपो दर में केवल कमी करने की सम्भावना निहित रहती है। परंतु, आगे आने वाले समय में यदि मंहगाई की दर पर नियंत्रण बना रहता है जिसकी सम्भावना भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भी की गई है और औसत मंहगाई दर के अनुमान को 4 प्रतिशत से घटाकर 3.70 प्रतिशत कर दिया गया है। अतः बहुत सम्भव है कि भारतीय रिजर्व बैंक को न्यूट्रल स्टैन्स के बावजूद रेपो दर में कमी ही करनी पड़ सकती है।    

कुल मिलाकर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मंहगाई की दर में आई कमी एवं विकास दर में आई सुस्ती को देखते हुए रेपो दर एवं नकद आरक्षित अनुपात में आक्रात्मक रूप से की गई कटौती को एक सक्रिय निर्णय कहा जा सकता है। इससे अर्थव्यवस्था में खपत एवं निवेश को बढ़ावा मिलेगा, उत्पादों की मांग में वृद्धि होगी, उद्योग जगत अपनी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के उद्देश्य से अपने पूंजीगत खर्चों को बढ़ाने पर विचार करेगा। चूंकि भारत में मुद्रा स्फीति की दर अब नियंत्रण में है अतः भारतीय रिजर्व बैंक ने देश में विकास दर को बढ़ाने को प्राथमिकता दी है। हालांकि अपने स्टैन्स को न्यूट्रल रखकर मुद्रा स्फीति एवं वैश्विक स्तर पर विभिन्न जोखिमों पर भी नजर बनाए रखने का आभास दिया है। इसीलिए विभिन्न अर्थशास्त्रियों एवं बैंकिंग जगत के विशेषज्ञों द्वारा इस मुद्रा नीति को एक क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है।  

प्रहलाद सबनानी

मैंl वह बड़ा बेटा हूँ

बौद्धिक आतंकवाद
बौद्धिक आतंकवाद

✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ


मैं वह बड़ा बेटा हूँ,
जिसने हँसकर जीवन की आग पिया है।
जिसने चुपचाप लुटा अपना यौवन,
और घर का भाग्य सिया है।

जो माँ की छाया बना रहा,
पिता की लाठी बन कर चला,
भाई की पढ़ाई में खो गया,
बहन की शादी में गल गया।

सपनों का शव ढोता रहा,
अपनों का ऋण ढोता रहा।
न मोल मिला, न बोल मिला,
बस जिम्मेदारियों का तोल मिला।

जब-जब थका, तो कह दिया गया —
“अब तू बदल गया है रे,
अब तू खुदगर्ज़ हो गया है!”
मेरे त्यागों को गिना नहीं गया,
मेरी गलतियाँ उभारी गईं।

मैं वह बेवकूफ बेटा हूँ,
जो घर की नींव में दबा था,
जिसके सपनों का चिता जलाया गया,
पर पूजा नहीं गया।

मैंने चूल्हा जलाया, तो रोटी सबने खाई,
मैंने छत बनाई, तो चैन सबने पाया,
पर जब अपने लिए छाया मांगी,
तो मुझे ही स्वार्थी कहकर ठुकराया।

हे समाज! तू क्यों मौन रहा,
जब मेरा अस्तित्व कुचला गया?
तू क्यों तालियाँ बजाता रहा,
जब मेरा आत्मसम्मान झुलसा गया?

अब मत रोक मुझे,
अब मत कह “कर्तव्य निभा”,
अब मैं भी जीऊँगा
अपने लिए,
अपनी राह चला।

अब जो बीत गया, वह बीत गया,
अब बड़ा बेवकूफ बेटा नहीं,
एक प्रश्न बनकर जीएगा।
अब हर घर में कोई बेवकूफ बेटा
मौन नहीं रहेगा —
बलिदान नहीं,
विचार करेगा,
प्रश्न करेगा,
विद्रोह करेगा।

— डॉ सत्यवान सौरभ

राखीगढ़ी: भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक

इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ

हरियाणा स्थित राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है, जहाँ से मिले 4600 साल पुराने महिला कंकाल, शंख की चूड़ियाँ और ताम्र नृत्यांगना की प्रतिमा सभ्यता में स्त्री की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करते हैं। डीएनए विश्लेषण ने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ पर सवाल उठाए हैं और भारत की सांस्कृतिक निरंतरता को सिद्ध किया है। राखीगढ़ी अब केवल एक पुरातात्विक खोज नहीं, बल्कि भारत के अतीत की आत्मा से संवाद का जीवंत माध्यम है।

हरियाणा के हिसार जिले का एक सामान्य-सा गांव राखीगढ़ी, अब वैश्विक पुरातात्विक विमर्शों का केंद्र बन चुका है। 1997-99 के दौरान हुए उत्खननों ने इसे हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े स्थलों में गिना जाना शुरू किया, और 2012 में विश्व विरासत कोष की ‘खतरे में पड़ी धरोहरों’ की सूची में इसकी उपस्थिति ने वैश्विक ध्यान खींचा। परन्तु इसके बाद जो मिला – एक महिला का 4600 वर्ष पुराना कंकाल, उसके बाएं हाथ की शंख की चूड़ियाँ, और ताम्र की बनी एक नृत्यांगना प्रतिमा – उन सभी ने इतिहास और पुरातत्व के स्थापित आख्यानों को चुनौती देना शुरू कर दिया।

राखीगढ़ी से मिला स्त्री कंकाल सिर्फ एक पुरातात्विक खोज नहीं है, यह उन असंख्य ‘मौन स्त्रियों’ की प्रतीकात्मक उपस्थिति है जिन्हें सभ्यता की कहानी से सदा बाहर रखा गया। यह कंकाल लगभग 4600 वर्ष पुराना है, और अद्भुत रूप से संरक्षित अवस्था में मिला। उसकी बाईं कलाई पर शंख की चूड़ियाँ मिलीं – यह उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों की ओर संकेत करती हैं। डीएनए विश्लेषण से यह पता चला कि इस महिला के आनुवंशिक संबंध प्राचीन ईरानियों और दक्षिण-पूर्व एशियाई शिकारी-संग्राहकों से तो हैं, लेकिन स्टेपी चरवाहों से कोई संबंध नहीं मिला – जिनसे अक्सर भारत में आर्यों के आगमन को जोड़ा जाता है। यह निष्कर्ष ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को एक बड़ा झटका देता है और यह संकेत देता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक विकास अपनी निरंतरता में हुआ।

मोहेंजोदाड़ो की विश्वप्रसिद्ध कांस्य नर्तकी की तरह, राखीगढ़ी से भी एक ताम्र प्रतिमा मिली है जिसे “डांसिंग गर्ल” कहा जा रहा है। यह मूर्ति न केवल सौंदर्यबोध और कलात्मकता का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि उस काल में नारी की उपस्थिति सांस्कृतिक और सार्वजनिक जीवन में कितनी सशक्त रही होगी। यह मान्यता को चुनौती देती है कि प्राचीन सभ्यताओं में स्त्रियां केवल घरेलू क्षेत्र में सीमित थीं।

कंकाल मिलने के स्थल पर अग्निवेदिकाओं के अवशेष भी मिले हैं, जो यह संकेत करते हैं कि शवदाह की परंपरा उस समय भी प्रचलित थी। अग्नि, जिसे वैदिक परंपरा में शुद्धिकरण और संस्कार का प्रतीक माना गया है, उसका हड़प्पा काल में इतना महत्वपूर्ण स्थान होना यह दर्शाता है कि वैदिक और हड़प्पा परंपराएं एक-दूसरे से पूर्णतः असंबंधित नहीं थीं।

कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत युद्ध लगभग 5000-5500 वर्ष पूर्व हुआ था। यदि यह मान लिया जाए, तो राखीगढ़ी की स्थापना इस युद्ध से पहले की मानी जा सकती है। एक किंवदंती यह भी है कि महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवाएं यहीं शरण लेने आई थीं, और यही से इस स्थान का नाम ‘राखीगढ़ी’ पड़ा – ‘राख’ यानी मृत्यु की राख, और ‘गढ़ी’ यानी शरण। ऐसी मिथकीय व्याख्याएं ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं, परंतु वे यह दर्शाती हैं कि स्थानीय जनमानस में राखीगढ़ी की सांस्कृतिक स्मृति कितनी गहरी है।

राखीगढ़ी से मिले महिला कंकाल का जीनोमिक विश्लेषण केवल पुरातत्व नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास-लेखन में एक बड़ा मोड़ है। स्टेपी डीएनए की अनुपस्थिति सीधे उस विचारधारा को चुनौती देती है जिसने लंबे समय तक ‘आर्य आक्रमण’ को भारत में सभ्यता के आगमन का कारण बताया। इस अध्ययन ने इतिहास, नृविज्ञान और भाषाविज्ञान के विशेषज्ञों को एक बार फिर यह सोचने पर विवश किया है कि क्या आर्य बाहर से आए थे या यहीं के थे? क्या वैदिक संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति में कोई ‘टकराव’ नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रवाह था?

राखीगढ़ी की खोजों के परिणाम अब एनसीईआरटी जैसे शैक्षिक निकायों के पाठ्यक्रम में भी दिखाई दे रहे हैं। हड़प्पा सभ्यता को अब केवल एक ‘अतीत’ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की निरंतरता के रूप में पढ़ाया जा रहा है। संस्कृत भाषा की उत्पत्ति, द्रविड़ भाषाओं के विकास और हड़प्पावासियों की भाषा पर भी अब नए सिरे से अध्ययन हो रहे हैं। यह केवल पुरातत्व नहीं, राष्ट्र की आत्मा की खोज है।

2012 में वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फंड ने राखीगढ़ी को एशिया के उन 10 धरोहर स्थलों में शामिल किया जो विनाश के कगार पर हैं। अफगानिस्तान का मेस आयनाक, चीन का काशगर और थाईलैंड का अयुथ्या भी इस सूची में शामिल हैं। भारत में अक्सर पुरातत्व स्थलों को विकास के नाम पर या अनदेखी की वजह से नुकसान पहुंचता है। राखीगढ़ी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे पर्यटन केंद्र मात्र बनाना चाहते हैं या जीवित शोध प्रयोगशाला।

राखीगढ़ी की महिला चुप है, पर उसकी चूड़ियाँ बोलती हैं। उसका सिर उत्तर की ओर है – शायद भविष्य की ओर, या शायद प्रश्न की ओर। ‘डांसिंग गर्ल’ स्थिर है, फिर भी आंदोलित करती है। यह स्थल अब सिर्फ पुरातत्व नहीं, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और अस्मिता की बहस का हिस्सा बन चुका है।

यह सवाल केवल अतीत को जानने का नहीं है, यह तय करने का भी है कि हम किस अतीत को स्वीकार करते हैं – लादे गए इतिहास को या खोजे गए इतिहास को?राखीगढ़ी केवल मिट्टी में दबा कोई पुराना नगर नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की उस जड़ का नाम है जिसे सदियों से अनदेखा किया गया। यहाँ से मिली महिला की चूड़ियाँ, नृत्यांगना की प्रतिमा और अग्निवेदियाँ हमें यह बताती हैं कि हड़प्पा काल कोई पुरुष-प्रधान, युद्ध-केंद्रित समाज नहीं था—यह एक सांस्कृतिक, स्त्री-केंद्रित और समृद्ध सभ्यता थी। डीएनए विश्लेषणों ने न केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या की है, बल्कि भारत के भीतर एक जैविक-सांस्कृतिक निरंतरता की पुष्टि भी की है। 

राखीगढ़ी हमारे अतीत की वह भूली हुई स्त्रीगाथा है, जिसे अब इतिहास की मुख्यधारा में स्थान मिलना चाहिए—सम्मान के साथ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से।

सिंदूर का पौधारोपण के निहितार्थ

डॉ.वेदप्रकाश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संकल्प से सिद्धि के नायक के रूप में जाने जाते हैं। वे एक ऐसे राष्ट्रीय और वैश्विक व्यक्तित्व हैं जो जब किसी कार्य का संकल्प लेते हैं तो उसे समुचित योजना बनाकर सिद्धि तक भी पहुंचाते हैं। वे आरंभ से ही विभिन्न चुनौतियों को दूर करते हुए भारतवर्ष की शक्ति व शौर्य के जागरण और विकसित भारत के संकल्प को लेकर चल रहे हैं।
      विगत दिनों पहलगाम में हुए आतंकी हमले में सुनियोजित ढंग से पुरुषों को निशाना बनाया गया। निहत्थे पर्यटकों का धर्म पूछकर उन्हें मौत के घाट उतारा गया। अनेक महिलाओं की मांग से सिंदूर मिटाया गया। आतंकियों के इस दुष्कृत्य ने समूचे देश और विश्व को झकझोर दिया। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह संकल्प लिया  कि जिन लोगों ने भारत की माताओं- बहनों की मांग से सिंदूर मिटाया है, हम उन्हें ही मिटा देंगे। परिणामस्वरूप ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया गया और कुछ ही समय में सैकड़ों आतंकवादियों को मौत के घाट उतारते हुए उनके ढांचे और अड्डों को भी मिट्टी में मिलाया गया।

 प्रधानमंत्री अपने विभिन्न उद्बोधनों में बार-बार कह चुके हैं कि आतंकवाद किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाएगा। अब यदि सीमा पार से गोली चली तो भारत उसका जवाब गोले से देगा। ऑपरेशन सिंदूर ने उनके इस संकल्प को स्पष्ट कर दिया। ध्यातव्य है कि ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय सेना का पराक्रम और उसका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा। देशभर में सामान्य जनता ने विभिन्न कार्यक्रमों से सेना के इस उत्कृष्ट प्रदर्शन की न केवल प्रशंसा की अपितु हर परिस्थिति में देश सेना के साथ है, यह भरोसा भी दिया।


      हाल ही में 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आवास पर सिंदूर का पौधा रोपा है। यह पौधा विगत दिनों उन्हें गुजरात की उन वीरांगना महिलाओं ने भेंट किया था, जिन्होंने 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान नष्ट हुई  एयरस्ट्रिप को रातों-रात तैयार करने में असाधारण साहस और देशभक्ति का परिचय दिया था। पौधारोपण के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा- यह पौधा देश की नारी शक्ति के शौर्य और प्रेरणा का प्रतीक बनेगा। वे पहले भी विभिन्न अवसरों पर देश की नारी शक्ति के शौर्य,प्रेरणा एवं उनके सम्मान की रक्षा हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं।


       पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के संदर्भ से भी समझने की आवश्यकता है। वहां वर्णन है कि वनवास के लिए निकले श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के आश्रम में पहुंचकर उनसे अपने वनवास की अवधि के लिए शांत और एकांत स्थान पूछा। मुनि ने उन्हें निवास हेतु गोदावरी नदी के निकट दंडक वन में पंचवटी नामक स्थान बताया। पंचवटी ऐसा स्थान है जहां अनेक प्रकार के फल-फूल वाले पेड़ और वनस्पतियां हैं। इस रमणीय स्थान पर निवास करते हुए जब श्रीराम का वनवास बीत रहा था, तभी वहां खर दूषन आदि राक्षस उत्पात मचाते हैं, जिनमें से कई श्रीराम के हाथों मारे जाते हैं और फिर  लंकापति राक्षस राज रावण छल से माता सीता का हरण कर लेता है। फिर कुछ समय बाद नारी शक्ति के सम्मान की रक्षा और आसुरी प्रवृत्ति की समाप्ति हेतु समूची लंका का विध्वंस सर्वविदित है। कुछ इसी प्रकार का कृत्य पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों के पहलगाम हमले में भी सामने आया,जिसके विध्वंस हेतु ऑपरेशन सिंदूर चला और अभी भी जारी है।


      विगत वर्ष भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक पेड़ मां के नाम इस अभियान को शुरू किया था,जिसके अंतर्गत देशभर में जगह-जगह वृक्षारोपण हुआ और अब तक लगभग 109 करोड़ पौधे रोपे जा चुके हैं। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 जून को विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण और उसे हरित बनाने के लिए 700 किलोमीटर लंबे अरावली ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट का शुभारंभ किया है। सर्वाधिक है कि अरावली पर्वत श्रंखला में खनन, सूखा, अतिक्रमण, जलवायु परिवर्तन और विकास कार्यों के चलते पर्वत क्षेत्र और हरियाली लुप्त होती जा रही है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में सभी पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान को लेकर सरकार प्रतिबद्ध है। यह एक बहुत बड़ी योजना और संकल्प है जिसे दिल्ली, हरियाणा,राजस्थान और गुजरात को अपने अपने क्षेत्र में बड़े प्रयास करते हुए सिद्धि तक पहुंचाना होगा।


      प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने आवास पर रोपा सिंदूर का पौधा पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ  नारी शक्ति, सांस्कृतिक परंपरा और उनके सम्मान की रक्षा का संकल्प एवं प्रतीक भी है। आज हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि भारत की लड़ाई जितनी प्रदूषण के विरुद्ध और प्रकृति पर्यावरण की रक्षा के लिए है। उतनी ही भारत विरोधी ताकतों और आतंकवाद जैसी मानसिकता के विरुद्ध भी है। प्रधानमंत्री द्वारा सिंदूर के पौधे का रोपण यह संदेश देता है कि जब तक आतंकवाद एवं भारत विरोधी ताकतें भारत को कमजोर करने का प्रयास करेंगे, नारी शक्ति के सिंदूर को मिटाने का प्रयास करेंगे। तब तब भारत पूरी ताकत के साथ जवाब देगा। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रोपा गया सिंदूर का पौधा जन सामान्य के लिए भी प्रेरणा का सूचक है। इस पौधे से प्रेरणा लेकर जन-जन भी नारी शक्ति के सम्मान एवं उसकी रक्षा के लिए एक एक पौधे का रोपण अवश्य करें।

 ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी के नेतृत्व में विभिन्न अवसरों पर प्रेरक गतिविधियों का केंद्र बन चुका है। विश्व पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर पूज्य स्वामी जी ने पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की उपस्थिति में यह घोषणा की कि देशभर में पांच ‘सिटी- पंचवटी’ सिंदूर वाटिकाएं तैयार की जाएंगी। उन्होंने कहा कि इस कार्य के लिए ऋषिकेश, गंगोत्री-यमुनोत्री, प्रयागराज, अयोध्या आदि शहरों में जन भागीदारी से पंचवटी सिंदूर वाटिका तैयार करने का उद्देश्य जन मन में ऑपरेशन सिंदूर की स्मृति, सेना के शौर्य एवं नारी शक्ति के सम्मान का भाव निहित रहेगा। ध्यान रहे जलवायु परिवर्तन आज एक राष्ट्रीय और वैश्विक चुनौती बनती जा रही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और बढ़ता प्रदूषण मानवता के लिए संकट बनता जा रहा है। अनेक नदियां मर चुकी है अथवा करने के कगार पर हैं। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। जल स्रोत भयंकर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। वायु प्रदूषण भी तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में वृक्षारोपण एक बड़ा समाधान सिद्ध हो सकता है। आज आवश्यक है देश के छोटे बड़े प्रत्येक शहर में पंचवटी वाटिकाएं बनें। सरकार के साथ-साथ संत समाज और जन भागीदारी से यह काम आसान हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया पौधारोपण हमें प्रकृति पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन का भी संदेश देता है। आइए हम सभी अपने-अपने ढंग से प्रकृति पर्यावरण के संरक्षण- संवर्धन हेतु प्रयास करें।


डॉ.वेदप्रकाश

उत्तराखंड में विरोधी मुहिम: बड़े बड़ों की गर्दन नपी

जयसिंह रावत

उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, पिछले तीन वर्षों से एक ऐसी सरकार के नेतृत्व में बदलाव की राह पर है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति को न केवल शब्दों में बल्कि कार्यों में भी लागू कर रही है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2021 में सत्ता संभालने के बाद से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लिया। 2022 से 2025 तक, उत्तराखंड विजिलेंस विभाग ने 150 से 200 से अधिक सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई की जिनमें कई को निलंबित किया गया और कुछ को सलाखों के पीछे भेजा गया। यह मुहिम न केवल उत्तराखंड में सुशासन का प्रतीक बन रही है, बल्कि पूरे देश के लिए एक मिसाल पेश कर रही है। इस लेख में हम धामी सरकार की इस भ्रष्टाचार विरोधी जंग की उपलब्धियों, प्रमुख कार्रवाइयों, प्रभावों और भविष्य की चुनौतियों का विश्लेषण करेंगे।

सख्त कार्रवाइयाँ: छोटे-बड़े सभी निशाने पर

मुख्यमंत्री धामी का यह संदेश साफ है। उनकी सरकार ने छोटे कर्मचारियों से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारियों तक को जवाबदेह बनाया। आईएएस रामविलास यादव को आय से अधिक संपत्ति के आरोप में निलंबित किया गया जबकि आईएफएस किशन चंद पर वन विभाग में अनियमितताओं के लिए कार्रवाई हुई। हरमिंदर सिंह बवेजा (उद्यान निदेशक), अमित जैन (आयुर्वेद विश्वविद्यालय), भूपेंद्र कुमार (परिवहन निगम), महिपाल सिंह (लेखपाल) और रामदत्त मिश्र (उप निबंधक) जैसे अधिकारियों पर रिश्वतखोरी और वित्तीय गड़बड़ियों के लिए कठोर कदम उठाए गए।

हरिद्वार भूमि घोटाला इस मुहिम का सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमें दो आईएएस, एक पीसीएस सहित 12 लोग निलंबित हुए। नैनीताल में ₹1.20 लाख की रिश्वत लेते पकड़े गए कोषाधिकारी, चमोली में ₹30,000 की रिश्वत के साथ आबकारी इंस्पेक्टर जयवीर सिंह, और बागेश्वर में ₹50,000 की रिश्वत लेते सैनिक कल्याण अधिकारी सुबोध शुक्ला के मामले ने भ्रष्टाचार की गंभीरता को उजागर किया।

स्थानीय स्तर पर भी सख्ती

नैनीताल में मुख्य कोषाधिकारी और एकाउंटेंट को ₹1.20 लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया। चमोली में आबकारी इंस्पेक्टर जयवीर सिंह को ₹30,000 की रिश्वत के साथ गिरफ्तार किया गया। बागेश्वर में जिला सैनिक कल्याण अधिकारी सुबोध शुक्ला को ₹50,000 की रिश्वत लेते पकड़ा गया, जो सैनिक कल्याण जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भ्रष्टाचार की गंभीरता को उजागर करता है। रुड़की में अपर तहसीलदार का पेशकार रोहित ₹10,000 की रिश्वत लेते गिरफ्तार हुआ। इन कार्रवाइयों ने स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने में विजिलेंस की सक्रियता को रेखांकित किया। विभिन्न स्रोतों के अनुसार, 150 से 200 से अधिक कर्मचारी और अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गए। सोशल मीडिया पर “ धामीक्लीनअपभ्रष्टाचार “ट्रेंड ने इस मुहिम को जनता तक पहुँचाया, जिससे जन जागरूकता में वृद्धि हुई।

रणनीति: तकनीक, पारदर्शिता और जन भागीदारी

धामी सरकार ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए एक बहुआयामी रणनीति अपनाई है। विजिलेंस विभाग को तकनीकी और मानव संसाधनों से सशक्त किया गया। मुख्यमंत्री धामी ने स्वयं विजिलेंस अधिकारियों को टैबलेट्स प्रदान किए, ताकि जांच प्रक्रिया तेज और प्रभावी हो। “भ्रष्टाचार मुक्त उत्तराखंड 1064” एप और टोल-फ्री नंबर ने जनता को सीधे शिकायत दर्ज करने का आसान रास्ता दिया। धामी ने निर्देश दिए कि शिकायतों का त्वरित निस्तारण हो और गैर-विजिलेंस मामलों को संबंधित विभागों को भेजा जाए। डिजिटल पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए ऑनलाइन शिकायत पोर्टल और डिजिटल भुगतान प्रणालियों को लागू किया गया, जिसने रिश्वतखोरी की संभावनाओं को कम किया। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत कठोर सजा सुनिश्चित की गई, जिसमें कई मामलों में दोषियों को जेल भेजा गया। जन जागरूकता अभियान ने जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित किया। गुप्त सूचनाओं के आधार पर कई कार्रवाइयाँ हुईं, जो इस बात का सबूत हैं कि जनता अब इस मुहिम का हिस्सा बन रही है। धामी ने सोशल मीडिया का भी प्रभावी उपयोग किया। उनके बयान, जैसे “देवभूमि में भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं”, ने जनता के बीच उत्साह जगाया। “धामीक्लीनअप भ्रष्टाचार “ जैसे हैशटैग ने इस अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया।

प्रभाव: जनता का विश्वास और सुशासन की राह

धामी सरकार की इस मुहिम का उत्तराखंड में गहरा प्रभाव पड़ा है। सरकारी कार्यालयों में रिश्वतखोरी की घटनाएँ कम हुई हैं और जनता का प्रशासन पर विश्वास बढ़ा है। हरिद्वार भूमि घोटाले में बड़े अधिकारियों के निलंबन ने यह संदेश दिया कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सख्त भू-कानून और अंकिता हत्याकांड में त्वरित कार्रवाई ने धामी की जवाबदेही और पारदर्शी शासन की प्रतिबद्धता को और मजबूत किया। सोशल मीडिया पर जनता ने इस मुहिम की खुलकर सराहना की। उदाहरण के लिए, एक यूजर ने लिखा, “धामी जी ने दिखा दिया कि इच्छाशक्ति हो तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है।” यह अभियान न केवल उत्तराखंड, बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी प्रेरणा बन रहा है। डिजिटल उपायों ने सरकारी प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाया जिससे आम जनता को सरकारी योजनाओं का लाभ लेना आसान हुआ।

चुनौतियाँ: लंबा रास्ता बाकी

इस मुहिम की सफलता के बावजूद कई चुनौतियाँ अभी बनी हुई हैं। उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई में समय और संसाधनों की जरूरत होती है। बड़े अधिकारियों के खिलाफ जटिल जांच प्रक्रियाएँ और कानूनी अड़चनें प्रक्रिया को धीमा कर सकती हैं। आंकड़ों की अस्पष्टता भी एक मुद्दा है। कार्रवाइयों की सटीक संख्या और विवरण में कुछ भिन्नता दिखती है, जो पारदर्शिता पर सवाल उठाती है। सरकार को इस दिशा में और स्पष्टता लानी होगी। प्रणालीगत सुधारों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। केवल कार्रवाइयाँ भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकतीं। डिजिटल प्रक्रियाएँ, प्रशासनिक जवाबदेही और संस्थागत सुधार दीर्घकालिक समाधान हैं। इसके अलावा, जन जागरूकता को और व्यापक करना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कई लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से हिचकते हैं। इसके लिए जागरूकता अभियानों को और गति देनी होगी।

पुष्कर सिंह धामी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने उत्तराखंड को सुशासन की राह पर ला खड़ा किया है। 150 से अधिक कार्रवाइयाँ, डिजिटल पहल और जनता की भागीदारी इस अभियान की ताकत हैं। लेकिन यह केवल शुरुआत है। भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए निरंतर प्रयास, प्रणालीगत सुधार और जन जागरूकता जरूरी है। धामी का संकल्प कि “देवभूमि में भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं”, एक नारा नहीं, बल्कि एक दृष्टि है। यह दृष्टि उत्तराखंड को न केवल भ्रष्टाचार मुक्त, बल्कि समृद्ध और पारदर्शी राज्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। क्या यह मुहिम देवभूमि को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का सपना पूरा करेगी? यह समय और सरकार की प्रतिबद्धता ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि धामी की यह जंग उत्तराखंड के लिए एक नई सुबह की शुरुआत है।

जयसिंह रावत

एक बार फिर से भड़कता दिख रहा रूस-यूक्रेन युद्ध

0

 
राजेश जैन

फरवरी 2022 में शुरू हुआ रूस-यूक्रेन युद्ध चौथे साल में चल रहा है। लाखों लोगों की जान जा चुकी है, शहर उजड़ चुके हैं और अब दुनिया की नजरें इस सवाल पर टिकी हैं — आखिर कौन जीत रहा है यह युद्ध? क्या यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की रूस के ताकतवर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को मात दे रहे हैं या फिर रूस धीरे-धीरे अपनी रणनीति में सफल हो रहा है?

ड्रोन वार ने बदले समीकरण

विश्लेषकों का मानना है कि तुर्की में रूस और यूक्रेन के बीच हुई बातचीत के बाद स्थिति और उलझ गई है। पुतिन ने साफ कर दिया है कि उन्हें सिर्फ एक ही बात स्वीकार है—यूक्रेन का सरेंडर। दूसरी ओर, यूक्रेन कुछ शर्तों पर रियायत देने को तैयार है लेकिन रूस अपने कठोर रुख से टस से मस नहीं हो रहा।  यूक्रेन, टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर, रूस को कड़ी टक्कर दे रहा है। हाल ही में यूक्रेनी ड्रोन हमलों ने रूस के बमवर्षक विमानों को भारी नुकसान पहुंचाया है। रूस ने सोचा भी नहीं होगा कि यूक्रेन रूस के 4000 किलोमीटर अंदर घुसकर उसके एयरबेस उड़ा सकता है लेकिन उसने ऐसा किया। अब 5 एयरबेस पर हमले का नुकसान तो बड़ा है और रूसी राष्ट्रपति पुतिन का गुस्सा भी स्वाभविक है। ऐसे में  रूस-यूक्रेन युद्ध एक बार फिर से भड़कता दिख रहा है और शांति की उम्मीदें लगभग मंद हो गई हैं।

लंबी है युद्ध के हताहतों की सूची

मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस युद्ध में अब तक करीब 14 लाख लोग हताहत हो चुके हैं। यूक्रेन के 75 हजार से ज्यादा सैनिक या तो मारे जा चुके हैं या गंभीर रूप से घायल हुए हैं। रूस की कुर्स्क पर भारी कार्रवाई के बाद यूक्रेनी सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद रूस ने पलटवार करते हुए सूमी प्रांत पर हमला शुरू कर दिया है। सूमी की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यदि रूस इस पर कब्जा कर लेता है तो वह सीधे कीव की ओर जमीनी हमला कर सकता है। इससे यूक्रेन की राजधानी की सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हो जाएगी। फिलहाल, यूक्रेनी सेना रूस के कब्जे वाले इलाकों में जवाबी कार्रवाई कर रही है। उन्हें अमेरिका और यूरोपीय देशों से तकनीकी और खुफिया जानकारी मिल रही है जिससे उन्हें हमलों की रणनीति बनाने में मदद मिलती है। इसके अलावा, यूक्रेन में अब अपने ही ड्रोन बनाने की फैक्ट्री और विशेषज्ञ तैयार हो चुके हैं।

कम नहीं यूक्रेन की चुनौतियां

हालांकि यूक्रेन को आधुनिक तकनीक और समर्थन मिल रहा है लेकिन उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जैसे ड्रोन हमले रूसी सेना को धीमा कर सकते हैं लेकिन उन्हें पूरी तरह रोक नहीं सकते, – रूस लगातार मिसाइल और बमबारी करता जा रहा है, यूरोप और अमेरिका से हथियारों की सप्लाई बनाए रखना ओर नए हथियारों के लिए सैनिकों को ट्रेनिंग देना भी यूक्रेन के लिए बड़ी चुनौती है।

यह है रूस की रणनीति

रूस की रणनीति अब यह है कि यूक्रेनी सेना की सप्लाई लाइन को काटा जाए, उन्हें घेरा जाए और धीरे-धीरे एक-एक इलाके पर कब्जा किया जाए। इसके लिए रूसी सेना छोटे-छोटे समूहों में काम कर रही है ताकि वे ड्रोन हमलों से बच सकें। यूक्रेन की गैर पारंपरिक रणनीतियां—जैसे लंबी दूरी तक ड्रोन से हमला—रूस के लिए परेशानी बन चुकी हैं, लेकिन रूस अब भी उनके खिलाफ कोई ठोस समाधान नहीं निकाल पाया है। इससे संकेत नहीं मिलते कि रूस हमला धीमा करने वाला है।  

क्रीमिया से आगे भी है रूस की मांगें  

इस समय रूस ने 5 यूक्रेनी प्रांतों के 19% हिस्से पर कब्जा कर लिया है। इनमें से 12% इलाके पर वह पहले ही 2014 में कब्जा कर चुका था। पुतिन की चाहत है कि यूक्रेन की 25% जमीन रूस के अधीन आ जाए जिसमें एक बफर ज़ोन भी शामिल हो। आपको बता दें कि रूस क्रीमिया पर 2014 में कब्जा कर चुका है लेकिन उसकी  मांग सिर्फ क्रीमिया तक सीमित नहीं है, अब वह उन इलाकों को भी यूक्रेन से चाहता है, जिन पर उसकी सेना ने अभी तक कब्जा नहीं किया है, लेकिन रूस अपना दावा करता है। इसके अलावा, वह चाहता है कि युद्ध खत्म होने के बाद यूक्रेन की सेना, उसके हथियार और उसकी सीमाएं नियंत्रित कर दी जाएं—कुछ-कुछ वैसा ही जैसा प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के साथ किया गया था।

कोई स्पष्ट विजेता, न शांति की आस

इस समय दोनों पक्षों के पास न तो निर्णायक जीत है और न ही शांति का कोई साफ रास्ता। इस लंबी और थकाऊ लड़ाई के बाद भी यह तय नहीं हो पाया है कि कौन जीत रहा है। रूस की धीमी लेकिन स्थायी बढ़त को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, वहीं यूक्रेन भी टेक्नोलॉजी और नाटो समर्थन के दम पर लगातार जवाबी कार्रवाई कर रहा है। अगर किसी तरह से शांति समझौता हो भी जाता है, तब भी यह जरूरी नहीं कि संघर्ष थम जाएगा। जानकारों का मानना है कि यूक्रेन के भीतर गुरिल्ला युद्ध चलता रहेगा और नाटो देश रूस के लिए लंबे समय तक परेशानी बने रहेंगे। फिलहाल दुनिया को इंतजार है कि यह युद्ध कब और कैसे खत्म होगा ?


राजेश जैन

प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में बढ़ता वैचारिक पक्षपात

गजेंद्र सिंह
 

हाल ही में विश्व के दो सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों — मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) और हार्वर्ड विश्वविद्यालय — के दीक्षांत समारोहों में दिए गए भाषणों ने वैश्विक स्तर पर तीखी बहस को जन्म दिया है। इन मंचों पर छात्रों द्वारा व्यक्त विचारों ने न केवल राजनीतिक और वैचारिक रुझानों को उजागर किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि आज शैक्षणिक परिसर किस प्रकार वैचारिक ध्रुवीकरण का केंद्र बनते जा रहे हैं। जहाँ कभी विश्वविद्यालय ज्ञान, तर्क और संवाद के निष्पक्ष मंच हुआ करते थे, वहीं अब वे धीरे-धीरे एकतरफा सक्रियता और वैचारिक कब्जे का माध्यम बनते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल शैक्षणिक तटस्थता के लिए चुनौती है, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता और समावेशिता की आत्मा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

MIT की स्नातक कक्षा अध्यक्ष, मेघा वेमुरी ने अपने दीक्षांत भाषण में इस्लामिक कफिया धारण करते हुए इज़राइल और MIT के अमेरिकी रक्षा विभाग से संबंधों की सार्वजनिक रूप से आलोचना की । उन्होंने ग़ाज़ा युद्ध की एकपक्षीय निंदा की किंतु 7 अक्टूबर को हमास द्वारा इज़राइल में किए गए उस क्रूरतापूर्ण हमले का कोई उल्लेख नहीं किया जिसमें 1,200 से अधिक निर्दोष नागरिक मारे गए — जिसे होलोकॉस्ट के बाद यहूदियों पर सबसे भीषण हमला माना गया है। उनके वक्तव्य में न तो इज़रायली या यहूदी समुदाय की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति व्यक्त की गई और न ही किसी प्रकार की संवेदनशीलता प्रदर्शित की गई। साथ ही, उन्होंने इस्लामी कट्टरपंथ के नाम पर विश्वभर में हुए अन्य जघन्य आतंकी हमलों — जैसे पेरिस का बाताक्लान थिएटर नरसंहार (2015), श्रीलंका के ईस्टर बम विस्फोट (2019), चार्ली हेब्दो हत्याकांड, और नाइस चर्च हमला — पर भी मौन साधे रखा। इतना ही नहीं, वे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों — विशेषकर हिंदुओं — पर हो रहे व्यवस्थित उत्पीड़न, चीन में उइगर मुसलमानों के साथ हो रहे मानवाधिकार हनन, आईएसआईएस द्वारा यज़ीदी महिलाओं को गुलाम बनाए जाने, तथा ब्रिटेन में ग्रूमिंग गैंग द्वारा नाबालिग लड़कियों के शोषण जैसे गंभीर वैश्विक मुद्दों पर भी पूरी तरह से मौन रहीं। शायद उनसे इन मुद्दों पर व्यापक संवेदनशीलता और संतुलित दृष्टिकोण की अपेक्षा इसलिए की गई, क्योंकि उन्होंने अपने भाषण में मानवाधिकारों और मानव उत्पीड़न जैसे गंभीर विषयों को उठाया था। यह स्वाभाविक था कि जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच से ऐसी बातें करता है तो यह माना जाता है कि उसकी समझ इन विषयों पर गहन, व्यापक और निष्पक्ष होगी अन्यथा, किसी सामान्य विचारक या छात्र से इस स्तर की वैचारिक गहराई और जिम्मेदारी की अपेक्षा करना कहीं न कहीं बेमानी और भ्रामक है।

इसी क्रम में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह के दौरान स्नातक छात्र वक्ता युरोंग “लुआना” जियांग — जो एक चीनी नागरिक हैं और चीन की ‘बायोडायवर्सिटी कंजर्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फाउंडेशन’ से संबद्ध हैं — ने अपने भाषण में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की आधिकारिक भाषा का प्रयोग करते हुए “मानवता के लिए साझा भविष्य” (Shared Future for Mankind) का आह्वान किया। यह वाक्य महज़ एक आदर्शवादी वक्तव्य नहीं बल्कि चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) और उसकी सॉफ़्ट पावर रणनीति का प्रमुख वैचारिक स्तंभ है, जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर चीन के प्रभाव का विस्तार करना है। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि युरोंग जियांग के पिता भी उसी संगठन में एक वरिष्ठ कार्यकारी पद पर कार्यरत हैं जिससे उनके वक्तव्य की वैचारिक पृष्ठभूमि और उद्देश्य को लेकर और भी प्रश्न उठते हैं

यह घटनाएं कोई अपवाद नहीं हैं बल्कि एक व्यापक और गहराती हुई प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। कोलंबिया, स्टैनफोर्ड और यूसी बर्कले जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हाल के वर्षों में ऐसे विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं जो केवल वैचारिक असहमति तक सीमित नहीं रहे बल्कि शारीरिक टकराव, स्थायी धरनों और कक्षाओं के स्थगन तक जा पहुँचे हैं। ‘फाउंडेशन फॉर इंडिविजुअल राइट्स एंड एक्सप्रेशन’ (FIRE) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि 88% अमेरिकी कॉलेज छात्र मानते हैं कि उनके परिसर का माहौल खुली बहस और वैचारिक विविधता को प्रोत्साहित नहीं करता। वर्ष 2022 में FIRE ने कुल 145 ऐसे मामलों को दर्ज किया जिनमें आमंत्रित वक्ताओं के निमंत्रण रद्द कर दिए गए—और इनमें से लगभग 63% मामले वामपंथी विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों के थे। इसी प्रकार, ‘हेटेरोडॉक्स अकादमी’ के 2023 के सर्वेक्षण में यह उजागर हुआ कि 59% छात्र वैचारिक विरोध और सामाजिक बहिष्कार के भय से अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने से बचते हैं। विशेष रूप से, 74% ऐसे छात्र जिन्होंने स्वयं को ‘रूढ़िवादी’ (conservative) के रूप में पहचाना, उन्होंने कक्षा में अपनी राजनीतिक मान्यताएं व्यक्त करते समय असहजता महसूस करने की बात स्वीकार की।

पश्चिमी विश्वविद्यालयों के छात्र कार्यकर्ता गाज़ा युद्ध और रोहिंग्या शरणार्थी  के विरोध में मुखर प्रदर्शन करते हैं लेकिन अन्य वैश्विक मानवीय संकटों और अत्याचारों के प्रति उनकी चुप्पी कई प्रश्न खड़े करती है। वे कश्मीर, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की जातीय सफाई ,व्यवस्थित अत्याचार और हिन्दू शरणार्थी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक लड़कियों के साथ व्यवस्थित बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन तथा चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों की जबरन नसबंदी और सामूहिक नजरबंदी जैसे गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों पर मौन रहते हैं। हाल ही में हुए 2025 के पहलगाम आतंकी हमले, जिसमें हिंदू तीर्थयात्रियों की धार्मिक पहचान की पुष्टि कर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा उनकी निर्मम हत्या की गई, उस पर भी उन्होंने कोई सार्वजनिक निंदा नहीं की। इसी प्रकार, ब्रिटेन में कई वर्षों तक चले संरचित ‘ग्रूमिंग गैंग’ मामलों—जहाँ अधिकांश पीड़ित नाबालिग लड़कियाँ थीं और अधिकांश आरोपी इस्लामिक  कट्टरपंथी पृष्ठभूमि से—पर भी कार्यकर्ताओं ने चुप्पी साधे रखी है। तालिबान द्वारा अफगान महिलाओं पर लगातार जारी दमन, जिसमें लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध और कठोर ड्रेस कोड जैसी अमानवीय नीतियाँ शामिल हैं, उसे भी अपेक्षित विरोध नहीं मिला । यह चयनात्मक नैतिकता दर्शाती है कि कई बार मानवाधिकारों की बात केवल सुविधाजनक वैचारिक सीमाओं के भीतर की जाती है, न कि एक सार्वभौमिक और न्यायसंगत दृष्टिकोण से ।

यह चयनात्मक चुप्पी — खासकर उन लोगों की ओर से जो नैतिक ऊँचाई का दावा करते हैं — एक गहरे दोहरे मानदंड को उजागर करती है। इससे विविध पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों में असहजता बढ़ती है। जब विश्वविद्यालय केवल कुछ विशेष विचारों को प्रमुखता देते हैं, तो वे न केवल समावेशिता और एकता को ठेस पहुँचाते हैं, बल्कि अपनी वैश्विक प्रतिष्ठा और नैतिक प्रामाणिकता को भी खतरे में डालते हैं।

आज विश्वविद्यालय ज्ञान-विनिमय और बौद्धिक विकास के केंद्र न रहकर वैचारिक प्रदर्शन के मंच बनते जा रहे हैं। कक्षाओं से लेकर दीक्षांत तक, ये मंच अब उपलब्धियों के उत्सव के बजाय कुछ गिने-चुने विचारों के प्रचार के साधन बनते दिखते हैं। इससे वे मूल मूल्य — जैसे विचारों की स्वतंत्रता, असहमति के प्रति सहिष्णुता, और सत्य की खोज — पीछे छूटते जा रहे हैं।

“कथा” आज रणनीतिक शक्ति बन गई है । जब संस्थान एकतरफा सक्रियता या राज्य-प्रेरित संदेशों को मंच देते हैं, तो वे अनजाने में भू-राजनीतिक प्रभावों के उपकरण बन सकते हैं और उन्हीं छात्रों को हाशिए पर डालते हैं जिन्हें वे सशक्त बनाने का दावा करते हैं।

आलोचना हो — लेकिन संदर्भपूर्ण । भावनाएं प्रकट हों — मगर दूरदर्शिता और समझदारी के साथ । यह जटिल दुनिया वैचारिक एकरूपता नहीं बल्कि विविध दृष्टिकोणों की मांग करती है — और हमारे युवा मस्तिष्क इससे कम के अधिकारी नहीं हैं।

गजेंद्र सिंह