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स्वस्थ रखें अपना लिवर


डॉ रुप कुमार बनर्जी
होमियोपैथिक चिकित्सक

      लिवर हमारे शरीर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है जो पेट के दाहिनी ओर नीचे की तरफ होता है। यह शरीर की कई क्रियाओं को नियंत्रित रखता है। अगर इसी में ही किसी तरह की कोई कमी आ जाए तो शरीर ही ठीक ढंग से काम करना बंद कर देता है। जिसके फलस्वरूप शरीर का इम्यूनिटी पावर कम होकर हमे तमाम प्रकार की बीमारियां घेर सकती हैं । लिवर खराब होने के सबसे बड़े कारण शराब, अधिक धूम्रपान , ज्यादा ख़ट्टा खाना, नमक का अत्यधिक सेवन करना आदि है। इसलिए समय रहते इसके लक्षणों को पहचाने और इसका उचित इलाज करवाएं।
      लिवर को खराब करने वाले कारण :–
– दूषित खाना और पानी
– मसालेदार और चटपटे खाने
– शरीर में विटामिन बी की कमी
– नियमित रूप से मांस मछली एवं अल्कोहल का सेवन
– बिना चिकित्सक से पूछे अपने मन से खरीदे गए मेडिकल स्टोर से एंटीबायोटिक दवाईयों का अधिक सेवन
– मलेरिया या  टायफायड
– अत्यधिक मात्रा में बाहर का खाना जंक फूड इत्यादि का सेवन
लिवर खराब होने के लक्षण :-
– लिवर वाली जगह दर्द होना
– छाती में जलन और भारीपन
– भूख न लगना और लगातार, बदहजमी, पेट में गैस
– आलसपन और कमजोरी
– पेट में सूजन आना
– मुंह का स्वाद खराब
– हल्का सा बुखार बने रहना।
लिवर की बीमारी को ठीक करने का प्राकृतिक उपाय :-
• सुबह उठकर खुली हवा में गहरी सांसे ले और नंगे पैर घास पर चलें। इससे काफी फायदा मिलेगा। 
– सब्जियों में मूली, मूली का पत्ता पालक, तुरई, लौकी, शलगम, गाजर, कद्दू, पपीते आदि की सब्जी से फायदा मिल सकता है।
• रोज हल्का गर्म नींबू पानी का सेवन करें।
• इसके अलावा रोज सब्जियों का सूप पिएं
• फल जैसे अमरूद, तरबूज, नाशपाती, मौसमी, अनार,कीवी सेब, पपीता, आलूबुखारा आदि लिवर के लिए फायदेमंद है।
• सलाद, अंकुरित दाल का भी  सेवन करें और भाप में पके हुए या फिर उबले हुए पदार्थ खाएं।
•  गुड़ का सेवन भी लिवर के लिए फायदेमंद हो सकता है। (मधुमेह अथवा मोटापे से ग्रस्त मरीज बिना चिकित्सक की सलाह के गुड कतई ना लें)
• आंवला भी लिवर के लिए काफी फायदेमंद है। इसलिए आंवले खाएं। यदि आपको मधुमेह की बीमारी नहीं है अथवा आप मोटापा से ग्रसित नहीं है तो आंवले का मुरब्बा भी ले सकते हैं।
•  कैफीन और शराब का सेवन ना ही करें तो बेहतर है । शराब और कैफीन  लिवर में विषयुक्त पदार्थों को जमाने के सबसे बड़े जिम्मेदार हैं जो हमें अपनी पूरी क्षमता से काम करने से रोकते हैं। अलकोहल और केफ़िनेनेटेड पेयों का सेवन नहीं करके अपने लिवर को साफ़ करें।
बहुत सारा पानी पिएं:-

 अपने लिवर को साफ़ करने के लिए कम से कम 3 लीटर पानी पिएँ। बहुत सारा पानी पीना हाइड्रेटेड यानि पानी से परिपूर्ण रखेगा जो प्राकृतिक रूप से कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होगा। ये लिवर को विषाक्त और बचे हुए पदार्थों को जल्दी बाहर निकालने में सहायक होगा, और इससे  लिवर को तेजी से काम करने और अपनी ऊर्जा के स्तर को बढ़ाने में मदद मिलेगी।


अपने आहार में नीबू शामिल करें :-

दिन में एक बार चाय या पानी में निम्बू का रस लें। निम्बू का रस पित्त की उस उत्पत्ति में सहायक होता है जो शरीर से विषाक्त पदार्थों को निकालने में सहायक होता है। ये अग्नाशय की पथरी (gallstones) को विकसित होने से रोकता है और  हाजमे को बढ़ाता है और आपके लिवर को आमाशय के रसों (gastric juices) के अनुरूप चलने देता है।
ग्रीन टी पिएं :- इसमें काफी मात्रा में केटेकाइन्स (catechins) पाए जाते हैं, ये एक प्रकार का प्लांट एंटीऑक्सीडेंट होता है जो लिवर की कार्यक्षमता को बढ़ाता हैं और लिवर में वसा के जमाव को कम करने में सहायक होता है। फलों का ताजा जूस पीएं ( जिनको शुगर है वह नहीं पीएं )।  इससे फैटी लिवर की बीमारी की संभावनाएं घट जाती हैं।
स्वास्थ्यप्रद भोजन खायें l ऐसे आहारों से बचें जो  लिवर को नुकसान पहुचाते हों। वे आहार जो प्रोसेस्ड होते हैं और जिनमें बहुत सारे प्रिज़रवेटिव, फैट्स और कोलेस्ट्रोल होतें हैं वे लिवर को वसा अवशेषों से संकुलित (congested) और भरा हुआ बना सकते हैं। प्रोसेस्ड या फैटी आहारों से बच कर अपने लिवर को साफ़ करें जिससे आपका लिवर खुद को मुक्त कर सके और अपनी कोशिकाओं का पुनर्निर्माण कर सके।
     फ़ास्ट फ़ूड से बचें, विशेषतः, डीप फ्राइड आहारों और प्रिजर्व्ड मीट से बचे (जैसे सॉसेज, बेकन आदि) बुरे फैट्स से बचें: फैटी रेड मीट, डीप फ्राइड आहार, और प्रोसेस्ड आहार, इन सबसे बचना चाहिए l
       सूखे मेवे जैसे बादाम, आखरोट , पिस्ता , चिलगोजा इत्यादि में एल-आर्जिनिन (l-arginine) जो एक प्रकार का अमीनो एसिड होता है और ओमेगा-3 फैटी एसिड का उच्च स्तर पाया जाता है जो लिवर को बीमार होने से बचाता है। कुल मिलाकर स्वस्थ सादा घर का बना भोजन ही करें और अपना जिगर स्वस्थ रखें l यही उचित होगा।


ध्यान दें :- यदि आपको किसी भी प्रकार की कोई बीमारी है तो अपने चिकित्सक से परामर्श लेना अति आवश्यक है क्योंकि खान-पान में परहेज के साथ-साथ उचित दवा लेना भी अति आवश्यक है ।

प्रस्तुतकर्ता :- विनय कुमार मिश्र 

बंद हो असहमति को अपराध बनाना 

कुमार कृष्णन 

संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। असहमति और लोकतंत्र का सह अस्तित्व है और दोनों साथ-साथ चलते हैं। इसी तरह के सवाल उठाते हुए वकीलों, कानून के छात्रों और कानूनी पेशेवरों के समूह नेशनल अलायंस फॉर जस्टिस, अकाउंटेबिलिटी एंड राइट्स (एनएजेएआर) के छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अधिसूचना संख्या एफ-4-101/होम-सी/2024 दिनांक 30 अक्टूबर, 2024 के माध्यम से छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 (सीएसपीएसए) के तहत मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) को “गैरकानूनी संगठन” घोषित करने का विरोध  किया है। 

यह प्रतिबंध संघ बनाने की स्वतंत्रता के अधिकार पर सीधा और खतरनाक हमला है और अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों द्वारा शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आयोजन को अपराध मानने की राज्य की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है। संवैधानिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध वकीलों और कानूनी पेशेवरों के रूप में अपील की हैं कि तुरंत हस्तक्षेप कर मूलवासी बचाओ मंच पर मनमाने और अन्यायपूर्ण प्रतिबंध को हटाया जाए। जेल में बंद इसके सभी सदस्यों को रिहा करें और कठोर छत्तीसगढ़ विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2005 को निरस्त करें।

यह पत्र 3 मई, 2025 को मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) के सदस्यों सुनीता पोट्टम और दसरू पोडियाम की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा फिर से गिरफ्तारी के बाद लिखा गया है । उस समय, दोनों पहले से ही न्यायिक हिरासत में थे. उन्हें पिछले साल अलग-अलग लंबित मामलों में गिरफ्तार किया गया था जो वर्तमान एनआईए जांच से संबंधित नहीं थे। 4 मई को , उन्हें यूएपीए – गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत 2023 के एक मामले के संबंध में पूछताछ के लिए पांच दिनों की एनआईए हिरासत में भेज दिया गया था। 9 मई को , उन्हें न्यायिक हिरासत में वापस कर दिया गया। यह वही मामला है जिसके तहत एमबीएम के पूर्व अध्यक्ष रघु मिडियामी को 27 फरवरी, 2025 को गिरफ्तार किया गया था और एमबीएम के दो अन्य सदस्यों- गजेंद्र मडावी और लक्ष्मण कुंजम को 2024 में फंसाया गया था। ये गिरफ्तारियां केवल एमबीएम के साथ उनके संबंध और संवैधानिक रूप से संरक्षित सामाजिक-राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने के लिए व्यक्तियों को कैद करने के एक ठोस प्रयास का संकेत देती हैं।

मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) की स्थापना 2021 के सिलगेर गोलीबारी के बाद हुई थी जिसमें सुरक्षा बलों ने शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे आदिवासी ग्रामीणों पर गोलियां चलाई थीं, जिसमें चार लोग मारे गए थे। उस आघात से उभरकर, एमबीएम ने विरोध के शांतिपूर्ण तरीकों के लिए प्रतिबद्ध आदिवासी युवाओं का एक विकेंद्रीकृत, लोकतांत्रिक मंच बनाया। याचिकाओं, ज्ञापनों, धरनों, पदयात्राओं और सार्वजनिक बैठकों के माध्यम से, एमबीएम ने राज्य की हिंसा के लिए जवाबदेही, वन और भूमि अधिकारों की मान्यता और ग्राम सभा की सहमति के लिए सम्मान की मांग की। अपने कार्यों में, इसने लगातार पेसा, वनाधिकार कानून और पाँचवीं अनुसूची जैसे संवैधानिक ढाँचों का आह्वान किया। यह न तो भूमिगत था और न ही गैरकानूनी। 2021 में अपने गठन के बाद से, मूलवासी बचाओ मंच  को लगातार राज्य उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। कथित तौर पर इसके कम से कम 30 सदस्यों को मनगढ़ंत आपराधिक मामलों में गिरफ्तार किया गया है। प्रतिबंध का पहला ज्ञात प्रवर्तन 19 नवंबर, 2024 को भोगम राम और माडवी रितेश की गिरफ्तारी के साथ हुआ। न तो तो उन्हें और न ही अन्य मूलवासी सदस्यों को उनकी हिरासत के बाद तक संगठन के प्रतिबंध के बारे में सूचित किया गया था। उन पर कथित तौर पर एक ग्राम सभा बुलाने और प्रतिभागियों को भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम  की धारा 8(1)(3) के तहत आरोप लगाए गए थे।

उल्लेखनीय रूप से, उकसावे, हिंसा या किसी अन्य निषिद्ध गतिविधि का कोई आरोप नहीं था जो कानूनी रूप से गिरफ्तारी को सही ठहरा सके। हालाँकि मूलवासी जल्द ही भंग हो गया, लेकिन इससे पहले जुड़े लोगों को बढ़ते दमन का सामना करना पड़ रहा है। उनमें से रघु मिडियामी – और अब, सुनीता पोट्टम और दसरू पोडियाम – सभी को केवल मूलवासी बचाओ मंच के साथ उनके पिछले जुड़ाव और प्रतिबंध से पहले की गतिविधियों के लिए निशाना बनाया गया। 

फरवरी 2025 में एनआईए ने रघु मिडियामी को गिरफ़्तार किया था । उन पर एमबीएम की स्थापना करने और सड़क निर्माण तथा अर्धसैनिक शिविरों की स्थापना के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन आयोजित करने का आरोप है। एनआईए का दावा है कि उन्होंने “माओवादियों के इशारे पर” ग्रामीणों को संगठित किया – यह आरोप जितना भड़काऊ है, उतना ही निराधार भी है। यह संवैधानिक रूप से आधारित आदिवासी असहमति को बाहरी रूप से संगठित तोड़फोड़ के रूप में ब्रांड करके उसे अवैध बनाने की एक लंबे समय से चली आ रही राज्य की रणनीति का हिस्सा है। यह सुझाव कि आदिवासी युवा केवल बाहरी प्रभाव के तहत ही राजनीतिक मांगें व्यक्त कर सकते हैं, न केवल उनकी एजेंसी को नकारता है बल्कि स्वायत्तता को ही अपराधी बनाता है।

सुनीता पोट्टम एक लंबे समय से जमीनी स्तर की संगठक और अपने गांव में न्यायेतर हत्याओं पर 2016 के उच्च न्यायालय के एक मामले में याचिकाकर्ता रही हैं, वे सैन्यीकरण और विस्थापन के खिलाफ स्थानीय प्रतिरोध की केंद्रीय कड़ी रही हैं। उन्होंने महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और राज्य दमन और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज  जैसे राष्ट्रीय नेटवर्क के साथ काम किया है और बस्तर में न्याय के लिए निरंतर अभियान चलाए हैं। बारह में से नौ फर्जी मामलों में बरी होने के बावजूद, एनआईए के 2023 के मामले में एक नई गिरफ्तारी करके उनकी आसन्न रिहाई को जानबूझकर विफल कर दिया गया। यह सुनियोजित कदम मुखर असहमति रखने वालों को लंबे समय तक प्रक्रियात्मक कारावास के माध्यम से सलाखों के पीछे रखने के लिए डिज़ाइन किया गया प्रतीत होता है। बीजापुर के एक युवा संगठक दसरू पोडियाम की फिर से गिरफ्तारी इसी तरह आदिवासी आवाज़ों को बिना किसी मुकदमे के कैद करने के लिए यूएपीए के इस्तेमाल को दर्शाती है। इस बात का डर बढ़ रहा है कि यह मामला एक कानूनी अड़चन बन जाएगा, जिसमें एमबीएम के सभी पूर्व सदस्य शामिल हो जाएंगे, जिन्हें राज्य राजनीतिक रूप से असुविधाजनक मानता है।

यह तीव्र कार्रवाई न्यायेतर हत्याओं, हिरासत में यातना और बस्तर के अनियंत्रित सैन्यीकरण पर बढ़ते सार्वजनिक आक्रोश के बीच हुई है। ये गिरफ्तारियाँ केवल पिछले लामबंदी के प्रतिशोध की कार्रवाई नहीं हैं – वे असहमति को खत्म करने और इन गैरकानूनी राज्य प्रथाओं को सार्वजनिक जांच से बचाने की एक व्यापक रणनीति का हिस्सा हैं। इस संदर्भ में, अन्य प्रमुख एमबीएम सदस्यों की आगे की गिरफ़्तारी का डर अटकलबाज़ी नहीं है; यह तत्काल और गहराई से महसूस किया जाता है।

संगठन ने  प्रतिबंध को उचित ठहराने के लिए बताए गए आधारों के बारे में भी गंभीर चिंता व्यक्त की है। अधिसूचना में आरोप लगाया गया है कि “मूलवासी बचाओ मंच संगठन लगातार “विकास कार्यों” और “इन विकास कार्यों को संचालित करने के लिए बनाए जा रहे सुरक्षा बल शिविरों” के खिलाफ आम जनता का विरोध कर रहा है और उन्हें ‘उकसाने’ का काम कर रहा है।”एमबीएम का सड़क/रेलवे निर्माण और सुरक्षा बल शिविरों का विरोध किसी विकास विरोधी एजेंडे में नहीं था, बल्कि उनके समुदाय के कानूनी और संवैधानिक अधिकारों में निहित था। अनुसूचित क्षेत्रों में, कानून के अनुसार विकास कार्यों- जिसमें वन भूमि शामिल है या स्थानीय शासन को प्रभावित करने वाले कार्य शामिल हैं- के लिए ग्राम सभा से पूर्व सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। संविधान की पांचवीं अनुसूची, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए) और वन अधिकार अधिनियम, 2006 (एफआरए) के प्रावधानों के तहत यह स्पष्ट रूप से अनिवार्य है।एफआरए की धारा 3(2) का प्रावधान विशेष रूप से ग्राम सभा की सिफारिश के बिना गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग पर रोक लगाता है।

राज्य जिसे ‘बाधा’ कहता है, वह वास्तव में कानून और संविधान द्वारा संरक्षित है। ग्राम सभाओं और ग्राम समुदायों को भूमि, संसाधनों और शासन से संबंधित निर्णयों में भागीदारी का संवैधानिक और कानूनी अधिकार है, खासकर ऐसे समय में जब पूरा क्षेत्र खनन और वनों की कटाई से तबाह हो रहा है, जिसका उद्देश्य बड़े निगमों के व्यावसायिक हितों को बढ़ावा देना है। यह वास्तव में अस्वीकार्य है कि आदिवासी जो सदियों से वन पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर रहे हैं, उन्हें उनकी भूमि से उखाड़ दिया जा रहा है, जिससे उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और जलवायु संकट बढ़ रहा है।  संवैधानिक रूप से आधारित ऐसी गतिविधि को दंडित किया जा सकता है, यह उस अत्यंत दोषपूर्ण कानून का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसके तहत प्रतिबंध लगाया गया था। सीएसपीएसए संवैधानिक लोकतंत्र और कानून के शासन के मूल्यों के विपरीत है। यह संवैधानिक प्रावधानों, एफआरए और पीईएसए के अक्षर और भावना का उल्लंघन करता है। यह कार्यकारी को हिंसा या उकसावे के कृत्यों से किसी भी प्रत्यक्ष संबंध की आवश्यकता के बिना संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने की अनुमति देता है। प्रतिबंधित संगठन के साथ मात्र जुड़ाव ही अपराध बन जाता है, यहां तक कि इरादा या गैरकानूनी आचरण न होने पर भी। अधिनियम निषेध से पहले या बाद में कोई स्वतंत्र न्यायिक निगरानी प्रदान नहीं करता है, और इसमें न्यूनतम प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का भी अभाव है।

बस्तर में राज्य की कार्रवाई की दिशा से संगठन बेहद चिंतित हैं। मूलवासी बचाओ मंच जैसे शांतिपूर्ण आदिवासी मंच का अपराधीकरण संवैधानिक और वैधानिक अधिकारों और जमीनी स्तर पर असहमति के शांतिपूर्ण और वैधानिक दावे के प्रति राज्य की गहरी दुश्मनी का संकेत देता है। एमबीएम के विकेंद्रीकृत नेतृत्व के हर दृश्यमान सदस्य को निशाना बनाने का प्रयास युवा आदिवासियों की एक पूरी पीढ़ी को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करने से रोकने के उद्देश्य से किया गया है।

संविधान के अनुसार  राष्ट्रपति और  राज्यपाल को सभी अनुसूचित क्षेत्रों में शांति और सुशासन सुनिश्चित करना आवश्यक है।संगठन ने राष्ट्रपति, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से आग्रह किया है  कि 30 अक्टूबर, 2024 की अधिसूचना संख्या एफ4-101/होम-सी/2024 को तुरंत वापस लें , जिसमें मूलवासी बचाओ मंच (एमबीएम) को गैरकानूनी घोषित किया गया है। प्रतिबंध में तथ्यात्मक आधार का अभाव है, यह संवैधानिक और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन करता है, और शांतिपूर्ण राजनीतिक आयोजन को अपराध बनाता है। 

संगठन ने कहा है कि झूठे या राजनीतिक रूप से प्रेरित आरोपों के तहत हिरासत में लिए गए सभी एमबीएम सदस्यों की बिना शर्त रिहाई सुनिश्चित करें – जिनमें यूएपीए, सीएसपीएसए, आईपीसी, आर्म्स एक्ट और विस्फोटक अधिनियम के प्रावधानों के तहत गिरफ्तार किए गए लोग भी शामिल हैं। केवल एसोसिएशन या विरोध गतिविधि के आधार पर लगाए गए आरोपों को वापस लिया जाना चाहिए।

साथ ही कठोर छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा अधिनियम, 2005 को निरस्त करने के लिए विधायी कदम उठाएं, जो मनमाने निषेध की अनुमति देता है और वैधता और आनुपातिकता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। इसके अलावा आदिवासी विरोधों का अपराधीकरण समाप्त किया जाना चाहिए। संवैधानिक अधिकारों के लिए आदिवासी लामबंदी का दमन बंद हो। शांतिपूर्ण विरोध को संरक्षित लोकतांत्रिक गतिविधि के रूप में मान्यता दिया जाना चाहिए , न कि खतरे के रूप में। मूलवासी बचाओ मंच से पहले जुड़े लोगों की गिरफ़्तारी, निगरानी और उत्पीड़न को तुरंत रोकें। सुनिश्चित करें कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ़ संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों का प्रयोग करने के लिए अपराधी न बनाया जाए।

इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में देश के अनेक प्रतिष्ठित विधि विशेषज्ञ शामिल हैं, जिनमें बॉम्बे हाईकोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता गायत्री सिंह, सुप्रीम कोर्ट एवं दिल्ली हाईकोर्ट की अधिवक्ता इंदिरा उन्निनायर, मद्रास हाईकोर्ट के अधिवक्ता एडगर काइज़र, तेलंगाना हाईकोर्ट की अफसर जहां, राजस्थान हाईकोर्ट के दिनेश सी. माली, ओडिशा हाईकोर्ट के आफराज सुहैल, दिल्ली , अधिवक्ता मनोहर शरद तोमर (भोपाल), अधिवक्ता ऋचा रस्तोगी (लखनऊ हाईकोर्ट), एनसीआर की अधिवक्ता व शोधकर्ता डॉ. शालू निगम, अधिवक्ता कंवलप्रीत कौर, अधिवक्ता नमन जैन, अधिवक्ता स्वस्तिका चौधरी, अधिवक्ता संभव कौशल (नई दिल्ली) और मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरु, अहमदाबाद, ग्वालियर, कोलकाता, त्रिवेंद्रम, जैसे शहरों के अधिवक्ता व शोधकर्ता शामिल हैं।

कुमार कृष्णन

इजराइल-ईरान युद्ध में कौन जीता, कौन हारा

राजेश कुमार पासी

इजराइल और ईरान के बीच युद्ध विराम हो गया है लेकिन इस पर कई सवाल उठ रहे हैं। सवाल तो इस युद्ध पर भी उठ रहे हैं क्योंकि तीनों देश इस युद्ध में खुद को जीता हुआ बता रहे हैं। इजराइल और ईरान युद्ध लड़ रहे थे लेकिन अचानक अमेरिका ने इजराइल की तरफ से ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला कर दिया । जहां अमेरिका इस युद्ध को रुकवाने का श्रेय ले रहा है वहीं दूसरी तरफ वो ईरान की परमाणु शक्ति को खत्म करने का दावा कर रहा है। अमेरिका के दावे पर अब कोई यकीन नहीं करता क्योंकि उसने भारत-पाक युद्ध रुकवाने की बात भी कही थी ।

  पाकिस्तान के उपप्रधानमंत्री इशाक डार ने बयान दिया है कि हमने कई देशों से युद्ध रुकवाने की अपील की थी और सऊदी अरब सरकार ने सबसे पहले इस मामले में हमारी मदद के लिए हाथ बढ़ाया था । उन्होंने कहा है कि हमने भारत से युद्ध विराम करने की अपील की और भारत ने स्वीकार कर लिया। डोनाल्ड ट्रंप युद्ध रुकवाने का श्रेय लेने के चक्कर में अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ईरान पर हमला करने के लिए दो हफ्ते का समय दिया और तीसरे दिन ही अचानक ईरान पर हमला कर दिया । दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति को ऐसा करने की क्या जरूरत थी, ये डोनाल्ड ट्रंप को बताना चाहिए।

                तीनों देश अपने आपको विजेता घोषित कर रहे हैं इसलिए सवाल उठता है कि जब तीनों ही जीत गए हैं तो हारा कौन है।  सबसे पहले बात करते हैं अमेरिका की क्योंकि वह इस युद्ध का हीरो बनने की कोशिश कर रहा है । अमेरिका पहले तो युद्ध से दूर रहने की बात करता रहा और फिर अचानक ईरान पर हमला कर दिया । अमेरिका ने दावा किया है कि उसने ईरान के परमाणु ठिकानों को पूरी तरह बर्बाद कर दिया है, अब ईरान परमाणु बम नहीं बना सकता । इसके अलावा उसने युद्ध रुकवाने का दावा किया है और इस युद्ध का असली विजेता बन रहा है । अमेरिका के ऐलान के बाद भी दोनों देशों ने एक दूसरे पर हमला किया था लेकिन फिलहाल युद्ध रुक गया है तो अमेरिका युद्ध रूकवाने का श्रेय तो ले सकता है ।

वास्तव में इजराइल-ईरान युद्ध ऐसी जगह पहुंच गया था जहां दोनों देश ही इसे रोकने की कोशिश कर रहे थे । इजराइल पर ईरान जबरदस्त तरीके से मिसाइल हमले कर रहा था जिसे इजराइल की वायु रक्षा प्रणाली पूरी तरह से रोक नहीं पा रही थी । इजराइल के कई शहरों में ईरान ने बहुत बर्बादी कर दी है,  विशेष  रूप से तेल अवीव में तो ईरान ने तबाही मचा दी है । अगर ईरान यह हमले करता रहता तो इजराइल कई साल पीछे जा सकता था । इसके अलावा इजराइल के पास हथियारों की बहुत कमी हो गई थी, अगर यह युद्ध और आगे खिंचता  तो उसके पास वायु रक्षा प्रणाली के लिए मिसाइलें भी कम पड़ने वाली थी । इजराइल की अर्थव्यवस्था भी भारी दबाव में आ गई थी । देखा जाये तो इजराइल ने कभी नहीं सोचा था कि ईरान उसके ऊपर ऐसा हमला करेगा, इसलिए वो इसके लिए तैयार नहीं था ।  दूसरी तरफ ईरान के पास भी मिसाइलों की कमी होती जा रही थी और इजराइल के लक्षित हमले ईरान में बड़ी बर्बादी कर चुके हैं । देखा जाये तो इस युद्ध ने ईरान की सैन्य शक्ति को बहुत कम कर दिया है और उसके परमाणु कार्यक्रम को भी पीछे धकेल दिया है । ईरान किसी भी तरह इस युद्ध को रोकना चाहता था । इस तरह देखा जाये तो दोनों ही देश युद्ध-विराम चाहते थे और अमेरिका की कोशिश से तुरंत मान गए । 

             अमेरिका इजराइल के कहने से युद्ध में कूद तो गया था लेकिन वो इस युद्ध में फंसना नहीं चाहता था । इजराइल ने युद्ध शुरू किया था इसलिए ईरान को युद्ध के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । वैसे देखा जाये तो इस युद्ध का क्या तुक था, किसी को समझ नहीं आ रहा है । न तो कोई इस युद्ध को समझ पा रहा है और न ही इस युद्ध का रूकना किसी को समझ आ रहा है । इजराइल युद्ध से ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता खत्म करना चाहता था क्योंकि वो इसे अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है लेकिन सवाल उठता है कि क्या इजराइल अपने लक्ष्य को हासिल कर चुका है । क्या अब ईरान परमाणु बम नहीं बनाएगा । हो सकता है कि ईरान को परमाणु बम बनाने में देर लग जाए लेकिन वो रूकने वाला नहीं है । अमेरिका ने दावा किया है कि उसने ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता खत्म कर दी है तो दूसरी तरफ दोनों देशों ने यह कबूल  कर लिया है कि अमेरिका ने ईरान पर हमला करने से पहले उसे सूचित कर दिया था ।

 अब सवाल उठता है कि जब ईरान को हमले का पता था तो क्या उसने अपना जरूरी सामान वहां से हटा नहीं लिया होगा । दूसरी बात जब अमेरिका को ईरान पर हमला करना था तो उसे बताकर क्यों किया ।  ईरान ने कतर और दूसरे अरब देशों में अमेरिकी ठिकानों पर हमला किया लेकिन उसने भी अमेरिका को हमला करने से पहले सूचना दे दी । अजीब बात है दो देश एक दूसरे पर हमला कर रहे हैं और इसकी पहले सूचना दे रहे हैं । क्या आपको नहीं लगता कि बड़ा अजीब खेल चल रहा है । क्या इससे पहले अमेरिका को किसी देश पर हमला करने से पहले सूचित करते हुए देखा गया है । ईरान ने अमेरिकी ठिकानों पर हमला करने के लिए 14 मिसाइलें दागी जिसमें से 13 को नाकाम कर दिया और एक मिसाइल निर्जन स्थान पर गिर गई । एक अजीब बात यह रही कि अमेरिका ने इन हमलों से पहले इन ठिकानों को खाली कर दिया था । अजीब मजाक चल रहा है. क्या इसी को युद्ध कहते हैं । अमेरिका ने कहा था कि अगर ईरान ने उसके हमलों का जवाब दिया तो ईरान को बर्बाद कर दिया जाएगा । वैसे देखा जाये तो वैश्विक राजनीति में अमेरिका के बयान का बहुत महत्व होता है, वो जो कहता है करके दिखाता है, यही उसकी ताकत है । यहां जब ईरान ने अमेरिका को जवाब दिया तो अमेरिका ईरान को सबक सिखाने की जगह युद्ध-विराम करने लगा ।

डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि दोनों देश उनके पास युद्ध-विराम करवाने की भीख मांगते हुए आये और उन्होंने शांति की स्थापना की । ईरानी टीवी ने दावा किया है कि ट्रंप ने युद्ध-विराम की भीख मांगी थी, तब ईरान तैयार हुआ । इजराइल भी युद्ध-विराम करवाने की बात से पीछे हट गया है । अजीब बात है कि सभी दूसरे के झुकने की बात कर रहे हैं कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वो भी झुका और युद्ध-विराम की मांग की । ये कैसा युद्ध-विराम है जिसमें किसी ने कोई घोषणा नहीं की, न इजराइल ने ईरान पर हमला न करने की बात कही और न ही ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने की बात कही । 

              इस युद्ध में इजराइल और अमेरिका की एक कोशिश तो पूरी तरह नाकाम हो गई है कि वो ईरान में सत्ता परिवर्तन नहीं कर पाए जिसकी वो घोषणा कर रहे थे । दूसरी बात यह है कि बेशक दोनों देश ईरान की परमाणु क्षमता को खत्म करने की  घोषणा कर रहे हों लेकिन वो कम जरूर हुई है लेकिन खत्म नहीं हुई है । ईरान ने युद्ध शुरू नहीं किया था इसलिए उसका तो कोई लक्ष्य नहीं था. उसे बर्बाद करने के लिए युद्ध शुरू किया गया था लेकिन ईरान ने साबित कर दिया कि वो इराक नहीं है जिसे अमेरिका ने आसानी से बर्बाद कर दिया था । देखा जाये तो ईरान ही इस युद्ध का असली विजेता बना है क्योंकि अमेरिका और इजराइल का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है । दोनों देशों ने जो सोच कर ईरान पर युद्ध थोपा था, वो बात पूरी नहीं हुई है बल्कि दुनिया ने ईरान की मिसाइल शक्ति को देख लिया है ।

 इजराइल को पता चल गया है कि न तो उसकी और न ही अमेरिका की वायु रक्षा प्रणाली उसे ईरानी हमलों से बचा सकती है । अमेरिकी एयर डिफेंस सिस्टम की पोल दुनिया के सामने खुल गई है । ईरान के आकाश पर नियंत्रण होने के बावजूद दोनों देश मिलकर भी इजराइल पर ईरानी हमलों को रोक नहीं पाए । इजराइल इस बात पर खुश हो सकता है कि उसने ईरान के बड़े वैज्ञानिकों और सैन्य अधिकारियों को इस युद्ध में ठिकाने लगा दिया । सवाल उठता है कि क्या इससे ईरान को कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला है । मेरा मानना है कि कुछ वैज्ञानिकों और अधिकारियों के मरने से ईरान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है । अमेरिका की हार तो इससे ही साबित हो जाती है कि वो अपने सहयोगी इजराइल पर ही भड़क रहा है क्योंकि उसे पता है कि इस युद्ध ने उसकी बुरी तरह से भद्द पिटवा दी है । पाकिस्तान का दोगलापन पूरी दुनिया ने देख लिया. एक तरफ उसने अमेरिका का साथ दिया तो जब ईरान पर अमेरिका ने हमला किया तो उसकी निंदा कर  दी । मुस्लिम देशों ने ईरान की अपील के बावजूद उसका साथ नहीं दिया, इससे मुस्लिम उम्माह की बात भी बेमानी हो गई है ।

 भारत की नीति सबसे बढ़िया रही कि उसने इस युद्ध से दूरी बनाकर रखी क्योंकि दोनों देश ही उसके मित्र देश हैं । इस युद्ध ने साबित कर दिया कि अमेरिका पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता. अगर उसके ऊपर भरोसा किया तो आपकी बर्बादी तय है । देखा जाये तो इस युद्ध में सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिका का हुआ है । जब इस युद्ध का विश्लेषण किया जाएगा तो सैन्य विशेषज्ञों को यह बात समझ आ जाएगी । इस युद्ध ने साबित कर दिया है कि  अमेरिका की दादागिरी अब ज्यादा दिन तक चलने वाली नहीं है । इस युद्ध ने यह बात भी साबित कर दी है कि युद्ध अपने दम पर लड़ना चाहिए किसी दूसरे के भरोसे युद्ध लड़ना बर्बादी को बुलावा देना है । विशेष रूप से अमेरिका के भरोसे युद्ध लड़ना तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना है ।

 राजेश कुमार पासी

हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

हिंदी फिल्मी गीतों में व्यंग्य एक सशक्त माध्यम रहा है जिसने सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और मानवीय दुर्बलताओं को बिना कटुता  तीखेपन से उघाड़ा है। ये गीत मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक दर्पण का काम करते हैं जो समाज के अंतर्विरोधों को संगीत और शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म पड़ोसन (1968) का गीत “एक चतुर नार करके सिंगार, मेरे मन के द्वार ये घुसत जात…” राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित और किशोर कुमार व मेहमूद द्वारा गाया गया यह गीत नारी चतुराई और पुरुष अहं पर करारा व्यंग्य करता है। इसमें दक्षिण भारतीय लहजे का प्रयोग हास्य के साथ-साथ सांस्कृतिक रूढ़ियों को भी चिह्नित करता है । 

फिल्म प्यासा (1957) का गीत “सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए…” शकील बदायूंनी के बोल और मोहम्मद रफी की आवाज में जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया था। यह गीत शहरी जीवन की अवसादग्रस्त दिनचर्या और तनावमुक्ति के लिए तेल मालिश (चंपी) पर निर्भरता का मखौल बनाकर हास्य उत्पन्न करता है। जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान एक चंपी में खोजा जा रहा है जो निजी कुंठाओं से भागने का प्रतीक बन जाता है. यह व्यंग्य हास्य मिश्रित है। काला बाज़ार (1989) का गीत “पैसा बोलता है…” कादर खान पर फिल्माया गया जो धन के अमानवीय प्रभुत्व को दर्शाता है। नितिन मुकेश की आवाज में यह गीत पूँजीवादी समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की ओर इशारा करता है, जहाँ पैसा हर रिश्ते और सिद्धांत पर हावी है । 

कॉमेडियन महमूद की अदाकारी ने कुंवारा बाप  (1974) के गीत “सज रही गली मेरी माँ चुनरी गोते में…” को यादगार बनाया। यह गीत हिजड़ों के माध्यम से समलैंगिकता और पारंपरिक पितृसत्ता पर प्रहार करता है। बोल “अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात…” लालन-पालन में पुरुष की भूमिका को चुनौती देते हैं, जो उस दौर में एक साहसिक विषय था । 

1950-80 के दशक के स्वर्ण युग में कॉमेडियन्स ने व्यंग्य को नई ऊँचाइयाँ दीं। जॉनी वॉकर की विशिष्ट अभिव्यक्ति, महमूद का स्लैपस्टिक हास्य और किशोर कुमार का संगीत के साथ व्यंग्य का संयोजन, सभी ने गीतों को सामाजिक टिप्पणी का माध्यम बनाया। फिल्म हाफ टिकट (1962) का गीत “झूम झूम कव्वा भी ढोलक बजाये…” या गुमनाम (1965) का “हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं…” जैसे गीतों ने रंगभेद और वर्ग संघर्ष को हल्के अंदाज में प्रस्तुत किया था । 

साहित्य और फिल्मी गीतों के बीच का सामंजस्य भी रोचक रहा है। गीतकारों ने साहित्यिक रचनाओं को फिल्मों में लोकप्रिय बनाया। गोपाल दास ‘नीरज’ ने मेरा नाम जोकर (1970) के गीत “ऐ भाई ज़रा देख के चलो…” को अपनी पुरानी कविता “राजपथ” से अनुकूलित किया था, जो मानवीय अहंकार पर व्यंग्य था । इसी प्रकार, रघुवीर सहाय की कविता “बरसे घन सारी रात…” को फिल्म तरंग (1984) में लिया गया, जो साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बना । 

व्यंग्य के सम्पुट के साथ इस तरह के फिल्मी गीतों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। “पैसा बोलता है…” जैसे गीत आज के भौतिकवादी युग में और भी सटीक लगते हैं। ये गीत सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करने के साथ-साथ श्रोताओं को हँसाते-गुदगुदाते हुए विचार करने को प्रेरित करते हैं, जो हिंदी सिनेमा की सांस्कृतिक धरोहर का अमर हिस्सा हैं ।

विवेक रंजन श्रीवास्तव

धूम 4′ में नजर आएंगी श्रद्धा कपूर?

सुभाष शिरढोनकर

फिल्‍म ‘स्त्री 2’ की रिकार्ड तोड़ कामयाबी के बाद एक्‍ट्रेस श्रद्धा कपूर लगातार चर्चाओं में बनी हुई हैं। उनकी यह फिल्‍म साल 2024 की सबसे बड़ी और हिंदी में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म साबित हुई। इस फिल्‍म ने कमाई के मामले में ‘गदर 2’ और ‘जवान’ के रिकॉर्ड भी तोड़ दिए।

फिल्‍म की कामयाबी के बाद फिल्‍म मेकर एकता कपूर ने अपनी अपकमिंग वुमेन सेंट्रिक फिल्म के लिए श्रद्धा कपूर को अप्रोच किया था।  ‘तुम्बाड’ फेम राही अनिल बर्वे इस फिल्‍म को डायरेक्ट करने वाले थे। 

लेकिन यदि खबरों की माने तो श्रद्धा कपूर ने फिल्म के लिए एकता कपूर से न केवल 17 करोड़ की डिमांड कर डाली बल्कि प्रॉफिट में भी वह एकता से शेयर चाहती थीं।   

एकता को श्रद्धा की यह मांग काफी नागवार लगी और उन्‍होंने श्रद्धा की इस डिमांड को पूरी तरह खारिज कर दिया। इस तरह श्रद्धा कपूर एकता कपूर की इस फिल्म का हिस्सा नहीं बन सकीं। श्रद्धा कपूर के लिए निश्चित ही यह एक बड़ा प्रोजेक्ट साबित हो सकता था लेकिन श्रद्धा ने इसे गंवा दिया ।

यदि खबरों की माने तो अब फिल्‍म के लिए नई लीड एक्ट्रेस की तलाश जोरों पर हैं। इस साल के सेकंड हाफ में यह फिल्म फ्लोर पर जाने वाली है। फिल्‍म का टाइटल फिलहाल फायनल नहीं हुआ है।

इसके पहले भी श्रद्धा कपूर फिल्‍म ‘पुष्पा 2: द रूल में आइटम सॉन्ग करने वाली थीं। साल 2021 में रिलीज हुई ‘पुष्पा 1′ में साउथ एक्‍ट्रेस सामंथा रुथ प्रभु का आटइम नंबर ऊं अंटावा मावा….’ बेहद हिट हुआ था जिसके लिए सामंथा रुथ प्रभु को 5 करोड़ रुपए की भारी भरकम फीस दी गई थी।

खबरों की माने तो श्रद्धा कपूर को उतनी ही फीस चाहिए थी  मगर मेकर्स से उन्‍होंने इसके एवज में 5 करोड़ की अत्‍यधिक फीस की मांग की कि मजबूरन उन्हें  श्रद्धा के बजाए श्रीलीला को यह अवसर देना पड़ा।

पिछले कुछ सालों में श्रद्धा कपूर का फिल्में चुनने का  पैटर्न  बदल गया है। अब वह तीन साल में एक फिल्‍म कर रही हैं। श्रद्धा कपूर का मानना है कि उनके करियर का बेस्‍ट अभी आना बाकी है। इसकी वजह से उन पर बहुत ज्‍यादा जिम्‍मेदारी है। श्रद्धा का कहना है कि एक एक्टर के रूप में जब कुछ एक्साइटिंग होने वाला लगता है तभी वह ऑफर स्‍वीकार करती हैं।

‘स्त्री 2’ में धमाल मचाने के बाद श्रद्धा कपूर अब ‘स्त्री 3’ में नजर आएंगी। उनकी यह फिल्‍म 13 अगस्‍त 2027 को रिलीज होगी। फिल्म में एक बार फिर राजकुमार राव, अपारशक्ति खुराना, पंकज त्रिपाठी और अभिषेक बनर्जी जैसे स्टार्स नजर आएंगे।

‘स्त्री 3’ के अलावा श्रद्धा कपूर का नाम रनबीर कपूर की अपकमिंग फिल्‍म ‘धूम 4’ के लिए भी सामने आ रहा है। हाल ही में इस फिल्‍म के लिए रनबीर कपूर के नाम की आफीशियल अनाउंसमेंट की गई, फीमेल लीड एक्‍ट्रेस के नाम का एलान होना बाकी है।

यदि सूत्रों पर भरोसा किया जाए तो श्रद्धा कपूर निखिल द्विवेदी  व्‍दारा डायरेक्ट की जाने वाली सुपरनेचुरल फिल्म ‘नागिन’ में भी नजर आ सकती हैं। 

सुभाष शिरढोनकर

सिचुएशनशिप: रिश्ता जिसमें किन्तु-परन्तु नहीं

सचिन त्रिपाठी

प्रेम संबंधों की परिभाषाएं समय के साथ बदलती रही हैं। पहले ‘प्रेम’ एक स्थायी, सामाजिक और पारिवारिक स्वीकृति वाला संबंध था। फिर प्रेम विवाह, लिव-इन रिलेशनशिप और अब ‘सिचुएशनशिप’ जैसे नए रूप सामने आए हैं। सिचुएशनशिप कोई पारंपरिक प्रेम संबंध नहीं है, न ही यह पूर्णतः मित्रता है। यह उन दो लोगों के बीच का अनिश्चित-सा, पर भावनात्मक रूप से गहरा जुड़ा हुआ रिश्ता है जिसमें स्पष्टता की बजाय धुंध, स्थायित्व की जगह अस्थाई होना और भरोसे की जगह संभावनाएं होती हैं लेकिन क्या सिचुएशनशिप सिर्फ भ्रम है? या यह आज की पीढ़ी का आत्म-स्वतंत्र और यथार्थवादी प्रेम है? इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को गहराई से समझना होगा।

आज के युवा स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानते हैं चाहे वह करियर हो, स्थान चयन हो या रिश्ते। सिचुएशनशिप इस आज़ादी को जगह देता है। इसमें दोनों व्यक्ति एक-दूसरे की कंपनी पसंद करते हैं, लेकिन अपने जीवन के निर्णय स्वतंत्र रूप से लेते हैं। कोई सामाजिक दबाव नहीं, न ही विवाह का अनावश्यक तनाव। यह रिश्ता उन्हें भावनात्मक संबल देता है जो अभी जीवन में स्थायित्व के लिए तैयार नहीं हैं। युवा जो पढ़ाई, करियर या निजी हीलिंग के दौर से गुजर रहे हैं, वे किसी गंभीर संबंध में बंधे बिना भी साथी के साथ जुड़ सकते हैं। अक्सर सिचुएशनशिप में दोनों पक्ष शुरू से स्पष्ट होते हैं कि वे अभी किसी परिभाषित रिश्ते में नहीं हैं। यह पारदर्शिता कई बार उस झूठ और छल से बेहतर होती है जो परंपरागत प्रेम संबंधों में दिखावे के रूप में होता है। आज की पीढ़ी अपने करियर और आत्म-विकास को पहले स्थान पर रखती है। विवाह या रिश्तों की स्थायित्वपूर्ण जिम्मेदारियों को टालते हुए भी वे एक भावनात्मक सहारा चाहते हैं। सिचुएशनशिप इस जरूरत को पूरा करता है।

सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें न कोई वचन होता है, न कोई भविष्य की रूपरेखा। कई बार एक व्यक्ति अधिक जुड़ जाता है जबकि दूसरा असमंजस में रहता है। इससे भावनात्मक असुरक्षा, ईर्ष्या और दुख जन्म लेते हैं। सिचुएशनशिप में वर्षों निकल जाते हैं, और जब अंत में कोई एक व्यक्ति दूर चला जाए तो दूसरे के लिए यह गहरे आघात का कारण बनता है। कई युवाओं के लिए यह एक ‘इमोशनल इंवेस्टमेंट’ होता है जिसकी कोई निश्चित परिणति नहीं होती। भले ही शहरी युवा वर्ग इसे स्वीकार कर चुका हो, लेकिन सामाजिक ढांचे में यह अब भी अजीब या ‘अधूरा’ माना जाता है। परिवार, समाज और रिश्तेदारों के सवालों का उत्तर नहीं होता: ‘क्या चल रहा है?’ ‘क्या रिश्ता है?’ “कब शादी करोगे?’ बहुत से लोग सिचुएशनशिप की आड़ में किसी को ‘टाइम पास’ समझने लगते हैं। वे यह रिश्ता तब तक बनाए रखते हैं जब तक कोई बेहतर विकल्प न मिल जाए। इसमें भावनात्मक धोखा मिलने की संभावना बहुत अधिक रहती है।

भारत में मेट्रो शहरों, विश्वविद्यालय परिसरों और मल्टीनेशनल कंपनियों के युवाओं में यह रिश्ता तेजी से बढ़ रहा है। टिंडर, बम्बल जैसे डेटिंग ऐप्स पर कई युवा अब ‘सिचुएशनशिप’ को रिश्ता मानते हैं। 2024 के एक ऑनलाइन सर्वे के अनुसार, 18 से 30 वर्ष की आयु के 42% युवाओं ने स्वीकार किया कि वे ‘डेट कर रहे हैं पर कमिटेड नहीं हैं’। इसका अर्थ स्पष्ट है; रिश्तों की दिशा बदल रही है। हाल ही में एक सोशल मीडिया घटना वायरल हुई जहां एक युवती ने ‘ब्रेकअप नहीं हुआ पर अब हम स्ट्रेंजर हैं’ जैसी पोस्ट लिखी। इसने हज़ारों युवाओं के दिल की आवाज़ को शब्द दे दिए।

क्या यह संबंध भविष्य है? इसका उत्तर ‘हां’ और ‘ना’ दोनों हो सकता है। हां, क्योंकि यह उन युवाओं के लिए एक विकल्प है जो फिलहाल स्थायित्व नहीं चाहते, पर अकेलेपन से जूझ रहे हैं। ना, क्योंकि यह संबंध देर-सवेर किसी एक को पीड़ा जरूर देता है, क्योंकि इंसान का मन किसी न किसी बिंदु पर स्पष्टता और सुरक्षा चाहता है। सिचुएशनशिप न तो पूर्णतः अनुचित है, न ही पूर्णतः आदर्श। यह उस दौर की उपज है जिसमें हम प्रेम को परिभाषाओं की कैद से बाहर निकालकर उसके अनुभव की ओर ले जा रहे हैं। पर यह भी सच है कि प्रेम की सबसे मौलिक आवश्यकता ‘स्पष्टता’ है। जिसकी कमी इस रिश्ते को एक ‘चुभता हुआ धुंधलका’ बना देती है। इसलिए यह जरूरी है कि यदि आप सिचुएशनशिप में हैं या उसमें जाने की सोच रहे हैं, तो ईमानदारी, संवाद और सीमाओं की स्पष्टता को सर्वोपरि रखें वरना यह रिश्ता, जिसमें कोई ‘किन्तु-परन्तु’  नहीं होना चाहिए, खुद एक अंतहीन ‘किन्तु-परन्तु’ बन सकता है।

सचिन त्रिपाठी

आपका सादा खाना भी काफ़ी ‘ओइली’ है!

क्या आप जानते हैं कि आपका सादा खाना भी काफ़ी ‘ओइली’ है?
नहीं, हम घी या सरसों तेल की बात नहीं कर रहे—हम बात कर रहे हैं उस कच्चे तेल की जिसकी कीमत इज़राइल-ईरान जैसे युद्धों से तय होती है, और जिसकी लत में डूबी है आज की पूरी खाद्य प्रणाली.

आज चावल से लेकर चिप्स के पैकेट तक, खेत से लेकर किराना स्टोर तक, हर चीज़ में छुपा है डीज़ल, पेट्रोल और पेट्रोकेमिकल्स का जाल.
IPES-Food की नई रिपोर्ट कहती है—हमारा खाना अब मिट्टी में नहीं, तेल में उगता है. क्योंकि आधुनिक खाद्य प्रणाली आज दुनिया के 40% पेट्रोकेमिकल्स और 15% फॉसिल फ्यूल खुद हज़म कर रही है.

खाद, कीटनाशक, ट्रांसपोर्ट, पैकिंग, कोल्ड स्टोरेज—हर स्तर पर तेल और गैस की निर्भरता इतनी गहरी है कि खाने की कीमत अब फसल से ज़्यादा, फॉसिल फ्यूल मार्केट से तय होती है.

और जब तेल की कीमत बढ़ती है, भूख भी महंगी हो जाती है.

दूसरे शब्दों में कहें तो आज जो चावल, सब्ज़ी, फल, आपकी थाली में और जो पैकेटबंद बिस्किट आपकी हथेली में हैं—उनमें मिट्टी से ज़्यादा शायद मिट्टी से निकलने वाला तेल छिपा है. और यही तेल अब हमारी रसोई में भूख का नया एजेंट बन चुका है. एक ऐसा एजेंट जिसकी कीमत इज़राइल-ईरान जैसे युद्ध तय करते हैं, और ऐसी वजह जो गरीब की थाली भी महंगी कर देती है.

मामला दरअसल ये है कि IPES-Food की रिपोर्ट ‘Fuel to Fork’ बताती है—हमारे खाने की पूरी चेन तेल पर चलती है. खेत से लेकर थाली तक.

अब खेत में मिट्टी से ज़्यादा डीज़ल की महक

चलिए एक गांव की तस्वीर सोचिए—बिहार का सिवान, या हरियाणा का कैथल. वहां एक किसान सुबह उठकर ट्रैक्टर स्टार्ट करता है, बीज डालता है, खाद छिड़कता है. पर वो खाद, वो ट्रैक्टर, वो सिंचाई—सब कुछ तेल या गैस से जुड़ा है.

  • खेतों में जो यूरिया और DAP डलती है—उसका 99% हिस्सा फॉसिल फ्यूल से बनता है
  • खेत से सब्ज़ी लेकर जो ट्रक शहर जाता है—वो डीज़ल पीता है
  • और फिर जब तुम मॉल से बिस्किट या नमकीन का पैकेट उठाते हो, तो उसकी प्लास्टिक पैकिंग भी तेल से बनी होती है

मतलब ये कि हमारे खाने में अब मिट्टी से ज़्यादा तेल की बू है.

जब तेल बढ़ेगा, भूख भी बढ़ेगी

आपको याद है न, साल 2022 में जब पेट्रोल ₹100 के पार गया था, सब्ज़ी और दूध के दाम भी आसमान छू गए थे. वही सिलसिला अब फिर सिर उठाता दिख रहा है.

IPES-Food के एक्सपर्ट राज पटेल कहते हैं:

जब खाना तेल पर टिका हो, तो हर युद्ध, हर संकट सीधा आपकी थाली पर असर डालता है.”

इसका सीधा असर मध्यमवर्ग और ग्रामीण परिवारों पर पड़ेगा—जहाँ पहले ही थाली से दाल गायब होती जा रही है. जो किसान खाद खरीदते थे, अब उधारी में बीज लेते हैं. और जो शहरों में रहते हैं, उनके लिए सब्ज़ियाँ अब मौसमी नहीं, महँगी हो गई हैं.

और ये जो ‘सोल्यूशन’ बेचे जा रहे हैं, वो असल में जाल हैं

अब कंपनियाँ कहती हैं—‘डिजिटल फार्मिंग करिए’, ‘ब्लू अमोनिया अपनाइए’, ‘स्मार्ट फर्टिलाइज़र लीजिए’. पर सच ये है कि ये सब फिर से तेल पर ही टिका है, और किसानों को नई तरह की गुलामी की ओर धकेलता है—जहाँ उनका डेटा भी बिकता है और फ़सल भी.

यानी समाधान के नाम पर फिर से वही मुनाफ़ा, वही तेल, वही कंट्रोल.

लेकिन रास्ता है—गाँवों में, मंडियों में, यादों में

भारत का असली खाना वो है जो दादी की रसोई से आता था—मक्का, ज्वार, सब्ज़ी की रसेदार तरी, बिना प्लास्टिक के, बिना रासायनिक खाद के.

IPES-Food की विशेषज्ञ Georgina Catacora-Vargas कहती हैं:

फॉसिल फ्यूल-मुक्त फूड सिस्टम कोई सपना नहीं है—वो आज भी हमारे आदिवासी और देसी समुदायों में जिंदा है.

छत्तीसगढ़ की बस्तर मंडी, मेघालय का सामुदायिक बाग़ान, विदर्भ की महिला किसान समूह—ये सब बताते हैं कि लोकल, जैविक और विविध खाना सिर्फ़ स्वाद नहीं, आज आज़ादी की पहचान बन चुका है.

अब सवाल यह है:

क्या COP30 जैसी जलवायु वार्ताओं में खाने की बात होगी?

या फिर हम जलवायु को सिर्फ़ कार्बन क्रेडिट की भाषा में ही समझते रहेंगे, और रसोई में खड़ा किसान फिर से छूट जाएगा?

तेल से टपकती इस थाली को अब बदलाव की ज़रूरत है.
वो बदलाव खेतों की मिट्टी में, देसी बीजों में, लोकल मंडियों में और थाली की सादगी में छुपा है.

आप बताइये—क्या हम फिर से अपने खाने को आज़ाद कर सकते हैं?

आपातकाल में प्रतिबंध के बावजूद और सशक्त होकर उभरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

सुशील कुमार ‘ नवीन ‘ 

आपातकाल नाम सुनते ही शरीर में एक अलग ही झनझनाहट शुरू हो जाती है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे चर्चित और विवादित रहे आपातकाल को 50 वर्ष बीत चुके हैं। हर वर्ष जून मास आते ही घाव पुनः गहरे हो जाते है। आपातकाल के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका भी काफी प्रभावी रही है। संघ ने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया था। हजारों कार्यकर्ताओं को प्रताड़ना सहनी पड़ी। जेल तक की यात्रा करनी पड़ी। कार्यकर्ताओं के बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। 

लेख की शुरुआत कठोपनिषद के एक प्रसिद्ध श्लोक से करता हूं ; 

उत्तिष्ठते जाग्रते प्राप्य वरान्निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गमपथा।

अर्थ है कि उठो, जागो और ज्ञानी पुरुषों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। ज्ञान प्राप्ति का मार्ग, छुरी की धार पर चलने के समान कठिन है। आपातकाल के दौरान संघ को प्रतिबंध तक झेलना पड़ा। इसके बावजूद संघ और सशक्त होकर नए रूप में देश के सामने आया।

     आपातकाल के इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो कुछ बातों का पुनः स्मरण कराया जाना जरूरी हो जाता है। 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निर्णय सुनाया था। इसमें वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के सामने राज नारायण मैदान में थे। चुनाव परिणाम में इंदिरा गांधी को विजयी घोषित किया गया था। पराजित प्रत्याशी राज नारायण चुनावी प्रक्रिया से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करते हुए चुनाव में अनुचित साधन अपनाने का आरोप लगाया। उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का अनुचित उपयोग किया है। परिणाम उनके पक्ष में रहा। सरकार के विरुद्ध राजनीतिक अस्थिरता और विरोध प्रदर्शन का माहौल बना। 

  25 जून 1975 को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। 21 मार्च 1977 तक यह लागू रहा। इस समयावधि के दौरान नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। सभी स्तर के चुनाव स्थगित कर दिए गए। सत्ता विरोधियों को बंदी बना लिया गया। प्रेस पर प्रतिबंधित लगाने के साथ साथ कुछ पत्रकार गिरफ्तार भी किए गए। 

वरिष्ठ पत्रकार रहे माणिकचंद्र वाजपेयी जी ने अपनी पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा में लिखा था कि- कांग्रेस ने 20 जून, 1975 के दिन विशाल रैली का आयोजन किया। रैली में देवकांतबरुआ ने कहा था, ‘इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय’ और इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वे प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।’ 

    जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल का विरोध किया। उन्होंने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा। माणिकचंद्र वाजपेयी लिखते हैं- ‘ जयप्रकाश नारायण जी ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख 25 जून, 1975 को कहा, ‘ सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहां तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जाएगी।’ लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने वहीं पर उत्साह के साथ घोषणा कर दी, को इसके बाद इंदिराजी के त्यागपत्र की मांग लेकर गांव-गांव में सभाएं की जाएंगी और राष्ट्रपति के निवास स्थान के सामने 29 जून से प्रतिदिन सत्याग्रह होगा।’ 

 एच वी शेषाद्री की पुस्तक कृतिरूप संघ दर्शन के अनुसार सभी प्रकार की संचार व्यवस्था, यथा- समाचार-पत्र- पत्रिकाओं, मंच, डाक सेवा और निर्वाचित विधान मंडलों को ठप्प कर दिया गया। प्रश्न था कि इसी स्थिति में जन आंदोलन को कौन संगठित करे? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश भर में शाखाओं का अपना जाल था और वही इस भूमिका को निभा सकता था। संचार माध्यमों को ठप्प करने का प्रभाव अन्य दलों पर तो पड़ा, पर संघ पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा। अखिल भारतीय स्तर के उसके केन्द्रीय निर्णय, प्रांत, विभाग, जिला और तहसील के स्तरों से होते हुए गांव तक पहुच जाते हैं। आपात घोषणा हुई और जब तक आपातकाल चला, उस बीच संघ की यह संचार व्यवस्था सुचारू ढंग से चली। भूमिगत आंदोलन के ताने-बाने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के घर महानतम वरदान सिद्ध हुए।

    सर संघचालक बालासाहब देवरस को 30 जून को नागपुर स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पूर्व उन्होंने आह्वान किया था कि इस असाधारण परिस्थिति में स्वयंसेवकों का दायित्व है कि वे अपना संतुलन न खोयें। सर कार्यवाह माधवराव मुले तथा उनके द्वारा नियुक्त अधिकारी के आदेशानुसार संघ-कार्य जारी रखें तथा यथापूर्व जनसंपर्क, जनजागृति और जनशिक्षा का कार्य करते हुए अपने राष्ट्रीय कर्तव्य का पालन करने की क्षमता जनसाधारण में निर्माण करें। संघ कार्यकर्ताओं ने उनके आह्वान के अनुसार ही कार्य किया।

   आपातकाल की घोषणा के कुछ दिन बाद 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया। लोक संघर्ष समिति द्वारा आयोजित आपातकाल विरोधी संघर्ष में एक लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। बताया जाता है कि आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल एक लाख 30 हजार सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। जो 30 हजार लोग बंदी बनाए गए, उनमें से 25 हजार से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। जानकारों के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता बंदीगृहों और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हो गए। उनमे संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख पांडुरंग क्षीर सागर भी शामिल थे।

   सत्ता पक्ष के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को संघ के पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं ने जारी रखा। मोहनलाल रुस्तगी की पुस्तक आपातकालीन संघर्ष गाथा के अनुसार जयप्रकाश नारायण ने अपनी गिरफ्तारी से पूर्व ‘लोक संघर्ष समिति’ का आन्दोलन चलाने के लिए ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता नानाजी देशमुख को जिम्मेदारी सौंपी थी। जब नानाजी देशमुख गिरफ्तार हो गए तो नेतृत्व की जिम्मेदारी सुंदर सिंह भण्डारी को सौंपी गई। आपातकाल लगाने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से देश को सचेत रखने के लिए तथा जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए संघ के कार्यकर्ता तय किए गए। स्वयंसेवकों ने सत्ता की नीतियों के विरोध में सत्याग्रह किया।

   9 अगस्त,1975 को मेरठ नगर में सत्याग्रह किया गया। 15 अगस्त,1975 को लाल किले पर जब प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान सत्याग्रहियों ने नारे लगाए और पर्चे वितरित किए। 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के सामने महात्मा गांधी की समाधि पर सत्याग्रह किया गया। 28 अक्टूबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सांसदों का एक दल जब दिल्ली आया था, तब कार्यकर्ताओं ने उन्हें आपातकाल विरोधी साहित्य वितरित किया। 14 नवंबर, 1975 को प्रधानमंत्री के सामने जवाहर लाल नेहरू की समाधि के पास आपातकाल के विरोध में नारे लगाए गए। 24 नवंबर 1975 को अखिल भारतीय शिक्षक सम्मेलन में पर्चे वितरित किए और तानाशाही के विरोध में नारे लगाए। 7 दिसम्बर, 1975 को ग्वालियर में महान संगीतज्ञ तानसेन की समाधि पर सत्याग्रह किया गया। उस दिन रजत जयंती के कार्यक्रम का आयोजन था। 12 दिसम्बर, 1975 को दिल्ली में स्वामी श्रद्धानंद की मूर्ति के सामने मणिबेन पटेल के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा सत्याग्रह किया गया। बंबई की मिलों में मजदूरों द्वारा सत्याग्रह किया गया।

   आपातकाल से कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ। जनता में सरकार की छवि धूमिल हुई। आक्रोश बढ़ता गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करके चुनाव करवाने की अनुशंसा कर दी। चुनाव में स्वयं इंदिरा गांधी को अपने क्षेत्र रायबरेली से चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। इस प्रकार स्वतंत्रता के पश्चात प्रथम बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। नई केंद्र सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए निर्णयों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया। शाह आयोग में अपनी रिपोर्ट में आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं का उल्लेख करते हुए शासन व्यवस्था को हुई हानि पर चिंता व्यक्त की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आपातकाल का जमकर विरोध किया. इसके कारण उसे सत्ता के क्रोध का दंश झेलना पड़ा, किन्तु आपातकाल के दौरान संघ द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों ने लोगों में उसे विख्यात कर दिया. इस प्रकार लोकतंत्र की विजय घोष के साथ संघ बढ़ता गया। सोमदेव द्वारा रचित कथासरितसागर की एक प्रसिद्ध सूक्ति इसे चरितार्थ भी करती है।

अप्राप्यं नाम नेहास्ति धीरस्य व्यवसायिनः

अर्थ है कि साहसी और मेहनती व्यक्ति के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है अर्थात् जिसके पास साहस है और जो परिश्रम करता है, उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं है।

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’ 

वैश्विक शांति और वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य

विवेक रंजन श्रीवास्तव

शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात् एक नए शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था के उदय की आशा थी परन्तु इक्कीसवीं सदी का तीसरा दशक में दुनियां एक विडंबनापूर्ण वास्तविकता के समक्ष आ खडी हुई है । ऐसा युग जहाँ अंतर्संबंध और तकनीकी प्रगति की अभूतपूर्व ऊँचाइयों के बावजूद, युद्ध और संघर्ष पहले से कहीं अधिक व्यापक हैं। रूस यूक्रेन में चार साल से युद्ध, इजराइल और फिलिस्तीन के बीच अत्यधिक हिंसक और जटिल संघर्ष, अफ्रीका के विभिन्न क्षेत्रों में जारी गृहयुद्ध, एशिया में तनावपूर्ण सीमा विवाद, और सीरिया, यमन जैसे देशों में अभी भी चल रहे संकट के बीच ईरान इजराइल युद्ध में अमेरिका की एंट्री से विश्व शांति पर प्रश्न चिन्ह लग गया है।

भारत पाकिस्तान तनाव, चीन ताइवान , कोरिया तथा ऐसे ही अन्य विवाद एक ऐसी कठोर वास्तविकता की ओर इंगित करते हैं जहाँ स्थाई वैश्विक शांति एक दूर का, अस्पष्ट सा लगने वाला लक्ष्य प्रतीत होता है। वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य की जटिलताओं और उसके सामूहिक प्रयासों से वैश्विक शांति की ओर बढ़ने की चुनौतियों पर विचार और गंभीर काम करना अत्यंत प्रासंगिक है।

आज के युद्धों की प्रकृति पारंपरिक सीमाओं को लांघ चुकी है। वे केवल दो राष्ट्रों के बीच सीमित संघर्ष नहीं रहे। इनमें प्रॉक्सी युद्धों का बोलबाला है जहाँ महाशक्तियाँ अन्य देशों या समूहों के माध्यम से अपने हित साधती हैं जैसा सीरिया या यमन में देखा गया। युद्ध तकनीक का प्रयोग बढ़ा है, जहाँ छोटे समूह या गैर-राज्य बड़ी सेनाओं के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध और आतंकवादी हमलों का सहारा लेते हैं।

साइबर युद्ध एक नया और खतरनाक मोर्चा खोल चुका है जिसमें बुनियादी ढांचे पर हमले, विघटनकारी प्रचार और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा शामिल है। सूचना युद्ध, झूठी खबरों और प्रोपेगैंडा के माध्यम से जनमत को प्रभावित करने और विभाजित करने का प्रयास करता है। ये सभी पहलू युद्ध को और अधिक विनाशकारी, टिकाऊ और समाधान के लिए दुर्गम बना देते हैं।

इन संघर्षों के मूल में अनेक जटिल और अक्सर गुंथे हुए कई कारण निहित हैं। भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, विशेष रूप से अमेरिका और चीन के बीच तथा रूस की पश्चिम के साथ बढ़ती टकराहट, अंतरराष्ट्रीय तनाव के प्रमुख स्रोत है। ये प्रतिस्पर्धाएँ व्यापार, प्रौद्योगिकी और क्षेत्रीय प्रभाव के लिए हैं जो अक्सर अन्य देशों में संघर्षों को हवा देती हैं। संसाधनों पर नियंत्रण चाहे वह तेल, गैस, खनिज हों या पानी जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ, भीषण संघर्षों को जन्म देते रहे हैं।

पहचान की राजनीति, जातीय, धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान पर आधारित गहरे विभाजन और वैमनस्य अक्सर हिंसा को ईंधन देते हैं, जैसा म्यांमार में रोहिंग्या संकट या अफ्रीका के कई हिस्सों में देखा जा सकता है। आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता, कमजोर संस्थान, भ्रष्टाचार और आर्थिक असमानता गृहयुद्धों और राज्य-विफलता को जन्म देते हैं। इसके अतिरिक्त, जलवायु परिवर्तन एक और खतरे के रूप में उभरा है, जो संसाधनों की कमी पैदा करके और पलायन को बढ़ावा देकर मौजूदा तनावों को बढ़ाता है और नए संघर्षों का कारण बनता है।

इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य में वैश्विक शांति की अवधारणा और उसकी प्राप्ति एक कठिन कार्य है। शांति का अर्थ अब केवल गोलाबारी का बंद होना नहीं रह गया है। एक सकारात्मक, गतिशील और न्यायपूर्ण स्थिति आवश्यक है जिसमें संघर्षों को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने की व्यवस्थाएँ हों, मानवाधिकारों का सम्मान हो, सामाजिक न्याय हो और टिकाऊ विकास के अवसर हों। हालाँकि, वर्तमान व्यवस्था इस दिशा में गंभीर बाधाएँ प्रस्तुत करती है। बहुपक्षीय संस्थान, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, अक्सर महाशक्तियों के वीटो के कारण गतिरोध का शिकार हो जाते हैं और प्रमुख संकटों में कारगर हस्तक्षेप करने में अक्षम साबित होते हैं। शस्त्रों की दौड़, विशेषकर परमाणु हथियारों का प्रसार, विनाश का एक स्थायी खतरा पैदा करता है। आर्थिक असमानता और विकास का असंतुलन, वैश्विक असंतोष और अस्थिरता को बढ़ावा देते हैं। कट्टर धार्मिकता, राष्ट्रवाद और अलगाववाद की बढ़ती प्रवृत्तियाँ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को कमजोर करती हैं।

निराशा के इस माहौल में भी, वैश्विक शांति की दिशा में आगे बढ़ने के मार्ग हैं। सबसे पहले, बहुपक्षवाद को पुनर्जीवित और सुधारने की तत्काल आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण, लोकतांत्रिक और कार्यक्षम बनाना होगा, जहाँ शक्ति का संतुलन वास्तविक वैश्विक जरूरतों को दर्शाता हो। क्षेत्रीय संगठनों जैसे अफ्रीकी संघ, यूरोपीय संघ, आसियान की भूमिका को मजबूत करना चाहिए, क्योंकि वे स्थानीय संदर्भ को बेहतर ढंग से समझते हैं। दूसरा, संघर्षों की रोकथाम पर जोर देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके लिए तनाव के प्रारंभिक संकेतों की पहचान करना, राजनयिक संवाद को निरंतर बनाए रखना, आर्थिक और राजनीतिक दबाव के शांतिपूर्ण उपायों का प्रयोग करना और गहरे जड़ जमाए कारणों असमानता, लोकतांत्रिक शासन की कमी को सुधार करना शामिल है। तीसरा, आर्थिक विकास , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहायता को शांति के साधन के रूप में बढ़ावा देना चाहिए। जब देश व्यापार, निवेश और विकास परियोजनाओं के माध्यम से एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, तो युद्ध की लागत बहुत अधिक हो जाती है।

संघर्ष समाधान और शांति निर्माण के लिए दीर्घकालिक प्रतिबद्धता आवश्यक है। युद्धविराम के बाद राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, न्यायिक प्रक्रियाओं सत्य एवं सुलह आयोग, लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने और आर्थिक पुनर्वास में निवेश करना होगा। अंततः, जलवायु परिवर्तन जैसे अस्तित्व गत खतरों से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग अनिवार्य है, क्योंकि ये खतरे सभी राष्ट्रों के सामान्य भविष्य को प्रभावित करते हैं और संघर्ष के नए स्रोत पैदा कर सकते हैं।

वर्तमान युद्ध परिप्रेक्ष्य निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय है। यह एक ऐसी दुनिया को दर्शाता है जो अभी भी शक्ति, भय और विभाजन की प्राचीन प्रवृत्तियों से ग्रस्त है। यद्यपि इतिहास यह भी सिखाता है कि सहयोग, संवाद और साझा मानवता की भावना के माध्यम से ही शांति संभव है। वैश्विक शांति कोई सहज प्राप्य उपलब्धि नहीं है, यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, रचनात्मक राजनय, संस्थागत सुधार और प्रत्येक स्तर पर न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। युद्ध की भयावह लागत , जीवन की हानि, मानवीय पीड़ा, आर्थिक विनाश और पर्यावरणीय क्षति हमें याद दिलाती है कि शांति के लिए प्रयास करना कोई नैतिक विलासिता नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के अस्तित्व और समृद्धि के लिए एक परम आवश्यकता है।

वर्तमान चुनौतियाँ कितनी भी गहरी क्यों न प्रतीत हों, शांति की आकांक्षा को निरंतर बनाए रखना और उसके लिए सक्रिय रूप से कार्य करना ही एकमात्र मानवीय विकल्प है। गांधीजी के शब्दों में, “यदि हम दुनिया में वास्तविक शांति चाहते हैं, तो हमें बच्चों के साथ शुरुआत करनी होगी।” भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक शांतिपूर्ण विश्व बनाने का संकल्प ही वर्तमान अंधेरे में आशा की किरण जलाए रख सकता है।

विवेक रंजन श्रीवास्तव

क्या भारत सिंधु जल समझौता रद्द करने वाला है

राजेश कुमार पासी 

बार-बार मोदी सरकार की तरफ से यह बयान आता रहता है कि ऑपरेशन सिंदूर जारी है, सिर्फ उसे रोका गया है । सवाल यह है कि  बार-बार मोदी सरकार के मंत्री और नेता ऐसा बयान क्यों दे रहे हैं । इसकी वजह यह है कि सिंधु जल समझौता निलंबित करना भी ऑपरेशन सिंदूर का हिस्सा है और ये लगातार जारी है । इस समझौते को निलंबित करने से पाकिस्तान बहुत परेशान है इसलिए उसके  नेताओं के बयान आ रहे हैं कि अगर भारत ने पाकिस्तान की नदियों का पानी रोका तो पाकिस्तान युद्ध के लिए मजबूर हो जायेगा । भारत सरकार ने पाकिस्तान को स्पष्ट रूप से बता दिया है कि जब तक पाकिस्तान की तरफ से आतंकवाद पर लगाम नहीं लगाई जाती, तब तक इस समझौते पर कोई बात नहीं होगी । पाकिस्तान सिंधु जल समझौते को बहाल करने के लिए विभिन्न देशों से गुहार लगा रहा है लेकिन भारत इस मुद्दे पर किसी की सुनने को तैयार नहीं है । अमेरिका और चीन भी इस मुद्दे पर पाकिस्तान के किसी काम नहीं आ रहे हैं । शनिवार को गृहमंत्री अमित शाह ने बयान दिया है कि भारत सिंधु जल समझौते का निलंबन अब वापिस नहीं लेगा । उन्होंने इशारा कर दिया है कि भारत इस समझौते को हमेशा के लिए रद्द करने जा रहा है । इससे पूरा पाकिस्तान बौखला  गया है । पाकिस्तान के नेता बिलावल  भुट्टो ने बयान दिया है कि अगर भारत पाकिस्तान को पानी नहीं देता है तो पाकिस्तान भारत से जंग करेगा और तीन नहीं बल्कि छह नदियों का पानी हासिल कर लेगा । 

              सिंधु जल समझौता विश्व बैंक की मध्यस्थता से भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर किया गया था । 19 सितम्बर 1960 को कराची में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे । इस समझौते के तहत सिंधु नदी और  उसकी पांच सहायक नदियों सतलुज, ब्यास, रावी, झेलम और चिनाब के पानी को लेकर दोनों देशों ने एक व्यवस्था तैयार की थी । इस समझौते के तहत दोनों देशों ने आपसी सहयोग और सूचना का आदान-प्रदान करने की बात कही थी । इस समझौते के अनुसार सतलुज, ब्यास और रावी का पानी भारत को आवंटित कर दिया गया था और पाकिस्तान को सिंधु, झेलम और चिनाब नदी का 80 प्रतिशत पानी आवंटित किया गया था । देखा जाये तो यह समझौता पूरी तरह से पाकिस्तान के पक्ष में था और भारत को इसका बड़ा नुकसान हुआ ।

वास्तव में भारत को जिन नदियों का पानी दिया गया उनका पाकिस्तान से कोई सम्बन्ध नहीं था । भारत में ही बहने वाली नदियों का पानी भारत को इस्तेमाल करने के लिए किसी समझौते की जरूरत नहीं थी । जो नदियां भारत की थी, उनका इस्तेमाल तो भारत को ही करना था । समझौता मुख्य रूप से सिंधु, झेलम और चिनाब नदी को लेकर किया गया था । सवाल यह है कि जिन नदियों पर भारत-पाकिस्तान का सांझा अधिकार था, वहां भारत के अधिकार की अनदेखी करते हुए तत्कालीन नेहरू सरकार ने 80 प्रतिशत पानी को पाकिस्तान के हवाले क्यों कर दिया । जब यह समझौता किया गया तो  भारत में इसका जबरदस्त विरोध हुआ था लेकिन नेहरू जी ने किसी की नहीं सुनी । 

             वास्तव में नेहरू जी चाहते थे कि पड़ोसी देश होने के कारण पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बने रहे, इसलिए उन्होंने यह समझौता किया । वो शायद सोच रहे थे कि पाकिस्तान को फायदा पहुंचा कर उसे खुश कर देंगे और वो भारत के साथ बेहतर संबंध रखेगा । यही सोच उनकी चीन को लेकर भी थी. उसे उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट थाली में सजाकर दे दी थी । जब अमेरिका द्वारा यह सीट भारत को देने की पेशकश की गई तो उन्होंने चीन को इसके लिए ज्यादा योग्य माना और उसके लिए सिफारिश कर दी । आज भारत इस सीट को पाने के लिए गली-गली भटक रहा है । चीन को खुश करने के लिए ही नेहरू जी ने उसे तिब्बत पर कब्जा करने दिया ताकि वो खुश रहे लेकिन उस चीन ने भारत पर आक्रमण करके भारत की जमीन पर भी कब्जा कर लिया ।  ऐसे ही सिंधु जल समझौते के तहत भारत ने सांझी नदियों का 80 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को दे दिया ।  हैरानी की बात यह है कि भारत ने अपने हिस्से का 20 प्रतिशत पानी भी पाकिस्तान की तरफ जाने दिया । इसके बावजूद पाकिस्तान ने समझौता होने के बाद भारत पर तीन बार युद्ध थोप दिया है ।

 इसके अलावा पाकिस्तान पिछले 45 सालों से भारत को आतंकवाद की आग में जला रहा है । पंजाब में ऐसी आग लगाई कि वो भारत से अलग होते-होते बचा । पाकिस्तान की लगाई आग में जम्मू-कश्मीर अभी तक जल रहा है । इसके अलावा पाकिस्तान भारत के शत्रु राष्ट्रों के साथ मिलकर नई-नई साजिशें करता रहता है । हम अपनी तरफ से इस समझौते  का पूरा पालन करते आ रहे हैं लेकिन पाकिस्तान ने इस समझौते का कभी पालन नहीं किया । इस समझौते का आधार ही यही था कि दोनों देश आपस में प्रेम पूर्वक रहेंगे । पाकिस्तान ने इन नदियों के पानी पर अपना पूरा हक मान लिया है इसलिए उसे लगता है कि वो कुछ भी करता रहे, भारत इस समझौते से पीछे हटने वाला नहीं है । इसकी वजह शायद यह है कि तीन युद्धों के अलावा उसके द्वारा फैलाये जा रहे आतंकवाद को अनदेखा करते हुए हम इस समझौते का पालन पूरी ईमानदारी से करते आ रहे हैं । एक सच यह भी है कि इतना पुराना समझौता दो देशों के बीच नहीं टिकता.  65 साल बाद इस समझौते पर दोबारा विचार करने की जरूरत तो वैसे भी महसूस की जा रही थी। मोदी सरकार पाकिस्तान को इस बारे में कई बार सूचित कर चुकी है। 

              2014 के बाद मोदी सरकार के सत्ता में आने से माहौल बदल गया है । 2016 में उरी में आतंकवादी हमले के बाद ही मोदी जी ने पाकिस्तान को चेतावनी दे दी थी कि अगर पाकिस्तान नहीं संभला तो इस समझौते पर भारत सरकार पुनर्विचार कर सकती है । मोदी सरकार अच्छी तरह जानती थी कि इस समझौते का ज्यादा दिनों तक पालन करना संभव नहीं है,  इसलिए इन नदियों का पानी भारत लाने की तैयारी 2016 के बाद से ही शुरू कर दी गई थी । 22 अप्रैल 2025 को  पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले एक दिन बाद भारत सरकार ने इस समझौते को निलंबित करने का ऐलान कर दिया था और अभी तक उस पर कायम है । पाकिस्तान को लगा कि भारत के पास पानी रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिए वो चुप रहा । अब उसे धीरे-धीरे पता चल गया है कि भारत इस समझौते को रद्द करके उसे बर्बाद करने की पूरी तैयारी कर चुका है । बेशक हमारे पास आज पानी को रोकने की पूरी व्यवस्था नहीं है लेकिन हम पानी को रोक कर अपनी मर्जी से पाकिस्तान में भेज सकते हैं । हम पाकिस्तान को तब पानी नहीं देंगे जब उसको जरूरत होगी और जब देंगे तो इतना देंगे कि वहां बाढ़ आ जाएगी ।

इसके अलावा भारत  सरकार ने इन नदियों के पानी का बड़ा हिस्सा भारत में लाने की तैयारी शुरू कर दी है । इसमें कुछ समय लगने वाला है लेकिन जब यह काम हो गया तो पाकिस्तान पानी-पानी चिल्लाने लगेगा । भारत सरकार जानती है कि पाकिस्तान सीधा होने वाला नहीं है इसलिए भारत सरकार अपने काम में जुट गई है । संयुक्त राष्ट्र में भी भारत ने स्पष्ट कह दिया है कि खून और पानी साथ-साथ नहीं बह सकते । भारत ने पूरी दुनिया को स्पष्ट रूप से समझा दिया है कि पाकिस्तान नहीं सुधरा तो संधि टूट जायेगी और इसकी पूरी जिम्मेदारी पाकिस्तान की होगी ।  जब इस समझौते के बारे में पूरे देश को पता चल गया है तो मोदी सरकार के लिए भी अब पीछे हटना मुश्किल हो गया है । देश की जनता हैरान है कि ये समझौता क्यों किया गया । सिंधु जल समझौते से मिलने वाला पानी पाकिस्तान के लिए बहुत जरूरी है, इसलिए उसे भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना चाहिए लेकिन पाकिस्तान ऐसा करने वाला नहीं है । वो भारत को दुश्मन मानता है इसलिए अभी भी वो लड़ने की बात कर रहा है जबकि अभी-अभी वो बुरी से भारत से जंग हार चुका है । हैरानी की बात है कि जिस देश ने घुटनों के बल बैठकर युद्ध-विराम की भीख मांगी हो, वही देश अभी भी युद्ध की धमकी देकर अपनी बात मनवाना चाहता है ।  मोदी सरकार पाकिस्तान के प्रति बेहद सख्त रुख अपना चुकी है और अब वो बातचीत के लिए भी तैयार नहीं है । मोदी जी ने कहा है कि अब सिर्फ आतंकवाद पर बात होगी । उन्होंने कहा है कि इसके अलावा सिर्फ पाक अधिकृत कश्मीर पर बात होगी । पाकिस्तान से पानी और व्यापार के सम्बन्ध में कोई बात नहीं होगी ।

अमित शाह ने सही कहा है कि भारत सरकार अब समझौते का निलंबन वापिस लेने वाली नहीं है । इसका सीधा मतलब निकलता है कि जल्दी ही भारत सरकार इस समझौते को सदा के लिए रद्द करने की घोषणा कर  सकती है । मेरा मानना है कि पाकिस्तान के पास अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है. वो अगर अभी भी सुधर जाता है तो भारत से इस समझौते के तहत कुछ हासिल कर सकता है । अगर भारत ने इन नदियों का पानी अपने देश में लाने का प्रबन्ध कर लिया तो भारत से पाकिस्तान को कुछ भी हासिल करना मुश्किल हो जायेगा ।

राजेश कुमार पासी

नशा मुक्त भारत बनाने की बड़ी चुनौती

अंतर्राष्ट्रीय नशा एवं मादक पदार्थ निषेध दिवस (26 जून) पर विशेष
चिंता का सबब बनता युवा सोच पर नशे का ग्रहण
– योगेश कुमार गोयल

विश्व के अनेक देशों में लोगों में और खासकर युवाओं में नशीले पदार्थों के सेवन की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी के खिलाफ जागरूकता बढ़ाने के लिए ही हर साल 26 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय नशा एवं मादक पदार्थ निषेध दिवस’ मनाया जाता है। जहां तक भारत की बात है, चिंता का विषय यह है कि अब यह प्रवृत्ति केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रही है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी नशे का जाल फैलता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में अफीम, चरस, गांजा, हेरोइन आदि के अलावा इंजेक्शन के जरिये लिए जाने वाले मादक पदार्थों का भी इस्तेमाल होने लगा है। वास्तव में मादक पदार्थों का सेवन अब मानवता के प्रति सबसे बड़े अपराध का रूप धारण कर चुका है। रईसजादे युवक-युवतियों की रेव पार्टियां तो नशे का भयावह आधुनिक रूप है, जहां राजनीतिक संरक्षण के चलते प्रायः पुलिस भी हाथ डालने से बचती है। हालांकि कभी-कभार रेव पार्टियों पर छापा मारकर नशे में मदमस्त लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया जाता रहा है, जिससे पता चलता रहा है कि देश का आज कोई भी महानगर ऐसा नहीं है, जहां ऐसी रेव पार्टियां रईसजादों की रोजमर्रा की जीवनशैली का हिस्सा न हों। वास्तव में रेव पार्टियां धनाढ़य बिगड़ैल युवाओं की नशे की पार्टियों का ही आधुनिक रूप हैं। कोकीन हो या ऐसे ही अन्य मादक पदार्थ, जिनमें गंध नहीं आती, रसूखदार परिवारों के बिगड़े हुए युवाओं का मनपसंद नशा बनते जा रहे हैं। इस बात से बेखबर कि ये तमाम मादक पदार्थ सीधे शरीर के तंत्रिका तंत्र पर हमला करते हैं और शरीर को भयानक बीमारियों की सौगात देते हैं, ऐसे युवा चंद पलों के मजे के लिए इनके गुलाम बन जाते हैं।
युवाओं को मादक पदार्थों के करीब लाने में इंटरनेट की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारत में नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों में करीब चालीस फीसदी कॉलेज छात्र हैं, जिनमें लड़कियों की संख्या भी काफी ज्यादा है। देश के अनेक कॉलेजों में तो अब स्थिति यह है कि बहुत से कॉलेजों के अंदर ही आसानी से नशीले पदार्थ उपलब्ध हो जाते हैं। स्कूल-कॉलेजों के छात्र अक्सर अपने साथियों के कहने या दबाव डालने पर या फिर मॉडर्न दिखने की चाहत में इनका सेवन आरंभ करते हैं। कुछ युवक मादक पदार्थों से होने वाली अनुभूति को अनुभव करने के लिए, कुछ रोमांचक अनुभवों के लिए तो कुछ मानसिक तौर पर परेशानी अथवा हताशा की स्थिति में इनका सेवन शुरू करते हैं। मानव जीवन की रक्षा के लिए बनाई जाने वाली कुछ दवाओं का उपयोग भी लोग अब नशा करने के लिए करने लगे हैं।
देश में नशे के फैलते जाल का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि मादक पदार्थ न सिर्फ मानव शरीर की सुंदरता को नष्ट कर शरीर को खोखला बनाते हैं बल्कि इनका उपयोग युवा पीढ़ी की क्षमताओं को नष्ट कर उनकी सृजनशीलता को भी मिटा रहा है तथा देश के सामाजिक और आर्थिक ढ़ांचे को पंगु बना रहा है। एक बार मादक पदार्थों की लत लग जाए तो व्यक्ति इनके बिना रह नहीं पाता। यही नहीं, उसे पहले जैसा नशे का प्रभाव पैदा करने के लिए और अधिक मात्रा में मादक पदार्थ लेने पड़ते हैं। इस तरह व्यक्ति इनका गुलाम बनकर रह जाता है। अधिकांश लोगों में गलत धारणाएं विद्यमान हैं कि मादक पदार्थों के सेवन से व्यक्ति की सृजनशीलता बढ़ती है और इससे व्यक्ति में सोच-विचार की क्षमता, एकाग्रता तथा यौन सुख बढ़ता है लेकिन वास्तविकता यही है कि नशे के शिकार लोगों की सोच-विचार की क्षमता और इसकी स्पष्टता खत्म हो जाती है तथा उनके कार्यों में भी कोई तालमेल नहीं रहता। इनके सेवन से कुछ समय के लिए संकोच की भावना जरूर मिट जाती है लेकिन अंततः इससे शरीर की सामान्य कार्यक्षमता में गिरावट आती है। दरअसल नशीली दवाएं या नशीले पदार्थ ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं, जो हमारे शरीर की कार्यप्रणाली को बदल देते हैं।
वर्ष 1993 में प्रकाशित अपनी पुरस्कृत पुस्तक ‘मौत को खुला निमंत्रण’ में मैंने विस्तार से बताया है बताया है कि कोई भी रसायन, जो किसी व्यक्ति की शारीरिक या मानसिक कार्यप्रणाली में बदलाव लाए, मादक पदार्थ कहलाता है और जब इन मादक पदार्थों का उपयोग किसी बीमारी के इलाज या बेहतर स्वास्थ्य के लिए दवा के तौर पर किया जाए तो यह मादक पदार्थों का सही उपयोग कहलाता है लेकिन जब इनका उपयोग दवा के रूप में न होकर इस प्रकार किया जाए कि इनसे व्यक्ति की शारीरिक या मानसिक कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचे तो इसे नशीली दवाओं का दुरूपयोग कहा जाता है। मादक पदार्थों के सेवन का आदी हो जाने पर व्यक्ति में प्रायः कुछ लक्षण प्रकट होते हैं, जिनमें खेलकूद और रोजमर्रा के कार्यों में दिलचस्पी न रहना, भूख कम लगना, वजन कम हो जाना, शरीर में कंपकंपी छूटना, आंखें लाल, सूजी हुई रहना, दिखाई कम देना, चक्कर आना, उल्टी आना, अत्यधिक पसीना आना, शरीर में दर्द, नींद न आना, चिड़चिड़ापन, सुस्ती, आलस्य, निराशा, गहरी चिन्ता इत्यादि प्रमुख हैं। सुई के जरिये मादक पदार्थ लेने वालों को एड्स का खतरा भी रहता है।
देशभर में नशे का अवैध व्यापार तेजी से फल-फूलने के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि नशे के सौदागरों के लिए मादक पदार्थों की तस्करी सोने का अंडे देने वाली मुर्गी साबित हो रही है। विश्व की कुल अर्थव्यवस्था का 15 फीसदी हिस्सा यही व्यापार रखता है। भारत से मादक पदार्थों की तस्करी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, बर्मा, ईरान आदि देशों के जरिये होती रही है और अवसर मिलते ही ये मादक पदार्थ तस्करी के जरिये पश्चिमी देशों में पहुंचा दिए जाते हैं। हालांकि भारत इस अवैध व्यापार में तस्करों के लिए केवल एक पड़ाव का काम करता है लेकिन इसके दुष्प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अवैध व्यापार का तस्करी, आतंकवाद, शहरी क्षेत्र के संगठित अपराध तथा आर्थिक एवं व्यावसायिक अपराधों से काफी करीबी रिश्ता है। इंटरनेशनल नारकोटिक्स कंट्रोल बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भौगोलिक स्थिति के कारण भारत नशीली दवाओं की तस्करी के लिए सबसे अच्छा रास्ता बन गया है।
हालांकि नशे के अवैध व्यापार पर लगाम कसने के लिए हमारे यहां अन्य देशों के मुकाबले बहुत कड़े कानून हैं, फिर भी अपराधी अक्सर कानून की कुछ खामियों की वजह से बच निकलते हैं और यही कारण है कि मादक पदार्थों का अवैध व्यापार भारत में निरंतर फल-फूल रहा है। आज युवा पीढ़ी जिस कदर मादक पदार्थों की शिकंजे में फंस रही है, उसके मद्देनजर समाज का कर्त्तव्य है कि वह युवा वर्ग का मार्गदर्शन करते हुए उसे उचित मार्ग दिखलाए और गलत मार्ग पर चलने से रोके। ऐसे कार्यों को केवल सरकार के ही भरोसे छोड़ देना उचित नहीं बल्कि समाज को भी इस दिशा में ठोस पहल करनी होगी।

परमाणु हथियारों के बहाने किए युद्ध का परिणाम

संदर्भः- ईरान-इजरायल के बीच युद्ध विराम
प्रमोद भार्गव
ईरान-इजरायल के बीच 12 दिन चला युद्ध बीच में अमेरिका द्वारा ईरान के एक साथ तीन परमाणु ठिकानों पर हमला, जवाबी कार्यवाही में ईरान का कतर में स्थित अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर अल-उदैद हमले के आखिरी परिणाम क्या निकला ? कहना मुश्किल है। यह युद्ध और इस युद्ध के हासिल नटखट बच्चे की हरकतों की तरह देखने में आए है। ये हरकतें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रही हैं। इजरायल ने ट्रंप की  शह पर ईरान पर मिसाइलों से हमले इसलिए किए, जिससे उसकी परमाणु क्षमता को नष्ट कर अपने देश की रक्षा कर ली जाए। इसी दौरान आ बैल मुझे मार कहावत को चरितार्थ करते हुए अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर हमले किए। और दावा किया कि इन परमाणु संयंत्रों को इतना नुकसान हो गया है कि अब कई साल तक ईरान परमाणु बम नहीं बना पाएगा। ये बम बनाना तब और मुश्किल हो गया है, जब इजरायल ने ईरान पर किए पहले ही हमले में वहां के अनेक परमाणु वैज्ञानिकों को मार दिया था। युद्ध के ग्यारहवें दिन ट्रंप ने दावा किया कि दोनों देश युद्ध विराम के लिए तैयार हो गए हैं। परंतु इस घोषणा के बाद दोनों ही देशों ने एक-दूसरे पर हमले किए। यही नहीं ईरान ने भी अमेरिका के अरब देशों में स्थित सैन्य ठिकानों पर हमले किए। इन हमलों के संदर्भ में ट्रंप ने कहा कि उसे कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है। इसलिए अमेरिका ने ईरान पर कोई जवाबी हमला नहीं किया और ट्रंप ने दावा कर दिया कि उनकी मध्यस्थता से युद्ध विराम लागू हो गया है। कतर ने भी इस युद्ध विराम में मध्यस्था के भूमिका अदा की। लेकिन इस युद्ध की जरूरत क्या थी, यह सवाल जस की तस बना हुआ है।
दरअसल इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू कह रहे हैं कि ईरान की परमाणु हथियार बनाने की क्षमता नष्ट हो गई है। परंतु पलटवार करते हुए ईरान ने कहा है कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा। ट्रंप ने भी कह दिया कि ईरान बम बनाने से बहुत दूर हो गया है। तब इस युद्ध का परिणाम क्या निकला ? परमाणु हथियारों के जानकार कह रहे हैं कि ईरान के पास 20 परमाणु हथियार बनाने की क्षमता थी, जो अब घटकर 6 बम बनाने की रह गई है। जबकि ट्रंप का घोशित लथ्य था कि ईरान यूरेनियम क्षमता बढ़ाने के लिए जिस तेजी से संवर्धन कर रहा है, वह तय सीमा से बाहर की बात होती जा रही है। लेकिन ईरान की परमाणु बम बनाने की क्षमता कम भले ही हो गई हो, पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। यह तथ्य तीनों देशों के आए बयानों से सत्यापित होता है। अतएव ईरान पर किया गया बेवजह हमला, कुछ वैसा ही रहा जैसा 2003 में अमेरिकी राश्ट्रपति बुश ने ईराक पर यह कहते हुए किया था कि ईराक के पास बड़ी मात्रा में जैविक हथियार हैं। जबकि युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद अमेरिका जैविक हथियार होने का कोई प्रमाण दुनिया को नहीं दे पाया। हां, सद्दाम हुसैन को मौत के घाट उतारने के बाद तेल के कुओं पर जरूर कब्जा कर लिया। बावजूद यह आशंका बनी हुई है कि ईरान के परमाणु ठिकानों पर जो बम गिराए हैं, उनसे यदि रिसाव होता है तो एक बड़े भू-क्षेत्र में परमाणु विकिरण का संकट पैदा हो सकता है।  
  अमेरिका ने ईरान के परमाणु संवर्धन प्रतिष्ठान फोदों, नतांज और इस्फहान पर अत्याधुनिक बी-2 घातक बमों से हमला किया था। इन बमों को सटीक निशाने पर दागने के लिए अमेरिकी पनडुब्बियों ने पहले दो मिसाइलों से बम गिराए, जिससे बंकर बस्टर बमों के लिए मैदान साफ किया गया। इसके बाद बम दर्शकों ने आसमान से एक के बाद एक 14 जीबीयू-57 बी बंकर बस्टर दाग दिया। इस पूरे अभियान को नतीजे तक पहुंचाने के लिए अमेरिका ने 15 युद्धक विमानों का इस्तेमाल किया। उपग्रह द्वारा निर्देशित 2400 किलो परमाणु विस्फोटक साथ ले जाने वाला यह बम जमीन में घूमता हुआ 60 मीटर गहराई तक जाने के बाद विस्फोट करके अपने लक्ष्य  साधने में सफल हुआ। अमेरिका ने तीनों ठिकानों पर 14000 किलो विस्फोटक वाले बम गिराए थे, अतएव भविष्य में विकिरण का खतरा पैदा हो सकता है ?
अमेरिका ने जिन तीन परमाणु स्थलों पर हमला किया है, वह सभी ईरान के प्रमुख यूरेनियम संवर्धन ठिकाने हैं। यहां संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम को अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम में बदला जाता है। इसी यूरेनियम को प्रयोग परमाणु बम में किया जाता है। परमाणु बिजली बनाने के लिए 3-5 प्रतिशत का यूरेनियम संवर्धन पर्याप्त होता है, लेकिन हथियार बनाने के लिए यूरेनियम-235 संवर्धन की जरूरत होती है। यह हमले जिस तादाद में किए गए हैं, उससे बड़े पैमाने पर परमाणु विकिरण रिसाव की आशंका जताई जा रही हैं। परमाणु बम युद्ध में इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक विस्फोटाकों और रसायनों से भिन्न होते हैं। ये बहुत कम समय में बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, यह ऊर्जा अनेक कड़ियों में रसायनिक प्रक्रियाएं आरंभ कर देती हैं। जो व्यापक और दीर्घकालिक क्षति पहुंचा सकती है। परमाणु हथियार कुछ ही पलों में बड़ी मात्रा में ऊर्जा छोड़ते हैं, जो आसपास के वायुमंडल को लाखों डिग्री सेल्सियस तक गरम कर देती हैं। इस विस्फोट से अनेक प्रकार के विद्युत चुंबकीय विकिरण फैल जाते हैं, जो अत्यंत घातक होते हैं। हालांकि ईरान के इन ठिकानों में रखे परमाणु हथियारों में विस्फोट की कोई आशंका नहीं है। क्योंकि विस्फोट के लिए परमाणु उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। जो हमलों से संभव नहीं है, लेकिन इनमें रिसाव होता है। ऐसे में रासायनिक और रेडियोलाजिकल रिसाव दोनों ही संकट में डालने वाले होते है। रेडियोलाजिकल रिसाव 1996 में रूस के चेर्नोबिल और 2011 में तूफान आने से जापान के फुकुशिमा में हुआ था। अतएव हमलों के कारण परमाणु विकिरण रिसाव की आशंका बनी हुई है। अतएव कह सकते हैं कि अमेरिका ने परमाणु विकिरण संकट खत्म किया है या बढ़ाया है।  
अमेरिका का यह हमला दुनिया के अंतरराश्ट्रीय कानून और अपने ही देश के कानूनों की परवाह नहीं करता है। इसीलिए अमेरिका के भीतर इस परमाणु हमले को लेकर अमेरिकी जनमत विभाजित दिखाई दे रहा है। दरअसल किसी देश पर हमला करने के लिए ट्रंप को अमेरिकी संसद में हमले का प्रस्ताव लाकर अनुमोदन की जरूरत थी। परंतु उन्होंने इस प्रक्रिया पर अमल नहीं किया। जबकि अमेरिका की ही बात करें तो अप्रैल 2003 में इराक पर हमले के समय बुश ने संसद से मंजूरी ली थी। इसलिए ट्रंप के समर्थकों के साथ विपक्ष भी नाराज है। नाटो देश भी इस युद्ध पर सहमत दिखाई नहीं दिए। रूस और चीन खुले रूप में ईरान के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। चूंकि भारत के ईरान और इजरायल दोनों से ही मधुर, कूटनीतिक संबंध हैं, इसलिए तटस्थ रहते हुए षांति की पहल करता रहा।          
अंतरराश्ट्रीय कानून परमाणु बम के उपयोग को मानवता के विरुद्ध अमानुशिक कृत्य मानते हैं। इनके उपयोग के बाद संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद (यूएनएससी) के कठोर आर्थिक व राजनीतिक प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ता है। लेकिन जितनी भी अंतरराश्ट्रीय संस्थाएं हैं, वे सब अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों के दबाव में रहती हैं। यही देश इन संस्थानों को चलाने के लिए धन मुहैया कराते हैं और इन्हीं देशों के लोग इन संस्थानों के सदस्य होते हैं, इसलिए यहां पक्षपात साफ दिखाई देता है। अतएव ईरान में परमाणु विकिरण फैल भी जाए, तब भी अमेरिका के विरुद्ध कोई प्रतिबंध लगाना असंभव है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने तो कह ही दिया था कि यह संघर्श बड़ा रूप ले सकता है। अतएव संकट का कूटनीतिक हल निकालना जरूरी है। इसलिए ईरान का परमाणु कार्यक्रम रोकना जरूरी है। उसे समझौते के लिए बात करनी चाहिए। बातचीत से कूटनीति हल तो नहीं निकला लेकिन अमेरिका की धमकी ने युद्ध विराम का काम कर दिया।       ईरान ने अमेरिकी सहयोग से 1957 में परमाणु कार्यक्रम षुरू किया था। 1970 में परमाणु बिजली घर बना लिया था। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद अमेरिका ने ईरान को सहयोग करना बंद कर दिया। बावजूद पश्चिमी देश ईरान पर परमाणु बम बना लेने का आरोप लगाते रहे। परमाणु अप्रसार संधि में शामिल होने के बाद भी ईरान पर शंकाएं की जाती रहीं। इजरायल ने जासूसी करके कुछ ऐसे सबूत जुटाए जिनसे यूरेनियम संवर्धन की आशंका मजबूत हुई। 2000 में वैश्विक परमाणु निरीक्षकों को नतांज में सवंर्धित यूरेनियम मिला। हालांकि ईरान ने पहले संवर्धन रोक दिया था, लेकिन इजरायल की बढ़ती सामरिक क्षमता के चलते उसने गुपचुप परमाणु कार्यक्रम षुरू कर दिया था। इस कारण ईरान पर पश्चिमी देशों ने यह कहते हुए अनेक आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे कि ईरान परमाणु बम बनाने के निकट पहुंच गया है। बाद में कई साल चली वार्ता के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रतिबंध हटा लिए थे। इस समझौतें में ईरान को असैन्य यूरेनियम संवर्धन को 3.67 प्रतिशत तक रखना मान्य कर लिया था। लेकिन 2018 में जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने तो उन्होंने समझौते से हाथ खींच लिए और ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिए। 2023 में आईएईए ने कहा कि ईरान में 83.7 प्रतिशत शुद्धता के यूरेनियम कण मिले हैं और उसके पास 128.3 किलो संवर्धित यूरेनियम है। मई 2025 में आईएईए ने दावा किया कि ईरान के पास 60 प्रतिशत संवर्धित यूरेनियम की मात्रा 408 किलो है। इससे कई परमाणु बम बनाए जा सकते है। इसे ही नष्ट करने के लिए युद्ध और युद्ध विराम का यह खेल खेला गया। लेकिन अब ईरान ने कह दिया है कि वह अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखेगा। तब फिर इस युद्ध के परिणाम क्या निकले।

प्रमोद भार्गव