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उत्तराखंड के अनजाने पर्यटन स्थल 

डा. घनश्याम बादल

यदि पहाड़ों का सौन्दर्य देखने की ललक हो तो उत्तराखंड चलें आएं. इससे बेहतर जगह आपको शायद ही अन्यत्र मिले । उत्तराखंड ऐसा अकेला राज्य है जहां चार धामों में से दो धाम बद्रीनाथ व केदारनाथ अवर्णनीय सुंदरता व पुण्य तथा धर्म के साथ मौजूद हैं। इनके अलावा भी यमुनोत्री, गंगोत्री,लंका,गऊमुख,तपोवन, नंदनवन,रक्तवन,हर्षिल,मंसूरी,हरिद्वार,

ऋषिकेश जैसे एक से बढ़कर एक धार्मिक व पर्यटन स्थलों से भरा पड़ा है । इसके अलावा भी  राजाजी नेशनल पार्क व  जिमकार्बेट नेशनल पार्क जैसे प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर वन क्षेत्र तो हैं ही नदियों के रूप में गंगा, यमुना, भागीरथी, जाह्नवी, नीलगंगा, बाणगंगा जैसी छोटी नदियां उत्तराखंड की सुंदरता को चार चांद लगाती हैं ।    

   घूमने फिरने, रहने व खाने पीने के लिहाज से उत्तराखंड़ में इतना कुछ है कि मन तरसता ही रह जाता है बार बार आकर भी ।  हरिद्वार एवं ऋषिकेश भले ही भीड़ भरे हों मगर पवित्र गंगा के दर्शन सारी थकान हर लेते हैं।  यहां लक्ष्मण झूला, रामझूला, गीता भवन, मुनि की रेती ,शिव मंदिर  देखने के साथ साथ आप बोटिंग, राफ्टिंग, केनाॅइंग, क्याकिंग जैसे वाटर गेम्स  का आनंद भी भरपूर मात्रा में ले सकते हैं । 

   ट्रेकिंग पसंद है तो गीता भवन के पास से महज 20 -22  किमी की दूरी पर ही बसे नीलकण्ठ धाम हो आइए  पर ध्यान रहे कि  यहां बारिश अक्सर होती रहती है और जुलाई व अगस्त यानी कि श्रावण के महिने में यहां कांवड़ की वजह से भारी भरकम भीड़़ भी रहती है लेकिन यहां भिखारियों व बहरूपियों तथा कोढ़ियों जैसा मेकअप किये बैठे मांगने वालों से तो हरिद्वार व ऋषिकेश से भी ज्यादा सावधान रहना होगा वरना तो आप अपनी जेब खाली ही समझें । 

      यदि गंगोत्री धाम की यात्रा पर निकलेंगे तो समझिये कि  कि आप धरती पर ही स्वर्ग का आनंद ले रहे हैं । हरिद्वार पार करके व ऋषिकेश से थोड़ा पहले ही आप नरेंन्द्रनगर होते हुए न्यू टिहरी टाउन से गुजरेंगें तो वहां आपको एक साथ ही खंडन और मंडन का नज़ारा देखने को मिल जाएगा । टिहरी डैम के बनने के क्रम में पुराना टिहरी इस डैम में डूब गया है और उसके स्थान पर  ही न्यू टिहरी टाउन अस्तित्व में आया है । आज भी बांध का जल अगर ठहरा हुआ और साफ हो तो पुराने टिहरी के अवशेष उसमें नज़र आ जाते हैं ।   इस ऐतिहासिक कस्बे में आज भी इतिहास और वर्तमान की झलक देखी जा सकती है । टिहरी से उत्तरकाशी की तरफ जाकर एक स्थान  पर आप फिर से ‘‘इधर जाऊं या उधर जाऊं’’ की पशोपेश में पड़ सकते है क्योंकि यह वह जगह है जहां से एक रास्ता यमुनोत्री तो दूसरा गंगोत्री की तरफ़ जाता है. अब यह आप पर है कि आप कहां पहले जाएं और कहां बाद में परंतु देखने योग्य दोनों ही स्थान हैं । 

    चलिए सबसे पहले आप को भी गंगोत्री के ही रास्ते पर लिये चलते हैं । उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिये सीधी बस सेवा उपलब्ध है पर यदि प्राकृतिक सौंदर्य का जी भर कर आनंद लेना है तो एक गाइड़ लीजिए और पहाड़ी पगडंडी पकड़ लें, ट्रेकिंग का भी मज़ा आएगा और प्रकृति की सुंदरता का भी रसपान करते चलेंगें । हां, इतना जान लीजियगा कि थकान भी खूब होगी सो अपनी क्षमता के अनुसार ही विकल्प चुनें । 

उत्तरकाशी से गंगोत्री के रास्ते पर आठ दस किमी की दूरी पर ही है लंका नाम का सुंदर सा और मनोरम छटा वाला रमणीय स्थान ! जी हां, आप चौंक गए होंगे भारत में लंका का नाम सुनकर परंतु यह रामायण कालीन रावण की लंका नहीं है पर है बहुत ही सुंदर, शायद उसकी सोने की लंका से भी ज्यादा मनोरम और शांति देने वाली ।

    लंका के पास ही  भैरोंघाटी  का प्राचीन व एतिहासिक मंदिर है । यह लंका से एक छोटे से पुल से जुड़ा हुआ है कहा जाता है कि इस पुल का निर्माण टिहरी के महाराजा ने कराया था क्योंकि इससे पहले यहां मौजूद एक झूला पुल से गुजरते हुए उनकी रानी का गर्भपात हो गया था 

     लंका से भैरोंघाटी पगडंडी से जाएंगें तो काफी दूर लगेगा पर पहाड़ों के बीच से शार्टकट भी है बशर्ते कि आप में खड़ी चढ़ाई चढ़ने की हिम्मत हो। यहां से गंगोत्री पास ही है रास्ते में आप पटांगना पावर हाउस,पांडव गुफा, रुद्र गंगा , व भागीरथी के संगम का भी दर्शन कर लेंगे ।

    द्रौपदी कुंड व उत्तरागर्भगृह भी आप को महाभारतकालीन पांडवों के  संघर्षों की याद दिला देगा । यहीं पर गौरी कुंड भी मौजूद है । गंगोत्री पहुंच कर आराम फरमाएं या सूरज कुंड में रौद्र रूप  में बहती गंगा के दर्शन से थकान दूर करें।  वैसे पास ही गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस भी है । गंगोंत्री मंदिर में दर्शन कर पुण्य का संचय जरूर कीजिए।  कहा जाता है कि यहां गंगा के दर्शन करने से जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं । 

   यहीं पर एनआईएच का गंगा में सिल्ट के स्तर व गलेशियरों के खिसकने के अध्ययन का केंद्र भी स्थापित है । रात में मई जून में भरी ठंड आपकी कंपकंपी छुटा दे तो आश्चर्य न कीजिएगा इसलिए गर्म कपड़े साथ ले जाना न भूलें ।

   गंगोत्री घूम कर आप चीड़बासा व भोजबासा ज़रूर जाएं और वहां से भोजपत्र साथ लाना न भूलें । यहां स्लीपिंग बैग्स में सोने का भी एक अलग ही मज़ा है ।

   चीड़बासा से गऊमुख भी पास ही है यहां के पावन सौन्दर्य के तो कहने ही क्या! हालांकि अब प्रदूषण यहां तक भी पहुंच गया है पर मैदानो से तो कम ही है । गाय के मुख की आकृति वाली  चट्टानों से निकली छोटी सी गंगा को देखकर यकीन नहीं आता कि यही गंगा इतनी विशाल भी हो सकती है। रास्ते में नारंगी चेांच व पंजों वाले कौए भी दिखाई देंगें जो आप का मन ही हर लेंगें, और वासुकी, सुदर्शन व मंदा पीक की चोटियां की पावन सुंदरता की तो जितनी प्रशंसा की जाए कम है । गंगोत्री धाम को यूं ही धरती का स्वर्ग नहीं  कहा होगा किसी ने और तभी तो कहते हैं कि देव भी देवभूमि उत्तराखंड में जन्म लेने को तरसते हैं ।  

डॉ घनश्याम बादल

ईरान-इस्राइल संघर्ष में अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र अपनी जिम्मेदारियों को समझें

ईरान-इस्राइल के बीच युद्ध के कारण पश्चिम एशिया में संकट के बादल मंडरा रहे हैं और विश्व तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ा नजर आ रहा है। ईरान-इजरायल के बीच जारी युद्ध के बीच हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत-पाकिस्तान की तर्ज पर एकाएक दोनों देशों के बीच अलसुबह सीजफायर की घोषणा कर सभी को एक बार फिर चौंका दिया, लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात वाली रही और दोपहर बाद से ही दोनों पक्षों की तरफ से उसके उल्लंघन की खबरें भी आने लगीं। कहना ग़लत नहीं होगा कि इजराइल और ईरान के बीच युद्ध विराम(सीजफायर) पर सहमति की खबर निश्चित रूप से अच्छी बात है, क्यों कि किसी भी युद्ध को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता है, जैसा कि युद्ध तबाही, विनाश को तो जन्म देते ही हैं, साथ ही साथ युद्ध से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है और वह देश विशेष जो युद्ध में शामिल होते हैं, बरसों तक आर्थिक रूप से उबर नहीं पाते हैं। कुल मिलाकर किसी भी युद्ध से मानवता बहुत ही बुरी तरह से पीड़ित और त्रस्त होती है और युद्ध से पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। हाल फिलहाल ईरान इजरायल युद्ध के कारण पश्चिम एशिया लगातार अस्थिरता का सामना कर रहा है और यदि इसी प्रकार से दोनों देशों के बीच युद्ध लंबे समय तक जारी रहता है तो यह दोनों देशों के साथ ही संपूर्ण विश्व के लिए ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। हाल फिलहाल, जहां तक बात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एकाएक सीजफायर की घोषणा की है, तो भारत द्वारा पाकिस्तान व पीओके पर ऑपरेशन सिंदूर के समय में(जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद)भी ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर(युद्ध विराम) के आधिकारिक एलान से पहले ही यह दावा कर दिया था, कि उन्होंने मध्यस्थता करके दोनों देशों(भारत-पाकिस्तान) को इसके लिए सहमत कर लिया है, हालांकि, बाद में भारत ने तुरंत ही मध्यस्थता का खंडन कर दिया था। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आनन-फानन में दो देशों के बीच युद्ध विराम की घोषणा तो कर देते हैं, लेकिन इसकी जानकारी उनके अधिकारियों तक को भी नहीं होती है। इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति अपने मन में नोबेल शांति पुरस्कार पाने की लालसा पाले हुए हैं। यह ठीक है कि युद्ध किसी भी समस्या का स्थाई समाधान नहीं होता है और किसी भी देश को युद्ध विराम के लिए निश्चित रूप से आगे आकर काम करना चाहिए और शांति स्थापित करने के दिशा में आवश्यक कदम उठाने चाहिए, लेकिन अमेरिका एक तरफ तो ईरान के खिलाफ जंग(ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला) में उतरने का फैसला करते हैं और दूसरे ही पल वह दोनों देशों के बीच सीजफायर की घोषणा कर डालते हैं, यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि ट्रंप की ईरान-इस्राइल के बीच सीजफायर की घोषणा ऐसे समय में हुई है, जब नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन की प्रक्रिया जारी है। गौरतलब है कि ट्रंप पहले ही सर्बिया-कोसोवो, मिस्त्र- इथियोपिया और पश्चिम एशिया में अब्राहम समझौते जैसी कूटनीतिक पहलों को नोबेल पुरस्कार से जोड़ चुके हैं।इससे यह साफ संकेत मिलता है कि ट्रंप अपनी ताजा युद्ध विराम की घोषणा को भी नोबेल के लिए मजबूत दावेदारी के रूप में पेश करना चाहते हों। वास्तव में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि नोबेल पुरस्कार तात्कालिक उपलब्धियों के लिए नहीं, बल्कि दीर्घकालिक शांति प्रयासों के लिए दिए जाते हैं। ऐसे में ट्रंप का नोबेल शांति पुरस्कार पाने के लिए लालायित होना कदापि ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। वैसे भी ट्रंप की सीजफायर की घोषणा के बाद भी ईरान-इस्राइल संघर्ष थमा नहीं है और दोनों ही देश एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं। वास्तव में किसी भी युद्ध को शांति वार्ता टेबल पर ही खत्म किया जा सकता है, यूं ही आनन-फानन की घोषणाओं(सीजफायर) से कदापि नहीं। किसी भी युद्ध को रोकने के लिए आपसी संवाद और कूटनीतिक प्रयासों की जरूरत होती है, तभी युद्ध विराम संभव हो पाता है। वास्तव में, ट्रंप को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि पश्चिम एशिया का इतिहास और इस क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थिति काफी जटिल रही है।यह ठीक है कि ट्रंप के सीजफायर के पीछे  उनकी कूटनीतिक महत्वाकांक्षाएं रहीं हैं लेकिन स्वयं अमेरिका ने ईरान को लेकर क्या किया,उसका भी ख्याल अमेरिका को रखना ही चाहिए। अमेरिकी सीजफायर के आह्वान के बावजूद, जिस तरह से ईरान और इस्राइल, दोनों ने ही इसका उल्लंघन किया, यह बहुत ही अफसोसजनक है तथा इसने पश्चिम एशिया में कहीं न कहीं संकट के बादल खड़े कर दिए हैं। ट्रंप भले ही शुरूआत से ही सीजफायर की बात करता आ रहा है लेकिन अमेरिका स्पष्ट रूप से इजराइल के साथ खड़ा नजर आ रहा है, जैसा कि अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर भीषण हमले करके इसकी पुष्टि भी कर दी। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि युद्ध किसी भी देश को बरसों पहले की स्थिति में ले जाते हैं और इससे उबरना इतना आसान नहीं होता है। इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि इस बात पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि दोनों देशों के बीच युद्ध स्थाई रूप से कब और कैसे विराम ले। हाल फिलहाल ईरान और इजरायल (ट्रंप की सीजफायर की घोषणा के बाद) एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं और एक-दूसरे को दोषी करार दे रहे हैं, यह ठीक नहीं है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यदि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप सचमुच शांति के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण वातावरण बनाने की जिम्मेदारी उन्हीं पर अधिक है। युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा होते हैं और दोनों देशों के इस युद्ध में जान-माल दोनों का ही नुकसान हुआ है। पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर भी इससे व्यापक असर पड़ा है। यह तो बहुत ही अफसोसजनक है कि परमाणु विकिरण की परवाह किए बिना अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों पर बम गिरा दिए। आज जरूरत इस बात की भी है कि संयुक्त राष्ट्र दो देशों के बीच युद्ध जैसी परिस्थितियों को रोकने के लिए आगे आए, लेकिन यह देखा जा रहा है कि पिछले कुछ समय से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अब जैसे अप्रासंगिक हो गई है। अंत में यही कहूंगा कि अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को यह चाहिए कि वह समय रहते दोनों देशों के बीच युद्ध की स्थितियों को टालने और उसे रोकने के व्यावहारिक, प्रभावी व जिम्मेदार उपायों की तलाश करे। तभी दोनों देशों के बीच स्थितियां सामान्य हो पाएगी और अमेरिका को पूरी दुनिया एक अलग व अच्छी नजर से देखेगी।

सुनील कुमार महला

प्रकृति एवं जीवन रक्षा के लिये नदियों का संरक्षण जरूरी

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– ललित गर्ग  –

भारत में कई नदियां सूखने या प्रदूषित होने के कारण मरने के कगार पर हैं। इन नदियों की हालत इतनी खराब हो गई है कि कुछ तो नालों में बदल गई हैं और उनका नदी होना भी मुश्किल है। नदियों के सूखने और प्रदूषित होने के कारणों में मुख्य हैं, अत्यधिक पानी का दोहन, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन। नदियां जीवन का आधार है, लेकिन तेजी से बढ़ते प्रदूषण, तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं नदियों के प्रति उपेक्षा एवं दोहन के कारण कई नदियां अब ‘मृत’ होने की कगार पर है। गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियां भी दुनिया की प्रदूषित नदियों में शामिल हो चुकी है। राष्ट्रीय स्तर पर नदी प्रबंधन, नदी प्रदूषण और नदी संरक्षण से संबंधित मुद्दों पर लोगों को जागरूक करना नितांत आवश्यक है। नदियां के अत्यधिक ख़तरे में होने से मानव जीवन, पर्यावरण एवं प्रकृति भी संकट में है। जरूरत है मानसूनी जल को नदियों से जोड़ने एवं संरक्षित करने की।
देश में सर्वत्र नदियों का अस्तित्व खतरे में है। विशेषतः उत्तर प्रदेश में नदियों की संख्या लगभग 1,000 है, जिनका 55 हजार किलोमीटर का नेटवर्क है। उनमें से 30 हजार किलोमीटर क्षेत्र में जल घटा है या सूखा है। प्रदेश की 100 छोटी और सहायक नदियां सूख चुकी हैं। बिहार की 50 से अधिक नदियां संकट में हैं। इनमें 32 बड़ी नदियां सूख चुकी हैं, जबकि 18 में पानी थोड़ा बचा है। यमुना नदी भारत की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है और यह अत्यधिक प्रदूषण और पानी के अत्यधिक दोहन के कारण मरने के कगार पर है। साहिबी नदी, जो कभी दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान की एक महत्वपूर्ण नदी थी। ओडिशा में कई नदियां सूख रही हैं और प्रदूषित हो रही हैं, जिससे वहां के पर्यावरण और लोगों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। हैरानी की बात है कि गंगा, सोन और अघवारा जैसी बड़ी नदियों में भी पानी कम है। उत्तराखंड में अल्मोड़ा-हल्द्वानी की लाइफलाइन कोसी और गौला नदियों का जलस्तर कम हो रहा है।
महानदी बचाओ आंदोलन और ओडिशा नदी सुरक्षा समिति द्वारा आयोजित ओडिशा नदी सुरक्षा सम्मेलन में राज्य की नदियों की बिगड़ती स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त की गई। सरकार से एक समग्र नदी नीति बनाने एवं ओडिशा एवं अन्य प्रांतों की नदियों की स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करने की पुरजोर मांग उठी। पर्यावरणविद् राजेन्द्र सिंह ने कहा, “ओडिशा की कई नदियां मरने के कगार पर हैं। अगर नदियों का स्वास्थ्य नहीं सुधरा, तो मानव का स्वास्थ्य भी नहीं बचेगा।’ बात केवल ओडिशा की ही नहीं है, बल्कि सभी प्रांतों में सिंचाई, औद्योगिक उपयोग और घरेलू जरूरतों के लिए नदियों से अत्यधिक पानी निकाला जा रहा है, जिससे नदियों में पानी की कमी हो गई है। औद्योगिक कचरा, सीवेज और कृषि अपवाह नदियों में प्रवाहित हो रहा है, जिससे पानी प्रदूषित हो रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा के तरीकों में बदलाव आया है, जिससे कुछ क्षेत्रों में सूखे की स्थिति बढ़ गई है और नदियों में पानी का प्रवाह कम हो गया है। नदियों से रेत का अवैध खनन भी नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रहा है और नदियों के बहाव को बदल रहा है। जंगलों की कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जिससे नदियों में गाद जमा हो रही है और उनकी गहराई कम हो रही है।
भारत नदियों का एक अनोखा देश है जहां नदियों को पूजनीय माना जाता है। गंगा, यमुना, महानदी, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु (सिंधु), और कावेरी जैसी नदियों को देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में बनाया गया जल शक्ति मंत्रालय, नदी घाटियों में आर्द्रभूमि के पुनरुद्धार और संरक्षण और नदी प्रदूषण के खतरनाक स्तर से निपटने पर ध्यान केंद्रित करता है। देश के समक्ष वाटर विजन 2047 प्रस्तुत किया गया है यानी आजादी के सौ वर्ष पूरे होने तक देश को प्रत्येक वह कार्य करना है, जो देश को पानी के मामलों में सबल बना सके। इसमें हमारी नदियां भी शामिल हैं। हमें अपनी नदियों को 2047 तक निर्मल व अविरल बनाने के संकल्पित लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना होगा। भारत की नदियों की दिन-ब-दिन बिगड़ती हालत एवं बढ़ते प्रदूषण पर पिछले चार दशकों से लगभग हर सरकार कोरी राजनीति कर रही है, प्रदूषणमुक्त नदियों का कोई ईमानदार प्रयास होता हुआ दिखाई नहीं दिया है।
नदियां हमारे जीवन की जीवन रेखा है, गति है, ताकत है। ये पानी, बिजली, परिवहन, मछली और मनोरंजन के लिए स्रोत हैं। नदियां पर्यावरण के लिए भी बहुत फ़ायदेमंद हैं। नदियों के किनारे बसे शहरों की वजह से ये आर्थिक रूप से भी अहम हैं, इनसे ताज़ा पीने का पानी मिलता है, बिजली बनती है, खेती के लिए ज़रूरी उपजाऊ मिट्टी मिलती है। नदियों से जल परिवहन होता है। नदियां मरेंगी तो समाज मर जाएगा। नदियों पर खतरे के तीन बड़े कारण हैं और इन्हें पुनर्जीवन के लिए सरकारी एवं सामाजिक स्तर पर गंभीरता से प्रयास करने की जरूरत है। देश में जनसंख्या का दबाव बढ़ने के साथ ही जमीनों की कीमतें बढ़ीं, इसके साथ ही नदी किनारे भूमि पर अतिक्रमण, सिंचाई के लिए भूजल शोषण और नगरों के गंदों नालों से बढ़ता प्रदूषण नदियों के लिए गंभीर खतरा बन गए और छोटी बड़ी तमाम नदियां सूख रही है। कई नदियां बेमौत मर गईं। केंद्र व प्रदेश की सरकार को सबसे पहले नदियों की जमीन का सीमांकन व चिह्नांकन कराने के साथ ही राजस्व नक्शे में नोटिफिकेशन करना चाहिए। तभी कुछ सुधार की संभावना है।
नदियां मानव अस्तित्व का मूलभूत आधार है और देश एवं दुनिया की धमनियां हैं, इन धमनियों में यदि प्रदूषित जल पहुंचेगा तो शरीर बीमार होगा, लिहाजा हमें नदी रूपी इन धमनियों में शुद्ध जल के बहाव को सुनिश्चित करना होगा। नदियों को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किये जाने की जरूरत है। देश में नदी जल एवं नदियों के लिए कानून बने हुए है, आवश्यक हो गया है कि उस पर पुनर्विचार कर देश के व्यापक हित में विवेक से निर्णय लिया जाना चाहिए। हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ वोट की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते हैं। नदियों को विवाद बना दिया है, आवश्यकता है तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक मानवीय हित के परिप्रेक्ष्य मंे देखा जाये। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में गर्मी और लू के दिन जहां बढ़ रहे हैं, वहीं बरसात के दिन घटते जा रहे हैं। अब जलवायु परिवर्तन की मार देश के दूरस्थ अंचल तक दिख रही है। ऐसे में मानसूनी वर्षा के जल को यदि सलीके से नहीं सहेजा गया तो देश की सामाजिक-आर्थिक-प्राकृतिक स्थिति पर जल-संकट का बड़ा घातक प्रभाव होगा। नदियों के लिए ताजा पानी उपलब्ध कराने, जैव विविधता को बढ़ावा देने से लेकर जलवायु को नियंत्रित करने और सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखने तक स्वस्थ, निर्मल एवं पवित्र मुक्त बहने वाली नदियां को संरक्षित करना जरूरी है। तालाब संरक्षण की बात तो सभी करते हैं, लेकिन आज जरूरी है कि छोटी नदियों की भी सुध ली जाए।
आज गंदे पानी को नदी जल से अलग रखने के विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस गंदे पानी को उपचारित करके उसे कृषि कार्यों व उद्योगों में उपयोग में लाया जा सकता है। हमारी जिन नदियों ने नालों का रूप धारण कर लिया है, उन्हें पुनः नदी बनाने की जरूरत है, नदियों के प्रति मित्रवत व्यवहार रखना तथा उनकी चिंता करना जरूरी है। हम नदियों की रक्षा में अग्रणी समुदायों और नागरिक समाज के आंदोलनों को मजबूत करना होगा। मजबूत डेटा और साक्ष्य उत्पन्न करने के लिए खोजी अनुसंधान को बल देना होगा। विनाशकारी परियोजनाओं का पर्दाफाश करने और उनका विरोध करने के अभियानों को स्वतंत्र और निडर बनाये। अगर इस ग्रह पर कोई जादू है तो वह पानी में है। यह हमें अपनी अर्थव्यवस्था के एक हिस्से के रूप में व्यापार और वाणिज्य के लिए सस्ता और कुशल अंतर्देशीय परिवहन भी प्रदान करता है। यह पृथ्वी पर सबसे विविध और लुप्तप्राय वन्यजीवों में से कुछ का घर भी है।

भजन: शोभा यात्रा

तर्ज: फूलों में सज रहे हैं

मु: अवध में है निकली, राजा राम की सवारी।
और साथ में हैं इनके, राजा जनक की दुलारी।।
अवध में है निकली __

अंत १: भारत लक्ष्मण शस्त्रुधन, तीनों ही प्यारे भैया।
चल रहे हैं निज अष्वों पर, साथ साथ तीनों मैया ।।
मि: और नृत्य कर रहे हैं बजरंग गदा धारी।
अवध में है निकली __

अंत २: अपने अपने रथों पर, विराजित हैं दोनों गुरुवर।
राजा जनक जी का रथ है, और लंका पति विभीषण।।
मि: सुग्रीव अंगद रथ पर, संग वानर सेना भरी।
अवध में है निकली __

अंत ३:हर्षित हो अवध की जनता, अब नृत्य कर रहीं है।
देवी देवताओं की अम्बर में, दुधुम्बी बज रहीं है।।
मि: पुष्प बरसाती हैं, अप्सराएँ सारी।।
अवध में है निकली __

अंत ४: तीनों लोकों में अब भारी आनंद छा रहा है।
ब्रह्मा जी संग अब भोला भी डमरू बजा रहा है।
इस छवि पर नन्दो मोहित, राकेश है बलिहारी।।
अवध में है निकली __

भजन: शिव शंकर

तर्ज: छम छम नाचै वीर हनुमाना

मु: झूम झूम नाचै भोला हमारा।
कहते हैं इसको पारवती का प्यारा।।
झूम झूम नाचे _

अंत १: कैलाश पर डमरू बजा कर नाचै।
राम जी की मस्ती में मस्त हो कर नाचै।।
मि : भांग के नशे में, लागै है सबसे न्यारा।
झूम झूम नाचे _

अंत २ : अंग अंग पर भस्मी, गले मुंड माला।
माथे पर चाँद सोहे, तन पर मृग छाला।।
मि: शीश पर शोभित है गंगा की धारा।
झूम झूम नाचे __

अंत ३: संग जग जननी, गोदी गणपति लाला।
जगत का है स्वामी, ये त्रिशूल वाला।।
मि: दुःख दूर करेगा, जो भी हो तुम्हारा।
झूम झूम नाचे __

अंत ४: भूत प्रेत संग रहे, शमशान वासी।
ऋषिमुनि समझ न पावें, अजब सन्यासी।।
मि: पापियों का कर दे ये तो संघारा।।
झूम झूम नाचे __

अंत ५: ब्रह्मा विष्णु भी पार नहीं पाते हैं।
नेति नेति बोलकर ध्यान सब लगाते हैं।।
मि: नन्दो का इष्ट यह, सबको ही तारा।
(राकेश का इष्ट, शिव डमरू वारा)
झूम झूम नाचे __

राज्यों में होगा परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का विस्तार

संदर्भः- ऊर्जा मंत्री मनोहर लाल का कथन-

प्रमोद भार्गव

केंद्र सरकार अब देष में परमाणु ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने की दृश्टि से ज्यादातर राज्यों में परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करेगी। ये संयंत्र केवल उन राज्यों में नहीं लगाए जाएंगे, जो भूकंप प्रभावित राज्य हैं। ऐसा इसलिए जरूरी है, क्योंकि भविश्य में जब कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित करने के लिए ताप बिजली संयंत्रों पर निर्भरता खत्म की जाए तो परमाणु ऊर्जा जैसे विष्वसनीय व पर्यावरण को न्यूनतम हानि पहुंचाने वाले ऊर्जा स्रोतों को विद्युत आपूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जा सके। सरकार ने इस साल के आम बजट में वर्श 2047 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता को मौजूदा 8000 मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। इस उद्देष्य की पूर्ति के लिए देष में अनेक छोटे छोटे परमाणु ऊर्जा रिएक्टर आधारित संयंत्र लगाए जाने की तैयारी में केंद्र सरकार हैं।
ऊर्जा मंत्री मनोहरलाल ने कहा है कि ‘वर्श 2037 के बाद ताप विद्युत बिजली उत्पादन संयंत्र नहीं लगाए जाएंगे।‘ यह वर्श 2070 तक षून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य को हासिल करने की दिषा में बड़ी पहल है। इस बदली स्थिति में जिन राज्यों में ताप बिजली संयंत्र बंद किए जाएंगे, वहां परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से बिजली का उत्पादन होगा। निजी क्षेत्र की कंपनियों को भी इन संयंत्रों के लगाने का दायित्व सौंपा जाएगा। जम्मू-कश्मीर, गुजरात का कुछ भू-भाग, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के कुछ क्षेत्रों में भूकंप की संभावना हमेशा ही बनी रहती है। इसलिए इन क्षेत्रों में ये संयंत्र नहीं लगाए जाएंगे। भारत के अभी महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान और उप्र में ही परमाणु ऊर्जा संयंत्र बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। इनकी संयुक्त बिजली उत्पादन क्षमता 8000 मेगावाट से कुछ कम हैं। जबकि सरकार द्वारा 12,000 मेगावाट क्षमता की बिजली उत्पादन की मंजूरी इन संयंत्रों को मिली हुई है। हालांकि भारत सरकार के उपक्रम परमाणु ऊर्जा निगम ने मध्यप्रदेश में चार नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने की मंजूरी हाल ही में दी है। जल्दी ही ये संयंत्र नीमच, देवास, सिवनी और शिवपुरी में लगेंगे। सब कुछ सही रहा तो जल्दी ही इन परियोजनाओं पर काम शुरू हो जाएगा। इन संयंत्रों के षुरू हो जाने पर 1200 मेगावाट की अतिरिक्त बिजली पैदा होगी। भारत की परमाणु ऊर्जा क्षमता पिछले 10 साल में करीब दोगुनी हो चुकी है। 2031 तक इसके तीन गुना होने की उम्मीद है। बिजली मंत्री ने यह भी बताया कि फिलहाल देश में बिजली उत्पादन की कुल स्थापित क्षमता 4.72 लाख मेगावाट हैं, जिसमें 2.40 लाख मेगावाट कोयला आधारित ताप विद्युत है। वहीं 2.22 लाख मेगावाट उत्पादन क्षमता नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र से है। दिसंबर 2025 तक इस नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन 2.50 लाख मेगावाट हो जाने की उम्मीद है, इस लक्ष्य की पूर्ति हो जाने पर भारत उन देषों में षामिल हो जाएगा, जिनमें ताप संयंत्रों से ज्यादा बिजली का उत्पादन नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्रों से होता है।
भारत की जिस तेजी से आबादी और अर्थव्यवस्था बढ़ रही है, उसके प्रबंधन और सुचारू सुविधा के लिए षहरीकरण के साथ ऊर्जा की उपलब्धता आवष्यक है। इसी नजरिये से परमाणु ऊर्जा का उत्सर्जन बढ़ाने की दिषा में तेजी से प्रगति के उपाय षुरू हो गए हैं। भीशण गर्मी के चलते इस साल बिजली की मांग 2.41 लाख मेगावाट के चरम पर पहुंच चुकी है। ऊर्जा मंत्री मनोहरलाल का दावा है कि वर्तमान समय में देष में बिजली की आपूर्ति और मांग के बीच महज 0.1 प्रतिषत का अंतर है। जबकि 12 साल पहले 2013 में आपूर्ति की तुलना में मांग 4.2 प्रतिशत अधिक रहती थी। किसी विशेष स्थिति में यह मांग 2.70 लाख मेगावाट भी हो जाती है।   ऐसे में विद्युत की कमी पूरी हो और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी न हो, इस मकसद पूर्ति के लिए परमाणु ऊर्जा उपयुक्त मानी जाती है। एक बार यदि कोई परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित हो जाता है तो लंबे समय तक ऊर्जा की आपूर्ति बनी रहती है। ताप विद्युत परियोजनाओं में कोयला जलाया जाता है। इस कारण बड़ी मात्रा में वायु प्रदूशित होती है। जो अनेक बीमारियों का कारण बनती है। ऐसा अनुमान है कि दुनिया में एक साल में करीब 15 लाख मौतें वायु प्रदूषण से होती हैं। अतएव जीवाश्म ईंधन से बिजली पैदा करना मानव आबादी को बीमार बनाए रखना है। जबकि परमाणु ऊर्जा से पैदा बिजली कार्बन मुक्त होने के साथ सस्ती भी होती है। भारत में कुल ऊर्जा के उत्पादन में 80 प्रतिषत बिजली केवल जीवाष्म ईंधन के रूप में कोयला को ताप विद्युत घरों में जलाने से प्राप्त होती है। हालांकि देष में पानी, सौर्य और वायु ऊर्जा भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने लगी है। जीवाष्म ईंधन के ये बड़े विकल्प बनकर सामने आए हैं। लेकिन सौर्य और पवन ऊर्जा के उत्सर्जन में मौसम की बड़ी भूमिका रहती है। अतएव तेज हवाएं नहीं चलने पर पवन ऊर्जा का निर्माण धीमा पड़ जाता है। इसी तरह बारिष और ठंड के मौसम में सूरज का ताप मंदा हो जाने से सौर्य ऊर्जा का उत्पादन कम हो जाता है। परमाणु ऊर्जा के लिए थोरियम की उपलब्धता जरूरी है। ये अच्छी बात है कि भारत में थोरियम केरल और बिहार में बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। थोरियम धातु को वायु में गरम करने पर इससे चिंगारियां फूटती हैं, जो ऊर्जा मुक्त होती हैं। भारत में भविष्य के ईंधन के रूप में थोरियम को परमाणु ऊर्जा में बदलने के उपायों पर काम तेजी से चल रहा है। देश में फिलहाल 8 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में 23 परमाणु रिएक्टर चालू हैं।  
परमाणु ऊर्जा को बढ़ाने की दृश्टि से 2024-25 के आम बजट में लघु परमाणु संयंत्रों के लिए सरकार ने बड़े बजट का प्रावधान किया है। परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में यह नया प्रयोग है। पहली बार निजी कंपनियों को लघु परमाणु संयंत्र समूचे देष में स्थापित करने का अवसर दिया गया है। साथ ही मॉड्यूलर (प्रतिरूपक) रिएक्टर के आधुनिकीकरण के लिए शोध और विकास पर भी धनराशि खर्च की जा रही है। जिससे परमाणु ऊर्जा में नई प्रौद्योगिकी का विकास हो। इसे पीपीपी मॉडल पर क्रियान्वित किया जा रहा है। इसका उद्देष्य देष में स्वच्छ एवं वैकल्पिक बिजली को बढ़ावा देना है। साथ ही प्रधानमंत्री सूर्य घर निषुल्क बिजली योजना के तहत छतों पर जो सौर संयंत्र लगाए जा रहे हैं, इन पर भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली छूट जारी रहेगी। अभी तक इस योजना के लाभ के लिए 1.28 करोड़ परिवार पंजीयन करा चुके हैं और 14 लाख आवेदन विचाराधीन हैं। छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) उन्नत परमाणु संयंत्र माने जाते हैं। इनकी बिजली उत्पादन क्षमता 300 मेगावाट प्रति इकाई है, जो पारंपरिक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की बिजली उत्पादन क्षमता की तुलना में एक तिहाई है। ये संयंत्र न्यूनतम कार्बन बिजली का उत्पादन करते हैं।
विकसित भारत के लिए ऊर्जा की उपलब्धता एक बड़ी जरूरत है। इसलिए सरकार सिर्फ पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर नहीं रहना चाहती है। इसीलिए सौर और पवन ऊर्जा पर सरकार पहले ही काफी कुछ कर चुकी है। अतएव अब फोकस परमाणु ऊर्जा पर है। क्योंकि इसमें संभावनाएं अधिक है। लेकिन परमाणु ऊर्जा उत्पादन में सुरक्षा के सवाल आड़े आते रहे हैं। ऊर्जा सुरक्षा को सरकार सचेत है।  ऊर्जा बदलाव के संबंध में एक नीतिगत उपाय किए जा रहे है।  इनसे तय होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में किस तरह से पारंपरिक ऊर्जा की जगह धीरे-धीरे अपारंपरिक ऊर्जा के स्रोत का महत्व बढ़ रहा है। इस नीतिगत उपाय के तहत रोजगार, विकास और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का भी समाधान होगा। अतएव इसी परिप्रेक्ष्य में निकेल, कोबाल्ट, तांबा और लिथियम जैसी धातुओं के उत्पादों के आयात पर षुल्क क्रमषः घटाया जा रहा है। इन उत्पादों का प्रयोग परमाणु और सौर ऊर्जा के साथ दूसरे ऊर्जा उत्सर्जन उपायों में भी होता है। आयात सस्ता होने से इनका निर्माण भारत में करने में आसानी होगी। यही नहीं परमाणु ऊर्जा, नवीनीकरण ऊर्जा और अंतरिक्ष एवं रक्षा क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली 25 धातुओं पर सीमा शुल्क को पूरी तरह खत्म कर दिया है। हाल ही के वर्षों में कुछ देशों ने छोटे परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने में सफलता मिली है। इसी का अनुकरण भारत कर रहा है।  
भारत में एक ओर अर्से से अटकी परमाणु बिजली परियोजनाओं में विद्युत का उत्पादन षुरू हो रहा है, वहीं निजी निवेष से परमाणु ऊर्जा बढ़ाने के प्रयास हो रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के सूरत जिले के तापी काकरापार में 22,500 करोड़ रुपए की लागत से बने 700-700 मेगावाट बिजली उत्पादन के दो परमाणु ऊर्जा संयंत्र 22 फरवरी 2024 को राश्ट्र को समर्पित कर दिए हैं। ये देश के पहले स्वदेशी परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं। ये उन्नत सुरक्षा सुविधाओं से युक्त हैं। ये संयंत्र प्रतिवर्ष लगभग 10.4 अरब यूनिट स्वच्छ बिजली का उत्पादन करेंगे, जो गुजरात में बिजली की आपूर्ति के साथ अन्य प्रांतों को भी बिजली देंगे। ये संयंत्र षून्य कार्बन उत्सर्जन की दिषा में आगे बढ़ने की दृश्टि से मील का पत्थर साबित होंगे।
दूसरी तरफ भारत सरकार ने परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी कंपनियों से 26 अरब डॉलर का निवेष आमंत्रित किया है। यह पहल ऐसे स्रोतों से बिजली बनाने की मात्रा बढ़ाने की दिषा में उठाया गया कदम है, जो वायुमंडल में प्रदुशण और तापमान बढ़ाने वाले कार्बनडाड ऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं करते हैं। यह पहली बार है जब परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में सरकार निजी कंपनियों से पूंजी निवेष की मांग कर रही है। फिलहाल भारत में परमाणु ऊर्जा कुल बिजली उत्पादन की तुलना में महज दो प्रतिषत भी नहीं है। यदि यह निवेष बढ़ता है तो 2030 तक अपनी स्थापित विद्युत उत्पादन क्षमता का 50 प्रतिषत गैर जीवाष्म ईंधन के उपयोग से प्राप्त लक्ष्य को हासिल करने में सहायता मिलेगी।

प्रमोद भार्गव

डिजिटल होगी जातिवार जनगणना

संदर्भः- 2021 की जनगणना की अधिसूचना जारी
 जनगणना में स्व-गणना की सुविधा
प्रमोद भार्गव
        दुनिया की सबसे बड़ी आबादी की जनगणना की अधिसूचना जारी हो गई है। कोविड महामारी के कारण 2021 में होने वाली यह जनगणना अब षुरू होगी। कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष जातिवार जनगणना कराने की मांग कर रहा था। अचानक मोदी सरकार ने जातिवार जनगणना कराने का फैसला लेकर पूरे विपक्ष को चौंका दिया। क्योंकि अब यह मुद्दा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। साथ ही सभी वर्गों की प्रमुख जातियों के साथ उपजातियों की जनगणना के आंकड़े जब सामने आएंगे, तब यह स्पश्ट हो जाएगा कि सैद्धांतिक रूप से जातिगत गणना कराना उचित था या नहीं ? ई-बाजार, ई-आवेदन, ई-रेल व बस में आरक्षण ई-भुगतान के बाद अब ई-जनगणन यानी डिजिटल गिनती होगी। इस गिनती में जाति की गिनती भी साथ-साथ होगी। इसमें जन्म और मृत्यु दोनों ही डिजिटल जनगणना से जुड़े होंगे। हर जन्म के बाद डिजिटल जनगणना खुद ही अद्यतन हो जाएगी और जब किसी की मृत्यु होगी तो उसका नाम खुद ही डाटा से डिलीट हो जाएगा। सेंसर रजिस्टर यानी जनगणना में बच्चे के जन्म माता-पिता ,जाति और जन्म स्थान की जानकारी समेत 16 भाशाओं में 36 प्रष्नों के उत्तर दर्ज हो जाएंगे। बालक जब 18 साल का होगा तो खुद ही उसका नाम चुनाव आयोग के पास चला जाएगा, नतीजतन उसका मतदाता पहचान पत्र बनने के साथ मतदाता सूची में भी नाम स्वमेव दर्ज हो जाएगा। फिर जब किसी की मौत हो जाएगी तो ऑनलाइन जनगणना के डाटा से उस शख्स का नाम खुद ही डिलीट भी हो जाएगा। इस तरह से जनगणना का डाटा हमेशा खुद अद्यतन होता रहेगा। राश्ट्रीय जनसंख्या रजिस्ट्रर (एनपीआर) की प्रक्रिया पर करीब 12000 करोड़ रुपए खर्च होंगे। डिजिटल जनगणना की घोशणा 1 फरवरी 2021 को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने की थी।
जनगणना-2021 में नागरिकों को गणना में षामिल होने की एक बेहतर और अनूठी ऑनलाइन सुविधा दी गई है। भारत सरकार के केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भारतीय नागरिकों को ऑनलाइन स्व-गणना का अधिकार देने के लिए नियमों में परिवर्तन किए हैं। जनगणना (संषोधन)-2022 के अनुसार परंपरागत तरीके से तो जनगणना घर-घर जाकर सरकारी कर्मचारी करेंगे ही, लेकिन अब नागरिक स्व-गणना के माध्यम से भी अनुसूची प्रारूप भर सकता है। इसके लिए पूर्व नियमों में ‘इलेक्ट्रॉनिक फार्म‘ षब्द जोड़ा गया है, जो सूचना प्रौद्योगिकी कानून 2000 की धारा दो की उप धारा (एक) के खंड आर में दिया गया है। इसके अंतर्गत मीडिया, मैग्नेटिक, कंप्यूटर जनित माइक्रोचिप या इसी तरह के अन्य उपकरण में तैयार कर भेजी या संग्रहित की गई जानकारी को इलेक्ट्रॉनिक फार्म में दी गई जानकारी माना जाएगा। यानी एनरायड मोबाइल से भी अपनी गिनती दर्ज की जा सकेगी, जो कि आजकल घर-घर में उपलब्ध है। इस ऑनलाइन प्रविष्टि के अलावा घर-घर जाकर भी जनगणना की जाएगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ऑनलाइन प्रयोग अद्वितीय है। लेकिन देश की जनता के स्थायी और निंरतर गतिशील पंजीकरण के दृष्टिगत अब जरूरी है कि ग्राम पंचायत स्तर पर जनगणना की जवाबदेही सौंप दी जाए। गिनती के विकेर्द्रीकरण का यह नवाचार जहां 10 साला जनगणना की बोझिल परंपरा से मुक्त होगा, वहीं देश के पास प्रतिमाह प्रत्येक पंचायत स्तर से जीवन और मृत्यु की गणना के सटीक व विश्वसनीय आंकड़े मिलते रहेंगे। इस लेख में प्रस्तुत की जाने वाली जनगणना की यह तरकीब अपनाना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि तेज भागती यांत्रिक व कंप्यूटरीकृत जिदंगी में सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक बदलाव के लिए सर्वमान्य जनसंख्या के आकार व संरचना का दस साल तक इंतजार नहीं किया जा सकता ? वैसे भी भारतीय समाज में जिस तेजी से लैगिंक, रोजगारमूलक और जीवन स्तर मे परिवर्तन आ रहे हैं, उसकी बराबरी के प्रयासों के लिए भी जरूरी है कि हम जनगणना की परंपरा में आमूलचूल परिपर्तन लाएं ?
जनसंख्या के आकार, लिंग और उसकी आयु के अनुसार उसकी जटिल संरचना का कुछ ज्ञान न हो तो आमतौर पर अर्थव्यवस्था के विकास की कालांतर में प्रगति, आमदनी में वृद्धि, खाद्य पदार्थों व पेयजल की उपलब्धता, आवास, परिवहन, संचार, रोजगार के संसाधन,  शिक्षा, स्वास्थ्य व सुरक्षा के पर्याप्त उपायों के इजाफे के पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है। जनसंख्या में वृद्धि के अनुपात में ही लोकसभा और विधानसभा सीटों को परिसीमन के जरिए बढ़ाया जाता है। 2028 में होने वाले लोकसभा चुनाव में महिलाओं के लिए भी 33 प्रतिषत सीटें आरक्षित रहेंगी। जनगणना में निरंतरता इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि देश व दुनिया में जनसंख्या वृद्धि विस्फोटक बताई जा रही है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया की जनसंख्या लगभग सात सौ करोड़ हो चुकी है। 2050 में यह आंकड़ा 10 करोड़ तक पहुंच सकता है। इस आबादी का पचास प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा महज नौ देशों चीन, भारत, अमेरिका, पकिस्तान, बांग्लादेश, नाइजीरिया, कांगो, इथोपिया और तंजानिया में होगा। परिवार नियोजन के तमाम उपायों के बावजूद दुनिया में प्रति महिला सकल प्रजनन दर 2.5 शिशु है, 2050 में यह दर घटकर 2.1 प्रति महिला प्रति शिशु रह जाने की उम्मीद है।
धरती पर जितनी तेजी से मानव समुदायों की आबादी उन्नसवीं सदी में बढ़ी है, उतनी तेजी से बढ़ोतरी पहले कभी दर्ज नहीं हुई। एक अनुमान के मुताबिक ईसवी सन एक में धरती पर कुल आबादी लगभग तीस करोड़ थी। अठारहवीं शताब्दी के अंत में दुनिया की जनसंख्या एक अरब के आंकड़े को भी पार नहीं कर पाई थी। इन शताब्दियों में जन्म दर की मात्रा अधिक होने के बावजूद जनसंख्या वि्द्ध दर बेहद मंदी थी। प्रकृति पर निर्भर गर्भ निरोधकों से दूर और उपचार की आसान व सुलभ पद्धतियों से अनजान स्त्री-पुरूष बच्चे तो खूब पैदा करते थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर मर जाया करते थे। बीमारियों की पहचान और उपचार से नियंत्रण के चलते बीसवीं शताब्दी के पहले ही तीन दशको में यह आबादी दोगुनी होकर करीब पौने दो अरब के आंकड़े को छू गई थी।
भारत की जनसंख्या 1901 में 23,83,96,327 थी। आजादी के साल 1947 में यह आबादी 34.2 करोड़ हो गई थी। 1947 से 1981 के बीच भारतीय आबादी की दर में ढाई गुना वृद्धि दर्ज की गई और आबादी 68.4 करोड़ हो गई थी। जनसंख्या व्ृद्धि् दर का आकलन करने वाले विशेषज्ञो का मानना है कि भारत में प्रति वर्ष एक करोड़ 60 लाख आबादी बड़ जाती हैं। इस दर के अनुसार हमें अपने देश की करीब एक अरब 40 करोड़ लोगों की एक निशचित जनसंख्या प्रारूप में गिनती करनी है, ताकि व्यक्तियों और संसाधनों के समतुल्य आर्थिक व रोजगारमूलक विकास का खाका खींचा जा सके । जनसंख्या का यह आंकड़ा अज्ञात भविष्य के विकास की कसौटी पर खरा उतरे उसका मूलाधार वैज्ञानिक तरीके से की गई सटीक जनगणना ही है।
हरेक दस साल में की जाने वाली जनता-जनार्दन की गिनती में करीब 34 लाख कर्मचारी जुटते हैं। डिजिटल डिवाइस से लैस 1.3 लाख जनगणना अधिकारी भी रहेंगे। छह लाख ग्रामों, पांच हजार कस्बों, सैकड़ों नगरों और दर्जनों महानगरों के रहवासियों के द्वार-द्वार दस्तक देकर जनगणना का कार्य करना कर्मचारियों के लिए जटिल होता है। यह काम तब और बोझिल हो जाता  है जब किसी कर्मचारी-दल को उसके स्थनीय दैनंदिन कार्य से दूर कर उसे दूरांचल गांव में भेज दिया जाता हैं। ऐसे  हालात में गिनती की जल्दबाजी में वे मानव समूह छूट जाते हैं, जो आजीविका के लिए मूल निवास स्थल से पलायन कर जाते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर अनुसूचित जाति व अनुसूचित  जनजातियों के लोग होते हैं। बीते कुछ सालों में आधुनिक व आर्थिक विकास की अवधारणा के चलते इन्हीं जाति समूह के करीब चार करोड़ लोग विस्थापन के दायरे में हैं।  इनसे रोशन गांव तो अब बेचिराग हैं, लेकिन इन विस्थापितों का जनगणना के समय स्थायी ठिकाना कहां है, जनगणना करने आए दल को यह पता लगाना मुशकिल होता है ?


जनगणना की विधि का हो विकेंद्रीकरण
       जनगणना की प्रक्रिया के वर्तमान स्वरूप को बदला जाकर एक ऐसे स्वरूप में तब्दील किया जाए, जिससे इसकी गिनती में निरंतरता बनी रहे। इसके लिए न भारी भरकम संस्थागत ढांचे की जरूरत है और न ही सरकारी अमले की। केवल गिनती की केन्द्रीयकृत जटिल पद्धति को विकेन्द्रीकृत करके सरल करना है। गिनती की यह तरकीब ऊपर से शुरू न होकर नीचे से शुरू होगी। देश की सबसे छोटी राजनीतिक व प्रशासनिक इकाई ग्राम पंचायत है। जिसका त्रिस्तरीय ढांचा विकास खण्ड व जिला स्तर तक है। हमें करना सिर्फ इतना है कि तीन प्रतियों में एक जनसंख्या पंजी  पंचायत कार्यालय में रखनी है। इसी पंजी की प्रतिलिपि कंप्युटर में फीड जनसंख्या प्रारूप पर भी दर्ज हो। जिन ग्राम पंचायतों में इसे जनसंख्या संबंधी वेबसाइट से जोड़कर इन आंकड़ो का पंजीयन सीधे अखिल भारतीय स्तर पर हो सकता है। जैसा कि अब ऑनलाइन माध्यमों से अपनी गिनती दर्ज करा सकेंगे।
परिवार को इकाई मानकर सरपंच, सचिव ओर पटवारी को यह जवाबदेही सौंपी जाए कि वे परिवार के प्रत्येक सदस्य का नामकरण व अन्य जानकारियां जनसंख्या प्रारूप के अनुसार इन पंजियों में दर्ज करें। इस गिनती को सचित्र भी किया जा सकता है। चूंकि ग्राम पंचायत स्तर का प्रत्येक व्यक्ति एक दुसरे को बखूबी जानते हैं इसलिए इस गिनती में चित्र व नाम के स्तर पर भ्रम की स्थिति निर्मित नहीं होगी। जैसा कि मतदाता सूचियों और मतदाता परिचय-पत्र में हो जाती हैं। गिनती की इस प्रक्रिया से कोई वंचित भी नहीं रहेगा। क्योंकि जनगणना किए जाने वाले जन और जनगणना करने वाले लोग स्थानीय हैं। गांव में किसी भी शिशु के पैदा होने की जानकारी और किसी भी व्यक्ति की मृत्यु की जानकारी तुरंत पूरे गांव में फैल जाती है, अतः इस जानकारी को अविलंब पंजी में दर्ज किया जा सकेगा।
     ग्राम पंचायत पर एकत्रित होने वाली यह जानकारी प्रत्येक माह की एक निश्चित तारीख को विकासखण्ड स्तर पर पहुंचाई जाकर पंजी की एक प्रति विकासखण्ड कार्यालय में रखी जाए और इसे आधार बनाकर इसका तत्काल कंप्यूटरीकरण किया जाए। जिले के सभी विकास खंडों की यह जानकारी जिला स्तर पर बुलाई जाए और यहां इसका एकीकरण किया जाकर इस गिनती को कंप्यूटर में फीड किया जाए। इस तरह से सभी विकासखण्डो के आंकड़ों की गणना कर जिले की जनगणना प्रत्येक माह होती रहेगी। जिलाबार गणना के डाटा को प्रदेश स्तर पर सांख्यकीय कार्यालय में इकट्ठा कर प्रदेश की जनगणना का आंकड़ा भी प्रत्येक माह सामने आता रहेगा। प्रदेशवार जनसंख्या के आंकडो को देश की राजधानी में जनसंख्या कार्यालय में संग्रहीत कर प्रत्येक माह देश की जनगणना का वैज्ञानिक व प्रामाणिक आंकड़ा मिलता रहेगा। देश के नगर व महानगर वार्डो में  विभक्त हैंं। अतः वार्डवार जनगणना के लिए गिनती की उपरोक्त प्रणाली ही अपनाई जाए। इस गिनती में जितनी पारदर्शिता और शुद्धता रहेगी उतनी किसी अन्य पद्धति से संभव नहीं है।
प्रमोद भार्गव

अमेरिकी सेना की वापसी से सीरिया फिर अराजकता की ओर

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राजेश जैन


जिस देश ने बीते दशक में क्रूरता का सबसे भयावह चेहरा देखा, वहां एक बार फिर अशांति की परछाइयां  गहराने की आशंका हैं। अमेरिकी सेना की वापसी से सीरिया में अराजकता फिर से बढ़ने के आसार है। सेना के सीरिया से हटने के बाद इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी समूहों के फिर से मजबूत होंगे। इसके अलावा, तुर्की और सीरियाई सरकार के बीच संघर्ष बढ़ सकता है क्योंकि तुर्की सीरियाई कुर्दों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है।

गत दिसंबर की शुरुआत में जैसे ही बशर अल-असद की सत्ता का अंत हुआ तो उम्मीद जगी थी कि देश में लोकतंत्र और स्थायित्व आएगा। एक नए दौर की शुरुआत होगी लेकिन अब साफ होता जा रहा है कि यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था बल्कि एक और भयंकर संक्रमण काल का प्रवेश द्वार था। असद के जाने के बाद सीरिया में जो सत्ता का शून्य पैदा हुआ, वह तेजी से अराजकता में बदलता जा रहा है और इसी अराजकता की दरारों से झांक रहा है वही पुराना डरावना चेहरा — इस्लामिक स्टेट यानी आईएसआईएस।

अमेरिका की वापसी से बना खालीपन

सीरिया में अमेरिका की सैन्य मौजूदगी अब नाम मात्र की रह गई है। उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमेरिका ने अपने दो प्रमुख सैन्य अड्डों—अल-ओमर और ताल बायदर—से सैनिकों को हटा लिया है। अब इन ठिकानों पर न निगरानी कैमरे हैं, न गश्ती दस्ते। बस बची हैं सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेस (एसडीएफ ) की कुछ छोटी टुकड़ियां जो खुद को निहत्था और असहाय पा रही हैं। इन अड्डों पर कभी अमेरिका का स्पष्ट दबदबा था। इन्हीं से आईएसआईएस  की कमर तोड़ी गई थी। अब जब ये लगभग खाली पड़े हैं तो सवाल उठता है—क्या आईएसआईएस की वापसी का रास्ता खुद अमेरिका ने खोल दिया है?

बीच रास्ते में छोड़ दिया एसडीएफ को

यह सवाल अब और तीव्रता से पूछा जा रहा है — क्या अमेरिका ने एसडीएफ को बीच रास्ते में छोड़ दिया? वही एसडीएफ जिसे अमेरिका ने खड़ा किया था, प्रशिक्षित किया था और आईएसआईएस के खिलाफ सबसे आगे रखा था।  एसडीएफ आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। इसके कमांडर मजलूम अब्दी का कहना है – हमने अमेरिका पर विश्वास किया, उनके निर्देशों पर युद्ध लड़ा लेकिन अब वही अमेरिका हमें अधर में छोड़कर जा रहा है।

यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका पर ऐसा आरोप लगा हो। अफगानिस्तान, यूक्रेन और अब सीरिया—तीनों ही उदाहरण हैं जहां अमेरिका ने रणनीतिक जरूरत के समय साथ निभाया और फिर अपने हित सधते ही कदम पीछे खींच लिए। दुनिया अब सवाल कर रही है कि क्या अमेरिका सिर्फ तब तक साथ देता है जब तक उसे राजनीतिक और सैन्य लाभ मिलता है?

रूस, ईरान और तुर्की की नई भूमिका

सीरिया में अमेरिका की वापसी से जो खालीपन पैदा हुआ है उसे भरने के लिए अब रूस, ईरान और तुर्की जैसे देश तैयार बैठे हैं। रूस असद शासन का पुराना समर्थक रहा है और अब वहां की स्थिति पर अपनी पकड़ और मजबूत कर रहा है। ईरान समर्थित मिलिशिया समूह भी अब फिर से उत्तर-पूर्वी सीरिया में सक्रिय होने लगे हैं।


वहीं तुर्की शुरू से एसडीएफ को कुर्द विद्रोहियों के रूप में देखता है और  लगातार उनकी गतिविधियों को सीमित करने की कोशिश में जुटा है। बहरहाल एसडीएफ तीन दिशाओं से प्रेशर में है—आईएसआईएस की वापसी, तुर्की का सैन्य दबाव और अमेरिका का साथ छोड़ना। ऐसे में यह सवाल लाजमी है कि क्या एसडीएफ इस सबके बीच अकेले टिक पाएगा?

हो रही आईएसआईएस की वापसी

इतिहास गवाह है कि जब-जब सुरक्षा बल किसी संकटग्रस्त क्षेत्र से हटे हैं, वहां चरमपंथी संगठनों ने अपनी जड़ें और मजबूत की हैं। सीरिया की वर्तमान स्थिति उसी दोहराव की ओर इशारा कर रही है। इस्लामिक स्टेट जो कभी ख़त्म मान लिया गया था, अब फिर से दमिश्क, रक्का, हामा और डेर-एज़-ज़ोर जैसे शहरों में सक्रिय होता दिख रहा है। उसने सीरियाई शासन के पतन के बाद सरकारी हथियार डिपो से गोला-बारूद लूट लिए थे। एसडीएफ कमांडर अब्दी ने चेताया है कि आईएसआईएस अब फिर से हथियारों से लैस है और आतंक के पुराने नेटवर्क दोबारा सक्रिय किए जा रहे हैं।

केवल चिंता ही जता पा रहा संयुक्त राष्ट्र

संयुक्त राष्ट्र ने सीरिया की स्थिति पर चिंता तो जताई है लेकिन ठोस कदम उठाने की दिशा में कोई पहल नहीं हुई  है। जब यूक्रेन पर हमला होता है, तब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी सक्रिय हो जाती है लेकिन सीरिया जैसे देशों में जब मानवीय संकट लौटता है, तो सिर्फ ‘चिंता’ जताई जाती है, कार्रवाई नहीं होती। वहां के आम नागरिक इसकी कीमत चुकाते हैं। बीते दो महीनों में ही सीरिया में 1 लाख से ज्यादा लोग फिर से विस्थापित हुए हैं। स्कूल बंद हैं, अस्पतालों में दवा नहीं है, बिजली और पानी की आपूर्ति ठप पड़ी है।

राजेश जैन

22 साल बाद बड़े पर्दे पर लौटी राखी गुलजार  

सुभाष शिरढोनकर

मशहूर एक्ट्रेस राखी गुलजार मां-बेटे के रिश्ते और कामकाजी जीवन के तनाव को दिखाती 9 मई को सिनेमाघरों में रिलीज बांगाली फिल्म ‘आमार बॉस’ के जरिए 22 साल बाद बड़े पर्दे पर लौटी हैं।

फिल्‍म का निर्देशन नंदिता रॉय और शिबोप्रसाद मुखर्जी ने किया है। फिल्‍म में राखी गुलजार शुभ्रा गोस्वामी और शिबोप्रसाद मुखर्जी उनके बेटे अनीमेष की भूमिका में है। यह एक ऐसी कहानी है जो दिल से निकलकर दर्शकों के दिल तक पहुंचने में कामयाब रही है।  

15 अगस्त 1947 को पश्चिम बंगाल के रानाघाट में जन्मी एक्ट्रेस राखी ने अपनी अदाकारी के जरिए तमाम फैंस के दिल जीते हैं। ‘मेरे करन-अर्जुन आएंगे कहकर’, ‘राणा जी’ की नींद उड़ाने वाली राखी ने अपने अभिनय से उन बुलंदियों को छुआ जिसकी चाहत हर एक्ट्रेस के दिल में होती है।

वैवाहिक रिश्ता  खत्‍म होने के बाद राखी ने 1967 की फिल्म ‘बोधु बोरॉन’ से बंगाली सिनेमा से एक्टिंग करियर की शुरुआत की। इसके तीन साल बाद राखी राजश्री प्रॉडक्शन की फिल्म ‘जीवन मृत्यु’ (1970) में नजर आईं। यह उनकी बॉलीवुड डेब्‍यू फिल्‍म थी।  

फिल्‍म ‘जीवन मृत्यु’ (1970) के बाद शशि कपूर के साथ उनकी फिल्म शर्मिली सुपरहिट रही। राजकुमार के साथ फिल्‍म ‘लाल पत्थर’ और संजीव कुमार के साथ फिल्‍म  ‘पारस’ के बाद वह इंडस्ट्री की नई लीड एक्ट्रेस बनकर छा गईं। इसके बाद राखी गुलजार ने बतौर लीड एक्ट्रेस कई हिट फिल्मों में काम किया।

हिंदी सिनेमा में जब जाना-माना नाम बन जाने के बाद राखी की मुलाकात मशहूर गीतकार गुलजार से हुई। दोनों धीरे-धीरे करीब आते चले गए और दोनों ने 1973 में शादी कर ली। शादी के समय गुलजार व्‍दारा रखी शर्त के अनुसार राखी ने फिल्‍मों में काम करना छोड़ दिया। इस शादी से वे बेटी मेघना के माता-पिता बने।

हालांकि, इसके बाद गुलजार और राखी के रिश्ते में दरार पड़ने लगी. दोनों हमेशा-हमेशा के लिए एक-दूसरे से अलग हो गए लेकिन उन्होंने एक-दूसरे से तलाक नहीं लिया। 

रिपोर्ट के मुताबिक, साल 1975 के दौरान गुलजार फिल्म ‘आंधी’ के दौरान कश्मीर की लोकेशन पर सुचित्रा सेन और गुलजार को लेकर राखी को कुछ कन्‍फयूजन हो गया था। उस दौरान गुलजार ने राखी को थप्पड़ भी जड़ दिया था।

इसके बाद राखी ने गुलजार की शर्त को तोड़ते हुए यश चोपड़ा  की फिल्म ‘कभी-कभी’ साइन कर ली। उनके इस निर्णय के बाद गुलजार के साथ उनके रिश्ते में दरार आ गई।

पिछले काफी वक्‍त से राखी गुलजार पब्लिक लाइफ और मीडिया से दूर मुंबई के पास पनवेल में अपने फार्म हाउस पर रह रही हैं और फिल्मी दुनिया से बिल्कुल दूर हैं।

एक्टिंग के साथ प्रोडक्‍शन में हाथ आजमाएंगी गीता बसरा

अपनी एक्टिंग से फैंस को इंप्रेस करने के बाद एक्ट्रेस गीता बसरा ने विगत 24 अप्रैल 2025 को अपने पति मशहूर क्रिकेटर हरभजन सिंह से साथ अपने प्रोडक्शन हाउस ‘पर्पल रोज एंटरटेनमेंट’ की शुरुआत करते हुए अपनी जिंदगी का एक नया चैप्टर शुरू किया।

पिछले काफी समय से एक्‍ट्रेस गीता बसरा पति हरभजन सिंह के साथ अपनी फैमिली को पूरा समय दे रही थीं। अब उनका दूसरा बच्‍चा जोवन एक साल का हो गया है। ऐसे में अब उन्‍होंने दोबारा अपने करियर पर फोकस करने की ठान ली है। 

छह साल के लंबे अंतराल के बाद गीता ने करण जौहर के साथ मिलकर सिद्धार्थ मल्‍होत्रा और कियारा आडवाणी की फिल्‍म ‘शेरशाह’ बनाने वाले प्रोड्यूसर शब्‍बीर बॉक्‍सवाला की फिल्‍म ‘नोटरी’ भी साइन की है।

इस फिल्‍म में वह एक ऐसी कॉलेज गर्ल बनी हैं जिसकी शादी होने वाली होती है लेकिन उसकी जिंदगी में एक के बाद एक ऐसी कई घटनाएं घटित होती हैं जिनकी वजह से लगातार उसे चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।  

पवन वाडेयर निर्देशित फिल्‍म ‘नोटरी’ में ‘कहानी’ फेम परमब्रत चटर्जी गीता बसरा के अपोजिट नजर आएंगे। उम्‍मीद की जा रही है कि इस साल के आखिर तक फिल्‍म सेट पर आ जाएगी।

इसके अलावा गीता बसरा फिल्म ‘अवस्थी वर्सेस अवस्थी’ में भी नजर आने वाली है।

आखिरी बार साल 2016 में फिल्‍म ‘लॉक’ में नजर आने वाली एक्‍ट्रेस गीता बसरा के फैंस एक लंबे वक्‍त से उन्‍हें फिर से पर्दे पर देखने के लिए एक्‍साइटेड हैं। 

कॉमेडियन ही नहीं, एक अच्‍छे विलेन भी हैं रितेश देशमुख

एक्‍टर रितेश देशमुख इन दिनों हाल ही में रिलीज फिल्म ‘रेड 2’ को लेकर चर्चा में हैं। फिल्‍म में जहां अजय देवगन अमय पटनायक के लीड रोल में हैं, वहीं रितेश देशमुख का विलेन वाला अवतार नजर आ रहा है।  

महाराष्ट्र के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख के बेटे रितेश दरअसल एक आर्किटेक्ट बनना चाहते थे लेकिन किस्मत उन्हें बॉलीवुड खींच लाई।

रितेश ने मुंबई के कमला रहेजा कॉलेज ऑफ आर्किटेक्चर से डिग्री ली है. लेकिन फिर अचानक रितेश का दिलचस्पी एक्टिंग की तरफ बढ़ने लगी और उन्होंने बॉलीवुड में हाथ आजमाया।

खबरों की मानें तो एक बार जब रितेश फिल्‍म मेकर सुभाष घई के साथ लंदन में छुट्टी मना रहे थे, तभी सिनेमैटोग्राफर कबीर लाल की नजर रितेश पर पड़ी और उन्होंने रितेश को एक्टिंग का सुझाव दिया।

इस सुझाव पर अमल करते हुए रितेश ने फिल्‍म ‘तुझे मेरी कसम’ से बॉलीवुड में अपने करियर की शुरुआत की हालांकि ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई।  

लेकिन इन्‍द्र कुमार व्‍दारा निर्देशित फिल्‍म ‘मस्ती’ से रितेश को पहचान मिली। इस फिल्‍म के जरिए वो पर्दे पर छा गए औऱ आज फैंस के फेवरेट स्टार्स में से एक हैं।

एक्टिंग के साथ रितेश देशमुख ने फिल्म निर्माण से जुड़ते हुए साल 2013 में ‘मुंबई फिल्म कंपनी’ नाम से अपना खुद का प्रोडक्शन हाउस शुरू किया।  इस प्रोडक्शन हाउस के जरिए अभी तक रितेश कई खास फिल्में बना चुके हैं।  

रितेश देशमुख की मराठी फिल्म ‘वेड’ ने सिनेमाघरों में जमकर धूम मचाई। बतौर एक्टर और डायरेक्टर रितेश देशमुख ने इस फिल्म में शानदार काम किया करते हुए हर किसी का दिल जीत लिया। अब एक बार फिर फिल्‍म ‘रेड 2’ में बतौर विलेन उनके नाम का डंका बज रहा है।   

रितेश देशमुख बॉलीवुड इंडस्ट्री के बेहतरीन एक्टर में से एक हैं। अपनी दमदार अदाकारी से उन्‍होंने लाखों लोगों का दिल जीता है। खासकर अपनी शानदार कॉमिक टाइमिंग से लोगों को गुदगुदाने वाले रितेश हिंदी से लेकर मराठी सिनेमा में अपनी वर्सेटाइल एक्टिंग के लिए मशहूर रहे है।

सुभाष शिरढोनकर

राम जन्म के हेतु अनेका

डॉ. नीरज भारद्वाज

राम शब्द सुनते ही मन मस्तिष्क में रामचरितमानस का जाप शुरू हो जाता है। राम नाम एक मंत्र है, जिसने भी इसे जपा, भजा और गाया वह इस आवागमन के चक्कर से मुक्त हो गया। इस चराचर जगत में श्रीराम की ही महिमा है। भगवान श्रीराम के प्रकट होने से लेकर उनके राजा बनने की कथा हम सभी ने सुनी है। इसी कथा का देश-विदेश में रामलीला के माध्यम से मंचन भी होता है। साधु-संत-महात्मा संगीतमय श्रीराम कथा लोगों को सुनते हैं, स्वयं भी इसका जाप करते हैं। श्रीरामचरितमानस की कोई एक चौपाई भारतवर्ष में रहने वाला बच्चा-बच्चा गा सकता है।

 अवध प्रदेश के रहने वाले मेरे प्रोफेसर मित्र बताते हैं कि हमारे हर एक मंगल कार्य में चौबीस घंटे का श्रीरामकथा पाठ या सुंदरकांड का पाठ जरूर होता है। अवध प्रांत के साथ-साथ अनेक स्थानों पर भी लोग ऐसा सुमंगल कार्य करते हैं। हमारे तीर्थ स्थलों पर श्रीराम कथा का जाप चलता ही रहता है। श्रीराम जय राम, जय जय राम। श्रीराम कथा और श्रीराम का चरित्र युगों-युगों से संतो के मुख से सुनते आ रहे हैं। रामलीला के माध्यम से देखते भी आ रहे हैं।

बचपन में जब हम रामलीला करते थे तो इतनी व्यापक समझ नहीं थी। दस दिन रामलीला का हर्षोल्लास हम सभी में बना रहता था। रामलीला में छोटा-बड़ा पात्र बन कर अपने को गौरवान्वित महसूस करते रहते। जब प्रभु श्रीराम मंच पर आते तो सभी हाथ जोड़कर बैठ जाते, जय श्रीराम की आवाज मंच पर और दर्शकों के बीच होने लगती। लोगों में एक अलग ही रोमांच भर जाता। जब साहित्य का छात्र बना और उसमें रामचरितमानस का कुछ हिस्सा साहित्यिक दृष्टि से पढ़ा तो उसके प्रति भाव अपने आप ही भक्तिमय होता चला गया। यह सभी कुछ प्रभु श्रीराम की कृपा से ही हुआ। फिर श्रीराम कथाओं को सुनने में आनंद आने लगा। अब जब भी कक्षा में पढ़ाते हैं तो प्रभु श्रीराम की चर्चा जरूर हो जाती है। जब लिखने बैठता हूं तो श्रीरामचरितमानस की चौपाई स्वयं ही अपना स्थान बनाकर लेख में आकर बैठ जाती हैं, यह सब प्रभु की कृपा ही है। आदरणीय डॉ. वेदप्रकाश जी ने रास्ता दिखाया और मां गंगा के किनारे से संतों से मिलने की राह खुल गई। मां गंगा और प्रभु श्रीराम की कृपा से ऋषिकेश की पावन भूमि पर पावन कुटी में रह रहे रामकथा के मर्मज्ञ परम पूज्य स्वामी श्री मैथिलीशरण भाई जी के दर्शन हुए और उनका आशीर्वाद मिला। मां गंगा के पावन तट पर ही परम पूज्य श्री चिदानंद मुनि जी महाराज जी के दर्शन हुए और आशीर्वाद मिला।

प्रभु श्रीराम के इस धरा धाम पर प्रकट होने के कितने ही सुयोग्य तत्व रहे हैं, इसका अंदाजा साधु-संत-महात्मा आदि ही लगा पाते हैं। इसकी व्याख्या भी वही कर पाते हैं। प्रभु श्रीराम भक्त को भक्ति, सेवक को सेवकाई, मित्र को मित्रता, भाई को प्रेम, शत्रु को दंड़, जन-जन को आशीर्वाद और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए ही इस धरा धाम पर आए। इसके साथ ही इस चराचर जगत को सुंदर, सुयोग्य और साथ मिलकर रहने का संदेश देने आए। भगवान ने असुरों को मार कर पृथ्वी को पावन-पुनीत, शुद्ध, पवित्र बनाया। प्रभु श्रीराम पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पर्वत, लता, पत्ता, पुष्प, पत्थर आदि सभी का उद्धार करते चले गए। साधु, संत, महात्मा, ऋषियों आदि से प्रभु ने ज्ञान लिया और उनके दर्शन किए, साथ ही उन्हें अपने दर्शन भी दिए। भक्तों को भक्ति दी, धर्म की स्थापना की। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- राम जन्म के हेतु अनेका। परम विचित्र एक तें एका।। भगवान श्रीराम का चिंतन-मनन जितना करते हैं, हम उतने ही गहरे उतरते चले जाते हैं, प्रभु की लीला अपरम पार है।

कनाडा-भारत के बीच सुधरते रिश्ते के वैश्विक मायने

कमलेश पांडेय

कनाडा-भारत के बीच सुधरते रिश्ते दोनों देशों के लिए परस्पर लाभदायी हो सकते हैं, क्योंकि दोनों देश अमेरिका जैसे अंतरराष्ट्रीय महाशक्ति के निशाने पर हैं। एक ओर जहां कनाडा को अमेरिका अपने राज्य में मिलाना चाहता है, वहीं दूसरी ओर भारत को अमेरिका विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नीचा दिखाना चाहता है ताकि उसकी वैश्विक दादागिरी बरकरार रहे। चूंकि भारत और कनाडा के रिश्तों में एक नया मोड़ आ गया है और लगभग दो साल की तनातनी के बाद, कनाडा ने एक बड़ा खुलासा किया है। 

कनाडा की खुफिया एजेंसी सीएसआईएस ने स्वीकार किया है कि कनाडा में बैठे खालिस्तानी चरमपंथी (आतंकवादी) भारत के खिलाफ हिंसा, प्रचार और फंड इकट्ठा करने के लिए उसकी धरती का इस्तेमाल कर रहे हैं। खुफिया रिपोर्ट में कहा गया है कि खालिस्तानी चरमपंथी (अलगाववादी) कनाडा से भारत के खिलाफ गतिविधियां चला रहे हैं। साल 1980 के दशक से ही कनाडा स्थित खालिस्तानी चरमपंथियों (CBKE) ने हिंसक तरीके से पंजाब में एक स्वतंत्र सिख राज्य बनाने के लिए अभियान चलाया है। 

इस रिपोर्ट में 1985 के एयर इंडिया बम धमाके का भी जिक्र है जिससे भारत के उस दावे को बल मिला है जिसमें वह कहता रहा है कि कनाडा आतंकवादियों को पनाह दे रहा है। CSIS ने यह खुलासा किया कि पाकिस्तान, कनाडा में भारत के प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। यह भारत के लिए एक कूटनीतिक जीत है। इससे यह साफ होता है कि भारत के विरोधी देश, दूसरे देशों की जमीन का इस्तेमाल कर रहे हैं।

दरअसल, यह बात तब सामने आई है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कनाडा के पीएम मार्क कार्नी की गत दिनों कनाडा में आयोजित जी7 शिखर सम्मेलन के दौरान मुलाकात हुई और आपसी द्विपक्षीय रिश्तों को पुनः पटरी पर लाने के लिए बहुत ही सकारात्मक माहौल में बात हुई। 

इससे पहले कनाडा के प्रधानमंत्री कार्नी ने मोदी के साथ मुलाकात को ‘आधारभूत’ बताया था। इसका मतलब है कि दोनों देश पिछली बातों को भूलकर आगे बढ़ना चाहते हैं हालांकि, भारत पिछली बातों को भूलने वाला नहीं है। यही वजह है कि दोनों देशों के बीच में कई रणनीतिक करार भी किये गए हैं ताकि आपसी भरोसा और कारोबार दोनों बढ़े। इस हेतु राजदूतों की भी नियुक्ति कर दी गई है।

उल्लेखनीय है कि भारत लंबे समय से कनाडा पर खालिस्तानी अलगाववादियों को लेकर नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाता रहा है लेकिन अब कनाडा सरकार की इस आधिकारिक रिपोर्ट ने भारत की शिकायत को सही ठहराया है। बहरहाल, सीएसआईएस ने भी यह मान लिया है कि पाकिस्तान, कनाडा की धरती से भारत के खिलाफ जारी गतिविधियों को बढ़ावा देने में लगा हुआ है। बता दें कि पीएम मोदी की कनाडा यात्रा के दौरान खालिस्तानी समूहों ने उनको लेकर धमकियां देने तक की हिमाकत की थी। 

ऐसे में सीधा सवाल उठता है कि क्या बिना कनाडा में उनसे सहानुभूति रखने वालों के शह और पाकिस्तान की बैकिंग के वह इतनी हिम्मत कभी जुटा पाते? इसलिए पूरक प्रश्न यही है कि जब कनाडा ने मान लिया कि पाकिस्तान-खालिस्तानियों की जुगलबंदी से उसकी धरती से भारत के खिलाफ हिंसक साजिशों को अंजाम दिया जा रहा है तो फिर उससे भारत क्या उम्मीदें कर सकता है? यही न कि कनाडा आतंकवादियों को भारत के हवाले करे, खालिस्तानी नेटवर्क को पूरी तरह से खत्म करे और अलगाववाद को आतंकवाद माने।

वहीं, इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, “भारतीय अधिकारी जिनमें उनके कनाडा स्थित प्रॉक्सी एजेंट भी शामिल हैं, वे कई तरह की गतिविधियों में शामिल हैं। उनका उद्देश्य कनाडाई समुदायों और राजनेताओं को प्रभावित करना है। इसमें दावा किया गया है कि जब ये गतिविधियां भ्रामक, गुप्त या धमकी देने वाली होती हैं तो उन्हें विदेशी हस्तक्षेप माना जाता है। हालांकि, भारत पहले से ही कनाडाई अधिकारियों की ओर से लगाए जाने वाले इस तरह के आरोपों को खारिज करता रहा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कनाडा के लिए सबसे बड़ा खुफिया खतरा चीन है। रिपोर्ट में इसके अलावा पाकिस्तान, रूस और ईरान का भी नाम लिया गया है।

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि हरदीप सिंह निज्जर मामले से भारत सरकार और आपराधिक नेटवर्क के बीच संबंधों का पता चला है। इसमें कहा गया कि खालिस्तानी उग्रवाद कनाडा में भारतीय विदेशी हस्तक्षेप गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है। भारत ने निज्जर की मौत में अपनी संलिप्तता से साफ इनकार किया है और कनाडा की ओर से लगाए गए हस्तक्षेप के आरोपों को भी खारिज किया है।

बता दें कि साल 2023 में ब्रिटिश कोलंबिया में खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद दोनों देशों के संबंधों में तीखी तनातनी देखी गई थी। कनाडाई अधिकारियों ने इस हत्या को भारतीय सरकार के हस्तक्षेप से जोड़ा, जिसका भारत ने खंडन करते हुए इन आरोपों को बेतुका और निराधार बताया था। भारत ने इसके जवाब में कनाडा पर खालिस्तानी चरमपंथियों को पनाह देने और उनकी गतिविधियों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया।

यक्ष प्रश्न है कि अब पाकिस्तान के साथ खालिस्तानियों की जुगलबंदी का क्या होगा, क्योंकि आतंकवाद पर कनाडा के कबूलनामे को भारत की एक बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है। चूंकि भारत और कनाडा के रिश्तों में बदलाव आया है, इससे खालिस्तानियों की बेचैनी बढ़ जाएगी क्योंकि भारत ने कनाडा से साफ कहा है कि वह आतंकवादियों को सौंपे और खालिस्तानी नेटवर्क को खत्म करे। भारत ने 26 आतंकवादियों को सौंपने के लिए कहा है, जिनमें से सिर्फ 5 पर ही कार्रवाई हुई है। 

उम्मीद है कि इस मामले में कनाडा अब कार्रवाई करके दिखाएगा। इनमें अर्श डल्ला का मामला भी शामिल है जिस पर भारत में 50 से ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज हैं। डल्ला को कनाडा की अदालत ने जमानत भी दे दी थी। भारत ने कनाडा से यह भी कहा है कि वह भगोड़ों को गिरफ्तार करे और रेड कॉर्नर नोटिस पर कार्रवाई करे लेकिन कई मामलों में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इससे भारत नाराज है।

हालांकि, कार्नी के लिए यह मुश्किल है कि वह कनाडा में खालिस्तान समर्थक सिखों को नाराज किए बगैर आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करें। कारण कि वर्ल्ड सिख ऑर्गनाइजेशन (WSO) जैसे संगठन कनाडा में काफी प्रभावशाली हैं। इसलिए, कनाडा के लिए आतंकवादियों पर कार्रवाई करना उतना आसान भी नहीं है। जस्टिन ट्रुडो की सरकार में तो इसीलिए ऐसे भारत-विरोधी संगठन पूरी तरह से हावी हो चुके थे। हालांकि, राजनीतिक रूप से कार्नी उनको लेकर इतने मोहताज भी नहीं हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारतीय मूल के कनाडाई अलगाववादी वहां बहुत बड़े वोट बैंक बन चुके हैं। फिर भी, उम्मीद की किरण बची हुई है क्योंकि दोनों देश आतंकवाद और संगठित अपराध से निपटने के लिए एक संयुक्त कार्य समूह बनाने पर बात कर रहे हैं। 

दरअसल, बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत का संदेश साफ है, ‘अब और ज्यादा दोहरा रवैया किसी भी देश का नहीं चलेगा।’ भले ही कनाडा उदारवाद और बोलने की आजादी की बात करता है, लेकिन भारत के खिलाफ हिंसा करने वालों पर आंखें भी मूंदे नहीं रह सकता। यही वजह है कि कार्नी ने मोदी के साथ मुलाकात खत्म होते ही कहा, ‘अभी बहुत काम करना बाकी है।’ भारत के लिए यह एक बड़ी जीत है कि दोनों नेताओं की सीधी मुलाकात के बाद ही कनाडा की खुफिया एजेंसी भी अब भारत के दावों को स्वीकारने लगी है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि यह खालिस्तान समस्या का अंत तो नहीं है, लेकिन कनाडा की धरती पर इसकी शुरुआत हो चुकी है।

स्पष्ट है कि यदि आप अमेरिका को कमजोर करना चाहते हैं तो कनाडा में आपकी स्थिति स्वाभाविक रूप से मजबूत होनी चाहिए। इससे आप अमेरिका की विभिन्न गतिविधियों पर नजर रख सकेंगे, लेकिन ऐसा आप खुल्लमखुल्ला नहीं कर सकते! बल्कि छिपे रुस्तम के तौर पर ही कर सकते हैं। प्रायः ऐसी घाती-प्रतिघाती रणनीति दुनिया के परस्पर प्रतिस्पर्धी देश अपने जासूसों और उनके नेटवर्क में शामिल लोगों के मार्फ़त बनाते-बनवाते ही रहते हैं। कुछ यही वजह है कि अमेरिका के प्रबल प्रतिद्वंद्वी देशों यथा- चीन, रूस, भारत, ईरान आदि देशों की अभिरुचि कनाडा में बढ़ चुकी है। हालांकि, कनाडा सरकार इससे सावधान भी है। 

स्पष्ट है कि भारत और कनाडा के बीच बदलते रिश्तों से निम्नलिखित पांच बातें स्पष्ट होती दिखाई दे रही हैं, जिनके अपने वैश्विक मायने हैं। पहला, कनाडा की खुफिया एजेंसी (CSIS) ने माना है कि खालिस्तानी चरमपंथी कनाडा की धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ हिंसा फैलाने के लिए कर रहे हैं। दूसरा, सिख अलगाववादी समूहों की धमकियों के बावजूद, पीएम नरेंद्र मोदी की कनाडा यात्रा शांतिपूर्वक संपन्न हो गई, जो धमकियों पर कूटनीति की जीत करार दी जा सकती है। तीसरा, कनाडा की खुफिया रिपोर्ट में पाकिस्तान पर भी भारत-विरोधी एजेंडे में शामिल होने का आरोप लगाया गया है, जिससे पाकिस्तान एक बार फिर बेनकाब हुआ है। चतुर्थ, मोदी (भारत) और कार्नी (कनाडा) की मुलाकात को रिश्तों में सुधार के तौर पर देखा जा रहा है लेकिन भारत को सिर्फ बातों से नहीं बल्कि ठोस कार्रवाई से मतलब है। इससे साफ है कि दोनों देशों के रिश्ते में एक नई शुरुआत हुई है लेकिन अनुभवजन्य शर्तों के साथ, यह बहुत बड़ी बात है।

कमलेश पांडेय

संकीर्ण जलमार्ग, गहरी चिंता: होर्मुज पर ईरानी शिकंजा

जयसिंह रावत

होर्मुज जलडमरूमध्य, फारस की खाड़ी को ओमान की खाड़ी और अरब सागर से जोड़ने वाला एक संकरा समुद्री मार्ग, वैश्विक तेल और गैस व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण चोक पॉइंट है। हाल ही में अमेरिका द्वारा ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर हवाई हमलों के बाद, ईरान की संसद ने 22 जून 2025 को होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी हालांकि, अंतिम निर्णय ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के पास है जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई करते हैं। ईरान की इस धमकी ने वैश्विक ऊर्जा बाजारों में हलचल मचा दी है और भारत जैसे तेल-आयातक देशों के लिए गंभीर चिंताएं पैदा की हैं।

होर्मुज जलडमरूमध्य का महत्व

होर्मुज जलडमरूमध्य ईरान और ओमान के बीच स्थित है जिसकी सबसे संकरी चौड़ाई मात्र 33 किलोमीटर है और नौवहन के लिए उपयोगी शिपिंग लेन केवल 3 किलोमीटर चौड़ा है। यह जलमार्ग विश्व का लगभग 20-21% कच्चा तेल (प्रतिदिन 20-22 मिलियन बैरल) और 25-30% तरलीकृत प्राकृतिक गैस (LNG) का परिवहन करता है। सऊदी अरब, इराक, कुवैत, कतर और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) अपने तेल और गैस निर्यात के लिए इस पर निर्भर हैं। 2024 में, इस मार्ग से गुजरने वाले 74% कच्चे तेल और 73% LNG का गंतव्य एशियाई देश जैसे भारत, चीन, जापान, और दक्षिण कोरिया थे। जलडमरूमध्य की संकरी चौड़ाई और ईरान के नियंत्रण वाले टापू (जैसे क्वेशम और हेंगम) इसे सैन्य दृष्टि से संवेदनशील बनाते हैं।

ईरान की धमकी का संदर्भ

2025 में अमेरिका ने ईरान के परमाणु केंद्रों (फोर्डो, नतांज, और इस्फहान) पर हवाई हमले किए जिसे ईरान के परमाणु हथियार विकास को रोकने के लिए इजरायल और अमेरिका की संयुक्त रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। जवाब में ईरान की संसद ने होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करने का प्रस्ताव पारित किया। ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के कमांडर अलीरेजा तांग्सीरी ने दावा किया कि जलडमरूमध्य को कुछ ही घंटों में बंद किया जा सकता है। ईरान ने पहले भी 1980 के ईरान-इराक युद्ध के दौरान इस जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी दी थी लेकिन इसे कभी पूरी तरह बंद नहीं किया।

ईरान की संभावित सैन्य रणनीतियां

ईरान असममित युद्ध रणनीतियों पर निर्भर करता है जो उसे पारंपरिक रूप से मजबूत विरोधियों के खिलाफ प्रभावी बनाती हैं। संभावित रणनीतियों में तेज गति वाली छोटी नौकाओं द्वारा स्वार्म टैक्टिक्स, नूर, कादिर, और खलीज-ए-फार्स जैसी एंटी-शिप मिसाइलें (120-300 किमी रेंज), सस्ती और प्रभावी समुद्री माइंस, शाहेद-136 जैसे ड्रोन, गदिर-क्लास पनडुब्बियों द्वारा टॉरपीडो या माइंस की तैनाती, और नेविगेशन सिस्टम या तेल टर्मिनलों को बाधित करने के लिए साइबर हमले शामिल हैं। हालांकि, अमेरिका की फिफ्थ फ्लीट बहरीन में तैनात है जो माइंस साफ करने, मिसाइल रक्षा, और गश्ती के लिए तैयार है जिससे जलडमरूमध्य को पूरी तरह बंद करना ईरान के लिए चुनौतीपूर्ण है।

वैश्विक आर्थिक प्रभाव

होर्मुज जलडमरूमध्य के बंद होने से तेल की कीमतें $120-150 प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं जो वर्तमान में $90 (ब्रेंट क्रूड) के स्तर पर हैं। एशियाई देश (भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया) सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे क्योंकि उनका 70-74% तेल आयात इस मार्ग से होता है। ईंधन की बढ़ती लागत से परिवहन, विनिर्माण, और रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी। सऊदी अरब और UAE की पाइपलाइनें (2.6 मिलियन बैरल प्रतिदिन की क्षमता) जलडमरूमध्य को बायपास कर सकती हैं, लेकिन यह पूरी कमी की पूर्ति नहीं कर सकती। ईरान स्वयं अपने तेल निर्यात के लिए इस मार्ग पर निर्भर है, इसलिए इसे बंद करने से उसकी अर्थव्यवस्था, विशेष रूप से चीन जैसे सहयोगियों को नुकसान होगा।

भारत पर प्रभाव

भारत अपनी 80-90% तेल और 50% LNG आवश्यकताओं के लिए आयात पर निर्भर है। भारत अपने कच्चे तेल का लगभग 40% और LNG का 50% होर्मुज जलडमरूमध्य के माध्यम से आयात करता है। तेल की कीमतें $120-150 प्रति बैरल तक पहुंचने से पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ेंगी जिससे महंगाई बढ़ेगी। जलडमरूमध्य बंद होने से रिफाइनरियों का संचालन प्रभावित हो सकता है जिससे ईंधन की कमी हो सकती है। ईंधन की बढ़ती लागत से परिवहन और विनिर्माण की लागत बढ़ेगी जिसका असर रोजमर्रा की वस्तुओं पर पड़ेगा। तेल आयात की लागत बढ़ने से व्यापार घाटा बढ़ सकता है जिससे रुपये और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ेगा। लाल सागर मार्ग पहले से ही हूती हमलों के कारण बाधित है, जिससे भारत के यूरोप और मध्य पूर्व के निर्यात प्रभावित होंगे। ईंधन और वस्तुओं की बढ़ती कीमतें मध्यम और निम्न वर्ग पर आर्थिक दबाव डालेंगी, और सरकार को ईंधन पर उत्पाद शुल्क कम करने या सब्सिडी बढ़ाने जैसे कदम उठाने पड़ सकते हैं, जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।

भारत की जवाबी रणनीतियां

भारत ने रूस, अमेरिका, ब्राजील और अफ्रीका से तेल आयात बढ़ाकर आयात स्रोतों का विविधीकरण किया है। रूसी तेल, जो स्वेज नहर या केप ऑफ गुड होप के माध्यम से आता है, होर्मुज पर निर्भर नहीं है। भारत के पास 74 दिनों का तेल भंडार है, जो अल्पकालिक संकट को संभाल सकता है। कतर भारत का प्रमुख LNG आपूर्तिकर्ता है लेकिन ऑस्ट्रेलिया, रूस, और अमेरिका से LNG आयात जलडमरूमध्य पर निर्भर नहीं है। भारत नवीकरणीय ऊर्जा (सौर, पवन) और परमाणु ऊर्जा में निवेश बढ़ा रहा है, जो दीर्घकाल में तेल निर्भरता कम करेगा। भारत मध्य पूर्व में तनाव कम करने के लिए कूटनीतिक चैनलों का उपयोग कर सकता है। केंद्रीय मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि भारत स्थिति पर नजर रख रहा है और आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार है।

चुनौतियां और सीमाएं

रूस और अमेरिका से तेल आयात महंगा हो सकता है और लॉजिस्टिक्स जटिल हैं। यदि जलडमरूमध्य एक सप्ताह से अधिक बंद रहता है तो भारत के भंडार अपर्याप्त हो सकते हैं। चीन, ईरान का सबसे बड़ा तेल खरीदार, जलडमरूमध्य खुला रखने के लिए ईरान पर दबाव डाल सकता है लेकिन यह भारत के लिए अप्रत्यक्ष लाभ होगा।

ईरान की होर्मुज जलडमरूमध्य बंद करने की धमकी वैश्विक ऊर्जा बाजारों और भारत की अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर खतरा है। यह धमकी अमेरिका और इजरायल के साथ बढ़ते तनाव का परिणाम है, और ईरान की असममित सैन्य रणनीतियां इसे अल्पकालिक रूप से बाधित कर सकती हैं। भारत, जो अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए इस मार्ग पर काफी हद तक निर्भर है, को तेल और गैस की कीमतों में उछाल, महंगाई, और व्यापार घाटे जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, भारत के विविधीकृत आयात स्रोत, रणनीतिक भंडार, और कूटनीतिक प्रयास इस संकट को कम करने में मदद कर सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस तनाव को कम करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए ताकि वैश्विक व्यापार और ऊर्जा आपूर्ति सुरक्षित रहे।

जयसिंह रावत